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कृतित्व/हिन्दी
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ पार्श्वनाथ दि. जैन मंदिर है । इसके समक्ष एक मानस्तंभ सुशोभित है। गर्भगृह में भ. पार्श्वनाथ की एक अद्भुत रम्य प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में विराजमान है। तीर्थकर पार्श्वनाथ की मूर्ति को एक बड़ा सर्प लपेटे हुए हैं और अपने सप्तकणों की छाया पार्श्वनाथ पर कर रहा है । सर्प कुण्डली पादमूल तक विस्तृत है। घुटनों के पास एक यक्ष सुशोभित है । इस प्रकार की प्रतिमा संभवतः अन्यत्र नहीं है। मंदिर के द्वार और मण्डप में भी सुन्दर कलाकारी प्रभावक है । कुन्दाद्रि पर जैनमंदिरों के ध्वंसावशेष मूर्तियों एवं कलापूर्ण शिलाखण्ड यत्र तत्र बिखरे हुए है। इससे प्रतीत होता है कि यह पर्वत अतिप्रसिद्ध तीर्थस्थान रहा होगा। वर्तमान में इसका प्रबंध हुमचा के भट्टारक द्वारा किया जाता है कुन्दाद्रि का प्राकृतिक सौन्दर्य अति दर्शनीय है । यहाँ सूर्यास्त का दृश्य अत्यंत सुन्दर दिखाई देता है। (भारत के दि. जैन तीर्थ: पंचमभाग: डॉ. राजमल जैन ) अतिशय क्षेत्र मूडविद्री का परिचय एवं इतिहास :
मूडविद्री की प्रसिद्धि के मुख्य कारण :
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मूडविद्री का जैनमठ श्रवण वेलगोल की ही प्रधान शाखा है अतः भक्तमानव श्रवण वेलगोल के समान ही गौरवपूर्ण इस क्षेत्र की वन्दना करते हैं।
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विद्वानों एवं अनुसन्धान कर्ताओं के लिये यह एक प्रमुख स्थान है। इसी प्राचीन क्षेत्र से ही जैनदर्शन के कन्नड़ षट्खण्डागम जैसे (धवल, जयधवल महाधवल) मूलप्राकृत संस्कृत ग्रन्थ ताडपत्रों पर लिखित एवं सुरक्षित उपलब्ध हुए थे । यहाँ पर अनेक ताडपत्रीय मौलिक जैनग्रन्थ विद्यमान है। इ लेखनकला एवं रंगीन चित्रकारी आश्चर्य जनक तथा दर्शनीय है । इसी क्षेत्र पर स्व. श्रीमान् साहू शान्तिप्रसाद जी द्वारा स्थापित "रमारानी जैनशोध संस्थान " आधुनिक सुविधाओं से परिपूर्ण है । कलाविदों एवं तीर्थ भक्तों के लिये यह क्षेत्र विशेष आकर्षक है कारण कि यहाँ का अद्वितीय सहस्रस्तंभों से सुशोभित त्रिभुवन - तिलक चूड़ामणि मंदिर (चन्द्रनाथमंदिर) स्थानीय मंदिरो में विराजमान, पक्की मिट्टी आदि की निर्मित प्राचीन प्रतिमाऐं, तथा कुछ हीरा, मोती आदि की अमूल्य दुर्लभ प्रतिमाऐं दर्शनीय हैं।
कतिपय पाश्चात्य इतिहासज्ञ कलाविदों ने यह लिखा है कि यहाँ की मंदिर निर्माण कला नेपाल और तिब्बत की भवन निर्माण कला से तुलना रखती है । दोनों देशी कलाओं के साथ कलाओं का साम्य आश्चर्य प्रद एवं संस्कृति साम्य का द्योतक है।
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क्षेत्र का इतिहास :
मूडविद्री क्षेत्र का इतिहास भी अत्यंत प्राचीन ज्ञात होता है । भ. पार्श्वनाथ ने अपने मुनिजीवन के 70 वर्ष प्रमाण विहार कर जैनधर्म के सिद्धांतों का प्रचार प्रसार किया। उनका विहार दक्षिण भारत में भी हुआ था । वे नागजाति की एक शाखा उरगवंश के आभूषण थे । डा. ज्योतिप्रसाद जी जैन का मत है कि "पार्श्वनाथ
समय में पूर्व, पश्चिम और दक्षिण भारत के विभिन्न भागों में अनेक प्रबल नागसत्ताऐं, राजतंत्रों अथवा गणतंत्रों के रूप में उदित हो गई थी और इन मानवों के इष्ट देवता भ. पार्श्वनाथ ही प्रतीत होते हैं" ।
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