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पिण्डनिर्युक्ति
खण्ड-४
वाचना प्रमुख गणाधिपति तुलसी
अनुवादक मुनि दुलहराज
प्रधान सम्पादक आचार्य महाप्रज्ञ
सम्पादिका
समणी कुसुमप्रज्ञा
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आगमों का प्रथम व्याख्या - साहित्य निर्युक्ति है। संक्षिप्त शैली में पद्यबद्ध लिखा गया यह साहित्य भारतीय प्राचीन वाङ्मय की अमूल्य धरोहर है। इसमें आचार्य भद्रबाहु ने आगम-ग्रंथ में आए विशेष शब्दों की निक्षेप परक व्याख्या प्रस्तुत की है। यह व्याख्या आज अर्थ-विकास विज्ञान की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
निर्युक्ति-साहित्य के अन्तर्गत पिण्ड-निर्युक्ति चरणकरणानुयोग से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। क्रमबद्ध और विषयप्रतिबद्ध शैली में लिखा गया यह ग्रंथ साधु को भिक्षाचार्य से सम्बन्धित अनेक विषयों को अपने भीतर समेटे हुए है । आचार - विषयक ग्रंथ होने के कारण कुछ परम्पराओं में यह मूल सूत्र के रूप में परिगणित है। प्रस्तुत ग्रंथ में उद्गम, उत्पादना, एषणा और परिभोगैषणा के दोषों का विस्तार से सांगोपांग वर्णन हुआ है। तत्कालीन सभ्यता और संस्कृति की दृष्टि से भी यह ग्रंथ अत्यन्त समृद्ध है । निर्युक्ति-साहित्य की शृंखला में यह चौथा पुष्प भी विद्वद् जगत् में प्रतिष्ठित एवं लोकप्रिय होगा, ऐसा विश्वास है ।
www.lainelibrary.org
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आचार्य भद्रबाहु कृत
पिण्डनियुक्ति
[ मूलपाठ, पाठान्तर, पादटिप्पण, अनुवाद, भूमिका तथा अनेक परिशिष्टों से समलंकृत]
(खण्ड-४)
वाचनाप्रमुख आचार्य तुलसी
प्रधान संपादक आचार्य महाप्रज्ञ
अनुवादक मुनि दुलहराज
संपादिका समणी कुसुमप्रज्ञा
जैन विश्वभारती, लाडनूं-३४१३०६
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प्रकाशक: जैन विश्व भारती, लाडनूं ३४१३०६ (राजस्थान)
© जैन विश्व भारती, लाडनूं
IS B N-81-7195-135-X
सौजन्य :- लक्ष्मीचंद सेठिया चेरिटेबल ट्रस्ट
२३/२४, राधा बाजार स्ट्रीट, कोलकाता-७००००१
प्रथम संस्करण : २००८
पृष्ठ :- ५२०
मूल्य :- ३५० रुपये
मुद्रक : कला भारती
नवीन शाहदरा, दिल्ली-32
For Private & Personal use only
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PIŅDANIRYUKTI
S Original text, varaint readings, critical notes, 2 Z translation, preface and various appendices
Synod Chief ĀCĀRYA TULSI
Chief Editor ĀCĀRYA MAHĀPRAJÑA
Translator MUNI DULAHARAJ
Editor SAMAŅi KUSUMPRAÑA
JAIN VISHVA BHARATI
Ladnun - 341 306 (Raj.)
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Publisher :
Jain Vishva Bharati Ladnun - 341 306 (Raj.)
© Jain Vishva Bharati, Ladnun
ISBN-81-7195-135-X
Courtsey:
Lakshmichanda Sethiya Charitable Trust 23/24, Radha Bazar Street, Kolkatta - 700 001
First Edition : 2008
Pages : 520
Price: Rs. 350/
Printed By: Kala Bharati
Naveen Shahdara, Delhi - 110 032
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समर्पण
पुट्ठो वि पण्णापुरिसो सुदक्खो, आणापहाणो जणि जस्स निच्चं । सच्चप्पओगे पवरासयस्स, भिक्खुस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ॥
जिसका प्रज्ञापुरुष पुष्ट पटु, होकर भी आगमप्रधान था। सत्ययोग में प्रवर चित्त था, उसी भिक्षु को विमल भाव से॥
विलोडियं आगमदुद्धमेव, लद्धं सुलद्धं णवणीयमच्छं। सज्झाय-सज्झाणरयस्स निच्चं, जयस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं॥
जिसने आगम दोहन कर-कर, पाया प्रवर प्रचुर नवनीत। श्रुत सद्ध्यान लीन चिर चिन्तन, जयाचार्य को विमल भाव से॥
पवाहिया जेण सुयस्स धारा, गणे समत्थे मम माणसे वि। जो हेउभूओ स्स पवायणस्स, कालुस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ॥
जिसने श्रुत की धार बहाई, सकल संघ में, मेरे मन में। हेतुभूत श्रुत-सम्पादन में, कालुगणी को विमल भाव से॥
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अंतस्तोष
अंतस्तोष अनिर्वचनीय होता है उस माली का, जो अपने हाथों से उप्त और सिंचित द्रुमनिकुंज को पल्लवित-पुष्पित और फलित हुआ देखता है, उस कलाकार का, जो अपनी तूलिका से निराकार को साकार हुआ देखता है और उस कल्पनाकार का, जो अपनी कल्पना को अपने प्रयत्नों से प्राणवान् बना देखता है। चिरकाल से मेरा मन इस कल्पना से भरा था कि जैन आगमों का शोधपूर्ण सम्पादन हो और मेरे जीवन के बहुश्रमी क्षण उसमें लगें। संकल्प फलवान् बना और वैसा ही हुआ। मुझे केन्द्र मान मेरा धर्मपरिवार इस कार्य में संलग्न हो गया अत: मेरे इस अंतस्तोष में मैं उन सबको समभागी बनाना चाहता हूं, जो इस प्रवृत्ति में संविभागी रहे हैं।
___संविभाग हमारा धर्म है। जिन-जिन ने इस गुरुतर प्रवृत्ति में उन्मुक्त भाव से अपना संविभाग समर्पित किया है, उन सबको मैं आशीर्वाद देता हूं और कामना करता हूं कि उनका भविष्य इस महान् कार्य का भविष्य बने।
गणाधिपति तुलसी आचार्य महाप्रज्ञ
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संदेश
पिंडनियुक्ति मुनि- - आचार का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इसे दशवैकालिक के पांचवें अध्ययन का पूरक ग्रंथ कहा जा सकता है। मुनि की आहार - विधि और आहार-शुद्धि के विषय में अनेक विषय ज्ञातव्य हैं, नियुक्तिकार ने उनका सम्यक् नियोजन किया है।
मुनि दुलहराजजी आगम और आगम के व्याख्या - साहित्य के क्षेत्र में समर्पित भाव से कार्य करते रहे हैं। उनके द्वारा किया गया प्रस्तुत ग्रंथ का अनुवाद पाठक के लिए बहुत उपयोगी होगा। इसके सम्पादन- कार्य में समणी कुसुमप्रज्ञा के श्रम की कुछ रेखाओं का अंकन हुआ है। साधु-साध्वियों के लिए यह ग्रंथ पठनीय और मननीय है। मुनि की आहार चर्या और विहार चर्या के जिज्ञासु पाठकों के लिए भी यह बहुत मूल्यवान् ग्रंथ है ।
कोशीथल (राज.) ७ जनवरी २००८
आचार्य महाप्रज्ञ
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प्रकाशकीय
प्राचीन भारतीय वाड्मय में जैन आगमों का महत्त्वपूर्ण स्थान है । इतिहास, दर्शन, समाज, संस्कृति, आयुर्वेद, भूगोल और ज्योतिष से सम्बन्धित अनेक नए तथ्य इस साहित्य में विकीर्ण रूप से बिखरे पड़े हैं। आगम-साहित्य के गूढ़ रहस्यों को प्रकट करने के लिए प्रथम व्याख्या - साहित्य लिखा गया, जिसका नाम निर्युक्ति रखा गया। संक्षिप्त शैली में निक्षेप पद्धति से शब्द की या विषय की व्याख्या करने वाला यह साहित्य अनेक नए तथ्यों को अपने भीतर समेटे हुए है ।
1
आचार्य तुलसी की जागृत प्रज्ञा ने आगमों के सुव्यवस्थित सम्पादन का सपना संजोया । उनकी प्रेरणा से अंतेवासी शिष्य मुनि नथमलजी (वर्तमान आचार्य महाप्रज्ञ) समेत अनेक प्रबुद्ध संत इस महायज्ञ के साथ जुड़े और धीरे-धीरे लगभग १ लाख पृष्ठ के आस-पास आगम - साहित्य सम्पादित होकर प्रकाश
आ गया, जिसमें आगमों का मूलपाठ, भाष्य, अनुवाद और कोश- साहित्य भी सम्मिलित है । जैन विश्व भारती को इस महनीय कार्य के प्रकाशन का पुनीत अवसर मिला, इसके लिए यह पूज्यवरों के प्रति हृदय कृतज्ञ है।
आज के सुविधावादी युग में हस्तप्रतियों से प्राचीन ग्रंथों के सम्पादन का दुरूह कार्य अपना विशेष महत्त्व रखता है। जैन विश्व भारती द्वारा नियुक्ति - साहित्य के दो खण्ड पहले प्रकाश में आ चुके हैं। आवश्यक निर्युक्ति से सम्बन्धित दूसरा खण्ड प्रकाश्यमान है, उससे पूर्व पिण्डनिर्युक्ति नामक चौथा खण्ड विद्वानों के हाथ में पहुंच रहा है। प्रस्तुत पिण्डनिर्युक्ति ग्रंथ साधु की आहारचर्या एवं भिक्षाचर्या के दोषों से सम्बन्धित है। इस ग्रंथ में प्रसंगवश अनेक महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक एवं सामाजिक पहलू भी उजागर हुए हैं। इस ग्रंथ के सम्पादन का महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि एक ही भाषा-शैली में लिखे गए दो ग्रंथ निर्युक्ति और भाष्य को पृथक् करने का प्रयत्न किया गया है। इस ग्रंथ को जनभोग्य बनाने के लिए अनुवाद कार्य आगम मनीषी मुनि श्री दुलहराजजी ने किया है। इससे पूर्व भी मुनि श्री अनेक बृहत्काय ग्रंथों का अनुवाद कर चुके हैं। वर्तमान में भी वे स्थिरयोगी की भांति श्रुत की उपासना में अहर्निश संलग्न हैं । शारीरिक अस्वास्थ्य की स्थिति में भी उनका स्थिरयोग उन्हें आगमकार्य में दत्तचित्त बनाए रखता है ।
समणी कुसुमप्रज्ञाजी पिछले २८ सालों से आगम-व्याख्या साहित्य के सम्पादन कार्य में संलग्न हैं। ऐसे कार्य सूक्ष्म मनीषा, दृढ़ अध्यवसाय, सघन एकाग्रता और स्फुरित प्राणऊर्जा के बिना असंभव है। समणी कुसुमप्रज्ञाजी ने लगभग ६ हस्तप्रतियों से पाठान्तर ही नहीं दिए अपितु अनके महत्त्वपूर्ण पादटिप्पण भी लिखे हैं । ग्रंथ में समाविष्ट २१ परिशिष्ट इसकी महत्ता को उजागर करने वाले हैं।
जैन विश्व भारती इस महत्त्वपूर्ण ग्रंथ को प्रकाशित करते हुए अत्यन्त हर्ष का अनुभव कर रही है। इस गुरुतर कार्य हेतु मैं मुनिश्री एवं समणीजी को बधाई देते हुए यह मंगल कामना करता हूं कि भविष्य में भी जिनशासन की प्रभावना हेतु उनकी श्रुतयात्रा अनवरत चलती रहे और जैन विश्व भारती जन-जन तक आर्षवाणी को पहुंचाती रहे। संस्था परिवार को आशा है कि पूर्व प्रकाशनों की तरह यह प्रकाशन भी विद्वानों की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा ।
सुरेन्द्र चोरड़िया
अध्यक्ष
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ग्रंथानुक्रम
१-१५८ ३-१० ११-९७ ९८-१०६ १०९-२०३ २०५ २०७ २१५ २२८ २६६ २७३
२८१
२८३
पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण पिण्डनियुक्ति विषय-सूची पिण्डनियुक्ति मूलपाठ पिण्डनियुक्ति भाष्य पिण्डनियुक्ति अनुवाद परिशिष्ट
• गाथाओं का समीकरण • पदानुक्रम •कथाएं • आयुर्वेद एवं आरोग्य • तुलनात्मक संदर्भ • एकार्थक • निरुक्त • प्रयुक्त देशी शब्द • सूक्त-सुभाषित • उपमा और दृष्टान्त • निक्षिप्त शब्द • लोकोक्तियां एवं न्याय • परिभाषाएं • दो शब्दों का अर्थभेद • मलयगिरि वृत्ति की उद्धृत गाथाएं • विशेषनामानुक्रम • टीका के अन्तर्गत विशेषनामानुक्रम • विषयानुक्रम • शब्दार्थ • संकेत ग्रंथ सूची • प्रयुक्त ग्रंथ सूची
२८५
२९३ २९४ २९५ २९६ २९७ ३०२ ३०४ ३०६ ३१२ ३१५ ३१६ ३४६ ३४७
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
به
لسة
नियुक्ति का स्वरूप नियुक्ति का प्रयोजन नियुक्तियों की संख्या नियुक्ति-रचना का क्रम आचार्य गोविंद एवं उनकी नियुक्ति पिण्डनियुक्ति का कर्तृत्व एवं रचनाकाल पिण्डनियुक्ति का स्वतंत्र अस्तित्व नियुक्ति और भाष्य का पृथक्करण : एक विमर्श पिण्डनियुक्ति की विषयवस्तु एवं वैशिष्ट्य
• भाषा-शैली
• कथाओं का प्रयोग पिण्डनियुक्ति का व्याख्या-साहित्य
• मूलटीका एवं वृद्धव्याख्या। • पिण्डनियुक्ति भाष्य। • मलयगिरीया टीका। • पिण्डनियुक्ति अवचूरि। • वीराचार्य कृत टीका।
• माणिक्यशेखर कृत दीपिका। पिण्डनियुक्ति पर पूर्ववर्ती ग्रंथों का प्रभाव पिण्डनियुक्ति का परवर्ती __ अन्य ग्रंथों पर प्रभाव स्थावरकायों की सचित्तता-अचित्तता : एक विमर्श • पृथ्वीकाय। • अप्काय। • तेजस्काय। • वायुकाया
• वनस्पतिकाय। भिक्षाचर्या भिक्षावृत्ति एवं भीख में अंतर मुनि के लिए भिक्षा कितनी बार
५ एषणा एवं उसके दोष ६ उद्गम दोष
• अविशोधि एवं विशोधि कोटि। १० आधाकर्म
• आधाकर्म के द्वार। • आधाकर्म के नाम। • आधाकर्म के एकार्थक।
* अध:कर्म। * आत्मघ्न।
* आत्मकर्म। • किसके लिए निर्मित आहार आधाकर्म। ५५ • आधाकर्म क्या है? • स्वपक्ष और परपक्ष। • आधाकर्म ग्रहण की भूमिकाएं। • आधाकर्म ग्रहण के दोष। • कल्पत्रय से आधाकर्म की शुद्धि। ६० • आधाकर्म का परिहार। • तीर्थंकरों के काल में
आधाकर्म ग्रहण का नियम।
• आधाकर्म ग्रहण के अपवाद। औद्देशिक
• ओघ औद्देशिका • ओघ औद्देशिक जानने की विधि। • विभाग औद्देशिका
* उद्दिष्ट * कृत
* कर्म पूतिकर्म दोष
• उपकरणपूति। • आहारपूति। • भक्तपानपूति। • सूक्ष्मपूति।
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६९
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२
ޑް ޓް 9 8
मिश्रजात
यावदर्थिकमिश्र। • पाखण्डिमिश्र।
• साधुमिश्र। स्थापना दोष प्राभृतिका दोष
• बादर अवष्वष्कण प्राभूतिका। • सूक्ष्म अवष्वष्कण प्राभृतिका। • बादर उत्ष्वष्कण प्राभृतिका। • सूक्ष्म उत्ष्वष्कण प्राभृतिका। • बादर प्राभृतिका।
• सूक्ष्म प्राभृतिका। प्रादुष्करण दोष
प्रकटकरण।
• प्रकाशकरण। . क्रीतकृत दोष
• आत्मद्रव्यक्रीत। • आत्मभावक्रीत। • परद्रव्यक्रीत।
• परभावक्रीत। प्रामित्य (अपमित्य) दोष
• लौकिक प्रामित्य।
• लोकोत्तर प्रामित्य। परिवर्तित दोष अभ्याहृत दोष . • निशीथ स्वग्राम अभ्याहृत।
• नोनिशीथ स्वग्राम अभ्याहृत। •निशीथ परग्राम अभ्याहृत।
• आचीर्ण स्वग्राम अभ्याहृत। उभिन्न दोष मालापहृत दोष आच्छेद्य दोष
• प्रभुविषयक • स्वामिविषयक
पिंडनियुक्ति • स्तेनविषयक ७० अनिसृष्ट दोष
• साधारण अनिसृष्ट। • चोल्लक अनिसृष्ट।
* स्वामी विषयक।
__ * हस्ती विषयक। ७२ अध्यवपूरक-दोष ७२ आगम-साहित्य में प्राप्त उद्गम-दोष ७३ उत्पादना से सम्बन्धित दोष ७३ धात्री-दोष ७३ दूती-दोष ७३ निमित्त-दोष ७४ आजीवना-दोष
• जाति-आजीवना।
कुल-आजीवना। • कर्म और शिल्प-आजीवना।
• गण-आजीवना। ७६ वनीपक-दोष ७६ चिकित्सा-दोष
क्रोधपिण्ड ७७ मानपिण्ड ७७ मायापिण्ड ७७ लोभपिण्ड ७८ संस्तव दोष
संस्तव। • पश्चाद्वचन संस्तव। • पूर्वसम्बन्धी संस्तव।
• पश्चात्सम्बन्धी संस्तव। ८१ विद्यापिण्ड दोष ८१ मंत्रपिण्ड दोष ८२ चूर्णपिण्ड दोष
१०१ ८४ योगपिण्ड दोष
१०१ ८४ मूलकर्म दोष
१०१ ८४ ग्रहणैषणा के दोष
१०३
१००
१००
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
१४२
or
शंकित दोष प्रक्षित दोष
• सचित्त पृथ्वीकाय म्रक्षित। • अप्काय म्रक्षित। • वनस्पतिकाय म्रक्षित।
• अचित्त म्रक्षित। निक्षिप्त दोष पिहित दोष संहत दोष दायक दोष उन्मिश्रदोष अपरिणत दोष
• द्रव्य विषयक अपरिणत ।
• भाव विषयक अपरिणत । लिप्त दोष छर्दित दोष परिभोगैषणा : आहार-मंडली परिभोग की विधि परिभोगैषणा या मांडलिक दोष
• संयोजना दोष। •प्रमाणातिरेक दोष।
★ प्रकाम आहार। *निकाम आहार। ★ प्रणीत आहार। * अतिबहुक आहार।
* अतिबहुशः आहार। • स-अंगार दोष • स-धूम दोष। • कारण दोष।
• आहार न करने के हेतु परिभोगैषणा के अन्य दोष भिक्षाचर्या के नियमों में परिवर्तन भिक्षा के समय शारीरिक
और मानसिक स्थिति भिक्षाचर्या के दोष सम्बन्धी प्रायश्चित्त
१०४ भिक्षाचर्या के अन्य दोष
१३७ १०४ • शय्यातरपिण्ड।
१३७ १०५ • राजपिण्ड।
१३९ १०५ • नित्याग्रपिण्ड।
१३९ १०५
• पुरःकर्म और पश्चात्कर्म। १४० १०६ • किमिच्छक।
१४० १०६ • दुर्भिक्षभक्त।
१४१ १०९ • बालिकाभक्त।
१४१ १११ • कान्तारभक्त।
१४१ ११२ • प्राघूर्णकभक्त।
१४१ ११४ • अग्रपिण्ड।
१४१ ११५
• ग्लानभक्त। ११५ • निवेदनापिंड।
१४२ ११५ • मृतकभोज।
१४२ ११५ •निकाचित आहार।
१४२ ११६ • रचित आहार।
१४२ ११७ • संखडिभोज।
१४३ ११९ • रात्रि-भोजन विरमण।
१४३ ११९ • गृहान्तरनिषद्या।
१४५ १२१ • सन्निधि और संचय।
१४५ १२२ सांस्कृतिक सामग्री
१४६ १२३ • देवी-देवता।
१४६ १२४
• संन्यस्त परम्परा एवं साम्प्रदायिकता। १४७ १२४
• विद्या और मंत्र का प्रयोग। १४७ १२४ अर्थ-व्यवस्था।
१४८ १२४ • चिकित्सा।
१४९ १२४
• धान्य एवं खाद्य। १२४ • वैवाहिक सम्बन्ध।
१५० १२४
• सामाजिक परम्पराएं एवं मान्यताएं। १५१ १२५ • यातायात।
१५२ • अपराध एवं दंड । १२६ पाठ-सम्पादन की प्रक्रिया हस्तप्रति परिचय
१५६ १२७ पिण्डनियुक्ति के सम्पादन का इतिहास १५७ १२८ कृतज्ञता-ज्ञापन
१५८
१४९
१२५
१५३ १५३
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण जैन आगमों का प्रथम व्याख्या-साहित्य नियुक्ति-साहित्य के रूप में प्रसिद्ध है। दिगम्बर-परम्परा के अनुसार आगम ग्रंथों का कालान्तर में लोप हो गया अत: नियुक्ति-साहित्य केवल श्वेताम्बर परम्परा में ही मान्य है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा ४५ आगमों के साथ नियुक्ति-साहित्य को भी प्रमाणभूत मानती है लेकिन स्थानकवासी एवं तेरापंथी परम्परा ११ अंग, १२ उपांग, ४ मूल, ४ छेद तथा १ आवश्यक-इन ३२ आगमों को प्रमाणभूत स्वीकार करती है। शेष नियुक्ति-साहित्य आगम-प्रामाण्य के रूप में अंगीकृत नहीं है। नियुक्ति का स्वरूप
____ आगमों पर प्रथम व्याख्या साहित्य नियुक्ति है अतः ये स्वतंत्र शास्त्र न होकर अपने-अपने सूत्र की व्याख्या के अधीन हैं। जैसे यास्क ने वैदिक पारिभाषिक शब्दों को निरुक्त के माध्यम से व्याख्यायित किया, वैसे ही नियुक्तिकार ने जैन आगमों में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दों को निक्षेप-पद्धति से व्याख्यायित किया है। निक्षेप पद्धति में किसी एक शब्द के विविध क्षेत्रों में प्रयुक्त अर्थों को प्रकट करके प्रस्तुत संदर्भ में उसका क्या अर्थ है, यह प्रकट किया जाता है। नियुक्ति-साहित्य महाराष्ट्री प्राकृत भाषा में निबद्ध है, इसमें प्रायः आर्या छंद का उपयोग हुआ है लेकिन कहीं-कहीं दोहा और इंद्रवज्रा आदि छंदों का प्रयोग भी हुआ है।
__आचार्य भद्रबाहु नियुक्ति शब्द का निरुक्त करते हुए कहते हैं-'निज्जुत्ता ते अत्था, जं बद्धा तेण होइ निज्जुत्ती२ अर्थात् जिसके द्वारा सूत्र में नियुक्त अर्थ का निर्णय होता है, वह नियुक्ति है। निश्चय रूप से सम्यग् अर्थ का निर्णय करना तथा सूत्र में ही परस्पर संबद्ध अर्थ को प्रकट करना नियुक्ति का उद्देश्य है।' आचार्य हरिभद्र के अनुसार क्रिया, कारक, भेद और पर्यायवाची शब्दों द्वारा शब्द की व्याख्या करना या अर्थ प्रकट करना निरुक्ति-नियुक्ति है। जर्मन विद्वान् शान्टियर के अनुसार नियुक्तियां प्रधान रूप से १. मवृ १; निर्युक्तयो न स्वतंत्र शास्त्ररूपाः, किन्तु तत्तत्सूत्रपरतन्त्राः । २. आवनि ८२ । ३. (क) विभा १०८६ ; जं निच्छयाइजुत्ता, सुत्ते अत्था इमीए वक्खाया।
तेणेयं निज्जुत्ती, निज्जत्तत्थाभिहाणाओ॥ (ख) सूटी प.१: योजनं युक्तिः अर्थघटना निश्चयेनाधिक्येन वा युक्तिर्नियुक्तिः सम्यगर्थप्रकटनम्।
निर्युक्तानां वा सूत्रेष्वेव परस्परसम्बद्धानामर्थानामाविर्भावनं युक्तशब्दलोपान्नियुक्तिः ॥ (ग) आवमटी प. १००; सूत्रार्थयोः परस्परं निर्योजनं सम्बन्धनं नियुक्तिः। (घ) ओनिटी प. ४ ; नि:आधिक्ये योजनं युक्ति: सूत्रार्थयोर्योगो नित्यव्यवस्थित एवास्ते वाच्यवाचकतयेत्यर्थः
अधिका योजना नियुक्तिरुच्यते, नियता निश्चिता वा योजनेति। (ङ) आवचू १ पृ. ९२ सुत्तनिज्जुत्तअत्थनिज्जूहणं निज्जुत्ती। ४. आवहाटी भा. १ पृ. २४२।
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पिंडनियुक्ति
सम्बन्धित ग्रंथ के इंडेक्स का कार्य करती हैं तथा सभी विस्तृत घटनावलियों का संक्षेप में उल्लेख करती हैं।' व्याख्या के संदर्भ में अनुगम दो प्रकार का होता है-सूत्र-अनुगम और नियुक्ति-अनुगम। नियुक्तिअनुगम के तीन प्रकार हैं
१. निक्षेपनियुक्ति-अनुगम। २. उपोद्घातनियुक्ति-अनुगम। ३. सूत्रस्पर्शिकनियुक्ति-अनुगम।
शब्द के कई अर्थों में प्रस्तुत प्रसंग में कौन-सा अर्थ प्रासंगिक है, इसका ज्ञान निक्षेपनियुक्तिअनुगम से होता है। उपोद्घातनियुक्ति-अनुगम में छब्बीस प्रकार से शब्द या विषय की मीमांसा की जाती है। तत्पश्चात् सूत्रस्पर्शिकनियुक्ति-अनुगम के द्वारा नियुक्तिकार सूत्रगत शब्दों की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। नियुक्तिकार मूलग्रंथ के प्रत्येक शब्द की व्याख्या न करके केवल विशेष शब्दों की ही व्याख्या प्रस्तुत करते
हैं।
भाष्य-साहित्य में व्याख्या के तीन प्रकार बताए गए हैं, उनमें नियुक्ति का दूसरा स्थान है। प्रथम व्याख्या में शिष्य को केवल सूत्र का अर्थ कराया जाता है, दूसरी व्याख्या में नियुक्ति के साथ सूत्र की व्याख्या की जाती है तथा तीसरी व्याख्या में निरवशेष-सर्वांगीण व्याख्या की जाती है। यहां 'निज्जुत्तिमीसओ' का दूसरा अर्थ यह भी संभव है कि दूसरी व्याख्या में शिष्य को सूत्रगत अर्थ का अध्ययन कराया जाता है, जिसे अर्थागम कहा जाता है। नियुक्ति का प्रयोजन
सहज ही एक प्रश्न उपस्थित होता है कि जब प्रत्येक सूत्र के साथ अर्थागम सम्बद्ध है, तब फिर अलग से नियुक्ति लिखने की आवश्यकता क्यों पड़ी? इस प्रश्न के उत्तर में नियुक्तिकार स्वयं कहते हैं'तह वि य इच्छावेती विभासितुं सुत्तपरिवाडी सूत्र में अर्थ निर्युक्त होने पर भी सूत्रपद्धति की विविध प्रकार से व्याख्या करके शिष्यों को समझाने के लिए नियुक्ति की रचना की जा रही है। आवश्यकनियुक्ति की इसी गाथा की व्याख्या करते हुए विशेषावश्यक भाष्य में कहा गया है कि श्रुतपरिपाटी में ही अर्थ निबद्ध
१. Uttaradhyayana sutra, Preface, Page 50, 51। २. विभा ९७२ ; निज्जुत्ती तिविगप्पा, नासोवग्घाय-सुत्तवक्खाणं । ३. विभा ९७३, ९७४। ४. विभा ५६६; सुत्तत्थो खलु पढमो, बीओ निज्जत्तिमीसओ भणिओ।
तइओ य निरवसेसो, एस विही होइ अणुओगे। विशेषावश्यक भाष्य की प्रस्तुत गाथा भगवती २५/९७ में भी प्राप्त है परन्तु भगवती में यह कालान्तर में प्रक्षिप्त हुई है, ऐसा प्रतीत होता है। ५. आवनि ८२
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण है अतः अर्थाभिव्यक्ति की इच्छा नहीं रखने वाले नियुक्तिकर्ता आचार्य को श्रोताओं पर अनुग्रह करने के लिए वह श्रुतपरिपाटी ही अर्थ-प्राकट्य की ओर प्रेरित करती है। उदाहरण द्वारा भाष्यकार कहते हैं कि जैसे मंखचित्रकार अपने फलक पर चित्रित चित्रकथा को समझाता है तथा शलाका अथवा अंगुलि के साधन से उसकी व्याख्या प्रस्तुत करता है, उसी प्रकार प्रत्येक अर्थ का सरलता से बोध कराने के लिए सूत्रबद्ध अर्थों को नियुक्तिकार नियुक्ति के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने 'इच्छावेइ' शब्द का दूसरा अर्थ यह किया है कि मंदबुद्धि शिष्य ही सूत्र का सम्यक् अर्थ नहीं समझने के कारण गुरु को प्रेरित करके सूत्रव्याख्या करने की इच्छा उत्पन्न करवाता है। आचार्य हरिभद्र ने भी यही व्याख्या की है।
_ निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि निक्षेप पद्धति के माध्यम से नियुक्तियां जैन आगमों के विशेष शब्दों की व्याख्या प्रस्तुत करने एवं अर्थ-निर्धारण करने का महत्त्वपूर्ण व्याख्या-साहित्य है। नियुक्तियों की संख्या
__ नियुक्तियों की संख्या के विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता क्योंकि नंदी सूत्र में जहां प्रत्येक आगम का परिचय प्राप्त है, वहां ग्यारह अंगों के परिचय-प्रसंग में प्रत्येक अंग पर असंख्येय नियुक्तियां होने का उल्लेख है। यहां 'असंख्येय' शब्द को दो संदर्भो में समझा जा सकता हैप्रत्येक अंग पर अनेक नियुक्तियां लिखी गयीं अथवा एक ही अंग पर लिखी गई नियुक्तियों की गाथासंख्या निश्चित नहीं थी। प्रश्न उपस्थित होता है कि ये नियुक्तियां क्या थीं? इसके समाधान में एक संभावना यह की जा सकती है कि स्वयं सूत्रकार ने ही सूत्र के साथ नियुक्तियां लिखी होंगी। इन नियुक्तियों को मात्र अर्थागम कहा जा सकता है। हरिभद्र ने भी सूत्र और अर्थ के परस्पर नियोजन को नियुक्ति कहा है। इस दृष्टि से 'संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ' का यह अर्थ अधिक संगत लगता है कि सूत्रागम पर स्वयं सूत्रकार ने जो अर्थागम लिखा, वे ही उस समय नियुक्तियां कहलाती थीं। दूसरा विकल्प यह भी संभव है कि आचारांग और सूत्रकृतांग के परिचय में नंदीकार ने 'संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ' का उल्लेख किया होगा लेकिन बाद में पाठ की एकरूपता होने से सभी अंग आगमों के साथ 'संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ' पाठ जुड़
१. विभा १०८८ ; तो सुयपरिवाडिच्चिय, इच्छावेइ तमणिच्छमाणं पि।
निज्जुत्ते वि तदत्थे, वोत्तुं तदणुग्गहट्ठाए । २. विभा १०८९; फलयलिहियं पि मंखो, पढइ पभासइ तहा कराईहिं।
दाएइ य पइवत्थु, सुहबोहत्थं तह इहं पि॥ ३. विभा १०९१ ; इच्छह विभासिउं मे, सुयपरिवाडिं न सुट्ठ बुज्झामि ।
नातिमई वा सीसो, गुरुमिच्छावेइ वोत्तुं जे॥ ४. आवहाटी १ पृ. ४५। ५. नंदी ८१-९१।
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पिंडनियुक्ति गया। अभी वर्तमान में जो नियुक्ति-साहित्य उपलब्ध है, उसके साथ नंदी सूत्र में उल्लिखित नियुक्ति का कोई संबंध प्रतीत नहीं होता।
____ आवश्यकनियुक्ति में आचार्य भद्रबाहु ने १० नियुक्तियां लिखने की प्रतिज्ञा की है। इन नियुक्तियों के लिखने का क्रम इस प्रकार है-१. आवश्यक २. दशवैकालिक ३. उत्तराध्ययन ४. आचारांग ५. सूत्रकृतांग ६. दशाश्रुतस्कंध ७. बृहत्कल्प ८. व्यवहार ९. सूर्यप्रज्ञप्ति १०. ऋषिभाषित। हरिभद्र ने 'इसिभासियाणं च' शब्द की व्याख्या में देवेन्द्रस्तव आदि की नियुक्ति का भी उल्लेख किया है। वर्तमान में इन दस नियुक्तियों में केवल आठ नियुक्तियां ही प्राप्त हैं। ऐसा संभव लगता है कि भद्रबाहु ने आवश्यकनियुक्ति में दस नियुक्तियां लिखने की प्रतिज्ञा की लेकिन वे अंतिम दो नियुक्तियों की रचना नहीं कर सके। दूसरा विकल्प यह भी संभावित है कि अन्य आगम-साहित्य की भांति कुछ नियुक्तियां भी काल के अंतराल में लुप्त हो गयीं। इस संदर्भ में डॉ. सागरमलजी जैन का मंतव्य पठनीय है-'लगता है सूर्यप्रज्ञप्ति में जैन आचारमर्यादा के प्रतिकूल कुछ उल्लेख तथा ऋषिभाषित में नारद, मंखलि गौशालक आदि जैन परम्परा के लिए विवादास्पद व्यक्तियों का उल्लेख देखकर आचार्य भद्रबाहु ने प्रतिज्ञा करने पर भी इन पर नियुक्ति लिखने का विचार स्थगित कर दिया हो अथवा यह भी संभव है कि इन दोनों ग्रंथों पर नियुक्तियां लिखी गयीं हों पर विवादित विषयों का उल्लेख होने से इनको पठन-पाठन से बाहर रखा गया हो फलतः उपेक्षा के कारण कालक्रम से ये विलुप्त हो गयी हों।'
इसके अतिरिक्त पिंडनियुक्ति, ओघनियुक्ति, पंचकल्पनियुक्ति और निशीथनियुक्ति आदि का भी स्वतंत्र अस्तित्व मिलता है। डॉ. घाटगे के अनुसार ये क्रमश: दशवैकालिकनियुक्ति, आवश्यकनियुक्ति, बृहत्कल्पनियुक्ति और आचारांगनियुक्ति की पूरक नियुक्तियां हैं लेकिन विचारणीय विषय यह है कि ये नियुक्ति ग्रंथ पूरक हैं अथवा स्वतंत्र कृतियां। पिण्डनियुक्ति एक स्वतंत्र रचना है, इसका विस्तृत विवेचन आगे भूमिका में किया जाएगा।
ओघनियुक्ति को आवश्यक नियुक्ति का पूरक नहीं कहा जा सकता क्योंकि आवश्यकनियुक्तिगत अस्वाध्यायनियुक्ति का पूरा प्रकरण ओघनियुक्ति में है। यदि यह आवश्यकनियुक्ति का पूरक ग्रंथ होता तो इतनी गाथाओं की पुनरुक्ति नहीं होती। इसके बारे में विस्तृत चिंतन नियुक्ति-साहित्य के पांचवें खण्ड में किया जाएगा।
१. आवनि ८०, ८१ ; आवस्सगस्स दसकालियस्स तह उत्तरज्झमायारे। सूयगडे निज्जुत्तिं, वोच्छामि तहा दसाणं च ॥
कप्पस्स य निज्जुत्तिं, ववहारस्सेव परमणिउणस्स। सूरियपण्णत्तीए, वोच्छं इसिभासियाणं च ॥ २. आवहाटी १ पृ. ४१; ऋषिभाषितानां च देवेन्द्रस्तवादीनां नियुक्तिं.....। ३. सागर जैन विद्या भारती, भाग १ पृ. २०५।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
निशीथ नियुक्ति को कुछ विद्वान् आचारांग नियुक्ति की पूरक मानते हैं लेकिन निशीथ नियुक्ति की रचना स्वतंत्र रूप से आचारांग नियुक्ति के बाद हुई क्योंकि आचारांग की चार चूलाओं की आचार्य भद्रबाहु ने अत्यन्त संक्षिप्त नियुक्ति लिखी है लेकिन निशीथ नियुक्ति अत्यन्त विस्तृत शैली में लिखी गई है। स्वयं नियुक्तिकार आचारांग की विमुक्ति (चौथी) चूला की नियुक्ति में संकल्प व्यक्त करते हैं कि आचारांग की चौथी चूला के बाद अब मैं पंचम निशीथ चूला के बारे में कहूंगा। उनके इस कथन से ग्रंथ का पृथक् अस्तित्व स्वतः सिद्ध है। अन्यथा वे ऐसा उल्लेख न करके आचारांग नियुक्ति के साथ ही इसकी रचना कर देते।
निशीथ नियुक्ति की रचना शैली की भिन्नता देखकर यह संभावना व्यक्त की जा सकती है कि भद्रबाहु द्वितीय ने इसे विस्तार देकर इसका स्वतंत्र महत्त्व स्थापित कर दिया हो। आचार्य भद्रबाहु जहां दश नियुक्तियां लिखने की प्रतिज्ञा करते हैं, वहां निशीथ का नामोल्लेख नहीं है। यह चिन्तन का प्रारम्भिक बिन्दु है। अभी इस क्षेत्र में और अधिक खोज की आवश्यकता है। इसके बारे में विस्तृत ऊहापोह नियुक्ति साहित्य के छठे खण्ड में किया जाएगा।
पंचकल्पनियुक्ति को भी बृहत्कल्प की पूरक नहीं माना जा सकता। ऐसा अधिक संभव लगता है कि आचार्य भद्रबाहु ने 'कप्पो तह दसाणं च' इस 'कप्प' शब्द के उल्लेख से पंचकल्प और बृहत्कल्पइन दोनों नियुक्तियों का समावेश कर दिया है।
वर्तमान में सूर्यप्रज्ञप्ति तथा ऋषिभाषित पर लिखी गयी नियुक्तियां और आराधनानियुक्ति अनुपलब्ध है। संसक्तनियुक्ति की हस्तलिखित प्रतियां मिलती हैं किन्तु अभी तक वह प्रकाशित नहीं हो पायी है। इसकी प्रतियों में गाथाओं तथा पाठ का बहुत अंतर मिलता है। इसमें ८४ आगमों के सम्बन्ध में उल्लेख है अत: विद्वान् लोग इसे परवर्ती एवं असंगत रचना मानते हैं। सरदारशहर के गधैया हस्तलिखित भंडार में महेशनियुक्ति की प्रति भी मिलती है किन्तु यह खोज का विषय है कि यह किस ग्रंथ पर कब और किसके द्वारा लिखी गई?
इन नियुक्तियों के अतिरिक्त गोविंद आचार्यकृत गोविंदनियुक्ति का उल्लेख भी अनेक स्थलों पर मिलता है। इसके बारे में विस्तार से भूमिका में आगे चर्चा की जाएगी।
___ आचार्य भद्रबाहु द्वारा उल्लिखित नियुक्तियों के अतिरिक्त अन्य नियुक्तियों की निश्चित संख्या के बारे में स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। स्वतंत्र विषय पर लिखी गईं नियुक्ति-गाथाओं को भी मूल नियुक्ति से अलग कर उसे स्वतंत्र नियुक्ति का नाम दिया गया है, जैसे-आवश्यकनियुक्ति एक विशाल १. आनि ३६६ ; आयारस्स भगवतो, चउत्थचूलाइ एस निज्जुत्ती।
पंचमचूलनिसीहं, तस्स य उवरि भणीहामि॥ २. निभा ५५७३, बृभा ५४७३, टी. पृ. १४५२, पंकभा ४२०।
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१०
पिंडनियुक्ति
रचना है। उसके छह अध्ययनों की नियुक्तियों का भी अलग-अलग नाम से स्वतंत्र अस्तित्व मिलता है। नीचे कुछ नाम तथा उनका समावेश किस निर्युक्ति में हो सकता है, इसका उल्लेख किया जा रहा है
आवश्यकनिर्युक्ति आवश्यकनिर्युक्ति
१. सामाइयनिज्जुत्ती
२. लोगस्सुज्जोयनिज्जत्ती
३. णमोक्कारनिज्जुत्ती
आवश्यक नियुक्ति
४. परिट्ठावणियानिज्जुत्ती
आवश्यक निर्युक्ति
५. पच्चक्खाणनिज्जुत्ती
आवश्यक नियुक्ति
६. असज्झाइयनिज्जुत्ती
आवश्यकनिर्युक्ति
७. समोसरणनिज्जुत्ती
आवश्यक नियुक्ति
८. कप्पनिज्जुत्ती
बृहत्कल्प तथा दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति
९. पज्जोसवणाकप्पनिज्जुत्ती
इसके अतिरिक्त जिन आगमों पर नियुक्तियां लिखी गई हैं, उनके अलग-अलग अध्ययनों के आधार पर ही निर्युक्ति के अलग-अलग नाम मिलते हैं, जैसे- आचारांगनिर्युक्ति में सत्थपरिण्णानिज्जुत्ती, महापरिणानिज्जत्ती और धुयनिज्जुत्ती आदि नामों का उल्लेख मिलता है ।
वर्तमान में उपलब्ध नियुक्तियों में कुछ निर्युक्तियां स्वतंत्र रूप से मिलती हैं, जैसे- आचारांग और सूत्रकृतांग की नियुक्तियां । कुछ निर्युक्तियों के आंशिक अंश पर लघु भाष्य मिलते हैं, जैसे- दशवैकालिक और उत्तराध्ययन की नियुक्तियां । कुछ निर्युक्तियों पर बृहद्भाष्य हैं पर दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व मिलता है, जैसे - आवश्यकनिर्युक्ति, ओघनिर्युक्ति' आदि। कुछ निर्युक्तियां ऐसी हैं, जो भाष्य के साथ मिलकर एक ग्रंथ रूप हो गयी हैं, जिनको आज पृथक् करना अत्यंत कठिन कार्य है, जैसे- निशीथ, व्यवहार, बृहत्कल्प आदि की नियुक्तियां ।
निर्युक्ति-रचना का क्रम
आवश्यक नियुक्ति में आचार्य भद्रबाहु ने दश निर्युक्तियां लिखने की प्रतिज्ञा की है । पंडित दलसुखभाई मालवणिया का अभिमत है कि भद्रबाहु ने आवश्यकनिर्युक्ति में जिस क्रम से ग्रंथों की नियुक्तियां लिखने की प्रतिज्ञा की, उसी क्रम से नियुक्तियों की रचना हुई है। इस कथन की पुष्टि में कुछ हेतु प्रस्तुत किए जा सकते हैं
१. आचारांगनिर्युक्ति गा. १७७ में 'लोगो भणिओ' का उल्लेख है। इससे आवश्यक निर्युक्ति
१. ओघनियुक्ति और उसका भाष्य पृथक् रूप से प्रकाशित होते हुए भी नियुक्ति और भाष्य की गाथाएं आपस में मिल गई हैं । नियुक्ति के पांचवें खण्ड में इस विषय में चर्चा की जाएगी।
२. गणधरवाद पृ. १३, १४ ।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
(गा. ६८२, ६८३१) में चतुर्विंशतिस्तव के लोगस्स' पाठ की व्याख्या की ओर संकेत है।
२. 'आयारे अंगम्मि य पुव्बुट्टिो' उल्लेख आचारांगनियुक्ति (गा. ५) में है। दशवैकालिक के क्षुल्लिकाचार अध्ययन की नियुक्ति (गा. १५४-६१) में आचार तथा उत्तराध्ययन के चतुरंगीय अध्ययन की नियुक्ति (गा. १४४-५८) में अंग शब्द का विशद वर्णन मिलता है। इससे स्पष्ट है कि आचारांग से पूर्व दशवैकालिक और उत्तराध्ययननियुक्ति की रचना हो चुकी थी।
३. उत्तराध्ययननियुक्ति में 'विणओ पुबुद्दिवो' (गा. २९) का उल्लेख दशवैकालिक की विनयसमाधि की नियुक्ति (गा. २८६-३०३) की ओर संकेत करता है। इस उद्धरण से स्पष्ट है कि दशवैकालिक के बाद उत्तराध्ययननियुक्ति की रचना हुई।
___४. उत्तराध्ययननियुक्ति का 'कामा पुव्बुट्ठिा' (गा. २००) उद्धरण दशवैकालिकनियुक्ति (गा. १३७-४१) में वर्णित 'काम' शब्द की व्याख्या की ओर संकेत करता है। इससे स्पष्ट है कि उत्तराध्ययन से पूर्व दशवैकालिकनियुक्ति की रचना हुई।
५. सूत्रकृतांगनियुक्ति (गा. १८३) में आयार-सुतं भणियं' उल्लेख से स्पष्ट है कि दशवैकालिक और उत्तराध्ययननियुक्ति की रचना उससे पूर्व हो गयी थी क्योंकि आचार का वर्णन दशनि (गा. १५४-६१) में तथा श्रुत का वर्णन उनि (गा. २९) में है।
६. उत्तराध्ययननियुक्ति में वर्णित करण की व्याख्या वाली कुछ गाथाएं सूत्रकृतांगनियुक्ति में मिलती हैं।
७. सूत्रकृतांगनियुक्ति में 'गंथो पुव्वुद्दिद्यो' (गा. १२७) का उल्लेख उत्तराध्ययननियुक्ति (गा. २३४३७) में वर्णित ग्रंथ शब्द की व्याख्या की ओर संकेत करता है। इस उद्धरण से स्पष्ट है कि सूत्रकृतांगनियुक्ति से पूर्व उत्तराध्ययननियुक्ति की रचना हुई।
८. आचारांगनियुक्ति (गा. ३३६) में वर्णित 'जह वक्कं तह भासा' का उल्लेख दशवैकालिक की 'वक्कसुद्धि' अध्ययन की नियुक्ति (गा. २४५-५८) की ओर संकेत करता है।
९. सूत्रकृतांगनियुक्ति (गा. ९९) में धम्मो पुवुद्दिट्टो' का उल्लेख दशवैकालिकनियुक्ति (गा. ३६४०) में वर्णित धर्म शब्द की व्याख्या की ओर संकेत करता है। इससे स्पष्ट है कि सूत्रकृतांगनियुक्ति की रचना बाद में हुई।
१०. 'जो चेव होति मोक्खो, सा उ विमुत्ति पगयं' आचारांगनियुक्ति (गा. ३६५) का यह उल्लेख उत्तराध्ययननियुक्ति (गा. ४९१-९४) में वर्णित मोक्ष की व्याख्या की ओर संकेत करता है।
उपर्युक्त उल्लेखों से स्पष्ट है कि नियुक्तियों की रचना का क्रम वही है, जिस क्रम से उन्होंने नियुक्तियां लिखने की प्रतिज्ञा की है। १. यह संख्या जैन विश्व भारती द्वारा प्रकाश्यमान आवश्यकनियुक्ति खण्ड-२ की है।
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पिंडनियुक्ति आचार्य गोविंद एवं उनकी नियुक्ति
आचार्य भद्रबाहु द्वारा लिखित नियुक्तियों के अतिरिक्त गोविंद आचार्य कृत गोविंदनियुक्ति का उल्लेख अनेक स्थानों पर मिलता है। आवश्यकनियुक्ति में दर्शनप्रभावक ग्रंथ के रूप में गोविंदनियुक्ति का उल्लेख हुआ है। निशीथ चूर्णि में गोविंद आचार्य का परिचय इस प्रकार मिलता है -
गोविंद' नामक एक बौद्ध भिक्षु था। एक जैन आचार्य द्वारा वाद-विवाद में वह अठारह बार पराजित हुआ। पराजय से दु:खी होकर उसने चिंतन किया कि जब तक मैं इनके सिद्धांत को नहीं जानूंगा, तब तक इन्हें नहीं जीत सकता इसलिए हराने की इच्छा से ज्ञान-प्राप्ति के लिए उसी आचार्य को दीक्षा के लिए निवेदन किया। सामायिक आदि का अध्ययन करते हुए गोविंद भिक्षु को सम्यक्त्व का बोध हो गया। गुरु ने उसे महाव्रत-दीक्षा दी। दीक्षित होने पर गोविंद भिक्षु ने सरलतापूर्वक अपने दीक्षित होने का प्रयोजन गुरु को बता दिया। उनके दीक्षित होने का उद्देश्य सम्यक् नहीं था अतः उन्हें ज्ञान-स्तेन कहा गया है।
बृहत्कल्पभाष्य में उनका उल्लेख ज्ञान-स्तेन के रूप में नहीं है। वे हेतुशास्त्र युक्त गोविंदनियुक्ति लिखने तथा विद्या और मंत्र की प्राप्ति के लिए दीक्षित हुए, ऐसा भाष्यकार तथा टीकाकार मलयगिरि का मंतव्य है। निशीथभाष्य एवं पंचकल्पभाष्य में भी ऐसा ही उल्लेख मिलता है । व्यवहारभाष्य में मिथ्यात्वी के रूप में उनका उल्लेख मिलता है। वहां चार प्रकार के मिथ्यात्वियों के उदाहरण हैं, उनमें गोविंद आचार्य पूर्व गृहीत आग्रह के कारण मिथ्यात्वी थे। ठाणं सूत्र में प्रव्रज्या के दस कारणों में अपनी इच्छा विशेष से दीक्षित होने में गोविंद आचार्य का उल्लेख है।
___ नंदी सूत्र की स्थविरावली के अनुसार ये आर्य स्कन्दिल की चौथी पीढ़ी में हुए। नंदी सूत्र में इन्हें विपुल अनुयोगधारक, क्षांति-दया से युक्त तथा उत्कृष्ट प्ररूपक के रूप में प्रस्तुत किया गया है
गोविंदाणं पि नमो, अणुओगे विउलधारणिंदाणं।
निच्चं खंतिदयाणं, परूवणा दुल्लभिंदाणं॥ गोविंदनियुक्ति में उन्होंने एकेन्द्रिय जीवों में जीवत्व-सिद्धि का प्रयत्न किया है। यह नियुक्ति
१. निभा ३६५६, चू. पृ. २६०। २. आचार्य हरिभद्र ने गोविंद के स्थान पर गोपेन्द्रवाचक का प्रयोग किया है (दशहाटी प.५३)। ३. निचू ३ पृ. ३७ ; भावतेणो सिद्धतावहरणट्ठताए केणति पउत्तो आगतो, अप्पणा वा गोविंदवाचकवत्। ४. बुभा ५४७३, टी. प. १४५२; विद्या-मंत्रनिमित्तार्थं हेतुशास्त्राणां च गोविंदनियुक्तिप्रभृतीनामर्थाय। ५. (क) निभा ५५७३, निचू पृ. ९६; हेतुसत्थगोविंद-निज्जुत्तादियट्ठा उवसंपज्जति।
(ख) पंकभा ४२०; गोविंदज्जो णाणे, दंसणसुत्तट्ठहेतुसट्ठा वा। ६. व्यभा २७१४, पुव्वग्गहितेण होति गोविंदो। ७. स्था १०/१५। ८. निचू ३ पृ. २६०; पच्छा तेण एगिंदियजीवसाहणं गोविंदनिज्जत्ती कया।
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६
पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण दशवैकालिक के चतुर्थ अध्ययन छज्जीवणिया के आधार पर लिखी गयी अथवा आचारांग के प्रथम अध्ययन शस्त्र-परिज्ञा पर, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता। दशवैकालिकनियुक्ति में 'गोविंदवायगो वि य, जह परपक्खं नियत्तेइ मात्र इतना उल्लेख है।
__ यह नियुक्ति आचारांग के प्रथम अध्ययन शस्त्र-परिज्ञा के आधार पर लिखी गयी प्रतीत होती है। इसके कुछ हेतु इस प्रकार हैं
• अप्काय की जीवत्व-सिद्धि के प्रसंग में आचारांग चूर्णि में उल्लेख है-'जं च निन्जुत्तीए आउक्कायजीवलक्खणं, जंच अज्जगोविंदेहि भणियं गाहा'२--इस उद्धरण से स्पष्ट है कि आचारांग के प्रथम अध्ययन के आधार पर उन्होंने नियुक्ति लिखी होगी।
• आचारांग सूत्र में भगवान् महावीर ने इन स्थावरकायों की अस्तित्व-सिद्धि के अनेक सूत्रों का उल्लेख किया है, जबकि दशवैकालिक में केवल इनकी अहिंसा का विवेक है। आचारांगनियुक्ति में भी स्थावरकाय-सिद्धि की कुछ गाथाएं हैं। संभव है आचार्य भद्रबाहु ने गोविंदनियुक्ति से कुछ गाथाएं ली हों क्योंकि गोविंदाचार्य भद्रबाहु द्वितीय से पूर्व के हैं। दशवैकालिक की दोनों चूर्णियों से भी गोविंद आचार्य के नामोल्लेख पूर्वक यह गाथा मिलती है
काये वि हु अज्झप्पं, सरीर-वायासमन्नियं चेव।
काय-मणसंपउत्तं, अज्झप्पं किंचिदाहंसु॥ आज स्वतंत्र रूप से गोविंदनियुक्ति नामक कोई ग्रंथ नहीं मिलता फिर भी प्राप्त तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि गोविंद आचार्य ने गोविंद नियुक्ति लिखी थी, जो आज अनुपलब्ध है। पिण्डनियुक्ति का कर्तृत्व एवं रचनाकाल
नियुक्ति-साहित्य के कर्तृत्व के बारे में अनेक ऊहापोह होने के बाद अभी तक इस बात में मतैक्य नहीं है कि मूल नियुक्तिकार कौन थे? भद्रबाहु प्रथम अथवा द्वितीय? प्राचीनकाल में प्रतियों में रचनाकार एवं रचनाकाल का उल्लेख न होने से आज यह निर्णय करना कठिन होता है कि अमुक ग्रंथ के रचनाकार कौन हैं ? पिण्डनियुक्ति जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ की भी यही स्थिति है। आचार्य मलयगिरि ने पिण्डनियुक्ति तथा द्रोणाचार्य ने ओघनियुक्ति की टीका' में ग्रंथकर्ता के रूप में चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु का उल्लेख किया है।
धात्रीपिंड के अन्तर्गत पिनि १९९ के लिए निशीथ चूर्णि में 'एसा भद्दबाहुकया णिज्जुत्तिगाहा' (निचू ३ पृ. ४०७) का उल्लेख है। इसी प्रकार पिनि २०५ के लिए भी निशीथ चूर्णि (निचू ३ पृ. ४११) में 'इमा भद्दबाहुकया गाहा' का उल्लेख है। इस उल्लेख से यह तो स्पष्ट है कि आचार्य भद्रबाहु ने ही पिंडनियुक्ति की रचना की लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि चतुर्दश पूर्वधर प्रथम भद्रबाहु ने इसकी रचना की १. दशनि ७८।
३. दशजिचू १०१, दशअचू पृ. ५३ । २. आचू पृ. २७।
४, ५. मवृ प. १, ओनिटी प. ३।
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१४
पिंडनियुक्ति
अथवा द्वितीय भद्रबाहु ने? नियुक्ति-साहित्य की प्राचीनता एवं कर्तृत्व के संदर्भ में विस्तृत चर्चा नियुक्तिसाहित्य के अगले प्रकाश्यमान खंड में की जाएगी।
डॉ. सागरमल जैन के अनुसार चतुर्दशपूर्वी आचार्य भद्रबाहु बहुत पहले हो गए तथा द्वितीय भद्रबाहु का समय बहुत बाद का है अत: बीच में भद्रबाहु नामक कोई और आचार्य होने चाहिए। उनके अनुसार गौतमगोत्रीय आर्यभद्र, जो ईसा की दूसरी शताब्दी में हुए हैं, उन्हें नियुक्तियों का कर्ता माना जा सकता है। भद्रान्वय उल्लेख युक्त पांचवीं शताब्दी का अभिलेख भी मिलता है क्योंकि ये ही ऐसे आचार्य हैं, जिनको नियुक्तिकार मानने से नियुक्ति-रचना का काल सही बैठता है लेकिन उनके इस तर्क को भी पूर्णरूपेण सम्यक् नहीं माना जा सकता क्योंकि आर्यभद्र और भद्रबाहु-इन दोनों नामों में ही साम्य नहीं है फिर भी उनका यह अभिमत इस दिशा में कुछ सोचने को बाध्य करता है।
__ पिण्डनियुक्ति का सबसे प्राचीन उल्लेख जिनदासकृत दशवैकालिक चूर्णि में मिलता है। इस उल्लेख से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि चूर्णिकार जिनदासगणी से पहले पिण्डनियुक्ति की रचना हो चुकी थी क्योंकि चूर्णि-साहित्य का समय छठी, सातवीं शताब्दी माना जाता है। डॉ. सागरमल जैन के अनुसार नियुक्ति साहित्य में ईसा की दूसरी शताब्दी के बाद की विशेष कोई सूचना नहीं मिलती अतः भद्रबाहु द्वितीय इनके कर्ता नहीं हो सकते।
उद्गम, उत्पादन और एषणा के दोषों से सम्बन्धित सारा प्रकरण मूलाचार में पिण्डनियुक्ति से संक्रान्त हुआ है। इस बात को कुछ दिगम्बर विद्वान् भी स्वीकार करते हैं। इस तर्क के आधार पर भी यह संभावना की जा सकती है कि मूलाचार की रचना से पूर्व इसकी रचना हो जानी चाहिए। उत्पादन के दोषों वाली कुछ गाथाएं निशीथ भाष्य में पिण्डनियुक्ति से संक्रान्त हुई हैं, इस आधार पर भी इसका रचनाकाल प्राक्तन सिद्ध होता है।
__ आवश्यक नियुक्ति में प्रतिज्ञात दस नियुक्तियों में पिंडनियुक्ति और ओघनियुक्ति का नामोल्लेख नहीं है, इस बात से ऐसा संभव लगता है कि दस नियुक्तियों की रचना करने के पश्चात् या पहले आचार्य भद्रबाहु ने मुनि की आहारचर्या और सामान्यचर्या का प्रतिपादन करने के लिए दो स्वतंत्र ग्रंथों की रचना की, जिनका नाम उन्होंने पिण्डनियुक्ति और ओघनियुक्ति रखा।
प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि फिर उन्होंने दस नियुक्तियों में इनका उल्लेख क्यों नहीं किया? इसका समाधान यह दिया जा सकता है कि वहां आचार्य भद्रबाहु तीर्थंकर और आचार्यों को वंदना करके उनके द्वारा प्रतिपादित अर्थ-बहुल श्रुतज्ञान की नियुक्ति-रचना की प्रतिज्ञा कर रहे हैं, न कि किसी स्वतंत्र ग्रंथ की रचना करने की। इसीलिए उन्होंने आचारांग आदि सूत्रों पर लिखी नियुक्तियों का नामोल्लेख किया
१. सागर जैन विद्या भारती प. २२२-२४।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण है। स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में जिन दो नियुक्तियों की रचना की,उनका प्रतिज्ञा के अन्तर्गत समावेश नहीं किया, यह संभावना व्यक्त की जा सकती है। वैसे भी ये दोनों ग्रंथ विषयवस्तु एवं आकार की दृष्टि से पूर्णरूपेण स्वतंत्र ग्रंथ की योग्यता रखते हैं।
इसके अतिरिक्त इसमें मुनि की भिक्षाचर्या के जिन नियमों का सूक्ष्म रूप से वर्णन उपलब्ध है, उससे भी इसका काल बाकी सभी नियुक्तियों के समकालीन रखा जा सकता है। पिण्ड और ओघ–इन दोनों नियुक्तियों में अपवाद को प्रकट करने वाली जो गाथाएं हैं, वे भाष्य की या अन्य आचार्यों द्वारा बाद में मिश्रित की गई हैं, ऐसा कहा जा सकता है।
नंदी सूत्रकार ने कालिक और उत्कालिक सूत्रों के अन्तर्गत अनेक ग्रंथों की सूची दी है, उसमें कहीं भी पिण्डनियुक्ति और ओघनियुक्ति का उल्लेख नहीं मिलता है। आश्चर्य इस बात का है कि इन दोनों महत्त्वपूर्ण ग्रंथों को उन्होंने ग्रंथों की सूची में समावेश क्यों नहीं किया? जबकि इनकी रचना उस समय तक हो चुकी थी। इस प्रश्न के समाधान में दो विकल्प संभव हैं• प्रथम तो यह कि देवर्धिगणी क्षमाश्रमण के समय तक ये ग्रंथ इतने प्रसिद्ध नहीं हुए थे। अन्य नियुक्तियों की भांति व्याख्या-साहित्य के अन्तर्गत होने से उन्होंने इनका उल्लेख नहीं किया। • साधु के मौलिक आचार का प्रतिपादक होने के कारण बाद के कुछ आचार्यों ने इन दोनों ग्रंथों को मूल'साहित्य के अन्तर्गत समाविष्ट कर दिया, यह संभावना की जा सकती है। पिण्डनियुक्ति का स्वतंत्र अस्तित्व
___ आगम एवं उसके व्याख्या-साहित्य में पिण्डनियुक्ति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। मुनि की भिक्षाचर्या और आहारविधि पर लिखा गया यह मौलिक और स्वतंत्र ग्रंथ है। इस ग्रंथ का महत्त्व इस बात से आंका जा सकता है कि सर्वप्रथम जर्मन विद्वान् लायमन ने जर्मन भाषा में इस ग्रंथ को प्रकाशित किया था।
प्रो. एच. आर कापड़िया ने उल्लेख किया है कि सबसे पहले भावप्रभसूरि ने जैनधर्मवरस्तोत्र में चार मूल सूत्रों का उल्लेख किया है-- १. उत्तराध्ययन २. आवश्यक ३. पिण्डनियुक्ति और ओघनियुक्ति ४. दशवैकालिक। प्रो. विंटरनित्स आदि विद्वानों ने उत्तराध्ययन, आवश्यक और दशवैकालिक के साथ पिण्डनियुक्ति को मूलसूत्र के अन्तर्गत माना है। साध्वाचार से सम्बन्धित वर्णन होने से कहीं-कहीं इसकी गणना छेदसूत्रों के अन्तर्गत भी होती है।
कुछ विद्वान् पिण्डनियुक्ति को दशवकालिक नियुक्ति के पांचवें अध्ययन पिण्डैषणा नियुक्ति की
१. सभी परम्पराएं इनको मूल ग्रंथ के अन्तर्गत स्वीकार नहीं करती हैं। (संपा) २. जैनधर्मवरस्तोत्र ३० टी. पृ. ९४ ; अथ उत्तराध्ययन-आवश्यक-पिण्डनियुक्ति तथा ओघनियुक्ति-दशवैकालिक इति
चत्वारि मूलसूत्राणि। ३. History of the Canonical literature of the Jainas p. 43।
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पिंडनिर्युक्ति
पूरक मानते हैं। उनका मानना है कि बृहत्काय ग्रंथ होने के कारण बाद में इसे स्वतंत्र ग्रंथ का स्थान दे दिया गया। स्वयं मलयगिरि ने ग्रंथ के प्रारम्भ में इस बात का उल्लेख किया है कि दशवैकालिक की नियुक्ति चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु स्वामी ने की। उसमें पिण्डैषणा नामक पांचवें अध्ययन की नियुक्ति बहुत बड़ी होने के कारण उसे स्वतंत्र रूप से स्थापित कर दिया, जिसका नाम पिण्डनिर्युक्ति रख दिया गया ।' आचार्य मलयगिरि के इस उल्लेख से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उनके समय तक पिण्डनिर्युक्ति दशवैकालिक निर्युक्ति के पूरक ग्रंथ के रूप में समझी जाने लगी थी । आचार्य मलयगिरि दूसरा तर्क प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि यह स्वतंत्र ग्रंथ नहीं है इसीलिए पिण्डनिर्युक्ति के प्रारम्भ में मंगलाचरण नहीं किया गया है। क्योंकि दशवैकालिक नियुक्ति के प्रारम्भ में मंगलाचरण कर दिया गया है।
इस संदर्भ में यह तर्क प्रस्तुत किया जा सकता है कि मंगलाचरण की परम्परा बाद में प्रारम्भ हुई है। प्राचीनकाल में ग्रंथकार संग्रहणी गाथा के द्वारा अपने ग्रंथ का प्रारम्भ करते थे । दशवैकालिक नियुक्ति में भी मंगलाचरण की गाथा बाद में प्रक्षिप्त हुई है। इसका प्रमाण है कि दोनों चूर्णिकारों ने मंगलाचरण वाली गाथा का न उल्लेख किया है और न ही व्याख्या । मंगलाचरण वाली गाथा केवल हारिभद्रीय टीका में मिलती है। बहुत संभव लगता है कि दशवैकालिक नियुक्ति की प्रथम मंगलाचरण की गाथा भद्रबाहु द्वितीय अथवा भाष्यकार द्वारा बाद में जोड़ी गई हो । जो आचार्य हरिभद्र के समय तक निर्युक्ति गाथा के रूप में प्रसिद्ध हो गई थी।
इसी प्रकार आचारांग नियुक्ति की मंगलाचरण की गाथा का भी चूर्णिकार ने कोई संकेत अथवा व्याख्या नहीं की है। वहां तीसरी गाथा के लिए 'एसा बितिया गाहा' का उल्लेख है। इस उल्लेख से स्पष्ट है कि चूर्णिकार के समय तक आचारांग नियुक्ति के मंगलाचरण की गाथा नहीं थी। इसके अतिरिक्त छेद एवं मूलसूत्रों का प्रारंभ भी मंगलाचरण से नहीं हुआ है। मंगलाचरण की परम्परा लगभग विक्रम की दूसरीतीसरी शताब्दी के आसपास की है। मलयगिरि की टीका के अतिरिक्त ऐसा उल्लेख अन्यत्र कहीं नहीं मिलता अतः स्पष्ट है कि केवल इस एक उल्लेख मात्र से पिण्डनिर्युक्ति को दशवैकालिक नियुक्ति का अंग नहीं माना जा सकता । दशवैकालिक सूत्र का पूरक ग्रंथ होते हुए भी पिण्डनिर्युक्ति एक स्वतंत्र ग्रंथ है, इसकी पुष्टि में कुछ तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं
पिण्डनिर्युक्ति में प्रथम संग्रहगाथा के आधार पर पूरे ग्रंथ का विस्तार किया गया है अतः ध्यान
१. मवृ प. १; दशवैकालिकस्य च निर्युक्तिश्चतुर्दशपूर्वविदा भद्रबाहुस्वामिना कृता, तत्र पिण्डैषणाभिधपञ्चमाध्ययननियुक्तिरतिप्रभूतग्रंथत्वात् पृथक् शास्त्रान्तरमिव व्यवस्थापिता, तस्याश्च पिण्डनिर्युक्तिरिति नाम कृतं, पिण्डैषणानिर्युक्तिः । २. मवृ प. १ ; चादावत्र नमस्कारोऽपि न कृतो, दशवैकालिकनिर्युक्त्यन्तर्गतत्वेन तन्नमस्कारेणैवात्र विघ्नोपशमसम्भवात्, शेषा तु निर्युक्तिर्दशवैकालिकनिर्युक्तिरिति स्थापिता ।
३. जैन विश्व भारती द्वारा प्रकाशित नियुक्ति पंचक ग्रंथ में विस्तार से इस संदर्भ में चर्चा की गई है।
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पिण्डनिर्युक्ति : एक पर्यवेक्षण
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से पढ़ने पर स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह एक स्वतंत्र रचना है, न कि दशवैकालिक के पांचवें अध्ययन की निर्युक्ति की पूरक । पिण्डनिर्युक्ति ग्रंथ की अंतिम गाथा पर दृष्टिपात करें, तब भी यह प्रतीत होता है कि स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में इसकी रचना हुई है और उसी दृष्टि से इसका समापन किया गया है।
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यदि यह ग्रंथ पूरक होता तो दशवैकालिक निर्युक्ति में 'वत्तव्वा पिंडनिज्जुत्ती " उल्लेख नहीं मिलता । यह उल्लेख इस बात की ओर संकेत कर रहा है कि पिण्ड के सम्बन्ध में युक्तियुक्त अर्थ को समझने के लिए यहां पिण्डनिर्युक्ति कहनी चाहिए। अन्यथा कोई भी ग्रंथकार 'वत्तव्वा' शब्द का उल्लेख नहीं करेगा, जैसे आचारांग नियुक्ति में चार चूलाओं की नियुक्ति लिखने के बाद नियुक्तिकार ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि पंचम चूलनिसीहं, तस्स य उवरिं भणीहामि (आनि ३६६ ) अर्थात् मैं पंचम चूला निशीथ की नियुक्ति बाद में कहूंगा, वैसे ही जब पिण्डनिर्युक्ति को दशवैकालिकनिर्युक्ति से अलग किया गया, उसके संदर्भ में भी ग्रंथकार कुछ उल्लेख अवश्य करते लेकिन ऐसा न पिण्डनिर्युक्ति में उल्लेख मिलता है और न ही दशवैकालिक नियुक्ति में अतः यह स्वतंत्र ग्रंथ होना चाहिए। प्राचीन लिपिकार एवं ग्रंथकार अनेक गाथाओं को हासिए में 'जहा आवस्सए' 'जहा ओववाइए' आदि उल्लेख कर देते थे, चूंकि पिण्डनिर्युक्ति साधु की आहारचर्या और भिक्षाचर्या पर सर्वांगीण सामग्री प्रस्तुत करती है, पिण्डैषणा को समझने के लिए इससे अच्छा कोई ग्रंथ नहीं था अतः दशवैकालिक नियुक्ति के पांचवें अध्ययन की निर्युक्ति में यह उल्लेख कर दिया गया कि यहां सम्पूर्ण पिंडनिर्युक्ति कहनी चाहिए। प्रारम्भ में विषय साम्य की दृष्टि से सहायक ग्रंथ के रूप में इसका उल्लेख किया गया लेकिन बाद में इसे दशवैकालिक नियुक्ति पूरक ग्रंथ के रूप में स्वीकृत कर लिया गया।
निर्युक्तिकार प्राय: ग्रंथ में आए विशेष पारिभाषिक शब्दों की ही व्याख्या करते हैं । पिण्डनिर्युक्ति के प्रारम्भ में जिन आठ अधिकारों का संकेत है, उससे दशवैकालिक के पांचवें पिण्डैषणा अध्ययन की विषय-वस्तु के साथ कोई सम्बन्ध नहीं बैठता है। इस आधार पर भी कहा जा सकता है कि यह स्वतंत्र ग्रंथ होना चाहिए।
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इसके स्वतंत्र ग्रंथ होने का एक महत्त्वपूर्ण तर्क यह है कि मूलग्रंथ से पूरक ग्रंथ की गाथाएं इतनी अधिक नहीं हो सकतीं। सम्पूर्ण दशवैकालिक पर नियुक्तिकार ने मात्र ३७१ गाथाएं लिखीं और अकेले १. 'वत्तव्वा पिंडनिज्जुत्ती' उल्लेख दशवैकालिक नियुक्ति (२१८/४), (हाटी २३९) में मिलता है । दशवैकालिक की दोनों चूर्णियों में इस गाथा का कोई संकेत एवं व्याख्या नहीं है अतः मूलतः यह गाथा दशवैकालिक नियुक्ति की नहीं होनी चाहिए। भाष्यकार ने साधु की आहारचर्या को सम्यक् रूप से समझाने के लिए 'वत्तव्वा पिंडनिज्जुत्ती' का उल्लेख किया है (देखें निर्युक्तिपंचक पृ. ४९ ) ।
२. जैन विश्व भारती द्वारा सम्पादित दशवैकालिकनिर्युक्ति में ३४९/२ गाथाएं हैं तथा दशवैकालिक हारिभद्रीय टीका में ३७१ गाथाएं हैं। संपादन में नियुक्ति और भाष्य को अलग-अलग करने का प्रयत्न किया गया है, जिसमें अनेक नियुक्तिगत गाथाएं भाष्य की तथा कुछ भाष्य गाथाएं नियुक्ति के रूप में सहेतु सिद्ध की गई हैं।
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पिंडनियुक्ति पांचवें अध्ययन पर ६७१ (-३२४) गाथाएं लिखीं। मूलग्रंथ से पूरक ग्रंथ की गाथाएं इतनी अधिक कैसे हो सकती हैं, यह अन्वेषणीय बिन्दु है।
• इस संदर्भ में एक प्रश्न यह उपस्थित होता है कि दशवैकालिक के पिण्डैषणा अध्ययन पर जो नियुक्ति-गाथाएं मिलती हैं, उनका समावेश पिण्डनियुक्ति में भी होना चाहिए लेकिन वे गाथाएं उसमें नहीं मिलती हैं। यदि यह माना जाए कि दशवैकालिक नियुक्ति के लिए नियुक्तिकार ने कुछ गाथाएं अलग बना दी और पिंडनियुक्ति की अलग रचना की तो फिर इसे स्वतंत्र ग्रंथ मानने में ही क्या बाधा है?
• बृहत्कल्पभाष्य की टीका में पिण्डकल्पिक के प्रसंग में पिंडैषणा अध्ययन के साथ 'अत्र पिण्डनियुक्तिः सर्वा वक्तव्या' का उल्लेख है। साथ ही यह भी उल्लेख है कि पिण्डनियुक्ति ग्रन्थान्तर है अत: उसका अपना स्वतंत्र स्थान है।
__ • नियुक्तिकार प्रायः मूल ग्रंथ में आए महत्त्वपूर्ण शब्दों की निक्षेपपरक व्याख्या प्रस्तुत करते हैं पिण्डनियुक्ति में पिण्ड और एषणा के अतिरिक्त दशवैकालिक के किसी शब्द की व्याख्या नहीं है। दूसरी बात पिण्डनियुक्ति जितनी विषयबद्ध और क्रमबद्ध रचना हैं, उतनी क्रमबद्धता और विषयप्रतिबद्धता नियुक्ति-साहित्य की रचना-शैली में नहीं मिलती है।
• ओघनियुक्ति और पिण्डनियुक्ति को कुछ जैन सम्प्रदाय ४५ आगमों के अन्तर्गत मानते हैं। इनकी गणना मूलसूत्रों में भी होती है। अन्य किसी नियुक्ति को आगमों के अन्तर्गत नहीं रखा गया है। इस बात से भी यह स्पष्ट होता है कि भद्रबाहु ने अन्य नियुक्तियों से पूर्व इन दोनों की स्वतंत्र रचना की होगी अथवा नियुक्ति-साहित्य की लोकप्रियता देखकर उन्होंने इन दोनों ग्रंथों की स्वतंत्र रचना कर दी। विषयवस्तु की दृष्टि से आचार्य महाप्रज्ञ ने इसे दशवैकालिक सूत्र का पूरक माना है। नियुक्ति और भाष्य का पृथक्करण : एक विमर्श
जिन ग्रंथों में नियुक्तियों पर भाष्य लिखे गए, उनमें आवश्यक नियुक्ति को छोड़कर प्रायः दोनों ग्रंथ मिलकर एक ग्रंथ रूप हो गए, जैसे-बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ आदि। आचार्य मलयगिरि ने बृहत्कल्प भाष्य की पीठिका में यही उल्लेख किया है। पिण्डनियुक्ति और ओघनियुक्ति में भी ऐसा ही क्रम मिलता है। इसकी हस्तप्रतियों में नियुक्ति और भाष्य की गाथाएं एक साथ लिखी हुई हैं, इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इस ग्रंथ के लेखन-काल तक नियुक्ति और भाष्य दोनों मिलकर एक ग्रंथ रूप हो गए थे।
१. बृभा ५३२, टी पृ. १५४ ; सा च ग्रन्थान्तरत्वात् स्वस्थाने सम्मिश्रण हो गया है। जैन विश्व भारती से प्रकाशित एव स्थिता प्रतिपत्तव्या।
आवश्यक नियुक्ति खण्ड १ में पृथक्करण का प्रयास २. यद्यपि आवश्यक नियुक्ति की स्वतंत्र प्रतियां मिलती हैं ।
लेकिन उसमें भी अन्यकर्तकी एवं भाष्य की गाथाओं का ३. बृभापी. पृ. २ ; सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिर्भाष्यं चैको ग्रंथो जातः ।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
टीकाकार मलयगिरि ने १८ स्थलों पर भाष्यकृद् या भाष्यकार का उल्लेख किया है। इस उल्लेख के आधार पर यह अनुमान तो लगाया जा सकता है कि भाष्य लिखे जाने के बाद भी कुछ समय तक नियुक्ति का स्वतंत्र अस्तित्व था लेकिन मलयगिरि के उल्लेख के आधार पर यह नहीं माना जा सकता कि मात्र उतनी ही भाष्य-गाथाएं हैं, जितनी गाथाओं के बारे में आचार्य मलयगिरि ने भाष्यगाथा का उल्लेख किया है क्योंकि व्याख्याकार सब स्थानों पर भाष्यकार का उल्लेख करे, यह आवश्यक नहीं है।
___ भाष्य गाथाओं की संख्या प्रकाशित टीका की संख्या से अधिक होनी चाहिए क्योंकि प्रकाशित टीका में जहां-जहां टीकाकार ने भाष्यगाथा का उल्लेख किया है, उन गाथाओं के आगे भाष्य के क्रमांक लगा दिए गए हैं लेकिन पिण्डनियुक्ति का गहराई से सांगोपांग अध्ययन करने के बाद यह निष्कर्ष निकलता है कि इसमें नियुक्ति की गाथाएं ३२४ होनी चाहिए। बाकी की अधिकांश गाथाएं भाष्य की अथवा प्रसंगवश विषय के अनुरूप अन्य ग्रंथों की गाथाएं जोड़ दी गई हैं।
यद्यपि एक ही भाषा-शैली में लिखे गए दो ग्रंथों को अलग-अलग करना अत्यन्त कठिन कार्य होता है, फिर भी गाथाओं के पौर्वापर्य एवं उनके प्रक्षिप्त अंश को नियुक्तिगाथाओं से पृथक करने का प्रारम्भिक किन्तु श्रमसाध्य कार्य करने का प्रयत्न अवश्य किया गया है। जैसा कि भाष्य गाथाओं के प्रारम्भ में उल्लेख किया गया है कि पृथक्करण के संदर्भ में यह दावा नहीं किया जा सकता कि यह पूर्णतः ठीक ही हुआ है फिर भी यह प्रथम प्रयास भविष्य में शोध करने वालों के लिए मार्गदीप अवश्य बनेगा। इस संदर्भ में अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पंडित दलसुख भाई मालवणिया की २५.१.८५ को आचार्य तुलसी को भेजे गए एक संवाद की कुछ पंक्तियां उद्धरणीय हैं-"समणी कुसुमप्रज्ञा ने भाष्य से नियुक्ति के पृथक्करण का कार्य बड़े परिश्रम से किया है। यह उनका प्रथम प्रयास है, फिर भी यथार्थ तक पहुंचने का पूरा प्रयत्न किया है। विद्वानों के समक्ष जाने से इसकी अच्छी समालोचना कर सकेंगे, जिससे इसकी दूसरी आवृत्ति में निर्णय करने एवं संशोधन में सुविधा होगी। कठिन प्रयत्न के बिना यह संभव नहीं है कि नियुक्तियों का पृथक्करण हो सके। इस कार्य में उन्होंने जो श्रम और प्रज्ञा का प्रयोग किया है, उससे मैं बहुत प्रभावित हुआ हूं अतएव मैं इस प्राथमिक प्रयत्न की प्रशंसा एवं अनुमोदना करता हूं।"
जिन बिन्दुओं के आधार पर नियुक्ति की गाथा-संख्या के निर्धारण का प्रयत्न किया गया है, उनके बारे में पाठ-संपादन में लगभग सभी स्थलों पर समालोचनात्मक पादटिप्पण दे दिए गए हैं। जिन गाथाओं के संदर्भ में संदेहात्मक स्थिति थी, उनके बारे में भी नीचे पादटिप्पण दे दिए गए हैं। शोधकर्ताओं की सुविधा के लिए यहां पृथक्करण की कुछ प्रमुख कसौटियों को प्रस्तुत किया जा रहा है• प्रक्षिप्त अंश को जानने में टीकाकार मलयगिरि मार्गदर्शक बनकर पथ-प्रशस्त करते रहे हैं। उन्होंने गाथाओं के प्रारम्भ में विषय को जोड़ने का सुंदर प्रयास किया है। टीका के माध्यम से यह ज्ञात हो जाता है कि किस गाथा के किस अंश की कितनी गाथाओं में व्याख्या की गई है। इसके लिए मलयगिरि की टीका
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पिंडनियुक्ति का शताधिक बार पारायण करना पड़ा तथा मूल द्वारगाथा की व्याख्या कहां तक चलती है, उसे स्मृति में रखना पड़ा, जैसे आधाकर्म से सम्बन्धित मूलद्वार गाथा (६०) की व्याख्या १२४ गाथाओं में चलती है। अनेक गाथाओं के बाद भी पूर्ववर्ती द्वार गाथा की व्याख्या का संकेत टीकाकार ने दे दिया है अतः यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि टीकाकार के बिना नियुक्ति की गाथा-संख्या का निर्धारण एवं भाष्यगाथा का पृथक्करण अत्यन्त दुरूह कार्य था। इसके अतिरिक्त अन्य स्वतंत्र नियुक्तियों का गहन अध्ययन, सम्पादन तथा उनकी रचना-शैली भी नियुक्ति की गाथा-संख्या के निर्धारण में हेतुभूत बने हैं। • पिण्डनियुक्ति की अनेक गाथाएं निशीथ भाष्य आदि में संक्रान्त हुई हैं। वहां पिण्डनियुक्ति की कुछ गाथाओं के लिए चूर्णिकार ने भाष्यकार का उल्लेख किया है। विषय की क्रमबद्धता की दृष्टि से भी वे भाष्य की प्रतीत होती हैं अतः कहीं-कहीं पृथक्करण का आधार अन्य व्याख्या ग्रंथ भी बने हैं। • मुख्य शब्द के एकार्थक लिखना नियुक्तिकार का भाषागत वैशिष्ट्य है। विषय से सम्बद्ध एकार्थक वाली गाथाओं को नियुक्तिगाथा के क्रम में रखा है, जैसे गा. ५१ में एषणा तथा ६१ में आधाकर्म के एकार्थक। • स्वतंत्र रूप से मिलने वाली नियुक्तियों की भाषा शैली से स्पष्ट है कि निक्षेपपरक गाथाएं लिखना नियुक्तिकार का अपना वैशिष्ट्य है। मूल सूत्र में आए शब्द का नियुक्तिकार निक्षेप के द्वारा अर्थ-निर्धारण करते हैं। पिण्डनियुक्ति चूंकि स्वतंत्र ग्रंथ है लेकिन इसमें भी प्रथम संग्रह गाथा में आए शब्दों एवं मुख्य विषयों के निक्षेप प्रस्तुत किए गए हैं। यद्यपि भाष्यकार भी निक्षेपपरक गाथाएं लिखते हैं लेकिन अधिकांश निक्षेपपरक गाथाएं नियुक्ति की प्रतीत होती हैं।
ग्रंथकर्ता द्वारा मूल निक्षेप का उल्लेख करने के बाद द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि की व्याख्या नियुक्तिकार एवं भाष्यकार दोनों की हो सकती है, विशेषावश्यक भाष्य में स्पष्ट लिखा है कि नियुक्ति का विषय नाम आदि का निक्षेप करना है, शेष अर्थ का विचार करना नहीं। अत: द्रव्य और भाव उत्पादना (१९४/१-३) तथा साधर्मिक शब्द के विविध निक्षेपों की व्याख्या करने वाली गाथाएं। (७३/१-२२) भाष्य की होनी चाहिए।
जहां कहीं एक ही शब्द का दो बार निक्षेप हुआ है, वहां स्पष्ट रूप में एक भाष्य की होनी चाहिए, जैसे पिण्डनियुक्ति की तीसरी गाथा में नियुक्तिकार ने पिण्ड शब्द के चार और छह निक्षेपों का उल्लेख करके उसकी प्ररूपणा करने की प्रतिज्ञा की है, ३/१ में पुनः छह निक्षेपों का संकेत है। नियुक्तिकार ऐसी पुनरुक्ति नहीं करते अत: यह गाथा भाष्य की होनी चाहिए क्योंकि भाष्यकार ने कुलक के दृष्टान्त से इसे स्पष्ट किया है।
१. विभा ९६३, टी पृ. २२६ ।
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पिण्डनिर्युक्ति : एक पर्यवेक्षण
• द्वारगाथा और संग्रहगाथा के बारे में स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता कि ये निर्युक्ति की हैं अथवा की? क्योंकि भाष्यकार भी विषय को स्पष्ट करने के लिए संग्रह गाथा या द्वारगाथा लिखते हैं। पंडित दलसुखभाई मालवणिया ने द्वारगाथा को निर्युक्तिगाथा माना है ।
नियुक्तिकार का यह भाषागत वैशिष्ट्य है कि वे किसी भी विषय को स्पष्ट करने के लिए संक्षेप में कथा या दृष्टान्त का उल्लेख करते हैं। जहां भी संक्षेप में कथा का संकेत आया है और बाद में उसी कथा का विस्तार हुआ है तो वहां संक्षेप में कथा का संकेत देने वाली गाथा को निर्युक्तिगत माना है तथा विस्तार करने वाली गाथाओं को भाष्यगत । ऐसी गाथाओं को नियुक्तिगत मानने का एक मुख्य कारण यह है कि अनेक स्थलों पर संक्षिप्त कथा का संकेत करने वाली गाथा के बाद टीकाकार 'अथ एनामेव गाथां भाष्यकार: विवृणोति' का उल्लेख करते हैं, स्वयं पिण्डनिर्युक्ति में भी गाथा १९९ में आचार्य संगम एवं दत्त शिष्य की कथा का संकेत है, बाद में दो गाथाओं के लिए टीकाकार ने 'गाथाद्वयेन भाष्यकृद् विवृणोति' का उल्लेख किया हैं। इससे स्पष्ट है कि संक्षिप्त कथा का संकेत करने वाली निर्युक्ति गाथा का भाष्यकार विस्तार करते हैं। ऐसे प्रसंग आवश्यक नियुक्ति आदि नियुक्तियों में भी अनेक स्थलों पर मिलते हैं। इसी प्रकार ७६ वीं गाथा में नियुक्तिकार ने संक्षेप में कथा का संकेत कर दिया है, ७६/१-५ - इन पांच गाथाओं में पुन: इसी कथा का विस्तार हुआ है। इसके अतिरिक्त ९०/१-४, १४४/१-४, १४८/१, २, १६६/१, २, १७९/१, २ आदि गाथाएं भी द्रष्टव्य हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ आदि की चारों कथाओं का संकेत नियुक्तिकार ने २१६ वीं गाथा में कर दिया है अतः २१८/१, २१९/१-१५, २२०/१, २ ये सभी गाथाएं भाष्य की होनी चाहिए ।
•
कहीं-कहीं नियुक्तिकार ने कथा का संक्षेप में उल्लेख नहीं किया है फिर भी कथा से सम्बन्धित गाथाएं भाष्य की संभव लगती हैं । प्रादुष्करण द्वार के प्रारम्भ में कथा का संकेत करने वाली छहों गाथाएं (१३६/१-६) स्पष्टतया भाष्यकार की प्रतीत होती हैं क्योंकि निर्युक्तिकार प्रायः संक्षेप में किसी भी कथा का संकेत करते हैं। इसका दूसरा हेतु यह है कि नियुक्तिकार प्रायः भिक्षाचर्या के दोषों के भेदों का वर्णन करने के बाद उससे सम्बन्धित कथा का संकेत करते हैं।
•
एक ही गाथा में संकेतित अनेक कथाओं के बारे में जब टीकाकार एक कथा का विस्तार वाली गाथाओं को निर्युक्ति के रूप में निर्दिष्ट करते हैं तो दूसरी कथा के विस्तार वाली गाथाएं भी भाष्य की होनी चाहिए, उदाहरणार्थ चूर्ण और अन्तर्धान से सम्बन्धित कथा की व्याख्या करने वाली गाथाओं के लिए टीकाकार ने भाष्य गाथा' का उल्लेख किया है तो फिर पादप्रलेपन, योग और मूलकर्म की कथा से सम्बन्धित ७ गाथाएं ( २३१ / २- ४, ६, ७, १०, ११) भी भाष्यकार की होनी चाहिए।
३. पिभा ३५-३७, मवृप. १४२; भाष्यकृद् गाथात्रयेण व्याख्यानयति ।
१. निपीभू पृ. ४१, ४२ ।
२. पिभा ३१, ३२ ।
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पिंडनियुक्ति • जहां नियुक्तिकार ने किसी द्वार की संक्षेप में व्याख्या कर दी है, वहां उसी द्वार की यदि विस्तृत व्याख्या करने वाली गाथाएं आई हैं तो वे स्पष्टतया भाष्य-गाथाएं होनी चाहिए, जैसे-४१/१, २, ४४/१-४, ५२/१४, ६४/१-३, ८३/१-५, ८९/१-९, ११६/१-४ आदि। • संवादी अथवा पुनरुक्त गाथाएं एक ही ग्रंथकार की रचना नहीं हो सकतीं। उस ग्रंथ के व्याख्याकार अवश्य अपनी व्याख्या में मूल गाथा के चरण या पाद को अपनी गाथा का अंग बना लेते हैं। जहां कहीं चरण पुनरुक्त हुआ है अथवा संक्षिप्त कथन के बाद उसी विषय का पुनः विस्तार हुआ है तो उन गाथाओं को नियुक्ति के मूल क्रमांक में नहीं जोड़ा है, वे भाष्य-गाथाएं होनी चाहिए। उदाहरणार्थ ८२/१-३ गाथाएं, इनमें ८२ वी गाथा का चतुर्थ चरण तथा ८२/३ का प्रथम चरण शब्दों की दृष्टि से लगभग समान है तथा विषय की दृष्टि से ८२ वी गाथा सीधी ८३ वीं गाथा से जुड़ती है। इसी क्रम में ३१३/१-६, ३१४/१-३, ३१८/१, २, ३२०/१, २ आदि गाथाएं भी भाष्य की होनी चाहिए। • नियुक्ति से भाष्य को पृथक् करने में भाषा-शैली की एकरूपता भी सहायक बनी है। भिक्षाचर्या से सम्बन्धित प्राय: सभी दोषों की व्याख्या नियुक्तिकार ने उसके स्वरूप वर्णन या भेद-प्रभेद के द्वारा की है लेकिन लिप्त दोष में प्रारम्भ में १० गाथाओं में गुरु और शिष्य का संवाद है, ये दसों गाथाएं २९५/१-१० व्याख्यात्मक लगती हैं। • विषय की क्रमबद्धता और पौर्वापर्य भी प्रक्षिप्त अंशों को अलग करने में सहायक बना है। अनेक स्थलों पर विषय की क्रमबद्धता की दृष्टि से स्पष्ट प्रतीत हो रहा था कि इतना अंश अनधिकृत रूप से भाष्यकार या अन्य आचार्य द्वारा बाद में प्रक्षिप्त हुआ है, इसका मूल विषय या गाथा के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। उन गाथाओं को मूल क्रमांक में न जोड़ने पर भी चालू विषय-वस्तु के क्रम में कोई अंतर नहीं आता। जैसे १६६ वी गाथा के अंतिम चरण में नियुक्तिकार उल्लेख करते हैं कि मालापहृत के ये दोष हैं। बीच में १६६/१, २-इन दो गाथाओं में कथानक का विस्तार है। १६७ में मालापहृत के दोषों का उल्लेख है अतः विषय की दृष्टि से १६६ वीं गाथा १६७ वीं गाथा से जुड़ती है। बीच की दोनों गाथाएं स्पष्टतया भाष्य की प्रतीत होती हैं। इसी प्रकार विषय की दृष्टि से ६८ वी गाथा ६९ वी गाथा से जुड़ती है। बीच की ११ गाथाओं में भाष्यकार ने कूटपाश की उपमा द्वारा आत्मकर्म को समझाया है। ७० वीं गाथा विषय की दृष्टि से ७१ वीं गाथा से सम्बद्ध है। बीच में ७०/१-६-इन छह गाथाओं में व्यञ्जन और अर्थ की चतुर्भंगी तथा आधाकर्म के साथ उसकी तुलना प्रक्षिप्त अथवा भाष्य की व्याख्या होनी चाहिए। • जहां कहीं समान गाथा पुनरुक्त हुई है, वहां गाथा का विषय की दृष्टि से जो क्रम उचित लगा, वहां उस गाथा को मूल नियुक्तिगाथा के क्रमांक में जोड़ा है। दूसरे स्थान पर उस समान गाथा को क्रम में तो रखा है पर मूल नियुक्ति गाथा के क्रमांक में नहीं जोड़ा है।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
२३ • कहीं-कहीं अन्य द्वारों की व्याख्या के आधार पर भी नियुक्ति और भाष्य का पृथक्करण हुआ है, जैसेपृथ्वीकाय पिंड, अग्निकाय पिंड से सम्बन्धित द्वारों की नियुक्तिकार ने अत्यन्त संक्षिप्त व्याख्या की है अत: अप्काय से सम्बन्धित १७/१-३, २१/१,२, २२/१-६ तथा २७/१, २-ये सभी गाथाएं व्याख्यात्मक होने के कारण भाष्य की होनी चाहिए। इसी प्रकार धात्रीपिण्ड की १९८/१-१५ गाथाएं तथा आजीव पिण्ड की २०७/१-४-गाथाएं भी भाष्य की होनी चाहिए क्योंकि आगे दूती और निमित्त आदि द्वार की व्याख्या बहुत संक्षिप्त में की गई है। • कहीं-कहीं टीका में गाथा व्याख्यात न होने पर भी यदि पिण्डनियुक्ति की हस्तप्रतियों में गाथा मिली है तो विषय से सम्बद्ध गाथा को नियुक्ति के क्रमांक में जोड़ा है। जो गाथा विषय से असम्बद्ध या प्रक्षिप्त लगी, उसे गाथाओं के क्रम में रखने पर भी मूल क्रमांक के साथ नहीं जोड़ा है, जैसे १७३/१ । यदि एक दो प्रतियों में भी गाथा मिली है तो उन गाथाओं को भी गाथाओं के क्रम में रखा है। यदि व्याख्यात्मक प्रतीत हुई तो उसको मूल क्रमांक में नहीं जोड़ा है, जैसे-२३१/५ गाथा केवल अ और बी प्रति में मिलती है। इसी प्रकार हस्तप्रतियों में न मिलने पर भी यदि टीका या अवचूरि में वह गाथा है तो नियुक्ति की प्रतीत होने पर मूल क्रमांक में जोड़ा है अन्यथा क्रम में रखकर भी क्रमांक के साथ नहीं जोड़ा, जैसे-१९२/६, ७, २५३/३ गाथाएं। • कहीं-कहीं तो स्पष्टतया प्रतीत होता है कि इतनी गाथाएं बीच में भाष्य की अथवा प्रक्षिप्त होनी चाहिए। जैसे ग्रहणैषणा के प्रसंग में गा. २३६ में नियुक्तिकार उल्लेख करते हैं-भावम्मि य दसपदा होति । बीच में वानरयूथ से सम्बन्धित कथा का विस्तार करने वाली तीन गाथाएं अतिरिक्त प्रतीत होती हैं। दसपद से सम्बन्धित गाथा २३७ वीं है। विषय की दृष्टि से भी २३६ वीं गाथा २३७ से जुड़ती है। • भाष्य-गाथा को पहचानने का एक तरीका यह भी है कि जहां भाष्यकार सभी द्वारों की व्याख्या कर रहे हैं, वहां केवल एक द्वार की व्याख्या वाली गाथा को नियुक्ति के क्रम में नहीं जोड़ा है। • जिन गाथाओं को हमने नियुक्तिगत नहीं माना, उनको नियुक्ति के क्रम में रखकर भी नियुक्ति के मूल क्रमांक के साथ नहीं जोड़ा है, जैसे ३/१, ४४/१-४ आदि।
कहीं-कहीं गाथाओं के बारे में निर्णय करना अत्यन्त दुष्कर कार्य था, वहां हमने अपने चिन्तन के आधार पर भी गाथाओं का निर्णय किया है। पृथक्करण के ये बिन्दु अन्य नियुक्तियों को भाष्य से पृथक् करने में भी सहयोगी बने हैं। पिण्डनियुक्ति की विषयवस्तु एवं वैशिष्ट्य
पिण्डनियुक्ति चरणकरणानुयोग से सम्बन्धित एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। यह ग्रंथ साधु की भिक्षाचर्या से सम्बन्धित अनेक विषयों को अपने भीतर समेटे हुए है। नंदीसूत्र में जहां कालिक और उत्कालिक सूत्रों का उल्लेख है, वहां पिण्डनियुक्ति और ओघनियुक्ति-दोनों का उल्लेख नहीं है। ऐसा लगता है कि
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पिंड नियुक्ति
आचारविषयक ग्रंथ होने के कारण बाद में यह मूलसूत्र के रूप में प्रतिष्ठित हो गया । पिण्ड सम्बन्धी वर्णन होने से कहीं-कहीं इसकी गणना छेदसूत्रों में भी होती है ।"
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ग्रंथ के प्रारम्भ में नियुक्तिकार ने संग्रह गाथा के माध्यम से भिक्षा सम्बन्धी दोषों को आठ भेदों में विभक्त कर दिया है। अवान्तर अनेक विषयों का वर्णन होने पर भी नियुक्तिकार ने क्रमशः इन आठ द्वारों का वर्णन किया है। ग्रंथ का नाम पिण्डनिर्युक्ति है इसलिए प्रारम्भ में ग्रंथकार ने पिण्ड शब्द की विस्तार से व्याख्या की है । पिण्ड के नौ भेदों की व्याख्या में एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पिण्ड मनुष्य के लिए किस रूप में उपयोगी है, इसका सुंदर वर्णन किया है। यह सारा वर्णन आयुर्वेद और चिकित्सा की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी है। प्राचीनकाल में वस्त्र धोने से पूर्व साधु सात दिन या तीन दिन तक विश्रमणा-विधि करते थे, यद्यपि यह विधि आज कृतकृत्य हो गई है, फिर भी उस समय के सूक्ष्म अहिंसक साध्वाचार का महत्त्वपूर्ण संकेत देती है।
भावपिण्ड के अनेक प्रकार अध्यात्म के विविध विकल्पों को प्रस्तुत करने वाले हैं। पिण्ड शब्द की सांगोपांग व्याख्या के पश्चात् नियुक्तिकार ने एषणा और उद्गम शब्द की निक्षेपपरक व्याख्या की है। फिर विस्तार से उद्गम के आधाकर्म आदि १६ दोषों का विवेचन प्रस्तुत किया है। उद्गम के १६ दोषों में आधाकर्म अधिक सावद्य है अतः इसका अनेक द्वारों के माध्यम से सर्वांगीण विवेचन प्रस्तुत किया गया है। तत्पश्चात् उद्गम दोष के विशोधिकोटि और अविशोधिकोटि- इन दो भेदों में किस दोष का किसमें समावेश होता है, इसका संकेत दिया गया है।
उद्गम के बाद उत्पादना के निक्षेप तथा उसके धात्री आदि १६ दोषों की चर्चा है । नियुक्तिकार ने दोषों की व्याख्या के साथ-साथ उस समय की संस्कृति और सभ्यता का चित्रण भी प्रस्तुत किया है, जैसेकिस धात्री का बालक पर क्या असर होता है तथा उस समय कितने प्रकार की धाय होती थीं, उनका क्या कार्य होता था आदि । उत्पादन के १६ दोषों की व्याख्या के बाद एषणा के शंकित आदि दस दोषों का विवेचन है ।
अंत में ग्रासैषणा के संयोजना आदि पांच दोषों का विस्तृत वर्णन है । उद्गम और उत्पादना के दोषों से रहित शुद्ध आहार ग्रहण करने पर भी साधु परिभोग के समय कर्म-बंधन कर सकता है। ग्रासैषणा के अन्तर्गत प्रमाण-दोष का वर्णन आयुर्वेद की दृष्टि से तो महत्त्वपूर्ण है ही, साथ ही ऋतु के अनुसार आहार की मात्रा का वर्णन भी वैज्ञानिक दृष्टि से निरूपित है। हिताहार और मिताहार की कसौटियां स्वास्थ्यविज्ञान की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं।
नियुक्तिकार ने भिक्षा सम्बन्धी दोषों को स्पष्ट करने में प्रायः कथानकों का संकेत किया है,
१. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग - २ पृ. १५९ ।
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पिण्डनिर्युक्ति : एक पर्यवेक्षण
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जिसकी व्याख्या भाष्यकार एवं टीकाकार द्वारा की गई है। पिण्डनिर्युक्ति में उल्लिखित कुछ कथानकों को छोड़कर प्रायः कथानक नवीन हैं, जो अन्य व्याख्या - साहित्य में कम मिलते हैं । पिण्डनिर्युक्ति के कथावैशिष्ट्य के बारे में आगे चर्चा की जाएगी।
नियुक्तिकार ने प्रसंगवश दार्शनिक और तात्त्विक चर्चा भी की है। पिण्ड शब्द की व्याख्या में क्षेत्रपिण्ड और कालपिण्ड की व्याख्या दार्शनिक दृष्टि से की गई है। नाम, स्थापना, द्रव्य आदि से सम्बन्धित पिण्ड का संयोग और विभाग होता है अतः ये पारमार्थिक रूप से पिण्ड हैं लेकिन क्षेत्र और कापिण्ड में इस रूप से संयोग और विभाग नहीं होता इसलिए क्षेत्रपिण्ड और कालपिण्ड को औपचारिक रूप से स्वीकार किया गया है। यह तीन प्रदेशों में समवगाढ़ त्रिप्रादेशिक पुद्गल स्कन्ध है अथवा अमुक रसोई में बनाया गया खाद्य है, इस प्रकार का व्यपदेश क्षेत्रपिण्ड है। इसी प्रकार यह त्रिसामयिक पुद्गल स्कन्ध है या चतु सामयिक, ऐसा कथन कालपिण्ड है ।
इस संदर्भ में ग्रंथकार ने स्वयं एक प्रश्न उपस्थित किया है कि मूर्त्त द्रव्यों में परस्पर अनुवेध और संख्या- - बाहुल्य संभव है लेकिन क्षेत्र और काल का अनुवेध - मिलन संभव नहीं है, क्षेत्र अकृत्रिम है, उसके प्रदेश विविक्त रूप से अवस्थित हैं अतः आकाश-प्रदेशों का मिलन संभव नहीं है। काल में भी अतीत का समय नष्ट हो गया, भविष्य का उत्पन्न नहीं हुआ, वर्तमान में केवल एक समय विद्यमान है अतः काल में परस्पर अनुवेध और संख्या - बाहुल्य असंभव है। इसका उत्तर देते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि आकाश के सारे प्रदेश नैरन्तर्य रूप से वैसे ही सम्बद्ध रहते हैं, जैसे बादर निष्पादित चार स्कन्ध । क्षेत्र प्रदेशों में भी संख्या का बाहुल्य रहता है इसलिए क्षेत्र के लिए पिण्ड शब्द का प्रयोग किया जा सकता है। काल वर्तमान क्षणवर्ती होता है। उसके पूर्वापर समय आपस में नहीं मिलते' लेकिन बुद्धि से कल्पित काल में संख्या- बाहुल्य संभव है अतः काल का भी पिण्ड संभव है। परिणामी और अन्वयी होने के कारण वर्तमान समय के साथ बुद्धिकल्पित अनुवेध संभव है। टीकाकार के अनुसार धर्म संग्रहणी टीका में इसका विस्तार से वर्णन है अतः यहां व्याख्या नहीं की गई है।
निक्षेप माध्यम से भाषा विज्ञान का वर्णन भी निर्युक्तिकार ने यत्र-तत्र कर दिया है । पिण्ड शब्द प्रसंग में नाम निक्षेप में नाम के चार प्रकार बताए गए हैं। टिप्पण में देने के बावजूद महत्त्वपूर्ण होने के कारण यहां विस्तार से उसका वर्णन किया जा रहा है
गौणनाम - गुण, क्रिया और द्रव्य के अनुरूप किसी का नाम रखना, जैसे- शक्तिसम्पन्न का महावीर नाम रखना, गाय का नाम गोत्व के आधार पर नहीं, अपितु गमन क्रिया के आधार पर है । द्रव्य नाम व्युत्पत्ति के आधार पर होता है, जैसे- श्रृंगी, दंती, दण्डी आदि ।
२. पिनि ४१, ४२, मवृ प. २२-२४ ।
१. मवृ प. २३ ।
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पिंडनियुक्ति समयज-अर्थरहित लेकिन सिद्धान्त में प्रसिद्ध नाम। व्यवहार में तरल पदार्थों के समूह को पिण्ड नहीं कहा जाता लेकिन शास्त्र में पानी के लिए पिंड शब्द का प्रयोग हुआ है अतः कठिन द्रव्य के संश्लेष के अभाव में भी पानी का पिण्ड नाम समय प्रसिद्ध है लेकिन अन्वर्थ युक्त नहीं है, ओदन के लिए प्राभृतिका नाम भी समयज नाम है। तदुभयज-गुणनिष्पन्न और समयप्रसिद्ध नाम, जैसे-धर्मध्वज का नाम है रजोहरण । बाह्य और आभ्यन्तर रज को हरण करने के कारण इसे रजोहरण कहा जाता है इसलिए कारण में कार्य का उपचार करके इसका नाम रजोहरण रखा गया है। अनुभयज–अन्वर्थरहित और सिद्धान्त में अप्रसिद्ध नाम। भाष्यकार ने इसके लिए उभयातिरिक्त नाम का उल्लेख किया है, जैसे-शौर्य आदि के अभाव में किसी का नाम सिंह रख देना।
टीकाकार ने एक प्रश्न उपस्थित किया है कि समयकृत और उभयातिरिक्त–इन दोनों में विशेष अंतर नहीं है क्योंकि दोनों नाम अन्वर्थ से विकल हैं अतः दो का उल्लेख न करके एक का ही निर्देश किया जा सकता था। इसका उत्तर देते हुए टीकाकार कहते हैं कि जो लौकिक सांकेतिक नाम हैं, उनका व्यवहार सामान्य व्यक्ति करते हैं लेकिन जो सिद्धान्त प्रसिद्ध नाम हैं, उनका व्यवहार सामान्य व्यक्ति नहीं करते, जैसे भोजन के लिए 'समुद्देश' शब्द का प्रयोग इसीलिए दोनों का पृथक्-पृथक् उल्लेख किया गया है। इसी प्रकार गौण और समयकृत दोनों ही अन्वर्थ युक्त नाम हैं लेकिन गौण नाम का प्रयोग सामान्य व्यक्ति करते हैं तथा समयकृत का सामान्य व्यक्ति नहीं अपितु सामयिक ही करते हैं।
पिण्डनियुक्ति में प्रसंगवश अनेक मनोवैज्ञानिक तथ्य भी प्रस्तुत हुए हैं, जैसे• जो बालक बचपन में तिरस्कृत नहीं होता, वह आगे जाकर बुद्धिमान् और रोगरहित होता है। इसका तात्पर्य यह है कि बचपन में यदि अवचेतन मन में कोई कुंठा बैठ जाती है तो बड़े होने के बाद वह व्यक्ति को बहुत प्रभावित करती है। • नियुक्तिकार ने धाई के शरीर की कृशता और स्थूलता के आधार पर बालक के शरीर और मन पर पड़ने वाले प्रभाव को बहुत मनोवैज्ञानिक विधि से उकेरा है। यह पूरा प्रसंग आधुनिक बाल मनोविज्ञान की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। • यदि किसी व्यक्ति के कथन पर दूसरे लोग एक दूसरे को देखकर हंसते हैं तो समझ लेना चाहिए कि जो बात कही जा रही है, उसमें सत्यांश कम है। भिक्षा औद्देशिक है या नहीं, इसको जानने का ग्रंथकार ने यही मनोवैज्ञानिक तरीका बताया है। यदि गृहस्वामिनी कहती है कि यह आहार हमारे लिए बनाया
१. आचूला १/७। २. पिनि १९८/२, मवृ प. १२२ ; अविमानित:-अनपमानितो
बालो मतिमानरोगी दीर्घायश्च भवति, विमानित: पुनर्विपरीतः।
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पिण्डनिर्युक्ति: : एक पर्यवेक्षण
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गया है, उसे सुनकर परिवार के अन्य सदस्य आपस में हंसते हैं तो साधु को समझना चाहिए कि भिक्षा औदेशिक है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि सम्पूर्ण ग्रंथ मुनि की भिक्षाचर्या का सांगोपांग विवेचन प्रस्तुत करने वाला है। इससे पूर्व विकीर्ण रूप से भगवती, आचारचूला आदि आगमों में भिक्षा सम्बन्धी दोषों का उल्लेख मिलता है लेकिन इतना क्रमबद्ध और व्यवस्थित वर्णन की दृष्टि से पिण्डनिर्युक्ति को सबसे प्राचीन ग्रंथ कहा जा सकता है 1
भाषा शैली
निर्युक्ति प्राकृत भाषा में रचित पद्यमयी व्याख्या है, इसमें अर्धमागधी और महाराष्ट्री दोनों भाषाओं का प्रभाव परिलक्षित होता है। निर्युक्ति में निक्षेप पद्धति से विषय का प्रतिपादन हुआ है। नियुक्तिकार ने चयनित एवं पारिभाषिक शब्दों की निक्षेप पद्धति से विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की है, जैसे पिण्ड, उद्गम, उत्पादना, एषणा आदि । इसके माध्यम से उन्होंने उस विषय का सर्वांगीण ज्ञान प्रस्तुत कर दिया है। पिंड
निक्षेप के प्रसंग में नियुक्तिकार स्पष्ट रूप से कहते हैं कि यहां अचित्त द्रव्यपिंड और प्रशस्त भावपिंड का प्रसंग है लेकिन शिष्य की मति को व्युत्पन्न करने के लिए नाम आदि पिण्डों का विस्तृत विवेचन किया गया है । २
महत्त्वपूर्ण शब्दों के एकार्थक लिखना निर्युक्तिकार का भाषागत वैशिष्ट्य है । प्रसंगवश एकार्थकों का प्रयोग भी प्रस्तुत ग्रंथ में हुआ है, जैसे- पिण्ड, आधाकर्म आदि, देखें परि. सं. ६ । कहीं-कहीं ग्रंथकार
एकार्थक शब्दों की अर्थ-भेद परम्परा को भी उदाहरण के माध्यम से स्पष्ट किया है, जो भाषाविज्ञान की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । गाथा ५२/१ में आए एषणा, गवेषणा, मार्गणा और उद्गोपना – एकार्थक होते हुए भी चारों शब्दों का अर्थ-भेद ज्ञातव्य है, देखें ५२ / १ का अनुवाद |
अन्य नियुक्तियों की भांति पिण्डनिर्युक्ति में भी अनेक देशी शब्दों का प्रयोग हुआ है, देखें परि. सं. ८ । प्रस्तुत ग्रंथ का भाषागत महत्त्वपूर्ण वैशिष्ट्य है- मार्मिक एवं प्रभावक सूक्तियों का प्रयोग । आचारप्रधान होते हुए भी इस ग्रंथ में कुछ महत्त्वपूर्ण सूक्तियों का प्रयोग हुआ है, देखें परि. सं. ९ ।
उपमा, लौकिक दृष्टान्त, उदाहरण एवं न्याय के प्रयोग से भाषा में विचित्रता, वेधकता एवं सरसता उत्पन्न हो जाती है। नियुक्तिकार ने जटिल सैद्धान्तिक विषयों को नयी उपमाओं एवं दृष्टान्तों के माध्यम से समझाया है, देखें परि. सं. १० और १२ ।
१. पिनि ८९/८, मवृ प. ७३, ७४ ।
२. पिनि ४७ ; दव्वे अच्चित्तेणं, भावे य पसत्थएहिं पगतं ।
उच्चारितत्थसरिसा, सीसमतिविकोवणट्ठाए ॥
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पिंडनियुक्ति
कहीं-कहीं नियुक्तिकार ने कार्य या कर्ता के वैशिष्ट्य को प्रकट करने हेतु अनेक क्रियाओं का एक साथ प्रयोग कर दिया है; जैसे
भज्जंति व दलेंती, कंडंती चेव तह य पीसंती।
पिंजंती रुंचंती, कत्तंति पमद्दमाणी य॥ उपर्युक्त एक ही गाथा में नियुक्तिकार ने भिन्न-भिन्न क्रियाओं को प्रकट करने वाली आठ धातुओं का प्रयोग कर दिया है।
प्राकृत में नाम धातु का प्रयोग कम होता है लेकिन नियुक्तिकार ने प्रसंगवश नाम धातु का भी प्रयोग किया है; जैसे-वटुंति, वट्ट का अर्थ होता है गोल अत: यहां वटुंति का अर्थ है गोलाकार मोदक की आकृति देना। इसी प्रकार ममायए आदि नाम धातुओं का प्रयोग भी द्रष्टव्य है।
__ नियुक्तिकार ने अनेक स्थलों पर प्रसंगवश व्याकरण सम्बन्धी विमर्श भी प्रस्तुत किया है; जैसेवणि जायण त्ति वणिओ।
अनेक स्थलों पर शब्दों का संक्षिप्त अर्थ या दो शब्दों में भेदरेखा भी स्पष्ट हुई है; जैसे-गा. ७९ में निष्ठित और कृत की भेदरेखा।
नियुक्तिकार ने व्यास और समास-दोनों शैलियों को अपनाया है। अनेक स्थलों पर एक ही विषय या शब्द की विस्तृत व्याख्या की है तो कहीं-कहीं अत्यन्त संक्षेप में विषय का प्रतिपादन हुआ है। संक्षिप्त शैली का निम्न उदाहरण द्रष्टव्य है-कत्तोच्चउ त्ति साली वणि जाणति पुच्छ तं गंतुं। (पिनि ८८/१) इस एक वाक्य में तीन बातों का उल्लेख हो गया है।
नियुक्तिकार का यह शैलीगत वैशिष्ट्य है कि ईप्सित विषय का सर्वांगीण विवेचन करने के लिए पहले गाथा में उन सब विषयों की संक्षिप्त जानकारी देते हैं, जिसे द्वारगाथा कहते हैं, उसके बाद एक-एक द्वार की व्याख्या करते हैं। गा. ६० में आधाकर्म से.सम्बन्धित ९ द्वारों का उल्लेख है फिर १२४ गाथाओं में प्रत्येक द्वार का विस्तार है।
नियुक्तिकार ने अनेक स्थलों पर कार्य-कारण परम्परा को प्रस्तुत किया है, जैसे-दर्शन और ज्ञान से चारित्र का उद्गम होता है, इन दोनों की शुद्धि से चारित्र शुद्ध होता है, चारित्र से कर्म-शुद्धि होती है तथा उद्गम-शुद्धि से चारित्र-शुद्धि होती है।
छंद की दृष्टि से नियुक्तिकार ने कहीं कहीं शब्दों का संक्षेपीकरण और मात्रा का हस्वीकरण भी किया है-जीवं - जियं, वेयणा - वियणा आदि।
३. पिनि ५७/५।
१. पिनि २६७। २. पिनि २०८।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
नियुक्तिकार ने प्रायः विषयों को हेतु पुरस्सर स्पष्ट किया है। वर्षाकाल से पूर्व कपड़े क्यों धोने चाहिए, इसके हेतु दिए हैं तो वर्षाकाल में धोने से होने वाली हानियों का भी कारण सहित विवेचन किया है। (देखें पिनि गा. २० और २१ का अनुवाद ) आहार करने के कारणों का उल्लेख किया है तो न करने के हेतुओं का भी स्पष्टीकरण किया है।
नियुक्ति-साहित्य का अध्ययन करने के बाद यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि नियुक्तिकार का मूल लक्ष्य विषय-प्रतिपादन था, किसी काव्य की रचना करना नहीं अतः उन्होंने छंदों पर ज्यादा ध्यान न देकर तथ्य-प्रतिपादन पर अधिक बल दिया है। कथाओं का प्रयोग
नियुक्तिकार का एक शैलीगत वैशिष्ट्य है कि विषय को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने प्रायः कथानकों का प्रयोग किया है। इनमें कुछ कथाएं राजा-रानी, मंत्री या श्रेष्ठी आदि से सम्बन्धित हैं तो कुछ कथाओं पर पंचतंत्र का प्रभाव परिलक्षित होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ ऐतिहासिक और पशु-पक्षी से सम्बन्धित काल्पनिक कथानकों को छोड़कर प्राय: कथानक या दृष्टान्त नियुक्तिकार ने अपने समय में घटित घटनाओं के आधार पर प्रस्तुत किए हैं। पिंडनियुक्ति में ऐतिहासिक कथाओं के अतिरिक्त प्रायः कथाओं में स्थान या व्यक्ति के नाम का उल्लेख नहीं है लेकिन टीकाकार ने प्रायः कथाओं में गांव, नगर या जनपद के नाम तथा सम्बन्धित व्यक्तियों के नामों का उल्लेख किया है। ऐसा संभव लगता है कि घटना को कथा का रूप देने के लिए टीकाकार ने काल्पनिक रूप से घटनास्थल तथा व्यक्ति के नामों का उल्लेख कर दिया है, जैसे गोवत्स दृष्टान्त में सागरदत्त श्रेष्ठी के चार पुत्र एवं चार पुत्रवधुओं के नाम। फिर भी इस विषय में और अधिक विमर्श की आवश्यकता है।
चाणक्य, आर्य समित या पादलिप्त आदि कुछ ऐतिहासिक कथाओं को छोड़कर प्रायः कथानक आगम-व्याख्या-साहित्य में अनुपलब्ध हैं। इसके कुछ कथानक निशीथ भाष्य और जीतकल्प भाष्य में मिलते हैं, इसका कारण है कि पिंडनियुक्ति से ही यह प्रकरण वहां संक्रान्त हुआ है।
पिंडनियुक्ति में निर्दिष्ट कथा में पशु-पक्षियों की समझ अत्यन्त विकसित रूप में प्रकट की गई है। मृग यूथपति मृगों से कहता है कि यह मौसम श्रीपर्णी फलों के विकसित होने का नहीं है। यदि विकसित हों तो भी ग्रीष्म ऋतु में इतनी मात्रा में फल नहीं होते अतः किसी धूर्त के द्वारा यह उपक्रम किया गया है। वानर यूथपति भी वानरों को समझाता है कि यह द्रह निरुपद्रव नहीं है क्योंकि यहां द्रह में जाते हुए श्वापदों के पदचिह्न है लेकिन निकलते हुए उनके पदचिह्न नहीं हैं। ग्रासैषणा दोष के संदर्भ में मत्स्य स्वयं अपने मुख से साहस भरी कथा कहता है। यहां ग्रंथकार ने छायावाद का सुंदर प्रयोग किया है।
१. पिनि ५३/१-५४, मवृ प. ३०, ३१ ।
२. पिनि २३६/१-३, मवृ प. १४६ ।
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पिंडनियुक्ति कथा के माध्यम से सैद्धान्तिक विषयों की भी सुंदर प्रस्तुति हुई है। नूपुरपंडिता कथानक में हाथी के माध्यम से अतिक्रम आदि चारों भेदों को सुंदर ढंग से स्पष्ट किया गया है। पिण्डनियुक्ति का व्याख्या-साहित्य
नियुक्ति-साहित्य अत्यन्त संक्षिप्त एवं सांकेतिक शैली में लिखा गया है अतः बिना व्याख्यासाहित्य के इसको समझना अत्यन्त कठिन है। उदाहरणस्वरूप आधाकर्म के प्रसंग में नियुक्तिकार ने 'दंसणगंधपरिकहा, भाविंति सुलूहवित्तिं पि२ का उल्लेख किया है। सरल होते हुए भी गाथा के इस उत्तरार्द्ध को टीका या व्याख्या-साहित्य के बिना समझना कठिन है। मूलटीका एवं वृद्धव्याख्या
आचार्य मलयगिरि ने अनेक स्थलों पर वृद्ध व्याख्या या वृद्ध सम्प्रदाय का उल्लेख किया है। इस उल्लेख का तात्पर्य यही हो सकता है कि उनके समक्ष पिंडनियुक्ति की व्याख्या प्रस्तुत करने वाला पूर्ववर्ती आचार्य का कोई ग्रंथ था। अत्र वृद्धव्याख्या' का उल्लेख पिण्डविशुद्धिप्रकरण के टीकाकार यशोदेवसूरि ने भी किया है। वर्तमान में यह मूल टीका उपलब्ध नहीं है, फिर भी ऐतिहासिक दृष्टि से खोज का विषय है कि मूल टीका के रूप में आचार्य मलयगिरि ने किस आचार्य का संकेत किया है तथा उन्होंने किस समय इस व्याख्या को लिखा।
टीकाकार ने निम्न स्थलों पर वृद्धसम्प्रदाय, वृद्धव्याख्या, पूर्वाचार्य व्याख्या तथा मूलटीका का उल्लेख किया है
• प्रवचनादिपदसप्तके पुनरेवं पूर्वाचार्यव्याख्या प्रवचनलिङ्ग....... । (मवृ प. ५५) • उक्तं च मूलटीकायां चरणात्मविघाते......हेतोर्निरर्थकत्वादिति। (मवृ प. ४२, ४३) • तदयुक्तं, मूलटीकायामस्यार्थस्यासम्मतत्वात्, मूलटीकायां हि लिंगाभिग्रह....विधिरेवमुक्तम्, लिंगे
नो अभिग्गहे.... । (मवृ प. ६२) • अत्र वृद्धसम्प्रदायः, इह यद्येकं वारं....निष्ठितकृत उच्यते। (मवृ प. ६५, ६६) • अत्र चायं वृद्धसम्प्रदायः-सङ्कल्पितासु दत्तिषु........कल्प्यमवसेयम्। (मवृ प. ७८) • यत उक्तंमूलटीकायाम्-'अत्र चायं विधिः-संदिस्संतं जो सुणइ....दोषाभावादिति।' (मवृप.८१)
वीराचार्य ने अपनी संक्षिप्त टीका के प्रारम्भिक प्रशस्ति श्लोकों में इस बात का उल्लेख किया है कि आचार्य हरिभद्र ने पिण्डनियुक्ति पर 'शिष्यहिता' नामक विवृत्ति लिखी थी लेकिन उन्होंने स्थापना दोष तक ही वह विवृति (टीका) लिखी, उसके बाद वे दिवंगत हो गए। आचार्य मलयगिरि की टीका में स्थापना दोष से पूर्व ही वृद्ध-व्याख्या, वृद्धसम्प्रदाय या पूर्वाचार्यव्याख्या का उल्लेख है। आगे के दोषों की
१. पिनि ८२/२, मवृ प. ६८।
२. पिनि ६९/२।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
व्याख्या में मलयगिरि ने इस प्रकार का उल्लेख नहीं किया है अतः यह संभावना की जा सकती है कि मलयगिरि ने जो वृद्ध-व्याख्या, मूलटीका या वृद्ध-सम्प्रदाय का उल्लेख किया, वह हरिभद्र कृत शिष्यहिता टीका के लिए ही किया होगा। फिर भी इस विषय में और अधिक शोध की आवश्यकता है। पिण्डनियुक्ति भाष्य
पिण्डनियुक्ति पर प्रथम संक्षिप्त व्याख्या भाष्य है। प्रकाशित टीका में भाष्य की संख्या मात्र ३७ है लेकिन मूलतः भाष्य गाथाएं अधिक होनी चाहिए। संपादन में इसका निर्देश टिप्पण में यत्र-तत्र कर दिया गया है।
नियुक्ति पर भाष्य लिखा गया अत: यह तो निश्चित है कि इन दोनों के कर्ता दो आचार्य रहे होंगे। आचार्य मलयगिरि ने अनेक स्थलों पर 'आह भाष्यकार: ' आदि का उल्लेख किया है तथा भाष्य-गाथाओं की व्याख्या भी की है अतः भाष्यकार आचार्य मलयगिरि से पूर्व हुए, यह भी निश्चित है। पिण्डनियुक्ति के भाष्यकार कौन थे, इस बारे में निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता। वर्तमान में भाष्यकार के रूप में दो नाम प्रसिद्ध हैं-संघदासगणी एवं जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण। निशीथ भाष्य में पिण्डनियुक्ति की गाथा के बाद उसकी व्याख्या वाली गाथाओं के लिए चूर्णिकार ने 'एतीए इमा दो वक्खाणगाहाओ' का उल्लेख किया है। ऐसा उल्लेख और भी स्थानों पर मिलता है। इससे एक संभावना यह की जा सकती है कि निशीथ भाष्यकार ने ही इसकी भाष्यगाथाओं की रचना की हो, फिर भी इस संदर्भ में अभी और भी अधिक खोज एवं विमर्श करने की आवश्यकता है।
लघुभाष्य को देखकर एक संभावना यह भी की जा सकती है कि बीच के किसी आचार्य ने यह भाष्य रचा हो। मलयगिरीया टीका
वर्तमान में पिण्डनियुक्ति पर सबसे समृद्ध टीका आचार्य मलयगिरि की है। यद्यपि उनके जीवन के बारे में इतिहास में विशेष जानकारी नहीं मिलती। ये आचार्य हेमचन्द्र के समकालीन थे अतः इनका अस्तित्व बारहवीं शताब्दी के आसपास सिद्ध होता है। आचार्य मलयगिरि ने लगभग २५ ग्रंथों पर विस्तृत टीकाएं लिखी हैं।
टीकाकार के बाहुश्रुत्य को इस बात से जाना जा सकता है कि उन्होंने अन्य ग्रंथों का उल्लेख भी किया है, जैसे-एतच्चान्यत्र धर्मसंग्रहणिटीकादौ विभावितमिति नेह भूयो विभाव्यते, ग्रन्थगौरवभयात्। अनेक स्थलों पर 'अन्ये' या 'केचिदाहुः' का उल्लेख करके अन्य मान्यताओं का उल्लेख भी किया है, जैसे
१. मवृ प. २३।
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पिंडनियुक्ति अन्ये तु तद्गुणविकत्थनामेवं योजयन्ति-आधाकर्मभोजिनं कोऽपि....... । (मवृ प. ५०) केचिदाहुः-एकादशी प्रतिमां प्रतिपन्नाः साधुकल्प इति तस्याप्याय....... । (मवृ प. ६२)
टीकाकार ने प्रसंगवश पाणिनी के सूत्रों का उल्लेख करके व्याकरण-बोध तथा शब्दों की सिद्धि भी की है, जैसे मलिन शब्द नपुंसक होते हुए भी प्राकृत के कारण पुल्लिंग के रूप में प्रयुक्त है। टीकाकार कहते हैं-मलिनानीत्यत्र नपुंसकत्वे प्राप्तेऽपि सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतलक्षणवशात्, तथा चाह-पाणिनिः स्वप्राकृतलक्षणे-लिङ्ग व्यभिचार्यपीति।
इसी प्रकार निर्योग शब्द का निरुक्त करते हुए टीकाकार कहते हैं-निस्पूर्वो युजिरुपकारे वर्तते.... नियुज्यते-उपक्रियतेऽनेनेति निर्योग-उपकरणम्।
प्रसंगवश टीकाकार ने तत्त्वज्ञान का भी विवेचन किया है, जैसे षट्स्थानपतित, संयमश्रेणि एवं कण्डक आदि का विस्तृत विवेचन ३९ एवं ४०-इन दो पत्रों में किया है।
__ कहीं-कहीं उन्होंने आत्म-चिन्तन के रूप में उत्कृष्ट आध्यात्मिक रस का वर्णन भी किया है। ऐसे स्थलों में उनकी भाषा साहित्यिक होने पर भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। लड्डुकप्रियकुमार को कैवल्य की उत्पत्ति होने पर टीकाकार ने उसके आत्मचिन्तन को साहित्यिक शैली में प्रस्तुत किया है।
__नियुक्तिकार द्वारा संकेतित कथा का विस्तार आचार्य मलयगिरि ने किया है। बिना टीका की सहायता के उन कथाओं को समझना अत्यन्त कठिन है। कथाओं के माध्यम से टीकाकार ने अनेक सांस्कृतिक तथ्यों को भी सुरक्षित कर दिया है।
कहा जा सकता है कि पिण्डनियुक्ति के हार्द को समझने में टीका का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। अनेक स्थलों पर बिना टीका की सहायता के गाथाओं के हृदय को पकड़ना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। पिण्डनियुक्ति अवचूरि
पिंडनियुक्ति पर क्षमारत्नसूरिकृत अवचूरि भी मिलती है। अवचूरिकार ने संक्षेप में पिण्डनियुक्ति की व्याख्या की है। कहीं-कहीं जिस प्रसंग की व्याख्या आचार्य मलयगिरि ने नहीं की, उसकी व्याख्या आचार्य क्षमारत्नसूरि ने अवचूरि में की है। कहीं-कहीं अवचूरिकार ने मलयगिरि टीका को उद्धृत करते हुए 'वृत्तौ वृद्धसम्प्रदायो' का उल्लेख किया है, उदाहरणार्थ देखें अव प. १०२ । वीराचार्य कृत टीका
पिण्डनियुक्ति पर वीराचार्य कृत एक लघु टीका भी मिलती है। टीका के प्रारम्भ में उन्होंने उल्लेख
१. मवृ प. १२।
२. मवृ प. ३४।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण किया है कि हरिभद्र सूरि ने पिण्डनियुक्ति पर शिष्यहिता नामक वृत्ति लिखनी प्रारम्भ की लेकिन स्थापना दोष तक की टीका लिखकर वे दिवंगत हो गए।
यह टीका संक्षिप्त है लेकिन मूल शब्दों की व्याख्या प्रस्तुत करने वाली है। यह देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार द्वारा प्रकाशित अवचूरि के साथ पीछे नवम परिशिष्ट में प्रकाशित है।' माणिक्यशेखर कृत दीपिका
पिण्डनियुक्ति पर एक संक्षिप्त व्याख्या आचार्य माणक्यशेखर कृत दीपिका भी मिलती है। इसमें प्रारम्भ की लगभग १०० गाथाओं की व्याख्या है। बीच की सैकड़ों गाथाओं की व्याख्या नहीं है। पुनः दीपिकाकार ने दायक दोष से व्याख्या प्रारम्भ की है। यह दीपिका पिण्डनियुक्ति अवचूरि के साथ दशम परिशिष्ट में प्रकाशित है। पिण्डनियुक्ति पर पूर्ववर्ती ग्रंथों का प्रभाव
तीर्थंकर जितने अध्यात्मनिष्ठ थे, उतने ही आचारनिष्ठ भी, यही कारण है कि एक ओर अध्यात्म का उत्कृष्टतम निरूपण करने वाला आचारांग जैसा ग्रंथरत्न उपलब्ध होता है तो दूसरी ओर उसी का द्वितीय श्रुतस्कन्ध आचारचूला साध्वाचार का विशद निरूपण करने वाला है।
साधु की भिक्षाचर्या एवं उसके दोषों का संकेत प्रकीर्णक रूप से आचारचूला, सूत्रकृतांग, स्थानांग, भगवती एवं प्रश्नव्याकरण आदि अंग-साहित्य में मिलता है। विपाकश्रुत जैसे कथात्मक अंग-साहित्य में भिक्षाचर्या के सम्बन्ध में विशेष चर्चा नहीं मिलती। छेदसूत्रों के अन्तर्गत निशीथ में भिक्षाचर्या से सम्बन्धित अनेक नियम-उपनियम तथा प्रायश्चित्तों का विधान है। मूलसूत्रों में दशवैकालिक का प्रथम तथा पांचवां अध्ययन भिक्षाचर्या से ही सम्बन्धित है। उत्तराध्ययन में प्रसंगवश उपदेश शैली में भिक्षाचर्या के दोषों के सम्बन्ध में निर्देश मिलता है।
कहा जा सकता है कि आगमों में विकीर्ण रूप से भिक्षाचर्या के प्रायः सभी दोषों का उल्लेख है। (देखें भूमिका पृ. ८९) नियुक्तिकार ने मालाकार की भांति उन्हें सुसम्बद्ध रूप से पिरोकर माला का रूप प्रदान किया है अत: निर्विवाद रूप से यह कहा जा सकता है कि आगम-साहित्य से प्रभावित होने पर भी भिक्षाचर्या के ४२ या ४६ दोषों का क्रमबद्ध और व्यवस्थित वर्णन नियुक्तिकार का मौलिक अवदान है। पिण्डनियुक्ति का परवर्ती अन्य ग्रंथों पर प्रभाव
प्राचीन साहित्य की एक विशेषता रही है कि लेखक किसी भी ग्रंथ के किसी भी अंश को बिना किसी नामोल्लेख के अपने ग्रंथ का अंग बना लेते थे। उस समय यह साहित्यिक चोरी नहीं मानी जाती थी।
१.पिण्डनियुक्ति की गाथाओं एवं मलयगिरि की टीका का गुजराती अनुवाद मुनि हंससागर जी ने किया है। यह पुस्तक हंससागर शासन-कंटकोद्धार ज्ञानमंदिर भावनगर से प्रकाशित है।
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पिंडनियुक्ति
अनेक ग्रंथों में समान अंश को देखकर आज यह निर्णय करना कठिन हो जाता है कि कौन किससे प्रभावित हुआ है तथा तद्विषयक सबसे प्राचीन उल्लेख किस ग्रंथ का है। पिण्डनियुक्ति की अनेक गाथाएं प्रकरण रूप में या विषय-व्याख्या के रूप में अन्य ग्रंथों में संक्रान्त हुई हैं। यहां पिण्डनियुक्ति का परवर्ती साहित्य पर क्या प्रभाव पड़ा, इस संदर्भ में कुछ बिन्दु प्रस्तुत किए जा रहे हैं• पिण्डनियुक्ति में पिण्ड शब्द की विस्तृत व्याख्या प्रासंगिक है लेकिन ओघनियुक्ति में पिण्ड से सम्बन्धित चालीस गाथाएं' पिण्डनियुक्ति से उद्धृत की गई हैं, ऐसा प्रतीत होता है क्योंकि वहां पिण्ड की व्याख्या का प्रसंग नहीं है। • उद्गम और उत्पादना के दोष श्वेताम्बर परम्परा से दिगम्बर परम्परा में संक्रान्त हुए हैं। पंडित सुखलालजी मूलाचार को संकलित रचना मानते हैं अत: बहुत संभव है कि मूलाचार में भिक्षाचर्या वाला प्रकरण पिण्डनियुक्ति से प्रभावित हुआ है। यद्यपि वहां अनेक स्थानों पर दोषों के नाम एवं क्रम में अंतर है, गाथाएं भी समान नहीं हैं लेकिन विषय और नामों की दृष्टि से यह प्रकरण पिण्डनियुक्ति से प्रभावित है, यह कहा जा सकता है। पिण्डनियुक्ति में जहां अष्टविध पिण्डनियुक्ति का उल्लेख है, वहां मूलाचार में अष्टविध पिण्डशुद्धि का संकेत है। प्रकरण को देखते हुए ऐसा संभव नहीं लगता कि पिण्डनियुक्तिकार मूलाचार से प्रभावित हुए हों।
__ वर्तमान में दिगम्बर और श्वेताम्बर की भिक्षा-विधि के आधार पर भी यह कहा जा सकता है कि उद्गम, उत्पादना और एषणा सम्बन्धी भिक्षाचर्या के दोष श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा निर्धारित किए गए हैं। दिगम्बर आचार्यों ने प्रथमानुयोग और कर्मवाद पर अधिक लिखा अत: व्यावहारिक आचार-मीमांसा का विशेष वर्णन मूलाचार और भगवती आराधना के अतिरिक्त अन्य ग्रंथों में कम मिलता है।
निशीथभाष्य में उत्पादना से सम्बन्धित १५२ दोषों का लगभग ९७२ गाथाओं में वर्णन हुआ है। लगभग गाथाएं पिण्डनियुक्ति से अक्षरशः मिलती हैं। कुछ गाथाएं बीच में भाष्यकार द्वारा भी बनाई गई हैं। उदाहरणार्थ पिनि २०५ (निभा ४४०६) गाथा के लिए निशीथ चूर्णिकार ने 'इमा भद्दबाहुकया गाहा" तथा इसके बाद की दो गाथाओं के लिए 'एतीए इमा दो वक्खाणगाहाओ' का उल्लेख किया है। इस संकेत से स्पष्ट है कि निशीथ भाष्यकार ने इन गाथाओं को अपनी व्याख्या का अंग बनाया है। चूर्णिकार ने अनेक स्थलों पर पिण्डनियुक्ति का उल्लेख किया है, यहां कुछ संदर्भ प्रस्तुत किए जा रहे हैं
* जहा गोवो पिंडनिज्जुत्तीए (निचू भा. ४ पृ. ६७) ।
१. ओनि ३३१-७१। २. निशीथ में मूलकर्म का उल्लेख नहीं है। ३. निभा ४३७५-४४७२।
४, निचू भा. ३ पृ. ४११ । ५. पिभा ३३, ३४, निभा ४४०७, ४४०८, चू. पृ. ४११ ।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
* सेसं पिण्डनिज्जुत्तिअणुसारेण भाणियव्वं (निचू भा. ४ पृ. १९१)। * पिण्डनिज्जुत्तिगाहासुत्ते जहा तहा सवित्थरं भाणियव्वं (निचू भा. ४ पृ. १९३)।
जीतकल्पभाष्य में भिक्षाचर्या के दोषों का वर्णन ५८६१ गाथाओं में है। भाष्यकार ने प्रायश्चित्त सम्बन्धी अथवा कहीं-कहीं सम्बन्ध बिठाने के लिए नई गाथाओं का भी निर्माण किया है। कहीं-कहीं विस्तार का संक्षेप भी किया है, जैसे साधर्मिक की व्याख्या पिंडनियुक्ति में २२ गाथाओं में विस्तार से है लेकिन जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने संक्षेप में इसका वर्णन किया है। जीतकल्पभाष्य की गाथाओं को देखकर यह संभावना की जा सकती है कि भाष्यकार ने कुछ परिवर्तन के साथ इस पूरे प्रसंग को अपने ग्रंथ का अंग बना लिया है।
पिण्डविशुद्धिप्रकरण साधु की भिक्षाचर्या एवं उसके दोषों पर लिखा गया एक लघु ग्रंथ है। इसके रचयिता नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि के शिष्य जिनवल्लभसूरि ने पिण्डनियुक्ति के आधार पर इस ग्रंथ की रचना की है। ग्रंथ के अंत में शार्दूलविक्रीड़ित छंद में १०३ वी गाथा में वे स्वयं उल्लेख करते हैं
इच्चेयं जिणवल्लहेण गणिणा, जं पिंडनिज्जुत्तिओ। किंची पिंडविहाणजाणणकए, भव्वाण सव्वाण वि॥ वुत्तं सुत्तनिउत्तमुद्धमइणा, भत्तीइ सत्तीइ तं।
सव्वं भव्वममच्छरा सुयहरा, बोहिंतु सोहिंतु य॥ ग्रंथकर्ता ने भिक्षाचर्या के बारे में संक्षिप्त किन्तु सारयुक्त प्रस्तुति दी है लेकिन कहीं-कहीं अपनी मौलिक प्रतिभा का उपयोग भी किया है, जैसे आधाकर्म के द्वार एवं उनकी व्याख्या। इस ग्रंथ की यह विशेषता है कि ग्रंथकर्ता ने संक्षेप में हर दोष की परिभाषा प्रस्तुत कर दी है। ग्रंथ का महत्त्व इस बात से जाना जा सकता है कि इस पर छह टीकाएं तथा एक अवचूरि लिखी गई है।
टीकाकार यशोदेव सूरि ने पिण्डनियुक्ति में उल्लिखित प्रायः सभी कथाओं का विस्तार किया है। उन्होंने प्रायः कथाओं को प्राकृत भाषा में प्रस्तुत किया है। कुछ कथाएं प्राकृत पद्य में भी हैं। संभव लगता है कि विस्तार से लिखी प्राकृत पद्यबद्ध ये कथाएं टीकाकार ने किसी अन्य ग्रंथ से उद्धृत की हैं।
आगमेतर साहित्य, जिसमें भिक्षाचर्या एवं उसके दोषों का विवेचन है, वह प्रायः साहित्य पिण्डनियुक्ति के बाद का है। उनको देखने से यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि भिक्षाचर्या से सम्बन्धित प्रायः सभी परवर्ती ग्रंथ पिण्डनियुक्ति से प्रभावित हैं। इनमें आचार्य हरिभद्रकृत अष्टकप्रकरण (पांचवां, छठा, सातवां अष्टक), पंचाशक प्रकरण (तेरहवां पंचाशक), पंचवस्तु (गा. ७३९-६८), विंशति विंशिका (तेरहवीं एवं चौदहवीं विंशिका) आचार्य नेमिचन्द्र कृत प्रवचनसारोद्धार एवं उसकी टीका, मूलाचार एवं अनगारधर्मामृत आदि ग्रंथ रत्न प्रमुख हैं।
१. जीभा १०८८-१६७४।
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पिंडनियुक्ति
स्थावरकायों की सचित्तता-अचित्तता : एक विमर्श
___ वैदिक-परम्परा में पृथ्वी, जल, अग्नि आदि को देववाद के रूप में प्रतिष्ठित किया गया। नास्तिक एवं कुछ अन्य दर्शनों में इन्हें पंचभूतों के रूप में स्वीकृत किया गया। महावीर ने अपने प्रत्यक्ष ज्ञान से इन्हें सजीव रूप में प्रतिपादित करते हुए कहा-'पृथ्वी, अग्नि आदि स्वयं जीव हैं। इनके आश्रित अनेक त्रस और स्थावर जीव रहते हैं। शस्त्रपरिणति के बिना स्थावरजीव सचित्त होते हैं। स्थावर जीवों की हिंसा करने वाला, उनके आश्रित रहने वाले अनेक सूक्ष्म-बादर तथा पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों की हिंसा करता है।'२ षड्जीवनिकाय के वैज्ञानिक प्रतिपादन को देखकर आचार्य सिद्धसेन ने भावविभोर होकर कहा'भगवन् ! आपकी सर्वज्ञता की सिद्धि में एक प्रमाण ही पर्याप्त है कि आपने षड्जीवनिकाय का प्रतिपादन किया। समूचे भारतीय दर्शन में षड्जीवनिकाय का निरूपण महावीर की मौलिक प्रस्थापना है। आचारांग नियुक्ति में नियुक्तिकार ने स्थावरकायों की जीवत्व-सिद्धि में अनेक तार्किक एवं व्यावहारिक हेतु प्रस्तुत किए हैं। उसका विस्तृत वर्णन 'नियुक्तिपंचक' की भूमिका में किया जा चुका है।'
पिण्डनियुक्ति में ग्रंथकार ने पिण्ड शब्द की व्याख्या के संदर्भ में पृथ्वी आदि स्थावरकायों के सचित्त-अचित्त और मिश्र रहने की स्थिति को बहुत नवीनता के साथ प्रस्तुत किया है। स्थावरकायों की चेतना सघन रहती है, वे सदैव स्त्यानर्द्धि निद्रा से प्रभावित रहते हैं अतः बाह्य किसी भी लक्षण से उनके सचित्त-अचित्त या मिश्र होने के बारे में जानना अत्यन्त कठिन है। कोई विशिष्ट ज्ञानी ही इसका वर्णन प्रस्तुत कर सकता है। सचित्त वस्तु में जीव की च्युति निश्चित काल के अनुसार अथवा विरोधी शस्त्र के प्रयोग से भी होती है। नियुक्तिकार ने निश्चय और व्यवहार-दोनों दृष्टियों से स्थावरकाय की सचित्तअचित्त आदि स्थिति को सूक्ष्मता से प्रतिपादित किया है। यहां उनके द्वारा निरूपित कुछ विशेष संदर्भो को प्रस्तुत किया जा रहा हैपृथ्वीकाय
__रत्नशर्करा आदि नरक पृथ्वियां तथा महापर्वत मेरु, हिमालय आदि के बहुमध्यभाग निश्चय रूप से सचित्त होते हैं। निराबाध अरण्य, जहां मनुष्य एवं पशु-पक्षी का आवागमन नहीं होता, गोबर आदि नहीं होता, वह पृथ्वीकाय व्यावहारिक रूप से सचित्त होती है। वट, अश्वत्थ आदि के वृक्ष क्षीरद्रुम कहलाते हैं। माधुर्य के कारण वहां शस्त्र का अभाव होता है। इन वृक्षों के नीचे शीत आदि शस्त्र के कारण कुछ पृथ्वी अचित्त हो जाती है तथा कुछ सचित्त रहती है। ग्राम या नगर के बाहर जो पृथ्वी है, वह भी मिश्र होती
१. दश ४/४ अन्नत्थसत्थपरिणएणं। २. आयारो १/२७, आनि १०२, १०३। ३. द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका १/१३ ।
४. देखें नियुक्तिपंचक भूमिका पृ. ८८-९३ । ५. पिनि १०। ६. मवृ प. ८।
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पिण्डनिर्युक्ति : एक पर्यवेक्षण
है क्योंकि गाड़ी आदि के पहिए से उखड़ी हुई तथा हल से विदारित भूमि पहले सचित्त होती है फिर शीत वात आदि से कुछ अचित्त हो जाती है अतः मिश्र होती है। वर्षा का जल सचित्त पृथ्वी पर गिरता है तो प्रारम्भ में कुछ पृथ्वीकाय अचित्त हो जाती है, कुछ सचित्त रहती है । अन्तर्मुहूर्त्त के बाद दोनों एक दूसरे के शस्त्र होने के कारण अचित्त हो जाते हैं।
अधिक वर्षा होने पर जब तक वर्षा नहीं रुकती, तब तक पृथ्वीकाय मिश्र रूप में रहती है । वर्षा रुकने पर कभी-कभी सचित्त भी रहती है । गोबर आदि ईंधन सचित्त पृथ्वीकाय का शस्त्र है। जब तक पृथ्वी पूर्ण रूप से परिणत नहीं होती, तब तक सचित्त रहती है। यदि ईंधन (गोबर आदि) अधिक है और पृथ्वीकाय कम है एक प्रहर तक पृथ्वी मिश्र रूप में रहती है। मध्यम ईंधन होने पर दो प्रहर तक तथा स्वल्प ईंधन होने पर तीन प्रहर तक पृथ्वी सचित्त - सजीव रहती है।' ओघनिर्युक्ति के टीकाकार ने इसकी व्याख्या कुम्भकार द्वारा आनीत पानी सहित मिट्टी से की है।
लवण आदि अपने उत्पत्ति - स्थान से यदि सौ योजन दूर तक ले जाया जाता है तो वह अचित्त हो जाता है। कुछ आचार्य सौ योजन के स्थान पर सौ गव्यूत मानते हैं। इसके अचित्त होने का कारण बताते हुए भाष्यकार कहते हैं कि उसे स्वयोग्य आहार नहीं मिलता। एक बर्तन से दूसरे बर्तन में डालते हुए तथा एक शकट से दूसरे शकट में रखा जाता हुआ वह अचित्त हो जाता है। वायु, अग्नि और धूम भी वह अचित्त हो जाता है। *
लवण आदि के अचित्त होने का एक अन्य कारण बताते हुए भाष्यकार कहते हैं कि शकट की पीठ पर लदे नमक के थैलों पर मनुष्य के बैठने से तथा बैल आदि के शरीर की उष्मा से वह लवण अचित्त हो जाता है तथा भूमि से मिलने वाले आहार का विच्छेद होने पर भी क्रमशः वह अचित्त हो जाता है । " हरिताल, मनःशिला आदि पृथ्वीकाय भी सौ योजन से आगे ले जाने पर अचित्त हो जाते हैं। इसमें भी अचित्त होने के कारणों को लवण की भांति ही समझना चाहिए।
शीत शस्त्र, उष्ण शस्त्र (सूर्य आदि का तीव्र आतप ) क्षार, गोबर विशेष, अग्नि, लवण, उषऊषर क्षेत्र में उत्पन्न लवण आदि से युक्त रज, अम्लता, तैल आदि - ये सब पृथ्वीकाय के शस्त्र हैं । इनसे पृथ्वीकाय अचित्त होती है। पिण्डनिर्युक्ति के टीकाकार वीराचार्य ने भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से पृथ्वीका के अचित्त होने के संदर्भ में विस्तृत चर्चा की है।
१. पिनि ११, मवृ प. ८ ।
२. ओनिटी प. १२९ ।
३. प्रसाटी प. २९७ ; केचित्तु योजनशतस्थाने गव्यूतशतं पठंति । ४. बृभा ९७३, टी पृ. ३०६, प्रसागा १००१ ; वर्तमान में द्रुतगामी वाहन होने के कारण सौ योजन ले जाने पर
३७
अचित्त होने की संभावना कम रहती है।
५. बृभा ९७५, टी पृ. ३०७ ।
६. बृभा ९७४, टी पृ. ३०६ ।
७. पिनि १२ ।
८. वीवृप. १४४ ।
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३८
अप्काय
पानी में जीव होते हैं, इसे अनेक दार्शनिकों ने स्वीकार किया लेकिन महावीर ने एक नयी प्रस्थापना करते हुए कहा कि पानी स्वयं जीव है। नरकपृथ्वी का आधारभूत ठोस घनोदधि तथा नरक पृथ्वी के पार्श्ववर्ती वृत्ताकार जल वाला घनवलय, ओले, लवण आदि समुद्र तथा पद्मद्रह आदि के मध्यभाग का पानी नैश्चयिक रूप से सचित्त होता है। कूप, वापी और तालाब आदि का जल व्यवहारनय से सचित्त होता है। कभी-कभी पूरा तालाब का पानी अचित्त हो सकता है लेकिन सर्वज्ञ के अभाव में व्यावहारिक रूप से यह जानना संभव नहीं होता कि यह सचित्त है अथवा अचित्त । इसीलिए उदायन राजा को प्रव्रजित करने के लिए राजगृह से सिंधुसौवीर देश के वीतभय नगर में जाते हुए यात्रा के मध्य तालाब को अचित्त जानकर भी भगवान् महावीर ने उसके जल को पीने की अनुज्ञा नहीं दी। शुद्धोदक (अंतरिक्षजल), ओस, हरतनुक, (पृथ्वी को भेदकर निकलने वाले जलबिन्दु) महिका (धूंअर) और हिम - ये सचित्त अप्काय हैं।
केवल गर्म होने मात्र से जल अचित्त नहीं होता इसीलिए दशवैकालिक सूत्र में 'तत्तफासुय' विशेषण का प्रयोग हुआ है। अन्यथा केवल ' तत्त' विशेषण से ही काम चल सकता था । तप्त होने पर भी प्रासुक हो, यह आवश्यक नहीं है। अग्नि पर चढ़े हुए पानी में जब तक तीन उबाल न आए, तब तक वह जल मिश्र होता है ।" प्रथम उबाले में वह जल कुछ मात्रा में अचित्त होता है । द्वितीय में अधिक मात्रा में तथा तीसरे उबाल में पूर्ण अचित्त हो जाता है। वर्षा का जल यदि मनुष्य और तिर्यञ्च के आवागमन वाले स्थान में गिरता है तो वह कुछ समय तक मिश्र रहता है। ग्राम और नगर के बाहर यदि वर्षा का जल गिरता है तो वह भी पृथ्वीकाय के सम्पर्क से जब तक अचित्त नहीं होता, तब तक मिश्र रहता है। यदि अधिक मात्रा में वर्षा होती है तो प्रारम्भ में पृथ्वीका के सम्पर्क से मिश्र हो जाता है लेकिन बाद में गिरने वाला जल सचित्त ही रहता है।
ग्रंथकार ने चावल के पानी के लिए तीन मान्यताओं का उल्लेख किया है। चावल धोने वाले बर्तन से अन्य बर्तनों में डालते हुए आसपास जो बिन्दु लग जाते हैं, वे जब तक विनष्ट नहीं होते, तब तक वह चावल का पानी मिश्र होता है। दूसरा अभिमत है कि तण्डुल - प्रक्षालन के बर्तन से दूसरे बर्तन में डालते समय पानी के ऊपर जो बुबुदे उत्पन्न होते हैं, वे जब तक शमित नहीं होते, तब तक तण्डुलोदक मिश्र कहलाता है। तीसरा अभिमत यह है कि चावल धोने के पश्चात् जब तक वे पक्व नहीं होते, तब तक तण्डुलोदक मिश्र होता है।
१. पिनि १६ ।
२. बृभा ९९९, टी पृ. ३१५ ।
३. मूलाचार की टीका में महासरोवर या समुद्र में उत्पन्न
जल को हरतनु कहा है (मूलाटी पृ. १७६) ।
४. उत्त ३६/८५, मूला २१० ।
५. (क) पिनि १७ ।
पिंडनिर्युक्ति
(ख) दशजिचू पृ. ११४; अहवा तत्तमवि जाहे तिन्नि वाराणि न उव्वत्तं भवइ, ताहे तं अनिव्वुडं, सचित्तं तिवृत्तं भवइ ।
६. मवृ. प. १०।
७. पिनि १७/१, दशजिचू पृ. १८५ ।
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३९
पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
ये तीनों मत भी ऐकान्तिक रूप से एक रूप तथा सत्य नहीं हो सकते क्योंकि रूक्ष बर्तन में लगे हुए बिन्दु जल्दी सूखते हैं तथा स्निग्ध पात्र में लगे बिन्दुओं को सूखने में समय लगता है। जल के बुबुदे भी तेज पवन से जल्दी शान्त हो जाते हैं, मंद हवा में कुछ समय तक अवस्थित भी रह सकते हैं। तीसरे आदेश में भी एकरूपता नहीं है। जो चावल बहुत देर से पानी में भीगे हुए हैं, पुराने हैं, नीचे ईंधन सामग्री पर्याप्त मात्रा में है तथा मधुर जल का योग है तो वे जल्दी पक जाते हैं। इसके विपरीत स्थिति में चावल को पकने में अधिक समय लगता है। इसका स्पष्टीकरण करते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि जब तक तण्डुलोदक अति स्वच्छ न हो जाए, तब तक उसे मिश्र मानना चाहिए। भाष्यकार के अनुसार अपरिणत चाउलोदक में यदि दूसरा सचित्त जल डाल दिया जाए तो वे दोनों उदक चिरकाल से परिणत होते हैं।
टीकाकार मलयगिरि के अनुसार दही और तैल के घट में यदि सचित्त जल डाल दिया जाए और उसके ऊपर दही या तैल की मोटी तरी (परत) आ जाए तो वह जल एक पौरुषी में अचित्त होता है,मध्यम तरी से दो पौरुषी में तथा पतली तरी आने से तीन पौरुषी में अचित्त होता है।'
घर की छत पर मिट्टी के कोल्हू पर गिरा वर्षा का जल छत पर लगे धूम और आतप के सम्पर्क के कारण अचित्त हो जाता है। वर्षा रुकने के अन्तर्मुहूर्त बाद वह पानी अचित्त हो जाने से ग्रहण किया जा सकता है। वर्षा गिरने पर वह जल मिश्र होता है अत: वर्षा रुकने के बाद ग्रहण करना चाहिए। चूर्णिकार के अनुसार ग्रीष्मऋतु में एक दिन-रात के बाद गर्म पानी फिर सचित्त हो जाता है तथा हेमन्त और वर्षाऋतु में सवेरे किया हुआ गर्म जल शाम तक सचित्त हो जाता है। प्रवचनसारोद्धार के अनुसार उष्णकाल में पांच प्रहर के पश्चात्, शीतकाल में चार प्रहर तथा वर्षाकाल में तीन प्रहर के पश्चात् प्रासुक जल भी पुनः सचित्त बन जाता है। टीकाकार के अनुसार प्रासुक जल भी तीन प्रहर के बाद सचित्त हो जाता है। राख डालने पर वह पुनः सचित्त नहीं होता, उससे मलिन जल भी स्वच्छ हो जाता है।
भाष्यकार के अनुसार जिस द्रव्य में वर्ण, गंध, रस और स्पर्श उत्कट होते हैं, उस द्रव्य से मिश्रित होने पर उदक अधिक समय तक सचित्त नहीं रहता। यदि अशुभ वर्ण, गंध आदि उत्कट हैं तो वह उदक क्षिप्र गति से अचित्त होता है। यदि वर्ण, गंध आदि शुभ हैं तो चिरकाल में परिणत होता है। स्पर्श के आधार पर भी सचित्त से अचित्त होने के काल में अंतर आता है। कटुकरस होने के कारण चंदन तंडुलोदक का शस्त्र है फिर भी चंदन का स्पर्श शीतल होने से तंडुलोदक चिरकाल से अचित्त या परिणत होता है। इसी प्रकार दही आदि से संस्पृष्ट जल में अम्लरसता जल का शस्त्र है लेकिन उसका स्पर्श शीतल होने के
१. पिनि १७/२, मवृ प. १०, ११। २. बृभा ५९१७। ३. मवृ प.११। ४. दशअच प्र. ६१:.....गिम्हे अहोरत्तेणं सच्चित्तीभवति,
हेमंत-वासास पुव्वण्हे कतं अवरण्हे। ५. प्रसागा ८८२। ६. पिनि २२/४, मवृ प. १५, ओनि ३५५, वृ.प. १३२। ७. बृभा ५९१४, टी पृ. १५५९।
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पिंडनिर्युक्ति
कारण जल चिरकाल से अचित्त होता है। घृतकिट्ट और कच्चे मांस की गंध-ये दोनों जल के शस्त्र हैं लेकिन इनका रस मधुर और स्पर्श शीत है अतः इनके मिश्रण से जल चिरकाल से अचित्त होता है । चाउलोदक में कुक्कुस के द्वारा उत्पन्न अम्लता भी उदक का शस्त्र बनती है। फल के रस में यदि सचित्त जल डाल दिया जाए तो वह चिरकाल से अचित्त होता है।
तेजस्काय
४०
तेजस्काय के संदर्भ में निरूपण करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि ईंट पकाने वाली विद्युत्, उल्का आदि का मध्य भाग निश्चय रूप से सचित्त तेजस्काय है।' आदि शब्द से टीकाकार के अनुसार कुम्भकार की घड़ा पकाने वाली अग्नि, ईक्षु रस पकाने हेतु जलाई गई चूल्हे की अग्नि का भी ग्रहण हो जाता है।" अंगारा, मुर्मुर, अग्नि, अर्चि, ज्वाला, उल्का, विद्युत् आदि व्यावहारिक सचित्त तेजस्काय हैं। अपराजित वज्र, विद्युत् एवं सूर्यकान्त मणि आदि से उत्पन्न अग्नि को सचित्त रूप में स्वीकार किया है । करीषाग्नि मिश्र तेजस्काय है ।
वायुकाय
सवलय घनवात, तनुवात, अत्यधिक हिमपात तथा मेघजन्य अंधकार होने पर जो वायु चलती है, वह वायु नैश्चयिक सचित्त होती है। पूर्व आदि दिशा में चलने वाली वायु व्यावहारिक सचित्त होती है। ' ग्रंथकार ने पांच प्रकार की अचित्त वायु का उल्लेख किया है
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• आक्रान्त - पैरों से आक्रान्त कर्दम आदि से निकलने वाली वायु ।
• ध्मात - धौंकनी तथा मुख की वायु से भरी दृति से निकलने वाली वायु ।
• घाण
ग- तिलपीड़न यंत्र से निकलने वाली वायु । ठाणं तथा ओघनिर्युक्ति की टीका में घाण के
स्थान पर सम्मूर्च्छि वायु का निर्देश है, जिसका अर्थ है तालवृंत आदि से उत्पन्न वायु ।'
•
•
• देहानुगत - गुदा प्रदेश तथा उच्छ्वास - निःश्वास रूप से निकलने वाली वायु ।
पीलित - आर्द्र कपड़ों को निचोड़ने से निकलने वाली वायु ।
टीकाकार अभयदेवसूरि के अनुसार उत्पत्ति काल में ये पंचविध वायु अचित्त होती हैं लेकिन परिणामान्तर में सचित्त भी हो सकती है। "
•
१. बृभा ५९१५, टी पृ. १५५९ ।
२. बृभा ५९१६, टी पृ. १५६० ।
३. बृभाटी पृ. १५६० ।
४. पिनि २४ ।
५. मवृ. प. १६ ।
६. मूला २११ टी पृ. १७७; शुद्धाग्नि : वज्राग्निर्विद्युत्सूर्यकान्ताद्युद्भवः ।
७. पिनि २४ ।
८. पिनि २७ ।
९. स्था ५/१८३, ओनिटी प. १३३ ।
१०. स्थाटी पृ. २२४; एते च पूर्वमचेतनास्ततः सचेतना अपि भवंति ।
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पिण्डनिर्युक्ति : एक पर्यवेक्षण
टीकाकार ने आदि शब्द से तालवृन्त से होने वाली वायु को अचित्त माना है लेकिन दशवैकालिक सूत्र में साधु को तालवृन्त आदि से हवा करने का निषेध है। इससे स्पष्ट है कि सचित्त होने के कारण ही निषेध किया होगा । निर्युक्तिकार ने वायुकाय के अन्तर्गत मिश्र वायुकाय एवं उसके सचित्त- अचित्त होने का निर्धारण भी विस्तार से किया है। चर्ममय दृति में यदि अचित्त वायु भरकर उसके मुख को डोरी से दृढ़ता से बांध कर यदि नदी के जल में छोड़ दिया जाए तो सौ हाथ तक दृतिस्थ वायु अचित्त रहती है । द्वितीय हस्तशत में मिश्र तथा तृतीय हस्तशत में प्रवेश करते ही सचित्त हो जाती है। उसके बाद वह सचित्त ही रहती है । यह क्षेत्र की दृष्टि से जितने समय तक मिश्र अथवा सचित्त रहती है, उसका वर्णन है ।"
काल की दृष्टि से भाष्यकार इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं कि एकान्त स्निग्ध काल में दृतिस्थ वायु एक प्रहर तक अचित्त रहती है। दूसरी प्रहर के प्रारंभ में मिश्र तथा तीसरी प्रहर के प्रारंभ में ही सचित्त हो जाती है। मध्यम स्निग्ध काल में दो प्रहर तक अचित्त, तीसरी प्रहर में मिश्र तथा चौथी प्रहर में सचित्त हो जाती है। जघन्य स्निग्ध काल में दृतिस्थ वायु तीन प्रहर तक अचित्त, चौथी प्रहर में मिश्र तथा पांचवीं प्रहर में सचित्त हो जाती है। रूक्ष काल में भी ऐसा ही जानना चाहिए। वहां प्रहर के स्थान पर दिनों की वृद्धि करनी चाहिए । जघन्य रूक्ष काल में वस्तिगत वायु एक दिन तक अचित्त, दूसरे दिन मिश्र तथा तीसरे दिन सचित्त होती है। मध्यम रूक्ष काल में दो दिन तक अचित्त, तीसरे दिन मिश्र तथा चौथे दिन सचित्त होती है । उत्कृष्ट रूक्ष काल में तीन दिन तक अचित्त, चौथे दिन मिश्र तथा पांचवें दिन सचित्त होती है।
वनस्पतिकाय
सारी अनंतकाय वनस्पति निश्चय नय से सचित्त होती है। प्रत्येक वनस्पति व्यवहार नय से सचित्त होती है । म्लान एवं अर्द्ध शुष्क वनस्पति मिश्र होती है। चावल का आटा मिश्र होता है। टीकाकार के अनुसार तत्काल दला गेहूं का दलिया मिश्र होता है। एक बार भुनी हुई शमी - फली भी सचित्त मिश्र रहती है । पत्र, पुष्प, कोमल फल, व्रीहि, हरियाली के वृंत आदि वनस्पति सूखने पर वह अचित्त हो जाती है । उत्पल और पद्म आतप में रखने पर एक प्रहर से पहले अचित्त हो जाते हैं। उष्णयोनिक वनस्पति वर्षा से म्लान हो जाती है। मगदंतिका एवं जूही के फूल उष्णयोनिक होने के कारण आतप में रखने पर भी चिरकाल तक सचित्त रहते हैं। मगदंतिका के पुष्प पानी में डालने पर एक प्रहर से पूर्व अचित्त हो जाते हैं। उत्पल और पद्म उदकयोनिक होने के कारण उदक में चिरकाल तक सचित्त रह सकते हैं ।" बृहत्कल्पभाष्य
१. दश ८/९ ।
२. पिनि २७/२, मवृ प. १८ ।
३. पिभा, १२ - १४, मवृ प. १८, ओनिटी १३३, १३४ ।
४. पिनि ३०, मवृ प. १९ ।
४१
५. दश ५ / २ / २० ।
६. बृभा ९७८ ।
७. दशजिचू पृ. २६२ ; उण्हजोणिओ वा वणप्फइ कुहेज्जा । ८. बृभा ९७८, ९७९ ।
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४२
पिंडनियुक्ति के अनुसार पिप्पली, खजूर, दाख तथा हरड़े आदि वनस्पति सौ योजन दूर ले जाने पर अचित्त हो जाती है। भाष्यकार ने इनके अचित्त होने के और भी कारण बताए हैं।
खाद्यान्न में यव, यवयव, गोधूम, शाल्योदन और ब्रीहि-इन धानों को कोठी में डालकर यदि उसे ऊपर से लीप कर ढक्कन बंद कर दिया जाए तो निर्वात होने के कारण वह धान्य जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट तीन वर्ष तक सचित्त रह सकता है। तिल, मूंग, मसूर, मटर, उड़द, चवला, कुलत्थ, अरहर, काले चने, वल्ल-निष्पाव आदि दालों को कोठे में रखकर भलीभांति मुद्रित और लांछित किया जाए, जिससे कोठे में हवा का प्रवेश न हो तो ये धान्य जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट पांच वर्ष तक सचित्त रह सकते हैं। तिलहन में अतसी, लट्ट-कुसुंभ, कंगु, कोडूसग – कोरदूषक, सन, वरट्ट-बरठ, सिद्धार्थसरसों, कोद्रव, रालक और मूली के बीज-इनको यदि कोठे में डालकर भलीभांति मुद्रित कर दिया जाए तो ये बीज जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट सात वर्ष तक सचित्त रह सकते हैं। इसके बाद ये अबीज हो जाते हैं। सामान्यतः सभी धान्य जघन्य रूप से अन्तमुहूर्त के पश्चात् अचित्त हो सकते हैं। उत्कृष्ट की स्थिति सबकी अलग-अलग है।
__ इस प्रकार नियुक्तिकार ने स्थावरकाय के सचित्त, अचित्त और मिश्र होने की स्थिति का सुंदर विवेचन प्रस्तुत किया है। जैन आगमों में भी प्रकीर्णक रूप से इसके बारे में कुछ सामग्री मिलती है। भिक्षाचर्या
आहार जीवन की मूलभूत आवश्यकता है। इसके बिना लम्बे समय तक जीवन को नहीं चलाया जा सकता। मुनि संयम-यात्रा को निरबाध गति से चलाने के लिए आहार ग्रहण करते हैं। स्वाद के लिए खाना मुनि के लिए निषिद्ध है। ज्ञाताधर्मकथा में सेठ और चोर के कथानक के माध्यम से बहुत सुंदर शैली में इस तथ्य को प्रकट किया गया है कि मुनि वर्ण-सौन्दर्य, रूप-वृद्धि, बल-प्राप्ति और इंद्रिय विषय की तृप्ति हेतु नहीं अपितु ज्ञान, दर्शन और चारित्र के विकास हेतु आहार ग्रहण करे। इन सबके लिए आहार करने वाला प्रासुकभोजी होने पर भी अप्रशस्त प्रतिसेवी होता है। मूलाचार में मुनि के लिए निर्देश है कि वह ठंडा-गर्म, रूखा-सूखा, स्निग्ध-अस्निग्ध, लवणसहित या लवणरहित आहार को बिना स्वाद लिए प्रयोग करे।
भिक्षाचर्या साधु की चर्या का अभिन्न अंग है। मुनि को जो कुछ प्राप्त होता है, वह सब भिक्षा से १. बृभा ९७४।
७. ज्ञाता १/२/७६ ; णो वण्णहेउं वा नो रूवहेउं वा नो बलहेउं २. बृभा ९७३, टी पृ. ३०६ ।
वा नो विसयहेउं वा..........णण्णत्थ णाणदंसणचरित्ताणं ३. भग ६/१२९, प्रसा ९९५, ९९६।
वहणट्ठाए । ४. भग ६/१३०, स्था ५/२०९, प्रसा ९९७, ९९८ । ८. निभा ४६९ ; बल-वण्ण-रूवहेतुं, ५. प्रसा ९९९, १०००।
फासुयभोई वि होइ अपसत्थो। ६. प्रसा १०००; होइ जहन्नेण पुणो अंतमुहत्तं समग्गाणं। ९. मूला ८१६ ।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
४३ प्राप्त होता है। आगम में मुनि के सब योगों में भिक्षाचर्या को प्रधान योग कहा गया है। व्यवहार भाष्य में उल्लेख मिलता है कि जो मुनि भिक्षाचर्या में आलस्य या प्रमाद का अनुभव करता है, वह मंदसंविग्न (मंद वैरागी) है तथा जो भिक्षाचर्या में उपयुक्त और उद्यमी है, वह तीव्रसंविग्न-तीव्र वैरागी होता है।'
जैन साधुओं की भिक्षा सामान्य भिक्षुओं से अलग होती है। वे निरवद्य और निरुपहत भिक्षा ग्रहण करते हैं। यदि मुनि अपद्रावण, विद्रावण, परितापन और आरम्भ रूप क्रिया से निष्पन्न आहार को ग्रहण करता है अथवा अनुमोदन करता है तो उसके उपवास, स्वाध्याय आदि योग खंडित बर्तन में भरे अमृत के समान नष्ट हो जाते हैं।
पूर्ण अहिंसा पर आधारित मुनि की भिक्षाचर्या अनेक नियम और उपनियमों से प्रतिबद्ध है। नवकोटी परिशुद्ध और ४२ दोषों से रहित भिक्षा-विधि का विधान न बौद्ध परम्परा में मिलता है और न ही वैदिक परम्परा में। भगवान् बुद्ध ने औद्देशिक, क्रीत और अभिहत आहार को कल्प्य माना है। जैन परम्परा का प्रसिद्ध ग्रंथ दशवैकालिक का प्रथम अध्ययन मुनि की अहिंसक भिक्षावृत्ति से प्रारम्भ होता है। साधु उत्तमपुरुष के भाषा में संकल्प करते हैं कि हम ऐसी आजीविका (भिक्षावृत्ति) प्राप्त करें, जिससे किसी को पीड़ा न पहुंचे। यह मुनि का स्वेच्छा से स्वीकृत व्रत है, किसी के द्वारा थोपा गया नहीं है।
साधु की भिक्षाचर्या को वृत्तिसंक्षेप भी कहा गया है। इसमें इच्छानुसार पदार्थ की उपलब्धि नहीं, अपितु जो कुछ मिल जाए, उसमें संतोष करने को वृत्तिसंक्षेप कहा गया है। निरवद्य भिक्षा का जो विधान सर्वज्ञों ने प्रस्तुत किया है, उसके प्रति अहोभाव प्रकट करते हुए आचार्य शय्यंभव दशवैकालिक सूत्र में कहते हैं-'अहो जिणेहिं असावज्जा, वित्ती साहूण कप्पिया।'
. अष्टकप्रकरण में हरिभद्र ने भिक्षा से सबन्धित तीन प्रकरण लिखे हैं। भिक्षाष्टक प्रकरण में उन्होंने तीन प्रकार की भिक्षाचर्याओं का उल्लेख किया है-१. सर्वसम्पत्करी २. पौरुषघ्नी ३. वृत्तिभिक्षा। माधुकरी भिक्षा से दोषों को टालते हुए शुद्ध भिक्षा ग्रहण करना सर्वसम्पत्करी भिक्षा है। श्रमण वेश में श्रम न करके साधुत्व के प्रतिकूल आचरण द्वारा भिक्षा प्राप्त करना पौरुषघ्नी भिक्षा है तथा दीन, हीन, अपंग एवं निर्धन के द्वारा आजीविका के रूप में जिस भिक्षावृत्ति का सहारा लिया जाता है, वह वृत्तिभिक्षा है। निर्ग्रन्थ साधु न तो पौरुषघ्नी भिक्षा करता है और न ही वृत्तिभिक्षा। वह सर्वसम्पत्करी भिक्षा के द्वारा अपनी
१. उत्त २/२८ ; सव्वं से जाइयं होइ, नत्थि किंचि अजाइयं। ६. दश १/४ वयं च वित्तिं लब्भामो, न य कोइ उवहम्मई। २. मूला ९३९ ; जोगेसु मूलजोगं, भिक्खाचरियं च
७. सम ६/३। वणियं सुत्ते।
८. अष्टकप्रकरण ५/१; ३. व्यभा २४८४, २४८५।।
सर्वसम्पतकरी चैका, पौरुषघ्नी तथाऽपरा। ४.बृभा ४७८०; अणवज्जं निरुवहयं, भंजंति य साहणो भिक्खं ।
वृत्तिभिक्षा च तत्त्वज्ञैरिति भिक्षा त्रिधोदिता॥ ५. चा. सा. ६८/२।
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४४
पिंडनियुक्ति
आवश्यकता की पूर्ति करता है, जिसे माधुकरी भिक्षा या गोचरी भी कहा जाता है। जैसे भ्रमर फूलों से थोड़ा-थोड़ा रस ग्रहण करता है, जिससे फूलों को पीड़ा नहीं होती है और उसकी तृप्ति भी हो जाती है, वैसे ही साधु भी गृहस्थ के लिए बनाए गए आहार में से थोड़ा-थोड़ा आहार ग्रहण करे, जिससे गृहस्थों को कष्ट न हो और साधु की जीवन-यात्रा भी सम्यक् रूप से चलती रहे।
उत्तराध्ययन सूत्र एवं ऋषिभाषित' ग्रंथ में साधु की भिक्षा के लिए कापोती वृत्ति का उल्लेख भी मिलता है। जिस प्रकार कपोत धान्य कण को चुगते वक्त हर क्षण सशंक रहता है, उसी प्रकार भिक्षाचर्या में प्रवृत्त मुनि एषणा के दोषों के प्रति सशंक रहता है। मुनि की भिक्षा का एक विशेषण है-अज्ञातउञ्छ। भिक्षु सामुदानिक रूप से अज्ञातकुलों से अर्थात् पहले निर्देश दिए बिना भिक्षा करता है।
मुनि नवकोटि विशुद्ध आहार ग्रहण करता है, नवकोटि का तात्पर्य है कि साधु आहार हेतु न स्वयं वध करता है, न वध करवाता है और न ही वध करने वाले का अनुमोदन करता है। वह न स्वयं पकाता है, न पकवाता है और न ही पकाने का अनुमोदन करता है। मुनि न स्वयं क्रय करता है, न क्रय करवाता है
और न ही क्रीत का अनुमोदन करता है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार मन, वचन और काया के द्वारा कृत, कारित और अनुमोदन नहीं करता। तीन को तीन का गुणन करने पर नवकोटि परिशुद्ध भिक्षा होती
पिण्डकल्पिक अर्थात् भिक्षा करने के योग्य कौन होता है, उसकी अर्हताएं क्या होती हैं, इसका आचार्यों ने विस्तार से विवेचन किया है। इसका कारण यह है जिस मुनि को भिक्षाविधि या उसके नियमों का ज्ञान नहीं होता, वह सम्यक् एषणा नहीं कर सकता। व्यवहारभाष्य के अनुसार प्राचीन काल में आचारांग के आमगंधी सूत्र को अर्थतः तथा सूत्रतः पढ़ लेने पर मुनि पिण्डकल्पिक होता था लेकिन वर्तमान में दशवैकालिक के पिण्डैषणा अध्ययन को पढ़ लेने पर पिण्डकल्पी हो जाता है। बृहत्कल्पभाष्य में स्पष्ट उल्लेख है कि जिसने आचारचूला गत पिण्डैषणा तथा दशवैकालिक का पांचवां पिण्डैषणा अध्ययन नहीं पढ़ा, उसको गोचरी भेजने पर आचार्य को चार गुरुमास (उपवास) का प्रायश्चित्त होता है। अर्थ बताए बिना भेजने पर, अर्थ बताने पर भी सामने वाले को अधिगत नहीं हुआ है अथवा श्रद्धा नहीं हुई है, उसको भेजने पर, श्रद्धा होने पर भी जिसकी परीक्षा नहीं हुई, उसको भेजने पर चार-चार लघुमास (आयम्बिल) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है।
१. दश १/२। २. इसि. १२/२। ३. उ. १९/३३, शांटी प. ४५६, ४५७। ४. दश.९/३/४ ; अन्नायउंछं चरई विसुद्ध,
जवणट्ठया समुयाणं च निच्चं ।
५. स्था ९/३०, दशनि २१९ । ६. मूला ८१३, टी. पृ. ६१ । ७. व्यभा १५३२। ८. बृभा ५३१, टी पृ. १५४ ।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
भिक्षावृत्ति एवं भीख में अंतर
साधु की भिक्षाचरी और दीन-हीन व्यक्ति की भीख में जमीन-आसमान का अंतर है। प्रथम तो भिक्षुक की भीख में कोई नियम-प्रतिबद्धता नहीं होती, वह दीन स्वरों में एक के बाद दूसरे घर से मांग करता रहता है, जबकि साधु अदीनभाव से (दश ५/२/२६) आत्मसम्मान के साथ संयमयोगों की सिद्धि हेतु दूसरों के लिए कृत एवं निष्पन्न भिक्षा ग्रहण करता है। भिक्षुक भविष्य की चिन्ता के लिए भी धन अथवा पदार्थ का संग्रह करता है, जबकि साधु प्रातःकाल लाई खाद्य वस्तु का शाम के लिए भी संग्रह नहीं करता अर्थात् प्रथम प्रहर में लाई हुई भिक्षा का वह अंतिम प्रहर में उपभोग नहीं कर सकता।' साधु मान, मनुहार और हठपूर्वक थोड़ा-थोड़ा ग्रहण करता है, जबकि भिक्षुक देय वस्तु सारी लेने पर भी और अधिक लेने की आकांक्षा रखता है। साधु अलाभो त्ति न सोएज्जा-अर्थात् भिक्षा न मिलने पर दुःख की अनुभूति न करके समभाव में स्थित रहता है, किसी की अवहेलना नहीं करता, जबकि भिक्षुक भीख न मिलने पर कभी-कभी उत्तेजित होकर अनर्गल प्रलाप भी करने लगता है। साधु अनेक घरों में घूमकर श्रमपूर्वक भिक्षा ग्रहण करता है, जबकि भिखारी एक घर से भी अपनी उदरपूर्ति कर लेता है। महावीर ने तो साधु के स्वाभिमान को इतना जीवन्त रखा है कि यदि भिखारी या अन्य भिक्षाचर घर में पहले से आए हुए हों तो मुनि उस घर में प्रवेश न करे। मुनि के लिए भिक्षा कितनी बार
आगमों के अनुसार नित्यभक्तिक मुनि के लिए दिन का तीसरा प्रहर भिक्षा का काल माना गया है। दशाश्रुतस्कन्ध में २० असमाधि-स्थानों में एक असमाधि-स्थान यह है कि सूर्योदय से सूर्यास्त तक खाते रहना। एगभत्तं च भोयणं (दश ६/२२) उल्लेख साधु के आहार-संयम की ओर संकेत करता है। उपवास-कर्ता मुनि को भी एक बार ही भिक्षार्थ जाना अनुज्ञात है लेकिन यदि आहार-पानी पर्याप्त मात्रा में नहीं मिला हो तो दो बार जाया जा सकता है।
बेले की तपस्या वाले के लिए दो गोचरकाल तथा तेले की तपस्या वाले के लिए तीन गोचरकाल अनुज्ञात हैं। तेले से अधिक तपस्या करने वाले के लिए तीन गोचरकाल अनुज्ञात हैं।' बेले की तपस्या वाला दो बार भिक्षार्थ इसलिए जा सकता है क्योंकि बेले आदि के तप में आंत सिकुड़ जाती है अत: अधिक बार खाने से पुन: बेला आदि तप करने का बल प्राप्त हो जाता है तथा आहार भी ठंडा नहीं होता।
१. निभा ४१४१। २. दश ५/२/६। ३. दश ५/२/१२,१३। ४. उ २६/१२ ; तइयाए भिक्खायरियं ।
५.दश्रु १/३। ६. बृभा १६९८, टी पृ. ४९९, दश्रु ८/६०। ७. बृभा १६९७, १६९८, टी पृ. ४९९ । ८. बृभा १६९९, टी पृ. ४९९, ५००।
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पिंडनियुक्ति
यदि एक बार लाकर उसे शाम के लिए रख दिया जाता है तो ठंडा भोजन आहार करने की अनिच्छा का हेतु भी बन सकता है अतः बेले का तप करने वाले को दो बार भिक्षा जाना अनुज्ञात है।
यदि उपवासकर्ता तीसरी बार भिक्षार्थ जाता है तो उसे लघुमास (पुरिमार्ध), चौथी बार जाने पर गुरुमास (एकासन), पांचवीं बार जाने पर चारलघु (आयम्बिल), छठी बार जाने पर चारगुरु (उपवास), सातवीं बार जाने पर छहलघु, आठवीं बार भिक्षार्थ जाने पर छहगुरु, नौवीं बार जाने पर छेद, दसवीं बार जाने पर मूल, ग्यारहवीं बार जाने पर अनवस्थाप्य तथा बारहवीं बार भिक्षार्थ जाने पर पाराञ्चिक प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार बेले वाले के लिए बारहवीं बार भिक्षार्थ जाने पर पाराञ्चिक प्रायश्चित्त का विधान है। अष्टमभक्तिक- तेले वाले के लिए चौथी बार से प्रारम्भ करके तेरहवीं बार भिक्षार्थ जाने पर पाराञ्चिक प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है ।
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दिगम्बर परम्परा के अनुसार सूर्योदय की तीन घड़ी के बाद तथा सूर्यास्त की तीन घड़ी पहले का मध्यकाल मुनि के लिए आहार का काल होता है। मध्य काल में तीन मुहूर्त आहार करना उत्कृष्ट, दो मुहूर्त करना मध्यम तथा एक मुहूर्त आहार करना जघन्य है। एक मुहूर्त्त आहार करना उत्कृष्ट आचरण, दो मुहूर्त्त करना मध्यम आचरण तथा तीन मुहूर्त्त तक आहार करना जघन्य आचरण है । ' एषणा एवं उसके दोष
साधु का चलना, बोलना, खाना, उपकरण आदि रखना तथा उत्सर्ग- ये सभी क्रियाएं गृहस्थ से भिन्न होती हैं अतः उसकी इन सम्यक् क्रियाओं को समिति कहा गया है। पांच समितियों में भिक्षाचर्या से सम्बन्धित समिति का नाम एषणा है। जैन आचार्यों ने शुद्ध भिक्षा वृत्ति को बहुत महत्त्व दिया । व्रत, शील आदि गुण भिक्षाचर्या या एषणा की विशुद्धि पर ही स्थित रहते हैं। भाष्य साहित्य में उल्लेख मिलता है कि जहांपुर: कर्म आदि एषणा के दोष लगें, वहां साधु को भिक्षार्थ नहीं जाना चाहिए। एषणा में अजागरूकता बीसवां असमाधिस्थान है। इसका स्पष्टीकरण करते हुए टीकाकार अभयदेवसूरि कहते हैं कि जो एषणा में उपयुक्त नहीं होता, वह हिंसा में प्रवृत्त होता है। जब दूसरे मुनि उसे सावधान करते हैं, तब वह कलह में प्रवृत्त होकर स्वयं असमाधिस्थ रहता है तथा दूसरों की असमाधि में निमित्तभूत बनता है ।' आचार्य बट्टकेर के अनुसार जो भिक्षा, वचन और हृदय - इन तीनों का शोधन करके विचरण करते हैं, वे जिनशासन में सुस्थित साधु कहलाते हैं। आचार्य कुंदकुंद ने तो यहां तक कह दिया कि जो मुनि शुद्ध भिक्षा की एषणा करता है, वह आहार करता हुआ भी अनाहारी है।' उत्तराध्ययन में स्पष्ट उल्लेख है कि जो औद्देशिक, क्रीत
१. बृभा १७००, १७०१, टी पृ. ५००।
२. मूला ४९२, टी पृ. ३७८, ३७९ ।
३. मूला १००५ ।
४. बृभा ५४४१; जहियं एसणदोसा, पुरकम्माई न तत्थ गंतव्वं । ५. दश्रु १/३ ।
६. समटी पृ. २६; अनेषणां न परिहरति, प्रेरितश्चासौ साधुभिः कलहायते..., चात्मपरयोरसमाधिकरणादसमाधिस्थानम् ।
७. मूला १००६ ।
८. प्रव ३/२७ ।
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पिण्डनिर्युक्ति : एक पर्यवेक्षण
और नित्या आदि अनेषणीय को नहीं छोड़ता, वह अग्नि की भांति सर्वभक्षी होकर पापकर्म का अर्जन करता है और मरकर दुर्गति को प्राप्त करता है। चूर्णिकार जिनदास के अनुसार यदि एषणीय आहार पर्याप्त मात्रा में न मिले तो मुनि कम करते-करते केवल एक ही कवल खाकर रह जाए पर अनेषणीय आहार का भोग नहीं करे।
पंचाशक प्रकरण में एषणा के तीन एकार्थक मिलते हैं - गवेषणा, अन्वेषणा और ग्रहण । एषणा का अर्थ है - आहार की अन्वेषणा, प्राप्ति और परिभोग में यतना रखना। इसके तीन भेद हैं- गवेषणा, ग्रहणैषणा, परिभोगैषणा ।
गवेषणा में उद्गम और उत्पादन से सम्बन्धित १६ - १६ दोष, ग्रहणैषणा में शंकित आदि १० दोष तथा परिभोगैषणा में संयोजना आदि पांच दोषों का समाहार होता है। इन सब दोषों की गणना करने पर भिक्षाचर्या के ४७ दोष होते हैं लेकिन ग्रंथों में प्रायः भिक्षा के ४६ दोषों का ही उल्लेख मिलता है। इसका स्पष्टीकरण करते हुए टीकाकार कहते हैं कि उद्गम के १६ दोषों में अध्यवपूरक का मिश्रजात में समावेश
से उद्गम के १५ दोष गृहीत होते हैं। इससे भिक्षाचर्या के ४६ दोष होते हैं।' परिभोगैषणा के ५ दोषों का समावेश न किया जाए तो भिक्षा के बयालीस दोष ही होते हैं। आचार्य कुंदकुंद के अनुसार ४६ दोषों से युक्त आहार को अशुद्ध भाव से खाने वाला मुनि तिर्यञ्चगति में अवश होकर महान् दुःखों का भोग करता है। चूर्णिकार जिनदास ने एषणा शब्द से केवल ग्रहणैषणा के शंकित आदि १० दोषों का समावेश किया है। उत्तराध्ययन में तीनों प्रकार की एषणाओं की विशुद्धि का निर्देश दिया है।' दशवैकालिक नियुक्ति के अनुसार तीनों प्रकार की एषणाओं का वर्णन कर्मप्रवाद पूर्व से उद्धृत है । पिण्डनिर्युक्ति जैसे बृहद् ग्रंथ से इस बात के माहात्म्य को जाना जा सकता है कि केवल भिक्षा-विधि पर पूरा एक स्वतंत्र ग्रंथ लिख दिया गया। पिण्डनिर्युक्ति की प्रथम गाथा में एषणा एवं परिभोगैषणा को अष्टविध पिण्डनिर्युक्ति में समाविष्ट कर दिया गया है, उसी बात को मूलाचार में अष्टविध पिण्डविशुद्धि में समाविष्ट किया है - १. उद्गम २. उत्पादन ३. एषणा ४. संयोजना ५. प्रमाण ६. इंगाल ७. धूम ८. कारण । १० उद्गम दोष
आहार पकाते समय या देते समय दाता के द्वारा जो दोष या स्खलनाएं उत्पन्न होती हैं, वे उद्गम षोडश उत्पादनदोषा, दश एषणादोषाः संयोजनादीनां च पञ्चकमिति ।
१. उ२०/४७ ।
२. निचू भा. १ पृ. १४५ ; जति न लब्भति पडिपुण्णमाहारो
तो एगूणे भुंजउ, एवं एगहाणीए जाव एगलंबणं भुंजर, माय असि भुंज ।
३. पंचा १३/२५ ; एसण गवेसणऽण्णेसणा य गहणं च होति एगट्ठा । ४. उ २४ /११ ।
५. पिनि ३१५, मवृ प. १७६; तदेवं भोजनविधौ सर्वसङ्ख्यया षट्चत्वारिंशद्दोषा बोद्धव्याः, तद्यथा - पञ्चदश उद्गमदोषाः, अध्यवपूरकस्य मिश्रजातेऽन्तर्भावविवक्षणात्,
४७
६. भापा १०१;
७.
छायालदोस दूसियमसणं गसिउं असुद्धभावेण । पत्तो सि महावसणं, तिरियगईए अणप्पवसो ॥ दशजिचूपृ. ६७ ; एषणागहणेण दसएसणादोसपरिसुद्धं गेण्हति । उ २४ / ११, १२ ।
८.
९.
दशनि १५ ; कम्मप्पवायपुव्वा पिंडस्स तु एसणा तिविधा । १०. मूला ४२१ ।
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८
पिंडनियुक्ति दोष कहलाते हैं। ग्रंथकार ने उद्गम शब्द के तीन पर्यायों का उल्लेख किया है-उद्गम, उद्गोपना और मार्गणा। पंचाशक प्रकरण एवं पंचवस्तु में आचार्य हरिभद्र ने उद्गम, प्रसूति और प्रभव-इन तीन शब्दों को उद्गम का एकार्थक माना है। अविशोधि एवं विशोधि कोटि
नियुक्तिकार ने द्रव्य उद्गम में ज्योतिष्, तृण, ऋण आदि अनेक वस्तुओं के उद्गम के बारे में उल्लेख किया है। इस संदर्भ में लड्डुकप्रियकुमार के कथानक का वर्णन किया है। उद्गम के सोलह दोषों को दो कोटियों में विभक्त किया जा सकता है-अविशोधिकोटि और विशोधिकोटि । जिसके द्वारा गच्छ में अनेक दोष उत्पन्न होते हैं, वह कोटि है। कोटि नौ प्रकार की होती है-स्वयं हनन करना, दूसरे से हनन करवाना तथा हनन का अनुमोदन, पचन, पाचन तथा पाचन का अनुमोदन-ये छह कोटियां अविशोधि कोटि के अन्तर्गत तथा अंतिम तीन-स्वयं क्रय करना, क्रय करवाना तथा क्रय का अनुमोदन करना-ये तीन विशोधि कोटि के अन्तर्गत हैं। इन नौ को राग-द्वेष से गुणा करने पर १८, मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति से गुणा करने पर २७ तथा २७ को राग-द्वेष से गुणा करने पर ५४ भेद होते हैं। प्रकारान्तर से मूल ९ भेदों का दशविध श्रमणधर्म से गुणा करने पर ९० भेद होते हैं। ९० का ज्ञान, दर्शन, चारित्र से गुणा करने पर २७० भेद होते हैं।
अविशोधिकोटि को उद्गमकोटि भी कहा जा सकता है। दोष से स्पृष्ट आहार को उतनी मात्रा में निकाल देने पर शेष आहार मुनि के लिए कल्पनीय हो जाता है, वह विशोधिकोटि कहलाता है तथा जो आहार जिस दोष से दूषित है, उस आहार को अलग करने पर भी जो आहार साधु के लिए कल्पनीय नहीं होता, वह अविशोधिकोटि कहलाता है। आधाकर्म, औद्देशिक, पूतिकर्म, मिश्रजात, बादर प्राभृतिका और अध्यवतर के अंतिम दो भेद-ये अविशोधिकोटि के अन्तर्गत आते हैं। इसमें भी औदेशिक, मिश्रजात और अध्यवतर के कुछ भेद अविशोधिकोटि में तथा कुछ भेद विशोधिकोटि के अन्तर्गत समाविष्ट होते हैं। जैसे औद्देशिक के अन्तर्गत विभाग औद्देशिक के तीनों भेद अविशोधिकोटि के अन्तर्गत आते हैं। अध्यवपूरक के अंतिम दो भेद स्वगृहपाषंडिमिश्र तथा स्वगृहसाधुमिश्र-ये दो अविशोधिकोटि में तथा स्वगृहयावदर्थिकमिश्र विशोधिकोटि के अन्तर्गत समाविष्ट होते हैं।
१. पिनि ५६।
७. पिनि १९२/६। २. पंचा १३/४, पंव ७४०।
८. मवृ प. ११६; यद्दोषस्पृष्टभक्ते तावन्मात्रेऽपनीते सति शेषं ३. पिनि ५७/१।
कल्पते स दोषो विशोधिकोटिः, शेषस्त्वविशोधिकोटिः। ४. कथा के विस्तार हेतु देखें परि.३, कथा सं. ३। ९. पिनि १९०। ५. जीभा १२८७ ; कोडिज्जंते जम्हा, बहवो दोसा उ सहियए १०. कुछ आचार्य विभाग के अन्तर्गत कर्म औद्देशिक के गच्छं। कोडि त्ति तेण भण्णति।
अंतिम तीन भेदों को अविशोधि कोटि में रखते हैं ६.जीभा १२८८-९२, पिनि १९२/७, मवृ प. ११९, १२०। (पिंप्रटी प. ४९)।
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पिण्डनिर्युक्ति : एक पर्यवेक्षण
अविशोधिकोटि के अवयव से युक्त लेपकृद् या अलेपकृद् पदार्थ यदि विशुद्ध आहार के साथ मिल जाता है तो उस आहार को त्यक्त करने के पश्चात् भी पात्र को कल्पत्रय - तीन बार साफ करना आवश्यक है अन्यथा पूति दोष होता है। ग्रंथकार ने एक प्रश्न उपस्थित किया है कि कुछ व्यक्ति दौर्बल्य के कारण इस बात को स्वीकार करते हैं कि किसी ने आधाकर्मिक ओदन तैयार किया, वहां ओदन आधाकर्मिक है लेकिन शेष अवश्रावण, कांजी आदि आधाकर्मिक नहीं है क्योंकि वह साधु के लिए नहीं बनाया गया अतः उससे संस्पृष्ट आहार पूर्ति नहीं होता । भाष्यकार एवं टीकाकार ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि भद्रबाहु स्वामी मानते हैं कि ओदन यदि आधाकर्मिक है तो कांजिक और अवश्रावण भी आधाकर्मिक ही होगा ।"
शेष ओघ औद्देशिक, मिश्रजात का आद्य भेद ( यावदर्थिकमिश्र), उपकरणपूति, स्थापना, सूक्ष्म प्राभृतिका, प्रादुष्करण, क्रीत, प्रामित्य, परिवर्तित, अभ्याहृत, उद्भिन्न, मालापहृत, आच्छेद्य, अनिसृष्ट, अध्यवपूरक का आद्य भेद (स्वगृहयावदर्थिक ) – ये सब दोष अविशोधिकोटि के अन्तर्गत आते हैं। अविशोधिकोटि आहार के स्पृष्ट होने पर कल्पत्रय से शोधन करने की आवश्यकता नहीं रहती ।
अविशोधि कोटि के संदर्भ में ग्रंथकार ने विवेक की विस्तार से व्याख्या की है । चतुर्भंगी के माध्यम से स्पष्ट करते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि शुद्ध शुष्क चने आदि में यदि विशोधिकोटि शुष्क वल्ल आदि गिर जाएं तो बिना जल-प्रक्षेप के सुगमता से उनको अलग किया जा सकता । यदि शुद्ध शुष्क चने आदि में विशोधिकोटिक आर्द्र तीमन आदि गिर जाए तो उसमें कांजिक आदि डालकर अशुद्ध तीमन को बाहर निकाला जा सकता है। तीसरे भंग में यदि शुद्ध आर्द्र तीमन में विशोधिकोटिक शुष्क चने आदि का प्रक्षेप हो जाए तो हाथ डालकर चने आदि को निकाला जा सकता है तथा चतुर्थ भंग में यदि अशुद्ध आर्द्र तीन में विशोधिकोटि आर्द्र तीमन का मिश्रण हो जाए उस स्थिति में यदि दुर्लभ द्रव्य है, जिसकी पुनः प्राप्ति संभव नहीं है तो अशठ भाव से उतना अंश निकाल लिया जाए, शेष का परित्याग कर दिया जाए। यदि उसके बिना काम चलता हो तो सम्पूर्ण का परित्याग कर दिया जाए क्योंकि आर्द्र से आर्द्र को पृथक् करना संभव नहीं होता। उद्गम दोष के सोलह दोष इस प्रकार हैं
१. आधाकर्म
४. मिश्रजात
२. औद्देशिक ३. पूतिकर्म
१. जीभा १३०० - १३०२, मवृ प. ११७ । २. मवृ प. ११७ ।
५. स्थापना
६. प्राभृतिका
४९
३. पिनि १९२ / २-५, मवृ प. ११८, ११९, जीभा १३०८-११ । ४. मवृ प. ११८; इह निर्वाहे सति विशोधिकोटिदोषसम्मिश्रं सकलमपि परित्यक्तव्यम्, अनिर्वाहे तु तावन्मात्रम् ।
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पिंडनियुक्ति
७. प्रादुष्करण
१२. उद्भिन्न ८. क्रीत
१३. मालापहृत ९. अपमित्य अथवा प्रामित्य १४. आच्छेद्य १०. परिवर्तित
१५. अनिसृष्ट ११. अभिहृत
१६. अध्यवपूरक १. आधाकर्म
उद्गम का प्रथम दोष आधाकर्म है। साधु को आधार मानकर प्राणियों का वध करके जो आहार आदि निष्पन्न किया जाता है, वह आधाकर्म है। नवांगी टीकाकार अभयदेव सूरि ने आधाकर्म को स्पष्ट करते हुए कहा है कि साधु को ध्यान में रखकर सचित्त वस्तु को अचित्त करना, गृह आदि बनाना तथा वस्त्र आदि बुनना आधाकर्म है। भाष्यकार के अनुसार जीवघात से निष्पन्न ही आधाकर्म नहीं होता। अचित्त वस्तु भी यदि साधु के लिए निष्पन्न की जाए तो वह आधाकर्म है। दशाश्रुतस्कन्ध में इक्कीस शबल दोषों में आधाकर्म आहार के भोग को चौथा शबल दोष माना है। बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार आधाकर्म दोष दो प्रकार का होता है-१. मूलगुण का उपघात करने वाला २. उत्तरगुणों का उपघात करने वाला।
जर्मन विद्वान् लायमन ने 'आहाकम्म' की संस्कृत छाया यथाकाम्य की है। इसके अनुसार साधु की इच्छा के अनुसार आहार निष्पन्न करना आधाकर्म है। इसी कल्पना के आधार पर भगवती भाष्य में आचार्य महाप्रज्ञ आधाकर्म शब्द की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि यथाकाम्य आहार करने वाला मुनि पृथ्वीकाय आदि षड्जीवनिकायों के प्रति निरनुकम्प होता है। इससे यह फलित होता है कि यथाकाम्य आहार का अर्थ है-गृहस्थ अपनी इच्छा के अनुसार मुनि के लिए कोई वस्तु बनाना चाहता है, मुनि उसके लिए स्वीकृति दे देता है अथवा मुनि अपनी इच्छानुकूल भोजन के लिए गृहस्थ को प्रेरित करता है।' .
उद्गम के सभी दोषों में आधाकर्म दोष अधिक सावध है। नियुक्तिकार कहते हैं कि जैसे वमन हो जाने के बाद वह भोजन अभोज्य बन जाता है, वैसे ही आधाकर्म, भोजन मुनि के लिए अनेषणीय और अभोज्य होता है। प्रकारान्तर से लौकिक उदाहरण देते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि जैसे वेद आदि धार्मिक ग्रंथों में भेड़ी, ऊंटनी का दूध, लहसुन, प्याज, मदिरा और गोमांस आदि अखाद्य और असम्मत हैं, वैसे ही
१. पिनि ६२। २. भटी भाग १ प.१०२; आधया-साधुप्रणिधानेन यत्सचेतन-
मचेतनं क्रियते अचेतनं वा पच्यते चीयते वा गृहादिकं
व्यूयते वा वस्त्रादिकं तदाधाकर्म। ३. बृभा १७६३।
४. दश्रु २/३। ५. बृभा १०८४; कम्मे आदेसदुर्ग, मूलुत्तरे। ६. Doctrine of Jainap.2721 ७. भग भा. १ पृ. १८५। ८. पिनि ८५।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
५१ जिनशासन में आधाकर्म भोजन अखाद्य और असम्मत है। आचार्य कुंदकुंद के अनुसार आधाकर्म आहार में रत मुनि मोक्षमार्ग को त्यक्त कर देता है।
___ आधाकर्म दोष की भयावहता इस बात से स्पष्ट है कि आधाकर्म भोजन ज्ञात होने पर मुनि तीन दिन तक उस घर में भोजन ग्रहण नहीं कर सकता। वह घर तीन दिन तक पूतिदोष युक्त होता है। भगवती सूत्र में स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि आधाकर्म ग्रहण करता हुआ निर्ग्रन्थ आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्म-प्रकृतियों को गाढ़ बंधन वाली, दीर्घकालिक स्थिति वाली, तीव्र अनुभाव वाली तथा बहुप्रदेश परिमाण वाली करता है। आचार्य वट्टकेर कहते हैं कि जो षट्काय जीवों के घात से निष्पन्न आधाकर्म भोजन ग्रहण करता है, वह अज्ञानी और जिह्वेन्द्रिय का लोभी मुनि श्रमण न होकर श्रावक के समान हो जाता है। मूलाचार के टीकाकार तो यहां तक कहते हैं कि वह धर्म से रहित होने के कारण श्रावक भी नहीं रहता। जो पचन-पाचन में अनुमोदन युक्त चित्त वाला साधु इनसे होने वाली हिंसा से नहीं डरता, वह आहार करते हुए भी स्वघाती है, उत्तमार्थ से भ्रष्ट उस मुनि का न इहलोक है और न ही परलोक । संयम से हीन उसका मुनिवेश धारण करना व्यर्थ होता है।
आधाकर्म दोष के भारीपन को इस बात से जाना जा सकता है कि यदि मानसिक रूप से भी साधु आधाकर्म की इच्छा कर लेता है तो वह प्रासुक द्रव्य लेता हुआ भी कर्मों का बंध कर लेता है। इस संदर्भ में सूत्रकृतांग में स्पष्ट उल्लेख है कि यदि साधु को ज्ञात हो जाए कि यह आधाकर्म आदि दोष से युक्त आहार है तो वह न उसे स्वयं खाए, न दूसरों को खिलाएं और न ही खाने वाले का अनुमोदन करे। आधाकर्म के द्वार
नियुक्तिकार ने नौ द्वारों के माध्यम से आधाकर्म शब्द की व्याख्या की है-१. आधाकर्म के नाम २. उसके एकार्थक ३. किसके लिए बनाया आधाकर्म? ४. आधाकर्म का स्वरूप ५. परपक्ष ६. स्वपक्ष ७. अतिक्रम, व्यतिक्रम आदि चार भूमिकाएं ८. आधाकर्म का ग्रहण ९. आज्ञा-भंग आदि दोष।
पिण्डविशुद्धिप्रकरण में भी नौ द्वारों का उल्लेख है लेकिन उनमें कुछ भिन्नता है। पिण्डनियुक्ति में प्रश्नवाचक रूप में द्वारों का संकेत है, जबकि पिण्डविशुद्धिप्रकरण में सर्वनाम के रूप में। वहां १. यत्जो (स्वरूप) २. यस्य-(जिसका) ३. यथा-जिस रूप में आधाकर्म दोष लगता है। ४. यादृश–वान्त
१. पिनि ८६/२।
स्यात् उभयधर्मरहितत्वात्। २. मोपा ७९; आधाकम्मम्मि रया, ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि। ६. मूला ९३०, ९३१ । ३. पिनि ११८ ; तिन्नि उ दिवसाणि पूइयं होति।
७. पिनि ९०। ४. भग १/४३६।
८. सू २/१/६५........ते चेतियं सिया तं णो सयं भंजइ, णो ५. मूला ९२९ टी पृ. १२८ ; अथवा न श्रमणो नापि श्रावकः अण्णेणं भुंजावेइ, अण्णं पि भुंजंतं ण समणुजाणइ...।
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पिंड
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आदि की उपमा द्वारा आधाकर्म की स्पष्टता ५. दोष ६. आधाकर्म आहार देने वाले श्रावक को दोष ७. यथापृच्छा - विधि - परिहार ८. छलना ९. शुद्धि |
आधाकर्म के नाम
इन नौ द्वारों में एक प्रश्न उपस्थित होता है कि ग्रंथकार ने नाम और एकार्थक – इन दो द्वारों का अलग-अलग निर्देश क्यों किया ? क्योंकि जो आधाकर्म के नाम हैं, वे ही एकार्थक हैं । इस प्रश्न के समाधान में यह कहा जा सकता है कि ग्रंथकार ने आधाकर्म के नाम में आठ शब्दों का उल्लेख किया है तथा एकार्थक में आधाकर्म, अधः कर्म आदि चार शब्दों का ही संकेत है। प्रतिसेवना आदि आधाकर्म के एकार्थक नहीं हो सकते लेकिन इनके द्वारा आधाकर्म का प्रयोग होता है अतः कारण में अभेद का उपचार करके प्रतिसेवना, प्रतिश्रवण, संवास और अनुमोदना को भी आधाकर्म नाम के अंतर्गत समाविष्ट कर दिया गया है।
अन्य साधु द्वारा आनीत आधाकर्म आहार को स्वयं खाने वाला तथा अन्य साधुओं को परोसने वाला साधु प्रतिसेवना दोष से युक्त होता है। जो साधु यह कहता है कि मैं आधाकर्म आहार नहीं लाया, मैं तो दूसरों द्वारा आनीत आहार का भोग कर रहा हूं अतः मैं शुद्ध हूं क्योंकि दूसरे के हाथ से अंगारे खींचने वाला व्यक्ति स्वयं दग्ध नहीं होता। इस बात का स्पष्टीकरण करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि ऐसी उपमा देने वाला साधु शास्त्र के अर्थ को नहीं जानता, वह मूढ़ है। स्वयं न लाने पर भी वह साधु प्रतिसेवना दोष से दूषित होता है ।
प्रतिसेवना आदि चारों पदों का स्पष्टीकरण करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि किसी मुनि ने चार साधुओं को आधाकर्म भोजन के लिए निमंत्रित किया। प्रथम मुनि ने निमंत्रण स्वीकार किया। दूसरे ने कहा कि मैं आधाकर्म आहार का भोग नहीं करूंगा, तुम लोग करो। तीसरा साधु उसको सुनकर मौन रहा लेकिन संवास उन्हीं के साथ किया और चौथे ने स्पष्ट रूप से प्रतिषेध करके उनके साथ रहना छोड़ दिया। प्रथम मुनि प्रतिसेवना दोष से दूषित हुआ, वह मन, वचन और काया - इन तीनों योगों से भी दूषित हुआ। दूसरे मुनि को प्रतिश्रवण का वाचिक दोष लगा, उपलक्षण से अनुमोदन रूप मानसिक दोष भी लगा। तीसरा मुनि, जो मौन रहा, उसको संवास के कारण मानसिक अनुमोदन का दोष लगा। चौथा मुनि इन सब दोषों से मुक्त
रहा।
आधाकर्म आहार का सेवन करने वाले के प्रतिसेवना आदि चारों दोष, प्रतिश्रवण करने वाले के तीन दोष, आधाकर्म भोजी के साथ रहने वाले के दो तथा अनुमोदन करने वाले के एक दोष लगता है। इनमें
१. पिनि ६८ / २, ३ ।
२. टीकाकार के अनुसार अन्य द्वारा आनीत आधाकर्म आहार
को भी यदि साधु साधर्मिक मुनियों को परोसता है तो भी वह प्रतिसेवना दोष से युक्त होता है (मवृ प. ४७)।
३. पिनि ६८ / १०,११ मवृ प. ४८ ।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
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अपराध की दृष्टि से प्रतिसेवना सबसे गुरु है, शेष क्रमश: लघु, लघुतर और लघुतम हैं। प्रतिश्रवण को और अधिक स्पष्ट करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि यदि आधाकर्म आहार की आलोचना करते समय आचार्य 'सुलब्ध'-तुमने अच्छा प्राप्त किया है, इस शब्द का प्रयोग करते हैं तो वे भी प्रतिश्रवण दोष के भागी होते हैं। संवास का अर्थ है-आधाकर्मभोजी के साथ रहना। संवास का निषेध क्यों किया गया, इसे स्पष्ट करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि आधाकर्म भोजन का अवलोकन, उसकी गंध तथा परिचर्चा सुविहित एवं रूक्षभोगी मुनि को भी आकृष्ट कर देती है अतः आधाकर्मभोजी के साथ संवास भी दोष का कारण बन सकता है। अनुमोदन का अर्थ है प्रशंसा करना। आधाकर्म का उपभोग न करने पर भी यदि मुनि ऐसा कहता है कि ये मुनि धन्य हैं, जो ऋतु के अनुकूल, स्निग्ध, स्वादिष्ट और पर्याप्त आहार सम्मान के साथ प्राप्त करते हैं, यह अनुमोदना भी उसे आधाकर्म दोष का भागी बना देती है। अनुमोदन करने वाला यद्यपि उसका भोग नहीं करता फिर भी गलती का समर्थन करने के कारण उसका दृष्टिकोण मिथ्या होता है अतः उसको हेय माना है। सूत्रकृतांग सूत्र के समाधि अध्ययन में स्पष्ट उल्लेख है कि साधु किसी भी स्थिति में आधाकर्म आहार की कामना न करे और न ही आधाकर्म की इच्छा रखने वालों की प्रशंसा या समर्थन करे। नियुक्तिकार ने इन चारों को स्पष्ट करने के लिए चार दृष्टान्तों का संकेत किया है-प्रतिसेवना में चोर, प्रतिश्रवण में राजपुत्र, संवास में पल्ली में रहने वाले वणिक् तथा अनुमोदना में राजदुष्ट का। आधाकर्म के एकार्थक
___ग्रंथकार ने आधाकर्म के तीन एकार्थकों का उल्लेख किया है- १. अध:कर्म २. आत्मघ्न और आत्मकर्म। सूयगडो में इसके लिए आहाकड-आधाकृत शब्द का प्रयोग भी हुआ है।
____ अधःकर्म-आधाकर्म आहार का ग्रहण करने से संयमस्थान, संयमश्रेणी, लेश्या तथा शुभ कर्मों की स्थिति में वर्तमान शुभ अध्यवसाय हीन से हीनतर होते हैं अतः कारण में कार्य का उपचार करके आधाकर्म का एक नाम अध:कर्म रखा गया है। इस बात को समझाने के लिए ग्रंथकार ने उपशान्तमोह चारित्र वाले मुनि का उदाहरण दिया है। उनके अनुसार छठे प्रमत्त संयत गुणस्थान वाले साधु की बात तो दूर, ग्यारहवें उपशान्त मोह चारित्र वाला साधु भी यदि आधाकर्म आहार ग्रहण करता है तो वह अपनी
१. पिनि ६८। २. पिनि ६८/४, मवृ प. ४६ । ३. पिंप्र १५, संवासो सहवासो कम्मियभोइहिं। ४. पिनि ६९/२। ५. पिंप्र १५ ; तप्पसंसाओ अणुमोयण त्ति।
६. पिनि ६९/४। ७. सू १/१०/११। ८. पिनि ६८/६, कथाओं के विस्तार हेतु देखें परि ३,
कथा सं ४-७। ९. सू१/१०/८1
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पिंडनियुक्ति आत्मा का अध:पतन कर लेता है। प्रकारान्तर से मूलाचार में इसी बात को दृष्टान्त द्वारा प्रकट किया गया है कि खड़े होकर वीरासन में कायोत्सर्ग, मौन, ध्यान करने वाला तथा उपवास, बेला आदि करने वाला साधु भी यदि आधाकर्म भोजन-ग्रहण में प्रवृत्त है तो उसके सभी योग निरर्थक हैं।
आधाकर्मग्राही अधोगति का तो आयुष्य बांधता ही है, अन्यान्य कर्मों को भी अधोगति के अभिमुख कर देता है। वह तीव्र-तीव्रतम भावों से बंधे हुए कर्मों का निधत्ति और निकाचना रूप में घनकरण करता हुआ प्रतिपल कर्मों का उपचय करता है, वे भारी कर्म उसे अधोगति में ले जाते हैं।' आत्मन
__ आधाकर्म आहार ग्रहण करने वाला प्राण और भूतों के हनन के साथ-साथ अपनी आत्मा के ज्ञान, दर्शन और चारित्र का घात भी कर देता है इसलिए आधाकर्म का एक नाम आत्मघ्न है। ग्रंथकार के अनुसार निश्चयनय से चारित्र का घात होने से ज्ञान और दर्शन का घात होता है लेकिन व्यवहारनय की अपेक्षा से चारित्र का घात होने पर ज्ञान और दर्शन के घात की भजना है। आत्मकर्म
आधाकर्म ग्रहण करने वाला मुनि अशुभ भाव में परिणत होकर परकर्म अर्थात् गृहस्थ के पचनपाचन आदि कर्म से स्वयं को जोड़ लेता है। संक्लिष्ट परिणामों के कारण वह कर्मों का बंध करता है अतः आधाकर्म का एक नाम आत्मकर्म भी है।
आत्मकर्म के संदर्भ में एक प्रश्न उपस्थित होता है कि परक्रिया अन्यत्र कैसे संक्रान्त हो सकती है? यदि ऐसा संभव हो तब तो क्षपकश्रेणी में आरूढ़ मुनि करुणावश सबके कर्मों को अपने भीतर संक्रान्त करके उनका क्षय कर सकता है लेकिन ऐसा कभी संभव नहीं होता। इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य यशोभद्रसूरि ने मृग और कूट का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है, जिसकी व्याख्या करते हुए टीकाकार मलयगिरि कहते हैं कि जैसे दक्ष और अप्रमत्त मृग जाल से बचकर चलता है। यदि किसी कारणवश वह जाल में फंस भी जाता है तो जाल बंद होने से पूर्व वहां से बचकर निकल जाता है लेकिन प्रमत्त और अकुशल मृग वहां फंस जाता है अतः परप्रयुक्ति मात्र से कोई बंधनग्रस्त नहीं होता। इसी प्रकार केवल गृहस्थ द्वारा आधाकर्म आहार बनाने मात्र से साधु-पापकर्म का बंधन नहीं करता। जो मुनि प्रमत्त होकर अशुभ अध्यवसायों से आधाकर्म आहार को ग्रहण करता है, उसके बारे में प्रतिश्रवण करता है, आधाकर्मभोजी के साथ संवास करता है तथा उसकी अनुमोदना करता है, वह परकर्म-गृहस्थ के पचन-पाचन आदि कर्म को आत्मकर्म
१. पिनि ६४/१, मवृ प. ४१। २. मूला ९२४। ३. पिनि ६४/२,३।
४. मवृ प. ३६, जीभा १११७। ५. पिनि ६६/१, मवृ प. ४२, ४३, जीभा १११८ । ६. पिनि ६७, मवृ प. ४३। ७. मवृ प. ४४।
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पिण्डनिर्युक्ति : एक पर्यवेक्षण
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बना लेता है लेकिन जो मुनि मन, वचन और काया के योगों से अप्रमत्त होता है, वह बंधन को प्राप्त नहीं होता। यही बात मूलाचार में मत्स्य के दृष्टान्त से समझाई गई है, जैसे- मछलियों के लिए सरोवर में मादक पदार्थ डालने पर मछलियां ही उन्मत्त होती हैं, मेंढ़क नहीं। वैसे ही गृहस्थ द्वारा बनाए गए भोजन को विशुद्ध भाव से लेने वाला मुनि दोष से लिप्त नहीं होता ।
परकृत कर्म बंधन का कारण कैसे हो सकता है, इसे जीतकल्पभाष्य में दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है, जैसे परप्रयुक्त विष दूसरे के लिए मारक होता है, वैसे ही परकृत क्रिया भी जीव के भाव विशेष से बंधन का कारण बन जाती है।"
किसके लिए निर्मित आहार आधाकर्म
आधाकर्म से सम्बन्धित तीसरा द्वार है- 'कस्स' अर्थात् किसके लिए निर्मित आहार आधाकर्म कहलाता है। इसका स्पष्टीकरण करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि नियमतः साधर्मिक के लिए निर्मित आहार ही आधाकर्मिक कहलाता है।"
इस संदर्भ में पिण्डनिर्युक्ति में साधर्मिक के १२ निक्षेप किए गए हैं, साथ ही २२ गाथाओं में उनकी विस्तार से व्याख्या भी है। यहां साधर्मिक से सम्बन्धित आधाकर्म के कुछ विशेष तथ्यों का उल्लेख किया जा रहा है
किसी व्यक्ति के पिता का नाम देवदत्त है। उसकी मृत्यु के बाद पुत्र यह संकल्प करे कि गृहस्थ हो या साधु, मैं देवदत्त नामक सभी व्यक्तियों को आहार दूंगा। ऐसी स्थिति में नाम साधर्मिक होने से देवदत्त नामक साधु के लिए वह आहार कल्प्य नहीं होता । यदि गृहस्थ यह संकल्प करे कि देवदत्त नामक सभी गृहस्थों को आहार करवाऊंगा तो इस संकल्प में देवदत्त नामक मुनि के लिए वह आहार कल्प्य होता है। यदि उसका संकल्प यह होता है कि देवदत्त नामक सभी साधुओं को आहार दूंगा तो इस मिश्र संकल्प में देवदत्त नामक साधु के लिए वह आहार अकल्प्य है लेकिन विसदृश नाम वाले चैत्र आदि सभी साधुओं के लिए वह आहार कल्पनीय है । यदि गृहस्थ का यह संकल्प होता है कि जितने अन्य दर्शनी देवदत्त नामक साधु हैं, उनको आहार दूंगा तो इस संकल्प में साधु को वह आहार लेना कल्प्य है। यदि गृहस्थ ने सभी श्रमणों के लिए संकल्प किया है तो यह संकल्प मिश्र होने से निर्ग्रन्थ साधु भी उसमें सम्मिलित होने से वह आहार साधु के लिए कल्प्य नहीं है। यदि संकल्प ऐसा होता है कि निर्ग्रन्थ साधुओं के अतिरिक्त सभी श्रमणों को आहार दूंगा तो साधु के लिए वह आहार कल्प्य है। टीकाकार के अनुसार यदि तीर्थंकर और
•
१. जीभा ११२८ ।
२. जीभा ११२४, पिनि ६७ / २-४ मवृ प. ४४, ४५ । ३. मूला ४८६ ।
४. जीभा ११२२ ।
५. पिनि ७२; नियमा साहम्मियस्स तं होति ।
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पिंडनियुक्ति
प्रत्येकबुद्ध के नाम से संकल्प किया गया है तो वह आहार साधु के लिए कल्प्य है क्योंकि तीर्थंकर और प्रत्येकबुद्ध संघ से अतीत होते हैं, वे सब कल्पों से ऊपर उठ गए हैं अतः वे साधुओं के साधर्मिक नहीं होते ।
५६
• यदि कोई गृहस्थ दीक्षित पिता के दिवंगत होने पर या जीवित अवस्था में उनकी लेप्यमयी प्रतिमा बनवाकर उनके लिए नैवेद्य तैयार करवाता है तो वह भी दो प्रकार का होता है- १. निश्राकृत २. अनिश्राकृत । यदि गृहस्थ यह संकल्प करता है कि रजोहरणधारी मेरे पिता की प्रतिकृति को मैं नैवेद्य दूंगा तो वह निश्राकृत नैवेद्य कहलाता है । यदि बिना संकल्प के सामान्य रूप से तैयार करता है तो वह अनिश्राकृत कहलाता है । निश्राकृत नैवेद्य आधाकर्मी होने से अकल्प्य होता है तथा अनिश्राकृत कल्प्य होने पर भी लोकविरुद्ध होने से निषिद्ध है। इसी प्रकार तत्काल दिवंगत साधु के शरीर के सामने रखने के लिए जो आहार तैयार किया जाता है, वह मृततनुभक्त कहलाता है। वह भी निश्राकृत और अनिश्राकृत दो प्रकार का होता है। उनमें प्रथम अकल्प्य तथा दूसरा कल्प्य होते हुए भी प्रतिषिद्ध है ।
·
क्षेत्र की दृष्टि से कोई यह संकल्प करे कि मैं सौराष्ट्र देश में उत्पन्न सभी साधुओं को भिक्षा दूंगा तो सौराष्ट्र देश में उत्पन्न साधु के लिए वह आहार अकल्प्य है, शेष के लिए कल्प्य । इसी प्रकार काल, प्रवचन, लिंग, दर्शन, ज्ञान, चारित्र, अभिग्रह और भावना आदि साधर्मिक के बारे में भी नियुक्तिकार और टीकाकार ने विस्तार से वर्णन किया है।
आधाकर्म क्या है ?
