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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ प्रजातन्त्र के युग में समाज-व्यवस्था
उक्त विषय पर प्रकाश डालते हुए पं. दयाचन्द्र जी साहित्याचार्य ने लिखा है कि -
मनुष्य सामाजिक प्राणी है, समाज के बिना उसका निर्वाह नहीं हो सकता । व्यक्तियों का समूह समाज कहलाता है। यदि एक-एक व्यक्ति अपना सुधार कर ले तो समाज का सुधार अनायास हो सकता है। आज के प्रजातन्त्र युग में समाज की उपेक्षा नहीं की जा सकती। 'कलौ संघे शक्ति: के अनुसार हमे संघ की आवश्यकता है। हमारी बिखरी हुई शक्ति हमें दुनिया में नगण्य सिद्ध करती है ।हमारे बीच में ऐसे अनेक कार्य चल पड़े हैं जिनसे परस्पर में मतभेद बढ़ा है और हम संगठित दशा से असंगठित दशा में आ गये हैं। कोई किसी की परवाह नहीं रखता। बड़ा आदमी कहता है कि हमें किसी की क्या आवश्यकता ? हम अपने पैसे के बल पर अकेले ही निर्वाह कर सकते हैं और जिनके पास पैसा नहीं हैं उनके मुख से निकलता है कि आप पैसे वाले हैं तो अपने घर के हैं हमारा आप क्या कर सकते हैं? इस प्रकार सधन और निर्धन दोनों वर्ग के लोग एक दूसरे की उपेक्षा करने लगे हैं। पर ऐसी उपेक्षा से क्या समाज जीवित रह सकेगी ? परस्पर का सहयोग, परस्पर का वात्सल्य भाव ही हमें एक सूत्र में बांध कर रख सकता है। देखा जाता है कि एक गांव में यदि दश घर जैनियों के हैं तो उनमें पाँच पटी है। दश घर के लोग भी एक पटी में नही रह सकते। किसी की लड़की का सम्बन्ध कहीं चलता है तो दूसरी पटी का कोई आदमी झूठा गुमनाम पत्र लिखकर वातावरण गंदा कर देता है। किसी कन्या के विषय में झूठा प्रचार करना जीव हिंसा से कम पाप नहीं है।
आज दहेज का दानव सुलसा के समान मुँह को फैलाता हुआ समाज के भीतर आ घुसा है। पच्चीसपच्चीस वर्ष की कुंवारी लड़कियाँ घरों में बैठी हैं, पर मन चाहे दहेज की व्यवस्था न हो सकने से उन्हें कोई पूछता भी नहीं है। जब कि वे सुन्दर हैं और सुशिक्षित भी। यदि ऐसी लड़कियाँ क्रान्ति कर दें तो समाज की क्या दशा होगी ? कन्या पक्ष को सताकर पैसा प्राप्त करना और उनसे अपनी शान-शौकत बताना लज्जा की बात है । इस ओर समाज को अविलम्ब ध्यान देने की आवश्यकता है। जो युवक वर्ग, देश में समाजवाद और अपरिग्रहवाद के समर्थक हैं, इनके समर्थन के लिये लम्बी-लम्बी बातें करते हैं वे चुप क्यों हैं ? उन्हें आगे आकर अपने लोभी परिवार को समझाना चाहिये । हमारा युवक वर्ग इतना अकर्मण्य क्यों होता जा रहा है जिससे उसे स्त्री धन की आवश्यकता महसूस होने लगी है।
श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदाय एक हों, यह दूर की बात है। पर हम दिगम्बर भी अपनीअपनी उपजातियों के पक्ष व्यामोह में मस्त हैं, एक दूसरे को काट करने में लगे रहते हैं । यदि हम समाज को सुरक्षित रख सकें तो संस्थाओं ,मंदिरों और तीर्थ स्थानों को सुरक्षित रख सकेंगे। एक व्यक्ति में इन सबकी रक्षा करने की सामर्थ्य नहीं हैं। संस्थाएँ , समाज के उत्कर्ष के लिये अत्यंत आवश्यक हैं। यदि इस वाणिक्
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