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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ आदि दोषों को दूर करने के लिए नम्रता,दया,क्षमा, निष्कपटता आदि गुणों के विकास की आवश्यकता है। उद्देश्य - "वन्दे तद्गुण लब्धये" आचार्य उमास्वामी का कथन है कि मैं सच्चे परमात्मा के गुणों की प्राप्ति के लिए उनको नमस्कार करता हूँ। यह भक्ति का एक अंग है।
__"योयस्य गुणलब्ध्यर्थी स तं वन्दमानो दृष्ट:" इसका स्पष्ट तात्पर्य है कि जो व्यक्ति जिसके गुणों को ग्रहण करना चाहता है कि वह उस गुणवान् . को प्रणाम करता है तथा योग्य व्यवहार द्वारा उसकी संगति और यथायोग्य स्तुति करता है। जैनधर्म में भक्ति या पूजा का उद्देश्य इतना परमश्रेष्ठ है कि भक्तमानव सच्ची भक्ति करते करते एक दिन भगवान् बन जाता है, नर के नारायण और पारस से पार्श्वनाथ बन जाता है कविता का एक छंद कहता है
भिखारी से होते भगवान, उन्नति करते करते मानव हो जाते भगवान, भिखारी से होते भगवान् ।
यदि विद्यार्थी विद्वान की भक्ति करते हुए विद्वान नहीं बन पाया तो विद्वान या शिक्षक की भक्ति करने से क्या लाभ ?
यदि पुजारी भगवान की पूजा करते-करते जीवन पर्यन्त पुजारी ही बना रहा, भगवान की तरह उन्नति नहीं कर सका तो पूजा करने से क्या लाभ ? इससे सिद्ध होता है कि अपने योग्य गुणों की प्राप्ति के लिए ही मूर्खव्यक्ति विद्वान की, निर्धन धनी की, निर्बल बलवान की, सेवक स्वामी की, दरिद्र व्यापारी की, पतित महात्मा की और दुखी सुखी की भक्ति अथवा आदर करना चाहता है। लोक में यह व्यवहार स्पष्ट रूप से देखा जाता है । लोक में यह व्यवहार स्पष्ट रूप से देखा जाता है । इसी प्रकार भक्त भी अपनी उन्नति के लिए भगवान की उपासना करता है।
एक अशुद्ध मानव आत्मशुद्धि के लिए जब भगवान के निकट जाता है तो वह कहता है कि हे भगवन "दासोऽहं" अर्थात् मैं आप का सेवक हूँ। यह प्रथम भक्ति मार्ग का कर्तव्य है कि वह अपनी उन्नति के लिए पहले गुणवान की श्रद्धापूर्वक पूजा करता है। आगे बढ़ते हुए जब वह व्यक्ति दूसरे ज्ञानमार्ग पर आता है तो वह “दासोऽहं" के स्थान पर “सोऽहं" का पाठ पढ़ने लगता है। इस मार्ग में दा पृथक हो जाता है ।अर्थात् हे भगवान, जैसी गुणवान आत्मा आप की है वैसी हमारी भी है उस में कोई अंतर नहीं है । उन्नति करते हुए जब वह मानव तीसरे वैराग्य मार्गपर आता है तो वह “स:" को पृथक करके अहं का पाठ पढ़ने लगता है । अर्थात् स्वयं भगवान बन जाता है, वहाँ भक्त-भगवान का पूजक-पूज्य का कोई भेद नहीं रहता है। प्रथम मार्ग में ऊँ च नीच का भेद, द्वितीय में समानता, तृतीय मार्ग में पूर्ण उद्देश्य की प्राप्ति हो जाती है। यह जैन धर्म में भक्ति की महती विशेषता है।
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