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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ इस अवसर पर आदरणीय पंडित जी को हमारी विनम्र आदरांजलि समर्पित है :
कीर्ति तुम्हारी अमर रहे व जीवन ज्योतिर्मान । है विद्वान, तुम्हारी विद्वत्ता का हमको अधिमान ॥
अतिविशिष्ट साधना पुरूष का शतश: बंदन है। होम दिया जिसने समाज हित, तन-मन-धन जीवन है ।
ऐसे गुरु भाग्य से ही मिलते है
पं. नन्हें भाई शास्त्री, प्रतिष्ठाचार्य
वर्धमान कालोनी, केशवगंज, सागर (म.प्र.) धार्मिक दृष्टि से सर्वप्रथम पंच परमेष्ठी का ध्यान करते हुए व्यक्ति की अपनी दिनचर्या प्रारंभ होती है। तो लौकिक दृष्टि से सर्वप्रथम अपने माता पिता की विनय करने से उसकी दिनचर्या प्रारंभ होती है। लौकिक दृष्टि से सर्वमान्य पिता ही होता है । और गुरु पिता के समान नहीं वरन् हमारे पिता ही हैं क्योंकि नीतिकारों ने कहा है कि -
जनिता चोपनेता च, यस्तु विद्यां प्रयच्छति।
अन्नदाता भयत्राता, पंचैति पितरः स्मृतः ॥ अर्थात् उत्पन्न करने वाला, उपनयन संस्कार कराने वाला, विद्या प्रदान करने वाला, अन्न को देने वाला और भय से बचाने वाला ये पाँच प्रकार के पिता कहे जाते हैं।
धन्य है उन गुरुओं को जो अपने जीवन पर्यन्त की कमाई एवं अनुभव अपने शिष्यों को उदारता पूर्वक देते है। ऐसे ही हमारे गुरुवर थे, आदरणीय पं. दयाचंद्र जी साहित्याचार्य उनके पढ़ाने की शैली कुछ भिन्न थी जब तक कक्षा के पूर्ण विद्याथियों को पढ़ाया हुआ विषय कण्ठस्थ नहीं हो जाता था, तब तक विषय को आगे नहीं बढ़ाते थे और अनुशासन इतना कठोर था कि पंडित जी सा. का पीरियड आने के पहले ही सब विषय गौण करके सर्वप्रथम छात्र उनके ही विषय को याद करते थे।
लौकिक विषयों को पढ़ाने वाले शिक्षकों को जो पारिश्रमिक एवं अन्य सुविधाएँ प्राप्त होती है। वे सुविधाएँ धार्मिक एवं संस्कृत पढ़ाने वाले शिक्षकों को दुर्लभ होते हुए भी वे अपने कार्यो के प्रति सजग रहते है और पूर्ण ईमानदारी के साथ कार्य करते है।
मैंने 1964 में श्री गणेश दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय में कक्षा 6 वीं. में प्रवेश लिया था। उस
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