Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 04
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1779 जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालजी-महाराजविरचितया समयार्थबोधिन्याख्यया व्याख्यया समलवृतं हिन्दी-गुर्जर-भाषाऽनुवादसहितम् WAANENAWINE ACULOAGO ॥श्री-सूत्रकृताङ्गसूत्रम्॥ '' (चतुर्थो भागः) नियोजकः संस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानि पण्डितमुनि-श्रीकन्हैयालालजी-महाराजः, 3UUR Mal 04 AISH CRACARTO प्रकाशक. . RAYAN AMAA SNEgkuskAGE " मांगरोलनिवासी-स्वः श्रेष्ठिश्री माणेकचंद नेमचंदभाई तत्प्रदत्त-द्रव्यसाहाय्येन अ० भा० श्वे० स्था. जैनशास्त्रोद्धारसमितिप्रसुखः श्रेष्ठि-श्रीशान्तिलाल-मङ्गलदासभाई-महोदयः मु० राजकोट प्रथमा-आवृत्ति धीर-संवत् विक्रम संवत् ईसवीसन् प्रति १२०० २४९७ २०२७ मूल्यम्-रू० २६-०-० . । FRI SA ( APGARH ARRIRISH SBIST SEASE RKA YADGN A Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મળવાનું ઠેકાણું . श्री म. सा. ka. स्थानवासी જૈનશાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ, है. यि । २3, Nort, ( सौराष्ट्र). Published by Shri Akhil Bharat S. S Jain Shastroddhara Samiti, Garedia Kuva Road, RAJKOT, (Saurashtra), W Ry, India. ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञा, जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैप यत्नः । उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालो ह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी ॥ १ ॥ हरिगीतच्छन्दः फरते अवज्ञा जो हमारी यत्न ना उनके लिये । जो जानते हैं तत्त्व कुछ फिर यत्न ना उनके लिये ॥ जनमेगा मुझसा व्यक्ति कोई तत्त्व इससे पायगा । है काल निरवधि विपुलपृथ्वी ध्यान में यह लायगा ॥१॥ व भूयः ३. २५00 પ્રથમ આવૃત્તિ પ્રત ૧૨૦૦ વીર સંવત્ ૨૪૯૭ વિક્રમ સંવત ૨૦૨૭ ઈસવીસન ૧૯૭૧ मुद्र: મણિલાલ છગનલાલ શાહ નવપ્રભાત પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ, ઘીકાંટા રોડ, અમદાવાદ. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय ७ आद्रक श्री सूत्रकृताङ्गसूत्र भाग ४ चौथे की विषयानुक्रमणिका अनुक्रमांक पृष्ठ दूसरे श्रुतस्कंध की अवतरणिका १-२ पुण्डरीक नामका प्रथम अध्ययनका निरूपण ३-१५२ क्रियास्थान नाम के दूसरे अध्ययनका निरूपण १५३-३४६ आहारपरिज्ञा नामके तीसरे अध्ययनका निरूपण ३४७-४३० प्रत्याख्यान क्रिया का उपदेश नामके तीसरे अध्ययनकानिरूपण ४३१-४७३ आचारश्रुत नामक पांचवें अध्ययनका निरूपण ४७४-५५३ आईक कुमार के चरित वर्णनात्मक छट्टे अध्ययनका निरूपण ५५४-६८६ सातवां अध्ययन सातवें अध्ययन की विषयावतरणिका ६८७ राजगृह नगरका वर्णन ६८८-६९० लेप नामका गाथापतिका वर्णन ६९०-६९६ उदकपेढालपुत्रका आगमन एवं गौतमस्वामी के प्रति प्रत्याख्यान संबंध में शंका प्रदर्शन ६९६-७०५ उदकपेढालपुत्रको गौतमस्वामीका उत्तर ७०६-७०९ फिरसे गौतमस्वामी को उदकपेढालपुत्र का प्रश्न ७१०-७१४ प्रतिज्ञाभंग के विषय में फिरसे गौतम स्वामी का उत्तर ७१४-७१६ हिंसात्यागके बारेमें उदकपेढाल पुत्र एवं गौतमस्वमीके प्रश्नोत्तर ७१७-७२३ गौतमस्वामीका दृष्टान्त सहित विशेष उपदेश ७२३-७४० गौतमस्वमीका देशविरति धर्म आदिका समर्थन ७४०-७७४ उपसंहार ७७४-७८४ ॥समाप्त ।। । वणन Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગુપ્તદાનના શાખાન માંગાળનિવાસી સ્વ. શેઠ માણેકચંદ નેમચંદુભાઈ જન્મ સ ́વત્ ૧૮૮૪ મૃત્યુ તારીખ ૮-૧-૧૯૬૫ Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આધમુરબ્બીશ્રીએ શે શ્રી શાતિલાલ મગળદાસભાઈ અમદાવાદ. ૫૫ ૧૪ ) સ્વ. સુધીરભાઇ જય'તીલાલ ઝવેરી મુંબઈ. 4 શેઠશ્રી રામજીભાઈ શામજીભાઈ વીરાણી–રાજકાય. Jo (૧) શેઠશ્રી શામજીભાઈ વેલજીભા વીરાણી-રાજકોટ (સ્વ) રોશ્રી છગનલાલ શામળદાસ ભાવસારે અમદાવાદ, વચ્ચે બેઠેલા લાલાજી ક્શિનચંદજી સા જૌહરી ઉભેલા સુપુત્ર ચિ. મહેતામચન્દ્રજીસા. નાના – અનિલકુમાર જૈન (દેયત્તા ) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આદ્યમુરબ્બીશ્રીઓ (સ્વ.) રોશ્રી હરખચદ કાલીદાસ વારિ ભાણવડ (સ્વ) રશેઠશ્રી દિનેશભાઇ કાંતિલાલ શાહ અમદાવાદ. શાશ્રી જેસિંગભાઈ પાચાલાલભાઈ અમદાવાદ (સ્વ) શેઠ રંગજીભાઈ મેાહનલાલ શાહુ અમદાવાદ. શ્રી વિનાદમાર વીરાણી સ્વ. શેઠશ્રી આત્મારામ માણેક્લાલ અમદાવાદ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આઘમુરબ્બીશ્રીઓ - " " w 1 , , ન જ આ અપમાન જય મ L શ્રી વૃજલાલ દુર્લભજી પારેખ રાજકોટ, કઠારી હરગોવિંદ જેચંદભાઈ રાજકોટ, (ઉડર કરૂં : - -- - -- - -- -- શેઠશ્રી મિશ્રીલાલજી લાલચંદજી સા. લુણિયા શેઠ પ્રભુદાસભાઈ મુલજીભાઈ દેશી તથા શેઠશ્રી જેવંતરાજજી લાલચંદજી સા રાજકોટ (સ્વ.) શેઠશ્રી ધારશીભાઈ જીવણલાલ બારસી સ્વ શ્રીમાન શેઠશ્રી મુકનચંદજી સા. બાલિયા પાલી મારવાડ Page #10 --------------------------------------------------------------------------  Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આધમુરબ્બીશ્રીઓ - પટેલ ડોસાભાઈ ગોપાલદાસ મુ સાણંદ (છ અમદાવાદ) ૧ અમીચંદભાઈ તથા ૨ ગીરધરભાઈ બાટવિયા Sી જ સ્વર્ગસ્થ ન્યાયમૂર્તિ રતીલાલભાઈ ભાયચંદભાઈ મહેતા शहाजी श्री मोडीलालजी गलुन्डिया , , ! સ્વ. શેઠશ્રી જીવરાજભાઈ મૂળચંદભાઈ ધ્રાંગધ્રા, श्रीमान शेठ सा. श्री कानुगा धिंगडमलजी साब Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આમુરબ્બીશ્રીએ સ્વ, શેઠશ્રી હરિલાલ અનેાષચદ શાહુ ખંભાત. athle श्रीमान् शेठ सा. चीमनलालजी सा. ऋभचंदजी सा. अजीतवाले ( सपरिवार ) ! 1 વચ્ચે બેઠેલા મેાટાભાઇ શ્રીમાન્ મૂલચંદ′′ જવાહીરલાલજી મતિયા ૨ બાજુમા બેઠેલા ભાઇ મિશ્રીલાલજી ખરઢિયા * ઉભેલા સૌથી નનાભાઈ પૂનમચંદ ભરક્રિયા स्व. शेठ ताराचंदजी साहेब गेलडा મદ્રાસ શેઠ કીશનલાલજી ફુલચંદ સા એ ગલાવાળા श्रीमान् सेठश्रा खीमराजजी सा. चोरडिया Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री वीतरागाय नमः ॥ श्री जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्यश्री घासीलालवतिविरचितया समयार्थवोधिन्याख्यया व्याख्यया समलङ्कृतम् ॥ श्री-सूत्रकृताङ्गसूत्रम् ॥ ( चतुर्थो भागः ) अथ द्वितीयश्रुतस्कन्धः प्रारभ्यते प्रथमश्रुतस्कन्धसमाप्त्यनन्तरं द्वितीयश्रुतस्कन्धः प्रारभ्यते । प्रथमश्रुतस्कन्धे य एवाऽर्थाः संक्षेपतो निरूपितास्त एवाऽस्मिन् द्वितीय श्रुतस्कन्धे युक्तिपुरस्सरं विस्तरेण निरूपिता भविष्यन्ति । संक्षेपविस्ताराभ्यां निरू पिताः पदार्थाः सरलतया बुद्धिपथमधिरोहन्ति । अतः प्रथमश्रुतस्कन्धे ये पदार्थाः प्रतिपादिता स्व एव विस्तरतो द्वितीयश्रुतस्कन्धे प्रतिपाद्यन्ते । अथवा - मथमश्रुतस्कन्धे ये विषयाः प्ररूपिता स्त एव दृष्टान्तमदर्शनेन सरलतया बोधयितुं द्वितीयद्वितीय श्रुतस्कन्ध का प्रारंभ प्रथम अध्ययन प्रथम श्रुतस्कंध की समाप्ति के पश्चात् दूसरा श्रुतस्कंध प्रारंभ किया जाता है । प्रथम स्कंध में संक्षेप से जिन अर्थों का निरूपण किया गया है, वे ही अर्थ दूसरे तस्कंध में युक्तिपूर्वक और विस्तार से कहे जाएंगे। संक्षेप और विस्तार से कहे गए पदार्थ सरलता पूर्वक समझ में आ जाते हैं । अथवा प्रथम श्रुतस्कंध में जिन विषयों की प्ररूपणा की गई है, वही दृष्टान्त के द्वारा सरलता से समझाने के लिए द्वितीय श्रुतस्कंध બીજા શ્રુત સ્કંધના પ્રારંભઅધ્યયન પહેલુ.. પહેલા શ્રુતસ્કધની સમાપ્તિ પછી આ બીજા શ્રુતસ્કંધના પ્રારંભ કરવામાં આવે છે. પહેલા શ્રુતસ્કંધમાં સક્ષેપથી જે અર્થાનું નિરૂપણ કરવામાં આવેલ છે, એજ અર્થ આ ખીજા શ્રુતસ્કંધમાં યુક્તિપૂર્વક અને વિસ્તારથી કહેવામાં આવશે. સક્ષેપ અને વિસ્તારથી કહેવામાં આવેલ પદાથ સરળતા પૂર્વ સમજવામાં આવી જાય છે. અથવા પહેલા શ્રુતસ્ક ંધમાં જે વિષયની પ્રરૂપણા કરવામાં આવી છે, એજ 'દૃષ્ટાન્ત દ્વારા સર્લ પણાથી સમજાવવા માટે બીજો શ્રુતસ્કંધ પ્રારભ सू०: १ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतानसूत्रे श्रुतस्कन्धः प्रारभ्यते । अत उभावपि स्कन्धौ समानविषयावेव । केवलं प्रथमे संक्षेपतो येषां प्रतिपादनं तेषामेवाऽत्र विस्तरेण कथनं भविष्यति। अस्मिन् श्रुत. स्कन्धे-पुण्डरीक १ क्रियास्थाना २ ऽऽहारपरिज्ञा ३ प्रत्याख्याना ४ नगारश्रुता५ ऽऽक ६ नालन्दा ७ ख्यानि सप्ताऽध्ययनानि सन्ति । तत्र प्रथमश्रुतस्कन्धाsध्ययनाऽपेक्षयाऽर्थतो महत्वं विद्यते, अतोऽस्य महाध्ययनमिति नामापि भवति । तत्र प्रथमाध्ययनं पुण्डरीकमिति नाम । तत्र पुण्डरीकं- कमलं तदुपमानेन धर्म रुचिमुत्पादयितुं विलक्षणं महतामाख्यानं प्रदर्य विषयोपभोगेभ्यो जन्तून व्यावर्त्य (निव) मोक्षमार्गाय समर्थीकृतास्ते साधुभिस्तेपामेव संसारमोचकानां निदर्शनं कृतमिहस्कन्धे। तदनेन सम्बन्धेनाऽऽशातस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धसम्बन्धिप्रथमाध्ययनस्य प्रथमं सत्रमाह-'सुयं मे' इत्यादि। प्रारंभ किया जाता है । अत एव दोनों स्कंधो का विषय समान ही है। अन्तर यही है कि प्रथम स्कंध में जिन विषयों का संक्षेप में प्रतिपादन है, उन्हीं का यहां विस्तार से निरूपण है। इस श्रुतस्कंध में सात अध्ययन हैं-पुण्डरीक (१) क्रियास्थान (२) आहारपरिज्ञा (३) प्रत्याख्यान (४) अनगारश्रुत (५) आद्रक (६) और (७) नालन्दा। प्रथम श्रुतस्कंध-अध्ययन की अपेक्षा घड़ा होने से इस का नाम महाध्ययन भी है। इसका प्रथम अध्ययन पुण्डरीक नामक है । पुण्डरीक का अर्थ है कमल । कमल की उपमा देकर धर्म में रूचि उत्पन्न करने के लिए महान् पुरुपो का आख्यान दिखलाकर, जीवों को विषय भोगों से निवृत्त करके माधुओं ने उन्हें मोक्षमार्ग के लिए समर्थ बनाया। इाકરવામાં આવે છે. તેથી જ બને તકનો વિષય સરખેજ છે. અતર એજ છે કે–પહેલા કૃતસ્ક ધમાં જે વિષયનું સક્ષેપથી પ્રતિપાદન કરેલ છે, તેનું જ અહિયાં વિસ્તાર પૂર્વક નિરૂપણ કરેલ છે આ શતકંધમાં સાત અધ્યયન છે તે આ પ્રમાણે સમજવા. પુરીક (१) छियास्थान (२) गा।२ परिक्षा (3) प्रत्याभ्यान (४) अना२श्रुत (५) भाद्र ४ (6) भने नासह (७) પહેલા શ્રુતસ્કંધ-અધ્યયનની અપેક્ષાથી મોટુ હેવ થી આનું નામ મહાધ્યયન પણ છે આનુ પહેલું અધ્યયન પુડરીક નામનું છે, પુંડરીકને અર્થ કમળ એ પ્રમાણે થાય છે કમળની ઉપમા આપીને ધમમાં રૂચિ ઉત્પન્ન કરવા માટે મહાન પુરુષોનું અગ્ય ન બતાવીને એને વિષય ભેગેથી નિવૃત્ત કરીને સાધુઓએ તેને મેક્ષ માર્ગ માટે સમર્થ બનાવ્યા. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् ___ मूलम्-सुयं से आउलं तेणं भगवया एकमक्खायं । इह खल्लु' पोंडरीए णामज्झयणे, तस्स णं अयम? पण्णत्ते-से जहा णामए पुक्खरिणी सिया बहुउदगा बहुसेया बहुपुक्खला लट्ठा पुंडरिकिणी पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, तीसे णं पुक्खरिणीए तत्थ तत्थ देसे देसे तहिं तहिं बहवे पउमवरपॉडरीया बुइया, अणुपुबुष्ट्रिया ऊसिया रुइला वाणमंता गंधमंता रसमंता फासमंता पालादीथा दरिलणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, तीसे णं पुक्खरिणीए वहुमज्झदेसभाए एगे महं पउमवरपॉडरीए बुइए, अणुपुव्वुटिए उस्सिए रुइले वन्नमंते गंधमंते रसमंते फासमंते पासादीए जाव पडिरूवे। सव्वावंति च णं तीसे पुक्खरिणीए तत्थ तत्थ देसे देसे तहिं तहिं बहवे पउमवरपोंडरीया बुइया अणुपुवुटिया ऊसिया रुइला जाव पडिरूवा, सवावंति च णं तीसे पुस्खरिणीए बहुलज्झदेसभाए एर्ग महं पउमवरपोंडरीयं बुइयं अणुपुव्वुटिए जाव पडिरूवे ॥सू०१॥ ___ छाया-श्रुतं मया आयुष्मन् ! तेन भगवता एवमाख्यातम् । इह खलु पुण्डरीकनामाध्ययनम् , तस्य खल्त्यमर्थः प्रज्ञप्तः । तद्यथा नाम पुष्करिणी स्यात् 'बहूदका, बहुसेया, बहुपुष्कला, लब्धार्थी, पुण्डरीकिणी, प्रासादिका, दर्शनीया, अभिरूपा प्रतिरूपा । तस्याः खलु पुष्करिण्या स्तत्र तत्र देशे देशे तस्मिन तस्मिन् बहूनि पद्मवरपुण्डरीकाणि उक्तानि, आनुपूा उत्थितानि उच्छ्रितानि रुचिराणि वर्णवन्ति गन्धवन्ति रसवन्ति स्पर्शवन्ति प्रासादिकानि दर्शनीयानि अगिरूपाणि प्रतिरूपाणि । तस्याः पुष्करिण्या वहुमध्यदेशभागे एकं महत् पद्मवरपुण्डरीकमुक्तम् स्कंध में उन्हीं संसार से छुड़ाने वालों का उदाहरण है । इस संबंध से प्राप्त द्वितीय श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन को यह प्रथम सूत्र है-'सुयं मे आउसं तेणं' इत्यादि। - આસ્ક ધમાં સંસારથી છોડાવવા વાળા એજ વિષયનું વિવેચન કરવામાં આવેલ છે. એ સંબંધથી પ્રાપ્ત થયેલ બીજા કૃતસકંધના પહેલા અધ્યયનનું मा ५९ सूत्र छे. 'सुयं मे आउमं तेणं' त्याह Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्व्या उत्थितम् उच्छ्रितं रुचिरं वर्णवद् गन्धद्रवत् स्पर्शवत् प्रासादिकं यावत्प्रतिरूपम् । सर्वस्था अपि तस्याः च खलु पुष्करिण्या स्तत्रतत्र देशे देशे तस्मिन् तस्मिन् बहूनि पद्मरपुण्डरीकाणि उक्तानि आनुपूर्व्या उत्थितानि उच्छ्रितानि रुचिराणि यावत् प्रतिरूपाणि । सर्वस्या अपि च खलु तस्याः पुष्करिण्या वहुमध्यदेशभागे एकं महत् पद्मवरपुण्डरीकमुक्तम् आनुपूर्व्या उत्थितं यावत् प्रतिरूपम् ||सू० १॥ " टीका - सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं प्रत्याह- 'आउस' हे आयुष्मन् जम्बू ! 'मे' मया 'सु' श्रुतम् - भगवत्समीपे श्रवणगोचरीकृतम् ' तेणं भगवया' तेन - केवलज्ञानवता भगवता - तीर्थकरेण 'एवम+खायं' एवमाख्यातम् एवम् वक्ष्यमाणरीत्या आख्यातम् - प्रतिपादितम् । 'इह खलु पौडरीए णामायणे तस्स णं भयमट्टे पण्णत्ते' इह - जिनशासने खलु - निश्चयेन पुण्डरीकनाम अध्ययनम् प्रथमं पुण्डरीकनामाध्ययनम् 'तस्स' तस्य 'णं' णमिति वाक्यालङ्कारे । 'अयमट्टे' अयमर्थः 'पण्णत्ते' मज्ञप्तः - कथितः । ' से जहाणामए शुक्खरिणी सिया' तद्यथानाम पुष्करिणी स्यात् तद्यथानाम पुष्करिणी - पुष्करं कमलं तद्विद्यते यस्यां सा पुष्करिणी 'सिया' स्यात् कीदृशी सा तत्राह - ' - 'बहुउदगा' बहूद्दका, बहूनि - प्रभूतानि उदकानिपयांसि विद्यन्ते यस्यां सा तथा प्रचुरजलसम्पन्ना 'बहुसेया' बहु सेया कर्दमबहुला टीकार्थ- सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं - हे आयुष्मन् जम्बू ! मैंने भगवान् के समीप सुना है । केवलज्ञानी तीर्थंकर भगवान् ने इस प्रकार कहा है । यहां जिनशासन में पुण्डरीक नामक अध्ययन है । उसका यह अर्थ कहा गया है जैसे कोई पुष्करिणी (कमलों वाली वापी) हो । वह प्रचुर जल से परिपूर्ण हो, बहुत कीचड़ वाली हो, अगाध जल होने से अत्यन्त गहरी हो, जल के पुष्पों से युक्त हो, देखने मात्र से चित्त को मुग्ध करने वाली हो, दर्शनीय हो, मनोज़ रूप वाली हो एवं असाधारण ટીકા”—સુધર્માવામી જમ્મૂસ્વામીને કહે છે કે—હૈ આયુષ્મન્ જમ્મૂ | મે' ભગવાનની સમીપથી સાંભળેલ છે કેવળજ્ઞાનવાળા તીર્થંકર लगવાને આ પ્રમાણે કહ્યું છે. અહિયાં જીનશાસનમાં પુંડરીક નામનું અધ્યયન છે તેના અર્થો આ પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે. જેમ કંઈ પુષ્કરિણી (કમળાવાળી વાવ) હોય, તે ઘણુા જળથી પૂર્ણ રીતે ભરેલી હાય, ઘણા કાદવ વાળી હાય, અગાધ પાણી હાવાથી અત્યંત ઉડી ઢાય પાણીમાં થવાવાળા પુષ્પોથી યુક્ત હાય, જોવા માત્રથી ચિત્તને માહ પમાડનારી હાય, દનીય હાય, મને રૂપવાળી હાય, અને અસાધા Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ arraffair rat fद्व. शु. अ. १ पुण्डरीकना माध्ययनम् 'बहुपुक्खला' बहुपुष्कला आगाधजलवच्चात् गम्भीरा, 'लद्धडा' लब्धार्या जल पुष्प संयुक्ता, पुष्कराणि - कमलानि विद्यन्ते यस्यां सा पुष्करिणी, 'पासाईया' मसादिका, दर्शनादेव चित्तमोहिनी 'दरिसणिज्जा' दर्शनीया द्रष्टु योग्या 'अभि रूत्रा' अभिरूपा - प्रशस्तरूपती 'पडिया' प्रतिरूपा नास्ति प्रतिरूपं सदृशरूपवत् अन्यद् यस्याः सा प्रतिरूपा, अनन्यसाधारणी । 'ती से गं' तस्याः खलु 'पुत्रखरिणीए' पुष्करिण्याः 'तत्थ तत्थ देसे देसे' तत्र तत्र देशे तच्छन्दे देशेच वीप्सा तद्वलाच्चतुर्दिक्षु इत्यर्थी लभ्यते । ' तर्हि तर्हि ' तस्मिन् तस्मिन् देशे सर्वस्मिन्मदेशेच पुष्करिण्यां व्याप्तानि । 'बहवे पउमवरपोंडरिया बुझ्या' बहूनि पद्मत्ररपुण्डरी काणि उक्तानि, तस्मिन् सरसि अनेकजातीयानि कमलानि विद्यन्ते । 'अणु पुच्छुट्टिया आनुपूर्व्या-उत्थितानि उत्तमोत्तमक्रमेण शतपत्रसहस्रपत्र भेदभावेन तत्राविधान कमलानि सन्ति 'उस्सिया' उच्छ्रितानि ऊर्ध्वं गतानि 'रुइला ' . रुचिराणि - मनोज्ञानि 'वण्णमंता' वर्णवन्ति - नील - पीत - रक्त - श्वेतानि । 'गंध (अनुपम) हो । उस पुष्करिणी के देश देश में ( जगह जगह ) सभी दिशाओं में विविध जातियों के कमल मौजूद हो । वे कमल अनुक्रम से ऊचे उठे हों । उत्तमोत्तम क्रम से शतपत्र सहस्रपत्र के भेद से अनेक विध हो । वे ऊंचे मनोज्ञ, सुन्दर नील, पीत, रक्त और श्वेत वर्ण वाले हो, सुन्दर विलक्षण गंध से सम्पन्न हो, विलक्षण मधुपराग से युक्त हो, कोमल स्पर्श वाले हों आह्लादकारी, दर्शनीय, अभिरूप सुन्दर रूपवान् और प्रतिरूप अर्थात् असाधारण हो । उस पुष्करिणी के बिलकुल मध्य भाग में एक पद्मवर पुण्डरीक नामका श्वेत कमल कहा गया है। वह श्वेत कमल विलक्षण रचना से युक्त, पंक से ऊपर निकला हुआ, बहुत ऊंचा, सुन्दर, प्रशस्त वर्णवाला, રણ (અનુપમ) હેાય, તે વાવના દેશ દેશમાં એટલે કે સ્થળે સ્થળે સઘળી દિશાઓમાં જુદી જુદી જાતના કમળા વિદ્યમાન હાય, તે કમળા અનુક્રમથી 'ચા થયા હોય, એટલે કે ઉત્તમેાત્તમનાક્રમથી શતપત્ર કમલ સહસ્રપત્ર, વિગેરેના ભેદથી અનેક પ્રકારના કમળા હાય તે ઉંચા, મનેજ્ઞ, સુદર નીલ, પીળા, રતા, અને ધેાળા વણુ વાળા હાય, સુંદર વિલક્ષણ ગધથી યુક્ત હાય આલ્હાદકારી, દશ નીય અભિરૂપ, સુંદર રૂપવાન અને પ્રતિરૂપ અર્થાત્ અસાધારણ હાય, તે પુષ્કરિણી–વાવના મિલ્કુલ મધ્ય ભાગમાં એક પદ્મવર પુંડરીકનામનું ધેાળું કમળ કહેલ છે. તે શ્વેત કમળ વિલક્ષણ રચનાથી યુક્ત, કાદવથી ઉપર નીકળેલ ઘણુ ઉચુ, સુંદર વખાણુવા લાયક વઘુ –રંગવાળું, મનને Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतागसूत्रे मंता' गन्धवन्ति-विलक्षणगन्धसमवेतानि । 'रसमंता' रसन्ति-विलक्षण मधुपरा गयुक्तानि 'फाममंता' स्पर्शवन्ति-मृदुम्पर्शवन्ति 'पासाईया' प्रासादिकानि-आहा. दकारीणि 'दरिसणिज्जा' दर्शनीयानि-द्रष्टुं योग्यानि 'अभिरूपाणि-सुजातरूपवन्ति, पडिरूवा' प्रतिरूपाणि-अनन्यसाधारणानि, 'तीसे गं पुकखरिणीए' तस्याः खल्ल पुक्खरिया: 'बहुमज्झ देसभाए' बहुपपदेश मागे-मध्यप्रदेशे, 'एगे महं पउमवरपोडरिए बुरए' एकं महत् पद्मवरपुण्डरीकं कमलमुक्तम् , एकं विल क्षणं सर्वसुजातकमलेभ्यः श्रेष्ठ कमलं तस्या मध्य मागे विद्यते । 'अणुपुव्वुहिए' आनुपूळ उत्थितं तत् श्वेत कमलं विलक्षणरचनया युक्तम् , पड्कादृवंगतम् , 'उस्सिए' उच्छ्रितम्-अत्यूवस्थितम् 'रुइले' रुचिरम्- सुन्दरम् 'वण्णवंते' वर्णवत् 'गंधमंते' गन्धवत्-सुरमिगन्धयुक्तम् 'रसमंते' रसवत्-सुस्वादुरसयुक्तम् ‘फासमंते' विलक्षणस्पर्शयत् । 'पासाईए' प्रासादिकम्-प्रसादगुणोपेतम् , 'जाव पडिरूवे' यावत् प्रतिरूपम्-दर्शनीयमभिरूपं पतिरूपम् 'सन्यावंति च ण तीसे' सर्वस्या अपि खलु तस्याः 'पुक खरिणीए' पुष्करिण्याः 'तत्थ तत्थ देसे देसे' तत्र तत्र देशे देशे-प्रत्येकादेशे, 'तहि तर्हि तस्मिन् तस्मिन् 'वह वे बहूनि 'पउमवरपौडरिया चुइया' पद्मवरपुण्डरीकाणि उक्तानि-बहु नि कमलानि सन्ति, 'अणुपुव्वुट्ठिया' आनुपूा उस्थितानि 'उसिया' उच्छ्रितानि पकाद्ध्यै गनानि 'सहला' रुचिराणि 'जाव पडिरूपा' यावत्यतिरूपाणि-पूर्वोक्त सर्वगुणसम्पन्नानि 'सव्याचंति च णं नीसे पुकावरिणीए' सर्वस्या अपि खलु तस्याः पुष्करिण्याः 'बहु मझदेसभाए' बहुमध्यदेशभागे 'एग महं पउमबरपोंडरीयं त्रुइयं एकं महत् पद्ममनोज्ञ गंध वाला, सुस्वादु रमवाला और मनोहर पवाला है। वह दर्शक के चित्त को प्रसन्नता जदान करनेवाला यावत् प्रतिरूप है अर्थात् दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप है । उस सम्पूर्ण पुष्करिणी में बहुत से पद्मवर पुण्डरीक कहे गये हैं। वे अनुक्रम से ऊँचे उटे हुए, कीचड़ से ऊपर निकले हुए मचिर यावत् प्रतिरूप हैं । अर्थात् पूर्वोक्त सब गुणों આનંદ આપનાર ગંધવાળું, સ રા સ્વાદ યુક્ત રસવાળુ, અને મને હર સ્પર્શ વાળું હોય છે. તે જોનારના ચિત્તને પ્રસન્નતા આપનાર યાવત્ પ્રતિરૂપ છે. અર્થાત્ દર્શની, અભિરૂપ અને પ્રતિરૂપ છે. તે સંપૂર્ણ પુષ્કરિણીમાં ઘણું કમળ-પદ્મવરપુંડરીકો આવેલા છે તે અનુક્રમથી ઉચા ઉઠેલા કાદવધી ઉપર નીકળવા મનને ગમનાર રૂચિર યાવત્ પ્રતિરૂપ છે, અર્થાત્ પર્વોક્ત સઘળા ગુણોથી યુક્ત હોય છે, તે પુષ્કરિણ–વાવની વચ્ચે વચ્ચે એક Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् वरपुण्डरीकमुक्तम् 'अणुपुवट्टिए' आनुपूा उत्थितम् , तत् 'जाव पडिरूवे' यावस्मतिरूपम् , पूर्वोक्तपसादरूप गन्धरसस्पर्शादिगुणयुक्तं कमलं तत्र विद्यते ॥सू० १॥ मूलम्-अह पुरिसे पुरथिमाओ दिसाओ आगम्म तं पुक्खरिणं तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्चा पासइ तं महं एगं पउमवर पोंडरीयं अणुपुव्वुट्टियं ऊसियं जाव पडिरूवं। तए णं से पुरिसे एवं वयासी-अहमंलि पुरिसे खेयन्ने कुसले पंडिए वियत्ते मेहावी अबाले मग्गत्थे मग्गविउ मगरस गइपरकमण्णू अहमेयं पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामि तिकटु इइ वुया से पुरिसे अभिक्कमेइ तं पुक्खरिणि जावं जावं च णं अभिकमेइ तावं तावं च णं महंते उदए, महंते सेए पहीणे तीरं अपत्ते पउमवरपोंडरीयं णो हव्वाए णो पाराए, अंतरा पोक्खरिणीए सेयसि निसपणे पढमे पुरिसजाए ॥सू०२॥ छाया-अथ पुरुषः पुरस्ताद् दिशः आगत्य तां पुस्करिणी, तस्याः पुष्करिण्यास्तीरे स्थित्वा पश्यति तन्महदेकं पद्मवरपुण्डरीकम् आनुपूा उत्थितम् उच्छ्रितं यावत्पतिरूपम् । ततः खलु म पुरुष एकमवादीत्-अहमस्मि पुरुष. खेदज्ञः कुशलः पण्डितो व्यक्तो मेधावी अवालो मार्गस्थो मार्गवित् मार्गस्य गतिपराक्रमज्ञः, अहमेतत् पदमवरपुण्डरीकमुनिक्षेप्स्यामीति कृत्वा इत्युक्त्वा स पुरुषोऽभि क्रामति तां पुष्करिणी, यावद् यावच्च खलु अभिक्रामति तावत् तावच्च खल महउदकम्, महान् सेयः, महोणस्तीराद् अमाप्तः पद्मवरपुण्डरीकम्, नो अर्वाचे नो पाराय अन्तरा पुष्करिण्याः सेये निषण्णः प्रथमः पुरुपजातः । मू०२ । से सम्पन्न हैं । उम पुष्करिणी के बीचों बीच एक बड़ा पद्मवर पुण्डरीक कहा है। वह भी अनुक्रम से ऊंचा उठा हुआ यावत् प्रतिरूप है अर्थात् पूर्वोक्त सब विशेपनाओं से युक्त है। ॥१॥ વિશાળ પાવર પુંડરીક કહેલ છે, તે પણ અનુક્રમથી ઊંચે ઉઠેલ યાવત્ પ્રતિ રૂપ છે, અર્થાત્ પૂર્વોક્ત તમામ વિશેષણોથી યુક્ત છે. ૧ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतासूत्रे टीका- 'अ' अथ 'पुरिसे' पुरुषः कचिदज्ञातनामधेयः 'पुरस्थि माओ' पुरस्तात् पूर्वस्थाः 'दिसाओ' दिशः सकाशात् 'आगम्म' आगत्य 'तं पुक्खरिणि'' तां पुष्करिणीं जलकर्दमपङ्कजपूर्णांम् । 'तीसे पुक्खरिणीए तीरे' तस्याः पुष्करिण्यास्तीरे, यथोक्तविशेषणवत्या नद्यास्तटे तत्मान्तभागे 'ठिच्चा' स्थित्वा - स्थितः सन् 'पास' पश्यति, किं पश्यति तत्राह ' तं महं एगं' तन्महदे कम् 'परमवरपुडरी' पद्मरपुण्डरीकम्, सर्वकमलशो मातिशायिपुण्डरीकं विलक्षणं पश्यति । कीदृशम् ? तत्राह 'अणुपुच्बुद्विय' आनुपूर्व्या उत्थितम् यद् यद् स्थाने यथा यथाऽवयवसन्निवेशः समुचित स्वत्र तत्र स्थळे तथैव सन्निवेश पूर्वकं सुन्दररचनयोपेतम् । 'ऊसियं जाव पडिवं' उच्छितम् - पङ्कादूर्ध्वमवस्थितम् यावत् प्रतिरूपम्, अनन्यसाधारणम् प्रशस्तवर्णगन्धस्पर्शवत्वाद्युपेतत्वादति मनोहरम्। 'तप 1 'अह पुरिसे' इत्यादि । टीकार्थ- कोई अज्ञात नाम और अज्ञात देशवाला पुरुष पूर्व दिशा से उस जल, कीचड़ एवं कमलोंवाली पुष्करिणी के पास आया। उस पुष्करिणी के किनारे खडा होकर वह उस उत्तम पुण्डरीक कमल को देखता है - यह कमल सब कमलों से अधिक सुन्दर एवं विलक्षण है । यह अनुक्रम से उत्थित है अर्थात् जिस जिस स्थान पर जैसे जैसे rara का सन्निवेश होना उचित है, वहां वैसा ही सन्निवेश होने के कारण बडी ही सुन्दर रचना से युक्त है । यह पंक से ऊपर उठा है यावत् प्रतिरूप है । प्रशस्त वर्ण, गंध, रस और स्पर्श आदि से सम्पन्न होने के कारण मनोहर है । 'अह पुरिसे' त्यिाहि ટીકા—કાઈ અજ્ઞાત નામવાળા અને અજ્ઞાત દેશવાળા પુરૂષ પૂર્વીદशाथी तेज, डीयड, रमने उभणो वाजी, पृष्ठ रिशी - पावनी न ४ माव्या. તે પુષ્કરિણીના કિનારે ઉભા રહીને તે એ ઉત્તમ શ્રેષ્ઠ એવા પુંડરીક-કમળાને જુવે છે. આ કમળ સધળા કમળેથી અત્યંત સુંદર અને વિલક્ષણ છે. આ અનુક્રમથી ઉઠેલ છે. અર્થાત્ જે જે સ્થાન પર જેવા જેવા અવયવેાના સન્નિવેશ થવાને ચેાગ્ય હોય, ત્યાં એજ પ્રમાણે સન્નિવેશ રચના થવાને કારણે અત્યંત સુંદર રચનાથી યુક્ત છે. મા કાદવથી ઉપર આવેલ છે. યવત્ પ્રતિરૂપ છે. પ્રશસ્ત વધુ, ગંધ, રસ, અને સ્પર્શી વિગેરેથી યુક્ત હાવાને કારણે મનેાહર છે, Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् णं से पुरिसे' ततः खलु स पुरुषः, या पुष्करिण्यास्तीरे पूर्व देशादागत्य समुपस्थितः सः, 'एवं वयासी' एवं वक्ष्यमाणवचनम् अबादीत 'अहमंसि' अहमस्मि 'पुरिसे'. पुरुषः 'खेयन्ने' खेदज्ञः-खेदं-पार्गश्रमं जानातीति खेदज्ञः 'कुसले' कुशलः हिताऽहितमाप्तिपरिहारे निपुणः 'पंडिए' पण्डितः-विवेक बुद्धियुक्तः 'वियते' व्यक्तः 'मेहावी' मेधावी-हिताहितबुद्धिमान 'अवाले' अबालो वालभावानिवृर: 'मग्गस्थे मार्गस्थः-सद्भिरावरितसन्मार्गे सदाचरणे वा आस्थितोऽस्मि । 'मग्गविउ' मार्गवित्-मार्गमहं जानामि 'मग्गस्स' मार्गस्य 'गइपरकपण्णू' गतिपराक्रमः, येन यथा चलन् जीवः स्वाभीष्टतमं देशम पाप्नोति, तमहं जानामि, अथवां-येन प्रकारेग जलमुत्तीर्य जलमध्यगतं वस्तु प्राप्यते तादृशपायमहं वेभि । 'अहमेय' अहमेतत् एतादृशोऽहम् एतत् 'पउमवरपुंडरीयं पावरपुण्डरीकं-प्रधानकमलम् 'उन्निक्खिस्सामि' उन्निक्षेप्स्यामि जलादेतत् कमलमुक्षिप्याऽऽनेष्यामि-स्वा. यत्ती करिष्यामि । 'त्तिक?' इति कृत्वा 'इइ वुया' इत्युक्त्या 'से पुरिसे' इस प्रकार देखने के पश्चात् पूर्व दिशा से आया हुआ वह 'पुरुष यों कहता है मैं मार्ग में होने वाले श्रम को जानता हूँ, हित की प्राप्ति और अहित का परिहार करने में निपुण हू, विवेक बुद्धि से सम्पन्न प्रौढ परिपक्व हैं, मेधा का धनी हूं। सत्पुरुषों द्वारा आचरित मार्ग में या सदाचरण में स्थित है। मार्ग का वेत्ता है जिस पथ पर चलता हुआ जीव अपने अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त करता है, में उस पथ को जानता हूँ अथवा जिस प्रकार जल में तैर कर जल के मध्य में स्थित वस्तु प्राप्त की जाती है, उसे मैं समझता हूं। मैं पुरुष हूं-मर्द ह ! मैं इस प्रधान कमल को उखाड कर ले आऊंगा और अपना घना लूगा। આ પ્રમાણે જોયા પછી પૂર્વ દિશાથી આવેલ તે પુરૂષ એવું કહે છે કે -હું માર્ગમાં થયેલા પરિશ્રમને જાણું છું. હિતની પ્રાપ્તિ અને અહિતને પરિહાર-ત્યાગ કરવામાં કુશળ છુ વિવેક બુદ્ધિવાળે છું પ્રૌઢ, અને પરિપકવ છું. બુદ્ધિશાળી છુ. સપુરૂષ દ્વારા આચરવામાં આવેલ માર્ગને જાણ વાવાળો છું. જે માર્ગ પર ચાલતે થકે જીવ પોતાની ઈચ્છા પ્રમાણેના લક્ષ્યને પ્રાપ્ત કરે છે. તે માર્ગને હું જાણનારો છુ. અથવા જે પ્રમાણે જળમાં તરીને જળની મધ્યમાં રહેલ વસ્તુ પ્રાપ્ત કરવામાં આવે છે, તેને હું સમજું છું હું પુરૂષ છું. મર્દ છુ હૂ આ શ્રેષ્ઠ કમળને ઉખાડીને લઈ આવીશ અને મારૂ બનાવીશ सू०२ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्रकृतामसूत्रे स पुरुप 'अभिक्कमेह तं पुक्खरिणि' अभिक्रामति तां पुष्करिणीम् , इत्युक्त्वों तो पुष्करिणीं प्रविशति कमलमानेतुम् ।. किन्तु 'जावं जावं च णे' यावद् यावच्च खलु 'अभिक्कमेइ' अभिक्रामति यावदले अंग्रे याति 'तावं तावं च 'गं' तावत् तावच्च खलु 'महंते उदए' महद् उदकम् 'महते सेए' महान् सेय:पङ्क आगच्छति, ततश्च 'पहीणे तीर' प्रक्षीणस्तीरात् , तीराभ्रष्टः 'अपत्ते पउमवर पौडरीयं' अपाप्तः पद्मवर पुण्डरीकम् , तीराच्च्युतः पद्मवरपुण्डरीकं चापि न माप्तः, ततः सः ‘णो हत्याए णो पाराए' नो आंचे नो पाराय-नो पूर्वतटे न परतटे पद्मवरपुण्डरीकातु परिभ्रष्ट एवं संस्पृष्टतीरादपि भ्रष्टः, 'अंतरा पोक्ख'रिणीए' अन्तरा पुष्करिण्याः वापी मध्ये 'सेयसि' सेये-पड्के 'निसण्णे' निपण्णः निमग्नः-पुष्करिण्याः कर्दमे निमग्नः क्लेशमनुभवन्नास्ते । एपः 'पढमे' प्रथमः 'पुरिसजाए' पुरुषजातः कथितः ।।सू० २। । __ मूलम्-अहावरे दोच्चे पुरिसजाए, अह पुरिसे दक्खिणाओ दिसाओ आगम्म तं पुक्खरिणिं। तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्चा पासइ तं महं एगं पउमबरपोंडरीयं अणुपुव्वुहियं पासाई यं जाव - इस प्रकार अपनी हैकडी जता कर-निश्चय कर वह कमल को लाने के लिए पुष्करिणी में प्रवेश करता है। किन्तु जैसे जैसे वह आगे पढता है, वैसे वैसे अधिक पानी और अधिक कीचड का उसको सामना करना पडता है । वह किनारे से अष्ट हो चुकना है और कमलपुष्प तक पहुंच नहीं पाता है। न इधर का रहता है न उधर झा । तीरसे भी गया और कमल से भी गया । घावडी के मध्य में ही प्रचुर पंक (गहरे कीचड) में फंस जाता है और क्लेश का अनुभव करता है। यह प्रथम पुरुष की कहानी हुई ॥२॥ આ પ્રમાણે પિતે પિતાને નિશ્ચય કરીને તે કમળને લાવવા માટે પુષ્કરિણી વાવમાં પ્રવેશ કરે છે પર તુ જેમ જેમ તે આગળ વધે છે, તેમ તેમ વધારે પાણી અને વધારે કાદવનો સામનો કરવો પડે છે, તે કિનારાથી પતિત થઈ જાય છે, અને કમળના પુરપ સુધી પહોચી શકતો નથી. ન અહિને રહ્યો અને ન ત્યાંને કિનારાથી પણ ગયે અને કમળથી પણ ગયો. વાવની મધ્યમાં જ અત્યંત કાદવ (ઉડા કાદવ) માં ફસાઈ જાય છે. અને દુખનો અનુભવ કરે છે ? છે આ પહેલા પુરૂષની કહેવત થઈ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . समार्थबोधिनी टीका द्वि. श्र. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनंम् ११ पडिरूवं तं च एत्थ एवं पुरिसजाएं पालई पहीणतीरं अपत्त पउमरपोंडरीयं णो हव्वाए णो पाराए अंतरा पोक्खरिणीए सेयंसि णिसन्नं, तर णं से पुरिसे तं पुरिसे एवं वयासी - अहो णं इमे पुरिसे अखेयन्ने अकुसले अपंडिए अवियत्ते अमेहावी बाले णो मग्गत्थे णो मग्गविऊ णो मग्गस्स गइपरक्कमण्णू जन्नं एस पुरिसे एवं मन्ने अहं खेयन्ने कुसले जाव पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खिस्तामि णोय खलु एयं परमवर पोंडरीयं एवं उन्निक्dयवं जहा णं एस पुरिसे मन्ने अहमंसि पुरिसे यन्ने कुसले पंडिए वियत्ते मेहावी अबाले मत्थे मग्गविउ मग्गस्स गइपरक्कमण्णू अहमेयं पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामि तिकटु इह बच्चा से पुरिले अभिक्कमे तं पुक्खरिणं, जावं जावं च णं अभिक्कम तावं तावं च णं महंते उदए महंते सेए पहीणे तीरं अपत्ते पउमवरपोंडरीयं णो हव्वाए णो पाराएं अंतरा पोक्खरिणीए सेयंसि जिसने दोच्चे पुरिसजाए ॥ सृ० ३ ॥ छाया - अथापरो द्वितीयः पुरुषजातः, अथ पुरुषो दक्षिणस्या दिश आगत्य a gष्करिणीं तस्याः पुष्करिण्यास्तीरे स्थित्वा पश्यति तन्महदेकं पद्मवरपुण्डरीकम् आनुपूर्व्योत्थित प्रासादिकं यावत् प्रतिरूपम् । तं चात्रकं पुरुषजातं पश्यति महीणतीरम् अप्राप्तपद्म वरपुण्डरीकं नो अर्थाचे नो पाराय, अन्तरा पुष्करिण्याः सेये निषण्णम् । ततः खलु स पुरुषस्तं पुरुषमेवमवादीत् - यहो खलु अयं पुरुषोऽखेदज्ञोऽकुशलोऽपण्डितोऽव्यक्तोऽमेधावी वालः नो मार्गस्थो नो मार्गस्ति नो मार्गस्य गतिपराक्रमज्ञो यस्मादेप पुरुष एवं मन्यते, अहं खेदज्ञः कुगलो यावत् पद्मवरपुण्ड कम् उन्निक्षेप्स्यामि न च खलु एतत् पद्मवरपुण्डरीकम् एवम् उनिक्षेप्तव्यं यथैप पुरुषो मन्यते । अहमस्मि पुरुषः खेदज्ञः कुशलः पण्डितो व्यक्तो मेधावी अवालो मार्गस्थो मार्गविद् मार्गस्य गतिपराक्रमज्ञोऽहमेतत् पद्मवरपुण्डरीकम् उग्निक्षेप्स्यामीति कृत्वा इम्युक्त्वा स पुरुषोऽभिक्रामति मृतां पुष्करिणी । यावद्यावद् च खल्ल Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्ग अभिक्रामति तावत् तावत् च खलु महदुदकं महान् सेयः महीणस्तीरात् अप्राप्त पद्मवरपुण्डरीकं, नो अर्वाचे नो पाराय अन्तरा पुष्करिण्याः सेये निषण्णः द्वितीयः पुरुषजातः ॥५० ३॥ टीका-'अहावरे दोच्चे पुरिसजाए' अथापरो द्वितीयः पुरुषजातः । अत्राऽथशब्दो द्वितीय पुरुषवृत्तान्तमदर्शनपरः । 'अवरे' अपरोऽन्यः प्रथमाऽपेक्षया 'दोच्चे' द्वितीयः 'पुरिसजाए' पुरुषजातः 'अह पुरिसे' अथ पुरुषः 'दक्षिणाओ दिसाओ' दक्षिणस्या दिशः, पुष्करिण्या दक्षिणदिग्विभागात् 'आगम्म' आगत्य 'तं पुक्खरिणि' तां पुष्करिणीम् 'तीसे पुक्खरिणीए' तस्याः खलु पुष्करिण्याः 'तीरे दक्षिणे तीरे 'ठिच्चा' स्थित्वा 'पासई' पश्यति 'तं महमेगं पउमवरपुंडरीयं' तन्महदेकं पद्मवरपुण्डरीकम्-कथलं, तन्महत् पद्मश्रेष्ठमेकं कमलं पश्यन् स्थितः कीदृशं तद इत्याह-'अणुपुवुठिय' आनुपूा उत्थितम्-विलक्षणरचनया व्यवस्थितम् । 'पासाईय' प्रासादिकम्-मनोरमम् 'जाव पडिरू' यावत्मतिरूपम् , 'तं च एगं 'अहावरे दोच्चे पुरिसजाए' इत्यादि। टीकार्थ-यहां 'अथ' शब्द दुसरे पुरुष के वृत्तान्त का सूचक है। प्रथम पुरुष के कीचड में फँस जाने के पश्चात् दुसरा पुरुष दक्षिण दिशा से उस पुष्करिणी के समीप आता है । वह उस पुष्करिणी के दक्षिण किनारे पर स्थित होकर उसी प्रधान पुण्डरीक कमल को देखता है। वह कमल अपनी विलक्षण रचना से व्यवस्थित है । दर्शक के चित्त को प्रसन्न करने वाला यावत् प्रतिरूप है। यहां 'यावत्' शब्द से दर्शनीय और अभिरूप विशेषण ममझलेना चाहिए। બીજા પુરૂષનું વૃત્તાંત _ 'अहावरे दोच्चे पुरिसजाए' त्यहि ટીકાર્ય–અહિયા “અ” શબ્દ બીજા પુરૂષના વૃત્તાન્તને સૂચક છે. પહેલે પુરૂષ કાદવમાં ફસાયા પછી બીજો પુરૂષ દક્ષિણ દિશામાંથી એ વાવની નજીક આવે છે. તે પુરૂષ એ વાવના દક્ષિણ દિશાના કિનારા પર ઉભે રહીને પહેલા વર્ણન કરેલ એ પ્રધાન પુંડરીક-કમળને જુવે છે. તે કમળ પિતાની વિલક્ષણ રચનાથી વ્યવસ્થિત છે. જેનારના ચિત્તને પ્રસન્ન કરવાવાળું યાવત, પ્રતિરૂપ છે. અહિયાં “યાવત’ શબ્દથી દર્શનીય, અને અભિરૂપ એ બે વિશેષ સમજી લેવા. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामांध्ययनम् पुरिसजायं पासइ' तत्र च तमेकं पुरुषजातं पश्यति, 'पहोणतीरं अपत्तपउमवरपोंडरीयं' प्रहीणतीरम् अप्राप्तपद्मवरपुण्डरीकस् ‘णो हनाए णो पाराए नो अर्थाचे नो पाराय, नैनस्मिस्तटे विद्यते, न वा परतट प्राप्तः किन्तु-'अंतग. पोक्खरिणीए सेयंसि णिसणं' अन्तरा पुष्करिण्याः सेये पङ्के निषण्णम्-निमग्नम् 'तए णं से पुरिसे' ततः खलु स पुरुषः यो हि दक्षिणदिग्विभागात् आगतः स पुरुषजातः 'तं पुरिसं एवं वयासी' पूर्वदिक्समागत पङ्कजमुन्नेतु यः पुष्करिण्यां मवेष्टुकामस्तं पुरुषमाश्रित्य एवं-वक्ष्यमागं वचः 'क्यासी' अवादी-उक्तवान् "अहो णं इमे पुरिसे अखेयन्ने' अहोऽयं पुरुषोऽखेदज्ञः, खेदं नाम परिश्रमं न सम्यग् नानाति, 'अक्सले' अकुशल:-विषेकवुद्धि विकल: 'अपंडिए' अपण्डित:तत्त्वातत्त्वविज्ञानविकलः 'अवियत्ते' अव्यक्ता-कार्यकरणाकुलः 'अमेहावी' अमेधावी-अपरिपक्वबुद्धिः 'वाले' बाल:-अज्ञानी, अतएच ‘णो मग्गत्थे' नो मार्गस्थः सत्पुरुपैरभ्यसमार्गेऽव्यवस्थितः । ‘णो मग्गविऊ' नो मार्गवित-सत्पुरुपैः सेव्य यह दूसरा पुरुष वहां एक पुरुष को देखता है, जो तीर से भ्रष्ट हो चुका है और उस प्रधान कमल तक पहूंच नहीं पाया है, न इधर का रहा न उघर का रहा है । किन्तु पुष्करिणी के मध्य में कीचड में फंस गया है। तब दक्षिण दिशा से आया हुआ पुरुष, उस पुरुष से जो कमल को लाने के लिए वावडी में घुसा था, इस प्रकार कहता है-अहो, यह पुरुष खेद अर्थात् परिश्रम को नहीं जानता, विवेक बुद्धि से शन्य है, तत्त्व-अतत्त्व के ज्ञान से हीन है, कार्य करने में अकुशल है, इसकी वुद्धि परिपक्व नहीं हुई है, अज्ञान है, इस कारण मार्गस्थ नहीं है अर्थात् सत्पुरुषों द्वारा आचीर्ण मार्ग में स्थित नहीं है, सत्पुरुषों તે બીજે પુરૂષ ત્યા એક પુરૂષને જુવે છે, કે જે કિનારેથી નીકળી ચૂકેલ છે, અર્થાત્ કિનારાથી પતિત થઈ ચૂક્યો છે, અને તે પ્રધાન કમળ સુધી પહોંચી શક્યો નથી. અર્થાત્ નથી અહિને રહ્યો કે નથી તહીને રહ્યો. પરંતુ વાવની વચમાં કાદવમાં ફસાઈ ગયો છે. ત્યારે દક્ષિણ દિશાએથી આવેલે પુરૂષ કમળને લાવવા માટે વાવમાં પ્રવેશેલા તે પુરૂષને આ माणे छ. - અહો ! આ પુરૂષ છે કે પરિશ્રમ-થાકને સમજાતું નથી, વિવેક બુદ્ધિ વગરનો છે. તત્વ કે અતત્વના જ્ઞાન વગરને છે. કાર્ય કરવામાં કુશળ નથી. આની બુદ્ધિ પરિપકવ થયેલ નથી, અજ્ઞાની છે, તેથી તે માર્ગસ્થ અર્થાત માર્ગ પ્રમાણે ચાલનારો નથી, એટલે કે સત્પરૂએ આચરેલ માર્ગનું તે Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूकनाङ्गसूत्र मानं मार्ग न विजानाति । 'णो मगम्स गइपरकामपण' नो मार्गस्य गतिपरा. क्रमज्ञः, मार्गस्य यो गतिपराक्रगौ त योरपि ज्ञाता नास्ति । 'जन्नं एस पुरिसे एवं मन्ने' यस्मादेप पुरुप एवं मन्यते-ये पुनरन्ये कोविदास्ते 'अहं वे यन्ते कुसले' अहं तु खेदज्ञः कुशलः 'जात्र पउपवरपोंडरीयं' यावत् पावरपुण्डरीकम् 'उन्नि. खिस्सामि' उन्निक्षेप्स्यामि-उद्धृत्याऽऽनेष्यामि, ‘णो य खलु पयं पउमवरपोंडरीयं न खल् एतत् पद्मवरपुण्डरीकम् ‘एवं उन्निक्खेयव्यं जहा णं एस पुरिसे मन्ने' एवम् उन्निक्षेप्नुन्ध गथैप पुरुषो मन्यते । नैतस्य कमलस्योद्धरणं सुलभंयथाऽयं सरलं बुद्धिमान्धाज्जानाति किन्तु एतस्योद्धरणं सातिशयं कठिनम् । 'अहमंसि पुरिसे' अहमस्मि पुरूषः 'खेपन्ने कुसले पंडिए वियत्ते मेहावी अबाले मग्गत्थे मग्गविऊ' खेदज्ञः कुशलः पण्डितोव्यक्तो मेधावी अबालो मार्गस्थो मार्गवित् , 'मग्गस्स गइपरक्कमण्णू' मार्गस्य गतिपराक्रमज्ञः 'अहमेयं पउमवरपोडद्वारा सेंवित मार्ग को जानता भी नहीं है, मार्ग संबंधी गति और पराक्रम का ज्ञाता नहीं है। हमने बहुत अनुचित कर्म किया। किन्तु मैं इसके समान नहीं है । मैं मार्ग के परिश्रम का ज्ञाता हूं, कुशल ह, यावत् उस उत्तम पुण्डरीक को उग्वाड कर ले आऊंगा। जैसा यह पुरुष समझता है, वैसे वह उत्तम कमल उखाड कर नहीं लाया जा सकता। उस कमल को उखाड कर लाना वेला सरल नहीं है जैसा कि मृर्वता के कारण यह पुरुष समझना है । उसका उखाडना बहुत ही कठिन है। मैं मर्द , खेदज्ञ, कुशल, पण्डित, परिपक्व, येधावी. ज्ञानवान, मार्ग स्थित और मार्ग का ज्ञाता ह। અવલખન કરેલ નથી સપુરૂષોએ સેવિત માર્ગને તે જાણને પણ નથી. માર્ગ સ બંધી પતિ અને પરાક્રમને તે જાણુ નથી આણે ઘણું જ અગ્ય કર્મ કર્યું છે. પરંતુ હું એને જે મૂર્ખ નથી, હું માર્ગમાં થનારા પરિશ્રમને જાણવાવાળો છુ, કુશળ છું યાવતું તે ઉત્તમ પુંડરીકને ઉખેડીને લઈ આવીશ. જે રીતે આ કાદવમાં ફસાયેલ પુરૂષ સમઝે છે, તે રીતે આ ઉત્તમ કમળ ઉખાડીને લાવી શકાતું નથી તે કમળને ઉખાડીને લાવવું તે એટલું સહેલું નથી, કે જેમ આ પુરૂષ પિતાના મૂખપણાથી સમઝે છે. તેને ઉખાડવું ઘણું જ કઠણ છે, હું મર્દ છુ. ખેદજ્ઞ–પરિશ્રમને જાણનારો છું. કુશળ છું, પંડિત છું. પરિપકવ છું. મેધાવી-બુદ્ધિશાળી છું જ્ઞાનવાનું છું, મર્ગમાં સ્થિત અને માર્ગને જાણનારે છુ. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् 'रीय' अहमेतत् पद्मवरपुण्डरीकम् 'उन्निकि वस्सामि' उन्निक्षेप्स्यामि, इति मतिम याऽहमिहाऽऽगतोऽस्मि । 'त्ति कटु' इति कृत्वा इत्थं प्रतिज्ञां कृत्वाऽहमत्राऽऽग'तोऽस्मि । कथमेतत् पनं सपङ्कजलाज्जलाशयादुद्धरणीयं तत्सर्वे विधिविधानमई जानामि, अतो मयैतत्कार्य कार्यम् 'इह वच्चा से पुरिसे अभिक्कमे तं पुक्खरिणि' इत्युक्त्वा स पुरुषोऽभिक्रामति तां पुष्करिणीम् , 'जावं जावं च णं अभिक्कमेइ' यावद् यावच्च सोऽभिकामति 'तावं तावं च णं महंते उदए महने सेए" तावत् तावच्च सः महदुदकं महान् सेयः आगच्छति द्वितीयः पुरुष आत्मश्लाघां कुर्वन् प्रतिक्षिपंश्च पुरुषान्तरं यावत् पुष्करिण्यां प्रविष्ट एवोत्तमं कमलमानेतुम् , ताव न्महज्जलं महान्तं सेयं समवाय 'पहीणे तीरं अपत्ते परमवरपौडरीय' पहीणस्तीरात् अप्राप्तः पावरपुण्डरीकम् , दक्षिणतीराद् भ्रष्टो न च प्राप पावरपुण्डरीकम् । 1. इस प्रकार वह अपने आपमें बुद्धि के अतिशय को और कमल को लाने की योग्यता को प्रकट करता हुआ मुस्करा कर आडम्पर के साथ पराक्रम करता है। वह प्रतिज्ञा करता है कि मैं इस कमल को उखाड कर ले आऊंगा। मैं ऐसी प्रतिज्ञा करके ही यहां आया हूँ। इस जल एवं कीचड से व्याप्त जलाशय से कमल को किस प्रकार निकाल लाना चोहिए, यह सब विधि विधान में जानता हूं। अतएव यह कार्य मुझे करना चाहिए। ऐसा कह कर वह पुरुष उर पुष्करिणी में प्रवेश करता है। और ज्यों-ज्यों वह उसमें आगे बढना है त्यो त्यों अधिकाधिक जल और कीचड़ के सामने आता है। वह भी तीर को त्याग देता है और उस उत्तम कमल तक पहुंच नहीं पाता है। न इधर का रहता है, न उधर का रहता है । अर्थात् न तो दक्षिणी किनारे पर स्थित रहता है આ પ્રમાણે તે પિત પિતાનામાં બુદ્ધિના વિશેષપણને તથા કમળને લાવવાની ચોગ્યતાને પ્રગટ કરતા થકે હસીને આડમ્બર પૂર્વક પરાક્રમ કરાવાને તૈયાર થયે તે પ્રતિજ્ઞા કરે છે કે-હું આ કમળને ઉખેડીને લઈ આવીશ. હું એવી પ્રતિજ્ઞા કરીને જ અહિયા આવેલ છુ આ પાણી અને કાદવથી વ્યાપ્ત જલાશ–વાવમાથી કમળને કઈ રીતે બહાર કહાડવું જોઈએ તે સઘળી વિષિ-વિધાન હું જાણું છું તેથી જ આ કાર્ય મારે કરવું જોઈએ. આ પ્રમાણે કહીને તે પુરૂષ તે વાવમાં પ્રવેશે છે અને જેમ જેમ તે તેમાં આગળ વધે છે, તેમ તેમ વધારેમાં વધારે પાણી અને કાદવ સામે આવે છે. એ પણ કિનારાને છેડી દે છે, અને તે ઉત્તમ કમળ સુધી પહોંચી શકતો નથી, ન અહિને રહ્યો કે ન ત્યાંને અર્થાત્ તે નતે દક્ષિણના કિનારે Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ सुत्रकृताङ्गसूत्रे 'णो हव्वा णो पाराए' नो अर्थाचे नो पाराय जातः-न दक्षिणतीरे स्थितः न वा कमलं प्राप्य परवीरं प्राप्तवान् किन्तु - 'अंतरा पोक्खरिणीए सेयंसि णिसन्ने दोच्चे पुरिसजाए' अन्तरा पुष्करिण्याः सेये निषण्णो द्वितीयः पुरुषजातः ॥ २ ॥ "" "1 मूलम् -- अहावरे तच्चे पुरिसजाए, अह पुरिसे पच्चत्थिमाओ दिसाओ आगम्म तं पुक्खरिणि तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्चा पासइ तं एवं महं पउसवरपोंडरीयं अणुपुव्वुट्टियं जाव पडरूवं, ते तत्थ दोन्नि पुरिलजाए पास पहीने तीरं अपत्ते पउमवर पोंडरीयं णो हवाए णो पाराए जाव सेयंसि णिसन्ने, तप णं से पुरिसे एवं वयासी - अहो णं इमे पुरिसा अखेयन्ना अकुसला अपंडिया अवियत्ता अमेहावि वाला जो मग्गस्था णो मग्गविऊ णो मग्गस्त गइपरकमण्णू, जं णं एए पुरिसा एवं मन्ने अम्हे एवं उमवरपोंडरीयं उष्णिक्खिस्सामो, नो य खलु एयं पउमरपोंडरीयं एवं उन्निक्वेयव्वं जहा णं एए पुरिसा मन्ने, अहमंसि पुरिसे खेयन्ने कुसले पंडिए वियत्ते मेहावी अवाले मग्गत्थे मग्गविऊ मग्गस्स गइपरक्कमण्णू अहमेयं पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामि तिकट्टु इति बुच्चा से पुरिसे अभिक्कमेतं पुक्खरिणिं जावं जावं च णं अभिक्कमे और न कमल के समीप तक पहुंच पाता है । वह पुष्करिणी के बीच में ही कीचड़ में फंस जाता है और महान् दुःख का अनुभव करता है । यह दूसरे पुरुष का वृत्तान्त है ॥३॥ રહી શકયા કે ન કમળની નજીક સુધી પહાંચી શકયેા. તે વાવની વચમાં જ કાદવમાં ફસાઈ જાય છે. અને મહાન્ દુ ખનેા અનુભવ કરે છે. રૂા આ બીજા પુરૂષનુ વત્તાન્ત છે. રા Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् तावं तावं च णं महंते उदए महंते सेए जाव अंतरा पोक्खा रिणीए सेयंसि णिसन्ने, तच्चे पुरिस जाए ॥सू० ४॥ ___ छाया-अथापरस्तृतीयः पुरुषजातः अथ पुरुषः पश्चिमायाः दिश, आगत्य तां पुष्करिणी, तस्याः पुष्करिण्या स्तीरे स्थित्वा पश्यति तद्महदेकं पद्मवरपुण्डरीकम् आनुपूा उत्थितं यावत् पतिरूपम् । तौ तत्र द्वौ पुरुषजातौ पश्यति पहीणौ तीरात् , अपाप्तौ पद्मवरपुण्डरीकं नो अर्वाचे नो पाराय यावत् सेये निषण्णौ । ततः स पुरुप एवमवादीत् अहो इमौ पुरुषौ अखेदज्ञौ अकुशलौ अपण्डिती अव्यक्तौ अमेधाविनौ वालौ नो मार्गस्थौ न मार्गविदौ नो मार्गस्य गतिपराक्रमी, यत इमौ पुरुषौ मन्येते आवाम् एतत् पद्मवरपुण्डरीकम् उन्निक्षेप्यावः न च खल एतत पद्मवरपुण्डरीकम् एवम् उन्निक्षेपाव्यं यथा एतौ पुरुषो मन्येते। अहमस्मि पुरुषः खेदज्ञः कुशलः पण्डितो व्यक्तो मेधावी अबालो मार्गस्थो मार्गविद् मार्गस्य गतिपराक्रमज्ञः, अहमेतत् पद्मवरपुण्डरीकम् उन्निक्षेपस्यामीति कृत्वा इत्युक्त्वा स पुरुषोऽभिक्रामति तां पुष्करिणी, यावद् यावद् च खलु अभिक्रामति तावत् तावच खलु , 'महदुदकं महान् सेयः यावदन्तरा पुष्करिण्याः सेये निषणः तृतीयः पुरुषजातः।। टीका-'अहावरे तच्चे पुरिसजाए' अथापरस्तृतीयः पुरुषजातः । प्रथमद्वितीययोवृत्तान्तमुपवयं तृतीयपुरुषवृत्तान्त वर्णयति । 'अह पुरिसे' अथ पुरुषः 'पच्चत्थिमाओ दिसाओ' पश्चिमाया दिशः 'आगम्म' आगत्य 'तं पुक्खरिणि' तां पुष्करिणीम् , तृतीयः कश्चिद् अज्ञातनामगोत्रादिः पश्चिमदिग्विभागात तो पुष्करिणीमागतो यत्र पङ्कनिमग्नौ द्वौ आस्ताम् । 'तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्च।' 'अहावरे तच्चे पुरिसजाए' इत्यादि। अब प्रथम और द्वितीय पुरुष का वर्णन करके तीसरे पुरुष का वर्णन करते हैं-'अहावरे तच्चे पुरिसजाए' इत्यादि __टीकार्थ-कोई एक अज्ञान नाम गोत्र पुरुष पश्चिम दिशा से उस पुष्करिणी के समीप आया जिसमें दो पुरुष कीचड़ में फस चुके थे। वह उसके किनारे स्थित होकर एक उत्तम पुण्डरीक कमल को देखता है जो પહેલા અને બીજા પુરૂષનું વર્ણન કરીને હવે ત્રીજા પુરૂષનું વર્ણન ४२वामा भावे छे-'अहावरे तच्चे पुरिसजाए' त्याहि । ટીકાર્થ–કોઈ એક અજ્ઞાત નામ ગોત્રવાળે પુરૂષ પશ્ચિમ દિશાએથી તે વાવની નજીક આવ્યો કે જેમાં બે પુરૂષે કાદવમાં ફસાઈ ચુક્યા હતાં તે પુરૂષ તે વાવના પશ્ચિમ કિનારે ઉભા રહીને તે એક ઉત્તમ પુંડરીક-કમળને Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्याः पुष्करिण्या स्तीरे स्थित्वा 'पास' पश्यति, पश्चिमत आगत्य तस्याः पश्चिमतटे स्थितः पश्यति तत्राह-'तं एग पउमवरपोंडरीयं तमेकं महत् पद्मवरपुण्डरीकम् 'अणुपुबुटियं' आनुपूर्व्या-उत्थितम् विशिष्टरचनया युक्तम् , 'जाव पडिरूवं' याच प्रतिरूपम्-अतिमनोहरम् वर्णगन्धरसस्पर्शयुक्तम् मासादीयं दर्श नीयममिरू मतिरूपमिति । 'ते तत्थ दोन्नि पुरिसजाए पासई' नौ तत्र द्वौ पुरुप जातो पश्यति । कीदृशौ तौ द्वौ पुरुषजाती तबाह-'पहीणा तीरे अपत्ता पउमवरपौडरीय प्रहीणौ तीराव अमाप्तौ पद्मवरपुण्डरीकम्, स्थानाच्च्युतो, अनासादित. लक्ष्यको । 'णो इन्चाए नो पाराए' नो अर्वाचे नो पाराय, किन्तु 'जाव सेसिणिसन्ना' यावत् सेये निपणौ-तौ पुरुषो कमलानयनेऽसमर्थों पङ्कनिमग्नौ आस्ताम् इति दृष्ट्वा, 'तए णं से पुरिसे एवं बयासी' ततः खलु स पुरुष एवमयादीत् । तथाविधौ तो दृष्ट्वा-तृतीय आगन्तुका पुनर्वेक्ष्यमाणं वच उवाच 'अहो णं इमे पुरिसा' अहो इमौ पुरुषो, यौ हि पालोमाथिनौ पल्ले दुःखमनुभवन्तौ 'अखेयन्ना' अखेदज्ञौ परि श्रमविषयकपरिज्ञानरहितो 'अकुसला' अकुशलौ, तत्कर्मणि यथावत तत्कृतिविरहितों 'अपंडिया' अपण्डितौ-सदसद्विवेकशून्यो 'अवियत्ता' अव्यक्तौ-कार्यकरणानभिज्ञों अनुफम से उस्थित अर्थात् विशिष्ट रचना से युक्त यावत् प्रतिरूप है। अर्थात् प्रशस्त वर्ण गंध रस और स्पर्श से युक्त, प्रासादिय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप है। वह तीसरा पुरुष वहां दो पुरुषों को देखता है, जो तीर से अलग हो चुके है, पद्मवर पुण्डरीक तक पहुंच नहीं सके हैं, न इधर के रहे हैं, न उधर के रहे हैं यावत् कीचड़ में फंस गए हैं। उन दोनों को देख कर वह तीसरा पुरुप इल प्रकार कहता है-अहो, यह दोनों पुरुष परिश्रम संबंधी ज्ञान से रहित हैं, अकुशल हैं, विवेकशून्य हैं, अव्यक्तજુવે છે, કે જે કમળ અનુક્રમથી-ઉસ્થિત-અર્થાત વિશેષ પ્રકારની રચનાથી ચુક્ત યાવત્ પ્રતિરૂપ છે અર્થાત્, પ્રશસ્ત વખાણવા લાયક વર્ણ, ગંધ, રસ અને સ્પર્શથી યુક્ત પ્રાસાદીય દર્શનીય અનિરૂપ અને પ્રતિરૂપ છે તે ત્રીજો પુરૂષ તે વાવમાં બે પુરૂષને જુવે છે. કે જેઓ કિનારાથી અલગ થઈ ગયેલા છે, અને પદ્વવર પુંડરીક-કમળ સુધી પહોચી શક્યા નથી તેઓ નથી અહિંના રહ્યા કે નથી ત્યાના રહ્યા, યાવત્ તેઓ કાદવમાં ફસાઈ ગયા છે તે અને પુરૂષને જોઈને તે ત્રીજો પુરૂષ આ પ્રમાણે વિચારે છે. અહે! આ બને પુરૂ પરિશ્રમ સબંધી જ્ઞાનથી રહિત છે, અકુશળ છે, विवे पिनाना छ, मयत-सभ विनाना छे, मेधावी-मुद्धिशाणी नथी, Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् 'अमेहावी' अमेधाविनौ विवेचनविकलों, वाला' बालो वालवत् क्षिप्रकारितया वस्तुस्थितिं ज्ञातुमयोग्यौ, 'णो मग्ग थानो मार्गस्थौ सतां मार्गेऽवर्तमानौ णो मग्गविऊ' नो मार्गविदौ ‘णो मग्गास्त गइपरक्कमण्णू' नो मार्गस्य गतिपराक्रमझौ, 'जे णं एए पुरिसा एवं मन्ने' यत इमौ पुरुषों एवं मन्येते 'अम्हे एयं पउमत्ररपोंडरीयं' आवामेतत् पद्मवापुण्डरीकम् 'उणिक्खिस्तामो' उन्निक्षेप्स्यावा 'नो य खलु एयं पउमवपोंडरीय' न च खलु एतत् पद्मवरपुण्डरीकम् ‘एवं उन्निक्वेयव्य एवमुन्नि क्षेप्तव्यम् 'जहाणं पुरिसा मन्ने' यथा एतौ पुरुषो मन्येते यथा-इमो अस्य कमलस्य उत्क्षेपणं सरलमितिमत्वा प्रवृत्तौ समुद्धत्तुं नेदं कर्म तथा सरलम् किन्तु-एतस्योद्धरणं महत्कष्टसाध्यम् । अहंतु-एतस्योद्धरणप्रकारं जानामि किन्तु -'अहमंसि पुरिसे खेपन्ने' अहमस्मि पुरपः खेदज्ञः 'कुसले पडिए वियत्ते मेहावी' कुशलः पण्डितो व्यक्तो मेधावी 'अवाले मग्गत्थे अबालो मार्गस्थः 'मग्गविऊ' नासमझ हैं, मेधावी नहीं हैं, बालक के समान जल्दवाजी करने के कारण वस्तु स्थिति को समझने में अयोग्य हैं, सत्पुरुषों के मार्ग में स्थित नहीं हैं, मार्ग को जानते भी नहीं हैं, मार्ग की गति और पराक्रम को भी नहीं जानते हैं। इसी कारण ये ऐसा मानते हैं कि हम इस उत्तम कमल को उखाड कर ले आएंगे। किन्तु यह उत्तर कमल इस प्रकार उखाड़ कर लाया नहीं जाता, जैसा ये दोनों पुरुष समझते हैं। ये इसका उखाड़ना सरल समझ कर प्रवृत्त हुए हैं। किन्तु यह सरल नहीं, अत्यन्त कष्ट साध्य है। मैं इसके उखाड़ लाने का तरीका બાળકની જેમ ઉતાવળ કરવાથી વસ્તુ-સ્થિતિની સમજણ વિનાના છે, સત્યરૂના માર્ગમાં સ્થિર નથી માર્ગની સમજણ વિનાના છે. અર્થાત માર્ગને “ જાણતા નથી, તે કારણથી તેઓ એવું માને છે કે અમે આ ઉત્તમ કમળને ઉપાડીને લઈ જઈશું. પરંતુ આ ઉત્તમ કમળ એ રીતે સહેલાઈથી ઉખાડીને લાવી શકાતું નથી. જેમ આ બને પુષે માને છે, કે આ કમળને ઉખાડવું સહેલું છે, તેથી તેઓ એવું માને છે કે–અમે આ કમળને ઉખાડીને લઈ આવીશું. પરંતુ આ કમળ એ રીતે ઉખાડીને લાવી શકાય તેમ નથી, કે જેમ આ બન્ને માને છે. આ પુરૂષે આ કમળને ઉખાડવાનું સહેલું સમજીને પ્રવૃત્ત થયા છે. પરંતુ તે સહેવું નથી અત્યંત કષ્ટ સાધ્ય , દુખથી પ્રાપ્ત કરાય તેવું છે. હું આ કમળને ઉખાડીને લાવવાનો કિમિ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्र मार्गवित सतां मार्ग जानामि, सनां मार्गे विद्यमानोऽहम् अतो मया निवर्तयितुं शक्यते एतत्कार्यम् । 'मग्गस्स गइ परक्कमग्ण' मार्गस्य गतिपराक्रमज्ञः, मार्गस्य गतिपराक्रमयोर्य थावद्विधानवेत्ता, 'अहमेयं पउमवरपोंडरीय' अहमेतत् पद्मवरपुण्डरीकम् 'उन्निविवस्सामि' उन्निक्षेप्पयामि 'त्तिक?' इति कृत्वा, अहमेतकमलमुद्धरिष्यामि-इति प्रतिज्ञाय झटिति समागतोऽह जानामि चोद्धरणप्रकारम्, सतां मार्गस्याऽपि वेत्ताऽहम् । तस्मान्मनोऽभिलषितं कर्तुं शक्नोमि, । 'इड वुच्चा से पुरिसे' इत्युक्त्वा स पुरुष: 'अभिक्कमे तं पुक्खरिणि' अभिकामति तां पुष्करिणीम् , इत्यभिधाय तत्र प्रविष्टः । 'जावं जावं च णं अभिककमे' यावद् यावच खलु अभिक्रामति, यावद् यावच्च पुष्करिण्यां प्रविष्टो भवति 'तावं तावं च णं महंते उदए' तावत् तावच्च खलु महदुदकम् 'महंते सेये' महान् सेय आगच्छति, 'जात्र अंतरा पोक्वरिणीए' यावदन्तरा पुष्करिण्याः 'सेयंसि' सेये-पङ्के 'णिसन्ने' जानता हूँ। मैं खेदज्ञ उस परिश्रम का ज्ञाता, कुशल, पण्डित, व्यक्त, मेधावी, विज्ञ, मार्ग में स्थित, मार्ग का ज्ञाता, मार्ग में वर्तमान पुरुष हैं। मैं ही इस कार्य को सम्पादित कर सकता हूं। मैं मार्ग की गति और पराक्रम का ज्ञाता हूं। मैं इसे उखाड़ कर ले आऊंगा। इस प्रकार कह कर वह पुरुप पुष्करिणी में प्रवेश करता है। किन्तु जैसे जैसे वह पुष्करिणी में प्रवेश करता है, वैसे वैसे अधिकाधिक जल और कीचड़ का सामना करना पड़ता है । यावत् वह उस पुष्करिणी के कीचड़ में फंस जाता है। इस प्रकार के अभिमान के साथ उसने पुष्करिणी में प्रवेश किया था किन्तु कीचड़ की बटुलता होने से तथा तेरने का ज्ञान न होने . मे-ह-परिश्रमाने तो शण, 431, व्यात, મેધાવી, વિજ્ઞ, માર્ગમાં સ્થિત માર્ગને જાણુમાર અને માર્ગમાં રહેવાવાળે પુરૂષ છું. હું જ આ કાર્યને પાર પાડી શકું તેમ છું. હું માર્ગની ગતિ અને પરાક્રમને જાણનારો છું. માટે હું આ કમળને ઉખાડીને લઈ આવીશ. આ પ્રમાણે વિચારીને એ ત્રિી પુરૂષ એ વાવમાં પ્રવેશ કરે છે. પરંતુ જેમ જેમ તે પુરૂષ એ વાવમાં પ્રવેશતા જાય છે, તેમ તેમ વધારેને વધારે પાણી અને કાદવને સામને તેને કરવો પડે છે, યાવત્ તે પુરૂષ પણ એ વાવના કાદવમાં ફસાઈ જાય છે. - આ રીતે અભિમાન પૂર્વક તેણે વાવમાં પ્રવેશ કર્યો હતો પણ કાદવનું અધિકપણું હેવાથી તથા તરવાનું જ્ઞાન ન હોવાથી તે પુરૂષ પણ એ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि शु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् . . ३६ निषण्णः-निमग्नः। तच्चे पुरिसजाए' एपः तृतीयः पुरुपजातः, यथा तो पुरुषों निपगौ-निमग्नौ आस्ताम्, तथैवाऽयपि तृतीय पुरुषो दध्माता पङ्के निमग्नः । सू. ४ मूलम्-अहावरे चउत्थे पुरिसजाए, अह पुरिसे उत्तराओ दिसाओ आगम्म तं पुक्खरिणिं, तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्चा पासइ तं महं एगं पउमवरपोंडरीयं अणुपुवुट्टियं जाव पडिरूवं, ते तत्थ तिन्नि पुरिसजाए पासइ पहीणे तीरं अपत्ते जाव सेयंसि णिसन्ने । तए णं से पुरिसे एवं वयासी-अहो णं इमे पुरिसा अखंयन्ना जाव णो मग्गस्स गइपरक्कमण्गू जपणं एए पुरिसा एवं मन्ने अम्हे एयं पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामो। णो य खलु एयं पउमवरपोंडरीयं एवं उन्निक्खेयव्वं जहा णं एए पुरिसा मन्ने, अहमसि पुरिसे खेयन्ने जाव मग्गस्स गइपरकमण्णू, अहमेयं पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामि त्तिक? इइ वुच्चा से पुरिसे तं पुक्खरिणिं जावं जावं च णे अभिकमे तावं तावं च णं महंते उदए महंते सेए जाव णिसन्ने चउत्थे पुरिसजाए ॥५॥ छाया-अथापर श्चतुर्थः पुरुष जातः अथ पुरुप उत्तरस्याः दिश आगत्य तां पुष्करिणों तस्याः पुष्करिण्यास्तीरे स्थित्वा पश्यति तन्महदेकं पद्मवरपुण्डरीकम् से वह कीचड़ में फंस गया और शोक सोगर में डूब गया। यह तीसरे पुरुष की कहानी है । जैसे पहले वाले दो पुरुष कीचड़ में फंस कर दुखी हुए उसी प्रकार यह तीसरा भी दुःखी हो गया । ४॥ વાવના કાદવમાં ફસાઈ ગયો, અને શેક સાગરમાં ડૂબી ગયે. આ ત્રીજા પુરૂષની વાત છે. જેમ પહેલા બે પુરૂષે કાદવમાં ફસાઈને દુઃખી થયા એજ પ્રમાણે આ ત્રીજો પુરૂષ પણ દુખી થઈ ગયો. જા Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ सुत्रकृतात्रे आनुपूर्व्या उत्थितं यावत् प्रतिरूपम् । तान् तत्र त्रीन् पुरुषजातान् पश्यति प्रहीणान् तीराद् अप्राप्तान् यावत् मे ये निपान् । ततः खलु स पुरुष एवमवादीत् अहो खल्ल इमे पुरुषा अखेदज्ञाः यावन्नो मार्गस्य गतिपराक्रनज्ञा यस्मादेते पुरुषा एवं मन्यन्ते वयमेतत् पद्मचरपुण्डरीकमुन्नि क्षेप्स्यामः । नच खलु पद्मत्ररपुण्डरीकमेवम्मुन्निक्षेप्तव्यं यथा खलु - एते पुरुषा मन्यन्ते । अहमस्मि पुरुषः खेदज्ञो यात्रन्मार्गस्य गति पराक्रमज्ञः, अहमेतत् पद्मत्ररपुण्डरीकमुन्निक्षेप्स्यामीति कृत्वा, इत्युक्त्वा स पुरुषः तां पुष्करिणीं यावद् यावच्च खलु अभिक्रामति तावत् तावच्च खलु महदुदकं महान् सेयो यावन्निपण्णचतुर्थः पुरुषजातः ॥ ०५ ॥ टीका – 'अहावरे चउत्थे पुरिसजाए' अथावर चतुर्थः पुरुष नातः तृतीया - न्तस्य वृत्तान्तकथनतः पञ्चा च्चतुर्थः पुरुषस्य अविदितवृत्तान्तमुपवर्णयति । 'अहपुरिसे' अथ पुरुष 'उत्तराओ दिसाओ' उत्तरस्या दिशः 'तं पुक्खरिणि' तां पुष्करिणीम् 'आगम्म' आगत्य 'तीसे पुत्र वरिणीए' तस्याः पुस्करिण्याः 'तीरेठिच्चा' तीरे स्थित्वा 'पास' पश्यति, एकः कश्चिदज्ञात नामक उत्तरदिशातः आगतः आगत्य च तादृश पुष्करिण्या उत्तरतीरे स्थितः पश्यति । किं पश्यति तत्राह-'तं महमेकं पउमत्ररपोंडरीयं' तन्महदेकं पद्म पुण्डरीकम् 'अणुपुछुट्टियं ' आनुपूर्व्यां उत्थितम् - विलक्षणरचनोपपेतम् 'जात्र पडिवं' यावत्प्रतिरूपम्, विशिष्टरचनया युक्तम् अतिमनोहरं वर्णगन्धादिभिः, प्रासादिकं दर्शनीयमभि तीन पुरुषों का वृत्तान्त कह कर अब चौथे का वृत्तान्त कहते हैं । 