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बौद्ध-वर्शनम्
( ११. अनवस्था सं० ३ ) एवमपेक्ष्यमाणेनोपकारेण बीजादौ धर्मिण्युपकारान्तरमाधेयम् - इत्युपकाराधे यबीजाश्रयातिशयपरम्परापात इति तृतीयानवस्था दुरवस्था स्यात् ।
इस प्रकार अपेक्षित उपकार को चाहिए कि वह [ अतिशय ] के धर्मी ( विषयी ) बीजादि में दूसरे उपकार का ग्रहण करे – इस तरह उपकार से उत्पन्न बीज के आश्रय ( अतिशय ) में रहनेवाले अतिशयों की अनन्त परम्परा फिर शुरू ही जायगी और यह तीसरी अनवस्था भी हटाना कठिन है ।
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विशेष- - ऊपर एक अतिशय से दूसरे अतिशय को उत्पन्न किये जाने पर अनवस्थाएं होती हैं - यह दिखाया गया । कुल तीन अनवस्थाएँ दिखलाई गई हैं । यह पूरा अवतरण उस विकल्प की व्याख्या है जिसमें कहा गया है कि उपकार भाव से भिन्न है । यह विकल्प यहाँ से शुरू किया गया है- सोऽयमुपकारः किं भावाद्भिद्यते न वा ? ( देखिये - ९ वें परिच्छेद का दूसरा खण्ड ) इसके बाद, उपकार स्थायी भाव से अभिन्न है, इस विकल्प की परीक्षा होनेवाली है ।
( १२. स्थायी भाव से अतिशय के अभिन्न होने पर आपत्ति )
अथ भावादभिन्नोऽतिशयः सहकारिभिराधीयत इत्यभ्युपगम्येत, तहि प्राचीनो भावोऽनतिशयात्मा निवृत्तोऽन्यश्चातिशयात्मा कुर्वद्रपादिपदवेदनोयो जायत इति फलितं ममापि मनोरथद्रुमेण । तस्मात्क्रमेण अक्षणिकस्य अर्थक्रिया दुर्घटा |
दूसरी ओर अगर यह स्वीकार करते हैं कि अतिशय भाव ( स्थायी पदार्थ ) से भिन्न नहीं है और सहकारियों के द्वारा गृहीत होता है ( अर्थात् भाव और अतिशय दोनों समान हों, अतिशय स्थायी भाव का ही अवस्था - विशेष हो ), तब तो प्राचीन भाव जो अतिशय नहीं है अवश्य ही निवृत्त ( समाप्त ) हो जायगा और एक दूसरा भाव अतिशय के रूप में उत्पन्न हो जायेगा जिसे 'कुर्वद्रूप' ( कार्योत्पादक वस्तु ) आदि शब्दों से जानते हैं । मेरे मनोरथ के वृक्ष का भी तो यही फल है ( अर्थात् मेरी ही बात सिद्ध हो गई ) । इस प्रकार 'क्रम' के द्वारा अक्षणिक ( स्थायी ) की अर्थक्रिया ( कार्योत्पादिका ) सिद्ध करना कठिन है ।
विशेष-उपर्युक्त लम्बे विवेचन में यह सिद्ध किया जा ( एक के बाद दूसरे का होना ) से स्थायी अर्थक्रियाकारी पदार्थ ही अर्थक्रियाकारी होगा; क्षणिक ही सत् है । इस परिच्छेद में कहने का अभिप्राय यह है कि जलादिसहकारियों के द्वारा अतिशय के उत्पन्न होने पर भी यदि स्थायी बीजादि दूसरी अवस्था ( कार्यरूप ) में नही पहुँच जाते किन्तु अपनी पूर्वावस्था में ही अवस्थित
रहा था कि क्रम-नियम
नहीं हो सकता - क्षणिक