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बौद्ध-दर्शनम्
इसके अतिरिक्त [ हम यह भी पूछते हैं कि ] सहकारियों से उत्पन्न अतिशय ( सर्वाधिक सहयोगी वस्तु ) क्या दसरे अतिशय को [ कार्योत्पत्ति के लिए ] उत्पन्न करता है कि नहीं? दोनों स्थितियों में पूर्वोक्त दोषों के पाषाण की वर्षा होगी। [ सलिल, पवनादि से उत्पन्न, बीज में रहने पर भी बीज से बिल्कुल भिन्न अतिशय बीज में दूसरे अतिशय को यदि उत्पन्न नहीं करता तो सहकारियों से उत्पन्न अतिशय होने का फल ही क्या है ? यही नहीं, राहकारिजन्य अतिशय की उत्पत्ति के पूर्व बीज से अंकुर की उत्पत्ति भी हो सकेगी। दूसरी ओर, यदि सहकारिजन्य प्रथम अतिशय बीज में ही द्वितीय अतिशय उत्पन्न कर देता है तो फिर वह द्वितीय अतिशय भी जो बीज से अत्यन्त भिन्न है, बीज में तृतीय अतिशय उत्पन्न करेगा कि नहीं-इस प्रश्न के साथ-साथ अनवस्था बढ़ती ही जायगी ( अभ्यंकर ) । अतिशय को बीज ( स्थायी ) से अभिन्न करके भी दोष दिखाया गया है-'अथ भावादभिन्नोऽतिशय:०' । भेदपक्ष में ही और भी दोष होंगे, यह आगे दिखाते हैं- ] यदि हम इस पक्ष को लें कि एक अतिशय दूसरे अतिशय को उत्पन्न करता है तो बहुत प्रकार की अनवस्था होने का दोष संभव है। ( दूसरे अतिशय को इसलिए आरम्भ करते हैं कि एक अतिशय से काम नहीं चलता । यह उत्पति सहकारियों में दूसरे सहकारियों से होती है या स्थायी बीज में दसरे सहकारियों से या अतिशयों में बीजादि पदार्थों से या बीजादि में ही अतिशयों से होती है। जहाँ जैसी आवश्यकता पड़ती है वहाँ वैसा ही विशेष उत्पन्न करना चाहिए । इसके बाद अनवस्थाओं का तांता लग जाता है । )
जो अतिशय उत्पन्न करता है उसमें दूसरे सहकारी की आवश्यकता होगी तथा उनकी अनन्त परम्पराओं के आ जाने से एक अनवस्था तो तुरत मान लेनी पड़ेगी। ( अतिशय के उत्पादन में यदि दूसरे सहकारी की आवश्यकता नहीं रहे तो यह उत्पत्ति स्वाभाविक मानी जायगी और सलिलादि सहकारी बीजादि से ही अतिशय का उत्पादन करने लगेंगे। अब दूसरे प्रकार से तीन अनवस्थाएँ दिखाते हैं- ) वैसा होने पर सलिल, पवन आदि सहकारी पदार्थों की सहायता से रखे गये बीज के अतिशय में बीज को ही उत्पादन समझ लें; नहीं तो, उन ( सहकारियों) के अभाव में भी अतिशय उत्पन्न हो सकता है। (ऊपर के वाक्य में यदि बीज के अतिशय में ही बीज को उत्पादक समझ लेते हैं तो बीज में स्थित अतिशय ही नैमित्तिक कारण सिद्ध हो जाता है। अपरथा = बीज में स्थित अतिशय यदि दूसरे अतिशय को उत्पन्न करे तब; अतिशय के स्वाभाविक होने पर)।
( ११. दूसरा अतिशय उत्पन्न करने में अनवस्था सं० १ ) बीजं चातिशयमादधानं, सहकारिसापेक्षमेवाधत्ते । अन्यथा सर्वदोपकारापत्तौ अङकुरस्यापि सदोदयः प्रसज्येत तस्मादतिशयार्थमपेक्ष्यमाणः