'अहावरे चत्थे पुरिसजाए' इत्यादि । टीकार्थ- यह चौथा पुरुष उत्तर दिशा से पुष्करिणी के समीप आया और किनारे पर खड़ा होकर देखता है - यह प्रधान उत्तम पुण्ड रीक है । वह विलक्षण प्रकार की रचना से युक्त है यावत् प्रतिरूप है अर्थात् अत्यन्त मनोहर है, उत्तम वर्ण गंध आदि वाला, मासादिय, ' दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप है । इस प्रकार उसने उम उत्तम ત્રણ પુરૂષની વાત કહીને હવે ચેાથા પુરૂષનુ' વૃત્તાંત કહેવામાં આવે हे. 'अहावरे चउत्थे' त्याहि ટીકા—Àાથે પુરૂષ ઉત્તર દિશાએથી છે વાવની નજીક આવ્યા અને તેના ઉત્તર કિનારે ઉભેા રહીને તે કમળને જૂવે છે. અને વિચારે છે કેઆ પ્રધાન ઉત્તમ પુડરીક-કમળ છે. તે વિલક્ષણુ પ્રક રની રચનાથી યુક્ત છે. ચાવત્ પ્રતિરૂપ છે. અર્થાત્ અત્યંત મનેાહર છે. ઉત્તમ વણુગંધ વિગેરેવાળું પ્રાસાદીય, દનીય, અભિરૂપ અને પ્રતિરૂપ છે. આ પ્રકારના તે ઉત્તમ અને Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ सार्थबोधिनी टीका द्वि. थु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् 1 , रूपं प्रतिरूपं मनोहारिकमलमपश्यत् । तथा स पुरुषः - ' ते तत्यं तिन्नि पुरिस जाए पास ' तान् तत्र त्रीन् पुरुषजातान् पश्यति । 'पहीणे तीरे' प्रहीणांस्तीरात् 'अपत्ते' अपाप्तान् - पद्मत्ररपुण्डरीकमनधिगतान् चतुर्थोहि पुरुषः - स्वस्त्र पारि - श्रमिकफलाद्विभ्रष्टान् अवाप्तकमलान् तीरादपि भ्रष्टान् तान् त्रीन् तथ भृतान् पश्यति । 'जाब सेयंसि' यावत्सेये पङ्के 'णिसन्ने' निपण्णान् पङ्के निमग्नान् पश्यतीति । 'तणं से पुरिसे' ततः खलु स पुरुषः ' एवं वयासी' एवं वक्ष्यमाणं वचोऽवादीत् - ' - 'अहो इमे पुरिसा अखेयन्ना' अहो खलु इमे - पङ्के मग्नाः त्रयोऽपि पुरुषा अखेदज्ञाः - खेदं सर्वथैवाऽजानन्तः, 'जाव णो मग्गस्स गइपरक्कमण्णू' यावन्नो मार्गस्य गतिपराक्रमज्ञाः, यं मार्गवैलक्षण्यमासाद्य लोकाः स्वाभिल पितं साध्यं साधयन्ति तादृशमार्गस्य इमे न ज्ञातारः, अत एवामार्गविशत्और मनोहर कमल को देखा । तीन पुरुषों को भी देखा, जो तार से च्युत हो चुके हैं और कमल तक पहुंच नहीं सके हैं, परन्तु कीचड़ में फंस गए हैं । यह सब देख कर यह चौथा पुरुष इस प्रकार बोलाअहा यह तीनों मार्ग संबंधी खेद को नहीं जानते हैं यावत् मार्ग पुरुष की गति और पराक्रम को भी नहीं जानते हैं । जिस विशिष्ट मार्ग को प्राप्त करके लोग अपने अभीष्ट साध्य को सिद्ध करते हैं, उस मार्ग के ज्ञाता ये नहीं हैं। अतएव मार्ग को न जानने के कारण अपने अभीष्ट को प्राप्त न करते हुए ये कीचड़ में फस गए दुःख और भुगत रहे हैं । ये पुरुष समझते हैं । कि हम इस पुण्डरीक कमल को उग्वाड़ कर ले आएंगे, परन्तु यह कमल यों उखाड़ कर नहीं लाया जाता कि जिस प्रकार ये पुरुष मानते हैं, किन्तु मैं मर्द हूं, मार्ग के खेद का ज्ञाता हूं મનાહર કમળને તેણે જોયુ. અને વાવમાં પ્રવેશેલા તે ત્રણે પુરૂષને પણ જોયા. કે જેઓ નારાથી છુટી ગયેલા છે, અને કમળ સુધી પહેાંચી શકચા નથી પરંતુ કાદવમાં જ ફસાઇ ગયા છે આ બધુ જોઈને ચેાથેા પુરૂષ આ પ્રમાણે વિચારવા લાગ્યા અહે ! આ ત્રણે પુરૂષા મા સબધી ભેદને સમજતા નથી યાવતુ મગની ગતિ અને પરાક્રમને પણ જાણુતા નથી' જે વિશેષ પ્રકારના માર્ગને પ્રાપ્ત કરીને લેાકેા પેાતાની ઇચ્છા પ્રમાણેના સાધ્યને સિદ્ધ કરે છે, તે માને જાણુનારા આ પુરૂષ નથી, તેથી જ એટલે કે માને ન જાણુવાથી પેાતાના ઈચ્છિતને પ્રાપ્ત કર્યા વિનાજ કાઢવમાં ફસાઇ ગયા છે અને દુ:ખ ભાગવે છે આ પુરૂષ સમજે છે કે-ખમે આ વાવમા રહેલા ઉત્તમ પુડરીક-કમળને ઉખેડીને લઈ આવીશુ પરતુ આ કમળ એમ ઉખાડીને લાવી શકાતુ નથી. પરંતુ હું મછુ માના પેકને Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ सूत्रकृताङ्गम अभिलपितमलभमानाः सन्त एव पङ्के पतनाद् दुःखं प्राप्ताः । 'जण एए पुरिसा' यस्मादेने पुपाः ‘एवं मन्ने' एवं मन्यन्ते, 'अम्हे एयं पउमवरपौडरीयं' वयमेतत् पद्मवरपुण्डरीक्म् 'उनिक्खिस्सामो' उन्निक्षेपस्यामः-उत्कृष्य आनयिष्यामः ‘णो य खलु एयं पउमवरपोडरीयं उन्निक्खेयध्वं' न च खलु एतत् पद्मरपुण्डरीकमुन्निक्षेप्तव्यं स्यात्-स्वायत्तीकर्तव्यं स्यात् 'जहा णं एए पुरिसा मन्ने" यथा खलु एते पुरुषाः मन्यन्ते, किन्तु 'अहमंसि पुरिसे खेपन्ने' अहमस्मि पुरुषः खेदज्ञः । 'जाव मग्गरस गइपरक्कमण्णू' यावन्मार्गस्य गतिपराक्रमज्ञः, सत्यमई मार्गश्रमज्ञोऽस्मि, तथा-याशमार्गमव. लम्ब्य जीवः स्वाभिलषितं प्राप्नोति, तादृशमार्गस्य समस्तमपि स्वरूपं यथावदहं जानामि । 'अहमेयं पउमरपोडरीयं' अहमेतत् पद्मवरपुण्डरीकम् 'उन्निक्खिस्सामि' उन्निक्षेप्स्यामि । 'त्तिक?' इति कृत्वा, अत्र समागतोऽस्मि, अहं सर्वथा कुशलः सर्व मार्ग जानामि, अतो मयाऽवश्यमेतत् कमल मुद्धरणीयम् । 'इइचुच्चा' इत्युक्त्या 'से पुरिसे' स चतुर्थः पुरुष आत्मानं समर्थ मन्यमानः 'तं पुक परिणि' तां पुष्करिणीम् अगाधजलां पङ्कसहितां पावरयुताम् 'जावं जावं च णं' यावद् यावच्च खल्ल 'अभिक्कमे' अभिक्रामति-यावदेव कमल यावत् मार्ग की गति और पराक्रम का ज्ञाता हूं-जिप्स मार्ग के अवल. म्बन से जीव अपना अभीष्ट प्राप्त करते हैं, उस मार्ग का सम्पूर्ण स्वरूप में यथार्थ रूप से जानता हूं। मैं इस कमल को उखाड़ कर लाऊंगा ऐसा सोच कर यहां आया हूं। मैं सर्वथा कुशल हूं, सारे मार्ग को जानता हूँ । अत एव में अवश्य इस कमल का उद्धार करूंगा। इम, प्रकार कह कर वह चौथा पुरुष अपने को समर्थ समझता हुमा अगाध जल और पंक से व्याप्त तथा प्रधान कमल वाली उस જાણુનારે છું યાવત માર્ગની ગતિ અને પરાક્રમને જાણનારો છું. જે માર્ગના અવલમ્બનથી જીવ પિતાનું અભીષ્ટ પ્રાપ્ત કરે છે, તે માર્ગનું સંપૂર્ણ સ્વરૂપ હું યથાર્થ પણે જાણું છું. હું આ કમળને ઉખેડીને લઈ આવીશ. એમ વિચારીને જ હું અહિયાં આવ્યો છું. હું સર્વ પ્રકારથી કુશળ છું. સંપૂર્ણ માર્ગને જાણું છું એટલે જ હૃ અવશ્ય આ કમળને ઉખાડી લઈ શકીશ. આ પ્રમાણે કહીને તે ચેાથે પુરૂષ પિતાને સમર્થ માનીને તે અગાધ જળ અને કાદવથી યુક્ત એ પ્રધાન કમળવાળી વાવમાં પ્રવેશ્યો, અને પ્રવેશ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् वरमुन्नेतुं जलं पविशति 'तावं तावं च णं' तावत् तावच्च खल्लु 'महंते उदए' महद्रुदकम् महंते 'सेए' महान् सेय अगच्छति यावत्मविशति तावत्-अधिकाधिक जलं पतच मिलति । क्रमेण गच्छन् 'जाव णिसन्ने' यावनिषण्णः-निमग्नः । "चउत्थे पुरिसजाए' एष चतुर्थः पुरुषजात इति ॥मू०५॥ _____ अथ अनन्तर' यदा चत्वारः पुरुषाः कमलवरमुद्धत्तुं समागताः किन्तु कमलोधरणे असा जाताः, अनन्तरं कश्चिदपरो निरवद्य भिक्षामात्रोपजीवी तत्र समान गच्छति, यश्च कम लवरमपकर्पतीति दर्शयति मूलमू-अह भिक्खू लूहे तीरटी खेयन्ने जाव गइपरक्कमण्णू अनतराओ दिसाओ वा अणुदिसाओ वा आगम्म तं पुक्ख'रिणिं तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्चा पासइ तं महं एग पउमवरपोंडरीयं जाव पडिरूवं, ते तत्थ चत्तारि पुरिसजाए पासइ पहीणे तीरं अपत्ते पउमवरपोंडरीयं णो हव्वाए णो पाराए अंतरा पुक्खरिणीए सेयंसि णिसन्ने। तए णं से भिक्खू एवं वयासी-अहो णं इमे पुरिसा अखेयन्ना जाव णो. मगस्स गइपरक्कमण्णू, जं एए पुरिला एवं मन्ने अम्हे एयं पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खिसामो, णो य खलु एयं पउमवरपोंडरीयं एवं उन्निक्खेतव्वं जहा णं एए पुरिसा मन्ने, अहमंसि भिक्खू लूहे तीरटी खेयन्ने जाव मग्गस्स गइपरक्कमण्णू, अहमेयं पउमवरपुष्करिणी में प्रविष्ट हुवा, प्रविष्ट होकर जैसे जैसे कमल को लाने के लिए आगे बढ़ता है, त्यों यों उसे अधिकाधिक जल और कीचड़ का सामना करना पड़ता है। यावत् वह भी जल एवं कीचड़ में फंस जाता है। यह चौथे पुरुष का वृत्तान्त हुआ ॥५॥ કરીને જેમ જેમ વાવમાંથી કમળને લાવવા માટે જેમ જેમ આગળ વધે છે, તેમ તેમ તેને વધારે વધારે કાદવને સમને કરવું પડે છે, યાવત તે પણ પાણી અને કાદવમાં ફસાઈ કિ ચેથા પુરૂષનું વૃત્તાંત થયું, ફા Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतास्त्र पोंडरीयं उपिणक्खिस्लामि तिकट्टु इइ वुच्चा से भिक्खू णो अभिकमे तं पुक्खरिणिं तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्चा सदं कुज्जा-उप्पयाहि खलु भो पउमवरपोंडरीया! उप्पयाहि, अह से उप्पइए पउमवरपोंडरीए ।सू०६॥ छाया-अथ भिक्षु रूक्ष स्तीरार्थी खेदज्ञो यावद् गतिपराक्रमज्ञः अन्यतरस्या दिशोऽनुदिशो वा आगत्य तां पुष्करिणी, तस्याः पुष्करिण्यास्तीरे स्थित्वा पश्यति तन्महदेकं पद्मवरपुण्डरीके यावत् प्रतिरूपम् । तान् तत्र चतुरः पुरुषजातान् पश्यति महीणान् तीराद् अप्राप्तान पद्मवरपुण्डरीकम् नो अर्थाचे नो पाराय अन्तरा पुफ्फरिण्याः सेये निपण्णान् । ततः खलु स भिक्षुरेवमवादीत्-अहो ! खलु इमे पुरुषा सखेदज्ञा यावत् नो मार्गस्थ गतिपराक्रमज्ञाः यतः एते पुरुषा एवं मन्यन्ते-चयमेतत् पद्मवरपुण्डरीकमुन्निक्षेप्स्यामः न च खल्वेतत् पद्मवरपुण्डरीकमेवमुन्निक्षेप्तव्यं यथा खरवेते पुरुषा मन्यन्ते । अहमस्मि भिक्षु रूक्षस्तीरार्थी खेदज्ञो यावद् मार्गस्य गति. पराक्रमज्ञः अहमेतत् पद्मवरपुण्डरीकम् उन्निक्षेप्स्यामीति कृत्वा इत्युक्त्वा स भिक्षु नों अभिक्रामति तां पुष्करिणीं तस्याः पुष्करिण्यास्तीरे स्थित्वा शब्दं कुर्यात्-उत्पत खल भोः पावरपुण्डरीक ! उत्स्त, अथ उस्पतितं तत् पद्मवरपुण्डरीकम् ॥१६॥ टीका-'अह' अथ-अनन्तरम् 'लूहे' रूक्षः-रागद्वेषाभ्यां रहितत्वात् रूक्ष. इत्र रूक्षः 'तीरट्ठी' तीरार्थी-संमारसागरस्य पारगमेच्छु: 'खेयन्ने' खेदज्ञ:वस्तुतः पड्जीवनिकायखेदविषयकज्ञानवान्, न तु पूर्वपुरुषवत् वस्तुतोऽखेदज्ञः। 'जाव गइपरक्कणण्ण' यावद् गति पराक्रमज्ञः, गतिपराक्रमयोर्शाता-मोक्षमार्गाराधनरीतिमर्मज्ञः, अत्र यावत्पदेन-कुशलः पण्डितो व्यक्तो मेधावी अबालो मार्गस्थो 'अह भिक्खू लहे तीरट्ठी' इत्यादि । टीकार्य-तदनन्तर रागद्वेप से रहित होने के कारण रूक्ष, संसार सागर का पार पाने का अभिलापी, षटू जीवनिकायों के खेद को जानने पाला-पहले वाले पुरुषों के समान अनजान नहीं, यावत् गति और पराक्रम को जानने याला 'यावत्' शब्द से कुशल, पण्डित, व्यक्त, 'अह भिक्खू लहे तीरदी' त्यात ટીકાર્યું–ત્યાર પછી રાગદ્વેપ વિનાના હેવાના કારણે રૂક્ષ, સંસાર સાગરની પાર પામવાની ઈચ્છાવાળો, ૧ જીવનિકાના ખેદને જાણવાવાળોઅજાણ નહીં યાવત્, ગતિ અને પરાક્રમને જાણનાર યાવત્ શબ્દથી કુશળ, Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् હે मार्गवित्-एतेषां ग्रहणम्, तत्र - पापकर्मच्छेदने कुशलः - निपुणः पण्डितः पापभीरु, व्यक्तः-बालभात्रनिवृत्तः अज्ञानरहित इत्यर्थः मेधावी - सदसद्विवेकवान्, अवल:विश्वकार्यकारी, मार्गस्थ. - सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणमोक्षमार्गे स्थितः, मार्गचित्-मोक्षमार्गज्ञ इति संप्रायम् एतादृशः 'भिवखू' भिक्षुः-निरवद्यभिक्षया संयमयात्रा निर्वाहकः, 'अन्नतराओ' अन्यतरस्याः 'दिसाओ वा अणुदिसाओ वा' दिशो वा अनुदिशो वा यतः कुतश्रिद्दिग्देशात् 'अ गम्म' आगत्य 'तं पुक्खरिणि तां पुष्करिणीं यस्यामिमे चत्वारो मग्ना अभवन् तस्यास्तटे स्थित्वा 'पास ' पश्यति । किं पश्यति तत्र स्थितः सन् ? तत्राह - तं महं एगं पउमरपोंडरीयं जाव पडिरूं' तन्महदेकं पद्मवरपुण्डरीकं यावत्मतिरूपम्, सर्वावयवसुन्दरं रूपगन्धा मेधावी, विज्ञ, मार्गस्थ, मार्गवेत्ता इन विशेषणों को ग्रहण करना चाहिए। इनका अर्थ यह है- पापकर्मों को नष्ट करने में कुशल, पण्डित अर्थात् पाप से भीरु, बाल अर्थात् बचपन से रहित निवृत्त विज्ञ, मेधावी अर्थात् सत् असत् के विवेक से सम्पन्न, अवाल अर्थात् विचार करके कार्य करने वाला, मार्गस्थ अर्थात् सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र और तप रूप मोक्षमार्ग में स्थित, मार्गवेत्ता अर्थात् मोक्ष के मार्ग को जानने वाला । इन सब विशेषणों से युक्त भिक्षु (निरवद्य भिक्षा से जीवन निर्वाह करने वाला) किसी दिशा या अनुदिशा से उस पुष्करिणी के समीप आया। उस पुष्करिणी के तीर पर, जिसमें पूर्वोक्त चारों फंस गये थे, स्थित होकर देखता है- एक महान् प्रधान पुण्डरीक है । वह विलक्षण रचना से युक्त है सर्वांगसुन्दर है, उत्तम रूप आदि से युक्त पंडित, व्यंक्त, भेधावी विज्ञ, भार्गस्थ, भार्गवेत्ता भी तमाम विशेष ગ્રહણ થયા છે. તેના અર્થ આ પ્રમાણે છે, પાપ કર્મના નાશ કરવામાં કુશળ, પંડિત અર્થાત્ પાપથી ડરવાવાળા, ખાલ અર્થાત્ નાનપણથી રહિત, નિવૃત્ત, વિજ્ઞ મેધાવી અર્થાત્ સત્ અસના વિવેકથી યુક્ત અમાલ–એટલે કે વિચારીને કાર્ય કરવાવાળા, મા સ્થ, અર્થાત્ સમ્યજ્ઞાન સમ્યકૂદન, સમ્યક્ચારિત્ર અને સમ્યક્ તપ રૂપ મેાક્ષ માર્ગોમાં સ્થિત, માગ વેત્તા—અર્થાત્ મેક્ષના માને જાણનાર, આ બધા વિશેષણેથી યુક્ત ભિક્ષુ (નિરવદ્ય ભિક્ષાથી જીવન નિર્વાહ કરવાવાળા) કાઈ દિશા અથવા અનુદિશાએથી તે પુષ્કરિણીવાવના કિનારે કે જેમાં પૂર્વાંક્ત ચારે પુરૂષ! ફસાયા હતા. ત્યાં સ્થિર ઉભા રહીને જીવે છે, તા તે વાવમાં એક મહાન સુંદર પ્રધાન પુંડરીક-કમળ છે, તે કમળ વિલક્ષણ પ્રકારની રચનાથી યુક્ત છે, સર્વાંગ સુંદર છે. ઉત્તમ પ્રકારના રૂપથી સુક્ત છે. Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ दियुतं विलक्षणलक्षणोपलक्षितं दर्शकजनानां मनोहरं सुजातजलजातम् । 'ते तत्थ चत्तारि पुरिसजाए' तांस्तत्र चतुरः पुरुषजातान् ये कपलचरमुद्धर्तुकामास्तान् 'पास' पश्यति, तेपामेव विशेषणम् -'पडणे तीरं' प्रहीणांस्तीरात्-त्याजितततटमान्तान् 'अपते पउपवरपडरीयं' अमावात् पद्मरपुण्डरीक, स्वस्व कार्ये - saatra 'णो हव्वा णो पराए' नो अर्थाचे नो पराय, नहि तटे न वा जल शित्तीय परत स्थिराः स्थितो वा जाताः । एतादृशान् पुरुषान् चतुर्विधान् अपश्यत् - फीदृशान् तत्राह - 'अंतरा पुत्रखरिणीए सेयंसि णिसन्ने' अन्तरा मध्ये पुष्करिण्याः 'सेयंसि' सेये पके 'णिसन्ने' निपण्णान् मग्नान अकृतकार्यान् दुःखान्यनुभवतः 'तए णं से भिक्खू एवं वयासी' ततोऽनन्तरं खलु स भिक्षुरेवं वक्ष्यमाणवचनजातम् अवादीत् उक्तवान 'अहो णं इमे पुरिसा अखेयन्ना' अहो खलु इमे चत्वारोऽपि पुरुषाः अखेदज्ञाः, अकुशला अपण्डिता अव्यक्ताः अमेधाविनो वाला हैं, विलक्षण लक्षणों वाला है, दर्शकों के मन को हरने वाला है, बड़ा ही सुन्दर है । वह उन चारो पुरुषों को भी देखता है जो उस कमल को लाने के लिए क्या मानों मरने के लिए पुष्करिणी में प्रविष्ट हुए हुए जो तीर को त्याग चुके हैं, पुण्डरीक (कमल) तक पहुंच नहीं सके हैं, अपने कार्य में सफल नहीं हुए हैं जो न इधर के रहे हैं और न उधर के रहे हैं और पुष्करिणी के कीचड़ में फंस गए हैं, दुःख का अनुभव कर रहे हैं । यह सब देखकर भिक्षुने इस प्रकार कहा - अहा, ये चारों ही पुरुष 'अखेदज्ञ हैं, अकुशल हैं, अपण्डित हैं, नासमझ हैं, मेधावी नहीं हैं, વિલક્ષણ પ્રકારના લક્ષણેા વાળું છે, જોનારના મનને આનંદ આપનારૂ છે. અત્યંત સુંદર છે. આવા સુદર કમળને તે વાવમા તે પાંચમા પુરૂષે જોયુ, તે સાથે તેણે તે પૂર્વોક્ત ચારે પુરૂષોને પણ જોયા, કે જેઓ તે કમળને લાવવા માટે જાણે કે-મરવાને માટે તે વાવના કિનારાના ત્યાગ કરીને વાવમાં પ્રવેશા છે. તેએ કિનારાને ત્યાગ કરીને વાવમાં પ્રવેશા છતાં તે કમળ સુધી પહેાંચી શકયા નથી. પેાતે ધારેલા કાય માં સફળ થયા નથી. તે નથી અહિના રહ્યા કે નથી ત્યાંના રહ્યા. અને પુષ્કરણીના કાદવમાં સાઈ ગયા છે, તથા દુઃખના અનુભવ કરી રહ્યા છે. આ તમામને જોઇને તે ભિક્ષુએ આ પ્રમાણે વિચાર્યું. અહા ! આ ચારે थुइषो मेहने लघुनारा नथी. अकुशल छे. पंडित छे. मासभ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् अमार्गस्या अमार्गविदः, 'णो मग्गस्स गइपरक्कमण्ण' नो मार्गस्य गतिपरा. क्रमज्ञा इमे चत्वारोऽपि पुरुषाः 'जं एए' यत एते 'पुरिसा' पुरुषा 'एवं मन्ने एवं मन्यन्ते-'अम्हे एय' वयमेतत् 'पउमवरपोडीय' पद्म परपुण्डरीकम् 'उन्निक्खेिं स्सामो' उन्निक्षेप्स्यामः, एते इत्थं स्वीकुर्वन्ति यद् वयं कमलमस्मात्सरसो निष्कासयिष्यामः किन्तु मुधैवैतेषां श्रमः ‘णो य खलु एयं पउमवरपौडरीयं एवं उनिक्खेतव्यं न च खलु एतत् पद्मवरपुण्डरीकम् एवमुन्निक्षेप्तव्यं स्यात् 'जहाँ णं एए पुरिसा मन्ने' यथा-एते पुरुषा मन्यन्ते, किन्तु-'अहमंसि भिक्खू लहे' अहमस्मि भिक्षु:-रूक्षः 'तीरट्टी' तीरार्थी संसारसागरतीरस्य परं पारं गन्तुकामो भिक्षणशीला, रागद्वेषरहितत्वात्-अतिशयेन रूक्ष इव रूः 'जाव मग्गस्स गइपरकमण्णू' यावन्मार्गस्य गतिपराक्रमज्ञः 'अहमेयं' अहमेतत् 'पउमवपडिरीय पद्मवर. पुण्डरीकम् 'उण्णिक्खिस्सामि' उनिक्षेप्स्यामि-ग्रहीष्यामि 'त्तिकटु' इति कृत्वा एवं मनसि निश्चित्वाऽत्रागतोऽस्मि, 'इइ बुच्चा' इत्युक्त्या से भिक्खू' स भिक्षु , अज्ञान हैं, मार्गस्थ नहीं हैं, मार्गवेत्ता नहीं हैं, मार्ग की गति और पराक्रम को भी नहीं जानते हैं। क्योंकि सत्पुरुषों द्वारा आचरित मार्ग को विना जाने ही ये इस पुष्करिणी में प्रवेश किये हैं। ये समझते हैं कि हम इस प्रधान कमल को इस पुष्करिणी से निकाल लेंगे, मगर इनका श्रम व्यर्थ है। यह कमल यों नहीं निकाला जाता जैसे ये लोग समझते हैं । मै संसार सागर से पार पाने का अभिलाषी, रागद्वेष से रहित होने के कारण रूक्ष, यावत् मार्ग की गति और पराक्रम को जानने वाला भिक्षु हूं। मैं इस उत्तम कमल को ग्रहण करूंगा, ऐसा निश्चय करके यहां आया । __ इस प्रकार कह कर किसी दिशा और किसी देश से आया हुआ • બુદ્ધિશાળી નથી. અજ્ઞાની છે. માર્ગસ્થ નથી. માર્ગવેત્તા નથી. માર્ગની ગતિ અને પરાક્રમ જાણતા નથી, કેમકે સત્પરૂપે દ્વારા આચરેલ માર્ગને જાણ્યા વિના જ તેઓ આ પુષ્કરિણીમાં પ્રવેશ્યલા છે તે સમજે છે કે-અમે પ્રધાન કમળને વાવમથી કહાડી લઈશું. પરંતુ તેઓને પરિશ્રમ વ્યર્થ થયે છે. આ કમળ એમ બહાર કહાડી શકાતું નથી. કે જેમ એ લેકે માને છે. હું સંસાર સાગરથી પાર પામવાની ઈચ્છા વાળ, રાગદ્વેષ વિનાનો હેવાથી રક્ષ યાવત્ માર્ગની ગતિ અને પરાક્રમને જાણનારે ભિક્ષુ છું. હું આ ઉત્તમ કમલને ગ્રહણ કરીશ. એમ નિશ્ચય કરીને અહિયાં આ છુ. આ પ્રમાણે કહીને કઈ દિશા અને કઈ દેશથી આવેલ અને વાવના Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे यतः कुतोऽपि दिग्देशादागतः सरसस्तप्रान्ते विद्यमानः 'तं पुक्वरिणि' तां पुष्करिणीम् ‘णो अमिक्कमे नैवाऽभिक्रामति, नैन प्रविशति तस्यां पुष्करिण्यां कमलमुन्नेतुम् फिन्नु-तीसे पुक्ख रिणीए' तस्याः पुष्करिण्याः 'तीरे ठिच्वा' तोरे स्थित्या 'सदं कुज्जा' शब्दं करोति, जलमपविशन्नेत्र तीरवी सन् आहयति पाण्डित्यवीर्यसमन्वितो वरभिक्षुः, 'उपयाहि खलु भो! पउमवर पोडरीया ! उप्पयाहि उत्पत खल्ल भोः हे पद्मवरपुण्डरीक ! खलु निश्चयेन उत्पत । विज्ञ स भिक्षुः आयाहि-भो पुष्पराज ! उर्वमागच्छ, एव कथनानन्तरमेव 'अह से उप्पइए पउमवरपोंडरोप' अथ तदुत्पतितं पद्मपरपुण्डरीकम्, श्रमणं भगवन्तं समानयत्, कमलं तत्क्षणमेव विहाय पुष्करिणी तटमुपगतं साधुपादमूठम् । अत्र सूत्रे दृष्टान्तमेव प्रदर्शितम्, दार्शन्तिकेनाऽग्रे योजयिष्यति ॥सू०६॥ मूलम्-किट्टिए नाए समणाउसो ! अढे पुण से जाणियब्वे भवइ, भंते ! त्ति समणं भगवं महावीरं निगंथा य निग्गंधीओ य वंदति नमसंति वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-किट्टिए नाए समणाउसो! अहं पुण से ण जाणामो समणाउसो त्ति, समणे भगवं महावीरे ते य बहवे निग्गंथे य निग्गंथीओ य आमंतेत्ता और पुष्करिणी में प्रवेश नहीं करता। किन्तु किनारे पर खडा रह कर पण्डितवीर्य से सम्पन्न उत्तम भिक्षु इस प्रकार शब्द करता है-हे पद्मवर पुण्डरीक ! फार आनाओ।' भिक्षु के इन शब्दों से कमल तत्क्षण ही पुष्करिणी को छोड़कर उसके चरणों में तीर पर आ गया। यह दृष्टान्त कहा गया है । दान्तिक की योजनाओगे की जायगी।६। કિનારે ઉભે રહેલ તે ભિક્ષુ તે પુષ્કરિગી-વાવમાં પ્રવેશ્યા વિના કિનારા પર ઉભા રહીને તે પડિન વીર્યથી યુક્ત, ઉત્તમ ભિક્ષુ આ પ્રમાણે શબ્દ કરે છે. - પદ્મવર પુંડરીક ઉપર આવી જા. ભિક્ષુના આ શબ્દોથી તે કમળ તત્કાળ તે પુષ્કરિણી–વાવને ત્યાગ કરીને તેના ચરણોમાં કિનારા પર આવી ગયું. આ દષ્ટાન્ત કહેવામાં આવેલ છે. તેના કાષ્ટાંન્તિકની ચેજના હવે पछी ४ामा माशे, ॥९॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् एवं वयासी-हत समणाउसो! आइक्खामि विभावमि किटेमि पवेदेमि सअटुं सहेडं सनिमित्तं भुजो भुजो उवदंसेमि से बेमि ॥सू०७॥ छाया-कीर्तित ज्ञातं श्रमणा आयुष्मन्तः ! अर्थः पुनरस्य ज्ञातव्यो भवति । भदन्त ! इति श्रमणं भगवन्तं महावीरं निग्रन्थाश्च निग्रन्थ्यश्च वन्दन्ते नमस्यन्ति वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादिषु:-कीर्तितं ज्ञातं श्रमण ! आयुष्मन् ! अर्थ पुन रस्य न जानीमः श्रमण ! आयुष्मन ! इति। श्रमणो भगवान महावीरस्तान् बहून निग्रन्थान निन्धींश्च आमव्य एवमवादी - हन्त श्रमगा आयुष्मन्तः ! आख्यामि विभावयामि कीर्तयामि भवेदयामि साथै सहेतुं सनिमित्तं भूयो भूयः उपदर्शयामि तद् ब्रवीमि ॥सू०७॥ दोका-'किट्टिए' कीर्तितम् ‘णाए' ज्ञातम् 'समणाउसो' श्रमणा आयुष्मन्तः ! भगवान् महावीरस्वामी कथयति-हे साधः ! भातामग्रे उदाहरणं प्रदर्शितम् । 'अढे पुण से जाणिय क्वे भवई' अर्थः पुनरस्य ज्ञातव्यो भवति । उदाहरणं तु मया प्रदर्शितम्, एतस्योदाहरणस्य कोऽर्थों भवतीति भवद्भिः स्वयमेव विचारणीया, विचार्याऽवधारणीयश्च । तीर्थकरस्येदं वचनमुपश्रुत्य भंते ! ति' हे भदन्त ! इति कथयित्वा 'समणं भगवं महाबोरे' श्रमणं भगवन्तं महावीरम् 'निग्गंथा य निग्गंथीओ य' निर्गन्थाश्च साधवो निन्थ्यः साध्व्यश्च वदति' वन्दन्ते 'नमंसंति' नमस्यन्ति-नमस्कारं कुर्वन्ति 'वंदित्ता नमंसित्ता' वन्दित्वा नमस्यित्वा च एवं वयासी' 'किट्टिए नाए समणाउसो' इत्यादि । टीकार्थ--भगवान् महावीर स्वामी कहते हैं-हे आयुष्मन् श्रमणो! तुम्हारे समक्ष मैने दृष्टान्त प्रदर्शित किया है। इस का अर्थ तुम को स्वयं समझ लेना चाहिए। __ तय हे 'भदन्त !' इस प्रकार संबोधन करके श्रमण और श्रमणियां, श्रमण भगवान महावीर को वन्दना नमस्कार करते हैं। वन्दना नमस्कार "किट्टिए नाए समणाउसो' त्या ટીકાર્થ– ભગવાન મહાવીરસ્વામી કહે છે કે–હે આયુમન શ્રમ તમારી સામે મેં દષ્ટાન્ત બતાવેલ છે, તેને અર્થ તમારે પિતે સાંભળ જોઈએ. ત્યારે હે ભદન્ત’ આ પ્રમાણે સંબંધન કરીને શ્રમણ અને શ્રમણિ શ્રમણ ભગવાન મહાવીર સ્વામીને વંદના નમસ્કાર કરે છે. વંદના નમસ્કાર Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ सूत्रकृताङ्गसुत्रे " एवमत्रादिपुः - किमवादिपुरित्याह - ' कि 'ईए नाए' कीर्तितं-कथित ज्ञारम् उदाहरणम् 'समणाउसो' हे श्रमण ! हे आयुष्मन् भगवन् | किन्तु - 'अहं पुण से ण जाणामो' अर्थं पुनरस्य वयं न जानीमः, 'समण आउयो त्ति' हे श्रमण | आयुष्मन् ! इति सर्वे साधवः साध्व्यश्च अकथयन् वयं तु भवत्कीर्तितमुदाहरणं श्रुतवन्तः किन्तु - उदाहरणस्यार्थे तु न विद्मः अतो देवानुप्रियैरेव दयापरैरर्थोऽपि व्याख्येयः - इति साधूनां वचांसि श्रुत्वा 'समणे मगनं महावीरे' श्रमणो भगवान महावीरः, 'ते य वह निगं य निधीओ य आमंतेत्ता एवं वयासी' तांथ वहून् निर्ग्रन्थान् निर्ग्रन्थीय आमन्त्रयसंबोध्य 'एवं व्यासी' एवमवादीत् - ' दंतु समणाउसो' हन्त हे श्रमणा आयुष्मन्तः ! 'आइक्खामि विभावेमि विछेमि पवेदेमि' आख्यामि विभावयामि कीर्त्तयामि प्रवेदयामि तमर्थम् - योऽर्थो भवद्भिः पृष्टः । विभावयामिपर्यायादिशन्दद्वारेण तमर्थ प्रकटीकरोमि । कीर्त्तयामि - प्रवेदयामि इति क्रियापदद्वयात् - हेतु - हटान्ताभ्यां तमर्थं भवते यववोधयामि । 'सअहं सहेजं सनिमित्तं' साथै सहेतुं सनिमित्तम् अर्थः प्रयोजनम् - कार्यफलमिति यावत् तेन सहित मिति मार्थम् | 'सदेउ' सहेतुम् हेतुः कारणं तेन युक्तम्, सनिमित्तम्- निमित्तेन करके इस प्रकार कहते हैं आपके कहे उदाहरण को हम सबने सुना, किन्तु उसका अर्थ (रहस्य) हम नहीं जानते । अतः हे आयुष्मन् ! भगवन् ! अनुग्रह करके आप ही उसका अर्थ कहिए । श्रमणों के इन वचनों को सुनकर श्रमण भगवान् महावीर ने उन बहुसंख्यक निर्ग्रन्थो और निर्ग्रथियों को संबोधन करके इस प्रकार कहा- हे आयुष्मन् श्रमणो ! तुम्हारे पूछे रहस्य को मैं कहता हूं पर्यायवाचक शब्दों आदि द्वारा प्रकट करता हूं, हेतु और दृष्टान्त द्वारा उसे तुम्हें समझाता हूँ | अर्थ (प्रयोजन) हेतु - कारण और निमित्त के साथ उदाहरण के अर्थ को पुनः पुनः प्रदर्शित करता हूं। तात्पर्य કરીને આ પ્રમાણે કહે છે આપે કહેલ ઉદાહરણને અમે બધાએ સાભળ્યુ पर ंतु तेन। अर्थ (रहस्य) अमेो लगता नथी, तेथी हे आयुष्मन् ! लगવાત્ અનુગ્રહ કરીને આપ જ તેના અર્થ સમજાવે 1 શ્રમણેાના આ અને સાંભળીને શ્રમણ ભગવાન્ મહાવીર સ્વામીએ તે ઘણી સખ્યાવાળા નિત્ર થા અને નિગ્રન્થીયાને સમેાધન કરીને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા. હૈ આયુષ્મન્ શ્રમણે! તમેાએ પૂછેલા રહસ્યને હવે હુ” કહું છુ પર્યાય વાચક શબ્દો દ્વારા પ્રગટ કરૂ છુ હેતુ અને દૃષ્ટાન્ત દ્વારા તેને હું: તમાને સમજાવું છુ. અથ (પ્રયેાજત) હેતુ-કારણુ અને નિમિત્તની સાથે ઉદાહરણુના અને વારંવાર તાવુ છુ. It Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् सहितं तादृशम् उदाहरणार्थम् ‘भुज्जो भुज्जो' भूयो भूयः-पुनः पुनरपि 'उवदंसेमि' उपदर्शयामि-निमित्तमयोजनाद्युपदर्शनमुखेन तादृशमर्थं भवद्भया प्रतिपादयामि 'से बेमि' तद् ब्रवीमि ।।मु०७॥ ___ मूलम्-लोयं च खलु मए अप्पाहटु समणाओ! 'पुक्खरिणी बुइया । कम्मं च खल्लु मए अप्पाहटु समणाउसो.से उदए बुइए । कामभोगे य खलु मए अप्पाहटु समणाउसो! से सेए बुइए। जण जाणवयं च खलु मए अप्पाह? समणाउसो! ते बहवे पउमवरपोंडरीए बुइए । रायाणं च खलु मए अप्पाह? समजाउलो से एगे महं पउमवरपोंडरीए बुइए। अन्नउत्थिया य खलु मए अप्पाहटु समणाउसो! ते चत्तारि पुरिसजाया बुइया। धम्मं च खलु मए अप्पाहट्ट समणाउसो! से भिक्खू बुइए। धम्मतित्थं च खल्लु मए अप्पाहट्ट समणाउसो। से तीरे बुइए। धम्मकहं च खल्लु मए अप्पाह? समणाउसो! से सद्दे बुइए । निव्वाणं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो! से उप्पाए बुइए। एवमेयं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो! ले एवमेयं बुइयं सू०८॥ छाया-लोकं च खलु मया अपाहत्य श्रमणा आयुष्मन्तः ! पुष्करिणी उक्ता । कर्म च खलु मया अपाहत्य श्रमणा आयुष्मन्तः ! तस्या उदकमुक्तम् । कामभोगं यह है कि निमित्त और प्रयोजन आदि प्रकट करते हुए उस रहस्य को प्रतिपादन करता हूं। ऐसा मैं कहता हूं ॥७॥ તાત્પર્ય એ છે કે –નિમિત્ત અને પ્રયોજન વિગેરે પ્રગટ કરતા શંકા તે રહસ્યને પ્રગટ કરું છું. એ પ્રમાણે હું કહું છું પણ सु० ५ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतागसूत्र चखल मया अपाहत्य श्रमणा आयुष्मन्तः तस्याः सेय उक्तः । जनान् जनपदांश्च खल्ल मया अपाहृत्य श्रमणा आयुष्मन्तः ! तानि वहूनि पद्मवरपुडरीकाणि उक्तानि । राजानं च खलु मया अपाहत्य श्रमणा आयुष्मन्तः । तस्या एकं महत् पद्मवरपुण्डरीकमुक्तम् । अन्ययुयिकांश्च खलु मया अपाहृत्य श्रमणा आयुष्मन्तः ! ते चत्वारः पुरुषजाता उक्ताः। धर्म च खल्ल मया अपाहृत्य श्रमणा आयुष्मन्तः ! स भिक्षुरुक्तः । धर्मतीर्थच खलु मया अपाहाय श्रमणा आयुष्मन्तः। तत्तीरमुक्तम् । धर्मकथां च खलु मया अपाहत्य श्रमणा आयुप्सन्तः ! स शब्द उक्तः। निर्वाणं च खलु मया अपाहत्य श्रमणा आयुष्मन्तः स उत्पात उक्तः । एवमेतच खलु मया अपाहत्य श्रमणा आयुष्मन्तः ! तदेतदुक्तम् ॥ सू. ८॥ ... टीका-सर्वानेवोपस्थितान समभिलक्ष्य श्रमणा आयुष्मन्तः । इति सम्बोध्यच पतिज्ञातमर्थं प्रतिपादयति तीर्थ कर:-'समणाउसो' हे श्रमणाः! आयुष्मन्तः ! 'कोयं च खल मए अप्पाहटु' लोकं च खलु मया अपाहत्य श्रमणा आयुष्मन्तः ! पुष्करिणी उक्ता, हे साधवः लोकं चतुदेशरज्ज्वात्मकमधिकृत्य एषा पुष्करिणी मया उक्ता, अयमेव लोकः यत्रानेकविधा जीवाः स्वकृतदुष्कृतसुकृतकर्मानुसारेण जायन्ते म्रियन्ते च, मृत्वा पुनः पुनराविर्भवन्ति । आविर्भवन्तोऽनेकविध दुःखा 'लोयं च खलु भए' इत्यादि। टीकार्थ-सभी उपस्थित श्रमणों को लक्ष्य करके भगवान् प्रतिझात अर्थ का प्रतिपादन करते हैं-अर्थ की दुर्गमता का प्रतिपादन करने के लिए लोक को मैंने पुष्करिणी की जगह रक्खा है। तात्पर्य यह है-हे श्रमणो! इस चौदह रज्जु परिमाण वाले लोक को मैंने पुष्करिणी कहा है। यही लोक, जिस में अनेक प्रकार के जीव अपने पुण्य पापकर्म के अनुसार जन्मते और मरते हैं, मर कर पुनः प्रकट होते हैं 'लोयं च खलु मए' त्यहि ટીકાર્થ–બધા ઉપસ્થિત શ્રમણોને ઉદેશીને ભગવાન ઉપર કહેલ વિષચના અર્થનું પ્રતિપાદન કરે છે. અર્થના દુર્ગમપણાનું પ્રતિપાદન કરવા માટે લકને મેં પુષ્કરિણીના સ્થાને રાખેલ છે કહેલ છે. તાત્પર્ય એ છે કે—હ શ્રમણ ! આ ચૌદ રાજુ પ્રમાણવાળા લેકને મેં પુષ્કરિણી–વાવ કહી છે. એજ લોક કે જેમાં અનેક પ્રકારના છે પિતાના પુય અને પાપકર્મ પ્રમાણે જન્મ અને મરે છે. મરીને ફરીથી પ્રગટ થાય છે. અને અનેક પ્રકારના દુઓને અનુભવ કરતા જોવામાં આવે Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अं. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् न्यनुभवन्तः समुपलक्ष्यन्ते, तादृशोऽयं लोकः पुष्करिणी स्थाने प्रोक्तः । यथा पुष्करिण्याम् अनेकपकारकाणि पुष्पाणि भवन्ति तथा संसारोऽपि विविधप्रकारकजीवसमुदायेन उक्तः। अत एतादृशीं तुल्यतामादाय पुष्करिणी-उपमानेन लोकउपमितः। 'कम्मं च खलु मए अप्पाहटुं' कर्म च खलु मया अपाहत्य 'समणाउसो' हे श्रमणा आयुष्मन्तः 'से उदए' तस्याः-पुष्करिण्या उदकं जलम् 'मया बुइए' मया उक्तं प्रतिपादितम्, यथा पुष्करिण्यां जलसद्भावेन कमलस्योत्पत्तिभवति-तथेह संसारे अष्टविधकर्मणा जनितं लोकानां जलोपमितं कर्म, पुष्करिण्यां कमलोद्भवकारणं जलम्, संसारे च जीवोत्पत्तिकारणं जीवसंपादितमष्टविधं कर्म, अतः कमलेनोपमितम् । एतावांस्तु द्वयोर्भेदः-यदेकत्र कमलोद्भवकारणं जलम्, न और अनेक प्रकार के दुःखों को अनुभव करते देखे जाते हैं, इसी को पुष्करिणी के स्थान पर कल्पित किया है । पुष्करिणी में अनेक प्रकार के पुष्प होते हैं, संसार अनेक प्रकार के जीव समुदाय से युक्त है। इस प्रकार की समानता के आधार पर लोक की पुष्करिणी से उपमा दी है। हे आयुष्मन् श्रमणो! कर्म को मैंने उसका जल कहा है । जैसे जल का सद्भाव होने से कमल की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार इस संसार में आठ प्रकार के कर्मों से जीवों का , जन्म होता है। अर्थात् जैसे कमलों की उत्पत्ति का कारण जल है, उसी प्रकार संसार में जीवों की उत्पत्ति का कारण जीव द्वारा उपार्जित अष्टविध कर्म हैं। अतएव उन्हें कमल की उपमा दी गई है। इन दोनों में विसदृशता इतनी ही है कि एक जगह कमल की उत्पत्ति का कारण जल है किन्तु जल की છે. તેને જ પુષ્કરિણુંના સ્થાન રૂપ કલપના કરેલ છે. પુષ્કરિણીમાં અનેક પ્રકારના કમળો હોય છે સંસાર અનેક પ્રકારના જીવ સમુદાયથી યુક્ત છે. આવા પ્રકારના સરખા પશુના આધાર પર લેકને પુષ્કરિણીની ઉપમા આપી છે. હે આયુમન્ શ્રમણે ! કર્મને એ પુષ્કરિણીના જલ રૂપે કહેલ છે. જેમ પણને સદ્ભાવ હોવાથી કમળની ઉત્પત્તિ થાય છે, એજ પ્રમાણે આ સંસા૨માં આઠ પ્રકારના કર્મોથી જેને જન્મ થાય છે. અર્થાત્ જેમ કમળની ઉત્પત્તિનું કારણ જળ છે, એજ પ્રમાણે સંસારમાં જેની ઉત્પત્તિનું કારણ જીવે ઉપાર્જન કરેલ આઠ પ્રકારના કર્મો છે. તેથી જ તેને કમલની ઉપમા આપવામાં આવી છે. આ બન્નેમાં વિદેશપણું એટલું જ કે-એક જગ્યાએ કમળની ઉત્પત્તિનું કારણ જળ છે, પરંતુ જળની ઉત્પત્તિનું કારણ કમળ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = सूत्रकृताङ्गो कमलजन्यं जलम् । इह तु जीवजन्मकारणं कर्म, उच्च जीवजनितमिति । 'कामभोगे य खलु मए अप्पाहटु' कामभोगं च खलु मया-अपाहत्य-कामभोगमा श्रित्य 'समणाउसो' हे श्रमणा आयुष्मन्तः ! 'से सेये वुइए' 'से' तस्याः पुष्करिण्या: 'सेये. सेयः-पङ्कम् 'बुइए' उक्तः, पकष्टान्तेन कामभोगौ कथिती, यथा पुष्क'रिण्याः पङ्के निमग्नो जनः स्वोद्धाराय समर्थों न भवति, तथा-कामोपभोगापहृत चेतसामपि जीवानां संसारादुद्धरणमशक्यमिति कृत्वा-हे साधवः ! मया पद्धं काममोगेन उपमितम् । केवलमियानेव विशेषः-एकं वाह्यम् इतरावाध्यात्मिकौ । जणजाणवयं च खलु मए अपाहटु समणाउसो' हे श्रमणाः! आयुष्मन्तः ? जनान् जनपदांश्च खलु मया अपाहत्य-अधिकृत्य 'ते वहवे पउमवरपौडरीए' तानि वहूनि पद्मवरपुण्डरीकाणि 'बुइए' उक्तानि-कथितानि । यथा पुष्करिण्याउत्पत्ति का कारण कमल नहीं है, परन्तु यहां जीवों के जन्म का कारण कर्म है और वह कर्म जीव जनित होता है। ...हे आयुष्मन् श्रमणो ! काम भोगों को मैने कीचड़ कहा है। जैसे पुष्करिणी के पंक में फंसे हुए जन अपने उद्धार में समर्थ नहीं होते, उसी प्रकार कामभोगों से अपहृत चित्तवाले जीवों का संसार से उद्धार होना शक्य नहीं होता। अतएव हे श्रमणो ! मैंने काममोगों की उपमा कीचड़ से दी है। यह दोनों ही समान रूप से धन्धन के कारण हैं। अन्तर है तो केवल यही कि पंक बाह्य वन्धन है जब कि काम • और भोग आध्यात्मिक बन्धन हैं। हे आयुष्मन् श्रमणो ! जनों को और जनपदों को मैंने पहुसंख्यक पनवर पुण्डरीक कहा है। जैसे पुष्करिणी में विविध प्रकार के कमल होते નથી. પરંતુ અહિયાં જીના જન્મનું કારણ કર્મ છે. અને એ કર્મ જીવે .हरे य.. , ,, હે આયુષ્યન્ શ્રમણે! કામને મેં કાદવ કહેલ છે, જેમ વાવના કાદવમાં ફસાયેલા મનુ પિતાના ઉદ્ધારમાં સમર્થ થતા નથી. એજ પ્રમાણે કામગથી હરાયેલા ચિત્તવાળા ને સંસારથી ઉદ્ધાર થવો શક્ય હેત નથી, તેથી જ હે શ્રમણ ! મેં કામગોની ઉપમા કાદવથી આપી છે. આ બંને સરખી રીતે બન્ધના કારણ રૂપ છે. ફેરફાર હોય તે ' ' 'मेट १ छ,-५४-५ माह्य-मा२तु धन , क्यारे ! 'म मने माग माध्यामि धन छ. * • હે આયુષ્યમાન શ્રમણ ! જનને અને જનપદને મેં અનેક સંખ્યાવાળા પદ્વવર પુંડરીક કહેલ છે. જેમ વાવમાં અનેક પ્રકારના કમળો હોય Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अं.१ पुण्डरीकनामांध्ययनम् मनेकविधानि कमलानि जायते, तथा जीवलोके निवसन्तोऽने के जीवाः संसारपुष्करिण्याः कमलस्वरूपाः । अत: कमलदृष्टान्तेन लोका उपमिताः । यथा वा पुण्डरीकैः पुष्करिणी भूष्यते, तथा-मनुजैः संसारः। कमलेऽमल सौगन्ध्यम्, मनुजे च मोक्ष-योग्यता, स्वस्वाऽसाधारणगुणवत्त्वात्-उभयोः समानत्वम् इति । 'रायाणं च खलु मए अपाहटु समाणाउसो' हे श्रमणाः ! आयुष्मन्तः ! राजानं च खलु मया अपाहत्य-यधिकृत्य 'से' तस्याः पुष्करिण्याः 'एगे' एकम् 'मह' महत् 'पउमवरपोडरीए' पद्मवरपुण्डरीकम्, प्रधानं पुष्करिण्याः शोभातिशयाऽऽधायकम् 'बुइए' उक्तम्-कथितम् यथा पुष्करिण्याः सर्वकमकाऽपेक्षया महदेकं पद्मवरपुण्डरीकं तथा मनुष्यलोके सर्वमनुजापेक्षया राजा श्रेष्ठः सर्वेषां शासकश्च अतः संसारसमुद्रं पद्मवरपुण्डरीकतुल्यो राजा मया कथितः । 'अन्न उत्थिया य' अन्य यूथि हैं, उसी प्रकार लोक में अनेक जीव निवास करते हैं। वे संसार पुष्करिणी के कमल के समान है। इस प्रकार संसारी जीवों की उपमा कमल से दी गई है । अथवा जैसे कमल से सरोवर विभूषित होता है, उसी प्रकार मनुष्य से संसार शोभायमान होता है । कमल में निर्मल सुगंध होती है। इस प्रकार अपने अपने गुणों के कारण दोनों में समानता है। हे आयुष्मन श्रमणो ! राजा को मैंने पुष्करिणी का पद्मवर पुण्डरीक अर्थात् प्रधान कमल कहा है। जैसे पुष्करिणी में सब कमलों की अपेक्षा एक महान् श्वेत कमल कहा है, उसी प्रकार मनुष्यलोक में सभी मनुष्यों की अपेक्षा राजा श्रेष्ठ और सव का शासक होता है। अतः एव लोक रूपी पुष्करिणी में राजा रूपी महान् श्वेत कमल कहा गया है। છે, એજ પ્રમાણે લેકમાં અનેક જી નિવાસ કરે છે. તે સંસાર વાવના કમળે. જે છે, આ રીતે સંસારી અને કમળની ઉપમા આપી છે. અથવા જેમ કમળથી સરોવર ભાયમાન છે, એ જ પ્રમાણે મનથી સંસાર શેભાયમાન હોય છે. કમળમાં નિર્મળ સુગંધ હોય છે, મનુષ્યમાં મોક્ષ પ્રાપ્ત કરવાની યોગ્યતા હોય છે. આ રીતે પોત પોતાના ગુણોના કારણે બનેમાં સમાન પણું રહેલ છે. તેમ સમજવું. હિં આયુષ્યનું શ્રમણે ! રાજાને મેં વાવના પાવર પંડરીક અર્થાત પ્રધાન કમળ કહેલ છે, જેમાં પુષ્કરિણીમાં બધાં કમળ કરતાં એક મહાન વેત કમળ કહ્યું છે. તે જ પ્રમાણે મનુષ્ય લેકની અપેક્ષાથી રાજા ઉત્તમ અને બધાના પર શાસન કરવા વાળા હોય છે. તેથી જ લેક રૂપી વાવમાં રાજા રૂપી મહાન વેત કમળ કહેલ છે. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सूत्रकृतास्त्र कांच-आर्हतमतेतरशासनाऽनुरागवतः पुरुन्-आत्मानं पण्डितं मन्यमानान् 'खलु मए' खल्ल मया 'अपाहटु' अपाहत्य-अधिकृत्य 'समणाउसो' हे श्रमणाः ! आयुष्यन्तः ! 'ते-वत्तारि' ते चत्वारः 'पुरिसजाया' पुरुपजाताः, ये च चतसृभ्यो दिशाभ्यः समागत्य पङ्के निपण्या आसन् ते पुरुषाः अन्यदर्शनानुयायिनः सन्तीति मया 'बुइया' उक्ताः-कथिताः, यथा-ते चत्वारोऽपि पुरुषाः पुष्करिणी मध्यात् कमलाकर्षणे प्रभवो न जाताः अपितु तत्पङ्के निमग्ना स्वात्मानमपि समुद्धत्तुं नाऽशक्नुवन्, तथैव परतीथिका मोक्षमनवाप्य संसारे एव निषण्णाः दुःखशतानि तानि तान्यनुभवन्तीति । 'समणाउसो' हे श्रमणाः ! आयुष्मन्तः ! 'धम्मं च खल मए' धर्म च खल मया 'अपाह?' अपाहत्य-अभिलक्षीकृत्य 'से' सः 'भिक्खू भिक्षुः-साधुः, 'बुइए' उक्तः-प्रतिपादितः । यथा खलु कश्चिच्चतुरः पुरुपः पुष्करिणीमप्रविश्य व ततः कमलमपकर्पति, तथा-रागद्वेपाभ्यां सर्वथा रहितो धार्मिक परित्यज्य विषयोपभोगं धर्मोपदेशद्वारेण राजादिकं संसारान्निष्कासयति हे आयुष्मन् श्रमणो ! अन्ययूथिकों को मैंने वे चार पुरुष कहे हैं। जो चार पुरुष चारों दिशाओं से आकर कीचड़ में फंस गए, वे ..अन्यदर्शनों के अनुयायी कहे गए हैं । जैसे वे चारों पुरुष पुष्करिणी में से कमल को लाने में समर्थ नहीं हुए, बल्कि कीचड़ में फंस गए __ और अपना निज का भी उदूधार न कर सके, उसी प्रकार परतीर्थिक भी मोक्ष न प्राप्त करके संसार में ही रह कर दुःख भोगते हैं। हे आयुष्मन् श्रमणो! धर्म को मैंने साधु (भिक्षु) कहा है। जैसे चतुर पुरुष पुष्करिणी में प्रवेश किये विना ही उसमें से कमल को आकर्षित कर लेता है, उसी प्रकार रागद्वेष से सर्वथा रहित धार्मिक पुरुष कामभोग को त्याग कर धर्मोपदेश के द्वारा राजा आदि को છે આયુષ્યન્ શ્રમણ ! અન્ય યુથિકેમ મેં તે ચાર પુરૂષ કહેલ છે. ચારે દિશાએથી આવીને કાદવમાં ફસાઈ ગયા તે અન્ય દર્શનવાળાઓના અનુયાયીઓ કહ્યા છે તેમ સમજવું. જેમ તે ચારે પુરૂષ વાવમાંથી કમળો લાદવા સમર્થ થયા નથી, ઉલ્ટા તેઓ કાદવમાં ફસાઈ ગયા. અને પિતાને પણ ઉદ્ધાર કરી શક્યા નથી. એ જ પ્રમાણે અન્ય તીથિક પણ મોક્ષ પ્રાપ્ત ન કરતાં સંસારમાં જ રહીને દુઃખ ભોગવે છે. હે આયુષ્યનું શમણે! ધર્મને મેં સાધુ (ભિક્ષુ) કહેલ છે. જેમ ચતુર પરૂપે વાવમાં પ્રવેશ કર્યા વિના જ તેમાંના કમળને પિતાના તરફ આકર્ષિત કર્યા અર્થાત્ ખેંચી લીધા એજ પ્રમાણે રાગદ્વેષથી સર્વથા રહિત ધાર્મિક Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् अतो मया धर्मस्य दृष्टान्तेन साधुरुपमितः। 'समणाउसो' हे श्रमणाः ! आयुमन्तः ! 'मए' मया खलु 'अपाटु' अपाहत्य-अधिकृत्य 'धम्मतित्थं धर्म तीर्थम् ‘से' तत् 'तीरे' तीरम्-तटम् 'बुइए' उक्तम्-कथितम् , यथा पुष्करिण्यास्तटमेव अन्तभागः सीमा भवति तदुपरि पुष्करिणी व्यवहारः, तथा-संसारस्य चरमसीमा धर्मतीर्थ एव, धर्मतीर्थस्य संसारान्तकत्वात् । 'समणाउसो' हे श्रमणा श्रायुष्मन्तः ! 'धम्मकहं च धर्मकथां च 'खलु मए' खलु मया 'अपाहट्टु अपाहत्य-अधिकृत्य 'से' सः 'सद्दे' शब्द: 'बुइए' उक्त:-कथितः, धर्मकथया उत्तार्यन्ते संसारात्-बहवः अतः शब्देन धर्मकथोपमिता। 'समणाउसो' हे श्रमणा आयुष्मन्तः ! निवाणं च खलु मए अपाहटु निर्वाणं मोक्षम् अपाहत्यअधिकृत्य 'मए' मया 'से' सः 'उप्पाए' उत्पातः 'वुइए' उक्त:-कथितः, मोक्ष संसार से बाहर निकाल लेता है। इस कारण मैंने धर्म की उपमा साधु से दी है। हे आयुष्मन् श्रमणों ! मैने धर्मतीर्थ को पुष्करिणी का तीर कहा है। जैसे पुष्करिणी का अन्त तट कहलाता है और उसके आगे के भाग को पुष्करिणी कहते हैं, उसी प्रकार संसार की चरिमसीमा धर्मतीर्थ है, धर्मतीर्थ संसार का अन्त करने वाला है-'किन्तु लौकिक तीर्थ नहीं। । हे आयुष्मन् श्रमणो! धर्मकथा को मैंने भिक्षु का शब्द कहा है। धर्म कथा के द्वारा बहुत जीव संसार से पार किये जाते हैं, अतएव धर्म कथा की उपमा शब्द से दी गई है। हे आयुष्मन श्रमणो ! निर्वाण को मैंने (श्वेत कमलका) उत्पतन कहा है। जैसे जल के अन्दर कमल कीचड़ को भेदकर ऊपर आजाता પુરૂષ કામગેનો ત્યાગ કરીને ધર્મોપદેશ દ્વારા રાજા વિગેરેને સંસારથી બહાર કહાડી લે છે, તે કારણે મેં સાધુને ધર્મની ઉપમા આપી છે. હે આયુષ્યનું પ્રમાણે મેં ધર્મતીર્થને વાવને કિનારે કહેલ છે. જેમ પુષ્કરિણ-વાવને અન્ત ભાગ તટ-કિનારે કહેવાય છે, અને તેના આગળના ભાગને (અન્તના ભાગ) પુષ્કરિણું કહે છે, એ જ પ્રમાણે સ સારની ચરિમ સીમાને ધર્મતીર્થ કહેલ છે. ધર્મતીર્થ સંસારને અન્ત કરવાવાળું છે. પણ લોકિકતીર્થ સ સારને અંતકર્તા હેતું નથી. હે આયુષ્યન્ શ્રમણ ધર્મકથાને મેં ભિક્ષુ રૂપ કહેલ છે. ધર્મકથા દ્વારા Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‘सूत्रकृतागसूत्रे एव उत्पातस्थाने उक्तः। यथा-कमलं जले पर्छ चाहृत्य उपरि आगच्छति, तथासाधकः साधुः स्वकीयमष्टविधं कम विनाश्य संसारान्निगतो भवति, अतो मया मोक्षस्य उत्पातेन सहोपमानम् 'समणाउसो' हे श्रमणा आयुज्मन्तः ! 'एवमेयं च खलु मए' एवमेतत् खलु मया 'अपार्ट्स' अपाहत्य- अधिकृत्य 'से' तत् 'एवमेय एवमेतत् 'बुइए' उक्तम्, मया पुष्करिण्यादयः सर्वेऽपि पूर्वोक्ताः पदार्थाः तत्तत् सारूप्येण प्रदर्शिता इति ।मु०८ । ___मूलम्-इह खलु पाईणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुरुला भवंति अणुपुत्रेणं लोगं उबवन्ना, तं जहाआरियानेगे अणारियायेगे उच्चागोतावेगे णीयागोत्तावेगे कायमंतावेगे रहस्समंतावेगे सुवन्नावेगे दुवन्नागे सुरूवावेगे दुरूवावेगे तेसिं च णं मणुयाणं एगे राया भवइ, महया हिमवंतमलयमंदरमहिंदसारे अचंतविसुद्धरायकुलवंसप्पसूए निरंतररायलक्खणविराइयंगवंगे बहुजणबहुमाणपूइए सव्वगुणसमिद्धे खत्तिए मुदिए मुद्धाभिलित्ते माउपिउसुजाए दयप्पिए है, उसी प्रकार साधक साधु अपने आठ प्रकार के कर्म को विनष्ट करके संसार से निकल जाता है। इसकारण मैंने मोक्ष की उपमा उत्पतन से दी है। हे आयुष्मन् श्रमणो ! मैंने अपनी बुद्धि से कल्पना करके ऐसा कहा है । अर्थात् अपनी बुद्धि से सोचकर पुष्करिणी आदि का रूपक कहा है ॥८॥ - ઘણું જેને સંસારથી પાર કરવામાં આવે છે. તેથી જ ધમ કથાની ઉપમા શબ્દની સાથે આપવામાં આવી છે. હે આયુશ્મન શમણે નિર્વાણને મેં શ્વેત કમળનું ઉત્પતન કહેલ છે. જેમ પાણીમાંથી કમળ કાદવને દૂર કરીને ઉપર આવી જાય છે. એ જ પ્રમાણે સાધક સાધુ પિતાના આઠ પ્રકારના કર્મને નાશ કરીને સંસારથી બહાર નીકળી જાય છે. તે કારણે મેં મોક્ષની ઉપમા ઉત્પત–ઉપર જવા રૂપ કહેલ છે. હે આયુષ્યમ– શમણે મેં મારી બુદ્ધિથી કલ્પના કરીને આ પ્રમાણે કહેલ છે. અર્થાત્ પિતાની સ્વ બુદ્ધિથી વિચારીને પુષ્કરિણી વિગેરેનું રૂપક डत छे. ॥६ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् सीमंकरे सीमंधरे खेमंकरे खेमंधरे मणुसिदे जणवयपिया जयपुरोहिए सेउकरे केउकरे नरपवरे पुरिसपवरे पुरिससीहे पुरिस आलीविसे पुरिसवरपोंडरीए पुरिसवरगंधहत्थी अड्डे दित्ते वित्ते विच्छिन्नविउलभवणसयणालणजाणवाहणाइण्णे बहुधण बहुजायरूवरयए आओगपओगसंपत्ते विच्छड्डियपउरभत्तपाणे बहुदासीदास गोमहिसगवेलप्पभूए पडिपुण्णकोस कोट्ठागारा उहागारे वलवं दुब्बलच्चासित ओहयकंटयं निहयकंटयं मलियकंटयं उद्भियकंटयं अकंटयं ओहयसत्तु निहयसत्तु मलियसत्तु उद्धियसत्तु निज्जियसत्तु पराइयसत्तु ववगयदुभिक्खं मारिभय विष्पमुक्कं रायवन्नओ जहा उववाइए जाव वसंतडिंबडमरं रज्जं पसाहेमाणे विहरइ । तस्स णं रन्नो परिसा भवइ उग्गा उग्गपुत्ता भोगा भोगपुत्ता इक्खागा इक्खागपुत्ता नाया नायापुत्ता कोरव्वा कोरव्वपुत्ता भट्टा भट्टपुत्ता माहणा माहणपुत्ता लेच्छई लेच्छत्ता पत्थरो पसत्थपुस्ता सेणावई सेणावइपुत्ता । तेसिं 1 एगईएसडी भवइ कामं तं समणा वा माहणा वा संपहारिस गमणाए, तत्थ अन्नयरेणं धम्मेणं पन्नत्तारो वयं इमेणं धम्मेणं पन्नवइस्लामो ते एवमायाणह भयंतारो जहा मए एस धम्मे सुक्खाए सुपन्नत्ते भवइ, तं जहा - उड्डुं पायतला अहे केसग्गमत्थया तिरियंतयपरियंते जीवे एस आयापज्जवे कसिणे एस जीवे जीवइ एस मए णो जीवइ, सरीरे धरमाणे धरइ विणमि य णो धरइ, एयंतं जीवियं भवइ, आदहणाए सू० ६ ४१ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ सूत्रकृतागसत्रे मूळम्-स्थि सिद्धी लियं ठाणे णे सन्नं णिवेसए । अस्थि लिंद्वी नियं ठाणं एवं सन्नं णिवेसए ॥२६॥ छाया--नास्ति सिद्धि निजं स्थान ने संशं निवेशयेत् । अस्ति सिद्धि निजं स्थान मेवं संज्ञां निवेशयेत् ॥२६॥ अनुभव किया है और कर रहे हैं। जनएक सिद्धि और अखिद्धि नहीं है, इस प्रकार की विचारणा रमणीय नहीं है। यदि किली को रमणीय प्रतीत होती भी है, तो तय तक ही रमणीय है जब तक उन पर ठीक प्रकार से विचार नहीं किया है। दोनों का अस्तित्व है, ऐला ज्ञान ही संम्यग्ज्ञान है। इससे विपरीत अज्ञान है ।।५।। 'णस्थि सिद्धी नियं ठाणे' इत्यादि । शब्दार्थ-स्थि सिद्धिणियं ठाणं-नास्ति सिद्विनिज स्थानं सिद्धि -जीवझा कोई अपना निजीस्थान नहीं है, अर्थात् ईपरमारभारा नामक पृथ्वी नहीं है, 'णेवं सन्नं निवेलए-नवं संज्ञां निवेशयेत्' इस प्रकार की बुद्धि रखनी नहीं चाहिए। किन्तु 'अस्थि सिद्धी नियं ठाणं-अस्ति सिद्धि निजं स्थानं' सिद्धि, जीवका निजी स्थल है, 'एवं सन्नं निवेलए-एवं संज्ञा निवेशयेत्' इसी प्रकार की बुद्धि धारण करनी चाहिए । २६॥ અનુભવ કરેલ છે. અને કરીએ છીએ તેથી જ સિદ્ધિ અને અસિદ્ધિ નથી. આવા પ્રકારને વિચાર કર ચોગ્ય નથી જે કે ઈને તે એગ્ય લાગે પણ ખરી તે તે ત્યાં સુધી જ રમણીય અને ચેપગ્ય લાગે કે જ્યાં સુધી તેના પર સારી રીતે વિચાર કરવામાં ન આવે –બન્નેનું અસ્તિત્વ છે, એવું જ્ઞાન જ સમ્યફજ્ઞાન છે તેનાથી જુદું હોય તે અજ્ઞાન છે. મારા 'णस्थि सिद्धी नियं ठाणे' त्यादि Avatथ-'णस्थि सिद्धी णिय ठणे-नास्ति सिद्धिनिजं स्थान' नु ५४ पोतानु स्थान नथी, अर्थात् यत्प्रामा। नामनी पृथ्वी नथी, ‘णेवं सन्नं निवेसए-नैव सज्ञां निवेशयेत्' मा प्रमाणुनी सुद्धा रामवीन नये. परंतु 'अस्थि सिद्धी नियं ठाणं-अस्ति सिद्धि निजं स्थान' पर्नुनिस्थान छ ‘एवं सन्न निवेसए-एवं संज्ञा निवेशयेतू' मा प्रमाणेनी सुद्धा धार ४२वीन.. ॥२६॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि.श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् ५३७ ___ अन्वयार्थ:-(णत्थि सिद्धी णियं ठाणं) सिद्धिः-सकलकर्मक्षयरूपा जीवस्य निजं स्वकीय स्थानम्-ईपत्माग्भारारूपं नास्ति-न विद्यते (णेवं सन्नं णिवेसए) पूर्वोक्तं स्थानं नास्तीत्येवं रूपां संज्ञां-बुद्धिं न निवेशयेत्-न कुर्यात् किन्तु-'अत्थि सिद्धी नियं ठाणं' अस्ति- विद्यते एव सिद्धि जीवस्य निजं स्थानम्-ईपस्मार भारारूपम् (एवं सन्न णिसए) एवम् ईशी संज्ञां निवेशयेत-कुर्यादिति ॥२६॥ टीका-'सिद्धी णियं ठाणं णत्थि सिद्धि जीवस्य निजम्-स्वीयं स्थानं नास्ति । 'पर्व सन्न ण णिवेसए' एवं संज्ञा-बुद्धि न निवेशयेत्-न कुर्यात् । अपितु-'सिद्धी णियं ठाणं अस्थि सिद्धिरेव जीवस्य नैज-स्वाभाविकै स्थानमस्ति । 'एवं सन्नं णिवेसए' एवम्-ईदृशी संज्ञा-बुद्धिं निश्चयं निवेशयेत् । यथा-वद्धस्य जीवस्य किञ्चित्स्थानं भवति, तथा मुक्तस्यापि जीवसङ्घस्य केनचितस्थानेन भाव्यम्, तत्तु स्थानं लोकोप्रभाग एव । तदुक्तम्-'कर्मविषमुक्तस्योर्ध्वगतिः' इति । फर्मतन्त्रपरतन्त्रोऽस्वतन्त्रो जोबस्तत्स्थानमनुभवति, कर्मरहितो जीवः स्त्रीय लोकाग्रं स्थानमेति ॥२६॥ अन्वयार्थ--सिद्धि-जीव का अपना कोई स्थान नहीं है अर्थात ईषत्मारभारा नामक पृथ्वी नहीं है, इस प्रकार का विचार नहीं करना चाहिए। किन्तु सिद्धि-जीव का अपना स्थान है, इसी प्रकार का विचार करना चाहिए ॥२६॥ '. टीकार्थ--सिद्धि-जीव का निजी स्थान नहीं है, इस प्रकार की संज्ञा (समझ) धारण करना ठीक नहीं है, किन्तु सिद्धि ही जीव का अपना स्थान है, इस प्रकार की संज्ञा धारण करना चाहिए। जैसे बद्ध जीव का कोई स्थान होता है, उसी प्रकार मुक्त जीवराशि का भी कोई स्थान अवश्य होना चाहिए । वह स्थान लोक का अग्रभाग ही है। जो 'जीव कर्मों से पूर्णरूप से मुक्त हो जाता है, उसे ऊर्ध्वगति की प्राप्ति होती है।" - અન્વયાર્થી–સિદ્ધિ, જીવન પિતાનું કોઈ સ્થાન નથી અર્થાત્ ઈત્માગભારા નામની પૃથ્વી નથી આ પ્રકારને વિચાર કર ન જોઈએ. પરંતુ સિદ્ધિ એ જીવનું પોતાનું સ્થાન છે. એ પ્રકારને વિચાર કરવો જોઈએ પરદા ટીકાર્થ–-સિદ્ધિ જીવનું નિજસ્થાન નથી, આ પ્રમાણેની સમજણ ધારણ કરવી ઠીક નથી પરંતુ સિદ્ધી જ જીવનું નિજસ્થાન છે, આ પ્રમાણેની બુદ્ધી ધારણ કરવી જોઈએ જેમ બદ્ધ જીવતુ કેઈ સ્થાન હોય છે, એ જ પ્રમાણે મુક્ત જીવરાશીનુ પણ કંઈ સ્થાન અવશ્ય હોવું જ જોઈએ. તે સ્થાન લેકને રાગ જ છે. જે જીવ કર્મોથી પૂર્ણ રીતે મુક્ત થઈ જાય છે, તેને Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ Lies Way LEONIAL HERNste | मुरजां सह अमाह वा वं सन्नं णिवेस अस्थिसा असावा, एवं सन्नं पिवेसें ॥२७॥ पूर्ण नैव मयां निवेशयेत | एवं संज्ञां निवेशयेत् ॥२७॥ मधुर - (न्) नास्ति न विद्यते (माह) साधुः (असावा) असा. नामदन) एवम्-ई-बुद्धिन निवेशयेन गया है। जो जीव कर्मों के अधीन है वे अनेक स्थानों का के अनुसार अनुभव करते हैं, किन्तु निष्कर्म जीव का प्रभाव ही है ॥२॥ अपने स्थान तो 'गन्धिना अमहवा' इत्यादि । शान्ति साह नास्ति साधुः न कोई साधु है, 'बा अमाह-या असाधुः' अपया न कोई असाधु है 'वंसनं निवेसएनये मंत्र निवेशयेत्' प्रकार की बुद्धि धारण करनी उचित नहीं है, अर्थात संपूर्ण चरित्र गुण का अभाव होने से कोई माधु नहीं है और जयपोर्ट साधु ही नहीं है, तो उसके प्रतिपक्ष असाधु की भी मता नही मला भ्रम पूर्ण है किन्तु 'अन्थि साह असाह वा अलि माधुरसाधु af' माधु है और अमाधु भी है एवं मन्नं निवे. सएसन निवेशयेत्' मी ही समझ धारण करनी चाहिए ||२७|| अत्यार्थ--न कोई साधु है, न असाधु है, इस प्रकार की बुद्धि સ્વ ન મ છે. તે કેટવામાં આવ્યુ છે. જે જીવ કનિ नेताना महिय प्रमाणे अनुभव रे अभा ॥२६॥ पनि K efa mg eng q Saule लतिया सूत्रो ओस मे नथी. अर्थात भू शास्त्रि નથી, અને જ્યારે ઈ સાધૂ જ નથી एनभी क्षेत्र समय अगभूता qeshin migeriqat yi, wa wag +4 अभ जन्मनिष् * 1 'माधु नभी, 'या समारनियम शांनिवेश ૧૬૧ થતા wenye pavi. C २००९५ ६-१६ ४०० नेम है या नथी भाषा प्रश "" * प्रभ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्यबोधिनी टीका द्वि.श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनि पणम् कुर्यात्-सम्पूर्णचारित्रगुणाऽभाव न साधु विध ते इत्यर्थः, किन्तु (अन्थि साहूअसाहू वा) अस्ति साधुरसाधु ( एवं सन्न णिवेमए) एवम्-ईदृशों संज्ञाम्- . बुद्धि निवेशयेत्-कुर्यादिति ॥२७॥ ___टीका-'साई' साधुः-स्वीयं मोक्षात्मकं परार्थ वा यः सध्नोति माणातिपातादिभ्यो विरक्तो ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकरत्नत्रयाऽऽधको वा भवति स साधु रिति विवेकः । 'असाहू वा' असाधु-साधुत्वरहितोऽसाधुः । पूर्व प्रतिपादित: साधुरसाधु श्च नास्तीति 'णस्थि' पदेनाह-एवं' एक मित्येवम् 'सन्न' संज्ञाम्विचारणाम-'ण णिवेसए' न निवेशयेत-न निर्णीयात् । अपितु-'साहू' साधुः 'असाहू वा' अपाधुर्गा 'अस्थि' अस्ति 'एव सन्न' एवं संज्ञा-विचारधाराम् 'णिवेसर' निवेशयेत्-अभावं व्यावर्त्य भावं परिशेषयेत् । अस्ति केपाश्चिदयं धारण करना उचित नहीं है । सम्पूर्ण चारित्र गुण का अभाव होने से कोई साधु नहीं है और जब साधु ही नहीं है तो उसके प्रतिपक्ष असाधु की भी सत्ता नहीं है, ऐसा ही समझना चाहिए ॥२७॥ टीकार्थ--जो अपने मोक्ष रूप अर्थ (हित) को तथा परहित को सिद्ध करता है, वही साधु कहलाता है । या प्राणातिपात आदि अहारे पापों से विरक्त एवं सम्यक् ज्ञान दर्शन, चारित्र और तप का जो साधक है, वही साधु है । जिसमें यह साधुना न पाई जाय वह असाधु है। यह साधु और असाधु नहीं है, ऐसी विचारणा नहीं करनी चाहिए, किन्तु साधु है और असाधु है, ऐसा विचार करना चाहिए। બુદ્ધિ શખવી તે ચગ્ય નથી. અર્થાત્ સંપૂર્ણ ચારિત્ર ગુણને અભાવ હોવાથી કઈ સાધુ નથી. અને જ્યારે સાધુ જ નથી તે તેના પ્રતિપક્ષ રૂપ અસા. ધુની સત્તા પણ નથી જ એમ સમજવું તે ભ્રમપૂર્ણ છે. પરંતુ સાધુ છે. અને અસાધુ પણ છે, એમ જ સમજવું જોઈએ પરણા ટીકાઈ-જેએ પિત ના મેક્ષરૂપે અર્થ હિતને તથા પરહિતને સિદ્ધ કરે છે, તેજ સાધુ કહેવાય છે, અથવા પ્રાણાતિપાત વિગેરે અઢાર પાપથી. વિરત અને સમ્યક્ જ્ઞાન, સમ્યફ દર્શન, સમ્યફ ચારિત્ર અને સમ્યફ તપના જે સાધક છે, તેજ સાધુ છે. આવું સાધુપણ એમાં ન હોય, તેઓ અસાધુ છે, આ સાધુ અને અસાધુ નથી, એ પ્રમાણેને વિચાર કરવો ન જોઈએ. પરંતું સાધુ છે, અને અસાધુ પણ છે, એવો વિચાર રાખવો જોઈએ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकृतास्त्र सिद्धान्त:-तथाहि-ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकरत्नत्रयाणां पूर्णतया प्रतिपालनं न भवति यस्य कस्याऽपि । अतोऽनाराधितरत्नत्रयात्मकत्वात्साधुरेव नास्तीति । यदा -साधुरेव नास्ति, तदा तत्मतिपक्षीभूतोऽसाधुरपि नास्ति उभयोः परस्परं सापेक्ष त्वात् । परन्तु-विवे किमिरतन्त्रितं न मन्तव्यम् । यश्च पुरुषधौरेयः सदोपयोगवान् -रागद्वेषरहितो हितः सर्वेषां सत्संयमः शास्त्रोक्तपद्धत्या शुद्धाहारगवेषकः सम्यग्दृष्टिमान् स एव साधुः सिद्धः। यद्ययं कदाचिदजानतः प्रमादाद्वा अशुद्धमप्याहार शुदर्भाित मत्वा सोपयोगं भुङ्क्ते तदाऽपि-भावशुद्धन्वात्सम्पूर्णरूपेण रत्नत्रयाराधक किन्हीं किन्हीं लोगों का ऐसा अभिप्राय है कि ज्ञान, दर्शन चारित्र और तप रूप रत्न चतुष्टय का चाहे कोई पूर्ण रूप से पालन नहीं कर सकता। अतएव रत्न चतुष्टय की सम्पूर्ण रूपसे आराधना न करने के कारण कोई साधु ही नहीं है । जप कोई साधु ही नहीं है तो उसका प्रतिपक्ष असाधु भी नहीं हो सकता, क्योंकि साधु और असाधु परस्पर सापेक्ष हैं । किन्तु विवेकशील जनों को ऐसा नहीं मानना चाहिए। जो उत्तम पुरुष सदा यतनावान् रहता है, रागद्वेष से रहित होता है, सघ का हितकर सुसंयमवान् , शास्त्रोक्त पद्धति से निदों प आहार की गवेषणा करने वाला तथा सम्यग्दृष्टि होता है, वही साधु है। कदाचित् अनजान में या प्रमाद के वशीभूत होकर अशुद्ध आहार को भी शुद्ध समझ कर उपयोग के साथ खाता है, तब भी भाव से शुद्ध होने के कारण वह सम्पूर्ण रूप से रत्नचतुष्टय का आराधक ही है। કઈ કઈલેકને એવો અભિપ્રાય છે કે--જ્ઞાન, દર્શન, ચારિત્ર અને તપ રૂપ રત્ન ચતુષ્ટયનું–ચારે રત્નનું કઈ પૂર્ણપણથી પાલન કરી શક્તા નથી: તેથીજ રત્ન ચતુષ્ટયનું પૂરી રીતે આરાધન ન કરી શકવાથી કેઈ સાધુજ નથી. જ્યારે કેઈ સાધુ જ નથી, તે તેના પ્રતિ પક્ષરૂપ અસાધુ પણ નથી જ કેમકે સાધુ અને અસાધુ બને પરસ્પર સાપેક્ષ-એક બીજાની અપેક્ષાવાળા છે. પરંતુ વિવેકવાળા પુરૂએ તેમ માનવું ન જોઈએ. જે ઉત્તમ પુરૂષ સદા યતનાવાન રહે છે, રાગદ્વેષ વિનાના હોય છે. બધાનું હિત કરવાવાળા સુસં1. યમવાનું શાસ્ત્રોક્ત પદ્ધતિથી નિર્દોષ આહારની ગવેષણ કરવાવાળા તથા - સમ્યફ દષ્ટિ હોય છે, એજ સાધુ કહેવાય છે કદાચ અજાણતા અથવા પ્રમ-દને વશ થઈને અશુદ્ધ આહારને પણ શુદ્ધ સમજીને ઉપગ સાથે આહાર કરે છે, તે પણ ભાવથી શુદ્ધ હોવાના કારણે તે સંપૂર્ણ પણુથી રત્નચતુરયન આરાધકજ કહેવાય છે. આ રીતે સાધુની સિદ્ધિ થઈ જવાથી તેના Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारQतनिरूपणम् एव । इत्थं यदा साधुः सिध्यति-सेत्स्यति वाऽसाधुरपि तत्प्रतिपक्षभूतः । अतो. विवेकिमि साधुरसाधु वा नास्तीति न मन्तव्यम् । अपितु-साधुरसाधुश्च, इत्युभा वपि स्तः, इति मन्तव्यम् ॥२७॥ मूलम्-गस्थि कल्लाणपावे वा वं सन्नं णिवेसए । अस्थि कल्लाणपावे वा एवं सन्नं णिवेलए ॥२८॥ छाया-नास्ति कल्याणं पापं वा, नैव संज्ञां निवेशयेत् । अस्ति कल्याणं पाप वा एवं सज्ञां निवेशयेत् ॥२८॥ - अन्वयार्थ:-(कल्लाण) कल्याण-कल्याणात्मकं वस्तु तथा (पावे वा) पापं वा-दुःखकारणम् (पत्थि) नास्ति-न विद्यते (एवं) एवमीदृशीम् (सन्नं) इस प्रकार साधु की सिद्धि हो जाने पर उसके प्रतिपक्ष असाधु की भी सिद्धि हो जाती है । अतएव विवेकी जनों को ऐसा नहीं मानना चाहिए कि साधु और असाधु नहीं है ॥२७॥ 