________________
आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अनेकांतमय वस्तु के शुद्ध निश्चय का निर्णय कराने में समर्थ है । कुन्दकुन्द स्वामी ने तो यहाँ तक श्रुतज्ञान का महत्व बताया है -
"आगम् चक्खू साहू, इंद्रिय चक्खूसि, सव्वभूदाणि ।
देवादि ओहि चक्खू, सिद्धा पुण सव्वदो चक्खू ॥" आगम चक्षु वाले साधु होते हैं । संसारी मनुष्य इन्द्रिय चक्षु वाले होते हैं। देव लोग अवधि चक्षु वाले होते हैं सिद्ध भगवान सर्वचक्षु होते हैं। कितनी व्यापक तथा अनेकांत दृष्टि है जैनशासन की। देवागम स्तोत्र में स्वामी समन्तभद्र कहते है :
"स्याद्वाद केवल ज्ञाने, सर्वतत्त्व प्रकाशने ।
भेदः साक्षाद् साक्षाच्च, ह्मवस्त्वन्यतमं भवेत् ।।" शुक्ल ध्यान के वास्ते श्रुतज्ञान की आवश्यकता है । मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मन: पर्ययज्ञान की नहीं। अनेकांत के विषय में जैनाचार्य अमृतचंद्रसूरि ने ठीक ही कहा है तथा नमस्कार किया है :
“परमागमस्य जीवं निषिद्धजात्यन्ध सिन्धुरविधानाम् ।
सकल नय विलसिताना, विरोधमथनं नमाम्यनेकांतम् ॥" वास्तव में जिन्हें अपना हित करना है। उनकी अपनी स्वतंत्र अनेकांतमय शैली का ही सहारा लेना आवश्यक है। सुख आत्मा का ही स्वभाव है । एकांत शैली से तो संसार का अभाव असंभव है तथा मोक्ष का भी अभाव माना जा सकता है। अत: अनेकांतवाद समझता है कि आत्मा स्वतंत्र द्रव्य है । जहाँ जीव पुदगल का निमित्त-नैमित्तिक संबंध नहीं रहता है, वहां संसार नहीं रहता। संसार कोई भिन्न पदार्थ नहीं है । जहाँ जीव और पुदगल का अन्योन्याश्रित संबंध रहता है। इसी का नाम संसार है । संसार अनेकांत से सारगर्भित भी है।
"संसार एव कूप: इह सलिलानि विपत्तिजन्म दुखानि ।
इह धर्मऽनेकांत वन्धुः, तस्मादध्दुरयति निम्नग्नानाम् ॥" यही अनेकांत धर्म की सृष्टि ही हमारी शाश्वत दृष्टि है। बिना अनेकांत के सभी निराशामय वातावरण में अदृश्य हो जाते है । ज्ञानी जीव जब रागादिकों को ही हेय समझता है, तब रागादिक में विषय हुए जो पदार्थ, उन्हें चाहे, यह सर्वथा असंभव है। जब यह वस्तु मर्यादा है तब पर से उपदेश की वांक्षा करना सर्वथा अनुचित है। जैसे पर में पर बुद्धि कर उसके द्वारा कल्याण होने की भावना को छोड़ों । इस विश्वास के छोड़े बिना श्रेयोमार्ग पर चलना कठिन है। जैसे संसार के उत्पन्न करने में हम समर्थ है, वैसे ही मोक्ष के उत्पन्न करने में भी अनेकांत शैली समर्थ है। यही मोक्ष अवस्था अनेकांत का विशुद्ध रूप है। अनेकांतवाद का चरमोत्कर्ष :आचार्य अमृतचंद्र सूरि ने अपने ग्रन्थ पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में अनेकांतवाद की विशुद्ध परमोत्कर्ष
622
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org