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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ पंडित जी कहा करते थे कि ''नेत्र की रक्षा आवश्यक है ' बिना नेत्र के मात्र चश्मा स्वच्छ रखने से कुछ दिखने वाला नहीं ।
पंडित जी की जीवन सरिता जन्म एवं मृत्यु के दोनों किनारों के बीच निरपेक्ष भाव विषम परिस्थितियों में भी आज्ञानियों को ज्ञान दान देती हुई बढ़ती गई। जिससे छात्रों का महा उपकार हुआ ही साथ ही समाज का भी उपकार हुआ। क्योंकि ज्ञान दान के समान कोई और इस जगत में उत्तम कार्य नहीं है। अब तो उनके असीम गुणों का पावन स्मरण ही शेष
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अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त स्वनाम धन्य
डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य एक स्मृति
डॉ. हरिश चंद्र शास्त्री सहप्राचार्य संस्कृत महाविद्यालय, मुरैना (म.प्र.) परमपूज्य श्रद्धेय गुरुवर्य डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य एक स्वच्छ व्यक्तित्व के धनी थे इनका जन्म सागर (म.प्र.) के नजदीक शाहपुर ग्राम में हुआ था । पूज्य वर्णी जी से प्रभावित होकर इनके पिता जी ने अपने सभी पुत्रों को धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने हेतु श्री गणेश दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय (मोराजी) सागर भेज दिया था । और सभी पुत्र अध्ययन करके मान्य पंडित विद्वान बने । जिन्होंने अपना नाम पूरे विश्व में किया उन्हीं में तृतीय पुत्र के रूप में डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य जी हुए ।
पूज्य पंडित जी ने अपना सम्पूर्ण जीवन जिस विद्यालय में अध्ययन किया उसी विद्यालय की सेवा ही समर्पित कर दिया। पंडित जी को अंतिम समय तक अध्ययन की अत्यंत रूचि थी। उनका 75 वर्ष की उम्र में डॉ. भागचंद जी के निर्देशन में जैन पूजा काव्य पर पीएच. डी करना इसका प्रतीक है। पू. पंडित जी को डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर से सन् 1989-90 में पीएच. डी की उपाधि से विभूषित किया गया। पूज्य पंडित जी ने जिन डॉ. भागेन्दु जी के निर्देशन में पीएच. डी की वह डॉ. भागेन्दु जी स्वयं पं. जी के ही स्वयं शिष्य रहे है ।
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पंडित जी को कई उपाधियां एवं पुरस्कार अपने इस संघर्षमय जीवन में प्राप्त हुए। जिसमें प्रमुख 2004 में श्रुत संवर्धन पुरस्कार से 31000 रु. शाल, श्रीफल आदि से पू. उपाध्याय ज्ञान सागर जी महाराज के सानिध्य में अतिशय क्षेत्र तिजारा में सभी विद्वानों एवं श्रीमंतों के सामने सम्मानित किया गया । भारत में क्या पूरे विश्व में ऐसा कोई परिवार नहीं होगा जिस घर में माता पिता के सभी पुत्र पंडित बने हो और ऐसे वैसे पंडित नहीं पंडितों के अग्रणी विद्वान रहे ।
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