'गत्यि कल्लाणपावे वा' इत्यादि । शब्दार्थ--'कल्लाण-कल्याणम्' कल्याण अथवा कल्याणकारी वस्तु तथा 'पावे वा-पापं वा' पाप दुःखका कारण 'णत्थि-नास्ति' नहीं है 'एवं-एवम्' ऐसी 'सन्न-संज्ञा' बुद्धि ‘ण निवेसर-न निवेशयेत् 'न धारयेत्' धारण न करे, किन्तु 'कल्लाणे पोवे वा अत्यि-कल्याणं पापं वा अस्ति' कल्याण है और पाप भी है, ‘एवं सन्नं निवेसए-एवं संज्ञा निवेशयेत्' इसी प्रकार की बुद्धि धारण करनी चाहिए ॥२८॥ अन्वयार्थ--कल्याण या कल्याणकारी वस्तु तथा पाप दुःख का कारण नहीं है, विवेकी आत्मा को इस प्रकार की बुद्धि नहीं धारण પ્રતિપક્ષ અસાધુની પણ સિદ્ધિ થઈ જાય છે. તેથી જ વિવેકીજનેએ સાધુ એને અસાધુ નથી તેમ માનવું કે વિચારવું ન જોઈએ મારા _ 'णस्थि कल्लाणपावे वा' त्यादि • शाय--'कल्लाण-फल्याणम्' हया' अथवा या ४२वावाणी परत तथा 'पावे वा-पापं वा' ५।५-.मनु २५ ‘णस्थि-नास्ति' नथी, 'एवं-एवम्' मा प्रभारीनी 'सन्नं-संज्ञां' भुद्धि 'ण निवेसए-न निवेशयेत्' धार! ४२वी न नये. परंतु 'कल्याण पावे वा अस्थि-कल्याण पाप वा अस्ति' या. भने पा५ है, 'एव' सन्न निवेमए-वं संज्ञां निवेशयेत्' मा प्रभारी मुद्धि ધારણ કરવી જોઈએ ૨૮ - અન્વયાર્થ-કલ્યાણ અથવા કલ્યાણકારી વસ્તુ તથા પાપ- અર્થાત દુઃખના Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्रकृतास्त्र संज्ञा बुद्धिम् (ण णिवेसए)-न निवेशयेत्-'न कुर्यात् किन्तु-कल्लाणपावे वा अस्थि) कल्याणं पापं वाऽस्ति-विद्यते (एवं सन्नं णिवेसए) एवम्-ईदृशी संझांबुद्धिं निवेशयेत्-कुर्यादिति ।।२८। टीका-आत्मव्यतिरिक्तस्य सर्वस्याभावात् 'कल्लाण' कल्याणम् ‘पावे वा' पापं वा 'णत्थि' नास्ति 'एवं सन्न' एवम्-ईदृशी संज्ञाम्-बुद्धिम्-'ण णिवेसए' न निवेशयेत्, किन्तु-'कल्लाण पावे वा अत्थि' कल्याणं पाप वाऽस्ति, तत्र-कल्याणं वान्छितार्थमाप्तिः। पापं वा-प्राणातिपातादिलक्षणम् । एवं' एवमेव 'सन्न' संज्ञाम् -बुद्धिम् ‘ण निवेसए' न निवेशयेत् न कुर्यात् कल्याणकल्याणवतोः पापपापवतोश्च सत्वमवश्यमभ्युपेयम्, अद्वैतमते जगद्विचित्रता स्यादिति । वौद्धो हि सर्वस्यापि अशुचित्वम्-आत्मरहितत्वञ्च मन्यते। अतः कल्याणं तद्वान् वा नास्तीति कथयति करनी चाहिए। किन्तु कल्याण है और पाप भी है, इसी प्रकार की घुद्धि धारण करनी चाहिए ॥२८॥ टीकार्थ--आत्मा से भिन्न सभी पदार्थों का अभाव होने के कारण कल्याण और पाप नहीं है, इस प्रकार की संज्ञा नहीं रखनी चाहिए, किन्तु कल्याण और पाप है, ऐसी संज्ञा ही धारण करनी चाहिए। अभीष्ट अर्थ की प्राप्ति को कल्याण कहते हैं, और हिंसा आदिको पाप ' कहते हैं। कल्याण का और कल्याणवान् का तथा पाप और पापवान् का अस्तित्व अवश्य स्वीकार करना चाहिए। अगर अद्वैत को स्वीकार किया जाय तो अबाधित अनुभव से सिद्ध यह जगत् की विचित्रता संगत नहीं हो सकती । बौद्धों की मान्यता है कि सय अशुचि और अनात्मक है, अतएव कल्याण और कल्याणवान् कोई नहीं है, उनका કારણ રૂ૫ પાપકર્મ નથી આ રીતની બુદ્ધિ ધારણ કરવી ન જોઈએ. પરંતુ કલ્યાણ છે અને પાપ પણ છે એ રીતની બુદ્ધિ ધારણ કરવી જોઈએ, ૨૮ ટીકાઈ–-આત્મા શિવાયના સઘળા પદાર્થોનો અભાવ હોવાના કારણે કલ્યાણ અને પાપ નથી. આ પ્રમાણેની સંજ્ઞા-બુદ્ધિ ધારણ કરવી ન જોઈએ. ઇષ્ટ વસ્તુની પ્રાપ્તિને કહ્યા કહે છે, અને હિંસા વિગેરેને પાપ કહે છે. કલ્યાણનું અને કયાણુવાનનું તથા પાપ અને પ્રાપવાનનું અસ્તિત્વ (વિદ્યમાનમ) અવશ્ય સ્વીકારવું જ જોઈએ. જે અદ્વૈતને સ્વીકારવામાં આવે, તે અબાધિત અનુભવથી સિદ્ધ આ જગતનું વિચિત્રપણું સંગત થઈ શક્ત નહીં બૌદ્ધોની માન્યતા છે કે-બધું જ અશુચિ-અશુદ્ધ અને અનાત્મક જ-આત્મા વિનાનું છે. તેથી જ કલ્યાણ કે કલ્યાણવાન કઈ પણ નથી. તેઓનું આ કથન સત્ય Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् - ५४३ तन्न सम्यक् प्रतिभाति । सर्वस्याऽशुचित्वे तदुपास्यदेवानपि अशुचिरतिवर्त्ततइति गता दर्शनकथाः | अतः सर्वे पदार्था अशुचिरूपा इति न श्रद्दध्महे । स्वद्रव्यक्षेत्रकालादिरूपेण रसोऽपि अमन्तः परद्रव्यादिना स्युः । अतः सामान्यतः कल्याणस्य निराकरणं न सम्यक् । अतः सदेव कल्याणं पापं चेति |२८| मूलम् - केल्लाणे पाए वा, वि वैवहारो ण विज्जइ । 'जं 'वेरं तं ने जीणंति, समणा बालपंडिया ॥२९॥ 1- कल्यागः पापको वापि व्यवहारो न विद्यते । छाया द्वैरं तन्न जानभि श्रमणा वालपण्डिताः ॥ २९॥ ''-- } 7 ܐ ܨ ، यह कथन सत्य नहीं है । सब को अशुचि मानने पर उनके उपास्य देव को भी अशुचि मानना पडेगा । ऐसी स्थिति में उनका दर्शन ( रत) ही लुप्त हो जाता है । अतः दृश्यमान सब पदार्थो को अशुचि नहीं मानना चाहिए। सब स्वकीय द्रव्य क्षेत्र काल और भाव से सत् हैं और परद्रव्य क्षेत्र काल और भाव की अपेक्षा असत् हैं । इस प्रकार साधारणतया कल्याण का निराकरण करना ठीक नहीं है । कल्याण और पाप दोनों का अस्तित्व है ||२८|| 'कल्लाणे पावए वावि' इत्यादि । शब्दार्थ -- 'कल्लाणे पावए वावि-कल्याणः पापको चापि' कोई पुरुष एकान्ततः कल्याणवान् है, अथवा पापवान् है ऐसा 'ववहारो - व्यवहारः ' व्यवहार 'ण - विज्जइ-न विद्यते' नहीं होता है तो भी 'बालपंडिया समणा - बालपण्डिताः श्रमणाः' जो शाक्य आदि श्रमण बालपंडित નથી. બધાને જ અશુચિ-અપવિત્ર માનવાથી તેમના આરાધ્ય દેવને પણ અશુચિ જ માનવા પડશે આ સ્થિતિમાં તેએાના ઇન-મતને લેપ, થઈ જાય છે. તેથી જ બધા જ પદાર્થોને અશુચિ-અપવિત્ર માનવા ન જોઈએ. બધા જ પેાતાના દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવની અપેક્ષાથી સત્ છે, અને પરના દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવની અપેક્ષાથી અસત્ છે. આ પ્રમાણે સાધારણુ પણાથી કલ્યાણુનુ નિરાકરણુ કરવુ તે ખરાખર ની, કલ્યાણુ અને પાપ અનેનું અસ્તિત્વ છે તેમ માનવું જોઈએ. ૨૮૫ 'कल्याणे पाव वा वि' इत्यादि शब्दार्थ –'कल्ला पावद वावि-कल्याण. पोपको वापि' । ३ष એકાન્તતઃ-નિશ્ચિત રૂપથી કલ્યાણુવાન છે અથવા પાપવાન્ છે. એ પ્રમાણેના 'ववद्दशि-व्यवहार' व्यवहार 'ण विज्जइ- न विद्यते' थतो नथी. तो पशु 'बाल • पंडिया समणा - वालपण्डिताः श्रमणाः' ने शाक्य विजेरे श्रमयु 'मासयस्ति थे, " Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थः- (कल्लाणे पावर वादि) कल्याण:- कल्याणवान तत्र कल्याणं वाञ्छितार्थमाप्तिस्तद्वान् अथवा पापन न हि कश्विदेकान्ततः कल्याणवान् एका स्वतः पापवान् वा इत्याकारकः (ववहारो) व्यवहारः (ण विज्जइ) न-नैव विद्यते सभवति, यद्यपि एका स्थितिः तथापि (वाळपंडिया समणा) वालपण्डिताः श्रमणाः बाळाः सदसद्विवेकविकलाः सन्तः स्वात्मानं पण्डितं मन्यमानाः शाक्यादयः (जं वेरं तं ण जाणंति) यद् वैरमेकान्तपक्षाश्रयात् समुत्पद्यमानं वैरं कर्मधरू तद्वैरं कर्मबन्धलक्षणं न जानन्ति इति ॥ २९ ॥ - टीका- 'कल्ला' कल्याणम् - वाच्छिवार्थमाप्तिरूपम् तद्वान् 'पावर चावि' पापको वापि पापवान् इत्येतादृशः 'ववशरोण विज्ज' व्यवहारो लोके न विद्यते । ५४४ है अर्थात् सत् असत् के विवेक से रहित होते हुए भी अपने आप को पण्डित मानते हैं वे एकान्त पक्षका अवलम्वन से उत्पन्न होने वाले 'जं वेरं तं ण जाणंति यद्वैरं तन्न जानाति' जो वैर होता है उनको अर्थात् कर्म पन्धको नहीं जानते है ॥२९॥ बाल अन्वयार्थ — कोई पुरुष एकान्तनः कल्याणवान् है या पापवान् है, ऐसा व्यवहार नहीं होता है, फिर भी जो शाक्य आदि श्रमण, पंडित हैं अर्थात् सत् असत् के विवेक से रहित होते हुए भी अपने आपको पण्डित मानते हैं, वे एकान्त पक्ष का अवलंबन से उत्पन्न होने वाले वैर को अर्थात् कर्मबन्धन को नहीं जानते हैं ||२९|| टीकार्थ - अभीष्ट अर्थ की प्राप्ति कल्याण और उससे विपरीत पाप कहलाता है । यह पुरुष सर्वथा कल्याण का भाजन है, एकान्त पुण्यवान् અર્થાત્ સત્ અસત્તા વિવેક વિનાના રાવા છતાં પણ પેાતાને પતિ માને छे, तेथेो भेान्त यक्षना स्वीअस्थी थवावाणु 'ज वेर' तं ण जाणति - यद्वैर तन्न जानाति' ने २ छे, तेने रर्थात् धने लगता नथी ॥२॥ અન્વયા ——કાઈ પુરૂષ એકાન્તતઃ કલ્યાણવાન્ છે અથવા પાપવાન છે એવા વ્યવહાર થતેા નથી છતાં પણ જે શાકય વિગેરે શ્રમણુ ખાલપતિ છે અર્થાત્ સત્ અસત્આના વિવેકથી રહિત હાવા છતાં પણ પાતે પાતાને પતિ માને છે. તે એકાન્ત પક્ષના અવલમ્બનથી ઉત્પન્ન થવાવાળા વેરને અર્થાત્ ક્રમ મધને જાણતા નથી ।।રા ટીકા--ઈષ્ટ વસ્તુની પ્રાપ્તિ કલ્યાણ કહેવાય છે અને તેનાથી ભિન્ન પાપ કહેવાય છે. આ પુરૂષ સર્વથા કલ્યાણુનુ પાત્ર છે. એકાન્ત પુણ્યશાળી Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२.. सूत्रकृताङ्गसूत्रे परेहिं निज्जइ, अगणिझामिए सरीरे कवोयवन्नाणि अट्रीणि भवंति, आसंदी पंचमा पुरिसा गामं पच्चागच्छंति, एवं असंते असंविज्जमाणे जेसि तं असंते असंविज्जमाणे तेसिं तं सुयक्खायं भवइ अन्नो भवइ जीवो अन्नं सरीरं, तम्हा, तं एवं नो विपडिवेदेति-अयमाउसो! आया दीहेइ वा हस्सेइ वा परिमंडलेइ वा वोइ वा तसेइ वा चउरंसेइ वा आयएइ वा छलंलिएइ वा अटुंसेइ वा किण्हेइ वा णीलेइ वा लोहिएइ वा हालिदेइ वा सुकिलेइ वा सुब्मिगंधेइ वा दुन्भिगंधेइ वा तितेइ वा कडुएइ वा कसाइए बा अंबिलेइ वा महुरेइ वा कक्खडेइ वा मउएइ वा गुरुएइ वा लहुएइ वा सिएइ वा उसिणेइ वा निदेइ वा लुक्खेइ वा एवं असंते असंविज्जमाणे जेसिं तं सुयक्खायं भवइ-अन्नो जीवो अन्नं सरीरं, तम्हा ते णो एवं उपलब्भंति, से जहा णामए केइ पुरिसे कोसीओ आसि अभिनिवाट्टित्ताणं उवदंसेजा अयमाउसो ! असी अयं कोसी, एवमेव नस्थि केइपुरिसे अभिनिबाहित्ता णं उवदंसेत्तारो अयमाउसो! आयाइयं सरीरं । से जहा णामए केइपुरिसे मुंजाओ इसियं अभिनिव्वहित्ताणं उवदंसेज्जा अयमाउसो! मुंजे इयं इसियं एवमेव नस्थि केइपुरिसे उवदंसेतारो अयमाउसो! आया इयं सरीरं। से जहा णामए केइपुरिसे मंसाओ अटुिं अभिनिवट्टित्ताणं उवदंसेज्जा अयमाउसो! मंसे अयं अट्ठी, एवमेव नस्थि केइपुरिसे उवदंसेत्तारो अयमा Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् अयं सर्वथा कल्याणवान् अयं सर्वथा पापावान् इत्येतावान व्यवहारो लोके नाऽऽलोक्यते । तथापि 'बालपंडिया' वालपाण्डता आत्मानं पण्डितं मन्य. माना इमे बौद्धादयो विवेकरहिताः 'समणा' श्रमणाः 'जं वे' यद्वैरम्-एकान्तपक्षाऽवलम्बनजनितं वन्धनं यत् 'तं ण जाणंति' तन्नैव जानन्ति शाक्यादयः पण्डित मानिनः। कश्चिदेवं मन्यते-कश्चिदेकान्तरूपेण कल्याणवानेव, कश्चिदे. कान्तरूपेण पापवानेव । किन्तु-नाऽयं पक्षो युक्तियुक्तः। अपितु=न कोऽपि पदार्थ .एकान्तेन वियते, सार्वत्रिको हि हितोऽनेकान्तः, पक्ष एव । कथश्चिकल्याणवार, कथञ्चिच पापवान् इत्येव पक्षः सत्यः श्रेयांश्च । एवंविधेऽपि-एकान्तपक्षननितं 'कर्मवन्धनं न जानन्ति परदर्शनदृशः । अतस्तेऽहिंसाधर्मस्य, तथाऽनेकान्तपक्षस्या श्रयणं नैव कुर्वन्तीति भावः ॥२९॥ है और यह एकान्ततः पापी है, ऐसा व्यवहार लोक में नहीं देखा जाता। फिर भी अपने आपको पण्डित मानने वाले अज्ञानी शाक्य आदि श्रमण एकान्त पक्ष क आश्रयण करते हैं। एकान्त पक्षों को ग्रहण करने से जो कर्मबन्ध होता है, उसे वे नहीं जानते। कोई कोई ऐसा समझता है-यह पुरुष एकोन्त पुण्यवान है और अमुक एकान्त पापी ही है, किन्तु ऐसा समझना सत्य नहीं है। कोई भी पदार्थ एकान्तात्मक नहीं है। सर्वत्र अनेकान्तपक्ष ही हितकर है। अतएव कथाचित् , कल्याणवान् और कथंचित् पापवान् ऐसा पक्ष ही श्रेयस्कर है। ऐसी स्थिति होने पर भी अन्यमतावलम्ची, एकान्त पक्ष का स्वीकार करने से जो कर्मबंध होता है, उससे अनभिज्ञ (अनजान) हैं। यही कारण है कि वे अनेकान्तवाद का-अहिंसा का आश्रय नहीं लेते ॥२९।। છે. અને આ એકાન્તતઃ પાપી છે, આ પ્રમાણેનો વ્યવહાર લેકમાં-જગતમાં દેખવામાં આવતું નથી. તે પણ પિતાને પડિત માનવાવાળા અજ્ઞાની શકય . વિગેરે શ્રમણ એકાન્ત પક્ષને આશ્રય કરે છે. એકાન્ત પક્ષને સ્વીકાર કરવાથી જે કર્મબંધ થાય છે, તેને તેઓ જાણતા નથી. કોઈ કોઈ એવું સમજે છે કેઆ, પુરૂષ એકાન્ત પુણ્યવાનું છે અને અમુક વ્યક્તિ એકાન્ત પાપી જ છે. -પર ત તેમ માનવુ બરોબર નથી, કઈ પણ પદાર્થ એકાંતાત્મક નથી. બધે જ અનેકાન્ત પક્ષ જ હિતકર છે. તેથી જ કથ ચિત્ કલ્યાણવાન અને કથ. * 'ચિત પાપવાન એ પ્રમાણેને પક્ષ જ શ્રેયસ્કર છે આ પ્રમાણેની રિથતિ હોવા છતાં અન્ય મતવાળાઓ, એકાન્ત પક્ષને સ્વીકાર કરવાથી જે કર્મને બંધ થાય છે, તેનાથી અજાણ છે, એ જ કારણ છે કે-તેઓ અનેકાન્તવાદનો भेटले, मसिाता मासरे। सता नथा.. ॥२८॥ , Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - लम्-अमेसमखयं वात्रि सम्बदुक्खेइ वा पुणो। - वज्झा पाणा ण वज्झत्ति, इति वायं में नीसरे॥३०॥ ::, छगया--अशेपमक्षयं वापि सईदुःखमिति वा पुनः । वक्ष्याः माणा न वध्याः इति, इति वाचं न निःसजेन् ॥३०॥ ... • अन्वयार्थी--(असे सं) अशेष-सम्पूर्ण वा (अक्खयं) अक्षय-शाश्वतं नित्पर (चा धि) पापि (बा) वा-अथवा (पुणो) पुनः (सनादुक्खेइ वा) सर्व जगद् दुख पमिति वा न स्वीकात एकान्तनित्यत्य एकान्तदुःखरूपस्याऽभावात. (पाणा बज्झा न बज्झत्ति) प्राणा:-अपराधिनो जीवाः वध्या-व्यापादयितुं योग्याः अथवा न वध्या:-अध्या भवन्ति (इ) इत्याकारकम् (वायं) वाचं-वचनम् (न नीसरे) न-नैव साधुः निःसृजेन्-वदेन, इति ॥३०॥ 'असेसमक्खयं वावि' इत्यादि ।। शब्दार्थ-'अक्षेसं-अशेषम्' समस्त पदार्थ 'अकखयं-अक्षयं शाश्वत नित्य है 'वा-वा' अथवा एकान्ततः अनित्य ही है 'पुणो-पुन:' फिर 'सव्व दुक्खेह-सर्व दुग्यम्' संपूर्ण जगत् दुःखमय है ऐसा मानना नहीं चाहिए 'पाणा वज्झा न वज्झत्ति-प्राणाः वध्याः न वध्या:' यह अप. राधी प्राणी वध करने योग्य है, अथवा वध करने योग्य नहीं है - इति' इस प्रकार का 'वायं-वाचं' वचन भी 'न नीसरेह-न निमजेत्' साधु को बोलना नहीं चाहिए ॥३०॥ ___अन्वयार्थ-समस्त पदार्थ शाश्वत नित्य हैं, अथवा एकान्ततः अनित्य ही हैं, सम्पूर्ण जगत् दुःखमय है, ऐप्ता नहीं मानना चाहिए। 'असेसमक्खयं वावि' या शार्थ -'असेस-अशेपम्' सघा पहा 'अक्खयं-अक्षय' शाश्वत अर्थात् नित्य छे. 'वा-वा' अथवा tradमनित्य छ 'पुणो-पुनः' जी 'सव्वदुक्खेइ-सर्व दुःखम्' सपू मय छ, सेभ भानन मे. 'पाणा वज्झा न वज्झचि-प्राणाः वध्याः न वध्या' मा अपराधी प्रा भावाने योग्य छ ? भारवा योग्य नथी ? 'इइ-इति' मा अमायनी 'वाय-वाचे' all 'न नीसरेइ-न निःसृजेतू' साधुणे मालवी न नये. ॥30॥ 11 ,, स-क्याथ-सा पहा शाश्वत-मित्य छ: अ५॥ सन्तत: અનિત્ય છે. સંપૂર્ણ જગત દેખાય છે તેમ માનવું ન જોઈએ. આ અપ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. अ. ५ आचारथुतनिरूपणम् __टीका-'असेसमक्खयं वावि' अशेष-सम्पूर्णम् अक्षय-शासवं यथा तथा जगति विद्यमानः सर्वोऽपि पदार्थ एकातरूपेग नित्यः 'वावि'. वापि-अथवा एकान्तरूपेणाऽनित्य एष इत्येवं न. मन्तव्यम् । अपितु सर्व नित्याऽनित्यात्मक मित्या विवेकिभिरादतव्यम् । तथा-'पुगो सव्वदुक्खेइ वा' पुनः सर्व दुःखमेवेस्यपि न मन्तव्यम् । चारित्रपरिणतेः सुखस्यापि दर्शनात् किन्तु-कथश्चिदुःखात्मकम्, कश्चित्सुखात्मकञ्च 'पाणा वज्झा न वाझत्ति, इइ वायं न नीसरे' प्राणा वध्या न वध्या इति, एतादृशीम् 'चाय' वाचम्-चचो न निःसृजेत् । अपराधिन अपि प्राणिन इमे वध्या:-घातयितुं योग्या इति । अथवा-न वध्या इति, नैवं कथमपि साधुर्वदेत , केवल दयार्थ यतेत । न हि कोऽपि-एकान्तरूपेण वध्योऽवध्यो वा, सर्वत्रकान्तपक्षविरही अनेकान्त एव पक्षो मनोरमः ॥३०॥ यह अपराधी प्राणी वध करने योग्य है या वध करने योग्य नहीं है, इस प्रकार का वचन भी साधु को उच्चारण नहीं करना चाहिए ॥३०॥ टीकार्थ-जगत् में विद्यमान सभी पदार्थ सर्वथा नित्य हैं अथवा सर्वथा अनित्य है, ऐसा मानना युक्तिसंगत नहीं है। विवेकी जनों को सभी पदार्थ नित्यानित्य ही समझना चाहिए। इसके अतिरिक्त ऐसा. भी नहीं कहना चाहिए कि यह सारा जगत् दुःखमय ही है। यहां चारित्रवानों की सुख परिणति रूप, सुख भी देखा जाता है। अतएव जगत् दुःखमय भी है और सुखमय भी है। अमुक अपराधी प्राणी वध करने योग्य है या वह वध करने योग्य नहीं है, साधु को ऐसे वचन का प्रयोग भी नहीं करना चाहिए। साधु तो केवल दया के लिए उद्यम करे । अपराधी को, क्व રાધી પ્રાણુ વધ કરવા યોગ્ય છે, અથવા વધ કરવા ગ્યા નથી, આ પ્રમાએનું વચન પણ સાધુએ બોલવું ન જોઈએ ૩ણા ટકાથું–જગતમાં વિદ્યમાન સઘળા પદાર્થો સર્વથા નિત્ય છે, અથવા સર્વક અનિય છે, તેમ માનવું યુક્તિ યુક્ત નથી. વિવેકી, પુરૂએ સઘળા પદાર્થો નિત્ય અને અનિ પ જ સમજવી જોઈએ. આના સિવાય એમ પણ કહેવું જોઈએ કે આ સમગ્ર જગત્ દુખમય જ છે, અયા, ચારિત્રવાજીઓની, સુખ પરિણતિ, સુખરૂપ પણ દેખવામાં આવે છે. તેથી જ જગત દુખરૂફ પણ છે અને સુખરૂપ પણ છે. , અમુક અપરાધી પ્રાણુ વધ કરવાને યોગ્ય છે, અથવા તે. વધ કરવાને | ચણ્ય નથી, સાધુએ એવા વચનને પ્રયોગ પણ કર ન જોઈએ, સાધુએ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ધઈટ सूत्रकृतागसूत्रे मूलम्-दीसंति समियायारा भिक्खुणो साहजीवियो। एए मिच्छोरजीवंति ईइ दिटिं न धारए ॥३१॥ छाया--दृश्यन्ते संमिताचारा भिक्ष साधु नीविनः । एते मिथ्योपजीवन्ति, इति दृष्टिं न धारयेत् , अन्वयार्थः-(साहुजीविणो) साधुनीविनः (समियायारा) समितावारा:-संयमादिमन्तः (भिक्खु गो) भिक्षा-निरवद्यमिक्षणशीलाः (दीसंति) दृश्यन्ते (एए. करने योग्य कहने से हिंसा का अनुमोदन होता है और अवध्य कहने से अपराध का अनुमोदन तथा राजकीय कानून का विरोध होता है। अतएव ऐसे प्रसंग पर साधु को मौन ही रहना चाहिए ॥३०॥ 'दीसंति समियायारा' इत्यादि शब्दार्थ-'साहुजीविणो-साधुजीविनः' निष्पाप जीवन व्यतीत करने वाले तथा 'समियायारा-समिताचारा' यतना पूर्वक आचरण करनेवाले 'भिक्खुणो-भिक्षवः' निरवध भिक्षा ग्रहण करने वाले पुरुष 'दीसंति-दृश्यन्ते' देखे जाते हैं 'एए मिच्छोवजीवंति-एते मिथ्योपजीवन्ति' वास्तव में ये मिथ्याचारी हैं अर्थात् कपट पूर्वक आजीविका करते हैं 'इइ दिहि न धारए-इति दृष्टिं न धारयेत्' इस प्रकार की दृष्टि धारण करनी नहीं चाहिए ॥३१॥ __ अन्वयार्थ-निष्पाप जीवन व्यतीत करने वाले तथा यतनापूर्वक તે કેવળ દયાને માટે જ પ્રયત્ન કરતા રહેવું. અપરાધીને વધ કરવાને ચિગ્ય કહેવાથી હિસાનું અનુમોદન થાય છે, અને અવધ્ય કહેવાથી અપરાધનું અનુમાન અને રાજકીય કાયદાને વિરોધ થાય છે તેથી જ આવા પ્રસગે સાધુએ મૌન જ ધારણ કરવું જોઈએ એજ ઉત્તમ માર્ગ છે. ૩૦ . .. 'दीसंति समियायारा' त्यादि ..। शहाथ-'साहुजीविणो-साधुजीविनः' निष पा५ पर्नु त 'पात वा तथा ''समियायारा-समिताचाराः' यतना' माय२६ ४२१॥ 'पian. भिक्खुणो-भिक्षव.' निरq man aपापा ५३. 'दीसंति-दृश्यन्ते' नवामा मावे छे. - 'एए मिच्छोवजीवति-एते मिथ्योपजीवन्ति' वास्तवि रीत तमा मिथ्यायारी छ, अर्थात् ४५८ पूर्व माqि४ ४२ छ, 'इइ दिद्धिन धारए-इति दृष्टि न धारयेत्' मा प्रभानी र घार ४२वी न . ॥३१॥ : - અન્વયાર્થ_નિષ્પાપ જીવન વિતાવવાવાળા તથા યતના પૂર્વક આચરણ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयाबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् ५४९. मिच्छोवजीवति) एते साधवो मिथ्योपजीवन्ति-सकपटजीविकां कुर्वन्ति (इइ दिहिं न धारए) इति एतादृशीं दृष्टिम् - दर्शनं ज्ञानम्, न - नैव धारयेत् - कुर्यादिति ॥३१॥ टीका 'साइनोविणो' साधुजीविन - साधुना विधिना जीवन्ति 'समियायारा', समिवावाराः - यात्रोक्त त्या आत्मसंयमवन्तः तथा शास्त्रप्रतिपादिवाऽऽवार - वन्तः । 'भिक्खुगो' भिक्षवः- निरवद्यभिक्षणशीलाः- उत्तमरीत्या जीवनयात्रायायापयितारः 'दीसंति' दृश्यन्ते नैते किमपि दुःखयन्ति शान्ता दान्ता जितेन्द्रिया जितकषाया। स्विमिता इत्थंभूता भुवि विचरन्तः सावो दृश्यन्ते 'एए' एते साधवः स्वदर्शनानुयायिनः 'मिच्छोवजोवेति' मिथ्योपजीवन्ति - मिथ्योपजीविनः एते साधुलिङ्गवारिणो न सावत्रो वीतरागः: ' अपितु सरागा कपटरीत्या परवञ्च नादिना वा । ' दिर्द्वि न धारप इति दृष्टिं न धारयेत् नैवमभिप्राय आचरण करने वाले, निरवद्य भिक्षा ग्रहण करने वाले पुरुष देखे जाते. हैं, वास्तव में ये सर्व मिथ्याचारी हैं, कपटपूर्वक आजीविका करते हैं, इस प्रकार की दृष्टि धारण नहीं करनी चाहिए ||३१|| 9 टीकार्थ- प्रशस्त विधि से जीवन यापन करने वाले, शास्त्रोक्त रीति से संघम का पालन करने वाले, शास्त्रप्रतिपादित आचार से सम्पन्न, निर्दोष भिक्षा ग्रहण करने वाले महात्यागी साधु देखे जाते. हैं। वे किसी को पीड़ा नहीं पहुंचाते । शान्त, दान्त, जितेन्द्रिय और कषायविजेता होकर इस भूतल पर विचरते हैं। ऐसे परहितकारी साधुओं के विषय में ऐसा नहीं समझना चाहिए कि ये मिथ्याचारी हैंकपटी हैं, साधु का वेष धारण करके भी साधु नहीं हैं, वीतराग नहीं हैं । किन्तु ये संराग हैं, मायाचार करके दूसरों को ठगते हैं । કરવાવાળા નિરવદ્ય ભિક્ષા ગ્રહણ કરવાવાળા જે પુરૂષ દેખવામાં આવે છે તે હું વાસ્તવિક રીતે’ મિથ્યાચારી છે, કપટ પૂર્વક આજીવિકા કરે છે. આ રીતની દૃષ્ટિ ધારણ કરવી ન જોઇએ. ।।૩૧। ટીકા પ્રશસ્ત વિધીથી જીવન વીતાવવા વાળા તથા શાસ્ત્રોક્ત રીતે સયમનુ ંપ્ લન કરવાવાળા, શાસ્ત્રમાં પ્રતિપાદ્મન' કરેલ આચારથી યુક્ત નિર્દોષ ભિક્ષા ગ્રહણ કરત્રાવાળા મહાત્યાગી વૈરાગ્યમૂર્તિ સાધુએ જોવામાં આવે છે. તેઓ કોઈ ને પણ દુ:ખ ઉપજાયતા નથી શાન્ત, દાન્ત, જીતેન્દ્રિય અને કષાયને જીતવાવાળા પનીને આ પૃથ્વી પર વિચરે છે એવા પરોપકારી સાધુએના સંબધમાં એવુ' ન માનવુ જોઈએ કે આ મિથ્યાચારી છે, કપટી છે, સાધુના વેષ ધારણ કરવા-છતા પણ તે સાધુ નથી. વીતરાગ નથી, પરંતુ આતા સરાગ છે. માયાચાર કરીને ખીજાઓને ઠગે છે. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० सूत्रकृतात्रे कुर्यात् । इमे न साधवः किन्तु चञ्चका इत्येवादशीं मतिं कथमपि न कुर्यात् । परेषां चेतमोवृतेागृहता ज्ञातुमशक्यत्वादिति ॥३१॥ मूलम् - दक्खिणाए पंडिलंभो, अस्थि वा णत्थि वा पुगो । ण वियागरेज्ज मेहावी, संतिभगं च बृंहए ॥३२॥ " छाया - दक्षिणायाः प्रतिलम्भः अस्ति वा नास्ति वा पुनः । नव्यामृगाच्च मेधावी शान्तिमार्गश्च वर्धयेत् ॥३२॥ अन्वयार्थः -- ( मेदावी ) मेधावी - मज्ञावान् पण्डितः ( दविणाए) दक्षिणाया: तात्पर्य यह है कि ये साधु नहीं हैं, ठग हैं, इस प्रकार की बुद्धि साधुओं के विषय में नहीं धारण करनी चाहिए, क्यों कि अल्पज्ञ जीव दूसरों की चित्तवृत्ति को जान नहीं सकता है ||३१|| 'दक्खिणाए पडिलं भो' इत्यादि । शब्दार्थ - 'मेहावी - मेधावी' प्रज्ञावान् पुरुष 'दक्खिणाए - दक्षि पायाः' अन्नादि दान की 'पडिलंभो - प्रतिलम्भः' प्राप्ति अमुक व्यक्ति के घर में होती है अथवा 'पुणो णत्थि वा-पुनः नास्ति वा' अमुक के घर मैं नहीं होती है 'ण विद्यागयेज्जा-नव्यामृणीयात्' ऐसा कथन न करे किन्तु 'संतिमग्गं च चूहए - शान्तिमार्ग च वर्धयेत्' शान्ति मार्ग को चढावे अर्थात् जिस वचन से मोक्षमार्ग की सम्यक् आराधना हो उसी वचन का प्रयोग करे ||३२|| अन्वयार्थ - प्रज्ञावान् पुरुष अन्नदान आदि की प्राप्ति अमुक के G કહેવાનુ તાત્પ એ છે કે—મા સાધુ નથી. ઠગ છે, આવા પ્રકારને વિચાર સાધુએાના સય્ધમાં રાખવા ન જોઇએ, કેમકે-પણ જીવ ખીજાના ચિત્તના ભાવને સમજી શકતા નથી રા૩૧૫ } 'दक्खिणाए पडिलंभो' त्याहि } शार्थ' – 'मेहावी - मेधावी' मुद्धिमान् ५३ष 'दक्खिणाए - दक्षिणायाः' मन् 'विगेरे छाननी 'पडिलंभो - प्रतिलम्भ:' आमि अभु व्यक्तिना धरभां थाय छे, अथवा 'पुणो णत्थि वा पुनः नास्ति वा? अभुना, धरमां थती नथी, 'ण दियागरेज्जा-न व्यागृह्णीयात् अभा डे नहीं परंतु 'संतमगच बहु 'शान्तिमार्ग च वर्धयेत्' शांति भागने वधारे अर्थात् के वाली भोक्ष भानी સારી રીતે આરાધના થાય, એવા જ વચનાના પ્રયાગ કરવા ॥૩૨॥ અન્નયા —પ્રજ્ઞાવાન્ પુરૂષે અન્નદાન વિગેરેની પ્રાપ્તિ અમુકને ઘેર Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका दि.अ. अ. ५ आचारयुतनिरूपणम् -अनादिदानस्य (पडिलं मो) पतिलम्भ:-माप्तिः (अस्थि वा) अमुकेस्य गृहे समागत्य मातिर्भवतीति वा (पुणो गस्थि वा) पुन: नास्ति वा-पुनस्थवा अनुकस्य गृहे अन्नादियासिन भवतीति वा (ण वियागरेज्जा) न-नैव व्यागृणीयांतू-वदेत् किन्तु(संतिमग्गं च हर) शान्तिमार्गश्च वर्धयेत-किन्तु येन वचनेन मोक्षमार्ग: सम्यगाराधितो भवेत् तादृशमेव वंचने वैदेदिति ॥३२॥ . . टीका--'मेहावी' मेधागो-सदमद्विवेचनशीला पुरुषर, दक्षिणाए' दक्षिगायो:-दानस्य 'पडिलं मो' प्रतिमा मातिः 'अत्यि वा पुणो णथि वा अस्ति वा पुनः नास्ति वा-अमुझगृहे संभ्या दानं लभ्यते पुनः अनुकहे अनादिदानं सम्पक न लभ्यते-इति वचः 'ण विशागरेज्जा' न व्यायगीयात् -एतादृशं वचः कथमपि साधुभिन रक्तव्यं कस्यापि पुरतः। च-किन्तुं "संतिमगं च बृहस्' शान्तिमार्ग च वर्धयेत् । 'ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूपो मोक्षमागों यथायथः वर्धते तादृशं शास्वनिर्णीत वचनं वाच्यम् ॥३२॥ घर में होती हैं अथवा अमुक के घर में नहीं होती है, ऐसा न कहे। किन्तु शान्तिमार्ग को बढावे अर्थात् जिसवचन से मोक्षमार्ग की सम्यक अराधना हो, उसी वचन का प्रयोग करे ॥३२॥ ____टीकार्थ-सत् असत् की विवेचना करने में निष्णात पुरुष ऐसे वचन न कहे कि अमुक के घर आहार दान आदि की सम्यक् प्राप्ति होती है और अमुक के घर प्राप्ति नहीं होती । साधु को किसी के सामने ऐसी बात नहीं करनी चाहिए परंतु शांति मार्ग को बढावे कि जिनसे ज्ञान दर्शन चारित्र और तप रूप मोक्षमार्ग की वृद्धि हो ॥३२॥ થાય છે, અથવા અમુકને ઘેર થતી નથી તેમ ન કહેવું પરંતુ શાંતિમાર્ગને વધારે અર્થાત જે વચનથી મોક્ષ માર્ગની સમ્યક્ આરાધના થાય એવા વૈચને પ્રેમ કરે છે ટીકા–સત અને અસનું વિવેચન કરવામાં કુશળ પુરૂષ એવા વર્ચન ન કહે કે અમુકના ઘરમાં આહાર દાન આદિની સારી પ્રાપ્તિ થાય છે, અને અમુકના ઘરમાં પ્રાપ્તિ થતી નથી. સાધુએ કેઈને પણ તેમ કહેવું ન જોઈએ. તેમણે એવા જ વચને પ્રગ કર જોઈએ કે જેનાથી જ્ઞાન, દર્શન, यास्त्र भने त५ ३५ भाक्षभागना पधारे।, याय, ॥३२॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ५५२ मूलम् इच्चेएहिं ठाणेहिं जिंणदिठेहिं संजए। । — धारयंते उं अप्पाणं आमोक्खाय परिवएजासि. तिमि ॥३३॥ छाया--इत्येतेः स्थान जिनदृष्टैः संपतः । .. ' . धारयंस्त्वात्मानम् आमोक्षाय परिव्र जेदिति प्रवीमि ॥३३॥ • अन्वयार्थ:--(१च्चे पहि) इत्येतैः-पूर्वोक्तपदर्शितः (जिणदिहिं) निनटे:तीर्थकरमदर्शितैः (ठाणेहि) स्थान: (संजर) संयतः- युक्तः साधुः (अप्पाणं धारयंते उ) आत्मानं धारयन् तु (आमोक्खाय परिपएज्जासि) अमोक्षाय-मोक्षप्राप्ति 'पर्यन्तं परिव्रजेत्-संयमपालनं कुर्यादिति मुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं कथयति इत्येवमहं ब्रवीमि-कथयामीति ॥३३॥ 'रच्चेएहिं ठाणेटिं' इत्यादि। । शब्दार्थ-'इच्चेपहि-इत्येतेः' इस अध्ययन में पूर्वोक्त 'जिणदिष्टेहिजिनदृष्टैः' जिन भगवान् द्वारा प्रदर्शित 'ठाणेटिं-स्थानः स्थानों के द्वारा 'संजए-संयतः साधु 'अप्पाण धारयंते उ-आत्मानं धारयन् तु' अपनी आत्मा को संयम में धारण करता हुआ 'आमोक्खाय परिवएज्जासि'आमोक्षाय परिव्रजेत्' तब तक संयम का पालन करता रहे कि जयतक । मोक्ष प्राप्त न हो जाय 'त्तिवेमि-इति ब्रवीमि' ऐसा मैं कहता हूं ॥३३|| ___'अन्वयार्थ-'इम अध्ययन में प्रतिपादित पूर्वोक्त जिन भगवान के द्वारा दृष्ट स्थानों के द्वारा साधु अपनी आत्मा को संयम में धारण करता हुआ तब तक संयम का पालन करता रहे जय तक मोक्ष न प्राप्त हो जाय । ऐसा में कहता हूं ॥३३॥ ' 'इच्चएहि ठाणेहि' त्या शाय+ इच्चेएहि-इत्येतैः' मा अध्ययनमा पूर्वरित मापाने मतामा 'ठाणेहि-स्थान' स्यानाथा 'संजए-संयतः' साधु 'अपाण धारए उ.. आत्मानं धारयन् तु' मामाने सयममा धारय ४२ता य31, 'आमोक्खाय परि वएज्जासि-आमोक्षाय परिव्रजेत्' ज्या सुधी मोक्ष प्राप्त न थाय त्यां सुधी सयभनु पासन ४२॥ २३ प्रभारी छुः ॥33॥ : : અન્વયાર્થ–આ અધ્યયનમાં પ્રતિપાદન કરેલ પૂર્વોક્ત જીન લાગવાનું દ્વારા બતાવેલ સ્થાન દ્વારા સાધુ પિતાના આત્માને સંયમમાં ધારણ કરતા થકા ત્યાં સુધી સંયમનું પાલન થતા રહે કે ત્યાં સુધી મિક્ષ પ્રાપ્ત ન થાય, से प्रभारी छु'. ॥33 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका वि. श्रु. अ.५ आचारश्रुतनिरूपणम् ५५३ टीका-'इच्चेरहि' इत्येतेः 'जिणदिटेहिः-तीर्थकरोक्तैः-'ठाणेहि' स्थानः 'संजए' संयतः-युक्तः साधुः 'अप्पाण' आत्मानम् 'धारयंते उ' धारयंस्तु 'आमो. क्खाय' आमोक्षाय 'परिव्वएनासि' परिव्रजेत् मोक्षपर्याप्तिपर्यन्तं संयम पालयेदित्यर्थः । एतदध्ययनोक्तं जिनवचनं श्रुत्वा तदनुष्ठानेन स्वात्मानं धारयन्-स्थिरीन कुर्वन् मोक्षार्थ प्रयत्नो विधेय इति । 'तिबेमि' इति ब्रवीमि, इति-सुधर्मस्वामीकथयति जम्बूस्वामिनं पति, इति भावः ॥३३॥ इति श्री-विश्वविख्यात नगवल्लभादिपदभूपितवालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य' पूज्यश्री-घासीलालबतिविरचितायां श्री सूत्रकृताङ्गसूत्रस्य "समयार्थबोधिन्या. ख्यया" व्याख्यया समलङ्कृतम् द्वितीयश्रुतस्कन्धे आचारश्रुतनामकम् पञ्चममऽध्ययन समाप्तम् ॥२-५॥ टीकार्थ-तीर्थकर भगवान के द्वारा दृष्ट एवं उपदिष्ट स्थानों में अपनी. आत्मा को धारण करतो हुआ साधु मोक्षप्राप्ति पर्यन्त संयम का पालन करे। अर्थात् इस अध्ययन में प्ररूपित जिनववनों को सुन कर, उनके अनुसार आचरण करता हुआ, उनमें अपने को स्थिर करता हुआ, साधु मोक्ष के लिए प्रयत्नशील रहे। अर्थात् जप तक मोक्ष प्राप्ति नहीं हो तब तक संयम का पालन करे। सुधर्मास्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं-हे जम्बू! जैसा मैंने भग. वान से सुना है वैसा ही तुम्हें कहता हूं ॥३३॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत __ "सूत्रकृताङ्गसूत्र" की समयार्थबोधिनी व्याख्या के द्वितीय श्रुतस्कन्ध का पंचम अध्ययन समाप्त ॥२-५॥ ટીકાથ-તીર્થકર ભગવાન દ્વારા બતાવેલ અને ઉપદેશેલ સ્થાનમાં પિતાના આત્માને ધારણ કરતા થકા સાધુ મોક્ષની પ્રાપિત થતા સુધી સંયમનું પાલન કરે. અર્થાત્ આ અધ્યયનમાં પ્રરૂપણ કરેલ જીતવચનને સાંભળીને તે પ્રમાણે આચરણ કરતા થકા તેમાં પિતાને સ્થિર કરતા થકા સાધુ મોક્ષ માટે પ્રયત્નવાનું રહે અર્થાત્ જ્યાં સુધી મોક્ષની પ્રાપ્તિ ન થાય ત્યાં સુધી સંયમનું પાલન કરે સુધર્મા સ્વામી જંબૂ સ્વામીને કહે છે કે–હે જબ્બ ! મેં ભગવાન પાસેથી જે પ્રમાણે સાંભળ્યું છે, એ જ પ્રમાણે તમને કહુ છું ૩૩ જૈનાચાર્ય ધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત “સૂત્રકૃતાંગસૂત્રની સમયાર્થબધિની વ્યાખ્યાનું બીજા ભૃતસક ધનું પાંચમું અધ્યયન સમાપ્ત કર-પા सू० ७१ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे || अथ षष्ठमध्ययनमारभ्यते ॥ अथ श्री. आर्द्रककुमारकथा -- धनधान्य समृद्धे मगध जनपदे आसीदसन्तपुरनामनगरम् । तत्र सदा सामाकपालनतत्परः सामाविको नाम कुटुम्बी प्रतिवसति । तस्य सदोरकमुखवत्रिका गमार्जिकाऽऽसनादिकसानायिकोपकरणानि अतीव मियाणि आसन् । स प्रतिदिन मुभयकाले सामायिकं कुर्वन् आस्ते । तस्य सकलोऽपि कुटुम्बः सामायिकमिय एव । स च संसारासारतां ज्ञात्वा संसारादिरक्तः सपत्नीकः समन्तभद्राचार्यसमीपे मत्रजितः, स संयममाराधयन् साधुभिः सार्धं विहरति । सोऽन्यदा स्वपत्नीं साध्वीं भिक्षामदन्तीं दृष्ट्वा तथाविधमोहोदयात् पूर्वग्वारनुस्मरणेन तस्या छडे अध्ययन का प्रारंभआर्द्रक कुमार की कथा धन और धान्य से समृद्ध मगध प्रदेश में वसन्तपुर नामक नगर था। वहां सदा सामायिक व्रत का आचरण करने वाला सोमायिक नामक गृहस्थ निवास करता था। उसे डोरा युक्त मुखवस्त्रिका, पूँजनी, आसन आदि सामायिक के उपकरण अत्यन्त प्रिय थे। वह प्रतिदिन दोनों समय सामायिक किया करता था । उसका सारा परिवार सामायिक का प्रेमी था। वह संसार की असारता को जान कर संसार से विरक्त होकर पत्नी सहित समन्तभद्राचार्य के समीप दीक्षित हो गया । संयम की साधना करता हुआ वह साधुओं के साथ चित्ररने लगा। उसकी पत्नी साध्वियों के साथ विचरने लगी । वह एक बार अपनी છઠ્ઠા અધ્યયનના પ્રારંભ~ આદ્રક કુમારની કથા— ધન અને ધાન્યથી ભરેલા મગધ દેશમાં વસતપુર નામનું નગર હતું. ત્યાં હંમેશાં સામાયિક વ્રતનું આચરણ કરવાવાળા, સામાયિક નામના शृद्धस्थ रडेता हुता, तेभने छोरा युक्त भुभवसि - भुपत्ती-यूनी, आसन, વિગેરે સામાયિકના ઉપકર@ા ઘણા પ્રિય હતા, તેઓ દરરાજ બન્ને સમયે સામાયિક કરતા હતા, તેમના બધા પરિવાર સામાયિકમાં પ્રેમવાળા હતા. તે સ'સારની અસારતાને સમજીને સ'સારથી વિરક્ત થઈને પેાતાની પત્નીની સાથે ‘સમન્ત ભદ્રાચાર્ય' નામના આચાર્યની પાંસે દીક્ષિત થયા. સયમની આરાધના કરતા થકા તે સાધુએની સાથે વિહાર કરવા લાગ્યા, તેમની -પત્ની સાધ્વીયાની સાથે વિહાર કરવા લાગી, તે એકવાર પેાતાની સાધ્વી Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका द्वि.श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् उसो! आया इयं सरीरं । से जहा णामए केइपुरिसे करयलाओ आमलगं अभिनिव्वहिता णं उवदंसेज्जा अयमाउसो! करतले अयं आमलए, एवमेव णस्थि केइपुरिले उवदंसेत्तारो अयमाउसो! आया इयं सरीरं। ले जहा णामए केइपुरिसे दहिओ नवनीयं अभिनिव्वट्टित्ता णं उवदंसेज्जा अयमाउसो! नवनीयं अयं तु दही, एवमेव णत्थि केइपुरिले जाव सरीरं। से जहा णामए केइपुरिसे तिलहितो तिल्लं अभिनिव्वट्टित्ता णं उव. दंसेज्जा अयमाउसो! तेल्लं अयं पिन्नाए, एवमेव जाव सरीरं। से जहा णामए केइपुरिसे इक्खूतो खोयरसं अभिनिवद्वित्ताणं उवदंसेजा अयमाउसो! खोयरसे अयं छोए, एवमेव जाव सरीरं। से जहा णामए केइपुरिसे अरणीओ अरिंग अभिनिवद्वित्ता णं उवदंसेज्जा अयमाउसो! अरणी अयं अग्गी, एवमेव जाव सरीरं। एवं असंते असंविज्जमाणे जेसिं तं सुयक्खायं भवइ, तं जहा-अन्नो जीवो अन्नं सरीरं। तम्हा ते मिच्छा। से हंता तं हणह खणह छणह डहह पयह आलंपह विलुपह सहसाकारह विपरामुसह, एयावया जीवे णस्थि परलोए, ते णो एवं विप्पडिवेदेति, तं जहा-किरियाइ वा अकिरियाइ वा सुक्कडेइ वा दुक्कडेइ वा कल्लाणेइ वा पावएइ वा साहुइ वा असाहुइ वा सिद्धीइ वा असिद्धीइ वा निरएइ वा अनिरएइ वा, एवं ते विरूवरूवहिं कम्मसमारंभेहिं विरूवरूवाई कामभोगाई समारभंति भोयणाए । एवं एगे पागन्भिया णिक्खम्म मामगं Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 मार्थबोधिनी टीका द्वि.शु. अ. ६ आर्द्रककुमारचरितम् ५६५ मासको जातः, ततस्तस्याऽभिप्रायः केनापि साधुना पर्वात्तन्यै निवेदिनः, सा च प्रवर्त्तिनी वां समय कथितत्रती, तनः सा स्वपतिमनुरक्तं ज्ञात्वा भक्तप्रत्याख्यानं कृत्वा परित्यज्य स्त्रदेहं दशमे देवलोके गता । ततो विदितः स साधुरपि गुरुमापृच्छय भक्त प्रत्याख्याय दशमे देवलोके देवत्वेन समुत्पन्नः । ततयुत्वा आर्द्र पुरे नगरे रिपुमर्दनभूपस्य आर्द्रा कवतीनाम्न्यां देव्याम् आर्द्र ककुमारनाम्ना पुत्रो जातः, तत्पत्नी अपि स्वर्गच्युता धनपतिश्रेष्ठिनः पुत्रीरूपेण काममञ्जरीनाम्ना समुत्पन्ना | अपूर्वरूपलावण्यसम्पन्ना तारुण्यवाप्तवती । अथाऽन्यदा Hraat eat at भिक्षार्थ भ्रमण करती देख कर मोहकर्म के उदय से तथा पहले भोगे हुवे, भोगों का स्मरण हो आने से उस पर आसक्त हो गया। किसी साधुने उसके अभिप्राय को जान कर प्रवर्त्तिनी से कह दिया । प्रवर्तिनी ने उस साध्वी को बुला कर समग्र वृत्तान्त कहा । साध्वी ने अपने पति को अपने प्रति अत्यंत अनुरक्त जान कर भक्त प्रत्याख्यान करके देह का त्याग कर दिया, वह दशम देवलोक में गई। तत्पश्चात् जब उस साधु को यह वृत्तान्त विदित हुआ तो उसने भी अपने गुरु से आज्ञा प्राप्त करके भक्तप्रत्याख्यान किया । वह भी दशम देवलोक में देव हुआ । देवलोक की स्थिति पूर्ण करके वह देव आर्द्रकपुर नगर में रिपुमर्दन नामक राजा की आर्द्रकवती नामक रानी की ऊंख से पुत्र रूप में जन्मा, उसका आर्द्र कुमार नाम हुआ । उसकी पत्नी भी स्वर्ग से પત્નીને ભિક્ષાને માટે ભ્રમણ કરતી દેખીને માહુકમના ઉદયથી, તથા પહેલાં ભાગવેલા ભાગેતુ' સ્મરણ થઈ આવવાથી તેના પર આસક્ત થઈ ગયા કઈ સાધુએ તેના હેતુ સમજીને પ્રવર્તિનને કહી દીધુ', પ્રતિનીએ તે સાધ્વીને માલાવીને બધા વૃત્તાંત કહ્યો. સાધ્વીએ પેાતાના પતિને પેાતા પ્રત્યે અનુરાગવાળા જાણીને ભક્તપ્રત્યાખ્યાન કરીને શરીરના ત્યાગ કર્યો તે દશમા દેવલાકમાં ગઈ તે પછી જ્યારે તે સાધુને આ વૃત્તાન્તની ખખર થઇ તેા તેણે પણ પેાતાના ગુરૂની આજ્ઞા લઈને ભકતપ્રત્યાખ્યાન કયું. અર્થાત્ આહાર પાણુને ત્યાગ કરીને શરીરને ત્યાગ કર્યાં અને તે પણ દશમાં દેવલેાકમાં દેવ થયે, ધ્રુવલેાકની સ્થિતિ પૂર્ણ કરીને તે દેવ આદ્રક નગરમાં રિપુમદન નામના રાજાની આદ્રકવતી નામની રાણીની કૂખથી પુત્ર રૂપે જન્મ ધારણ કર્યાં અને તેનુ નામ આદ્રકકુમાર એ પ્રમાણે રાખવામાં આવ્યુ. તેની પત્ની પણ સ્વગંથી ચીને ધનપતી નામના શેઠિયાને ઘેર પુત્રી. પણાથી જન્મી. અને તેનુ' નામ કામમ'જરી એ પ્રમાણે રાખવામાં આવ્યુ. તે કાળે કરીને અદૂભૂત રૂપ અને લાવણ્યથી યુક્ત થઇને તરૂણાવસ્થાને પ્રાપ્ત થઈ. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ सूत्रकृतास्ते आकपिता रिपुद भू राजगृहे श्रेणिकस्य राज्ञः स्नेहवर्द्धनार्थ पाभृतं प्रेषितवान् तदवसरे आद्रकेण पृष्टं तस्य श्रेणिकस्य राज्ञः पुत्रोऽपि विद्यते न वेति, तत स्तत्पित्रा रिपुमर्दनेन कथितं सकलकलानिपुणो विलक्षणलक्षणपूर्णों विविधविद्या. निपुणो विनीतो विद्यतेऽभयकुमारनामा श्रेणिकस्य पुत्र इति, तदनन्तरम् आर्द्र को. ऽपि अभयकुमाराय प्राभृतं प्रेपितवान् । भूपभृत्यो राजगृहे गत्वा श्रेणिकभूपायपाभृतं निवेदितवान् श्रेणकेण राज्ञा संमानितश्च, अकमहितं माभृतम् अभयकुमाराय दत्तवान कथितस्नेहवचनम्, ततोऽभयकुमारेण चिन्तितं नूनमसौं भव्यः आसन्नसिद्धियोग्यो यो मया सह प्रीतिमिच्छति । ततोऽभयकुमारेण सविधिचव कर धनपति श्रेष्ठी के घर पुत्री के रूप में जन्मी। उसका नाम काममंजरी रक्खा गया। वह अद्भुत रूप लावण्य से युक्त होकर तरुणावस्था को प्राप्त हुई। एकवार आईक के पिता रिपुमर्दन राजाने राजगृह नगर में श्रेणिक राजा की प्रीतिवृद्धि के लिए कोई उपहार भेजा। उस समय आर्द्रक ने पूछा-श्रेणिक राजा का कोई पुत्र है या नहीं ? किसीने कहा कि समस्त , कलाओं में कुशल अद्भुत लक्षणों से सपन्न, अनेक विद्याओं का वेत्ता और विनयवान् अभयकुमार नामक श्रेणिक का पुत्र है। तष आर्द्रक ने भी अभयकुमार को उपहार भेजा। रिपुमर्दन के सेवक ने राजगृह जाकर श्रेणिक राजा को उपहार (भेट) समर्पित किए। श्रेणिक ने उसका सम्मान किया। आईक के द्वारा प्रेषित उपहार अभयकुमार को दिया, स्नेहपूर्ण वचन भी कहे । अभय. कुमार ने विचार किया। वह (आर्द्रक) भव्य और शीघ्र मोक्षगामी होना - એકવાર આદ્રકકુમારના પિતા રિપુમન રાજાએ રાજગૃહનગરમાં શ્રેણિક રાજાની પ્રીતિ વધારવા માટે કેટલિક ભેટ મેકલી તે વખતે આર્દિકે પૂછ્યું કે-શ્રેણિરાજાને કઈ પુત્ર છે કે નહી ? કેઈએ કહ્યું કે-સઘળી કળાએમાં કુશળ, અદ્ભૂત લક્ષણેથી યુક્ત, અનેક વિદ્યાઓને જાણનાર અને વિનય યુક્ત અભયકુમાર નામને શ્રેણિક રાજાને પુત્ર છે. ત્યારે આદ્રકે પણ અભયકુમાર માટે ભેટ મોકલી. રિપમદનના સેવકે રાજગૃહ નગરમાં જઈને શ્રેણિક રાજાને ભેટ અર્પણ કરી શ્રેણિક રાજાએ તેનું સન્માન કર્યું. આર્દકે મોકલેલ ભેટ અભયકુમારને આપી અને નેહયુક્ત વચને પણ કહ્યા. અભયકુમારે વિચાર કર્યો કે –તે આર્દિક ભવ્ય અને શીઘ મેગામી હે જઈએ. કે જે મારી સાથે Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रककुमारचरितम् सामायिकपुस्तकं सदोरकमुखपत्रिका प्रमाणिकारजोहरणं सामायिकयोग्यमासनादिकं च प्रेषितं कथितं च रसाभृतिकम् एकान्ते द्रष्टव्यम् । स च मृत्य आर्द्रकपुर गत्वा यथोक्तं कथयित्वा अभयकुमारेण प्रतिमाभूतमर्पयदाककुमाराय, आककुमारश्च तादृशमाभृतकम् एकान्ते दृष्ट्वा सञ्जातजातिस्मरणः सन् धर्मे प्रतिधुंद्धो जातः, ततः संयजिज्ञासावन्तं पुत्रं ज्ञात्वा तत्पिता चिन्तयति, ततः कचिद. न्यत्रापि मत्पुत्रो गमिष्यतीति मनसि कृत्वा अन्यत्र मा गच्छतु इति भयात् पश्च शतसमटै नित्यं रक्षितः ततः आर्द्रकोऽश्वशालायां गत्वा प्रधानाऽश्वेन पलायित. चाहिए जो मेरे साथ प्रीति करने की अभिलाषा रखता है । यह सोच कर उसने आक के लिए सविधि सामायिक की पुस्तक, डोरा सहित मुखवस्त्रिका, पूजनी, रजोहरण तथा सामायिक के योग्य आसन आदि भेजे और उन्हें एकान्त में देखने के लिए कह दिया। सेवक आटॅकपुर पहुंचा । अभयकुमार का संदेश कह कर उसने आईक कुमार को वह उपहार दिये। आर्द्रककुमार ने वह उपहार एकान्त में देखे तो उसे जातिस्मरण उत्पन्न हो गया। वह धर्म में प्रतिवुद्ध हुआ। आद्रक को अब संयम ग्रहण करने की इच्छा हो गई। यह देख कर पिता विचार करने लगा-यह कहीं भाग जाएगा। कहीं भाग न जाय, इस भय से राजा ने उसकी देखभाल के लिए पांच सौ योद्धा नियुक्त कर दिए। फिर भी आद्रेककुमार अश्वशाला में जाकर और वहाँ से एक बढिया घोड़ा लेकर भाग गया। નેહ રાખવાની ઈચ્છા રાખે છે. આમ વિચારીને તેણે આદ્રકકુમાર માટે સવિધિ સામયિકનું પુસ્તક, દેરા સહિત મુખવસ્ત્રિકા-મુહપત્તી, પંજની અને રહરણ તથા સામાયિકને યોગ્ય આસન વિગેરે મોકલ્યા. અને તેને એક ન્તમાં જોવાનું કહી મેકલાવ્યું સેવકે આદ્રકપુર પહોંચીને અભયકુમારનો સંદેશો કહીને તેણે આદ્રક કુમારને તે ભેટ આપી. આર્દકકુમારે તે ભેટ એકાન્તમાં જોઈ તે તેને જાતિસ્મરણ જ્ઞાન ઉત્પન થયું. અને તેથી ધર્મમાં પ્રતિબુદ્ધ થ. અ બેંક કુમારને હવે સંયમ ધારણ કરવાની પ્રબળ ઈચ્છા થઈ ગઈ તે જોઈને તેના પિતા વિચાર કરવા લાગ્યા કે-આ કયાંક ભાગી જશે, તે Wઈ ભાગી ન જાય એટલા માટે રાજાએ તેની દેખરેખ માટે પાંચ દ્ધાઓની નીમણુક કરી. અર્થાત તેના રક્ષણ માટે પાંચસો દ્ધા રાખ્યા તે પણ આદ્રકુમાર અશ્વ શાળામાં જઈને અને ત્યાંથી એક ઉત્તમ ઘેડ લઈને નાશી ગયા. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ सत्रभृतास्त्र वान् ततः प्रव्रज्यां गृह्णन् देवेन निपिद्धः, भो भो मित्र ! सम्पति-भोगावलीकर्म तवावशिष्ट विद्यतेऽनो दीक्षा मा गृहाण, तथापि-परमवैराग्यसम्पन्नः प्रवनितो वसन्तपुरे रम्यक याने भिक्षुपतिमा प्रतिपन्नः यन कायोत्सर्गे स्थितः । प्रतिमास्थित माकमुनिं दृष्ट्वा ततः सवयस्काभिः सहचरीभिः क्रीडन्या अंष्ठिदारिकया काम मञ्जर्या अयं यम भर्ती इन्युक्ते सति सन्निहित देवेन साद्वादशकोटिमिता सुवर्ण दृष्टिः कृता । राजा तत्सुवर्ण गृह्णन देवेन निपिद्धः, इद सुवर्णमस्या एव वालि. कायाः, तत स्तपित्रा गृहीतं सुवर्णम् अनुकृ कोपसर्ग ज्ञात्वा आईकमुनिरन्यत्र गतः। इतः पुत्रोवरणार्थ राज्ञा समाहूता कुमाराः स्वयम्बरे समायान्ति' पुत्र्या कथित ___ जप दीक्षा ग्रहण करने लगा तो देवताने उसे रोका और कहा-हे मित्र ! तुम्हारा भोगावती कर्म अभी तक शेष है, इस कारण दीक्षा मत अंगीकार करो। परन्तु वैराग्य की उत्कृष्टता के कारण उसने दीक्षा ले ली। ___ एक वार आद्रक मुनि वसन्तपुर नगर के रम्यक उद्यान में भिक्षु की प्रतिमा अगीकार करके कायोत्सर्ग में स्थित था। प्रतिमा स्थित मुनि को देख कर अपनी समवयस्क सहेलियों के साथ क्रीड़ा करती हुई सेठ की लड़की काममंजरी ने कहा-'यह मेरा पति है।' इस प्रकार कहते ही देवने साढे बारह करोड़ सोनैया की वर्षा की। उस स्वर्ण को राजा ग्रहण करने लगा। देवने उसे रोक कर कहा-यह स्वर्ण इस बालिका का ही है। तय बालिका के पिता ने वह स्वर्ण ले लिया। अनुकूल उपसर्ग समझ कर आद्रक मुनि वहां से अन्यत्र चले गए। જયારે તે દીક્ષા ધારણ કરવા લાગ્યા ત્યારે દેવોએ તેને દીક્ષા ન લેવા સૂચન કર્યું અર્થાત્ રોકવા પ્રયત્ન કર્યો અને કહ્યું કે-હે મિત્ર! તમારે "ભેગવવાનું કર્મ હજી બાકી છે, તેથી તમે દીક્ષા ન લે, પરંતુ વૈરાગ્યના * ઉત્કૃષ્ટપટ્ટાને લીધે તેણે દીક્ષા લઈ લીધી " એકવાર આદ્રકમુનિ વસતપુર નગરના રમ્યક ઉદ્યાનમાં ભિક્ષુની પ્રતિ' માને સ્વીકાર કરીને કાર્યોત્સર્ગમાં સ્થિત હતા. પ્રતિમામાં રિત રહેલા. | મુનિને જોઈને પિનાની સરખી ઉમ્મરવાળી સાહેલીની સાથે કીડા કરી |રહેલી શેઠની પુત્રી કામમંજરીએ કહ્યું કે–આ તે મારો પતિ છે, આ પ્રમાણે કહેતાં જ દેવે સાડાબાર કોડ સોના મહેરાનો વષદ વરસાવ્યું. તે સોનાને રાજા લેવા લાગ્યા, તેથી દેવે રાજાને રોકીને કહ્યું કે-આ સોનું આ બાલિ' કાનું જ છે. ત્યારે તે બાલિકાના પિતાએ તે સોનું લઈ લીધું. અનુકૂળ ઉપસર્ગ સમજીને આદ્રકમુનિ ત્યાથી બીજે ચાલ્યા ગયા. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रककुमारचरितम् हे तात! एते कुमाराः स्वस्वस्थानं यान्तु अहं तु आई काय दत्ता यत्सम्बन्धिधनं त्वया गृहीतम्, पित्रोक्तं तत्त्वं कथं जानासि, तयोक्तं ज्ञानदर्शनाजानामि । ततो राजा , पुच्या दानशाला पारब्धा, दानशालायां स्थिता सती भिक्षार्थिभ्योऽन्नदानं ददाति। ततो द्वादशवर्षेषु व्यतीतेपु सत्सु कदाचिद्भवितव्यवशादसौ आद्रकमुनि स्तत्रैव विह. रन् गतः पादचिह्नदर्शनादुपलक्षितच तया, ततः सा बाला सपरिवारा तत्पृष्ठे गता, आद्रककुमारोऽपि देवतावचनं स्मरन् तादृशकौंदयात् मतिभग्नवतः सन् तया साध भोगं भुञ्जानो विहरति एकः पुत्रोऽपि जाता, आर्द्रकेण कथितं तव पुत्रोऽभूग्नि इधर उस लड़की को वरण (स्वीकार) करने के लिए अनेक कुमार आने लगे। लड़की ने कहा-पिताजी। यह वर अपने अपने स्थान पर चले जाएं। मैं तो आईक को दी जा चुकी हूं, जिसका धन आपने ग्रहण किया है। पिता-तुझे यह कैसे पता चला ? लड़की-ज्ञान दर्शन के घल से। तत्पश्चात् सेठ की लड़की ने दानशाला प्रारंभ की। वह दानशाला में रह कर भिक्षुकों को दान दिया करती थी। घारह वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद होनहार के अनुसार आद्रक मुनि विचरते-विचरते वहीं आ पहुंचे। उनके चरणों के चिह्न देख कर लड़की ने उन्हें पहचान लिया। वह अपने परिवार के साथ उनके पीछे पीछे गई। आपकुमार भी देवता के वचन का स्मरण करता हुआ कर्मोदय के वशीभूत होकर तथा व्रतों को भंग करके उसके साथ भोग भोगने लगा। समय बीतने पर एक આ તરફ તે કન્યાને વરવા માટે અનેક કુમારો આવવા લાગ્યા. કન્યાએ यु-पिता ! माया पात पाताने स्थान यादया तय. हुता આદ્રક કુમારને વરી ચૂકી છું. કે જેનુ ધન આપે સ્વીકારેલ છે. અર્થાત ગ્રહણ કર્યું છે, શેઠે કહ્યું–તને તે કેવી રીતે માલુમ પડ્યું ? ४न्या-शन शनना थी. તે પછી શેઠની તે કન્યાએ દાનશાળા ખોલી, તે દાનશાળામાં રહીને ભિક્ષકોને દાન આપ્યા કરતી હતી. બાર વર્ષ વીત્યા પછી હોનહાર (થવા કાળના બળથી) પ્રમાણે આદ્રક મુનિ વિચરતા વિચરતા ત્યાંજ આવી પહોંચ્યા. તેના ચરણેના ચિન્હને જોઈને તે કન્યાએ તેને ઓળખી લીધા, તે પોતાના કુટુંબની સાથે તેઓની પાછળ પાછળ ગઈ, આદ્રકકુમાર પણ દેવે ના વચનને સ્મરણ કરતા કરતા કર્મોદયને વશ થઈને તથા વ્રતને ભંગ કરીને તેની સાથે ભેગ ભેગવવા લાગ્યા. અને તેનાથી તેમને એક Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० सूत्रकृताङ्गसूत्रे afear, ar स्वकार्य संयमरूपमाचरामि तया सुतज्ञापनार्थ सूत्रकर्तनमारब्धं पृष्टं च पुत्रेण हे मातः ! किमिदमारब्धं स्वया तयोक्तं हे पुत्र ! तत्र पिता - ज्यां ग्रहीष्यति त्वं च शिशुः द्रव्यार्जनेऽयमर्थः कोऽस्माकं रक्षकः स्यात् । ततोsaमनया वृत्त्या जीवनमिच्छामीति, हे मातः ! अहं तातं बध्नामिका यास्यतीति । ततस्तेन वालेन तत्कालोपनबुद्धया तत्कर्त्तितसूत्रेण मञ्चोपरि सुप्तः पिता वेष्टितः, पित्रा चिन्तितं यावन्तोऽमी वेष्टनसूत्रतन्तव स्वावद्वर्षाणि मयाऽत्र गृहस्थावस्थायां स्थातव्यं भवेत् । तन्तवश्च द्वादश, ततोऽसौ द्वादशवर्षाणि गृहे स्थितः ततः प्रवजितः सूत्रार्थनिपुण एकाकी विहरन् राजगृह प्रति प्रस्थितः । तदन्तराले तद्रक्षणार्थं पुत्र भी उत्पन्न हो गया । तथ आर्द्रक ने कहा तुम्हारा निर्वाह करने वाला यह पुत्र हो गया है, अब मैं अपना कार्य संयमपालन करूंगा। तय काममंजरी ने अपने लड़के को जताने के लिए सूत कांतना आरंभ किया । यह देखकर लड़के ने कहा- माता, तृने यह क्या शरु कर दिया है ? माता- तुम्हारे पिता दीक्षा अंगीकार करेंगे और तुम अभी बच्चे हो, द्रव्य उपार्जन नहीं कर सकते। मेरा रक्षक कौन है ? सूत कांत कर ही मैं अपनी आजीविका चलाऊंगी। लड़का - माता, मैं पिताजी को बांध कर रक्खूंगा । आखिर जाएंगे कहाँ ? तपश्चात् उस बालक को उसी समय एक युक्ति (झ) पैदा हुई । उसने माता का कांता सूत लेकर मांचे पर सोपे पिता को लपेट दिया । पिता ने विचार किया - जितने लपेटे यह लगाएगा उतने वर्षों तक मैं घर में रहूंगा। પુત્ર પણ થયેા. તે પછી આદુંકે કહ્યુ કે–તમારા નિર્વાહ કરવાવાળા આ પુત્ર થઇ ગયા છે, હવે હું મારૂ સંયમ પાલનનું કાર્ય કરૂ. ત્યારે કામમજરીએ પેાતાના પુત્રને સમજાવવા માટે સૂતર કાંતવાને આરંભ કર્યાં. તે દેખીને તેના પુત્રે કહ્યું કે-હે મા ! તેં આ શુ શરૂ કરેલ છે ? માતા—તમારા પિતા દીક્ષાનેા અંગીકાર કરશે, અને તું હજી નાના છું, તેથી ધન કમાઈ શકીશ નહી તે! મારૂ પેષણુ અને રક્ષણ કેણુ કરશે ? તેથી સૂતર કાંતીને જ મારી આજીવિકા ચલાવીશ. છે!કરો—હું મા. હું મારા પિતાને આંધીને અત્રે જ રાખીશ. તે પછી વિચાર કરતાં તે ખાલકને તે સમયે જ એક યુક્તિ (સમજ) સુજી આવી તેણે માતએ કાંતેલ સૂનર લઇને ખાટલા પર સૂતેલા પિતાને વીંટાળી દીધું'. તેના પિતાએ વિચાર કર્યાં કે-આ છેકરા જેટલા આંટા વીંટાળશે. એટલા વર્ષોં સુધી હું ઘેર રહીશ. r Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रककुमारचरितम् - ५६१ यानि पूर्व तत्पित्रा पञ्चसुस्टशतांनि नियुक्तानि तानि कुमारे पलायिते सति राजभयात् ततो निर्गस्य तत्राटव्यां चौरमा जीवन्ति, तैराकमुनि दृष्टः उपलक्षितच, तेन मुनिना पृष्टास्ते किमिदम् अनार्य कर्म आरब्धं युष्माभिः, तैश्च राजभयादिकं कथितम् आई कसुनिवचनात् प्रवुद्धा स्ते प्रत्रजिताः । तथा राजगहनगरप्रवेशे हस्तितापरब्रह्मणश्च वादे पराजिताः, आर्द्रकमुनेर्मा, कश्चिद् राजा कृतसैन्यनिवेशो विद्यते तस्य राज्ञो इस्ती आलानबद्धोऽस्ति, मुनिदर्शनेन लड़के ने मगरह लपेटे लगाए, अनएव वह बारह वर्षों तक फिर घर में रहा । फिर दीक्षित हो गया। सूत्र और अर्थ में निपुण होकर वह एका विचरण करता हुआ राजगृह नगर की और चला। आईक के पिताने पहले जिन पांच सौ पुरुषों को उसकी रखवाली के लिए नियुक्त किया था, आक के भाग जाने पर राजा के अय के कारण वे भी भाग गए थे और जंगल में चौर्यवृत्ति करके अपना निर्वाह कर रहे थे। उन लोगों की आड़क पर नजर पड़ गई। उन्होंने उसे पहचान लिया। वे जय उसे पकड़ने लगे तो मुनि ने पूछ। अरे, यह क्या अनार्य कर्म कर रहे हो ? तब उन्होंने राजभय आदि का सघ वृत्तान्त काह सुनाया। परन्तु आर्द्रक के वचनों से उनको भी वैराग्य उत्पन्न हुआ और दीक्षित हो गए। राजगृह नगर में प्रवेश करते समय हस्तितापसों तथा ब्राह्मणों को बाद में पराजित किया। છોકરાએ બાર આંટા વીંટથી તેઓ ત્યાર પછી બાર વર્ષ સુધી ઘેર રહ્યા. તે પછી દીક્ષા ધારણ કરી લીધી. સૂત્ર અને તેના અર્થમાં કુશળ થઈને તેઓ એકલા જ વિહાર કરતા કરતાં રાજગૃહ નગર તરફ ગયા. આકકુમારના પિતાએ પહેલાં જે પાંચસે પુરૂષને તેમની રક્ષા કરવા માટે નીમેલા હતા તેઓ આદ્રકકુમારના નાશી જવાના કારણે રાજાના ડરથી ભાગી છૂટયા હતા અને જંગલમાં રહી ચુર્યવૃત્તિ કરીને પિતાના નિર્વાહ કરતા હતા તે લેકની આદ્રક મુનિ પર નજર પડી. તેઓએ તેમને ઓળખી લીધા. તેઓ જ્યારે તેમને પકડવા લાગ્યા તે આદ્રક મુનિએ પૂછ્યું કે અરે ! આ અનાર્ય કર્મ શા માટે કરે છે? ત્યારે તેઓએ રાજભય વિગેરે સઘળું વૃત્તાંત તેમને કહી સંભળાવ્યું. તે પછી આદ્રકના વચનાથી તેઓને પણ વૈરાગ્ય ઉપન થઈ આવ્યું. અને તેઓ બધા જ દીક્ષિત થઈ ગયા રાજગૃહ નગરમાં પ્રવેશ કરતી વખતે હસ્તિતાપસ અને બ્રાહ્મણેને વાદ વિવાદમાં હરાવ્યા, सु० ७१ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताचे स बन्धनविमुक्तो जातः, नृपेणोक्तं हे आई काने ! कथं तव दर्शनेन हस्ती बन्धनमुक्तो जातः, मुनिराह 'ण दुक्रवण वारणपासमोयणं गयस्स मत्तस्य वर्णमि रायं । ' जहा हु तत्थाय लिएण करमुणा सुदुवखणं मे परिहाइ बोयण ॥१॥ छाया-न दुष्करं वारणपाशमोचनं गजस्य मत्तस्य बने च राजन् । यथा तु तत्रापलिकेन तन्तुना मुदुष्कर में प्रतिमाति बोचनम् ॥ हे राजन् ! द्रव्यवन्धनबद्धस्य गजस्य बन्यामोचनं न दुष्करम् किन्तु कर्मावलितन्तुबद्धस्य मम वन्धनमोचनं सुदुष्कर मे मलिभाति तत्र यदा कर्मबन्धनं मम त्रुटितं तदा इस्तिनो बन्धन त्रुटितं तत्र किमाश्चर्यमिति भावः। ॥ इति आर्द्रककुमार कथा । रास्ते में एक राजा ने सेना सहित पड़ाव डाल रक्खा था। उस राजा का हाथी खंभे से बंधा हुआ था। मुनि को देख कर वह बन्धन से मुक्त हो गया। तब राजा ने पूछा-हे आर्द्रक मुनि ! तुम्हें देखते ही यह हाथी बन्धन से कसे छूट गया ? बुनिने उत्तर दिया-'न दुक्खरं वारणपासमायण' इत्यादि । भौतिक बन्धन से बद्ध हाथी का बन्धन टूट जाला क्या बड़ी बात है ? कर्मावली के तन्तुओं से बंधे हुए मेरे बन्धनों का टूटना ही मुझे तो कठिन प्रतीत होता है। किन्तु जब मेरे बन्धन छिन्न भिन्न हो गए तो हाथी का बन्धन छिन्नभिन्न हो जाय, यह कौन से आश्चर्य की बात है ? आईककुमार की कथा समाप्त રસ્તામાં એક રાજાએ સેના સહિત પડાવ નાખેલ હતું. તે રાજાને હાથી થાંભલા સાથે બાંધેલ હતે. મુનીને જોઈને તે બંધનથી છૂટિ ગયે. ત્યારે તે રાજાએ તેમને પૂછયું કે-હે આદ્રક મુનિ ! તમને દેખતાં જ આ હાથી બંધનથી કેવી રીતે છૂટિ ગયો ? મુનીએ તેઓને ઉત્તર આપતાં કહ્યું है-'न दुक्नणं वारणपासमोयण' त्याल ભૌતિક બંધનથી બંધાયેલા હાથીનું ધન તૂટી જવુ તેમાં શું મોટી વાત છે? કર્માવલીના તાંતણાઓથી બાંધેલા આ મારા બ ધને તૂટવા એજ મને તે કઠણ જણાય છે. પરંતુ જ્યારે મારા બંધને છિન્ન ભિન્ન થઈ ગયા. તે પછી આ હાથીના બંધને છિન્નભિન્ન થઈ જાય તેમાં આશ્ચર્ય જેવું શું છે? આર્દકકુમારની કથા સમાપ્ત Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समथार्थवोधिनी का द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगौशालकस्य संवादनि० - ५६३ पञ्चशतपरिवारपरिवृत आर्द्रकमुनि र्गहावीरवन्दनाथ प्रस्थितः तत्र मार्गे द्वादश शनिरिव मार्गे मिलितो गोशालका, तेन गोशाककेन साई तस्य यया विवादो जात स्तथा पष्ठाध्यरने दर्शयति-तत्राह____गतं पञ्चमगध्ययनं सम्पति-षष्ठमध्ययनमारमते तदनेन सह अयमभिसम्बन्धः-पञ्चमाऽध्ययने यदुक्तं पुम्पोचमेनाऽनाचारधागो विधेयस्तथा-आचारपरिपालले कर्तराशनेः प्रश्नोत्तर प्रतिपादयिष्यते । अनेन सम्बन्धेनायातस्य षष्ठाध्ययनस्येदं प्रथमगाथासुत्रमाहमूलम्-पुराकडं अह ! इमं सुणेह, मेगंतयारी सोमणे पुराऽऽसी। 'ले निदेखुणो उवणेत्ता अणेगे, . आइक्खई इंहि पुंढो वित्थरेणं ॥१॥ पांच सौ शिष्यों से परिवृत्त आद्रक नुनि भगवान महावीर को बन्दना करने के लिए रवाना हुए। मार्ग में बारहवें शनि के समान गोशालक मिल गया। उसके साथ उनका जो विवाद हुआ, उसका वर्णन छठे अध्ययन में किया गया है। पांचवा अध्ययन समाप्त हुआ। अब छठा आरंभ करते हैं। पांचवे के साथ हलका संबंध इल प्रकार है-पांचवें अध्ययन में कहा गया है कि उत्तर पुरुष को अनाचार का त्याग करना चाहिए और आचार का पालन करना चाहिए। इस अध्ययन में अनाचार के त्यागी और आचार के पालक आईक मुनि के प्रश्नोत्तर कहे जाएंगे। इस सम्बन्ध से प्राप्त छठे अध्ययन का यह प्रथम स्चून है-'पुरा कडं अद्द ! इमं सुणेह०' इत्यादि। તે પછી પાંચસે શિષ્યાથી ઘેરાઈને તે આદ્રક મુનિ ભગવાન મહાવીર સ્વામીને વદન કરવા માટે રવાના થયા. માર્ગમાં બારમા શનિની માફક ગોશાલક મળી ગયા. તેમની સાથે તેઓને જે વિવાદ થયે. તેના વર્ણન આ છઠ્ઠા અધ્યયનમાં કરવામાં આવેલ છે. પાંચમું અધ્યયન સમાપ્ત કરીને હવે આ છઠ્ઠા અધ્યયનને પ્રારંભ કરવામાં આવે છે. પાંચમાં અધ્યયનની સાથે આ અધ્યયનને સંબંધ આ પ્રમાણે છે.-પાંચમાં અધ્યયનમાં કહેલ છે કે-ઉત્તમ પુરૂષે અનાચારને ત્યાગ કરવો જોઈએ. અને આચારનું પાલન કરવું જોઈએ. આ અધ્યયનમાં અનાચારનો ત્યાગ કરવાવાળા, અને આચારનું પાલન કરનારા એવા આદ્રકમુનિના અને ગોશાલકના પ્રશ્નોત્તરો કહેવામાં આવશે. આ સંબંધથી પ્રાપ્ત થયેલ આ ७ मध्ययननु ५९ सूत्र 'पुराकड अद्द इमं सुणेह०' त्यहिछे, Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे छाया - पुराकृतम् आर्द्र ! इदं शृणुत, एकः तचारी श्रमणः पुराऽऽसीत् । भिक्षु पनीयाने कान आख्यातीदानों पृथविस्तरेण ॥ १ ॥ अन्वयार्थः -- भगवन्महावीरसमीपे गच्छन्तमार्द्रककुमार प्रति गोशालकः आ - (अ) हे आर्द्रक ! (पुराकडं) महावीरेण यत् पूरा-पूर्वकाले कृतम् (मं सुणे) इदं शृणुत यूयम् (समणे) श्रमणो महावीरः (पुरा) पुरा पूर्वकाले ( एगंतयारी आसी) एकान्तचारी - एकाकी विहरणशील आसीत् किन्तु - 'इहि से' इदानीं स महावीरः (अगे भिक्खुणो उवणेत्ता) अनेकान् भिक्षून् शिष्यान् उपनीय (पुढो) पृथक् पृथक् (वित्यरे) विस्तरेण - सविस्तरं यथा स्यात् तथा (आइक्खड़ ) आख्याति देशनां ददातीति ॥ १ ॥ शब्दार्थ - भगवान् के समीप जाते हुए आर्द्रक कुम्हार को गोशालकने कहा-'अद्द !-आर्द्र'क' हे आई । 