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## Translation: **41.** Three sky regions, mutually connected, are called a *kṣetra-piṇḍa*. Similarly, there are three time periods, mutually connected, which are called *kāla-piṇḍa*. In terms of space-pervasion and time-based location, the fourth and fifth *piṇḍa*, namely *kṣetra-piṇḍa* and *kāla-piṇḍa*, should be designated. Alternatively, for the sake of convenience, *kṣetra* and *kāla-piṇḍa* should be conceptualized based on "where" and "when" (e.g., this is a *vasati-rūpa kṣetra-piṇḍa*, this is a *pौरुषी-rūpa kāla-piṇḍa*). **41/1.** If the *piṇḍa* of concrete substances is designated based on mutual connection and numerical abundance, then the *piṇḍa* of abstract substances is also designated based on mutual connection and numerical abundance. **41/2.** Why wouldn't the three-region *skandha*, which are evenly distributed in three regions and connected by continuous relationship, be referred to by the term *piṇḍa*? (Because the basis of the three *paramāṇu-skandha* is the collection of three regions.) **42.** Alternatively, due to the presence of combination and division, the term *piṇḍa* is appropriate for all four: name, establishment, substance, and emotion. However, (the *kṣetra* and *kāla* are formal *piṇḍa*) the *kṣetra* and *kāla* in which the *piṇḍa* is mentioned are called *kṣetra-piṇḍa* and *kāla-piṇḍa*. **43.** There are two types of *bhāva-piṇḍa*: *praśasta bhāva-piṇḍa* and *apraśasta bhāva-piṇḍa*. I will describe both separately. **44.** *Praśasta bhāva-piṇḍa* is of three types: knowledge, perception, and character. Conversely, *apraśasta bhāva-piṇḍa*, which binds the living being to karmas, is of two, four, and seven types.
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________________ अनुवाद ४१. परस्पर अनुगत तीन आकाश प्रदेश क्षेत्र पिण्ड कहलाता है। इसी प्रकार परस्पर अनुगत तीन समयकालपिंड है। द्रव्य में स्थान-अवगाह और स्थिति-कालिक अवस्थान-इनकी अपेक्षा से चौथा और पांचवां पिंड अर्थात् क्षेत्रपिंड और कालपिंड का व्यपदेश करना चाहिए। प्रकारान्तर से सोपचार क्षेत्र और कालपिंड के लिए जहां और जब के आधार पर प्ररूपणा करनी चाहिए, (जैसे—यह वसतिरूप क्षेत्रपिंड है, यह पौरुषी रूप कालपिंड है)। ४१/१. यदि मूर्त द्रव्यों में परस्पर अनुवेध तथा संख्याबाहुल्य से पिंड का व्यपदेश होता है तो वैसे ही अमूर्त द्रव्यों में भी परस्पर अनुवेध तथा संख्याबाहुल्य से पिंड का व्यपदेश होता है। ४१/२. त्रिप्रदेशी स्कन्ध जो तीन प्रदेशों में समवगाढ़ हैं और नैरन्तर्य संबंध से संबद्ध हैं, वे पिंड शब्द से व्यवहृत क्यों नहीं होंगे? (क्योंकि तीन परमाणुस्कन्ध का आधार तीन प्रदेशों का समुदाय है।) ४२. अथवा संयोग और विभाग होने के कारण नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव-इन चारों के लिए पिण्ड शब्द का प्रयोग उपयुक्त है लेकिन (क्षेत्र और काल औपचारिक पिण्ड हैं) जिस क्षेत्र और काल में पिण्ड उल्लिखित होता है, वह क्षेत्रपिंड और कालपिंड कहा जाता है।' ४३. भावपिंड के दो प्रकार हैं-प्रशस्त भावपिंड और अप्रशस्त भावपिंड। दोनों की मैं पृथक्-पृथक् प्ररूपणा करूंगा। ४४. प्रशस्त भावपिंड तीन प्रकार का होता है-ज्ञान, दर्शन और चारित्र। इसके विपरीत अप्रशस्त भावपिंड, जिससे जीव कर्मों से बंधता है, वह दो, चार और सात प्रकार का होता है। १. टीकाकार ने क्षेत्रपिंड और कालपिंड के बारे में पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष प्रस्तुत करके विस्तार से चर्चा की है। वे स्वयं प्रश्न उपस्थित करते हुए कहते हैं कि मूर्त द्रव्यों में परस्पर अनुवेध और संख्या-बाहुल्य संभव है लेकिन क्षेत्र और काल में परस्पर अनुवेध-मिलन संभव नहीं है। इसके अतिरिक्त क्षेत्र नित्य अकृत्रिम होता है, उसके प्रदेश विविक्त रूप से अवस्थित हैं अतः आकाश प्रदेशों का अनुवेध कैसे संभव है ? काल में भी संख्या-बाहुल्य संभव नहीं है क्योंकि अतीत का समय नष्ट हो गया, भविष्य का उत्पन्न नहीं हुआ, वर्तमान में केवल एक समय विद्यमान है अत: काल में परस्पर अनुवेध और संख्या-बाहुल्य होना असंभव है अत: इन दोनों का पिंड संभव नहीं है। इसका उत्तर तीन गाथाओं (४१/१, २, ४२) में तथा टीकाकार मलयगिरि ने विस्तार से दिया है, देखें ४१/१ का टिप्पण (मवृ प. २२, २३)। २. टीकाकार मलयगिरि विस्तार से इस गाथा को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि आकाश के सारे प्रदेश नैरन्तर्य रूप से वैसे ही सम्बद्ध रहते हैं, जैसे बादर निष्पादित चार स्कंध । क्षेत्र-प्रदेशों में भी संख्या का बाहुल्य रहता है अत: क्षेत्र के लिए पिण्ड शब्द का प्रयोग करना विरुद्ध नहीं है। काल में भी यद्यपि पूर्वापर समय आपस में नहीं मिलते लेकिन बुद्धि से कल्पित काल में संख्या-बाहुल्य संभव है अतः काल का भी पिण्ड संभव है (मवृ प. २३)। ३. नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव आदि से संबंधित पिण्ड का संयोग और विभाग होता है अत: ये पारमार्थिक रूप से पिण्ड रूप में वर्णित हैं लेकिन क्षेत्र और काल में इस रूप में संयोग और विभाग नहीं होता अतः क्षेत्र पिंड और काल पिंड को औपचारिक रूप से स्वीकार किया गया है। यह प्रथम पौरुषी का पिण्ड है अथवा यह अमुक घर की रसोई में बनाया गया मोदक है, इस दृष्टि से इनको क्षेत्र पिण्ड और काल पिण्ड कहा जा सकता है (म प. २४)। ४. देखें गा. ४४/४ का अनुवाद । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001945
Book TitleAgam 41 Mool 02 Pind Niryukti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages492
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_pindniryukti
File Size9 MB
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