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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जिसने राग द्वेष कामादिक जीते सब जग जान लिया, सब जीवों को मोक्ष मार्ग का निस्पृह हो उपदेश दिया । बुद्धवीर जिन हरिहर ब्रह्मा या उसको स्वाधीन कहो, भक्ति भाव से प्रेरित हो यह चित्त उसी में लीन रहो ॥
इन प्रमाणों के अनुभव से न्यायाचार्य जी ने यह अवधारण किया कि आत्मकल्याण के अर्थ अर्हन्तसिद्ध श्रेष्ठनाम से प्रसिद्ध जिन देव की उपासना करना श्रेष्ठ है ।
कृतित्व / हिन्दी
यदि किसी मानव के स्वान्त में यह उलझन उपस्थित हो जाये कि किन देवी देवताओं की उपासना करना हितकर है तो उसको वर्णी जी के निर्णीत सिद्धांत, निःशंक आस्था एवं आचरण के योग्य हैं। ऐसा निर्णय कर परमेष्ट देव की भक्ति करना श्रेष्ठ है ।
कर्मवाद की मान्यता :
प्राचीन भारत के षट्दर्शनशास्त्रों का अध्ययन करने से न्यायाचार्य जी के अंतःकरण में पारस्परिक विचारों का संघर्ष या विवाद उदित हो गया कि ब्रह्माद्वैतवाद, एकेश्वरवाद, अवतारवाद, निरीश्वरवाद, क्षणिकवाद और कर्मवाद आदि वादों में से किस वाद की आराधना जीवन में कल्याकारी हो सकती है | दर्शनशास्त्रों का गहन चिंतन कर जैनदर्शन शास्त्र के न्यायालय में एक अपूर्व निर्णय उपलब्ध हो गया, वह यह कि .
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स्वयंकृतं कर्मयदात्मना पुरा, फलं, तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा ॥
( आचार्य अमितगति: सामायिक पाठ: पद्य 30) आचार्य अमितगति कर्म सिद्धांत की घोषणा करते हैं कि पूर्वकाल में इस जीव ने जो स्वयं पुण्य पाप कर्म किये है वह जीव उत्तरकाल में उन पुण्य पाप कर्मों का शुभ और अशुभ फल प्राप्त करता है नियम से । यदि कोई प्रश्न करें कि स्पष्ट देखा जाता है कि जीव के पुण्य पाप का फल दूसरे ईश्वर राजा आदि प्रदान करते है! तब आचार्य उत्तर देते है कि जीव के द्वारा किया गया पुण्य पाप कर्म व्यर्थ हो जायेगा । परन्तु कृत पुण्य पाप कर्म व्यर्थ नहीं होता कारण कि प्राणी पूर्वकृत पुण्य पाप कर्म का फल सुख-दुख स्वयं अनुभव करते हुए. प्रत्यक्ष देखे जाते है ।
लोक में पुण्य पाप कर्म के फलानुभवन के उदाहरण अनेक है परन्तु वर्णी जी की जीवन यात्रा में एक घटना प्रत्यक्ष देखी गई है जो इस प्रकार है
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जब श्री वर्णी जी महाराज बरुआसागर (झाँसी) में विराजमान थे, उस समय मंदिर में नित्य प्रवचन करते थे। उनके प्रवचन को सुनने के लिए एक धीवर की कन्या नित्य उपस्थित होती थी। एक दिन प्रवचन
में पुण्य कर्म पाप कर्म का प्रकरण चल रहा था । उस प्रकरण को धीवर कन्या अच्छी तरह सुन रही थी । और उसको पुण्य पाप का विषय समझ में आ गया था। दुर्भाग्य से उस नगर में एक दिन तीव्र ओले - वर्षा हवा का प्रकोप हुआ। उसके प्रभाव से उस धीवर के घर का छप्पर गिर गया। घर का सब सामान जल प्लावित हो गया। भोजन बनाने का भी कोई ठिकाना नहीं रहा । तब विपत्ति ग्रस्त वह धीवर रोने लगा । पिता को रोते देखकर,
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