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________________ व्यक्तित्व साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ मेरे जीवन के प्रकाशक दीपक गुरुजी पं. ताराचंद्र शास्त्री ___ डोंगरगाँव, राजनांदगाँव (छ.ग.) "श्री गुरुवर दयासिंधु, आपको शत् - शत् है वंदन । आपको पावन चरणों में, कोटिशः हो नमन अर्पण । आपके सत्पथप्रदर्शक हो, विनय से नम्र हो तन मन । कामना वश आप हो शिवगामी, आपको विनयांजलि अर्पण ॥" हमें हर्ष के साथ विषाद भी है कि हमने एक महान यशस्वी, साहित्य मनीषी परम श्रद्धेय पंडित जी साहब स्व. श्री दयाचंद जी साहित्याचार्य के रूप में विद्वतरत्न खो दिया है । जिस स्थान की पूर्ति करना असंभव ही है परन्तु हर्ष भी है कि श्रद्धेय पंडित जी साहब का स्मृति ग्रन्थ “साहित्यमनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ" का भव्य प्रकाशन होने जा रहा है ।जो जन जन के लिए अनुकरणीय एवं आदर्श स्वरूप रहेगा। परम श्रद्धेय पंडित प्रवर परमपूज्यनीय स्व. श्री पंडित जी बहुमुखी व्यक्तित्व के शिखर पुरुष थे। आपका बहुमुखी व्यक्तित्व सम्पूर्ण जैन समाज के लिए अनुकरणीय अद्वितीय एवं चिरस्मरणीय है । जो हम सभी के लिए परम हर्ष, गौरव का सूचक है। हमें नाज है उन श्री गुरुवर पर । आप जैन साहित्य यशस्वी मनीषी रहे हैं, आपका जीवन सादगीपूर्ण रहा है । आपका गुणानुवाद जितना किया जाये वह भी कम है। (1) माता पिता के दुलारे :- परम श्रद्धेय पंडित जी साहब आप अपने माता पिता के लिए सदैव अतिप्रिय संतति रहे हैं, आप पर उनका असीम दुलार था। आपकी माता पिता के प्रति आस्था एवं आज्ञाकारी पुत्र होने की गौरव गरिमा से अभिभूत रहे हैं। आपने अपने माता पिता के गौरव, मान सम्मान में अभिवृद्धि की है। (2) भ्रातृस्नेह के अग्रदूत :- परम आदरणीय पंडित जी साहब में अपने भाईयों के प्रति असीम प्रेम देखने को मिला है। चाहे बड़े भाईयों के प्रति आदर या फिर अपने अनुजों पर असीम स्नेह की भावना से आपका हृदय भरा हुआ था मैंने आपके उस परम स्नेहिल रूप को बहुत ही करीब से अनुभव किया है । आपको यह गुण आपके माता पिता से आशीष रूप में मिला । आपने सभी भाईयों में तीसरे क्रम में जन्म लिया, इस कारण आप मध्यम भ्राता की गरिमा से गौरवान्वित हुए। अत: कहा जा सकता है कि आप वास्तव में भ्रातृस्नेह की मिसाल हैं। (3) दयासिंधु :- श्रद्धेय गुरुदेव आपने “यथा नाम तथा गुण" अर्थात् आपका जैसा नाम है वैसा ही काम की युक्ति को चरितार्थ किया है । आपमें नाम के अनुरूप दया (करूणा) का गुण जन्मजात है आप एक सहृदय पुरुष थे। आप में प्राणीमात्र के प्रति रहम की भावना कूट - कूट कर भरी हुई थी। आप किसी की पीड़ा से व्याकुल हो जाते थे यही गुण आपको धवल कीर्ति से अलंकृत करता रहा है। आपने अपने नाम को सार्थक किया है । उन श्रद्धेय गुरुदेव की कृपा दृष्टि एवं शुभाशीष हम पर सदा रही है। 110 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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