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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ छन्द - देहांतर गते वीजं, देहेस्मिन्नात्म भावना ।
देहे विदेह निष्पत्ते, आत्मन्ये आत्म भावना ॥1॥ अर्थात् जिसने देह को अपना माना है उसे देह प्राप्त होती रहती है । तथा जिसने आत्मा में आत्म भावना की है वह विदेह बन जाता है । सिद्ध बन जाता है।
मिथ्यात्व के दो पुत्र होते है - 1. अहंकार 2. ममकार । हिन्दी में 1 मैं 2 मेरे दो बेटे हैं। अब जहाँ जहाँ तक मैं लगेगा जैसे मैं राजा, मैं सुखी, मैं ज्ञानी, मैं त्यागी मै प्रधान आदि हूँ। वहाँ वहाँ तक मिथ्यात्व है। (अहंकार है) मैं तथा जहाँ जहाँ तक यह मेरे है। सब चेतन परिवार मेरे है। व अचेतन धन घर मकान रिश्तेदार सब मेरे हैं। अपना माना (वह ममकार है) मेरे हैं। यह सब मिथ्यात्व की पहचान है । जहाँ सबको अपना माना, पर को पर माना वहाँ सम्यक्त्व है। इसी को भेद ज्ञान कहते हैं।
3. जब सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है - तब ज्ञान सम्यग्ज्ञान हो ही जाता है । और चारित्र सम्यक्त्व चारित्र कहलाता है। ज्ञान चारित्र की ओर प्रेरित करता है। कहा है - सम्यग्ज्ञानी होय बहुरि दृढ़ चारित्र लीजे (दौलत राम) तभी मोक्ष मार्ग बनता है और मोक्ष को भी प्राप्त कर लेता है। सर्वार्थसिद्धी वाले देव मोक्ष तो नियम से मनुष्य होकर जावेंगे | परन्तु अभी मोक्ष मार्गी नहीं है। मार्ग तीन से बनता है। चारित्रं खलु धम्मो
चारित्र ही धर्म है। चारित्र के साथ सम्यक्त्व आवश्यक है । तथा सम्यक्त्व न भी हो और संयम अणुव्रत का पालन सही करता हो तो 16 स्वर्ग तक का सुख प्राप्त हो जाता है। और द्रव्यलिंगी मुनि पंच महाव्रत रूप संयम पालन करता है। तो उसे नवमें ग्रैवेयक तक का सुख प्राप्त करा देता है। व्रत संयम की महिमा है । मनुष्य एक भी व्रत नियम लेवे तो देवगति को अवश्य पाता है । यह सब संयम आचरण की ही महिमा है - प्रभाव है। छन्द - बुद्धे:फलं तत्व विचारणं च, देहस्य सारोव्रत धारणं च ।
अर्थस्य सार: किल पात्रदानं, वाचः फलं प्रीतिकरं नराणाम् ॥
4. यह तीन रतन नर भव में प्राप्त न हुये तो नर जन्म भी व्यर्थ है। दो हजार सागर काल में पुरुष पर्याय के सिर्फ 16 भव ही है मोक्ष पुरुषार्थ न किया तो पुन: निगोद में जाना पड़ता है। यह मनुष्य भव भ्रमण समापन का भव है। न कि संसार बढ़ाने का है। नरक व तिर्यंच आयु का जिन्हें बंध हो गया है। उन्हें व्रत लेने के भाव ही नहीं होते। राजा श्रेणिक को नरक आयु का बंध हो गया था, समवशरण में उनने स्वयं प्रश्न किया था। कि हमें व्रत लेने के भाव क्यों नहीं हो रहे। तब उत्तर आया कि तुमको नरक आयु का बंध हो गया है अत: व्रत के भाव नहीं होते। और व्रत संयम जिन्होंने ग्रहण कर लिये है। वह नरक तिर्यंच गति में न जाकर देव गति में जाता है। अत: जीवन के अंत समय में संयम लेकर नरभव को सफल बनाने का ध्यान रखना चाहिए । यही समाधि है । कल्याणं भवतु ।
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