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## Pindaniyukti
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235. Two are born of greed, the confused and the unripe.
The remaining eight are the rules, known to be born of the householder. || 515 || Door ||
236. The name is to be placed in the object, the feeling is to be considered in the feeling.
In the object, the monkey troop, in the feeling, the 'ten-footed' are. || 516 ||
236/1. The parrot with its feathers spread, the forest is seen, 'it eats food'.
The parrot falls down, it goes along with the monkey. || 517 ||
236/2. It itself eats the fruit, the parrot eats it along with the monkey.
It destroys their food, and then it goes to the forest. || 518 ||
236/3. The foot that is going out is seen, the one that is going in is not seen.
It drinks water with a straw, there is no sign of the forest. || 519 ||
237. Confused, deceived, and rejected, hidden, served, and given away.
Unripe, licked, and spat out, these ten are the faults of eating. || 520 ||
238. Confusion has four parts, the fault is in taking and eating.
Whatever is confused, twenty-five are purified in the end. || 521 ||
238/1. Sixteen are the faults of origin, and ten are the faults of eating.
These are nine in the deceived, twenty-five are purified in the end. || 522 ||
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पिंडनियुक्ति
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२३५. दोन्नि उ साहुसमुत्था, संकित तह भावतोऽपरिणतं' च।
सेसा अट्ठ वि नियमा, गिहिणोरे य समुट्ठिते जाण ॥ ५१५ ॥ दारं ॥ २३६. नामं ठवणा दविए, भावे गहणेसणा मुणेयव्वा।
दव्वे वाणरजूहं, भावम्मि य 'दसपदा होंति'३ ॥ ५१६ ॥ २३६/१. परिसडितपंडुपत्तं, वणसंडं दट्ठ 'अन्नहिं पेसे।
जूहवती पडियरते५, जूहेण समं तहिं गच्छे ६ ॥ ५१७ ॥ २३६/२. सयमेवालोएउं, जूहवती तं वणं समंतेणं ।
वियरति तेसि पयारं, चरिऊण य तो दहं गच्छे ।। ५१८॥ २३६/३. ओयरंतं पदं दटुं, नीहरंतं न दीसती।
नालेण पिबह पाणीयं, नेस११ निक्कारणो दहो॥ ५१९ ॥ २३७. संकित मक्खित निक्खित्त, पिहित साहरिय'२ दायगुम्मीसे।
अपरिणत लित्त छड्डिय, एसणदोसा दस हवंति३ ॥ ५२० ॥ २३८. संकाए चउभंगो, दोसु वि गहणे य भुंजणे१४ लग्गो।
जं संकितमावन्नो, पणुवीसा५ चरिमए'६ सुद्धो ॥ ५२१ ॥ २३८/१. उग्गमदोसा सोलस, आहाकम्माइ एसणा दोसा।
नव मक्खियाए एते, पणुवीसा चरिमए सुद्धो१७ ॥ ५२२ ।। १. °अपरि (ला)।
१४. भुजिउं (स)। २. गिहिया (अ, ला, ब)।
१५. पणवीसा (मु), 'वीसं (ला, ब)। ३. ठाणमाईणि (ओनि ४५८)।
१६. चरमए (अ, बी)। ४. मन्नहिं वेसा (अ, बी)।
१७. २३८/१. गाथा भाष्यकृद होनी चाहिए। इस गाथा के ५. परिय' (अ, बी), पडिअरिए (क)।
भाष्यगत होने के निम्न तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं६. ओनि ४५९, २३६/१-३-ये तीनों गाथाएं २३६ वीं . २३८ वी गाथा का अंतिम चरण 'पणुवीसा चरिमए गाथा में निर्दिष्ट 'वाणरजूह' कथा की ओर संकेत सुद्धो' है और २३८/१ के अंतिम चरण में भी इसी पद करती हैं। कथा का विस्तार भाष्यकार द्वारा हुआ की पुनरुक्ति हुई है। कोई भी ग्रंथकार इस प्रकार की है, ऐसा संभव लगता है, कथा के विस्तार हेतु पुनरुक्ति नहीं करते। देखें परि. ३,कथा सं. ४७।
• निर्यक्तिकार उद्गम के १६ दोषों एवं एषणा के दश ७. तं (ला, ब), ते (अ, बी, ओनि ४६०), स प्रति दोषों का पहले उल्लेख कर चुके हैं अत: 'शंकित द्वार' की में यह गाथा नहीं है।
व्याख्या के प्रसंग में वे पुन: इस बात का उल्लेख नहीं करते। ८. उत्तरंतं (अ, ब, ला, क, ओनि ४६१)।
• बहुत संभव लगता है कि 'पणुवीसा' शब्द की ९. पियह (ला, ब, मु, स, क)।
व्याख्या में यहां प्रसंगवश भाष्यकार ने २५ दोषों का १०. तोयं णं (क)।
संकेत कर दिया हो वैसे भी २३८ वी गाथा विषय वस्तु ११. न एय (अ, ब, ला, बी, स), न एस (क)। की दृष्टि से २३९ के साथ सीधी जुड़ती है। पुनरुक्त १२. साहरण (जीभा १४७६)।
होने से २३८/२ वी गाथा भी प्रक्षिप्त अथवा भाष्य की १३. प्रसा ५६८, तु. मूला ४६२, पिंप्र ७७, पंचा १३/२६। होनी चाहिए। यह गाथा प्रकाशित मलयगिरि टीका में भी
व्याख्यात नहीं है।
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