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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ भगवान महावीर की अहिंसा और पर्यावरण संरक्षण ___ डॉ. कपूरचंद जैन, (पी.जी.) कालेज, खतौली 51201 (उ.प्र.) भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित श्रावकों के आचार में बारह व्रतों का महत्वपूर्ण स्थान है । इन बारह व्रतों में पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत आते हैं। आचार्य उमास्वामी के अनुसार श्रावक सल्लेखना नामक तेरहवें व्रत का भी पालन करता है। इन व्रतों की पहली सीढ़ी अहिंसाणुव्रत है। महावीर का संपूर्ण जीवन दर्शन अहिंसा की परिधि में समा जाता है। महावीर जिस 'विश्वकल्याण' और 'जियो और जीने दो' की बात कहते हैं उसका मूल आधार भी यही अहिंसा है। आज जब सर्वत्र हिंसा का ताण्डव हो रहा है, अणु और एटम बम के बादल समग्र विश्व को व्याप्त कर रहे हो, तब महावीर की यह अहिंसा और भी आवश्यक हो जाती है। हिंसा और अहिंसा की जितनी सूक्ष्म व्याख्या महावीर ने की है शायद ही किसी भगवान / संत/ साधक ने की हो । महावीर के अनुसार पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और वनस्पति की भी हिंसा होती है। इस 'हिंसा' से न बच पाने के कारण मानव आज उस चौराहे पर खड़ा है, जहाँ का प्रत्येक रास्ता विनाश की ओर ही जा रहा है। यदि शीघ्र ही इस हिंसा पर नियंत्रण न पाया जा सका तो कब इस सृष्टि का संतुलन बिगड़ जाये और महाप्रलय जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाये, कहा नहीं जा सकता। आधुनिक वैज्ञानिक विकास ने हमें जो दिया है, उनमें पर्यावरण का प्रदूषण भी एक है। दर्शन और विज्ञान के अनुसार जिन पाँच महाभूतों से यह सृष्टि बनी है, वे इतने असंतुलित और प्रदूषित हो गये हैं। कि यदि शीघ्र समाधान न खोजा गया तो पृथ्वी पर जीवों का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाने वाला है। सृष्टि के इस संतुलन को बनाने में एकमात्र कारगर अस्त्र यह अहिंसा ही है। __ पर्यावरण शब्द परि = समन्तात्, आवरणं = पर्यावरणं, से बना है। अर्थात् जो सब ओर से सृष्टि को व्याप्त किये है, दूसरे शब्दों में वातावरण को ही पर्यावरण कहा जा सकता है पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, ध्वनि (आकाश), वनस्पति ये पर्यावरण के मूलाधार हैं । ये अपने निश्चित अनुपात में अनादि से स्थित है। मानव कभी धर्म के नाम पर , कभी विज्ञान के नाम पर तो कभी प्रगति के नाम पर इनसे छेड़छाड़ करता है, आज कल यह छेड़छाड़ कुछ ज्यादा ही बढ़ गयी है। आज नगरीकरण, औद्योगीकरण, यातायात के आधुनिक यांत्रिक साधन, उनकी तेज ध्वनि, अणुशक्ति का प्रयोग, दूषित वायु, दूषित जल, दूषित खाद्य पदार्थ, पृथ्वी की निरंतर खुदाई, समुद्र की छाती को चीरकर रसायनों की प्राप्ति, वनों का काटा जाना, रेडियोधर्मिता जैविक और रासायनिक कचरा, मांसाहार की बढ़ती प्रवृत्ति, पारस्परिक वैमनस्य, अर्थ लोलुपता आदि के कारण उक्त महाभूतों का संतुलन बिगड़ रहा है दूसरे शब्दों में ये प्रदूषित हो रहे है। प्रदूषण की कोई सर्वमान्य परिभाषा देना संभव नहीं है। फिर भी अधिकांश वैज्ञानिकों के अनुसार -563 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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