आधाकर्म विषयक चौथा द्वार है--आधाकर्म क्या होता है ? इसकी व्याख्या करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि आधाकर्म उत्पत्ति के घटक तत्त्व अशन, पान, खादिम और स्वादिम- ये चार होते हैं। पिण्डनियुक्तिकार ने केवल आहार से सम्बन्धित आधाकर्म का ही विस्तार से वर्णन किया है लेकिन प्रश्नव्याकरण सूत्र में उल्लेख मिलता है कि वसति - उपाश्रय आदि का सम्मार्जन, शोधन, छादन, पुताई, लिपाई आदि भी यदि साधु के लिए होती है तो वह आधाकर्मिक है, उसका प्रयोग असंयम का कारण है।" स्वपक्ष और परपक्ष
पांचवें द्वार में नियुक्तिकार ने साधु और गृहस्थ के साथ कृत और निष्ठित के आधार पर आधाकर्म
१. पिनि ७३ / ४, ५, मवृ प. ५३, ५४ ।
२. मवृ प. ५४
३. मवृ प. ५५ ; लिंग की दृष्टि से कुछ आचार्य मानते हैं कि एकादश प्रतिमाधारी श्रावक साधु जैसे ही होते हैं अतः उनके लिए कृत आहार साधु के लिए कल्प्य नहीं होता लेकिन टीकाकार मलयगिरि ने इस मत का खंडन किया
है तथा मूल टीकाकार का उद्धरण देते हुए कहा है कि लिंग युक्त एकादश प्रतिमाधारी श्रावक लिंग से साधर्मिक हैं, अभिग्रह से नहीं अतः उनके लिए कृत आहार साधु के लिए कल्प्य होता है ।
४. देखें पिनि ७३/८-२२, मवृ प. ५५-६२ । ५. प्र ८/९ ।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण का विवेचन किया है। इस विवेचन को पढ़कर जाना जा सकता है कि प्राचीन आचार्यों ने कितनी गहराई से इस सम्बन्ध में विवेचन प्रस्तुत किया है। कृत और निष्ठित के आधार पर चतुर्भंगी इस प्रकार है
• साधु के लिए कृत, साधु के लिए निष्ठित। • साधु के लिए कृत, गृहस्थ के लिए निष्ठित । • गृहस्थ के लिए कृत, साधु के लिए निष्ठित। • गृहस्थ के लिए कृत, गृहस्थ के लिए निष्ठित।
चतुर्भगी में दूसरा और चौथा भंग शुद्ध है, इनमें साधु आहार ले सकता है। प्रथम और तृतीय भंग अशुद्ध है, इनमें साधु को आहार ग्रहण करना अकल्प्य है।
कृत और निष्ठित का स्वरूप अनेक रूपों में मिलता है। सामान्यतः जो प्रासुक किया जाता है अथवा रांधा जाता है, वह निष्ठित तथा इससे पूर्व की सारी क्रिया कृत है। कृत और निष्ठित की दूसरी व्याख्या यह मिलती है कि वपन से लेकर दो बार कंडन करना कृत तथा तीसरी बार कंडित करना निष्ठित
है।
जीतकल्पभाष्य में इन चारों भंगों की विस्तार से चर्चा की गई है। यदि कोई व्यक्ति साधु के लिए धान्य बोता है, तीन बार कंडित करता है और उन्हीं के लिए रांधता है तो उसे तीर्थंकरों ने दुगुना आधाकर्म माना है। प्रथम आधाकर्म तो कृतरूप तथा दूसरा आधाकर्म पाक क्रिया रूप निष्ठित तंडुल। इस प्रसंग में टीकाकार ने वृद्धसम्प्रदाय का उल्लेख किया है कि यदि तंडुल को एक या दो बार साधु के लिए कंडित किया, तीसरी बार गृहस्थ ने अपने लिए कंडित करके पकाया और उसे आत्मार्थीकृत कर लिया तो वे तंडुल साधु के लिए कल्प्य हैं। इस संदर्भ में टीकाकार ने अन्य भी अनेक विकल्प प्रस्ततु किए हैं।
खादिम के प्रसंग में ग्रंथकार ने मान्यता विशेष का उल्लेख किया है। कुछ आचार्यों की मान्यता है कि साधु के लिए बोए गए आधाकर्मिक वृक्ष की छाया का भी वर्जन करना चाहिए। इस संदर्भ में नियुक्तिकार का कथन है कि साधु के लिए बोए गए वृक्ष के फल तोड़ते समय यदि गृहस्थ ने उन्हें आत्मार्थीकृत कर लिया तो वे फल भी जब साधु के लिए कल्प्य हैं तो फिर छाया का वर्जन करना उचित
१. जीभा ११५७।
आम, ककड़ी आदि निष्पन्न करके टुकड़ों में काटना २. मवृ प. ६६ ; तत्र वपनादारभ्य यावद्वारद्वयं कण्डनं तावत् तथा जब तक वे प्रासुक नहीं हुए, तब तक कृत और कृतत्वं, तृतीयवारं तु कण्डनं निष्ठितत्वम्।
प्रासुक होने के बाद निष्ठित कहलाते हैं। इसी प्रकार पान के संदर्भ में यदि साधु के निमित्त कूप आदि स्वादिम को भी समझना चाहिए (मव प.६६)। का खनन करके उसमें से जल निकाला, जब तक वह ३. जीभा ११५८। सर्वथा प्रासुक नहीं हुआ, तब तक कृत तथा प्रासुक होने ४. पिनि ८०, मवृ प.६५। के बाद निष्ठित कहलाता है। इसी प्रकार खादिम में ५. मवृ प. ६५, ६६ ।
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पिंडनियुक्ति नहीं है। इसका हेतु यह है कि वृक्ष आधाकर्मिक होने पर भी उसकी छाया आधाकर्मिक नहीं होती क्योंकि छाया सूर्यहेतुकी होती है, केवल वृक्षहेतुकी नहीं होती। जैसे माली वृक्ष को बढ़ाता है, वैसे छाया उसके द्वारा बढ़ायी नहीं जाती। नियुक्तिकार का तर्क यह है कि यदि वृक्ष की छाया को आधाकर्मिकी मानकर उसका वर्जन किया जाए तो मेघाच्छन्न आकाश से वृक्ष की छाया लुप्त हो जाने पर उसके नीचे बैठना कल्पनीय हो जाएगा। दूसरी बात वृक्ष की छाया अनेक घरों तथा आहार का स्पर्श करती है, इससे वे घर और आहार भी पूति दोष से युक्त हो जाएंगे। छाया सूर्य के द्वारा स्वतः होती है अतः वह आधाकर्मिकी नहीं होती। यदि वृक्ष के नीचे सचित्त कण बिखरे हों तो वह स्थान पूति होता है, वहां साधु का बैठना निषिद्ध है। आधाकर्म ग्रहण की भूमिकाएं
आधाकर्म आहार ग्रहण करने पर दोष लगने की चार भूमिकाएं हैं। जो मुनि आधाकर्म ग्रहण करके उसका परिभोग करता है, उसके अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार आदि चारों दोष लगते हैं। आधाकर्म के निमंत्रण को स्वीकार करके भिक्षार्थ गुरु की अनुमति लेना अतिक्रम, उसको लाने हेतु पैर उठाकर गृहस्थ के घर तक पहुंचना व्यतिक्रम, आधाकर्म आहार को पात्र में ग्रहण करना अतिचार तथा उसको निगलना अनाचार' दोष है।
प्रथम तीन भूमिकाओं तक व्रत का खंडन नहीं होता लेकिन अनाचार भूमिका में व्रत का विनाश हो जाता है। वहां से पुनः स्वस्थान में लौटने की भूमिका क्षीण हो जाती है। जैसे-नूपुरहारिका दृष्टान्त में छिन्न टंक वाले पर्वत शिखर पर स्थित हाथी के तीन पैर ऊपर आकाश में उठाने पर भी वह पुनः पृथ्वी पर स्थित हो गया लेकिन चारों पैर ऊपर होने पर उसका विनाश निश्चित था। व्यवहारभाष्य के अनुसार अतिक्रम, व्यतिक्रम तथा अतिचार तक दोष लगने पर तीनों में प्रत्येक का प्रायश्चित्त गुरुमास (एकासन) तथा अनाचार में चारगुरु (उपवास) की प्राप्ति होती है। आधाकर्म ग्रहण के दोष
आधाकर्म की हेयता का वर्णन अनेक ग्रंथों में मिलता है। आचार्य मलयगिरि कहते हैं कि जैसे सहस्रानुपाती विष के प्रभाव से हजारवां व्यक्ति भी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, वैसे ही आधाकर्म आहार के
१. पिनि ८०/१-५, मवृ प. ६६,६७, जीभा ११६८-७२। सकता है, उस स्थिति में वह अनाचार नहीं माना जाएगा २. पिनि ८२/३, व्यभा ४३ ; कुछ आचार्य आधाकर्म आहार अत: निगलने पर अनाचार दोष होना चाहिए क्योंकि वहां
मुंह में रखने को अनाचार दोष मानते हैं लेकिन इस से पुनः लौटना संभव नहीं होता। (जीभा ११७८-११८०) संदर्भ में जीतकल्प भाष्यकार ने एक तर्क दिया है कि ३. मव प.६८। आहार को मुंह में रखने की क्रिया से साधु पुनः प्रतिनिवृत्त ४. व्यभा ४४। हो सकता है। वह उस कवल को श्लेष्मपात्र में थूक
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण कण मात्र से संस्पृष्ट सहस्रान्तरित अर्थात् हजारवें व्यक्ति के पास जाने पर भी वह आहार साधु के संयमजीवन का नाश करने वाला होता है।
नियुक्तिकार ने अंतिम द्वार में आधाकर्म आहार ग्रहण करने से लगने वाले दोषों का विवेचन किया है। उसमें मुख्य चार प्रकार हैं-जिनेश्वर की आज्ञा का भंग २. अनवस्था दोष ३. मिथ्यात्व की प्राप्ति ४. विराधना।
भगवान् ने कहा है कि आणाए मामगं धम्म-आज्ञा पालन में मेरा धर्म है। आधाकर्म आहार ग्रहण करने वाला मुनि भगवान् की आज्ञा का लोप करता है। आज्ञा का अतिक्रमण करने वाला मुनि किसकी आज्ञा से साधुत्व के अन्य अनुष्ठानों को पूर्ण करता है ? इसी बात को प्रकारान्तर से मूलाचार में इस भाषा में व्यक्त किया गया है कि आधाकर्म आहार ग्रहण करने वाले मुनि की वनवास, शून्यगृह-निवास तथा वृक्षमूल में निवास आदि सभी क्रियाएं निरर्थक हैं।'
आधाकर्म ग्रहण का दूसरा दोष है-अनवस्था अर्थात् दोष की परम्परा चलना। पिंडविशुद्धिप्रकरण ग्रंथ में एक प्रश्न उठाया गया है कि जब मुनि आधाकर्म आहार न निष्पन्न करते हैं, न करवाते हैं और न ही उसका अनुमोदन करते हैं तो फिर त्रिकरण शुद्ध मुनि के लिए गृहस्थ द्वारा कृत आधाकर्म आहार ग्रहण करने में क्या दोष है?
इसका उत्तर देते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि यदि जानते हुए मुनि आधाकर्म आहार को ग्रहण करता है तो इसका तात्पर्य है कि वह आधाकर्म भोजन बनाने के प्रसंग को बढ़ावा देता है। जब एक मुनि किसी को आधाकर्म आहार ग्रहण करते देखता है तो उसके आलम्बन से दूसरा मुनि भी आधाकर्म आहार ग्रहण करने लगता है। उसे देखकर अन्य मुनि भी आधाकर्म आहार ग्रहण में प्रवृत्त हो जाते हैं। इस प्रकार साता बहुल मुनियों की परम्परा बढ़ने से संयम और तप का विच्छेद होने से तीर्थ का विच्छेद हो जाता है। तीर्थ का लोप करने वाला महान् आशातना का भागी होता है।
आधाकर्म ग्रहण का तीसरा दोष है-मिथ्यात्व-प्राप्ति। देश, काल और संहनन के अनुरूप अपनी शक्ति का गोपन नहीं करते हुए आगमोक्त विधि का पालन नहीं करने वाला साधु स्वयं दूसरों में शंका उत्पन्न पैदा करने के कारण महामिथ्यादृष्टि होता है। अन्य साधु सोचते हैं कि यह तत्त्व को जानते हुए भी आधाकर्म आहार ग्रहण करता है, तब प्रवचन में कथित बात मिथ्या होनी चाहिए, इस प्रकार शंका उत्पन्न
१. बृभाटी पृ. ११४२ ; यथा सहस्रानुपाति विषं भक्ष्यमाणं ४. मूला ९२५ ।
सहस्रान्तरितमपि पुरुषं मारयति, एवमाधाकर्माऽप्युपभुज्य- ५. पिंप्र २६;
मानं सहस्रान्तरितमपि साधु संयमजीविताद् व्यपरोपयतीति। नणु मुणिणा जं न कयं, न कारियं नाणुमोइयं तं से। २.पिनि८३।
गिहिणा कडमाइयओ, तिगरणसुद्धस्स को दोसो? | ३. पिनि ८३/१, जीभा ११८३।
६. पिनि ८३/२, मवृ प. ६९, जीभा ११८४।
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पिंडनियुक्ति होने पर वह मिथ्यात्व की परम्परा को आगे बढ़ाता है। इसके अतिरिक्त वह रसलम्पट मुनि स्वयं की तथा दूसरों की आसक्ति को बढ़ावा देता हुआ निर्दयी बनकर सजीव पदार्थों को खाने में भी संकोच का अनुभव नहीं करता।
__ आधाकर्म ग्रहण करने का चौथा दोष है-विराधना। अत्यधिक मात्रा में स्निग्ध आहार करने से मुनि रुग्ण हो जाता है। रोग होने से उसकी तथा प्रतिचारकों की सूत्र और अर्थ की हानि होती है। रोगचिकित्सा में षट्काय की हिंसा होती है। प्रतिचारकों द्वारा सम्यक् सेवा न होने पर वह स्वयं क्लेश का अनुभव करता है तथा परिचारकों पर क्रोधित होने के कारण उनके मन में भी संक्लेश उत्पन्न करता है। इस प्रकार वह आत्मविराधना और संयमविराधना को प्राप्त करता है।
भगवती के पांचवें शतक में उल्लेख मिलता है कि आधाकर्म को मानसिक रूप से अनवद्य मानने वाला, उसे अनवद्य मानकर स्वयं उसका भोग करने वाला, आधाकर्म आहार को अनवद्य मानकर उसे दूसरों को खिलाने वाला तथा जनता के बीच आधाकर्म को अनवद्य प्ररूपित करने वाला मुनि यदि उस स्थान का प्रतिक्रमण किए बिना कालधर्म को प्राप्त हो जाता है तो वह विराधक हो जाता है।
आधाकर्म दोष को दृष्टान्त के माध्यम से स्पष्ट करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि जैसे सुंदर उपहार, जिस पर नारियल फल का शिखर किया हुआ हो, यदि उस सुंदर उपहार से मल आदि अशुचि पदार्थ का एक कण भी स्पृष्ट हो जाए तो वह अभोज्य हो जाता है, वैसे ही निर्दोष आहार भी आधाकर्म आहार के कण मात्र से संस्पृष्ट होने पर अभोज्य हो जाता है। कल्पत्रय से आधाकर्म की शुद्धि
आधाकर्म आहार से युक्त पात्र को खाली करके भी जब तक कल्पत्रय नहीं किया जाता, तब तक वह आहार पूतिदोष युक्त होता है। नियुक्तिकार ने कल्पत्रय की दो प्रकार से व्याख्या की है। बर्तन में आधाकर्म भोजन पकाया, उसको किसी दूसरे बर्तन में निकालकर अंगुलि से पूरा साफ कर दिया, यह प्रथम लेप है। इसी प्रकार तीन बार साफ करने तक वह आहार पूतिदोष युक्त होता है। उस बर्तन में चौथी बार आहार पकाया जाए तो वह निर्दोष होता है अथवा उस बर्तन को तीन बार अच्छी तरह प्रक्षालित करके उसे कपड़े से पोंछने के बाद यदि आहार पकाया जाए तो वह आहार शुद्ध होता है। इसी प्रकार साधु के पात्र में यदि आधाकर्म आहार आ जाए तो उसे कल्पत्रय से प्रक्षालित करके ही दूसरा आहार ग्रहण किया जा सकता है अन्यथा शुद्ध आहार भी पूति दोष युक्त हो जाता है।
१. पिनि ८३/३, मवृ प. ६९, जीभा ११८५ । २. पिनि ८३/४। ३. पिनि ८३/५, जीभा ११८८।
४. (क) भग ५/१३९-१४५ ।
(ख) पिंप्र १९; तस्स आराहणा नत्थि। ५.पिनि ८७। ६. मवृ प. ८७१
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
पिण्डविशुद्धिप्रकरण में आधाकर्म से सम्बन्धित छठा द्वार 'तद्दाने दोष' पिण्डनियुक्ति के द्वारों से भिन्न है। यह द्वार गृहस्थों से सम्बन्धित है। आधाकर्म आहार देने वाला साधुओं के चारित्र का विघात करता है अतः गृहस्थ को उत्सर्ग मार्ग में इसका प्रयोग नहीं करना चाहिए।'
ग्रंथकार ने भगवती के पांचवें शतक का एक प्रसंग उद्धृत किया है कि तीन कारणों से व्यक्ति अल्प आयुष्य का बंध करता है-१. हिंसा से २. झूठ बोलकर ३. तथारूप श्रमण को अप्रासुक और अनेषणीय आहार देकर। भगवती के आठवें शतक में दान, पात्र, देय और लाभ की अपेक्षा चतुर्भंगी मिलती हैसंयमी साधु शुद्ध आहार।
एकान्त निर्जरा। संयमी साधु अप्रासुक आहार।
बहुत निर्जरा, अल्प पाप। असंयत प्रासुक एषणीय आहार। एकान्त पाप, निर्जरा नहीं। असंयत अप्रासुक अनेषणीय आहार। एकान्त पाप, निर्जरा नहीं।
इसमें प्रथम भंग-सुपात्र और शुद्ध आहार देना शुद्ध है। दूसरे भंग में शुद्धि की भजना है। शेष दो भंग एकान्त पाप के हेतु हैं। इस चतुर्भंगी का दूसरा विकल्प संयमी साधु को अनेषणीय अप्रासुक आहार देना विमर्शणीय है। आधाकर्म के प्रसंग में आगम-साहित्य में इस प्रकार का उल्लेख और कहीं नहीं मिलता। इस आलापक की व्याख्या करते हुए टीकाकार अभयदेवसूरि ने कहा है कि यहां चारित्र का उपकारक होने के कारण निर्जरा तथा जीव-वध के कारण अल्पतर बंध को स्वीकार किया गया है। जयाचार्य ने भगवती की जोड़ में आचार्य भिक्षु के मत को उद्धृत करते हुए कहा है कि दाता यदि व्यवहार में शुद्ध जानकर अजानकारी में अनेषणीय आहार देता है तो उसके बहुत निर्जरा होती है, पापकर्म का बंध नहीं होता। यहां अल्प शब्द निषेध वाचक है फिर भी इस प्रसंग को अभयदेवसूरि और आचार्य भिक्षु दोनों ने केवलिगम्य किया है। आचार्य महाप्रज्ञ ने भगवती भाष्य में इस सूत्र की विस्तृत व्याख्या की है।
___ इस प्रसंग को पिण्डशुद्धि प्रकरण में उत्सर्ग और अपवाद मार्ग की अपेक्षा से व्याख्यायित किया गया है। यदि बिना अपेक्षा निर्वाह की स्थिति में गृहस्थ आधाकर्म आहार देता है और साधु लेता है तो यह स्थिति दोनों के लिए अहितकर और अनर्थकारक है। अपवाद में दुर्भिक्ष या ग्लानत्व की स्थिति में ग्राह्य है। इस प्रसंग में आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा लिखित विस्तृत टिप्पण सूत्रकृतांग भाग २ पृ. ३०४ का नवां टिप्पण पठनीय एवं मननीय है।
१. पिंप्र २०। २. भग ५/१२६, पिंप्रटी प. २३ । ३. भग ८/२४५-२४७। ४. द्र भग भा. ३ पृ. ९४, ९५।
५. पिंप्र २१
संथरणमि असुद्धं, दोण्ह वि गेण्हत देंतयाणऽहियं । आउरदिटुंतेणं, तं चेव हियं असंथरणे॥
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आधाकर्म का परिहार
पिण्डविशुद्धिप्रकरण में यथापृच्छा नामक सातवें द्वार में वर्णित तथ्य पिण्डनिर्युक्ति में विधि और अविधि परिहार के अन्तर्गत व्याख्यायित हैं । पिण्डनिर्युक्ति में यह प्रसंग नौ द्वारों की व्याख्या के बाद अलग से वर्णित है।
धाकर्म से होने वाले दोषों को जानकर साधु दो प्रकार से उसका परिहार करता है - १. विधि - परिहार २. अविधि - परिहार । जो साधु अविधि से आधाकर्म का परिहार करता है, वह न साधुत्व का सम्यक् पालन कर सकता है और न ही ज्ञान आदि का लाभ प्राप्त कर सकता है। अविधि - परिहार में ग्रंथकार ने एक भिक्षु की कथा का उल्लेख किया है। भिक्षु के द्वारा पूछने पर गृहस्वामी ने बताया कि यह शाल्योदन मगध के गोबरग्राम से आया है। वह उसकी जानकारी हेतु गोबरग्राम जाने लगा। मार्ग का निर्माण तो कहीं आधाकर्मी नहीं है, इस आशंका से वह मूल मार्ग को छोड़कर कांटे, सांप आदि से युक्त उन्मार्ग से जाने लगा तथा वृक्ष की छाया को भी आधाकर्मिक समझकर वृक्ष की छाया का भी परिहार करने लगा। वह रास्ते में ही मूर्च्छित होकर संक्लेश को प्राप्त करने लगा।
विधि-परिहरण में साधु चार बातों पर ध्यान देता है- द्रव्य, कुल, देश और भाव । इनकी व्याख्या करते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि विवक्षित देश में असंभाव्य द्रव्य की उपलब्धि, छोटे परिवार में प्रचुर खाद्य की प्राप्ति तथा अत्यधिक आदरपूर्वक दान हो तो वहां आधाकर्म की संभावना हो सकती है। जो वस्तु जहां सामान्य रूप से लोगों के द्वारा प्रचुर रूप में काम में ली जाती है, वह यदि प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो तो पृच्छा की आवश्यकता नहीं रहती, जैसे मालवा देश में मण्डक (एक प्रकार की रोटी) प्रचुर मात्रा में होता है, वहां उस द्रव्य के विषय में आधाकर्म की आशंका नहीं होती लेकिन वहां भी यदि परिवार छोटा हो और द्रव्य प्रचुर मात्रा में हो तो आधाकर्म की शंका हो सकती है। यदि कोई दाता अनादरपूर्वक दान दे रहा है, वहां भी प्रायः आधाकर्म की आशंका नहीं रहती क्योंकि जो दाता आधाकर्म आहार निष्पन्न करता है, वह प्रायः आदर भी प्रदर्शित करता है।
अमुक घर में आधाकर्म भोजन निष्पन्न हुआ है अथवा नहीं, इसकी परीक्षा करने की विधि को ग्रंथकार ने मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत किया है। मुनि के द्वारा पूछने पर यदि गृहस्वामिनी मायापूर्वक कहती है कि यह खाद्य-पदार्थ घर के सदस्यों के लिए बनाया गया है, आपके लिए नहीं। यह सुनकर यदि घर के अन्य सदस्य एक दूसरे को टेढ़ी नजरों से देखते हैं अथवा सलज्ज एक दूसरे को देखकर मंद हास्य करते हैं, तब साधु को उस देय वस्तु को आधाकर्मिक समझकर परिहार कर देना चाहिए। यदि पूछने पर दानदात्री
१. पिनि ८९ / १-३, मवृ प. ७२, ७३ ।
पिंडनिर्युक्त
२. पिनि ८९/४-७, मवृ प. ७३ ।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
६३ गुस्से में आकर यह कहती है कि आपको इसकी क्या चिन्ता है ? ऐसी स्थिति में आधाकर्म की आशंका नहीं रहती, मुनि निःशंक रूप से वह आहार ग्रहण कर सकता है। इन सब कारणों से भी आहार शुद्ध है या नहीं, यह ज्ञात न हो तो नियुक्तिकार ने समाधान दिया है कि यदि मुनि उपयुक्त होकर शुद्ध आहार की गवेषणा कर रहा है तो वह आधाकर्म भोजन ग्रहण करता हुआ भी शुद्ध है अर्थात् कर्मों का बंधन नहीं करता यदि वह अनुपयुक्त होकर वैचारिक दृष्टि से आधाकर्म आहार ग्रहण में परिणत है तो वह प्रासुक और एषणीय आहार ग्रहण करता हुआ भी अशुभ कर्मों का बंध करता है।
इस प्रसंग में नियुक्तिकार ने दो कथाओं का संकेत किया है, जिसमें एक मुनि शुद्ध आहार ग्रहण करता हुआ भी मानसिक रूप से आधाकर्मिक संघभक्त की बुद्धि से आहार ग्रहण करता है, जिससे वह कर्मों का बंध कर लेता है। दूसरा मासक्षपक मुनि शुद्ध आहार की गवेषणा में संलग्न आधाकर्मी खीर को ग्रहण करता हुआ भी कैवल्य को प्राप्त कर लेता है। इसका हेतु बताते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि प्रथम मुनि ने भगवान् की आज्ञा की विराधना की इसलिए शुद्ध आहार का भोग भी पाप बंध का कारण बन गया तथा दूसरे ने उनकी आज्ञा की आराधना की इसलिए अशुद्ध आहार करते हुए भी संसार-समुद्र से पार पा लिया। इस संदर्भ में ग्रंथकार ने सूर्योदय और चन्द्रोदय उद्यान का दृष्टान्त भी दिया है। तीर्थंकरों के काल में आधाकर्म ग्रहण का नियम
ऋजुप्राज्ञ साधु-साध्वियां होने के कारण प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों को छोड़कर शेष बावीस तीर्थंकरों तथा महाविदेह क्षेत्र के तीर्थंकरों ने आधाकर्म पिण्ड में इतनी छूट दी है कि जिस साधु के लिए आधाकर्म बनाया गया है, उसके लिए वह आहार कल्प्य नहीं होता लेकिन शेष साधु उसे ग्रहण कर सकते हैं। इस प्रसंग की भाष्यकार ने विस्तृत चर्चा प्रस्तुत की है। यदि भगवान् ऋषभ और अजित का संघ एक साथ मिला हुआ है, उस समय यदि पूरे संघ को लक्ष्य करके कोई आधाकर्म भोजन बनाता है तो पंचयामिक और चातुर्यामिक-दोनों संघ के साधुओं के लिए वह आहार कल्प्य नहीं होता। यदि ऋषभ के साधुओं को उद्दिष्ट करके आधाकर्म आहार निष्पन्न किया जाता है तो अजित के चातुर्यामिक साधुओं के लिए वह आहार ग्राह्य होता है। यदि चातुर्यामिक साधुओं के लिए आधाकर्म आहार निष्पन्न होता है तो वह आहार दोनों के लिए अकल्प्य होता है।
यदि व्यक्तिगत रूप से ऋषभ के पंचयामिक साधु को उद्दिष्ट करके आधाकर्म निष्पन्न किया
१. पिनि ८९/८, मवृ प. ७३, ७४। २. पिनि ९०, मवृ प. ७४। ३. पिनि ९०/१-४, दोनों कथाओं के विस्तार हेतु देखें
परि ३, कथा सं. १३, १४ ।
४. पिनि ९१, कथा के विस्तार हेतु देखें परि ३, कथा सं. १५। ५. बृभा ३५४१, टी पृ. ९८६। ६. बृभा ५३४५, ५३४६, टी पृ. १४१९ ।
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पिंडनियुक्ति जाता है तो अजित के अनुयायी साधु के लिए वह कल्प्य होता है। यदि चातुर्यामिक साधु को लक्ष्य करके कोई आधाकर्म निष्पन्न करता है तो ऋषभ और अजित दोनों के साधुओं के लिए वह अकल्पनीय होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि पूर्व और अंतिम तीर्थंकर के संघ को उद्दिष्ट करके बनाया हुआ आधाकर्म किसी के लिए ग्राह्य नहीं होता। यदि व्यक्तिगत किसी साधु के लिए आधाकर्म भोजन निष्पन्न है तो प्रथम
और अंतिम तीर्थंकर के साधुओं में वह किसी भी साधु के लिए कल्प्य नहीं होता। यदि मध्यम तीर्थंकर के किसी साधु के लिए आधाकर्म निष्पन्न होता है तो उसके लिए अकल्प्य होता है, शेष साधु उसे ग्रहण कर सकते हैं लेकिन उस आहार को प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के साधु ग्रहण नहीं कर सकते।
इसका कारण बताते हुए भाष्यकार कहते हैं कि प्रथम तीर्थंकर के साधु ऋजुजड़ होने के कारण अकृत्य करके उसकी आलोचना तो करते हैं लेकिन उसके समान अन्य दोषों का परिहार नहीं कर पाते। उस समय के गृहस्थों की जड़ता यह है कि वे एक के लिए वर्जित दोष युक्त आहार दूसरों के निमित्त कर देते हैं।
मध्यम २२ तीर्थंकरों के साधु ऋजुप्राज्ञ होते हैं। ऋजु होने के कारण वे एकान्त में हुए अकृत्य की आलोचना ऋजुता से करते हैं तथा उनका प्राज्ञत्व इस बात में है कि वे तज्जातीय भिक्षा सम्बन्धी दोषों का निवारण भी स्वयं कर देते हैं। उस समय के गृहस्थ भी साधुओं के लिए आरंभ-समारंभ रूप दोष नहीं करते हैं तथा तज्जातीय अन्य दोषों का वर्जन करते हैं। अंतिम तीर्थंकर के शिष्य वक्रजड़ होते हैं। वक्र होने के कारण वे सहजतया अकृत्य को स्वीकार नहीं करते तथा जड़ होने के कारण पुन: आधाकर्म आदि अपराधपद का सेवन करते रहते हैं। गृहस्थ मायापूर्वक आधाकर्म निष्पन्न करने पर भी यह कहता है कि मेहमान आने के कारण या उत्सव के कारण यह खाद्य तैयार किया गया है। आधाकर्म ग्रहण के अपवाद
यदि आधाकर्म आहार अवग्रहान्तरित हो जाए अर्थात् इंद्र के अवग्रह के अन्तर्गत आ जाए तो वह आहार कल्प्य हो सकता है। इस प्रसंग में भगवान् ऋषभ के समय में घटित घटना प्रसंग का उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा। एक बार भगवान् ऋषभ अष्टापद पर्वत पर ससंघ समवसृत हुए। भगवान् के आगमन को सुनकर चक्रवर्ती भरत भी सम्पूर्ण ऋद्धि के साथ भगवान् के दर्शन करने पहुंचे। भगवान् को १. बृभा ५३४८, टी पृ. १४२० ; एतच्च 'स्थापनामात्रं' यदि साधुओं का आपस में एकत्र रहना होता है तो वे
प्ररूपणामात्रं संज्ञाविज्ञानार्थं क्रियते, बहकालान्तरितत्वेन पंचयाम से चातुर्याम अथवा चातुर्याम से पंचयाम में पूर्व-पश्चिमसाधूनामेकत्रासम्भवात् तत्र परस्परं ग्रहणं प्रव्रजित होते हैं। 'नास्ति' न घटते-भाष्यकार ने स्पष्ट उल्लेख किया है २. बृभा ५३४८-५०, टी. पृ. १४२० । कि यह बात समझाने के लिए प्ररूपित की गई है। पूर्व ३. बृभा ५३५६, टी पृ. १४२२ ।
और पश्चिम साधुओं का एकत्र समवाय असंभव है। ४. बृभा ५३५७, टी पृ. १४२२, १४२३। उनका परस्पर आदान-प्रदान या ग्रहण घटित नहीं होता। ५. बृभा ५३५८, टी पृ. १४२३ ।
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पिण्डनिर्युक्ति : एक पर्यवेक्षण
भिक्षा देने हेतु वे अपने साथ ५०० शकटों में भक्तपान भरकर ले गए। उन्होंने भगवान् को भिक्षा के लिए निवेदन किया । भगवान् ने कहा- 'भरत ! आधाकर्म, अभ्याहत और राजपिंड आहार व्रत को पीड़ा देने वाला होता है अतः यह आहार साधुओं के लिए अकल्प्य है ।'
भगवान् के वचनों को सुनकर भरत को अत्यन्त दुःख हुआ । वे स्वयं को मंदभाग्य समझने लगे। उस समय देवेन्द्र भी वहां उपस्थित थे । उनके दुःख को जानकर उन्होंने भगवान् से अवग्रह के बारे में पूछा । भगवान् ने पंचविध अवग्रह की बात बताई । देवेन्द्र ने भगवान् को वंदना करके अपने अवग्रह में आनीत साधु प्रायोग्य आहार का वितरण किया । लाभ देखकर भरत चक्रवर्ती भी प्रसन्न हो गए । फिर भरत ने सम्पूर्ण भारत में साधु के प्रायोग्य आहार आदि का वितरण किया ।
बृहत्कल्पभाष्य में आधाकर्म आहार ग्रहण के अपवाद बताए गए हैं। दुर्भिक्ष की स्थिति में अथवा आचार्य, उपाध्याय या कोई भिक्षु ग्लान हो तो आधाकर्म आहार ग्रहण की भजना होती है। मार्ग में गहन अटवी में प्रवेश करने से पूर्व तीन बार शुद्ध आहार की गवेषणा करने पर भी यदि शुद्ध आहार प्राप्त न हो तो चौथे परिवर्त में आधाकर्म आहार ग्रहण किया जा सकता है।
आधाकर्म के सम्बन्ध में एक विचारणीय बिन्दु यह है कि क्रीत, औद्देशिक और आहृत का उल्लेख आगमों में अनेक स्थानों पर मिलता है लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि साधु की सम्पूर्ण आचार-संहिता को प्रस्तुत करने वाले दशवैकालिक जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ में आधाकर्म शब्द का उल्लेख कहीं भी प्राप्त नहीं होता है । यद्यपि वहां समणट्टा अर्थात् श्रमण के लिए बनाए गए आहार का निषेध है । आचार्य शय्यंभव ने आधाकर्म शब्द का प्रयोग क्यों नहीं किया, यह खोज का विषय है । २. औद्देशिक
श्रमण, माहण, अतिथि, कृपण आदि भिक्षाचरों के निमित्त से समुच्चय रूप में बनाया गया आहार औद्देशिक कहलाता है। मूलाचार के अनुसार देवता, पाषंडी - अन्यदर्शनी या कृपण आदि के निमित्त बनाया गया आहार औद्देशिक कहलाता है । वट्टकेर ने इसमें श्रमण का उल्लेख क्यों नहीं किया, यह विमर्शनीय है। दशवैकालिक सूत्र में शब्दभेद से इस दोष की व्याख्या की गई है। उसके अनुसार साधु को यह ज्ञात हो जाए कि यह आहार दान हेतु, पुण्य हेतु, याचकों के लिए या श्रमणों (पंचविध श्रमण) के लिए बनाया गया है तो साधु उस आहार का निषेध करे। वहां उल्लेख है कि जो साधु नित्याग्र ( प्रतिदिन
१. बृभा ४७७९-८६, टी पृ. १२८४, १२८५ ।
२. बृभा ५३५९, टी पृ. १४२३ ।
३. दश ५/१/५३ ।
४. (क) दशजिचू पृ. १११ ; उद्दिस्स कज्जइ तं उद्देसियं, साधु
निमित्तं आरंभ त्ति वृत्तं भवति ।
(ख) पंव ७४४; उद्देसिय साहुमादी ओमच्चए भिक्खवियरणं जं च ।
५. मूला ४२५ ।
६. दश ५/१/४७-५४।
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पिंडनियुक्ति निमंत्रित आहार), क्रीत, औद्देशिक और आहृत आहार ग्रहण करते हैं, वे प्राणि-वध का अनुमोदन करते हैं। प्रश्नव्याकरण सूत्र में औद्देशिक आहार को हिंसा और पाप बहुल बताया है। ग्रंथकार ने औद्देशिक के ओघ और विभाग दो भेद किए हैं। ओघ औद्देशिक
यहां कुछ नहीं दूंगा तो अगले जन्म में भी कुछ नहीं मिलेगा, यह सोचकर गृहस्थ द्वारा पकाए जाने वाले आहार में अन्य दर्शनी साधुओं के लिए विभाग रहित प्रक्षेप ओघ औद्देशिक कहलाता है। ओघ औद्देशिक जानने की विधि
सामान्यतः साधु गृहस्थ के शब्द एवं उसकी चेष्टा से जान लेता है कि यह ओघ औद्देशिक है। नियुक्तिकार के अनुसार ओघ औद्देशिक जानने के कुछ बिन्दु इस प्रकार हैं
• पत्नी अपने पति से यह कहे कि प्रतिदिन दी जाने वाली पांचों भिक्षाचरों को भिक्षाएं दी जा चुकी हैं। • यदि गृहस्वामिनी भिक्षा की गणना हेतु रेखाएं खींचे अथवा भिक्षा देती हुई उसकी गणना करे। • गृहस्वामिनी अपने पति या भिक्षा-दाता को कहे कि उद्दिष्ट दत्ती से भिक्षा दो, यहां से नहीं। • साधु के भिक्षार्थ प्रवेश करने पर वह कहे कि इतनी भिक्षा पृथक् कर दो। • गृहस्वामिनी के गमन, बर्तनों को खोलना, रखना तथा उसके शब्दों में दत्तावधान मुनि औद्देशिक भिक्षा
की एषणा और अनेषणा को सम्यक् प्रकार से जान लेता है। इस प्रसंग में नियुक्तिकार ने गोवत्स का
उदाहरण दिया है। विभाग औद्देशिक
__ श्रमण, ब्राह्मण आदि का विभाग करके जो भोजन पकाया जाता है, वह विभाग औद्देशिक है। पिण्डनियुक्ति के अनुसार विवाह आदि उत्सव समाप्त होने के पश्चात् उसमें शेष बचे हुए पक्वान्न में कुछ हिस्सा दान हेतु अलग रखना विभाग औद्देशिक है। इसके तीन प्रकार हैं-उद्दिष्ट, कृत और कर्म। उद्दिष्ट-गृहस्थ के निमित्त निष्पन्न आहार में भिक्षाचरों के लिए अलग रखना उद्दिष्ट औद्देशिक कहलाता
कृत-बचे हुए शाल्योदन की भिक्षा देने के लिए दही और भात मिलाकर करम्ब रूप में निष्पन्न करना कृत औद्देशिक है।'
१. दश ६/४८ २. पिनि ९४। ३. पिनि ९४/१, ९५। ४. पिनि ९५/१-९६/३, कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३,
कथा सं. १६।
५. पिनि ९६/४, मवृ प. ७९ । ६. मवृ प. ७७; स्वार्थमेव निष्पन्नमशनादिकं भिक्षाचराणां
दानाय यत् पृथक्कल्पितं तदुद्दिष्टम्। ७. मवृ प.७७; यत् पुनरुद्धरितं सत् शाल्योदनादिकं भिक्षा
दानाय करम्बादिरूपतया कृतं तत्कृतमित्युच्यते।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण कर्म-विवाह में बचे हुए मोदक के चूर्ण को भिक्षाचरों को देने हेतु गुड़पाक आदि से पुनः मोदक करने को कर्म कहा जाता है। आधाकर्म और कर्म औद्देशिक में इतना ही अंतर है कि आधाकर्म में प्रारम्भ से ही साधु के निमित्त बनाया जाता है, जबकि कर्म औद्देशिक में गृहस्थ अपने बनाए हुए आहार में कुछ वृद्धि करता है अथवा संस्कारित करता है।
इन तीनों के भी चार-चार अवान्तर भेद होते हैं-१. उद्देश २. समुदेश ३. आदेश ४. समादेश। उद्देश-सभी भिक्षाचर, अन्यदर्शनी एवं श्रमणों के उद्देश्य से बनाया गया आहार। समुद्देश-सभी पाखंडी-अन्यदर्शनी साधुओं के लिए बनाया गया आहार। आदेश-श्रमणों के निमित्त बनाया गया आहार। समादेश-निर्ग्रन्थों के उद्देश्य से बनाया गया आहार।
उद्दिष्ट, कृत और कर्म को उपर्युक्त चार भेदों से गुणा करने पर १२ भेद हो जाते हैं। नियुक्तिकार ने इन १२ भेदों के अवान्तर भेद भी किए हैं। उद्दिष्ट औद्देशिक आदि प्रत्येक छिन्न और अच्छिन्न भेद से दो प्रकार का होता है। छिन्न का अर्थ है-नियमित और अच्छिन्न का अर्थ है-अनियमित । फिर उसके भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से चार भेद होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक के आठ भेद हो जाते हैं। १२ भेदों का ८ से गुणा करने पर औदेशिक दोष के ९६ भेद होते हैं।
सूत्रकृतांग के अनुसार औदेशिक भिक्षा ग्रहण करने से जीववध-हिंसा की संभावना रहती है अत: इसको अनेषणीय माना है। ३. पूतिकर्म दोष
पूति का अर्थ है-दुर्गन्धयुक्त या अपवित्र। इसके दो भेद हैं-द्रव्यपूति और भावपूति । सुगंधित या शुद्ध पदार्थ का अशुचि पदार्थ से युक्त होना द्रव्य पूति है। यहां ग्रंथकार ने छगणधार्मिक की कथा का संकेत किया है। शुद्ध आहार में आधाकर्म आदि उद्गम दोष के विभागों के अवयव मात्र का मिश्रण भी भावपूति है। भावपूति मुनि के निरतिचार चारित्र को भी अशुद्ध बना देती है। जैसे अशुद्ध पदार्थ का एक
१. मवृ प.७७; यत् पुनर्विवाहप्रकरणादावुद्धरितं मोदक- ५. सू१/९/१४।
चूण्यादि तद्भूयोऽपि भिक्षाचराणां दानाय गुड़पाकदाना- ६.पिनि १०७, १०८॥ दिना मोदकादिकृतं तत्कर्मेत्यभिधीयते।
७. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. १७। २. मवृ प.८२ ; यत् प्रथमत एव साध्वर्थे निष्पादितं तदाधाकर्म, ८. म प ८३; यहां उद्गम दोष में आधाकर्म, औद्देशिक यत् प्रथमतः सद् भूयोऽपि पाककरणेन संस्क्रियते तत्कौं - आदि अविशोधि कोटि का ग्रहण किया गया है।
९. (क) पिनि १०९। ३. पिनि ९८, मूला ४२६ ।
(ख) पंव ७४५; ४. इन भेदों के विस्तार हेतु देखें पिनि ९९/१-१०१/२,
कम्मावयवसमेयं, संभाविज्जइ जयं तु तं पूई। मवृ प.८०,८१
देशिकम्।
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६८
पिंडनियुक्ति
कण भी स्पृष्ट हो जाए तो वह पदार्थ अगाह्य हो जाता है, वैसे ही आधाकर्म का अंशमात्र भी पूरे भोजन को अशुद्ध बना देता है। आचार्य हरिभद्र ने संभाव्यमान आधाकर्म के अवयव से मिश्र आहार को पूतिकर्म दोष माना है। केवल आधाकर्म से स्पृष्ट होने पर ही पूति नहीं होती, पूति से स्पृष्ट आहार भी पूतिदोष युक्त होता है।
मूलाचार में पूति के पांच भेद निर्दिष्ट हैं-१. चुल्ली २. उक्खा (ऊखल) ३. दर्वी ४. भाजन ५. गंध। अनगारधर्मामृत में पूति दोष के दो भेद प्राप्त होते हैं-अप्रासुकमिश्र तथा कल्पित। अप्रासुक द्रव्य से मिला हुआ प्रासुक द्रव्य अप्रासुकमिश्र पूतिकर्म कहलाता है तथा जब तक साधु को यह भोजन न दिया जाए , तब तक कोई उपयोग न करे, यह कल्पित नामक दूसरा पूतिदोष है। अप्रासुक और आधाकर्म में बहुत अन्तर है। अप्रासुक का अर्थ है अचित्त तथा आधाकर्म का अर्थ है साधु के निमित्त अचित्त किया हुआ आहार। पूतिदोष के भेद-प्रभेदों को निम्न चार्ट से प्रस्तुत किया जा सकता है
पूति
द्रव्य
सूक्ष्म
उपकरणविषयक भक्तपानविषयक इंधन धूम वाष्प अग्निकण निशीथ भाष्य के अनुसार बादरपूति के भेद-प्रभेद इस प्रकार हैं
बादरपूति
आहार
उपधि
वसति
उपकरणपूति
आहारपूति
वस्त्र
पात्र
मूलगुण
उत्तरगुण
१. दशहाटी प. १७४ ; पूतिकर्म-संभाव्यमानाधाकर्मावयव
संमिश्रलक्षणम्। २. निचूभा २, पृ. ६५; न केवलं आहाकम्मेण पुढे पूतितं, __ पूतिएण वि पुढे पूइमित्यर्थः । ३. अनध ५/९, टी पृ. ३८१ । ४. निभा ८०६, ८०७। ५. निभा ८११ चू पृ. ६५, निशीथ भाष्य में मूलगुण और
उत्तरगुण के सात-सात भेद किए गए हैं। गृह-निर्माण में दो मूल वेली, दो धारणा और एक पृष्ठवंश-इन सात वस्तुओं का प्रयोग मूलगुण से सम्बन्धित होता है तथा बांस, कडण-ओकंपण, छत डालना, लिपाई करना, द्वार लगाना और भूमिकर्म करना-ये सात चीजें उत्तरगुण से सम्बन्धित हैं। इनमें यदि छह प्रासुक है और एक आधाकर्मिक है तो भी पूतिदोष होता है।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
उपकरणपूति
पकते हुए अन्न के लिए चूल्हा तथा परोसे जाते हुए आहार के लिए चम्मच आदि उपकारी होने के कारण उपकरण कहे जाते हैं। आधाकर्मिक कर्दम से मिश्रित चूल्हा तथा आधाकर्म आहार से स्पृष्ट स्थाली और चम्मच उपकरण पूति हैं।' आहारपूति
__यदि आधाकर्मिक चम्मच को स्थाली से बाहर निकाल दिया जाए तो स्थाली का आहार कल्प्य होता है लेकिन आधाकर्मिक चम्मच से यदि शुद्ध आहार भी दिया जाए तो वह आहारपूति है। इसी प्रकार यदि दर्वी आधाकर्मिकी न होने पर भी उससे यदि आधाकर्म आहार को हिलाकर फिर शुद्ध आहार दिया जाए तो वह शुद्ध आहार भी आहारपूति कहलाता है। भक्तपानपूति
शुद्ध छाछ आदि में आधाकर्मिक शाक, लवण, हींग, राई तथा जीरा आदि का मिश्रण करना अथवा बघार देना भक्तपानपूति है। जिस भाजन में पहले आधाकर्म आहार पकाया गया, यदि उसे कल्पत्रय-तीन बार अच्छी तरह से साफ किए बिना आहार पकाया अथवा डाला जाए तो वह भक्तपानपूति कहलाता है। कल्पत्रय का एक अर्थ यह भी संभव है कि तीन बार उस पात्र में आहार पकाकर निकालने पर चौथी बार पकाया गया आहार शुद्ध होता है। धूम रहित अंगारों पर बेसन, हींग तथा जीरा आदि डालने पर जो धूम निकलता है, उस धूम से व्याप्त स्थाली तथा तक्र आदि भी पूति दोष से युक्त हैं, यह उपकरणपूति के अन्तर्गत आता है। सूक्ष्मपूति
ईंधन, अग्निकण, धूम और वाष्प-इन चारों से सूक्ष्मपूति होती है। धूम, गंध आदि के अवयव सब जगह व्याप्त रहते हैं अत: उनका परिहार संभव नहीं है। सूक्ष्मपूति के संदर्भ में ग्रंथकार ने एक प्रश्न उपस्थित किया है कि कभी-कभी कल्पत्रय से पात्र को धोने पर भी उसकी गंध नहीं जाती अतः सूक्ष्म पूति से बचाव कैसे संभव है? इसका समाधान करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि जैसे दूर से आती अशुचि गंध से स्पृष्ट होने पर भी उस द्रव्य को दूषित या त्याज्य नहीं माना जाता, वैसे ही आधाकर्म से सम्बन्धित गंध के पुद्गलों के स्पर्श से चारित्र विकृत नहीं होता। आचार्य मलयगिरि इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि गंध सूक्ष्मपूति है। यह केवल प्रज्ञापनीय है, इसका परिहार संभव नहीं हो सकता क्योंकि गंध के परमाणु समग्र लोक में व्याप्त हैं।
१. पिनि ११३, ११३/२। २. पिनि ११३/३। ३. पिनि ११३/४।
४. निभा ८०९, चू पृ. ६५। ५. पिनि ११४, मवृ प. ८५। ६. पिनि ११७/२। ७. मवृ प. ८६, ८७।
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पिंडनिर्युक्ति
जिस दिन गृहस्थ आधाकर्म भोजन निष्पन्न करता है, उस दिन वह आहार आधाकर्म दोष से दुष्ट होता है। शेष तीन दिन तक उस घर में पूति रहती है। तीन दिन तक मुनि वहां से भिक्षा ग्रहण नहीं कर सकता। यदि पात्र पूतिदोष से युक्त है तो कल्पत्रय के बाद उसमें डाला गया या पकाया गया आहार ग्राह्य हो सकता है।
७०
पूतिकर्म आहार ग्रहण की हानियों का चित्रण करते हुए सूत्रकृतांग में कहा गया है कि पूर्तिकर्म आहार को यदि भिक्षु हजार घरों के अंतरित हो जाने पर भी लेता है तो वह प्रव्रजित होकर भी गृहस्थ जैसा आचरण करता है। जिस प्रकार समुद्र के ज्वार के साथ किनारे पर आने वाले मत्स्य यदि बालू में फंस जाते हैं तो मांसार्थी ढंक और कंक आदि पक्षियों द्वारा उनका मांस नोचे जाने पर वे अत्यन्त दुःख का अनुभव करते हैं, उसी प्रकार वर्तमान सुख की एषणा में रत पूतिकर्म युक्त आहार लेने वाले साधु उन मत्स्यों की भांति अनंत दुःखों को प्राप्त करते हैं।
निशीथ चूर्णिकार के अनुसार यदि साधु पूति दोष युक्त आहार, उपधि या वसति ग्रहण करता है तो संयम - विराधना होती है। अशुद्ध ग्रहण से देवता प्रमत्त साधु को छल सकते हैं तथा आत्म-विराधना के रूप में अजीर्ण या किसी अन्य प्रकार का रोग भी उत्पन्न कर सकते हैं।
४. मिश्रजात
आहार गृहस्थ के साथ पाखंडी, अन्यदर्शनी भिक्षाचर एवं साधु के निमित्त से पकाया जाता है,
वह मिश्रजात दोष युक्त होता है। वह तीन प्रकार का होता है—
• यावदर्थिकमिश्र - जो आहार गृहस्थ तथा सभी भिक्षाचरों के निमित्त बनाया जाता है, वह यावदर्थिकमिश्र
कहलाता है।
•
• पाखण्डिमिश्र - जो आहार गृहस्थ के साथ अन्यदर्शनी साधु के निमित्त पकाया जाता है, वह पाखण्डिमिश्र कहलाता है।
• साधुमिश्र - परिवार एवं निर्ग्रन्थ के निमित्त बनाया गया आहार साधुमिश्र कहलाता है।
निर्युक्तिकार स्पष्ट उल्लेख करते हैं कि जैसे सहस्रवेधक विष खाने से किसी की मृत्यु हो जाए तो पारम्पर मरण में हजारवें व्यक्ति का मांस खाने पर भी व्यक्ति की उस विष से मृत्यु हो जाती है, वैसे ही तीनों प्रकार का मिश्रजात आहार सहस्रान्तरित - हजारवें व्यक्ति के पास जाने पर भी साधु के लिए कल्पनीय नहीं होता, वह साधु के चारित्र का विनाश कर देता है ।"'
१. पिनि ११८, मवृ प. ८७ ।
२. सू १/१/६०-६३।
३. निचूभा. २, पृ. ६६ ।
४. मूला ४२९ ।
५. पिनि १२१ ।
६. पिनि १२२ ।
७. पिनि १२२ । ८. पिनि १२३, १२४ ।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
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इसकी शुद्धि की प्रक्रिया बताते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि मिश्रजात आहार लेने पर उसका अंगुलि से पूरा अपनयन करके अथवा सूखे गोबर से पात्र को साफ करके फिर तीन बार पात्र का प्रक्षालन किया जाए, तत्पश्चात् धूप में पात्र को सुखाकर उसमें शुद्ध आहार ग्रहण किया जाए। कुछ आचार्यों की मान्यता है कि चौथी बार प्रक्षालन करने पर बिना पात्र को सुखाए भी भोजन ग्रहण किया जा सकता है, उसमें कोई दोष नहीं रहता। ५. स्थापना दोष
___ साधु को देने के लिए आहार निकालकर अलग रख देना स्थापना दोष है। मूलाचार के अनुसार पाक-भाजन से अन्य बर्तन में निकालकर अपने घर में या दूसरे घर में रखना स्थापना दोष है। भाष्यकार के अनुसार स्थापनाकुल से आहार लेने वाला मुनि पार्श्वस्थ होता है। स्थापना दोष युक्त आहार को अनवद्य मानकर उसका परिभोग करने वाला मुनि यदि उस स्थान की आलोचना या प्रतिक्रमण नहीं करता तो वह कालधर्म को प्राप्त होकर आराधक नहीं होता।
स्थापना दो प्रकार से होती है-स्वस्थान स्थापना २. परस्थान स्थापना। चूल्हे पर वस्तु आदि रखना स्वस्थान स्थापना दोष है तथा छींके आदि पर रखना परस्थान स्थापना है। इन दोनों के दो-दो भेद होते हैं
• स्वस्थान अनंतर स्थापना तथा स्वस्थान परम्पर स्थापना। • परस्थान अनंतर स्थापना तथा परस्थान परम्पर स्थापना।
घी तथा गुड़ आदि पदार्थ, जिनमें कोई विकार संभव नहीं होता, कर्ता के द्वारा उसका स्वरूप परिवर्तन नहीं होता, वे द्रव्य अनंतर स्थापित कहलाते हैं। दूध, इक्षुरस आदि जिनका दही, मक्खन, घी तथा गुड़ आदि विकार संभव है, वे परम्पर स्थापित कहलाते हैं। लम्बे समय तक इनको रखने से ये दुर्गन्ध युक्त तथा कुथित हो जाते हैं।
नियुक्तिकार ने काल के आधार पर स्थापना दोष को एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया है। किसी साधु ने एक गृहिणी से दूध की याचना की, उस समय उसने कहा-'मैं कुछ समय बाद भिक्षा दूंगी।' साधु को किसी दूसरे स्थान से दूध मिल गया। गृहिणी ने जब साधु से दूध लेने का आग्रह किया तो मुनि बोला'मुझे अभी दूध प्राप्त हो गया फिर कभी प्रयोजन होने पर लूंगा।' साधु के ऋण से भयभीत उस महिला ने दूध का उपयोग नहीं किया। उसने सोचा कल इसी दूध को मैं दही जमाकर दूंगी। यह सोचकर उसने उसे मुनि के लिए स्थापित कर दिया। दूसरे दिन भी मुनि ने दही नहीं लिया। महिला ने उस दही से मक्खन तथा १. पिनि १२५, मवृ प. ८९।।
४. व्यभा ८५६। २. मवृ प. ३५ ; स्थापनं साधुभ्यो देयमिति बुद्धया देयवस्तुनः... ५. भग ५/१३९-४५। व्यवस्थापनं स्थापना।
६. पिनि १२६-२८, मवृ प. ८९, ९०। ३. मूला ४३०।
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पिंडनियुक्ति तक्र बना दिया और मक्खन को घी रूप में परिवर्तित कर दिया। यदि गृहिणी उस घी को कुटुम्ब के लिए होगा, ऐसा करके नहीं अपनाती है तो वह स्थापित घी देशोनपूर्वकोटि' तक स्थापना दोष से युक्त रह सकता है। जीतकल्पभाष्य में इसे चिरस्थापित दोष माना है।
स्थापना दोष को प्रकारान्तर से व्याख्यायित करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि एक ही पंक्ति में स्थित तीन घरों से कोई साधु को देने के लिए हाथ में भिक्षा लेकर आता है, उस समय एक साधु भिक्षा को सम्यक् उपयोगपूर्वक ग्रहण करता है तथा दूसरा साधु दो घरों के बीच में खड़े होकर भिक्षा की अनेषणीयता आदि का उपयोग करता है। इस प्रकार तीन घर के बाद वह आहार स्थापना दोष युक्त होता है। जीतकल्पभाष्य में इसे इत्वरिक स्थापना दोष के अन्तर्गत रखा है। पिण्डविशुद्धिप्रकरण में इसको अभ्याहत दोष के अन्तर्गत व्याख्यायित किया है। ६. प्राभृतिका दोष
अपने इष्ट अथवा पूज्य को बहुमानपूर्वक उपहारस्वरूप अभीष्ट वस्तु देना प्राभृत है। साधु को ऐसे आहार का दान देना प्राभृतिका दोष है। बृहत्कल्प भाष्य में प्राभृतिका और प्रहेणक को एकार्थक माना है। यह दो प्रकार का है-सूक्ष्म प्राभृतिका २. बादर प्राभृतिका। इनके भी दो-दो भेद हैं-अवष्वष्कण (उत्सर्पण) तथा उत्ष्वष्कण (अवसर्पण)। बादर अवष्वष्कण प्राभृतिका-साधु का आगमन ज्ञात होने पर निर्धारित समय से पूर्व विवाह करना, जिससे साधु को भिक्षा दी जा सके, यह बादर अवष्वष्कण या बादर अवसर्पण प्राभृतिका दोष है।१२।। सूक्ष्म अवष्वष्कण प्राभृतिका-मां ने बालक को कहा कि अभी मैं रुई आदि कातने में व्यस्त हूं अत: बाद में भोजन दूंगी। इसी बीच साधु का आगमन होने से उनके साथ बालक को भी पहले भोजन देना सूक्ष्म अवष्वष्कण या सूक्ष्म अवसर्पण प्राभृतिका है।१२
१. साधु का उत्कृष्ट चारित्र-काल आठ वर्ष कम पूर्व-कोटि ३. जीभा १२२३ । जितना होता है। टीकाकार स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ४. पिनि १३०, मवृ प. ९१ । यदि कोई बालक आठ वर्ष की आयु में साधु बना, उसका ५. जीभा १२२१, १२२२ । आयुष्य यदि पूर्वकोटि प्रमाण है। उसने यदि पूर्वकोटि ६. पिंप्र ४७ । आयु वाली गृहिणी से घी की याचना की। उस समय ७. मवृ प. ३५ ; कस्मैचिदिष्टाय पूज्याय वा बहुमानपुरस्सरीकिसी कारण से वह नहीं दे सकी, बाद में उसने वह घी
कारेण यदभीष्टं वस्तु दीयते तत्प्राभृतमुच्यते। मुनि के लिए स्थापित कर दिया तथा उस घी को तब तक ८. बृभा ३६५६ ; पाहुडिय पहेणगं च एगटुं। रखा, जब तक मुनि दिवंगत न हों तो उस स्थापित घी का ९. पिंप्र ४० ; परओ करणमुस्सक्कणं। काल देशोनपूर्वकोटि हो सकता है। दिवंगत होने पर वह १०. पिंप्र४०; ओसक्कणमारओ करणं।
घी स्थापना दोष से मुक्त हो जाता है (म प. ९१)। ११. पिनि १३४। २. पिनि १२८/२, ३।
१२. पिभा २६, २७।
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पिण्डनिर्युक्ति : एक पर्यवेक्षण
७३
बादर उत्ष्वष्कण प्राभृतिका - साधुओं को आहार देने के निमित्त से पुत्र आदि के विवाह की तिथि बाद में करना बादर उत्ष्वष्कण प्राभृतिका है ।"
सूक्ष्म उत्ष्वष्कण प्राभृतिका - आहार का समय होने पर भी कार्य में व्यस्त मां यदि बालक को यह कहे कि थोड़ी देर रुको, अभी मुनि अपने घर आएंगे, उस समय तुम्हें भी भोजन दे दूंगी, यह सूक्ष्म उत्ष्वष्कण या सूक्ष्म उत्सर्पण प्राभृतिका दोष है।
आचार्य बट्टर ने काल की वृद्धि हानि के अनुसार दिवस, पक्ष, महीना, वर्ष आदि का परावर्तन करके आहार देना बादर प्राभृतिका तथा पूर्वाह्न में दिए जाने वाले आहार को अपराह्न या मध्याह्न में देने को सूक्ष्म प्राभृतिका दोष माना है। मूलाचार के टीकाकार ने प्राभृतिका दोष को प्रावर्तित दोष के रूप में उल्लिखित किया है । "
निर्युक्तिकार के अनुसार जो मुनि प्राभृतिका दोष युक्त आहार को ग्रहण करके, उस स्थान का प्रतिक्रमण नहीं करता, वह मुण्ड मुनि विलुप्त पंख वाले कपोत की भांति व्यर्थ ही संसार में परिभ्रमण करता रहता है ।" अनगारधर्मामृत में प्राभृतिका के स्थान पर प्राभृतक दोष का उल्लेख है। दिगम्बर आचार्य वसुनंदी के अनुसार प्रावर्तित दोष युक्त भिक्षा ग्रहण करने से क्लेश, बहुविघ्न तथा आरंभ - हिंसा आदि दोष होते हैं।
पिण्डनिर्युक्ति में प्राभृतिका दोष आहार से सम्बन्धित है लेकिन बृहत्कल्पभाष्य में प्राभृतिका वसति- -स्थान से सम्बन्धित भी है ।
बादर प्राभृतिका
बादर प्राभृतिका के पांच भेद इस प्रकार हैं - १. विध्वंसन २. छादन ३. लेपन ४. भूमीकर्म ५. प्रतीत्यकरण ।" ये पांचों भेद दो प्रकार के हैं-अवष्वष्कण २. अभिष्वष्कण ।' अवष्वष्कण में विध्वंसन आदि साधु के निमित्त निर्धारित समय से पूर्व किए जाते हैं । अभिष्वष्कण में निर्धारित समय के बाद किए जाते हैं। ये सब भेद भी देशतः और सर्वतः - इन दो भागों में विभक्त हैं। वसति सम्बन्धी बादर प्राभृतिका करने पर चार लघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है । देशतः करने पर मासलघु (पुरिमार्ध) तथा सर्वतः करने पर भिन्नमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है ।"
सूक्ष्म प्राभृतिका
वसति सम्बन्धी सूक्ष्म प्राभृतिका भी पांच प्रकार की होती है"
१. पिनि १३५ ।
२. पिनि १३२, १३३।
३. मूला ४३३ ।
४. मूलाटी पृ. ३४० ।
५.
पिनि १३६ ।
६. मूलाटी पृ. ३४० ।
७. इन सबके विस्तार हेतु देखें, बृभा १६७५ - १६८०, टी पृ. ४९३, ४९४ ।
८. पिण्डनिर्युक्ति में अभिष्वष्कण के स्थान पर उत्ष्वष्कण
शब्द का प्रयोग मिलता है।
९. बृभा १६७५, टी. पृ. ४९३ ।
१०. बृभा १६८०, टी. पृ. ४९४ । ११. बृभा १६८१
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१४
पिंडनियुक्ति
१. सम्मार्जन-झाडू लगाना। २. आवर्षण-पानी से स्थान को ठंडा करना। ३. उपलेपन-गोबर से लीपना। ४. सूक्ष्म-पुष्प-रचना करना। ५. दीपक-दीपक जलाना।
इनके भी अवष्वष्कण और अभिष्वष्णकण-ये दो भेद हैं। उदाहरण के रूप में जैसे गृहस्थ सोचता है कि जब तक स्वाध्याय-मंडली का काल नहीं आता है, तब तक मैं प्रमार्जन कर देता हूं , ऐसा सोचकर यदि प्रमार्जन करता है तो यह सूक्ष्म सम्मार्जन अवष्वष्कण प्राभृतिका दोष है। यदि यह सोचता है कि अभी स्वाध्याय-मंडली बैठी है, जब यह उठेगी, तभी प्रमार्जन करूंगा तो यह सूक्ष्म सम्मार्जन अभिष्वष्कण प्राभृतिका है। ग्रंथकार ने फिर इसके भी अनेक भेद-प्रभेद किए हैं। ७. प्रादुष्करण दोष
अंधकार युक्त स्थान को प्रकाशित करके अथवा अंधकार से बाहर प्रकाश में लाकर आहर देना प्रादुष्करण दोष है। दशवैकालिक सूत्र में उल्लेख मिलता है कि अंधकार के कारण वस्तु अथवा प्राणी दिखाई न दे, वैसे निम्न द्वार वाले अथवा अंधकार युक्त कोठरी से मुनि भिक्षा ग्रहण न करे। प्रादुष्करण दोष के दो भेद हैं-१. प्रकटकरण २. प्रकाशकरण। प्रकटकरण-देय वस्तु को अंधकार से हटाकर प्रकाशयुक्त स्थान में रखना। प्रकाशकरण-अंधकार युक्त स्थान को प्रकाशित करने के लिए दीवार में छिद्र करना, द्वार बढ़ाना, दूसरा द्वार बनाना, घर के ऊपर के छप्पर को हटाना अथवा मणि, दीपक या अग्नि से देय वस्तु को आलोकित करना।
प्रकटकरण दोष को स्पष्ट करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि चूल्हे के तीन प्रकार होते हैं१. संचारिमा २. साधु के लिए पहले से ही बाहर बनाई हुई चुल्ही। ३. साधु के लिए सद्यः बाहर प्रकाश में बनाया गया चूल्हा।
इन तीनों प्रकार के चूल्हों पर पकाया हुआ भोजन लेने से दो दोष होते हैं-उपकरणपूति और प्रादुष्करण।
१. विस्तार हेतु देखें बृभा १६८१-८६, टी. पृ. ४९५, ४९६। ५. वह चूल्हा, जो घर के अंदर होने पर भी प्रयोजनवश बाहर २. पंव ७४७; नीयवारंधारे, गवक्खकरणाइ पाउकरणं तु। ले जाया जा सके (मवृ प. ९४)। ३. दश ५/१/२०।
६. पिनि १३८/१। ४. पिनि १३८/४,५।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
मूलाचार में प्रकटकरण के स्थान पर संक्रमण शब्द का प्रयोग हुआ है। जिसका तात्पर्य वही है, जो प्रकटकरण का है। प्रकाशकरण में टीकाकार ने एक अर्थ राख आदि से बर्तनों को चमकाना तथा बर्तनों को फैलाकर रखना किया है।
दोनों दोषों के अपवाद बताते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि यदि गृहस्थ बाहर प्रकाश में लाकर यह कहता है कि घर के अंदर बहुत मक्खियां हैं तथा गर्मी भी अधिक है, बाहर प्रकाश भी है और मक्खियां भी नहीं हैं अतः हम अपने लिए भोजन बाहर लाए हैं अथवा बाहर पकाया है। इस प्रकार आत्मार्थीकृत करने पर वह भोजन निर्दोष होने से साधु के लिए कल्पनीय है। ज्योति या दीपक का प्रकाश करने पर आत्मार्थीकृत अर्थात् गृहस्थ के अपने लिए करने पर भी वह आहार साधु के लिए कल्पनीय नहीं होता। यदि किसी कारण से प्रादुष्करण दोष युक्त आहार ग्रहण कर लिया जाए तो साधु उस पात्र को धोए बिना भी उसमें शुद्ध आहार ग्रहण कर सकता है। आचार्य वसुनंदी के अनुसार ईर्यापथ की शुद्धि न होने के कारण प्रादुष्करण दोष युक्त आहार वर्जित है। ८. क्रीतकृत दोष
साधु के लिए खरीदकर भिक्षा देना क्रीतदोष है। आचार्य हरिभद्र ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि जो साधु के लिए खरीदा जाए, वह क्रीत है तथा खरीदी हुई वस्तु से बना हुआ क्रीतकृत कहलाता है। आचारचूला, सूत्रकृतांग, स्थानांग, भगवती, दशवैकालिक आदि आगमों में जहां भी औद्देशिक का उल्लेख है, वहां क्रीतकृत और अभिहत आदि दोषों का भी साथ में उल्लेख मिलता है।
बृहत्कल्प भाष्य के अनुसार क्रीतकृत दोष दो प्रकार का होता है-निर्दिष्ट और अनिर्दिष्ट। जहां गृहस्थ इस निर्देश पूर्वक खरीदता है कि अमुक वस्त्र, पात्र आदि मेरे लिए होंगे तथा अमुक साधु के लिए, वहां निर्दिष्टक्रीत होता है। इसके विपरीत सहज रूप से खरीदा हुआ अनिर्दिष्टक्रीत कहलाता है। अनिर्दिष्टक्रीत में गृहस्थ के द्वारा प्रयुक्त होने के बाद शेष वस्त्र आदि साधु के लिए कल्प्य होते हैं लेकिन निर्दिष्टक्रीत साधु के लिए अग्राह्य होता है। निर्दिष्टक्रीत में गृहस्थ यदि साधु को यह कहे कि आप मेरे निमित्त खरीदे वस्त्र ग्रहण करें, मैं आपके निमित्त क्रीत वस्त्रों का उपयोग करूंगा, ऐसा कहने पर साधु उस गृहस्थ के लिए निर्दिष्ट वस्त्र को ले सकता है। पिण्डनियुक्ति में क्रीतकृत दोष के चार भेदों की व्याख्या की गई है
१. मूलाटी पृ. ३४१ ; प्रकाशनं भाजनादीनां भस्मादिनोद- ४. दशहाटी प. ११६ ; क्रयणं-क्रीतं....साध्वादिनिमित्तमिति कादिना वा निर्मार्जनं भाजनादेर्वा विस्तरणम्।
गम्यते, तेन कृतं-निर्वर्तितं क्रीतकृतं। २. मूलाटी पृ. ३४१ ; ईर्यापथदोषदर्शनादिति।
५. आचूला १/२९, सू१/९/१४, स्था ९/६२, भग ९/१७७, ३. (क) दसअचू पृ.६०; कोतकडं जं किणिऊण दिज्जति । दश ३/२। (ख) म प. ३५ क्रीतं यत् साध्वर्थं मूल्येन परिगृहीतम्। ६.बभा ४२०१, ४२०२, टी प. ११४१ ।
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पिंडनियुक्ति
आत्मद्रव्यक्रीत
सौभाग्य के लिए तीर्थों का प्रसाद, गंधद्रव्य, रूपपरावर्तिनी गुटिका, चंदन तथा वस्त्र खंड आदि गृहस्थ को देकर आहार प्राप्त करना आत्मद्रव्यक्रीत है। यहां कार्य में कारण का उपचार करके आत्मद्रव्यक्रीत को ग्रहण किया गया है।
आत्मद्रव्यक्रीत के दोष बताते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि यदि निर्माल्य-देवद्रव्य आदि देने पर संयोगवश कोई बीमार हो जाए तो वह व्यक्ति प्रवचन अथवा साधु की निंदा कर सकता है कि इनके योग से मुझे रोग हुआ है। यदि निर्माल्य आदि से स्वस्थ हो जाए तो वह सबके समक्ष साधु की चाटुकारिता करता है कि इनके योग से मैं स्वस्थ हो गया। उसकी प्रशंसा सुनकर अन्य व्यक्तियों द्वारा निर्माल्य गंध आदि की याचना करने पर यदि उन सबको न दी जाए तो अधिकरण-कलह की संभावना रहती है। आत्मभावक्रीत
धर्मकथा, वाद-विवाद, तपस्या, ज्योतिष्विद्या, आतापना, श्रुतस्थान (आचार्यपद), जाति, कुल, गण, कर्म और शिल्प आदि के आधार पर भिक्षा प्राप्त करना आत्मभावक्रीत है। नियुक्तिकार ने आत्मभावक्रीत में बहुत मनोवैज्ञानिक ढंग से मानवीय दुर्बलता को प्रकट करने का प्रयत्न किया है। यदि साधु आहार-प्राप्ति के लिए धर्म-कथा करता है तो उसे जिस वस्तु की आवश्यकता होती है, श्रोता उसे सहर्ष प्रदान कर देते हैं। इसका दूसरा विकल्प बताते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि कोई साधु प्रसिद्ध कथा कथक के आकार जैसा है, उससे यदि लोग पूछते हैं कि क्या वह प्रसिद्ध धर्मकथा करने वाले आप ही हैं? तब वह आहार आदि के लोभ में कहता है कि सभी साधु धर्मकथा करने वाले ही होते हैं अथवा उस समय यदि वह मौन रहता है तो श्रावक सोचते हैं कि वह प्रसिद्ध धर्मकथा कथक यही है, गंभीरता के कारण यह स्वयं को प्रकाशित नहीं कर रहा है। इस प्रकार अपने कौशल से प्रभावित करके द्रव्य प्राप्त करना भी आत्मभावक्रीत है।
___ यदि साधु इन सब चीजों को दुःखक्षय या कर्मक्षय के लिए करता है तो महान् निर्जरा होती है। यदि भिक्षा-प्राप्ति जैसी सामान्य आवश्यकता के लिए धर्मकथा आदि का प्रयोग करता है तो निर्जरा का फल कम हो जाता है। परद्रव्यक्रीत
गृहस्थ के द्वारा साधु के निमित्त खरीदा हुआ आहार ग्रहण करना परद्रव्यक्रीत है। परभावक्रीत
साधु को देने के लिए मंख आदि के द्वारा प्रदर्शन करना अथवा धर्मकथा करना, जिससे आकृष्ट
१. पिनि १४१। २. पिनि १४३।
३. पिनि १४३/१-३। ४. मवृ प. ९७।
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पिण्डनिर्युक्ति : एक पर्यवेक्षण
होकर लोग उसे आहार आदि दें, वह आहार ग्रहण करना परभावक्रीत है। परभावक्रीत को ग्रहण करने में तीन दोष होते हैं - क्रीत, अभिहृत और स्थापित । नियुक्तिकार ने इस दोष को स्पष्ट करने के लिए देवशर्मा नामक मंख की कथा का संकेत भी दिया है । २
भगवती के अनुसार क्रीतकृत आहार को अनवद्य मानने वाला, अनवद्य मानकर उसका परिभोग करने वाला तथा उसे परिषद् में अनवद्य प्ररूपित करने वाला मुनि यदि उस स्थान की आलोचना नहीं करता तो वह विराधक होता है ।
९. प्रामित्य ( अपमित्य) दोष
उद्गम का नवां दोष है - प्रामित्य । साधु को देने के लिए किसी से उधार लेकर आहार आदि देना प्रामित्य दोष है। टीकाकार मलयगिरि ने 'पामिच्च' की संस्कृत छाया अपमित्य की है।" धान्य आदि पदार्थ पुनः लौटाने की प्रतिज्ञापूर्वक ग्रहण करने को चाणक्य ने अपमित्यक कहा है अतः यहां टीकाकार मलयगिरि द्वारा की गई अपमित्य संस्कृत छाया भी संगत बैठती है । दिगम्बर साहित्य में प्रामित्य दोष के लिए ऋणदोष का उल्लेख है ।" यह दो प्रकार का होता है - वृद्धि सहित (ब्याज सहित) वृद्धि रहित । कहने
तात्पर्य यह है कि जब दाता यह कहकर ओदन आदि लाता है कि मैं पुनः इससे अधिक तुमको वापस दे दूंगा तो वह वृद्धिसहित दोष है। जब वह यह निर्देश करके लाता है कि इतना ही भोजन मैं तुमको बाद में दे दूंगा, यह वृद्धिरहित दोष है ।'
नियुक्तिकार के अनुसार प्रामित्य दोष दो प्रकार का होता है-लौकिक तथा लोकोत्तर । लौकिक प्रामित्य
बहिन आदि पारिवारिक व्यक्ति साधु के लिए किसी से उधार लेकर दे तो वह लौकिक प्रामित्य दोष है । इस दोष को प्रकट करने हेतु ग्रंथकार ने भगिनी सम्मति की कथा का उल्लेख किया है, जिसने अपने भ्राता साधु के लिए तैल उधार लेकर दान दिया। ऋण अपरिमित होने के कारण उसे दासत्व स्वीकार करना पड़ा। कालान्तर में दीक्षित भाई ने सेठ को समझाया तथा बहिन सम्मति ने भी दीक्षा ग्रहण कर ली । लोकोत्तर प्रामित्य
परस्पर साधुओं में एक दूसरे को उधार देना लोकोत्तर प्रामित्य है । लोकोत्तर प्रामित्य दो प्रकार का है। प्रथम तो कोई मुनि कुछ समय के उपयोग हेतु वस्त्र ग्रहण करे। दूसरा यह कि इतने दिनों बाद ऐसा ही वस्त्र वापस दे दिया जाएगा, इस रूप में उधार दे । प्रथम भेद में यदि वस्त्र मैला हो जाए, फट जाए,
१. पिनि १४२, निभा ४४७७ ।
२. पिनि १४२ / १, २, कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. १८ ।
७७
३. भग ५/१३९--१४५ ।
४. (क) पिंप्र ४४ ; समणट्ठा उच्छिंदिय, जं देयं देइ तमिह पामिच्वं । (ख) दशहाटी प १७४ ; प्रामीत्यं साध्वर्थमुच्छिद्य दानलक्षणम् ।
५. मवृ प. ३५ ।
६. कौ २/३१/१५/१, पृ. १५८ ; तदेव प्रतिदानार्थमापमित्यकम् । ७. मूलाटी पृ. ३४२ ।
८. मूलाटी पृ. ३४२ ; तत्पुनर्द्विविधं सवृद्धिकमवृद्धिकं चापि । भिक्षौ चर्यायां प्रविष्टे दातान्यदीयं गृहं गत्वा भक्त्या भक्तादिकं याचते वृद्धिं समिष्य वृद्ध्या विना वा साधुहेतोः ।
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७८
पिंडनियुक्ति जीर्ण-शीर्ण हो जाए, चोरी हो जाए अथवा खो जाए तो कलह की संभावना रहती है। दूसरी प्रकार से उधार लेने पर उससे अच्छा या विशिष्ट वस्त्र देने पर भी कोई दुष्कररुचि मुनि कलह कर सकता है। ग्रंथकार कहते हैं कि यदि किसी साधु को वस्त्र की आवश्यकता हो और कोई दूसरा साधु वस्त्र आदि देना चाहे तो बिना किसी आशंसा के वस्त्र दे। यदि कोई कुटिल या आलसी साधु को वस्त्र देने की अपेक्षा पड़े तो उसको वह स्वयं वस्त्र न दे। गुरु के माध्यम से वस्त्र दिया जाए, जिससे बाद में कलह न हो। १०. परिवर्तित दोष
साधु को देने के लिए पड़ोसी या किसी अन्य से परिवर्तन करके आहार आदि देना परिवर्तित दोष है। परिवर्तित दोष भी दो प्रकार का है-लौकिक और लोकोत्तर। दोनों के दो-दो भेद होते हैं-१. तद्द्रव्यविषयक २. अन्यद्रव्यविषयक।
कुथित घी के बदले सुगंध युक्त घी लेकर साधु को देना तद्रव्यविषयक लौकिक परावर्त है तथा कोद्रव धान्य देकर शाल्योदन आदि लेना लौकिक अन्यद्रव्य परावर्त दोष है। नियुक्तिकार ने लौकिक परावर्त दोष में लक्ष्मी नामक महिला की कथा का उल्लेख किया है, जिसने अपने भ्राता क्षेमंकर साधु के आने पर कोद्रव धान्य को बदलकर शाल्योदन दिया, इससे दोनों परिवारों में कलह हो गया।
___ एक साधु दूसरे साधु के साथ वस्त्र आदि का परिवर्तन करता है, वह लोकोत्तर परावर्त है। साधु द्वारा वस्त्र देकर वस्त्र लेना तद्रव्यविषयक लोकोत्तर परिवर्तित दोष है तथा वस्त्र देकर पुस्तक लेना अन्यद्रव्यविषयक लोकोत्तर परावर्त है।
लोकोत्तर परावर्त के दोष बताते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि वस्त्र आदि परिवर्तन करने में ग्रहणकर्ता साधु कह सकता है कि यह न्यून वस्त्र है, मेरा वस्त्र बड़ा था तथा यह वस्त्र जीर्णप्रायः, कर्कश स्पर्श वाला, मोटे धागे से निष्पन्न, छिन्न, मलिन तथा शीत से रक्षा करने में असमर्थ और बदरंग है, मेरा वस्त्र ऐसा नहीं था। इसी प्रकार किसी कुटिल साधु के कहने पर भी साधु विपरिणत हो सकता है अत: यदि किसी साधु के पास प्रमाणोपेत वस्त्र है और दूसरे के पास नहीं है तो गुरु के सामने परिवर्तन किया जाए, जिससे बाद में कलह की संभावना न रहे। ११. अभ्याहृत दोष
साधु के लिए अन्य स्थान से आहार आदि लाकर देना अभ्याहृत दोष है। इसे आहूत और
१. पिनि १४४/४-१४६।। २. (क) पिंप्र ४५ ; पल्लट्टिय जं दव्वं, तदन्नदव्वेहिं देइ
साहूणं । तं परियट्टियमेत्थं । (ख) मवृ प. ३५ ; परिवर्तितं यत् साधनिमित्तं
कृतपरावर्तम्। ३. पिनि १४७, मवृ प. १००।
४. पिनि १४८-१४८/२, कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३,
कथा सं. २०। ५. (क) दशअचू. पृ. ६०; अभिहडं जं अभिमुहमाणीतं
उवस्सए आणेऊण दिण्णं। (ख) मवृ प. ३५% अभिहृतं-यत् साधुदानाय स्वग्रामात्
परग्रामाद्वा समानीतम्। ६. सू १/९/१४।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
७९ अभिहत दोष भी कहा जाता है। अभिहत दोष दो प्रकार का होता है-आचीर्ण और अनाचीर्ण । छेदसूत्रों में उल्लेख मिलता है कि यदि कोई गाथापति साधु के लिए तीन घर के आगे से आहार लाकर दे तो उसे ग्रहण करने वाला भिक्षु प्रायश्चित्त का भागी होता है। दशवैकालिक सूत्र में अभिहत आहार में वध की अनुमोदना को स्वीकार किया है। आगमों में अनेक स्थलों पर अभिहत दोष युक्त भिक्षा का निषेध किया गया है।
__ अनाचीर्ण अभ्याहत के दो भेद हैं-निशीथ अनाचीर्ण अभ्याहृत तथा नोनिशीथ अनाचीर्ण अभ्याहृत। निशीथ का अर्थ है-जहां दायक अपने आशय को प्रकट न करे तथा नोनिशीथ का तात्पर्य है, जहां दाता अपने आने का प्रयोजन स्पष्ट कर दे। प्रवचनसारोद्धार' की टीका में अभ्याहृत के भेद-प्रभेद इस प्रकार
आचीर्ण
अनाचीर्ण
देश
देशदेश
देशदेश
निशीथ
निशीथ
नोनिशीथ
नोनिशीथ
उत्कृष्ट मध्यम जघन्य
उत्कृष्ट मध्यम जघन्य
स्वग्राम परग्राम स्वग्राम
परग्राम
गृहान्तर
नोगृहान्तर
स्वदेश
परदेश
वाटक साही निवेशन गृह
(गली)
जलपथ स्थलपथ
जलपथ स्थलपथ
नांव
तरणकाष्ठ तुम्बा जंघा
जंघा वाहन
नाव
उडुप
जघा वाहन
१. नि ३/१५। २. दश ६/४८। ३. स्था ९/६२, दश३। ४. जीभा १२५०, छण्ण णिसीहं भण्णति, पगडं पुण होति
णोणिसीहं ति।
५. प्रसा १४०,१४१। । ६. जीभा १२५३ ; जीतकल्पभाष्य में जलपथ और स्थलपथ
को पुनः दो भागों में विभक्त किया है-दोषयुक्त मार्ग तथा निरापद मार्ग।
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८०
पिंडनियुक्ति
निशीथ स्वग्राम अभ्याहृत
जिस गांव में साधु निवास करते हैं, वह स्वग्राम तथा शेष परग्राम कहलाते हैं। निशीथ स्वग्राम अभ्याहृत को स्पष्ट करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि कोई श्राविका दान देने के लिए उपाश्रय में आहार लेकर जाती है। मुनि को आशंका न हो इसलिए वह मुनि के समक्ष कहती है कि भगवन् ! अमुक घर में जाते हुए मुझे यह मिठाई प्राप्त हुई है अथवा मुझे अमुक जीमनवार में यह सामग्री मिली है। मैं सहज रूप से साधुओं को वंदना करने आई हूं, ऐसा कहकर वह मुनि को वंदना करके भिक्षा प्रदान करके लौट जाती
अथवा वह मुनि के समक्ष मूल मनोगत भावों को छिपाते हुए कहती है कि यह मिठाई मैं परिजनों को देने के लिए घर से लाई थी लेकिन उन्होंने ली नहीं अथवा वह कपटपूर्वक शय्यातरी के घर में उच्च स्वर में कहती है कि यह प्रहेणक लो। शय्यातरी मायापूर्वक निषेध करती है। दोनों में कृत्रिम कलह हो जाने पर मुनि को वह प्रहेणक भिक्षा में देती है, यह निशीथ स्वग्राम अभ्याहत है। नोनिशीथ स्वग्राम अभ्याहृत
ग्रंथकार ने नोनिशीथ स्वग्राम अभ्याहृत के अनेक कारणों का उल्लेख किया है - • मुनि भिक्षा हेतु गए, उस समय भिक्षादात्री घर में नहीं थी अथवा सो रही थी। • उस समय भिक्षा का काल नहीं था। • विशिष्ट व्यक्तियों के लिए बने खाद्य पदार्थ को पहले नहीं दिया गया। • भिक्षार्थ साधु के चले जाने पर किसी दूसरे घर से त्यौहार की मिठाई आई। इन सब कारणों से वह श्राविका बाद में अपने घर से भिक्षा लेकर साधु के उपाश्रय में जाती है, यह
नोनिशीथ स्वग्राम अभ्याहृत है। निशीथ परग्राम अभ्याहृत ।
निशीथ परग्राम अभ्याहृत को नियुक्तिकार ने एक कथा के माध्यम से विस्तार से स्पष्ट किया है। सेठ धनावह के यहां विवाह के पश्चात् अधिक मोदक बच गए तो उसने सोचा कि यदि साधुओं को भी भिक्षा दी जाए तो लाभ मिलेगा। साधु अभी समीपवर्ती गांव से नहीं आ सकते क्योंकि बीच में नदी है अतः अच्छा हो मैं ही साधुओं को दान देने के लिए पास के गांव में चला जाऊं। वहां भी श्रावक यह सोचकर कि साधु इन मोदकों को आधाकर्म की आशंका से ग्रहण नहीं करेंगे अतः पहले ब्राह्मणों को दान देना चाहिए। वह साधु-साध्वियों के उच्चार-स्थण्डिल भूमि के बीच में बैठा फिर निवेदन करने पर मुनि ने उन
३. पिनि १५६/१।
१. पिनि १५७/५। २. पिनि १५७/६।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
मोदकों को प्रासुक समझकर ग्रहण कर लिया यह निशीथ परग्राम अभ्याहृत है। नोनिशीथ परग्राम अभ्याहृत को नोनिशीथ स्वग्राम अभ्याहृत की भांति समझना चाहिए। नियुक्तिकार और टीकाकार ने उसकी अलग से व्याख्या नहीं की है। आचीर्ण स्वग्राम अभ्याहृत
क्षेत्र की अपेक्षा आचीर्ण स्वग्राम अभ्याहृत के दो भेद हैं-देश तथा देशदेश। सौ हाथ प्रमित क्षेत्र देश तथा सौ हाथ के मध्य या उससे दूर क्षेत्र देशदेश कहलाता है। इसमें सौ हाथ प्रमित क्षेत्र से लाया हुआ आहार साधु के लिए आचीर्ण तथा इससे अधिक दूरी से लाया हुआ अनाचीर्ण होता है। आचीर्ण अभ्याहृत के तीन भेद हैं-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। एक हाथ से दूसरे हाथ में वस्तु परिवर्तन करना जघन्य आचीर्ण, सौ हाथ से अभ्याहत उत्कृष्ट आचीर्ण तथा इसके मध्यवर्ती क्षेत्र से अभ्याहृत मध्यम आचीर्ण कहलाता है।
नियुक्तिकार ने जलपथ और स्थलपथ से अभ्याहृत के दोषों का उल्लेख किया है। उनके अनुसार इन दोनों मार्गों से लाने में संयम-विराधना और आत्म-विराधना होती है। जलमार्ग के दोष इस प्रकार हैंगहरे पानी में निमज्जन, जलचर जंतुओं के द्वारा पकड़ा जाना तथा कीचड़ आदि के कारण पैर का धंसना आदि। स्थलमार्ग में कांटे, सर्प, चोर, श्वापद आदि दोषों का भय रहता है।
___ मूलाचार की टीका में 'अभिहड' की संस्कृत छाया अभिघट की है तथा इसको देश अभिघट और सर्व अभिघट-इन दो भागों में विभक्त किया है। देश अभिघट आचीर्ण और अनाचीर्ण दो प्रकार का होता है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार तीन घर या सात घर से लाई हुई भिक्षा आचीर्ण है, इससे अधिक दूरी से लाई गई अनाचीर्ण है। सर्व अभिघट के चार भेद हैं-१. स्वग्राम २. परग्राम ३. स्वदेश ४. परदेश। पूर्व दिशा के मुहल्ले से पश्चिम दिशा के मुहल्ले में ले जाना स्वग्राम अभिघट है। दूसरे गांव से लाना परग्राम अभिघट है। इसी प्रकार स्वदेश और परदेश समझना चाहिए। सर्वाभिघट के सभी भेद अनाचीर्ण हैं।
स्वग्राम अभ्याहृत में तीन घर के अन्तर से उपयोगपूर्वक लाया हुआ आहार स्वग्राम गृहान्तर कहलाता है। नोगृहान्तर वाटक, गली आदि अनेक प्रकार का होता है। इसमें लाने वाले का उपयोग संभव नहीं होता इसलिए यह अनाचीर्ण है। १२. उद्भिन्न दोष
ढके हुए या लाख आदि से मुद्रित पात्र को खोलकर औषध, घी, शक्कर आदि वस्तुएं साधु को
१. पिनि १५७/१-४, कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३,
कथा सं. २१।
२. पिनि १५४ । ३. मूला ४३८-४४०, टी. पृ. ३४३ ।
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८२
पिंडनियुक्ति देना उद्भिन्न दोष है। उद्भिन्न दोष दो प्रकार का होता है-पिहितोद्भिन्न तथा कपाटोद्भिन्न । साधु के निमित्त सील आदि खोलकर साधु को घी या तैल देना पिहितोद्भिन्न दोष है। यह पिधान सचित्त और अचित्त दोनों प्रकार का हो सकता है। बंद कपाट को खोलकर भिक्षा देना कपाटोद्भिन्न दोष है।
___साधु के निमित्त यदि तैलपात्र खोला है तो उसे पुत्र आदि को देने अथवा क्रय-विक्रय में पापमय प्रवृत्ति होती है। यदि गृहस्थ पुनः पात्र को बंद करना भूल जाए तो उसमें चींटी, मूषक आदि जीव गिरने से उनकी हिंसा हो सकती है क्योंकि सील या लेप को खोलने और बंद करने से पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायु आदि कायों की हिंसा होती है।
कपाटोद्भिन्न से निम्न दोष संभव हैं१. कपाट के पास मिट्टी, पानी तथा वनस्पति आदि रहने से उनकी विराधना संभव है। २. यदि जल फैल जाता है तो उसके समीपवर्ती चूल्हे के अग्निकाय की विराधना संभव है।
अग्नि के साथ वायुकाय के जीवों की विराधना भी जुड़ी हुई है। ३. कपाट की आवर्तन पीठिका के ऊपर-नीचे होने से छिपकली, कुंथु, चींटी आदि त्रस जीवों की
विराधना संभव है। ४. कपाट खोलने से उसके पीछे बैठे बालक को चोट लग सकती है।
कुंचिका रहित कपाट यदि प्रतिदिन खुलता है तथा दरवाजा धरती से नहीं घिसता तो उसे खोलने पर साधु भिक्षा प्राप्त कर सकता है। इसी प्रकार मटके या पात्र का मुंह यदि प्रतिदिन खोला जाता है अथवा उसका मुख यदि कपड़े से बंद किया जाता है, लाख आदि से मुद्रित नहीं किया जाता तो उसको खोलकर देना भी आचीर्ण है। १३. मालापहृत दोष
यह उद्गम का तेरहवां दोष है। साधु के निमित्त छींके आदि से, ऊपरी मंजिल से अथवा भूमिगत कमरे से आहार लाकर देना मालापहृत दोष है। दिगम्बर साहित्य में मालापहृत के स्थान पर मालारोहण तथा आरोह' शब्द का प्रयोग हुआ है। मालापहृत आहार ग्रहण करने वाला मुनि प्रायश्चित्त का भागी होता है। मालापहृत दोष मुख्यतः दो प्रकार का होता है-जघन्य मालापहत और उत्कृष्ट मालापहृत । पैर के अग्र भाग के बल पर खड़े होकर अथवा मंचक, आसंदी आदि के ऊपर खड़े होकर भिक्षा देना जघन्य मालापहृत
१. (क) पिंप्र४८; जउछगणाइविलित्तं, उभिदिय देइ जं ४. (क) मव प. ३५ : मालात मंचादेरपहृतं साध्वर्थमानीतं तमुन्भिन्नं।
यद्भक्तादि तन्मालापहतं। (ख) मूला ४४१
(ख) पंव ७५० ; मालोहडं तु भणियं, जं मालाईहिं देइ पिहिदं लंछिदयं वा,ओसहघिदसक्करादि जं दव्वं ।
घेत्तूणं। उब्भिण्णिऊण देयं, उब्भिण्णं होदि णादव्वं ॥ ५. मूला ४४२ । २. पिनि १६३/३-५, जीभा १२६३ ।
६. अनध ५/६। ३. पिनि १६३/७, जीभा १२६७।
७. नि १७/१२५ ।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण दोष है। निःश्रेणी आदि पर चढ़कर प्रासाद के ऊपरी हिस्से से उतारकर भिक्षा देना उत्कृष्ट मालापहृत दोष है। नियुक्तिकार ने जघन्य मालापहृत में भिक्षु का तथा उत्कृष्ट मालापहत में कापालिक का दृष्टान्त दिया
प्रकारान्तर से मालापहत दोष के तीन भेद भी मिलते हैं-ऊर्ध्व २. अध: ३. तिर्यक् । ऊपर छींके आदि से उतारकर देना ऊर्ध्व मालापहृत है। नीचे भूमिगृह से लाकर देना अध: मालापहत तथा बहुत ऊंचे कुंभ आदि से भिक्षा देना तिर्यक् मालापहत है। भाष्यकार के अनुसार अर्धमाले में रखा हुआ आहार देना तिर्यक मालापहृत है।
पिण्डविशुद्धिप्रकरण में मालापहत दोष के चार भेद किए हैं। उपर्युक्त तीन के अतिरिक्त चौथा उभय मालापहृत का उल्लेख हुआ है। उभय की व्याख्या करते हुए उसके टीकाकार यशोदेवसूरि कहते हैं कि कुम्भी, उष्ट्रिका तथा बड़े कोठे में से एड़ी को ऊंचा करके तथा बाहु को नीचे फैलाकर साधु को आहार देना उभय मालापहृत दोष है। इसमें शरीर का व्यापार ऊपर और नीचे दोनों दिशाओं में हुआ है अतः इसका नाम उभय मालापहत है।
यदि दर्दर, सिला, सोपान आदि पर साधु के आगमन से पूर्व ही गृहस्वामी चढ़ा हुआ हो तो हाथ लम्बा करके वह साधु को पात्र-दान दे सकता है क्योंकि यह अनुच्चोत्क्षिप्त है।
__यशोदेवसूरि ने मालापहृत दोष के प्रसंग में एक तर्क उपस्थित किया है कि ऊपर से उतारकर देना तो मालापहृत दोष है लेकिन नीचे भूमिगृह से लाकर देना मालापहृत कैसे हुआ? इसका उत्तर देते हुए वे कहते हैं कि प्रवृत्ति निमित्त से भूगृह से लाए हुए आहार को भी मालापहृत कहा गया है। आगम में यह रूढ़ हो गया है अतः नीचे से लाने के लिए मालापहृत शब्द का प्रयोग गलत नहीं है।'
मालापहृत के दोष बताते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि निःश्रेणी, फलक आदि से चढ़कर भक्तपान देने से दाता के पैर का संतुलन बिगड़ने से वह नीचे गिर सकता है, जिससे उसके हाथ-पैर में चोट लग सकती है। यदि वहां ब्रीहिदलनक यंत्र आदि पड़े हों तो उसकी मृत्यु हो सकती है। यदि गर्भिणी स्त्री हो तो दो त्रस जीवों की हिंसा की संभावना भी रहती है तथा नीचे गिरने से उसके शरीर के नीचे आए पृथ्वीजीव तथा उसके आश्रित अन्य जीवों की हिंसा हो सकती है। मुनि के प्रति प्रद्वेष भाव होने से द्रव्यप्राप्ति का व्यवधान हो सकता है, प्रवचन की अप्रभावना होती है तथा लोगों में यह भ्रांति फैलती है कि ये मुनि भविष्य में होने वाले अनर्थों को नहीं जानते।
१. पिनि १६५, मवृ प. १०८। २. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. २२, २३ । ३. पिनि १६९, जीभा १२७०, निशीथ भाष्य (५९४९) में
तिर्यक् के स्थान पर उभयत: भेद का उल्लेख मिलता है। ४. जीभा १२७०।
५. पिंप्रटी प. ४५। ६.पिनि १७०। ७. पिंप्रटी प. ४५, ४६। ८. पिनि १६७, १६८, दश ५/१/६७-६९।
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१४. आच्छेद्य दोष
किसी वस्तु को उसके स्वामी की बिना इच्छा के बलात् छीनकर साधु को देना आच्छेद्य दोष है।' मूलाचार में इसकी व्याख्या कुछ भिन्न मिलती है। उसके अनुसार मुनि के भिक्षा श्रम को देखकर राजा और चोर आदि के भय से साधु को आहार देना आच्छेद्य दोष है। इसके टीकाकार ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि राजा और चोर द्वारा कौटुम्बिक के मन यह भय उत्पन्न किया जाए कि यदि मुनि को आहार नहीं दोगे तो राजा द्रव्य का अपहरण कर लेंगे या राज्य से बाहर निकाल देंगे, इस प्रकार भय उत्पन्न करके दान दिलवाना आच्छेद्य दोष है । आच्छेद्य दोष तीन प्रकार का होता है
•
प्रभुविषयक – गृहस्वामी अपने पुत्र, पुत्री, नौकर, ग्वाला आदि की वस्तु को बलात् छीनकर साधु को देता है, वह प्रभुविषयक आच्छेद्य दोष है ।
• स्वामिविषयक –— ग्रामनायक किसी कौटुम्बिक आदि की वस्तु बलात् छीनकर साधु को देता है, वह स्वामिविषयक आच्छेद्य दोष है । ३
•
स्तेनविषयक - चोर किसी सार्थ के व्यक्ति की वस्तु को छीनकर यदि साधु को देता है तो वह स्तेनविषयक आच्छेद्य दोष है। ये तीनों प्रकार के आच्छेद्य आहार साधु के लिए अकल्प्य हैं।
आच्छेद्य आहार ग्रहण करने से अप्रीति और कलह की संभावना रहती है, जैसा कि निर्युक्तिकार द्वारा निर्दिष्ट गोपालक की कथा में गोपालक को मुनि के प्रति प्रद्वेष पैदा हो गया। जिससे छीनकर आह आदि दिया जाता है, उसके अंतराय कर्म बंधने में भी मुनि निमित्तभूत बनते हैं तथा मुनि को अदत्तादान दोष भी लगता है । प्रद्वेष के कारण एक या अनेक साधुओं के लिए भक्तपान का विच्छेद होता है। इसके अतिरिक्त उपाश्रय से निष्काशन तथा अन्य अनेक कष्ट भी प्राप्त हो सकते हैं। इसका अपवाद बताते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि यदि वे दरिद्र पुरुष या स्वामी भक्तपान देने की अनुमति दें तो मुनि वह आच्छेद्य आहार ले सकता है।
पिंड
स्तेन विषयक आच्छेद्य का प्रसंग प्रायः सार्थ के साथ जाने वाले मुनियों के समक्ष उपस्थित होता है । सामान्यतः साधु को स्तेनाच्छेद्य नहीं ग्रहण करना चाहिए लेकिन चोरों के द्वारा बलात् देने पर सार्थक यदि यह कहते हैं कि हमारे लिए मुनि को दान देने का यह सौभाग्य का अवसर उपस्थित हुआ है तो मुनि
१. (क) मवृ प. ३५ ; आच्छिद्यते - अनिच्छतोऽपि भृतकपुत्रादेः सकाशात् साधुदानाय परिगृह्यते यत् तदाच्छेद्यम्।
(ख) पिंप्र ५०; अच्छिदिय अन्नेसिं, बलावि जं देंति
सामिपहुतेणा तं अच्छेज्जं ।
२. मूला ४४३, टी पृ. ३४६ ।
३. पिनि १७४ |
४. पिनि १७७ ।
५. पिनि १७३ / २, ३ ।
६. पिनि १७६, १७७ । ७. पिनि १७७ ।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण उस आहार को ग्रहण कर सकता है, फिर चोरों के चले जाने पर मुनि वह आहार सार्थिक को पुनः देते हुए कहे कि उस समय चोरों के भय से हमने यह आहार ग्रहण कर लिया, अब तुम यह द्रव्य वापिस ग्रहण कर लो, ऐसा कहने पर सार्थिक यदि प्रसन्नतापूर्वक अनुज्ञा दे तो मुनि वह आहार ग्रहण कर सकता है। १५. अनिसृष्ट दोष
स्वामी के द्वारा दत्त निसृष्ट कहलाता है। अनेक स्वामी होने पर या जो वस्तु जिसकी है, उसकी अनुमति के बिना आहार आदि ग्रहण करना अनिसृष्ट दोष है। अनिसृष्ट दोष युक्त आहार तीर्थंकरों द्वारा प्रतिषिद्ध है।' दशवैकालिक सूत्र में स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि जिस आहार का दो स्वामी भोग करने वाले हों, उसमें से यदि एक निमंत्रित करे तो मुनि वह दिया जाने वाला आहार ग्रहण न करे। इसकी व्याख्या करते हुए चूर्णिकार कहते हैं कि एक दाता की अनुज्ञा होने पर भी दूसरे स्वामी के आकार, इंगित, चेष्टा तथा मुख और नयन के संकेतों से जानने का प्रयत्न करे, यदि उसे इष्ट हो तो स्पष्ट अनुमति के बिना भी एक स्वामी द्वारा दत्त आहार लिया जा सकता है। साधारणतः अनिसृष्ट के दो भेद हैं-१. साधारण अनिसृष्ट २. चोल्लक अनिसृष्ट (भोजनविषयक)। जीतकल्पभाष्य एवं पिण्डविशुद्धिप्रकरण में इसके तीन भेद किए हैं-१. साधारण अनिसृष्ट २. चोल्लक अनिसृष्ट ३. जड्ड-हस्ती अनिसृष्ट। पिण्डनियुक्ति में चोल्लक अनिसृष्ट के अन्तर्गत जड्डु-हस्ती अनिसृष्ट का समावेश कर दिया गया है। साधारण अनिसृष्ट
साधारण अनिसृष्ट में मोदक, क्षीर, कोल्हू, विवाह, दुकान तथा गृह आदि का समावेश होता है। मोदक, क्षीर तथा कोल्हू आदि स्थानों पर होने वाले पदार्थ के अनेक स्वामी हो सकते हैं अतः साधु स्वामी की अनुज्ञा के बिना उन्हें न ले। ग्रंथकार ने मोदक विषयक साधारण अनिसृष्ट को माणिभद्र आदि ३२ युवकों की कथा के माध्यम से स्पष्ट किया है।
___ साधारण अनिसृष्ट लेने पर गृहस्थ साधु को 'पच्छाकड'–पुनः गृहस्थ बनाकर देश से निष्काशन भी कर सकता है।
१. मवृ प. ११३। २. बृभा ३६५७, टी. पृ. १०१६ ; दिण्णं तु जाणसु निसटुं। ३. स्थाटी पृ. ३११; अनिसृष्टं साधारणं बहनामेकादिना
अननुज्ञातं दीयमानम्। ४. पिनि १७८। ५. दश ५/१/३७। ६. दशअचू पृ. ११०, दशजिचू पृ. १७९ ; णेत्तादीहिं विगारेहिं
अभणंतस्स वि नज्जइ जहा एयस्स दिज्जमाणं चियत्तं
न वा इति, अचियत्तं तो णो पडिगेण्हेज्जा। ७. जीभा १२७५, पिंप्र५१। ८. पिनि १८१/१। ९. जीभा १२७६। १०. पिनि १७९-१७९/२, कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३,
कथा सं. २५। ११. पिनि १८०॥
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चोल्लक अनिसृष्ट
भोजन से सम्बन्धित अनिसृष्ट दो प्रकार का है - १. स्वामी विषयक, २. हस्ती विषयक । स्वामी विषयक - स्वामी विषयक चोल्लक दो प्रकार का होता है - छिन्न और अच्छिन्न । कोई कौटुम्बिक अपने खेत में काम करने वाले हालिकों के लिए भोजन बनवाकर अलग-अलग भेजता है वह छिन्न कहलाता है । जब वह सभी हालिकों के लिए एक साथ एक ही बर्तन में भोजन भेजता है तो वह अच्छिन्न कहलाता है । यदि कौटुम्बिक हालिकों के लिए भेजे सामूहिक भोजन को साधु के दान हेतु भी भेजता है तो वह निसृष्ट- अनुज्ञात कहलाता है, कौटुम्बिक की अनुमति के बिना वह अनिसृष्ट कहलाता है । छिन्न चुल्लक में मूल स्वामी की अनुज्ञा अपेक्षित नहीं है। प्रत्येक हालिक यदि अपना व्यक्तिगत आहार देना चाहे तो वह साधु के लिए कल्प्य है। अच्छिन्न में यदि सभी स्वामी अनुज्ञा दें तो वह आहार साधु को ग्रहण करना कल्पनीय है।
हस्ती विषयक - हाथी का भोजन महावत के द्वारा अनुज्ञात होने पर भी अकल्प्य है। यदि स्वयं महावत का भोजन गज के द्वारा अदृष्ट है तो वह साधु के लिए ग्रहण योग्य है । अननुज्ञात राजपिण्ड और गजपिण्ड को लेने से अंतराय और अदत्तादान आदि दोष लगते हैं। राजा की अनुज्ञा के बिना राजपिण्ड लेने से राजा महावत आदि को नौकरी से मुक्त कर सकता है, उसकी आजीविका विच्छेद से साधु को अंतराय का दोष लगता है। गजभक्त को न लेने का कारण स्पष्ट करते हुए व्याख्याकार कहते हैं कि महावत को प्रतिदिन दान देते देखकर हाथी रुष्ट होकर यह सोच सकता है कि यह साधु प्रतिदिन मेरे आहार को ग्रहण करता है । वह उपाश्रय में उस साधु को देखकर उपाश्रय को तोड़ सकता है तथा रोष में आकर साधु का प्राणघात भी कर सकता है अतः गज के समक्ष महावत के द्वारा दिया जाने वाला आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए ।" यह खोज का विषय है किं तिर्यञ्च में गाय, भैंस, घोड़ा, कुत्ता आदि का उल्लेख न करके केवल हाथी का ही उल्लेख क्यों हुआ ? इसके संभावित निम्न कारण हो सकते हैं
-
•
हाथी को जो आहार दिया जाता है, उसमें मनुष्य द्वारा भोग्य पदार्थ अधिक दिए जाते होंगे ।
पिण्डनिर्युक्ति की रचना के आसपास कोई ऐसी घटना घट गई होगी, जब निरन्तर भिक्षा ग्रहण करने वाले किसी साधु को हाथी ने चोट पहुंचाई हो ।
• अन्य प्राणियों की तुलना में हाथी की समझ अधिक परिपक्व होती है ।
मूलाचार के टीकाकार ने 'अणिसट्ठ' की संस्कृत छाया अनीशार्थ की है । अनगारधर्मामृत में यह
·
१. पिनि १८१ / १ ।
२. जीभा १२७७ ; परिछिण्णं चिय दिज्जति, एसो छिण्णो मुणेतव्वो । ३. मवृ प. ११४; यदा तु सर्वेषामपि हालिकानां योग्य
पिंड नियुक्ति
मेकस्यामेव स्थाल्यां कृत्वा प्रेषयति तदा सोऽच्छिन्नः ।
४. पिनि १८५, जीभा १२८१ ।
५. मवृ प. ११५, जीभा १२८२ ।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
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निषिद्ध दोष के नाम से उल्लिखित है। चारित्रसार, मूलाचार आदि दिगम्बर ग्रंथों में इस दोष की व्याख्या कुछ अंतर के साथ मिलती है। अणिसट्ठ के दो भेद हैं-ईश्वर और अनीश्वर । इन दोनों के भी चार-चार भेद हैं-१. सारक्ष २. व्यक्त ३. अव्यक्त ४. संघात। १६. अध्यवपूरक दोष
गृहस्थ के लिए पकाए जाने वाले भोजन में याद आने पर साधु के लिए अधिक डालकर भोजन पकाना अध्यवपूरक दोष है, इसे अध्यवतर भी कहा जाता है। दिगम्बर परम्परा में अध्यवपूरक के स्थान पर अध्यधि नामक दोष मिलता है, इसका दूसरा नाम साधिक भी है। इसका वैकल्पिक अर्थ मूलाचार में इस प्रकार मिलता है-'अहवा पागं तु जाव रोहो वा' अर्थात् जब तक आहार पूरा तैयार न हो, तब तक मुनि को रोकना भी अध्यधि दोष है।"
मिश्रजात और अध्यवपूरक में यही अंतर है कि मिश्रजात में साधु के निमित्त चावल, जल, फल, शाक आदि का परिमाण प्रारम्भ से ही अधिक कर दिया जाता है, जबकि अध्यवतर या अध्यवपूरक में इनका परिमाण मध्य में बढ़ाया जाता है।
__ अध्यवपूरक दोष तीन प्रकार का होता है-१. स्वगृहयावदर्थिक मिश्र २. स्वगृहसाधुमिश्र ३. स्वगृहपाषंडिमिश्र। इन तीनों की व्याख्या अपने-अपने नाम से स्पष्ट है। इनमें स्वगृहयावदर्थिकमिश्र विशोधिकोटि के अन्तर्गत आता है। इसका तात्पर्य यह है कि शुद्ध आहार में यदि यावदर्थिक मिश्र अध्यवपूरक आहार मिल जाए तो उसको उतनी मात्रा में निकाल देने से या भिक्षाचरों को देने से आहार की विशुद्धि हो जाती है, शेष आहार मुनि के लिए कल्प्य हो सकता है लेकिन स्वगृहपाषंडिमिश्र और स्वगृहसाधुमिश्र अध्यवपूरक पकाया हुआ आहार यदि शुद्ध आहार में गिर जाए तो वह पूति दोष युक्त हो जाता है। उतना आहार पृथक् करने या पाषंडियों को देने पर भी शेष आहार साधु के लिए कल्पनीय नहीं होता।
मूलाचार में जिन दो गाथाओं में उद्गम के १६ दोषों का उल्लेख है, वहां प्रथम नाम आधाकर्म का है लेकिन आधाकर्म को जोड़ने से उद्गम के १७ दोष हो जाते हैं अतः दिगम्बर परम्परा में आधाकर्म को १६ दोषों के साथ नहीं जोड़ा गया है। मूलाचार के टीकाकार इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं कि अध:कर्म (आधाकर्म) महादोष वाला है। पंच सूना (हिंसा स्थान) तथा छह जीवनिकायों के वध से युक्त
१. अनध ५/१५, टी पृ. ३८६ । २. (क) चासा ६९/२। (ख) इन सब भेदों की विस्तृत व्याख्या हेतु
द्र मूलाटी पृ. ३४७, ३४८ । ३. (क) मूला ४२७, टी पृ. ३३६ ।
(ख) अनध ५/८ स्याद्दोषोऽध्यधिरोधो, यत् स्वपाके यतिदत्तये।
प्रक्षेपस्तण्डुलादीनां रोधो वाऽऽपचनाद्यतेः॥ ४. मूला ४२७, टी पृ. ३३६। ५. पिनि १८७, मवृ प. ११६। ६. पिनि १८८, मवृ प. ११६ ।
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पिंडनियुक्ति होने के कारण निकृष्ट है अत: इसको अलग से रखा गया है। अनगारधर्मामृत में भी आधाकृत को उद्गम दोषों के साथ नहीं जोड़ा गया है।
दिगम्बर परम्परा में भिक्षाचर्या के दोषों के नाम एवं क्रम में अंतर मिलता है। यहां श्वेताम्बर तथा दिगम्बर ग्रंथों के आधार पर भिक्षाचर्या के दोषों का चार्ट प्रस्तुत किया जा रहा है
पिण्डनियुक्ति (गा. ५८,५९)
मूलाचार (गा. ४२२,४२३)
अनगारधर्मामृत (अनध ५/५,६)
१. आधाकर्म २. औद्देशिक ३. पूतिकर्म ४. मिश्रजात ५. स्थापना ६. प्राभृतिका ७. प्रादुष्करण ८. क्रीत ९. प्रामित्य १०. परिवर्तित ११. अभिहत १२. उद्भिन्न १३. मालापहृत १४. आच्छेद्य १५. अनिसृष्ट १६. अध्यवपूरक
१. औद्देशिक २. अध्यधि ३. पूति ४. मिश्र ५. स्थापित ६. बलि ७. प्रावर्तित ८. प्रादुष्कार ९. क्रीत १०. प्रामृष्य ११. परिवर्तक १२. अभिघट १३. उद्भिन्न १४. मालारोह १५. अच्छेद्य १६. अनिसृष्ट
१. उद्दिष्ट २. साधिक ३. पूति ४. मिश्र ५. प्राभृतक ६. बलि ७. न्यस्त ८. प्रादुष्कृत ९. क्रीत १०. प्रामित्य ११. परिवर्तित १२. निषिद्ध १३. अभिहृत १४. उद्भिन्न १५. आच्छेद्य १६. आरोह।
पंचाशक/पंचवस्तु (पंचाशक १३/५,६,
पंव ७४१, ७४२) १. आधाकर्म २. औद्देशिक ३. पूतिकर्म ४. मिश्रजात ५. स्थापना ६. प्राभृतिका ७. प्रादुष्कर ८. क्रीत ९. प्रामित्य १०. परिवर्तित ११. अभिहृत १२. उद्भिन्न १३. मालापहत १४. आच्छेद्य १५. अनिसृष्ट १६. अध्यवपूरक
इस चार्ट के आधार पर कुछ निष्कर्ष इस रूप में प्रस्तुत किए जा सकते हैं• मूलाचार और अनगारधर्मामृत में अध्यवपूरक के स्थान पर अध्यधि या साधिक दोष है। • स्थापना दोष के स्थान पर मूलाचार में स्थापित दोष तथा अनगारधर्मामृत में न्यस्त दोष है।
१. मूलाटी पृ. ३३१ ; गृहस्थाश्रितं पंचसूनासमेतं तावत्- ३. उद्दिष्टं साधिकं पूति, मिश्रं प्राभृतकं बलिः।
सामान्यभूतमष्टविधपिण्डशुद्धिं बाह्यं महादोषरूपमधः- न्यस्तं प्रादुष्कृतं क्रीतं, प्रामित्यं परिवर्तितम्॥ कर्म कथ्यते।
निषिद्धाभिहतोद्भिन्नाच्छेद्यारोहास्तथोद्गमाः । २. अनध ५/५,६।
दोषा हिंसानादरान्यस्पर्शदैन्यादियोगतः ॥
अनध-५/५,६
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण • मूलाचार में अभिहत दोष के स्थान पर अभिघट दोष है। • मालापहत दोष के स्थान पर मूलाचार में मालारोह तथा अनगारधर्मामृत में आरोह दोष का उल्लेख है। • प्राभृतिका दोष के स्थान पर मूलाचार में प्रावर्तित तथा अनगारधर्मामृत में प्राभृतक दोष है। • मूलाचार में प्रामित्य दोष के स्थान पर प्रामृष्य तथा आच्छेद्य के स्थान पर अच्छेद्य दोष का उल्लेख है। • अनिसृष्ट दोष के स्थान पर अनगारधर्मामृत में निषिद्ध दोष का उल्लेख मिलता है। • मूलाचार और अनगारधर्मामृत में उल्लिखित बलि दोष अतिरिक्त है। इसकी किसी के साथ तुलना नहीं
की जा सकती। यक्ष, नाग, कुलदेवता, पितरों आदि के लिए बनाए गए उपहार में से बचा हुआ अंश मुनि को देना बलि दोष है। आगम साहित्य में प्राप्त उद्गम दोष
तीर्थंकरों एवं जैन आचार्यों ने जिस सूक्ष्मता से साधु की अहिंसा प्रधान भिक्षावृत्ति का उल्लेख किया है, वैसा अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। आगम-साहित्य में भिक्षाचर्या के ४२ दोष एक साथ नहीं मिलते हैं। वहां विकीर्ण रूप से मूलकर्म को छोड़कर प्रायः सभी दोषों के नाम मिलते हैं। कुछ अतिरिक्त दोषों का उल्लेख भी वहां मिलता है। यहां आगम-साहित्य में प्रकीर्ण रूप से मिलने वाले उद्गम दोषों का संकलन प्रस्तुत किया जा रहा है• आचारचूला-आधाकर्म, औद्देशिक, मिश्रजात, क्रीतकृत, प्रामित्य, आच्छेद्य, अनिसृष्ट और अभिहत दोष। • सूत्रकृतांग-औद्देशिक, आधाकर्म', क्रीत, प्रामित्य, आच्छेद्य, अनिसृष्ट, अभिहत और पूति। • स्थानांग-आधाकर्मिक, औद्देशिक, मिश्रजात, अध्यवतर, पूतिक, क्रीत, प्रामित्य, आच्छेद्य, अनिसृष्ट
और अभिहत • भगवती-आधाकर्म, औद्देशिक, मिश्रजात, अध्यवतर, पूतिक, क्रीत, प्रामित्य, आच्छेद्य, अनिसृष्ट और
अभिहत • प्रश्नव्याकरण-उद्दिष्ट, स्थापित, प्रादुष्करण, प्रामित्य, मिश्रक (मिश्रजात), क्रीतकृत, प्राभृत (प्राभृतिका) आच्छेद्य और अनिसृष्ट। ज्ञाताधर्मकथा तथा अंतकृद्दशा आदि ग्रंथों में भी आधाकर्मिक, औद्देशिक और क्रीतकृत आदि दोषों का उल्लेख मिलता है।
____ यहां विमर्शनीय बिन्दु यह है कि दशवैकालिक साध्वाचार का प्रतिनिधि ग्रंथ है, उसमें उद्गम के
१. मूला ४३१, अनध ५/१२।
५.स्था ९/६२ आधाकम्मिए ति वा उद्देसिए ति वा मीसज्जा२. आचूला १/२९ ; संखडिं संखडिं-पडियाए अभिसंधारेमाणे एति वा अज्झोयरए ति वा पतिए कीते पामिच्चे अच्छेज्जे
आहाकम्मियं वा, उद्देसियं वा, मीसजायं वा, कीयगडं वा, अणिसटे अभिहडे ति वा। पामिच्चं वा, अच्छेज्जं वा, अणिसिटुं वा, अभिहडं वा ६. भग ९/१७७। आहट्ट दिज्जमाणं भुंजेज्जा।
७. प्र १०/७। ३. सू१/९/१४।
८. ज्ञा १/१/११२, अंत ३/७२। ४. सू २/१/६५।
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पिंडनियुक्ति औद्देशिक, क्रीतकृत, अभिहत, पूतिकर्म, अध्यवतर, प्रामित्य और मिश्रजात'-इन दोषों का वर्णन मिलता है लेकिन आधाकर्म दोष का उल्लेख नहीं है। आधाकर्म का उल्लेख न होने के कुछ संभावित बिन्दु ये हो सकते हैं• आचार्य शय्यंभव ने औदेशिक दोष में आधाकर्म का समावेश कर दिया हो। • आचार्य शय्यंभव तक आधाकर्म दोष का अधिक प्रयोग नहीं होता था। • कर्मप्रवाद पूर्व, जिससे पिण्डैषणा अध्ययन निर्दृढ़ हुआ है, वहां इसका उल्लेख नहीं होने से उन्होंने इसका समावेश नहीं किया।
दशाश्रुतस्कन्ध तथा दशवैकालिक में वर्णित ५२ अनाचारों में कुछ अनाचार भिक्षाचर्या के दोषों से भी सम्बन्धित हैं
१. औद्देशिक-दूसरा उद्गम दोष। ४. आजीववृत्तिता-उत्पादना का चौथा आजीव दोष। २. क्रीतकृत-तीसरा उद्गम दोष। ५. तप्तानिवृतभोजित्व-एषणा का नवां अपरिणत दोष। ३. अभिहत-ग्यारहवां उद्गम दोष।
- निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि उद्गम के सोलह दोषों का एक स्थान पर क्रमिक और व्यवस्थित वर्णन पिण्डनियुक्तिकार का मौलिक अवदान है। प्राभृतिका', परिवर्तन आदि दोषों का आगमसाहित्य में अधिक उल्लेख नहीं है, फिर भी इन सभी दोषों के बीज आगम-साहित्य में मिलते हैं। नियुक्तिकार ने इनको व्यवस्थित रूप देकर व्याख्यायित किया है। उत्पादना से सम्बन्धित दोष
उत्पादना का अर्थ है-उत्पन्न करना। पंचवस्तु में उत्पादन, संपादन और निर्वर्तन को एकार्थक माना है। नियुक्तिकार ने नाम, स्थापना और द्रव्य के आधार पर उत्पादना शब्द की विस्तृत व्याख्या की है। भाव-उत्पादना के दो प्रकार हैं-प्रशस्त और अप्रशस्त । ज्ञान, दर्शन और चारित्र आदि की उत्पत्ति प्रशस्त भाव-उत्पादना है। क्रोध आदि से या धात्रीकरण आदि सावध व्यापार से आहार आदि की उत्पादना करना अप्रशस्त भाव-उत्पादना है। उत्पादना के सोलह दोष साधु से सम्बन्धित होते हैं। १. धात्रीदोष
पंचविध धाय की भांति बालक को खिलाकर आहार प्राप्त करना धात्री दोष है। जो बालक को धारण करती है, बालक का पोषण करती है अथवा बालक जिसको पीते हैं, वह धात्री कहलाती है। १. दश ५/१/५५।
६. जीभा १३१७। २. दशनि १५ ; कम्मप्पवायपुव्वा, पिंडस्स तु एसणा तिविधा। ७. पिनि १९४/३। ३. वसति सम्बन्धी प्राभृतिका दोष का विस्तृत वर्णन ८. (क) पिनि १९३ ; उप्पादणाय दोसे, साहूउ समुट्ठिते जाण। बृहत्कल्पभाष्य में मिलता है।
(ख) जीभा १४७२; उप्पायण होइ समणउत्थाणा। ४. पंव ७५३ ; उप्पायण संपायण निव्वत्तणमो य हुंति एगट्ठा। ९. मूला ४४७ ; पंचविधधादिकम्मेणुप्पादो धादिदोसो दु। ५. विस्तार हेतु देखें पिनि १९४/१, २, मवृ प. ११९, १२०। १०. पिनि १९८ ।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण प्राचीन काल में वैभव के अनुसार पांच प्रकार की धाय होती थीं
१. क्षीरधात्री-स्तनपान कराने वाली। २. मज्जनधात्री-स्नान कराने वाली। ३. मंडनधात्री-बालक का मंडन-विभूषा करने वाली। ४. क्रीड़नधात्री-बालक को क्रीड़ा कराने वाली।
५. अंकधात्री-बालक को गोद में रखने वाली। दिगम्बर साहित्य में इनके नामों में कुछ परिवर्तन है। मूलाचार में मार्जन, मण्डन, क्रीड़न, क्षीर और अम्ब तथा अनगारधर्मामृत में मार्जन, क्रीड़न, स्तन्यपान, स्वापन और मण्डन-इन पांच नामों का उल्लेख मिलता है।
धात्री दोष दो प्रकार से लगता है-स्वयं धात्रीत्व करना तथा दूसरों से करवाना।
धात्रीत्वकरण को स्पष्ट करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि भिक्षार्थ गया मुनि बालक को रुदन करते देखकर यदि गृहस्थ को यह कहता है कि यह बालक अभी दूध पर आश्रित है अत: दूध न मिलने के कारण रो रहा है। मुझे भिक्षा देकर इसे दूध पिलाओ अथवा इसे दूध पिलाकर मुझे भिक्षा दो अथवा मैं पुनः भिक्षार्थ आ जाऊंगा अथवा यह कहे कि तुम इसे दूध पिलाओ अन्यथा मैं इसे दूध पिलाऊंगा। साधु के द्वारा इस प्रकार कहने से गृहस्वामिनी यदि भद्र स्वभाव वाली होती है तो वह स्नेहवश साधु के लिए आधाकर्म जन्य हिंसा कर सकती है, यदि वह धर्माभिमुखी नहीं है तो उसके मन में प्रद्वेष हो सकता है। किसी कारणवश या कर्मोदय से बालक बीमार हो जाए तो प्रवचन की अवहेलना होती है। मुनि को चाटुकारी मानकर लोग उनकी निंदा करते हैं तथा गृहस्वामी के मन में भी साधु के शील के प्रति आशंका हो सकती है।
धात्रीत्व कारावण में यदि साधु एक धात्री के स्थान पर दूसरी धात्री रखने का प्रयत्न करता है तो वह भी धात्री दोष के अन्तर्गत आता है, जैसे-भिक्षार्थ गया साधु यदि किसी स्त्री को खेदखिन्न देखकर उसके दुःख का कारण पूछे। उस समय वह स्त्री यह कहे कि आज मेरा धात्रीत्व छीन लिया गया है। मेरे स्थान पर अमुक स्त्री को धात्री के रूप में नियुक्त किया गया है अतः आजीविका विच्छिन्न होने से मैं दुःखी हूं। मुनि उस स्त्री को सांत्वना देकर नवनियुक्त धात्री की आयु, स्तनों की स्थूलता या कृशता को जानकर उस धनाढ्य व्यक्ति को यह कहता है कि तुम्हारे पूर्वजों को धात्रीविषयक ज्ञान नहीं था अथवा इस कुल में वैभव अभी ही बढ़ा है, तभी ऐसी-वैसी अनुभव रहित धात्री नियुक्त की हुई है। मुनि से सारी बात सुनकर वह धनाढ्य गृहस्थ नवनियुक्त धात्री को मुक्त करके पुनः पुरानी धात्री को रखता है तो उसका यह कथन धात्री दोष से युक्त होता है। ऐसा करने से वह अभिनवधात्री द्वेषयुक्त हो सकती है। प्रतिशोधवश वह साधु
१. ज्ञा १/१/८२, राज ८०४, पिनि १९७। २. अनध ५/२० ; मार्जन-क्रीडन-स्तन्यपान-स्वापन
मण्डनम्।
३. जीभा १३२३; तं दुविहं धातित्तं, करणे कारावणे य बोद्धव्वं । ४. पिनि १९८/१-३। ५. पिनि १९८४-६।
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पिंडनियुक्ति
पर गलत अभियोग भी लगा सकती है। पुरानी धात्री यह सोच सकती है कि अभिनव धात्री की भांति यह मुनि कभी मेरे जीवन में भी विघ्न उपस्थित कर सकता है अतः वह साधु को मारने के लिए विष आदि का प्रयोग भी कर सकती है।
इसी प्रकार ग्रंथकार ने मज्जनधात्री आदि शेष चार धात्रियों के बारे में विस्तार से मनोवैज्ञानिक वर्णन किया है। यह सारा वर्णन उस समय की सांस्कृतिक स्थिति का तो चित्रण करता ही है, साथ ही आयुर्वेद की दृष्टि से भी पूरा प्रसंग अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। धात्रीपिंड को स्पष्ट करने के लिए ग्रंथकार ने संगम आचार्य और दत्त शिष्य के कथानक को निरूपित किया है।
२. दूती दोष
दौत्य कर्म द्वारा एक व्यक्ति के संदेश को दूसरे स्थान तक संप्रेषित करके भिक्षा प्राप्त करना दूती दोष है। मूलाचार के अनुसार जल, स्थल या आकाश मार्ग से स्वग्राम या परग्राम में जाकर सम्बन्धित व्यक्ति के संदेश को कहकर आहार प्राप्त करना दूतीदोष है। टीकाकार ने पुल्लिंग के आधार पर दूत दोष मानकर इसकी व्याख्या की है। दौत्य कर्म दो प्रकार का होता है-स्वग्राम विषयक और परग्राम विषयक। जिस गांव में साधु रहता है, उसी गांव में संदेश पहुंचाना स्वग्राम विषयक दूतीत्व है तथा निकट के दूसरे गांव में जाकर संदेश देना परग्राम विषयक दूतीत्व है। इन दोनों के भी दो-दो भेद हैं-प्रच्छन्न और प्रकट । लोकोत्तर में प्रच्छन्न दूतीत्व ही होता है। लौकिक में प्रच्छन्न और प्रकट दोनों प्रकार का दौत्यकर्म चलता है।
भिक्षार्थ जाते हुए मुनि स्वग्राम या परग्राम में यदि जननी, पिता आदि का संदेश ले जाता है कि तुम्हारी माता ने या तुम्हारे पिता ने ऐसा कहा है, यह स्वग्राम और परग्राम विषयक प्रकट दूतीत्व है। साथ वाले दूसरे मुनि को ज्ञात न हो इसलिए मुनि सांकेतिक भाषा में यह कहता है कि तुम्हारी पुत्री चतुर नहीं है, परम्परा से अजान है, तभी उसने मुझे ऐसा कहा है कि मेरी मां को यह संदेश दे देना। उस समय मां भी कुशलतापूर्वक उत्तर देती है कि मैं अपनी पुत्री को समझा दूंगी। आगे से वह ऐसा संदेश नहीं देगी, यह स्वग्राम-परग्राम विषयक लोकोत्तर प्रच्छन्न दूतीत्व है। स्वग्राम में या परग्राम में इस प्रकार संदेश पहुंचाना, जिससे न लोगों को ज्ञात हो और न साथ वाले मुनि को, यह स्वग्राम विषयक लोकलोकोत्तर विषयक प्रच्छन्न दूतीत्व है। उदाहरण स्वरूप यह कहना कि विवक्षित कार्य तुम्हारी इच्छा के अनुसार सम्पन्न हो गया है अथवा जैसा वे चाहेंगे वैसा ही करूंगी। नियुक्तिकार ने प्रकट परग्रामदूती के प्रसंग में एक मार्मिक कथा का संकेत किया है, जो मुनि द्वारा किए गए दौत्यकर्म से होने वाली हानि का सुंदर चित्र प्रस्तुत करती है।
१. पिनि १९८/९। २. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. २६ । ३. मूला ४४८;
जल-थल-आयासगदं, सयपरगामे सदेस-परदेसे।
संबंधिवयणणयणं, दूदीदोसो हवदि एसो॥ ४. मूलाटी पृ. ३५१।
५. पिनि २००, २०१, मवृ प. १२६ । ६. जीभा १३२८-१३३१ । ७. जीभा १३३३, १३३४। ८. पिनि २०१/३। ९. पिनि २०२, २०३, मवृ प. १२७, कथा के विस्तार हेतु
देखें परि. ३, कथा सं. २७।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण ३. निमित्त दोष
त्रिकालविषयक षड्विध' निमित्त-लाभ-अलाभ, सुख-दुःख और जीवन-मरण बताकर भिक्षा प्राप्त करना निमित्त दोष है। अनगारधर्मामृत के अनुसार अष्टांगनिमित्त बताकर दाता को प्रसन्न करके आहार ग्रहण करना निमित्त दोष है। भाष्यकार ने विद्या, मंत्र और निमित्त का प्रयोग करने वाले साधु को चरणकुशील माना है। मनुस्मृति में भी निमित्त कथन के द्वारा भिक्षा लेने का प्रतिषेध है। निशीथ के अनुसार वर्तमान और भविष्य के निमित्त का कथन करने वाला मुनि प्रायश्चित्त का भागी होता है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने भी अतीत सम्बन्धी निमित्त कथन की अपेक्षा वर्तमान और भविष्य सम्बन्धी निमित्त कथन को अधिक दोषपूर्ण माना है अतः इन दोनों के प्रायश्चित्त में भी अंतर है। नियुक्तिकार ने निमित्त दोष से होने वाली हानियों को स्पष्ट करने के लिए एक कथा का संकेत किया है। निशीथ भाष्य में निमित्त कथन से होने वाले दोषों की विस्तार से चर्चा है। निमित्त दोष से युक्त भिक्षा ग्रहण करने में स्वपर की हिंसा का भय रहता है। ४. आजीवना दोष
अपनी जाति, कुल, गण आदि का परिचय देकर भिक्षा लेना आजीवना दोष है। निशीथ सूत्र में आजीवपिंड का भोग करने वाले मुनि को प्रायश्चित्त का भागी बताया गया है। दशवकालिक सूत्र में आजीववृत्तिता को अनाचार माना है। भाष्यकार ने आजीवना से भिक्षा प्राप्त करने वाले साधु को कुशील माना है।१२
__ आजीवना दोष पांच प्रकार से लगता है-जाति, कुल, गण, कर्म और शिल्प। मूलाचार में जाति, कुल, शिल्प, तप और ऐश्वर्य-इन पांच को आजीव माना है।३
आजीवना के पांचों दोष दो प्रकार से लगते हैं-स्पष्ट शब्दों से कथन तथा प्रकारान्तर से अस्फुट वचन से कथन। इसे ग्रंथकार ने सूचा और असूचा शब्द से प्रकट किया है। ग्रंथकार ने पांचों भेदों का मनोवैज्ञानिक और सूक्ष्म विवेचन प्रस्तुत किया है। जाति-आजीवना
जाति मातृपक्ष से सम्बन्धित होती है। जाति के आधार पर गृहस्थ से आहार आदि प्राप्त करना
१. मूला ४४९ ; मूलाचार में निमित्त दोष में व्यञ्जन, अंग,
स्वर आदि अष्टविध निमित्तों का उल्लेख है। २. अनध ५/२१ । ३. व्यभा ८७९। ४. मनु ६/५०। ५.नि १०/७,८। ६. जीभा १३४८, १३४९ । ७. पिनि २०५, जीभा १३४२-४७, कथा के विस्तार हेतु
देखें परि. ३, कथा सं. २८ ।
८. निभा २६८९-९२, चू पृ. १८, १९ । ९. पिनि २०४, मवृ प. १२८ १०.नि १३/६४। ११. दश ३/६। १२. व्यभा८८०॥ १३. मूला ४५० १४. (क) जीभा १३५२; जाती माहणमादी, मातिसमुत्था व
होति बोधव्वा। (ख) पिंप्र६४; माइभवा विप्पाइ व जाई।
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पिंडनियुक्ति जाति-आजीवना है। ब्राह्मण-पुत्र को सही रूप से होम आदि क्रियाएं करते देखकर मुनि यह जान लेता है कि यह गुरुकुल में रहा हुआ ब्राह्मण है अथवा मुनि उसके पिता से कहता है कि तुम्हारे पुत्र ने होम आदि क्रियाएं सम्यक् की हैं या असम्यक्, यह सुनकर पिता जान लेता है कि अवश्य ही यह मुनि ब्राह्मण कुल से सम्बन्धित है अन्यथा इनको इन क्रियाओं का ज्ञान कैसे होता? यह सूचा द्वारा जाति से उपजीवना है। मुनि स्वयं स्पष्ट रूप से अपनी जाति बताए, यह असूचा द्वारा जाति उपजीवना है। इसी प्रकार कुल, गण, कर्म और शिल्प आदि के बारे में जानना चाहिए।
जाति आदि से आहार प्राप्त करने के उपक्रम में यदि गृहस्थ भद्र हो तो वह साधु के लिए आधाकर्म आहार निष्पन्न कर सकता है, यदि प्रान्त हो तो वह साधु को अपमानित करके घर से बाहर निकाल सकता है। कुल-आजीवना
कुल पितृपक्ष से सम्बन्धित होता है। अपना या दूसरे का कुल बताकर आजीविका चलाना कुल आजीवना है। कुल-आजीवना को स्पष्ट करते हुए टीकाकार कहते हैं कि उग्रकुल में प्रविष्ट मुनि गृहस्थ के पुत्र को आरक्षक कर्म में नियुक्त देखकर पिता से कहता है कि लगता है तुम्हारा पुत्र पदाति सेना के नियोजन में कुशल है। यह सुनकर वह जान लेता है कि यह साधु उग्र कुल में उत्पन्न है। जब मुनि स्पष्ट रूप से अपने कुल को प्रकट करता है कि मैं उग्र या भोग कुल का हूं तो यह असूचा के द्वारा कुल को प्रकट करना है। कर्म और शिल्प-आजीवना
कृषि तथा यंत्र-उत्पीलन आदि को कर्म तथा सिलाई-बुनाई आदि को शिल्प कहा जाता है। इनकी दूसरी परिभाषा यह भी की जाती है कि जो बिना आचार्य के स्वयं अपने कौशल से सीखा जाता है, वह कर्म तथा आचार्य द्वारा उपदिष्ट कौशल शिल्प कहलाता है।
कर्म और शिल्प विषयक एकत्रित अनेक वस्तुओं को देखकर यह सम्यक् है अथवा असम्यक्, ऐसा अपने कौशल से जताना अथवा स्पष्ट कहना कर्म और शिल्प विषयक उपजीवना है।० गण-आजीवना
गण का अर्थ है-मल्ल-समूह। गण-कौशल को बताकर आजीविका प्राप्त करना गण-आजीवना १. पिनि २०७/१, २, जीभा १३५३-५५।
६.पिनि २०७; कम्म किसिमादी। २.पिनि २०७/३, ४, मवृ प. १२९ ।
७. जीभा १३५८ ; जंतुप्पीलणमादि तु कम्म। ३. जीभा १३५६।
८. पिनि २०७, मवृ प. १२९,जीभा १३५८ ; तुण्णादियं सिप्पं। ४. (क) जीभा १३५७ ; उग्गाईयं तु कुलं, पितुवंसादि। ९. जीभा १३५९ ; जं कीरती सयं तू, तं कम्मे, अहवा (ख) पिंप्र ६४ ; उग्गाइपिउभवं च कुलं।
जं सिक्खिज्जइ, आयरितुवदेसतो तयं सिप्पं । ५. मवृ प. १२९ ।
१०. पिनि २०७/४, जीभा १३६०।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण है। स्थानांग सूत्र में इसके स्थान पर लिंग आजीवना का नाम है। लिंग- आजीवना का तात्पर्य है ज्ञानशून्य साधु का केवल साधु लिंग के आधार पर भिक्षा प्राप्त करना।
व्यवहार भाष्य में इन पांच के अतिरिक्त तप और श्रुत आजीवना का भी उल्लेख मिलता है। स्वयं के तप को बताकर भिक्षा प्राप्त करना तप-आजीवना तथा अपने ज्ञान को प्रकट करके भिक्षा प्राप्त करना श्रुतआजीवना है। आजीवना दोष युक्त आहार लेने से शक्ति का गोपन तथा मुनि की दीनता प्रकट होती है। ५. वनीपक दोष
वनीपक शब्द वनु-याचने धातु से निष्पन्न है। स्वयं को श्रमण, ब्राह्मण, कृपण, अतिथि और श्वान आदि का भक्त बताकर या उनकी प्रशंसा करके आहार की याचना करना वनीपक दोष है। अभयदेवसूरि के अनुसार दूसरों को अपनी दरिद्रता दिखाकर अथवा उनके अनुकूल बोलने से जो द्रव्य मिलता है, उसे वनी कहते हैं। जो उसको पीता है अर्थात् उसका आस्वादन करता है अथवा रक्षा करता है, वह वनीपक कहलाता है। नियुक्तिकार उपमा के द्वारा स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जिस बछड़े की मां मर जाती है, उसके लिए ग्वाला अन्य गाय की खोज करता है, वैसे ही आहार आदि के लोभ से माहण, कृपण, अतिथि और श्वान के भक्तों के सम्मुख स्वयं को उनका भक्त बताकर दीनता से याचना करना वनीपक दोष है । दिगम्बर ग्रंथों में इसका नाम वनीपकोक्ति मिलता है।
__ भक्तों के सामने साधु कैसी भाषा का प्रयोग करता है, इसका ग्रंथकार ने सुंदर विवेचन प्रस्तुत किया है
शाक्य-बौद्ध-भक्तों के सम्मुख साधु कहता है कि बौद्ध भिक्षु चित्रभित्ति की भांति अनासक्त रूप से भोजन करते हैं। ये परम कारुणिक और दानरुचि हैं। काम में अत्यन्त आसक्त ब्राह्मणों को दिया गया दान भी नष्ट नहीं होता तो फिर शाक्य आदि श्रमणों को दिया गया व्यर्थ कैसे हो सकता है ?
ब्राह्मण-भक्तों के समक्ष ब्राह्मणों की प्रशंसा रूप वनीपकत्व करते हुए साधु कहता है कि ब्राह्मण पृथ्वी पर देव रूप में विचरण करते हैं अतः लोकोपकारी ब्राह्मणों को दिया गया दान बहुत फलदायी होता है, फिर षट्कर्म में रत ब्राह्मण को देने से होने वाले लाभ का तो कहना ही क्या?
कृपण-भक्तों के सम्मुख मुनि कहता है कि यह लोक पूजितपूजक है। जो कृपण, दु:खी, अबंधु, रोगी या लूले-लंगड़े को आशंसा से रहित होकर दान देता है, वह दानपताका का हरण करता है।
१.स्था ५/७१। २. व्यभा ८८०। ३. मूलाटी पृ. ३५३ ; वीर्यगूहनदीनत्वादिदोषदर्शनात् । ४. स्थाटी ५/२००, टी. पृ. २२८; परेषामात्मदुःस्थत्वदर्शनेना
नुकूलभाषणतो यल्लभ्यते द्रव्यं सा वनी तांपिबति-आस्वादयति पातीति वेति वनीपः स एव वनीपको-याचकः।
५. पिनि २०८/१, जीभा १३६५। ६. अनध ५/२२। ७. पिनि २०९/१, जीभा १३६८। ८. पिनि २१०/१, जीभा १३७१ । ९. पिनि २१०/२, जीभा १३७३ ।
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पिंडनियुक्ति अतिथि-भक्तों के सम्मुख मुनि कहता है कि प्रायः लोग उपकारियों, परिचितों एवं आश्रितों को दान देते हैं लेकिन जो अतिथियों का सत्कार करते हैं, उन्हें दान देते हैं, उनका दान श्रेष्ठ होता है।
श्वान-भक्तों के सम्मुख वनीपकत्व करते हुए मुनि इस प्रकार कहता है कि इस संसार में तुम अकेले दान देना जानते हो। ये श्वान कैलाश पर्वत के देव विशेष हैं, पृथ्वी पर ये यक्ष रूप में विचरण कर रहे हैं। इनकी पूजा हितकर तथा तिरस्कार अहितकर होता है। गाय, बैल आदि को तृण आदि आहार सुलभ हो जाता है लेकिन इन कुत्तों को आहार-प्राप्ति सुलभ नहीं होती अत: इनको दान देना श्रेष्ठ है। श्वान आदि के ग्रहण से काक आदि का भी ग्रहण हो जाता है।'
इसके दोष बताते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि पात्र या अपात्र को दिया हुआ दान व्यर्थ नहीं होता, ऐसा कथन दोष युक्त है क्योंकि इससे सुपात्र और कुपात्र को एक समान निरूपित कर दिया गया है। अपात्र दान की प्रशंसा करना अत्यधिक दोषयुक्त है। इससे मिथ्यात्व का स्थिरीकरण होता है, आधाकर्मी दोष की संभावना रहती है, आहार-लोलुपता से साधु की उनके गच्छ में समाविष्ट होने की संभावना रहती है तथा लोगों में यह अवर्णवाद फैलता है कि ये साधु चाटुकारी हैं, आहार-प्राप्ति के लिए चाटुकारिता करते हैं। यदि दान-दाता द्वेषी है और शाक्य आदि का भक्त नहीं है तो वह तिरस्कारपूर्वक यह कह सकता है कि यहां दुबारा मत आना। वनीपकपिण्ड ग्रहण करने से दैन्य प्रकट होता है।' ६. चिकित्सा दोष
वैद्य की भांति चिकित्सा बताकर या उपदेश देकर भिक्षा लेना चिकित्सा दोष है। मूलाचार में आठ प्रकार की चिकित्सा का उपदेश देकर भिक्षा प्राप्त करने को चिकित्सा दोष कहा गया है। अनगारधर्मामृत में इसके लिए वैद्यक दोष का उल्लेख मिलता है। उत्तराध्ययन के परीषह अध्ययन में उल्लेख मिलता है कि साधु चिकित्सा को बहुमान न दे। उसका श्रामण्य तभी सुरक्षित रह सकता है, जब वह न चिकित्सा करवाए और न दूसरों की चिकित्सा करे। चिकित्सापिण्ड का उपभोग करने वाला भिक्षु प्रायश्चित्त का भागी होता है ।११ गृहस्थ यदि साधु को अपने रोग के बारे में बताता है तो साधु उसकी तीन प्रकार से चिकित्सा कर सकता है
१. पिनि २१०/३। २. जीभा १३७६ : तुममेगो जाणसी दाउं। ३. पिनि २१०/४, ५, जीभा १३७७-८०। ४. पिनि २१२। ५. पिनि २१३, जीभा १३८१ । ६. पिनि २१०, जीभा १३६९ । ७. मूलाटी पृ. ३५४ ; दीनत्वादिदोषदर्शनात्। ८. आठ चिकित्सा के नाम इस प्रकार हैं-१. कौमार
चिकित्सा २. तनु चिकित्सा ३. रसायन चिकित्सा ४. विष चिकित्सा ५. भूत चिकित्सा ६. क्षारतंत्र चिकित्सा ७. शालाकिक चिकित्सा (शलाका द्वारा आंख आदि खोलना) ८. शल्य चिकित्सा (मूला तु ४५२,स्था ८/२६)। ९. अनध ५/२५। १०. उ २/३३। ११. नि १३/६६।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
• गृहस्थ के पूछने पर साधु कहता है कि मैं वैद्य नहीं हूं। इस वाक्य की अर्थापत्ति से गृहस्थ जान लेता है कि रोग गंभीर है, उसे वैद्य के पास जाना चाहिए। • चिकित्सा के दूसरे प्रकार में गृहस्थ के द्वारा रोग का निदान पूछने पर मुनि कहता है कि मैं भी अतीत में इस रोग से ग्रस्त था, तब अमुक औषधि के सेवन से मैंने स्वास्थ्य-लाभ प्राप्त किया था। अथवा वह यह कहता है कि हम साधु लोग सहसा उत्पन्न रोग की चिकित्सा तेले आदि की तपस्या से करते हैं।२ । • तीसरी प्रकार की चिकित्सा में साधु स्वयं वैद्य बनकर रोग की चिकित्सा हेतु पेट का शोधन तथा पित्त का उपशमन करवाता है फिर रोग का निदान करता है।
जीतकल्पभाष्य के अनुसार इन तीन प्रकार की चिकित्साओं में प्रथम दो सूक्ष्म चिकित्सा है तथा तीसरा भेद बादर चिकित्सा रूप है।
असंयमी गृहस्थ की चिकित्सा द्वारा भिक्षा-प्राप्ति में निम्न दोषों की संभावना रहती है• चिकित्सा में कंद, मूल आदि औषधियों के प्रयोग से जीवहिंसा का प्रसंग रहता है। • असंयम की वृद्धि होती है क्योंकि गृहस्थ तप्त लोहे के गोले के समान होता है। वह सबल बनकर अनेक जीवों की हिंसा में निमित्तभूत बनता है। ग्रंथकार ने इस महत्त्वपूर्ण पहलू को समझाने के लिए दुर्बल व्याघ्र के दृष्टान्त का संकेत किया है। इस सिद्धान्त की गहराई को समझाने के लिए आचार्य भिक्षु की दान-दया की चौपई तथा आचार्य महाप्रज्ञ की भिक्षु विचार दर्शन पुस्तक पठनीय है। • यदि साधु के द्वारा चिकित्सा की जाने पर भी किसी कारणवश रोग बढ़ जाए तो गृहस्थ साधु का निग्रह कर सकता है अर्थात् राजा आदि से दंडित भी करवा सकता है, जिससे प्रवचन की निंदा होती है।' ७. क्रोधपिण्ड
जो आहार मुनि अपनी विद्या और तप के प्रभाव से, राजकुल की प्रियता तथा अपने शारीरिक बल के प्रभाव से प्राप्त करता है, वह क्रोध पिण्ड है। मांगने पर भिक्षा प्राप्त न होने से साधु के कुपित होने पर गृहस्थ यह सोचता है कि साधु का कुपित होना मेरे भविष्य के लिए अच्छा नहीं होगा, यदि मुनि को भिक्षा नहीं दूंगा तो राजा मुझ पर कुपित हो जाएंगे क्योंकि ये राजा के कृपापात्र हैं, इस रूप में भिक्षा प्राप्त करना क्रोधपिण्ड है। क्रोधपिण्ड को स्पष्ट करने के लिए ग्रंथकार ने हस्तकल्प नगर के एक क्षपक की कथा का उल्लेख किया है।
१. पिनि २१४/१। २. पिनि २१४/२। ३. पिनि २१४/३। ४. जीभा १३८९। ५. पिनि २१५, मवृ प. १३३, जीभा १३९२।
६. विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. २९। ७. पिनि २१५। ८. पिनि २१७, पिंप्र ६७। ९. पिनि २१८। १०. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ३०।
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पिंडनियुक्ति ८. मानपिण्ड
दूसरों के द्वारा उत्साहित किए जाने पर अथवा लब्धि और प्रशंसात्मक शब्दों को सुनकर गर्व से भिक्षा की एषणा करना अथवा दूसरे के द्वारा अपमानित होने पर पिण्ड की एषणा करना मानपिण्ड दोष है।' मानपिण्ड दोष को स्पष्ट करने के लिए ग्रंथकार ने सेवई लाने वाले क्षपक की कथा का विस्तार से वर्णन किया है।
___ मानपिण्ड दोष युक्त भिक्षा ग्रहण करने से कभी-कभी पति-पत्नी के बीच द्वेष एवं दूरी हो सकती है क्योंकि पत्नी की इच्छा नहीं होने पर इसे मानहानि का हेतु बनाकर मुनि यदि पति से वह भिक्षा ग्रहण कर लेता है तो इस अपमान से कभी दोनों में से एक आत्मघात भी कर सकता है। मानपिण्ड ग्रहण करने से प्रवचन की अवहेलना भी होती है। ९. मायापिण्ड
मायापूर्वक भिक्षा ग्रहण करना मायापिण्ड दोष है। नियुक्तिकार ने मायापिण्ड का स्वरूप स्पष्ट न करके केवल आषाढ़भूति के कथानक का ही संकेत दिया है। १०. लोभपिण्ड
आसक्तिपूर्वक किसी वस्तु विशेष की येन केन प्रकारेण गवेषणा करना अथवा गरिष्ठ या उत्तम पदार्थ को अति मात्रा में ग्रहण करना लोभपिण्ड दोष है। ग्रंथकार ने लोभपिण्ड में केशरिया मोदक प्राप्त करने वाले साधु की कथा का संकेत दिया है।
क्रोध, मान आदि चारों पिण्ड कर्मबंध के कारण तो हैं ही, प्रवचन-लाघव के हेतु भी हैं। ११. संस्तव दोष
भिक्षा ग्रहण करने से पहले या ग्रहण करने के बाद दाता की प्रशंसा करना या सम्बन्ध स्थापित करना संस्तव दोष है। यह दो प्रकार का होता है-१. वचन संस्तव २. सम्बन्धी संस्तव। इन दोनों के भी पूर्व और पश्चात् दो-दो भेद होते हैं। निशीथ भाष्य में संस्तव के और भी अनेक भेदों का विस्तार से वर्णन किया गया है। इन चारों भेदों की व्याख्या इस प्रकार है• पूर्ववचन संस्तव
भिक्षा लेने से पूर्व दाता के सद् असद् गुणों का उत्कीर्तन करना कि तुम्हारी कीर्ति दसों दिशाओं में
१.पिनि २१९। २. विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ३७। ३. पिनि २१९/८, दोण्हेगतरपदोसे, आतविवत्ती य उड्डाहो। ४. पिंप्र६९ ; मायाए विविहरूवं, रूवं आहारकारणे कुणइ। ५. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ३८
६. पिनि २२० । ७. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ३९ । ८. पिंप्र ७१ ; थुणणे संबंधे, संथवो दुहा सो य पुव्व पच्छा वा ।
दायारं दाणाओ, पुव्वं पच्छा व जं थुणई ॥ ९. निभा १०२५-४९, चू. पृ. १०८-११३।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण निर्बन्ध गूंज रही है। इतने दिन तुम्हारे दान के बारे में सुनते थे लेकिन आज प्रत्यक्ष तुम्हारी इस विशेषता को देखा है। तुम्हारी दान की भावना अपूर्व है आदि-आदि। इस प्रकार भिक्षा लेने से पहले संस्तव करके भिक्षा लेना पूर्ववचन संस्तव है। दिगम्बर परम्परा में पूर्वसंस्तुति और पश्चात्संस्तुति शब्द का प्रयोग मिलता है। उनके अनुसार दाता को यह कहना कि तुम यशोधर के समान दानपति हो तथा भूलने पर यह याद दिलाना कि तुम तो बड़े दानी थे, अब दान देना कैसे भूल गए, यह पूर्वसंस्तुति दोष है। • पश्चाद्वचन संस्तव
भिक्षा लेने के बाद दाता की प्रशंसा करते हुए यह कहना कि तुमसे मिलकर आज मेरे चक्षु पवित्र हो गए। पहले मुझे तुम्हारे गुणों के बारे में शंका थी लेकिन तुमको देखकर अनुभव हुआ कि तुम्हारे गुण यथार्थ रूप से प्रसिद्ध हैं, यह पश्चात्वचन संस्तव है।' • पूर्वसम्बन्धी संस्तव
भिक्षा लेते समय किसी दानदाता या दानदात्री के साथ पिता, माता या बहिन का सम्बन्ध स्थापित करना, पूर्वसम्बन्धी संस्तव है। भिक्षार्थ प्रविष्ट मुनि अपनी वय तथा गृहिणी की वय देखकर तदनुरूप सम्बन्ध स्थापित करते हुए कहता है कि मेरी माता, बहिन, बेटी या पौत्री ऐसी ही थी, इस प्रकार विवाह से पूर्व होने वाले सम्बन्ध स्थापित करना पूर्वसम्बन्धी संस्तव है। • पश्चात्सम्बन्धी संस्तव
भिक्षा लेते समय दाता या दात्री के साथ वय के अनुसार श्वसुर, सास या पत्नी के रूप में सम्बन्ध स्थापित करना पश्चात्सम्बन्धी संस्तव है।६ पश्चात्संस्तव के रूप में किसी दानदात्री को देखकर मुनि कहता है कि मेरी सास या पत्नी तुम्हारे जैसी थी। ।
जीतकल्पभाष्य में इन चारों भेदों में पुरुष की अपेक्षा स्त्री से सम्बन्ध स्थापित करना या संस्तव करना अधिक दोषप्रद है। पूर्व और पश्चात् सम्बन्धी संस्तव से होने वाले दोषों को निम्न बिन्दुओं में प्रस्तुत किया जा सकता है
• यदि गृहिणी प्रान्त स्वभाव की है तो वह यह सोच सकती है कि यह मुनि मायावी और चापलूस है। यह माता, भार्या आदि कहकर हमारा तिरस्कार कर रहा है। वह क्रुद्ध होकर मुनि को घर से बाहर भी निकाल सकती है।
• यदि गृहिणी का पति मुनि की यह बात सुन लेता है तो वह मुनि का सद्यः घात कर सकता
१.पिनि २२५, २२५/१। २. मूला ४५५। ३. पिनि २२६, २२६/१, मूला ४५६। ४. पिंप्र ७२ ; जणणि-जणगाइ पुव्वं ।
५. पिनि २२२/१। ६. पिंप्र ७२ ; पच्छा सासु-ससुराइ जं च जई। ७. पिनि २२३। ८. जीभा १४२२-१४२५ ।
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१००
पिंडनियुक्ति
है अथवा स्त्री के द्वारा भार्यावत् आचरण करने पर चित्त-विक्षोभ से मुनि का ब्रह्मचर्य व्रत भी भंग हो सकता है।
• यदि वह गृहिणी भद्र स्वभाव की है तो उन दोनों के मध्य स्नेह-सम्बन्ध स्थापित हो सकता है, वह अपनी विधवा पुत्रवधू का दान भी कर सकती है। १२. विद्यापिण्ड दोष
जिसकी अधिष्ठात्री देवी हो तथा जो जप, होम आदि के द्वारा सिद्ध की जाए, वह विद्या है। विद्या का प्रदर्शन करके भिक्षा प्राप्त करना विद्यापिण्ड दोष है। मूलाचार के अनुसार विद्या-प्रदान करने का प्रलोभन देकर या विद्या के माहात्म्य से आहार प्राप्त करना विद्या-दोष है। नियुक्तिकार ने विद्या के लिए भिक्षु-उपासक की कथा का संकेत किया है। विद्या का प्रयोग करने से विद्या से अभिमंत्रित व्यक्ति या उससे सम्बन्धित अन्य कोई व्यक्ति प्रतिविद्या से मुनि का अनिष्ट कर सकता है। विद्या-प्रयोग से लोगों में यह अपवाद फैलता है कि ये मुनि पापजीवी, मायावी एवं कार्मणकारी हैं। राजा को शिकायत करने से राजपुरुषों द्वारा निग्रह तथा दंड भी प्राप्त हो सकता है। १३. मंत्रपिण्ड दोष
जिसका अधिष्ठाता देवता हो तथा जो बिना होम आदि क्रिया के पढ़ने मात्र से सिद्ध हो जाए, वह मंत्र कहलाता है। मंत्रप्रयोग से चमत्कार करके आहार प्राप्त करना मंत्रपिण्ड दोष है। मंत्रप्रयोग में नियुक्तिकार ने मुरुण्ड राजा एवं पादलिप्त आचार्य की कथा का निर्देश किया है। मंत्रपिण्ड का प्रयोग करने में वे ही दोष हैं, जो विद्यापिण्ड में उल्लिखित हैं। ग्रंथकार के अनुसार संघ की प्रभावना के लिए आपवादिक स्थिति में मंत्र का सम्यक् प्रयोग किया जा सकता है।'
मूलाचार में विद्या और मंत्र को एक साथ मानकर प्रकारान्तर से भी इसकी व्याख्या की है। उसके अनुसार आहार देने वाले व्यन्तर देवताओं को विद्या और मंत्र से बुलाकर उन्हें सिद्ध करना विद्यामंत्र दोष
१. पिनि २२३, २२४। २. (क) मवृ प. १४१ ; ससाधना स्त्रीरूपदेवताधिष्ठिता
वाऽक्षरपद्धतिर्विद्या। (ख) पिंप्र७३, टी. प.६६ ; साधनेन जपहोमाधुपचारेण
युक्ता समन्विता अक्षरपद्धतिः साधनयुक्ता विद्या। ३. मूला ४५७;
विज्जा साधितसिद्धा, तिस्से आसापदाणकरणेहिं।
तस्से माहप्पेण य. विज्जादोसो द उप्पादो॥ ४. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ४०।
५.पिनि २२८॥ ६.(क) जीभा १४३८; मंतो पुण पढियसिद्धोतु ।
(ख) मवृप. १४१ ; असाधना पुरुषरूपदेवताधिष्ठितावा मंत्रः। ७. मूला ४५८1 ८. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ४१। ९. पिनि २२९ । १०. मूला ४५९;
आहारदायगाणं, विज्जा-मंतेहिं देवदाणं तु। आहूय साधिदव्वा, विज्जामंतो हवे दोसो॥
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
१०१ १४. चूर्णपिण्ड दोष
अंजन आदि के प्रयोग से अदृश्य होकर भिक्षा प्राप्त करना अथवा चूर्णके द्वारा वशीकृत करके भिक्षा प्राप्त करना चूर्णपिण्ड दोष है। विद्या और मंत्रपिण्ड के प्रयोग में जो दोष हैं, वे ही चूर्णपिण्ड ग्रहण करने में हैं। चूर्णपिण्ड प्रयोग से प्रद्वेष को प्राप्त करके कोई व्यक्ति मुनि का प्राण-घात भी कर सकता है। दिगम्बर परम्परा में चूर्णदोष की व्याख्या भिन्न प्रकार से मिलती है। वहां अदृश्य होने वाले अञ्जन आदि का प्रयोग नहीं, बल्कि आंखों को निर्मल करने वाले चूर्ण तथा शरीर को विभूषित और दीप्त करने वाले चूर्ण की विधि बताकर आहार प्राप्त करना चूर्ण दोष है। निशीथ में उल्लिखित अन्तर्धान पिण्ड को चूर्णपिण्ड के अन्तर्गत रखा जा सकता है। ग्रंथकार ने चूर्णपिण्ड दोष में चाणक्य और क्षुल्लकद्वय की कथा का संकेत किया है। चूर्णपिण्ड के प्रयोग की अवगति होने पर साधुत्व एवं संघ की अवमानना होती है। १५. योगपिण्ड दोष
__पादलेप अथवा सुगंधित पदार्थ का प्रयोग करके, पानी पर चलकर अथवा आकाश-गमन करके भिक्षा प्राप्त करना योगपिण्ड दोष है। योगपिण्ड के अन्तर्गत आर्य समित एवं कुलपति का दृष्टान्त है। आर्य समित ने लोगों को प्रभावित करने या भिक्षा के लिए योग का प्रयोग नहीं किया, बल्कि संघ की प्रभावना के लिए योग का प्रयोग किया।
चूर्ण और योग-इन दोनों में द्रव्य की अपेक्षा से विशेष भेद नहीं है। सामान्य द्रव्य से निष्पन्न शुष्क या आर्द्र क्षोद चूर्ण कहलाता है तथा सुगंधित द्रव्य से निष्पन्न शुष्क या लेप रूप पिष्टी योग कहलाता है। १६. मूलकर्म दोष
प्रयोग द्वारा किसी के कौमार्य को क्षत करना अथवा किसी की योनि का निवेशन करना अर्थात् उसे अक्षत करके भोग भोगने के योग्य बना देना मूलकर्म है। पिण्डविशुद्धिप्रकरण में सौभाग्य के लिए स्नान, रक्षाबंधन, गर्भाधान, गर्भपरिशाटन, विवाह कराना तथा धूप आदि के प्रयोग को मूलकर्म के अन्तर्गत माना है। मूलाचार के अनुसार जो वश में नहीं हैं, उनको वश में करना तथा वियुक्तों का संयोग कराना मूलकर्म है, उसके द्वारा आहार की प्राप्ति मूलकर्म दोष है। अनगारधर्मामृत में इसके स्थान पर वश दोष का भी उल्लेख है। मूलकर्म व्यापक संदर्भ को प्रकट करता है। वशीकरण मूलकर्म का ही एक प्रयोग है। १. पिंप्र७३।
५. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ४३। २. पिंप्रटी प. ४० ; चूर्णः औषध द्रव्यसंकरक्षोदः-अनेक ६. पिनि २३१/१, मवृ प. १४३। औषधियों के मिश्रण को चूर्ण कहते हैं।
७. (क) पिनि २३१/५। ३. जीभा १४५६
(ख) पंव ७६०; गब्भपरिसाडणाइ व, पिंडत्थं कुणइ एवं वसिकरणादिसु, चुण्णेसु वसीकरेत्तु जो तु परं।
मूलकम्मं तु। उप्याएती पिंडं, सो होती चुण्णपिंडो तु॥ ८. पिंप्र ७५ : मंगलमूलीण्हवणाइ, गब्भवीवाहकरणघायाई। ४. मूला ४६०
___ भववणमूलं कम्म, ति मूलकम्मं महापावं। नेत्तस्संजणचुण्णं, भूसणचुण्णं च गत्तसोभयरं । ९. मूला ४६१। चुण्णं तेणुप्पादो, चुण्णयदोसो हवदि एसो॥ १०. अनध ५/१९।
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पिंड नियुक्ति
पिण्डविशुद्धिप्रकरण के टीकाकार यशोदेवसूरि के अनुसार भिक्षा के ४७ दोषों में मूलकर्म का प्रयोग सबसे अधिक गुरु और सावद्य है।
१०२
भिक्षा से सम्बन्धित मूलकर्म दोष का उल्लेख आगम- साहित्य में कहीं नहीं मिलता है। प्रश्न व्याकरण (२/१२) में मूलकर्म का उल्लेख है पर वहां भिक्षा का प्रसंग नहीं है। इस संदर्भ में यह संभावना की जा सकती है कि महावीर तथा उसके बाद भी कुछ वर्षों तक मूलकर्म का प्रयोग भिक्षा-प्राप्ति के लिए नहीं किया जाता था लेकिन बाद में समय के अन्तराल में किसी साधु ने यह प्रयोग किया होगा इसीलिए पिण्डनिर्युक्तिकार ने इसे उत्पादना दोष के साथ जोड़ दिया। निशीथ में भी उत्पादना के १५ दोषों का उल्लेख है, उसमें मूलकर्म का संकेत नहीं है।
तकल्पभाष्य में मूलकर्म के दो भेद किए हैं- गर्भाधान तथा गर्भ- परिशाटन । इसमें नियुक्तिकार भिन्नयोनिका कन्या तथा दो रानियों के कथानकों का उल्लेख किया है।
कर्म का प्रयोग करने से हिंसा का दोष लगता है। अक्षत योनित्व करने से कामप्रवृत्ति बढ़ती है तथा गर्भपात करने से सम्बन्धित व्यक्ति को भयंकर रोष हो सकता है, इससे प्रवचन की अवमानना होती है । क्षतयोनि करने से साधु को जीवन भर भोगान्तराय लगता है। जीतकल्पभाष्य में भी मूलकर्म से होने वाले दोषारोपण आदि दोषों का उल्लेख किया गया है।
श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में उत्पादन दोषों क्रम एवं नामों में अंतर मिलता है। यहां पिण्डनिर्युक्ति के साथ श्वेताम्बर आगम तथा दिगम्बर परम्परा में प्राप्त दोषों के नामों का चार्ट प्रस्तुत किया जा रहा है
पिण्डनिर्युक्ति १. धात्री २. दूती ३. निमित्त
४. आजीवना
५. वनीपक
६. चिकित्सा ७. क्रोध
८. मान ९. माया १०. लोभ ११. संस्तव
१२. विद्या १३. मंत्र
१४. चूर्ण १५. योग १६. मूलकर्म
निशीथ १३/६१-७५
१. धात्री २. दूती ३. निमित्त
४. आजीविका
५. वनीपक
६. चिकित्सा
७. क्रोध
८. मान
९. माया
१०. लोभ
११. विद्या
१२. मंत्र
१३. योग
१४. चूर्ण
१५. अन्तर्धानपिंड
१. पिंप्र ७५ ; मूलकम्मं महापावं, टी प. ६९ ।
२. जीभा १४६८; दुविहं तु मूलकम्मं, गब्भादाणे तहेव परिसाडे ।
मूलाचार ४४५ १. धात्री
२. दूत
३. निमित्त
४. आजीव
५. वनीपक
६. चिकित्सा ७. क्रोधी
८. मानी
९. मायी
१०. लोभी
११. पूर्वस्तुि
१२. पश्चात्स्तुति
१३. विद्या
१४. मंत्र
१५. चूर्णयोग १६. मूलकर्म
अनगारधर्मामृत ५ / १९
१. धात्री
२. दूत
३. निमित्त
४. वनीपकोक्ति
५. आजीव
६. क्रोध
७. मान
८. माया
९. लोभ
१०. प्राक्नुति ११. अनुनुति १२. वैद्यक
१३. विद्या
१४. मंत्र
१५. चूर्ण
१६. वश/मूलक
३. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ४४-४६ । ४. जीभा १४६९ ।
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पिण्डनिर्युक्ति : एक पर्यवेक्षण
मूलाचार में दूतीदोष के स्थान पर दूतदोष का उल्लेख भी मिलता है।
मूलाचार में क्रोधपिण्ड आदि के स्थान पर व्यक्ति का विशेषण करके क्रोधी, मानी, मायी और लोभी का उल्लेख है।
•
•
निशीथ में १५ दोषों के साथ संस्तव दोष का उल्लेख नहीं है लेकिन दूसरे उद्देशक में पुरः एवं पश्चात् संस्तव करने वाले को प्रायश्चित्त का भागी बताया है।' पिण्डनिर्युक्ति में संस्तव दोष के अन्तर्गत ही पूर्वस्तुति तथा पश्चात् स्तुति का समावेश होता है, जबकि मूलाचार और अनगारधर्मामृत में संस्तव दोष को दो अलग-अलग दोष माना है। अनगारधर्मामृत में प्राक्नुति और पश्चात्नुति तथा मूलाचार में पूर्वस्तुति और पश्चात्स्तुति का उल्लेख है । शब्दभेद होने पर भी यहां अर्थसाम्य है।
•
•
अनगारधर्मामृत में चिकित्सा दोष के स्थान पर वैद्यक दोष का उल्लेख भी मिलता है।
दिगम्बर परम्परा में चूर्ण और योग को एक साथ माना है, जबकि पिण्डनिर्युक्ति में ये दोनों अलग-अलग दोष हैं।
निशीथ के तेरहवें उद्देशक में उत्पादना से सम्बन्धित १५ दोषों का उल्लेख एक स्थान पर मिलता है लेकिन वहां छेद सूत्रकार ने इनके लिए उत्पादना के दोषों का उल्लेख नहीं किया है । अन्तर्धान दोष को चूर्णपिण्ड के अन्तर्गत न रखकर स्वतंत्र दोष माना है तथा मूलकर्म दोष का उल्लेख नहीं है। आचार्य भद्रबाहु ने इन दोषों का सेवन करने वाले मुनि को प्रायश्चित्त का भागी बताया है।
ग्रहणैषणा के दोष
उद्गम और उत्पादन के अतिरिक्त शंका आदि दोषों से रहित आहार ग्रहण करना ग्रहणैषणा है । पंचवस्तु में एषणा शब्द को ग्रहणैषणा के संदर्भ में प्रयुक्त किया है। वहां एषणा, गवेषणा, अन्वेषणा और ग्रहण को एकार्थक माना है।
१०३
इनमें उद्गम के दोष गृहस्थ से, उत्पादन के दोष साधु से सम्बन्धित होते हैं लेकिन एषणा के दश दोष साधु और गृहस्थ दोनों से सम्बन्धित होते हैं। इनमें शंकित तथा भावतः अपरिणत- ये दो दोष साधु से तथा शेष आठ दोष नियमतः गृहस्थ से उत्पन्न होते हैं। एषणा के इन दोषों के लिए मूलाचार और अनगारधर्मामृत के टीकाकार ने अशन दोष का उल्लेख भी किया है। ग्रहणैषणा के दोषों से युक्त भिक्षा लेने से पापबंध, हिंसा तथा लोक में जुगुप्सा होती है । ग्रहणैषणा के दस दोष इस प्रकार हैं- १. शंकित, २. प्रक्षित, ३. निक्षिप्त, ४. पिहित, ५. संहत, ६. दायक, ७. उन्मिश्र, ८. अपरिणत, ९. लिप्त,
१०. छर्दित ।
१. नि २/३७ ।
२. नि १३/६१-७५ ।
३. पिनि २३३ ।
४. पंव ७६१ ; एसण गवेसणऽण्णेसणा य गहणं च होंति एगट्ठा ।
५. पिनि २३४, २३५ ।
६. (क) मूलाटी पृ. ३६७ ; एते अशनदोषाः दश परिहरणीयाः ।
(ख) अनध ५ / २८
७. पिनि २३७, जीभा १४७६ ।
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१०४
१. शंकित दोष
आधाकर्म आदि दोष की संभावना होने पर भी भिक्षा ग्रहण करना शंकित दोष है । दशवैकालिक में स्पष्ट उल्लेख है कल्प और अकल्प की दृष्टि से शंकायुक्त आहार का मुनि निषेध करे ग्रंथकार ने शंकित के विषय में निम्न चतुर्भंगी का निर्देश दिया है.
शंकित ग्रहण, शंकित भोग ।
शंकित ग्रहण, निःशंकित भोग ।
•
·
निःशंकित ग्रहण, शंकित भोग ।
• निःशंकित ग्रहण, निःशंकित भोग ।
•
इस चतुर्भंगी में चौथा भंग विशुद्ध है। निर्युक्तिकार ने इन चारों भंगों का विस्तार से स्पष्टीकरण किया है। गृहस्थ के घर दी जाने वाली प्रचुर भिक्षा सामग्री को देखकर मुनि लज्जावश पूछताछ करने में समर्थ नहीं होता। वह शंका के साथ भिक्षा ग्रहण करता है और उसी अवस्था में उसका उपभोग करता है, यह प्रथम भंग की व्याख्या है।
दूसरे भंग में मुनि भिक्षा ग्रहण करते समय शंकाग्रस्त रहता है लेकिन उपभोग करते समय दूसरा मुनि स्पष्टीकरण कर देता है कि उस घर में प्रकरणवश किसी अतिथि के लिए प्रचुर खाना बना है अथवा किसी अन्य के घर से प्रहेणक आया है, यह सुनकर वह निःशंकित होकर उस भिक्षा का उपभोग करता है, यह चतुर्भंगी का दूसरा विकल्प है।
तीसरे विकल्प में गुरु के समक्ष आलोचना करते हुए अन्य मुनियों के पास भी वैसी ही खाद्य सामग्री देखकर मुनि के मन में शंका हो जाती है अतः निःशंकित रूप से ग्रहण की गई भिक्षा को भी वह शंकित अवस्था में उपभोग करता है। चौथे भंग में दोनों स्थितियों में शंका नहीं होती अतः वह विशुद्ध होने से एषणीय है।
२. प्रक्षित दोष
सचित्त आदि पदार्थों से लिप्त हाथ या चम्मच आदि से भिक्षा ग्रहण करना म्रक्षित दोष है ।" समवायांग में चौदहवां तथा दशाश्रुतस्कन्ध में इसे पन्द्रहवां असमाधिस्थान माना है। टीकाकार मलयगिरि प्रक्षित के स्थान पर प्रक्षिप्त शब्द का प्रयोग भी किया है। यह दो प्रकार का होता है - १. सचित्त प्रक्षित
१. मूला ४६३, पिंप्रंटी प. ७१; आधाकर्मादिदोषवत्तया
आरेकितस्य भक्तादेर्ग्रहणं स्वीकार: शंकितग्रहणम् ।
पिंड
२. दश ५ /१/४४
३. पिनि २३८, जीभा १४७७, १४७८ ।
४. पिनि २४० / १-३ ।
५. मूला ४६४ ।
६. सम २०/१, दश्रु १ / ३ |
७. मवृ प. १४७ ; प्रक्षिप्तं सचित्तपृथिव्यादिनाऽवगुण्डितम् ।
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१०५
पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण २. अचित्त प्रक्षित। सचित्त प्रक्षित के तीन भेद हैं-१. पृथ्वीकायप्रक्षित २. अप्कायम्रक्षित ३. वनस्पतिकायम्रक्षित। सचित्त पृथ्वीकाय प्रक्षित-शुष्क या आर्द्र सचित्त पृथ्वीकाय से लिप्त हाथ या पात्र से भिक्षा लेना। अप्काय प्रक्षित-शुष्क या आर्द्र सचित्त रसों से युक्त हाथ या पात्र से भिक्षा ग्रहण करना अप्काय म्रक्षित
है। सचित्त अप्काय प्रक्षित के चार भेद हैं - १. पुरःकर्म-साधु को भिक्षा देने के लिए दान देने से पूर्व सचित्त जल से हाथ धोना। २. पश्चात्कर्म-भिक्षा देने के पश्चात् सचित्त जल से हाथ धोना।' ३. सस्निग्ध-सचित्त जल से ईषत् आई हाथों से भिक्षा ग्रहण करना।
४. उदका-जिससे पानी टपक रहा हो, ऐसे सचित्त जल से युक्त हाथ से भिक्षा ग्रहण करना। वनस्पतिकाय म्रक्षित-वनस्पतिकाय के रस अथवा प्रत्येक और साधारण वनस्पति के श्लक्ष्ण खंडों से
लिप्त हाथ से भिक्षा ग्रहण करना। शेष तीन काय-तेजस्, वायु और त्रस के सचित्त-अचित्त रूप म्रक्षित नहीं होता अतः उसका यहां ग्रहण नहीं किया गया है।
संसृष्ट हाथ, संसृष्ट पात्र तथा सावशेष द्रव्य तथा इनके प्रतिपक्षी-असंसृष्ट हाथ, असंसृष्ट पात्र तथा निरवशेष द्रव्य-इनके परस्पर संयोग से आठ भंग बनते हैं
• संसृष्ट हाथ, संसृष्ट पात्र तथा सावशेष द्रव्य। • संसृष्ट हाथ, संसृष्ट पात्र तथा निरवशेष द्रव्य। • संसृष्ट हाथ, असंसृष्ट पात्र तथा सावशेष द्रव्य। • संसृष्ट हाथ, असंसृष्ट पात्र तथा निरवशेष द्रव्य। • असंसृष्ट हाथ, संसृष्ट पात्र तथा सावशेष द्रव्य। • असंसृष्ट हाथ, संसृष्ट पात्र तथा निरवशेष द्रव्य। • असंसृष्ट हाथ, असंसृष्ट पात्र तथा सावशेष द्रव्य। • असंसृष्ट हाथ, असंसृष्ट पात्र तथा निरवशेष द्रव्य ।
इनमें दूसरे, चौथे, छठे और आठवें विकल्प में पश्चात्कर्म की संभावना होने के कारण उन भंगों में भिक्षा लेने का निषेध है तथा विषम संख्या वाले भंगों में भिक्षा ग्रहण की जा सकती है क्योंकि सावशेष होने के कारण हाथ और पात्र संसृष्ट होने पर भी पश्चात्कर्म की संभावना नहीं रहती।
१. पिनि २४३, जीभा १४९१ ।
४. पुरःकर्म और पश्चात्कर्म के स्पष्टीकरण हेतु देखें दश २. जीभा १४९४, पिनि २४३/२।
५/१/३२-३६ एवं उनका टिप्पण। ३. दशजिचू पृ. १७८ ; पुरेकम्मं नाम जं साधूणं दट्टणं हत्थं ५. पिनि २९९ ।
भायणं धोवइ, तं पुरेकम्म भण्णइ।
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१०६
पिंडनियुक्ति
अचित्त म्रक्षित
अचित्त म्रक्षित में भी हस्त और पात्र से सम्बन्धित चतुर्भगी होती है। चतुर्भंगी में आहार ग्रहण की भजना है। इनमें अगर्हित प्रक्षित से युक्त हाथ और पात्र से भिक्षा ग्राह्य है लेकिन गर्हित म्रक्षित का प्रतिषेध है। अगर्हित गोरसद्रव मधु , घृत, तैल, गुड़ आदि से खरंटित हाथ या पात्र यदि जीवों से संसक्त हैं तो उस स्थिति में भिक्षा वर्ण्य है क्योंकि इससे मक्षिका, पिपीलिका आदि की हिंसा की संभावना रहती है। सामान्यतः स्थविरकल्पी मुनि विधिपूर्वक घृत, गुड़ आदि से खरंटित हाथ से भिक्षा ग्रहण कर सकते हैं लेकिन जिनकल्पिक वैसे हाथों से भिक्षा ग्रहण नहीं कर सकते। लोक में गर्हित मांस, वसा, शोणित और मदिरा आदि से खरंटित हाथ या पात्र से आहार लेना वर्जित है तथा उभयलोक में गर्हित मूत्र और मल से मेक्षित भी साधु के लिए अग्राह्य है। ३. निक्षिप्त दोष
सचित्त पृथ्वी आदि पर रखी हुई भिक्षा ग्रहण करना निक्षिप्त दोष है। दशवैकालिक में स्पष्ट उल्लेख है कि अशन, पान, खादिम और स्वादिम आदि खाद्य यदि पानी, उत्तिंग या पनक आदि पर रखे हुए हों, अग्नि पर निक्षिप्त हों तो वह भक्तपान साधु के लिए अकल्प्य है। निक्षिप्त दोष दो प्रकार का होता हैसचित्त और अचित्त।
सचित्त निक्षिप्त के दो भेद हैं-अनन्तर और परम्पर। पृथ्वी, अप् आदि षड्जीवनिकायों का आपस में छह प्रकार से निक्षेप संभव है
१. पृथ्वीकाय का पृथ्वीकाय पर। २. पृथ्वीकाय का अप्काय पर। ३. पृथ्वीकाय का तेजस्काय पर। ४. पृथ्वीकाय का वायुकाय पर। ५. पृथ्वीकाय का वनस्पतिकाय पर। ६. पृथ्वीकाय का त्रसकाय पर।
इसी प्रकार अप्काय आदि के भी ६-६ भेद होते हैं। इनमें एक-एक विकल्प स्वस्थान तथा शेष पांच परस्थान होते हैं। अग्निकाय का सप्तविध निक्षेप इस प्रकार है१. विध्यात-जो अग्नि पहले दिखाई नहीं देती लेकिन बाद में ईंधन डालने पर स्पष्ट दिखाई देती है, वह
विध्यात कहलाती है। १. पिनि २४५, २४५/१।
५. पिनि २४९। २.पिनि २४५/२।
६. ग्रंथकार ने अग्नि पर निक्षिप्त के अनेक भंगों की विस्तार ३. मूला ४६५।
से व्याख्या की है, देखें पिनि २५२-२५२/२, मवृ प. ४. दश ५/१/५९,६१, ६२।
१५२, १५३।
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पिण्डनिर्युक्ति : एक पर्यवेक्षण
२. मुर्मुर - आपिंगल रंग के अर्धविध्यात अग्निकण मुर्मुर कहलाते हैं ।
३. अंगारा - ज्वालारहित अग्नि अंगारा कहलाती है।
४. अप्राप्तज्वाला-' -चूल्हे पर स्थित भाजन, जिसको अग्नि का स्पर्श नहीं होता, वह अप्राप्तज्वाला
कहलाती है।
५. प्राप्तज्वाला - पिठरक का स्पर्श करने वाली अग्नि प्राप्तज्वाला कहलाती है ।
६. समज्वाला - जो बर्तन के ऊपरी भाग तक स्पर्श करती है, वह समज्वाला कहलाती है ।
७. व्युत्क्रान्तज्वाला - जो अग्नि चूल्हे पर चढ़े बर्तन के ऊपर तक पहुंच जाती है, वह व्युत्क्रान्तज्वाला कहलाती है ।
सचित्त पर सचित्त निक्षेप की तरह मिश्र पृथ्वी पर सचित्त पृथ्वी, सचित्त पृथ्वी पर मिश्र पृथ्वी तथा मिश्र पृथ्वी पर मिश्र पृथ्वी का निक्षेप होता है। इसी प्रकार सचित्त और मिश्र के साथ अचित्त पर निक्षेप की चतुर्भंगी भी होती है। इन तीन चतुर्भंगियों में अचित्त से सम्बन्धित चतुभंगी के चौथे भंग में भक्तपान ग्राह्य होता है।
जहां सचित्त, अचित्त अथवा मिश्र द्रव्य पर निक्षेप होता है, वहां अनंतर और परम्पर दो प्रकार की मार्गणाएं होती हैं । षड्जीवनिकाय का अनंतर और परम्पर निक्षेप इस प्रकार होता है- जहां सचित्त पृथ्वी पर बिना किसी अन्तराल के साक्षात् वस्तु रखी जाती है, वह सचित्त पृथ्वीकाय का अनन्तर निक्षेप है। इसी प्रकार पृथ्वी पर रखे पिठरक आदि पर निक्षेप होता है, वह परम्पर निक्षिप्त है। मक्खन आदि सचित्त जल में रखा है, वह अनंतर निक्षिप्त तथा नदी - जल में स्थित नाव में रखा नवनीत परम्पर निक्षिप्त कहलाता है।* वायु द्वारा उड़ाया गया धान्य का छिलका अनंतर निक्षिप्त तथा वायु से भरी वस्ति पर निक्षिप्त वस्तु परम्पर निक्षिप्त होती है । वनस्पतिकाय की दृष्टि से हरियाली पर निक्षिप्त वस्तु अनंतर निक्षिप्त तथा हरियाली पर रखे हुए पिठरक आदि में निक्षिप्त मालपूआ आदि परम्पर निक्षिप्त होता है। त्रसकाय की दृष्टि से बैल आदि के पीठ पर रखे हुए मालपूए आदि अनंतर निक्षिप्त तथा कुतुप आदि भाजनों में भरकर बैल की पीठ पर रखे मालपूए परम्पर निक्षिप्त होते हैं। टीकाकार के अनुसार निक्षिप्त के कुल भेदों की संख्या ४३२ होती है।
निक्षिप्त के पूरे प्रसंग को पढ़कर जाना जा सकता है कि जैन आचार्यों ने साधु की भिक्षाचर्या के विषय में कितनी सूक्ष्मता से चिन्तन किया है। अन्य किसी भी धर्म के संन्यासी वर्ग के लिए इतनी सूक्ष्म अहिंसा प्रधान भिक्षाचर्या का उल्लेख नहीं मिलता है।
१. पिनि २५२/१,२ ।
२. पिनि २५० ।
३. पिनि २५१ / २ ।
१०७
४. पिनि २५१ / ३ ।
५. पिनि २५४, २५५ ।
६. मवृ प. १५१ ।
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१०८
पिंडनियुक्ति
सप्तविध अग्नि में गेंहू आदि को अग्नि के ऊपर सेकना या डालना अनंतर निक्षिप्त है तथा अग्नि के ऊपर पात्र में वस्तु रखने को परम्पर निक्षिप्त कहते हैं। परम्पर निक्षिप्त में ग्रंथकार ने चार विकल्प प्रस्तुत किए हैं• पाश्र्वावलिप्त-अग्नि पर चढ़ा विशाल मुख वाला पात्र चारों ओर से मिट्टी से अवलिप्त होना चाहिए। यदि किसी कारण से रस या पानी की बूंद गिर जाए तो उसे मिट्टी सोख ले, अग्निकाय की विराधना न हो। • अनत्युष्ण-इक्षुरस अति उष्ण नहीं होना चाहिए। अत्यधिक उष्ण रस लेने से आत्म-विराधना और पर-विराधना दोनों संभव हैं। • अपरिशाटि-अपरिशाटि अर्थात् देते समय रस नीचे नहीं गिरना चाहिए। रस गिरने से अग्निकाय की विराधना संभव रहती है। • अघटुंत-अर्थात् कटाह से दीयमान, उदक या रस कड़ाई के उपरितन भाग (कर्ण) से घट्टित नहीं होना चाहिए। घट्टित होने पर अग्नि में बूंद गिरने तथा पात्र का ऊपरी भाग खंडित होने की संभावना रहती है अतः वह कल्पनीय नहीं होता।
ग्रंथकार ने पार्वावलिप्त, अनत्युष्ण, अपरिशाटि और अघट्टित कर्ण-इन चार पदों से गणित के फार्मूले द्वारा १६ भंगों की कल्पना की है। इनमें प्रथम भंग शुद्ध तथा शेष १५ भंग अशुद्ध हैं । सोलह भंगों की रचना इस प्रकार होगी
१. प्रथम पंक्ति में एकान्तरित लघु गुरु करते हुए सोलह भंग। २. द्वितीय पंक्ति में दो लघु दो गुरु करते हुए सोलह भंग। ३. तृतीय पंक्ति में पहले चार लघु फिर चार गुरु, पुनः चार लघु और चार गुरु।
४. चतुर्थ पंक्ति में पहले आठ लघु फिर आठ गुरु। इनकी स्थापना इस प्रकार होगी
ISISISISI SISISIS ।। ss। ।ss ||ss ।। ss । । । ।s sss ।। ।। ssss
।। । । । । ।। ssss ssss चारों पंक्तियों में नीचे से ऊपर चलते हुए बायीं ओर से एक एक भंग को उठाने से सोलह भंगों की रचना इस प्रकार होगी
१.पिनि २५३/२१
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
१०९
(१.) ।।।। (२.) ।।।s (३.) । । । (४.) ।।ss (५.) । s ।। (६.) ।s I s (७.) । ss। (८.) । sss (९.) ।।। (१०.) ।। (११.) s। 5 । (१२.) SIss (१३.) ss || (१४.) s SIS (१५.) ss s। (१६.) ssss
इनमें सीधी रेखा वाले अंश शुद्ध तथा s आकार वाले अंश अशुद्ध हैं। इन सोलह भंगों में प्रथम भंग अनुज्ञात है। शेष १५भंग अकल्प्य हैं। चार पदों के आधार पर भंगों का चार्ट इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है
पार्वावलिप्त अनत्युष्ण अपरिशाटी अघट्टितकर्ण ILIS पार्वावलिप्त अनत्युष्ण अपरिशाटी घट्टितकर्ण ।। ।। पार्वावलिप्त अनत्युष्ण परिशाटी अघट्टितकर्ण | Iss पार्वावलिप्त अनत्युष्ण परिशाटी घट्टितकर्ण ISII पाश्र्वावलिप्त अत्युष्ण अपरिशाटी अघट्टितकर्ण Is Is पार्वावलिप्त अत्युष्ण अपरिशाटी घट्टितकर्ण Iss। पार्वावलिप्त अत्युष्ण परिशाटी अघट्टितकर्ण ISSS पार्वावलिप्त अत्युष्ण परिशाटी घट्टितकर्ण s।।। अनवलिप्त
अनत्युष्ण अपरिशाटी
अघट्टितकर्ण SIIs अनवलिप्त अनत्युष्ण अपरिशाटी घट्टितकर्ण SISI अनवलिप्त अनत्युष्ण परिशाटी अघट्टितकर्ण SISS अनवलिप्त अनत्युष्ण परिशाटी घट्टितकर्ण ss|| अनवलिप्त अत्युष्ण अपरिशाटी अघट्टितकर्ण SSIS 37796 अत्युष्ण अपरिशाटी घट्टितकर्ण sss। अनवलिप्त
अत्युष्ण परिशाटी अघट्टितकर्ण ssss अनवलिप्त अत्युष्ण परिशाटी घट्टितकर्ण
आधुनिक गणित में इसका सूत्र इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है-४=१६ । ४. पिहित दोष
सचित्त फल या पृथ्वी आदि से ढ़के हुए अथवा अचित्त गुरु पदार्थ से पिहित खाद्य पदार्थ को ग्रहण करना पिहित दोष है। दशवैकालिक के पांचवें अध्ययन में उल्लेख मिलता है कि जलकुंभ, चक्की, पीठ, शिलापुत्र (लोढ़ा),मिट्टी का लेप तथा लाख आदि से पिहित पात्र को साधु के लिए खोलकर देती हुई स्त्री को मुनि भिक्षा का प्रतिषेध करे। इसके तीन भेद हैं-१. सचित्त २. अचित्त ३. मिश्र। इन तीनों की तीन चतुर्भंगियां होती हैं
१. मूला ४६६;
सच्चित्तेण व पिहिदं, अधवा अचित्तगुरुगपिहिदं च। तं छंडिय जं देयं, पिहिदं तं होदि बोधव्वो॥
२. दश ५/१/४५, ४६। ३. पिनि २५६, मवृ प. १५४।
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११०
पिंडनियुक्ति
सचित्त और मिश्रकी चतुर्भंगी १. सचित्त से पिहित सचित्त देय वस्तु। २. मिश्र से पिहित सचित्त देय वस्तु। ३. सचित्त से पिहित मिश्र देय वस्तु। ४. मिश्र से पिहित मिश्र देय वस्तु।
ये चारों विकल्प अकल्पनीय (अग्राह्य) हैं। सचित्त और अचित्त की चतुर्भगी १. सचित्त से पिहित सचित्त देय वस्तु । २. अचित्त से पिहित सचित्त देय वस्तु। ३. सचित्त से पिहित अचित्त देय वस्तु। ४. अचित्त से पिहित अचित्त देय वस्तु।
इनमें प्रथम तीन विकल्प अकल्पनीय तथा चतुर्थ विकल्प में भजना है। अचित्त और मिश्र की चतुर्भंगी १. मिश्र से पिहित मिश्र देय वस्तु। २. अचित्त से पिहित मिश्र देय वस्तु। ३. मिश्र से पिहित अचित्त देय वस्तु। ४. अचित्त से पिहित अचित्त देय वस्तु ।
इनमें प्रथम तीन विकल्प अकल्पनीय हैं, चतुर्थ विकल्प में भजना है। चतुर्थ विकल्प की चतुभंगी भी इस प्रकार बनती है१. भारी वस्तु से पिहित भारी देय वस्तु। २. हल्की वस्तु से पिहित भारी देय वस्तु। ३. भारी वस्तु से पिहित हल्की देय वस्तु। ४. हल्की वस्तु से पिहित हल्की देय वस्तु।
इस चतुर्भंगी में प्रथम और तृतीय विकल्प में वस्तु अग्राह्य तथा द्वितीय और चतुर्थ भंग में वस्तु ग्राह्य है। इसकी व्याख्या करते हुए टीकाकार कहते हैं कि भारी पदार्थ को उठाने में वस्तु हाथ से छूटने पर पैर आदि के चोट या अंग-भंग संभव है। देय वस्तु यदि भारी है तो उसे उठाकर देना आवश्यक नहीं है,
१.पिनि २५९/१, मवृ प. १५५।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
१११ कटोरी आदि से भी भिक्षा दी जा सकती है अतः दूसरे विकल्प में भिक्षा कल्प्य है। चतुर्थ विकल्प में दोनों ही वस्तुएं हल्की हैं अत: इस विकल्प में वस्तु ग्राह्य है।
सचित्त पिहित आदि के भी दो-दो भेद होते हैं-अनंतर और परम्पर । सचित्त पृथ्वी के ढ़क्कन से पिहित खाद्य आदि अनन्तर पिहित तथा सचित्त पृथ्वी पर रखे पिठर पर रखा पदार्थ परम्पर पिहित, अंगार से धूपित वस्तु अनंतर पिहित तथा अंगार से भृत शराव आदि से पिहित पिठर परम्पर पिहित है। अंगार-धूपित आदि में अतिरोहित वायु अनंतर पिहित तथा वायु से भरी दृति आदि से पिहित वस्तु परम्पर पिहित है। अतिरोहित फल आदि से पिहित खाद्य अनंतर पिहित तथा फलों से भरी छाबड़ी आदि से पिहित पदार्थ परम्पर पिहित है। त्रसकाय के संदर्भ में कच्छप आदि से पिहित आहार अनंतर पिहित है तथा कच्छप, कीटिका आदि से गर्भित पिठरक आदि से पिहित वस्तु परम्पर पिहित है।' ५. संहृत दोष
जिस पात्र से भिक्षा दी जा रही हो, उसमें यदि कोई अदेय अशन आदि हो तो उसे भूमि पर या अन्यत्र डालकर भिक्षा देना संहत दोष है। जीतकल्पभाष्य में संहरण, उत्किरण और विरेचन को एकार्थक माना है। दशवैकालिक के पांचवें अध्ययन में उल्लेख मिलता है कि एक बर्तन से दूसरे बर्तन में निकालकर, उसे सचित्त वस्तु पर रखकर, सचित्त जल को हिलाकर, उसमें अवगाहन कर, आंगन में गिरे जल पर चलकर यदि कोई स्त्री आहार-पानी दे तो मुनि उसका प्रतिषेध करे। मूलाचार में संहत के स्थान पर संव्यवहरण शब्द का प्रयोग हुआ है। उसके अनुसार मुनि को देने हेतु वस्त्र या भाजन को बिना देखे खींचकर आहार देना संव्यवहरण दोष है। अनगारधर्मामृत में इसके स्थान पर साधारण दोष का उल्लेख मिलता है। ऐसा संभव लगता है कि संहृत का प्राकृत रूपान्तरण संहरण या साहरण होता है। उसी आधार पर अनगारधर्मामृत में यह साधारण दोष के रूप में लिखा गया है।
जिस प्रकार निक्षिप्त और पिहित दोष में सचित्त, अचित्त और मिश्र की तीन चतुर्भगियां होती हैं, वैसे ही इसकी भी चतुर्भंगियां हैं। केवल द्वितीय और तृतीय चतुर्भंगी के तीसरे भंग की मार्गणा-विधि में अंतर है। ग्रंथकार ने शुष्क और आर्द्र संहरण तथा संहियमाण के आधार पर चार भंगों की कल्पना की है
१. शुष्क पर शुष्क। ३. आर्द्र पर शुष्क। २. शुष्क पर आर्द्र। ४. आर्द्र पर आर्द्र।
१. पिनि २५८, २५९। २. (क) पंव७६४ मत्तगगयंअजोग्गं, पढवाइसछोढदेइ साहरियं।
(ख) पिनि २६२। ३. जीभा १५५७ : साहरणं उक्किरणं, विरेयणं चेव एगदें। ४. दश ५/१/३०, ३१ ।
५. मूला ४६७;
संववहरणं किच्चा, पदादुमिदिचेल-भायणादीणं।
असमिक्खय जं देयं, संववहरणो हवदि दोसो॥ ६. अनध ५/३३। ७. पिनि २६१।
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११२
पिंडनियुक्ति इनमें शुष्क वस्तु को संहत करने से जीव-हिंसा की संभावना कम रहती है अतः शुष्क पर शुष्क को संहृत किया जाए तो वह वस्तु साधु के लिए ग्राह्य हो सकती है।
संहृत दोष से षट्काय जीव की विराधना का प्रसंग संभव है इसलिए संहृत दोष युक्त आहार साधु के लिए अकल्प्य है। पुन: इसको भी ग्रंथकार ने स्तोक और बहु के आधार पर चतुर्भंगी के माध्यम से समझाया है
• थोड़े शुष्क पर थोड़ा शुष्क। • थोड़े शुष्क पर बहु शुष्क।
• बहु शुष्क पर थोड़ा शुष्क। • बहु शुष्क पर बहु शुष्क। जहां थोड़े शुष्क पर बहु शुष्क तथा बहु शुष्क पर बहु शुष्क संहत होता है, वहां साधु को आहार लेना कल्प्य होता है। शुष्क पर आर्द्र, आर्द्र पर शुष्क या आर्द्र पर आर्द्र-इन तीन भंगों में आहार ग्रहण करना कल्प्य नहीं होता है। यदि ग्राह्य वस्तु कम भार वाली है, उस पर लघु भार वाली वस्तु रखी है तो उसे अन्यत्र रखकर आहार आदि लेना कल्प्य है।
भारी या बड़े पात्र को उठाने या नीचे रखने में दाता को कष्ट होता है तथा लोक-निंदा भी संभव है कि यह लोलुप साधु दूसरों की सुविधा-असुविधा का भी ध्यान नहीं रखता। यदि दान देते समय अंगभंग या शरीर जल जाए तो दाता या उसके परिजनों के मन में अप्रीति उत्पन्न हो जाती है, जिससे अन्य द्रव्यों का व्यवच्छेद हो जाता है तथा भारी पात्र से वस्तु बाहर निकलने से षट्काय-वध की संभावना रहती है।
___ संहरण आदि प्रत्येक द्वार में भंगों के आधार पर ४३२ भंग इस प्रकार बनते हैं-सचित्त पृथ्वी का सचित्त पृथ्वीकाय पर संहरण, सचित्त पृथ्वीकाय का सचित्त अप्काय पर संहरण आदि स्वकाय-परकाय की अपेक्षा ३६ भंग होते हैं। इनके सचित्त, अचित्त और मिश्र पद से प्रत्येक की तीन चतुर्भंगी होने से १२ भेद होते हैं। १२ का ३६ से गुणा करने पर ४३२ भेद होते हैं।' ६. दायक दोष
जो भिक्षा देने के अयोग्य हों, उनके हाथ से भिक्षा ग्रहण करना दायक दोष है। पिण्डनियुक्ति में चालीस व्यक्तियों को भिक्षा के अयोग्य माना है। इनमें कुछ दोष व्यक्तियों से सम्बन्धित हैं तथा कुछ सावध क्रियाओं से सम्बद्ध होने के कारण उपचार से दायक के साथ सम्बद्ध हो गए हैं। निषिद्ध दायकों के नाम इस प्रकार हैं-१. बाल, २. अतिवृद्ध, ३ मत्त, ४. यक्षाविष्ट, ५. कम्पमान शरीर, ६. ज्वरग्रस्त, ७. अन्धा, ८. कोढ़ी, ९. खड़ाऊ पहने हुए, १०. हथकड़ी पहने हुए, ११. बेड़ियों से बद्ध, १२. हाथ-पैर कटे हुए, १३. नपुंसक, १४. गर्भवती स्त्री, १५. स्तनपान कराती हुई, १६. भोजन करती हुई, १७. दधि-मन्थन करती हुई, १८. चने पूंजती हुई, १९. गेहूं आदि पीसती हुई, २०. ऊखल में चावल आदि कूटती हुई, २१. शिला
१. मवृ प. १६५।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
११३ पर तिल आदि पीसती हुई, २२. रुई धुनती हुई, २३. कपास लोठती हुई (बीनती हुई), २४. सूत कातती हुई, २५. चरखा चलाती हुई, २६. सचित्त जल, वनस्पति आदि से युक्त हाथ वाली, २७. सचित्त लवण आदि षट्काय को नीचे रखती हुई, २८. छह काय को पैरों से कुचलती हुई, २९. छह काय का शरीर से स्पर्श करती हुई, ३०. छह जीवनिकाय की हिंसा करती हुई, ३१. दही आदि से लिप्त हाथ वाली, ३२. दही आदि से लिप्त पात्र वाली, ३३. बड़े पात्र से निकाल कर देती हुई, ३४. दूसरों की वस्तु देती हुई, ३५. चोरी की वस्तु देती हुई, ३६. अग्र कवल निकालती हुई, ३७. गिरने आदि की सम्भावना हो ऐसी स्त्री, ३८. अन्य साधु के लिए स्थापित आहार देती हुई, ३९. जान-बूझकर अशुद्ध देती हुई ४०. अनजान में अशुद्ध देती
___ दशवैकालिक के पांचवें पिण्डैषणा अध्ययन में प्रतिषिद्ध दायकों का विकीर्ण रूप से उल्लेख मिलता है।
ओघनियुक्ति में दायक से सम्बन्धित २० दोषों का उल्लेख मिलता है-१. अव्यक्त (बाल), २. अप्रभु (जिसका घर पर स्वामित्व न हो), ३. स्थविर, ४. नपुंसक, ५. मत्त, ६. क्षिप्त चित्त (धन आदि की चोरी होने पर जिसका चित्त क्षिप्त हो जाए), ७. दीप्तचित्त (शत्रु के द्वारा अनेक बार पराजित होने पर चित्त-विप्लुति होना), ८. यक्षाविष्ट, ९. कटे हाथ वाला, १०. छिन्न पैर वाला, ११. अंधा, १२. श्रृंखलाबद्ध, १३. कोढ़ी, १४. गर्भवती स्त्री, १५. बालवत्सा स्त्री, १६. अनाज का कंडन करती हुई, १७. उसे पीसती हुई, १८. अनाज भूनती हुई, १९. सूत कातती हुई, २०. रुई पीजती हुई।
मूलाचार में निम्न व्यक्तियों को भिक्षा देने के अयोग्य माना है -१. धाय २. मदिरा से उन्मत्त ३. रोगी ४. मृतक को श्मशान में पहुंचाकर आने वाला५ ५. नपुंसक ६. पिशाच (वातरोग से प्रभावित) ७. नग्न ८. मल विसर्जित करके आया हुआ ९. मूर्छा के कारण पतित १०. वमन करके तत्काल आया हुआ ११. रुधिर युक्त १२. वेश्या दासी १३. आर्यिका-श्रमणी (रक्तपटिका आर्यिका आदि न हो) १४. शरीर का अभ्यंगन की हुई १५. अति बाला (छोटी बालिका, यहां उपचार से छोटा बालक भी गृहीत हो जाएगा।) १६. अतिवृद्धा १७. खाना खाती हुई १८. गर्भिणी (पांच मास की गर्भिणी)६ १९. अंधी स्त्री २०. अंतरिता-भीत आदि के पीछे या उसके सहारे से बैठी स्त्री २१. नीचे बैठी हुई २२. ऊंचे स्थान पर बैठी हुई २३. मुंह से अग्नि फूंकने वाली २४. काठ डालकर अग्नि जलाने वाली २५. सारण-चूल्हे में लकड़ी आदि को आगे-पीछे सरकाती हुई २६. भस्म आदि से आग को ढकने वाली २७. पानी आदि से अग्नि १. पिनि २६५-७०।
५. मूलाटी पृ. ३६४ ; मृतकसूतकेन यो जुष्टः सोऽपि मृतक २. दश ५/१/२९, ४०, ४२,४३।
इत्युच्यते-मृतक सूतक से युक्त होने के कारण वह भी ३. ओनि ४६७, ४६८।
मृतक कहलाता है। ४. मूला ४६८-७१।
६. मूलाटी पृ. ३६४ ; गर्भिणी गुरुभारा पंचमासिका।
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११४
पिंडनियुक्ति बुझाने वाली २८. अग्नि को इधर-उधर चलाने वाली या बुझाने वाली २९. गोबर आदि से लीपती हुई ३०. मज्जन-स्नान आदि करती हुई ३१. दूध पीते बालक को छोड़कर भिक्षा देती हुई।
प्रवचनसारोद्धार की टीका में २९ अयोग्य दाताओं के नाम मिलते हैं, वहां इनके क्रम में भी अंतर है-१. स्थविर, २. अप्रभु, ३. नपुंसक, ४. कंपमान, ५. ज्वरग्रस्त, ६. अंध, ७. बाल, ८. मत्त, ९. उन्मत्त, १०. लूला, ११. लंगड़ा, १२. कोढ़ी, १३. बंधनबद्ध, १४. पादुका पहना हुआ, १५. धान्य का कंडन करती हुई, १६. पीसती हुई, १७. अनाज भंजती हुई, १८. चरखा कातती हुई, १९. कपास लोठती हुई, २०. कपास अलग करती हुई, २१. रुई पीजती हुई, २२. अनाज आदि दलती हुई, २३. दही का मन्थन करती हुई, २४. भोजन करती हुई, २५. गर्भिणी, २६. बालवत्सा, २७. छ: काय जीवों से युक्त हाथ वाली, २८. छ: काय जीवों का घात करती हुई, २९. संभावित भयवाली।
पिण्डविशुद्धिप्रकरण में ३८ दोषों का उल्लेख है, वहां पिंडनियुक्ति में वर्णित आभोग और अनाभोग दायकों का उल्लेख नहीं मिलता है।
अनगारधर्मामृत में रजस्वला, गर्भिणी, अन्य सम्प्रदाय की आर्यिका, शव को श्मशान ले जाने वाले, मृतक के सूतक वाले तथा नपुंसक आदि दायक वर्जित हैं।
पिण्डनियुक्ति में वर्णित दायक के ४० दोषों में प्रथम २५ व्यक्तियों से ग्रहण की भजना है। विशेष अपवाद की स्थिति में इनसे ग्रहण किया जा सकता है, जैसे ८ वर्ष से कम आयु वाले बालक से भिक्षा ग्रहण करना अकल्प्य है लेकिन यदि मां या परिजन के समक्ष बालक भिक्षा दे तो अल्प मात्रा में उसके हाथ से भिक्षा ग्रहण की जा सकती है। ७. उन्मिश्र दोष
सचित्त मिश्रित भिक्षा ग्रहण करना उन्मिश्र दोष है। अनगारधर्मामृत में इसके लिए विमिश्र अथवा मिश्र दोष का उल्लेख है। पिण्डविशुद्धिप्रकरण के अनुसार भिक्षा देने योग्य तथा भिक्षा के अयोग्य वस्तुओं को मिलाकर भिक्षा देना उन्मिश्र दोष है । दशवैकालिक में उल्लेख मिलता है कि यदि अशन, पान, खादिम और स्वादिम आदि पुष्प, बीज और हरियाली से उन्मिश्र हों तो वह भक्तपान साधु के लिए अकल्पनीय होता है। मूलाचार में भी उन्मिश्र दोष की यही व्याख्या मिलती है।
उन्मिश्र दोष मुख्यतः तीन प्रकार का होता है-१. सचित्त २. अचित्त ३. मिश्र। इनकी तीन
१. प्रसाटी प. १५१-५३।
४. अनध ५/२८, ५/३६। २. अनध ५/३४।
५. पिंप्र८९;जोग्गमजोग्गं च दुवे, विमीसिउंदेइ जंतमम्मीसं। ३. इसी प्रकार अन्य दाता के दोषों और अपवादों के लिए ६. मूला ४७२ ; देखें पिनि २७३-२८८/७ गाथाओं का अनुवाद एवं मव
पुढवी आऊ य तहा, हरिदा बीया तसा य सज्जीवा। प. १५९-१६४।
पंचेहिं तेहिं मिस्सं, आहारं होदि उम्मिस्सं॥
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
११५ चतुर्भगियों में अंतिम दो चतुर्भगियों में आद्य तीन विकल्प प्रतिषिद्ध तथा चौथे विकल्प की भजना है। प्रथम चतुभंगी के चारों विकल्पों में भिक्षा प्रतिषिद्ध है। संहृत द्वार की भांति इसमें भी पृथ्वीकाय आदि के सांयोगिक भंग समझने चाहिए तथा शुष्क और आर्द्र के चार विकल्प संहरण दोष की भांति ही जानने चाहिए।
उन्मिश्र और संहृत दोष में अन्तर बताते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि कल्प्य और अकल्प्य-दोनों प्रकार की देय वस्तु को मिश्रित करके भिक्षा देना उन्मिश्र दोष है तथा भाजनस्थ अदेय वस्तु का अन्यत्र संहरण करके उसमें कल्प्य वस्तु डालकर भिक्षा देना संहत दोष है। ८. अपरिणत दोष
जो वस्तु पूर्णतः अचित्त न हुई हो अथवा जिसको देने का दाता का मन न हो, उसे लेना अपरिणत दोष है। दशवैकालिक सूत्र में अपरिणत के लिए अनिव्वुड' शब्द का प्रयोग हुआ है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार तिलोदक, तण्डुलोदक, उष्णजल, चने का धोवन, तुषोदक यदि पूर्ण अचित्त न हुए हों अथवा
और भी वस्तुएं जो अपरिणत हों, उन्हें लेना अपरिणत दोष है। यह दो प्रकार का होता है-द्रव्य अपरिणत तथा भाव अपरिणत। दाता और ग्रहणकर्ता की दृष्टि से इन दोनों के दो-दो भेद होते हैंद्रव्य विषयक अपरिणत-यह षट्काय से सम्बन्धित होने के कारण छह प्रकार का होता है। उदाहरण स्वरूप सचेतन पृथ्वी जब तक सजीव है, तब तक अपरिणत है और जीव रहित होने के बाद वह परिणत कहलाती है। इसी प्रकार अप्काय आदि को जानना चाहिए। भाव विषयक अपरिणत-जो वस्तु दो या अधिक व्यक्तियों से सम्बन्धित है, उसमें एक व्यक्ति की साधु को देने की इच्छा हो और दूसरे की या अन्य की इच्छा न हो तो वह दाता सम्बन्धी भावतः अपरिणत है। इसी प्रकार भिक्षार्थ गए दो मुनियों में एक मुनि ने देय वस्तु को एषणीय माना और दूसरे ने एषणीय नहीं माना, वह ग्राहक सम्बन्धी भावतः अपरिणत है अत: अकल्प्य है।'
___टीकाकार मलयगिरि ने अनिसृष्ट और दातृभाव से अपरिणत का अंतर स्पष्ट किया है। उनके अनुसार अनिसृष्ट में सामान्यतः दाता परोक्ष होता है लेकिन दातृभाव से अपरिणत में दाता समक्ष होता है। भिक्षा देने की असहमति दोनों की होती है। ९. लिप्त दोष
लेपकृद् पदार्थ लेने से रसलोलुपता बढ़ती है अत: दूध, दही आदि लेपकृद् द्रव्य लेना लिप्त दोष
१. पिनि २९१/१। २. पिनि २९१, मवृ प. १६५। ३. पिंप्र ९०। ४. दश ३/७1
५.मूला ४७३। ६.पिनि २९३। ७. पिनि २९४, २९५, जीभा १५९०-९२ । ८. मवृ प. १६६।
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पिंडनियुक्ति कहलाता है। दिगम्बर परम्परा में लिप्त दोष की परिभाषा कुछ भिन्न मिलती है। वहां गेरु, हरताल, खड़िया, मनःशिला, गीला आटा तथा अपक्व ओदन आदि से लिप्त हाथ या पात्र से आहार देना लिप्त दोष है। इस परिभाषा के अनुसार फिर प्रक्षित दोष और लिप्त दोष में कोई अंतर नहीं रहता।
पिण्डनियुक्ति में वर्णित लिप्त दोष की परिभाषा भी चिन्तनीय है क्योंकि यहां भिक्षा के समय दाता या गृहस्थ से लगने वाले दोषों की चर्चा है न कि इस बात का विमर्श करना कि मुनि को कैसा आहार लेना चाहिए और कैसा नहीं। इसका विस्तृत वर्णन दशवैकालिक सूत्र में मिलता है। ऐसा संभव लगता है कि लेपयुक्त पदार्थ लेने से पश्चात्कर्म की प्राय: संभावना रहती है इसलिए लिप्त दोष का उल्लेख किया गया है। नियुक्तिकार ने अलेपकृद् , अल्पलेपकृद् और बहुलेपकृद्-इन तीनों प्रकार के द्रव्यों की सूची प्रस्तुत की है तथा गुरु और शिष्य के प्रश्नोत्तर के माध्यम से विषय को स्पष्ट किया है। ग्रंथकार ने संसृष्ट हाथ, संसृष्ट पात्र और सावशेष द्रव्य तथा प्रतिपक्षी असंसृष्ट हाथ, असंसृष्ट पात्र एवं निरवशेष द्रव्य-इन छह के परस्पर संयोग से होने वाले आठ विकल्पों को प्रस्तुत किया है। १०. छर्दित दोष
देय वस्तु को गिराते हुए भिक्षा देना छर्दित दोष है। दशवैकालिक सूत्र में इस प्रकार की भिक्षा ग्रहण करने का निषेध है। दिगम्बर साहित्य में इस दोष का परित्यजन या त्यक्त दोष नाम मिलता है। पिण्डनियुक्ति में छर्दन दोष का सम्बन्ध केवल गृहस्थ दाता से है लेकिन दिगम्बर साहित्य में इस दोष की दो रूपों में व्याख्या की गई है। वहां गृहस्थ और मुनि दोनों के साथ इस दोष का सम्बन्ध है। गृहस्थ के द्वारा गिराते हुए दी जाने वाली भिक्षा लेना तथा भोजन के समय गिराते हुए भोजन करना अथवा एक वस्तु को गिराकर अन्य इष्ट वस्तु खाना त्यक्त या परित्यजन दोष है। अनगारधर्मामृत में इसे छोटित दोष नाम से व्याख्यायित किया है।
छर्दन दोष के तीन प्रकार हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र। इन तीनों चतुर्भंगियों के सारे विकल्प प्रतिषिद्ध हैं। छर्दित दोष युक्त आहार ग्रहण करने वाले साधु को आज्ञा, अनवस्था, मिथ्यात्व और विराधना आदि दोष लगते हैं।
नियुक्तिकार छर्दित दोष युक्त भिक्षा न लेने का कारण बताते हुए कहते हैं कि अचित्त द्रव्य यदि उष्ण है तो उसके भूमि पर गिरने से दाता जल सकता है तथा पृथ्वीकाय आदि जीवों की विराधना हो सकती है। यदि शीत द्रव्य का छर्दन होता है तो भी पृथ्वी आदि जीवों की विराधना संभव है। इस प्रसंग में नियुक्तिकार ने मधुबिन्दु का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है।
१. मूला ४७४, अनध ५/३५। २. पिनि २९६-९८। ३. इन भंगों के लिए देखें म्रक्षित दोष भूमिका पृ. १०४।। ४. दश ५/१/२८।
५. चासा ७२/१। ६. मूला ४७५। ७. अनध ५/३१। ८. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ४९।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
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लभिात
।
एषणा के दश दोषों के क्रम एवं नामों में श्वेताम्बर तथा दिगम्बर परम्परा में कुछ अंतर है। यहां कुछ ग्रंथों में प्राप्त दोषों का क्रम एवं शब्दभेद के अंतर को चार्ट के द्वारा प्रस्तुत किया जा रहा हैपिण्डनियुक्ति । मूलाचार | अनध
दशवैकालिक १. शंकित १. शंकित १. शंकित १. शंकित ५/१/४४ २. म्रक्षित २. म्रक्षित २. पिहित २. मेक्षित ५/१/३२-३६ ३. निक्षिप्त ३. निक्षिप्त ३. म्रक्षित ३. निक्षिप्त ५/१/५९-६२ ४. पिहित ४. पिहित ४. निक्षिप्त ४. पिहित ५/१/४७ ५. संहृत ५. संव्यवहरण ५. छोटित ५. संहृत ५/१/३०, ३१ ६. दायक ६. दायक ६. अपरिणत ६. दायक ५/१/२९, ३९-४२, ६३ ७. उन्मिश्र ७. उन्मिश्र | ७. साधारण ७. उन्मिश्र ५/१/५, ५/१/५७ ८. अपरिणत ८. अपरिणत |८. दायक ८. अपरिणत ५/१/३७, ५/१/७० ९. लिप्त ९. लिप्त ९. लिप्त ९. लिप्त ५/१/३२
१०. छर्दित । १०. छोटित १०. विमिश्र | १०. छर्दित ५/१/२८ • मूलाचार में संहृत दोष के स्थान पर संव्यवहरण तथा अनगारधर्मामृत में साधारण दोष का उल्लेख है। • छर्दित दोष के स्थान पर दिगम्बर परम्परा में छोटित दोष का उल्लेख मिलता है। • उन्मिश्र दोष के स्थान पर अनगारधर्मामृत में विमिश्र तथा मिश्र दोष का उल्लेख मिलता है। परिभोगैषणा : आहार-मंडली
आगमों में मुनि के सामुदायिक जीवन की सात मंडलियों का उल्लेख मिलता है, जिनमें एक आहार-मंडली है। प्राप्त आहार का साधु दो प्रकार से परिभोग करते हैं-१. मंडली में २. एकाकी। ओघनियुक्ति में उल्लेख मिलता है कि मंडली में भोजन करने वाले साधु सभी एक दूसरे की प्रतीक्षा करके एकत्रित होकर आहार करते हैं। प्रत्येक मंडली में कुछ समुद्दिशक होते हैं, जो स्वयं भिक्षा के लिए नहीं जाते लेकिन मंडली में आहार करते हैं, जैसे अति ग्लान, बाल, वृद्ध, आचार्य आदि-ये भिक्षा लाने में असमर्थ होते हैं। इसका कारण है कि शैक्ष भिक्षा-विधि को नहीं जानता, अतिथि और गुरु को सम्मान के कारण भिक्षा में नहीं भेजा जाता, असहुवर्ग अर्थात् राजपुत्र आदि मुनि सुकुमारता के कारण भिक्षा नहीं जा सकते तथा अलब्धिधारी मुनि, जिन्हें अंतराय कर्म के कारण सहजतया आहार नहीं मिलता, वे भी मंडली में आहार करते हैं। इन सब पर कोई एक साधु उपग्रह नहीं करता, सबके सहयोग से कार्य होता है। यह
१, २. मूला ४६२, अनध ५/२८1
गाथाओं में उस दोष को समाहित किया जा सकता है। ३. दशवैकालिक सूत्र में एषणा के प्रायः दोष विकीर्ण ४. पंव ३४३ ।
रूप से मिलते हैं। लिप्त नाम से दोष का उल्लेख नहीं ५. ओनि ५२२। है लेकिन पुरःकर्म और पश्चात् कर्म से सम्बन्धित ६. ओनि ५५३।
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पिंड नियुक्ति
अनुसंधान का विषय है कि पिण्डनिर्युक्तिकार ने मंडली शब्द का प्रयोग क्यों नहीं किया ? दिगम्बर परम्परा साधु एकाकी भिक्षार्थ जाता है। वह पाणिपात्र होता है, जिस घर में मुनि के अभिग्रह पूर्ण होते हैं, १४ मल और बत्तीस अन्तराय से रहित भिक्षा मिलती है, वहीं खड़े-खड़े दिन में एक बार ही भिक्षा ग्रहण करता है। श्वेताम्बर साधु के लिए काष्ठ पात्र में भिक्षा लाकर अपने स्थान पर आहार करने का निर्देश है। भिक्षा लाने के बाद मुनि क्षणभर विश्राम करे, जिससे श्रमजन्य विषमता और धातुक्षोभ शान्त हो जाए ।' विश्राम के समय कायोत्सर्ग में वह यह चिन्तन करे कि मेरे द्वारा आनीत आहार पर आचार्य या मुनि अनुग्रह करे तो मैं निहाल हो जाऊं, धन्य हो जाऊं और मैं यह मानूं कि उन्होंने मुझे भव-सागर से तार दिया है ।" चिन्तन के पश्चात् वह आचार्य को निवेदन करे कि मेरे द्वारा आनीत आहार अतिथि, तपस्वी, ग्लान, वृद्ध या शैक्ष को देने की कृपा करें। वे उस निमंत्रण को स्वीकार करें अथवा न करें, पर परिणामविशुद्धि से निमंत्रण देने वाले की चित्त शुद्धि और विपुल निर्जरा होती है तथा तद्गत ज्ञानादि का लाभ होता है। आगम - साहित्य में प्राप्त आहार के संविभाग पर बहुत जोर दिया गया है। असंविभागी मोक्ष का अधिकारी नहीं हो सकता ।" यदि मुनि आहार लेते समय लोभ के कारण उस वस्तु को किसी अन्य वस्तु से छिपाता है तो इस स्वादवृत्ति और रसलोलुपता के कारण वह सघन कर्मों का बंधन करता है। आत्म-तुष्टि के अभाव में उसके लिए निर्वाण भी दुर्लभ हो जाता है।
आचार्य तिलक ने भिक्षाचर्या को दो शब्दों से निष्पन्न मानकर दो भिन्न अर्थों में इसको व्याख्यायित किया है। प्रथम 'भिक्षा' शब्द घूमकर शुद्ध एषणीय भिक्षा लाने के संदर्भ में तथा द्वितीय 'चर्या' शब्द भक्षण के अर्थ में स्वीकृत किया है, वैसे भी 'चर' धातु भक्षण अर्थ में भी प्रयुक्त होती है अतः परिभोगैषणा के समय लगने वाले दोष भी भिक्षाचर्या के अन्तर्गत आते हैं। ये ग्रासैषणा या मांडलिक दोष भी कहलाते हैं । उद्गम और उत्पादन से शुद्ध आहार लेकर भी यदि परिभोग के समय विवेक या अनासक्ति नहीं रहती तो वह शुद्ध आहार भी दोष सहित हो जाता है । दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है कि मुनि तिक्त, कटु, कसैला, खट्टा-मीठा या नमकीन, जो भी आहार उपलब्ध हो, उसे मधुघृत की भांति खाए । वह व्रण पर लेप तथा शकट-चक्र पर अभ्यंग की भांति संयम - भार का सम्यक् वहन करने के लिए आहार करे, न कि आस्वाद या आसक्ति के लिए । आगमों में उल्लेख मिलता है कि मुनि स्वाद के लिए आहार को बांयी दाढ़ा से दाहिनी दाढ़ा में न ले जाए। जैसे सांप बिल में सीधा प्रवेश करता है, वैसे ही अनासक्त भाव से आहार को गले से नीचे उतार दे।"
१. दश ५/१/९३, ओघनियुक्ति भाष्य (२७४) के अनुसार भिक्षा लाकर मुनि ८ उच्छ्वास तक नमस्कार महामंत्र का जप करे। २. दश ५ / १ / ९४ /
३. पंव ३४६, ओनि ५२३-५२५ ।
४. मवृ प. ७५ ।
५. दश ९/२/२२ ।
६. दश ५/२/३१, ३२ ।
७. दश ५/१/९७ ।
८. ओनि ५४६ ।
९. आ ८ / १०१ ; से भिक्खू वा भिक्खुणी वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारेमाणे णो वामाओ हणुयाओ दाहिणं हणुयं संचारेज्जा आसाएमाणे दाहिणाओ वा हणुयाओ वामं हणुयं णो संचारेज्जा ।
१०. दशअचू पृ. ८ ; जहा सप्पो सर त्ति बिलं पविसति तहा.... ।
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पिण्डनिर्युक्ति : एक पर्यवेक्षण
परिभोग की विधि
ओघनियुक्ति एवं उसके भाष्य में परिभोग के लिए पात्र से कवल ग्रहण करने एवं मुख में कवलप्रक्षेप के संदर्भ में मनोवैज्ञानिक, व्यावहारिक और मार्मिक विवेचन प्रस्तुत किया गया है। पात्र से कवल ग्रहण करने में पशु-पक्षी की उपमा से आहार करने वाले की मनोवृत्ति का सजीव वर्णन किया गया है। अविधि भुक्त में नियुक्तिकार ने काक और श्रृंगाल का उदाहरण दिया है, जैसे काक गोबर में छिपे अनाज
दानों को खा लेता है, शेष को चारों ओर बिखेर देता है तथा खाते समय भी इधर-उधर देखता रहता है, वैसे ही मनोज्ञ आहार करना, गिराते हुए आहार करना या इधर-उधर दूसरे के पात्र में झांकते हुए आहार करना अवधि भुक्त है । शृगाल अपने भोज्य के भिन्न-भिन्न भागों को खाता है, क्रमशः नहीं खाता, वैसे ही ओदन आदि यदि सुरभित तीमन से मिला हुआ हो तो ओदन को छोड़कर तीमन को पीना अविधिभुक्त है । उत्कृष्ट - अनुत्कृष्ट द्रव्यों को समीकृत करके खाना विधि सम्मत है। सिंह के समान अपने भोज्य को खण्ड-खण्ड करके प्रतर रूप में क्रमशः खाना विधिभुक्त है । जो साधु अविधिपूर्वक भोजन करता है, उसको आचार्य कल्याणक प्रायश्चित्त देते हैं, जिससे आगे वह प्रसंग पुनरुक्त न हो।
मुख में कवल - प्रक्षेप की विधि का भगवती सूत्र में जो वर्णन है, वह ओघनियुक्ति भाष्य में भी मिलता है। मुख में कवल डालते समय अधिक मिर्च आदि हो तो मुनि सूं-सूं का शब्द न करे, भोजन चबाते समय चप-चप की आवाज न करे, भोजन न अधिक शीघ्रता से करे और न अधिक विलम्ब से । भिक्षु खाते समय भोजन को नीचे गिराते हुए न खाए । दशवैकालिक सूत्र का 'जयं अपरिसाडयं " का उल्लेख इसी ओर संकेत करता है। आहार के पश्चात् मुनि पात्र में लगे लेप या खाद्य-पदार्थ को अंगुलि से पोंछकर खाए। पदार्थ चाहे सुगंध युक्त हो या दुर्गन्ध युक्त, वह अंश मात्र भी जूठा न छोड़े।' ओघनियुक्ति में इन सब बातों के साथ मन, वचन और काया से उपयुक्त विशेषण का प्रयोग भी हुआ है अर्थात् आहार के समय मुनि मन से विकृत चिन्तन न करे, वचन से आहार के प्रति प्रतिक्रिया व्यक्त न करे तथा काया से यह प्रकट न करे कि ऐसे विकृत आहार को कौन खाएगा ?" इस प्रकार आहार करने वाले के परिभोग-विशुद्धि होती है।
परिभोगैषणा या मांडलिक दोष
पिण्डनिर्युक्ति में द्रव्य ग्रासैषणा के संदर्भ में मच्छीमार तथा एक मत्स्य की मार्मिक कथा का निर्देश है, जिसमें मत्स्य स्वयं अपने मुख से मच्छीमार को अपनी कथा कहता है कि मैं तीन बार बलाका
मुख में जाकर भी छूट गया। मच्छीमार के जाल में २१ बार फंसने पर भी उससे कुशलतापूर्वक बाहर निकल गया। एक बार जाल में पकड़े जाने पर भी मैं धागे में पिरोने के समय उसके चंगुल से मुक्त हो गया ।
१. ओभा २९६-९८ ।
२. ओभा २८८ ।
३. ओभा ३०० ।
४. भग ७ / २५ ।
५. दश ५/१/९६ |
६. दश ५ / २ / १ ।
७. ओभा २८९, टी प. १८७ ।
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पिंडनियुक्ति
मुझ शक्तिसम्पन्न को तुम पकड़ना चाहते हो, यह तुम्हारी निर्लज्जता है। इस दृष्टान्त का उपनय जीतकल्प भाष्य तथा पिण्डनियुक्ति की मलयगिरि टीका में मिलता है। यहां मत्स्य के समान साधु, मांस स्थानीय भक्तपान तथा मात्स्यिक स्थानीय राग और द्वेष हैं। जिस प्रकार अनेक उपायों के द्वारा भी वह मत्स्य पकड़ा नहीं गया, वैसे ही आत्मानुशासन का अभ्यास करते हुए साधु को चिन्तन करना चाहिए कि जब भिक्षाचर्या के ४२ दोषों से मैं छला नहीं गया, फिर आहार-परिभोग के समय राग-द्वेष के माध्यम से मेरी आत्मा नहीं छली जानी चाहिए। इस भावना से स्वयं को भावित करना भाव ग्रासैषणा है। यह संकल्प साधु को अनुकूल-प्रतिकूल खाद्य की उपस्थिति में भी अनासक्त और तटस्थ रखता है।
प्रस्तुत प्रसंग में ओघनियुक्ति में निर्दिष्ट ससार और असार चतुर्भंगी को प्रस्तुत करना अप्रासंगिक नहीं होगा। जो मुनि यह संकल्प करता है कि मैं अन्त-प्रान्त और रूखा-सूखा आहार करूंगा, यदि वह भोजन के समय भी वैसा ही आहार करता है तो वह ससार उपविष्ट और ससार उत्थित है अर्थात् वह शुभपरिणामों से भोजन-मंडली में प्रविष्ट होता है तथा शुभ परिणामों से वैसा ही आहार करता है, यह प्रथम भंग है। दूसरे भंग में मुनि शुभ संकल्प से भोजन-मंडली में उपविष्ट होता है लेकिन प्रतिपतित परिणामों के कारण खाने में अनासक्त नहीं रह पाता अत: वह ससार उपविष्ट तथा असार उत्थित होता है। तीसरे भंग में भोजन के समय आसक्त परिणामों से उपविष्ट होता है लेकिन भोजन करते समय अन्त-प्रान्त भोजन स्वल्प मात्रा में ग्रहण करता है, वह असार उपविष्ट तथा ससार उत्थित है तथा चौथे प्रकार का साधु असार उपविष्ट और असार उत्थित होता है, वह दोनों दृष्टियों से आसक्त और कमजोर मनोबल वाला होता है। यहां नियुक्तिकार ने समुद्र वणिक् के उदाहरण का भी निर्देश दिया है, जो जहाज को माल से भरकर ले गया
और सुवर्ण, हिरण्य आदि भरकर लौटा अर्थात् वह ससार गया और ससार लौटा, इसी प्रकार चतुर्भंगी के अन्य भंगों को समझना चाहिए।
पिण्डनियुक्ति में जहां ग्रासैषणा के पांच दोषों का उल्लेख हुआ है, वहां प्रमाणातिरेक के स्थान पर अतिबहुक तथा कारण दोष के स्थान पर अनर्थ (बिना प्रयोजन) शब्द का प्रयोग हुआ है। अनगारधर्मामृत में कारण दोष के अतिरिक्त तीन दोषों का ही उल्लेख हुआ है, वहां दोषों के क्रम में भी अंतर है।
भगवती सूत्र में ग्रासैषणा या मांडलिक दोष के रूप में अंगार आदि दोषों का उल्लेख नहीं मिलता।
१. जीभा १६०६, मवृ प. १७१।।
आहार के प्रति द्वेष प्रकट करता है, वह साधु असार होता २. ओनि ५४४, ५४५, पिनि ३०२/५, जीभा १६०७, १६०८। है क्योंकि उसका दृष्टिकोण ज्ञान, दर्शन और चारित्र से ३. ओनि ५६७-७० ; उद्गम, उत्पादना और एषणा के रहित होता है। दोष से रहित साधारण आहार को जो राग द्वेष रहित ४. ओनि ५७१, ५७२, टी प. १८७, १८८। अंत:करण से ग्रहण करता है, वह साधु ससार होता है ५. पिनि ३०३/१ ;संजोयणमइबहुयं, इंगाल सधूमगं अणट्ठाए। क्योंकि उसका दृष्टिकोण ज्ञान, दर्शन और चारित्र से ६. अनध ५/३७। युक्त है तथा जो उद्गम आदि दोषों से रहित साधारण
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
१२१ वहां सातवें शतक में आहार के प्रसंग में सामान्य रूप से अंगार, धूम और संयोजना का वर्णन है। उसके बाद आहार और पानी से सम्बन्धित क्षेत्रातिक्रान्त, कालातिक्रान्त और मार्गातिक्रान्त के साथ प्रमाणातिक्रान्त दोष का वर्णन है। वहां कारण दोष का उल्लेख नहीं हुआ है। इस प्रसंग से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि भगवती सूत्र की रचना तक ग्रासैषणा या मांडलिक दोषों के रूप में इनका विकास नहीं हुआ था। संयोजना
स्वाद और रस-उत्कर्ष बढ़ाने हेतु एषणीय और प्रासुक खाद्य-पदार्थ में अन्य खाद्य-वस्तु का संयोग करना संयोजना दोष है। संयोजना दो प्रकार की होती है-बाह्य और आन्तरिक।
गृहस्थ के घर किसी वस्तु में अनुकूल द्रव्यों का संयोग करना बाह्य संयोजना तथा उपाश्रय में भोजन करते समय जो संयोजना की जाती है, वह आंतरिक संयोजना है। यह तीन प्रकार से की जाती है-पात्र में, कवल में तथा मुंह में । पंचवस्तु में आभ्यन्तर संयोजना के दो ही भेद किए हैं-पात्र में तथा मुख में।
पिण्डनियुक्ति में चूंकि आहार एवं भिक्षाचर्या का वर्णन है अतः उन्होंने भक्तपान विषयक संयोजना का ही वर्णन किया है लेकिन प्रवचनसारोद्धार में उपकरण विषयक बाह्य और आंतरिक संयोजना का भी उल्लेख है। टीकाकार ने उपकरणविषयक बाह्य संयोजना को स्पष्ट करते हुए कहा है कि किसी साधु को कहीं से सुंदर चोलपट्ट मिल गया। वह विभूषा के लिए नयी पछेवड़ी मांगकर वसति के बाहर पहनता है, वह उपकरण विषयक बाह्य संयोजना है। यदि वसति के अंदर ऐसा करता है तो आंतरिक उपकरण संयोजना है।
पात्र में रखी वस्तु में घी या मिर्च-मसाला आदि अन्य द्रव्य का मिश्रण करना पात्रविषयक संयोजना है। हाथ में स्थित कवल की स्वादवृद्धि हेतु उसमें शर्करा या अन्य द्रव्य का मिश्रण कवल विषयक संयोजना है तथा मुंह में कवल लेने के पश्चात् उसकी स्वादवृद्धि हेतु किसी अन्य द्रव्य को मुख में डालना मुख विषयक संयोजना है। आसक्ति और स्वादवश संयोजना करने वाला मुनि राग-द्वेष के निमित्त से अपनी आत्मा के साथ कर्मों का संयोग करता है। कर्मों का संयोग अनंत दु:ख का कारण बनता है।
_____ संयोजना दोष के अपवाद बताते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि यदि पर्याप्त खाने के बाद भी खाद्य सामग्री बच जाए तो अवशेष सामग्री का उपभोग करने के लिए संयोजना अनुज्ञात है। उदाहरण स्वरूप भोजन की तृप्ति के बाद बचे हुए घी को बिना रोटी और शर्करा के खाना संभव नहीं है, उसका परिष्ठापन
१. भग ७/२२॥ २. भग ७/२२, पिनि ३०६। ३. पिनि ३०५, जीभा १६१३ ।
४. पंव ३५९। ५. पिनि ३०५, मवृ प. १७२, बृभाटी पृ. २३९ । ६. पिनि ३०७, जीभा १६१६, १६१७।
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पिंडनियुक्ति भी उचित नहीं है क्योंकि परिष्ठापन से अनेक चींटी आदि जीवों का व्याघात संभव है अतः बचे हुए द्रव्य में खांड आदि की संयोजना विहित है। इसी प्रकार ग्लान के लिए, जिसको भोजन अरुचिकर लगता है, राजपुत्र आदि सुखोचित साधु के लिए तथा अपरिणत शैक्ष आदि के लिए संयोजना विहित है।' प्रमाणातिरेक दोष
मुनि के लिए महावीर ने एक विशेषण का प्रयोग किया है-मायण्णे-अर्थात् आहार की मात्रा को जानने वाला। जिस आहार से वर्तमान और भविष्यकाल में धृति-मानसिक स्वास्थ्य, बलशारीरिक बल और संयमयोगों की हानि न हो, वह प्रमाणयुक्त आहार है। इससे अधिक आहार साधु के लिए दुःखकारक होता है। आसक्ति वश या अतृप्तिवश तीन बार से अधिक बार अति मात्रा में आहार करना प्रमाणातिरेक दोष है। भगवती सूत्र के अनुसार ३२ कवल से अधिक आहार करना प्रमाणातिक्रान्त आहार है।
नियुक्तिकार और भाष्यकार ने हित, मित और अल्प आहार को प्रमाण युक्त आहार माना है। हितकर आहार को इहलोक और परलोक से जोड़कर भाष्यकार ने एक चतुभंगी प्रस्तुत की है
• इस लोक में हितकर, परलोक में नहीं। • परलोक में हितकर, इस लोक में नहीं। • इस लोक में हितकर, परलोक में भी हितकर। • न इस लोक में हितकर, न परलोक में।
अनेषणीय खीर, दही, गुड़ आदि अविरुद्ध पदार्थों को राग द्वेष युक्त भाव से खाना इस लोक में हितकर है, परलोक में नहीं। एषणा से शुद्ध लेकिन अमनोज्ञ आहार समतापूर्वक खाना परलोक के लिए हितकर है, इस लोक के लिए नहीं। पथ्य और एषणा से शुद्ध आहार दोनों लोकों के लिए हितकर है तथा अपथ्य और अनेषणीय आहार राग-द्वेष युक्त होकर खाना इहलोक और परलोक-दोनों के लिए अहितकर है।
नियुक्तिकार ने मिताहार का वैज्ञानिक ढंग से निरूपण किया है। सामान्यतः व्यक्ति कल्पना से उदर के छह भाग करके तीन भाग आहार के लिए, दो भाग पानी तथा छठा भाग वायु-संचरण के लिए खाली
