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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अवधिज्ञान तथा मन:पर्ययज्ञान ये दो देश प्रत्यक्ष हैं तथा एक मात्र केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। वस्तुत: जैन दर्शनानुसार ज्ञान जीव से भिन्न नहीं है । जीव चैतन्य स्वरूप है चेतना ज्ञान दर्शन स्वरूप है। उस चैतन्य रूप आत्मा में सब पदार्थो को प्रत्यक्ष अर्थात् इन्द्रियादि की सहायता के बिना ही जानने देखने की शक्ति सदा काल है। किन्तु अनादिकाल से ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्मो के निमित्त से वह शक्ति व्यक्त नहीं हो पाती। इनके क्षयोपशम से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान सभी जीवों के अपनी - अपनी योग्यतानुसार होते है। विशेष योग्यता से अवधिज्ञान और मन: पर्ययज्ञान भी संभव है। वस्तुत: ये सब ज्ञान भी केवलज्ञान के ही अंश हैं। क्योंकि ज्ञानगुण तो एक ही है, वही आवरण के कारण अनेक रूप होता है । पूर्ण आवरण हटने पर एक केवलज्ञान के रूप में प्रकाशमान होता है। आ. वीरसेन स्वामी ने भी कसाय पाहुड की जय धवला टीका के प्रारंभ में मतिज्ञान आदि को केवल ज्ञान का अंश माना है।
जीव में एक साथ पाँच ज्ञान सम्भव नहीं है। अपितु एक साथ एक आत्मा में एक से लेकर चार ज्ञान तक ही हो सकते है जीव को एक ज्ञान होगा तो मात्र केवल ज्ञान' ही रहता है क्योंकि वह निरावरण और क्षायिक है। इसके साथ अन्य चार सावरण और क्षायोपशिक ज्ञान नहीं रहते । दो हो तो मति और श्रुतज्ञान, तीन हो तो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान या मन: पर्ययज्ञान तथा चार हो तो मति, श्रुत, अवधि और मन: पर्ययज्ञान सम्भव है। इसलिए पाँचों ज्ञान एक साथ नहीं रह सकते । आ. उमास्वामी ने भी तत्त्वार्थसूत्र (1/30) में कहा भी है - एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्थ्य: अर्थात् एक जीव में एक साथ एक को आदि लेकर चार ज्ञान तक हो सकते है । पाँच ज्ञान एक साथ किसी भी जीव में संभव ही नहीं है ज्ञान के पूर्वोक्त पाँच भेदों में क्रमशः प्रत्येक का स्वरूप इस प्रकार है - 1. मतिज्ञान - ज्ञान के पाँच भेदों में प्रथम मतिज्ञान है जो "तदिन्द्रियाऽनिन्द्रिय निमित्तम्" अर्थात् इन्द्रिय और मन की सहायता से पदार्थों को जानता है वह मतिज्ञान है । दर्शनपूर्वक अवग्रह ईहा अवाय और धारणा के क्रम से मतिज्ञान होता है। इसे अभिनिबोधिक ज्ञान भी कहा जाता है । वस्तुत: मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशय से होने वाली मति, स्मृति, संज्ञा, चिंता और अभिनिबोध आदि मतिज्ञान की अवस्थाओं का अनेक रूप से विवेचन मिलता है, जो मतिज्ञान के विविध आकार और प्रकारों का निर्देश मात्र है। यह निर्देश भी तत्त्वाधिगम के उपयोगों के रूप में है । इसीलिए तत्त्वार्थ सूत्रकार ने कहा "मतिः स्मृति: संज्ञा चिंताऽभिनिबोध इत्यनन्तरम् (1/13)"
सर्वार्थसिद्धिकार आ. पूज्यपाद ने कहा कि मति, स्मृति, संज्ञा, चिंता और अभिनिबोध ये मतिज्ञान के ही नामांतर इसलिए है क्योंकि ये मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम रूप अंतरंग निमित्त से उत्पन्न हुए उपयोग को विषय करते हैं तथा मननंमति, स्मरणं स्मृति: संज्ञानं संज्ञा, चिन्तनं चिन्ता, अभिनिबोधनं अभिनिबोध: - इस प्रकार की व्युत्पत्ति की है । तद्नुसार अतीत अर्थ के स्मरण करने या पहले अनुभव की हुई वस्तु का स्मरण “स्मृति" है। पहले अनुभव की हुई और वर्तमान में अनुभव की जाने वाली वस्तु की एकता
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