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## Pindaniyukti
238/2. The doubts of the ignorant are many, the doubts of the wise are few.
They are overcome. Doubts, whether they are doubts or free from doubts, are to be investigated. || 239. The wise, with their pure knowledge, investigate with right effort.
They overcome the doubts, being pure by the measure of their knowledge. || 523 || 239/1. Oh! If the wise, even if they take something impure,
Even a Kevali (omniscient) would be considered impure, if he takes something impure. || 524 || 240. In the absence of purity, there is no liberation, and therefore liberation is useless.
And in the absence of liberation, the purification of the senses is useless. || 525 || 240/1. But what about the alms that are given, and not asked for?
One who is doubtful, eats it with doubt. || 526 || 240/2. With a doubtful mind, one eats food that is contaminated.
One who is free from doubt, eats food that is pure. || 527 || 240/3. "I have received alms in this house."
Even if the food is pure, it becomes impure due to doubt. || 528 || 240/4. If doubt is a cause of impurity, then even pure food becomes impure.
That which is free from doubt, even if it is not pure, is free from blame. || 529 ||
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पिंडनियुक्ति
२३८/२. उग्गमदोसा सोलस, नव एसण दोस संक मोत्तूणं ।
पणुवीसेते। दोसा, संकित निस्संकिते वुच्छं ॥ २३९. छउमत्थो सुतनाणी, गवेसती उज्जुओ पयत्तेणं ।
___ आवन्नो पणुवीसं, सुतनाणपमाणतो सुद्धो ।। ५२३ ॥ २३९/१. ओहो' सुतोवउत्तो, सुतनाणी जइ वि गेण्हति असुद्धं ।
तं केवली वि भ॑जति, अपमाण सुतं भवे इहरा ॥ ५२४ ॥ २४०. सुत्तस्स अप्पमाणे', चरणाभावो तओ तु मोक्खस्स।
मोक्खस्स वि य अभावे, दिक्खपवित्ती निरत्था उ॰ ॥ ५२५ ॥ २४०/१. किन्नु हु खद्धा भिक्खा, दिज्जति न य तरह 'पुच्छिउं हिरिमं११।
इति संकाए घेत्तुं, तं भुंजति संकितो चेव२ ॥ ५२६ ।। २४०/२. हियएण संकितेणं, गहिता अन्नेण सोहिता सा य ।
पगतं पहेणगं वा, सोउं१५ निस्संकितो६ भुंजे ॥ ५२७ ॥ २४०/३. 'जारिसिए च्चिय'१७ लद्धा, खद्धा भिक्खा मए८ अमुगगेहे।
अन्नेहि वि तारिसिया, विगडंत१९ निसामणे२० ततिए२१ ॥ ५२८ ।। २४०/४. जदि संका दोसकरी, एवं सुद्धं पि होति तु असुद्ध२२ ।
निस्संकमेसितं ति य, अणेसणिज्ज२३ पि निदोसं२४ ।। ५२९ ॥
१. सेसण (क)।
को स्पष्ट करने वाली हैं। २४०/४ गाथा में शिष्य २. चरिमो (ला, ब, स)।
की शंका उपस्थित है। व्याख्यात्मक होने से ये ३. सुद्धो (ला, ब), जीभा १४८७, यह गाथा केवल सभी गाथाएं भाष्य की प्रतीत होती हैं। ला, ब, स और क प्रति में मिलती है।
१३. संकियाए (स)। ४. जीभा १४८४।
१४. जीभा (१४८०) में इस गाथा का पूर्वार्द्ध इस ५. साहू (जीभा १४८५), ओहो इत्यत्र प्रथमा तृतीयार्थे (मवृ)। प्रकार है६. गाथा २३९ की व्याख्या रूप होने के कारण यह बीएण गहिय संकिय, विगडंतन्ने य नवरि संघाडे । गाथा भाष्य की होनी चाहिए।
१५. सोऊ (स)। ७. “माणं (अ), 'माण (ला)।
१६. “कियं (ला, ब, क, स)। ८. य (क, मु, जीभा)।
१७. "सियं चिय (ला, क, ब), "सई चिय (स)। ९. “पयत्ती (अ, बी, स), “पयण्णा (ला)। १८. एगे (अ)। १०. जीभा (१४८६) में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है- १९. विकरेंत (ला, ब), वियडिंति (क)।
मोक्खाभावाओ चिय, पयत्तदिक्खा णिरत्था य। २०. “मए (मु)।। ११. पुच्छिउं तहियं (जीभा)।
२१. तइया (अ, बी), तइओ (क, स)। १२.तु. जीभा १४७९, २४०/१-४-ये चारों गाथाएं २२. अविसुद्धं (मु, क), अवसुद्धं (ला, ब, स)।
प्रकाशित टीका में निगा के क्रमांक में हैं। इनमें २३. अणेसणीयं (ला)। २४०/१-३-ये तीन गाथाएं २३८ वी गाथा के भंगों २४. जीभा १४८८ ।
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