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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ तीर्थंकर महावीर : जीवन और दर्शन
- मुनि समतासागर जिन शासन के प्रवर्तक चौबीस तीर्थंकर हुए हैं, जिसमें प्रथम आदिनाथ और अंतिम महावीर स्वामी है। सामान्यतया लोगों को यही जानकारी है कि जैन धर्म के संस्थापक भगवान महावीर हैं किन्तु तथ्य यह है कि वह संस्थापक नहीं प्रवर्तक है। तीर्थंकर उन्हें ही कहा जाता है जो धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक होते हैं। युग के आदि में हुए आदिनाथ जिनका एक नाम ऋषभनाथ भी था, ने धर्म तीर्थ का प्रवर्तन किया तत्पश्चात् अजितनाथ से लेकर महावीर पर्यन्त तीर्थ प्रवर्तन की यह परम्परा अक्षुण्ण रूप से चली आई।
भगवान महावीर स्वामी का जन्म ईसा पूर्व 568 में विदेह देश स्थित (वर्तमान बिहार राज्य) वैशाली प्रांत के कुण्डपुर नगर में चैत्र सुदी त्रयोदशी 27 मार्च, सोमवार को हुआ। उत्तरा फाल्गुनी शुभ नक्षत्र में चन्द्र की स्थिति होने पर के शुभ योग में निशा के अंतिम प्रहर में उन्होंने जन्म लिया। धरती पर जब भी किसी महापुरुष का जन्म होता है तो वसुधा धन - धान्य से आपूरित हो जाती है। प्रकृति और प्राणियों में सुख शांति का संचार हो जाता है। सब तरफ आनंद का वातावरण छा जाता है सो महावीर के जन्म के समय भी ऐसा ही हुआ। जिस कुण्डपुर नगर में महावीर का जन्म हुआ था वह प्राचीन भारत के ब्रात्य क्षत्रियों के प्रसिद्ध वज्जिसंघ के वैशाली गणतंत्र के अंतर्गत था । महावीर के पिता सिद्धार्थ वहाँ के प्रधान थे। वे ज्ञातृवंशीय काश्यप गोत्रीय थे तथा माता त्रिशला उक्त वज्जिसंघ के अध्यक्ष लिच्छिविनरेश चेटक की पुत्री थी। इन्हें प्रियकारिणी देवी के नाम से भी संबोधित किया जाता था । जीवन की विभिन्न घटनाओं को लेकर वीर, अतिवीर, सन्मति, महावीर और वर्द्धमान ये पाँच नाम महावीर के थे। वर्द्धमान उनके बचपन का नाम था। कुण्डपुर का सारा वैभव राजकुमार वर्द्धमान की सेवा में समर्पित था। अपने माता पिता के इकलौते लाड़ले राजकुमार को सुख - सुविधाओं में किसी भी तरह की कमी नहीं थी किन्तु उनकी वैरागी विचारधारा को वहाँ का कोई भी आकर्षण बांध नहीं पाया और यही कारण है कि विवाह के आने वाले समस्त प्रस्तावों को ठुकराते हुए वह 30 वर्ष की भरी जवानी में जगत और जीवन के रहस्य को जानकर साधना - पथ पर चलने के लिए संकल्पित हो गए। शाश्वत सत्य की सत्ता का साक्षात्कार करने निर्ग्रन्थ दैगम्बरी दीक्षा धारण कर उन्होंने कठिन तपश्चरण प्रारंभ कर दिया। उनकी आत्म - अनुभूति और परम वीतरागता से कर्मपटल छटते गये और एक दिन वे लोकालोक को जानने वाले सर्वज्ञ अर्हन्त पद को प्राप्त हुए। इस बोधिज्ञान (केवलज्ञान) को उन्होंने जृम्भिका ग्राम के निकट ऋजुकूला नदी के किनारे शाल्मलि वृक्ष के नीचे स्वच्छ शिला पर ध्यानस्थ हो प्राप्त किया था। तदुपरांत राजगृह नगर के विपुलाचल पर्वत पर धर्मसभा रूप समवशरण में विराजमान भगवान का प्रथम धर्मोपदेश हुआ। मुनि आर्यिका, श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध संघ के नायक बन लगातार 30 वर्ष तक सर्वत्र विहार कर वह अपने अहिंसा, अनेकान्त, अपरिग्रह और अकर्त्तावाद आदि सिद्धांतों का प्रतिपादन करते रहे। 72 वर्ष की आयु में पावापुर (बिहार) में कार्तिक वदी अमावस्या की प्रत्यूष वेला में ईसा पूर्व 527 (15 अक्टूबर, मंगलवार) को उन्हें परम निर्वाण प्राप्त हुआ। महावीर के निर्वाण के संबंध में कहा गया है कि एक ज्योति उठी किन्तु कई - कई ज्योतियों ने जन्म ले लिया। एक दीये की
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