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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अनंत धर्मात्मक वस्तु का अनेकांतवाद जन्य विशुद्ध स्वरूप
पं. शिखरचंद जैन साहित्याचार्य,
प्राचार्य / प्रधान संपादक, सुभाषनगर सागर विषय प्रवेश :
___ जैन शासन यद्यपि ईश्वर को जगत् का कर्ता-धर्ता नहीं मानता किन्तु भगवान ऋषभदेव से महावीर स्वामी तक चौबीस तीर्थंकरों की शाश्वत परम्परा से इस विश्व में जो अहिंसा एवं संयमाचरण की अवाध धारा प्रवाहित हुई है वह अनेकांतवाद तथा स्यावाद की अप्रतिम एवं अकाट्य प्रमाणिकता में चार - चाँद लगाने वाली है । जीवात्मा को परमात्मा बनने तक पहुँचने की जो श्रद्धायुक्त भावना है, वह अनेकांतवाद का चरम लक्ष्य है। यही कारण है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र का मिला रूप ही मोक्ष प्राप्ति का पावन उपाय जैनाचार्यों ने अपने शाश्वत् प्रमाणिक अनुभवगम्य सापेक्षावाद के आधार पर सिद्ध कर "जैनं जयतु शासनम्" का उद्घोष संसार के प्राणी मात्र तक पहुँचाने का मार्ग प्रशस्त किया है ।वस्तु अपने अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख तथा अनंतवीर्य चतुष्टय पूर्वक अपेक्षाभेद के आपसी निराधार विवाद को हटाकर परम निश्रेयस मार्ग तक पहुँचा कर अपनी आत्मोपलब्धि में रमण कर लेती हैं। अनेकांतवाद का स्वरूप जैन शासन में सयुक्तिक तथा सटीक बताया गया है । "वस्तूनि अनेके अन्ता: धर्मा: संति" इस अनेकांत, जैसे राम अपने पिता दशरथ की अपेक्षा पुत्र है तथा अपने पुत्र लव-कुश की अपेक्षा पिता है। दादा, पिता, पत्नी, पुत्र तथा पुत्री का एवं अन्य पारम्परिक जाति कुल भेद के आधार पर सभी संबंध अपेक्षा भेद से है । इस कारण व्यक्ति की परम स्वतंत्रता तथा आत्मोन्नति के उपाय में तथा उससे उत्पन्न वस्तु के स्वरूप एवं मूल्यांकन में किसी भी प्रकार की समस्या नहीं आ सकती । यद्यपि भाग्यवादी बनकर व्यक्ति अपने परिवेश में जैसा संकुचित वातावरण पाता है वैसा ही बनकर तदाचरण मय कदाचरण को सच्चा सुख मान बैठता है। अत: अनेकांतमय वस्तु विवेचन सैकड़ों समस्याओं के समाधान का जो उपाय बताता है । यही उसकी वैशिष्टय पूर्ण उलब्धि है। प्रासंगिक पुष्टिकरण :
___अनेकांत जैन दर्शन का हृदय है। इसके बिना जैन दर्शन को समझ पाना दुष्कर है । जैन दर्शन के अनुसार वस्तु बहुआयामी है। उसमें परम्पर विरोधी अनेक गुण धर्म हैं। वस्तु के समग्र बोध के लिए समग्र दृष्टि अपनाने की जरूरत है । वह अनेकांत की दृष्टि अपनाने पर ही संभव है । “अनेकांत" शब्द अनेक
और 'अन्त' इन दो शब्दों के मेल से बना है। अनेक का अर्थ है एक से अधिक अंत का अर्थ है "धर्म"। अर्थात् वस्तु परस्पर विरोधी अनेक गुण - धर्मों का पिण्ड है । एकान्त वस्तु विवेचन में पंगु है तथा मिथ्यात्व का पोषक है । सम्यक्त्व भावना तो केवल अनेकांतमय शैली द्वारा ही संभव है।अनेकांत दर्शनविशुद्धि आदि सोलहकारण भावनाओं का ही जनक है। परमात्म प्रकाशक है । मार्गदर्शन में दोनों मिलकर अंधा पंगु को मार्गदर्शन देता है । यही विश्वकल्याण की मैत्रीभाव को जाग्रत करता है।
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