१.पिनि ३०९।
३. जीभा १६२८, १६२९ ; २. (क) बृभा ५८५२
__अहवा अतिप्पमाणो, आतुरभूतो तु भुंजए जंतु। पडुपन्नऽणागते वा, संजमजोगाण जेण परिहाणी। तं होति अतिपमाणं....
ण वि जायति तं जाणसु, साहुस्स पमाणमाहारे॥ ४. भग ७/२४। (ख) पिंप्र ९५ ;
५. पिनि ३१३, जीभा १६३२ । धिइ-बल-संजमजोगा, जेण ण हायंति संपइ पए वा। ६. जीभा १६३३-३७ । तं आहारपमाणं, जइस्स सेसं किलेसफलं॥
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
१२३ रखे। मूलाचार एवं आयुर्वेद के ग्रंथों के अनुसार उदर को चार भागों में विभक्त करके दो भाग आहार से, एक भाग पानी तथा चौथा भाग वायु-संचरण के लिए खाली रखा जाए, ऐसा उल्लेख मिलता है।
. ऋतु के अनुसार भी नियुक्तिकार ने आहार के प्रमाण का निर्देश दिया है। शीतकाल में पानी के लिए एक भाग तथा आहार के लिए चार भाग कल्पित हैं। मध्यम शीतकाल में दो भाग पानी तथा तीन भाग आहार, उष्ण काल में दो भाग पानी तथा तीन भाग आहार तथा अति उष्ण काल में तीन भाग पानी तथा दो भाग आहार-यह प्रमाण है। छठा भाग सर्वत्र वायु-संचरण के लिए विहित है। इनमें पानी का एक भाग तथा भोजन के दो भाग स्थिर हैं, उनमें हानि-वृद्धि नहीं होती। अति उष्णकाल में पानी के दो भाग तथा अति शीतकाल में आहार के दो भाग बढ़ जाते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि अति उष्ण काल में भोजन के दो भाग कम हो जाते हैं तथा अति शीतकाल में पानी के दो भाग कम हो जाते हैं। छह भागों में तीसरा और चौथा भाग अस्थिर है। पानी विषयक पांचवां, वायु विषयक छठा तथा आहार विषयक पहला और दूसरा भाग-ये चारों भाग अवस्थित हैं। इस विधि से वायु और पानी के लिए पेट खाली रखना मिताहार है। इससे भी कम खाना अल्प आहार है। प्रमाणातिरेक दोष पांच प्रकार से घटित होता हैप्रकाम आहार-प्रमाणातिरेक आहार का प्रथम भेद है-प्रकाम आहार। उत्तराध्ययन सूत्र में उल्लेख मिलता है कि जैसे प्रचण्ड पवन के साथ प्रचुर ईंधन वाले वन में आग लगने पर दावाग्नि जल्दी से शान्त नहीं होती, वैसे ही प्रकामभोजी की इंद्रियाग्नि भी कभी शान्त नहीं होती। पुरुषों के लिए बत्तीस तथा स्त्रियों के लिए अट्ठाईस कवल आहार प्रमाणोपेत है। नपुंसक के लिए २४ कवल प्रमाण है। उससे अधिक आहार ग्रहण करना प्रकाम आहार है। व्यवहारभाष्य में बत्तीस कवल आहार को प्रकाम आहार माना है। वहां कवल का प्रमाण व्यावहारिक और बुद्धिगम्य रूप से व्याख्यात है। उसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के अपने आहार की मात्रा का जो बत्तीसवां भाग है, वह कुक्कुटि-उदर-प्रमाण जानना चाहिए। इसका दूसरा वैकल्पिक अर्थ शान्त्याचार्य की टीका में प्राप्त होता है। अंडक का अर्थ होता है-मुख, सहज रूप से मुंह अविकृत किए बिना जितना आहार उसमें डाला जा सके, वह प्रमाणोपेत कवल है। हरिवंश पुराण में कवल-प्रमाण बताते हुए कहा गया है कि एक हजार चावल एक कवल प्रमाण जितना होता है। कवल-प्रमाण के लिए आंवले के आकार का भी उल्लेख मिलता है। वैसे सबकी शरीर-रचना और पाचन-शक्ति समान नहीं
१. पिनि ३१३/२। २. पिनि ३१३/३, ४। ३. पिनि ३१३/५, ६, विस्तार हेतु देखें मवृ प. १७५ । ४. जीभा १६३८-४२। ५. उ ३२/११। ६. जीभा १६२२,१६२३ ।
७. व्यभा ३६८८। ८. व्यभा ३६८२;
निययाहारस्स सया, बत्तीसइमो उ जो भवे भागो।
तं कुक्कुडिप्पमाणं, नातव्वं बुद्धिमंतेहिं॥ ९. उशांवृ प६०४। १०. हपु११/१२५।
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पिंडनियुक्ति होती। शारीरिक और मानसिक श्रम के आधार पर भी आहार की मात्रा में अंतर आता है। निकाम आहार-प्रतिदिन प्रमाण से अधिक आहार करना निकाम आहार है। मनुस्मृति के अनुसार बहुत अधिक भोजन स्वास्थ्य तथा दीर्घायु में बाधक, स्वर्गप्राप्ति एवं पुण्य में अवरोधक तथा इस लोक में प्रद्वेष को बढ़ाने वाला होता है। प्रणीत आहार-गरिष्ठ अथवा अतिस्निग्ध आहार प्रणीत कहलाता है, जैसे-घेवर, स्नेह प्रक्षित मंडक आदि। अधिक प्रणीत रस युक्त आहार व्यक्ति को वैसे ही उद्दीप्त और विनष्ट कर देता है, जैसे स्वादु फल वाले वृक्ष को पक्षी। अतिबहुक आहार-अपनी भूख से बहुत अधिक भोजन करना अतिबहुक है। अतिबहुशः आहार-दिन में अनेक बार या तीन बार से अधिक भोजन करना अतिबहुशः है। स-अंगार दोष
राग, आसक्ति, गृद्धि तथा मूर्छा से प्रासुक एषणीय आहार-पानी की प्रशंसा करते हुए आहार करना अंगार दोष है। जैसे अग्नि से जलने पर धूमरहित होने पर कोयला अंगारा बन जाता है, वैसे ही राग रूपी इंधन से जलने पर जो चारित्र को नियमत: अंगारे के समान दग्ध कर देता है, वह अंगार दोष है। ग्रंथकार कहते हैं कि प्रासुक आहार भी यदि आसक्तिवश खाया जाता है तो वह चारित्र को दग्ध कर देता
स-धूम दोष
नीरस या अप्रिय आहार की निंदा करते हुए उसे द्वेष, क्रोध या क्लेश जनित परिणामों से खाना धूम दोष है। जैसे धूम से कलुषित चित्रकर्म सुशोभित नहीं होता, वैसे ही धूम दोष से युक्त मलिन चारित्र भी सुशोभित नहीं होता। जलती हुई द्वेषाग्नि अप्रीति के धूम से चारित्र को धूमिल बनाती हुई तब तक जलती रहती है, जब तक उसे अंगारे के समान नहीं बना देती। कारण दोष
स्वाद के लिए आहार करना मुनि के लिए निषिद्ध है। मूलाचार के अनुसार मुनि को बल, आयु, तेज-वृद्धि आदि के लिए नहीं अपितु ज्ञान, संयम और ध्यान की साधना के लिए खाना चाहिए। क्षुधा आदि छह कारणों के बिना आहार करना कारण दोष है तथा आहार-त्याग के छह कारण उपस्थित होने पर
१. मनु २/५७। २. बृभा ६००९; नेहागाढं कुसणं, तु एवमाई पणीयं तु। ३. उ ३२/१०। ४. भग ७/२२, पिनि ३१४, मूला ४७७ । ५. जीभा १६४६। ६. पिनि ३१४/१, २।
७. पिनि ३१४, मूला ४७७, भग ७/२२ । ८. जीभा १६५०;
जह वावि चित्तकम्म, धूमेणोरत्तयं ण सोभइ उ।
तह धूमदोसरत्तं, चरणं पि ण सोभए मइलं॥ ९. पिनि ३१४/३। १०. मूला ४८१।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
१२५ भी आहार का परित्याग न करना भी कारण दोष है। अनगारधर्मामृत में कारण दोष का उल्लेख नहीं है। पिण्डनियुक्ति में मुनि के लिए आहार के छह प्रयोजन निर्दिष्ट हैं१. वेदना-क्षुधा से बड़ी कोई वेदना नहीं होती अतः इसे शान्त करने के लिए आहार करना चाहिए। २. वैयावृत्त्य-भूखा व्यक्ति सेवा नहीं कर सकता अतः ग्लान, वृद्ध, तपस्वी आदि की सम्यक् सेवा हेतु
___ आहार करना चाहिए। ३. ईर्यापथ-शुद्धि-बुभुक्षित व्यक्ति ईर्यापथ के प्रति जागरूक नहीं रह सकता अतः ईर्यापथ तथा षडावश्यक
आदि अनुष्ठानों को सम्यक् रूप से करने के लिए भोजन ग्रहण करना चाहिए। ४. संयम-प्रेक्षा आदि संयम की विधिवत् अनुपालना के लिए आहार ग्रहण करना चाहिए। ५. प्राणप्रत्यय-बिना आहार के शारीरिक बल क्षीण न हो अतः प्राण-धारण हेतु आहार करना चाहिए। ६. धर्मचिन्तन-अनाहार की स्थिति में साधु ज्ञान-परावर्तन तथा अनुप्रेक्षा आदि का प्रयोग करने में सक्षम
नहीं रहता अत: आहार करना चाहिए। आहार न करने के हेतु
आहार करने के छह कारणों की भांति आगमों में आहार न करने के भी छह कारणों का उल्लेख मिलता है। पिण्डनियुक्ति में जिन कारणों का उल्लेख है, उन्हीं का संकेत उत्तराध्ययन, स्थानांग आदि ग्रंथों में हुआ है१. आतंक-ज्वर आदि आकस्मिक बीमारी के उत्पन्न होने पर उसके निवारण हेतु। २. उपसर्ग-तितिक्षा-राजा आदि का उपसर्ग उत्पन्न होने पर। ३. ब्रह्मचर्य-सुरक्षा-ब्रह्मचर्य की नव गुप्तियों की रक्षा हेतु। ४. प्राणि-दया-वर्षा तथा ओस आदि में प्राणियों के प्रति दया करने के लिए। ५. तप हेतु-उपवास से लेकर पाण्मासिक तप के लिए। ६. शरीर-व्युत्सर्ग-शरीर का व्युत्सर्ग करने के लिए संलेखना या मारणांतिक अनशन करने हेतु।' परिभोगैषणा के अन्य दोष
भगवती सूत्र में मुनि की आहारचर्या के संदर्भ में क्षेत्रातिक्रान्त, कालातिक्रान्त और मार्गातिक्रान्त आहार का परिभोग करने का निषेध किया गया है। वहां सूर्योदय से पहले आहार ग्रहण करके सूर्योदय के बाद परिभोग करना क्षेत्रातिक्रान्त दोष है। प्रथम प्रहर में गृहीत आहार को अंतिम प्रहर में परिभोग करना
१. पिनि ३१८, स्था ६/४१, उ २६/३२,
प्रसा ७३७, ओनि ५८०। २. उ २६/३४, स्था ६/४२, पिनि ३२०, प्रसा ७३८ । ३. बृहत्कल्प, निशीथ आदि ग्रंथों तथा उनके भाष्यों में
कालातिक्रान्त और क्षेत्रातिक्रान्त-इन दो शब्दों का ही
प्रयोग हुआ है, वहां मार्गातिक्रान्त शब्द का प्रयोग नहीं है। भगवती के क्षेत्रातिक्रान्त शब्द की व्याख्या विमर्शनीय है क्योंकि वहां क्षेत्र का नहीं, अपितु काल का सम्बन्ध है। इस संदर्भ में टीकाकार अभयदेव सूरि एवं आचार्य महाप्रज्ञ ने भगवती भाष्य भा. २ पृ. ३३६ में विस्तार से चर्चा की है।
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पिंडनियुक्ति कालातिक्रान्त दोष है। साधु उस आहार को तीसरी प्रहर तक परिभोग कर सकता है। बाद में कालातिक्रान्त होने से वह आहार परिभोग के लिए अकल्प्य हो जाता है, उसे परिष्ठापित करना पड़ता है। एषणीय आहार को आधा योजन (दो कोश) से अधिक दूर ले जाकर परिभोग करना मार्गातिक्रान्त दोष है। क्षेत्रातिक्रान्त आहार का परिभोग करने पर चार गुरु (उपवास) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। इससे आज्ञाभंग, संयमविराधना आदि दोष भी उत्पन्न होते हैं। क्षेत्रातिक्रान्त आहार का परिभोग करने से होने वाले दोषों का भाष्य-साहित्य में विस्तार से विवेचन किया गया है। भिक्षाचर्या के नियमों में परिवर्तन
___ महावीर से लेकर आज तक भिक्षाचर्या सम्बन्धी नियमों में ऐतिहासिक दृष्टि से क्या-क्या परिवर्तन हुए, कितने नियम कृत्कृत्य हुए तथा कितने नए नियम बने, यह ऐतिहासिक दृष्टि से शोध का विषय है। पिण्डनियुक्ति को पढ़ने से स्पष्ट ज्ञात होता है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार साधु की आचार-संहिता में समय के अन्तराल में बहुत परिवर्तन आया है। वस्त्र धोने से पूर्व साधु के लिए जो सात दिन की विश्रमणा-विधि का उल्लेख है, उसकी आज न तो कल्पना की जा सकती है और न ही वैसी परिस्थितियां हैं। उदाहरणस्वरूप मुनि दिन में कितनी बार भिक्षार्थ जाए, इसी नियम को देखें तो उत्तराध्ययन तक की परम्परा कहती है कि मुनि दिन के तीसरे प्रहर में भिक्षार्थ जाए क्योंकि मुनि के लिए दिन में एक समय ही आहार करने का विधान था। दशवैकालिक सूत्र, जो मुनि-आचार का प्रतिनिधि ग्रंथ है, उसमें इस बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता। 'एगभत्तं च भोयणं' का उल्लेख वहां मिलता है फिर भी यह संभावना की जा सकती है कि शय्यंभव का पुत्र मुनि मनक जो उम्र में बहुत छोटा था, उस समय उन्होंने आपवादिक रूप में शैक्ष के लिए अन्य समय भी भिक्षा का विधान किया होगा तथा भिक्षाचर्या के समय में भी परिवर्तन हुआ होगा तभी उन्होंने इस बारे में कोई उल्लेख नहीं किया।
___ सामान्यतः साधु गृहस्थ के घर भोजन नहीं कर सकता लेकिन दशवैकालिक ५/१/८२, ८३ में उल्लिखित कथ्य इस ओर संकेत करता है कि भिक्षा करते समय यदि साधु की इच्छा हो जाए तो वह ऊपर से छाए हुए, चारों ओर से संवृत और प्रासुक स्थान में बैठकर आहार कर सकता है। आचार्य शय्यंभव को यह नियम क्यों बनाना पड़ा, यह भी ऐतिहासिक दृष्टि से खोज का विषय है।
व्याख्या-साहित्य के अनुसार मुनि को भिक्षार्थ अकेले नहीं अपितु दो मुनियों के साथ जाना चाहिए। अकेले मुनि के समक्ष निम्न उपसर्ग आ सकते हैं-स्त्री जनित उपसर्ग, पशु जनित उपसर्ग,
१. प्रसा८१३। २. भग ७/२४। ३. बुभा५२८७; परमद्धजोयणाओ, उज्जाणपरेण चउगुरूहोति।
४. निभा ४१६८। ५. बृभा ५२८८, निभा ४१६९, ४१७० चू पृ. ३५६ ।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
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प्रत्यनीक कृत उपसर्ग, भिक्षा की अविशोधि तथा महाव्रतों का उपघात आदि।
ओघनियुक्ति में एकाकी भिक्षार्थ जाने के मनोवैज्ञानिक कारण बताए गए हैं• जिसे अपनी लब्धि का गर्व है। • जो गृहस्थ के घर धर्मकथा शुरू कर देता है। (अत: उसके साथ कोई जाना नहीं चाहता।) • जो मायावी, आलसी और रसलोलुप होता है। • जो अनेषणीय आहार ग्रहण करने की इच्छा करता है। • दुर्भिक्ष में जब भिक्षा की दुर्लभता होती है।
लेकिन वर्तमान में साध्वियां दो तथा साधु एकाकी भिक्षार्थ जाते हैं। भिक्षाचर्या के नियमों में कब, कैसे, क्यों परिवर्तन हुआ, उसकी पृष्ठभूमि क्या रही, यह स्वतंत्र रूप से शोध का विषय है। भिक्षा के समय शारीरिक और मानसिक स्थिति
भिक्षार्थ जाते समय तथा भिक्षा ग्रहण करते समय केवल ४२ दोषों को टालना ही पर्याप्त नहीं होता, इसके साथ और भी अनेक छोटी-छोटी बातों का उल्लेख दशवैकालिक के पांचवें अध्ययन में विस्तार से मिलता है। आचार्य हरिभद्र ने स्पष्ट लिखा है कि ईर्यासमिति, हरियाली का वर्जन आदि नियमों का उपयोग रखने वाला मुनि ही शुद्ध पिण्ड की गवेषणा कर सकता है। भिक्षा के समय साधु की शारीरिक और मानसिक स्थिति कैसी होनी चाहिए, इसका दशवैकालिक सूत्र में मनोवैज्ञानिक चित्रण प्रस्तुत है। भिक्षार्थ जाने वाले मुनि का चित्त अनुद्विग्न तथा विक्षेप रहित होना चाहिए। मानसिक त्वरा करने वाला भिक्षु न ईर्यासमिति का शोधन कर सकता है और न ही एषणा समिति के प्रति जागरूक रह सकता है अतः भिक्षु मानसिक दृष्टि से असंभ्रान्त अर्थात् अनाकुलभाव से आहार की गवेषणा करे। आहार करते समय ही नहीं बल्कि भिक्षा करते समय भी मुनि अमूर्छित रहे । यदि भिक्षा के समय चित्तवृत्ति मूर्च्छित और आसक्त होगी तो शुद्ध आहार की गवेषणा नहीं हो सकेगी। नियुक्तिकार ने इस संदर्भ में गोवत्स का उदाहरण दिया है। सेठ की पुत्रवधू अलंकृत और विभूषित होकर गोवत्स को आहार देती है तो भी बछड़ा केवल अपने चारे को खाने में लीन रहता है। वह स्त्री के रूप, रंग या शृंगार की ओर ध्यान नहीं देता, वैसे ही साधु भी इंद्रियविषय में अमूर्च्छित रहता हुआ आहार की गवेषणा करे। इसकी दूसरी व्याख्या यह भी की जा सकती है कि जैसे गाय अच्छी- बुरी घास का भेद किए बिना चरती रहती है, वैसे ही मुनि भी उत्तम और सामान्य कुलों का भेद न करते हुए सामुदानिक भिक्षा ग्रहण करे।
१. ओनि ४१२;
एकाणियस्स दोसा, इत्थी साणे तहेव पडिणीए। भिक्खविसोहि महव्वय तम्हा सबितिज्जए गमणं॥
२. ओनि ४१३, टी प. १५०। ३. पंचा १३/३१। ४. दश ५/१/२ : चरे मंदमणुव्विग्गो अव्वविखत्तेण चेयसा।
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पिंडनियुक्ति शारीरिक दृष्टि से चलते समय मुनि की दृष्टि युग-प्रमाण भूमि पर टिकी रहे। युग का अर्थ हैशरीर-प्रमाण भूमि। युग-प्रमाण की व्याख्या करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ कहते हैं कि यदि चलते समय दृष्टि को बहुत दूर डाला जाए तो सूक्ष्म शरीर वाले जीव दिखाई नहीं देते। यदि दृष्टि को अत्यन्त निकट रखा जाए तो सहसा पैर के नीचे आने वाले जीवों को टाला नहीं जा सकता इसलिए शरीर प्रमाण क्षेत्र देखकर चलने का निर्देश किया गया है। भिक्षा के समय गमन सम्बन्धी दोष का प्रतिक्रमण न करने पर मासलघु (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है।
___ मुनि जीवन में हर पदार्थ याचित होता है। तृण का टुकड़ा भी अयाचित नहीं होताअतः मुनि मानसिक रूप से अदीन होकर भिक्षा ग्रहण करे। भिक्षा मिलने या न मिलने पर विषाद का अनुभव न करे। इस संदर्भ में साधु की मस्तिष्कीय धुलाई करते हुए दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है कि गृहस्थ के घर अनेक मनोज्ञ और सरस खाद्य-पदार्थ हो सकते हैं। पदार्थ सामने दिखाई देने पर भी यदि गृहस्थ वह पदार्थ मुनि को न दे तो मुनि क्रोध या खेद प्रदर्शित न करे। उस समय मुनि यह चिन्तन करे कि यह इसकी इच्छा है दान दे या न दे। यदि दाता थोड़ा दे तो भी उसकी निंदा न करे। अपने स्वाभिमान और आत्मसम्मान को सुरक्षित रखने हेतु इस बात का ध्यान रखे कि यदि अन्य भिक्षाचर गृहस्थ के घर में पहले से प्रवेश किए हुए हों तो भिक्षार्थ उस घर में प्रवेश न करे।' भिक्षाचर्या के दोष सम्बन्धी प्रायश्चित्त
- भगवान् महावीर ने प्रायश्चित्त को बहुत महत्त्व दिया इसीलिए छेद सूत्रों के रूप में स्वतंत्र ग्रंथों की रचना हो गई। भूल या अपराध होने पर महावीर ने दंड का नहीं अपितु प्रायश्चित्त का विधान किया क्योंकि इसमें व्यक्ति स्वयं भूल स्वीकार करके गुरु से प्रायश्चित्त लेता है। दंड और कानून में न अपराधबोध होता है और न ही हृदय-परिवर्तन।
छेदसूत्रों में साधु के द्वारा भिक्षाचर्या में लगने वाले दोषों के प्रायश्चित्तों का विकीर्ण रूप में उल्लेख मिलता है। असंथरण की स्थिति में निशीथ भाष्यकार ने एक विकल्प प्रस्तुत किया है कि भिक्षाचर्या के ४२ दोषों को हृदयपट पर श्रुतज्ञान रूपी कर से लिखकर जिस दोष में अल्पतर प्रायश्चित्त हो, उसका सेवन करना चाहिए। सबसे कम प्रायश्चित्त है-पणग (निर्विगय) तथा सबसे अधिक प्रायश्चित्त है चार गुरु (उपवास) जीतकल्पभाष्य में भिक्षाचर्या में लगने वाले दोषों के प्रायश्चित्त का विस्तार से क्रमबद्ध वर्णन
१. दश ५/१/३: दशवैकालिक के पांचवें पिण्डैषणा अध्ययन
में चलते समय एवं भिक्षा करते समय ध्यान रखने योग्य
अनेक बिन्दुओं का निर्देश किया गया है । २. उ २/२८ ; सव्वं से जाइयं होइ, नत्थि किंचि अजाइयं ।
३. दश ५/२/२६-२८। ४. दश ५/२/१२, १३। ५.निभा ४४५;बायालीसंदोसे, हिययपडे सुतकरेण विरएत्ता।
पणगादी गुरु अंते, पुव्वप्पतरे भयसु दोसे॥
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मिलता है। बृहत्कल्पभाष्य में भी अत्यंत संक्षेप में सांकेतिक रूप में प्रायश्चित्त - विधि का उल्लेख है । निशीथ भाष्य में भी कहीं-कहीं प्रायश्चित्तों का वर्णन है । पिण्डविशुद्धिप्रकरण की टीका में सामूहिक रूप से वर्गीकृत रूप से भिक्षाचर्या सम्बन्धी दोषों के प्रायश्चित्तों का उल्लेख है, वहां मूलकर्म को सबसे अधिक सावद्य माना है।
जैन आचार्यों ने सांकेतिक रूप से चार गुरु, चारलघु, गुरुमास, लघुमास तथा पणग आदि प्रायश्चित्तों का उल्लेख किया है, जिनका प्रायश्चित्त - कर्ता मुनि तप रूप में निर्वाह करता है। यहां भिक्षा सम्बन्धी सभी दोषों से सम्बन्धित प्रायश्चित्त-विधि का वर्णन किया जा रहा है
आधाकर्म – आधाकर्म आहार ग्रहण करने पर चार गुरु का प्रायश्चित्त आता है। इसका तप रूप प्रायश्चित्त उपवास होता है।
औद्देशिक— औद्देशिक के भेद-प्रभेद और उसके प्रायश्चित्त को चार्ट के माध्यम से प्रस्तुत किया जा रहा है
औद्देशिक
उद्देश (मासगुरु)
आदेश समादेश
उद्देश समुद्देश (मासलघु) (मासलघु) (मासलघु) (मासलघु)
ओघ
'
१. बृभा ५३३ - ५४० । २. पिंप्रटी प. ८८, ८९ ।
(मासलघु)
(पुरिमार्ध)
समुद्देश
(मासगुरु)
आदेश
(मासगुरु)
उद्देश
( चार लघुमास )
विभाग
उद्दिष्ट कृत
समादेश
(मासगुरु)
समुद्देश
(चार गुरुमास)
३. जीभा १९१९५ ।
आदेश
समादेश
(चार गुरुमास ) ( चार गुरुमास)
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पिंडनियुक्ति इन प्रायश्चित्तों की तप के रूप में प्रस्तुति देते हुए भाष्यकार कहते हैं कि लधुमास का पुरिमार्ध, गुरुमास का एकाशन, चार लघुमास का आयम्बिल तथा चार गुरुमास का उपवास प्रायश्चित्त होता है। पूतिकर्म-पूतिकर्म के दो भेदों में उपकरणपूति का प्रायश्चित्त मासलघु' (पुरिमार्ध) तथा भक्तपानपूति का प्रायश्चित्त मासगुरु (एकाशन) है। मिश्रजात दोष-मिश्रजात दोष के तीन भेदों में प्रथम यावदर्थिक मिश्र आहार लेने पर चार लघुमास (आयम्बिल) तथा पाखंडिमिश्र तथा साधुमिश्रआहार ग्रहण पर चार गुरु (उपवास) प्रायश्चित्त आता है। स्थापना दोष-स्थापना दोष दो प्रकार का होता है-इत्वरिक स्थापित तथा चिर स्थापित । इत्वरिक स्थापित सम्बन्धी दोष लगने पर पणग-पांच दिन-रात (निर्विगय) तथा चिर स्थापित दोष लगने पर मासलघु (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त आता है। प्राभृतिका दोष-सूक्ष्म प्राभृतिका दोष लगने पर लघुपणग (निर्विगय) तथा बादर प्राभृतिका सम्बन्धी दोष लगने पर चार गुरुमास (उपवास) प्रायश्चित्त आता है। प्रादुष्करण दोष--प्रादुष्करण दोष के अन्तर्गत प्रकटकरण अर्थात् अंधकारपूर्ण स्थान से बाहर प्रकाश में लाने पर मासलघु (पुरिमार्ध) और दीप आदि के द्वारा प्रकाश करने पर चार लघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त आता है। क्रीतकृत दोष-यह दोष चार प्रकार का होता है-१. आत्मद्रव्यक्रीत २. आत्मभावक्रीत ३. परद्रव्यक्रीत ४. परभावक्रीत। इनमें आत्मद्रव्यक्रीत, परद्रव्यक्रीत तथा आत्मभावक्रीत दोष में चारलवु (आयम्बिल) तथा परभावक्रीत में मासलघु (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त आता है। प्रामित्य दोष-लौकिक प्रामित्य सम्बन्धी दोष में चारलघु (आयम्बिल) तथा लोकोत्तर प्रामित्य सम्बन्धी दोष में मासलघु (पुरिमार्ध) का प्रायश्चित्त आता है। परिवर्तित दोष-लौकिक परिवर्तित दोष लगने पर चारलघु (आयम्बिल) तथा लोकोत्तर दोष लगने पर मासलघु (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त आता है। अभ्याहृत दोष-स्वग्राम अनाचीर्ण अभ्याहत दोष लगने पर मासलघु (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त आता है। परग्राम अभ्याहृत जलपथ और स्थलपथ दो प्रकार का होता है। इसमें सप्रत्यवाय अर्थात् दोष बहुल मार्ग में आत्म-विराधना और संयम-विराधना संभव है अतः अपायबहुल मार्ग से अभ्याहत में चारगुरु (उपवास)
१. जीभा १२००-१२०२।
५. जीभा १२१९, १२२० । २. जिस प्रायश्चित्त का जो तप रूप निर्वाह है, उसको उसी ६.जीभा १२२५ ।
प्रायश्चित्त के आगे कोष्ठक में दिया जा रहा है। ७. जीभा १२३९, १२४०। ३. जीभा १२०६, १२०७।
८. जीभा १२४२-४४। ४. जीभा १२१७, १२१८।
९. जीभा १२५१।
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पिण्डनिर्युक्ति : एक पर्यवेक्षण
तथा दोष रहित मार्ग से आहत में चार लघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त आता है ।"
उद्भिन्न दोष – पिहित उद्भिन्न सम्बन्धी दोष में यदि प्रासुक गोबर या कपड़े के मुखबंध को खोलते समय घी या तैल फैल जाता है तो मासलघु (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त आता है। यदि अप्रासुक पृथ्वीकाय या सचित्त वस्तु से लिप्त पिहित को खोलकर दिया जाए तो उसमें षट्काय- विराधना संभव रहती है अत: इस दोष में चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त आता है। इसी प्रकार कपाटोद्भिन्न सम्बन्धी दोष में भी चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। निशीथभाष्य के अनुसार अनंतकाय वनस्पति को उद्भिन्न करने पर चार गुरु (उपवास), परित्त मिश्र वनस्पति को उद्भिन्न करने पर मासलघु (पुरिमार्ध) तथा अनंतमिश्र को उन्न करने पर मासगुरु ( एकासन) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है ।
मालापहृत दोष - उत्कृष्ट माला पहृत दोष लगने पर चार लघु (आयम्बिल) तथा जघन्य मालापहृत दोष में मासलघु (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त आता है ।
आच्छेद्य दोष- आच्छेद्य दोष में प्रभु, स्वामी तथा स्तेनविषयक - इन तीनों प्रकार के दोष लगने पर चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त आता है। "
अनिसृष्ट दोष - अनिसृष्ट (अननुज्ञात) दोष भी तीन प्रकार का होता है - १. साधारण २. चोल्लक ३. जड्डु (हाथी)। इन तीनों प्रकार के अनिसृष्ट दोष में चार लघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त आता है । अध्यवपूरक दोष- यावदर्थिक अध्यवपूरक दोष लगने पर लघुमास (पुरिमार्ध) तथा पाषंडिमिश्र अध्यवतर और साधुमिश्र अध्यवतर में गुरुमास ( एकासन) प्रायश्चित्त आता है ।
उद्गम के १६ दोषों के प्रायश्चित्त कथन के पश्चात् उत्पादना के सोलह दोषों से सम्बन्धित प्रायश्चित्तों का कथन किया जा रहा है
धात्रीपिण्ड - अंकधात्री आदि पांचों प्रकार की धात्री - सम्बन्धी दोष लगने पर चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त आता है । "
दूतीपिण्ड - दौत्यकर्म करके आहार लेने पर चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त आता है ।" निमित्तपिण्ड - निमित्त दोष में अतीत सम्बन्धी निमित्त कहने पर चारलघु (आयम्बिल) तथा वर्तमान और भविष्य विषयक निमित्त कथन करने पर चारगुरु (उपवास) प्रायश्चित्त आता है। १२
१. जीभा १२५४, १२५५ ।
२. जीभा १२५७ ।
३. जीभा १२६४, १२६५ ।
४. जीभा १२६८ ।
५. निचूभा. ४ पृ. १९२; अणंतेसु चउगुरुं, परित्तमीसेसु
मासलहुं, अनंतमीसेसु मासगुरुं ।
६. जीभा १२७२, १२७३ ।
७. जीभा १२७४ ॥
८. जीभा १२७५ ।
९. जीभा १२८५ ।
१०. जीभा १३२४ ।
११. जीभा १३४० ।
१२. जीभा १३४८, १३४९ ।
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पिंडनियुक्ति आजीवपिण्ड-जाति, कुल, गण, कर्म और शिल्प-इन पांच प्रकार के आजीव का प्रयोग करके आहार ग्रहण करने पर चार-चार लघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त आता है। वनीपकपिण्ड-पांच प्रकार के वनीपक (श्रमण, माहण, कृपण, अतिथि और श्वान)-भक्तों के समक्ष उनकी प्रशंसा करके भोजन प्राप्त करने पर प्रत्येक दोष में चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। चिकित्सापिण्ड-चिकित्सापिण्ड दोष दो प्रकार का होता है-सूक्ष्म और बादर । सूक्ष्म-चिकित्सा पिण्ड ग्रहण करने पर मासलघु (पुरिमार्ध) तथा बादर चिकित्सापिण्ड ग्रहण करने पर चार लघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। क्रोधपिण्ड-क्रोधपिण्ड प्राप्त करने पर चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त आता है। मानपिण्ड-मानपिण्ड में भी क्रोधपिण्ड की भांति चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त आता है। मायापिण्ड-मायापिण्ड ग्रहण करने पर मासगुरु (एकासन) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। लोभपिण्ड-लोभपिण्ड ग्रहण करने पर चारगुरु (उपवास) प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। संस्तवपिण्ड-यह चार प्रकार का होता है-१. पूर्वसम्बन्धी संस्तव २. पश्चात्सम्बन्धी संस्तव ३. पूर्ववचन संस्तव तथा ४. पश्चात्वचन संस्तव। इनमें पूर्व और पश्चात्सम्बन्धी संस्तव में यदि स्त्री के साथ संस्तव होता है तो चारगुरु (उपवास) तथा पुरुष के साथ संस्तव होने पर चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त आता है। वचन सम्बन्धी पूर्वसंस्तव और पश्चात्संस्तव भी दो प्रकार का होता है। स्त्री सम्बन्धी वचन संस्तव होने पर मासगुरु (एकासन) तथा पुरुष सम्बन्धी वचन संस्तव होने पर मासलघु (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। विद्या और मंत्र पिण्ड-विद्यापिण्ड और मंत्रपिण्ड प्राप्त करने पर चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। चूर्ण और योगपिण्ड-चूर्णपिण्ड और योगपिण्ड का प्रयोग करने पर साधु को चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। मूलपिण्ड-मूलपिण्ड दो प्रकार का होता है-गर्भाधान और गर्भ-परिशाटन-दोनों प्रकार के मूलकर्म का प्रयोग करके आहार प्राप्त करने वाले मुनि को मूल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है।
१. जीभा १३५१।
६. जीभा १४२४, १४२५ । २. जीभा १३६४।
७. जीभा १४३७। ३. जीभा १३८५।
८. जीभा १४४९। ४. जीभा १४२० ; लोभे चउगुरुगा तू, आवत्ती दाण होयऽभत्तटुं। ९. जीभा १४६८ ; दुविहे वि मूलकम्मे, पच्छित्तं होति मूलं तु। ५. जीभा १४२२, १४२३।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
१३३ शंकित दोष-जीतकल्पभाष्य में शंकित दोष के प्रायश्चित्त का संकेत नहीं किया गया है। प्रक्षित दोष-म्रक्षित दोष में पृथ्वीकाय से प्रक्षित रूक्ष हाथ और पात्र से भिक्षा लेने पर पणग (निर्विगय), कर्दम मिश्रित हाथ से भिक्षा लेने पर लघुमास (पुरिमार्ध) तथा शुष्क पृथ्वीकाय से मेक्षित हाथ से भिक्षा लेने पर चार लघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।
सस्निग्ध और सरजस्क हाथ और पात्र से भिक्षा ग्रहण करने पर पणग (निर्विगय) तथा आर्द्र हाथ और पात्र से भिक्षा ग्रहण करने पर मासलघु (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।
___ म्रक्षित दोष में पुरःकर्म और पश्चात्कर्म दोष लगने पर चारलघु (आयम्बिल) का प्रायश्चित्त आता है। कुछ आचार्य इसमें मासलघु (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त का उल्लेख भी करते हैं।'
मेक्षित दोष में परित्त वनस्पतिकाय म्रक्षित हाथ से भिक्षा लेने पर मासलघु (पुरिमार्ध)५, अनंतकाय वनस्पतिकाय से म्रक्षित हाथ से भिक्षा ग्रहण करने पर मासगुरु (एकासन) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। मिश्र प्रत्येक वनस्पति से मेक्षित हाथ से भिक्षा ग्रहण करने पर मासलघु (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। गर्हित मल आदि से प्रक्षित हाथ या पात्र से भिक्षा लेने पर तथा गोरस और जीवों से संसक्त हाथ या पात्र से भिक्षा लेने पर चारलघुक (आयम्बिल) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती
निक्षिप्त दोष-अनंत वनस्पतिकाय को छोड़कर सचित्त पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक अनंतर निक्षिप्त दोष युक्त भिक्षा लेने पर चारलघु (आयम्बिल) तथा परम्पर निक्षिप्त दोष युक्त भिक्षा लेने पर मासलघु (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। मिश्र पृथ्वीकाय में अनंतर निक्षिप्त दोष युक्त भिक्षा लेने पर मासलघु (पुरिमार्ध) तथा मिश्र पृथ्वीकाय में परम्पर निक्षिप्त दोष युक्त भिक्षा लेने पर पणग (निर्विगय) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। अनंतकाय वनस्पति पर अनंतर निक्षिप्त भिक्षा ग्रहण करने पर चार गुरु (उपवास) तथा अनंतकाय पर परम्पर निक्षिप्त भिक्षा ग्रहण करने पर मासगुरु (एकासन) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है।
बृहत्कल्पभाष्य एवं उसकी टीका में निक्षिप्त दोष के प्रायश्चित्त के संदर्भ में विस्तृत वर्णन मिलता है। प्रत्येक मिश्र वनस्पति पर अनन्तर और परम्पर निक्षिप्त आहार लेने पर मासलघु (पुरिमार्ध), प्रत्येक वनस्पति के बीज पर अनन्तर एवं परम्पर निक्षिप्त आहार लेने पर पणग (निर्विगय) तथा अनंत वनस्पति
१. जीभा १४९३। २. जीभा १४९५। ३. जीभा १४९६। ४. बृभा ५३७, टी पृ. १५६ ;
अन्ये मासलधु-प्रतिपन्नवन्तः।
५. जीभा १४९७। ६. जीभा १४९८। ७. बृभा ५३७, टी पृ. १५६ : मिश्रे परीत्ते सर्वत्र मासलघः । ८. जीभा १५०५, १५०९। ९. जीभा १५४४, १५४५, निचू भा. ४ पृ. १९३ ।
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१३४
पिंडनियुक्ति
के बीज पर निक्षिप्त लेने पर चार गुरु (उपवास), अनंतमिश्र वनस्पति पर अनंतर और परम्पर निक्षिप्त आहार लेने पर मासगुरु (एकासन) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। परम्परा-भेद से अन्य आचार्यों के अनुसार प्रत्येक मिश्र वनस्पति पर अनंतर और परम्पर निक्षिप्त लेने पर पणग (निर्विगय) अनंतमिश्र वनस्पति पर अनन्तर और परम्पर निक्षिप्त लेने पर गुरुमास (एकासन) की प्राप्ति होती है। सचित्त प्रत्येक वनस्पति पर अनंतर निक्षिप्त आहार लेने से चार लघु (आयम्बिल), परम्पर निक्षिप्त आहार लेने पर मासलघु (पुरिमार्ध) तथा मिश्र प्रत्येक वनस्पति के अनन्तर निक्षिप्त लेने पर मासलघु (पुरिमार्ध), परम्पर निक्षिप्त लेने पर पणग (निर्विगय), मिश्र अनंतकाय वनस्पति के अनंतर निक्षिप्त लेने पर मासगुरु (एकासन) तथा परम्पर निक्षिप्त लेने पर पणग (निर्विगय) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती हैं। त्रसकाय पर अनंतर निक्षिप्त लेने पर चार लघु (आयम्बिल) तथा परम्पर निक्षिप्त लेने पर मासलघु (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। पिहित दोष-अनंतकाय वनस्पति पर अनंतर और परम्पर पिहित भिक्षा ग्रहण करने पर गुरु पणग (निर्विगय) तथा प्रत्येक वनस्पतिकाय पर अनंतर और परम्पर पिहित भिक्षा ग्रहण करने पर लघु पणग (निर्विगय) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। पिहित दोष के अन्तर्गत पृथ्वीकाय आदि से पिहित के प्रायश्चित्त निक्षिप्त द्वार की भांति समझना चाहिए। यदि आत्मविराधना हो जाए तो चार गुरुमास (उपवास) का प्रायश्चित्त आता है। बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार अचित्त होने पर भी भारी पदार्थ से पिहित आहार लेने पर चारगुरु (उपवास) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। संहृतदोष-संहत दोष का प्रायश्चित्त भी निक्षिप्त दोष की भांति है। सचित्त द्रव्य संहृत करने पर चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। दायक दोष-यद्यपि निषिद्ध दायकों के हाथ से भिक्षा ग्रहण करना अकल्पनीय है लेकिन बिना कारण इनसे ग्रहण करने पर प्रायश्चित्त-विधि का क्रम इस प्रकार है-बाल, वृद्ध, मत्त, उन्मत्त, वेपित (कम्पमान शरीर वाला), ज्वरित-इनके हाथ से भिक्षा ग्रहण करने पर मासलघु (पुरिमार्ध) तथा अंध, कोढ़ी, पादुका और हथकड़ी पहने हुए, हाथ पैर से विकल, नपुंसक, गर्भवती और बालवत्सा–इनके हाथ से ग्रहण करने पर चारगुरु (उपवास) का प्रायश्चित्त आता है।
__ खाती हुई, घुसुलेंती-बिलौना करती हुई स्त्री के हाथ से भिक्षा लेने पर चारलघु (आयम्बिल) चना आदि पूंजती हुई, दलती हुई, कंडन करती हुई, पीसती हुई, पीजती हुई, रुंचती-रुई कातती, जीवों
१. बृभा ५३८, टी पृ. १५६, १५७। २. जीभा १५४६। ३. जीभा १५५६।
४. जीभा १५६८; साहरणेयं भणियं, आवत्ती दाणजह तु निक्खित्ते। ५. बृभा ५३९, टी पृ. १५७। ६. जीभा १५७७, १५७८।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
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का प्रमर्दन करती हुई तथा षट्काय से लिप्त हस्त वाली स्त्री-इन सबसे भिक्षा लेने पर भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्त होता है लेकिन सामान्यतया इनका प्रायश्चित्त चारलघु (आयम्बिल) आता है। बृहत्कल्प की टीका में उल्लिखित दायक दोष के प्रायश्चित्तों में कुछ अंतर है। वहां कुष्ठ रोगी और नपुंसक से लेने पर चारगुरु (उपवास) तथा पिंजन, कर्तन और प्रमर्दन करती हुई स्त्री के हाथ से आहार लेने पर मासलघु (पुरिमार्ध) तथा शेष निषिद्ध दायकों के हाथ से लेने पर चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। उन्मिश्र दोष-जीतकल्पभाष्य में उन्मिश्र दोष के प्रायश्चित्त का वर्णन नहीं है। बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार सचित्त अनन्त से उन्मिश्र आहार लेने पर चारगुरु (उपवास), मिश्र अनंत उन्मिश्र लेने पर मासगुरु (एकासन), सचित्त प्रत्येककाय वनस्पति से उन्मिश्र लेने पर चार लघु (आयम्बिल) तथा मिश्र प्रत्येक वनस्पति से उन्मिश्र लेने पर मासलघु (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। प्रत्येक वनस्पति तथा अनंतकाय वनस्पति के बीज से उन्मिश्र आहार लेने पर पणंग (निर्विगय) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। अपरिणत दोष-भावतः अपरिणत को ग्रहण करने पर मासलघु (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। बृहत्कल्पभाष्य में द्रव्यतः अपरिणत प्रायश्चित्त-विधि का वर्णन भी मिलता है। पृथ्वी आदि को अपरिणत (सचित्त) लेने पर चारलघु (आयम्बिल) तथा अनंतकाय अपरिणत लेने पर चारगुरु (उपवास) प्रायश्चित्त
की प्राप्ति होती है। लिप्त दोष-लिप्त दोष में संसक्त हाथ और पात्र से भिक्षा ग्रहण करने पर चारलघु (आयम्बिल) तथा सावशेष पात्र से भिक्षा ग्रहण करने पर लघुमास (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। भाष्यकार के अनुसार छर्दित दोष के आद्य तीन भंगों में चार लघु (आयम्बिल) तथा चरम भंग में अनेषणीय होने पर चार गुरु (उपवास) की प्राप्ति होती है। छर्दित दोष-छर्दित दोष युक्त भिक्षा लेने पर चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है।' बृहत्कल्पभाष्य के टीकाकार ने इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है कि छर्दित दोष की चतुर्थ चतुभंगी के प्रथम तीन भंगों से युक्त भिक्षा लेने पर चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त आता है। चरम भंग अनाचीर्ण होता है।" १. जीभा १५७९-१५८१।
७. जीभा १५९९ । २. बृभा ५३९, टी पृ. १५७।
८. बृभाटी पृ. १५७। ३. बृभाटी पृ. १५७।
९. जीभा १६०१। ४. बृभा ५३९, टी पृ. १५७।
१०. बृभाटी पृ. १५७; छर्दिते-आद्येषु त्रिषु भङ्गेष प्रत्येक ५. जीभा १५९३।
चतुर्लघुकम् , चरमभङ्गेऽनाचीर्णम्। ६. बृभा ५३९, टी पृ. १५७।
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पिंडनियुक्ति संयोजना दोष-राग-द्वेष से प्रभावित होकर रस बढ़ाने हेतु अंत: और बाह्य संयोजना करने पर चारगुरु (उपवास) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। दूसरी मान्यता के अनुसार चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार अंत: संयोजना करने पर चारलघु (आयम्बिल) तथा बहि: संयोजना करने पर चारगुरु (उपवास) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। प्रमाण दोष-स्त्री और पुरुष के लिए जितने कवल निर्धारित हैं, उस प्रमाण से अधिक आहार करने पर अथवा संयम जीवन-यात्रा के लिए जितना अपेक्षित है, उससे अधिक भोजन करने पर चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। अंगार दोष-मनोज्ञ आहार को आसक्ति पूर्वक खाने पर चारगुरु (उपवास) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। धूमदोष-अमनोज्ञ आहार का द्वेषपूर्वक उपभोग करने पर चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। कारण दोष-निष्कारण आहार करने पर चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। दूसरी मान्यता के अनुसार निष्कारण आहार करने पर लघुमास (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। कारण उपस्थित होने पर यदि साधु आहार नहीं करता है तो चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है।
व्याख्या-साहित्य में श्वासोच्छ्वास के साथ जप के प्रायश्चित्त का उल्लेख भी मिलता है। ओघनियुक्ति भाष्य के अनुसार भिक्षा लाने के बाद यदि सम्यक् आलोचना नहीं की हो अथवा गुरु को पूरा भक्तपान न दिखाया हो, भिक्षा में सूक्ष्म एषणा का दोष लगा हो तो उसकी विशुद्धि हेतु ८ श्वासोच्छ्वास के साथ नमस्कार मंत्र का जप करने का विधान है।
यहां सामान्यतः भिक्षाचर्या से सम्बन्धित मुख्य दोषों के प्रायश्चित्तों का उल्लेख किया गया है। जीतकल्पसूत्र एवं उसके भाष्य में भिक्षाचर्या के दोषों के भेद-प्रभेदों के प्रायश्चित्तों का प्रकारान्तर से भी वर्णन किया गया है।
१. जीभा १६२०%
अंतो बहि चउगुरुगा, बितियाएसेण बाहि चउलहुगा।
चउगुरुगेऽभत्तटुं, चउलहुगे होति आयामं॥ २. बृभा ५४०, टी पृ. १५८। ३. जीभा १६३०। ४. जीभा १६४३। ५. जीभा १६४३।
६. जीभा १६४४
णिक्कारण भंजते. एत्थ वि लहगा उदाणमायाम।
बितियादेसे लहुओ, आवत्ती दाण पुरिमहूं। ७. जीभा १६४५,
ण वि भुंजइ कारणतो, एत्थ वि लहुगा तु दाणमायाम। ८. ओभा २७४। ९. विस्तार हेतु देखें जीसू ३६-४४, जीभा १६७५-१७१९ ।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
१३७ भिक्षाचर्या के अन्य दोष
भिक्षाचर्या के जिन दोषों का वर्णन पिण्डनियुक्ति में उपलब्ध है, उस संख्या को अंतिम नहीं माना जा सकता फिर भी पिण्डनियुक्ति के व्यवस्थित वर्णन को देखकर यह कहा जा सकता है कि नियुक्तिकार के समय तक भिक्षाचर्या एवं उससे सम्बन्धित दोषों का व्यवस्थित विकास हो गया था। यद्यपि उद्गम, उत्पादना और एषणा दोष से परिशुद्ध आहार साधु को ग्रहण करना चाहिए, यह उल्लेख भगवती में मिलता है' तथा विकीर्ण रूप से अनेक दोषों का संकेत भी मिलता है लेकिन वहां यह उल्लेख नहीं मिलता कि इनमें कौन से और कितने दोष उद्गम से, कितने उत्पादना से तथा कितने एषणा से सम्बन्धित हैं अतः यह निर्विवाद कहा जा सकता है कि आगमों में विकीर्ण भिक्षाचर्या के दोषों को व्यवस्थित रूप देने का श्रेय पिंडनियुक्तिकार को जाता है। इन दोषों के अतिरिक्त भी यदि इस संदर्भ में सामान्य और विशेष नियमों की खोज की जाए तो भिक्षाचर्या से सम्बन्धित अन्य अनेक दोष आगम एवं उसके व्याख्या-साहित्य में विकीर्ण रूप से मिलते हैं। उदाहरण के लिए नित्याग्र भोजन का समावेश एषणा के दोषों में सम्मिलित नहीं है लेकिन इसका उल्लेख अनेक स्थानों पर मिलता है। दशवैकालिक सूत्र में भी भिक्षा हेतु परिव्रजन के समय लगने वाले अनेक नियम एवं वर्जनाओं का उल्लेख है। यहां हम पिण्डनियुक्ति के अतिरिक्त आगमों में मिलने वाले भिक्षाचर्या से सम्बन्धित दोषों का उल्लेख कर रहे हैं, जिससे शोध विद्यार्थियों को एक ही स्थान पर भिक्षाचर्या के विधि-निषेधों की समग्र जानकारी मिल सके। शय्यातरपिण्ड
साधु को शय्या देकर जो भवसमुद्र का पार पा लेता है, वह शय्यातर कहलाता है। शय्यातरपिंड को सागारिकपिण्ड भी कहा जाता है। शय्यातरपिण्ड साधु के लिए अनाचीर्ण तथा तीर्थंकरों द्वारा निषिद्ध है। बीच के २२ तीर्थंकरों ने भी शय्यातरपिण्ड की अनुज्ञा नहीं दी। इसकी गणना शबल दोष के अन्तर्गत की गई है। दोषबहुलता देखकर ही चूर्णिकार ने शय्यातर के समीप के सात घरों से भिक्षा ग्रहण को अनाचार माना है।
साधु जिसके घर एक रात रुके, वहां का आहार शय्यातरपिण्ड कहलाता है। यदि सुविहित साधु सम्पूर्ण रात्रि जागकर सवेरे के प्रतिक्रमण आदि आवश्यक कार्य अन्यत्र जाकर करता है तो वह गृहस्वामी
१. भग ७/२५; उग्गमुप्पायणेसणासुपरिसद्ध। २. दश ३/२। ३. निचू भा. २ पृ. १३१ ; सेज्जादाणेण भवसमुद्रं तरति त्ति
सिज्जातरो। ४. दश ३/५।
५. निभा ११५९, बृभा ३५४०; तित्थंकरपडिकुट्ठो। ६. प्रसा ८०७। ७. सम २१/१, दश्रु २/३ । ८. दशअचू पृ.६१ जाणि वि तदासण्णाणि सेज्जातरतुल्लाणि
ताणि सत्त वज्जेतव्वाणि।
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१३८
पिंडनिर्युक्ति
शय्यातर नहीं होता, सोने एवं आवश्यक (प्रतिक्रमण) करने पर शय्यातर होता है। यदि रात्रि - प्रवास और सवेरे का प्रतिक्रमण दोनों अन्य स्थान पर किए जाएं तो दोनों स्थानों के स्वामी शय्यातर माने जाते हैं। शय्यातर कब होता है, इस संदर्भ में निशीथ भाष्य एवं उसकी चूर्णि में विस्तृत चर्चा मिलती है।
तृण, डगलग, क्षार, मल्लग, शय्या, संस्तारक, पीढ़ तथा लेप - ये वस्तुएं शय्यारपिण्ड नहीं होतीं अतः ली जा सकती हैं। वस्त्र एवं पात्र सहित शैक्ष भी शय्यातरपिण्ड नहीं होता अर्थात् शय्यातर के पुत्र की दीक्षा हो तो ये वस्तुएं ली जा सकती हैं। अशन, पान, खादिम, स्वादिम, पादप्रोञ्छन, वस्त्र, पात्र, कम्बल, सूई, क्षुर, कर्णशोधनी, नखरदनी – ये बारह वस्तुएं शय्यातरपिण्ड कहलाती हैं।
शय्यातरपिण्ड का निषेध करने का मुख्य कारण यही रहा कि जिस घर में साधु रहें, वहां बारबार जाने से अतिपरिचय के कारण गृहस्थ आधाकर्म और औद्देशिक दोष युक्त भिक्षा तैयार कर सकता है। प्रतिदिन प्रणीत आहार लेने से आहार की आसक्ति बढ़ती हैं तथा कभी-कभी बार-बार जाने से शय्यातर धर्म से या साधुओं से विमुख भी हो सकता है, जिससे अन्य साधुओं के लिए वसति मिलना कठिन हो जाता है। भाष्यकार ने शय्यातरपिण्ड ग्रहण से होने वाले दोषों का विस्तार से वर्णन किया है।
पिण्डविशुद्धिप्रकरण में इस संदर्भ में दो कथाओं का उल्लेख मिलता है। एक शय्यातर ने साधु को कम्बल दिया । उसके पुत्र और भाई ने भी उसे कम्बल आदि वस्त्र दे दिए। प्रचुर उपकरण के भार के कारण वह साधु अन्यत्र विहार नहीं करता था । देवयोग से उस क्षेत्र में दुर्भिक्ष हो गया। गृहस्वामी ने सोचा कि दुर्भिक्ष में यह साधु और हम दोनों समाप्त हो जाएंगे अतः किसी प्रयोग से साधु को सुभिक्ष प्रदेश में भेजना चाहिए। एक दिन साधु के उत्सर्ग हेतु बाहर जाने पर उसने सारे उपकरणों को बाहर निकालकर उन्हें छिपा दिया और मकान के आग लगा दी। साधु के आने पर कुछ उपकरण उसको दे दिए। वह साधु दूसरे देश में प्रस्थित होने लगा, तब शय्यातर ने कहा - ' -'सुभिक्ष होने पर पुनः यहां आ जाना।' वह साधु सुभिक्ष होने पर वहां आ गया। शय्यातर ने उसके उपकरण पुनः समर्पित कर दिए। इस प्रकार शय्यातरपिण्ड ग्रहण करने से प्रवचन की लघुता एवं अवमानना होती है।
एक गृहपति के घर में पांच सौ साधुओं ने प्रवास किया। साधु प्रतिदिन शय्यातर के यहां प्रथम भिक्षा ग्रहण करते थे । कालान्तर में वह निर्धन हो गया। उन साधुओं के जाने पर अन्य साधु वहां आए । उन्होंने भी वसति की याचना की। गृहपति ने कहा- 'मेरे पास केवल वसति है, प्रथम भिक्षा देने के लिए
१. बृभा ३५२९, प्रसा ८०३ ।
२. बृभा ३५३०, प्रसा ८०२ ।
३. निभा ११५५, चू. पृ. १३४, बृभा ३५३६, टी. पृ. ९८४, ९८५ ।
४. निभा ११५४, बृभा ३५३५ ।
५. बृभा ३५४०, निभा ११५९ ।
६. बृभा ३५४१-४९, ६३७८ । ७. पिंप्रंटी प. ९० ।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
१३९ कुछ भी नहीं है।' साधुओं ने कहा- शय्यातर भिक्षा हमारे लिए कल्प्य नहीं है।' गृहपति ने कहा-'हमारे घर से खाली पात्र लेकर साधु बाहर जाएं, यह अमंगल होगा अतः मैं वसति नहीं दूंगा।' साधुओं ने उसे समझाकर वसति प्राप्त की। इस प्रकार शय्यातर पिण्ड ग्रहण से वसति की प्राप्ति दुर्लभ हो सकती है।
पंचाशक प्रकरण में भी शय्यातरपिण्ड के दोष' तथा शय्यातरपिण्ड ग्रहण न करने से होने वाले लाभों के सम्बन्ध में अन्य आचार्यों के अभिमत प्रस्तुत हैं।'
__ अपवाद स्वरूप शय्यातरपिण्ड आठ कारणों से अनुज्ञात है-१. अनागाढ़ या आगाढ़ ग्लानत्व २. शय्यातर का निमंत्रण ३. शय्यातर का आग्रह ४. दुर्लभ द्रव्य ५. अशिव ६. ऊणोदरी ७. प्रद्वेष ८. राजद्विष्ट। राजपिण्ड
निशीथ का नवां उद्देशक राजपिण्ड से सम्बन्धित अनेक वर्जनाओं से जुड़ा हुआ है। बीच के २२ तीर्थंकरों एवं महाविदेह के तीर्थंकरों ने भी साधु के लिए राजपिण्ड आहार ग्रहण करने का निषेध किया है। अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कम्बल और पादपोंछन-ये आठ प्रकार की वस्तुएं यदि राजा के यहां से ली जाएं तो ये राजपिण्ड कहलाती हैं। आचार्य हरिभद्र ने राजपिण्ड आहार ग्रहण करने से होने वाले दोषों का वर्णन किया है। बृहत्कल्पभाष्य में इस संदर्भ में विस्तृत विवेचन मिलता है।
निशीथ सूत्र में राजपिण्ड आहार को ग्रहण करने एवं उसका भोग करने वाले मुनि के लिए चातुर्मासिक प्रायश्चित्त की बात कही गई है। राजा के निमित्त बना सरस और गरिष्ठ भोजन ग्रहण करने से रस-लोलुपता बढ़ सकती है इसलिए राजपिण्ड का निषेध किया गया है। शय्यातर पिंड की भांति राजपिंड भी विशेष अपवादों में ग्रहण किया जा सकता है। नित्याग्रपिण्ड
नित्याग्र का अर्थ है-एक घर से प्रतिदिन निमंत्रित भिक्षा ग्रहण करनार दशवैकालिक सूत्र में इसे अनाचार दोष माना है तथा निशीथ सूत्र में नित्यपिण्ड का भोग करने वाले को प्रायश्चित्त का भागी बताया है।३ निशीथ में नियाग के स्थान पर 'णितिय अग्गपिंड' तथा नितिय पिंड शब्द का प्रयोग हुआ है।
१. पिंप्रटी प. ९०, ९१॥
७. पंचा १७/२२॥ २. पंचा १७/१८।
८. पंचा १७/२१॥ ३. पंचा १७/१९।
९.नि ९/१,२। ४. इन सब कारणों की विस्तृत व्याख्या हेतु देखें बुभा ३५५०- १०. विस्तार हेतु देखें बृभा ६३९६,६३९७। ३६०२,६३७९।
११. दशहाटी प २०३; नियागं ति नित्यमामन्त्रितं पिण्डम्। ५. पंचा १७/२०।
१२. दश ३/२। ६. निभा २५००, बृभा ६३८४, पादप्रोञ्छन के स्थान पर १३. नि २/३२। रजोहरण का उल्लेख भी मिलता है।
१४. नि २/३१, ३२।
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पिंडनियुक्ति
भाष्यकार एवं चूर्णिकार ने इसकी विस्तृत व्याख्या की है। चूर्णिकार अगस्त्यसिंह के अनुसार बिना निमंत्रण सहज भाव से प्रतिदिन भिक्षा ग्रहण करना नित्याग्र नहीं है।
आचार्य भिक्षु ने आचार की चौपाई में विस्तार से इसके बारे में वर्णन किया है। (भिक्षु ग्रंथ रत्नाकर : आचार की चौपाई) आचार्य महाप्रज्ञ ने दशवैकालिक सूत्र के टिप्पण में विस्तार से इस शब्द का विवेचन किया है। निशीथ चूर्णि में शिष्य ने एक प्रश्न उपस्थित किया है कि गृहस्थ प्रतिदिन अपने लिए भोजन बनाता ही है फिर यदि वह आदरपूर्वक निमंत्रण दे तो क्या दोष है ? इसका उत्तर देते हुए भाष्यकार कहते हैं कि निमंत्रण में अवश्य देने की बात होती है अत: वहां स्थापना, आधाकर्म, प्राभृतिका, अध्यवपूरक, क्रीत और प्रामित्य आदि दोष भी लग सकते हैं अतः स्वाभाविक भोजन भी निमंत्रणपूर्वक नहीं लेना चाहिए। नित्याग्रपिण्ड ग्रहण करने वाले को लघुमास (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। पुरःकर्म और पश्चात्कर्म
दान देने से पूर्व हाथ या पात्र आदि धोना पुरःकर्म है। इस दोष का सम्बन्ध प्राय: गृहस्थ से है। साधु को ज्ञात हो जाए कि लिप्त हाथ या पात्र से भिक्षा देने के बाद दाता सचित्त जल से हाथ आदि साफ करेगा तो वह आहार साधु के लिए अकल्प्य होता है। पुरःकर्म युक्त हाथ, पात्र, दी और भाजन से आहार ग्रहण करने वाला प्रायश्चित्त का भागी होता है।
सहज रूप से उदक से आर्द्र हाथ यदि सूख जाते हैं तो उस दाता से भिक्षा ली जा सकती है लेकिन पुर:कर्म के पश्चात् गीले हाथ सूखने पर भी भिक्षा ग्रहण नहीं की जा सकती। पुरःकर्म में उदकसमारंभ करना उत्कृष्ट अपराध, उदकाई मध्यम अपराध तथा सस्निग्ध हाथ से भिक्षा लेना जघन्य अपराध-पद है। उत्कृष्ट अपराध युक्त भिक्षा ग्रहण करने पर चार लघुमास (आयम्बिल), मध्यम में लघुमास (पुरिमार्ध) तथा जघन्य में पणग (निर्विगय) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। बृहत्कल्पभाष्य (१८३१-६३) में पुरःकर्म की विस्तार से व्याख्या की गई है। किमिच्छक
कौन क्या चाहता है, यह पूछकर दिया जाने वाला आहार किमिच्छक है। दशवैकालिक सूत्र में इसे अनाचार के अन्तर्गत माना है। कुछ आचार्यों ने वहां इसे राजपिण्ड का विशेषण भी माना है। इस संदर्भ में आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा लिखित टिप्पणी पठनीय है।'
१. द्र निभा ९९९-१०२१ चू पृ. १०३-१०७। 2.दशअचूप.६०;ण तुजं अहासमावत्तीए दिणे दिणे भिक्खागहणं। ३. देखें दश पृ. ४५-४७। ४. निभा १००३-१००६, पृ. १०३, १०४। ५. व्यभा ८५७।
६. बृभा १८२०, निभा ४०६३;
हत्थं वा मत्तं वा, पुट्विं सीतोदएण जं धोवे।
समणट्ठाए दाया, पुरकम्मं तं विजाणाहि ॥ ७. बृभा १८२९, टी पृ. ५३७। ८. दशहाटी प. ११७ किमिच्छतीत्येवं यो दीयते स किमिच्छकः। ९. दश पृ. ५२, ५३।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
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दुर्भिक्षभक्त
भयंकर दुष्काल होने पर राजा अथवा धनाढ्य व्यक्ति साधुओं के लिए जो भक्तपान तैयार करते थे, वह दुर्भिक्षभक्त कहलाता था। इस रूप में दिया जाने वाला आहार मुनि के लिए अग्राह्य होता है। दुर्भिक्ष भक्त को ग्रहण करने वाला विराधक होता है। बार्दलिकाभक्त
वर्षा होने पर या घनघोर बादल छाए रहने पर राजा अथवा गृहस्थ यदि मुनि के लिए विशेष रूप से आहार-दान की व्यवस्था करता है, वह बार्दलिकाभक्त कहलाता है। बार्दलिकाभक्त ग्रहण करने वाला मुनि प्रायश्चित्त का भागी होता है। निशीथ चूर्णि के अनुसार सात दिन तक लगातार वर्षा होने पर राजा साधुओं के निमित्त जो भोजन बनवाता है, वह बार्दलिकाभक्त कहलाता है। कान्तारभक्त की भांति बालिकाभक्त को ग्रहण करने वाला विराधक होता है । कान्तारभक्त
प्राचीनकाल में यातायात के साधन विकसित नहीं थे। सामान्यतः लोग सार्थ के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान की दूरी तय करते थे। चोर आदि के भय से मुनि भी सार्थ के साथ पदयात्रा करते थे। अटवी में साधु पर दया करके उनके लिए जो भोजन बनाया जाता था, उसे कान्तारभक्त कहा जाता था। निशीथ में अरण्यभक्त या कान्तारभक्त लेने वाले को प्रायश्चित्त का भागी बताया है। टीकाकार अभयदेवसूरि ने कांतारभक्त, दुर्भिक्षभक्त, ग्लानभक्त, बालिकाभक्त, प्राघूर्णकभक्त आदि को आधाकर्म के अन्तर्गत माना है। प्राघूर्णकभक्त
अतिथि के निमित्त बना हुआ भोजन प्राघूर्णकभक्त कहलाता है। अग्रपिण्ड
__ गृहस्थ के घर में निष्पन्न अग्रपिण्ड भिक्षा साधु के लिए निषिद्ध है। निशीथ में अग्रपिण्ड ग्रहण करने वाले साधु को प्रायश्चित्त का भागी बताया है। प्राय: घरों में अग्रपिण्ड गाय, कुत्ता या भिखारी को दिया जाता है, यदि साधु उसे ग्रहण करता है तो उसको अंतराय का दोष लगता है। अग्रपिण्ड लेने से साधु को त्वरा रहती है अत: ईर्यासमिति का ध्यान भी नहीं रहता।
१. निचू २ पृ. ४५५ ; कंताराते अडविणिग्गयाणं भुक्खत्ताणं ५. भग ५/१३९-४६। । जं दुब्भिक्खे राया देति, तं दुब्भिक्खभत्तं ।
६. भगभा २ पृ. ५२१ ; कंतारभत्तं ति कान्तारम्-अरण्यं तत्र २. भग ५/१३९-४६।
भिक्षुकाणां निर्वाहार्थं यदविहितं भक्तं तत्कान्तारभक्तम्। ३. नि ९/६।
७. नि ९/६, निभा ५४१५ । ४. निचू २ पृ. ४५५ ; सत्ताहबद्दले पडते भत्तं करेति राया ८. स्थाटी . ३११; कांतारभक्तादय आधाकर्मादि भेदा एव।
अपुव्वाणं वा अविधीण भत्तं करेति राया।
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पिंडनियुक्ति
ग्लानभक्त
___ भगवतीसूत्र में ग्लानभक्त को आधाकर्म आहार की भांति सावध माना है। ग्लानभक्त का अर्थ करते हुए टीकाकार अभयदेवसूरि कहते हैं कि रोगी के आरोग्य हेतु दिया जाने वाला आहार ग्लानभक्त कहलाता है। ग्लानभक्त का दूसरा अर्थ है-आरोग्यशाला में दिया जाने वाला भोजन। निवेदनापिंड
कारणवश या अकारणवश पूर्णभद्र या माणिभद्र आदि देवताओं के लिए जो आहार अर्पित किया जाता है, वह निवेदनापिंड कहलाता है। निशीथ के अनुसार निवेदना पिंड का भोग करने वाला साधु प्रायश्चित्त का भागी होता है। निवेदनापिंड दो प्रकार का होता है-१. साधु निश्राकृत २. अनिश्राकृत। साधु के लिए कृत निवेदनापिंड ग्रहण करने वाले साधु को चारगुरु (उपवास) तथा अनिश्राकृत को ग्रहण करने वाले को मासलघु (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है।
अर्हत् पक्ष के देवता अर्थात् जैन देवताओं को जो पिंड निवेदित किया जाता है, वह भी पूर्ववत् दो प्रकार का होता है। उसमें निश्राकृत को ग्रहण करने पर आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। मृतक भोज
इसे करडुयभक्त या पिंडनिकर भी कहा जाता है। मरने के पश्चात् बारहवें दिन किया जाने वाला भोज मृतक भोज कहलाता है। साधु के लिए मृतक भोज में भिक्षा ग्रहण करना निषिद्ध है। निकाचित आहार
भूतिकर्म आदि के कारण चातुर्मास पर्यन्त प्रतिदिन निबद्धीकृत रूप से जो दान दिया जाता है, वह निकाचित आहार कहलाता है। भाष्यकार के अनुसार निकाचित आहार लेने वाला देशतः पार्श्वस्थ होता है। निकाचित आहार ग्रहण कर्ता को एक लघुमास (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। रचित आहार
असंक्लिष्ट आचार वाले मुनि के प्रसंग में व्यवहारभाष्य में भिक्षा से सम्बन्धित अनेक दोषों का उल्लेख किया गया है, उसमें एक दोष है-रचित आहार । सुविहित मुनि रचित आहार का प्रयोग नहीं कर सकता। व्यवहार भाष्य की टीका में आचार्य मलयगिरि ने रचित का अर्थ किया है-'पात्र में आहार रखकर
१. भगभा २ पृ. ५२१; गिलाणभत्तं ति ग्लानस्य नीरोगतार्थं
२. निचू २ पृ. ४५५ : आरोग्गसालाए जं गिलाणस्स दिज्जति,
तं गिलाणभत्तं। ३. निचू भा. ३ पृ. २२४| ४. नि ११/८२।
५. निचू भा. ३ पृ. २२४ । ६. निभा ३४८९ चू. पृ. २२४। ७.पिनि २१८/१। ८. निचू २ पृ. ४४४ ; पितिपिंडपदाणं वा पिंडणिगरो। ९. व्यभा ८५७।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
१४३ उसके चारों ओर बहुविध व्यञ्जन सजाना।' अभयदेवसूरि के अनुसार मोदकचूर्ण से पुनः मोदक बनाना रचित दोष है, इसे औद्देशिक दोष के कर्म भेद के अन्तर्गत रखा जा सकता है।' संखडि भोज
___जहां जीवों का प्रचुर मात्रा में घात होता है, वह संखडि कहलाता है। अथवा जहां विविध प्रकार की भोजन सामग्री संस्कारित की जाती है, वह संस्कृति-संखडि कहलाती है। मज्झिम निकाय में संखडि को संखति कहा गया है। महावीर ने साधु के लिए संखडि भोज में जाने का निषेध किया है क्योंकि वहां परतीर्थिक साधु के साथ वाद-विवाद या कलह का प्रसंग हो सकता है। निशीथ भाष्य में उल्लेख मिलता है कि जिस दिशा में संखडि-भोज हो, मुनि उस दिशा में न जाए। संखडिभोज में आहार लेने वाले साधु को चार अनुद्घात का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है । दैवसिक और रात्रिकी संखडि के दो-दो भेद हैं-पुर: संखडि और पश्चात् संखडि। सूर्योदय के पश्चात् की जाने वाली पुरःसंखडी तथा सूर्यास्त के पश्चात् की जाने वाली पश्चात् संखडि कहलाती है।
___ संखडि-भोज को यदि साधु आसक्ति, दर्प या बिना किसी कारण के ग्रहण करता है तो दोष है। यदि गृह-परिपाटी के क्रम से संखडि वाले घर में जाता है तो कोई दोष नहीं है। यदि किसी पुष्ट आलम्बन या प्रयोजन से संखडि में जाता है तो भी दोष नहीं है। भाष्यकार ने इस संदर्भ में विस्तृत विवेचन किया है। रात्रि-भोजन विरमण
__ यह नियम पिंडग्रहण एवं उसके उपभोग के काल से सम्बन्धित है। उत्तराध्ययन के उन्नीसवें अध्ययन में मृगापुत्र के माता-पिता ने साधुत्व की विभीषिका बताते हुए रात्रि-भोजन विरमण को अत्यन्त दुष्कर कार्य बताया है। साधु के लिए रात्रि-भोजन अनाचीर्ण है। जैन आचार्यों ने इसे शबल दोष के अन्तर्गत माना है। श्रमण के १८ नियमों (व्रतषट्क, कायषट्क....) में एक नियम रात्रि-भोजन का परिहार है। रात्रि-भोजन विरमण की महत्ता को स्थापित करने के लिए महावीर ने भिक्षा के ४६ दोषों के साथ इसका उल्लेख न करके पांच महाव्रत के साथ इसको छठे व्रत के रूप में प्रतिष्ठित किया है। बृहत्कल्प की
१. भगभा २ पृ. ५२१ ; रइयं ति मोदकचूर्णादि पुनर्मोदका-
दितया रचितमौदेशिकभेदरूपम्।। २.बृभा ३१४०; संखडिज्जति जहिं, आऊणि जियाण संखडी
स खलु। ३. मज्झिमनिकाय २/१६। ४. बृभा ३१६०। ५. बृभा ३१४१। ६. इन सब संखडियों में साधु के जाने पर विविध प्रायश्चित्तों
एवं उसके दोषों के वर्णन हेतु देखें बृभा ३१४२-३२०६
टी पृ.८८१-८९७। ७. बृभा ३१७७, टी पृ.८९०; अथ कमेण गृहपरिपाट्या
सङ्खडिगृहं प्राप्तस्ततस्तत्र ग्रहणं भोजनं वा कुर्वाणस्य न
दोषा भवन्ति। ८. उ १९/३०।
९. दश ३/२। १०. सम २१/१, दश्रु २/३ ११. बृभा २८३९, दश ४/१७, राईभोयणवेरमणछट्ठाई।
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१४४
पिंडनियुक्ति
टीका में स्पष्ट उल्लेख है कि छठे रात्रिभोजन व्रत के भग्न होने पर महाव्रतों को पीड़ा होती है। .
निशीथ चूर्णि में एक प्रश्न उठाया गया है कि आधाकर्म और रात्रिभोजन-दोनों का प्रायश्चित्त चार गुरु (उपवास) है फिर दोनों में से कौन-सा विकल्प कम दोष वाला है, इसका उत्तर देते हुए चूर्णिकार कहते हैं कि आधाकर्म उत्तरगुणों का उपघात करने वाला है लेकिन रात्रि-भोजन मूलगुणों का उपघाती है अतः उसका परिहार करना चाहिए। चूर्णिकार ने इस प्रसंग में और भी अनेक विकल्पों को प्रस्तुत किया
है।
निशीथ सूत्र में रात्रि-भोजन के चार विकल्प प्रस्तुत किए गए हैं• दिन में लाया हुआ, दिन में भोग। • दिन में लाया हुआ, रात्रि में भोग। • रात्रि में लाया हुआ, दिन में भोग।
• रात्रि में लाया हुआ, रात्रि में भोग। __ प्रथम भंग को स्पष्ट करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि कोई उपवास कर्ता मुनि को ज्ञात हुआ कि ज्ञाति लोगों के यहां संखडि भोज है। वह बिना पात्र लिए वहां पहुंचा तो ज्ञाति लोगों ने कहा-'आप पात्र क्यों नहीं लाए?' उसने कहा-'आज मेरे उपवास है।' तब उन्होंने मुनि के लिए संखडि का कुछ भाग स्थापित कर दिया कि कल पारणे में हम मुनि को देंगे। दूसरे दिन पारणे में उसको ग्रहण करने वाले मुनि पर रात्रिभोजन का प्रथम भंग घटित होता है। बाकी के तीन भंगों का तथा रात्रिभोजन से होने वाली हानियों का भाष्यकार एवं टीकाकार ने विस्तार से वर्णन किया है।
__ भाष्यकार के अनुसार यदि मुनि सूर्य उदित नहीं हुआ है, इस शंका से भिक्षा ग्रहण करता है तो सूर्योदय होने पर भी वह चारगुरु (उपवास) प्रायश्चित्त का भागी होता है। सूर्योदय न होने पर भी यदि सूर्योदय के विश्वास से निःशंकित मन में भिक्षा ग्रहण करता है तो वह प्रायश्चित्त का भागी नहीं होता। दशवैकालिक सूत्र में रात्रि-भोजन से होने वाले हिंसा जनित दोषों का उल्लेख है। बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार रात्रि में भिक्षार्थ जाने से भगवान् की सर्वज्ञता के प्रति आशंका उत्पन्न होती है, मिथ्यात्व की वृद्धि होती है तथा आत्म-विराधना और संयम- विराधना होती है। रात्रि के अंधकार में न दीखने से मुनि स्खलित होकर गिर सकता है, पैर में कांटे लग सकते हैं, गढ़े में गिर सकता है, सर्प काट सकता है, कुत्ते
१. बृभाटी पृ.८०१।
४. देखें बृभा २८५०-६४, टी पृ. ८०६-८१२ । २. निचू भा. १ पृ. १५०; कम्म सेयं न भोयणं रातो मूलगुणोप- ५. बृभा ५८०८, ५८०९, विस्तार हेतु देखें बृभा ५७८६घातित्वात्।
५८२८। ३. (क) नि ११/७५-७८ ।
६. दश ६/२३-२५। (ख) निभा ४१२ चू पृ. १४०।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
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उपद्रव कर सकते हैं, बैल सींग मार सकता है तथा आरक्षकगण उसे चोर समझकर उत्पीड़ित कर सकते हैं। निशीथ भाष्य एवं उसकी चूर्णि में भी रात्रिभोजन से होने वाले दोषों का विस्तार से वर्णन हुआ है।
संयम-विराधना के अन्तर्गत रात्रिगमन में षट्काय की विराधना संभव है क्योंकि अंधकार में दिखाई न देने से हरियाली एवं बीज आदि की हिंसा भी संभव है। भाष्यकार ने रात्रिभोजन से होने वाली संयम-विराधना का विस्तार से वर्णन किया है।'
रात्रि-भोजन करने वाले को चार अनुद्घात मास अथवा चार गुरुमास (उपवास) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। गृहान्तरनिषद्या
भिक्षा के समय मुनि गृहस्थ के घर नहीं बैठ सकता। आगमों में गृहस्थ के घर बैठने वाले मुनि को पापश्रमण तथा प्रायश्चित्त का भागी माना है। दशवैकालिक सूत्र में बिना कारण गृहस्थ के घर बैठने को अनाचार माना गया है।
भिक्षा के समय मुनि यदि गृहस्थ के घर बैठता है तो अतिसम्पर्क होने के कारण ब्रह्मचर्य खंडित होने की संभावना रहती है। घर में बैठे साधु भिक्षा की प्रतीक्षा कर रहे हैं, यह देखकर गृहस्वामिनी शीघ्रता से अवधकाल में प्राणियों का वध कर सकती है, इससे अन्य भिक्षाचरों को बाधा पहुंचती है तथा काम में बाधा पड़ने से गृहस्थ को गुस्सा भी आ सकता है। सन्निधि और संचय
सन्निधि या संग्रह करना साधु के लिए अनाचार है। साधु प्राप्त भिक्षा की न सन्निधि कर सकता है और न ही संचय। सूत्रों में स्पष्ट उल्लेख है कि साधु अणुमात्र या लेपमात्र भी संचय न करे।१ प्राप्त खाद्य-पदार्थों का संचय करने वाला गृहस्थ की भांति आचरण करता है ।२ महावीर ने औषध का संचय करने की भी अनुमति नहीं दी।१३
यद्यपि यह नियम सीधा भिक्षाचर्या के साथ नहीं जुड़ता लेकिन उपकरणों के साथ आहार-पानी का संग्रह या संचय भी हो जाता है अत: इसका उल्लेख किया गया है।
१. बृभा २८४१, २८४२।
८. दश६/५६॥ २. देखें निभा ४१३-४२३, चू. पृ. १४०-४३।
९. दश ६/५७१ ३. देखें बृभा २८४३-४८, टी पृ. ८०३-८०५।
१०. दश ३/३। ४. निभा ४१२, चू पृ. १४०; राईभत्ते चउव्विहे, चउरो मासा ११. (क) उ ६/१५;सन्निहिंच न कुव्वेज्जा, लेवमायाए संजए। भवंतणुग्घाया।
(ख) दश ८/२४; सन्निहिं च न कुव्वेज्जा, अणुमायं पिसंजए। ५. दश ५/२/८।
१२. दश ६/१८॥ ६. उ १७/१९; गिहिनिसेज्जं च वाहेइ, पावसमणि त्ति वुच्चई। १३. प्र१०/९ । ७. नि १२/१३।
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पिंडनियुक्ति
सांस्कृतिक सामग्री
कोई भी साहित्य उस समय की सांस्कृतिक, धार्मिक एवं सामाजिक स्थितियों को किसी न किसी रूप में प्रकट कर ही देता है क्योंकि साहित्यकार समाज में श्वास लेता है। आचार प्रधान होते हुए भी नियुक्ति-साहित्य में प्रसंगवश तत्कालीन सांस्कृतिक, सामाजिक एवं पारिवारिक परिस्थितियों का चित्रण हुआ है। यद्यपि पूर्ण रूप से सांस्कृतिक वर्णन प्रस्तुत करना यहां अभीष्ट नहीं है फिर भी कुछ विषयों पर यहां चंचुपात किया जा रहा है। पिण्डनियुक्ति में सांस्कृतिक परिवेश-इस विषय पर स्वतंत्र शोध भी किया जा सकता है। देवी-देवता
भारत धर्मप्रधान भूमि है अत: यहां अनेक देवी-देवताओं का अस्तित्व एवं उनकी पूजा-विधान का प्रचलन है। प्राचीनकाल में देवताओं के आधार पर अष्टदिवसीय उत्सव भी मनाए जाते थे, जैसेइन्द्रमह, रुद्रमह, वरुणमह आदि ।
युद्ध के लिए प्रवेश करने के समय सेनापति और सैनिक चामुण्डा देवी को प्रणाम करते थे। शीतलक अशिव आदि उपद्रव की शांति के लिए माणिभद्र यक्ष की आराधना एवं अष्टमी-चतुर्दशी को सब मिलकर यक्षायतन में उद्यापन किया करते थे। माणिभद्र देव का उल्लेख महाभारत में भी आता है। डॉ. जगदीशचन्द्र जैन के अनुसार यक्षों में सबसे प्राचीन मूर्ति माणिभद्र यक्ष की मिलती है।'
कुत्तों के विषय में यह मान्यता प्रचलित थी कि ये कैलाशपर्वत (मेरु) के देव विशेष हैं, जो पृथ्वी पर श्वान रूप में विचरण करते हैं। ये पूजा करने वाले का हित तथा तिरस्कार करने वाले का अहित करते हैं। संयमी साधु की उपासना में देवता रहते थे। वे अविनीत शिष्य को दंडित भी कर देते थे, जैसे संगम आचार्य की उपासना में रहने वाले देव ने दत्त शिष्य को प्रतिबोध देने के लिए भयंकर वायु के साथ वर्षा की विकुर्वणा की।
कुछ आचार्य इतने शक्ति सम्पन्न होते थे कि चिमटी बजाते ही व्यन्तर देव पलायन कर जाते थे। संगम आचार्य के चिमटी बजाते ही छह महीने से व्यन्तर प्रभावित बालक ने रोना बंद कर दिया और व्यन्तर देवी वहां से पलायन कर गई।
१. मवृ प. १३०॥ २. महा २/१०/१०। ३. जैन आगम-साहित्य में भारतीय समाज, पृ. ४३८ । ४. (क) पिनि २१०/५।
(ख) निभा ४४२७, चू पृ. ४१६ : कैलासपर्वतो मेरुः ,
तत्थ जाणि देवभवणाणि तण्णिवासिणो जे देवा एते इमं
मच्चलोगं आगच्छति, जक्खरूवेण श्वानरूपेणेत्यर्थः। ५. मवृ प. १२६। ६. मवृ प. १२५।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
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संन्यस्त परम्परा एवं साम्प्रदायिकता
नियुक्तिकार ने तत्कालीन अनेक संन्यस्त परम्पराओं का उल्लेख किया है। भिक्षाचर्या के प्रसंग में पांच प्रकार के श्रमण एवं पांच वनीपकों का उल्लेख है। श्रमणों के पांच प्रकार हैं-१. निर्ग्रन्थ २. शाक्य -रक्तपटधारी बौद्ध संन्यासी ३. तापस ४. गैरुक-गेरुए वस्त्र धारण करने वाले परिव्राजक ५. आजीवकगोशालक परम्परा के साधु।
याचना के द्वारा आजीविका चलाने वाले वनीपक कहलाते थे, उनके पांच भेद वर्णित हैं--श्रमण, ब्राह्मण, कृपण, अतिथि और श्वान। वनीपक दोष के अन्तर्गत नियुक्तिकार ने इन सबकी विशेषताओं का उल्लेख किया है। एक सम्पदाय के संन्यासी मात्सर्य के कारण दूसरे सम्प्रदाय के साधु की निंदा करते थे। साम्प्रदायिक अभिनिवेश के कारण किसी उत्कृष्ट साहित्यिक रचना को जला दिया जाता था, जैसेआषाढ़भूति द्वारा रचित राष्ट्रपाल नामक नाटक को इसलिए जला दिया गया कि उसका मंचन होने से ५०० क्षत्रिय प्रव्रजित हो गए थे। विद्या और मंत्र का प्रयोग
नियुक्तिकालीन समाज में विशिष्ट विद्या एवं मंत्र को सिद्ध करके उसके प्रयोग की परम्परा चलती थी। महावीर ने साधु के लिए विद्या, मंत्र, निमित्त आदि का प्रयोग निषिद्ध किया था लेकिन छद्मस्थता वश कहीं-कहीं साधु आहार-प्राप्ति के लिए इनका प्रयोग कर लेते थे। आचार्य पादलिप्त ने संघ-प्रभावना के लिए मंत्रप्रयोग से मुरुंड राजा की शीर्ष-वेदना को दूर किया। विद्या का प्रयोग करके साधु कंजूस व्यक्ति से भी वस्त्र, घी, गुड़ आदि पदार्थ पर्याप्त मात्रा में ले लेते थे, फिर विद्या प्रतिसंहृत होने पर उस व्यक्ति को ज्ञात होता था कि मेरे वस्त्र आदि किसने चुराए? विलाप करने पर उसके पारिवारिक लोग उसे समझाते कि तुमने स्वयं उन वस्तुओं का दान किया है।
कुछ तापस योगसिद्धि करके पाद-लेप के द्वारा पैदल चलकर नदी पार कर लेते थे। विद्या विशेष के प्रयोग से आचार्य समित ने कृष्णा नदी को पार करने का निवेदन किया तो नदी के दोनों किनारे आपस में मिल गए। उसकी चौड़ाई उनके पैरों से लांघने जितनी हो गई। पार करने पर नदी पुनः चौड़ी हो गई।
कभी-कभी साधु वैक्रिय लब्धि से रूप-परिवर्तन करके एक ही घर से बार-बार भिक्षा ग्रहण कर लेते थे। आषाढ़भूति मुनि ने नट के यहां से मोदक-प्राप्ति के लिए काने, कुब्ज आदि का रूप बनाकर तीन
१. मवृ प. १०८। २.पिनि २२७। ३. पिनि २२७/१,२।
४. पिनि २३१/१, २, मवृ प. १४४। ५.पिनि २३१/४, मवृ प. १४४।
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पिंडनियुक्ति
बार मोदक प्राप्त किए। छद्मस्थता वश साधु के द्वारा भी मूलकर्म के प्रयोग द्वारा गर्भ-परिशाटन, गर्भाधान तथा वशीकरण आदि के प्रयोग किए जाते थे। अञ्जन आदि प्रयोग से अदृश्य होने की विद्या प्रचलित थी। दो क्षुल्लक राजा चन्द्रगुप्त मौर्य के साथ अदृश्य होकर भोजन करते थे। पिण्डनियुक्ति भाष्य में विविध गुप्त विद्याओं से युक्त योनि प्राभृत का उल्लेख मिलता है। इस ग्रंथ के द्वारा संयोग बिना भी सम्मूर्च्छिम घोड़े आदि की उत्पत्ति संभव थी।
ज्योतिष विद्या प्रकर्ष पर थी, इसके द्वारा नैमित्तिक बता देते थे कि घोड़ी के पेट में पांच वर्ण वाला (पंचपुंड्र) घोड़ी का बच्चा है। निमित्त के माध्यम से गुह्य प्रदेश के तिल तथा स्वप्न आदि के बारे में भी बताया जाता था। शुभ-अशुभ शकुन विषयक ज्ञान भी टीकाकार को था। प्रस्थान के समय शंख की ध्वनि को मंगल फल देने वाली तथा महाशकुन वाली बताई गई है। अर्थ-व्यवस्था
पिंडनियुक्ति को पढ़ने से उस समय की अर्थ-व्यवस्था का भी यत्किंचित् ज्ञान होता है। कर्म, शिल्प आदि के द्वारा आजीविका चलती थी। कृषि एवं पशुपालन के व्यवसाय का भी स्फुट रूप से वर्णन मिलता है। धनाढ्य सेठ अपने घर के लिए गाय-भैंस की रखवाली में कर्मकर नियुक्त करते थे, जो वैतनिक होने पर भी आठवें दिन सारा दूध अपने घर लेकर जाते थे।
___मत्स्य पकड़कर उसका व्यवसाय किया जाता था। मच्छीमार कांटे में मांस लगाकर मछली को पकड़ते थे। इधर-उधर न हो जाए इसलिए वह उन्हें धागे में पिरोता था।
कौटुम्बिक खेती के कार्य हेतु हालिकों को नियुक्त करता था। केवल भोजन के आधार पर भी हालिक खेती में मजदूरी करते थे। हालिकों के लिए भोजन सामूहिक रूप से तथा व्यक्तिगत रूप से अलगअलग भी भेजा जाता था।
ब्याज का धंधा प्रकर्ष पर था, इसे वृद्धि कहा जाता था। पिण्डनियुक्ति में १०० रु. पर ५ रु. ब्याज का उल्लेख मिलता है। टीकाकार मलयगिरि ने प्रतिवर्ष का उल्लेख किया है, जबकि यह ब्याज मासिक होना चाहिए क्योंकि कौटिलीय अर्थशास्त्र में १०० पण पर ५ पण मासिक ब्याज का उल्लेख है। ऋण न चुकाने पर व्यक्ति को दास बना दिया जाता था। मनुस्मृति में भी उल्लेख है कि व्यक्ति अपने ऋण को
१. पिनि २१९/१०, मवृ प. १३७। २. पिभा ३५-३७, मवृ प. १४३। ३. मवृ प. १२८। ४. मवृप. २०;शङ्खशब्दमाकर्ण्यमानं प्रशस्तंमहाशकुनमामनन्ति
शाकुनिकाः। ५. मवृ प. १११।
६. मवृ प. १७०, १७१। ७. पिनि १८२, मवृ प. ११४ । ८. मवृ प. ३३ ; ऋणस्य पंचकशतादिवर्द्धनरूपेण कराणां
प्रतिवर्षे.....। ९. कौटि. ३/६८/११/१।
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पिण्डनिर्युक्ति : एक पर्यवेक्षण
बलपूर्वक किसी भी रीति से पूरा ले लेता था।
बहिन सम्मति ने अपने साधु भाई के लिए दो पल तैल दुगुने ब्याज से लिया। तीसरे दिन वह तैल एक कर्ष हो गया। ऋण असीमित होने से उसे दासत्व स्वीकार करना पड़ा।
R
चिकित्सा
भारतीय आयुर्वेद विज्ञान अत्यन्त समृद्ध है । उसमें शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक - तीनों प्रकार की चिकित्साओं का उल्लेख मिलता है। निर्युक्तिकार ने प्रसंगवश आयुर्वेद एवं चिकित्सा के अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्यों का निरूपण किया है। चिकित्सा पद्धति के द्वारा एक व्यक्ति ने व्याघ्र के अंधेपन को मिटा दिया।
भोजन के अंत में दूध स्वास्थ्यवर्धक माना जाता है। रात्रि में अधिक जगने से अजीर्ण रोग होता है ।' बीमारी में अजीर्ण न हो इसलिए वस्त्र बार-बार धोने चाहिए। सांप काटने पर मंत्र और औषधि दोनों का प्रयोग होता था। आयुर्वेद और आरोग्य से सम्बन्धित अनेक तथ्य परिशिष्ट संख्या ४ में संकलित हैं। धान्य एवं खाद्य
देशविशेष के धान्य प्रसिद्ध होते थे। जैसे मगध के गोबर ग्राम में शालि प्रचुर रूप में उत्पन्न होने के कारण वह प्रसिद्ध था। डॉ. कमलचन्द्र जैन ने एक कल्पना की है कि संभवत: गोबर की सुलभता के कारण उस गांव का नाम गोबर पड़ गया होगा। वहां गोबर की खाद सुलभ होती होगी, जिसका उपयोग उर्वरक के लिए होता रहा होगा।
कोद्रव और रालक की हल्के स्तर के धान्यों में गिनती होती थी अतः निर्धन लोग प्रायः इन्हीं धान्यों का उपभोग करते थे, धनाढ्य लोग शालि धान्य का प्रयोग करते थे। निर्युक्तिकार ने प्रसंगवश अनेक धान्य, दाल, मसाले, खाद्य-पदार्थ, पाकभाजन एवं पाक-क्रिया के साधनों का उल्लेख किया है। इसके लिए देखें परिशिष्ट १६ विशेषनामानुक्रम पृ. ३०६ ।
धान्य आदि की सुरक्षा के लिए उन्हें कोठे में भरकर गोबर से लीपकर लाख आदि से मुद्रित कर दिया जाता था, जिससे वे लम्बे समय तक विकृत नहीं होते थे ।" बृहत्कल्प भाष्य में भी धान्य के भण्डारन की वैज्ञानिक विधि उपलब्ध होती है । १२
१. मनु ८/५० ।
२. पिनि १४४ / २ ।
३. मवृ प. १३३ ।
४. मवृ प. १११ 1
५. मवृ प. ३३ ।
६. पिनि २१, मवृ प. १२ ।
१४९
७. मवृ प. १०८ ।
८. मवृ प. ७२, ७३ ।
९. प्राचीन जैन साहित्य में आर्थिक जीवन, पृ. ४४, ४५ ।
१०. मवृ प. १०० ।
११. पिनि १६२, मवृ प. १०५ ।
१२. बृभा ३३१०-१२।
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१५०
पिंडनियुक्ति
वैवाहिक सम्बन्ध
विवाह अल्पायु में होते थे। यदि कोई कन्या या पुत्र बड़ा हो जाता तो उसके माता-पिता को प्रेरित किया जाता कि तुम्हारा पुत्र युवा हो गया, इसका विवाह क्यों नहीं करते हो? शादी किए बिना कहीं यह स्वैरिणी स्त्री के साथ भाग न जाए। इसी प्रकार पुत्री के लिए कहा जाता कि समय पर विवाह न होने से पुत्री तुम्हारे कुल को कलंकित न कर दे। ऋतुधर्मा होने से पूर्व कन्या की शादी हो जानी चाहिए।
___ आजकल की भांति तत्कालीन समाज में भी पुत्री लेकर पुत्री का विवाह किया जाता था, जैसे देवदत्त की बहिन की शादी धनदत्त से तथा धनदत्त की बहिन का विवाह देवदत्त से हुआ। यद्यपि प्राचीनकाल में विधवा विवाह मान्य नहीं था, स्त्री आजीवन पातिव्रत्य धर्म का पालन करती थी लेकिन अपवाद स्वरूप देवर की पत्नी की मौत होने पर भाई की विधवा पत्नी देवर से विवाह कर लेती थी।
प्रथम पत्नी से गृह-कलह होने पर व्यक्ति दूसरी शादी करने की बात सोचता था। सौत के भय से पत्नी उस कन्या को मूलकर्म के प्रयोग से भिन्नयोनिका बना देती थी, जिससे पति दूसरी शादी न कर सके। धनदत्त सार्थवाह की पत्नी चन्द्रमुखा ने सेठ की पुत्री को औषध आदि खिलाकर भिन्नयोनिका बना दिया। भिन्नयोनिका की बात ज्ञात होने पर पति ने उसके साथ विवाह नहीं किया। सौतिया डाह के कारण सौत दूसरी रानी के पुत्र को गर्भावस्था में ही उसका परिशाटन करवा देती थी, जिससे उसका पुत्र युवराज न बन पाए।
गर्भ के तीसरे महीने में गर्भवती स्त्री के तीव्रतम इच्छा उत्पन्न होती है, जिसे दोहद कहा जाता है। गर्भकाल में दोहद एवं उसकी संपूर्ति का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। दोहद की पूर्ति न होने पर गर्भवती एवं गर्भस्थ शिशु-दोनों पर प्रभाव पड़ता है। चूर्णिकार अगस्त्यसिंह के अनुसार दोहद-पूर्ति के बिना गर्भपात अथवा मरण भी हो सकता है। दोहद की पूर्ति येन केन प्रकारेण की जाती थी। जितशत्रु राजा ने सुदर्शना रानी की दोहदपूर्ति हेतु राजपुरुषों को स्वर्णपृष्ठ वाले मृग लाने का आदेश दिया क्योंकि रानी के मन में सुनहरी पीठ वाले मृगों का मांस भक्षण करने का दोहद उत्पन्न हो गया था।
संतान उत्पन्न होने के बाद धनाढ्य लोग पांच प्रकार की धाय माताओं द्वारा बालक का पालन पोषण करवाते थे। दूध पिलाने वाली अंकधात्री कहलाती थी। स्नान कराने वाली मज्जनधात्री, बालक को विभूषित और अलंकृत करने वाली मण्डनधात्री, क्रीड़ा कराने वाली क्रीडापन धात्री तथा बच्चे को गोद में
१. पिनि २३१/८, ९। २. मवृ प. १००। ३. मवृ प. ६४। ४. मवृ प. १४४, १४५ । ५. पिनि २३१/१०,११।
६. दशअचू पृ. १११; डोहलस्साविगमे मरणं गब्भपतणं वा
होज्जा। ७. पिनि ५३/१-५४, मवृ प. ३०। ८. पिनि १९७, आचूला १५/१४ ।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
१५१
रखने वाली अंकधात्री कहलाती थी। बौद्ध परम्परा के दिव्यावदान ग्रन्थ में चार प्रकार की धाइयों का वर्णन मिलता है।
पुरुष प्रधान समाज होने पर भी कुछ पुरुष महिलाओं के इतने अधीन होते थे कि दास की भांति उनके हर आदेश का पालन करते थे। पिण्डनियुक्ति में छः प्रकार के स्त्रीप्रधान अधम पुरुषों का उल्लेख मिलता है। पत्नी के कहने पर प्रतिदिन चूल्हा साफ करके उसे जलाने वाला श्वेताङ्गलि, प्रतिदिन प्रातः सरोवर से पानी लाने वाला बकोड्डायक, हर दिन पत्नी से पूछकर कार्य करने वाला किंकर, पत्नी के आदेश के अनुसार स्नान करने वाला स्नायक, आहार के समय गृध्र की भांति स्थाली लेकर पत्नी के पास जाने वाला गृध्रइवरिडी तथा बालक के मल-मूत्र आदि की सफाई करने वाला हदज्ञ कहलाता था।
आज की भांति उस समय भी घरेलू हिंसा होती थी। रुचि के विपरीत कार्य होने पर पुरुष पत्नियों को प्रताड़ित करते थे, जिसे स्त्रियां शांति से सहन करती थीं। शाल्योदन परिवर्तन करने पर दोनों पतियों ने अपनी पत्नियों को प्रताड़ित किया। उनकी पत्नियां वृक्ष की शाखा की भांति कांपने लगीं। मार्जार द्वारा मांस खाने पर अपने पति उग्रतेज के भय से कुत्ते द्वारा वान्त मांस पकाने पर पत्नी रुक्मिणी को उसके पति ने प्रताड़ित किया। कहीं-कहीं पत्नियां भी पति पर गुस्सा करती थीं। स्वामी द्वारा छीनकर साधु को दूध देने पर जब वत्सराज नामक ग्वाला कुछ न्यून दूध लेकर अपने घर पहुंचा तो उसकी पत्नी ने बहुत गुस्सा किया। भिक्षा देने के लिए भी पति-पत्नी में कलह हो जाता था। पत्नी ब्राह्मणों को देने की इच्छा रखती तथा पति श्रमणों को। सामाजिक परम्पराएं एवं मान्यताएं
नियुक्तिकार ने प्रसंगवश अनेक लौकिक एवं वैदिक परम्पराओं का उल्लेख भी किया है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि नियुक्तिकार को उस परम्परा के प्रति विश्वास था लेकिन ग्रंथ को महत्त्वपूर्ण बनाने एवं अपने बाहुश्रुत्य को प्रकट करने के लिए उन्होंने अन्य धर्मों में प्रचलित अनेक लौकिक मान्यताओं एवं अंधवश्वासों का उल्लेख किया है। इनमें कुछ परम्पराएं धर्म से सम्बन्धित हैं तथा कुछ समाज से सम्बन्धित । नियुक्तिकार ने वैदिक मान्यता को प्रकट करते हुए कहा है कि ऋतुमती कन्या के रक्त के जितने बिन्दु गिरते हैं, उतनी ही बार उसकी मां नरक में जाती है। इसके पीछे वैदिक मान्यता यह है कि ऋतुमती होने के पूर्व कन्या का विवाह हो जाना चाहिए अन्यथा उसका असर मां पर पड़ता है।
पुत्र-प्राप्ति को दुर्लभ माना जाता था। उत्तराध्ययन में भी भृगु पुरोहित लौकिक दृष्टि से पुत्रोत्पत्ति
१. मवृ प. १३५, १३६। २. मवृ प. १०१। ३. मवृ प. १३६।
४. पिनि २३१/८। ५.पिनि १९८/२।
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पिंडनिर्युक्ति
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का महत्त्व प्रतिपादित करता है। किसी भी उपाय से पुत्र पैदा न होने पर देवता के द्वारा औपयाचितक रूप
लोमश पुरुष द्वारा नियोग प्रयोग से पुत्र या पुत्री को उत्पन्न किया जाता था । मनुस्मृति के अनुसार भी नियोग-विधि से एक पुत्र की ही उत्पत्ति करनी चाहिए, दूसरे की नहीं। वहां लोमश पुरुष के स्थान पर घी चुपड़े व्यक्ति का उल्लेख है । अपनी घोड़ी से घोड़े को उत्पन्न करने के लिए रुपए देकर भी दूसरे के घोड़े से संयोग करवाते थे ।
व्यक्ति के मरने पर उसकी प्रतिमा बनवाकर नैवेद्य तैयार करवाकर उसे बंटवाया जाता था तथा पिता या माता के मृत्यु के दिन उनकी स्मृति में उस नाम के लोगों के लिए या सभी के लिए अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार भोज का आयोजन होता था।
समाज में दान देने की परम्परा थी। आम लोगों में यह धारणा प्रचलित थी कि यदि यहां दान नहीं देंगे तो परलोक नहीं सुधरेगा अतः दुर्भिक्ष के पश्चात् धनाढ्य लोग श्रमण, ब्राह्मण आदि के लिए पंचविध भिक्षा देते थे। महिलाएं स्मृति के लिए घर की दीवार पर लकीरें खींचकर रखती थीं कि कितनी प्रकार की भिक्षाएं दी जा चुकी हैं।"
गोमांस का प्रयोग बहुत बड़े पाप का हेतु माना जाता था। मृतक भोज का आयोजन होता था, जिसमें घेवर आदि मिष्ठान्न बनते थे । मृतकभोज को करडुयभक्त भी कहा जाता था।' उद्यापन में लड्डू आदि विशिष्ट खाद्य-पदार्थ बनाए जाते थे। विशिष्ट पर्व पर सेवई को घी और गुड़ के साथ खाया जाता था ।'
यातायात
नियुक्तिकार एवं टीकाकार ने प्रसंगवश यातायात के पथ एवं उसके साधनों का भी वर्णन किया है । सूत्रकृतांग के मार्ग अध्ययन की निर्युक्ति में निक्षेप के माध्यम से निर्युक्तिकार ने प्राचीन यातायात - पथ का विस्तृत विवेचन किया है। यातायात के मुख्यतः दो पथ प्रचलित थे- जल एवं स्थल । जलमार्ग को जंघा, दृति, बाहु और नौका के द्वारा तथा स्थल मार्ग को शकट, गधागाड़ी, बैलगाड़ी तथा पैदल पार किया जाता था । अक्षम व्यक्ति को कापोती - कांवड़ के द्वारा भी ले जाया जाता था। जलमार्ग में निम्न बाधाएं उपस्थित होती थीं
.
गहरे पानी में निमज्जन ।
१. मवृ प. १२०, केनचिन्निजभार्यायाः कथमपि पुत्रासम्भवे देवताया औपयाचितकेन ऋतुकाले स्वसंप्रयोगेण च सुतः पुत्रिका वोत्पाद्यते ।
२. मनु ९/६० ।
३. पिनि १९४ / १, मवृ प. १२० ।
४. मवृ प. ५४ ।
५. पिनि ९५/२, मवृ प. ७८ ।
६. मवृ प. ४७ ।
७. पिनि २१८/१, मवृ प. १३४ ।
८. मवृ प. १३४ ।
९. सूनि १०८, टी पृ. १३१ । १०. पिनि १५३ ।
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
१५३.
• मगरमच्छ, कच्छप आदि के द्वारा पकड़ा जाना। • कीचड़ में पैर धंसना आदि।
___धूलियुक्त कच्चे मार्ग होने से स्थलमार्ग में भी कांटे, सर्प, चोर तथा जंगली पशुओं का भय रहता था। सार्थ में यदि कोई साधु बिछुड़ जाता तो महिष आदि का सींग बजाकर उसका मिलाप किया जाता था। साधु समुदाय भी सार्थ के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान की दूरी तय करते थे। कभी-कभी सार्थ के साथ चोर भी होते थे, जो सार्थिक से बलात् आहार छीनकर साधु को दे देते थे। अपराध एवं दंड
____ हर युग में अपराध और दंड का स्वरूप बदलता रहता है। हाकार, माकार और धिक्कार नीति से प्रारम्भ होने वाली दंड-व्यवस्था प्राणदंड तक पहुंच गई। नियुक्तिकालीन समाज में राजाज्ञा भंग होने पर प्राणदंड तक का दंड दिया जाता था। सूर्योदय उद्यान में जाने वाले आज्ञाभंग के कारण प्राणदंड के भागी हुए, जबकि चंद्रोदय उद्यान में जाने वाले तृणहारक अंत:पुर को देखकर भी दंड मुक्त हो गए क्योंकि उन्होंने राजा की आज्ञा का भंग नहीं किया था।
पाप करने वाले से भी उसका समर्थन, सहयोग, प्रशंसा और अनुमोदन करने वाला अधिक दोषी होता है। अपराधी की प्रशंसा करने वाले को भी राजा प्राणदंड तक की सजा दे देते थे क्योंकि इससे अपराध को सहयोग और प्रोत्साहन मिलता है। चोर आदि के साथ रहने वालों को भी राजा दंडित करता था। श्रीनिलय नगर के राजा गुणचन्द्र ने अंत:करण की रानियों के साथ सम्बन्ध स्थापित करने वाले व्यक्ति को चौराहे पर तिरस्कार पूर्ण प्राणदंड दिया तथा गुप्तचरों के माध्यम से यह ज्ञात किया कि नगर में कौन उसकी प्रशंसा कर रहा है। राजा ने प्रशंसा करने वाले को भी कड़ा दंड दिया।
.. यहां संक्षिप्त में कुछ विषयों से सम्बन्धित तत्कालीन सांस्कृतिक स्थिति का चित्रण प्रस्तुत किया है। इस विषय में और भी महत्त्वपूर्ण सामग्री इस ग्रंथ एवं इसके व्याख्या-साहित्य में विकीर्ण रूप से बिखरी पड़ी है, जो स्वतंत्र रूप से विद्वानों द्वारा शोध का विषय है। पाठ-संपादन की प्रक्रिया
शोध कार्यों में पाठ-संपादन का कार्य अत्यन्त जटिल, नीरस और श्रमसाध्य होते हुए भी महत्त्वपूर्ण है। पाठ-निर्धारण का अर्थ मात्र इतना ही नहीं कि प्राचीन प्रतियों के विभिन्न पाठों में एक पाठ
१.पिनि १५४।
४. पिनि ९१/१-४, मवृ प.७६ । २. मवृ प. २०, २१, शृङ्गस्य महिष्यादिसत्कस्य, तद्धि मार्गे ५. मवृ प. ४८, ४९।।
गच्छात्परिभ्रष्टानां साधूनां मीलनाय वाद्यते। ६. पिनि ६९/३, मवृ प. ४९ । ३. पिनि १७७/१, २, मवृ प. ११२, ११३ ।
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१५४
पिंडनिर्युक्ति
को मुख्य मानकर अन्य पाठों के पाठान्तर दे दिए जाएं। पाठ-निर्धारण में सूक्ष्मता से अनेक दृष्टियों से विचार किया जाता है ।
आधुनिक विद्वानों ने पाठानुसंधान के विषय में पर्याप्त प्रकाश डाला है। पाश्चात्त्य विद्वान् इस कार्य को चार भागों में विभक्त करते हैं - १. सामग्री संकलन २. पाठ - चयन ३. पाठ- सुधार ४. उच्चतर आलोचना । प्रस्तुत ग्रंथ के संपादन में चारों बातों का ध्यान रखा गया है। पाठ-संशोधन के लिए तीन आधार हमारे सामने रहे
१. पिण्डनिर्युक्ति की हस्तलिखित प्रतियां ।
२. पिण्डनिर्युक्ति का व्याख्या - साहित्य (मलयगिरीया टीका, अवचूरि आदि) ।
३. पिण्डनिर्युक्ति की अनेक गाथाएं, जो जीतकल्पभाष्य तथा निशीथ भाष्य आदि ग्रंथों में
मिलती हैं ।
पिण्डनिर्युक्ति की ताड़पत्रीय प्रतियां कम मिलती हैं अतः पाठ - सम्पादन में पन्द्रहवीं, सोलहवीं शताब्दी में कागज पर लिखी प्रतियों का ही उपयोग किया गया है। पाठ-संशोधन एवं पाठ- चयन में हमने प्रतियों के पाठ को प्रमुखता दी है किन्तु किसी एक प्रति को ही पाठ चयन का आधार नहीं बनाया है और न ही बहुमत के आधार पर पाठ का निर्णय किया है। अर्थ-मीमांसा का औचित्य, टीका की व्याख्या एवं पौर्वापर्य के आधार पर जो पाठ संगत लगा, उसे मूल पाठ के अन्तर्गत रखा है। कहींकहीं व्याख्या के आधार पर टीका का पाठ उचित लगा तो उसे भी मूल में रखा है तथा प्रतियों का पाठ पाठान्तर में दिया है।
गाथा - निर्धारण में हमने इस बात का पूरा ध्यान रखा है कि जो भी गाथा निर्युक्ति की भाषा-शैली से प्रतिकूल या विषय से असंबद्ध लगी, उसे हमने मूल क्रमांक के साथ नहीं जोड़ा है। अनेक गाथाओं के बारे में टिप्पणी सहित विचार-विमर्श प्रस्तुत किया है कि किस कारण से वह गाथा नियुक्ति की न होकर बाद में प्रक्षिप्त हुई है अथवा भाष्य की गाथा निर्युक्ति में जुड़ गई। यहां पाठ-सम्पादन के कुछ बिन्दुओं को प्रस्तुत किया जा रहा है
• कहीं-कहीं किसी प्रति में कोई शब्द, चरण या गाथा नहीं है, उसका निर्देश पादटिप्पण में x चिह्न द्वारा किया है। जहां पाठान्तर एक से अधिक शब्दों पर या एक चरण में है उसे ' ' चिह्न से दर्शाया गया है। • च, उ, व आदि अवयवों के पाठ-भेद प्रायः टीका की व्याख्या के आधार पर निर्धारित किए हैं।
•
'प्राचीनता की दृष्टि से जहां कहीं मूल व्यञ्जनयुक्त पाठ मिला, उसे मूल में स्वीकृत किया है लेकिन पाठ न मिलने पर यकार श्रुति वाले पाठ को भी स्वीकृत किया है इसीलिए एक ही ग्रंथ में कहीं सोय पाठ मिलेगा तो कहीं सोत । तकारश्रुति वाले पाठ को प्राथमिकता नहीं दी है, जैसे - कातो (कागो) ।
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पिण्डनिर्युक्ति : एक पर्यवेक्षण
हस्तप्रतियों के आधार पर गाथाओं के आगे 'दारं' का उल्लेख किया गया है लेकिन अनेक स्थलों पर
विषय की दृष्टि से उनको द्वारगाथा नहीं माना जा सकता।
लिपिकार की भूल से जहां पाठभेद हुआ है, उन पाठान्तरों का प्रायः उल्लेख नहीं किया है लेकिन जहां उस शब्द से अन्य अर्थ निकलने की संभावना थी, उन पाठान्तरों का उल्लेख किया गया है।
•
•
• पश्चिमी विद्वान् ल्यूमेन ने दशवैकालिक एवं एल्फसडोर्फ ने उत्तराध्ययन का छंद की दृष्टि से अनेक स्थलों पर पाठ - संशोधन एवं पाठ-विमर्श किया है। उन्होंने छंद तकनीक को उपकरण के रूप में काम में लिया है। जेकोबी ने छंद के आधार पर गाथा की प्राचीनता एवं अर्वाचीनता का निर्धारण किया है। उनके अनुसार आर्या छंद में निबद्ध साहित्य बाद का तथा वेद छंदों में प्रयुक्त गाथाएं प्राचीन हैं । पिण्डनिर्युक्ति में भी पाठ - संपादन में छंद दृष्टि का पूरा ध्यान रखा गया है। अनेक स्थलों पर छंद के आधार पर ही पाठ की अशुद्धियां पकड़ी गई हैं। पाठ- संपादन में हमने आर्या की उपजातियों का पृथक् निर्देश नहीं किया है लेकिन आर्या के अतिरिक्त दूसरे छंद में गाथाएं निबद्ध हैं तो उनका टिप्पण में उल्लेख कर दिया है। पिण्डनिर्युक्ति में कहीं-कहीं एक ही गाथा में अनुष्टुप् एवं आर्या- दोनों छंदों का प्रयोग हुआ है, जैसे- तीन चरण आर्या के तथा एक अनुष्टुप् का अथवा तीन अनुष्टुप् और एक आर्या का। जहां भी छंदों का मिश्रण हुआ है, पादटिप्पण में उसका भी उल्लेख कर दिया गया है।
अनेक स्थानों पर छंद की दृष्टि से विभक्ति रहित प्रयोग, अलाक्षणिक मकार तथा बहुवचन के स्थान पर एकवचन अथवा एकवचन के स्थान पर बहुवचन का प्रयोग हुआ है, वहां टीकाकार ने इसका निर्देश या विमर्श प्रस्तुत किया है तो उसका पादटिप्पण में उल्लेख किया गया है, जैसे
अत्रैकारद्वयस्य छंदोऽर्थत्वादादिशब्दस्य व्यत्ययान्मकारस्य चालक्षणिकत्वादेवं निर्देशो द्रष्टव्यः ।
•
१५५
सूत्रे विभक्तिलोप आर्षत्वात् ।
इह सर्वत्र सप्तमी तृतीयार्थे प्राकृतलक्षणवशात् ।
सेहमाईण इत्यत्र मकारोऽलाक्षणिकः ।
नेमशब्दो देश्यः कार्याभिधाने रूढः । सीदति धातूनामनेकार्थत्वात् फलति । प्राकृतशैल्या स्त्रीलिंगनिर्देशः ।
शोधकर्ताओं की सुविधा के लिए संपादित नियुक्ति के क्रमांक प्रारम्भ में तथा टीका के क्रमांक गाथा के अन्त में दे दिए गए हैं। इससे किसी भी गाथा की टीका देखने में सुविधा रहेगी। यद्यपि हमको टीका में प्रकाशित भाष्यगाथाओं को भी साथ 'देना था। टीका में प्रकाशित भाष्य गाथाओं को अलग देने का इतना महत्त्व नहीं था लेकिन टीका का सम्पादन नहीं हुआ और गाथाओं की सेटिंग हो चुकी थी अतः भाष्य गाथाओं को निर्युक्तिगाथाओं के अन्त में दिया है।
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पिंड निर्युक्त
कहीं-कहीं भगवती टीका के संदर्भ हेतु भगवती भाष्य के पीछे दी गई टीका की ही पृष्ठ संख्या दे दी गई
•
है।
• शब्द - सूची में संस्कृतनिष्ठ शब्द, जो प्राकृत में बिना परिवर्तनं के प्रयुक्त होते हैं, उनका समावेश नहीं किया है, जैसे- कोविद, खर, गल, तुरंग, निचय, समवाय, मधु आदि ।
हस्तप्रतियों से पाठ-संपादन का कार्य अत्यन्त दुरूह है । नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि जैसे सक्षम आचार्य ने इस संदर्भ में आने वाली विभिन्नताओं और कठिनाइयों का वर्णन किया है फिर भी उन्होंने श्रुत की उपासना का महान् कार्य किया। उन्हीं को आदर्श मानकर पूज्यवरों द्वारा प्रेरित होकर यह कार्य प्रारम्भ किया और यत्किंचित श्रुत की उपासना की ।
हस्तप्रति - परिचय
पिण्डनिर्युक्ति के सम्पादन में निम्न प्रतियों एवं स्रोतों का उपयोग किया गया है
(अ) यह प्रति देला का उपाश्रय अहमदाबाद से प्राप्त है। इसकी क्रमांक संख्या ११४५८ है । यह ३० सेमी. लम्बी तथा ११ सेमी. चौड़ी है। इसकी पत्र संख्या १४ तथा अंतिम पृष्ठ खाली है। प्रति स्पष्ट एवं साफ-सुथरी है। इसके अंत में " पिण्डनिज्जुत्ती सम्मत्ता, शुभं भवतु सं. १४२२ वर्षे फाल्गुन सुदि १२ बुधवार दिने लिखिता " ऐसा लिखा है।
(क) यह प्रति श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमंदिर पाटण गुजरात से प्राप्त है। इसकी क्रमांक संख्या ३६७७ तथा पत्र संख्या २४ है। इसके पत्र अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण हैं लेकिन प्रति के अक्षर स्पष्ट एवं साफ-सुथरे हैं। यह प्रति चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी की होनी चाहिए। इसके अंत में " पिंडनिज्जुत्ती सम्मत्ता ग्रंथाग्र गाथा ७१६ ॥ छ ॥ श्री ॥ श्री ॥ श्री ॥ " का उल्लेख है ।
(ब) यह प्रति जसुभाई लाईब्रेरी अहमदाबाद से प्राप्त है। इसकी क्रमांक सं. ६२३ है । यह २५ सेमी. लम्बी एवं ११ सेमी. चौड़ी है। इसकी पत्र सं. २६ है । यह मोटे अक्षरों में लिखी गई है। इसके अंत में " पिण्डनिज्जुत्ती सम्मत्ता सं. १५५२, वर्षे भाद्रवा बदि १० रावो श्री अणहिल्लपुरपत्तने श्री कोरंग ग्रं. ८०० श्री ॥ " ऐसा उल्लेख है ।
(बी) यह प्रति राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान बीकानेर से प्राप्त है। इसकी परिग्रहणांक सं. १३१९४ है । यह २८ सेमी. लम्बी १३ सेमी. चौड़ी है। यह प्रति किनारे से खंडित है अतः अनेक शब्द लुप्त हो गए हैं। प्रति के बीच तथा किनारे पर बड़ा लाल बिन्दु है । इसकी पत्र संख्या २२ है । अंतिम पृष्ठ खाली है। प्रति के अंत में " इति पिण्डनिज्जुत्ती सम्मत्ता शुभं भवतु, ग्रंथाग्र १००० परिपूर्णा श्री पूर्णिमापक्षे श्री विमलेन लिपी कृतवान् श्रीरस्तु संवत् १६५७ वर्षे विशाखसुदि पंचमी दिने ॥" ऐसा उल्लेख है।
(ला) यह प्रति लालभाई दलपत विद्या मंदिर अहमदाबाद से प्राप्त है। इसकी क्रमांक संख्या १९५४ है । यह
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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
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२५.५ सेमी. लम्बी तथा १३.३ सेमी. चौड़ी है। यह साफ-सुथरी एवं पढ़ने में स्पष्ट है। इसके १५ पत्र हैं। प्रति के अंत में "महल्लियापिंडनिज्जुत्ती सम्मत्ता श्रीरस्तु शुभं भवतु" लिखा हुआ है तथा अंतिम पृष्ठ खाली है। (स) यह प्रति श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमंदिर पाटण गुजरात से प्राप्त है। इसकी क्रमांक संख्या ३५५४ तथा पत्र संख्या २२ है। जीर्ण होते हुए भी इसके अक्षर स्पष्ट एवं साफ-सुथरे हैं। यह प्रति चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध की होनी चाहिए। इसके अंत में "पिण्डनिज्जुत्ती सम्मत्ता॥ छ॥" का उल्लेख है। (मु) मलयगिरि की टीका में मुद्रित पाठ के पाठान्तर 'मु' के संकेत से निर्दिष्ट हैं। (टीपा) टीकाकार ने अपनी टीका में जिन पाठान्तरों का उल्लेख किया है, उसे टीपा से निर्दिष्ट किया है। पिण्डनियुक्ति के सम्पादन का इतिहास
नियुक्ति पंचक और आवश्यक नियुक्ति का पाठ-सम्पादन परिसम्पन्न होने के पश्चात् आवश्यक नियुक्ति के द्वितीय खंड का सम्पादन करना आवश्यक था लेकिन बीच में चार साल लाडनूं से बाहर यात्रा करने एवं एक साल समणश्रेणी का इतिहास लिखने की व्यस्तता में आगम-सम्पादन का कार्य लगभग छूट सा गया। पुनः जब पूज्यवरों ने मुझे इस कार्य में नियुक्त किया तो कई दिनों तक इस कार्य में मन एकाग्र नहीं हो सका। अनेक बार आवश्यक नियुक्ति के सम्पादन का कार्य हाथ में लिया लेकिन जटिलता के कारण वह हर बार छूटता गया इसलिए आवश्यक नियुक्ति से पूर्व पिण्डनियुक्ति का कार्य प्रारम्भ किया। यद्यपि इस ग्रंथ का हस्तप्रतियों से सम्पादन का कार्य सन् १९८८ में ही पूरा कर दिया था लेकिन प्रकाशन के समय पाटण एवं अहमदाबाद से प्राप्त प्रतियों से इसके पाठ का मिलान किया तो उतना ही श्रम हो गया। गंगाशहर मर्यादा-महोत्सव के बाद इस दृढ़ संकल्प के साथ कार्य प्रारम्भ किया था कि अग्रिम आसींद मर्यादामहोत्सव तक यह कार्य सम्पन्न करना है। दीपावली से लेकर मर्यादा-महोत्सव तक कड़कड़ाती सर्दी में रात्रि में बारह-साढ़े बारह बजे तक कार्य किया, लेकिन भूमिका बड़ी होने के कारण निर्धारित काल-सीमा तक यह कार्य परिपूर्ण नहीं हो सका। आज इसकी परिसम्पन्नता पर अत्यन्त आत्मतोष का अनुभव हो रहा है। इस संदर्भ में मेरा दृढ़तम विश्वास है कि ऐसे गुरुतर कार्य गुरु की कृपा, बुजुर्गों का आशीर्वाद एवं संघ की शक्ति से ही संभव होते हैं, व्यक्ति तो केवल निमित्त मात्र होता है।
यद्यपि इस कार्य में अनेक अवरोध और जटिलताएं आईं लेकिन गुरु-कृपा से समाहित होती गईं। आज तक जो भी आगम ग्रंथ प्रकाशित हुए, उनमें आगम मनीषी मुनि श्री दुलहराजजी का पूर्ण सहयोग
और मार्गदर्शन प्राप्त होता रहा, इस बार भले ही उनकी प्रत्यक्ष सन्निधि नहीं मिली लेकिन उन्होंने पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी, फलतः यह कार्य सुगम हो सका। पिण्डनियुक्ति के अनुवाद का उनकी द्रुतगामिनी लेखनी से सम्पन्न हुआ है। मैं उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करके उनके ऋण को कम नहीं करना चाहती क्योंकि उन्होंने केवल मार्गदर्शन ही नहीं दिया, अनुवाद करना और लक्ष्य प्रतिबद्ध होकर कार्य में एकाग्र रहना भी सिखाया है। इस ग्रंथ पर लिखे गए अधिकांश टिप्पण एवं विस्तृत भूमिका उसी की फलश्रुति है।
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पिंडनियुक्ति
कृतज्ञता-ज्ञापन
गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी हर क्षण इसलिए स्मृति में रहते हैं क्योंकि उन्होंने समय के मूल्य को आंकने की प्रेरणा दी। पूज्य आचार्यप्रवर एवं युवाचार्यवर ने यात्रा आदि कार्यों से मुक्त रखकर मुझे आगमकार्य में नियुक्त ही नहीं किया वरन् शक्ति-संप्रेषित करके अनवरत ऊर्जावान् भी बनाए रखा। उनके चरणों में तो मैं केवल निम्न पद्य ही अर्पित कर सकती हूं
यदत्र सौष्ठवं किञ्चित् , तद् गुर्वोरेव मे न हि।
यदत्रासौष्ठवं किञ्चित् , तन्ममैव तयो न हि ॥ महाश्रमणी साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी की स्नेह भरी दृष्टि मुझे निराशा से मुक्त रखकर सतत सक्रिय बनाए रखती है। आदरणीय मुख्य नियोजिका विश्रुतविभाजी एवं नियोजिका समणी मधुरप्रज्ञाजी की सम्यग् व्यवस्था से यह कार्य सुगमता से सम्पन्न हो सका। शारीरिक दृष्टि से कमजोर होते हुए भी साध्वी सिद्धप्रज्ञाजी का मनोबल अत्यन्त मजबूत है। नियुक्ति और भाष्य के पृथक्करण में जहां भी कठिनाई का अनुभव हुआ, उन्होंने मुक्त हस्त से सहयोग किया है। जैन विश्व भारती के अधिकारीगण और व्यवस्थापकों का सहयोग भी मूल्याह रहा है। कम्पोजिंग एवं सेटिंग में कुसुम सुराना का श्रम मुखर है। अन्त में मैं समणीवृंद के प्रति आभार ज्ञापित करती हुई श्रुतदेवता के चरणों में भावभीनी श्रद्धा अर्पित करती हूं, इस दृढ़ संकल्प के साथ कि संघ और संघपति के श्रीचरणों में शीघ्र ही नियुक्ति का अगला खंड समर्पित कर सकू।
डॉ. समणी कुसुमप्रज्ञा
१४.४.२००८ जैन विश्व भारती, लाडनूं
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पिण्डनिर्युक्ति
मूलपाठ
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विषय सूची
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१५
१७ १७/१-३ १८, १९
पिण्डनियुक्ति के आठ प्रकार। 'पिंड' शब्द के पर्याय। पिंड शब्द के निक्षेप की प्रतिज्ञा। 'पिंड' शब्द के छह निक्षेपों की सार्थकता। पिंड शब्द के छह निक्षेप। नाम पिंड के चार प्रकार। स्थापना पिंड का विवरण। द्रव्यपिंड के भेद-प्रभेद। पृथ्वीकाय के तीन भेद तथा सचित्त पृथ्वी के दो भेद। मिश्र पृथ्वीकाय की व्याख्या। अचित्त पृथ्वीकाय तथा उनके प्रयोजन। अप्कायपिंड के भेद-प्रभेद। निश्चय और व्यवहार रूप से सचित्त अप्काय। मिश्र अप्काय का स्वरूप। मिश्र अप्काय से संबंधित तीन आदेश तथा उनकी समीक्षा। अचित्त अप्काय और उसका प्रयोजन। ऋतुबद्ध काल में वस्त्र धोने के दोष। वर्षाकाल से पूर्व वस्त्र न धोने के दोष। वर्षाकाल से पूर्व कितनी उपधि का प्रक्षालन आवश्यक? आचार्य के वस्त्र मलिन होने पर धोने का निर्देश। विश्रमणा नहीं करने योग्य उपधियों के नाम। वस्त्र धोने से पूर्व विश्रमणा का निर्देश तथा उनकी विधि। वस्त्र-प्रक्षालन हेतु जल-ग्रहण की विधि। वस्त्रों के धोने का क्रम। वस्त्र-प्रक्षालन की विधि। तेजस्काय पिंड के भेद-प्रभेद । सचित्त तेजस्काय के प्रकार। अचित्त तेजस्कायपिंड। वायुकाय पिंड के भेद-प्रभेद। सचित्त एवं अचित्त वायु के प्रकार । अचित्त वायु के पांच प्रकार।
२०
२१ २१/१ २१/२
२२
२२/१-३ २२/४ २२/५ २२/६
२७/१
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पिंडनियुक्ति
२७/२
२८
२९, ३० ३१, ३२
३९, ४० ४१, ४२ ४३, ४४ ४४/१-४
४५/१
४६
नदी में दृति स्थित वायु के पुन: सचित्त होने का कालमान। अचित्त वायुकाय का प्रयोजन। वनस्पतिकायपिंड के भेद-प्रभेद। अचित्त वनस्पतिकाय तथा उसका प्रयोजन । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय आदि के पिंड। विकलेन्द्रिय का प्रयोजन। चतुरिन्द्रिय में अश्वमक्षिका का उपयोग, पंचेन्द्रिय में नैरयिक अनुपयोगी। पंचेन्द्रिय तिर्यंच का उपयोग। सचित्त आदि तीनों प्रकार के मनुष्यों का उपयोग। देवता विषयक उपयोग। मिश्रपिंड के विविध संयोग कृत भेद। क्षेत्रपिंड तथा कालपिंड का विवरण। भावपिंड के भेद। प्रशस्त एवं अप्रशस्त भावपिंड के भेद। प्रशस्त-अप्रशस्त भावपिंड के लक्षण। ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि के पिंड। भावपिंड की परिभाषा एवं उसका निरुक्त। प्रस्तुत प्रकरण में अचित्त पिंड का अधिकार। ज्ञान, दर्शन आदि का कारण आहार। मोक्ष की सिद्धि के हेतु ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि। एषणा के स्वरूप-कथन की प्रतिज्ञा । एषणा के एकार्थक। एषणा के निक्षेप तथा द्रव्य और भाव एषणा के प्रकार। एषणा, गवेषणा, मार्गणा और उद्गोपना आदि शब्दों की अर्थ-मीमांसा। भावैषणा के प्रकार। एषणा के तीनों प्रकारों का मान्य क्रम। गवेषणा के नाम आदि निक्षेप। द्रव्य एषणा में कुरंग एवं गज का दृष्टान्त । उद्गम के एकार्थक तथा उसके निक्षेप। भाव उद्गम के प्रकार। द्रव्य उद्गम का विवरण। द्रव्य उद्गम में लड्डुकप्रियकुमार का कथानक। उद्गम की शुद्धि सै चारित्र की शुद्धि।
४७,४८ ४९,४९/१ ४९/२
५०
५२ ५२/१,२ ५२/३ ५२/४ ५३ ५३/१-५५
५६
५७ ५७/१ ५७/२-४ ५७/५
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विषय सूची
५८,५९ ६०
६१/१
کها
کا
६४
६४/१-३
६५
६६ ६६/१ ६७ ६७/१ ६७/२ ६७/३, ४ ६७/५
६८
उद्गम के सोलह दोष। आधाकर्म से संबंधित मूलद्वार गाथा। आधाकर्म के नाम। द्रव्य-आधा का विवरण। आधाकर्म की परिभाषा। द्रव्य अध:कर्म का विवरण। भाव अध:कर्म का विवरण। आधाकर्मग्राही की अधोगति एवं कर्म-बंधन । द्रव्यआत्मघ्न का स्वरूप। भावआत्मघ्न का स्वरूप। चारित्र के विघात से ज्ञान और दर्शन की भी हानि । द्रव्य आत्मकर्म और भाव आत्मकर्म का स्वरूप। आत्मकर्म का स्वरूप। परकर्म आत्मकर्म कैसे? प्रमत्त और अदक्ष ही बंधन ग्रस्त। आधाकर्म ग्रहण के दोष। प्रतिसेवना, प्रतिश्रवण आदि में गुरु और लघु का क्रम। प्रतिसेवना आदि के स्वरूप-कथन की प्रतिज्ञा। प्रतिसेवना का स्वरूप। प्रतिश्रवण का स्वरूप। संवास एवं अनुमोदना की व्याख्या। प्रतिसेवन आदि चारों पदों के उदाहरण। प्रतिसेवन से संबंधित स्तेन का दृष्टान्त। प्रतिश्रवण विषयक राजसुत का दृष्टान्त। राजसुत दृष्टान्त में प्रतिश्रवण आदि चारों पदों का कथन। संवास से संबंधित पल्ली का दृष्टान्त। अनुमोदन में राजदुष्ट का दृष्टान्त। प्रकारान्तर से अनुमोदना का स्वरूप-कथन। आधाकर्म के पर्यायवाची शब्दों का अर्थ-भेद। अर्थ और व्यंजन की चतुर्भंगी तथा उनके उदाहरण। उपर्युक्त चतुर्भंगी का आधाकर्म के एकार्थकों के साथ समायोजन ।
आधाकर्म के एकार्थकों का अर्थ-साम्य एवं कार्य-कारण परम्परा। किसके लिए किया हुआ आधाकर्म?
६८/१ ६८/२,३ ६८/४ ६८/५ ६८/६ ६८/७,८ ६८/९-११ ६९ ६९/१,२ ६९/३ ६९/४ ७० ७०/१-३ ७०/४-६ ७१
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६
७३
७३/१-२२
18 8 8 8 8 8 8 8
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७६ ७६/१-५.
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८१, ८१/१
८२-८२/३
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८३/३, ४
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८६/२
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८९/८
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९०, ९० / १
९०/२-४
९१-९१/४
९२
९३
साधर्मिक के बारह निक्षेप ।
साधर्मिक के भेदों का स्वरूप - कथन । आधाकर्म के संदर्भ में किं द्वार का कथन ।
अशन आदि की कृत और निष्ठित के आधार पर चतुर्भंगी । अशन से संबंधित आधाकर्म विषयक दृष्टान्त । उपर्युक्त दृष्टान्त का विस्तार ।
पानक से संबंधित आधाकर्म का दृष्टान्त ।
खादिम और स्वादिम से संबंधित आधाकर्म ।
निष्ठित और कृत की परिभाषा ।
चावल आदि से संबंधित निष्ठित और कृत में दुगुना आधाकर्म । आधाकर्मिक वृक्ष की छाया से संबंधित मतान्तर ।
निष्ठित और कृत से उत्पन्न चतुर्भंगी ।
आधाकर्म से संबंधित अतिक्रम, व्यतिक्रम आदि का विवेचन । आधाकर्म ग्रहण में आज्ञाभंग आदि चार दोष ।
आज्ञाभंग दोष का विवेचन ।
अनवस्था दोष की व्याख्या । मिथ्यात्व दोष का विवेचन । विराधना दोष का स्पष्टीकरण ।
आधाकर्म की अकल्प्य विधि ।
आधाकर्म की अभोज्यता से संबंधित कथा ।
अभोज्य और अपेय पदार्थ ।
आधाकर्म से स्पृष्ट की अकल्प्यता ।
आधाकर्म अवयव से स्पृष्ट भाजन का कल्पत्रय करने का विधान । वमन और उच्चार के समान आधाकर्म के परिहार का निर्देश । अविधि-परिहरण से संबंधित कथानक ।
द्रव्य, कुल आदि की अपेक्षा से विधि- परिहरण तथा उसकी सार्थकता । आधाकर्म भोजन के ज्ञान की प्रविधि |
पिंड नियुक्ति
आधाकर्म से संबंधित शिष्य की जिज्ञासा एवं गुरु का समाधान ।
शुद्ध भोजन करते हुए भी परिणाम के आधार पर कर्म-बंधन एवं उसका दृष्टान्त ।
आधाकर्म युक्त अशुद्ध भोजन करने पर भी मुनि को कैवल्य - प्राप्ति ।
आज्ञाभंग को स्पष्ट करने वाला कथानक ।
आधाकर्मभोजी की निन्दा |
औदेशिक द्वार के कथन की प्रतिज्ञा ।
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विषय सूची
९४
९४ / १,९५
९५/१, २
९६
९६/१-३
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९७-९९
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१०१ / १, २
१०२, १०३
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१०५, १०५/१
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११२-१४
११५ - ११७/४
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११९/१
१२०
१२१
१२२-२४
१२५
१२६-२९
१३०-३६
औशिक के बारह भेद-प्रभेद ।
ओघ औदेशिक का स्वरूप - कथन ।
ओघ औद्देशिक से संबंधित शंका और समाधान ।
साधु को अमूच्छित रहकर भिक्षा करने का निर्देश ।
गोवत्स का दृष्टान्त एवं उपनय ।
विभाग औद्देशिक की संभाव्यता ।
विभाग औद्देशिक के भेद-प्रभेद ।
द्रव्यादि अच्छिन्न औद्देशिक । द्रव्यादि छिन्न औद्देशिका |
उद्दिष्ट की अपेक्षा कल्प्याकल्प्य विधि |
सम्प्रदान विभाग की अपेक्षा कल्प्याकल्प्य विधि |
उद्दिष्ट औद्देशिक का स्वरूप ।
कृत औद्देशिक का संभव हेतु तथा उसका स्वरूप-कथन । कर्म औद्देशिक का संभव हेतु तथा उसका स्वरूप- कथन । औद्देशिक संबंधित कल्प्याकल्प्य विधि ।
औद्देशिक आहार लेने वाले की निंदा ।
पूतिकर्म के भेद - प्रभेद ।
द्रव्यपूति का स्वरूप एवं उससे संबंधित कथा ।
भावपूर्ति का स्वरूप ।
आधाकर्म, औद्देशिक आदि छह दोषों का उद्गम कोटि में समावेश । बादरपूर्ति के भेद |
भक्तपान आदि से संबंधित बादरपूति की व्याख्या ।
सूक्ष्म पूर्ति की व्याख्या ।
पूर्ति विषयक कल्प्याकल्प्य विधि ।
पूर्ति की परिभाषा ।
पूर्ति के परिज्ञान का उपाय ।
मिश्रजात के तीन भेद ।
यावदर्थिक मिश्रजात का स्वरूप ।
मिश्रजात में पाखण्डिमिश्र आदि की व्याख्या एवं दृष्टान्त ।
मिश्रजात की कल्प्याकल्प्य विधि |
७
स्थापनादोष के भेद एवं उसकी व्याख्या ।
प्राभृतिका के भेदों का उल्लेख, दारिका का दृष्टान्त, प्राभृतिका का परिहार न करने के
दोष ।
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पिंडनियुक्ति
१३६/१-६ प्रादुष्करण दोष में कथानक का उल्लेख। १३७-१३८/६ प्रादुष्करण के भेद एवं उसकी व्याख्या। १३९-१४३/३ क्रीतकृत के भेद-प्रभेदों की व्याख्या एवं कथानक। १४४-१४४/४ प्रामित्य के भेद एवं भाई-बहिन का दृष्टान्त। १४५ प्रामित्य विषयक वस्त्रादि से संबंधित दोष। १४६ प्रामित्य विषयक अपवाद। १४७-५० परिवर्तित द्वार की व्याख्या एवं लौकिक उदाहरण। १५१-१५७/६ अभ्याहृत के भेद-प्रभेद एवं उसके दृष्टान्त। १५८, १५९ आचीर्ण अभ्याहृत के भेद एवं उनका स्वरूप-कथन। १६० अभ्याहृत विषयक कल्प्याकल्प्य विधि। १६१ आचीर्ण अभ्याहृत के जघन्य, मध्यम आदि भेद। १६२-६४ उद्भिन्न द्वार की व्याख्या एवं उसके दोष। १६५-७१ - मालापहत द्वार के भेदों की व्याख्या एवं भिक्षु का उदाहरण। १७२-१७७/२ आच्छेद्य के भेदों की व्याख्या एवं गोप का दृष्टान्त। १७८-८५ अनिसृष्ट द्वार की व्याख्या तथा मोदक का दृष्टान्त । १८६-१८८/१ अध्यवपूरक के प्रकार एवं कल्प्याकल्प्य विधि। १८९ सोलह उद्गम दोष के दो भेद। १९० अविशोधि कोटि की व्याख्या।
अविशोधि कोटि से स्पृष्ट अन्न के दोष। १९२-१९२/५ विशोधिकोटि की व्याख्या एवं चतुर्भगी। १९२/६ कोटिकरण के दो प्रकार। १९२/७ प्रकारान्तर से नौ एवं सत्तर भेद। १९३ उद्गम दोष गृहस्थ से समुत्थित तथा उत्पादना के दोष साधु से संबंधित। १९४ उत्पादना के निक्षेप एवं भेद-प्रभेद। १९४/१ सचित्त द्रव्य उत्पादना। १९४/२ मिश्रद्रव्य उत्पादना। १९४/३ भाव उत्पादना के दो भेद। १९५, १९६ उत्पादना के सोलह दोष।
धात्री के पांच प्रकार।
धात्री शब्द का निरुक्त। १९८/१-१५ धात्रीत्वकरण एवं उसके दोष। १९९ धात्री दोष में संगम स्थविर एवं दत्त शिष्य की कथा। २००, २०१ दूती के भेद-प्रभेद ।
१९७
१९८
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विषय सूची
२०१/१-३ २०२, २०३
२०४
२०५
२०६ - २०७/४
२०८
२१४, २१५
२१६
वनीपक के पांच प्रकार एवं निरुक्त । २०८/१-२१३ वनीपकत्व करने के प्रकार एवं दोष । चिकित्सा के प्रकार एवं उसके दोष ।
२२०
२२०/१, २
२२१
२२२ - २२४
२२५ - २२६ / १
२२७.
२२७ / १ - २२८ २२८/१, २२९
२३०-३२
२१७-२१८ / १ क्रोधपिंड का स्वरूप एवं दृष्टान्त । मानपिंड का स्वरूप ।
२१९
२१९/१-१५ मानपिंड एवं मायापिंड का दृष्टान्त । लोभपिंड का स्वरूप ।
२३३
२३४
२३५
२३६
२३६/१-३
२३७
२३८
२३८/१, २
२३९
२३९/१
दूतीत्व करण की प्रक्रिया | दूतीविषयक पिता-पुत्री की कथा । निमित्त के प्रकार ।
२४० २४०/१-४
निमित्त द्वार का दृष्टान्त ।
आजीवना के पांच प्रकार एवं उनका स्वरूप ।
क्रोधपिंड आदि से संबंधित दृष्टान्त एवं उनसे संबंधित नगरों के नाम ।
लोभपिण्ड का दृष्टान्त । संस्तव के भेद - प्रभेद ।
संबंधी संस्तव की व्याख्या एवं उसके दोष । वचन संस्तव की व्याख्या ।
विद्या एवं मंत्र द्वार के दृष्टान्तों का संकेत ।
विद्या द्वार से संबंधित दृष्टान्त एवं दोष ।
मंत्र द्वार में मुरुण्ड राजा एवं पादलिप्त का कथानक तथा उसके दोष ।
चूर्ण, योग एवं मूलकर्म से संबंधित दृष्टान्त एवं उनके दोष ।
गवेषणा के साथ ग्रहणैषणा का संबंध ।
उत्पादना के दोष साधु से समुत्थित तथा ग्रहणैषणा के दोष साधु और गृहस्थ दोनों से समुत्थित । शंकित और भाव से अपरिणत दोष साधु से तथा अन्य दोष गृहस्थ से समुत्थित ग्रहणैषणा के निक्षेप ।
द्रव्य ग्रहणैषणा में वानरयूथ का दृष्टान्त ।
भाव ग्रहणैषणा के दस दोष ।
शंकित दोष की चतुर्भंगी ।
उद्गम - उत्पादना के पच्चीस दोषों का उल्लेख ।
छद्मस्थ के लिए श्रुतज्ञान प्रमाण ।
श्रुतज्ञानी द्वारा अशुद्ध आहार का ग्रहण, केवली द्वारा उसका उपभोग अन्यथा श्रुत की अप्रामाणिकता ।
श्रुत के अप्रामाण्य से चारित्र और मोक्ष का अभाव ।
शंकित चतुर्भंगी की व्याख्या ।
९
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पिंडनियुक्ति
२४१
परिणाम के आधार पर शुद्धि और अशुद्धि। २४२-२४५/२ म्रक्षित के भेद-प्रभेद तथा उनका विवरण। २४६-५५ निक्षिप्त के भेद-प्रभेद एवं उनकी व्याख्या। २५६-२५९/१ पिहित की चतुर्भंगी एवं उसके भेदों की व्याख्या। २६०-२६४/१ संहत दोष की व्याख्या, उसकी चतुभंगी एवं दोष । २६५-७० वर्जनीय दायक के चालीस प्रकार। २७१ दायकों में भजना एवं विकल्प का निर्देश। २७२-८८ बालक, स्थविर, उन्मत्त आदि वर्जनीय दायक के हाथ से भिक्षा लेने के दोष। २८८/१-८ इन दायकों से भिक्षा लेने का अपवाद । २८९, २९० उन्मिश्र की चतुर्भंगी एवं व्याख्या। २९१ संहत और उन्मिश्र में भेद। २९१/१ उन्मिश्र की चतुर्भंगी के चतुर्थ भंग में भजना। २९२-९५ अपरिणत द्वार के भेद-प्रभेद एवं उनकी व्याख्या। २९५/१-१० लिप्त द्वार के संबंध में जिज्ञासा एवं समाधान। २९६-९८ अलेप, अल्पलेप तथा बहुलेप पदार्थों का निर्देश। २९९ संसृष्ट हाथ और पात्र से संबंधित आठ भंग। ३०० छर्दित की चतुर्भंगी। ३०१ छर्दित ग्रहण के दोष तथा मधुबिन्दु का दृष्टान्त। ३०२-३०२/५ ग्रासैषणा के निक्षेप तथा द्रव्य ग्रासैषणा में मत्स्य का दृष्टान्त । ३०३, ३०३/१ भाव ग्रासैषणा के भेद-प्रभेद। ३०४-०७ संयोजना दोष के भेद एवं उनकी व्याख्या। ३०८, ३०९ द्रव्य संयोजना के अपवाद। ३१०
आहार का प्रमाण। ३११
यात्रामात्राहार का प्रमाण तथा अवम आहार। ३१२-३१२/३ आहार-प्रमाण के दोष एवं उनकी व्याख्या। ३१३ हिताहार की फलश्रुति। ३१३/१ अहित-आहार का विवरण। ३१३/२ मित-आहार का विवरण। ३१३/३-६ शीत आदि काल की अपेक्षा आहार का प्रमाण। ३१४-१६ अंगार और धूम दोष की व्याख्या। ३१७-३१८/२ आहार करने के छह कारण। ३१९-२१ आहार न करने के छह कारण। ३२२ त्रिविध एषणा के ४२ दोष । ३२३ आहार-विधि की फलश्रुति।
सुविहित मुनि का अपवाद-सेवन भी निर्जरा का हेतु।
३२४
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पिंडनियुक्ति
पिंडे उग्गम-उप्पायणेसणा जोयणा' पमाणे य। इंगाल-धूम- कारण, अट्ठविहारे पिंडनिज्जुत्ती ॥१॥ दारं ।। पिंड-निकाय-समूहे, संपिंडण पिंडणा य समवाए। समुसरण -निचय-उवचय, चए य जुम्मे य रासी य॥२॥ पिंडस्स उ निक्खेवो, चउक्कगो छक्कगो य कायव्वो। 'निक्खेवं काऊणं', परूवणा तस्स कायव्वा ॥ ३ ॥ कुलए उ चउभागस्स, संभवो छक्कगेचउण्डं च । नियमेण संभवो अत्थि, छक्कगं निक्खिवे२ तम्हा ॥ ४ ॥ नाम ठवणापिंडो, दव्वे खेत्ते य काल भावे य। एसो खलु पिंडस्स उ, निक्खेवो छव्विहो होति ॥ ५ ॥ गोण्णं समयकतं वा, जं वावि५ हवेज्ज'६ तदुभएण कतं ।। तं बेंति नामपिंडं, ठवणापिंडं अओ वोच्छं ॥ ६ ॥ अक्खे वराडए वा, कटे पुत्थे७ व१८ चित्तकम्मे वा। सब्भावमसब्भावे१९, ठवणापिंडं वियाणाहि ॥७॥
५.
१. यहां 'जोयणा' शब्द संयोजना का वाचक है। का उल्लेख करके उसकी प्ररूण्णा करने की बात २. "विह (स)।
कही है। छह प्रकार के निक्षेप की बात कहकर ३. पंकभा ७६८, तु. मूला ४२१ ।
नियुक्तिकार पुनः उसकी पुनरुक्ति नहीं करते अत: ४. वि (अ, बी)।
भाष्यकार ने दृष्टान्त के द्वारा छह प्रकार के निक्षेप ५. समोसरण (स, ओनि ४०७)।
की सिद्धि की है। इसी संभावना के आधार पर ६. काऊण य निक्खेवं (ब, क, ला, स)।
इस गाथा को निगा के क्रमांक में नहीं रखा है। ७. ओनि ३३१ ।
१४. ओनि ३३२॥ ८. कुलके-चतुःसेतिकाप्रमाणे (मवृ)।
१५. 'अवि' शब्द से ग्रंथकार ने उभयातिरिक्त या अनुभयज ९. छक्कओ (अ, बी)।
नाम को सूचित किया है (मवृ प.४)। १०. व (अ, ब, ला, बी)।
१६. हवे य (ब), हविज्ज (क), ओनि ३३३ । ११. छक्कग (ब)।
१७. पोत्थे (ब)। १२. निक्खेवे (अ, ला, बी)।
१८. य (क)। १३. यह गाथा भाष्य की संभव है क्योंकि गाथा ३ में १९. भावि (ब)।
नियुक्तिकार ने पिंड शब्द के चार तथा छह निक्षेपों २०. ओनि ३३४, आवनि ९८७/२ ।
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पिंडनियुक्ति
तिविधो उ' दव्वपिंडो, 'सच्चित्तो मीसओ अचित्तो य२। एक्केक्कस्स य एत्तो, नव नव भेदा मुणेयव्वा ॥ ८ ॥ पुढवी आउक्काओ, तेऊ वाऊ वणस्सती चेव।। बेइंदिय तेइंदिय, चउरो पंचिंदिया चेव ॥ ९ ॥ पुढवीकाओ तिविधो, सच्चित्तो मीसओ य अच्चित्तो। सच्चित्तो पुण दुविधो, निच्छयववहारिओ चेव ॥१०॥ निच्छयओ सच्चित्तो', पुढवि-महापव्वताण बहुमज्झे।। अच्चित्तमीसवज्जो', सेसो ववहारसच्चित्तो॥११॥ खीरदुमहे? पंथे, 'किट्ठोल्ले१० इंधणे य मीसो उ'११ । पोरिसि एग-दुग-तिगं, 'बहुइंधण-मज्झ-थोवे य'१२॥ १२ ॥ सी-उण्ह-खार-खत्ते१३, अग्गी लोणूस" अंबिले नेहे। वुक्कंतजोणिएणं, पयोयणं तेणिमं होति१५ ॥ १३ ॥ अवरद्धिग-विस-बंधे, लवणेण व सुरभिउवलएणं वा।
अच्चित्तस्स१६ उ गहणं, पयोयणं 'तेणिमं वऽन्नं '१७ ॥ १४ ॥ १४. ठाण-निसीय-तुयट्टण, उच्चारादीण चेव उस्सागो ।
घट्टग९-डगलगलेवो, एमादि पयोयणं बहुहा ॥ १५ ॥ आउक्काओ तिविधो, सच्चित्तो मीसओ य अच्चित्तो। सच्चित्तो२० पुण२९ दुविधो, निच्छय-ववहारिओ२२ चेव ॥१६॥
१. य (ला, क, ब), ओनि ३३५ ।
११. अभिणव कट्ठोल्ल इंधणे मीसं (निभा)। २. सच्चित्ताच्चित्तमीसओ चेव (ब, ला, स), "मीसओ १२. थोविंधण मज्झ बहए य (निभा १५१), ओनि ३३९ । य अच्चित्तो (अ, क, बी)।
१३. इह सर्वत्र सप्तमी तृतीयार्थे प्राकृतलक्षणवशात् (मवृ)। ३. उ पत्तेयं (अ, बी, क, मु), स प्रति में ७ और १४. लोणूसं (ब, ला)। ८-ये दोनों गाथाएं नहीं हैं।
१५. द्र. पिनि १८, ओनि ३४० । ४. 'क्काए (अ, क, बी, ओनि ३३६, जीभा ९५६)। १६. अच्चित्तस्स त्ति विभक्तिपरिणामेणेह तृतीयान्तं ५. ओनि में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है- सम्बन्ध्यते (म)।
"बिय-तिय-चउरो पंचिंदिया य लेवो य दसमो उ॥" १७. होइ जं चऽन्नं (ओनि ३४१)। ६. वि य (क)।
१८. उस्सयो (ब)। ७. ओनि ३३७।
१९. घुट्टग (मु, ओनि ३४२), घुट्टको-लेपितपात्रमसृणता ८. सचित्तो (ब)।
कारक: पाषाणः (मवृ)। ९. अचित्तो मीस (ब, ला), ओनि ३३८ । २०. य अच्चित्तो (स)। १०. कत्थुल्ल (बी), कट्ठोले (स)।
२१. वि य (अ, क, ब, ला, बी)। २२. 'हारओ (मु) सर्वत्र।
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पिंडनियुक्ति
१६. घणउदही घणवलया, करग समुद्दद्दहाण बहुमज्झे।
अह निच्छयसच्चित्तो, ववहारनयस्स अगडादी ॥ १७ ॥ १७. उसिणोदगमणुवत्ते, दंडे वासे य पडियमित्तम्मि । मोत्तूणादेसतिगं,
चाउलउदगंऽबहुपसन्नं ॥ १८ ॥ १७/१. भंडगपासवलग्गा, उत्तेडा बुब्बुया य न समेंति।
जा ताव मीसगं तंडुला य रद्धंति जावऽन्ने ॥ १९ ॥ १७/२. एते उ अणादेसा, तिन्नि वि कालनियमस्सऽसंभवओ । लुक्खेतरभंडग
पवण-संभवासंभवादीहिं ॥ २० ॥ १७/३. 'जाव न बहुप्पसन्नं, 'ता मीसं'८ 'एस एत्थ'९ आदेसो।
होति पमाणमचित्तं, बहुप्पसन्नं तु नातव्वं ॥२१॥ १८. सी-उण्ह-खार-खत्ते, अग्गी लोणूस-अंबिले नेहे।
वुक्कंतजोणिएणं, पयोयणं तेणिमं होति१२ ॥ २२ ॥ परिसेय-पियण-हत्थादिधोवणे१३ चीरधोवणं१४ चेव। आयमण-भाणधुवणं, एमादि पयोयणं बहुहा ॥ २३ ॥ उउबद्धधुवण बाउस, बंभविणासो अठाणठवणं च।
संपाइम-वाउवहो, पावण५ भूतोवघातो य॥२४॥ २१. अइभार चुडण पणए, सीतल ‘पाउरणऽजीर-गेलण्णे'१६ ।
ओभावण१७ कायवधो, वासासु अधोवणे८ दोसा ॥ २५ ।। १. घनोदधयः नरकपृथ्वीनामाधारभूताः कठिनतोयाः न पुनरुक्ति करते हैं और न ही किसी बात का समुद्राः (मवृ), ओनि ३४३।।
विस्तार। पृथ्वीकाय आदि से संबंधित गाथाओं के २. 'यमेयं ति (स), "यमेते य (ओनि ३४४)।
आधार पर भी यह निष्कर्ष निकलता है कि ये ३. “पासवि (बी, स), पासगल (क)।
गाथाएं भाष्य की होनी चाहिए। ४. व (अ, बी)।
११. वक्कंत (ला, बी)। ५. जा अन्ने (अ, ब, ला, बी, स)।
१२. द्र. पिनि १२, ओनि ३४६ । ६. असंभ (अ, बी)।
१३. हत्थाई (क), धोयणे (बी, अ), ७. जावन्न (ब, ला)।
___धोयणा (ओनि ३४७)। ८. मीस ता (बी)।
१४. धावणे (अ, ला, स), धोयणं (क)। ९. एत्थ एस (ब, ला)।
१५. पाउण (अ, ब, ला), पलवण (ओनि ३४८)। १०. १७/१-३-ये तीनों गाथाएं प्रकाशित टीका में निगा १६. 'ण जीरे गेलण्णे (ला)।
के क्रम में हैं लेकिन ये तीनों भाष्य की गाथाएं १७. ओहावण (अ, मु)। होनी चाहिए। इन गाथाओं में गा. १७ की ही १८. य धोवणे (बी)। व्याख्या है। संक्षिप्त शैली होने के कारण नियुक्तिकार १९. ओनि ३४९ ।
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१४
२१/१. अप्पत्ते
२१ /२.
'आयरिय - गिलाणाण य५, मइला मइला पुणो वि धोवेंति । मा हु गुरूण अवण्णो, लोगम्मि अजीरणं इतरे' ॥ २७ ॥ पायस्स पडोयारो, दुनिसेज्ज तिपट्ट पोत्ति रयहरणं । एते 'ण उ१० विस्सामे १, जतणा संकामणा धुवणा १२ ॥ २८ ॥ २२ / १. जो पुण वीसामिज्जति, तं एवं वीतराग आणाए । पत्ते धोवणकाले, उवहिं १४ विस्साम साहू१५ ॥ २९ ॥
च्चिय' वासे, सव्वं उवधिं धुवंति जतणाए । 'असईए व '२ दवस्स उ जहन्नओ पायनिज्जोगो ॥ २६ ॥
"
२२.
4
२२ / २. अब्भिंतरपरिभोगं,
उवरिं पाउणति नातिदूरे य।
तिन्नि य तिन्नि य एगं, निसिं तु काउं परिच्छेज्जा ॥ ३० ॥
२२/३ केई एक्के क्कनिसिं १७, संवासेउं
पाउणिय १८ जइ न लग्गंति छप्पया १९
१४
तिहा परिच्छंति |
ताहें २० धोवेज्जा १९ ॥ ३१ ॥
१. चिय (बी), ओनि ३५० ।
२. असइए उ ( स, मु) ।
३. य (मु, ब, ला) ।
४. प्रसा ८६४, २१/१, २- ये दोनों गाथाएं प्रकाशित टीका में निगा के क्रमांक में हैं लेकिन व्याख्यात्मक होने के कारण ये दोनों गाथाएं भाष्य की प्रतीत होती हैं। पृथ्वीकाय आदि के संदर्भ में भी ग्रंथकार ने इतने विस्तार से व्याख्या नहीं की है। ५. णाणं (ला, ब, स क ), णाण उ (बी) 1 ६. मलिनानीत्यत्र नपुंसकत्वे प्राप्तेऽपि सूत्रे पुंस्त्वनिर्देश: प्राकृतलक्षणवशात् (मवृ) ।
७. धावंति (मु, ब), धोव्वंति (स), धोवंति (ओनि ३५१) । ८. प्रसा ८६५ /
९. दोनिसेज्जा (ला) ।
१०. उ न (मु, ला, ब, स ) ।
११. वीसामे ( अ, बी, मु), सर्वत्र ।
१२. धुवणं (मु, स), यह गाथा ब प्रति में नहीं है, १८. पाउणिइ (ला, ब ) ।
ओनि ३५२ १३. गनीइए (स) ।
१५.
उवही ( क ) ।
२२/१-६ - ये छहों गाथाएं विश्रामणा-विधि एवं वस्त्रप्रक्षालन हेतु जल-ग्रहण आदि की विधि का उल्लेख करने वाली हैं। इनमें अन्य आचार्यों के मत का उल्लेख किया गया है। ये गाथाएं नियुक्ति की न होकर भाष्य की होनी चाहिए क्योंकि अन्य आचारांग आदि नियुक्तियों में भी विशेष रूप से मतान्तर का उल्लेख नहीं मिलता है। भाष्यकार के समय तक मतान्तर प्रारम्भ हो गए थे अतः ये गाथाएं भाष्य की होनी चाहिए। वैसे भी इससे पूर्व की गाथा 'धोवत्थं तिन्नि'....... (पिभा ११) गाथा भाष्य की है। इन गाथाओं को नियुक्ति की न भी माना जाए तो चालू विषय-वस्तु की दृष्टि से कोई अंतर नहीं
आता ।
१६. पडि (बी, अ), ओनि ३५३ । १७. निसि (ला), निसी ( स ) ।
१९. छप्पइया (मु) ।
२०. ताहि (बी, स, मु) ।
२१. धावेंति (क, स, मु), ओनि ३५४
पिंडनिर्युि
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पिंडनियुक्ति
४.
२२/४ निव्वोदगस्स गहणं, केई भाणेसु असुइपडिसेधो।
गिहिभायणेसु गहणं, ठिय वासे मीसगं छारो ॥ ३२ ॥ २२/५. गुरु-पच्चक्खाणि-गिलाण-सेहमादीण धोवणं पुव्वं ।
तो अप्पणो पुव्वमहाकडे य इतरे दुवे पच्छा ॥ ३३ ॥ २२/६. अच्छोड-पिट्टणासु' य, न धुवे धोवे पयावणं न करे।
परिभोगमपरिभोगे', छायाऽऽतव० पेह कल्लाणं ॥ ३४ ॥दारं ॥ २३. तिविधो तेउक्काओ, सच्चित्तो मीसओ य अच्चित्तो।
सच्चित्तो पुण दुविधो, निच्छयववहारओर चेव ॥ ३५॥ इट्टगपागादीणं, बहुमज्झे१२ विज्जुमादि निच्छयओर३ ।
इंगालादी इतरो, मुम्मुरमादी ‘य मीसो तु१४॥ ३६॥ २५. 'ओदण-वंजण-पाणग-मुसिणोदगं'१५ च कुम्मासा।
डगलग-सरक्खसूई, 'पिप्पलमादी उ'१६ उवओगो॥ ३७॥दारं ॥ वाउक्काओ तिविधो, सच्चित्तो मीसओ य अच्चित्तो।
सच्चित्तो पुण दुविधो, निच्छयववहारओ७ चेव॥ ३८ ॥ २७. सवलय घण-तणुवाया, अइहिम-अइदुद्दिणेसु८ निच्छयओ।
ववहार पाइणादी, अक्कंतादी य अच्चित्तो॥३९ ।। २७/१. अक्कंत० धंत घाणे२९, देहाणुगते य पीलियादीसु२२ ।
'अच्चित्तो पंचविहो'२३, भणितो कम्मट्ठमहणेहिं ॥ ४० ॥
१. ओनि ३५५। - २. "माईण (ओनि ३५६), सेहमाईण इत्यत्र
मकारोऽलाक्षणिकः (मवृ)। ३. धोयणं (अ, बी)। ४. पुव्विं (ला, ब)। ५. "हागडे (ला, ब)। ६. अच्छोल (बी), आच्छेटनं-रजकैरिवास्फालनम् (मवृ)। ७. सूत्रे च सप्तमी तृतीयार्थे (मवृ)। ८. धोए (मु), धावे (ओनि ३५७)। ९. भोग अपरि (मु)। १०. सूत्रे च विभक्तिलोपः आर्षत्वात् (मवृ)। ११. “हारिओ (ला, ब)। १२. बहू' (बी)।
१३. निच्छइओ (क, बी)। १४. उ मिस्सो उ (मु), ओनि ३५८ । १५. “पाणग-आयाम मुसि (स, क, ओनि ३५९)। १६. 'लगाई य (क)। १७. “हारिओ (क, स)। १८. “दुद्दिणे य (मु, ओनि)। १९. गाइ° (ला), पायणाई (स),
पायमाई (ओनि ३६०)। २०. अक्कंतं (ब)। २१. पाणे (ला, ब)। २२. पिवीलियाइसु (ला, ब), 'ईसु य (क)। २३. अच्चित्त वाउकाओ (मु, ला, ब, क)। २४. गाथाओं के क्रम में ओनि में यह गाथा नहीं है।
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पिंडनियुक्ति
२७/२. हत्थसयमेग गंता, दइओ अच्चित्त' बीयए' मीसो।
ततियम्मि उ सच्चित्तो, वत्थी' पुण पोरिसिदिणेसु ॥ ४१ ॥ २८. दइएण वत्थिणा वा, पयोयणं होज्ज वाउणा मुणिणो।
गेलण्णम्मि वि होज्जा, सचित्तमीसे' परिहरेज्जा॥ ४२ ॥ ‘वणसइकाओ तिविधो', सच्चित्तो मीसओ य अच्चित्तो। सच्चित्तो पुण दुविधो, निच्छयववहारओ चेव॥ ४३ ॥ सव्वो वणंतकाओ, सच्चित्तो होति निच्छयनयस्स। ववहारस्स य सेसो, मीसो पव्वायलुट्टादी० ॥ ४४ ॥ 'पुप्फाणं पत्ताणं '१९, सरडुफलाणं१२ तहेव हरिताणं। विंटम्मि१३ मिलाणम्मी, नातव्वं जीवविप्पजढं५ ॥ ४५ ।। संथार-पाय-दंडग, खोमिय 'कप्पा य'१६ पीढ-फलगादी।
ओसध-भेसज्जाणि य, एमादि पयोयणं बहुहा ।। ४६ ॥दारं ॥ . ३३. बिय-तिय-चउरो पंचिंदिया य तिप्पभिइ८ जत्थ उ समेति।
सट्ठाणे सट्ठाणे, सो पिंडो तेण कज्जमिणं ॥ ४७ ।।
१. अचित्तो (अ, ब, ओनि ३६१), अच्चित्तु (मु)। क्रमांक के साथ जोड़ दिया हो। हस्तप्रतियों में २. बितियए (बी, ला), बीयओ (क, स)।
भी नियुक्ति और भाष्य की गाथाओं के लिए कोई ३. य (अ, क, बी)।
संकेत नहीं मिलता है। इन्हें निगा के क्रमांक में ४. वत्थि (क)।
नहीं रखने से भी विषय-वस्तु की दृष्टि से २७ ५. २७/१, २-ये दोनों गाथाएं प्रकाशित टीका में नियुक्ति वीं गाथा के बाद २८ वी गाथा संबद्ध लगती है।
के क्रमांक में हैं लेकिन ये भाष्य की गाथाएं होनी ६. व (मु), आनि ३६२। चाहिए। इन गाथाओं के भाष्यगत होने का एक ७. सच्चित्त (स)। कारण यह है कि २७ वी गाथा में जब नियुक्तिकार ८. तिविहो वणसइकाओ (बी), वणस्सइ (अ)। 'अक्कंतादी य अच्चित्तो' का उल्लेख कर चुके हैं ९. हारिओ (क, ब, ला)। तो फिर अगली गाथा में अक्कंत, धंत आदि अचित्त १०. पमाइलु (अ), पव्वाइरुट्टाई (ला), “यरोट्टाई (स, वायु की पुनरुक्ति नहीं करते। इसी प्रकार २८ वीं मु, ओनि ३६३), लोट्टः घरट्टादिचूर्णः (मवृ)। गाथा में उल्लेख है कि मुनि को दृति और वस्ति ११. पत्ताणं पुप्फाणं (अ, बी, बृभा ९८०)। . में स्थित वायु से प्रयोजन होता है। २७/२ में दृति १२. सरड (क), शलादुफलानां-कोमलफलानां (म)। स्थित वायु नदी आदि के जल में काल के आधार १३. वंटम्मि (क)। पर कब सचित्त होती है, इसका उल्लेख यहां १४. मिलायम्मी (बी), मिलाइम्मी (अ)। अप्रासंगिक और व्याख्यात्मक लगता है। संभव है १५. यह गाथा स प्रति में नहीं है। भाष्यकार ने इस द्वारगाथा २७/२ का वर्णन करके १६. कप्पास (बी), कप्पाई (ओनि)। आगे चार गाथाओं में इसकी व्याख्या की है १७. तरुसु (ला, ब, ओनि ३६४)। लेकिन प्रकाशित टीका में संपादक ने इसे निर्यक्ति १८. "इओ (ला, ब), तप्प (क), "भिज्ञ (ओनि ३६५)।
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३४. बेइंदियपरिभोगो', 'अक्खाण ससिप्पिसंखमादीणं'।
तेइंदियाण उद्देहिगादि जं वा वदे वेज्जो ॥ ४८ ॥ चउरिंदियाण मच्छियपरिहारो आसमक्खिया चेव। पंचिंदियपिंडम्मि उ, अव्ववहारी उ नेरइया ॥ ४९ ॥ चम्मऽट्ठि-दंत-नह-रोम-सिंग-अमिलाई छगण-गोमुत्ते । खीर-दधिमादियाण य, पंचिंदियतिरियपरिभोगो ॥ ५० ॥ सच्चित्ते पव्वावण, 'पंथुवदेसे य'१० भिक्खदाणादी। सीसऽट्ठिग अच्चित्ते, मीसऽट्टि सरक्ख पहपुच्छा ॥५१॥ खमगादिकालकज्जाइएसु पुच्छेज्ज१ देवतं किंचि। पंथे सुभासुभे वा, पुच्छेज्जह'२ दिव्वउवओगो१२ ॥ ५२ ॥ ___ अह मीसओ य पिंडो, एतेसिं चिय नवण्ह पिंडाणं।
दुगसंजोगादीओ, नेतव्वो४ जाव चरमो५ त्ति ॥ ५३ ॥ ४०. सोवीर-गोरसासव, वेसण६ भेसज्ज-नेह-साग-फले।
- पोग्गल१७-लोण-गुलोदण, णेगा पिंडा उ संजोगे ॥५४॥ ४१. तिन्नि उ८ पदेससमया, ठाणट्ठिइउ'९ दविए तयादेसा।
चउ-पंचमपिंडाणं, जत्थ जया तप्परूवणया॥ ५५ ॥ ४१/१. मुत्तदविएसु जुज्जति, जइ अन्नोऽन्नाणुवेहओ पिंडो।
मुत्ति-विमुत्तेसु वि सो, 'नणु जुज्जति '२० संखबाहुल्ला॥५६॥
१. यद्वाऽत्र कर्मसाधनः परिभोगशब्दो विवक्षणीयः (मवृ)। १०. पंथुवदेसाई (अ, क)। २. अक्खाणह सिप्पं संखमाईणं (ला), अक्खाणेह सिप्पि ११. पुच्छिज्ज (अ)।
संख' (ब), अक्खाण ससंखसिप्पिमा' (स), अक्खाणं १२. पुच्छिज्जिह (अ, ला, स)। ससिप्पि' (क)।
१३. दिव्वमु (क, स), ओनि ३७० । ३. 'हियाई (ला, ब)।
१४. नायव्वो (मु)। ४. बिंति (अ)।
१५. चरिमु (क)। ५. विज्जा (ला), ओनि ३६६ ।
१६. वेसनं-जीरकलवणादि (मवृ)। ६. मक्खियप" (ओनि ३६७)।
१७. पुग्गल (अ, क, बी), पोग्गलं-मांसं (मव)। ७. अविलाइ (मु), "लाई (क)।
१८. य (स)। ८. "मुत्ताई (अ), ओनि ३६८।
१९. "द्विईउ (क)। ९. सच्चित्तो (स), ओनि ३६९, सचित्ते इति षष्ठी- २०. जुज्जइ नणु (मु), "जुज्जई (स)।
सप्तम्योरथ प्रत्यभेदात् सचित्तस्य (म)।
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४१/२. जह तिपदेसो खंधो', तीसुरे पदेसेसु जो समोगाढो ।
अविभागिणसंबद्धो , कहण्णु नेवं तदाधारो? ॥ ५७ ।। अहवा चउण्ह नियमा, जोगविभागेण जुज्जते" पिंडो। दोसु जहियं तु पिंडो, वणिज्जति कीरते. वावि ॥ ५८ ॥ दुविधो य भावपिंडो, पसत्थओ चेव अप्पसत्थो य।
एतेसिं दोण्हं पि य', पत्तेय परूवणं वोच्छं१० ॥ ५९ ।। ४४. तिविधो होति पसत्थो, नाणे तह दंसणे चरित्ते य।
दुग सत्तट्ठ चउक्कग, जेणं वा बज्झती इतरो१॥ ४४/१. एगविहाइ१२ दसविधो, पसत्थओ चेव१३ अप्पसत्थो य।
संजम-विज्जा-चरणे, नाणादितिगं च तिविहो उ ॥६० ॥ ४४/२. 'नाण-इंसण'१४ तव संजमो य वय पंच छच्च जाणेज्जा।
पिंडेसण-पाणेसण, 'उग्गहपडिमा य'१५ पिंडम्मि६॥६१ ॥ ४४/३. पवयणमाया नव बंभगुत्तिओ७ तह य समणधम्मो य८।
एस पसत्थो पिंडो, भणितो कम्मट्ठमहणेहिं ॥ ६२ ॥
१. पिंडो (ब, ला)।
निगा के क्रम में व्याख्यात नहीं है। केवल अ, क २. तिसु वि (मु)।
और बी प्रति में यह गाथा मिलती है। क प्रति में ३. “गाहो (ला)।
'यह गाथा ४४/३ के बाद मिलती है। यह गाथा ४. भागिमसं (ब, ला, स), अविभागेन संबद्धः (मवृ)। नियुक्ति की होनी चाहिए। विषय-वस्तु की दृष्टि ५. कहण्ण (अ, बी), कहं तु (मु)।
से यह ४४ वी गाथा से संबद्ध लगती है। प्रशस्त ६. ४१/१, २ ये दोनों गाथाएं प्रकाशित टीका में और अप्रशस्त भावपिंड की ४४/१-४ में विस्तार से
निगा के क्रम में हैं लेकिन व्याख्यात्मक होने के चर्चा है लेकिन इस गाथा में संक्षिप्त संकेत दे कारण ये गाथाएं भाष्य की होनी चाहिए। जो दिया है अतः इस गाथा को निगा के क्रम में बात गा. ४१ में कही गई है, उसी बात को इन रखा गया है।
दो गाथाओं में हेतु पुरस्सर प्रस्तुत किया गया है। १२. 'विहाई (स)। ७. जुज्जई (क, स)।
१३. तह य (ब)। ८. कीरइ (क, स)।
१४. णाणं दंसण (ब, ला, मु), नाणं दंसणं (क, बी)। ९. हु (ब, ला)।
१५. पडिमाइ (स), अवग्रहप्रतिमा वसतिविषयकनियम१०. ओनि ४०८ में इस गाथा का उत्तरार्द्ध अगली विशेषाः (मवृ)। गाथा में है।
१६. पिंडं तु (ला, ब)। ११. तु. ओनि ४०९, यह गाथा प्रकाशित टीका में १७. बंभव्वयगु (ब, ला), बंभवय (अ, बी)।
१८. उ (स)।
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४४/४. अपसत्थो उ असंजम, अण्णाणं अविरती य मिच्छत्तं।।
कोहा आसव काया, कम्मे गुत्ती अधम्मो य॥६३ ॥ ४५ बज्झति य जेण कम्मं, सो सव्वो होति अप्पसत्थो उ।
मुच्चति य जेण सो पुण, पसत्थओ नवरि विण्णेओ॥ ६४ ॥ दसण-नाण-चरित्ताण, पज्जवा जे उ जत्तिया वावि।। सो सो होति तदक्खो, पज्जवपेयालणा पिंडो॥६५॥ कम्माण जेण भावेण, अप्पगे चिणति चिक्कणं पिंडं।
सो होति भावपिंडो, 'पिंडयए पिंडणं जम्हा'२ ॥६६॥ ४७. दव्वे अच्चित्तेणं', 'भावे य पसत्थएणिहं५ पगतं । उच्चारितत्थसरिसा,
सीसमतिविकोवणट्ठाए ॥ ६७ ॥ 'आहार-उवधि-सेज्जा', पसथपिंडस्सुवग्गहं कुणति । आहारे अहिगारो, अट्ठहि ठाणेहिँ सो सुद्धो॥ ६८ ॥ निव्वाणं खलु कज्जं, नाणादितिगं तु कारणं तस्स।
निव्वाणकारणाणं, तु कारणं होति आहारो॥६९ ॥ ४९/१. जह कारणं तु तंतू, पडस्स तेसिं च होंति पम्हाई।।
नाणादितिगस्सेवं, आहारो मोक्खनेमस्स ॥ ७० ॥ ४९/२. जह कारणमणुवहतं, कज्जं साहेति अविकलं१९ नियमा।
मोक्खक्खमाणि१२ एवं, नाणादीणि उ अविगलाणि१३ ॥ ७१ ॥
१. या (अ, ब, ला), ४४/१-४-ये चार गाथाएं ७,८. कारयं (स)।
प्रकाशित टीका में निगा के क्रम में व्याख्यात हैं। ९. पम्हाई (क)। टीकाकार ने इन गाथाओं के लिए किसी प्रकार का १०. नेमिस्स (अ, क, बी) नेमशब्दो देश्यः कार्याभिधाने उल्लेख नहीं किया है लेकिन ये गाथाएं भाष्य की रूढः (मवृ)। होनी चाहिए। ४४ वीं गाथा का विस्तार ही इन ११. अवगलं (ब), अविलगं (स)। गाथाओं में किया गया है। इनको निगा के क्रम में १२. “खमाइं (ला, अ, ब, स)। न रखने पर भी ४४ वीं गाथा विषयवस्तु की दृष्टि १३. लायं (मु, अ, क, ला), ४९/१,२-ये दोनों गाथाएं
से ४५ वी गाथा से संबद्ध प्रतीत होती है। प्रकाशित टीका में निगा के क्रम में हैं लेकिन २. पिंडयई (अ, क, बी), पिंडइए पिंडओ जम्हा (स)। ये ४९ वी गाथा की व्याख्या रूप हैं। संक्षिप्त ३. तेण उ (अ, बी)।
शैली होने के कारण नियुक्तिकार न पुनरुक्ति ४. भावम्मि (मु)।
करते हैं और न ही विस्तृत व्याख्या। संभावना की ५. पसत्थएण इह (अ, बी)।
जा सकती है कि ये दोनों गाथाएं भाष्य की होनी ६. आहारोवहिसेज्जाए (अ, बी)।
चाहिए।
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पिंडनियुक्ति
५०.
संखेवपिंडितत्थो', एवं पिंडो मए समक्खातो। फुड-विगड-पागडत्थं, वोच्छामी एसणं एत्तो ॥ ७२ ॥ दारं ॥ एसण गवेसणा मग्गणा य उग्गोवणा य बोधव्वा।
एते उ एसणाए, नामा एगट्ठिया होंति ।। ७३ ॥ ५२. नामं ठवणा दविए, भावम्मि य एसणा मुणेयव्वा।।
दव्वे भावे एक्केक्कया उ तिविहा मुणेयव्वा ॥ ७४ ॥ ५२/१. जम्मं एसति एगो, सुतस्स अन्नो तमेसए नटुं।
सत्तुं एसति अन्नो, एसति अन्नो य से मच्चु । ७५ ॥ ५२/२. एमेव सेसगेसु वि, 'चउप्पदापद-अचित्तमीसेसु"।
जा जत्थ जुज्जते एसणा तु तं तत्थ जोएज्जा ॥ ७६ ॥ ५२/३. भावेसणा उ तिविधा, गवेस-गहणेसणा य० बोधव्वा।
घासेसणा'१ उ१२ कमसो, पण्णत्ता वीतरागेहिं ॥ ७७ ॥ ५२/४. अगविट्ठस्स उ गहणं, न होति न य अगहियस्स परिभोगो३।।
एसण तिगस्स एसा, नातव्वा आणुपुव्वीए ॥ ७८ ॥ ५३. नामं ठवणा दविए, 'भावे य'१५ गवेसणा मुणेयव्वा।
दव्वम्मि कुरंग-गया, उग्गम-उप्पादणा भावे ६ ॥ ७९ ॥
१. "पिंडयत्थो (क, ला, ब)।
गाथा विषय-वस्तु की दृष्टि से ५३ वी गाथा के २. वियड (स)।
साथ सम्बद्ध प्रतीत होती है। ३. पत्तो (ला, ब), इत्तो (अ, बी)।
६. सेसए (ब, ला)। ४. पदेण (स)।
७ चउप्पयाए अचित्त (ब, ला), "प्पया अपयचित्त (क)। ५. ५२/१-४-ये चार गाथाएं प्रकाशित टीका में निगा ८. जो (अ, ब, ला)।
के क्रम में होते हुए भी भाष्य की होनी चाहिए ९. जुज्जई (अ, बी)। क्योंकि ये गा. ५२ की व्याख्या रूप हैं। ५२/१ में १०. उ (क)। एषणा, गवेषणा आदि शब्दों का उदाहरण द्वारा ११. गासे (मु)।। अर्थ स्पष्ट किया गया है। गाथा ५२ में ग्रंथकार १२. इ (ला, ब), यं (अ, बी, स)। इस बात का निर्देश कर चुके हैं कि द्रव्यैषणा और १३. स प्रति में गाथा का पूर्वार्द्ध नहीं है। भावैषणा के तीन-तीन भेद जानने चाहिए। ५२/३ १४. 'पुव्वी उ (ला, ब, स, मु)। में पुनः इसी बात की पुनरुक्ति हुई है। ५२/४ भी १५. भावम्मि (अ, बी)। ५२/३ से जुड़ी हुई प्रासंगिक गाथा है। इन चार १६. यह गाथा ला और ब प्रति में नहीं है। गाथाओं को निगा के क्रम में न रखने पर ५२ वीं
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पिंडनियुक्ति
५४.
५३/१ जितसत्तु देवि' चित्तसभ- पविसणं कणगपिट्ठपासणया।
दोहल' दुब्बल पुच्छा, कहणं आणादि पुरिसाणं ॥ ८० ॥ ५३/२ सीवण्णिसरिसमोदगकरणं सीवण्णिरुक्खहेढेसु ।
आगमण कुरंगाणं, पसत्थ-अपसत्थ उवमा उ ॥ ८१॥ वियमेत कुरंगाणं, जदा सीवण्णि सीदती ।
पुरा वि वाया वायंति, न उण पुंजकपुंजगा ॥८२ ॥ ५४/१. हत्थिग्गहणं गिम्हे, अरहट्टेहिं भरणं च सरसीणं ।
'अच्चुदगेण नलवणा'१२, आरूढा३ गजकुलागमणं ॥ ८३ ॥ वियमेतं५ गजकुलाणं, जदा रोहंति नलवणा। अन्नयावि 'झरंति दहा'१६, न य एवं बहुओदगा ॥८४ ॥ उग्गम उग्गोवण मग्गणा य एगट्ठियाणि१८ एताइं१९ ।
नाम ठवणा दविए, भावम्मि य उग्गमो होति ॥ ८५ ॥ ५७. दव्वम्मि० लड्डगादी, भावे तिविहुग्गमो मुणेयव्वो।
दंसण-नाण-चरित्ते, चरित्तुग्गमेणित्थ अहिगारो२१ ॥ ८६ ॥
१. देव (अ, ब, ला, बी)।
८. बिइमेयं (बी), वितियमेयं (स), विदितमेतद् २. कणगपट्ट' (स)।
(मवृ), छंद की दृष्टि से विइय का विइ पाठ ३. डोहल (क)।
हुआ है। ४. आणा य (मु, स, ओनि ४५०)।
९. सीवई (अ, बी), सीदई (ओनि ४५२), सीदति५. मोययठवणा (अ, बी)।
धातूनामनेकार्थत्वात् फलति (मवृ)। ६. हिढेसु (अ, क, बी)।
१०. वायो (ब, ला)। ७. ओनि ४५१, ५३/१, २-ये दोनों गाथाएं स्पष्ट रूप ११. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३,कथा सं. १।
से भाष्य की प्रतीत होती हैं क्योंकि अन्य नियुक्तियों १२. 'दए सा नल' (अ, क, ब)। की रचना शैली में नियुक्तिकार कथा का संकेत मात्र १३. अइरूढा (अ, ला), अईरूढा (स), करते हैं। ५३ वी गाथा में नियुक्तिकार ने 'दव्वम्मि अभिरूढा (ओनि ४५३) । कुरंग-गया' उल्लेख में मृग एवं हाथी से संबंधित १४. यह गाथा भाष्य की होनी चाहिए, देखें टिप्पण ५३/१, २। कथा का संकेत कर दिया है अतः वे पुनः विस्तार १५. वीयमेतं (अ)। से कथा का उल्लेख नहीं करते। गा. ५४ एवं ५५ १६. दहति झरणे (ला), झरंति सरा (क, ओनि ४५४)। के लिए टीका में 'नियुक्तिकारो गाथां पठति' का १७. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३,कथा सं. २। संकेत है। संभव है टीकाकार के समय तक ये १८. “याइं (अ, क, ला)। दोनों गाथाएं निगा के रूप में प्रसिद्ध हो गई थीं। १९. एयाई (स)। टीकाकार के उल्लेख का सम्मान करते हुए इन २०. अहवा वि (जीभा १०९०)। दोनों गाथाओं को निगा के क्रमांक में रखा है। २१. अहीगारो (जीभा)।
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पिंडनियुक्ति
५७/१. जोतिस-तणोसहीणं, मेघ'-रिणकराण उग्गमोरे दव्वे।
सो पुण जत्तो य जया, जहा य दव्वुग्गमो वच्चो ॥ ८७ ॥ ५७/२ वासघरे' अणुजत्ता, अत्थाणी जोग्ग किड्डकाले य।
घडग-सरावेसु कता, उ मोदगा लड्डगपियस्स ॥ ८८ ॥ ५७/३. जोग्गाऽजिण्णे' मारुतनिसग्ग तिसमुत्थतो. ऽसुइसमुत्थो।
आहारुग्गमचिंता, असुइ त्ति दुहा मलप्पभवो ॥ ८९॥ ५७/४. तस्सेवं वेरग्गुग्गमेण९ सम्मत्त-नाण-चरणाणं।
जुगवं कम्मावगमो१२, केवलनाणुग्गमो जातो॥९० ॥ ५७/५. दंसण-नाणप्पभवं, चरणं 'सुद्धेसु तेसु'१३ तस्सुद्धी।
चरणेण४ कम्मसुद्धी, उग्गमसुद्धी५ चरणसुद्धी१६ ॥ ९१॥ ५८. आहाकम्मुद्देसिय, पूतीकम्मे७ य मीसजाते य।
ठवणा पाहुडियाए, पाओयर कीत पामिच्चे ॥ ९२ ॥
१. मेह (ला, ब, मु, क)।
कहकर प्रस्तुत प्रसंग में चारित्र उद्गम के अधिकार २. मुग्गमो (मु)।
का निर्देश करते हैं फिर ५७/१ में ग्रंथकार पुनः ३. जुत्तो (अ, ब, ला)।
द्रव्य उद्गम की बात नहीं कहते। ५७ वीं गाथा ४. वुच्छो (स), तु. जीभा १०८९।
में नियुक्तिकार ने 'दव्वम्मि लड्डुगादी' निर्देश से ५. वासहरा (मु)।
'लड्डुकप्रियकुमार' की कथा का संकेत किया है। ६. “जुत्ता, (अ, बी), “जत्तो (स)।
५७/२-४ इन तीन गाथाओं में इसी कथा का ७. किद्द (ला, ब)।
विस्तार है अतः ये गाथाएं भी भाष्य की होनी ८. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ३। चाहिए। ५७/५ गाथा भी प्रासंगिक रूप से भाष्यकार ९. अजिण्ण (मु)।
द्वारा निर्मित प्रतीत होती है क्योंकि गाथा ५७ के १०. तिसमुब्भवो (अ, ब)।
अंतिम चरण 'चरित्तुग्गमेणित्थ अहिगारो' उल्लेख ११. वेरग्ग' (बी), गुगमण (ब, ला)।
के बाद उद्गम के १६ दोषों का उल्लेख करने १२. कम्मुवगमो (अ), कमुवगमो (बी),
वाली गाथाओं का विषय की दृष्टि से सीधा सम्बन्ध कमुग्गमो वा (क, स)।
बैठता है। १३. सुद्धेहिं तहिं (अ, बी), सुद्धे तु तम्मि (जीभा १०९२)। १७. पूइयकम्मे (अ, बी)। १४. करणेण (अ, बी), धरणेण (ला), हरणेण (ब)। १८. प्राभृतिका-पूर्वं नपुंसकत्वेऽपि कप्रत्यये समानीते १५. "सिद्धा (ब, ला)।
सति स्त्रीत्वं (मवृ)। १६. ५७/१-५-ये पांचों गाथाएं प्रकाशित टीका में १९. निभा ३२५०, बृभा ४२७५, प्रसा ५६४, जीभा
निगा के क्रम में उल्लिखित हैं लेकिन ये पांचों १०९५, पिंप्र ३, तु. मूला ४२२, पंचा १३/५, गाथाएं भाष्य की होनी चाहिए। गाथा ५७ में ५८, ५९-ये दो गाथाएं स प्रति में नहीं हैं। नियुक्तिकार द्रव्य उद्गम और भाव उद्गम की बात
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पिंडनियुक्ति
५९. परियट्टिए 'अभिहडे, उब्भिण्णे मालोहडे तिर य।
अच्छिज्जे अणिसिद्धे, 'अज्झोयरए य सोलसमे'२॥९३ ॥ आहाकम्मियनामा, एगट्ठा कस्स वावि किं वावि। परपक्खे य सपक्खे, चउरो गहणे य आणादी ॥९४ ॥ आहा अहे य कम्मे, 'आयाहम्मे य५ अत्तकम्मे य। पडिसेवण पडिसुणणा, संवासऽणुमोदणा' चेव ॥९५ ॥ धणुजुयकायभराणं, कुडुंबरज्जधुरमाइयाणं च। 'खंधादी हिययं चिय'१९, दव्वाहा अंतए धणुणो॥९६ ॥
ओरालसरीराणं, उद्दवण१ तिवायणं१२ च जस्सट्ठा । मणमाहित्ता कुव्वति३, आहाकम्मं तयं बेंति ॥ ९७ ॥ जं दव्वं उदगादिसु, छूढमहे वयति जं च भारेणं । सीतीएँ रज्जुएण व, ओतरणं दव्वहेकम्मं ॥ ९८ ॥ संजमठाणाणं कंडगाण५ लेसा-ठितीविसेसाणं।
भावं अहे करेती६, तम्हा 'तं भावहेकम्मं '१७ ॥ ९९ ॥ ६४/१. भावावयारमाहित्तु१८ मप्पगे१९ किंचिणूणचरणग्गो२० ।
आहाकम्मग्गाही, अहो अहो नेति अप्पाणं ॥ १०० ॥ ६४/२. बंधति अहेभवाउं, पकरेति अहोमुहाइँ कम्माई।
घणकरणं तिव्वेण उ, भावेण 'चओ उवचओ'२१ य२२ ॥ १०१॥
१. हडुब्भिण्णे (बी)।
१३. कीरइ (मु), कुव्वई (स)। २. वि (अ, बी)।
१४. जीभा ११००। ३. धोते रत्ते य घटे य (निभा ३२५१), बृभा ४२७६, १५. कण्डकं नाम समयपरिभाषयाऽङ्गलमात्रक्षेत्रासंख्येय
जीभा १०९६, प्रसा ५६५, तु. पिंप्र ४, तु. मूला भागगतप्रदेशराशिप्रमाणा संख्याऽभिधीयते (मवृ)। ४२३, पंचा १३/६।
१६. करेंति (ब, ला)। ४. जीभा १०९८1
१७. तं भावए कम्मं (अ, बी), तु भवे ५. "हम्मिय (ब)।
___ अहेकम्मं (जीभा ११०६)। ६. पडिसुवणा (ला)।
१८. भावोवयारमादित्तु (अ, बी), रगाहेउ (ब, ला), ७. सऽणमो (बी, क)।
भाव अवयारमाहेउ (क)। ८. तु. बृभा ५३४२, ६३७५ ।
१९. अप्पणो (अ, बी)। ९. कुडंबरज्जधर' (अ, क, बी)।
२०. चरणे य (ब)। १०. खंधाती हितयम्मि य (ला, ब, स, क)। २१. स्तोकतरा वृद्धिश्चयः, प्रभूततरा वृद्धिरुपचयः (मवृ)। ११. उद्दवणशब्दात् परतो विभक्तिलोप आर्षत्वात् (मवृ)। २२. तु (जीभा १११३), तु. भग. १/४३६, ४३७। १२. निवा' (बी)।
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पिंडनियुक्ति
६४/३. तेसिं गुरूण 'मुदएण, अप्पगं'१ दुग्गतीऍ२ पवडतं।
न चएति विधारेउं, 'अधरगति णेति कम्माई'५ ॥ १०२ ॥ ६५. अट्ठाएँ अणट्ठाए, छक्कायपमद्दणं तु जो कुणति ।
अनिदाएप य निदाए', 'आयाहम्मं तयं बेंति ॥ १०३ ॥ दव्वाया खलु काया, भावाया तिन्नि नाणमादीणि।
परपाणपाडणरतो, चरणायं अप्पणो हणति ॥ १०४ ॥ ६६/१. निच्छयनयस्स चरणायविघाते नाण-दसणवहो वि।
ववहारस्स उ चरणे, हतम्मि भयणा उ सेसाणं ॥१०५ ॥ दारं ॥ दव्वम्मि अत्तकम्मं, जं जो उ ममायए तयं दव्वं ।
भावे असुभपरिणतो, परकम्मं अत्तणो कुणति ॥ १०६ ॥ ६७/१. आहाकम्मपरिणतो, 'फासुगमवि संकिलिट्ठपरिणामो'१२ ।
आययमाणो३ बज्झति, तं जाणसु अत्तकम्मं ति॥ १०७ ॥ ६७/२. परकम्म अत्तकम्मीकरेति, तं जो उ गिहिउं भुंजे।
'तत्थ भवे परकिरिया, कहं नु'१४ अन्नत्थ संकमति ॥ १०८॥ ६७/३. कूडुवमाए१५ केई१६, परप्पउत्ते वि७ बेंति बंधो ति।
भणति ‘य गुरू '१८ पमत्तो, बज्झति कूडे अदक्खो य ॥ १०९ ॥
१. एणप्पगं (अ, बी)।
८. आयाकम्मं (अ, बी)। २. दुग्गइई (बी)।
९. बेंति तु दव्वायहम्मं ती (जीभा १११५)। ३. चइए (ला)।
१०. तु. जीभा १११७। ४. “गई (बी,ला)।
११. जीभा १११८, यह गाथा ६६ वी गाथा की व्याख्या ५. अहकम्मं भण्णए तम्हा (जीभा १११४), ६४/१
रूप है, देखें टिप्पण गाथा ६४/३। ३-ये तीनों गाथाएं ६४ वीं गाथा की व्याख्या रूप १२. फासुयमसंकि (स)। हैं। नियुक्तिकार ने आधाकर्म के एकार्थकों की एक १३. आइय' (अ, बी, ला), आतिय' (जीभा ११२०)। या दो गाथाओं में ही व्याख्या की है। 'अहेकम्म' १४. चोएति परक्किरिया कहण्णु (जीभा ११२१)। की व्याख्या के बाद गा. ६५ में 'आयाहम्म' की १५. कुडगुव' (ला, ब), कूडव' (बी), “माइ (अ), व्याख्या वाली गाथा नियुक्ति की है।।
कूड उवमाए उ (क)। ६, परिज्ञानवताऽपि यज्जीवानां प्राणव्यपरोपणं सा निदा (मव)। १६. केई (ब)। ७. पूर्वोक्तपरिज्ञानविकलेन सता यत्परप्राणनिर्वहणं सा १७. उ (अ)। अनिदा (मवृ)।
१८. गुरु वि (अ), गुरुं (क), तु. जीभा ११२४ ।
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पिंडनिर्युक्ति
६७/४.
६८.
६७/५. कामं सयं न कुव्वति, जाणंतो पुण तहावि तग्गाही । वड्डेति तप्पसंगं, अगिण्हमाणो उ पडिसेवादीहि तं पुण
६८/२.
एमेव भावकूडे, बज्झति जो
तम्हा उ
६८ / १. पडिसेवणमादीणं,
'अहसंभवं
असुभभावपरिणामो । असुभ भावो, वज्जेव्वो पयत्तेणं ॥ ११० ॥
इमेहिं ।
अत्तीकरेति र कम्मं, तत्थ गुरू आदिपयं, लहु लहु लहुगा कमेणितरे ॥ ११२ ॥
"
अन्नेणाहाकम्मं, परहत्थे णंगारे,
६८/३. एवं
खु अहं समयत्थमजाणंतो, मूढो
सरूवं ५,
उवणीतं
तो
जह
सुद्धो, दोसो
दाराणऽणुमोयणावसाणाणं । सोदाहरणं पवक्खामि ॥ ११३॥
३. करेई (ला, ब, बी, स), कारेइ (क) । ४. पडिसेवाईहिं (ब) ।
असइ
१. य (ला, ब) |
५.
२. जीभा ११२६, ६७ / १-५ - ये पांचों गाथाएं प्रकाशित ६.
टीका में नियुक्ति क्रमांक के अन्तर्गत हैं लेकिन
ये भाष्य की होनी चाहिए। इनमें ६७ वीं गाथा की व्याख्या है। भाष्यकार ने विषय को स्पष्ट करने के लिए कूट - पाश की उपमा का उल्लेख करके आत्मकर्म को स्पष्ट किया है। यद्यपि गाथा ६७/३ के उत्तरार्द्ध में टीकाकार 'चैतदेव निर्युक्तिकृद्' का उल्लेख करते हैं लेकिन संभव यह लगता है कि यह निर्देश ६७ वीं गाथा के प्रारंभ में होना चाहिए। इन गाथाओं को निगा के क्रमांक में नहीं रखा गया है।
७.
८.
९.
१०.
चोइओ
न
देंतस्स पडि सेवणं
१२.
१३.
ज्झति
चित्तरक्खट्ठा ।
६८/४. उवओगम्मि य लाभं, कम्मग्गाहिस्स आलोइ सुलद्धं, भणति भणंतस्स पडिसुणणा ॥ ११६॥ ६८/५. संवासो उ पसिद्धो अणुमोदण कम्मभोइगपसंसार ।
एते समुदाहरणा, ए उ कमे नातव्वा ॥ ११७ ॥ ६८/६. 'पडिसेवणाइ तेणा १४, पडिसुणणाए य१५ रायपुत्तो तु । संवासम्मि य पल्ली, अणुमोदन रायदुट्ठो य१६ ॥ ११८ ॥
वारेति ॥ १११ ॥
भणति ।
कूडउवमाए ।
उ' ॥ ११४ ॥
१४. 'णाइ एते (बी) ।
कुणति ॥ ११५ ॥
जह' (मु, स), 'वस्सरूवं ( क ) । असई (बी)।
चोइउं ( स ) ।
हु (बी, स, मु) ।
खलु (बी) ।
दोसं (ब, ला, स ) ।
११. पडिमुणणा (ला, बी), पडिगुणणा (ब), प्रतिश्रवणं प्राकृतत्वात् स्त्रीत्वनिर्देश: (मवृ) ।
भोयगं ( अ, मु) । '
सूत्रे च उदाहरणशब्दस्य पुल्लिंगता प्राकृतलक्षणवशात् (मवृ)।
१५. उ (ला, ब, क, मु) ।
१६. उ ( जीभा १९२९) ।
२५
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२६
पिंडनियुक्ति
६८.७. गोणीहरण' सभूमी, नेऊणं गोणिओ पहे भक्खे।
निव्विसया परिवेसण', ठिता वि ते कूविया घत्थे ॥ ११९ ॥ ६८/८. जे वि य पडिसेवंती', भायणाणि धरेंति य।
ते वि बज्झंति तिव्वेणं, कम्मुणा किमु भोइणो ? ॥ १२० ॥ ६८/९. सामत्थण रायसुते, पितिवहण सहाय तह य तुण्हिक्का।
तिण्हं पि हु पडिसुणणा, रण्णो सिट्ठम्मि सा नत्थि२ ॥ १२१॥ ६८/१०. भुंज'३ न भुंजे भुंजसु, ततिओ तुसिणीऍ४ भुंजए५ पढमो।
तिण्हं पि हु पडिसुणणा, पडिसेहतस्स सा नत्थि ॥१२२ ॥ ६८/११. आणेत६ भुंजगा कम्मुणा उ बितियस्स वाइओ दोसो।
ततियस्स य माणसिओ, तीहि विमुक्को चउत्थो उ१८ ॥ १२३ ॥ ६९. पडिसेवण पडिसुणणा, संवासऽणुमोदणा य९ चउरो वि।
पितिमारग२० रायसुते, विभासितव्वा२१ जइजणे वि२२ ॥ १२४॥ ६९/१. पल्लीवधम्मि नट्ठा, चोरा वणिया वयं न चोर त्ति।
न पलाया पावकरत्ति२३ काउ रण्णा उवालद्धा२४ ॥ १२५ ॥
१. गोणाह (स)।
१७. विसुद्धो (मु)। २. णेउणिय (अ)।
१८. ६८/१-११-ये ग्यारह गाथाएं भाष्य की होनी चाहिए ३. गोणियओ (स)।
क्योंकि गा. ६८ में नियुक्तिकार ने प्रतिषेवणा, निव्विसिया (अ, बी)।
प्रतिश्रवण आदि चारों पदों की संक्षिप्त व्याख्या ५. परिएसण (ला, स)।
कर दी है तथा इस गाथा का सम्बन्ध सीधा ६९ ६. घित्थे (अ, बी, क), घेत्थे (ला), घत्थे इत्ति वी गाथा से जुड़ता है। ६८/१ में भाष्यकार इन
गृहीताः (मव), कथा के विस्तार हेतु देखें परि. चारों पदों की सोदाहरण व्याख्या प्रस्तुत करने का ३,कथा सं. ४।
संकल्प करते हैं। भाष्यकार की व्याख्या में ६९ वीं ७. परिवेसंती (क, ला)।
गाथा अतिरिक्त प्रतीत होती है। ६८/१-११ तथा ८. भोयणाणि (बी)।
६९/१-४-ये गाथाएं भाष्य की हैं तथा बीच में ९. गाथा में अनुष्टुप् छंद है।
६९ वीं गाथा नियुक्ति की है। इन गाथाओं को १०. सामत्थणं देश्या चिन्ता (अव), सामत्थणं स्वभटैः निगा के क्रमांक में नहीं जोड़ा है। सह पर्यालोचनं (मवृ)।
१९. उ (मु)। ११. रायसुए त्ति तृतीयार्थे सप्तमी (म)।
२०. पियमा (क, मु), पिइमा (अ, बी)। १२. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३,कथा सं. ५। २१. विहासि (अ, बी)। १३. भुंजह (ला, ब)।
२२. य (ला, ब, स)। १४. “णाओ (अ, बी)।
२३. पावरय त्ति (अ, बी)। १५. भुंजई (स)।
२४. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३.कथा सं. ६। १६. आणिंतु (अ, बी), आणंत (मु)।
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पिंडनियुक्ति
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६९/२. आहाकडभोईहिं, सहवासो तह या तव्विवज्जं२ पि।
दंसणगंधपरिकहा, भावेंति सुलूहवित्तिं पि॥ १२६ ॥ ६९/३. रायऽवरोहऽवराहे, विभूसितो घाइतो नगरमज्झे।
धन्नाधन्नोत्ति कहा, वहावहो कप्पडिय खोला ॥ १२७ ॥ ६९/४. साउं पज्जतं आदरेण, काले रिउक्खमं निद्धं ।
तग्गुणविकत्थणाए, अभुंजमाणे वि अणुमन्ना ॥ १२८॥ ७०. आहा अहे य कम्मे, आयाहम्मे य अत्तकम्मे य।
जह वंजण नाणत्तं, अत्थेण वि पुच्छते एवं ॥ १२९ ॥ ७०/१. एगट्ठः एगवंजण, एगटुं नाणवंजणा चेव।
नाण? एगवंजण, नाणट्ठा वंजणा नाणा'१० ॥ १३० ॥ ७०/२. 'दिटुं खीरं खीरं '११, एग8 एगवंजणं लोए।
'एगटुं बहुनाम'१२, दुद्ध पयो पीलु१३ खीरं च ॥१३१॥ ७०/३. गो-महिसि-अजाखीरं, नाणटुं एगवंजणं णेयं ५।
'घड-पड-कड-सगड-रहा'१६, होति पिहत्थं पिहं नामं ॥ १३२ ॥ ७०/४. आहाकम्मादीणं, होति दुरुत्तादि७ पढमभंगो उ।
आहाहेकम्मं ति य'१८, बितिओ सक्किंद इव भंगो॥१३३ ॥ ७०/५. आहाकम्मतरिया९, असणादी उ२० चउरो ततियभंगो।
आहाकम्म पडुच्चा, नियमा सुण्णो चरिमभंगो ॥१३४ ॥
१. वि (अ, बी)।
१०. णाणवंजणया (जीभा ११३१), तु. व्यभा १५५, २. वज्जिं (क)।
यह गाथा ला प्रति में नहीं है। ३. सत्थुवित्ति (अ, बी), वित्तं (स)।
११. जह खीरं खीरं चिय (जीभा ११३२)। ४. रायावरोहराहे (ला), रायावरोहवराहे (अ), १२. एगट्ठ णाणवंजण (जीभा)। रायारोहवराहे (क, मु)।
१३. पालु (अ, ब, ला), पाल (स)। ५. खोला:-हेरिकाः (मवृ), कथा के विस्तार हेतु देखें १४. तु. व्यभा १५६।। परि. ३,कथा सं. ७।
१५. लोए (अ, बी), णाम (क)। ६. "विकंथ (अ, ब, ला, बी), “विकंथणाए (स)। १६. “सगडरहाई (अ, बी)। ७. य भुंज (स)।
१७. दुरंतादि (ला, ब), “त्ताइं (अ)। ८. ६९/१-४-ये चार गाथाएं नियुक्ति की नहीं हैं, देखें १८. आहा अहे य कम्मे (अ) । . टिप्पण ६८/११।
१९. "मंतिरिया (स)। ९. एगट्ठा (अ, ब, मु)।
२०. य (क)।
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पिंडनियुक्ति
७०/६. इंदत्थं जह सद्दा, पुरंदरादी उ णातिवत्तंते ।
'अहकम्म आयहम्मा', तह आह णातिवत्तंते' ३ ॥ १३५ ॥ आहाकम्मेण अहे करेति, जं हणति पाणभूताई।
जं तं आइयमाणो, परकम्मं अत्तणो कुणति ॥ १३६ ॥दारं ॥ ___ कस्स त्ति पुच्छितम्मी, नियमा साहम्मियस्स तं होति ।
साहम्मियस्स तम्हा', 'कायव्व परूवणा विहिणा" ॥१३७ ॥ नामं ठवणा दविए, खेत्ते काले य पवयणे लिंगे।
दंसण-नाण-चरित्ते, अभिग्गहे 'भावणाओ य॥ १३८ ॥ ७३/१. नामम्मि सरिसनामो, ठवणाए० कट्ठकम्ममादीया।
दव्वम्मि जो उ भविओ, साहम्मि सरीरगं चेवर ॥ १३९ ॥ ७३/२. खेत्ते समाणदेसी, कालम्मि ‘य एक्ककालसंभूतो'१२।।
पवयणसंघेगतरो, लिंगे रयहरण मुहपोत्ती१३ ॥ १४० ॥ ७३/३. 'दंसण-नाण-चरित्ते१४, तिग पण पण 'तिविध होति उ चरित्तं'५ ।
___ 'दव्वादिओ अभिग्गह'१६, अह ‘भावण मो अणिच्चादी १० ॥ १४१॥ ७३/४. जावंत८ देवदत्ता, गिहीव अगिहीव तेसि दाहामि।
___ नो कप्पती 'गिहीण उ' १९, दाहं ति विसेसिते २० कप्पे ॥१४२ ॥
१. णइव' (ला, ब), णाइवुत्तंते (क)।
९. णाहिं च (जीभा ११३९), व्यभा ९८६, यह गाथा २. अत्तकम्मा (ब, ला, स)।
ब प्रति में नहीं है। ३. अह आह-अत्तकम्मा, तहा अहे णा (जीभा १९३६). १०. °णाणं (क)।
७०/१-६-ये गाथाएं ७० वीं गाथा की व्याख्या रूप ११. जं च (अ, बी), व्यभा ९८७। हैं लेकिन प्रकाशित टीका में ये छहों गाथाएं निगा १२. समाणकालसं (मु)। के क्रमांक में हैं। ७० वीं गाथा का संबंध ७१ वी १३. पत्ती (अ, बी), "पुत्ती (क), व्यभा ९८८। गाथा से साक्षात् जुड़ता है अतः इनको निगा के १४. नाणे चरणे (अ, ब, मु)। क्रम में नहीं रखा गया है।
१५. तिविहो त्ति व चरित्ते (ब, ला, स)। ४. आयय (क, मु)।
१६. दव्वादी तु अभि (व्यभा ९८९), "गहे (ब, ला)। ५. जीभा ११३७। ।
१७. भावेणाणिच्चादी (ला, ब)। ६. “यम्मि (अ, बी)।
१८. जाणंति (अ, बी), जावंति (क, स)। ७. जम्हा (ब, ला, स)।
१९. गिहीणं (क, मु)। ८. परूवणं तस्स वुच्छामि (अ, बी)।
२० "सियं (क)।
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पिंडनियुक्ति
७३/५. पासंडीसु' वि एवं, मीसामीसेसुरे होति उरे विभासा ।
समणेहि संजयाण तु, विसरिसनामाण वि न कप्पे ॥१४३ ॥ ७३/६. नीसमणीसा व कडं, ठवणा साहम्मियम्मि उ विभासा।
दव्वे मततणुभत्तं, न तं तु कुच्छा विवज्जेंति ॥ १४४ ॥ दारं ॥ ७३/७. पासंडीसमणाणं, गिहिनिग्गंथाण चेव उ विभासा।
जह नामम्मि तहेव उ, खेत्ते काले य नातव्वं ॥१४५ ॥ ७३/८. दस ससिहागा सावगर, पवयणसाधम्मिया न लिंगेण।।
लिंगेण उ साहम्मी२, नो पवयण निण्हगा सव्वे ॥ १४६ ॥ ७३/९. विसरिसदसणजुत्ता, पवयणसाधम्मिया न दंसणओ।
तित्थगरा'३ पत्तेया, नो पवयण दंससाहम्मी॥१४७ ॥ ७३/१०. 'नाण-चरित्ता'१४ एवं५, नातव्वा होंति पवयणेणं तु।
पवयणतो साधम्मी, नाभिग्गह सावगा जइणो ॥ १४८ ॥ ७३/११. साहम्मऽभिग्गहेणं१६, नो पवयण निण्ह तित्थ पत्तेया।
एवं पवयण भावण, 'एत्तो सेसाण'९७ वोच्छामि ॥ १४९ ॥ ७३/१२. लिंगादीहि८ वि एवं, एक्केक्केणं तु उवरिमा नेज्जा९ ।
जेऽणण्णे२० उवरिल्ला, ते मोत्तुं सेसए एवं ॥ १५० ॥ ७३/१३. लिंगेण उ साधम्मी, न दंसणे वीसुदंसि१ जइ निण्हा।
पत्तेयबुद्ध तित्थंकरा य बितियम्मि भंगम्मि॥ १५१ ॥ १. डीण (अ, बी)।
लिंगेण उसाहम्मी, णो पवयणओ य निण्हगा सव्वे। २. मिस्सामिस्सम्मि (ब, ला, क, स),
पवयणसाहम्मिय पुण, लिंगे दस होंति ससिहागा॥ मिस्सामिस्साण (अ, बी)।
११. साविग (स)। ३. x (बी), हु (मु, ला, स)।
१२. साहम्मिय (ब), साहम्मियो (अ, बी)। ४. समणेसु (मु)।
१३. तित्थंकरा (अ, ब)। ५. कप्पइ (टीपा)।
१४. चरित्ती (ला, ब)। ६. “णीसं (क)।
१५. चेव (अ, बी)। ७. दुगंछा (अ, बी)।
१६. साहम्मि ' (क)। ८. विवज्जेज्जा (मु)।
१७. एत्तोवसाण (स)। ९. पासंडियस' (ला, ब)।
१८. सप्तम्यर्थे तृतीया (मवृ)। १०.अ, क और बी प्रति में ७३/७ गाथा के बाद निम्न
१९. नेया (अ, मु)। गाथा अतिरिक्त मिलती है। यह गाथा ७३/९ की
२०. जेणेणं (ब)। संवादी है केवल शाब्दिक अंतर है। मूलतः यह
२१. "दंसे (बी), "दंस (अ)। गाथा व्यभा (९९१) की है
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७३/१४. लिंगेण उ नाभिग्गह; अणभिग्गहवीसुऽभिग्गही चेव।
जइ साग बितियभंगे, पत्तेयबुहा य तित्थगरा ॥ १५२ ॥ ७३/१५. एवं लिंगे भावण, दंसण नाणे य पढमभंगो उ।
___जइ साग वीसुनाणी, एवं चिय बितियभंगो वि॥ १५३ ॥ ७३/१६. दंसण चरणे पढमो, सावग जइणो य बीयभंगो उ।।
जइणो विसरिसदंसी, दंसे य अभिग्गहे वोच्छं ॥ १५४ ॥ ७३/१७. साग जइ वीसऽभिग्गह, पढमो बीओ य भावणा चेव।
नाणेण वि णेज्जेवं, एत्तो चरणेण वोच्छामि ॥१५५ ॥ ७३/१८. जइणो वीसाऽभिग्गह, पढमो बिय निण्ह -साग-जइणो वि।
एवं तु भावणासु वि, वोच्छं दोण्हं ति माणत्तो' ॥ १५६ ॥ ७३/१९. जइणो सावग निण्हग, पढमे बितिए य होंति भंगे य।
केवलनाणे तित्थंकरस्स नो कप्पति कतं तु॥१५७ ॥ ७३/२०. एमेव य लिंगेणं, दंसणमादी उ होंति भंगा उ।
भइएसु उवरिमेसुं, हिट्ठिल्लपदं तु वज्जेज्जा ॥ ७३/२१. पत्तेयबुद्ध-निण्हग', उवासए केवली वि आसज्ज।
खइयादिए य भावे, पडुच्च भंगे तु जोएज्जा ॥ १५८ ॥ ७३/२२. जत्थ उ ततिओ भंगो, तत्थ न कप्पं तु सेसए भयणा।।
'तित्थंकरकेवलिणो, जहकप्पं नो य'११ सेसाणं१२ ॥१५९ ॥ १. गहे (अ), ग्गहा (स)।
नियुक्तिकार निक्षेप परक गाथा की इतनी विस्तृत २. सावग (मु)।
व्याख्या नहीं करते अतः संभव लगता है कि इतनी ३. जयणो (स) सर्वत्र।
विस्तृत व्याख्या भाष्यकार ने की होगी फिर भी ४. वीसुभि (अ, ब)।
टीकाकार मलयगिरि के समय तक ये गाथाएं नियुक्ति ५. माणत्ता (ब)।
गाथा के रूप में प्रसिद्ध हो गई थीं। गा. ७३/९ में ६. बीए (अ, बी, क, स)।
मलयगिरि ने 'स्वयमेव श्रोतारो ऽभोत्स्यन्ते इति बुद्ध्या ७. जह (टीपा, ब, स)।
नियुक्तिकृन्नोदाहृतवान्' तथा गा. ७३/१४ में 'लिंगछडेज्जा (जीभा ११४२), यह गाथा केवल क प्रति दर्शन चतुर्भंगिकाद्यद्वयसदृशानीति कृत्वा नियुक्तिकृन्नोमें मिलती है।
दाहरति' का उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट है कि ९. निण्हव (मु), निण्हय (क)।
ये गाथाएं नियुक्ति के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थीं। १०.व्यभा ९९४, तु. जीभा ११४४।
व्याख्यात्मक होने के कारण इनको निगा के क्रमांक ११. तित्थकर (बी), तित्थगरनिण्हओवासगादि कप्पे ण में नहीं रखा है। मूलद्वार गा. के 'कस्स' द्वार की (जीभा ११४५)।
व्याख्या गा. ७३ में तथा किं द्वार की व्याख्या ७५ में १२.७३/१-२२-ये बावीस गाथाएं ७३ वीं गाथा की है अतः विषय की दृष्टि से भी इनको नियुक्ति की
व्याख्या रूप हैं। नियुक्ति की रचना-शैली के अनुसार न मानने पर कोई बाधा उपस्थित नहीं होती है।
८.
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७४.
७५.
७६.
