SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 398
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ श्रीमती, स्थान जन्म 'कोण्डकुन्दपुर', इस ग्राम का इतर नाम 'कुरुमरई', जिले का नाम पेदथनाडु । इनदम्पती के बहुत दिनों तक कोई सन्तान नहीं हुई। कुछ समय पश्चात् एक तपस्वी मुनि को दान देने के प्रभाव से पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई जिसका कुन्दकुन्द नाम रखा गया - जन्मस्थान के नामानुसार । बाल्यावस्था से ही कुन्दकुन्द प्रतिभाशाली और विद्वान थे। ग्रन्थस्वाध्याय में इनका समय अधिक व्यतीत होता था । युवावस्था में आपने मुनिदीक्षा ग्रहण कर आचार्य पद को प्राप्त किया था। आ. कुन्दकुन्द स्याद्वादी थे - इदि णिच्छय - ववहारं जं भणियं कुन्दकुन्द मुणिणाहे । जो भावई सुद्धमणो, सो पावई परमणिव्वाणं । इस प्रकार कुन्दकुन्द आचार्य ने निश्चय और व्यवहार का अवलम्बन लेकर जो कथन किया है। उसकी शुद्धहृदय से जो भावना करता है वह परम निर्वाण को प्राप्त कर लेता है। देव सेन ने भी दर्शनसार में आचार्य पद्मनन्दि की (कुन्दकुन्द की) प्रशंसा करते हुए लिखा है, जइ पढमणंदिणाहो, सीमंधर सामि दिव्वणाणेण । ण विबोहड़ तो समणा, कहं सुमग्गं पयाणंति ॥ भावसौन्दर्य - पद्मनन्दि (कुन्दकुन्द) स्वामी ने विदेह के सीमंधर स्वामी से दिव्यज्ञान प्राप्तकर अन्य मुनियों को प्रबोधित किया। यदि वे इस मुनिसंबोधन कार्य को न करते तो श्रमण किस प्रकार सुमार्ग को प्राप्त करते। समयसार में पीठिका के 14 गाथाओं का सार - 1. मंगलाचरण एवं ग्रन्थारंभ की प्रतिज्ञा -1 2. स्वसमय और परसमय में भेद 2-5 शुद्ध और अशुद्धनय के ज्ञाता - 6-7 उपदेश में व्यवहारनय की उपादेयता -8 व्यवहारनय परमार्थ का प्रतिपादक है - 9-10 दर्शन - ज्ञान चारित्र से आत्मा का अभेद और - आत्मभावना से निर्वाण की प्राप्ति 11-12 व्यवहार अमूतार्थ एवं निश्चयनय भूतार्थ - 13 उपदेश में निश्चय एवं व्यवहारनय की सीमा 14 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy