________________
आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अर्थात् जिन भगवान की वाणी परमौषधिरूप है । यह विषय सुख का त्याग कराती है । यह अमृत रूप है। जरा-मरण व्याधि को दूर करती है तथा सर्व दुखों का क्षय करती है। इसलिए पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में आचार्य अमृतचंद्र ने कहा है कि -
"आत्मा प्रभावनीय: रत्नत्रयतेजसा सततमेव ।
दानतपोजिनपूजा विद्यातिशयैश्च जिनधर्म:'' अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रय के तेज द्वारा अपनी आत्मा को प्रभावित करे तथा दान, तपश्चर्या, जिनेन्द्रदेव की पूजा एवं विद्या की लोकोत्तरता के द्वारा जिनशासन के प्रभाव को जगत में फैलावे।
जैन श्रावक मात्र जीता नहीं है बल्कि आदर्श को सामने रखकर, आदर्शो का अनुकरण करते हुए आदर्श जीवन जीता है । आदर्श जीवन वह है जिसमें अधिकारों की अपेक्षा नहीं और कर्तव्यों की उपेक्षा नहीं हो । वह स्वयं संत नहीं है किन्तु संतभाव उसमें समाया होता है। वह संत समागम के लिए सदैव लालायित रहता है। सत्संगति में चित्त को लगाता है। सत्संगति के लाभ के विषय में कहा गया है कि -
हंति ध्वातं हरयति रजः सत्त्वमाविष्करोति । प्रज्ञां सूते वितरति सुखं न्यायवृत्तिं तनोति ॥" धर्म बुद्धिं रचयतितरां पापबुद्धिं धुनीते,
पुंसां नो वा किमिह कुरुते संगति: सज्जनानाम् ॥ ___ संत समागम के द्वारा तमोभाव नष्ट होता है, रजोभाव दूर होता है, सात्विक वृत्ति का आविष्कार होता है, विवेक उत्पन्न होता है, सुख मिलता है, न्यायवृत्ति उत्पन्न होती है, धर्म में चित्त लगता है तथा पाप बुद्धि दूर होती है अतः साधुजन की संगति द्वारा क्या नहीं मिल सकता है ? नीति भी कहती है कि -
___ संत समागम हरिभजन, तुलसी दुर्लभ दोय ।
सुत, दारा और लक्ष्मी, पापी के भी होय ॥ किसी भी राष्ट्र का कल्याण उसके निवासियों के उन्नत चारित्र से ही हो सकता है। जैन श्रावक चारित्रवान होता है। वह हीन आचरण को पापार्जन का कारण मानकर छोड़ देता है।
___राष्ट्र की आत्मा सह अस्तित्व की भावना में बसती है। जहाँ वेदों में - "संगदध्वं संवदध्वं स वो मनांसि जानताम्" कहा गया वहीं जैन ग्रथों में परस्परोग्रहो जीवानाम्।। अर्थात् परस्पर उपकार करना जीव का स्वभाव है, कहकर सह अस्तित्व की भावना सुनिश्चित कर दी। भगवान महावीर ने कहा कि जैन श्रावक स्थूल हिंसा का त्यागी होगा, अहिंसाणुव्रती होगा । भगवान महावीर की दृष्टि विशाल थी अत: उन्होंने अहिंसा के दायरे में मात्र मानव को ही नहीं लिया अपितु प्राणी मात्र को लिया। द्रव्यहिंसा के साथ
547)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org