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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ देवपूजा गुरु पास्ति:, स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानां: षट् कर्माणि दिने दिने ।
___इसमें 1. देवपूजा और 2. गुरु उपासना ये दो भक्ति अथवा उपासना के ही प्रकार है। जो प्रत्येक मानव का दैनिक कर्तव्य है।
यथा शक्ति यजेतार्हदेवं नित्यमहादिभिः ॥ (सागारधर्मामृत अ. 2 श्लोक. 24) अर्थात् - गृहस्थ शक्ति के अनुसार परमेष्ठी देवों का नित्य अर्चन करें। विक्रम की चतुर्थ शताब्दी के महान दार्शनिक श्री समंतभद्राचार्य का इस विषय में स्पष्ट मत हैदेवाधिदेव चरणे, परिचरणं सर्वदुःखनिर्हरणम् । कामदुहि कामदाहिनि, परिचिनुयादाढतो नित्यम् ॥ (रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक 116)
समस्त पापों के नाश का कारण होने से जिनेन्द्र पूजा अतिथिसंविभाग व्रत का ही एक अंग है अत: आत्मशुद्धि के लिए गृहस्थ भगवत्पूजा को सादर सदैव करें । जैन दर्शन में नव देव पूजन का अस्तित्व महत्वपूर्ण है -
अरिहंत सिद्धसाधुत्रितयं जिनधर्म बिम्बवचनानि ।
जिननिलयान्नवदेवान, संस्थापये भावतो नित्यम् ॥ ___1. अरिहंत, 2. सिद्ध, 3. आचार्य, 4. उपाध्याय, 5. साधु, 6. जिनधर्म, 7. जिनागम, 8 जिनप्रतिमा, 9 जिनमंदिर, इन नव देवों का पूजन मानव प्रतिदिन शुद्ध भावसे करे ।
जैनदर्शन में भगवत्पूजन का विधान प्राचीन, मौलिक एवं महत्वपूर्ण है कारण कि इसका अंतरंगरूप शुद्ध आत्मपरिणाम, बहिरंगरूप निर्दोष अष्ट द्रव्य, वीतराग प्रतिमा आदि तदनुकूल साधन और उद्देश्य जन्ममरण आदि दुःखों का क्षयकर परमात्मपद की प्राप्ति करना है । जैनदर्शन में भगवत्पूजन का साहित्य भी महान है जिसकी भाषाएँ प्राकृत संस्कृत ब्रजभाषा हिन्दी प्रमुखरूप से कहीं जा सकती है इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि जैन दर्शन में पूजन का अनुष्ठान प्राचीन और मौलिक है। मूलत: पूजन दो प्रकार की होती है 1. भावपूजन, 2. द्रव्यपूजन । अष्टद्रव्य आदि बाह्य वस्तुओं के बिना शुद्ध भावों से पूज्य आत्मा के गुणों का स्मरण करना भावपूजन है ।और भावपूजन पूर्वक अष्ट द्रव्य आदि का आश्रय प्राप्त करना द्रव्य पूजन है।
पूजक के भेद से पूजन पाँच प्रकार की भी कही गई है - 1. नित्यमह पूजन, 2. आष्टाह्निक पूजा, 3. सर्वतोभद्रपूजा, 4. कल्पद्रुमपूजा,5. इन्द्र ध्वजपूजा।
1. नित्यमह - प्रतिदिन अष्ट द्रव्य से मंदिर में जाकर शुद्ध भाव पूर्वक पंचपरमदेवों का पूजनकरना, अपने द्रव्य से जिन मंदिर, प्रतिमा, पुस्तकालय आदि का यथायोग्य निर्माण कराना, मंदिर आदि की सुरक्षा एवं व्यवस्था के लिए गृह सम्पत्ति आदि का दान करना।
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