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पिण्डनिर्युक्ति : एक पर्यवेक्षण
और नित्या आदि अनेषणीय को नहीं छोड़ता, वह अग्नि की भांति सर्वभक्षी होकर पापकर्म का अर्जन करता है और मरकर दुर्गति को प्राप्त करता है। चूर्णिकार जिनदास के अनुसार यदि एषणीय आहार पर्याप्त मात्रा में न मिले तो मुनि कम करते-करते केवल एक ही कवल खाकर रह जाए पर अनेषणीय आहार का भोग नहीं करे।
पंचाशक प्रकरण में एषणा के तीन एकार्थक मिलते हैं - गवेषणा, अन्वेषणा और ग्रहण । एषणा का अर्थ है - आहार की अन्वेषणा, प्राप्ति और परिभोग में यतना रखना। इसके तीन भेद हैं- गवेषणा, ग्रहणैषणा, परिभोगैषणा ।
गवेषणा में उद्गम और उत्पादन से सम्बन्धित १६ - १६ दोष, ग्रहणैषणा में शंकित आदि १० दोष तथा परिभोगैषणा में संयोजना आदि पांच दोषों का समाहार होता है। इन सब दोषों की गणना करने पर भिक्षाचर्या के ४७ दोष होते हैं लेकिन ग्रंथों में प्रायः भिक्षा के ४६ दोषों का ही उल्लेख मिलता है। इसका स्पष्टीकरण करते हुए टीकाकार कहते हैं कि उद्गम के १६ दोषों में अध्यवपूरक का मिश्रजात में समावेश
से उद्गम के १५ दोष गृहीत होते हैं। इससे भिक्षाचर्या के ४६ दोष होते हैं।' परिभोगैषणा के ५ दोषों का समावेश न किया जाए तो भिक्षा के बयालीस दोष ही होते हैं। आचार्य कुंदकुंद के अनुसार ४६ दोषों से युक्त आहार को अशुद्ध भाव से खाने वाला मुनि तिर्यञ्चगति में अवश होकर महान् दुःखों का भोग करता है। चूर्णिकार जिनदास ने एषणा शब्द से केवल ग्रहणैषणा के शंकित आदि १० दोषों का समावेश किया है। उत्तराध्ययन में तीनों प्रकार की एषणाओं की विशुद्धि का निर्देश दिया है।' दशवैकालिक नियुक्ति के अनुसार तीनों प्रकार की एषणाओं का वर्णन कर्मप्रवाद पूर्व से उद्धृत है । पिण्डनिर्युक्ति जैसे बृहद् ग्रंथ से इस बात के माहात्म्य को जाना जा सकता है कि केवल भिक्षा-विधि पर पूरा एक स्वतंत्र ग्रंथ लिख दिया गया। पिण्डनिर्युक्ति की प्रथम गाथा में एषणा एवं परिभोगैषणा को अष्टविध पिण्डनिर्युक्ति में समाविष्ट कर दिया गया है, उसी बात को मूलाचार में अष्टविध पिण्डविशुद्धि में समाविष्ट किया है - १. उद्गम २. उत्पादन ३. एषणा ४. संयोजना ५. प्रमाण ६. इंगाल ७. धूम ८. कारण । १० उद्गम दोष
आहार पकाते समय या देते समय दाता के द्वारा जो दोष या स्खलनाएं उत्पन्न होती हैं, वे उद्गम षोडश उत्पादनदोषा, दश एषणादोषाः संयोजनादीनां च पञ्चकमिति ।
१. उ२०/४७ ।
२. निचू भा. १ पृ. १४५ ; जति न लब्भति पडिपुण्णमाहारो
तो एगूणे भुंजउ, एवं एगहाणीए जाव एगलंबणं भुंजर, माय असि भुंज ।
३. पंचा १३/२५ ; एसण गवेसणऽण्णेसणा य गहणं च होति एगट्ठा । ४. उ २४ /११ ।
५. पिनि ३१५, मवृ प. १७६; तदेवं भोजनविधौ सर्वसङ्ख्यया षट्चत्वारिंशद्दोषा बोद्धव्याः, तद्यथा - पञ्चदश उद्गमदोषाः, अध्यवपूरकस्य मिश्रजातेऽन्तर्भावविवक्षणात्,
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६. भापा १०१;
७.
छायालदोस दूसियमसणं गसिउं असुद्धभावेण । पत्तो सि महावसणं, तिरियगईए अणप्पवसो ॥ दशजिचूपृ. ६७ ; एषणागहणेण दसएसणादोसपरिसुद्धं गेण्हति । उ २४ / ११, १२ ।
८.
९.
दशनि १५ ; कम्मप्पवायपुव्वा पिंडस्स तु एसणा तिविधा । १०. मूला ४२१ ।
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