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पिंडनियुक्ति
७७. 'लोणागडोदए एवं', खणित्तु महुरोदगं।
ढक्कितेणऽच्छते ताव, जाव 'साहु त्ति'२ आगता ॥१६८ ॥
कक्कडिय-अंबगा' वा; दाडिम' दक्खाइ बीजपूरादी। ___ 'खाइमऽधिकरणकरणं, तु साइमं तिकडुमादीयं ॥ १६९ ॥
असणादीण चउण्ह वि, आमं जं साहुगहणपाउग्गं ।
तं निट्ठितं वियाणसु, उवक्खडं तू कडं होति ॥ १७० ॥ ८०. कंडित तिगुणुक्कंडा, उ निट्ठिता णेग दुगुण उक्कंडा।।
निट्टितकडो य कूरो, आहाकम्मं दुगुणमाहु ॥ १७१ ॥ ८०/१. छायं पि विवज्जेती, केई फलहेतुगादि वुत्तस्स।
तं तु न जुज्जति जम्हा, फलं पि११ कप्पं बितियभंगे१२ ॥ १७२ ॥ ८०/२. परपच्चइया छाया, न वि सा 'रुक्खेव वड्डिता'१३ कत्ता।
नट्ठच्छाए उ दुमे, कप्पति एवं४ भणंतस्स ॥ १७३ ॥ ८०/३. वड्डति हायति५ छाया, तच्छिक्कं पूइयं पि व६ ण कप्पे।
न य आहाय सुविहिते, निव्वत्तयती७ रविच्छायं८ ॥ १७४ ॥ ८०/४. अघणघणचारिगगणे, छाया नट्ठा दिया पुणो होति ।
कप्पति निरातवे नाम, आतवे तं विवज्जेउं१९ ॥ १७५ ॥
१. अह ताव सावयो तू (जीभा १९५२)। २. साहुत्थ (अ, बी)। ३. गाथा में अनुष्टुप् छंद है, कथा के विस्तार हेत
देखें परि. ३,कथा सं. ९। ४. अंबगं (क)। ५. दालिम (ला, ब, स)। ६. दक्खा य (मु), दक्खा व (जीभा)। ७. ति (अ, बी, ला, मु)।। ८. “ईणं (अ, बी), जीभा (११५४) में गाथा का
उत्तरार्द्ध इस प्रकार है
एमाइ खाइमं तू, साइम तह तिगडु आदीयं । ९. फलगाइहेउ (अ, बी)। १०. उत्तस्स (स)। ११. ति (अ, बी)। १२. जीभा ११६८, ८०/१-५-ये पांचों गाथाएं व्याख्यात्मक
हैं। प्रसंगवश ग्रंथकार ने खादिम के प्रसंग में छाया आधाकर्मिकी होती है या नहीं, इस संदर्भ में विस्तृत व्याख्या की है। ये गाथाएं भाष्य की होनी चाहिए। इनको निगा के मूल क्रमांक में नहीं
जोड़ा है। १३. रुक्खम्मि वट्टिया (ला, ब), रुक्खम्मि वड्डिया (स),
रुक्खोव्व (जीभा ११६९)। १४. एयं (अ, बी)। १५. हायई (स)। १६. वि (ब)। १७. निव्वत्तेई (अ, बी)। १८. रवीछाया (अ, ला, जीभा ११७०),
रवीछायं (क, स)। १९. विवज्जति (ला, ब), विवज्जिति (बी), विवज्जिति
(अ), विवज्जेंति (स), विवज्जंतु (जीभा ११७१)।
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