किं तं आहाकम्मं, ति पुच्छिते संभवपदरिसणत्थं च तस्स
असणाइणं
सालीमादी अगडे, फलादि सुंठीय साइमं होति । तस्स 'कडनिट्ठितम्मी, सुद्धमसुद्धे ५ य चत्तारि ॥ १६१ ॥ कोद्दवरालग गामे, वसही रमणिज्ज भिक्ख - सज्झाए । खेत्त पडिलेह संजय, 'सावग पुच्छुज्जए' १६ कहणा ॥ १६२ ॥
•
७६/१. जुज्जति गणस्स खेत्तं, नवरि गुरूणं तु नत्थि पाउग्गं । सालि त्ति कते रुंपण', परिभायण नियगगेहेसु" ॥ १६३॥
७६ / २. वोलिंता १२ ते उ१३ अन्ने वा, अडंता तत्थ गोयरं । सुर्णेति९४ एसणा जुत्ता, बालादिजणसंकहं५ ॥ १६४ ॥ ७६ / ३. एते
घरे ।
ते जेसिमो रद्धो, सालिकूरो घरे दिण्णो वा से सयं देमि१६ देहि वा बेंति वा इमं १७ ॥ १६५ ॥ ७६/४. थक्के थक्कावडियं, अभत्तए सालिभत्तयं जातं । मज्झ य पतिस्स मरणं, दियरस्स य मे" मता भज्जा १९ ॥ १६६॥ ७६/५. चाउलोदगं२० पि से देहि, साली आयामकंजियं । किमेदं 'ति कतं १२२ नाउं वज्जिंतऽन्नं २३ वयंति वा२४ ॥ १६७ ॥
तस्सरूवकहणत्थं । भणति ॥ १६० ॥
१. इमं (ब), इयं ( स ) ।
२. भणए ( अ ) ।
३. अवडे (क, मु) ।
४. फले य ( अ, जीभा ) ।
५. म्मिं सुद्धासुद्धे (जीभा ११४७), सुद्धमसुद्धे त्ति १५. बालाई ( अ, बी),
आर्षत्वात् शुद्धावशुद्धौ (मवृ) ।
६. सावमपु° (ला, ब ) ।
७. कहणं (स), जीभा ११४८ ।
८. जुंजइ (ब), जुज्जुई ( स ) ।
९. रूपण (ब), रुप्पण (अ, बी, जीभा १९४९), रुंपण त्ति रोपणं (मवृ) ।
१०. परिभायण त्ति गृहे परिभाजनं (मवृ)।
११. ७६/१-५ - ये पांचों गाथाएं स्पष्टतया भाष्यकार की प्रतीत होती हैं क्योंकि गाथा ७६ में नियुक्तिकार ने संक्षेप में पूरी कथा का संकेत कर दिया है। आगे ७६ / १-५ में भाष्यकार ने इसी कथा की विस्तार से व्याख्या की है अतः ये गाथाएं निगा
के क्रमांक में नहीं जोड़ी गई हैं। १२. बोलित्ता (बी) ।
१३. वि (ला, ब, स ), व (मु, क) । १४. मुणेंति ( अ, ब, ला,
३१
बी), सुणंति (मु, क)। संकहा (ला, ब, क, मु) ।
१६. बेमि ( क ) ।
१७. ७६/२-५ गाथाओं में अनुष्टुप् छंद है। १८. से (स, मु) ।
१९. कथा के विस्तार हेतु देखें परि ३, कथा सं. ८ का टिप्पण ।
२०. छंद की दृष्टि से 'चाउलोदं' पाठ होना चाहिए । २१. सालि (ला, ब ) ।
२२. ति कए ( अ, बी), तक्कडं ( क ) । २३. वज्जंति ण्णं (स), वज्जंत' (मु) ।
२४. या (ला, ब), कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३ कथा सं. ८ ।
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७७. 'लोणागडोदए एवं', खणित्तु महुरोदगं।
ढक्कितेणऽच्छते ताव, जाव 'साहु त्ति'२ आगता ॥१६८ ॥
कक्कडिय-अंबगा' वा; दाडिम' दक्खाइ बीजपूरादी। ___ 'खाइमऽधिकरणकरणं, तु साइमं तिकडुमादीयं ॥ १६९ ॥
असणादीण चउण्ह वि, आमं जं साहुगहणपाउग्गं ।
तं निट्ठितं वियाणसु, उवक्खडं तू कडं होति ॥ १७० ॥ ८०. कंडित तिगुणुक्कंडा, उ निट्ठिता णेग दुगुण उक्कंडा।।
निट्टितकडो य कूरो, आहाकम्मं दुगुणमाहु ॥ १७१ ॥ ८०/१. छायं पि विवज्जेती, केई फलहेतुगादि वुत्तस्स।
तं तु न जुज्जति जम्हा, फलं पि११ कप्पं बितियभंगे१२ ॥ १७२ ॥ ८०/२. परपच्चइया छाया, न वि सा 'रुक्खेव वड्डिता'१३ कत्ता।
नट्ठच्छाए उ दुमे, कप्पति एवं४ भणंतस्स ॥ १७३ ॥ ८०/३. वड्डति हायति५ छाया, तच्छिक्कं पूइयं पि व६ ण कप्पे।
न य आहाय सुविहिते, निव्वत्तयती७ रविच्छायं८ ॥ १७४ ॥ ८०/४. अघणघणचारिगगणे, छाया नट्ठा दिया पुणो होति ।
कप्पति निरातवे नाम, आतवे तं विवज्जेउं१९ ॥ १७५ ॥
१. अह ताव सावयो तू (जीभा १९५२)। २. साहुत्थ (अ, बी)। ३. गाथा में अनुष्टुप् छंद है, कथा के विस्तार हेत
देखें परि. ३,कथा सं. ९। ४. अंबगं (क)। ५. दालिम (ला, ब, स)। ६. दक्खा य (मु), दक्खा व (जीभा)। ७. ति (अ, बी, ला, मु)।। ८. “ईणं (अ, बी), जीभा (११५४) में गाथा का
उत्तरार्द्ध इस प्रकार है
एमाइ खाइमं तू, साइम तह तिगडु आदीयं । ९. फलगाइहेउ (अ, बी)। १०. उत्तस्स (स)। ११. ति (अ, बी)। १२. जीभा ११६८, ८०/१-५-ये पांचों गाथाएं व्याख्यात्मक
हैं। प्रसंगवश ग्रंथकार ने खादिम के प्रसंग में छाया आधाकर्मिकी होती है या नहीं, इस संदर्भ में विस्तृत व्याख्या की है। ये गाथाएं भाष्य की होनी चाहिए। इनको निगा के मूल क्रमांक में नहीं
जोड़ा है। १३. रुक्खम्मि वट्टिया (ला, ब), रुक्खम्मि वड्डिया (स),
रुक्खोव्व (जीभा ११६९)। १४. एयं (अ, बी)। १५. हायई (स)। १६. वि (ब)। १७. निव्वत्तेई (अ, बी)। १८. रवीछाया (अ, ला, जीभा ११७०),
रवीछायं (क, स)। १९. विवज्जति (ला, ब), विवज्जिति (बी), विवज्जिति
(अ), विवज्जेंति (स), विवज्जंतु (जीभा ११७१)।
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८०/५. तम्हा न एस दोसो, संभवते कम्मलक्खणविहूणो।
तं पि य हु अतिघिणिल्ला, वज्जेमाणा अदोसिल्ला ॥ १७६ ॥ ८१. परपक्खो उ गिहत्था, समणा समणी य' होति उ सपक्खो।
फासुकडं रद्धं वा, निट्टितमितरं कडं सव्वं ॥ १७७ ॥ ८१/१. तस्स 'कडनिद्रुितम्मि य", अन्नस्स कडम्मि निद्विते तस्स।
चउभंगो एत्थ भवे, चरिमदुगे होति कप्पं तु ॥ १७८ ॥ चउरो अतिक्कम-वतिक्कमे य अतियार तह अणायारे।
निद्दरिसणं चउण्ह वि, आहाकम्मे निमंतणया ॥ १७९ ।। ८२/१. साली-घत-गुल-गोरस, नवेसु वल्लीफलेसु जातेसुं।
दाणे अभिणवसड्ढे, 'आहायकते निमंतणया ॥ १८० ॥ ८२/२. आहाकम्मग्गहणे, अइक्कमादीसु वट्टते चउसु ।
नेउरहारिग हत्थी, चउ-तिग-दुग-एगचलणेणं ॥ १८१ ॥ ८२/३. आहाकम्मामंतण", पडिसुणमाणे अइक्कमो होति।
पदभेदादि वइक्कम, गहिते ततिएतरो गिलिए ॥ १८२ ॥ दारं ॥ ८३. आणादिणो१२ य दोसा, गहणे जं भणियमह इमे ते उ।
आणाभंगऽणवत्था, मिच्छत्तविराधणा चेव ॥ १८३ ॥ ८३/१. आणं सव्वजिणाणं, गेण्हंतो तं अइक्कमति लुद्धो।
आणं च अतिक्कंतो, कस्सादेसा कुणति सेसं१३? ॥ १८४ ॥
१. 'वई (क), तु संभवे (जीभा ११७२)।
इन गाथाओं के भाष्यगत होने के निम्न कारण हैं२. अत्र हेतो प्रथमा (मवृ), हूणा (ला, ब)।
• गा. ८२/३ अनेक ग्रंथों में मिलती है अतः ३. उ (अ, बी, मु)।
ग्रंथकार ने चतुर्थ चरण में अतिक्रम का संकेत ४. तु. जीभा ११५६।
मात्र कर दिया है। ५. 'यम्मी (मु)।
• गा. ८२ का चतुर्थ पद और ८२/३ का प्रथम ६. तु. जीभा ११५७, ब, क, ला और स प्रति में यह पद शब्दों की दृष्टि से लगभग समान है, ___ गाथा नहीं है। यह गाथा भाष्य की होनी चाहिए। नियुक्तिकार इतनी पुनरुक्ति नहीं करते हैं। ७. तु. जीभा ११७४।
८२ वी गाथा विषय की दृष्टि से सीधी ८३ वीं ८. आहाकम्मे निमंतेइ (जीभा ११७७), आहायकयं गाथा से जुड़ती है। ८२ के चतुर्थ पद में
निमंतेइ (स, क), तु. निभा २६६२, तु. बृभा ५३४१ । ग्रंथकार ने अधूरी बात कही है .अत: ८३ वीं ९. "चलणाणं (ला, ब), कथा के विस्तार हेतु देखें
गाथा में आधाकर्म का निमंत्रण स्वीकार करने परि. ३,कथा सं. १०।।
के दोषों का उल्लेख है। १०. 'कम्म निमंतण (मु, क)।
१२. आणायणो (स)। ११. व्यभा ४३, ८२/१-३-ये तीनों गाथाएं ८२ वीं गाथा १३.जीभा ११८३।
की व्याख्या रूप हैं अत: भाष्य की होनी चाहिए।
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८३/२. एगेण' कतमकज्ज, करेति' तप्पच्चया पुणो अन्नो।
साताबहुलपरंपर, वोच्छेदो संजम-तवाणं ॥ १८५ ॥ ८३/३. जो जहवायं न कुणति, मिच्छद्दिट्ठी तओ हु को अन्नो?
वड्डेति य मिच्छत्तं, परस्स संकं जणेमाणो ॥ १८६ ॥ ८३/४. वड्डेति तप्पसंगं, गेही य परस्स अप्पणो चेव।
सजियं पि भिन्नदाढो, न मुयति निद्धंधसो पच्छा' ॥ १८७ ॥ ८३/५. खद्धे निद्धे य रुया, सुत्ते हाणी तिगिच्छणे काया।
'पडियरगाण य हाणी'६, कुणति किलेसं किलिस्संतो ॥ १८८ ॥ ८४. जह कम्मं तु अकप्पं, तच्छिक्कं वावि भायणठितं वा।
परिहरणं तस्सेव य, गहियमदोसं च तह भणति ॥ १८९ ॥ ८४/१. अब्भोज्जे गमणादी, पुच्छा दव्वकुल-'देस-भावे'१० य।
एव जयंते छलणा, दिटुंता तत्थिमे दोन्निा ॥ १९० ॥ ८५. जह वंतं तु अभोज २, भत्तं 'जं पि य'१३ सुसक्कयं आसी५ ।
एवमसंजमवमणे, अणेसणिज्जं अभोज्जं तु॥ १९१ ॥ ८६. मज्जारखइयमंसा, मंसासित्थि६ कुणिमं सुणगवंतं ।
वण्णादिअण्णउप्पाइयं७ पि किं तं भवे भोज्जं?८ ॥ १९२ ॥ ८६/१. केई भणंति९ पहिए, उट्ठाणे२० मंसपेसिवोसिरणं ।
संभारित परिवेसण, वारेति सुतो करे घेत्तुं२ ॥ १९३ ॥ १. एकेण (बी)।
संभावना लगती है कि ८४/१ तथा ८६/१, २२. करे (ब)।
ये तीनों गाथाएं भाष्य की होनी चाहिए। इनको ३. जीभा १९८४, बृभा ९२८, निभा ४७८७।
निगा के क्रम में नहीं जोड़ा है। ४. जीभा ११८५, पंचा ११/४६।
१२. अहोजं (ला, ब, स)। ५. एत्थ (बी), जीभा ११८७।
१३. जइ वि य (मु)। पडियरगाण य काया (ला, ब),
१४. ससक्कयं (स)। 'गाण वि हाणी (क)।
१५. आसि (मु, ला)। ७. च किस्संतो (क, जीभा ११८८), ८३/१-५-ये १६. "सित्थी (अ, बी)।
पांचों गाथाएं ८३ वीं गाथा की व्याख्या रूप हैं १७. वण्णातिवण्णउ (ला, स)। अत: भाष्य की होनी चाहिए।
१८. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ११॥ यह गाथा ब प्रति में नहीं है।
१९. वयंति (अ, बी)। ९. अहभोज्ज (ला), अब्भुज्जे (क, बी)। २०. अत्थाणा (अ, ब, ला), उत्थाणा (स)। १०. खेत्तभावे (अ, बी, स)।
२१. परिवट्टण (अ, ब, ला, बी)। ११. जीभा ११९०, ८४/१ यह गाथा ८४ वीं गाथा की २२. घत्थं (बी), कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३,
व्याख्या रूप है। व्याख्यारूप होने से अधिक कथा सं. ११ का टिप्पण।
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८६/२. अमिला' 'करभी खीरं'२, लसुण पलंडू सुरा य गोमंसं।
वेदसमए वि अमयं, किंचि अभोज्जं अपिज्जं च ॥ १९४ ।। ८७. वण्णादिजुया वि बली, सपललफलसेहरा असुइनत्था।
असुइस्स विप्पुसेण' वि, जह 'छिक्काओ अभोज्जाओ" ॥ १९५ ॥ एमेव उज्झितम्मि वि, आहाकम्मम्मि अकयए. कप्पे। होति अभोज्जं भाणे, जत्थ व सुद्धम्मिर तं पडितं ॥ १९६ ॥ वंतुच्चारसरिच्छं, कम्मं सोउमवि 'कोविदो भीतो'१२ |
परिहरति सावि य दुहा, विहि-अविहीए य३ परिहरणा॥ १९७ ॥ ८९/१. साली-ओदण१४ हत्थं, दट्ठ भणती अकोविदो५ देंति१६ ।
कत्तोच्चउ त्ति साली, 'वणि जाणति'१७ पुच्छ तं गंतु ॥ १९८ ॥ ८९/२. गंतूण'९ आवणं सो, वाणियगं पुच्छते २० कतो साली?
पच्चंते मगहाए, गोब्बरगामेर तहिं वयति ॥१९९ ।। ८९/३. कम्मासंकाएँ २२ पहं, मोत्तुं२३ कंटाहिसावया अदिसिं।
छायं पि विवज्जेंतो", डज्झति उण्हेण मुच्छादी२५ ॥ २०० ॥ ८९/४. इय अविहीपरिहरणा२६, नाणादीणं२७ न होति आभागी।
दव्व-कुल-देस-भावे, विधिपरिहरणा इमा तत्थ ॥२०१॥ १. अविला (मु)।
१५. अविकोविओ (अ, ब, ला, बी)। २ करहक्खीरं (अ, बी), करही (क)। १६. देई (अ, बी), दिति (क)। ३. ल्हसुण (मु), लसण (अ, क, बी)। १७. वणि जाणे (स)। ४. फलंडु (ला), पलंडु (अ, बी, स)।
१८. ८९/१-८-ये आठों गाथाएं गा. ८९ के उत्तरार्द्ध ५. वा (क), ८६/१, २-ये तीनों गाथाएं भाष्य की की व्याख्या रूप हैं। ८९/१-३-इन तीन गाथाओं होनी चाहिए, देखें टिप्पण ८४/१।
में अविधि-परिहरण से संबंधित कथानक है तथा “ललकल (ला, ब, स), पललं तिलक्षोद उच्यते, ८९/४-८-इन पांच गाथाओं में विधि-परिहरण शेखरः-शिखा यस्य स (मवृ)।
की व्याख्या है। गाथा ८९/९ भी व्याख्या रूप है। ७. विप्पुस्सेण (ला), विपुसेण (ब)।
१९. मूतूण (अ, बी)। ८. 'क्काहुत्तऽभिक्खाओ (अ, बी), 'क्का हुज्ज- २०. पुच्छ (स)। भुज्जाओ (क)।
२१. गुब्बर (बी)। ९. आहाकम्ममिय (अ)।
२२. कम्म सं (अ, बी)। १०. अकए (अ, बी)।
२३. मुत्तु (अ, ब)। ११. सुद्धं पि (अ, बी), सुद्धे वि (क, मु)। २४. वज्जयंतो (मु)। १२. x (ला)।
२५. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३,कंथा सं. १२। १३. उ (अ, बी)।
२६. “परिहारी (अ, बी)। १४. ओदणं (बी)।
२७. नाणहीणं (स)।
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८९/५. ओदण-समितिम'- सत्तुग-कुम्मासादी य' होंति ‘दव्वे तु"।
बहुजणमप्पजणं वा, कुलं तु देसो सुरट्ठादी ॥ २०२ ॥ ८९/६. आयरऽणायरभावे, सयं व अन्नेण वावि दावणया।
एतेसिं तु पदाणं, चउपयतिपया' वर्ष भयणा उ॥२०३ ॥ ८९/७. अणुचियदेसं दव्वं", कुलमप्पं आयरो य तो पुच्छा।
बहुए वि नत्थि पुच्छा, सदेसदविए अभावे वि॥२०४ ॥ ८९/८. तुज्झट्ठाए० कयमिणमन्नोऽन्नमवेक्खए११ य२ सविलक्खं।
वज्जेंति३ गाढरुट्ठा", का भे तत्ति५ त्ति वा गिण्हे ॥ २०५ ॥ ८९/९. गूढायारा१६ 'न करेंति'१७, आदरं पुच्छिता वि न कहेंति। ___थोवं१९ ति व नो पुट्ठा, 'तं च'२० असुद्धं कहं तत्थ? ॥२०६ ॥
आहाकम्मपरिणतो, फासुगभोई२१ वि बंधगो होति ।
सुद्धं गवेसमाणो, आहाकम्मे वि सो सुद्धो ॥ २०७ ॥ ९०/१. संघुद्दिटुं सोउं, एति२२ दुतं कोइ भाइए पत्तो।
दिण्णं ति देह'३ 'मज्झतिगा उ'२४ साउं२५ ततो लग्गो२६ ॥ २०८ ॥ ९०/२. मासिगपारणगट्ठा, गमणं आसन्नगामगे२७ खमगे।
सड्डी पायसकरणं, कयाइ२८ अज्जेज्जिही२९ खमगो० ॥ २०९ ॥ १. समिति (अ, बी), समितिमाः-माण्डादिकाः (मवृ)। १७. करेति य (ब)। २. उ (अ, बी, मु)।
१८. कहंति (अ, ला)। ३. होइ (ब)।
१९. थेवं (ला, ब)। ४. दव्वं तु (ला, ब), दव्वाइं (क, मु)।
२०. न व (स)। ५. चउप्पयतिप्पया (अ, बी)।
२१. गदव्वे (मूला ४८७)। ६. य (क)।
२२. एय (अ, क, बी)। ७. सव्वं (अ, ब, ला, बी)।
२३. देहि (ला, क, मु)। ८. बहूए (बी)।
२४. झंतगाउ (अ, बी)। ९. य (ला, क, ब)।
२५. धाउं (ला)। १०. तुब्भ' (अ, बी)।
२६. ९०/१-४-ये चारों गाथाएं ९० वी गाथा की व्याख्या ११. "मिणं अन्नोन्नं विक्खए (ला, ब, स), कयं रूप हैं। गाथा को स्पष्ट करने वाले दो कथानकों मिणमण्णोण्णमपिक्खए (अ)।
का संकेत इन चार गाथाओं में हैं, कथा के १२. वि (अ, ब), व (क)।
विस्तार हेतु देखें परि. ३. कथा सं. १३ । १३. तज्जंति (बी)।
२७. "मगं (ला, ब)। १४. रुटे (ला, अ), 'रुट्ठो (स)।
२८. कयाई (बी)। १५. तित्ति (क)।
२९. अज्जेज्जहं (अ, बी), अज्जेज्जिहं (स)। १६. मूढा (अ, बी)।
३०. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३,कथा सं. १४।
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पिंडनियुक्ति
३७
९०/३. खल्लग-मल्लग 'लेच्छारिगाणि डिंभग'५ 'निब्भच्छित त्ति रुंटणया'२ |
हंदि 'समण त्ति'३ पायस, घतगुलजुय जावणट्ठाए ॥ २१० ॥ ९०/४. एगंतमवक्कमणं', जइ साधू 'एज्ज होज्ज'६ तिन्नो मि।
तणुकोट्ठम्मि अमुच्छा', भुत्तम्मि य केवलं नाणं ।। २११ ॥ ९१. चंदोदयं च सूरोदयं च रण्णो उ दोण्णि उज्जाणा।
तेसि विवरीतगमणे, आणा कोवो ततो दंडो॥ २१२ ।। ९१/१. सूरोदयं गच्छमहं पभाते, चंदोदयं जं तु तणाइहारा।
दुहा रवी'पच्चुरसं ति'१० काउं, राया य११ चंदोदयमेव गच्छे ॥ २१३ ॥ ९१/२. पत्तलदुमसालगता, दच्छामु१२ 'निवंगण त्ति'५३ दुच्चित्ता।।
उज्जाणपालएहिं, गहिता य हता य बद्धा य॥ २१४ ॥ ९१/३. सहसा पविट्ठ दिट्ठा, इतरेहि निवंगण त्ति तो बद्धा।।
निंतस्स य अवरण्हे, दंसणमुभओ वह-विसग्गो५ ॥ २१५ ॥ ९१/४. जह ते दंसणकंखी, अपूरितिच्छा विणासिता रण्णा।
दिढे वितरे मुक्का , एमेव इहं समोतारो१६ ॥ २१६ ॥ ९२. आहाकम्मं भुंजति, न पडिक्कमते य तस्स ठाणस्स।
एमेव अडति बोडो, लुक्कविलुक्को८ जह कवोडो१९ ॥ २१७ ॥ आहाकम्मियदारं२० भणितमिदाणिं पुरा समुद्दिटुं । उद्देसियं तु२१ वोच्छं, समासतो तं दुहा होति ॥ २१८ ॥
१. रिगा य डिंभ (अ, बी)।
१४. “णवावडेहिं (ला), "णवावडोहं (ब)। २. ‘च्छणं च रूं' (मु), 'च्छिए त्ति भंडणया (ला)। १५. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३,कथा सं. १५ । ३. समणं ति (बी)।
१६. जीभा ११९२, ९१/१-४-ये चारों गाथाएं स्पष्ट ४. पयगुल° (ला, ब)।
रूप से भाष्य की प्रतीत होती हैं। गा. ९१ में ५. एगत्त (बी)।
नियुक्तिकार ने संक्षेप में पूरी कथा का संकेत कर ६. इज्ज य होमि (ब, क, स)।
दिया है। गा. ९१/१-४-इन चार गाथाओं में इसी ७. न मुच्छा (अ)।
कथा का विस्तार है। इनको निगा के क्रमांक में ८. तयाभिहारा (ला), तयातिहारा (ब)।
नहीं जोड़ा है। ९. ससी (ला)।
१७. पोडो (ला)। १०. रसिं त्ति (ला), प्रत्युरसम्-उरसः सम्मुखं (मवृ)। १८. लुग्गविलुत्तो (अ, बी)। ११.वि (ला, ब, मु, स)।
१९. कमोडो (ला, स), कम्मोडो (ब), क्कमोडो (क), १२.दच्छामो (अ)।
जीभा ११९३। १३. गणित्ति (अ)।
२०. कम्मदारं (मु)। २१. ति (क, मु)।
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३८
९४.
९५.
ओहेण विभागेण य, ओहे ठप्पं तु बारस उद्दि कडे कम्मे, एक्केक्कर चउव्विहो'
९४ / १. जीवामु' कह वि ओमे, नियतं भिक्खा वि ता 'कइवि देमो ६ । हंदि हु नत्थि अदिन्नं, भुंजति अकतं न य फलेती ॥ २२० ॥ सा उ अविसेसितं चिय, मितम्मि भत्तम्मि चाउले छुभति । पासंडीण गिहीण व, जो एहिति तस्स भिक्खट्ठा ॥ २२१ ॥ भणति ।
चोइतो १४
चेट्टाए ॥ २२२ ॥
९५/१. छउमत्थोघुद्देसं, कहं विवाणाति 'गुरु एवं १५,
९६.
उवउत्तो
गिहत्थसद्दादि
९५ / २. दिण्णाउ ताउ पंच वि, रेहाउ करेति देति व गणिती६ । देह" इतो मा य इतो, अवणेह य एत्तिया भिक्खा ॥ २२३ ॥
सद्दादिसु साहू, मुच्छं न करेज्ज एस जुत्तो होज्जा, गोणीवच्छो
९६ / १. ऊसव मंडणलग्गा, न पाणियं वच्छए वणियागम अवरण्हे, वच्छगरडणं ९६ / २. पंचविहविसयसोक्खक्खणी २२ वहू समहियं न गणेति गोणिवच्छो २३, मुच्छित गढिओ
१. उ ( स ) ।
२. उद्देस ( अ, ब, ला, क, बी) ।
३. इक्किक्के (बी), एक्केक्कि (स, मु) ।
४. चक्कओ (क, मु) ।
५. जीयामो (ला, ब), जीवेमु ( क ) ।
६. कइवई देमो (मु) ।
७. भुज्जइ (मु)।
८. य विसेसए ( अ, बी) ।
९. नियम्मि ( अ, क, बी) ।
१०. तंडुले (मु) ।
११. एहिंति (ला, ब), एहि ( क ) ।
१२. रक्खट्टा ( अ, बी) ।
१३. 'त्थोद्दुद्देसं ( अ, ब, ला) ।
१४. चोइए ( अ, क, बी, मु) ।
O
१८.
१९.
पिंड नियुक्ति
विभागे । भेदो ॥ २१९ ॥
गोयरगतो उ । गवत्तिव्व ॥ २२४॥
न वा चारी ।
खरंटणया ॥ २२५ ॥
१५. होज्जगुरु (स) ।
१६. गणेंति (ब), गणंति (मु), गणेंता ( स ) ।
१७. देहि (क) ।
हि (क) ।
गवत्ते वा (ला), गवत्ते व ( अ, बी) ।
गिहं तं तु । गवत्तम्मि ४ ॥ २२६ ॥
२०. वि य ( अ, बी), x (स) ।
२१.
९६/१ - ४ - ये चार गाथाएं व्याख्यापरक हैं अतः भाष्य की होनी चाहिए । नियुक्तिकार ने गाथा ९६ में 'गोणीवच्छो गवत्तिव्व' कहकर बछड़े के दृष्टान्त का संकेत कर दिया है । ९६ / १ - ३ में इसी दृष्टान्त का विस्तार है । ९६ / ४ का सम्बन्ध सीधा ९९ / १, २ से जुड़ता है अतः वे भी भाष्य की होनी चाहिए। २२. क्खणिं ( अ, बी) ।
२३. गोण (ला) ।
२४. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. १६ ।
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पिंडनियुक्ति
९८.
९६/३. गमणागमणुक्खेवे, भासित सोतादिइंदियाउत्तो।
एसणमणेसणं वा, तह' जाणतिरे तम्मणो समणो ॥ २२७ ॥दारं ॥ ९६/४. महतीय संखडीए', उव्वरितं कूरवंजणादीयं।।
पउरं दद्रुण गिही, भणति इमं देहिप पुण्णट्ठा ॥ २२८ ॥ ९७. उद्देसियं समुद्देसियं च आदेसियं समादेसं।
एवं कडे य कम्मे, एक्केक्क चउव्विहो भेदो ॥ २२९ ।। जावंतिगमुद्देसं, पासंडीणं भवे समुद्देसं । समणाणं आदेसं, निग्गंथाणं समादेसं१॥ २३० ॥ छिन्नमछिन्नं दुविधं, दव्वे खेत्ते य काल 'भावे य'१२ । निप्फाइयनिप्फन्नं१३, नातव्वं जं जहिं कमति ॥ २३१॥ भुत्तुव्वरितं१५ खलु संखडिए१६ तदिवसमन्नदिवसं१७ वा।
अंतो बहिं च सव्वं, सव्वदिणं देह८ अच्छिन्नं १९ ॥ २३२ ॥ ९९/२. देह इमं मा सेसं, अंतो बाहिरगतं व एगतरं।
जाव अमुगि त्ति वेला, अमुगं२० वेलं च आरब्भ ॥ २३३ ॥ १००. दव्वादी छिन्नं पि२१ हु, जइ भणते २२ आरओ वि मा देह।
तो २३ कप्पति छिन्नं पि हु, अच्छिन्नकडं परिहरंति ॥ २३४ ॥
१. इह (ला)। २. जाण वि (ला, ब)। ३. समणे (ब)। ४. संखडिए (अ, बी)। ५. भणह (अ, बी)। ६. x (अ, बी), देह (क) । ७. सियं व (ला, ब)। ८. चउक्कओ (क, मु)।
निभा (२०१९) में यह गाथा इस प्रकार मिलती हैउद्देसगा समुद्देसगा य आदेस तह समादेसा।
एमेव कडे चउरो, कम्मम्मि वि होंति चत्तारि॥ १०. *णाण तु (निभा २०२०)। ११. जीभा ११९९, मूला ४२६, पिंप्र ३०। १२. भावेणं (ला, ब)। १३. निष्फइयनिष्फण्णा (ला)।
१४. कमओ (अ, बी)। १५. भत्तु (अ, बी, मु)। १६. संखडीए (ला, ब, मु), गाथा में छंद की दृष्टि
से इकार ह्रस्व हुआ है। १७. दिवसे (क, मु)। १८. देहि (मु), सर्वत्र। १९. यह गाथा ९६/४ से जडती है। बीच में तीन
गाथाएं नियुक्ति की हैं। ९९/१, २-इन दोनों गाथाओं में द्रव्यादि अच्छिन्न तथा द्रव्यादि छिन्न की
व्याख्या है। २०. अमुं (अ, बी)। २१. वि (अ, बी)। २२. भणई (अ, क, मु, बी), भणइ (ब)। २३. नो (मु, बी)।
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पिंडनियुक्ति
१०१. अमुगाणं ति व' दिज्जउ', अमुगाणं 'म त्ति'३ एत्थ उ विभासा।
जत्थ जतीण विसिट्ठो', निद्देसो तं परिहरेज्जा ॥ २३५ ॥ १०१/१. संदिस्संतं जो सुणति, कप्पते तस्स सेसए ठवणा।
संकलियसाहणं. वा, करेति' असुते१० इमा मेरा ॥ २३६ ॥ १०१/२. मा एयं देह'२ इम, पुढे सिट्ठम्मि तं परिहरंति।।
जं दिन्नं तं दिन्नं, मा संपति देह'३ गेहंति ॥ २३७ ॥ १०२. रसभायणहेतुं वा, ‘मा कुच्छिहिती'१४ सुहं व दाहामि।
दहिमादी आयत्ती५, करेति कूरं कडं एतं ॥ २३८ ॥ १०३. मा काहिंति६ अवण्णं, परिकलियं च दिज्जति सुहं तु।।
विगडेण फाणितेण१९ व, निद्धेण समं तु वटुंति ॥ २३९ ॥ १०४ एमेव य कम्मम्मि विर, उण्हवणे नवरि तत्थ नाणतं।
तावितविलीणएणं, मोयगचुण्णी पुणक्करणं२२ ॥ २४० ॥ १०५. अमुगं ति२३ पुणो रद्धं, दाहमकप्पं२४ तमारतो२५ कप्पं ।
खेत्ते अंतो बाहिं२६, 'काले सुइव्वं '२७ परेव्वं२८ वा॥ २४१ ॥ १०५/१. जं जह व कतं२९ दाहं, तं कप्पति आरतो तहा अकतं ।
कयपागऽणि?मत्तट्ठियं० पि जावंतियं मोत्तुं ॥ २४२ ॥ १. वि (स)।
१७. “कट्टिलयं (स), परिकट्टलितं-एकत्र पिण्डीकृतं (मवृ)। २. दिट्ठाउ (ब, ला)।
१८. तु (अ, बी)। ३. मित्ति (क, मु), मा इति (संपा)।
१९. फाडिएण (ब)। ४. विभासो (ब)।
२०. वट्टेति (ब)। ५. विसट्ठो (ब)।
२१. x (स)। ६. परिहरंति (मु)।
२२. पुणोकरणं (ब), १०४-१०५/१-ये तीन गाथाएं ७. कप्पइ (स)।
ला प्रति में नहीं हैं। ८. साहणं-कथनं (मवृ)।
२३. तं (ब)। ९. करेंति (ला, मु, स)।
२४. दाहाम (बी)। १०. अमुगे (बी, अ, ला)।
२५. तु आरओ (अ, क, बी)। ११. १०१/१, २-ये दो गाथाएं अतिरिक्त व्याख्यात्मक २६. बाहि य (ब), बाहि वि (स)।
हैं। इनको मूल निगा के क्रमांक में नहीं जोड़ा है। २७. कालि सुइव्वं (स, मु, क)। १२. देही (स), देहि (मु)।
२८. पडिव्वं (अ, बी)। १३. देइ (अ, बी), देहि (मु)।
२९. कडं (स)। १४. कुच्छिहितीमा (ला, क, ब)।
३०. 'मणिद्धत्तठियं (ब), 'मणित्ति ठियं (म)। १५. आयत्तं (क)।
३१. "तिय (बी)। १६. काहंति (मु)।
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१०६. छक्कायनिरणुकंपा', जिणपवयणबाहिरा२ बहिप्फोडा।
एवं वयंति बोडा, लुक्कविलुक्का जह कवोडा ॥ १०७. पूतीकम्मं दुविधं, दव्वे भावे य होति नातव्वं ।
दव्वम्मि 'छगणधम्मिय, भावम्मि य बादरं सुहुमं५ ।। २४३ ॥ १०८. गंधादिगुणविसिटुं', जं दव्वं असुइगंध दव्वजुतं ।।
पूति' त्ति परिहरिज्जति, तं जाणसु 'दव्वपूति त्ति' ।। २४४ ॥ १०८/१. गोट्ठिनिउत्तो धम्मी, सभाए' आसन्नगोट्ठि भत्ताए।
समिय-सुरवल्ल''- मीसं, अजिण्ण सण्णा ११ महिसिपोहो१२ ॥ २४५ ॥ १०८/२. संजातलित्तभत्ते, 'गोट्ठिगगंधो त्ति'१३ वल्लवलिया उ।
उक्खणिय४ अन्नछगणेण लिंपणं 'दव्वपूति त्ति'१५ ॥ २४६ ॥ १०९. उग्गमकोडीअवयवमित्तेण वि मिस्सितं१६ ‘सुसुद्धं पि'१७।
सुद्धं पि कुणति चरणं, पूतिं तं८ भावतो पूती९ ॥ २४७ ॥ आहाकम्मुद्देसिय, मीसं तह बादरा य पाहुडिया।
पूती अज्झोयरओ२९, उग्गमकोडी भवे एसा ॥ २४८ ॥ १११. बादर सुहुमं भावे, उ पूइयं सुहुममुवरि२१ वोच्छामि।
उवकरण- भत्तपाणे, दुविधं पुण बादरं पूर्ति ॥ २४९ ॥
११०.
आहाक
1 टाका
१. काय जीवमोडा (ला, ब, स), "जीवमेरा (क)। १०. वल्लि (ला, ब)। २. जिणवरमयबा' (ला, ब, स)।
११. सिण्णा (अ, बी)। ३. अज्ज फोडा (ला, स), य बहि (क)। १२. १०८/१, २-ये दोनों गाथाएं द्रव्यपूति विषयक कथा ४. कमोडा (ला, ब, स, क), यह गाथा सभी हस्त- का विस्तार करने वाली हैं। ग्रंथकार गा. १०७ में
प्रतियों में मिलती है। टीका में "छक्कायेति गाथा 'दव्वम्मि छगणधम्मिय' उल्लेख से इस दृष्टान्त दृश्यते परं सा वृत्तौ न व्याख्याता सुगमा च संबंधश्च का कथन कर चुके हैं अतः ये दोनों गाथाएं न कोपि" इतना उल्लेख है अतः प्रकाशित टीका भाष्य की होनी चाहिए। में गाथा निगा के क्रम में नहीं रखी है लेकिन १३. “गंधु त्ति (अ, बी)। यह गाथा नियुक्ति की होनी चाहिए क्योंकि आधाकर्म १४. ओगणिओ (बी, स), ओगणिउं (अ)। आदि द्वारों के बाद अंत में इस प्रकार की गाथा १५. "पूइ तु (ला), "पूई तु (स), कथा के विस्तार अनेक स्थलों पर मिलती है।
हेतु देखें परि. ३,कथा सं. १७॥ धम्मी भावे दुविहं इमं होति (जीभा १२०३), १६. x (स), मीसियं (मु)। निभा ८०४।
१७. असुद्धं पि (अ), ससुद्धं तु (ला, ब)। ६. "गुणसमिद्धं (अ, बी, मु)।
१८. तु (स)। ७. पूय (अ)।
१९. पूइं (अ), पूयं (स)। ८. "पूई तु (अ)।
२०. अज्झोवरए (अ), यरए (क)। ९. सहाए (मु)।
२१. सुहुम उवरि (ला, ब, स)।
५.
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४२
११२.
११३.
११३/१. चुल्लुक्खा पडिकुटुं
डाए
चुल्लुक्खलिया' डोए', दव्वीछूढे लोणे हिंगू, काम सिज्झतस्सुवकारं, ' दिज्जंतस्स व करेति " तं उवकरणं चुल्ली, उक्खा दव्वी य
११३/२. कम्मियकद्दममिस्सा, चुल्ली उक्खा य डो दंडे १७
उवकरणपूतिमेयं,
११३/३. दव्वीछूढे कम्मं घडिय
कम्मादी, आदिमभंगेंसु तीसु१ वि तत्थत्थं, अन्नत्थगतं १३
११४. संकामेउं कम्मं, सिद्धं जं थाली,
' अंगार 5 धूम
१. चुल्लक्ख' ( अ, बी) ।
२. डोवे (ला) ।
३. पूयं (बी, स ) ।
त्ति जं वुत्तं,
११५. इंधणधूमेगंधे अवयवमादीहि ५ सुंदरमेतं पूती,
चोदग
४. लूणं (ला, ब, स ) ।
५. संकमणे (अ, बी) ।
सुद्धं तु, ' घट्टे
११३/४ अत्तट्ठिय आदाणे, डायं लोणं च कम्म तं भत्तपाणपूती, फोडण अन्नं २१ व जं
१२. असुद्धं (ला, ब, स ) ।
१३. 'त्थकयं ( अ, ब, ला) । १४. अत्र हेतौ प्रथमा ( मवृ ) । १५. वा ( अ, बी) ।
६. फोडणं (ला, ब, क, स), फोड संधूमे ( निभा ८०८ ) । ७. वि (स) ।
८. सिद्धस्स करेति वावि (जीभा १२०८ ) । ९. डोवाई (ला, ब, स क ), १०. चुल्ली उखा ( अ, बी, स) । ११. तेसु ( अ, बी) ।
य मीसगं
' फोडणे
तु. जीभा १२०८ ।
कम्मदव्वीय
वेसण २४
'किंचि तत्थ '२३
मु
भणिते
सुहुमपूती
जं
फड्डगजुता १४ उ १५ ॥ व एगतरे ॥ २५३ ॥
पिंडनिर्युक्ति
पूतिं ।
धूमे ॥ २५० ॥
१६
दव्वं ।
डोयादी ॥ २५१ ॥
जं दए । आहारपूई यं' १९ ॥ २५४ ॥
अकप्पं । अण्णातं ॥ २५२ ॥
हिंगू० वा ।
छुभति २२ ॥ २५५ ॥
छूढं
वा ।
धूमो ॥ २५६ ॥
तु ।
भणति ॥ २५७ ॥
गुरू
१६. डोए इति देशे समुदायशब्दोपचारात् डोय इत्युक्ते डोयस्याग्रभागो गृह्यते (मवृ)।
१७. गंडे ( अ, ब, ला, बी, स) ।
१८. घट्टिअ ( क ) ।
१९. घट्ट हार इयं (क, मु), गाथा में अनुष्टुप् छंद है। २०. हिंगुं (क, मु) ।
२१. मन्नं ( अ, क, बी) ।
२२. जीभा १२१३, ११३/१४ - ये चारों गाथाएं ११२ वीं गाथा की व्याख्या रूप हैं अतः भाष्य की होनी चाहिए।
२३. तत्थ किंचि ( अ, क, बी) ।
२४. कम्मिय वेसण अंगार थालि ( अ, बी) । २५. अत्रैकारद्वयस्य छंदोऽर्थत्वादादिशब्दस्य व्यत्ययान्म
कारस्य चालाक्षणिकत्वादेवं निर्देशो द्रष्टव्यः (मवृ), इंधनग्रहणं चोपलक्षणं आदिशब्देन च वाष्पपरिग्रहः
(मवृ) ।
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पिंडनियुक्ति
११६. इंधणधूमेगंधे अवयवमादी' न जेसिं तु एस
' अन्नगंधो
११६/१. इंधण - अगणीअवयव, धूमो बप्फो य सव्वं फुसंति लोगं, भण्णति सव्वं तओ
११६/ २. नणु
११६/३. चोदग! इंधणमादीहि, चउहिं वि सुहुमपूइयं पण्णवणामेत्तमिदं", परिहरणा नत्थि
११७.
११६/४. सज्झमसज्झं कज्जं, सज्झं साहिज्जते न उ१२
पूइयं
पूती, सोही उ ण विज्जते
"
१.
गंधेधू (क) ।
२. एयं (ब), एवं (स) ।
३. तु. निभा ८०५ ।
४ व (क) ।
५. गंधुव्व ( अ, बी) ।
६. पूईं (ला, ब)।
७. धूमाईहिं (क, मु) ।
सुहुमपूइयस्सा, yogesसंभव एवं । धूमादित तम्हा 'पूइ त्ति सिद्धमिणं ॥ २६० ॥
असज्झं ।
जो उ असज्झं ३ साहति, किलिस्सति न तं च साहेती १४ ॥ २६२ ॥ पप्फोडण काय अकयए कप्पे ।
आहाकम्मियभायण, गहितं तु सुपूत धोवणमादीहि परिहरणा ॥ २६३ ॥ ११७/१. धोयं १७ पि निरावयवं न होति आहच्च कम्मगहणम्मि |
न य अद्दव्वा उ गुणा, भण्णति सुद्धी" कतो एवं ? ॥ २६४ ॥ ११७ / २. 'लोए वि १९ असुइगंधा, विपरिणता दूरओ न दूसंति । 'न य मारेति १२१ परिणता, दूरगताओ विसावयवा ॥ २६५ ॥
११७/३. सेसेहि उ दव्वेहिं, लेवेहि 'तिहि उ' २३
८. पूयं तु (स) ।
९. मियं ( अ, बी, स) । १०. विंधण (ब), तिंधण ११. मित्तमयं ( अ, बी), १२. हु (ला, ब, स ), व १३. ण मज्झं (ला, ब) ।
(ला) ।
मिणं (स, क ) ।
(क) ।
जावइयं फुसति २२
पूती,
होति । तेसिं ॥ २५८ ॥
य" ।
पूर्ती ॥ २५९ ॥
तत्तियं पूती ।
कप्पति कप्पे कते तिगुणे ॥ २६६ ॥
१५. पूइं (ला, ब) ।
१६. धोयण ( क) ।
होति ।
एतस्स ॥ २६१ ॥
१४. ११६/ १ - ४ - ये चारों गाथाएं गा. ११६ की व्याख्या रूप हैं। इनमें सूक्ष्मपूर्ति विषयक चर्चा है। ये गाथाएं भाष्य की होनी चाहिए ।
१७. धोवं (ला, ब, स ) ।
१८. सिद्धी (ला, ब, स ) ।
१९. लोइय ( ब ) ।
२०. दूसेइ ( अ ) ।
२१ मा करेंति (ला, ब, स ) ।
४३
२२. फुसई ( स ) ।
२३. तेहिं (ला, ब), तिण्णि ( अ, बी), तहिं ( क ) । २४. तिगुणा (ला, ब), तु. निभा ८०९ ।
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पिंडनियुक्ति
-
११७/४. इंधणमादी' मोत्तुं, चउरो सेसाणि होति दव्वाणि।
तेसिं पुण परिमाणं, तयप्पमाणाइ२ आरब्भः ॥ २६७ ॥ ११८. पढमदिवसम्मि कम्मं, तिन्नि उ दिवसाणि' पूइयं होति ।
पूतीसु तिसु न कप्पति, कप्पति तइओ जया कप्पो॥ २६८ ॥ ११९. समणकडाहाकम्मं, समणाणं 'जं कडेण'५ मीसं त।।
आहार- उवधि-वसही, सव्वं तं पूइयं होति ॥ २६९ ॥ ११९/१. सड्डस्स थोवदिवसेसु, संखडी आसि संघभत्तं वा।
पुच्छित्तु निउणपुच्छं, संलावाओ अगारीणं ।। २७० ॥ दारं ॥ १२०. मीसज्जातं जावंतिगं च पासंडि°-साहुमीसं च।
सहसंतरं न कप्पति, कप्पति कप्पे कते तिगुणे ॥ २७१॥ १२१. जावंतवार सिद्धं, 'न एति ता'१२ देह कामितं जइणो३ ।
बहुसु य अपहुप्पंते", भणाति५ अन्नं१६ पि रंधेह ॥ २७२ ॥ दारं ॥ १२२. अत्तट्ठा रंधतो, पासंडीणं पि बितियओ छुभति।
निग्गंथट्ठा ततिओ, अत्तट्ठाए वि रंधते ॥ २७३ ॥ १२३. विसघातिय पिसियासी९, मरति तमन्नो वि खाइउं मरति।
'इय पारंपरमरणे'२०, अणुमरति सहस्ससो जाव ॥ २७४ ॥ १२४. एवं मीसज्जातं, चरणप्पं हणति साहु सुविसुद्धं ।
तम्हा तं नो कप्पति, पुरिससहस्संतरगतं पि॥ २७५ ॥
१. "माइं (मु)।
भाष्य में ८०४ से ८१५ तक पतिकर्म का विवेचन २. तइयप्प' (ला), "माणा उ (मु)। ३. आराओ (स), ११७/१-४-ये चारों गाथाएं ११७ १०. पांसंड (क)।
वी गाथा की व्याख्या रूप हैं। ११६/१-४ में धूम ११. जावंतिट्ठा (अ, बी)। विषयक चर्चा है। इन चार गाथाओं में गंध विषयक १२. नेयं तं (मु), न एति तं (ला, ब), पति का विस्तार है। ये गाथाएं भाष्य की होनीन यंति ता (क)। चाहिए।
१३. जइणं (अ, बी, मु)। ४. य (ला, ब, स)।
१४. अपहुव्वंते (ला, क, ब)। ५. 'साई (क)।
१५. भणइ (अ, बी)। ६. पूइसु (अ, बी)।
१६. मन्नं (अ, बी)। ७. कडे होति (अ, बी)।
१७. भणइ (क, मु)। ८. थोय' (अ, बी)।
१८. रंधति (स, क)। ९. य गा (ला, ब), वगारीणं (स, क), निशीथ १९. पिसआसी (अ, बी)।
२०. ईय परं॰ (क)।
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पिंडनियुक्ति
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१२५. विच्छोडिते' करीसेण, वावि उव्वट्टिते तओ कप्पा।
_ 'सुक्कावित्ता गिण्हति, अन्न चउत्थे असुक्के वि५ ॥ २७६ ॥ दारं ॥ १२६. सट्ठाण-परट्ठाणे, दुविहं ठवितं तु होति नातव्वं ।
खीरादिपरंपरए, हत्थगत घरंतरं जाव ॥ २७७ ॥ १२७.. छब्बग-वारगमादी', होति परट्ठाण मो अणेगविधं । ।
सट्ठाणे पिढरे छब्बगे य एमेव दूरे वि ॥ २७८ ॥ १२८. एक्केक्कं तं दुविधं, अणंतरपरंपरे' य नातव्वं ।
अविकारिकतं० दव्वं, तं चेव अणंतरं होति ॥ २७९ ॥ १२८/१ उच्छुक्खीरादीयं, विकारि अविकारि 'गुल-घतादीयं '११ ।
परियावज्जणदोसा२, ओदण-दहिमादियं वावि ॥ २८० ॥ १२८/२. उब्भट्ठ'४ पडिण्णातं५, अन्नं लद्ध६ पयोयणे घेत्थी।
रिणभीता व अगारी, 'दहि त्ति दाहं '१८ सुए ठविता ॥ २८१ ॥ १२८/३. नवणीत-मत्थुरे० 'तक्कं, ति'२१ जाव 'अत्तट्ठिया व'२२ गिण्हंति।
देसूणा जाव घतं, कुसणं पि य जत्तियं कालं ॥ २८२ ॥ १२९. रस-कक्कब-पिंडगुला३, मच्छंडिय२४-खंडसक्कराणं च।
होति परंपरठवणा, अन्नत्थ व जुज्जते जत्थ२५ ॥ २८३ ।। दारं ॥
१. निच्छो (स, मु)।
व्याख्या प्रस्तुत करने वाली हैं। १२८/१, २-इन २. करि (अ, ब, ला, बी)।
दोनों गाथाओं में परम्पर स्थापना से सम्बन्धित ३. उव्वद्धते (अ, बी)।
उदाहरण की व्याख्या है। ४. आयावित्ता (क)।
१४. ओब्भट्ठ (स)। ५. संलेह सुक्कयप्पे तिण्णि उ से सुक्खो दवम्मि (ला, १५. परिण्णायं (मु, ला, स)।
ब), संलेहु सकयकप्पे तिण्णि उ से सुक्को १६. लुद्धं (ला, ब, स)। दवंसि (स)।
१७. पच्छं (स)। ६. हत्थसय (क)।
१८. दहि देहाहं (ब), दहि से दाहं (ला)। ७. गवाई (ला, ब)।
१९. ठवणा (मु, ला, ब, स), ठवए (अ, क, बी)। ८. य (मु, क)।
२०. मंथु (मु)। ९. “परंपरं (अ, क, बी)।
२१. तक्क त्ति (ला, ब), तक्कम्मि (बी)। १०. “कारकयं (अ, बी)।
२२. "ट्ठयाई (क)। ११. घयगुलाईयं (मु), गुलपया (स)।
२३. “गुडा (अ, बी)। १२. वज्जण सेसा (अ, बी)।
२४. मच्छंडिय (अ, बी)। १३. १२८/१-३-ये तीनों गाथाएं १२८ वी गाथा की २५. तत्थ (स)।
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४६
१३०.
१३१. पाहुडिया वि य दुविधा, बादर सुहुमा य होति नातव्वा । ' ओसक्कण उस्सक्कण'४, कप्पट्टी समोसरणे ॥ २८५ ॥ १३२. मा ताव झंख पुत्तय!, परिवाडीए इहेहिहीं" साहू | एतट्ठ 'उट्ठिया दाहं सोउं विवज्जेति ॥ २८६ ॥
ते",
१३३.
१३४.
१३५.
भिक्खग्गाही एगत्थ, कुणति बितिओ उ दोसु उवओगं । तेण परं उक्खित्ता, पाहुडिया होति
१३५/१. मंगलहेतुं
'अंगुलिए वा घेत्तुं ११, कड्ढति१२ कप्पट्ठओ घरं तेण । 'किं ति १४ कहिते न गच्छति१५, पाहुडिया एस १६ सुहुमा १७ उ ॥ २८७ ॥ पुत्तस्स विवाहदिणं, 'ओसरण अइच्छिते १८ मुणिय १९ सड्डी । ओसक्कंतोसरणे, संखड - पाहे गदट्ठा २१ ॥ २८८ ॥
अप्पत्तम्मि व२२ ठवितं २३, ओसरणे 'होहिति त्ति २४ उस्सकणं २५ । तं पागडमितरं वा, करेति २६ उज्जू अणुज्जू
१. य ( अ, क, बी) ।
२. उवचरउ ( ब ) ।
३. ठविया (स, क) ।
४. ओस्सक्कण मुस्स (मु), उक्कसण अहिसक्कण ( अ, ला, स), उस्सक्कण ओसक्कण ( क ) । ५. समयपरिभाषया कब्बट्ठी लघ्वी दारिका भण्यते (मवृ) । ६. तु. जीभा १२२४, प्राभृतिका द्वार की व्याख्या में बृभा में गा. १६७४ से १६९९ तक की गाथाएं हैं। ७. एहिई सो ( अ, क, बी), एहिति सो (ला, ब), इहेहि सो (मु) ।
८. एयस्स (ला, ब, मु, स, क) ।
९. पुट्ठि (अ, ब ) ।
१०. विवज्जंति ( अ, बी), जीभा १२३१ ।
व ओसक्कितं दुहा
पुण्णद्वया उस्सक्कितं२८ पि२९ किं ति य, 'पुट्ठे सिट्टे '३० विवज्जेति
११. अहवा अंगुलियाए (ला, ब, क, मु),
अंगुलिए चालेउं (जीभा १२३२ ) ।
ठवणार
१२. कड्डउ (बी) ।
१३. जत्तो (क, जीभा, मु), जुत्तो (ला, ब, स ) ।
१४. कंति (ब), किं ते ( अ, बी) ।
उ ॥ २८४ ॥
पिंडनिर्युक्ति
वा७ ॥ २८९ ॥ पगतं ।
॥ २९० ॥
१५. वच्चइ ( अ, बी, क), वच्चति ( जीभा १२३२ ) । १६. एसे (ला) ।
१७ सुहुमं ( अ, बी) ।
१८.
१९.
२०. उस्सक्के ओसरणं ( क ) ।
रणे इच्छिए ( अ, क, ब) । मुणीय (बी) ।
२७. जीभा १२३५ ।
२८. ओस ( क ) ।
२१. तु. जीभा १२३४ ।
२२. वि (ला, ब), य (क, मु) ।
२३. ण ठियं (ला, ब) ।
२४. होहिइत्ति (ला, ब, मु), होहइति (अ, बी), होइहिइ ( स ) ।
२५. उक्कसइ ( अ, ब ), उक्कसणं (ला, क) । २६. करेज्ज (ला, ब, स ) ।
२९. व ( अ, बी), ति ( क ) ।
३०. सिट्टे पुट्ठे ( अ, ब ) ।
३१. 'ज्जेइ ( अ, बी), तु. जीभा १२३६ ।
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पिंडनियुक्ति
१३६. पाहुडिभत्तं भुंजति, न पडिक्कमते य तस्स ठाणस्स।
एमेव अडति बोडो', लुक्कविलुक्को जह कवोडो॥ २९१ ॥ दारं ॥ १३६/१. लोयविरलुत्तिमंगं, तवोकिसं जल्लखउरियसरीरं।
जुगमेत्तंतरदिटुिं, अतुरियऽचवलं सगिहमेंतं ॥ २९२ ॥ १३६/२. दट्ठण तमणगारं, सड्डी संवेगमागता' काइ।
विउलन्नपाण घेत्तूण, निग्गता निग्गतो सो वि॥ २९३ ॥ १३६/३. नीयदुवारम्मि° घरे, न सुज्झते एसण१ त्ति काऊणं।
नीहम्मिए अगारी, अच्छति विलिया व१२ गहितेणं ॥ २९४ ॥ १३६/४. चरणकरणालसम्मी२, अन्नम्मि य आगते गहित पुच्छा।
इहलोगं परलोगं, कहेति चइंउं इमं लोगं ॥ २९५ ॥ १३६/५. नीयदुवारम्मि घरे, भिक्खं नेच्छंति एसणासमिता।
जं पुच्छसि मज्झ कहं, कप्पति लिंगोवजीवीऽहं५ ॥ २९६ ॥ १३६/६. साधुगुणेसणकहणं, आउट्टा तस्स तिप्पति१६ तहेव ।
कुक्कुडि८ चरंति एते, वयं तु चिण्णव्वयार बितिओ२२ ॥ २९७ ॥ १३७. पाओकरणं दुविधं, पागडकरणं पगासकरणं च।
पागड संकामण 'कुड्डदारपाते य'२३ छिन्नेणं ॥ २९८ ॥
१. पोडो (ला, ब), बोलो (अ, बी)। १०. निय' (अ, बी)। २. कमोडो (ला, क, ब), कमेडो (जीभा १२३७)। ११. एसणु (अ, बी)। ३. "विरलत्तु (ला), 'लुत्तमंगं (मु. क), अत्रोत्तमाङ्ग- १२. वि (स)।
शब्देनोत्तमाङ्गस्थाः केशा उच्यन्ते (म)। १३. “करणपरिहीणे (ला, ब, स), "लसम्मि य (मु)। ४, "दिट्ठी (अ)।
१४. णच्छंति (ब)। ५. "हमंतं (ला, ब), "हमिंतं (मु, बी, क), १३६/१- १५. “जीविहं (अ, बी, ला, स)।
६-ये गाथाएं प्रादुष्करण से संबंधित कथानक को १६. कप्पइ (क), तप्पइ (अ, ब), तेपते क्षरति ददाति प्रकट करने वाली हैं। गाथा १३७ में निर्यक्तिकार स्मेति भावार्थः (मव)। प्रादुष्करण की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। द्वार के १७. तह वि (ला, ब, स)। प्रारंभ में ये गाथाएं स्पष्टतया भाष्यकार की होनी १८. कुक्कुड (क, स)। चाहिए।
१९. चरितं (ब)। ६. य अण. (मु, क, ला, ब, स)।
२०. ति (अ, बी)। ७. 'माइया (अ, बी)।
२१. चिण्णे वया (अ, बी)। ८. कइ वि (ला, ब)।
२२. बीओ (अ, क, मु)। ९. उ (ब, स), य (अ, क)।
२३. 'दारमाले य (अ, बी)। २४. छिन्ने व (म्), छिन्ने य (क)।
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पिंडनियुक्ति
१३८. रयणपदीवे जोती, न कप्पति पगासणा सुविहिताणं।
___ अत्तट्ठि अपरिभुत्तं', कप्पति कप्पर अकाऊणं ॥ २९९ ॥ १३८/१. संचारिमा य चुल्ली, बहिं व चुल्ली पुरा कता तेसिं।
तहि रंधंति कदाई, उवही 'पूती य५ पाओ यः ॥ ३०० ॥ १३८/२. नेच्छह तमिसम्मि' तओ, बाहिरचुल्लीय साहु सिद्धन्ने।
इति- सोउं परिहरए', पुढे 'सिट्ठम्मि वि'१० तहेव ॥ ३०१ ॥ १३८/३. मच्छिय-घम्मा अंतो", बाहि पवातं१२ पगासमासन्नं ३ ।
इति४ अत्तट्ठियगहणं, पागडकरणे विभासेसा५ ॥ ३०२ ॥ १३८/४. कुड्डस्स कुणति छिड६, दारं वड्डेति७ कुणति अन्नं वा।
अवणेति छादणं१८ वा, ठवेतिर 'रयणं व'२० दिप्पंतं ॥ ३०३ ॥ १३८/५. जोती पदीव कुणतीर, तहेव कहणं२२ तु पुट्ठऽपुढे वा।
'अत्तट्ठिया य'२३ गहणं, 'जोति पदीवे उ वज्जित्ता'२४ ॥ ३०४ ॥दारं ॥ १३८/६. पागडपगासकरणे, कतम्मि सहसा व अहवऽणाभोगा५ ।
गहितं विगिंचिऊणं, गेहति अन्नं अकतकप्पे२६ ॥ ३०५ ॥ १३९. कीतगडं पि य दुविधं, दव्वे भावे य दुविधमेक्के क्कं ।
आयकियं२८ परकीयं२९, परदव्वं तिविध चित्तादी० ॥ ३०६ ॥
१. रिभत्तं (बी), "रिभत्तुं (अ), भुत्तुं (स)। १५. 'सेयं (मु), विभासा उ (अ, बी)। २. कप्पे (अ, बी)।
१६. छिदं (ब, स)। ३. चुल्ला (क)।
१७. वड्डइ (ब)। ४. रंधेइ (अ, बी), रंधंतु (स), रंधेत (ला, ब)। १८. छावणं (ला, ब)। ५. पूयाई (ब), पूयं य (स)।
१९. ठावेइ (अ, बी), ठावइ (मु)। ६. १३८/१-६-ये छः गाथाएं गा. १३७ और १३८ २०. रयणं वि (स), य रयणं (क)।
की व्याख्या रूप हैं अतः भाष्य की होनी चाहिए। २१. कुणइ व (अ, ला, क, मु)। ७. त्तिमि' (क), तमसेंति (अ, बी),
२२. करणं (ला, ब)। णिमिसच्छि (ला)।
२३. ट्ठिए उ (क, मु)। ८. इय (अ, मु), ईय (क)।
२४. दोसु वि य जहा पुर कएसु (ब), 'वज्जेइ (ला)। ९. "हरई (स)।
२५. हवा अणाभोगा (बी)। पद्धम्मि उ (बी). "म्मि व (अ). "म्मि उ (स. क)। २६. यह गाथा अ और ब प्रति में नहीं है। ११. यंतो (अ, बी), इंतो (स)।
२७. मेकेकं (स)। १२. पलायं (स)।
२८. 'कीयं (ला, ब), "कियं च (अ, मु)। १३. “सण्णे (ला, ब, स), 'ससामन्नं (क)। २९. "कियं (स), व परकियं (क)। १४. इय (अ, बी, मु)।
३०. निभा ४४७५, तु. जीभा १२४१ ।
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१४०. आयकियं 'पि य" दुविधं, दव्वे भावे य दव्वचुण्णादी ।
भावम्मि परस्सट्ठा, अहवावी अप्पणा चेव ॥ ३०७ ॥ १४१. निम्मल्लगंधगुलिया, वण्णग 'पोत्ताइ आयकित दव्वे"।
गेलण्णे उड्डाहो, पउणे चडुकारि' अहिगरणं ॥ ३०८ ॥ १४२. वइयादि मंखमादी, परभावकतो' तु संजतट्ठाए ।
उप्पादणा निमंतण, कीतगडे अभिहडे ठविते ॥ ३०९ ।। १४२/१. सागारि मंख छंदण, पडिसेहो पुच्छ बहु गते वासे ।
कतरि दिसिं गमिस्सह ? अमुइ१२ तहिं१३ संथवं कुणति ॥ ३१०॥ १४२/२. दिज्जते पडिसेधो, कज्जे घेत्थं निमंतणा" जइणं५।।
पुव्वगतआगतेसुं, संछुभती एगगेहम्मि'६ ॥ ३११ ॥ १४३. 'धम्मकह वाय'१७ खमगे, 'निमित्त आतावणे'१८ सुतट्ठाणे१९ ।
जाती-कुल-गण-कम्मे, सिप्पम्मि य भावकीतं तु॥ ३१२ ॥ १४३/१. धम्मकहाअक्खित्ते०, धम्मकहा उट्ठियाण वा गिण्हे।
___ कहयंति 'साहवो चिय'२२, तुमं व कहिं अच्छते २२ तुसिणी ॥ ३१३ ॥ १४३/२. किं वा कहेज्ज छारा, दगसोयरिया२३ व अहवऽगारत्था'२४।।
किं छगलगगलवलया५, मुंडकुडुंबीव२६ किं कहए२७ ॥ ३१४ ।। १. पुण (मु)।
चाहिए। इनको निगा के क्रम में न रखने पर भी २. “वण्णाई (बी, ला), दव्विचु (क)।
विषयवस्तु की दृष्टि से १४२ वी गा. १४३ के ३. पोत्ता य (ला), पोतानि लघुबालकयोग्यानि वस्त्र- साथ सीधी जुड़ती है। गा. १४२ में परभावक्रीत खण्डानि (मवृ)।
तथा गाथा १४३ में आत्मभावक्रीत की व्याख्या है, ४. पोत्तादिया य कतदव्वे (निभा ४४७६)।
कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. १८। ५. चडुगादि (निभा, स)।
१७. 'कहि वाइ (ला, ब, स, क, निभा ४४८०)। ६. मंखगाई (स)।
१८. निमित्तातावए (ला, ब), एत्तो आतावए (निभा), ७. कयं (मु, क, ब)।
आयाविए (क)। ८. “गडं (मु)।
१९. सुए ठाणे (क, निभा)। ९. निभा ४४७७।
२०. “कहातो हिज्जति (निभा ४४८१)। १०. वरिसे (निभा ४४७८)।
२१. साहवच्चिय (क)। ११. गम्मि (स)।
२२. पुच्छिए (क, मु)। १२. अमुइं (स, मु, निभा)।
२३. "सूयरिया (ला, ब), 'सोवरिया (अ), 'सूयरया (स)। १३. तह (निभा, क, ब)।
२४. किं व गार (अ, निभा ४४८२)। १४. "तणं (अ, बी, क, मु), "तण (निभा)। २५. छगलकस्य-पशोर्गलं-ग्रीवां वलयन्ति मोटयन्ति ये १५. जईणं (अ, बी, ला, ब, निभा)।
ते छगलकगलवलकाः (मवृ)। १६. निभा ४४७९,१४२/१,२-ये दोनों गाथाएं १४२ वी २६. पुंडकु (ला), 'कुडुंबी (स), मुण्डाः संतो ये गाथा की व्याख्या रूप हैं। ये भाष्य की होनी कुटुम्बिनः शौद्धोदनीयाः (मवृ)।
२७. कहिते (निभा)।
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पिंडनियुक्ति
१४३/३. एमेव 'वादि' खमगे, निमित्त आयावयम्मि'२ य विभासा।
सुतठाणं गणिमादी, अहव' वायणायरियमादी ॥ ३१५ ॥ दारं ॥ १४४. पामिच्चं पि य दुविधं, लोइय-लोगुत्तरं समासेणं।
लोइय सज्झिलिगादी', लोगुत्तर वत्थमादीसु ॥ ३१६ ॥ १४४/१. सुतअभिगमणातविधी, 'बहि पुच्छा" एग 'जीवति ससा ते ।
पविसण पागनिवारण, उच्छिंदण तेल्ल जतिदाणं ॥ ३१७ ॥ १४४/२. अपरिमिततिल्लवुड्डी, दासत्तं सो य आगतो पुच्छा।
दासत्त कहण मा रुय, अचिरा मोएमि अप्पाहे ॥ ३१८ ।। १४४/३. भिक्खुदग'३ समारंभे, कहणाउट्टो 'कहिं भे'१४ वसहि त्ति।
सम्मवया५ आहरणं, विसज्ज कहणा 'कइवया उ'१६ ॥ ३१९ ॥ १४४/४. एते चेव य७ दोसा, सविसेसतरा उ वत्थपाएसुं।
लोइयपामिच्चेसुं, लोगुत्तरिया'९ इमे अन्ने ॥ ३२० ॥ १४५. मइलियर फालिय-खोसिय२, हितनटे वावि अन्न मग्गंते।
अवि सुंदरे वि दिण्णे२३, दुक्कररोई२५ कलहमादी ॥ ३२१ ॥
१. वाय (अ, बी)।
१४. कहिते (बी), कहिंति (मु)। २. “त्तमायावगम्मि (अ), होति नियमा खमए १५. संवेया (मु)। आतावतम्मि (निभा ४४८३)।
१६. य कति वा तु (निभा ४४८९)। ३. अह (अ, बी), अहवा (निभा)।
१७. उ (ला, ब, स)। ४. १४३/१-३-ये तीनों गाथाएं १४३ वी गाथा की १८. वत्थमाईसु (अ, बी)।
व्याख्या रूप हैं अतः ये भाष्य की होनी चाहिए। १९. “त्तरिए (अ, बी)। इनको मूल नियुक्ति गाथा के क्रमांक में नहीं २०. १४५ वी गाथा १४४/४ के अंतिम चरण 'लोगुत्तरिया जोड़ा है।
इमे अन्ने' के साथ जुड़ती है अतः भाष्य की ५. सज्झिलमाई (स), सज्झिलगा-भगिनी (मव)। प्रतीत होती है लेकिन यहां ऐसा प्रतीत होता है ६. तु. निभा ४४८६।
कि १४४/१-४-ये चारों गाथाएं भाष्य की होनी ७. पडिपु (ला, ब)।
चाहिए। भाष्यकार ने १४४/४ में नियुक्ति गाथा ८. जीवउ ससाए (बी)।
१४५ के साथ संबंध जोड़ने का प्रयत्न किया है। ९. अच्छिं (ला, ब, स)।
२१. मेलिय (स)। १०. निभा ४४८७, कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, २२. फोसित (निभा ४४९१), खोलासिय (ला, ब), कथा सं. १९।।
खेलोसिय (स), खोसिते-जीर्णप्राये (म)। ११. नेहवड्डी (अ, बी, स), “नेहवुड्डी (निभा ४४८८)। २३. दण्णे (ला, ब)। १२. एत्ताहे (मु, ब), अप्पा भे (अ, बी)। २४. दुष्कररुचिः (मवृ)। १३. भिक्ख (मु, अ, क, बी), भिक्खादग (स)।
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पिंडनियुक्ति
१४६. उच्चत्ताए' दाणं, दुल्लभ खग्गूड-अलस पामिच्चं ।
तं पि य 'गुरुस्स पासे", ठवेति५ सो देति मा कलहो । ३२२ ॥ दारं ॥ १४७. परियट्टियं पि" दुविधं, लोइय लोगुत्तरं समासेणं । । एक्केक्कं पि य दुविधं, तद्दव्वे अन्नदव्वे य॥ ३२३ ॥ १४८. अवरोप्परसज्झिलगा', संजुत्ता दो वि० अन्नमन्नेणं।
___ पोग्गलिय'२ संजतट्ठा, परियट्टण संखडे बोही१३ ॥ ३२४ ॥ १४८/१. अणुकंप भगिणिगेहे, दरिद्द परियट्टणा य कूरस्स।
पुच्छा कोद्दवकूरे", मच्छर नाइक्ख पंतावे५ ॥ ३२५ ।। १४८/२. इतरो वि य पंतावे, निसि ओसविताण'६ तेसि दिक्खा य।
तम्हा 'न उ'१७ घेत्तव्वं, कइवा८ जे उवसमेहिंति९ ॥ ३२६ ॥ १४९. ऊणहिय° दुब्बलं वा, खर गुरुर छिन्न-' मइलं असीतसहं '२२ ।
दुव्वन्नं वा नाउं, विपरिणमे२३ अन्नभणितो वा ॥ ३२७ ॥ १५०. एगस्स माणजुत्तं, न तु बितिए एवमादि कज्जेसु।
गुरुपामूले ठवणं, सो 'दलयति अन्नहा'२५ कलहो ॥ ३२८ ॥दारं ॥
१. उच्छहत्ताए (ला)।
१७. उ न (ला, ब, क, मु, स), णो (निभा ४४९६)। २. दुलह (स)।
१८. कइव त्ति-कतिपयाः (मवृ)। ३. खग्गूड:-कुटिलः (मवृ)।
१९. ओसमे (मु), ओसवेहिं पि (ला, ब, स), ४. “स्सगासे (अ, बी)।
ओसमेहिति (निभा) परिवर्तित दोष के प्रसंग में ५. ठवइ (ला, ब), ठवेंति (निभा ४४९२)।
गाथा १४८ में संक्षिप्त में नियुक्तिकार ने पूरी ६. देई (बी), देह (स), देइ (मु)।
कथा का संकेत कर दिया है। १४८/१,२-इन ७. पि य (अ, बी)।
दोनों गाथाओं में इसी कथा का विस्तार है अतः ८. निभा ४४९३।
ये दोनों गाथाएं भाष्य की होनी चाहिए। इन दोनों ९. 'लिया (क, निभा ४४९४)।
गाथाओं को मूल नियुक्ति गाथा के क्रमांक में नहीं १०. x (ला, ब)।
रखा है। ११. एक्कमेक्केणं (निभा)।
२०. ऊणाहि (ला, ब, बी, स)। १२. पुग्गलियं (अ, बी)।
२१. गुरुः स्थूलसूत्रनिष्पन्नतया भारयुक्तं (मवृ)। १३. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३,कथा सं. २०। २२. मइलियं सीयसहं (अ, बी), १४. कुद्दव (अ, बी)।
मइलं असीइं सुहं (स)। १५. निभा ४४९५।
२३. विप्प (अ, बी, निभा)। १६. ओसधिताण (ला), ओसविधाण (स), २४. निभा ४४९७। ओसमिआण (क)।
२५. दलइ (अ, ब), देई इयरहा (निभा ४४९८)।
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पिंडनियुक्ति
१५१. आइण्णमणाइण्णं, निसीहऽभिहडं च नोनिसीहं च।
निसीहाभिहडं ठप्पं, 'वोच्छामी नोनिसीहं तु'२॥ ३२९ ॥ १५२. सग्गाम- परग्गामे, सदेस-परदेसमेव बोधव्वं ।
दुविधं तु परग्गामे, जल-थल-नावोडु-जंघाए ॥ ३३०॥ १५३. जंघा बाहु तरीइ व, जले थले खंध अरखुरनिबद्धा।।
'संजम-आयविराधण'६, तहियं पुण संजमे' काया ॥ ३३१॥ १५४. अत्थाह' गाह-पंका, मगरोहारा जले अवाया उ।
कंटाहि-तेण-सावय, थलम्मि एते 'भवे दोसा'१० ॥ ३३२ ॥ १५५. सग्गामे वि य दुविधं, घरंतरं नोघरंतरं चेव।
तिघरंतरा परेणं, घरंतरं तं तु नातव्वं ॥ ३३३ ॥ १५६. नोघरंतरऽणेगविधं, वाडग-साही निवेसण२ गिहेसु१३ ।
काए खंधे मिम्मय", कंसेण५ व तं तु आणेज्जा॥ ३३४ ॥ १५६/१. सुन्नं व असति६ कालो, पगतं व पहेणगं व पासुत्ता।
इति८ एति काइ९ घेत्तुं, दीवेति य कारणं तं तु ॥ ३३५ ।। १५७. 'एसेव कमो'२० नियमा, निसीहऽभिहडे वि२१ होति नातव्यो।
अविदितदायगभावं, 'निसीहभिहडं तु'२२ नातव्वं ॥ ३३६ ॥
१. निसीहा (अ, ब, ला, क, स)।
९. जलम्मि (अ, बी)। २. नोनिसीहं तु वोच्छामि (ला, ब). वोच्छामि य नो १०. अवाया उ (ला, ब, स)। (अ, बी)।
११. णेयव्वं (क)। ३. नायव्वं (अ, बी), बोधव्वो (स)।
१२. निवि (स)। ४. तरी य (अ, बी)।
१३. घरे य (स)। ५. अरक्खुर (बी), 'बद्ध (क), यहां छंद की दष्टि १४. मिमयं (बी), मिम्मिय (क)।
से आरखर के स्थान पर अरखर पाठ है। (आरखर- १५. कम्मे (ला, ब), कम्मेण (स)। निबद्ध त्ति अत्र तृतीयार्थे प्रथमा ततोऽयमर्थः १६. असुइ (अ, ब, ला)।
आरकनिबद्धा गन्त्री तया खरनिबद्धा रासभबली- १७. ण सुत्ता (बी)। वर्दादयः (मवृ)।
१८. इय (मु)। ६. "मायवि (ला, ब)।
१९. काय (बी, स)। ७. 'अत्थाह' इत्यादि अत्र प्राकृतत्वात क्वचिद्विभक्तिलोपः २०. एमेव गमो (ला, क)।
क्वचिद्विभक्तिपरिणामश्च ततोऽयमर्थः अस्ताघे (मव)। २१. य (क)। ८. ओहारे त्ति कच्छपः (मवृ)।
२२. निसीहिअं तं तु (मु)।
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पिंडनियुक्ति
१५७/१. अतिदूरजलंतरिया, कम्मासंकाइ' 'वा न'२ घेच्छंति ।
आणेति संखडीओ', सड्डो सड्डी व पच्छण्णं ॥ ३३७ ॥ १५७/२. निग्गम देउल दाणं, दियादि सन्नाइ- निग्गते दाणं।
सिटुंसि सेसगमणं, दितऽन्ने वारयंतऽन्ने ॥ ३३८ ॥ १५७/३. भुंजण अजीर पुरिमड्डगाइ० अच्छंति५ भुत्तसेसं वा।
आगमणनिसीहियाइ२, न भुंजते १३ सावगासंका" ॥ ३३९ ॥ १५७/४. उक्खित्तं निक्खिप्पति५, आसगतं मल्लगम्मि पासगते।
खामित्तु'६ गता सड्ढा, ते वि य सुद्धा असढभावा ॥ ३४० ।। १५७/५. 'लद्धं पहेणगं मे'८, अमुगत्थगताए संखडीए वा।
वंदणगट्ठपविट्ठा, देति तगं पट्ठिय नियत्ता ॥ ३४१ ।। १५७/६. नीयं पहेणगं मे, नियगाणं निच्छितं व तं तेहिं ।
सागरि९ सएज्झियं२० वा, पडिकुट्ठा संखडे रुट्ठा२१ ॥ ३४२ ।। १५८. एतं तु अणाइण्णं, दुविधं पि य आहडं समक्खातं ।
आइण्णं पि य दुविधं, देसे तह देसदेसे य॥ ३४३ ।। १५९ हत्थसयं खलु देसो, आरेणं होति देसदेसो य२२ ।
'आइण्णे तिन्नि गिहा'२३, ते चिय उवओगपुव्वागा ॥ ३४४ ।। १. संकाण (ब)।
११. यच्छंति (बी)। २. मा ण (मु), न वावि (अ, ब)।
१२. आगमनि (ला, ब, मु), "याई (स)। ३. गच्छंति (ला, ब, स)।
१३. भुंजंत (ला, ब), भुंजई (मु)। ४. आणंति (मु)।
१४. “गासंसा (ला, ब, स)। ५. संखडिओ (अ, बी)।
१५. निक्खवई (अ, बी)। ६. ण (अ, बी)।
१६. सामित्तु (स)। ७. १५७/१-६-ये छहों गाथाएं भाष्य की होनी चाहिए। १७. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३.कथा सं. २१ ।
१५७/१-४-इन चार गाथाओं में परग्राम अभ्याहृत १८. लद्धे पहेणगम्मि (ला, ब)। को स्पष्ट करने वाली कथा का विस्तार है। संक्षिप्त १९. सागारि (मु, ला)। शैली होने के कारण नियुक्तिकार किसी भी गाथा २०. सयज्झियं (मु), सएज्झए (ला, ब), की इतनी विस्तृत व्याख्या नहीं करते हैं। १५७/५, सइज्झिया (क), सइज्झियं-भगिनीं (अव)। ६-इन दो गाथाओं में स्वग्राम अभ्याहत की व्याख्या २१. अ और बी प्रति में गा. १५७/६ और १५८ में है। व्याख्यात्मक होने के कारण इन गाथाओं को क्रमव्यत्यय है। यहां टीका का क्रम स्वीकृत किया
मूल नियुक्ति गाथा के क्रमांक में नहीं जोड़ा है। गया है। ८. सिन्नाइ (स)।
२२. उ (अ, क)। ९. सिट्टम्मि (ला, ब, मु, क स)।
२३. आइण्णे तिण्ह गिहा (ब), आइन्नम्मि तिगिहा (मु)। १०. मड्डिगाइ (क)।
२४. “ग काऊणं (अ, ब, ला, बी, स), पुव्वागं (क)।
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५४
१६०. परिवेसणपंतीए',
१६१.
दूरवेसे हत्थसया आइन्नं', गहणं
१६३.
अप्फासु पुढविमादी,
उब्भिन्ने छक्काया, दाणे ते चेव कवाडम्मि ११
१. परिएसण ( अ, ब, ला) ।
२. दूरप्प (बी) ।
३. आविणे (ला, ब), दाइन्ने ( अ ) ।
४. परिकु ( अ, बी), गा. १६० के बाद अ और बी
प्रति में निम्न गाथा मिलती है। इस गाथा की टीकाकार ने भी व्याख्या नहीं की है। यह गाथा अतिरिक्त सी लगती है। वह गाथा इस प्रकार हैहोति पुण देसदेसो, अंतो गिह सा नदी सए जत्थ । उक्खेवादी जत्थ उ, सोयादी देति उवओगं ॥ ५. तु (मु) ।
६. आयण्णं ( अ, बी) ।
७. 'पडियत्त' (अ, बी) ।
य
उक्कोस - मज्झिम- जहन्नगं च तिविधं तु होति आइन्नं । करपरियत्तजहन्नं", 'सयमुक्कोसे तरं
८. सयमुक्कोसं मज्झिमं सेसं (मु), सयमुक्कस मज्झिमं सेसं (क), मुक्कोसे य मज्झिमगा (ला, ब) । ९. निभा ५९५५ ।
१०. तं (क) ।
११. 'डम्मी (स) । १२. १६३ / १-७- ये
परतो
१६२. पिहितुब्भिण्णकवाडे, फासुग अप्फासुगे य बोधव्वे |
सात गाथाएं प्रकाशित टीका में हैं। हस्तप्रतियों में नियुक्ति
निगा के क्रमांक में
उ
घंघसालगिहे ।
फासुग
कयविक्कए य अधिगरणं । सविसेसा
वि,
१६३/१. सच्चित्तपुढविलित्तं,
सिलं वावि
दाउमोलित्तं ।
लेलु सच्चित्तपुढविलेवो, चिरं पि उदगं अचिरत्तिं ॥ ३४९ ॥ १६३/२. एवं तु१३ पुव्वलित्ते, काया 'उल्लिंपमाण ते होज्जा १४ । तिम्मेउं उवलिंपति१५, जतुमुद्द१६ वावि तावेउं ॥ ३५० ॥
पडिकुटुं* ॥ ३४५ ॥
१६३/३. जह चेव पुव्वलित्ते १७, काया दाउं पुणो वि तह उवलिप्ते " १८ काया, मूइंगादी १९ नवरि
मज्झ ॥ ३४६ ॥ दारं ॥
छगणादिदद्दर' ॥ ३४७ ॥
जंतमादीसु ॥ ३४८ ॥
पिंडनिर्युक्ति
१५. तु लिंपइ (ला) ।
और भाष्य की गाथाएं
एक साथ लिखी हुई करना कठिन कार्य है
बिना किसी उल्लेख के अतः मूलतः यह निर्धारित कि कितनी नियुक्ति की
गाथाएं हैं और कितनी भाष्य की फिर भी व्याख्यात्मक होने के कारण ये सातों गाथाएं भाष्य की प्रतीत होती हैं। गा. १६३ की व्याख्या ही इन सात गाथाओं में हुई है। नियुक्तिकार किसी भी विषय की इतनी पुनरुक्ति नहीं करते अतः इन गाथाओं को भाष्यगत मानकर नियुक्ति के
मूल क्रमांक में नहीं जोड़ा है।
१३. च (ला, ब) ।
१४. ओलिंपमाणे (ला, ब, स ),
चेव । छट्ठे ॥ ३५१ ॥
उल्लिंपणे वि ते चेव (क, मु) ।
१८. ओलि ( अ, बी) । १९ मुइअंगाई (मु) ।
हैं
१६. जइमु (स) ।
१७. लित्तं (ला), लित्ति (बी), पुव्विलित्तं ( स ) ।
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पिंडनियुक्ति
१६३/४. परस्स तं देति स एव गेहे, तेल्लं२ व लोणं व घतं गुलं वा।
उग्घाडिते 'तं तु करेति ऽवस्सं" सविक्कयं तेण किणाति वन्नं ॥ ३५२ ॥ १६३/५. दाण' 'कयविक्कए वा", होई' 'अधिगरण अजतभावस्स'१० ।
निवतंति जे उ११ तहियं, जीवा मूइंगमूसादी१२ ॥ ३५३ ॥ १६३/६. जहेव कुंभादिसु पुव्वलित्ते, उब्भिज्जमाणे १३ वि" हवंति५ काया।
उल्लिंपमाणे१६ वि तहा तहेव", काया कवाडम्मि विभासितव्वा ॥ ३५४ ॥ १६३/७. घरकोइलसंचारा, आवत्तणपेढियाइ१९ हेटवरिं।
निते वि एय अंतो, डिंभादी पेल्लणे दोसा ॥ ३५५ ॥ १६४. घेप्पति अकुंचियागम्मि२१, कवाडे पइदिणं२२ परिवहंते।
अजतूमुद्दिय२३ गंठी, परिभुज्जति दद्दरो जो य॥ ३५६ ।।दारं ॥ १६५. 'मालोहडं पि दुविधं २४, जहण्णमुक्कोसगं च बोधव्वं ।
अग्गपदेहि२५ जहण्णं, तव्विवरीतं तु उक्कोसं२६ ॥ ३५७ ॥ १६६. भिक्खू जहण्णगम्मी, गेरुय उक्कोसगम्मि दिटुंतो।
अहिडसण२८ मालपडणे, ‘य एवमादी भवे'२९ दोसा ॥ ३५८ ॥ १६६/१. मालाभिमुहि२० दट्टण, अगारिं निग्गतो तओ साधू ।
तच्चण्णियआगमणं, पुच्छा य 'अदिण्णदाण त्ति'३२ ॥ ३५९ ।। १. एवं (ला)।
१८. संचाला (अ, बी)। २. तिल्लं (अ, बी, क)।
१९. वेढियाइ (अ, बी), पेढयाए (स), ३. उप्पाडियं (ब, स)।
पीढगाइ (मु)। ४. तम्मि करे अवस्सं (मु, क)।
२०. जीभा १२६७। ५. किणाय (स)।
२१. अकुचिया (ब), अकूइयागे त्ति पाठः तत्र ६. अन्नं (मु, क), धन्नं (ब), जीभा १२६२।
अकृजिकाके कूजिकारहिते अक्रेङ्कारारावे (मव)। ७. दाणे (मु)।
२२. 'दिणे (ला, ब, मु)। ८. "विक्कया चेव (अ ब, ला, बी, स),
२३. अज्जतुमुद्दय (स), अजउ (ब), अजऊ (मु)। विक्कयादी (जीभा १२६३)।
२४. सव्वं पि य तं दुविहं (जीभा)। ९. हुंति (अ, ला, स), होति (ब)।
२५. अग्गतलेहि (क, मु)। १०. “गरणमजय (मु, क, बी)।
२६. पुक्कोसं (स), तु. निभा ५९४९, जीभा १२७१ । ११. ण (ला, ब), य (मु, क)।
२७. नायव्वो (निभा ५९५०)। १२. मूयंग (बी), मुइयंग (मु), 'पूसाई (ला)।
२८. अहिद (अ, निभा), अहिवसण (स)। १३. ओसियमाणे (ब, ला)।
२९. एवमादी तहिं (स, निभा)। १४. य (ला, ब, मु, स)।
३०. "भिमुही (स)। १५. होंति (स, क)।
३१. अगारी (स)। १६. ओलिप्प' (अ, बी, स, जीभा १२६४), ओलिंप (म)। ३२. दाणं ति (मु), कथा के विस्तार हेतु देखें परि. १७. तहेय (अ, बी)।
३,कथा सं. २२।
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पिंडनियुक्ति
१६६/२. मालम्मि कुडे' मोदग, सुगंध अहिपविसणं' करे डक्का।
अन्नदिणसाहुआगम, निद्दय कहणे य संबोही ॥ ३६० ॥ १६७. आसंदि-पीढ-मंचग, जंतोडूखल' पडत उभयवधो ।
वोच्छेद पदोसादी, उड्डाहमनाणिवादो य॥३६१ ॥ १६८. एमेव य उक्कोसे, वारण-निस्सेणि गुव्विणीपडणं।।
गब्भित्थिकुच्छिफोडण, पुरतो' मरणं. 'कहण बोही ॥ ३६२ ॥ १६९. उड्वमहे १० तिरियं पि य९, अहवा मालोहडं भवे तिविधं ।
___ 'उड्डमहे ओतरणं'१२, भणितं 'कुंभादिसू उभयं'१३ ॥ ३६३ ॥ १७०. दद्दर१४ 'सिल सोवाणे'१५, पुव्वारूढे अणुच्चमुक्खित्ते१६ ।
मालोहडं न होती, सेसं मालोहडं जाण ॥ ३६४ ॥ १७१. 'तिरियायतमुज्जुगेण, गेण्हते १८ जं करेण फासंतो।
एयमणुच्चुक्खित्तं९, उच्चुक्खित्तं भवे सेसं ॥ ३६५ ॥ दारं ॥ १७२. अच्छेज्जं 'पि य'२० तिविधं, पभू य सामी य तेणए चेव।
अच्छिज्जं पडिकुटुं, समणाण२१ ण कप्पते घेत्तुं२२ ॥ ३६६ ॥
१. कुटे (अ, बी)।
९. च संबोही (ला, स), कथा के विस्तार हेतु देखें २. “पवे (ला)।
परि. ३,कथा सं. २३। ३. कहणा (ला, ब, मु)।
१०. उद्धे अहे (अ, ला), उड्ड अहे (स)। ४. १६६/१,२-ये दोनों गाथाएं प्रकाशित टीका में ११. व (अ, बी)।
निगा के क्रमांक में हैं लेकिन ये भाष्य की होनी १२. उड्डे य महोयरणं (ला, ब, मु, स)। चाहिए। इन गाथाओं के भाष्यगत होने का एक १३. कुंभाइएसु उभयं पि (अ, बी)। बहुत बड़ा तर्क यह है कि गाथा १६६ के उत्तरार्द्ध में १४. दद्दरे (ला)। नियुक्तिकार 'एवमादी भवे दोसा' का उल्लेख करते १५. सिल सोमाणे (अ, स)। हैं। १६६/१, २ इन दोनों गाथाओं में गेरुक भिक्षु १६. अमुच्च (अ, बी)। की कथा है। १६६ वीं गाथा का सीधा सम्बन्ध १७. होइ (ला, ब, स, क, मु)। १६७ वी गाथा के साथ जुड़ता है अतः बीच की ये १८. 'तउज्जुगएण गिण्हई (क, मु)। दोनों गाथाएं भाष्य की होनी चाहिए। इनको निगा १९. यदृष्टेरुपरि बाहुं प्रसार्य देयवस्तुग्रहणाय पात्रं ध्रियते के मूल क्रमांक में नहीं जोड़ा है।
तत्तथा ध्रियमाणमुच्चोत्क्षिप्तम् (मवृ)। ५. जंतोडु (बी), जंतोदुक्खल (निभा ५९५१), २०. पुण (अ, बी, जीभा)। "डूहल (क)।
२१. साहूण (अ, बी), साधूण (निभा ४५००)। ६. पडेति (अ, बी), पड़ते (ला)।
२२. तु. जीभा १२७४, निशीथ चूर्णि में इस गाथा के ७. फुरंत (ला, ब, स)।
लिए 'इमा णिज्जुत्ती' का उल्लेख मिलता है। ८. पडणं (अ, बी)।
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पंडनियुक्ति
१७३.
१७४.
१७३ / १. होति पभू घरभाणे, सामी तेण य पसिद्ध गोच्चिय, १७३/२. गोवपयं अच्छेत्तुं', 'दिण्णं तु जतिस्स भतिदिणे" भाणू दट्टु, खिंसति भोई११ रुवे १२ १७३/३. पडियरणपदोसेणं १३, भावं नाउं जतिस्स तन्निब्बंधा४ गहितं, हंदि १५ हु१६ मुक्को १७३/४. नानिव्विट्ठ" लब्भति, दासी वि न भुंजते ९ रिते दोहे गतरपदोसं, काहिति अंतरायं सामी चारभडा वा, संजत दट्ठूण कलुणाणं २२ अच्छेज्जं२३, साहूण न कप्पते आहारोवहिमादी २५, जति अट्ठाए 'संखडि असंखडीए २६,
तेसि
तं २७
१७५.
गोवालए य भयएऽक्खरए' पुत्ते य धूय अचियत्त संखडादी', ' केइ पदोसं ४
जहा
4
१. खरएसु (बी), खराए य (स), अक्षरकोद्वयक्षरकाभिधानो दास इत्यर्थः (मवृ) ।
२. सुहाय (स), खरपुत्ते धूय सुण्ह विहवा य ( निभा ४५०१ ) ।
३. संखडीए ( अ, बी) ।
४. कइप्पओसे (बी) ।
५. १७३ / १ गाथा सभी हस्तप्रतियों में है । मलयगिरि टीका में इसकी व्याख्या नहीं है। अवचूरि में १७३/१ की व्याख्या में 'चोक्तम्' कहकर यह गाथा दी है। निशीथ भाष्य में भी चालू प्रसंग में यह गाथा नहीं है। संभव है यह लिपिकर्त्ताओं या आचार्यों द्वारा बाद में जोड़ दी गई हो । व्याख्यात्मक एवं अतिरिक्त होने के कारण इसको मूल गाथा के क्रम में नहीं जोड़ा है।
६. पओ (ला, ब, मु, क, स), गोवय ( निभा) । ७. छेत्तं (क, बी), उच्छेत्तु (निभा) ।
८. भतिदिवसे दिण्णो य साधुणो ( निभा ४५०२ ) । ९. पयभाणूणं ति विभक्तिलोपात् पयोभाजनमूनं (मवृ) । १०. दट्ठे ( अ, बी) ।
११. भोगी (ब, स), भोई इति भोग्या भार्या इत्यर्थः (मवृ) । १२. रुए ( अ, बी), भवे (ला) ।
पुण गामसामिओ भणितो । एयच्छिण्णं न गेण्हेज्जा" ॥
सुहाए। गोवो ॥ ३६७ ॥
२२.
२३.
२४.
उ
कोइ
गिण्हंते इमे
आलावो ।
सि मा बितियं ॥ ३६९ ॥
पहुणा ।
चेडा ॥ ३६८ ॥
भत्ता ।
च ॥ ३७० ॥ दारं ॥
अट्ठाए ।
घेत्तुं २४ ॥ ३७१ ॥
अच्छिंदे ।
दोसा ॥ ३७२ ॥
(स) ।
१३. पडिचरण १४. तं निबंधा (बी) ।
१५. हंद (ला, निभा) ।
१६. स (ला, बी, क, मु) । १७. बितिया (ला), बीयं (मु),
निभा ४५०३, कथा
के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. २४ १८. न अनिर्वृष्टम् - अनुपार्जितम् (मवृ) । १९. भुज्जए (ला, ब, मु, निभा ४५०४ ) । २०. काही (क, मु) ।
२१. वा (निभा), १७३ / २ - ४ - ये तीनों गाथाएं भाष्य की होनी चाहिए । १७३ वीं गाथा में ग्रंथकार कथा का संकेत कर चुके हैं। उसी कथा का विस्तार १७३/२,३ में है तथा १७३ / ४ भी व्याख्यात्मक है। करुणानां कृपास्थानानां दरिद्रकौटुम्बिकादीनां (मवृ) । अच्छेत्तु ( अ, बी) ।
वुच्छं (स), निभा ४५०५, इस गाथा की व्याख्या में अवचूरि में 'होइ पभू घर.....' (१७३ / १ गाथा ) चोक्तम् कहकर दी हुई है। देखें टिप्पण १७३ / १ । आहारउवहि (क) ।
५७
२५.
२६.
संखडिय संखडीयं व (अ), 'डीय व (ला, क, स) । २७. व तहिं (निभा ४५०६ ) ।
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पिंडनियुक्ति
१७६. अचियत्तमंतरायं, तेणाहड एगणेगवोच्छेदो।
निच्छुभणादी दोसा, 'तस्स अलंभे य जं५ पावे ॥ ३७३ ॥ दारं ॥ १७७. तेणा व संजतट्ठा, कलुणाणं अप्पणो व अट्ठाए।
'वोच्छेदं व पदोसं'२, 'न कप्पते कप्पऽणुण्णातं'३ ॥ ३७४ ॥ १७७/१. संजतभद्दा तेणा, आयंती' वा असंथरे जतिणं ।
जइ देंति न घेत्तव्वं, निच्छुभ-वोच्छेद मा होज्जा ॥ ३७५ ॥ १७७/२. घतसत्तुगदिटुंतो', समणुण्णाता व घेत्तु णं पच्छा।।
'देंति तयं तेसिं चिय'", समणुण्णाता व भुंजंति ॥ ३७६ ॥ दारं ॥ १७८. अणिसिटुं पडिकुटुं, अणुणातं कप्पते१० सुविहिताणं ।
___ 'लड्डग चोल्लग जंते, संखडि-खीरावणादीसु१॥ ३७७ ॥ दारं ।। १७९. बत्तीसा सामन्ने, ते ‘वि य१२ ण्हातुं गत'३ त्ति इति४ वुत्ते।
परसंतिएण पुण्णं, न तरसि काउं ति५ पच्चाह'६ ॥ ३७८ ।। १७९/१. 'अवि य हु'१७ बत्तीसाए, 'दिण्णे य'१८ तवेगमोयगो९ न भवे।
अप्पवयं बहुआयं, जदि जाणसि देहि तो'२० मझं ॥ ३७९ ।।
१. वियाल अलंभे य जं (अ, बी), वियाल लंभे व जो १०. कप्पइ (स)।
(स, ला), वियालऽलंभे य जं (निभा ४५०७)। ११. गाथा का उत्तरार्द्ध (निभा ४५१६) में इस प्रकार है२. वोच्छेय पओसं वा (ला, ब, क, मु)।
लड्डग जंते संखडि, खीरे वा आवणादीसुं। ३. णप्पए कप्पए अणुण्णातं (अ, बी), ‘ण्णाए (स), १२. कहिं (मु, क, टी)। निभा ४५१३।
१३. गइ (अ, बी)। ४ आयत्ती (ला), अइयई (अ, बी), अचियत्ती (निभा ४५१४)। १४. इय (मु)। ५. जतीणं (स, निभा)।
१५. ण (क)। ६. १७७/१,२-ये दोनों गाथाएं १७७ वीं गाथा की व्याख्या १६. निभा ४५१७, कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३,
प्रस्तुत करने वाली हैं अत: भाष्य की होनी चाहिए। कथा सं. २५ । प्रकाशित टीका में ये नियुक्ति गाथा के क्रम में हैं १७. अबहु (ला)। लेकिन इनको मल निर्यक्ति गाथा के क्रम में नहीं १८. दिण्णेहि (ला, ब, क, मु, स), रखा है।
दिण्णाए (निभा ४५१८)। ७. हस्तप्रतियों में 'घतसत्तुगदिटुंतो' के स्थान पर १९. तमेग' (स)। 'तेणगभएण घेत्तुं' पाठ मिलता है। अवचूरिकार ने भी २०. तो देह (अ, बी)। अपनी व्याख्या में 'क्वचिद् द्वितीयगाथायां घयसत्तुग- २१. गाथा १७९ में अनिसृष्ट से संबंधित कथा का दिटुंतो' का उल्लेख किया है।
संक्षेप में उल्लेख है। १७९/१, २ में इसी कथा ८. तं सत्थिगाण देंती (निभा ४५१५)।
का विस्तार है अतः १७९/१, २ ये दोनों गाथाएं ९. तु (स)।
स्पष्ट रूप से भाष्य की होनी चाहिए। कोई भी ग्रंथकार इतनी पुनरुक्ति नहीं करता।
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पिंडनियुक्ति
१७९/२. लाभित शिंतो' पुट्ठो, किं लद्धं नत्थि 'पेच्छिमो दाए'२ ।
इतरो वि आह नाहं, देमि त्ति सहोढ चोरत्तं ॥ ३८० ॥ १८०. गेण्हण कड्डण ववहार, पच्छकडुड्डाह 'तह य निव्विसए'।
अपभुम्मि भवे' दोसा, 'पभुम्मि दिण्णे ततो गहणं ॥ ३८१ ॥ १८१. एमेव य जंतम्मि वि, संखडि खीरे य आवणादीसुं।
सामन्नं पडिकुटुं, कप्पति घेत्तुं अणुण्णातं ॥ ३८२ ॥ १८१/१. 'चुल्ल त्ति'१० दारमहुणा, बहुवत्तव्वं ति तं कतं पच्छा।
वण्णेति गुरू सो पुण, सामिय१२ हत्थीण विण्णेओ३ ॥ ३८३ ॥ १८२. 'छिण्णमछिण्णो दुविहो, होति अछिण्णो निसिट्ठमणिसिट्ठो'१४ ।
छिण्णम्मि चुल्लगम्मी'५, कप्पति घेत्तुं निसिट्ठम्मि५ ।। ३८४ ॥ छिण्णो दिट्ठमदिट्ठो, जो य निसिट्ठो७ 'अछिण्ण छिण्णो वा'१८ ।
सो कप्पति इतरो पुण, 'अदिदिट्ठो वऽणुण्णातो'१९॥ ३८५ ॥ १८४. अणिसिट्ठमणुण्णातं२०, कप्पति घेत्तुं तहेव अद्दिटुं।
जड्डस्स वाऽनिसिटुं९, न कप्पती कप्पति अदिटुं२२ ॥ ३८६ ॥
१. मित्तो (बी), णंतो (स), नेतो (मु)।
'वण्णेइ गुरु सो पुण' कहकर नियुक्तिकार की ओर २. भाणे पेच्छामो (निभा ४५१९)।
संकेत किया है। इस गाथा को मूल नियुक्ति गाथा ३. चोरत्ति (मु)।
के क्रमांक में नहीं रखा है। ४. मेव निद्दिसओ (ला), पुच्छ नि' (मु)। १४. छिण्णमछिण्णं दुविहं, होइ अछिन्नं निसट्ठमनिसटुं ५. हुंति (अ, बी)।
(अ, बी), "निसट्ठमणसट्टो (क, स)। ६. पहुम्मि त्ति तृतीयार्थे सप्तमी (मवृ)।
१५. चोलगम्मि (स)। ७. पभुं व दिण्णं अओ (ला, स)।
१६. निसट्ठो वि (स)। ८. निभा ४५२०।
१७. निसट्ठो (स, निभा)। ९. निभा ४५२१।
१८. छिण्ण छिण्णो वा (ला, ब), भवे अछिन्नो य १०. चोलेति (ला), चोल त्ति (स)।
(क, मु), पि होइ अच्छिण्णो (निभा ४५१०)। ११. घेत्था (स)।
१९. अदिट्ठ सिट्ठो बहुविणासो (अ, बी), अणु (क)। १२. सामी (ला, ब, क, स)।
२०. अणसटुं (स)। १३. भिण्णाओ (स), १८१/१ यह गाथा स्पष्ट रूप से २१. य अनिसटुं (मु), वा निसटुं (स)।
भाष्य की प्रतीत होती है। क्रम के अनुसार २२. निभा (४५११) में इस गाथा के स्थान पर निम्न 'चोल्लकद्वार' की व्याख्या बाद में क्यों की गई, गाथा मिलती हैइसका स्पष्टीकरण इस गाथा में किया गया है। अणिसट्रं पण कप्पति, अदिदं जेहि तं त आणीतं। कोई भी ग्रंथकार स्वयं इस बात का स्पष्टीकरण दिलृ पि पहू कप्पति, जइ अणुजाणंति ताई तु॥ नहीं करता। दूसरी बात १८१/१ में भाष्यकार ने
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१८५. निवपिंडो गयभत्तं, डुंबस्स संतिए वि हु, अज्झोयरओ तिविधो, मूलम्मि य पुव्वकते,
१८७. तंडुल- जल-आदाणे, परिमाणे
नाणत्तं,
१८६.
१८९. एसो एका १४
१८८. जावंतिए विसोधी,
सघरं ५ पासंडि मीसए छिपणे विसोहि दिन्नम्मि, कप्पति 'न कप्पती" १८८ / १. छिन्नम्मि तओ ओकड्डियम्मि कप्पति पिहीकते' आभावणाय दिन्नं, एवइयं ११
कप्पते
१९१.
१९२.
१. निभा ४५१२ ।
२. ओतरइ (ला), ओवरई (बी) ।
३. फल (स) ।
४. यं (बी) ।
५. संजय ( अ, ब ) ।
सोलसभेदो, विसोहिकोडी,
सेसं ।
सेसं१२ ।। ३९१ ।। उगमो ।
चावरा ॥ ३९२ ॥
१९०. आहाकम्मुद्देसिय, चरिमतिगं पूर्ति मीसजाते य। ' बादरपाहुडिया वि य १७, अज्झोयरए य चरिमदुगं १८ ॥ ३९३ ॥ उगमकोडी अवयव, लेवालेवे य कंजिय- आयामगर - चाउलोद २१ - संसद्व
कप्पे ९९ ।
सेसा विसोधिकोडी, भत्तं पाण२३ अणलक्खिय मीसदवे२५,
६. पासंड ( अ, क, ब) ।
७. कप्पई (ला, ब, अ, बी) ।
८. x ( स ) ।
९. उक्कड्ड (ला, ब, मु) ।
१०. कयं ( अ, बी) ।
गहणादी अंतराइयमदिन्नं । अभिक्ख वसहीय फेडणया ॥ ३८७ ॥ दारं ॥
सघरमीसपासंडे |
जावंतिय
ओयरती
तिह
पुप्फ-फले ३ साग - वेसणे अज्झोयर मीसजाते
११. च तत्तियं (ला, ब, मु) ।
१२. १८८ / १ की गाथा केवल अ और बी प्रति में है ।
अवचूरिकार ने 'एषा गाथा क्वापि न दृश्यते' ऐसा उल्लेख करते हुए इसकी व्याख्या की है। मलयगिरि की टीका में यह बिना किसी निर्देश के व्याख्यात है।
दुहा ३ अविसोही १५
"
उ
'अकयए 'पूती
अट्ठाए ॥ ३८८ ॥ लोणे ।
य ॥ ३८९ ॥
पूती ।
सेसं ॥ ३९० ॥
१०
य १२२ ॥ ३९४ ॥
विगिंच जहसत्ती २४ । सव्वविवेगोऽवयवसुद्धो२६ ॥ ३९५ ॥
पिंड नियुक्ति
१३. वि दुहा ( अ, ब, ला, बी) ।
१४. एक्को (ला), एगो (मु) ।
१५. उ अवि (ला) ।
१६. गाथा का प्रथम एवं तृतीय चरण आर्या तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण अनुष्टुप् छंद में है।
१७. याए (क) 1
१८. जीभा १२९५, तु. दशनि २२० / १ ।
१९. अकप्पकप्पे य ( अ, बी, स) ।
२०. आयामे (ला, ब, जीभा ) ।
२१. 'लोदए ( अ, बी) ।
२२. पूईओ (मु), पूईयं (ला, स), जीभा १२९७ । २३. दाण (ला, ब), दाणं (स) 1
२४.
२५.
२६.
सत्तिं (मु) ।
दव्वे ( अ, क, बी) ।
'गो य अवयवे (ला, ब, स ) ।
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पिंडनियुक्ति
१९२/१. दव्वाइओर विवेगो, दव्वे जं दव्व जं जहिं खेत्ते।।
काले अकालहीणं, असढो जं पस्सती भावे ॥ ३९६ ॥ १९२/२. सुक्कोल्ल सरिसपाए, असरिसपाए य एत्थ चउभंगो।
तुल्ले तुल्लनिवाते', तत्थ दुवे 'दोन्नि वाऽतुल्ला'६ ॥ ३९७ ॥ १९२/३. 'सुक्के सुक्कं' पडितं, विगिंचिउं होति तं सुहं पढमो।
बीयम्मि दवं छोढुं, गालंति दवं० करं दाउं ॥ ३९८॥ १९२/४. ततियम्मि करं१ छोढुं, उल्लिंचति१२ ओदणादि जं तरति ।
दुल्लभदवम्मि३ चरिमे, तत्तियमेत्तं विगिचंति ॥ ३९९ ॥ १९२/५. संथरे सव्वमुझंति, चउभंगो असंथरे ।
असढो सुज्झते जेसु५, मायावी 'तेसु लग्गती '१६ ॥ ४०० ॥ १९२/६. कोडीकरणं दुविधं, उग्गमकोडी विसोधिकोडी य।
उग्गमकोडी छक्कं, विसोधि कोडी अणेगविहा७ ।। ४०१॥ १९२/७. नव चेवऽट्ठारसगं, सत्तावीसा तहेव चउपण्णा ।
नउती दो चेव सया, 'उ सत्तरी'१८ होंति कोडीणं१९ ॥ ४०२ ॥ १९३. सोलस उग्गमदोसे, गिहिणो उ समुट्ठिते२० वियाणाहि।।
उप्पादणाय दोसे, 'साहू उर समुट्ठिते जाण'२२ ॥ ४०३ ॥
१. ईओ (अ)। २. तहिं (स)। ३. सुक्खोल्ल (अ, बी)। ४. सूत्रे च पुंस्त्वनिर्देश आर्षत्वात् (म)। ५. निवाओ (ला, क, स), निवाया (अ, बी)। ६. दोन्नऽतुल्ला उ (मु)। ७. सुक्खे सुक्खं (अ, बी)। ८. विगिंचय (बी)। ९. गलंति (अ, बी), गालेति (स), जीभा १३०९। १०. दव्वं (अ, क, बी)। ११. करे (अ)। १२. उल्लिचइ (ला, ब)। १३. दुल्लभदव्वं (मु, ब)। १४. विगिंचेई (अ, बी)। १५. तेसु (ला, ब, स)।
१६. जेसु बज्झई (क, मु), गाथा में अनुष्टुप् छंद है। १७. भवे सेसा (दशनि २२०), तु. जीभा १२९३ । १८. तु सत्तरा (जीभा १२८९)। १९. दशनि २२१, १९२/१-७-ये सात गाथाएं व्याख्या
परक एवं चतुर्भगियों से संबंधित होने के कारण नियुक्ति की नहीं होनी चाहिए। १९२/६,७-ये दोनों गाथाएं किसी भी हस्तप्रति में नहीं मिलती हैं। अवचूरि तथा प्रकाशित टीका में ये गाथाएं निगा के क्रमांक में व्याख्यात हैं। ये गाथाएं अतिरिक्तसी लगती हैं। इनको मूल निगा के क्रमांक में
नहीं रखा है। २०. समुच्छिए (ला, ब), समुत्थिए (स)। २१. साहूय (अ, बी), साहूण (क)। २२. आयसमुत्थे अओ वोच्छं (ला, ब, स),जीभा १३१३ ।
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१९४. नामं ठवणा दविए,
१९४/१. आसूयमादिएहिं', सुत- आस- दुमादीणं,
भावे उप्पादणा मुणेयव्वा । दव्वम्मि होति तिविधा, भावम्मि य सोलसपदा उ ॥ ४०४ ॥
१९४/२. कणग-रययादियाणं, मीसा उ सभंडाणं ", १९४/३. भावे पसत्थ इतरा,
१९८.
१९५. धाई दूती निमित्तें, आजीव कोधे माणे माया, १९६. पुव्विं पच्छा संथव, उप्पायणाय दोसा, १९७. खीरे य मज्जणे
एक्केक्का १२ वि य धारयति धीयते वा, जहविभवं १५ आसि
दुपा
कोहादिजुता धायादिणं च नाणादि
उप्पादणया
जहे धातुविहिया 'दुपयादि कया
१९९८ / १. खीराहारो रोवति १७, मज्झ पच्छा वि० मज्झ दाहिसि",
२. उप्पायणा (स) ।
३. रयतावियाणं (ला, ब), रयतातिहाणं ( स ) । ४. जहिट्ठघाऊविहिय ( अ, बी) ।
५. सभंडयाणं (ला, ब), सभंडियाणं ( स ) । ६. दिकयाइ ( अ, बी) ।
१. आसूल (ला, ब), आयासुयमादीहिं (जीभा १३१५ ), आसूर्य औपयाचितकम् (मवृ)।
९. च्छाए ( अ, बी) ।
१०. जीभा १३१९, प्रसा ५६६, तु. मूला ४४५,
वालचिय- तुरंग - बीयमादीहिं ।
उ
७. दुपया तुप्पायणा दव्वे (जीभा १३१६ ) । ८. जीभा १३१७, १९४ / १-३- ये तीनों गाथाएं १९४
वीं गाथा की व्याख्या रूप हैं। इनमें द्रव्य से सचित्त और अचित्त उत्पादना तथा भाव उत्पादना का उल्लेख है । विषय की दृष्टि से भी १९४ वीं गाथा १९५ के साथ संबद्ध है I
मंडणे य दुविधा, करणे कारावणे धयंति वा तमिति १४ तेण पुरा, खीरादी कतासाय १८ अलं व
तु
उ ६
उ
उ
वणीमगे 'तिगिच्छा य" । लोभे य भवंति दस एते ॥ ४०८ ॥ विज्जा मंते सोलसमे
य चुण्ण- जोगे य ।
मूलकम्मे य११ ॥ ४०९ ॥ कीलावणंकधाई य ।
चेव १३ ॥ ४१० ॥
सच्चित्ता ॥ ४०५ ॥
अच्चित्ता ।
उप्पत्ती ७ ॥ ४०६ ॥
अपसत्था ।
पसत्था' ॥ ४०७ ॥
धाई उ । पंचधाईओ१६ ॥ ४११ ॥
देह १९ णं पेज्जे ।
भुज्जो व एहामि ॥ ४१२ ॥
पिंडनिर्युक्ति
पिं ५८, पंचा १३/१८ ।
११. जीभा १३२०, प्रसा ५६७, तु. मूला ४४६, पिं ५९, पंचा १३/१९ ।
१२. इक्किक्का (बी), एकेका ( स ) ।
१३. तु. जीभा १३२२ ।
१४. तम्मि ( क ) ।
१५. विभवा (स, क, निभा ४३७६), विहवं (मु) । १६. जीभा १३२१ ।
१७. रोयइ ( अ, मु) ।
१८. किताऽऽसादि (निभा ४३७७), कृताशाय – विहितभिक्षालाभमनोरथाय (मवृ) । १९. देहि (स, क, निभा) । २०. व (ला, ब, मु, निभा) । २१. दाही (मु क ) ।
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पिंडनियुक्ति
१९८/२. मइमं अरोगि दीहाउओ य होति अविमाणितो बालो।
दुल्लभगं खु सुतमुहं, पिज्जेहि' अहं व णं देमि ।। ४१३ ॥ १९८/३. अहिगरण भद्द-पंता, कम्मुदय गिलाणए य उड्डाहो।
चडुगारी व अवण्णो, 'नियगो अण्णं च'" व णं५ संके ॥ ४१४ ॥ १९८/४. अयमवरो उ विकप्पो, भिक्खायरि सड्डि अद्धिती' पुच्छा।
दुक्खसहाय विभासा, हितं च धातित्तणं अज्ज ॥ ४१५ ॥ १९८/५. 'वय-गंडथुल्लतणुगत्तणेहि तं . पुच्छिउं'११ अयाणंतो।
तत्थ गत१२ तस्समक्खं, भणाति तं पासिउं बालं ॥ ४१६ ॥ १९८/६. अहुणुट्ठियं च अणवेक्खितं 'च इणमं'१३ कुलं तु मन्नामि ।
पुन्नेहि जहिच्छाए, 'तरई बालेण सूएमो'१४ ॥ ४१७ ॥ १९८४७. थेरी दुब्बलखीरा, चिमिढो५ पेल्लियमुहो१६ अतिथणीए।
तणुई१७ 'उ मंदखीरा'१८, 'कोप्परथणियं ति१९ सूइमुहो ॥ ४१८ ॥ १९८४८. जा जेण होति वण्णेण, उक्कडा 'गरहते य तं तेणं'२० ।
गरहति समाण तिव्वं, पसत्थभेदं२१ ‘च दुव्वण्णं'२२ ॥ ४१९ ॥
१. पिज्जाहि (मु), पज्जेहि (निभा ४३७८)। ११. 'तणुयत्तणेण पुच्छियं (ला, ब), वय-गंड तणुय २. चडुकारी (मु)।
थूलगत्तणेहि तो पु (अ, बी)। ३. य (अ, क, बी, मु, निभा)।
१२. गतो (स, निभा ४३८१)। ४. नीयावण्णो (अ, ब), नीया अण्णो (निभा ४३७९)। १३. व इमं (ला, ब, स), इमगं (क, निभा ४३८२)। ५. णम् इति वाक्यालंकारे (मवृ)।
१४. चलइ बालेण सूएम (अ, बी), स प्रति में गाथा ६. संका (स)।
का उत्तरार्ध नहीं है। ७. अधिती (ब)।
१५. चिविडो (ब, क, स)। ८. हिया (ला, ब)।
१६. पिल्लिय' (अ, क, बी)। ९. मे (अ, बी, मु, स, निभा ४३८०), मि (क)। १७. तुणुई (ला, ब)। १०. अज्जो (बी, ला, निभा), निशीथ चूर्णि में इस प्रसंग १८. मंदक्खीरा (स. निभा ४३८३)।
में धात्री और मुनि के मुख से पद्य कहलवाए गए १९. कप्पर (ला. ब), कोप्परि' (स). हैं। सर्वप्रथम धात्री कहती है
कुप्परथणियाए (मु)। जो य ण दुक्खं पत्तो, जो य न दुक्खस्स निग्गहसमत्थो। २०. 'हती तु (ला, ब, स), 'हते स जो य न दुहिए दुहिओ, न हु तस्स कहिज्जउ दुक्खं। तेणेव (निभा ४३८४)। मुनि इसका उत्तर देते हुए कहता है-
२१. "त्थमियरं (क, मु)। अहयं दुक्खं पत्तो, अहयं दुक्खस्स निग्गहसमत्थो। २२. “वण्णा (अ, ब, ला), दुवण्णे य (स), अहयं दुहिए दुहिओ, तो मज्झ कहिज्जउ दुक्खं ॥ तु दुव्वण्णे (क)।
निचू भा. ३ पृ. ४०५
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पिंडनियुक्ति
१९८/९.उव्वट्टिता' पदोसं, छोभग' उब्भामगो' य से जं तु।
होज्जा मज्झ वि विग्घो, विसादि इतरी वि एमेव ॥ ४२० ॥ १९८/१०. एमेव' सेसिगासु वि, सुतमाइसु करण-कारवण' सगिहे।
'इड्ढीसु य'८ 'धाईसु य'", तहेव उव्वट्टियाण° गमो १ ॥ ४२१ ॥ १९८/११. लोलति महीय धूलीय, गुंडितो पहाण१२ अहव णं मज्जे।
जलभीरु अबलनयणो, अतिउप्पलणेण१३ रत्तच्छो'८ ॥ ४२२ ॥ दारं ॥ १९८/१२. अब्भंगिय संबाहिय५, उव्वट्टित मज्जितं च तं१६ बालं।
उवणेति ण्हवणधाती, मंडणधातीय सुइदेहं ॥ ४२३ ।। १९८/१३. उसुकादिएहि८ मंडेहि 'ताव णं१९ अहव णं विभूसेमि।
हत्थिच्चगा व पाए, 'कया गलिच्चा'२१ व ‘से पादे '२२ ॥ ४२४ ।। १९८/१४. ढड्डरसर छुन्नमुहो२२, 'मउयगिरासू य मम्मणुल्लावो '२४ ।
उल्लावणमादीहिं२५, करेति कारेति वा किड् ॥ ४२५ ॥ दारं ॥ १९८/१५. थुल्लाएँ६ विगडपादो, भग्गकडी 'सुक्कडी य'२७ दुक्खं च।
निम्मंसकक्खडकरेहि८, भीरुओ२९ होति घेप्पंतो३० ॥ ४२६ ॥
१. ओवट्टिया (निभा)।
अन्ये तिलकमित्याहुः, आदिशब्दात् क्षुरिकाकाराद्या२. छोहग (ला), छोब्भग (क)।
भरणपरिग्रहः (म)। ३. उब्भामिओ (क)।
१९. भरेणं (ब), ताव देणं (स)। ४. निभा ४३८५।
२०. हत्थेव्वगा (निभा ४३८९), हथिच्चगा हस्तयोग्या५. एमेव य (अ, बी)।
न्याभरणाणि (म)। ६. अत्र षष्ठ्य र्थे सप्तमी (मवृ)।
२१. कयमेलेच्चा (निभा), कया गलिंचा (अ, बी), ७. कारणे (ला, निभा), कारणं (क, मु)।
गलिच्चा गलसत्कानि आभरणाणि (मवृ)। ८. इड्डीसुं (मु)।
२२. पाए वा (मु)।। ९. धाईसु यत्ति भावप्रधानोऽयं निर्देशः पञ्चम्यर्थे च २३. पुण्णमुहो (अ, ब, निभा ४३९०)। सप्तमी (मवृ)।
२४. “गिराए उ मम्मणपलावो (अ, बी), "गिरासुम्मय १०. उट्ठियाण (ला)।
पलावो (ला, ब), मुइय गिरासु इय म' (स)। ११. निभा ४३८६।
२५. तुल्ला (अ, बी), णगाईहिं (मु)। १२. पहाणे (अ, ब, ला, स), हाणि (मु)। २६. थुल्लीए (मु)। १३. "लणे य (मु, निभा ४३८७)।
२७. सुक्कडाए (मु)। १४. अत्तच्छो (अ, बी)।
२८. नीमंस (निभा ४३९१)। १५. “हिओ (मु)।
२९. भीरो उ (अ, बी)। १६. तो (ला, ब, क, मु)।
३०. घेप्पंतु (अ, बी), १९८/१-१५-ये १५ गाथाएं १७. मज्जधाई (मु), ण्हाणधाती (क, निभा ४३८८)। व्याख्यात्मक होने के कारण भाष्य की होनी चाहिए। १८. उसुणादि (अ, बी), इषुकः इषुकाकारमाभरणम् इसमें पांच प्रकार की धात्रियों का विस्तृत विवेचन
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पिंडनियुक्ति
१९९. कोल्लइरे' वत्थव्वो, दत्तो आहिंडओ२ भवे सीसो।।
उवहरति धातिपिंडं, अंगुलिजलणे य सादिव्वं ॥ ४२७ ।। २००. सग्गाम-परग्गामे, 'दुविधा दूती'५ उ होति नातव्वा।
'सा वा'६ सो वा भणती, भणती पच्छण्णवयणेहि ॥ ४२८ ॥ २०१. 'एक्केक्का वि य दुविधा', पागड छन्ना य छन्न दुविधा उ।।
लोगुत्तर तत्थेगा, बितिया पुण उभयपक्खे वि॥ ४२९ ॥ २०१/१. भिक्खादी वच्चंते, 'अप्पाहणि णेति'११ खंतियादीणं१२ ।
सा ते अमुगं माता, सो व३ पिया 'ते इमं भणति'१४ ॥ ४३०॥ २०१/२. दूइत्तं खु गरहितं, अप्पाहिउ'५ बितियपच्चया'६ भणति।
अविकोविता सुता ते, जा आह 'इमं भणसु'१७ खंति८ ॥ ४३१ ॥ २०१/३. उभए१९ वि य पच्छन्ना, खंत! कहिज्जाहि° खंतियाइ तुम।
तं तह संजातं ति य, तहेव 'तं अह'२१ करेज्जासि२२ ॥ ४३२ ॥ २०२. गामाण दोण्ह वेरं२३, सेज्जातरिधूय तत्थ खंतस्स।
वधपरिणत खंतऽब्भत्थणं२४ च णाते कते२५ जुद्धं२६ ॥ ४३३ ॥
१. कुल्ल (अ, बी), "लयरे (स)।
गाथाएं गा. २०१ की व्याख्या रूप हैं। प्रकाशित २. "डिओ (अ, बी), "डितो (निभा)।
टीका में ये निगा के क्रम में हैं लेकिन ये भाष्य ३. अव (क, मु)।
की होनी चाहिए। इनको मूल निगा के क्रम में ४. कथा के विस्तार हेतु देखें भाष्यगाथा ३१,३२ तथा नहीं जोड़ा है।
परि. ३ कथा सं. २६, उनि १०७, निभा ४३९२, १५. अप्पाहेउ (ला, ब), अप्पाहिओ (निभा)। निशीथचूर्णि में इस गाथा के लिए 'एसा भद्दबाहुकया १६. बीय (अ, बी), च्चयं (स, निभा)। निज्जुत्तिगाहा' का उल्लेख मिलता है।
१७. ममं भणति (निभा ४४००)। ५. दूई दुविहा (स)।
१८. खंती (क)। ६. सान्ना (स)।
१९. उभओ (अ, बी)। ७. पंतं वयणेणं (अ, बी), व तं छन्न' (मु), तं २०. कइज्जाहि (अ, बी), कहियासु (ला, ब)।
छन्न (निभा ४३९७), 'वयणेणं (क, स, निभा)। २१. अह तं (ला, ब, क, मु)। ८. एकेका सा दुविहा (क, स),
२२. 'ज्जाहि (क, स), निभा में यह गाथा नहीं है। दुविहा य होइ दूती (निभा ४३९८)।
२३. वेरो (स)। ९. य (निभा)।
२४. खंतज्झत्थणं (मु)। १०.बीया (अ, ब, मु)।
२५. वओ (अ, बी), कए (निभा ४४०१)। ११. अप्पाहिणि णेई (अ, ब), अप्पाहण' (स)। २६. जुझं (बी), जटुं (स), गाथा २०२, २०३ में १२.खंतिगादीहिं (निभा ४३९९)।
आई कथा जीभा में पांच गाथाओं (१३३५-३९) १३. उ (क), च (निभा)।
में आई है, कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, १४. पागडं भणति (जीभा १३२७), २०१/१-३-ये तीनों कथा सं. २७।
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पिंडनियुक्ति
२०३. जामातिपुत्तपतिमारणं' चरे केण कहितं ति जणवादो।
जामातिपुत्तपतिमारएण खंतेण 'मे सिटुं" ॥ ४३४ ॥ दारं ॥ २०४. नियमा तिकालविसए, वि निमित्ते' छव्विधे भवे दोसा।।
सज्जं तु वट्टमाणे, आउभए तत्थिमं णातं ॥ ४३५ ॥ आकंपिया निमित्तेण, भोइणी भोइए चिरगतम्मि।
पुव्वभणिते कहते', आगतों० रुट्ठो व वलवाए ॥ ४३६ ।। २०६. जाती-कुल-गण कम्मे, सिप्पे आजीवणा उ पंचविधा।
सूयाएँ असूयाएँ व, 'अप्पाण कहे हि१२ एक्के क्को '१३ ॥ ४३७ ॥ २०७. जाती-कुले विभासा, गणो उ मल्लादि कम्म किसिमादी।
तुण्णादि४ सिप्पऽणावज्जगे१५ च कम्मेतराऽऽवज्जे १६ ॥ ४३८ ॥ २०७/१. होमादऽवितहकरणे१५, नज्जति जह सोत्तियस्स८ 'पुत्तो त्ति'१९ ।
वसिओ० वेस गुरुकुले, आयरियगुणे व सूएति२१ ॥ ४३९ ॥ १. जामाईपु (स)।
९. कहित्ता (ला, ब), कहेंते (निभा ४४०६)। २. तु (निभा ४४०२)।
१०. “गतो (स)। ३. कहयं (अ, बी)।
११. वडवाए (मु), निशीथ चूर्णि में इस गाथा के लिए ४. सिटुं ति (ला, ब, स), नियुक्तिकार प्रायः कथा
'इमा भद्दबाहुकया गाहा' का उल्लेख है,वहां इसकी का संकेत एक ही गाथा में कर देते हैं। यहां
व्याख्या में दो गाथाएं और हैं, उनके लिए 'एतीए गा. २०२ और २०३-इन दो गाथाओं में कथा का
इमा दो वक्खाणगाहातो' का उल्लेख है। जीभा में वर्णन है। धात्री और निमित्त द्वार में भी नियुक्तिकार
इस गाथा में आई कथा ६ गाथाओं में उल्लिखित ने संक्षेप में कथा का संकेत किया है और उसकी
है। (द्र. जीभा १३४२-४७), कथा के विस्तार हेतु विस्तृत व्याख्या भाष्यकार ने की है लेकिन यहां
देखें भाष्यगाथा ३३,३४ तथा परि. ३,कथा सं. २८ । 'दूतीद्वार' में नियुक्तिकार ने ही दो गाथाओं में विस्तार
१२. कहेइ (बी, क), कहेज्ज (निभा ४४११)। से कथा का संकेत कर दिया है।
१३. कहेइ अप्पाणमेक्केक्के (जीभा १३५०)। ५. नेमिते (निभा ४४०५)।
१४. तुण्णा य (ला, ब), तुल्लाइ (अ, बी), अ, बी ६. वज्जमाणे (अ, बी), 'माणं (क)।
प्रति में अनेक स्थलों पर ण के स्थान पर ल पाठ है। ७. जीभा १३४१. इस गाथा के बाद अ और बी प्रति १५. सिप्पिणा" (स), "ज्जगं (मु, निभा). में निम्न गाथा मिलती है। यह गाथा प्रक्षिप्त सी
'ज्जणं (ला, ब, अ, क)। लगती है क्योंकि इससे पर्व गाथा में 'निमित्ते १६. “ज्ज (मु, अ, क, ब), निभा ४४१२ । छविहे भवे दोसा' का उल्लेख किया जा चका है। १७. होमाय' (मु), भोमाई' (अ, बी)। मलयगिरि टीका एवं अवचूरि में भी यह गाथा १८. सोत्तिस्स (ला, ब), सुत्ति' (क)। व्याख्यात नहीं है
१९. पुत्तु त्ति (अ, क), पुत्त ति (बी)। लाभालाभं सुहं दुक्खं, जीवितं मरणं तहा।
२०. उसिओ (अ, स)। छविहे वि निमित्ते उ, दोसा होंति इमे सुण ॥
२१. निभा ४४१३, जीभा १३५३, २०७/१-४-ये चारों ८. आगंपिया (ला, ब, अ, क)।
गाथाएं २०७ की व्याख्या रूप हैं अतः ये भाष्य की होनी चाहिए।
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पिंडनिर्युक्ति
२०७/२. सम्ममसम्मा समिधा - मंताहुति
२०७/३. उग्गादिकुलेसु
२०८.
किरिया, अणेण ऊणाहिगा च विवरीता । -ठाण - जागर - काले
वि
देउलदरिसण भासा,
२०७/४. कत्तरि
२०९.
२१०.
'एमेव गणे
उवणय
१. सम्मं सम्मा (ब)। २. मंताहुती ( स ) ।
३. जण्ण (स), जाव ( निभा ४४१४ ) ।
४. वासाई (ला, ब), जीभा १३५४ |
२०८/१. मयमातिवच्छगं१४
१६
पि व, वणेति आहारमादिलोभेणं । 'समणेसु माहणेसु य १५, किविणाऽतिहि - साणभत्तेसु ६ ॥ ४४४ ॥ निग्गंथ- सक्क- तावस, गेरुय- आजीव पंचहा समणा । तेसिं परिवेसणाएँ १७, लोभेण वणिज्ज" को अप्पं ?९९ ॥ ४४५ ॥ २०९ / १. भुंजंति चित्तकम्मट्टिता २० व कारुणिय अवि कामगद्दभेसु वि२१, न नस्सए २२ किं मिच्छत्तथिरीकरणं, उग्गमदोसा चडुगारऽ दिण्णदाणा, पच्चत्थि २५
वा
'य तेसु मा पुणो
य
पयोयणावेक्ख' वत्थु बहुवित्थ
एमेव ।
कम्मेसु य सिप्पेसु य, सम्ममसम्मेसु सूइतरा ॥ ४४२ ॥ दारं ॥ समणे" माहण किवणे, अतिही साणे य होति पंचमगे । वणि जायण त्ति वणिओ, पायऽप्पाणं ' वणीमु त्ति १३ ॥ ४४३ ॥
८. यणट्ठा (जीभा १३६०), सूत्रे चात्र विभक्तिलोप
आर्षत्वात् (मवृ) ।
९. तह चेव (जीभा ) ।
१०. निभा ४४१६ ।
११. समणा (ला, ब ) ।
१२. किमणे ( क ) ।
१३. वणेसो त्ति (ला, ब), वणेइ त्ति (मु), तु जीभा
घोसादी ॥ ४४० ॥
१६
मंडलप्पवेसादी ६ । दंडमादीया ॥ ४४१ ॥
दाणरुइणो वा ।
पुण जतीसु ॥ ४४६ ॥
गच्छे '२४ ।
५. उग्गाई ( अ, स, बी) ।
६. एवमेव णे मंड' (ला, ब), एवमेवगणमं (अ, १७. परिएस (ला, ब, जीभा ) ।
बी), गण मंडणप्प ( क ) ।
७. माईणि (ला, ब, स), माईणं (क),
माईसु (अ), मादी वा ( निभा ४४१५ ) ।
एंतु २६ ॥ ४४७ ॥
१३६४, गाथाओं के क्रम में निभा में यह गाथा नहीं है।
१४. मइमा ( अ, बी) ।
१५. अप्पाण समण-माहण (जीभा १३६५) । १६. निभा ४४१९ ।
१८. वणेइ ( जीभा १३६६ ), वणेज्ज ( निभा) ।
६७
१९. अप्पाणं (ला, ब), निभा ४४२० ।
२०. 'कम्मं ठिया ( अ, बी मु) ।
२१. य ( अ, बी) 1
२२. नस्सई ( अ, बी, मु), वि णासइ (जीभा १३६८ ), णासए (निभा ४४२१ ) ।
२३. जइसु (अ), गा. २०९, २०९ / १ तथा २१० गाथाएं स प्रति में नहीं हैं ।
२४. व ते पुण करेज्जा ( जीभा १३६९ ) ।
२५. पुव्वत्थक (ला, ब), तिथमं ( अ, बी) । २६. इंतु (ला, मु, क, ब), निभा ४४२२ ।
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पिंडनियुक्ति
२१०/१. लोगाणुग्गहकारिसु, भूमीदेवेसु बहुफलं दाणं।
अवि नाम बंभबंधुसु, किं पुण छक्कम्मनिरतेसु ॥ ४४८ ॥ २१०/२. किवणेसुरे दुम्मणेसु य, अबंधवाऽऽतंकजुंगियंगेसु' ।
पूयाहज्जे लोगे, दाणपडागं हरति देंतो ॥ ४४९ ।। २१०/३. पाएण देति लोगो, उवगारी- 'परिचितेसु जुसिए'वा।
जो पुण अद्धाखिन्नं, अतिहिं पूएति तं दाणं ॥ ४५० ॥ २१०/४. अवि नाम होज्जा सुलभोर, गोणादीणं तणादि१२ आहारो।
छिच्छि क्कारहताणं१३, न या४ सुलभो होति साणाणं५ ॥ ४५१॥ २१०/५. केलासभवणा'६ एते, आगता गुज्झगा महिं।।
चरंति जक्खरूवेणं, पूयाऽपूय हिताऽहिता ॥ ४५२ ॥ २११. एतेण मज्झ भावो, दिट्ठो८ लोगे पणामहज्जम्मि।
एक्केक्के पुव्वुत्ता, भद्दगपंताइणो२० दोसा ॥ ४५३ ।। २१२. एमेव कागमादी, साणग्गहणेण सूइता होति।
जो वार जम्मि पसत्तो, वणेति तहिं २२ पुट्ठऽपुट्ठो वा२३ ॥ ४५४ ॥ २१३. दाणं न होति अफलं, पत्तमपत्तेसु सण्णिजुज्जंतं५ ।
'इय वि भणिते २६ वि दोसा, पसंसतो२७ किं पुण अपत्ते?२८ ॥ ४५५ ॥ १. 'देवसु (ला, ब) भूमि (निभा)।
१५. सुणगाणं (निभा, क, मु), सुणहाणं (अ, बी), २. निभा ४४२३, जीभा १३७१, व्याख्यात्मक होने के सुणयाणं (जीभा १३७७)।
कारण २१०/१-५ तक की पांच गाथाएं भाष्य की १६. कयलास' (अ), कइलास' (बी, क), होनी चाहिए।
_ 'भवणे (स, निभा ४४२७)। ३. किविणेसु (अ, क, ब), किमणेसु (ला, स)। १७. पूयापूया (अ, बी, स, मु), जीभा १३७८, इस ४. दुब्बलेसु (अ, बी, निभा, जीभा १३७३)।
गाथा में अनुष्टुप् छंद है। ५. 'यंगे तु (अ, बी), 'जुंगियत्तेसु (निभा ४४२४)। १८. विद्धो (ला, ब, जीभा, निभा ४४२८)।
पूया हविज्ज (अ, बी), पूयाहेज्जे (निभा)। १९. "महिज्ज (क)। ७. देंति (ला, ब), देंती (स)।
२०. पंताइया (जीभा १३८२)। ___ *गारिसु (क, मु)।
२१. व (ला, ब)। ९. परिजुए व वुसिए (ला, ब), "चिएसुज्झुसिए (मु), २२. तं (अ, बी), निभा ४४२९।।
परिजितेसु वुसिए (निभा ४४२५), 'चिए व २३. उ (निभा)। झसिए (जीभा १३७५)।
२४. “पत्ते य (अ, बी, जीभा १३८३), १०. होति (स, निभा ४४२६)।
___ पत्ते व (ला, क, ब)। ११. सुलहो (स)।
२५. "गँजंतं (क), "उज्जंतं (जीभा)। १२. तणाई (बी), तणाई (स)।
२६. ईय विभणिए (ला, क, ब)। १३. अच्छिक्का (ला, ब), छिच्छिक्का' (मु)। २७. पसंसिमो (जीभा)। १४. हु (क, मु)।
२८. अपत्तं (निभा ४४३०)।
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पिंडनियुक्ति
२१४. भणति य नाहं वेज्जो, अहवावि कहेति' अप्पणो किरियं।
__ अधवा वि विज्जयाए, तिविध तिगिच्छा मुणेयव्वा ॥ ४५६ ॥ दारं ॥ २१४/१. 'भिक्खादि गते'३ रोगी, किं वेज्जो हं ति पुच्छितो भणति।।
अत्थावत्तीय . कता, अबुहाणं 'बोहणा एवं" ॥ ४५७ ॥ २१४/२. एरिसगं वा दुक्खं, भेसज्जेण अमुगेण पउणं मे।।
सहसुप्पन्न व रुयं, वारेमो अट्ठमादीहिं० ॥ ४५८ ॥ २१४/३. संसोधण-संसमणं, निदाणपरिवज्जणं च जं जत्था ।
आगंतु धातुखोभे, व१२ आमए कुणति किरियं३ तु ॥ ४५९ ॥ २१५. अस्संजमजोगाणं, पसंधणं१५ कायघात अयगोलो।
दुब्बलवग्घाहरणं, अच्चुदए गिण्हणुड्डाहो ॥ ४६० ॥ २१६. 'हत्थकप्प-गिरिफुल्लिय'१७ रायगिहं खलु तहेव चंपा य।
कड८ घतपुण्णे इट्टग, लड्डग तह सीहकेसरए१९ ॥ ४६१ ॥ २१७. विज्जा-तवप्पभावं, रायकुले वावि वल्लभत्तं से।
नाउं ओरस्सबलं, 'देइ भया९ कोहपिंडो२२ सो'२३ ॥ ४६२ ।। २१८. अन्नेसि दिज्जमाणे, जायंतो वा अलद्धिओ कुज्झे२४ ।
कोहफलम्मि२५ ‘वि दिढे '२६, जं लब्भति२७ कोहपिंडो२८ उ॥ ४६३ ॥ १. करेइ (ला, ब)।
१५. धणा (अ, बी), धणे (स), २. विज्जए (अ, बी), वेज्जियाए (ब, निभा ४४३३)। पसंजणं (जीभा १३९२)। ३. भिक्खातितो (निभा)।
१६. निभा ४४३७, कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३. ४. वेया (ला, ब)।
। कथा सं. २९। ५. बोहणं एयं (अ, बी), निभा ४४३४।
१७. हत्थगिरिकप्पफुल्लिय (अ, बी)। ६. मे (ला, ब, स), चिय (क, मु)।
१८. कय (अ, बी)। ७. य अणुएण (अ, बी)।
१९. निभा में गाथाओं के क्रम में यह गाथा नहीं है। ८. सहस्सु (ला, ब), सहसुप्पत्तियं (निभा ४४३५)। तु जीभा १३९४।। ९. सयं (निभा)।
२०. सो (अ, ब)। १०. "माईयं (ला, ब), जीभा १३८८।
२१. जं (ब, ला, स)। ११. तत्थ (ला, ब, क, मु, स)।
२२. कोव (निभा ४४४०)। १२. य (मु), उ (क)।
२३. जो लब्भइ कोवपिंडो उ (स, ला, मु), १३. किरिया (अ, बी)।
दिति भया कोह (क)। १४. निभा ४४३६, जीभा १३९०, २१४/१-३-ये तीनों २४. कुप्पे (क, मु)।
गाथाएं गा. २१४ की व्याख्या रूप हैं अतः स्पष्ट २५. कोव (अ, क, बी, निभा ४४४१)। रूप से भाष्य की होनी चाहिए। नियुक्तिकार इस २६. अदिढे (क, ला, ब)। प्रकार की पुनरुक्ति नहीं करते हैं।
२७. लहइ (क) २८. कोव (अ, बी)।
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पिंडनियुक्ति
२१८/१. करडुयभत्तमलद्धं, अन्नहि दाहित्थर एव वच्चंतो।
थेराभोगण ततिए, आइक्खण खामणा दाणं ॥ ४६४ ॥ दारं ॥ २१९. उच्छाहितो परेण व, लद्धिपसंसाहि" वा समुत्तुइओ।
अवमाणितो परेण व, जो एसति माणपिंडो उ ॥ ४६५ ॥ २१९/१. इट्टगछणम्मि परिपिंडिताण उल्लाव को णु' हु पएति।।
आणेज्ज इट्टगाओ, खुड्डो पच्चाह 'हं आणे'१२ ॥ ४६६ ॥ २१९/२. जइ वि य ता पज्जत्ता, अगुलघताहिं न ताहि१३ णे१४ कज्ज।।
जारिसियाओ इच्छह, ता५ 'आणेमि त्ति'१६ निक्खंतो० ॥ ४६७ ॥ २१९/३. ओभासिय पडिसिद्धो, भणति अगारी१८ अवस्सिमा मझं ।
'जइ लब्भसि'१९ 'तो तं'२० मे, नासाए कुणसु मोयं२२ ति॥ ४६८ ॥ २१९/४. कस्स घर पुच्छिऊणं२२, परिसाए 'अमुग कतर'२४ पुच्छंतो२५।
किं तेणऽम्हे२६ जायसु, सो किविणो२७ 'दाहिति न'२८ तुब्भं२९ ॥ ४६९ ॥ २१९/५. 'दाहं ति'३० तेण भणितं", जइ न भवसि छण्हिमेसि२ पुरिसाणं।
अण्णतरो तो 'ते हं'३३, परिसामज्झम्मि पणएमि ॥ ४७० ।।
१. करदुयसत्तु (अ, बी)।
१८. अगारि (मु)। २. दाइत्थ (अ, बी)।
१९. जे लब्भसि (अ, बी), 'लहसि (मु, क)। भणति (निभा ४४४२)।
२०. ता तो (निभा ४४४८)। आयक्खण (अ, बी)।
२१. मि (ला, क, ब)। खावणा (अ, बी)।
२२. मुत्तं (ला, क, ब)। ६. द्र. टिप्पण २२०/१, कथा के विस्तार हेतु देखें २३. पुच्छियाणं (स)। परि. ३, कथा सं. ३०।।
२४. कतरो अमुगो (निभा ४४४९), अमुइ कतरो (स)। ७. 'साइ (अ, बी)।
२५. उ पुच्छा (अ, बी), पुच्छित्तु (मु, ला, ब), समुत्त' (मु, क, ब)।
पुच्छित्ता (स)। ९. सो (मु, क, निभा ४४४५), तु. पिंप्र ६८। २६. अम्ह (निभा), अम्हे (अ, क, बी, स)। १०. ण (अ, बी, स)।
२७. किमिणो (अ, बी)। ११. पगेव (अ, मु)।।
२८. ण दाहिती (स, क, निभा)। १२. णे आणे (ला, ब, स), आणेमि (क, मु), २९. तुज्झ (स, मु), तुम्हे (क), तुज्झं (निभा)।
निभा ४४४६, २१९/१-१५-गाथाएं भाष्य की होनी ३०. दाहामि (अ, क, बी), दाहित्ति (मु)। चाहिए। द्र. टिप्पण २२०/१।
३१. भणिए (ला, ब, स, मु)। १३. ताइ (अ, बी), ताहिं (क, मु)।
३२. छण्हिमाण (अ, क, बी.), छण्हमेसि (म)। १४. मे (स)।
३३. तेहिं (अ, ब, ला, बी, स)। १५. तो (ब)।
३४. पणमेमि (अ, बी), पणयामि (मु), १६. आणेहं ति (अ, बी), आणेहिं ति (ला, ब, स)। जायामि ( निभा ४४५०)। १७. निभा ४४४७१
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पिंडनियुक्ति
७१
२१९/६. सेडंगुलि' बगुड्डावे, किंकरे तत्थ हायए'।
गिद्धावरिंखि 'हद्दण्णए य"५ 'पुरिसाऽधमा छा तु५॥ ४७१ ॥ २१९/७. जायसु न एरिसो हं, इट्टग' मम देहि पुव्वमइगंतुं ।
माला उत्तारि गुलं११, भोएमि 'दिए त्ति आरूढा'१२ ॥ ४७२ ॥ २१९/८. सिति-अवणण'३ पडिलाभण, दिस्सितरी बोल मंगुली५ नासं।
दोण्हेगतरपदोसे, आतविवत्ती'६ य उड्डाहो ॥ ४७३ । २१९/९. रायगिहे धम्मरुई१८, 'असाडभूति त्ति'१९ खुड्डुओ तस्स।
रायनडगेहपविसण, संभोइय मोदगे लंभो० ॥ ४७४ ॥ २१९/१०. आयरिय-उवज्झाए, संघाडग-काण-खुज्ज तद्दोसी।
नडपासणपज्जत्तं, निकायण दिणे दिणे दाणं२१ ॥ ४७५ ।। २१९/११. धूयदुगं२२ संदेसो, दाणसिणेहकरणं रहे गहणं२३ ।
लिंगं मुयति गुरुसिट्ठ, वीवाहे २४ 'उत्तमा पगई '२५ ॥ ४७६ ॥ १. सेलंगुलि (ला, ब, स), सेयंगुलि (क, मु)। २०. लाभो (अ, बी), २१९/९ गाथा में मायापिंड से २. वग्गुडावे (निभा ४४५१)।
सम्बन्धित कथा का प्रारंभ होता है। यह शोध का तित्थ पहायए चेव (निभा, ला, ब),
विषय है कि जब नियुक्तिकार ने क्रोधपिंड के लिए ण्हायए तहा (मु), “हावए (क)।
दो तथा मान और लोभ पिण्ड को स्पष्ट करने के गद्धा' (अ, बी, निभा), वरिंखिया (ला, ब)।
लिए एक-एक गाथा का उल्लेख किया है फिर ५. हद्दणए उ (अ, बी)।
माया को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने गाथा क्यों ६. “सा महत्था उ (अ, बी), इन छहों कथा के नहीं लिखी? इस संदर्भ में निम्न विकल्प प्रस्तुत
विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ३१-३६ । किए जा सकते हैं७. जाइसु (अ, ला)।
• लेखन में लिपिकारों द्वारा वह गाथा छूट गई हो। . इट्टागा (ला, ब), इट्टगा (मु, निभा, क)।
• अथवा नियुक्तिकार को मायापिंड स्पष्ट करने ९. एहि (अ, बी)।
की अपेक्षा नहीं लगी। १०. "मितिगंतुं (स)।
निभा में केवल क्रोध और मान के स्वरूप एवं ११. गुलं तु (ला)।
उनसे संबंधित कथाओं वाली गाथाएं हैं। माया और १२. दिए तइ दुरूढा (निभा ४४५२), 'इति रूढा (स)।
लोभ से संबंधित न गाथा है और न ही चूर्णि में १३. 'णय (ला, ब, स)।
व्याख्या है। जीतकल्प भाष्य में क्रोधपिंड आदि से १४. दिस्स' (अ, बी)।
संबंधित कथाओं का विस्तार है लेकिन इनका स्वरूप १५. अंगुली (निभा)।
प्रकट करने वाली गाथाएं नहीं हैं। १६. "वियत्ती (ला, ब)।
२१. तु. जीभा १३९९। १७. उभए य (निभा ४४५३), कथा के विस्तार हेतु २२. 'दुए (मु)। देखें परि. ३, कथा सं. ३७।
२३. करणं (अ, बी)। १८. धम्मरुयी (जीभा १३९८)।
२४. विवाहे (मु)। १९. भूई य (क, मु), 'भूती तु (जीभा)। २५. उत्तमप्पगिही (ला, ब, स)।
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७२
पिंडनियुक्ति २१९/१२. रायगिहे' य कदाई, निम्महिलं२ नाडगं नडागच्छी।
‘ता उ' विरहम्मि मत्ता'५, उवरिगिहे दो वि पासुत्ता ॥ ४७७ ॥ २१९/१३. वाघातेण नियत्तो', दिस्स विचेला विराग संबोधी।
इंगितनाते पुच्छा, 'पजीवणं रट्ठपालं ति ॥ ४७८ ।। २१९/१४. 'इक्खागुवंस भरहो'९, - आदंसघरे य केवलालोओ।
हारादिखिवण° गमणं१९, उवसग्ग न सो 'नियत्तो त्ति'१२ ॥ ४७९ ॥ २१९/१५. तेण समं पव्वइता, पंच 'नरसता उ'३ नाडगे डहणं।
गेलण्ण-खमग- पाहुण, थेरा दिट्ठा य 'बितियं तु'१५ ॥ ४८० ॥ दारं ॥ २२०. लब्भंतं पि न गिण्हति१६, अन्नं 'अमुगं ति'१७ अज्ज लब्भामो८ ।
भद्दरसं ति व९ काउं, गिण्हति खद्धं२० सिणिद्धादी॥ ४८१ ॥ २२०/१. चंपा छणम्मि२९ घेच्छामि, मोदगे ते य२२ सीहकेसरए ।
पडिसेध धम्मलाभ, काऊणं२३ सीहकेसरए२ ॥ ४८२ ॥ २२०/२. सड्डड्वरत्त केसरभायणभरणं च पुच्छ पुरिमड्डे।
उवओग 'संत चोदण'२५, 'साहु त्ति'२६ विगिंचणा२७ नाणं२८ ॥ ४८३ ॥ दारं ॥
१. “घरे (अ, बी, क, मु)। २. “हिलयं (ला, ब), निम्महलं (क)। ३. नाडुगं (अ, बी)। ४. ता य (अ, बी, मु), ताव (जीभा १४०५)। ५. ता विरहम्मि य मत्ता (क)। ६. गेहे (ला, ब, स)। ७. नियंतो (स), नियत्ती (क)। ८. परजीवाणं रिद्धिवाल त्ति (अ, बी)। ९. इक्खाग भरहवंसो (क)। १०. 'खवणे (ब), 'खवण (ला), खेवण (स)। ११. गहणं (मु, क)। १२. नियत्त त्ति (क), तु. जीभा १४०९। १३. “सयत्ति (अ, बी, मु), 'सइ त्ति (क)। १४. दट्ठा (अ, बी)। १५. बीय त्ति (अ, बी), बीयं तु (मु),
बितिय व्व (स), द्र टिप्पण २२०/१, कथा के
विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ३८। १६. गिण्हए (स)। १७. गत्ति (अ)।
१८. घेच्छामि (क, मु, जीभा १४१३)। १९. x (अ, बी)। २०. खिद्धं (अ, बी)। २१. सणम्मि (ला)। २२. वि (मु)। २३. काऊण य (अ, बी)। २४. २२०/१,२-ये दोनों गाथाएं लोभपिंड से सम्बन्धित
कथा का संकेत करने वाली हैं। नियुक्तिकार गाथा २१६ में इस कथा का संकेत कर चुके हैं अतः कथा का विस्तार करने वाली ये दोनों गाथाएं भाष्य की होनी चाहिए। इसी प्रकार क्रोध, मान
और मायापिंड से संबंधित कथाओं की गाथाएं भी गा. २१६ में संदिष्ट है अतः कथा का विस्तार करने वाली ये गाथाएं भाष्य की होनी चाहिए। २१८/१, २१९/ १-१५ गाथाएं निगा के मूल
क्रमांक में नहीं जोड़ी गई है। २५. चंत चोयण (ब), चंद जोयण (अ, जीभा)। २६. साहू त्ति (बी)।
__ "चणे (मु, जीभा १४१७)। २८. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३,कथा सं. ३९।
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पिंडनियुक्ति
२२१. दुविधो उ' 'संथवो खलु'२, संबंधी-वयणसंथवो चेव।
एक्केक्को ‘वि य'३ दुविधो, पुळ्ळि पच्छा य नातव्वो ॥ ४८४ ॥ २२२. मातिपिति पुव्वसंथव', सासू-ससुराइगाण' पच्छा उ।
गिहिसंथवसंबंधं, करेति पुट्विं च पच्छा वा ॥ ४८५ ।। २२२/१. आयवयं च परवयं, नाउं संबंधते तदणुरूवं ।
मम 'माता एरिसिया'१०, ससा व धूता व नत्तादी२ ॥ ४८६ ॥ २२२/२. अद्धिति'३ दिट्ठीपण्हय१४, पुच्छा कहणं ममेरिसी जणणी।
थणखेवो संबंधो, विहवा 'सुण्हा पदाणं च'१५ ॥ ४८७ ॥ २२३. पच्छासंथवदोसा, 'सासू-विहवादि'१६ धूयदाणं च।।
भज्जा ममेरिसिच्चिय, सज्जो घातो व भंगो वा ।। ४८८ ।। २२४. मायावी चडुकारी१८, अम्हं ओभावणं कुणति एसो।।
निच्छुभणादी१९ पंतो, करेज्ज भद्देसु पडिबंधो ॥ ४८९ ॥ २२५. गुणसंथवेण पुलिं, संतासंतेण जो थुणिज्जाहि।।
'दायारमदिन्नम्मि उ' २०, सो 'पुळि संथवो होति '२१ ॥ ४९० ॥ २२५/१. सो एसो जस्स गुणा, वियरंति२२ अवारिया दसदिसासु २३ ।
इहरा 'कहासु सुणिमो '२४ पच्चक्खं अज्ज दिट्ठो सि२५ ॥ ४९१ ।।
१. य (ला, ब, स, क, जीभा)। २. भावसंथवो (निभा १०४०)। ३. पुण (जीभा १४२१)। ४. माय (मु), मातपिता (निभा १०४१)। ५. 'थवो (स, निभा)। ६. सासुय (अ)। ७. सुसरा (मु)। ८. पुव्वं (मु)। ९. धई (अ, बी), 'धती (जीभा १४२७)। १०. एरिसिया माया (निभा १०४२)। ११. सुण्हा (निभा)। १२. २२२/१, २-ये दोनों गाथाएं २२२ वी गाथा की
व्याख्या रूप हैं अतः भाष्य की होनी चाहिए। १३. अधिति (ला, ब)। १४. दिट्टि (स), पाहुय (ला, ब)। १५. सुण्हा दाणं च (अ.), सुण्हाइदाणं च (मु. क),
सुण्हाय दाणं च (निभा १०४३, जीभा १४२८)। १६. विहवाई (अ, बी), सासुयवि (जीभा १४३०)। १७. "सित्तिय (ला, क, ब, निभा १०४४),
मम एरिसिया (जीभा)। १८. चडुयारो (निभा १०४५) । १९. निच्छु (ला, ब)। २०. दिन्नम्मी (निभा १०४६, मु), "म्मिं (जीभा)। २१. वयणे संथवो पुट्विं (जीभा १४३२)। २२. हिंडंति (ला, ब, स)। २३. दिसाओ (ला, ब)। २४. कहा सुव्वसि (अ, बी, क, ला)। २५. सिं (स), निभा १०४७, जीभा १४३३, २२५/१
यह गाथा २२५ की व्याख्या रूप है। इसी प्रकार २२६/१ भी २२६ वी गाथा की व्याख्या है। व्याख्यात्मक होने के कारण इसको मूल निगा के क्रमांक में नहीं जोड़ा गया है।
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२२९.
२२६. गुणसंथवेण पच्छा, 'दायारं दिन्नम्मी ", २२६/१. ‘विमलीकयऽम्ह चक्खू'३, जहत्थतो आसि पुरा णे संका, 'संपइ २२७. विज्जामंतपरूवण, विज्जाए मंतम्मि सीसवेदण, तत्थ २२७/१. परिपिंडितमुल्लावो, अतिपंतो
भिक्खुवास
-
'मुट्ठो
से
जइ इच्छह अणुजाणह १२, घत गुल-वत्थाणि दावेमि' २२७ / २. तुं विज्जा-मंतण, किं देमि ?१४ घतं गुलं 'च दिन्ने पडिसाहरणं, केण हितं केण २२८. पडिविज्जथंभणादी, सो वा अन्नो व पावाजीवी माई, कम्मणकारी "य २२८/१. जह जह पदेसिणिं" जाणुकम्मि पालित्तओ तह तह सीसे 'वियणा, पणस्सति १९ पडिमंतथं भणादी, सो वा अन्नो व से पावाजीवी माई, कम्मणकारी २२ भवे
4
संतासंतेण जो थुणिज्जाहि । सो पच्छासंथवो होति' ॥ ४९२ ॥
१. दायार विदिन्नम्मि उ (ला, ब, स ), दायारं दिन्नम्मि उ ( अ, क ) ।
२. वयणे (जीभा १४३४), निभा १०४८ । ३. चक्खु (ला, ब), 'कय णे चक्खूं (जीभा), x (क) ।
४. जहत्थिओ (बी), त्थया ( क ) ।
५. विसरिता (स, निभा १०४९), वियरिया (मु, अ, क ) । ६. तुज्झं (मु, जीभा निभा), तुम्हं ( क) । ७. मे (क, मु) ।
१७.
८. संपय नि (मु), इदाणि णीसंकियं (जीभा १४३५ ) । १८.
९. द्र टिप्पण २२५/१ ।
१९.
१०. मुरंडेण (स), मरुंडेण ( क ) ।
२०.
११. निभा ४४५६ |
१२. जाणमहं (ला, ब, स ), जाण अहं ( निभा) । १३. वत्थादीणि दवावेमि (निभा ४४५७), दाएमि (क), कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ४० । १४. देमी (निभा ४४५८), देसि (स) ।
१५. तु वत्थाई (ला, ब, स ) ।
विचरिया गुणा तुब्भं । निस्संकियं "
भिक्खुवासगो
मुरुडे
२१.
२२.
२३.
पिंडनिर्युक्ति
जातं ॥ ४९३ ॥ दारं ॥
९
होति ।
दिट्टंतो९ ॥ ४९४ ।।
दावे ।
११३
॥ ४९५ ॥
वत्थादी १५ ।
सि१६ ॥ ४९६ ॥
१६. मुद्धो सि (ब), मुट्ठो मि (निभा, क, मु), २२७/१, २ - इन दोनों गाथाओं में विद्या के अन्तर्गत भिक्षु उपासक की कथा का विस्तार है। इसी प्रकार २२८ / १ में मंत्र के अन्तर्गत आचार्य पादलिप्त एवं मुरुंड राजा का कथानक है। इन दोनों कथाओं का संकेत नियुक्तिकार गाथा २२७ में कर चुके हैं अतः कथा का विस्तार करने वाली ये तीनों गाथाएं भाष्य की होनी चाहिए।
करिज्जाहि ।
गहणादी १७ ॥ ४९७ ॥
भमाडेइ ।
मुरुंडरायस्स ॥ ४९८ ॥ करेज्जाहि । बीयं २३ ॥ ४९९ ।। दारं ॥
भवे बितिए ( निभा ४४५९), जीभा १४४३ । सिणी ( अ, स, मु, जीभा १४४५ ) ।
वियणं पणासति ( निभा ४४६०), स्सई ( अ, स, क) ।
मरुंड (क), द्र टिप्पण २२७/२, कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ४१ । ज्जासि ( अ, बी) ।
'णगारी (ला, मु), 'करी ( ब ) ।
भवे बितिए ( निभा ४४६१), बीओ (क), य गहणादी (जीभा १४४७), यह गाथा स प्रति में नहीं है।
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पिंडनियुक्ति
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२३०. चुण्णे अंतद्धाणे, चाणक्के पादलेवणे समिए ।
मूलविवाहे दो दंडिणी उ आदाण परिसाडे ॥ ५०० ॥ २३१. जे विज्ज-मंतदोसा, ते च्चिय वसिकरणमादिचुण्णेहिं ।
एगमणेगपदोसंप, कुज्जा पत्थारओ वावि ॥ ५०१॥ २३१/१. सूभगदोभग्गकरा', 'जोगा आहारिमा'५ य इतरे य।
आघस-धूववासा'१०, पादपलेवाइणो इतरे ॥ ५०२ ॥ २३१/२. 'नदिकण्ह वेण्णदीवे'१२, पंचसया तावसाण निवसंति।
पव्वदिवसेसु कुलवति, पालेवुत्तारसक्कारो१३ ॥ ५०३ ॥ २३१/३. जणसावगाण खिंसण, समियक्खण१४ माइठाणलेवेणं।
सावगपयत्तकरणं, अविणय लोए चलण धोए'५ ।। ५०४ ॥ २३१/४. पडिलाभित वच्चंता, निबुड्ड६ नदिकूलमिलण७ समियाए।
विम्हय८ पंचसया तावसाण पव्वज्ज साहा य९॥ ५०५ ॥ २३१/५. अवि य कुमारखयं, जोणी विवरिट्ठा निवेसणं वावि।
गम्मपए पायं वा, जो कुव्वति मूलकम्मं तु ॥ १. कथा के विस्तार हेतु देखें भाष्यगाथा ३५-३७ चाहिए। २३१/५ गाथा केवल अ और बी प्रति में तथा परि. ३, कथा सं. ४२।
मिलती है लेकिन यह चालू विषयवस्तु की दृष्टि २. "वणं (स)।
से मूलकर्म की व्याख्या प्रस्तुत करती है। संभव ३. समिओ (अ, स), जोगे (बी, मु), जोगो (क)। है कुछ लिपिकारों द्वारा यह गाथा छूट गई हो। ४. पडिसाडे (ला, ब), गाथाओं के क्रम में निभा में १२. नइकण्हिबिन्न (बी, क), नइ कण्ह बिन्न (मु)। यह गाथा नहीं है।
१३. पादलेवुत्तार' (निभा ४४७०), पालेवे लिंप पाए तु ५. सूत्रे च तृतीया सप्तम्यर्थे ।
(जीभा १४६१)। ६. एगणेग (ब), "पओसे (अ, बी)।
१४. समयत्थण (ला, ब), समियत्थण (स)। ७. जीभा १४५७।
१५. धोवे (क, स), निभा ४४७१। ८. 'गदुब्भग्ग” (मु, बी), ‘गदोहग्ग' (ला, अ), १६. निब्बुड (मु, बी)। 'गदूभग' (क)।
१७. “लमिलिय (जीभा १४६६)। ९. जे जोगाऽऽहारिमे (निभा ४४६९), °आसिमा (क)। १८. विम्हिय (क, मु, जीभा)। १०. "वास धूवा (निभा), वासो (जीभा १४५९), ये १९. निभा ४४७२, कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३,
पानीयादिना सह घर्षयित्वा पीयन्ते ते आधर्षाः (मवृ)। कथा सं. ४३। ११. २३१/१-४ तथा ६ से ११-ये दस गाथाएं गा. २०. यह गाथा केवल अ और बी प्रति में मिलती है।
२३०वीं गाथा की व्याख्या रूप हैं। जब 'चुण्णे यह गाथा भाष्य की होनी चाहिए क्योंकि इसमें अंतद्धाणे चाणक्के' इस पद की व्याख्या करने वाली 'मूलकर्म' का स्वरूप है। २३१/६, ७-इन दोनों एवं कथा से संबंधित गाथाओं के लिए टीकाकार गाथाओं में मूल कर्म से संबंधित कथा का उल्लेख ने 'भाष्यकृद्' उल्लेख किया है तो फिर पायलेवण, है अतः ये दोनों गाथाएं भी भाष्य की होनी जोग, मूल आदि द्वारों से संबंधित गाथा एवं कथा चाहिए। देखें टिप्पण २३१/१। को विस्तार देने वाली गाथाएं भी भाष्य की होनी
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पिंडनियुक्ति
२३१/६. अधिती' पुच्छा आसन्नविवाहो भिन्नकन्नसाहणया।
आयमण पियण ओसध, अक्खतरे 'जज्जीव अधिकरणं'२ ॥ ५०६ ॥ २३१/७. जंघापरिजित सड्डी, अद्धिति' आणिज्जते 'मम सवत्ती'५ ।
'जोगो जोणुग्घाडण', पडिसेह' पदोस-उड्डाहो ॥ ५०७ ॥ २३१/८. मा ते फंसेज्ज कुलं, अदिज्जमाणा सुता वयं पत्ता।।
धम्मो व 'लोहियस्स य', 'जइ बिंदू० तत्तिया नरगा ।। ५०८ ॥ २३१/९. किं न ठविज्जति पुत्तो, पत्तो कुल-'गोत्त-कित्ति'११-संताणो।
पच्छा वि य तं कज्जं, असंगहो मा य नासेज्जा॥ ५०९ ॥ २३१/१०. किं अद्धिति१२ त्ति पुच्छा, सवत्तिणी१३ गब्भिणि त्ति मे४ देवी।
गब्भाधाणं५ तुज्झ६ वि, करेमि७ मा अद्धितिं कुणसु ॥५१० ॥ २३१/११. जइ वि सुतो मे होहिति'९, 'तह वि'२० कणिट्ठो त्ति इतर' जुवराया।
- देति परिसाडणं से, नाते य पदोस पत्थारो२२ ॥ ५११ ॥ २३२. संखडिकरणे काया, 'कामपवित्तिं च'२३ कुणति एगत्थ।।
एगत्थुड्डाहादी, 'जज्जिय भोगंतरायं च'२४ ॥ ५१२ ॥ २३३. एवं तु गविट्ठस्सा, उग्गम-उप्पादणा-विसुद्धस्स।।
गहण-विसोहिविसुद्धस्स, होति गहणं तु पिंडस्स२५ ।। ५१३ ॥ २३४. उप्पादणाएँ दोसा, 'साहूउ समुट्ठिते वियाणाहि'२६ ।
'गहणेसणाइ दोसा, आत-पर-समुट्ठिते वोच्छं '२७ ॥ ५१४ ॥ १. अधिति (ला, ब), अद्धिई (क)।
१४. से (अ, बी)। २. अक्खु य (क, स)।
१५. 'भादाणं (अ, ब, ला, बी, स)। ३. जज्जीय (ब), जोणी य अहि. (अ). अधिकरणं १६. तु मज्झ (ब)।
-मैथुनप्रवृत्तिः (मव), कथा के विस्तार हेतु देखें १७. करेइ (अ, बी, ब), करोमि (मु)। परि. ३, कथा सं. ४४।
१८. कुणमु (बी)। ४. अधिति (ला)।
१९. होही (मु)। ५. सवत्तती (ला), सवत्ति त्ति (स)।
२०. सो वि (अ, बी)। ६. जोगप्पयणुग्घा' (ला, ब, स)।
२१. इयरो (ला, ब, मु)। ७. पडिलेह (अ, क)।
२२. प्रस्तार:-विनाशः (मवृ), कथा के विस्तार हेतु देखें ८. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ४५। परि. ३, कथा सं. ४६ । ९. स्सा (मु)।
२३. “पवत्तीइ (ला, ब), "पवत्ती (स)। १०. बिंदू जइ (क)।
२४. जज्जिय भोगंतरायव्व (अ), जत्तिय भो (स)। ११. कित्ति गुत्त (क)।
२५. जीभा १४७१। १२. अधिइ (ला)।
२६. सोलस साहुसमुट्ठिया भणिया (अ, बी)। १३. सवित्तिणी (मु)।
२७. दस एसणाय दोसा गिहि साहु समुट्ठिए वोच्छं (अ),
तु. जीभा १४७२।
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२३५. दोन्नि उ साहुसमुत्था, संकित तह भावतोऽपरिणतं' च।
सेसा अट्ठ वि नियमा, गिहिणोरे य समुट्ठिते जाण ॥ ५१५ ॥ दारं ॥ २३६. नामं ठवणा दविए, भावे गहणेसणा मुणेयव्वा।
दव्वे वाणरजूहं, भावम्मि य 'दसपदा होंति'३ ॥ ५१६ ॥ २३६/१. परिसडितपंडुपत्तं, वणसंडं दट्ठ 'अन्नहिं पेसे।
जूहवती पडियरते५, जूहेण समं तहिं गच्छे ६ ॥ ५१७ ॥ २३६/२. सयमेवालोएउं, जूहवती तं वणं समंतेणं ।
वियरति तेसि पयारं, चरिऊण य तो दहं गच्छे ।। ५१८॥ २३६/३. ओयरंतं पदं दटुं, नीहरंतं न दीसती।
नालेण पिबह पाणीयं, नेस११ निक्कारणो दहो॥ ५१९ ॥ २३७. संकित मक्खित निक्खित्त, पिहित साहरिय'२ दायगुम्मीसे।
अपरिणत लित्त छड्डिय, एसणदोसा दस हवंति३ ॥ ५२० ॥ २३८. संकाए चउभंगो, दोसु वि गहणे य भुंजणे१४ लग्गो।
जं संकितमावन्नो, पणुवीसा५ चरिमए'६ सुद्धो ॥ ५२१ ॥ २३८/१. उग्गमदोसा सोलस, आहाकम्माइ एसणा दोसा।
नव मक्खियाए एते, पणुवीसा चरिमए सुद्धो१७ ॥ ५२२ ।। १. °अपरि (ला)।
१४. भुजिउं (स)। २. गिहिया (अ, ला, ब)।
१५. पणवीसा (मु), 'वीसं (ला, ब)। ३. ठाणमाईणि (ओनि ४५८)।
१६. चरमए (अ, बी)। ४. मन्नहिं वेसा (अ, बी)।
१७. २३८/१. गाथा भाष्यकृद होनी चाहिए। इस गाथा के ५. परिय' (अ, बी), पडिअरिए (क)।
भाष्यगत होने के निम्न तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं६. ओनि ४५९, २३६/१-३-ये तीनों गाथाएं २३६ वीं . २३८ वी गाथा का अंतिम चरण 'पणुवीसा चरिमए गाथा में निर्दिष्ट 'वाणरजूह' कथा की ओर संकेत सुद्धो' है और २३८/१ के अंतिम चरण में भी इसी पद करती हैं। कथा का विस्तार भाष्यकार द्वारा हुआ की पुनरुक्ति हुई है। कोई भी ग्रंथकार इस प्रकार की है, ऐसा संभव लगता है, कथा के विस्तार हेतु पुनरुक्ति नहीं करते। देखें परि. ३,कथा सं. ४७।
• निर्यक्तिकार उद्गम के १६ दोषों एवं एषणा के दश ७. तं (ला, ब), ते (अ, बी, ओनि ४६०), स प्रति दोषों का पहले उल्लेख कर चुके हैं अत: 'शंकित द्वार' की में यह गाथा नहीं है।
व्याख्या के प्रसंग में वे पुन: इस बात का उल्लेख नहीं करते। ८. उत्तरंतं (अ, ब, ला, क, ओनि ४६१)।
• बहुत संभव लगता है कि 'पणुवीसा' शब्द की ९. पियह (ला, ब, मु, स, क)।
व्याख्या में यहां प्रसंगवश भाष्यकार ने २५ दोषों का १०. तोयं णं (क)।
संकेत कर दिया हो वैसे भी २३८ वी गाथा विषय वस्तु ११. न एय (अ, ब, ला, बी, स), न एस (क)। की दृष्टि से २३९ के साथ सीधी जुड़ती है। पुनरुक्त १२. साहरण (जीभा १४७६)।
होने से २३८/२ वी गाथा भी प्रक्षिप्त अथवा भाष्य की १३. प्रसा ५६८, तु. मूला ४६२, पिंप्र ७७, पंचा १३/२६। होनी चाहिए। यह गाथा प्रकाशित मलयगिरि टीका में भी
व्याख्यात नहीं है।
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पिंडनियुक्ति
२३८/२. उग्गमदोसा सोलस, नव एसण दोस संक मोत्तूणं ।
पणुवीसेते। दोसा, संकित निस्संकिते वुच्छं ॥ २३९. छउमत्थो सुतनाणी, गवेसती उज्जुओ पयत्तेणं ।
___ आवन्नो पणुवीसं, सुतनाणपमाणतो सुद्धो ।। ५२३ ॥ २३९/१. ओहो' सुतोवउत्तो, सुतनाणी जइ वि गेण्हति असुद्धं ।
तं केवली वि भ॑जति, अपमाण सुतं भवे इहरा ॥ ५२४ ॥ २४०. सुत्तस्स अप्पमाणे', चरणाभावो तओ तु मोक्खस्स।
मोक्खस्स वि य अभावे, दिक्खपवित्ती निरत्था उ॰ ॥ ५२५ ॥ २४०/१. किन्नु हु खद्धा भिक्खा, दिज्जति न य तरह 'पुच्छिउं हिरिमं११।
इति संकाए घेत्तुं, तं भुंजति संकितो चेव२ ॥ ५२६ ।। २४०/२. हियएण संकितेणं, गहिता अन्नेण सोहिता सा य ।
पगतं पहेणगं वा, सोउं१५ निस्संकितो६ भुंजे ॥ ५२७ ॥ २४०/३. 'जारिसिए च्चिय'१७ लद्धा, खद्धा भिक्खा मए८ अमुगगेहे।
अन्नेहि वि तारिसिया, विगडंत१९ निसामणे२० ततिए२१ ॥ ५२८ ।। २४०/४. जदि संका दोसकरी, एवं सुद्धं पि होति तु असुद्ध२२ ।
निस्संकमेसितं ति य, अणेसणिज्ज२३ पि निदोसं२४ ।। ५२९ ॥
१. सेसण (क)।
को स्पष्ट करने वाली हैं। २४०/४ गाथा में शिष्य २. चरिमो (ला, ब, स)।
की शंका उपस्थित है। व्याख्यात्मक होने से ये ३. सुद्धो (ला, ब), जीभा १४८७, यह गाथा केवल सभी गाथाएं भाष्य की प्रतीत होती हैं। ला, ब, स और क प्रति में मिलती है।
१३. संकियाए (स)। ४. जीभा १४८४।
१४. जीभा (१४८०) में इस गाथा का पूर्वार्द्ध इस ५. साहू (जीभा १४८५), ओहो इत्यत्र प्रथमा तृतीयार्थे (मवृ)। प्रकार है६. गाथा २३९ की व्याख्या रूप होने के कारण यह बीएण गहिय संकिय, विगडंतन्ने य नवरि संघाडे । गाथा भाष्य की होनी चाहिए।
१५. सोऊ (स)। ७. “माणं (अ), 'माण (ला)।
१६. “कियं (ला, ब, क, स)। ८. य (क, मु, जीभा)।
१७. "सियं चिय (ला, क, ब), "सई चिय (स)। ९. “पयत्ती (अ, बी, स), “पयण्णा (ला)। १८. एगे (अ)। १०. जीभा (१४८६) में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है- १९. विकरेंत (ला, ब), वियडिंति (क)।
मोक्खाभावाओ चिय, पयत्तदिक्खा णिरत्था य। २०. “मए (मु)।। ११. पुच्छिउं तहियं (जीभा)।
२१. तइया (अ, बी), तइओ (क, स)। १२.तु. जीभा १४७९, २४०/१-४-ये चारों गाथाएं २२. अविसुद्धं (मु, क), अवसुद्धं (ला, ब, स)।
प्रकाशित टीका में निगा के क्रमांक में हैं। इनमें २३. अणेसणीयं (ला)। २४०/१-३-ये तीन गाथाएं २३८ वी गाथा के भंगों २४. जीभा १४८८ ।
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२४१. अविसुद्धो परिणामो, एगतरे अवडितो' उ२ पक्खम्मि।
एसिं पि कुणति णेसिं, अणेसिमेसिं२ 'विसुद्धो उ" ॥ ५३० ॥ दारं ॥ २४२. दुविधं च मक्खितं खलु, सच्चित्तं 'चेव होति'५ अच्चित्तं ।
'तिविधं पुण सच्चित्तं', अच्चित्तं होति दुविधं तु ॥ ५३१ ॥ २४३. पुढवी आउ वणस्सति, तिविधं सच्चित्त मक्खितं होति ।
____ अच्चित्तं 'पि य दुविधं, गरहितमितरे' य० 'भयणा उ'११ ॥ ५३२ ।। २४३/१. सुक्केण१२ सरक्खेणं, मक्खित उल्लेण१३ पुढविकाएणं।
___ सव्वं पि मक्खितं तं, एत्तो१४ आउम्मि वोच्छामि ।। ५३३ ॥ २४३/२. पुरपच्छकम्म-ससिणिद्धदउल्ले१५ चउर६ आउभेदाओ।
उक्कट्ठरसालित्तं, परित्तऽणतं१८ महिरुहेसु१९ ॥ ५३४ ॥ २४३/३. 'सेसेहि उ'२० काएहिं, तीहि वि तेऊ-समीरण-तसेहिं २१ ।
'सच्चित्तं मीसं वा'२२, न मक्खितं२३ अस्थि उल्लं वा'२४ ॥ ५३५ ॥ २४४. सच्चित्तमक्खितम्मी२५, हत्थे मत्ते य होति चउभंगो२६ ।
आदितिगे पडिसेधो, चरिमे२७ भंगे अणुण्णातो८ ॥ ५३६ ।।
१. आवरितु (ला, ब), आवरिओ (स)। २. य (क)। ३. "मेसी (स)। ४. विसुद्धयरो (बी), तु. जीभा १४८९ । ५. होइ चेव (अ, बी)। ६. सच्चित्तं पुण तिविहं (मु)। ७. जीभा (१४९१) में इस गाथा का उत्तरार्ध इस
प्रकार है___ सच्चित्तं तत्थ तिहा, पुढवी आऊ य वणकाए। ८. पुण (मु)। ९. हिय इयरे (अ)। १०.उ (अ, स)। ११. णाए (बी), ‘णाय (अ)। १२. उक्कोसेण उ (अ, बी)। १३. मोल्लेण (अ, बी, मु)। १४. तत्तो (ला, ब)। १५.सस्निग्धम्-ईषल्लक्ष्यमाणजलखरण्टितं __ हस्तादि (मवृ)। १६. चत्तारि (अ, बी), चउरो (स, क, मु)।
१७. उक्किट्ठ (मु)। १८. परित्तऽणतं इत्यत्र प्राकृतत्वाद्विभक्तिवचनव्यत्यय इति
षष्ठीबहुवचनं (मवृ)। १९. अत्र च तृतीयार्थे सप्तमी (मवृ)। २०. सेसेहिं (मु, क)। २१. तसेसु (अ, क, बी)। २२. अच्चित्तमीसगं व (ला, ब, स)। २३. निक्खियं (अ)। २४. इस गाथा का उत्तरार्द्ध (जीभा १५००) में इस
प्रकार हैसच्चित्तमीसएण व, मक्खित्त न वज्जए किंचि। २४३/१-३-ये तीनों गाथाएं व्याख्यात्मक हैं अतः भाष्य की होनी चाहिए। इनको निगा के मूल क्रमांक
में नहीं रखा है। २५. म्मिं (ला, ब), तम्मि उ (क, जीभा)। २६.सूत्रे च पुंस्त्वनिर्देशः आर्षत्वात् (मव)। २७. चरिमो (स)। २८. जीभा में इस गाथा का पूर्वार्द्ध गा. १५०१ में तथा
उत्तरार्द्ध गा. १५०२ में है।
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पिंडनियुक्ति
२४५. 'अच्चित्तमक्खितम्मि उ'१, चउसु वि भंगेसु होति भयणा उ।
अगरहितेण उ गहणं, पडिसेधो गरहिते होति ॥ ५३७ ।। २४५/१. संसज्जिमेहिर वज्जं, अगरहितेहिं पि गोरसदवेहिं ।
मधु-घत-तेल्ल-गुलेहिं, मा मच्छिपिवीलियाघातो ।। ५३८ ॥ २४५/२. मंस-वस-सोणियासव', 'लोए वा गरहितेहि वज्जेज्जा"।
उभओ वि गरहितेहिं', मुत्तुच्चारेहि छित्तं पि॥ ५३९ ॥ २४६. सच्चित्तमीसएसुं, दुविधं काएसु होति निक्खित्तं ।
एक्केक्कं तं दुविधं, अणंतर परंपरं चेव ॥ ५४० ॥ दारं ॥ २४७. पुढवी आउक्काए, तेऊ-वाऊ-वणस्सति-तसाणं।
'एक्केक्क दुहाणंतर' १९, परंपरऽ गणिम्मि सत्तविहा२ ॥ ५४१ ।। २४८. सच्चित्तपुढविकाए, सच्चित्तो चेव पुढविनिक्खित्तो५३ ।
आऊ-'तेउ-वणस्सति-समीरण-तसेसु१४ एमेव५ ॥ ५४२ ॥ २४९. एमेव सेसिगाण'६ वि, निक्खेवो होति जीवकायाणं ।
एक्केक्को सट्टाणे, परठाणे पंच पंचेव ॥ ५४३ ॥ २५०. एमेव मीसएसु९ वि, 'मीसाण सचेयणेसु'२० निक्खेवो।
मीसाणं मीसेसु य, दोण्हं पि य होयऽचित्तेसु२५ ॥ ५४४ ॥
१. “यम्मिं (ला, ब, क), "यं पि (अ), "म्मि उ (स)। १०. यह गाथा ला और ब प्रति में नहीं है। २. संसिज्ज (बी), “मेहिं (मु, क, जीभा)। ११. “क्के उ अणंतर (ला)। ३. जीभा १५०८, यह गाथा स प्रति में नहीं है। १२. 'क्के दगभेओ णंतर परगणिम्मि सत्तविहो (अ, बी)। ४. अत्र सूत्रे विभक्तिलोप आर्षत्वात् (मवृ)। १३. 'निक्खेवो (अ, ब, बी, ला, स)। ५. लोएसु वा गरहिएसु वज्जं तु (ला, ब), 'रहिओ १४. तेउ वाऊ वणस्सइ तसेसु (ला, ब, स)।
विवज्जेज्जा (अ, बी), स प्रति में गाथा का १५. जीभा (१५१८) में गाथा का उत्तरार्द्ध इस प्रकार हैपूर्वार्द्ध नहीं है।
सच्चित्ते अच्चित्तो, अच्चित्ते वा वि सच्चित्तो। ६. दुहओ (ला, ब, क, स), दुहिओ (अ)।
१६. सेसएसु (क)। ७. "हिएसु (ला, ब)।
१७. “कायेसु (स), "काएसुं (मु)। ८. छिन्नं (स)।
१८. एकेको (स)। ९. तु. जीभा १५०४, २४५/१, २--ये दोनों गाथाएं
१९. मीसयासु (अ, बी)। २४५ वीं गाथा की व्याख्या रूप हैं अतः भाष्य की २०. 'णं चेय (ला, ब, स), "सुचेयणाण (अ)। होनी चाहिए। व्याख्यात्मक होने के कारण इनको २१. अचित्तो (ला, ब)। निगा के मूल क्रमांक में नहीं जोडा है।
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पिंडनियुक्ति
२५१. जत्थ उ सचित्तमीसे, चउभंगो तत्थ चउसु वि अगिझं ।
तं तु अणंतर इतरं', परित्तऽणतं च वणकाए । ५४५ ॥ २५१/१. अहव ण' 'सचित्तमीसो, उ'३ 'एगओ एगओ" य' अच्चित्तो ।
एत्थ' 'तु चउक्कभंगो'", तत्थादितिए' कहा नत्थि ॥ ५४६ ॥ २५१/२. जं पुण अचित्तदव्वं, निक्खिप्पति चेतणेसु मीसेसु।
तहि१२ मग्गणा उ इणमो, अणंतर-परंपरा होति ॥ ५४७ ॥ २५१/३. ओगाहिमादऽणंतर ३, परंपरं पिढरगादि१४ पुढवीए।
नवणीयादि अणंतर, परंपरं नावमादीसु ॥ ५४८ ।। २५२. विज्झात मुम्मुरिंगालमेव अप्पत्त५ पत्त६ समजाले।
वोलीणे८ सत्तदुगं', 'जंतोलित्ते य जतणाए'२० ॥ ५४९ ॥दारं ॥ २५२/१. विज्झाउ त्ति न दीसति, अग्गी दीसति य इंधणे छूढे। .
आपिंगलमगणिकणा२१, मुम्मुर निजाल इंगाला२२ ॥ ५५० ॥ २५२/२. अप्पत्ता उ चउत्थे, जाला पिढरं२३ तु पंचमे पत्ता।
छठे पुण कण्णसमा, जाला समतिच्छिया चरिमे२५ ॥ ५५१ ॥
१. मियरं (क)।
१४. "रमाइ (अ, ब, क, ला, बी), “माई (स)। २. णेति वाक्यालंकारे (मवृ)।
१५. यः पुनश्चुल्या उपरि स्थापितं पिठरं ज्वालाभिर्न ३. चित्तमीसा य (ला, ब, स)।
प्राप्नोति सोऽप्राप्तः (म)। ४. इक्कओ इक्कओ (अ, क, बी, स)।
१६. ज्वालाभिः पिठरं बुघ्ने स्पशति स प्राप्तः (मव)। ५. उ (मु)।
१७. यः पुनः पिठरस्य बुघ्नादूर्ध्वमपि यावत् कर्णी ६. सच्चित्तो (ला, ब, स)।
ज्वालाभिः स्पृशति स समज्वालः (मवृ)। ७. एत्थं (स, मु)।
१८. वोक्कंते (मु), यस्य पुनर्स्थाला पिठरकर्णाभ्या८. वि चउभंगो (अ, बी, स), चउक्कभेओ (मु)। मूर्ध्वमपि गच्छन्ति स व्युत्क्रान्तः (मवृ)। ९. “दुए (अ, ब, स, ला, बी)।
१९. 'दुवे (ला, ब, स)।। १०.२५१/१-३-ये तीनों गाथाएं भाष्य की होनी चाहिए। २०. एते तु अणंतर परे य (जीभा १५२९)।
२५१ में कल्प्याकल्प्य विधि का वर्णन करके २१. “ल अगणि (ला, ब, मु, स, क)। नियुक्तिकार ने निक्षिप्त द्वार को सम्पन्न कर दिया। २२. इंगाले (क, मु), जीभा (१५३०) में इस गाथा बाद में २५१/१-३-इन तीन गाथाओं में कल्प्या - का उत्तरार्ध इस प्रकार हैकल्प्य विधि के संबंध में जो मतान्तर प्रस्तुत किया । छारुम्मीसा पिंगल, अगणिकणा मुम्मुरो होति । गया है, वे गाथाएं भाष्यकार द्वारा निर्मित होनी २३. पिढरे (अ, क, बी)। चाहिए, ऐसा संभव लगता है।
२४. समतित्थया (ला)। ११. दव्वेसु (अ, ब, क, ला, बी, स)।
२५. चरमे (क), २५२/१, २-ये दोनों गाथाएं २५२ १२. तह (अ, बी)।
वी गाथा की व्याख्या रूप हैं अतः स्पष्टतया भाष्य १३. "हिमायणं (मु), 'हिमादिणं (क, ब)।
की प्रतीत होती हैं।
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८२
२५३.
पासोलित्तकडाहे, परिसाडी नत्थि तं पि य विसालं । सो वि य अचिरच्छूढो', उच्छुरसो नातिउसिणो यरं ॥ ५५२ ॥ २५३/१. उसिणोदगं पिर घेप्पति, गुल- रसपरिणामिगं अणच्चुसिणं । जं च अघट्टियकण्णं, घट्टियपडणम्मि मा अग्गी ॥ ५५३ ॥
२५३ / २. पासोलित्तकडाहे, सोलसभंगविकप्पा,
२५३/३. पयसमदुगअब्भासे,
२५४.
२५५.
२५६.
२५७.
२५८.
१. अचिरं छूढो (क, स) ।
२. जीभा १५३४ ।
चुसि
पढ ·
३. व (क) ।
४. तु न उसिणा (ला, ब), तु णच्चु (स) ।
५. साडि घट्टंतो ( अ, क, बी) ।
माणं भंगाण
एगंतरियं लहुगुरु, दुगुणा दुविधविराधण उसिणे, छड्डण वाउक्खित्ताऽणंतर, परंपरा पप्पडिय
६. २५३ / १-३- ये तीनों गाथाएं २५३ वीं गाथा की व्याख्या प्रस्तुत करने वाली हैं अतः भाष्य की होनी चाहिए। गा. २५३ / ३ सभी हस्तआदर्शों में अप्राप्त है अतः भाष्य की अथवा बाद में किसी आचार्य द्वारा जोड़ी गई प्रतीत होती है। आचार्य मलयगिरि ने इसकी व्याख्या की है। अवचूरि में इसकी संक्षिप्त व्याख्या है, पर गाथा नहीं है। वहां इसे नियुक्ति क्रमांक में परिगणित करने का कारण संपादक ने पादटिप्पण में प्रस्तुत करते हुए कहा है- " एषा
हरितादी
तरिया, परंपरं पिढरगादिसु पिट्ठणंतर, भरगे कुउबाइसू
पूपाइ
सच्चित्ते १३ अच्चित्ते, मीसग पिहितम्मि होति आदितिगे पडिसेधो, 'चरिमे भंगम्मि भयणा
जह चेव य निक्खित्ते, संजोगा चेव होंति एमेव य पिहितम्मि वि नाणत्तमिणं 'अंगार- धूवियादी १५, अणंतरो १६ संतरो तत्थेव अतिर१७ वाऊ, परंपरं
वत्थिणा
७.
८.
९.
१०.
अपरिसाऽघट्टते" | सेसेसु ॥ ५५४॥
न
तेसिमा
दुगुणा य
हाणी य भाणभेदो य ।
"
रयणा ।
वामेसु ॥ ५५५ ॥
वत्थी' ॥ ५५६ ॥
पिंडनिर्युक्ति
वणम्मि ।
इतरा ॥ ५५७ ॥ दारं ॥
चउभंगो ।
उ १४ ॥ ५५८ ॥
भंगा उ । ततियभंगे ॥ ५५९ ॥
सरावादी ।
पिहिते ॥ ५६० ॥
गाथा
श्रीमलयगिरिपादैरंगीकृता व्याख्याता
च
अतोऽस्या क्रमांकोपस्थिति: न्याय्यैव (अव) ।"
घट्टण (ला) ।
'परे ( अ, बी), 'परं ( स ) ।
वत्थि त्तिविभक्तिलोपाद् वस्तौ (मवृ) ।
हरियाय ( अ, बी),
११.
तरया (स), तरए (क) ।
१२. कूउ (बी), कूडगाइसू (ला, ब), कुंडगातिसु (स) । १३. सच्चित्ते इत्यादौ सप्तमी तृतीयार्थे (मवृ) १४. गहणे आणाय दोसा उ ( स ) । १५. अंगारु (स), धूमियाई (ला, ब)। १६. तरा (ला)।
१७. अथिर ( ब ) ।
१८. परुप्परं ( अ, बी) ।
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पिंडनियुक्ति
२५९. अइरं फलादिपिहितं', वणम्मि कच्छभसंचारादी,
'अनंतर
२५९/१. गुरु गुरुणा गुरु लहुणा, लहुगं गुरुएण दो वि लहुयाई । अच्चित्तेण वि पिहिते, चउभंगो दो
२६१.
२६२.
२६०. सच्चित्ते अच्चित्ते, मीसग 'साहारणे य१० आदितिगे पडिसेधो, 'चरिमे भंगम्मि
भयणा
२६३.
१. अइर त्ति अतिरोहितेन (मवृ) ।
२. फलाइ पिहिए ( अ, बी) ।
4
जह चेव य१३ निक्खित्ते, संजोगा चेव होंति तह चेव साहरणे, य नाणत्तमिणं
मत्तेण जेण दाहिति१५, तत्थ अदेज्जा १६ व होज्ज १७ असणादी । छोदु" तदन्नहि तेणं, देती ९ अह होति साहरणा ॥ ५६५ ॥ भोमाइएसु तं पुण, साहरणं होति २१ छसु वि कासु । जं तं 'दुह अच्चित्तं ' २२, 'साहरणं तत्थ चउभंगो २३ ॥ ५६६ ॥ २६३/१. सुक्के सुक्कं पढमो, सुक्के उल्लं ५ तु ' बितिय चउभंगो' उल्ले सुक्कं ततिओ, उल्लं चउत्थो उ२७ ॥ ५६७ ॥
२४
१२६ T
उल्ले
३. म्मि व (ब) ।
४. इतरम्मि ( क ) ।
५. वत्थपिउडाइ (ला, ब), पच्छिपिहुडादी (जीभा ) । ६. अतिरतिरं पच्छियादीहिं (जीभा १५५३), 'तराणंतरे
छटुं (ब, ला) ।
७. वावि (ला, ब) ।
८. सच्चित्तेन ( स ) । ९. मा गेज्झो (ला, ब), २५९ / १ - यह गाथा प्रकाशित टीका में निगा के क्रम में है लेकिन यह भाष्य की होनी चाहिए। इसके भाष्यगत होने का
सबसे बड़ा तर्क यह है कि यह गा. २६० में आए 'चरिमे भंगम्मि भयणा उ' की व्याख्या रूप है १०. साहरणे होइ ( अ, बी) ।
1
इतरं तु छब्बपिढरादी |
११. भंगा (स) ।
१२. गहणे आणाइणो दोसा ( अ, ब, ला, बी), गहणे आणायणो दोसा (स) ।
परंपरे छट्ठे'६ ॥ ५६१ ॥
अग्गेज्झं ॥ ५६२ ॥ दारं ॥
चउभंगो"।
उ १२ ॥ ५६३ ॥
भंगार४ य ।
ततियभंगे ॥ ५६४ ॥
१३. उ (मु) ।
१४. भंगो ( अ, बी, स) ।
१५. दाही ( क ) ।
१६. य दिज्जं ( अ, ब, ला, क, मु) । १७. होई (स) ।
१८. छोढुं (स, क) ।
१९. देह ( अ, ब, ला, बी), देइ (क) । २०. रणं (मु), तु. जीभा ( १५५८ ) । २१. भूमा (मु)।
२२. दुहा अचित्तं (क, मु) ।
२३. साहरणो होइ चउक्को (ला, ब) ।
२४.
सुक्खे ( अ, बी), सर्वत्र ।
२५
तुल्लं (ला, ब)।
२६. बिइयओ भंगो (मु, क, जीभा १५६२), बीय चउ° ( अ, बी) ।
८३
२७. य (क), तु (जीभा ), २६३/१-३- ये तीनों गाथाएं २६३ वीं गाथा की व्याख्यारूप होने के कारण भाष्य की होनी चाहिए।
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पिंडनियुक्ति
२६३/२. एक्केक्के' चउभंगो, सुक्कादीएसु चउसु भंगेसु। . थोवे थोवं थोवे, बहुयंरे ‘विवरीत दो अन्ने ॥ ५६८ ॥ २६३/३. जत्थ तु थोवे थोवं, सुक्के उल्लं च छुभति तं गेझं।
जइ तं तु समुक्खित्तुं', थोवाभारं दलति अन्नं ॥ ५६९ ॥ २६४. उक्खेवे निक्खेवे, 'महल्लभाणम्मि लुद्ध वध डाहो'११ ॥
'अचियत्तं वोच्छेदो' १२, 'छक्कायवहो य गुरुमत्ते '१३ ॥ ५७० ॥ २६४/१. थोवे थोवं छूढं", सुक्के उल्लं च५ तं तु आइन्न :६।
बहुगं तु अणाइन्नं, कडदोसो सो त्ति काऊणं ॥ ५७१ ॥ २६५. बाले वुड्डे मत्ते, उम्मत्ते वेविते १७ य८ जरिते य।
अंधिल्लए पगलिए, आरूढो पाउयाहिं च ॥ ५७२ ।। २६६. हत्थंदुनिगलबद्धे२१, विवज्जिते 'चेव हत्थ-पादेहिं '२२ ।
तेरासि२२ गुव्विणी बालवच्छ, भुंजंति घुसुलिंती ॥ ५७३ ।। २६७. भज्जती२५ व२६ दलेंती२७, कंडंती२८ 'चेव तह य २९ पीसंती।
पिंजंती उंचंती, कत्तंति 'पमद्दमाणी य'३२ ॥ ५७४ ।।
१. "क्कं (स)।
१७. थेविते (ला, स), वेविरे (मु)। २. बहू य (बी), बहुं च (क, मु)।
१८. व (अ, बी, स)। ३. 'रीय तु (अ, बी), रीयं (ला) 1
१९. पंगुलिए (ला, ब), "रिए (मु)। ४. बहु थोव बहु बहुगं (जीभा १५६३)। २०. जीभा १५६९, ओघनियुक्ति में कुछ अंतर के साथ ५. सुक्खं (अ, ब, ला, बी, स)।
'दायक द्वार' में दान देने के अयोग्य दाताओं ६. मेज्झं (ला, ब, स), गज्झं (जीभा)।
का उल्लेख है। देखें ओनि ४६७, ४६८। ७. जह (ला, ब)।
२१. हत्थ अंदु (ब, अ), हत्थंडु (ला), हत्थिंदु" (मु)। ८. समुक्खे उं (मु)।
२२. “पाएसु (ला, ब, स), हत्थ पायए चेव (क)। ९. थोवाहारं (अ, ब, ला, बी, क, स, जीभा)।
२३. तेलासि (ला, बी)। १०.मन्नं (अ, ब, ला, क, बी), जीभा १५६४।
२४. घुसालंती (ला, ब), जीभा १५७० । ११. ल्लए लुद्धया वहे दाहो (अ, बी), भाणस्स लुद्धया
२५. भंजंती (ला), भुंजंती (अ, बी)। वहो दाहो (ला, ब, स)।
२६. य (ला, ब, मु, स, जीभा)। १२. छक्कायवहो य तहा (जीभा)।
२७. दलंती (मु, स, क)। १३.दोसु वि भंगेसु बहूया य (अ, बी), अचियत्तं चेव
चव २८. खंडंती (अ, बी), कंडेंती (जीभा)।
की वोच्छेदो (जीभा १५६६)।
२९. तह य चेव (क)। १४. छोढुं (ला)।
३०. पोसंती (अ, ब), पीसेंती (जीभा)। १५.तु (मु, जीभा १५६७)।
३१. रुंधती (अ, बी)। १६. यहां आइन्नं के स्थान पर णाइन्नं पाठ होना चाहिए।
हिए। ३२. य पमद्दमाणीया (ला, ब), जीभा १५७१ ।
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पिंडनियुक्ति
२६८. छक्कायवग्गहत्था, समणट्ठा 'निक्खिवित्तु ते५ चेव।
ते चेवोगाहंती, संघटुंतारभंती य ॥ ५७५ ॥ २६९. संसत्तेण य दव्वेण, 'लित्तमत्ता य लित्तहत्था" य।
उव्वत्तंती साहारणं व देंती य चोरियगं ॥ ५७६ ॥ २७०. पाहुडियं च ठवेंती, सपच्चवाया परं 'च उद्दिस्स।
आभोगमणाभोगेण, दलंती वज्जणिज्जा उ॥५७७ ॥ एतेसि दायगाणं, गहणं केसिंचि होति भइयव्वं ।
केसिंची० अग्गहणं, तव्विवरीते" भवे गहणं ॥ ५७८ ॥ २७२. कप्पट्ठिग१२ अप्पाहण२, दिण्णे अन्नन्न५ गहण पज्जत्तं ।
खंतिग मग्गण दिन्ने१६, उड्डाह पदोस चारभडा ॥ ५७९ ॥ २७३. थेरो गलंतलालो, कंपणहत्थो पडेज्ज वा देंतो।
अपभु८ त्ति य अचियत्तं, एगतरो 'उभयओ वावि'१९॥ ५८० ॥ २७४. अवयास भाणभेदो, वमणं२० असुइ त्ति 'लोगगरिहा य'२१ ।
'पंतावणा व मत्ते'२२, वमणविवज्जा उ उम्मत्ते ॥ ५८१ ॥ २७५. वेविय२३ परिसाडणया, पासे व२४ छुभेज्ज२५ भाणभेदो वा।
एमेव य जरितम्मि वि, जरसंकमणं च उड्डाहो२६ ॥ ५८२ ।। १. "खिवं तु तं (अ, बी)।
सम्बन्धित २७२-८३ तक की गाथाओं में कुछ २. संघट्टिता' (क)।
गाथाएं ओघनियुक्ति में भी मिलती हैं। कप्पट्ठिग ३. तु. (जीभा १५७२)।
(गा. २७२) के प्रारम्भ में ओघनियुक्ति के टीकाकार ४. लित्तहत्था य लित्तमत्ता (क, स, मु, जीभा)। इदानीं भाष्यकार:.....का उल्लेख करते हैं। संभव ५. ओवत्तेती (ला, स), ओयत्तंती (अ, क, बी), लगता है कि पिण्डनियुक्ति की गाथाओं को ओघओयत्तेती (जीभा १५७३)।
नियुक्ति के भाष्यकार ने अपने ग्रंथ का अंग बना ६. ठवंती (अ, बी, मु)।
लिया हो, कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, ७. समुद्दि (ब, स)।
कथा सं. ४८। ८. भोगे (अ), “ग अणा” (क, जीभा १५७४)। १८. अवहु (ब)। ९. दलयंती (स)।
१९. वा उभयओ वा (ला, ब, क, स, मु)। १०. केसिंचि य (ब, स), केसिंति (बी)। २०. घायं (अ, ब)। ११. तप्पडिवक्खे (जीभा १५७५)।
२१. "गरहाणं य (ला), गरहा य (स), १२. कब्बढिग (मु), कब्बट्ठिअ (क)।
___लोग उड्डाहो (अ, बी)। १३. अप्पाहिऊणं ति संदिश्य (म)।
२२. एए चेव उ मत्ते (मु), वणं व (स)। १४. वि दिण्णे (स)।
२३. वेवण (अ, ब)। १५. अणण्ण (ला), अण्णेण (ब), अन्नोन्न (ओभा २४१)। २४. वा (स)। १६. दिन्नं (अ, क, ओभा), दिन्ने य (स)। २५. छुहइ (ला, ब)। १७. निषिद्ध दायकों के हाथ से भिक्षा लेने के दोष से २६. उड्डाहे (ब)।
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पिंडनियुक्ति
२७६. उड्डाह कायपडणं, अंधे भेदो य पासछु भणं व।
तद्दोसी संकमणं, गलंत भिस भिन्नदेहेरे य॥ ५८३ ॥ २७७. पाउयदुरूढपडणं, बद्ध परिताव असुइखिंसा य।
करछिन्नासुइ खिंसा, ते च्चिय- पादम्मि पडणं च ॥ ५८४ ॥ २७८. आयपरोभयदोसा, अभिक्खगहणम्मि 'खुब्भणा पंडे ।
लोगदुगुंछा संका, एरिसगा नूणमेते वि॥ ५८५ ॥ गुव्विणि गब्भे संघट्टणा उ उठेंतुवेसमाणीए ।
बालादी मंसुंडग", मज्जारादी विराहेज्जा ॥ ५८६ ॥ २८०. भुंजंती आयमणे, उदगं छोट्टी१२ य लोगगरहा१३ य।
घुसुलिंती४ संसत्ते, करम्मि लित्ते भवे रसगा॥ ५८७ ॥ २८१. दगबीए५ संघट्टण, पीसण 'कंड-दल भज्जणे१५ डहणं'१७ ।
'पिंजंत रुचणादी १८, दिन्ने लित्ते करे उदगं ॥ ५८८ ।। २८२. लोण-दग-अगणि-वत्थी, फलादि मच्छादि सजिय हत्थम्मि।
पाएणोगाहणया, संघट्टण सेसकाएणं ॥ ५८९ ॥ खणमाणी आरभए, मज्जति धोवति२२ ‘व सिंचती'२३ किंचि।
'छेद-विसारणमादी'२४, छिंदति२५ छठे फुरुफुरंते२६ ॥ ५९० ॥ १. "परणं (ला, ब, स)।
१५. बीओदग (ओभा २४७)। २. भिन्नबोहा (ला, ब)।
१६. भंजणे (अ, बी), भज्जणा (ला, ब)। ३. वा (बी)।
१७. कंडण दलण भज्जणे डहणं (क), ४. ति (क)।
गहणं (ला, ब, स), 'दहणं (बी)। ५. वि य (बी)।
१८. कत्तेति पिज्जणाई (ला, ब, स), कत्तंति पिंजणाई ६. पाये वि (मु)।
(क), रुञ्चनमादिशब्दात् कर्त्तनप्रमर्दने च ७. खोभण नपुंसे (मु), खुब्भणं पंडे (ब, स), खुब्भण कुर्वती (मवृ)। नपुंसे (क, ओभा २४३)।
१९. लोणि (ला, ब, स), लोणं (मु)। ८. नूण एए (अ, क, बी)।
२०. पाएणं गा (ला), 'णोगाहिणया (स)। ९. उटुंतवे' (ला, ब), उटुंतनिवेस (क)।
२१. "कायाणं (ला, ब, स)। १०.मंसुदर (ला), मंसुदरा (ब), मंसुंडग त्ति आर्षत्वाद् २२. धोयइ (क, मु)। ___ व्यत्यासेन पदयोजना (मवृ)।
२३. सिंचए (अ, क, बी), व सिंचए (मु)। ११. विराहणया (अ, बी), ओभा २४६।
२४. छित्ते विरल्लमाई (ला, ब, स)। १२. पोट्टी (ला, स), पुट्टी (अ, ब)।
२५. छंदइ (ला), छिंदे (अ, बी)। १३. गरिहा (ला, ब, मु, स)।
२६. “फुरंतो (ला, ब), पुरुफुरिते (अ, बी), फुरुफुरुंते १४. घुसलिंति (बी), घुसलंती (ला), घुसुलंती दध्यादि इति पोस्फूर्यमाणान् पीडयोद्वेल्लत इत्यर्थः । (मवृ)।
मथ्नती (मवृ)।
२८३.
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पिंडनियुक्ति
२८४. 'छक्कायवग्गहत्थ त्ति केइ', कोलादिकण्णलइयाई ।
__ सिद्धत्थगपुप्फाणि य, सिरम्मि दिन्नाइँ वज्जेंति ॥ ५९१ ॥ २८४/१. अन्ने भणंति दससु वि, एसणदोसेसु नत्थि तग्गहणं ।
तेण न वज्ज भण्णति", नणु गहणं दायगग्गहणा ॥ ५९२ ॥ २८५. संसज्जिमम्मि देसे, संसज्जिमदव्वलित्तकरमत्ता ।
'संचारो ओवत्तण'१९, उक्खिप्पंते वि१२ ते चेव ॥५९३ ॥ २८६. साहारण१३ बहूणं, तत्थ उ दोसा तहेव'४ अणिसिट्टे५ ।
चोरियगे गहणादी६, भयए१७ सुहादि८ वा दिते ॥ ५९४ ॥दारं ॥ २८७. पाहुडि-ठवियगदोसा, 'तिरि-उड्ड-महे '२० तिहा अवायाओ२१ ।
धम्मियमादी ठवितं, परस्स परसंतियं 'व त्ति'२२ ।। ५९५ ॥ २८८. अणुकंपा पडिणीयट्ठयाय२३ ते कुणति जाणमाणो वि।
एसणदोसे बितिओ, 'उ कुणति'२४ असढो अयाणंतो२५ ॥ ५९६ ॥ २८८/१. भिक्खामत्ते२६ अवियालणा२७ तु बालेण दिज्जमाणम्मि।
संदिढे वा गहणं, अतिबहुय२८ वियालणेऽणुण्णा ॥ ५९७ ॥ २८८/२. थेर पभु थरथरते२९, धरिते अन्नेण दढसरीरे वा।
अव्वत्तमत्तसड्डे, अविब्भले० वा असागरिए ॥ ५९८ ॥ १. 'हत्थि त्ति (अ, बी), 'हत्था (क, मु)। १५. अणिसट्टे (क)। २. केई (क, मु)।
१६. “णाई (क, मु)। ३. “कन्नु (अ, ब, ला), 'कन्दु' (ला, स), 'कन्नलइयाई १७. रुएण (ला, ब,), भइए व (क)। ति कर्णे पिनद्धानि (मवृ)।
१८. सुण्हा य (ला, स)। ४. दिनाणि (अ, बी)।
१९. देति (ला, ब, स)। ५. वज्जंतो (ला, स), वज्जेई (अ, बी)। २०. तिरिगुड्डमहं (ब)। ६. वण्णं (बी)।
२१. अवाया उ (स), अपायास्त्रिविधः तत्र तिर्यग्वादिभ्यः ७. भणइ (बी)।
उर्द्धमुत्तरङ्गकाष्ठादेरधः सर्पकण्टकादेः (मवृ)। ८. भणियं (अ, बी)।
२२. बिंति (अ, बी, क), वावि (मु)। ९. दायगु' (ब), "हणे (क, स)।
२३. पडणी (ब), णीयट्टावि (अ, बी), “णीयट्टे व (क)। १०.संसिज्जि' (ला), 'मत्ते (अ, बी),
२४. कुणइ उ (मु), कुणई (क)। ___जिमलित्तदव्वकरमत्ते (क)।।
२५. बृभा ५६२२। ११. संचरओ उव्वत्तण (अ, बी), संचरो उववत्तण (ला), २६. मित्ते (ला, ब, क, मु)।
ओयत्तण (म), संचारा ओअत्तण (क)। २७. अविवारणा (ला, ब), “लणं (ओनि ४६९)। १२. य (अ, बी)।
२८. “हुल (स)। १३. साहरणं (अ, बी)।
२९. थरहरंते (अ, क, बी), थुर' (स)। १४. जहेव (अ, बी, क, मु)।
३०. अवब्भले (अ), अबंभले (बी), अविंभले (मु)।
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पिंडनियुक्ति
२८८/३. सुई-भद्दगदित्तादी, दढग्गहे वेविते जरम्मि सिवे ।
'अन्नधरितं तु'३ सड्ढो, देंतंऽधोऽन्नेण वा धरितो ।। ५९९ ॥ २८८/४. मंडलपसुत्तिकुट्ठी', ऽसागरिए पाउगागए अचले।
कमबद्धे सवियारे, इतरो बिढे असागरिए' ।। ६०० ।। २८८/५. पंडग' अप्पडिसेवी, वेला थणजीवि११ इतर'२ 'सव्वं पि'१३।।
उक्खित्तमणावाए१४, न किंचि५ लग्गं१६ ठवंतीए॥६०१ ॥ २८८/६. पीसंती निप्पिट्टे, फासु वा घुसुलणे८ असंसत्तं ९ ।
कत्तण० असंखचुनं, चुन्नं२१ वा जा अचोक्खलिणी॥६०२ ॥ २८८/७. उव्वट्टणे २२ संसत्तेण वावि अट्ठिल्लए२३ न घट्टेति ।
पिंजण२४ - पमद्दणेसु य, . पच्छाकम्मं जहिं२५ नत्थि॥ ६०३ ।। २८८।८. सेसेसु य२६ पडिवक्खो, न संभवति कायगहणमादीसु।
पडिवक्खस्स 'अभावे, नियमा उ भवे'२७ - तदग्गहणं२८ ॥६०४ ॥ दारं ॥ २८९. सच्चित्ते अच्चित्ते, मीसग उम्मीसगंसि२९ चउभंगो ।
आदितिगे पडिसेधो, चरिमे भंगम्मि भयणा उ॥ ६०५ ॥
१. सुय (ला), सुई (अ, बी, स)।
१८. घसु (अ, क), घुस' (ला), घुसुलणे शंखचूर्णाद्य२. 'दित्ताती (ब, स)।
संसक्तं दध्यादि मथ्नत्याः (मवृ)। ३. अन्ने वि धरिए (अ, बी)।
१९. असम्मत्तं (ब, क, ला), "सत्ती (स)। देंतिऽन्नेण (ला), देई अन्नेण (अ, बी)। २०. कत्तणि (मु)। ५. पसूई (ब, बी)।
२१. चुन्ने (ब, क, ला)। ६. असारिए (ब, क ला), असागरि (बी), असागरिए (स)। २२. उवट्टणेइ (ला), ओयट्टणे (बी)। 'गावाए (अ, ला), पाउगट्ठाए (स)।
२३. अद्धिल्लए (अ, बी), अट्ठिल्लए अस्थिकान् कार्पा'विट्ठप्पसाग' (अ, बी)।
सिकान् (मवृ)। ९. पिंडग (ब, ला)।
२४. भंजण (ब)। १०. वेल त्ति सूचनात् सूत्रमिति न्यायाद्वेलामासप्राप्ता २५. जहा (मु), तहिं (बी)।
भवति नवममासगर्भा यदि भवति (मवृ)। २६. उ (अ, बी)। ११. जीवी (ब, स), जीव (अ, बी)।
२७. अभावम्मि नियमा य भवे (ब, स)। १२. थेरयं (स, क)।
२८. २८८/१-८-इन आठ गाथाओं में बाल आदि दायकों १३. सव्वे वि (ब, ला, स)।
की भजना को स्पष्ट किया गया है। संभावना की १४. उक्खित्ते अणवाए (ब, ला, स), "खित्त अणा (क)। जा सकती है कि ये गाथाएं भाष्य की होनी चाहिए। १५. किंच (ला, बी)।
२९. उम्मीलियं च (ब), "सयम्मि (अ, बी), १६. लग्गे (क, स)।
गम्मि (क)। १७. निप्पटे (बी)।
३०. चउब्भंगो (स)।
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पिंडनिर्युक्ति
कायाणं
२९०. जह चेव य संजोगा, तह चेव य उम्मीसे,
हेटुओ य होति विसेसो इमो
दायव्वमदायव्वं, ओदणकु सणादीणं',
च दो वि दव्वाणि देंति तदन्नहिं
साहरण
२९१/१. तं पिय सुक्के सुक्कं, भंगा चत्तारि जह उ साहरणे । अप्पबहुए वि चउरो, तहेव आइण्णऽणाइणे ॥ ६०८ ॥ दुविधं, दव्वे भावे य दुविहमेक्क्कं । भावम्मि य होति
सज्झिलगा ॥ ६०९ ॥
२९१.
२९२.
२९३.
'अपरिणतं पि" य दव्वम्मि होति छक्कं,
जीवत्तम्मि अविगते ६, दिट्ठतो दुद्ध-दही,
अपरिणतं परिणतं गते अपरिणतं ' परिणतं 'तं
२९४. दुगमादी सामन्ने, जदि परिणमती १० ' उ तत्थ ११ देमि त्ति न सेसाणं, अपरिणतं भावतो २९५. एगेण वावि एसिं, मणम्मि १२ परिणामितं न तं पि हु होति अगेज्झं, सज्झिलगा सामि २९५/१. घेत्तव्वमलेवकडं, लेवकडे मा हु न य रसगेहिपसंगो, इय १४ वुत्ते
'पच्छकम्मं
१. णाईणि व (क) ।
२. अ और बी प्रति में यह गाथा नहीं है।
३. अ और बी प्रति में इस गाथा का पूर्वार्द्ध नहीं है।
४. आइन्नानाइन्नं (अ, बी) ।
५. अप्प (स), 'तम्मि (क ) ।
६. य विगए ( अ, बी) ।
७. दहिं (अ) ।
८. इय अपरि° (ला, क, ब, मु, जीभा १५८८) ।
९. चेव (जीभा ) ।
१०. मइ (बी) ।
११. x ( अ ) ।
साहरणे ।
तत्थ ॥ ६०६ ॥
मीसेउं ।
छोढुं ॥ ६०७ ॥
१८. हाणे (बी) ।
१९. समं (ला, स ) ।
२०. हायई (क) ।
२१. स्था (ला, स ) । २२. तु (क) ।
जीवे ।
च ं ॥ ६१० ॥
मा
चेव
भुंजऊ
सययं ।
4
चोदग!
खमंतस्स १९ ॥ ६१४ ॥
२९५/२. जइ पच्छकम्मदोसा, भवंति ६ 'तव-नियम- संजमाणं १७, हाणी" २९५/३. लित्तं ति भाणिऊणं, छम्मासा हायते ० चउत्थं २१ तिर । आयंबिलस्स गहणं, असंथरे अप्पलेवं
तु ॥ ६१५ ॥
एगस्स ।
एयं ॥ ६११ ॥
ति १३ । चोदगो १५ भणति ॥ ६१३ ॥
इतरेणं ।
साहू वा ॥ ६१२ ॥ दारं ॥
१२. मणं पि (अ) ।
१३. कम्माई (मु) ।
१४. इति ( क ) ।
१५. चोदग (बी), चोइओ (स) ।
१६. हवंति ( अ, क, स, मु) । १७. तवसंजमजोगाणं ( अ, क, बी) ।
८९
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पिंडनियुक्ति
२९५/४. आयंबिलपारणगे', छम्मास निरंतरं खमेऊणं ।
___ जइ न तरति छम्मासे, एगदिणूणं ततो कुण ॥ ६१६ ॥ २९५/५. एवं एक्केक्कदिणं', आयंबिलपारणं खवेऊणं ।
दिवसे दिवसे गिण्हउ", आयंबिलमेव निल्लेवं ॥ ६१७ ॥ २९५/६. जइ से न जोगहाणी , संपति 'एस्से व९ होति तो खमओ।
खमणंतरेण२ आयंबिलं तु नियतं तवं कुणउ१३ ॥ ६१८ ॥ २९५/७. मरहट्ठग१४ कोसलगा, सोवीरग कूरभोइणो५ मणुया।
जइ ते वि जवेंति१६ तहा, किं नाम जती न जावेंति ॥ ६१९ ॥ २९५/८. तिय८ सीतं समणाणं, तिय उण्ह गिहीण तेणऽणुण्णातं ।
तक्कादीणं गहणं, कट्टरमादीसु भइयव्वं ॥ ६२० ॥ २९५/९. आहार-उवधि सेज्जा,तिण्णि वि उण्हा गिहीण सीते वि।
तेण उ जीरति२० तेसिं, दुहओ उसिणेण आहारो॥ ६२१ ॥ २९५/१०. एयाई चिय तिन्नि वि, जतीण सीताइँ होंति गिम्हे वि।
तेणुवहम्मति अग्गी, तओ यार दोसा अजीरादी२२ ॥ ६२२ ।।
१. ‘णये (क)। २. तु खविऊणं (मु), तु खमिऊणं (स, क)। ३. 'णूणे (अ, बी, स), इक्कदिणूणे (क)। ४. कुणइ (ला, ब, क, स)। ५. “दिणे (अ, बी)। ६. भवे. (अ, ब, ला, बी), करेऊणं (क)। ७. गिण्हइ (ब, ला, स)। ८. "हाणिं (अ, बी), योगहानिः-प्रत्यपेक्षणादिरूप
संयमयोगभ्रंशो न भवति (मवृ)। ९. एमेव (ला, ब), एसेव (मु)। १०. भो (ब, ला)। ११.क्षपकः षण्मासाद्युपवासकर्ता (मवृ)। १२. णंतरे वि (क)। १३. कुणइ (ला, ब, क, मु, स)। १४. हेट्ठावणि (अ, ब, क, मु), टीकाकार ने हेट्ठावणि
पाठ की व्याख्या की है। १५. भोयणो (ब), भोईणो (मु)। १६.जवंति (क, अ)। १७. जावेति (अ, ला, ब), जति (मु)।
१८.तय (स)। १९. भईय' (स)। २०.जीरउ (क)। २१. उ (ब)। २२.२९५/१-१०-ये दसों गाथाएं प्रकाशित टीका में
निगा के क्रमांक में हैं लेकिन ये भाष्य की होनी चाहिए। पिण्डनियुक्ति में प्रायः नए द्वार की व्याख्या का प्रारंभ नियुक्तिकार ने किया है,जैसे शंकित, मेक्षित, निक्षिप्त आदि द्वार। लेकिन अलेप द्वार का प्रारंभ भाष्य गाथाओं से हुआ है, ऐसा संभव लगता है। नियुक्तिकार ने शंकित आदि दसों द्वारों की इतने विस्तार से कहीं चर्चा नहीं की है। दूसरी बात संक्षिप्त शैली होने के कारण निर्यक्तिकार चोदक और आचार्य के माध्यम से इतने प्रश्न और उत्तर भी प्रस्तुत नहीं करते हैं। अलेप द्वार का प्रारंभ चोदक की जिज्ञासा एवं आचार्य के उत्तर से हुआ है। ये गाथाएं व्याख्यात्मक सी प्रतीत होती हैं। इनको नियुक्ति गाथा के क्रमांक में नहीं जोड़ा गया है।
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पिंडनियुक्ति
२९६. ओदण-मंडग'-सत्तुग', कुम्मासा रायमासरे कल वल्ला।
तूवरि मसूर मुग्गा, मासा य अलेवडा सुक्का ॥ ६२३ ॥ २९७. उब्भिज्ज' पेज्ज कंगू, तक्कोल्लण-सूव-कंजि-कढियादी।
एते उ अप्पलेवा, पच्छाकम्मं तहिं भइयं ॥ ६२४ ॥ २९८. खीर-दहि जाउ'१ कट्टर, तेल्ल-घतं-फाणितं सपिंडरसं।
इच्चादी बहुलेवं, पच्छाकम्मं तहिं नियमा॥ ६२५ ।। २९९. संसट्ठेतरहत्थो, मत्तो 'वि य'१२ दव्व सावसेसितरं।
एतेसु१३ अट्ठ भंगा, नियमा गहणं तु ओएसु ॥ ६२६ ॥ ३००. सच्चित्ते अच्चित्ते, मीसग तह छड्डुणे५ य चउभंगो।
चउभंगे पडिसेधो, गहणे आणादिणो दोसा।। ६२७ ॥ उसिणस्स छड्डणे१६ देंतओ य७ डझेज्ज कायदाहो'८ वा।
सीतपडणम्मि काया, पडिते मधुबिंदुदाहरणं ॥ ६२८ ॥ ३०२. नामं ठवणा दविए, भावे घासेसणा मुणेयव्वा।
दव्वे मच्छाहरणं, भावम्मि य होति पंचविहा॥ ६२९ ॥ ३०२/१. चरितं व कप्पितं वा, आहरणं दुविधमेव नातव्वं ।
अत्थस्स साहणट्ठा, इंधणमिव ओदणट्ठाए ॥ ६३०॥
१. मंडण (अ, ब, मु)।
१६. छिडणे (स)। २. सत्तु (क)।
१७. व (क)। ३. 'राजमाषा:'-सामान्यतश्चवला: श्वेतचवलिका वा (मवृ)। १८. “डाहो (अ, जीभा १६०३)। ४. 'कला'-वृत्तचनका सामान्येन वा चनकाः (मवृ)। १९. 'दुआह (अ, बी, मु, जीभा), कथा के विस्तार ५. तुवरी (अ, बी), तूयरि (मु)।
___ हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ४९। ६. x (ब)।
२०. नेयव्वं (स)। ७. उन्भज्ज (स), उब्भिज्जि (क), 'उद्भेद्या'- २१. ओनि ५४१,३०२/१-५-ये पांचों गाथाएं ३०२ के वस्तुलप्रभृतिशाकभर्जिका (मवृ)।
तृतीय चरण 'दव्वे मच्छाहरणं' की व्याख्या रूप हैं। ८. कूरो (बी)।
३०२/१ गाथा में भाष्यकार ने प्रसंगवश आहरण के ९. उल्लणं-येनौदनमार्दीकृत्योपयुज्यते (मवृ)।
दो भेदों का उल्लेख किया है। ३०२/२-४-इन १०. सूपो-राद्धमुद्गदाल्यादिः (मवृ)।
तीन गाथाओं में मच्छआहरण को संवाद-शैली में ११.जाउ-क्षीरपेया (मवृ)।
विस्तृत रूप से प्रस्तुत किया है तथा ३०२/५ वीं १२.च्चिय (क)।
गाथा में उपसंहार किया है। व्याख्यात्मक होने के १३. एएसि (ला, स), एएसु (मु)।
कारण इनको मूल नियुक्तिगाथा के क्रमांक में नहीं १४. ओजस्सु-विषमेषु भंगेसु प्रथमतृतीयपंचमसप्तमेषु जोड़ा है। जीभा में केवल उपनय रूप में साधु (मवृ), तु. बृभा १८६८।
के साथ तुलना करते हुए दो गाथाओं का उल्लेख १५.छंडणे (अ, बी)।
है (जीभा १६०६, १६०७)।
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९२
पिंडनियुक्ति
३०२/२. अह मंसम्मि पहीणे, झायंत' मच्छियं भणति मच्छो।
किं झायसि तं एवं, सुण ताव जहा अहिरिओ सि ॥ ६३१ ।। ३०२/३. तिबलागमुहुम्मुक्को', तिक्खुत्तो वलयामुहे।
तिसत्तक्खुत्तजालेणं, सइ छिन्नोदए दहे ॥ ६३२ ।। ३०२/४. एयारिसं मम सत्तं, सढं घट्टियघट्टणं ।
इच्छसि गलेण घेत्तुं, अहो ते अहिरीयया ॥ ६३३ ॥ ३०२/५. बायालीसेसणसंकडम्मि, 'गहणम्मि जीव न हु८ छलितो।
एण्हिं जह न छलिज्जसि, भुंजतो रागदोसेहिं ॥ ६३४ ॥ ३०३. घासेसणा तु भावे, होति पसत्था ‘य अप्पसत्था य'१०।
अपसत्था पंचविधा, तव्विवरीता पसत्था उ१ ।। ६३५ ॥ ३०३/१. संजोयणमइबहुयं२, इंगाल'३ सधूमगं अणट्ठाए।
'पंचविधा अपसत्था'४, तव्विवरीता पसत्था उ५ ॥ ३०४. दव्वे भावे संजोयणा उ दव्वे 'दुहा उ'१६ बहि अंतो।
भिक्खं चिय हिंडतो, संजोयंतम्मि८ बाहिरिया ॥ ६३६ ॥ ३०५. खीर-दहि-सूव-कट्टर० लंभे गुड-सप्पि-वडग-वालुंके।
अंतो उ तिहा पाए, लंबण वयणे२२ विभासा उ॥ ६३७ ॥
१. ज्झयंतं (अ)।
१४. अपसत्था पंचविहा (जीभा १६१०), विह अप्प (स)। २. ओनि ५४०, कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, १५. यह गाथा सभी हस्तप्रतियों में प्राप्त है किन्तु कथा सं. ५०।
मलयगिरि ने इस गाथा का कोई उल्लेख नहीं ३. तिविला (बी), ‘गमुहा मुक्को (ओनि ५४२)।
किया है। अवचूरिकार ने "संजो गाहा" इतना ४. क्खुत्तो" (क, मु)।
संकेत करके गाथा का संक्षिप्त भावार्थ दिया है। ५. मं (ब), महं (ब, ला)।
यह गाथा प्रक्षिप्त सी लगती है क्योंकि ३०३ वीं ६. गलेणा (स, ब)।
गाथा का उत्तरार्द्ध इस गाथा से अक्षरशः मिलता है। ७. अहीरियया (ब, स), ओनि ५४३ ।
१६. दुविहा उ होइ (ब, ला, स)। ८. गेण्हंतो जीव! ण सि (जीभा १६०८)।
१७. यंतो (स)। ९. ओनि ५४५, क प्रति में इस गाथा का केवल प्रथम १८. संजोइयम्मि (स)। पद है।
१९. तु. जीभा १६११। १०.तहेव अप्प (स)।
२०. कट्टरस्य तीमनोन्मिश्रघृतवटिकारूपस्य देशविशेष११. य (स), तु (जीभा १६०९)।
प्रसिद्धस्य (म)। १२.संजोइय(ब, ला, स), 'बहुया (अ, बी)।
२१. वालंके (बी)। १३. सयंगाल (ब), संगाल (जीभा)।
२२. वयण (ला), वयणा (क)।
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पिंडनियुक्ति
३०६. संजोयणाएँ दोसो, जो संजोएति भत्तपाणं तु।
दव्वादी रसहेउंरे, उवघातो तस्सिमो होति ॥ ६३८ ॥ ३०७. संजोयणा उ भावे, 'संजोइंतो उ ताणि दव्वाइं५ ।
'संजोययए कम्म'६, कम्मेण भवं तओ दुक्खं ॥ ६३९ ॥ ३०८. पत्तेय पउरलंभे, भुत्तुव्वरिते" य सेसगमणट्ठा।
दिट्ठो संजोगो खलु, अह कम्मो तस्सिमो होति ॥ ६४० ॥ ३०९. रसहेतुं पडिसिद्धो', संजोगो कप्पते १० गिलाणट्ठा।
जस्स व अभत्तछंदो, सुहोचिओऽभावितो जो य॥ ६४१ ॥ दारं ॥ ३१०. बत्तीसं किर कवला, आहारो 'कुच्छिपूरओ भणितो'११ ।
पुरिसस्स महिलियाए'२, अट्ठावीसं भवे कवला'३ ॥ ६४२ ॥ ३११. एत्तो किणाइ१४ हीणं, अद्धं अद्धद्धगं च आहारं।
साहुस्स बेंति धीरा, जायामायं च ओमं च॥ ६४३ ॥ ३१२. पकामं च निकामं च, पणीतं५ भत्तपाणमाहारे।
अतिबहुयं अतिबहुसो, पमाणदोसो मुणेयव्वो ॥ ६४४ ॥ ३१२/१. बत्तीसाइ१६ परेणं, पगाम निच्चं तमेव उ निकाम।
जं पुण गलंतनेहं, 'पणीतमिति तं'१७ बुहा बेंति ॥ ६४५ ॥ ३१२/२. अतिबहुयं अतिबहुसो, अतिप्पमाणेण भोयणं भुत्तं ।
हादेज्ज२० व वामिज्ज व मारेज्ज व तं अजीरंत२१ ॥ ६४६ ॥ १. संजोअणाइ (मु, क)।
१२. "लिया व (स)। २. रसभेओ (ब)।
१३. जीभा १६२२, प्रसा ८६६। ३. वाघाओ (क, मु)।
१४. किं वा (बी), किणावि (जीभा १६२४), किणाइ इति ४. तेसिमो (अ, बी)।
किञ्चिन्मात्रया (मव), किणाइ इति कियन्मात्रया (अव)। ५. संजोएऊण ताणि (मु), “इंतो वि ताइ (अ, बी), १५. x (ला, ब, स), जो पणियं (जीभा १६२५) । . इंतो उ भवे दव्वाइं (स), 'दव्वाणि (क)। १६. “साउ (ला, ब, स)। ६. संजोयंते उ कम्मं (ला, स), संजोयइ कम्मेणं १७. "मित्तं ति (ब)। (मु), संजोयति उ कम्मं (ब)।
१८. जीभा १६२६, ३१२/१-३-ये तीनों गाथाएं ३१२ वीं ७. भुत्तुद्धरिए (ब, ला), भत्तुव्व (अ)।
गाथा की व्याख्या रूप हैं। प्रकाशित टीका में ८. तेसिमो (बी)।
निगा के क्रमांक में होने पर भी व्याख्यात्मक होने ९. पडिकुट्ठो (अ, बी, जीभा १६१८)।
के कारण इनको मूल नियुक्ति गाथा के रूप में १०. कप्पई (स)।
नहीं जोड़ा है। ११. कुच्छिओ पूरओ होइ (अ, बी), कुक्खिपूरणो होइ १९. भुत्तुं (अ), भोत्तुं (स, मु)। (भआ २११)।
२०. हारेज्ज (ला, स), हाविज्ज (ब, बी)। २१. जीभा १६२७, पिंप्र ९६।
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पिंडनियुक्ति
३१२/३. बहुयातीतमतिबहू', अतिबहुसोरे तिन्नि तिन्नि व परेणं ।
तं चिय अतिप्पमाणं', भुंजति जं वा अतिप्पंतो ॥ ६४७ ।। ३१३. हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा य जे नरा।
न ते विज्जा तिगिच्छंति, अप्पाणं ते तिगिच्छगा ॥ ६४८ ॥ ३१३/१. दहि-तेल्लसमाओगा, अहितो 'खीर-दधि-कंजियाणं'८ च।
पत्थं पुण रोगहरं, न य हेतू होति रोगस्स॥६४९ ॥ ३१३/२. अद्धमसणस्सा सव्वंजणस्स० कुज्जा दवस्स दो भागे।
वातपवियारणट्ठा, छब्भागं ऊणगं कुज्जा २ ॥ ६५० ॥ ३१३/३. सीतो उसिणो साहारणो य कालो तिधा मुणेयव्वो।।
साहारणम्मि काले, तत्थाहारे इमा मत्ता २ ॥ ६५१ ॥ ३१३/४. सीते दवस्स एगो, भत्ते४ चत्तारि अहव दो पाणे।
उसिणे दवस्स दोन्नी५, तिन्नि उ१६ सेसा व भत्तस्स ॥ ६५२ ॥ ३१३/५. एगो दवस्स भागो, अवट्ठितो भोयणस्स दो भागा।
वडंति व 'हायंति व८, दो दो भागा तु एक्के क्के ९॥ ६५३ ॥ ३१३/६. एत्थ२० उ ततियचतुत्था, दोण्णि य९ अणवद्विता भवे भागा।
पंचम छट्ठो पढमो, बितिओ२२ य२३ अवट्ठिता भागा२४ ॥ ६५४ ॥ दारं ॥
१. "त अइबई (ला, ब), "मइबहुयं (अ, क, बी)। एएसुं तीसुं पी, आहारे होतिमा मत्ता। २. त्रिभ्यो वा वारेभ्यः परतस्तद्भोजनमतिबहुशः (म)। १४. भागे (स)। ३. तिन्न (ला, क, ब), तिण्ह (स)।
१५. दुन्नी (अ, क), दोन्नि उ (मु)। ४. भुंक्ते यद् वा अतृप्यन् एष अइप्पमाण इत्यस्य १६.व (मु), य (स)। शब्दस्यार्थः (मवृ)।
१७.प्रसा ८६९ ५. तु. जीभा १६२८॥
१८. हाइंति वा (बी), हावंति (स)। ६. चिगि (जीभा १६३२), सर्वत्र।
१९. इक्किक्का (ला, ब), जीभा १६४०, प्रसा ८७० । ७. ओनि ५७८।
२०. तत्थ (ला, ब, स)। ८. दहिखीरसंजुयाणं (स), दहिखीरकंजि' (क)। २१.उ (स), वि (जीभा १६४१)। ९. अद्धं असणस्स (ला, ब, स)।
२२.बीओ (क)। १०.सवंज (स)।
२३.वि (मु)। ११. वाऊप' (मु, जीभा १६३८)।
२४.३१३/१-६-ये छहों गाथाएं ३१३ वीं गाथा की १२. पंकभा ७४१, व्यभा ३७०१, प्रसा ८६७, तु. मूला ४९१ व्याख्या प्रस्तुत करने वाली हैं। व्याख्यात्मक होने १३. प्रसा ८६८, जीभा (१६३९) गाथा का उत्तरार्ध इस के कारण इनको मूल निगा के क्रमांक में नहीं प्रकार है
जोड़ा है।
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पिंडनिर्युक्त
३१४. तं होति तं पुण
३१४/१. अंगारत्तमपत्तं,
जलमाणं
' अंगारं ति य वुच्चति २,
३१४/२. रागग्गिसंपलित्तो,
निद्दड्डुिंगालनिभं',
३१४/३. दोसग्गी
सइंगालं, जं होति सधूमं
३१६.
