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________________ आगमं संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सल्लेखना के परिप्रेक्ष्य में भगवती आराधना में वर्णित ज्ञानी और अज्ञानी के तप का स्वरूप डॉ. नरेन्द्र कुमार जैन, गाजियाबाद (उ.प्र.) मृत्यु के समय या मृत्यु के समय तक जीव के ऐसे परिणाम हो जायें कि पुनः मृत्यु न हो अर्थात् निर्वाण मुक्ति की प्राप्ति हो या उसके समीप होने का मार्ग प्रशस्त हो, एतदर्थ भारतीय मनीषियों ने अपने विशाल ग्रंथों में प्रस्तुत विषय का प्रतिपादन किया। चिंतन की उस कड़ी में जैनाचार्यों का भी महत्वपूर्ण योगदान है। जैनधर्म की यह विशेषता है कि उसमें सल्लेखनापूर्वक मरण को जैन साधना का आवश्यक अंग माना गया है। शिवार्य द्वारा रचित 'भगवती आराधना' नामक ग्रन्थ का मुख्य विषय सल्लेखना -समाधि मरण ही है। ज्ञानी हो या अज्ञानी प्रत्येक जीव का मरण सुनिश्चित है । यदि ज्ञानी तपपूर्वक मरण करता है तब वह शरीर को कृश करते हुए संसार को भी कृश करता है और अज्ञानी तपपूर्वक मरण करता है तब वह केवल शरीर को ही कृश करता है । भगवती आराधना में वर्णित मरण समय धारण की जाने वाली सल्लेखना के परिप्रेक्ष्य में ज्ञानी और अज्ञानी के तप का स्वरूप एवं स्थिति आदि क्या है, यह प्रस्तुत आलेख का प्रतिपाद्य विषय है। ज्ञानी और अज्ञानी के तप के स्वरूप पर विचार करने से पूर्व यहाँ ज्ञानी और अज्ञानी को परिभाषित करना आवश्यक है, जिससे विषयवस्तु पर विचार करने में सरलता होने के साथ पाठकों को किसी प्रकार का भ्रम पैदा न हो। यह भी ज्ञात हो कि इन विषयों पर अध्यात्मदृष्टि, आगमिकदृष्टि एवं दार्शनिकदृष्टि से आचार्यों ने अपने मन्तव्य प्रकट किये हैं, परन्तु उनके दृष्टिकोण में कहीं भी विपरीतता नहीं है। अध्यात्मदृष्टि का सीधा सम्बंध शुद्धोपयोग रूप मोक्षमार्ग है, अन्य शुभोपयोग सहित बंधमार्ग हैं। आगमिकदृष्टि मोक्षमार्ग प्राप्ति के उपायरूप परम्परया शुभोपयोग चारित्र पर बल देती है। दार्शनिकदृष्टि प्रमाण एवं न्यायपूर्वक वस्तुतत्त्व की प्रमाणिकता सिद्ध करती हुई मोक्षमार्गोन्मुख करती है। इसलिए सापेक्ष एवं स्पष्ट दृष्टिकोण रखने पर कहीं भी विरोध दृष्टिगोचर नहीं होता। भगवती आराधना में भी प्रसंगानुसार उपर्युक्त सभी दृष्टियों का आश्रय लिया गया है। ज्ञानी और अज्ञानी - सामान्य रूप से यह कहा जाता है कि जो जानता है वह ज्ञानी और जो नहीं जानता है वह अज्ञानी। अज्ञान का यहाँ अर्थ ज्ञान का अभाव नहीं है । सामान्य ज्ञान की अपेक्षा सभी ज्ञानी हैं क्योंकि ज्ञान चैतन्य विशिष्ट जीव का विशेष गुण है । सम्यग्ज्ञान की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि ज्ञानी है और मिथ्याज्ञान की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि अज्ञानी हैं । स्व पर विवेक से रहित पदार्थज्ञान, अज्ञान है। सम्पूर्ण ज्ञान की अपेक्षा केवली, ज्ञानी हैं। अपूर्ण ज्ञान की अपेक्षा शेष छमस्थ अज्ञानी हैं। मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि के भेद से छमस्थ दो प्रकार के हैं। सम्यग्दृष्टि छदमस्थ के अंतर्गत सराग छमस्थ चतुर्थ से दशवें गुणस्थान तक तथा ग्यारहवें, 577 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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