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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
7. जिन प्रतिमा दर्शन से निज गुण दर्शन होता है। अपने भीतर बैठे शक्ति रूप परमात्मा की स्वीकृति के बिना मात्र बाह्य दर्शन किंचित पुण्य बंध का कारण हो सकता है, मोक्ष या स्थायी सुख-शांति का कारण नहीं। यह भी ज्ञातव्य है कि किसी लौकिक कामना से रहित निष्काम भक्ति ही मूर्तिपूजा का लक्ष्य है।
जैन धर्म में मूर्तिमान एवं मूर्ति दोनों की पूजा है । अर्हन्त देवता या पंचपरमेष्ठी व चैत्य देवता दोनों पृथक रूप से स्वीकृत हैं । मूर्ति की स्तुति के माध्यम से मूर्तिमान की गुण स्तुति होती है । यह धारणा कि मूर्तिपूजा तो अर्वाचीन है, लगभग एक हजार वर्षो से यह सनातन ब्राह्मण सम्प्रदाय से जैन धर्म में आई है, यह ठीक नहीं है। प्राचीन आगम, प्राचीन मूर्तियाँ, गौतम गणधर द्वारा रचित प्रतिक्रमण आदि सदैव से मूर्तिपूजा के सबल प्रमाण हैं।
10. जैन धर्म में ध्येय पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ ये ध्यान मूर्तिपूजा के प्रतिरूप ही हैं ।
11. मूर्तिपूजा अथवा अपनी आत्मा से भिन्न अन्य देव - शास्त्र - गुरु की पूजा भक्ति यह व्यवहार मोक्षमार्ग है, यह साधन है, इसके द्वारा साध्य निश्चय मोक्षमार्ग तो स्वाश्रित है। मोक्षमार्ग के दोनों रूप हैं। हमारा भक्तिभाव केवल मूर्तिपूजा पर ही केन्द्रित रहे तो गति ही स्तम्भित हो जावेगी । मूर्तिमान एवं निजात्मा की ओर भी लक्ष्य होना चाहिए ।
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12. अरहंत भगवान के प्रति नमस्कार, वर्तमान बंध से असंख्यात गुणी कर्म की निर्जरा करता है। यह आगमसिद्ध है कि इससे पुण्य बंध भी होता है। पूर्व पाप कर्म की उदीरणा, अपकर्षण, पुण्य में संक्रमण भी होता है । यह शुभ राग अवश्य है परन्तु यह समस्त राग को नष्ट करने वाला है ।
अंत में अध्यात्म ग्रंथ शिरोमणि समयसार के पद्यानुवाद का आरती द्वारा मूर्तिभक्ति महिमा का भी सूचक छंद लिखकर विराम लेता हूँ -
हूँ सुमति
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कुमति को विनाश करै,
हूँ विमल जोति अंतर जगति है ।
हूँ या चित्त करत दयाल रूप, कबहूँ सुलालसा वै लोचन लगति है । हूँ आरती प्रभु सन्मुख जावै,
कबहूँ सुभारती द्वै बाहिर बगति है ।
धेरै दशा जैसी तब करै रीति तैसी ऐसी,
हिरदै हमारे अरहंत की भगति है । उत्थानिका ॥ 14 ॥
इत्यलम |
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