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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
वर्णीजी के शिक्षा प्रद कुछ संस्मरण
1.
सन् 1945 में नेताजी सुभाष द्वारा संगठित आजादहिंद सेना की प्रगति एवं सहायता के निमित् जबलपुर नगर में श्री पं० द्वारिका प्रसादजी मिश्र (तत्कालीन मन्त्री - मध्यप्रान्तीय स्वायत्त शासन विभाग) की अध्यक्षता में एक विशाल सार्वजनिक सभा हुई, जिसमें सन्त वर्णी जी का महत्वपूर्ण भाषण हुआ, जिसका सारांश निम्न प्रकार है ।
"अन्धेर नहीं, केवल थोडी सी देर है । वे दिन नजदीक है जब स्वतंत्र भारत के लालकिले पर विश्वविजयी प्यारा तिरंगा फहरा जायगा । अतीत के गौरव और यश के आलोक से लालकिला जग-मगा उठेगा । जिनकी रक्षा के लिए चालीस करोड़ मानव प्रयत्नशील हैं उन्हें कोई शक्ति फांसी के तख्ते पर नहीं चढ़ा सकती, आप विश्वास रखिए, यह मेरी अन्तरात्मा कहती है कि आजाद हिंद सैनिकों का बाल भी बाँका नहीं हो सकता। मैं उन वीरों की सहायतार्थ और क्या दे सकता हूँ मेरी शुभाकांक्षा उनके साथ है । मैं अपने ओढ़ने की दो चादरों में से एक चादर उनकी सहायतार्थ समर्पित करता हूँ “। सन्त के इस राष्ट्रीय दान और भविष्यवाणी से जनता अति प्रभावित हुई । पश्चात् अध्यक्षमहोदय ने अपने विचार व्यक्त किये :- "सन्त वर्णी ने यह चादर केवल दान में ही नहीं दी, कहना चाहिये उन वीर बहादुरों की रक्षा के लिए क्षत्रच्छाया स्वरूप चादर तान दी है। अब तक वर्णी जी जैनों के ही पूज्य थे किन्तु आज से जबलपुर के ही नहीं अपितु हमारे प्रान्त भर के पूज्य हो गए हैं। उन्होंने हमारे ऊपर जो चादर तानी है वह अवश्य ही हमारे फौजी भाईयों की रक्षा करेगी । अनन्तर चादर की धुआँधार बोलियाँ आने लगी। तीन हजार रुपये की घोषणा से वह चादर एक भाई ने स्वीकृत कर ली । सन्त की भविष्यवार्णी के अनुसार केवल दो वर्ष बाद आजाद हिंद सेना के बन्दी वीर मुक्त हो गए । सन् १९४७ के १५ अगस्त को भारत स्वतंत्र हो गया । सचमुच देर अवश्य हुई पर अन्धेर नहीं हुआ ।
2. गया में श्रावण कृष्णा १० सं० २०१० प्रात: पांच बजे सन्त विनोवा जी वर्णी से मिलने के लिए पधारे। पन्द्रह मिनट तक दोनों सन्तों के मध्य धार्मिक- राष्ट्रीयचर्चा होती रही, पश्चात् विनोवा जी चले गये। भाद्रपद शुक्ल तृतीया को विनोवा जी की जयंती के उपलक्ष्य में टाउनहाल में हुई सार्वजनिक सभा में वर्णी जी भाषण हुआ, जिसका कुछ सारांश निम्न प्रकार हैं
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"बन्धुवर ! आज एक महापुरुष की जयन्ती है । विचार करके देखो - उनकी यह महापुरुषता क्या भूमिदान दिला देने से है ? नहीं अरे जब भूमि तुम्हारी चीज ही नहीं, तब दिलाने का प्रश्न ही नहीं आता । उन्होंने एक पुस्तक में लिखा है- भूमि तो भगवान की है, तो तुम्हारी कैसे हुई ? और जो तुम्हारी नहीं, उसका दान कैसा ? सबसे भारी बात तो यह है कि मैं उनके गुणों से मोहित हूँ । मेरे ध्यान में यह बात आई कि उन्होंने पंचेन्द्रियों के विषयों को लात मारकर अपनी ओर ध्यान दिया यह भूमिदान तो आनुसंगिक है संसार के भोगों को जिसने छोड़ दिया वही महापुरुष है। आदि"
3.
सन् १९५५ अप्रैल के अंतिम सप्ताह में ईसरी में विहार राज्य ग्राम पंचायत के चतुर्थ अधिवेशन के उद्घाटन के लिए, भारत के राष्ट्रपति डा0 राजेन्द्र प्रसाद जी पधारे थे। जैन हाई स्कूल के मैदान में आपका
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