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सर्वदर्शनसंग्रहे
प्रकार अंकूर ( कार्य ) की उत्पत्ति अतिशय ( सहकारी ) के अन्वय-व्यतिरेक से सिद्ध होती है जिसका. फल है कि अतिशय ही अंकुरोत्पत्ति का कारण है न कि बीज । जो जिसके रहने पर रहे, नहीं रहने पर नहीं रहे—वही तो उस पदार्थ का कारण होता है ! यह बात हम सहकारी अतिशय के साथ देखते हैं, स्थायी वीज के साथ नहीं । इसलिए स्थायी ( पदार्थ, बीज ) कारण नहीं होगा। उसे कारण मान लेने पर अन्वय-व्यतिरेक की सिद्धि नहीं होती। बीजाभाव में अंकुराभाव ठीक है ( व्यतिरेक ), परन्तु होने बीज पर अंकुर होना ( अन्वय ) ठीक नहीं है। इसलिए स्थायी पदार्थ कारण सहकारी नहीं होगा, उसका सहकारी ( सहकारियों में भी सर्वाधिक उपयोगी अतिशय ही कारण हो सकता है । ]
कहा भी है-वर्षा और धूप से आकाश को क्या ? दोनों का फल चमड़े पर हो सकता है । यदि [ वह स्थायीभाव ] चमड़े के समान हो तब तो वह अनित्य हो जाता है, यदि वह आकाश के समान हो तो फलहीन ( निष्फल ) हो जाता है । [ आशय यह है कि आकाश अविकारी है, उसपर वर्षा और धूप का कोई प्रभाव नहीं पड़ता-वर्षा हो या धूप, आकाश ज्यों-का त्यों रहता है । हाँ, प्रभाव पड़ता है तो चमड़े पर, वर्षा से चमड़ा ठण्डा हो जायगा, धूप से गर्म । इस प्रकार मनुष्यों के शरीर पर उसका प्रभाव है, क्योंकि चर्म विकारी है । अब पूछा जाय कि स्थायीभाव विकारी ( चर्मवत् ) है कि अविकारी (आकाशवत् ) ? दोनों दशाओं में दोष हैं । स्थायी के रूप में माना गया बीज यदि विकार के योग्य (विकारी ) है तथा सहकारियों से उत्पन्न होनेवाले अतिशय के द्वारा विकृत होता है तब तो वह भाव अनित्य है, क्योंकि नित्य पदार्थ में तो विकार होता ही नहीं । दूसरी ओर यदि वह आकाश के समान अविकारी माना जाय तब तो निष्प्रयोजन ही हो जायगा । सहकारियों से उत्पन्न विशेष फल ( अतिशय ) की आवश्यकता ही नहीं, क्योंकि अतिशय के होने पर भी तो स्थायी पदार्थ बदल सकेगा ही नहीं । जल, वायु आदि सहकारियों की भी आवश्यकता नहीं रहेगी । फल यह हुआ कि स्थायी पदार्थ को सत्ता के रूप में मानने से दोष ही दोष उत्पन्न होंगे। ]
(१०. अतिशय का दूसरा अतिशय उत्पन्न करने में दोष ) किं च, सहकारिजन्योऽतिशयः किमतिशयान्तरमारभते न वा ? उभयथाऽपि प्रागुक्तदूषणपाषाणवर्षणप्रसङ्गः । अतिशयान्तरारम्भपक्षे बहुमुखानवस्थादौःस्थ्यमपि स्यात् । अतिशये जनयितव्ये सहकार्यन्तरापेक्षायां तत्परम्परापात इत्येकानवस्थाऽऽस्थेया।
तथा सहकारिभिः सलिलपवनादिभिः पदार्थसाथैराधीयमाने बीजस्यातिशये बीजमुत्पादकमभ्युपेयम् । अपरथा तदभावेऽप्यतिशयः प्रादुभवेत् ।