'पुराकडं - पुराकृतम्' महावीरने पहले जो आचरण किया 'हर्म सुणेह - इदं श्रुणुत' 'उसे तुम सुनो 'समणेश्रमण:' श्रमण भगवान् महावीर स्वामी 'पुरा-पुरा' पूर्वकाल में 'एतघारी आसी - एकान्तचारी आसीत्' एकाकी - अकेले ही विचरण किया करते थे, किन्तु 'इहि से- इदानीं सः' अब वह महावीर 'अणेगे भिक्खुणवत्ता - अनेकान् भिक्षुन उपनीय' अनेक भिक्षु शिष्यों को इकट्ठा करके ' पुढो - पृथक् पृथक् पृथकू 'वित्थरेण - विस्तरेण' विस्तार पूर्वक 'आइक्ख-आख्याति' 'उपदेश दिया करते हैं || जा० १|| अन्वयार्थ - भगवान् के समीप जाते हुए आर्द्र क कुमार को गोशालक ने कहा- हे आर्द्रक ! महाबीर ने पहले जो आचरण किया, उसे सुनो । भ्रमण महावीर पूर्वकाल में एकाकी विचरण किया करते थे શબ્દા —ભગવાનની પાસે જતા એવા આદ્રક મુનિને ગેશાલકે કહ્યુ’'अद्द ! - आर्द्र ।' डे भाई': 'पुराकडे - पुराकृतम्' महावीर स्वाभीमे पडेल ? मायप४रेस छे, 'इम' सुणेह-इम' श्रुणुत' ते तमे सांलणे, 'समणे - श्रमणः ' श्रभ महावीर 'पुरा-पुरा' पूर्व अणमा 'एगंतयारी आसी - एतान्तचारी आसीत् ' मेहाड़ी विहार रता ता. परतु 'इण्डि से - इदानीं सः' हवे ते महावीरस्वाभी 'अणेगे भिक्खुणो उवणेत्ता - अनेकान् भिक्षुन् उपनीय' मते लिक्षु शिष्याने ठारीने 'पुढो - पृथकू' हा भूहा ' वित्थरेण - विरतरेण' विस्तार पूर्व 'आइकखइ - आख्याति' उपदेश माये ॥१॥ અન્વયા — ભગવાન્ સમીપેજતા એવા આદ્રક કુમારને ગેશા ક કહ્યું−ુ અ ક ! મહાવીર સ્વામીએ પહેલાં જે આચરણ કર્યું તે તમે સાભળે, શ્રમણુ મહાવીર પહેલાં એકાકી-એકલા વિચરણ કરતા હતા પર ંતુ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतामसूत्र धम्म पन्नति, तं सदहमाणा तं पत्तियमाणा तं रोएमाणा साहु सुयक्खाए समणेइ वा माहणेइ वा कामं खल्लु आउसो! तुमं पूययामि, तं जहा-असणेण वा पाणेण वा खाइमेण वा साइ. मेण वा वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुंछणेण वा तत्थेगे पूयणाए समाउटिंसु तत्थेगे पूयणाए निकाइंसु । पुव्वमेव तेसिं णायं भवइ-समणा भविस्सामो अणगारा अकिंचणा अपुत्ता अपसू परदत्तभोइणो भिक्खुणो पावं कम्यं णो करिस्सामो समुटाए तं अप्पणा अप्पडिविरया भवंति, सयमाइयंति अन्ने वि आदियाति अन्ने पि आययंतं समणुजाणंति, एवमेव ते इस्थिकामभोगेहि मुच्छिया गिद्धा गढिया अज्झोववन्ना लुद्धा रागदोसवसट्टा, ते णो अप्पाणं समुच्छेदेति ते णो परं समुच्छेदॆति ते णो अण्णाई पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई समुच्छेदति, पहीणा पुवसंजोगं आयरियं मागं असंपत्ता इइ ते णो हवाए णो पाराए अंतरा कामभोगेसु विसन्ना इइ पढमे पुरिसजाए तज्जीवतच्छरीरएत्ति आहिए ॥सू०९॥ छाया-इह खलु माच्यां वा पतीच्यां वा उदीच्यां वा दक्षिणस्यां वा सन्त्येके मनुष्या भवन्ति, आनुपूर्या लोकमुपपन्नाः, तद्यथा आर्या एके, अनार्या एके, उच्चगोत्रा एके, नीचगोत्रा एके, कायवन्त एके, इस्ववन्त एके, सुवर्णा एके, दुर्वर्णा एके, सुरूपा चा एके, दूरूपा वा एके । तेपां च मनुजानामेको राजा भवति महा. हिमवन्मलयमन्दरमहेन्द्रसारः, अत्यन्तविशुद्धराजकुळवंशमसूतः, निरन्तरराजलक्षण विराजिताङ्गोपाङ्गः, बहुजन बहुमानपूजितः, सर्वगुणसमृद्धः क्षत्रियः, मुदितः, मूर्धाभिपिक्ता, मातापितृसुजातः, दयाप्रियः सीमाकरः, सीमाधरः, क्षेमङ्करः क्षेमन्धरः, मनुष्येन्द्रः, जनपदपिता, जनपदपुरोहितः, सेतुकरः, केतुकरः, नरप्रारः, पुरुषप्रवरः, पुरुपसिंहा, पुरुषाशीविपः, पुरुषवरपुण्डरीकः पुरुषवरगन्धहस्ती, आढयः, दीप्ता, Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. अ. ६ आर्द्रकमुने गौशालकस्य संवादनि० ५६५ टीका -- अस्ति स्म मगधदेशे वसन्तपुरे राजकुमार आर्द्रकः । स च भगवतो महावीरतीर्थकरस्य देशनां श्रोतुकामो गतवान् । गच्छाच तस्य मार्गे गोशालकोमिलितः पृष्टावांश्च कुत्र गच्छसि ? आई क आह-देशनां श्रोतुं तीर्थंकरस्य । गोशाल केन विहस्योक्तम् - न तस्य देशना श्रोतुं योग्या । यतो हि स महावीरः पुरैकान्वचारी, इदानीन्तु वहून उश्नीय शिष्यान् अतिसङ्कुले सदसि देशनां ददाति । अतस्तस्य विपरीता मतिर्जाता, नेदानी मे कान्तचारी - न वान्तमन्तभोजनाशी रित्यादिविषयप्रतिपादनार्थमुत्तरप्रत्युत्तररूपेण अर्थप्रतिपादनाय सूत्रकारः सूत्रं प्रस्तौति । (अर्थ) दे किन्तु अब वह अनेक भिक्षु शिष्यों को इकट्ठा करके पृथक पृथक विस्तार पूर्वक उपदेश दिया करते हैं ॥१॥ टीकार्थ- सगध देश में वसन्तपुर नगर में आर्द्रक राजकुमार था । वह तीर्थंकर भगवान् महावीर की धर्मदेशना श्रवण करने को चला। मार्ग में उसे गोशालक मिला। उसने पूछा- कहां जा रहे हो ? आर्द्रक ने उत्तर दिया तीर्थंकर की देशना सुनने के लिए जा रहा हूं। तब गोशालक ने मुस्करा कर कहा- उनकी देशना सुनने योग्य नहीं है । क्योंकि महावीर पहले एकाकी विचरण करते थे, किन्तु अब बहुसंख्यक शिष्यों को एकत्र करके खचाखच भरी हुई सभा में उपदेश करते हैं । उनकी तो मति उलटी हो गई है। वह अब न एकान्तविहारी हैं और न अन्तमान्न आहारी हैं, इत्यादि विषय का प्रतिपादन करने के लिए उत्तर प्रत्युत्तर रूप में आगे के सूत्र हैं । प्रकृत सूत्र का अर्थ इस હવે તેઓ અનેક ભિક્ષુ શિષ્યાને એકઠા કરીને અલગ અલગ વિસ્તારપૂર્વક उपदेश आये है. ॥१॥ ટીકા - મગધ દેશમાં વસતપુર નગરમાં આન્દ્રેક રાજકુમાર હતા તે તીથકર ભગવાન્ મહાવીર સ્વામીની પાંસે ધમ દેશના સાંભળવા માટે ચાલ્યા, મામાં તેને ગેશાલક મળ્યા. તેણે તેને પૂછ્યું છે કે-તમેા ત્યાં જાઓ છે ? આદ્રકે ઉત્તર આપ્યા કે-તીથકર ભગવાનની દેશના સાંભળવા માટે હું જાઉં છુ. ત્યારે ગોશાલકે હસીને કહ્યુ કે–તેઓની દેશના સાંભળવા લાયક નથી કેમકે મહ વીર સ્વામી પહેલાં એકાકી વિચરજી કરતા હતા પરંતુ હવે અનેક સખ્યામાં શિષ્યાને એકઠા કરીને ખીચાખીચ ભરેલી સભામાં ઉપદેશ આપે છે. તેએની બુદ્ધિ વિપરીત થયેલી છે. તેએ હવે એકાન્ત વિહારી રહ્યા નથી. તથા અન્તઃ પ્રાન્ત અાહાર કરવા વાળા પણ રહ્યા નથી વિગેરે વિષયનું સમર્થન કરવા માટે ઉત્તર અને પ્રત્યુત્તરના રૂપે આગના સૂત્રો કહ્યા છે. આ ચાલુ સૂત્રને અથ આ પ્રમાણે છે.-હે આદ્રક ! મહાવીરે પહેલાં જે કરેલ છે, તે Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ सूत्रकृतास्त्रे आदक ! 'पुराकडं इमं सुणेह' महावीरेण पूर्व यकृतं तदिद शृणु । श्रुत्वा च विचारय, तदनन्तरं ते ईहाचेन् तदन्तिक गन्तव्यम् । 'समणे' श्रमणो भगवान् महावीर: 'पुरा एगंतयारी आसी' पुरा-पूर्वम् एकानाचारी आसीद-एकाकी विहरणशीलोऽभवत् वया तपस्सी च । 'इण्डि से' इदानी सः 'अणेगे' अनेकान् 'भिक्खुणो उवणेता गिक्षुन उपनीय अनेतान् शिवपान् समीपे स्थापयित्वा 'पुढो पृथक् पृथक् 'पित्यरेणं आइकावई' विस्तरेण आख्याति-य: एकान्त वाममकरोत् स इदानीं जनाकुले सन् देशनां ददाति । इति पूर्वोक्तविरुद्धमाचरतीति कथं स उपगन्तव्य इति ॥१॥ मूलम्--सा आजीविया पटवियाऽथिरेणं, सभागओ गणओ सिक्खुमज्झे । आइक्खमाणे बहुजन्नमत्थं, ने संधैयाई अवरण पुंवं ॥२॥ छाया-साऽऽजीविका प्रस्थापिताऽस्थिरेण समागतो गणशोभिक्षुमध्ये । ___ आचक्षाणो बहुजन्यमर्थ न सन्दधात्यपरेण पूर्वम् ।।२। प्रकार है-हे आईक ! महावीर ने पहले जो किया, उसे सुनो, समझो और फिर भी इच्छा हो तो उनके समीप जाओ। श्रमण भगवान महावीर पहले अकेले ही विचरण किया करते थे और तपस्वी थे। किन्तु आज कल वह अनेक शिष्यों को अपने पास रखते हैं और उन्हें पृथक पृथक विस्तार से उपदेश देते है। उनका यह भावार प्रात्ताविरुद्ध परस्पर विरोधी है। ऐसी स्थिति में उनके पास जाने से क्या ला ॥१॥ • 'सा आजीविया पट्टविधा' त्यादि । शब्दार्थ-'अस्थिरेण-अस्थिरेण' अस्थिरचित्त महावीरने 'सा आजी. विधा-सा आजीविका यह आजीविता 'पद्वविध-प्रस्थापिता' जीवनતમે સાંભળો, સમઝે અને તે પછી પણ તમારી ઈચ્છા હોય તે તેઓની પાસે જો શ્રમણ મહાવીર પહેલાં એકલા જ વિહાર કરતા હતા. અને તપસ્વી હતા. પરંતુ હાલમાં તેઓ અનેક શિષ્યને પોતાની પાસે રાખે છે. અને તેઓને અલગ અલગ વિસ્તાર પૂર્વક ઉપદેશ આપે છે, તેઓને આ આચાર પૂર્વોત્તર વિરૂદ્ધ-પરસ્પર વિરોધી છે. આવી સ્થિતિમાં તેઓની પાસે જવાથી શું લાભ થવાનું છે? ગાળા 'सा आजिपिया पदविया' या शाय-- 'अत्थिरेण-अस्थिरेण' अस्थि२ चित्तवाणी महापी 'सा आजीबिया-सा आजीविका' मा शतनी मावि 'पविया-प्रस्थापिता' मनापी Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आईकमुने!शालकस्य संवादनि० ५६७ ___ अन्वयार्थः- (अत्थिरेण) अस्थिरेण-चञ्चलचित्तेन महावीरेण (सा आजी; विया) सा आजीविका-जीवननिर्वाहः (पट्टविया) प्रस्थापिता कलिता-जीवननिर्वाहाय सर्व दम्भमानं तेन कृतमित्यर्थः, (सागओ गणी भिक्खुमझे) समागत:-समामध्ये उपविष्टो भणशो मिक्षुमध्ये (बहुजन्नमत्थं) बहुजन्यमर्थश्अनेकलोकहितम् उपदेशम् (आइक्खमाणो) आचक्षाणा-ददव (अवरेण पुव्वं न संघयाई) अपरेण-एतत्कालिकेन व्यवहारेण पूर्व-पूर्व कालिको उपवहारो न सन्दधावि-सर्वथा न मिलति-पूर्वापरविरुद्धमेज भवतीति ॥२॥ ___टीका-'अस्थिरेण' अस्थिरेण-चञ्चलेन तेन महावीरेण 'सा भाजीविया निर्वाह के लिए दंभ अंगीकार करलिया है 'समाओ गणनो भिक्खु मज्झे-समागतःणशःभिक्षुमध्ये वह सभामें जाकर साधुओं के बीच 'बहुजन्न मत्थं बहुजन्यमर्थन्' बहुत लोगों के हित के लिए 'आइक्खमाणो -आचक्षाणः' उपदेश देते हैं। 'अधरेण पुन्छन संघघाई-अपरेण पूर्व न सन्दधाति' उनका यह वत्तमान व्यवहार पूर्वकालिक व्यवहार से मेल नहीं खाता, यह परस्पर विरुद्ध आचरण है ॥गा०२॥ अन्धयार्थ-अस्थिरचित्त महावीर ने यह आजीविका घना ली है जीवननिर्वाह के लिए दंभ अंगीकार कर लिया है। यह सभा में जोकर साधुओं के बीच बहुत लोगों के हित के लिए उपदेश देते हैं। उनका यह वर्तमानकालिक व्यवहार पूर्वकालिक व्यवहार से मेल नहीं खाता। यह परस्पर विरुद्ध आचरण है ॥२॥ टीकार्थ-चंचल महावीर ने अपनी आजीविका चलाने के लिए यह सीधी छ. अर्थात् पन निवड भाट मनी स्वी४.२ ४३री दी। छे. 'समागओ गणओ भिक्खुमझे-समागतः गणशः भिक्षुमध्ये' ते समामा ने साधुसानी यम बहुजन्नमत्थं-बहुजन्यमर्थम्' मनाना हित भाटे 'आइक्खमाणो-आचक्षाणः' ५४२ मा छे 'अवरेण पुव्व न संधयाई-अपरेण पूर्व न सन्दधाति' तमना 2. भान या व्यवहारने भूतमा मायरे व्यवहानी સાથે મેળ ખાતો નથી. આ એક બીજાથી વિરૂદ્ધ પ્રકારનું આચરણ છે. ગારા અન્વયાર્થ-અસ્થિર ચિત્તવાળા મહાવીર સ્વામીએ દંભને રવીકાર કરી લીધે છે તેઓ સભામાં જઈને સાધુઓની વચમાં ઘણું લેકેના હિત માટે ઉપદેશ આપે છે. તેમના આ વર્તમાન કાળને વ્યવહાર પહેલાના વ્યવહાર સાથે મળતું આવતું નથી આ આચરણ એકબીજાથી જુદા પડે છે. મારા ટ્રીકાઈ–ચંચલ સ્વભાવના મહાવીરે પિતાની આજીવિકા ચલાવવા માટે Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे पaविया' सा आजीविका प्रस्थापिता-स्वजीवनयात्रा निर्वाहाय उपायः कृतः 'समागओ' समागतः सभामध्ये विद्यमानः । 'गणओ' नगशः - अनेकशः 'मिक्खु मझे' भिक्षुमध्ये अनेकेषां भिक्षूणां मध्ये विद्यमानः 'बहुजन्नगत्थ' बहुजन्यमर्थम् - अने के पाशुपकारदर्शनाय देशनावाचं ददाति । 'अबरेण पुण्यं न संधयाई ' अपरेण पूर्व न सन्दधाति - पूर्वाचारावराचारयोः समन्वयो न भवति । किन्तु - विरोध उपस्थापितः ॥२॥ मूलम् एतमेवं अदुवा वि इहि, दी उ वमन्नं न समेति जम्हा | पुचि च इहि चं अणागमं वा एगंतमेवं पडिसंदधाइ ॥ ३ ॥ छाया - एकान्तमेवमथवाऽपीदानीं द्वावन्योऽन्यं न समितो यस्मात् । पूर्वञ्चदानीञ्चानागतं वा एकान्तमेवं प्रतिमन्दधाति ||३|| उपाय किया है। वह अनेक भिक्षुओं के मध्य में बैठकर बहुत जनों के उपकार के लिए देशना देते हैं । परन्तु उनका यह आचार पहले के आचार से संगत नहीं है ||२|| 'एतमेवं अदुवा वि' इत्यादि । शब्दार्थ- 'एवं - एवम्' इस प्रकार से 'एगतं एकान्तम्' 'महावीर का एकान्त विचरण ही सम्पक आचार हो सकता है 'अदुवा - अथवा' अथवा 'इfiz - इदानी' इस समयका बहुतों के बीच देशना देने का आचार ही म म्यक् हो सकता है 'दो उण्ण मण्ण-द्वावप्यन्योन्यं' परस्पर विरुद्ध दोनों आचार 'जम्दा न सति यस्मात् न समितः' समीचीन नहीं हो सकते । आर्द्रक उत्तर देते हैं - 'पुत्रि - पूर्व' पूर्व काल में 'पिंह - इदानीं ' આ ઉપાય કરેલ છે. તે અનેક ભિક્ષુકેની વચમાં એમીને ઘણા મનુષ્યેાના ઉપ કાર માટે દેશના–ધર્માંપદેશ આપે છે. પરંતુ તેમના આ આચાર--આચરણુ પહેલાના આચારની સાથે સ'ગત થતા નથી. અર્થાત્ 'ધ એસતા નથી. ારા 'एतमेवं अदुवा वि' त्याहि शब्दार्थ’——एव-एवम्' मा रीते 'एगत - एकान्तम्' भडावीर स्वाभीनु' शेअन्त वियर ? मायार यह शडे 'अदुवा - अथवा ' अथवा 'इहि - इदानीं ' આ વર્તમાન સમયના અનેક જનેાની વચમાં રહીને દેશના દેવારૂપ આચાર ४ योग्य यह शडे दोउ वण्णमण्ण-द्वावप्यन्योऽन्य' परस्पर विरुद्ध मेवा मा भन्ने मायार 'जम्हा न समेइ-यस्मात् न समितः सभीथीन योग्य उही राहाय नहीं. गोशाट्सउना या इथननो भाई उत्तर आयतां - 'पुत्रि-पूर्व Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि शु. अ. ६ आर्द्रकमुने गौशालकस्य संवादनि० ५६९ अन्वयार्थः - ( एवं ) एवम् अनेन प्रकारेण (एगंतं) एकान्तमेव - एकान्तचारि त्वादिकं सम्यक् ( अदुवा वि) अथवाऽपि (इव्ह) इदानीमेतत्कालिकं बहुजन समक्ष भाषणादिकमेव सम्यक् (दो उ वण्यमन्नं) द्वावपि अन्योऽन्यम् - परस्परम् (जम्हानसमेति) यस्मात्कारणात् न समितः - सत्री वीनां न गच्छतः, अर्द्रकः कथयति -- (पुवि) पूर्वम् (इ) इदानीं - वर्तमानकाले (अणाययं वा ) अनागतं वा - भविष्य-carosa ( एवमेत्र) एकान्तमेत्र - एक विधत्वमेव (पांडेसंदधाइ) प्रतिसंदधाति - न तु पूर्वापरयोर्विरोधः कथमपि संभवतीति ॥ ३॥ टीका- 'एवं एम् अनेन पण 'गर्व' एकान्तचारित्वम्- तपः संयमशीलत्वं किं युक्त वा 'अदुवा वि' अपि 'इव्ह' इदानीम् अस्मिन्समये इस वर्तमान कालमें और 'अभाग वा-अनागतं वा' भविष्य काल में 'एतमेव - एकान्तमेव' भगवान् तो एकान्त का ही अनुभव करते हैं । अत एव 'पडिसदवाद - प्रतिल दधाति' उनका पहले और वर्त्तमान के आचरण में किसी भी प्रकार का विरोध आता नहीं है | गा०३|| " अन्वयार्थ - या तो महावीर का एकान्त विधारण दी सम्यक् आचार हो सकता है या इस समय का बहुतों के बीच देशना देने का आचार ही सम्यक् हो सकता है । दोनों परस्पर विरुद्ध आचार समीचीननहीं हो सकते । आर्द्रक उत्तर देता है - पूर्वकाल में, वर्तमान काल में और भविष्यकाल में अगवान् तो एकान्त का ही अनुभव करते हैं । अतएव उनके पहले के और अब के आचरण में किसी भी प्रकार का विरोध नहीं है ||३|| भूताभ 'इण्हि - इदानी' मा वर्तमान अणमा भने 'अणामयं वा अनागतं वा ' भविष्यमणभां 'पग'तमेव - एकान्तमेव' भगवान् तो शोभन्तना ? अनुभव ४२. तेथी 'पडिसदधाइ - प्रतिसंदधाति' तेभना पडेलाना अने वर्तमानना આચારમાં ।ઇ પણુ પ્રકારના વિષેધ આવતા નથી. તેમ સમજવુ· ull અન્વયા—મહાવીર સ્વામીનુ' ભૂતકાળનુ' એકાન્ત વિચરણ જ સમ્યક્ હાઇ શકે છે. અથવા આ વર્તમાન કાલીન ઘણાએની સાથે રહીને દેશના આપવા રૂપ આચારણુ જ સમ્યક્ થઈ શકે છે. પરસ્પર વિરૂદ્ધ એવા બન્ને આચાર ચેાગ્ય હાઈ શકે નહી. એલિકના આ કથનને ઉત્તર આપતાં આ મુનિ કહે છે કે-પૂર્ણાંકાળમાં અને ભવિષ્યકાળમાં ભગવાન્ તે એકાન્તના જ અનુભવ કરે છે, તેથી જ તેમના પહેલાના અને હાલના આચરણમાં કે’ પણ પ્રકારના વિરેધ આવતા નથી. તાશા सु० ७२ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे -1 'दो उवण्णमन्न' द्वौ अपि अन्योऽन्यम् ' जम्दा ' यस्मात्कारणात् 'न समेति' न समितः, अनेन प्रकारेण प्राथमिकैकान्तचारित्वव्यवहारः सम्यक् । अथवाएतत्कालिकबहुजनाकुलवास एवं सम्यक् स्यात् । न तु एतद् द्वयमपि समीचीनं सम्भवति । यतो द्वयोरपि परस्परविरोधात् अन्योऽन्ययोः पारस्परिक सम्मेलनं न संभवति । इदानीं जीविकां संपादयति, ५७० तदुक्तम् —'छत्र छात्र- पात्रं वस्त्रं यष्टिं च चर्चयति भिक्षुः । वेपेण परिकरेण च कियताऽपि विना न मिक्षाऽपि ॥ इति|| अयं भावः यथे कान्ववारित्वं श्रेयः पूर्ववित्वात् ततः सर्वदा अन्यनिरपेक्षं देव कर्तव्यम्, अथ चेदं साम्यतं बहुपरिसरावृत्त सामान साधु मन्यसे तवा टीकार्य -- इस प्रकार या तो पहले वाला उनका एकान्नचारित्व धर्म चित हो सकता है अथवा इस समय का आचार सभा में धर्मदेशना नेरूप आचार उचित हो सकता है। ये दोनों आपस में विरोधी यवहार उचित नहीं हो सकते। सत्य तो यह है कि आजकल महावीर भाजीविका साधन कर रहे हैं । कहा है- 'छवं छात्र पात्र वस्त्रं' इत्यादि । 'साधु अपने पास जो छत्र, छात्र (शिष्य) पात्र, वस्त्र और दंड रखता है, सो आजीविका के लिए ही रखता है । क्योंकि वेष और भाडम्पर के विना भिक्षा भी नहीं मिलती ।' तात्पर्य यह है-यदि महावीर का पूर्वकालिक एकान्तचारित्र ही पस्कर था तो दूसरों की परवाह न करते हुए सदैव उसी का पालन करना चाहिए था । और यदि बहुसंख्यक परिवार से युक्त होना ही ટીકાથ~~આ રીતે અગર તા પહેલાં ભૂતકાળમાં તેમણે આચરેલ એકાન્ત સાન્નિરૂપ ધમ ચાગ્ય કહી શકાય, અથવા તા વમાન સમયમાં સભામાં પ્રેમ દેશના આપવા રૂપ આચાર ચગ્ય કહી શકાય. પરસ્પરમાં વિરૂદ્ધ એવા આ બન્ને આચાર ચાગ્ય કહી શકાય નહી. સાચુ' તે એ છે કે—હાલમાં भदावीर विभानु उद्यान पूरी रह्या छे म्छु छे - 'छत्रं, छात्र, मात्र, वस्त्र" इत्यादि સાધુ પેાતાની પાંસે જે छत्र, छात्र (शिष्यो) पात्र, वस्त्र भने हंडे રાખે છે, તે આજીવિકા મેળવવા માટે જ રાખે છે. કેમકે વેષ અને આડાર વિના ભિક્ષા પણ મળતી નથી. કહેવાનું તાત્પય એ છે કે—જો મહાવીર સ્વામીએ ભૂતકાળમાં આચપણ એકાન્ત ચારિત્ર જ કલ્યાણુ કારક હતું. તા પછી ખીજાઓની પરવાહ કર્યાં વિના હુંમેશાં તેવુ જ પાલન કરવુ. ચાગ્ય હતું. અને જો ખડું સંખ્યા Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगोशालकस्य संवादनि० ५५ तदेवाऽऽदावपि आचरणीयमासीत्, अपि च द्वे अप्येते छायाऽऽतपत्रदत्यन्तविरोधिनी वृत्तेनैकत्र समवायं गच्छतः तथा यदि मौनेन धर्मस्ततः किमियं. महता प्रवन्धेन धर्मदेशना, अथाऽनयैव धर्मदेशनया धर्मस्ततः किमिति पूर्व मौनव्रतं दधौ, यस्मादेवं तस्मात् पूर्वोत्तरव्याघात इति भावः । इति गोशालकस्योक्तिः। . . आर्द्र कः कथयनि-पुर्ति' पूर्व-पाकाले 'इण्दि' इदानीञ्च 'अणागयं वा' अनागतं वा-भविष्य कालेऽपि, सर्वदाऽपि स भगवान महावीरस्सामी 'एगंतमेव' एकान्तवारित्वमेव 'पडिसंदधाई' पतिसन्दधाति--एकान्तवासमेवाऽनुभवति । अव. माशय:-यथा भगवान् पूर्वमेकान्तवासमनुभनन्नासीन, तथेदानीमपि एकान्तवास. मेवाऽनुभवति, भविष्यत्कालेऽपि-अनुमविष्यति, अतस्तस्य तीर्थकरस्य चश्चल. साधु का लक्षण है तो पहले से ही इसीका आचरण करना उचित था। ये दोनों आचार धूप और छाया की भांति परस्पर विरुद्ध हैं। दोनों सत्य नहीं हो सकते । परन्तु मौन रहना धर्म है तो विस्तार से धर्मदेशना देने की क्या आवश्यकता है ? यदि यह धर्मदेशना ही धर्म है तो पहले क्यों मौन धारण किया था ? गोशालक के इस प्रकार कहने पर आबकने कहा भगवान महावीर स्वामी भूतकाल में, वर्तमान काल में तथा भविष्यकाल में भी अर्थात् सर्वदा ही एकान्तचारी हैं। वे सदैव एकान्तवाल काही अनुभव करते हैं। तात्पर्य यह है कि भगवान जैसे पूर्वकाल में एकान्तवास का अनुभव करते थे उस्ली प्रकार इस समय भी करते हैं । भविष्यत् काल में भी વાળા પરિવારથી યુક્ત રહેવું સાધુને યે ગ્ય હોય તે પહેલેથી જ તે પ્રમાણે આચરણ કરવું ચોગ્ય કહી શકાત, તડકા અને છાયાની જેમ આ બને વ્યવહાર પરસ્પરમાં વિરોધી છે, તેથી એ બને વ્યવહાર સત્ય હોઈ શકે નહીં. જે મૌન રહેવું તે ધર્મને યેગ્ય હોય તે વિસ્તાર પૂર્વક ધર્મદેશના આપવાની શી જરૂર છે? અને જો આ ધર્મદેશના આપવી તેજ ગ્ય હોય તે પહેલાં મૌન ધારણ શા માટે કર્યું હતું ? ગશાલકના આ પ્રમાણે કહેવાથી આર્દિકે તેમને ઉત્તર આપતાં કહ્યું કે ભગવાન મહાવીર સ્વામી ભૂતકાળમાં, વર્તમાન કાળમાં અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ અર્થાત્ ત્રણે કાળમાં સદા એકાન્તચારી જ છે. તેઓ કાયમ એકાન્ત વાસને જ અનુભવ કરે છે કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે–ભગવાન્ જેમ પૂર્વકાળમાં એકાન્ત વાસને અનુભવ કરતા હતા. એ જ પ્રમાણે આ સમયે પણ એકાન્તવાસનો જ અનુભવ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतास्त्र स्वभावत्वकथनं पूर्वापरव्यवहारयोः पार्थस्यकथनं चाऽज्ञानविजृम्भितमेव । यद्यपि -दानी जनसमूहे धर्ममुपदिशति, तथापि न तस्य विप्रियः प्रियो वा, रागदेषरहितत्वात् पूर्व चतुधिघातिकर्मक्षयार्थं वाक्संयत आसीत् इदानीन्तु-अघातिकर्मना भया धर्मादिशति जनसमूहे, न तु जीविकाथ न वा रागद्वेपादिति ॥३॥ मलम्-समिञ्च लोगं तसथावराणं खेमंकरे समणे माहणे वा। ' आइक्खमाणो वि सहस्समझे एगंतयं साहयइ तहच्चे॥४॥ ... छाया-समेत्य लोक सस्थावराणां क्षेमङ्करः श्रमणो माहनो वा । आचक्षाणोऽपि सहसमध्ये एकान्तकं साधयति तथाः ॥४॥ एकान्तवास का ही अनुभव करेंगे। अतएव भगवान महावीर प्रभु को चं. चलचित्त कहनाअथवा उनके पूर्वकालीन एवं वर्तमानकालीन व्यवहार में असंगति बतलाना नितान्त अज्ञान का फल है। भगवान् यद्यपि इल समय जनसमूह में धर्मदेशना करते हुए विचरते हैं, तथापि उन्हें न कोई प्रिय है, एवं न कोई अप्रिय है। वे सर्वथा वीतराग है पहिले घातिकमों का क्षय करने के लिए वचनसंयम (मौन) रखते थे। इस समय अघातिकर्मों का क्षय करने के लिए धर्म का उपदेश करते हैं। वे न जीविका निर्वाह के लिए धर्मोपदेश करते हैं और न रागद्वेष से प्रेरित होकर ही ॥३॥ 'समिच्च लोग इत्यादि। . शब्दार्थ--'लमणे-श्रणम:' श्रमण और 'मारणे-नाहन: माहन (मा-मत हन-भारो जीवों को ऐसा उपदेश देनेवाले) महाधीश केवलકરે છે. અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ એકાન્તવાસને જ અનુભવ કરશે. તેથી જ ભગવાન મહાવીર સ્વામીને ચંચલ ચિત્તવાળા કહેવું અથવા તેઓના પૂર્વકાળના વ્યવહારમાં અને વર્તમાન વ્યવહારમાં અસંગતપણું બનાવવું તે કેવળ અજ્ઞાનનું જફળ છે. ભગવાન્ જે કે વર્તમાન કાળમાં જનસમુદાયને ધર્મદેશના આપતા થકા વિચરે છે. તે પણ તેઓને કોઈ પ્રિય નથી તેમ કોઈ અપ્રિય પણ નથી. તેઓ સર્વથા વીતરાગ છે. પહેલાં ઘાતિકર્મોને ક્ષય કરવા સાટે વચન સંયમ (મૌન) રાખતા હતા, અને વર્તમાનમાં અઘાતિ કર્મો ક્ષય કરવા માટે ધર્મને ઉપદેશ આપે છે. તેઓ આજીવિકા મેળવવા માટે ધર્મનો ઉપદેશ આપતા નથી, તેમ રાગદ્વેષને વશ થઈને પણ ધર્મદેશના આપતા નથી. પગા, 'ममिच्च लोग' त्यादि शहाथ-'समणे-श्रमणः' श्रम मने 'माहणे-माहनः' भान (भा-न -હન મારે જીવેને ન મારે એ પ્રમાણે ઉપદેશ આપવા વાળા) મહાવીર Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगौशालकस्य संवादनि० ५७३ अन्धयार्थः-(समणे) श्रमण स्तपस्वी (माहणे वा) माहनो वा-माइन जीवानित्येवं प्रवृत्तिर्यस्य तादृशो महावीरः (लोग) लोकम्-चतुर्दशरज्जात्मकम् (समिच्च) समेत्य-केवलज्ञानेन ज्ञात्वा (नसथावराणं) सस्थावरजीवनाम् (खेमंकरे) क्षेमकर:-कल्याणकारकः (सहस्समज्झे) सहस्रमध्ये अनेन देवाऽसुरादिमध्ये (आइक्खमाणे वि) याचक्षाणोऽपि-धर्ममुपदिशन्नपि (एगंतयं साहय३) एकान्तक साधयति-एकान्तवासमेवाऽनुमवति रागद्वेषरहितत्वात् 'तहच्चे' तथाचः-तथैवपूर्ववदेव अर्चा-लेश्या यस्य तादृशः सर्वदा चित्तटते रेकरूपेगैत्र स्थितत्वादिति ॥४॥ ज्ञान के द्वारा 'लोग-लोक' चौदह रज्जुपमाण लोकको 'समिच्च-समेत्य' जानकर 'तसथावराणं-सस्थावराणों' बल एवं स्थावर जीवों के 'खेमं. करे-क्षेमं करः कल्याणकरने वाले है 'सहस्लमज्झे-अहसमध्ये वे सुरों एवं असरों के मध्य में 'आइक्खमाणोवि-आचक्षाणोऽपि' धर्मोपदेश करते हुवे भी 'एगंतयं साहयइ-एकान्तकं साधयति' एकान्तवासका ही अनुभव करते हैं 'तहच्चे-तथा!' उनकी अची लेश्या सदैव एकरूप रहती है ॥४॥ अन्वयार्थ-श्रमण और माहन (मा-मत, हम मारो, जीवों को, ऐसा उपदेश देने वाले) महावीर केवलज्ञान के द्वारा चतुर्दशरज्जुपरिमाण लोक को जान कर उस और स्थावर जीवों के कल्याणका हैं। वे सुरों और असुरों के मध्य में धर्मोपदेश करते भी एकान्त की ही साधना करते है अर्थात् रागद्वेषरक्षित होने से एकान्तवात का ही अनुभव करते हैं। उनकी अर्चा लेश्या सदैव एकरूप रहती है॥४॥ स्वामी विज्ञान २॥ 'लोग-लोकम्' यौह २४ प्रभाव ने 'सपिच्च-समेत्य' तीन 'तपथावराण-त्रसथावराणाम्' अस मने स्था१२ वानु 'खेमं करे-क्षेम'करः' या ४२वावाणी छे. 'सहस्तमज्झे-सहस्रमध्ये' तेसा । मन असुरशुभाशनी क्या 'आइक्खमाणो वि-आचक्षाणोऽपि धमशन 1441 छत पर 'एगंतयं सायइ-एकान्तक वाधयति' अन्त. वासना २५ भनुभव ४२ छे. 'तहच्चे-तथा' तानी अर्या-अश्या मेशा એક રૂપ જ રહે છે ગા૦૪ અન્વયાર્થ-શ્રમણ અને માહન (માને હા-મારે એને ન મારો એ ઉપદેશ આપવાવ ળા) મહાવીર સ્વામી કેવળજ્ઞાન દ્વારા ચૌદ રાજ પ્રમાણ વાળા લોકને જાણીને ત્રસ અને સ્થાવર જીવોના કલ્યાણ કરવાવાળા છે. તેઓ સ અને અસુરની મધ્યમાં ઉપદેશ કરતા હોવા છતાં પણ એકાતની જ સાધના કરે છે. અર્થાત્ રાગદ્વેષ રહિત હોવાથી એકાતવાસનો જ અનુભવ धरे छ. तयानी भयो वश्या सह ४३५०५ २३ छ, ॥४॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतानसून टीका-'समणे नाहणे वा लोगं समिच्च' श्रमणः-कर्मनिर्जराहेतोः तपस्वी माइनो वा तीर्थकरो लोक समेत्य-द्वादशप्रकारकतपःप्रवृत्तो जीवान्मा हन, इति-प्रवृत्तिर्यस्य तादृशो भगवान् महावीरः केवलज्ञानेन चतुर्दशरज्ज्वात्मकं लोक जगत् ज्ञात्वा 'तसथावराणं खेमं करे' असस्थावराणां जीवानां क्षेमकर-कल्या. णकारकः 'सहस्समज्झे' सहस्रमध्ये-द्वादशविधमुराऽसुरादिपरिपन्मध्ये स्थितः सन् 'आइक्खमाणो वि' आचक्षाणोऽपि-विस्तरेण धर्मकथामुपदिशन्नपि एर्गतयं साहयह एकान्तक, साधयति, एकान्तवासमेवाऽनुभवति रागद्वेषरहितत्वात् 'तइच्चे' तथा:-तथैव-प्राग्वदेव अर्चा-लेश्या यस्य स तथाः , अथवा-अर्चा-शरीरं तत् मागवद् यस्य स तयार्ची, तथाहि-अशोकाद्यष्टमातिहार्योंपेतोऽपि नोसेक याति नाऽपि शरीरसंस्काराप यत्नं विदधाति, स हि भगवान् आत्यन्तिकरागद्वेषमा हाणादेकाफी मपि जनपरिवृतोऽप्येकाकी न तस्य तयोरवस्थयोः कश्चिद्विशेषोऽस्ति । टीकार्थ-कर्मनिर्जरा के हेतु से अस्युन तप करने से तपस्वी तथा माहन अर्थात् द्वादश प्रकार के तप में प्रवृत तथा जीवों का घात न करने का उपदेश देने वाले भगवान् श्री महावीर केवलज्ञान के द्वारा सम्पूर्ण लोक को जान कर स एवं स्थावर प्राणियों के क्षेमंकर हैं। वारह प्रकार की समवसरणसभा में विराजमान होकर विस्तारपूर्वक धर्मदेशना करते हुए भी वे एकान्त का ही अनुभव किया करते है, क्योंकि उनके रागद्वेष का पूर्ण रूप से क्षय हो चुकी है। उनकी लेश्या अर्चा या शरीर पूर्ववत् ही है। अशोकवृक्ष आदि आठ महापातिहार्यों से सम्पन्न होने पर भी उन्हें अहंकार नहीं है । शरीरसंस्कार के लिए वे यत्न नहीं करते हैं। भगवान् वीतराग एवं आत्म ટીકાર્ય-કર્મનિર્જરા માટે અત્યગ્ર તપ કરવાવાળા હોવાથી તારવી તથા માહન અર્થાત્ બાર પ્રકારના તપમાં પ્રવૃત્ત તથા નો ઘાત (હિંસા) ન કરવાનો ઉપદેશ આપવા વાળા ભગવાન મહાવીર સ્વામી કેવળજ્ઞાન દ્વારા સપૂર્ણ લેકને જાણીને ત્રસ અને રથાવર પ્રાણિયોના ક્ષેમંકર છે. બાર પ્રકારની સમવસરણ સભામાં બિરાજમાન થઈને વિસ્તાર પૂર્વક ધર્મદેશના આપવા છતાં પણ તેઓ એકાન્તને જ અનુભવ કરે છે. કેમકે તેઓના રાગદ્વેષને પૂર્ણ રીતે ક્ષય-નાશ થઈ ચૂકેલ છે. તેઓની વેશ્યા, અર્ચા, અથવા શરીર પહેલા પ્રમાણે જ છે અશોક વૃક્ષ વિગેરે આઠ પ્રકારના મહાપ્રાતિહાર્યોથી યુક્ત હોવા છતાં પણ તેઓને અહંકાર નથી. શરીરના સંસ્કાર માટે તેઓ પ્રયત્ન કરતા નથી. ભગવાન વિતરાગ અને આત્મનિષ્ઠ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् वित्तः, विस्तीर्णविपुलभवनशयनासनयानकाहना कीर्णः, बहुवनवहुजातरूपरजतः, आयोगप्रयोगसम्प्रयुक्तः, विच्छर्दितमचुर भक्तपानः, बहुदासीदास गोमहिषग वेलकप्रभूतः प्रतिपूर्ण कोशकोष्ठागारायुधागारः, चलवान्, दुर्बलमत्यमित्रः, अवहतकण्टकं, निहतकण्टकं, मर्दितकण्टकम् उद्धृतकण्टकम् अकण्टकम् अहतशत्रु, निहतशत्रु, मर्दितशत्रु, उद्घृतशत्रु, निर्जितशत्रु पराजितशत्रु व्यपगतदुर्भिक्षं मारीमयविषमुक्त राजवर्णकः यथा औषपाति यावत् प्रशान्त डिम्बडम्बरं राज्यं प्रसाधयन् विहरति । तस्य खलु राज्ञः परिषद्भवति, उग्राः, उग्रपुत्राः, भोगाः भोगपुत्राः, इक्ष्वाकवः, इक्ष्वाकुपुत्राः, ज्ञाताः ज्ञातपुत्राः कौरव्याः, कौरव्यपुत्राः, भट्टाः, भट्टपुत्राः, ब्राह्मणाः, ब्राह्मणपुत्राः, लेच्छिकिणः, लेच्छिकपुत्राः, प्रशास्तारः शास्त्रपुत्राः, सेनापतयः, सेनापतिपुत्राः । तेषां च एकतमः श्रद्धावान् भवति, कामं तं श्रमणो वा ब्राह्मणो वा सम्प्रधार्षु', गमनाय, तत्र अन्यतरेण धर्मेण प्रज्ञापयितारः वयम् अनेन धर्मेण प्रज्ञापयिष्यामः, तत् एवं जानीहि भयत्रातः, यथा मया एष धर्मः स्वाख्यातः सुप्रज्ञप्तो भवति तद्यथा-ऊर्ध्वं पादतलाद् अधः केशाग्रमस्तकात् हि स्वक्पर्यन्तो जीवः एष आत्मपर्यत्रः कृत्स्नः । अस्मिन् जीवति जीवति, एष मृतः, नो जीवति, शरीरे धरति धरति विनष्टे च नो धरति । एतदन्तं जीवितं भवति । आदहनाय परैर्नीयते, अग्निध्मापिते शरीरे कपोतवर्णान्यस्थीनि भवन्ति । आसदीपञ्चमाः पुरुषाः ग्रामं प्रत्यागच्छन्ति । एवम् असन असंवेद्यमानः येषां सोऽसन् असंवेद्यमानः तेषां तत् स्वाख्यातं भवति । अन्यो भवति जीवः, अन्यच्छरीरम्, तस्मात् ते एवं नो विप्रतिवेदयन्ति अयमायुष्मन् ! आत्मा दीर्घ इति वा, ह्रस्व इति वा, परिमण्डल इति वा, वर्तुल इति वा, त्र्यत्र इतिवा, चतुरस्र इति चा, आयत इति वा, पडंश इति वा, अष्टांश इति वा, कृष्ण इति वा, नील इति वा, लोहित इति वा, हारिद्र इति वा, शुक्ल इति वा, सुरभिगन्ध इति वा, दुरभिगन्ध इति वा, विक्त इति वा, कटुक इति वा, कषाय इति वा अम्ल इति वा, मधुर इति वा, कर्कश इति वा, मृदुरिति वा, गुरुक इति वा, लघुक इति वा, शीत इति वा, उष्ण इति वा, स्निग्ध इति वा, रूक्ष इति वा, एवम् असन् असंवेद्यमानः येषां तत् स्वाख्यातं भवति, अन्यो जीवः अन्यच्छरीर तस्मात् ते नो एवम् उपलभन्ते, तद्यथा नामकः कश्चित् पुरुषः कोशाद् असिम् अमिनिर्वर्त्य उपदर्शयेद्, अयम् आयुष्मन् ! असिः अयं कोशः एवमेव नास्ति कोsपि पुरुषः अभिनिर्वर्त्य खलु उपदर्शयिता अयमायुष्मन् ! आत्मा इदं शरीरम्, तद्यथा नामकः कोऽपि पुरुप मुञ्जाद् इपिकाम् अभिनिर्वत्थं खलु उपदर्शयेद् अयमायुष्मन् ! मुञ्जः इयभिषिका, एवमेव नास्ति कोऽपि पुरुषः उपदर्शिता , अयमायुष्मन् ! आत्मा इदं शरीरम्, तद्यथा नामकः कोऽपि पुरुषो मांसाद अस्थि Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समया बोधिनी टीका द्वि. थु. अ. ६ आर्द्रकमुने गौश (लकस्य संवादनि० ५७५ तदुक्तम् - रागद्वेषौ विनिर्जित्य किमरण्ये करिष्यसि । अथ नो निर्जिताaai किमरण्ये करिष्यसीति ॥ | गा० २ || मूलम् - धम्मं कहतस्स उ णत्थि दोसो, तैस्स दंतस्स जिइंदियैस्स । भासा य दोसे य विवज्जगस्त, गुंणे य भासा य णिसेवगस्त ||५|| छाया -- धर्मं कथयतस्तु नास्ति दोषः क्षान्तस्य दान्तस्य जितेन्द्रियस्य । भाषायाः दोषस्य चिवर्जकस्य गुणश्च भाषाया निषेत्रकस्य ॥५॥ निष्ठ होने के कारण जनसमूह से घिरे होने पर भी एकाकी हैं । उनके लिए दोनों अवस्थाएँ समान है। कहा भी है- 'रागद्वेषौ ' विनिर्जित्य' इत्यादि । 'यदि राग और द्वेष पर विजय प्राप्त कर लिया है तो अरण्य में जरूर क्या करेगा? और यदि रागद्वेष नहीं जीते हैं तो भी जंगल में चले जाने से क्या लाभ १ ||४|| 'धम्मं कहंस' इत्यादि । शब्दार्थ - 'धम्मं धर्म' श्रुत चारित्र धर्मका 'कहतस्स - कथयतः ' उपदेश देनेवाले को 'दोसो णत्थि - दोषा नास्ति' कोई दोष नहीं होता। क्यों कि - 'खतस्य - क्षान्तस्य' क्षान्त क्षमायुक्त 'दंतस्स - दन्तिस्थ' दान्न 'जिइंदियस्स - जितेन्द्रियस्य' जितेन्द्रिय 'य-च' और 'भासाय दोसे विवज्जगस्स - भाषायाः दोषविवर्जकस्प' भाषा के दोषों को छोडकर 'भाताહાવાથી જનસમૂહથી ઘેરાયેલા હેાવા છતાં પણુ એકલા જ છે. તેઓને મન્ને अवस्थाओ।' सरणी ४ ४. छुछे - 'रागद्वेषौ विनिर्जित्य', इत्यादि જો રાગ અને દ્વેષ પર વિજય પ્રાપ્ત કરી લીધા હાય તેા જ'ગલમાં જઈને શુ' કરવાનુ ખાકી રહે છે ? અને જો રાગદ્વેષ જીતેલ નથી તેા પછી જંગલમાં જઈને શું લાભ થવાના છે? ૫૫૦૪ાં 'धम्मं कह तर' त्याहि भण्डार्थ–'धम्म' - धर्मे' श्रुत शास्त्रिय धर्मनी (यदेश आापवावाजाने 'दोस्रो णत्थि - दोषो नास्ति' ४ पशु 'खंतस्त्र - क्षान्तस्य' क्षान्त क्षमाशील भने 'द'तस्स - दान्तम्य' हान्त तथा 'जिइ' दियरस - जिवेद्रियस्य' तेन्द्रिय 'य च' भने 'भास्रा य दोसे विवन्जगस्स - भाषायाः 'कहतस्त्र - कथयतः ' दोष नथी, भडे Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५७६ सत्रकृताङ्ग ___ अन्वयार्थः-(धम्म) धर्म-श्रुचारित्रलक्ष गम् (कहतस्म) कथयता-उपदिशतः (दोसो णस्थि) दोपो नास्ति कस्मात् (खंतरूप) क्षान्तियुक्तस्य (दंतस्स) दान्तस्यदमनेन विजितमनमः (जिइदियरस) जितेन्द्रियस्य (4) च-पुन (भाला य दोसे य विवज्जगस्स) भाषायाः दोपस्य निवजकस्य- सापादोपरहिनस्य (भाशाय निसेव गस्स) भाषावा निषेवास्य-भाषासेपनम् (गुणे य) गुणश्व-गुणरूपं भवति न तु दोपायेति मायः ॥५॥ टीका--'धम्म' धर्मम्-श्रुपचारित्रलक्षणम् 'कहतस्स 3' कय यतस्तु धर्मकथा कथयतस्तस्य दोयो' दोप: 'गत्यि' नाहित. धर्ममुपदिशतोऽपि कथं न दोपात पाह-खंतरम' क्षातस्य-क्षगया समस्तपरीपहसहनशी उरूप 'दहाभ' दान्तस्यविवेकाङ्कशइसनेन निजितमनसः 'निई दियरस' जितेन्द्रियम्व-जितानि-वि पयप्रवृत्तिनिषेधेन इन्द्रियाणि यस्य साहशस्य भासाय दोसे य विवज्जास्स' भाषाया दोषस्य विवर्जस्य-भाषादोपा:-असत्य सत्यामृपार्क शासभ्यशब्दो. य णिलेवगस्सा' भाषाया निषेवस्य-भाषामा प्रयोग करने वाले को तो वह 'गुणे य-गुण श्च' गुण ही होता है ॥५॥ ___ अन्वयार्थ-श्रुचारित्र धर्म का उपदेश करने वाले को कोई दोष नहीं होता, क्योंकिक्षान्त-क्षमायुक्त, दान्त, जितेन्द्रिय और भाषा संयंधी दोषों को त्याग कर भाषा का प्रयोग करने वाले को तो गुण ही होता है ॥५॥ टीकार्थ-श्रुम और चारित्र रूप धर्म का कथन करने वाले भगवान् महावीर को कोई दोष नहीं होता है । इसका कारण यह है कि अगवान् घोर परीषह और उपसर्ग को सहन करने में समर्थ हैं, मनोविजयी हैं। जितेन्द्रिय हैं अर्थात् इन्द्रियों के विषयों में रागद्वेष से रहित हैं तथा भाषा के समस्त दोषों ले रहित है। असत्य होना, सत्पालत्य होना, दोपविवर्जकस्य भाषाना होपना त्या शन 'भासा य णिसेवगस्स-भाषाया निपेवकस्य' मापाने प्रयास ४२वावाजानतात 'गुणे य-गुणश्च' गुणा हाय छे ।।०५ અન્વયાર્થ–મૃતચારિત્ર ધર્મને ઉપદેશ કરવા વાળાને કંઈજ દોષ હતા નથી. ક્ષાન્ત-ક્ષમાયુક્ત દાનત, જીતેન્દ્રિય અને ભાષના દેને ત્યાગ કરીને ભાષાને પ્રયોગ કરવાવાળાને તે ગુણ જ હોય છે, પણ ટીકાર્થ–શ્રત અને ચારિત્ર રૂપ ધર્મને ઉપદેશ આપવા વાળા ભગવાન મહાવીરને કંઈ પણ દોષ લાગતું નથી. તેનું કારણ એ છે કે–ભગવાન ઘોર પરીષહ અને ઉપસર્ગ સહન કરવામાં સમર્થ છે મનવિજયી છે. જીતેન્દ્રિય છે અર્થાત્ ઇંદ્રિના વિષયમાં રાગદ્વેષ વિનાના છે તથા ભાષાના સઘળા દેથી રહિત છે. અસત્ય હેવુ, સત્યાસત્ય હે, કર્કશપણાવાળું દેવું. કઠોરપણું હોવું અને Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगोंशालकस्य संवादनि० ५७७ च्चारणादयस्तद्विवर्जकल्य 'भासाय णिसेवगस्स गुणे य' भाषाया निषेधकस्य गुणश्व, तथा भाषाया ये गुणा:-हित्तमितदेशकालानुरूपाऽसंदिग्धभाषणादय स्तन्निषेवकस्य-त्रुबतो नास्ति दोषः, छद्मस्थस्य बाहुल्येन मौनव्रतमेव श्रेयः, समुत्पन्न केवलज्ञानस्य भाषणमपि गुणायैवेति भावः ॥५॥ मूल-महबए पं. अणुव्बए य तहेव पंचासनसंवरे य।। विरति इंह लामणियोम पुले लबावसकी समणे .. तिबेमि ॥६॥ छाया-महावतान् पश्चाणुव्रतांश्च तथै पञ्चास्त्रवसंबरांश्च । विरतिमिह श्रामण्ये पूर्णे लपावष्यकी श्रमण इति ब्रवीमि ॥६॥ कर्कशतो (कठोरपना) होना, अलल्य (अशीष्ट) शब्दों का उच्चारण करना इत्यादि, पापा के दोष हैं। आवान इन सब दोषो से रहित हैं। वे भाषा के गुणों का लेखन करते हैं अर्थात हित, मित, देशकाल के अनुरूप, असंदिग्ध वाणी बोलते हैं। इस कारण उन्हें दोष कैसे हो सकता है? छमस्थ अवस्था में मौन श्रेयस्कर है किन्तु केवलज्ञान उत्पन्न होने पर भाषण करना ही गुणकारी है ॥५॥ 'महाए पंच अणुव्यए य' इत्यादि । शब्दार्थ-'आई कमुनि गोशालकसे कहते हैं-हे गोशालक | भग: पान महावीर 'लवावसक्की-लवावष्वको घातिक कर्म से दूर हो चुके है। 'समणे-श्रमण.' तपश्चरणशील संयम में वर्तमान साधुओं के लिए 'पंच महत्वए-पञ्चमहाव्रतान्' प्राणातिपात चिरमण आदि पाँच महा. અસય (અશીષ્ટ) શબ્દોનું ઉચ્ચારણ કરવું. વિગેરે ભાષાના દે છે, ભગવાન આ બધા દે વિનાના છે. તેઓ ભાષાના ગુણેનું સેવન કરે છે. અર્થાત હિત, મિત, અને દેશકાળને અનુરૂપ, અસંદિગ્ધ વાણી બેલે છે. આ કારણે તેઓને દોષ કેવી રીતે હોઈ શકે છે? છદ્મસ્થ અવસ્થામાં મૌન ધારણ કરવું એજ શ્રેયસ્કર છે. પરંતુ કેવળજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય ત્યારે ભાષણ કરવું એજ ગુણ કારક છે. ગા૦પા 'महव्ययं पंच अणुव्वए य' त्याह शहा- शाas ! भगवान महावीर 'लवावसको लवावष्वकी' पातियाथी छूटी गये। छे. 'समणे-श्रमणः' तपश्चरी साधुमार भाटे 'पंचमहत्वए-पञ्चमहाप्रतान्' प्रायतिपात विभय वरे पाय मानता सू० ७३ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · अन्वयार्थ:--आई कमुनिः कथयति-हे गोशालक ! (लयावसकी) लवावव फी-धानिकर्मगो दवर्ती (ममणे) श्रमण स्तपश्चरणशीलः भगवान् महावीर साधनुद्दिश्य (पंचमहब्बए) पञ्चमहावतान प्राणातिपातविरमणादीन (पच अणुचए) पश्चानुवतान-लघुमाणातिपातविरमणादीन श्रावकोदेशेन (महेव) तथैव (पंचा. मवयंवरे य) पचाम्बवसंरांच' पंञ्चान्त्रवान् माणातिपातादीन कर्मणः प्रदेशद्वारसूनान मंगंश्व-मदगम कारकसंयमांश्च (पुन्ने सामणियमि) पूर्णे श्राणण्ये-संयमे सः (विरई) विरनि-साधकर्मणो निवृत्तिम्, च शब्दात् जीवाजीवपुण्यपापबन्ध. निर्जरामोक्षाणं चोपदिशतीति (त्तिवेमि) इत्यहं व्रगीमि-कथयामीति ॥६॥ टीका-आई कानिः कथयति-'लबाबमकी सपणे लावष्वकी श्रमण:लकः-कर्म तम्मादवप्वकी-मा-दूरम् सर्पगगील इति लगाववष्की, श्राम्यतीतिप्रतों का तथा 'पंच अणुव्य-पञ्च अणुवनान्' पांच अणुनत 'तहेवतथैव' तथा 'पंचासवे-पञ्चायवा' पांच आन्त्रयों का 'संबरे य-संवरांश्च' सतरह प्रकार के संवरों का 'पुन्ने सामणियमि-पूणे श्रामण्ये पूर्ण संयम में वर्तते हुए सावध कर्म की निवृत्ति का और पुण्य पाप बन्ध निर्जरा एवं मोक्ष का उपदेश करते हैं। 'त्तिमि-इति ब्रवीमि' ऐसा मैं कहता हूँ ॥६॥ अन्वयार्थ-आईक मुनि गोशालक से कह रहे है-हे गोशालक ! भगवान् महावीर घातिक कर्मों से दूर हो चुके है-हे तपश्चरण. शील है ये पूर्ण श्रामण्य संयम में वर्तते हुए साधुओं के लिए प्राणा निपानविरमण आदि पांच महावतोपा, श्रावकों के लिए पांच अणवतों का तथा पांच आरवों का, सत्तरह प्रकार के संयम का, पिरति का अर्थात् मायद्य कर्मों की निवृत्ति का और पुण्य, पाप, पन्ध, निर्जग राचं मोक्ष का उपदेश करते हैं। ऐना में कहता हूँ॥६॥ तया पपअणुबग-अणुप्रतान' पा५ आYA-1 तहेव-तथैव' तथा 'पचासवे परायः' ५५ भन्योनु सवरेय-गंबरम्च' २०१२ मारना सोनु 'पुन्नेसामगियमि-पूणे प्रामण्ये' यमाकीन 'विरई-विरति" अर्थात् सावध કમની નિવૃત્તિનો અને યુથ, પાપ, બ, નિર્જરા અને મેં ક્ષને ઉપદેશ जपे माना । અન્યથા–આદમુનિ એ શાલકને કહે છે કે – હે ગોશાલક ! ભગ વાન માર પાનિયા કમાંથી થઈ ચુક્યા છે. તપથઇ શીલ છે. તેઓ શામય સંયમમાં વર્તન પકા સાધુઓ માટે પ્રાકૃતિપાત વિરમણ વિગેરે પચ મહાને અને શા માટે પાંચ અગ્રતેને તથા પાંચ આશ્વને મન પ્રકારના સંયમનો વિરનિ અથાંન સાવધ ની નિવૃત્તિનો અને પુણ્ય, १५ निगम ५२ ४३ ७. gul Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनो टोका द्वि. श्रु अ ६ आर्द्रकमुनर्गोशालकस्य संवादनि० ५७९ श्रमणः-द्वादशविधतपश्चरणशील, कर्मणो दरवती भगवान् महावीरा, 'महब्धएर पंच अणुव्यए य' महान तान् पश्चाऽणुतांश्च उपदिशति पात्रसाधुमुद्दिश्य पञ्चमहान व्रतान्-माणातिपातादिविरमणलक्षणान तथा-श्रावकाय पश्चाऽनुव्रतान् स्थूल पाणातिपातादिविरलणलक्षणान् 'तहेव' तथैव 'पंचासवसंबरे य-पञ्चाश्रवसंवरांश्च -पञ्च आश्रवान् प्राणातिपातरीन मिथ्यात्वाविरत्यादीन् संवरांश्च सप्तदशमकारकसंयमान् 'पुन्ले सामणिासि ।' पूर्णे श्रामण्ये संयमे 'विरति इह विरतिम् उपदि शतीति-सावधर्मगो नितम्, च शब्दात जीवाजीवपुण्यपानिजेरामोक्षांश्च एतानुपदिशवीत्यर्थ , आर्द्र का गोशाल पति कथयति-'त्तिबेमि' इति-हे गोशालक! इत्यहमा कः कथयामीति । भगवान् तीर्थ करो महावीरः स्वयमाचरति एतान्, - टीकाश्र-लघ का अर्थ है घातिक कर्म । उससे जो दूर हट जाता है यह 'लगावलककी' कहलाता है । घारह प्रकार के तपश्चरण में जो सदा निरत रहता है वह 'श्रमण' कहा जाता है। भगवान महावीर इन गुणों से विभूषिन हैं। वे पात्र हा विचार करके साधुओं के लिए पांच महाव्रतों का, श्रावो के लिए पांच अणुव्रतों का प्राणातिपात आदि अथवा मिथ्यात्व आदि पांच आत्रत्रों का, सत्तरह प्रकार के संयम का पूर्ण श्रारण्य में विरति अर्थात् पापमय कृत्यों से निवृत्ति का उपदेश देते हैं । 'च' शब्द से जीव, अजीव, पुण्य, निर्जरा और मोक्ष का भी उपदेश देते हैं। आईक गोशालक से कहते है-ऐसा मैं आद्रक कहता हूँ। ., . आशय यह है की तीर्थकर भगवान श्री महावीर स्वयं चारित्र का पालन करते हैं और जनसमूह में साधुओं के लिए पांच महाव्रतों का ટીકાઈ– લવને અર્થ ઘાતિય કર્મ છે. તેનાથી જે દૂર ખસી જાય તે 'लवावसक्की' अवाय छे. ५२ रन तपश्वरमा २ सय २० रहेछ. તે શ્રમણ કહેવાય છે ભગવાન શ્રી મહાવીર આ ગુણેથી શોભાયમાન છે. તેઓ પાત્રને વિચાર કરીને સાધુઓને પાંચ મહાવ્રતોને તથા શ્રાવકે માટે પાંચ અણુવ્રતને અને પ્રાણાતિપાત વિગેરે અથવા મિથ્યાત્વ વિગેરે પાંચ આ. વિને સત્તર પ્રકારના સ યમને પૂર્ણ શ્રમણ્યમાં વિરતિ અર્થાત્ પાપમય કથી નિવૃત્તિને ઉપદેશ આપે છે “ઘ' શબ્દથી જીવ, અજીવ, પુણ્ય નિજેરા, અને મોક્ષને પણ ઉપદેશ આપે છે આદ્રકમુનિ વિશેષમાં શૈશાલકને કહે છે કે-આ પ્રમાણે હું આર્દક કહુ છું. કહેવા આશય એ છે કે-તીર્થકર ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વયં ચારિ ત્રનું પાલન કરે છે અને જનસમૂહમાં સાધુઓ માટે પાંચ મહાવ્રતને તથા Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८0 - - सूत्रकृतास वा जिनसमूहे साधुमुद्दिश्य पञ्चमहावतानां श्रावकोदेशेन पश्चाऽणुव्रतानामात्र. पानां संवराणां पूर्ण श्रामण्ये विरतेश्च निर्जरामोक्षाणां चोपदेशं ददातीति मावः॥६॥ मूलम्-सीओदगं सेवउँ बीयकायं आहाय कम्मं तह इस्थियाओ। एंगंतचारिस्सिह अम्हधम्मे, तवस्तिणो णाभिसमेइ पावं ॥७॥ - छाया--शीतोदकं सेवता वीज़कायम् आधाकर्म तथा स्त्रियः । एकान्तचारिण इहाऽस्मद्धर्मे तपस्विनो नाभिसमेति पापम् ॥७॥ . आन्वयार्थ:--भो आईक ! (एगंत चारिस्सिइ) एकान्तचारिण इह (तवस्सिणो) तपस्विनः-तपश्चरणशीलस्य (अम्ह धम्मे) अस्मद्धर्मे 'सीओदर्ग' शीतो. तथा श्रावकों के लिए पांच अणुव्रतों का और आश्रव, संवर विरति, निर्जरा एवं मोक्ष का उपदेश करते हैं ।६॥ ... 'सीओदगं सेवउ बीयकाय' इत्यादि । शब्दार्थ--गोशालक कहते हैं-हे आईक ! 'एगंतचारिस्सिहएकान्तचारिण इह' जो पुरुष एकान्त चारी और तवस्सिणो-तपस्विन!' तपस्वी है 'अम्हधम्मे-अस्मद्ध' वह हमारे धर्म के अनुसार 'सीओदगं-शीतोदकं' शीतल जलका 'बीयकायं-बीजझाया बीजकायका "आहाय कम्म-आधार्मिकम् आर्धाकर्मी आहार का और 'हथियाओ -स्त्रिया' स्त्रियों को 'सेवउ-सेवता' सेवन करते तो भी 'पावं-पापम्' पाप 'नाभिसमेह-नाभिसमेति' नहीं लगता है ।गा ०७|| __ अन्वयार्थ-गोशालक कहता है-हे आक! जो पुरुष एकान्त चारी और तपस्वी है, वह हमारे धर्म के अनुसार शीतजल का, योजશ્રાવકો માટે પાંચ અણુવ્રતો અને આસ્રવ, સંવર, વિરતિ, નિર્જરા અને મક્ષને ઉપદેશ આપે છે. પગાદા 'सीओदग सेवउ बीयकाय' त्याह शहाथ- शा छे.--3 भाद्र! 'एगंतचरिस्सिह-एकान्तधारिण इह' २ ५३५ तयारी भने 'तवस्त्रिणो-तपस्विनः' तपस्वी छे. 'अम्ह धम्मे-अस्मद्धमें' ते ममा। धर्म प्रमाणे 'सीओदग-शीतोदकम्' 1 पाणी तुं 'बीयकायं-बीजकायम्' भी आयतुं 'अहाय कम्म-आधार्मिकम्' माथा 6 माहातुं भने 'इत्थियाओ-स्त्रियः' लियोन 'सेवउ-सेवता' सेवन रे छ, ते ५५ 'पाव- पापम्' ५५५ 'नाभिसमेइ-नाभिसमेति' गतु नथा ॥७॥ અન્વયાર્થ-ગોશાલક આદ્રકમુનિને કહે છે કે--હે આદ્રક! જે પુરૂષ એકાન્તચારી અને તપસ્વી છે. તેઓ આપણું ધર્મ પ્રમાણે ઠંડા પાણીનું Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयायोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगौशालकस्य संवादनि० ५८१ दकम् (सेवउ) सेवताम् (बीय काय) बीजकायम् (आहायकम्म) आधार्मिक तथा-(इत्थियाओ) स्त्रिया-स्त्रीः सेवमानस्यापि (पाव) पापम् (नामिसमेइ) नाभिसमेति-पापं न भवतीति ॥७॥ 'टीमा-गोशालकः कथयति-त्वयेदमुक्त यत्परार्थ प्रवृत्तस्याशोकादिपातिहार्यपरिग्रहः शिष्यादिपरिकरः धर्मदेशना न दोषाय यथा तया-मम मतेऽपि एत. च्छीतोदकादिभोजनं न दोषायेति, 'सीमोदग' शीतोदकम् 'वीयकायं' बीजकायमपि 'आहायकम्म' आधार्मिकं भोजनम्, तथा-'इत्थियाओ' स्त्रिया-स्त्रीः 'सेवउ' सेवताम-एतेषां निषेवणं कुर्वन्नपि 'एगंतचारिस्सिह' एकान्तचारिणः-एकाकिविहारिणः, 'तस्तिणों' तपस्विनः-परिवाजकस्य 'अम्हधम्मे' अस्मद्धम 'पावं' पापम 'णामिसमेह' नाभिसमेति-न लगति । इत्थं गोशालकः स्वधर्मसिद्धान्त काय का, आधाकर्मी 'आहार का और स्त्रियों का सेवन करे तो भी उसे पाप नहीं लगता।'७॥ ___टीकार्थ-गोशालक बोला तुम्हारा कथन है कि जो वीतराग है एवं परहित के लिए प्रवृत्त है, उसके लिए अशोक वृक्ष आदि परिग्रह, शिष्यादि परिवार तथा धर्मोपदेश करना दोष का कारण नहीं है, इसी प्रकार हमारे मत में सचित्त जल का सेवन, बीजज्ञाय का भक्षण, आधार्मिक आहार तथा स्त्रियों का सेवन करने वाला भी एकान्तचारी और तपस्वी पाप का भागी नहीं होता है । गोशालफ आद्रक को अपना मत बतलाता हुआ कहता है-अहो आईक ! हमारा यह सिद्धान्त है कि जो तपस्वी है और एकान्तचारी બીજકાયનું આધાક આહારનું અને સ્ત્રિનું સેવન કરે તે પણ તેને પાપ લાગતું નથી. આછા टी -शस धु-तम रु छ है-२२। पीता छ, અને પરહિત માટે સદા પ્રવૃત્ત છે તેઓને માટે અશોકવૃક્ષ વિગેરે પરિગ્રહ શિષ્ય વિગેરે પરિવાર તથા ધર્મને ઉપદેશ કરે તે દેષનું કારણ નથી. એજ પ્રમાણે અમારા મત પ્રમાણે સચિત્ત પાણીનું સેવન, બીજકાયતું ભક્ષણ, આધાર્મિક આહાર તથા સિનું સેવન કરવાવાળા, પણ એકાન્તાચારી અને તપસ્વી પાપના ભાગી થતા નથી. ગશાલક આદ્રકને પિતાને મત બતાવતાં કહે છે કે–અહે આદ્રકા અમારે આ સિદ્ધાંત છે કે-જે તપવી હોય છે, અને એકાન્તચારી હોય છે, Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८३, ता " मदर्शयति-आर्द्र के प्रति भोः । मदीप एप विद्वान्तः, यो हि तपस्वी एकान्तचारी स यदि शीतजलस्य बीजकन्दादीनां स्त्रीणामपि उपभोगं करोति, तदाऽपि तस्य पापकर्मबन्धो न जायते इति ॥७॥ मूलम् -सीओदेयं वा तहबीयकार्य आहायकम्मं त इत्थियाओ । एयाई जीणं पडिसेर्वमाणा अंगारिणो अस्समणा भवति टा छाया -- शीतोदकं वा तथा वीजकायम् आधाकर्म तथा स्त्रियः । P एतानि जानीहि प्रतिसेवमाना अगारिणो अश्रमणा भवन्ति ||८|| अन्वयार्थः -- (सीमोदगं) शीतोदकम् (तह) तथा (बीयकार्य) बीजकायम् - सचित्तवीजयुक्तं वनस्पतिकायम् (तह) तथा (आदायकम्म) आधाकर्म ( तह) तथा है वह यदि शीतल जल का बीज कन्द्र आदि का यहां तक कि स्त्रियों का भी भोग करे तो भी उसे पाकर्म नहीं चंता ||७|| 'सीयोदगं वा तह बीकार्य' इत्यादि । शब्दार्थ - 'सी ओदगं - शीतोदकम् ' जो शीतल जलका 'तहा - तथा' तथा 'बीय कार्य - बीजकायम्' बीजकायका अर्थात् सवित्त यीजों वाली वनस्पतिका का 'तह - तथा' तथा 'इत्थियाओ - स्त्रियः' स्त्रियों का ' एपाई - एतानि' इन सबका 'पडि सेवमाणा-प्रतिसेवमानाः' सेवन करते हैं वे चाहे तप करते हो अथवा न करते हो किन्तु ये ' अगारिणो-अगा रिणः' गृहस्थही है । 'अस्समणा-अअमण:' वे श्रमण नहीं हो सकते । 'जाणं - जानीहि ' इस घातको लमझलो यह गोशालक के प्रति आर्द्रक का कथन है ||८|| अन्वयार्थ - जो शीतल जल का बीमकाय का अर्थात् सचित्त તે જે ઠંડા પાણીનું ખીજકાય આદિનુ એટલા સુધી કે સ્ત્રિયાનુ’ પશુ સેવન કરે તેા પણ તેને પાપકના ખંધ થતુ નથી. ગા૦૭ 'सीओ वा तह वीकार्य' इत्यादि शब्दार्थ' - 'सी ओदगं - शीतोदकम् ' शीतल व 'तहा - तथा' तथा 'बीयकाय - वीज कायम्' मीराय अर्थात् सचित्त भी वाणी वनस्पति 'तह - धा' 'इथियाओ - स्त्रियः' स्त्रियो 'एयाइ - एतानि' मा धानु' "पडिसेवमाणा - प्रतिसे माना.' सेवन रे तेथे आहे तो तय पुरता होय अथवा न उरता होय, परंतु तेथे 'अगारिणो अगारिण' गृहस्थ ४ छे. 'अस्समणा - अश्रमणाः ' तेथे! श्रम था। शत्रुता नथी 'जाण - जानीहि भावात समल तो. भा ગેશાલક પ્રત્યે આદ્ર કનું કથન છે. ાગા૦૮ના અનયાય —જેએ શીતલ જલનું ખીજકાયનું અર્થાત્ સચિત્ત શ્રીવાળી Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधिनी टीका द्वि. . अ. ६ आर्द्रकमुने गौशालकस्य संवादनि० ५८३ (इत्यियाओ ) स्त्रियः - स्त्री : ( एवाई) एतानि (पडि सेवमाणा) प्रतिसेवमानाः - एतेषां सेवनकर्ता र स्वपःकारिणोऽकारिणो वा अवन्तु किन्तु एते (बगारिणो) अगारिणो गृहस्था एव । (अस्समणा) अभ्रमण :- न श्रवणाः नैते साधवो भवन्तीति (जाण) जानीहि - हे गोशालक । इत्यार्द्रकः कथयति ||८|| टीका-सुगमा ||८| मूलम् - सिया य बीयोदेगइत्थियाओ, पडिलेवैमाणा सा भवतु । अंगारिणो वि मणाँ भवंतु, 99 'सेवंति उ ते विहप्पारं ॥९॥ छाया -- स्याच्च वीजोदकस्त्रियः प्रतिसेवमानाः श्रमणा भवन्तु । - गारोऽपि श्रमणा भवन्तु सेवन्ते तु तेऽपि तथामकारम् |९|| बीजों वाली वनस्पति का, आधाकर्मिक आहार का और स्त्रियों का सेवन करते हैं, वे चाहे तप करते हों या न करते हों, किन्तु गृहस्थ ही हैं । वे श्रमण नहीं हो सकते । इस बात को समझ लो यह गोशालक के प्रति आर्द्रक का कथन है ||८|| टीका सरल है ॥८॥ 'सियाय वीयोदगइत्थियाओ' इत्यादि । शब्दार्थ - फिर से आर्द्रक मुनि कहते हैं-बीज आदिका सेवन करने वालों की साधुता का निषेध करके अब उस मतमें बाधक युक्ति दिखलाते हैं- 'सियाय स्वाच्च कदाचित् 'बीयोद्गइत्थियाओ-बीजोदकस्त्रियः' सचित्त बीज सचित्त जल और स्त्रियों का 'पडि सेवमाणा-प्रतिसेवमाना" વનસ્પતિનુ આધામિ આહારનું અને સ્ત્રિયાનુ સેવન કરે છે તે તપ કરતા હાય અથવા ન કરતા હોય પરંતુ તએ ગૃહસ્થ જ છે. તેએ શ્રમણુ થઈ શકતા નથી. એ વાત સમજી લે। આ પ્રમાણે ગેશાલકને આ કમુનિએ કહ્યુ. ટા આ ગાથાના ટીકા સરળ છે. 'सीया य बीओदगइत्थियाओ' इत्याहि શબ્દા—કીથી આક મુનિ ખીજ વિગેરંતુ સેવન કરવાવાળાએના साधुपाना निषेध मरीने हुवे ते भतनी जाध युक्ति मतावे हे 'सियाय - 'स्याच्च' ४४ २२ 'बीयोदग इत्थियाओ - बीजोदक स्त्रिय. ' सत्ति भी सत्तियाथी, मने स्त्रियानु' 'पड़िसेवमाणा - प्रतिसेवमानाः ' सेवन ठरवावाजा 'समणा Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सूत्रकृतास्ने ____अन्वयार्थ:--पुनराई को मुनिः पाह-बीजायु 'भोगकारिणां साधुत्वं प्रति विध्याऽत्र साधकाऽभावान् दर्शयन् वाधकपि ब्रूते । (सियाय) स्याञ्च (वीयोदगइत्थियाओ) बीजोदकस्त्रियः वीजं शीतोदक बधा-स्त्रिया (पडिसेवमाणा) पतिसेवमानाः, एतेषां से उनकारोऽपि (समणः) श्रमणा:-साधवो भवन्तु ते। किमपराद्धम् । (ते वि) ते-गृहस्था अपि (तहप्पणारं) तथाप्रकार-शीतोदकादिकम् (सेवंति उ) सेवन्ते एक, यदि शीतोदकादिसेवनकर्तारः साधरी भवेयु स्तदा गृहस्था अपि साधवः स्युः । यत उभयोरपि असेव्यसेवनस्य समानतात् । अतो भवसिद्धान्तसिद्ध साधुत्मपरिभाषा न समीचीना, गृहस्थेऽ'पे तस्याः सत्त्वात्।९। टीका-सुगमा ।।९॥ सेवन करने वाला भी 'हामणा-श्रमणाः' यदि साधु हो सकता है, तो गृहस्थों ने क्या अपराध किया है ? अर्थात् उन्हें भी साधु क्यों न मान लिया जाय ? 'ते वि-ते अपि' वे भी 'तहप्पगारं-तथाप्रकारम्' सचित्त जल आदि का सेवंनि उ-सेबन्ते एव' सेवन करते हैं। जब सचित्त जल और स्त्रीका दोनों ही सेवन करते हैं, तो साधु आर गृहस्थ में अंतर ही क्या रहा ऐसा मानने पर तो सघ गृहस्थ भी साधु ही कहलाएंगे क्योंकि वह युक्ति, गृहस्थ में भी घटित होती है ।९। । अन्वयार्थ-आईक मुनि बीज आदि का सेवन करने वालों की साधुता का निषेध करके अब उस मत में बाधकयुक्ति दिखलाते हैंसचित्त बीज, सचित्त जल और स्त्रियों का सेवन करने वाले भी यदि साधु हो सकते हो तो गृहस्थों ने क्या अपराध किया है ? उन्हें भी साधु क्यों न मान लिया जाय ? वे भी सचित्त जल आदि का सेवन श्रमणा.' से साधु मनी ४ता जाय, तो क्यामे ॥ अपराध या छ ? अर्थात् तमान ५ साधु भ न मानवा ? 'वेवि-तेऽपि' मा ५g 'तहप्प गार-ताप्रकारम्' सथित्त पायी विगैरेनु सेवंति उ-सेवन्ते एव' सेवन કરે જ છે. જ્યારે સચિત્ત પાણી અને શ્રિયેનું સેવન આ બને કરે છે, તે પછી સાધુ અને ગૃહસ્થમાં શો ફરક છે? આમ માનવાથી તે બધા ગૃહસ્થ પણ સાધુ જ કહેવાશે. તેથી જ આપે સાધુની જે વ્યાખ્યા કરી છે, તે બરે બર નથી. કેમકે તે ગૃહસ્થામાં પણ ઘટે છે. પગારુલ્લા અવયાર્થ–આર્દિક મુનિ બીજ વિગેરેનું સેવન કરવાવાળાના સાધુપાન નિષેધ કરીને હવે તે મતના ખંડનની યુતિ બતાવે છે.-સચિત્ત બીજ સચિત્તજલ અને પ્રિનું સેવન કરવાવાળા પણ જે સાધુ થઈ શક્તા હોય તે ગૃહસ્થોએ શું અપરાધ કર્યો છે? તેઓને પણ સાધુ કેમ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतानसूत्रे अभिनिर्वयं खल्लु उपदर्शयेद् अयभायुष्मन् ! मांसः इदम् अस्थि एवमेव नास्ति कोऽपि पुरुपः उपदर्शयिता अयमायुष्मन् ! आत्मा इदं शरीरम् ! तद्यथा नामकः कोऽपि पुरुषः करतलादामळझम् अभिनिवयं खलु उपदर्शयेद् इदम् आयुष्मन् ! करतलम् इदमामल कम् एवमेव नास्ति कोऽपि पुरुषः उपदर्शयिता अयभायुष्मन् ! आत्मा इदं शरीरम् । तद्यथा नामकः कश्चित् पुरुषो दनो नवनीतम् अभिनिर्वयं खलु उपदर्शयेद इदमायुष्मन् ! नवनीतम् इदं तु दधि, एवमेव नास्ति कोऽपि पुरुषः उपदर्शयिता अय. मायुष्मन् ! आत्मा इदं शरीरम् । तद्यथा नामकः कोऽपि पुरुषः तिले यस्तलम् अभिनिर्वयं खलु उपदर्शयेद् इदमायुष्मन् ! तैलम् अयं पिण्याकः एवमेव नास्ति कोऽपि पुरुषः उपदर्शयिता आयुष्मन् ! आत्मा इदं शरीरम् । तद्यया नामकः कोऽपि पुरुषः इक्षुतः क्षोदरसम् अभिनिवर्त्य खलु उपदर्शयेद् अयम् आयुष्यन् ! क्षोदरस: अयं क्षोदः एवमेव यावद् शरीरम् । तद्यथा नामकः कोऽपि पुरुषः अरणितः अग्निम् अमिनिवत्य खलु उपदर्शयेत् , इयम् आयुष्मन् ! अरणिः अयमग्निः एवमेव यावत् शरीरम् । एवम् असन् असंवेद्यमानः येषां तत् स्वाख्यातं भवति, तद्यथा-अन्यो जीवः अन्यच्छरीर तस्मात् ते मिथ्या । स हन्ता तं घातयत, खनत, क्षणत, दहत, पचत, आलुम्पत, विलुम्पत, सहसा कारयतः विपरामृशत, एतावान् जीव: नास्ति परलोकः। ते नो एवम् विप्रतिवेदयन्ति तद्यथा-क्रियां वा, अक्रियां वा, मुकृतं वा, दुष्कृतं वा, कल्याणं वा, पापकं वा, साधु वा, असाधु वा, सिद्धिं वा, असिद्धि वा, निरयं वा, अनिरयं वा, एवं ते विरूपरूपः कर्मसमारम्भैः विरूपरूपान् काममोगान् समारभन्ते भोगाय। एवम् एके प्रागरिभकाः निष्क्रिम्य मामकं धर्म प्रज्ञापयन्ति, तं श्रद्दधानाः तं प्रतियन्तः तं रोचमानाः, साधु स्वा. ख्यातं श्रमण इति वा माहन इति वा कामं खलु आयुष्मन् ! त्वां पूजयामि, तद्यथा-अशनेन वा पानेन वा खायेन वा स्वायेन वा, वस्त्रेण वा, प्रतिग्रहेण वा, कम्बलेन वा, पादमोञ्छनेन वा, तत्रैके पूजायै समुत्थितवन्तः, तत्रैके पूजायै निकाचितवन्तः । पूर्वमेव तेषां ज्ञातं भवति श्रमणाः भविष्यामः अनगाराः अकिश्वनाः अपुत्राः अपशवः परदत्त भोजिनः भिक्षवः पापं कर्म न करिष्यामः, समुत्याय ते आत्मना अप्रतिविरताः भवन्ति । स्वयम् आददते अन्यानपि आदापयन्ति अन्यमपि आददन्तं समनुजानन्ति । एवमेव ते स्त्रीकामभोगेषु मच्छिताः गृद्धाः ग्रथिताः अध्युपपन्नाः लुब्धाः रागद्वेपवार्ताः ते नो आत्मानं समुच्छेदयन्ति ते नो पर समु च्छेदयन्ति, ते नो अन्यान् प्राणान् भूतानि जीवान सत्त्वान् समुच्छेदयनि, पहीणाः __ पूर्वसंयोगाद् आय मार्गम् अमाप्ता इति ते नो अर्धाचे नो पाराय अन्वरा काममो. गेषु निपण्णाः इति प्रथमः पुरुष नातः तज्जीवतच्छरीरकइति आख्यातः ॥सू०९॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी डीका वि.व.अ. ६ आर्द्रकमुनेगर्गौशालकस्य संवादनि० ५८५ मूळम्-जे सावि बीयोदंगभोइभिक्खू, भिक्खं विहि जायंति जीवियट्री। तेजाइसंजोगमचि पहाय कायोवगाणंतकरी भवंति।१०। छाया-- ये चापि पीजोदकमोनिभिक्षयो, भिक्षाविधि यान्ति जीवितार्थिनः । ते शाबिसंयोगमपि प्रहाय, कायोपमा नान्तकरा भवन्ति ॥१०-१ । तो करते हैं । जब सचित्त जल और स्त्री का लेबन दोनों ही करते है तो लाधु और रहस्य अन्नर ही क्या रहा ? ऐसा मानने पर तो सब गृहस्थ भी साधु ही कहलाएँगे। अतएव आपने साधु की जो परिभाषा ही है, वह ठीक नहीं है, क्योंकि वह गृहस्थ में भी घटित होती है ॥९॥टीका सरल ही है ॥९॥ ' ''जे याधि बीथोदामोइभिखू' इत्यादि । शब्दार्थ---आईक मुनि पुनः कहते हैं-जे थावि-ये चापि' जो 'भिक्खू-भिक्षुभिक्षु होकर भी 'बीयोदगोइ-धीजोदकभोजिना' सचित्त बीज एवं सचित्त जलका सेवन करते हैं, और 'जीवियट्टीजीवित्तार्थिनः' जीवननिर्वाह के लिए 'भिक्खं विहिं जायंति-भिक्षाविधियान्ति' भिक्षावृत्ति करते हैं 'ते णाइसंजोगमवि पहाय-ते ज्ञाति संयोगमपि प्रहाय वे अपने ज्ञाति जनों यन्धु, यान्धवों के संपर्क को त्यागकरके भी 'कायोवगा-कापोपगा' अपनी कायाका ही पोषण करने માની લેવામાં ન આવે? તેઓ પણ સચિત્ત જલ સ્ત્રી વિગેરેનું સેવન કરે છે. જે સાધુ અને ગૃહસ્થ અને સચિત્ત જલ અને સ્ત્રિનું સેવન કરતા હોય તેં સાધુ અને ગૃહસ્થમાં શો ફેર છે? જે એમ જ માનવામાં આવે તે સઘળા ગૃહસ્થો પણ સાધુ જ કહેવાશે. તેથી જ આપે સાધુની જે પરિભાષા કરી છે તે બરાબર નથી. કેમકે તે ગૃહમાં પણું ઘટિત થાય છે. ઝાલા , ટીકાથ સરલ જ છે. તેથી અલગ બતાવેલ નથી. 'जे यावि बीयोदगभोइभिक्खू' या शा--३शथी माद्र मुनि छ -'जे यावि-ये चापि 'भिक्खु भिक्षु' सिक्षु यने ५५y 'बीयोदगभोई-वीजोदकभोजिनः' सयित्त भी सथित पायीनु सेवन रे छ, भने 'जीवियद्वी-जीवितार्थिन" न निale ४२०॥ भाट 'भिक्खं विह जायंति-भिक्षाविधि' भिक्षावृत्ति अरे छे, ""गाह संजोगमवि पहाय-ते ज्ञातिसंयोगमपि प्रहाय' मा पोताना तिन माधवाना स ५४°ना त्या परीने ५५ 'कायोवगा-कायोपगा', पाताना शरीरनु सु०७४ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ সবাই अन्वयार्थ:-पुनराई को मुनिः प्राह-(जे यावि) ये चापि, च शब्दस्त्वर्थ, तथा च ये तु (भिक्खू) भिक्षवः, ये साधुवेपं परिगृह्याऽपि (बीयोदगमोइ) बीजोदकभोजिनो भवन्ति, तथा-(जीवियट्ठी) जीवितार्थिनः-उदरम्भरयः (भिक्खं विहिजायति) भिक्षाविधि यान्ति, ये भूस्वाऽपि साधवः वीनकायान् शीतोदकादिकं सेवेन्वे तथोदरपोषणाय भिक्षावृत्तिं कुर्वन्ति । ते (णाइसंजोगमविप्पहाय) ते पूर्वोक्तकर्मनिरताः स्वकीयज्ञातिव-धुवान्धवानां कर्मकराः संयोग प्रहायाऽपिपरित्यज्याऽपीति । (कायोवगा) कायोपगा:-स्वदेवेपपोपणेपु व्यग्रमानसाः (णंतकरा भवंति) नान्तकारा भवन्ति-उदरम्भरयो कोके कर्मणां न विनाशका, भवन्ति अन्तकरा न भवन्तीति ॥१०॥टीका-सुगमा ॥१०॥ बम्-इमं वयं तु तुम पाउकुवं पावाइणो गरिहलि सबएव । पावाइणो पुढो किंट्टयंता सयं सयं 'दिहि कति पाउं।१९। बाले हैं ऐसे भिक्षाजीवी-पेटू अपने कर्मों का 'गंतकरा भवंति-नान्त करा.भवन्ति' अन्त नहीं कर सकते हैं और न उनके जन्म मरणका ही भन्त आसकता है ॥१०॥ ..,, अन्वयार्थ-आद्रक मुनि पुनः कहते हैं-जो भिक्षु होकर भी सचित यीज और सचित्त जल का सेवन करते हैं और जीवननिर्वाह के लिए भिक्षावृत्ति करते हैं, वे अपने ज्ञातिजनों, एवं आत्मीय बन्धु पाधियों के संपर्क को त्याग करके भी अपने काय काही पोषण करने वाले हैं ऐसे भिक्षाजीवी-पेटू अपने कर्मों का अन्त नहीं कर सकते और न धनके जन्म-मरण का ही अन्त आ सकता है ॥१०॥टीका सरल है॥१०॥ योष ४२वा छे. मात्र भिALON-228२१ पोताना ना तकरा भवति-नान्तकरा भवन्ति' मत ४३री शता नथी. तथा तभना गम भरना અંત કરી શકતા નથી. પગા૧છે અન્વયાર્થ–આદ્રક મુનિ ફરીથી કહે છે કે–જે શિક્ષક થઈને સચિત્ત નીક્સ અને સચિત જલનું સેવન કરે છે, અને જીવન નિર્વાહ માટે શિક્ષા . વૃતિ કરે છે. તેઓ પોતાના જ્ઞાતિજને અને આત્મીય બંધુ બાંધના સંપર્કને , , ડીને પણ પિતાના શરીરનું જ પિષણ કરવા વાળા છે. એવા ભિક્ષાજીવ આ પરા પિતાને કર્મોને અંત કરી શકતા નથી. તેમજ પોતાના જન્મમર જો પણ અંત કરી શકતા નથી. આવા - . ' भा आया! टीय मन्वयार्थ प्रभारी छ. २थी मत मापस नथी, Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने गौशालकस्य संवादनि० ५७ 1 214 छाया--इम वाचं तु खं प्रादुष्कुर्वन् प्रवादिनो गर्छ से सर्वानेव । प्रवादिनः पृथक् कीर्त्तयन्तः स्वकां स्वकां दृष्टिं कुर्वन्ति प्रादुः ॥१.१॥ अन्वयार्थ :- गोशालक :- आक्षिपन् कथयति भोः आर्द्रकमुने 1 चीजोदकादि सेवमाना न मुच्यन्ते अपितु बन्धनभाजः इति विकत्थमानः सर्वानेव शास्त्रको निन्दसि । (इमं वयं तु ) इमां वाचं तु ( पाउकुत्रं) प्रादुष्कुर्वन् वहिष्माकाश्यं नयन (तुम) स्वम् (सन् एव) सर्वानेव (पावाइणो) मत्रादिनः - मावा दुकान - शास्त्रकारान , ' 'इमं वयं तु तुम पाउकुव्वं' इत्यादि । शब्दार्थ - गौशालक आक्षेप करता हुआ कहता है - हे आद्रक मुनि ! सचित्त जल और बीज आदिका सेवन करनेवाले मुक्ति प्राप्त नहीं करते, किन्तु कर्मबन्धके भागी होते हैं, 'इमं वयंतु इमां वाचं तु' इस प्रकार कावचन 'पाउकुब्वं प्रादुष्कुर्वन्' कहकर 'तुम-त्वम्' तुम 'सव्व एव - सर्वानेव ' सभी 'पावाइणी-प्रावादिनः' प्रवादुक अर्थात् विभिन्न शास्त्रों का वर्णन करनेवाले और ज्ञान के आकार जैसे की 'गरिहसि - गर्हसे' निन्दा करते हो, ये शास्त्रकार 'पुढो - पृथकू' वे भिन्न भिन्न प्रकार का 'किता - कीर्तयन्तः कथन करते हुए 'सयं सयं - स्वकीयां स्वकीयां' अपनी अपनी 'दिट्ठि दृष्टिम्' दृष्टि की 'पाउकरे 'ति - प्रादुष्कु न्ति' प्रकट करते हैं । किन्तु तुमारे इस कथन से उन सभी पर आक्षेप होता है। इस प्रकार तुमने उच्छृंखल होकर अनुचित आक्षेप किया है । २१ । अन्वयार्थ - गोशालक आक्षेप करता हुआ कहता है - हे आर्द्रक मुनि ! बीज आदि का सेवन करने वाले मुक्ति प्राप्त नहीं करते, किंतु 'इम' वयं तु तुम पाउकुत्र्व' इत्याद्दि શબ્દા—ગાશાલક આક્ષેપ કરતાં કહે છે કે-હૈ આદ્રક મુનિ ! સચિત્ત અને જલ ખીજ વિગેરેનુ સેવન કરવાવાળા મુક્તિ પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી. परंतु उमेघना लागी थायछे 'इम' वयं तु -इम' वाचं तु' मा प्रभाषेनु वथन 'पाठकुव्व'- प्रादुष्कुर्वन्' 'डीने 'तुम - त्वम्' तमे 'सव्व एव सर्वानेव' ध 'पावाइणो' मा प्राहुः अर्थात् नहा रहा शास्त्रोनु वर्धन पुरवावाणा, भने ज्ञाननी भाबु३५ छे, तेथोनी 'गरिहसि गर्हसे' निहारे। छो. मा शास्त्रश 'पुढो - पृथक्' तेथे हा हा 'किट्टयंता - कीर्तयन्त' अथन उरता था 'संयं सयस्वकीया स्वकीयां' पोत पोतानी 'दिट्ठि दृष्टिम्' दृष्टिने 'पाउकरे 'ति - प्रादुष्कुर्वन्ति' अगर रे छे, परंतु तमारा भी उथनथी ते अधा पर आक्षेप भावे છે. આ રીતે તમે ઉચ્છ ખલ પણાથી અન્ય આક્ષેપ કર્યાં છે ગા૰૧૧૫ અન્વયા”—ગે શાલક આક્ષેપ પૂર્વક કહે છે કે આ સુનિ બી વિગેતુ' સેવન કરવાવાળા મુક્તિ મેળવી શકતા નથી, પરંતુ કુમ બધના,ભાણી t I Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खूबकृतागले • मरिहसि) गर्हसे-निन्दसि-सर्वेषां निन्दावचनं वदसि, (पावाइगो) प्रवादिन:प्राचादुकास्तत्तत् तीर्थकरास्तत्तच्छास्त्रवर्णनमहिम्ना तत्तज्ज्ञानाकाराः (पुढो) पृथक् पृथक् (किट्टयंता) कीर्तयन्त:-कथयन्तः (संयं संयं) स्वकीयां उसकीयाम् (दिहि) - रष्टिम् (पाउकाति) पादुष्कुर्वन्ति-स्वस्वसिद्धान्तान् दर्शयन्तः तेषां श्रेष्ठत्व वर्णयित्वाऽपि त्वदीय कथनेन ते सर्वे आक्षिप्ता भवन्ति । इवि-उच्छृङ्खलेन त्वयाऽ. सक्तं कृतमिति प्रष्टुराक्षेपः ॥११॥ . - मूलम्-ते अन्नमन्नस्सं उ गरहमाणा, अक्खंति भो समणा माहणा य । '. सतो य अत्थी अलतो य गत्थी, गरहामो "दि िण गरहामो "किंचि ॥१२॥ ' छाया-तेऽन्योऽन्यस्य तु गईमाणा आख्यान्ति भोः श्रमणा माहनाश्च । , स्वतश्चाऽस्ति अस्वतश्च नास्ति, गर्दामहे दृष्टिं न गहामहे किश्चित् ।१२। .कर्मवन्ध के भागी होते हैं, इस प्रकार कहकर तुम सभी शास्त्रकारों की निन्दा कर रहे हो । सभी प्रावादुक अर्थात् जो विभिन्न शास्त्रों का - वर्णन करने वाले और ज्ञान के आकर है वे भिन्न भिन्न प्रकार का कथन करते हुए अपनी दृष्टि प्रकट करते हैं। किन्तु तुम्हारे इस कथन से उन सभी पर आक्षेप होता है ! इस प्रकार तुमने उच्छृखल हो कर 'अनुचित आक्षेप किया है ।।११।।टीकार्थ अन्वयानुरूप है ॥११॥ ते अनमन्नस्स' इत्यादि । शब्दार्थ-'ते समणा माहणा य-ते श्रमणा ब्राह्म गाच वे श्रमण और माहन 'अन्नमन्नस्त-अन्योऽन्यस्य' एक दुसरे की निन्दा और બને છે, આ પ્રમાણે કહીને તમે બધાજ શાસ્ત્રકારોની નિદા કરી રહ્યા છે બધાજ પ્રાવાદુક અર્થાત્ જે આ જુદા જુદા શાનું વર્ણન કરવાવાળ અને જ્ઞાનની ખાણ રૂપ છે. તેઓ જુદા જુદા પ્રકારનું કથન કરતા ચકાં પિતાપિતાનું દષ્ટિબિંદુ પ્રગટ કરે છે પરંતુ તમારા આ કથનથી તેઓ બધા પર આક્ષેપ થાય છે. આ રીતે તમોએ ઉછખલ બની અચોગ્ય આક્ષેપ કરેલ છે. ૧૧ આ ગાથાને ટીકાર્ય સરળ છે. તેથી અલગ આપેલ નથી. - वे अन्नमन्नस्म' त्याह हाथ-'ते समणा माहणा य-ते श्रमणां ब्राह्मगाश्च' ते श्रम। भने भाना 'अन्नमन्नस्स-अन्योऽन्यस्य' मे मीना निं मन म२४३॥ ४२ . Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने!शालकस्य संवादनि० ५४९ अन्वयार्थः--आई को गोशाळकायोत्तरयति-हंदो गोशालक ! नाऽहं कमपि निन्दामि, अपि तु माध्यस्थ्य मास्थाय निर्मलदृष्टया वस्तुस्थिति निरूपयामि । ते दार्शनिकाः स्वमतं पुष्यन्त स्तुष्यन्तो निन्दन्ति परान्, तदायशास्त्रान्तःपाति तत्कथनमेव दर्शयामि । तदुक्तम्हँसी करते हैं 'उ-तु' किन्तु 'गरहमाणा-गहमाणाः' निन्दा करते हुए 'अक्खंति-आख्यान्ति' वे कहने हैं कि 'सतो व अस्थि-स्वतश्चास्ति' मेरे दर्शन में प्रतिपादित अनुष्ठान से ही धर्म और मोक्ष होता है 'असतो य नस्थि-अस्वत श्च नास्ति' दूसरों के दर्शनों में कथित अनु. छानसे धर्म अथवा मोक्ष नहीं होता है । 'गरहामो दिहि-गहामहे दृष्टिम्' हम उनकी उस एकान्तदृष्टि की नहीं करते हैं पदार्थ सत् ही है या नित्य ही है, इत्यादि एकान्तवादकी निन्दा करते हैं। इसके सिवाय और क्या कहते है ? जो भी कोई एकान्त दृष्टि का अवलम्बन करके वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन करता है, उसका मतिपादन यथार्थ नहीं हैं। ऐसा हम कहते हैं । 'ण गरहामो किचि-नगहीमहे किञ्चित् इसमें किसी की निन्दा नही है ॥१२॥ __ अन्वयार्थ-वे श्रमण और माहन एक दूसरे की निन्दा और हंसी करते हैं। वे कहते हैं कि मेरे दर्शन में प्रतिपादित अनुष्ठान से ही धर्म और मोक्ष होता है, दूसरों के दर्शनों में कथित अनुष्ठान से धर्म• 'उ-तु' ५२तु 'गरहमाणा-गर्हमाणा.' निही ४२॥ २४! 'अक्खंति-आख्यान्ति' तमा छ -'सतो य अत्यि-स्वतश्चास्ति' भा। शनमा प्रतिपादन रेत अनुहानथी । म भने भाक्ष थाय छे. 'असतो य त्थि-अस्वतश्च नास्ति' બીજાઓના દર્શનેમાં કહેવા અનુષ્ઠાનથી ધર્મ અથવા મેક્ષ મળતો નથી, 'गरहामो दिदी-गमो दृष्टिम्' अमे तमानी मा मे ष्टिनी કરીએ છીએ. પદાર્થ સતજ છે, અથવા નિત્ય જ છે, વિગેરે એકાન્તવાદની નિદા કરીએ છીએ આ શિવાય બીજું શું કહીએ છીએ ? જે કંઈ એકાન્ત દષ્ટિનું અવલમ્બન કરીને વસ્તુ સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કરે છે, તેઓનું પ્રતિपाहन या नथी. मे प्रमाणे छु'. 'ण गरहामो कि चि'-न गर्दामहे किचित्' मामा धनी ५ निहाना मा नथी. 100 १२॥ * અન્વયાર્થ–તે શ્રમણ અને બ્રાહ્મણ પરસ્પર એક બીજાની નિંદા અને મશ્કરી કરે છે તેઓ કહે છે કે-મારા શાસ્ત્રમાં પ્રતિપાદિત કરેલ અનુષ્ઠાનથી જ ધર્મ અને મોક્ષ થાય છે. બીજાઓના શાસ્ત્રોમાં કહેવા અનુષ્ઠાનેથી ધર્મ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - 'नेत्रै निरीक्ष्य विलकण्टककीटकूटान, सम्यक्षथा व्रजति तान परिहत्य दरात । कुज्ञातकुत्सितकुमार्गकुदृष्टदोषांस्तांस्तान् विचारणपरस्य पराऽपवादः ॥१॥ या मोक्ष नहीं होता। हम उनकी इस. एकान्त दृष्टि की गहीं करते हैं। पदार्थ सत ही है ? अथवा नित्य ही है इत्यादि एकान्तवाद की निन्दा करते हैं, इसके सिवाय और हम क्या कहते हैं ? जो भी कोई एकान्त दृष्टि का अवलम्बन करके वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन करता है, उसका प्रतिपादन यथार्थ नहीं है, ऐसा हम कहते हैं इसमें किसीकी निन्दा नहीं हैं ॥१२॥सुगम होने से टीकार्थ नहीं दिया हैं। , . भावार्थ--आईक मुनि गोशालक को उत्तर देते हैं-हे गोशालक ! मैं किसी की निन्दा नहीं करता, किन्तु मध्यस्थभाव धारण करके, निर्दोष दृष्टि से सही वस्तुस्थिति को कहता हूं। वे प्रवादी ही .अपने मत का पोषण करते हुए और उसी में संतोष मानते हुए दूसरों की निन्दा करते हैं । उनके शास्त्र का कथन दिखलाते हैं... नेत्रों वाला पुरुष अपने नेत्रों से खड्दा कांटा कीड़ा और कूट को देख कर और उनसे यच कर अच्छे मार्ग से चलता है। इसी प्रकार यदि कोई पुरुष मिथ्याज्ञान, मिथ्याशास्त्र, मिथ्यामार्ग और मिथ्यादृष्टि के दोषों को जान कर सन्मार्ग का आश्रय लेता है तो . ऐसा करना किसी की निन्दा करना नहीं कहलाता।' કે મેક્ષ થતું નથી, હું તેઓની આ એક તરફી દષ્ટિની નિંદા કરૂં છું પદાર્થ સતજ છે. અથવા નિ ય જ છે વિગેરે પ્રકારના એકાન્તવાદની નીંદા કરૂં છું. આ સિવાય બીજું શું કહું છું? જે કેઈ એક દષ્ટિનું અવલમ્બન કરીને વસ્તુ સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કરે છે. તેનું તે પ્રતિપાદન યથાર્થ નથી જ તેમ હું કહું છું. આ કથનમાં કેઈની પણ નિંદા નથી જ ૧૨ ભાવાર્થહવે આદ્રક મુનિ ગોશાલકને ઉત્તર આપતાં કહે છે કે-હે શાલક ! હું કેઈની પણ નિંદા કરતું નથી. પરંતુ મધ્યસ્થ ભાવ ધારણ કરીને નિર્દોષ દષ્ટિથી ખરી વસ્તુ સ્થિતિ જ કહું છું. તે પ્રવાહી જ - પિતાના મતનું પિષણ કરતા થકા અને તેમાં જ સંતોષ માનતા થકા બીજા ઓની નિંદા કરે છે. તેઓના શાસ્ત્રનું કથન બતાવે છે.– આંખે વાળે પુરૂષ પિતાની આંખોથી ખાડા, ટેકરા, કીડા અને કાંકરા વિગેરે જેઈને અને તેનાથી બચીને સારા માર્ગથી ચાલે છે. એ જ પ્રમાણે જે પુરૂષ મિથ્યાજ્ઞાન, મિથ્યા શાસ્ત્ર, મિથ્યામાર્ગ, અને મિથ્યા દષ્ટિના દેને . onीन सन्भागन। माश्रय . तो तम ४२, त उनी पनि ___.४२वीली शय नही. Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगोशालकस्य संवादनि० ५२१ नाहि वस्तुस्वरूपप्रतिपादन निन्दा कस्याऽपि महापुरुषस्य । सति हि तथा-'शीतं जलमुष्णोऽग्निः' इति तत्वकथनमपि निन्दास्पृग्वचनं जायेत, एतत्सर्वमपि सूत्रेण ग्रंथनाति सूत्रकृत । 'ते समणा माहणा य' ते साधवः श्रमणा माहनाश्च ब्राह्मणाश्च 'अन्नमन्नस्स' अन्योऽन्यस्य-परस्परस्य परस्परमन्यस्याऽन्यो निन्दा हास्यं च कुर्वन्ति। 'उ' तु 'गरहमाणा' गर्हमाणा:-निन्दन्तः 'अखति' आख्यान्ति-कथयन्ति । 'सतो य अत्थी' स्वतश्वास्ति-मंदीयदर्शनोक्ताऽनुष्ठानेन धों मोक्षो वा भवति। 'असतो य णत्यी' अस्वतश्च नास्ति, परकीयदर्शनरीत्या कर्मानुष्ठानेन धर्मादयो नं भवन्ति, इति ते कथयन्ति। 'गरहामो दिहि गमिहे दृष्टिम्, वयन्तेपामेकान्त दृष्टिम् । 'सन्ने पदार्थ:-नित्य एक वा' इत्यायेकान्ता दृष्टि या तामेव केवलं निन्दामः । 'ण गरहामो किंचि' न गमिहे किञ्चित् । एकान्तदृष्टे निन्दा कुर्मः, नत्वन्यत् किमपि ब्रूमः। वस्तुतस्तु-यस्य कस्याऽपि निरूपणम् एकान्त दृष्टि. मुपगृक्षेत्र सम्भवति । एकान्तदृष्टिमते पदार्थस्वरूपनिरूपणं न सम्भवति इति कथयामो नैतावता कस्यापि निन्दा भवति-इति आर्द्र कोक्तिः ॥१२॥ टीका-सुगमा ॥१२॥ मूलम्-ण किंचि सेवेणऽभिधारयामो सदिदिमग्गं तु करेK पाउं। मंगगे इमे किट्टिएँ आरिएहिं अणुत्तरे सप्पुरिसेहिं अंजू।१३। छाया-न कञ्चन रूपेणाभिधारयामः स्वदृष्टिमार्गञ्च कुर्मः पादुः। मार्गोऽयं कीर्तित आय्यरनुत्तरः सत्पुरुषैरन्जुः ॥१३॥ - वस्तु के स्वरूप का प्रतिपादन करना किसी की निन्दा करना नहीं कहा जाता है। ऐसा न माना जाय तो 'जल शीतल है, अग्नि उष्ण है इस प्रकार की वास्तविकता को प्रकट करना भी निन्दा करना कहलाएगा। यह सब सूत्रकारने सूत्र के द्वारा ही दिखलाया हैं ॥१२॥ 'ण किंचि स्वेणऽभिधारयामो' इत्यादि। शब्दार्थ--आर्द्रक मुनि कहते हैं-'किंचि-कमपि' हम किसी श्रमण 'ધતું વરૂપનું પ્રતિપાદન કરવું કેઈની પણ નિંદા કરવી કહેવાય નહીં. એમ માની ન લેવાય કે-પાણી ઠંડુ છે, અગ્નિ ગરમ છે,” આ પ્રમાણેના વારસવિક પણને બતાવવું તે પણ નિન્દા કરવી તેમ કહેવાશે આ બધું કંથ સૂત્રકારે સૂત્ર દ્વારા જ બતાવ્યું છે. રા 'किचि रूवेणऽभिधारयामोत्या शबहाथ:--Mix मुनि ४ --'किंचि-कमपि' ५ श्रम १ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९३ सूत्रहतार अन्वयार्थ:-(किंचि) कञ्चन-कमपि श्रमणं माहनं वा (रूवेण) रूपेण स्वरूपेण -जुगुप्सिताऽवयवाङ्गाऽवयवोद्घाटनेन (ण अभिधारयामो) नलेव अमिधार. यामः-गर्हणावुद्धया नोद्घाटयामः किन्तु-(मदिहिमगं तु) स्वदृष्टिमार्ग तु-तदभ्यु. पगतं दर्शनं सिद्धान्तम् (पाउकरेगु) पादुकुम:-महाशयामः। मोक्षमार्गस्तु-आरि... एदि) आर्यः (सप्पुरिसेहि) सत्पुरु:-सत्तश्च ते पुरुषास्तैः सर्व-अधर्मदूरवत्तिमिः (इमे भग्गे) अयं मार्गः-सम्यग्दर्शनादिरूपः (अणुत्तरे) अनुत्तरः-न विद्यते उत्तरः अथवा माहन के 'स्वेण-रूपेण' रूप अथवा वेषकी 'ण अभिधारयामो -नाभिधारयाम:' निंदा नहीं करते हैं उसके आ अथवा उपांग की चुराई नहीं करते' किन्तु 'सदिहियग्गं तु-स्वाष्टमार्ग तु' केवल अपने दर्शनका मार्ग ही 'पाउंकरेनु-प्रानुष्कुर्मः' प्रकाशित कर रहे हैं 'इमे मग्गे-अयं मार्गः' यह सम्यक दर्शन आदिरूप मार्ग 'अणुत्तरे-अनुत्तरः' सर्वोत्तम है अर्थात् पूर्वापर विरुद्ध न होने के कारण तथा जीवाजीवादि पदार्थ-तत्वों की यथार्थ प्ररूपणा करने के कारण अनुत्तर है, क्योंकि -यह 'आरिएहि-आर्यः' आर्य 'सप्पुरिसेहि-सत्पुश्वैः' सत्पुरुषों-सर्वज्ञों के द्वारा 'अंजु किटिया-अञ्जः कीर्तितः' सरल कहा गया है॥१३॥ . ___अन्वयार्थ--आईक पुनः कहते हैं-हम किसी श्रमण या माहन के रूप या वेष की निन्दा नहीं करते। उसके अंग या उपांग की बुराई नहीं करते । केवल अपने दर्शन का मार्ग ही प्रकाशित कर रहे हैं। यह सम्यग्दर्शन आदि रूप मार्ग सर्वोत्तम है अर्थात् पूर्वापरविरुद्ध न मया मानना 'रूवेण-रूपेण' ३५ मथवा वेपनी 'ण अभिधारयामो-नाभि 'धारयामः' नि! ते नथी. तभन A1 24n Siगानी सुश तात! नयी. ५२ 'सदिद्विमग्गंतु-स्वदृष्टिमार्गन्तु' 4 पाताना नना भाग 'पाकरे मु-प्रादुष्कुर्मः' प्रगट ४३ . 'इमे मग्गे-अयं मार्ग:' मा सभ्य शन विगरे ३५ भाग 'अणुत्तरे-अनुत्तरः' सर्वोत्तम छ, अर्थात् पूर्वा५२ वि३६ ન હોવાથી તથા જીવ અજીવ વિગેરે તત્વોની યથાર્થ પ્રરૂપ કરવાથી અનુત્તર -सब छ, भ3 मा 'आरिएहि-आय:' माय 'सप्पुरिसेहि-सत्पुरुषैः सत्पु३॥ -सब जी द्वारा 'अंजू किट्टिया-अजुः कीर्तितः' स२८ ४अवाम मा छे. 1131 અન્વયાર્થ–-ફરીથી આદ્રક મુનિ કહે છે-કંઈ પણ શ્રમણ અથવા માહનના રૂપ અથવા વેષની નિંદા કરતું નથી. હું કેવળ અમારા શાસ્ત્રને માર્ગજ પ્રગટ કરું છું. આ સમગ્ર દર્શન રૂપ માર્ગ જ સર્વોત્તમ છે, અર્થાત્ તે પૂર્વાપર વિરૂદ્ધ ન હોવાના કારણે તથા જીવાદિ તત્વનું પ્રરૂપણ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आईकमुने!शालकस्य संवादनि० ५९३ -प्रधानो यस्मात् तथाविधोऽनुत्तर पूर्वापराव्याहतस्त्राव यथावस्थितजीवादिस्वरूपनिरूपणाचायं धर्मोऽनुत्तरः (अंजू किष्टिए) अजुः कीर्शितः प्रोक्त इति ॥१३॥ ॥टीका-सुगमा ॥१३॥ । '. . ' मूलम्-उडूं अहेयं तिरिय दिलासु, ....! तसा ये जे थावरा जे ये पाणा ... - भूयाहि संकाभि दुगुंछमाणो, __णो गैरहई लिमं किंचि लोएँ ॥१४॥ छाया-उर्ध्वमधस्तिर्यग् दिशासु, साश्च ये स्थावरा ये च प्राणाः। भूताभिशङ्काभिर्जुगुप्समानो नो गर्हते संयमवान् किञ्चिल्लोके ।१४। होने के कारण तथा जीवादि तत्त्वों को यथार्थ प्ररूपणा करने के कारण अनुत्तर है, क्योंकि यह आर्य सत्पुरुषों सर्वज्ञों के छारा कहा गया है ।१३। टीका सुगम है ।।१३॥ 'उहूं अहेयं तिरियं दिसालु' इत्यादि। शब्दार्थ-'उडूं-ऊर्ध्वम्' ऊर्ध्व दिशामें 'अहेयं-अधश्च' अंघो दिशामें 'तिरिय दिसासु-तिर्यग् दिशालु' तिर्की दिशामें 'जे.य तसा. जे य थावरा पाणा-येच वसाः ये च स्थावराः प्राणा' जो प्रश और स्थावर प्राणी हैं 'भृयाहिलंकामि-भूताभिशाभि उन भूतोंकी हिंसा की शंका से 'दुगुंछमाणो-जुगुप्सान: धृणा करने वाला अर्थात् जनकी विराधना से, पाप ,समझ कर बचने वाला 'सिम-संयमवान मंयमवान पुरुष 'लोए-लोके' इस लोक में 'किंचि-कंचन' किसी की કરવાના કારણે અનુત્તર-સર્વશ્રેષ્ઠ છે. કેમકે આ માર્ગ આયે સબ્યુરૂષ એવા સર્વજ્ઞો દ્વારા નિર્દિષ્ટ છે. ૧૩ આ ગાથાને ટીકાર્ય સરળ હવાથી જૂદે બતાવેલ નથી. - 5 'उड्ढ अहेय तिरिय दिसासु' त्यादि शहाथ --उड्ढ'-ऊर्ध्व' G Hi , अहेयं-अध.' मधी दिशाभी 'तिरिय दिसास-तिर्यगूदिशातिछी शिसभा 'जे यातसा जे य थावरा पाणाये च बसाः' ये च स्थावराः प्राणाः' से भने स्था१२- प्राणियो छ, 'भूयाहि---- संकाभि-भूताभिशङ्कासि' डिंसानी Aथी दुगु छमाणो-जुगुप्समान या ४२वावाणा अथात् तमना विराधनाथी ५५. मानाने मय 'बुसिम-संयः - मवान् । सयभवान् ५३५ 'लोए-लोके' मा वाम किचि-कंचन' 'उनी A सू०७५ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रहतार अध्यार्थ:-(3) ऊर्यदिशि (अहेय) अयोदिशि (तिरियं दिसामु) तिर्यग्दिशाम (जे य तसा पाणा) ये च साः प्राणा:-प्राणिन!-द्वीन्द्रियादयोः जीना: तपा-(जे य थावरा पाणा) ये च स्थावराः प्राणाः-पृथिव्यप्तेजो वायुवनस्पतिलक्षणा जीयाः सन्ति (भूपाहिसंकाभि) भूताभिशङ्काभिः-प्राणातिपातशङ्कया (दुगुंछ. माणो) जुगुप्ममानः- घृणां कुर्वन् (बुसिमं) संयमवान् पुरुः (लोए) कोके-स्यावरनामात्मके (गो) नो (किंचि) कञ्चन (गरिहई) गर्हते-निन्दतीति ॥१४॥ 'णो गरहई-नो गर्हते' निंदा नहीं करता। अर्थात् हे गोशालक प्राणियों के वधसे घृणा करने वाला साधु किमी की निंदा नहीं करता है यह हमारा धर्म है,। इस कारण मुझ निरपराधी पर निंदा करने * अपराधका आरोप करना तुम्हारे लिए उचित नहीं है। मैं किसीकी निंदा न करके वस्तु स्वरूप का ही प्रतिपादन कर रहा हूं ||गा०१४॥ ___अन्वयार्थ-ऊर्ध्व दिशा में, अधोदिशा में और तिर्की दिशाओं में जो प्रस और स्थावर प्राणी हैं, उनकी हिंसा से घृणा करने वाला अर्थात् उनकी विराधना से पाप समझ कर बचने वाला संयमवान पुरुष इस लोक में किसी की भी गर्दा नहीं करता। अर्थात् हे गोशालक ! प्राणियों के वध से नृणा करने वाला साधु किसी की निन्दा नहीं करता है, यह हमारा धर्म है। इस कारण मुझ निरपराधी पर निन्दा करने के अपराध का आरोप करना तुम्हारे लिए उचित नहीं है। मैं किसी की निन्दा न करके वस्तुस्वरूप का ही प्रतिपादन कर रहा हूं ॥१४॥ 'गो गहर-नो गईते' नि! ४२त! न20. अर्थात हे सास ! प्रालियाना વિધી થવા કરવા વાળા સાધુ કેઈની પણ નિંદા કરતા નથી. આ અમારા પમ છે. આ કારણે નિરપરાધી એવા મારા પર નિંદા કરવાને આપ કરે તે તમારા જેવાને ગ્ય નથી. હું કેઈની નિંદા કર્યા વિના વસ્તુ વરૂપનું જ પ્રતિપાદન કરી રહેલ છું. ૦૧૪ અન્વયા–ઉર્વદિયામાં અદિશામાં અને તિછદિશામાં જે વસ અને રયાવર પ્રાણી છે, તેની કિ સાથી વિદ્યા કરવાવાળા અથાત્ તેની વિરાકના પાપ સમકને બચવાવાળા સંયમવાન પુરૂષ આ લોકમાં કોઈની પણ બિંધ કરતા નથી. અર્થાત હે ગોશ લક પ્રાલિયાના વધથી ઘણા કરવાવાળા ૬ ની પનિંધ કરતા નથી. આ અમારો ધર્મ છે. તે નિરપરાધી એવા ના કર નિંદા કરવાને બાપ મૃત તે આપના જેવાને યોગ્ય નથી. હું તે ઈની પs નિંદા કર્યા વિના વરનું સ્વરૂપનું જ પ્રતિપાદન કરૂં છું. ૧૪ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ समयार्थबोधिनी टी द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीनामाध्ययनम् टोका-श्री वर्धमानस्वामि तीर्थकरः सदसि समवेतान् नराऽमराऽग्रगण्य सम्हान् अभिलक्षीकृत्य कथयति-इह खलु' इह-मनुष्यलोके 'पाईण वा' प्राच्या वा-पूर्वस्मिन्दिग्विभागे 'पडीणं वा' प्रतीच्या वा-पश्चिमदिग्विभागे 'उदीणं वा' उदीच्यां वा-उत्तरस्याम्-उत्तरदिग्विभागे 'दादिणं वा दक्षिणस्यां वा-दक्षिणदिविभागे वा 'संतेगइया' सन्त्ये केऽनेकमकारकाः 'माणुया भवंति' मनुष्या भवन्ति । 'अणुपुत्वेणं' आनुपूया 'लोगे उववन्ना' लोके उपपन्नाः, इहलोके नानादिशासु पूर्वादिक्रमेण नाना प्रकारका मनुष्या निवसन्ति ते सर्वे न एकरूपाः, किन्तु-अनेक जातीयाः सन्ति अनेक प्रकारकत्वमेव दर्शयति-तं जहा' इत्यादि। 'तं जहा' वद्यथा-'आरियावेगे' एके आर्याः, लब्धधर्ममतयः, एके भवन्ति । 'अणारिया वेगे' भवन्ति च एके अनार्या वा-आर्यविरोधिनोऽधर्माणः । अथवाआर्यदेशोद्भवा अनार्यदेशोद्भवाश्च । 'उच्चागोत्ता वेगे' उच्चगोत्रा एके 'णीयागोया वेगे नीचगोत्रा वा एके, 'कायमंता वेगे' कायवन्त एके, शरीरेण केचिल्लम्बायमाना दीर्घशरीरा इत्यर्थः । केचन पुन:-'हस्तमंता वेगे' इस्ववन्त एके, वामना: 'इह खलु' इत्यादि। टीकार्थ-श्री वर्धमान स्वामी समवसरण में एकत्र हुए अग्रगण्य मनुष्यों तथा देवों के समूह को लक्ष्य करके कहते हैं-इस मनुष्यलोक में पूर्व दिशा में, पश्चिमदिशा में, उत्तर दिशामें या दक्षिण दिशा में, अनेक प्रकार के मनुष्य होते हैं, सभी एक प्रकार के नहीं होते हैं। जैसे-कोई आर्य अर्थात धर्म वुद्धि वाले होते हैं। कोई अनार्य अर्थात् आयविरोधी-अधर्मी होते हैं । अथवा कोई आर्य देश में उत्पन्न और कोई अनार्य देश में उत्पन्न होते हैं। कोई उच्चगोत्रीय तो कोई नीच गोत्रीय होते हैं । कोई शरीर से लम्बे होते हैं, कोई छोटे कद वाले, 'इह खलु' त्या ટીકાથ-શ્રી વર્ધમાન સ્વામી સમવસરણમાં એકઠા થયેલા અગ્રગણ્ય, મુખ્ય એવા મનુષ્યો તથા દેના સમૂહને ઉદ્દેશીને કહે છે –આ મનુષ્ય લોકમાં, પૂર્વ દિશામાં, પશ્ચિમ દિશામાં, ઉત્તર દિશામાં, દક્ષિણ દિશામાં અનેક પ્રકારના મનુષ્યો હોય છે. બધા મનુષ્યો એક પ્રકારના હોતા નથી. જેમ-કેઈ આર્ય અર્થાત્ ધર્મ બુદ્ધિવાળા હોય છે, કોઈ અનાર્ય અર્થાત્ આ વિરોધી–અધમ હોય છે અથવા કેઈ આર્યદેશમાં ઉત્પન્ન થયેલા અને કેઈ અનાર્ય દેશમાં ઉત્પન્ન થયેલા હોય છે. કેઈ ઉચ્ચ ગેત્રમાં ઉત્પન્ન થયેલા હોય છે. અને કેઈ નીચ ગોત્રમાં ઉત્પન થયેલા હોય છે. કેઈ શરીરથી લાંબા હેય છે, કે ઈ ઠીંગણું કદવાળા વામન Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. अ. ६ आर्द्रकमुने गौशालकस्य संवादनि० - टीका - पुनः स्व सद्धर्मनिरूपणायाऽऽह - (उड) इत्यादि, (उड) कुर्ध्वम् - ऊर्ध्वदिशि (अहेयं) अधोदिशि ( तिरियं दिसासु) तिर्यगू दिशासुस्तिर्यग दिशासु (जेय तसा जे य थावरा पाणा) ये च त्रसाः द्वीन्द्रियादयः प्राणाः ये स्थावराः पृथ्वीकायादयः प्राणाः प्राणिनो विद्यन्ते, (भूपाहिसंक्रामि) भूताभिश ङ्काभिः - तेषी भूतानां विनाशङ्काभिः 'दुगुंडपाणी' जुगुप्समानः घृणां कुर्वन् एतेष विराधनेन सावद्यक्रिया भवति तथा 'बुसिमं' संयमवान् पुरुषः 'लोए' लोके '' नो 'किंचि' कश्चन 'गरहई' गर्छते, भूतानां वधशङ्कया घृणां कुर्वन् साधुः कमपि न निन्दतीति हे गोशालक एप मदीयो धर्मः । एवंविधे मयि - अनपराद्धेऽपराध्यति निन्दकरववाचो निष्फला युक्तिव । नाहं निन्दामि निन्दयामि वा किन्तु वस्तुस्वरूपं प्रतिपादयामि, इति ॥ १४ ॥ ॥ मूळम् - आगंतगारे आरामगारे समणे उ भीते ण उवेति वासं । देखा है 'संती हवे मणुस्सा I ऊँणातिरित्ता य लवा लेवा य ॥१५॥ छाया - आगन्त्रगारे आरामगारे श्रमणस्तु भीतो नोपैति वासम् । दक्षा हि सन्ति बहवो मनुष्या ऊनातिरिक्ताश्च लपालपाश्च ॥ १५ ॥ ॥ टीकार्थ - आर्द्रक मुनि अपने धर्म की प्ररूपणा करने के लिए फिर कह रहे हैं-ऊँची, नीची और तिर्धी दिशाओं में जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उन प्राणियों की हिंसा से घृणा करते हुए अर्थात् जीवों की हिंसा से सावध क्रिया होती है, ऐसा समझते हुए संयमी पुरुष लोक में किसी की भी गर्दा नहीं करते हैं । हे गोशालक ! यह मेरा धर्म है । इस कारण मैं निरपराधी हूं, फिर भी तुम मुझे निन्दा करने का अपराधी कह रहे हो, तुम्हारा यह कहना अयुक्त है । मैं निन्दा नहीं करता कराना, केवल वस्तुस्वरूप का ही प्रतिपादन कर रहा हूं || १४ || 1 ટીકા”—આદ્રક મુનિ પેાતાના ધર્મની પ્રરૂપણા કરવા માટે ફરીથી કહે છે કે—ંચી, નીચી, અને તિી દિશામાં ત્રસ અને સ્થાવર જે પ્રાણિયા છે, તે પ્રાણિયાની હિંસાથી ઘૃણા કરતા થકા અર્થાત્ જીવાની હિ'સાથી સાવદ્ય ક્રિયા થાય છે, તેમ સમઝતા થકા સયમી પુરૂષ જગમાં કોઈની પણ નિંદા કરતા નથી, હું ગેાશાલક ! આ મારા ધર્મ છે. તેથી નિરપરાધી છું તે પણ તમેા મને નિંદા કરવારૂપ અપરાધી કહી રહ્યા તમારૂ આ કથન યાગ્ય છે. હું નિદા કરતા નથી. તેમ નિંદા કરાવતા પત્રુ નથી પણ કેવળ વસ્તુ સ્વરૂપનું જ પ્રતિપાદન કરૂ છું. પ્રશા૰૧૪ા Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतात्रे अन्वयार्थः -- गोशालक आर्द्रकमुनिं प्रत्याह - ( समणे उभीते ) मीतस्तु श्रमणो महावीरस्वामी, भोः ! तब तीर्थकरो भयभीतः सन् ( आगंतगारे) आगन्त्रमारे आगवणायामारे-आगन्तुकावा से धर्मशालायाम् (आरामगारे) आरामगारे -भारामः स्यादुपवनं जायगेहेऽपि (वासं ण उबेह) वास स्थिति नोपेति भीतः सन् किन्नाम शर्म विन्दति जनाकुळे न वसति । कथं नो पैति तत्राह हेतुम् । (बहवे - मणुस्सा ऊणाविरित्ता य लवालवा य दक्खा हु संती) बहवो मनुष्या ऊनातिरिक्ताश्र A ''आगंतगारे' आरामगारे' इत्यादि । शब्दार्थ - 'समणे उभीते श्रमणस्तु' भीतः' श्रमण महावीरं भिरु डरपोक है, क्योंकि 'आगंनगारे - आगन्तगारे' वे आगन्तुकावास-धर्म शाला में 'आराबगारे-आरामगारे' तथा उद्यानों में बने मकानों में वासं पण उदेह - वासं न उपैति' ठरते नहीं है, उनके वहां नहीं ठहरने का कारण यही है कि 'बहवे मणुस्सा ऊगातिरिक्ता लवालवा य दक्खा -हु संति-हवे मनुष्याः ऊनातिरिक्ताः लपालपाश्च सन्ति' वहां बहुत से न्यून, अधिक, वक्ता मौनी अथवा दक्ष पुरुष निवास करते हैं, ॥१५॥ अन्वयार्थ - गोशालक आर्द्रक सुनि से कहता है - श्रमण महावीर 'मोरु डरपोक हैं, क्यों कि वे आगन्तुकावास धर्मशाला या सराय में तथा, उद्यानों में वने मकान में नहीं ठहरते हैं। उनके वहां नहीं ठहरने का कारण यही है कि वहां बहुत से न्यून, अधिक, वक्ता, मानी या 1 F. 12 1 'आगतगारे आराम गारे' इत्याहि - शब्दार्थ — गोशाला भुनीने हे छे - 'समणे उभीते - श्रमणस्तु ma:' ang usiak (a stai seus d. Fuk-'amiant-Anzanit’ तेथे भागन्तुभवास अर्थात् धर्मशाणाभां तथा 'आरामगारे - आरामगारे' उद्या - नामां नावामां आवे भानाम 'वास ण उवेइ-चासं न उपैति निवास उरता नथी. त्यां तेनुं न रहेवानुं र ४ छे - ' बहवे मणुस्सी उणातिरित्तावालवा दक्खा हु संति- बहवे मनुष्याः ऊनातिरिक्ता लपालपार्श्वे सन्ति' त्यां ઘણા ખરા ન્યૂન અધિક, વક્તા, મૌની, અથવા દક્ષ પુરૂષા નિવાસ કરે છે. ૧પા અન્વય.—ગોશાલક આદ્રક મુનીને કહે છે કે—શ્રમણુ મહાવીર ભીરૂ અર્થાત્ ડરપેાક છે. કેમકે તેએ આગન્તુકાવાસ-ધમશાલા વગેરેમાં તથા ઉદ્યાનામાં બનાવેલ મકાનમાં રહેતા નથી. તેઓ ત્યાં ન રહેવાનુ‘ કારણુ એજ છે કે–ત્યાં ઘણા એવા ન્યૂન અથવા અધિક વક્તા વિગેરે પુરૂષો નિવાસ કરે છે. પેાતાનાથી જે ઉતરતા હાય કે ન્યૂન કહેવાય છે. પેાતાનાથી જે ઉત્તમ 154 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगोशालकस्य संवादनि० ५९७ कपालपाश्च दक्षा हि सन्ति, तब-ऊनाः स्वापेक्षया हीना:-अतिरिक्ता जात्यादिना अधिकाः लपा वा-वक्तारः, अलपा:-मौनव्रतिकाः विद्यादियुक्ताः, दक्षाः-प्रखर. पण्डिताः सन्तीति, अस्सिन् प्रदेशेऽनेके दार्शनिका बुद्धिमन्तः शास्त्रे कृतपरिश्रमाः दत्ताऽवधाना वर्णनादिमि श्रेष्ठा उन्मज्नन्ति, यदि प्रश्नं कुर्युस्ते तदा किमुत्तरं देयमिति निविष्य जनाकुलाबास दूरात्परिहरन् भीत इत्रैकान्ते वसतिगच्छति च तत्रैव, यत्रैषां सम्भावना न सम्भवेत् ॥१५॥ मूलम्-महाविणो सिखियबुद्धिमंता, ... ... .... सुत्तेहि अत्येहि य णिच्छयन्ना। पुच्छिसु मा णो अणगारा अन्ने, - हति संकमाणो ण उवैति तत्थ ॥१६॥ दक्ष पुरुष निवास करते हैं। अपनी अपेक्षा जो हीन हों वे न्यून कहे - - जाते हैं और जात्यादि से अतिरिक्त को अधिक कहे गए हैं, अधिक या सुन्दर भापग करने वाले वक्ता (लप) कहलाते हैं, 'मौन साधना करने वाले मौनी कहलाते हैं तथा विद्यासिद्ध आदि या प्रखर पण्डित दक्ष, कहलाते हैं। पूर्वोक्त सार्वजनिक स्थानों में अनेक दार्शनिक बुद्धिशाली शास्त्राध्ययन में परिश्रम करने वाले, सावधान तथा वर्णन करने आदि में श्रेष्ठ पुरुष आते जाते रहते हैं। महावीर सोचते हैं कि अगर वे प्रश्न कर बैठेगे तो मैं क्या उत्तर दंगा! इस प्रकार भयभीत होकर वे मनुष्यों से व्याप्त स्थानों से बचते है और ऐसे स्थानों में ही ठहरते हैं जहाँ उनके आने की कोई संभावना न हो ॥१५॥ टीका सरल है ॥१५॥ કેટિના હોય તે અધિક કહેવાય છે સુંદર પ્રવચન કરશવાળા -વક્તા (૧૫) કહેવાય છે. મૌન ધારણ કરવાવાળા મૌનિ કહેવાય છે તથા વિદ્યા સિદ્ધ વિગેરે પ્રખર પંડિત દક્ષ કહેવાય છે પૂર્વોક્ત સાર્વજનિક સ્થાનમાં અનેક પદાર્શનિક, બુદ્ધિશાળી શાસ્રાધ્યનમાં શ્રેમ કરવાવાળા સાવધાન તથા વર્ણન કરવામાં શ્રેષ્ઠ પુરૂષે આવતા જતા રહે છે, તેથી મહાવીર સ્વામી વિચારે છે કે-જો તેઓ કોઈ વિષયમાં પ્રશ્ન કરી બેસશે તે હું શું ઉત્તર આપીશ? આ રીતે ડરપોક થઈને તેઓ મનુષ્યથી વ્યાપ્ત સ્થાનેથી બચતા રહે છે. અને એવા થાનમાં વસે છે કે જ્યાં તેવાઓને આવવાને સંભવ જ ન હોય. ગા.૧પ मा थाना 10 स२१ ४ छ. रथी पास नथी.' - . Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाया-मेधाविनः शिक्षितवुद्धिमन्तः सूत्रेष्वर्थेषु च निश्चयज्ञाः । मा पाक्षुरनगारा अन्ये इति शङ्कमानो नो पैति तत्र ॥१६॥ अन्वयार्थ:-(मेहाविणो) मेधाविना-चतग्राणधारणासम्पन्नाः (सिक्सिप) शिक्षिता:-यद्वा वयप्रमाणनिपुणाः (बुद्धिमंता) बुद्धि मन्त:-औपत्तिक्यादिदियुक्ताः (सुत्तेहि) सूत्रेपु-व्याकरणादिमूत्रविपये (अत्थेहि) अर्थेषु-तत्तच्छास्त्रपरिपाठ 'मेहाविणो सिक्खियबुद्धिमंता' इत्यादि । शब्दार्थ-'मेहाविणो-मेधाविना मेधावी अर्थात् व्रतों के ग्रहण और धारण करने की मतिवाले सिक्खियबुद्धिमंता-शिक्षित. घुद्धिमन्तः' प्रमाणों में निपुण, एवं बुद्धिमान् औत्पत्ति की आदि घुद्धियों से युक्त 'सुत्तहि-सत्रेपु' सूत्रों में अर्थात् शास्त्रके मूलपाठ में तथा 'अत्थेहिं-अर्थेषु' उनके अर्थ में 'य-च' और 'णिच्छयभा-निश्च यज्ञाः' निश्चय को जानने वाले 'अन्ने-अन्ये अन्य-परदर्शन वाले 'अण गारा-अनगारा:' अनगार 'मा णो पुच्छिस्तु-मा अस्माकं प्राक्षुः मुझसे कोई प्रश्न न कर बैठे 'इति संकमाणो-इति शंकमान:' इस प्रकार की आशंका करते हुए महावीर 'तत्य-तत्र' उन जनाकूल स्थानों में एवेति-नौपति' नहीं जाते हैं ।।गा०१६॥ ___ अन्वयार्थ-मेधावी अर्थात् व्रतों के ग्रहण और धारण करने की मतिघाले, शिक्षित-प्रमाणों में निपुण, बुद्धिमान् औत्पसिकी आदि धुद्धियों से युक्त, सूत्रों में अर्थात् शास्त्र के मूलपाठ में तथा उनके - 'मेहाविणो सिक्खियबुद्धिमता' त्याह शा-महाविणो-मेधाविन.' मेधावी. अर्थात् प्रताने अस अने धारा ४२वानी भतीवर 'सिक्खियबुद्धिमंता-शिक्षितबुद्धिमन्त. शिक्षित अर्थात् પ્રમાણમાં પ્રવીણ અને બુદ્ધિમાન એટલે કે ઔત્પત્તિકી વિગેરે બુદ્ધિથી युद्धत 'मुत्तेहि-सूत्रेपु' सूत्रोमा अर्थात् शासना भूखi तथा 'अत्येहिअपना म मा 'य-च' भने 'णिच्छयन्ना-निश्चयज्ञाः' निश्चयन बना। 'अन्ने-अत्ये' सन्य-५२६शनवाण! 'अणगारा-अनागाराः' साधु 'मा णो पुच्छिम -मा अस्माकं प्राक्षु' भने । प्रश्न न पछि मेसे 'इति संकमाणे-इति शङ्क: मान:' मा प्रभारीनी ४ ४२त । महावीर 'तस्थ-तत्र' मेन व्यास स्थानमा ‘ण उवेति-नोपेति' तो नथी. ॥१६॥ અન્વયાર્થ–મેધાવી અર્થાત્ વ્રતને ગ્રહણ અને ધારણ કરવાની મતિબુદ્ધિવાળા શિક્ષિત પ્રમાણમાં નિપુણ, બુદ્ધિમાન ઔત્પત્તિકી વિગેરે બુદ્ધિ થી યુક્ત શાસ્ત્રના મૂળ પાઠમાં તથા તેના અર્થમાં નિપુણ એવા પરદર્શન Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने गौशालकस्य संवाद न० ५९९ (a) च ( णिच्छयन्ना) निश्चयज्ञाः (अन्ने) अन्ये (अणगारा) अनगाराः - साधवःपरदार्शनिका (माणो पुच्छि ) मा अस्माकं प्राक्षुः (इति संक्रमाणी) इति शङ्कमानः- शङ्कां मनसि कुर्वन्नित्यर्थः । (तत्थ) तंत्र - जनाकुले स्थाने (ण उवेति) नो पैतिनं गच्छति महावीरस्वामी, यद्यह ं जनाssकुले स्थाने गमिष्यामि तदा तत्र वसन्तः पाम किमपि प्रक्ष्यन्ति तदोत्तरं दातुमहमसक्तः किं करिष्यामि कथं वी तत्र स्थास्यामि महती मेऽप्रतिष्ठा स्यादिति तव तीर्थकरो नोपैति ॥ १६ ॥ टीका - सुगमा ॥१६॥ मूलम् - णो काम किच्चा ण ये बालकिच्चा, रायाभिओगे कुओ भएणं । वियावारेज्जा पसिणं न वा वि, कामकच्चे हि आरियानं ॥१७॥ छाया - न कामकृत्यो न च बाळकृत्यो राजाभियोगेन कुतो भयेन । व्याणीयात्मनं न वापि स्वकामकृत्ये नेहार्याणाम् ॥ १७॥ उसका अर्थ में निपुण परदर्शनी साधु मुझसे कोई प्रश्न न कर बैठे, इस प्रकार की आशंका करते हुए महावीर उन जनसंकुल स्थानों में नहीं जाते ! वे सोचते हैं कि कदाचित् किसी ने कोई प्रश्न किया तो मैं उत्तर नहीं दे सकूंगा ! उस समय मैं क्या करूंगा ! कैसे वहाँ हूंगा ! मेरी बड़ी अप्रतिष्ठा होगी । यह कारण है कि तुम्हारे ती : कर ऐसे स्थानों में जाते ही नहीं हैं ॥१६॥ टीका सुगम है ॥ १६ ॥ 'णो काम किच्चा ण य बालकिच्चा' इत्यादि । शब्दार्थ- 'मुनि आर्द्रक उत्तर देते हैं- भगवान् महावीरस्वामी 'णो काम कच्चा न कामकृत्य : ' निष्प्रयोजन कोई कार्य नहीं करते हैं और વાળા સાધુ મને કોઈ પ્રશ્ન ન પૂછે આવા પ્રકારની શકા કરીને મહાવીરસ્વામી તેવા પ્રકારના જન સકુલલ-ઘણા જનેાથી યુક્ત એવા સ્થાનામાં જતા નથી. તેમે વિચારે છે કે કદાચ કોઈ કંઈ પ્રશ્ન પૂછી લેશે તે હું સમ્યક્ રીતે તેના ઉત્તર આપી શકીશ નહીં, તેવે વખતે હું શું કરીશ કેવી રીતે ત્યાં રહીશ ? તેવે વખતે મારી માટી અપ્રતિષ્ઠા થશે, એજ કારણથી તમારા તીર્થકર એવા સ્થાનામાં જતા નથી. ૫૧૬૫ ટીંકા સુગમ છે. શબ્દો ---દ્રક મુનિ ઉત્તર આપે છે—ભગવાન મહાવીરસ્વામી ‘નો 'कैमिकिच्चा-न कामकृत्य' प्रयोजन विनानु अ या अर्थ उरता नथी भने 'णय बालकिच्चा न च बाळकृत्यः' मोसनी प्रेम कार विद्यार्थी कार्य या Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थः -- आर्द्रको गोशालकं घत्याह- महावीरस्वामी (जो काम किच्चा) नो कामकृत्यः - जो कामकृत्यं निष्प्रयोजनं कार्य न करोति (ण यो बालकिच्चा) न च बालकृत्यः-न वा बालक वदविचारितं कर्म करोति, न वा - (रायामिओगेग ) राजाभियोगेन - राज्ञ आज्ञयाऽपि न करोति (कुओ भएणं) कुतो भयेन - भयेन कथं वदेत् अर्थात् रमादपि भयान पदवीत्यर्थः किन्तु - ( सकाम कच्चे णिड आयरि याणं) स्वकामकृत्ये नेह ऽऽचार्याणाम्-रवेच्छाचारितया स भगवान् इह-जगति आर्या तथा उपार्जितीर्थकर नामकर्मणः क्षपणाय च धर्मोपदेशं करोति, (पसिणं ६०० 'ण य बालकिच्चा - न च बालकृत्यः' न बालक के समान बिना विचारे ही कोई कार्य करते हैं । 'न वा राधाभिओगे- न वा राजाभियोगेन' वे राजा के भय से भी धर्मका उपदेश नहीं करते हैं कुओ भएणं भयेन कुतः' तो दूसरे के भले तो उपदेश करेंगे ही कैसे ? 'सकाम किच्चे जिह आरियाणं- स्वकाम कृत्येनेहाणां भगवान् उपार्जित किये हुए तीर्थकर नाम कर्मका क्षय करने के लिये आर्य जनों को उपदेश देते हैं, अथवा 'परिणं विद्यागरेज्या-प्रश्नं व्यागृणीपात्' - अथवा निरवद्य प्रश्नका उपदेश देते हैं, सावध प्रश्न का उत्तर नहीं देते हैं | जा० १७॥ अन्वयार्थ --मुनि आर्द्रक उत्तर देते हैं भगवान् महावीर न निष्प्र योजन कोई कार्य करते हैं और न बालक के समान विना विचारे कोई कार्य करते हैं । वे राजा के भय से भी धर्म का उपदेश नहीं करते हैं तो दूसरे के भय से तो उपदेश करेंगे ही कैले ? भगवान् उपार्जित उरता नथी.. 'ण वा रायाभियोगेण न वा राजाभियोगेन' तेथे। राना उरथी पशु ं धर्मने। उपदेश करता नथी. 'कुओ भरणं भयेन कुत' तो पछी पीलमोना डरथी तो उपदेश ४२वानी वात ४ यां नही ? 'सकाम किच्चे णिह आरियाणं- स्वकामकृत्येनेाऽर्याणाम्' भगवान् उपात रवामां आवेला तीर्थ ४२ નામકર્મના ક્ષય કરવા માટે આ પુરૂષાને ઉપદેશ આપે છે. અથવા ‘વધિમાંં वियागरेज्जा - प्रश्न व्यागृणीयात् निराधे प्रश्नोनो उत्तर खाये छे, सावद्य પ્રશ્નોના ઉત્તર આપતા નથી, પ્રગા૦૧૭મા અન્વયા —આકમુનિ ઉત્તર આપતા કહે છે, કે—ભગવન્ મહાવીર સ્વામી પ્રત્યેાજન વિના કૈાઈ કાર્ય કરતા નથી. તેમજ ખાલકની માફક વગર વિચાયુ કઈજ કાર્ય કરતા નથી. તેએ રાજાના ભયથી ધર્માંને ઉપદેશ કરતા નથી તે। પછી બીજા ફાઈના ભયથી તે ઉપદેશ કેમ કરે? ભગવાન ઉપા - Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका शि. शु. अ.६ आर्द्रकमुनेर्गोशालकस्य संवादनि० ६०१ . वियागरेज्जा) प्रश्न निरवद्याश्नोत्तरं व्यागृणीयात् न वाऽपि व्यागृणीयात्सावधस्योत्तरं न ददातीति ॥१७॥ ____टीका--आद्रकमुनि गोशालकं प्रति कथयति-भो गोशालक ! भगवान् महावीरस्वामी 'णो कामकिच्चा' नो कामकृत्या प्रयोजनमन्तरेण किमपि कार्य न करोति । 'ण य बालकिच्चा न च बालकृस्या-बालकवदविचार्य न किमपि कुरुते कार्यम् । न वा 'रायाभियोगेण रानाऽमियोगेन-राज्ञा आज्ञया राजमयेन च धर्मोपदेशं न करोति । 'भएण कुओ' भयेन कुतः-भयेन तु सर्वथा नैव करोति धर्मोपदेश स देवाधिदेवः । 'पसिणं वियागरेज न वावि' प्रश्न व्यागृणीयान्नवा. ऽपि-कदाचिभिरवधपश्नोत्तरं ददाति-न वाऽपि ददाति सावध प्रश्नोत्तरम्, 'स कामकिच्चेणिह आरियाण' स्वकामकृत्येनेहाऽऽर्याणाम्-स्वेच्छाकारितया-स भगवान् इह-जगति-आर्याय धर्ममुपदिशति, तथा-स्वकीयतीर्थकरनामकर्मणः क्षयाय धर्मोपदेशं करोतीति भावः ॥१७॥ किये हुए तीर्थकरनामकर्म का क्षय करने के लिए आयजनो को उपदेश देते हैं । किप्ती के प्रश्न का उत्तर देते है या नहीं भी देते है। अर्थात् निरवद्य प्रश्न का उत्तर देते है, सावद्य प्रश्न का उत्तर नहीं देते है।१७। टीकार्थ-आईक मुनि ने गोशालक से कहा-हे गोशालक ! भगवान् महावीर स्वामी प्रयोजन के बिना कोई कार्य नहीं करते । बालक के समान विना विचारे भी कोई कार्य नहीं करते। वे देवाधिदेव राजा के भय से धर्मोपदेश नहीं देते, किसी के भी भय से उपदेश नहीं देते। कदाचित् निरवद्य प्रश्न का उत्तर देते हैं और सावध प्रश्न का उत्तर नहीं भी देते ! वे तीर्थ कर नामकर्म के क्षय के लिए आर्यजनों को धर्मदे शना देते हैं ॥१७॥ જીત કરેલ તીર્થંકર નામ કર્મને ક્ષય કરવા માટે આર્યજનને ઉપદેશ આપે છે કેઈના પ્રશ્નોને ઉત્તર આપે પણ છે અને નથી પણ આપતા અર્થાત નિરવદ્ય પ્રશ્નોના ઉત્તર આપે છે સાવધ પ્રશ્નોને ઉત્તર આપતા નથી. ૧ળ ટીકાWઆદ્રક મુનિ ગોશાલકને કહે છે—હે ગોશાલક! ભગવાન મહાવીરસ્વામી પ્રયજન વિના કોઈ પણ કાર્ય કરતા નથી. તેમજ બાલકની જેમ વગર વિચાર્યું પણ કોઈ કાર્ય કરતા નથી. તેઓ દેવાધિદેવ એવા રાજાના ડરથી ધર્મોપદેશ આપતા નથી. તે પછી બીજાના ભયની તે વાત જ શી કરવી? અર્થાત કેઈના પણ ડરથી તેઓ ઉપદેશ આપતા નથી કદાચ નિરવદ્ય પ્રશ્નનો ઉત્તર આપે છે, અને સાવદ્ય પ્રશ્નને ઉત્તર આપતા નથી. તેઓ તીર્થકર નામકર્મના ક્ષય માટે આર્ય જનેને ધર્મદેશના આપે છે, ૧ળા सु० ७६ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ . सत्रहतार मलम्-गता च तत्थ अदुवा अगंता, वियागरेज्जा समियासु पन्ने । . अणारिया दसणओ परित्ता, इति संकमाणो ण उवति तत्थ ॥१८॥ छाया-गत्वा च तत्राऽथवाऽगत्वा, व्यागृणीयात्समतयाऽऽशुपक्षः। अनार्या दर्शनतः परीता इति शङ्कमानो नोपैति तत्र ॥१८॥ अन्वयार्थ:--(आसुरान्ने) आशुपज्ञः (गंता) गया (तस्थ) तन-प्रश्नकर्तुः समीपम् (अदुवा) अथवा (अगंता) अगस्व प्रश्नकर्तुः समीपम् (वियागरेज्जा) 'गंता च तत्थ अदुवा अगंता' इत्यादि । शब्दार्थ--'आसुपन्ने-अशुपजा' सर्वज्ञ महावीर 'तत्व-तत्र' प्रश्न करनेवाले के समीप 'गंता-गत्या' जाकरके 'अदुवा-अथवा' अथवा 'अगंता-अगत्वा न जाकर भी 'समिया-समतया समभावसे 'विया. गरेज्जा-व्यागृणीयात्' धर्मका उपदेश अथवा प्रश्नों के उत्तर देते हैं। रागद्वेष से युक्त होकर कभी भी भाषण नहीं करते, 'अणारिया-अनार्याः' अनार्य जन 'दसणओ-दर्शनात्' सम्यक्त्वसे 'परित्ता-परीना' भ्रष्टरहित होते हैं 'इति संकमाणो-इति गइमान:' ऐसी आशंका से 'तस्थ -तत्र' उनके पास अनार्य देशमें 'न उवेति-नोपैति' नहीं जाते हैं। भय के कारण न जाते हों ऐसा कहना उचित नहीं है ॥गा०१८॥ अन्वयार्थ-सर्वज्ञ महावीर स्वामी श्रोताओं के समीप जाकर 'ताव तत्य अदुवा अगता' त्या शहाथ-'आसुपन्ने-आशुप्रज्ञ.' सर्प भावी२२वामी 'तत्थ-तत्र' प्रश्न ४२वापानी पांसे 'ग'ता-गत्वा' १७२ 'अदुवा-अथवा' अथवा 'अगंता आगत्वा' या विना ५५] 'समिया-समतया' समसाथी 'वीयागरेज्जा-व्यागृ. णीयातू' भनी पहेश अथवा प्रशोना उत्तरे। मापे छे रागद्वषथी युत थतमा साष ४२ता नथी. 'अणारिया-अनार्याः' मनाया । 'दसणओ -दर्शनात्' सभ्यत्पथी परित्ता-परीता' भ्रष्ट से है सभ्यत्व दिनाना हाय छ. 'तत्थ-तत्र' या तन्मानी पांसे मनाय शमा 'न उति-नोपैति' नता તથી, ભયના કારણે તેઓની સમીપે જતા નથી તેમ નથી. ૧૮ અન્વયાર્થ–સર્વજ્ઞ મહાવીર સ્વામી શ્રોતાઓની પાસે જઈને અથવા Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधिनी टीका द्वि श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेर्गीशालकस्य संवादनि० ६०३ व्याग्रणीयात् मश्नोत्तरं वदति ( ममिया) समतया समभावेन न तु रागद्वेषाकुलो वदति (अणारिया ) अनार्या : (दंसणओ) दर्शनात् - सम्यक्त्वात् (परित्ता) परीताः भ्रष्टाः (इति संक्रमाणो ) इति शङ्कमानः - इति जानानः 'तस्थ' तत्र - अनार्यदेशे (न उवेति) नोपैति - न गच्छति न तु-भयान्न गच्छतीति ॥ १८ ॥ टीका - - ' आपने' आशुप्रज्ञोऽतीव बुद्धिमान् सर्वज्ञो भगवान् 'तत्थ' तत्रप्रश्नकर्तुः समीपे 'गंवा च' गत्वा च 'अदुवा' अथवा 'अगंता' अगत्वा वा 'समिया' समतया - सममावेन न तु रागद्वेषाभ्यामाकृष्यमाणः 'वियागरेज्जा' व्यागृणीयात् यदि प्रश्नकर्त्तुरुपकारं पश्यति तदा तत्समीपे धर्ममुपदिशति । यदि कदाचित् - अमव्यश्वादिदोषदुष्टः प्रश्नकर्त्ता भवेत्तदा तत्र नोपदिशति । उपदेशमपि समभावतयैव ददाति न तु विषमां दृष्टिमाश्रित्य । विषमदृष्टिकारणयोः रागअथवा न जाकर भी समभाव से धर्म का उपदेश या प्रश्नों का उत्तर देते हैं । रागद्वेष से युक्त होकर भाषण नहीं करते । अनार्य जन सम्यक्त्व से भ्रष्ट-रहित होते हैं, ऐसी आशंका से उनके पास अनार्य देश में नहीं जाते हैं । भय के कारण न जाते हों, ऐसा नहीं है ॥१८॥ टीकार्थ - आशुप्रज्ञ अर्थात् सर्वज्ञ सर्वदर्शी भगवान श्रोताओं के समीप जाकरके अथवा विना गये समभाव से उपदेश करते हैं, राग द्वेष से युक्त होकर नहीं । अगर प्रश्नकर्त्ता का उपकार होना देखते हैं तो उपदेश देते हैं। अगर कोई अभव्यत्व आदि दोष से दूषित प्रश्नकर्त्ता हा तो उपदेश नहीं देते। उपदेश देते हैं तो समभाव से ही देते हैं विषम भाव से नहीं, क्योंकि विषम भाव के कारण रूप राग और द्वेष ગયા વિના પણ સમભાવથી ધર્મના ઉપદેશ અગર પ્રશ્નોના ઉત્તર આપે છે. રાગદ્વેષથી યુક્ત થઈને ભાષણ કરતા નથી. અનાજને સમ્યક્ત્વથી રહિત હાય છે. તેવી શકાથી તેમની પાંસે અર્થાત્ અનાય દેશમાં જતા નથી. ભયને કારણે ન જતા હૈાય તેમ નથી ॥१८॥ ટીકાથ——આશુપ્રજ્ઞ અર્થાત્ સના સદશી ભગવાન્ શ્રોતાની પાંસે જઈ ને અથવા ગયા વિના જ સમભાવથી ઉપદેશ આપે છે. રાગદ્વેષવાળા મનીને ઉપદેશ કરતા નથી, જો પ્રશ્ન કર્તાના ઉપકાર થાય તેમ જુએ છે તે તેને ઉપદેશ આપે છે અથવા કાઈ અભવ્ય વિગેરે દાષથી દૂષિત વ્યક્તિ પ્રશ્ન કરે છે, તે તેને ઉપદેશ આપતા નથી. જેને ઉપદેશ આપે છે, તે સમભાવથી જ ઉપદેશ આપે છે. વિષમપણાથી ઉપદેશ કરતા નથી, કેમકે–વિષષપણાથી ઉપદેશ આપતા નથી. કેમકે વિષમભાવના Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ सूत्रकृतानचे द्वेषयोरभावात् । 'अगारिया' अनार्याः 'दंसणओं' दर्शननः 'परित्ता' परीता:विभ्रष्टाः 'इति संकमाणे' इति शङ्कमानः 'तत्थ' तत्र-तत्समीपे 'ण उवेति' नो'पैति, इमे दर्शनतो विभ्रष्टा अनार्याः, इति शङ्कमानः तत्समीपं नोपगच्छति, अशुभभूमौ शुभवीजवपनस्याऽयुक्तत्वात् भयान्न गच्छनीति न, अपि तु-अनार्यस्वात् फलाऽभावशङ्कया नापतीति जानीहि ॥१८॥ मूलम्-पन्नं जहा वंणिए उदयट्ठी आयस्स हेउं पैगरेइ संग। तंऊवमे सर्मणे णायपुत्ते इच्छेवे मे होई मई विर्यका ॥१९॥ छाया--पण्यं यथा वणिगुदयार्थी, आयस्य हेतोः प्रकरोति सङ्गम् । तदुपमा श्रमणो ज्ञातपुत्रः, इत्येव मे भवति मति वितर्का ।।१९।। उनमें नहीं है। जो अनार्य हैं एवं सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं, उनके समीप वे नहीं जाते। ऊपर भूमि में वीज पोना उचित नहीं है, इसी प्रकार अनार्यों और दर्शन भ्रष्टों को उपदेश देना व्पर्य है। किन्तु यह कहना मिथ्या है कि वे भय के कारण उनके समीप नहीं जाते। जाना निष्फल समझ कर ही वहां नहीं जाते ॥१८॥ .' 'पन्नं जहा वणिए उद्यट्ठी' इत्यादि। शब्दार्थ-'जहा-यथा' जैसे 'उदयही-उदयार्थी' लाभ का अभि. लाषी 'वणिए-वणिक्' वणिक जन 'आयहे-आयस्य हेतोः' लाभ की इच्छा से 'पन्नं-पण्यं' क्रय विक्रय योग्य वस्तु का 'संगं पकरे। -संगं प्रकरोति' संग्रहकरता है अर्थात् महाजन के पास संबंध रखने का કારણ રૂપ રાગ અને દેવ તેઓમાં હોતા નથી. જેઓ અનાર્ય હોય છે, અને સમ્યફ દર્શનથી ભ્રષ્ટ થયેલા હોય છે, તેઓની સમીપે તેઓ જતા નથી. ઉપર જમીનમાં બી વાવવા તે યોગ્ય નથી. એ જ પ્રમાણે અનાર્યો અને ભ્રષ્ટ થયેલાઓને ઉપદેશ આપે તે નકામું છે. પરંતુ એવું કહેવું કેતેઓ ડરના કારણે તેમની પાસે જતા નથી તે યે નથી. કિંતુ તે કથન મિથ્યા જ છે. ત્યાં જવું નિષ્ફળ માનીને જ તેઓ ત્યાં જતા નથી. ૧૮ । 'पन्नं जहा वणिए उदयट्ठी' त्याह J, 'शा-'जहा-यथा' २५. 'उदयट्री-उदद्यार्थी' सामने ४२७पापा ' 'पाणिए-वणिकू' पणि 'आयहेउ-आयस्य हेतोः' मनी २छाथी “पत्न-पण्यं' य विध्य ३२पाय परतुन 'संगं पकरेइ-सङ्गं प्रकरोति' सब ४२ छे. । अर्थात् माननी साथै स रामान विया२ ४२ छ. 'समणे नायपुत्चे Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे, कुब्जा भवन्ति । 'मुवन्ना वेगे-दुवन्ना वेगे' सुवर्णा एके-दुर्वर्णा एके, केचित् क्षत्रियाः, 'मुख्या वेगे-दुख्वा वेगे' सुरूपा वा एके-द्या वा एके-केपांचिद्रूपं कमनीयम् , केपांचिदकमनीयम् । गोत्रवर्णादिना विभिन्नजातीया मनुष्या इहलोके भवन्ति । 'तेसिं च णं मणुयाणं एगे राया भवइ' तेपां पूर्वोक्तानाम्-अनेकभेदमिन्नानां मनुष्याणाम् , मध्ये 'एगे' एकः 'राया' राजा शासकः 'भवई' भवति, 'महयादिमवंतमळयमंदरमहिंदसारे' महाहिमयन्मलगमन्दरमहेन्द्रसारो राजेति शेषः । स राजा हिमवान् , हिमप्रधानको गिरिः, मलयस्तन्नामा गिरिः, मन्दराचल:महेन्द्रो गिरिः एयः समानः-विविधधातुविस्ताराभ्याम् । अथवा-हिमवदादि पर्वतवत्-दृढो महेन्द्रो देवराट् तद्वत् बलविभवाभ्याम्-अजितो राजा भवति । अच्चन विसुद्धरायकुलवंसप्पभूए' अत्यन्त विशुद्धराजकुलवंशममूतः। अत्यन्तं विशुद्वानि यानि राजकुलानि, तेषां वंशेऽन्वये प्रसूतिरुत्पत्तियस्य स तथा। अत्यन्तनिर्मलराजान्वयसमुत्पन्नः । 'निरंतररायलव वणविराइयंगवंगे' निरन्तरराजलक्षणविरा बौने या कुवले भी होते हैं । कोई स्तुन्दर रूप वाले और कोई कुरूप होते हैं, अर्थात् किसी का वर्ण कमनीय और किसी का अकमनीय होता है । इस प्रकार गोत्र एवं वर्ण आदि के द्वारा भिन्न भिन्न प्रकार के मनुष्य इस लोक में निवास करते हैं । उन मनुष्यों में कोई एक राजा होता है । वह राजा धातु और विस्तार की दृष्टि से हिमवान् पर्वत, मलय पर्वत, मन्दर पर्वत और महेन्द्र नामक पर्वन के समान होता है । अथवा हिमवान् पर्वत आदि के समान दृढ तथा महेन्द्र अर्थात् बल और वैभव में इन्द्र के समान प्रतापवान होता है। अत्यन्त विशुद्ध राजकुलों की परम्परा में जन्मा होता है। उसके अंग प्रत्यंग राजा के चिह्नो से निरन्तर सुशोभित અથવા કુબડા પણ હોય છે. કેઈ રૂપથી સુંદર હોય છે, તે કઈ કુરૂપ હોય છે. અર્થાત્ કોઈને વર્ણ સુંદર વખાણવા યોગ્ય અને કેઈનું રૂપ અકમનીય અર્થાત્ મનને ન ગમે તેવું હોય છે. આ રીતે ગોત્ર અને વર્ણ વિગેરેથી જુદા જુદા પ્રકારના મનુષ્ય આ લેકમાં નિવાસ કરે છે તે મનમાં કેઈ રાજા હોય છે. તે રાજા ધાતુ અને વિસ્તારની દ્રષ્ટિથી, હિમાલય પર્વત, મલયાચલ પર્વત, મન્દર (મેરૂ) પર્વત અને મહેન્દ્ર નામના પર્વતની સરખા હોય છે. અથવા હિમાલય પર્વત વિગેરેની સરખા દઢ (મજબૂત) તથા મહિન્દ્ર અર્થાત્ બળ અને વૈભવમાં ઈન્દ્રની સરખા પ્રતાપવાનું હોય છે. અત્યંત વિશુદ્ધ રાજકુળની પરંપરામાં જન્મેલા હોય છે. તેના અંગ પ્રત્યંગ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधिनी टीका fa. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने गौशालकस्य संवादनि० ६०५ अन्वयार्थः- (जहा) यथा (उदयद्वी) उदयार्थी - लाभार्थी (वणिए) वणिक् (आयस्स हेउ) आयस्य-लाभस्य हेतो: - कारणात् (पन्नं) पण्यम् - क्रयविक्रययोग्यं वस्तु गृहीत्वा (संगं) सङ्गम् - सम्बन्धं महाजनस्योपैति - करोति (समणे नायपुत्ते) श्रमणो झावपुत्रः 1: ( तऊ मे ) तदुपम :- तत्सदृशः (इति मे होइ मई विक्का) इति - इत्येवं मे - मम मतिः - ज्ञानम्, वितर्का भवतीति ॥१९॥ टीका -- 'जहा' यथा - येन प्रकारेण 'उदयही' उदयार्थी - लाभार्थी 'वणिए' वणिक् 'पन्नं' पण्यम् - क्रयविक्रययोग्यं वस्तु गृहीत्या 'आयस्स हेउ' आवस्य हेतोः ‘संगं पगरे’ सङ्गं प्रकरोति-यथा कश्चिद वणिग्लाभाय महाजनैरतिधनै व्यवहारिभिः सह सङ्गं विधत्ते । 'तऊत्र मे - तदुपमः - तस्य-लाभकारिणो वणिजः उपमा विर्धते यस्मिन् सः तादृश एवाऽयं साजात्यात् । 'नायपुत्ते समणे' ज्ञातपुत्रः श्रमणो महावीरः तदुपमः- तत्सदृशः 'इच्चेव मे मई वियका होइ' इत्येवं में - मम मतिर्वितक - भवति । हार करता है 'समणे नायपुत्ते- श्रमणो ज्ञातपुत्रः' ज्ञानपुत्र श्रमण भी 'तत्र मे - तदुपम' उसी के समान है ' इति मे मई होई विधक्का - इति मे मतिः भवति वितर्का' ऐसी मेरी मति वितर्क वाली होती है ॥ १९॥ अन्वयार्थ - - जैसे लाभ का अभिलाषी वणिक् लाभ की इच्छा से क्रय विक्रय योग्य वस्तु का संग्रह करता है अर्थात् महाजन के पास जाता है, ज्ञातपुत्र श्रमण भी उसी के समान हैं। ऐसी मेरी मति और वितर्क है ॥ १९॥ L टीकार्थ - जिस प्रकार लाभ का अर्थी वणिक् पण्य-विक्रय करने योग्य वस्तु को लेकर आय के लिए व्यापारियों का सम्पर्क साधता है, ऐसे ही ज्ञातपुत्र श्रमण हैं । अर्थात् वे जहाँ जाने से लाभ देखते हैं वहां जाते हैं । ऐसी मेरी मति है, और ऐसा ही मेरा वितर्क है। 1 - श्रमणो ज्ञातपुत्रः' ज्ञातपुत्र श्रमायु पशु 'तऊव मे - तदुपम' न प्रमाणे छे. ' इति मे मई होइ वियक्का - इति मे मतिः भवति वितर्का' मे प्रभा भारी मुद्धि વિતર્ક યુક્ત થાય છે. ૧૯ના અન્વયા લાભની ઈચ્છાવાળા વાણિયા જેમ લાભની ઇચ્છાના કારણે ક્રય વિક્રય ચેાગ્ય વસ્તુને સંગ્રહ કરે છે. અર્થાત્ મહાજન પાંસે જાય છે. જ્ઞાતપુત્ર શ્રમણુ ભગવાન્ પણ તેની સમાન જ છે. તેમ મારી મતિ છે અને વિતક છે. ૧૯ા ટીકા –જે પ્રમાણે લાભની ઇચ્છા રાખવાવાળેા વેપારી ક્રય વિક્રય-ખરીદ વેચાણુ કરવા ચેાગ્ય વસ્તુ ખરીદીને આવક માટે ખીજા વ્યાપારીયેાના સંબધ રાખે છે. જ્ઞાતપુત્ર શ્રમણુ મહાવીર પણુ એ પ્રમાણે જ છે. અર્થાત્ તેઓ જ્યાં જવાથી લાલ દેખે છે, ત્યાંજ જાય છે. આ પ્રમાણે મારી મતિ અને વિતક છે. Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ संकताङ्गसूत्र गोशालक आईकमाक्षिपति भोः । आईक ! त्वदीयो महावीरो यत्र लाभ पश्पति, तत्रैव धर्ममुपदिशति नाऽन्यत्र, यथाहि-वणिक् स्वद्रव्यको रल्पवस्तुमिरेका सम्पूर्णी नावं देशान्तरे नेतुमसमर्थः सन् महाजनैः सह विधाय आदाय उदीय. द्रव्यजातं ततो व्रजति तद्वन्महावीरोऽपीति मे तर्कः ॥१९॥ मूलम्-नवं न कुज्जा विहुणे पुराणं चिंचाऽमइं ताइय साह एवं। एंतो क्या बंभवतित्ति वुत्तं तस्तो दैयट्री सेमणेत्ति बेमि ॥२०॥ छाया--नवं न कुर्याद्विधूनयति पुराणं त्यक्त्वाऽमति बायी स आह एवम् । ___ एतावता ब्रह्मवतमित्युक्तं तस्योदयार्थी श्रमण इति वीमि ॥२०॥ आशय यह है--गोशालक आद्रक से कहता है कि तुम्हारे महावीर जहां लाभ देखते हैं, वहीं धर्मका उपदेश देते हैं। अतएव वह मुनाफाखोर व्यापारी लाभ कमाने के लिए दूसरों के पास अपना माल ले जाता है, उसी प्रकार वह भी दूसरों के पास जाते हैं ॥१९॥ 'नवं न कुज्जा विठुणे पुराणं' इत्यादि। शब्दार्थ-'नवं न कुज्जा-नवं न कुर्यात्' भगवान महावीर नवीन कर्मवन्ध नहीं करते हैं किन्तु 'पुराणं-पुराण' पूर्व बद्ध कर्मों का विहणे -विधूनयति' क्षय करते हैं 'ताइ-वाघी' षट् जीवनिकायों के रक्षक 'स-स: वे भगवान् एवं आह-एचमाह' ऐसा कहते हैं कि-'अमई-अमनिम्' कुमति को चिच्चा-त्यक्त्वा' त्यागकर 'एयोवया-एतावता' त्याग करना मात्र से 'बंभवतित्ति-यात्रतमिति' मोक्ष प्राप्त करता है, कुमति કહેવાનો આશય એ છે કે—ગશાલક આદ્રકને કહે છે કે તમારા મહાવીરસ્વામી જ્યાં લાભ દેખે છે, ત્યાંજ ધર્મને ઉપદેશ આવે છે. બીજે નહીં તેથી જ હું કહું છું કે તે નફર વ્યાપારી જેવા છે. જેમાં વ્યાપારી લાભની ઈચ્છાથી બીજાઓની પાસે પિતાને માલ લઈ જાય છે. એ જ પ્રમાણે તેઓ પણ બીજાઓની પાસે જાય છે. તે લાભ હોયતો જ જાય છે. ૧૯ __ 'नवं न कुज्जा विहुणे पुराण' त्यहि शा-'नव न कुज्जा-नवं न कुर्यात्' भगवान् मडावी२ नवीन ४'ध ४२ नथी. परंतु 'पुराण-पुराणम्' पूर्व मद्ध भाना 'विहूणे-विधूनयति' क्षय ४२ छे. 