SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यक्तित्व साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अलौकिक गुणों के प्रकाश पुञ्ज थे पंडित जी ___डॉ. सुधीर जैन, एम.डी. (मेडीसिन) मेडीकल स्पेश्लिस्ट, जिला चिकित्सालय, सागर पूज्य पंडित जी से मेरा सानिध्य उनके अंतिम करीब 15 वर्षों तक रहा। उनके मार्ग निर्देशन में मैंने शास्त्री, सिद्धांत रत्न और प्रतिष्ठाचार्य की परीक्षायें पास की। इन 15 वर्षो में मैंने पंडित जी को एक अत्यंत शांत स्वभावी और वात्सल्य से परिपूर्ण पाया । कई बार पंडित जी की चिकित्सा करने का अवसर आया । मैं हर बार उनका उपचार करते समय उनके शांत स्वभाव से रोमांचित हो उठता था। हर बार मैंने उन्हें मुनियों जैसा शांत देखा । वे बीमारी के किसी भी अवसर पर न बीमारी से दुखी हुये और न ही शीघ्र स्वस्थ होने के लिये व्यग्र । एक बार उनसे मैंने इस शांति का कारण पूछा तो उन्होंने कहा था कि "बीमारी कर्म का उदय है, अपना समय पूरा करके निकल जायेगी" दुखी होने से तो वह और गाढ़ा बंध जायेगा। उपचार की व्यवस्था अपना प्रयास है सो कर लेते है । यह पुरूषार्थ जैसा है। रीतिरिवाज है कि बीमार होने पर उपचार कराया जाता सो कर लेते हैं। आज मैं सोचता हूँ कि पंडित जी न केवल कर्म सिद्धांत को जानते थे बल्कि जीने की कला भी जानते थे। ऐसे ही उपचार के वक्त मैंने उनकी सहजता और आज्ञाकारिता देखी । मैंने जो दवा, परहेज आदि जैसा-जैसा उन्हें जब कभी भी बताया वो उसे अपनी अनुकूलता के साथ पूरा करते रहे । कभी भी उन्होंने चिकित्सक या उसकी चिकित्सा में कोई शंका नहीं की । गजब का विश्वास । मुझे आज भी लगता है कि उनका शांत स्वभाव और उनका विश्वास ही उन्हें हर बार आरोग्य प्रदान करता रहें, दवा लिखना और इलाज करना तो डॉक्टर का रीति रिवाज है जो मैं करता रहा। काश पंडित जी जैसी धारणा हर मरीज की हो जावे तो बीमारी तो अपनी जगह अपने समयानुसार ठीक हो ही जावेगी पर मरीज को दुख और पुन: कर्मबंध तो न हो । पंडित जी को हमेशा ही मैंने कुछ चिंतन करते हुये देखा । यहाँ तक कि वो कहीं आते जाते हुये भी कभी अपना ध्यान यहाँ वहाँ नहीं भटकाते थे। मानों बता रहे हों कि मैं जो चल रहा हूँ या अन्य कोई कार्य कर रहा हूँ यह सब स्वत: जरूरत अनुसार हो रहा है । मैं और मेरा ध्यान तो मेरे लक्ष्य की ओर है। ... मैं अन्य विद्यार्थियों जैसा तो नियमित कक्षाओं में नहीं पढ़ा पर अक्सर ही पंडित जी से जब चाहे मिलता रहता था । कभी भी उन्होंने मना नहीं किया और हर बार अपना अन्य कार्य छोड़कर भी मुझे मार्गदर्शन दिया । वे कहते थे कि तुम्हारा समय कीमती है। तुम अपनी इस डॉक्टरी लाइन में रहकर भी समय निकाल कर मेरे पास आये हो मेरा कार्य तो मैं बाद में भी कर लूंगा । उनकी प्रसन्नता उनका स्नेह उनकी आँखों और मुस्कान से छलकने लगता था । अब पंडित जी की अनुपस्थिति में भी उनका रूप आँखों में बसा है। एक बार चाँदखेड़ी में परम पूज्य मुनिपुंगव 108 श्री सुधासागर जी महाराज ने मंदिर के गर्भालय से अद्वितीय जिनविंब निकाले थे तो मैं वहाँ जा रहा था। सागर रेल्वे स्टेशन पर पंडित जी मुझे मिले और कहा"डॉक्टर साब आप सिद्धांतरत्न की परीक्षा में प्रथम आये हैं और आपके लिये इंदौर से 200/- का पुरस्कार (117 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy