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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियों की उत्पत्ति तथा उसको गुणी बनाने का पुरूषार्थ किया जाता है, उसी प्रकार श्रीमान धीमान् श्रावक जनों को प्रयत्न करना चाहिए कि जगत्बन्धु जैन धर्म की परम्परा को वृद्धिंगत तथा सुरक्षित करने के लिये वे मुनियों को दीक्षित करने में एवं उसको ज्ञानदिगुणों से सम्पन्न कराने में सहायक बने अन्यथा जिनधर्म की परम्परा का विच्छेद हो जाएगा।
श्री पण्डित प्रवर आशाधर जी ने यह भी लिखा है कि यति परम्परा को अक्षुण्ण रखने के लिये वर्तमान मुनियों के प्रति श्रद्धा, सुरक्षा एवं पूज्यता का भाव रखना समाज को आवश्यक है :
विन्यस्यै दंयुगीनेषु, प्रतिमासु जिनानिव ।
भक्त्यापूर्वमुनीनर्चेत, कुत: श्रेयोऽतिचर्चिनाम् ॥ तात्पर्य यह है कि जैसे वर्तमान प्रतिमाओं में पूर्णकालिक जिनेन्द्रदेव की स्थापना करके उनकी पूजा की जाती है, उसी प्रकार आधुनिक मुनियों में पूर्वकालिक मुनियों की स्थापना करके उनके प्रति श्रद्धा सुरक्षा एवं पूज्यता का भाव व्यक्त करना आवश्यक है। यद्यपि वर्तमान मुनियों में द्रव्य,क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा, चतुर्थकाल के यतियों की तरह आत्मबल, तपस्या, विशुद्धि, ज्ञान आदि में समानता नहीं पाई जाती है तथापि इस पंचमकाल में भी रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग की साधना का प्रतिनिधित्व करने के कारण आधुनिक यति भी उपासना करने के योग्य पूजनीय हैं । इस विषय में अतिसूक्ष्म विचार करने योग्य नहीं।
(सागारधर्मामृत अ. 2, पद्य 64) यद्यपि इस कलिकाल में मुनि वर्ग में तपस्या करने पर भी ऋद्धि सिद्धि एवं विशेषज्ञान की प्राप्ति नहीं होती है तथापि विशेष ज्ञान आदि गुणों के विकास के लिये श्रमण एवं श्रावक समाज को नैमित्तिक पुरूषार्थ अवश्य करना योग्य है। इस विषय को भी पण्डित प्रवर आशाधर जी ने व्यक्त किया है
श्रेयो यत्नवतोऽस्त्येव, कलिदोषाद् गुणद्युतो । असिद्धावपि तत्सिद्धौ, स्वपरानुग्रहो महान् ॥
(सागार. अ. 2 पद्य 72) तात्पर्य यह कि कलिकाल के दोष से अथवा अशुभकर्म के उदय से पूज्य यति वर्ग में यदि विशेष गुणों का उदय न हो सके तो पौरूष करने वाले साधु को और श्रावक को पुण्य कर्म का अर्जन तो अवश्य होता है। यदि साधु वर्ग में विशेष गुणों का विकास हो जाय तो वैयावृत्य करने वाले साधर्मीजनों का तथा स्वयं साधुजनों का महान् उपकार होगा। दोनों ही दशा में विशेष लाभ होने से साधु और श्रावक दोनों को पुरुषार्थ करना चाहिए, हताश होना श्रेष्ठ नहीं है। अपिच
उपासना गुरवो नित्यं, अप्रमत्तै: शिवार्थभिः । तत्पक्षतार्क्ष्यपक्षान्तश्चरा विघ्नोरगोत्तरा : ।।
(सागार धर्मामृत अ. 2 पद्य 45)
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