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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अहिंसा (2) अहिंसा अणुव्रत (3) अहिंसा महाव्रत । जीवन में इस अहिंसा धर्म की साधना भी कक्षाओं की अपेक्षा और द्रव्य , क्षेत्र, काल, भाव (परिणाम) की अपेक्षा से होती है। बिना अपेक्षा के अहिंसा के स्थान पर हिंसा का दुष्परिणाम भोगना पड़ता है। __ अहिंसा विश्वशान्ति करने में, जीवन में संरक्षण में और जन्ममरण आदि दुःखों के निवारण करने में माता के समान है। अहिंसा न केवल शास्त्रों में और शब्दों में कथित है, अपितु जीवन में आचरण करने के लिये मानसिक अहिंसा, वाचनिक, अहिंसा एवं शारीरिक अहिंसा अपना प्रमुख स्थान रखती है। यही जीवन का परम लक्ष्य होना आवश्यक है। अहिंसा के विषय में धर्मग्रन्थों की घोषणा है : अहिंसा परमो धर्म: तथा हिंसा परो दम: । अहिंसा परमंदानं, अहिंसा परमं तपः ॥ तात्पर्य - प्राणियों का रक्षक, होने से अहिंसा परम धर्म है। पंच इन्द्रियों एवं मन का वशीकरण करना अहिंसा है। श्रेष्ठ दान करना या परोपकार करना अहिंसा है । इच्छाओं का निरोधकर परम संयम का पालन करना अहिंसा है। आहेसासे कर्त्तव्य में सफलता प्राप्त होती है। उपसंहार - जैनदर्शन एक विश्वदर्शन है कारण कि वह मोह राग द्वेष आदि दुर्गुणों के विजेता जिनदेव के द्वारा प्रणीत है, वह किसी वर्ग विशेष का धर्म नहीं है। जैनदर्शन के अनेक सिद्धांतों में अनेकान्तवाद स्याद्वाद एक अद्वितीय सिद्धांत है । पदार्थ के समस्त गुणों को जानने के लिये अनेकान्तवाद का और उन गुणों को क्रमश:कहने के लिये स्यावाद का उदय हुआ है । एक पदार्थ में परस्पर विरोधी दो धर्मो की सत्ता होना अथवा अनन्त धर्मो की सत्ता का निर्देशक अनेकान्तवाद है और उन धर्मों की अपेक्षाकृत कथन की शैली स्यावाद है ।अनेकान्तवाद और स्याद्वाद में वाच्यवाचक आदि सम्बंधों की अपेक्षा अंतर है,सामान्य से नहीं है । अनेकांतवाद के सप्तभंग प्रश्न की अपेक्षा से होते है । स्याद्वाद में स्यात् पद अर्थ अपेक्षा या दृष्टिकोण है । अनेकान्तवाद से विविध दर्शनों या विचारों में समन्वय होता है । अनेकान्तवाद को आधुनिक वैज्ञानिक भी सिद्ध करते है। लोक व्यवहार के समस्त कार्य अनेकान्तवाद से सफल एवं आनंदप्रद होते है । अहिंसा की कक्षाओं की साधना द्रव्यादिचतुष्टय की अपेक्षा होती है। अंत में अहिंसा की परिभाषा एवं जीवन में उसकी उपयोगिता अपेक्षाकृत सिद्ध की गई है। इमां समक्ष प्रतिपक्षसाक्षिणां, उदारघोषां अवघोषणां त्रुवे । न वीतरागात्परमस्तिदैवतं, न चाप्यनेकान्तमृते नयस्थिति : ॥ (हेमचंद्राचार्य : स्यामंजरी भूमिकापृ. 17) श्री हेमचंद्राचार्य घोषणा करते है कि वीतरागी के समान कोई देव नहीं और अनेकान्त के समान कोई न्याय मार्ग नहीं है। (249) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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