'ताइ-बायी' 4 नियनु २२५५ ४२पापा 'स्व-सः' ते मा. पान् एव आह-एवमाह' २१ मे प्रमाण ४९ छ है-'श्रमई-अमतिम्' उभतिर्नु 'चिस्वा-त्यक्त्वा' त्याग ४रीने 'एयोवया-एतावता' त्या ४२१। भारथी 'बभवत्तित्ति-ब्रह्मवसमिति' भाक्ष प्रा. रे छे. सुमतिना त्यागने । प्रात Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि शु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगौशालकस्य संवावनि० ६०७ अन्वयार्थ:-(नवं न कुज्जा) नव-नवीनं कर्म न कुर्यात्-न करोति (पुरापो) पुराणं पूर्वकालिक बद्धकर्म (विहूणे) विधूनयति-अपनयति (अमई) अति-कुमू. तिम् (चिच्चा) त्यक्त्या-परित्यज्य (ताइ य) बायी-घड्जीवनिकायरक्षकः स भगः वान (एच) एवम् (आह) आह-कथयति (एयोवया) एतावता (बंभवत्ति त्ति) ब्रह्ममोक्षो भवतीति (बुन्त) उक्तम्-कथितम् (तस्स) तस्य -मोक्षस्य (उदयट्टी) उद: यार्थी-लाभार्थी (समणे तिमि) श्रमणो महावीर इति ब्रवीमि-कथयामीति ॥२०॥ ___टीका- भगवान महावीर, 'नवं न कुज्जा" नवं न कुर्यात्-नूतनं कर्म न करोति, पुराणं विहणे' प्राक्तनं-संपाराऽऽपादक कर्म विधूनयति-क्षपयति । के त्याग को ही ब्रह्मवत 'वुत्त-उक्तम्' कहागया है 'तस्ल-तस्य' उन मोक्ष का 'उदयट्ठी-उदयार्थी' लाभ की इच्छावाले 'समणेत्ति वेमि-श्रमण इति ब्रवीमि' श्रमण भगवान महावीर है, ऐसा मैं कहता हूँ ॥२०॥ . अन्वयार्थ--भगवान् महावीर नवीन कर्मबन्ध नहीं करते हैं, किन्तु पूर्वबद्ध कर्मोंका क्षय करते हैं । षट् जीवनिकायों के रक्षक भगवान ऐसा कहते हैं कि कुमति को त्याग कर ही कोई मोक्ष प्राप्त करता है। कुमति का त्याग करने से ही ब्रह्मवत कहा गया है। श्रमण भगवान् उसी मोक्षवत (ब्रह्मवत) के अभिलाषी हैं ॥२०॥ टीकार्थ-आर्द्रक मुनि गोशालक से कहते हैं- भगवान के लिए तुमने व्यापारी का जो दृष्टान्त दिया है सो वह एकदेश से या सर्वदेश से ? एक देश से हो तो वह हमें भी इष्ट है, क्योंकि भगवान् जहां उपदेश की सफलता देखते है, वहीं धर्मोपदेश देते हैं । दूसरा पक्ष 'वुत्त-उक्तम्' ४ छ. 'तस्स-तस्य' ते भाक्षना 'उदयट्ठी-उदयार्थी' मालनी २छापा 'समणेत्ति बेमि-श्रमण इति ब्रवीमि' श्रमाय मावान महावीर छे. से प्रभारी छु.॥२०॥ અન્વયાર્થ–ભગવાન શ્રી મહાવીર નવીન કમબંધ કરતા નથી પરંતુ પૂર્વ બદ્ધ કર્મોને ક્ષય કરે છે. પર્ જવનિકાના રક્ષક ભગવાન સ્વયં એવું કહે છે કે-કુમતિને ત્યાગ કરે તેને જ હાવ્રત કહ્યું છે. શ્રમણ ભગવાન એજ મક્ષ વ્રત (બ્રહ્મવત) ના અભિલાષી છે. ૨૦ ટકાથ–આદ્રક મુનિ શાલકને કહે છે કે–ભગવાન મહાવીર માટે તમેએ વ્યાપારીનું દષ્ટાંત આપ્યું તે તમોએ એકદેશથી આપેલ છે કે સર્વ દેશથી આપેલ છે? જે એક દેશથી એ દષ્ટાન્ત આપેલ હોય તો તે અમને 'પણ માન્ય છે, કેમકે–ભગવાન જ્યાં ઉપદેશની સફળતા જુવે છે, ત્યાં જ ધર્મો Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ το सूत्रकृताङ्गसूत्रे I 'स ताई एवं आह' स महावीर खायो षड्जीवनिकायरक्षकः स्त्रयमेव-'स आइ एवं ' स एवमाह- कथयति । 'अमई चिच्चा' अमति त्यक्त्वा परित्यज्य मोक्ष प्राप्नोति पुरुष: । 'एयोवया' एतावता कुमतिश्यागेनैव 'वंभवत्तित्ति' ब्रह्मव्रतमिति तं उक्तम् 'तरसोदयडी' तस्य मोक्षाणपत्रस्योदयार्थी अभिलापुकः 'समणे तिवेमि? श्रमण इति पीम्यहम् | आईकः कथयति भो भो गोशालक ! भगवतो मरावीरस्य त्वया वणिगू दृष्टान्तः प्रदर्शितः स दृष्टान्त एकदेशेन सर्वात्मना वा ? नाद्यः तस्ये. ष्टत्वात् । यत्रोपदेशफलं पश्यति तत्रोपदिशति धर्मं भगवान्। द्वितीयस्तु नैत्र सम्भवति यतो हि भगवान् सर्वेषां रक्षकः । नवीनं कर्म न वध्नाति पुराणं चापनयति कुबुद्धिमपहाय विहरति-सदुपदेशं च ददाति । स्वयमेव स ब्रवीति कुमति - त्यागी मोक्षमाप्नोति स स्वयं कुमतित्यागी । अतः स मोक्षोदयार्थी इत्यहं वीमि । आर्द्रकस्योत्तरं गोशालक प्रतीति भावः ||२०|| मूलम् - समारभते वर्णिया भूयगामं परिग्गहं चेव ममायमाणा । तेइसंजोगमविष्पहाय आयस्स हेउं पंगरंति 'संगं ॥ २१ ॥ छाया - समारभन्ते वणिजो भूतग्रामं परिग्रहं चैव ममीकुर्वन्ति । ते ज्ञातिसंयोगमपि महाय आयस्य हेतोः प्रकुर्वन्ति सङ्गम् ॥ २१ ॥ ठीक नहीं है, क्योंकि भगवान् सभी प्राणियों के रक्षक हैं। वे नवीन कर्मों को बंध नहीं करते हैं और पुरातन (पूर्वके) कर्मों का क्षय करते हैं। कुमति का त्याग करके भ्रमण करते हैं और सदुपदेश देते हैं। वे स्वयं यही कहते हैं कि कुमति का त्यागी ही मुक्ति पाता है । इस कारण वे मोक्षोदय के अर्थी हैं, ऐसा मैं कहता हूँ । यह गोशालक के प्रति आर्द्रक मुनि का उत्तर है ||२०|| 'समारभते' इत्यादि । शब्दार्थ - आर्द्रक पुनः गोशालक से कहते हैं - हे गोशालक ! પદેશ આ પે છે ખીન્ને પક્ષ ખરેખર નથી. કેમકે ભગવાન્ સઘળા પ્રાણિયાનું રક્ષણ કરવા વાળા છે. તેએ નવીન કર્માંના ખંધ કરતા નધી. અને પૂના કરેલા કર્માંના ક્ષય કરે છે. તેએ કુમતિના ત્યાગ કરીને વિચરે છે. અને સદુ૫દેશ આપે છે. તેઓ સ્વય' એજ કહે છે કે-કુમતિના ત્યાગ કરનાર જ મુક્તિ પામે છે. તેથી તેઓ મેક્ષતા ઉદયને ઇચ્છનારા છે એ પ્રમાણે હું કહું છું. આ પ્રમાણે ગોશાલકે આર્દ્ર કને ઉત્તર આપ્યા છે. ૫ગા૨ના 'समारभते' त्याहि શબ્દાથ --આદ્ર કમુનિ ફરીથી ગોશાલકને કહે છે.—હુ ગોશાલક ! Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगशालकस्य संवादनि० ६०९ अन्वयार्थः -- आर्द्रको गोशालक प्रति कथयति - भोः ! (वणिया ) वणिजःव्यापारकर्त्तारः (भूयगामं) भूतग्रामं - माणिसमुदायम् ( समारभंते ) समारभन्तेआरम्भसमारम्भं कुर्वन्ति, तथा - (परिग्ग) परिग्रहम् (चेव ) चैत्र (ममायमाणा) ममीकुर्वन्ति - अर्थात् - परिग्रहेऽपत्यदारधनादौ ममेत्यहंकारं व्रजन्ति - ममत्वबुद्धि दधतीत्यर्थः, (ते) ते वणिजः (णाइसंजोगमविष्पहाय ) ज्ञातीनां परिवाराणां संयोगं यथायथ स्वस्वामिभावादिसम्बन्धम् अविपहाय - अश्यकत्वा (आयस्प देउ) आयस्य- मूलद्रव्यतो लव्धस्याः वृद्धे हैतौ (संग) सङ्गम् - अयोग्यैरपि सह सम्बन्धम् (पगरंति) प्रकुर्वन्ति, वणिजस्तु यथायथ व्यापारं कुर्वन्तः घातयन्ति जीवान् 'वणिया - वणिजः' व्यापारी लोग 'भूयगामं- भूतग्रामं' प्राणी समूहका 'समारभंते - समारभन्ते' आरंभ समारंभ करते हैं तथा 'परिग्गहं चेव - परिग्रह चैव' परिग्रह के ऊपर 'ममाघमाणा - ममीकुर्वन्ति' ममता रखते हैं अर्थात् पुत्र, कलत्र, धन, आदि पर ममत्वभाव धारण करते हैं 'ते - ते ' वे वणिक् जन 'नाइस जोगमविपहाय - ज्ञातिसंयोगमविप्रहाघ' पारिवारिक जनों के संयोगको अर्थात् स्वस्वामी संबन्धको त्याग न करते हुए 'आवस्य हेउ - आयस्स हेतो:' लाभ के लिए 'संग-सङ्गम्' संबंध न करने योग्य लोगों के साथ भी संबंध 'पगरंतिप्रकुर्वन्ति' करते हैं ॥ २१॥ अन्वयार्थ -- आर्द्रा के पुनः गोशालक से कहते हैं - हे गोशालक ! व्यापारी लोग प्राणिसमूह का आरंभ समारंभ करते हैं तथा परिग्रह पर ममता रखते हैं अर्थात् पुत्र, कलत्र धन आदि पर ममत्व भाव धारण करते हैं । वे पारिवारिक जनों के संयोग को अर्थात् स्वस्वामी 'वणिया - वणिजः' वेपारीयो 'भूयगाम' - भूतग्राम' आशी समूहना 'समारभतेसमारभन्ते' माल भने समारंभ ४रे छे तथा 'परिग्गह' चैव परिग्रह चैव' परिग्रहनी ५२ ' ममायमाणा - ममीकुर्वन्ति' भमता राणे हे अर्थात् पुत्र, पुत्र धन, विगेरे उपर भभत्वलाव धार रैछे 'ते - ते' ते वेपारीये 'नाइसंजोगम विप्पहाय - ज्ञातिसंयोगमविप्रहाय' परिवारना माणुसोना सयोगने अर्थात् स्वस्वामी संभधना त्याग न त 'आयस्थ हेउ - आयस्य हेतो.' साल भाटे 'संगसङ्गम्' समधन ४२वाने योग्य सोहोनी साथै पशु संबंध 'पगरति-प्रकु वन्ति' ४२ छे. ॥२१॥ અન્વયા --આ કીથી ગોશાલકને કહે છે હું ગોશાલક વ્યાપારી લેકે પ્રાણિ સમૂહના આરબ મમારભ કરે છે. તથા પરિગ્રહ પર મમતા રખે છે. અર્થાત્ પુત્ર ફલત્ર ધન વિગેરેમાં મમત્વ બુદ્ધિ રાખે છે. તે પરિવા सु० ७७ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे तथाsपरित्यज्यैव परिवारं परिग्रहे ममत्ववन्तो दिग्विदिक्षु धावन्ति । गत्वा चाऽन्यैः सहाऽसंबद्धवद्धमौजन्या आयमन्विच्छन्ति । भगवांस्तु निरीहोऽपरिग्रहो जीवरक्षका केवलं परोपकारमामाद्यैत्र धर्मोपदेशेन पराननुगृह्णाति । इत्युभयो महदन्तरमाकाशपातालयोरिवेति ||२१|| टीका - सुगमा ॥२१॥ ६१० - मूलम् - वित्तसिंणो मेहुणसंपगाढा ते भोयणट्टा वर्णिया वैयंति । वयं तु कामेसु अज्झोवैवन्ना अणारियों पेमरसेसुं गिंद्वा | २२ | छाया - वित्तैषिणो मैथुनसंप्रगाढा स्ते भोजनार्थ वणिजो व्रजन्ति । वन्तु कामेष्वध्युपपन्ना अनायाः प्रेमरसेषु गृद्धाः ॥२२॥ संबंधी को न त्यागते हुए लाभ के लिए संबंध न करने योग्य लोगों के साथ भी सम्बन्ध करते हैं ॥ २१ ॥ तात्पर्य यह है कि व्यापारी यथायोग्य व्यापार करते हुए वे जीवों का घात करते हैं । वे परिवार संबंधी स्नेह के त्यागी नहीं होते हैं । परिग्रह संबंधी ममता के कारण दिशाओं और विदिशाओं में दौड़धूप करते रहते हैं । दूसरो के साथ सौजन्य दिखला कर लाभ की इच्छा करते हैं । किन्तु भगवान् निष्काम हैं, अपरिग्रही हैं, जीवों के रक्षक हैं, केवल परोपकार भाव से ही धर्मोपदेश देकर दूसरों का अनुग्रह उपकार करते हैं। इस प्रकार दोनों में महान अन्तर है ॥२१॥ टीका सुगम है || २१ ॥ રના જનાના સપર્ક ને સ્વ સ્વામિ સંબંધના ત્યાગ કર્યાં વિના લાભ માટે ન કરવા ચેાગ્ય લેાકેાની સાથે પણ સંબધ કરે છે. ૨૧ા ટીકા –-વ્યાપારિયા યથાર્યેાગ્ય વેપાર કરતા થકા જીવાના ઘાત કરે છે. તેએ પેાતાના પારિવારિક સબંધના સ્નેહના ત્યાગ કરવાવાળા હાતા નથી પરિગ્રહ સ`ખ ધી મમતા દ્વારા દિશાએ અને વિદિશ એમાં દોડાદોડ કરતા રહે છે. ખીજાઓની સાથે સજ્જન પણુ' બતાવીને પેાતાના લાભની જ ઈચ્છા રાખે છે પરંતુ ભગવાન્ નિષ્કામ છે. અપરિગ્રડ વાળા છે, જીવાનુ રક્ષણ કરવા વાળા છે. કેવળ પરેપકાર બુદ્ધિથી જ ધમ્મપદેશ આપીને ખીજાએ પર અનુગ્રહ અર્થાત્ ઉપકાર કરે છે. આ રીતે ખન્નેમાં મહાન્ અંતર છે. ૧૫ આ ગાથાની ટીકા સરળ ાવાથી જુદી આપી નથી, Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका हि. श्रु. अ. ६ आईकमुने!शालकस्य संवादनि० ६११ अन्वयार्थ:-माकः पुनरपि गोशालकं कथयति-(वणिया) वणिजः (वित्तसिणो) वित्तैषिणो धनाभिकापिणो भवन्ति, तथा- (मेहुणसंपग.ढा) मैथुनसंप्रगाढा:-मैथुनेऽत्यन्तासक्तमानसा भवन्ति । (ते भोयणट्ठा वयंति) ते भोजनार्थं व्रजन्ति-वणिजो भोजनोपलव्ध्यै इतस्ततो भ्रमन्ति, तु-अमोऽस्मादेव कार णात् (कामेसु) कामेषु (अझोत्रचन्ना) अध्युपपन्ना:-कामाऽऽसक्ताः (प्रेमरसेसु) मेमरसेषु (गिद्धा) गृद्धाः (अणारिया) अनार्यास्ते इति (वय) वयम्-कथयामः। तान् पणिवृत्तीनिति ध्वनिः । तस्मिन्ननेकवारं क्रयविक्रयपचनपाचनादिके तथा परिग्रहे धनधान्यद्विपदचतुष्पदादिके नि-निश्चयेन श्रिताः बद्धाः निःश्रिता वणिजो भवन्तीति ।।२२।। टीका-सुगमा ॥२२॥ 'वित्तसिणी मेहुणसंपगाढा' इत्यादि । शब्दार्थ-फिर से आद्रक मुनि गोशालक से कहते हैं-'वणियावणिज' व्यापारी जन 'वित्तलिगो-वित्तैषिणः' धन के अभिलाषी होते हैं। तथा 'मेहुणसंपगाढा-मैथुनसंप्रगाढाः' मैथुन में आसक्त होते हैं 'ते भोयणट्ठा वयंति-ते भोजनार्थ व्रजन्ति' वे ओजन के लिए इतस्ततः भ्रमण करते हैं 'कामेसु-कामेषु' जो कामभोगों में 'अज्झोववन्ना-अध्युपपन्ना' आसक्त होते हैं, तथा 'पेमर सेतु-प्रेमरसेषु' स्नेहरस में 'गिद्धा-गृद्धाः' आसक्त होते हैं, उनको 'अणारिया-अनार्याः' अनायें है ऐसा 'वयंतु-वयन्तु हम कहते हैं ॥२२॥ ____ अन्यधार्थ-आईक गोशालक से फिर करते हैं-व्यापारी जन धन के अभिलाषी होते हैं, एवं मैथुन में भी आसक्त होते हैं, वे भोजन 'वित्तेसिणो मेहुणसंपगाढा' त्यहि शहाथ-Nथा माद्र मुनि ४ छ,-'वणिया-वणिज.' व्यापश्या 'वित्तेसिणो-वित्तैषिणः धन भावानी ४२७ वा लाय. तथा 'मेहुणसंपगाढा-मैथुनसप्रगाढाः' भैथुनमा मासहित पाहाय छे 'ते भोयणटा वयति. ते भोजनार्थ व्रजन्ति' तमाम भाटे ४ माम तम. म छ. 'कामेसु कामेषु' २मा भगोमा 'अझोववन्ना-अध्युपपन्नाः' मासरत जाय छ, तथा 'पेमरसेसु -प्रेमरसेपु' स्ने २समा 'गिद्धा-गृद्धाः' मासहित य छ तमान 'अणारिया-अनार्या.' मानाय तम 'वयं तु-वयन्तु' ममे तो डी छीस. १२२॥ અન્વયાર્થ–આદ્રક ગોશાલકને ફરીથી કહે છે કે-વ્યાપારી લેક ધનની * ઈચ્છા વાળા હોય છે તથા મિથુનમાં આસક્ત હોય છે. અને ભજન માટે Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ मूलम् - आरंभगं चैव परिग्गहं च अविउँस्सिया णिस्सियै आयदंडा । तेसिं च से उदए जं वयासी, सूत्रकृतसूत्रे चउरंतणंता य हाय है ॥२३॥ छाया - आरम्भकं चैव परिग्रहञ्च व्युत्सृज्य निःश्रिता आत्मदण्डाः । तेषां च स उदयो यमवादीचतुरन्वानन्ताय दुःखाय नेह ||२३|| के लिए इधर उधर भ्रमण करते हैं । किन्तु जो कामभोगों में आसक्त हैं तथा स्नेह रस में गृद्ध हैं, उनको हम अनार्य कहते हैं |२२| तात्पर्य इस कथन का यह है कि भगवान् महावीर को व्यापारी की उपमा देना योग्य नहीं हैं । व्यापारी गृहस्य होते हैं, अतः वे क्रय-विक्रय, पचन पाचन आदि सावध क्रियाएँ करते हैं तथा धन धान्य द्विपद चतुष्पद आदि परिग्रह में मूर्च्छित रहते हैं। मैथुन के त्यागी नहीं होते। किन्तु भगवान् ऐसे नहीं हैं। वे समस्त आरंभ समारंभ परिग्रह से अतीत है और पूर्ण ब्रह्मचर्य के धारक हैं ||२२|| टीका सुगम है ||२२|| 'आरंभगं चैव परिग्गहं च' इत्यादि । शब्दार्थ - 'आरंभगं - आरम्भकं' प्राणातिपातआदि आरंभ तथा 'परिग्गहं- परिग्रहं' धन धान्य आदिपरिग्रहको 'अविउस्तिय- अव्यु· सृज्य' न याग करके व्यापारी 'णिस्सिय - निश्रिताः' उसमें आसक्त આમ તેમ ભ્રમણ કરે છે. પરતુ જેઓ કામભેગોમાં આસક્ત હોય છે અને સ્નેહ રસમાં વૃદ્ધ હાય છે તેને અમે અનાય કહીએ છીએ. રા કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે~~ભગવાન્ મહાવીરને વ્યાપારીની ઉપમા આપવી તે ખરાખર નથી. વ્યાપારિયે ગૃહસ્થ હાય છે. તેથી તેએ કયવિક્રય ખરીદ વેચાણુ, પચન, પાચન વિગેરે સાવદ્ય ક્રિયાઓ કરે છે. તથા ધન ધાન્ય દ્વિપદ, ચતુષ્પદ્ર વિગેરે પરિગ્રહમાં મૂôિત હાય છે. મૈથુનના ત્યાગ કરનારા હાતા નથી. પરંતુ ભગવાન્ એવા નથી. તેઓ બધા જ આરંભ અને પરિગ્રહથી પર છે, અને પૂર્ણ બ્રહ્મચર્યનું પાલન કરવાવાળા છે. રા આ ગાયાને ટીકા સરળ છે. જેથી જૂદો આપેલ નથી. 'आरं भगं चेत्र परिगई' च' इत्याहि शब्दार्थ'--'आरंभग-आरम्भकं' प्रातिपात विगेरे मारंभ तथा 'परिग्गह- परिग्रह" धन, धान्य, विगरे परिवहन। 'अविउस्सिय - अव्युत्सृज्य' त्याग न ने व्यापारी 'णिस्सिय- निश्रिताः' तेमां भासत थाय छे. 'आयदंडा Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगौशालकस्य संवादनि० ६१३ अन्वयार्थः-(आरं भगं चेव) आरम्भकम्-माणातिपातादिलक्षणम् (परिगहं च) धनधान्यादिलक्षणम् (अविउस्सिय) अव्युत्सृज्यापरित्यज्य (पिस्सिय) नि:त्रिता:-बद्धाः (आयदंडा) भात्मदण्डा ये वणिनः (तेसि च) तेपां च (से उदर) स उदयः-धनका मादिरूपः (जं चयासी) यमवादी: (प चउरंतणताय दुहाय) स चतुरन्तानन्ताय दुःखाय (णेह) नेह वणिजां लाभः संसारदुःखाय न तु सुखाय, तीर्थकरस्योदयश्च केवलज्ञानप्राप्तिलक्षणो न तथा किन्तु सुखायेति ॥२३॥ होते हैं 'आयदंडा-आत्मदंडाः' वे अपनी अत्माको दण्डित करने वाले हैं, तुमने 'तेसि-तेपां' उनका 'जबयासी-यमवादीः' जो उदय कहा है, 'से उदए-स उद्य' यह उदय 'चारतणंत्राय दुसाध-चतुरन्तान. न्ताय दुखाय' चतुगतिरूप और अनंत दुःखका कारण होता है, 'णेह -नेह' वह उद्य कभी नहीं भी होता है, अर्थात् ऐकान्तिक नहीं है, तीर्थकर भगवान का उदय केवल ज्ञान प्राप्तिरूप है, वह व्यापारी के उदयके तुल्य न होकर केवल सुखका ही कारण होता है ॥२३॥ अन्वयाय--प्रागातिपाल आदि आरंभ तथा धन धान्य आदि परिग्रह को न त्याग कर के व्यापारी उस में आसक्त होते हैं। वे अपनी आत्मा को दण्डिन करने वाले हैं । तुमने उनका जो उदय कहा है, वह चतुर्गतिक एवं अनन्त दुःख का कारण होता है। वह उदय कभी नहीं भी होता है अर्थात् एकान्तिक नहीं है । तीर्थंकर भगवान् का उदय केवलज्ञानप्रासि रूप है । वह व्यापारी के उदय के समान न होकर सुख का कारण ही होता है ॥२३॥ आत्मदण्डा' तो पाताना मात्मान ४ देवापामा छ. तमे वेसिं-पर 'जं वयासी-यमवादीत्' हय डेस छे. 'से उदए- उदयः'लय 'चाउरत. तोय दुहाय-चतुरन्तानन्ताय दुःखाय' यतुति ३५ मने मनतमना रस ३५ डाय छे. 'णेह-नेह' G६५ ४यारेन ५५ यता डाय मर्थात् मेdिs હોતો નથી. તીર્થકર ભગવાનને ઉદય કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્તિ રૂપ છે તે વ્યાપારીના ઉદય પ્રમાણે ન થતાં કેવળ સુખના જ કારણું રૂપ હોય છે પર૩ અન્વયાથ–પ્રાણાતિપાત વિગેરે આરંભ તથા ધન ધાન્ય વિગેરે પરિ. ગ્રહ ત્યાગ ન કરવાથી વ્યાપારી લેક તેમાં આસક્ત રહે છે તેઓ પિતાના આત્માને દંડિત કરવા વાળા હોય છે. તમે તેમને જે ઉદય કહ્યો છે. તે ચાતતિક અને અનંત દુઃખના કારણ રૂપ હોય છે. તે ઉદય કયારેક ન પણ હોય અર્થાત્ કાયમ થાય જ તેમ એકાન્તિક નથી તીર્થકર ભગવાનનો ઉદય કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્તિ રૂપ છે. તે વ્યાપારીને ઉદય જે હેત નથી પણ સુખના કારણ રૂપ જ હોય છે. પારકા Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतागस टीका-आईको गोशाळकं माह-'आरं मगं चे।' आरम्भा एव शब्दोऽयर्थक स्तस्य च परिग्रहेण सहाऽन्त्रयः, तत्रारम्भं प्राणातिपातादिलक्षणम् 'परिम्यहं च' परिग्रहम्-परिग्रहः-धनधान्यादिस्वीकारलक्ष गस्तम् 'अविउस्सिया' अव्युत्सृज्यअपरित्यज्य 'णिस्सिय' नि:श्रिताः बद्धाः 'आयदंडा' आत्मदण्डा:-आत्मानमेव दण्डयन्ति-विनाशयन्ति प्रागातिपातादिकारणेनेति आत्मदण्डाः 'तेषि' तेपाम् -आरम्भपरिग्रहवताम् ‘से उदए' स उदया-धनादीनां लामस्वरूपः । 'ज वयासी' यमुदयम्-त्वमपि उदयमवादीः, स उदयः 'चउरंतणताय दुहाय' चतुरन्ताऽनन्ताय दुःखाय भवति भविष्यति चेति ज्ञेयः, चतुरन्तचतुर्गतिकः संसारः अनन्तः पर्यवसानरहितस्तदर्थम् उदयोमवतीत्यर्थः, वस्तुनो धनादीनामायात्मक उदयो नाऽऽत्यन्तिकसु वाय । अपि तु-चातुर्गतिक संसारस्य मापको दुःखजनकश्च भवति (णेह) नेह धनधान्यादीनां लाभोदयोऽपि एकान्तेन न भवति किन्तु यावत्पुण्योदय स्तावदेव भवति । अयं भाव:-हे गोशालक ! वणिनां यो लामः स संसारदुःखायैव टोकार्थ--आर्द्रक गोशालक से कहते हैं-हिंसादि रूप आरंभ को तथा धन धान्य आदि रूप परिग्रह को त्यागन करके जो उसमें आसक्त होते हैं, वे अपनी आत्मा को दुःखी बनाते हैं। उनका वह धनलाभ आदि रूप उदध, जिसको तुमने भी उद्य कहा है, चतुर्गतिक तथा अनन्त संसार का कारण होता है । वह वास्तव में न तो आत्यन्तिक सुख के लिए होता है और न ऐकान्तिक सुख के लिए ही होता है । जय तक पुण्य का उदय है तब तक ही रहता है। आशय यह है-हे गोशालक ! व्यापारियों का लाभ संसार के ટીકાર્ય–આદ્રક મુનિ શાલકને કહે છે કે–હિંસા વિગેરે આરંભ તથા ધન, ધાન્ય વિગેરે રૂપ પરિગ્રહને ત્યાગ ન કરીને તેમાં જે આસક્ત હોય છે, તે પિતાના આત્માને દુખી બનાવે છે. તેઓને તે ધન લાભ વિગેરે પ્રકારને ઉદય, કે જેને તમે પણ ઉદય કહેલ છે, તે ચતુર્ગતિક તથા અનંત સંસારનું કારણ હોય છે. તે વાસ્તવિક રીતે ન તે આત્યન્તિક સુખ માટે હોય છે, અને એકતિક સુખ માટે પણ હોતું નથી. જ્યાં સુધી પુણ્યને ઉદય હોય છે, ત્યાં સુધી જ તે સુખ રહે છે. કહેવાને આશય એ છે કે-હે ગોશાલક ! વ્યાપારિયોને લાભ સંસારના Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीक्रनामाध्ययनम् ४९ जिताङ्गोपाङ्गः, निरन्तर नित्यं राजलक्षणैः विराजितं-लक्षितं भासमानम् अङ्गप्रत्यङ्गं यस्य सः, 'बहुजणवहुमाणपूइए' बहुजनवहुमानपूजितः-सस्कृतः, अनेकपुरुषैः सर्वदा बहुमानपूर्वकं पूजा-सत्कारादिभिः सत्कृतः । 'सबगुणसमिद्धे' सर्वगुणसमृद्धः, सर्वदा बहुविधगुणैरभिवृद्धः। 'खत्तिए' क्षत्रिय:-क्षता -भयात् त्राणकरणशोळा, क्षत्रियत्वजातिमान वा 'मुदिए' मुदितः माता पित्रादिना शुद्धवंशीयः, 'मुद्धाभिसित्ते' मर्दोऽभिषिक्तः वंशपरम्परया राज्येऽभिषिक्तः 'माउपिउसुजाए' मातापित सुजातः मातापित्रोः सदाऽऽनन्द पोषणादि करणादिना सुपुत्र: कुलस्य भूषणस्वरूपः 'दयप्पिए' दयामियः, दया पिया यस्य सः सर्वभूतेषु दयावान् । सीमंकरे' सीमाकरः 'सीमंधरे' सीमा धरः-मर्यादा धारका प्रजानां व्यवस्थायै आत्मनश्च । 'खेमंकरे खेमंधरे' क्षेमङ्कर क्षेमंधरः, मजायाः होते हैं, अर्थात् उसके अंग प्रत्यंग में राजा के योग्य शुभ लक्षण होते हैं। अनेक पुरुष सर्वदा अत्यन्त आदर पूर्वक उसका आदर सत्कार करते हैं। वह सर्व गुणों से सम्पन होता है । वह क्षत्रिय अर्थात् क्षत भय से त्राण करने वाला या क्षत्रिय जाति का होता है । सदैव प्रसन्न चित्त, विधिवत् राज्याभिषेक किया हुआ, तथा माता पिताको आनन्द देने और उनका पोषण आदि करने के कारण सपूत होता है-कुल का भूषण होता है। सब पर दयाकरने वाला प्रजा की और अपनी व्यवस्था के लिए मर्यादा करने वाला मर्यादा का धारक' होता है। सीमा करनेवाला अर्थात् मर्यादा करनेवाला होता है एवं मर्यादा को धारण करनेवाला होता है। क्षेमंकर और क्षेमंधर होता है अर्थात् प्रजा को कुशल करता है और अपना રાજાના ચિન્હથી નિરંતર (આંતરા વિના) સુશોભિત હોય છે. અર્થાત્ તેના અંગ પ્રત્યંગમાં રાજાને ગ્ય શુભલક્ષણ હોય છે. અનેક પુરૂષે હમેશાં આદર પૂર્વક તેને આદર સત્કાર કરે છે. તે સર્વગુણેથી યુક્ત હોય છે. તે ક્ષત્રિય અર્થાત્ ક્ષતના ભયથી ત્રાણ-રક્ષણ કરનાર અથવા ક્ષત્રિય જાતિના હોય છે. સર્વદા પ્રસન્ન ચિત્ત, વિધિ યુક્ત રાજ્યાભિષેક કરેલા તથા માતા પિતાને આનંદ આપનાર અને તેઓનું પિષણ વિગેરે કરવાથી સપૂત હોય છે – કુળના ભૂષણ રૂપ હોય છે. બધાના પર દયા કરનાર પ્રજાની અને પિતાની વ્યવસ્થા માટે મર્યાદા બાંધનાર અને મર્યાદાને ધારણ કરનાર હોય છે. સીમા કરવાવાળા અર્થાત્ મર્યાદા કરવાવાળા અને મર્યાદાને ધારણ કરવાવાળા હોય છે. ક્ષેમકર અને ક્ષેમધર હોય છે. અર્થાત્ પ્રજાનું ક્ષેમ-કુશલ કરે છે. અને सू०७ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्र क्रमुनेर्गेौशालकस्य संवादनि० ६१५ भवति सोऽपि च लाभो न स्वेच्छामात्रेण यथेष्टं भवति किन्तु यावत्पुण्योदय स्तावदेव भवतीति ॥ २३॥ मूलम् - गंत णच्वंतिय उदए एवं वैयंति ते दो विगुणोदयंमि । से उदय साईमतपत्ते तमुदयं साहयेंइ ताई फाई | २४| छाया - नैकान्तिको नात्यन्तिक उदय एवं वदन्ति रौ द्वौ विगुणोदयौ । स उदयः साद्यनन्तप्राप्त स्वमुदयं साधयति त्रायी ज्ञायी ॥ २४ ॥ दुःखों का ही कारण होता है। वह लाभ जब तक पुण्योदय है तभी तक रहता है और स्वेच्छा मात्र से यथेष्ट नहीं होता ||२३|| 'पोगंतणच्चतिय' इत्यादि । शब्दार्थ - ' एवं उदए - एवं उदद्यः' धनलाभ आदि रूप पूर्वोक्त उदय 'गंतणच्चति य-नैकान्तिको नाश्यंतिकञ्च' न ऐकान्तिक है और न आत्यन्तिक है ऐसा ज्ञानी जन कहते हैं । 'ते दो विगुणोदयंमि-तौ द्वौ विगुणोदयौ' उदय में वह दोनों गुग रहित है, वह वास्तव में उदय नहीं है वह उदय गुणरहित है, किन्तु 'से उदए- स उदय' तीर्थंकर भगवान् का वह उदय 'साहमणंत पत्ते - साद्यनन्तप्राप्तः सादि और अनंत है 'ताई गाई - त्रायी ज्ञायी' जीवों के त्राता और सर्वज्ञ भगवान् 'तमुदयंनमुदयं' वह केवलज्ञान लक्षण उदय का 'साहयह- साधयति' दूसरों को भी उपदेश करते हैं |गा. २४ || દુઃખાનું જ કારણ હોય છે. તે લાભ, જ્યાં સુધી પુણ્યના ઉદય હાય છે, ત્યાં સુધી જ રહે છે. અને સ્વેચ્છા માત્રથી યથેચ્છ પ્રકારના તે લાભ હાતેા નથી, ।૨૩। 'णेगत णच्चंतिय' त्याहि विगेरे अमरनो पहेल मेशन्ति नथी तेभ 'ते दो विगुणोदयमि शब्दार्थ - - ' एव उदए एवम् उदय' धन बाल उस उय 'गंत णच्चतिय-नैकान्तिको नात्यतिका' आत्य ंति! याशु नथी. या प्रमाणे ज्ञानीन्ना डे तौ द्वौ विगुणोदयौ ? उध्यमांसा भन्ने थे। होता नथी. वास्तविक रीते ते उय वाता नथी. ते उदय शुशु वगरनो छे. परंतु 'से उदर- स उदयः ' तीर्थ ५२ भगवानने। ते हय 'साइमणंतपत्ते - खाद्यनन्तप्राप्त.' साहि मने मन'त छे 'तमुदय-तमुदय' ते जेवण ज्ञान ३५ या 'ताई णाई - त्राया ज्ञायी' भवानुं त्रायु-रक्ष ४२वावाणा भने सर्वज्ञ भगवानू 'साहयइ - साधयति' ખીજાઓને પણ ઉપદેશ આપે છે, "રા Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसत्रे ___ अन्वयार्थः-(एवं उदए) एवम्-पूर्वोक्ता-उदयः-धनलाभादिरूपः (णेगंतण चंतिय) नैकान्तिको नात्यन्तिकश्च, (ते दो विगुणोदयंमि) तौ द्वौ विगुणोदयौगुणवजितौ (से) सः (उदए) तीर्थकरस्योदयः लामा (साइमणतपत्ते) साधनन्त. माप्त:-सादिमनन्तं च प्राप्तः 'समुदयं तं-केवलज्ञानलक्षणमुदयम् 'ताई णाई' पायी-जीवरक्षका, ज्ञायी-सर्वज्ञः 'साहयई' अन्यानपि साधयति उपदेशद्वारा मापयतीति 'वयंति' वदन्ति विद्वांसः ॥२४॥ ____टीका-पुनरपि आर्द्रक आह-हे गोशालक ! वणिजां धनादिः कदाचिह्न वति-न वा भवति, कहिचिल्लाभमपेक्षमाणस्य महती हानिरेव, अतो विदितत्व विद्वद्भिः वणिजा लाभे नास्ति स्थायीगुण इति कथ्यते । भगवता तीर्थकरेण कर्मनिर्जराद्वारेण लब्धो लामो लापः कथ्यते । येन च भवति दिव्य ___ अन्वयार्थ--धन लाभादि रूप पूर्वोक्त उदय न ऐकान्तिक है और न आत्यन्तिक है, ऐसा ज्ञानी जन कहते हैं । जिप्स उदय में यह दोनों गुग नहीं है, वह वास्तव में उद्य नहीं है-वह उदय गुणरहित है। किन्तु तीर्थकर भगवान् का उदय सादि और अनन्त है। जीवों के त्राता और लर्वज्ञ भगवान उस उद्य का दूसरों को भी उपदेशकरते हैं ॥२४॥ टीकार्थ--कि फिर शहते हैं-हे गोशालक ! व्यापारियों को धन आदि की प्राप्ति कनी होती है, कभी नहीं भी होनी । कभी लाभ की अपेक्षा रखते हुए बहुत बड़ी हानि हो जाती है। अतएव तत्त्वज्ञानियों का कथन है कि वणिको के लाल में स्थायी गुण नहीं है। અન્વયાર્થ–-ધન લાભ વિગેરે પ્રકારનો પહેલાં કહેલ ઉદય એકાતિક નથી. તેમ આત્યન્તિક પણ નથી. તેમ જ્ઞાનીજનો કહે છે. જે ઉંદયમાં આ બને ગુણ નથી તે વાસ્તવિક રીતે ઉંદય જ નથી. અર્થાત્ તે ઉદય ગુણહીન છે. પરંતુ તીર્થકર ભગવાનને ઉદય સાદિ અને અને તે છે જીવનું ત્રાણ કરવાવાળા સર્વજ્ઞ ભગવાન એ ઉદયને બીજાઓને પણ ઉપદેશ આપે છે પારકા ટીકાર્થ–-ફરીથી આદ્રક મુની કહે છે કે-હે ગોશાલક! વ્યાપારીને ધન વિગેરેની પ્રાપ્તિ કયારેક થાય છે, અને કયારેક નથી પણ થતિ, ક્યારેક લાભની આશા રાખવા છતાં પણ બહુ મોટી નુકશાની પણ આવી જાય છે તેથી જ તત્વજ્ઞાનીનું કથન છે કે-વ્યાપારીના લાભમાં સ્થાયી–ગુણ હેતું નથી. Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगर्गोशालकस्य संवादनि० ६१७ ज्ञानप्राप्तिः । स लाभोऽनन्त केवलज्ञानमाप्तिलक्षणः परमो लाभः स च सादि. रनन्तः । एतादृशं दिव्यज्ञानमाप्तिलक्षणमपूर्वलाभं लब्ध्वाऽन्यानपि-उपदेशद्वारा तं लाभं दिव्यज्ञानलक्षणं मापयति । तीर्थकरो महावीरो ज्ञातपुत्रः स्वयं सर्वपदार्थज्ञाता भव्यान् संसारादुत्तारयति । अतो न स वणिग्हविदग्ध इति सूत्रेण प्रकाशयति । 'एवं' एवं-पूर्वोक्तः उदयः-वणिजां सावधकर्माऽनुष्ठानजनित. धनादिलाभरूपः । 'णेगंत गच्चंति यनैकान्तिको नात्यन्तिकश्च, लाभार्थ मवृत्तस्य लाभो भविष्यत्येवेति न नियमः कदाचिद हानिरपि संभवति स न सर्वकालभावी तत्क्षयदर्शनात् तथा न आत्यन्तिक इति 'वयंति' वदन्ति विद्वांसः 'ते दो' तो वो तीर्थंकर भावान् कर्मों का क्षय कर के जो लाभ प्राप्त करते हैं वही वास्तविक लाभ है। वह लाभ है केवलज्ञान की प्राप्ति । वह परम लाभ है और सादि अनन्त है । भगवान् दिव्यज्ञान के अपूर्वलाभ को प्राप्त करके उपदेश के द्वारा दूसरों को भी वह लाभ प्राप्त कराते हैं। तीर्थ कर भगवान महावीर स्वयं सब पदार्थों को जानकर भव्य जीवों को संसार से तारते हैं । अतएव वह वणिक् के समान नहीं है, यह बात सूत्र के द्वारा प्रकाशित करते हैं । सावध क्रियाओं के अनुष्ठान से होने वाला धनादि का लाभ रूप उदय न ऐकान्तिक है और न आत्यन्तिक है। लाभ के लिए प्रवृत्ति करने वाले को लाभ होगा ही, ऐसी बात नहीं है, कभी कभी हानि भी हो जाती है । तथा यदि लाभ हो भी जाता है तो वह मदा के लिए नहीं होता, क्योंकि उसका क्षय होना देखा जाता है। अतएव जो उदय ऐकान्तिक और आत्यन्तिक नहीं है, તીર્થકર ભગવાન કમેને ક્ષય કરીને જે લાભ મેળવે છે, તેજ ખરેખર વાસ્તવિક લાભ છે તે લાભ કેવળ જ્ઞાનની પ્રાપ્તિનો છે. તે પરમ શ્રેષ્ઠ લાભ ' છે. અને સાદિ અનંત લાભ છે. ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વામી દિવ્ય જ્ઞાનને અપૂર્વ લાભ મેળવીને ઉપદેશ દ્વારા બીજાઓને પણ એ લાભ પ્રાપ્ત કરાવે છે. તીર્થકર ભગવાન મહાવીર સ્વયં સઘળા પદાર્થોને જાણીને ભવ્ય જીવોને સંસારથી તારે છે તેથી જ તેઓ વ્યાપારી જેવા નથી. આ વાત સૂત્ર દ્વારા બતાવતા કહે છે–સાવદ્ય કિયાઓના અનુષ્ઠાનથી થવાવાળે ધન વિગેરેના લાભ રૂપ ઉદય એકાન્તિક નથી, તેમ આત્યન્તિક પણ નથી, લાભને માટે પ્રવૃત્તિ કરવાવાળા સર્વ વ્યાપારને લાભ થશે જ એમ હોતું નથી, ક્યારેક ક્યારેક નુકશાન . પણ થઈ જાય છે. નથી જે લાભ થઈ પણ જાય તો તે કાયમ માટે હેતે નથી. કેમકે તેને નાશ થતો જોવામાં આવે છે. તેથી જ જે ઉદય કાતિક અને स. ७८ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ सूत्रकृताहरसे 'विगणे दयंमि' विगणोदयौ यो उदयो ने शन्तिको नात्यतिको तो द्वानपि उदयो गुणवर्जितो, किं तेन लाभरूपेण यो न आत्यन्तिको नैकान्तिकश्च, 'से उदए' म उदयः मुदय भगवानाप्तवान् । 'सादिमणंतपत्ते' साधनन्तप्राप्तः, भगवता लब्ध उदयः सादिरनन्तश्च । तमुदयं तादृशं सादिमनन्नात्मक केवलाऽपरनामान. मुदयं भगवानन्यान् 'साहयई माधयति उपदेशद्वारेण प्रापयति । भगवान् 'ताई. पाई त्रायी-पहनीवनिकायरक्षका, ज्ञायी-सर्वज्ञश्चेति तदेवं भगवता सर तेषां यगिजा निर्विवे किनां कथं सर्वसाधर्म्यमिति ॥२४॥ साम्पतं कृत देवममवसरणसिंहासनाद्युपभोगं कुर्वन्नपि आधाकर्म कृत वमतिनिकसाधुवत् कथं तदर्थकृतेन कर्म गा भगवान् न लिप्यते इस्येतद् गोशालकमतमागङ्गाय पाह-'अहिंसयं' इत्यादि, पार गुणरहित है। उस लाभ से क्या लाभ की जो ऐकान्तिक और स्थापी न हो। किन्तु भगवान् ने तो ऐसा उदय प्राप्त किया है जो सादि और अनन्त है अर्थात् जो एकवार प्राप्त होकर सदा के लिए स्थायी है। भगवान् उनी उदय की दूसरों के लिए प्ररूपणा करते हैं। वे जीवमात्र के त्राना (क्षक) और सर्वज हैं । इस प्रकार भगवान को व्यापारियों के माघ तुलना करना उचित नहीं है। उनमें कोई ममानता नहीं है।॥२४॥ देवों द्वारा निर्मित समच मरण रिहासन आदि का उपभोग करते E भी भगवान आधार्मिक उपाय का सेवन करने वाले साधु के नमान इन ने लिए क्यों नहीं होने ? गोशालक के इस मत की आ झोका करते हा प्रकार करने :-'अस्मियं मध्यपयाणुकपि' इत्यादि । બાય તિક નથી, તે ગુરુ રહિત છે તેવા લાભથી શું લાભ કે જે એકાનિક અને પાણી ન દે ! પરંતુ ભગવાને તે એ ઉદય પ્રાપ્ત કરેલ છે કે-જે દિ અને અનન છે અચાનું જે એક વાર પ્રાપ્ત થઈને સદાને માટે થી ય છે ભગવાન એજ ઉદયની પ્રરૂપ બીજાને માટે કરે છે. ગવાન જ માન્ય નાર, ભૂ કરવાવાળા અને સર્વજ્ઞ છે, આવા ભગવા નન નવન બાપારિોની કરવી તે ય નથી, તેમાં કંઈ જ સરખા पनी ॥२४॥ એ વ .વર સિંહ અને વિગેરેનો ઉપભેળ–સેવન કરવા નાં ૫ • ન આધારિક ઉપાયન એ ન કરવા વાળા સાધુની જેમ - Art 0 11 21 मारनी मात्रय दीन -हिमा समार' यानि . Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका शि. श्रु. अ. ६ आर्द्रमुनेगौ शालकस्य संवादनि० ६१९ मूलम्-अहिंसयं सव्वपयाणुकपि, धम्लोठियं कम्नविवेगहेडं। तमायदंडेहिं समायरंता अबोहिये ते पडिरूवमेयं ॥२५॥ छाया-अहिंसकं सर्वप्रजानुकम्पिनं, धर्मे स्थितं कर्मविवेकहेतुम् । तमात्मदण्डैः समाचरन्तः, अबोधेस्ते प्रतिरूपमेतत् ॥२५॥ - अन्वयार्थः--(अहिंसयं) अहिंसकम् (पन्धपयाणुक पि) सर्वमजानुकम्पिनम् -सर्वजीवेषु दयाशीलम् (धम्मेटियं) धर्मे स्थितम् (कम्मविवेगहेउ) कर्मविवेकहेतुम् -कर्मनिराकारणम्, इत्य भूतं तीर्थकरं देवम् (तमायदंडेहि समायरंता) तमास्मदण्डै समाचरन्ता-आत्मदण्ड। भवन्तः ये पुरुषाः भवत्सहशाः सन्ति ते भगवति वणिक्तुल्यवां समाचरन्ति नाऽन्ये विद्वांसः, (ते) ते-तब (अघोहिए) अबोधे. रज्ञानस्य (पडिरूवमेय) प्रतिरूपमेतत् तुल्यमेवेति ॥२५।। शब्दार्थ –'अहिंसयं-अहिंसक' अहिंसक 'सवपयाणुकंपि-सर्व प्रजानुकम्पिन' प्राणी मात्र की अनुकंपा करनेवाले 'धम्मेठियं-धर्म स्थितम्' धर्म में स्थित 'कम्मविवेगहे उं-कर्मविवेकहेतुम्' निर्जरा के हेतु देवाधिदेव को 'आपदंडेहिं समायरंता-आत्मदण्डैः समाचरन्त:' आप अपनी आत्मा को दण्डित करनेवाले व्यापारियों के समान कहते हैं यह 'ते-ते' आप का 'अघोहिए-अबोधेः' अज्ञान के 'पडिरूवमेव-प्रतिरूपमेव' अनुरूप ही है ॥गा २५॥ ____ अन्वयार्थ-अहिंसक, प्राणी मात्र पर अनुकम्पा करने वाले, धर्म में स्थित, निर्जरा के हेतु देवाधिदेव को आप अपनी आत्मा को दण्डित करने वाले व्यापारियों के समान कहते हैं, यह आपके अज्ञान के अनुरूप ही है ॥२५॥ शमसाथ-'अहिंसय-अहिंसकं' म४ि 'सव्वपयाणुकंपि-सर्वप्रजानु कम्पिनं पाए मात्रनी अनु । ४२वावा 'धम्मे ठियं-धमे स्थितं' धर्ममा स्थित, 'कम्मविवेगहेउ-कर्मविवेकहेतुम्' CORNना तुवाधिवन 'आय. दडेहिं समायरता-आत्मदण्डैः समाचरन्तः' पोताना मामान पापा था(श्यानी सम२ ४३। छ।. मा ४यन 'ते-ते' तमा२'अघोहिए-अबोधेः' अज्ञानना 'पडीरूवमेव-प्रतिरूपमेव' अनु३५ । छे. ॥२५॥ “, मन्वयार्थ-महिस-प्राए मात्र ५२ मतु: ५। ४२वावा, या स्थित નિર્જરાના હેતુ એવા દેવાધિદેવને આપ પિતાના આત્માને દંડિત કરવાવાળા વ્યાપારિયેની સાથે સરખાવ છો તે આપના અજ્ઞાનપણને યોગ્ય જ છે. રપા Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताचे ___टीका--भो गोशालक ! 'अहिंसयं' अहिंसकम्-नास्ति हिंसा-माणाविपातादिरूपा यस्य तम् 'सम्पपयागुकपि सर्व मजाऽनुकम्पिनम्-सर्वप्रजासु-सकल. माणिषु अनुकम्पाशालिनम् 'धम्मे ट्ठियं धर्म-अहिंसादौ स्थितम्-सदा विद्यमानम् 'कम्मविवेगहेउ' कर्मविवेकहेतुम्-कर्मनिर्जराकारणम् एतारशमपि तीर्थकर भग वन्तं महावीरम् 'तमायदंडेहिं समायरंता' तमात्मदण्डैः समाचरन्त:-आत्मानं दण्डयन्ति ये पुरुषा:-भवत्सदृशास्ते एवं वणिक्नुल्यं जल्पन्ति । नाऽपरे विद्वांसः, 'एयं' एतद् भगवतो निन्दारूपं वणिक्तुल्यकथनम् 'ते' ते-तव 'अबोहिए' अवोधेरज्ञानस्य 'पडिरूवं' प्रतिरूपमेव, अज्ञानफलम् । अशोकवृक्षादि प्रातिहार्यादिकं भगवतोऽतिशयेन स्वयमेव भवति देवता पुष्पवृष्टिरपि अचित्तैव जायते, देवाधर्थमेव अचित्तपुष्पवृष्टिर्भवति न तु भगवदर्थम्, तत्र भगवतोऽनुमोदनाभावाद् रागद्वेपरहितत्वाच्च एतदेव सूत्रकारेण दर्शितमिति भावः ॥२५॥ टीकार्थ-हे गोशालक ! जो भगवान् हिंसा से सर्वधा रहित हैं, जो प्राणीमात्र पर अनुकम्पा रखते हैं, जो सदैव अहिंसा आदि धर्म में स्थित रहते हैं और जो कर्मनिर्जरा के कारण हैं, ऐसे तीर्थकर भगवान् महावीर को अपनी आत्मा को दंडित करने वाले आप जैसे लोग ही व्यापारी के समान कहते हैं । ज्ञानवान पुरुष ऐसा नहीं कह सकते। भगवान् की निन्दा करने के लिए उन के समान कहना तुम्हारे अज्ञान के अनुरूप ही है ! यह तुम्हारे अज्ञान का ही परिणाम है! ___आशय यह है कि अशोकवृक्ष आदि भगवान के प्रातिहार्य स्वयमेव होते हैं, देवों के द्वारा अचित्त पुष्पों की ही वर्षा की जाती है। देवों के लिए अचित्त पुष्पवृष्टि होती हैं भगवान के लिए नहीं, क्योंकि ટીકાર્યું–હે ગોશાલક! જે ભગવાન હિંસાથી સર્વથા રહિત છે. જે પ્રાણી માત્ર પર અનુકંપા દયા રાખે છે. જે કાયમ અહિંસા વિગેરે ધર્મમાં સ્થિત રહે છે. અને જે કર્મ નિર્જરાના કારણ રૂપ હોય છે. એવા તીર્થકર ભગવાન મહાવીરને પિતાના આત્માને છેતરવાવાળા તમારા જેવા પુરૂષે વ્યાપારી જેવા કહે છે. જ્ઞાની પુરૂષે તેમ કહી શકતા નથી. ભગવાનની નિંદા કરવા માટે વ્યાપારી જેવા કહેવા તમારા અજ્ઞાનને અનુરૂપ –ગ્ય જ છે. આ તમારા અજ્ઞાનનું જ કારણ છે. કહેવાનો આશય એ છે કે–અશોક વૃક્ષ વિગેરે ભગવાનના પ્રાતિહાર્ય સ્વયમેવ થાય છે. દેવો દ્વારા અચિત્ત પુછપની જ વર્ષા કરવામાં આવે છે. દે માટે અચિત્ત પુષ્પ વૃષ્ટી જ થાય છે. ભગવાનને માટે નહીં કેમ કે Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगौशालकस्य संवादनि० ६२१ मूलम्-पिन्नागपिंडीमवि विद्वसूले केइ पएज्जा पुरिसे इमे त्ति। अलाउयं वावि कुमारएत्ति स लिप्पई पाणिवहेण अम्हं ॥२६॥ छाया--पिण्याकपिण्डीमपि विद्ध्वा शूले कोऽपि पचेत्पुरुषोऽयमिति । अलावुकं वाऽपि कुमार इति स लिप्यते माणिवधेनाऽस्माकम् ।।२६।। अन्वयार्थः- (केइपुरिसे) कश्चित्पुरुषः (पिन्नागपिंडीमवि) पिण्याकपिण्डमपि-खलपिण्डमपि (मूले) शूछे (विद्ध) विद्ध्वा-आरोप्य (पुरिसे इमेत्ति) पुरुषो. ऽयमिति कृत्वा (पएज्जा) पचेत् पाचयेद्वाऽग्नौ, (वावि) वाऽपि-अथवाऽपि भगवान् उनका अनुमोदन नहीं करते और रागद्वेष से रहित होते हैं। यही यात सूत्रकार ने यहां दिखलाई है ॥२५॥ 'पिन्नागपिंडीमवि विद्ध मुले' इत्यादि । शब्दार्थ- 'केह पुरिसे-कश्चित्पुरुषः' कोई पुरुष 'पिन्नागपिंडीमविविण्याकपिंडमपि' खल के पिंड को 'सूले-शूले' शूली से 'विद्ध-विद्ध्वा' वेधकर (छेदकर) 'पुरिसे इमेत्ति-पुरुषोयमिति' यह पुरुष है, ऐसा सोच कर 'पएजा-पचेत्' पकावे 'वावि-अथवापि' अथवा 'अलावुर्ग-अलावुकं' तंवे को 'कमारएत्ति-कुमारोऽयमिति' कुमार (चालक) समझ कर पकावे तो हमारे मत के अनुसार 'स पाणिवहेण-सः प्राणिवधेन' वह पुरुष जीव वध से 'लिप्पइ-लिप्यते' लिप्त होता है 'अम्हं-अस्माकम्' ऐसा हमारा शाक्यों का मत है ॥गा० २६॥ * अन्वयार्थ-कोई पुरुष खल के पिण्ड को शूली से वेध कर 'यह ભગવાન તેનું સમર્થન કરતા નથી. અને ભગવાન રાગદ્વેષ રહિત હોય છે. એજ વાત સૂત્રકારે અહિં બતાવેલ છે. પ૨પા 'पिन्नागपिंडीमवि विद्धसूले' त्या शहाथ-'केइ पुरिसे-कश्चित्पुरुषः' । ५३५ ‘पिन्नागपिंडीमवि-पिण्याक पिंडमपि' मा पिने सूले-शूले' शूजी ५२ 'विद्ध-विधा' पी पीर 'पुरिसे इमेत्ति'-पुरुपोऽयमिति' २॥ ५३५ छ, म भानीने 'पएज्जा-पचेत्' राधे पावि अथवापि' अयm a 'अलावुग-अलावुक' तु ने 'कुमारएत्ति-कुमारोऽयमिति' मा उभार सट ४ भाग छ, तभ समलने २i तो अभा। भत प्रभारी ‘स पाणिवहेण-सः प्राणिवधेन' ते ५३५ १५थी 'लिप्पइ-लिएयेत' લિપ્ત થાય છે. ૨૬ અન્વયાર્થ–કેઈ પુરૂષ ખલપિંડને શૂળીથી વીંધીને આ પુરૂષ છે એમ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ક્રૂર सूत्रकृताङ्गसूत्रे (अलाउगं) अलवुकम् (कुमारछत्ति) कुमारोऽयमिति मत्ता पचेत् (स पाणिवण) स पुरुषः प्राणिन (लिप्पर) लिप्यते इति (अहं) अस्माकं मतमिति ॥२६॥ टीका - गोशालकं निराकृत्य भगवन्तं वन्दितुं गच्छतस्तस्य आर्द्रकस्य मार्गे शाक्येन साकं वार्त्तालापो जातः, शाक्य एवमवादीत् भोः ! सत्यं भवता गोशालक खण्डितम् तत्सर्वं श्रुतम् न भवति किमपि बाह्यानुष्ठानेन, किन्तु अन्तरे अनुठानमेव कर्मबन्ध कारणमिति स्वसिद्धान्तं श्रावयति, शाक्य आक तदेव दर्शयति- 'के' कश्चित् 'पुरिसे' पुरुषः विभागपिंडीमवि' पिण्याकपिण्डमपि - पिण्याक : - खल स्तस्य सकलमचेतनमपि कदाचित् कश्चिद् म्लेच्छदेशं गतः स तत्र म्लेच्छभयात् संभ्रमेण पलायमानः स्वसमीपस्थखलपिण्डं वस्त्रेण वेष्टयित्वा तत्र परित्यक्तवान् पश्चात्तत्र समागतेन म्लेच्छेन वस्त्रवेष्टितखलपिण्डकं दृष्ट्वा गृहीपुरुष है' ऐसा सोच कर पकावे अथवा तूं बे को कुमार (बालक) समझकर पकावे तो हमारे मत के अनुसार वह जीववध से लिप्स होता है | २६| टीकार्थ- गोशालक को परास्त करके आर्द्रक मुनि भगवान् को चन्दना करने के लिए आगे चले तो शाक्य के साथ उनका वार्त्तालाप (संवाद) हुआ। शाक्य इस प्रकार कहने लगा- आपने गोशालक के मत का निराकरण किया है, वह सब मैंने सुना है । आपने यह अच्छा ही किया । वास्तव में बाह्य अनुष्ठान (क्रियाकाण्ड) से कुछ भी नहीं होता, आन्तरिक क्रिया ही कर्मबन्ध का कारण है । शाक्य अपने इस सिद्धान्त का आर्द्रक के सामने प्रतिपादन करता है - कोई आदमी म्ले. च्छदेश में गया। वहां म्लेच्छों के भय से जल्दी जल्दी दौडना हुआ अपने पास में स्थित अचेतन खलपिण्ड को वस्त्र से आच्छादित करके વિચારીને રાંધે અથવા તુખડાને (ભાલક) સમજીને રાધે તા- અમારા મત પ્રમાણે તે છત્ર વધથી લિપ્ત થાય છે રા ટીકાથ~~~ગોશાલકને પરાજીત કરીને આદ્રક મુનિ ભગવાનને વંદના કરવા માટે આગળ ચાલ્યા તા શાકયાની સાથે તેઓના વાર્તાલાપ (સંવાદ) થયા, શાકયા આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા. આપે ગોશાલકના મતનું ખંડન કરેલ છે, તે સઘળું કથન અમે સાંભળેલ છે. આપે આ સારૂં જ કરેલ છે. વાસ્તવમાં માહ્ય અનુષ્ઠાન (ક્રિયાકાંડ) થી કઈ પણુ લાભ થતા નથી. આંતરિક ક્રિયા જ ક`બંધનુ કારણ છે. શાક્ય પેાતાના સિદ્ધાંતનુ પ્રતિપાદન આદ્રક મુનિની સામે કરતાં કહે છે કે-કાઇ પુરૂષ મ્લેચ્છ દેશમાં ગયેલ હાય, ત્યાં મ્લેચ્છાના ડરથી જલ્દી જલ્દી દોડતા દોડતા પેાતાની પાંસે રહેલ અચેતન ખપિડને વજ્રથી ઢાંકીને ત્યાં મૂકી ગયા, તે પછી મ્લેચ્છ ત્યાં પહેાંચ્યા તેણે Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्र कमुने!शालकस्य संवादनि० '६२३ तम् 'इमे पुरिसेत्ति' अयं पुरुषइति मत्वा 'मूले विद्ध' शूले विद्याऽग्नौ 'पएज्जा' पचेत्, तया-'अलाउयं' अलावुकम् 'वावि' चाऽपि-अथवा 'कुमारएत्ति' कुमार इति मरवा शुले-आरोप्य पचेत् । सा-पुरुषः अन्यमपि-अन्य बुद्धया पचन् पाचयन् वा पाणिवहेण' प्राणिवधेन-प्राणिप्राणातिपातजनितदोषेण कर्मणा 'लिप्पई' लिप्यते इति 'अम्हं' अस्माकं-शाक्यानां मतम् । द्रव्यरूपेण पापाऽसमुपार्जनेऽपि भावतः पापोदयात्, तत्र तत्र कलुपिज्ञायां मनोवृतौ तत्कालुष्यमेव पापकारणं जायते । '. 'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ॥२६॥ .. मूलम्-अहवा वि विभ्रूण मिलक्खू सूले, पिन्नागबुद्धीइ नरं पएज्जा। कुमारं दावि अलावुयं, न लिप्पइ पाणिवहेण अम्हं ।२७। छाया - अथवापि विद्ध्वा म्लेच्छ: शुले पिण्याकबुद्धया नरं पचेत् । कुमारं वापि अल बुकमिति न लिप्यते माणिव धेनाऽस्माकम् ॥२७॥ छोड़ गया। बाद में म्लेच्छ वहां पहुंचा। उसने स्त्र से आच्छादित खलपिण्ड को देखा और 'यही वह पुरुप है ऐसा समझ कर शूल में वेध दिया और अग्नि में पकाया। अथवा कोई पुरुष तृवे को 'यह कुमार है' ऐसा मान कर शल में वेध कर पकाचे, तो वह पुरुष अन्य को अन्य समझ कर पचन पाचन करता हुआ प्राणातिपात के पाप से लिस होता है । यह हमारा मत है, क्योकि वहां द्रव्यप्राणातिपात न होने पर भी भाव प्राणातिपात होता है। हिंसा करने वाले की कलषित मनोवृत्ति ही इस पाप का कारण है। कहा भी है-'मन एच मनुष्याणाम्' इत्यादि। मन ही मनुष्यों के बन्ध और-सोक्ष का प्रधान कारण है ॥२६॥ વરથી ઢાંકેલ ખલપિડને જોયું તે જોઈને આજ પુરૂષ છે, તેમ માનીને શૂળીમાં તેને વિધી દીધો અને તેને અગ્નિમા રાંધ્યો. અથવા કઈ પુરૂષ તુંબાને આ કુમાર , છે, તેમ માનીને શૂળમાં વી ધીને પકાવે તો તે પુરૂષ અન્યને અન્ય સમજીને , પચન પાચન કરતા થકા પ્રાણાતિપાતના પાપથી લિપ્ત થાય છે, આ અમારે મત છે કેમકે અહિયા દ્રવ્ય પ્રાણાતિપાત ન હોવા છતાં પણ ભાવ પ્રાણાતિપાત થાય છે હિંસા કરવાવાળાની મલીન મનોવૃત્તિ જ આ પાપનું કારણ छे ५ 'मन एव मनुष्याणाम्' त्यादि भन मेरा मनुष्याना मध અને મોક્ષનું મુખ્ય કારણ છે. મારા Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताचे अन्वयार्थ :- ( अहवा वि) अथवाऽपि (मिलक्खू ) म्लेच्छ (नरं) नरम् - पुरुषम् (विष्णागबुद्धीए) अयं विण्याक इति बुद्रचा (मूले विद्दूण) शूले विद्या - आरोप अग्नौ पचेत् (वावि) वापि - अथवापि (कुमारगं) कुमारम् ( अलावुयंति) अलाबुरूमिति मत्वा शुळे आरोग्य पचेत् (पाणिरहेण न लिप्पइ) प्राणिबधेन न लिप्यते इति ( अह ) अस्माकं मतम् ||२७|| टीका- 'अहवा वि' अथवाऽपि 'मिलक्खू' म्लेच्छ' 'विभागबुद्धीए' विषयाक बुद्धया 'नरं' नरम् - पुरुषम् 'स्ले' शूळे 'विधूण' विद्ध्वा 'पपज्जा' पचेद 'वावि' 'अहवा वि विण' इत्यादि । शब्दार्थ - शाक्य फिर कहते हैं- ' अहवावि - अथवापि पूर्वोक्त से विपरीत 'मिलक्खू - म्लेच्छः' यदि कोई म्लेच्छ 'नरं नरं' किसी मनुor को 'पिण्णागबुद्धीए - पिण्याकबुद्धया' खलपिंड समझ कर 'मुलेविद्धूण-शूले विध्वा' शुल में वेध कर 'पएज्जा - पचेत्' अग्नि में पकाता है 'वाचि-वापि' अथवा ' कुमारगं-कुमार' किसी कुमार को 'अलावुयंति - अलाबुकम् इति' तुंया समझकर शूल में वेध कर पकाता है वह 'पाणिवण न लिप्पह-प्राणिबधेन न लिप्यते' हिंसा के पाप से लिप्त नहीं होता यह हमारा मन है । गा० २७॥ . ६२४ अन्वयार्थ -- --शाक्य फिर कहता है-पूर्वोक्त से विपरीत यदि कोई म्लेच्छ किमी मनुष्य को वलपिण्ड समझ कर, शुल में वेध कर आग में पकाता है अथवा किसी कुमार को तृषा समझ कर शूल में वेध कर पकाता है तो वह हिंसा के पाप से लिप्त नहीं होता । यह हमारा मत है ॥२७॥ つ अवा वि विण' इत्यादि शब्दार्थ — ते शाम्य इरीधी आर्द्र भुनिने डे छे - ' अहवावि-अथ - वापि' पडेला थन अर्थाथी उटी 'मिलक्खु म्लेच्छ.' ले अर्थ २२७ 'नरंनरम्' अर्थ भासने 'पिण्णागबुद्धीर - पिन्ना बुध्या' जसपिंड समने 'सूले विद्धूण-शूले विश्वा' शूजमां वींधीने 'पपज्जा - पचेत्' अग्निमां रांधे 'वावि-वोपि ' वो तो 'कुमारगं- कुमारकम् । कुमारने 'अलावुत्ति - अलाबुकम् इति' तुडुं मानाने शुणथी वा धीने पाये तो ते 'पाणिवहेण न लिप्पइ - प्राणिवघेन न लिप्यते' हिंसाथी थवावाजा पापथी सीं पाते। नथी. या गाभारे। भत छे. ॥२७॥ અન્વયા ફરીથી શાકચ મતવાદી કહે છે કે—પહેલાં કહ્યાથી જુદી રીતે જો કોઈ મ્લેચ્છ કેાઈ મનુષ્યને ખલપિ'ડ સમજીને શુથી વીધીને અગ્નિમાં રાંધે અથવા કાઈ કુમારને તુંબડું સમજીને શૂળથી વી'ધીને પકાવે તે તે હિં'સા જન્ય પાપથી લીપાતા નથી. એવા અમારા મત છે. નારણા 1 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ५० क्षेमं कुशलं करोति, स्वयमपि स्वात्मनः कल्याणं धरते। ' मणुस्सिदे' मनुष्येन्द्रः, मनुष्याणां मनुष्येषु वा इन्द्रः - इन्द्रसमः, 'जणवयपिया' जनपदपिता, जनपदानां रक्षणपालनाभ्यां पितेच पिता, 'जणवयपुरोहिए' जनपदानां पुरोहितः, यथाहिपुरोहितो ब्राह्मणो यजमानस्य शान्तिमयोजकप्रतिनिधितया तत्तत्कर्म करोति । तथा - राजाऽपि सर्वेषां हितकरणात् विघ्नेभ्यो रक्षणाच्च पुरोहित इव पुरोहितः । 'सेउकरे' सेतुकरः - स राजा स्वराष्ट्रस्य सुव्यवस्थार्थं नदीनदप्रणालिका सेतुकेतूनां कर्त्ता । 'नरपवरे' नरमवर :- सर्वनरेषु श्रेष्ठतया नरमवरतामुपेतः 'पुरिसपवरे' पुरुषप्रवरः - पुरुषप्रधानः, 'पुरिससी' पुरुषेषु सिंह इव बलशाली, न तु सिंहगत पशुत्वयुक्तः । ' पुरिस आसीविसे' पुरुपाशीर्विषः, विप्रियकारिपुरुषेषु दण्ड दापनादाशीविषः, आशीः- राजदण्डो विषो यस्य स आशीर्विपः । 'पुरिसवरपडरी' पुरुषवरपुण्डरीकः, पुरुषेषु वर:-अत एव पुण्डरीक इव मियदर्शनः, 'पुरिस भी कल्याण करता है । वह मनुष्यों में इन्द्र के समान, जनपद (देश) का पालन और रक्षण करने के कारण पिता के समान तथा जनपद का पुरोहित होता है । अर्थात् जैसे राज पुरोहित अपने यजमान का शान्ति प्रयोजक प्रतिनिधि बन कर अनेक क्रियाएं करता है, उसी प्रकार राजा भी अपनी प्रजा का हित करने के कारण तथा विघ्नों से रक्षा करने के कारण पुरोहित के समान होता है । वह अपने राष्ट्र की सुखशान्ति के लिए नदी, नद, नहर, पुल, तथा केतु आदि का कर्त्ता होता है । वह नरों में प्रवर, पुरुषप्रचर, पुरुषों में सिंह के समान बलशाली (सिंह के समान पशुता से युक्त नहीं ) पुरुषों में आशीर्विष सर्प के समान अर्थात् अनिष्ट करने वालों को दंड दिलाने के कारण राजदण्ड रूपी विष वाला, पुरुषो में श्रेष्ठ होने से पुण्डरीक के समान प्रियदर्शन पुरुषों પેાતાનું પણ કલ્યાણ કરે છે, તે મનુષ્યેામાં ઈન્દ્રની સરખે જનપદ દેશનુ પાલન અને રક્ષણ કરવાથી પિતા સરખા તથા જનપદના પુરેાહિત હાય છે. અર્થાત્ જેમ રાજપુરાહિત પેાતાના યજમાનનું શાંતિ પ્રત્યેાજક પ્રતિનિધિ અનીને અનેક ક્રિયાઓ કરે છે. એજ પ્રમાણે રાજા પણ પેાતાની પ્રજાનું હિત કરનાર હાવાથી તથા વિષ્રોથી પ્રજાનું રક્ષણ કરવાવાળે! હાવાથી પુરીહિત સરખા હૈાય છે. તે પેાતાના રાષ્ટ્રની સુખશાંતિ માટે નદી, ના, નહેર, પુલ અને કેતુ વિગેરેને કરવાવાળા હાય છે. તે નામાં શ્રેષ્ઠ પુરૂષ પ્રવર, પુરૂષામાં સિંહ સમાન ખળ શાળી (સિંહની સરખા પશુપણાથી યુક્ત નહી પુરૂષામાં આશીવપ સર્પ સરખા અર્થાત્ અનિષ્ટ કરવાવાળાને દંડ આપવાના કારણે રાજદંડ રૂપી વિષવાળા, પુરૂષામાં શ્રેષ્ઠ હોવાથી પુ ડરીકની સરખા Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आईकमुने!शालकस्य सवादनि० ६२५ वापि 'आलावुयंति' आलावुकोऽयमिति मत्वा 'कुमारगं वा' कुमारं वा शूले विद्ध्वा यदि पचेत् । तदा स म्लेच्छ: 'पाणिवहेण' प्राणिवधेन-जीवघातकर्मणा 'न लिप्पई' न लिप्यते । इति 'अम्हे' इत्यस्माकं सिद्धान्तः। यतो हि पाच्यमानेऽऽपि पुरुषे तत्र पुरुषबुद्धेरभावात्-अलावुकमिति बुद्धेरेव सन्निधानात् पाचयितुः पाणिवध कुर्वतोऽपि तज्मनितो दोषो न जायते, इति मदीयः सिद्धान्त इति ॥२७॥ मूलम्-पुरिसं च विभ्रूण कुमारगं वा सूलंमि केह पैए जायतेए। पिन्नायपिंडमतिमारुहेत्ता बुंधाण तं कैप्पा पारणाए ।२८॥ छाया-पुरुषं विद्या कुमारक वा शूले कोऽपि पचेज्जाततेजसि। पिण्याकपिण्डमतिमारुह्य बुद्धानां तस्कल्पते पारणायै ॥२८॥ टीकार्थ--अथवा कोई म्लेच्छ खलपिण्ड समझ कर पुरुष को शूल से वेध कर पकाता है या 'यह तूंबा है' ऐसा समझ कर किसी कुमार को शूल में वेध कर पकाता है, तो ऐसा करने वाला म्लेच्छ जीवहिंसा के पाप से लिप्त नहीं होता है। ऐसा हमारा सिद्धान्त है। तात्पर्य यह है कि यद्यपि वह म्लेच्छ पुरुष को पकाता है, फिर भी उसे पुरुष समझ कर नहीं पकाता। इसी प्रकार कुमार को कुमार मान कर नहीं पकाता। इस कारण उसे जीववध करने पर भी वधजनित पाप नहीं होता है, यह हमारा मत है ॥२७॥ 'पुरिसं च विघृण कुमारगंवा इत्यादि । __ शब्दार्थ-'केइ-कश्चित्' कोई पुरुष 'पुरिसं कुमारगं वा-पुरुष कुमार ટીકાઈ—-અથવા કઈ પ્લેચ્છ ખલપિંડ સમજીને પુરૂષને શૂળથી વીધીને અગ્નિમાં પકાવે અથવા તો આ તુંબડું છે, તેમ માનીને કેઈ કુમાર અર્થાત બાળકને શૂળમાં વીંધીને અગ્નિમાં પકાવે તે આમ કરવાવાળે સ્વેચ્છ જીવહિંસાના પાપથી લીપાત નથી. આ પ્રમાણેને અમારો સિદ્ધાંત છે કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે--જે કે તે પ્લેચ્છ પુરૂષને પકાવે છે, તે પણ તેને પુરૂષ માનીને પકાવતા નથી. એ જ પ્રમાણે કુમારને કુમાર માનીને પકાવતા નથી. આથી તેઓને જીવહિંસા કરવા છતાં પણ વધથી થવાવાળું પાપ લાગતું નથી. આ અમારે મત છે. પારકા पुरिसं च विभ्रूण कुमारग वा' त्याह शा -'केइ-कश्चित्' ५३५ 'पुरिसं कुमारग वा-पुरुष कुमारकं वा' ७ ५३५ मया सुमारने 'पिन्नायपिंडमतिमारुहेचा-पिण्याकपिण्डमतिमारुह्य' स० ७९ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ सत्रहतास ____ अन्वयार्थः-(के३) कश्चित्पुरुषः (पुरिस कुमारगं वा) पुरुपं कुमारकं वा (मूलंमि विभ्रूण) शूले विद्या (जायतेए) जात तेजसि-वह्नौ (पए) पचेत, किं कृता (पिन्नायपिडमतियारुहेत्ता) पिण्याकरिण्डमतिमारुह्य-पिण्याकपिण्डमिति मत्वा पचेत् , तदा (तं) तदन्नम् (बुद्धाण) बुद्धनाम् (पारणाए) पारणायभोजनाय (कप्पइ) कल्पते-योग्यं भवतीति । २८॥ टीका-'के' कोऽपि पुरुषः (पुरिसं कुमारगं वा) पुरुपं कुमारं का. विण्याकमलाघुकं वा मत्या 'सूले विधृग' शुले विद्ध्या, यदि 'जायतेए' जावते. जसि-जातवेदसि-अग्नौ 'पए' पचेत् 'पिलायपिंडमतिमारहेता' पिण्याकपिण्ड. गतिमारुह्य पचेदिति शेपः । तदा तस्य पानयितुः पाणिवध जनितं पापं न जायते। यतोहि 'तं बुद्धाण पारणाए कप्पइ' तत् अन्नं निर्दुष्टमिति कृत्वा बुद्धानाम् बुद्धभगवतामपि पारणायै-भोजनाय कल्पते निर्दोपाद् योग्यं भवति। तदा का कं वा' किसी पुरुप अथवा कुमारको 'पिन्नायपिंडमतिमारुहेत्ता-पिण्याकपिण्डमतिमारुहय' खल का पिंड समझ कर 'सलंमि-गले' शल में वेध कर 'जायतेए-जाततेजसि' अग्नि में 'पप-पचेन' पकावे तो वह अन्न 'वुद्धाणं-बुद्धाना' बुद्ध अगवान् के 'पारणाए-पारणाय' भोजन के लिए 'फप्पइ-कल्पते' योग्य होता है ॥गा० २८॥ ___अन्वयार्थ- कोई पुरुप किसी पुरुष को अथवा कुमार को खल का पिण्ड समझ कर शूल में वेध कर अग्नि में पहाये तो वह पवित्र है और बुद्ध के भोजन के योग्य होता है ॥२८॥ टीकार्थ--कोई मनुध्य किसी दूसरे मनुष्य को अबधा कुमार को खलपिण्ड था तृवा समझ कर शल से वेष कर आग में पकाता है तो पकाने वाले को जीववधजनिन पाप नहीं होता है। वह भोजन निर्दोष होने के कारण युद्ध भगवान के पारणे के लिए भी योग्य है, औरों के 43 सभा 'सूलमि-शूले शमा वा धीर 'जायतेए-जाततेजसि' ममिमा 'पए-पवेत्' ५। तो त मन 'बुद्वाणं-द्वानां' मुद्ध मानना 'पारणाएपारणाय' न भोट 'क'पद -कल्पते' योग्य थाय छे ॥२८॥ અન્વયાર્થ–-કોઈ પુરૂષ કોઈ અન્ય પુરૂષને અથવા બાળકને ખલપિંડ સમજીને શૂળીમાં વીંધીને અગ્નિમાં રાંધે તો તે પવિત્ર છે. અને બુદ્ધના ભેજનને યોગ્ય થાય છે ૨૮ ટીકાઈ-કઈ મનુષ્ય કેઈ બીજા માણસને અથવા કુમારને ખલપિંડ સમજીને અથવા તુંબડું સમજીને શૂળથી વીધીને પકાવે તે પકાવવાવાળાને જીવ હિંસાથી થતુ પાપ લાગતું નથી તે ભોજન નિર્દોષ હોવાથી બુદ્ધ ભગવાનના પારણાને માટે પણ ચગ્ય છે, તો પછી બીજાઓને માટે યોગ્ય ગણાય તેમાં તે Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने!शालकस्य संघादनि० ६२७ कथा अन्येपाम्, एवं सर्वासु आस्था अचिन्तित-मनसाऽसंकल्पितं कर्मचयं नागच्छतीति-अस्मत् सिद्धान्तः ॥२८॥ मूलम्-सिंणायगाणं तु दुवे संहस्ते, जे भोयए गियए मिक्खुयाण। ' ते पुन्नखधं सुमहं जिणित्ता भवंति आरोप महंतसत्ता ॥२९॥ छाया-स्नातकानां तु द्वे सहले, ये भोजयेयुनित्यं भिक्षुकाणाम् । ते पुण्यस्कन्धं सुमहज्जनयित्वा भवन्त्यारोप्या महासत्राः ॥२९॥ अन्वयार्थः--(सिणायगाणं तु भिक्खुयाणं) स्नातकानाम्-गृहीतदीक्षाणाम्, भिक्षुकाणाम्-शाक्यमुनीनाम् (दुवे सहस्से) द्वे सहस्र (जे) ये पुरुषाः (णियए) लिए तो कहना ही क्या है। इस प्रकार सभी अवस्थाओं में विना समझे मन के संकल्प के विना किया हुआ कर्मबन्ध का कारण नहीं होता है ॥२८॥ 'सिंणायगाणं तु दुवे' इत्यादि शब्दार्थ-'जे सिणायगार्ण भिक्खुयाण-ये स्नातकानां भिक्षुका. नाम्' जो पुरुष स्नातक शाक्य भिक्षुओं के 'दुवे सहस्से-दे सहस्र' दो हज्जार अर्थात् दो हजार शाकय मत के साधुओं को 'भोजए-मोजयेयुः नित्य भोजन कराते हैं 'ते-ते' वे पुरुष 'सुमहं पुण्णखधं-सुमहत् पुण्यस्कन्धम्' अत्यन्त विपुल पुण्य स्कन्ध 'जणित्ता-जनयित्वा' उपार्जन करके 'आरोप महंतसत्ता भवंति-आरोप्याः महासत्वाः भवन्ति' आरोग्य नामक देव होते हैं-अर्थात् स्वर्ग पाता है ।गा. २९। સહજ શું છે? આ પ્રમાણે બધી જ અવસ્થાઓમાં વગર સમજે મનના સંકલ્પ વિના કરવામાં આવેલ કર્મબંધના કારણ રૂપ હોતું નથી ૨૮ "सियाणगाणं तु दुवे' त्याह शा--'जे सिणायगाणं भिक्खुयाणं-ये स्नातकानां भिक्षुकानोरे ५३५ स्नात: ४य सिमाना 'दुवे सहस्से-द्वे सहस्रे मे M२ अर्थात शाय भतना साधुमान 'भोजए-भोजयेयुः' नित्य न ४शवे छे. 'ते-वे' ते १३५ 'सुमह पुण्णखधं-सुमहत्पुण्यस्कन्धम्' सत्यत विधुर धुय'५ 'जिणित्ताजनयित्वा' Bान ४शन 'आरोप्पमहतसत्ता भव ति-आरोप्याः महासत्वाः भवन्ति' माशय नामना १ थाय छे. अर्थात २१ भगवे छ. ॥२६॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे नित्यम् - प्रतिदिनम् (भोजए) भोजयेयुः (ते) ते पुरुषाः (सुमहं पुन्नखंध ) सुमहत् अतिविपुलं पुण्यस्कन्धम् - पुण्योपचयम् (जिणित्ता) जनयित्वा ( अरोपमदेवता भवति) अरोप्यनामका महासच्या देवविशेषाः स्वर्गे भवन्तीति ॥ २९ ॥ टीका—'जे दुवे सहस्से' ये पुरुषविशेषाः द्वे सहस्रे 'सिणायगाणं भिक्खुया' स्नातकानाम् - दीक्षितानां मिक्षूणां शाक्यमुनीनाम्, 'णियए' नित्यम्-अन्व याणं' हम् 'भोयए' भोजयेयुः - अन्नादिना वर्पयेयुः । 'ते' ते पुरुषाः 'सुवई पुन्नखधं ' सुमहत्पुण्यस्कन्धम् - पुण्योपचयम् 'जिणित्ता' जनयित्वा समुपाये 'आरोप' आरो'यनामका : 'महंतसत्ता' महासच्चाः - देवविशेषाः स्वर्गे भवन्तीति ॥ २९ ॥ मूलम् - अजोगरूवं इह संजयाणं पात्रं तु पाणाण पसज्झकाउं । अवोहिए दोह वि तं असाहू वयंति जे यावि पडिस्सुणंति ॥३०॥ छाया -- अयोग्यरूपमिह संयतानां पापं तु प्राणानां प्रसह्य कृत्वा । अयोध्यै द्वयोरपि तदसाधु वदन्ति ये चापि प्रतिशृण्वन्ति ||३०|| अन्वयार्थ - जो पुरुष दो हजार स्नातक भिक्षुओं को अर्थात् शाक्यमत के साधुओं को प्रतिदिन भोजन कराता है वह अत्यन्त विपुल पुण्यस्कंध उपार्जन करके स्वर्ग में महान् सत्वशाली आरोप्य नामक देव होता है ||२९|| टोकार्थ - जो पुरुष दो हजार दीक्षाधारी स्नातक शाक्य भिक्षुओं को प्रतिदिन भोजन कराता है, वह महान् पुण्यस्कंध ( पुण्यप्रचय) उपार्जित करके अत्यन्त पराक्रमी आरोग्य नामक देव होता हैअर्थात् स्वर्ग पाता है ॥२९॥ 'अजोगरूवं' इत्यादि । शब्दार्थ - आर्द्रक मुनि उत्तर देते हैं- 'इह - इह' इस समय आपका અન્વયા --જે પુરૂષ બે હજાર દીક્ષા ધારી સ્નાતક-શાકય ભિક્ષુઓને દરરાજ ભાજન કરાવે છે તે પુરૂષ મહાન પુણ્યસ્ક ધ પ્રાપ્ત કરીને તે અત્યંત પરાક્રમી આરાપ્ય નામના દેવ મને છે. અર્થાત્ સ્વ" પ્રાપ્ત કરે છે. ારા ટીકા—જે પુરૂષ બે હજાર દીક્ષા ધારી-સ્નાતક શાકય ભિક્ષુઆને દરરાજ ભાજન કરાવે છે. તે મહાન્ પુણ્યસ્કંધ-(પુણ્ય પ્રચય) પ્રાપ્ત કરીને અત્યંત પરાક્રમી આરાપ્ય નામના દેવ થાય છે. ારા 'अजगरुव' इत्यादि શબ્દા—શાકયનું કથન સાંભળીને આદ્રક મુનિ તેને ઉત્તર આપતાં Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आईकमुने!