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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ की पूजा, यज्ञ तथा बलि देनी चाहिए । इन कर्मो से मनुष्य की आत्मा को सुख तथा स्वर्ग की संम्पदा प्राप्त होती है। मानव को अपने कर्मो का फल स्वयं भोगना पड़ता है। कर्मफलदाता ईश्वर नहीं है। न कोई ईश्वर इस विश्व का व्यवस्थापक है। पिछले बौद्धाचार्यों के अनुसार जीव पुद्गल स्कंधों का एक पुंज है जो अपने पूर्व चारित्र सम्बंधी संस्कारों से संयुक्त रहता है । इस संस्कार से मुक्त होना ही बौद्ध धर्म में आत्मा का निर्वाण है। बौद्धदर्शन - आत्मा एक द्रव्य है वह संसार में जन्म मरण करता है। इस दर्शन में पर्यायार्थिक नय ही मुख्य माना गया है आत्मा क्षणिक है अर्थात् प्रतिसमय नई-नई पर्याय धारण करता है । आत्मा के वर्तमान कष्टों को दूर करने के लिए मध्यम मार्ग का उपदेश दिया है। मनुष्य की मृत्यु के बाद चरित्र सम्बंधी संस्कारों का समूह उससे पृथक् हो जाता है और नवीन शरीर धारण करता है। जैनदर्शन इस दर्शन के प्रवर्तक भ. ऋषभदेव हैं इनके बाद 23 तीर्थंकरों ने भी इस दर्शन का प्रसार तथा प्रचार किया है। इसके अंतिम उद्वारक भ. महावीर थे। विश्व के मूल पदार्थ दो हैं, आत्मा एवं अजीव । जैनदर्शन के अनुसार - निश्चयनय से आत्मा, पूर्ण शुद्ध पूर्ण हैं । द्वितीय व्यवहारनय से - कर्म विकार से अशुद्ध, एकदेश ज्ञान सहित, इन्द्रिय सुख-दुख से सहित, अपने कर्मो का कर्ता, कर्मफल का स्वयं भोक्ता और मूर्तिक है। इस विश्व में आत्मा अनंत है वे दो प्रकार की हैं:- एक संसारी (कर्म सहित), दूसरा मुक्त (कर्म रहित) । मुक्तात्मा अनंत हैं । संसारी आत्मा ही अपने कर्मविकार को दूर कर अनंत ज्ञान आदि से सहित होते हुए परमात्मा हो जाता है। इस संसार का कर्ताधर्ता हर्ता और फल देने वाला परमात्मा नहीं है। लोक अनादि अनंत काल वाला है, स्वयमेव इसका परिणमन होता है। ईसाइ दर्शन - इस दर्शन के प्रवर्तक ईसा मसीह है । इस दर्शन में आत्मा और परमात्मा का स्वरूप स्प्ष्ट रूप से नहीं कहा गया है। परन्तु कथा कहानी के द्वारा स्पष्ट हो जाता है कि इस दर्शन में आत्मा का स्वरूप प्राय: जैन दर्शन के समान है। ईसाइ धर्म के प्रमाण इस प्रकार है :___“तुम भी इतनी ही शुद्धता एवं पूर्णता को प्राप्त करो, जितनी शुद्धता एवं पूर्णता तुम्हारे पिता ईश्वर में है। (मैथ्यू अध्याय 5, पृ. 48)" "मैंने कहा है कि तुम स्वयं ईश्वर हो" (जान अ. 10-34) "देखो ईश्वर का साम्राज्य तुम्हारे अंदर है।" यदि तुम ईश्वर को जान लोगे तो तुम ईश्वर सदृश्य हो जाओंगे । इसलिए तुम अपने आप को जान लो। (397 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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