________________
कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ ___ माता के विचारों का प्रभाव भी गर्भस्थ शिशु पर अवश्य होता है, इसलिए माता को धार्मिक ग्रन्थों का, वीरपुरुषों के जीवन चरित्रों का, प्रथमनुयोग के शास्त्रों, नैतिक ग्रन्थों का अध्ययन करना जरूरी है। अभिमन्यु जब गर्भ में था तब माता वीरों के चरित्रों का, युद्ध कला का अध्ययन करती थी। एक समय युद्ध कला के दृश्य में माता ने चक्रव्यूह की रचना और उसमें प्रवेश का दृश्य जागृत दशा में तो देख लिया था परन्तु चक्रव्यूह से निकलने के समय उस कला को, नींद लग जाने के कारण माता ने नहीं देख पाया, इसका प्रभाव भी गर्भस्थ अभिमन्यु पर स्थिर हो गया, अत: वह चक्रव्यूह से न निकल सका और मारा गया |
माता के वचनों का प्रभाव भी गर्भस्थ शिशु पर अवश्य स्थिर होता है । माता यदि अच्छे नैतिक सत्य, शिव, सुन्दर वचन कहती है तो बालक भी अच्छे वचनों का प्रयोग करता है । यदि माता क्रोध भरे कठोर वचन कहती है, गालियाँ बहुत देती है, तो गर्भस्थ शिशु पर भी यह प्रभाव पड़ता है और वे बालक बड़े होने पर क्रोधपूर्ण कठोर वचन कहते हुए स्वाभाविक बहुत गालियाँ बकते हैं।
माता की स्वाभाविक भाषा का प्रभाव भी गर्भस्थ शिशु पर अवश्य होता है। इसलिए योग्य होने पर वे बालक उसी भाषा को बिना पढ़ाये ही बोलने लगते हैं, जैसे अंग्रेजों के बालक अंग्रेजी भाषा को, हिन्दी के बालक हिन्दी भाषा को स्वाभाविक बोलते देखे जाते हैं, इसी प्रकार सभी भाषाओं के बालक अपनी-अपनी जन्म जात भाषाओं का प्रयोग करते हुए प्रत्यक्ष देखे जाते हैं अतएव इस जन्मजात भाषा को मातृभाषा कहते हैं कारण कि इस भाषा को माता ने गर्भ से ही सिखलाई है। इसको पितृभाषा नहीं कहते।
तीर्थंकरों की माता के सभी प्रकार के श्रेष्ठ संस्कार पूर्व जन्म से तथा तत्काल देवियों द्वारा सम्पन्न कराये जाते हैं इसलिये तीर्थंकर जैसे महापुण्यशाली व्यक्ति जन्म लेते हैं। जो गर्भ कल्याणक आदि से विश्व का कल्याण करते हैं। माताओं को वीरपुरुषों के प्रभाव का चित्र देखना जरूरी है, परन्तु टी.वी. सिनेमा आदि के गन्दे चित्र कभी नहीं देखना चाहिए, उन चित्रों का बालकों पर अनैतिक प्रभाव स्थिर होता है।
मानव का दूसरा गुरू पिताजी के रूप में विद्यमान है जो जन्मत: अपने मनसा, वाचा, कर्मणा आचरण से तथा षोडश संस्कारों से अपने पुत्र को सुसंस्कृत करते हैं। संस्कृत ग्रन्थों में प्रमाण है
"जन्मना जायते शूद्रः संस्कारैः द्विन उच्यये"। अर्थात्- विश्वरूप खानि में यह मानव अशुद्ध, अज्ञानी तथा आचार-विचारहीन उत्पन्न होता है, उसका कोई गौरव नहीं होता। परन्तु माता-पिता के शुद्ध आचरण से तथा गर्भाधान आदि षोडश संस्कारों से पवित्र ज्ञानी एवं शुद्ध आचार-विचारवान यह बालक सुसंस्कृत किया जाता है। उसका देश में तथा समाज में सम्मान होता है, जिस प्रकार कि मणि पृथिवी में तथा समुद्र में कालिमा सहित, कान्तिहीन, कुरुप उत्पन्न होता है परन्तु योग्य मशीनों के द्वारा वह मणि संस्कारित प्रभावयुक्त सुन्दर आकृति से सुशोभित होता है तब जौहरी द्वारा बाजार में उसका मूल्यांकन सही हो जाता है। विद्यारंभ संस्कार में कहा गया है- "प्राप्ते तु पंचमे वर्षे विद्यारम्भं-समाचरेत्" । अर्थात् पंचम वर्ष में बालक का विद्यारंभ संस्कार करना चाहिए जो कि प्रतिष्ठाचार्य द्वारा कराया जाता है । पश्चात् बालकेन्द्र में तथा गुरूकुल या विद्यालय में प्रवेश करा कर योग्य
-353
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org