३१५ रागेण सइंगालं', छायालीसं दोसा,
तवस्सी,
भुंजंतो
आहारें ति१२ झाणज्झयणनिमित्तं,
वि जलतो, अप्पत्तिय धूमधूमियं
निद्दहति "
धूम
३१७. छहि कारणेहि साधू,
छहि चेव कारणेहिं,
३१८. वेदण- वेयावच्चे,
अंगारमित्तसरिसं, जा न भवति
रेि चरणिंधणं
आहारेति मुच्छितो जं आहारेति
इंधणं धूमं
तं चिय दङ्कं गते
फासुगं पि
दोसेण बोधव्वा"
वीतंगालं १३ च
सुवो
१. तु. मूला ४७७ ।
२. अंगारगं ति कुच्चइ (अ, बी), अंगार त्ति पवुच्चइ ( क ) । ३. ३१४/१ - ३ - ये तीनों गाथाएं ३१४ वीं गाथा की व्याख्या रूप हैं। इनको निगा के क्रम में न रखने से भी चालू विषय वस्तु के क्रम में कोई अंतर नहीं आता । व्याख्यात्मक होने के कारण इन्हें निगा के मूल क्रमांक में नहीं रखा है। ४. रागग्गीपज्जलिओ ( जीभा १६४८ ) ।
आहारेंतो वि
निज्जूहिंतो १४
५. निद्दद्धिंगारनिहं ( अ, स), निद्दडुंगाल° (क) ।
६. इंगारमेत्त' ( अ, बी), 'मित्तसेसं (ला, स, ब) ।
७. निद्दही (मु), णिड्डूहति (जीभा १६५२ ) । ८. सयंगाल ( स ) ।
इरिट्ठाए
तह पाणवत्तियाए, छट्टं
९. बाया (स) ।
१०. तु बोधव्वं ( अ, बी) ।
११. तु. जीभा १६५३; कुछ हस्तप्रतियों में बायालीसं
पुण
य
संतो। निंदतो ॥ ६५५ ॥
वि
तु ।
धूमे ॥ ६५६ ॥
आहारं । खिप्पं ॥ ६५७ ॥
भोयणविधी
विगतधूमं
आयरति
मुणेयव्वं ।
चरणं ।
ताव ॥ ६५८ ॥
|| ६५९ ॥ दारं ॥
च।
पवयणस्स ॥ ६६० ॥दारं ॥
धम्मं ।
आयरति १५ ॥ ६६१ ॥
संजमट्ठाए । धम्मचिंताए६ ॥ ६६२ ॥
९५
पाठ मिलता है। भोजन से संबंधित १६ उद्गम, १६ उत्पादन तथा १० एषणा - इस प्रकार ४२ दोष हो जाते हैं लेकिन टीकाकार ने छायालीसं पाठ की व्याख्या करते हुए भोजन से संबंधित छयालीस दोषों का उल्लेख किया है। अध्यवपूरक का मिश्रजात में अन्तर्भाव करने से उद्गम के १५ दोष होते हैं । १६ उत्पादना के दोष, १० एषणा के दोष तथा ५ ग्रासैसणा के दोष - इस प्रकार भोजन से संबंधित ४६ दोष होते हैं 1
१२. आहारेसि (ला, ब), रेमि (स) ।
१३. विगइंगालं (मु. क ), विगतिंगालं ( जीभा १६५४ ) ।
१४. निव्वूहिंतो (ला, ब), निज्जूहतो ( अ ) ।
१५. जीभा १६५७, मूला ४७८ ।
१६. जीभा १६५८, ठाणं ६ / ४१, उत्त २६ / ३२, प्रसा ७३७, ओनि ५८०, तु. मूला ४७९ ।
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पिंडनियुक्ति
३१८/१. नत्थि छुहाय सरिसिया', वियणा भुंजेज्ज तप्पसमणट्ठा।
छाओ वेयावच्चं, न तरति काउं अओ भुंजे ॥ ६६३ ।। ३१८/२. 'इरियं न विसोहेती', 'पेहादीयं च संजमं काउं५ ।
थामो वा परिहायति', 'गुणऽणुप्पेहासु य असत्तो" ॥ ६६४ ॥ ३१९. अहव न कुज्जाहारं, छहिं ठाणेहि संजए।
पच्छा पच्छिमकालम्मि, काउं अप्पक्खमं खमं ॥ ६६५ ।। ३२०. आतंके उवसग्गे, 'तितिक्खया बंभचेरगुत्तीसु१९ । पाणिदया२-तवहेउं,
सरीरवोच्छेदणट्ठाए१३ ॥ ६६६ ॥ १. सरिसा (मु), सरसिया (स)।
१०. गाथा का प्रथम चरण आर्या में तथा अंतिम तीन २. जीभा १६५९, ओभा २९०।
चरण अनुष्टुप् छंद में है। ३. इरियव्व न सोहेई (ला, ब), इरियं च ण सोहेती ११. “गत्तीए (जीभा १६६४), तितिक्खणे बंभचेरगत्तीए (जीभा), इरियं न वि सोहेइ (ओभा २९१)।
(ठाणं ६/४२)। ४. पेहाईया (स)।
१२. पाण' (अ, ब)। ५. खहितो भमलीय पेच्छ अंधारं (जीभा)।
१३. ठाणं ६/४२, उत्त. २६/३४, प्रसा ७३८, ओभा २९२, ६. "यउ (स)।
तु. मूला ४८०, ओघनियुक्ति में यह गाथा भाष्य ७. पेहादी संजमं ण तरे (जीभा १६६०), ३१८/१, २ के क्रम में है लेकिन वहां संभव लगता है कि
-ये दोनों गाथाएं प्रकाशित टीका में निगा के क्रम मुद्रण की असावधानी से यह भाष्य गाथा के में हैं लेकिन इन दोनों गाथाओं के लिए टीकाकार साथ जुड़ गई है क्योंकि वहां आहार करने के छह 'एनामेव गाथां गाथाद्वयेन विवृण्वन्नाह' का उल्लेख कारणों वाली गाथा निगा के क्रमांक में है। करते हैं। संभव लगता है कि लिपिकार द्वारा पिंडनियुक्ति में इस गाथा की व्याख्या में दो गाथाएं प्रकाशित होते समय 'भाष्यकारः' शब्द छूट गया (३२०/१, २) हैं लेकिन जीतकल्प भाष्य में इस हो। ओघनियुक्ति में ये दोनों गाथाएं भाष्य गाथा के गाथा की व्याख्या निम्न ६ गाथाओं में विस्तार से क्रम में हैं तथा टीकाकार ने भी 'अधुनैतां गाथां की गई हैभाष्यकृत प्रतिपदं व्याख्यानयति' का संकेत किया आयंको जरमादी, तम्मुप्पण्णे ण भुजें भणितं च। है। ये गाथाएं स्पष्ट रूप से भाष्य की प्रतीत होती सहसुप्पइया वाही, वारेज्जा अट्ठमादीहिं ॥ हैं। इनको मूल निगा के क्रम में नहीं जोड़ा है।
राया सण्णायादी, उवसग्गो तम्मि वी ण भंजेज्जा। आहार करने के छह कारणों की व्याख्या में जीभा
सहणट्ठा तु तितिक्खा, बाहिज्जंते तु विसएहिं ।। में निम्न दो गाथाएं और मिलती हैं। महत्त्वपूर्ण होने
भणितं च जिणिंदेहि, अवि आहारं जती ह वोच्छिंदे। के कारण उनका यहां निर्देश किया जा रहा है
लोगे वि भणिय विसया, विणिवत्तंते अणाहारे । आयु-सरीर-प्पाणादि, छव्विहे पाण ण तरती मोत्तुं । तद्धारण?तेणं, भुंजेज्जा पाणवत्तीयं ।।
तो बंभरक्खणट्ठा, ण वि भुंजेज्जा हि एवमाहारं । धम्मज्झाणं ण तरति, चिंतेउं पुव्वरत्तकालम्मि।
पाणदय वास महिया, पाउसकाले व ण वि भुजे॥ अहवा वी पंचविहं, ण तरति सज्झाय काउं जे॥ तवहेतु चउत्थादी, जाव तु छम्मासिओ तवो होति ।
(जीभा १६६१, १६६२) छटुं णिच्छिण्णभरो, छड्ढेतुमणो सरीरं तु॥ ८. कुज्ज आहारं (क, ओनि ५८१)।
असमत्थों संजमस्स उ, कतकिच्चोवक्खरं व तो देहं। ९. पश्चात-शिष्यनिष्पादनादिसकलकर्त्तव्यानंतरम् (मव)। छड्डम्मि त्ति न भुंजइ, सव्वह वोच्छेय आहारं ॥
(जीभा १६६५-७०)
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पिंडनियुक्ति
३२० / १. आतंको
३२१.
३२२.
३२३.
३२० / २ तवहेतु " चउत्थादी, जाव उ छम्मासिगो तवो होति । सरीरवोच्छेदणट्ठया,
छट्ठ
३२४.
बंभवत पालणट्ठा',
एतेहिं
धम्मं
जरमादी,
सोलस
'दस
'एसो
जा
ಕ
अणाहारो छहि ठाणेहिं, नाइक्कमे' भिक्खू, ' धम्मज्झाणरओ
उग्गमदोसा, सोलस
दोसा१०,
एसणाय
जह
भणितो सव्वभावदंसीहिं १२ ।
आहारविधी, धम्मावासगजोगा, जेण न हायंति तं कुज्जा४ ॥ ६७० ॥
भवे
विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स । अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स १५ ॥ ६७१ ॥
निज्जरफला,
सा
4
'राया - सन्नायगादि" पाणिदया
जयमाणस्स
होति
१. राय° (स), 'यगाई (अ), यगा व ( ओभा २९३) । २. 'वयरक्खणट्ठा (ला, ब, स ) ।
३. पाण' (ला, ब, स, ओभा) ।
४. हियाई (क, ओभा) ।
५. हेऊं (स) ।
६. ओभा २९४, तु. जीभा १६६९, ३२० / १, २ - इन गाथाओं को निगा के क्रम में नहीं रखा हैं। द्र. टिप्पण ३१८/१, २।
उवसग्गो ।
वासमहिगादी ॥ ६६७ ॥
७. य (ला, ब, स ) ।
८. ण अइक्कमे (ला, ब, ) ।
९. झाणजोगरओ (ला, ब, ओनि ५८२), झाणजोगगओ तवे (स), यह गाथा सभी हस्तप्रतियों में उपलब्ध है । मलयगिरि टीका की मुद्रित पुस्तक में यह गाथा पादटिप्ण में है। संपादक ने 'एषा गाथा
होतऽणाहारो ॥ ६६८ ॥
जो
उप्पायणाय
' संजोयणमादि
१३.
१४.
१५.
भवे ।
१९
भवे ॥
दोसा तु ।
पंचेव१९ ॥ ६६९ ॥
श्रीवीराचार्यकृत श्रीपिंडनियुक्तिवृत्तौ सूत्रे च दृश्यते श्रीमलयगिरिसूरिप्रणीत वृत्त्यादर्शेषु बहुषु न दृश्यते' ऐसा उल्लेख है । अवचूरि में यह गाथा है किन्तु निगा के क्रमांक में नहीं जोड़ी गई है। यह गाथा निर्युक्ति की होनी चाहिए। गा. ३२० वीं के साथ विषय की दृष्टि से इसका सीधा संबंध जुड़ता है। १०. x ( अ, बी) ।
११. 'माययं चेव (स), जीभा १६७१, पंचा १३/३१ १२. जीभा (१६७३ ) में इस गाथा का पूर्वार्द्ध इस प्रकार है
९७
एतद्दोसविमुक्को, भणिताहारो जिणेहिं साहूणं । धम्मोवासय' (ला, ब), धम्मावस्सग' (जीभा ) ।
व्यभा ३७०२ ।
ओनि ७५९, पिंप्र १०२ ।
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पिंडनियुक्ति भाष्य पिंडनियुक्ति और उसका भाष्य-ये दोनों ग्रंथ मिलकर एक रूप हो गए हैं। हस्तप्रतियों में भी बिना किसी निर्देश के दोनों ग्रंथ एक साथ लिखे हुए हैं। प्रकाशित टीका में संपादक ने कुछ गाथाओं के आगे भाष्य गाथा के क्रमांक लगाए हैं लेकिन यह पृथक्करण सम्यक् प्रतीत नहीं होता। ऐसा संभव लगता है कि टीकाकार ने जहां-जहां जिन गाथाओं के लिए भाष्यकार' का उल्लेख किया है, उन-उन गाथाओं एवं उनसे सम्बन्धित गाथाओं के आगे भाष्य के क्रमांक लगा दिए हैं। हमने भाष्य और नियुक्ति गाथाओं को पृथक् करने का प्राथमिक प्रयास किया है। पृथक्करण के समय अनेक स्थलों पर ऐसा अनुभव हुआ कि अनेक गाथाएं जो नियुक्ति के क्रम में प्रकाशित हैं, वे भाष्य की होनी चाहिए। यद्यपि इस कार्य में समय और शक्ति बहुत लगी, अनेक बार गाथाओं की संख्या बदलनी पड़ी। शताधिक बार पूरे ग्रंथ का परावर्तन करना पड़ा फिर भी यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि पृथक्करण का यह प्रयास पूर्णतया सही ही है। इस क्षेत्र में कार्य करने की और भी बहुत संभावनाएं हैं। इतना अवश्य है कि जो व्यक्ति इस क्षेत्र में कार्य करेंगे, उनके लिए यह पृथक्करण का प्रयास नींव का पत्थर साबित हो सकेगा।
भाष्य-गाथाओं को नियुक्ति-गाथा के साथ ही देना ठीक रहता। इससे संपादन में निर्णीत भाष्यगाथाओं के क्रमांक भी इनके साथ जुड़ जाते लेकिन टीका का संपादन न होने से शोध करने वालों की सुविधा के लिए यह उपक्रम नहीं किया गया। हमने जिन बिन्दुओं को पृथक्करण का आधार बनाया है, उसका भूमिका में विस्तार से उल्लेख किया है। टीकाकार द्वारा दिए गए भाष्यकार सम्बन्धी निर्देश तथा टीका में दी गई भाष्य-गाथा का यहां उल्लेख किया जा रहा है• एनामेव गाथां भाष्यकृत् सप्रपञ्चं व्याचिख्यासुः.....व्याख्यानयन्नाह (भागा. १-४ मवृ प. ४) • चाह भाष्यकृत् (भागा. ५ मवृ प. ५) • चाह भाष्यकृत् (भागा. ६ मवृ प. ६) • भाष्यकृदुपदर्शयति (भागा. ७ मवृ प. ६) • भाष्यकृद् गाथात्रयेण व्याख्यानयति (भागा. ८-१०, मवृ प. १३, १४) • एनामेव गाथां भाष्यकृद् व्याख्यानयति (भागा. ११, मवृ प. १४) • भाष्यकृद् गाथाचतुष्टयेन व्याख्यानयति (भागा. १२-१५, मवृ प. १८) • इमामेव गाथां भाष्यकृद् गाथात्रयेण व्याख्यानयति (भागा. २५-२७, मवृ प. ३८) • एनामेव गाथां भाष्यकृद् गाथात्रयेण व्याख्यानयति (भागा. २८-३०, मवृ प. ३८)
चाह भाष्यकृत् (भागा. ३१, मवृ प. ४२) • चाह भाष्यकृत् (भागा. ३२, मवृ प. ७९) • एनामेव गाथां भाष्यकृद्वयाचिख्यासुः प्रथमतो मिश्रजातस्य सम्भवमाह (भागा. ३३, मवृ प. ८८) • तत्रैनामेव गाथां भाष्यकद्वयाचिख्यासः प्रथमत: स्वस्थानमाह (भागा. ३४, मवृ प.८९) • भाष्यकृद् गाथाद्वयेनाह (भागा. ३५, ३६, म प.९२) • एतदेव रूपकत्रयेण भाष्यकृद्वयाख्यानयति (भागा. ३७-३९, मवृ प. ११७) • एतदेव गाथाद्वयेन भाष्यकृद्विवृणोति (भागा. ४०, ४१, मवृ प. १२६) • एतदेव गाथाद्वयेन भाष्यकृद्विवृणोति (भागा. ४२, ४३, मवृ प. १२८) • भाष्यकदगाथात्रयेण व्याख्यानयति (भागा. ४४-४६, म प. १४२) १. मुद्रित टीका में १५ के बाद सीधा २५ का क्रमांक है।
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पिंडनियुक्ति भाष्य
१.
गुणनिष्फण्णं गोण्णं, तं चेव जहत्थमत्थवी बेंति ।
तं पुणखमणो जलणो, तवणो पवणो पदीवो य ॥ १ ॥
गुण निष्पन्न नाम गौण कहलाता है। उसी को अर्थवेत्ता यथार्थ नाम मानते हैं । क्रिया के आधार पर यथार्थ नाम इस प्रकार हैं- क्षपण, ज्वलन, तपन, पवन, प्रदीप इत्यादि ।
२.
पिंडण बहुदव्वाणं, पडिवक्खेणावि जत्थ पिंडक्खा ।
सो समयकतो पिंडो, जह सुत्तं पिंडवडियाई ॥ २ ॥
अनेक द्रव्यों का समवाय न होने पर भी जहां 'पिंड' शब्द का प्रयोग होता है, वह समयकृत नामपिंड है; जैसे- सूत्र में पानी के लिए पिंड' शब्द का प्रयोग ।
३.
जस्स पुण पिंडवायट्टया पविट्ठस्स होति संपत्ती । गुलओदणपिंडेहिं', तदुभयपिंडमाहंसु ॥ ३ ॥
तं
आहार-लाभ हेतु प्रविष्ट साधु को जो गुड़, ओदन आदि पिंड की सम्प्राप्ति होती है, वह तदुभय ̈ पिंड कहलाता है।
४.
उभयातिरित्तमहवा, अण्णं पि हु अत्थि लोइयं नामं । अत्ताभिप्पायकतं, जह
सीहगदेवदत्तादी ॥ ४॥
गौण और समयज नाम के अतिरिक्त किसी अन्य आत्माभिप्राय कृत लौकिक नाम को रखना अनुभयज' नाम है, जैसे सिंहक, देवदत्त आदि ।
गोण्णसमयातिरित्तं, इणमन्नं वावि सूइयं नाम ।
जह पिंड त्ति कीरति, कस्सइ नामं मणूसस्स ॥ ५ ॥
गौण तथा समयज से रहित अर्थात् उभयातिरिक्त नाम (निर्युक्तिकार ने) 'अवि शब्द से सूचित किया है। उभयातिरिक्त नाम का उदाहरण है-जैसे किसी मनुष्य का नाम पिंड रख देना ।
१. खवणो (बी, अ) ।
२. इस गाथा के बाद क प्रति में निम्न गाथा मिलती है। टीकाकार ने इस गाथा की गाथा पुनरुक्त सी लगती है विषय की पुनरुक्ति है
अण्णं पिय अत्थि नामं, न केवलं परिभासियं तं तु । जह देवदत्त सीहग, गोवालिय इंदगो वाई ॥
व्याख्या नहीं की है। यह क्योंकि गाथा ४ में इसी
३. बहुयदव्वाणं (स)।
४. पिंडपडि (मु, ब) ।
५. कठिन द्रव्यों के परस्पर संश्लेष के अभाव में पानी के लिए 'पिंड' शब्द का प्रयोग अन्वर्थ रहित है लेकिन
९९
सिद्धांत में प्रसिद्ध है अतः यह समयज नाम भी कहलाता है (मवृप. ५) ।
प्राकृतलक्षणवशात् षष्ठ्यर्थे तृतीया (मवृ) ।
अन्वर्थयुक्त और समयप्रसिद्ध होने के कारण यह उभयज नाम भी कहलाता है (मवृ प. ५) ।
८. शौर्य-क्रौर्य आदि गुणों से रहित होने पर भी किसी का नाम 'सिंहक' रखना अथवा देव प्रदत्त न होने पर भी 'देवदत्त' नाम रखना अनुभयज नाम है। इसको उभयातिरिक्त नाम भी कहा जाता है (मवृ प. ५) ।
९
पिनिगा. ५ की व्याख्या में छह भाष्यगाथाएं (पिभा १-६) हैं। १०. देखें पिनि ५ ।
६.
७.
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________________
१००
पिंडनियुक्ति
६. तुल्ले वि अभिप्पाए, समयपसिद्धं न गिण्हते लोगो।
जं पुण लोगपसिद्धं, तं सामइया उवचरंति॥६॥ तुल्य अभिप्राय होने पर भी समयप्रसिद्ध नाम को सामान्य लोग स्वीकृत नहीं करते लेकिन जो लोकप्रसिद्ध नाम हैं, उनका प्रयोग सामयिक (समयप्रसिद्ध) भी करते हैं। ७. एक्को उ असब्भावे, तिण्हं ठवणा उ होति सब्भावे।
चित्तेसु असब्भावे, 'दारुय-लेप्पोवले' सितरो॥७॥ एक अक्ष, वराटक या अंगुलीयक को पिंड रूप में स्थापित करना असद्भाव विषयक स्थापना है।' तीन अक्ष, तीन वराटक या तीन अंगुलीयक को एक स्थान पर संश्लिष्ट करके पिंड रूप में रखना सद्भाव स्थापना है। चित्रकर्म में भी एक बिन्दु से पिंड स्थापना करना असद्भाव स्थापना है। अनेक बिन्दुओं से पिंड रूप में स्थापित करना सद्भाव स्थापना है। काष्ठ और लेप्य उपल में पिण्डाकृति बनाना सद्भाव स्थापना है।
पायस्स पडोयारों', पत्तगवज्जो या पायनिज्जोगो। दोन्नि निसिज्जाओ पुण, अब्जिंतर-बाहिरा चेव॥ ८॥ संथारुत्तरचोलग, पट्टा तिन्नि उ हवंति नातव्वा।
मुहपोत्तिय त्ति पोत्ती', एगनिसेज्जं च रयहरणं॥ ९॥ १०. एते 'न उ. वीसामे, पतिदिणमुवओगतो य जतणाए।
संकामिऊण धोवेति', छप्पइया तत्थ विहिणा उ॥१०॥ पात्र का उपकरण, पात्रवर्ज, पात्रनिर्योग, रजोहरण की बाह्य और आभ्यन्तर-दो निषद्याएं, तीन पट्ट-संस्तारक पट्ट, उत्तरपट्ट और चोलपट्ट, पोत्ति का अर्थ है-मुखपोत्ति, मुखवस्त्रिका, एक निषद्या से युक्त रजोहरण-इन सब उपधियों का प्रतिदिन यतनापूर्वक उपयोग होने से विश्रमणा करने की आवश्यकता नहीं है। जहां षट्पदिकाएं हों, उनको अन्यत्र संक्रमित करके विधिपूर्वक इन उपकरणों को धोना चाहिए। ११. धोवत्थं तिन्नि दिणे ९, उवरि पाउणति 'तह य१२ आसन्नं।
धारेइ तिन्नि दियहे, एगदिणं उवरि लंबतं३ ॥११॥ वस्त्र धोने के लिए साधु तीन दिन तक प्रावरण को ऊपर ओढ़ता है फिर तीन दिन पास में स्थापित
१. लेवोवले (स, अ)।
७. पुत्ती (क)। २.पिनि गा.६ की व्याख्या में एक भाष्यगाथा (पिभा ७) है। ८. उन (मु)। ३. एक अक्ष, वराटक या अंगुलीयक में पिण्डाकृति न बनने ९. धोवंति (अ.म), धोविज्ज (क), धोवेति (स)।
से वह असद्भाव स्थापना है। यद्यपि अक्ष में परमाणुओं १०. भाष्य गा.११ में विश्रमणा विधि का उल्लेख है। विस्तार का संघात है, इस दृष्टि से पिण्ड है पर वहां व्यवहार में हेतु देखें पिनि २२/२ का अनुवाद एवं टिप्पण। पिण्ड की आकृति नहीं बनती है (मवृ प. ७)। ११. दिणाणि (क)। ४. 'यारं (स, बी)।
१२. तहियं (क)। ५. उ (क)।
१३. पिनि गा. २२ की व्याख्या में चार भाष्यगाथाएं (पिभा ६. मुहपुत्ती (क)।
८-११) हैं।
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पिंडनियुक्ति भाष्य
१०१
करता है तथा एक दिन उसे संस्तारक के किनारे शरीर पर्यन्त फैलाकर अधोमुख लटका देता है। १२. निद्धेयरो य कालो', एगंतसिणिद्धमज्झिमजहन्नो।
लुक्खो वि होति तिविधो, जहण्ण मज्झो य उक्कोसो॥१२॥ काल दो प्रकार का होता है-स्निग्ध और रूक्ष । स्निग्ध काल भी तीन प्रकार का होता हैएकान्त स्निग्ध (अति स्निग्ध), मध्यमस्निग्ध और जघन्यस्निग्ध। रूक्ष काल भी तीन प्रकार का होता हैजघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। १३. एगंतसिणिद्धम्मी, पोरिसिमेगं अचेतणो होति।
बितियाए संमीसो, ततियाइ सचेतणो वत्थी' ॥ १३॥ एकान्त स्निग्धकाल में दृतिस्थ पवन एक पौरुषी तक अचित्त रहता है, दूसरी पौरुषी में मिश्र तथा तीसरी प्रहर में सचित्त हो जाता है। १४. मज्झिमनिद्धे दो पोरिसीउ अच्चित्तु मीसओ ततिए।
चउत्थीए सचित्तो, पवणो दइयाइ मज्झगतो॥१४॥ मध्यम स्निग्ध काल में दृतिस्थ पवन दो पौरुषी तक अचित्त रहता है, तीसरी पौरुषी में मिश्र तथा चौथी पौरुषी के प्रारंभ में ही सचित्त हो जाता है। १५. पोरिसितिगमच्चित्तो, निद्धजहन्नम्मि, 'मीसग-चउत्थी।
सच्चित्त पंचमीए, एवं लुक्खे वि दिणवुड्डी ॥१५॥ जघन्य स्निग्ध काल में दृतिस्थ अचित्त पवन तीन पौरुषी तक अचित्त रहता है, चौथी पौरुषी में मिश्र तथा पांचवीं पौरुषी के प्रारंभ में सचित्त हो जाता है। इसी प्रकार रूक्ष काल में पौरुषी के स्थान पर दिनवृद्धि समझनी चाहिए। १६. ओरालग्गहणेणं, तिरिक्खमणुयाऽहवा सुहुमवज्जा।
उद्दवणं पुण जाणसु, अतिवातविवज्जितं पीडं॥२५॥
औदारिक शब्द के ग्रहण से तिर्यञ्च'२, मनुष्य तथा सूक्ष्म वर्जित एकेन्द्रिय का ग्रहण होता है। १. ४ (स)।
रहती है, दूसरे दिन मिश्र तथा तीसरे दिन सचित्त हो २. सजल और शीत काल स्निग्ध तथा उष्ण काल रूक्ष जाती है। मध्यम रूक्षकाल में दो दिन तक अचित्त, कहलाता है (मवृ प. १८)।
तीसरे दिन मिश्र तथा चौथे दिन सचित्त हो जाती है। ३. द्धम्मि (क)।
उत्कृष्ट रूक्ष काल में वस्तिगत वायु तीन दिन तक ४. भइयाए (ब, स)।
अचित्त, चौथे दिन मिश्र तथा पांचवें दिन सचित्त हो ५. होइ (क)।
जाती है (मवृ प १८)। ६. गसच्चित्तो (क)।
११. जीभा ११०१, मुद्रित टीका में भाष्यगाथाओं के क्रमांक ७. मीसगे चउहा (अ, स)।
में १५ के बाद सीधा २५ का क्रमांक है। ८. पंचमाहिं (क, स)।
१२. तिर्यञ्च में एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के प्राणी समाविष्ट ९. पिनि २७/२ की व्याख्या में चार भाष्यगाथाएं (पिभा होते हैं। एकेन्द्रिय के दो भेद होते हैं-सूक्ष्म और बादर । १२-१५) हैं।
सूक्ष्म एकेन्द्रिय का अपद्रावण मनुष्य के द्वारा संभव १०. जघन्य रूक्ष काल में वस्तिगत वायु एक दिन तक अचित्त नहीं है इसलिए उसका यहां वर्जन किया गया है।
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पिंडनियुक्ति
अपद्रावण' का अर्थ अतिपात-विनाश रहित पीड़ा जानना चाहिए। १७. काय-वइ-मणो तिन्नि उ, अहवा देहाउ-इंदियप्पाणा।
सामित्तावायाणे', होति तिवाओ य करणेसुं॥२६॥ काय, मन और वचन अथवा देह, आयु और इंद्रिय-इन तीनों का स्वामित्व' अर्थात् षष्ठी तत्पुरुष, अपादान' अर्थात् पञ्चमी तत्पुरुष तथा करण-तृतीया तत्पुरुष से तिपात-अतिपात करना त्रिपातन है १८. हिययम्मि समाहेउं, एगमणेगं च गाहगं जो उ।
वहणं करेति दाता, कायाण तमाहकम्मं ति॥ २७॥ एक या अनेक साधु के लिए हृदय में सोचकर दाता जो षट्काय का वध करता है, वह आधाकर्म कहलाता है।
१९. तत्थाणंता' उ चरित्तपज्जवा होंति संजमाणं।
___ 'संखाईयाणि उ ताणि कंडगं होति नातव्वं'१० ॥२८॥ चारित्र के पर्यव अनंत होते हैं, उतने ही संयमस्थानक होते हैं। उनमें संख्यातीत कंडक' होते हैं। २०. संखाईयाणि उ१२ कंडगाणि छट्ठाणगं विणिद्दिटुं।
__ छट्ठाणा उ असंखा, संजमसेढी मुणेयव्वा ॥२९॥
संख्यातीत कंडक षट्स्थानक (अनंत भाग, अनंत गुण आदि छह प्रकार की वृद्धि-हानि वाले)होते हैं। असंख्येय षट्स्थानक संयमश्रेणी१३ कहलाते हैं।
१. अपद्रावण हेतु देखें पिनि गा. ६२ के अनुवाद का दूसरा होगा-काय, वचन और मन से तथा देह, आयु और टिप्पण।
इंद्रिय' से पातन-च्यावन करना त्रिपातन है (मवृप. ३७)। २. सामित्ते अवयाणे (अ, स)।
७. करण अर्थात् साधन की दृष्टि से काय, वचन और ३. उ (स, जीभा)।
मन-इन तीन करणों से अतिपात करना त्रिपातन है। ४. करणे य (ला, ब, स), करणम्मि (जीभा ११०२)। ८. तु (जीभा ११०३), पिंडनियुक्ति की ६२ वीं गाथा की ५. षष्ठी तत्पुरुष समास में काय, वचन और मन का पातन व्याख्या में तीन भाष्य गाथाएं (पिभा १६-१८) हैं। अर्थात् विनाश। यह परिपूर्ण गर्भज पंचेन्द्रिय मनुष्य ९. तत्थ अणंता (क, ब)। और तिर्यञ्चों की दृष्टि से जानना चाहिए। एकेन्द्रियों के १०. x (स), पिंडनियुक्ति की ६४ वीं गाथा की व्याख्या में केवल काय का, विकलेन्द्रिय एवं सम्मूर्च्छिम तिर्यञ्च तीन भाष्य गाथाएं (पिभा १९-२१) हैं। और मनुष्यों के काय और वचन का अतिपात जानना ११. कंडक का अर्थ है अंगुल मात्र क्षेत्र का असंख्येयभाग चाहिए। देह, आयु और इंद्रिय का अतिपात सभी गत प्रदेश राशि प्रमाण संख्या। कंडक एवं संयमस्थानक तिर्यञ्च और मनुष्यों पर घटित होता है। इनमें की व्याख्या हेतु देखें श्री भिक्षआगम विषयकोश भागभी एकेन्द्रिय की दृष्टि से औदारिक देह, आयु की २ पृ. ३४१, ३४२। अपेक्षा से तिर्यग आयु तथा इंद्रिय की अपेक्षा से स्पर्श १२. उ ताणि (क)। इंद्रिय जानना चाहिए। द्वीन्द्रिय में स्पर्शन और रसन- १३. मवृ प. ४१; चासङ्खयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि षट्
इन दो इंद्रियों का समावेश होता है (मवृ प. ३७)। स्थानकानि संयमश्रेणिरुच्यते-असंख्येय लोकाकाश६. अपादान-पंचमी तत्पुरुष की अपेक्षा से त्रिपात का निरुक्त प्रदेश प्रमाण षट्स्थानक संयमश्रेणी कहलाते हैं।
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पिंडनियुक्ति भाष्य
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२१. किण्हादिया उ' लेसा, उक्कोसविसुद्धिठितिविसेसाओ ।
एतेसि विसुद्धाणं, अप्पं तग्गाहगो कुणति॥ ३०॥ कृष्ण आदि लेश्या तथा उत्कृष्ट विशुद्धि और स्थिति वाली कर्म-प्रकृतियों को आधाकर्म भोजन ग्रहण करने वाला अधः-अधः (अल्प विशुद्धि और अल्पस्थिति वाला) करता है। २२. जाणंतमजाणतो, 'तहेव उद्दिसिय'३ ओहतो वावि।
जाणगमजाणगं वा, वहेति अनिदा निदा एसा ॥३१॥ जानते हुए उद्देश्यपूर्वक षट्काय का वध करना निदा तथा अजानकारी में सामान्य रूप से वध करना अनिदा है। २३. तत्थ विभागुद्देसियमेवं संभवति पुव्वमुद्दिटुं।
सीसगणहितट्ठाए, तं चेव विभागतो भणति ॥ ३२॥ प्रचुर खाद्य-सामग्री बचने पर विभाग औद्देशिक में यथावत् देना उद्दिष्ट है। शिष्य गण के हित के लिए विभाग औद्देशिक को विस्तार से कहा जा रहा है। २४. दुग्गासे तं समइच्छिया व अद्धाणसीसए जत्ता।
सड्डी बहुभिक्खयरे, मीसज्जातं करे कोई१० ॥३३॥ दुर्भिक्ष अतिक्रान्त होने पर कोई श्रद्धालु कान्तार के प्रवेश या निर्गम मार्ग पर अथवा तीर्थ-यात्रा में अनेक भिक्षाचरों को प्राप्त करके भोजन पकाता है, वह मिश्रजात है। २५. चुल्ली अवचुल्लो वा, ठाणसठाणं११ तु भायणं पिहडे१२ ।
सट्ठाणट्ठाणम्मि य, भायणठाणे१३ य चउभंगा ॥ ३४॥ स्थान दो प्रकार का होता है-१. स्थान स्वस्थान २. भाजन स्वस्थान । चुल्ली अवचुल्ली स्थान स्वस्थान है तथा पिठर-स्थाली आदि भाजन स्वस्थान हैं। स्थान स्वस्थान तथा भाजन स्वस्थान की चतुर्भंगी इस प्रकार है
• चुल्ली पर स्थापित, पिठर पर भी। • चुल्ली पर स्थापित, पिठर पर नहीं। (छब्बक आदि में स्थित होने के कारण)
१. x (क, ब)।
८. दुःखेन ग्रासो यत्र तद् दुर्गासं (मवृ प. ८८)। २. विसुद्ध (ब, क)।
९. 'च्छिउं (मु)। ३. वहेति णिद्दिसिय (जीभा १११६)।
१०. पिनि १२० वीं गाथा की व्याख्या में एक भाष्यगाथा ४. जाणग अजाणए (क, बी)।
(पिभा २४) है। ५. पिनि ६५ वीं गाथा की व्याख्या में एक भाष्य गाथा (पिभा ११. सट्ठाणं (क, ब)। २२) है।
१२. पिढरे (मु)। ६. 'मेयं (स)।
१३. णट्ठाणे (क)। ७. संबंध गाथा के रूप में भाष्यकार ने यह गाथा १४. भगो (ला, क), पिनि १२६ की व्याख्या में यह (पिभा २३) लिखी है।
भाष्यगाथा (पिभा २५) है।
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·
चुल्ली पर स्थापित नहीं, पिठर पर स्थापित । (चूल्हे से दूर पिठर में स्थापित ) • न चुल्ली पर स्थापित, न ही पिठर पर । (चूल्हे से दूर छब्बक आदि में स्थापित ) कत्तामि ताव पेलूं, तो ते देहामि पुत्त ! मा रोव ।
२६.
'जइ तं सुणेति साहू, न गच्छते तत्थ आरंभो ॥ ३५ ॥
२७.
अन्नट्ठ उट्ठिया वा, तुब्भ वि देमि त्ति किं पि परिहरति । किह दाणि न उट्ठहिसी ?, साधुपभावेण लब्भामो ॥ ३६ ॥ (बालक के द्वारा भोजन मांगने पर रूई की पूर्णिका कातती हुई स्त्री कहती है - ) 'मैं अभी रूई कात रही हूं। इसके बाद मैं तुम्हें भोजन दूंगी अतः तुम मत रोओ' इस वाक्य को सुनकर साधु भिक्षा के लिए अंदर न जाए क्योंकि वहां आरंभ - हिंसा की संभावना है। यदि मां यह कहती है कि अन्य प्रयोजन से उलूंगी तो तुम्हें भी भोजन दूंगी तो भी साधु उसका परिहार करता है अथवा साधु के आने पर यदि बालक अपनी मां को कहता है कि तुम क्यों नहीं उठती हो ? साधु के प्रभाव से हमें भी भोजन मिलेगा। बालक के इन वचनों को सुनकर भी साधु दीयमान आहार का परिहार करता है ।
२८.
सुक्केण वि 'जं छिक्कं ५, तु असुइणा धोव्व
जहा लोगे । इह सुक्केण वि छिक्कं, धोव्वति कम्मेण भाणं तु ? ॥ ३७ ॥
जिस प्रकार शुष्क अशुचि से स्पृष्ट होने पर भी लोक में उस भाजन या वस्तु को धोया जाता है, वैसे ही अलेप आधाकर्मिक वल्ल, चणक आदि का स्पर्श होने पर भी पात्र का कल्पत्रय से शोधन करना
अनिवार्य है।
२९.
लेवालेव त्ति जं वुत्तं, जं पि
दव्वमलेवडं ' ।
तंपि घेत्तुं ण कप्पंति, तक्कादि किमु लेवडं २९ ॥ ३८ ॥ अलेपकृद् आधाकर्मिक वल्ल, चणक आदि के ग्रहण करने पर भी कल्पत्रय के बिना उस पात्र में भोजन कल्पनीय नहीं होता फिर तक्र आदि लेपयुक्त पदार्थ का तो कहना ही क्या ? आहाय जंकीरति तं तु कम्मं, वज्जेहिही " ओदणमेगमेव । सोवीर आयामग चाउलोदं", कम्मं ति तो तग्गहणं करेंति१२ ॥ ३९ ॥ साधु के निमित्त से जो आधाकर्मिक ओदन आदि बनाया जाता है, उसके संदर्भ में
३०.
कुछ
१. तं जइ (मु) ।
२. तु. जीभा १२३० ।
३. पभावा वि (स, ला) ।
४. पिभा २६, २७ में अपसर्पणरूप सूक्ष्मप्राभृतिका का वर्णन
है। ये गाथाएं वास्तव में निर्युक्ति की होनी चाहिए लेकिन टीकाकार ने 'भाष्यकृद् गाथाद्वयमाह' का उल्लेख किया है अत: इसे भाष्यगाथा के रूप में रखा है।
५. जच्छिक्कं ( अ, स) ।
पिंडनियुक्ति
६. धोवए (मु) ।
७. जीभा १२९८ ।
८.
दव्व अलेवडं (स) ।
९.
जीभा १२९९ ।
१०. 'हिहि (स) ।
आचार्यों
११. चाउलो वा (मु),
लोदगं (ला) ।
१२. करंति ( अ, क ), पिनि गा. १९१ की व्याख्या में तीन भाष्यगाथाएं (पिभा २८-३०) हैं ।
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पिंडनियुक्ति भाष्य
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की यह मान्यता है कि ओदन ही आधाकर्म होता है, शेष सौवीर, अवश्रावण और तण्डुलोदक आदि आधाकर्मिक नहीं होते अतः वे उनका ग्रहण करते हैं।' ३१. ओमे संगमथेरा, गच्छ विसज्जंति जंघबलहीणा।
नवभागखेत्तवसधी, दत्तस्स य आगमो ताहे ॥४०॥ ३२. 'उवसयबाहिं ठाणं'३, अन्नाउंछेण संकिलेसो य।
पूयणचेडे मा रुद, पडिलाभण विगडणा सम्मं॥४१॥ दुर्भिक्ष में संगम स्थविर ने जंघाबल की क्षीणता के कारण गच्छ का विसर्जन कर दिया। कोल्लिकेर नगर के नवभाग करके वही रहना प्रारंभ कर दिया। कुछ दिनों बाद शिष्य दत्त का आगमन हुआ। वह उपाश्रय के बाहर रुका। अज्ञात उञ्छ भिक्षा से वह मानसिक रूप से संक्लिष्ट हो गया। सेठ का बालक पूतना व्यन्तरी से प्रभावित था। आचार्य ने 'मत रोओ' ऐसा कहकर चप्पुटिका बजाई, जिससे भिक्षा की प्राप्ति हुई। शिष्य ने सम्यक् आलोचना की। ३३. दाराभोगण एगागि, आगमों५ परियणस्स पच्चोणी ।
'पुच्छा समणे कहणं", साइयंकार सुविणादी ॥ ४२ ॥ ३४. कोवो वलवागब्भं, च पुच्छितो पंचपुंडमाइंसु ।
फालणदिढे जइ नेवं, तो१ तुह२ अवितहं कइ वा॥ ४३॥ दूरगत ग्रामनायक एकाकी आया, परिजनों को सामने आते हुए देखकर उसने आने का कारण पूछा। उन्होंने कहा-'साधु ने कहा है।' विश्वास के लिए स्वप्न आदि की बात कही। कोप से गृहनायक ने पूछा-'घोड़ी के गर्भ में क्या है ?' नैमित्तिक साधु ने कहा-'पंचपुंड्र किशोर (घोड़ी का बच्चा) है।' घोड़ी का पेट फाड़ने पर वही निकला। यदि ऐसा नहीं होता तो तुम्हारा भी वध हो जाता। ऐसे कितने नैमित्तिक हैं, जो अवितथ निमित्त का कथन करते हैं।१३
१. टीकाकार मलयगिरि ने स्पष्टता से उल्लेख किया है कि ७. पुच्छ ति य समणं (क), नियुक्तिकार भद्रबाहु ने सौवीर, अवश्रावण और पुच्छा य खमणकहणं (निभा २६९५, ४४०७)। तण्डुलोदक को आधाकर्म माना है। गाथा १९१ में भी ८. सुमिणाई (क, मु), कथा के विस्तार हेतु देखें नियुक्तिकार ने इसी बात की पुष्टि की है।
परि. ३, कथा सं. २८। २. निभा ४३९३, पिनि गा. १९९ में आई कथा का विस्तार ९. वडवा (बी, मु)।
दो भाष्यगाथाओं (पिभा ३१, ३२) में हुआ है। १०. भणति पंचपुंडासो (निभा २६९६), ३. उवसग्गबहिट्ठाणं (निभा ४३९४)।
पंच पुंडगा संतु (निभा ४४०८)। ४. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. २६ । ११. तु (क)। ५. आगओ (ला, मु)।
१२. तुहं (मु, जीभा १३४७)। ६. पच्चोणी-सन्मुखागमनं (मवृ)।
१३. पिनि गा. २०५ में आई कथा का विस्तार दो
भाष्यगाथाओं (पिभा ३३, ३४) में हुआ है।
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पिंडनियुक्ति
३५. जंघाहीणा' ओमे, कुसुमपुरे सिस्सजोगरहकरणं ।
खुड्ड दुगंजणसुणणं, गमणं 'देसंत ओसरणं॥४४॥ ३६. भिक्खे परिहायंते, थेराणं 'तेसि ओमें ५ देंताणं।
सहभुज चंदगुत्ते , ओमोदरियाएँ दोब्बल्लं ॥ ४५ ॥ ३७. चाणक्क पुच्छ इट्टालचुण्ण दारं पिहित्तु धूमे य।
दटुं कुच्छपसंसा, थेरसमीवे उवालंभो ॥४६॥ जंघाबल से हीन आचार्य कुसुमपुर नगर में रहने लगे। दुर्भिक्ष होने पर योग्य शिष्य को एकान्त में (योनिप्राभृत) ग्रंथ की वाचना दी। दो क्षुल्लक मुनियों ने वह सुन ली। शिष्य को आचार्य बनाकर देशान्तर में प्रेषित कर दिया। दुर्भिक्ष में भिक्षा की कमी होने पर भी आचार्य क्षुल्लकद्वय को बांटकर आहार करते। बाद में अंजन-प्रयोग से अदृश्य होकर क्षुल्लकद्वय राजा चन्द्रगुप्त के साथ भोजन करने लगे। ऊणोदरी से चन्द्रगुप्त को दुर्बलता का अनुभव होने लगा। चाणक्य ने कारण पूछा। उसने ईंट का बारीक चूर्ण सब जगह फैला दिया और द्वार बंद करके चारों ओर धुंआ कर दिया। क्षुल्लकद्वय को देखकर चन्द्रगुप्त ने जुगुप्सा की। चाणक्य ने प्रशंसा की। समीप जाने पर आचार्य ने चाणक्य को उपालम्भ दिया।
१. हीणे (निभा ४४६३)। २. जोगसीसपरिकहणं (क), जोग्ग (स)। ३. “सुणणा (मु, स, अ)। ४. देसंतरे सरणं (मु, बी)। ५. ओमे तेसिं (स, तु.जीभा १४५३)। ६. भोज्जं (स, ला)।
७. चंदउत्ते (क)। ८. इट्टाण (स)। ९. जीभा १४५५, पिनि गा. २३० में संकेतित चाणक्य और
दो क्षुल्लक की कथा का विस्तार तीन भाष्यगाथाओं
(पिभा ३५-३७) में हुआ है। १०. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ४२।
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अनुवाद
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पिंडनियुक्ति-अनुवाद १. पिंडनियुक्ति के आठ प्रकार हैं-उद्गम, उत्पादन, एषणा, संयोजना, प्रमाण, इंगाल-धूम आदि दोष
और आहार के कारण। २. पिंड शब्द के बारह पर्याय हैं—पिंड, निकाय, समूह, संपिण्डन, पिण्डन, समवाय, समवसरण, निचय, उपचय, चय, युग्म और राशि। ३. पिंड शब्द के चार या छह प्रकार से निक्षेप करने चाहिए। निक्षेप करने के पश्चात् पिंड की प्ररूपणा करनी चाहिए।
१. यह ग्रंथ के अर्थाधिकार की संग्रह गाथा है अत: इसमें पिण्ड से संबधित आठ अर्थाधिकारों का उल्लेख मात्र किया गया
है । इन्हीं अधिकारों की ग्रंथकार ने क्रमशः विस्तृत व्याख्या की है। २. टीकाकार वीराचार्य के अनुसार एकान्त भेद की अपेक्षा कोई भी शब्द किसी शब्द का एकार्थक नहीं हो सकता क्योंकि
सब पदार्थ एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं अत: घट शब्द कुट शब्द का एकार्थक नहीं हो सकता। इसी प्रकार एकान्त अभेद पक्ष में भी सब पदार्थ अपने स्वरूप में स्थित हैं अत: घट शब्द का घट शब्द अभिन्न एकार्थक है, कुट आदि एकार्थक नहीं हैं (अव वृ प. १३८)।
पिण्ड शब्द के एकार्थक में बारह शब्दों का उल्लेख है। टीकाकार के अनुसार ये सभी शब्द प्रतिनियत व भिन्नभिन्न समूहों के वाचक हैं लेकिन सामान्य रूप से समूह अर्थ के वाचक होने से इन सभी को एकार्थक माना है। पिंडादयः शब्दा: लोके प्रतिनियत एव संघातविशेषे रूढाः, तथापि सामान्यतो यद् व्युत्पत्तिनिमित्तं संघातत्वमात्रलक्षणं तत् सर्वेषामप्यविशिष्टमिति कृत्वा सामान्यत: सर्वे पिण्डादयः शब्दा एकार्थिका उक्ताः ततो न कश्चिद्दोषः (मवृ प. २)। पिण्ड आदि शब्दों की अर्थ-परम्परा इस प्रकार है
• पिण्ड-बहुत चीजों को मिलाकर एक पिण्ड बनाना। • निकाय-भिक्षुओं का समूह। • समूह-मनुष्यों का समुदाय। • सपिण्डन-तिलपपड़ी में तिलों का परस्पर सम्यक् संयोग। • पिण्डन-वस्तु का संयोग। • समवाय-वणिकों का समूह । •समवसरण-तीर्थंकरों की परिषद, अनेक वादियों का मिलन-स्थल। • निचय-सूअर आदि पशुओं का संघात । • उपचय-पूर्व समूह में वृद्धि होना। • चय-ईंटों की रचना, दीवार आदि बनाना। • युग्म-दो पदार्थों का मिलना, अक्ष युगल का संघात आदि।
• राशि-मूंगफली आदि का ढेर। ३. टीकाकार वीराचार्य ने एक प्रश्न उपस्थित किया है कि युग्म में दो वस्तुओं का संघात होता है अत: उसमें पिंडत्व कैसे
घटित हो सकता है? इसके उत्तर में मान्यता विशेष का उल्लेख करते हुए वे कहते हैं कि जीवनभर साथ रहने वाले दो भारुण्ड पक्षी एक शरीर में रहते हैं अतः इस दृष्टि से वह पिंड हो गया। दूसरी मान्यता का उल्लेख करते हुए टीकाकार कहते हैं कि मुख्य रूप से तीन या तीन से अधिक पदार्थों का मिलन ही पिण्ड कहलाता है लेकिन गौण रूप से भिन्न शरीर वाली दो कपर्दिकाओं का एक स्थान में मिलन भी पिंड कहलाता है (अव वृ प. १३८)।
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पिंडनियुक्ति
३/१. जैसे चार सेतिका प्रमाण एक कुलक में उसका चतुर्थभाग (एक सेतिका) नियमत: विद्यमान है, वैसे ही छह निक्षेपों में चार निक्षेप नियमतः विद्यमान हैं इसलिए छह निक्षेप करने चाहिए। ४. पिंड शब्द के छह निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। ५. नामपिंड के चार प्रकार हैं-गौण', समयकृत, तदुभयज तथा अनुभयज। अब मैं स्थापना पिंड के बारे में कहूंगा। ६. स्थापनापिंड दो प्रकार का है-सद्भावस्थापना पिंड तथा असद्भावस्थापना पिंड। उनके उदाहरण हैं-अक्ष, वराटक, काष्ठ, पुस्त (मिट्टी का शिल्पकार्य) तथा चित्रकर्म आदि। ७. द्रव्यपिंड तीन प्रकार का है-सचित्त, मिश्र और अचित्त। प्रत्येक प्रकार के फिर नौ-नौ भेद हैं। ८. वे नौ भेद ये हैं-पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय
१. गौण नाम-गुण के अनुरूप नाम रखना, जैसे शक्ति सम्पन्न व्यक्ति का महावीर नाम। यह गुण और क्रिया दोनों के आधार
पर हो सकता है। गाय का नाम गोत्व के आधार पर नहीं अपितु उसकी प्रवृत्ति गमन-क्रिया के आधार पर है, जैसेगच्छतीति गौ। टीकाकार मलयगिरि ने गौण नाम के तीन भेद किए हैं-द्रव्यनिमित्त २. गुणनिमित्त ३. क्रियानिमित्त ।
द्रव्य नाम व्युत्पत्ति निमित्त होता है, जैसे-श्रृंगी, दन्ती आदि (मवृ प. ३,४)। २. समयज-अर्थरहित लेकिन सिद्धान्त में प्रसिद्ध नाम । व्यवहार में तरल पदार्थों के समूह को पिंड नहीं कहा जाता लेकिन
शास्त्र (आयारचूला १/७) में पानी के लिए पिंड शब्द का प्रयोग हुआ है अतः कठिन द्रव्य के संश्लेष के अभाव में भी
पानी का पिंड नाम समय प्रसिद्ध है लेकिन अन्वर्थ युक्त नहीं है, ओदन के लिए प्राभृतिका नाम भी समयज नाम है। ३. तदुभयज-गुणनिष्पन्न और समयप्रसिद्ध नाम, जैसे-धर्मध्वज का नाम है रजोहरण । बाह्य और आभ्यन्तर रज को हरण __ करने के कारण इसे रजोहरण कहा जाता है इसलिए कारण में कार्य का उपचार करके इसका नाम रजोहरण रखा गया है। ४. अनुभयज-अन्वर्थरहित और सिद्धान्त में अप्रसिद्ध नाम। भाष्यकार ने इसके लिए उभयातिरिक्त नाम का उल्लेख किया है। नियुक्तिकार ने नाम का उल्लेख न करके 'अवि' शब्द से इसका ग्रहण किया है, जैसे-शौर्य आदि के अभाव में किसी का नाम सिंह रख देना (मवृ प. ३,४)।
भाष्यकार ने इन चारों नाम की विस्तृत व्याख्या की है। टीकाकार ने एक प्रश्न उपस्थित किया है कि समयकृत और उभयातिरिक्त इन दोनों में विशेष अंतर नहीं है क्योंकि दोनों नाम अन्वर्थ से विकल हैं अत: दो का उल्लेख न करके एक का ही निर्देश किया जा सकता था। इसका उत्तर देते हुए टीकाकार कहते हैं कि जो लौकिक सांकेतिक नाम हैं, उनका व्यवहार सामान्य व्यक्ति करते हैं लेकिन जो सिद्धान्त प्रसिद्ध नाम हैं, उनका व्यवहार सामान्य व्यक्ति नहीं करते, जैसे भोजन के लिए 'समुद्देश' शब्द का प्रयोग अत: दोनों का पृथक् उल्लेख किया गया है। इसी प्रकार गौण और समयकृत दोनों ही अन्वर्थ युक्त नाम हैं लेकिन गौण नाम का प्रयोग सामान्य व्यक्ति करते हैं तथा समयकृत का सामान्य
व्यक्ति नहीं अपितु सामयिक ही करते हैं (मवृ प.६)। ५. अनेक वस्तुओं को एक साथ एकत्रित करके स्थापित करना सद्भावस्थापना पिंड है तथा जहां केवल एक अक्ष या केवल
वराटक आदि में कल्पना के रूप में पिंड की स्थापना की जाती है, वह असद्भावस्थापना पिंड है। एक अक्ष भी अनेक
परमाणुओं से बना है, इस दृष्टि से वह पिंड ही है (मवृ प. ७)। ६. पिंडनियुक्ति में सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यपिंड आदि के नौ-नौ भेद किए हैं लेकिन ओघनियुक्ति में पात्र आदि के लिए
लेपपिंड को दसवें अचित्त द्रव्यपिंड के रूप में स्वीकृत किया है (ओनि ३३६; लेवो य दसमो उ)।
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अनुवाद
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९. पृथ्वीकाय के तीन प्रकार हैं-सचित्त, मिश्र और अचित्त । सचित्त पृथ्वीकाय के दो भेद हैं-निश्चय सचित्त और व्यवहार सचित्त। १०. महापर्वतों का बहुमध्यभाग निश्चयसचित्त पृथ्वी है तथा अचित्त और मिश्र पृथ्वी को छोड़कर (अरण्य आदि की) सारी पृथ्वी व्यवहार सचित्त पृथ्वी है। ११. क्षीरद्रुम-वट, अश्वत्थ आदि वृक्षों के नीचे की पृथ्वी, पंथ-ग्राम और नगर के बाहर के मार्ग की पृथ्वी, कृष्ट-हल द्वारा विदारित भूमि, आर्द्र-जलमिश्रित पृथ्वी', ईंधन-गोबर आदि से मिश्रित पृथ्वीये सब मिश्र पृथ्वीकाय हैं। अधिक ईंधन के मध्यगत पृथ्वी एक प्रहर तक, मध्यम ईंधन से संपृक्त पृथ्वी दो प्रहर तक तथा अल्प ईंधन से संपृक्त पृथ्वी तीन प्रहर तक मिश्र पृथ्वीकाय के रूप में रहती है। (बाद में वह अचित्त हो जाती है)। १२. इन चीजों से पृथ्वीकाय अचित्त होता है-शीत, उष्ण', क्षार, क्षत्र, अग्नि, लवण, ऊष', अम्ल (खटाई), स्नेह, तैल आदि । व्युत्क्रान्तयोनि अर्थात् प्रासुक पृथ्वीकाय से साधुओं का प्रयोजन होता है। १३. अपराद्धिक अर्थात् मकड़ी आदि के दंश से होने वाला फफोला तथा विष-सर्पदंश आदि, इनके उपशमन हेतु प्रलेप-बंध करने में अचित्त पृथ्वीकाय का उपयोग होता है। अचित्त लवण भोजन आदि में गृहीत होता है। अचित्त सुरभिउपल' अर्थात् गंधरोहक नामक पाषाण का सप्रयोजन ग्रहण होता है।
१. वट, अश्वत्थ आदि के वृक्ष क्षीरद्रुम कहलाते हैं। इनके माधुर्य के कारण शस्त्र का अभाव होने से कुछ पृथ्वीकाय के जीव
सचित्त रहते हैं तथा शीत आदि शस्त्र के सम्पर्क से कुछ अचित्त हो जाते हैं अतः इन वृक्षों के नीचे मिश्र पृथ्वीकाय रहती है (मवृ प. ८)। २. मेघ का जल जब सचित्त पृथ्वीकाय पर गिरता है तो कुछ समय तक जलार्द्र पृथ्वी मिश्र रहती है। अन्तर्मुहूर्त बाद अचित्त
हो जाती है क्योंकि पृथ्वी और पानी दोनों आपस में शस्त्र हैं। जब तक सर्वथा परिणत नहीं होती, तब तक पृथ्वी मिश्र रहती
है (मवृ प.८)। ३. यहां उष्ण' शब्द से सूर्य का परिताप गृहीत है। अग्नि का परिताप'अग्नि' शब्द से गृहीत है (मवृ प.८)। ४. करीष विशेष (अव प. ४)। ५. मवृ प.८; ऊषरादिक्षेत्रोद्भवो लवणिमसम्मिश्रो रजोविशेषः । ऊष-ऊषर क्षेत्र में उत्पन्न लवण मिश्रित रजकण विशेष। ६. पृथ्वीकाय की अचित्तता चार प्रकार से होती है-१. द्रव्यतः २. क्षेत्रतः ३. कालत: ४. और भावतः ।स्वकाय या परकाय शस्त्र
से जो पृथ्वी अचित्त होती है, वह द्रव्यतः है। क्षार क्षेत्र में उत्पन्न और मधुरक्षेत्र में उत्पन्न पृथ्वी का आपस में सम्पर्क होने से जो पृथ्वी अचित्त होती है, वह क्षेत्रतः है। इसमें क्षेत्र विशेष की प्रधानता विवक्षित है। सौ योजन के आगे पृथ्वीकाय को ले जाने पर भिन्न आहार तथा शीत आदि के सम्पर्क से पृथ्वी अचित्त हो जाती है, यह भी क्षेत्रत: अचित्त होना है। स्वभावतः आयु क्षय होने पर जो पृथ्वी अचित्त होती है, वह कालतः है। अतिशय ज्ञानी ही इस बात को जान सकते हैं, छद्मस्थ नहीं। यही कारण है कि आयु क्षय होने पर अचित्त जल वाले तड़ाग का पानी पीने की भगवान् महावीर ने अनुज्ञा नहीं दी कि कहीं आगे आने वाले साधु सचित्त तड़ाग के जल का सेवन न करें। भावतः अचित्त होने का अर्थ है-वर्ण, रस
आदि का बदलना (मवृ प. ८,९)। ७. म प. ९; सुरभ्युपलेन गन्धपाषाणेन गन्धरोहकाख्येन प्रयोजनं, तेन हि पामाप्रसतवातघातादिः क्रियते। सुरभि उपल
अर्थात् गंधरोहक नामक पाषाण के द्वारा खुजली से उत्पन्न वात आदि का निराकरण किया जाता था।
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पिंडनियुक्ति
अचित्त पृथ्वीकाय के कुछ अन्य प्रयोजन इस प्रकार हैं१४. स्थान-कायोत्सर्ग, निषीदन, शयन, उच्चार आदि का उत्सर्ग करने के लिए अचित्त पृथ्वी का उपयोग होता है तथा घुट्टक-लेपित पात्र को चिकना करने में प्रयुक्त पाषाण विशेष, डगलक-उच्चार प्रस्रवण के पश्चात् अपानमार्ग को शुद्ध करने वाला पाषाण-खंड तथा पात्र-लेप आदि इस प्रकार अचित्त पृथ्वीकाय का बहुविध प्रयोग होता है। १५. अप्काय के तीन भेद हैं-सचित्त, मिश्र और अचित्त। सचित्त अप्काय के दो प्रकार हैं-निश्चय सचित्त अप्काय तथा व्यवहार सचित्त अप्काय। १६. घनोदधि, घनवलय', करक-ओला तथा समुद्र और द्रह के बहुमध्यभाग में निश्चयसचित्त (एकान्त सचित्त) अप्काय होता है। कूप, वापी, तड़ाग आदि का अप्काय व्यवहारतः सचित्त होता है। १७. अनुवृत्त उष्णजल तथा बरसती हुई वर्षा का पानी मिश्र अप्काय होता है। तीन आदेशों-मतों या परम्पराओं को छोड़कर चावल का पानी, जो अत्यन्त स्वच्छ नहीं है, वह भी मिश्र अप्काय है। १७/१. तण्डुल-उदक के तीन आदेश-मत इस प्रकार हैं
• तण्डुल को धोकर एक बर्तन से दूसरे बर्तन में डालने पर जो पानी के बिन्दु बर्तन के पार्श्व में
लग जाते हैं, वे जब तक नहीं सूखते, तब तक वह तण्डुलोदक मिश्र माना जाता है। • तण्डुल को धोकर दूसरे बर्तन में डालने पर जो बुबुदे उठते हैं, वे जब तक शांत नहीं होते,
तब तक तण्डुलोदक मिश्र होता है। • तण्डुलोदक में जब तक चावल नहीं पकते, तब तक वह तण्डुलोदक मिश्र होता है, (ये तीन
मत हैं)। १. नरक पृथ्वी का आधारभूत ठोस अप्काय वाला समुद्र। (मत प. ९) घनोदधि, घनवात आदि शब्दों की वैज्ञानिक दृष्टि से
तुलना हेतु देखें भगवती भाष्य भाग १ पृ. १३६ । २. नरक पृथ्वियों के पार्श्ववर्ती अप्कायमय परकोटा (मव प. ९)। ३. तीन उबाल वाला उष्णजल प्रासुक माना जाता है। पहले उबाल में वह कुछ परिणत होता है, दूसरे में अधिकांश परिणत ___ हो जाता है तथा तीसरे में वह पूर्णरूप से अचित्त रूप में परिणत हो जाता है (मवृ प. १०)। ४. ग्राम, नगर आदि में बरसने वाला पानी मनुष्य, तिर्यञ्च आदि के आवागमन से उनके सम्पर्क के कारण पूर्ण अचित्त नहीं होता अत: मिश्र होता है। ग्राम, नगर आदि के बाहर यदि कम वर्षा होती है तो पृथ्वीकाय से परिणत होने पर वह जल मिश्र रहता है। जब बहुत तेज वर्षा होती है तब प्रारंभ की वर्षा का जल पृथ्वीकाय के सम्पर्क से परिणत होकर मिश्र रहता है
लेकिन बाद में बरसने वाला जल सचित्त होता है (मवृ प. १०)। ५. तीन आदेशों की व्याख्या हेतु देखें गा. १७/१ का अनवाद। ६. आप्टे की डिक्शनरी (प. ४१६) में चावल की चार अवस्थाएं बताई गई हैं
शस्यं क्षेत्रगतं प्रोक्तं, सतुषं धान्यमुच्यते।
निस्तुषः तण्डुलः प्रोक्तः, स्विन्नमन्नमुदाहतम्॥ क्षेत्रगत चावल शस्य, तुष सहित चावल धान्य, तुष रहित चावल तण्डुल तथा पकाया हुआ चावल अन्न कहलाता है।
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अनुवाद
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१७/२. ये तीनों आदेश अनादेश हैं क्योंकि इनमें काल-नियमन संभव नहीं है। प्रतिनियत काल न होने के निम्न कारण हैं-बर्तन का रूक्ष या स्निग्ध होना, तेज अथवा मंद वायु का सम्पर्क होना तथा तण्डुल के पकने में काल की अनियतता। १७/३. जब तक तण्डुलोदक अति स्वच्छ नहीं होता, तब तक वह मिश्र है, यह मत ही प्रमाण है, शेष नहीं। जो अति स्वच्छ (सफेद) है, उसे अचित्त जानना चाहिए। १८. इन वस्तुओं से अप्काय अचित्त होता है-शीत, उष्ण, क्षार, क्षत्र-करीष विशेष, अग्नि, लवण, ऊष-ऊषर क्षेत्र में उत्पन्न लवण मिश्रित रजकण विशेष, खटाई, स्नेह-तैल' आदि। जो अप्काय व्युत्क्रान्तयोनि अर्थात् अचित्त हो जाता है, उससे साधुओं का प्रयोजन होता है। १९. परिषेक, पीने, हाथ आदि धोने, वस्त्र धोने, आचमन करने, पात्र धोने आदि कार्यों में अचित्त अप्काय का प्रयोग होता है। २०. ऋतुबद्ध काल में वस्त्र-प्रक्षालन से चारित्र बकुश होता है, ब्रह्मचर्य का विनाश होता है, मुनि अस्थान में स्थित माना जाता है, संपातिम तथा वायुकाय के जीवों का वध होता है तथा वस्त्र धोए हुए जल के प्लावन से जीवों का उपघात होता है।
२१. वर्षाकाल की सन्निकटता में वस्त्र-प्रक्षालन न करने पर निम्न दोष उत्पन्न होते हैं
• वस्त्रों का भार बढ़ जाता है। • वे जीर्ण हो जाते हैं। • वस्त्रों में लीलन-फूलन (काई) आ जाती है। • शीतलीभूत वस्त्रों को पहनने से अजीर्ण रोग होता है, जिससे प्रवचन की अपभ्राजना-निंदा
होती है।
१. भांड में लगे बिन्दु का अपगम, बुद्बुद का नाश तथा चावल के निष्पन्न होने का सर्वत्र एक जैसा समय नहीं
होता। इसका कारण है रूक्ष बर्तन में लगे बिन्दु जल्दी सूखते हैं, जबकि स्निग्ध बर्तन के बिन्दुओं को सूखने में समय लगता है। इसी प्रकार तेज पवन के सम्पर्क से बुबुदे जल्दी समाप्त होते हैं, मंद पवन से उतनी जल्दी समाप्त नहीं होते तथा जल की भिन्नता के कारण चावल के पकने में भी समय की नियमितता नहीं रहती। मीठे पानी में चावल जल्दी पकते हैं तथा खारे जल में चावलों को पकने में समय लगता है। इसी प्रकार प्रचुर अग्नि में जल्दी पकते हैं, मंद अग्नि में अधिक
समय से पकते हैं (मवृ प. १०, ११)। २. दधि या तैल के घड़े में रखे हुए पानी के ऊपर जो तरी आती है, वह यदि स्थूल होती है तो सचित्त जल एक पौरुषी में
अचित्त हो जाता है, मध्यम होती है तो दो पौरुषी में तथा पतली होती है तो तीन पौरुषी में अचित्त होता है (मवृ प. ११)। ३. मवृ प. ११; परिषेको-दुष्टवणादेरुत्थितस्योपरि पानीयेन परिषेचनं-दुष्ट व्रण होने पर उसके ऊपर पानी का सेक। ४. उच्चार-प्रस्रवण करने के बाद पानी से शुद्धि हेतु जल का प्रयोग। ५. साफ कपड़ों को देखकर लोग सोचते हैं कि अवश्य ही यह कामी है, अन्यथा यह स्वयं को इतना मण्डित क्यों
करता? (मवृ प. ११)
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संपातिमजीव एवं वायुकाय की विराधना होती है ।
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पानी फैलाने से पृथ्वी पर आश्रित जीवों का उपघात होता है।
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२१/१. वर्षाकाल के अप्राप्त होने पर भी मुनि अपने समस्त उपकरणों का यतनापूर्वक प्रक्षालन करे। पानी की प्राप्ति न होने पर जघन्यतः पात्रनिर्योग' का प्रक्षालन तो अवश्य ही कर लेना चाहिए ।
पिंडनिर्युक्ति
२१/ २. आचार्य तथा ग्लान के मलिन वस्त्र बार-बार धोए जाते हैं क्योंकि आचार्य के वस्त्रों को न धोने पर लोगों में अवर्णवाद होता है तथा ग्लान के वस्त्र न धोने पर अजीर्ण आदि रोग होता है ।
२२. पात्र के प्रत्यवतार अर्थात् पात्रनिर्योग के छह प्रकार, रजोहरण की दो निषद्याएं२ - बाह्य और आभ्यन्तर, तीन पट्ट - संस्तारकपट्ट, उत्तरपट्ट तथा चोलपट्ट, पोत्ति - मुखवस्त्रिका, रजोहरण - इन उपकरणों का प्रतिदिन उपयोग होता है अतः इन्हें अपरिभोग्यरूप में स्थापित न करे । यतनापूर्वक संक्रमण करे अर्थात् षट्पदिका को अन्य वस्त्रों में संक्रमित करके फिर उस वस्त्र का प्रक्षालन करे ।
२२/१. जो प्रक्षालनकाल प्राप्त होने पर भी षट्पदिका आदि के कारण उपधि को अपरिभोग्य रूप में स्थापित करता है, वह वीतराग की आज्ञा के अनुसार उपधि को इस प्रकार विश्रमणा विधि से स्थापित करे ।
१. पात्रनिर्योग का अर्थ है- पात्र के उपकारी उपकरण, जैसे- पात्रबंध, पात्रस्थापन, पात्रकेशरिका, पटल, रजस्त्राण, गोच्छक - ये सब पात्रनिर्योग हैं
पत्तं पत्ताबंधो, पायट्टवणं च पायकेसरिया ।
पडलाई रयत्ताणं, च गोच्छओ पायनिज्जोगो ॥ ( मवृ प. १३)
२. रजोहरण की दो निषद्याएं होती हैं - १. आभ्यन्तर निषद्या, जो वस्त्रमयी होती है । २. बाह्य निषद्या, जो कम्बलमयी होती है (अव प. ६) ।
३. मुख को ढकने के लिए चार अंगुल अधिक वितस्ति प्रमाण वस्त्र मुखपोतिका या मुखवस्त्रिका कहलाता है ( मवृ प. १३) । ४. इस गाथा में वस्त्र-प्रक्षालन के संदर्भ में विश्रमणा विधि बताई गई है। मुनि के तीन प्रावरण होते हैं -- दो सूती तथा एक
ऊनी । क्षौम का एक प्रावरण सदा शरीर से लगा हुआ रहता है। उसके ऊपर दूसरा प्रावरण तथा उसके ऊपर कंबल का प्रावरण रहता है। प्रथम विश्रमणा विधि में तीन दिन तक शरीर से संलग्न सूती कपड़े को शेष दो कपड़ों के ऊपर इस प्रकार ओढ़ा जाए कि उस कपड़े में लगी षट्पदिकाएं क्षुधा से पीड़ित होकर या शीत से बाधित होकर शेष दो वस्त्रों में अथवा शरीर में लग जाएं, यह प्रथम विश्रमणा-विधि है। तीन दिनों तक दिन में ओढ़ने के बाद फिर तीन रात्रि तक संस्तारक के तट पर ही कपड़े को स्थापित किया जाए, जिससे प्रथम विश्रमणा-विधि में जो षट्पदिकाएं कपड़े से बाहर नहीं निकलतीं वे आहार आदि के लिए बाहर निकलकर संस्तारक पर लग जाती हैं, यह दूसरी विश्रमणा विधि है। फिर एक रात्रि में कपड़े को अधोमुख फैलाकर शरीर पर्यन्त फैलाकर ओढ़े और दृष्टि-प्रतिलेखना करे। दृष्टि-प्रतिलेखना करने पर यदि षट्पदिकाएं दिखाई न दें तो सूक्ष्म जूंओं की रक्षा हेतु पुनः उस कपड़े को शरीर पर ओढ़े, जिससे आहार आदि के लिए वे शरीर पर लग जाएं। इतना करने पर फिर दृष्टि-प्रतिलेखन करे। इस प्रकार सात दिनों से कल्पशोधन होता है फिर उस वस्त्र का प्रक्षालन किया जाता है। वर्तमान में यह विधि कृतकृत्य हो गई है क्योंकि स्वच्छता के कारण षट्पदिका आदि का अभाव होता है (मवृ प. १४) देखें २२ / २, ३ का अनुवाद ।
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अनुवाद
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२२/२. शरीर के साथ लगे हुए आभ्यन्तर वस्त्र को तीन दिनों तक ऊपर ओढ़े फिर तीन दिनों तक उस प्रावरण को सोते समय बहुत दूर न रखे अर्थात् संस्तारक के किनारे पर रखे फिर एक रात शयन-स्थान पर अधोमुख वस्त्र को फैलाकर पैर पर्यन्त ओढ़कर सोए , तत्पश्चात् सूक्ष्म दृष्टि से वस्त्र का निरीक्षण करे। २२/३. कुछ आचार्यों की मान्यता के अनुसार (उपर्युक्त तीनों विश्रमणा-विधि को) तीन रात तक संवास करके सूक्ष्म दृष्टि से प्रतिलेखन करे। यदि षट्पदिका दिखाई न दे तो वस्त्र को प्रक्षालित करे। २२/४. (यदि वस्त्र-प्रक्षालन के लिए जल पर्याप्त मात्रा में प्राप्त न हो तो) मुनि नीव्रोदक ग्रहण करे। कुछ एक आचार्य कहते हैं कि नीव्रोदक को अपने पात्र में ग्रहण करे। कुछ एक कहते हैं कि वह उदक अशुचि होता है अतः मुनि अपने पात्र में न ले, गृहस्थों के भाजन में ग्रहण करे। नीव्रोदक भी वर्षा रुक जाने के अन्तर्मुहूर्त पश्चात् ग्रहण करे । बरसती वर्षा में नीव्रोदक का जल मिश्र होता है। वर्षा के रुक जाने के पश्चात् लिए गए नीव्रोदक में राख डाली जाए, जिससे कि वह पुनः सचित्त न हो।' २२/५. मुनि पहले गुरु के, फिर प्रत्याख्यानी-तपस्वियों के, फिर ग्लान के, फिर शैक्ष के तथा तदनन्तर अपने वस्त्रों का प्रक्षालन करे। वस्त्रों में भी पहले यथाकृत' फिर अल्पपरिकर्मित और अंत में बहुपरिकर्मित' वस्त्रों का प्रक्षालन करे। २२/६. मुनि वस्त्रों को शिला पर पटक-पटक कर या लकड़ी आदि से पीट-पीटकर न धोए। धोने के पश्चात् वस्त्रों को अग्नि के ताप में न सुखाए। परिभोग्य वस्त्रों को छाया में तथा अपरिभोग्य वस्त्रों को
१. गाथा २२/२ में जो सप्तदिवसीय कल्पशोधन विधि है, वही इस गाथा में तीन दिवसीय वर्णित है। प्रथम रात्रि में शोधनीय वस्त्र को बाहर से ओढ़कर, दूसरी रात्रि में संस्तारक के निकट स्थापित करे तथा तीसरी रात्रि में संस्तारक पर वस्त्र को
अधोमुख करके शरीर पर्यन्त फैलाकर ओढ़े (मवृ प. १५)। २. वर्षाकाल में घर की छत पर लगे खपरैल के अंत भाग से टपकने वाला पानी नीव्रोदक कहलाता है। रजकण, धूम का . कालापन तथा दिनकर के आतप से तप्त नीव्र के सम्पर्क से वह जल अचित्त हो जाता है (मवृ प. १५)। ३. टीकाकार के अनुसार राख डालने से मलिन जल भी स्वच्छ हो जाता है (मवृ प. १५)। ४. प्रासुक जल तीन प्रहर के बाद सचित्त हो जाता है, ऐसी टीकाकार की मान्यता है अत: राख डालकर उपयोग में लेना
चाहिए (मवृ प. १५)। ५. यथाकृत-परिकर्म से रहित तथारूप लब्ध वस्त्र (मवृ प. १५)। ६. एक बार फाड़कर सिलाई किया हुआ वस्त्र (मवृ प. १५)। ७. टीकाकार के अनुसार विशुद्ध एवं पवित्र अध्यवसाय के कारण वस्त्रों के धोने का यह क्रम बताया गया है। अल्प परिकर्म
वाले वस्त्र संयम, स्वाध्याय आदि में कम बाधा डालने वाले होते हैं। यथाकृत वस्त्रों में परिकर्म का अभाव होने से संयम स्वाध्याय आदि में बिल्कुल व्याघात नहीं होता। बहु परिकर्म वाले वस्त्र स्वाध्याय आदि के व्याघातक होते हैं अत: उनको
सबसे अंत में धोना चाहिए (मवृ प. १६)। ८. सुखाते समय जल-बिन्दु गिरने से अग्निकाय की विराधना न हो इसलिए अग्नि-ताप में सुखाने का निषेध है (मवृ ष. १६)। ९. परिभोग्य वस्त्रों को धोने पर भी उनमें जं आदि जीवित रह सकती हैं अत: उन्हें धूप में सुखाने का निषेध है (म प. १६)।
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आतप-धूप में सुखाए। सुखाए गए वस्त्रों को निरन्तर देखता रहे (जिससे कि चोर आदि उनको चुराकर न ले जाएं।) वस्त्र के प्रक्षालन तथा सुखाने में हुए असंयम के लिए गुरु शिष्य को 'कल्याणक' नामक प्रायश्चित्त दे। २३. तेजस्काय के तीन प्रकार हैं-सचित्त, मिश्र और अचित्त। सचित्त तेजस्काय के दो प्रकार हैंनिश्चयसचित्त और व्यवहारसचित्त। २४. ईंटों का भट्टा, कुम्भकार का आवा आदि का बहुमध्यभाग, विद्युत् तथा उल्का आदि निश्चयसचित्त तेजस्काय हैं। अंगारा आदि व्यवहारसचित्त तेजस्काय है। कंडे की आग आदि मिश्र सचित्त तेजस्काय है। २५. ओदन, व्यञ्जन, पानक-कांजी का पानी, आयाम-अवश्रावण, उष्णोदक, कुल्माष, डगलक, राख से युक्त सूई, पिप्पलक-किञ्चित् वक्र क्षुर विशेष (कैंची) आदि-ये अचित्त अग्निकाय के उदाहरण हैं। ओदन आदि का भोजन आदि में प्रयोग होता है। २६. वायुकाय के तीन प्रकार हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र। सचित्त वायुकाय दो प्रकार का हैनिश्चयसचित्त तथा व्यवहारसचित्त। २७. वलयाकार घनवात' तथा तनुवात', अतिहिम और अतिदुर्दिन ---इनसे होने वाली वायु निश्चयतः सचित्त वायु है। (अतिहिम और अतिदुर्दिन के अभाव में) जो पूर्व आदि दिशा की वायु है, वह व्यवहारतः सचित्त है। आक्रान्त आदि वायु अचित्त होती है। २७/१. आठ कर्मों को मथने वाले जिनेश्वरदेव ने पांच प्रकार की अचित्त वायु का प्रतिपादन किया है
• आक्रान्त - पैरों से आक्रान्त कर्दम आदि से निकलने वाली वायु। • ध्मात - धौंकनी से निकलने वाली वायु। • घाण - तिलपीड़न-यंत्र से निकलने वाली वायु। • देहानुगत – गुदा प्रदेश से निःसृत वायु।
• पीलित - आर्द्र वस्त्र को निचोड़ने से निःसृत वायु । २७/२. मुंह की अचित्त वायु से भरी हुई दृति (जिसका मुंह डोरी से बांध दिया गया है।) जल में बहती हुई सौ हाथ जाने तक अचित्त वायु वाली रहती है, दूसरे हस्तशत में वह वायु मिश्र हो जाती है और तीसरे हस्तशत में वह सचित्त हो जाती है, फिर वह सचित्त ही रहती है। वस्ति अथवा दृतिस्थ वायु स्थल में होने
१. ओदन यावत् पिप्पलक-ये सारे पहले अग्निकाय के रूप में परिणत थे, इसके आधार पर इन्हें अग्निकाय माना गया है। २. घनवात-नरक आदि पृथ्वी के नीचे वलयाकार के रूप में होने वाली घनीभूत वायु (मवृ प. १७)। ३. तनुवात-नरक आदि पृथ्वी के नीचे वलयाकार के रूप में होने वाली तरल वायु (मवृ प. १७)। ४. मेघ से उत्पन्न अंधकार।। ५. ठाणं (५/१८३) में घाण के स्थान पर सम्मूछिम वायु का उल्लेख है, जो पंखा आदि झलने से होती है।
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वाले रूक्ष अथवा स्निग्ध काल के आधार पर पौरुषी और दिन के अनुसार सचित्त होती है। २८. (नदी आदि के उत्तरण में) मुनि का दृतिस्थित अथवा वस्तिस्थित वायु से प्रयोजन होता है अथवा रोग विशेष में अपान प्रदेश में वायु का प्रक्षेप किया जाता है। (यह स्थलस्थ वायु का प्रयोजन है) मुनि को सचित्त और मिश्र वायु का परिहार करना चाहिए। २९. वनस्पतिकाय के तीन प्रकार हैं-सचित्त, मिश्र और अचित्त। सचित्त वनस्पति के दो प्रकार हैंनिश्चयसचित्त और व्यवहारसचित्त। ३०. निश्चयनय के अनुसार अनन्तकाय वनस्पति सचित्त होती है। व्यवहारनय के अनुसार शेष सारी वनस्पति सचित्त होती है । म्लान (अर्द्धशुष्क) वनस्पति तथा घट्टी में पीसा गया चावल आदि का चूर्ण मिश्र वनस्पतिकाय है। ३१. पुष्प, पत्र, कोमलफल, हरित अर्थात् ब्रीहि तथा वृन्त यदि म्लान (शुष्क प्रायः) हो गए हों तो वह जीवविप्रमुक्त वनस्पति है अर्थात् अचित्त है। ३२. अचित्त वनस्पतिकाय के अनेक प्रयोजन हैं; जैसे-संस्तारक, पात्र, दंडक, क्षौम (दो प्रकार के कल्प-प्रावरण), पीढ़, फलक, औषधि-हरीतकी आदि, भेषज–अनेक औषधियों का चूर्ण आदि। ३३-३५. द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय प्राणी तीन-तीन के रूप में अपनी-अपनी जाति में एकत्र संश्लिष्ट होते हैं, वह पिंड कहलाता है। उसका यह प्रयोजन है-द्वीन्द्रिय का परिभोग' शंख, शुक्ति और कपर्दक आदि के रूप में होता है। त्रीन्द्रिय के रूप में दीमककृत वल्मीक की मिट्टी का उपयोग (सर्पदंश
१. एकान्त स्निग्ध काल में स्थलस्थ दृति या वस्ति में स्थित वायु एक प्रहर तक अचित्त रहती है। द्वितीय प्रहर के प्रारंभ में मिश्र तथा तीसरी प्रहर के प्रारंभ में ही सचित्त हो जाती है। मध्यम स्निग्ध काल में दो प्रहर तक अचित्त, तीसरी प्रहर में मिश्र तथा चौथी प्रहर में सचित्त हो जाती है। जघन्य स्निग्ध काल में दृतिस्थ वायु तीन प्रहर तक अचित्त, चौथी प्रहर में मिश्र तथा पांचवीं प्रहर में सचित्त हो जाती है। रूक्ष काल में भी ऐसा ही जानना चाहिए। वहां प्रहर के स्थान पर दिनों की वृद्धि करनी चाहिए। जघन्य रूक्ष काल में वस्तिगत वायु एक दिन तक अचित्त, दूसरे दिन मिश्र तथा तीसरे दिन सचित्त होती है। मध्यम रूक्षकाल में दो दिन तक अचित्त, तीसरे दिन मिश्र तथा चौथे दिन सचित्त होती है। उत्कृष्ट रूक्ष काल में तीन दिन तक अचित्त, चौथे दिन मिश्र तथा पांचवें दिन सचित्त होती है (पिभा १२-१४, मवृ प. १८)। २. चूर्ण में कुछ अंश बिना दले रह सकते हैं, इस अपेक्षा से चूर्ण को मिश्र माना है अथवा तत्काल पीसे हुए आटे के कुछ कण
अपरिणत रह सकते हैं अतः वह मिश्र होता है। ३. द्वीन्द्रिय आदि का साधु के लिए दो प्रकार का प्रयोजन होता है-१. शब्द से २. शरीर से। शकुनशास्त्री शंख की ध्वनि
को बहुत शुभ मानते हैं, यह द्वीन्द्रिय का शब्द आदि से प्रयोजन है। शरीर द्वारा तीन प्रकार से प्रयोजन सिद्ध होता है१. सम्पूर्ण शरीर से २. उसके एक देश से ३. शरीर के सम्पर्क से उत्पन्न अन्य वस्तु से। स्वाति नक्षत्र में बरसने वाले जल के सम्पर्क से मोती पैदा होते हैं । अक्ष और कपर्दक समवसरण की स्थापना में प्रयुक्त होते हैं । शंख और शुक्ति का उपयोग
चक्षुपुष्प (नेत्र रोग विशेष) को दूर करने में होता है (मवृ प. २०)। ४. तीन आदि का उल्लेख उपलक्षण से है। दो के मिलने से भी पिण्ड होता है (मवृ प. १९)। ५. टीकाकार के अनुसार यहां 'परिभोग' शब्द का प्रयोग कर्म के साधन रूप में विवक्षित है (मवृ प. २०)।
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और दाहोपशमन के लिए होता है अथवा) वैद्य के कथनानुसार लेप आदि में होता है। चतुरिन्द्रिय का परिभोगमक्खियों का मल (अर्थात् शहद) वमन-निरोध के लिए होता है अथवा अश्वमक्षिका का आंखों से अक्षर (काला पानी) का समुद्धार करने के लिए किया जाता है। पंचेन्द्रिय पिंड में नैरयिक अनुपयोगी हैं। ३६. तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय पिंड के ये उपयोग हैं-चर्म', अस्थि, दांत, नख, रोम, सींग, भेड़ आदि की मींगनी, गोबर, गोमूत्र तथा दूध-दधि आदि। ३७. (मनुष्य के भी तीन भेद हैं-सचित्त, मिश्र और अचित्त।) सचित्त मनुष्य का प्रयोजन-प्रव्रजित करना, पूछने पर मार्ग बताना, मुनियों को भिक्षा देना, वसति आदि देना। अचित्त मनुष्य का प्रयोजन-मनुष्य के सिर की हड्डी लिंग संबंधी व्याधि विशेष को दूर करने के लिए घिस कर दी जाती है। मिश्र मनुष्य से प्रयोजन-हड्डियों के आभूषण पहने, शरीर पर राख लगाए कापालिक का मार्ग पूछने में उपयोग होता है। ३८. तपस्वी क्षपक आदि मुनि किसी देवता से अपनी काल-मृत्यु के विषय में पूछे तथा मार्ग विषयक शुभ-अशुभ की बात पूछे, यह देवता विषयक उपयोग है। ३९. इन नौ पिण्डों (देखें गाथा ८) का मिश्र पिंड भी होता है। द्विक आदि के संयोग से चरम संयोग तक मिश्र पिंड होता है। ४०. मिश्र पिंड के अन्य उदाहरण ये हैं-सौवीर'-कांजी, गोरस-छाछ, आसव-मद्य, वेसन-जीरा, लवण आदि, भेषज-यवागू, स्नेह-घृत आदि, शाक, फल, पुद्गल-पकाया हुआ मांस, लवण, गुडौदन-इस प्रकार संयोग से अनेक मिश्र पिंड होते हैं। १. टीकाकार ने चर्म आदि के उपयोग का स्पष्टतया उल्लेख किया है। चर्म का उपयोग क्षुरा आदि रखने के लिए कोशक
बनाने में होता है। गीध की अस्थि तथा नख शरीर में होने वाले फोड़े की चिकित्सा हेतु बाह्य रूप से बांधे जाते हैं। शूकर की दाढ़ा दृष्टिपुष्प (नेत्र रोग विशेष) को दूर करने के लिए प्रयुक्त होती है। जीव विशेष के नखों का उपयोग, धूप और गंध के लिए तथा किसी रोग विशेष की चिकित्सा के लिए भी प्रयुक्त होते हैं। रोम का प्रयोग कम्बल बनाने में होता है।
मार्ग भ्रष्ट साधुको आपस में मिलाने के लिए सींग बजाने का प्रयोग तथा खुजली आदि में गोमूत्र का प्रयोग होता है (मवृ प. २०, २१)। २. टीकाकार सिर की हड्डी का एक अन्य प्रयोजन बताते हुए कहते हैं कि कभी किसी साधु पर राजा रुष्ट होकर उसे मारने
का प्रयत्न करे तो साधु सिर की हड्डी लेकर कापालिक वेश में पलायन करके देशान्तर चला जाए (मवृ प. २१)। ३. 'आदि' शब्द से क्षपक के अतिरिक्त आचार्य आदि का ग्रहण भी करना चाहिए। टीकाकार का मंतव्य है कि क्षपक के
तपोविशेष से आकृष्ट होकर देवता उसकी सन्निधि में उपस्थित रहते हैं अत: यहां साक्षात् क्षपक शब्द का प्रयोग किया है। ४. द्विक संयोग के ३६, त्रिक संयोग के ८४, चतुष्क संयोग के १२६, पंच संयोग के १२६, षट्संयोग के ८४, सप्तसंयोग के
३६, अष्टसंयोग के ९ तथा नव संयोग का १-कुल ५०२ विकल्प होते हैं (मवृ प. २१)। ५. टीकाकार ने सौवीर आदि द्रव्य कितने कायों का मिश्रण है, इसका विस्तार से उल्लेख किया है। सौवीर-कांजी, यह
अप्काय, तेजस्काय और वनस्पतिकाय का पिण्ड है क्योंकि पानी से चावल को धोकर पकाया जाता है, अग्नि द्वारा अवश्रावण बनता है तथा वनस्पतिकाय के रूप में तण्डुल का उपयोग होता है। कुछ व्यक्ति उसमें लवण भी मिलाते हैं अत: पृथ्वीकाय का मिश्रण भी हो गया। गोरस-तक्र आदि में अप्काय और त्रसकाय का मिश्रण है। आसव-मद्य अप्काय, तेजस्काय तथा वनस्पतिकाय आदि का पिण्ड है। वेसन-वनस्पतिकाय तथा पृथ्वीकाय आदि का पिण्ड है। भेषज यवागू आदि में अप्काय, तेजस्काय और वनस्पतिकाय का पिण्ड है। स्नेह-घृत आदि तेजस्काय और त्रसकाय का पिण्ड है। शाक-बथुआ भर्जिका आदि वनस्पति पृथ्वीकाय तथा त्रसकाय आदि के पिण्ड रूप हैं (मवृ प.२२)।
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अनुवाद
४१. परस्पर अनुगत तीन आकाश प्रदेश क्षेत्र पिण्ड कहलाता है। इसी प्रकार परस्पर अनुगत तीन समयकालपिंड है। द्रव्य में स्थान-अवगाह और स्थिति-कालिक अवस्थान-इनकी अपेक्षा से चौथा और पांचवां पिंड अर्थात् क्षेत्रपिंड और कालपिंड का व्यपदेश करना चाहिए। प्रकारान्तर से सोपचार क्षेत्र और कालपिंड के लिए जहां और जब के आधार पर प्ररूपणा करनी चाहिए, (जैसे—यह वसतिरूप क्षेत्रपिंड है, यह पौरुषी रूप कालपिंड है)। ४१/१. यदि मूर्त द्रव्यों में परस्पर अनुवेध तथा संख्याबाहुल्य से पिंड का व्यपदेश होता है तो वैसे ही अमूर्त द्रव्यों में भी परस्पर अनुवेध तथा संख्याबाहुल्य से पिंड का व्यपदेश होता है। ४१/२. त्रिप्रदेशी स्कन्ध जो तीन प्रदेशों में समवगाढ़ हैं और नैरन्तर्य संबंध से संबद्ध हैं, वे पिंड शब्द से व्यवहृत क्यों नहीं होंगे? (क्योंकि तीन परमाणुस्कन्ध का आधार तीन प्रदेशों का समुदाय है।) ४२. अथवा संयोग और विभाग होने के कारण नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव-इन चारों के लिए पिण्ड शब्द का प्रयोग उपयुक्त है लेकिन (क्षेत्र और काल औपचारिक पिण्ड हैं) जिस क्षेत्र और काल में पिण्ड उल्लिखित होता है, वह क्षेत्रपिंड और कालपिंड कहा जाता है।' ४३. भावपिंड के दो प्रकार हैं-प्रशस्त भावपिंड और अप्रशस्त भावपिंड। दोनों की मैं पृथक्-पृथक् प्ररूपणा करूंगा। ४४. प्रशस्त भावपिंड तीन प्रकार का होता है-ज्ञान, दर्शन और चारित्र। इसके विपरीत अप्रशस्त भावपिंड, जिससे जीव कर्मों से बंधता है, वह दो, चार और सात प्रकार का होता है।
१. टीकाकार ने क्षेत्रपिंड और कालपिंड के बारे में पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष प्रस्तुत करके विस्तार से चर्चा की है। वे स्वयं प्रश्न
उपस्थित करते हुए कहते हैं कि मूर्त द्रव्यों में परस्पर अनुवेध और संख्या-बाहुल्य संभव है लेकिन क्षेत्र और काल में परस्पर अनुवेध-मिलन संभव नहीं है। इसके अतिरिक्त क्षेत्र नित्य अकृत्रिम होता है, उसके प्रदेश विविक्त रूप से अवस्थित हैं अतः आकाश प्रदेशों का अनुवेध कैसे संभव है ? काल में भी संख्या-बाहुल्य संभव नहीं है क्योंकि अतीत का समय नष्ट हो गया, भविष्य का उत्पन्न नहीं हुआ, वर्तमान में केवल एक समय विद्यमान है अत: काल में परस्पर अनुवेध और संख्या-बाहुल्य होना असंभव है अत: इन दोनों का पिंड संभव नहीं है। इसका उत्तर तीन गाथाओं (४१/१, २, ४२) में तथा टीकाकार मलयगिरि ने विस्तार से दिया है, देखें ४१/१ का टिप्पण (मवृ प. २२, २३)। २. टीकाकार मलयगिरि विस्तार से इस गाथा को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि आकाश के सारे प्रदेश नैरन्तर्य रूप से वैसे ही
सम्बद्ध रहते हैं, जैसे बादर निष्पादित चार स्कंध । क्षेत्र-प्रदेशों में भी संख्या का बाहुल्य रहता है अत: क्षेत्र के लिए पिण्ड शब्द का प्रयोग करना विरुद्ध नहीं है। काल में भी यद्यपि पूर्वापर समय आपस में नहीं मिलते लेकिन बुद्धि से कल्पित काल में संख्या-बाहुल्य संभव है अतः काल का भी पिण्ड संभव है (मवृ प. २३)। ३. नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव आदि से संबंधित पिण्ड का संयोग और विभाग होता है अत: ये पारमार्थिक रूप से पिण्ड रूप में वर्णित हैं लेकिन क्षेत्र और काल में इस रूप में संयोग और विभाग नहीं होता अतः क्षेत्र पिंड और काल पिंड को औपचारिक रूप से स्वीकार किया गया है। यह प्रथम पौरुषी का पिण्ड है अथवा यह अमुक घर की रसोई में बनाया गया मोदक है, इस दृष्टि से इनको क्षेत्र पिण्ड और काल पिण्ड कहा जा सकता है (म प. २४)। ४. देखें गा. ४४/४ का अनुवाद ।
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पिंडनियुक्ति
४४/१-३. प्रशस्त और अप्रशस्त भावपिंड एक से दस प्रकार का है। तीर्थंकरों ने प्रशस्त भावपिंड के दस प्रकार ये बताए हैं
१. संयम। २. विद्या और चरण (ज्ञान और क्रिया)। ३. ज्ञानादि त्रिक-ज्ञान, दर्शन, चारित्र। ४. ज्ञान, दर्शन, तप और संयम। ५. (प्राणातिपात विरमण आदि) पांच महाव्रत। ६. रात्रि भोजन सहित व्रतषट्क। ७. सात पिंडैषणा', सात पानैषणा, सात अवग्रहप्रतिमा।
१. संयम के पर्यव अविभक्त रूप से पिंडीभूत होकर अवस्थित रहते हैं। उनका आपस में तादात्म्य संबंध रहता है अत: संयम
के पर्यायों की अपेक्षा एकविध होते हुए भी वह पिंड है, इसमें विरोध नहीं है (मवृ प. २६)। २. पिण्डैषणा के सात प्रकार हैं
• असंसृष्टा-असंसृष्ट हाथ एवं पात्र से आहार लेना। • संसृष्टा-संसृष्ट हाथ और संसृष्ट पात्र से आहार लेना। • उपनिक्षिप्तपूर्वा (उद्धृता)-किसी पात्र में पहले से निकाला हुआ आहार लेना। • अल्पलेपा-बेर का चूर्ण, चावल का आटा आदि रूखा आहार लेना। • उपहृत भोजनजात (अवगृहीता)-खाने के लिए थाली में परोसा हुआ आहार लेना। • प्रगृहीत भोजनजात (प्रगृहीता)-हाथ में रखा हुआ भोजन लेना।
• उज्झितधर्मा-जिसे अन्य द्विपद, चतुष्पद या श्रमण-माहन न लेना चाहें, उसे लेना (आचूला १/१४०-४७)। ३. पिण्डैषणा की भांति ही पानैषणा के सात प्रकार हैं। पिण्ड में अशन आदि तथा पान में पानी आदि का ग्रहण होता है।
प्रवचनसारोद्धार (गा. ७४४, टी प. २१६) में पानैषणा के अन्तर्गत अल्पलेपा का अर्थ करते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि काजी, अवश्रावण, गरम जल, चावलों का धोवन आदि अलेपकृत पानक हैं तथा इक्षुरस, द्राक्षा पानक तथा
अम्लिका पानक आदि लेपकृत हैं। ४. वसति विषयक नियम विशेष या प्रतिमा विशेष को अवग्रह प्रतिमा कहते हैं, उसके सात प्रकार हैं
• मैं अमुक स्थान में रहूंगा, दूसरे में नहीं। • मैं दूसरों के लिए स्थान की याचना करूंगा तथा दूसरे द्वारा याचित स्थान में रहूंगा, यह प्रतिज्ञा गच्छगत साधु की होती है। • मैं दूसरों के लिए स्थान की याचना करूंगा लेकिन दूसरों द्वारा याचित स्थान में नहीं रहूंगा। यह यथालन्दिक साधु के
होती है। • मैं दूसरों के लिए अवग्रह की याचना नहीं करूंगा किन्तु दूसरों द्वारा अवगृहीत या याचित स्थान में रहूंगा। यह प्रतिज्ञा
जिनकल्प दशा का अभ्यास करने वाले गच्छगत साधुओं के होती है। • मैं अपने लिए स्थान की याचना करूंगा, दूसरों के लिए नहीं। यह प्रतिज्ञा जिनकल्पिक साधुओं की होती है। • जिसका मैं स्थान ग्रहण करूंगा, उसी के यहां तृण, पलाल आदि से निर्मित संस्तारक आदि प्राप्त करूंगा अन्यथा
उत्कटुक या निषद्या आसन में बैठकर रात बिताऊंगा। यह प्रतिज्ञा जिनकल्पिक या अभिग्रहधारी साधुओं के होती है। • जिसका मैं स्थान ग्रहण करूंगा, उसके यहां सहज रूप से बिछा हुआ सिलापट्ट या काष्ठपट्ट उपलब्ध होगा तो प्राप्त
करूंगा अन्यथा उत्कटुक या निषद्या आसन में बैठा-बैठा रात बिताऊंगा। यह प्रतिमा भी जिनकल्पिक या अभिग्रहधारी साधु की अपेक्षा से है (आचूला ७/४८-५५)।
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अनुवाद
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८. आठ प्रवचन-माता। ९. नौ ब्रह्मचर्य की गुप्तियां।
१०. दस प्रकार का श्रमणधर्म। ४४/४. अप्रशस्त भावपिंड के दस प्रकार हैं
१. असंयम। २. अज्ञान तथा अविरति। ३. अज्ञान, अविरति और मिथ्यात्व। ४. क्रोध, मान, माया और लोभ । ५. पांच आश्रव। ६. षट्कायवध। ७. सात प्रकार के कर्म निबंधनभूत अध्यवसाय। ८. आठ प्रकार के कर्म निबंधनभूत परिणाम। ९. ब्रह्मचर्य की नौ अगुप्तियां।
१०. अधर्म-दस प्रकार के श्रमण धर्म के प्रतिपक्ष। ४५. जिस भावपिंड से कर्म का बंध होता है, वह अप्रशस्त भावपिंड है। जिस भावपिंड से कर्म-बंधन से मुक्ति मिलती है, वह प्रशस्त भावपिंड है। ४५/१. ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि के जितने पर्याय होते हैं, वे अपनी-अपनी आख्या (जैसे ज्ञान के पर्याय, दर्शन के पर्याय आदि) से पर्यव प्रमाण से पिंड हो जाते हैं।
१. ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियां इस प्रकार हैं
• स्त्री, पशु, नपुंसक रहित विविक्त शय्या। • स्त्री-कथा का वर्जन। • काम-कथा का वर्जन। •दृष्टि-संयम (स्त्री के मनोहारी रूप को न देखना)।
प्रणीत रस युक्त आहार का परित्याग। • अतिमात्रा में आहार का वर्जन। • पूर्व भुक्त भोग की स्मृति न करना। • शब्द, रूप आदि में आसक्त न होना।
• साता और सुख में प्रतिबद्ध न होना। (ठाणं ९/३) २. आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों के कारणभूत कषाययुक्त या कषायरहित परिणाम विशेष (मवृ प. २६)। ३. आठ कर्मों के कारणभूत कषाययुक्त परिणाम विशेष (मवृ प. २६)। ४. ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों के विपरीत आचरण करना अगुप्ति है। देखें टिप्पण नं. १ ५.विशेष विवरण के लिए देखें-मवृ प. २६, २७।
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पिंडनियुक्ति
४६. जिस भाव विशेष से चिकने कर्मों का पिंड बंधता है, वह भावपिंड है क्योंकि वह भाव विशेष कर्मों को आत्मा के साथ संबद्ध करता है। ४७. इस पिंडनियुक्ति में अचित्त द्रव्यपिंड एवं प्रशस्तभावपिंड का प्रसंग है। शेष नाम आदि पिंड प्रतिपादित अर्थ के तुल्य हैं। शिष्य की मति को व्युत्पन्न करने के लिए इनका प्रतिपादन किया गया है। ४८. अचित्त द्रव्यपिंड के तीन प्रकार हैं-आहाररूप, उपधिरूप तथा शय्यारूप। ये तीनों प्रशस्तभावपिंड के उपकारक हैं, आधारभूत हैं। प्रस्तुत प्रकरण में उद्गम आदि आठ स्थानों से शुद्ध आहाररूप अचित्त द्रव्यपिंड का प्रयोजन है। ४९. निर्वाण कार्य है, उनके तीन कारण हैं-ज्ञान, दर्शन और चारित्र। निर्वाण के इन कारणों का कारण है-आहार। ४९/१. जैसे तन्तु पट के कारण हैं, तन्तुओं का कारण है-पक्ष्म, वैसे ही मोक्ष कार्य है, उसके कारण हैंज्ञानादित्रिक और इनका कारण है-आहार। ४९/२. जैसे अनुपहत कारण सम्पूर्ण कार्य को निष्पन्न करता है, वैसे ही मोक्ष-कार्य की सिद्धि के लिए अविकल ज्ञान आदि कारण साधन होते हैं। ५०. इस प्रकार मैंने संक्षेप में पिंड शब्द का अभिधेय मात्र प्रतिपादित किया है। अब इससे आगे एषणा का स्पष्ट तथा विकट-सूक्ष्ममति द्वारा गम्य अर्थ को प्रकट करूंगा। ५१. एषणा के ये एकार्थक नाम हैं-एषणा, गवेषणा, मार्गणा, उद्गोपना।' ५२. एषणा शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। द्रव्य और भाव एषणा के तीन-तीन प्रकार हैं। ५२/१. एषणा, गवेषणा आदि के उदाहरण इस प्रकार हैं
• कोई व्यक्ति पुत्र के जन्म की एषणा-इच्छा करता है, यह एषणा है। . • कोई व्यक्ति खोए हुए पुत्र की खोज करता है, यह गवेषणा है। • कोई व्यक्ति पदचिह्नों के आधार पर शत्रु की खोज करता है, यह मार्गणा है।
• कोई अपने शत्रु की मृत्यु को प्रकाशित करता है, यह उद्गोपना है। १. टीकाकार के अनुसार एषणा आदि चारों पद एकार्थक हैं फिर भी इन चारों में नियत अर्थ-भेद है।
• एषणा-इच्छा मात्र की अभिव्यक्ति। • गवेषणा-अनुपलब्ध पदार्थ की सर्वतः खोज। • मार्गणा-निपुण बुद्धि से उस पदार्थ की अन्वेषणा। • उदगोपना-विवक्षित पदार्थ जनता के बीच प्रकट करना। इन शब्दों की स्पष्टता हेतु देखें ५२/१ का अनुवाद)
(मवृ प. २९)। २. द्रव्य एषणा के तीन प्रकार हैं-सचित्त द्रव्य विषयक, अचित्त द्रव्य विषयक तथा मिश्र द्रव्य विषयक। भाव एषणा के तीन
प्रकार हैं-गवेषणा, ग्रहणैषणा तथा ग्रासैषणा।
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अनुवाद
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५२/२. इसी प्रकार चतुष्पद, अपद, अचित्त और मिश्र विषयक द्रव्यों में जहां जो उपयुक्त हो, वहां एषणा, गवेषणा, मार्गणा आदि शब्दों का संयोजन करना चाहिए। ५३/३. वीतराग भगवान् ने भावैषणा के क्रमश: तीन प्रकार प्रतिपादित किए हैं-गवेषणा, ग्रहणैषणा और ग्रासैषणा। ५२/४. अगवेषित पिंड का ग्रहण नहीं होता और अगृहीत का परिभोग नहीं होता। तीन एषणाओं का यह क्रम जानना चाहिए। ५३. गवेषणा के चार प्रकार हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य तथा भाव। द्रव्य विषयक गवेषणा के उदाहरण हैंमृग और हाथी की गवेषणा। भाव गवेषणा है-उद्गम-उत्पादन आदि दोषों से रहित आहार की गवेषणा। ५३/१,२. जितशत्रु राजा, सुदर्शना देवी, चित्रसभा में स्वर्णपृष्ठ वाले मृगों का दर्शन, दोहद की उत्पत्ति, पूर्ति न होने से दुर्बलता, राजा द्वारा पृच्छा, सेवकों को मृग लाने का आदेश। श्रीपर्णी फल के सदृश मोदकों को बनवाकर उन्हें श्रीपर्णी वृक्ष के नीचे रखना। फल देखकर मृगों का आगमन। यह प्रशस्त और अप्रशस्त उपमा का उदाहरण है। जिन कुरंगों ने यूथाधिपति का वचन माना, वे दीर्घजीवी हुए और जिन्होंने लोलुपतावश इस वचन को नहीं माना, वे पाश में बंधकर दु:ख के भागी बने। ५४. मृगों को यह विदित है कि श्रीपर्णी वृक्ष कब फलता है? (यदि अभी फलता भी है तो फलों का ढेर नहीं होता।) यदि कहा जाए कि वायु के कारण ऐसा हुआ है तो पुराने जमाने में भी वायु चलती थी परन्तु इतने ढ़ेर सारे फल कभी नहीं हुए। ५४/१. ग्रीष्मकाल में राजा ने हाथी पकड़ना चाहा। पुरुषों ने अरघट्टों से तालाब को पानी से भरा। अत्यधिक पानी से तालाब में नलवन उग गए। उसके आकर्षण से गजयूथ का आगमन हो गया। ५५. हाथियों को यह विदित होता है कि नलवन कब और कहां उगते हैं? अन्य काल में भी तालाब पानी से भरते हैं परन्तु इस प्रकार लबालब नहीं होते (यूथपति द्वारा सचेष्ट किए जाने पर जो हाथी उस तालाब पर नहीं गए, वे प्रशस्त हाथी हुए। जो वहां जाकर कूटपाश में फंस गए, वे अप्रशस्त हाथी कहलाए। यह द्रव्यैषणा का वर्णन है।) ५६. उद्गम, उद्गोपना और मार्गणा-ये एकार्थक शब्द हैं। उद्गम के चार प्रकार हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य तथा भाव।
५७. द्रव्य उद्गम में लड्डक आदि का उदाहरण है। भाव उद्गम तीन प्रकार का जानना चाहिए-दर्शन विषयक, ज्ञान विषयक और चारित्र विषयक । प्रस्तुत प्रसंग में चारित्र विषयक उद्गम का प्रसंग है।
१. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३ कथा सं. १। २. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३ कथा सं. २।
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पिंडनियुक्ति
५७/१. ज्योतिष-सूर्य-चन्द्र आदि, तृण, औषधि-शालि आदि धान, मेघ, ऋण, कर-राजदेय द्रव्य-ये द्रव्य विषयक उद्गम हैं। इन द्रव्यों का जिससे, जब और जैसे उद्गम होता है, वैसा कहना चाहिए। ५७/२-४. वासगृह से निकलकर राजकुमार आस्थान मंडप में क्रीड़ामग्न हो गया। भोजन के समय माता ने लड्ड पसंद करने वाले कुमार को घट और शरावों में भरकर मोदक भेजे। कुमार ने यथेष्ट मोदक खाए। आस्थान मंडप में बैठे रह जाने के कारण उसके अजीर्ण रोग हो गया, दुर्गन्ध युक्त अधोवायु निकलने लगी। कुमार ने तब आहार के उद्गम का चिन्तन किया-'मोदक त्रिसमुत्थ'-घृत, गुड़ और आटा से उद्भूत हैं। इनका उद्गम शुचि द्रव्यों से है। यह शरीर दो प्रकार के मलों-माता के रज एवं पिता के वीर्य से उद्भूत है। राजकुमार को वैराग्य हुआ। उससे उसको युगपद् सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र का उद्गम हुआ, तत्पश्चात् केवलज्ञान का उद्गम हुआ। ५७/५. दर्शन और ज्ञान से चारित्र का उद्गम होता है। इन दोनों की शुद्धि से चारित्र शुद्ध होता है। चारित्र से कर्मशुद्धि होती है। निष्कर्ष की भाषा में उद्गम की शुद्धि होने पर ही चारित्र की शुद्धि होती है। ५८, ५९. उद्गम के सोलह दोष हैं१. आधाकर्म
९. अपमित्य अथवा प्रामित्य २. औद्देशिक
१०. परिवर्तित ३. पूतिकर्म
११. अभिहत ४. मिश्रजात
१२. उद्भिन्न ५. स्थापना
१३. मालापहृत ६. प्राभृतिका
१४. आच्छेद्य ७. प्रादुष्करण १५. अनिसृष्ट ८. क्रीत
१६. अध्यवपूरक ६०. आधाकर्म के नाम, एकार्थक, वह किसके लिए किया जाता है, उसका स्वरूप क्या है-यह विचार करना चाहिए। परपक्ष-गृहस्थ वर्ग के लिए किया हुआ आहार आधाकर्म नहीं होता। स्वपक्ष-साधु आदि के लिए किया हुआ आहार आधाकर्म होता है। आधाकर्म में अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार आदि चार, उसके ग्रहण में आज्ञाभंग आदि दोष-ये नौ द्वार हैं।
१. ज्योतिष् तथा मेघों का आकाश से, तृण, शालि आदि का पृथ्वी से, ऋण का व्यापार से, करों का नृपति नियुक्त पुरुषों से
उद्गम होता है। समय के अनुसार ज्योतिश्चक्र के बीच सूर्य का प्रभात में तथा शेष चन्द्र आदि का अन्यान्य समयों में, तृणों का प्रायः श्रावण आदि मास में तथा ज्योतिष् चक्र और मेघों का आकाश में देर रात्रि तक विस्तृत होने से, तृण, शालि आदि का भूमि को फोड़कर ऊपर आने से, ऋण का ब्याज आदि से एवं करों का प्रतिवर्ष संकलन करने से उदगम होता है (मवृ प. ३३)। २. कथानक के विस्तार हेतु देखें परि : ३ कथा सं. ३। ३. यह मूलद्वारगाथा है। इसकी व्याख्या आगे ९२ (२१७) वीं गाथा तक चलती है।
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अनुवाद
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६१. आधाकर्म के ये नाम हैं-आधाकर्म, अध:कर्म, आत्मघ्न, आत्मकर्म, प्रतिषेवणा', प्रतिश्रवण, संवास, अनुमोदना। ६१/१. प्रत्यञ्चा का आधार धनुष, यूप का आधार बैल का कंधा, कापोती का आधार मनुष्य का कंधा, अनाज आदि के भार का आधार वाहन तथा कुटुम्ब, राज्य आदि की चिन्ता का आधार हृदय होता है, ये सब द्रव्य आधा के उदाहरण हैं। ६२. जिसके लिए मन में सोचकर औदारिक शरीर वाले प्राणियों का अपद्रावण तथा विनाश करके द्रव्य निष्पादित किया जाता है, उसे आधाकर्म कहते हैं। ६३. जल आदि में डालने पर द्रव्य का अपने भार के कारण नीचे जाना है तथा नि:सरणी और रज्जु आदि से नीचे अवतरण करना द्रव्य अध:कर्म है। ६४. संयमस्थान, कंडक-संयमश्रेणी, लेश्या तथा शुभ कर्मों की स्थिति विशेष में वर्तमान शुभ अध्यवसाय को जो हीन-नीचे से नीचे करता है, वह भाव अध:कर्म है। ६४/१. किंचित् न्यूनचरणाग्र-उपशांतमोह की अवस्था में वर्तमान मुनि अपने भावों-संयमस्थानों का आत्मा में हीन, हीनतर रूप में अवतरण करके आधाकर्म द्रव्य को ग्रहण करता है, वह भी अपनी आत्मा को नीचे से नीचे ले जाता है।'
१. प्रतिषेवणा आदि दोषों से आधाकर्म का प्रयोग होता है अतः कारण में अभेद का उपचार करके प्रतिषेवणा, प्रतिश्रवण
संवास और अनुमोदना को आधाकर्म के नाम के रूप में स्वीकार किया है (मवृ प. ३६)। २. टीकाकार मलयगिरि ने एक प्रश्न उपस्थित किया है कि औदारिक शरीर तिर्यञ्च और मनुष्य के होता है। तिर्यञ्च में एकेन्द्रिय से पञ्चेन्द्रिय तक के जीवों का ग्रहण होता है। एकेन्द्रिय में सूक्ष्म जीव भी होते हैं। सूक्ष्म होने के कारण उनका अपद्रावण मनुष्यों के द्वारा संभव नहीं है अत: उनका यहां ग्रहण क्यों किया गया है ? इसका उत्तर देते हुए टीकाकार कहते हैं कि जो जिस वस्तु से अविरत है, वह उस कार्य को नहीं करता हुआ भी परमार्थतः उसे करता हुआ जानना चाहिए, जैसे रात्रिभोजन से अविरत गृहस्थ रात्रिभोजन नहीं करता हुआ भी रात्रिभोजन के पाप से लिप्त होता है, वैसे ही गृहस्थ सूक्ष्म एकेन्द्रिय के अपद्रावण से अविरत है अत: यहां साधु के लिए समारम्भ करते हुए वे सूक्ष्म एकेन्द्रिय के अपद्रावण को
करते हैं (मवृ प. ३७)। भाष्यकार ने अपनी व्याख्या में सूक्ष्म एकेन्द्रिय का वर्जन किया है (पिभा १६)।। ३. भाष्यकार ने उद्दवण-अपद्रावण का अर्थ अतिपात रहित पीड़ा किया है। साधुओं के लिए शाल्योदन आदि पकाने में
वनस्पतिकाय का जब तक प्राणातिपात नहीं होता, उससे पूर्व की सारी पीड़ा अपद्रावण कहलाती है (पिभा १६) जैसे साध के लिए शाल्योदन पकाने में शालि का दो बार कण्डन किया जाता है, तब तक कण्डन कृत पीड़ा अपद्रावण
कहलाती है। तीसरी बार कण्डन करने में शालि जीवों का अवश्य ही अतिपात हो जाता है (मवृ प. ३७)। ४. अंगुल मात्र क्षेत्र के असंख्येय भागगत प्रदेश राशि प्रमाण कंडक होते हैं । मलयगिरि ने यहां कंडक को स्पष्ट करने हेतु
एक पद उद्धृत किया है-'कण्डं ति इत्थ भण्णइ, अंगुलभागो असंखेज्जो' (मवृ प. ३९)। ५. संभव लगता है कि यहां ग्रंथकार ने आधाकर्म से होने वाले दोष की भयावहता को प्रकट करने के लिए कुछ कम चारित्र
वाले अर्थात् उपशान्तमोह चारित्र वाले का उदाहरण दिया है। यहां कहने का तात्पर्य यह है कि प्रमत्तसंयत (छठे गुणस्थान) वाले साधु की बात तो दूर, उपशांतमोह चारित्र (ग्यारहवां गुणस्थान) वाला साधु भी यदि आधाकर्म आहार को ग्रहण करता है तो वह अपनी आत्मा का अध: पतन कर लेता है (मवृ प. ४१)।
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६४/२. आधाकर्मग्राही मुनि अधोगति का आयुष्य बांधता है तथा अन्यान्य कर्मों को भी अधोगति के अभिमुख करता है। वह तीव्र-तीव्रतर भावों से बंधे हुए कर्मों का निधत्ति, निकाचना रूप में घनकरण करता हुआ प्रतिपल कर्मों का चय-उपचय करता है। ६४/३. उन भारी कर्मों के उदय से वह आधाकर्मग्राही मुनि दुर्गति में गिरती हुई अपनी आत्मा को नहीं बचा सकता। वे कर्म उसे अधोगति में ले जाते हैं। ६५. जो प्रयोजन से अथवा निष्प्रयोजन जानते हुए अथवा अनजान में षड्जीवनिकाय का प्राणव्यपरोपण करता है, उसे द्रव्य आत्मघ्न कहते हैं। ६६. द्रव्य आत्मा षट्काय हैं । ज्ञान, दर्शन और चारित्र-ये तीन भाव आत्मा हैं, जो प्राणियों के प्राणों का विनाश करने में रत है, वह अपनी चरणरूप भाव आत्मा का हनन करता है। ६६/१. निश्चयनय के अनुसार चारित्र के विघात से ज्ञान और दर्शन का घात होता है। व्यवहारनय के अनुसार चरण-चारित्र का विघात होने पर ज्ञान और दर्शन के विघात की भजना है। ६७. जो पुरुष जिस द्रव्य को-यह मेरा है-ऐसा कहता है, वह ममकार द्रव्य विषयक आत्मकर्म है तथा जो अशुभभाव में परिणत होकर परकर्म-पचन-पाचनादि कर्म से अपने आपको जोड़ता है, वह भाव विषयक आत्मकर्म है। ६७/१. आधाकर्म द्रव्य ग्रहण में परिणत मुनि संक्लिष्ट परिणाम वाला होता है। वह प्रासुक द्रव्य ग्रहण करता हुआ भी कर्मों से बंधता है अतः इसे आत्मकर्म जानना चाहिए। ६७/२. जो आधाकर्म को ग्रहण कर उसका उपभोग करता है, वह परकर्म-गृहस्थ के पचन-पाचन आदि कर्म को आत्मकर्म कर लेता है। प्रश्न है परक्रिया अन्यत्र कैसे संक्रान्त होती है ? ६७/३,४. कुछ व्यक्ति कूट दृष्टान्त के आधार पर कहते हैं कि जैसे व्याध कूट-पाश की स्थापना करता
१. भगवती सूत्र में उल्लेख मिलता है कि आधाकर्म का भोग करने वाला साधु आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्म
प्रकृतियों के शिथिल बंधन को गाढ़ बंधन वाली, अल्पस्थिति वाली कर्म-प्रकृतियों को दीर्घकालिक स्थिति वाली, मंद विपाक वाली प्रकृतियों को तीव्र विपाक वाली तथा अल्प प्रदेश-परिमाण वाली प्रकृतियों को बहुप्रदेश परिमाण वाली
करता है। आयुष्य का बंधन कभी करता है, कभी नहीं करता (भ. १/४३६)। २. इस गाथा के अन्तर्गत प्रश्न का उत्तर अगली गाथा में दिया गया है। टीकाकार इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं कि
परक्रिया कभी भी दूसरे में संक्रान्त नहीं हो सकती। यदि ऐसा संभव हो तो क्षपक श्रेणी में आरूढ़ मुनि करुणावश सबके
कर्मों को अपने भीतर संक्रमण करके उनका क्षय कर सकता है लेकिन ऐसा संभव नहीं है (मवृ प. ४४)। ३. टीकाकार मलयगिरि और अवचूरिकार के अनुसार मृग और कूट का दृष्टान्त यशोभद्रसूरि का है। उनके अनुसार दक्ष और
अप्रमत्त मृग जाल से बचकर चलता है और यदि किसी कारणवश वह जाल में फस भी जाता है तो जाल बंध होने से पहले तत्काल वहां से निकल जाता है लेकिन प्रमत्त और अकुशल मृग बंध ही जाता है अत: केवल परप्रयुक्ति मात्र से कोई बंधनग्रस्त नहीं होता। इसी प्रकार आधाकर्म आहार बनाने मात्र से साधु के पाप कर्म का बंधन नहीं होता। जो अशुभ अध्यवसाय से उसको ग्रहण करता है, वह परकर्म-गृहस्थ के पचन-पाचन आदि कर्म को आत्मकर्म बनाता है। यहां उपचार से आधाकर्म को आत्मकर्म कहा गया है (मवृ प. ४४, ४५)।
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है, उसमें मृग ही बंधनग्रस्त होते हैं, व्याध नहीं। इसी प्रकार गृहस्थ पचन-पाचन करता है, उसके बंध नहीं होता, जो ग्राहक है उसके बंध होता है। (इस आशंका का उत्तर देते हुए) गुरु कहते हैं-जैसे पाश में प्रमत्त
और अदक्ष मृग ही बंधनग्रस्त होता है, उसी प्रकार भावकूट में वही साधु बंधता है, जो अशुभभाव में परिणत होता है इसलिए प्रयत्नपूर्वक अशुभभावों का वर्जन करना चाहिए। ६७/५. यह सम्मत बात है कि कोई मुनि न स्वयं आधाकर्म करता है और न करवाता है परन्तु आधाकर्म को जानता हुआ भी जो उसे ग्रहण करता है, वह आधाकर्म भोजन ग्रहण करने के प्रसंग को बढ़ावा देता है। जो उसको ग्रहण नहीं करता है, वह उसका निवारण करता है। ६८. साधु प्रतिषेवणा आदि से परकर्म को आत्मसात् करता है। (गाथा ६१ में आए) प्रतिषेवणा आदि चार पदों में आदिपद-प्रतिषेवणा सब से गुरु है, प्रधान है, शेष क्रमश: लघु, लघु, लघुक हैं, (जैसे-प्रतिषेवणा की अपेक्षा प्रतिश्रवण लघु, प्रतिश्रवण से संवासन लघु तथा संवासन से भी अनुमोदन लघुतर है।) ६८/१. यथासंभव प्रतिषेवणा से अनुमोदन तक के द्वारों के स्वरूप को उदाहरण सहित कहूंगा। ६८/२. दूसरे साधु के द्वारा आनीत आधाकर्म भोजन को जो खाता है, वह भी प्रतिषेवणा दोष से बंधता है। ऐसा करने वाले मुनि को कुछ कहने पर वह प्रत्युत्तर देता है कि इसमें कोई दोष नहीं है क्योंकि दूसरे के हाथ से अंगारे खींचने वाला स्वयं दग्ध नहीं होता। ६८/३. आधाकर्मी भोजन करता हुआ जो मुनि सोचता है कि 'मैं तो शुद्ध हूं', जो आधाकर्म देता है, वह दोषी है, मूढ़ है। इस अंगारे के मिथ्या दृष्टान्त द्वारा शास्त्रों के अर्थ को न जानता हुआ वह प्रतिषेवणा करता
६८/४. जो गुरु भिक्षा दिखाने के समय आधाकर्म आहार ग्रहण करने वाले मुनि की चित्तसमाधि के लिए 'लाभ' इस शब्द का प्रयोग करते हैं तथा अमुक श्राविका ने श्रद्धापूर्वक यह आधाकर्म आहार दिया है, ऐसी
आलोचना करने पर 'सुलब्ध'-अच्छा प्राप्त हुआ, ऐसा कहते हैं तो वे आचार्य भी प्रतिश्रवण दोष के भागी होते हैं। ६८/५. संवास का प्रसिद्ध अर्थ है-आधाकर्म भोगने वालों के साथ रहना। आधाकर्म भोजी की प्रशंसा करना अनुमोदना है। इनके क्रमशः ये उदाहरण जानने चाहिए। ६८/६. प्रतिषेवणा में चोर, प्रतिश्रवण में राजपुत्र, संवास के अन्तर्गत पल्ली में रहने वाले वणिक् का तथा अनुमोदना में राजदुष्ट का उदाहरण ज्ञातव्य है।
१. इस गाथा में मान्यता विशेष का उल्लेख है लेकिन यह जिनवचन के विरुद्ध है क्योंकि समारम्भ कर्ता गृहस्थ के नियमत:
कर्मबंध होता ही है। साधु यदि प्रमत्त है तो उसके भी आधाकर्म ग्रहण से पापकर्म का बंध होता है केवल परप्रयोग मात्र से कर्मबंध नहीं होता (मवृ प. ४५)।
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६८/७,८. चोर गायों का अपहरण कर अपने ग्राम की ओर जा रहे थे। मार्ग में उन्होंने कुछेक गायों को मारकर मांस पकाकर खा लिया। मांस के उपभोक्ता, मांस को परोसने वाले परिवेषक तथा वहां बैठे हुए अन्य पथिक-इन सबको चोर पकड़ने वाले राजपुरुषों ने पकड़ लिया। मांस को परोसने वाले तथा मांस के भाजनों को धारण करने वाले भी राजपुरुषों द्वारा बंधन को प्राप्त हुए फिर मांस खाने वालों का तो कहना ही क्या? (इसी प्रकार आधाकर्म आहार को परोसने वाले और उस पात्र को धारण करने वाले मुनि भी तीव्र कर्म-बंधन को प्राप्त करते हैं फिर आधाकर्मभोजी की तो बात ही क्या है ?) ६८/९. राजकुमार ने पिता के वध हेतु सहायक भटों के साथ मंत्रणा की। कुछ सुभट बोले कि हम पिता के वध में सहायक बनेंगे, कुछ सुभट मौन रहे। राजकुमार तथा दोनों प्रकार के सुभट प्रतिश्रवण दोष के भागी हैं। जिन्होंने राजा को कहा, वे इस दोष के भागी नहीं हैं। ६८/१०,११. एक साधु ने चार मुनियों को आधाकर्म आहार करने के लिए निमंत्रित किया। एक साधु उसे खाने लगा। दूसरा बोला-'मैं नहीं खाता, तुम खाओ।' तीसरा मुनि मौन रहा। चौथे ने उसका प्रतिषेध किया। इनमें प्रथम तीन मुनि प्रतिश्रवण दोष के भागी हैं तथा प्रतिषेध करने वाला मुनि उस दोष से मुक्त है। प्रस्तुत प्रसंग में आधाकर्म लाने वाला तथा भोक्ता-दोनों कायिक क्रिया के दोषी हैं। दूसरा वाचिक दोष का भागी है, तीसरा मानसिक दोष से दुष्ट है तथा चौथा तीनों दोषों से विशुद्ध है। ६९. पितृमारक राजपुत्र के प्रतिषेवण', प्रतिश्रवण, संवास तथा अनुमोदना-ये चारों दोष घटित होते हैं। इसी प्रकार आधाकर्म का उपभोग करने वाले मुनिजन के साथ सारे दोषों की संयोजना करनी चाहिए। ६९/१. चोरों की पल्ली पर (राजा द्वारा) आक्रमण करने पर कुछ चोर भाग गए, कुछ वणिकों ने हम चोर नहीं हैं, ऐसा सोचकर पलायन नहीं किया। चोरों के साथ संवास करने के कारण उन्हें अपराधी मानकर राजा ने उनको दंडित किया। ६९/२. इसी प्रकार आधाकर्म भोजन का उपभोग करने वाले मुनियों के साथ संवास करने वाले भी दोषी होते हैं। आधाकर्म भोजन का अवलोकन, उसकी गंध और उसकी परिचर्चा रूक्षवृत्ति वाले तथा आधाकर्म का परिहार करने वाले मुनि को भी प्रभावित कर देती है अर्थात् वह मुनि भी उस भोजन के परिभोग की वाञ्छा करने लगता है।
१. कथा के विस्तार हेतु देखें परि.-३, कथा सं. ४। २. कथा के विस्तार हेतु देखें परि.-३, कथा सं. ५। ३. प्रतिषेवण करने वाले के चारों दोष लगते हैं। प्रतिश्रवण करने वाले के तीन, संवास करने वाले के दो तथा अनुमोदन करने ___ वाले के एक दोष लगता है (मवृ प. ४८)। ४. कथा के विस्तार हेतु देखें परि.-३, कथा सं.६। ५. दर्शनगंधपरिकथा-ये तीन शब्द हैं, इनका अर्थ है-आधाकर्म भोजन का अवलोकन, उस भोजन की गंध तथा उसकी
परिचर्चा।
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६९/३. राजा के अन्तःपुर में अपराध करने पर जिन आभूषणों को पहनकर व्यक्ति अन्तःपुर में गया, उन आभूषणों सहित वह नगर के मध्य में मारा गया। राजा ने कार्पटिक वेशधारी राजपुरुषों को नियुक्त किया। धन्य कहने वालों का वध तथा अधन्य कहने वालों का वध नहीं हुआ। ६९/४. ये मुनि ऋतु के अनुकूल, स्निग्ध, स्वादिष्ट और पर्याप्त आहार सम्मानपुरस्सर समय पर प्राप्त करते हैं, इसलिए ये धन्य हैं। इस प्रकार उन गुणों की प्रशंसा करने वाला मुनि आधाकर्म का उपभोग न करने पर भी उसकी अनुमोदना के दोष से युक्त होता है। ७०. आधाकर्म, अध:कर्म, आत्मघ्न तथा आत्मकर्म-इनमें जैसे व्यञ्जनों का नानात्व है, वैसे ही अर्थ में भी नानात्व है? ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं७०/१. व्यञ्जन और अर्थ की चतुर्भंगी होती है
१. एक अर्थ एक व्यंजन। २. एक अर्थ नाना व्यंजन। ३. नाना अर्थ एक व्यंजन।
४. नाना अर्थ नाना व्यंजन। ७०/२. लोक में एक अर्थ और एक व्यंजन वाले शब्द प्रचलित हैं-जैसे-क्षीर-क्षीर। एक अर्थ और बहु व्यंजन वाले शब्द-जैसे दूध के अर्थ में दुग्ध, पयः, पीलु, क्षीर आदि। ७०/३. एक व्यंजन और नाना अर्थ वाला शब्द, जैसे-गाय, भैंस और बकरी आदि के दूध के लिए क्षीर शब्द का प्रयोग । नाना अर्थ और नाना व्यंजन जैसे-घट, पट, कट, शकट, रथ आदि नाम।' ७०/४,५. एक वस्तु के लिए दो, तीन या अधिक बार अनेक व्यक्तियों के द्वारा आधाकर्म, आधाकर्म शब्द का प्रयोग, यह प्रथम भंग है (एक अर्थ और एक व्यञ्जन); आधाकर्म, अध:कर्म आत्मघ्न-ये नाना व्यंजन वाले एकार्थक शब्द हैं, यह दूसरा भंग है, जैसे-शक्र, इन्द्र आदि एकार्थक शब्द नाना व्यंजन वाले १. कथा के विस्तार हेतु देखें परि.-३, कथा सं. ७। २. टीकाकार के अनुसार अनुमोदना जनित दोष कार्य में कारण का उपचार करने से मान्य है (मवृ प. ५०)। ३. व्यवहारभाष्य में व्यञ्जन और अर्थ की चतुर्भंगी एवं उसके उदाहरण में निम्न दो गाथाओं का उल्लेख मिलता है। इन गाथाओं में शब्दभेद तथा उदाहरण में भिन्नता है लेकिन वाच्यार्थ एक ही है
नाणतं दिस्सए अत्थे, अभिन्ने वंजणम्मि वि। वंजणस्स य भेदम्मि, कोइ अत्थो न भिज्जति ॥ पढमो त्ति इंद-इंदो, बितीयओ होइ इंद-सक्को त्ति। ततिओ गो-भूप-पसू, रस्सी चरमो घड-पडो त्ति ॥
(व्यभा १५५, १५६) ७०/१-३-ये तीनों गाथाएं भाषाविज्ञान की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। आधाकर्म के अध:कर्म, आत्मघ्न तथा आत्मकर्म आदि शब्द द्वितीय भंग एक अर्थ और नाना व्यञ्जन के अंतर्गत समाविष्ट होते हैं।
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हैं। अशन, पान, खादिम, स्वादिम-इन चारों प्रकार के आहार हेतु आधाकर्म शब्द का प्रयोग करना तीसरा भंग है (नाना अर्थ एक व्यञ्जन)। आधाकर्म के प्रसंग में चौथा भंग (नाना अर्थ नाना व्यञ्जन) शून्य है।' ७०/६. जैसे पुरन्दर आदि शब्द इन्द्र के अर्थ का अतिक्रमण नहीं करते, वैसे ही अध:कर्म, आत्मघ्न आदि शब्द भी आधाकर्म के अर्थ का अतिक्रमण नहीं करते। ७१. आधाकर्म का उपभोग करने वाला अपनी आत्मा का अध: पतन करता है (अतः इसका एक नाम अध:कर्म है) वह प्राण और भूतों के हनन के साथ आत्मा के चारित्र आदि गुणों का नाश करता है इसलिए इसका एक नाम आत्मघ्न है। आधाकर्म लेने वाला परकर्म-पाचक आदि के पाप कर्म को स्वयं आत्मसात् करता है अत: इसका एक नाम आत्मकर्म है। ७२. शिष्य द्वारा प्रश्न पूछने पर कि किस पुरुष विशेष के लिए किया हुआ कर्म आधाकर्म कहलाता है? इसका उत्तर है कि साधर्मिक के लिए किया हुआ कर्म आधाकर्म होता है इसलिए साधर्मिक शब्द की विधिपूर्वक प्ररूपणा करनी चाहिए। ७३. साधर्मिक' के बारह प्रकार हैं१. नाम साधर्मिक
७. लिंग साधर्मिक २. स्थापना साधर्मिक
८. दर्शन साधर्मिक ३. द्रव्य साधर्मिक
९. ज्ञान साधर्मिक ४. क्षेत्र साधर्मिक
१०. चारित्र साधर्मिक ५. काल साधर्मिक
११. अभिग्रह साधर्मिक ६. प्रवचन साधर्मिक
१२. भावना साधर्मिक ७३/१-३. नाम साधर्मिक - समान नाम वाला व्यक्ति।
स्थापना साधर्मिक - काठ की प्रतिमा, अक्ष आदि में साधर्मिक की स्थापना । द्रव्य साधर्मिक - प्रवर्द्धमान शरीर होने पर भविष्य में यह साधु का साधर्मिक होगा
(अथवा साधर्मिक का मृत शरीर) क्षेत्र साधर्मिक - समान क्षेत्र में उत्पन्न। काल साधर्मिक - समान काल में उत्पन्न ।
१. यद्यपि यहां चौथा भंग शून्य है लेकिन टीकाकार के अनुसार यदि कोई व्यक्ति अशन के लिए आधाकर्म, पानक के लिए
अध:कर्म, खादिम के लिए आत्मघ्न तथा स्वादिम के लिए आत्मकर्म का प्रयोग करे तो ये नाम नाना अर्थ और नाना व्यञ्जन वाले हो जाते हैं। इस दृष्टि से चरम भंग भी प्राप्त हो सकता है (मवृ प.५१)। २. निशीथ भाष्य में तीन प्रकार के साधर्मिकों का उल्लेख है-१. लिंग साधर्मिक २. प्रवचन साधर्मिक ३. लिंग-प्रवचन
साधर्मिक। वहां वैकल्पिक रूप से साधर्मिक के तीन-तीन भेद और किए हैं-१. साधु २. पार्श्वस्थ ३. श्रावक। दूसरा विकल्प है-१. श्रमण २. पार्श्वस्थ श्रमण ३. श्रावक (निभा ३३६ चू. पृ. ११७)।
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प्रवचन' साधर्मिक – तीर्थ चतुष्टय में कोई एक सदस्य। लिंग साधर्मिक – मुनि के समान रजोहरण, मुखपत्ति आदि वेश धारण करने वाला। दर्शन साधर्मिक - समान दर्शन वाला, दर्शन के तीन प्रकार हैं। ज्ञान साधर्मिक - समान ज्ञान वाला, ज्ञान के पांच प्रकार हैं। चारित्र साधर्मिक - समान चारित्र वाला, चारित्र साधर्मिक के पांच प्रकार अथवा तीन
प्रकार हैं। अभिग्रह साधर्मिक – समान अभिग्रह करने वाला। अभिग्रह साधर्मिक के चार प्रकार
भावना साधर्मिक - समान भावना वाला। अनित्य आदि बारह भावनाओं के आधार
पर भावना साधर्मिक के बारह प्रकार हैं।६ ७३/४, ५. (नाम साधर्मिक की कल्प्याकल्प्य विधि-) किसी के पिता का नाम देवदत्त था। उसकी मृत्यु पर पुत्र ने यह संकल्प किया कि गृहस्थ हो या साधु, जिनका नाम देवदत्त है, मैं उनको आहार आदि दूंगा। ऐसी स्थिति में देवदत्त नाम के मुनियों को वह आहार नहीं कल्पता। यदि गृहस्थ यह संकल्प करे कि देवदत्त नामक सभी गृहस्थ व्यक्तियों को आहार दूंगा तो ऐसे निर्धारण में देवदत्त नामक साधुओं को वह आहार कल्पता है। इसी प्रकार पाषंडी-मतांतर वाले साधुओं के विषय में मिश्र-अमिश्र की बात समझनी
१. टीकाकार मलयगिरि ने पूर्वाचार्य कृत व्याख्या का उल्लेख करते हुए कहा है कि प्रवचन, लिंग आदि सप्तक के द्विसंयोग
से २१ भेद होते हैं। प्रवचन के लिंग, दर्शन यावत् भावना तक छह भंग होते हैं। लिंग के दर्शन आदि के साथ पांच, दर्शन के ज्ञान आदि के साथ चार, ज्ञान के चारित्र आदि के साथ तीन, चारित्र का अभिग्रह और भावना के साथ दो तथा अभिग्रह का भावना के साथ एक-इस प्रकार सब मिलकर इक्कीस भेद होते हैं। इन इक्कीस भेदों में प्रत्येक की एक-एक चतुर्भंगी
होती है (मवृ प.५५)। २. त्रिविध दर्शन साधर्मिक-१. क्षायिकदर्शन साधर्मिक २. क्षायोपशमिक दर्शन साधर्मिक ३. औपशमिक दर्शन साधर्मिक।
(क्षायिकदर्शन वाला क्षायिक दर्शनी का साधर्मिक होता है)। ३. पंचविध ज्ञान साधर्मिक-१. मतिज्ञान साधर्मिक २. श्रुतज्ञान साधर्मिक ३. अवधिज्ञान साधर्मिक ४. मनःपर्यव ज्ञान
साधर्मिक ५. केवलज्ञान साधर्मिक। ४. पंचविध चारित्र साधर्मिक-१. सामायिक चारित्र साधर्मिक २. छेदोपस्थापनीय चारित्र साधर्मिक ३. परिहारविशुद्धि चारित्र
साधर्मिक ४. सूक्ष्म सम्पराय चारित्र साधर्मिक ५. यथाख्यात चारित्र साधर्मिक। मतान्तर से चारित्र साधर्मिक के तीन प्रकार
भी मिलते हैं-१. क्षायिक चारित्र साधर्मिक २. क्षायोपशमिक चारित्र साधर्मिक ३. औपशमिक चारित्र साधर्मिक। ५. चतुर्विध अभिग्रह साधर्मिक-१. द्रव्य अभिग्रह साधर्मिक २. क्षेत्र अभिग्रह साधर्मिक ३. काल अभिग्रह साधर्मिक ४. भाव
अभिग्रह साधर्मिक। ६. द्वादशविध भावना साधर्मिक-१. अनित्य भावना साधर्मिक २. अशरणत्वभावना साधर्मिक ३. एकत्वभावना साधर्मिक
४. अन्यत्वभावना साधर्मिक ५. अशुचित्वभावना साधर्मिक ६.संसारभावना साधर्मिक ७. आश्रवभावना साधर्मिक ८. संवरभावना साधर्मिक ९. निर्जराभावना साधर्मिक १०.लोकविस्तारभावना साधर्मिक ११. धर्मभावना साधर्मिक १२. बोधिदुर्लभत्वभावना साधर्मिक।
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चाहिए। यदि श्रमण और साधु के लिए संकल्प किया है तो विसदृश अर्थात् भिन्न नाम वाले साधु को भी वह आहार नहीं कल्पता। ७३/६. स्थापना साधर्मिक के संबंध में निश्रा या अनिश्रा से निष्पादित द्रव्य के लिए यह विभाषा करनी चाहिए। द्रव्य साधर्मिक के विषय में मृततनुभक्त-तत्काल मृत साधु के शव के पास रखने के लिए उपस्कत अन्न आदि का मनि विवर्जन करे क्योंकि इससे लोक में निंदा होती है।
७३/७. जैसे नाम साधर्मिक के प्रसंग में पाषंडी (अन्य दर्शनी), श्रमण, गृही-अगृही तथा निग्रंथों का विवरण दिया है, वैसे ही क्षेत्र और काल के विषय में जानना चाहिए।
१. पाषंडी संबंधी मिश्र और अमिश्र की व्याख्या टीकाकार ने इस प्रकार की है-जितने भी देवदत्त नामक पाषंडी
(अन्यदर्शनी) हैं, उनको मैं भोजन दूंगा, गृहस्थ द्वारा किया गया यह संकल्प मिश्र है। इस संकल्प में देवदत्त नामक साधु को वह आहार नहीं कल्पता क्योंकि पाषंडी देवदत्त से सभी साधुओं का ग्रहण हो जाता है। जितने सरजस्क पाषंडी अर्थात् बौद्ध दर्शनी देवदत्त नामक साधु हैं, उनको आहार दूंगा, इस संकल्प में साधु को वह आहार कल्पनीय है। जैसे पाषंडी शब्द की मिश्र और अमिश्र से संबंधित व्याख्या की है, वैसे ही श्रमण से संबंधित भी मिश्र और अमिश्र के आधार पर व्याख्या करनी चाहिए।
निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गैरुक और आजीवक-ये पांच प्रकार के श्रमण होते हैं। यदि गृहस्थ ने मिश्र संकल्प किया कि जितने देवदत्त नामक श्रमण हैं, उनको भोजन दूंगा तो देवदत्त नामक साधु को वह आहार नहीं कल्पता। यदि गृहस्थ यह संकल्प करता है कि निर्ग्रन्थ साध के अतिरिक्त सभी श्रमणों को भिक्षा दूंगा तो वह आहार साध के लिए कल्पनीय है। यदि कोई यह संकल्प करे कि मैं देवदत्त नामक सभी संयतों को आहार दूंगा तो इससे भिन्न नाम वाले चैत्र नामक साधु को भी वह अन्नपान नहीं कल्पता क्योंकि वह साधु के निमित्त किया गया आहार है। टीकाकार इसकी विशद व्याख्या करते हुए कहते हैं कि यदि तीर्थंकर या प्रत्येकबुद्ध के नाम से संकल्प किया गया है तो साधु को वह आहार कल्पता है क्योंकि तीर्थकर और प्रत्येकबुद्ध संघ से अतीत होते हैं, वे साधुओं के साधर्मिक नहीं होते (मवृ प. ५३, ५४)। २. यदि कोई गृहस्थ प्रव्रजित पिता के दिवंगत होने पर या जीवित रहने पर स्नेहवश उनकी प्रतिकृति बनवाकर उनके लिए
नैवेद्य तैयार करवाता है तो वह दो प्रकार का होता है-निश्राकृत २. अनिश्राकृत। यदि गृहस्थ यह संकल्प करता है कि रजोहरणधारी मेरे पिता की प्रतिकृति को मैं नैवेद्य दूंगा तो वह निश्राकृत नैवेद्य कहलाता है। यदि बिना संकल्प के सामान्य रूप से नैवेद्य तैयार करता है तो वह अनिश्राकृत कहलाता है। निश्राकृत नैवेद्य अकल्प्य होता है। अनिश्राकृत नैवेद्य कल्प्य है लेकिन लोक-व्यवहार के विरुद्ध होने से आचार्यों ने उसका निषेध किया है।
इसी प्रकार तत्काल दिवंगत साधु के शरीर के सामने रखने के लिए जो आहार तैयार किया जाता है, वह मृततनुभक्त कहलाता है। यह भी निश्राकृत और अनिश्राकृत भेद से दो प्रकार का होता है। साधु को दूंगा इस संकल्प से तैयार किया गया भक्त निश्राकृत तथा केवल पितृभक्ति से बिना किसी संकल्प से बनाया गया भक्त अनि श्राकृत कहलाता है। निश्राकृत भक्त साधु के लिए अकल्प्य है। अनिश्राकृत कल्पनीय है लेकिन लोक में निंदा होती है कि ये साधु कैसे हैं, जो मतभक्त
का भी परिहार नहीं करते हैं अतः साधु को उस भक्त का वर्जन करना चाहिए (मव प.५४)। ३. यदि गृहस्थ संकल्प करे कि सौराष्ट्र देश में उत्पन्न पाषंडियों को भिक्षा दूंगा तो सौराष्ट्र देश में उत्पन्न साधु के लिए वह
आहार कल्पनीय नहीं है लेकिन अन्य देश में उत्पन्न साधु के लिए कल्पनीय है। (विस्तार हेतु देखें मवृ प. ५५, गा. ७३/
४,५ का टिप्पण)। ४. काल की अपेक्षा से यदि गृहस्थ संकल्प करे कि विवक्षित दिन में उत्पन्न पाषंडियों को मैं दान दूंगा तो उस दिन उत्पन्न
साधु को वह आहार नहीं कल्पता है, शेष दिन में उत्पन्न साधुओं के लिए वह आहार कल्पनीय है (मवृ प.
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७३/८. जो श्रावक दसवीं श्रावक प्रतिमा में हैं, वे सशिखा-केशसहित होते हैं। वे प्रवचन से साधर्मिक होते हैं, लिंग–वेशभूषा से नहीं। निह्नव लिंग से साधर्मिक होते हैं परन्तु प्रवचन से नहीं। ७३/९. जो विभिन्न क्षायिक आदि सम्यक्त्व से युक्त श्रावक और साधु होते हैं, वे प्रवचन से साधर्मिक हैं, दर्शन से नहीं। तीर्थंकर और प्रत्येकबुद्ध दर्शन से साधर्मिक हैं, प्रवचन से नहीं। ७३/१०. इसी प्रकार ज्ञान और चारित्र का भी प्रवचन के साथ संबंध जानना चाहिए, प्रवचन से साधर्मिक किन्तु अभिग्रह से नहीं; जैसे- श्रावकों और मुनियों के अभिग्रह भिन्न-भिन्न होते हैं। ७३/११. निह्नव, तीर्थंकर और प्रत्येकबुद्ध-ये तीनों अभिग्रह से साधर्मिक होते हैं, प्रवचन से नहीं। इसी प्रकार प्रवचन और भावना की चतुर्भंगी जाननी चाहिए। अब शेष चतुर्भंगी के उदाहरण कहूंगा। ७३/१२. इसी प्रकार लिंग साधर्मिक, दर्शन साधर्मिक आदि पदों के साथ भी लिंग आदि प्रत्येक पद उपरितन अर्थात् दर्शन, ज्ञान आदि पदों की चतुर्भंगी के साथ संयुति करनी चाहिए। जो चतुर्भगियां उदाहरण की अपेक्षा से अन्य के सदृश नहीं हैं, उनको छोड़कर शेष विकल्पों को इसी प्रकार जानना चाहिए। ७३/१३. लिंग से साधर्मिक, दर्शन से नहीं, चतुर्भंगी के इस भंग में विभिन्न दर्शन वाले निह्नव और प्रतिमाधारी श्रावक आते हैं। इनके लिए बनाया गया आहार साधु के लिए कल्पनीय है लेकिन साधु के लिए बनाया हुआ नहीं। दर्शन से साधर्मिक लिंग से नहीं, इस दूसरे भंग में प्रत्येकबुद्ध, तीर्थंकर तथा सामान्य श्रावक आते हैं। इनके लिए बनाया गया आहार मुनि के लिए कल्पनीय है।
१. प्रवचन और लिंग के आधार पर बनने वाली चतुर्भंगी इस प्रकार है
• प्रवचन से साधर्मिक, लिंग से नहीं। • लिंग से साधर्मिक, प्रवचन से नहीं। • प्रवचन से साधर्मिक, लिंग से भी साधर्मिक। • न प्रवचन से साधर्मिक और न ही लिंग से साधर्मिक। व्यवहारभाष्य में इस गाथा की संवादी गाथा इस प्रकार मिलती है
लिंगेण उ साहम्मी, नोपवयणतो य निण्हगा सव्वे।
पवयणसाधम्मी पुण, न लिंग दस होंति ससिहागा ॥ व्यभा ९९१ टीकाकार इस गाथा की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि एक साधु या श्रावक क्षायोपशमिक दर्शन से युक्त है और दूसरा
औपशमिक या क्षायिक सम्यक्त्व से युक्त है तो वे परस्पर प्रवचन से साधर्मिक हैं, दर्शन से नहीं (मवृ प. ५६)। ३. जैसे लिंग और दर्शन के जो चार भंग उदाहरण सहित कहे गए हैं (गा. ७३/१३) उदाहरण की अपेक्षा से वैसे ही विकल्प लिंग और ज्ञान तथा लिंग और चरण के भी होते हैं। उन्हें छोड़कर लिंग और दर्शन तथा लिंग और अभिग्रह के विकल्पों
को कहना चाहिए। ४. नियुक्तिकार ने केवल दो भंगों का उल्लेख किया है। शेष दो भंगों के उदाहरणों की व्याख्या टीकाकार ने की है। लिंग से
साधर्मिक तथा दर्शन से समान दर्शन वाले, इस भंग में साधु और एकादश प्रतिमाधारक श्रावक आते हैं। इसमें श्रावक के लिए कृत आहार कल्पनीय है, साधु के लिए कृत अकल्प्य है। चतुर्थ भंग में न लिंग से साधर्मिक न दर्शन से, इसमें प्रत्येकबुद्ध, तीर्थंकर और प्रतिमा रहित श्रावक आते हैं। इनके लिए कृत आहार साधु के लिए कल्पनीय है। टीकाकार ने लिंग और ज्ञान तथा लिंग और चारित्र आदि की चतुर्भगियों का भी विस्तृत वर्णन किया है (विस्तार हेतु देखें मवृप. ५७,५८)।
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७३/१४. लिंग से साधर्मिक लेकिन अभिग्रह से नहीं, इस भंग में विभिन्न अभिग्रहधारी साधु, प्रतिमा प्रतिपन्न श्रावक तथा निह्नव आदि आते हैं। इनमें निह्नव और श्रावक के लिए कृत आहार साधु के लिए कल्पनीय है। अभिग्रह से साधर्मिक, लिंग से नहीं-इस द्वितीय भंग में प्रत्येकबुद्ध, तीर्थंकर और प्रतिमारहित श्रावक आते हैं। इनके लिए कृत आहार साधु के लिए कल्प्य है।' ७३/१५. लिंग और अभिग्रह की चतुर्भंगी की भांति लिंग और भावना से साधर्मिक की चतुर्भंगी समझनी चाहिए। दर्शन और ज्ञान विषयक चतुर्भंगी के प्रथम भंग में दर्शन से साधर्मिक ज्ञान से नहीं, इसमें विभिन्न ज्ञान वाले समान दर्शन वाले साधु तथा श्रावक आते हैं। इसमें श्रावक के लिए कृत आहार कल्प्य है। इसी प्रकार ज्ञान से साधर्मिक दर्शन से नहीं, इस दूसरे भंग को जानना चाहिए।' ७३/१६. दर्शन और चारित्र की चतुर्भंगी में प्रथम भंग है-दर्शन से साधर्मिक चारित्र से नहीं, इसमें समान दर्शन वाले श्रावक तथा विसदृश चारित्र वाले साधु आते हैं। (इसमें श्रावकों के लिए कृत आहार साधु के लिए कल्पनीय है पर साधु के लिए बनाया हुआ अकल्पनीय है।) चारित्र से साधर्मिक दर्शन से नहीं, इस द्वितीय भंग में विसदृश दर्शनी और समान चारित्र वाले साधु आते हैं (इनके लिए कृत आहार अकल्प्य है।)। अब मैं दर्शन और अभिग्रह के बारे में कहूंगा। ७३/१७. समान दर्शन तथा विभिन्न अभिग्रह वाले श्रावक और साधु दर्शन से साधर्मिक हैं लेकिन अभिग्रह से नहीं, यह प्रथम भंग है। दूसरे भंग में अभिग्रह से साधर्मिक दर्शन से नहीं, इसमें भी साधु और श्रावकों का समावेश होता है। वे साधु और श्रावक विसदृश दर्शन तथा समान अभिग्रह वाले होते हैं। (टीकाकार ने अंतिम दो भंगों की भी व्याख्या की है।) दर्शन और भावना की चतुर्भंगी को भी इसी रूप में जानना चाहिए। ज्ञान के साथ चारित्र आदि पदों की चतुर्भंगी जाननी चाहिए। अब चारित्र के साथ ज्ञान आदि की चतुर्भंगी कहूंगा।
१. मलयगिरि ने कुछ आचार्यों का मंतव्य प्रस्तुत करते हुए कहा है कि एकादश प्रतिमा प्रतिपन्न श्रावक साधु जैसे ही होते हैं
अत: उनके लिए किया हुआ आहार साधु के लिए कल्पनीय नहीं होता। इस मत का टीकाकार ने निरसन किया है तथा मूल टीकाकार का उद्धरण देते हुए कहा है कि लिंगयुक्त एकादश प्रतिमाधारी श्रावक के लिए कृत आहार साधु के लिए कल्पनीय होता है (मवृ प. ६२)। २. गाथा में नियुक्तिकार ने केवल दो भंगों की ही व्याख्या की है लेकिन टीकाकार ने चारों भंगों का स्पष्टीकरण किया है। लिंग
से साधर्मिक तथा अभिग्रह से भी साधर्मिक-इस तृतीय भंग में साधु, एकादश प्रतिमा प्रतिपन्न श्रावक तथा निह्नव आदि आते हैं। इनमें भी श्रावक और निहव के लिए कृत आहार साधु के लिए कल्पनीय है। चौथा भंग है न लिंग से साधर्मिक और न ही अभिग्रह से, इस चतुर्थ भंग में विसदृश अभिग्रह वाले तीर्थंकर, प्रत्येकबुद्ध और एकादश प्रतिमा रहित श्रावक
आते हैं, इनके लिए कृत आहार कल्प्य है (मवृ प.५८)। ३. इस चतुर्भगी के विस्तार हेतु देखें मवृ प.५८ ४. टीकाकार ने तृतीय और चतुर्थ भंग का उल्लेख भी किया है (देखें मवृ प. ५९)। ५. बाकी के तीसरे और चौथे भंग के विस्तार हेतु देखें मवृ प. ५९ । ६. विस्तार हेतु देखें मवृ प. ५९ । ७. विस्तार हेतु देखें मवृ प.६०॥
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७३/१८. चारित्र से साधर्मिक अभिग्रह से नहीं, इस प्रथम भंग में समान चारित्री एवं विभिन्न अभिग्रह वाले साधु आते हैं। अभिग्रह से साधर्मिक चारित्र से नहीं--इस द्वितीय भंग में समान अभिग्रहधारी निह्नव, श्रावक और विभिन्न चारित्र वाले साधु आते हैं। (यहां श्रावक और निह्नव के लिए कृत आहार कल्पनीय है।) इसी प्रकार चारित्र और भावना की चतुर्भंगी को समझना चाहिए। अब मैं अभिग्रह और भावना से संबंधित चतुर्भंगी को कहूंगा। ७३/१९. अभिग्रह से साधर्मिक भावना से नहीं तथा भावना से साधर्मिक अभिग्रह से नहीं-इन दो भंगों में साधु, श्रावक और निह्नवों का समावेश होता है। सामान्य केवलज्ञानी के निमित्त बना हुआ आहार आदि अन्य साधुओं को नहीं कल्पता। तीर्थंकर और प्रत्येकबुद्ध के लिए बना हुआ आहार आदि अन्य साधुओं को कल्पता है। ७३/२०. इसी प्रकार लिंग के साथ दर्शन आदि की चतुर्भंगी होती है। ऊपर के तीन भंगों में भजना है लेकिन अंतिम भंग का वर्जन करना चाहिए। ७३/२१. प्रत्येकबुद्ध, निह्नव, उपासक, केवली और शेष साधु आदि के साथ क्षायिक आदि भावों के अनुसार (दर्शन, ज्ञान, चारित्र, अभिग्रह और भावना के आधार पर) विकल्पों की योजना करनी चाहिए। ७३/२२. जहां तीसरा भंग-प्रवचन से साधर्मिक तथा लिंग से साधर्मिक, वहां साधु को आहार नहीं कल्पता। (इस विकल्प में प्रत्येकबुद्ध और तीर्थंकरों को छोड़कर शेष मुनि आ जाते हैं।) शेष भंगत्रय में भजना है-क्वचित् कल्पता है, क्वचित् नहीं। तीर्थंकर और केवली के निमित्त बनाया हुआ आहार आदि कल्पता है। शेष साधुओं के लिए किया हुआ अन्न-पानी आदि नहीं कल्पता। ७४. शिष्य के द्वारा पूछने पर कि आधाकर्म क्या है ? आचार्य उसका स्वरूप बताने हेतु आधाकर्म उत्पत्ति के घटक अशन-पान आदि का कथन करते हैं। ७५. अशन-शालि आदि, पान-अवट (कूप आदि ) से निकला पानी, खादिम-फल आदि और स्वादिम-सूंठ आदि है। इनमें कृत और निष्ठित के आधार पर शुद्ध और अशुद्ध चार भंग होते हैं।
टीकाकार ने अंतिम दो भंगों की व्याख्या भी की है (देखें मवृ प. ६१)। २. देवता तीर्थंकर के लिए समवसरण आदि की रचना करते हैं, उसमें साधु धर्म-देशना सुनने के लिए जाते हैं। इसी प्रकार
तीर्थंकर के लिए बना भक्त आदि भी साधु के लिए कल्पनीय है। तीर्थंकर और प्रत्येकबुद्ध सभी कल्पों से ऊपर उठ गए हैं, संभवत: इसीलिए यह विधान किया गया है। (मवृ प.६१) बृभा के अनुसार तीर्थंकर किसी के साधर्मिक नहीं होते
अतः उनके लिए कृत आहार मुनि के लिए कल्प्य है (बृभा १७८२, टी पृ. ५२६)।। ३, ४. गाथा में तीर्थंकर और केवली-इन दो शब्दों का प्रयोग क्यों किया गया, इसका स्पष्टीकरण करते हुए टीकाकार कहते
हैं कि तीर्थंकर को केवलज्ञान उत्पन्न होने पर सबको ज्ञात हो जाता है लेकिन केवली का कैवल्य सबको ज्ञात हो, यह आवश्यक नहीं है इसलिए तीर्थंकर और केवली दोनों को अलग-अलग ग्रहण किया है। तीर्थंकर' शब्द के ग्रहण से उपलक्षण से प्रत्येकबुद्ध का ग्रहण भी हो जाता है। (मवृ प.६२) जीतकल्पभाष्य में निह्नव और उपासक शब्द का
प्रयोग हुआ है (जीभा ११४५)। ५. ६. कृत और निष्ठित की चतुर्भगी के लिए देखें गा.८०, ८०/१ का अनुवाद।
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७६. गांव में कोद्रव और रालक दो प्रकार के धान्यों की प्रचुरता थी अतः भिक्षा में वे ही द्रव्य मिलते थे। साधुओं के स्वाध्याय के योग्य रमणीय वसति थी। क्षेत्र-प्रतिलेखना हेतु साधुओं का आगमन। श्रावकों ने पूछा-'क्या यह क्षेत्र आचार्य के चातुर्मास योग्य है ?' साधुओं ने ऋजुता से सब कुछ कहा७६/१. क्षेत्र गण के योग्य है लेकिन गुरु के चातुर्मास योग्य नहीं है क्योंकि यहां आचार्य के योग्य शाल्योदन नहीं है। यह सुनकर श्रावक ने शालि बीजों का वपन किया और स्वजनों के घर शालि को बंटवा दिया। ७६/२, ३. समय बीतने पर वे या कुछ अन्य मुनि विहार करते हुए उस गांव में आए और भिक्षार्थ गए। वे एषणा से युक्त थे। उन्होंने बालकों के मुख से यह चर्चा सुनी। कुछ बालक कह रहे थे-'ये वे साधु हैं, जिनके लिए घर-घर में शाल्योदन बना है।' दूसरा बोला-' मां ने मुझे साधु-संबंधी शाल्योदन दिया।' एक दानदात्री बोली-'मैंने परकीय शाल्योदन दिया, अब मैं अपना भी देना चाहती हूं।' कोई बालक बोला'मुझे साधु-संबंधी शाल्योदन दो।' एक दरिद्र बोला-'यहां ओदन का अभाव था अतः अवसर पर शाल्योदन हो गया।' ७६/४. (दो भाइयों में छोटे भाई की पत्नी की मृत्यु हो गई) बड़े भाई की पत्नी ने देवर से कहा-'मेरे पति तथा तुम्हारी पत्नी की मृत्यु हो गई है अत: मैं तुम्हारी पत्नी बनना चाहती हूं, यह 'थक्के थक्कावडिय' अर्थात् अवसर पर अवसर के अनुरूप घटित होने का उदाहरण है।" ७६/५. एक बालक बोला-'मां! तुम साधुओं को तण्डुलोदक दो।' दूसरा बोला-'तुम साधुओं को शालिकाञ्जिक दो।' बच्चों के मुख से यह बात सुनकर साधुओं ने पूछा-'यह क्या बात है?' सारी बात जानकर साधुओं ने आधाकर्म आहार जानकर उन घरों का वर्जन कर दिया और अन्य घरों में भिक्षार्थ घूमने लगे।
७७. एक गांव में सारे कूएं खारे पानी के थे। एक बार एक श्रावक ने मीठे पानी का कुआं खुदवाकर उसको तब तक फलक आदि से ढ़ककर रखा, जब तक वहां साधु नहीं आ गए। ७८. ककड़ी, आम, अनार, अंगूर तथा बिजौरा आदि खादिम वस्तुओं के विषय में पापकरण की प्रवृत्ति हो सकती है। त्रिकटुक आदि स्वादिम वस्तुओं के लिए भी श्रावक अनेक पापकारी प्रवृत्तियां कर लेता है। ७९. चारों प्रकार के अशन, पान आदि जो सचित्त हैं, उनको साधुओं के ग्रहण योग्य बनाना अर्थात् प्रासुक करना 'निष्ठित' कहलाता है। इन चारों को उपस्कत करने का प्रारंभ करना 'कत' कहलाता है।
यहां ग्रंथकार ने थक्के थक्कावडियं-अवसर पर अवसर के अनुरूप कार्य होना को स्पष्ट करने के लिए बीच में ही एक
लौकिक घटना का उदाहरण दे दिया है। यहां बालकों की चर्चा के प्रसंग में यह अप्रासंगिक सा लगता है। २. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३ कथा सं. ८।। ३. यह पानक संबंधी आधाकर्म का उदाहरण है। कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३ कथा सं. ९। ४. त्रिकटुक-सौंठ, पीपल, कालीमिर्च आदि।
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८०. जो तण्डुल तीन बार प्रबलरूप से कंडित किए जाते हैं, वे 'निष्ठित' तथा एक या दो बार कंडित किए जाते हैं, वे 'कृत' कहलाते हैं। निष्ठित कृत ओदन को तीर्थंकरों ने दुगुना आधाकर्म माना है-एक आधाकर्म तो कृत तंडुल रूप और दूसरा आधाकर्म पाकक्रियारूप। ८०/१. कुछ आचार्य फल-पुष्प आदि के प्रयोजन से अथवा अन्य किसी प्रयोजन से साधु के लिए बोए गए वृक्ष की छाया का वर्जन करते हैं लेकिन यह उचित नहीं है। उस वृक्ष का फल भी दूसरे भंग में लेना कल्पनीय है अर्थात् साधु के लिए 'कृत' तथा गृहस्थ के लिए निष्ठित' रूप में। ८०/२. वृक्ष की छाया आधाकर्मिकी नहीं होती क्योंकि छाया परप्रत्ययिका अर्थात् सूर्यहेतुकी होती है, वृक्षमात्रहेतुकी नहीं होती, जैसे–मालाकार वृक्ष को बढ़ाता है, वैसे ही छाया उसके द्वारा बढ़ाई नहीं जाती। जो उसे आधाकर्मिकी मानकर उसके नीचे बैठने का निषेध करते हैं फिर उनके अनुसार मेघाच्छन्न आकाश से वृक्ष की छाया लुप्त हो जाने पर उस वृक्ष के नीचे बैठना कल्पनीय हो जाएगा। ८०/३. छाया बढ़ती है, घटती है। वृक्ष की बढ़ती हुई छाया अनेक घरों का स्पर्श करती है, इससे वे सारे घर तथा आहार पूति दोष से दुष्ट होने पर कल्पनीय नहीं होंगे। (यह बात आगमोक्त नहीं है) सूर्य सुविहित मुनियों के लिए छाया का प्रवर्तन नहीं करता, वह स्वतः होती है इसलिए वह आधाकर्मिकी नहीं होती। ८०/४. आकाश में यत्र-तत्र विरल मेघों के घूमने पर उनसे छाया मिट जाती है तथा दिन में पुनः छाया हो जाती है। सूर्य के मेघाच्छन्न हो जाने पर उस वृक्ष के अध:स्तन प्रदेश का आसेवन कल्पता है परन्तु आतप में उसका विवर्जन करना चाहिए। (यह तथ्य न आगम सम्मत है और न पूर्वपुरुषों द्वारा आचीर्ण इसलिए यह असत् है।) ८०/५. इस प्रकार छाया संबंधी यह दोष संभव नहीं है, यह आधाकर्म विहीन है। इतना होने पर भी जो अति दयालु पुरुष उसका विवर्जन करते हैं तो वे दोषी नहीं हैं। ८१, ८१/१. गृहस्थ परपक्ष होते हैं तथा श्रमण और श्रमणी स्वपक्ष होते हैं, जो प्रासुक किया जाता है और रांधा जाता है, वह 'निष्ठित' अन्य सारा 'कृत' है। साधु के लिए कृत' तथा 'निष्ठित' तथा गृहस्थ के लिए
१. टीकाकार मलयगिरि ने इस प्रसंग में वृद्ध-सम्प्रदाय का उल्लेख करते हुए कहा है कि यदि चावलों को एक बार या दो बार साधुओं के लिए कंडित किया और तीसरी बार गृहस्थ ने अपने लिए कंडित किया और पकाया तो वे तण्डुल साधु के लिए कल्पनीय हैं। इस संदर्भ में अन्य परम्पराओं का भी उल्लेख है। पान, खादिम और स्वादिम आदि के बारे में भी कृत और निष्ठित को समझना चाहिए। साधु के लिए कूप आदि का खनन किया, उसमें से जल निकाला तथा उसे प्रासुक किया। जब तक वह पानी प्रासक नहीं होता, तब तक वह कत कहलाता है तथा प्रासुक होने के बाद निष्ठित कहलाता है। इसी प्रकार खादिम में ककडी आदि का वपन करके उसे निष्पन्न किया फिर उसे टुकड़ों में काटा, जब तक वे टुकड़े प्रासुक
नहीं हुए, तब तक कृत तथा प्रासुक होने के बाद निष्ठित कहलाते हैं (म प.६५, ६६)। २. टीकाकार के अनुसार वृक्ष के नीचे का कुछ भाग सचित्त कणों से संपृक्त होता है अतः वह पूति होता है। उस स्थान पर
बैठना कल्पनीय नहीं है लेकिन वृक्ष की छाया आधाकर्मिकी नहीं होती (मवृ प. ६६)।
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'कृत' साधु के लिए 'निष्ठित' की चतुर्भंगी होती है, इसमें दूसरा और चौथा भंग कल्पनीय होता है, जैसे— साधु के लिए कृत, साधु
'लिए निष्ठित ।
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साधु के लिए कृत, गृहस्थ के लिए निष्ठित ।
गृहस्थ के लिए कृत, साधु के लिए निष्ठित ।
गृहस्थ के लिए कृत, गृहस्थ के लिए निष्ठित ।
•
•
·
८२. आधाकर्म विषयक चार दोष होते हैं-अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार । इन चारों का निदर्शन जानना चाहिए। पहला है अतिक्रम अर्थात् आधाकर्म के लिए निमंत्रण ।
८२ / १. कोई नया श्रावक मुनि के लिए निष्पादित शालि, घृत, गुड़, गोरस तथा मुनि के लिए अचित्त किए गए नए वल्ली फलों का दान देने के लिए मुनि को निमंत्रण देता है।
८२ / २. जो मुनि आधाकर्म ग्रहण करके उसका परिभोग करता है, वह अतिक्रम आदि चारों दोषों का सेवन करता है । इस विषय में नूपुरहारिका का उदाहरण है - नूपुरहारिका कथानक में राजा के हाथी द्वारा एक, दो, तीन तथा चारों पैरों को ऊपर उठाना।
८२/३. जो आधाकर्म के निमंत्रण को स्वीकार करता है, वह अतिक्रम दोष का सेवन करता है । उसको लाने के लिए पैर उठाना व्यतिक्रम दोष है। आधाकर्म को पात्र में ग्रहण करना अतिचार दोष तथा उसको निगलना र अनाचार दोष है ।
८३. जो पहले कहा था (गा. ६०) कि आधाकर्म ग्रहण करने में आज्ञाभंग आदि के दोष होते हैं, वे दोष ये हैं - आज्ञाभंग, अनवस्था, मिथ्यात्व तथा विराधना ।
८३ / ९. जो अशन आदि में लुब्ध होकर आधाकर्म ग्रहण करता है, वह सभी तीर्थंकरों की आज्ञा का अतिक्रमण करता है। जो आज्ञा का अतिक्रमण करता है, वह शेष अनुष्ठानों का अनुपालन किसकी आज्ञा से करता है ?
८३/२. एक मुनि अकार्य करता है, (आधाकर्म का परिभोग करता है) तो दूसरे मुनि भी उसके विश्वास के आधार पर वही कार्य करने लग जाते हैं। इस प्रकार साताबहुल मुनियों की परम्परा से संयम और तप का विच्छेद होने से तीर्थ का विच्छेद होने लगता है। (यह अनवस्था दोष का उदाहरण है ।)
१. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. १० ।
२. जैसे हाथी छिन्न टंक वाले पर्वत पर एक, दो या तीन पैर ऊपर करने में समर्थ हो सकता है लेकिन चारों पैर ऊपर करने पर वह निश्चित रूप से भूमि पर गिर जाता है, वैसे ही अतिचार दोष तक साधु विशिष्ट शुभ अध्यवसाय से स्वयं को शुद्ध करने में समर्थ हो सकता है किन्तु अनाचार होने पर संयम का नाश हो जाता है। टीकाकार कहते हैं कि यद्यपि कथानक दृष्टान्त में हाथी के द्वारा चारों पैर ऊपर नहीं उठाए गए लेकिन दाष्टन्तिक में बात को सिद्ध करने हेतु यह प्रतिपादन किया गया है (मवृ प. ६८ ) ।
के
३. जीतकल्पभाष्य के अनुसार कुछ आचार्य आधाकर्म आहार को मुंह में रखने को अनाचार मानते हैं लेकिन वहां से साधु प्रतिनिवृत्त हो सकता है। वह पार्श्वस्थित श्लेष्मपात्र में थूक सकता है लेकिन निगलने के बाद प्रतिनिवृत्ति संभव नहीं है अतः आधाकर्म आहार को निगलना अनाचार मानना चाहिए (जीभा ११७९, ११८० ) ।
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८३/३. जो मुनि यथावाद - आगमोक्त विधि के अनुसार अनुष्ठान नहीं करता, उससे बड़ा अन्य कौन क्योंकि वह दूसरों में आशंका पैदा कर मिथ्यात्व की परम्परा को आगे बढ़ाता
मिथ्यादृष्टि हो सकता है ?
है ।
८३/४. आधाकर्म आहार ग्रहण करता हुआ मुनि उसके ग्रहण - प्रसंग' को बढ़ावा देता है तथा अपनी और दूसरों की आसक्ति को बढ़ाता है । वह भिन्नदंष्ट्रा - अत्यन्त रसलम्पट मुनि सर्वथा निर्दयी बनकर सजीव पदार्थों को भी नहीं छोड़ता ।
८३ / ५. जो मुनि प्रचुर मात्रा में स्निग्ध आहार करता है, वह रुग्ण हो जाता है। रोगग्रस्त मुनि के सूत्र और अर्थ की हानि होती है। रोग - चिकित्सा में षट्काय की विराधना होती है। प्रतिचारकों के भी सूत्र और अर्थ की हानि होती है। परिचर्या के अभाव में रोगी मुनि स्वयं क्लेश को प्राप्त होता है। (सम्यक् परिचर्या न होने पर) वह परिचारकों पर कुपित होता है, इस स्थिति में वह परिचारकों के मन में भी क्लेश उत्पन्न करता है । ८४. आधाकर्म अकल्प्य कैसे ? उससे स्पृष्ट अन्य आहार अकल्प्य कैसे ? आधाकर्म भाजन वाले पात्र में डाला हुआ भोजन अकल्प्य कैसे ? उसके परिहार की विधि क्या ? कैसे लिया हुआ आधाकर्म भक्त दोषमुक्त होता है ? आदि के विषय में गुरु बताते हैं ।
८४/१. (आधाकर्म आहार, उससे स्पृष्ट अन्य पदार्थ, कल्पत्रय से अप्रक्षालित पात्र में डाला हुआ आहार - ) यह सारा अभोज्य है । अविधि - परिहार में गमन आदि के दोष तथा विधि- परिहार में द्रव्य, कुल, देश और भाव की पृच्छा करनी चाहिए। (इस प्रकार वर्तन करने वाले मुनि में छलना नहीं होती । ) यदि छलना होती है इस विषय में दो दृष्टान्त हैं ।
८५. जैसे सुसंस्कृत भोजन का वमन हो जाने पर वह 'वान्त' भोजन अभोज्य बन जाता है, वैसे ही असंयमपूर्वक वान्त आधाकर्म भोजन मुनि के लिए अनेषणीय और अभोज्य हो जाता है।
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८६. मार्जार के द्वारा मांस खाने पर मांस के इच्छुक (पति एवं जेठ) के लिए कुत्ते के द्वारा वान्त मांस को मसाले डालकर अन्य वर्ण वाला बनाने पर भी क्या वह भोजन खाद्य हो सकता है ? (कभी नहीं ) ।
८६/१. इस कथानक को कुछ आचार्य इस प्रकार कहते हैं--पथिक के अतिसार रोग होने पर उसने मल से मांसपेशी के टुकड़े व्युत्सर्जित किए। महिला ने उसे धोकर मसाले से संस्कारित करके ( पति एवं जेठ को) परोसा । पुत्र हाथ पकड़कर उनको खाने से रोका।
८६/२. जिस प्रकार वेद आदि धार्मिक ग्रंथों में भेड़ी और ऊँटनी का दूध, लहसुन, प्याज, सुरा और गोमांस - ये सारी वस्तुएं असम्मत - अखाद्य हैं, उसी प्रकार जिनशासन में भी आधाकर्म भोजन अभोज्य और अपेय है।
१. एक बार यदि साधु आधाकर्म आहार ग्रहण कर लेता है। २. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ११ । तो मनोज्ञ रस की लोलुपता से वह बार-बार ग्रहण करने ३. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ११ का टिप्पण । में प्रवृत्त होता है ( मवृ प. ६९ ) ।
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८७. वर्ण आदि से युक्त बलि-उपहार, जो तिलक्षोद से बना हुआ है, उस पर नारियल आदि फल का शिखर किया हुआ हो। यदि वह सुंदर बलि अशुचि के कण मात्र से भी स्पृष्ट हो जाता है तो वह अभोज्य हो जाता है। (इसी प्रकार निर्दोष आहार भी आधाकर्म के अवयव से संस्पृष्ट होने पर अभोज्य हो जाता है।) ८८. जिस पात्र में आधाकर्म आहार लिया, उस भाजन से आधाकर्म आहार निकाल दिया परन्तु उस पात्र को अकृतकल्प अर्थात् कल्पत्रय' से प्रक्षालित नहीं किया, उस पात्र में यदि पुनः शुद्ध आहार भी डाल दिया जाए तो वह अभोज्य होता है। अथवा पात्र में शुद्ध आहार लिया और यदि उसमें आधाकर्म आहार का कण मात्र भी गिर जाए तो वह आहार अभोज्य होता है। ८९. आधाकर्म आहार वान्त और उच्चार (मल) सदृश है। उसे सुनकर भी पंडित पुरुष भयभीत हो जाता है, उसका परिहार करता है। परिहार दो प्रकार से होता है-विधिपूर्वक तथा अविधिपूर्वक। ८९/१-३. महिला के हाथ में शाल्योदन देखकर एक अकोविद साधु ने महिला से पूछा-'ये शाल्योदन कहां से आए हैं ?' महिला ने कहा—'यह बात वणिक् जानता है अतः उसके पास जाकर पूछो।' बाजार में जाकर उसने वणिक् से शाल्योदन के बारे में पूछा। वणिक् बोला-'मगध के प्रत्यन्तवर्ती गोबरग्राम से शालि आया है।' वह वहां जाने लगा। आधाकर्म की आशंका से वह मूल मार्ग को छोड़कर कांटे, सांप और हिंस्र पशुओं से युक्त मार्ग पर चलने लगा। उत्पथ पर जाने से वह दिग्भ्रमित हो गया। आधाकर्म की आशंका से वह वृक्ष की छाया का भी परिहार करने लगा। गर्मी से तप्त होकर वह मूर्च्छित होकर क्लेश प्राप्त करने लगा। (यह अविधि-परिहरण का उदाहरण है।) ८९/४. जो इस प्रकार अविधि से आधाकर्म का परिहार करता है, वह ज्ञान आदि का लाभ प्राप्त नहीं कर सकता। विधिपूर्वक परिहार के चार घटक हैं-द्रव्य, कुल, देश और भाव। ८९/५, ६. ओदन, मांड, सत्तू, कुल्माष आदि द्रव्य हैं। थोड़े व्यक्तियों अथवा बहुत व्यक्तियों का कुल होता है। सौराष्ट्र आदि देश हैं। आदर अथवा अनादर-यह भाव होता है। स्वयं देना आदरभाव है, नौकर आदि अन्य व्यक्तियों से दिलाना अनादरभाव है। इन पदों की योजना चतुष्पदा अथवा त्रिपदा-विकल्प से दो प्रकार की होती है। ८९/७. विवक्षित देश में असंभाव्य द्रव्य की उपलब्धि, कुल छोटा हो और प्राप्ति अधिक हो तथा अत्यधिक आदरभाव हो तो आधाकर्म की संभावना होती है। ऐसी स्थिति में पृच्छा करनी चाहिए। विवक्षित देश में लब्ध प्रचुर द्रव्य के विषय में, चाहे आदर न हो तो पृच्छा आवश्यक नहीं होती। (जैसे मालवदेश में मंडक घर-घर में प्रचुर मात्रा में प्राप्त होता है। वहां उस द्रव्य के विषय में आधाकर्म की आशंका नहीं रहती।)
१. कल्पत्रय की व्याख्या हेतु देखें गा. ११७/३ का टिप्पण। २. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. १२।
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८९/८. मुनि के पूछने पर सरल स्वभावी दानदात्री कहती है-"यह अशन आदि आपके लिए बनाया गया है।" जो दात्री माया युक्त होती है, वह कहती है, यह घर के लिए बनाया गया है, आपके लिए नहीं परन्तु घर के अन्य सदस्य यह सुनकर एक-दूसरे को देखते हैं अथवा लज्जा से एक-दूसरे को देखकर हंसते हैं, ऐसी स्थिति में उसे आधाकर्म जानकर मुनि उसका वर्जन करते हैं। पूछने पर जब दानदात्री रुष्ट होकर कहती है-'मुने ! आपको क्या चिन्ता है, क्या तप्ति है?' ऐसी स्थिति में आधाकर्म की आशंका न करके मुनि उस द्रव्य को ग्रहण करे। ८९/९. जो श्रावक-श्राविकाएं गूढ आचार वाले होते हैं, वे न आदर करते हैं और न पूछने पर सद्भाव का कथन करते हैं। द्रव्य आदि की अल्पता को देखकर मुनि पृच्छा नहीं करते, ऐसी स्थिति में वह देय वस्तु यदि अशुद्ध है, आधाकर्म दोष से दुष्ट है तो वहां साधु की शुद्धि कैसे होगी? इस प्रकार जिज्ञासा करने पर गुरु कहते हैं९०. प्रासुकभोजी' मुनि भी यदि आधाकर्म आहार ग्रहण करने में परिणत होता है तो वह अशुभ कर्मों का बंधक होता है। शुद्ध भोजन की गवेषणा करता हुआ यदि आधाकर्म भी ग्रहण कर लेता है, खा लेता है तो वह शुद्ध है क्योंकि वह शुद्ध परिणाम वाला है। ९०/१. संघ-भोज्य की बात सुनकर कोई मुनि शीघ्र ही उस गांव में गया। सेठ की पत्नी ने पहले ही सारा संघभक्त दे दिया था। पुनः मांगने पर सेठ बोला-'मेरे लिए बनाए भोजन में से साधु को दो।' पत्नी ने भोजन दिया। मुनि ने खाते हुए सोचा, यह संघभक्त स्वादिष्ट है। (शुद्ध आहार होते हुए भी वह मुनि आधाकर्म के परिभोग से उत्पन्न कर्मों से बंध गया।) ९०/२-४. मासिक तप के पारणे हेतु तपस्वी मुनि समीपवर्ती गांव में गया। श्राविका ने मुनि के लिए खीर बनाई और सोचा कि शायद आज वह क्षपक यहां आएगा। मुनि को आशंका न हो इसलिए शरावों में थोड़ीथोड़ी खीर डाली, उसे बाहर खीर से खरंटित करके बालकों को समझा दिया। रोष सहित अनादर के साथ साधु को खीर, घृत और गुड़ आदि की भिक्षा दी। साधु भिक्षा लेकर एकान्त में गया और चिंतन करने लगा-"यदि कोई साधु आकर संविभागी बने तो मैं कृतार्थ हो जाऊं।" शरीर से अमूर्च्छित होकर समभाव से उसने वह भोजन किया। आधाकर्मी आहार करने पर भी उसे केवलज्ञान हो गया।' ९१. राजा के दो उद्यान थे-सूर्योदय और चन्द्रोदय। उन उद्यानों में जाने पर आज्ञा-भंग करने वालों को दंड दिया गया। ९१/१-३. (राजा ने घोषणा की-) प्रातः अंत:पुर के साथ मैं सूर्योदय उद्यान में जाऊंगा अतः तृणहारक और काष्ठहारक चन्द्रोदय उद्यान में जाएं। राजा ने सोचा कि सूर्योदय उद्यान में प्रात: जाते और सायं आते
१. टीकाकार के अनुसार प्रासुकभोजी का अर्थ यहां एषणीयभोजी है (मवृ प. ७४)। २. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. १३। ३. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. १४। ४. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. १५।
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पिंडनियुक्ति
समय दोनों तरफ सूर्य सम्मुख रहेगा अतः मैं चन्द्रोदय उद्यान में जाऊंगा। कुछ दुष्ट चरित्र वाले लोग पत्रबहुल वृक्षों की शाखा पर बैठकर राजा की पत्नियों (अंतःपुर) को देखेंगे, यह सोचकर वे छिपकर बैठ गए। उद्यानपालकों ने उन्हें देख लिया अतः उनको बांधकर लकड़ी आदि से पीटा। चन्द्रोदय उद्यान में सहसा प्रविष्ट राजा एव अंत:पुर को तृणहारक और काष्ठहारकों ने देखा। उनका भी राजपुरुषों ने निग्रह कर लिया। मध्याह्न में नगराभिमुख जाते हुए राजा के सम्मुख दोनों ओर से निगृहीत पुरुषों को प्रस्तुत किया गया। आज्ञाभंग करने वालों का वध तथा दूसरों को विसर्जित कर दिया गया। ९१/४. जो मनुष्य अन्तःपुर की स्त्रियों को देखने के इच्छुक थे, उनकी इच्छा पूरी नहीं हुई, फिर भी वे राजाज्ञा का भंग करने के कारण राजा से दंडित हुए। अन्त:पुर को देखने वाले जो अन्य पुरुष थे, उनको बिना दंडित किए मुक्त कर दिया गया क्योंकि वे राजाज्ञा का भंग करने वाले नहीं थे। आधाकर्म के विषय में इसी प्रकार यहां समवतार करना चाहिए।' ९२. जो साधु आधाकर्म का परिभोग करके उस अकरणीय स्थान का प्रायश्चित्त नहीं करता, वह बोडमुंडित व्यक्ति संसार में वैसे ही व्यर्थ परिभ्रमण करता है, जैसे लुंचित-विलुंचित (पंख रहित) कपोत। ९३, ९४. आधाकर्म द्वार का कथन कर दिया। अब पहले से समुद्दिष्ट औद्देशिक द्वार को कहूंगा। वह संक्षेप में दो प्रकार का है-ओघ और विभाग। ओघ स्थाप्य है, विभाग के तीन प्रकार हैं-उद्दिष्ट', कृत
और कर्म । प्रत्येक के चार-चार प्रकार हैं। इस प्रकार विभाग के बारह प्रकार होते हैं। ९४./१ दुर्भिक्ष के अनन्तर कुछ गृहस्थों ने सोचा-दुर्भिक्ष काल में हमने ज्यों-त्यों जीवन-यापन किया। अब हम प्रतिदिन कुछ भिक्षा देंगे क्योंकि निश्चित ही भवान्तर में अदत्त दान वाले व्यक्ति का इस जन्म में उपभोग नहीं होता और अकृत शुभ कर्म का परलोक में फल नहीं होता (अतः भिक्षा देकर कुछ शुभ कर्म उपार्जित करें।) ९५. किसी गृहनायिका ने अपने लिए पकाए जाने वाले नियत चावलों में अन्य दर्शनी साधुओं के लिए भी चावल डाल दिए, पाखंडी (अन्य दर्शनी) एवं गृहस्थ के लिए पकाए जाने वाले चावलों में विभाग रहित प्रक्षेप ओघ औद्देशिक कहलाता है। १. आधाकर्म भोजन लेने-भोगने के परिणामों में परिणत व्यक्ति यदि शुद्ध आहार भी लेता है तो वह आज्ञा का भंग करने के
कारण अशुभ कर्मों को बांधता है और जो मुनि शुद्ध आहार की गवेषणा में युक्त है, वह आधाकर्म खा लेने पर भी आज्ञा
का आराधक होता है, वह कर्मों का बंध नहीं करता (मव प. ७६)। २. गृहस्थ के लिए निष्पन्न आहार, जो भिक्षाचरों को देने के लिए अलग रख दिया जाता है, वह उद्दिष्ट कहलाता है (मवृ प.७७)। ३. पिंप्र ३१ ; वंजणमीसाइकडं-उद्धरित शाल्योदन, जो भिक्षादान हेतु करम्ब (दही-भात मिलाकर तैयार किया गया
पदार्थ) आदि के रूप में तैयार किया जाता है, वह कृत कहलाता है (मवृ प. ७७)। ४. विवाह में बचे हुए मोदक के चूरे को अनेक भिक्षाचरों को देने हेतु गुड़पाक आदि से पुनः मोदक करने को कर्म कहा
जाता है (मवृ प. ७७), पिण्डविशुद्धिप्रकरण के अनुसार अग्नि से तापित करके पुन: संस्कारित करने को कर्म माना है
अग्नितवियाइ पुण कम्मं (पिंप्र ३१)। ५, वृद्ध सम्प्रदाय के अनुसार संकल्पित भिक्षाचरों को भिक्षा देने पर शेष बचा हुआ भोजन साधु के लिए कल्पनीय है (मवृ प.७८)।
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अनुवाद
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९५/१. शिष्य ने पूछा-'इस प्रकार के ओघ औद्देशिक को छद्मस्थ कैसे जान सकता है ?' गुरु ने कहा'गृहस्थ के शब्द एवं चेष्टाओं में दत्तावधान होकर जाना जा सकता है।' ९५/२. (मुनि के भिक्षार्थ प्रवेश करने पर पति ने भिक्षा के लिए कहा तो पत्नी बोली-)प्रतिदिन दी जाने वाली पांचों भिक्षाचरों को भिक्षाएं दी जा चुकी है अथवा वह भिक्षा की गणना हेतु भित्ति पर रेखाएं करती है
और भिक्षा देती हुई उनकी गणना करती है। अथवा कोई स्त्री किसी के सम्मुख कहती है-'उद्दिष्ट दत्ती से भिक्षा दो, यहां से नहीं।' अथवा विवक्षित घर में साधु के भिक्षार्थ प्रवेश करने पर वह कहती है-'इतनी भिक्षा पृथक् कर दो। ९६. भिक्षा के लिए गया हुआ मुनि शब्द, रूप, रस आदि में मूर्च्छित न हो। वह केवल एषणा में दत्तावधान हो, जैसे बछड़ा गोभक्त-चारा-पानी के प्रति दत्तावधान होता है। ९६/१, २. घर में विवाह का उत्सव होने पर चारों पुत्रवधुएं अपने मण्डन-प्रसाधन में व्यस्त हो गईं। किसी ने बछड़े को चारा-पानी नहीं दिया। अपराह्न में सेठ घर आया। उसे देखकर बछड़े ने चिल्लाना प्रारम्भ कर दिया। उसे भूखा जानकर सेठ ने बहुओं को डांटा। बहुएं पांच प्रकार के विषय-सुख को प्रदान करने वाली खानि-खदान की भांति थीं। घर भी उनसे अधिक अलंकृत किया गया था लेकिन वह बछड़ा किसी में गृद्ध और मूर्च्छित नहीं हुआ। केवल गोभक्त-चारा-पानी खाने में तल्लीन रहा। ९६/३. मुनि को भिक्षा देने के लिए गृहनायिका का गमन, भिक्षा योग्य द्रव्य लेकर साधु के सम्मुख आगमन, बर्तनों को खोलना, रखना आदि कार्य होने पर मुनि गृहनायिका के भाषण के प्रति श्रोत्र आदि इंद्रियों से दत्तावधान होकर बछड़े की भांति तन्मना होकर एषणा और अनेषणा को सम्यक् प्रकार से जानता
९६/४. किसी बड़े जीमनवार (संखडी) में शाल्योदन, व्यंजन आदि को प्रचुर मात्रा में बचा हुआ जानकर गृहनायक अपने सेवकों से कहता है-'यह सारा बचा हुआ द्रव्य पुण्य के लिए भिक्षाचरों को दे दो।' ९७. विभाग औद्देशिक के चार प्रकार हैं-औद्देशिक, समुद्देशिक, आदेश और समादेश। प्रत्येक के 'उद्दिष्ट' 'कृत' और 'कर्म'-ये तीन भेद होते हैं। तीन से चार का गुणा करने पर विभाग औद्देशिक बारह प्रकार का होता है। ९८, ९९. जितने भिक्षाचरों के संकल्प से आहार-पानी बनाया जाता है, वह उद्दिष्ट है, पाषंडियों (अन्य दर्शनी) को देने के लिए निर्मित आहार समुद्देश अथवा समुद्देशिक कहलाता है, श्रमणों को देने के लिए बनाया गया आदेश तथा निर्ग्रन्थों को देने के लिए परिकल्पित आहार समादेश कहलाता है। इन प्रत्येक के
१. इन सब आलाप-संलापों को सुनकर या दीवार पर खिंची रेखाओं को देखकर छद्मस्थ साधु भी जान सकता है कि यह ओघ
औद्देशिक भिक्षा है (मवृ प.७८)।। २. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. १६।
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पिंडनियुक्ति
दो-दो भेद हैं-छिन्न (नियमित), अछिन्न (अनियमित) ये दोनों चार-चार प्रकार के हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल
और भाव। (छिन्न, अछिन्न का इन चार भेदों से गुणा करने पर आठ भेद हो जाते हैं।) इसी प्रकार निष्पादितनिष्पन्न भी कृत और कर्म में जो जहां घटित होता है, उसे वैसा जानना चाहिए। ९९/१. जीमनवार में जो आहार आदि बचा है, उसे उसी दिन अथवा अन्य दिन बाहर अथवा भीतरी क्षेत्र में देना, क्षेत्र अच्छिन्न है। सारा देना, द्रव्य अच्छिन्न है। पूरे दिन तक अथवा अनवरत देना-कालअच्छिन्न है। (भाव-अच्छिन्न है-रुचिकर हो या न हो तो भी अवश्य देना।) ९९/२. यह आहार दो, बाकी का नहीं-यह द्रव्य-छिन्न है। अन्तर्व्यवस्थित अथवा बहिर्व्यवस्थित-दोनों में से एक दो-यह क्षेत्र-छिन्न है। अमुक समय से प्रारम्भ कर अमुक काल तक दो-यह काल-छिन्न है। (भाव-छिन्न है-जितना तुमको देना हो उतना दो, इससे अतिरिक्त नहीं।) १००. जो वस्तु द्रव्य, क्षेत्र आदि से छिन्न है परन्तु गृहस्वामी नियत अवधि से पूर्व ही कह देता है कि अब किसी को न दी जाए, तब वह वस्तु कल्पनीय है क्योंकि गृहस्वामी ने उसको अपना बना लिया है। जो अच्छिन्नकृत है, उसका साधु परिहार करते हैं। १०१. ये द्रव्य अमुक को देने हैं, अमुक को नहीं-इस प्रकार के संकल्प' में कभी लेना कल्पता है और कभी नहीं। (यदि यतियों का विशेष रूप से निर्देश होता है तो वह निश्चित रूप से नहीं कल्पता।) १०१/१. (अभी वस्तु औद्देशिक नहीं हुई है, वह उद्दिश्यमान है, गृहस्वामी कहता है-यह वस्तु देनी है, शेष नहीं।) ऐसी सन्दिश्यमान वस्तु के बारे में जो सुनता है, उस मुनि को वह द्रव्य उसी समय लेना कल्पता है। जो नहीं सुनते उनको स्थापना दोष के कारण नहीं कल्पता। वह मुनि वहां से चलकर, जिन मुनियों ने नहीं सुना है, उनको पूर्व पुरुषाचीर्ण मर्यादा का कथन करता है अथवा संकलिका' से एक संघाटक दूसरे संघाटक को और दूसरा तीसरे को-इस प्रकार सभी मुनियों को यह ज्ञात करा देता है कि 'इस घर की भिक्षा अनेषणीय है। न सुनने पर मर्यादा इस प्रकार है।' १०१/२. (साधु को भिक्षा देते समय कोई स्त्री कहती है-) 'यह मत दो किन्तु इस भाजन में रखे द्रव्य को दो।' ऐसा कहने पर मुनि पूछता है-'इसका निषेध क्यों? वह द्रव्य क्यों दिया जा रहा है?' तब गृहस्वामिनी कहती है-'यही द्रव्य दान के लिए रखा है, यह नहीं।' यह सुनकर मुनि उस द्रव्य का परिहार करे। यदि वह पुनः कहती है कि जो दे दिया गया, वह दे दिया गया अब शेष मत दो-ऐसा निषेध करने पर जो आत्मार्थीकृत उद्दिष्ट-औद्देशिक भोजन है, वह साधु के लिए कल्पनीय है।
१. यदि गृहस्वामी यह संकल्प करता है कि यह वस्तु गृहस्थ, अगृहस्थ भिक्षाचर अथवा कोई साधु को देनी है तो वह कल्पनीय
नहीं होती। यदि उसमें साधु का निर्देश नहीं होता है तो कल्पनीय होती है (मवृ प. ८१)। २. टीकाकार ने संकलिका शब्द के दो अर्थ किए हैं-१. जिन साधुओं ने नहीं सुना, उन्हें पूर्व पुरुषों द्वारा आचीर्ण मर्यादा को बताना २. एक सिंघाड़े द्वारा दूसरे को तथा दूसरे द्वारा तीसरे सिंघाड़े को क्रमबद्ध सूचना देना (मवृ प. ८१)।
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अनुवाद
१०२, १०३. दधि आदि से भरे पात्र को रिक्त करने के लिए अथवा दधि आदि से मिश्रित किए बिना दुर्गन्धयुक्त हो जाता है अथवा दधि आदि से मिश्रित होने पर उसे सुखपूर्वक एक ही बार में दिया जा सकता है—इत्यादि कारणों से ओदन को दधि आदि से मिश्रित करके करम्ब बनाना - यह कृत है । दधि और ओदन को पृथक्-पृथक् देने पर पाषंडिजन अवर्णवाद बोलेंगे। जो परिकट्टलित - एकत्र पिंडीभूत है, उसे सुखपूर्वक दिया जा सकता है अतः विकट-मद्य विशेष', फाणित तथा घृत आदि से मोदक के चूर्ण को पिंडरूप में बांधना कृत कहलाता है।
१०४. इसी प्रकार कर्म औद्देशिक का स्वरूप है केवल द्रव्यों को उष्ण करने में नानात्व है; जैसे गुड़ आदि को तपाकर मोदक चूर्ण में मिलाकर पुनः मोदक बनाना ।
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१०५. भिक्षार्थ प्रविष्ट मुनि को यदि गृहस्थ कहता है कि अमुक पदार्थ को मैं पुनः पकाकर (मोदक चूर्ण को गुड़पाक से पुनः मोदक बनाकर ) दूंगा तो वह पदार्थ कर्म औद्देशिक होने के कारण मुनि के लिए अकल्प्य है । यदि वह पाक क्रिया से पूर्व देता वह कल्पनीय है। इसी प्रकार क्षेत्र की अपेक्षा से घर के अंदर या बाहर तथा काल की अपेक्षा कल या परसों (पुनः पकाकर दूंगा तो वह साधु के लिए अकल्प्य है । यदि उससे पहले दे तो कल्पनीय है ।
।
१०५/१. 'मैं अमुक द्रव्य को ऐसा करके दूंगा' वैसा द्रव्य कृत से पूर्व लेना कल्पता है । वैसा करके देने पर उसका ग्रहण अकल्प्य है। जो यावदर्थिक पाक दान के लिए निश्चित कर रखा है, वह द्रव्य यदि आत्मार्थीकृत है, वह कल्पनीय है, शेष अनिष्ट है, अननुज्ञात है।
१०६. षट्काय के प्रति निरनुकंप, जिन-प्रवचन से रहित बाह्य दृष्टि वाले तथा बहुभक्षक व्यक्ति केवल बोड - मुंडित सिर वाले ही होते हैं। उनकी वही स्थिति होती है, जैसे लुप्त लुंचित पंख वाले कपोत की । १०७. पूतिकर्म के दो प्रकार हैं- द्रव्यपूति और भावपूति । द्रव्यपूति है छगणोपलक्षित धार्मिक का दृष्टान्त । भावपूर्ति के दो प्रकार हैं - बादर और सूक्ष्म ।
१०८. जो द्रव्य पहले सुरभिगंध आदि गुणों से समृद्ध था, फिर वह अशुचिगंध वाले द्रव्य से युक्त हो जाने पर यह 'पूति' है ऐसा जानकर उसका परिहार किया जाता है, यह द्रव्यपूर्ति है ।
१०८/१,२. समानवय के लोगों ने यक्षसभा को लीपने के लिए धार्मिक की नियुक्ति की । मण्डक, वल्ल और सुरापान करने से किसी कर्मकर को अजीर्ण हो गया। उसने वहीं गो-बाड़े में दुर्गन्धयुक्त मल का व्युत्सर्जन कर दिया। उसके ऊपर भैंस ने गोबर कर दिया । नियुक्त धार्मिक ने गंदगी मिश्रित गोबर से यक्षमंडप को लीप दिया। जब गोष्ठी के लोग उद्यापनिका हेतु आए तो उन्हें गंध की अनुभूति हुई । लिपाई में
१. देश विशेष में मोदक के चूर्ण को पुनः बांधने हेतु मद्य विशेष का प्रयोग किया जाता था (मवृ प. ८१)। २. टीकाकार गाथा का स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं कि तुवरी आदि भक्त भी रात्रि का पर्युषित हो तो उसे भी गर्म करके संस्कारित किया जाता है अतः 'कर्म' में द्रव्यों को उष्ण करने की विविधता है (मवृ प. ८२) ।
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पिंडनियुक्ति
वल्ल आदि के अवयव तथा सुरा आदि की दुर्गन्ध का अनुभव हुआ। (यथार्थ स्थिति जानने पर) गोमय के लेप को उखाड़कर अन्य गोबर से लेष किया गया। (अशुचि के सम्पर्क के कारण खाद्य-पदार्थ भी दूसरा बनाया गया।) यह द्रव्यपूति का उदाहरण है। १०९. आधाकर्म आदि उद्गम दोष के विभागों के अवयव मात्र के मिश्रण से स्वरूपतः शुद्ध आहार भी मुनि के शुद्ध-निरतिचार चारित्र को अशुद्ध कर देता है, यह भावपूति है। ११०. आधाकर्म, औद्देशिक, मिश्रजात, बादरप्राभृतिका, पूति तथा अध्यवपूरक-ये सब उद्गम कोटि अर्थात् अविशोधि कोटि के अन्तर्गत हैं। १११. भावपूति के दो प्रकार हैं-बादर और सूक्ष्म । सूक्ष्म के विषय में आगे कहूंगा। बादर भावपूति के दो प्रकार हैं-उपकरण विषयक तथा भक्तपान विषयक। ११२. आधाकर्म युक्त चूल्हा, स्थाली, लकड़ी की बड़ी कड़छी, छोटी कड़छी–इनसे मिश्रित या स्पृष्ट शुद्ध अशन आदि भी पूति हो जाता है। आधाकर्मिक शाक, लवण, हींग से मिश्रित करना तथा संक्रामणआधाकर्म से संस्पृष्ट थाली आदि में शुद्ध अशन रखना या पकाना, स्फोटन-आधाकर्मिक राई आदि से भोजन को संस्कारित करना तथा हींग आदि का बघार देना-यह सारा भक्तपान विषयक पूति है। ११३. सीझते हुए अन्न के लिए चुल्ली आदि तथा पक्व दीयमान भक्तपान के लिए कुड़छी आदि उपकारी होते हैं इसलिए ये उपकरण कहलाते हैं। चुल्ली, स्थाली, चम्मच, बड़ी कुड़छी-ये सारे उपकरण हैं। ११३/१. आधाकर्म के आधार पर चुल्ली और उक्खा (स्थाली) के चार विकल्प हैं
१. चुल्ली आधाकर्मिकी, स्थाली भी। २. चुल्ली आधाकर्मिकी, स्थाली नहीं। ३. स्थाली आधाकर्मिकी, चुल्ली नहीं। ४. न स्थाली आधाकर्मिकी और न चुल्ली।
प्रथम तीन विकल्प अकल्प्य हैं। चुल्ली आदि पर पकाने तथा अन्य स्थान से लाकर वहां स्थापित करने पर वह प्रतिषिद्ध है। वही आहार यदि अन्यत्र गया हुआ लिया जाए तो अनुज्ञात है। ११३/२. आधाकर्मिक कर्दम से मिश्रित चुल्ली और स्थाली उपकरणपूति है। यदि इसी प्रकार डोय, बड़ी कुड़छी का अग्रभाग अथवा दंड-इन दोनों में से एक आधाकर्मिक होता है तो वह उपकरणपूति होता है।
१. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. १७। २. निशीथभाष्य में विस्तार से पूतिदोष का वर्णन किया गया है। वहां बादरपूति के तीन भेद किए गए हैं-१. आहार २. उपधि
और वसति। विकल्प से आहारपूति के दो भेद किए हैं-१. उपकरणपूति और आहारपूति। (निभा ८०६,८०७) उपधि पूति के वस्त्र और पात्र दो भेद किए गए हैं तथा वसतिपूति के मूलगुण और उत्तरगुण के अन्तर्गत सात-सात भेद किए हैं (निभा ८११), मूलाचार (४२८) में पूति के पांच प्रकार निर्दिष्ट हैं-१.चुल्ली २. उक्खलि (ऊखल) ३. दर्वीचम्मच ४. भाजन ५. गंध।
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अनुवाद
११३/३. आधाकर्मिक दर्वी को यदि स्थाली से बाहर निकाल दिया जाए तो स्थाली का आहार कल्प्य है लेकिन आधाकर्मिक दव से शुद्ध आहार भी दिया जाए तो वह आहारपूति है । दर्वी आधाकर्मिकी नहीं है लेकिन पहले आधाकर्म आहार को हिलाकर फिर शुद्ध आहार का घट्टन करती है तो वह शुद्ध आहार भी आहारपूर्ति कहलाता है ।
१९३/४, ११४. अपने लिए तक्र आदि का पान करने के लिए आधाकर्मिक शाक, लवण, हींग, राई तथा जीरा आदि को उस तक्र में मिश्रित करना या बघार देना भक्तपानपूर्ति है । जिस स्थाली में पहले आधाकर्म आहार पकाया था, उसे दूसरे पात्र में डालकर कल्पत्रय से साफ किए बिना उसमें शुद्ध आहार निकाला जाए, पकाया जाए अथवा प्रक्षिप्त किया जाए तो वह भक्तपानपूति होता है। निर्धूम अंगारों पर बेसन, हींग, जीरक आदि डालने पर जो धूम निकलता है, उस धूम से व्याप्त स्थाली, तक्र आदि भी पूति दोष से युक्त हैं।
११५. जो शुद्ध अशन आधाकर्मिक ईंधन (अंगारा), धूम, गंध आदि के अवयवों से सम्मिश्रित है, वह सूक्ष्मपूर्ति है। इस सूक्ष्मपूर्ति के विषय में शिष्य कहता है- सूक्ष्मपूर्ति का वर्जन करना अच्छा है तो फिर आगमों में उसका निषेध क्यों नहीं है, ऐसा कहने पर गुरु कहते हैं
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११६. आधाकर्म ईंधन के अवयव, धूम, गंध आदि से मिश्रित अशन पूति नहीं होता। जो इस पूर्ति को मानते हैं, उनके मत से साधु की सर्वथा शुद्धि नहीं हो सकती ।
११६ / १. ( गुरु कहते हैं ) ईंधन और अग्नि के अवयव सूक्ष्म होते हैं। वे धूम के साथ अदृश्य होकर फैलते हैं तथा धूम, वाष्प और अन्न की गंध - ये सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करते हैं। इस मत के अनुसार तो सारा जगत् ही पूति हो जाएगा।
११६/२. शिष्य पुनः कहता है- यदि सूक्ष्मपूति असंभव है तो फिर पूर्व उद्दिष्ट भावपूति के दो भेदबादर और सूक्ष्म- इनमें सूक्ष्मपूर्ति की सिद्धि कैसे होगी ? इसलिए यह सिद्ध है कि ईंधन, धूम आदि से सम्मिश्रित अन्न सूक्ष्मपूति है ।
११६/३. गुरु कहते हैं- 'शिष्य ! ईंधन, अग्निकण, धूम और वाष्प - इन चारों से सूक्ष्मपूति होती है, वह केवल प्ररूपणा मात्र है, इसका परिहार नहीं हो सकता । '
११६/४. कार्य के दो प्रकार हैं-: - साध्य और असाध्य । साध्य कार्य को साधा जाता है, असाध्य को नहीं । जो व्यक्ति असाध्य कार्य को साधने का प्रयत्न करता है, वह क्लेश पाता है और कार्य को भी नहीं साध सकता ।
१. टीकाकार के अनुसार यह बादरपूति का उदाहरण है।
२. 'आदि' शब्द से वाष्प आदि का ग्रहण करना चाहिए (मवृ प. ८५ ) ।
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पिंडनिर्युक्ति
११७. जिस पात्र में आधाकर्म आहार आदि ग्रहण किया हुआ है, उस पात्र को झटक कर आधाकर्म आहार के सारे कण निकाल लिए किन्तु उस पात्र की कल्पत्रय से शुद्धि किए बिना यदि दूसरा अशन आदि उसमें लिया जाता है तो वह सूक्ष्मपूति है । उस पात्र को कल्पत्रय से धोने पर सूक्ष्मपूति का परिहार हो सकता है।
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११७/१. (शिष्य पूछता है - ) कदाचित् जिस पात्र में आधाकर्म ग्रहण किया है, उसका परित्याग करके उसे धोने पर भी वह सर्वथा आधाकर्म के अवयवों से रहित नहीं होता क्योंकि अन्न की गंध तो आती ही रहती है। यह तथ्य है कि बिना द्रव्य के गंध आदि गुण नहीं होते अतः सूक्ष्मपूर्ति की शुद्धिपरिहार कैसे हो सकता है ?
