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(१) श्रादिभौतिकवाद-वैदिकदेवता, केवल प्राकृतिक शक्तियाँ हैं । जैसा कि णश्चात्य लिहानोंका मत है । यही मत अति प्राचीन काल से मीमांसकोंके एक सम्प्रदायका रहा है। इसी को निरुक्त की परिभाषामें आधिभौतिक वाद कहते हैं। - (२) शब्द देवता--मीमांसकोंमें शयर स्वामी श्रादि. मन्त्रोंके अतिरिक्त किसी अन्य देवता या ईश्वरकी श्रावश्यकता नहीं समझते । अतः इनके मतमें मन्त्रोंके शय ही देवता हैं। ये लोग फर्मका फल भी कर्मों द्वारा ही मानते हैं। अतः उसके लिये भी किसी देवताकी अथवा ईश्वरकी आवश्यकता नहीं मानते ।
(६) आधिदैविक-इस सम्प्रदायके विद्वानोंका कथन है कि अनि श्रादि जड़ हैं परन्तु इन सबका एकएक अभिमानी श्रात्मा है अतः उस अभिमानी श्रात्माको मानकर स्तुति प्रार्थना श्रादि किय जाते हैं। उन अभिमानी देवोंको अनि, इन्द्र, सूर्य आदि नामसे कहा गया है। जैसा कि वेदान्तदर्शनमें कहा है।
अभिमानि व्यपदेशस्तु विशेषानुगतिभ्याम् ।। शश५
अर्थ-विशेषानु गतिभ्याम्, विशेष और अनुगति से अभिमानीका कथन है । अभिप्राय यह है कि वेदादि में अग्निादि को चेतन वत मान कर उनसे प्रार्थना आदि की गई हैं तथा प्राणोंका व इन्द्रीय आदि का विवाद पाया जाता है. इसी प्रकार पुत्रासुर युद्ध श्रादि के कथन से उनके पुरुषाकार होने का संदेह होता है । इसका उत्तर सूत्रकार देते हैं कि यह सब कथन अग्नि श्रादि में जो उनका अधिष्ठाता देव है, उसका कथन है। उन्हीं को अभिमानी देवता कहते हैं। इनके मत में भी देवता अनेक हैं. तथा उन सबका एक एक अधिष्ठाता भी है।
(४) याशिक बाद-वेदों के निष्पक्ष एवं गम्भीर स्वाध्याय से