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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ “स्वाध्याय एव तपः" की बात पूर्व से ही हमारे आगम आचार्य भव्यों को सम्बोधते आये हैं। स्वाध्याय का संस्कार केवलज्ञान होने तक सहकारी होता है। लोक में जीव के आत्महित में यह सर्वोपरि है। द्रव्यसंग्रह ग्रंथ की टीका में पृष्ठ 159/160 पर लिखा है कि सम्यकदृष्टि शुद्धात्म भावना भाने में असमर्थ होता है ।तब वह परम भक्ति करता है पश्चात् विदेहों में जाकर समवशरण को देखता है। पूर्व जन्म में भावित विशिष्ट भेदज्ञान के संस्कार के बल से मोह नहीं करता और दीक्षा धारण कर मोक्ष पाता है ।जैनागम ग्रंथों में वर्णित इन प्रसंगों से स्पष्ट है कि मनुष्य भव के सम्यक् संस्कार एवं स्वाध्याय उसे मोक्ष तक पहुँचने में पूर्ण सहकारी है। यह कथन जीव द्रव्य के संस्कारों का है। प्रतिमा प्रतिष्ठा निर्देश -
पंच संग्रह ग्रन्थ में धरणी, धारणा, स्थापना, कोष्ठा, प्रतिष्ठा, इन सभी को एकार्थ वाची कहा गया है जिनमें विनाश बिना पदार्थ प्रतिष्ठित रहते हैं वह बुद्धि प्रतिष्ठा है।
प्रतिमा प्रतिष्ठा का विधान सर्वप्रथम आचार्य नेमिचंद्र देव ने अपने प्रतिष्ठातिलक नाम ग्रंथ में किया है। आचार्य नेमिचंद्र देव के गुरु आचार्य अभयचंद्र और आचार्य विजय कीर्ति थे इनके प्रतिष्ठातिलक ग्रन्थ का प्रचार दक्षिण भारत में व्यापकता के साथ है। यह ग्रंथ विक्रमसंवत् 950 से 1020 के मध्य रचा गया है। विक्रम संवत् दश में ही आचार्य नेमिचंद्र देव के शिष्य आचार्य वसुनन्दि हुए इन्होंने प्राकृत भाषा में उपासकाध्ययन श्रावकाचार नाम ग्रन्थ की रचना की, उसी के अंतर्गत प्रतिष्ठा विधान का वर्णन संक्षिप्त रूप से संस्कृत भाषा में किया जो महत्वपूर्ण है। पश्चात् आचार्य श्री इन्द्रनन्दि महाराज ने विक्रमसंवत् 10/11 वीं शताब्दी में अपने प्रतिष्ठा ग्रन्थ में प्रतिमा प्रतिष्ठा, वेदी प्रतिष्ठा और शद्धि विधान का वर्णन किया है। लगभग इसी समय संवत् 1042-1053 में आचार्य श्री वसुविन्दु अपरनाम जयसेनाचार्य जी ने एक स्वतंत्र प्रतिष्ठा ग्रन्थ की रचना की, जिसमें 926 श्लोक हैं । प्रतिमा प्रतिष्ठा का यह प्रमाणिक ग्रन्थ माना जाता है ।श्री जयसेन स्वामी भगवत कुन्दकुन्दाचार्य के शिष्य थे। कहा जाता है कि इस प्रतिष्ठा ग्रन्थ की रचना मात्र दो दिन में ही की थी। इस प्रतिष्ठा ग्रन्थ का प्रचार उत्तर भारत में है । विक्रम संवत् 1292-1333 के मध्य आचार्य ब्रह्मदेव हुए इन्होंने प्रतिष्ठा तिलक नामक ग्रन्थ की रचना की जो शुद्ध संस्कृत भाषा में है। और प्रतिमा प्रतिष्ठा का एक विशिष्ट हृदयग्राही वर्णन इसमें लिखा है। इसी समय वि.सं. 1173-1243 में आचार्य कल्प पं. आशाधर जी प्रणीत प्रतिष्ठा सारोद्धार ग्रन्थ प्रकाश में आया । समय और काल की परिस्थिति के अनुसार इस प्रतिष्ठा ग्रन्थ में अनेक देवी देवताओं की उपासना का प्रसंग आया है। इसी समय वि.सं. 1200 में नरेन्द्र सेनाचार्य हुए इन्होंने “प्रतिष्ठा दीपक " नामक ग्रन्थ की रचना की यह जयसेन आचार्य के वंशज थे। प्रस्तुत ग्रंथ में 350 श्लोक हैं। मूर्ति मंदिर निर्माण में तिथि नक्षत्र योग आदि का अच्छा वर्णन किया है। ग्रन्थ में स्थाप्यः, स्थापक
और स्थापना का वर्णन है ।इसके अलावा आचार्य हस्तिमल्ल जी द्वारा रचित जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदय, वि.सं. 1376 आचार्य माघनंदि कृत प्रतिष्ठाकल्प, आचार्य कुमुदचंन्द्राचार्य द्वारा प्रणीत जिनसंहिता, वि.सं. 1292/ 1333 में आचार्य ब्रह्मदेव रचित प्रतिष्ठा सारोद्धार, आचार्य अकलंक भट्टारक के प्रतिष्ठा कल्प ग्रंथ एवं
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