११७/२. (आचार्य कहते हैं ) - लोक में भी यह देखा जाता है कि दूर से आती अशुचि गंध से विपरिणत – स्पृष्ट होने पर भी किसी द्रव्य को दूषित नहीं माना जाता । विष के अवयव भी दूर जाकर पर्यायान्तर में परिणत होने से किसी को मार नहीं सकते। (इसी प्रकार आधाकर्म संबंधी गंध के पुद्गलों से चारित्र विकृत नहीं होता और न ही आधाकर्म संस्पर्श जनित दोष लगता है ।)
११७/३. ईंधन के धूम आदि अवयवों से व्यतिरिक्त शेष आधाकर्मिक शाक, लवण आदि से स्थाली में जितना अशन आदि स्पृष्ट होता है, उतना ही पूति होता है। तीन लेपों तक पूर्ति होती है। कल्पत्रय के बाद उस पात्र में पकाया हुआ अन्न कल्पता है अर्थात् तीन बार प्रक्षालित करने पर पकाया हुआ आहार कल्पता है।
११७/४. ईंधन के चार अवयवों को छोड़कर शेष अशन, पान आदि पूति होने के योग्य होते हैं । उनका परिमाण त्वक् प्रमाण से आरंभ होता है । त्वक् मात्र भी यदि आधाकर्म से स्पृष्ट तो सारा अशन पूति हो जाता है।
११८. जिस घर में जिस दिन आधाकर्म किया जाता है, उस दिन वह आहार आधाकर्म है। शेष तीन दिन पूति होती है। पूर्ति के तीन दिनों मुनि को वहां आहार लेना नहीं कल्पता । यदि साधु का पात्र पूतिभूत है तो तृतीय कल्प के बाद लिया जाने वाला अशन आदि कल्पता है ।
१. टीकाकार मलयगिरि इस गाथा की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि पात्र में जो गंध आती है, वह सूक्ष्म पूर्ति है । यह केवल प्रज्ञापना करने के लिए है, इसका परिहार संभव नहीं है क्योंकि गंध के पुद्गल समग्र लोक में व्याप्त हैं। गंध के परमाणु चारित्र का नाश करने में समर्थ नहीं हैं ( मवृ प. ८६, ८७) ।
२. तीन लेपों तक पूति होती है, इसकी व्याख्या करते हुए टीकाकार मलयगिरि कहते हैं कि एक बर्तन में आधाकर्म भोजन पकाया । उसको किसी दूसरे बर्तन में निकालकर अंगुलि से साफ कर दिया, यह एक लेप है। इसी प्रकार तीन बार साफ करके पकाने तक वह आहार पूर्ति कहलाता है। उसी बर्तन में चौथी बार पकाया गया आहार पूति नहीं होता। अथवा उसी बर्तन में कल्पत्रय - तीन बार प्रक्षालन किए बिना शुद्ध आहार पकाया तो वह पूर्ति आहार है। तीन बार धोने पर उस पात्र में पकाया गया आहार शुद्ध होता है (मवृ प. ८७ ) 1
३. ईंधन (अंगारा), धूम, गंध और वाष्प ।
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११९. श्रमणों के लिए कृत आहार, उपधि, वसति आदि सारा आधाकर्म है। जो श्रमणों के लिए किए आधाकर्म आहार से मिश्र है, वह सारा पूर्ति है ।
११९ / १. मुनि को पूतिदोष की संभावना हो तो वह श्रावक या श्राविका से पूछे- 'तुम्हारे घर में क्या कुछ दिन पूर्व जीमनवार या संघभक्त हुआ था ?' अथवा गृहिणियों के परस्पर संलाप से जान ले कि वहां पूति है या नहीं ? ( संखडि या संघभक्त होने पर तीन दिन उस घर में पूति रहती इसलिए मुनि वहां आहार न ले चौथे दिन वहां से भिक्षा ग्रहण की जा सकती है।)
१२०. मिश्रजात के तीन प्रकार हैं- यावदर्थिक, पाषंडिमिश्र तथा साधुमिश्र । मिश्रजात आहार सहस्रान्तरित होने पर भी नहीं कल्पता । (जिसने मिश्रजात आहार बनाया, उसने उसे दूसरे को, दूसरे ने तीसरे को - इस प्रकार हजारवें व्यक्ति को दे देने पर भी वह आहार नहीं कल्पता ।) जिस भाजन में मिश्रजात है, उस पात्र से मिश्रजात का अपनयन कर उसे तीन बार प्रक्षालित कर उसमें शुद्ध आहार लेना कल्पता है ।
१२१. यह अन्न आने वाले सभी भिक्षाजीवियों के लिए नहीं पकाया गया है अपितु विवक्षित भिक्षाचरों के लिए है अत: तुम साधुओं को उनकी इच्छा के अनुसार दो। अथवा अत्यधिक भिक्षाचरों के आ जाने पर, जो पहले पकाया गया है, वह पूरा नहीं होगा अतः गृहनायक अपनी पत्नी से कहता है - 'इसमें और अधिक अन्न डालकर पकाओ', वह आहार यावदर्थिक मिश्रजात है ।
१२२. अपने कुटुम्ब के लिए भोजन पकाते समय कोई दूसरा गृहस्वामी कहता है कि पाषंडियों के लिए भी कुछ अधिक पकाओ। तीसरा गृहनायक कहता है कि अपने भोजन के साथ-साथ निर्ग्रन्थों के लिए भी कुछ अधिक पकाओ। (यह क्रमशः पाषंडिमिश्र और साधुमिश्र आहार है । )
१२३. सहस्रवेधक विष से व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। उस व्यक्ति का मांस खाने वाला भी मर जाता है फिर उसका मांस खाने वाला मर जाता है। इस पारंपर मरण में उस मांस को खाने वाला हजारवां व्यक्ति भी मर जाता है।
१२४. इसी प्रकार तीनों प्रकार का मिश्रजात आहार साधु की सुविशुद्ध चारित्र - आत्मा का विनाश कर डालता है इसलिए वैसा मिश्रजात आहार सहस्रान्तरित होने पर भी नहीं कल्पता ।
१२५. मिश्रजात आहार लेने पर मुनि उस पात्र से उसका पूरा अपनयन करके, अंगुलि आदि से उसका मार्जन करे अथवा सूखे गोबर से पात्र को साफ करे फिर तीन कल्प से उसका प्रक्षालन कर आतप में सुखाए, फिर उसमें शुद्ध अन्न ग्रहण करे । (अन्यथा पूतिदोष की संभावना रहती है) कुछ आचार्यों का मत है कि चौथी बार प्रक्षालन करके बिना सुखाए ही उस पात्र में भोजन लेने में कोई दोष नहीं है।
१. इस गाथा में गा. १२० में आए सहसंतर (सहस्रान्तरित मिश्रजात) की व्याख्या है।
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पिंडनिर्युक्ति
१२६. स्थापित दोष के दो प्रकार हैं- स्वस्थान स्थापित तथा परस्थान स्थापित । प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं - अनन्तर, परंपर। घृत आदि द्रव्य अनन्तर स्थापित होते हैं, उनमें कोई विकार नहीं होता ।) दूध आदि परंपर स्थापित होता है ।' तीन घर के बाद साधु के निमित्त से लाई गई भिक्षा स्थापित होती है ।" १२७. छब्बग- बांस की टोकरी, वारक- लघु घट आदि अनेकविध परस्थान हैं। पिठर, छब्बग आदि स्वस्थान हैं। चुल्ली - अवचुल्ली से दूर प्रदेशान्तर में स्थित होने से ये परस्थान हैं।
१२८. स्वस्थान स्थापना तथा परस्थान स्थापना के दो-दो भेद हैं- अनन्तर और परंपर। जिस स्थापित द्रव्य का विकार संभव नहीं है, कर्ता के द्वारा उसको विकृत नहीं किया जाता, वह साधु के निमित्त अनन्तर स्थापित है ।
१२८/१. इक्षुरस, दूध आदि विकारी द्रव्य हैं (इनसे कक्कब तथा दधि आदि विकार संभव है)। घृत, गुड़ आदि अविकारी द्रव्य हैं। ओदन और दधि आदि भी करम्ब रूप में परिवर्तित होते हैं अतः विकारी हैं । लम्बे समय तक रखने से ये कुथित - दुर्गन्धयुक्त हो जाते हैं अतः विकारी द्रव्य हैं ।
१२८/२, ३. किसी साधु ने एक गृहिणी से दूध की याचना की। उसने कहा- 'कुछ समय बाद दूंगी।' साधु को अन्यत्र दूध मिल गया। दूध हेतु गृहिणी के कहने पर मुनि बोला- 'मुझे अभी दूध प्राप्त हो गया प्रयोजन होने पर ग्रहण करूंगा।' ऐसा कहने पर ऋण से भयभीत गृहिणी ने उस दूध का उपभोग नहीं किया। 'कल मैं मुनि को इस दूध का दही जमाकर दूंगी', यह सोचकर उसने उसे स्थापित कर दिया। दूसरे दिन भी मुनि ने दही नहीं लिया, तब गृहिणी ने उसका नवनीत, मस्तु और तक्र बना दिया। नवनीत का घृत बना दिया। यदि गृहिणी इन सबको अपने कुटुम्ब के लिए होंगे, इस प्रकार आत्मार्थीकृत कर लेती है तो
१. दूध में विकार होता है। दूध से दही, दही से मक्खन, मक्खन से घी। जो साधु के निमित्त दूध स्थापित कर उसमें से घी निकाल कर देता है, वह दूध परंपर स्थापित होता है। इसकी व्याख्या हेतु देखें गाथा १२८/ २, ३ का अनुवाद एवं टिप्पण ( मवृ प. ८९ ) ।
२. हाथ में रखी हुई भिक्षा तीन घर तक निर्दोष होती है, तीन घर के बाद जब तक गृहान्तर नहीं होता, तब तक वह स्थापना नहीं है। गृहान्तर आने पर साधु के निमित्त लाई गई हस्तगत भिक्षा स्थापना दोष के अंतर्गत आती है क्योंकि फिर वहां उपयोग असंभव है (मवृ प. ८९ ) ।
३. पाक-भाजन तथा चुल्ली - अवचुल्ली को छोड़कर शेष सब भाजन स्वस्थान और परस्थान दोनों हैं। टीकाकार ने यहां स्वस्थान और परस्थान के आधार पर चतुर्भंगी दी है
१. स्वस्थान में स्वस्थान ।
२. स्वस्थान में परस्थान ।
३. परस्थान में स्वस्थान ।
४. परस्थान में परस्थान ( मवृ प. ९० ) ।
४. जैसे दूध यदि दधि आदि के रूप में परिकर्ममाण न होकर उसी दिन दूध रूप में ही स्थापित होता है तो वह अनन्तर स्थापित है । इसी प्रकार स्थापित इक्षु रस भी उसी दिन दिया जाता है तो वह अनंतर स्थापित है, उसका गुड़ आदि बनाने पर वह परम्पर स्थापित होता है ( मवृ प. ९० ) ।
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अनुवाद
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उनको ग्रहण करना कल्पता है। स्थापित घृत देशोनपूर्वकोटि तक स्थापनादोष युक्त हो सकता है। इसी प्रकार करम्ब रूप में परिवर्तित द्रव्य भी जितने काल तक अविनाशी रूप में रहता है, तब तक स्थापना दोष युक्त होता है। १२९. इक्षुरस का कक्कब, पिंड, गुड़, मत्स्यंडिका-एक प्रकार की शर्करा, खांड तथा शर्करा बनाकर स्थापित कर दिया, यह परंपर स्थापना है। इसी प्रकार अन्य द्रव्यों में भी पर्यायान्तर करने पर परम्पर स्थापना होती है। (जितना स्थापित किया है, उसमें से जितना आधाकर्म न हो और जो आत्मार्थीकृत कर लिया हो, वह कल्पता है।) १३०. एक भिक्षाग्राही एक घर का उपयोग करता है। दूसरा दो घरों का करता है, तीन घरों का उपयोग होने तक स्थापना दोष नहीं होता। तीन घरों से परे मुनि के लिए अलग से निकाली हुई भिक्षा प्राभृतिका स्थापना होती है। १३१. प्राभृतिका के दो प्रकार हैं-बादर और सूक्ष्म । दोनों के दो-दो भेद हैं-अवष्वष्कण तथा उत्ष्वष्कण। साधु-समुदाय का आना-जाना जानकर लड़की के विवाह को अवष्वष्कण, उत्ष्वष्कण अर्थात् पहले-पीछे करना बादर प्राभृतिका स्थापना है। १३२, १३३. पुत्र द्वारा भोजन मांगने पर मां कहती है-'पुत्र! बार-बार मत मांग। अभी परिपाटी-बारीबारी से घरों में भिक्षा लेते हुए साधु यहां आएंगे तो मैं उनको भिक्षा देने के लिए उलूंगी, तभी तुझे भोजन दूंगी।' यह वचन सुनकर मुनि उस घर की भिक्षा का विवर्जन करता है अथवा मां का वचन सुनकर वह बालक साधु की अंगुलि पकड़कर अपने घर पर लाता है। साधु पूछता है-'तुम मेरी अंगुलि क्यों खींच रहे हो?' यह पूछने पर बालक यथार्थ कह देता है। बालक की बात सुनकर मुनि वहां भिक्षा के लिए नहीं जाता क्योंकि वहां उत्सर्पण रूप सूक्ष्म प्राभृतिका दोष होता है। १३४. साधु-समुदाय के विहार होने के बाद पुत्र के विवाह का दिन जानकर कोई श्रावक जीमनवार में बनने वाले मोदक तथा द्रव-तण्डुलधावन आदि साधु को देने के लिए नियतकाल से पूर्व पुत्र-विवाह करता है, यह अवष्वष्कण रूप बादर प्राभृतिका है। १३५. निश्चित विवाह के दिन साधु-समुदाय का आगमन न होने से विवाह को नियतकाल से आगे करना
१. स्थापना दोष का उत्कृष्ट कालमान देशोनपूर्वकोटि है क्योंकि चारित्र का कालमान आठ वर्ष कम पूर्वकोटि होता है। इस बात का स्पष्टीकरण करते हुए टीकाकार मलयगिरि कहते हैं कि कोई बालक आठ वर्ष की आयु में साधु बना। उसका आयुष्य पूर्वकोटि प्रमाण था। उसने पूर्वकोटि आयुष्य वाली किसी गृहिणी से घृत की याचना की। उसने कहा-'मैं कुछ समय बाद घत दूंगी।' मनि को अन्यत्र घत की प्राप्ति हो गई। गहिणी के कहने पर मनि ने कहा-'अभी प्रयोजन नहीं है, जब आवश्यकता होगी, तब लूंगा।' गृहिणी ने उस घृत को साधु के निमित्त स्थापित कर दिया और उसको तब तक रखा, जब तक कि मुनि दिवंगत नहीं हो गए। साधु के दिवंगत होने पर वह घृत स्थापना दोष से मुक्त हो गया (मवृ प. ९१)।
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पिंडनियुक्ति
उत्सर्पण रूप बादर प्राभृतिका है। इस अवष्वष्कण और उत्ष्वष्कण रूप बादर प्राभृतिका को कोई ऋजु व्यक्ति प्रकट कर देता है और कुटिल व्यक्ति प्रच्छन्न रूप से रखता है। १३५/१. दो कारणों से विवाह आदि के दिनों का अवष्वष्कण होता है-मंगल के प्रयोजन से तथा पुण्य के प्रयोजन से। इसी प्रकार उत्ष्वष्कण भी दो कारणों से होता है। कारण पूछने पर यदि गृहस्थ यथार्थ बात बताए तो मुनि उस विवाह आदि में बने आहार का वर्जन करता है। १३६. जो मुनि प्राभृतिका भक्त का उपभोग करके उस स्थान (दोष) का प्रतिक्रमण नहीं करता, वह मुंड वैसे ही व्यर्थ परिभ्रमण करता है जैसे लुंचित-विलुंचित पंख वाला कपोत । १३६/१-६. एक श्राविका ने लुंचित शिर वाले साधु को देखा। उसका शरीर तप से कृश और मैल से कलुषित था। वह युगमात्र दृष्टि से भूमि को देखता हुआ अत्वरित और अचपल गति से चल रहा था। उस मुनि को अपने घर में भिक्षा के लिए आते हुए देखकर वह श्राविका संवेगयुक्त हो गई। वह विपुलमात्रा में अन्न-पान लेकर आई। इस घर का द्वार नीचा है अतः एषणा शुद्ध नहीं होगी, यह सोचकर मुनि वहां से आगे बढ़ गया।
मुनि के बिना भिक्षा लिए चले जाने पर वह श्राविका उदासीन और लज्जित हो गई और अन्न-पान लेकर वहीं बैठ गई। इतने में ही एक दूसरा मुनि, जो चरण-करण के पालन में शिथिल था, वहां आया और उसने वह भिक्षा ग्रहण कर ली। तब उस श्राविका ने पूछा-'भगवन् ! अभी एक मुनि आए थे। उन्होंने भिक्षा लेने का निषेध कर दिया और आपने भिक्षा ग्रहण कर ली, इसका क्या कारण है ?' मुनि ने ऐहलौकिक और पारलौकिक लाभ बताकर भिक्षा छोड़ने का कारण बताया-'जो मुनि एषणा समिति से समित होते हैं, वे नीचे द्वार वाले घरों से भिक्षा नहीं लेते क्योंकि (अंधकार के कारण) वहां एषणा की विशुद्धि नहीं हो सकती।' (वे मुनि एषणा समित थे इसलिए भिक्षा ग्रहण किए बिना ही चले गए।) तुम मुझे पूछती हो कि मुझे वह आहार कैसे कल्पता है तो सुनो-'मैं केवल लिंगोपजीवी हूं, केवल साधु वेशधारी हूं, गुणयुक्त साधु नहीं हूं।' मुनि ने उस श्राविका को मुनि के गुणों तथा एषणा के बारे में बताया। साधु की सरलता से प्रभावित होकर श्राविका ने भक्तिपूर्वक मुनि को विपुल अन्न-पान दिया। उस मुनि के चले जाने पर एक दूसरा मुनि आया। श्राविका के पूछने पर उसने कहा-'ऐसे मुनि मायावी होते हैं, मायापूर्ण आचरण करते हैं। हमने भी पहले व्रतों का मायापूर्ण आचरण किया था।' १३७, १३८. प्रादुष्करण के दो प्रकार हैं-प्रकटकरण और प्रकाशकरण। प्रकटकरण का अर्थ है
१. उत्तरार्ध को स्पष्ट करते हुए टीकाकार कहते हैं- ऋजु व्यक्ति के द्वारा प्रकट की गई यथार्थ बात को जन-परम्परा से
जानकर मुनि उस आहार को ग्रहण न करे।खोज करने पर भी यदि साधु न जान पाए तो उसे ग्रहण करने में कोई दोष नहीं है क्योंकि साधु के परिणाम शुद्ध हैं (मवृ प. ९३)। २. टीकाकार ने इहलोक और परलोक को स्पष्ट करते हुए कहा है कि भिक्षा की प्राप्ति ऐहलौकिक लाभ है लेकिन धर्म और
नियम का पालन पारलौकिक लाभ है, जो अधिक गुण वाला है (मत् प. ९४)।
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अनुवाद
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अन्धकार से प्रकाश वाले स्थान में ले जाना, दीवार में छेद करना अथवा दीवार को गिरा देना, रत्नप्रदीप अथवा अग्नि को जलाना-इस प्रकार प्रकाश करके सुविहित साधुओं को दान देना नहीं कल्पता। इसमें जो आहार आत्मार्थीकृत होता है, वह कल्पता है। यदि किसी मुनि ने सहसा प्रादुष्करणदोष से दुष्ट आहार ले लिया हो, उसका परिभोग नहीं किया हो तो उस आहार को परिष्ठापित करके पात्र को धोए बिना भी उसमें शुद्ध आहार लेना कल्पता है। १३८/१. चुल्ली के तीन प्रकार हैं-१. संचारिम' २. साधु के लिए पहले से बाहर बनाई हुई चुल्ली ३. उस समय साधु के निमित्त बाहर बनाई गई चुल्ली। इन तीनों में से किसी भी चुल्ली पर पकाया हुआ आहार लेने में दो दोष हैं-उपकरणपूति तथा प्रादुष्करण। १३८/२. गृहिणी कहती है-'हे साधु! तुम अंधकारमय स्थान से भिक्षा नहीं लेते अतः मैंने बाह्य चुल्ली पर अन्न पकाया है।' यह सुनकर मुनि उस आहार का परिहार करे। शंका होने पर पूछने से यदि गृहिणी यथार्थ कहे तो मुनि पहले की भांति ही उस आहार का परिहार करे। १३८/३. कोई गृहनायिका पहले साधुओं के लिए बाह्यभाग में चुल्ली बनाकर फिर सोचती है-घर के भीतर मक्खियां बहुत हैं, गर्मी भी रहती है। बाहर हवा और प्रकाश रहता है तथा पाकस्थान से भोजनस्थान भी निकट रहता है इसलिए अब मैं प्रतिदिन अपना भोजन यहीं करूंगी। इस प्रकार उसको आत्मार्थी कर लेने पर वहां पकाया हुआ आहार मुनि के लिए कल्पता है। प्रादुष्करण के विषय में यह कल्प्य-अकल्प्य की व्याख्या है। १३८/४,५. प्रकाश के लिए दीवार में छिद्र करना, छोटे द्वार को बड़ा बनाना, दूसरा द्वार बनाना, ऊपर के आच्छादन या छत को हटाना, देदीप्यमान रत्न की स्थापना करना, ज्योति जलाना, दीया जलानागृहस्वामिनी को पूछने पर वह कहे या बिना पूछे ही यह बात बताए कि मुनि के लिए किया गया है तो वैसा आहार प्रादुष्करण दोष दुष्ट होता है इसलिए वह मुनि के लिए वर्ण्य है। यदि गृहस्वामिनी ये सारी बातें अपने लिए करती है तो वहां का आहार मुनि के लिए कल्प्य है परन्तु ज्योति और प्रदीप-ये दोनों साधन वर्ण्य हैं क्योंकि इनमें तेजस्काय का स्पर्श होता है। १३८/६. प्रकटकरण अथवा प्रकाशकरण किए जाने पर यदि मुनि सहसा अथवा अनजान में आहार ग्रहण कर लेता है तो जानकारी के पश्चात् उस आहार का परिष्ठापन करके बिना प्रक्षालन किए उसी पात्र में दूसरा शुद्ध आहार ग्रहण कर सकता है। १३९. क्रीतकृत के दो प्रकार हैं-द्रव्यक्रीत तथा भावक्रीत। दोनों के दो-दो प्रकार हैं-आत्मक्रीत और परक्रीत। परद्रव्यक्रीत तीन प्रकार का है-सचित्त, मिश्र और अचित्त।
१. मवृ प. ९४; संचारिमा या गृहाभ्यन्तरवर्तिन्यपि बहिरानेतुं शक्यते-गृह के अंदर वाली चुल्ली, जिसे कारणवश बाहर ले जाया जा सके।
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पिंडनियुक्ति
१४०. आत्मक्रीत दो प्रकार का है-द्रव्य और भाव। द्रव्य से-चूर्ण आदि से। भाव से-साधु के लिए दूसरे के द्वारा स्वयं के विज्ञान-प्रदर्शन से उपार्जित द्रव्य परभावक्रीत है अथवा आहार के लिए स्वयं धर्मकथा आदि से उपार्जित द्रव्य आत्मभावक्रीत है। १४१. निर्माल्य', गंधद्रव्य, गुटिका', वर्णक-चन्दनादि, पोत्त-लघु वस्त्रखंड आदि से आहार आदि अर्जित करना-ये आत्मद्रव्यक्रीत हैं। इनके उपयोग से ये दोष संभव हैं-ग्लानता, प्रवचन की अप्रभावना, स्वस्थता होने पर लोगों की चाटुकारिता तथा अधिकरण। १४२. कोई मंख वजिका-छोटे गोकुल आदि में जाकर वहां पट दिखाकर लोगों को आकृष्ट करके संयमी मुनि के लिए घी, दूध आदि लाकर मुनि को निमंत्रण देता है, यह परभावक्रीत आहार है, इसमें तीन दोष हैं-क्रीत, अभ्याहत और स्थापित। १४२/१. एक गांव में एक मंख शय्यातर था। उसने साधुओं को आहार के लिए निमंत्रण दिया। साधुओं ने प्रतिषेध किया। वर्षावास का बहुत समय बीत जाने पर उसने मुनियों को पूछा-'चातुर्मास के पश्चात् आप किस दिशा में जाएंगे?' मुनियों ने कहा-'अमुक दिशा में।' तब मंख ने उसी दिशा में स्थित अनेक घरों से परिचय किया। १४२/२. उन लोगों ने मंख को दूध, घी आदि देना चाहा। उसने उन लोगों को प्रतिषेध करते हुए कहा-'अभी नहीं, प्रयोजन होने पर लूंगा।' मुनि वहां आए। मंख ने पहले ही आकर उन घरों से घृत आदि लेकर एक घर में एकत्रित कर लिया। (मुनियों के वहां आने पर उनको उसका दान दिया।) १४३. जो मुनि लोगों को प्रभावित करने के लिए धर्मकथा, वाद, तपस्या, निमित्त का आख्यान, आतापना आदि करता है तथा अपने आपको श्रुतस्थान-आचार्य बताता है अथवा जाति, कुल, गण, कर्म, शिल्प आदि बताकर आहार आदि संपादित करता है-यह आत्मभावक्रीत है।
१. मवृ प. ९६; निर्माल्यं-तीर्थादिगतसप्रभावप्रतिमाशेषा-देव का उच्छिष्ट द्रव्य। २. मवृ प. ९६; मुखे प्रक्षेपकस्य स्वरूपपरावर्तादिकारिका गुटिका-रूप-परिवर्तन के लिए मुख में रखी जाने वाली गोली
गुटिका कहलाती है। ३. टीकाकार के अनुसार ये सभी वस्तुएं कार्य में कारण के उपचार से आत्मद्रव्यश्रीत हैं (मवृ प. ९६)। निर्माल्य आदि देने के बाद देवयोग से कोई रुग्ण हो जाता है तो प्रवचन का उड़ाह होता है। निर्माल्य आदि से यदि कोई रुग्ण
नीरोग हो जाता है तो उससे चाटुकारिता बढ़ती है। सभी उसकी प्रशंसा करते हैं। प्रशंसा को सुनकर अन्य लोग आकर भी - उससे निर्माल्य, गंध आदि की याचना करते हैं। नहीं मिलने पर कभी-कभी कलह का प्रसंग भी आ जाता है (मवृ प. ९६)। ५. म प. ९६; मङ्गः कैदारको यः पटमुपदर्य लोकमावर्जयति-पट आदि दिखाकर लोगों को आश्चर्यचकित करने वाला
व्यक्ति। ६. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. १८। ७. मुनियों ने एषणापूर्वक उसको ग्रहण किया अतः यह शुद्ध आहार है। यदि उनको मंख की चेष्टा ज्ञात हो जाती और वे उस
आहार को ग्रहण करते तो मुनि तीन दोषों के भागी होते-क्रीत, अभ्याहृत तथा स्थापित (मवृ प. ९६)।
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१४३/१. धर्मकथा से प्रभावित व्यक्तियों से अथवा धर्मकथा सुनकर जाने वालों से जो कुछ भी ग्रहण करना आत्मभावक्रीत कहलाता है। कोई श्रावक पूछता है-'क्या वे प्रसिद्ध धर्मकथी आप हैं ?' मुनि कहता है-'प्रायः साधु धर्मकथी ही होते हैं' अथवा वह मुनि मौन रहता है, यह आत्मभावक्रीत है। १४३/२. (कोई श्रावक पूछता है-) 'जो जग-प्रसिद्ध धर्मकथी है, वह आप ही हैं क्या?' (मुनि कहता है-) 'क्या राख से गुंडित शरीर वाले के लिए कह रहे हो? अथवा दकसौकरिक-सांख्य के लिए? अथवा अमुक गृहस्थ या बकरों का गला मोड़ने वाले के लिए? अथवा मुंड कौटुम्बिक अर्थात् बौद्ध भिक्षुओं के लिए तुम धर्मकथी की बात कह रहे हो?'२ १४३/३. इसी प्रकार वादी, तपस्वी, नैमित्तिक, आतापक आदि के विषय में जानना चाहिए। श्रुतस्थान अर्थात् आचार्यत्व अथवा वाचनाचार्यत्व आदि के विषय में पूछने पर आहार आदि के लिए स्वयं को उस रूप में प्रस्तुत करना आत्मभावक्रीत है। १४४. प्रामित्य के संक्षेप में दो प्रकार हैं-लौकिक और लोकोत्तर। लौकिक है-भगिनी आदि द्वारा क्रीत द्रव्य। लोकोत्तर है-वस्त्र आदि। १४४/१. श्रुतज्ञान के अभ्यास से संयम-विधियों के ज्ञाता मुनि ने एक गांव के बाहर आकर पूछा'अमुक कुटुम्ब का कोई व्यक्ति जीवित है ?' उत्तर में कहा-'उस कुटुम्ब की एक पुत्री मात्र जीवित है, वह तुम्हारी बहिन है।' मुनि उसके घर गए। मुनि के लिए आहार पकाने पर मुनि ने उस आहार का निषेध किया। एक दिन उसने तैल के व्यापारी से दुगुने ब्याज से दो पल तैल उधार लाकर मुनि को दिया। (मुनि ने पूरी जानकारी के अभाव में तैल ले लिया।) १४४/२. तैल का ऋण अपरिमित होने से उसने दासत्व स्वीकार कर लिया। कालान्तर में वही भाई मुनि उसी गांव में आया और बहिन के बारे में पूछा- 'बहिन ने मुनि को अपने दासत्व के बारे में बताया।' मुनि बोले-'रो मत। मैं शीघ्र ही तुझे दासत्व से मुक्त करा दूंगा।' १४४/३. मुनि उसी सेठ के घर भिक्षा के लिए गए। गृहिणी ने भिक्षा देने के लिए हाथ धोए। मुनि बोले'पानी का समारंभ हुआ है, मुझे ऐसी भिक्षा लेना नहीं कल्पता।' कारण पूछने पर मुनि ने जीवहिंसा की बात बताई। गृहस्वामी ने पूछा-'भंते! आप कहां ठहरे हैं ?' मुनि ने कहा-'अभी कहीं स्थान नहीं मिला है।' तब गृहपति ने अपने घर में ही स्थान दे दिया। प्रतिदिन मुनि का प्रवचन एवं (वासुदेव का) उदाहरण सुनने से उसे वैराग्य हो गया। श्रेष्ठी ने अपने ज्येष्ठ पुत्र और साधु भगिनी सम्मति को प्रव्रज्या के लिए
१. मौन से श्रावक यह जान लेते हैं कि वह प्रसिद्ध धर्मकथी साधु यही है क्योंकि गंभीरता के कारण यह स्वयं को प्रकाशित नहीं
कर रहा है, उससे प्रभावित होकर श्रावक उसे प्रभूत आहार आदि देते हैं (मवृ प. ९७)। २. गाथा का उपसंहार करते हुए टीकाकार कहते हैं कि मुनि से इतने विकल्प सुनने के बाद श्रावक सोचते हैं कि वह प्रसिद्ध धर्मकथी यह स्वयं ही है, तभी दूसरों का नाम ले रहा है (मवृ प. ९८)।
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पिंडनियुक्ति
विसर्जित कर दिया। ऐसे गीतार्थ मुनि कतिपय ही होते हैं और कुछेक व्यक्तियों में ही प्रव्रज्या के परिणाम उदित होते हैं। १४४/४, १४५. वस्त्र-पात्र आदि से संबंधित लौकिक प्रामित्य में दासत्व तथा श्रृंखला-बंधन आदि दोष होते हैं । लोकोत्तर प्रामित्य विषयक दोष ये हैं-(किसी से वस्त्र उधार लेकर मुनि को दिया , मुनि ने उसका उपभोग किया।) वह वस्त्र मलिन हो जाने पर, फट जाने पर, जीर्ण-शीर्ण हो जाने पर, चोरों द्वारा अपहृत हो जाने पर अथवा मार्ग में गिर जाने पर कलह हो सकता है। पूर्वयाचित वस्त्र से भी सुंदर वस्त्र पुनः समर्पित करने पर भी कोई दाता दुष्कर रुचि हो सकता है, तब कलह आदि दोष की संभावना रहती है। १४६. किसी मुनि को वस्त्र की अत्यंत आवश्यकता है। दूसरा मुनि उसे वस्त्र देना चाहे तो उच्चभावना से बिना किसी आशंसा से वह वस्त्र दे, उधार न दे। कोई मुनि कुटिल अथवा आलसी है, उसको यदि वस्त्र देना पड़े तो स्वयं उसको न दे। वस्त्र को गुरु के पास रख दे। गुरु स्वयं उसे वह वस्त्र दे, जिससे कि कलह न हो। १४७. परिवर्तित दोष के भी संक्षेप में दो प्रकार हैं-लौकिक और लोकोत्तर। ये दोनों दो-दो प्रकार के हैंतद्रव्यविषयक तथा अन्यद्रव्यविषयक। १४८. दो पड़ोसी आपस में एक दूसरे के संबंधी थे। साधु के लिए पौद्गलिक शाल्योदन का परिवर्तन किया। कलह होने पर मुनि के उपदेश से सबको बोधि प्राप्त हो गई। १४८/१. मुनि ने दरिद्रता से अभिभूत अपनी भगिनी पर अनुकम्पा करके उसके घर में प्रवास किया। बहिन ने पड़ोसी भाई की पत्नी से आहार का परिवर्तन किया। शाल्योदन के स्थान पर कोद्रव देखकर भाई ने कारण पूछा। मत्सर भाव के कारण पत्नी ने कारण नहीं बताया। पति ने उसको प्रताड़ित किया। १४८/२. इधर दूसरे ने भी पत्नी को प्रताड़ित किया। रात्रि में साधु ने दोनों को उपशान्त किया। बोधि प्राप्त होने पर उनकी दीक्षा हो गई इसलिए परिवर्तित आहार नहीं लेना चाहिए क्योंकि कितने ऐसे लोग हैं, जो कलह का उपशमन करते हैं।
१. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. १९ । २. तद्रव्यविषयक परिवर्तन जैसे दुर्गन्धयुक्त घी देकर साधु के लिए सुगंध युक्त घी लेना। अन्यद्रव्यविषयक परिवर्तन, जैसेकोद्रव का भोजन देकर शाल्योदन लेना आदि, यह लौकिक परिवर्तित दोष है (मवृ प. १००)।
था में आए 'सज्झिलग' शब्द का अर्थ टीकाकार ने भाई किया है लेकिन यहां पडोसी अर्थ होना चाहिए। संबंध के हिसाब से भी दोनों साला-बहनोई लगते हैं अतः यहां पड़ोसी अर्थ ही संगत लगता है। देशी शब्द कोश में सज्झिलग के दोनों
अर्थ दिए गए हैं (मवृ प. १००)। ४. दशजिचू पृ. २३६ ; पुव्वदेसयाणं पुग्गलि ओदणो भण्णइ-पूर्व देशवासी ओदन को पुद्गल कहते थे। ५. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. २० ।
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१४९. (साधुओं का परस्पर वस्त्र आदि का परिवर्तन करना लोकोत्तर परिवर्तन है, उसके ये दोष हैं-) यह वस्त्र मेरे द्वारा प्रदत्त वस्त्र प्रमाण से न्यून है, अधिक है, जीर्णप्रायः है, कर्कश स्पर्श वाला है, मोटे सूत का बना हुआ भारयुक्त है, छिन्न है, मलिन है, ठंड से रक्षा करने में अक्षम है, विरूप वर्ण वाला है-ऐसा जानकर वह साधु विपरिणत हो सकता है अथवा अन्य साधु के कहने पर उसका मन दूषित हो सकता है। १५०. एक मुनि के पास प्रमाणोपेत वस्त्र है, दूसरे के पास वैसा नहीं है। ऐसी स्थिति उत्पन्न होने पर प्रमाणोपेत वस्त्र गुरु के पादमूल में स्थापित कर दे। गुरु उस वस्त्र को याचक मुनि को दे। गुरु के पास न रखने पर कलह हो सकता है। १५१. अभ्याहृत के दो प्रकार हैं-आचीर्ण तथा अनाचीर्ण । अनाचीर्ण के दो प्रकार हैं-निशीथ अभ्याहत तथा नो-निशीथ अभ्याहत। निशीथ अभ्याहत स्थाप्य है उसे आगे कहेंगे। अभी नो-निशीथ अभ्याहत कहूंगा। १५२. नो-निशीथ अभ्याहत दो प्रकार का है-स्वग्रामविषयक तथा परग्रामविषयक। परग्राम विषयक अभ्याहत दो प्रकार का है-स्वदेश परग्राम अभ्याहत तथा परदेश परग्राम अभ्याहृत । इन दोनों के दो-दो प्रकार हैं-जलपथ से अभ्याहृत तथा स्थलपथ से अभ्याहृत। जलपथ से अभ्याहत के दो प्रकार हैं-नौका से तथा डोंगी से। स्थलपथ से अभ्याहृत के दो प्रकार हैं-जंघा तथा गाड़ी आदि से। १५३. जलमार्ग से अभ्याहृत के ये साधन हैं-जंघा, बाहु अथवा नौका आदि तथा स्थलमार्ग से अभ्याहृत के ये साधन हैं-कंधा, शकट अथवा गधा, बैल आदि खुरनिबद्ध पशु से युक्त गाड़ी। इनमें संयम-विराधना तथा आत्मविराधना होती है। संयम-विराधना में काय-अप्काय आदि की विराधना होती है। १५४. जलमार्ग से आत्मविराधना इस प्रकार होती है-गहरे पानी के कारण निमज्जन हो सकता है, जलचर विशेष की पकड़ हो सकती है, कीचड़, मगरमच्छ, कच्छप आदि के कारण पैर फंस सकते हैं। स्थलमार्ग के दोष इस प्रकार हैं-कंटक, सर्प, चोर, श्वापद आदि का दोष। १५५. स्वग्राम विषयक अभ्याहृत के भी दो प्रकार हैं-गृहान्तर तथा नोगृहान्तर। तीन घरों के अन्तर से लाया हुआ गृहान्तर कहलाता है। १५६. नोगृहान्तर के अनेक प्रकार हैं-वाटक विषयक, साही-गली विषयक, निवेशन तथा गृहविषयक, इनमें कोई गृहस्थ कापोती से, कंधे से अथवा मृन्मय या कांस्य भाजन से आहार आदि लाकर मुनि को उपाश्रय में दे, यह अनाचीर्ण है।
१. जिस ग्राम में साधु रहता है, वह स्वग्राम और शेष परग्राम। २. गृहान्तर अभ्याहृत कल्पनीय तथा नोगहान्तर अभ्याहृत अकल्प्य होता है। ३. मवृ प. १०३ ; वाटकः परिच्छन्नः प्रतिनियतः सन्निवेश:-अलग प्रतिनियत सन्निवेश वाटक कहलाता है। । ४. मवृ प. १०३ ; निवेशनम्-एकनिष्क्रमणप्रवेशानि व्यादिगृहाणि-एक ही दरवाजे वाले दो या उससे अधिक घर।
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पिंडनियुक्ति
१५६/१. निम्न कारणों को प्रकट करके कोई श्राविका अपने घर से साधु के उपाश्रय में आहार लाए तो यह नोनिशीथस्वग्राम अभ्याहृत कहलाता है
• जब मुनि भिक्षा के लिए गए, तब घर में कोई नहीं था। • अथवा उस समय भिक्षा-काल नहीं था। • अथवा विशिष्ट व्यक्तियों के लिए भोजन बनाया गया था इसलिए उनके आने से पूर्व भिक्षा
नहीं दी गई। • अथवा भिक्षार्थ आए साधु के चले जाने पर प्रहेणक-त्यौंहार की मिठाई आई।
• अथवा जब मुनि भिक्षार्थ आए, तब गृहस्वामिनी सो रही थी। १५७. जो क्रम स्वग्राम-परग्राम विषयक नोनिशीथ अभ्याहृत के लिए कहा गया है, वही क्रम निशीथ अभ्याहत के लिए जानना चाहिए। जहां दायक का भाव अविदित होता है, उसे निशीथ अभ्याहृत जानना चाहिए। १५७/१-४. कुछ मुनि अधिक दूरी पर थे तथा कुछ नदी के पार थे। (श्रावक के यहां विवाह के प्रचुर मोदक बच गए।) श्रावक ने सोचा कि यहां मुनि आधाकर्म की आशंका से मोदक ग्रहण नहीं करेंगे अतः कुछ श्रावक प्रच्छन्न रूप से मोदक लेकर (नदी के पार वाले गांव में) चले गए। वहां वे देवकुल में रुके और द्विज आदि को थोड़ा-थोड़ा दान देने लगे। उन्होंने उच्चार आदि के लिए निर्गत साधुओं को दान दिया। उन साधुओं के कहने पर शेष साधु भी वहां भिक्षार्थ गए। (साधुओं को आशंका न हो अत: मायापूर्वक कोई श्रावक बोला-) 'इनको पूरा मत देना, आवश्यकता हो उतना ही देना।' दूसरा बोला-'साधुओं को सारा दे दो, पीछे थोड़ा ही चाहिए।' नमस्कारसहिता (नवकारसी) वाले साधु खा चुके थे। अजीर्ण आदि के कारण जिन्होंने पुरिमार्ध (दो पौरुषी) की थी, उन्होंने भोजन नहीं किया। दान देने के पश्चात् श्रावक वहां वंदना करने आए। उन्होंने नैषेधिकी आदि सारी क्रियाएं कीं। (साधुओं को ज्ञात हो गया कि यह हमारे लिए लाया गया आहार है।) उस समय जिन पुरिमार्ध वाले मुनियों ने आहार नहीं किया था, उन्होंने वह भोजन नहीं किया, जिन्होंने कवल उठा लिया, उन्होंने कवल वापस पात्र में रख दिया। जिन्होंने मुख में कवल डाल दिया, उन्होंने ज्ञात होते ही पार्श्वस्थित मल्लक-पात्र में थूक दिया। भाजनगत सारा आहार परिष्ठापित किया गया। सारे श्रावक साधुओं से क्षमा मांगकर लौट गए। जिन्होंने पहले भोजन कर लिया अथवा आधा भोजन किया, वे अशठभाव के कारण शुद्ध हैं।' १५७/५. (कोई गृहिणी अभ्याहत की आशंका-निवृत्ति के लिए प्रहेणक लेकर किसी अन्य गृहिणी के घर की ओर जाती है। वहां से लौटते समय मुनियों को दान देने की भावना से उपाश्रय में जाकर कहती है)-'भगवन् ! अमुक घर में जाते समय मुझे यह प्रहेणक प्राप्त हुआ अथवा यह मुझे अमुक जीमनवार में
१. १५७/१-४ इन चार गाथाओं में घटना विशेष के माध्यम से ग्रंथकार ने परग्राम अभ्याहृत निशीथ को स्पष्ट किया है, कथा
के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. २१ ।
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अनुवाद
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मिला है। मुनियों को वंदना करने के लिए मैं उपाश्रय में आई हूं। आप यह भोज्य सामग्री लें। मुनियों को वह भोजन सामग्री देकर लौट जाती है।' १५७/६. अथवा वह गृहिणी यह कहती है-- भगवन् ! मैं यह प्रहेणक अपने परिजनों को देने के लिए घर से लाई थी परन्तु उन्होंने इसे लिया नहीं।' (अथवा कोई गृहिणी सारे प्रपंच की पूर्व रचना कर, योजनानुसार प्रहेणक लेकर जाती है और मुनियों को सुनाई दे सके, इस प्रकार बाढ़ स्वरों में शय्यातरी अथवा उपाश्रय के पास रहने वाली स्त्री से कहती है-) 'यह प्रहेणक लो।' तब वह मायापूर्वक निषेध करती हुई रुष्ट हो जाती है। दोनों में कृत्रिम कलह होने पर वह रुष्ट होकर उपाश्रय में जाती है, वंदना करती है और प्रहेणक लाने का सारा वृत्तान्त सुनाकर मुनियों को दान दे देती है। १५८. यह दोनों प्रकार का अभ्याहृत (निशीथ, नोनिशीथ अथवा स्वग्राम, परग्राम) जो कहा गया है, वह अनाचीर्ण है। आचीर्ण अभ्याहृत के दो प्रकार हैं-देश तथा देशदेश। १५९. सौ हाथ प्रमित क्षेत्र देश कहलाता है तथा सौ हाथ का मध्यवर्ती क्षेत्र देशदेश कहलाता है। इस आचीर्ण अभ्याहृत में यदि उपयोग युक्त तीन घरों का अन्तर होता है तो आहार कल्पनीय है, अन्यथा नहीं। १६०. परिवेषणपंक्ति, (जीमनवार आदि में भोजन करने वालों की पंक्ति में एक किनारे पर मुनि तथा दूसरे किनारे पर देय वस्तु।) प्रलम्ब प्रवेश द्वार अथवा घंघशाला गृह से सौ हाथ दूर से लाया हुआ आहार ग्रहण करना आचीर्ण है। उससे अधिक दूरी से लाया हआ आहार ग्रहण करना प्रतिषिद्ध है।
१६१. आचीर्ण अभ्याह्नत के तीन प्रकार हैं-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य। एक हाथ से दूसरे हाथ में लिया हुआ भोज्य देना जघन्य अभ्याहृत है। सौ हाथ से अभ्याहृत उत्कृष्ट है तथ: सौ हाथ के मध्यवर्ती स्थान से अभ्याहृत मध्यम है। ये तीनों आचीर्ण अभ्याहृत हैं। १६२. उद्भिन्न दो प्रकार का है-पिहितोद्भिन्न तथा कपाटोद्भिन्न । पिहितोद्भिन्न में पिधान दो प्रकार का होता है-प्रासुक तथा अप्रासुक। अप्रासुक है-सचित्त मिट्टी आदि का पिधान और प्रासुक है-छगण (कंडे) तथा दर्दरक-बर्तन का मुंह बांधने का वस्त्रखंड आदि। १६३. पिहितोद्भिन्न में षट्काय की विराधना होती है। साधु के निमित्त तैलपात्र को खोलकर पुत्र आदि को देने में तथा क्रय-विक्रय करने से अधिकरण-पापमय प्रवृत्ति होती है। कपाट को खोलने में भी ये ही दोष हैं। यंत्र आदि का उद्भेद करने पर विशेष विराधना होती है। १. १५७/५,६-इन दोनों गाथाओं में स्वग्राम अभ्याहृत निशीथ का उदाहरण है। २. मवृ प. १०५ ; उपयोगस्तत्र दातुं शक्यत इत्यर्थः-उपयोगपूर्वक का अर्थ है-दान देने योग्य घर। ३. यदि कोई गृहस्वामिनी अपने बच्चों को परोसने के लिए कटोरी में ओदन आदि ले जाए, इसी बीच कोई साधु भिक्षार्थ आ
जाए तो कर-परिवर्तन करना भी जघन्य अभ्याहत है (मवृ प. १०५)। ४. कुतुप-तैल आदि भरने का चमड़े का पात्र, उसके मुख को खोलकर साधु को दिया जाने वाला आहार पिहितोद्भिन्न
है (मवृ प. १०५)।
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पिंडनियुक्ति
१६३/१. कुतुप आदि का मुख ढ़कने हेतु कभी मिट्टी का ढेला, पाषाणखंड आदि रखकर सचित्त गीली मिट्टी को चारों ओर लगा दिया जाता है। उसमें पृथ्वीकायिक मिट्टी चिरकाल तक सचित्त रहती है लेकिन पानी कुछ समय बाद अचित्त हो जाता है। १६३/२. पूर्वलिप्त को साधु के लिए उद्भिन्न करने पर जो दोष हैं, वे ही दोष साधु को दान देकर पुनः लेप करने में हैं क्योंकि स्थगन हेतु उसमें पुनः सचित्त पृथ्वी को जल से आई करके लेप किया जाता है तथा कोई-कोई लाख को तपाकर भी कुतुप के मुख पर लगा देता है। १६३/३. जैसे पूर्व लेप करने पर पृथ्वीकाय आदि जीवों की विराधना होती है, वैसे ही साधु के निमित्त उस पिधान को खोलकर पुन: लेप करने पर भी पृथ्वी आदि स्थावरकाय की विराधना होती है तथा पृथ्वी आदि के आश्रित रहने वाले पिपीलिका, कुंथु आदि त्रसकाय के प्राणियों की भी विराधना होती है। १६३/४. साधु के निमित्त कुतुप आदि का मुख उद्भिन्न करने पर गृहस्वामी याचक को अथवा पुत्र आदि को तैल, लवण, घी और गुड़ आदि देता है। उद्घाटित करने पर वह अवश्य विक्रय करता है और दूसरे उसे खरीदते हैं। १६३/५. दान, क्रय या विक्रय में अयतना रहने से अधिकरण–पापकारी प्रवृत्ति भी संभव है तथा मुख उद्घाटित करने से वहां चींटी, मूषक आदि जीव भी गिर सकते हैं। १६३/६. जिस प्रकार पूर्वलिप्त कुंभ आदि को उद्भिन्न करने पर पृथ्वीकाय आदि षट्काय जीवों की विराधना होती है, वैसे ही लिंपन आदि करने पर भी दोष उत्पन्न होते हैं (द्र. गा. १६३) । इसी प्रकार साधु के निमित्त बंद कपाट को खोलने में भी यही दोष समझने चाहिए। १६३/७. कपाट खोलने से छिपकली आदि की विराधना होती है। आवर्तन-पीठिका के ऊंचे-नीचे होने से कुंथु आदि जीवों की विराधना संभव है। कपाट के पीछे जाने पर अंदर स्थित बालक आदि को चोट लगने की संभावना रहती है। १६४. कुंचिकारहित कपाट जो प्रतिदिन खुलता है, बंद होता है, उसको उद्घाटित करके मुनि आहार
१. लाख तपाकर लगाने से तेजस्काय की विराधना भी होती है क्योंकि जहां अग्नि होती है, वहां वायुकाय की विराधना भी
होती है अतः पिहित को उद्भिन्न करने में षट्काय की विराधना होती है (मवृ प. १०६)। २. टीकाकार कपाट के उद्घाटन के संबंध में व्याख्या करते हुए कहते हैं कि वहां जल से भरा मटका आदि रखा हो तो उसके
भेदन होने पर पार्श्व स्थित चूल्हे पर भी वह पानी प्रवेश कर सकता है, जिससे अग्निकाय की विराधना संभव है। अग्निकाय की विराधना होने पर वायु की विराधना अवश्यंभावी है। चींटी आदि के बिल में पानी प्रवेश करने से त्रसकाय की विराधना भी संभव है। दान, क्रय-विक्रय तथा अधिकरण आदि प्रवृत्ति भी गाथा १६३ के समान जाननी चाहिए (मवृ प. १०७)। ३. टीकाकार 'अकुंचियाग' शब्द की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि कुंचिकाविवर से रहित कपाट का पृष्ठभाग ऊंचा नहीं होता अतः घर्षण न होने से सत्त्वों की विराधना नहीं होती। टीकाकार मलयगिरि इसके स्थान पर 'अकूइयाग' पाठान्तर की व्याख्या करते हए कहते हैं कि जिस कपाट को खोलने से केंकार की आवाज नहीं होती, वह अकृजिकाक-कृजिका रहित कहलाता है (मवृ प. १०७)।
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ग्रहण कर सकता है, (यह आचीर्ण उद्भिन्न है ।) जिस पात्र को वस्त्र से ढ़ककर गांठ दी जाती है, वह गांठ यदि प्रतिदिन खोली और बांधी जाती है तथा जो जतु (लाख) से मुद्रित नहीं है, उसको खोलकर देना भी चीर्ण उद्भिन्न है।
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१६५. मालापहत के दो प्रकार हैं- जघन्य और उत्कृष्ट । पैरों के अग्रभाग पर ऊर्ध्वस्थित होकर ऊपर से दी जाने वाली भिक्षा जघन्य मालापहृत है तथा निःसरणी आदि पर चढ़कर ऊपर से उतारकर देना उत्कृष्ट मालापहत है।
१६६. जघन्य मालापहृत में भिक्षु का तथा उत्कृष्ट मालापहृत में गेरुक का दृष्टान्त है । जघन्य मालापहृत में सर्प का डसना तथा उत्कृष्ट मालापहृत में ऊपर से नीचे गिरना आदि दोष होते हैं ।
१६६/१,२. गृहस्वामिनी को मालापहृत भिक्षा लाते देख साधु वहां से बिना भिक्षा लिए लौट गया। उसी समय वहां बौद्ध साधु आया । भिक्षा न लेने का कारण पूछने पर बौद्ध भिक्षु बोला-' इन्होंने कभी किसी को दान नहीं दिया (इसलिए इनको अच्छी भिक्षा की प्राप्ति नहीं होती ।) माले में रखे घड़े में मोदक की सुगंध
एक सांप उसमें घुस गया और उसके हाथ को डस लिया। दूसरे दिन वही जैन साधु वहां भिक्षार्थ आया । (गृहस्वामी ने कहा - ) आप निर्दय हैं ( क्योंकि आपने जानते हुए भी नहीं बताया कि ऊपर सांप है ।) साधु ने यथार्थ बात बताई, जिससे उनको सम्बोधि प्राप्त हो गई ।'
१६७. आसंदी, पीढक, मंचक, यंत्र (ब्रीहि आदि दलने का यंत्र) ऊखल आदि साधनों पर चढ़कर ऊपर रखी हुई वस्तु उतारते समय दात्री नीचे गिर सकती है। इससे स्वयं के अवयवों का विनाश तथा पृथ्वी पर रहे जीवों का विघात हो सकता है। इसके अतिरिक्त द्रव्य-प्राप्ति का व्यवच्छेद हो जाता है। मुनि के प्रति प्रद्वेषभाव होता है। प्रवचन की अप्रभावना होती है कि इन मुनियों को दान देने से अमुक गृहिणी मर गई । लोगों में यह अज्ञानवाद फैलता है कि ये मुनि होने वाले अनर्थ को पहले नहीं जान सके ।
१६८. इसी प्रकार उत्कृष्ट मालापहत के भी अनेक दोष हैं । भिक्षार्थ गए मुनि ने मालापहत भिक्षा का निषेध कर दिया । अन्य भिक्षु को भिक्षा देने हेतु गर्भवती गृहस्वामिनी निः श्रेणी से ऊपर चढ़ी। (नीचे रखे ब्रीहिदलनक यंत्र की कील से) नीचे गिरने से स्त्री की कुक्षि फट गई और गर्भ बाहर आ गया । वह स्त्री उसी समय कालगत हो गई। दूसरे दिन मुनि को कारण पूछने पर उन्होंने यथार्थ बात बताई। गृहस्वामी को संबोधि प्राप्त हो गई ।
१६९. अथवा मालापहृत के तीन प्रकार होते हैं-ऊर्ध्व मालापहृत, अधः मालापहृत, तिर्यक् मालापहृत । ऊपर छींके आदि से उतार कर देना ऊर्ध्व मालापहृत है। नीचे भूमिगृह भोंहरे आदि से लाकर देना अधः मालापहत है तथा बहुत ऊंचे कुंभ आदि से देना तिर्यक् मालापहृत है ।
१. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. २२ ।
२. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. २३ ।
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१७०. दर्द्दर', शिला, सोपान आदि पर साधु के आगमन से पूर्व ही गृहस्वामी ऊपर चढ़ा हुआ हो, वह हाथ लंबा कर साधु के पात्र में दान दे तो यह अनुच्चोत्क्षिप्त है, ये सारे मालापहृत नहीं कहलाते। शेष सारे मालापहत होते हैं। १७१. जो मुनि पात्र पर दृष्टि रखता हुआ दाता के तिर्यग, दीर्घ और सीधे हाथ से वस्तु ग्रहण करता है, वह अनुच्चोत्क्षिप्त है, शेष सारा उच्चोत्क्षिप्त है। १७२. आच्छेद्य के तीन प्रकार हैं-प्रभुविषयक, स्वामिविषयक तथा स्तेनविषयक। भगवान् के द्वारा आच्छेद्य का निषेध होने के कारण श्रमणों के लिए उसका ग्रहण कल्पनीय नहीं है। १७३. गोपालविषयक, भृतकविषयक, दास-दासीविषयक, पुत्रविषयक, पुत्रीविषयक तथा पुत्रवधूविषयकये प्रभुविषयक आच्छेद्य हैं। इनके ये दोष हैं-अप्रीति, कलह, कुछ व्यक्ति प्रद्वेष करते हैं; जैसे-गोपालक का दृष्टांत। १७३/१. घर का मालिक प्रभु, ग्राम का मुखिया स्वामी तथा राज्य के अधिकारी कोतवाल आदि के द्वारा आच्छेद्य आहार नहीं लेना चाहिए। १७३/२. वारक के दिन ग्वाले से दूध को छीनकर स्वामी ने साधु को दे दिया। भाजन में दूध को कम देखकर भार्या क्रोधित हो गई और बच्चे रोने लगे। १७३/३. प्रतिकार की भावना से वह द्वेषपूर्वक साधु के पास गया। साधु ने उसका मनोगत भाव जानकर संलाप किया कि तुम्हारे स्वामी के आग्रह से दूध ग्रहण कर लिया। (अब तुम यह दूध वापस ले लो) गोपालक ने साधु को छोड़ दिया और कहा कि अब दुबारा आच्छेद्य आहार मत लेना। १७३/४. उपार्जित किए बिना कुछ भी नहीं मिलता। दासी भी भक्तपान के बिना उपभोग के लिए नहीं मिलती। आच्छेद्य आहार से स्वामी और सेवक में कभी प्रद्वेष हो सकता है तथा गोपाल के अंतराय कर्म बंधने में भी मुनि निमित्तभूत बन जाते हैं। १७४. कोई स्वामी अथवा स्वामी के भट मुनियों को देखकर उनके लिए अपने अधीनस्थ दरिद्र
१. मत् प. ११०; दईर: निरन्तरकाष्ठफलकमयो निःश्रेणिविशेषः-स्थायी रूप से रखी गई काष्ठ की सोपान-पंक्ति। २. टीकाकार ने इस गाथा की व्याख्या करते हुए कल्प्य और अकल्प्य विधि का स्पष्टीकरण किया है-पैर के नीचे मंचक
आदि देकर गवाक्ष में स्थित होकर बाहु फैलाकर जो कष्टपूर्वक भिक्षा दी जाए, वह साधु के लिए कल्पनीय नहीं है। भूमि पर स्वाभाविक रूप से खड़े होकर गवाक्ष से बाहु फैलाकर देना मालापहृत नहीं है अत: वह साधु के लिए कल्पनीय है (मवृ प ११०)। ३. अपने घर मात्र का नायक प्रभु कहलाता है। ४. ग्राम का नायक स्वामी कहलाता है। ५. कथा के विस्तार हेतु देखें परि.३, कथा सं. २४ ।
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कौटुम्बिकों से छीनकर आहार आदि देते हैं, उसे ग्रहण करना साधु को नहीं कल्पता। (यह स्वामी विषयक आच्छेद्य है।) १७५. यदि साधु के लिए आहार, उपधि आदि दूसरे से छीनकर दे तो कलह संभव है। कलह न होने पर भी आच्छेद्य आहार ग्रहण करने में निम्न दोष हैं१७६. आच्छेद्य आहार लेने से अप्रीति तथा अंतराय दोष होता है। मुनि को अदत्तादान दोष लगता है। एक या अनेक साधुओं के लिए भक्तपान का विच्छेद होता है। उपाश्रय से निष्कासन तथा उपाश्रय न मिलने पर अन्यान्य कष्ट भी होते हैं। १७७. कुछेक चोर मुनियों के लिए अथवा स्वयं के लिए दरिद्र मनुष्यों से आहार छीनकर देते हैं, वह मुनियों को लेना नहीं कल्पता। स्तेनाच्छेद्य आहार ग्रहण करने से इतर मुनियों के भक्तपान का विच्छेद होता है, जिनसे छीना गया है, उनके मन में प्रद्वेषभाव पैदा होता है। यदि वे दरिद्र मनुष्य भक्तपान देने की अनुमति देते हैं तो मुनि वह ले सकता है। १७७/१,२. कुछ चोर साधुओं के प्रति भद्र होते हैं। सार्थ में जाते हुए साधुओं का भक्त-पान आदि पूरा होते नहीं देखकर चोर यदि आच्छेद्य आहार देते हैं तो वह साधु को ग्रहण नहीं करना चाहिए, जिससे साधुओं का सार्थ से निष्काशन तथा उनके भक्तपान का विच्छेद न हो। 'घृतसक्तु दृष्टान्त' की भांति सार्थ में चलने वालों की अनुमति हो तो मुनि आच्छेद्य आहार ग्रहण करे लेकिन चोर के जाने पर पुन: उनको वह
आहार दे देवे। यदि सार्थिक अनुज्ञा दे दें तो साधु उस आहार को ग्रहण कर सकता है। १७८. तीर्थंकरों ने अनिसृष्ट-अननुज्ञात ग्रहण का प्रतिषेध किया है। सुविहित मुनियों के लिए 'निसृष्ट'अनुज्ञात आहार कल्पनीय है। अनिसृष्ट' अनेक प्रकार का है-लड्डविषयक, भोजनविषयक, कोल्हू विषयक, विवाह-भोज विषयक, दूध विषयक तथा आपण विषयक आदि। १७९-१८०. बत्तीस युवकों ने सामान्य मोदक बनवाए। नियुक्त रक्षक से मुनि ने पूछा-'शेष युवक कहां
१. टीकाकार ने इस गाथा की विस्तृत एवं स्पष्ट व्याख्या की है। उनके अनुसार स्तेनाच्छेद्य का प्रसंग सार्थ में जाते हुए मुनियों के समक्ष उपस्थित होता है। उस समय गरीब सार्थिकों से बलात् लेकर चोर उनको देवें तो उसे साधु ग्रहण न करे। यदि वे सार्थ चोरों के द्वारा बलात् लेने पर ऐसा कहते हैं कि हमारे सामने घृत सक्तु का दृष्टान्त उपस्थित हुआ है अर्थात् सक्तु के मध्य डाला हुआ घी विशिष्ट संयोग के लिए होता है अतः चोर को अवश्य हमारा आहार ग्रहण करना चाहिए। यदि चोर साधु को देंगे तो हमें महान् समाधि होगी। इस प्रकार सार्थिक के द्वारा अनुज्ञात देय को साधु ग्रहण कर सकते हैं। फिर चोरों के चले जाने पर साधु वह द्रव्य सार्थिकों को देते हुए कहे कि उस समय हमने चोर के भय से वह आहार ले लिया, अब वे गए अत: यह द्रव्य तुम ग्रहण कर लो। ऐसा कहने पर यदि वे ग्रहण करने की अनुज्ञा दें तो साधु के लिए वह आहार
कल्पनीय है (मवृ प. ११३)।। २. टीकाकार ने अनिसृष्ट के सामान्य रूप से दो भेद किए हैं-१. साधारण अनिसृष्ट २. भोजन अनिसृष्ट। भोजन अनिसृष्ट
को ग्रंथकार ने 'चोल्लग' शब्द से निर्दिष्ट किया है तथा शेष जंत आदि को साधारण अनिष्ट के रूप में निर्दिष्ट किया है (मवृ प. ११३)।
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गए हैं?' 'स्नान करने गए हैं' ऐसा कहने पर (लोलुप) मुनि बोला-'तुम दूसरों के मोदक से भी पुण्य का उपार्जन नहीं करते।' यदि ३२ मोदक मुझे दोगे तो भी तुम्हारे भाग में एक ही मोदक आएगा। दान अल्पव्यय
और बहुआय वाला होता है, यह बात यदि जानते हो तो मुझे सारे लड्डु दे दो। साधु उन सारे मोदकों को प्राप्त करके जाने लगा। रास्ते में उन युवकों ने पूछा-'आपने आज क्या प्राप्त किया है ?' मुनि ने कहा-'कुछ नहीं।' भारी झोली देखकर युवकों ने कहा-'हम झोली देखेंगे।' उन्होंने बलात् झोली देखी। भय के कारण नियुक्त रक्षक ने कहा–'मैंने इन्हें लड्ड नहीं दिए हैं।' युवकों ने कहा-'तुम्हारे पास चोरी का माल है अतः तुम चोर हो।' युवकों ने उनके कपड़े पकड़कर खींचे। मुनि का साधुवेश एवं उपकरण लेकर उसे पच्छाकड़ (गृहस्थ) बना दिया। राजकुल में पूछने पर लज्जा से साधु मौन रहा अतः उसका देशनिष्कासन कर दिया गया। इस प्रकार अप्रभु से लेने में दोष है, प्रभु के द्वारा देने पर वह आहार आदि ग्राह्य है। १८१. इसी प्रकार यंत्र, संखडि-विवाहभोज, दूध तथा दुकान आदि में सामान्य अनिसृष्ट-अननुज्ञात तीर्थंकरों द्वारा निषिद्ध है। स्वामी द्वारा अनुज्ञात वस्तु कल्पनीय है। १८१/१. अब चोल्लक' भोजन विषयक द्वार है। इसके बारे में बहुवक्तव्य है अतः इसकी व्याख्या बाद में की है। गुरु ने चोल्लक के दो भेद वर्णित किए हैं-१. स्वामी विषयक २. हस्ती विषयक। १८२. चोल्लक दो प्रकार का होता है-छिन्न और अच्छिन्न। अच्छिन्न भी दो प्रकार का होता है१. निसृष्ट २. अनिसृष्ट' । छिन्न चोल्लक में स्वामी के द्वारा देय वस्तु कल्पनीय है। १८३. छिन्न चोल्लक (भोजन) जिसके निमित्त से दिया गया है, वह यदि साधु को देता है तो वह मूल स्वामी के द्वारा दृष्ट हो या अदृष्ट, साधु के लिए कल्पनीय है। इसी प्रकार अच्छिन्न चुल्लक भी कल्प्य है। इसके विपरीत जो छिन्न या अच्छिन्न स्वामी के द्वारा अननुज्ञात है, वह अदृष्ट हो या दृष्ट, साधु के लिए अकल्प्य है।
१. दीक्षा लेने के बाद जो गृहस्थ जीवन जीता है, वह पच्छाकड़ कहलाता है। २. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. २५।। ३. द्वारगाथा १७८ में 'लड्डुग' के बाद 'चोल्लक द्वार' है अतः ग्रंथकार कहते हैं कि १८० वीं गाथा के बाद गा. १८१ में
'चोल्लक द्वार' की व्याख्या करनी थी लेकिन उसमें यंत्र, संखडि आदि अग्रिम द्वारों के बारे में एक साथ सामान्य कथन किया गया है। 'चोल्लक द्वार' की ग्रंथकार को विस्तृत व्याख्या करनी थी अतः इसे क्रम की दृष्टि से बाद में (गा. १८१/१)
दिया गया है। ४. कोई कौटुम्बिक क्षेत्रगत हालिकों के लिए किसी से भोजन बनवाता है। यदि अलग-अलग पात्र में प्रत्येक हालिक के लिए
भोजन भेजता है तो वह छिन्न कहलाता है। जब वह सब हालिकों के लिए एक ही बर्तन में भोजन भेजता है तो वह
अच्छिन्न कहलाता है। इसी प्रकार उद्यापनिका आदि में भी छिन्न-अच्छिन्न चुल्लक समझना चाहिए (मवृ प ११४)। ५. हालिकों के लिए भेजे गए सामूहिक चुल्लक को साधु के दान के लिए भी भेजा, वह निसृष्ट तथा दूसरा अनिसृष्ट
कहलाता है (मवृ प. ११४)। ६. जिसके निमित्त से छिन्न किया गया है, यदि वह दाता स्वयं उस छिन्न चुल्लक को देना चाहे तो वह कल्पनीय है।
अच्छिन्न में यदि सभी स्वामी अनुज्ञा दें, तब वह वस्तु साधु को ग्रहण करना कल्पनीय है (मवृ प ११४)।
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अनुवाद
१६५
१८४. स्वामी के द्वारा अनुज्ञात चोल्लक उनके द्वारा अदृष्ट होने पर भी कल्प्य है। हाथी का भोजन महावत के द्वारा अनुज्ञात होने पर भी अकल्प्य है। महावत के द्वारा देय भक्त यदि हाथी के द्वारा अदृष्ट है तो वह कल्पनीय है। १८५. अननुज्ञात राजपिण्ड और गजभक्त को ग्रहण करने से अंतराय और अदत्तादान आदि दोष लगते हैं। महावत के द्वारा प्रतिदिन दिए गए भोजन को देखकर हाथी साधु के उपाश्रय को तोड़ सकता है। १८६. अध्यवपूरक के तीन प्रकार हैं-स्वगृहयावदर्थिक मिश्र, स्वगृहसाधुमिश्र तथा स्वगृहपाषंडिमिश्र। यावदर्थिक साधु अथवा पाषंडी के आने से पूर्व स्वयं के लिए निष्पन्न होते हुए भोजन में इन तीनों के लिए अधिक रांधना अध्यवपूरक है। १८७. आदानकाल में तण्डुल, जल, पुष्प, फल, शाक तथा मसाला आदि के परिमाण-मात्रा में अंतर होता है, यही अध्यवतर और मिश्रजात में भेद है।' १८८. शुद्ध आहार आदि में यावदर्थिक मिश्र अध्यवपूरक आहार मिश्र हो जाए तो उसको उतनी मात्रा में निकाल देने मात्र से आहार की विशोधि हो जाती है। शुद्ध आहार आदि में यदि स्वगृहपाषंडिमिश्र और स्वगृहसाधुमिश्र पकाया हुआ आहार गिर जाता है तो सारा आहार पूति हो जाता है। विशोधि कोटिक यावदर्थिक अध्यवपूरक के भाग को निकाल देने पर अथवा उतना भाग पाषंडियों को दे देने पर शेष बचा हुआ आहार मुनियों के लिए कल्पनीय होता है लेकिन स्वगृहपाषंडिमिश्र तथा स्वगृह साधुमिश्र अध्यवपूरक आहार शेष बचने पर भी कल्पनीय नहीं होता।"
१. इस गाथा की व्याख्या हेतु देखें गा. १८५ का अनुवाद एवं टिप्पण। २. आदि शब्द की व्याख्या करते हुए टीकाकार कहते हैं कि अपमान से खींचना तथा साधे वेष-परिवर्तन आदि दोष भी
उत्पन्न होते हैं। ३. इस गाथा की व्याख्या करते हुए टीकाकार कहते हैं कि राजा के द्वारा अननुज्ञात लेने पर कभी वह रुष्ट होकर महावत को
नौकरी से निकाल सकता है। साधु के कारण उसकी आजीविका का विच्छेद होता है अतः साधु को अंतराय का दोष लगता है। गाथा के उत्तरार्ध को स्पष्ट करते हुए मलयगिरि कहते हैं कि महावत के द्वारा प्रतिदिन दान देते देखकर हाथी रुष्ट हो सकता है कि यह मुण्ड मेरे भोजन से प्रतिदिन ग्रहण करता है अतः वह उपाश्रय में उस साधु को देखकर उपाश्रय को भी तोड़ सकता है तथा कभी साधु का भी प्राणघात कर सकता है इसलिए गज के सामने महावत के द्वारा दिया गया
आहार भी नहीं लेना चाहिए (मवृ प. ११५)। ४. मूल गाथा में साधु शब्द का प्रयोग नहीं है। टीकाकार मलयगिरि कहते हैं कि 'सघरमीसे त्ति अत्र साधुशब्दोऽध्याह्रियते'
अर्थात् यहां साधु शब्द का अध्याहार करना चाहिए। स्वगृह श्रमणमिश्र का स्वगृहपाषण्डिमिश्र में अन्तर्भाव हो जाता है
अत: उसका अलग से निर्देश नहीं किया गया है (मवृ प. ११५)। ५. ग्रंथकार ने इस गाथा में मिश्रजात और अध्यवपूरक का भेद स्पष्ट किया है। मिश्रजात में यावदर्थिक आदि के लिए प्रारंभ
में ही अधिक पकाया जाता है और अध्यवपूरक में बाद में तंडुल आदि का अधिक परिमाण किया जाता है (मवृ प.
११५, ११६)। ६. स्वगृहयावदर्थिकमिश्र अध्यवपूरक विशोधि कोटि के अन्तर्गत आता है। ७. स्वगृहपाषंडिमिश्र तथा स्वगृहसाधुमिश्र में स्थाली से उतना भाग पृथक करने पर या पाषंडियों को देने पर भी शेष आहार
कल्पनीय नहीं होता (मवृ प. ११६)।
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पिंडनियुक्ति
१८८/१. यावदर्थिक अध्यवपूरक में जितना अधिक पकाया गया है, उसे अलग करने पर या उस पात्र से बाहर निकालने पर शेष आहार साधु के लिए कल्पनीय है। यदि कण आदि की गणना के बिना अंदाज से उतना आहार कार्पटिकों को दे दिया जाए तो शेष आहार साधु के लिए कल्पनीय होता है। १८९. सोलह भेद वाले उद्गम दोष के दो प्रकार हैं- पहला विशोधिकोटिक और दूसरा है अविशोधिकोटिक। १९०. आधाकर्म, औद्देशिक के अन्तिम तीन भेद, पूति', मिश्रजात, बादरप्राभृतिका, अध्यवपूरक के अन्तिम दो भेद-स्वगृहपाषंडिमिश्र तथा स्वगृहसाधुमिश्र-ये अविशोधि कोटि उद्गम दोष हैं। १९१. उद्गमदोष रूप अविशोधिकोटिक आहार के अवयव से स्पृष्ट, लेप अथवा अलेप से युक्त पात्र, जो तीन कल्पों से परिमार्जित नहीं है, उसमें आहार लेना पूतिदोष दुष्ट आहार है। इसी प्रकार काजिक, अवश्रावण, चाउलोदक से संस्पृष्ट पात्र या आहार भी पूतिदोष दुष्ट होता है।" १९२. शेष उद्गमदोष विशोधिकोटिक होते हैं। शुद्ध भक्त-पान के.साथ यदि विशोधिकोटिक उद्गम का भक्त-पान मिल जाए तो उसका यथाशक्ति परित्याग कर देना चाहिए। यदि मिश्रित भक्त-पान अलक्षित हो, द्रव के साथ मिल गया हो तो पूरे भक्त-पान का परिष्ठापन कर देना चाहिए। आहार अलग करने पर भी भक्त-पान के कुछ सूक्ष्म अवयव पात्र में लगे हों तो भी उस अकृतकल्प' पात्र में दूसरा भक्त-पान लेना कल्प्य है। १९२/१. विवेक-परित्याग के चार प्रकार हैं-द्रव्यविवेक, क्षेत्रविवेक, कालविवेक तथा भावविवेक। जिस द्रव्य का परित्याग किया जाता है, वह द्रव्यविवेक है। जिस क्षेत्र में परित्याग किया जाता है, वह क्षेत्रविवेक है। दोष दुष्ट आहार को जानकर तत्काल परित्याग कर दिया जाता है, वह कालविवेक है। जो मुनि अशठ-राग-द्वेष रहित होकर दोषदुष्ट आहार आदि को देखकर उसका परित्याग कर देता है, वह भावविवेक है।
१. पूति दोष में आहारपूति का समावेश होता है (पिंप्र टी प. ४९)। २. लेप का अर्थ-तक्र, दूध आदि तरल पदार्थ से युक्त भक्त। ३. अलेप-वल्ल, चने आदि से संस्पृष्ट भक्त। भाष्यकार इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं कि जैसे लोक-व्यवहार में शुष्क
अशचि पर भी भाजन या वस्तु को रखने पर उसे धोया जाता है, वैसे ही अलेप आधाकर्मिक वल्ल, चणक आदि का स्पर्श होने मात्र से पात्र का कल्पत्रय से शोधन आवश्यक है। जब अलेपकृद् का ग्रहण होने पर भी कल्पत्रय अनिवार्य है तो फिर
तक्र आदि लेपयुक्त पदार्थ का तो कहना ही क्या? (पिभा २८, २९)। ४. इस गाथा की व्याख्या में तीन भाष्य गाथाएं (पिभा २८-३०) हैं। गाथा के उत्तरार्ध को स्पष्ट करते हुए टीकाकार कहते हैं कि कुछ आचार्यों की यह मान्यता है कि जो साधु के निमित्त आहार बनाया जाता है, वही आधाकर्म होता है। शेष अवश्रावण (मांड), काञ्जिक आदि पूति दोष से दुष्ट नहीं होते लेकिन यह मान्यता सही नहीं है। नियुक्तिकार का आशय है कि साधु के लिए बनाए गए ओदन से यदि काञिक, अवश्रावण आदि बनाया जाता है तो वह उसका अवयव
होने से आधाकर्म है अत: काञ्जिक, अवश्रावण और चाउलोदग आदि से संस्पृष्ट आहार पूति दोष युक्त है (मवृ प. ११७)। ५. कृतकल्प या कल्पत्रय की व्याख्या हेतु देखें गा. ११७/३ का टिप्पण।
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अनुवाद
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१९२/२. शुष्क और आर्द्र-इन दो प्रकार की वस्तुओं के सदृशपात अथवा असदृशपात से चतुर्भगी होती है; जैसे
• शुष्क में शुष्क। • शुष्क में आई। • आर्द्र में शुष्क तथा • आर्द्र में आर्द्र। इनमें दो भंगों (प्रथम और चतुर्थ) में तुल्य निपात तथा दो भंगों (द्वितीय और
तृतीय) में अतुल्य निपात है।' १९२/३,४. प्रथम भंग में शुष्क द्रव्य में शुष्क द्रव्य गिर जाने पर उसको सरलता से निकाल कर दूर किया
जा सकता है। दूसरे भंग में शुष्क द्रव्य में तीमनादि (विशोधिकोटिक दोष वाला) मिल गया, तब उसमें कांजी आदि द्रव मिलाकर पात्र को टेढ़ा कर पात्र मुख पर हाथ देकर उसमें से द्रव अलग कर दिया जाता है। तीसरे भंग में शुद्ध आर्द्र तीमन आदि में अशुद्ध शुष्क द्रव्य गिर गया तो उसमें हाथ डालकर जितना निकालना संभव हो सके, उतना निकाल दिया जाता है फिर तीमन आदि कल्पनीय होता है। चतुर्थ भंग में आर्द्र में आई गिर जाने पर, शुद्ध आई द्रव्य में अशुद्ध आई द्रव्य मिश्रित हो जाने पर,
वह द्रव्य यदि दुर्लभ हो तो अशुद्ध द्रव्य निकालकर शेष का परिभोग करना कल्पनीय है। १९२/५. मुनि यदि उस द्रव्य के बिना निर्वाह कर सके तो समस्त द्रव्य का परित्याग कर दे। निर्वाह न कर सकने की स्थिति में ऊपर वर्णित चतुगी का सहारा ले। इन भंगों का सहारा लेने वाला अशठ मुनि शुद्धि को प्राप्त होता है और मायावी मुनि इनमें बंधता है। १९२/६. कोटीकरण दो प्रकार का है-उद्गमकोटि तथा विशोधिकोटि । उद्गमकोटि के छ:२ प्रकार तथा विशोधिकोटि के अनेक प्रकार हैं। १९२/७. कोटिकरण नव प्रकार का, अठारह प्रकार का, सत्तावीस प्रकार का, चौपन प्रकार का, नब्बे प्रकार का तथा दो सौ सत्तर प्रकार का होता है। १. गाथा में 'सुक्कोल्ल सरिसपाए' शब्द से तुल्यनिपात तथा 'असरिसपाए' शब्द से अतुल्य निपात को प्रकट किया गया है
(मवृ प. ११८)। २. उद्गमकोटि के छह प्रकार हेतु देखें गा. १९० का अनुवाद। ३. स्वयं हनन करना, करवाना तथा अनुमोदन करना, स्वयं पकाना, पकवाना तथा पकाने का अनुमोदन करना, स्वयं क्रय
करना, करवाना तथा उसका अनुमोदन करना-इन नौ भेदों में आद्य छह भेद अविशोधि कोटि के अन्तर्गत हैं और अंतिम तीन विशोधि कोटि में है। इसको कोई राग या द्वेष से सेवन करता है अत: ९ से दो का गुणा करने पर अठारह भेद होते हैं। मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति-इन तीन से ९ का गुणा करने पर २७ तथा राग-द्वेष का इनके साथ गुणा करने पर ५४ भेद होते हैं तथा मूल ९ भेदों का दशविध श्रमण धर्म से गुणा करने पर ९० भेद होते हैं । ९० का ज्ञान, दर्शन और चारित्र से गुणा करने पर २७० भेद होते हैं (विस्तार हेतु देखें मवृ प.११९, १२०)।
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पिंडनियुक्ति
१९३. उद्गम के सोलह दोष गृहस्थ से समुत्थित जानने चाहिए तथा उत्पादन के दोष साधु से समुत्थित जानने चाहिए। १९४. उत्पादना चार प्रकार ही होती है-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। द्रव्य-उत्पादना के तीन प्रकार तथा भाव-उत्पादना के सोलह प्रकार हैं।' १९४/१. औपयाचितक रूप से केश, रोम युक्त पुरुष, घोड़े या बीज के द्वारा पुत्र, अश्व एवं वृक्ष-वल्लि आदि का उत्पादन सचित्त द्रव्य उत्पादना है। १९४/२. कनक, रजत आदि यथेष्ट धातुओं से इच्छानुरूप (आभूषण आदि) की उत्पत्ति अचित्तद्रव्यउत्पादना है। दास, दासी आदि को वेतन आदि देकर आत्मीय बनाना मिश्रद्रव्यउत्पादना है। १९४/३. भावउत्पादना के दो प्रकार हैं-प्रशस्तभावउत्पादना तथा अप्रशस्तभावउत्पादना। क्रोध आदि से युक्त धात्रीत्व आदि की उत्पादना अप्रशस्तभावउत्पादना है तथा ज्ञान आदि की उत्पादना प्रशस्तभावउत्पादना
१०. लोभ
१९५, १९६. उत्पादना के सोलह दोष हैं१. धात्री
९. माया २. दूती ३. निमित्त
११. पूर्व संस्तव, पश्चात् संस्तव ४. आजीविका
१२. विद्या ५. वनीपक
१३. मंत्र ६. चिकित्सा
१४. चूर्ण ७. क्रोध
१५. योग ८. मान
१६. मूलकर्म १९७. धात्री के पांच प्रकार हैं
१. क्षीरधात्री - स्तनपान कराने वाली। २. मज्जनधात्री - स्नान कराने वाली। ३. मंडनधात्री – बालक का मंडन-विभूषा करने वाली।
१. भाव-उत्पादन के धात्री, दूती आदि १६ भेद हैं, देखें गा. १९५, १९६ का अनुवाद। २. किसी व्यक्ति के किसी भी उपाय से पुत्र न होने पर देवता की मनौती-औपयाचितक रूप से ऋतुकाल में लोमश पुरुष द्वारा
संयोग कराकर पुत्र आदि की उत्पत्ति करना सचित्त द्रव्य उत्पादना है। इसी प्रकार भाड़ा देकर अन्य व्यक्ति के घोड़े का अपनी घोड़ी से संयोग कराकर घोड़ा आदि पैदा करना तथा बीजारोपण करके पानी के सिंचन से वृक्ष आदि पैदा करना सचित्त द्रव्य उत्पादना है (म प. १२०)।
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अनुवाद
बालक को क्रीड़ा कराने वाली । बालक को गोद में रखने वाली ।
प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं--करने वाली तथा कराने वाली ।
४. क्रीड़नधात्री ५. अंकधात्री
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१९८. धात्री शब्द की व्युत्पत्ति
बालक को धारण करती है, वह धात्री है।
·
जो बालक का पोषण करती है, वह धात्री है।
• बालक जिसको पीते हैं (जिसका स्तनपान करते हैं), वह धात्री है ।
प्राचीन काल में अपने ऐश्वर्य के अनुसार धनाढ्य व्यक्ति पांच प्रकार की धात्रियों की नियुक्ति करते थे।
१९८/१,२. (भिक्षार्थ गया मुनि बालक को रोते हुए देखकर कहता है - ) यह बालक अभी दूध पर आधृत है अतः दूध न मिलने पर रो रहा है। भिक्षाभिलाषी मुझको भिक्षा देकर इसको दूध पिलाओ अथवा ऐसा कहे इसको दूध पिलाकर फिर मुझे भिक्षा दो अथवा मुझे भिक्षा नहीं चाहिए, मैं पुनः भिक्षार्थ आ जाऊंगा। अथवा जो बालक अपमानित नहीं होता है, वह मतिमान्, अरोगी और दीर्घायु वाला होता है । अथवा ऐसा कहे कि संसार में पुत्र का मुख देखना दुर्लभ होता है। तुम इसे दूध पिलाओ अन्यथा मैं इसे दूध दूंगा ।
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१९८/३. साधु के इस प्रकार कहने पर यदि गृहस्वामिनी भद्र है - धर्माभिमुखी है तो वह आधाकर्म जन्य हिंसा आदि करेगी और यदि वह प्रान्त है-धर्म के अभिमुख नहीं है तो उसके मन में प्रद्वेष उत्पन्न हो सकता है। यदि कर्मोदय से वह बालक ग्लान- रोगी हो जाए तो प्रवचन की अवमानना होती है। लोग मुनि को चाटुकारी मानकर उसकी निन्दा करते हैं अथवा गृहस्वामी के मन में साधु के शील के प्रति आशंका पैदा होती है।
१९८/४-६. धात्रीकरण का दूसरा विकल्प यह है । भिक्षार्थ घर में जाने पर श्रद्धालु स्त्री को धृतिरहित देखकर साधु ने पूछा- 'तुम्हारे दुःख का क्या कारण है ?' उसने कहा- 'जो दुःख में सहायक होता है, उसे कुछ कहा जाता है।' मुनि के पूछने पर उसने कहा- 'आज मेरा धात्रीत्व छीन लिया गया है।' मुनि बोला'मैं नव नियुक्त धात्री की वय, स्तनों की स्थूलता तथा शरीर की कृशता आदि के बारे में नहीं जानता हूं।' सारी बात पूछकर मुनि उस धनाढ्य के यहां जाकर बालक को देखकर बोला- 'लगता है यह कुल अभीअभी ही ऊंचा उठा है अर्थात् सम्पन्न बना है क्योंकि यदि परम्परागत सम्पन्न होता तो परम्परागत धात्री भी कुशल होती। अर्थात् तुम्हारे पूर्वजों को धात्री विषयक ज्ञान नहीं था इसीलिए ऐसी-वैसी धात्री नियुक्त की हुई है। जो कुछ बालक की कुशलता है, वह प्राक्तन पुण्य का ही प्रभाव है, ऐसा मैं बालक को देखकर सूचित कर रहा हूं।
१९८/७. स्थविरा दुर्बल क्षीर वाली होती है, अत्यधिक स्थूल स्तन वाली का दूध पीने से बालक का नाक
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पिंडनियुक्ति
चपटा हो जाता है और उसको दूध पीने में कठिनाई होती है, कृश धात्री कम क्षीर वाली होती है। कूर्पर स्तन वाली धात्री का स्तनपान करने से बालक सूचीमुख वाला अर्थात् लम्बे मुख वाला हो जाता है। १९८/८. अभिनव धात्री जिस वर्ण से उत्कट होती है, मुनि उसकी गर्दा करता है और परानी धात्री जिस वर्ण वाली होती है, उसको वह अतिशय प्रशस्त बताता है। यदि समान वर्ण वाली होती है तो पहले वाली को अत्यन्त प्रशस्त वर्ण वाली तथा दूसरी अभिनव धात्री को दुर्वर्ण वाली बताता है। (मुनि से इस प्रकार सुनकर यदि गृहस्वामी नई धात्री को मुक्त कर पुनः पुरानी धात्री को रखता है तो यह कथन धात्री-दोष समापन्न होता है।) १९८/९. धात्री पद से मुक्त करने पर वह अभिनव धात्री प्रद्वेष युक्त हो सकती है, वह साधु पर गलत अभियोग भी लगा सकती है कि यह साधु उद्भ्रामक-जार है। पुरानी धात्री सोचती है कि अभिनवधात्री की भांति कभी यह मेरे जीवन में भी विघ्न उपस्थित कर सकता है अत: वह साधु के लिए विष आदि का प्रयोग कर सकती है। दूसरी भी विष आदि का प्रयोग कर सकती है। १९८/१०. इसी प्रकार सुत के लिए माता के समान शेष मज्जनधात्रियों आदि के विषय में स्वयं करने
और करवाने के संदर्भ में समझना चाहिए। धनाढ्य घरों से मज्जनधात्री आदि को निकालने पर प्रद्वेष आदि पूर्वोक्त सारे दोष समझने चाहिए। १९८/११. (मुनि घर में प्रविष्ट होकर गृहस्वामिनी से कहता है-) 'यह बालक भूमि पर लुट रहा है इसलिए धूल से खरंटित है। इसको स्नान कराओ अथवा मैं करवाऊं।' वह मुनि मज्जनधात्री के दोष बताते हुए कहता है-'बालक को अत्यधिक पानी से स्नान कराने से वह 'जलभीरु' हो जाता है, निर्बलदृष्टि वाला हो जाता है अथवा रक्ताक्ष हो जाता है।' १९८/१२. मज्जनधात्री बालक की तैल से मालिश करके हाथों से संबाधन करती है तथा फिर पिष्टि आदि द्रव्यों से उद्वर्तन करके उसे स्नान कराती है। वह बालक के शरीर को शुचीभूत कर मंडनधात्री को सौंप देती है। १९८/१३. (भिक्षा के लिए गया हुआ मुनि घर में आभूषण रहित बालक को देखकर गृहस्वामिनी से कहता है-) 'तुम इषुक'-तिलक आदि आभरणों से इस बालक को मंडित करो। यदि तुम ऐसा नहीं कर सकती तो मैं इसको विभूषित करता हूं।' (वह अभिनव नियोजित मंडनधात्री के दोष बताता हुआ कहता है-) 'देखो, इस धात्री ने हाथ अथवा गले में पहनने योग्य आभरणों को पैरों में पहनाया है।' १९८/१४. यह क्रीड़नधात्री उच्च स्वर वाली है इसलिए बालक 'छुन्नमुख' क्लीबमुख वाला होगा अथवा यह धात्री मृदुवाणी वाली है इसलिए बालक अव्यक्त बोलने वाला होगा अथवा वह श्राविका को प्रभावित
१. मवृ प. १२४; इषुकाकारमाभरणम् अन्ये तिलकमित्याहुः- इषुक के आकार का आभरण, कुछ आचार्य इसे तिलक भी
कहते हैं।
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अनुवाद
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करने के लिए स्वयं बालक के साथ संवाद आदि द्वारा क्रीड़ा करता है अथवा कराता है। १९८/१५. स्थूल क्रीड़नधात्री से बालक विकटपाद-दोनों पैरों में बहुत अंतराल वाला हो जाता है। भग्न कटि अथवा शुष्क कटि वाली धात्री की गोद में बालक कष्ट का अनुभव करता है। मांसरहित तथा कर्कश हाथ वाली धात्री के पास रहने पर बालक भीरु होता है। १९९. कोल्लकेर नगर में संगम स्थविर स्थिरवास कर रहे थे। उनका शिष्य दत्त ग्रामानुग्राम विहार करता था। आचार्य ने शिष्य को धात्री पिंड दिलवाया। देवयोग से आचार्य की अंगुलि प्रज्वलित हो गई। २००, २०१. दूती के दो प्रकार हैं-स्वग्राम तथा परग्राम। प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं-प्रकट और छन्न (गुप्त)। जो स्पष्ट रूप से यह कहती है कि वह तेरी माता है, वह तेरा पिता है, वह प्रकट दूती है और जो संदेश को गुप्त वचन से कहती है, वह छन्न है। छन्न दूती के दो भेद हैं-लोकोत्तर तथा दूसरा उभयपक्षअर्थात् लौकिक और लोकोत्तर दोनों। २०१/१. मुनि भिक्षा आदि के लिए जाते हुए जननी आदि का संदेश ले जाता है कि तुम्हारी माता ने ऐसा कहा है, तुम्हारे पिता ने ऐसा कहा है। (यह प्रकट दूतीत्व है।) २०१/२. दूतीत्व गर्हित होता है, यह सोचकर वह दूसरे मुनि के प्रत्यय के लिए दूसरे प्रकार से कहता है कि तुम्हारी पुत्री अकोविद है, परंपरा से अनजान है, उसने मुझे कहा कि मेरी मां को यह संदेश दे देना। (यह प्रच्छन्न दूतीत्व है।) २०१/३. माता या पिता को यह कह देना कि तुम्हारा विवक्षित कार्य वैसे ही संपन्न हो गया है अथवा तुम जैसा चाहोगे वैसे ही करूंगी, यह उभयपक्ष (लौकिक और लोकोत्तर) प्रच्छन्न दूतीत्व है। २०२, २०३. दो गांवों के बीच वैर था। मुनि जिस गांव में रुके, वहां की शय्यातरी उनकी पुत्री थी। (उसने अपनी पुत्री को मुनि के साथ धाटी-दस्युदल के आगमन का संदेश भेजा) ज्ञात होने पर दस्यु-दल के साथ युद्ध करते हुए शय्यातरी के पति, पुत्र और जामाता का वध हो गया। लोगों में यह अपवाद फैल गया कि धाटी की सूचना किसने दी? पुत्री ने कहा-"जामाता, पुत्र और पति को मारने वाले मेरे पिता ने यह सूचना दी है।" २०४. निमित्त त्रिकाल विषयक होता है, इसके छह भेदों में जो दोष होते हैं, उनमें वर्तमानकाल विषयक निमित्त कथन तत्क्षण परघातकारी होता है, इसका यह उदाहरण है। २०५. नैमित्तिक ने अनुकम्पा करके गृहस्वामिनी को चिरकाल से गए पति के आगमन के बारे में बताया।
१. भाष्यकार ने दो गाथाओं (पिभा ३१, ३२) में इस कथा का विस्तार किया है, कथा के विस्तार हेतु देखें परि.३ कथा सं. २६ । २. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. २७ । ३. निमित्त के छह प्रकार ये हैं-१. लाभ २. अलाभ ३. सुख ४. दुःख ५. जीवन और ६. मरण।
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(पति के द्वारा कारण पूछने पर पत्नी ने कहा ) - ' नैमित्तिक ने आपके आगमन की बात पहले ही बता दी थी ।' पति ने रुष्ट होकर नैमित्तिक से पूछा - 'इस घोड़ी के पेट में क्या है ?" "
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२०६. आजीवना के पांच प्रकार हैं- जाति, कुल, गण, कर्म और शिल्प । प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं- सूचा से कहना अर्थात् विशेष शब्दों से कहना अथवा असूचा - स्फुट वचनों से कहना ।
२०७. जाति और कुल के विषय में विशेष विवरण है। मल्ल आदि के समूह को गण तथा कृषि आदि को कर्म' कहा जाता है। शिल्प है तुनना, सीना आदि । अप्रीति उत्पादक कर्म और प्रीति उत्पादक शिल्प' कहलाता है।
२०७/१. ब्राह्मण पुत्र द्वारा सही रूप से होम आदि क्रिया करते देखकर मुनि यह जान लेता है कि यह ब्राह्मण पुत्र है अथवा यह गुरुकुल में रहा हुआ है अथवा (मुनि उसके पिता से कहता है कि तुम्हारा पुत्र) आचार्य के गुणों को सूचित करता है ।
२०७/२. (मुनि अपनी जाति प्रकट करने के लिए ब्राह्मण-पिता के सामने कहता है ) – तुम्हारे पुत्र ने होम आदि क्रिया सम्यग् या असम्यग् रूप से संपादित की है। असम्यग् क्रिया के तीन रूप हैं- न्यून, अधिक तथा विपरीत । सम्यग् क्रिया के ये घटक हैं-समिधा - यज्ञ की लकड़ी, मंत्र, आहुति, स्थान, याग- यज्ञ, काल, घोष आदि । (यह सुनकर ब्राह्मण जान लेता है कि मुनि भी ब्राह्मण जाति का है, यह जाति से उपजीवना है ।)
२०७/३. जाति की भांति ही उग्रकुल' आदि की उपजीवना के बारे में जानना चाहिए। गण में मंडल' - प्रवेश आदि का ज्ञान होता है। युद्ध-प्रवेश में देवकुल दर्शन', प्रतिमल्ल के आह्वान हेतु वैसी ही भाषा का कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. २८, इस कथा की व्याख्या में भाष्य की दो गाथाएं (पिभा ३३, ३४) हैं। २. मवृ प. १२९; मातुः समुत्था जातिः - मातृपक्ष से उत्पन्न जाति कहलाती है।
१.
३.
मवृ प. १२९; पितृसमुत्थं कुलम् - पितृपक्ष से उत्पन्न कुल कहलाता है।
४,५. कृषि आदि को कर्म तथा बुनाई, सिलाई आदि को शिल्प कहा जाता है अथवा अप्रीति, अरुचि पैदा करने वाला कर्म
तथा प्रीति उत्पन्न करने वाला अर्थात् मन को आकृष्ट करने वाला शिल्प कहलाता है। टीकाकार मलयगिरि ने मतान्तर प्रस्तुत करते हुए कहा है कि अनाचार्य के द्वारा उपदिष्ट कर्म तथा आचार्य द्वारा उपदिष्ट शिल्प कहलाता है (मवृप. १२९, निभा ४४१२, चू पृ. ४१२ ) ।
टीकाकार इस गाथा की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि इन सूचनाओं से मुनि अपनी जाति को प्रकट कर देता है कि वह ब्राह्मण है (मवृप. १२९ ) ।
उग्रकुल में प्रविष्ट मुनि पुत्र को आरक्षक कर्म में नियुक्त देखकर कहता है कि लगता है तुम्हारा पुत्र पदाति सेना के नियोजन में कुशल है। इस बात को सुनकर पिता जान लेता है कि यह साधु उग्र कुल में उत्पन्न है। यह सूचा के द्वारा स्वकुल का प्रकाशन है। जब वह स्पष्ट वचनों में अपने कुल को प्रकट करता है कि मैं उग्र या भोग कुल का हूं तो यह असूचा के द्वारा कुल को प्रकट करना है (मवृ प. १२९ ) ।
मवृ प.१२९; इहाकरवलके प्रविष्टस्यैकस्य मल्लस्य यल्लभ्यं भूखण्डं तन्मण्डलम् - मण्डल - एक मल्ल के लिए जो लभ्य भूखण्ड है, वह मंडल कहलाता है।
६.
७.
८.
९. मवृ प. १३० ; देवकुलदर्शनं युद्धप्रवेशे चामुण्डाप्रतिमाप्रणमनम् - युद्ध के लिए प्रस्थान करते समय चामुण्डा देवी की प्रतिमा को प्रणाम किया जाता था ।
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अनुवाद
प्रयोग तथा दंड आदि क्रिया को देखकर गृहस्थ के पुत्र की प्रशंसा करना अथवा जानना कि यह मल्ल है, यह गण के आधार पर उपजीवना है।
२०७/४. कर्म अथवा शिल्प विषयक कर्ता के प्रयोजन के निमित्त एकत्रित अनेक वस्तुओं को देखकर यह सम्यग् है अथवा असम्यग्, ऐसा अपने कौशल से जताना अथवा स्पष्ट रूप से कहना कर्म और शिल्प की उपजीवना है।
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२०८. वनीपक के पांच प्रकार हैं – श्रमण, माहण, कृपण, अतिथि तथा श्वान। 'वनु याचने' धातु से यह शब्द बना है । स्वयं को श्रमण आदि का भक्त बतलाकर याचना करने वाला वनीपक होता है।
२०८/१. जिसकी मां मर गई हो ऐसे बछड़े के लिए ग्वाला अन्य गाय की खोज करता है, वैसे ही आहार आदि के लोभ से जो श्रमण, माहण, कृपण, अतिथि अथवा श्वान के भक्तों के सामने स्वयं को उनका भक्त दिखाकर याचना करता है, वह वनीपक है।
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२०९. श्रमण के पांच प्रकार हैं-निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गैरुक तथा आजीवक। भोजन देते समय कोई मुनि आहार आदि के लोभ से स्वयं को शाक्य आदि का भक्त बताता है, यह उसकी वनीपकता है ।
२०९/१. ये शाक्य भिक्षु भित्ति चित्र की भांति अनासक्त रूप से भोजन करते हैं। ये परम कारुणिक एवं दानरुचि हैं। कामगर्दभ-मैथुन में अत्यंत आसक्त इन ब्राह्मणों को दिया हुआ भी नष्ट नहीं होता तो भला शाक्य आदि भिक्षुओं को दिया हुआ व्यर्थ कैसे होगा ?
२१०. शाक्य आदि की प्रशंसा से मिथ्यात्व का स्थिरीकरण होता है, उद्गम आदि दोषों का समाचरण होता है, जिससे आहार की आसक्ति से उनके गच्छ में समाविष्ट होने की संभावना रहती है। लोगों में वह अवर्णवाद होता है कि ये साधु चाटुकारी हैं, इन्होंने कभी दान नहीं दिया है अथवा शाक्य आदि के भक्त यदि द्वेषी हैं तो यह कह देते हैं कि यहां फिर मत आना ।
२१०/१. (मुनि ब्राह्मण-भक्तों के समक्ष ब्राह्मणों की प्रशंसा रूप वनीपकत्व करते हुए कहता है - ) लोकोपकारी भूमिदेव - ब्राह्मणों को दिया हुआ दान बहुत फलदायी होता है। ब्राह्मण बंधु- अर्थात् जातिमात्र ब्राह्मण को दिया गया दान भी बहुत फल वाला होता है तो भला षट्कर्म में निरत ब्राह्मण को दान देने से होने वाले फल की तो बात ही क्या है ?
१. मवृ प. १३०; दण्डादिका धरणिपातच्छुप्ताङ्कयुद्धप्रभृतयः - धरती पर गिराकर सोए हुए मल्ल की छाती पर बैठकर युद्ध आदि करना दण्ड कहलाता है।
२. द्र. ठाणं ५/२०० ।
३. मनुस्मृति (१०/७५) में ब्राह्मणों के योग्य षट्कर्म ये हैं
अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा । दानं प्रतिग्रहश्चैव षट्कर्माण्यग्रजन्मनः ॥
ब्राह्मण की आजीविका से संबंधित षट्कर्म इस प्रकार हैं
उञ्छं प्रतिग्रहो भिक्षा, वाणिज्यं पशुपालनम् । कृषिकर्म तथा चेति, षट्कर्माण्यग्रजन्मनः ॥
योग से संबंधित षट्कर्म इस प्रकार हैं- १. धौति २. वस्ति ३ नेती ४. नौली ५ त्राटक ६. कपालभाति ।
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२१०/२. यह लोक पूजाहार्य-पूजितपूजक है। जो व्यक्ति कृपण, दुःखी, अबन्धु, रोगग्रस्त तथा लूलेलंगड़े को अनाकांक्षा से दान देता है, वह दानपताका का हरण करता है अर्थात् दान की पताका को अपने हाथ में ले लेता है। (कृपण-भक्तों के सम्मुख ऐसा कहना कृपण आदि की वनीपकता है।) २१०/३. प्रायः लोग अपने उपकारी, परिचित तथा आश्रितों को दान देते हैं परन्तु जो व्यक्ति मार्ग खिन्न अतिथि को दान देता है, वही वास्तव में दान है। (अतिथि-भक्तों के सम्मुख ऐसा कहना अतिथि वनीपकत्व है।) २१०/४. गाय, बैल आदि को तृण आदि का आहार सुलभ होता है परन्तु छिच्छिक्कार से तिरस्कृत कुत्तों को आहार-प्राप्ति सुलभ नहीं होती। २१०/५. ये श्वान कैलाश पर्वत के देव विशेष हैं। पृथ्वी पर ये यक्षरूप में विचरण करते हैं। इनकी पूजा हितकारी और अपूजा अहितकारी होती है। (श्वान-भक्तों के समक्ष ऐसा कहना श्वान वनीपकत्व है।) २११. इस मुनि ने मेरा भाव जान लिया है कि लोक में ब्राह्मण आदि प्रणामार्ह हैं। उपर्युक्त प्रत्येक विषय के वनीपकत्व में भद्रक और प्रान्त आदि दोष होते हैं। (यदि व्यक्ति भद्रक होता है तो वह प्रशंसावचन सुनकर मुनि को आधाकर्म से प्रतिलाभित करता है और यदि वह प्रान्त होता है तो मुनि को घर से बाहर निकाल देता है।) २१२. इसी प्रकार श्वान के ग्रहण से 'काक' आदि भी गृहीत हो जाते हैं। जो जहां (काक आदि की पूजा में) प्रसक्त होता है, वह वहां पूछे जाने पर या बिना पूछे ही उसकी प्रशंसा के द्वारा स्वयं को उसके भक्त रूप में प्रस्तुत करता है। २१३. 'पात्र या अपात्र को दिया हुआ दान व्यर्थ नहीं होता'-ऐसा कहना भी दोषयुक्त है तो भला अपात्रदान की प्रशंसा करना महान् दोषप्रद है। २१४. गृहस्थ के द्वारा पूछने पर साधु के द्वारा तीन प्रकार की चिकित्सा होती है
• मैं वैद्य नहीं हूं। (इस वाक्य से वह समझ जाता है कि उसे वैद्य के पास जाना चाहिए।) • स्वयं के रोगोपशान्ति की क्रिया कहता है।
• अथवा वैद्य बनकर स्वयं चिकित्सा करता है। २१४/१. भिक्षार्थ जाने पर रोगी मुनि से रोग-निवारण के लिए पूछता है। मुनि कहता है-'क्या मैं वैद्य हूं?' इस अर्थापत्ति से जानकर रोगी को यह बोध हो जाता है कि उसे वैद्य के पास जाना चाहिए। यह चिकित्सा का प्रथम प्रकार है। २१४/२. रोगी के पूछने पर मुनि कहता है- 'मैं भी इस दुःख अथवा रोग से ग्रस्त था। अमुक औषधि से मैं रोगमुक्त हो गया। हम मुनि सहसा समुत्पन्न रोग का निवारण तेले आदि की तपस्या से करते हैं। यह दूसरे प्रकार की चिकित्सा है।
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अनुवाद
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२१४/३. आगंतुक अथवा धातुक्षोभज रोग के समुत्पन्न होने पर मुनि जो क्रिया करता है, वह यह हैपहले पेट का संशोधन करता है फिर पित्त आदि का उपशमन करता है फिर रोग के कारण का परिहार करता है। (यह तीसरे प्रकार की चिकित्सा है।) २१५. चिकित्सा-क्रिया में असंयम योगों का सतत प्रवर्तन होता है क्योंकि गृहस्थ तप्त लोहे के गोले के समान होता है। (वह यावज्जीवन षड्जीवनिकाय के घात में प्रवर्तित होता है अत: उसकी चिकित्सा सतत असंयमयोगों का कारण बनती है)। इस प्रकरण में दुर्बल व्याघ्र का दृष्टान्त जानना चाहिए। यदि चिकित्सा करने पर भी रोग अत्युग्र हो जाता है तो गृहस्थ उसका निग्रह करता है, जिससे प्रवचन की निंदा होती है। २१६. क्रोधपिंड दृष्टान्त का नगर हस्तकल्प, मानपिंड दृष्टान्त का नगर गिरिपुष्पित, मायापिंड दृष्टान्त का नगर राजगृह तथा लोभपिंड दृष्टान्त का नगर चंपानगरी है। घेवर, सेवई, मोदक तथा केशरिया मोदक-ये चारों वस्तुएं क्रमशः क्रोध आदि की उत्पत्ति के कारण हैं। २१७. जो भोजन मुनि की विद्या और तप के प्रभाव से, राजकुल की प्रियता से अथवा शारीरिक बल के प्रभाव से प्राप्त होता है, वह क्रोधपिंड है। २१८. दूसरों को दान देते हुए देखकर अथवा स्वयं याचना करते हुए दान प्राप्त न होने पर साधु के कुपित होने पर गृहस्थ यह सोचकर दान देता है कि मुनि का कुपित होना शुभ नहीं होता, वह क्रोधपिंड है। अथवा क्रोध का फल मरण आदि शाप देना होता है, इस चिन्तन से जो दिया जाता है, वह भी क्रोधपिंड है। २१८/१. मृतकभक्त में आहार न मिलने पर मुनि कुपित होकर यह कहकर आगे चला गया कि दूसरे महीने में दान देना। (दूसरे महीने और तीसरे महीने भी उस घर में किसी की मृत्यु होने पर मृतकभोज हुआ।) तीसरी बार स्थविर द्वारपाल ने गृहस्वामी को सारी बात कही। उसने क्षमा मांगकर मुनि को दान दिया। (यह क्रोधपिण्ड का उदाहरण है)। २१९. जो मुनि दूसरे के द्वारा उत्साहित किए जाने पर अथवा लब्धि और प्रशंसा वचनों को सुनकर गर्वित बनकर अथवा दूसरे के द्वारा अपमानित होकर पिंड की एषणा करता है, वह मानपिंड है। २१९/१, २. सेवई बनाने के उत्सव में साधुओं के समूह में यह स्वर उभरा कि आज प्रात:काल कौन साधु सेवई लाएगा? एक क्षुल्लक मुनि बोला-'मैं लाऊंगा।' मुनियों ने कहा-'बिना गुड़ और घी के अपर्याप्त मात्रा में प्राप्त सेवई से हमारा प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा।''जैसी तुम चाहोगे, वैसी सेवई लाऊंगा'यह कहकर मुनि भिक्षार्थ बाहर निकल गया। २१९/३. भिक्षा मांगने पर गृहस्वामिनी ने मुनि को अपमानित करके सेवई देने का प्रतिषेध कर दिया।
१. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. २९। २. मूलाचार (गा. ४५४) में मान, माया और लोभ से सम्बन्धित नगरों के नामों में अंतर है। मान से सम्बन्धित वेन्नातट, माया
से सम्बन्धित वाराणसी तथा लोभ से सम्बन्धित राशियान नगर का उल्लेख है। मूलाचार में खाद्यपदार्थों के नाम का निर्देश नहीं है। ३. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३. कथा सं. ३०।
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मुनि ने गृहस्वामिनी को कहा-'मैं यह सेवई अवश्य प्राप्त करूंगा।' गृहस्वामिनी बोली-'यदि तुम सेवई प्राप्त करोगे तो मैं मानूंगी कि तुमने मेरी नासिकापुट में प्रस्रवण किया है।' २१९/४. 'यह किसका घर है?' यह पूछकर मुनि परिषद् के बीच गया। उसने पूछा-'अमुक व्यक्ति कौन है?' लोगों ने कहा-'उस व्यक्ति से तुम्हें क्या प्रयोजन है ? हमसे याचना करो, वह बहुत कंजूस है, तुम्हें कुछ भी नहीं देगा।' २१९/५. मुनि ने कहा-'यदि वह छह महिलाप्रधान पुरुषों में कोई नहीं होगा तो वह देगा। मैं परिषद् के मध्य उससे याचना करूंगा।' २१९/६. लोगों के पूछने पर मुनि ने छह अधम पुरुषों के नाम बताए-श्वेताङ्गुलि' २. बकोड्डायक' ३. किंकर ४. स्नायक' ५. गृध्रइवरिखी ६. हदज्ञ।" २१९/७. उस व्यक्ति ने कहा-'तुम मांगो मैं ऐसा व्यक्ति नहीं हूं।' मुनि ने कहा-'मैं पहले तुम्हारे घर गया था लेकिन तुम्हारी पत्नी ने निषेध कर दिया।' पति ने पत्नी को माले पर चढ़ने का आदेश देकर कहा-'तुम ऊपर से गुड़ उतारो, मैं ब्राह्मणों को भोजन कराऊंगा।' पत्नी निःश्रेणी से ऊपर चढ़ गई। २१९/८. गृहस्वामी ने निःश्रेणी वहां से हटा दी और मुनि को पर्याप्त सेवई का दान दिया। भार्या ने यह सब देख लिया। उसने उच्च स्वरों में कहा-'इसको मत दो, इसको मत दो।' मुनि ने नाक में अंगुलि डालकर उसको यह जता दिया कि मैंने तुम्हारे नाक में प्रस्रवण कर दिया है। ऐसा करने से पति-पत्नी के बीच प्रद्वेष पैदा होता है, कभी अपमान से आत्मघात भी हो सकता है तथा प्रवचन की अवहेलना होती है। २१९/९, १०. राजगृह नगरी में धर्मरुचि आचार्य का छोटा शिष्य मुनि आषाढ़भूति था। एक बार वह भिक्षार्थ राज-नट के घर में प्रविष्ट हुआ। वहां उसे भिक्षा में बहुमूल्य लड्डु प्राप्त हुआ। उसने सोचा यह आचार्य के लिए होगा, पुनः उसने काने मुनि का रूप बनाकर मोदक प्राप्त करके सोचा कि यह उपाध्याय को देना होगा। पुनः उसने कुब्ज मुनि का रूप बनाकर तीसरा मोदक प्राप्त किया और सोचा कि यह संघाटक-साधु को देना होगा। अंत में उसने कुष्ठी साधु का रूप बनाकर चौथा मोदक प्राप्त किया। नट ने रूप-परिवर्तन का दृश्य देखा। वह उसे प्रतिदिन निमंत्रित करके पर्याप्त मोदक का दान देने लगा।
१. टीकाकार ने इन छह नामों की व्याख्या संक्षिप्त कथानकों के माध्यम से की है। २. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ३१ । ३. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ३२। ४. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ३३। ५. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ३४। ६. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ३५ । ७. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ३६ । ८. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ३७।
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२१९/११. उसने दोनों पुत्रियों को कहा- 'दान और स्नेह से इनको वश में करना है। एक दिन एकान्त में उन्होंने मुनि का मन आकृष्ट कर लिया। आषाढ़भूति गुरु के पास गया और सारी बात कहकर. मुनि लिंग-रजोहरण को छोड़ दिया। उसने नट-कन्याओं से विवाह कर लिया। (नट ने पुत्रियों से कहा-यह गुरु की सतत स्मृति करता रहता है अतः) यह उत्तम प्रकृति का है। २१९/१२. राजगृह में राजा द्वारा एक दिन बिना महिलाओं (नटनियों) के नाटक का आदेश हुआ। वे दोनों नटकन्याएं मदोन्मत्त होकर घर के ऊपरी मंजिल में जाकर सो गईं। २१९/१३. व्याघात उपस्थित होने के कारण नाटक नहीं हुआ। लौटने पर आषाढ़भूति दोनों पत्नियों को निर्वस्त्र और मदोन्मत्त देखकर विरक्त हो गया। उसे संबोधि प्राप्त हो गई। नट ने इंगित से जान लिया कि
आषाढ़भूति विरक्त हो गया है । आजीविका सम्यक् चले, उतना धन एकत्रित करने के लिए उसने राष्ट्रपाल नामक नाटक की रचना की। २१९/१४. नाटक में इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न भरत को आदर्शगृह में कैवल्य का आलोक प्राप्त हुआ, यह दृश्य दिखाया गया। लोगों ने हार आदि फेंके। उपहारों को ग्रहण कर नटकन्याओं को देकर आषाढ़भूति पुनः दीक्षा के लिए लौटने लगा। राजा ने बाधित करके रोकना चाहा लेकिन वह नहीं लौटा। २१९/१५. (वही नाटक कुसुमपुर नगर में खेला गया)। उसे देखकर ५०० क्षत्रिय प्रवजित हुए। (इस नाटक से यह पृथ्वी क्षत्रिय रहित हो जाएगी यह देखकर) उस नाटक को जला दिया गया। रोगी, दीर्घतपस्वी, अतिथि और स्थविर के लिए आपवादिक रूप से मायापिण्ड का ग्रहण भी विहित है। २२०. 'आज मैं अमुक द्रव्य (मोदक आदि) ही ग्रहण करूंगा'-इस बुद्धि के कारण वह सहज प्राप्त होने वाले अन्य द्रव्य को ग्रहण नहीं करता, यह लोभपिंड है। अथवा स्निग्ध पदार्थ को भद्रकरस युक्त जानकर उसको प्रचुर मात्रा में ग्रहण करना भी लोभपिंड है। २२०/१,२. चम्पा नगरी में मोदकोत्सव के अवसर पर मुनि ने संकल्प लिया कि मैं भिक्षा में सिंहकेशरक मोदक ग्रहण करूंगा। अन्य पदार्थों का वह प्रतिषेध करने लगा। धर्मलाभ के स्थान पर वह सिंहकेशरक कहने लगा। श्राद्ध के घर आधी रात्रि में उसने सिंहकेशरक का उच्चारण किया। श्रावक ने मोदकों से पात्र भर दिया। श्रावक ने पूछा-'पुरिमार्ध का काल आ गया क्या?' मुनि ने उपयोग लगाया। (आकाश में तारे देखकर) मुनि का मन शान्त हो गया। मुनि ने कहा-"तुमने मुझे समय पर सही प्रेरणा दी।" मुनि ने मोदकों का परिष्ठापन किया। प्रायश्चित्त करते हुए उसे केवलज्ञान हो गया। २२१. संस्तव के दो प्रकार हैं-संबंधिसंस्तव तथा वचनसंस्तव अथवा श्लाघा-संस्तव। प्रत्येक के दोदो भेद हैं-~-पूर्वसंस्तव तथा पश्चात्संस्तव।
१. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ३८। २. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ३९ ।
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२२२. माता-पिता आदि का संस्तव पूर्वसंस्तव है तथा श्वसुर-सास आदि का संस्तव पश्चात्संस्तव है। साधु गृहस्थों के साथ पूर्व अथवा पश्चात्संस्तव करता है। २२२/१. भिक्षार्थ गया हुआ मुनि अपनी वय तथा गृहिणी की वय जानकर तदनुरूप संबंध स्थापित करते हुए कहता है कि मेरी माता ऐसी ही थी अथवा मेरी बहिन, बेटी या पौत्री भी ऐसी ही थी। २२२/२. भिक्षार्थ प्रविष्ट मुनि स्त्री को देखकर अधृतिपूर्वक अश्रुविमोचन करते हुए कहता है-'मेरी माता तुम्हारे जैसी थी।' वह स्त्री मुनि के मुख में स्तन प्रक्षेप करती है, जिससे दोनों के मध्य स्नेह-सम्बन्ध हो जाता है। वह अपनी विधवा पुत्रवधू का दान भी कर सकती है। २२३. पश्चात्संस्तव के दोष ये हैं-सास अपनी विधवा पुत्री का दान कर सकती है। मेरी भार्या ऐसी ही थी' ऐसा कहने पर पति मुनि का सद्य: घात कर सकता है अथवा स्त्री द्वारा भार्यावत् आचरण करने पर (चित्त-विक्षोभ से) मुनि का व्रतभंग भी हो सकता है। २२४. गृहिणी यह सोच सकती है कि यह मुनि मायावी है, चापलूस है, जननी, भार्या आदि कहकर हमारा तिरस्कार कर रहा है। ऐसा सोचकर प्रान्त बुद्धि से वह मुनि को घर से बाहर निकाल सकती है। यदि घर वाले भद्रक होते हैं तो वे साधु से प्रतिबद्ध हो जाते हैं। २२५. दाता द्वारा भक्तपान देने से पहले ही जो मुनि उसके सद्-असद् गुणों की प्रशंसा करता है, वह वचन संबंधी पूर्वसंस्तव होता है। २२५/१. मुनि कहता है-"यह वह है, जिसके गुण दसों दिशाओं में निर्बन्ध घूमते हैं। इतने दिन तुम्हारे बारे में हम ऐसा सुनते थे, आज प्रत्यक्ष तुमको देखा है।" २२६. दाता द्वारा भक्तपान देने पर मुनि उसके सद्-असद् गुणों की प्रशंसा करता है, वह पश्चात्संस्तव कहलाता है। २२६/१. तुम्हारे गुण यथार्थ रूप में सर्वत्र प्रचलित हैं। तुम्हें देखकर मेरे चक्षु विमल हो गए। पहले मुझे तुम्हारे गुणों के बारे में शंका थी, अब तुम्हें देखकर मेरा मन निःशंक हो गया है। २२७. विद्या और मंत्र की प्ररूपणा में विद्या के विषय में भिक्षु-उपासक का तथा मंत्र के विषय में मुरुंड राजा की शिरोवेदना का दृष्टान्त है। २२७/१,२. साधु एकत्रित होकर संलाप करने लगे-'भिक्षु-उपासक अत्यन्त प्रान्त है, कंजूस है। वह साधु को कुछ नहीं देता।' (एक साधु बोला)-'यदि आप लोगों की इच्छा हो तो मैं उससे घृत, गुड़
और वस्त्र आदि दिलवा सकता हूं।' वह मुनि वहां गया और घर को विद्या और मंत्र से अभिमंत्रित कर दिया। उसने साधु से पूछा-'आपको क्या दूं?' साधु ने कहा-'घृत, गुड़ तथा वस्त्र आदि।' दान देने पर मुनि ने विद्या का प्रतिसंहरण कर लिया। स्वभावस्थ होने पर भिक्षु-उपासक ने पूछा-'किसने मेरी
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वस्तुएं चुराई और किसके द्वारा मैं ठगा गया हूं ?"
२२८. विद्या से अभिमंत्रित वह व्यक्ति अथवा अन्य कोई व्यक्ति स्तम्भन आदि प्रतिविद्या से मुनि का अनिष्ट कर सकता है। लोगों में यह अपवाद होता है कि ये मुनि पापजीवी, मायावी तथा कार्मणकारी हैं। इस अपवाद से उनका राजपुरुषों द्वारा निग्रह अथवा अनिष्ट भी हो सकता है।
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२२८/१. जैसे-जैसे पादलिप्त आचार्य ने जानु पर प्रदेशिनी अंगुलि को घुमाया, वैसे-वैसे मुरुंड राजा की शीर्ष - वेदना समाप्त हो गई।
२२९. (मंत्र का प्रयोग करने के निम्न दोष हैं -) मंत्र से अभिमंत्रित वह व्यक्ति अथवा अन्य कोई व्यक्ति प्रतिमंत्र से साधु को स्तम्भित कर सकता है। (लोगों में यह अपवाद होता है कि) ये साधु पापजीवी, मायावी और कार्मणकारी हैं। संघ-प्रभावना के लिए आपवादिक स्थिति में मंत्र का प्रयोग हो सकता है।
२३०. चूर्ण के प्रयोग से अन्तर्धान होने के विषय में चाणक्य का योग विषयक पादलेपन में समितआचार्य का, मूलकर्म के विषय में युवती का विवाह तथा गर्भाधान और गर्भपरिशाटन में दो रानियों के उदाहरण हैं ।
२३१. मंत्र और विद्या के संदर्भ में जो दोष बतलाए गए हैं, वे ही दोष वशीकरण आदि चूर्ण में जानने चाहिए। एक मुनि द्वारा कृत चूर्ण-प्रयोग अनेक मुनियों के प्रति प्रद्वेष उत्पन्न कर देता है तथा उनका नाश भी कर सकता है।
२३१/१. सौभाग्यकर-दुर्भाग्यकर योग दो-दो प्रकार के हैं - आहार्य तथा अनाहार्य । आहार्य के दो प्रकार हैं- आघर्ष तथा धूपवास । अनाहार्य है - पादप्रलेपन आदि ।
२३१ / २. कृष्णा और वेन्ना नदी के मध्य (ब्रह्म नामक ) द्वीप में पांच सौ तापस रहते थे। पर्व दिनों में कुलपति पाद-लेप करके कृष्णा नदी को पार करता था। लोग उसका सत्कार करते थे ।
२३१/३. श्रावकों के समक्ष लोग निंदा करके कहते कि तुम्हारे गुरु में शक्ति नहीं है। समितसूरि ने बताया
१. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ४० ।
२. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ४१ ।
३. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ४२ । क्षुल्लक द्वय एवं चाणक्य की कथा का विस्तार भाष्यकार ने तीन गाथाओं (पिभा ३५-३७) में किया है।
४. जो पानी आदि के साथ पीए जाते हैं, वे आहार्य योग हैं। इनके दो प्रकार है- आघर्ष अर्थात् पानी आदि के साथ घिसकर पीया जाने वाला द्रव्य तथा धूपवास - सुगंधित द्रव्यों की धूप। चूर्ण और वास दोनों ही क्षोद रूप में होते हैं। टीकाकार इनका भेद स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि सामान्य द्रव्यों से निष्पन्न शुष्क अथवा आर्द्र क्षोद 'चूर्ण' कहलाता है। सुगन्धित द्रव्यों से निष्पन्न अत्यंत सूक्ष्म रूप में पीसा हुआ क्षोद 'वास' कहलाता है (मवृ प. १४३) ।
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कि वह तापस माया से पाद-लेप करके नदी पार करता है। श्रावकों ने प्रयत्न करके तापस को घर पर आमंत्रित किया और कहा कि पाद-प्रक्षालन न करने से अविनय होगा अतः तापस के चरण धो दिए। २३१/४. भिक्षा लेकर जब वह जाने लगा तो लेप न होने के कारण नदी में डूबने लगा। आचार्यसमित ने जब नदी को पार किया तो नदी के दोनों किनारे मिल गए। यह देखकर पांच सौ तापस विस्मित हो गए। कुलपति सहित सभी तापस उनके पास प्रव्रजित हो गए। वह समूह ब्रह्मशाखा के रूप में प्रसिद्ध हुआ। २३१/५. किसी के कौमार्य को क्षत करना, इसके विपरीत किसी दूसरे में योनि का निवेशन करना अर्थात् अक्षत करके उसे भोग भोगने योग्य बना देना मूलकर्म है। २३१/६. विवाह का समय निकट होने पर कन्या के भिन्नयोनिका होने से माता को चिन्ता हो गई। मुनि को सारी बात बताई। मुनि ने आचमन और पानौषध दिया, जिससे वह अक्षतयोनिका होकर यावज्जीवन मैथुन-सेवन में समर्थ हो गई। २३१/७. पति-पत्नी में कलह हो गया। श्राविका को अधृति हो गई कि पति सौत को लाएगा। उसने जंघापरिजित नामक मुनि को सारी बात बताई। मुनि ने योनि-भेद की औषधि दी। भिन्नयोनिका जानकर पति ने विवाह का प्रतिषेध कर दिया। (इस बात की अवगति होने पर) उसे महान् प्रद्वेष हो सकता है तथा इससे प्रवचन की अवहेलना भी होती है। २३१/८. विवाह न होने के कारण वयःप्राप्त पुत्री कहीं तुम्हारे कुल को कलंकित न कर दे। लोक में यह श्रुति है कि कुमारी ऋतुमती कन्या के रक्त के जितने बिन्दु गिरते हैं, उतनी ही बार उसकी मां नरक में जाती
२३१/९. (साधु गृहलक्ष्मी से बोला)-तुम्हारा पुत्र कुल, गोत्र और कीर्ति का कारण है। यह युवा हो गया है, इसका विवाह क्यों नहीं कर देती? बाद में भी तो इसका विवाह करना ही होगा। विवाह किए बिना कहीं यह (स्वैरिणी स्त्री के साथ) भाग न जाए। २३१/१०. मुनि ने रानी से पूछा-'तुम्हें अधृति-चिंता किस बात की है ?' उसने कहा-'मेरी सौत गर्भवती है।' मुनि बोला-'तुम अधृति मत करो, मैं तुम्हारा भी गर्भाधान करवा दूंगा।' २३१/११. रानी ने कहा-'यदि मेरे पुत्र हो भी जाएगा तो कनिष्ठ होने के कारण वह युवराज नहीं बनेगा, सौत का पुत्र युवराज बनेगा।' सौत के गर्भपात हेतु मुनि ने औषधि दी। यह बात ज्ञात होने पर मुनि के प्रति प्रद्वेष हो सकता है तथा शरीर का नाश भी हो सकता है।
१. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ४३। २. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३. कथा सं.४४। ३. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ४५ । ४. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं.४६ ।
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२३२. संखडि-विवाह-भोज आदि करने पर पृथ्वी आदि जीव-निकायों की विराधना होती है। एक ओर अक्षतयोनित्व करने से काम की प्रवृत्ति होती है। (गर्भाधान से पुत्रोत्पत्ति होती है।) दूसरी ओर गर्भपात करने से प्रवचन की अवमानना होती है। क्षतयोनिकत्व करने से यावज्जीवन भोगान्तराय होता है। २३३. इस प्रकार उद्गम-उत्पादना के दोषों से विशुद्ध तथा ग्रहण-विशोधि से विशुद्ध गवेषित पिंड का ग्रहण होता है।
२३४. उत्पादना के दोष साधु से संबंधित जानने चाहिए। ग्रहणैषणा के दोष आत्मसमुत्थित तथा परसमुत्थित होते हैं, उनको मैं आगे कहूंगा। २३५. ग्रहणैषणा के दो दोष-शंकित तथा भावतः अपरिणत-ये दोष साधु-समुत्थित होते हैं। शेष आठ दोष नियमतः गृहस्थों से उत्पन्न जानने चाहिए। २३६. ग्रहणैषणा के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। द्रव्य ग्रहणैषणा में 'वानरयूथ' का दृष्टान्त है तथा भाव ग्रहणैषणा के दस प्रकार हैं। २३६/१. सड़े एवं पीले पत्तों वाले वनखंड को देखकर वानर यूथपति ने स्थान की खोज हेतु वानरयुगलों को अन्यत्र भेजा। यूथपति अपने यूथ के साथ वहां गया। २३६/२. यूथपति ने वनखंड का चारों ओर से स्वयं अवलोकन किया। घूमते हुए वह उस द्रह के पास पहुंचा। २३६/३. उसने द्रह में उतरते हुए श्वापदों के पदचिह्न देखे लेकिन उससे निकलते हुए पदचिह्न उसे दिखाई नहीं दिए। उसने यूथ को सावधान किया-'तुम लोग तट पर स्थित होकर नाले से पानी पीओ, यह द्रह निरुपद्रव नहीं है। (यह द्रव्य ग्रहणैषणा का उदाहरण है।) २३७. एषणा के दस दोष होते हैं
१. शंकित ६.दायक २. म्रक्षित ७. उन्मिश्र ३. निक्षिप्त ८. अपरिणत ४. पिहित ९. लिप्त
५. संहत १०. छर्दित। २३८. शंकित के चार विकल्प हैं
१. ग्रहण तथा भोजन – दोनों में शंकित। २. ग्रहण में शंकित - भोजन में नहीं।
१. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ४७।
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३. भोजन में शंकित
• ग्रहण में नहीं ।
४. न ग्रहण में शंकित और न भोजन में शंकित ।
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ग्रहण और भोजन - दोनों में अथवा किसी एक में शंकित होने पर शंकित दोष से संबद्ध हो जाता है। सोलह - उद्गम दोष तथा नौ एषणा के दोष - इन पच्चीस दोषों में से जिस दोष से शंकित होता है, वह उसी दोष से सम्बद्ध होता है।' चौथा विकल्प ( ग्रहण और भोजन - दोनों में शंकित न होना) शुद्ध है।
पिंडि
२३८/१. उद्गम के आधाकर्म आदि सोलह दोष तथा एषणा के प्रक्षित आदि नौ दोष- ये पच्चीस दोष हैं। चरम विकल्प शुद्ध है।
२३८/२. उद्गम के सोलह दोष तथा शंका को छोड़कर एषणा के ९ दोष- ये पच्चीस दोष निःशंकित रूप से कहने चाहिए।
२३९. छद्मस्थ, श्रुतज्ञानी, प्रयत्नपूर्वक उपयुक्त और ऋजुक मुनि पच्चीस दोषों में से किसी एक दोष को प्राप्त होने पर भी श्रुतज्ञान के प्रमाण से शुद्ध है ।
२३९/१. सामान्यतः श्रुतोपयुक्त (पिंडनिर्युक्ति आदि में) मुनि यद्यपि अशुद्ध आहार ग्रहण करता है, फिर भी उसको केवलज्ञानी खाता है अन्यथा श्रुतज्ञान अप्रमाण हो जाता है।
२४०. सूत्र का अप्रामाण्य होने पर चारित्र का अभाव हो जाएगा, चारित्र का अभाव होने पर मोक्ष का अभाव हो जाएगा और मोक्ष के अभाव में दीक्षा की प्रवृत्ति निरर्थक हो जाएगी ।
२४० / १. घर में दी जाने वाली प्रचुर भिक्षा सामग्री को देखकर भी मुनि लज्जावश पूछताछ करने में समर्थ नहीं होता। वह शंकित होकर भिक्षा ग्रहण करता है और शंकित अवस्था में ही उसका उपभोग करता है। ( यह प्रथम विकल्प है ।)
२४०/२. मुनि ने शंकित हृदय से भिक्षा ग्रहण की। दूसरे मुनि ने इसका शोधन करते हुए कहा कि यह भोजन प्रकरणवश किसी अतिथि आदि के लिए बनाया हुआ था अथवा यह प्रहेणक- किसी अन्य घर से आई हुई भोजन सामग्री थी । यह सुनकर मुनि ने निःशंकित होकर उस भिक्षा का उपभोग किया। (यह चतुर्भंगी का दूसरा विकल्प है ।)
२४०/३. गुरु के समक्ष उसकी सम्यग् आलोचना करते समय मुनि शंकित होकर सोचता है कि मैंने अमुक घर में प्रचुर भिक्षा प्राप्त की है, अन्य मुनियों ने भी उसी घर से प्रचुर भिक्षा प्राप्त की है अतः यह दोषदुष्ट होनी चाहिए। यह सोचकर वह शंकित अवस्था में उस भिक्षा का उपभोग करता है। (यह चतुर्भंगी का तीसरा विकल्प है ।)
१. उदाहरण स्वरूप यदि आधाकर्म दोष में शंका उत्पन्न हुई है तो उस आहार को ग्रहण करता हुआ और भोगता हुआ मुनि आधाकर्म दोष से सम्बद्ध होता है (मवृ प. १४७) ।
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अनुवाद
२४०/४. ( शिष्य प्रश्न पूछता है - ) यदि शंका दोषकरी है तो शुद्ध भिक्षा के प्रति भी शंका होने पर वह अशुद्ध हो जाएगी तथा अनेषणीय भी निःशंकित रूप में एषणा करने पर निर्दोष हो जाएगी।
२४१. अविशुद्ध परिणाम एकपक्षीय होने के कारण एषणीय को भी अनेषणीय बना देता है। शुद्ध परिणाम ( आगमोक्त विधि से युक्त ) से गवेषणा अनेषणीय को भी एषणीय कर देती है ।"
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२४२. प्रक्षित के दो प्रकार हैं- सचित्त और अचित्त । सचित्त के तीन प्रकार तथा अचित्त के दो प्रकार हैं । २४३. सचित्त म्रक्षित के तीन प्रकार हैं- पृथ्वीकायम्रक्षित, अप्कायम्रक्षित, वनस्पतिकायम्रक्षित । अचित्तम्रक्षित के दो प्रकार हैं-गर्हित तथा अगर्हित। इसमें कल्प्य अकल्प्य की भजना है।
२४३ / १. सचित्तपृथ्वीकाय के दो प्रकार हैं- शुष्क और आर्द्र । शुष्क सरजस्क सचित्तपृथ्वीकाय से अथवा आर्द्र सचित्तपृथ्वीकाय से प्रक्षित हाथ या पात्र सचित्तपृथ्वीकायम्रक्षित होता है। इससे आगे मैं अप्कायम्रक्षित बताऊंगा।
२४३ / २. अप्कायप्रक्षित के चार प्रकार हैं- पुरः कर्म, पश्चात्कर्म, सस्निग्ध तथा उदकार्द्र । उत्कृष्ट रस से युक्त परिक्त तथा अनन्त वनस्पति के श्लक्ष्ण खंडों से खरंटित हाथ या पात्र वनस्पतिकाय प्रक्षित है ।
२४३/३. शेष तीनों काय - तेजस्, वायु तथा त्रस - के सचित्तरूप, मिश्ररूप अथवा आर्द्ररूप प्रक्षित नहीं होता ।
२४४. सचित्त पृथ्वीकाय आदि से म्रक्षित के चार विकल्प हैं
हस्तम्रक्षित तथा पात्र म्रक्षित ।
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• हस्त प्रक्षित, पात्र नहीं ।
• पात्र प्रक्षित, हस्त नहीं ।
• न हस्त प्रक्षित और न पात्र प्रक्षित ।
प्रथम तीन विकल्प प्रतिषिद्ध हैं, चौथा विकल्प अनुज्ञात है।
२४५. अचित्तम्रक्षित भी हस्त और पात्र विषयक पूर्ववत् चार प्रकार का होता है। चारों विकल्पों में ग्रहण भजन है। गर्हितम्रक्षित से युक्त हाथ या पात्र से भिक्षा ग्राह्य तथा गर्हित प्रक्षित का प्रतिषेध है । २४५/ १. जीवों से संसक्त, अगर्हित गोरसद्रव तथा मधु, घृत, तैल, गुड़ आदि से खरंटित हाथ या पात्र से
१. टीकाकार इस गाथा को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि आगमोक्त विधि से शुद्ध गवेषणा से प्राप्त अशुद्ध आहार भी शुद्ध होता है क्योंकि व्यवहार में श्रुतज्ञान ही प्रमाण होता है ( मवृ प. १४८ ) ।
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पिंडनियुक्ति
दी जाने वाली भिक्षा भी वर्ण्य है, इसका कारण है कि मक्षिका, पिपीलिका आदि की हिंसा न हो। २४५/२. लोक में गर्हित मांस, वसा, शोणित तथा आसव (मदिरा) से खरंटित हाथ या पात्र से लेना वर्ण्य है तथा लोक और लोकोत्तर में गर्हित मूत्र और उच्चार से प्रक्षित हाथ या पात्र से लेना भी वर्जित है। २४६. षट्काय आदि पर निक्षिप्त दो प्रकार का है-सचित्त और मिश्र। इनके दो-दो प्रकार हैं-अनन्तर
और परंपर। २४७. पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु, वनस्पति और त्रस-इन सबका आपस में छह प्रकार से निक्षेप संभव है। प्रत्येक का दो प्रकार से निक्षेप होता है-अनंतर और परम्पर। केवल अग्निकाय में पृथ्वीकाय आदि से सात प्रकार का निक्षेप होता है। २४८. सचित्त पृथ्वीकाय पर सचित्त पृथ्वी का निक्षेप इसी प्रकार अप्काय, तेजस्काय, वनस्पतिकाय, वायुकाय तथा त्रसकाय का निक्षेप होता है।। २४९. पृथ्वीकाय की भांति ही शेष जीव-निकायों का भी निक्षेप होता है। इनमें एक-एक विकल्प स्वस्थान तथा शेष पांच परस्थान होते हैं। २५०. इसी प्रकार (सचित्त पर सचित्त के निक्षेप की भांति) मिश्र पृथ्वी पर सचित्त पृथ्वी आदि का निक्षेप, सचेतन पृथ्वी आदि पर मिश्र पृथ्वी आदि का निक्षेप, मिश्रपृथ्वी पर मिश्रपृथ्वी का निक्षेप होता है। सचित्त
और मिश्र दोनों का अचित्त पर निक्षेप होता है। २५१. जिस निक्षेप में सचित्त और मिश्र के आधार पर चतुर्भंगी होती है, उन चारों भंगों-विकल्पों में प्रत्येक और अनन्त वनस्पति के अनन्तर और परंपर निक्षेप में भक्तपान अग्राह्य होता है। २५१/१. अथवा प्रतिपक्ष के आधार पर चतुर्भंगी इस प्रकार होती है
१. सचित्त पर सचित्तमिश्र। ३. सचित्तमिश्र पर अचित्त। २. अचित्त पर सचित्तमिश्र। ४. अचित्त पर अचित्त।
१. मवृ प. १५०; एतच्चोत्कृष्टानुष्ठानं जिनकल्पिकाद्यधिकृत्योक्तमवसेयं, स्थविरकल्पिकास्तु यथाविधि यतनया घृताद्यपि,
गुडादिम्रक्षितमशोकवाद्यपि च गृह्णन्ति-वृत्तिकार का कथन है कि यह निर्देश जिनकल्पिक की दृष्टि से है। स्थविरकल्पी
मुनि यथाविधि घृत, गुड़ आदि से खरंटित हाथों से भिक्षा ग्रहण कर सकते हैं। २. पृथ्वीकाय से संबंधित छह प्रकार के निक्षेप इस प्रकार हैं-१. पृथ्वीकाय का पृथ्वीकाय पर २. पृथ्वीकाय का अपकाय पर
३. पृथ्वीकाय का तेजस्काय पर ४. पृथ्वीकाय का वायुकाय पर ५. पृथ्वीकाय का वनस्पतिकाय पर ६. पृथ्वीकाय का त्रसकाय पर। इसी प्रकार अप्काय आदि के भी छह-छह भेद होते हैं (मवृ प. १५१)। ३. अग्निकाय के सप्त भेद हेतु देखें गाथा २५२ का अनुवाद। ४. पृथ्वीकाय का पृथ्वीकाय पर निक्षेप स्वस्थान निक्षेप है। ५. पृथ्वीकाय पर अप्काय आदि शेष कायों का निक्षेप परस्थान निक्षेप है। ६. विशेष विवरण हेतु देखें मवृ प. १५१।
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अनुवाद
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इनमें प्रथम तीन भंगों में भक्तपान ग्रहण की बात ही नहीं होती। चतुर्थ भंग में भक्तपान ग्रहण करना कल्प्य है। २५१/२. जो कोई अचित्त द्रव्य, सचित्तद्रव्य अथवा मिश्रद्रव्य पर निक्षिप्त होता है, वहां अनंतर अथवा परंपर की मार्गणा होती है। २५१/३. जो अवगाहिम-पक्वान्न आदि पृथ्वी पर आनन्तर्य से स्थापित होता है, वह अनन्तर निक्षिप्त है तथा जो पृथ्वी पर रखे हुए पिठरक आदि पर निक्षिप्त होता है, वह परंपर निक्षिप्त है। नवनीत आदि सचित्त उदक पर निक्षिप्त होता है, वह अनन्तर निक्षिप्त है तथा जो नवनीत आदि पानी में स्थित नाव आदि पर निक्षिप्त होता है, वह परंपर निक्षिप्त है। २५२. अग्नि के सात प्रकार हैं-विध्यात, मुर्मुर, अंगारा, अप्राप्तज्वाला, प्राप्तज्वाला, समज्वाला तथा व्युत्क्रान्तज्वाला। प्रत्येक के दो-दो भेद होते हैं-अनन्तर और परंपर। यंत्र-इक्षुरस को पकाने के लिए प्रयुक्त कटाह आदि जो मिट्टी से अवलिप्त है, उससे यतनापूर्वक बिना नीचे गिराए हुए इक्षुरस लेना कल्पता है। २५२/१. जो अग्नि पहले दिखाई नहीं देती लेकिन बाद में ईंधन डालने पर स्पष्ट दिखाई देती है, वह विध्यात कहलाती है। आपिंगल रंग के अर्धविध्यात अग्निकण मुर्मुर हैं। ज्वाला रहित अग्नि अंगारा कहलाती है। २५२/२. चूल्हे पर स्थित भाजन को अप्राप्त अग्नि अप्राप्तज्वाला कहलाती है। पिठरक का स्पर्श करने वाली अग्नि प्राप्तज्वाला, जो बर्तन के ऊपरी भाग तक स्पर्श करती है, वह समज्वाला तथा जो अग्नि चूल्हे पर चढ़े बर्तन के ऊपर तक पहुंच जाती है, वह व्युत्क्रान्तज्वाला कहलाती है। २५३. पार्श्व में मिट्टी से अवलिप्त विशाल मुख वाली कड़ाही या बर्तन से बिना गिराए हुए इक्षुरस लेना कल्पनीय है लेकिन वह अग्नि पर तत्काल चढ़ाया हुआ अर्थात् अधिक उष्ण नहीं होना चाहिए। २५३/१. गुड़रस से परिणामित अनतिउष्ण जल भी ग्रहण किया जा सकता है। कड़ाह से दीयमान उदक उस कड़ाह के उपरितन भाग (कर्ण) तक घट्टित नहीं होता तो वह कल्पता है तथा घट्टित होने पर अग्नि में गिरे तो वह नहीं कल्पता।
१. विध्यात आदि शब्दों की व्याख्या हेतु देखें २५२/१,२ का अनुवाद एवं मवृ प. १५२। २. टीकाकार इस गाथा की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि बर्तन में चारों ओर मिट्टी के लेप का अर्थ यह है कि इक्षुरस लेते हुए यदि कुछ बिन्दु गिर जाएं तो उसे मिट्टी ही सोख ले, वे बिन्दु चूल्हे के मध्य अग्निकाय पर न गिरें। विशालमुख भाजन का तात्पर्य यह है कि इक्षुरस निकालते समय रस पिठरक के किनारे पर न लगे तथा पिठरक के ऊपर का भाग भग्न न हो (मवृ प. १५३)। ३. जिस कड़ाह में पहले गुड़ पकाया था, उसमें डाला गया जल यदि कुछ ही तप्त हुआ है तो भी वह लिया जा सकता है
क्योंकि कड़ाह में लगे हुए गुडरस के कारण वह जल शीघ्र ही अचित्त हो जाता है (मवृ प. १५३)।
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पिंडनियुक्ति
२५३/२. पार्श्व में मिट्टी से अवलिप्त कड़ाह, अनतिउष्ण इक्षुरस, अपरिशाटि (बिना गिराया जाता) इक्षु रस तथा अघटुंत'-इन चार पदों के आधार पर सोलह विकल्प होते हैं। इनमें प्रथम विकल्प की अनुज्ञा है, शेष की नहीं। २५३/३. (गाथा २५३/२ में जो चार पद बने हैं) इनके भंगों का मान निकालने के लिए (चार) पदों के द्विकों का अभ्यास (गुणन) करना चाहिए। सोलह भंगों की रचना इस प्रकार होगी-(चार-चार पदों १. अघटुंत का तात्पर्य है-वस्तु निकालते समय पिठर के ऊपरी भाग का स्पर्श न करना। २. ग्रंथकार ने पार्वावलिप्त, अनत्युष्ण, अपरिशाटी और अघटुंत-स्पर्श नहीं करना- इन चार पदों के आधार पर १६ भंगों की रचना की है। टीकाकार ने इन भंगों की रचना इस प्रकार की है
१. प्रथम पंक्ति में एकान्तरित लघु गुरु करते हुए सोलह भंग। २. द्वितीय पंक्ति में दो लघु दो गुरु करते हुए सोलह भंग। ३. तृतीय पंक्ति में पहले चार लघु फ़िर चार गुरु, पुनः चार लघु और चार गुरु।
४. चतुर्थ पंक्ति में पहले आठ लघु फिर आठ गुरु। इनकी स्थापना इस प्रकार होगी
ISISISISISISIS IS IIS SIISSIISS 11 SS ।।। Issss ।। ।। ssss
11! IIIII SS SS SS SS चारों पंक्तियों में नीचे से ऊपर चलते हुए बांयी ओर से एक-एक भंग को उठाने से सोलह भंगों की रचना इस प्रकार होगी(१.) ।। ।। (२.) ।।। (३.) |15। (४.) | ISS (५.) । ।। (६.) IS IS (७.) । (८.) Isss (९.)s।।। (१०.)SIS (११.) SISI (१२.)S ISS (१३.)ss || (१४.)SSIS (१५.) sss। (१६.)sssss इनमें सीधी रेखा वाले अंश शुद्ध तथा s आकार वाले अंश अशुद्ध हैं। इन सोलह भंगों में प्रथम भंग अनुज्ञात है। शेष १५ भंग अकल्य्य हैं। चार पदों के आधार पर भंगों का चार्ट इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता हैपाश्र्वावलिप्त
अनत्युष्ण
अपरिशाटी अघट्टितकर्ण lis
पाश्र्वावलिप्त अनत्युष्ण अपरिशाटी घट्टितकर्ण IISI पार्वावलिप्त अनत्युष्ण 'परिशाटी
अघट्टितकर्ण TISS पार्वावलिप्त अनत्युष्ण
परिशाटी घट्टितकर्ण ISI! पार्वावलिप्त अत्युष्ण
अपरिशाटी अघट्टितकर्ण IS IS पाश्र्वावलिप्त
अत्युष्ण
अपरिशाटी घट्टितकर्ण Iss पाश्र्वावलिप्त अत्युष्ण
परिशाटी
अघट्टितकर्ण ISSS पाश्र्वावलिप्त अत्युष्ण परिशाटी
घट्टितकर्ण SI11 अनवलिप्त
अनत्युष्ण अपरिशाटी अघट्टितकर्ण SIIS अनवलिप्त
अनत्युष्ण अपरिशाटी घट्टितकर्ण SISI अनवलिप्त अनत्युष्ण परिशाटी
अघट्टितकर्ण SISS अनवलिप्त अनत्युष्ण परिशाटी
घट्टितकर्ण SSI! अनवलिप्त
अत्युष्ण
अपरिशाटी अघट्टितकर्ण SSIS अनवलिप्त
अत्युष्ण
अपरिशाटी घद्रितकर्ण SSSI अनवलिप्त
अत्युष्ण परिशाटी
अघट्टितकर्ण SSSS अनवलिप्त
अत्युष्ण परिशाटी
घट्टितकर्ण
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अनुवाद
द्विकों को) एकान्तर से लघु-गुरु (शुद्ध और अशुद्ध) द्विगुण - द्विगुण (प्रज्ञापक की अपेक्षा से) बांई ओर से किए जाने पर सोलह भंग इस प्रकार प्राप्त होते हैं-चार शुद्ध पद और चार अशुद्ध पद में से एक-एक द्विक ऊर्ध्व और अधः स्थापित कर गुणन करने पर, प्रथम दो को दो से गुणन करने पर चार हुए, चार को तृतीय द्विक (यानी दो) के गुणन करने पर आठ हुए, आठ को चतुर्थ द्विक (यानी दो) से गुणन करने पर सोलह हुए । '
२५४. अत्युष्ण रस ग्रहण करने से दो प्रकार की विराधना होती है- आत्मविराधना तथा परविराधना । २ पात्र से इक्षुरस आदि का छर्दन होता है, उससे द्रव्य की हानि होती है तथा वह भाजन साधु या गृहस्थ के हाथ से छूटकर टूट सकता है। (अब वायुकाय के अनंतर और परम्पर निक्षिप्त का कथन है ।) वायु द्वारा उत्क्षिप्त पर्पटिका - धान्य का छिलका अनन्तर निक्षिप्त होता है तथा वस्ति पर निक्षिप्त वस्तु परम्पर निक्षिप्त होती है ।
२५५. हरित आदि पर निक्षिप्त अनन्तर निक्षिप्त होता है तथा हरित आदि पर रखे हुए पिठरक आदि में निक्षिप्त मालपुआ आदि परंपर निक्षिप्त होता है। बैल आदि के पीठ पर रखे हुए मालपूए आदि अनन्तर निक्षिप्त हैं तथा वही कुतुप आदि भाजनों में भरकर बैल की पीठ पर लादने से परंपर निक्षिप्त होते हैं । २५६. पिहित के तीन भेद हैं- सचित्त, अचित्त और मिश्र । इनकी तीन चतुर्भंगियां होती हैं। द्वितीय और तृतीय
१. आधुनिक गणित में इसका सूत्र इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है - ४२ = १६ ।
२. अति उष्ण पदार्थ लेने के कारण गर्म पात्र हाथ से छूट सकता है, मुनि के हाथ-पैर जल सकते हैं। वह आत्म-विराधना है । देने वाले दाता के हाथ से वह गर्म भाजन छूट कर उसे जला सकता है, यह परविराधना है ( मवृ प. १५४) ।
३. प्रथम चतुर्भंगी सचित्त और मिश्र पद के संयोग से होती है। दूसरी सचित्त और अचित्त के संयोग से तथा तृतीय चतुर्भंगी मिश्र तथा अचित्त पद के संयोग से होती है। वे चतुर्भंगियां इस प्रकार बनेंगी -
• सचित्त से पिहित सचित्त देय वस्तु ।
• मिश्र से पिहित सचित्त देय वस्तु ।
• सचित्त से पिहित मिश्र देय वस्तु । • मिश्र से पिहित मिश्र देय वस्तु ।
दूसरी चतुर्भंगी
• सचित्त से पिहित सचित्त देय वस्तु । • अचित्त से पिहित सचित्त देय वस्तु ।
• सचित्त से पिहित अचित्त देय वस्तु । • अचित्त से पिहित अचित्त देय वस्तु ।
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तृतीय चतुर्भंगी
• मिश्र से पिहित मिश्र देय वस्तु ।
• मिश्र से पिहित अचित्त देय वस्तु ।
अचित्त से पिहित मिश्र देय वस्तु ।
• अचित्त से पिहित अचित्त देय वस्तु ।
प्रथम चतुर्भंगी में सभी भंगों में आहार ग्रहण करना कल्पनीय नहीं है। द्वितीय और तृतीय चतुभंगी में प्रथम तीन भंगों में कल्पनीय नहीं है लेकिन चरम भंग में भजना है ( मवृ प. १५४) ।
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पिंडनियुक्ति
चतुर्भगियों के प्रथम तीन-तीन विकल्पों में ग्रहण नहीं कल्पता, चतुर्थ विकल्प में ग्रहण की भजना है। २५७. जैसे निक्षिप्त द्वार (गाथा २५१/१) में सचित्त, अचित्त तथा मिश्र के संयोग से विकल्प कहे गए हैं, वैसे ही पिहित में भी जानने चाहिए। केवल द्वितीय और तृतीय चतुर्भंगी के तीसरे भंग में नानात्व है। २५८, २५९. अंगार से धूपित वस्तु अनन्तर पिहित है। अंगार से भृत शराव आदि से पिहित पिठर परंपर पिहित है। अंगार-धूपित आदि में अतिरोहित वायु अनन्तर पिहित है और वही यदि वायु से भरी दृति आदि से पिहित होता है तो वह परंपर पिहित है। वनस्पति के विषय में अतिरोहित फल आदि से पिहित अनन्तर पिहित तथा फलों से भरे छब्बक, पिठरक आदि से ढका हुआ परंपर पिहित है। इसी प्रकार त्रसकाय के विषय में जो कच्छप, कीटिका-पंक्ति आदि से पिहित है, वह अनन्तर पिहित तथा कच्छप, कीटिका आदि से गर्भित पिठरक आदि से पिहित परंपर पिहित है। २५९/१. अचित्त देय वस्तु से पिहित की चतुर्भंगी इस प्रकार है
• भारी वस्तु से पिहित भारी देय वस्तु। • हल्की वस्तु से पिहित भारी देय वस्तु। • भारी वस्तु से पिहित हल्की देय वस्तु । • हल्की वस्तु से पिहित हल्की देय वस्तु।
इनमें प्रथम और तृतीय विकल्प में वस्तु अग्राह्य है तथा द्वितीय और चतुर्थ भंग में ग्राह्य है। २६०. संहत के तीन भेद हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र। संहृत की तीन चतुर्भंगियां होती हैं। प्रारंभ के तीन-तीन भंगों का प्रतिषेध है और चरम भंग की भजना है।' २६१. जैसे निक्षिप्तद्वार में सचित्त, अचित्त और मिश्र पदों के संयोग हैं, उसी प्रकार संहृत द्वार के भी जानने चाहिए। केवल द्वितीय, तृतीय चतुर्भंगी के तीसरे-तीसरे भंग की मार्गणा-विधि में नानात्व है। २६२. जिस मात्रक से दाता दान देता है, उसमें यदि अदेय अशन आदि हो तो उसको भूमि पर या अन्यत्र डालकर अन्न आदि देना संहृत दोष है। २६३, २६३/१. मात्रक में स्थित वस्तु का सचित्त पृथ्वी आदि छहों कायों पर संहरण-छर्दन होता है।
१. विस्तार हेतु देखें मवृ प. १५६।। २. इस गाथा की व्याख्या करते हुए टीकाकार कहते हैं कि गुरु अर्थात् भारी पदार्थ को उठाने में वस्तु हाथ से छूटने पर पैर
आदि के चोट या अंगभंग संभव है। द्वितीय भंग में देय वस्तु गुरु है पर उसे उठाकर देना आवश्यक नहीं, कटोरी आदि से
भी भिक्षा दी जा सकती है अत: दूसरे विकल्प में भिक्षा लेना कल्पनीय है (मवृ प. १५५)। ३. मवृ प. १५६ ; अत्र गाथापर्यन्ततुशब्दसामर्थ्यात्प्रथमचतुर्भङ्गीकायाः सर्वेष्वपि भङ्गेषु प्रतिषेधः- गाथा के अंत में आए 'तु'
शब्द से ग्रंथकार का आशय है कि प्रथम चतुर्भंगी में चारों ही भंगों में आहार-ग्रहण का निषेध है। ४. विस्तार हेतु देखें २५६ गाथा का टिप्पण तथा मवृ प. १५६ ।
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अनुवाद
दोनों प्रकार का संहरण आधार और संह्रियमाण के आधार पर चार भंगों वाला होता है । चतुर्भंगी इस प्रकार हैं—
• शुष्क पर शुष्क ।
शुष्क पर आई ।
आर्द्र पर शुष्क । आर्द्र पर आर्द्र ।
•
·
२६३/२. शुष्क आदि प्रत्येक भंग की स्तोक और बहु के आधार पर चतुर्भंगी होती है, जैसे
·
थोड़े शुष्क पर थोड़ा शुष्क ।
थोड़े शुष्क पर बहु शुष्क ।
•
बहु शुष्क पर थोड़ा शुष्क ।
• बहु शुष्क पर बहु शुष्क ।
•
२६३/३. जिस विकल्प में थोड़े शुष्क पर बहु शुष्क संहत होता है, वह कल्पनीय है । इसके अतिरिक्त शुष्क पर आर्द्र, आर्द्र पर शुष्क या आर्द्र पर आर्द्र- - इन तीन भंगों में आहार अग्राह्य होता है। यदि आदेय वस्तु कम भार वाली है, उस पर लघु भार वाली वस्तु है, उसे अन्यत्र डाल कर दिया जाता है तो वह वस्तु कल्पनीय है ।
२६४. बड़े पात्र को उठाने तथा नीचे रखने में दाता को पीड़ा होती है। लोक में निंदा होती है कि यह मुनि कितना लोलुप है, जो पर - -पीड़ा को नहीं देखता। भारी पात्र को उठाते समय दाता का वध, अंगभंग अथवा शरीर- दाह हो सकता है । दाता के मन में मुनि के प्रति अप्रीति, उस द्रव्य के कारण अन्य देय द्रव्यों का व्यवच्छेद तथा भारी पात्र से वस्तु के बिखरने से षट्काय का वध हो सकता है।
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२६४/१. स्तोक पर स्तोक अथवा बहुत पर स्तोक निक्षिप्त होने पर यदि वस्तु शुष्क पर शुष्क है तो वह वस्तु कल्प्य है। शुष्क पर आर्द्र, आर्द्र पर शुष्क तथा आर्द्र पर आर्द्र निक्षिप्त होने पर वह अनाचीर्ण है । तोक पर बहुत तथा बहुत पर बहुत का संहरण अनाचीर्ण है। इससे पूर्वगाथा (गा. २६४) में उक्त दोष समापन्न होते हैं इसलिए यह अनाचीर्ण है ।
२६५ - २७०. वर्जनीय दायक के चालीस प्रकार हैं
१. बालक - आठ वर्ष की अवस्था से कम ।
२. वृद्ध - साठ या सत्तर वर्ष की अवस्था वाला ।
३. मत्त - मदिरापान किया हुआ ।
४. उन्मत्त - भूत आदि से आविष्ट ।
१. इस चतुर्भंगी को समझने हेतु देखें गा. २५६ का अनुवाद तथा टिप्पण ।
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५. कम्पमान शरीर वाला। ६. ज्वरित-ज्वर रोग से पीड़ित। ७. अन्ध। ८. गलत्कुष्ठरोगी। ९. पादुका पहने हुए। १०. दोनों हाथों में हथकड़ी पहने हुए। ११. पैरों में बेड़ी पहने हुए। १२. हाथ-पैर से विकल। १३. त्रैराशिक-नपुंसक। १४. गर्भवती स्त्री। १५. बालवत्सा स्त्री-स्तन्योपजीवी शिशु वाली। १६. भोजन करती हुई स्त्री। १७. दही आदि मथती हुई स्त्री। १८. चने आदि मूंजती हुई स्त्री। १९. गेहूं आदि दलती हुई स्त्री। २०. ऊखल में तंडुल आदि का कंडन करती हुई स्त्री। २१. शिला पर तिल आदि पीसती हुई स्त्री। २२. रुई पीजती हुई स्त्री। २३. कपास का मर्दन करती हुई स्त्री। २४. सूत कातती हुई स्त्री। २५. रुई की बार-बार छंटनी करती हुई स्त्री। २६. षट्जीवनिकाय से युक्त हाथ वाली स्त्री। २७. भिक्षा देते समय छह जीवनिकायों को भूमि पर डालने वाली स्त्री। २८. उन्हीं छह जीवनिकायों को कुचलती हुई स्त्री। २९. उन्हीं जीवनिकायों का शरीर के अन्य अवयवों से स्पर्श करती हुई स्त्री। ३०. षड्जीवनिकायों का हनन करती हुई स्त्री। ३१. दही आदि से लिप्त हाथ वाली स्त्री। ३२. दही आदि से लिप्त पात्र से देने वाली स्त्री। ३३. बड़े बर्तन से भिक्षा देने वाली स्त्री। ३४. अनेक व्यक्तियों की वस्तु स्वयं देती हुई स्त्री। ३५. चुराई हुई वस्तु देने वाली स्त्री। ३६. प्राभृतिका की स्थापना करने वाली स्त्री।
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३७. अपाययुक्त दात्री। ३८. अन्य साधु के लिए स्थापित वस्तु देने वाली स्त्री। ३९. आभोग---ज्ञान होने पर भी अशुद्ध देने वाली स्त्री।
४०. अनाभोग-अज्ञान से अशुद्ध देने वाली स्त्री। २७१. इन दायकों में से प्रथम पच्चीस व्यक्तियों से ग्रहण की भजना है-ऐसा कुछेक आचार्य मानते हैं। विशेष प्रयोजन से इनसे लिया जा सकता है, अन्यथा नहीं। कुछेक मानते हैं कि २६ से ४० तक के दाता का वर्जन करना चाहिए। बालक आदि (१ से २५ तक के दाता) के हाथ से ग्रहण किया जा सकता है। २७२. (अभिनव श्राविका) बालिका को संदेश देकर खेत में चली गई। साधु ने बालिका से पर्याप्त मात्रा में भिक्षा ग्रहण की। मां के द्वारा आहार मांगने पर बालिका ने कहा-'सब साधु को दे दिया।' इससे प्रवचन की अवहेलना तथा प्रद्वेष पैदा होता है तथा लोग कहते हैं कि ये साधुवेश की विडम्बना करने वाले लुटेरे साधु हैं। २७३. स्थविर के लार गिरती रहती है, उसके हाथ कांपते हैं अतः देय वस्तु हाथ से गिर सकती है अथवा स्थविर गिर सकता है। स्थविर प्रायः घर का स्वामी नहीं होता है अत: वह कोई वस्तु देता है तो गृहस्वामी का साधु के प्रति या स्थविर के प्रति अथवा दोनों के प्रति प्रद्वेष हो सकता है। २७४. मत्त व्यक्ति साधु को आलिंगन कर सकता है, भाजन को तोड़ सकता है। वमन करता हुआ मत्त व्यक्ति साधु अथवा उसके पात्र को खरंटित कर सकता है। ये मुनि अशुचि हैं-ऐसी लोक में गर्दा होती है। उन्मत्त दायक के विषय में भी ये ही दोष होते हैं, केवल उसमें वमन नहीं होता। २७५. कंपित दाता से भिक्षा लेने पर वह देय वस्तु बाहर गिर सकती है, पात्र के चारों ओर गिरने से पात्र खरंटित हो सकता है। इसी प्रकार ज्वरित दाता के भी ये ही दोष हैं। विशेष बात यह है कि ज्वर का संक्रमण भी हो सकता है। लोगों में उड्डाह होता है कि ये साधु ज्वरित व्यक्ति से भी भिक्षा लेते हैं। २७६. अंधे दायक से भिक्षा लेने पर लोगों में गर्दा होती है। अंधा दायक ठोकर खाकर नीचे गिर सकता है, पैरों से षड्जीवनिकाय की घात कर सकता है। उससे देय वस्तु का भाजन टूट सकता है। भिक्षा देते समय देय वस्तु से पात्र को चारों ओर से खरंटित कर सकता है। जिसके शरीर से अत्यंत कोढ़ झर रहा हो, उससे भिक्षा लेने पर उस रोग का संक्रमण हो सकता है। २७७. पादुका पहने हुए दाता से भिक्षा लेने पर वह दाता स्खलित होकर गिर सकता है। हथकड़ी और बेड़ी पहने हुए दायक से भिक्षा लेने से दाता को परिताप होता है तथा अशुचि के कारण लोगों में जुगुप्सा होती
१. कथा के विस्तार हेतु देखें परि.३, कथा सं. ४८। २. देय वस्तु पर लार गिरने पर उसे ग्रहण करने से लोक में निंदा होती है। ३. पादुका पहनकर व्यक्ति मल-मूत्र त्याग करने जाता है, पुनः उसकी सफाई न करने से लोक में जुगुप्सा होती है कि ये साधु
अशुचिभूत व्यक्ति से भी भिक्षा ग्रहण करते हैं (मव प. १६०)।
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है तथा छिन्न हाथ वाले से भिक्षा लेने पर भी अशुचि के कारण लोगों में जुगुप्सा होती है तथा देय वस्तु नीचे गिर सकती है। इसी प्रकार छिन्नपाद वाले दायक से भिक्षा लेने से ये सारे दोष संभव हैं। विशेष बात यह है कि छिन्नपाद वाला दायक भिक्षा देने के लिए चलते समय गिर सकता है, (जिससे सत्त्व-व्याघात होता है)। २७८. नपुंसक दायक से भिक्षा लेने पर आत्मदोष, परदोष तथा उभयदोष होते हैं। उनसे बार-बार भिक्षा ग्रहण करने से अति परिचय होता है, जिससे नपुंसक व्यक्ति या साधु में क्षोभ-वेदोदय उत्पन्न हो सकता है। लोगों में यह जुगुप्सा होती है कि ये साधु भी ऐसे ही नपुंसक हैं। २७९. भिक्षादान के लिए गर्भवती के उठने-बैठने से गर्भ का संचलन होता है। बालवत्सा स्त्री बालक को नीचे रखकर भिक्षा देने जाती है तो उस बालक को मार्जार आदि मांसखंड समझकर उठाकर ले जा सकते हैं, जिससे बालक का विनाश हो सकता है। २८०. भोजन करती हुई स्त्री भिक्षा देने के लिए हाथ धोती है, इससे उदक की विराधना होती है। यदि आचमन नहीं करके जूठे हाथों से दान देती है तो लोक में गर्दा होती है। इसी प्रकार दही को मथती हुई स्त्री के दधि-लिप्त हाथ से भिक्षा लेने से दही में स्थित रस-जीवों का घात होता है। २८१. पेषण, कंडन तथा दलन करती हुई स्त्री के हाथ से भिक्षा लेने पर उदक तथा बीज आदि का संघट्टन होता है। जो स्त्री चने आदि मूंज रही है, उसके हाथ से भिक्षा लेने पर भिक्षादान में समय लगने पर चने आदि जल सकते हैं। जो स्त्री रुई पीज रही हो, कात रही हो अथवा उसका प्रमर्दन कर रही हो, वह भिक्षा देकर पदार्थ से खरंटित हाथों को धो सकती है, जिससे उदक-जीवों की घात होती है। २८२. जिसके हाथ में सजीव लवण, पानी, अग्नि, वायु से भरी हुई दृति, फल, मत्स्य आदि हों, वह षट्कायव्यग्रहस्ता कहलाती है। भिक्षा देने के लिए वह इनको भूमि पर रखती है, पैरों से अथवा शरीर के अन्य अवयवों-हाथ आदि से उनका संघट्टन, सम्मर्दन करती है, उससे भिक्षा लेना वर्जनीय है। २८३. पृथ्वी का खनन करती हुई, सचित्त जल से स्नान करती हुई, सचित्त जल से वस्त्र आदि धोती हुई, वृक्ष आदि को सींचती हुई, (अग्नि को जलाती हुई अथवा सचित्त वायु से भरी हुई वस्ती को इधर-उधर फेंकती हुई), शाक आदि का छेदन करती हुई, शाक आदि के खंडों को आतप में सुखाती हुई, तण्डुल
आदि को साफ करती हुई तथा छठे जीवनिकाय त्रसकाय में तड़फते हुए मत्स्यों का छेदन करती हुई स्त्रियां जीवों की हिंसा करती हैं अत: इनके हाथ से भिक्षा ग्रहण करना नहीं कल्पता।
१. टीकाकार मलयगिरि ने बालवत्सा स्त्री से भिक्षा लेने का एक और दोष बताते हुए कहा है कि साधु को भिक्षा देने से हाथ
आहार से खरंटित हो जाते हैं। आहार से लिप्त शुष्क हाथ कर्कश होते हैं, उससे बालक को उठाने पर बालक को पीड़ा होती हैं (मवृ प. १६१)। २. मूल गाथा में तेजस्काय और वायुकाय आदि का हनन करती हुई स्त्री का उल्लेख नहीं है। यह टीका के आधार पर लिखा
गया है अत: इसे कोष्ठक में रखा है (मत् प. १६१)।
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२८४, कुछ आचार्य षट्कायव्यग्रहस्ता उसको मानते हैं, जो आभूषण रूप में बदर आदि को कानों में पहने हुई हो तथा शिर पर सिद्धार्थक - सरसों के फूल लगाए हुए हो, उसके हाथ से भक्त-पान लेना नहीं
कल्पता ।
२८४/१. अन्य आचार्य मानते हैं कि एषणा के दस दोषों में इसका ग्रहण नहीं हुआ है इसलिए बदर आदि से युक्त दात्री से भक्तपान लेना वर्ज्य नहीं है। इसके उत्तर में कहा गया है कि दायक के ग्रहण से इसका ग्रहण स्वयं ही हो जाता है।
२८५. जिस दात्री के हाथ और पात्र संसक्त - जीव युक्त द्रव्य से लिप्त हैं, वह यदि भिक्षा देती है तो हाथ आदि पर लगे हुए सत्त्वों की विराधना होती है। बड़े बर्तन को टेढ़ा करके देने से वहां संचारिम चींटी, मकोड़े आदि के घात की संभावना रहती है। इसी प्रकार बड़ा बर्तन उठाकर देने में भी ये ही दोष होते हैं ।
२८६. अनेक लोगों की वस्तु को देने वाली दात्री से भिक्षा ग्रहण करने में वे ही दोष हैं, जो पहले अनिसृष्ट द्वार' में बताए गए हैं। कर्मकर या स्नुषा आदि चुराकर वस्तु दे तो ग्रहण, बंधन आदि दोष संभव हैं ।
२८७. प्राभृतिका को बलि आदि के निमित्त स्थापित करके भिक्षा देने में प्रवर्तन आदि दोष होते हैं । अपाय के तीन प्रकार हैं- तिर्यग्, ऊर्ध्व और अधः । जो अन्यतीर्थिकों के लिए अथवा ग्लान आदि के लिए रखा गया हो, उसे साधु ग्रहण न करे ।
२८८. जो दाता अनुकंपा के वशीभूत होकर मुनियों के लिए बनाकर कुछ देता है अथवा कोई जानते हुए भी द्वेषवश मुनियों को आधाकर्म आदि एषणादोष युक्त भक्तपान देता है - वह आभोगदायक है । कोई अजानकारी के कारण अशठभाव से वैसा करता है, वह अनाभोगदायक है, ये दोनों दायक अयोग्य हैं।
२८८/१. बालक यदि केवल भिक्षा देता है तो वहां विचारणा नहीं होती, भिक्षा ली जा सकती है। माता द्वारा संदिष्ट बालक से भी भिक्षा ग्राह्य है। यदि बालक बहुत देता है तो वहां विचारणा होती है, वहां माता आदि की अनुज्ञा से भिक्षा ली जा सकती है।
१. बड़ा बर्तन कभी-कभी प्रयोजन वश ही उठाया जाता है अतः उसके नीचे अनेक जीव एकत्रित हो जाते हैं । उसको टेढ़ा करने एवं उठाकर रखने में उन जीवों के वध की संभावना रहती है तथा दाता को भी पीड़ा होती है ( मवृ प. १६२ ) । २. देखे गाथा १८० का अनुवाद मवृ प. ११४ ।
३. परतीर्थिक कार्यटिक आदि के लिए स्थापित भिक्षा लेने से अदत्तादान का दोष लगता है। साधु ग्लान आदि के निमित्त दिया हुआ आहार ग्लान को ही लाकर दे। यदि वह ग्रहण न करे तो पुनः दात्री को समर्पित करे। यदि दानदात्री कहे कि ग्लान साधु यदि यह भिक्षा ग्रहण नहीं करता है तो आप स्वयं ग्रहण करें, तब वह द्रव्य साधु के लिए कल्प्य होता है ( मवृ प. १६२ ) । ४. इस गाथा की व्याख्या करते हुए टीकाकार कहते हैं कि यदि माता पास में खड़ी हुई आज्ञा दे तो मुनि बालक के हाथ से भिक्षा ग्रहण कर सकता है । बालक यदि भिक्षा देता है तो मुनि पृच्छा करे कि आज प्रभूत भिक्षा देना क्यों चाहते हो ? इस स्थिति में यदि मां आज्ञा दे तो भिक्षा ग्रहण करना कल्पनीय होता है। (मवृ प. १६३ )
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२८८/२. स्थविर यदि गृहस्वामी हो, हाथ कांप रहे हो परन्तु देय वस्तु दूसरे के हाथ में हो अथवा वह दृढ़ शरीर वाला हो तो उसके हाथ से भिक्षा ग्रहण की जा सकती है। जो अव्यक्त रूप से मत्त है, श्राद्ध है, अविह्वल है-परवश नहीं है और दूसरा गृहस्थ वहां नहीं है तो उसके हाथ से भिक्षा ग्रहण की जा सकती है। २८८/३. जो उन्मत्त व्यक्ति पवित्र और भद्रक है, कंपमान शरीर वाले का हाथ यदि दृढ़ है, ज्वरित व्यक्ति का ज्वर शांत हो गया है, अंधा व्यक्ति श्रावक है तथा दूसरे के हाथ में देयवस्तु है अथवा अंधा व्यक्ति दूसरे के सहारे चलकर आया है-इन सबसे देय वस्तु का ग्रहण किया जा सकता है। २८८/४. जो व्यक्ति मंडलप्रसुप्तिकुष्ठ' (वृत्ताकार कोढ़ विशेष) से ग्रस्त है, वहां यदि कोई गृहस्थ न हो तो उससे भिक्षा ली जा सकती है। इसी प्रकार जो पादुकारूढ व्यक्ति स्थिर है, बेड़ी पहना हुआ व्यक्ति यदि सविचार है-चलने-फिरने में समर्थ है तो उसके हाथ से भिक्षा ली जा सकती है। हाथ-पैर से विकल व्यक्ति जो इधर-उधर चलने में असमर्थ है परन्तु बैठा हुआ है, वहां कोई दूसरा गृहस्थ नहीं है तो उसके हाथ से भी भिक्षा ली जा सकती है। हाथों में बेड़ी पहना व्यक्ति भिक्षा देने में समर्थ नहीं होता अत: उसका प्रतिषेध है, वहां भजना नहीं है। यदि छिन्न कर वाला व्यक्ति सागारिक के अभाव में भिक्षा देने में समर्थ है तो उससे भिक्षा लेनी विहित है। २८८/५. यदि नपुंसक अप्रतिसेवी है तो उसके हाथ से भिक्षा ली जा सकती है। नौवें मास वाली गर्भवती स्त्री तथा स्तन्योपजीवी शिशु वाली स्त्री के हाथ से भिक्षा नहीं ली जा सकती है। इसी प्रकार खाती हुई, भूनती हुई तथा दलती हुई स्त्री के हाथ से भिक्षा लेने की भी भजना है। स्त्री ने धान कूटने के लिए मुसल
१. मवृ प. १६३ ; मंडलानि-वृत्ताकारदद्रुविशेषरूपाणि, प्रसूतिः-नखादिविदारणेऽपि चेतनाया असंवित्तिस्तद्रपो यः कष्ठः
रोगविशेष: सोऽस्यास्तीति-वृत्ताकार कोढ विशेष, जिसमें गोल चकत्ते हो जाते हैं, नख आदि से विदारण करने पर भी चेतना की अनुभूति नहीं होती, वह मंडलप्रसुप्तिकुष्ठ है। टीकाकार मलयगिरि ने पसूई-प्रसूति पाठ के आधार पर व्याख्या की है लेकिन व्यवहारभाष्य में पसुत्ति पाठ है। वहां चित्रप्रसुप्ति और मण्डलप्रसुप्ति-ये दो प्रकार के अस्यन्दमान चर्मरोग का उल्लेख मिलता है। चित्रप्रसुप्ति में शरीर में श्वेत, काले आदि विचित्र धब्बे हो जाते हैं तथा मण्डलप्रसुप्ति में गोल चकत्ते हो जाते हैं । कुछ हस्तप्रतियों में भी 'पसूई' पाठ है लेकिन यहां 'पसुत्ति' पाठ होना चाहिए। २. टीकाकार मलयगिरि इस गाथा की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि नवमास वाली गर्भवती स्त्री के हाथ की भिक्षा
स्थविरकल्पी मुनि परिहार करते हैं। इससे कम वाली के हाथ से स्थविरकल्पी भिक्षा ग्रहण कर सकते हैं। वह बालक जो केवल मां के दूध पर ही आधृत है, उसका स्थविरकल्पी परिहार करते हैं। जो बालक बाह्य आहार भी ग्रहण करता है, उसकी मां से स्थविरकल्पी भिक्षा ग्रहण कर सकते हैं। दूसरी बात वह शरीर से भी बड़ा हो जाता है अत: उसे मार्जार आदि
का भय भी नहीं रहता। जिनकल्पी साधु आपन्नसत्वा (गर्भवती) एवं बालवत्सा स्त्री का सर्वथा परिहार करते हैं (मवृ प.१६४)। ३. खाती हुई स्त्री ने यदि मुख में कवल नहीं डाला है तो उसके हाथ से भिक्षा कल्प्य है। भूनती हुई स्त्री यदि सचित्त गेहूं आदि
को कड़ाह में डालकर निकाल चुकी है, दूसरी बार हाथ में गेहूं नहीं लिए हैं, इसी बीच यदि साधु आ जाता है तो उसके हाथ से भिक्षा ग्रहण की जा सकती है। मूंग आदि दलती हुई स्त्री सचित्त मूंग आदि दलकर घट्टी को छोड़ चुकी है, इसी बीच साधु आए तो वह उठकर भिक्षा दे सकती है अथवा वह अचित्त मूंग दल रही है तो उसके हाथ से भिक्षा कल्पनीय है। कंडन करती हुई स्त्री यदि मुशल को ऊपर उठा चुकी है, उस मुशल में यदि कोई बीज नहीं लगा है, इसी बीच साधु के आने पर दोष रहित स्थान में उस मुशल को रखकर भिक्षा दे तो वह ग्राह्य है (मत् प. १६४)।
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अनुवाद
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को उठा लिया, इतने में मुनि आ गए। वह यदि मुसल को किसी दोषरहित उचित स्थान में रखे तो उसके हाथ से भिक्षा ली जा सकती है। २८८/६. पीसने वाली स्त्री यदि पेषण कार्य से निवृत्त हो गई हो अथवा प्रासुक वस्तु पीस रही हो तो उसके हाथ से भिक्षा ली जा सकती है। दही मथने वाली स्त्री के हाथ यदि शंखचूर्ण आदि से असंसक्त हों अथवा कातने वाली स्त्री के हाथ शंखचूर्ण से खरंटित न हों तथा शंखचूर्ण के खरंटित हाथ से कातती हुई भी यदि जल से हाथ न धोए तो इन सबके हाथ से भिक्षा ली जा सकती है। २८८/७. कपास को लोठते समय यदि कपास हाथ में न हो अथवा उठती हुई यदि कपास का संघट्टन न करती हो तो उस स्त्री के हाथ से भिक्षा ग्रहण की जा सकती है। यदि रुई के पिंजन और प्रमर्दन में भी पश्चात्कर्म न हो तो भिक्षा ली जा सकती है। २८८/८. शेष षट्कायव्यग्रहस्ता आदि में प्रतिपक्ष की अर्थात् अपवाद की संभावना नहीं है। प्रतिपक्ष के अभाव में भिक्षा ग्रहण न करने की नियमा है। २८९. उन्मिश्र के तीन प्रकार हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र। उन्मिश्र की तीन चतुर्भंगियां होती हैं। प्रत्येक में आद्य के तीन विकल्प प्रतिषिद्ध हैं, चौथे विकल्प की भजना है। २९०, २९१. संहरण द्वार में पृथ्वीकाय आदि के जो सांयोगिक भंग किए थे, वैसे ही उन्मिश्र दोष में भी होते हैं। उन दोनों में विशेष अंतर यह है-द्रव्य दो प्रकार के होते हैं-दातव्य-साधु को देने योग्य और अदातव्य। दोनों को मिश्रित करके जो देता है, वह उन्मिश्र है। जैसे-ओदन को कुशन-दही आदि से मिश्रित करके देना। संहरण में भाजनस्थ अदेय वस्तु को अन्यत्र संहरण किया जाता है, यही दोनों में भेद है। २९१/१. उन्मिश्र के भी संहरण की भांति चार विकल्प हैं-शुष्क में शुष्क उन्मिश्र आदि । अल्प और बहुत्व तथा आचीर्ण और अनाचीर्ण के भी चार-चार विकल्प संहरण की भांति ही होते हैं।
१. विस्तार हेतु देखें गा. २५६ का टिप्पण। गाथा में आए 'तु' शब्द से यह गम्य है कि प्रथम चतुर्भंगी में चारों विकल्पों में भिक्षा
का प्रतिषेध है। शेष दो चतुर्भगी में प्रथम तीन भंगों में प्रतिषेध है, चरम भंग में भिक्षा-ग्रहण की भजना है। २. संहरण आदि प्रत्येक द्वार के भंगों के आधार पर ४३२ भंग इस प्रकार बनते हैं-सचित्त पृथ्वी का सचित्त पृथ्वीकाय पर
संहरण, सचित्त पृथ्वीकाय का सचित्त अप्काय पर संहरण । इसी प्रकार स्वकाय और परकाय की अपेक्षा ३६ भंग होते हैं। इनके सचित्त, अचित्त और मिश्र पद से प्रत्येक की तीन चतुभंगी होने से १२ भेद होते हैं । १२ का ३६ से गुणा करने पर
४३२ भेद होते हैं इसी प्रकार उन्मिश्र आदि के जानने चाहिए (मवृ प. १६५)। ३. उन्मिश्र की चतुर्भंगी इस प्रकार है
• शुष्क में शुष्क का उन्मिश्र। • शुष्क में आर्द्र का उन्मिश्र। • आर्द्र में शुष्क का उन्मिश्र।
• आर्द्र में आर्द्र का उन्मिश्र। ४. विस्तार हेतु देखें मवृ प. १६५।
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२९२. अपरिणत भी दो प्रकार का है-द्रव्य अपरिणत तथा भाव अपरिणत। प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैंदायकसंबंधी तथा ग्राहकसंबंधी। द्रव्य विषयक अपरिणत षट्काय के आधार पर छह प्रकार का होता है तथा भावविषयक अपरिणत है-भाई आदि। २९३. सचेतन पृथ्वी आदि जब तक सजीव है, तब तक अपरिणत है और व्यपगत जीव होने पर परिणत होती है। यहां दूध-दही का दृष्टान्त है। दूध जब दही बनता है, तब परिणत कहलाता है और दूध दूधभाव में अवस्थित रहने पर अपरिणत कहलाता है। २९४. जो देय वस्तु सामान्यतया दो या अनेक व्यक्तियों की है, उनमें एक की इच्छा है कि मैं मुनि को दूं शेष व्यक्तियों की इच्छा नहीं होती तो वह भावतः अपरिणत है। २९५. भिक्षार्थ गए दो मुनियों में एक मुनि ने देय वस्तु को मन ही मन एषणीय माना, दूसरे मुनि ने एषणीय नहीं माना, वह भी भावतः अपरिणत होने के कारण अग्राह्य है। दातृ विषयक भाव अपरिणत के दो भेद हैं-भ्रातृविषयक तथा स्वामिविषयक। ग्रहीतृविषयक भाव अपरिणत है-साधुविषयक। २९५/१. मुनि सदा अलेपकृद् द्रव्य ही ले क्योंकि लेपकृद् द्रव्य ग्रहण करने से पश्चात्कर्म की संभावना रहती है तथा अलेपकृद् द्रव्य के ग्रहण से रसगृद्धि का प्रसंग भी नहीं आता। यह कहने पर शिष्य कहता है। २९५/२. यदि पश्चात्कर्म आदि दोषों की संभावना से लेपकृद् द्रव्य अग्राह्य है तो फिर मुनि को कभी भोजन करना ही नहीं चाहिए। आचार्य ने कहा-'शिष्य! सतत तपोनुष्ठान करने वाले मुनि के तप, नियम
और संयम की हानि होती है अतः भोजन करना आवश्यक है।' २९५/३. लेपकृद् सदोष है अत: शिष्य कहता है कि मुनि यावज्जीवन भोजन न करे। यदि यावज्जीवन संभव न हो तो छह महीनों तक उपवास कर आचाम्ल का ग्रहण करे। यदि यह भी संभव न हो तो अल्पलेप वाला द्रव्य ग्रहण करे। २९५/४, ५. यदि मुनि सर्वकाल तपस्या न कर सके तो छह महीनों तक निरंतर तपस्या कर पारणक में आचाम्ल करे। यदि छह महीनों तक निरंतर तप न कर सके तो प्रत्येक छह महीनों में एक-एक दिन न्यून करता हुआ तब तक आचाम्ल का पारणक करता रहे, जब तक कि अंतिम न्यूनता उपवास तक न पहुंच जाए। यदि यह भी संभव न हो तो प्रतिदिन अलेपकृद् आचाम्ल करे। २९५/६. (आचार्य उत्तर देते हैं)-यदि मुनि के वर्तमान काल में तथा भविष्य काल में योगों की हानि न होती हो तो वह छह मास आदि की तपस्या करे। तपस्या में एक-एक दिन की हानि से, पूर्वोक्त प्रकार से, पारणक में आचाम्ल करे। यह संभव न हो तो निरंतर आचाम्ल तप करे।
१. टीकाकार मलयगिरि अनिसृष्ट और दातृभाव से अपरिणत का अंतर स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि सामान्यतः अनिसृष्ट में
दाता परोक्ष होते हैं लेकिन दातृभाव से अपरिणत में दाता समक्ष होता है (मवृ प. १६६)।
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२९५/७. शिष्य बोला-महाराष्ट्र तथा कौशलक देश में उत्पन्न मनुष्य सौवीर कूर का भोजन करते हुए जीवन-यापन करते हैं तो भला मुनिजन उस भोजन से अपना जीवन-यापन क्यों नहीं कर सकते? २९५/८. आचार्य ने कहा-श्रमणों का त्रिक' शीत होता है और गृहस्थों का वही त्रिक उष्ण होता है। (यदि श्रमण प्रतिदिन आचाम्ल करे और तक न ले तो अजीर्ण आदि दोष होते हैं।) अतः मुनि के लिए तक्र आदि का ग्रहण अनुज्ञात है। कट्टर-घृतवटिका से मिश्रित तीमन द्रव्य के ग्रहण की भजना है-(ग्लानत्व आदि की स्थिति में लिया जा सकता है, अन्यथा नहीं।) २९५/९. शीतकाल में भी गृहस्थों का यह त्रिक-आहार, उपधि और शय्या-उष्ण होता है इसलिए उनका भोजन (बिना तक्रादि ग्रहण किए भी) बाहर और आभ्यन्तर ताप से जीर्ण हो जाता है। २९५/१०. यही त्रिक (आहार, उपधि और शय्या) मुनियों के लिए ग्रीष्मकाल में भी शीत होता है। उससे जठराग्नि मंद होने से अजीर्ण आदि दोष होते हैं।
२९६. शुष्क अलेपकृद् द्रव्य
• ओदन-तण्डुल आदि। • सत्तु-जौ आदि का चूर्ण। • कुल्माष-उड़द।
• राजमाष-श्वेत चवला। • गोल चना।
• वल्ल-निष्पाव। • तुवरी-अरहर की दाल। • मसूर। • मूंग
• माष–काली उड़द आदि। २९७. अल्पलेपकृद् द्रव्य ये हैं, इनके ग्रहण में पश्चात्कर्म की भजना है
• उद्भेद्य-बथुआ आदि शाक। • पेया-यवागू। • कंगू-कोद्रव धान्य। • तक्र-छाछ। • उल्लण-जिससे ओदन गीला किया जाता है। • सूप-रांधा हुआ मूंग आदि का सूप। • कांजिक-कांजी। • क्वथित-कढ़ी आदि।
१. त्रिक-आहार, उपधि और शय्या। २. मुनि भिक्षा के लिए अनेक घरों में घूमता है अत: प्राप्त उष्ण आहार उपाश्रय में पहुंचते-पहुंचते ठंडा हो जाता है। वर्ष में
एक बार वर्षा काल से पूर्व वस्त्र-प्रक्षालन के कारण कपड़े तथा वसति के निकट अग्नि न होने से शय्या भी शीतल होती है इसलिए तक्र आदि का ग्रहण साधु के लिए अनुज्ञात है। तक्र से जठराग्नि प्रदीप्त होती है (मवृ प. १६८)।
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२९८. ये सारे बहुलेपकृद् द्रव्य हैं, इनमें पश्चात्कर्म की नियमा है
• दूध ।
दही ।
कट्टर - कढ़ी आदि में डाला गया घी का बड़ा ।
• जाउ - दूध से बना पेय पदार्थ । तैल ।
·
फाणित - गुड़पानक ।
•
•
•
•
·
२९९. संसृष्ट हाथ, संसृष्ट पात्र तथा सावशेष द्रव्य - ये तीन तथा इनके प्रतिपक्षी तीन-असंसृष्ट हाथ, असंसृष्ट पात्र तथा निरवशेष द्रव्य - इनके परस्पर संयोग से आठ विकल्प होते हैं
--
•
·
•
•
·
घृत ।
सपिंडरस' - अतीव रस वाले खर्जूर आदि से उत्पन्न द्रव्य ।
संसृष्ट हाथ, संसृष्ट पात्र तथा सावशेष द्रव्य ।
संसृष्ट हाथ, संसृष्ट पात्र तथा निरवशेष द्रव्य ।
संसृष्ट हाथ, असंसृष्ट पात्र तथा सावशेष द्रव्य ।
संसृष्ट हाथ, असंसृष्ट पात्र तथा निरवशेष द्रव्य ।
पिंडनिर्युक्ति
असंसृष्ट हाथ, संसृष्ट पात्र तथा सावशेष द्रव्य ।
असंसृष्ट हाथ, संसृष्ट पात्र तथा निरवशेष द्रव्य ।
असंसृष्ट हाथ, असंसृष्ट पात्र तथा सावशेष द्रव्य ।
·
असंसृष्ट हाथ, असंसृष्ट पात्र तथा निरवशेष द्रव्य ।
इन आठ विकल्पों में निश्चय से ओज - विषम विकल्प अर्थात् १, ३, ५, ७ ग्राह्य हैं। शेष सम विकल्प - २, ४, ६, ८ ग्राह्य नहीं हैं।
३००. छर्दन के तीन प्रकार हैं- सचित्त, अचित्त और मिश्र । इसकी तीन चतुर्भगियां होती हैं। इसके सारे विकल्प प्रतिषिद्ध हैं। यदि इन विकल्पों में ग्रहण किया जाता है तो आज्ञा, अनवस्था, मिथ्यात्व तथा विराधना आदि दोष होते हैं ।
३०१. उष्ण द्रव्य के छर्दन से देने वाला दाता जल सकता है। पृथ्वी आदि षड्निकाय जीवों का दहन हो सकता है। शीत द्रव्य के छर्दन से पृथ्वी आदि के जीवों की विराधना होती है। इस विषय में मधु बिन्दु का
उदाहरण ज्ञातव्य है ।
१. बृहत्कल्पभाष्य (१७१२) के अनुसार आम्र, आम्रातक, कपित्थ, द्राक्षा, मातुलिंग - बिजौरा, केला, खजूर, नारियल, बदरी चूर्ण और इमली- ये सभी पिंडरसद्रव्य हैं ।
२. हाथ और पात्र के संसृष्ट होने पर तथा भिक्षा के पश्चात् द्रव्य सावशेष रहता है तो दात्री उस पात्र का प्रक्षालन नहीं करती अतः विषम भंगों में पश्चात्कर्म की संभावना नहीं रहती लेकिन यदि द्रव्य निरवशेष रूप से साधु को दे दिया जाए तो दान के पश्चात् नियमतः उस बर्तन का तथा हाथ और पात्र का प्रक्षालन किया जाता है अतः द्वितीय आदि सम भंगों में पश्चात्कर्म की संभावना से कल्पनीय नहीं है ( मवृ प. १६९ ) ।
३. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ४९ ।
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अनुवाद
१९९
३०२. ग्रासैषणा के चार प्रकार हैं-नाम ग्रासैषणा, स्थापना ग्रासैषणा, द्रव्य ग्रासैषणा तथा भाव ग्रासैषणा। द्रव्य ग्रासैषणा में मत्स्य का उदाहरण ज्ञातव्य है तथा भाव ग्रासैषणा के पांच प्रकार हैं। ३०२/१. (विवक्षित अर्थ का प्रतिपादन करने के लिए) दो प्रकार के उदाहरण जानने चाहिए-चरित
और कल्पित। जैसे ओदन आदि को सिद्ध करने के लिए ईंधन आवश्यक होता है, वैसे ही प्रतिपाद्य को सिद्ध करने के लिए उदाहरण आवश्यक होता है। ३०२/२. मांस क्षीण होने पर चिन्ता करते हुए मच्छीमार को मत्स्य कहता है कि तुम चिन्ता क्यों करते हो? तुम कितने निर्लज्ज हो यह सुनो३०२/३. मैं तीन बार बगुले के मुख में जाकर भी उससे छूट गया। तीन बार भ्राष्ट्र रूप समुद्र के ज्वार में गिरा, इक्कीस बार जाल में पकड़ा गया, एक बार कम पानी वाले द्रह में डाला गया (फिर भी मैं बच गया)। ३०२/४. ऐसा मेरा सत्त्व है फिर भी तुम वही कुटिलतापूर्ण धीवरकृत उपाय को कर रहे हो। तुम मुझे कांटे के द्वारा पकड़ना चाहते हो, यह तुम्हारी निर्लज्जता है।' ३०२/५. हे जीव! तुम एषणा के बयालीस दोषों से विषम आहार-पानी के ग्रहण में नहीं ठगे गए अतः अब उनका उपभोग करते हुए तुम राग-द्वेष से मत ठगे जाना। ३०३. भाव ग्रासैषणा के दो प्रकार हैं-प्रशस्त और अप्रशस्त। अप्रशस्त के पांच प्रकार हैं, इन दोषों से रहित प्रशस्त भावग्रासैषणा है। ३०३/१. संयोजना, अतिप्रमाण में भोजन, इंगालदोष, धूमदोष तथा बिना कारण भोजन करना-ये पांच ग्रासैषणा के अप्रशस्त भेद हैं तथा इसके विपरीत संयोजना आदि नहीं करना प्रशस्त है। ३०४, ३०५. संयोजना के दो प्रकार हैं-द्रव्य संयोजना और भाव संयोजना। द्रव्य संयोजना के दो प्रकार हैं-बाह्य और आंतरिक । रसविशेष को पैदा करने के लिए दूध, दही, सूप, कट्टर-तीमन मिश्रित घी का बडा. गड, घी का बडा तथा वालंक-पक्वान्न विशेष मिलने पर अनकल द्रव्यों का संयोग करना बाह्य संयोजना है। इसी प्रकार उपाश्रय में भोजन करते समय जो संयोजना की जाती है, वह आन्तरिक संयोजना है। वह तीन प्रकार की है -पात्र में, कवल में तथा मुंह में। इनकी विभाषा-व्याख्या करनी चाहिए।
१. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं.५०। २. अप्रशस्त ग्रासैषणा के पांच भेदों के लिए देखें ३०३/१ का अनुवाद। ३. दूध में चीनी मिलाना बाह्य संयोजना है। ४. रस-गृद्धि के कारण पात्र में दो द्रव्यों को मिलाना पात्र संबंधी आभ्यन्तर संयोजना है। हाथ में लिए कवल में खांड आदि
का संयोग करना कवल संबंधी आभ्यन्तर संयोजना है तथा मुख में पहले रोटी डालकर फिर गुड़ आदि डालना-यह वदन संबंधी आभ्यन्तर संयोजना है (मवृ प. १७२)।
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२००
पिंडनियुक्ति
३०६. जो मुनि द्रव्य की रसवृद्धि करने के लिए भक्तपान में अन्य द्रव्यों का मिश्रण-संयोजन करता है, उसके यह व्याघात होता है३०७. भाव विषयक संयोजना में जो मुनि रस की आसक्ति से द्रव्यों की संयोजना करता है, वह अपनी आत्मा के साथ कर्मों की भी संयोजना करता है। कर्म से दीर्घकालीन भव-परम्परा को संयोजित करता है, जिससे दुःख उत्पन्न होता है। ३०८. कभी किसी साधु संघाटक को घी आदि द्रव्यों का प्रचुर लाभ हुआ। मुनियों द्वारा पर्याप्त खा लेने पर भी वह सामग्री बच गई। उस बची हुई सामग्री को उपभोग में लेने के लिए संयोजना अनुज्ञात है। उस समय संयोजना करने का विधान इस प्रकार है३०९. विशेष रस (स्वाद) को बढ़ाने के लिए संयोग का प्रतिषेध किया गया है। ग्लान के लिए संयोग किया जा सकता है तथा जिसको आहार अरुचिकर लगता हो अथवा जो सुखोचित-राजपुत्र आदि रहा हो अथवा जो अभावित-अपरिणत शैक्ष आदि हो-इनके लिए संयोजना करना विहित है। ३१०. पुरुष के लिए बत्तीस कवल प्रमाण आहार कुक्षिपूरक माना जाता है तथा महिलाओं के लिए अट्ठाईस कवल पर्याप्त माने जाते हैं। ३११. इस प्रमाण से किंचित्मात्रा में अर्थात् एक कवल, आधा कवल न्यून अथवा आधा आहार अथवा आधे से भी आधा आहार लिया जाता है, उसे तीर्थंकरों ने यात्रामात्र आहार अथवा न्यून आहार कहा है। ३१२. जो मुनि प्रकाम, निकाम और प्रणीत भक्तपान का उपभोग करता है, अति बहुल मात्रा में अथवा बहुत अधिक बार भोजन करता है, वह प्रमाणदोष है। ३१२/१. बत्तीस कवल से अधिक आहार को प्रकाम आहार कहते हैं। प्रमाणातिरिक्त आहार यदि
१. बचे हुए घी को बिना मिश्री या खांड के केवल रोटी के साथ खाना संभव नहीं है क्योंकि भोजन करने के बाद सबको तृप्ति
हो जाती है। उसका परिष्ठापन भी उचित नहीं होता क्योंकि परिष्ठापन से उस चिकनाई पर अनेक कीटिकाओं का व्याघात
संभव है अत: यह संयोजना का अपवाद है कि बचे हुए घी में खांड द्रव्य आदि को मिलाना विहित है (मवृ प १७३)। २. टीकाकार मलयगिरि के अनुसार ३२ कवल प्रमाण आहार मध्यम प्रमाण है। महिलाओं का मध्यम प्रमाण २८ कवल
तथा नपुंसक का मध्यम प्रमाण २४ कवल है लेकिन नपुंसक दीक्षा के लिए अयोग्य होने के कारण उसका यहां उल्लेख नहीं किया गया है। एक कवल का प्रमाण मुर्गी के अंडे जितना माना गया है। कुक्कुटी दो प्रकार की होती है-द्रव्य कुक्कुटी और भाव कुक्कुटी । द्रव्य कुक्कुटी के दो प्रकार हैं-उदर कुक्कुटी और गल कुक्कुटी। जितने आहार से साधु का उदर न भूखा रहे और न अधिक भरे, वह आहार उदर कुक्कुटी है। मुख को विकृत किए बिना गले के अंदर जो कवल समा सके, वह गल कुक्कुटी है। टीकाकार दूसरे नय से व्याख्या करते हुए कहते हैं कि शरीर ही कुक्कुटी है और मुख अण्डक है। जिस कवल से आंख, भ्रू आदि विकृत न हों, वह प्रमाण है अथवा कुक्कुटी का अर्थ है-पक्षिणी, उसके अंडे जितना कवल प्रमाण है। भाव कुक्कुटी का अर्थ है, जिस आहार से धृति बनी रहे तथा ज्ञान, दर्शन और चारित्र की वृद्धि हो, उतना आहार करना भाव कुक्कुटी है (मवृ प. १७३)। मूलाचार की टीका में एक हजार चावल जितने को एक कवल का प्रमाण माना है। (मूला ३५० टी पृ. २८६)
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________________
अनुवाद
प्रतिदिन किया जाता है तो वह निकाम तथा जिस आहार से घी आदि टपकता हो, वह प्रणीत आहार है, ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है।
३१२/२. अतिबहुक, अतिबहुशः तथा अतिप्रमाण में किया हुआ भोजन अतिसार पैदा कर सकता है, उससे वमन हो सकता है तथा वह आहार जीर्ण न होने पर व्यक्ति मार सकता है।
२०१
३१२/३. प्रमाण से बहुत अधिक भोजन करना अतिबहुक होता है तथा तीन बार से अधिक बार भोजन करना अतिबहुशः कहलाता है। तीन बार से अधिक बार अधिक मात्रा में भोजन करना अथवा अतृप्त होकर खाते जाना अतिप्रमाण आहार कहलाता है।
३१३. जो मुनि हितकारी, परिमित तथा अल्प- आहार करते हैं, उनकी चिकित्सा वैद्य नहीं करते। वे स्वयं ही चिकित्सक होते हैं (अर्थात् उनके रोग होता ही नहीं ।)
३१३/१. तैल और दही का तथा दूध, दही और कांजी का समायोग विरुद्ध है, अहितकर है। अविरुद्ध द्रव्यों का समायोग पथ्य होता है, रोग का अपनयन करता है तथा भावी रोग का हेतु नहीं बनता ।
३१३/२. उदर के छह भाग करके, आधे उदर अर्थात् तीन भागों को व्यंजन सहित आहार के लिए, दो भाग पानी के लिए तथा छठा भाग वायु के संचरण के लिए खाली रखे।"
३१३/३, ४. काल तीन प्रकार का जानना चाहिए - शीत, उष्ण और साधारण । साधारण काल की आहारमात्रा यह है- अति शीतकाल में पानी का एक भाग तथा आहार के चार भाग, मध्यम शीतकाल में दो भाग पानी तथा तीन भाग आहार, उष्ण काल में दो भाग पानी तथा तीन भाग आहार, अति उष्णकाल में तीन भाग पानी तथा दो भाग आहार - यह प्रमाण है । सर्वत्र छठा भाग वायु- संचरण के लिए है।
३१३/५. पानी का एक भाग तथा भोजन के दो भाग अवस्थित हैं, ये घटते-बढ़ते नहीं हैं। एक-एक में शेष दो-दो भाग बढ़ते हैं, घटते हैं, जैसे- अतिशीतकाल में भोजन के दो भाग बढ़ जाते हैं तथा अति उष्णकाल में पानी के दो भाग बढ़ जाते हैं। अतिउष्णकाल में भोजन के दो भाग कम हो जाते हैं तथा अतिशीतकाल में पानी के दो भाग कम हो जाते हैं।
३१३/६. आहार विषयक तीसरा और चौथा - ये दोनों भाग अनवस्थित हैं। पानक विषयक पांचवां भाग,
१. हितकर आहार दो प्रकार का होता है - द्रव्यतः तथा भावतः । अविरुद्ध आहार करना द्रव्यतः हितकर है तथा एषणीय आहार करना भावतः हितकर है (मवृ प. १७४) ।
२. प्रमाणोपेत आहार मित आहार है।
३. बत्तीस कवल प्रमाण आहार से कम आहार क़रना अल्पाहार है।
४. शाक, खट्टे फल, खली, कैथ का फल, करीर, दधि और मत्स्य- इन चीजों को दूध के साथ खाना विरुद्ध है (मवृ प. १७४) । ५. मूलाचार ४९१ के अनुसार उदर को चार भागों में विभक्त करके आधा भाग भोजन के लिए अर्थात् दो भाग भोजन के लिए, तीसरा भाग पानी के लिए तथा चौथा भाग वायु-संचरण के लिए खाली रखना चाहिए। आयुर्वेद की काश्यप संहिता के खिलस्थान में भी यही उल्लेख मिलता है।
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२०२
वायु विषयक छठा तथा आहार विषयक पहला और दूसरा भाग - ये चारों भाग अवस्थित हैं।
३१४. मूर्च्छित होकर आहार की प्रशंसा करते हुए आहार करना, स- अंगार आहार कहलाता है तथा आहार की निंदा करते हुए खाना सधूम आहार है।
पिंडनिर्युक्ति
३१४/१. . जो ज्वलित ईंधन अभी अंगारा नहीं बना है, वह सधूम कहलाता है। वही ईंधन दग्ध हो जाने पर तथा धूम निकल जाने पर अंगार कहलाता है।
३१४ / २. मुनि प्राक आहार भी यदि रागाग्नि से प्रज्वलित होकर करता है तो वह चारित्र रूपी ईंधन को शीघ्र ही निर्दग्ध अंगारे की भांति बना डालता है।
३१४/३. जलती हुई द्वेषाग्नि अप्रीति के धूम से चारित्र रूपी ईंधन को जब तक अंगार सदृश नहीं बना डालती, तब तक जलती रहती है।
३१५. रागभाव से किया जाने वाला भोजन स- अंगार तथा द्वेषभाव से किया जाने वाला भोजन सधूम होता है। भोजन की विधि में छयालीस दोष जानने चाहिए। (उद्गम के १५, उत्पादन के १६, एषणा के १० तथा संयोजना आदि ५ ) "
३१६. प्रवचन का यह उपदेश है कि तपस्वी मुनि ध्यान और अध्ययन के निमित्त विगत अंगार - रागरहित तथा विगतधूम - द्वेष रहित होकर आहार करे ।
३१७. मुनि छह कारणों से आहार करता हुआ भी धर्म का आचरण करता है और छह कारणों से आहार का परित्याग करता हुआ भी धर्म का आचरण करता है।
३१८. आहार करने के छह कारण ये हैं - १. भूख की वेदना को उपशांत करने के लिए, २. वैयावृत्त्य करने के लिए ३. ईर्यापथ के शोधन हेतु, ४. प्रेक्षा आदि संयम के निमित्त, ५. प्राणप्रत्यय - प्राण - धारण के लिए तथा ६. ग्रंथ का परावर्तन, धर्मचिंतन-धर्म की अभिवृद्धि के लिए ।
३१८/१. क्षुधा के समान कोई वेदना नहीं होती अतः उसे शान्त करने के लिए भोजन करना चाहिए। भूखा वैयावृत्त्य करने में समर्थ नहीं होता अतः भोजन करना चाहिए।
३१८/२. बुभुक्षित ईर्यापथ का शोधन नहीं कर सकता अतः ईर्यापथ के शोधन हेतु भोजन करना चाहिए । प्रेक्षा आदि के संयम हेतु आहार करना चाहिए। आहार न करने से शरीर बल क्षीण हो जाता है अतः (प्राणधारण हेतु) भोजन करना चाहिए तथा आहार न करने से गुणन-ग्रंथ - परावर्तन तथा अनुप्रेक्षा आदि करने में व्यक्ति अशक्त हो जाता है इसलिए भोजन करना चाहिए ।
१. उद्गम के १६ दोषों में अध्यवपूरक का मिश्रजात में समावेश होने से उद्गम के १५ दोष ही यहां गृहीत हैं ( मवृ प. १७६) ।
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________________
अनुवाद
२०३
३१९. अथवा मुनि छह कारणों से आहार का परित्याग कर दे। सभी कार्य कर लेने पर मुनि अपनी अंतिम अवस्था में (संलेखना में अपने आपको क्षीण कर) अनशन करने योग्य स्वयं को बनाकर भोजन का परिहार कर दे। ३२०. आहार-परित्याग के छह कारण ये हैं-१. आतंक-रोग-निवारण हेतु ,२. उपसर्ग-तितिक्षा-- उपसर्ग-सहन करने के लिए, ३. बह्मचर्य की गुप्तियों के परिपालन के लिए, ४. प्राणिदया के लिए, ५. तपस्या के निमित्त तथा ६. शरीर के व्यवच्छेद के लिए। ३२०/१, २. ज्वर आदि आतंक में, राजा तथा स्वजन आदि द्वारा उपसर्ग किए जाने पर, ब्रह्मचर्य का पालन करने हेतु, वर्षा तथा ओस आदि में प्राणियों के प्रति दया करने के लिए, उपवास से लेकर षाण्मासिक तप के लिए तथा शरीर के व्यवच्छेद-परित्याग हेतु मुनि अनाहार रहे। ३२१. इन छह कारणों से जो भिक्षु आहार का परित्याग करता है, वह धर्मध्यान में रत रहता हुआ उसका अतिक्रमण नहीं करता। ३२२. उद्गम के १६ दोष, उत्पादना के १६ दोष, एषणा के १० दोष तथा ग्रासैषणा के संयोजना आदि ५ दोष-ये एषणा के ४७ दोष होते हैं। ३२३. यह आहारविधि सर्वदर्शी तीर्थंकरों ने जिस प्रकार प्रतिपादित की है, उसी प्रकार से मैंने अपनी मति से उसकी व्याख्या की है। मुनि इसका पालन इस प्रकार से करे, जिससे धर्म तथा आवश्यक (प्रतिक्रमण आदि) योगों की हानि न हो। ३२४. जो मुनि यतनाशील है, सूत्रोक्तविधि के परिपालन में पूर्णतया सजग है, अध्यात्म-विशोधि से युक्त है, उसके यदि कोई विराधना (अपवाद-सेवन से होने वाली स्खलना) होती है तो वह भी निर्जराफल वाली होती है।
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________________
हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा य जे नरा। न ते विज्जा तिगिच्छंति, अप्पाणं ते तिगिच्छगा॥
पिण्डनियुक्ति ३१३
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________________
परिशिष्ट
१.
२०७
२१५
२२८
गाथाओं का समीकरण पदानुक्रम कथाएं आयुर्वेद एवं आरोग्य तुलनात्मक संदर्भ एकार्थक निरुक्त
२६६
२७३
२८१
२८३
प्रयुक्त देशी शब्द
२८५
२९३
सूक्त-सुभाषित उपमा और दृष्टान्त
२९४
२९५
१२.
२९६
२९७
१४.
३०२
निक्षिप्त शब्द लोकोक्तियां एवं न्याय परिभाषाएं दो शब्दों का अर्थभेद मलयगिरि वृत्ति की उद्धृत गाथाएं विशेषनामानुक्रम टीका के अन्तर्गत विशेषनामानुक्रम विषयानुक्रम
.
३०४
३०६
३१२
३१५
शब्दार्थ
३१६
३४६
२०. २१.
संकेत-सूची प्रयुक्त ग्रंथ सूची
३४७
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________________
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________________
परिशिष्ट-१
गाथाओं का समीकरण
संपा.
प्रगा.
मत् प.
मवृ प.
मत् प.
प्रगा. २९
प्रगा. ५७
१४
संपा. ४१/२ ४२ ४३
संपा. २२/१ २२/२ २२/३ २२/४ २२/५
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४४/१
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४९/१
४९/२
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१७/१
१९
१७/२ १७/३
५२/१ ५२/२ ५२/३ ५२/४
५३
२१/१
४८
२१/२
५३/२
५४८२ | ५४/१ ८३
४१/१
२३
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________________
२०८
पिंडनियुक्ति
संपा.
प्रगा.
मत् प. | संपा.
प्रगा.
मव प..
संपा.
प्रगा. मत प.
११४
१४४
५४
१४५
११५ ११६ ११७
१४६
५७ ५७/१ ५७/२ ५७/३ ५७/४ ५७/५
६८/२ ६८/३ ६८/४ ६८/५ ६८/६ ६८/७ ६८/८ ६८/९ ६८/१० ६८/११
१४७ १४८ १४९ १५०
५६
२०
१२१
५७
१५१ १५२
१२२ १२३
७३/६ ७३/७ ७३/८ ७३/९ ७३/१० ७३/११ ७३/१२ ७३/१३ ७३/१४ ७३/१५ ७३/१६ ७३/१७ ७३/१८ ७३/१९ ७३/२० ७३/२१ ७३/२२ ७४
३४
८०
६९
१२४
१५३ १५४ १५५
६१
१२५
६१/१
१२६
१५६
६९/१ ६९/२ ६९/३ ६९/४
६२
१२७
१५७
M
१२८
x
७०
१५८
६४ ६४/१ ६४/२ ६४/३ ६५
१२९ १३० १३१
१५९
१६०
१०० १०१ १०२ १०३ १०४
१३२
७०/१ ७०/२ ७०/३ ७०/४ ७०/५ ७०/६
७६
EFE
१०५
७६/१ ७६/२ ७६/३
१०६
१६१ १६२ १६३ १६४ १६५ १६६ १६७
१३३ १३४ १३५ १३६ १३७ १३८ १३९ १४०
६६/१ ६७ ६७/१ ६७/२ ६७/३ ६७/४ ६७/५
७२
७६/४
१०७ १०८
७३
७६/५
१६८
१०९ ११०
११
७३/१ ७३/२ ७३/३ ७३/४ ७३/५
१४१
१६९ १७० १७१
११२
६८/१
४५
१४३
५३
१७२
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________________
परि १ गाथाओं का समीकरण
:
संपा.
८०/२
८०/३
८०/४
८०/५
८१
८१/१
८२
८२/१
८२/२
८२/३
८३
प्रगा.
१७३
१७४
मवृ प.
६६
६६
१७५
१७६
१७७
१७८
१७९
१८०
६८
१८१ ६८
१८२
६८
१८३
६९
८३/१
१८४
६९
८३/२
१८५
६९
८३/३ १८६
६९
८३/४
१८७
६९
८३/५
१८८
७०
८४
१८९
७०
८४/१
१९०
७०
८५
१९१
७०
८६
१९२
७१
१९३
७१
१९४ ७१
१९५
७२
१९६ ७२
१९७ ७२
६७
६७
६७
६७
६७
८६/१
८६/२
८७
८८
८९
८९/१ १९८
७२
८९/२ १९९ ७२
८९/३ २००
७२
८९/४
२०१
८९/५
२०२
७३
७३
संपा.
८९/६
८९/७
८९/८
८९/९
९०
९०/१
९०/२
९०/३
९०/४
९१
९१/१
९१/२
९१/३
९१/४
९२
९३
९४
९४/१
९५
९५/१
९५/२
९६
९६/१
९६/२
९६/३
९६/४
९७
९८
९९
९९/१
प्रगा.
२०३
२०४
२०५
२०६
२०७
२०८
२०९
२१०
२११
२१२
२१३
२१४
२१५
२१६
२१७
२१८
२१९
२२०
२२१
२२२
२२३
२२४
२२५
२२६
२२७
२२८
२२९
२३०
२३१
२३२
मवृ प.
७३
७३
७३
७४
७४
७४
७४
७४
७५
७५
७५
७६
७६
७६
७६
७७
७७
७७
७७
७७
७८
७८
७८
७८
७९
७९
७९
७९
७९
८०
संपा.
९९/२
१००
१०१
१०१/१
१०१/२
प्रगा.
२३३
८०
२३४ ८०
२३५
२३६
२३७
२३८
२३९
१०२
१०३
१०४
२४०
१०५
२४१
१०५/१ २४२
१०६
१०७
२०९
मवृ प.
२४३
१०८
२४४
१०८/१ २४५
१०८/२
१०९
११०
१११
११२
११३
jiga o o z
८०
८१
८१
८१
८१
८२
८२
८२
000000
८२
८२ ८३
२४६ ८३
२४७
८३
२४८
८३
२४९
८३
२५०
२५१
११३/१
२५२
११३/२
२५३
११३/३ २५४
११३/४
२५५
११४
२५६
११५
२५७
११६
२५८
११६/१ २५९
११६/२ २६०
११६/३ २६१
8 8 8 8 5 5 I I I I w w
८४
८४
८४
८५
८५
८५
८५
८५
८५
८६
८६
Page #382
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________________
२१०
पिंडनियुक्ति प्रगा. मवृ प.
संपा.
प्रगा.
मवृ पा
संपा.
प्रगा.
मवृ प.
संपा.
३२२
३२३
१०० १०० १०० १००
G
२६२ २६३ २६४ २६५ २६६ २६७ २६८ २६९ २७० २७१
१४६ १४७ १४८ १४८/१ १४८/२ १४९
१००
२९२ २९३ २९४ २९५ २९६ २९७ २९८ २९९ ३०० ३०१ ३०२
१०१
११६/४ ११७ ११७/१ ११७/२ .११७/३ १७७/४ ११८ ११९ ११९/१ १२० १२१ १२२ १२३ १२४
१५०
१०१
१३६/१ १३६/२ १३६/३ १३६/४ १३६/५ १३६/६ १३७ १३८ १३८/१ १३८/२ १३८/३ १३८/४ १३८/५ १३८/६ १३९ १४०
३२४ ३२५ ३२६ ३२७ ३२८ ३२९ ३३० ३३१ ३३२
१०२
१०२
१०२
२७२
१०२
२७३
३०३
३३३
१०३
२७४
३०४
१०३
_१०३
२७५ २७६ २७७
३०५ ३०६
१२५
१०३
१०३
३०७ ३०८
१५१ १५२ १५३ १५४ १५५ १५६ १५६/१ १५७ १५७/१ १५७/२ १५७/३ १५७/४ १५७/५ १५७/६ १५८ १५९ १६० १६१
१४१
२७८ २७९
३३४ ३३५ ३३६ ३३७ ३३८ ३३९ ३४० ३४१ ३४२
३०९
१०३
१२६ १२७ १२८ १२८/१ १२८/२ १२८/३ १२९ १३० १३१ १३२
१०३
२००
२८० २८१ २८२ २८३ २८४
३१० ३११ ३१२
१०४
१०५
३१३ ३१४
१०५
१४२ १४२/१ १४२/२ १४३ १४३/१ १४३/२ १४३/३ १४४ १४४/१ १४४/२ १४४/३
१४४/४ ९३ | १४५
३१५
३१६
३४६
१०५
१६२
२८६ २८७ २८८ २८९
३४७
१०५ १०६
१३४
१६३
१३५
९३
३१७ ३१८ ३१९ ३२० ३२१
१०६
३४८ ३४९ ३५० ३५१
१३५/१
१६३/१ १६३/२ १६३/३
२९०
१०६
१३६
२९१
१०० ।
१०६
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
परि. १ : गाथाओं का समीकरण
२११
-
संपा.
प्रगा.
मत् प.
संपा.
प्रगा.
मवृ प.
संपा.
प्रगा.
मत् प.
४११ ४१२ ४१३ ४१४
३८३ ३८४
१०७
१२१ १२२ १२२ १२२ १२२ १२२ १२३
१६५
३८६
४१५ ४१६ ४१७ ४१८
१८५
३८७
११५
१८६
१२३
१२३
१०९
३९०
४१९ ४२० ४२१
१२३
३९१
१२४
१९८ १९८/१ १९८/२ १९८/३ १९८४ १९८/५ १९८/६ १९८/७ १९८८ १९८/९ १९८/१० १९८/११ १९८/१२ १९८/१३ १९८/१४ १९८/१५ १९९ २०० २०१ २०१/१ २०१/२ २०१/३
१६९
३.
१०९
४२२
३६४
४२३
१२४ १२४ १२४ १२५
१७१
३६५
१६३/४ ३५२ १०६ १८० ३८१ ११३ १६३/५ ३५३ १०७ १८१ ३८२ ११४ १६३/६ ३५४ १०७
१८१/१
११४ १६३/७ ३५५
१८२
११४ १६४ ३५६
१०७ १८३ ३८५ ११४ ३५७ १०७
१८४ १६६ ३५८ १०८ १६६/१ ३५९ १०८
३८८ ११५ १६६/२ ३६० १०८ १८७
३८९
११६ १६७ ३६१
१८८
११६ १६८ ३६२ १०९
१८८/१ ३६३
१८९ ३९२ ११६ १७०
११० १९० ३९३ ११६
११० १९१ ३९४ ११७ १७२ ३६६ ११०
१९२
३९५ ११७ १७३ ३६७
१९२/१ ३९६ ११८ १७३/१ x
१९२/२
११८ १७३/२ ३६८ ११० १९२/३ ३९८ ११८ १७३/३ ३६९ १११ १९२/४ ३९९ ११८ १७३/४ ३७० १११ १९२/५ ४०० १७४
१११ १९२/६
४०१ ११९ ३७२ ११२ १९२/७ १७६
११२ १९३ ३७४ ११२ १९४ ४०४ १७७/१ ३७५
१९४/१ ४०५ १२० १७७/२ ३७६
१९४/२ ४०६ १२० १७८ ३७७
१९४/३, ४०७ १२० १७९ ३७८
१९५
१२१ १७९/१ ३७९
१९६ ४०९ १२१ १७९/२ ३८० ११३
४१० १२१ १. मुद्रित टीका में ३९९ के स्थान पर ४९९ का क्रमांक है।
४२४ ४२५
११०
४२६
१२५
१२५
४२७ ४२८ ४२९
१२६
१२६
११९
४३०
३७१
४३१
१७५
११९
४३२
४०२ ४०३
१२६ १२७ १२७ १२७ १२७ १२८
३७३
४३३
२०२ २०३
१७७
२०४
२०५
१२८
११२ ११२ ११३ ११३
४३४ ४३५ ४३६ ४३७ ४३८ ४३९
१२८
२०६ २०७ २०७/१ २०७/२
४०८
१२९
१२९ १२९
१९७
४४०
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१२
पिंडनियुक्ति
संपा.
प्रगा. मवृ प.
संपा.
प्रगा.
मवृ प.
संपा.
प्रगा.
मवृ प.
१३६
१२९ १३०
१४३ १४३
१३६
४४१ ४४२ ४४३ ४४४
१४४
४४५
१४४ १४४
४४६
२०७/३ २०७/४ २०८ २०८/१ २०९ २०९/१ २१० २१०/१ २१०/२ २१०/३ २१०/४ २१०/५ २११ २१२
४७१ ४७२ ४७३ ४७४ ४७५ ४७६ ४७७ ४७८ ४७९ ४८० ४८१ ४८२ ४८३
२३१ २३१/१ २३१/२ २३१/३ २३१/४ २३१/५ २३१/६ २३१/७ २३१/८ २३१/९ २३१/१० २३१/११ २३२
१४४ १४४
४४८ ४४९
१३१ १३१ १३१ १३१ १३१
४५०
५०१ ५०२ ५०३ ५०४ ५०५
x ५०६ ५०७ ५०८ ५०९ ५१० ५११ ५१२ ५१३ ५१४ ५१५ ५१६
१४५ १४५ १४५
१३६ १३६ १३६ १३७ १३७ १३७ १३७ १३७ १३९ १३९ १३९ १३९ १४० १४० १४० १४० १४० १४१ १४१
४५१ ४५२ ४५३ ४५४ ४५५
१४५
२
१४५
२३३
४८४ ४८५
२१३
२१९/६ २१९/७ २१९/८ २१९/९ २१९/१० २१९/११ २१९/१२ २१९/१३ २१९/१४ २१९/१५ २२० २२०/१ २२०/२ २२१ २२२ २२२/१ २२२/२ २२३ २२४ २२५ २२५/१ २२६ २२६/१ २२७ २२७/१ २२७/२ २२८ २२८/१ २२९ २३०
१३२
१४५ १४६ १४६ १४६
१३२
४५६
१३२
२१४ २१४/१ २१४/२ २१४/३
४५७ ४५८ ४५९
४८६ ४८७ ४८८ ४८९
१३३
५१७
१४६
१४६
२१५
४६०
४९०
१४६
१३३ १३३ १३३ १३३ १३४
५१८ ५१९ ५२० ५२१
१४७
२१६ २१७ २१८ २१८/१
१४१
१४७
२३४ २३५ २३६ २३६/१ २३६/२ २३६/३ २३७ २३८ २३८/१ २३८/२ २३९ २३९/१ २४० २४०/१ २४०/२ २४०/३
४६३
१४७
१४१ १४१
१३४
१४१
१४७
४६५ ४६६
४९१ ४९२ ४९३ ४९४ ४९५ ४९६ ४९७ ४९८ ४९९ ५००
१३४ १३६
१४१
१४७
४६७
२१९/१ २१९/२ २१९/३ २१९/४ २१९/५
५२३ ५२४ ५२५ ५२६ ५२७ ५२८
१३६
१४२ १४२ १४२ १४२ ।
४६८ ४६९ ४७०
१४८ १४८ १४८ १४८
१३६
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--------------------------------------------------------------------------
________________
परि. १ : गाथाओं का समीकरण
२१३
संपा.
प्रगा.
मवृ प.
संपा.
प्रगा.
मवृ प
संपा.
प्रगा.
मत प.
५६०
१६१
५२९ ५३०
१४८ १४८
२५८ २५९ २५९/१
. ५६१
५३१
५९१ ५९२ ५९३ ५९४
१४८
२४०/४ २४१ २४२ २४३ २४३/१ २४३/२ २४३/३
१५५ १५५ १५५ १५५ १५६
१६२
२६०
५६३
१६२
५३२ ५३३
२६१
५९५
५३४
१५६
५९६ ५९७
१६२ १६३ १६३
१५६
५३५ ५३६
१४९ १४९ १५०
१५६
१६३
२८४ २८४/१ २८५ २८६ २८७ २८८ २८८/१ २८८/२ २८८/३ २८८/४ २८८/५ २८८/६ २८८७ २८८८ २८९
२४५
२६२ २६३ २६३/१ २६३/२ २६३/३ २६४ २६४/१
५३७
५९८ ५९९
५३८
१६३ १६३
१५०
५६४ ५६५ ५६६ ५६७ ५६८ ५६९ ५७० ५७१ ५७२ ५७३ ५७४ ५७५
२४५/१ २४५/२ २४६
१५०
५४०
१५०
६०० ६०१ ६०२ ६०३ ६०४
२४७
१५०
२६५
५४१ ५४२
२४८
१५७ १५७ १५७ १५७ १५७ १५७ १५७ १५७ १५८ १५८
१५१
१६४ १६४ १६४ १६४ १६४ १६५
२६६
२४९
५४३
१५१
२६७
६०५ ६०६
२५०
५४४
२९०
२६८ २६९ २७०
५७६
२९१
६०७
१६५
१५१ १५१ १५१ १५२
५७७
२९१/१
६०८
५४५ ५४६ ५४७ ५४८ ५४९
१६५
१५८
२९२
६०९
१६५
२७१ २७२
५७८ ५७९
१५२
१५८
६१० ६११
१५२
५८०
१५९
१६६ १६६ १६६
२७३ २७४ २७५
१५२
५८१
६१२
५५१
१५२
५८२
१५९
६१३
२५१ २५१/१ २५१/२ २५१/३ २५२ २५२/१ २५२/२ २५३ २५३/१ २५३/२ २५३/३ २५४ २५५ २५६ २५७
१५३
२७६
५५२ ५५३
६१४
५८३ ५८४
२७७
५५४
२९३ २९४ २९५ २९५/१ २९५/२ २९५/३ २९५/४ २९५/५ २९५/६ २९५/७ २९५/८ २९५/९
२७८
५८५
५५५
१५३ १५३
२७९ २८०
५५६
१६० १६० १६० १६१ १६१ १६१ १६१ ।
१५४
१६६ १६७ १६७ १६७ १६७ १६७ १६७
६१५ ६१६ ६१७ ६१८ ६१९ ६२० ६२१
२८१
५८६ ५८७ ५८८ ५८९ ५९०
५५७ ५५८
१५४ १५४
१
२८२
५५९
१५५
१६८
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१४
पिंडनियुक्ति
संपा.
प्रगा.
मवृ ।
संपा.
प्रगा.
मव ।
संपा.
प्रगा.
२९५/१०
मवृ १७५ १७६ १७६
१७२ १७२ १७३
२९६ २९७
६२२ ६२३ ६२४ ६२५ ६२६ ६२७
६३८ ६३९ ६४० ६४१ ६४२ ६४३
२९८
१७३
१७६ १७६
२९९
३१०
३००
१७३ १७३ १७४
१७६ १७६
६२८
३१२
६४४
१७६
१७४ १७४
१६८ ३०६ १६८ ३०७ १६८ ३०८ १६८ ३०९ १६९ १६९ १६९
३१२/१ १७० ३१२/२ १७० ३१२/३ १७१ १७१ ३१३/१ १७१ ३१३/२ १७१ ३१३/३
३१३/४ १७२ ३१३/५ १७२ | ३१३/६
१७४
६६५
३१४६५५ ३१४/१ ६५६ ३१४/२ ६५७ ३१४/३ ६५८ ३१५ ६५९ ३१६ ६६० ३१७ ६६१ ३१८ ६६२ ३१८/१ ६६३ ३१८/२ ६६४ ३१९ ३२० ६६६ ३२०/१ ६६७ ३२०/२ ६६८ ३२०/३ x ३२१६६९ ३२२ ६७० ३२३ ६७१
३०१ ३०१/१ ३०२ ३०२/१ ३०२/२ ३०२/३ ३०२/४ ३०२/५ ३०३ ३०४ ३०५
३१३
१७६ १७६ १७७ १७७ १७७
६२९ ६३० ६३१ ६३२ ६३३ ६३४ ६३५ ६३६ ६३७
१७४
६४५ ६४६ ६४७ ६४८ ६४९ ६५० ६५१ ६५२
१७४ १७४
१७८
१७५
१७२
१७५
१७८
६५३
१७५
१७८ १७८
१७२
६५४
१७५
टीका में संकेतित भाष्य-गाथा
समीकरण
मवृ ।
संपा
म
प्रगा.
* ه و ی ک ک ک ک *
३८
- rm » 3 w 9 vv
११७ ११७
mmmmmmm.
१२६
४३
३१ ३२
११
१२६ १२८ १२८ १४२ १४२ १४२
१४
१४ १२
२४ ३३
८८
३७ १. प्रकाशित टीका की भाष्य गाथाओं में १५ क्रमांक के बाद सीधा २५ क्रमांक है।
४५
४६
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-२
पदानुक्रम
२१
१५४
२५९
३१३/२
३१४/१
२२२/२
२५८
२३१/६
१३३
भा. २७
२७/१
६८/२ २८४/१
२१८
८०/४
२९२ १४४/२
१७६
४४/४
२४५ १७२
अइभार-चुडण-पणए अइरं फलादिपिहितं अंगारत्तमपत्तं अंगार-धूवियादी अंगुलिए वा घेत्तुं अक्कंत धंत घाणे अक्खे वराडए वा अगविट्ठस्स उ गहणं अघणघणचारिगगणे अचियत्तमंतरायं अच्चित्तमक्खितम्मि उ अच्छेज्जं पि य तिविधं अच्छोड-पिट्टणासु य अझोयरओ तिविधो अट्ठाएँ अणट्ठाए अणिसिटुं पडिकुटुं अणिसिट्ठमणुण्णातं अणुकंप भगिणिगेहे अणुकंपा पडिणीयट्ठ....... अणुचियदेसं दव्वं अतिदूरजलंतरिया अतिबहुयं अतिबहुसो अत्तट्ठा रंधतो अत्तट्ठिय आदाणे अत्तीकरेति कम्म
२२/६
अत्थाह गाह-पंका अद्धमसणस्स सव्वंजणस्स अद्धिति दिट्ठीपण्हय अधिती पुच्छा आसन्न...... अन्नट्ठ उठ्ठिया वा अन्नेणाहाकम्म अन्ने भणंति दससु वि अन्नेसि दिज्जमाणे अपरिणतं पि य दुविधं अपरिमिततिल्लवुड्डी अपसत्थो उ असंजम अप्पत्तम्मि व ठवितं अप्पत्ता उ चउत्थे अप्पत्ते च्चिय वासे अब्भंगिय संबाहिय अन्भिंतरपरिभोगं अब्भोज्जे गमणादी अमिला करभी खीरं अमुगं ति पुणो रद्धं अमुगाणं ति व दिज्जउ अयमवरो उ विकप्पो अवयास भाणभेदो अवरद्धिग-विस-बंधे अवरोप्परसज्झिलगा अवि नाम होज्ज सुलभो
१८६
६५
१३५ २५२/२ २१/१ १९८/१२ २२/२ ८४/१ ८६/२
१७८
१८४
१४८/१
२८८
१०५ १०१
८९/७
१९८/४
१५७/१ ३१२/२
२७४
१२२
१३
११३/४
१४८ २१०/४
६८
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--------------------------------------------------------------------------
________________
पिंडनियुक्ति
१६७
२३१/५ १७९/१
१९४/१
६१, ७०
२४१ ७९
६९/२
२१५
३०२/२
७०/५ ९२ ८२/२ ६७/१, ९०
३९
२५१/१ ३१९ ४२
७०/४
८२/३
१९८/३
९३
६०
२१६ अवि य कुमारखयं अवि य हु बत्तीसाए अविसुद्धो परिणामो असणादीण चउण्ह वि अस्संजमजोगाणं अह मंसम्मि पहीणे अह मीसओ य पिंडो अहव ण सचित्तमीसो अहव न कुज्जाहारं अहवा चउण्ह नियमा अहिगरण भद्द-पंता अहुणुट्ठियं च अणवेक्खितं आइण्णमणाइण्णं आउक्काओ तिविधो आकंपिया निमित्तेण आणं सव्वजिणाणं आणादिणो य दोसा आणेत भुंजगा कम्मुणा आतंके उवसग्गे आतंको जरमादी आयंबिलपारणगे आयकियं पि य दुविधं आयपरोभयदोसा आयरऽणायरभावे आयरिय-उवज्झाए आयरिय-गिलाणाण य आयवयं च परवयं
११७
१९८/६ १५१
१५ २०५ ८३/१
आसंदि-पीढ-मंचग आसूयमादिएहिं आहा अहे य कम्मे आहाकडभोईहिं आहाकम्मंतरिया आहाकम्मं भुंजति आहाकम्मग्गहणे आहाकम्मपरिणतो आहाकम्मादीणं आहाकम्मामंतण आहाकम्मियदारं आहाकम्मियनामा आहाकम्मियभायण आहाकम्मुद्देसिय आहाकम्मेण अहे. आहाय जं कीरति तं तु कम्म आहार-उवधि-सेज्जा आहारेंति तवस्सी आहारोवहिमादी इंदत्थं जह सद्दा इंधण-अगणीअवयव इंधणधूमेगंधे...... इंधणमादी मोत्तुं इक्खागुवंस भरहो इट्टाछणम्मि परिपिंडिताण इट्टगपागादीणं इतरो वि य पंतावे
५८,११०,१९० ७१
भा. ३० ४८, २९५/९ ३१६
८३
६८/११
३२०
१७५
३२०/१
७०/६ ११६/१
२९५/४
१४०
११५, ११६
२७८
११७/४
८९/६
२१९/१०
२१९/१४ २१९/१ २४ १४८/२
२२२/१
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
परि. २ : पदानुक्रम
२१७
८९/४
२५३/१
३१८/२
१७
२०
१९८/१३
१६१
१४९
१५७/४
९६/१
१२८
२०१
२६४ ५६ १०९, १९१ २३८/१, २ २०७/३
२६३/२
भा. ७
९०/४
भा. १३
७०/१
इय अविहीपरिहरणा इरियं न विसोहेती उउबद्धधुवण बाउस उक्कोस-मज्झिम-जहन्नगं उक्खित्तं निक्खिप्पति उक्खेवे निक्खेवे उग्गम उग्गोवण मग्गणा उग्गमकोडीअवयव.......... उग्गमदोसा सोलस उग्गादिकुलेसु वि एमेव उच्चत्ताए दाणं उच्छाहितो परेण व उच्छुक्खीरादीयं उड्डाह कायपडणं । उड्डमहे तिरियं पि य उद्देसियं समुद्देसियं उप्पादणाएँ दोसा उब्भट्ठ पडिण्णातं उब्भिज्ज पेज्ज कंगू उब्भिन्ने छक्काया उभए वि य पच्छन्ना उभयातिरित्तमहवा उवओगम्मि य लाभ उवसयबाहिं ठाणं उव्वट्टणे ऽ संसत्तेण उव्वट्टिता पदोसं उसिणस्स छड्डणे देंतओ
१४६ २१९ १२८/१ २७६ १६९
४४/१
उसिणोदगं पि घेप्पति उसिणोदगमणुवत्ते उसुकादिएहि मंडेहि ऊणहिय दुब्बलं वा ऊसव मंडणलग्गा एक्केक्कं तं दुविधं एक्केक्का वि य दुविधा एक्केक्के चउभंगो एक्को उ असब्भावे एगंतमवक्कमणं एगंतसिणिद्धम्मी एगट्ठ एगवंजण एगविहाइ दसविधो एगस्स माणजुत्तं एगेण कतमकज्जं एगेण वावि एसिं एगो दवस्स भागो एतं तु अणाइण्णं एते उ अणादेसा एते चेव य दोसा एतेण मज्झ भावो एते ते जेसिमो रद्धो एते न उ वीसामे एतेसि दायगाणं एतेहिं छहि ठाणेहिं एत्तो किणाइ हीणं एत्थ उ ततियचतुत्था
१५० ८३/२
२९५
२३४
३१३/५
१५८
१२८/२ २९७
१७/२
१४४/४
२११
.
