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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ वचन का प्रयोग व्यवहाराभास है वह त्याज्य है। इसलिए उस वचन के प्रकरण में कहा गया है कि गृहस्थमानव असत्यासत्य वचन को न कहे, शेष तीन वचनों का प्रयोग कर सकता है कारण कि वे वचन लोक व्यवहार में पीड़ा कारक नहीं माने गये हैं उनसे तो मानव के दैनिक जीवन का प्राय: निर्वाह होता है। अतः व्यवहार सत्य सिद्ध होता है असत्य नहीं। श्रीमन्नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्ती ने सत्य के दस भेद कहे हैं - जणवदसम्मदिठवणा णामे रूदे पडुच्चववहारे । संभावणेय भावे उवमाए दसविहं सच्चम् ॥ (जीवकाण्ड (गोम्मटसार) गाथा 222) सत्य दस प्रकार का होता है। 1. जनपदसत्य, 2.सम्मतिसत्य, 3.स्थापना सत्य, 4.नामसत्य,5.रूप सत्य, 6. प्रतीत्यसत्य, 7. व्यवहारसत्य, 8.संभावना सत्य, 9. भावसत्य, 10.उपमासत्य । ये दस प्रकार के सत्य वचन आगम में व्यवहारनय की अपेक्षा से ही कहे गये है। इससे व्यवहारनय की सत्यता सिद्ध होती है। उनमें भी सप्तमभेद व्यवहारसत्य नाम से ही अपेक्षाकृत सत्यता को सिद्ध करता है। ऐसे व्यवहार को झूठपाप कदापि नहीं कहा जा सकता है । इसी गाथा की हिन्दी टीका में कहा गया है - नैगम आदि नयों की प्रधानता से जो वचन कहा जाये उसको व्यवहार सत्य कहते हैं जैसे नैगमनय की अपेक्षा “वह भात पकाता है"। संग्रहनय की अपेक्षा द्रव्यसत् है अथवा द्रव्य असत् है इत्यादि। धर्मग्रन्थों में अप्रिय असत्य के दस भेद अन्य प्रकार से भी कहे गये - 1.कर्कश, 2. कटुक, 3.परूष, 4.निष्ठुर, 5.परकोपी, 6.मध्यकृश, 7.अभिमानी, 8.अनयंकर, 9.छेदंकर, 19, वधकर । इन दस अप्रिय असत्य वचनों में से, व्यवहारनय रूप वचन कोई भी ऐसा वचन नहीं है जो कि प्राणियों का अहित कर सके । गोम्मटसार जीवकाण्ड में वचन योग के चार भेद कहे गये हैं - 1.सत्यवचनयोग, 2.असत्यवचनयोग, 3.उभयवचनयोग, 4. अनुभयवचनयोग । इनमें से व्यवहारनय का वचन सत्यवचनयोगरूप कहा गया है। उक्त प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि असत्यार्थ (अभूतार्थ) व्यवहारनय का वचन भी सत्यार्थ है वह झूठ पाप नहीं है आचार्यां ने व्यवहार नय के वचन को शब्दों की अपेक्षा अभूतार्थ कहते हुए भी भाव की अपेक्षा भूतार्थ (सत्यार्थ) कहा है। प्रश्न - जैन दर्शन में व्यवहारनय का कथन एवं प्रयोग आवश्यक क्यों कहा गया है ? उत्तर- अज्ञानी साधक मानव को आत्मशुद्धि रूप साध्य को सिद्ध करने के लिए साधन रूप व्यवहारनय के विषय का उपदेश दिया गया | साध्य की सिद्धि हो जाने पर व्यवहारनय की आवश्यकता नहीं रहती |श्री आचार्य अमृतचंद्र जी ने स्पष्ट कहा है - अबुधस्य बोधनार्थं मुनीश्वरा देशयन्त्यभूतार्थम् । व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति ॥ (पुरूषार्थ श्लोक 6) -2600 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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