शालकस्य संबादनि० ६२९ ___ अन्वयार्थ:--(इह) इह-अस्मिन् काले-भवदीयसिद्धान्तरूपममिमतम् (संज. याणं अनोगरूवं) संयतानां साधूनामयोग्यरूपम् (पाणाण) प्राणानां च (पसज्झ काउ) प्रता-बलात कृत्वा मारणमिति शेषः (पाच) पापं-पापजनकमेव (दो वि) द्वयोरपि-एतादृशसिद्धान्तोपदेष्टकतकर्णगोवरयोरपि (अबोहिए) अयोध्य-अबोधिलाभाय भवति (जे य) ये च (वयंति) वदन्ति एतादृशं सिद्धान्त तथा-(पडि मुणंति) भतिशृण्वन्ति, इति ॥३०॥ टीका--'सम्पति-आर्द्रकः शाक्यभिक्षुकमुत्तरयति-हे बौद्ध भिक्षो! 'बहसंनयाण' इह-संयतानां पुरुषाणां कृते भवदभिमत-मिद्धान्तरूपम् अयोग्यरूपमिव सिद्धांत 'संजयागं अजोगवं-संपतानाम् अयोग्यरूपम्' संयमी पुरुष के लिए अयोग्य है 'पाण ग-प्राणानां प्राणियों का 'पसज्ज काउं-प्रसहय कृत्वा' जबर्दस्ती हिंसा करना 'पावं-पापं पाप जनक ही है, आपका सिद्धांत 'जे य-ये च' जो कोई 'वयंति-वदन्ति' कहते है तथा 'पडि. सुगंति-प्रतिपयन्ति' यह सिद्धांत सुनते है 'दोहवि-द्वयोरपि' कहने और सुनने दोनों के लिए ही 'अयोही-अयोध्यै' अयोधिजनक है।३०। अन्वयार्थ--आद्रेक मुनि उत्तर देते हैं आप का सिद्धान्त संयमी पुरुषों के लिए अयोग्य है, प्राणियों को जबर्दस्ती हिंसा करना पापजनक ही है, आप का सिद्धान्त कहने और सुनने वाले दोनों के लिए ही अपोधिजनक है ॥३०॥ टीकार्थ-अब आद्रक शाक्य भिक्षु को उत्तर देते हैं-आपका ४ ४-'इह-इह' मा सभये मापन। सिद्धांत 'संजयाणं अजोगरूव-संयतानाम् अयोग्यरूपम्' सयभी पु३पान भट मयेय छे. 'पाणाण-प्राणाना' प्राणियोनी 'पज्जकाउ'-प्रसह्य कृया' (२थी डिसा ४२वी ते 'पाव-पापम्' ५५ 11 छे. मापना सिद्धांतमा 'जे य-ये च' रे 'वयंति-वदन्ति' सिद्धांतनु ४थन ४२ छ, तथा 'पडिसुणति-प्रतिश्रृण्वन्ति' सिद्धान्तनु वय ७२०वे छे. 'दोण्ह वि-द्वयोरपि' डावाणा भने सामावाण मन्ने भाट 'अबोही-अबोध्यै' અબાધિ કારક જ છે. ૩૦ અન્વયાર્થ–આદ્રક મુનિ ઉત્તર આપતાં કહે છે–તમારે સિદ્ધાંત સંયમી પુરૂષ માટે અગ્ય છે. પ્રાણિયાની બલાકારથી હિંસા કરવી પાપજનક જ છે. આપનો સિદ્ધાંત કહેવાવાળા અને સાંભળવાવાળા બનેને માટે मावि न छे. ॥३०॥ ટીકાંઈ–હવે આદ્રક મુનિ શાય શિશુને ઉત્તર આપતાં કહે છે કે Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रछतागो प्रतिभाति । यतः 'पाणाणं' माणानाम्-एकेन्द्रियपइनीवनिकायानाम् 'पसाझ' प्रसह्य-बलात्कारम् 'काउ' कृत्वा मारणम् 'पावंतु' पापमेव-येन केनापि प्रकारेण कृतः कारितो वा प्राणातिपातः पापायैव न धम्यो भत्रति ! 'दोण्ह वि' द्वयो रपि-उक्तसिद्धान्तोपदेष्टश्रोत्रोरपि 'अघोहिग' अयोध्यै 'तं असाहु' तसाधुः द्वयोरपि अज्ञानवर्द्धनाय दुःखाय च प्राणातिपातः । कयोईयोस्तत्राह-एतादृशं सिद्धान्तं ये उपदिशन्ति ये च शुष्पन्ति तौ उभावपि निन्दितौ इत्याह-'जे वयंति' ये वदन्ति-एतादृशस्य कर्मणो धर्मोत्पादकत्वम् 'जे या वि' ये चापि 'पडिमुणंति' प्रतिशष्यन्ति, वदतां शृश्यतां चोभयोरपि दोपायैव भवति ॥३०॥ मूलम्-उड़े अहेयं तिरियं दिसासु, विन्नाय लिंग तसथावराणं। भूयाभिसंकाइ दुगुंछमाणे, वंदे करेज्जा व कुंओ वि हत्थी ॥३१॥ छाया-ऊर्ध्वमधस्तिर्यदिशामु विज्ञाय लिङ्गं त्रसस्थावराणाम् । भूताभिशङ्कया जुगुप्समानो वदे कुर्याद्वा कुनोऽप्यस्ति ॥३१॥ अभिमत सिद्धान्त संघप्रवान् पुरुषों को अयोग्य प्रतीत होता है। क्योंकि बलात्कार करके प्राणियों को हिंसा काना पाप ही है । चाहे वह हिंसा स्वयं की गई हो, अथवा दूसरे के द्वारा कराई गई हो या उसकी अनुमोदना की गई हो, वह धर्मयुक्त नहीं हो सकती। आपके इस अयुक्त मत को जो कहते हैं और जो सुनते हैं, उन दोनों के लिए ही वह अज्ञानवर्द्धक और दुःख का कारण है ॥३०॥ 'उडूं अहेयं' इत्यादि। . शब्दार्थ--'उडूं-ऊर्ध्वम्' ऊर्ध्व दिशामें 'अहेयं-अधः' अधो दिशामें આપને મત-સિદ્ધાંત સંયમવાનું પુરૂને અયોગ્ય કારક જણાય છે. કેમકે બલાત્કાર કરીને પ્રાણિયોની હિંસા કરવી તે પાપ જ છે. ચાહે તે હિંસા પિતે કરી હેય અગર બીજા પાસે કરાવી હોય અથવા તેનું અનુમોદન કર્યું હોય. તે ધર્મ યુક્ત થઈ શકતી નથી આપના આ અગ્ય મતનું જે કંઈ કથન કરે છે, અથવા જે તેને સાંભળે છે, તે બને માટે તે અજ્ઞાનને વધાનારૂં અને દુઃખનું કારણ છે. ૩૦ 'उडूढ अहेय' त्या शहाथ-'उड्ढ-ऊर्ध्वम्' SAEमा 'अहेय'-अधः' मघाशामा 'तिरिय Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.६ आर्द्रकमुने!शालकस्य संवादनि० ६३१ अन्वयार्थ:-(उई) ऊर्ध्वदिशि (अहेय) अधोदिशि (तिरियं दिसासु) नियंगदिशाम (तसथावराणं) त्रसस्थावराणां जीवानाम् (लिंग) लिङ्गम्-जीवत्वचितम्चलनस्पन्दनाङ्कुरोद्भवादिकम् (विन्नाय) विज्ञाय-ज्ञात्वा (भूयाभिसंकाइ दुगुंछमाणा) भूताभिशङ्कया जुगुप्समानः-घृणां कुर्वन् (वदे) वदेव निरवधभाषामुच्चारयेत (करेजा व) कुर्याद्वा, एतादृशस्य (कुओविहऽत्थी) कुतोऽप्यस्ति जीवनभयमकथमपि जीवनभयं नास्तीति ॥३१॥ 'तिरिय दिसासु-तिर्यग दिशासु' तिर्थी दिशाओं में 'तसथावराणं-त्रसस्थावराणां वस' और स्थावर जीवों के 'लिंग-लिङ्ग' लिंगको अर्थात् जीवत्व के चिह्न चलन स्पन्दन आदिको 'विनाय-विज्ञाय' जानकर 'भूयाभिसंकाइ दुगुंछमाणा-भूनाभिशङ्कया जुगुसप्तमानः' जीव हिंसा की आशंका से ज्ञानी पुरुष हिंसा से घृणा करता हुवा 'वदे-वदेन' यदि निदोष भाषा का उच्चारण 'करेज्जा व-कुर्यात् वा' करे और निरवद्य प्रवृत्ति करे तो 'कुओ विहत्यी-कुतोप्यस्ति' जीव हिंसाकाभय कैसे हो सकता है ? कदापि नहीं हो सकता ॥३१॥ ____अन्वयार्थ-ऊर्वदिशा में अधोदिशा में और तिर्की दिशाओं में प्रस और स्थावर जीवों के लिंग को अर्थात् जीवत्व के चिहून चलन स्पन्दन आदि को जान कर भूतों के हिंसा की आशंका से ज्ञानी पुरुष हिंसा से घृणा करता हुआ यदि निर्दोष भाषा का उच्चारण करे और निरपद्य प्रवृत्ति करे तो जीवहिंसा का भय कैसे हो सकता है ? कदापि नहीं हो सकता ॥३१॥ दिसासु-तिर्यग् दिशासु' ति हिशामा 'तसथावराण-त्रसथावराणां' त्रस भने स्था१२ वाना 'लिंग-लिङ्ग” सिसने अथवा त्वना बिल बन २५-हन विगेरेने 'विन्नाय-विज्ञाय' agीन 'भूयाभिसंकाइ दुगुछमाणा-भूताभिशङ्कया जुगुप्समानः' भूतानी हिसानी माथी ज्ञानी पु३५ साथी el ४२ता थ! 'वदे-वदेत'ने निपि भाषानु यार करेज्जा व-कु. र्यात् वा' ४२ मने निषध प्रवृत्ति रे तो 'कुओ विहत्यी-कुतोप्यस्ति हसानो ભય કેવી રીતે થઈ શકે છે? અર્થાત્ કદાપિ થઈ શકતું નથી. ૩૧ અન્વયાર્થ–ઉર્વદિશામાં, અદિશામાં અને તીઈિ દિશાઓમાં વસ અને સ્થાવર જીના ચિહ્નને અર્થાત્ જીવપણના ચિહ્ન ચલન સ્પન્દન વિગેરેને સમજીને પ્રાણિની હિંસાની શંકાથી જ્ઞાની પુરૂ હિંસાની ઘણા કરતા થકા જે નિર્દોષ ભાષાને ઉચ્ચાર કરે અને નિરવદ્ય પ્રવૃત્તિ કરે તે જીવહિંસાને ભય કેવી રીતે થાય છે ? કદાપિ તેમ થતું નથી. ૩૧ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे टीका - मुनिः बौद्धपक्षं निष्कृय स्वमतं कथयति - 'उ' ऊर्ध्वम् 'अहेव ' अधः 'तिरियं दिसासु' तिर्यदिशासु 'तमथावराणं' संस्थावराणां प्राणिनाम् 'लिंगं' लिङ्ग' जीव चिह्नम् -चलनस्पन्दन कुद्भवादिकम् 'विभा' विज्ञाय - प्रत्यक्षानुमानार्थापत्यागमममाणे ज्ञचा 'भूयामिसंकाइ' भूताभि शङ्खया जीवानां विनाशभयेन 'दुगुछमाणा' जुगुप्पमानः प्राणातिपातादिना शुभकर्म भवतीति मत्वा हिंसायां घृणां कुर्वन् 'वदे' वदेत् निरवद्या भाषां भाषेत । तादृशी आपा प्रयोज्या यावत्या जीवानां विराधनं न भवेत् । 'करेज्जा' कुर्यात- विचार्येति शेषः, विचार्य निरवद्यं कार्यं कुर्यादित्यर्थः । एतादृशोत्तम विचारशीलानां पुरुषाणाम् 'कुओ विहन्यी' कुनोऽपि इद्दास्ति नास्ति जीवनमयमिति ध्वनिः । कुतोऽस्ती हा स्मिन् एवं भूतेऽनुष्ठाने क्रियमाणे प्रोच्यमाने वा जीवनभवमरुनाकम्, युष्मदापादितो दोष एव समुल्लसतीति ॥ ३१ ॥ मूलम् - पुरिसेतिविन्नत्ति न एवमत्थि, T अणारिए से पुरिसे तहा हु । टीकार्थ- आर्द्रक मुनि बौद्धमत का निराकरण करके अपने मत का प्रतिपादन करते हैं - ऊंची नीची और तिछ दिशाओं में त्रस और स्थावर प्राणियों के चलना हिलना, अंकुर फूटना आदि जीवत्व के चिह्नों को प्रत्यक्ष अनुमान आदि प्रमाणों से जान कर जीवों की हिंसा के भय से प्राणातिपात आदि से कर्मबन्ध होता है, ऐसा मान कर हिंसा से घृणा करता हुआ ऐसी निरवद्य भाषा का प्रयोग करे जिससे जीवों की विराधना न हो। तथा भलीभांति विचार कर निरवय कार्य करे | ऐसे उत्तम विचारशील पुरुषों को कोई दोष पाप कैसे हों सकता है ? अर्थात् जो हिंसाकोरी वचन और कर्य से दूर रहते हैं उन्हें कोई दोष नहीं लगता ||३१|| ટીકા-આક મુનિ બૌદ્ધ મતનુ ખડન કરીને પેાતાના મતનું પ્રતિ પાદન કરે છે—ઉચી નીચી, અને તિી દિશાઓમાં ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાણિયાના ચાલવા, હરવા, ફરવા અ'કુર ફૂટવા વિગેરે જીવપણાના ચિહ્નોને અનુમન વિગેરે પ્રત્યક્ષ પ્રમાણેાથી જાણીને જીવેાની હિ'સાના ભયથી, પ્રાણા તિપાત વિગેરેથી ક બંધ થાય છે. તેમ માનીને હિંસાથી ઘૃણા કરતા થકા એવી તિરવદ્ય ભ ષાના પ્રયાગ કરે કે જેનાથી જીવેાની વિરાધના (હિ’મા) ન થાય તથા સારી રીતે વિચાર કરીને નિરવદ્ય કાય કરે એવા ઉત્તમ અને વિચારશીલ પુરૂષોને કઇ પણુ દેષ અર્થાત્ પાપ કેવી રીતે લાગી શકે ? અર્થાત્ જે હિંસા કારક વચન અને કાર્યથી દૂર રહે છે. તેમને ફાઇ પણ દોષ લાગતા નથી, ૫૩૧ા Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. अ. ६ आईकमुनेगोशालकस्य संवादनि० ६३३, - को संभवो पिन्नागपिडियाए, . . . . . . - वाया वि एसा बुइया असच्चा ॥३॥ छाया-पुरुष इति विज्ञप्ति व मस्ति, अनार्यः स पुरुषस्तथाहि । ' । कः संभवः पिण्याकपिण्ड्या, वागप्येषोक्ताऽसत्या ॥३२॥ - - अन्वयार्थ:-(पुरिसेत्ति) पुरुष इति (विन्नत्ति) विज्ञप्ति:-पिण्याकपिण्डे पुरुष इत्याकारिका बुद्धिः (न एवमत्थि) नैवं कथमपि पामराणामपि अस्ति (तहा से पुरिसे अणारिए) तथाहि स पुरुषोऽनार्यः, यः पिण्याकपिण्डे पुरुषबुद्धिं करोति, (पिन्नागपिडियाए) पिण्याकपिण्ड्याम् (को संमयो) पुरुषबुद्धेः कः सम्भव:- नास्ति सम्भावनेत्यर्थः (एसा वाया वि वुझ्या असच्चा) एषा वागपि उक्ता अपत्यैवेति । 'पुरुसे त्ति चिन्नत्ति' इत्यादि। शब्दार्थ--'पुरिसे त्ति-पुरुष इति' खलके पिंडमें पुरुष की 'विन्नत्ति विज्ञप्ति:' बुद्धि 'न एवमस्थि-नवमस्ति' मूों को भी नहीं हो सकती'तहा से पुरिसे अणारिए-तथा स पुरुषः अनार्य: अगर कोई पुरुष खलके विण्डको पुरुष समझता है तो वह अनार्य है 'पिनाय पिण्डियाए-पिण्याकपिण्डे' खलके पिण्ड में पुरुषकी बुद्धि की संभावना ही 'को संभवो-कः संभवः' कैसे की जा सकती है, 'एसा वाया, वि-, वुइया असच्चा-एषा वागपि उक्ताऽसत्या' तुमारी कही हुई. यह वाणी भी असत्य ही है ॥३२॥ . अन्वयार्थ खल के पिण्ड में पुरुष की बुद्धि तो मूखों को भी नहीं हो सकती है। अगर कोई पुरुष खल के पिण्ड को पुरुष समझता है या पुरुष को खलपिण्ड समझता है तो वह अनार्य है। भला खल 'पुरिसे त्ति विन्नति' त्यादि . Avai --'पुरिसे वि-पुरुष इति' मोणता मा ५३५५यानी 'विन्नत्ति विज्ञप्ति' भुद्धित 'न एवमत्थि-नवमस्ति' भूमिाने पर थ शहती नथी. 'तहा से पुरिसे अणारिए-तथा सः पुरुप अनार्य:' अथवा भास माना पिने ५३५ सभो तो ते मनाय छे. “पिनागपिडियाए-पिण्याकपिण्डे' मोना विमा ५३५५नी मुद्धिनी साना 'को संभवो-कः संभवः' उवा शतरी शाय 'एसा वायावि बुइया असच्चा-एपा वागपि उक्ताऽसत्या' તમેએ કહેલ આ વાણી પણ અસત્ય જ છે. ૩રા - અવયાર્થ–ળના પિંઠમાં પુરૂષપણાની બુદ્ધિ તે મૂખને પણ થઈ શકતી નથી. અથવા કોઈ પુરૂષ એળના પિંડને પુરૂષ સમજે અથવા પુરૂષને ખેળને પિડા सू० ८० Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताने टीका -- तद्दर्शनाऽसारतां द्योतयन्नार्द्रकः पुनराह शाक्य भिक्षुम्- 'पुरिसेति' पुरुष इति 'विन्नति' विज्ञप्तिज्ञीनम् 'न एवमस्थि' नैवमस्ति - पिण्याक पिण्डे पुरुषो - sयमित्याकारिका बुद्धिर्न भवति पामराणामपि । 'तहा हि से पुरिसे अणारिए' तथाहि स पुरुषोsनार्यः, अतो यस्य पिण्याकपिण्डे पुरुषबुद्धिर्भवति पुरुषे वा पिण्याकबुद्धि. रुदेति एतादृशोऽनार्यः । 'पन्नागपिंडियाए' पिण्याकपिण्डयाम 'को संभवो' को नाम सम्भवः - तादृशपिण्डे पुरुष बुद्धिः कथमपि न सम्भवति ।, अतः 'एसा वाया विचुइया असच्चा' एपोक्ता वागपि असल्या कथिता तस्मात् पिण्याककाष्टादावपि प्रवत्तमानेन जीवोपमर्द मीरुणा सा शङ्के व नैव प्रवर्त्तनीयेति ॥ ३२ ॥ मूलम् - वायाभिजोगेण जमाव हेज्जो, णी तारिस वाया उदाहरिज्जा । ६३४ अट्टणमेयं वयणं गुणाणं, गौ दिविखए बूय मुंरालंमेयं ॥३३॥ 3 के पिण्ड में पुरुष की बुद्धि की संभावना ही कैसे की जा सकती है ? तुम्हारी कही हुई यह वाणी असत्य ही है ||३२|| C टीकार्थ - शाक्यदर्शन की निस्सारता को प्रकट करते हुए आर्द्रक पुन: कहते हैं-खल के पिण्ड में 'यह पुरुष है ऐसी बुद्धि पामर पुरुषों को भी नहीं हो सकती' जिस पुरुष को खलपिण्ड में पुरुष की और पुरुष में खलपिण्ड की वृद्धि उत्पन्न होती है, वह पुरुष अनार्य है अर्थात् अज्ञानी है । आखिर खल के पिण्ड में पुरुष को बुद्धि कैसे संभवित हो सकती है ? अतएव तुम्हारा कहा हुआ वचन असत्य है । जो जीवहिंसा से भयभीत हो उसे खुल पिण्ड या काष्ठ आदि में प्रवृत्ति करते समय भी सावधान रहकर के ही प्रवृत्ति करना चाहिए ||३२|| સમજે તે તે અનાય છે; અરે ખેળના પડમાં પુરૂષપણાની બુદ્ધિની સંભાવના જ કેવી રીતે કરી શકાય ? તમેાએ કહેલ આ વાણી અસત્ય જ છે. ાકર ટીકા--શાકય દનના નિસાર પણાને બતાવતાં આદ્રક મુનિ ફરીથી કહે છે કે ખેાળના પિ’ડમા આ પુરૂષ છે, એવી બુદ્ધિ પામર પુરૂષને પણ થઈ શકતી નથી, જે વ્યક્તિને ખેળના પડમાં પુરૂષની અને પુરૂષમાં ખેળના પિંડની બુદ્ધિ થાય છે, તે પુરૂષ અનાય જ છે. અર્થાત્ અજ્ઞાની છેકેમકે ખેાળનાપિંડમાં પુરૂષપણાની બુદ્ધિ જ કેવી રીતે સલવી શકે ? તેથી જ તમેાએ કહેલ વચન અસત્ય જે છે. જે જીવહિં'સાથી ભયભીત હાય તેને ખેળના વિડ અથવા કાષ્ઠ વિગેરેમાં પ્રવૃત્તિ ફરતી વખતે પણ સાવધાન રહીને જ પ્રવૃત્તિ કરવી જેએ. ૫૩॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रृं. अं. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् वरगंधहत्थी' पुरुषेषु वरो गन्धहस्तीव, यस्य गन्धमाघ्राय अन्ये गजाः पलायन्ते दृतादृशो हस्ती गन्धहस्तीत्युच्यते तथैव नरेषु अनुल्लवितशासनो राजा भवति। 'अढडे दित्ते वित्ते' आढयो दीप्तो वित्तः, आढयः-प्रचुरधनवान्, दीप्त:-तेजस्वी, वित्त:-अहरहः-अलब्धलाभयुक्तः। 'वित्थिन्नविउलभवणसयणासणजाणवाहणाइण्णे' विस्तर्णविपुलभवनशयनाऽऽसनयानवाहनाकीणः, विस्तीणैर्यत्र तत्र विस्तारितैः विपुलैः-बहुभिः, भवनं-प्रसादः शयन-शय्या पर्यङ्कादिः आसनम्आसन्दी 'कुरसी' मभृति, यानं-शिविका वाहनमश्वः एभिराकीर्ग:-युक्तः, सश्चित सर्वविधसाधनसङ्घातसंयुत ' इति । 'बहुधणबहुजायख्वरयए' वहुधनबहुजातरूपरजता, वहूनि-धनानि व्यवहारकारीणि बहूनि जातरूपाणि सुवर्णानि रजवानि च यस्य सः । 'आओगपयोगसंपउत्ते' आयोगप्रयोगसपयुक्तः, आयोगो धनस्य -आयोजनप्रकार:-यथा व्यवहारेण धनागमो जायेत, प्रयोगः-कथं क्व कियानर्थः प्रयोक्तव्यः-व्ययस्य समुचितव्यवस्था, आभ्यामायन्ययाभ्यां व्यवस्थिताभ्यां में श्रेष्ठ गंधहस्ती के समान-जैसे हाथियों में मद वाला हाथी विशिष्ट होता है उसी प्रकार मनुष्यों में राजा, जिसका शासन अनुल्लंघनीय होता है, विशिष्ट माना जाता है। वह प्रचुर धनवान तेजस्वी और प्रति. दिन नृतन (नवीन) लाभ से युक्त होता है। जहां तहां फैले हुए अनेक भवनों, पर्य कों, आलनों, कुर्सियों, पालखियों तथा वाहनों अश्व आदि से युक्त होता है। अर्थात् सब प्रकार की साधन सामग्री से सम्पन्न होता है। उसके पास बहुत धन, बहुत स्वर्ण और बहुत चांदी होती है। वह धनके आयोग और प्रयोग में निपुण होता है। अर्थात् जिस व्यवहार से धन का लाभ हो उसमें तथा कहां कितना किस प्रकार धन પ્રિયદર્શન, પુરૂષોમાં શ્રેષ્ઠ ગંધ હાથી સરખા–અર્થાત્ જેમ હાથિમાં મદવાળા હાથી વિશેષ પ્રકાર હોય છે, એ જ પ્રમાણે મનુષ્યમાં રાજા કે જેનું શાસન-આજ્ઞા અનુલંઘનીય-ઉલંધી ન શકાય તેવું હોય છે. એટલે કે વિશેષ પ્રકારથી માનવામાં આવે છે. તે અત્યંત ધનવાન તેજસ્વી અને દર રોજ નૂતન (નવા) નૂતન (નવા) લાભવાળા હોય છે. જ્યાં ત્યાં ફેલાયેલા અનેક ભવન, પલંગે આસનો” ખુશિયે, પાલખિયે, તથા વાહને અશ્વ વિગેરેથી યુક્ત હોય છે. અર્થાત્ દરેક પ્રકારની સાધન સામગ્રીથી યુક્ત હોય છે. તેની પાસે ઘણ ધન, ઘણુ સોનું અને ઘણું ચાંદી હોય છે. તે ધનના આગ પ્રગમાં કુશળ હોય છે. અર્થાત્ જે વ્યવહારથી ધનને લાભ થાય તેમાં તથા કયાં કેટલું અને કેવા પ્રકારના ધનને વ્યય-ખર્ચ કરે જોઈએ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने!शालकस्य संवादनि० ६३५ । छाया-वागभियोगेन यदादहेनो तादृशीं वाचमुदाहरेत् । 1 . अस्थानमेतद्वचनं गुणानां, नो दीक्षितो- ब्रूयादुदारमेतत् ॥३३॥ । अन्वयार्थः--(वायाभिजोगेण) वागभियोगेन (जमावहेज्जा) यदावहेत् । रतारिसं चाय नो उदाहरिज्जा) तादृशीं वाचं नोदाहरेत्-यया वाचा प्राणातिपातो भवेत् सा वाक् न वक्तव्या, (एयं वयणं गुणाणं अट्ठाणं) एतद् वचनम्-भवदुक्तं वचनं गुणानामस्थानम् (एयं 'उरालं) एतदुदारम् (दिक्खिए नो बूया) दीक्षितो नो वदेदिति ॥३३॥ ' ।। . . 'वायाभिजोगेण' इत्यादि। ... शब्दार्थ-'वायाभिजोगेण-वागभियोगेन' जिस प्रकार के वचन का प्रयोग करने से 'जमायहेज्जा-घदावत्' पाप की उत्पत्ति हो 'तारिस वायं नो उदाहरिज्जा-तादृशं वाचं नोदाहरेत्' ऐसा वचन 'मेधावी पुरुषको संकटके समय भी नहीं बोलना चाहिए 'एयं वयंणं गुणाणं अट्ठाण-एतद्वचनं गुगानालस्थानम्' क्योंकी मापद्य भाषा भी कर्मबन्धका कारण होती है 'एयं उरालं-एतत् उदारम्' इस प्रकार का वचन गुणों का स्थान नहीं है, अतएव 'दिक्खिए नो चूया-दीक्षितो नो वदेत्' दीक्षित पुरुष ऐसा सारहीन वचन न बोले ॥३३॥ । अन्वयार्थ--जिस प्रकार के वचन का प्रयोग करने से पाप की 'उत्पत्ति हो ऐसा वचन मेधावी पुरुष को लंकट के समय भी नहीं घोलना चाहिए। क्योंकि सवद्य भाषा भी कर्मयन्ध का कारण होती है । खल7 'वायाभिजोगेण' या शहाथ-'वायाभिजोगेण-वागभियोगेन' 24 क्यानो प्रयास ४२.' पाथी 'जमावहेज्जा-यदावहेत्' पपनी पत्ती थाय 'तारिस वाय न उदाहरिष्जा -तादृशं वाचं नोदाहरेत्' मा “यने, मुद्धिामी ५३षाये स४टना समये ५ मासा न २ ,एय वयणं गुणाणं अट्ठाणं-एतद्वचनं गुणानामस्थानम्' म सावध भाषा पंथ ना ४२ ३५ डाय छे. 'एय, उरालं-एतत् उदार' मा १२ना क्या गुथेनुं स्थान नथा तथा दिक्खिए नो बूया दीक्षितो नो वदेत्' दीक्षित ५३२ मावा सार विनाना क्यने। न माता ॥33॥ 'અન્વયાર્થ-જે પ્રકારના વચને પ્રવેશ કરવાથી પાપની ઉત્પત્તી થાય બુદ્ધિમાન પુરૂષે તેવા વચને મુશ્કેલીના સમયમાં પણ બેલવા ન જોઈએ. કેમકે સાવદ્ય ભાષા પણ કર્મબંધના કારણ રૂપ હોય છે. ખલપિંડ પુરૂષ છે, Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतास्त्र टीका-'वायाभिजोगेण' वागभियोगेन 'जमावहे ना' यदावहे 'णो तारिस' नो तादृशम् 'वायं' वाचम्-वचनं व्याख्यानम् 'उदाहरिज्जा' उदाहरेत, यथाविधाया वाचः प्रयोगेग पापोत्पत्तिर्भवेत् तथाविधा वाक् विदुपा सङ्कटकालेऽपि न वाज्या, सावया भाषाऽपि कर्मानुवन्धिनी कर्मकारण भवति । 'एवं वयणं' गुणाणं अट्ठाणं' एवम्-ईदृशं वचनम्-पिण्याकं पुरुषः पुरुषः पिण्याकमित्या. कारकम् गुगानास्थानम् । अतः-'दिक्खए' दीक्षितः पुरुषः 'एयमुरालं' एतद् उदार वचनम् ‘णो वूया' नो ब्रूयात् । यतो हि-सावधाचनप्रयोगेणाऽपि पापो. त्पत्तिर्भवत्येव, तस्मा-पिण्याकं पुरुषतया पुरुपं पिण्याकतया विवेकी पुपान्न घदेत् । एतादृशस्य भ्रममुद्वहतो वाग्जालस्य सावधमूलकत्वादिति ॥३३॥ - मूळम्-लद्धे अढे अहो एव तुम्भे, जीवाणुभागे सुविचिंति एव । पिण्ड पुरुष है या पुरुष खलपिण्ड है, इस प्रकार का वचन गुणों का स्थान नहीं है । अतएव दीक्षित पुरुष ऐसा सारहीन यचन न योले ॥३३॥ . टीकार्थ--जिस वचन के प्रयोग से पाप उत्पन्न होता है, ऐसा वचन संकट के अवसर पर भी ज्ञानी पुरुप को नहीं बोलना चाहिए। सावध भाषा भी कर्मानुबन्धिनी होती है। पुरुष खल का पिण्ड है या खल का पिण्ड पुरुष है, इस प्रकार की भाषा गुणों का अस्थान है, गुणकारी नहीं है । अतएव जिसने दीक्षा अंगीकार की है, ऐसे पुरुष को इस प्रकार की सारशून्य भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए, क्यों कि सावध भाषा से भी पाप उत्पन्न होता है, अतएव विवेकवान् पुरुष खलपिण्ड को पुरुष और पुरुष को खलपिण्ड न कहे। इस प्रकार का भ्रमजनक 'वारजाल पापमूलक है ॥३३॥ । અથવા પુરૂ ખેલપિંડ છે, આવા વચને ગુણેના સ્થાન રૂપ નથી જ તેથીજ દીક્ષિત પુરૂષે તેવા નિસાર વચન બેલવા ન જોઈએ. ૩૩. '' Jhy --२ क्यनना' प्रयोगथी. पा५ , उत्पन्न थाय छ, वा क्यन સંકટના સમયે પણ જ્ઞાની પુરૂષ બલવા ન જોઈએ. સાવદ્ય ભાષા પણ કેમનુબંધિની હોય છે. આવા પ્રકારની ભાષા ગુણેના સ્થાન રૂપ નથી. ગુણકારક નથી. તેથી જ જેણે દીક્ષા ધારણ કરેલ છે, એવા પુરૂષે આવા પ્રકારની સરિ વિનાની ભાષાને પ્રગ કરવો ન જોઈએ. કેમકે–સાવધ ભાષાથી પણ પાપ થાય છે. તેથી જ વિવેકી પુરૂષે ખલપિંડને પુરૂષ અને પુરૂષને ખલપિંડ કહેવા નહીં આવા પ્રકારની ભ્રમ જનક વાજોળ પાપોત્પાદક જ છે. તેમ સમજવું. ૩૩ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. अ. ६ आर्द्रकमुनेर्गोशालकस्य संवादनि० 7 पुव्वं समुई अवरं च पुट्टे, ૬૭ उलोइए पाणितले ठिए वा ॥ ३४ ॥ छाया - लब्धोऽर्थः अहो एव युष्माभिर्जीवानुभागः सुविचिन्तितश्च । पूर्वञ्च समुद्रमपरञ्च स्पृष्ट मवलोकितः पाणितले स्थितो वा ॥ २४ ॥ अन्वयार्थः --- सोपहासमाद्रकः शाक्यभिक्षुकं प्रति कथपति- ( अहो तुम्मे एवं ( अड्डे लद्वे) अहो - इति निपात आश्चर्यबोधकः । युवामिरेवाऽर्थो लब्धः (वयैव 'ल अट्टे' इत्यादि । शब्दार्थ - - आर्द्रक मुनि शाक्य भिक्षुक का उपहास करते हुए कहते हैं, 'अहो तुम्भे एव अड्डे लदे अहो युष्माभिरेवार्थो लब्धः ' आश्चर्य है कि आपने यह अर्थलाभ किया है, अर्थात् आपने अद्भूत ज्ञान प्राप्त किया है । 'जीवाणुभागे सुविचितिए व-जीवानुभागः - सुचितिंत एव' आपने जीवों के कर्मफलका बडा सुंदर विचार किया 'है । आपका यह यश 'पृच्वं समुदं अपरंच पुढे - पूर्व समुद्रम् अपरश्च स्पृष्टम् पूर्व और पश्चिमका समुद्रपर्यन्त व्याप्त रहा है । 'पाणितले ठिए वा- पाणितले स्थितो वा' अथवा जान पडता है कि जगत् के सब पदार्थ आपकी ही हथेलीपर मौजूद है - आप सर्वज्ञ से कम नहीं जान पडते इस काकुवाक्य का तात्पर्य यह है कि आपने जानने योग्य वस्तुको जाना नहीं है, आप अज्ञानी है, अन्यथा स्थित वस्तुको अन्यथा कह रहे हैं, और पुण्य एवं पापकी व्यवस्था उल्टी करते है ॥३४॥, 'लद्धे अट्टे' त्याहि શબ્દા આદ્રક મુનિ શાકય શિક્ષકની મશ્કરી કરતાં કહે છે કે— "अहो तु एव अट्टे लद्धे - अहो - युष्माभिरेवार्थी लब्धः" माँश्चर्य छे' हे आये આ અથના લાભ મેળવેલ છે અર્થાત્ આપે અદ્ભૂત જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરેલ છે. “जीवांणुभागे सुविचिति एव - जीवानुभागः सुचिन्तित एव' आये वोना हम नात्यांत सुंदर विचार रेस है. आपना मा यश 'पुत्वं समुदं अपरंच - पूर्व समुद्रम् अपराध ' स्पृष्टम् पूर्व मने पश्चिम समुद्रपर्यत असरी Jइडेस’छे' 'अथवा 'पाणितले ठिए वा - पाणितले स्थितों वा" येवु भाय જગતના સઘળા પદાર્થોં આપની હથેલીમાં જ રહેલા છે. આપ સર્વીસથી કમ - शांता नथी. भावोभितनुं 'तात्पर्य' 'छे है-मायें लघुवा योग्य वस्तुने જાણેલ નથી. આપ અજ્ઞાની છે. અન્યથા રહેલ વસ્તુને અન્યથા કહી રહ્યા છે. તથા પુણ્ય અને પાપની વ્યવસ્થા ઉલ્ટી કરેા છે. ૫૩૪ા IT Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ सूत्रहताचे विलक्षणं ज्ञान प्राप्तमेतादृशम्) इति काकुः । (जीवाणुमागे मृविचितिए ३) जीवा. ऽनुभागः सुविचिन्तितश्च । तथा-त्वयैव जीवानां कर्मफलस्यापि विचारः कृतः । (पुव्वं समुदं अवरं च पुढे) पूर्व समुद्रमपरश्च स्पृष्टम्-भवदीययशः पूर्वाऽपरसम्म द्रान्तव्यापि । (पाणितले ठिए वा उलोडए) पाणितले स्थितो वा-सर्वोऽपि पदाधः पाणितले प्रत्यक्षेण स्थित इव अवलोकितः । त्वयैव सकलपदार्थसाक्षास्कारिज्ञानं प्राप्तम्, जीवानां कर्मफलमपि लब्धम्, इह सर्वत्र तवैव यशो विस्तृतम् । 'आश्चर्यमेव भवतः कार्यजातम्, एतापता ज्ञातव्यं पदार्थ न ज्ञातवानसि मूर्योऽसि । येनाऽन्यथास्थितं स्थिरमपि पदार्थ मन्यथा प्रतिपादयितुमीहमानः पुण्यपापयो. व्यवस्थां करोपि । इति काक्या व्यज्यते ॥३४॥ टीका-मुगमा ॥३४॥ मूलम्-जीवाणुभागं सुविचिंतयंता, आहारिया अन्नविही य सोहि। : अन्वयार्थ:-आद्रक मुनि शाक्य भिक्षु का उपहास करते हुए कहते हैं-विस्मय है कि आपने यह अर्थलाभ किया है । अर्थात् आपने अद्भुन ज्ञान प्राप्त किया है । आपने जीवों के कर्मफल का बड़ा सुन्दर पिचार किया है ! आपका यश पूर्वापर समुद्र तक व्याप्त रहा है। जान पड़ता है जगत् के सव पदार्थ अपकी ही हथेली पर मौजूद हैं-आप सर्वज्ञ से कम नहीं जान पड़ते । काकुध्वनि से तात्पर्य यह निकला कि आपने जानने योग्य वस्तु को जाना नहीं है, आप अज्ञानी हैं। अन्यथास्थित वस्तु को अन्यथा कह रहे हैं। पुण्य पाप की उल्टी व्यवस्था करते हैं ॥३४॥टीका सुगम है ॥३४।। - અન્વયાર્થ–આદ્રક મુનિ શાય ભિક્ષુની મશ્કરી કરતાં કહે છે કે-- આશ્ચર્ય થાય છે કે–આપે આ દિવ્ય અર્થ લાભ મેળવેલ છે. અર્થાત આપે અદુભૂત જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરેલ છે, આપે જીના કર્મફળને ઘણું જ સુંદર વિચાર કર્યો છે. આપને યશ પૂર્વાપર સમુદ્ર પર્યન્ત વ્યાપ્ત થયેલ છે. સમજાય છે કે જગના સઘળા પદાર્થો આપની હથેલીમાં જ મોજૂદ છે. આપ સર્વજ્ઞવી ઓછા જણાતા નથી. આ કાકુ વચનથી ભાવ એ સમજાય છે કે-આપ સમજવા લાયક વસ્તુ સમજ્યા નથી. એટલે કે આપ અજ્ઞાની છે. અન્યથા રહેલ વસ્તુને આપ બીજી રીતે સમજાવી રહ્યા છે આપ પુણ્ય પાપની ઉંધી વ્યવસ્થા કરતા હે તેમ મને જણાય છે. ૩૪ આ ગાથાને ટીકાર્થ સરળ હોવાથી આપેલ નથી, Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयाबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आद्रकमुनेगोशालकस्य संवादनि० ६३९ । न वियागरे छन्नपओपजीवी, एसोऽणुधम्मो इह संजयाणं ॥३५॥" ।, छाया--जीवाऽनुभागं सुविचिन्त्य, आहार्यान्नविधेश्च शुद्धिम् । .. ___न व्यागृणीयाच्छन्नपदोपजीवी, एपोनुधर्म इह संयतानाम् ॥३५॥ ___ अभयार्थः-(जीवाणुभागं सुविचिंतयंता) जीवानुभाग मुविचिन्त्य अहंदु मताऽनुरागी सन् जीवपीडां सम्यगनुविचिन्त्य (अन्नविही य सोहिं आहारिया) अन्नविधेश्च शुद्धिमाहार्य-शुद्धमन्नं द्वाचत्वारिंशद्दोषरहितमाहारं स्वीकृत्य (छन्नपभोपजीवी न वियागरे) छन्नपदोपजीवी न व्यागृणीयात्-कपटजीविको भूत्वा, 'जीधानुभाग' इत्यादि। शब्दार्थ--'जीवाणु भाग सुविचिंतयंता-जीवानुभागं सुविचिन्स्य' आहेत मत के अनुयायो जीवों के होने वाली पीडा को भली भांति विचार करके 'अन्नविहीय सोहिं आहारिया-अन्नविधेश्च शुद्धिम् आहार्य शुद्ध ययालीस प्रकार के दोषों से रहित आहार का ग्रहण करते हैं वे 'छन्नपओपजीवी न वियागरे-छन्न पदोपजीवी न व्यागृणीयात्' माया चारसे आजीविका नहीं करते और न कपटमय वचनों का उच्चारण करते हैं । इह संजयाणं एसोऽणुधम्मो-इह संयनानाम् एषोऽनुधर्मा' जिनशासन में संयमी पुरुषोंका यही धर्म है ॥३६॥ ____अन्वयार्थ--आर्हतमत के अनुयायी जीवों को होने वाली पीड़ा का भली भांति विचार करके शुद्ध-घयालीस प्रकार के दोषों से रहित आहार 13 , 'जीवानुभाग' त्याहि . , 'शहाय'-'जीवाणुभाग सुविचितयंता-जीवानुभाग सुविचिन्त्य' मात भतना मनुयायिमा छान थनारी पीडाना, सारी शते पियार ४शन, अन्न विही य सोहि आहारिया-अन्नविधेश्च शुद्धिम् आहार्य' शुद्ध ४२ मे ताजीस प्रारना होष विताना मारने अहएY छे. तमा ‘छन्नप ओपजीवी न वियागरे-छन्न दोपजीवी न व्यागृणीयान्' भायाय'२थी गावि भगता नथी भने ४५८युत वयानुयार ४२ता नथी. 'इइ संजयाण एसोणुधम्मो-इह संयतानाम् एषोऽनुधर्म' शासनमा सयभा ५३वानी मा म छे ॥3॥ અન્વયાર્થઆહંત મતના અનુયાયી છને થવાવાળી પીડાને સારી રીતે વિચાર કરીને શુદ્ધ-૪૨ બેતાલીસ પ્રકારના દેશે વિનાના આહારને Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ान - मायावचनं न प्रयोक्तव्यम्, न वा कपटेन जीविका कार्या विशुद्धमेवादिक महारत्वेन आहार्यम् । न तु - बौद्धवत् पात्रे पावितं पतितं वा सर्वविधमपि अन्नं शुद्धमेवेति मत्वामक्ष्यमपि भैक्षं मक्ष्य स्वीकर्त्तव्यमिति । यद्यपि जीवनिकायाचित्तविकारत्वाद मक्ष्यमा यमेत्र सबै तथापि लौकिकरीत्या व्यवस्थापयितव्या व्यवस्था ||३५||टीका - सुगमा ||३५|| #1 मूलम् - सियाणगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए नियए भिक्खुयाणं । पानी को ग्रहण करते हैं। वे मायाचार से आजीविका नहीं करते और न कपट मय वचनों का उच्चारण ही करते हैं जिनशासन में संयमी पुरुषों का यही धर्म है ||३५|| तात्पर्य यह है कि कपटपूर्ण वचनों का प्रयोग नहीं करना चाहिए, कपट से आजीविका नहीं करनी चाहिए तथा निर्दोष अन आदि का आहार करना चाहिए । बौद्धों के जैसा ऐसा नहीं कि पात्र में जो डाल दिया या गिर गया वह सब प्रकार से शुद्ध ही है, ऐसा समझ कर अभक्ष्य और अशुद्ध भिक्षा का भी भक्षण कर लिया जाय । यद्यपि अन आदि भी जीव का शरीर हैं तथापि लोक प्रचलित भक्ष्य या अभक्ष्य वस्था का भी विचार करना चाहिए । अन्न और मांस को एक ही श्रेणी में गिन कर भक्ष्य अभक्ष्यव्यवस्था का विलोन नहीं करना चाहिए |३५| टीका सुगम है ||३५| ગ્રહણ કરે છે. તેઓ માયાચારથી આજીવિકા કરતા નથી તેમજ કપટ મયવચને ખેાલતા નથી. જીન શાસનમાં સયમી પુરૂષોના આજ ધર્મ છે. ૩પાા કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે--કપટ યુક્ત વચનાના પ્રયાગ કરવા ન જોઇએ. કપટથી આજીવિકા ચલાવવી ન જોઇએ તથા નિર્દોષ અન્ન વગેરેના જ આહાર કરવા જોઇએ. બૌદ્ધોની જેમ એવું ન માનવુ કે પાત્રમાં જે નાખવામાં આવ્યું અથવા પડયુ. તે "ધી રીતે શુદ્ધ જ છે. તેમ સમઅને અભક્ષ્ય અને અશુદ્ધ ભિક્ષાનું પણુ ભક્ષણ કરી લેવામાં આવે. 1 જો કે અન્ન વિગેરે પણ જીઞનુ શરીર જ છે તે પણ લેાક પ્રચલિત લક્ષ્ય અને અભક્ષ્યની વ્યવસ્થાને પણ વિચાર કરવા જોઈએ. અન્ન અને માંસને એક જ શ્રેણીમાં માનીને ભક્ષ્ય અને અભક્ષ્યની વ્યવસ્થાના લેાપ કરવા તે કાઇ રીતે ચેાગ્ય કહી શકાય નહીં, દાગા॰ રૂપા આ ગાયાના ટીકા સુગમ છે. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.६ आर्द्रकमुनेर्गोशालकस्य संवादनि० ६४१ :: असंजए लोहियपाणि से उ, . है, णियच्छइ गरिहमिहेव लोए ॥३६॥ " छाया-स्नातकानां तु द्वै सहसे, यो भोजयेन्नित्य भिक्षुकाणाम् ।' ... असंयतो लोहितपाणिः स तु, निगच्छति गमिहैव लोके ॥३६॥ अन्वयार्थ:-प्रतिदिनं सहस्रद्वयभिक्षुभोजकः आरोग्य नामकदेवो भवति इति यदुक्तं तन्मतं निराकरोति-इदानी साधुभोजने ये गुणाः पूर्वमुक्तास्तान सियाणगाणं' इत्यादि। .. शब्दार्थ-'जे सियाणगाणं भिक्खुयाणं-ये स्नातकानां भिक्षुकाणाम्', जो पुरुष स्नातक भिक्षुओंका 'दुवे सहस्से-द्वे सहस्रे' दो हजार भिक्षुओंको 'णियए-नित्यम्' प्रतिदिन भोयए-भोजयेत्' भोजन कराता है 'से उ-स तु' वह पुरुष 'असंजए-असंयतः' नियमसे असंयमी है 'लोहिय पाणी-लोहितपाणि:' उसके हाथ रक्त से रंगे हुए हैं, क्योंकि वह षट्कायके जीवों का विराधक है 'इहेव लोए-इहैव लोके' वह इसी लोक में 'गरिहं णियच्छति-गाँम् निगच्छति' निदाका पात्र बनता है। यह हिंसक है षट्काय की विराधना करके साधुओं को भोजन कराने षाले की साधुजन प्रशंसा नहीं करते किन्तु वारंवार उसकी निन्दा ही करते हैं ॥३६॥ • अन्वयार्थ-प्रतिदिन दो हजार भिक्षुओं को भोजन करानेवाला आरोप्य नामक देव होता है, इस पूर्वोक्त मत का निराकरण करते IF सियाणगाणे' या ::, शहा---'जे सियाणगणां भिक्खुयाणं-ये स्नातकानां भिक्षुकाणाम्' २५३५ नत लिनुमान'दुवे सहस्से-द्वे सहसे' में डलर मिथुन 'णियए-नित्यम्' ४२२०) 'भोयए-भोजयेतू' - ४२वे छे 'से उ-स तु ते ५३५ ‘असेंजएअसंयतः' नियमयी' मसयमी छे. 'लोहियपाणी-लोहितपाणि' मना हाथ allथी १२ये। छ. ४म-ते षट्भयना वन विराध छ. 'इहेव लोएइहैव लोके' मामा 'गरिहणियच्छइ-गर्हाम् निगच्छति' हिन यात्र બને છે. તે હિંસક છે. ષકાયની હિંસા કરીને સાધુઓને ભોજન કરાવે છે. આવા પ્રકારની લોકનિંદા તેને પ્રાપ્ત થાય છે. પ્રાણાતિપાત કરીને સાધુઓને અથવા બીજા કોઈને ભેજન કરાવવાવાળાની સાધુજને પ્રશંસા કરતા નથી, પરંતું વારંવાર તેની નિંદા જ કરે છે પસાર અન્વયાર્થ-દરરોજ બે હજાર ભિક્ષુકોને ભોજન કરાવવાવાળો પુરૂષ આરોપ્ય નામને દેવ થાય છે. આ પ્રમાણેના શાક્યના મતનું ખંડન કરતાં स०८१ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ .. स्त्रकताब खण्डयितुमाकः कथयति भिक्षुकमुद्दिश्य । (जे सियाणगाणं भिक्खुयाणं) यः स्नातकानां भिक्षुकाणाम्, (दुवे सहस्से) द्वे सहसें (णियए) नित्यम् (भोयए) भोजयेत् , अनेन (से उ) स तु-पुरुषविशेषः (असंजए) असंयतः-संयमरहितः, (लोहियपाणि) लोहितपाणिः-रुधिरादहस्तः पड्जीवनिकाय विराधकस्वात, (इहेवकोए) इहैव-अस्मिन्नेव लोके-जंगति (गरिहं णियच्छइ) गम्-हिंसकोऽय' जीवान् व्यापाद्य साधून्' भोजयतीत्येवं रूपां लोकनिन्दा निगच्छति-माप्नोति। न हि माणातिपातं कृत्वा साधून अन्यान यान् कान् तर्पयन्तमसंयमिनं प्रशंसन्ति । सन्तः, अपितु भूयो भयोहि निन्दन्त्येव । पूर्वमुक्तं ये द्विसहस्रमितान् साधन नित्यं तर्पयन्ति भोजनेन ते सद्गति लभन्ते इति मतम्"'आर्द्रकः खण्डयति । भोज्यान्ने संस्क्रियमाणे ज्ञायमानाऽज्ञायमानाऽनेकजीवहिंसा समुत्पद्यते । तद्धिसासंचलित, तदन्नदातुः कथमपि सद्गति न सम्भाव्यते, पपि तु-तादृशदातुर्विपरीताऽधोनेत्री हैं.। अर्थात् साधुओं को भोजन कराने में जो गुण पहले कहे हैं उनका अथ खंडन करने के लिए आईक मुनि बौद्ध भिक्षु से कहते हैं! जो पुरुष प्रतिदिन दो हजार स्नातक भिक्षुओं को भोजन कराता है, वह नियम से असंयमी है। उसके हाथ रक्त से रंगे हुए हैं, क्योंकि वह षट्काय के जीवों का विराधक है । वह इसी लोक में निन्दा का पात्र घनता है यह हिंसक है, षट्कायकी विराधना करके साधुओं को भोजन कराता है इस प्रकार की लोक निन्दा उसे प्राप्त होती है । प्राणातिपात करके साधुओं को अथवा अन्य किसी को भोजन करानेवाले की साधुजन प्रशंसा नहीं करते । किन्तु वारंवार उसकी निन्दा ही करते हैं ॥३६॥ કહે છે. અર્થાત હવે સાધુઓને ભેજન કરાવવામાં જે ગુણ પહેલાં કહ્યા છે, તેનું ખંડન કરાવવા માટે આદ્રક મુનિ બૌદ્ધ ભિક્ષુકને કહે છે –જે પુરૂષ દરરોજ મહાન આરંભ કરીને બે હજાર રનાતક ભિક્ષુકોને ભોજન કરાવે છે, તે નિશ્ચય અસંયમી જ છે. તેના હાથ લેહીથી રંગાયેલાં જ હોય છે. કેમકે તે પકાયના જીના વિરાધક છે તે આ લોકમાં જ નિદાપાત્ર બને છે, તે હિંસક છે પકાયની વિરાધના કરીને સાધુઓને ભેજનકરાવે છે. આવા પ્રકારની લેકનિંદા તેને પ્રાપ્ત થાય છે. પ્રાણાતિપાત કરીને સાધુઓને અથવા અન્ય કેઈને ભેજન કરાવવાવાળાની સાધુ જન પ્રશંસા કરતા નથી, પરંતુ વારંવાર તેની નિંદા જ કરે છે. ૩૬ ,, Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयाथबोधिनी टोका द्वि. श्रु. अ. ६ आईकमुनेगौशालकस्य संवादनि० ६४३ संभाव्या गतिर्भवति हियाऽनार्याणाम् परलोके नरकपातः, इह हि अशेषा लोकनि न्दा, अतो दुष्टमोजनदानेन सद्गतिरिति मतम् अपहसितमिति गूढो विवेकः ॥३६॥ टीका-सुगमा ॥३६।। मलम्-थूलं उरभं इह मारियाणं उद्दिभत्तं च पगप्पएत्ता। लोणतेल्लेण उवक्खडेत्ता लपिप्पलीयं पगरंतिमसं॥३७॥ छाया-स्थूलमुरभ्रमिह मारयित्वोदिप्टभक्तं च प्रकल्प्य । . ... .. तं लवणतैलाभ्यामुपस्कृत्य सपिप्पलीकं प्रकुर्वन्ति मांसम् ॥३७॥ .. तात्पर्य यह है-शाक्य भिक्षु ने जो दो हजारभिक्षुओं को जिमाने से स्वर्ग की प्राप्ति कही थी, आर्द्रककुमार मुनि उसका खण्डन करते हैंभोज्य पदार्थ तैयार करने में अनेक ज्ञात और अज्ञात बस स्थावर जीवों की हिसा होती है । उस हिंसा से युक्त भोजन से दाता को सद्गति की प्राप्ति हो, ऐसी संभावना नहीं की जा सकती। इससे विपरीत ऐसे दाता की विपरीत अधोगति में ले जाने वाली गति ही हो सकती है । वह परलोक में नरक में गिरता है और इस लोक में पूरी निन्दा का पात्र होता है। इसका गूढ रहस्य यह है कि हिंसा करके भोजनदान देने से सद्गति होती है, यह मत खंडित हो गया ॥३६॥ , टीका सुगम है ॥३६॥ · 'थूलं उरभं' इत्यादि । - शब्दार्थ-'आद्रक मुनि, बौद्ध भिक्षुसे कहते हैं-'इह थूलं-उरभंइह स्थूलभुरभ्रम्' इस जगत् में स्थूलकाय मेष (मेढे). को मारियाणं . मा ४थननु तात्पर्य मे छ है, ४य. . मिक्षु? , २ . KAR શિક્ષકોને જમાડવાથી સ્વર્ગની પ્રાપ્તિ કહેલ છે તેનું ખંડન કરતાં આદ્રક મુનિએ કહ્યું છે કે–જન કરવા માટેના પદાર્થો તૈયાર કરવામાં જાણતાં કે અજાણતાં અનેક ત્રસ અને સ્થાવર જીવોની હિંસા થાય છે તે હિંસાથી યુક્ત જેનાથી દાંતને સદ્ગતિની પ્રાપ્તિ થાય તેમ માની શકાય તેમ નથી. તેનાથી ઉલ્ટા, દાતાની અધોગતિમાં લઈ જવાવાળી જ ગતિ થાય છે. તે પર લેકમાં નરકમાં પડે છે. અને આલેકમાં પૂરેપૂરી નિંદાને પાત્ર બને છે. આ કથનનું ગૂઢ રહસ્ય એ છે કે-હિંસા કરીને જોજનનું દાન કરવાથી સંગતિ મળે છે. આ મંતનું ખંડન થયું છે. ગાઈ ૩ો આ ગાથાને ટીકાથે સરળ છે. _ 'थूलं उरम्भ' त्या .., शहा-मा: मुनि, मी लिने ४९ छ -'इह स्थूलं उरभ-इह स्थूलमुरभ्रम' मा तभी स्थूसराय भेष-टाने 'मारियाणं-मारयित्वा भाशन 1511 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ सुबहतानसे अन्वयार्थः -आद्रकमुनि बौद्ध भिक्षुकं प्रत्याह-(इह थूल उरभ) इह स्थूलं. वृहत्वायम् उरभ्र मेपम् (मारियाणं) मारयित्वा-हत्वा (उदिमत्तं च पगप्पएत्ता) उद्दिष्टभक्तं च प्रकल्प्य, बुद्धमताऽनुयायिनो गृहस्थाः भिक्षुगाम) मेघ मारयित्वा तद्देशेन भक्तादिक सम्पाद्य (तं लोणतेल्लेण उवक खडेता) तं मांस लवणतेनघृतादिभिरूपस्कृत्य पाचयित्वा (सपिप्पलीय मंसं पगरंति) सपिप्पलीकं मांस प्रकुर्वन्ति विप्पलीनामापधिविशेषेण प्रकर्षण भक्षणयोग्यं कुर्वन्ति । आद्रको मुनि बौद्धमताऽनुधावा व्यवस्था ब्रूते-अहह ? बौद्धाऽनुयायिनो वौद्धमिक्षवे घृततेल कटुलवणमरिचादि मादकद्रव्यस्पृकूसधोमांस निर्माय भक्तादि तदनुगुणाऽन्न परिकल्प्य साधुमोज्ययोग्यं कुर्वन्ति ।।३७॥ टीका-सुगमा । -मारयित्वा' मारकर 'उद्दि भत्तं च पगपएत्ता-उद्दिष्ट भक्तं च प्रकल्प्य' पौद्धमतके अनुयायी गृहस्थ अपने मिक्षुओं के लिए भोजन यनाता है 'त लोणतेल्लेण उवक्वडेता-तं लवणतैलाभ्यामुपस्कृत्य उसे मांस नमक, तेल, घी आदि के साथ पकाकर 'सपिप्पलीकं मंसं पगरंतिसपिप्पलीकं मांसं प्रकुर्वन्ति' पिप्पली आदि द्रव्यों से छोक लगाते हैं, अर्थात् स्वादिष्ट बनाते हैं ॥३७॥ ___अन्वयार्थ--आद्रकमुनि बौद्धभिक्षु से कहते हैं-स्थूलकाय मेष (मेढ़ें) को मार कर योद्धमत के अनुयायी गृहस्थ अपने भिक्षुओं के लिए भोजन बनाते हैं । उसे मांस, नमक तेल, घी आदि के साथ पका कर पिप्पली आदि द्रव्यों से छोक लगाते हैं, एवं स्वादिष्ट बनाते हैं ॥३७॥ '' तात्पर्य यह है की आई कमुनि बौद्धमत के पीछे दौड़ने वालों की व्यवस्था दिखलाते हुए कहते हैं-अहह ! योद्धमत के अनुयायी गृहस्थ 'उहिदुभत्तं च पगप्पएत्ता-उद्दिष्टभक्त' च प्रकल्प्य' मोद्धमतना अनुयायी स्य चाताना ' मिसाने भाट सात मनाव के 'त लोणतेल्लेग उपखडेचा-त लवणतैलाभ्यामुपस्कृत्य' तने मांस, भी, तेल, घी विश्नी साथे संधान सपिपलिय मंसं पगरंति-सपिप्पलीक मांसं प्रकुर्वन्ति' पिपली विगरे भसासायी qधारीने स्वादिष्ट मनावे छे. [13७ भन्या -भाद्र मुनि मी विक्षुने ४३ छे-स्थ्य भेष-(घ)ने મારીને બૌદ્ધમનના અનુયાયી ગૃહસ્થ પિતાના ભિક્ષુકોના ભજન માટે તૈયાર हरे.. मांसने, भी, तत, ही विना साथै राधा विस्ती गिरे દ્રવ્યોથી વઘારીને તેને સ્વાદિષ્ટ બનાવે છે. ૩૭ , , આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે-આદ્રક મુનિ બૌદ્ધ મતની પાછળ દોડવાવાળાઓની વ્યવસ્થા બતાવતાં કહે છે કે–અહહ બૌદ્ધ મતના અનુયાયીઓ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे संप्रयुक्तः - सम्यक् प्रयोगवान् । 'विच्छाडिय पउरमत्तपाणे' विच्छर्दित प्रचुरभक्त - पानः, विच्छर्दितम् - भोजनादनन्तरमवशिष्टं प्रचुरं भक्तमोदनं पानं बहुमूल्यकमपि पेयपदार्थजातं च यस्य सः, 'बहुदासीदासगोमहिसगवेल गप्पए' वहुदासीदासगोमहिषगवेलकम भूतः - अनेकानेक साध्य साधकदासीदासगवादिसाधनैः सदा संयुक्तः । 'पडिपुण्ण कोसकोट्टागाराउदागारे' मतिपूर्ण कोपकोष्ठागारा युधागारः सर्वदेव तस्य कोपो द्रव्यगृह कोष्ठागारो - धान्यसञ्चयग्रहम्, आयुधागार:- आयुधानां गृहं च, एते परिपूर्णाः सन्ति यस्य सः । 'बलवं' बलवान् स्वयं तु बलेन सैन्येन शारीरिकेण च युक्तः, 'दुब्बलपच्चामिते' दुर्बलमत्यमित्रः, दुर्बलानि प्रत्यमित्राणि रिपत्रो यस्य सः दुर्बलीकृतशत्रुः, 'ओहयकंडयं' अवहतकण्टकम्, अपहतः कण्टकसमूहः चौरादिर्यस्मिंस्तत्- अपहतकण्टकम् राज्ये स्वगोत्र बान्धवेषु मित्रमण्डलेषु मन्त्रिमण्डलेषु च ये ये शत्रुपक्षीया छिद्रान्वेषिणः समयं प्रतीक्षमाणा अधः पातयितुं विद्यन्ते ते ते गुप्तगूढमत्या दूरीकृताः । तथा - 'निहयकाव्य करना चाहिए। उसमें कुशल होता है - समुचित आय व्यय करता है । अनेक अनाथों का पेट भर जाय इतना प्रचूर मात्रा में भोजन 'दिया जाता है। उसके पास बहुत से अनेक कार्य करने वाले दासी दास गो (गायें) महिष भेड़ आदि होते हैं । उसका कोष, कोठार और शस्त्रागार सदा भरा पूरा रहता है। वह सेना एवं शरीर के बल से सम्पन्न तथा शत्रुओं को शक्ति हीन बना देने वाला होता है । यह ऐसे राज्य का शासन करता है जिसमें से कण्टक अर्थात् शत्रु आदि अथवा अपने गोत्र वालों में, मित्रमण्डल में या मंत्रिमंडल में से शत्रुपक्ष से मिले हुए और छिद्रान्वेषी राज्यभ्रष्ट करने के लिए समय की प्रतीक्षा करने वाले अमात्य आदि विरोधी मिटा दिये गये हैं। राज्य से बाहर તેમાં કુશળ હાય છે. અર્થાત્ ચગ્ય આય અને વ્યય કરે છે. અનેક અનાથનું પેટ ભરાઇ જાય એટલા વધારે પ્રમાણમાં ભેાજન આપવામાં આવે છે. તેની પાંસે ઘણા અનેક કાર્ય કરવાવાળા દાસી, દાસ, ગેા (ગાય) ભેષ બકરાં ઘેટા विगेरे हाय छे. तेमनो अष-मन्ननो, आहार, भने शस्त्रागार सर्वही भरेल રહે છે. તે સેના અને શરીરના બળથી યુક્ત તથા શત્રુઓને શક્તિ રહિત અનાવી દેનારા છે. તે એવા રાજ્યનું શાસન કરે છે કે-જેમાંથી ક°ટક અર્થાત્ શત્રુ વિગેરે અથવા પેાતાના ગાત્રવાળામાં, મિત્રમ'ડલમાં, મ`ત્રિમ'ડલમાં, અથવા મિત્રમ’ડળમાંથી શત્રુપક્ષ સાથે મળેલા અને છિદ્રાન્વેષી એટલે કેછિત્રને શેાધનારા–અર્થાત્ રાજ્ય ભ્રષ્ટ કરવા માટે સમયની રાહ જેવાવાળા અમાત્ય વિગેરે વિરાધિયાને દૂર કરી નાખ્યા છે, રાજ્યની બહાર રહેવાવાળા Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने!शालकस्य संवादनि० ६५५ एतादृशं मासं निर्माय किं कुर्वन्ति तत्राहमूलम्-तं भुजमाणा पिसितं पभूयं, णो उवलिप्पामो वयं रंएणं। । । ' ' इंच्चेव महसु अगजधम्मा, . अणारिया बाला रैसेसु गिद्धा ॥३८॥ . छाया--तं भुञ्जानाः पिशितं प्रभूत नोपलिप्यामो वयं रजसा । ., इत्येवमाहुरना धर्माण अनार्या बाला रसेपु गृद्धा । ३८॥... लोग बौद्ध भिक्षु के निमित्त घी, तेल कटु लवण मिर्च आदि से संयुक्त ताजा मांस तैयार करके उसे भिक्षुओं के खाने योग्य बनाते हैं ॥३७॥ . . टीका सुगम है ॥३७॥ । 'तं भुंजमाणा' इत्यादि। । शब्दार्थ-इस प्रकार के मांसको तैपारकरके क्या करते हैं? सो कहते हैं-'अणारिया-अनार्या:' अनार्य 'चाला-घाला: सत् असत् के विवेकसे रहित 'अणजधम्मा-अनार्यधर्माणः' अनार्यधर्मी 'रसेसुगिद्धा-रसेषु गृद्धा' रसों में आसक्त बौद्ध भिक्षु 'तं पभूयं पिसितं तं प्रभूतं पिशितं' उस शुक शोणितसे उत्पन्न प्रभूत मांसको 'भुजमाणाभुञ्जाना खाते हुवे भी कहते हैं 'रएण-रजसा पापसे (वयं ण उव. लिप्पामो-वयं नोपलिप्यामो' हमलोग लिप्त नहीं होते ॥३८॥", ગૃહસ્થ લેકે બૌદ્ધ ભિક્ષુકે માટે ઘી, તેલ, મીઠું, મરચું, વિગેરેથી યુક્ત તાજુ માંસ તૈયાર કરીને તેને ભિક્ષુકને ખાવાલાયક બનાવે છે. ગા. ૩ણા - આ ગાથાને ટીકાર્યું સરળ છે, ।... 'त भुजमाणा' त्या All-मा प्रमाणे भासने तया२ री : ४२ छ.? ते मताम आवे छे. अणारिया-अनार्याः' मनाय, 'बाला- बाला.'मा-मज्ञानी सत् असत्ता विवे बिनाना 'भणज्जधम्मा-अनार्यधर्माण' अनाय भी रसेसु गिद्धा-रसेषु गृद्धाः' रसमा मासह मोमिक्षु त पभूयं पिसित-प्रभूतं पिशितं त .शु तिथी अपन,थयेट मधि वा मांसने भूजमाणाभुजाना' मा छतi ५ ४९ छ -रएणं-रजसा पापथी वयण अलिपामो-वयं नोपलिप्यामो' ममा विस यता नथी. ॥110.3८॥ , , Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . सूत्रकृताङ्गसूत्रे ___ अन्वयार्थ:--(अणारिया) अनार्याः (वाला) घाला:-सदसद्विवेकविकलाः (अणज्जधम्मा) अनार्यधर्माणः, (रसेसु गिद्धा) रसेषु गृद्धाः-अध्युपपन्नाः (त) तम् (पभूयं पिसितं) प्रभूतम्-अत्यधिक पिशितं शुक्रशोणितमभवं मामम् (भुंजमाणा) भुञ्जानाः (रएणं) रजसा-पापेन (वयं ण उवलिप्पामो) वयं नोपलिप्यामः (इच्चे। माइंसु) इत्येवमाहु:-कथयन्ति ॥३८॥ 11- टीका-'तं पभूयं पिसितं' तं प्रभूतमत्यधिक मांसं-शुक्रशोणितसंभूतं मांसम् ' जमाणा' भुञ्जाना:-भोजनं कुर्वन्तः 'वयं रएणं ण उवलिप्पामो वयं मांसभोजनजनिवपापेन नोपलिप्यामः- कर्मवन्धो न भवतीति मन्यामहे, एवम् 'अणज्जधम्मा' अनार्यधर्माण:-राज्जातसर्वहेयधर्मेभ्यः - माणातिपातादिभ्यो हिंसाधर्मेभ्यो निवृत्तास्ते आयी:-दयाधर्मपालका:-पइजीवनिकायरक्षकास्तेषां धमा आयधर्मःन आर्यधर्मोऽनार्यधर्मः तादृशधर्मः अस्ति येषां ते अनार्य धर्माणः अन्वयार्थ इस प्रकार के मांस को तैयार करके क्या करते हैं ? सो कहते हैं-अनार्य, सत्-असत् के विवेक से रहित अनार्यधर्मी और रसों में आसक्त बौद्ध भिक्षु उस शुकशोणित से उत्पन्न प्रभूत मांस को खाते हुए भी कहते हैं हम पाप से लिप्त नहीं होते ॥३८॥ . ""टीकार्थ-उस शुक शोणित से उत्पन्न ढेर सारे मांस का भोजन करते हुए भी हम रज से अर्थात् मांस के भोजन से उत्पन्न होने वाले पाप से लिप्त नहीं होते-हमें कर्मबन्ध नहीं होता' ऐसा मानते हैं । वे अनार्य धर्मी हैं अर्थात् हिंसा आदि हेय कार्यों से दूर रहने वाले, धर्म का पालन करने वाले षट्काय के जीवो के रक्षक आर्य पुरुषों से ..', याथ-सा शतथा भासन तैयार ४श त। शुरे छ ? ते બતાવતાં સૂત્રકાર કહે છે કે-અનાર્ય–સત્ અસના વિવેક વિનાના અનાર્ય ધમી અને રસમાં આસક્ત એવા બૌદ્ધ ભિક્ષુઓ એ શુક્ર શોણિતથી મિશ્રિત પુષ્કળ માંસને ખાતાં ખાતા કહે છે કે અમો પાપથી લિપ્ત થતા નથી. ૩૮ 3, ટીકાઈ–તે શુક્ર શણિતથી ઉત્પન્ન થયેલ સઘળે જ માંસનું ભજન કરવા છતાં પણ અમે રજથી અર્થાત્ માંસના ભેજનથી ઉત્પન્ન થવાવાળા પાપથી લિપ્ત થતા નથી. અમને કેમ બધ થતું નથી. તેમ માને છે, તેઓ અનાર્ય-ધમિ છે. અર્થાત્ માંસના ભજનથી ઉત્પન્ન થનારા પાપથી અમે પાતા -નથી. અમને કર્મને બંધ થતું નથી. તેમ માને છે, તેઓ અનાર્ય ધર્મ છે. અથત હિંસા વિગેરે ત્યાગ કરવા યોગ્ય કાર્યોથી દૂર રહેવાવાળા, ધર્મનું પાલન કરવાવાળા, ષકાયના જીવોનું રક્ષણ કરવાવાળા આર્યપુરૂષથી વિપરીત Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने गौशालकस्य संवादनि० ६४७ माणातिपातादिकारका दुष्टस्त्रभावा: 'अणारिया' (अनार्याः-असदनुष्ठायिनःधर्मसंज्ञारहिताः 'वाला' वाला:- सदसद्विवेकविकलाः 'रसेसु' रसेषु - मांसादिषु 'गिद्धा ' गृद्धाः- आसक्ता - अभ्युपपन्नाः । हे भिक्षो ! तत्र मतानुयायिनोऽ नार्या इति भावः ॥ ३८ ॥ MA पुनरपि आर्द्रकमुनि भिक्षुकं प्रत्याह 73 मूलम् - जे यावि भुंजंति तह पगार, 1 संवंति ते पाव जाणमाणा । मण ने ऐयं कुसला कैरोंति, उ 'वया वि ऐसा बुझ्यों उं मिच्छा ॥ ३९ ॥ छाया - ये चापि भुञ्जते तथाप्रकारं सेवन्ते ते पापमजानानाः । मनो नैतत्कुशलाः कुर्वन्ति वागध्येषोक्ता तु मिथ्या ॥ ३९॥ विपरीत अनार्य पुरुषों के धर्म का आचरण करते हैं अर्थात् प्राणातिपात आदि कुकृत्य करने वाले एवं स्वभाव से दुष्ट हैं । वे स्वयं भी अनार्य हैं और सत् असत् के विवेक से शुन्य हैं । मांसादि रसों में आसक्त हैं । तात्पर्य यह है कि मांस भोजन करने वाले तुम्हारे मत के अनुयायी आनार्य हैं ||३८| आर्द्रक मुनि पुनः बौद्धभिक्षु से कहते हैं-जे यावि तहष्पगारं' इत्यादि । शब्दार्थ - 'जे यावि-ये चापि' जो लोग 'तहप्पगारं भुंजति तथा प्रकारं भुञ्जते' पूर्वोक्त मांसका भक्षण करते हैं ते-ते' वे 'अजापामाणाअजानाना' अज्ञानी 'पावं सेवंति - पापं सेवन्ते' पापका ही सेवन करते # भुंजंति ܥ ܬ ܟ ܥ ܐ ܆ ܕ ܐ 14 અનાં પુરૂષાના ધર્માંતુ' આચરણ કરે છે. અર્થાત્ જેએ પ્રાણાતિપાત વિગેરે કૃત્ય કરવાવાળા અને સ્વભાવથી દુષ્ટ છે તે પાતે પણ અનાય જ છે. અને સત્ અસના વિવેકથી રહિત છે માસ વિગેરે રસેમાં આસક્ત છે. રહેવાનુ તાત્પર્ય એ છે કે-માંસનું ભેજન કરવાવાળા તમારા મતના અંતુ યાયીએ અનાય છે !!ગા૦ ૩૮ાા 1 ! भाद्र ४ भुनि इरीथी मौद्ध साधुने हे छे - 'जे यावि भुजति तह पगार ४० शब्दार्थ - 'जे यावि-ये चापि' ? बोडो 'तहप्पगार' भुजंति - तथाप्रकारे' भुञ्जते' पूर्वोक्त मांस भक्षय उरे छे, 'ते - ते' तेथे 'अजाणमाणा-अजानाना. मज्ञानी 'पाव' सेवंति - पाप सेवन्ते' पापनु ४ सेवन रे छे, 'कुसला - कुशलाः ' Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८० ..... . सूत्रहताजस्त्र -:..अन्वयार्थ:-(जे यावि) ये चापि (तहप्पगारं भुजति) तथाप्रकारं मांस भुनते (ते),ते (अजाणमाणा) अजानानाः (पावं सेवंति) पापमेव सेवन्ते (कुसला) कुशलास्तु (एय मणं न करेंति) एतद् ईदृशं मनोऽपि न कुर्वन्ति (एसा वाया वि) एपा वागपि-मांसभक्षणं कर्तव्यमित्येव रूपा (बुइया) उक्ता (मिच्छा) मिथ्या-मिथ्यैवेति।३१॥ टीका-'जे यावि' ये चापि 'तहप्पगारं" तथामकार-पूर्वगाथोक्तं मांसम् । भुजंति' भुञ्जते-भक्षणं कुर्वन्तीत्यर्थः 'ते अजाणमाणा पावं सेवंति' तेऽजानाना -अज्ञानिनः पापमेव सेवन्ते, पापाचरणमेव हठेन कुर्वन्ति । 'कुसला एवं मणं न करेंति' कुशलाः-विवेकिनो नैतन्मनः कुर्वन्ति । ये तु-कुशलास्ते मांसभक्षणहै 'कुसला-कुशलाः' जो पुरुष कुशल हैं 'एयं मणं न करेंसि-एतन्मनन कुन्ति' वे तो मांसभक्षण करने की इच्छा भी करते नहीं। 'एसा वायावि-एषा वागपि' मांस भक्षण करना चाहिए अथवा मांस भक्षण में दोष नहीं हैं, इस प्रकार 'वुया-उक्ता' कहा हुआ-बचन भी 'मिच्छा-मिथ्या' मिथ्या है ॥३९॥ .. अन्वयार्थ जो लोग पूर्वोक्त मांस का भक्षण करते हैं, वे अज्ञानी पाप का ही सेवन करते हैं। जो पुरुष कुशल हैं, वे तो मांस भक्षण करने की इच्छा तक नहीं करते। मांस भक्षण करना चाहिए या मांस भक्षण करने में दोष नहीं है, इस प्रकार का वचन भी मिथ्या है ॥३९॥ - . टीकार्थ-पूर्वगाथा में कथित मांस का जो भक्षण करते हैं, वे अज्ञानी जन पाप का ही सेवन करते हैं-हठपूर्व पाप का आचरण करते हैं । विवेकवान् पुरुष हैं वे तो मांसभक्षण की इच्छा भी नहीं २५३५ ४२ छ, 'पय मण न करें ति-एतत् मनः न कुर्वन्ति तमाता मांस भक्षय ४२वानी ४२छ५४ ४२॥ नथी, 'एसा वाया वि-एषा वागपि' भांस समय ४२, नये से प्रभारनी 'बुइया-उक्ता' ४२स पायी पशु 'मिच्छा-मिथ्या' मिथ्या छे ॥10 36॥ અન્વયાર્થ—અજ્ઞાની એવા જે લોકે આ પહેલાં કહેવામાં આવેલ માંસનું ભક્ષણ કરે છે. તેઓ પાપનું જ સેવન કરે છે. જે પુરૂષ કુશળ છે, તેઓ તે માંસ ભક્ષણ કરવાની ઈચ્છા પણ કરતાં નથી. માંસ ભક્ષણ કરવું જોઈએ અથવા માંસ ભક્ષણ કરવામાં દોષ નથી. આવી રીતે કહેવામાં આવેલ વચન પણ માપકારક જ છે. ૩લા ' . . दय-पक्षी थामा ४वामा मा मसिनुरेसा पक्ष रे છે, તેઓ અજ્ઞાન અર્થાત્ પાપનું જ સેવન કરે છે, વિવેકી પુરૂષે તે માંસ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने!शालकस्य संवादनि० ६४९ विषयिणीमिच्छामपि न कुर्वन्ति, किमु ? पुनर्भक्षणम् 'आमासु चापकासु विपच्य मानासु मांसपेशीषु' सततमुत्पद्यन्तेऽनन्तजीवाः इत्यादिशास्त्र-प्रत्यक्षाभ्यां नि धस्य दर्शनात्-न शिष्टा मांसभक्षणेच्छामपि कुर्वन्ति । अन्यदर्शने-वर्षे वर्षेऽश्व। मेधेन यो यजेत शतं समाः। मांसान्यपि न खादेद् यस्तयोः पुण्यं सम स्मृतमिति। तनिषेधेन फलाऽऽविक्यस्य प्रतिपादनात् । 'एसा वायावि मिच्छा वुइया' एषा वागपि मिथयोक्ता 'मांसभक्षणे नास्ति दोषः' इति प्रलापपवादवचनपि मिथ्यैवेति भावः ॥३९॥ मूळम्-सव्वेसि जीवाणं दयट्याए, सावज्जदोसं परिवज्जयंता। तरसंझिणो इंसिणो लायपुन्ता उद्दिष्टुभत्तं परिवैजयंति।४। छाया-- सर्वेषां भूतानां दयार्थीय, सावद्यदोष परिवर्जयन्तः । तच्छड्दिन ऋषयो ज्ञातपुत्रा, उद्दिष्टभक्तं परिवर्जयन्ति ॥४०॥ करते हैं, भक्षण करने की तो बात ही दूर रही ! उनके यहां तो ऐसा कहा गया है कि मांसपेशी चाहे कच्ची हो, चाहे पक्की हो, चाहे पर्क रही हो, उसमें प्रतिक्षण असंख्यात जीवों की उत्पत्ति होती रहती है। इस कारण शिष्ट पुरुष मांस खाने की इच्छा तक नहीं करते हैं। अन्य दर्शनों में भी मांसभक्षण के त्याग का महत्त्व पतलाया गया है, यथा - 'कोई मनुष्य वर्षों तक प्रतिवर्ष अश्वमेध यज्ञ करता है और दूसरा यज्ञ तो नहीं करता किन्तु मांसभक्षण का त्याग कर देता है। उन दोनों को समान फल की प्राप्ति होती है। अतएव मांसभक्षण करने में कोई दोष नहीं है, इस प्रकार का वचन भी मिथ्या है ॥३९॥ ભક્ષણની ઈચ્છા જ કરતા નથી, માંસ ખાવાની તે વાત જ દૂર રહી પણ તેઓના મતથી તે એવું કહેવામાં આવેલ છે કે-માંસની પેશી ચાહે કાચી હેય કે પાકી હેય ચાહે પાક માટે તૈયાર થઈ રહી હોય તેમાં પ્રત્યેક સમયે અસર ખ્યાત જીવની ઉત્પત્તિ થતી રહે છે. તે કારણે શિષ્ટ પુરૂષે માંસ ખાવાની ઈચ્છા પણ કરતા નથી. અન્ય દર્શનેમાં પણ માંસ ખાવાના ત્યાગને જ મહત્વ આપેલ છે, જેમકે કોઈ એક મનુષ્ય વર્ષો સુધી દર વર્ષે અશ્વમેધ યજ્ઞ કરે અને બીજો માણસ યજ્ઞ કરતો નથી પરંતુ માંસ ભક્ષણને ત્યાગ કરે છે, તે બનેને સરખા ફળની પ્રાપ્તિ થાય છે, તેથી જ માંસ ભક્ષણ કરવામાં કેઈપણ होष नथी, मांqा प्रारना क्यना ५ मिथ्या छ. ॥ ॥ . सु० ८२ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० सूत्रकृतामसूत्रे __अन्वयार्थः-(सव्वेसि) सर्वेपाम् (जीवाणं) जीवानां सस्थावराणाम् (दय याए) दयार्थाय-दयां कर्तुम् (सावज्जदोस) सावद्यदोषम् सावधारम्भम् (परिवजयंता) परिवर्जयन्तः-त्यजन्तः (तस्संकिण) तच्छड्दिनः (इसिणो) पयः (नायपुत्ता) ज्ञातपुत्राः (उद्दिभत्त) उद्दिष्टभक्तम्-औंदेशिकाहारम् (परिवज्जयंति) परिवर्जयन्ति-परित्यजन्तीति ॥४०॥ टीका-आर्द्रको मुनिः पुनरप्याह-हे मिक्षो! आईतमतसर्वस्वं श्रूयताम्मोक्षार्थिना मांसभक्षणं तु कदापि न कर्तव्यम् । किंबहुना उद्देशकाहारोऽपि हातव्य 'सव्वेसि जीवाणं' इत्यादि ! शब्दार्थ-'सव्वेसिं-सर्वेषां समस्त 'जीवाणं-जीवाला' बस और स्थावर जीवों के ऊपर 'दयट्टयाए-दयार्थाय' दया करने के लिए 'सावज्वदोसं-सावद्यदोष' सावद्य दोष का 'परिवजयंता-परिवर्जयन्ता' त्याग करने वाले 'तरसंकिणो-तत् शङ्किन.' तथा सावध दोष की आशंका करनेवाले 'उसिणो-ऋषयः' 'नायपुत्ता-ज्ञातपुत्राः' ज्ञातपुत्र के अनुयायी उद्दिभत्तं-उद्दिष्ट भक्तम्' औदेशिक आहार का 'परिवन. यंति-परिवर्जयन्ति' परित्याग करते हैं ।।४०॥ । । अन्वयार्थ-जगत् में निवास करने वाले समस्त बस और स्थावर जीवों की दया के लिए सावद्य दोष का परित्याग करने वाले तथा सावध की आशंका करने वाले ज्ञातपुत्र के अनुयायी संयमी मुनि औद्देशिक भादार का परित्याग करते हैं ॥४०॥ टीकार्थ-आईक मुलि फिर कहते हैं-आहतमत के सर्वस्व को सुनो-मोक्षार्थी को मांस का भक्षण कदापि नहीं करना चाहिए। अधिक 'सम्वेमि जीवाण' त्याह शहाथ-'सव्वेसिं-सर्वेषां' सपा 'जीवाणं-जीवाना' सम२ स्था१२ ७ ५२ 'दयद्वयाए- दयार्थाय' ह्या ४२वा माटे 'सावज्जदोसं-सावद्यदोष' सावध सपना 'परिवज्जयंता-परिवर्जयन्त:' त्या ४२पापा 'तस्संकिणी-तत् शकिनः' तया साप होपनी ॥४॥ ४२वाय 'उसिणो-ऋषयः ष मेवा 'नायणुत्ता । ज्ञातपुत्राः' शातपुत्रना अनुयायी 'उहिदुभत्त-उदिष्टभतम्' मीदेशि माहारन। 'परिवज्जयति-परिवजेयन्ति' त्या 3रे छे. ॥१०४०॥ અન્વયાર્થ–જગતમાં વસતા સઘળા ત્રસ અને સ્થાવર જીન-દયા માટે સાવદ્ય દેષને ત્યાગ કરવાવાળા તથા સાવદ્યની શંકા કરવાવાળા જ્ઞાતપુત્રના અનુયાયી સંયમી મુનિ ઓશિક આહારને પરિત્યાગ કરે છે. જો - ટકાઈ–આદ્રક મુનિ ફરીથી કહે છે કે–આહંત મતના સિદ્ધાંતને સાંભળ-મસની ઈચ્છાવાળા આત્માઓએ કદાપિ માંસનું ભક્ષણ કરવું ન જોઈએ, Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संमयार्थबोधिनी का द्वि. श्रु. अ. ६ आईक मुनेगौशालकस्य संवादनि० ६५१ एव-इत्येतदर्शयितुं सूत्रमुपक्रमते-'सव्वेसि' सर्वेषाम्-समीपदूर-दरतरवत्तिनां त्रसस्थावरपर्याप्तापर्याप्तानगोदस्थानां सालानामपि 'जीवाणं' जीवानाम्-माणिनाम् 'दयद्वयाए' दयार्थाय दयां कर्तुम्-रक्षणार्थमित्यर्थः, 'साज्जदोसं परिवज्जयंता' सावद्यदोषं परिवर्जयन्त:-पजीवनिकायारम्भं त्यजन्तः 'तस्संकिणो इसिणो नाय पुत्ता' तच्छङ्किना-सावध कर्म शङ्कमाना:-तत्र घृणां कुर्वन्तः ज्ञातपुत्राः भगवती महावीरस्याऽऽज्ञावशवर्तिनः ऋषयः-मुनयो गृहीतदीक्षाः परित्यक्तारम्भसमार. म्भाः । 