७६/३
१६३ २०१/३ भा. ४ ६८/४ भा. ३२ २८८७ १९८/९ ३०१
भा. १० २७१ ३२१ ३११
३१३/६
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१८
पिंडनियुक्ति
८९/५
२१२
२५
६७/४
२५०
१६८
२१९/३ भा. ३१ २३६/३ भा. १६ ६२
१०४
१८१
७३/२०
९४
१४३/३
२३९/१
८०
५२/२ २४९ १९८/१०
२९५/१०
एमेव उज्झितम्मि वि एमेव कागमादी एमेव भावकूडे एमेव मीसएसु वि एमेव य उक्कोसे एमेव य कम्मम्मि वि एमेव य जंतम्मि वि एमेव य लिंगेणं एमेव वादि खमगे एमेव सेसगेसु वि एमेव सेसिगाण वि एमेव सेसिगासु वि एयाई चिय तिन्नि वि एयारिसं ममं सत्तं एरिसगं वा दुक्खं एवं एक्केवकदिणं एवं खु अहं सुद्धो एवं तु गविट्ठस्सा एवं तु पुव्वलित्ते एवं मीसज्जातं एवं लिंगे भावण एसण गवेसणा मग्गणा एसेव कमो नियमा एसो आहारविधी एसो सोलसभेदो ओगाहिमादऽणंतर ओदण-मंडग-सत्तुग
ओदण-समितिम-सत्तुग ओदण-वंजण-पाणग ओभासिय पडिसिद्धो ओमे संगमथेरा ओयरंतं पदं दटुं ओरालग्गहणेणं ओरालसरीराणं ओहेण विभागेण य ओहो सुतोवउत्तो कंडित तिगुणुक्कंडा कक्कडिय-अंबगा वा कणग-रययादियाणं कत्तरि पयोयणावेक्ख कत्तामि ताव पेखें कप्पट्ठिग अप्पाहण कम्माण जेण भावेण कम्मासंकाएँ पहं कम्मियकद्दममिस्सा करडुयभत्तमलद्धं कस्स घर पुच्छिऊणं कस्स त्ति पुच्छितम्मी कामं सयं न कुव्वति काय-वइ-मणो तिन्नि उ किं अद्धिति त्ति पुच्छा किं तं आहाकम्म किं न ठविज्जति पुत्तो किण्हादिया उ लेसा
७८ १९४/२ २०७/४ भा. २६ २७२
३०२/४ २१४/२
४६
२९५/५ ६८/३ २३३
८९/३
१६३/२
११३/२ २१८/१ २१९/४
१२४
७३/१५
७२
१५७
६७/५ भा. १७ २३१/१० ७४
३२३ १८९ २५१/३
२३१/९ भा. २१
२९६
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१९
९६/३
२०२
भा. १
२२६
२२५ २५९/१
२२/५ २७९ ८९/९
१८०
१०८/१
६८/७
परि. २ : पदानुक्रम किं वा कहेज्ज छारा १४३/२ किन्नु हु खद्धा भिक्खा २४०/१ किवणेसु दुम्मणेसु य २१०/२ कीतगडं पि य दुविधं १३९ कुड्डस्स कुणति छिड़े १३८/४ कुलए उ चउब्भागस्स
३/१ कूडुवमाए केई
६७/३ केई एक्केक्कनिसिं
२२/३ केई भणंति पहिए केलासभवणा एते
२१०/५ कोडीकरणं दुविधं
१९२/६ कोद्दवरालग गामे
७६ कोल्लइरे वत्थव्वो
१९९ कोवो वलवागभं
भा. ३४ खणमाणी आरभए
२८३ खद्धे निद्धे य रुया ८३/५ खमगादिकालकज्जा...... खल्लग-मल्लग लेच्छारिगाणि ९०/३ खीर-दहि जाउ कट्टर २९८ खीर-दहि-सूव-कट्टर ३०५ खीरदुमहे? पंथे खीराहारो रोवति
१९८/१ खीरे य मज्जणे मंडणे १९७ खेत्ते समाणदेसी
७३/२ गंतुं विज्जा-मंतण
२२७/२ गंतूण आवणं सो
८९/२ गंधादिगुणविसिटुं
१०८
गमणागमणुक्खेवे गामाण दोण्ह वेरं गणनिप्फण्णं गोण्णं गुणसंथवेण पच्छा गुणसंथवेण पुट्विं गुरु गुरुणा गुरु लहुणा गुरु-पच्चक्खाणि-गिलाण गुव्विणि गब्भे संघट्टणा गूढायारा न करेंति गेण्हण कड्डण ववहार गोटिनिउत्तो धम्मी गोणीहरण सभूमी गोण्णं समयकतं वा गोण्णसमयातिरित्तं गो-महिसि-अजाखीरं गोवपयं अच्छेत्तुं गोवालए य भयए घणउदही घणवलया घतसत्तुगदिटुंतो घरकोइलसंचारा घासेसणा तु भावे घेत्तव्वमलेवकडं घेप्पति अकुंचियागम्मि चउरिदियाण मच्छिय........ चउरो अतिक्कम-वतिक्कमे चंदोदयं च सूरोदयं चंपा छणम्मि घेच्छामि
भा. ५
७०/३
१७३/२
३८
१७३
१६
१७७/२
१६३/७
३०३
२९५/१
१६४ ३५ ८२
२२०/१
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२०
३६
पिंडनियुक्ति २३१/११ २९५/६ २३१/७
१५३
१०५/१
६३
२५१/२ भा. ३५ २३१/३ ७३/२२
२५१
२६३/३ २४०/४
चम्मऽट्ठि-दंत-नह-रोम चरणकरणालसम्मी
१३६/४ चरितं व कप्पितं वा
३०२/१ चाउलोदगं पि से देहि
७६/५ चाणक्क पुच्छ इट्टाल...... भा. ३७ चुण्णे अंतद्धाणे
२३० चुल्ल त्ति दारमहुणा १८१/१ चुल्ली अवचुल्लो वा भा. २५ चुल्लुक्खलिया डोए ११२ चुल्लुक्खा कम्मादी
११३/१ चोदग! इंधणमादीहि ११६/३ छउमत्थोघुद्देसं
९५/१ छउमत्थो सुतनाणी २३९ छक्कायनिरणुकंपा छक्कायवग्गहत्थ ति
२८४ छक्कायवग्गहत्था
२६८ छब्बग वारगमादी छहि कारणेहि साधू
३१७ छायं पि विवज्जती ८०/१ छिण्णमछिण्णो दुविहो १८२ छिण्णो दिट्ठमदिट्ठो
१८३ छिन्नमछिन्नं दुविधं छिन्नम्मि तओ ओकड्डियम्मि १८८/१ जइणो वीसाऽभिग्गह ७३/१८ जइणो सावग निण्हग ७३/१९ जइ पच्छकम्मदोसा २९५/२ जइ वि य ता पज्जत्ता २१९/२
१०६
जइ वि सुतो मे होहिति जइ से न जोगहाणी जंघापरिजित सड्डी जंघा बाहु तरीइ व जं जह व कतं दाहं जं दव्वं उदगादिसु जं पुण अचित्तदव्वं जंघाहीणा ओमे जणसावगाण खिंसण जत्थ उ ततिओ भंगो जत्थ उ सचित्तमीसे जत्थ तु थोवे थोवं जदि संका दोसकरी जम्मं एसति एगो जस्स पुण पिंडवायट्ठया जह कम्मं तु अकप्पं जह कारणं तु तंतू जह कारणमणुवहतं जह चेव पुव्वलित्ते जह चेव य निक्खित्ते जह चेव य संजोगा जह जह पदेसिणिं जह तिपदेसो खंधो जह ते दंसणकंखी जह वंतं तु अभोज्ज जहेव कुंभादिसु पुव्वलित्ते जा जयमाणस्स भवे
५२/१
भा.
३
.
१२७
४९/१ ४९/२
१६३/३
२५७, २६१ २९०
९९
२२८/१
४१/२
९१४
१६३/६ ३२४
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--------------------------------------------------------------------------
________________
परि. २ : पदानुक्रम
२२१
१९८८ भा. २२ २०६ २०७ २०३ २१९/७ २४०/३ १२१ ७३/४
३१४ १९२/४ भा. २३ भा. १९ ८०/५ ३२०/२
८१/१
५७/४
४१
१८८
३०२/३ २९५/८
९८
१७/३
१७१
५३/१
जा जेण होति वण्णेण जाणंतमजाणतो जाती-कुल-गण कम्मे जाती-कुले विभासा जामातिपुत्तपतिमारणं जायसु न एरिसो हं जारिसिए च्चिय लद्धा जावंतट्ठा सिद्धं जावंत देवदत्ता जावंतिए विसोधी जावंतिगमुद्देसं जाव न बहुप्पसन्नं जितसत्तु देवि चित्तसभ जीवत्तम्मि अविगते जीवामु कह वि ओमे जुज्जति गणस्स खेत्तं जे विज्ज-मंतदोसा जे वि य पडिसेवंती जोग्गाऽजिण्णे मारुत...... जो जहवायं न कुणति जोतिस-तणोसहीणं जोती पदीव कुणती जो पुण वीसामिज्जति ठाण-निसीय-तुयट्टण ढड्डरसर छुन्नमुहो तंडुल-जल-आदाणे तं पि य सुक्के सुक्कं
२९३ ९४/१
तं होति सइंगालं ततियम्मि करं छोढुं तत्थ विभागुद्देसिय तत्थाणंता उ चरित्त..... तम्हा न एस दोसो तवहेतु चउत्थादी तस्स कडनिट्टितम्मि य तस्सेवं वेरग्गुग्गमेण तिन्नि उ पदेससमया तिबलागमुहम्मुक्को तिय सीतं समणाणं तिरियायतमुज्जुगेण तिविधो उ दव्वपिंडो तिविधो तेउक्काओ तिविधो होति पसत्थो तुज्झट्ठाए कयमिण..... तुल्ले वि अभिप्पाए तेण समं पव्वइता तेणा व संजतट्ठा तेसिं गुरूण मुदएण थक्के थक्कावडियं थुल्लाएँ विगडपादो थेर पभु थरथरते थेरी दुब्बलखीरा थेरो गलंतलालो थोवे थोवं छूढ़ दइएण वत्थिणा वा
७६/१
८९/८
२३१
भा.६
६८८
२१९/१५ १७७
५७/३
८३/३
६४/३
५७/१
७६/४
१३८/५
२२/१
१९८/१५ २८८/२ १९८/७
१४ १९८/१४
२७३
१८७
२६४/१
२९१/१
२८
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२२२
दंसण चरणे पढमो
दंसण - नाण- चरित्ताण
दंसण - नाण- चरित्ते
दंसण-नाणप्पभवं
बीए संघट्ट दट्ठूण तणारं
दद्दर सिल सोवाणे
दव्वम्मि अत्तकम्मं
दव्वम्मि लड्डुगादी दव्वाइओ विवेगो
दव्वादी छिन्नं पि हु
दव्वाया खलु काया दव्वीछूढे तिजं वृत्तं
दव्वे अच्चित्तेणं
दव्वे भावे संजोयणा
दस ससिहागा सावग
दहि- तेल्लसमा ओगा
दाणं न होति अफलं
दाण कयविक्कए वा
दायव्वमदायव्वं
दाहं ति तेण भणितं
दिज्जंते पडिसेधो
दिट्ठ खीरं खीरं
दिण्णाउ ताउ पंच वि
दुगमादी सामने
दुग्गा तं समइच्छिया
दुविधं च मक्खितं खलु
७३/१६
४५/१
७३/३
५७/५
२८१
१३६/२
१७०
६७
५७
१९२/१
१००
६६
११३/३
४७
३०४
७३/८
३१३/१
२१३
१६३/५
२९१
२१९/५
१४२/२
७०/२
९५/२
२९४
भा. २४
२४२
दुविधविराधण उसिणे दुविधो उ संथवो खलु
दुविधो य भावपिंडो
दूइत्तं
गरहितं
दाराभोगण गागि
देह इमं मा सेसं
दोन्नि उ साहुसमुत्था
दोसग्गी वि जलंतो
धणुजुयकायभराणं
धम्मक वाय खमगे
धम्महाअक्खित्ते
धाई दूती निमित्ते
धारयति धीयते वा
धूयदुगं संदेसो
धोयं पि निरावयवं
धोवत्थं तिन्नि दिणे
नणु सुहुमपूइयस्सा
नत्थि छुहाय सरिसिया
नदिकण्ह वेण्णदीवे
नव चेवऽट्ठारसगं
नवणी-मत्थु तक्कं
नाण-चरित्ता एवं
नाण- दंसण तव संजमो
नानिव्विट्टं लब्भति
नामं ठवणा दविए
नामं ठवणापिंडो
पिंड नियुक्ति
२५४
२२१
४३
२०१/२
भा. ३३
९९/२
२३५
३१४/३
६१/१
१४३
१४३/१
१९५
१९८
२१९/११
११७/१
भा. ११
११६/२
३१८/१
२३१/२
१९२/७
१२८/३
७३/१०
४४/२
१७३/४
५२,५३,७३,
१९४,२३६,३०२
४
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--------------------------------------------------------------------------
________________
परि. २ : पदानुक्रम
२२३
११८
९१/२
३०८
७३/२१
२५३/३ ६७/२
८०/२ १६३/४ २२७/१
१४७
१६०
नामम्मि सरिसनामो निग्गंथ-सक्क-तावस निग्गम देउल दाणं निच्छयओ सच्चित्तो निच्छयनयस्स चरणाय........ निद्धेयरो य कालो निम्मल्लगंधगुलिया नियमा तिकालविसए निवपिंडो गयभत्तं निव्वाणं खलु कज्जं निव्वोदगस्स गहणं नीयं पहेणगं मे नीयदुवारम्मि घरे नीसमणीसा व कडं नेच्छह तमिसम्मि तओ नोघरंतरऽणेगविधं पंचविहविसयसोक्ख पंडग अप्पडिसेवी पकामं च निकामं च पच्छासंथवदोसा पडिमंतथंभणादी पडियरणपदोसेणं पडिलाभित वच्चंता पडिविजथंभणादी पडिसेवण पडिसुणणा पडिसेवणमादीणं पडिसेवणाइ तेणा
७३/१
पढमदिवसम्मि कम्म २०९ पत्तलदुमसालगता १५७/२ पत्तेय पउरलंभे १०
पत्तेयबुद्ध-निण्हग ६६/१ पयसमदुगअब्भासे भा. १२ परकम्म अत्तकम्मीकरेति १४१ परपक्खो उ गिहत्था २०४
परपच्चइया छाया १८५
परस्स तं देति स एव गेहे ४९
परिपिंडितमुल्लावो २२/४ परियट्टिए अभिहडे १५७/६ परियट्टियं पि दुविधं १३६/३, १३६/५ परिवेसणपंतीए
परिसडितपंडुपत्तं १३८/२ परिसेय-पियण-हत्था..... १५६
पल्लीवधम्मि नट्ठा ९६/२
पवयणमाया नव बंभ... २८८/५ पाउयदुरूढपडणं ३१२
पाएण देति लोगो २२३ पाओकरणं दुविधं २२९
पागडपगासकरणे १७३/३ पामिच्चं पि य दुविधं २३१/४ पायस्स पडोयारो २२८ पायस्स पडोयारो
पासंडीसमणाणं
पासंडीसु वि एवं ६८/६
पासोलित्तकडाहे
७३/६
२३६/१
६९/१
४४/३ २७७ २१०/३ १३७ १३८/६
१४४
२२ भा. ८
७३/७
६८/१
७३/५
२५३, २५३/२
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२२४
पिंडनियुक्ति
२८७
३०२/५
१३६
२६५
२७०
३४
१३१ भा. २
१७/१
२६७ २१४ ६४/१ १९४/३ ५२/३ १३०
१६२
२८८/६
२४७
२१४/१
पाहुडि-ठवियगदोसा पाहुडिभत्तं भुंजति पाहुडियं च ठवेंती पाहुडिया वि य दुविधा पिंडण बहुदव्वाणं पिंड-निकाय-समूहे पिंडस्स उ निक्खेवो पिंडे उग्गम-उप्पाय...... पिहितुब्भिण्णकवाडे पीसंती निप्पिटे पुढवी आउक्काए पुढवी आउक्काओ पुढवी आउ वणस्सति पुढवीकाओ तिविधो पुत्तस्स विवाहदिणं पुप्फाणं पत्ताणं पुरपच्छकम्म ससिणिद्ध..... पुट्विं पच्छा संथव पूतीकम्मं दुविधं पोरिसितिगमच्चित्तो बंधति अहेभवाउं बज्झति य जेण कम्म बत्तीसं किर कवला बत्तीसाइ परेणं बत्तीसा सामन्ने बहुयातीतमतिबहुं बादर सुहुमं भावे
बायालीसेसणसंकडम्मि बाले वुड्ढे मत्ते बिय-तिय चउरो पंचिंदिया बेइंदियपरिभोगो भंडगपासवलग्गा भज्जंती व दलेंती भणति य नाहं वेज्जो भावावयारमाहित्तु भावे पसत्थ इतरा भावेसणा उ तिविधा भिक्खग्गाही एगत्थ भिक्खादि गतो रोगी भिक्खादी वच्चंते भिक्खामत्ते अवियालणा भिक्खुदग समारंभे भिक्खू जहण्णगम्मी भिक्खे परिहायंते भुंजंति चित्तकम्मट्ठिता भुंजंती आयमणे भुंजण अजीर पुरिमड्डगाइ भुंज न भुंजे भुंजसु भुत्तुव्वरितं खलु संखडिए भोमाइएसु तं पुण मइमं अरोगि दीहा..... मइलिय फालिय-खोसिय मंगलहेतुं पुण्णट्ठया मंडलपसुत्तिकुट्ठी
२०१/१ २८८/१ १४४/३
३१
१६६ भा. ३६
२४३/२
१९६
२०९/१
२८०
१०७ भा. १५
१५७/३
६४/२
६८/१०
२६३
३१० ३१२/१
१९८/२
१७९
१४५
३१२/३
१३५/१
१११
२८८/४
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
________________
परि. २ : पदानुक्रम
२२५
२४५/२
१३८/३
२१९/९ २१९/१२ ६९/३
८६
१५७/५
भा. १४ २६२
२२०
२०८/१
१७९/२
२९५/७ ९६/४
७३/१२ ७३/१४
१०१/२
१०३
७३/१३ २९५/३ भा. २९
११७/२
मंस-वस-सोणियासव मच्छिय-घम्मा अंतो मज्जारखइयमंसा मज्झिमनिद्धे दो पोरिसीउ मत्तेण जेण दाहिति मयमातिवच्छगं पि व मरहट्ठग कोसलगा महतीय संखडीए मा एयं देह इमं मा काहिंति अवण्णं मा ताव झंख पुत्तय! मातिपिति पुव्वसंथव मा ते फंसेज्ज कुलं मायावी चडुकारी मालम्मि कुडे मोदग मालाभिमुहिं दट्ठण मालोहडं पि दुविधं मासिगपारणगट्ठा मिच्छत्तथिरीकरणं मीसज्जातं जावंतिगं मुत्तदविएसु जुज्जति रयणपदीवे जोती रस-कक्कब-पिंडगुला रसभायणहेतुं वा रसहेतुं पडिसिद्धो रागग्गिसंपलित्तो रागेण सइंगालं
१३२ २२२ २३१/८ २२४
रायगिहे धम्मरुई रायगिहे य कदाई रायऽवरोहऽवराहे लद्धं पहेणगं मे लब्भंतं पि न गिण्हति लाभित शिंतो पुट्ठो लिंगादीहि वि एवं लिंगेण उ नाभिग्गह लिंगेण उ साधम्मी लित्तं ति भाणिऊणं लेवालेव त्ति जं वुत्तं लोए वि असुइगंधा लोगाणुग्गहकारिसु लोण-दग-अगणि-वत्थी लोणागडोदए एवं लोयविरलुत्तिमंगं लोलति महीय धूलीय वइयादि मंखमादी वंतुच्चारसरिच्छं वड्डति हायति छाया वड्डेति तप्पसंगं वणसइकाओ तिविधो वण्णादिजुया वि बली वय-गंडथुल्लतणुगत्त...... वाउक्काओ तिविधो वाघातेण नियत्तो वासघरे अणुजत्ता
२१०/१ २८२
१६६/२
७७
१६६/१
१६५
१३६/१ १९८/११ १४२
९०/२
२१०
८९
१२०
८०/३
४१/१
८३/४
१३८
२९
१२९
१०२
१९८/५
३०९
२६
३१४/२ ३१५
२१९/१३ ५७/२
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२२६
पिंडनियुक्ति
३२
भा. ९
१२५ २१७ २२७ २५२/१
१०१/१
३०६
२५२
६८/५
२२६/१
२८५
५४
२४५/१
५५
२९९
१२३
संथार-पाय-दंडग संथारुत्तरचोलग संदिस्संतं जो सुणति संजोयणाएँ दोसो संवासो उ पसिद्धो संसज्जिमम्मि देसे संसज्जिमेहि वज्जं संसद्रुतरहत्थो संसत्तेण य दव्वेण संसोधण-संसमणं सग्गाम-परग्गामे सग्गामे वि य दुविधं सच्चित्तपुढविकाए सच्चित्तपुढविलितं सच्चित्तमक्खितम्मी सच्चित्तमीसएसुं सच्चित्ते अच्चित्ते
७३/९
३१८
२६९ २१४/३ १५२, २०० १५५ २४८
२७५
विच्छोडिते करीसेण विज्जा-तवप्पभावं विज्जामंतपरूवण विज्झाउ त्ति न दीसति विज्झात मुम्मुरिंगाल..... विमलीकयऽम्ह चक्खू वियमेतं कुरंगाणं वियमेतं गजकुलाणं विसघातिय पिसियासी विसरिसदसणजुत्ता वेदण-वेयावच्चे वेविय परिसाडणया वोलिंता ते उ अन्ने संकाए चउभंगो संकामेडं कम्म संकित मक्खित निक्खित्त संखडिकरणे काया संखाईयाणि उ कंडगाणि संखेवपिंडितत्थो संघुद्दिटुं सोउं संचारिमा य चुल्ली संजतभद्दा तेणा संजमठाणाणं कंडगाण संजातलित्तभत्ते संजोयणमइबहुयं संजोयणा उ भावे संथरे सव्वमुझंति
७६/२
१६३/१
२३८ ११४ २३७
२४४ २४६ २५६, २६०, २८९, ३००
२३२
भा. २०
५०
३७
११६/४
९०/१ १३८/१
१२६
१७७/१
२२०/२
६४
सच्चित्ते पव्वावण सज्झमसझं कज्ज सट्ठाण-परट्ठाणे सड्डड्डरत्त केसर.... सड्ढस्स थोवदिवसेसु सद्दादिएसु साहू समणकडाहाकम्म समणे माहण किवणे सम्ममसम्मा किरिया
११९/१
१०८/२
३०३/१
९६ ११९ २०८ २०७/२
३०७
१९२/५
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--------------------------------------------------------------------------
________________
परि. २ : पदानुक्रम
२२७
२३६/२
१९२/२
१४४/१
२४०
९१/३
१५६/१
६९/४
२३१/१
९१/१
७३/१७
१४२/१
१३६/६
२१९/६ १९२ २८८८ २४३/३ ११७/३
६८/९
१७४
८९/१ ८२/१
सयमेवालोएउं सवलय घण-तणुवाया सव्वो वणंतकाओ सहसा पविट्ठ दिट्ठा साउं पज्जत्तं आदरेण सा उ अविसेसितं चिय साग जइ वीसऽभिग्गह सागारि मंख छंदण साधुगुणेसणकहणं सामत्थण रायसुते सामी चारभडा वा साली-ओदण हत्थं साली-घत-गुल-गोरस सालीमादी अगडे साहम्मऽभिग्गहेणं साहारणं बहूणं सिझंतस्सुवकारं सिति-अवणण पडिलाभण सी-उण्ह-खार-खत्ते सीते दवस्स एगो सीतो उसिणो साहारणो सीवण्णिसरिसमोदग......... सुइ-भद्दगदित्तादी सुक्केण वि जं छिक्कं सुक्केण सरक्खेणं सुक्के सुक्कं पडितं सुक्के सुक्कं पढमो
सुक्कोल्ल सरिसपाए सुतअभिगमणातविधी सुत्तस्स अप्पमाणे सुन्नं व असति कालो सूभगदोभग्गकरा सूरोदयं गच्छमहं पभाते सेडंगुलि बगुड्डावे सेसा विसोधिकोडी. सेसेसु य पडिवक्खो सेसेहि उ काएहिं सेसेहि उ दव्वेहिं सो एसो जस्स गुणा सोलस उग्गमदोसा सोलस उग्गमदोसे सोवीर-गोरसासव हत्थंदुनिगलबद्ध हत्थकप्प-गिरिफुल्लिय हत्थसयं खलु देसो हत्थसयमेग गंता हत्थिग्गहणं गिम्हे हरितादी ऽणंतरिया हियएण संकितेणं हिययम्मि समाहेउं हियाहारा मियाहारा होति पभू घरभाणे होमादऽवितहकरणे
२२५/१ ३२२ १९३
७३/११
४०
२८६
२६६
११३
२१६
२१९/८
१५९ २७/२ ५४/१
२५५
१२, १८ ३१३/४ ३१३/३ ५३/२ २८८/३ भा. २८ २४३/१
२४०/२
भा. १८ ३१३
१७३/१
१९२/३
२०७/१
२६३/१
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
m
२३३
२३५
कथाओं की विषय-सूची १. गवेषणा : कुरंग-दृष्टान्त २. गवेषणा : गज-दृष्टान्त
२३० ३. उद्गम : लड्डकप्रियकुमार कथानक
• २३१ ४. प्रतिसेवना : चोर-दृष्टान्त
२३१ ५. प्रतिश्रवण : राजपुत्र-दृष्टान्त
२३२ ६. संवास : पल्ली-दृष्टान्त
२३२ ७. अनुमोदना : राजदुष्ट-दृष्टान्त
२३३ ८. आधाकर्म : शाल्योदन-दृष्टान्त ९. आधाकर्म : पानक-दृष्टान्त
२३५ १०. अतिक्रम आदि दोष : नूपुरपंडिता का कथानक ११. आधाकर्म की अभोज्यता : वमन-दृष्टान्त
२३७ १२. अविधिपरिहरण : साधु-दृष्टान्त
२३८ १३. आधाकर्म में परिणत : संघभोज्य दृष्टान्त १४. विधि-परिहरण : प्रियंकर क्षपक दृष्टान्त
२३९ १५. आज्ञा की आराधना-विराधना : उद्यानद्वय दृष्टान्त १६. अनासक्ति : गोवत्स-दृष्टान्त
२४० १७. द्रव्यपूति : गोबर-दृष्टान्त
२४१ १८. क्रीतकृत दोष : मंख-दृष्टान्त
२४२ १९. लौकिक प्रामित्य : भगिनी-दृष्टान्त
२४२ २०. परिवर्तित दोष का लौकिक-दृष्टान्त २१. अभ्याहत दोष : मोदक-दृष्टान्त २२. मालापहृत दोष : भिक्षु-दृष्टान्त
२४६ २३. मालापहृत दोष : वसुन्धरा-दृष्टान्त २४. आच्छेद्य दोष : गोपालक-दृष्टान्त
२४७ २५. अनिसृष्ट दोष : लड्डुक-दृष्टान्त
२४८ २६. धात्रीदोष : संगमसूरि और दत्त कथानक
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कथाओं की विषय-सूची
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२७. दूती दोष : धनदत्त कथा २८. निमित्त दोष : ग्रामभोजक-दृष्टान्त २९. चिकित्सा दोष : सिंह-दृष्टान्त ३०. क्रोधपिण्ड : क्षपक-दृष्टान्त ३१. श्वेताङ्गुलि ३२. बकोड्डायक ३३. किंकर ३४. स्नायक ३५. गृध्रइवरिङ्खी ३६. हदज्ञ ३७. मानपिण्ड : सेवई-दृष्टान्त ३८. मायापिण्ड : आषाढ़भूति कथानक ३९. लोभपिण्ड : सिंहकेशरक मोदक दृष्टान्त ४०. विद्या प्रयोग : भिक्षु-उपासक का कथानक ४१. मंत्र-प्रयोग : मुरुण्ड राजा एवं पादलिप्तसूरि कथानक ४२. चूर्ण-प्रयोग : क्षुल्लकद्वय एवं चाणक्य कथानक ४३. योग-प्रयोग : कुलपति एवं आर्य समित कथानक ४४. मूलकर्म-प्रयोग : भिन्नयोनिका कन्या-दृष्टान्त ४५. मूलकर्म-प्रयोग : विवाह-दृष्टान्त ४६. गर्भ-परिशाटन एवं आदान : राजपत्निद्वय-दृष्टान्त ४७. द्रव्य ग्रहणैषणा : वानरयूथ-दृष्टान्त ४८. बालदायक : बालिका-दृष्टान्त ४९. छर्दित दोष : मधुबिन्दु-दृष्टान्त ५०. द्रव्य ग्रासैषणा : मत्स्य-दृष्टान्त
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परिशिष्ट-३
कथाएं
१. गवेषणा : कुरंग-दृष्टांत
क्षितिप्रतिष्ठित नामक नगर में जितशत्रु राजा राज्य करता था। उसकी पटरानी का नाम सुदर्शना था। एक बार गर्भिणी रानी ने राजा के साथ चित्रसभा में प्रवेश किया। वहां उसे चित्रलिखित सुनहरे पीठ वाले मृगों को देखकर उनका मांस खाने का दोहद पैदा हो गया। दोहद पूरा न होने पर क्रमश: उसका शरीर दुर्बल होने लगा। उसको देखकर राजा ने खेदपूर्वक पूछा-'प्रिये! तुम्हारा शरीर प्रतिदिन इतना दुर्बल क्यों हो रहा है?' रानी ने राजा को अपने दोहद की अवगति दी। राजा ने तत्काल कनक पृष्ठ वाले मृगों को लाने के लिए राजपुरुषों को भेजा। राजपुरुषों ने अपने मन में सोचा कि जिस व्यक्ति को जो प्रिय होता है, वह उसमें आसक्त होकर प्रमादपूर्वक उस सुख में लीन हो जाता है। कनकपृष्ठ मृगों को श्रीपर्णी फल प्रिय होते हैं। यद्यपि वे इस समय नहीं मिलते हैं लेकिन श्रीपर्णी फल के समान मोदकों को बनाकर श्रीपर्णी वृक्ष के नीचे अधिक मात्रा में रखकर जाल को बिछाने से वे आकृष्ट हो जाएंगे। उन्होंने वैसा ही किया। कनकपृष्ठ वाले मृग घूमते हुए अपने यूथपति के साथ वहां आ गए। यूथपति ने श्रीपर्णी फल के आकार वाले ढ़ेर सारे मोदकों को देखकर मृगों से कहा-'तुम लोगों को जाल में बद्ध करने के लिए किसी धूर्त ने यहां जाल बिछाया है। इस मौसम में श्रीपर्णी फल नहीं फलते हैं। यदि फलते हैं तो भी इतनी मात्रा में नहीं होते। यदि ऐसा माने कि वायु के कारण इतने फल नीचे गिरे हैं, यह भी संभव नहीं है क्योंकि पहले भी वायु चलती थी लेकिन इतने सारे फल कभी नहीं गिरे अतः ऐसा प्रतीत होता है कि यह जाल हम लोगों के बंधन हेतु डाला गया है। तुम लोग इन फलों के पास मत जाना।' जिन मृगों ने यूथपति की बात को स्वीकार किया, वे दीर्घजीवी और सुखी हुए। आहार की लोलुपता के कारण जिन मृगों ने उसकी बात को स्वीकार नहीं किया, वे जाल में फंसकर दुःखी हो गए। २. गवेषणा : गज-दृष्टांत
आनंदपुर नामक नगर में रिपुमर्दन राजा राज्य करता था। उसकी पटरानी का नाम धारिणी था। उसकी नगरी के पास सैकड़ों हाथियों से युक्त विन्ध्य पर्वत की उपत्यका में एक अरण्य था। एक बार राजा ने चिन्तन किया कि गज-बल राजा का सबसे बड़ा बल होता है अतः उसने हाथियों को पकड़ने के लिए अपने व्यक्तियों को प्रेरित किया। राजपुरुषों ने सोचा कि हाथियों को नलचारी अच्छी लगती है लेकिन वह वर्षाकाल में होती है। अभी ग्रीष्मकाल में संभव नहीं है। इस समय अरघट्ट-पानी निकालने के चरखे से सरोवर को भर दिया जाए, जिससे नलवण वनस्पति अधिक मात्रा में उग जाएगी। उन्होंने वैसा ही किया। नलवण के पास चारों ओर जाल बिछा दिए गए। इधर-उधर घूमते हुए हाथी अपने यूथपति के साथ वहां आए। उन नलवणों को देखकर यूथाधिपति ने हाथियों को सावधान किया-'यह नलवण वनस्पति
१. गा. ५३/१-५४ वृ प. ३०, ३१ ।
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परि. ३ : कथाएं
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स्वाभाविक नहीं हैं। संभव है हम लोगों के बंधन हेतु किसी धूर्त ने यह जाल बिछाया है। इसके अतिरिक्त तालाब हमेशा वर्षाकाल में भरते हैं, ग्रीष्मकाल में नहीं। यदि कोई यह कहे कि विन्ध्य पर्वत के झरने के प्रवाह से सरोवर भरे हैं और नलवण उगे हैं तो यह बात भी तर्क संगत नहीं है क्योंकि पहले भी अनेक झरने थे लेकिन सरोवर कभी भी इतने पानी से नहीं भरे।' जिन हाथियों ने यूथपति के वचनों का पालन किया, वे दीर्घकाल तक सुखपूर्वक वन में विचरण करते रहे लेकिन जिन्होंने पालन नहीं किया वे बंधनग्रस्त होकर दुःखी हो गए। ३. उद्गम : लड्डुकप्रियकुमार कथानक
श्रीस्थलक नामक नगर के राजा का नाम भानु था। उसकी पटरानी का नाम रुक्मिणी और पुत्र का नाम सुरूप था। पांच धात्रियों के द्वारा राजकुमार का सुखपूर्वक पालन-पोषण हो रहा था। नागकुमार देवों की भांति वह अनेक स्वजनों को आनंद देता हुआ कौमार्य अवस्था को प्राप्त हुआ। शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की कलाओं की भांति अनेक कलाओं से वृद्धिंगत होता हुआ, सुंदर स्त्रियों के मन को प्रसन्न करता हुआ कुमार यौवन अवस्था को प्राप्त हुआ। उसको मोदक बहुत प्रिय थे अतः लोक में उसका 'मोदकप्रिय' नाम प्रसिद्ध हो गया।
एक दिन वह कुमार प्रात: बसन्तकाल में शयनकक्ष से उठकर सभामण्डप में गया। वहां सुंदर नृत्य आदि का आयोजन था। भोजन-वेला आने पर उसकी मां ने उसके लिए मोदक भेजे। उसने परिजनों के साथ यथेच्छ मोदक खाए। रात्रि में गीत-नृत्य आदि के कारण जागरण होने से वे मोदक पचे नहीं। अजीर्ण दोष के कारण उसकी अपान वायु दूषित हो गई। वह दुर्गन्ध उसके नाक तक पहुंची। कुमार ने सोचा कि ये मोदक घृत, गुड़ और आटे से बने हैं। ये तीनों पदार्थ शुचि हैं लेकिन शरीर के सम्पर्क से ये अशुचि रूप में परिणत हो गए। कपूर आदि सुरभित पदार्थ भी शरीर के सम्पर्क से क्षणमात्र में दुर्गन्धयुक्त हो जाते हैं। इस प्रकार के अशुचि रूप तथा अनेक दोषों से युक्त इस शरीर के लिए जो व्यक्ति पापकर्म का सेवन करते हैं, वे सचेतन होते हुए भी मोहनिद्रा के कारण अचेतन जैसे ही होते हैं। विद्वत्ता वही प्रशंसनीय होती है, जो हेय और उपादेय तथा हान और उपादान का चिन्तन करती रहती है। वे व्यक्ति धन्य हैं, जो शरीर से निस्पृह होकर सम्यक् शास्त्र के अभ्यास से ज्ञानामृत के सागर में निमज्जन करते रहते हैं, शत्रु और मित्र के प्रति सम रहते हैं, परीषहों को जीतते हैं और कर्मों के निर्मूलन के लिए प्रयत्न करते रहते हैं। राजकुमार ने चिंतन करते हुए सोचा कि मैं भी महान् व्यक्तियों द्वारा आचीर्ण मार्ग का अनुगमन करूंगा। इस प्रकार उस मोदकप्रिय राजकुमार के मन में वैराग्य का उद्गम होने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र का उद्गम हो गया और उसे कैवल्य की प्राप्ति हो गई। ४. प्रतिसेवना : चोर-दृष्टान्त
किसी गांव में बहुत डाकू रहते थे। एक बार वे किसी सन्निवेश से गाय चुराकर अपने गांव की
१. गा. ५४/१, ५५ वृ प. ३१, ३२ । २. गा. ५७/२-४ वृ प. ३३, ३४ ।
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पिंडनियुक्ति ओर जाने लगे। रास्ते में उनको अन्य डाकू भी मिल गए। वे भी उनके साथ चलने लगे। चलते-चलते वे अपने गांव के पास आ गए। गांव की सीमा आने पर वे निर्भय हो गए। भोजन-वेला में उन्होंने कुछ गायों को मारकर उनका मांस पकाना प्रारंभ किया। इसी बीच कुछ अन्य पथिक भी वहां आ गए। डाकुओं ने उन्हें भी भोजन हेतु आमंत्रित किया। गोमांस पकने पर कुछ दस्यु एवं पथिकों ने उसे खाना प्रांरभ कर दिया। गोमांस का भक्षण बहुत बड़े पाप का हेतु है, यह सोचकर कुछ पथिकों ने वह भोजन नहीं किया। केवल दूसरों को परोसने का कार्य किया। इसी बीच हाथ में तलवार धारण किए हुए कुछ राजपुरुष वहां आ गए। उन्होंने चोरों के साथ भोजन करने वालों और परोसने वालों को भी पकड़ लिया। जिन पथिकों ने कहा कि हम तो रास्ते में मिले थे, हम चोर नहीं हैं, उनको राजपुरुषों ने कहा कि तुम गोमांस को परोसने वाले हो अतः चोर की भांति अपराधी हो। उन सबको प्राणदंड की सजा दी गई। ५. प्रतिश्रवण : राजपुत्र-दृष्टांत
गुणसमृद्ध नामक नगर में महाबल नामक राजा राज्य करता था। उसकी पटरानी का नाम शीला था। उसके बड़े पुत्र का नाम विजितसमर था। राज्य को ग्रहण करने के लिए उसने पिता के बारे में गलत ढंग से सोचना प्रारंभ कर दिया-'यह मेरा पिता वृद्ध होते हुए भी मरण को प्राप्त नहीं होता, लगता है यह दीर्घजीवी होगा। मैं अपने सैनिकों की सहायता से इसको मारकर राजगद्दी पर बैलूंगा।' उसने अपने सैनिकों के साथ मंत्रणा करनी प्रारंभ कर दी। उनमें से कुछ सैनिक बोले-'राजकुमार! हम आपकी सहायता करेंगे।' दूसरे बोले-'आप इस प्रकार कार्य करें तो ठीक रहेगा।' कुछ सैनिक उस समय मौन रहे । कुछ सैनिकों को यह बात अच्छी नहीं लगी अतः उन्होंने राजा को सारी स्थिति का निवेदन कर दिया। राजा ने सहायता करने वाले, सुझाव देने वाले तथा मौन रहने वाले सैनिकों के साथ ज्येष्ठ राजकुमार को अग्नि में डाल दिया। जिन सैनिकों ने आकर इस बात की सूचना दी, उनको सम्मानित किया। ६. संवास : पल्ली-दृष्टांत
__बसन्तपुर नामक नगर में अरिमर्दन राजा और प्रियदर्शना पटरानी थी। बसन्तपुर के पास भीमा नामक पल्ली थी, वहां अनेक भील दस्यु और वणिक् रहते थे। वे दस्यु सदैव अपनी पल्ली से निकलकर अरिमर्दन राजा के नगर में उपद्रव करते थे। राजा का कोई भी सामन्त और माण्डलिक उनका निग्रह नहीं कर सका। नगर में होने वाले उपद्रवों को सुनकर अत्यन्त क्रुद्ध होकर साधन-सामग्री के साथ राजा भील दस्युओं की पल्ली की ओर गया। भील सामने आकर संग्राम के लिए उद्यत हो गए। प्रबल सेना के कारण राजा ने उत्साहित होकर उन सबको पराजित करके मारना प्रारंभ कर दिया। उनमें से कुछ मृत्यु को प्राप्त हो गए तथा कुछ वहां से भाग गए। राजा ने क्रोधपूर्वक उस पल्ली पर अपना अधिकार कर लिया। वहां रहने वाले वणिकों ने सोचा कि हम चोर नहीं हैं अतः राजा हमारा क्या कर सकेगा? यही सोचकर उन्होंने
१. गा. ६८/७,८ वृ प. ४७, पिंप्र१३ टी प. १५। २. गा. ६८/९ व प. ४७, पिंप्र १३ टी प. १६।
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परि. ३ : कथाएं
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वहां से पलायन नहीं किया। राजा ने उनको भी बंदी बना लिया। वणिकों ने राजा से निवेदन किया-'हम बनिए हैं, चोर नहीं।' उनकी बात सुनकर राजा ने कहा-'तुम लोग चोर से भी अधिक अपराधी हो क्योंकि तुम अपराध करने वाले चोरों के साथ रहते हो।' राजा ने उन सब वणिकों का निग्रह कर लिया। ७. अनुमोदना : राजदुष्ट-दृष्टांत
श्रीनिलय नामक नगर में गुणचन्द्र नामक राजा राज्य करता था। उसकी पटरानी का नाम गुणवती था। उस नगर में सुरूप नामक वणिक् निवास करता था। उसका शरीर कामदेव से भी अधिक सुंदर था। सुंदर स्त्रियां उसकी अभिलाषा करती रहती थीं। वह परस्त्री में अनुरक्त रहता था। एक बार वह राजा के अंतःपुर के समीप से गुजर रहा था। अंत:पुर की रानियों ने रागयुक्त दृष्टि से उसे देखा। उसने भी उसी दृष्टि से उनको देखा। उनका आपस में अनुराग हो गया। दूती के माध्यम से वह प्रतिदिन उनके साथ भोग भोगने लगा। राजा के पास यह वृत्तान्त पहुंचा। जब वह अंत:पुर में पहुंचा तो राजपुरुषों ने उसको पकड़ लिया। वह जिन आभूषणों को पहनकर अंत:पुर में प्रविष्ट हुआ था, उन्हीं आभूषणों से युक्त उसको सब लोगों के समक्ष नगर के चौराहे पर अपमानपूर्वक मार दिया गया। अपने अंत:पुर का विनाश देखकर राजा बहुत दु:खी हो गया। उसका प्राणघात करने पर भी राजा का क्रोध शान्त नहीं हुआ। उसने अपने दूतों को बुलाकर कहा-'नगर में जाकर ज्ञात करो कि कौन उस दुष्ट की प्रशंसा कर रहा है और कौन उसकी निंदा कर रहा है।' दोनों की मुझे जानकारी दो। कार्पटिक वेश में वे राजपुरुष पूरे नगर में घूमने लगे। कुछ लोग कह रहे थे कि जन्म लेने वाला हर व्यक्ति मरता है। हम लोग अधन्य हैं क्योंकि अंत:पुर की रानियां कभी हमारी दृष्टिपथ पर नहीं आतीं लेकिन वह व्यक्ति धन्य है, जो चिरकाल तक उसका सुख भोगकर मरा है। दूसरे कुछ व्यक्ति कहने लगे-'यह व्यक्ति निंदा का पात्र है, अधन्य है जिसने उभय लोक के विरुद्ध कार्य किया है। राजा की रानियां मां के समान होती हैं। उनके साथ भोग भोगने वाला शिष्ट व्यक्तियों के द्वारा प्रशंसा का पात्र कैसे हो सकता है?'
राजपुरुषों ने उन दोनों प्रकार के लोगों को राजा के समक्ष प्रस्तुत किया। जो उसकी निंदा करने वाले थे, उनको बुद्धिमान मानकर राजा ने सम्मानित किया तथा प्रशंसा करने वालों को मौत के मुख में डाल . दिया। ८. आधाकर्म : शाल्योदन-दृष्टांत
संकुल नामक गांव में जिनदत्त नामक श्रावक रहता था। उसकी पत्नी का नाम जिनमति था। उस गांव में कोद्रव और रालक धान्य अधिक मात्रा में उगते थे। साधु लोग भी वही भोजन ग्रहण करते थे। गांव का उपाश्रय स्त्री, पशु और नपुंसक से रहित सम भूतल वाला तथा अत्यन्त रमणीय था। उस उपाश्रय में स्वाध्याय भी निर्विघ्न रूप से होता था। उस गांव में शाल्योदन नहीं था अतः किसी भी आचार्य का प्रवास वहां नहीं होता था।
१. गा. ६९/१ वृ प. ४८, ४९, पिंप्रटी प. १७। २. गा. ६९/३ वृ प. ४९, पिंप्रटी प. १७, १८ ।
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पिंडनियुक्ति एक दिन संकुल गांव के पास भद्रिल नामक ग्राम में आचार्य का आगमन हुआ। उन्होंने क्षेत्र प्रतिलेखन के लिए साधुओं को संकुल ग्राम में भेजा। साधुओं ने श्रावक जिनदत्त के पास आकर वसति की याचना की। जिनदत्त ने अत्यन्त प्रसन्नता से कल्पनीय वसति में रहने की अनुज्ञा प्रदान की। साधुओं ने स्थण्डिल भूमि एवं सम्पूर्ण गांव की प्रतिलेखना की। उपाश्रय में आकर जिनदत्त श्रावक ने ज्येष्ठ साधु से पूछा-'क्या आपको यह क्षेत्र पसंद आया? क्या आचार्य इस क्षेत्र में पदार्पण कर सकते हैं?' उनमें से ज्येष्ठ साधु ने उत्तर दिया-'वर्तमानयोगेन।' उनके उत्तर से जिनदत्त को ज्ञात हुआ कि इनको क्षेत्र पसंद नहीं आया है। जिनदत्त ने सोचा कि अन्य साधु भी यहां आते हैं लेकिन यहां कोई रुकता नहीं है, इसका कारण अभी तक ज्ञात नहीं हो सका है। मूल कारण को जानने के लिए उसने किसी अन्य साधु को पूछा। उसने सरलतापूर्वक सारी बात बताते हुए कहा-'इस क्षेत्र में सारे गुण हैं, यह क्षेत्र गच्छ के योग्य है लेकिन यहां आचार्य के योग्य शाल्योदन नहीं हैं।' इस बात को जानकर जिनदत्त श्रावक दूसरे गांव से शालि-बीज लेकर आया और अपने गांव में उनका वपन कर दिया। वहां प्रभूत शालि की उत्पत्ति हुई।
एक बार विहार करते हुए उन साधुओं के साथ कुछ अन्य साधु भी उस गांव में आए। श्रावक जिनदत्त ने सोचा-'मुझे इन साधुओं को शाल्योदन की भिक्षा देनी चाहिए, जिससे आचार्य के योग्य क्षेत्र समझकर ये साधु आचार्य को भी इस क्षेत्र में लेकर आएं। यदि मैं केवल अपने घर से शाल्योदन दूंगा और अन्य घरों में कोद्रव आदि धान्य की प्राप्ति होगी तो साधुओं को आधाकर्म की शंका हो जाएगी।' उसने सभी स्वजनों के घर शाल्योदन भेजकर कहा-'तुम स्वयं शाल्योदन पकाकर खाओ और साधुओं को भी दान दो।' यह बात सब बालकों को भी ज्ञात हो गई। साधु जब भिक्षार्थ गए तो उन्होंने बालकों के मुख से अनेक बातें सुनीं। कोई बालक बोला-'ये वे साधु हैं, जिनके लिए घर में शाल्योदन बना है।' अन्य बालक बोला-'साधु संबंधी शाल्योदन को मेरी मां ने मुझे दिया।' कहीं-कहीं कोई दानदात्री श्राविका बोली'यह परकीय शाल्योदन दिया, अब मेरे घर की भिक्षा भी लो।' कोई गृहस्वामी अपनी पत्नी से बोला'परकीय शाल्योदन भिक्षा में दे दिया, अब अपना बनाया हुआ आहार भी भिक्षा में दो।' कोई अनभिज्ञ बालक अपनी मां से कहने लगा-'मुझे साधु से संबंधित शाल्योदन दो।' दरिद्र व्यक्ति सहर्ष बोला'हमारे यहां भक्त का अभाव होने पर भी शालि भक्त बना है। यह अवसर पर अवसर के अनुकूल बात हुई है। कहीं कोई बालक अपनी मां से बोला-'मां! शालि तण्डुलोदक साधु को दो', दूसरा बालक
१. यहां टीकाकार ने कथा के बीच में थक्के थक्कावडियं'-अवसर पर अवसर के अनुकूल होना को स्पष्ट करने के लिए
एक लौकिक दृष्टान्त का उल्लेख किया है-सूर नामक गांव में यशोधरा नामक एक ग्वालिन रहती थी। उसके पति का नाम योगराज तथा देवर का नाम वत्सराज था। उसकी भार्या का नाम योधनी था। एक बार किसी कारण से योधनी और योगराज की एक साथ मृत्यु हो गई। तब यशोधरा ने अपने देवर वत्सराज को कहा-'मैं तुम्हारी पत्नी बनना चाहती हूं।' देवर ने सोचा कि मेरी भी पत्नी नहीं है अतः उसने भाभी का सुझाव स्वीकृत कर लिया। यशोधरा ने सोचा-'अहो! अवसर पर अवसर के अनुकूल कार्य हो गया। जिस समय मेरे पति का देहावसान हुआ, उसी समय मेरे देवर की पत्नी की भी मृत्यु हुई। इसी कारण देवर ने मुझे पत्नी के रूप में स्वीकृत कर लिया, अन्यथा वह मेरी बात स्वीकृत नहीं करता' (गा. ७६/४ वृ. प. ६४)।
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परि. ३ : कथाएं
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बोला- '
-'साधु को शालिकाञ्जिक दो ।' सबके मुख से अनेक प्रकार की बातें सुनकर साधुओं ने लोगों से पूछा - ' यह क्या बात है ?' पूछने पर उन्होंने ऋजुता से सारी बात बता दी कि यह शाल्योदन साधुओं के लिए बनाया गया है । 'सारा शाल्योदन आधाकर्मिक है' 1- यह जानकर साधुओं ने उन सब घरों का परिहार कर दिया और भिक्षार्थ अन्य घरों में चले गए। कुछ साधु जिनकी भिक्षा वहां पूरी नहीं हुई, वे प्रत्यासन्न गांव में भिक्षा के लिए चले गए ।'
९. आधाकर्म : पानक- दृष्टांत
किसी गांव में सारे कूप खारे पानी के थे। उस लवण प्रधान क्षेत्र में क्षेत्र - प्रत्युपेक्षण के लिए कुछ साधु आए। उन्होंने पूरे क्षेत्र की प्रतिलेखना की । तत्रस्थ निवासी श्रावकों के द्वारा सादर अनुरोध करने पर भी साधु वहां नहीं रुके। श्रावकों ने उनमें से किसी सरल साधु को वहां न रुकने का कारण पूछा। उसने सरलता से यथार्थ बात बताते हुए कहा - ' इस क्षेत्र में और सब गुण हैं' केवल खारा पानी है इसलिए साधु यहां नहीं रुकते । साधुओं के जाने पर श्रावक ने मीठे पानी का कूप खुदवाया । उसको खुदवाकर लोकप्रवृत्ति जनित पाप के भय से कूप का मुख फलक से तब तक ढ़क दिया, जब तक कोई अन्य साधु वहां न आए। साधुओं के आने पर उसने सोचा कि केवल मेरे घर मीठा पानी रहेगा तो साधुओं को आधाकर्म की आशंका हो जाएगी अतः उसने सब घरों में मीठा पानी भेज दिया। पूर्वोक्त कथानक के अनुसार साधुओं ने बालकों के मुख से संलाप सुनकर जान लिया कि यह पानी आधाकर्मिक है। उन्होंने उस गांव को छोड़ दिया ।
१०. अतिक्रम आदि दोष : नूपुरपंडिता का कथानक
जंबूद्वीप के भारतवर्ष में बसन्तपुर नामक नगर था । वहां के राजा का नाम जितशत्रु और रानी का नाम धारिणी था। एक बार नदी में स्नान हेतु कुछ महिलाएं तालाब के किनारे आईं। वहां एक महिला के साथ सुदर्शन नामक पुरुष का आपस में अनुराग हो गया । दूती के माध्यम से उनका आपस में संबंध स्थापित हो गया । कृष्णा पंचमी को संकेतित अशोक वनिका में उन दोनों का समागम हुआ। वे वहीं निद्राधीन हो गए। चतुर्थ याम में श्वसुर ने उन दोनों को साथ सोते हुए देख लिया। उसने धीरे से पुत्रवधू के पैर से नूपुर निकाल लिया । श्वसुर के इस वृत्तान्त को जानकर उसने उस जार पुरुष को वहां से बाहर भेज दिया और स्वयं पति के पास जाकर सो गई। थोड़ी देर बाद उसने पति को जगाकर कहा - ' यहां गर्मी है अतः अशोक वनिका में चलते हैं।' वे वहां चले गए। थोड़ी देर में पति को उठाकर उसने कहा- 'क्या यह हमारे कुल अनुरूप आचार है कि पति के साथ रति-सुख का अनुभव करती हुई पुत्रवधू के पैरों से श्वसुर नूपुर ले जाए ।' पति ने पूछा- 'क्या यह सत्य है ?' प्रातः काल पुत्र ने अपने पिता से पूछा । पिता ने कहा--' -'तुम्हारी पत्नी स्वैरिणी है, वह रात्रि में किसी अन्य पुरुष के साथ सोई थी अतः मैंने उसके पैरों से
१. गा. ७६ - ७६/५ वृ प. ६३, ६४, पिंप्र टी प. ११ ।
२. गा. ७७ वृ प. ६५ ।
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पिंडनियुक्ति नूपुर निकाल लिया।' पुत्र ने कहा-'अशोक वनिका में मैं ही था।' वृद्ध पिता बोला-'मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूं कि रात्रि में उसके साथ कोई अन्य पुरुष था।' इसी बीच पुत्रवधू ने आकर उच्च स्वर में कहा-'जब तक मेरी कलंक-शुद्धि नहीं होगी, तब तक मैं भक्त-पान ग्रहण नहीं करूंगी।'
कोलाहल सुनकर लोग एकत्रित हो गए। उसने सबके समक्ष कहा–'मैं दिव्य-घट लेकर स्वयं को शुद्ध प्रमाणित करूंगी।' वृद्ध नागरिकों ने कहा-'कुत्रिकापण में यक्ष के समक्ष परीक्षा दो।' वह स्नान आदि से शुद्ध होकर बलिकर्म करके नागरिकों के साथ वहां पहुंची। वहां राजा आदि भी उपस्थित थे। इसी बीच वह सुदर्शन नामक जार पुरुष भी पागल का रूप बनाकर फटे-पुराने कपड़े पहनकर वहां आ गया। वह लोगों का आलिंगन करता हुआ उसके पास आया और पुत्रवधू का बलात् आलिंगन करने लगा। लोकपालों को संबोधित करके उसने यक्ष से कहा-'मेरे माता-पिता ने जिस व्यक्ति के साथ मेरा विवाह किया, उसको तथा इस ग्रहाविष्ट पुरुष को छोड़कर यदि मैंने मन से भी किसी पुरुष का चिन्तन नहीं किया है तो मैं यक्ष के नीचे से कुशलतापूर्वक निकल जाऊंगी।' उसकी बात सुनकर यक्ष किंकर्तव्यविमूढ़ होकर कुछ सोचने लगा। इतने में वह शीघ्रता से यक्ष की प्रतिमा के नीचे से निकल गयी। लोगों में उसकी जयजयकार होने लगी। सभी स्थविर को धिक्कारने लगे। यक्ष ने सोचा-'इसने मुझे भी ठग लिया।'
__सत्यवादी होने पर भी वृद्ध झूठा साबित हो गया। इस चिन्ता से स्थविर की निद्रा उड़ गई। उसको अंत:पुर की रानियों के द्वारपाल के रूप में नियुक्त कर दिया गया। रात्रि का प्रथम प्रहर बीतने पर सभी रानियां निद्राधीन हो गईं लेकिन एक रानी को नींद नहीं आ रही थी। स्थविर ने सोचा अवश्य ही कोई कारण होना चाहिए अतः उसने कपट-निद्रा लेनी प्रारंभ कर दी। रानी हाथी की सूंड के सहारे महावत के पास चली गई। देरी से आने के कारण महावत ने रोषपूर्वक लोहे की सांकल से उसे ताड़ित किया। रानी ने कहा-'गुस्सा मत करो। अंत:पुर में एक ऐसा वृद्ध नियुक्त हुआ है, जिसे बहुत देरी से नींद आई।' प्रात:काल हाथी पर चढ़कर वह पुन: अंत:पुर में चली गई। वृद्ध ने सोचा-'जब उभयकुल विशुद्ध राजा की पत्नियां भी ऐसा विरुद्ध आचरण कर सकती हैं तो फिर मेरी पुत्रवधू ने जो किया, उसमें कोई आश्चर्य नहीं है।' ऐसा सोचकर वह चिंतामुक्त होकर गहरी नींद में चला गया। सूर्योदय होने पर भी वह नहीं उठा। राजा तक उसकी शिकायत पहुंची। राजा ने उसको बुलाया लेकिन वृद्ध बोला कि मुझे मत उठाओ। सातवें दिन उसकी नींद टूटी तब राजा ने पूछा- क्या बात है?' तब उसने सारी बात बताते हुए राजा से कहा कि मैं उस रानी को नहीं पहचानता हूं।
राजा ने मिट्टी का हाथी बनवाया। सब रानियों ने उस हाथी को लांघ दिया। एक रानी बोली'मिट्टी के हाथी से मुझे भय लगता है।' शंका होने पर राजा ने उत्पल-नाल से उसको ताड़ित किया। वह मूछित होकर धरती पर गिर गई। उसकी पीठ पर लोहे की सांकल के प्रहार दिखाई दिए। राजा ने कहामदोन्मत्त हाथी पर चढ़ते हुए तुम्हें भय नहीं लगा, श्रृंखला से प्रहार करने पर भी तुम मूछित नहीं हुई लेकिन मेरे द्वारा उत्पल-नाल का प्रहार करने पर तुम मूछित हो गई। राजा ने जान लिया कि यह स्वैरिणी है। राजा ने उसी समय आदेश दिया कि रानी, महावत और हाथी-ये तीनों वध करने योग्य हैं। पर्वत पर ले जाकर इनका वध करना है। छिन्न टंक पर ले जाकर महावत ने हाथी का एक पैर ऊपर उठाया। लोगों ने राजा को
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परि.३: कथाएं
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निवेदन किया कि बेचारा हाथी तिर्यञ्च है। यह क्या जानता है अतः इसको मत मारो लेकिन राजा ने उनकी बात स्वीकृत नहीं की। आगे के दो पैरों को भी उसने कष्टपूर्वक उठाया। प्रार्थना करने पर भी राजा ने आदेश वापस नहीं लिया। तीन पैर ऊपर उठाने पर लोग चर्चा करने लगे कि राजा निर्दोष हाथी का वध कर रहा है। उस समय कोप शान्त होने पर राजा ने कहा-'क्या तुम हाथी के पैरों को वापस धरती पर रखवाने में समर्थ हो?' महावत ने कहा-'यदि हम लोगों को अभयदान दो तो मैं हाथी को मूल स्थिति में ला सकता हूं।' राजा ने उनको अभयदान दे दिया। महावत ने अंकुश के माध्यम से हाथी को मूल स्थिति में लौटा दिया। राजा ने रानी के साथ महावत को देश-निकाला दे दिया।
इस कथा का उपसंहार करते हुए टीकाकार मलयगिरि कहते हैं कि छिन्न टंक पर एक पैर उठाने पर हाथी थोड़े कष्ट से वापस उस पैर को नीचे रख सकता है। इसी प्रकार अतिक्रम दोष होने पर थोड़े विशुद्ध परिणामों से मुनि पुनः संयम में स्थित हो जाता है। आगे के दो पैर उठाने पर वह हाथी क्लेशपूर्वक अपने पैरों को पुन: मूल स्थिति में लाता है। इसी प्रकार साधु भी व्यतिक्रम दोष होने पर विशिष्ट शुभ अध्यवसाय से स्वयं को विशुद्ध कर सकता है। जैसे तीन पैर को ऊपर उठाकर पीछे एक पैर पर खड़ा हाथी अत्यन्त कष्टपूर्वक स्वयं को पूर्व स्थिति में लौटा सकता है, इसी प्रकार अतिचार दोष लगने पर विशिष्टतर शुभ अध्यवसाय से मुनि स्वयं को शुद्ध कर सकता है। जैसे वह हाथी चारों पैरों को आकाश में स्थित करके पुनः उसे लौटाने में समर्थ नहीं होता, वह नियमतः ही भूमि पर गिरकर विनष्ट हो जाता है। इसी प्रकार साधु भी अनाचार में स्थित रहकर नियम से संयम रूपी आत्मा का नाश कर लेता है। टीकाकार कहते हैं कि कथानक में हाथी ने चारों पैर ऊपर नहीं उठाए लेकिन दार्टान्तिक में संभावना के आधार पर अनाचार की योजना की है। ११. आधाकर्म की अभोज्यता : वमन-दृष्टांत
वक्रपुर नामक नगर में उग्रतेज नामक सैनिक रहता था। उसकी पत्नी का नाम रुक्मिणी था। एक बार उग्रतेज का बड़ा भाई सौदास पास के गांव से अतिथि के रूप में आया। उग्रतेज भोजन के लिए मांस लाया और उसे पकाने के लिए रुक्मिणी को दिया। घर के कार्य में व्यस्त रहने के कारण वह मांस मार्जार खा गया। इधर सौदास और उग्रतेज की भोजन-वेला होने पर वह व्याकुल हो गई। इसी बीच किसी मृत कार्पटिक के कुत्ते ने मांस को खाकर वायु-संक्षोभ के कारण उसके घर के आंगन में वमन कर दिया। रुक्मिणी ने सोचा-'यदि मैं किसी दुकान से मांस खरीदकर लाऊंगी तो बहुत देर लग जाएगी। पति और जेठ के भोजन का समय हो गया है अत: इस वमित मांस को अच्छी तरह से धोकर मसाले से उपस्कृत कर दूंगी।' उसने वैसा ही किया।
१. गा. ८२/२ वृ प.६८ देखें धर्मोपदेशमाला पृ. ४६-५२। २. इस कथा का अनुवाद 'धर्मोपदेश माला' ग्रंथ से संक्षेप रूप में किया गया है क्योंकि टीकाकार ने 'नूपुरपण्डितायाः कथानकमतिप्रसिद्धत्वात् बृहत्वाच्च न लिख्यते किंतु धर्मोपदेशमालाविवरणादेरवगन्तव्यं' का उल्लेख किया है। वहां कथानक आगे भी चलता है लेकिन यहां इतना ही प्रासंगिक है अतः आगे के कथानक का अनुवाद नहीं किया है।
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पिंडनियुक्ति सौदास और उग्रतेज भोजन के लिए उपस्थित हुए। उसने उन दोनों को वह मांस परोसा। गंध विशेष से उग्रतेज ने जान लिया कि यह वान्त मांस है। उसने भृकुटि चढ़ाकर रुक्मिणी को मांस के संबंध में पूछा। क्रोधयुक्त चढ़ी हुई भृकुटि देखकर वह वृक्ष की शाखा की भांति कांपने लगी और यथार्थ स्थिति बता दी। उस मांस को फेंककर उसने दूसरा मांस पकाया तब दोनों ने भोजन किया। १२. अविधिपरिहरण : साधु-दृष्टांत
शालि नामक गांव में ग्रामणी नामक वणिक् रहता था। उसकी पत्नी का नाम भी ग्रामणी था। एक बार वणिक् के दुकान जाने पर कोई साधु घूमते हुए भिक्षार्थ उसके घर आया। ग्रामणी शाल्योदन लेकर आई। साधु ने आधाकर्म दोष की आशंका से उसके बारे में पूछा-'श्राविके! यह शालि कहां से आया है ?' ग्रामणी ने कहा-'मैं इस बारे में कुछ नहीं जानती, वणिक् जानता है अत: उससे पूछो।' साधु शाल्योदन छोड़कर वणिक् की दुकान पर गया और उससे शालि के बारे में पूछा। वणिक् ने कहा-'मगध जनपद के प्रत्यन्तवर्ती गोबर ग्राम से यह शालि आया है।' वह साधु वहां जाने के लिए तैयार हो गया। साधु ने सोचा कि संभव है यह रास्ता भी किसी श्रावक ने साधु के लिए बनाया हो अतः आधाकर्म की आशंका से वह मूल रास्ते को छोड़कर उत्पथ में जाने लगा। उत्पथ में जाने से सांप, कांटे एवं श्वापदों के उपद्रव भी सहन करने पड़े। आधाकर्म की आशंका से वह वृक्ष की छाया का भी परिहार करते हुए चला। सूर्य के तेज से तप्त होकर वह रास्ते में मूछित हो गया और महान् कष्ट को प्राप्त किया। १३. आधाकर्म में परिणत : संघभोज्य-दृष्टांत
शतमुख नामक नगर में गुणचन्द्र श्रेष्ठी निवास करता था। उसकी पत्नी का नाम चन्द्रिका था। श्रेष्ठी जिन-प्रवचन में अनुरक्त था। उसने हिमगिरि की तुलना करने वाला जिनमंदिर का निर्माण करवाया
और उसमें आदिनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित की। उस उपलक्ष्य में उसने संघ-भोज का आयोजन किया। प्रत्यासन्न गांव में कोई साधु वेश की विडम्बना करने वाला साधु रहता था। उसने जनश्रुति से सुना कि शतमुख नगर में गुणचन्द्र नामक श्रेष्ठी आज संघभोज दे रहा है। वह संघ-भोज को प्राप्त करने के लिए शीघ्रता से चलकर उस गांव में आया। पत्नी ने सारा संघभक्त दे दिया था। साधु ने श्रेष्ठी से संघभक्त की याचना की। सेठ ने चन्द्रिका को कहा–'साधु को भोजन दो।' चन्द्रिका ने कहा-'मैंने सारा भोजन दे दिया,
१. गा. ८६ ७. प. ७१, पिंप्रटी प. १९, इस कथानक में मतान्तर भी मिलता है। टीकाकार मलयगिरि ने मतान्तर वाली
कथा का संकेत भी किया है। उसके अनुसार रुक्मिणी के घर में किसी अतिसार रोग से पीड़ित दुष्प्रभ नामक कार्पटिक ने एकान्त स्थान की याचना की। उसने अतिसार रोग के कारण मांसखंडों का उत्सर्ग किया। मार्जार द्वारा मांस खाने पर पति
और जेठ की भोजन-वेला उपस्थित होने पर तथा अन्य मांस प्राप्त न होने पर भयभीत होकर उसने अतिसार में त्यक्त मांसखण्डों को लेकर जल से धोकर उनको मसाले आदि से उपस्कृत करके पका दिया और भोजन-वेला आने पर उन दोनों को परोस दिया। उसी समय मृत सपत्नी के पुत्र गुणमित्र ने अपने पिता और पितृव्य का हाथ पकड़कर उन्हें खाने से रोकते हुए सारी बात बताई। उग्रतेज ने अपनी पत्नी की भर्त्सना की और उस मांस का परिहार कर दिया (गा. ८६/१ व
प. ७१)। २. गा. ८९/१-३ वृ प. ७२, ७३।
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परि. ३ : कथाएं
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अब कुछ भी नहीं बचा है।' सेठ ने कहा-'अपने भोजन में से साधु को भिक्षा दो।' तब उसने शाल्योदन, मोदक आदि की भिक्षा दी। साधु ने संघभक्त की बुद्धि से उसे ग्रहण किया और उपाश्रय में जाकर उसको खाया। शुद्ध भोजन ग्रहण करने पर भी आधाकर्म ग्रहण के परिणाम से उसने आधाकर्म भोग जनित कर्मों का बंधन कर लिया। १४. विधि-परिहरण : प्रियंकर क्षपक दृष्टांत
पोतनपुर नामक नगर में ५०० साधुओं के साथ विहार करते हुए रत्नाकर नामक आचार्य का पदार्पण हुआ। उन साधुओं में एक प्रियंकर नामक तपस्वी साधु था। वह एक मास पर्यन्त तपस्या करके पारणा करता था। मासखमण के पारणे में कोई आधाकर्म भोजन न बनाए, इस आशंका से वह प्रत्यासन्न गांव में भिक्षार्थ गया। वहां यशोमती नामक श्राविका रहती थी। उसने उस तपस्वी मुनि के मासखमण के पारणे के बारे में सुना। उसने सोचा शायद वह तपस्वी मुनि भिक्षा के लिए मेरे घर आ जाए अत: उसने परम भक्ति से विशिष्ट शालि-तण्डुल की खीर बनाई। शक्ति बढ़ाने वाले घृत, गुड़ आदि पदार्थों से उसे भावित किया। 'पायस उत्तम द्रव्य है' यह सोचकर साधु को आधाकर्म की शंका न हो अत: माया से वट आदि के पत्र से बने शराव आकार के भाजन में बच्चों के योग्य थोड़ी-थोड़ी खीर उसमें डाल दी और बच्चों से कहा कि इस प्रकार के तपस्वी साधु जब यहां आएं तो तुम कहना-'हे अम्ब! तुमने हमको बहुत अधिक खीर परोसी है, हम इसको खाने में समर्थ नहीं हैं।' तुम लोगों के द्वारा ऐसा कहने पर मैं तुम लोगों की भर्त्सना करूंगी। तब तुम लोग कहना- 'तुम प्रतिदिन खीर क्यों बनाती हो?' बालकों को इस प्रकार शिक्षित करने पर उसी समय वह तपस्वी साधु सर्वप्रथम भिक्षा के लिए उसके घर आया। साधु को देखकर वह अत्यन्त उल्लसित हो गई लेकिन साधु को किसी प्रकार की आशंका न हो इसलिए बाहर से ज्यादा आदर न दिखाती हुई सहज अवस्था में रही। बालक भी प्रशिक्षण के अनुसार बोलने लगे। उसने बालकों को उपालम्भ दिया। उसने क्षपक से कहा- ये कैसे मत्त बालक हैं, जिनको पायस भी रुचिकर नहीं लगती है। यदि आपको खीर रुचिकर लगती है तो ग्रहण करो, अन्यथा आगे चले जाओ।' यशोमती के द्वारा ऐसा कहने पर साधु नि:शंक हो गया और खीर ग्रहण करने के लिए उद्यत हो गया। उसने भी अत्यन्त भक्ति से खीर, घत और गड आदि से पात्र भर दिया। साध भी आधाकर्म की शंका से रहित होकर विशद्ध अध्यवसाय से खीर ग्रहण करके वृक्ष के नीचे गया। वहां जाकर उसने विधिपूर्वक ईर्यापथिकी क्रिया की तथा प्रतिक्रमण करके चिन्तन किया-'मैंने आज उत्तम द्रव्य पायस तथा घृत, गुड़ आदि प्राप्त किए हैं। यदि कोई साधु आकर संविभाग करे तो मैं संसार-समुद्र से तर जाऊं क्योंकि साधु निरन्तर स्वाध्याय में लीन रहते हैं। संसार से विमुख होकर मोक्ष-मार्ग में तल्लीन रहते हैं, गुरु, शैक्ष आदि की सेवा में लीन रहते हैं। परोपदेश में प्रवण होते हैं, संयम के अनुष्ठान में रत रहते हैं। उनको संविभाग देने से तद्गत ज्ञानादि का लाभ होता है। ज्ञानादि की वृद्धि से मुझे महान् लाभ की प्राप्ति होगी। यह शरीर असार और निरुपयोगी है।'
१. गा. ९०/१ वृ प. ७४, पिंप्रटी प. २८॥
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पिंडनियुक्ति शरीर की मूर्छा से रहित, प्रवर्द्धमान विशुद्ध अध्यवसाय से भोजन करने के बाद उसे कैवल्य की प्राप्ति हो
१५. आज्ञा की आराधना-विराधना : उद्यान द्वय दृष्टांत
चन्द्रानना नामक नगरी में चन्द्रावतंसक राजा राज्य करता था। त्रिलोकरेखा आदि उसकी अनेक रानियां थीं। राजा के पास दो उद्यान थे-एक पूर्व दिशा में, जिसका नाम सूर्योदय था। दूसरा पश्चिम दिशा में, जिसका नाम चन्द्रोदय था। एक दिन बसन्त मास में राजा ने अंत:पुर के साथ क्रीड़ा करने की घोषणा करवाते हुए पटह फिरवाया-'प्रात:काल राजा सूर्योदय नामक उद्यान में अपने अंत:पुर के साथ यथेच्छ विहरण करेंगे अतः वहां कोई नागरिक न जाएं।' सारे तृणहारक और काष्ठहारक भी चन्द्रोदय उद्यान में चले जाएं। पटह फिरवाने के पश्चात् राजा ने सूर्योदय उद्यान की रक्षा हेतु सैनिकों की नियुक्ति कर दी और आदेश दिया कि कोई भी व्यक्ति उस उद्यान में प्रवेश न करे।
रात्रि में राजा ने चिन्तन किया कि सूर्योदय उद्यान में जाते हुए प्रातःकाल सूर्य सामने रहेगा और लौटते हुए मध्याह्न में भी सामने रहेगा। सम्मुख सूर्य की किरणें कष्टदायक होती हैं अत: मैं चन्द्रोदय उद्यान जाऊंगा। ऐसा सोचकर राजा ने वैसा ही किया। इधर पटह को सुनने के बाद भी कुछ दुश्चरित्र व्यक्तियों ने सोचा कि हमने कभी भी राजा के अंत:पुर को साक्षात् नहीं देखा है। प्रातः राजा सूर्योदय उद्यान में अंत:पुर के साथ आएगा और यथेच्छ विहरण करेगा। हम लोग पत्र बहुल वृक्ष की शाखा में इस प्रकार छिप जाएंगे कि कोई भी देख न पाए। इस प्रकार हम राजा के अंत:पुर को देख पाएंगे। उन्होंने वैसा ही किया। उद्यान रक्षकों ने वृक्ष की शाखा के बीच छिपे हुए उन लोगों को देख लिया। उनको पकड़कर डंडे से पीटा और रज्जु आदि से बांध दिया। जो दूसरे तृणहारक थे, वे सब चन्द्रोदय उद्यान में गए। उन्होंने यथेच्छ क्रीड़ा करते हुए राजा के अंत:पुर की रानियों को देखा। उनको भी राजपुरुषों ने पकड़ लिया। उद्यान से बाहर नगर के अभिमुख जाते हुए राजा के सन्मुख उद्यान-पालकों ने दोनों प्रकार के व्यक्तियों को उपस्थित किया और सारा वृत्तान्त बताया। जिन्होंने आज्ञा का भंग किया, उनकी अंत:पुर दर्शन की इच्छा पूरी नहीं हुई फिर भी उनको समाप्त कर दिया गया तथा जो चन्द्रोदय उद्यान में गए थे, उन्होंने आज्ञा का पालन किया था अतः अंत:पुर देखने पर भी उनको मुक्त कर दिया गया। १६. अनासक्ति : गोवत्स-दृष्टांत
गुणालय नामक नगर में सागरदत्त नामक श्रेष्ठी अपनी भार्या श्रीमती के साथ रहता था। श्रेष्ठी ने पहले बने हुए जीर्ण मंदिर को भग्न करके श्रेष्ठ मंदिर बनवाया। उसके चार पुत्र थे, जिनके नाम इस प्रकार थे-१. गुणचन्द्र २. गुणसेन ३. गुणचूड़ ४. गुणशेखर । इन चारों की पत्नियों के नाम क्रमशः इस प्रकार थे१. प्रियंगुलतिका २. प्रियंगुरुचिका ३. प्रियंगुसुंदरी ४. प्रियंगुसारिका। समय बीतने पर श्रेष्ठी की भार्या
१. गा. ९०/२-४.वृ प. ७५, पिंप्रटी प. २८, २९ । २. गा. ९१-९१/४ वृ प. ७६, पिंप्रटी प. २९।
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परि. ३ : कथाएं
२४१ श्रीमती दिवंगत हो गई। श्रेष्ठी ने सारे घर की जिम्मेवारी ज्येष्ठ पुत्रवधू प्रियंगुलतिका को सौंप दी। श्रेष्ठी के घर में बछड़े सहित एक गाय थी। गाय दिन में बाहर चरने के लिए जाती थी। बछड़ा घर पर ही बंधा हुआ रहता था। चारों ही बहुएं बछड़े को चारा और पानी समय पर देती थीं।
एक बार गुणचन्द्र और प्रियंगुलतिका के पुत्र गुणसागर का विवाह था। उस दिन सभी बहुएं विशेष रूप से आभरण आदि पहनने एवं प्रसाधन करने में व्यस्त हो गईं। बछड़े को चारा देने की बात चारों पुत्रवधूएं भूल गईं। किसी ने भी उसे चारा और पानी नहीं दिया। मध्याह्न के समय श्रेष्ठी बछड़े के पास गया। बछड़ा भी श्रेष्ठी को आते देखकर रोने लगा। श्रेष्ठी ने बछड़े को रोते हुए देखकर जान लिया कि यह अभी तक भूखा है। उसने सभी बहुओं को क्रोधित होकर उपालम्भ दिया। श्रेष्ठी की बात सुनकर प्रियंगुलतिका शीघ्र ही यथायोग्य चारा और पानी लेकर बछड़े के सम्मुख गई। बछड़े ने न तो समलंकृत घर को देखा और न ही देवांगनाओं की भांति सजी हुई पुत्रवधू को रागदृष्टि से देखा। उसकी दृष्टि केवल चारे
और पानी पर थी। १७. द्रव्यपूति : गोबर-दृष्टांत
समिल्ल नामक नगर के बाहर उद्यान में माणिभद्र यक्ष था। एक दिन उस नगर में शीतलक नामक अशिव उत्पन्न हो गया। तब कुछ लोगों ने सोचा कि यदि इस अशिव से हम बच जाएंगे तो एक वर्ष तक अष्टमी आदि पर्व-तिथियों में उद्यापनिका करेंगे। नगर के सभी लोग उस अशिव से निस्तीर्ण हो गए। उन लोगों के मन में निश्चय हो गया कि यह सब यक्ष का चमत्कार है। तब देवशर्मा नामक व्यक्ति को वैतनिक रूप से पुजारी के रूप में नियुक्त करते हुए लोगों ने कहा- 'तुमको एक वर्ष तक अष्टमी आदि दिनों में प्रात:काल यक्ष-सभा को गोबर से लीपना है। उस स्वच्छ एवं पवित्र स्थान पर हम लोग आकर उद्यापनिका करेंगे।' देवशर्मा ने यह बात स्वीकार कर ली।
एक दिन उद्यापनिका के लिए सभा को लीपने हेतु वह सूर्योदय से पूर्व किसी कुटुम्बी के यहां गोबर लेने गया। वहां रात्रि में किसी कर्मचारी को मण्डक, वल्ल और सुरा का पान करने से अजीर्ण हो गया था। पश्चिम रात्रि में उसने गाय के बाड़े में दुर्गन्धयुक्त अजीर्ण मल का विसर्जन किया। उसके ऊपर किसी भैंस ने आकर गोबर कर दिया। ऊपर गोबर होने से वह दुर्गन्धयुक्त मल ढ़क गया अत: देवशर्मा को अंधेरे में ज्ञात नहीं हो सका। वह गोबर सहित मल को लेकर गया और उससे सभा को लीप दिया। उद्यापनिका करने वाले लोग अनेकविध भोजन-सामग्री लेकर वहां प्रविष्ट हुए। वहां उनको अतीव दुर्गन्ध आने लगी, उन्होंने देवशर्मा से पूछा कि यह अशुचिपूर्ण दुर्गन्ध कहां से आ रही है? उसने कहा-'मुझे ज्ञात नहीं है।' उन लोगों ने सभा के आंगन को ध्यान से देखा तो वहां वल्ल आदि के अवयव दिखाई दिए तथा मदिरा की गंध भी आने लगी। उन लोगों को ज्ञात हुआ कि गोबर के मध्य में पुरीष भी था। सभी लोगों ने भोजन को
१. गा. ९६/१, २ वृ प. ७८, ७९ ।
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पिंड नियुक्ति
अशुचि मानकर छोड़ दिया। आंगन के लेप को समूल उखाड़कर दुबारा दूसरे गोबर से सभा का लेप करवाया तथा भोजन भी दूसरा पकाकर खाया ।'
१८. क्रीतकृतदोष : मंख-दृष्टांत
शालिग्राम नामक गांव में देवशर्मा नामक मंख रहता था। उसके गृह के एक देश में कुछ साधुओं ने वर्षावास के लिए प्रवास किया। वह मंख उन साधुओं के राग-द्वेष रहित अनुष्ठान को देखकर उनका अत्यन्त भक्त बन गया । वह प्रतिदिन उनको आहार आदि के लिए निमंत्रित करता था । शय्यातर पिण्ड समझकर साधु सदैव उसका निषेध करते थे। मंख ने सोचा कि ये साधु मेरे घर से भक्त - पान आदि ग्रहण नहीं करते हैं, यदि मैं इनको अन्यत्र स्थान पर भिक्षा दूंगा तो भी ये ग्रहण नहीं करेंगे अतः जब ये विहार करके आगे जाएंगे तब मैं भी आगे जाकर किसी भी प्रकार इनको भिक्षा दूंगा। वर्षावास के कुछ दिन शेष रहने पर उसने साधुओं से पूछा - ' चातुर्मास के पश्चात् आप किस दिशा में जाएंगे ?' साधुओं ने सहजता से उत्तर दिया कि अमुक दिशा में जाएंगे। वह मंख उसी दिशा में किसी गोकुल में अपने पट को दिखाकर वचन - कौशल से लोगों के चित्त को आकृष्ट करने लगा। लोग उसको घी, दूध आदि देने लगे। मंख ने कहा - 'जब मैं आप लोगों से मांगू, तब आप लोग घी, दूध आदि देना।'
चातुर्मास के पश्चात् साधु ग्रामानुग्राम विहार करने लगे। मंख ने अपने आपको प्रकट न करते हुए पूर्व प्रतिषिद्ध घरों से दूध, घी आदि की याचना करके एक घर में उनको एकत्र कर लिया। उसने साधुओं को निमंत्रित किया। छद्मस्थ होने के कारण साधु उसको पहचान नहीं सके। शुद्ध आहार समझकर उन्होंने दूध, घी आदि ग्रहण कर लिया। इस प्रकार क्रीत आहार ग्रहण करते हुए भी साधु दोष के भागी नहीं हुए क्योंकि उन्होंने यथाशक्ति भगवान् की आज्ञा की आराधना की थी।
१९. लौकिक प्रामित्य : भगिनी-दृष्टांत
कौशल जनपद के किसी गांव में देवराज नामक कौटुम्बिक रहता था । उसकी पत्नी का नाम सारिका था। उसके सम्मत आदि अनेक पुत्र तथा सम्मति आदि अनेक पुत्रियां थीं। पूरा कुटुम्ब अत्यन्त धार्मिक था। उसी गांव में शिवदेव नाम का श्रेष्ठी और उसकी पत्नी शिवा रहती थी। एक बार उनके गांव
समुद्रघोष नामक आचार्य आए । आचार्य के मुख से जिनप्रणीत धर्म को सुनकर सम्मत के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया और उसने दीक्षा ग्रहण कर ली । कालक्रम से गुरुचरण की कृपा से वह बहुश्रुत बन गया । एक बार उसके मन में चिन्तन उभरा कि यदि मेरा कोई स्वजन दीक्षा ले तो अच्छा रहेगा। यही वास्तविक उपकार है कि व्यक्ति को संसार-सागर से पार किया जाए। ऐसा सोचकर गुरु से पूछकर वह अपने बंधु के ग्राम में आया। गांव के बाहर उसने किसी वृद्ध व्यक्ति से पूछा कि यहां देवराज नामक कौटुम्बिक के परिवार वाले कोई व्यक्ति रहते हैं क्या ? वृद्ध ने उत्तर दिया- 'उस परिवार के सब व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त हो गए हैं, केवल सम्मति नामक विधवा पुत्री जीवित है।' वह साधु उसके घर गया। भाई को आते देखकर वह
१. गा. १०८/१, २ वृ प. ८३ ।
२. गा. १४२ / १, २ वृ प. ९७, पिंप्रटी प. ४० ।
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परि. ३ : कथाएं
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मन में बहुत प्रसन्न हुई । आदरपूर्वक वंदना, भक्ति और पर्युपासना करके वह उनके निमित्त आहार बनाने के लिए उपस्थित हुई । साधु ने उसको रोकते हुए कहा - ' हमारे निमित्त बनाया हुआ आहार अकल्पनीय है । '
गरीबी के कारण भिक्षा-वेला में उसको कहीं भी तैल की प्राप्ति नहीं हुई। आखिर किसी भी प्रकार शिवदेव नामक वणिक् की दुकान से वह दो पलिका तैल प्रतिदिन दुगुने ब्याज की वृद्धि के आधार पर उधार लेकर आई। भाई मुनि को वह वृत्तान्त ज्ञात नहीं था अतः उन्होंने शुद्ध समझकर उसे ग्रहण कर लिया । उस दिन भ्राता साधु से प्रवचन सुनने में व्यस्त रहने के कारण वह पानी आदि लाकर दो पलिका तैल का ब्याज नहीं उतार सकी। दूसरे दिन भाई का विहार होने से उसके वियोग में वह उस तैल के ब्याज की पूर्ति नहीं कर सकी। तीसरे दिन उसका ऋण दो कर्ष हो गया । अत्यधिक ऋण होने के कारण वह उसकी पूर्ति करने में समर्थ नहीं हो सकी। भोजन लिए उसने पूरे दिन श्रम किया लेकिन ऋण को चुकाना संभव नहीं हो सका । दुगुने वृद्धि के क्रम से ऋण अपरिमित हो गया। तब श्रेष्ठी ने सम्मति से कहा - ' या तो तुम मेरा तैल दो अन्यथा मेरा दासत्व स्वीकार करो।' तैल देने में असमर्थ उसने सेठ का दासत्व स्वीकार कर लिया।
कुछ वर्ष बीतने पर सम्मत नामक साधु पुनः उसी गांव में विहार करते हुए पहुंचा। उसने अपनी बहिन को घर पर नहीं देखा । बहिन के आने पर उसने घर छोड़ने का कारण पूछा। बहिन ने पुराना सारा घटनाक्रम बताकर शिवदेव वणिक् के यहां दासत्व की बात बताई और दुःख के कारण रोने लगी । साधु ने कहा-'तुम रुदन मत करो, मैं शीघ्र ही तुमको दासत्व से मुक्त करवा दूंगा।' बहिन का दासत्व से मुक्ति का उपाय सोचते हुए वह सर्वप्रथम शिवदेव सेठ के घर में पहुंचा। उसकी पत्नी शिवा भिक्षा देने के लिए जल से हाथ धोने के लिए उद्यत हुई। साधु ने हाथ धोने के लिए उसको निवारित करते हुए कहा - 'हाथ धोने से हमको भिक्षा नहीं कल्पती।' पास में बैठे सेठ ने कहा-' इसमें क्या दोष है ?' तब साधु ने हाथ धोने से होने वाली षट्काय- विराधना की बात विस्तार से कही । साधु की बात सुनकर उसने आदरपूर्वक पूछा - " भगवन्! आपकी वसति कहां है? मैं आपके पास आकर धर्म सुनूंगा।" साधु ने कहा - ' अभी तक मेरा कोई उपाश्रय निश्चित नहीं हुआ है।' तब सेठ ने अपने घर के एक कोने में साधु को रहने के लिए स्थान दे दिया ।
सेठ साधु से प्रतिदिन धर्म सुनता था । सेठ ने सम्यक्त्व एवं अणुव्रत स्वीकार कर लिए। साधु ने एक दिन वासुदेव आदि पूर्वज पुरुषों द्वारा आचीर्ण अभिग्रहों का वर्णन किया। साधु ने बताया कि वासुदेव कृष्ण ने यह अभिग्रह स्वीकार किया था कि यदि मेरा कोई पुत्र भी प्रव्रज्या ग्रहण करेगा उसमें बाधक नहीं बनूंगा। इस बात को सुनकर शिवदेव ने भी अभिग्रह ग्रहण कर लिया- 'यदि मेरे घर का कोई सदस्य दीक्षा ग्रहण करेगा तो मैं उसको नहीं रोकूंगा।' कुछ समय पश्चात् शिवदेव का ज्येष्ठ पुत्र तथा साधु की भगिनी सम्मति दीक्षा के लिए तैयार हो गए। सेठ ने दोनों को दीक्षा की अनुमति दे दी और उन्होंने प्रव्रज्या स्वीकृत कर ली ।
१. गा. १४४ / १-३ वृ प. ९८, ९९, पिंप्रटी प. ४१ ।
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पिंडनियुक्ति २०. परिवर्तित दोष का लौकिक-दृष्टांत
बसन्तपुर नगर में निलय नामक श्रेष्ठी था। उसकी पत्नी का नाम सुदर्शना था। उसके दो पुत्र थेक्षेमंकर और देवदत्त । उसकी पुत्री का नाम लक्ष्मी था। उसी नगर में तिलक नामक सेठ था, जिसकी पत्नी का नाम सुंदरी था। उसके धनदत्त नामक पुत्र तथा बंधुमती नामक पुत्री थी। क्षेमंकर ने समित आचार्य के पास प्रव्रज्या ग्रहण की। देवदत्त के साथ बंधुमती तथा धनदत्त के साथ लक्ष्मी का विवाह हुआ।
एक बार कर्मयोग से धनदत्त को दरिद्रता का सामना करना पड़ा। दारिद्रय के कारण वह प्रायः कोद्रव धान्य का भोजन करता था। देवदत्त धनाढ्य था अत: वह सदैव शाल्योदन का भोजन करता था। एक बार क्षेमंकर साधु ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वहां आए। उन्होंने सोचा कि यदि मैं देवदत्त भाई के घर जाऊंगा तो मेरी बहिन के मन में चिन्तन आएगा कि मैं दारिद्र्य से अभिभूत हूं इसलिए मेरा साधु भाई मेरे घर नहीं आया। वह परिभव का अनुभव करेगी अत: अनुकम्पा वश उसने उसके घर में प्रवेश किया। भिक्षा-वेला आने पर लक्ष्मी ने चिन्तन किया-'प्रथम तो यह मेरा भाई है, दूसरी बात साधु है तथा तीसरी बात अभी यह अतिथि है। मेरे घर शाल्योदन नहीं है, कोद्रव का भोजन बना है अत: मैं इसको कैसे भिक्षा दूंगी?' वह अपनी भाभी बंधुमती के पास गई और कोद्रव देकर ओदन लेकर आ गई।
इसी बीच देवदत्त भोजन हेतु अपने घर आ गया। भोजन परिवर्तन की बात अज्ञात होने से कोद्रव भोजन को देखकर उसने सोचा कि बंधमती ने कपणता से आज शाल्योदन न बनाकर कोद्रव का भोजन तैयार किया है। उसने बंधुमती को मारना शुरू कर दिया। प्रताड़ित होती हुई वह बोली-'मुझे क्यों मार रहे हो? तुम्हारी बहिन कोद्रव को छोड़कर शाल्योदन ले गई है।' धनदत्त भी जब भोजन के लिए बैठा तो बंधुमती ने क्षेमंकर मुनि को भिक्षा देकर बचे हुए शाल्योदन परोसे। उसने पूछा-'शाल्योदन कहां से आया?' सारा वृत्तान्त सुनकर धनदत्त कुपित होकर बोला-'पापिनी! तुमने अपने घर से शाल्योदन पकाकर साधु को क्यों नहीं दिए ? दूसरे घर से शाल्योदन मांगकर तुमने मेरा अपमान किया है। उसने भी बंधुमती को प्रताड़ित किया। साधु ने दोनों घरों में होने वाले वृत्तान्त को लोगों से सुना। रात्रि में क्षेमंकर मुनि ने सबको प्रतिबोध देते हुए कहा-'इस प्रकार का परिवर्तित भोजन हमारे लिए कल्पनीय नहीं है। अजानकारी में मैंने वह ग्रहण कर लिया। कलह आदि दोष के कारण भगवान् ने इसका प्रतिषेध किया है।' क्षेमंकर मुनि ने जिनप्रणीत धर्म का विस्तार से प्ररूपण किया। सबको वैराग्य पैदा हो गया। मुनि ने सबको दीक्षा प्रदान कर दी। २१. अभ्याहृत दोष : मोदक-दृष्टांत
किसी गांव में धनावह आदि अनेक श्रावक तथा धनवती आदि अनेक श्राविकाएं रहती थीं। वे सब एक कुटुम्ब से संबंधित थे। एक बार उनके यहां किसी का विवाह था। विवाह सम्पन्न होने पर अनेक मोदक बच गए। उन लोगों ने सोचा कि ये मोदक साधु को भिक्षा में देने चाहिए, जिससे हमको बड़े पुण्य
१. गा. १४८-१४८/२ वृ प. १००, १०१, पिंप्रटी प. ४३।
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परि. ३ : कथाएं
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की प्राप्ति होगी। कुछ साधु दूर हैं, कुछ पास हैं लेकिन बीच में नदी है। वे अप्काय की विराधना के भय से यहां नहीं आएंगे। आ भी जाएंगे तो प्रचुर मोदकों को देखकर उन्हें आधाकर्म की शंका हो जाएगी अतः वे इनको ग्रहण नहीं करेंगे। इसलिए जहां गांव में साधु रहते हैं, वहीं प्रच्छन्न रूप से मोदक ले जाएंगे। उन्होंने वैसा ही किया ।
वहां जाने पर पुनः उन्होंने चिन्तन किया कि यदि साधु को बुलाकर दूंगा तो वे अशुद्ध की आशंका से ग्रहण नहीं करेंगे अतः कुछ मोदक ब्राह्मण आदि को भी देना चाहिए। यदि साधु ब्राह्मण आदि को देते हुए नहीं देखेंगे तो उनको अशुद्ध की आशंका हो जाएगी। साधु जिस मार्ग से पंचमी समिति (उच्चार आदि हेतु) जाते हैं, उस मार्ग में देने से साधु उसे देखेंगे। इस प्रकार चिन्तन करके उन्होंने किसी देवकुल के बहिर्भाग में द्विज आदि को थोड़े-थोड़े मोदक देने प्रारंभ कर दिए। उच्चार आदि के लिए निकले साधुओं ने उन्हें ब्राह्मणों को दान देते देखा । श्रावकों ने उनको निमंत्रित करते हुए कहा- 'हमारे यहां प्रचुर मात्रा में मोदक बच गए हैं, आप इन्हें ग्रहण करें।' साधुओं ने शुद्ध जानकर लड्डु ग्रहण कर लिए। उन साधुओं ने शेष साधुओं को भी कहा कि अमुक स्थान पर प्रचुर एषणीय मोदक आदि उपलब्ध हैं । तब वे भी उसे ग्रहण करने हेतु वहां गए । कुछ श्रावकों ने उन्हें प्रचुर मात्रा में मोदक आदि दिए । कुछ ने मायापूर्वक उन्हें रोकते हुए कहा-' इनको इतने ही मोदक दो, अधिक नहीं। शेष हमारे भोजन के लिए चाहिए ।' कुछ श्रावक पुनः उन्हें रोकते हुए कहने लगे-'हम सब लोगों ने खा लिए अतः कोई भी नहीं खाएगा। साधु को यथेच्छ मात्रा में दो, शेष थोड़ा बचने से भी कार्य हो जाएगा।' जिन साधुओं को नवकारसी का प्रत्याख्यान था, उन्होंने मोदक खा लिए। जिनके पोरिसी थी, वे खा रहे थे तथा जिन साधुओं के अजीर्ण आदि था, वे दिन के पूर्वार्द्ध की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने कुछ नहीं खाया था ।
श्रावकों ने चिन्तन किया कि अब तक सभी साधुओं ने खा लिया होगा अतः वंदना करके अपने स्थान पर चले जाना चाहिए । प्रहर से अधिक समय बीतने के बाद वे श्रावक साधु के उपाश्रय में गए और नैषिधिकी आदि श्रावकों की सारी क्रियाएं कीं। साधुओं ने जाना कि ये श्रावक अत्यन्त विवेकी हैं। बातचीत के दौरान साधुओं को ज्ञात हुआ कि ये अमुक ग्राम के निवासी हैं। चिन्तन करने पर साधुओं ने निष्कर्ष निकाला कि ये अवश्य ही हमारे लिए अपने ग्राम से मोदक लेकर आए हैं। जिन साधुओं ने खा लिया, उनको छोड़कर जो पूर्वार्द्ध की प्रतीक्षा कर रहे थे तथा जो खा रहे थे उन्होंने अपने हाथ का कवल पात्र में
दिया। जो कवल मुख में डाल दिया था, उसे निगला नहीं, मुख से निकालकर समीपवर्ती मल्लकपात्र में डाल दिया। पात्रगत सारा आहार और मोदक परिष्ठापित कर दिए। श्रावक और श्राविकाएं क्षमायाचना करके अपने गांव में वापस चले गए। जिन्होंने भोजन किया अथवा आधा किया, वे भी अशठभाव के कारण निर्दोष थे।
१. गा. १५७/१-४ वृ प. १०३, १०४ ।
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पिंडनियुक्ति २२. मालापहृत दोष : भिक्षु-दृष्टांत
जयन्तपुर' नामक नगर में यक्षदत्त नामक गृहपति था। उसकी पत्नी का नाम वसुमती था। एक बार उनके घर में धर्मरुचि नामक साधु ने भिक्षार्थ प्रवेश किया। उस साधु को संयतेन्द्रिय, राग-द्वेष रहित तथा एषणा समिति से युक्त देखकर यक्षदत्त के मन में दान देने की विशेष भावना जाग गई। उसने अपनी पत्नी वसुमती को कहा-'इन साधुओं को मोदकों का दान दो।' मोदक ऊपर के माले में छींके के मध्य घड़े में रखे हुए थे। वह उनको लेने के लिए उठी। साधु मालापहृत भिक्षा को जानकर घर से बाहर चले गए। तत्काल उसी घर में भिक्षार्थ किसी अन्य भिक्षु ने प्रवेश किया। यक्षदत्त ने उस भिक्षु से पूछा-'अमुक साधु ने छींके से उतारकर दी गई भिक्षा को ग्रहण क्यों नहीं किया ?' प्रवचन-मात्सर्य के कारण भिक्षु ने कहा-'इन लोगों ने कभी अपने जीवन में दान नहीं दिया अतः इनको पूर्वकर्म के कारण धनाढ्य घरों का स्निग्ध और मधुर भोजन नहीं मिलता है। ये गरीब घरों से अन्त-प्रान्त भोजन प्राप्त करते हैं।' यक्षदत्त ने भिक्षु को मोदक देने हेतु वसुमती को कहा। वह छींके पर रखे घट से मोदक लेने के लिए उठी। घट में उत्तमद्रव्य से निष्पन्न मोदक की गंध से कोई सर्प आकर बैठ गया। वसुमती ने एड़ी के बल पर खड़े होकर मोदक लेने के लिए हाथों को अंदर डाला तो कामुक व्यक्ति की भांति सर्प ने उसके हाथ को जकड़ लिया। 'हाय मुझे सर्प ने काट लिया' इस प्रकार चिल्लाती हुई वह भूमि पर गिर पड़ी। यक्षदत्त ने फूत्कार करते हुए सर्प को देखा। उसने तत्काल सर्प का विष उतारने वाले मंत्रविदों को बुलाया। अनेक प्रकार की औषधियां लाई गईं। आयुष्य बल शेष रहने के कारण मंत्र और औषधि के प्रभाव से वह स्वस्थ हो गई।
दूसरे दिन वही धर्मरुचि साधु भिक्षार्थ वहां आया। यक्षदत्त ने मुनि को उपालम्भ देते हुए कहा'तुम्हारा धर्म दयाप्रधान है फिर भी क्या यह तुम्हारे लिए उचित है कि सांप को देखते हुए भी आपने कल उसकी उपेक्षा कर दी।' मुनि ने कहा-'मैंने उस समय सांप को नहीं देखा था। हमारे लिए सर्वज्ञ का यह उपदेश है कि साधु को मालापहत भिक्षा नहीं लेनी चाहिए इसलिए मैं आपके घर से वापस लौट गया था।' यक्षदत्त ने अपने मन में सोचा-'भगवान् ने भिक्षुओं के लिए दोषरहित धर्म का उपदेश दिया है।' इस प्रकार चिन्तन करके यक्षदत्त ने अत्यन्त भक्तिपूर्वक धर्मरुचि साधु को वंदना की। वंदना करके उनसे जिनप्रणीत धर्म के बारे में पूछा। मुनि ने संक्षेप में धर्म का उपदेश दिया। उनको हेय और उपादेय का ज्ञान हो गया। मध्याह्न में गुरु के पास जाकर दम्पती ने धर्म का श्रवण किया। वैराग्य होने से उन्होंने वहीं दीक्षा ग्रहण कर ली। २३. मालापहृत दोष : वसुन्धरा दृष्टांत
जयन्ती नामक नगरी में सुरदत्त नामक गृहपति रहता था। उसकी पत्नी का नाम वसुंधरा था। एक बार उसके घर गुणचन्द्र नामक साधु ने भिक्षार्थ प्रवेश किया। प्रशान्तमन, इहलोक-परलोक से निस्पृह तथा
१. पिंप्र की टीका में जयन्तपुर के स्थान पर जयपुर नगर का उल्लेख है। २. गा. १६६/१, २ व प. १०८, पिंप्रटी प. ४६।
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परि. ३ : कथाएं
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मूर्तिमान् धर्म के समान उस मुनि को आते हुए देखकर सुरदत्त ने वसुंधरा से कहा-'साधुओं को ऊपर माले से मोदक लाकर दो।' वह उस समय गर्भिणी थी लेकिन पति के आदेश को देवता की भांति स्वीकार करती हुई वह निःश्रेणि के माध्यम से ऊपर चढ़ने लगी। साधु को मालापहृत भिक्षा कल्पनीय नहीं है, यह कहकर साधु उस घर से बाहर निकल गए। .
उसी समय कोई कापालिक भिक्षार्थ उस घर में प्रविष्ट हुआ। सुरदत्त ने कापालिक से पूछा- क्या साधुओं को मालापहृत भिक्षा कल्पनीय नहीं है?' मात्सर्य के कारण उसने असम्बद्ध भाषण कर दिया। सुरदत्त ने उसको भी मोदक देने हेतु वसुंधरा को आदेश दिया। निःश्रेणी पर चढ़ते हुए किसी प्रकार उसका पैर फिसल गया और वह नीचे गिर पड़ी। नीचे ब्रीहि दलने की घट्टी पड़ी थी। यंत्र की कील ने उसके पेट को दो भागों में चीर दिया। उसमें से स्पन्दन करता हुआ गर्भ बाहर निकल आया। कीलक द्वारा पेट के विदारित होने से अत्यन्त पीड़ा का अनुभव करता हुआ सब लोगों के देखते-देखते ही वह बालक मृत्यु को प्राप्त हो गया। कुछ क्षणों बाद वसुंधरा भी कालगत हो गई। कापालिक की चारों ओर निंदा होने लगी।
एक दिन उसी घर में वही साधु भिक्षार्थ प्रविष्ट हुआ। सुरदत्त ने गुणचन्द्र नामक साधु को कहा-'आपने अपने ज्ञानचक्षु से दानदात्री का विनाश देखकर भिक्षा का परिहार कर दिया फिर आपने इस संदर्भ में हमको क्यों नहीं बताया? यदि आप बता देते तो वह उस समय ऊपरी माले पर नहीं चढ़ती।' साधु ने कहा-'मैं इस संदर्भ में कुछ नहीं जानता हूं। सर्वज्ञ का हम मुनियों के लिए उपदेश हैं कि साधु के लिए मालापहृत भिक्षा कल्पनीय नहीं है।' सुरदत्त ने मुनि से धर्म का श्रवण किया और प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। २४. आच्छेद्य दोष : गोपालक दृष्टांत
बसन्तपुर नामक नगर में जिनदास नामक श्रावक था। उसकी पत्नी का नाम रुक्मिणी था। जिनदास के घर में वत्सराज नामक ग्वाला रहता था। वह आठवें दिन सभी गाय एवं भैंसों का दूध अपने घर ले जाता था जिससे वह घी बनाता था। एक दिन एक साधु भिक्षार्थ वहां आया। उस दिन ग्वाले की पूरा दूध लेने की बारी थी। उसने सभी गाय और भैंसों का अच्छी तरह दोहन किया। जिनदास जिन-प्रवचन के प्रति अत्यन्त अनुरक्त था। साधु को आते हुए देखकर उसने भक्तिपूर्वक यथेच्छ भक्तपान आदि दिया। 'भोजन के अंत में दूध लेना चाहिए' यह सोचकर भक्ति युक्त मानस से सेठ ने ग्वाले से बलात् दूध छीनकर थोड़ा दूध साधु को दे दिया। ग्वाले के मन में साधु के प्रति थोड़ा द्वेष आ गया लेकिन मालिक के भय से वह कुछ नहीं बोल सका। वह दूध के पात्र को घर लेकर गया।
न्यून दुग्धपात्र को देखकर उसकी पत्नी ने रोषपूर्वक पूछा-'यह दुग्धपात्र आज थोड़ा खाली कैसे है?' ग्वाले ने सारी बात यथार्थ रूप से बता दी। उसकी पत्नी को भी साधु के ऊपर क्रोध आ गया। उसके बच्चों ने कम दूध को देखकर रोना प्रारंभ कर दिया। अपने पूरे कूटुम्ब को आकुल-व्याकुल देखकर साधु के प्रति वह ग्वाला अत्यन्त कुपित हो गया। वह साधु को मारने के लिए घर से चला। उसने किसी स्थान
१. गा. १६८ वृ प. १०९, पिंप्रटी प.४६।
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पिंडनियुक्ति
पर भिक्षा करते हुए साधु को दूर से देखा। वह लकड़ी लेकर साधु को मारने के लिए उनके पीछे दौड़ा। साधु ने पीछे मुड़कर कुपित ग्वाले को देखकर समझ लिया कि निश्चय ही जिनदास ने बलपूर्वक दूध छीनकर मुझे दिया है इसलिए यह मुझे मारने के लिए आ रहा है। साधु ने प्रसन्नवदन से उसके सम्मुख जाना प्रारंभ कर दिया और ग्वाले से कहा-'हे गोपालक! तुम्हारे स्वामी ने आग्रहपूर्वक दूध मुझे भिक्षा में दे दिया, अब तुम अपने दूध को वापस ले लो।' साधु के इस प्रकार कहने से उसका क्रोध उपशान्त हो गया और स्वभावस्थ होकर बोला-'भो साधु! मैं तुम्हें मारने के लिए आया था लेकिन इस समय तुम्हारे वचनामृत के सिंचन से मेरा सारा क्रोध शान्त हो गया। तुम इस दूध को अपने पास रखो। आज मैं तुमको छोड़ता हूं लेकिन भविष्य में कभी आच्छेद्य आहार को ग्रहण नहीं करना, ऐसा कहकर ग्वाला अपने घर लौट गया और साधु भी अपने उपाश्रय में पहुंच गया। २५. अनिसृष्ट दोष : लड्डक दृष्टांत
रत्नपुर नगर में माणिभद्र प्रमुख ३२ युवक साथी रहते थे। एक बार उन्होंने उद्यापन के लिए साधारण मोदक बनवाए और समूह रूप से उद्यापनिका में गए। वहां उन्होंने एक व्यक्ति को मोदक की रक्षा के लिए छोड़ दिया। शेष ३१ साथी नदी में स्नान करने हेतु चले गए। इसी बीच कोई लोलुप साधु वहां भिक्षार्थ उपस्थित हुआ। उसने मोदकों को देखा। लोलुपता के कारण उस साधु ने धर्म-लाभ देकर उस पुरुष से मोदकों की याचना की। उस व्यक्ति ने उत्तर दिया-'ये मोदक केवल मेरे अधीन नहीं हैं, अन्य ३१ साथियों की भी इसमें सहभागिता है अत: मैं अकेला इन्हें कैसे दे सकता हूं?' ऐसा कहने पर साधु बोला"वे कहां गए हैं ?' वह बोला-'वे सब नदी में स्नान करने हेतु गए हैं। उसके ऐसा कहने पर साधु ने पुनः कहा-'क्या दूसरों के मोदकों से तुम पुण्य नहीं कर सकते? तुम मूढ़ हो जो मेरे द्वारा मांगने पर भी दूसरों के लड्डुओं को दान देकर पुण्य नहीं कमा रहे हो? यदि तुम ३२ मोदक मुझे देते हो तो भी तुम्हारे भाग में एक ही मोदक आता है। यदि 'अल्पवय और बहुदान' इस सिद्धान्त को सम्यक् हृदय से जानते हो तो मुझे सारे मोदक दे दो।' साधु के द्वारा ऐसा कहने पर उसने सारे मोदक साधु को दे दिए। लड्डुओं से पात्र भरने पर हर्ष से आप्लावित होकर वह साधु उस स्थान से जाने लगा।
___ इसी बीच साधु को माणिभद्र आदि साथी सम्मुख आते हुए मिल गए। उन्होंने साधु से पूछा'भगवन्! आपको यहां किस वस्तु की प्राप्ति हुई ?' साधु ने सोचा कि यदि ये मोदक के स्वामी है तो मोदक-प्राप्ति की बात सुनकर पुनः मुझसे मोदक ग्रहण कर लेंगे इसलिए 'मुझे कुछ भी प्राप्ति नहीं हुई' ऐसा कहूंगा। उसने वैसा ही कहा। माणिभद्र आदि साथियों को भार से आक्रांत पात्र को देखकर शंका हो गई। उन्होंने कहा-'हम आपका पात्र देखना चाहते हैं।' साधु ने पात्र नहीं दिखाया, तब उन्होंने बलपूर्वक
१. निशीथ चूर्णि में इस कथा के प्रारंभ में कुछ अंतर है। एक ग्वाला दूध का विभाग लेकर गाय की रक्षा करता था। वह
प्रतिदिन दूध देने वाली गायों का चौथाई भाग दूध स्वयं लेता था तथा चौथे दिन गायों का पूरा दूध स्वयं ग्रहण करता था। गा. १७३/२, ३ वृ प. १११, निभा ४५०२ चू पृ. ४३३, पिंप्रटी प. ४७।
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परि. ३ : कथाएं
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साधु का पात्र देख लिया। तब कोपारुण नेत्र से उन्होंने मोदक रक्षक पुरुष से पूछा-'तुमने इस साधु को सारे मोदक कैसे दिए?' वह भय से कांपता हुआ बोला-'मैंने इनको मोदक नहीं दिए।' यह सुनकर माणिभद्र आदि सभी साथी साधु से बोले-'तुम चोर हो तथा साधु-वेश की विडम्बना करने वाले हो। तुम्हारा मोक्ष कहां है' ऐसा कहकर उन्होंने साधु का वस्त्र खींचा। फिर सारे पात्र, रजोहरण आदि ग्रहण करके उसको गृहस्थ बनाकर 'पच्छाकड़' बना दिया। वे सब साधु को राजकुल में ले गए और धर्माधिकारी को सारी बात बताई। उन्होंने साधु को सारी बात पूछी किन्तु लज्जा के कारण वह कुछ भी कहने में समर्थ नहीं हो सका। तब उन न्याय करने वाले अधिकारियों ने चिंतन किया-'यह निश्चित ही चोर है लेकिन यह साधु वेशधारी है अत: उसे जीवित छोड़कर देश निकाला दे दिया। २६. धात्रीदोष : संगमसूरि और दत्त कथानक
कोल्लकिर नगर में वृद्धावस्था के कारण जंघाबल से हीन संगम आचार्य प्रवास करते थे। एक बार दुर्भिक्ष होने पर सिंह नामक शिष्य को आचार्य बनाकर उसे सुभिक्ष क्षेत्र में प्रेषित कर दिया। वे स्वयं एकाकी रूप से वहीं रहने लगे। क्षेत्र को नौ भागों में विभक्त करके यतना पूर्वक मासकल्प और चातुर्मास करने लगे। एक वर्ष बीतने पर सिंह आचार्य ने अपने गुरु संगम आचार्य की स्थिति जानने के लिए दत्त नामक शिष्य को भेजा। वह जिस क्षेत्र में आचार्य को छोड़कर गया था, आचार्य उसी वसति में प्रवास कर रहे थे। दत्त ने अपने मन में चिंतन किया-'आचार्य ने भाव रूप से मासकल्प की यतना नहीं की है अत: शिथिल आचार वाले के साथ नहीं रहना चाहिए। यह सोचकर वह वसति के बाहर मण्डप में रुक गया। उसने आचार्य को वंदना तथा कुशलक्षेम की पृच्छा की। दत्त ने सिंह द्वारा प्रदत्त संदेश आचार्य को बताया। भिक्षावेला में वह आचार्य के साथ भिक्षार्थ गया। अंत-प्रान्त घरों में भिक्षा ग्रहण करके उसका मुख म्लान हो गया। तब आचार्य ने उसके भावों को जानकर किसी धनाढ्य सेठ के घर प्रवेश किया। वहां व्यन्तर अधिष्ठित होने के कारण एक बालक सदैव रोता था। आचार्य ने एक चिमटी बजाकर कहा-'वत्स! रोओ मत।' आचार्य के ऐसा कहने पर उनके प्रभाव से वह पूतना व्यन्तरी अट्टहास करती हुई वहां से अन्यत्र चली गई। बालक का रोना बंद हो गया। गृहस्वामी इस बात से अत्यन्त प्रसन्न हो गया। उसने साध को भिक्षा में अनेक मोदक दिए। दत्त मोदक को ग्रहण करके प्रसन्न हो गया। वह अपनी वसति में आ गया।
आचार्य अपने शरीर के प्रति निस्पृह थे अतः आगमविधि के अनुसार अंत-प्रान्त कुलों में भिक्षा करके उपाश्रय में लौटे। प्रतिक्रमण-वेला में आचार्य ने शिष्य दत्त से कहा-'वत्स! धात्रीपिण्ड और चिकित्सापिण्ड की आलोचना करो।' दत्त बोला-'मैं आपके साथ ही भिक्षार्थ गया अतः मुझे धात्रीपिण्ड परिभोग का दोष कैसे लगा?' आचार्य ने कहा-'लघु बालक को क्रीड़ा कराने से क्रीड़न धात्रीपिण्ड तथा चिमटी बजाने से बालक पूतना से मुक्त हुआ, यह चिकित्सापिण्ड हो गया।' तब द्वेषयुक्त मन में दत्त ने चिन्तन किया-'आचार्य स्वयं तो भावतः मासकल्प नहीं करते तथा प्रतिदिन ऐसा पिण्ड लेते हैं। मैंने एक
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१. गा. १७९-१८० वृ प. ११३,११४, निभा ४५१७-१९ चू पृ. ४३७, पिंप्रटी प. ४७, ४८ ।
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पिंडनियुक्ति दिन ऐसा आहार लिया फिर भी मुझे आलोचना करने की बात कह रहे हैं।' इस प्रकार चिन्तन करके प्रद्वेष से वह वसति के बाहर चला गया।
आचार्य के प्रति प्रद्वेष देखकर आचार्य के गुणों के प्रति आकृष्ट एक देवता ने दत्त को शिक्षा देने के लिए वसति में अंधकार कर दिया तथा तेज वायु के साथ वर्षा की विकुर्वणा कर दी। भयभीत होकर उसने आचार्य से कहा-'मैं कहां जाऊं?' तब अति निर्मल हृदय से आचार्य ने कहा-'वत्स! यहां वसति में आ जाओ।' दत्त बोला-'अंधकार के कारण मुझे द्वार दिखाई नहीं दे रहा है।' अनुकम्पा से आचार्य ने श्लेष्म लगाकर अंगुलि को ऊपर किया। वह दीपशिखा की भांति प्रज्वलित हो गई। तब उस दुष्ट चित्त वाले दत्त ने चिन्तन किया-'अहो! आचार्य के पास परिग्रह के रूप में अग्नि भी है।' इस प्रकार चिन्तन करने पर देवता ने उसकी भर्त्सना करते हुए कहा-'हे अधम शिष्य ! इस प्रकार सब गुणों से युक्त आचार्य के बारे में भी तुम इस प्रकार का चिन्तन करते हो।' तब देवता ने मोदक-प्राप्ति की यथार्थ बात शिष्य को बताई। शिष्य के भावों में परिवर्तन हुआ। उसने आचार्य से क्षमा मांगी और सम्यक् रूप से आलोचना की। २७. दूती दोष : धनदत्त कथा
विस्तीर्ण ग्राम के पास गोकुल नामक गांव था। वहां धनदत्त नामक कौटुम्बिक था। उसकी पत्नी का नाम प्रियमति तथा पुत्री का नाम देवकी था। उसी गांव में सुंदर नामक युवक से उसका विवाह हुआ। उसके पुत्र का नाम बलिष्ठ और पुत्री का नाम रेवती था। पुत्री का विवाह गोकुल ग्राम में संगम के साथ हुआ। आयु कम होने पर प्रियमति कालगत हो गई। धनदत्त भी संसार से विरक्त होकर दीक्षा लेकर गुरु के साथ विहरण करने लगा। कालान्तर में ग्रामानुग्राम विहार करते हुए धनदत्त अपनी पुत्री देवकी के गांव में आया। उस समय उन दोनों गांवों में परस्पर वैर चल रहा था। विस्तीर्ण ग्रामवासियों ने गोकुल ग्राम के ऊपर हमला करने की सोची। धनदत्त मुनि गोकुल ग्राम में भिक्षा के लिए प्रस्थित हुआ, तब शय्यातरी देवकी ने कहा-'आप गोकुल ग्राम में जा रहे हैं। वहां अपनी दौहित्री रेवती को कहना कि तुम्हारी मां ने संदेश भेजा है कि यह गांव तुम्हारे गांव के ऊपर दस्यु-दल के साथ प्रच्छन्न रूप से हमला करने आएगा अतः अपने सभी आत्मीयों को एकान्त में सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दो।' साधु ने वह सारी बात रेवती को कह दी। उसने अपने पति को सारी बात बताई। उसने सारे गांव को यह सूचना दे दी। सारा गांव कवच आदि पहनकर युद्ध के लिए तैयार हो गया।
। दूसरे दिन धाटी विस्तीर्ण गांव में पहुंच गई। उन दोनों में युद्ध प्रारंभ हो गया। सुंदर और बलिष्ठ दस्युदल के साथ गए। संगम गोकुल ग्राम में था। वे तीनों युद्ध में काल कवलित हो गए। देवकी ने पति, पुत्र
और जंवाई के मरण को सुनकर विलाप करना प्रारंभ कर दिया। लोग उसे समझाने के लिए आए। उन्होंने कहा-'यदि गोकुल ग्राम में धाटी आने की सूचना नहीं होती तो वे सन्नद्ध होकर युद्ध नहीं करते और न ही तुम्हारे पति आदि की मृत्यु होती। किस दुरात्मा ने गोकुल गांव में सूचना भेजी?' लोगों से इस प्रकार की
१. गा. १९९ वृ प. १२५, १२६, उनि १०७, आवनि ७७८-७७८/२, आवचू भा. २ पृ. ३५, निभा ४३९२-९४ चू पृ. ४०८,
पिंप्रटी प.५२, ५३।
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परि. ३ : कथाएं
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बात सुनकर क्रोधित होकर देवकी बोली- 'जानकारी के अभाव में मैंने अपने पिता मुनि साथ अपनी पुत्री को संदेश भेजा था।' सारे लोक में मुनि धनदत्त को धिक्कार मिलने लगी। प्रवचन की भी अवहेलना होने लगी ।"
२८. निमित्त दोष : ग्रामभोजक- दृष्टांत
एक गांव में अवसन्न नैमित्तिक साधु रहता था। उस गांव का नायक अपनी पत्नी को छोड़कर दिग्यात्रा पर गया हुआ था । उसकी पत्नी को उस नैमित्तिक ने अपने निमित्त ज्ञान से आकृष्ट कर लिया । दूरस्थ ग्राम- नायक ने सोचा- 'मैं प्रच्छन्न रूप से अकेला जाकर अपनी पत्नी की चेष्टाएं देखूंगा कि वह दुःशीला है अथवा सुशीला ?' उस नैमित्तिक साधु से अपने पति के आगमन की बात जानकर उसने अपने परिजनों को सामने भेजा । ग्रामनायक ने परिजनों से पूछा - ' तुम लोगों को मेरे आगमन की बात कैसे ज्ञात हुई ?' उन्होंने कहा - ' तुम्हारी पत्नी ने यह बात बताई है।' उसने मन में चिन्तन किया कि मेरी पत्नी ने मेरे आगमन की बात कैसे जानी ?
साधु उस समय ग्रामभोजक के घर आ गया। उसने विश्वासपूर्वक पति के साथ हुए वार्तालाप, चेष्टा, स्वप्न तथा शरीर के मष, तिलक आदि के बारे में बताया। इसी बीच ग्रामभोजक अपने घर आ गया । उसने पति का यथोचित सत्कार किया। उसने पूछा- 'तुमने मेरे आगमन की बात कैसे जानी ?' वह बोली- 'साधु के निमित्त - ज्ञान से मुझे जानकारी मिली।' भोजक ने कहा- 'क्या उसकी और भी कोई विश्वासपूर्ण बात है ? ' तब उसने बताया कि आपके साथ जो भी वार्तालाप, चेष्टाएं आदि की हैं, जो मैंने स्वप्न आदि देखें हैं, मेरे गुह्य प्रदेश में जो तिलक है, वह भी इस नैमित्तिक साधु ने यथार्थ बता दिए हैं, तब भोजक ने ईर्ष्या और क्रोधवश उस साधु से पूछा - ' इस घोड़ी के गर्भ में क्या है ?' साधु ने बताया'पंचपुंड्र वाला घोड़ी का बच्चा ।' तब उसने सोचा- 'यदि यह बात सत्य होगी तो मेरी भार्या को बताए गए मष, तिलक आदि का कथन भी सत्य होगा । अन्यथा अवश्य ही यह विरुद्ध कर्म करने वाला व्यभिचारी है अतः मारने योग्य है।' इस प्रकार चिन्तन करके उसने घोड़ी का पेट चीरा, उसमें से परिस्पंदन करता हुआ पंचपुंड्र किशोर निकला। उसको देखकर उसका क्रोध शांत हो गया। वह साधु से बोला- ' यदि यह बात सत्य नहीं होती तो तुम भी इस दुनिया में नहीं रहते । २
२९. चिकित्सा दोष : सिंह- दृष्टांत
एक अटवी में एक व्याघ्र अंधा हो गया। अंधेपन के कारण उसे भक्ष्य मिलना दुर्लभ हो गया। एक वैद्य ने उसका अंधापन मिटा दिया। स्वस्थ होते ही व्याघ्र ने सबसे पहले उसी वैद्य का घात किया, फिर वह जंगल में अन्य पशुओं को भी मारने लगा।
१. गा. २०२,२०३ वृप. १२७, निभा ४४०१, ४४०२, चू पृ. ४१०, जीभा १३३५-३९, पिंप्रटी प. ५४ ।
२. गा. २०५, पिभा ३३, ३४ वृप. १२८, निभा ४४०६-०८, चू पृ. ४११, निभा २६९४-९६ चू. पृ. २०, जीभा १३४२ - ४७, पिंप्रंटी प. ५४,५५
३. गा. २१५ वृ प. १३३, पिंप्रटी प. ५७ ।
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पिंडनियुक्ति ३०. क्रोधपिण्ड : क्षपक दृष्टांत
__ हस्तकल्प नगर में किसी ब्राह्मण के घर में मृतभोज था। उस भोज में एक मासखमण की तपस्या वाला साधु पारणे के लिए भिक्षार्थ पहुंचा। उसने ब्राह्मणों को घेवर का दान देते हुए देखा। उस तपस्वी साधु को द्वारपाल ने रोक दिया। साधु कुपित होकर बोला-'आज नहीं दोगे तो कोई बात नहीं, अगले महीने तुम्हें मुझको देना होगा।' ऐसा कहते हुए वह घर से निकल गया। दैवयोग से उस घर का अन्य कोई व्यक्ति पांच-छह दिन के बाद दिवंगत हो गया। उसके मृतभोज वाले दिन वही साधु मासखमण के पारणे हेतु वहां पहुंचा। उस दिन भी द्वारपाल ने उसको रोक दिया। वह मुनि कुपित होकर पुनः बोला-'आज नहीं तो फिर कभी देना होगा।' मुनि की यह बात सुनकर स्थविर द्वारपाल ने चिन्तन किया कि पहले भी इस साधु ने दो बार इसी प्रकार श्राप दिया था। घर के दो व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त हो गए। इस बार तीसरा अवसर है। अब घर का कोई व्यक्ति न मरे अतः उसने गृहनायक को सारी बात बताई। गृहनायक ने आदरपूर्वक साधु से क्षमायाचना की तथा घेवर आदि वस्तुओं की भिक्षा दी। (यह क्रोधपिण्ड है)। ३१. श्वेताङ्गलि
किसी गांव में कोई पुरुष अपनी भार्या की इच्छा के अधीन था। वह प्रात:काल ही भूख के कारण अपनी पत्नी से भोजन की याचना करता था। वह उसको कहती थी कि मैं आलस्य के कारण इतनी जल्दी उठने में समर्थ नहीं हूं अतः तुम स्वयं चूल्हे से राख निकालकर पड़ोसी के घर से अग्नि लाकर चूल्हा जलाओ और भोजन पकाओ। जब वह पक जाए, तब मैं आपको परोसकर खाना खिलाऊंगी। पत्नी के कहे अनुसार प्रतिदिन वह यह कार्य करता था। प्रात:काल ही चूल्हे से राख निकालने के कारण उसका मुख राख से श्वेत हो जाता था अतः लोगों ने विनोद में उसका नाम श्वेताङ्गलि रख दिया। ३२. बकोड्डायक
किसी ग्राम में कोई पुरुष अपनी पत्नी के मुखदर्शन के सुख में आसक्त था अतः वह उसके प्रत्येक आदेश का वशवर्ती था। एक बार उसकी पत्नी ने कहा-'आज मुझे आलस्य सता रहा है अतः तुम स्वयं तड़ाग पर जाकर पानी लेकर आ जाओ।' वह पत्नी के कथन को देवता के आदेश की भांति स्वीकार करता हुआ बोला-'प्रिये ! तुम जो आदेश दोगी, मैं वही कार्य करूंगा। लोग मुझे पानी लाते हुए नहीं देखें इसलिए मैं रात्रि के पश्चिम प्रहर में उठकर प्रतिदिन पानी लाऊंगा।' गमनागमन करने से उसके पैरों की आवाज तथा घड़ा भरने की आवाज को सुनकर तड़ाग के किनारे उगे हुए वृक्षों पर सोते हुए बक उड़ने लगते थे। यह वृत्तान्त लोगों को विदित हो गया। विनोद में लोगों ने उसका नाम बकोड्डायक रख दिया।
१. गा. २१८/१, वृ प. १३४, निभा ४४४२, जीभा १३९५, चू प. ४१८, पिंप्रटी प. ५८। २. गा. २१९/६, वृ प. १३५, निभा ४४५१, चू पृ. ४२०, पिंप्रटी प.५९। ३. गा. २१९/६, वृ प. १३५, निभा ४४५१, चू पृ. ४२०, पिंप्रटी प.५९।
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परि. ३ : कथाएं
२५३ ३३. किंकर
किसी गांव में कोई पुरुष अपनी भार्या के स्तन-जघन आदि के स्पर्श में आसक्त था। वह अपनी पत्नी की हर इच्छा का अनुवर्ती था। वह प्रातः उठकर बद्धाञ्जलि अपनी पत्नी से कहता था-'दयिते! मैं तुम्हारे लिए क्या करूं?' वह कहती थी तड़ाग से पानी लेकर आओ। 'जो प्रिया आदेश देगी, मैं वही करूंगा' ऐसा कहकर वह तड़ाग से पानी लाता था। पानी लाकर वह पुनः पूछता था-'प्राणेश्वरि ! अब मैं क्या करूं?' उसकी भार्या कहती मिट्टी के पात्र से तण्डुल निकालकर उनको कंडित करो। इसी प्रकार भोजन से पूर्व मेरे पैरों का प्रक्षालन करो तथा घी से मालिश करो आदि। वह सारा कार्य उसी रूप में सम्पादित करता था। इन सब बातों को जानकर लोगों ने उसका नाम किंकर रख दिया। ३४. स्नायक
किसी ग्राम में कोई पुरुष अपनी पत्नी की आज्ञा का अनुवर्ती था। एक बार उसने अपनी पत्नी से कहा-'मैं स्नान करना चाहता हूं।' उसकी पत्नी ने कहा-'तुम आंवलों को शिला पर पीसो, स्नान पोत्तिका को धारण करो, तैल की मालिश करो और फिर घट लेकर तड़ाग पर जाओ, वहां स्नान करके आते समय जल भरकर ले आओ।' उसने पत्नी के कथन को देवता के आदेश की भांति स्वीकृत करते हुए सारा कार्य सम्पन्न किया। उसका नाम स्नायक' पड़ गया। ३५. गृध्रइवरिली
किसी गांव में कोई पुरुष पत्नी के आदेश के अधीन था। एक बार उसकी पत्नी रसोई में आसन पर बैठी थी। पति ने उससे भोजन की याचना की। उसने कहा-'मेरे पास स्थाली लेकर आओ।' 'जो प्रियतमा आदेश दे वही मेरे लिए प्रमाण है' यह कहता हुआ वह स्थाली लेकर पत्नी के पास गया। पत्नी ने भोजन परोसकर कहा-'भोजन के स्थान पर जाकर भोजन करो।' पुन: उसने तीमन-सब्जी की याचना की। पत्नी ने कहा-'स्थाली लेकर मेरे पास आ जाओ।' तब वह गृध्र की भांति चलता हुआ स्थाली लेकर पत्नी के पास गया। इसी प्रकार उसने तक्र आदि को ग्रहण किया। इन सब बातों को जानकर लोगों ने उसका नाम गृध्रइवरिङ्खी कर दिया। ३६. हदज्ञ
किसी ग्राम में भार्या-मुख को देखने में आसक्त पुरुष उसके हर आदेश का पालन करता था। भार्या के साथ सुख का अनुभव करते हुए कालान्तर में उसको पुत्र की प्राप्ति हुई। पालने में स्थित उसके पुत्र ने मलोत्सर्ग कर दिया। मल से पालना और बच्चे के वस्त्र खरंटित हो गए। तब उसकी पत्नी बोली'बालक के पुत, पालना तथा वस्त्र आदि की सफाई करो।' 'जो प्रिया आदेश देगी, वह मैं करूंगा' ऐसा १. गा. २१९/६, वृ प. १३५, निभा ४४५१, चू पृ. ४२०, पिंप्रटी प. ५९ । २. पिंप्र में तीर्थस्नायक नाम है। ३. गा. २१९/६, वृ प. १३५, निभा ४४५१, चू पृ. ४२०, पिंप्रटी प. ५९। ४. गा. २१९/६, वृ प. १३५, निभा ४४५१, चू पृ. ४२१, पिंप्रटी प. ६० ।
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पिंडनियुक्ति
कहते हुए उसने यह सारा कार्य किया। इसी प्रकार वह प्रतिदिन यह कार्य करता था। यह बात ज्ञात होने पर लोगों ने उसका नाम हदज्ञ रख दिया। ३७. मानपिण्ड : सेवई-दृष्टांत
___कौशल जनपद के गिरिपुष्पित नगर में सिंह नामक आचार्य अपने शिष्य-परिवार के साथ आए। एक बार वहां सेवई बनाने का उत्सव आया। उस दिन सूत्र पौरुषी के बाद सब तरुण साधु एकत्रित हुए। उनका आपस में वार्तालाप होने लगा। उनमें से एक साधु बोला-'इतने साधुओं में कौन ऐसा है, जो प्रातःकाल ही सेवई लेकर आएगा।' गुणचन्द्र नामक क्षुल्लक बोला-'मैं लेकर आऊंगा।' साधुओं ने कहा-'यदि सेवई सब साधुओं के लिए पर्याप्त नहीं होगी अथवा घृत या गुड़ से रहित होगी तो उससे हमको कोई प्रयोजन नहीं है, तुम्हें घृत और गुड़ से युक्त पर्याप्त सेवई लानी होगी।' क्षुल्लक बोला-'जैसी तुम्हारी इच्छा होगी, वैसी ही सेवई मैं लेकर आऊंगा।' ऐसी प्रतिज्ञा करके वह नांदीपात्र को लेकर भिक्षार्थ गया। उसने किसी कौटुम्बिक के घर में प्रवेश किया। साधु ने वहां पर्याप्त सेवई देखी। वह प्रचुर घी और गुड़ से संयुक्त थी। साधु ने अनेक वचोविन्यास से सुलोचना नामक गृहिणी से सेवई की याचना की। गृहस्वामिनी ने साधु को भिक्षा देने के लिए सर्वथा प्रतिषेध करते हुए कहा-'मैं तुमको कुछ भी नहीं दूंगी।' तब क्रोधपूर्वक क्षुल्लक मुनि ने कहा-'मैं निश्चित रूप से घी और गुड़ से युक्त इस सेवई को ग्रहण करूंगा।' क्षुल्लक के वचनों को सुनकर सुलोचना भी क्रोधावेश में आकर बोली-'यदि तुम इस सेवई को किसी भी प्रकार प्राप्त करोगे तो मैं समझूगी कि तुमने मेरे नासापुट में प्रस्रवण किया है।' तब क्षुल्लक ने सोचा- 'मुझे अवश्य ही इस घर से सेवई प्राप्त करना है।' दृढ़ निश्चय करके वह घर से निकला और पार्श्व के किसी व्यक्ति से पूछा-'यह किसका घर है ?' व्यक्ति ने बताया कि यह विष्णुमित्र का घर है। क्षुल्लक ने पुनः पूछा कि वह विष्णुमित्र इस समय कहां है? व्यक्ति ने उत्तर दिया-'वह अभी परिषद् के बीच है।'
क्षुल्लक ने परिषद् के बीच में जाकर पूछा-'तुम लोगों के बीच में विष्णुमित्र कौन है?' लोगों ने कहा-'विष्णुमित्र से आपको क्या प्रयोजन है।' साधु ने कहा-'मैं उससे कुछ याचना करूंगा।' विनोद करते हुए उन्होंने कहा-'यह बहुत कृपण है अत: आपको कुछ नहीं देगा। आपको जो मांगना है, वह हमसे मांगो।' तब विष्णुमित्र ने सोचा कि इतने लोगों के बीच मेरी अवहेलना न हो अत: उनके सामने बोला-'मैं ही विष्णुमित्र हूं, मुझसे कुछ भी मांगो।'
तब क्षुल्लक बोला-'यदि तुम छह महिलाप्रधान व्यक्तियों में से नहीं हो तो मैं याचना करूंगा।' तब परिषद् के लोगों ने पूछा-'वे छह महिलाप्रधान पुरुष कौन हैं ?' क्षुल्लक ने कहा कि उन छह पुरुषों के नाम इस प्रकार हैं-१. श्वेताङ्गुलि २. बकोड्डायक ३. किंकर ४. स्नायक ५. गृध्रइवरिङ्खी ६. हदज्ञ। १. गा. २१९/६, वृ प. १३५,१३६, निभा ४४५१, चू पृ. ४२१, पिंप्रटी प. ६०। २. जीभा के अनुसार गिरिपुष्पित नगर कौशल देश में था (जीभा १३९५)। ३. यह छहों कथाएं ३७ वीं कथा के अन्तर्गत है लेकिन सुविधा की दृष्टि से इन कथाओं का वर्णन कथा सं. ३७ से पूर्व कर दिया है।
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परि. ३ : कथाएं
२५५ इस प्रकार क्षुल्लक द्वारा छहों व्यक्तियों का वर्णन सुनकर परिषद् के लोगों ने अट्टहास करते हुए कहा"इसमें छहों पुरुषों के गुण हैं इसलिए इस महिलाप्रधान पुरुष से मांग मत करो।' विष्णुमित्र' बोला-'मैं इन छह पुरुषों के समान नहीं हूं अत: तुम मांग करो।' उसके आग्रह पर क्षुल्लक बोला-'मुझे घृत और गुड़ संयुक्त पात्र भरकर सेवई दो।' विष्णुमित्र बोला-'मैं तुमको यथेच्छ सेवई दूंगा।' तब वह विष्णुमित्र क्षुल्लक को लेकर अपने घर की ओर गया। घर के द्वार पर पहुंचने पर क्षुल्लक ने कहा-'मैं पहले भी तुम्हारे घर आया था लेकिन तुम्हारी भार्या ने प्रतिज्ञा की थी कि मैं तुमको कुछ भी नहीं दूंगी इसलिए तुमको जो उचित लगे, वह करो।' क्षुल्लक के ऐसा कहने पर विष्णुमित्र बोला-'यदि ऐसी बात है तो तुम कुछ समय के लिए घर के बाहर रुको, मैं स्वयं तुमको बुला लूंगा।'
विष्णुमित्र घर में प्रविष्ट हुआ। उसने अपनी पत्नी से पूछा- क्या सेवई पका ली?' उनको घी और गुड़ से युक्त कर दिया?' पत्नी ने कहा-'मैंने सारा कार्य पूर्ण कर दिया।' विष्णुमित्र ने गुड़ को देखकर कहा-'यह गुड़ थोड़ा है, इतना गुड़ पर्याप्त नहीं होगा अतः माले पर चढ़कर अधिक गुड़ लेकर आओ, जिससे मैं ब्राह्मणों को भोजन करवाऊंगा।' पति के वचन सुनकर वह नि:श्रेणि के माध्यम से माले पर चढ़ी। चढ़ते ही विष्णुमित्र ने निःश्रेणि वहां से हटा दी। विष्णुमित्र ने क्षुल्लक को बुलाकर पात्र भरकर सेवई का दान दिया। उसके बाद उसने घी और गुड़ आदि देना प्रारंभ किया। इसी बीच गुड़ लेकर सुलोचना माले से उतरने के लिए तत्पर हुई लेकिन वहां निःश्रेणि को नहीं देखा। उसने आश्चर्यचकित होकर क्षुल्लक को घृत, गुड़ से युक्त सेवई देते हुए देखकर सोचा कि मैं इस क्षुल्लक से पराजित हो गई अतः उसने ऊपर खड़े-खड़े ही चिल्लाते हुए बार-बार कहा-'इस क्षुल्लक को दान मत दो।' क्षुल्लक ने भी उसकी ओर देखकर अपनी नाक पर अंगुलि रखकर यह प्रदर्शित किया कि मैंने तुम्हारे नासापुट में प्रस्रवण कर दिया है। क्षुल्लक घृत और गुड़ से युक्त सेविका का पात्र लेकर अपने उपाश्रय में चला गया। (यह मानपिण्ड का उदाहरण है)। ३८. मायापिण्ड : आषाढ़भूति कथानक
राजगृह नगरी में सिंहरथ नामक राजा राज्य करता था। वहां विश्वकर्मा नामक नट की दो पुत्रियां थीं। वे अत्यन्त सुरूप एवं सुघड़ देहयष्टि वाली थीं। एक बार ग्रामानुग्राम विहार करते हुए धर्मरुचि आचार्य वहां आए। उनके एक अंत:वासी शिष्य का नाम आषाढ़भूति था। वह भिक्षार्थ घूमते हुए विश्वकर्मा नट के घर में प्रविष्ट हुआ। वहां उसने विशिष्ट मोदक प्राप्त किया। नट के गृह-द्वार से बाहर निकलने पर आषाढ़भूति मुनि ने सोचा-'यह मोदक तो आचार्य के लिए होगा अतः रूप-परिवर्तन करके अपने लिए भी एक मोदक प्राप्त करूंगा।' उसने आंख से काने मुनि का रूप बनाया और दूसरा मोदक प्राप्त किया। बाहर निकलकर पुनः चिन्तन किया-'यह उपाध्याय के लिए होगा' अतः पुनः कुब्ज का रूप बनाकर नट के घर में प्रवेश किया। तीसरा मोदक प्राप्त करके मुनि ने सोचा कि यह सिंघाड़े के मुनि के लिए होगा अतः
१. निशीथ चूर्णि (पृ. ४२०) में इंद्रदत्त नाम का उल्लेख मिलता है, पिंप्रटी प.५८-६०। २. गा. २१९/१-८, वृ प. १३४-१३६, निभा ४४४६-५३, चू पृ. ४१९-४२१, जीभा १३९५-९७।
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पिंडनियुक्ति
इस बार कुष्ठी का रूप धारण करके घर में प्रवेश किया। मुनि को चौथा मोदक प्राप्त हो गया। माले के ऊपर बैठे विश्वकर्मा ने इतने रूपों का परिवर्तन करते हुए देखा। उसने सोचा कि यदि यह हमारे बीच रहे तो अच्छा रहेगा लेकिन इसको किस विधि से आकृष्ट करना चाहिए, यह सोचते हुए नट के मन में एक युक्ति उत्पन्न हुई। उसने सोचा पुत्रियों के द्वारा मुनि के मन को विचलित करके ही इसका मन संसार की और खींचा का सकता है।
नट माले से उतरकर मुनि के पास गया और आदरपूर्वक पात्र भरकर मोदकों का दान दिया। नट ने कहा- 'आपको प्रतिदिन हमारे घर भक्तपान ग्रहण करने का अनुग्रह करना है।' वह अपने उपाश्रय में चला गया। विश्वकर्मा ने अपने परिवार के समक्ष आषाढ़भूति की रूप-परिवर्तन विद्या के बारे में बताया तथा अपनी दोनों पुत्रियों से कहा कि तुमको स्नेहयुक्त दृष्टि से दान देते हुए मुनि को अपनी ओर आकृष्ट करना है। आषाढ़भूति प्रतिदिन भिक्षार्थ आने लगा। दोनों पुत्रियों ने वैसा ही किया। मुनि को अपनी ओर अनुरक्त देखकर एक बार एकान्त में उन्होंने मुनि से कहा-'हमारा मन आपके प्रति अत्यधिक आकृष्ट है अत: हमारे साथ विवाह करके भोगों का सेवन करो।'
यह सुनकर मुनि आषाढ़भूति का चारित्रावरणीय कर्म उदय में आ गया, जिससे गुरु का उपदेश रूपी विवेक हृदय से निकल गया। कुल और जाति का अभिमान समाप्त हो गया। मुनि ने दोनों नटकन्याओं को कहा-'ऐसा ही होगा लेकिन पहले मैं गुरु-चरणों में मुनि-वेश छोड़कर आऊंगा।' आषाढ़भूति मुनि गुरु-चरणों में प्रणत हुआ और अपने अभिप्राय को प्रकट कर दिया। गुरु ने प्रेरणा देते हुए कहा'वत्स! तुम जैसे विवेकी, शास्त्रज्ञ व्यक्ति के लिए उभयलोक में जुगुप्सनीय यह आचरण उचित नहीं है। दीर्घकाल तक शील का पालन करके अब विषयों में रमण मत करो। क्या समद्र को बाहों से तैरने वाला व्यक्ति गोपद जितने स्थान में डूब सकता है?' आषाढ़भूति ने कहा-'आपका कथन सत्य है लेकिन प्रतिकूल कर्मों के उदय से, प्रतिपक्ष भावना रूप कवच के दुर्बल होने पर, कामदेव का आघात होने से तथा मृगनयनी रमणी की कटाक्ष से मेरा हृदय पूर्णरूपेण जर्जर हो गया है।' इस प्रकार कहकर उसने गुरु-चरणों में रजोहरण छोड़ दिया। 'मैं ऐसे निष्कारण उपकारी गुरु को पीठ कैसे दिखाऊं' यह सोचकर वह पैरों को पीछे करता रहा। पुनः किस प्रकार गुरु के चरण-कमलों को प्राप्त करूंगा' इस प्रकार विविध विकल्पों के साथ वसति से निकलकर वह विश्वकर्मा के भवन में आ गया।
नटकन्याओं ने आदरपूर्वक मुनि के शरीर को अनिमिष दृष्टि से देखा। उन्होंने अनुभव किया कि मुनि का रूप आश्चर्यजनक है। शरद चन्द्रमा के समान मनोहर इसका मुख मण्डल है। कमलदल की भांति दोनों आंखें हैं, नुकीली नाक तथा कुंद के फूलों की भांति श्वेत और स्निग्ध दांतों की पंक्ति है। कपाट की भांति विशाल और मांसल वक्षस्थल है। सिंह की भांति कटिप्रदेश तथा कूर्म की भांति चरणयुगल हैं।
विश्वकर्मा ने आदरसहित मुनि को कहा-'अहोभाग! ये मेरी दोनों कन्याएं आपको समर्पित हैं। आप इन्हें स्वीकार करें।' नट ने दोनों कन्याओं के साथ आषाढ़भूति का विवाह कर दिया। विश्वकर्मा ने अपनी दोनों कन्याओं को कहा-'जो व्यक्ति मन की ऐसी स्थिति को प्राप्त करके भी गुरु-चरणों की
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परि. ३ : कथाएं
२५७ स्मृति करता है, वह नियम से उत्तम प्रकृति वाला होता है अतः इसके चित्त को आकृष्ट करने के लिए तुम्हें सदा मद्यपान से रहित रहना है अन्यथा यह तुमसे विरक्त हो जाएगा।'
आषाढ़भूति सकल कलाओं के ज्ञान में कुशल तथा नाना प्रकार के विज्ञानातिशय से युक्त था अतः सभी नटों में अग्रणी हो गया। वह सर्वत्र प्रभूत धन तथा वस्त्र-आभरण आदि प्राप्त करता था। एक बार राजा ने नटों को बुलाया और आदेश दिया कि आज बिना महिलाओं का नाटक करना है। सभी नट अपनी युवतियों को घर पर छोड़कर राजकुल में गए। आषाढ़भूति की पत्नियों ने सोचा कि हमारा पति राजकुल में गया है अतः सारी रात वहीं बीत जाएगी। आज हम यथेच्छ मदिरा-पान करेंगी। उन्होंने वैसा ही किया तथा उन्मत्तता के कारण वस्त्र रहित होकर घर की दूसरी मंजिल में सो गईं।
इधर राजकुल में किसी दूसरे राष्ट्र का दूत आ गया अतः राजा का चित्त विक्षिप्त हो गया। यह नाटक का समय नहीं है', यह सोचकर राजा ने सारे नटों को वापस लौटा दिया। जब आषाढभूति ने दूसरी मंजिल में पहुंचकर अपनी दोनों पलियों को विगतवस्त्रा एवं बीभत्स रूप में देखा तो उसने चिन्तन किया-'अहो! मेरी कैसी मूढ़ता है? विवेक वैकल्य है, जो मैंने इस प्रकार की अशुचियुक्त तथा अधोगति की कारणभूत स्त्रियों के लिए मुक्तिपद के साधन संयम को छोड़ दिया। अभी भी मेरा कुछ नहीं बिगड़ा है। मैं गुरु-चरणों में जाकर पुन: चारित्र ग्रहण करूंगा तथा पाप-पंक का प्रक्षालन करूंगा।' यह सोचकर आषाढ़भूति अपने घर से निकलने लगा। विश्वकर्मा ने उसको देख लिया। आषाढ़भूति के चेहरे के हाव-भाव से उसने जान लिया कि यह संसार से विरक्त हो गया। उसने अपनी दोनों पुत्रियों को उठाकर उपालम्भ देते हुए कहा-'तुम्हारी इस प्रकार की उन्मत्त चेष्टाओं को देखकर सकल निधान का कारण तुम्हारा पति तुमसे विरक्त हो गया है। यदि तुम उसे लौटा सको तो प्रयत्न करो, अन्यथा जीवन चलाने के लिए धन की याचना करो।'
दोनों पत्नियां वस्त्र पहनकर आषाढ़भूति के लिए दौड़ी और पैरों में गिर पड़ीं। उन्होंने निवेदन करते हुए कहा-'स्वामिन् ! हमारे एक अपराध को क्षमा करके आप पुन: घर लौट आओ। विरक्त होकर इस प्रकार हमें मझधार में मत छोड़ो।' उनके द्वारा ऐसा कहने पर भी उसका मन विचलित नहीं हुआ। पत्नियों ने कहा-'यदि आप गृहस्थ जीवन नहीं जीना चाहते हैं तो हमें जीवन चलाने जितना धन दो, जिससे आपकी कृपा से हम अपना शेष जीवन भलीभांति बिता सकें।' अनुकम्पावश आषाढ़भूति ने उनके इस निवेदन को स्वीकार कर लिया और पुनः घर आ गया।
आषाढ़भूति ने भरत चक्रवर्ती के चरित्र को प्रकट करने वाले 'राष्ट्रपाल' नामक नाटक की तैयारी की। विश्वकर्मा ने राजा सिंहस्थ को निवेदन किया कि आषाढ़भूति ने 'राष्ट्रपाल' नामक नाटक की रचना की है। आप उसका आयोजन करवाएं। नाटक के मंचन हेतु उनको आभूषण पहने हुए ५०० राजपुत्र चाहिए। राजा ने ५०० राजपुत्रों को आज्ञा दे दी। आषाढ़भूति ने उनको सम्यक् प्रकार से प्रशिक्षित किया। नाटक प्रारंभ हुआ। आषाढ़भूति ने भरतचक्रवर्ती का चरित्र प्रस्तुत किया और राजपुत्रों ने भी यथायोग्य अभिनय किया।
नाटक में किस प्रकार भरत ने षट्खण्ड पर अधिकार किया, चतुर्दश रत्न एवं नौ निधियों को प्राप्त किया, आदर्श गृह में स्थित होकर कैवल्य प्राप्त किया तथा ५०० राजकुमारों के साथ दीक्षा ग्रहण की,
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पिंडनियुक्ति यह सब अभिनय प्रस्तुत किया गया। अंत में नाटक से संतुष्ट राजा ने तथा सभी लोगों ने यथाशक्ति हार, कुंडल आदि आभरण तथा प्रभूत मात्रा में वस्त्र आदि फेंके। सब लोगों को धर्मलाभ देकर आषाढ़भूति ५०० राजकुमारों के साथ राजकुल से बाहर जाने लगा। राजा ने उसको रोका। उसने उत्तर दिया-'क्या भरतचक्रवर्ती प्रव्रज्या लेकर वापिस संसार में लौटा था, वह नहीं लौटा तो मैं भी नहीं लौटूंगा।' सपरिवार आषाढ़भूति गुरु के समीप गया। वस्त्र-आभरण आदि सब अपनी दोनों पत्नियों को दे दिए और पुनः दीक्षा ग्रहण कर ली। वही नाटक विश्वकर्मा ने कुसुमपुर नगर में भी प्रस्तुत किया। वहां भी ५०० क्षत्रिय प्रव्रजित हो गए। लोगों ने सोचा-इस प्रकार क्षत्रियों द्वारा प्रव्रज्या लेने पर यह पृथ्वी क्षत्रिय रहित हो जाएगी अतः उन्होंने नाटक की पुस्तक को अग्नि में जला दिया। (यह मायापिंड का उदाहरण है)। ३९. लोभपिण्ड : सिंहकेशरक मोदक-दृष्टांत
चम्पा नामक नगरी में सुव्रत नामक साधु प्रवास कर रहा था। एक बार वहां मोदकोत्सव का आयोजन हुआ। उस दिन सुव्रत मुनि ने सोचा कि मुझे आज किसी भी प्रकार सिंहकेशरक मोदक प्राप्त करने हैं। लोगों के प्रतिषेध करने पर भी वह दो प्रहर तक घूमता रहा। मोदक की प्राप्ति न होने पर उसका चित्त विक्षिप्त हो गया। अब वह हर घर के द्वार में प्रवेश करके धर्मलाभ' के स्थान पर सिंहकेशरक मोदक कहने लगा। पूरे दिन और रात्रि के दो प्रहर बीतने पर भी वह मोदक के लिए घूमता रहा। आधी रात्रि में उसने एक श्रावक के घर प्रवेश किया। 'धर्मलाभ' के स्थान पर उसने सिंहकेशरक शब्द का उच्चारण किया। वह श्रावक बहुत गीतार्थ और दक्ष था। उसने सोचा-निश्चय ही इस मुनि ने कहीं भी सिंहकेशरक मोदक प्राप्त नहीं किए इसलिए इसका चित्त विक्षिप्त हो गया है। मुनि की चैतसिक स्थिरता हेतु श्रावक बर्तन भरकर सिंहकेशरक मोदक लेकर आया और निवेदन किया-'मुने! इन मोदकों को आप ग्रहण करो।' मुनि सुव्रत ने उनको ग्रहण कर लिया। मोदक ग्रहण करते ही उसका चित्त स्वस्थ हो गया। श्रावक ने पूछा-'आज मैंने पूर्वार्द्ध का प्रत्याख्यान किया था, वह पूर्ण हुआ या नहीं?' मुनि सुव्रत ने काल-ज्ञान हेतु उपयोग लगाया। मुनि ने आकाश-मण्डल को तारागण से परिमण्डित देखा। उसको चैतसिक भ्रम का ज्ञान हो गया। मुनि ने पश्चात्ताप करना प्रारंभ कर दिया-'हा! मूढ़तावश मैंने गलत आचरण कर लिया। लोभ से अभिभूत मेरा जीवन व्यर्थ है।' श्रावक को संबोधित करते हुए मुनि ने कहा-'तुमने पूर्वार्द्ध प्रत्याख्यान की बात कहकर मुझे संसार में डूबने से बचा लिया। तुम्हारी प्रेरणा मेरे लिए संबोध देने वाली रही।' आत्मा की निंदा करते हुए उसने विधिपूर्वक मोदकों का परिष्ठापन किया तथा ध्यानानल से क्षणमात्र में घाति-कर्मों का नाश कर दिया। आत्मचिंतन से मुनि को कैवल्य की प्राप्ति हो गई।
१. गा. २१९/९-१५, वृ प. १३७-१३९, जीभा १३९८-१४१०, पिंप्रटी प.६०-६३, निभा एवं उसकी चूर्णि में केवल
क्रोधपिण्ड और मानपिण्ड से संबंधित कथाएं हैं। निशीथसूत्र में मायापिण्ड और लोभपिण्ड से संबंधित सूत्र का उल्लेख है . लेकिन उसकी व्याख्या एवं कथा नहीं है। यह अन्वेषण का विषय है कि ऐसा कैसे हुआ? इस संदर्भ में यह संभावना की जा सकती है कि संपादित निशीथ भाष्य एवं चूर्णि में वह प्रसंग छूट गया हो अथवा ग्रंथकार ने उसे सरल समझकर छोड़
दिया हो। २. गा. २२०/१,२ वृ प. १३९, जीभा १४१४-१७, पिंप्रटी प. ६५ ।
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परि. ३ : कथाएं
२५९ ४०. विद्या-प्रयोग : भिक्षु-उपासक का कथानक
___ गंधसमृद्ध नगर में धनदेव नामक भिक्षु उपासक था। साधुओं के घर आने पर वह उनको भिक्षा में कुछ नहीं देता था। एक बार कुछ तरुण साधु एक साथ एकत्रित होकर वार्तालाप करने लगे। एक युवक साधु ने कहा-'यह धनदेव अत्यन्त कंजूस है, साधुओं को कुछ भी नहीं देता है। क्या कोई साधु ऐसा है, जो इससे घृत, गुड़ आदि का दान ले सके?' उनमें से एक साधु बोला-'यदि तुम लोगों की इच्छा है तो मुझे विद्यापिंड की आज्ञा दो, मैं उससे दान दिलवाऊंगा।' साधु उसके घर गया। घर को अभिमंत्रित करके वह साधुओं से बोला-'क्या दिलवाऊं?' साधुओं ने कहा-'घृत, गुड़ और वस्त्र आदि।' धनदेव ने प्रचुर मात्रा में साधुओं को घृत, गुड़ आदि दिया। उसके बाद क्षुल्लक ने विद्या प्रतिसंहत कर ली। भिक्षु उपासक धनदेव के ऊपर से मंत्र का प्रभाव समाप्त हो गया। वह स्वभावस्थ हो गया। जब उसने घृत, गुड़ आदि को देखा तो उसे वे मात्रा में कम दिखाई दिए। उसने पूछा-'मेरे घी, गुड़ आदि की चोरी किसने की?' इस प्रकार कहते हुए उसने विलाप करना प्रारंभ कर दिया। तब परिजनों ने उसे समझाते हुए कहा-'तुमने स्वयं अपने हाथों से साधुओं को घी, गुड़ आदि का दान दिया है, फिर तुम इस प्रकार विलाप क्यों कर रहे हो?' उनकी बात सुनकर वह मौन हो गया। ४१. मंत्र-प्रयोग : मुरुण्ड राजा एवं पादलिप्तसूरि कथानक
प्रतिष्ठानपुर नगर में मुरुण्ड नामक राजा राज्य करता था। वहां पादलिप्त आचार्य का प्रवास था। एक बार मुरुण्ड राजा के शिर में अतीव वेदना प्रादुर्भूत हो गई। विद्या, मंत्र आदि के द्वारा भी कोई उसे शान्त नहीं कर सका। राजा ने पादलिप्त आचार्य को बुलाया, उनका स्वागत करते हुए राजा ने अकारण होने वाली शिरोवेदना के बारे में बताया। लोगों को ज्ञात न हो इस प्रकार मंत्र का ध्यान करते हुए वस्त्र के मध्य में अपनी दाहिनी जंघा के ऊपर अपने दाहिने हाथ की प्रदेशिनी अंगुलि को जैसे-जैसे घुमाया, वैसे-वैसे राजा की शिरोवेदना दूर होने लगी। धीरे-धीरे पूरे शिर का दर्द दूर हो गया। मुरुण्ड राजा आचार्य पादलिप्त का अतीव भक्त बन गया। उसने आचार्य को विपुल भक्त-पान आदि का दान दिया। ४२. चूर्ण-प्रयोग : क्षुल्लकद्वय एवं चाणक्य कथानक ।
कुसुमपुर नगर में चन्द्रगुप्त नामक राजा राज्य करता था। उसके मंत्री का नाम चाणक्य था। वहां जंघाबल से हीन सुस्थित नामक आचार्य प्रवास करते थे। एक बार वहां भयंकर दुर्भिक्ष हो गया। आचार्य ने सोचा-'समृद्ध नामक शिष्य को आचार्य पद पर स्थापित करके सकल गच्छ के साथ इसे किसी सुभिक्ष वाले स्थान में भेज दूंगा।' आचार्य ने उसको एकान्त में योनिप्राभृत की वाचना देनी प्रारंभ की। किसी भी १. गा. २२७/१,२ वृ प. १४१,१४२, निभा ४४५७,४४५८, चू पृ. ४२२, पिंप्रटी प. ६७, जीभा १४३९-४२ । २. जीभा (१४४४) में प्रतिष्ठानपुर के स्थान पर पाटलिपुत्र का उल्लेख मिलता है। ३. गा. २२८/१, वृ प. १४२, निभा ४४६०, चू पृ. ४२३, जीभा १४४४, १४४५, पिंप्रटी प. ६७ । ४. निशीथ चूर्णि (भा. ३ पृ. ४२३) तथा पिण्डविशुद्धिप्रकरण में पाटलिपुत्र नाम का उल्लेख है। पाटलिपुत्र का पुराना नाम
कुसुमपुर था। ५. पिण्डविशुद्धिप्रकरण में आचार्य का नाम संभूतविजय है।
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२६०
पिंडनियुक्ति प्रकार दो क्षुल्लकों ने अदृश्य करने वाले अञ्जन बनाने की व्याख्या सुन ली। उस अञ्जन को आंखों में आंजने से व्यक्ति किसी को दिखाई नहीं देता।
योनिप्राभृत की व्याख्या में समर्थ होने के बाद आचार्य ने अपने शिष्य समृद्ध को आचार्यपद पर स्थापित कर दिया। आचार्य ने सकल गच्छ के साथ उसको देशान्तर में भेज दिया। आचार्य स्वयं एकाकी रूप से वहां रहने लगे। कुछ दिनों के बाद आचार्य के स्नेह से अभिभूत होकर वे दोनों क्षुल्लक आचार्य के पास आए। जो कुछ भी प्राप्त होता, आचार्य उसे क्षुल्लक भिक्षुओं को बांटकर आहार करते थे। वे स्वयं कम आहार लेते भिक्षुओं को अधिक देते थे। आहार की कमी से आचार्य का शरीर दुर्बल हो गया। तब क्षुल्लक सोचा आचार्य को ऊणोदरी हो रही है अतः हम पूर्वश्रुत अञ्जन का प्रयोग करके चन्द्रगुप्त के साथ भोजन करेंगे। उन्होंने वैसा ही किया। आहार की कमी से चन्द्रगुप्त का शरीर कृश होने लगा। चाणक्य ने उनसे पूछा-'आपका शरीर दुर्बल क्यों दिखाई दे रहा है?' राजा चन्द्रगुप्त ने कहा-'परिपूर्ण आहार की प्राप्ति न होने से।' तब चाणक्य ने चिन्तन किया-'इतना आहार परोसने पर भी आहार की कमी कैसे हो सकती है? ऐसा लगता है कि निश्चित ही कोई अञ्जनसिद्ध व्यक्ति राजा के साथ भोजन करता है।' तब उसने अञ्जनसिद्ध को पकड़ने के लिए भोजनमण्डप में अत्यन्त सूक्ष्म इष्टकचूर्ण विकीर्ण कर दिया। चाणक्य ने चूर्ण पर चिह्नित मनुष्य के पैरों के चिह्नों को अंकित देखा। चाणक्य को निश्चय हो गया कि दो अञ्जनसिद्ध व्यक्ति यहां आते हैं। चाणक्य ने द्वार को ढ़ककर भोजन-मण्डप में चारों ओर धूम कर दिया। धूम से बाधित नयनों से आंसू बहने के साथ अञ्जन भी साफ हो गया। अञ्जन का प्रभाव समाप्त होने पर दोनों क्षुल्लक प्रकट हो गए। चन्द्रगुप्त ने जुगुप्सा के साथ कहा-'अहो! इनके उच्छिष्ट भोजन करने से मैं इनके द्वारा दूषित कर दिया गया।' चाणक्य ने शासन तथा प्रवचन की अवहेलना न हो इसलिए एक समाधान खोजा। उसने राजा को कहा-'राजन्! तुम धन्य हो। इन बालब्रह्मचारी यतियों ने तुमको पवित्र कर दिया है लेकिन तुम्हारे उच्छिष्ट भोजन से ये अपवित्र हो गए हैं। चाणक्य ने क्षुल्लकद्वय को वंदना करके भेज दिया।
रात्रि में चाणक्य आचार्य के पास गया और आचार्य को उपालम्भ देते हुए कहा-'ये तुम्हारे दोनों क्षुल्लक प्रवचन की अप्रभावना कर रहे हैं।' तब आचार्य ने चाणक्य को उपालम्भ देते हुए कहा-'इसके लिए तुम ही अपराधी हो क्योंकि श्रावक होते हुए भी तुम दोनों क्षुल्लकों के जीवन-निर्वाह की चिन्ता नहीं करते हो। इस दुर्भिक्ष काल में साधु का जीवन भलीभांति कैसे चलता है, क्या तुमने इसके बारे में कभी सोचा?' 'भगवन् ! आपका कथन सत्य है' ऐसा कहते हुए चाणक्य उनके पैरों में गिर पड़ा और क्षमायाचना की। इसके बाद चाणक्य ने सकल संघ की भिक्षा हेतु यथायोग्य चिन्ता की। ४३. योग-प्रयोग : कुलपति एवं आर्य समित कथानक
__अचलपुर' नामक नगर के पास कृष्णा और वेन्ना नामक दो नदियां थीं। दोनों नदियों के बीच ब्रह्म नामक द्वीप था। वहां पांच सौ तापस के साथ देवशर्मा नामक कुलपति निवास करता था। वह संक्रांति आदि
१. गा. २३० पिभा ३५-३७, वृ प. १४३, निभा ४४६३-६५, चू पृ. ४२३, ४२४, जीभा १४५०-५५, पिंप्रटी प. ६७, ६८। २. निशीथ चूर्णि (भा. ३ पृ. ४२५) तथा जीभा १४६० में आभीर जनपद का उल्लेख मिलता है।
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परि. ३ : कथाएं
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पर्व दिनों में अपने तीर्थ की प्रभावना के लिए सब तापसों के साथ पाद-लेप करके कृष्णा नदी को पैरों से चलकर पार करके अचलपुर जाता था। लोग उसके इस अतिशय को देखकर विस्मित हो जाते तथा विशेष रूप से भोजन आदि से सत्कार करते थे। लोग साधुओं की निंदा करते हुए श्रावकों को कहते थे-'तुम लोगों के पास ऐसी शक्ति नहीं हो सकती।' श्रावकों ने यह बात वज्रस्वामी के मामा आचार्य समित को बताई। उन्होंने चिन्तन करके श्रावकों से कहा-'यह कुलपति मायापूर्वक पादलेप करके नदी पार करता है, तप-शक्ति के प्रभाव से नहीं। यदि गर्म जल से उसके पैर धो दिए जाएं तो वह नदी पार नहीं कर सकेगा।' तब श्रावकों ने उसकी माया को प्रकट करने के लिए सपरिवार कुलपति को भोजन के लिए आमंत्रित किया। भोजन-वेला में कुलपति वहां पहुंचा। श्रावकों ने उसका पाद-प्रक्षालन करना प्रारंभ किया लेकिन पाद-लेप दूर होने के भय से उसने पैरों को आगे नहीं किया। तब श्रावकों ने कहा-'बिना पाद-प्रक्षालन किए आपको भोजन करवाने से हमको अविनय दोष लगेगा। विनयपूर्वक दिया गया दान अधिक फलदायी होता है।' श्रावकों ने बलपूर्वक पैर आगे करके उनको प्रक्षालित कर दिया। भोजन के बाद कुलपति अपने स्थान पर जाने के लिए तैयार हुआ। श्रावक भी सब लोगों को बुलाकर उनके पीछे-पीछे चलने लगे। कुलपति ने सपरिवार कृष्णा नदी को पार करने हेतु नदी में पैर रखा लेकिन पादलेप के अभाव में वह डूबने लगा। लोगों में उसकी निंदा होने लगी।
इसी बीच उसे बोध देने के लिए आचार्य समित वहां आए। उन्होंने सब लोगों के सामने नदी से कहा-'हे कृष्णे! हम उस पार जाना चाहते हैं।' तब कृष्णा नदी के दोनों किनारे आपस में मिल गए। नदी की चौड़ाई उनके पैरों जितनी हो गई। आचार्य कदम रखकर नदी के उस पार चले गए। पीछे से नदी चौड़ी हो गई पुनः उसी प्रकार वे वापस आ गए। यह देखकर सपरिवार कुलपति एवं सभी लोग आश्चर्यचकित हो गए। कुलपति ने अपने पांच सौ तापसों के साथ आर्य समित के पास दीक्षा ग्रहण कर ली, वह आगे जाकर ब्रह्मशाखा के रूप में प्रसिद्ध हुई। ४४. मूलकर्म-प्रयोग : भिन्नयोनिका कन्या का-दृष्टांत
किसी नगर में धन नामक श्रेष्ठी अपनी भार्या धनप्रिया के साथ रहता था। उसकी पुत्री का नाम सुंदरी था। वह भिन्नयोनिका (खुली हुई योनि वाली) थी। यह बात उसकी मां को ज्ञात थी, पिता को नहीं। उसके पिता ने किसी धनाढ्य श्रेष्ठी के पुत्र के साथ उसका विवाह निश्चित कर दिया। विवाह का समय निकट आने लगा। मां को चिन्ता हुई कि यदि शादी के बाद इसका पति इसे भिन्नयोनिका जानकर छोड़ देगा तो यह बेचारी दुःख का अनुभव करेगी। इसी बीच किसी साधु का वहां भिक्षार्थ आगमन हुआ। मुनि ने उदासी का कारण पूछा। मां ने सारी बात बता दी। साधु ने कहा-'तुम डरो मत, मैं इसे अक्षतयोनि वाली बना दूंगा।' तब मुनि ने उसे आचमन औषध तथा पान-औषध बताई। औषध के प्रभाव से वह अक्षतयोनिका बन गई और यावज्जीवन भोग भोगने में समर्थ हो गई।
१. गा. २३१/२-४, वृ प. १४४, निभा ४४७०-७२, चू पृ ४२५, जीभा १४६०-६६, पिंप्रटी प.६८। २. गा. २३१/६, वृ प. १४४, पिंप्रटी प.७०।
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४५. मूलकर्म-प्रयोग: विवाह-दृष्टांत
चन्द्रानना नगरी में धनदत्त नामक सार्थवाह था। उसकी पत्नी का नाम चन्द्रमुखा था। एक दिन उन दोनों के बीच कलह हो गया। अभिनिवेश के कारण उसने उसी नगर में रहने वाली किसी धनाढ्य सेठ की पुत्री के साथ दूसरा विवाह करने का निश्चय कर लिया। चन्द्रमुखा को जब यह बात ज्ञात हुई तो उसके मन में अधृति पैदा हो गई। इसी बीच जंघापरिजित नामक साधु उसके घर भिक्षार्थ आया । उसको खेद-खिन्न देखकर साधु ने उससे खिन्नता का कारण पूछा। चन्द्रमुखा ने अपनी सौत आने का वृत्तान्त साधु को बताया। साधु ने उसे औषधि देते हुए कहा - ' किसी भी तरह भक्त या पान में उसे यह औषध खिला दो, जिससे वह भिन्नयोनिका हो जाएगी। उसके बाद अपने पति को इस बारे में बता देना, जिससे वह उसके साथ विवाह नहीं करेगा ।' उसने वैसा ही किया । भिन्नयोनिका की बात ज्ञात होने पर पति ने उसके साथ विवाह नहीं किया ।
४६. गर्भ - परिशाटन एवं आदान : राजपनिद्वय दृष्टांत
संयुग नामक नगर में सिंधुराज नामक राजा राज्य करता था । उसके अंतःपुर में दो प्रधान रानियां थीं, जिनका नाम शृंगारमति और जयसुंदरी था। एक बार शृंगारमति गर्भवती हुई। 'इसके अवश्य पुत्र होगा ' यह सोचकर जयसुंदरी ईर्ष्यावश खेद - खिन्न रहने लगी। इसी बीच कोई साधु आया। उसने पूछा - 'तुम इतनी चिन्ताग्रस्त क्यों दिखाई देती हो ?' तब उसने अपनी सौत के होने वाले गर्भाधान के विषय में बताया। साधु बोला- 'तुम चिन्ता मत करो, मैं तुम्हारा भी गर्भाधान करवा दूंगा।' तब जयसुंदरी ने कहा- 'यद्यपि आपकी कृपा से मेरे पुत्र हो जाएगा लेकिन वह कनिष्ठ होने के कारण युवराज नहीं बन पाएगा । ज्येष्ठ होने कारण सौत का पुत्र ही राज्य का अधिकारी बनेगा।' साधु ने जयसुंदरी को गर्भाधान तथा शृंगारमति के लिए गर्भपात हेतु औषधि दी । २
पिंडनिर्युक्ति
४७. द्रव्य ग्रहणैषणा : वानरयूथ-दृष्टांत
विशालभृंग नामक पर्वत था । उसके एक वनखण्ड में वानरों का समूह रमण करता था। उ पर्वत पर दूसरा वनखण्ड भी सब प्रकार के पुष्प फल आदि से समृद्ध था। उसके मध्यभाग में स्थित हृद में एक शिशुमार रहता था । जो कोई मृग आदि पशु पानी पीने हेतु हृद में प्रवेश करते, वह उन सबको खींचकर खा जाता था। एक बार पुष्प और फलों से रहित वनखण्ड को देखकर वानर यूथपति ने जीवन निर्वाह योग्य अन्य वनखण्ड की खोज हेतु वानरयुगल को भेजा। खोज करके वानरयुगल ने यूथाधिपति को निवेदन किया- ' 'अमुक प्रदेश में एक वनखण्ड है, जो सब ऋतुओं में पुष्प फल आदि से समृद्ध तथा हमारे जीवन-यापन के योग्य है ।' यूथाधिपति अपने यूथ के साथ वहां गया। वह समस्त वनखण्ड को ध्यान से देखने लगा। यूथपति ने जल से परिपूर्ण हृद को देखा। हृद में प्रवेश करते हुए श्वापदों के पदचिह्न थे
१. गा. २३१/७, वृ प. १४४, १४५ ।
२. गा. २३१ / १०, ११, वृ प. १४५, पिंप्रटी प. ६९, ७० ।
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परि. ३ : कथाएं
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लेकिन वहां से वापस निकलते हुए श्वापदों के पदचिह्न नहीं थे। तब यूथ को बुलाकर वानर-यूथपति ने कहा–'कोई भी इस हृद में प्रवेश करके पानी न पीए। तट पर स्थित नाले से ही पानी पीए, यह हृद उपद्रव रहित नहीं है।' यहां मृग आदि के प्रवेश करते हुए के पदचिह्न दिखाई देते हैं लेकिन निकलते हुए के दिखाई नहीं देते। जिन वानरों ने उसके वचन का पालन किया, वे सुखपूर्वक विहार करते रहे। जिन्होंने यूथपति के वचनों का पालन नहीं किया, वे समाप्त हो गए। ४८. बालदायक : बालिका-दृष्टांत
किसी अभिनव श्राविका ने अपनी पुत्री को कहा-'श्रमणों को भिक्षा दे देना।' श्राविका अपने खेत में चली गई। श्राविका के जाने पर कोई साधु भिक्षार्थ उसके यहां आया। बालिका ने साधु को तण्डुलोदक दिए। सिंघाड़े के प्रमुख उस साधु ने बालिका को सरल जानकर आसक्ति वश बार-बार कहा-'थोड़ा और दो।' बालिका ने सारा ओदन दे दिया। इसी प्रकार मूंग, घी, छाछ, दही आदि भी सारा भिक्षा में ग्रहण कर लिया। अपराह्न के समय उसकी मां आई। जब वह भोजन के लिए बैठी तो उसने अपनी पुत्री से ओदन आदि आहार मांगा। बालिका ने कहा-'सारा ओदन साधु को दे दिया।' श्राविका ने कहा-'तुमने अच्छा कार्य किया। मुझे मूंग परोस दो।' बालिका ने कहा-'मैंने सारे मूंग भी साधु को दे दिए।' श्राविका ने जिस किसी चीज की मांग की, बालिका ने एक ही उत्तर दिया कि साधु को दे दिए। अंत में उसने कांजी की मांग की। उसके लिए भी बालिका ने कहा-'वह भी साधु को दे दिया।'
वह अभिनव श्राविका बालिका पर कुपित होकर बोली-'तूने साधु को सारा आहार क्यों दिया?' बालिका ने उत्तर दिया-'साधु ने बार-बार मांग की अतः मैंने उनको सब कुछ दे दिया।' श्राविका क्रोधावेश में आकर आचार्य के पास गई। उन्हें सारा वृत्तान्त बताते हुए उसने कहा-'आपका अमुक साधु मेरी पुत्री से मांग-मांगकर सारा आहार लेकर आ गया है।' उसके उच्च शब्दों को सुनकर पड़ोसी लोगों को भी यह बात ज्ञात हो गई। वे भी क्रोध में आकर साधु का अवर्णवाद करने लगे। प्रवचन की निंदा न हो इसलिए आचार्य ने सब लोगों के समक्ष साधु के सारे उपकरण ग्रहण करके उसे वसति से बाहर निकाल दिया। उसको उपाश्रय से बाहर निकालने पर श्राविका का क्रोध शान्त हो गया। उसने आचार्य को निवेदन किया-'मेरे कारण इस साधु को वसति से बाहर न निकालें। इसके एक अपराध को क्षमा करें।' साधु को अनेक प्रकार से शिक्षा देकर आचार्य ने उसे पुनः संघ में सम्मिलित कर लिया। ४९. छर्दित दोष : मधु-बिन्दु-दृष्टांत
वारत्तपुर नामक नगर में अभयसेन नामक राजा था। उसके मंत्री का नाम वारत्रक था। एक बार एषणा समिति से धीरे-धीरे चलते हुए धर्मघोष नामक संयमी साधु भिक्षार्थ किसी घर में प्रविष्ट हुआ। मंत्री की पत्नी ने साधु को भिक्षा देने के लिए घृत शर्करा युक्त पायस के पात्र को उलटा। शर्करा मिश्रित एक घृत
३. पिण्डविशुद्धिप्रकरण में यह कथा विस्तृत रूप में दी गई है।
१. गा. २३६/१-३, वृ प. १४६, पिंप्रटी प. ७६ । २. गा. २७२ वृ प. १५८,१५९।
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पिंडनियुक्ति बिंदु भूमि पर गिर गया। तब मुक्ति-प्राप्ति में दत्तचित्त, सागर की भांति गंभीर, मेरु की भांति निष्पकम्प, वसुधा की भांति सर्वंसह, शंख की भांति राग आदि से निर्लेप, महासुभट की भांति कर्मविदारण में कटिबद्ध, भगवान् के द्वारा उपदिष्ट भिक्षा-ग्रहण की विधि में संलग्न मुनि धर्मघोष ने सोचा कि छर्दित दोष से दुष्ट आहार मेरे लिए कल्पनीय नहीं है अतः बिना भिक्षा लिए वे घर से बाहर निकल गए। मदोन्मत्त हाथी पर बैठे मंत्री वारत्रक ने मुनि को बाहर निकलते हुए देखा तो सोचा कि मुनि ने मेरे घर से भिक्षा क्यों नहीं ग्रहण की? मंत्री के चिन्तन करते-करते ही उस शर्करा युक्त घी के बिन्दु पर अनेक मक्खियां आ गई। उनको खाने के लिए छिपकली आ गई। छिपकली को मारने के लिए शरट आ गया। शरट का भक्षण करने हेतु मार्जारी दौड़ी और उसके वध हेतु प्राघूर्णक कुत्ता दौड़ा। उसके वध हेतु भी कोई वसति का रहने वाला दूसरा श्वान दौड़ा। दोनों कुत्तों में लड़ाई होने लगी। अपने-अपने कुत्ते के पराभव से चिन्तित मन वाले उनके मालिकों में युद्ध छिड़ गया। यह सारा दृश्य अमात्य वारत्रक ने देखा और मन में चिन्तन किया--'घृत आदि का बिन्दु मात्र भी भूमि पर गिरने से कलह हो गया इसीलिए हिंसा से डरने वाले मुनि ने घृतबिन्दु को भूमि पर देखकर भिक्षा ग्रहण नहीं की। अहो! भगवान् का धर्म बहुत सुदृष्ट है। सर्वज्ञ के अलावा कौन व्यक्ति ऐसे दोषरहित धर्म का उपदेश दे सकता है?' इस प्रकार चिन्तन करते हुए वह संसार से विमुख चित्त वाला हो गया। सिंह जैसे गिरिकन्दरा से निकलता है, वैसे ही अपने प्रासाद से बाहर निकलकर मंत्री वारत्रक ने धर्मघोष साधु के पास आकर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। उस महात्मा ने शरीर से अनासक्त रहकर संयम-अनुष्ठान एवं स्वाध्याय से भावित अंत:करण से दीर्घकाल तक संयम-पर्याय का पालन किया फिर क्षपक श्रेणी में आरोहण कर घातिकर्मों का समूल नाश होने पर केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी को प्राप्त किया और कालक्रम से सिद्धिगति को प्राप्त किया। ५०. द्रव्य ग्रासैषणा : मत्स्य-दृष्टांत
एक मच्छीमार मत्स्य को ग्रहण करने के लिए सरोवर के पास गया। सरोवर के निकट जाकर उसने एक मांसपेशी से युक्त जाल सरोवर के बीच में फेंका। उस सरोवर में दक्ष तथा परिणत बुद्धि वाला एक वृद्ध मत्स्य रहता था। कांटे में लगे मांस की सुगंध पाकर उसका भक्षण करने हेतु वह वृद्ध मत्स्य कांटे के पास गया और यत्नपर्वक आस-पास का सारा मांस खा गया। फिर पंछ से कांटे को दर कर दिया। मच्छीमार ने सोचा कि मत्स्य जाल में फंस गया है अत: उसने कांटे को अपनी ओर खींचा। उसने मत्स्य और मांसपेशी से रहित कांटे को देखा। मच्छीमार ने पुन: मांसपेशी लगाकर कांटे को सरोवर में फेंका। पुनः वह मत्स्य मांस खाकर पूंछ से कांटे को धकेलकर पलायन कर गया। इस प्रकार उसने तीन बार मांस खाया लेकिन मच्छीमार उसको पकड़ नहीं सका।
मांस समाप्त होने पर चिंता करते हुए मच्छीमार को मत्स्य ने कहा–'तुम इस प्रकार क्या चिन्तन कर रहे हो? तुम मेरी कथा सुनो, जिससे तुमको लज्जा का अनुभव होगा। मैं तीन बार बलाका के मुख में जाकर भी उससे मुक्त हो गया। एक बार मैं बलाका के द्वारा पकड़ा गया तब उसने मुझे मुख में डालने के
१. गा. ३०१, वृ प. १६९,१७०, पिंप्रटी प.८२-८३।
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परि. ३ : कथाएं
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लिए ऊपर की ओर फेंका। मैंने सोचा कि यदि मैं सीधा इसके मुख में गिर जाऊंगा तो मेरे प्राणों की रक्षा संभव नहीं है। इसलिए इसके मुख में तिरछा गिरूंगा। ऐसा सोचकर मैंने फुर्ती से वैसा ही किया। मैं उसके मुख से बाहर निकल गया। पुन: दूसरी बार भी मैं उसके मुख में जाकर बाहर निकल गया। तीसरी बार मैं जल में गिरा अतः दूर चला गया। तीन बार मैं समुद्री तट पर भट्टी के रूप में जलती बालू में गिरा लेकिन शीघ्र ही लहरों के साथ ही वापस समुद्र में चला गया। इसी प्रकार मच्छीमार द्वारा बिछे जाल में इक्कीस बार फंसने पर भी जब तक मात्स्यिक ने जाल का संकोच किया, उससे पहले मैं जाल से निकल गया। एक बार मात्स्यिक ने हृद के जल को बाहर निकालकर उसे खाली करके अनेक मत्स्यों के साथ मुझे पकड़ा। वह सभी मत्स्यों को एकत्र करके तीक्ष्ण लोहे की शलाका में उनको पिरो रहा था। तब मैं दक्षता से मात्स्यिक की दृष्टि बचाकर स्वयं ही उस लोहे के शलाका के मुख पर स्थित हो गया। जब वह मच्छीमार कर्दम लिप्त मत्स्यों को धोने के लिए सरोवर पर गया तब शीघ्र ही मैं जल में निमग्न हो गया। इस प्रकार मुझ शक्ति सम्पन्न को तुम कांटे से पकड़ना चाहते हो , यह तुम्हारी निर्लज्जता है।' इस कथा का निगमन करते हुए कथाकार कहते हैं कि एषणा के ४२ दोषों से बचने पर भी हे जीव! यदि तुम ग्रासैषणा के दोषों में लिप्त होते हो तो यह तुम्हारी निर्लज्जता है।'
१. गा. ३०२/२-४, वृ प. १७०,१७१।
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परिशिष्ट-४
आयुर्वेद एवं आरोग्य
लूतास्फोट एवं सर्पदंश का उपचार
__ अपराद्धिको-लूतास्फोट: सर्पादिदंशो... तच्च दद्रुप्रभृतिषु चारितं सम्भवति तयोरुपशमनाय बन्ध इव बन्धः-प्रलेपस्तस्मिन् कर्तव्येऽचित्तपृथिवीकायस्य गौरमृत्तिकाकेदारतरिकादिरूपस्य ग्रहणं प्रयोजनम्।
(मवृ प. ९) मकड़ी द्वारा काटने पर होने वाले फोड़े एवं सर्पदंश आदि से उत्पन्न दाह को कम करने के लिए खेत की मिट्टी के ऊपर आई हुई तरी का लेप किया जाता है। खुजली से उत्पन्न वात की चिकित्सा सुरभ्युपलेन-गन्धपाषाणेन गन्धरोहकाख्येन प्रयोजनं, तेन हि पामाप्रसूतवातघातादिः क्रियते।
(मवृ प. ९) खुजली से उत्पन्न वात आदि रोग में गंधरोहक पाषाण का प्रयोग किया जाता है। अजीर्ण रोग एवं उसके कारण • शीतलीभूतानां वाससां प्रावरणे भुक्ताऽऽहारस्याजीर्णतायाम्-अपरिणतौ ग्लानता शरीरमान्द्यमुज्जृम्भते।
(मवृ प. १२) पानी से भीगे कपड़ों को पहने हुए आहार करने से भोजन का पाचन नहीं होता, इससे शरीर में अजीर्ण रोग हो जाता है। • ग्लाने मा भवत्वजीर्णमिति भूयो भूयो मलिनानि.प्रक्षाल्यन्ते। (मवृ प. १३) रोग की अवस्था में अजीर्ण न हो इसलिए बार-बार कपड़े धोए जाते हैं। • रात्रौ जागरणभावतस्ते मोदका न जीर्णाः, ततोऽजीर्णदोषप्रभावतोऽतीवपूतिगंधो मारुतनिसगर्गोऽभवत्।
(मवृ प. ३३) रात्रि में अत्यधिक जागरण से अजीर्ण एवं अपान-वायु दूषित होती है। • रात्रौ मण्डकवल्लसुराद्यभ्यवहारतो जाताजीर्णेन... दुर्गन्धमजीर्णं पुरीषं व्युदसर्जि।
(मवृ प.८३) रात्रि में मण्डक (रोटी), वल्ल और सुरापान करने से अजीर्ण रोग एवं दुर्गन्धयुक्त मल
व्युत्सर्जित होता है। अपान में वस्ति द्वारा वायु का प्रक्षेप
दइएण वत्थिणा वा, पयोयणं होज्ज वाउणा मुणिणो। गेलण्णम्मि वि होज्जा। ग्लानत्वे मन्दत्वे सति वायुना प्रयोजनं भवति, क्वापि हि रोगे दृत्यादिना संगृह्य वातोऽपानादौ प्रक्षिप्यते।
(गा. २८ मवृप. १९) किसी रोग विशेष की चिकित्सा में अपान में वायु का प्रक्षेप किया जाता है।
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परि. ४ : आयुर्वेद एवं आरोग्य
२६७ आंख के रोग एवं उपचार • अश्वमक्षिका उपयुज्यते अक्षिभ्योऽक्षरसमुद्धरणाय।
(मवृ प. २०) आंखों से अक्षर (मोतियाबिंद) दूर करने हेतु चतुरिन्द्रिय जीव अश्वमक्षिका का उपयोग होता है। • शूकरदंष्ट्रायाः सा हि दृष्टिषु पुष्पिकापनोदाय घर्षित्वा क्षिप्यते। (मवृ प. २०)
दृष्टि-पुष्पिका (आंखों की फूली) को दूर करने के लिए सूअर की दाढ़ घिसकर आंखों
में डाली जाती है। • शङ्खशुक्तिकानां चक्षुः पुष्पकाद्यपनोदादौ।
(मवृ प. २०) शंख और शुक्ति का प्रयोग दृष्टि-पुष्पिका रोग में होता है। फोड़े की चिकित्सा
अस्थनो गृद्धनखिकादेः, तद्धि शरीरस्फोटापनोदाद्यर्थे बाह्यादौ बध्यते। (मवृ प. २०)
गृध्र के नख आदि शरीर के फोड़े को ठीक करने हेतु बाहर बांधे जाते हैं। नख के द्वारा चिकित्सा
नखानां जीवविशेषसत्कानां, ते हि क्वापि धूपे पतन्ति, गन्धश्च तेषां कस्यापि रोगस्यापनोदाय प्रभवति।
(मवृ प. २०) जीव विशेष के नखों को धूप में डाला जाता है, उसकी गंध रोग विशेष को दूर करने में प्रयुक्त होती है। शहद द्वारा वमन-चिकित्सा
मक्षिकाणां परिहारः-पुरीषं परिभोगः, तद्धि वमननिषेधादौ प्रत्यलम्। (मवृ प. २०)
मधुमक्खियों का पुरीष-उच्चार अर्थात् शहद वमन-निवारण के लिए प्रयुक्त होता है। दाहोपशमन एवं सर्पदंश का उपचार
उद्देहिकामृत्तिकादेः सर्पदंशादौ दाहोपशमनाय वेदितव्यः, यद्वा किमपि वैद्यस्त्रीन्द्रियविशेषशरीरादिकं बाह्यप्रलेपादिनिमित्तं वदेत्।
(मवृ प. २०) दीमक की मिट्टी सर्पदंश एवं दाहोपशमन के लिए प्रयुक्त होती है। कुछ वैद्य त्रीन्द्रिय जीव विशेष के शरीर को बाह्य लेप आदि के प्रयोग में बताते हैं। खुजली की गोमूत्र से चिकित्सा
गोमूत्रस्य पामाधुपमर्दने। खुजली आदि की चिकित्सा के लिए गोमूत्र का प्रयोग होता है। (मवृ प. २१)
१. आवहाटी २ पृ. ९०; आसमक्खिया अक्खिम्मि अक्खरा उक्कड्डिज्जइ ति।
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२६८
पिंडनियुक्ति
रोग का कारण : गरिष्ठ आहार
खद्धे निद्धे य रुया। खद्ध-प्रचुरे स्निग्धे-बहुस्नेहे भक्षिते रुजा रोगो ज्वरविसूचिकादिरूपः प्रादुर्भवति।
(गा. ८३/५ मवृ प.७०) अधिक और गरिष्ठ भोजन करने से ज्वर या हैजा आदि रोग हो जाते हैं। वात-संक्षोभ से वमन
.... वातसंक्षोभादिवशादुद्वमितम्। वायु-संक्षोभ के कारण वमन हो जाता है।
(मवृ प.७१) धात्री का बालक के शरीर पर प्रभाव
थेरी दुब्बलखीरा, चिमिढो पेल्लियमहो अतिथणीए। तणुई उ मंदखीरा, कोप्परथणियं ति सूइमुहो॥
(गा. १९८/७) या किल धात्री स्थविरा सा अबलक्षीरा अबलस्तन्या इति, ततो बालो न बलं गृह्णाति, या त्वतिस्तनी तस्याः स्तन्यं पिबन् स्तनेन प्रेरितमुख: चम्पितमुखावयवौष्ठनासिकश्चिपिटनासिको भवति, या तु शरीरेण कृशा सा मन्दक्षीरा अल्पक्षीरा, ततः परिपूर्णे तस्याः स्तन्यं बालो न प्राप्नोति, तदभावाच्च सीदति तथा या कूर्परस्तनी तस्याः स्तन्यं पिबन् बालः सूचीमुखो भवति, स हि मुखं दीर्घतया प्रसार्य तस्याः स्तन्यं पिबति, ततस्तथारूपाभ्यासतस्तस्य मुखं सूच्याकारं भवति। (मवृ प. १२३)
स्थविर धात्री के स्तनों में दूध कम होता है अतः बालक बलशाली नहीं हो पाता। अतिस्तनी (स्थूल स्तनी) धात्री का दूध पीते हुए बालक चिपटे नाक वाला हो जाता है। कृश धात्री के स्तन अल्प क्षीर वाले होते हैं, जिससे पर्याप्त दूध नहीं मिलने से बालक अवसन्न रहता है। कूर्परस्तनी धात्री का दूध पीने से बालक का मुख सूई के आकार का हो जाता है क्योंकि वह मुख को लम्बा करके स्तनपान करता है। अत्यधिक जल से आंखों पर प्रभाव जलभीरु अबलनयणो, अतिउप्पलणेण रत्तच्छो।
(गा. १९८/११) अतिशयेनोत्प्लावने प्रभूतजलप्लावनेन गुप्यमानो बालो गुरुरपि जातो नद्यादौ जलप्रवेशे जलभीरुर्भवति तथा निरन्तरजलेनोत्प्लाव्यमानः अबलनयनः अबलदृष्टिर्जायते, रक्ताक्षश्च, यदि पुनः सर्वथाऽपि न मज्ज्यते न शरीरं बलमादत्ते नापि कान्तिभाग, दृष्ट्या चाबलो जायते। (मवृ प. १२४)
नदी में बार-बार जल में मज्जन करवाने से या प्रभूत जल में स्नान करवाने से बालक जल-भीरु हो जाता है। जल में निरन्तर स्नान करने से बालक अबल नयनों वाला, कमजोर दृष्टि वाला तथा लाल आंखों वाला हो जाता है। यदि बिल्कुल भी मज्जन नहीं करवाया जाता है तो बालक का शरीर कमजोर और कांतिहीन हो जाता है तथा बालक की दृष्टि कमजोर हो जाती है।
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परि. ४ : आयुर्वेद एवं आरोग्य
२६९ धात्री के स्वर का बालक पर प्रभाव
___ क्रीडनधात्री ढड्डरस्वरा, ततस्तस्याः स्वरमाकर्णयन् बालो छुन्नमुख:-क्लीबमुखो भवति, अथवा मृदुगीरेषा ततोऽनया रम्यमाणो बालो मृदुगीर्भवति।।
__(मवृ प. १२५) यदि क्रीड़नधात्री उच्चस्वर वाली होती है तो उसके स्वर को सुनकर बालक क्लीबमुख वाला हो जाता है। जिस धात्री की वाणी मधुर होती है, उस क्रीड़नधात्री के साथ खेलता हुआ बालक मृदु वाणी वाला हो जाता है। धात्री के शरीर का बालक पर प्रभाव
थुल्लाएँ विगडपादो, भग्गकडी सुक्कडी य दुक्खं च।
निम्मंसकक्खडकरेहि, भीरुओ होति घेप्पंतो॥ इह स्थूलया मांसलया धात्र्या कट्यां ध्रियमाणो बालः विकटपादः परस्परबह्वन्तरालपादो भवति, भग्नकट्या शुष्ककट्या वा कट्यां ध्रियमाणो दु:खं तिष्ठति, निर्मीसकर्कशकराभ्यां च ध्रियमाणो बालो भीरुर्भवति।
(गा. १९८/१५,मवृ प. १२५) स्थूल एवं मांसल अंकधात्री के पास रहता हुआ बालक विकट पाद अर्थात् दोनों पैरों के बीच बहुत अंतराल वाला हो जाता है। भग्नकटि या पतली कमर वाली की गोद में बालक दुःखपूर्वक स्थित रहता है। मांस रहित एवं कर्कश हाथों वाली अंकधात्री के पास बालक भीरु हो जाता है। उपवास-चिकित्सा सहसुप्पन्नं व रुयं वारेमो अट्ठमादीहिं ।
(गा. २१४/२) सहसा उत्पन्न रोग की चिकित्सा तेले आदि के द्वारा की जाती है। धातु क्षुब्ध होने पर चिकित्सा
संसोधण-संसमणं, निदाणपरिवज्जणं च जं जत्थ।
__ आगंतु धातुखोभे, व आमए कुणति किरियं तु॥ धातुक्षोभजे चाऽऽमये-रोगे समुत्पन्ने सति तत्र यत्क्रियां करोति, तद्यथा-संशोधनं हरीतक्यादिदानेन पित्ताद्युपशमनम्।
(गा. २१४/३, मवृप. १३३) धातु क्षुब्ध होने पर उत्पन्न रोग में संशोधन आदि क्रिया की जाती है। उसमें हरीतकी आदि के द्वारा पित्त-शमन किया जाता है। संक्रामक रोग
तद्दोसी संकमणं गलंत भिस-भिन्नदेहे य। भृशम्-अतिशयेन गलदर्द्धपक्वं रुधिरं च बहिर्वहन् भिन्नश्च स्फुटितो देहो यस्य स तथा तस्मिन् दातरि सङ्क्रमणं कुष्ठव्याधिसङ्क्रान्तिः स्यात्।
(गा. २७६ मवृ प. १६०)
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पिंडनियुक्ति
जिसके शरीर से अत्यधिक अर्ध पक्व रुधिर बह रहा हो, उससे भिक्षा लेने से कुष्ठ रोग का संक्रमण हो सकता है।
२७०
उष्णभोजन का लाभ
•
•
त्रिकमुष्णं गृहिणां तेन सौवीरकूरमात्र भोजनेऽपि तेषामाहारपाकभावतो नाजीर्णादिदोषा जायन्ते । ( मवृ प. १६७ )
गृहस्थ के आहार, शय्या और उपधि तीनों उष्ण होती है अतः यदि वे केवल सौवीर आदि का ही आहार करते हैं तो भी उनके वह आहार पच जाता है, अजीर्ण दोष नहीं होता ।
उष्णेन तापेनाहारो जीर्यते ।
ताप से आहार पचता है।
विगय का परिभोग क्यों ?
शरीरस्यापाटवे संयमयोगवृद्धिनिमित्तं बलाधानाय विकृतिपरिभोगः ।
(मवृ प. १६८)
शरीर में पटुता लाने के लिए, संयम - योगों की वृद्धि के लिए तथा बल प्राप्त करने के लिए विकृति - विगय का परिभोग करना चाहिए ।
छाछ से जठराग्नि प्रदीप्त
तक्रादिनापि हि जाठरोऽग्निरुद्दीप्यते ।
छाछ आदि से जठराग्नि प्रदीप्त होती है । क्षुधा - वेदना
(गा. ३१८ / १ )
नत्थि छुहाय सरिसिया, वियणा भुंजेज्ज तप्पसमणट्ठा । क्षुधा के समान कोई दूसरी वेदना नहीं होती अतः उसके शमन के लिए आहार करना
चाहिए ।
ज्वर में आहार का परित्याग
आतङ्के–ज्वरादावुत्पन्ने सति न भुञ्जीत ।
ज्वर उत्पन्न होने पर आहार नहीं करना चाहिए।
(मवृप. १६८)
( मवृ प. १६८ )
ज्वर में लंघन के अपवाद
बलावरोधि निर्द्दिष्टं, ज्वरादौ लङ्घनं हितम् । ऋतेऽनिलश्रमक्रोधशोककामक्षतज्वरान् ।
(मवृप. १७७)
(मवृप. १७७)
ज्वर आदि में लंघन हितकर है लेकिन वात, श्रम, क्रोध, शोक, काम और चोट जन्य ज्वर में लंघन करना शक्ति में अवरोध पैदा करने वाला होता है।
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परि. ४ : आयुर्वेद एवं आरोग्य
प्रमाणातिरिक्त आहार का परिणाम
अतिबहुयं अतिबहुसो, अतिप्पमाणेण भोयणं भुत्तं । हादेज्ज व वामिज्ज व, मारेज्ज व तं अजीरंतं ॥
(गा. ३१२/२)
अतिबहुक, अधिक बार और अति प्रमाण में किया गया भोजन अतिसार पैदा कर सकता है, उससे वमन हो सकता है तथा वह आहार जीर्ण न होने पर व्यक्ति को मार सकता है। चिकित्सक कौन ?
हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा य जे नरा ।
न ते विज्जा तिगिच्छंति, अप्पाणं ते तिगिच्छगा ॥
द्रव्यतोऽविरुद्धानि द्रव्याणि, भावत एषणीयं तदाहारयन्ति ये ते हिताहाराः, मितं प्रमाणोपेतमाहारयन्तीति मिताहाराः, द्वात्रिंशत्कवलप्रमाणादप्यल्पमल्पतरं वाऽऽहारयन्तीत्यल्पाहाराः, एवंविधा ये नरास्तान् वैद्या न चिकित्सन्ति, हितमितादिभोजनेन तेषां रोगस्यैवासम्भवात् । (गा. ३१३ मवृ प. १७४ ) द्रव्य से अविरुद्ध और भावतः एषणीय आहार करने वाले हिताहारी कहलाते हैं। मित और प्रमाणोपेत आहार करने वाले मिताहारी तथा बत्तीस कवल प्रमाण से भी अल्प आहार करने वाले अल्पाहारी होते हैं। ऐसे व्यक्तियों की वैद्य चिकित्सा नहीं करते क्योंकि हित-मित और अल्प आहार करने से उनके रोग उत्पन्न ही नहीं होता ।
प्रतिकूल आहार
२७१
खीर- दधि-कंजियाणं च ।
दहि- तेल्लसमा ओगा, अहितो पत्थं पुण रोगहरं, न य
हेतू होति रोगस्स ॥
"
दधितैलयोस्तथा क्षीरदधिकाञ्जिकानां च यः समायोगः सोऽहितः विरुद्ध इत्यर्थः, तथा चोक्तम्-‘“शाकाम्लफलपिण्याककपित्थलवणैः सह । करीरदधिमत्स्यैश्च प्रायः क्षीरं विरुध्यते ॥१ ॥ ' इत्यादि अविरुद्धद्रव्यमीलनं पुनः पथ्यं तच्च रोगहरं प्रादुर्भूतरोगविनाशकरं न च भाविनो रोगस्य हेतुः कारणम्, उक्तं च - " अहिताशनसम्पर्कात्, सर्वरोगोद्भवो यतः । तस्मात्तदहितं त्याज्यं, न्याय्यं पथ्यनिषेवणम् ॥१ ॥” ( गा. ३१३ / १ मवृ प. १७४ )
दधि और तैल का तथा दूध, दही और काञ्जी का समायोग अर्थात् एक साथ खाना अहितकर है, यह विरुद्ध आहार है। शाक, खट्टे फल, पिण्याक, कपित्थ-कैथ, लवण, करीर, दही और मत्स्य के साथ दूध पीना विरुद्ध आहार है । अविरुद्ध द्रव्य को साथ मिलाकर लेना पथ्य है। वह प्रादुर्भूत रोग का नाश करने वाला तथा भविष्य में रोग न होने का कारण बनता है। कहा भी गया है कि अहितकर अशन खाने से रोगों का उद्भव हो जाता है अतः अहितकर भोजन छोड़कर पथ्य भोजन करना चाहिए ।
आहार का परिमाण
अद्धमसणस्स सव्वंजणस्स कुज्जा दवस्स दो भागे ।
वातपवियारणा
छब्भागं
ऊणगं कुज्जा ॥
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२७२
पिंडनियुक्ति इह किल सर्वमुदरं षड्भिर्भागैर्विभज्यते, तत्र चार्ट्स भागत्रयरूपमशनस्य सव्यञ्जनस्य-तक्र शाकादिसहितस्याधारं कुर्यात् तथा द्वौ भागौ द्रवस्य पानीयस्य, षष्ठं तु भागं वायुप्रविचारणार्थमूनं कुर्यात्।
(गा. ३१३/२ मवृप. १७५) उदर को छह भागों में विभक्त करके उसका आधा अर्थात् तीन भाग आहार के लिए दो भाग पानी के लिए तथा छठा भाग वायु-संचार के लिए खाली रखना चाहिए।
सीते दवस्स एगो, भत्ते चत्तारि अहव दो पाणे।
उसिणे दवस्स दोन्नी, तिन्नि उ सेसा व भत्तस्स॥ शीते अतिशयेन शीतकाले द्रवस्य पानीयस्यैको भागः कल्पनीयः, चत्वारः भक्ते भक्तस्य, मध्यमे तु शीतकाले द्वौ भागौ पानीयस्य कल्पनीयौ, त्रयस्तु भागा भक्तस्य तथा उष्णे मध्यमोष्णकाले द्वौ भागौ द्रवस्य पानीयस्य कल्पनीयौ, शेषास्तु त्रयो भागा भक्तस्य अत्युष्णे च काले त्रयो भागा द्रवस्य शेषौ द्वौ भागौ भक्तस्य, सर्वत्र च षष्ठो भागो वायुप्रविचारपार्थं मुत्कलो मोक्तव्यः ।
(गा. ३१३/४, मवृप. १७५) __ अत्यधिक शीतकाल में पानी का एक भाग, आहार के चार भाग, मध्यम शीतकाल में दो भाग पानी के तथा तीन भाग आहार के, मध्यम उष्ण काल में दो भाग पानी के शेष तीन भाग आहार के, अत्यन्त उष्ण काल में तीन भाग पानी के तथा शेष दो भाग आहार के, हर मौसम में छठा भाग सदैव वायु-संचार के लिए खाली रखना चाहिए।
एगो दवस्स भागो, अवदितो भोयणस्स दो भागा।
वखंति व हायंति व, दो दो भागा तु एक्केक्के॥ _एको द्रवस्य भागोऽवस्थितो द्वौ भागौ भोजनस्य, शेषौ तौ द्वौ द्वौ भागौ एकैकस्मिन्, भक्ते पाने चेत्यर्थः, वर्द्धते वा हीयेते वा, वृद्धिं वा व्रजतो हानि वा व्रजत इत्यर्थः, तथाहि-अतिशीतकाले द्वौ भागौ भोजनस्य वर्द्धते अत्युष्णकाले च पानीयस्य, अत्युष्णकाले च द्वौ भागौ भोजनस्य हीयेते अतिशीतकाले च पानीयस्य।
(गा. ३१३/५ मवृ प. १७५) उदर के छह भागों में दो भाग भोजन के लिए अवस्थित हैं, शेष दो भाग बढ़ते-घटते रहते हैं। अतिशीतकाल में दो भाग भोजन के बढ़ जाते हैं, पानी के घट जाते हैं तथा अति उष्णकाल में दो भाग पानी के बढ़ जाते हैं और भोजन के घट जाते हैं।
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पिनि
२१
अइभार- चुडण-पणए २५९ अइरं फलादिपिहितं
१३३ अंगुलिए वा घेत्तुं
६ अक्खे वराडए वा
२२ / ६ अच्छोड-पिट्टणासु य ६५
अट्ठाएँ अट्ठा
१७८ अणिसिद्धं पडिकुटुं
१४८ / १ अणुकंप भागिणिगेहे २८८ अणुकंपा पडिणीयट्ठयाय ३१२/२ अतिबहुयं अतिबहुसो
जीभा १९७१
८०/४ अघणघणचारिगगणे
१७६
अचियत्तमंतरायं
निभा ४५०७
१७२ अच्छिज्जं पिय तिविधं तु. जीभा १२७४,
निभा ४५००
ओनि ३५७
जीभा १११५
निभा ४५१६
निभा ४४९५
बृभा ५६२२
जीभा १६२७,
पिंप्र ९६
जीभा १२१३
पंकभा ७४१,
व्यभा ३७०१,
प्रसा ८६७,
तु. मूला ४९१,
जीभा १६३८
निभा १०४३,
जीभा १४२८
निभा ४४४१
निभा ४४८८ जीभा १२३५
११३/४ अत्तट्ठिय आदाणे ३१३ / २ अद्धमसणस्स सव्वं.....
२२२/२ अद्धिति दिट्ठीपण्हय
२१८ अन्नेसि दिज्जमाणे १४४/२ अपरिमिततिल्लवुड्डी
१३५
अप्पत्तम्मि व ठवितं
२१ / १
अप्पत्ते च्चिय वासे
तुलनात्मक संदर्भ
अन्य ग्रंथ
ओनि ३४९
जीभा १५५३
जीभा १२३२
ओनि ३३४,
आवनि ९८७/२
प्रसा ८६४, ओनि ३५०
पिनि
१९८/१२ अब्भंगिय संबाहिय
२२/२
अब्भितरपरिभोगं
८४/१
अब्भोज्जे गमणादी
जीभा ११९०
निभा ४३८०
१९८/४ अयमवरो उ विकप्पो अवरद्धि-विस- बंधे अवरोप्परसज्झिलगा
ओनि ३४१
१३
निभा ४४९४
१४८
२१० / ४ अवि नाम होज्ज सुलभो निभा ४४२६, जीभा १३७७
निभा ४५१८
१७९ / १ अवि य हु बत्तीसाए
२४१
अविसुद्ध परिणामो अस्संजमजोगाणं
२१५
३०२ / २ अह मंसम्मि पहीणे
३१९
अहव न कुज्जाहारं १९८/३ अहिगरण भद्द पंता
१९८/६ अणुट्ठियं च अणवे.....
२०५
आकंपिया निमित्तेण
८३/१
३२०
आणं सव्वजिणाणं
आतंके उवसग्गे
३२० / १ आतंको जरमादी
२७८ आयपरो भयदोसा २१९/१० आयरिय-उवज्झाए २१/२ आयरिय- गिलाणाण य
परिशिष्ट-५
अन्य ग्रंथ
निभा ४३८८ ओनि ३५३
तु. जीभा १४८९
जीभा १३९२,
निभा ४४३७
ओनि ५४०
ओनि ५८१
निभा ४३७९
निभा ४३८२
निभा २६९४,
४४०६
जीभा १९८३
जीभा १६६४,
ठाणं ६/४२,
प्रसा ७३८,
तु. मूला ४८०, ओभा २९२
ओभा २९३
ओभा २४३
तु. जीभा १३९९
प्रसा ८६५,
ओनि ३५१
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२७४
पिंडनियुक्ति
२२२/१ आयवयं च परवयं जीभा १४२७, १४८/२ इतरो वि य पंतावे निभा ४४९६ निभा १०४२ ३१८/२ इरियं न विसोहेती
जीभा १६६०, १६७ आसंदि-पीढ-मंचग । निभा ५९५१
ओभा २९१, १९४/१ आसूयमादिएहिं जीभा १३१५
पंव ३६७ ६१ आहा अहे य कम्मे तु.बभा ५३४२, २० उउबद्धधुवण बाउस ओनि ३४८
६३७५ २६४ उक्खेवे निक्खेवे
जीभा १५६६ ९२ आहाकम्मं भुंजति जीभा ११९३
१९१ उग्गमकोडीअवयव जीभा १२९७
जीभा १४८७ ६७/१ आहाकम्मपरिणतो
२३८/२ उग्गमदोसा सोलस जीभा ११२०
निभा ४४१५
२०७/३ उग्गादिकुलेसु वि ९० आहाकम्मपरिणतो मूला ४८७
निभा ४४९२ ८२/३ आहाकम्मामंतण व्यभा ४३,
१४६ उच्चत्ताए दाणं
२१९ उच्छाहितो परेण व निभा ४४४५, पिंप्र १८
तु.पिंप्र ६८, ६० आहाकम्मियनामा जीभा १०९८
जीभा ११९८ ५८ आहाकम्मुद्देसिय
निभा ३२५०,
९७ उद्देसियं समुद्देसियं । निभा २०१९ बृभा ४२७५,
२३४ उप्पादणाएँ दोसा तु.जीभा १४७२ जीभा १०९५, १९८/९ उव्वट्टिता पदोसं
निभा ४३८५ प्रसा ५६४,
३०१ उसिणस्स छड्डणे देंतओ जीभा १६०३ पंचा १३/५,
२५३/१ उसिणोदगं पि घेप्पति जीभा १५३४
१७ उसिणोदगमणुवत्ते ओनि ३४४ तु.मूला ४२२,
१९८/१३ उसुकादिएहि मंडेहि निभा ४३८९ पंव ७४१
१४९ ऊणहिय दुब्बलं वा निभा ४४९७ ११० आहाकम्मुद्देसिय पंचा १३/१६ २०१ एक्केक्का वि य दुविधा निभा ४३९८ १९० आहाकम्मुद्देसिय
जीभा १२९५, २६३/२ एक्केक्के चउभंगो
जीभा १५६३ तु.दशनि २२०/१, ७०/१ एगट्ट एगवंजण जीभा ११३१, तु.प्रसा ५७०
तु.व्यभा १५५ ७१ आहाकम्मेण अहे...... जीभा ११३७ १५० एगस्स माणजुत्त
निभा ४४९८ ३१६ आहारेंति तवस्सी । जीभा १६५४ ८३/२ एगेण कतमकज्जं
जीभा १९८४, १७५ आहारोवहिमादी निभा ४५०६
बृभा ९२८, ७०/६ इंदत्थं जह सद्दा जीभा ११३६
निभा ४७८७ ११६ इंधणधूमेगंधे.... तु.निभा ८०५ ३१३/५ एगो दवस्स भागो
जीभा १६४०, २१९/१४ इक्खागुवंस भरहो तु.जीभा १४०९
प्रसा ८७० २१९/१ इट्टगछणम्मि परिपिंडि.... निभा ४४४६ २११ एतेण मज्झ भावो
निभा ४४२८, २४ इट्टापागादीणं ओनि ३५८
जीभा १३८२
EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE
पिंप्र ३,
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परि. ५ : तुलनात्मक संदर्भ
२७५
२७१ एतेसि दायगाणं जीभा १५७५ ३२१ एतेहिं छहि ठाणेहिं ओनि ५८२ ३११ एत्तो किणाइ हीणं जीभा १६२४ ३१३/६ एत्थ उ ततियचतुत्था जीभा १६४१ २१२ एमेव कागमादी निभा ४४२९ १८१ एमेव य जंतम्मि वि निभा ४५२१ ७३/२० एमेव य लिंगेणं
जीभा ११४२ १४३/३ एमेव वादि खमगे निभा ४४८३ १९८/१० एमेव सेसिगासु वि निभा ४३८६ ३०२/४ एयारिसं ममं सत्तं ओनि ५४३ २१४/२ एरिसगं वा दुक्खं निभा ४४३५,
जीभा १३८८ २३३ एवं तु गविट्ठस्सा जीभा १४७१ ३२३ एसो आहारविधी व्यभा ३७०२,
जीभा १६७३ २५ ओदण-वंजण-पाणग. ओनि ३५९ २१९/३ ओभासिय पडिसिद्धो ।
निभा ४४४८ २३६/३ ओयरंतं पदं दटुं ओनि ४६१ भा.१६ ओरालग्गहणेणं
जीभा ११०१ ६२ ओरालसरीराणं जीभा ११०० २३९/१ ओहो सुतोवउत्तो
जीभा १४८५ ७८ कक्कडिय-अंबगा वा जीभा ११५४ १९४/२ कणग-रययादियाणं जीभा १३१६ २०७/४ कत्तरि पयोयणावेक्ख
जीभा १३६०,
निभा ४४१६ भा.२६ कत्तामि ताव पेखें जीभा १२३० २७२ कप्पट्ठिग अप्पाहण ओभा २४१ २१८/१ करडुयभत्तमलद्धं
निभा ४४४२ २१९/४ कस्स घर पुच्छिऊणं निभा ४४४९ ६७/५ कामं सयं न कुव्वति जीभा ११२६ भा.१७ काय-वइ-मणो तिन्नि उ जीभा ११०२
१४३/२ किं वा कहेज्ज छारा निभा ४४८२ २४०/१ किन्नु हु खद्धा भिक्खा तु.जीभा १४७९ २१०/२ किवणेसु दुम्मणेसु य निभा ४४२४,
जीभा १३७३ १३९ कीयगडं पि य दुविधं निभा ४४७५,
जीभा १२४१ ६७/३ कूडुवमाए केई तु.जीभा ११२४ २२/३ केई एक्केक्कनिसिं ओनि ३५४ २१०/५ केलासभवणा एते जीभा १३७८,
निभा ४४२७ १९२/६ कोडीकरणं दुविधं दशनि २२०,
तु.जीभा १२९३,
तु.जीभा १२९३ ७६ कोद्दवरालग गामे जीभा ११४८ १९९ कोल्लइरे वत्थव्वो उनि १०७,
निभा ४३९२ भा.३४ कोवो वलवागभं जीभा १३४७,
निभा २६९६,
४४०८ ८३/५ खद्धे निद्धे य रुया जीभा ११८८
खमगादिकालकज्जाइ.... ओनि ३७० ११ खीरदुमहे? पंथे
निभा १५१,
ओनि ३३९ १९८/१ खीराहारो रोवति निभा ४३७७ १९७ खीरे य मज्जणे मंडणे तु.जीभा १३२२ ७३/२ खेत्ते समाणदेसी व्यभा ९८८ २२७/२ गंतुं विज्जा-मंतण निभा ४४५८ २०२ गामाण दोण्ह वेरं निभा ४४०१ २२६ गुणसंथवेण पच्छा जीभा १४३४,
निभा १०४८ २२५ गुणसंथवेण पुट्विं .
निभा १०४६, जीभा १४३२
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२७६
पिंडनियुक्ति
२२/५ गुरु-पच्चक्खाणि-गिलाण.. ओनि ३५६ ३२४ जा जयमाणस्स भवे ओनि ७५९, २७९ गुव्विणि गब्भे संघट्टणा ओभा २४६
पिंप्र १०२ १८० गेण्हण कड्डण ववहार निभा ४५२० १९८/८ जा जेण होति वण्णेण निभा ४३८४ ५ गोण्णं समयकतं वा ओनि ३३३
भा.२२ जाणंतमजाणतो जीभा १११६ १७३/२ गोवपयं अच्छेत्तुं निभा ४५०२ २०६ जाती-कुल-गण कम्मे ।
निभा ४४११, १७३ गोवालए य भयए..... निभा ४५०१
जीभा १३५०, १६ घणउदही-घणवलया ओनि ३४३
मूला ४२६ १७७/२ घतसत्तुगदिटुंतो निभा ४५१५ २०७ जाती-कुले विभासा निभा ४४१२ १६३/७ घरकोइलसंचारा जीभा १२६७ २०३ जामातिपुत्तपतिमारणं निभा ४४०२ ३०३ घासेसणा तु भावे जीभा १६०९ २१९/७ जायसु न एरिसो हं। निभा ४४५२ ३५ चउरिदियाण मच्छिय... ओनि ३६७ ९८ जावंतिगमुद्देसं
निभा २०२०, ८२ चउरो अतिक्कम-वतिक्कमे तु.जीभा ११७४
जीभा ११९९, ३६ चम्मऽट्ठि-दंत-नह-रोम ओनि ३६८
मूला ४२६, ३०२/१ चरितं व कप्पितं वा ओनि ५४१
पिंप्र ३० भा.३७ चाणक्क पुच्छ इट्टाल... जीभा १४५५ ५३/१ जितसत्तु देवि चित्तसभ... ओनि ४५० ११२ चुल्लुक्खलिया डोए निभा ८०८ २९३ जीवत्तम्मि अविगते जीभा १५८८ २३९ छउमत्थो सुतनाणी जीभा १४८४ ७६/१ जुज्जति गणस्स खेत्तं जीभा ११४९ ३१७ छहि कारणेहि साधू जीभा १६५७, २३१ जे विज्ज-मंतदोसा जीभा १४५७
मूला ४७८ ८३/३ जो जहवायं न कुणति पंचा ११/४६, ८०/१ छायं पि विवज्जेती जीभा ११६८
जीभा ११८५ १८३ छिण्णो दिट्ठमदिट्ठो निभा ४५१० ५७/१ जोतिस-तणोसहीणं तु.जीभा १०८९ २१९/२ जइ वि य ता पज्जत्ता निभा ४४४७ १४ ठाण-निसीय-तुयट्टण ओनि ३४२ २३१/३ जणसावगाण खिंसण निभा ४४७१ १९८/१४ ढड्डरसर छुन्नमुहो निभा ४३९० ७३/२२ जत्थ उ ततिओ भंगो जीभा ११४५ ३१४ तं होति सइंगालं मला ४७७ २६३/३ जत्थ तु थोवे थोवं जीभा १५६४ ८०/५ तम्हा न एस दोसो जीभा ११७२ २४०/४ जदि संका दोसकरी जीभा १४८८ ३२०/२ तवहेतु चउत्थादी
ओभा २९४, २२८/१ जह जह पदेसिणिं जीभा १४४५,
तु.जीभा १६६९ निभा ४४६० ८१/१ तस्स कडनिट्ठितम्मि य तु.जीभा ११५७ ९१/४ जह ते दंसणकंखी जीभा ११९२ ३०२/३ तिबलागमुहुम्मुक्को ओनि ५४२ १६३/६ जहेव कुंभादिसु पुव्वलित्ते जीभा १२६४ ७ तिविधो उ दव्वपिंडो ओनि ३३५
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परि. ५ : तुलनात्मक संदर्भ
२७७
४४ तिविधो होति पसत्थो तु.ओनि ४०९ १९५ धाई दूती निमित्ते । जीभा १३१९, १७७ तेणा व संजतट्ठा निभा ४५१३
प्रसा ५६६, ६४/३ तेसिं गुरूण मुदएण जीभा १११४
तु.मूला ४४५, १९८/१५थुल्लाएँ विगडपादो निभा ४३९१
पंचा १३/१८, १९८४७ थेरी दुब्बलखीरा निभा ४३८३
पिंप्र ५८, २६४/१ थोवे थोवं छूळे जीभा १५६७
पंव ७५४ २८ दइएण वत्थिणा वा । ओनि ३६२ १९८ धारयति धीयते वा । निभा ४३७६, ७३/३ दंसण-नाण-चरित्ते व्यभा ९८९
जीभा १३२१, ५७/५ दंसण-नाणप्पभवं जीभा १०९२
पंव ३६६ २८१ दगबीए संघट्टण ओभा २४७ ३१८/१ नत्थि छुहाय सरिसिया जीभा १६५९, ५७ दव्वम्मि लड्डगादी जीभा १०९०
ओभा २९०, दव्वाया खलु काया तु.जीभा १११७
पंव ३६६ ३०४ दवे भावे संजोयणा तु.जीभा १६११ २३१/२ नदिकण्ह वेण्णदीवे निभा ४४७०, २१३ दाणं न होति अफलं जीभा १३८३,
जीभा १४६१ निभा ४४३० १९२/७ नव चेवट्ठारसगं जीभा १२८९, १६३/५ दाण कयविक्कए वा जीभा १२६३
तु.दशनि २२१ भा.३३ दाराभोगण एगागि निभा २६९५, १७३/४ नानिव्विटुं लब्भति निभा ४५०४
४४०७ ७३ नामं ठवणा दविए
जीभा ११३९, २१९/५ दाहं ति तेण भणितं निभा ४४५०
व्यभा ९८६ १४२/२ दिज्जंते पडिसेधो निभा ४४७९
२३६ नाम ठवणा दविए ओनि ४५८ ७०/२ दिलै खीरं खीरं
जीभा ११३२,
४ नामं ठवणापिंडो ओनि ३३२
तु.व्यभा १५६ ७३/१ नामम्मि सरिसनामो व्यभा ९८७ २४२ दुविधं च मक्खितं खलु जीभा १४९१ २०९ निग्गंथ-सक्क-तावस जीभा १३६६, २२१ दुविधो उ संथवो खलु निभा १०४०,
निभा ४४२० जीभा १४२१ १० निच्छयओ सच्चित्तो ओनि ३३८ ४३ दुविधो य भावपिंडो तु.ओनि ४०८ ६६/१ निच्छयनयस्स चरणाय.... जीभा १११८ २०१/२ दूइत्तं खु गरहितं निभा ४४०० १४१ निम्मल्लगंधगुलिया निभा ४४७६ ३१४/३ दोसग्गी वि जलंतो जीभा १६५२ २०४ नियमा तिकालविसए निभा २६९३, १४३ धम्मकह वाय खमगे निभा ४४८०
४४०५, १४३/१ धम्मकहाअक्खित्ते निभा ४४८१
जीभा १३४१
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२७८
१८५
निवपिंडो गयभत्तं
२२/४ निव्वोदगस्स गहणं
३१२
२२३
पकामं च निकामं च
पच्छासंथवदोसा
पडिमंतथंभणादी
१७३/३ पडियरणपदोसेणं २३१/४ पडिलाभित वच्चंता
पडिविज्जथं भणादी
६८/६ पडिसेवणाइ तेणा
७३ / २१ पत्तेयबुद्ध - निण्हग
२२९
२२८
६७/२
८१
परकम्म अत्तकम्मी...... परपक्खो उ गिहत्था १६३/४ परस्स तं देति स एव गेहे
२२७/१ परिपिंडितमुल्लावो परियट्टिए अभिहडे
५९
१४७
परियट्टियं प दुविधं २३६ / १ परिसडितपंडुपत्तं
१९ परिसेय - पियण - हत्था दि... २१० / ३ पाएण देति लोगो
१४४
२२
पामिच्चं पि य दुविधं पायस्स पडोयारो
निभा ४५१२ ओनि ३५५
जीभा १६२५
जीभा १४३०,
निभा १०४४
निभा ४४६१,
जीभा १४४७
निभा ४५०३
जीभा १४६६,
निभा ४४७२
निभा ४४५९,
जीभा १४४३
जीभा ११२९
व्यभा ९९४,
जीभा ११४४
जीभा ११२१
तु. जीभा १९५६
जीभा १२६२
निभा ४४५७ निभा ३२५१,
बृभा ४२७६, जीभा १०९६, प्रसा ५६५,
तु. मूला ४२३, पंचा १३/६,
तु. पिंप्र ४,
तु. पंव ७४२ निभा ४४९३ ओनि ४५९ ओनि ३४७
निभा ४४२५,
जीभा १३७५ निभा ४४८६ ओनि ३५२
१६२
९
८
१३६
२७०
२
१३१ पाहुडिया वि य दुविधा पिंड - निकाय-समूहे पिंडस्स उ निक्खेवो
३
१
१.३४
३१
१९६
१०७
३१०
पाहुडिभत्तं भुंजति पाहुडियं च ठवेंती
जीभा १२३७
जीभा १५७४
तु. जीभा १२२४ ओनि ४०७
ओनि ३३१
पिंडे उग्गम-उप्पाय..... पंकभा ७६८,
पूतीकम्मं दुविधं
६४ / २ बंधति अहेभवाउं
२६५
पिहितुभिण्णकवाडे पुढवीकाओ तिविधो
पुढवी आउक्काओ
पुत्तस्स - विवाहदिणं
पुप्फाणं पत्ताणं पुव्विं पच्छा-संथव
३१२/१ बत्तीसाइ परेणं १७९ बत्तीसा सामन्ने
बत्तीसं किर कवला
३१२/३ बहुयातीतमतिबहु ३०२ / ५ बायालीसेसणसंकडम्मि
पिंड नियुक्ति
बाले वुड्ढे मत्ते
तु. मूला ४२१, निभा ४५६ निभा ५९५५ ओनि ३३७
तु. ओनि ३३६, जीभा ९५६
तु. जीभा १२३४
बृभा ९८० जीभा १३२०,
प्रसा ५६७,
तु. मूला ४४६, पंचा १३/१९, पिंप्र ५९,
पंव ७५५
जीभा १२०३,
निभा ८०४
जीभा १११३
तु. भग १/४३६,
४३७ जीभा १६२२, प्रसा ८६६,
भआ २१३ जीभा १६२६
निभा ४५१७
तु. जीभा १६२८ जीभा १६०८, ओनि ५४५,
पंव ३५४
जीभा १५६९
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परि. ५ : तुलनात्मक संदर्भ
२७९
३३ बिय-तिय-चउरो पंचिंदिया ओनि ३६५ ३१४/२ रागग्गिसंपलित्तो जीभा १६४८ ३४ बेइंदियपरिभोगो
ओनि ३६६ ३१५ रागेण सइंगालं तु.जीभा १६५३ २६७ भज्जंती व दलेंती जीभा १५७१ २१९/९ रायगिहे धम्मरुई जीभा १३९८ २१४ भणति य नाहं वेज्जो निभा ४४३३ २१९/१२ रायगिहे य कदाई जीभा १४०५ १९४/३ भावे पसत्थ इतरा जीभा १३१७ २२० लब्भंतं पि न गिण्हति जीभा १४१३ २१४/१ भिक्खादि गते रोगी निभा ४४३४ १७९/२ लाभित णितो पुट्ठो निभा ४५१९ २०१/१ भिक्खादी वच्चंते निभा ४३९९, भा.२९ लेवालेव त्ति जं वुत्तं जीभा १२९९
जीभा १३२७ २१०/१ लोगाणुग्गहकारिसु निभा ४४२३, २८८/१ भिक्खामत्ते अवियालणा ओनि ४६९
जीभा १३७१ १४४/३ भिक्खुदग समारंभे निभा ४४८९ ७७ लोणागडोदए एवं जीभा ११५२ १६६ भिक्खू जहण्णगम्मी निभा ५९५० १९८/११ लोलति महीय धूलीय निभा ४३८७ भा.३६ भिक्खे परिहायंते तु.जीभा १४५३ १४२ वइयादि मंखमादी निभा ४४७७ २०९/१ भुंजंति चित्तकम्मट्ठिता जीभा १३६८, ८०/३ वड्डति हायति छाया जीभा ११७०
निभा ४४२१ ८३/४ वड्डेति तप्पसंगं जीभा ११८७ १९८/२ मइमं अरोगि दीहाउओ निभा ४३७८ १९८/५ वय-गंडथुल्लतणुगत्तणेहि निभा ४३८१ १४५ मइलिय फालिय-खोसिय निभा ४४९१ २१७ विज्जा-तवप्पभावं निभा ४४४० १३५/१ मंगलहेतुं पुण्णट्ठया जीभा १२३६२२७ विज्जामंतपरूवण
निभा ४४५६ २४५/२ मंस वस-सोणियासव तु.जीभा १५०४ २५२/१ विज्झाउ त्ति न दीसति जीभा १५३० २६२ मत्तेण जेण दाहिति तु.जीभा १५५८ २५२ विज्झात मुम्मुरिंगा..... जीभा १५२९ २०८/१ मयमातिवच्छगं पि व जीभा १३६५, २२६/१ विमलीकयऽम्ह चक्खू जीभा १४३५, निभा ४४१९
निभा १०४९ १३२ मा ताव झंख पुत्तय जीभा १२३१ ५४ वियमेतं कुरंगाणं ओनि ४५२ २२२ माति-पिति पुव्वसंथव निभा १०४१ ५५ वियमेतं गजकुलाणं ओनि ४५४ २२४ मायावी चडुकारी निभा १०४५ ३१८ वेदण-वेयावच्चे
जीभा १६५८, १६५ मालोहडं पि दुविधं तु.निभा ५९४९,
ठाणं ६/४१, जीभा १२७१
उत्त २६/३२, जीभा १३६९,
प्रसा ७३७, २१० मिच्छत्तथिरीकरणं
ओनि ५८०, निभा ४४२२
तु.मूला ४७९, ३०९ रसहेतुं पडिसिद्धो जीभा १६१८
पंव ३६५
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२८०
पिंडनियुक्ति २३७ संकित-मक्खित-निक्खित्त जीभा १४७६, ११३ सिझंतस्सुवकारं जीभा १२०८
प्रसा ५६८, २१९/८ सिति-अवणण पडिलाभण निभा ४४५३ तु.मूला ४६२, १२,१८ सी-उण्ह-खार खत्ते ओनि ३४०,३४६ पंचा १३/२६, ३१३/४ सीते दवस्स एगो प्रसा ८६९ पिंप्र ७७, ३१३/३ सीतो उसिणो साहारणो जीभा १६३९, पंव ७६२
प्रसा ८६८ १७७/१ संजतभद्दा तेणा निभा ४५१४ ___५३/२ सीवण्णिसरिसमोदग..... ओनि ४५१ ६४ संजमठाणाणं कंडगाण । जीभा ११०६ १९२/३ सुक्के सुक्कं पडितं जीभा १३०९ ३०३/१ संजोयणमइबहुयं जीभा १६१० २६३/१ सुक्के सुक्कं पढमो जीभा १५६२ ३२ संथार-पाय-दंडग ओनि ३६४ भा.२८ सूक्केण वि जं छिक्कं जीभा १२९८ २४५/१ संसज्जिमेहि वज्जं जीभा १५०८ १४४/१ सुतअभिगमणातविधी निभा ४४८७ २९९ संसद्वैतरहत्थो तु.बृभा १८६८ २४० सुत्तस्स अप्पमाणे जीभा १४८६ २६९ संसत्तेण य दव्वेण जीभा १५७३ २३१/१ सूभगदोभग्गकरा निभा ४४६९, २१४/३ संसोधण-संसमणं निभा ४४३६,
जीभा १४५९ जीभा १३९० २१९/६ सेडंगुलि
निभा ४४५१ २००
सग्गाम-परग्गामे सग्गाम-पर
निभा ४३९७ २४३/३ सेसेहि उ काएहिं जीभा १५०० २४८ सच्चित्तपुढविकाए जीभा १५१८ ११७/३ सेसेहि उ दव्वेहिं तु.निभा ८०९ २४४ सच्चित्तमक्खितम्मी तु.जीभा १५०१ २२५/१ सो एसो जस्स गुणा निभा १०४७, ३७ सच्चित्ते पव्वावण ओनि ३६९
जीभा १४३३ २२०/२ सड्ढऽड्डरत्त केसर...... जीभा १४१७ ३२२ सोलस उग्गमदोसा जीभा १६७१, २०८ समणे माहण किवणे तु.जीभा १३६४
पंचा १३/३ २०७/२ सम्ममसम्मा किरिया निभा ४४१४, १९३ सोलस उग्गमदोसे
जीभा १३१३ जीभा १३५४ २६६ हत्थंदुनिगलबद्ध जीभा १५७० २३६/२ सयमेवालोएउं
ओनि ४६० २१६ हत्थकप्प-गिरिफुल्लिय तु.जीभा १३९४ २७ सवलय घण-तणुवाया ओनि ३६० २७/२ हत्थसयमेग गंता ओनि ३६१ ३० सव्वो वणंतकाओ ओनि ३६३ ५४/१ हथिग्गहणं गिम्हे ओनि ४५३ १४२/१ सागारि मंख छंदण
निभा ४४७८ २४०/२ हियएण संकितेणं
जीभा १४८० १७४ सामी चारभडा वा निभा ४५०५ भा.१८ हिययम्मि समाहेउं
जीभा ११०३ ८२/१ साली-घत-गुल- गोरस जीभा ११७७, ३१३ हियाहारा मियाहारा जीभा १६३२, तु.निभा २६६२,
ओनि ५७८ तु.बृभा ५३४१ २०७/१ होमादऽवितहकरणे निभा ४४१३, सालीमादी अगडे जीभा ११४७
जीभा १३५३
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परिशिष्ट-६
एकार्थक जिन शब्दों का एक ही अभिधेय हो, वे एकार्थक कहलाते हैं। इनके लिए 'अभिवचन'२ 'निरुक्ति पर्याय और 'निर्वचन" आदि शब्दों का उल्लेख भी मिलता है। किसी भी विषय की व्याख्या में एकार्थक शब्दों के प्रयोग का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। बृहत्कल्पभाष्य में एकार्थकों का प्रयोजन इस प्रकार बतलाया गया है
बंधाणुलोमया खलु, सुत्तम्मि य लाघवं असम्मोहो।
सत्थगुणदीवणा वि य, एगट्ठगुणा हवंतेए । छंद की व्यवस्थापना, सूत्र का लाघव, असम्मोह तथा शास्त्रीय गुणों का दीपन-ये एकार्थक के गुण हैं। इसके अतिरिक्त एकार्थवाची शब्दों के प्रयोग से विद्यार्थी का भाषा एवं कोशविषयक ज्ञान सुदृढ़ होता है। विभिन्न भाषाभाषी शिष्यों के अनुग्रह के लिए भी ग्रंथकार एकार्थकों का प्रयोग करते हैं, जिससे प्रत्येक देश का विद्यार्थी उस शब्द का अर्थ सुगमता से ग्रहण कर सके। किसी भी बात का प्रकर्ष एवं महत्त्व स्थापित करने के लिए भी एकार्थक शब्दों का प्रयोग होता है। भाव-प्रकर्ष हेतु प्रसंगवश एकार्थकों का प्रयोग पुनरुक्ति दोष नहीं माना जाता । नियुक्तिकार का यह भाषागत वैशिष्ट्य है कि वे सूत्र के मूल शब्द के एकार्थक लिखकर फिर उसकी व्याख्या करते हैं । पिंडनियुक्ति में भी प्रसंगवश ग्रंथकार ने कुछ शब्दों के एकार्थकों का उल्लेख किया है, यहां उनका उल्लेख किया जा रहा है
(मवृ प. ३६)
आधा-आधार आधा आश्रय आधार इत्यनर्थान्तरम्। आहाकम्म-आधाकर्म आहा अहे य कम्मे, आयाहम्मे य अत्तकम्मे य।
पडिसेवण पडिसुणणा, संवासऽणुमोदणा चेव॥ उग्गम-उद्गम उग्गम उग्गोवण मग्गणा य एगट्ठियाणि एताई।
(गा.६१) (गा. ५६)
१. स्थाटी पृ. ४७२। २. भ. २०/१४। ३,४: आवहाटी १ पृ. २४२ । ५. बृभा १७३।
(क) जंबूटी प. ३३ ; नानादेशविनेयानुग्रहार्थं एकार्थिकाः।
(ख) नंदीटी पृ. ५८ ; विनेयजनसुखप्रतिपत्तए....... । ७. भगटी. प. १४ ; समानार्था : प्रकर्षवृत्तिप्रतिपादनाय स्तुतिमुखेन ग्रंथकृतोक्ताः ।
मवृ प. ३६; एतानि च नामान्याधाकर्मणो मुख्यानि पुन र्यैः प्रतिषेवणादिभिः प्रकारैस्तदाधाकर्म भवति, तान्यप्यभेदविवक्षया नामत्वेन प्रतिपादयति-आधाकर्म, अध:कर्म, आत्मघ्न और आत्मकर्म-ये आधाकर्म के मुख्य नाम हैं। यहां प्रतिसेवणा आदि को अभेद विवक्षा से एकार्थक माना है।
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२८२
पिंडनियुक्ति
एसणा-एषणा
गण्ड-स्तन घट-घड़ा
छति-त्यक्त • तेप-देता है .
