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यह निश्चित रूप से विदित होता है कि वैदिक आर्य प्रथम भौतिक देवताओं के छी पालक थे। वक्षा मानन्धी का सौशिक पदार्थों की सथा सुखमय और स्वतन्त्र जीवन की अभिलाषा थी। न तो उनको परलोक की चिन्ता थी और न मोक्ष व स्वर्गादि क्रीकामना । उस समय धर्म के अन्धन श्रादि का अभाव सा था, तथा राजा श्रादि का दण्ड भी न था । सब सुस्त्री. स्वतन्त्र और मस्त थे। तत्पश्चात् यहां धार्मिक भावों का प्रादुर्भाव हुअा और स्वगं आदि की कल्पना का आविष्कार भी । अतः स्वर्ग की प्राप्ति के लिये यज्ञों का निर्माण भी आवश्यक ही था। बस फिर शनैः शनैः इस यज्ञ देवता का विस्तार होने लगा और सम्पूर्ण देवताओं का स्थान इसी ने ले लिया। सबसे प्रथम यज्ञ कर्ता यजमान की स्तुति के पुल बांधे गये। उसी का इन्द्र प्रजापति आदि को पदवी देदी गई । यथा
एष उ एवं प्रजापतियों बजते ।। ऐ० २ । १८ इन्द्रो यजमानः ।। शत० २।१।२११ यजमानो अग्निः ।। शत०६।३।३।२१ सम्वत्ससे यजमानः ॥ शत० ११ । २ । ७ । ३२ ।। एष बैं यजमानो यत्सोमः ।। ते०१।३।३।५ यजमानो हि सूकम् ॥ ऐ०६ | 8 · इत्यादि याक्योंसे वैदिक ऋषियोंने यजमानोंकी प्रशंसा प्रारंभ कर दी।
तथा सम्पूर्ण देवासे भी अधिक इसकी महिमाका बखान किया गया।
उसके बाद समय पाकर ब्राह्मणोंमें जातीयताका स्वाभिमान