दुद्ध-दूध पातन-विनाश पिंड-समूह
एसण गवसणा मग्गणा य उग्गोवणा य बोधव्वा। एते उ एसणाए, नामा एगट्ठिया होंति॥ गण्डावपि स्तनापरपर्यायौ। घट-कलश-कुम्भादीनाम्। छर्दितमुज्झितं त्यक्तमिति पर्यायाः । तेपते क्षरति ददाति स्मेति भावार्थः । दुद्ध पओ पीलु खीरं च। पातनं चातिपातो विनाश इत्यर्थ :। पिंड-निकाय-समूहे, संपिंडण पिंडणा य समवाए। समुसरण-निचय-उवचय, चए य जुम्मे य रासी य॥ 'भोई' इति भोग्या-भार्या इत्यर्थः। स्थाम बलं प्राण इत्येकोऽर्थः ।
(गा. ५१) (मवृ प १२३) (मवृ प ५०) (मवृ प १६९) (मवृ प ९४) (गा. ७०/२) (मवृ प ३७)
भोइ-पत्नी स्थाम-बल
(गा. २) (मवृ प १११) (मवृ प १७७)
१. मवृ प. २९; एषणादीनि चत्वारि नामानि प्रागेकार्थिकान्युक्तानि, तथाऽपि तेषां कथञ्चिदर्थभेदोऽप्यस्ति। २. मटी प. २ ; यद्यपि पिण्डादयः शब्दा: लोके प्रतिनियत एव संघातविशेषे रूढाः ; तथाऽपि सामान्यतो यद् व्युत्पत्तिनिमित्तं
सङ्घातत्वमात्रलक्षणं तत् सर्वेषामप्यविशिष्टमिति कृत्वा सामान्यतः सर्वे पिण्डादयः शब्दा एकार्थिका उक्ताः, ततो न कश्चिद्दोषः-यद्यपि पिंड, निकाय आदि शब्द प्रतिनियत समूह के लिए रूढ़ हैं, फिर भी सामान्य रूप से एकार्थक हैं।
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परिशिष्ट-७
निरुक्त
निरुक्त का अर्थ है-शब्दों की व्युत्पत्ति करके उसके अर्थ को स्पष्ट करना। इस दृष्टि से यास्क का निरुक्त महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। जैन आगमों में भगवती और सूत्रकृतांग जैसे प्राचीन ग्रंथों में भी शब्दों के निरुक्त मिलते हैं। इससे प्रतीत होता है कि यह व्याख्या की एक संक्षिप्त प्राचीन पद्धति थी। निरुक्त द्वारा शब्द के मूल अर्थ और प्रकृति को जानने में सहायता मिलती है।
सम्पूर्ण नियुक्ति साहित्य में अनेक निरुक्तों का प्रयोग हुआ है, जैसे काम का निरुक्त–'उक्कामयंति जीवं धम्माओ तेण ते कामा' इसी प्रकार आवश्यकनियुक्ति में 'मिच्छामि दुक्कडं' शब्द का कल्पनामूलक सुंदर निरुक्त किया गया है। ऐसे निरुक्त हमें अन्य साहित्य में देखने को नहीं मिलते । यद्यपि इसमें व्याकरण के नियमों का ध्यान नहीं रखा गया है लेकिन निरुक्त और अर्थ की दृष्टि से यह एक सुंदर उदाहरण हैमिच्छामिदुक्कडं
मि त्ति मिउमद्दवत्ते, छ त्ति य दोसाण छायणे होति। मि त्ति य मेराय ठिओ, दु त्ति दुगुंछामि अप्पाणं॥ क त्ति कडं मे पावं, ड त्ति य डेवेमि तं उवसमेणं ।
एसो मिच्छादुक्कडपयक्खरत्थो समासेणं॥ (आवनि ४३६/२१, २२) ___ इसमें प्रत्येक अक्षर की व्युत्पत्ति की गई है, किसी की शब्दों द्वारा तथा किसी की धातुओं द्वारा। इस प्रकार के और भी अनेक महत्त्वपूर्ण निरुक्त हमें नियुक्ति-साहित्य में मिलते हैं। यहां केवल पिंड नियुक्ति एवं उसकी टीका में आए निरुक्तों का उल्लेख किया गया है। यद्यपि पिंडनियुक्ति निरुक्तों की दृष्टि से समृद्ध नहीं है, फिर भी कुछ महत्त्वपूर्ण निरुक्त मिलते हैंआत्मकर्म-परकर्म आत्मकर्म क्रियते इत्यात्मकर्म।
(मवृ प. ५०) आत्मज-• प्राणादींश्च घ्नन् नियमत: चरणादिरूपमात्मानं हन्ति, 'पाणिवहे वयभंगो' इत्यादिवचनात्तत आधाकर्म आत्मघ्नमित्युच्यते।
(मवृ प.५२) • आत्मानं दुर्गतिप्रपातकारणतया हन्ति विनाशयतीत्यात्मघ्नम्। (मवृ प. ३६) आधा-आधीयतेऽस्यामित्याधा।
(मवृ प. ३६) उद्भिन्न-उद्भेदनमुद्भिन्नम्।
(मवृ प. ३५) उद्देश-उद्देशनमुद्देशः।
(मवृ प. ३५) उपकरण-उपक्रियते अनेनेत्युपकरणम्।
(मवृ प. ८४) ज्वलन-ज्वलतीति ज्वलनः ।
(मवृ प. ५) तपन-तपतीति तपनः।
(मवृ प. ५)
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२८४
पिंडनियुक्ति त्रिपातन-• त्रयाणां देहायुरिन्द्रियरूपाणां पातनं-विनाशनं त्रिपातनम्। (मवृ प. ३७)
• त्रिभिः कायवाङ्मनोभिर्विनाशकेन स्वसम्बन्धिभिः पातनं–विनाशनं त्रिपातनम्। (मवृप. ३७)
• त्रीणि कायवाग्मनांसि यद्वा त्रीणि देहायुरिन्द्रियलक्षणानि पातनं (त्रिपातनम्)। (मवृप. ३७) दुर्गास-दुःखेन ग्रासो यत्र तद् दुर्गासम्।
(मवृ प. ८८) धात्री-धारयति धीयते वा, धयंति वा तमिति तेण धाई उ।
(गा. १९८) • धारयति बालकमिति धात्री। • यद्वा धीयते भाटकप्रदानेन ध्रियते पोष्यते इति धात्री। • धयन्ति पिबन्ति बालकास्तामिति धात्री।
(मवृ प. १२२) निमित्त-• इंदिएहिंदियत्थेहिं, समाहाणं च अप्पणो। नाणं पवत्तए जम्हा, निमित्तं तेण आहियं ॥
(मवृ प. १२१) • नियतमिन्द्रियेभ्यः इन्द्रियार्थेभ्यः समाधानं चात्मनः समाश्रित्य यस्मादुत्पद्यते शुभाशुभातीताद्यर्थपरिज्ञानं तस्मात्तदिन्द्रियार्थादि निमित्तम्।
(मवृ प. १२१) निर्योग-निर्युज्यते-उपक्रियतेऽनेनेति निर्योगः।
(मवृ प. १२) परिभोग-परिभुज्यते इति परिभोगः ।
(मवृ प. २०) पवन-पवते पुनातीति वा पवनः ।
(मवृ प. ५) पिंडण-• पिंडयए पिंडणं जम्हा।
(गा. ४६) • पिण्ड्यते आत्मा स्वेन सह येन तत् पिण्डनम्।
(मवृ प. २७) पूजाहार्य-पूजाहार्यः-पूजया ह्रियते-आवर्च्यते इति पूजाहार्यः ।
(मवृ प. १३१) प्रतिश्रवण-प्रतिश्रूयते-अभ्युपगम्यते यत् तत् प्रतिश्रवणम् ।
(मवृ प. ३६) प्रतिषेवण-प्रतिसेव्यते इति प्रतिषेवणम्।
(मवृ प. ३६) प्रत्यवतार-प्रत्यवतार्यते पात्रमस्मिन्निति प्रत्यवतारः ।
(मवृ प. १३) प्रदीप-प्रदीप्यते इति प्रदीपः।
(मवृ प. ५) वनीपक-• वनुते-प्रायो दायकसम्मतेषु श्रमणादिष्वात्मानं भक्तं दर्शयित्वा पिण्डं याचते इति ....... वनीपकः।
(मवृ प. १३०) ___ • वणि जायण त्ति वणिओ, पायऽप्पाणं वणीमु त्ति।
(गा. २०८) संखडि-संखड्यन्ते-व्यापाद्यन्ते प्राणिनोऽस्यामिति संखडिः ।
(मवृ प. ७९)
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प्रयुक्त देशी शब्द
जिन शब्दों का कोई प्रकृति-प्रत्यय नहीं होता, जो व्युत्पत्तिजन्य नहीं होते तथा जो किसी परम्परा या प्रान्तीय भाषा से आए हों, वे देशज शब्द कहलाते हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने देशीनाम माला में देशी शब्दों का स्वरूप स्पष्ट करते हुए लिखा है
जे लक्खणे ण सिद्धाऽपसिद्धा सक्कयाहिहाणेसु।
न य गहणलक्खणा सत्तिसंभवा ते इह निबद्धा ॥१
वैयाकरण त्रिविक्रम का कहना है कि आर्ष और देश्य शब्द विभिन्न भाषाओं के रूढ़ प्रयोग हैं अतः इनके लिए व्याकरण की आवश्यकता नहीं होती। अनुयोगद्वार में वर्णित नैपातिक शब्दों को देशी शब्दों के अन्तर्गत माना जा सकता है। आगम एवं उनके व्याख्या ग्रन्थों में १८ प्रकार की देशी भाषाओं का उल्लेख मिलता है। वे १८ भाषाएं कौनसी थीं, इनका स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। भिन्न-भिन्न प्रान्त के व्यक्ति दीक्षित होने के कारण आचार्य शिष्यों का कोश-ज्ञान एवं शब्द-ज्ञान समृद्ध करने के लिए विभिन्न प्रान्तीय शब्दों का प्रयोग करते थे । निर्युक्ति साहित्य में अनेक प्रान्तीय देशी शब्दों का प्रयोग हुआ है।
परिशिष्ट-८
पिण्डनिर्युक्ति में देशी शब्दों का प्रचुर प्रयोग हुआ है। टीकाकार मलयगिरि ने अनेक शब्दों के लिए ‘देशीवचनमेतद्’‘देशीत्वात्' आदि का प्रयोग किया है लेकिन इनके अतिरिक्त भी अनेक देशी शब्दों और देशी धातुओं का प्रयोग इस ग्रन्थ में हुआ है।
संख्यावाची शब्द जैसे— पणपण्ण, पण्णास, बायालीस आदि को भी कुछ आचार्य देशी मानते हैं। इस संग्रह में हमने संख्यावाची शब्दों का संग्रह नहीं किया है। अनुकरणवाची शब्दों एवं आदेश प्राप्त धातुओं के बारे में विद्वानों में मतभेद है पर हमने इनको देशी शब्दों के रूप में स्वीकृत किया है। अनेक शब्द
संस्कृत कोश में भी मिलते हैं लेकिन उनको यदि देशीनाम माला में देशी माना है तो उनका इस संकलन में संग्रह किया है। जैन विश्वभारती, लाडनूं से प्रकाशित 'देशीशब्दकोष' में दस हजार से अधिक देशी शब्दों का चयन किया गया है।
१. देशी १/३ । २. राजटी पृ. ३४१
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२८६
पिंडनियुक्ति
अइर-अतिरोहित-अइर त्ति अतिरोहितम्। अवड-कूप।
(वृप. ६५) (गा. २५९ वृप. १५५) अवयास-आलिंगन।
(गा. २७४) अंडक-मुख-मुखमण्डकम्। (वृप. १७३) अवरद्धिग-मकड़ी के काटने से होने वाला फोड़ा। अंदु-शृंखला, बेड़ी।
(गा. २६६)
सर्पदंश-अपराद्धिको लूतास्फोट: अक्खरय-दास-अक्षरको व्यक्षरकाभिधानो दास सर्पादिदंशो वा। (गा. १३ वृप. ९) इत्यर्थः। (गा. १७३ वृप. ११०) अवरोप्पर-परस्पर।
(गा. १४८) अचियत्त-अप्रीति-अचियत्तं अप्रीतिः। अविला-भेड़ी, मेषी।
(वृप. ७१) (गा. १७६ वृप. ११२) असंखडि-कलह का अभाव-असङ्खड्या-- अचोक्खलिणी-स्वच्छता नहीं रखने वाली स्त्री। कलहाभावेन। (गा. १७५ वृप. ११२)
(गा. २८८/६) असंथर-अप्राप्ति-असंस्तरे-अनिर्वाहे। अहिल्लय-बिनौला-अट्ठिल्लए त्ति अस्थिकान्
(गा. १७७/१ वृप. ११२) कार्पासिकान्। (गा. २८८७ वृप. १६४) अहव-अथवा।
(गा. २५१/१) अणिदा-ज्ञानशून्य होकर जीवों की रक्षा करना। आसूय-मनौती से प्राप्त-आसूयम्-औपयाचितकम्। परिज्ञानविकलेन सता यत्परप्राणनिवर्हणं सा
(गा. १९४/१ वृप. १२०) अनिदेति। (गा. ६५ वृप. ४२) इट्टग-सेवई, खाद्यविशेष-इट्टगछणम्मि-सेवकिका अत्थाह-अगाध, गहरा। (गा. १५४) क्षणे। (गा. २१९/१ वृप. १३६) अद्धाणसीसय-अटवी के प्रवेश या निर्गम का मार्ग। इट्टगा-सेवई।
(गा. २१९/१) ___(पिभा २४) इट्टाल-ईंट।
(पिभा ३७) अधिकरण-मैथुन की प्रवृत्ति, अधिकरणं- इणमो-यह।
(गा. २५१/२) - मैथुनप्रवृत्तिः। (गा. २३१/६ वृप. १४५) इय-इस प्रकार।
(गा. ८९/४) अधिगरण-पाप-प्रवृत्ति-अधिकरणं-पापप्रवृत्तिः। उंडग -खण्ड, टुकड़ा-मांसोंदुकादि-मांसखण्डम्। (गा. १६३ वृप. १०६)
. (गा. २७९ वृप. १६०) अनिविट्ठ–अनुपार्जित-अनिवृष्टम्-अनुपार्जितम्। उक्खलिया-स्थाली। (गा. ११२) (गा. १७३/४ वृप. १११) उक्खा -स्थाली।
(गा. ११३) अप्पत्तिय-अप्रीति। (गा. ३१४/३) उच्छिंदण-ब्याज पर लेना। (गा. १४४/१) अप्पाहण-संदेश। (गा. २७२) उट्ठाण-अतिसार रोग।
(गा. ८६/१) अप्पाहणि-संदेश।
(गा. २०१/१) उडूखल-ऊखल। - (गा. १६७) अप्पाहिय-संदिष्ट।
(गा. २०१/२) उड्डाह-निंदा-उड्डाहः-प्रवचनमालिन्यम् । अमिला-छोटी भैंस (पाड़ी)। (गा. ८६/२)
___(गा. २१९/८ वृप. १३६) अवचुल्ल-चूल्हे का पिछला भाग, छोटा चूल्हा। उत्तेड-बूंद-उत्तेडा बिन्दवः । (गा. १७/१ वृप. १०) (पिभा २५) उद्देहिगा-दीमक।
(गा. ३४)
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परि. ८ : प्रयुक्त देशी शब्द
२८७
उब्भट्ठ-मांग करना-उब्भट्ठ त्ति केनापि साधुना कढिय-कढ़ी।
(गा. २९७) कस्याश्चिदगारिण्याः सकाशे क्षीरमभ्यर्थितम्। कप्पट्ठय-बालक-कप्पट्ठओ बालकः। (गा. १२८/२)
(गा. १३३ वृप. ९२) उल्ल-आर्द्र। (गा. ११) कप्पट्ठिगा-बालिका।
(गा. २७२) उल्लण-छाछ से गीला किया हुआ ओदन, खाद्य- कप्पट्ठी-छोटी लड़की। (गा. १३१) विशेष-येनौदनमार्दीकृत्योपयुज्यते। कब्बट्ठी-छोटी लड़की-समयपरिभाषया 'कब्बट्ठी'
(गा. २९७ वृप. १६८) लघ्वी दारिका भण्यते। (वृप. ९१) • उल्लिंच'-बाहर निकालना। (गा. १९२/४) करडुय-मृतकभोज-करडुयभक्तं-मृतकभोजनम्। उव्वरित-शेष बचा हुआ। (गा. ३०८)
(गा. २१८/१ वृप. १३४) उसुक-एक प्रकार का आभूषण, तिलक-इषुकः कामगद्दभ-काम में अति प्रवृत्त। (गा. २०९/१) इषुकाकारमाभरणम्, अन्ये तिलकमित्याहुः। काय-कापोती, कांवड़-काय:-कापोती यया पुरुषाः
(गा. १९८/१३ वृप. १२४) स्कन्धारूढया पानीयं वहन्ति। उस्सक्कण-आगे करना-उत्ष्वष्कणं परत: करणम्।
(गा. ६१/१ वृप. ३६) (गा. १३१ वृप. ९१) कुक्कुडि-• माया-कुक्कुट्या मायया चरन्ति। एण्हि -अब। (गा. ३०२/५)
(गा. १३६/६ वृप. ९४) एत्ताहे-अब।
(मवृ प. ९८) • गला-गल एव कुक्कुटिः ।(वृप. १७३) ओसक्कण-पीछे करना-अवष्वष्कणं स्वयोगप्रवृत्त- • शरीर-शरीरमेव कुक्कुटी। (वृप. १७३) नियतकालावधेरर्वाक्करणम्। कुणिम-मांस। (गा. ८६ वृप. ७१)
(गा. १३१ वृप. ९१) कुसण-दही और चावल से बना हुआ करम्बा, ओहार-कच्छप-ओहारे त्ति कच्छपः।
खाद्य-विशेष। (गा. १२८/३) (गा. १५४ वृप. १०२) कुसुणित-दही और चावल से बना हुआ करम्बा, कक्कडिय-ककड़ी।
(गा. ७८) ___ खाद्य विशेष-कुसुणितमपि करम्बादिकक्कब-गुड़ बनाते समय इक्षुरस की एक रूपतया कृतम्। (वृप. ९१)
अवस्था, इक्षुरस का विकार। (गा. १२९) कूविय-चोर की खोज करने वाला, न्यायकर्ताकट्टर-कढ़ी में डाला हुआ घी का बड़ा-कट्टरस्य कूजकाः-व्यवहारकारिणः। तीमनोन्मिश्रघृतवटिकारूपस्य देशविशेष
(गा. ६८७ वृप. ४७) प्रसिद्धस्य। (गा. ३०५ वृप. १७२) कोत्थलक-थैला, दृति-कोत्थलकापरपर्यायो दृतिः । कडिल्ल-कड़ाही, लोहे का बड़ा पात्र। .
(वृप. १८) (वृप. १६१) खउरिय-कलुषित।
(गा. १३६/१) कडिल्लक-कड़ाही, लोहे का बड़ा पात्र। खंत-पिता-खन्तस्य-पितुः। (वृप. १५८)
(गा. २०१/३ वृप. १२७)
१. प्रस्तुत परिशिष्ट में देशी धातुओं के प्रारंभ में हमने बिन्द का चिह्न दिया है।
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२८८
पिंडनियुक्ति खंतिग-जनक, पिता। (गा. २७२) गोट्ठी-मित्र।
(गा. १०८/१) खंतिया-माता-खंतिकाया जनन्याः।
गोण-गाय।
(गा. २१०/४) (गा. २०१/३ वृप. १२७) गोणिय-गायों का व्यापारी। (गा. ६८७) खंती-खंति-जननीम्। (गा. २०१/२ वृप. १२७) गोणी-गाय।
(गा. ६८/७) खग्गूड-कुटिल-खग्गूड:-कुटिलः।
गोब्बर-एक गांव का नाम। (गा. ८९/२) (गा. १४६ वृप. १००) घंघसाला-कार्पटिक भिक्षुओं का आवासस्थल। खत्त-गोबर। (गा. १२ वृप. ८)
(गा. १६०) खद्ध-प्रचुर-खद्धं-प्रचुरम्। (गा. २२० वृप. १३९) घट्टग-लिप्त पात्र को चिकना करने वाला पत्थर खरंटणा-निर्भर्त्सना, उपालम्भ। (गा. ९६/१) विशेष-घट्टको-लेपितपात्रमसृणताकारक: खल्लग-पत्रपुट, दोना-खल्लकानि वटादिपत्रकृतानि पाषाणः।
(गा. १४ वृप. ९) भाजनानि दूतानि' । (गा. ९०/३ वृप. ७५) घर-गृह।
(गा. १७३/१) खिसण-निंदा।
(गा. २३१/३) घरकोइल-छिपकली। (गा. १६३/७) खिंसा-अवहेलना।
(गा. २७७) घाण-तिलपीड़न यंत्र-घाणे तिलपीडनयंत्रे। खुड्ड-क्षुल्लक शिष्य। (गा. २१९/१)
(गा. २७/१ वृप. १७) खुड्डय-छोटा शिष्य।
(गा. २१९/९) घुसुलण-दही मथना। (गा. २८८/६) खोल-गुप्तचर, जासूस-खोला:-हेरिका राज्ञा चंपित-चांपा हुआ, दबाया हुआ। (वृप. १२३)
नियुक्ताः। (गा. ६९/३ वृप. ४९) चट्टक-चम्मच-काष्ठ की कड़छी। (वृप. ८४) खोसिय-जीर्ण प्रायः-खोसिते-जीर्णप्राये। चप्पुटिका-चुटकी।
(वृप. १२५) (गा. १४५ वृप. १००) चाउल-चावल।
(गा. ९५) गड्डरक-भेड़।
(वृप. २१) चाउलोद-चावल का पानी। (गा. १९१) गड्डरिका-भेड़ी। (वृप. २१) चारी-चारा।
(गा. ९६/१) गडुल-चावल का धोवन। (वृप. २२) चिक्कण-चिकना, सघनकर्म-चिक्कणं ति अन्योगलिच्च-गले का आभूषण-गलिच्चा-गलसत्कानि न्यानुवेधेन गाढसंश्लेषरूपमात्मनि चिनोति । आभरणाणि। (गा. १९८/१३ वृप. १२५)
(गा. ४६ वृप, २७) गवत्त-गाय का भोजन, घास। (गा. ९६/२) चिमिढ-चिपटा।
(गा. १९८७) गवत्ति-घास, गाय का भोजन-गवत्ति त्ति गोभक्तः। चुडण-जीर्ण-शीर्ण, सड़ना। (गा. २१) (गा. ९६ वृप. ७८) चुल्ल-भोजन।
(गा. १८१/१) गोच्चिय-राज्य का अधिकारी, कोतवाल। चुल्लग-भोजन।
(गा. १८२) (गा. १७३/१) चुल्ली-चूल्हा।
(गा. ११३/२) गोट्ठिग-मित्र। (गा. १०८/२) चेड-बालक।
(गा. १७३/२)
१. यहां दूतानि के स्थान पर दूनानि पाठ होना चाहिए।
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परि. ८ : प्रयुक्त देशी शब्द
२८९
चोलपट्ट–साधु का उपकरण। (वृप. १३) डगलग-पक्की ईंट आदि के टुकड़े-डगलकाःचोल्लग-भोजन-चोल्लकम्-भोजनम्।
__पक्वेष्टकानां खण्डानि। (गा. २५ वृप. १७) (गा. १७८ वृप. ११३) डाय-शाक-डायं शाकं। (गा. ११२ वृप. ८४) छगण-गोबर-छगणं-गोमयः।
डुंब-महावत-डुंबस्य-मिण्ठस्य। (गा. १६२ वृप. १०५)
(गा. १८५ वृप. ११५) छगलग-बकरा। (गा. १४३/२) डाय-शाक
__ (गा. ११२) छब्ब-बांस का बना हुआ पात्र विशेष (गा. २५९)। डोय-डोयः-बृहद्दारुहस्तक: महांश्चट्टक इत्यर्थः । छब्बक-बांस का बना हुआ पात्र विशेष।
(गा. ११२ वृप. ८४) (वृप. १५५) ढक्कित-ढ़का हुआ।
(गा. ७७) छाय-बुभुक्षित-छातो बुभुक्षितः।
ढड्डर-तेज आवाज। (गा. १९८/१४) (गा. ३१८/१ वृप. १७७) दिउल्लिका-पुतली।
(वृप. ६) छिंडिका-बाड़ का छिद्र। (वृप. १०५) तच्चण्णिय-बौद्ध भिक्षु। (गा. १६६/१) छिक्क-स्पृष्ट, छुआ हुआ। (गा. ८४) • तर–१. समर्थ होना। (गा. २४०/१) छिक्कार-छी-छी की आवाज से अपमानपूर्वक २. कुशल रहना-तरति-क्षेमेण वर्तते। बुलाना। (गा. २१०/४)
(गा. १९८/६ वृप. १२३) छित्त-स्पृष्ट।
(गा. २४५/२) तरिका-मलाई, पानी आदि के ऊपर जमने वाली छुन्न-क्लीब-छुन्नमुखः-क्लीबमुखः।
सतह। (गा. १९८/१४ वृप. १२५) • तिप्प-देना-तेपते क्षरति ददाति स्मेति भावार्थः । छोटि-उच्छिष्टता, जूठन। __ (वृप. १६१)
(गा. १३६/६ वृप. ९४) छोट्टि-उच्छिष्टता जूठन। (गा. २८०) • तिम्म-जल से आर्द्र करना। (गा. १६३/२) छोभग-झूठा कलंक। (गा. १९८/९) तूवरी-अरहर की दाल। (गा. २९६) जड्डु-हाथी।
(गा. १८४) थक्क-अवसर-यद् अवसरेऽवसरानुरूपमापतति तत्जल्ल-शरीर का मैल। (गा. १३६/१) थक्के थक्कावडियमित्युच्यते । जाउ-दलिया, खाद्य विशेष-जाउ-क्षीरपेया।
(गा. ७६/४ वृप. ६४) (गा. २९८ वृप. १६८) थिक्क-स्पृष्ट।।
(वृप. ६६) जुंगिय-हाथ पैर आदि अवयव से हीन-जुङ्गिताङ्गेषु • थुण-स्तुति करना।
(गा. २२५) च कर्तितहस्तपादाद्यवयवेषु।
दंडिणी-राजपत्नी-दंडिन्यौ नृपपल्यौ। (गा. २१०/२वृप. १३१)
__ (गा. २३० वृप. १४२) झंख-बार बार कहना-झष वारं वारं जल्प। दद्दर-१. कुतुप आदि का मुखबंध रूप ढक्कन
__ (गा. १३२ वृप. ९२) दर्दरकः कुतुपादीनां मुखबंधरूपः । डक्क-सांप के द्वारा डसा हुआ। (गा. १६६/२)
(गा. १६४ वृप. १०७)
__ (वृप. ९)
लंका
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२९०
२. काष्ठ की सोपान - पंक्ति' - निरन्तरकाष्ठफलकमयो निःश्रेणिविशेषः । (गा. १७० वृप. ११० ) दद्दरय - पात्र के मुंह पर बांधा जाने वाला कपड़ा, दर्द्दरक:- मुखबन्धनं वस्त्रखण्डम् ।
(गा. १६२ वृप. १०५) (गा. १६३ / १)
(गा. ६५ वृप. ४२ ) अपगतसर्वथादया
(गा. ८३/४ वृप. ७० ) (गा. २८८ /६) (गा. २२/४ ) कार्याभिधाने रूढः । (गा. ४९/१ वृप. २८ )
निर्द्धधस - निर्दय - निद्धन्धसः
वासनाकः ।
निष्पिट्ट - पीसा हुआ।
निव्व - छदि, पटल । नेम - कार्य - नेमशब्दो देश्यः
दाय - जल । निच्छुभण - बाहर निकालना । निच्छोडित - अंगुलि आदि से साफ
(गा. २२४ )
किया हुआ
पव्वाय - म्लान ।
'निच्छोटिते' अङ्गुल्यादिना निरवयवे परिहार - परिभोग । कृते । (गा. १२५ वृप. ८९ ) निदा- जानते हुए प्राणवध करना - परिज्ञानवतापि यज्जीवानां प्राणव्यपरोपणं सा निदा ।
पंतावणा - लकड़ी आदि से प्रहार करना ।
(गा. २७४) पच्चोणी - सम्मुख - पच्चोणी सन्मुखागमनम् । (पिभा. ४५ वृप. १२८ ) पट्ट - वस्त्र विशेष । (गा. २२) पडोयार - साधु का उपकरण - प्रत्यवतारः - उपकरणम् । (गा. २२ वृप. १३)
पणय - काई - पनक: - वनस्पतिविशेषः ।
(गा. २१ वृप. १२)
१. गुजराती में दादर कहते हैं।
• पणय याचना करना । पत्थार - विनाश- प्रस्तार : - विनाशः ।
(गा. २३१ / ११ वृप. १४५ ) पत्थारय - विनाश - पत्थारओ नाशः ।
(गा. २३१ वृप. १४३ ) पप्पडिया - खाद्य वस्तु विशेष । (गा. २५४ ) परिकट्टलिय - एक स्थान पर पिंडित करना - परिकट्ट - लितम् एकत्र पिण्डीकृतम् ।
(गा. १०३ वृप. ८१ ) (गा. ३५)
(गा. ३०)
पिंडनिर्युक्ति
(गा. २१९/५)
पण - किसी अन्य घर से आई हुई मिठाईप्रहेणकं कुतश्चिदन्यस्माद् गृहादायातम् ।
(गा. २४० / २ वृप. १४८ ) पाहुडि - भिक्षा । (गा. २८७) पाहुडिया - भिक्षा | (गा. २७० ) पाहेणग - मोदक आदि मिठाई - प्रहेणकं - मोदकादि । (गा.
• पिज्ज -पान करना । पिप्पल - क्षुर
विशेष - पिप्पलक:
(गा.
क्षुरविशेषः ।
१३४ वृप. ९२ )
(गा. १९८ / २)
किञ्चिद्वक्र:
२५ वृप. १७)
(गा. ७० / २) (वृप. ९२ )
पहल । (पिभा ४१ वृप. १२६ )
(गा. ४५ / १ )
पीलु - दूध । पूणिका - पूनी, रूई की पूयणा - दुष्ट व्यन्तरी । पेयालणा - समूह, प्रमाण । पेलु - पूनी, रूई की पहल । पेल्लण - प्रेरित करना । पेल्लियपोग्गलिय- शाल्योदन संबंधी - पोग्गलिय त्ति
(वृप. ९२ )
(गा.
१६३/७ )
- दबाव ।
(गा.
१९८/७)
पौद्गलिकस्य शाल्योदनस्य ।
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परि. ८ : प्रयुक्त देशी शब्द
२९१
(गा. १४८ वृप. १०१)
(गा. १६३/३ वृप. १०६) पोत्त-लघु बालक योग्य वस्त्र खण्ड-पोतानि मुइयंग-चींटी।। (वृप. १०७) लघुबालकयोग्यानि वस्त्रखण्डानि। मेरा-मर्यादा, सीमा।
(गा. १०१/१) (गा. १४१ वृप. ९६) मोय-मूत्र--प्रस्रवण-मोयं ति मूत्रणं । पोत्ति-वस्त्र। __ (गा. २२)
(गा. २१९/३ वृप. १३६) पोह-भैंस आदि की विष्ठा का समूह, कच्छ में संचण-रुई कातना तथा उसको लोठना। 'पोह। (गा. १०८/१)
(गा. २८१) बघार–छोंक लगाना।
(वृप. ८४) रुंटणा-अवज्ञा-रुण्टणया इति अवज्ञया। बिट्ठ-बैठा हुआ। (गा. २८८/४)
(गा. ९०/३ वृप. ७५) बोड-मुंडित शिर-शिरोलुञ्चनादिति बोड इत्येव- रुक्ख-वृक्ष।
__ (गा. ५३/२) मधिक्षिपति। (गा. ९२ वृप. ७६) रेल्लण-पानी का प्रवाह। (वृप. १२) बोल-तेज आवाज।
(गा. २१९/८) लइय-पहना हुआ-कण्णलइयाई ति कर्णे पिनद्धानि। • भमाड-घुमाना। (गा. २२८/१)
(गा. २८४ वृप. १६२) भोइणी-भार्या।
(गा. २०५) लंबण-कवल-लम्बनं-कवलः। भोइय-पति। (गा. २०५)
___ (गा. ३०५ वृप. १७२) भोई-पत्नी-भोई इति भोग्या भार्या । लड्डुग –मोदक, लड्डगविषयं-मोदकविषयम्। (गा. १७३/२ वृप. १११)
(गा. ५७/२ १७८ वृप. ११३) भोयग--ग्राम-नायक।
(पिभा ३३) लाहणक-प्रहेणक, उत्सव के उपलक्ष्य में किसी मइलिय-मलिन।
(गा. १४५) दूसरे घर से भेंट स्वरूप प्राप्त मिठाई मंथु-दधि और छाछ के बीच की अवस्था।
विशेष। (वृप. १०३) ।
(वृप. ९०) लुक्क-मुण्डित, लुञ्चित। (गा. ९२) मज्झंतिग-मध्य।
(गा. ९०/१) लेच्छारिंग-खरण्टित-लेच्छारियाणि डिम्भकयोग्यमत्थु-दही और छाछ के बीच की अवस्था।
स्तोकस्तोकपायसप्रक्षेपणेन खरण्टितानि। (गा. १२८/३)
(गा. ९०/३ वृप. ७५) मल्लग-शराव, सिकोरा-मल्लकं-शरावं। लोट्ट-कच्चा चावल।
(वृप. १९) (गा. ९०/३ वृप. ७५) • लोल-धरती पर लुठना। (गा. १९८/११) महल्ल-बड़ा। (गा. २६४) वइया-लघु गोकुल।
(गा. १४२) माइठाण-माया।
(गा. २३१/३) वडग-दाल आदि का बड़ा। (गा. ३०५) मारामारी-लड़ाई, मार-पीट। (अव १५०) वलया-समुद्रतट, समुद्री लहर-वलयामुखेमाल-ऊपर का कमरा। (गा. १६६/१) वेलामुखे भ्राटरूपे निपतिते। मिठ-महावत। (वृप. ११५)
(गा. ३०२/३ वृप. १७१) मूइंग-चींटी-मुइंगादयः पिपीलिका।
वलवा-घोड़ी।
(गा. २०५)
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२९२
पिंडनियुक्ति
वलिय-भुक्त, खाया हुआ। (गा. १०८/२) सझिलगा-बहिन-सज्झिलगा-भगिनी। वल्ल-निष्पाव, काली उड़द-वल्ला-निष्पावाः ।
(गा. १४४ वृप. ९८) (गा. २९६ वृप. १६८) समुत्तइय-गर्वित, अभिमानी-समुत्तइओ गर्वितः । वालुंक-पक्वान्न विशेष। (गा. ३०५)
__ (गा. २१९ वृप. १३४) विगड-मद्य-विकटेन मद्येन देशविशेषापेक्षम्। सरडु-कोमल।
(गा. ३१) (गा. १०३ वृप. ८१) सहोढ-चोरी की वस्तु सहित। (गा. १७९/२) विच्छोडित-अंगुलि आदि से साफ किया हुआ। साइयंकार-विश्वासपूर्वक-साइयंकार त्ति सप्रत्ययम्। (गा. १२५)
(पिभा ३३ वृप. १२८) विट्टालित-उच्छिष्ट, भ्रष्ट। (वृप. १४३) सामत्थण-पर्यालोचन–सामत्थणं ति स्वभटैः सह विलिय-लज्जित।
(गा. १३६/३)
पर्यालोचनम्। (गा. ६८/९ वृप. ४७) विलुक्क-मुण्डित।
(गा. ९२) साहण-कहना-साहणं-कथनं। विसारण-फल-फूल आदि के टुकड़ों को सुखाने
(गा. १०१/१ वृप. ८१) के लिए धूप में रखना-विशारणं शोषणा- साही-गली, मुहल्ला-साही-वर्तनी। यातापे मोचनम् । (गा. २८३ वृप. १६१)
(गा. १५६ वृप. १०३) सइज्झित-पड़ोसिन। (वृप. १०४) सिक्कक-छींका।
(वृप. १०८) सएज्झिया-पड़ोसिन–सइज्झितं वसतीप्रवेशनीम्। सिति-सीढ़ी-सोपान-पंक्ति। (गा. ६३)
(गा. १५७/६ वृप. १०४) सीई-निःश्रेणि, सीढी-सीईए त्ति निःश्रेण्या।। संखड-कलह-संखडं-कलहः।
(गा. ६३ वृप. ३८) (गा. १४८. वृप. १०१) • सीद-फलित होना।
(गा. ५४) संखडि-• मिठाई। (गा. १५७/१) सीहकेसरय-एक विशिष्ट प्रकार का मोदक। • कलह करना-सङ्खड्या-कलहकरणेन।
(गा. २१६) (गा. १७५ वृप. ११२) सुकुमारिका-चीनी की चासनी। (वृप. १७२) • विवाह आदि के उपलक्ष्य में दिया हत्थिच्चग-हाथ के आभूषण-हत्थिच्चगा-हस्तजाने वाला जीमनवार। (गा. १३४)
योग्यान्याभरणाणि। • विवाह-सङ्खडि नाम विवाहादिकं प्रकरणम्।
(गा. १९८/१३ वृप. १२५) (गा. ९६/४ वृप. ७९)
हदन-बालक का मल-मूत्र। (वृप. १३५) • संछुह-एकत्रित करना। (गा. १४२/२)
हद्दण्णय-बालक का मल-मूत्र साफ करने वाला। संथर-निर्वाह होना, संभव होना-संस्तरे-निर्वाहे। . द्वाद-अतिसार होना-हादयेत्-अतीसारं कुर्यात्।
(गा. २१९/६) (गा. १९२/५ वृप. ११९)
(गा. ३१२/२ वृप. १७४) सज्झिलग-१. भाई-सज्झिलगौ भ्रातरौ। हेट्ठ-अधः, नीचे।
(गा. ५३/२) (गा. १४८ वृप. १०१)
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परिशिष्ट-९
सूक्त-सुभाषित
सूक्ति का शाब्दिक अर्थ है-सुष्ठु-कथन । जिस उक्ति में अनुभूति और अभिव्यक्ति का चमत्कार होता है, वह सूक्ति कहलाती है। जो भीतरी चेतना के परिवर्तन के लिए स्पंदन पैदा कर देते हैं, वे सुभाषित कहलाते हैं। सूक्ति में जीवनभर का अनुभव थोड़े से शब्दों में उड़ेल दिया जाता है। इससे भाषा-शैली में गतिशीलता और सौष्ठव आ जाता है।
पिण्डनियुक्ति में प्रयुक्त सूक्तियां और सुभाषित केवल उपदेशात्मक ही नहीं, बल्कि जीवनस्पर्शी और प्रेरणास्पद भी हैं।
नियुक्ति साहित्य का अध्यनन करने से प्रतीत होता है कि नियुक्तिकार ने कहीं भी प्रयत्न नहीं किया बल्कि सहज रूप से विषय का निरूपण करते हुए वे गाथाएं या चरण सूक्त रूप में अवतरित हो गए, जैसे-भावे य असंजमो सत्थं-भाव दृष्टि से असंयम सबसे बड़ा शस्त्र हैं। यहां द्रव्य और भावशस्त्र के निरूपण में इतना चरण अहिंसा की दृष्टि से एक बहुत बड़ा तथ्य हमारे सामने प्रस्तुत कर देता है।
सूक्ति व सुभाषित के प्रयोग से गंभीरतम तथ्य बहुत सरल और सहज भाषा में प्रकट हुआ है।
यहां पिण्डनियुक्ति एवं उसकी टीका के सूक्ति एवं सुभाषित संकलित हैं• असुभभावो वज्जेयव्वो पयत्तेणं।
(गा. ६७/४) • साताबहुलपरंपर, वोच्छेदो संजम-तवाणं।
(गा. ८३/२) • जो जहवायं न कणति. मिच्छद्रिी तओ ह को अन्नो?
(गा. ८३/३) • जो उ असझं साहति, किलिस्सति न तं च साहेती।
(गा. ११६/४) • दाणं न होति अफलं, पत्तमपत्तेसु सण्णिजुज्जंतं।
(गा. २१३) • दूइत्तं खु गरहितं।
(गा. २०१/२) • सुत्तस्स अप्पमाणे, चरणाभावो तओ तु मोक्खस्स। मोक्खस्स वि य अभावे, दिक्खपवित्ती निरत्था उ॥
(गा. २४०) • हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा य जे नरा। न ते विज्जा तिगिच्छंति, अप्पाणं ते तिगिच्छगा।
(गा. ३१३) • रागग्गिसंपलित्तो, भुंजंतो फासुगं पि आहारं। निद्दड्डिंगालनिभं, करेति चरणिंधणं खिप्पं ॥
(गा. ३१४/२) • न खल्वकामी मण्डनप्रियो भवतीति।
(मवृ प. ११) • विनयबलादेव सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रवृद्धिसम्भवात् ।
(मवृ प. १५) • विद्वत्ता हि सा तत्त्ववेदिनां प्रशंसाऱ्या या यथावस्थितं वस्तु विविच्य हेयोपादेयहानोपादानप्रवृत्तिफला।
(मवृ प. ३४) • ज्ञानदर्शनयोर्हि फलं चरणप्रतिपत्तिरूपा सन्मार्गप्रवृत्तिः ।
(मवृ प. ४२) • आणाए च्चिय चरणं, तब्भंगे जाण किं न भग्गं ति?
(मवृ प. ४३) • नापीह भवेऽकृतं शुभं कर्म परलोके फलति ।
(मवृ प.७७) • यो दुःखसहायो भवति, तस्मै दुःखं निवेद्यते।
(मवृ प. १२२)
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परिशिष्ट-१० उपमा और दृष्टान्त किसी भी चीज की महत्ता स्थापित करने के लिए जो बात उपमा या दृष्टान्त द्वारा समझायी जाती है, वह सहजगम्य हो जाती है। उपमा से साहित्य में रम्यता, सरसता और विचित्रता उत्पन्न हो जाती है। उपमाएं काव्य-साहित्य का शृंगार होती हैं। नियुक्तिकार ने कठिन से कठिन विषय को उपमा द्वारा सरस ढंग से समझाया है। कुछ उपमाएं इतनी सरल और सरस भाषा में निबद्ध हैं कि पढ़ते ही उनका अर्थगम्य हो जाता है।
कुछ उपमाओं द्वारा उस समय की संस्कृति, देश, काल और वातावरण का भी ज्ञान होता है। उपमाओं की भांति दृष्टान्तों का भी बहुलता से प्रयोग हुआ है। यहां केवल पिंडनियुक्ति की उपमाएं व दृष्टान्त संकलित हैं• जह कारणं तु तंतू, पडस्स तेसिं च होंति पम्हाइं।
गा. ४९/१ • जह कारणमणुवहतं, कज्जं साहेति अविकलं नियमा।
गा. ४९/२ • परहत्थेणंगारे, कढतो जह न डज्झति उ।
गा. ६८/२ • जह वंतं तु अभोज्जं, भत्तं जं पि य सुसक्कयं आसी।
गा. ८५ • असुइस्स विप्पुसेण वि, जह छिक्काओ अभोज्जाओ। लुक्कविलुक्को जह कवोडो ।
गा. ९२ • एसणजुत्तो होज्जा, गोणीवच्छो गवत्तिव्व।
गा. ९६ • विसघातिय पिसियासी, मरति तमन्नो वि खाइउं मरति। इय पारंपरमरणे, अणुमरति सहस्ससो जाव॥
गा. १२३ • घतसत्तुगदिटुंतो।
गा. १७७/२ • अप्पवयं बहुआयं।
गा. १७९/१ • मयमातिवच्छगं पि व।
गा. २०८/१ • दिटुंतो दुद्ध-दही, अपरिणतं परिणतं तं च।
गा. २९३ • अत्थस्स साहणट्ठा, इंधणमिव ओदणट्ठाए।
गा. ३०२/१ • निद्दड्डिंगालनिभं, करेति चरणिंधणं खिप्पं।
गा. ३१४/२ • अंगारमित्तसरिसं, जा न भवति निद्दहति ताव।
गा. ३१४/३
८७
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परिशिष्ट-११
निक्षिप्त शब्द निक्षेप व्याख्या की एक विशिष्ट पद्धति है। भाषाविज्ञान के क्षेत्र में जैनाचार्यों की यह विशिष्ट देन है। प्राकृत में एक ही शब्द के अनेक संस्कृत रूपान्तरण संभव हैं। निक्षेप पद्धति द्वारा उस शब्द के सभी संभावित अर्थों का ज्ञान कराकर शब्द के प्रसंगोपात्त अर्थ का ज्ञान कराया जाता है। निक्षेप भाषाविज्ञान के अन्तर्गत अर्थविकास-विज्ञान का महत्त्वपूर्ण अंग है।
न्याय के क्षेत्र में जैनाचार्यों की यह एक विशेष देन है। निक्षेप वस्तुत: व्याख्या का ही एक प्रकार है, जिसके अन्तर्गत उपक्रम, अनुगम एवं नय का भी समावेश किया गया है। उपोद्घात नियुक्ति में १२ प्रकार से किसी भी विषय की व्याख्या की जाती है, उसमें निक्षेप को प्रथम स्थान प्राप्त है। वस्तु या शब्द का चतुर्मुखी ज्ञान करवाकर अंत में शुद्ध शब्द का ज्ञान कराना निक्षेप का उद्देश्य है।
सामान्यतः आवश्यकतानुसार अनेक निक्षेप किए जा सकते हैं लेकिन इसके चार भेद प्रसिद्ध हैं:-१. नाम निक्षेप २. स्थापना निक्षेप ३. द्रव्य निक्षेप ४. भाव निक्षेप।
शब्द किसी व्यक्ति या वस्तु का वाचक होता है। शब्द के इस स्वरूप को प्रकट करने के लिए ही नाम निक्षेप की कल्पना की गयी। कल्पना के माध्यम से एक वस्तु में दूसरी वस्तु का आरोप स्थापना निक्षेप है। वस्तु की त्रैकालिक स्थिति को प्रकट करने वाला द्रव्य निक्षेप है। भाव निक्षेप जैन साधना पद्धति का बोधक है। वस्तु के यथार्थ स्वरूप का बोध इसी के द्वारा होता है। कोई भी शब्द या ज्ञान तब तक केवल द्रव्य तक सीमित है, जब तक उसमें उपयोग की चेतना नहीं जुड़ती। भाव निक्षेप में भाषा और भाव की संगति रहती है।
संसार का सारा व्यवहार निक्षेप पद्धति से चलता है। जब बच्चा जन्म लेता है, तब वह केवल नाम निक्षेप के जगत् में जीता है। थोड़ा बड़ा होने पर वह कल्पना द्वारा किसी वस्तु की स्थापना करता है, जैसेप्लास्टिक की गुड़िया में मां या बहिन की स्थापना। धीरे-धीरे वह त्रैकालिक ज्ञान में सक्षम हो जाता है और बाद में बुद्धि की सूक्ष्मता और समझ विकसित होने पर वह भावनिक्षेप द्वारा व्यवहार चलाता है। भावनिक्षेप साधना की फलश्रुति है।
निक्षेप अनेकान्त का व्यावहारिक एवं सजीव प्रयोग है। जैसे अतीत में कोई धनी था, उसे वर्तमान में भी सेठ कहा जाता है। यह बात असत्य हो सकती है लेकिन द्रव्यनिक्षेप द्वारा यह भी संभव है।
नियुक्तिकार ने अपनी व्याख्या पद्धति में निक्षेप को अपनाया। यदि सम्पूर्ण नियुक्ति-साहित्य से निक्षिप्त गाथा एवं उसकी व्याख्या का संकलन किया जाए तो एक महाग्रंथ तैयार हो सकता है। यहां
१. आनि ४, अनुद्वा।
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२९६
पिंडनियुक्ति
पिण्डनियुक्ति के निक्षिप्त शब्दों की सूची प्रस्तुत की जा रही हैनिक्षिप्त शब्द गाथांक
निक्षिप्त शब्द
गाथांक
अत्तकम्म (आत्मकर्म) ६७ अपरिणत (अपरिणत) २९२-९४ अहेकम्म (अध:कर्म) ६३, ६४ आयकिय (आत्मक्रीत) १४० आया (आत्मा) आयाहम्म (आत्मघ्न) आहा (आधा)
६१/१ उग्गम (उद्गम) ५६-५७/१ उप्पादणा (उत्पादना) १९४-१९४/३ एसणा (एषणा)
५२-५२/३
६६
कीयगड (क्रीतकृत) कूड (कूट) गवेसणा (गवेषणा) गहणेसणा (ग्रहणैषणा) घासेसणा (ग्रासैषणा) विवेग (विवेक) संजोयणा (संयोजना) साहम्मिय (साधार्मिक) पिंड (पिण्ड) पूतीकम्म (पूतिकर्म)
१३९-१४३ ६७/४ ५३ २३६ ३०२, ३०३ १९२/१ ३०४-३०७
४-४७ १०७-१०९
परिशिष्ट-१२
लोकोक्तियां एवं न्याय
गंगायां घोष इति न्यायात्। पूर्वद्वयलाभः पुनरुत्तरलाभे भवति सिद्ध इति वचनप्रामाण्यात् । सूचनात्सूत्रमिति न्यायात्। गोमांसभक्षणं बहुपापम्। अल्पव्ययं बह्वायं दानं। यत्राग्निस्तत्र वायुरिति वचनात्। आद्यन्तग्रहणे मध्यस्यापि ग्रहणमिति न्यायात् । दुग्धान्तानि भोजनानि। लोके एवं श्रुतिः-यदि कुमारी ऋतुमती भवेत् , तर्हि यावन्तस्तस्या रुधिरबिन्दवो
निपतन्ति तावतो वारान् तन्माता नरकं याति। दुल्लभगं खु सुतमुहं। घृतं हि सक्तुमध्ये प्रक्षिप्तं विशिष्टसंयोगाय जायते।
मवृ प. १२ मवृ प. २५ मवृ प. ३० मवृ प.४७ मवृ प. ११३ मवृ प. १५५ मवृ प.१६९ मवृ प. १११
मवृ प. १४५
गा. १९८/२ मवृ प. ११३
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परिशिष्ट-१३
परिभाषाएं
परिभाषा द्वारा किसी भी शब्द का संक्षेप में स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। आगम व्याख्या-साहित्य में प्रसंगवश अनेक शब्दों की परिभाषाएं लिखी गई हैं। इस परिशिष्ट में नियुक्ति और टीका में आई परिभाषाओं का संकलन किया गया है। शोध विद्यार्थियों के लिए यह परिशिष्ट महत्त्वपूर्ण हो सकेगा।
अंगार- ज्वालारहितो वह्निरङ्गारः ।
(मवृ प. १५२) अतिक्रम-आहाकम्मामंतण, पडिसुणमाणे अइक्कमो होति ।
(गा. ८२/३) अतिप्रमाण-बहुयातीतमतिबहुं, अतिबहुसो तिन्नि तिन्नि व परेणं। तं चिय अतिप्पमाणं..... ।
(गा. ३१२/३) अधःकर्म-अधोगतिनिबन्धनं कर्म अध:कर्म।
(मवृ प. ३६) अध्यवपूरक-• अधि-आधिक्येन अवपूरणं स्वार्थदत्ताद्रहणादेः साध्वागमनमवगम्य तद्योग्यभक्तसिद्ध्यर्थे प्राचुर्येण भरणम् अध्यवपूरः ।
__ (मवृ प. ३५) • पूर्वे-यावदर्थिकाद्यागमनात् प्रथममेव स्वार्थे निष्पादिते पश्चाद्यथासंभवं त्रयाणां यावदर्थिकादीनामर्थाय अवतारयति अधिकतरांस्तण्डुलादीन् प्रक्षिपति एषोऽध्यवपूरकः।
(मवृ प. ११५) अनिदा-अनिदा यदजानतो व्यापाद्यस्य सत्त्वस्य व्यापादनम्।
(मवृ प. ४२) अनिसृष्ट-न निसृष्टं सर्वैः स्वामिभिः साधुदानार्थमनुज्ञातं यत् तदनिसृष्टम्। (मवृ प. ३५) अपद्रावण-उद्दवणं पुण जाणसु, अतिवातविवज्जितं पीडं।
(पिभा १६) अपमित्य (भिक्षा का दोष)-भूयोऽपि तव दास्यामीत्येवमभिधाय यत् साधुनिमित्तमुच्छिन्नं गृह्यते तदपमित्यम्।
__ (मवृ प. ३५) अपरिणत-पृथिवीकायादिकमपि स्वरूपेण सजीवं सजीवत्वापरिभ्रष्टमपरिणतमुच्यते।
(मवृ प. १६६) अभिहत-• अभि-साध्वभिमुखं हृतं-स्थानान्तरादानीतम् अभिहृतम्।
(मवृ प. ३५) • अभिहृतं-यत्साधुदानाय स्वग्रामात्परग्रामाद्वा समानीतम्।
(मवृ प. ३५) आच्छेद्य-आच्छिद्यते-अनिच्छतोऽपि भृतकपुत्रादेः सकाशात्साधुदानाय परिगृह्यते यत् तदाच्छेद्यम्।
(मवृ प. ३५) आत्मकर्म-• आहाकम्मपरिणतो, फासुगमवि संकिलिट्ठपरिणामो। आययमाणो बज्झति, तं जाणसु अत्तकम्मं ति॥
(गा. ६७/१) • यत् पाचकादिसम्बन्धि कर्मपाकादिलक्षणं ज्ञानावरणीयादिलक्षणं वा तदात्मनः संबन्धि क्रियते अनेनेति आत्मकर्म।
(मवृ प. ३६)
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२९८
पिंडनियुक्ति
आत्मभावक्रीत-• आत्मना स्वयमेव भावेन धर्मकथनरूपेण क्रीतमात्मभावक्रीतम्। (मवृ प. ९७) • धर्मकथात उत्थितानां सतां तेषां पार्वे यद् गृह्णाति तदात्मभावक्रीतम्।
(मवृ प. ९७) आधाकर्म-• हिययम्मि समाहेडं, एगमणेगं च गाहगं जो उ। वहणं करेति दाता, कायाण तमाहकम्मं ति॥
(पिभा १८) . ओरालसरीराणं. उद्दवण तिवायणं च जस्सदा। मणमाहित्ता कुव्वति, आहाकम्मं तयं बेति॥
(गा. ६२) अट्ठाएँ अणट्ठाए, छक्कायपमद्दणं तु जो कुणति । अनिदाए य निदाए, आयाहम्मं तयं बेंति॥
(गा. ६५) आहुति-आहुतिः अग्नौ घृतादेः प्रक्षेपः।।
(मवृ प. १२९) उच्चोत्क्षिप्त-यदृष्टेरुपरि बाहुं प्रसार्य देयवस्तुग्रहणाय पात्रं ध्रियते तत्तथा ध्रियमाणमुच्चोत्क्षिप्तम्।
(मवृ प. ११०) उद्गोपन-उद्गोपनं-विवक्षितस्य पदार्थस्य जनप्रकाशचिकीर्षा।
(मवृ प. २९) उद्दिष्ट-स्वार्थमेव निष्पन्नमशनादिकं भिक्षाचराणां दानाय यत् पृथक्कल्पितं तदुद्दिष्टम्। . (मवृ प. ७७) उद्भिन्न-साधुभ्यो घृतादिदाननिमित्तं कुतुपादेर्मुखस्य गोमयादिस्थगितस्योद्घाटनं तद्योगाद्देयमपि घृतादि उद्भिन्नम्।
(मवृ प. ३५) उपकरण-• सिझंतस्सुवकारं, दिज्जंतस्स व करेति जं दव्वं, तं उवकरणं...। (गा. ११३)
• यच्चुल्ल्यादिकं सिद्धयतोऽन्नस्य, यद्वा यद्दादिकं दीयमानस्य भक्तस्योपकारं करोति तच्चुल्ल्यादिकं दादिकं च उपकरणम् इत्युच्यते।
(मवृ प.८४) उपकरणपूति-कम्मियकद्दममिस्सा चुल्ली उक्खा य फड्डगजुता उ। उवकरणपूतिमेयं...। (गा. ११३/२) ओघौद्देशिक-नादत्तमिह किमपि लभ्यते ततः कतिपया भिक्षा दम इति बुद्ध्या कतिपयाधिकतण्डुलादिप्रक्षेपेण यन्नित्तमशनादि तदोघौदेशिकम्।
(मवृ प. ७७) औदेशिक-यदुद्दिष्टं कृतं कर्म वा यावन्तः केऽपि भिक्षाचराः समागमिष्यन्ति पाखण्डिनो गृहस्था वा ।
तेभ्यः सर्वेभ्योऽपि दातव्यमिति सङ्कल्पितं भवति तदा तदोदेशिकमुच्यते। (मवृ ७९) कण्डक-तत्थाणंता उ चरित्तपज्जवा होंति संजमट्ठाणं । संखाईयाणि उ ताणि कंडगं होति नातव्वं ।
(पिभा १९) कर्म-यत्पुनर्विवाहप्रकरणादावुद्धरितं मोदकचूर्णादि तद्भूयोऽपि भिक्षाचराणां दानाय गुडपाकदानादिना मोदकादि कृतं तत्कर्मेत्यभिधीयते।
(मवृ प. ७७) कर्म-• अनाचार्योपदिष्टं कर्म।
(मवृ प. १२९) • अनावर्जकम् अप्रीत्युत्पादकं कर्म।
(मवृ प. १२९) कापोती-कापोती यया पुरुषाः स्कन्धारूढ्या पानीयं वहन्ति ।
(मवृ प. ३६) कुल-पितृसमुत्थं कुलम्।।
(मवृ प. १२९) कृत-यत्पुनरुद्धरितं सत् शाल्योदनादिकं भिक्षादानाय करम्बादिरूपतया कृतं तत्कृतमित्युच्यते। (मवृ प. ७७) क्रिया-प्राणातिपातादिविरतिरूपः परिणामविशेषस्तु क्रियेति।
(मवृ प. २६) क्रियापिण्ड-ये तु क्रियाया अविभागपरिच्छेदरूपाः पर्यायास्ते क्रियापिण्डः । (मवृ प. २६)
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२९९
परि. १३ : परिभाषाएं क्रोधपिण्ड-. विज्जा-तवप्पभावं, रायकुले वावि वल्लभत्तं से। नाउं ओरस्सबलं, जो लब्भति कोहपिंडो सो॥
(गा. २१७) • अन्नेसि दिज्जमाणे, जायंतो वा अलद्धिओ कुज्झे। ___कोहफलम्मि वि दिटे, जं लब्भति कोहपिंडो उ॥
(गा. २१८) क्षीरधात्री-या स्वयं स्तन्यं पाययति बालकं सा स्वयंकरणे क्षीरधात्री।
(मवृ प. १२१) गवेषण-गवेषणमनुपलभ्यमानस्य पदार्थस्य सर्वतः परिभावनम्।
(मवृ प. २९) गुणन-गुणनं ग्रन्थपरावर्तनम् ।
(मवृ प. १७७) गैरुक-गैरुका: गेरुकरज्जितवाससः परिव्राजकाः ।
(मवृ प. १३०) गौण-गुणेन परतन्त्रेण व्युत्पत्तिनिमित्तेन द्रव्यादिना यन्निष्पन्नं नाम तद् गौणम्। (मवृ प. ४) चारित्र-प्राणातिपातादिविरतिरूपस्तु परिणामविशेषश्चारित्रम्।
(मवृ प. २७) चूर्ण-चूर्णः सौभाग्यादिजनको द्रव्यक्षोदः।
(मवृ प. १२१) छाया-छाया नाम पार्श्वतः सर्वत्रातपपरिवेष्टितप्रतिनियतदेशवर्ती श्यामपुद्गलात्मक आतपाभावः ।
(मवृ प. ६६) जाति-मातुः समुत्था जातिः।
(मवृ प. १२९) ज्ञान-वस्तुयाथात्म्यपरिच्छेदरूपोऽशो ज्ञानम्।
(मवृ प. २६) ज्ञानपिण्ड-ये ज्ञानस्याविभागपरिच्छेदरूपाः पर्यायास्ते परस्परं तादात्म्यसंबन्धेनावस्थिता इति ज्ञानपिण्डः ।
(मवृ प. २६) डगलक-डगलका:-पुरीषोत्सर्गानन्तरमपानप्रोञ्छनकपाषाणादिखण्डरूपा।
(मवृ प. ९) दर्शन-वस्तुनि परिच्छिद्यमाने जिनैरित्थमुक्तं अत इदं तथेति प्रतिपत्तिनिबन्धनं रुचिरूपः परिणामविशेषो दर्शनम्।
(मवृ प. २६, २७) दूती-दूती परसन्दिष्टार्थकथिका।।
(मवृ प. १२१) दूतीपिण्ड-यस्तु दूतीत्वस्य करणेनोत्पाद्यते स दूतीपिण्डः ।
(मवृ प. १२१) देश-हस्तशतप्रमितं क्षेत्रं देशः।
(मवृ प. १०५) देशदेश-हस्तशतादाराद्धस्तशतमध्ये देशदेशः ।
(मवृ प. १०५) द्रव्यअधःकर्म-जं दव्वं उदगादिसु, छूढमहे वयति जं च भारेणं। सीतीऍ रज्जुएण व, ओतरणं दव्वहेकम्मं॥
(गा. ६३) द्रव्यपूति-गंधादिगुणविसिटुं, जं दव्वं असुइगंधदव्वजुतं। पूति त्ति परिहरिज्जति, तं जाणसु दव्वपूति त्ति ॥
(गा. १०८) धात्रीपिण्ड-धात्रीत्वस्य करणेन कारणेन च य उत्पाद्यते पिण्डः स धात्रीपिण्डः। (मवृ प. १२१) नामपिंड-गोण्णं समयकतं वा, जं वावि हवेज्ज तदुभएण कतं। तं बेंति नामपिंडं....। (गा. ५) निदा- • परिज्ञानवताऽपि यज्जीवानां प्राणव्यपरोपणं सा निदा।
(मवृ प. ४२) • स्वार्थे परार्थे चेति विभागेनोद्दिश्य यत् प्राणव्यपरोपणं सा निदा।
(मवृ प. ४२) निमितम्-निमित्तम् अतीताद्यर्थपरिज्ञानहेतुः शुभाशुभचेष्टादि।
(मवृ प. १२१) निवेशन-निवेशनम्-एकनिष्क्रमणप्रवेशानि द्वयादिगृहाणि।
(मवृ प. १०३)
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३००
पिंडनियुक्ति नीतोदक-वर्षासु गृहच्छादनप्रान्तगलितं जलं नीवोदकम्।
(मवृ प. १५) परग्रामदूती-या तु परग्रामे गत्वा सन्देशं कथयति सा परग्रामदूती।
(मवृ प. १२६) परिणत-. जीवेन विप्रमुक्तं परिणतम्।
(मवृ प. १६६) • दुग्धं दुग्धत्वात् परिभ्रष्टं दधिभावमापन्नं परिणतमुच्यते।
(मवृ प. १६६) पश्चात्संस्तव- • गुणसंथवेण पच्छा, संतासंतेण जो थुणिज्जाहि। दायारं दिन्नम्मी, सो पच्छासंथवो होति ।।
(गा. २२६) • यस्तु श्वश्रूश्वशुरादिरूपतया संस्तवः स पश्चात्संस्तवः। (मवृ प. १४०) पाखण्डिमिश्र-यत्तु केवलपाखण्डियोग्यमात्मयोग्यं चैकत्र पच्यते तत्पाखण्डिमिश्रम्। (मवृ प. ८८) पिण्ड-पिण्डो नाम बहूनामेकत्र मीलनमुच्यते।।
(मवृ प. २६) पूर्वसंस्तव-• गुणसंथवेण पुट्विं, संतासंतेण जो थुणिज्जाहि। दायारमदिन्नम्मि उ, सो पुव्विं संथवो होति॥
(गा. २२५) • मातापित्रादिरूपतया यः संस्तवः-परिचयः स पूर्वसंस्तवो। (मवृ प. १४०) प्रकटदूती-सा तव माता स वा तव पिता एवं भणति-सन्देशं कथयति सा प्रकटदूती। (मवृ प. १२६) प्रणीत-जं पुण गवंतनेहं पणीतम्।।
(गा. ३१२/१) प्रमाणदोष-पकामं च निकामं च, पणीतं भत्तपाणमाहारे। __ अतिबहुयं अतिबहुसो, पमाणदोसो मुणेयव्वो॥
(गा. ३१२) प्रादुष्करण ( दोष)-साधुनिमित्तं मण्यादिस्थापनेन भित्ताद्यपनयनेन वा प्रादुः--प्रकटत्वेन देयस्य वस्तुनः करणं प्रादुष्करणम्।
(मवृ प. ३५) प्राभृत-• कस्मैचिदिष्टाय पूज्याय वा बहुमानपुरस्सरीकारेण यदभीष्टं वस्तु दीयते तत्प्राभृतमुच्यते।
(मवृ प. ३५) भक्तपानपूति-अत्तट्ठिय आदाणे, डोयं लोणं च कम्म हिंगू वा। तं भत्तपाणपूती......। (गा. ११३/४) भाव-भावो नाम मानसिकः परिणामः ।
(मवृ प. ३७) भावअधःकर्म-संजमठाणाणं कंडगाण लेसा-ठितीविसेसाणं। भावं अहे करेती, तम्हा तं भावहेकम्मं॥
(गा. ६४) भावपिंड-कम्माण जेण भावेण, अप्पगे चिणति चिक्कणं पिंडं, सो होति भावपिंडो...। (गा. ४६) मंख-मङ्खः-केदारको यः पटमुपदर्श्य लोकमावर्जयति।
(मवृ ९६) मंत्र-• मन्त्राः प्रणवप्रभृतिका अक्षरपद्धतयः।
(मवृ प. १२९) • सैव पुरुषदेवताधिष्ठिता असाधना वा मन्त्रः ।
(मवृ प. १२१) मण्डल-प्रविष्टस्यैकस्य मल्लस्य यल्लभ्यं भूखण्डं तन्मण्डलम्।
(मवृ प. १२९) मार्गण-मार्गणं-निपुणबुद्ध्याऽन्वेषणम्।
(मवृ प. २९)
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परि. १३ : परिभाषाएं
३०१
मालापहृत-मालात्-मंचादेरपहतं-साध्वर्थमानीतं यद्भक्तादि तन्मालापहृतम्। (मवृ प. ३५) मिश्रजात-• मिश्रजातं तदुच्यते यत्प्रथमत एव यावदर्थिकाद्यर्थमात्मार्थं च मिश्रं निष्पाद्यते। (मवृ प. ११५)
___ • कुटुम्बप्रणिधानसाधुप्रणिधानमीलनरूपेण भावेन जातं यद् भक्तादि तन्मिश्रजातम्। (मवृ प. ३५) मुर्मुर-• आपिंगलमगणिकणा मुम्मुर।
(मवृ प. १५२) • आपिङ्गला अर्धविध्याता अग्निकणा मुर्मुरः।
(गा. २५२/१) यथाकृत-यानि परिकर्मरहितान्येव तथारूपाणि लब्धानि तानि यथाकृतानि।
(मवृ प. १५) यावदर्थिकमिश्रजात-यावन्तः केचन गृहस्था अगृहस्था वा भिक्षाचराः समागमिष्यन्ति तेषामपि भविष्यति
कुटुम्बे चेति बुद्ध्या सामान्येन भिक्षाचरयोग्यं कुटुम्बयोग्यं चैकत्र मिलितं यत् पच्यते तद्यावदर्थिकं मिश्रजातम्।
__ (मवृ प.८८) रजोहरण-रजोहरणं ति दण्डिकावेष्टकत्रयप्रमाणपृथुत्वा एकहस्तायामा हस्तत्रिभागायामदशापरिकलिता प्रथमा या निषद्या प्रागुक्ता सा रजोहरणम्।
(मवृ प. १३) वाटक-वाटक: परिच्छन्नः प्रतिनियतः सन्निवेशः ।
(मवृ प. १०३) विद्या-ससाधना स्त्रीरूपदेवताधिष्ठिता वाऽक्षरपद्धतिर्विद्या।
(मवृ प. १४१) विध्यात-य: स्पष्टतया प्रथमं नोपलभ्यते, पश्चात्त्विन्धनप्रक्षेपे प्रवर्द्धमानः स्पष्टमुपलभ्यते स विध्यातः ।
(मवृ प. १५२) विभागऔद्देशिक-वीवाहप्रकरणादिषु यदुद्धरितं तत् पृथक् कृत्वादानाय कल्पितं सत् विभागौदेशिकम्।
(मवृ प. ७७) शिल्प-• आचार्योपदिष्टं तु शिल्पम्।
(मवृ प. १२९) • आवर्जकं-प्रीत्युत्पादकं शिल्पम्।
(मवृ प. १२९) सअंगार-तं होति सइंगालं, जं आहारेति मुच्छितो संतो।
(गा. ३१४) संकलिका-सङ्कुलिएत्यादि अश्रुते-शेषसाधुभिरनाकर्णिते इयं पूर्वपुरुषाचीर्णा मर्यादा, यदुत
सङ्कलिकया एक: सङ्घाटकोऽन्यस्मै कथयति सोऽप्यन्यस्मायित्येवंरूपया। (मवृ प. ८१) संयमश्रेणि-असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि षट् स्थानकानि संयमश्रेणिरुच्यते। (मवृ प. ४१) संयोजना-संयोजना गृद्ध्या रसोत्कर्षसम्पादनाय सुकुमारिकादीनां खण्डादिभिः सह मीलनम्।
(मवृ प. २) सधूम-तं पुण होति सधूमं, जं आहारेति निंदतो।
(गा. ३१४) समज्वाल-यः पुनः पिठरस्य बुध्नादूर्ध्वमपि यावत्कर्णी ज्वालाभिः स्पृशति स समज्वालः।
__ (मवृ प. १५२) समुद्देश-पाखण्डिनां देयत्वेन कल्पितं समुद्देशम्।
(मवृ प. ७९) स्थापना (दोष)-स्थापनं साधुभ्यो देयमिति बुद्ध्या देयवस्तुनः कियन्तं कालं व्यवस्थापनं स्थापना ।
(मवृ प. ३५) स्थापनापिंड-अक्खे वराडए वा, कटे पुत्थे व चित्तकम्मे वा। सब्भावमसब्भावे, ठवणापिंडं वियाणाहि ॥
(गा. ६) स्वग्रामदूती-यस्मिन् ग्रामे साधुर्वसति तस्मिन्नेव ग्रामे यदि सन्देशकथिका तर्हि सा स्वग्रामदूती। (मवृप.१२६)
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परिशिष्ट-१४
दो शब्दों का अर्थभेद
(ग्रंथकार और टीकाकार ने प्रसंगवश दो शब्दों में होने वाले अर्थभेद को प्रकट किया है। भाषाविज्ञान के क्षेत्र में शोध करने वाले विद्यार्थियों के लिए यह परिशिष्ट अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होगा।) औषध और भेषज औषधानि केवलहरीतक्यादीनि, भेषजानि तु तेषामेव व्यादीनामेकत्र मीलित्वा चूर्णानि।
(मवृ प. १९) निष्ठित और कृत
असणादीण चउण्ह वि, आमं जं साहुगहणपाउग्गं। तं निट्ठितं वियाणसु , उवक्खडं तू कडं होति ॥
(गा. ७९) आधाकर्म और कमौद्देशिक
यत् प्रथमत एव साध्वर्थं निष्पादितं तदाधाकर्म, यत् प्रथमतः सद् भूयोऽपि पाककरणेन संस्क्रियते तत्कौद्देशिकम्।
__ (मवृ प. ८२) अध्यवपूरक और मिश्रजात
मिश्रजातं तदुच्यते यत्प्रथमत एव यावदर्थिकाद्यर्थमात्मार्थं च मिश्रं निष्पाद्यते, यत्पुनः प्रथमत आरभ्यते स्वार्थं पश्चात्प्रभूतानर्थिनः पाषण्डिनः साधून् वा समागतानवगम्य तेषामर्थायाधिकतरं जलतण्डुलादि प्रक्षिप्यते सोऽध्यवपूरक इति।
मिश्रजाते प्रथमत एव स्थाल्यां प्रभूतं जलमारोप्यते, अधिकतराश्च तण्डुलाः कण्डनादिभिरुपक्रम्यन्ते, फलादिकमपि च प्रथमत एव प्रभूततरं संरभ्यते, अध्यवपूरके तु प्रथमतः स्वार्थं स्तोकतरं तण्डुलादि गृह्यते, पश्चाद्यावदर्थिकादिनिमित्तमधिकतरं तण्डुलादि प्रक्षिप्यते, तस्मात्तण्डुलादीनामादानकाले यद्विचित्रं परिमाणं तेन मिश्राध्यवपूरकयो नात्वमवसेयम्। (मवृ प. ११५, ११६) विद्या और मंत्र
विद्या स्त्रीरूपदेवताधिष्ठिता ससाधना वाऽक्षरविशेषपद्धतिः, सैव पुरुषदेवताधिष्ठिता असाधना वा मन्त्रः।
(मवृ प. १२१) जाति और कुल मातुः समुत्था जातिः, पितृसमुत्थं कुलम्।
(मवृ प. १२९) कर्म और शिल्प
___ कर्म-कृष्यादि, शिल्पं-तूर्णादि-तूर्णनसीवनप्रभृति, अथवा अनावर्जकम् अप्रीत्युत्पादकं कर्म इतरत्तु आवर्जकं प्रीत्युत्पादकं शिल्पम्, अन्ये त्वाहुः-अनाचार्योपदिष्टं कर्म, आचार्योपदिष्टं तु शिल्पम्।
(मवृ प. १२९) १. निचू भा. ३ पृ. ४१२; कम्मसिप्पाणं इमो विसेसो-विणा आयरिओवदेसेण जं कज्जति तणहारगादि तं कम्म, इतरं पुण जं आयरिओवदेसेण कज्जति तं सिप्पं ।
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परि. १४ : दो शब्दों का अर्थभेद
चूर्ण और
सामान्यद्रव्यनिष्पन्नः शुष्क आर्द्रा वा क्षोदश्चूर्ण, सुगन्धद्रव्यनिष्पन्नाश्च शुष्कपेषम्पिष्य वासाः । (मवृ प. १४३ )
उन्मिश्र और संहृत
द्वे अपि द्रव्ये मिश्रयित्वा यद्ददाति यथौदनं कुशनेन - दध्यादिना मिश्रयित्वा तदुन्मिश्रम्, संहरणं तु यद्भाजनस्यमदेयं वस्तु तदन्यत्र कापि स्थगनिकादौ संहृत्य ददाति, ततोऽयमनयोः परस्परं विशेषः । (मवृ प. १६५ )
साधारण अनिसृष्ट और दातृभाव अपरिणत
साधारणानिसृष्टं दायकपरोक्षत्वे, दातृभावापरिणतं तु दायकसमक्षत्वे । हिताहार और मिताहार
३०३
( मवृ प. १६६ )
द्रव्यतोऽविरुद्धानि द्रव्याणि, भावत एषणीयं तदाहारयन्ति ये ते हिताहाराः, मितं प्रमाणोपेतमाहारयन्तीति मिताहाराः । प्रकामभोजन एवं निकामभोजन
(मवृ प. १७४)
द्वात्रिंशदादिकवलेभ्यः परेण परतो भुञ्जानस्य यद्भोजनं तत्प्रकामभोजनं तमेव तु प्रमाणातीतमाहारं प्रतिदिवसमश्नतो निकामभोजनम् । ( मवृ प. १७४ )
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परिशिष्ट-१५
मलयगिरि वृत्ति की उद्धृत गाथाएं अंगं सरो लक्खणं (च), वंजणं सुविणो तहा। छिन्नं भोमंतलिक्खा य, एए अट्ठ वियाहिया॥ (प. १२१,
अंवि १/२) अतिस्तनी तु चिपिटं, खरपीना तु दन्तुरम्। मध्यस्तनी महाच्छिद्रा, धात्री सौम्यसुखङ्करी ॥ (प.१२३) असणं पाणगं चेव, खाइमं साइमं तहा। जं जाणेज्ज सुणेज्जा वा, समणट्ठा पगडं इमं ॥
(प. ६२,
दश. ५/१/५३) अहिताशनसम्पर्कात्, सर्वरोगोद्भवो यतः । तस्मात्तदहितं त्याज्यं, न्याय्यं पथ्यनिषेवणम् ।। (प. १७४) इंदिएहिंदियत्थेहिं, समाहाणं च अप्पणो । नाणं पवत्तए जम्हा, निमित्तं तेण आहियं ॥
(प.१२१) उद्देसियम्मि नवगं, उवगरणे जं च पूइयं होई। जावंतियमीसगयं, च अज्झोयरए य पढमपयं॥ (प. ११७) उभयमुहं रासिदुगं, हिडिल्लाणंतरेण भय पढमं । लद्धह रासिविभत्ते, तस्सुवरि गुणित्तु संजोगा। (प. २१) एए महानिमित्ता उ, अट्ठ संपरिकित्तिया। एएहिं भावा नज्जंती, तीतानागयसंपया॥
(प. १२१,
अंवि १/३) एए विसोहयंतो, पिंडं सोहेइ संसओ नत्थि। एए अविसोहिंते चरित्तभेयं वियाणाहि ।।
(प. १७८) कृष्णा भ्रंशयते वर्णे, गौरी तु बलवर्जिता। तस्माच्छयामा भवेद्धात्री, बलवर्णैः प्रशंसिता ।। (प. १२३) क्षपकश्रेणिपरिगतः स समर्थः सर्वकर्मिणां कर्म। क्षपयितुमेको यदि कर्मसङ्क्रमः स्यात्परकृतस्य॥ (प.४४) खंती य मद्दवऽज्जव मुत्ती तव संजमे य बोद्धव्वे। सच्चं सोयं आकिंचणं च बंभं च जइधम्मो॥ (प. २५,
दशनि २२५) गलइ बलं उच्छाहो, अवेइ सिढिलेइ सयलवावारे। नासइ सत्तं अरई, विवड्डए असणरहियस्स ॥ (प. १७७) चारित्तंम्मि असंतंमि, निव्वाणं न उ गच्छइ। निव्वाणंमि असंतम्मि, सव्वा दिक्खा निरत्थगा॥ (प. १७८,
निभा ६६७९, व्यभा ४२१६) छट्ठाणगणवसाणे, अन्नं छट्ठाणयं पुणो अन्नं । एवमसंखा लोगा, छट्ठाणाणं मुणेयव्वा ॥
(प. ४१,
पंसं. ४४४) जत्थ य जं जाणेज्जा, निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं । जत्थ वि य न जाणेज्जा, चउक्कयं निक्खिवे तत्थ॥ (प. ३,
आनि ४) जस्सट्ठा आरंभो, पाणिवहो होइ तस्स नियमेणं । पाणिवहे वयभंगो, वयभंगे दोग्गई चेव॥
(प. ४६) जाड्यं भवति स्थूरायास्तनुक्यास्त्वबलंकरम् । तस्मान्मध्यबलस्थायाः, स्तन्यं पुष्टिकरं स्मृतम्॥ (प. १२३) तं नत्थि जं न बाहइ, तिलतुसमित्तं पि एत्थ कायस्स। सन्निझं सव्वदुहाइ देंति आहाररहियस्स॥ (प. १७७) तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं । देंतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं॥
(प.६२, दश. ५/५४)
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परि. १५ : मलयगिरि वृत्ति की उद्धृत गाथाएं
३०५
तत्तदुत्प्रेक्षमाणानां, पुराणैरागमैर्विना । अनुपासितवृद्धानां, प्रज्ञा नातिप्रसीदति ॥
(प.४४) दीहरसीलं परिवालिऊण विसएसु वच्छ ! मा रमसु! को गोपयम्मि बुड्डुइ, उयहिं तरिऊण बाहाहिं ? ॥ (प. १३७) नाणचरणस्स मूलं, भिक्खायरिया जिणेहिं पन्नत्ता। एत्थ उ उज्जममाणं, तं जाणसु तिव्वसंवेगं ॥ (प. १७८,
व्यभा २४८५) निस्थामा स्थविरां धात्री, सूच्यास्यः कूर्परस्तनीम्। चिपिट: स्थूलवक्षोजां, धयंस्तन्वीं कृशो भवेत्॥ (प. १२३) पंथसमा नत्थि जरा, दारिद्दसमो य परिभवो नत्थि। मरणसमं नत्थि भयं, छुहासमा वेयणा नत्थि॥ (प. १७७) पत्तं पत्ताबंधो पायट्रवणं च पायकेसरिया। पडलाइं रयत्ताणं च गोच्छगो पायनिज्जोगो॥
(प. १३,
प्रसागा ४९१, बृभा ३९६२) परकृतकर्मणि यस्मान्न क्रामति सङ्क्रमो विभागो वा । तस्मात्सत्त्वानां कर्म यस्य यत्तेन तद्वद्यम्॥ (प.४४) पावयणी धम्मकही, वाई नेमित्तिओ तवस्सी य। विज्जा सिद्धो य कई, अद्वैव पभावगा भणिया॥ (प. ९७,
प्रसागा ९३४) पिंडं असोहयंतो, अचरित्ती एत्थ संसओ नत्थि। चारित्तम्मि असंते, निरत्थिया होइ दिक्खा उ॥ (प.१७८) बलावरोधि निर्दिष्टं, ज्वरादौ लङ्घनं हितम्। ऋतेऽनिलश्रमक्रोधशोककामक्षतज्वरान्॥
(प.१७७) रागाई मिच्छाई, रागाई समणधम्म नाणाई। नव नव सत्तावीसा, नव नउईए उ गुणकारा॥
(प. १२०,
दशनि २२१/१) वसहि कह निसिज्जिंदिय कुड्डूंतर पुव्वकीलिय पणीए। अइमायाहार विभूसणं च नव बंभगुत्तीओ॥ (प. २५
प्रसागा ५५७) विषया विनिवर्तन्ते, निराहारस्य देहिनः । रसवर्जं रसोऽप्यस्य, परं दृष्ट्वा निवर्तते ।।
(प. १७७,
गीता २/५९) शाकाम्लफलपिण्याककपित्थलवणैः सह । करीरदधिमत्स्यैश्च, प्रायः क्षीरं विरुध्यते ॥
(प. १७४) संयमजोगा इत्थं, रओहरा तेसि कारणं जेणं । रयहरणं उवयारा, भन्नइ तेणं रओ कम्मं ॥
(प.४,
पंव १३३) संसदम संसट्टा, उद्धड तह अप्पलेवडा चेव। उग्गहिया पग्गहिया, उज्झियधम्मा य सत्तमिया॥ (प. २५,
प्रसागा ७३९) समणत्तणस्स सारो, भिक्खायरिया जिणेहिं पन्नत्ता। एत्थ परितप्पमाणं, तं जाणसु मंदसंवेगं॥ (प. १७८,
व्यभा २४८४) सुहुमा पाहुडियावि य, ठवियगपिंडो य जो भवे दुविहो । सव्वो वि एस रासी, विसोहिकोडी मुणेयव्वो॥ (प. ११८) हरइ रओ जीवाणं, बझं अब्भितरं च जं तेणं। रयहरणं ति पवच्चइ, कारणकज्जोवयाराओ।
(प. ४)
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परिशिष्ट-१६
विशेषनामानुक्रम
७८
अंबग-फल अजा-तिर्यञ्च ७०/३ अजिण्ण-रोग
१०८/१ अजीर-रोग
२१-२१/२, २९५/१० अट्ठम-तप (तेला) २१४/२ अट्ठि-अवयव अट्ठिग-अवयव ३७ अट्ठिल्लय-वनस्पति २८८७ अणिच्च-भावना ७३/३ अभत्तछंद-रोग
३०९ अमिला-तिर्यञ्च
३६, ८६/२ अरखुरनिबद्धा-गधा-गाड़ी १५३ अवरद्धिग-रोग १३ असंख-चूर्ण
२८८/६ असाडभूति-साधु २१९/९ अहि-तिर्यञ्च आघस-सुगंधित द्रव्य २३१/१ आजीव-श्रमण २०९ आदंसघर-घर २१९/१४ आपिंगल-रंग आयंबिल-तप
२९५/३ आयामग-खाद्य-पदार्थ आसंदी-गृह-उपकरण १६७ आस-१. तिर्यञ्च १९४/१
२. अवयव १५७/४ आसमक्खिया-तिर्यञ्च आसव-मदिरा
आहारिम-सुगंधित द्रव्य २३१/१ इंद-देव
७०/४ इक्खागु-वंश
२१९/१४ इट्टग-खाद्य विशेष
२१६, २१९/१ इट्टगा-खाद्य विशेष
२१९/१ उक्खलिया-गृह-उपकरण ११२ उक्खा -गृह-उपकरण ११३/२, ११३ उग्ग-कुल
२०७/३ उग्गहपडिमा-प्रतिमा
४४/२ उच्छु-वनस्पति १२८/१ उठाण-रोग
८६/१ उडु-वाहन
१५२ उडूखल-गृह-उपकरण १६७ उत्तिमंग-अवयव १३६/१ उद्देहिगा–तिर्यञ्च ३४ उब्भिज्ज-वनस्पति उल्लण-खाद्य-पदार्थ
२९७ उसुक-आभरण विशेष
१९८/१३ ओहार-तिर्यञ्च १५४ कंगु-धान्य
२९७ कंजिय-खाद्य विशेष
७६/५, १९१, ३१३/१ कंस-धातु
१५६ कक्कडिय-वनस्पति कक्कब-खाद्य विशेष १२९ कक्खड-स्पर्श १९८/१५ कच्छभ-तिर्यञ्च
२५९ कट्टर-खाद्य विशेष
२९५/८
१६६
२९७
२५२/१
७८
३५
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परि. १६ :
: विशेषनामानुक्रम
कड-गृह- उपकरण
कडि
- अवयव
कढिय - खाद्य विशेष
कणग- धातु कण्हा - नदी
कप्पडिय - संन्यासी
कर - अवयव
करडुय - भोज
कभी - तिर्यञ्च
काग — तिर्यञ्च
काण - रोगी
किंकर - एक प्रकार का
कल- धान्य
२९६
कल्लाण - प्रायश्चित्त विशेष २२/६
कवोड - तिर्यञ्च
महिला प्रधान पुरुष
कुउब-गृह- उपकरण
कुंभ --गृह- उपकरण
कुच्छि - अवयव कुट्ठी-रोगी
कुड-गृह- उपकरण
कुम्मास - धान्य
कुरंग - तिर्यञ्च
कुलय- माप
कुसण - खाद्य विशेष
कूर - धान्य
केलास पर्वत
केवलनाण- ज्ञान
७०/३
१९८/१५
२९७
१९४/२
२३१/२
६९ / ३
१६१
२१८/१
८६/२
९२, १०६, १३६
२१२
२१९/१०
२१९/६
२५५
१६९
१६८, ३१०
२८८/४
१६६/२
८९/५, २५
५३
३/१
१२८/३, २९१
७६/३
२१०/५
५७/४, ९०/४
कोद्दव-धान्य
कोप्पर - अवयव
कोल - प
- फल
कोल्लर - नगर
कोसलग - जनपद
खइय - भाव
खंड-खाद्य-पदार्थ
खंत - परिजन
खंतिग- परिजन
खंतिया - परिजन
खंती - परिजन
खंध - अवयव
खल्लग - भाजन
खीर
र - खाद्य विशेष
खुज्ज-रोगी
खोमिय- वस्त्र
गंड
- अवयव
गय - तिर्यञ्च
गल- अवयव
गलिच्च - गले का आभूषण १९८ / १३ १५४
गाह — तिर्यञ्च
गिद्धावरिंखि - एक प्रकार का
महिला प्रधान व्यक्ति २१९/६
गिम्ह— ऋतु
गिरिफुल्लिय-नगर
गुज्झग - देव विशेष
७६
१९८/७
२८४
१९९
२९५/७
७३/२१
१२९
२०१/३
२७२
२०१/३
२०१/२
६१/१
९०/३
८६/२, १२८/१
२१९/१०
३२
१९८/५
५३, १८५
१४३/२, ३०२/४
गुल-खाद्य-पदार्थ
गुलिया - गुटिका
३०७
५४/१
२१६
२१०/५
४०, ८२/१, १२८/१
१४१
Page #480
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०८
पिंडनियुक्ति
४०
१६०
१६
२७
११२
गो-तिर्यञ्च
७०/३ गोण-तिर्यञ्च
२१०/४ गोणी-तिर्यञ्च ६८/७, ९६ गोब्बर-ग्राम
८९/२ गोरस-खाद्य-पदार्थ घंघसाला-शाला घड-गृह-उपकरण
७०/३ घणउदहि-समुद्र घणवाय-वायु विशेष घत-खाद्य विशेष ८२/१ घतपुण्ण-खाद्य विशेष २१६ घरकोइल-तिर्यञ्च १६३/७ घाण-तिलपीड़नयंत्र २७/१ चउत्थ-तप (उपवास) २९५/३ चंदोदय-उद्यान चंपा-नगरी
२१६, २२०/१ चक्खु-अवयव २२६/१ चलण-अवयव
८२/२ चाउल-धान्य
१७, ९५ चाउलोदग-खाद्य विशेष ७६/५, १९१ चाणक्क-मंत्री
२३० चित्तसभा-चित्रसभा चुल्ली -गृह-उपकरण ११२ छगलग-तिर्यञ्च १४३/२ छप्पइया-तिर्यञ्च २२/३ छब्ब-गृह-उपकरण २५९ छब्बग-गृह-उपकरण १२७ जंघा-अवयव
जंघापरिजित-साधु
२३१/७ जक्ख-देव विशेष २१०/५ जड्ड-तिर्यञ्च १८४ जर-ज्वर, रोग २७५ जरित-रोगी
२६५ जाउ-खाद्य विशेष २९८ जाणुक-अवयव २२८/१ जामाति-परिजन
२०३ जितसत्तु-राजा
५३/१ डाय-खाद्य विशेष डोय-भाजन
११२ ण्हायय-एक प्रकार का २१९/६
महिला प्रधान व्यक्ति तंडुल--धान्य
१७/१ तक्क-खाद्य विशेष १२८/३, २९५/८ तच्चण्णिय-बौद्ध भिक्षु १६६/१ तणुवाय-वायु विशेष २७ तद्दोसी-कुष्ठ रोगी २७६ तरी-वाहन, नौका १५३ तावस–श्रमण का एक प्रकार २०९, २३१/२ तिकडु-औषध तिल्ल-खाद्य-पदार्थ १४४/२ तुरंग-तिर्यञ्च
१९४/१ तूवरि-दाल थाली-भाजन ११४ दंडग-साधु-उपकरण दंत-अवयव दक्खा-फल
७८
५३/१
२९६
__
३२
१५२
Page #481
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०९
२२८/१ २५४ ७०/२ २४३/२
१०२
८६/२
१५७/५
२७
२८८/४
१९८/१३, २७७
९०/२ २२८/१
१३४
परि. १६ : विशेषनामानुक्रम दगसोयरिय-संन्यासी १४३/२ दत्त-इस नाम का शिष्य १९९ दधि-खाद्य विशेष ३६ दव्वी-गृह-उपकरण ११३ दहि-खाद्य-पदार्थ दाडिम-अनार
७८ दियर-परिजन
७६/४ दुद्ध-खाद्य-पदार्थ २९३, ७०/२ देवदत्त-व्यक्ति
७३/४ देवी–देवी
५३/१ धणु-शस्त्र
६१/१ धम्मरुइ-साधु
२१९/९ नत्त--परिजन
२२२/१ नल-वनस्पति नह-अवयव
३६ नावा-वाहन
१५२ नासा-अवयव
२१९/३ निज्जरा-तप
३२४ निज्जोग-साधु-उपकरण २१/१ नेउरहारिगा-महिला ८२/२ नेह-खाद्य-पदार्थ १२,३१२/१ पंडु-रंग
२३६/१ पगलिय-रोगी पडिमंत-विद्या विशेष २२९ पडिविज्जा-विद्या विशेष २२८ पडोयार-साधु-उपकरण २२ पणय-वनस्पति
२१ पद-अवयव
१६५, ८२/३
५५
२९८
पदेसिणी-अवयव पप्पडिया-~-खाद्य विशेष पय-खाद्य-पदार्थ परित्त-वनस्पति पलंडु-वनस्पति पहेणग-मिठाई पाइण-दिशा पाउगा-उपानत्, जूता पाय-अवयव पायस-खाद्य विशेष पालित्तय-आचार्य पाहेणग-मिठाई पिंडनिज्जुत्ति-ग्रंथ पिंडरस-खाद्य-पदार्थ पिटु-अवयव पिढर-भाजन पिढरग-भाजन पिति-परिजन पिप्पल-शस्त्र पिवीलिया-तिर्यञ्च पिहड-भाजन पीढ-आसन विशेष पीलु-खाद्य-पदार्थ पुत्तय-परिजन पुरंदर-देव पुरिमड्ड–तप पूप-खाद्य-पदार्थ पेज्ज-खाद्य विशेष
२५५,५३/१ १२७, २५९, २५१/३
२५५
६८/९
२५
२४५/१ पिभा ३४ १६७ ७०/२ १३२
२६५
७०/६ १५७/३
२५५
२९७
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--------------------------------------------------------------------------
________________
३१०
पिंडनियुक्ति
१५३ ७८
२९६
पोत्त-वस्त्र
१४१ पोत्ति-साधु-उपकरण २२ फलग-साधु-उपकरण ३२ फाणित-खाद्य विशेष १०३ बगुड्डाव-एक प्रकार का २१९/६
__ महिला प्रधान व्यक्ति बलागा-तिर्यञ्च
३०२/३ बाह-अवयव बीजपूर-फल भगिणी-परिजन
१४८/१ भज्जा-परिजन
७६/४, २२३ भरह-चक्रवर्ती २१९/१४ मंचग-पलंग
१६७ मंडग-खाद्य विशेष मगर-तिर्यञ्च
१५४ मगह-जनपद
८९/२ मच्छंडिय-खाद्य विशेष १२९ मच्छ-तिर्यञ्च
३०२, २८२ मच्छि-तिर्यञ्च २४५/१ मच्छिय-तिर्यञ्च ३५, १३८/३ मज्जार-तिर्यञ्च ८६, २७९ मत्थु-खाद्य विशेष १२८/३ मधु-खाद्य विशेष २४५/१ मधुबिंदु-दृष्टान्त मरहट्ठग-प्रान्त
२९५/७ मसूर-दाल महिसी-तिर्यञ्च १०८/१ मुग्ग-दाल
२९६
मुरुड-राजा
२२८/१, २२७ मुह-अवयव
१९८/७ मुहपोत्ति–साधु-उपकरण ७३/२ मूइंग-तिर्यञ्च १६३/३ मूसा-तिर्यञ्च
१६३/५ मोदग-खाद्य विशेष १६६/२, २१९/९ रट्टपाल-नाटक २१९/१३ रयय-धातु
१९४/२ रयहरण-साधु-उपकरण २२ रायगिह-नगरी २१६, २१९/९ रालग-धान्य
७६ रोम-अवयव लड्डग-खाद्य विशेष लसुण-वनस्पति ८६/२ लुट्ट-धान्य लोण-खाद्य विशेष १२ लोहिय-रंग
२३१/८ वइया-स्थान (गोकुल) १४२ वग्घ-तिर्यञ्च २१५ वच्छ-तिर्यञ्च वच्छग-तिर्यञ्च ९६/१, २०८/१ वडग-खाद्य विशेष वण्णग-सुगंधित द्रव्य १४१ वयण-अवयव ३०५ वलवा-तिर्यञ्च २०५ वल्ल-दाल
१०८/१ वाणर-तिर्यञ्च वारग-भाजन
९६
३०५
३०१
२९६
२३६
१२७
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--------------------------------------------------------------------------
________________
परि. १६ : विशेषनामानुक्रम
३११
३४
२०
वालुंक-पक्वान्न विशेष ३०५ वासघर–वासगृह
५७/२ वेण्णा नदी
२३१/२ वेद-ग्रंथ
८६/२ संख-तिर्यञ्च संचारिमा-गृह-उपकरण १३८/१ संथार-साधु-उपकरण ३२ संपाइम-तिर्यञ्च सक्क-देव
७०/४ सक्करा-खाद्य विशेष १२९ सगड-वाहन
७०/३ सज्झिलग-परिजन २९२ सज्झिलगा-परिजन १४४ सत्तुग-खाद्य विशेष ८९/५, १७७/२, २९६ सपलल-खाद्य विशेष सप्पि-खाद्य विशेष समितिम-खाद्य विशेष ८९/५ समिय-आचार्य
२३०, २३१/३ समिय-खाद्य विशेष १०८/१ सराव-सिकोरा ५७/२ ससा-परिजन
१४४/१, २२२/१ ससुर-परिजन २२२ साण-तिर्यञ्च
२०८ सालि-खाद्य विशेष सासु-परिजन सिद्धत्थग-पुष्प
सिप्पि-तिर्यञ्च सी-ऋतु
१२ सीवण्णी-फल
५३/२ सीस-अवयव ३७, २२८/१ सीहकेसरय-खाद्य विशेष २१६, २२०/१ सुंठी-खाद्य विशेष ७५ सूणग-तिर्यञ्च सुण्हा-परिजन
१७३, २८६, २२२/२ सुत–परिजन
१९४/१ सुरट्ठ–देश
८९/५ सूई-गृह-उपकरण सूरोदय-उद्यान सूव-खाद्य विशेष
२९७ सेडंगुलि-एक प्रकार का २१९/६
महिला प्रधान पुरुष सोत-इंद्रिय
९६/३ सोत्तिय-ब्राह्मण २०७१ सोवीर-खाद्य विशेष ४० सोवीरग-खाद्य विशेष २९५/७ हत्थ-अवयव
१९, २७३ हत्थकप्प-नगर
२१६ हत्थि-तिर्यञ्च
५४/१, ८२/२, १८१/१ हत्थिच्चग-आभूषण १९८/१३ हार-आभूषण
२१९/१४ हिंगु-खाद्य-पदार्थ ११२ हियय-अवयव ६१/१, २४०/२
३०५
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--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-१७
टीका के अन्तर्गत विशेषनामानुक्रम
गोब्बर ग्रामणी ग्रामणी घृतपूर चन्द्रगुप्त चन्द्रमुखा चन्द्रानना चन्द्रावतंसक चन्द्रिका चन्द्रोदय
कृष्णा
चम्पा चाणक्य जंघापरिजित
अचलपुर (नगर) अभयसेन (राजा) अरिमर्दन (राजा) आदिनाथ (तीर्थंकर) आनन्दपुर (नगर) आषाढ़भूति (शिष्य) उग्रतेज (सैनिक)
(नदी) कुसुमपुर (नगर) कोल्लकिर (नगर) कौशल (जनपद) क्षितिप्रतिष्ठित (नगर) क्षेमंकर (व्यक्ति) गंधसमृद्ध (नगर) गिरिपुष्पित (नगर) गुणचन्द्र (श्रेष्ठी) गुणचन्द्र (राजा) गुणचन्द्र (व्यक्ति) गुणचन्द्र (साधु) गुणचूड़ (व्यक्ति) गुणवती (रानी) गुणशेखर (व्यक्ति) गुणसमृद्ध (नगर) गुणसागर (व्यक्ति) गुणसेन (व्यक्ति) गुणालय (नगर) गोकुल (गांव)
(१४४) (१६९) (४८) (७४) (३१) (१३७) (७१) (१४४) (१३७, १४३) (१२५) (९८) (३०) (१००) (१४१) (१३४) (७४) (४९) (७८) (१०९, १३४) (७८) (४९) (७८) (४७) (७८) (७८) (७८) (१२७)
जयन्तपुर जयन्ती जयसुंदरी जितशत्रु जिनदत्त जिनदास जिनमति तिलक त्रिलोकरेखा दत्त दुष्प्रभ देवकी देवदत्त देवराज
(ग्राम)
(७३) (वणिक्) (७२) (महिला) (७२) (मिष्ठान्न) (१३४) (राजा) (१४३) (महिला) (१४४) (नगरी) (७६, १४४) (राजा) (७६) (महिला) (७४) (उद्यान) (७६) (नगरी) (१३९) (मंत्री) (१४३) (साधु) (१४४) (नगर) (१०८) (नगरी) (१०९) (रानी) (१४५) (राजा) (३०) (श्रावक) (६३) (श्रावक) (१११) (श्राविका) (६३) (श्रेष्ठी ) (१००) (रानी) (७६) (शिष्य) (१२५) (कार्पटिक) (७१) (महिला) (१२७) (व्यक्ति) (१००) (कौटुम्बिक) (९८)
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________________
परि. १७ : टीका के अन्तर्गत विशेषनामानुक्रम
देवशर्मा
(पुजारी)
देवशर्मा
(मंख)
देवशर्मा
धन
धनदत्त
धनदत्त
धनदत्त
धनदेव
धनप्रिया
धनवती
धनावह
(८३)
(९७)
(१४४)
(१४४)
(कौटुम्बिक) (१२७)
(१००)
(१४४)
(१४१)
(१४४)
(१०३)
(१०३)
(६८)
(१६९)
(१३७)
(१०८)
(२३)
(३१)
(३३)
(१३४)
(१००)
पादलिप्त
(१४२)
पोतनपुर
(नगर)
(७५)
प्रतिष्ठानपुर
(नगर)
(१४२)
प्रियंकर (साधु)
(७५)
प्रियंगुरुचिका (महिला) (७८)
प्रियंगुलतिका (महिला)
(७८)
प्रियंगुसारिका (महिला) (७८)
(महिला)
(७८)
(रानी)
(४८)
धर्म संग्रहणी
धारिणी
नागकुमार
नान्दीपात्र
निलय
प्रियंगु सुंदरी प्रियदर्शना
(कुलपति)
(श्रेष्ठी)
धर्मोपदेशमाला (ग्रंथ)
धर्मघोष (मुनि)
धर्मरुचि
धर्मरुचि
(व्यक्ति)
(सार्थवाह)
(भिक्षु)
(महिला)
( श्राविका )
(श्रावक)
(आचार्य)
(साधु)
(टीका)
(रानी)
(देव)
(पात्र)
(श्रेष्ठी)
(आचार्य)
प्रियमति
बंधुमती
बलिष्ठ
बसन्त
बसन्तपुर
ब्रह्म
ब्रह्म
भद्रिल
भरत
भानु
भीमा
भोगपुर
मगध
महाबल
माणिभद्र
माणिभद्र
मुरुण्ड
यक्षदत्त
यशोभद्र
यशोमती
योगराज
योधनी
योनिप्राभृत
रत्नपुर
रत्नाकर
राजगृह
रिपुमर्दन
रुक्मिणी
(महिला)
(पुत्री)
(पुत्र)
(मास)
(नगर)
(द्वीप)
(शाखा)
(आचार्य)
(चक्रवर्ती)
(राजा)
(पल्ली)
(नगर)
(जनपद)
(राजा)
( यक्ष)
( युवक )
(राजा)
(गृहपति)
(आचार्य)
( श्राविका )
(व्यक्ति)
(महिला)
(ग्रंथ)
(नगर)
(आचार्य)
(नगरी)
(राजा)
(महिला)
(१२७)
(१००)
३१३
(१२७)
(७६)
( १००,
४८, १११)
(१४४)
(१४४)
(६३)
(१३८)
(३३)
(४८)
(९)
(७३)
(४७)
(८३)
(११३)
(१४२)
(१०८)
(४४)
(७५)
(६४)
(६४)
(१४३)
(११३)
(७५)
(१३७)
(३१)
(१११, ७१)
Page #486
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१४
पिंडनियुक्ति
रुक्मिणी _ (रानी) (३३) रेवती (पुत्री) (१२७) लक्ष्मी (महिला) (१००) वक्रपुर (नगर) (७१) वत्सराज (ग्वाला) (१११) वसुंधरा (महिला) (१०९) वसुमती (महिला) (१०८) वारत्तपुर (नगर) (१६९) वारत्रक (मंत्री) (१६९) विजितसमर (राजकुमार) (४७) विश्वकर्मा (नट) (१३७) विशालशृंग (पर्वत) (१४६) विष्णुमित्र (कौटुम्बिक) (१३४) विस्तीर्ण (ग्राम) (१२७) वेन्ना (नदी) (१४४) व्याख्याप्रज्ञप्ति (ग्रंथ) (४१) शतमुख (नगर) (७४) शालिग्राम (गांव) (९७, ७२) शिवदेव (श्रेष्ठी ) (९९)
(महिला) (९९) शीतलक (महामारी) (८३) शीला (रानी) (४७) श्रीनिलय (नगर) (४९) श्रीपर्णी (फल) (३१) श्रीमती (महिला) (७८) श्रीस्थलक (नगर) शृंगारमति (रानी) (१४५) संकुल (गांव) (६३) संगम (व्यक्ति) (१२७) संगम (आचार्य) (१२५)
१६ 88 83 8888 88 ka aakirs
संयुग समित समिल्लं समुद्रघोष सम्मत सम्मति समृद्ध सागरदत्त सारिका सिंधुराज सिंह सिंह सिंहरथ सुंदर सुंदरी सुदर्शना सुदर्शना सुरदत्त सुरूप सुरूप सुलोचना सुव्रत सुस्थित सूर्योदय सौदास सौराष्ट्र सौवीरक
(नगर) (१४५) (आचार्य) (१००, १४४) (नगर) (८३) (आचार्य) (९९) (पुत्र) (९८) (पुत्री) (९९) (शिष्य) (१४३) (श्रेष्ठी) (७८) (महिला) (९८) (राजा) (१४५) (आचार्य) (१३४) (शिष्य) (१२५) (राजा) (१३७) (युवक) (१२७) (भार्या) (१४४, १००) (रानी) (३०) (महिला) (१००) (गृहपति) (१०९) (राजकुमार) (३३) (वणिक्) (४९) (महिला) (१३४) (साधु) (१३९) (आचार्य) (१४३) (उद्यान) (७६) (व्यक्ति) (७१) (जनपद) (५५) (खाद्य-विशेष) (१६७) (सन्निवेश) (३१) (नगर) (१३४) (पर्वत) (७४)
शिवा
हरन्त
हस्तकल्प हिमगिरि
Page #487
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________________
परिशिष्ट-१८
विषयानुक्रम
अध्यवपूरक-दोष १८६-१८८/१
धात्री-दोष अनिसृष्ट-दोष १७८-१८५
निमित्त-दोष अप्काय १५-२२/६
निक्षिप्त -दोष अपरिणत-दोष २९२-२९५
पंचेन्द्रिय अभ्याहृत-दोष १५१-१६१
परिवर्तित-दोष अविशोधिकोटि १९०, १९१
पिंड आच्छेद्य-दोष १७२-१७७/२
पिहित-दोष आजीवना-दोष २०६-२०७/४
प्रतिकर्म आधाकर्म-दोष ६०-९२
पृथ्वीकाय आहार
४९, ४९/१, ७५, ७८, ८६/२, प्रादुष्करण-दोष ३१७, ३२३
प्राभृतिका-दोष आहार-प्रमाण ३१०-३१३/६
प्रामित्य-दोष इंगाल और ३१४-३१६
मंत्र-दोष धूम-दोष
मानपिण्ड उत्पादना-दोष. १९३-३०१, २३४
मायापिण्ड उद्गम-दोष ५६-१८९, १९३
मालापहत-दोष उभिन्न-दोष १६२-१६४
मिश्रजात उन्मिश्र-दोष २८९-२९१/१
मूलकर्म एषणा ५१-५२/४, ३२२
मेक्षित -दोष औद्देशिक-दोष ९३-१०६
योग-दोष कार्य-कारण
लिप्त-दोष क्रीत-दोष १३९-१४३/३
लोभपिण्ड क्रोधपिण्ड २१७-२१८/१
वनस्पतिकाय गवेषणा ५३-५५
वनीपक-दोष ग्रहणैषणा २३६-३०१
वायुकाय ग्रासैषणा ३०२-३२१
विकलेन्द्रिय चिकित्सा ३४-३६, ३१३-३१३/६
विद्या-दोष चिकित्सा-दोष २१४-२१५
विशोधिकोटि चूर्ण-दोष २३०, २३१
संकित-दोष छर्दित-दोष ३००, ३०१
संयोजना-दोष तेजस्काय २३-२५
संस्तव-दोष दायक-दोष २६५-२८८।८
संहृत-दोष दूती-दोष २००-२०३
साधार्मिक स्थापना-दोष
१९७-१९९ २०४, २०५ २४६-२५५ ३६-३८ १४७-१५० १-५० २५६-२५९/१ १०७-११९/१ ९-१४ १३६/१-१३८/६ १३०-१३६ १४४-१४६ २२८/१-२२९ २१९-२१९/८ २१९/९-१५ १६५-१७१ १२०-१२५ २३१/५-२३२ २४२-२४५/२ २३१/१-२३१/४ २९५/१-२९९ २२०-२२०/२ २९-३२ २०८-२१३ २६-२८ ३३-३५ २२७-२२८ १९२-१९२/५ २३८-२४१ ३०४-३०९ २२१-२२६/१ २६०-२६४/१ ७३-७३/२२ १२६-१२९
४९/२
Page #488
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________________
१७४
२१
७८
८४
परिशिष्ट-१९ शब्दार्थ ८२/३ अच्छिन्न-अच्छिन्न, लगातार। ९९/१ १३४
अच्छेज्ज-छीनकर देना, भिक्षा का ५९,१७२, २५९
एक दोष। अच्छोड-आच्छोटन, शिला पर पटकना।
२२/६ २३० अजत-अयत, असावधानी।
१६३/५ १८५ अजिण्ण-अजीर्ण।
१०८/१ १५७/१
अजीर-अजीर्ण। २६६ अज्ज-अद्य, आज।
१९८/४ २६५ अज्झत्थ-अध्यात्म।
३२४ अज्झयण-अध्ययन।
अज्झोयरय-अध्यवपूरक, भिक्षा का ५९,११०, ८३/२ एक दोष, अपने साथ साधु के १८६,
लिए अधिक भोजन बनाना। १८७,१९० १६४ अट्ठ-१. के लिए, प्रयोजन, २. अष्ट।
४४ अट्ठम-तेला।
२१४/२ २३१/३ अट्ठावीस-अट्ठाईस।
३१० २३१/६ अट्ठि -अस्थि, हड्डी। १७३ अट्ठिल्ल-बिनौला।
२८८/७ १४३/१ अड्डरत्त-अर्धरात्रि।
२२०/२ ७५
अणंतकाय-अनन्तकाय वनस्पति । २४७ अणट्ठ-अनर्थ, बिना प्रयोजन । १४३/२
अणलक्खिय-नहीं जाना हुआ। १९२ ११९/१ अणवट्टित-अनवस्थित।
३१३/६ २९५ अणवत्था-अनवस्था। ६४/१, अणवेक्खित-बिना देखा हुआ, बिना १६५
चिन्तन किया हुआ। १९८/६ १२ अणाइण्ण-अनाचीर्ण ।
१५१ ८०/४ अणादेस-असम्मत ।
१७/२ १७३ अणाभोग-अजानकारी।
१३८/६,
अइक्कम-अतिक्रम। अइच्छित-अतिक्रान्त करना। अइर-अतिरोहित। अंकधाई-बालक को गोद में लेने
वाली धात्री। अंतद्धाण-अन्तर्धान, अदृश्य होना। अंतराइय-अन्तराय से युक्त। अंतरिय-अन्तराल, बीच में। अंदु-काष्ठ का बंधन। अंधिल्लय-अंधा। अंबग-आम्र। अंबिल-खट्टा। अकज्ज-अकार्य। अकप्प-अकल्प, अकल्पनीय। अकुंचियाग-विवर रहित (कपाट)। अक्कंत -आक्रान्त। अक्ख-अक्ष, पाशा। अक्खण-कथन। अक्खत -अक्षत , अखंडित। अक्खरय-दास। अक्खित्त-आकृष्ट। अगड-कूप। अगणि-अग्नि। अगारत्थ-गृहस्थ। अगारी-गृहस्थ महिला। अगेज्झ-अग्राह्य। अग्ग-१. प्रधान,
२. अग्रिम। अग्गि-अग्नि। अघण-विरल। अचियत्त-अप्रीति, अविश्वास। अचोक्खलिणी-स्वच्छता नहीं रखने
वाली।
६५,
३०
८३
२७०
२८८/६
अणायर-अनादर।
८९/६
Page #489
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________________
परि. १९ : शब्दार्थ
३१७
८२ २०७
६५
अणायार-अनाचार।
अत्थावत्ति-अर्थापत्ति, एक प्रकार का अणावज्जग-अप्रीति उत्पादक कर्म।
अनुमान-ज्ञान।
२१४/१ अणावात-दोष रहित। २८८/५ अत्थाह-अथाह।
१५४ अणाहार-आहार रहित। ३२०/२ अदिण्णदाण-अदत्तादान।
१६६/१, अणिच्च-अनित्य। ७३/३
२१० अणिट्ठ-अनिष्ट। १०५/१ अद्ध-अर्द्ध, आधा।
३११ अणिसिट्ठ-भिक्षा का एक दोष, स्वामी ५९,१७८, अद्धा –मार्ग।
२१०/३ __ की आज्ञा के बिना लेना । १८२,२८६ अद्धिति -अधृति।
१९८/४ अणीस-अनिश्राकृत।
७३/६ अधिगरण-पापमयी प्रवृत्ति।
१६३ अणुग्गह-अनुग्रह, उपकार।
२१०/१ अधिति-अधति, चिन्ता।
२३१/६ अणुचिय-अनुचित।
८९/७ अनिदा-जानते हुए। अणुच्च-नीचे। १७० अनिविट्ठ-अनुपार्जित।
१७३/४ अणुजत्ता-निर्गमन, निकलना। ५७/२ अन्न-अन्य।
१३६/४ अणुज्जु -कुटिल। १३५ अन्नत्थ -अन्यत्र।
६७/२ अणुण्णा-अनुज्ञा। २५३/२ अन्नहा-अन्यथा।
१५० अणुण्णात-अनुज्ञात।
११३/१ अन्नहिं-अन्यत्र, दूसरी जगह। २९१ अणुप्पेहा-अनुप्रेक्षा।
३१८/२ अपत्त-अपात्र।
२१३ अणुमन्ना-अनुमोदना ।
६९/४ अपरिणत--पूरा अचित्त न हुआ हो। २३५,२३७, अणुवत्त – प्रवृत्त। १७
२९२ अणुवहत-अनुपहत।
४९/२ अपरिसाड-बिना गिरा हुआ। २५३/२ अणुवेह-अनुवेध, परस्पर मिला हुआ। ४१/१ अपिज्ज -अपेय।
८६/२ अणेसणिज्ज-अनेषणीय । ८५ अप्पग-आत्मक।
६४/१ अण्णाण-अज्ञान।
४४/४ अप्पडिसेवी-अप्रतिसेवी।
२८८/५ अतिक्कम-अतिक्रम।
८२ अप्पत्त-१. चूल्हे पर चढ़े पात्र तक अतियार-अतिचार।
८२
न पहुंचने वाली अग्नि, २५२, अतिहि-अतिथि, वनीपक का
२. अप्राप्त।
१३५ एक प्रकार। २१०/३ अप्पत्तिय-अप्रीति।
३१४/३ अत्तकम्म-आत्मकर्म, आधाकर्म ६१,६७,
अप्पाहण-संदेश।
२७२ का पर्याय। ६७/१,७० अप्पाहणि-संदेश।
२०१/१ अत्तट्ठ-अपने लिए।
१२२ अप्पाहिय-संदिष्ट।
२०१/२ अत्ता-आत्मा।
६७ अप्फासुग–अप्रासुक।
१६२ अत्थ -पदार्थ।
३०२/१ अफल-निष्फल।
२१३ अत्थाणि-सभा-मण्डप।
५७/२
अब्भंगिय-तैल की मालिश किया हुआ। १९८/१२
२०८,
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________________
३१८
पिंडनियुक्ति
८५
३५
१७५
२१५ १५३
अब्भत्थण-विज्ञप्ति, जानकारी देना। २०२ अब्भास -गुणा, गुणन करना। २५३/३ अब्भिंतर-आभ्यन्तर।
२२/२ अभत्तछंद-खाने की अरुचि। ३०९ अभिक्ख-लगातार, बार-बार। १८५ अभिगम-ज्ञान।
१४४/१ अभिग्गह-अभिग्रह।
७३ अभिमुह-अभिमुख।
१६६/१ अभिहड-सामने लाया हुआ आहार, ५९,१४२,
भिक्षा का एक दोष। १५७ अभोज्ज-अभोज्य। अमय-असम्मत।
८६/२ अमिला - भेड़। अयगोल-लोहे का गोला। अरखुरनिबद्धा-गधा-गाड़ी। अरहट्ट-अरघट्ट, पानी निकालने का चरखा।
५४/१ अरोगि-नीरोग।
१९८/२ अलेवड-लेप रहित।
२९६ अवक्कमण-अपक्रमण, जाना। ९०/४ अवगम-अपगम, दूर होना । ५७/४ अवट्टित -अवस्थित, स्थिर। ३१३/५ अवणण-अवतरण, नीचे उतरना। २१९/८ अवण्ण-अवर्ण, अकीर्ति । १०३ अवमाणित-अपमानित।
२१९ अवयार-अवतार, नीचे करना। ६४/१ अवयास-आलिंगन।
२७४ अवर-दूसरा।
१८९ अवरण्ह-अपराह्न।
९१/३ अवरद्धिग-सर्पदंश, मकड़ी द्वारा काटने
पर होने वाला फोड़ा। अवराह-अपराध।
६९/३ अवरोप्पर-आपस में।
१४८ अवरोह-अंत:पुर।
६९/३
अवस्स-अवश्य।
१६३/४ अवाय-अपाय, दोष।
२८७ अवारिय-निवारित नहीं किया हुआ। २२५/१ अवितह-अवितथ, सम्यक्। २०७/१ अविब्भल-स्वाधीन।
२८८/२ अविमाणित-अपमानित।
१९८/२ अवियालणा-चिन्तन का अभाव। २८८/१ अविसुद्ध-अविशुद्ध।
२४१ अविसोहिकोडि-अविशोधिकोटि। १८९ अवेक्ख-अपेक्षा करना।
२०७/४ अव्वत्त-अव्यक्त।
२८८/२ अव्ववहारी-अव्यवहारी। असइ-असकृद्, अनेक बार। ६८/२ असंखडि-कलह का अभाव। असंथर-अनिर्वाह, अप्राप्ति। १७७/१ असंसत्त-असंसक्त ।
२८८/६ असज्झ-असाध्य।
११६/४ असढ-अशठ, सरल।
२८८ असण-अशन।
७०/५ असति-अविद्यमान।
१५६/१ असत्त -अशक्त, असमर्थ । ३१८/२ असब्भाव-असद्भाव,अयथार्थ । असरिस-असदृश।
१९२/२ असागरिए-जो शय्यातर न हो। २८८/२ असुइ-अशुचि।
८७ असुद्ध-अशुद्ध।
७५ असूया-अस्पष्ट रूप से कौशल-ज्ञापन। २०६ अस्संजम-असंयम।
२१५ अह-यह।
१६ अहकम्म-आधाकर्म।
७०/६ अहाकड-यथाकृत, परिकर्म रहित। २२/५ अहिगरण-१. हिंसा,
१९८/३, २. कलह।
१४१ अहिगार-अधिकार।
४८
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________________
परि. १९ : शब्दार्थ
३१९
अहिय-अधिक। १४९ आभोग-जानते हुए।
२७० अहिरिअ-निर्लज्ज। ३०२/२ आभोगण-जानकारी।
२१८/१ अहिरीयया-निर्लज्जता। ३०२/४ आमंतण-आमंत्रण।
८२/३ अहुणा-अधुना, अब। १८१/१ आमय-रोग।
२१४/३ अहेकम्म-अध:कर्म, आधाकर्म ६१,६३,६४, आयत्ति-मिश्रित, मिला हुआ। १०२ ___ का पर्याय। ७०,७०/४ आयमण-आचमन।
१९ अहोमुह-अध:मुख। ६४/२ आयर-आदर।
८९/६ आइक्खण-कथन। २१८/१ आयरिय-आचार्य।
२१/२ आइण्ण-आचीर्ण, करने योग्य । १५१ आयहम्म-आत्मघ्न।
७०/६ आउ-आयुष्य। २०४ आयाम-मांड, अवश्रावण ।
७६/५ आउक्काय-अप्काय।
८, १५ आयामग-अवश्रावण, मांड। १९१ आउट्ट-करना।
१३६/६ आयावय-आतापना लेने वाला। १४३/३ आउत्त-उपयुक्त, लगा हुआ। ९६/३ आयाहम्म-आत्मघ्न।
६१,७० आकंपिय-आकृष्ट किया हुआ। २०५ आरओ-पूर्व का, अर्वाक्। आघस-पानी के साथ घिसकर प्रयोग आलाव-आलाप, संलाप । १७३/३ ___ किया जाने वाला सुगंधित द्रव्य। २३१/१ आवज्जग-प्रीति उत्पादक कर्म। २०७ आजीव-आजीवक, श्रमण का
आवडिय-आपतित।
७६/४ एक प्रकार।
२०९ आवण-आपण, दुकान।
१८१ आजीवणा-भिक्षा का एक दोष।
आवत्तणपेढिया-पीठिका विशेष। १६३/७ आणत्त-आज्ञप्त। ७३/१८ आवन्न-प्राप्त।
२३९ आणा-आज्ञा।
२२/१ आवासग-आवश्यक, साधु का आत-आत्मा।
२१९/८
नित्य करणीय अनुष्ठान। ३२३ आतव-आतप, धूप। २२/६ आसंदी-कुर्सी।
१६७ आतावण-आतापना। १४३ आस -१. अश्व,
१९४/१, आदंसघर-आदर्शघर, कांच का महल,
२. मुख।
१५७/४ जिसमें भरत चक्रवर्ती को
आसमक्खिया-अश्वमक्षिका, चतुरिंद्रिय कैवल्य हुआ। २१९/१४
जीव विशेष।
३५ आदाण-गर्भधारण कराना।
आसव–१. मद्य, मदिरा, आदेस-१.आज्ञा,
८३/१, २. आश्रव।
४४/४ २. मत।
१७ आसूय-औपयाचितक, मांगा हुआ। १९४/१ आदेसिय-औद्देशिक दोष का भेद। ९७ आहच्च –कदाचित्।
११७/१ आपिंगल-लाल मिश्रित पीला रंग। २५२/१ आहड-आहृत, लाया हुआ।
१५८ आभागि-भागीदार।
८९/४ आहरण -उदाहरण।
२१५
२३०
४०,
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________________ 320 पिंडनियुक्ति 219 135 आहा-आधार / 61/1 आहाकम्म-आधाकर्म, भिक्षा का एक 58,62, दोष। 64/1, 67/1, 68/2, 70, 70/4, 70/5, 71, 74, 80, 82/2, 88, 110, 190, 238/1 आहाकम्मिय-आधाकर्मिक। 60,93 आहारिम-सुगंधित द्रव्य, जो पानी आदि के साथ घिसकर लिया जाता है। 231/1 / आहिंडय-घुमक्कड़। 199 इंगाल-ज्वाला रहित अंगारा। 24 इंद-इंद्र। 70/4 इंदिय-इंद्रिय। 96/3 इक्खागु-इक्ष्वाकु वंश। 219/14 इट्ट-ईंट। 24 इट्टग-सेवई। 216 इट्टगा-सेवई। 219/1 इड्डि-ऋद्धि। 198/10 इत्थी --स्त्री। इरिया-ईर्या, देखकर चलना। 318 इहरा-अन्यथा / 239/1 इहलोग-इहलोक। 136/4 उउबद्ध-ऋतुबद्ध। 20 उंडग-टुकड़ा, खंड। 279 उक्कंड-खूब छंटा हुआ 80 (चावल आदि)। उक्कट्ठ-उत्कृष्ट। 243/2 उक्कड-उत्कट अधिक। 198/8 उक्कोसग-उत्कृष्ट। 166 उक्खणिय-उखाड़कर। 108/2 उक्खलिया-स्थाली / 112 उक्खा-स्थाली। उक्खित्त-लाई हुई, उत्पाटित। 130 उक्खेव-बर्तन आदि को ऊपर उठाना। 96/3 उग्ग-उग्र कुल। 207/3 उग्गम-उद्गम, गृहस्थ से सम्बन्धित 1,53,56, भिक्षा का दोष। 57, 57/1,57/3, 210, 233, 238/1 उग्गहपडिमा-अवग्रहप्रतिमा। 44/2 उग्गोवणा-उद्गोपना। 51,56 उग्घाडित-उद्घाटित। 163/4 उच्चार-मल। 14 उच्छाहित-उत्साहित। उच्छिंदण-उधार लेना। 144/1 उच्छु-इक्षु। 128/1 उज्जाण-उद्यान। उज्जाणपालय-उद्यानपालक। 91/2 उज्जु -ऋजु, सरल। उज्जुग-सीधी रेखा। 171 उज्झित-त्यक्त। 88 उटुंत-उठते हुए। 279 उट्ठाण-अतिसार रोग, दस्त / 86/1 उट्ठिय-उठा हुआ, उत्थित। 132 उडु-नौका, तैरने का काष्ठ। उडूखल-ऊखल। 167 उड्डाह-निंदा, अपभ्राजना। 141 उड्ड-ऊर्ध्व। 169 उण्ह-उष्ण, गर्मी। उण्हवण-उष्णापन, गर्म करना। 104 उत्तार-उतारना / 231/2 उत्तिमंग -सिर। 136/1 उत्तेड-बिन्दु। 17/1 उदउल्ल-पानी से आर्द्र / 243/2 उदग-पानी। उद्दवण-अपद्रावण। उद्दिट्ठ-औद्देशिक दोष का 90/1, एक भेद। 94,116/2 168 152 12 113 62
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________________ परि. 19 : शब्दार्थ 321 86 उद्देसिय -औद्देशिक, भिक्षा का एक दोष, अपने साथ साधु के निमित्त अधिक बनाया गया भोजन। 110,190 उद्देहिगा-दीमक। 34 उप्पत्ति-उत्पत्ति। 194/2 उप्पलण-डुबोना। 198/11 उप्पाइय-उत्पादित। उप्पायणा-उत्पादना दोष। 53,142, 193,233 उब्भट्ठ-मांगा हुआ। 128/2 उब्भामग-जार पुरुष। 198/9 उभिज्ज-उद्भिज्ज, बथुआ आदि साग की भाजी। 297 उब्भिज्जमाण-खोला जाता हुआ। 163/6 उब्भिण्ण-कपाट आदि खोलना, 59,162, भिक्षा का एक दोष। 163 उम्मत्त-उन्मत्त। 265 उम्मीस-उन्मिश्र, भिक्षा का एक 237,289, दोष। 290 उम्मुक्क-उन्मुक्त, छूटा हुआ। 302/3 उल्ल-आर्द्र, गीला। उल्लण-छाछ से गीला किया हुआ ओदन। 297 उल्लावण -उल्लाप, वार्तालाप। 198/14 उल्लिंपमाण-लेप किया हुआ। 163/2 उवउत्त--उपयुक्त। उवओग-उपयोग। 25 उवकरण-उपकरण। उवकार -उपकार। उवक्खड-खाद्य को मसाले से संस्कारित करना। उवग्गह-उपग्रह, उपकार। उवघात-उपघात। उवचय-उपचय। उवज्झाय-उपाध्याय। 219/10 उवणयण-पास में लाना। 207/3 उवधि-उपधि। 119 उवमा-उपमा। 53/2 उवरिम-ऊपर। 73/12 उवरिल्ल-ऊपर वाला। 73/12 उवल-पाषाण / उवसग्ग-उपसर्ग। 219/14 उवालद्ध-उपालब्ध। 69/1 उवासग-उपासक। 227/1 उव्वट्टण-कपास लोठना, उसके ____ बीजों को अलग करना। 288/7 उव्वट्टित–१. च्युत करना, 198/9, 2. पीठी आदि से 198/12 उद्वर्तन किया हुआ। उव्वरित-शेष बचा हुआ। 308 उसिण-उष्ण। 254 उसुक-तिलक, आभरण विशेष। 198/13 उस्सक्कण-नियत काल के बाद। 131 उस्सक्कित-नियत काल के बाद किया हुआ। 135/1 उस्सग्ग -उत्सर्ग। 14 ऊण-कम। 149 ऊसव-उत्सव। 96/1 एगट्ठिय-एकार्थक। 56 एगत्थ -एक तरफ। 130 एत्तिय-इतना। 95/2 एवइय-इतना / 188/1 एसणा-एषणा / 51,96/3 एसणासमित-एषणा समिति से समित। 136/5 एसित-एषणा से प्राप्त। 240/4 एस्स-भविष्य। 295/6 ओकड्डिय-निकाला हुआ। 188/1 ओगाहण-अवगाहन। 282 95/1 111
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________________ 322 पिंडनियुक्ति 63 21 94/1 32 ओगाहिम-पक्वान्न। 251/3 ओतरण-अवतरण। ओदण-धान्य। 296 ओभावण-अपभ्राजना। ओभासिय-याचित। 219/3 ओम-१. अवम, कम, 311, 2. दुर्भिक्ष / ओतरण-अवतरण। 169 ओय-तीन, पांच आदि विषम संख्या। 299 ओरस्स-हृदय से उत्पन्न, आंतरिक। 217 ओराल-औदारिक। 62 ओलित्त-अवलिप्त, लीपा हुआ। 163/1 ओवत्तण-उल्टा करना, टेढ़ा करना। 285 ओसक्कण-नियत काल से पूर्व। 131 ओसक्कित-नियत काल से पूर्व किया हुआ। 135/1 ओसध-औषध। ओसरण-साधु-समुदाय। 134 ओसवित-उपशान्त / 148/2 ओसहि-औषधि। 57/1 ओह-सामान्य / 239/1 ओहार -कछुआ। कंगु-कोद्रव धान्य। 297 कंजिय-कांजी। 191 कंडग-कण्डक, संयमश्रेणि विशेष। 64 कंडित-चावल आदि साफ-सुथरे किए हुए। कंस-कांस्य। 156 कक्कडिय-ककड़ी। 78 कक्कब -इक्षु रस का विकार। 129 कक्खड-कर्कश, कठोर। 198/15 कच्छभ-कछुआ। 259 कज्ज-कार्य। कदर-घी के बड़े से युक्त तीमन। 295/8 कट्ठ-काष्ठ। कट्ठकम्म-काष्ठकर्म। कड-चटाई। 70/3 कडि -कटि, कमर। 198/15 कड्डण-कर्षण, वस्त्र आदि खींचना। 180 कढिय-कढ़ी / 297 कणग-कनक, सोना। 194/2 कणिट्ठ-कनिष्ठ, छोटा। 231/11 कण्ण-बर्तन के मुख का किनारा। 252/2 कण्हा - कृष्णा नामक नदी। 231/2 कत्तण -सूत कातना। 288/6 कत्ता-करने वाला, कर्ता। 80/2 कत्तोच्चय-कहां से उत्पन्न। 89/1 कद्दम-कीचड़। 113/2 कप्प-कल्प। कप्पट्टय-बालका 133 कप्पट्टी-बालिका। 131 कप्पडिय-कार्पटिक संन्यासी। 69/3 कप्पित-आहरण का एक भेद। 302/1 कम-क्रम। कमबद्ध-पैरों में बेड़ी पहना हुआ। 288/4 कम्मणकारि- मंत्र आदि के द्वारा कामण-वशीकरण करने वाला। 228 कय-क्रय। 163 कर-१. हाथ, 161, 2. चुंगी। 57/1 करग –ओला। करडुय-मृतक भोज। 218/1 करभी-ऊंटनी। 86/2 करीस-करीष, गोबर का छाना। 125 कल-धान्य, मटर। 296 कलुण-करुण, कृपापात्र। 177 कल्लाण-प्रायश्चित्त विशेष। 22/6 कवाड-कपाट। 162 68 154 80 16
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________________ परि. 19 : शब्दार्थ 323 3/1 76/3 76 कवोड-कपोत। 136 कहण-कथन। 76 कहा-वार्ता। 251/1 कहित-कथित। 203 काग-काक, कौआ। 212 काण-आंख से काना। 219/10 कामगद्दभ-मैथुन में अत्यधिक आसक्त। 209/1 काय-कापोती, कांवड। 61/1 किंकर-किंकर, एक प्रकार का महिला प्रधान व्यक्ति। 219/6 किट्ठ-कृष्ट, हल से विदारित भूमि। 11 किड्डा-क्रीड़ा। 57/2 किणाइ-किञ्चित् मात्र। 173 कित्ति-कीर्ति। किलेस-क्लेश। 83/5 किवण-कृपण / 210/2 किविण - कृपण / 208/1 किस-कृश। 136/1 किसि-कृषि, खेती। 207 कीतगड-क्रीतकृत, भिक्षा का 139, एक दोष। 142 कीलावणधाई-क्रीड़ा कराने वाली धाय। 197 कुउब-कुतुप, तैल भरने का बर्तन। 255 कुक्कुड-माया / 136/6 कुच्छा -कुत्सा / 73/6 कुच्छि-कुक्षि, उदर। 168 कुट्ठी-कुष्ठ रोग से युक्त / 288/4 कुड-घट। 166/2 कुडुंब-कुटुम्ब। 61/1 कुड्ड-भीत, दीवार / 137 कुणिम-मांस। 86 कुम्मास-कुल्माष, उड़द। कुरंग-मृग। कुलय-कुलक, माप विशेष। कुसण-दही और चावल से बना हुआ करम्बा। 291 कूड-जाल। 67/3 कूर-क्रूर, धान्य। कूल-नदी का किनारा। 231/4 कूविय-कूजक, चोर की खोज करने वाला। 68/7 केलास-कैलाश पर्वत। 210/5 केवलनाण-केवलज्ञान। 90/4 केवलि-केवलज्ञानी, कैवल्य प्राप्त। 239/1 कोडि-कोटि, अंश, विभाग। 192/7 कोद्दव-कोद्रव। कोप्पर-कोहनी, हाथ का मध्य भाग। 198/7 कोल-बदर, बैर। 284 कोल्लइर-कोल्लकिर नगर विशेष। 199 कोसलग-कौशल देश। 295/7 कोह-क्रोध। 44/4 कोहपिंड-भिक्षा का एक दोष। 217 खइय-१. क्षायिक (भाव), 73/21, 2. खाया हुआ। 86 खउरिय-कलुषित। 136/1 खंड-खांड। 129 खंत-पिता। 201/3 खंतिग-पिता। 272 खंतिया-माता। 201/3 खंती-माता। 201/2 खंध-१. समूह, 41/2, 2. कंधा। 61/1 खग्गूड-कुटिल। 146 खणि-खजाना। 96/2 खत्त-करीष। 12 खद्ध-प्रचुर। 220 89/5 53
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________________ 324 पिंडनियुक्ति 53 78 12 खम-क्षम, योग्य। 319 खमग-तपस्वी। 90/2 खय-नष्ट होना। 231/5 खरंटणा-उपालम्भ देना। 96/1 खल्लग-बांस के पत्तों का बना दोना। 90/3 खाइम-खादिम। खामणा-क्षमा मांगना। 218/1 खार-क्षार। खिंसा-निंदा। 277 खित्त-क्षिप्त। 254 खिन्न-श्रान्त। 210/3 खिवण-फेंकना। 219/14 खीर-दूध। 86/2 खीरदुम-क्षीरद्रुम, वटवृक्ष आदि मीठे वृक्ष। 11 खीरधाई-दूध पिलाने वाली धाई। 197 खुज्ज-कुब्ज, कूबड़ा। 219/10 खुड्ड-क्षुल्लक, छोटा शिष्य। 219/1 खुत्त-बार। 302/3 खुब्भण -क्षुभित होना। 278 खेत्त-क्षेत्र। 73/2 खेव-क्षेप, प्रक्षेप। 222/2 खोभ-क्षोभ, क्षुब्ध होना। 214/3 खोमिय–क्षौमिक, कपास का बना वस्त्र। 32 खोल-गुप्तचर। 69/3 खोसिय-जीर्ण-शीर्ण। गंठि-गांठ। 164 गंड-स्तन। 198/5 गढिय-गृद्ध, आसक्त। 96/2 गब्भ-गर्भ / 168 गब्भाधाण-गर्भाधान। 231/10 गब्भिणि-गर्भवती। 231/10 गम-शास्त्र का तुल्य पाठ। 198/10 गम्म–भोग के योग्य। 231/5 गय-हाथी। गरहित-गर्हित। 201/2 गरिहा-गर्दा। 274 गलंत-झरता हुआ। 312/1 गलिच्च-गले का आभूषण। 198/13 गवत्त-गाय का भोजन, घास। 96/2 गविट्ठ-गवेषणा पूर्वक प्राप्त आहार। 233 गवेसणा-गवेषणा। 51,53 गहित-गृहीत। 117 गामसामिय-ग्राम-प्रधान। 173/1 गाह-जलचर जंतु विशेष। 154 गिद्धावरिखि-एक प्रकार का महिला प्रधान पुरुष। 219/6 गिम्ह-ग्रीष्म। 54/1 गिरा-वाणी। 198/14 गिरिफुल्लिय-गिरिपुष्पित नगर विशेष / 216 गिलाण-ग्लान, रोगी। 21/2 गिलिय-निगलना। 82/3 गिह-गृह, घर। 156 गिहत्थ-गृहस्थ / 95/1 गिहि-गृही, गृहस्थ। 22/4 गुंडिय-राख से अवगुंठित। . 198/11 गुज्झग-देव विशेष। 210/5 गुत्ति-गुप्ति। 44/4 गुल-गुड़। 40 गुलिय-गुटिका, रूप-परिवर्तन हेतु ___मुख में रखी जाने वाली गुटिका। 141 गविणी-गर्भवती। 168 गेरुय-गेरुआ वस्त्रधारी परिव्राजक, श्रमण का एक प्रकार। 209 गेलण्ण-रोग। गेह-गृह। 76/1 गेहि-आसक्ति। 83/4 145
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________________ परि. 19 : शब्दार्थ 325 3/1 96 94 91 173 160 36 गो-गाय। 70/3 गोच्चिय-कोतवाल। 173/1 गोट्ठिग-मित्र। 108/2 गोण-गाय। 210/4 गोणिय-गाय का व्यापारी। 68/7 गोणी-गाय। 96 गोण्ण-गौण, गुण-निष्पन्न। गोत्त-गोत्र। 231/9 गोब्बर-गोबर नामक गांव। 89/2 गोयर-गोचरी। गोरस-दूध, दही, तक्र आदि। 40 गोव-ग्वाला। 173 गोवालय-ग्वाला। घंघसाला-कार्पटिक भिक्षुओं का आवास-स्थल। घट्टग-पात्र को चिकना करने का पाषाण विशेष। 14 घट्टण-चलाना, हिलाना। 302/4 घट्टिय-मिला हुआ, हिलाया हुआ। 302/4 घड-घट। 70/3 घडिय-संसक्त, हिलाया हुआ। 113/3 घण-मेघ। 80/4 घणउदहि-घनोदधि। घणवलय-वृत्ताकार पानी का परकोटा। 16 घणवाय-स्त्यान वायु / 27 घत-घृत। 82/1 घतपुण्ण-घेवर। घत्थ-गृहीत। 68/7 घम्म-आतप, धूप। 138/3 घरकोइल-छिपकली। 163/7 घाइत-घातित। 69/3 घाण-तिलपीड़नयंत्र। 27/1 घासेसणा-ग्रासैषणा / 303 घिणिल्ल-कृपालु, दयालु। 80/5 घुसुलण-दही मथना / 288/6 घेत्तव्व-ग्रहण करने योग्य / 295/1 घेत्थी-गृहीत। 128/2 घोस-घोष। 207/2 चउत्थ-१. उपवास, 295/3, ___2. चौथा। 68/11 चउपण्ण-चौपन। 192/7 चउप्पद-चतुष्पद। 52/2 चउब्भाग-चतुर्भाग। चउरिदिय-चतुरिन्द्रिय। 35 चउव्विह-चतुर्विध। चंदोदय-चंद्रोदय नामक उद्यान।। चक्खु-चक्षु, आंख। 226/1 चडुकारि-चाटुकारिता करने वाला। 141 चडुगार-चाटुकारिता करने वाला। 210 चम्म-चर्म। चरण-चारित्र। 73/16 चरणकरण-अनुयोग का एक प्रकार। 136/4 चरित-आहरण का एक भेद। 302/1 चरित्त-चारित्र। 44 चलण-चरण, पैर। 82/2 चवल-चपल, चंचल। 136/1 चाउल-चावल। 17,95 चाउलोद-चावल का पानी। 191 चाउलोदग-चावल का पानी। 76/5 चाणक्क-राजा चन्द्रगुप्त का मंत्री। 230 चारभड-चारभट, सैनिक। 174 चारि-परिभ्रमण करने वाला। 80/4 चारी-चारा। 96/1 चिक्कण-सघन, चिकना। चिण्ण-चीर्ण, पालन करना। 136/6 चित्त-सचित्त। 139 चित्तकम्म-चित्रकर्म। चित्तसभा-चित्रसभा / 53/1 पानी। 216 46
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________________ 326 140 163 चिमिढ-चिपटा। 1987 चुडण-जीर्ण-शीर्ण। 21 चुण्ण-चूर्ण। चुण्णि -चूरा। 104 चुल्लग-भोजन। 182 चुल्ली-चूल्हा / 113 चेट्टा-चेष्टा। 95/1 चेड-बालक। 173/2 चोइय-चोदित। 68/2 चोदग-प्रश्नकर्ता। 115 चोदण–प्रेरणा। 220/2 चोल्लग-भोजन। 178 छउमत्थ-छद्मस्थ। 95/1,239 छक्कम्म-(ब्राह्मण के) षट्कर्म। 210/1 छक्काय-षट्काय। 65 छगण-गोबर। 36 छगलग-बकरा। 143/2 छड्डण-छर्दन। 254,301 छड्डिय-छर्दित। 237 छण-उत्सव। 220/1 छप्पया-षट्पदिका, जूं। 22/3 छब्बग-बांस की टोकरी। 127 छम्मास-छह मास। 295/3 छलित-छला गया। 302/5 छादण-घर की छत। 138/4 छाय-भूखा / 318/1 छार-क्षार, राख। 22/4 छार-भस्म लगाए हुए शरीर वाला। 143/2 छिक्क-स्पृष्ट। छिड्डु-छिद्र। 138/4 छित्त-स्पृष्ट। 245/2 छुन्न-क्लीब, नपुंसक। 198/14 छुहा-क्षुधा। 318/1 छूढ -क्षिप्त, त्यक्त। 63 पिंडनियुक्ति छोट्टि-उच्छिष्टता, जूठन। 280 छोभग-मिथ्या-दोषारोपण / 198/9 जइ-यति। 69 जंघापरिजित-लब्धिधारी मुनि। 231/7 जंत-यंत्र / जक्ख-यक्ष, देव विशेष। 210/5 जज्जीव-यावज्जीवन। 231/6 जड्डु-हाथी। 184 जणवाद-जनापवाद। 203 जतणा-यतना / 252 जतुमुद्दा-लाख का बंधन। 163/2 जत्तिय-जितना / 45/1 जम्म-जन्म। 52/1 जर-ज्वर। 275 जरित-बुखार वाला, ज्वरित। 265 जलण-ज्वलन, जलना। 199 जल्ल-शरीर का मैल। 136/1 जहकप्प-यथाकल्प। 73/22 जहत्थ-यथार्थ। 226/1 जहन्नग-जघन्य। 161 जहवाय-यथावाद, जैसा कहा गया। 83/3 जहसत्ति-यथाशक्ति। 192 जहिच्छा-यदृच्छा, जैसी इच्छा। 198/6 जहिय-जहां। 42 जाउ-दलिया, खाद्य विशेष। 298 जाग-यज्ञ। 207/2 जाणुक-जंघा। 228/1 जामाति-जामाता। जायणा-याचना। 208 जायामाय-न्यून आहार। 311 जारिसिय-जैसा। 219/2 जाला-ज्वाला। 252/2 जावइय-जितना। 117/3 जावंत-जितना / 73/4 203 84
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________________ 327 186 परि. 19 : शब्दार्थ जावंतिय-यावदर्थिक, औद्देशिक का 98,105/1, एक भेद। जावण-यापन, बिताना। 90/3 जितसत्तु-जितशत्रु राजा। 53/1 * जीर-जीर्ण होना, पचना। 295/9 जुंगिय-हाथ-पैर से हीन। 210/2 जुग-शकट का अंग, गाड़ी या हल खींचते समय जो बैलों के कंधे पर रखा जाता है। 136/1 जुगव-युगपद्, एक साथ / 57/4 जुत्त-युक्त। 108 जुद्ध-युद्ध / 202 जुम्म-युग्म। जुय-यूप। 61/1 जुय-युक्त। 90/3 जुवराय-युवराज। 231/11 जुसिय–आश्रित, सेवित। 210/3 जूह-यूथ। 236 जूहवति-यूथपति। 236/1 जोणि-योनि। 231/5 जोति-ज्योति। 138 जोतिस-ज्योतिष्। * झंख-बार-बार बोलना / 132 झाण-ध्यान। 316 ठप्प-स्थाप्य। ठवणा-स्थापना। ठवियग-स्थापना दोष, भिक्षा का एक दोष। 287 ठाण-१. उत्कटुक आदि आसन, 207/2, 2. स्थान, 136, 3. कायोत्सर्ग। 14 ठित-स्थित। ठिति-स्थिति। 64 डक्क-सांप आदि का डसा हुआ। 166/2 डगलग-पाषाण-खण्ड, ___ पक्की ईंट के टुकड़े। 14 डहण-दहन, जलाना। 281 डाह-दाह। 264 डुंब-महावत। 185 डोय-लकड़ी का बड़ा चम्मच। 112 ढक्कित-ढ़का हुआ। ওও ढड्डर-उच्चस्वर। 198/14 णात-१. ज्ञात, अवगत, 144/1, 2. उदाहरण। 204 णित- ले जाते हुए। 91/3 णीहम्मिय-बाहर निकलना। 136/3 णेज्ज-ज्ञेय। 73/17 णेय-ज्ञेय, जानने योग्य। 7013 ण्हवणधाती-स्नान कराने वाली धात्री। 198/12 ण्हायय-स्नातक, एक प्रकार का महिला प्रधान पुरुष। 219/6 तंडुल-तण्डुल, चावल। 17/1 तक्क-तक्र, छाछ। 128/3 तच्चण्णिय-बौद्ध भिक्षु। 166/1 तण-तृण। 210/4 तणाइहार-घास काटने वाला। 91/1 तणुई-पतली। 198/7 तणुकोट्ठ-शरीर। 90/4 तणुवाय-तनुवात, सूक्ष्म वायु विशेष। 27 ततिय-तृतीय। 192/4 तत्ति-तप्ति, चिन्ता। 89/8 तत्तिय-उतना। 117/3 तद्दोसी-कुष्ठ रोगी। 276 तमिस-अंधकार। 138/2 तम्मण-तन्मय। 96/3 तय-त्वक्। 117/4 * तर-समर्थ होना। . 240/1 तरी-छोटी नौका। . 153 57/1 94 68/7
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________________ 328 पिंडनियुक्ति 11 तव-तप। 217 तस-त्रस। 243/3 तहिय-वहां। 163/5 तारिसिय-वैसी। 240/3 तावस-तापस, श्रमण का एक प्रकार। 209 तावित-तापित। 104 तिकडु-सूंठ, पीपल, कालीमिर्च आदि। 78 तिकाल-त्रिकाल। 204 तिक्खुत्त-तीन बार। 302/3 तिगिच्छग-चिकित्सक। 313 तिगिच्छण-चिकित्सा। 83/5 तिगिच्छा-चिकित्सा, भिक्षा का 195, ___एक दोष। 214 तितिक्खा-तितिक्षा। 320 तित्थगर-तीर्थंकर। 73/9 तिन्न-तीर्ण। 90/4 * तिप्प-देना / 136/6 * तिम्म-आर्द्र करना। 163/2 तिरिय-१. तिरछा, 171, 2. तिर्यञ्च। 36 तिल्ल-तैल। 144/2 तिवायण-त्रिपातन, मन, वचन और काय से नष्ट करना। तिविध-त्रिविध। तिव्व-तीव्र। 64/2 तिहा–तीन प्रकार से। 287 तुण्ण-बुनाई, सिलाई आदि कर्म। 207 तुण्हिक्क-तूष्णीक, मौन, वचन रहित। 68/9 तुयट्टण-त्वग्वर्तन, शयन। 14 तुरिय-शीघ्र। 136/1 तुसिणीय-तूष्णीक, मौन। 68/10 तूवरि-अरहर की दाल। 296 तेइंदिय-त्रीन्द्रिय। तेउक्काय-तेजस्काय। 8,23 तेण-स्तेन। 172 तेरासि-नपुंसक। 266 थंभण-प्रतिविद्या के द्वारा स्तम्भित करना। 228 थक्क-अवसर। 76/4 थण-स्तन / 222/2 थणीय-स्तन वाली। 198/7 थरथरंत-कांपते हुए। 288/2 थल-स्थल। 154 थाम-बल / 318/2 थाली-स्थाली। 114 थिरीकरण-स्थिरीकरण। 210 थुल्ल-स्थूल। 198/5 थेर-स्थविर / 273 थेरी-स्थविरा, वृद्धा। 198/7 थोव-स्तोक, कम। दइय-चर्ममय मशक / 27/2 दंड-पानी का उकाला। दंडिणी-राजा की पत्नी। 230 दंसण-१. दर्शन, 2. देखना। 69/2 दक्ख-दक्ष। 67/3 दक्खा-द्राक्षा। दग-उदक, पानी। 281 दगसोयरिय-सांख्य मत का अनुयायी। 143/2 दत्त-इस नाम का शिष्य। दद्दर-काष्ठ की सीढ़ियां। 170 दद्दरय-कुतुप आदि का मुखबंधन रूप वस्त्र-खण्ड। 162 दरिद्द-दरिद्र। 148/1 दरिसण-देखना। 207/3 दलेती-दलती हुई। 267 दव-द्रव, तरल पदार्थ। 192/4 दविय-द्रव्य। 194 78 62 15 34
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________________ परि. 19 : शब्दार्थ 68/1 93 240 दव्व-द्रव्य। दव्वी-चम्मच। 113 दह-द्रह, सरोवर। 236/2 दहि-दही। 102 दाडिम-अनार। 78 दायग-दायक, भिक्षा का एक दोष। 237 दार-द्वार। दावणया-देना। 89/6 दासत्त-दासत्व। 144/2 दिक्खा-दीक्षा / दिटुंत-दृष्टान्त। 84/1 दिट्ठ-दृष्ट। 70/2 दिट्ठि-दृष्टि। 136/1 दिण्ण-दत्त। 95/2 दित्त-दृप्त, उन्मत्त। 288/3 दिय-१. दिन, 80/4, 2. द्विज, ब्राह्मण। 157/2 दियर-देवर। 76/4 दिव्व-दिव्य। दीव-द्वीप। 231/2 दुक्कररोई-दुष्कररुचि। 145 दुग-दो, युग्म। दुगुंछा-घृणा। 278 दुगुण-दुगुना। 253/3 दुग्गति-दुर्गति। 64/3 दुग्गास-दुर्भिक्ष। भा. 24 दुच्चित्त-दुष्ट चित्त वाला। 91/2 दुट्ठ-दुष्ट। 68/6 दुत-द्रुत। 90/1 दुद्दिण-दुर्दिन, मेघजन्य अंधकार।। दुद्ध-दूध। 293 दुपय-द्विपद, दो पैर वाला। 194/2 दुब्बल-दुर्बल। 53/1 दुम-द्रुम। 91/2 329 दुम्मण-दुर्मन। 210/2 दुरुत्त-द्विरुक्त, दुबारा कहा हुआ। 70/4 दुल्लभ-दुर्लभ। 146 दुवार-द्वार। 136/3 दुविध-द्विविध। 107 दुव्वण्ण-दुर्वर्ण, बदरंग। 1988 दुहा-द्विधा, दो प्रकार से। दूइत्त-दूतीत्व। 201/2 देउल-देवकुल। 157/2 देस-सौ हाथ प्रमित क्षेत्र। 159 देसदेस-सौ हाथ का मध्यवर्ती क्षेत्र। 159 देसूण-कुछ कम। 128/3 दोभग्गकर-दुर्भाग्य करने वाला। 231/1 दोस-दोष। 68/11 दोहल-दोहद। 53/1 धंत-ध्मात, अग्नि में तपाया हुआ। 27/1 धन्न-धन्य। 69/3 धम्मकहा-धर्मकथा। 143 धम्मरुइ-धर्मरुचि नामक साधु। 219/9 धरित-धृत, धारण किया हुआ। 288/2 धातित्त-धात्रीत्व। 198/4 धातिपिंड-धात्रीपिंड, भिक्षा का एक दोष। 199 धुर-चिन्ता। 61/1 धुवण-धोना। धूता-पुत्री। 222/1 धूमधूमिय-धूमायित। 314/3 धूववास-सुगंधित द्रव्य। 231/1 धूविय-धूपित, धूप किया हुआ। 258 धोय-धौत, प्रक्षालित। 117/1 धोवण-धोना। 19 नउति-नब्बे। 192/7 नट्ठ-१. पलायन करना, 69/1, 2. नष्ट, विनष्ट। 145 38 19 27
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________________ 330 पिंडनियुक्ति 36 31 82 . नड-नट। 219/9 नत्त-पौत्र। 222/1 नत्थ-न्यस्त, रखा हुआ। नल-नलचारी, वनस्पति विशेष। 55 नह-नख। नाडग-नाटक। 219/12 नाण-ज्ञान। नाणत्त-नानात्व। 70 नात-ज्ञात। 219/13 नातव्व-ज्ञातव्य। नाल-नाला। 236/3 नावा-नौका। 152 नासा-नाक। 219/3 निउण-निपुण। 119/1 निउत्त-नियुक्त। 108/1 निकायण-निमंत्रण। 219/10 निक्कारण-कारणरहित, निर्विघ्न। 236/3 निक्खित्त-भिक्षा का एक दोष। 237 निक्खेव-१. निक्षेप, व्याख्या की 3, __एक पद्धति, 2. रखना। 264 निगल-निगड़, श्रृंखला। निग्गंथ-निर्गन्थ, श्रमण का एक प्रकार। 209 निग्गम-निर्गम, निकलना। 157/2 निच्छय-निश्चय। निच्छयनय-निश्चयनय। 30 निच्छित-निश्चित। 157/6 निच्छुभण-बाहर निकालना। 224 निज्जरा-निर्जरा। 324 निज्जाल-ज्वाला रहित। 252/1 निट्ठित-निष्ठित, भोज्य को साधु के ग्रहण योग्य बनाना। 81 निण्हग-निह्नव। 73/21 निदा-अज्ञान से। 65 निदाण-रोग के कारण की खोज। निद्दड्ड-निर्दग्ध। 314/2 निद्दय-निर्दय। 166/2 निद्दरिसण-निदर्शन, उदाहरण। 82 निद्देस-निर्देश। 101 निदोस-निर्दोष। 240/4 निद्धंधस-क्रूर / 83/4 निद्ध-स्निग्ध। 103 निप्पिट्ट-पीसने से निवृत्त होना। 288/6 निप्फन्न-निष्पन्न। निप्फाइय-निष्पादित। निबुड्ड-डूबना। 231/4 निब्बंध-कारण। 173/3 निब्भच्छित-भर्त्सना करना। 90/3 निमंतणा-निमंत्रण। निमित्त-१. भिक्षा का दोष, 195, 2. ज्योतिष् संबंधी ज्ञान। 143 निम्मंस-मांस रहित। 198/15 निम्मल्ल-देव का उच्छिष्ट द्रव्य।। 141 निम्महिल-महिला रहित। 219/12 नियग-निजक, संबंधी। 76/1 नियत्त-लौटा हुआ। 219/14 निरत-लगा हुआ। 210/1 निरत्थ-निरर्थक। 240 निरातव-आतप रहित। 80/4 निल्लेव-लेप रहित पदार्थ। 295/5 निवंगणा-रानी। 91/2 निवपिंड-राजपिंड, राजा का भोजन। 185 निवात-संयोग। 192/2 निवेसण-एक ही दरवाजे वाले अनेक घर। 156 निवेसण-स्थापित करना। 231/5 निव्व-नीव्र, पटल, प्रान्त। 22/4 निव्वाण-निर्वाण। 266 49
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________________ परि.१९ : शब्दार्थ 331 68/7, 180 57/3 148/2 182 14 151 157/3 22 निव्विसय-१. उपभोक्ता, 2. देश-निष्काशन। निसग्ग-निसर्ग, निकलना। निसि-रात्रि। निसिट्ठ-अनुज्ञात। निसीय-निषीदन, बैठना। निसीह-निशीथ, प्रच्छन्न। निसीहिया-नैषेधिको क्रिया। निसेज्जा-निषद्या, साधु के रहने का स्थान। निस्संक-नि:शंक, शंका रहित। निस्संकित-नि:शंकित। निस्सेणी-निःश्रेणी, नि:सरणी। नीय-नीचा, निम्न। नीय-नीत, लाया हुआ। नीसा-निश्रा, आलम्बन। नीहम्मिय-निकलना। नीहरंत-निकलते हुए। नेम-कार्य। नेरइय-नैरयिक, नारकी। नेह-स्नेह, तैल आदि। पइदिण-प्रतिदिन। पउण-स्वस्थ। पउत्त-प्रयुक्त। पउर-प्रचुर, अधिक। पए-प्रभात। पंचिंदिय-पञ्चेन्द्रिय। पंडग-नपुंसक। पंडु-पाण्डु, पीला। पंत-अभद्र, असभ्य। पंतावण-ताड़न करना, मारना। पंति-पंक्ति। पकाम-प्रकाम, अत्यधिक / पक्ख-पक्ष। 240/4 240/2 168 136/3 157/6 73/6 136/3 236/3 पगइ-प्रकृति, स्वभाव। 219/11 पगत-प्रकरण, प्रसंग। 240/2 पगलिय-झरते हुए कोढ़ वाला। 265 पगास-प्रकाश। 138/3 पच्चइय-प्रत्यय से उत्पन्न / 80/2 पच्चंत-प्रत्यन्त, निकटवर्ती। 89/2 पच्चक्ख-प्रत्यक्ष। 225/1 पच्चक्खाणि-प्रत्याख्यानी, तपस्वी। 22/5 पच्चत्थिग-शत्रु। 210 पच्चय-हेतु / 83/2 पच्चुरस-उर के सम्मुख। 91/1 __ पच्छकड-पश्चात्कृत, साधु जीवन / से गृहस्थ बना हुआ। 180 पच्छकम्म-भिक्षा के बाद सचित्त जल से हाथ आदि धोना। 243/2 पच्छण्ण-प्रच्छन्न, गुप्त। 157/1 पच्छासंथव-पश्चात्संस्तव, भिक्षा के पश्चात् परिचय या संस्तव करना। 223 पजीवण-आजीविका। 219/13 पज्जत्त-पर्याप्त। 272 पज्जव–पर्यव। पट्ट-चोलपट्ट। 22 पट्टिय-प्रस्थित। 157/5 पड-पट। 49/1 पडण-पतन, नीचे गिरना। 166 पडागा-पताका। 210/2 पडिकुट्ठ-प्रतिकुष्ट, निषिद्ध / 160 पडिणीय-प्रत्यनीक, शत्रु। 288 पडिण्णात-प्रतिज्ञात। 128/2 पडिबंध-प्रतिबंध, लगाव। 224 पडिमंत-मंत्र के प्रतिपक्ष में प्रयुक्त मंत्र। 229 पडिय-पतित। पडियरग-प्रतिचारक। 83/5 पडियरण-प्रतिकार। 173/3 49/1 35 12 164 214/2 67/3 96/4 219/1 288/5 236/1 211 274 160 312 60 17
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________________ 332 पिंडनियुक्ति 61 217 70/5 172 पडिलाभण-लाभ देना, दान देना। 219/8 पडिलेह-निरीक्षण करना। 76 पडिवक्ख–प्रतिपक्ष, उल्टा। 288 / 8 पडिविज्जा-विद्या के प्रतिपक्ष में प्रयुक्त विद्या। 228 पडिसाहरण-प्रतिसंहरण, वापस लेना। 227/2 पडिसिद्ध-निषिद्ध। 219/3 पडिसुणण-प्रतिश्रवण। 69 पडिसेध-प्रतिषेध, निषेध। 260 पडिसेवण-प्रतिसेवन। पडिसेह-प्रतिषेध। 142/1 पडुच्च-अपेक्षा से। पडोयार-साधु का उपकरण। 22 पढम-प्रथम। 68/10 * पणय-याचना करना। 219/5 पणय-काई। पणामहज्ज-प्रणाम के द्वारा ____ आकृष्ट करना। 211 पणीत-प्रणीत, गरिष्ठ आहार। 312/1 पणुवीस-पच्चीस। पण्णत्त-प्रज्ञप्त। 52/3 पण्णवणा-प्रज्ञापना, प्ररूपण। 116/3 पण्हय-अश्रुविमोचन। 222/2 पत्त-१. चूल्हे पर चढ़े पात्र तक पहुंचने वाली अग्नि, 252, 2. पात्र, 213, 3. प्राप्त। पत्तल-पत्तों से युक्त। 91/2 पत्तेय-प्रत्येक। 43 पत्तेयबुद्ध-प्रत्येकबुद्ध। 73/13 पत्थ-पथ्य। 313/1 पत्थार-विनाश। 231 पद-पाद, पैर। 165 पदरिसण-प्रदर्शन। पदाण-प्रदान। 222/2 पदीव-प्रदीप, दीपक। 138 पदेस-प्रदेश। 41/2 पदेसिणी-तर्जनी अंगुलि। 228/1 पदोस-प्रद्वेष। 167 पप्पडिया-पपड़ी। 254 पप्फोडण-प्रस्फोटन। 117 पभव-प्रभव, उत्पत्ति। 57/3 पभाव-प्रभाव। पभिइ-प्रभृति, आदि। 33 पभु-प्रभु। पमत्त-प्रमत्त। 67/3 पमद्दण-प्रमर्दन करना। पमाण-प्रमाण। 239 पम्ह-सूत्र आदि का अत्यल्प भाग। 49/1 पय-१. दूध, 70/2, 2. श्लोक का एक चरण। 253/3 पयत्त-प्रयत्न। 239 पयार-पदचिह्न। 236/2 पयावण-प्रतापन, तपाना। 22/6 पयोयण-प्रयोजन। परदेस-परदेश। परलोग-परलोक। 136/4 परिकट्टलिय-एक स्थान पर एकत्रित। 103 परिणत-जीव रहित, अचित्त। 293 परिणामित-अचित्त किया हुआ। 295 परिताव-परिताप, दुःख। . 277 परित्त-प्रत्येक वनस्पति। 243/2 परिपिंडित-एकत्रित। 219/1 परिभायण-परिभाजन, बांटना। 76/1 परिभुत्त-खाया हुआ। 138 परिभोग-पहनना। 22/2 238 152
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________________ 333 148 212 147 161 128/1 132 86/1 219/4 236/1 230 275, 231/11 27 35 21 परि. 19 : शब्दार्थ परियट्टण-परिवर्तन, बदलना। परियट्रिय-परिवर्तित, भिक्षा का __एक दोष। परियत्त-परिवर्तन। परियावज्जण-दूषित। परिवाडि-परिपाटी, पंक्ति। परिवेसण-परोसना। परिस-परिषद्। परिसडित-सड़ा हुआ। परिसाड-गर्भपात कराना। परिसाडण-१. गिराना, 2. गर्भपात करना। परिसेय-सेक करना। परिहार-उत्सर्ग, पुरीष। परूवण-प्ररूपण। परेव्व-परसों से सम्बन्धित। पलंडु-प्याज। पलल-तिल-चूर्ण / पलाय-पलायन करना। पवयण-प्रवचन। पवयणमाया-प्रवचनमाता। पवात-प्रवात, हवा। पविट्ठ-प्रविष्ट। पवित्ति-प्रवृत्ति। पवेस-प्रवेश। पव्व-पर्व। पव्वइत-प्रव्रजित। पव्वज्जा-प्रव्रज्या। पव्वत-पर्वत। पव्वाय-म्लान। पव्वावण-प्रव्रज्या देना। पसंग-प्रसंग। पसंधण-सतत प्रवर्तन। पसंसा-प्रशंसा। 227 105 86/2 87 69/1 पसत्त-प्रसक्त, आसक्त। पसत्थ-प्रशस्त। 194/3 पसन्न-स्वच्छ। 17 पसमण-प्रशमन। 318/1 पसिद्ध-प्रसिद्ध। 68/5 पह-पथ। 89/3 पहिय-पथिक। 86/1 पहीण-प्रहीण। 302/2 पहेणग-किसी घर से आई 156/1, हुई मिठाई। 240/2 पाइण-प्राचीन, पूर्व दिशा। पाउगा-पादुका। 288/4 पाउग्ग-प्रायोग्य। 79 पाउरण-प्रावरण, वस्त्र। पाओकरण-प्रादुष्करण, भिक्षा का एक दोष। पाओयर-प्रादुष्करण, भिक्षा का एक दोष। पाग-पाक, पकाना। पागड-१. प्रकट, 2. सुख-प्रतिपाद्य। पाडण-पातन। पाणग-पानक, पेय पदार्थ। पाणवत्तिय-प्राण-धारण। 318 पाणिय-पानी। 96/1 पात-द्वार में छेद करना। 137 पाद-पैर। 277 पादलेवण-पादलेपन, पानी आदि में चलने हेतु किया गया पाद-प्रलेप। 230 पामिच्च-उधार लेना, भिक्षा का एक दोष। 144,146 पामूल-पादमूल। 150 पाय-१. पात्र, 22, 2. प्रायः। 208 73 66 25 44/3 138/3 91/3 232 160 231/2 219/15 231/4 30 37 67/5 215 68/5
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________________ 228 334 पिंडनियुक्ति पायनिज्जोग-साधु का उपकरण। 21/1 पिवीलिया-पिपीलिका, चींटी। 245/1 पायस-खीर। 90/2 पिसिय-मांस। 123 पारंपर-परम्परा से। 123 - पिह-पृथक्। 70/3 पारणग-पारणा। 90/2 पिहड-भाजन विशेष। भा. 34 पालित्तय-पादलिप्त नामक आचार्य। 228/1 पिहित-ढका हुआ, भिक्षा का 162, पालेव-पादलेप। 231/2 एक दोष। 237,257 पावकर-पाप करने वाला। 69/1 पिहीकत-अलग किया हुआ। 188/1 पावण-प्लावन। पीढ़-गोबर आदि का बना हुआ पावाजीवि-पापी। आसन विशेष। 167 पासंड--दर्शन। 186 पीलिय–पीलित, पीला हुआ। 27/1 पासंडि-पाषंडी, दर्शनी। 120 पीलु-दूध। 70/2 पास-पाव। 146 पीसण-पीसना। 281 पासण-देखना। 219/10 पुंड-तिलक। भा. 42 पासुत्त-प्रसुप्त, सोया हुआ। 156/1 पुच्छा-पृच्छा। 142/1 पाहुडिभत्त-भिक्षा का एक दोष। 136 पुच्छित-पृष्ट, पूछा गया। 89/9 पाहुडिया-साधु की भिक्षा के लिए 110,130, पुटु-पूछा हुआ। 135/1 विवक्षित समय से पूर्व या 131,270 / पुढविक्काय-पृथ्वीकाय। 8,9,10 बाद में भोज्य करना, भिक्षा पुणक्करण-पुनः करना। 104 का एक दोष। पुण्ण-पुण्य। पाहुण–प्राणूंणक, अतिथि। 219/15 पुत्तय-पुत्र। 132 पाहेणग-मिठाई। 134 पुत्थ-पुस्त, लेप्यादि कर्म। पिंजण-रुई धुनना। 2887 पुष्फ-पुष्प। 31 पिंड-पिण्ड, समूह। पुरकम्म-भिक्षा से पूर्व किया जाने पिंडणा-समूह। वाला कर्म। 243/2 पिंडरस-खजूर आदि का रस। पुरिमड्ड-पुरिमार्ध, तपस्या पिंडवाय-आहारलाभ। भा. 3 का एक प्रकार। 157/3 पिंडित-पिण्डित। पुरिस-पुरुष। 310 पिट्टण-पिट्टन, पीटना। 22/6 पुव्व-पूर्व। 22/5 पिट्ठ-पृष्ठ, पीठ। पुव्वसंथव-भिक्षा से पूर्व संस्तव। 222 पिढरग-पात्र विशेष। पुव्वाग-पूर्वक। 159 पिति-पिता। 68/9 पुव्वुत्त-पूर्वोक्त। 211 पिप्पल-क्षुरविशेष। पूइय-पूति दोष युक्त। 80/3,111, पियण-पान करना। 116 179 298 50 255 255
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________________ परि. 19 : शब्दार्थ 335 302/3 87 20 94 106 304 41/1 288/4 68/11 78 11 194/1, 73/17 17/1 312/1 8 पूति-अपवित्र, साधु की भिक्षा का 58,107, बलागा-बलाका। एक दोष। 108/2,110,118,138/1,191 बलि-उपहार। पूप-मालपुआ। 255 बहुहा-बहुधा। पूयाहज्ज-पूजितपूजक। 210/2 बाउस-बकुश। पेज्ज-जौ आदि का दलिया। 297 बारस-बारह। पेयालण-प्रमाण। . 45/1 बाहिर-बाह्य। पेल्लण-प्रेरणा / 163/7 बाहिरिया-बाह्य। पेल्लिय-प्रेरित / 198/7 बाहुल्ल-बाहुल्य, प्रचुरता। पेहा-प्रेक्षा। 318/2 बिट्ठ-बैठा हुआ। पोग्गल-मांस। 40 बितिय-द्वितीय। पोत्त-लघु बालक योग्य वस्त्र-खंड। 141 बीजपूर-बिजौरा। पोत्ति-मुखवस्त्रिका, साधु का उपकरण। 22 बीय-१. बीज, पोरिसि-पौरुषी। 2. द्वितीय। पोह-भैंस आदि के मल का ढेर। 108/1 बुब्बुय-बुद्बुद। फड्डग–अंश, भाग। 113/2 बुह-बुध, ज्ञानी। फलग-फलक, साधु का उपकरण। 32 बेइंदिय-दो इंद्रिय वाला। फाणित-गुड़ का विकार विशेष। बोड-मुंडित सिर वाला। फालिय-फटा हुआ। 145 बोल-उच्च स्वर में बोलना। फासुग-प्रासुक। 162 बोहणा-बोध, ज्ञान। फुड-स्फुट, निर्मल। बोहि-बोधि। फुरुफुरंत-कांपना, थरथराना। भइय-भजना युक्त। फेडण–विनाश। 185 भंडग-पात्र। फोड-बहुभक्षक। भग्ग-भग्न। फोडण-१. स्फोटन-राई आदि से 112, भज्जण-चने आदि भूनना। शाक आदि को बघारना, भज्जा-भार्या। 2. फटना, विदारण। 168 भति-भृति, वेतन। बंधग-बंधन करने वाला। 90 भत्तय-भोजन। बंभ-ब्रह्मचर्य। भद्दग-भद्रक, अच्छा / बंभचेरगुत्ति-ब्रह्मचर्य की गुप्तियां। 320 * भमाड-घुमाना। बंभबंधु-ब्राह्मण। 210/1 भयणा-भजना। बगुड्डाव-बकोड्डायक, एक प्रकार का भयय-भूतक, कर्मकर। महिला प्रधान पुरुष। 219/6 भर-समूह। बष्फ-वाष्प। 116/1 भरग-भरा हुआ। 103 50 283 106 219/8 214/1 148 73/20 17/1 198/15 281 223 173/2 76/4 211 228/1 66/1 173 61/1 20 255
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________________ 336 पिंडनियुक्ति भरह-भरत चक्रवर्ती। 219/14 भविय-भव्य, होने वाला। 73/1 भाइय-भागीदार। भाण-पात्र, भाजन। 19 भासा-भाषा। 207/3 भासित-कथित, कहा हुआ। 96/3 भिक्खा-भिक्षा 37,76 भिक्खायरि-भिक्षाचर्या / 198/4 भिक्खु-भिक्षु। 227 भिस-भृश, अत्यधिक। 276 भीरुय-डरपोक। 198/15 भूमिदेव-ब्राह्मण। 210/1 भेसज्ज-भेषज। 40 भोइ-भोग करने वाला। 90 भोइग-भोजक, भोग करने वाला। 68/5 भोइणी-ग्रामाध्यक्ष की पत्नी। 205 भोइय-ग्राम-प्रमुख।' 205 भोई-भार्या। 173/2 भोज्ज-भोज्य। 85 भोम-पृथ्वी से सम्बन्धित। मइम-मतिमान्। 198/2 मइल-मलिन। 149 मइलिय-मलिन। 145 मउय-मृदु। 198/14 मंख–पट दिखाकर लोगों को आकृष्ट करने वाला। 142 मंचग-पलंग। 167 मंडग-रोटी। 296 मंडण-प्रसाधन। मंडणधाई-प्रसाधन की धात्री। 198/12 मंडल-एक मल्ल के लिए लभ्य भूखण्ड। 207/3 मंडलपसुत्ति-कुष्ठ रोग का एक प्रकार। 288/4 मंत-मंत्र। 207/2 मंतण-मंत्र का प्रयोग। 227/2 मंस-मांस। 86 मंसपेसि-मांसपेशी। 86/1 मक्खित-म्रक्षित, भिक्षा का एक 237,238/1, दोष। 242,243,243/3,244 मगर-मगरमच्छ। 154 मगह-मगध देश। 89/2 मग्गणा-मार्गणा, गवेषणा, उद्गम। 51 मच्चु-मृत्यु। 52/1 मच्छंडिय-शर्करा का प्रकार। 129 मच्छ-मत्स्य। 302 मच्छर-मात्सर्य। 148/1 मच्छि-मक्खी। 245/1 मच्छिय-मच्छीमार, मात्स्यिक। 302/2 मच्छिया-मक्षिका, मक्खी। मज्जणधाई-स्नान कराने वाली धाई। 197 मज्जार-मार्जार, बिलाव। 86 मज्जित-स्नान किया हुआ। 198/12 मज्झंतिग-मध्य। 90/1 मज्झ-मध्य। मज्झिम-मध्यम। मत-मृत। 73/6 मत्त-१. पात्र, 244, 2. उन्मत्त। 265 मत्थु-दही और छाछ के बीच __ की अवस्था। 128/3 मम्मण-अव्यक्त वाणी। 198/14 मय-मृत। 208/1 मल्लग-पात्र विशेष। 90/3 मसूर-मसूर की दाल। 296 महण-मथना। 44/3 महल्ल-बड़ा। 264 महिगा-कोहरा। 320/1 263 10 161 96/1
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________________ परि. 19 : शब्दार्थ 337 69 महिरुह-वृक्ष। 243/2 महिलिया-महिला। 310 महिसी-भैंस। 108/1 मही-पृथ्वी। 210/5 महुबिंदु-मधुबिंदु नामक दृष्टान्त। 301 महुर-मधुर। 77 माइ-मायावी। 228 माइठाण-माया। 231/3 माणपिंड-मानपिंड-भिक्षा का एक दोष। 219 माति-माता। 208/1 मारग-मारक, मारने वाला। मारुत-वायु। 57/3 माल-ऊपर का कमरा। 166 मालोहड-मालापहृत, भिक्षा का एक 59,165, दोष, ऊपर से उतारकर 169,170 भिक्षा देना। मास-माष, उड़द। 296 मासिग--मासिक। 90/2 माहण-ब्राह्मण। 208 मिच्छत्त-मिथ्यात्व। 44/4 मिच्छद्दिट्ठी-मिथ्यादृष्टि। 83/3 मित्त-मात्र। 109 मिम्मय-मृन्मय, मिट्टी का बर्तन आदि। 156 मियाहार-प्रमाणोपेत आहार करने वाला। मिलाण-म्लान। मिस्सित-मिश्रित। मीसग-मिश्रक। 22/4 मीसजात-मिश्रजात, भिक्षा का 120, एक दोष। 187,190 मुइंग-कीटिका, चींटी। 163/3 मुग्ग-मूंग। 296 मुच्छा-मूर्छा। 89/3 मुच्छित-मूर्च्छित। 96/2 मुट्ठ-वह व्यक्ति, जिसकी वस्तु _ चुराई गई हो। 227/2 मुणिय-जानकर। 134 मुत्त-१. मूर्त, 41/1, 2. प्रस्रवण। 245/2 मुद्दिय-मुद्रित, बंद किया हुआ। 164 मुद्ध-मुग्ध। मुम्मुर-लाल रंग के अग्नि-कण, करीषाग्नि। 252 मुरुंड-इस नाम का राजा। 227,228/1 मुह-मुख। 1987 मुहपोत्ति-मुखवस्त्रिका। 73/2 मूलकम्म-मूलकर्म। 231/5 मूसा-चूहा। 163/5 मेरा-मर्यादा। 101/1 मो-पादपूर्ति रूप अवयव। 73/3 मोक्ख-मोक्ष। 49/1,240 मोदग-मोदक, लड्ड। 219/9 मोय-प्रस्रवण। 219/3 रक्खा-रक्षा। 68/4 रज्ज-राज्य। 61/1 रट्ठपाल-राष्ट्रपाल नामक नाटक, जो भरत चक्रवर्ती के जीवन पर बनाया गया था। 219/13 रडण-रुदन करना, क्रंदन करना। 96/1 रण-राजा। 68/9 रत्तच्छ-रक्ताक्ष, लाल आंखों वाला। 198/11 रद्ध-राद्ध, पकाया हुआ। 76/3 रमणिज्ज-रमणीय। 76 रयण-रत्न। 138 रयणा-रचना। 253/3 रयय-रजत। 194/2 313 109
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________________ 338 पिंडनियुक्ति 273 219/11 136/5 280, 237 106 17/2 30 83/1 69/2 90/3 163/1 117/3 रयहरण-रजोहरण। 22 रसग-रसज जीव। 280 रह-रथ। 70/3 राय-राजा। 219/9 रायकुल-राजकुल। 217 रायगिह-इस नाम की नगरी। 216,219/9 रायपुत्त-राजपुत्र। 68/6 रायमास-राजमाष, धान्य विशेष।। 296 रायसुत-राजसुत। 68/9 रालग-रालक, धान्य विशेष। 76 रासि-राशि, समूह। रिउ-ऋतु। 69/4 रिण-ऋण। 57/1 रिते-बिना, सिवाय। 173/4 रुंचण-रुई से कपास को अलग करने की क्रिया। 281 रुंटण-अवज्ञा। 90/3 रुंपण-रोपना। 76/1 रुक्ख-वृक्षा 53/2 रुट्ठ-रुष्ट, नाराज। 89/8 रुय-रोग। 83/5 रेहा-रेखा। 95/2 लइय-पहना हुआ। 284 लंबण-कवल। 305 लक्खण-लक्षण। 80/5 लग्ग-१. निमग्न, 96/1, 2. लगा हुआ। 288/5 लड्डग-मोदक। 57 लद्ध-लब्ध। 157/5 लद्धि-लब्धि। 219 लसुण-ल्हसुन। 86/2 लहु-लघु। लहुय-हल्का / 259/1 लाल-लार। लिंग-वेश। लिंगोवजीवि-केवल लिंग के आधार पर जीने वाला। लित्त-१. लिप्त, 2. भिक्षा का एक दोष। लुक्क-केश रहित किया हुआ। लुक्ख-रुक्ष। लुट्ट-कच्चा चावल। लुद्ध-लुब्ध। लूह-रूक्ष। लेच्छारिग-खरण्टित, लिप्त। लेलु-मिट्टी का ढेला। लेव-लेप। लेसा-लेश्या। लोइय-लौकिक। लोग-लोक। लोगुत्तर-लोकोत्तर। लोण-लवण। लोय-१. लोक, 2. लोच। लोहिय-रक्त। वइक्कम-व्यतिक्रम। वइया-लघु गोकुल। वंजण-१. व्यञ्जन, सब्जी, 2. आहार। वंत-वान्त। वग्ग-व्यग्र। वग्घ-व्याघ्र / वच्चंत-जाते हुए। वच्च-वाच्य। वच्छ-वत्स, बछड़ा। वच्छग-बछड़ा। 144 21/2 144 12 70/2, 136/1 231/8 82/3 142 25, 313/2 85 268 201/1 57/1 68 96 96/1
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________________ परि. 19 : शब्दार्थ 339 वज्ज-वर्ण्य। वज्जणिज्ज-वर्जनीय। 270 वट्टमाण-वर्तमान। 204 वडग-दाल आदि का बड़ा। 305 वडित-वर्धित, बढ़ा हुआ। 80/2 वणसइकाय-वनस्पतिकाय। वणसंड-वनखण्ड। 236/1 वणि-वणिक् / 89/1 वणिय-वणिक्। 69/1 वणीम-वनीपक, श्रमण का एक प्रकार। 208 वणीमग-वनीपक, भिक्षा का एक दोष। 195 वण्ण-वर्ण। वण्णग-चन्दन आदि सुगंधित द्रव्य। 141 वतिक्कम-व्यतिक्रम। 82 वत्तव्व-वक्तव्य। 181/1 वत्थ-वस्त्र। 227/1 वत्थव्व-वास्तव्य, निवासी। 199 वत्थि-वस्ति, दृति। 28 वय-१. व्रत, 136/6, 2. व्यय, 179/1, 3. अवस्था / 198/5 वयण-१. वदन, मुख, 305, 2. वचन। 200 वराडय-कपर्दक। वलय-मोड़ने वाला। 143/2 वलया-समुद्री लहर, समुद्री तट। 302/3 वलवा-घोड़ी। 205 वलिय-भुक्त। 108/2 वल्ल-काली उड़द, निष्पाव। 108/1 वल्लभत्त-प्रियता। 217 ववहार-न्याय। 180 ववहारनय-व्यवहारनय। ववहारिय-व्यावहारिक। वसही-वसति। 119 वसिकरण-वशीकरण, वश में करने की विद्या। 231 वसिय-रहा हुआ। 207/1 वहण-वध। 68/9 वाइय-वाचिक। 68/11 वाउ-वायुकाय। 8,20,26, 28,258 वाघात-व्याघात। 219/13 वाडग-मुहल्ला। 156 वाणियग-वणिक्, बनिया। 89/2 वात-वायु / 313/2 वादि-वाद करने वाला। 143/3 वाम-उल्टा। 253/3 वाय-१. वात, वायु, 54, 2. वाद। 143 वायणायरिय-वाचनाचार्य। 143/3 वारग-लघु घट। 127 वालचिय-लोमश पुरुष। 194/1 वालुंक-पक्वान्न विशेष। 305 वास-१. वर्षाकाल, चातुर्मासकाल, 142/1, 2. वर्षा। वासघर-शयनगृह। 57/2 विंट-वृन्त, फल का बंधन। विकत्थणा-प्रशंसा। 69/4 विकप्प-विकल्प। 198/4 विकोवण-विस्तृत रूप से प्रकट करना। 47 विक्कय-विक्रय। 163 विगडंत-आचार्य के समक्ष आलोचना करते हुए। 240/3 विगड-जिसको समझना कठिन हो। 50 विगड-देश विशेष में प्रसिद्ध मदिरा। 103 17 16
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________________ 340 पिंडनियुक्ति 253 45 87 विगडपाद-विकटपाद, दोनों पैरों में अंतराल वाला। 198/15 विगिंचण-विवेक करना। 220/2 विग्घ-विघ्न। 198/9 विचेल-वस्त्र रहित। 219/13 विच्छोडित-अंगुलि आदि से साफ किया हुआ। 125 विज्ज-वैद्य। 313 विज्जा-विद्या। 217 विज्जु-विद्युत्। 24 विज्झात-बाहर से बुझी हुई अग्नि। 252 विणासित-विनष्ट। 91/4 विण्णेय-विज्ञेय, जानना चाहिए। वित्थर-विस्तार। 207/4 विप्पजढ-त्यक्त। 31 विप्पुस-कण, बिंदु। विभासितव्व-कथन योग्य। 69 विभूसित-विभूषित। 69/3 विमुक्क-विमुक्त। 68/11 विमुत्त-अमूर्त। 41/1 विम्हय–विस्मय, आश्चर्य। 231/4 वियणा-वेदना। 228/1 वियालण-विचारणा। 288/1 विरह-एकान्त। 219/12 विलक्ख-लज्जा सहित। 89/8 विलिय-लज्जित, उदासीन। 136/3 विलुक्क-मुण्डित सिर या लुप्त केश वाला। 136 विवज्ज–छोड़कर, परित्याग करके। 274 विवत्ति-विपत्ति। 219/8 विस-विष। 13 विसग्ग-छोड़ना। 91/3 विसघातिय-विषघातिक। विसज्ज-छोड़ना। 144/3 विसय-१. शब्द आदि इंद्रिय-विषय, 96/2, 2. ज्ञेय पदार्थ। 204 विसरिस-विसदृश, असमान। 73/5 विसारण-फल, फूल आदि के टुकड़ों को सुखाने के लिए धूप में रखना। 283 विसाल-विशाल। विसिट्ठ-विशिष्ट। 101 विसेस-विशेष। 290 विसेसित-विशेषण युक्त किया हुआ, भेदित। 73/4 विसोहि-विशोधि। 324 विसोहिकोडि-विशोधिकोटि, भिक्षा का एक दोष, जिस दोष वाले आहार का त्याग करने पर शेष भिक्षा या भिक्षा-पात्र विशुद्ध हो जाए। 189 विहवा-विधवा। 222/2 विहि-विधि। 72 विहिय-विहित। 194/2 विहूण-विहीन, रहित। 80/5 वीत-रहित। 316 वीवाह-विवाह। 219/11 वीसु-अलग। 73/13 वुक्कंत-व्युत्क्रान्त। 12 वुड्ड-वृद्ध। 265 वुड्डि-वृद्धि। 144/2 वुत्त-उक्त, कहा गया। 179 वेज्ज-वैद्य। 34 वेण्ण-इस नाम का द्वीप। 231/2 वेद-ग्रंथ। 86/2 वेदण-वेदना। 318 वेयावच्च-वैयावृत्त्य। 318 123
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________________ वोसिरण-व्युत्सर्जन। 86/1 परि. 19 : शब्दार्थ 341 वेरग्ग-वैराग्य। 57/4 जिसे बाहर ले जाया जा सके। 138/1 वेला-१. समय, 99/2, * संछुभ-एक स्थान पर एकत्रित 2. नवमास वाली गर्भवती स्त्री। 288/5 करना। 142/2 वेवित-कम्पित। 288/3 संजमठाण-संयमस्थान। वेसण-जीरा, नमक आदि मसाला। 51 संजय-संयत। 73/5 वोच्छेद-व्यवच्छेद। 167 संजुत्त-संयुक्त। 148 वोलिंत-गति करते हुए, चलते हुए। 76/2 संजोग-संयोग। वोलीण-पिठर-कर्ण के ऊपर तक संजोयणा-ग्रासैषणा का एक दोष, पहुंचने वाली अग्नि। 252 स्वाद के लिए दो वस्तुओं को मिलाकर खाना। 304 सइंगाल-ग्रासैषणा का एक दोष, संत-विद्यमान। 226 आसक्त होकर भोजन करना। 314 संताण-अविच्छिन्न परंपरा / 231/9 सइ-सकृद्, एक बार। 302/3 संतिय-पास। 287 सएज्झिया-पड़ोसिन। 157/6 संथर-निर्वाह, प्राप्ति। 192/5 संकड-विषम। 302/5 संथव-परिचय करना, भिक्षा का 142/1, संकमण-संक्रमण। 275 एक दोष। 221 संकलिय-शृंखलाबद्ध। 101/1 संथार-संस्तारक। संकहा-संकथा, वार्ता। 76/2 संदिट्ठ-संदिष्ट। 288/1 संकामण-एक बर्तन से दूसरे बर्तन संपति-वर्तमान, अब। 295/6 में डालना। 112 संपाइम-संपातिम जीव। संकित-शंकायुक्त, भिक्षा का एक दोष। 235,237, संपिंडण-समूह। 238 संबाहिय-हाथ से दबाना। 198/12 संकिलिट्ठ-संक्लिष्ट। 67/1 संबोह-संबोध। 166/2 संख-शंख। 34 संभारित-मसाला आदि डालकर संखड-कलह। 148 उपस्कृत किया हुआ। 86/1 संखडि-१. भोज, जीमनवार, 99/1, संभोइय-समान सामाचारी के कारण 2. विवाह-भोज, 134, जिस साधु के साथ आहार आदि 3. कलह। का संबंध हो सके। 219/9 संखा-संख्या। 41/1 संलाव-संलाप, बातचीत। 119/1 संखेव-संक्षेप। संसज्जिम-वह द्रव्य, जो जीवों से संघट्टण-स्पर्श करना। 279 युक्त हो। 285 संघभत्त-सामूहिक भोज। 119/1 संसट्ठ-संसृष्ट लिप्त। 191 संघाडग-साधु का सिंघाडा, वर्ग। 219/10 / संसत्त-संसक्त, लगा हुआ। संचारिमा-घर के अन्दर का चूल्हा, संसमण-उपशमन। 214/3 32 20 175 50 280
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________________ 342 पिंडनियुक्ति 214/3 70/4, 209 129 70/3 282 223 116/4 76 - 96/2 292, 148 144 33 संसोधण-शुद्धि करना। सक्क -1. इंद्र, 2. शाक्य, श्रमण का एक प्रकार। सक्करा-शर्करा। सगड-शकट, बैलगाड़ी। सच्चित्त-सचित्त। सजिय-सजीव। सज्ज-सद्यः, शीघ्र। सज्झ-साध्य। सज्झाय-स्वाध्याय। सज्झिलग-१. भाई, 2. पड़ोसी। सज्झिलगा-भगिनी। सट्ठाण-स्वस्थान। सड्ढ-श्राद्ध, श्रद्धालु। सड्डी-श्राविका। सण्णा -उच्चार, मल। सण्णिजुज्जंत- उपयुक्त स्थान पर लगा हुआ। सत्त-१. सत्त्व, शक्ति, 2. सात। सत्तरी-सत्तर। सत्तु-शत्रु। सत्तुग-सत्तु, खाद्य विशेष / सदेस-स्वदेश। सद्द-शब्द। सधूम-ग्रासैषणा का एक दोष, आहार की निंदा करते हुए भोजन करना। सन्नायग-स्वजन। सपक्ख-स्वपक्ष। सपच्चवाय-अपाय से युक्त। सप्पि -घी। 119/1 157/1 108/1 सब्भाव-सद्भाव, यथार्थ / समक्ख-समक्ष। 198/5 समक्खात-समाख्यात, कथित। 50 समग्ग-समग्र / 324 समजाल-चूल्हे पर चढ़े पिठर के कर्ण तक पहुंचने वाली अग्नि। 252 समण-श्रमण। 73/5,96/3 समणधम्म-अमणधर्म। 44/3 समणुण्णात-समनुज्ञात / 177/2 समतिच्छिय-अतिक्रान्त करना। 252/2 समय-सिद्धान्त। समहिय-अधिक। समाओग-समायोग, मिलन। 313/1 समादेस-औद्देशिक दोष का एक भेद। 97 समारंभ-हिंसा। 144/3 समास-संक्षेप। 144 समित–समिति से युक्त। 136/5 समितिम-माण्ड। 89/5 समिधा-यज्ञ की लकड़ी। 207/2 समिय-१. रोटी, गेहूं के आटे का खाद्य विशेष, 108/1, 2. समित नाम के आचार्य / 230, 231/3,4 समुट्ठित-समुत्थित, सम्बन्धित। 193 समुत्तुइअ-गर्वित। 219 समुत्थ-उत्पन्न। 57/3 समुद्द-समुद्र। समुद्दि?-व्याख्यात। समुद्देस-औद्देशिक दोष का भेद, पाषंडियों के लिए बनाया गया आहार। 98 समुद्देसिय–समुद्देशिक, औद्देशिक दोष का भेद। समुसरण-समवसरण, समूह। 213 302/4, 44 192/7 52/1 89/5 152 70/6 16 314 320/1 81 270 305
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________________ परि. 19 : शब्दार्थ 343 समोगाढ-समवगाढ़। 41/2 समोतार-समवतार। 91/4 समोसरण-साधु-समुदाय। 131 सम्म-सम्यक्। 207/2 सम्मत्त-सम्यक्त्व। 57/4 सरक्ख-१. राख से अवगुंठित, 37, 2. सरजस्क, सचित्त कणों __ से युक्त। 243/1 सरडु-शलादु, कोमल। सराव-शराव, सिकोरा। 57/2 सरिच्छ-सदृश, समान। 89 सरिस-सदृश। 192/2 सरिसिय-सदृश। 318/1 सरीर-शरीर। 136/1 सरूव-स्वरूप। 74 सवत्ति-सपत्नी, सौत। 231/7 सवत्तिणी-सपत्नी, सौत। 231/10 सव्वदंसि-सर्वज्ञ। ससा-स्वसा, बहिन। 144/1 ससुर-श्वसुर। 222 सहस-सहस्र, हजार। सहोढ-चोरी के माल से युक्त। 179/2 साइम-स्वादिम। 75,78 साउ-स्वादु। 69/4 साग-१. शाक, 40, 2. श्रावक। 73/14 सागारि-गृहस्थ। 142/1 साण-श्वान। 208 सादिव्व-देव का अनुग्रह। 199 साधम्मि-साधर्मिक। 73/13 सामत्थण-पर्यालोचन। 68/9 सामन्न-सामान्य। 179 सामि-स्वामी। 295 सामिय-स्वामी सम्बन्धी। 181/1 साल-शाखा। 91/2 सालि-चावल। 75 सावग-श्रावक। 157/3 सावय-श्वापद। 89/3 सासु-सास। 222 साहण-१. सिद्ध करना, 302/1, 2. कथन करना। 101/1 साहम्मिय-साधार्मिक। 72 साहरण-संहरण,भिक्षा का एक दोष। 263,291 साहरिय-भिक्षा का एक दोष, अन्यत्र क्षिप्त। 237 साहा-शाखा। 231/4 साहारण-१. अन्यत्र क्षिप्त भिक्षा का एक दोष, 260,263, 2. सामान्य। 313/3 साही-गली। 156 साहु-साधु। 77,295 सिंग-श्रृंग, सींग। 36 सिझंत-सीझते हुए। 113 सिट्ठ-कथित, कहा हुआ। 135/1 सिणिद्ध-स्निग्ध। 220 सिणेह-स्नेह, प्रेम। 219/11 सिति-सीढ़ी। 219/8 सिद्धत्थग-सिद्धार्थक नामक पुष्प। 284 सिप्प-शिल्प। 143, 207, 207/4 सिप्पि-शुक्ति। 34 सिला-शिला, पाषाणखंड। 163/1 सिव-शिव, उपशान्त। 288/3 सी-शीत। सीति-श्रिति, सीढ़ी। * सीद-फलना। 323 120
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________________ 344 पिंडनियुक्ति 48 75 सीवण्णी-श्रीपर्णी फल। 53/2 सेज्जा-शय्या। सीस-१. शीर्ष, सिर , सेज्जातरी-शय्यातरी, साधु को 2. शिष्य। स्थान देने वाली। 202 सीहकेसरय-सिंहकेशरक मोदक। 216,220/1 सेडंगलि-श्वेताङ्गलि. एक प्रकार का सुइ-शुचि, पवित्र। 288/3 महिला प्रधान पुरुष। 219/6 सुइव्व-आगामी काल से सम्बन्धित। 105 सेस-शेष। 66/1 सुंठी-झूठ। सेह-शैक्ष। 22/5 सुक्कड़ी-शुष्क कटी, पतली कमर। 198/15 सेहर-शिखा वाला। 87 सुणग-कुत्ता। 86 सोक्ख-सौख्य, सुख से युक्त। 96/2 सुण्ण-शून्य। 70/5 सोणिय-रक्त, शोणित। 245/2 सुण्हा-पुत्रवधू। 173 सोत-श्रोत्र। 96/3 सुत-१. सुत, पुत्र, 194/1, सोत्तिय-श्रोत्रिय ब्राह्मण / 207/1 2. श्रुत। 239/1 सोवाण-सोपान। 170 सुतट्ठाण-आचार्य। 143 सोवीर-सौवीर, काञ्जिक। 40,295/7 सुतनाणि-श्रुतज्ञानी। 239 सोहित-शोधित। 240/2 सुतोवउत्त-श्रुत में उपयुक्त। 239/1 हंदि-आमंत्रण सूचक अव्यय। 94/1, सुत्त-सूत्र। 240 173/3 सुद्ध-शुद्ध। 75 हत-प्रतिहत। 91/2 सुन्न-शून्य। 156/1 हत्थ-हाथ। 19 सुय-आने वाला कल। 128/2 हत्थकप्प-हस्तकल्प नामक नगर। 216 सुरट्ठ-सौराष्ट्र। 89/5 हत्थि-हाथी। 54/1 सुरा-शराब। 86/2 हत्थिच्चग-हाथ का आभूषण। 198/13 सुसक्कय-सुसंस्कृत। हरित-हरियाली। 255 सुह-सुख। 102 हिंगु-हींग। 112 सुहुम-सूक्ष्म। 116/2 हिट्ठिल्ल-अधस्तन, नीचे का। 73/20 सूइत-सूचित। 212 हित-चुराया हुआ। 145 सूभगकर-सौभाग्य करने वाला। 231/1 हियय-हृदय। 61/1 सूया-स्पष्ट रूप से कौशल हिरिम-लज्जावान् / 240/1 प्रकट करना। 206 हे?-अधः, नीचे का। सूरोदय-सूर्योदय नामक उद्यान। 91 / / हेट्ठामुही-अध:मुखी। 114 सूव-सूप। 297 - होम-हवन आदि क्रिया / 207/1
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________________ (परिशिष्ट-२० संकेत ग्रंथ सूची अंत पिनि अंवि अव अनध आ आचूला आनि आवचू आवनि आवमटी आवहाटी प्रसा इसि उनि उशांवृ ओनि ओनिटी ओभा ओभाटी मनु मवृ अंतकृद्दशा पिंप्रटी अंगविज्जा अवचूरि पिनिमवृ अनगारधर्मामृत पिभा आयारो आचारांग चूला प्रव आचारांगनियुक्ति आवश्यक चूर्णि प्रसाटी आवश्यकनियुक्ति बृभा आवश्यक मलयगिरीया टीका बृभाटी आवश्यक हारिभद्रीय टीका बृभापी इसिभासियाई भआ उत्तराध्ययन भग उत्तराध्ययननियुक्ति भग भा. उत्तराध्ययन शांत्याचार्यवृत्ति भटी ओघनियुक्ति भापा ओघनियुक्ति टीका ओघनियुक्ति भाष्य ओघनियुक्ति भाष्य टीका महा कौटिलीय अर्थशास्त्र मूला चारित्रसार जीतकल्पभाष्य मोपा जीतकल्पसूत्र राज ज्ञाताधर्मकथा रावा दशवैकालिक विभा दशवैकालिक अगस्त्यसिंहचूर्णि विभामहेटी दशवैकालिक जिनदासचूर्णि दशवैकालिक नियुक्ति विभास्वोटी दशवैकालिक हारिभद्रीय टीका दशाश्रुतस्कन्ध वीवृ द्रष्टव्य निशीथ व्यभा निशीथचूर्णि सम निशीथ पीठिका भूमिका समटी निशीथभाष्य पंचकल्पभाष्य सूटी पंचाशक प्रकरण स्था पंचवस्तु स्थाटी पिण्डविशुद्धिप्रकरण हपु FIZE-?llsvisi pribal l = iu-te को पिण्डविशुद्धिप्रकरण टीका पिण्डनियुक्ति पिण्डनियुक्ति मलयगिरीया टीका पिण्डनियुक्ति भाष्य प्रश्नव्याकरण प्रवचनसार प्रवचनसारोद्धार प्रवचनसारोद्धार टीका बृहत्कल्पभाष्य बृहत्कल्पभाष्य टीका बृहत्कल्पभाष्य पीठिका भगवती आराधना भगवती भगवती भाष्य भगवती टीका भावपाहुड मनुस्मृति पिण्डनियुक्ति मलयगिरीया वृत्ति महाभारत मूलाचार मूलाचार टीका मोक्षपाहुड राजप्रश्नीय तत्त्वार्थ राजवार्तिक विशेषावश्यक भाष्य . विशेषावश्यक मलधारी हेमचन्द्र टीका विशेषावश्यक भाष्य स्वोपज्ञ टीका पिण्डनियुक्ति की वीराचार्य कृत वृत्ति व्यवहारभाष्य समवाओ समवायांग टीका सूयगडो सूत्रकृतांग टीका स्थानांग स्थानांग टीका हरिवंश पुराण चासा मूलाटी जीभा जीसू ज्ञा दश दशअचू दशजिचू दशनि दशहाटी दश्रु नि निचू निपीभू निभा पंकभा पंचा पंव पिंप्र
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________________ परिशिष्ट-२१ प्रयुक्त ग्रंथ सूची मूलग्रंथ सूची अंगविज्जा-सं. मुनि पुण्यविजय, प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, बनारस, सन् 1957 / अंतकृद्दशा-(अंगसुत्ताणि भा. 3) वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. मुनि नथमल, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), वि. सं. 2031 / अनगारधर्मामृत-सं. पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, सन् 1977 / अष्टकप्रकरणम्-प्रो. सागरमल जैन, पार्श्वनाथ विद्यापीठ एवं प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, सन् 2000 / अष्टपाहुड़-आचार्य कुंदकुंद, सं. डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल, श्री कुंदकुंद कहान दिगम्बर जैन तीर्थ, जयपुर, सन् 1994 / आचारचूला-(अंगसुत्ताणि भा. 1) वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. मुनि नथमल, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), वि. सं. 2031 / आचारांग चूर्णि-जिनदासगणि, श्री ऋषभदेव केशरीमल श्वे. संस्था, रतलाम, सन् 1941 / आचारांग नियुक्ति (नियुक्तिपंचक)-वाप्र. आचार्य तुलसी, प्रसं. आचार्य महाप्रज्ञ, सं. समणी कुसुमप्रज्ञा, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 1999 / आदिपुराण--आ. जिनसेन, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, सन् 1993 / आयारो-वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. मुनि नथमल, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), वि. सं. 2031 / आवश्यक चूर्णि-आचार्य जिनदास, श्री ऋषभदेव केशरीमल श्वे. संस्था, रतलाम, सन् 1929 / आवश्यकनियुक्ति-सं. डा. समणी कुसुमप्रज्ञा, जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं (राज.), सन् 2001 / आवश्यक मलयगिरि टीका भा. १-सेठ देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार एवं आगमोदय समिति, मुम्बई, सन् 1928 / आवश्यक हारिभद्रीया टीका-भा. 1 आचार्य हरिभद्र, भैरुलाल कन्हैयालाल कोठारी धार्मिक ट्रस्ट, मुम्बई, वि. सं. 2038 / आवश्यक हारिभद्रीया टीका भा. २-वही। इसिभासियाई-सम्पादित, अप्रकाशित, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.)। उत्तराध्ययन-वाप्र. आचार्य तलसी. सं. यवाचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती संस्थान, सन 1993 / उत्तराध्ययन नियुक्ति (नियुक्ति पंचक)-आचार्य भद्रबाहु, वाप्र. आचार्य तुलसी, प्रसं. आचार्य महाप्रज्ञ, सं. डॉ. समणी कुसुमप्रज्ञा, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 1999 / उत्तराध्ययन शांत्याचार्यवृत्ति-देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, मुम्बई, सन् 1973 / ऋग्वेद-पं. श्रीराम शर्मा, संस्कृति संस्थान, (वेदनगर) बरेली, सन् 1969 /
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________________ परि. 21 : प्रयुक्त ग्रंथ सूची 347 ओघनियुक्ति-आचार्य भद्रबाहु, श्री आगमोदय समिति, महेसाणा, सन् 1919 / ओघनियुक्ति टीका-द्रोणाचार्य, श्री आगमोदय समिति, महेसाणा, सन् 1919 / ओघनियुक्ति भाष्य-श्री आगमोदय समिति, महेसाणा, सन् 1919 / कठोपनिषद्-सं. डॉ. बैजनाथ पाण्डेय, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, सन् 1977 / कौटिलीय अर्थशास्त्र-सं. वाचस्पति गैरोला, चौखम्भा विद्या भवन, वाराणसी, सन् 1991 / चारित्रसार-महावीरजी, वी नि. सन् 2488 / जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति टीका-नगीनभाई घेलाभाई झवेरी, मुम्बई, सन् 1920 / जीतकल्पभाष्य-जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, सं. मुनि पुण्यविजय, बबलचन्द्र केशवलाल मोदी, अहमदाबाद, _ वि. सं. 1994 / जीतकल्पसूत्र-सं. मुनि जिनविजय, जैन साहित्य संशोधक समिति, अहमदाबाद, वि. सं. 1982 / जैनधर्मवरस्तोत्र-देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था, सूरत, सन् 1933 / ज्ञाताधर्मकथा-वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. आचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 2003 / दशवैकालिक अगस्त्यसिंहचूर्णि-सं. मुनि पुण्यविजय, प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, अहमदाबाद, सन् 1973 / दशवैकालिक जिनदासचूर्णि-जिनदासगणी, श्री ऋषभदेव केशरीमल श्वे. संस्था, रतलाम, सन् 1933 / दशवैकालिक नियुक्ति (नियुक्तिपंचक)-आचार्य भद्रबाहु, वाप्र. आचार्य तुलसी, प्रसं. आचार्य महाप्रज्ञ, सं. समणी कुसुमप्रज्ञा, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 1999 / दशवैकालिक हारिभद्रीया टीका-आचार्य हरिभद्र, देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, सूरत। दशाश्रुतस्कन्ध (नवसुत्ताणि)-वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 1987 / दिव्यावदान-सं. डॉ. पी. एल. वैद्य, मिथिला संस्थान, दरभंगा, सन् 1959 / द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका-आचार्य यशोविजय, दिव्य दर्शन ट्रस्ट, धोलका, वि. सं. 2060 / नंदी--वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. आचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं (राज.), सन् 1997 / नियुक्ति पंचक-वाप्र. आचार्य तुलसी, प्रसं. आचार्य महाप्रज्ञ, सं. समणी कुसुमप्रज्ञा, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 1999 / निशीथ (नवसुत्ताणि)-वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 1987 / निशीथ चूर्णि भा. १-४-सं. उपाध्याय अमरमुनि, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, सन् 1982 / निशीथ भाष्य भा. १-४-मुनि कन्हैयालाल, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, सन् 1982 / पंचकल्पभाष्य-सं. लाभसागरगणि, आगमोद्धारक ग्रंथमाला, वि.सं. 2028 / पंचवस्तु-देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था, सूरत, सन् 1927 / पंचाशक प्रकरण-नि. प्रो. सागरमल जैन, सं. डॉ. दीनानाथ शर्मा, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, सन् 1997 /
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________________ 348 पिंडनियुक्ति पिण्डनियुक्ति अवचूरि-श्री देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, मुम्बई, सन् 1958 / पिण्डनियुक्ति मलयगिरि टीका-देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, मुम्बई, सन् 1918 / पिण्डविशुद्धिप्रकरण-श्री जिनवल्लभसूरि, ज्ञानभण्डार शीतलवाड़ी उपाश्रय, सूरत, वि.सं. 2011 / पिण्डविशुद्धिप्रकरण टीका-श्री जिनवल्लभसूरि, ज्ञानभण्डार शीतलवाड़ी उपाश्रय, सूरत, वि.सं. 2011 / प्रवचनसार-आचार्य कुंदकुंद, श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास, वि.सं. 2040 / प्रवचनसारोद्धार-देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, सूरत, सन् 1926 / / प्रवचनसारोद्धारटीका-देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, सूरत, सन् 1926 / प्रश्नव्याकरण (अंगसुत्ताणि भा. ३)-वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. मुनि नथमल, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), वि.सं. 2031 / प्रश्नव्याकरण टीका-श्री अभयदेवसूरि, श्री आगमोदय समिति, सन् 1919 / बृहत्कल्पभाष्य भा. १-६–सं. मुनि चतुरविजय, श्री जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, सन् 2002 / बृहत्कल्पभाष्य टीका-सं. मुनि पुण्यविजय, जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, सन् 2002 / भगवती (अंगसुत्ताणि-२)-वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), वि.सं. 2049 / भगवती आराधना-सं. पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, सन् 1978 / भगवती टीका-आचार्य अभयदेवसूरि, आगमोदय समिति, मुम्बई, सन् 1918 / भगवती भाष्य भा. १-वाप्र. गणाधिपति तुलसी, सं. आचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं (राज.), सन् 1994 / भगवती भाष्य भा. २-वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. आचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 2000 / भगवती भाष्य भा. ३–वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. आचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 2005 / भगवती भाष्य भा. ४-वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. आचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 2007 / भावपाहुड़ (अष्टपाहुड़)-सं. डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल, श्री कुंदकुंद कहान दिगम्बर जैन तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट, जयपुर, सन् 1994 मज्झिमनिकाय-सं. भिक्खु जे कश्यप, पालि प्रकाशन मण्डल, बिहार, सन् 1958 / मनुस्मृति-सं. गोपालशास्त्री नेने, चौखम्भा संस्कृत संस्थान, वाराणसी, वि. सं. 2063 / मूलाचार भा. १-आचार्य वट्टकेर, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, सन् 1992 / मूलाचार भा. २-पं. कैलाशचन्द्रशास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, सन् 1986 / मूलाचार टीका-सं. पं. कैलाशचन्द्रशास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, सन् 1992 / मोक्षपाहुड़ (अष्टपाहुड़)-सं. डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल, श्री कुंदकुंद कहान दिगम्बर जैन तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट, जयपुर, सन् 1994 /
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________________ परि. 21 : प्रयुक्त ग्रंथ सूची 349 राजप्रश्नीय (उवंगसुत्ताणि खण्ड १)-वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 1989 / राजप्रश्नीय टीका-गूर्जर ग्रंथरत्न कार्यालय, अहमदाबाद, वि.सं. 1994 / राजवार्तिक-सं. प्रो. महेन्द्रकुमार जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, सन् 1990 / वसुदेवहिंडी-संघदासगणि, मुनि चतुरविजय, मुनि पुण्यविजय, गुजरात साहित्य अकादमी, सन् 1989 / विशेषावश्यकभाष्य-आ. जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण, दिव्य दर्शन ट्रस्ट, मुम्बई, वि.सं. 2039 / विशेषावश्यकभाष्य स्वोपज्ञ टीका-आ. जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण, सं. दलसुखभाई मालवणिया, लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मंदिर, सन् 1968 / व्यवहारभाष्य-वाप्र. आचार्य तुलसी, प्रसं. आचार्य महाप्रज्ञ, सं. डॉ. समणी कुसुमप्रज्ञा, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 1996 / / समवाओ-वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 1984 / समवायांग टीका-सं. आ. सागरानंद, मोतीलाल बनारसीदास इण्डोलाजिकल ट्रस्ट, दिल्ली, सन् 1985 / सूत्रकृतांग टीका--आचार्य शीलांक, सं. मुनि जम्बूविजय, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, सन् 1978 / सूत्रकृतांग नियुक्ति (नियुक्ति पंचक)-वाप्र. आचार्य तुलसी, प्रसं. आचार्य महाप्रज्ञ, सं. समणी कुसुमप्रज्ञा, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 1999 / सूयगडो-वाप्र. आचार्य तुलसी, प्रसं. आचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 2006 / स्थानांग (ठाणं)-वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. मुनि नथमल, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 1976 / स्थानांग टीका-आ. अभयदेव, सं. मुनि जम्बूविजय, मोतीलाल बनारसीदास इण्डोलाजिकल ट्रस्ट, दिल्ली, सन् 1985 / हरिवंश पुराण-सं. पन्नालाल जैन साहित्याचार्य, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, सन् 1962 / सहायक ग्रंथ सूची आगम युग का जैन दर्शन-पं. दलसुखभाई मालवणिया, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, सन् 1990 / गणधरवाद-पं. दलसुखभाई मालवणिया-राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर, सन् 1982 / जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति-रेखा चतुर्वेदी, अनामिका पब्लिशर्स एवं डिस्टीब्यूटर्स, दिल्ली, सन् 2000 / जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज-डॉ. जगदीशचन्द्र जैन, चौखम्भा विद्याभवन, वाराणसी, सन् 1965 / जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन-प्रो. सागरमल जैन, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, सन् 1999 / जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज-डॉ. मोहनचंद्र, इस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली, सन् 1989 / जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा. २-डॉ. मोहनलाल मेहता, डॉ. जगदीशचन्द्र जैन, पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी, सन् 1989 /
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________________ 350 पिंडनियुक्ति दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन-वाप्र. आचार्य तुलसी, सं. मुनि नथमल, जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कोलकाता, सन् 1967 / पतञ्जलिकालीन भारत-डॉ. प्रभुदयाल अग्निहोत्री, बिहार राष्ट्र भाषा परिषद्, पटना, सन् 1963 / प्राचीन जैन साहित्य में आर्थिक जीवन-डॉ. कमल जैन, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, सन् 1988 / सागर जैन विद्या भारती भा. १-प्रो. सागरमल जैन, पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी, सन् 1994 / हरिवंशपुराण : एक सांस्कृतिक अध्ययन-राममूर्ति चौधरी, सुलभ प्रकाशन 16 अशोक मार्ग, सन् 1989 / कोश-साहित्य एकार्थक कोश-सं. मुनि दुलहराज, समणी कुसुमप्रज्ञा, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 2003 / जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-सं. क्षु. जिनेन्द्रवर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, सन् 1985 / देशी शब्द कोश-वाप्र. आचार्य तुलसी, प्रसं. युवाचार्य महाप्रज्ञ, सं. मुनि दुलहराज, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 1988 / पाइयसद्दमहण्णवो-पं. हरगोविन्ददास सेठ, प्राकृत ग्रंथ परिषद्, वाराणसी, सन् 1963 / भिक्ष आगम शब्द कोश भा. १-मुनि दुलहराज, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 1996 / भिक्षु आगम शब्द कोश भा. २-मुनि दुलहराज, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 2005 / संस्कृत हिन्दी कोश-वामन शिवराम आप्टे, मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स, दिल्ली, सन् 2001 / A History of Indian literature-Maurice winter nitz, vol II, Motilal Banarsidas, Delhi, Sec Ad.1993 / A History of the Canonical literature ofjain's-Hiralal Rasikadas Kapadia The Doctrine of the Jainas--Walther schubring. Motilal Banarsidas Publishers, Delhi, Year 20001
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________________ युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी ने सन् 1655 में आगम-वाचना का कार्य प्रारम्भ किया, जो सन् 453 में देवर्धिगणी क्षमाश्रमण के सान्निध्य में हुई संगति के पश्चात् होने वाली प्रथम वाचना थी। सन् 1666 तक 32 आगमों के अनुसंधानपूर्ण मूलपाठ संस्करण और 7 आगम संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद एवं टिप्पण साहित्य प्रकाशित हो चुके हैं। इसके अतिरिक्त कोश-साहित्य की दष्टि से अनेक समृद्ध ग्रंथ प्रकाश में आ चुके हैं। आगमों के साथ नियुक्ति और भाष्य-साहित्य का सम्पादन और अनुवाद भी क्रमशः प्रकाश में आ रहा है। इस वाचना के मुख्य सम्पादक एवं विवेचक (भाष्यकार) हैं -आचार्य श्री महाप्रज्ञ (मुनि नथमल/युवाचार्य महाप्रज्ञ), जिन्होंने अपने सम्पादन-कौशल से जैन आगम-वाङ्मय को आधुनिक भाषा में समीक्षात्मक भाष्य के साथ प्रस्तति देने का गरुतर कार्य किया है। भाष्य में वैदिक, बौद्ध और जैन साहित्य, आयुर्वेद, पाश्चात्य दर्शन एवं आधुनिक विज्ञान के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर समीक्षात्मक अध्ययन के आधार पर समीक्षात्मक टिप्पण लिखे गए है। जैन विश्व भारती द्वारा प्रकाशित सम्पूर्ण आगम वाड्.मय लगभग एक लाख पृष्ठों में समाहित है। उम्र के नवें दशक के उत्तरार्ध में आचार्य महाप्रज्ञ भगवती भाष्य के दुरूह कार्य में संलग्न हैं। आगम वाङ्मय की यह अमूल्य थाती शोध के क्षेत्र में कार्य करने वालों के लिए सहायक सिद्ध होगी। /
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________________ चमोक्खा . लाइन जैन विश्व भारती लाडनूं (राज.)