'उदिट्ठभत्तं परिवज्जयंति' उद्दिष्टभक्तं सार्थ पाचितमन्नमपि कर्मबन्धशङ्कया परिवर्जयन्ति-त्यजन्तीति । मांसभक्षणं तु मनसाऽपि न प्रार्थयन्ते इति।४०॥ मूलम्-भूयाभिसंकाए दुगुंछमाणा संवेसि पाणाण निहाय दंडं। . तम्हाणभुजंति तहप्पगारं एसोऽणुधम्मो इँह संजयाणां४१॥ छाया-भूताऽभितया जुगुप्समानाः सर्वेषां माणानां निहाय दण्डम् । तस्मान्न भुञ्जते तथाप्रकारम् एषोऽनुधर्म इह संयतानाम् ॥४१॥ क्या, उद्दिष्ट आहार भी त्यागना चाहिए । इन बात को दिखलाने के लिए सूत्र का उपक्रम (प्रारम्भ) करते हैं-समीपवर्ती, दूरवर्ती, दूरतरवती, पर्याप्त तथा अपर्याप्न त्रस और स्थावर सभी जीवों की रक्षा करने के लिए षट्जीवनिकाय के आरंभ समारंभ का त्याग करने वाले तथा सावध कर्म में शंका रखने वाले अर्थात् सावधक्रिया से घृणा करते हुए ज्ञातपुत्र भगवान महावीर के आज्ञानुवर्ती संयमी मुनि कर्मबन्ध की आशंका से औदेशिक आहार का भी त्याग करते हैं-अमुक साधु के उद्देश्य से बनाया हुआ आहार ग्रहण नहीं करते हैं । मांसभक्षण की तो इच्छा भी नहीं करते ॥४०॥ વિશેષ શું કહેવાય ! ઉષ્ટિ આહારને પણ ત્યાગ કરવો જોઈએ. આ વાત બતાવવા માટે સૂત્રકાર કહે છે –સમીપમાં રહેનારા દૂર રહેવાવાળા, અત્યંત દૂર રહેવાવાળા, પર્યાપ્ત, તથા અપર્યાપ્ત ત્રસ અને સ્થાવર બધા જ જીવોની રક્ષા કરવા માટે વર્જીનિકાયના આરંભ સમારંભનો ત્યાગ કરવાવાળા, તથા સાવદ્ય કમૅમાં શંકા કરવાવાળા, અર્થાત્ સાવદ્ય ક્રિયાથી ધૃણા કરવાવાળા જ્ઞાતપુત્ર ભગવાન મહાવીરની આજ્ઞામાં રહેનારા, સંયમી મુનિ કર્મબંધની આશકાથી દેશિક આહારનો ત્યાગ કરે છે. અર્થાત્ અમુક સાધુને નિમિત્તે બનાવવામાં આવેલ આહાર ગ્રહણ કરતા નથી. તે પછી માંસ ભક્ષણની તો વાત જ શી કરવી? અર્થાત્ માંસ ભક્ષણની તે ઈચ્છા પણ કરતા નથી. ૫૪ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ - (भूयामिसंकाए ) भूताभिशङ्कपा-माणातिपातभयेन ( दुर्गुछमाणा) जुगुप्समाना:- घृणां कुर्वन्: (सव्वेर्सि पाणाण दंड निहाय) सर्वेषां प्राणान जीवानां दण्डम्वधं निहाय - परित्यज्य (तम्हा) तस्मात् कारणात् ( पगार) तथाप्रकारं तादृशमादारम् (ण भुंजंति) न भुञ्जते ( इद) इह - अत्र जैनशासने (संजयाणं) संयतानां साधूनाम् (सोऽणुमो) एपोनुधर्मः तीर्थकर परम्परया प्राप्तः ध्रुवचारित्रलक्षण इति ॥४१॥ 'भूयाभिसंकाए दुर्गुछमाणा' इत्यादि । शव्दार्थ - 'नूयाभिसकाए-भूताभिशङ्कया' प्राणियों की हिंसा के भय से 'दुगुछमाणा - जुगुप्समाना: ' सावद्यक्रिया से घृणा करने वाले उत्तम पुरुष 'सव्वेसिं पाणाण दंडं निहाय सर्वेषां प्राणानां दण्डं निहाय ' समस्त जीवों को दंड देने का त्याग करके 'तम्हा तहगारं तस्मात् तथाप्रकारं ' दूषित आहार 'ण भुंजंति - न भुञ्जते' ग्रहण नहीं करते है । 'इह - इह' इस जैन शासन में 'संजयाणं - संपतानां साधुओं का 'एसो - एप:' इस प्रकार का 'अणुधम्मो - अनुधर्म:' परम्परा से प्राप्त श्रुतचापि धर्म हैं ॥ ४१ ॥ अन्वयार्थ - प्राणियों की हिंसा के भय से सावद्य क्रिया से घृणा करने वाले उत्तम पुरुष समस्त जीवों को दंड (मारनेका) देने का त्याग करके दूषित आहार ग्रहण नहीं करते हैं। जैनशासन में साधुओं का यह परम्परागत - तीर्थकरों की परम्परा से प्राप्त श्रुतचारित्ररूप धर्म है ॥ ४१ ॥ 'भूयाभिसंकाए दुर्गुछमाना' या हि शब्दार्थ -- भूयाभिसंकार- भूत। भिशङ्कया' प्राथियोनी डिसाना अयथी 'दुगु - छमाणा-जुगुप्समानाः' सावध दियाथी घृषा उरवावाजा उत्तम पुरुष 'सव्वेसि पाणाण दुई निहाय सर्वेषां प्राणानां दंडं निहाय' मधा छपाने ठंड (भावाना) हेवाना विचारतो त्याग उरीने 'तम्हा तहपगार - तस्मात् तथानकार" तेवा प्रभारी हर्षित आद्वार 'ण भुजंति - न भुञ्जते' श्रथ उरता नथी. ' इह - इह ' आ जैन शासनभां 'संजयाण - संयतानां' साधुओनो 'एमो एप' मा प्रार 'अणुवम्मो - अणुधर्म.' परम्पराथी प्राप्त श्रुत शास्त्रिय धर्म छे. ॥४१॥ અયાય—પ્રાદ્ઘિચેની હિંસાના ભયથી સાવદ્ય ક્રિયાની ઘણા કરવાવાળા ઉત્તમ પુરૂષો સઘળા જીવાને દડિત કરવાના (મારવાને) ત્યાગ કરીને દૂષિત ખાર કહણ કરતા નથી. જૈન શાસનમાં સાધુએના આ પરમ્પરાગતતીથ‘કરાની પરંપરાથી પ્રાપ્ત શ્રુત ચારિત્ર રૂપ ધર્મ છે. ૫૪૧૫ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयायवोधिनी टीका वि.व. अ. ६ आर्द्रकमुनेगौशालकस्य संवादनि० ६५३ टीका-आर्द्रकः पुनरप्याह-भो भिक्षो ! 'भूयामिसंकाए' भूताभिशङ्कया-- भूतानां जीवानां विराधनभयेन 'दुगुछमाणा' जुगुप्समानाः-सावद्याऽनुष्ठानेन कर्मवन्धो भवतीति तत्र धृणां कुर्वन्तः साधवः 'सव्वेसिं पाणाणं दंडं निहाय' सर्वेपामे केन्द्रियादि प्राणानां दण्डं निहाय-सर्वप्राणिनां वधं परित्यज्य 'वहप्पगारं' तथाप्रकारम्-आधाकर्मादिदोषदुष्टमाहारम् । 'तम्हा' तस्मात् कारणात् 'ण भुंति' न भुञ्जते । इह-आहेतशासने 'संजयाण' संयतानाम्-साधूनाम् एसोऽणुधम्मो' एपोऽनुधर्म:-अयमेवाऽनुधर्म:-सत्पुरुषाणां धर्मों मोक्षमापकश्च, सर्वज्ञमत मनुवर्तमानाः जीववधं परित्यज्याऽशुद्धमाहारमपि न गृह्णन्ति मांस तु सर्वदैव न सेवन्ते । अयं धर्मः पूर्व तीर्थकरेण प्रवर्तितः स्वयमनुष्ठिनश्च, तदनन्तरं तदनुया. यिमिर्गणधरादिभिरनुष्ठितः । अतोऽस्य अनुधर्म इति नाम संवृत्तम् । अयमेव धर्मों मोक्षपदो मार्ग इति ॥४१॥ ___टीकार्थ--आर्द्रककुमार पुनः कहते हैं-हे शाक्यभिक्षो ! भगवान् श्री महावीर स्वामी के साधु प्राणियों की विराधना न हो जाय इस आशंका से, सावध कर्म से घृणा करते हैं, क्योंकि सावद्य कर्म, कर्मबन्ध का कारण है। वे एकेन्द्रिय आदि सभी प्राणियों की हिंसा का स्याग करते हैं । इसी कारण आधाकर्म तथा उद्देशिक आदि दोषों से दूषित आहार का उपभोग नहीं करते हैं । आहेत शासन में साधुओं का यही अनुधर्म है और यही मोक्ष प्राप्त कराने वाला है। ____ तात्पर्य यह है कि ज्ञातपुत्र भगवान् श्री महावीर स्वामी के मत का अनुसरण करने वाले साधुजन जीवहिंसा का त्याग करके अशुद्ध आहार भी ग्रहण नहीं करते। मांस का तो कभी सेवन ही नहीं करते। इस धर्म की पहले तीर्थकर ने प्रवृत्ति की, स्वयं इसका आचरण किया। अतएव यह 'अनुधमें कहा गया है। यही धर्म मोक्ष का मार्ग है ॥४१॥ ટીકાર્થ–આદ્રકકુમાર ફરીથી કહે છે કે-હે શાકય ભિક્ષુક ભગવાન શ્રી મહાવીર પ્રભુના સાધુ પ્રાણિયોની વિરાધના ન થઈ જાય આ શંકાથી સાવદ્ય કર્મની ઘણા કરે છે. તેઓ એકેન્દ્રિય વિગેરે બધાજ પ્રાણિની હિંસાને ત્યાગ કરે છે. તેથી જ આધાકર્મ તથા શિક વિગેરે દેથી દોષવાળા આહારને ઉપલેગ કરતા નથી. આ જૈનશાસનમાં સાધુઓને આજ અનુપમ છે. અને આજ ધર્મ મેક્ષ પ્રાપ્ત કરાવવાવાળો છે. - કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે–જ્ઞાતપુત્ર ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વામીના મતને અનુસરવાવાળા સાધુઓ જીવહિંસાને ત્યાગ કરીને અશુદ્ધ આહાર પણ - ગ્રહણ કરતા નથી. માંસનું સેવન તે કયારેય કરતા નથી આ ધર્મની પ્રવૃત્તિ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतास्त्र मूलम्-निग्गंधम्ममि इमं समाहि, अस्लि सुठिच्चा अणीहे चरेज्जा। बुद्धे मुणी सीलगुणोववेए, अच्चत्थं तं पाउणई सिलोगं ॥४२॥ छाया-निर्ग्रन्थधर्मे इमं समाधि मस्मिन् सुस्थावाऽनीहश्चरेत् । बुद्धो मुनिः शीलगुणोपपेतोऽत्यर्थतया प्राप्नोति श्लोकम् ॥४२। अन्वयार्थ:-(अस्सि निग्गंधधम्ममि) अस्मिन् निग्रंन्यधर्म-मौनीन्द्रप्रवचने (इमं समाहि) इमं समाधिम्-आहारपरिशुद्धिरूपं समाधिम् (मुठिच्चा) सुस्थायमुविधाय स्थितः सन् (अगीहे चरेज्जा) अनीहः-मायारहितः सन् चरेत् (बुद्धे. निग्गंध धम्ममि' इत्यादि। शब्दार्थ-निग्गंथधम्मंमि-निन्यधर्म' इस निग्रन्थ धर्म में 'इमं समाहि-इमं समाधि' आहार विशुद्धिरूप इस समाधि में 'सुठिच्यासुस्थाय स्थित होकर 'अणिहे चरेजा-अनीहश्चरेत् माया से रहित होकर विचरण करे। 'बुद्धे मुगी-घुद्धो मुनिः' ज्ञानवान् मुनि 'सीलगुणोयवेएशीलगुणोपपेतः' शीलगुण से युक्त होता है और 'अच्चत्य-अत्यर्थतया' अधिक रूप से 'सिलोग पाउणइ-श्लोकं प्रामोति' सर्वदा कीर्ति -प्रशंसा प्राप्त करता है ॥४२॥ ____अन्वयार्थ--निन्यधर्म में आहारविशुद्धि रूप इस समाधि में भली भांति स्थित होकर माघारहित विचरण करे । ऐसा मुनि शील गुण से पडai ताय ४२ ४॥डती, पात तेनु मायर इयु तेथी ८ मा 'मनु' કહેલ છે. આ ધર્મ જ મોક્ષ પ્રાપ્ત કરાવવાવાળે છે. ૪૧ 'निगंयधम्ममि' त्यादि Avt.-'निग्गयधम्ममि-निर्मन्थधर्म' मा नि-५ मा 'इम समाहि-इदं समावि' आडा२ विशुद्धि ३५ । समाधिमा 'सु ठिच्चा-सुस्थाय' स्थित २७ 'पणिहे चरेज्जा-अनीहश्चरेत्' भायाथी २हित ७ विय२५ ४२. 'बुद्धे मुणी-बुद्धो मुनि.' ज्ञानवान् मुनि 'सीलगुणोववेए-शीलगुणोपपेतः' मेवा भुनि शीत गुपथी युक्त थाय . भने 'अच्चत्यं-अत्यर्थतया' अधि:३५थी 'सिलोग पाउणइ-लोकं प्राप्नोति' सहा शत-प्रशसा मापत ४२ . ॥४२॥ અન્વયાર્થી–નિર્બથ ધર્મમા આહાર વિશુદ્ધિરૂપ આ સમાધિમાં સારી રીતે સ્થિત રહીને માયા રહિત વિચરણ કરવાવાળા મુનિ શીલ ગુણથી યુક્ત Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् कंटयं' निहतकण्टकम्, राज्यादन्यत्र निवासिनोऽपि शत्रवो युक्त्या मन्त्रौषधिमणिधि प्रयोगान्नाशिता इति । 'मलियकंटयं' मर्दितकण्टकम्, मर्दिताः रेणुशः कृताः कण्टकरूपिणो यस्मिन् तत्-मर्दितकण्टकम् । 'उद्वियकंटयं' उद्धृतकण्टकम्, उधृतानि-दूरीकृतानि पूर्वमन्तः शरीरे पश्चद्राज्ये वा कण्टका रोगरूपाः शत्रुरूपा वा यस्मिन् तद् उद्धृतकण्टकम् । अतएव-'अकंटय' अकण्टकम् , नास्ति कण्टकं यस्मिन् तत्-अकण्टकम् । 'ओहयसत्तु' अवहतशत्र, अवहता अधीनीकृताः शत्रवो यस्मिन् तत् । 'तिहयसत्तु' निहतशत्रु-विनाशितशत्रु-'मलियसत्तु' मर्दितशत्रु, मर्दितो दीर्घकालेन प्राप्तोऽसमीक्ष्यकारी 'डाकू' चतुष्पथे जनसमक्षं यस्मिस्तत् मर्दितशत्रु ।। 'उद्धियसत्तु' उद्धृतशत्रु, उद्धृतः शत्रु यस्मिस्तत् उद्धृत शत्रु ! 'निज्जियसत्तु' निर्जित शत्रु-शत्रुवर्जितम्, 'पराइयसत्तु' पराजितशत्रु-शत्रुबलवर्जितम्, 'ववादुभिक्ख' व्यपगतदुर्भिक्षम्-विनाशितदुर्मिक्षम्, 'मारिभयविप्पमुक्क' मारीभयविप्रमुक्तम् ‘रायवन्नो ' राजवर्णका यथोक्तेन प्रकारेण तस्य राज्ञो राज्यवर्णनं कर्तव्यम् । 'उववाइए' औपपातिकसने रहने वाले शत्रुओं को युक्ति से, मंत्र, ओषधि या प्रणिधि के प्रयोग से नष्ट कर दिया गया हो, जिसमें कण्टकों का मार्ग में स्थित पाषाणखंड के समान मर्दन कर दिया गया हो, कंटको को उखाड़ कर फैक दिया गया हो, इस कारण जो राज्य सर्वथा कण्टक हीन हो। इसी प्रकार जिस राज्य में शत्रुओं को अपने अधीन कर लिया हो, शत्रुओं को नष्ट कर दिया गया हो कुचल दिया गया हो, उखाड़ कर फेंक दिया गया हो, पूरी तरह जीत लिया गया हो, पराजित कर दिया गया हो, (शत्रुघल से रहित हो) दुर्भिक्ष से रहित हो और जो महामारी आदि के भय से रहित हो। वह राजा ऐसे राज्य पर शासन करता हुआ विचरता है। શત્રુઓને યુક્તિથી, મંત્ર, ઔષધિ અથવા વિશ્વાસના પ્રયોગથી નાશ કર્યા હોય, જેમાં કંટકને માર્ગમાં રહેલા પાષાણ-પત્થરના ટુકડાની જેમ ફેંકી દીધા હોય, તેથી જે રાજ્ય સર્વથા કંટક રહીત હોય, અને એ જ પ્રમાણે જે રાજ્યમાં શત્રુઓને પિતાને વશ કરી લીધા હય, શત્રુ શત્રુઓને નાશ કરી નાખ્યું હોય. કચડી નાખ્યા હોય ઉખેડીને ફેંકી દીધા હોય, પૂરી રીતે જીતી લીધેલા હોય, તેને પરાજીત કરી દીધા હોય (શત્રુને નિર્બલ કરી નાખ્યા હોય) એથી જ શત્રુ બલ વગરને હોય, દુકાળથી રહિત હોય, તેમજ જે મહામારી વિગેરેના ભયથી રહિત હોય, એ રાજા આવા રાજ્ય પર શાસન કરીને વિચરે છે. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगौशालकस्य संवादनि० ६५५ मुणी) बुद्धो मुनिः (मीलगुणोववेप) शीलगुणोपेतः (अच्चत्थं) अत्यर्थतयां-अतिशयेन (तं सिलोगं) तत् श्लोकम् - सर्वदा प्रशंसाम् (पाउण ) प्राप्नोति ॥ ४२ ॥ ! टीका - - ' अस्सि निग्गंथधम्मंमि' अस्मिन् निर्ग्रन्थधर्मे - श्रीमहावीरमतिपादितधर्मे स्थितः पुरुषः - तन्मतमनुवर्त्तमान इत्यर्थ: । 'इमं समाहिं' इमं - पूर्वोक्तं समाधिम् - आहारपरिशुद्धिरूपाम् 'सुठिच्चा' सुस्थाय सम्यग् रूपेण स्थित्वा सम्यक् स्थितः सन् 'अणी हे चरेज्जा' अनीश्वरेत् - मायारहितो भवन् संयमानुष्ठानं कुर्यात् बुद्रेणी' बुद्धो मुनिः सर्वज्ञ प्रतिपादिवचरणात् सम्प्राप्तसकळविषयकज्ञानवान् 'सीलगुणोववेए' शीलेन-गुणादिना चोपेतः- युक्त, 'अच्चथं' अत्यर्थतया -अतिशयेन 'तं सिलोग पाउगई' ब्त् श्लोकं प्राप्नोति-सर्वदा प्रशंसां लभते ॥४२॥ बौद्ध भिक्षु निराकृत्य अग्रे चलितः ततो मार्गे वेदवादिनो ब्राह्मणा मिलितास्तैः कथितम्, भोः सम्यक् त्वया कृतं यदिमे वौद्धाः निराकृताः मम मतं शृणुतत्राह - ' सिणायगाणं' इत्यादि । मूलम् - सिंणायगाणं तु देवे सहस्से, जे भोजए यिए माहणाणं । ते पुन्नखंधं सुमहं णिता, भवंति देवा इति वेर्येवाओ ॥ ४३ ॥ युक्त होता है और अत्यन्त कीर्ति-प्रशंसा प्राप्त करता है ॥ ४२ ॥ टीकार्थ - - निर्ग्रन्धधर्म अर्थात् भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित धर्म में स्थित पुरुष इस पूर्वोक्त समाधि को प्राप्त करके इस धर्म में सम्यक् प्रकार से स्थित होकर माया रहित विचरण करे, संयम का अनुष्ठान करे । सर्वज्ञ प्रतिपादित धर्म का आचरण करके सब विषयों का ज्ञान प्राप्त करने वाला मुनि शील और गुणों से युक्त होकर प्रशंसा प्राप्त करता है ||४२ || થાય છે. અને અત્યંત કીર્તિ અને પ્રશંસા પ્રાપ્ત કરે છે સાંકરા ટીકા—નિગ્રન્થ ધમ અર્થાત્ ભગવાન્ મહાવીરે પ્રતિપાદન કરેલ ધમ માં સ્થિત રહેલ પુરૂષ આ પૂર્વોક્ત સમાધિને પ્રાપ્ત કરીને આ ધર્મમાં સારી રીતે સ્થિત થઈને માયા રહિત વિચરણ કરે, સયમનુ' અનુષ્ઠાન કરે. સર્વજ્ઞે પ્રતિપાદન કરેલ ધર્મ'નુ' આચરણુ કરીને મષા વિષયનું જ્ઞાન પ્રાપ્ત ફરવાવાળા મુનિ શીલ અને @ાથી યુક્ત થઇને પ્રશંસા પ્રાપ્ત કરે છે. ૫૪૨ા Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रहताजयो छाया-स्नातकानां तु द्वे सहस्रे थे भोजयेयु निन्य ब्राह्मणानाम् । ते पुण्यस्कन्धं सुमहज्जनित्या भवन्ति देवा इति वेदवादः । ४३॥ अन्वयार्थः - (जे दुवे सहसे) ये पुरुषाः वें सहस्र (सिणायगाणं) स्नातकानगा- वेदाऽध्ययनशीचाचाररनानब्रह्मचर्या दपरायणानाम् (पाहणाणं) ब्राह्मणानाम् (णियए भोयए) नित्यं-प्रतिदिनं भोजये यु:-भोजनं कारयेयुः (ते) ते (सुमई) मुमहास्तम् (पुन्नबंध) पुण्यस्कन्धम्-पुण्यानां राशिम् (जणित्ता) जनित्या समु. त्पाद्य (देवा भवंति) देवा भवन्ति (इति वेयवाओ) इति-वेदवादः, वेदे इत्थं इस प्रकार बौद्ध भिक्षु का निराकरण करके मुनि आर्द्र कुमार आगे चले तो मार्ग में वेदवादी ब्राह्मण बिल गए। वे चोछे आपने बौद्धों के मत का निराकरण किया तो ठीक किया । हमारा मत सुनिए । यही कहते हैं-'लिणायगाण' इत्यादि। शब्दार्थ-ब्राह्मण कहते हैं-'जे लिणायगाणं-ये स्नातज्ञाना' जो वेद के अध्ययन शौचाचार, स्नान, एवं ब्रह्म वर्थ में परायण 'दुवे सहस्सेद्वे सहस्रे' दो हजार 'पाहणाणं-ब्राह्मणानां ब्राह्मणों को 'जियए भोयएनित्यं भोजयेत्' प्रतिदिन भोजन कराता है 'ते-ते' वे 'सुमहं-सुमहत्' महान 'पुन्नखंध-पुण्यस्कन्धं पुण्यस्कं 'जणित्ता-जनित्वा' उपार्जन करके देव होते हैं 'इति वेयचाओ-इतिवेदवादः' ऐमा वेद में कथन है ॥४३॥ अन्वधार्थ-ब्राह्मण कहते हैं-जो पुरुष प्रतिदिन वेद के अध्ययन, शौचाचार स्नान एव ब्रह्मचर्य में परायण दो हजार ब्राह्मणों को भोजन આ પ્રમાણે બદ્ધ ભિક્ષુનું નિરાકરણ કરીને મુનિ આક કુમાર આગળ ચાલ્યા તે માર્ગમાં તેમને વેદ ધર્મનું આચરણ કરનાર બ્રાહ્મણ મળ્યા તેમણે કહ્યું કે–આપે બૌદ્ધોના મતનું ખંડન કર્યું તે યોગ્ય જ કરેલ છે અમારે भत सलो मे०४ ४ छ-'सिणायगाणं' त्या हाथ-प्राहा। ४४ छ 'जे सिणायगाण-ये स्नातकानां वहना मध्ययन, शीयायार, स्नान, मने प्राय मा ५२राय 'दुवै सहस्से-द्वे सहस्र' म २ 'माहणाण-ब्राह्मणानां ब्राह्मए। 'णियए भोयए-नित्य भोजयेत' ४२. श मापन ४२शवे छे 'ते-ते' । 'सुमह-सुमहत्' भवान् 'पुण्णखंध-पुण्यस्कन्ध' Yएय२४५ 'जणित्ता-जनित्वा' प्राप्त करीन है। थाय छ ‘इति चेय वाओ-इति वेवाद:' मा प्रमाणे वेहमा थन ४२स छ. ॥४॥ અન્વયાર્થ–બ્રાહ્મણ કહે છે-જે પુરૂ દરરોજ વેદાધ્યયન કરવામાં, શૌચાચારમાં, સ્નાન અને બ્રહ્મચર્યમાં તત્પર રહેવાવાળા બે હજાર બ્રાહ્મણને Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने!शालकस्य संवादनि० ५७ प्रतिपादितः, बौद्धमतरवण्डनाऽनन्तरं ब्राह्मगाः ममेत्याऽऽ कमवोचन्-सम्यकृतं भवता, यदिौ वेदवाह्यौ गोशालकवौद्धी पराकृतौ। किन्तु सुहृद्भवा वयं भवन्तं कथयामः-वेदवाह्य जैनमतं भवता न सेव्यम् । त्वं क्षत्रियोऽसि-ब्राह्मणान् पूजय, यागाऽनुष्ठानं कुरु, षडगवेदविदुषां शौचाचारब्रह्मचर्यस्नानपरायणानां द्वे सहस्र यो भोजयति नित्यं सः महत्पुण्यं समुपायं स्वगै गच्छतीति वैदिकी प्रक्रियातदाज्ञा चेति ॥४३॥ टीका-मुगमा ॥४३॥ मूलम्-सिंणायगाणं तुर्दुवे सहरूले जे भोयए णियए कुलालयाणं।' से छह लोलुवसंपगाढे तिवाभितापी गैरगाभिसेवी ४४॥ छाया-स्नातका तु द्वे सहस्र यो भोजयेन्नित्यं कुलालयानाम् । ___ स गच्छति लोलुपसंप्रगाढे तीव्राभितापी नरकाभिसेवी ॥४४॥ कराते हैं, दो महान् पुण्यस्कंध उपार्जन करके देव होते हैं। ऐसा वेद में कथन किशना है। - आशय यह है की-बौद्धमत के खंडन के अनन्तर ब्राह्मण आकर आफ से कहने लगे आपने अच्छा किया जो वेदवाह्य अर्थात वेद को प्रमाण न मानने वाले गोशालक और बौद्ध को पराजित किया । लेकिन हम सब आपको कहते हैं कि आप वेदवाय जैनमत का सेवन न करें। आप क्षत्रिय है अतः ब्राह्मणों की पूजा कीजिए, यज्ञानुष्ठान कीजिए । जो षडंगवेद के विद्वान हैं, शौचाचार आदि में तत्पर रहते हैं ऐसे दो हजार ब्राह्मणों को जो प्रतिदिन भोजन कराता है, वह महान् पुण्यराशि उपार्जन करके स्वर्ग प्राप्त करता है । यह वेद की आज्ञा है।३। टीका सुगम है ॥४३॥ ભોજન કરાવે છે, તેઓ મહાન પુષ્યરક પ્રાપ્ત કરીને દેવ થાય છે. એમ વેદમાં કથન કરેલ છે. ૪૩ ટીકાર્થ સુગમ છે, તેથી અલગ આપેલ નથી, ભાવાર્થ–બૌદ્ધમતનું ખંડન કર્યા પછી જતા એવા આદ્રક મુનિને બ્રાહ્મણ આવીને કહે છે. તમોએ ઘણું જ ઉત્તમ કર્યું કે વેદ બાહ્ય અર્થાત્ વેદને પ્રમાણે ન માનવાવાળા શાલક અને બૌદ્ધોને પરાજીત કર્યા, પરંતુ અમો બધા તમને કહીએ છીએ કે આપ વેદબાહ્ય એવા જૈન મતનું અવલખન ન કરે. આપ ક્ષત્રીય છે. અતઃ બ્રાહણેની સેવા કરે. યજ્ઞાનુષ્ઠાન કરે. જેઓ ષડંગ વેદના વિદ્વાને હોય. અને શૌચાચાર વિગેરેમાં તત્પર રહેવાળા એવા બે હજાર બ્રાહ્મણને દરરોજ ભેજત કરાવે છે, તેઓ મહાન પુણ્યરાશિ પ્રાપ્ત કરીને સવર્ગ મેળવે છે. આ વેદ વચન છે. જa सु० ८३ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रहनायचे : । अन्वयार्थ:--(जे) य:-पुरुषः (मिणायगाणं) स्नातकानाम्-वेदविदुषाम् (दुवे सहस्से) द्वे ,सहस्र-सहस्त्रद्वयम् (णियर) नित्यम् (भोयए) भोजयेत् कथं भूतानां स्नातकानां तत्राह-(कुलालयाणं) कुलालयानाम्-कुलं-क्षत्रियादि कुलं तत्राटन्ति यस्मात् तस्मात् रुदेवाऽऽलयो पां तथाविधानाम् (से) स पुरुषः (लोलुवसंपगाढे) लोलुएसंप्रगाढे-लोलपैरामिपद्धः-रक्षिभिः संप्रगाहे-व्याप्ते नरके गच्छति तथा (तिव्बाभितावी) दीवामितापी-बीवः अमितापा-दुःखं यस्य स तथा भूतः (गरगाभिसेवी) नरकायिसेवी एवं भूतः सन् नरकं प्राप्नोतीति॥४४॥ टीका-आईका-ब्राह्मणवचः श्रुत्वा चैदिकमनं निराकरोनि-कुलालयाणं' कुलालयानास् कुलं-क्षत्रियादिकुलं तत्राटनात तदेव आलयो-निवासभूमिर्यपी ते 'सिणायजाण' इत्यादि । शब्दार्थ~-'जे-म' जो 'कुलालयाण-कुलालयानाम् क्षत्रिय आदि के कुलो-घरों में भटकने वाले 'सिणायगाणं-स्नातकाला बेदपाठी 'दुवे सखे-छे सहले दो हजार को 'णियए -नित्यं नित्य भोजए-भोजयेत् भोजनक्षराना है, 'हो-स' यह पुरुष 'लोलुखदपगाढे-लोलपसंप्रगाढे' मांसगृद्ध पक्षियों से व्याप्त तथा 'तिव्वाभिताबी-तीनाभितापी' भयानक संतापक्के जनक 'णरगाभिसेवी-नरकाभिसेवी नरक में उत्पश होता है।४४! . अन्वयार्थ--क्षत्रियों आदि के कुलों में शिक्षा के लिए भटकने वाले दो हजार वेदपाठी ब्राह्मणों को जो प्रतिदिन भोजन करवाता है, वह पुरुष मास गृद्ध पक्षियों से शत तथा भयानक संताप के जनक । नरक में उत्पन्न होता है।॥४४॥ . टीकार्थ-ब्राह्मणों के वचन सुनकर आर्द्रकुमार मुनि उनका सिणायगाणं' या साथ-जे-यः' २ 'कुलालयाण-कुलालयाना' क्षत्रिय विगेरेना -घशमां बटवाणा 'सिणायगाण'-स्नातकानाम्' वाडी-वसना२। 'दुवेसह स्पे-द्वे सहस्र में उतरने 'णियए-नित्यं ४२२१४ 'भोयए-मोजयेत्' सासन राव 2. 'से-सः' त ५३५ 'लोलुयसंपगाढे-लोलुपसंप्रगाढे' भांस ली पक्षियाथी व्यात तथा 'तिव्वामितावी-तीव्र भितापी' सय ४२ सताय 'णरगाभिसेवी -नरकाभिसेवी' न२४मा 6-4-न थाय छे. ॥४४॥ અન્વયાર્થ–ક્ષત્રિય વિગેરેના ઘરોમાં ભિક્ષા માટે અટન કરવાવાળા બે હજાર વેદપાઠી બ્રાહ્મણોને દરરોજ જે ભેજન કરાવે છે, તે પુરૂષ માંસ લેભી પક્ષિયેથી વ્યાપ્ત તથા ભયંકર સંતાપ કારક એવા નરકમાં ઉત્પન્ન થાય છે. ૪૪ ટીકાર્થ–બ્રાહ્મણોના વચને સાંભળીને આદ્રક કુમારમુની તેને કહે છે Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने!शालकस्य संवादनि० ६५९ तथा, ते केवलं भोजनाद्यर्थ तव विष्ठतः अत एव कुलालयाः राजान्नभक्षका: राजसदनिकेतनाः ब्राह्मणास्तेपाम् 'सिणायगाणं' स्नातकानां ब्राह्मणानाम् 'जे दुवे सहस्से' यो द्वे सहले 'णियए भोयर' नित्यं भोजयेत् 'से लोलुवसंपगाढे' स पुरुषो लोलुपसंमगाढे-मांसमक्षिपराकाणे नरके गच्छति। 'विवाभिवावी' तीवामितापी 'णरगाभिसेवी' नरकाभिसेवी, तत्र-नरके भयङ्करं दुःखं सहमानो वसति । आरम्म समारम्भननितदानदोषाहानरकपात इति वक्तुराशयः ॥४४॥ मूलम् दयावरं धम्मं दुगुंछमाणो, वहावहं धनं पसंलमाणो। एगंधिजे भोसयई असीलं,णिवोणिसंजाइकुओसुरेहि।।५। छाया-दयापरं धर्म जुगुप्समानो, वधावह धर्म प्रशंसन् । .. एकमप्यशीलं यो भोजयति, नृपो निशां याति कुतः सुरेषु ॥४५॥ निराकरण करते है-कुल का अर्थ है, क्षत्रियो आदि का घर, जो भोजन के लिए उनके घरों में निवास करते हैं उन्हें 'कुलालय' कहते हैं। अर्थात् भोजन के निमित्त जो दुसरों के घर में रहते हैं.ऐसे दो हजार स्नातक ब्राह्म गोको जो प्रतिदिन भोजन कराता है, वह पुरुष मांस भक्षी वज्रचंचु पक्षियों से युक्त नरक में उत्पन्न होता है। वह वहां भयानक दुःख सहन करता रहता है। आशय यह है कि आरम्भलमारंभ जनित दान के दोष के कारण दाना को नरक में जाना पड़ता है ॥४४॥ 'दयावर धम्मं दुगुछमाणा' इत्यादि ! शब्दार्थ---'जे-छ:' जो राजा 'दयाघरं धम्मं दुगुंछमाणा-यापर धर्म जुगुप्शमानः' द्याभय धर्म की निन्दा करता है, और 'वहावहं धम्म-वधायहं धर्म' हिंसा प्रधान धर्म की 'पसंखमाणो-प्रशंसन्' प्रशंसा करता है, ऐसे 'अलीलं-भशील' शीलरहित अर्थात् व्रत रहित કે--કુલ એટલે ક્ષત્રિય વિગેરેના ઘર, જેઓ ભેજન માટે તેમના ઘરમાં निवास ४२ छे. ते 'कुलालय' उपाय छे. अर्थात् न माटे २ मीयाना ઘરમાં અવરજવર કરનારા એવા બે હજાર રનાતક બ્રહ્મણને દરરોજ ભોજન કરાવે છે, તે પુરૂષ માંસ ખાનારા વજી ચાંચવાળા પક્ષિવાળા નરકમાં ઉત્પન્ન થાય છે. તે ત્યા ભયંકર દુખ ભોગવે છે. કહેવાને આશય એ છે કે-આરંભ. સમારંભથી થવાવાળા દાનના દોષથી દાતાને નરકમાં જવું પડે છે. જા 'दयावर धम्म दुगु छमाणा' या शहाथ-'जे-यः' २ २०० 'दयावर धम्मं दुगुंछमाणा-दयापर धर्म जुगुसमानः' या युत धमनी निहा ४२ छे. मने 'वहावहं धम्म -वहावह धर्म' Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ to सुत्रकृताहर ___ अन्वयार्पः--(ज) यः पुरुषो राजा वा (दयावरं धम्म दुगुंछमाणो) दयापरं धम जुगुप्समानो दयामधानं धर्म-श्रुतचारित्ररूपं निन्दन (बहावहं धम्म) बघावहंहिमाकारकं धर्मम् (पसंममाणो) प्रशंसन्-अनुमोदयन् एतादृशम् (असील) अशीलं निर्बतम् (एगमपि भोयर) एकमपि ब्राह्मगं भोजयेत् सः (णियो) नृपो राजा (निसं जाड) निर्णा नित्यान्धकारत्वात् निशेव निशा-नरतभूमिः तां याति-माप्नोति, (कुओ सुरेडि) कुतः सुरेपु-देवलोकेषु, क यमपि देवलोकन गच्छवीत्यर्थः ।।४५॥ टीका-'जे' यो राजा-तदन्यो वा पुरुषः 'दयावरं धम्मं दुगुंछमाणो' दयापरं -दयाप्रधान श्रेष्ठं-जैनधर्मम् अथवा दयामधानमिति दयाररम्, 'वहावई' वहावई हिमावादसम्मलितम् 'धम्म' धर्मम् ‘पसंपमाणो प्रशंसन् , राजा वा-तदितरो या 'एगमवि भोजए-एकमपि भोजयेत्' एक ब्राह्मण को भी भोजन कराता है, घर 'णिवो-नृपः' राजा 'निसा जाति-निशां याति' अन्धकारमय नरकभूमिको प्राप्त करता है 'कुओ सुरेहि-कुतः सुरेपु' वह देवगति में कसे जा सकता है ? ॥४५॥ अन्वयार्थ--जो राजा दयामय धर्म की निन्दा करता है और हिंसा प्रधान धर्म की प्रशंसा करता है, ऐसे शील रहित अर्थात् व्रतविहीन एक भी ब्राह्मण को भोजन कराता है, वह घोर अन्धकारमय नरक भूमि को प्राप्त होता है। वह देवगति में कैसे जा सकता है ? ॥४५॥ टीफार्थ-जो राजा या कोई भी अन्य पुरुप घामधान श्रेष्ठ धर्म की या दयामय धर्म की निन्दा काना आ हिंसाप्रधान धर्म की प्रांता लिस प्रधान मना पसंसमाणा-प्रगमन्' प्रशसा ४२ गया 'जसीलंबधीलं' Na विनानी भयात् पिनाना 'एगमवि भोजए-मपि भोजयेत्' AREER YEन गये ते "णिगे-नृपः' त 'निसां जाइ-निशा पाति १२ यु २४ भूभिने मात ४३ . 'कुओ पुरेहि-कुत्तः सुरेपु' તે દેવગતિને કેવી રીતે પામી શકે ? છપા અન્વયા–જે રાજા દયામય ધર્મની નિંદા કરે છે, અને હિંસા પ્રધાન ની પ્રશંસા કરે છે, એવા શીલ રવિન અર્થાત્ વ્રત ન એક પશુ બ્રાહાઇન ભાન કરાવે છે, તે ઘર અધકારમય નરકબૂમિને પ્રાપ્ત કરે છે. તે દેવ તિન કેવી રીતે જઈ શકે ___ -- one 4 अन्य ५३५ याप्रधान भनी गया ( 1 ધમની નિદા કરતા થકા હિંસા યુન ધમની પ્રશંસા કરે છે, તે ૨નવા અને પુરૂષ શીલ-ગુરુ વિનાના એક પથ બ્રાદાને છે કે Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेर्गौशालकस्य संवादनि० ६६१ कश्चित्पुरुषः 'एपि' एकमपि 'असीलं' अशीलं शीलहीनं ब्राह्मणम् 'मोययई' भोजयति पदकाय जीवानुपमदयन् भोजयति सः 'गिवो' नृपो राजा 'णिसं' निशामन्धकारावृतां नरकभूमिम् 'जाई' याति - गच्छति । 'सुरेहिं कुओ सुरेषु कुतो देवलोकेषु कथमपि न गच्छति, 'एतेन शीलरहितमन्यमेकमपि ब्राह्मणं यो भोजयति स तज्जनितपापेनाऽवश्य मन्धतमनरकगन्ता भवति किम्पुनः सहस्रद्वय ब्राह्मणभोजनात् । ततश्व तत्पुण्यवलात्स्वर्गगमनाशा वेदविषयिणी म्रुतरामधःपातिनीति भावः ॥४५॥ मूलम् - दुहओ विधम्मंमि समुट्टिया, अस्सिं सुच्चा तह एसकाले । आयारसीले बुइएह नाणी, णे संपेरायंमि विसेसमत्थि ॥ ४६ ॥ छाया - द्विधाऽपि धर्मे समुत्थितौ अस्मिन् सुस्थितौ तथेष्यत्काले । आचारशील होतो ज्ञानी न संपराये विशेषोऽस्ति । ४६ ।। करता है, वह राजा या अन्य पुरुष एक भी शीलरहित ब्राह्मण को यदि षट्का की विराधना करता हुआ भोजन कराता है तो नरक में जाता - है । उसकी देवगति में उत्पत्ति तो हो ही कैसे सकती है ? जब एक भी शीलर हिर ब्राह्मण को भोजन कराने से नरक की प्राप्ति होती है तो दो हजार ब्राह्मणों को भोजन कराने से नरकप्राप्ति होना तो स्वतः सिद्ध है। उसे कहने की आवश्यकता ही नहीं रहती । अत एव इस प्रकार से स्वर्ग पाने की अभिलाषा स्वतः नीचे गिराने वाली है । ४५ । 'दुहवो वि धम्मंमि' इत्यादि । शब्दार्थ - - 'दुहओ वि-द्विधा अपि' दोनों सांख्य और जैन ' धम्म मि -धर्मे' धर्म में 'समुडिया - समुत्थितौ ' 'सम्यक् प्रकार से स्थित है 'तह યુની વિશધના કરતા થકા ભેાજન કરાવે તે તે નરકમાં જાય છે, તેની દેવ ગતિમાં ઉત્પત્તિ તા કેવી રીતે થઈ શકે ? જો એક પણ શિશ્ન વિનાના બ્રાહ્મણને લેાજન કરાવવાથી નરકની પ્રાપ્તિ થાય છે; તેા બે હજાર બ્રાહ્મણે ને ભાજન કરાવવાથી નરક પ્રાપ્તિ થાય તે તા સ્વત· સિદ્ધ છે. તે કહેવાની જરૂર જ નથી. તેથી જ આવા પ્રકારથી સ્વર્ગ પામવાની ઇચ્છા આપેઆપ નીચે પાડવા વાળી જ છે. ાજપા 'दुहवो वि धम्मंमि' त्याहि शब्दार्थ-दुद्दव वि-द्विधा अवि' सांध्य मने जैन मन्ने 'धम्म मि- धर्मे ' 'समुट्ठिया - समुत्थितौ ' सारी रीते प्रवृत्त छे. 'तह - तथा' तथा 'एस काले - एष्यत्काले ' Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ सूत्रकृताङ्गसूत्र ___अन्वयार्थ:-(दुहमी वि) द्विधा अपि-द्वावधेि आवां सांख्यजनी (धम्ममि) धर्मे (समुढिया समुत्थिती (नह) तथा (अस्ति) अस्मिन् धर्म (मुद्विया) सुस्थिती (तह एसकाले) तथा एण्यकाले वर्तमानभूतभविष्यदान्मककालत्रयेऽपि (आयारसीले) आचारशील?-आचारयुक्त एव पुरुषः आवयोर्दशने (नाणी वुइए) ज्ञानी उक्ता-कथितः तथा (संपरायमि ण विसेसमस्थि) संपराये-परलोके विशेषो भेदो नास्ति ॥४६॥ टीका-आर्द्रकोऽग्रे गच्छति मार्गे पुनरपि एको दण्डी समागत्य आर्द्रकमुनि कथयति-भोः आर्द्रकमुने ! 'दुइओ वि' द्वावपि आवाम् 'धम्ममि' धर्मे 'समुट्टिया' एसकाले-तथा एण्यत्काले भूत वर्तमान काल में 'एवं-एवं' एवं भविष्य काल में 'आयारसीले-आचारशील' आचारशील पुरुष ही हम दोनों के दर्शन में 'नाणी बुहए ज्ञानी उक्त' ज्ञानी कहा गया है तुम्हारे और हमारे मत में 'संपायनि-संपराये परलोक के संबंध में भी 'ण विलेसमधि-न विशेषोऽस्ति' विशेष भेद नहीं है ॥४६॥ .. ___अन्वयार्थ-हम दोनों (लांख्य और जैन) के धर्म में प्रवृत्त हैं तथा धर्म में सम्पक प्रकार से स्थित हैं, भूत वर्तमान एवं भविष्यकाल में आचारशील पुरुप ही हम दोनों के दर्शन में ज्ञानी कहा गया है। तुम्हारे और हमारे मत में पर लोक के संबंध में भी विशेप भेद नहीं है ॥४६॥ _____टीकार्थ-आर्द्र ककुमार जप ब्राह्मगों को पराजित करके आगे पढे तो मार्ग में एकदण्डी मिल गये। उन्होंने आकर मुनि से कहा-हे आद्रक ! तुम और हम दोनों धर्म में समान रूप से वर्तते भूत, पत मान मन भविष्य ४i 'आयारसोले - आचारशीलः' मायारवान् १३५ १ मा मन्नना शनमा 'नाणी बुइए-ज्ञानी उक्त.' ज्ञानी वाय छ. तभा२१ मते अमा२१ मतमा 'संपरायम्मि-सपराये परसना समयमा ५५ 'ण विसेसमत्थि-न विशेषोऽस्ति' पधारे मत नथी. ॥४६॥ અવયાર્થ–આપણે બને એટલે કે સાંખ્ય અને જન ધર્મમાં પ્રવૃત્ત છિએ તથા ધર્મમાં સમ્યક્ પ્રકારથી સ્થિત છિએ, ભૂતવર્તમાન તેમજ - ભવિષ્યકાળમાં આચાર શીલ પુરૂષ જ અમારા બન્નેના દર્શનમાં જ્ઞાની કહેલ છે. તમારા અને અમારા મતમાં પરલેક સ બંધમાં પણ વિશેષ ભેદ નથી ૪૬ ટીકાથ–આદ્રકકુમાર જ્યારે બ્રહ્મને પરાજ્ય કરીને આગળ વધ્યા તે માર્ગમાં એક દંડી મળી ગયા. તેણે આવીને આદ્રક મુનિને કહ્યું કે-હે આક! તમે અને અમે બને ધર્મમાં સરખી રીતે વર્તવાવાળા છીએ. અને Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'मार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगौशालकस्य संवादनि० ६६३ 'समुत्थित रहे यद्यपि आय द्वौ इहलोके शाखारीत्या भिन्नधर्माणावपि परलोके तुल्यधर्माणों तथा 'अस्ति' अस्मिन् धर्मे - स्वस्वधर्मे 'सुट्टिया' सुस्थिती ' - सुदृढौ 'तह एसकाले' तथा एष्यत्काले - वर्त्तमानभूतभविष्यदात्मककालत्रयेऽपि "धर्मे एव वर्तमानौ आवां स्वः 'आयारसीले नाणी वुइए' आवयोर्द्वयोरपि सिद्धान्ते आचारशील एवं पुरुषो ज्ञानी उक्तः कथितः, न तु - आचारहीनो ज्ञानी । 'संपरा यंमि ण विसेसमत्थि' सम्पराये - परलोके न कश्विद्विशेषोऽस्ति - आवयोर्मते । अवोsहं मतुल्य एव, मन्मतं शृणु - सच्चरजस्तमसः साम्यावस्था प्रकृतिः- ततो महत्तत्वं जायते ततोऽहङ्कारस्ततः पञ्चतन्मात्राणि, एकादशेन्द्रियाणि च जायन्ते । पुरुषश्च नित्यः स्वतन्त्रञ्च | अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाः पञ्च मेऽतर्गताः, हैं और दोनों धर्म में स्थित हैं ये ब्राह्मण तो हिंसक है, मगर दोनों (अपन दोनों) समान धर्म वाले हैं। हम वर्त्तमान, भूत और भविष्यत् तीनों कालों में धर्म में ही स्थित हैं । हम दोनों (अपनदोनो ) के ही सिद्धान्त में आचारशील पुरुष ही ज्ञानी कहा गया है । जो आचार से हीन है, वह ज्ञानी नहीं माना जाता । हमारे और तुम्हारे मत में संसार और परलोक के संबंध में भी कोई विशेष मतभेद नहीं हैं । इस प्रकार मैं आपके सदृश ही हूं। मेरे मत को सुनो। वह इस 'प्रकार है- सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण की समान अवस्था प्रकृति कहलाती है । प्रकृति से महत्तव (बुद्धि) उत्पन्न होती है। बुद्धि से अहंकार और अहंकार से पांच तन्मात्रा उत्पन्न होते हैं और ग्यारह afari भी उत्पन्न होती हैं । रूप रस, गंध, स्पर्श और शब्द ये पांच F આપણે બન્ને ધર્માંમાં સ્થિત છીએ. આ બ્રાહ્મણેા તા હિંમક છે. પણ આપણે બન્ને સમાન ધમવાળા છીએ. અમે ભૂત, વ`માન, અને ભવિષ્ય આ ત્રણે 'કાળમાં ધર્મોમાં જ વવા વાળા છીએ. આપણા અન્નેના સિદ્ધાંતમાં આચાર વાળા પુરૂષ જ જ્ઞાની કહેવાય છે, જે આચાર વિનાના છે, તે જ્ઞાની થઇ શકતા નથી, અમારા અને તમારા મતમાં સસાર અને પરલેાકના સ મધમા પણ કઈ વધારે મત ભેદ નથી. આ રીતે હું તમારા સમાન જ છું. મારા મતને સાંભળે, તે આ પ્રમાણે છે. સત્ર ગુણુ, રજોગુણ, અને તમાશુશુની સમાન અવસ્થા પ્રકૃતિ કહેવાય છે. પ્રકૃતિથી મહત્ તત્વ (બુદ્ધિ) ઉત્પન્ન થાય છે. બુદ્ધિથી અહંકાર અને અહંકારથી પાંચ તન્મત્રા ઉત્પન્ન થાય છે. અને અગિયાર ઈન્દ્રિયા પણ ઉત્પન્ન થાય છે. રૂપ. રસ, ગધ, સ્પશ અને Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દર सूत्रकृतसूत्रे अन्वयार्थः -- (दुइओ वि) द्विधा अपि द्वापेि आवां सांख्यजेनी (धम्मंमि) धर्मे ( मुद्वा समुत्थितौ (ह) तथा (अति) अस्मिन् धर्मे (सुद्रिया) सुस्थिती (तह एसकाळे) तथा एष्यत्काले वर्तमानभूतभविष्यदात्मक कालत्रयेऽपि (आयारसीले) आचारशीला - आचारयुक्त एव पुरुषः आवयोर्दशने (नाणी बुइप) ज्ञानी उक्तः कथितः तथा (संपरायमि ण विसेसमत्थि ) संपराये - परलोके विशेषो भेदो नास्ति || ४६ ॥ - - टीका - आर्द्रकोऽग्रे गच्छति मार्गे पुनरपि एको दण्डी समागत्य आर्द्रकमुनि कथयति भोः सुने | 'दुइओ वि' द्वावपि आवाम् 'धम्मंमि' धर्मे 'समुट्टिया' एसकाले तथा एण्यस्काले' भूत वर्तमान काल में 'एवं एवं' एवं भविष्य काल में 'आधारसीले - आचारशील' आचारशील पुरुष ही हम दोनों के दर्शन में 'नाणी बुहए- ज्ञानी उक्तः' ज्ञानी कहा गया है तुम्हारे और हमारे मत में 'संपरायमि- संपराये' परलोक के संबंध में भी 'ण विसेसमस्थि - न विशेषोऽस्ति विशेष भेद नहीं है ॥ ४६ ॥ ॥ अन्वयार्थ - हम दोनों (लारूप और जैन) के धर्म में प्रवृत्त हैं तथा धर्म मैं सम्यक् प्रकार से स्थित हैं, भूत वर्त्तमान एवं भविष्यत्काल में आचारशील पुरुष ही हम दोनों के दर्शन में ज्ञानी कहा गया है । तुम्हारे और हमारे मन में पर लोक के संबंध में भी विशेष भेद नहीं है ||४६ || टीकार्थ - आर्द्र ककुमार जब ब्राह्मणों को पराजित करके आगे पढे तो मार्ग में एकदण्डी मिल गये । उन्होने आकर मुनि से कहा- हे आर्द्रक ! तुम और हम दोनों धर्म में समान रूप से वर्तते लूत, वर्तमान भने भविष्य जमां 'आयारसीले - आचारशीलः ' मायाश्वान् यु३ष ४ माया जन्तेना हर्शनमा 'नाणी बुडर - ज्ञानी उक्त.' ज्ञानी सेवाय छे, तभारा मते अमारा भतभां 'सपरायम्मि - स पराये' परसोना संबंधां 'विसेसमत्थि - न विशेषोऽस्ति' वधारे भतलेह नथी. ॥४६॥ અન્વયા—આપણે અને એટલે કે સાંખ્ય અને જૈન ધર્મ માં પ્રવૃત્ત છિએ તથા ધર્મમાં સમ્યક્ પ્રકારથી સ્થિત છિએ, ભૂતવર્તમાન તેમજ ભવિષ્યકાળમાં આચાર શીલ પુરૂષ જ અમારા ખન્નેના દર્શનમાં જ્ઞાની કહેલ છે. તમારા અને અમારા મતમાં પરલેાક સ મ ધમાં પણ વિશેષ ભેદ નથી ૧૪૬) ટીકા—માદ્રકકુમાર જ્યારે બ્ર શેના પરાજય કરીને આગળ વધ્યા તે માગમાં એક ઈંડી મળી ગયા. તેણે આવીને આ મુનિને કહ્યુ... કે-હૈ આર્દ્ર ક! તમે અને અમે બન્ને ધમા સરખી રીતે વતવાવાળા છીએ, અને Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतास्त्र कौणिकराज्यस्य यथा वर्णनं कृतम् 'जाव' यावत्, यावत्पदसंग्राह्यः पाठोऽत्र संग्राह्यः। पुन श्च-'पसंतडिवडमर रज्ज' प्रशान्तडिम्बडमरं राज्यम्, प्रशान्तं डिम्बंस्वचक्रमयं डमरं-परचक्रभयं यस्मिन् तत्-तादृशं राज्यम् 'पसाहेमाणे' प्रसाधयन् 'विहरई' विहरति, यथोक्तविशिष्टविशेषणविशेषितं राज्यं परिपालयन्नास्ते । 'तस्स णं रन्नो' तस्य खलु राज्ञः 'परिसा भवई' परिपद्भवति, तस्यां परिपदि वक्ष्यमाणा इमे सदस्या भवन्ति, तानेव नाममा दर्शयति-'उगगा उग्गपुत्ता' उग्रा उग्रपुत्रा भवन्ति, उग्रनामा वंशविशेषः तत्रोद्भवा उग्राः कथ्यन्ते, उग्रनामकवंशोद्भवा स्तत्पुत्राश्च सदस्या भवन्ति । तथा-'भोगा भोगपुत्ता' भोगा भोगपुत्राश्च 'इक्खागा इक्खागापुत्ता' इक्ष्वाकवा इक्ष्वाकुपुत्राः ऋषभदेववंशीयाः। 'नाया नायपुत्ता' ज्ञाता:ज्ञातवंशीया स्तत्पुत्राश्च, 'कोरव्वा कोरव्यपुत्ता' कौरव्याः कौरव्यपुत्राश्थ, 'भट्टा यहां राजा का समग्र वर्णन उसी प्रकार करना चाहिए जैसा औपपातिक सूत्र में कोणिक राजा का किया गया है। पुनः किस प्रकार का राज्य वहां कहा है ? जिसमें स्वचक्र और परचक्र का भय शान्त हो जाने के कारण रणभेरी बजाने की आवश्यक्ता ही नहीं रहती। वह राजा इस प्रकार के राज्य पर शासन करता हुआ विचरता है। उस राजा की परिषद् होती है। उस परिषद् में जो सदस्य होते हैं, उनके नाम गिनाते हैं-उग्रवंशी, उग्रवंशियों के पुत्र भागवंशी, भागवशियों के पुत्र, इसी प्रकार इक्ष्वाकु, इक्ष्वाकुपुत्र (ऋषभदेव के वंश परिवार वाले), ज्ञातवंशी, ज्ञातवंशियों के पुत्र, कौरववंशी, कौरववं. અહિયાં રાજાનું સઘળું વર્ણન જેમ ઔપપાતિક સૂત્રમાં કેણિક રાજાનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે, તે જ પ્રમાણે કરવું જોઈએ. ફરીથી ત્યાં કેવા પ્રકારનું રાજ્ય કર્યું છે? જેમાં સ્વ ચક્ર અને પર ચકને ભય શાન્ત થઈ જવાને કારણે રણભેરી વગાડવાની જરૂરત જ રહેતી નથી. તે રાજા આવા પ્રકારના રાજ્યનું શાસન કરતો થકે વિચરે છે. તે રાજાની પરિવટું હોય છે, તે પરિષહ્માં સભાજને-સદસ્ય હોય છે. તેઓના નામે આ પ્રમાણે છે –ઉગ્રવંશી ઉશ્રવંશવાળાઓના પુત્રો (૧) ભોગવશી -ભગવંશવાળાના પુત્ર (૨) એજ પ્રમાણે ઈફવાકુ ઈદ્યાકુપુત્ર (૩) ઋષભદેવના १२ परिवाणा, ज्ञातवी (४) ज्ञात शवान पुत्रो' (५) १२५ वशी Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका दि. शु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगोशालकस्य संवादनि० ६६३ 'समुस्थितौ वर्तावहे यद्यपि आवां द्वौ इहलोके शास्त्ररीत्या भिन्नधर्माणाबपि परलोके तुल्यधर्माणौ तथा 'अस्खि' अस्मिन् धर्मे-स्वस्वधर्मे 'सुद्विया' सुस्थिती -सुदृढौ 'तह एसकाले' तथा एष्यत्काले-वर्तमानभूतभविष्यदात्मककालत्रयेऽपि धर्म एन वतमानौ आवां स्व: 'आयारसीले नाणी बुइए' आयो योरपि सिद्धान्ते आचारशील एव पुरुषो ज्ञानी उक्तः-कथितः, न तु-भाचारहीनो ज्ञानी। 'संपरा यंमि ण विसेसमत्थि' सम्पराये-परलोके न कश्चिद्विशेषोऽस्ति-आवयोमते । अवोऽहं भवत्तुल्य एव, मन्मतं शणु-सत्वरजस्तमसः साम्यावस्था प्रकृतिः-ततो महत्तत्वंजायते-ततोऽहङ्कारस्ततः पञ्चतन्मात्राणि, एकादशेन्द्रियाणि च जायन्ते । पुरुषश्च नित्यः स्वतन्त्रश्च । अहिंसासत्याहतेयब्रह्मवर्यापरिग्रहाः पञ्च र मेऽ तर्गता, हैं और दोनों धर्म में स्थित हैं ये ब्राह्मग तो हिंसक है, मगर दोनों (अपन दोनों समान धर्म वाले हैं । हम वर्तमान, भूत और भविष्यत् तीनों कालों में धर्म में ही स्थित हैं । हम दोनों (अपनदोनो) के ही सिद्धान्त में आधारशील पुरुष ही ज्ञानी कहा गया है। जो आचार से हीन है, वह ज्ञानी नहीं माना जाता । हमारे और तुम्हारे मत में संसार और परलोक के संबंध में भी कोई विशेष मतभेद नहीं हैं । इस प्रकार मैं आपके सदृश ही हूं। मेरे मत को सुनो । वह इस प्रकार है-सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण की समान अवस्था प्रकृति कहलाती है। प्रकृति से महत्ता (बुद्धि) उत्पन्न होती है। बुद्धि से 'अहंकार और अहंकार से पांच तन्मात्रा उत्पन्न होते हैं और ग्यारह इन्द्रियां भी उत्पन्न होती हैं । रूप रस, गंध, स्पर्श और शब्द ये पांच આપો અને ધર્મમાં સ્થિત છીએ. આ બ્રાહ્મણે તે હિંસક છે. પણ આપણે 'બને સમાન ધર્મવાળા છીએ. અમે ભૂત, વર્તમાન, અને ભવિષ્ય આ ત્રણે 'કાળમાં ધર્મમાં જ વર્તવા વાળા છીએ આપણા બન્નેના સિદ્ધાંતમાં આચાર વાળ પુરૂષ જ જ્ઞાની કહેવાય છે, જે આચાર વિનાને છે, તે જ્ઞાની થઈ શકતું નથી. અમારા અને તમારા મનમાં સંસાર અને પરલેકના સબંધમાં પણ કઈ વધારે મત ભેદ નથી. આ રીતે હું તમારા સમાન જ છું. મારા મતને સાંભળે. તે આ પ્રમાણે છે. સત્વ ગુણ, રજોગુણ, અને તમોગુણની સમાન અવસ્થા પ્રકૃતિ કહેવાય છે. પ્રકૃતિથી મહત્ તત્વ (બુદ્ધિ) ઉત્પન થાય છે. બુદ્ધિથી અહંકાર અને અહંકારથી પાંચ તન્માત્રા ઉત્પન્ન થાય છે. " અને અગિયાર ઈન્દ્રિયે પણ ઉત્પન થાય છે. રૂપ, રસ, ગધ, સ્પર્શ અને Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकतामह भवन्मते-पञ्चमहाव्रतानि नासन उत्पत्तिः । अपि तु-सर्वेपामाविर्भावतिरोभावौं । कारणात्मना सर्वेऽपि नित्याः, यथा-भवन्मते द्रव्यरूपेण, संसारस्वरूपं मन्मतेऽपि तथैव । भवद्भिः संसारस्योत्पत्तिविनाशौ न स्वीक्रियेते, अस्मामिस्तथा मन्यते । अस्माभिरपि संसारस्याऽऽविर्भावतिरोभावयोरभ्युपगतत्वात् । अत आवयोर्मत तुल्यमेवेति मन्मतमेव भवद्भिरपि स्नीकर्तव्यम् । अलं महावीरोपगमनेन, उक्तश्च-'पञ्चविंशतितत्त्वज्ञो यत्र तत्राश्रमे वसेत् । जटी शुण्डी शिखीवाऽपि मुच्यते नात्र संशयः ॥१॥ तस्मादादर्तव्यं मन्मतं भवद्भिरिनि । ४६॥ तन्मात्रा हैं । इन ले पांच महाभूतों की उत्पत्ति होती है। पुरुषतत्त्व एक, नित्य और स्थतंत्र हैं । अहिंसा, सत्य अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच यम हैं। यही आप के मत में पांच महावत कहलाते हैं। हमारे मत के अनुसार असत् कार्य की उत्पत्ति नहीं होती और सत् का कभी विनाश नहीं होता, जिसे दूसरे लोग उत्पत्ति और विनाश समझते हैं, वे वास्तव में आविर्भाव और तिरोभाव ही है। कारण रूप से सभी पदार्थ नित्य है जैले आपले मत में द्रव्य रूप से नित्य हैं। संसार का स्वरूप जैसा आप के मत में है वैसा ही हमारे मत में भी है। आप जगत् का उत्पाद और विनाश स्वीकार नहीं करते, हम भी नहीं मानते। जगत् का आविर्भाव और तिरोभाव ही हमने स्वीकार किया है। इस प्रकार जब अपका और हमारा मत ममान है तो आपको રાખ આ પાંચ તન્માવ્યા છે. આનાથી પાચમહાભૂતોની ઉત્પત્તી થાય છે. પુરૂષતત્વ એક નિત્ય અને સ્વતંત્ર છે. અહિંસા, સત્ય, અસ્તેય, બ્રહ્મચર્ય અને અપરિગ્રહ આ પાંચ યમ છે. તમારા મનમાં અનેજ પાંચ મહાવ્રત કહે છે. અમારા મત પ્રમાણે અસત્ કાર્યની ઉત્પત્તી થતી નથી. અને સત્ કાર્યને કોઈ કાળે વિનાશ થતો નથી. જેને બીજા લેકે ઉત્પત્તી અને વિનાશ સમજે છે. તે વાસ્તવમાં આવિર્ભાવ અને તિભાવ જ છે કારણ કે રૂપમાં બધાજ પદાર્થો નિત્ય છે. જેમ આપના મતમાં દ્રવ્ય પણુથી નિત્ય છે, સંસારનું રવરૂપ જેમ તમારા મતમાં છે. એ જ પ્રમાણે અમારા મતમાં છે આપ જગતને ઉત્પાદ અને વિનાશ સ્વીકારતા નથી અમે પણ તે માનતા નથી જગતનો આવિભવ અને તિભાવ જ અમે સ્વીકાર્યો છે. આ પ્રમાણે જ્યારે આપને અને અમારે મત સરખે જ છે. તે આપે અમારા મતને જ સ્વીકાર કરી Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आईकमुनेगोशालकस्य संवादनि० ६६५ मूलम्-अव्वत्तरूवं पुरिसं महंतं, सणातणं अक्खयमवयं च । ....' सवेसु भूएसु वि सबओ से, चंदोव ताराहि समत्तरूवे।४७। " छाया-अव्यक्तरूपं पुरुष महान्तं, सनातनमक्षयमध्ययञ्च। '. . - सर्वेषु भूतेष्वपि सर्वतोऽसौ, चन्द्र इव तारासु समस्तरूपः ॥४७ - अन्वयार्थ:-(पुरिसं) पुरुषम् (अन्यत्तरूबं) अव्यक्तरूपं वाङ्मनसाऽतीतत्वाद (महंत) महान्तं व्यापकम् (सणातणं) सनातनम्-नित्यम् (अक्खयमन्वयं च) अक्षयमव्ययं च आह, (से) सः-जीवः (सव्वेस भूयेसु वि) सर्वेषु भूतेषु (सक्वभो ताराहि चंदो व) सर्वतः तारासु मध्ये चन्द्र इत्र (समत्तरूवे) समस्तरूपः-परिपूर्ण, इति ।४७ हमारा ही मत स्वीकार करलेना चाहिए। महावीर के पास जाने से क्या फायदा ? हमारे यहां कहा है-'पंचविंशतिमत्त्वज्ञो' इत्यादि। - 'चाहे कोई जटा रखना हो, मस्तक मुंडाता हो या चोटी रखताहो और वह किसी भी आश्रम में क्यों न रहता हो, यदि उसने पच्चीस तत्त्वों के स्वरूप को जान लिया है तो मुक्ति प्राप्त कर लेता है। इसमें 'तनिक भी संदेह नहीं है। अतएव हमारा मत अंगीकार करलो ॥४६॥ । 'अन्चत्तरूवं' इत्यादि। ' शब्दार्थ-'पुरिसं-पुरुषं' पुरुष 'अव्यत्तरुवं-अव्यक्तरूपं अव्यक्त रूप है क्यों की वह वाणी एवं मन से अगोचर है 'महंत-महान्तम वह व्यापक है और 'सणातणं-सनातनम्' नित्य है 'अक्खघमव्वयं च' अक्षय और अव्यय है 'से-स' वह पुरुष 'सव्वेसु भूएसुवि-सर्वेषु भूते. ध्वपि' ममस्त भूतों में भी व्याप्त है जैसे 'सव्य भो ताराहि-सर्वतः तारासु' લે જોઈએ. મહાવીરની પાસે જવાથી શું લાભ થવાને છે? અમારામા युछे 3-'पचविंशतितत्वज्ञो' त्यादि ચાહે, કઈ જટારાખતા હોય, માથું મુંડાવતા હોય, અથવા ચોટલી રાખતા હોય, અને તે કઈ પણ આશ્રમમાં કેમ ન હોય, પણ જે તે પચીસે તને જાણેલ હોય તે તે મુક્તિને પ્રાપ્ત કરી લે છે. તેમાં જરા કે પણ સંદેહ નથી તેથી જ આપ અમારા મતને સ્વીકાર કરી લે. દા — 'अव्वत्तस्वं' त्यादि ।। शाय--'पुरिस-पुरुष" पु३१ 'अव्वत्तरूवं- अव्यक्तरूपम्' ५०यात ३५ "छ. म त पाणी अने भनथी भगाय छे. 'महंत-महान्तम्' ते व्या५४ । छे 'धणातणं' नित्य छे. 'अक्खयमव्यय च' अक्षय भने २५०यय 'से-स.' त : ३५ 'सव्वेसु भूएसु वि-सर्वेषु भूतेष्वपि' सघणा भूतामा ५४ व्यात .२५ सू. ८४ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ सूत्रकृतागवले टीका-वेदान्तमतं मन्यमाना आर्द्रकमेत्योक्तवन्तः-भोः ! अस्मदीयं मतमेष त्वयोपासनीयम् अस्मदर्शनाद् युष्मदर्शने नास्ति पार्यक्यम्, सदपि-अल्पीयः प्रायः समत्वभुपेयात्-तदेव दर्शयति-'पुरिसं' पुरुषम्-पुरि-शरीरे शेते-विद्यते इति पुरुषस्तम् । 'अन्वत्तरू' अव्यक्तरूपम्, अयमात्मा जीवो वाङ्मनसातीतत्वाद् अव्यक्तरूपस्तम् । 'महंत' महान्तम्-सर्वव्यापक गगनवत् । 'सणातणं' सनातनम् 'सर्वदाप्रस्थायिनम् । 'क्वयं' अक्षयं-क्षयवृद्धिहासादिरहितम् । 'अव्वयं चु' चंदो व-चन्द्र इव' 'समस्त तारामंडल में चन्द्रमा 'समसख्वे-समस्तरूप पूर्णरूप से सम्बन्ध करता है ॥४७॥ , : अन्वयार्थ-पुरुष अव्यक्त रूप है, क्योंकि वह वाणी और मन से अगोचर है । वह व्यापक है, नित्य है, अक्षय और अव्यय है । वह पुरुष समस्त भूनों में भी व्याप्त है जैसे चन्द्रमा सब ताराओं के साथ पूर्ण रूप से सम्बन्ध करता है ॥४७।। . टीकार्थ--वेदान्त मत को मानने वाले आईक के समीप आकर घोले-हमारे मत की ही तुम्हें उपासना करनी चाहिए। हमारे दर्शन से तुम्हारे दर्शन में भिन्नता नहीं है । अगर कुछ है भी तो बहुत थोड़ी सी है। प्रायः समानता ही है। यह आत्मा वागी और मन से अगोचर होने के कारण अव्यक्त है, आकाश के समान सर्वव्यापक है, सनातन 'अर्थात् सदैव अवस्थित रहने वाला है अक्षय अर्थात् हानि और वृद्धि शत 'सवओ ताराहि चदो व-पर्वतः तारासु चन्द्र इव' सब तारा यन्द्रमा 'समत्तरूवे-समस्तरूपः' ५ ३२ मा छे ॥४७॥ અન્વયાર્થ–પુરૂષ અવ્યક્ત રૂપ છે કેમકે તે વાણી અને મનથી અગેચર છે. તે વ્યાપક છે. નિત્ય છે અક્ષય અને અવ્યય છે. તે પુરૂષ સઘળા ભૂતેમાં–પ્રાણિીમાં પણ વ્યાપ્ત છે જેમકે ચંદ્રમા બધા તારાઓની સાથે પૂર્ણપણે સંબધ કરે છે. ૪ળા છે ' ટીકાર્ય–વેદાન્ત મને માનવા વાળાએ આદ્રક મુનિ પાસે આવીને કહ્યું કે–તમારે અમારા મતને જ સ્વીકાર કર જોઈએ, અમારા અને તમારા દર્શન શાસ્ત્રમાં ભિન્ન પણું નથી જે કઈ જુદાપણું હોય તે તે થોડા પ્રમાણમાં જ જુદા પાણું છે. પ્રાયઃ' સરખાપણું જ છે. આ આત્મા વાણી અને મનથી આગોચર હોવાથી અવ્યક્ત છે અ કાશની જેમ સર્વ વ્યાપક છે સનાતન અર્થાત્ હમેશાં અવસ્થિત રહેવાવાળે છે અક્ષય અર્થાત ક્ષય વિનાને હાનિ અને વૃદ્ધિ તથા હાસ વિનાને છે તેને કોઈ પણ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आद्रकमुनेशिालकस्य संवादनि० ६६७ -अव्ययं च-व्ययो विनाशस्तद्रहितं सर्वदा नित्यमाह इति शपः । 'से' स आत्मा -जीवः 'सव्वेस भूएस वि' सर्वेषु भूतेष्वपि 'सन्चो ' सर्व ::-सबाह्याभ्यन्तर -रूपेण सर्वभूतेषु तिष्ठति सामस्त्येन । 'ताराहिं' तारासु-नक्षत्रमध्ये 'चन्दो व' चन्द्र इव 'समत्तरूवे' समस्तरूपः-परिपूर्णः, यथा-चन्द्रः सर्वासु तारासु सम्बद्ध 'एव, तथा-जीवोऽपि प्रकाशमानत्वाद् व्यापकत्वाच्च सर्वत्र सर्वदा विद्यमान एव । आवयोमतं सदसदूपमेव तथाऽपि अस्मन्मते जीवस्य स्वरूपं विविच्य प्रदर्शितं न तथा आहेतदर्शने तस्माद् अस्मन्मतमेव अनुवर्तस्वेति भावः ॥४७॥ मूलम्-एवंण मिजंति ण संसरती, ण माहणा खत्तियवेसपेसा।' F कीटा य पक्खीय सरीसिवाय, नराय सव्वे तह देवलोगा।४८। 3 छाया-एवं न मीयन्ते न संसरन्ति न बाह्मणक्षत्रियवैश्यप्रेष्याः। कीटाश्च पक्षिणश्च सरीसृपाश्च नराश्च सर्वे तथा देवलोकाः॥४८॥ तथा हास से रहित है ! उसका कभी व्यय (विनाश) नहीं होता। वह आत्मा सभी भूतों में वाह्य और आभ्यन्तररूप से व्याप्त है जैसे चन्द्रमा 'समस्त ताराओं से सम्बद्ध है, उसी प्रकार आत्मा भी प्रकाशमान और • व्यापक होने से सर्वत्र और सर्वदा विद्यमान ही रहता है। * आपका और हमारा मत सत्-असत् रूप है, तथापि हमारे मत में जीव का स्वरूप जैसा विवेचन करके दिखलाया गया है, वैसा आहेतदर्शन में नहीं बतलाया गया। अतः आप हमारे मत को स्वीकार करलो ॥४७॥ 1., 'एवं ण मिज्जति' इत्यादि। j.' शब्दार्थ-एवं-एवम्' इस प्रकार आपके मतको स्वीकर करलेने से વખતે વ્યય" (વિનાશ) થતું નથી. તે આત્મા બધાજ ભૂતેમાં બાહ્ય અને આત્યંતર પણાથી વ્યાપ્ત છે. જેમ ચંદ્રમા સઘળા તારાઓમાં પૂર્ણ રૂપથી -પ્રકાશે છે તે જ રીતે આત્મા પણ પ્રકાશમાન અને વ્યાપક હોવાથી સર્વજ્ઞ अने. स विधमान १८ २९ छ । ..तभा२। भD. प्रभारी, मत सत् . मसात् ३५ छे. तो ५ सभा। મતમાં જીવનું સ્વરૂપ જે પ્રમાણે વિવેચન કરીને બતાવવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે અહં તના દર્શનમાં કહેલ નથી. તેથી આપ અમારા મતનો જ वी॥२ ४0 ते 6त्तम छे., ॥४७॥ ‘एवंण मिज्जति' त्यादि। , हाथ-एवं-एवम्' मा प्रभाये आपना भत! स्वी॥२ ४. वामां Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताशस्त्र ' अन्वयार्थः-(एवं) एवम्-भवन्मते (ण मिज्जति) न मीयन्ते-जीवानां मुखित्व-दुःखित्व व्यवस्थाया अपि उपपादनं कर्तुं न शक्यते, जीवानां कूटस्थनित्यत्वात् व्यापकत्वाच । (ण संसरंती) न संसरन्ति ते-तथा स्वकर्मप्रेरितजीवानां नाना'न मिजंति-न भीयन्ते' सुखी एवं दुःखी की जो व्यवस्था देखी जाती है, उसकी संगती नहीं हो सकती क्योंकी आपका माना हुआ आत्मा कूटस्थ नित्य, और व्यापक है। 'ण संसरंति-न संसरन्ति' अपने अपने कर्म प्रेरित जीवों का नाना गतियों में गमन और आगमन भी नहीं हो सकता क्यों की वे निष्क्रिय है 'न माहणा खत्तियवेसपेसा-न ब्रह्म गाः क्षत्रियवैश्यप्रेष्या ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूदका भी भेद नहीं हो सकता क्यों कि 'असंगोययं पुरुषः' इस श्रुति से. आत्मा एकान्त रूप से असंग कहा गया है 'कीटा य पक्खी य सरीसिवा यकीटाश्च पक्षिणश्च सरीसृपाश्च' कीट, पतंग, और सरीसृप (रेंगकर चलने वाला प्राणी) का भेद भी नहीं बन सकता क्यों की जीव एक ओर क्रियाहीन है 'नराय सव्वे तह देव लोगा-नराश्च सर्वे तथा देवलोका' मानव और देव आदि की व्यवस्था भी संगत नहीं हो सकती, क्योंकि जीव को एक क्रिया शुन्य व्यापक और निःसंग मानते हो, अतएव एकान्तवाद रमणीय नहीं है। आखिरमें सभी को अनेकान्तवाद का ही शरण लेनी पड़ती है॥४८॥ मावत 'न मिजंति-न मीयन्ते' सुमी मी विसरेनी रे व्यवस्था हेमવામાં આવે છે. તેની સંગતી થતી નથી કેમકે આપે માનેલ પુરૂષ (આત્મા) ३८२५ नित्य भने व्या५४ छ. 'ण संसरंति-न संसरन्ति' यात पाताना उभथा પ્રેરિત જીવેનું, અનેક ગતિમાં ગમન અને આગમન પણ થઈ શકતું 'नथी भ निय छे. 'न माहणा खत्तियवेसपेसा-न ब्राह्मणाः क्षत्रियवेश्यप्रेष्याः' माझy, क्षत्रिय, वैश्य भने शूदना ले ५ नथी. उमडे'असंगोह्यय-पुरुपः' मा श्रुति क्यनथी मात्मा 21-1३५था अस1.अपामा आवेस छे. कीटा य पक्खी य सरीसिवा य'-कीटाश्च पक्षिणश्च सरीसृपाश्च' हीट , પતંગ અને સરીસૃપ (ઠેકીને ચાલવાવાળા પ્રાણ) ને ભેદ પણ થતું નથી. કેમકે -94 मे मन. या बिनाना छे. 'नरा य सव्वे तह देवलोगा-नराश्च सर्वे तथा देवलाकाः' भास अन व विरेनी व्यवश्था पर संगत यती नथी. भो જીવને એક ક્રિયા શૂન્ય વ્યાપક અને નિઃસંગમાને છે તેથી જ એકાન્તવાદ / રમણીય નથી. આખરે બધાને અનેકાન્તવાદનું જ શરણ ગ્રહણ કરવું પડે છે. ૪૮ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका द्वि. अ. अ. ६ आर्द्रकमुने गौशालकस्य संवादनि० ६६९ गतिषु गमनागमनमपि न संभवति, निष्क्रियत्वात् (ण माहणा खत्तियवेसपेसा) न ब्राह्मणाः क्षत्रियवैश्ययेष्याः - ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्रविभागोऽपि न संभवति । (असङ्गो पुरुषः) इत्यादि श्रुत्या जीवस्यैकान्ताऽसङ्गत्यप्रतिपादनात् । (कीटा य पक्खी यसरीसिया य) कीटाथ पक्षिणश्च सरीष्टपाश्च - कीटपतङ्गगतिरपि न समाहिंता भवेत् जीवस्यैकत्वात् निष्क्रियत्वाच्च । ( नरा य सव्वे तद देवलोगा) नराख सर्वे तथा देवलोकाः । नराऽमरादिव्यवस्थाऽपि न संभवेत्, जीवस्यैकान्तत्वान्नि ष्क्रियत्वाद् व्यापकत्वाद् असङ्गत्वस्वीकरणाच्च । अतो न एकान्तवादो रमणीयः । अन्वयार्थ - इस प्रकार आप के मत को स्वीकार कर लेने पर सुखी दुःखी आदि की जो व्यवस्था देखी जाती है, उसकी संगति नहीं हो सकती, क्यों कि आपका माना हुआ पुरुष (आत्मा) कूटस्थ नित्य और व्यापक है । अपने अपने कर्म से प्रेरित जीवों का नाना गतियों में गमन और आगमन भी नहीं हो सकना, क्यों कि वे निष्क्रिय हैं । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का भी भेद नहीं हो सकता । क्यों कि 'असंगोह्ययं पुरुष:' इस श्रुति में एकान्त रूप से असंग कहा गया है । कीट, पतंग और सरीसृप ( रेंगकर चलने वाले प्राणी) विगेरे 'की भेद भी नहीं बन सकता, क्योंकि जीव एक और क्रियाहीन है । मानव और देव आदि की व्यवस्था भी संगत नहीं हो सकती, क्य किं और जीव को एक क्रियाशून्य व्यापक और निस्संग मानते हो अतएव "यह एकान्तवाद रमणीय नहीं है । आखिर सभी को अनेकान्तवाद की शरण लेनी ही पड़ती है | ||४८ || अन्वयार्थ- —આ રીતે આપના મતને સ્વીકારવાથી સુખી भी विगे. રૅની જે વ્યવસ્થા જોવામાં આવે છે તેની સંગતિ થઈ શકતી નથી. કેમકેरमापे भानेव पु३ष (आत्मा) इंटस्थ, नित्य भने व्याया छे. पोतपोताना ક્રમથી પ્રેરાયેલ જીવાતુ” અનેક પ્રકારની ગતિયામાં ગમનાગમન પણ થઈ શકશે નહી' કેમકે તે નિષ્ક્રિય છે. તેમજ બ્રાહ્મણ, ક્ષત્રિય, વૈશ્ય અને શૂદ્રા "हिने! तेह पशु थर्ध शम्शे नही है - 'असंगोाय पुरुषः' मा श्रुतिवाभ्यभां - "शेमन्तपणाथी अस डे के टीट, पतंग भने सरीसृप (होडीने यास - વાવાળા) વિગેરે પ્રાણીના ભેદ પણ થઈ શકશે નહીં કેમકે–જીવ એક અને ક્રિયાશૂન્ય છે. માનવ અને દેવ વિગેરેની વ્યવસ્થા પણ સંગત થઈ શકતી નથી. કેમકે આપ જીવને એક ક્રિયાશ્ય વ્યાપક અને નિઃસંગ માનેા છે, તેથી જ આ એકાન્તવાદ રમણીય નથી, આખર બધાને અનેકાન્તવાદનું જ શરણું શેાધવુ' પડે છે. ૫૪૮ા Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % E सूत्रकृतहिंस्त्र अन्ततो गत्वा सर्वेपामनेकान्तवादः शरणम् । सांख्यवेदान्तमताऽनुयायिनमुत्तरयति आर्द्र को मुनिः-नावयोर्मतं तुल्यं महदन्तरं विद्यते, भवन्त एकान्तवादिनो नाह. न्तथा । भवन्मते जीवो व्यापको नास्मन्मते तथा, भवन्मते कार्यकारणयोरेकान्तोइभेदो नास्मन्मते तथा । अपि च आत्मनो व्यापकत्वे कूटस्थनित्यत्वे च-जन्ममरणस्वर्गनरकद्धयादिव्यवस्थाऽपि न घटते, अतोऽनेकान्तपक्ष एव आदर्तव्य इति ॥४८॥ टीका-सुगमा ॥४८॥ । मूलम्-लोगं अजाणित्ता इह केवलेणं, केहंति जे धम्ममजाणमाणा। पसिंति अप्पाणं परं च ठा, संसारघोरंमि अणोरपारे ॥४९॥ . . छाया-लोकमज्ञात्वा इह केवलेम कथयन्ति ये धर्ममनानानाः । नाशयन्त्यात्मानं परञ्च नष्टाः संसारपोरेऽणोरपारे ॥४९॥ । तात्पर्य--सांख्य और वेदान्त मत के अनुयायियों को आईक मुनि उत्तर दे रहे हैं। वे कहते हैं-हमारा और तुम्हारा मत समान नहीं है। दोनों में बहुत अन्तर है । जैसे आप नित्य एकान्तवादी हैं, वैसे हम नहीं । आपके मत में आत्मा व्यापक है हमारे मतमें नहीं। आप कार्य और कारण में एकान्त अभेद मानते हैं, हम ऐसा एकान्तवाद नहीं मानते। इसके अतिरिक्त आत्मा को व्यापक और कूटस्थ नित्य मानने पर जन्म, मरण, स्वर्ग, नरक, वृद्धि आदि की व्यवस्था भी घर नहीं सकती। अतएव अनेकान्तवाद का ही आदर करना चाहिए ॥४८॥ टीका सुगम है ||४|| '' તાત્પર્ય આ કથનનું એ છે કે એ વેદાન્ત મતના અનુયાયિઓને આદ્રક“મુનિ ઉત્તર આપતાં કહે છે કે–અમારો અને તમારે મત સરખે નથી. આપણા આ બન્નેના મતમાં ઘણું મટે તફાવત છે. જેમ આપ સદા એકાન્તવાદી છે, તેવા અમે એકાન્તવાદી નથી આ૫ કાર્ય અને કારણમાં એકાન્ત રીતે ભેદ * માનતા નથી પણ અભેદ માને છે. અમે તેમ એકાતવાદને માનતા નથી. 'આ 'શિવાય આત્માને વ્યાપક અને ફૂટસ્થ નિત્ય માનવાથી જન્મ, મરણ, સ્વર્ગ, નરક, વધવા ઘટવા વિગેરેની વ્યવસ્થા ઘટી શકતી નથી. તેથી જ म त ! ४ मा६२ ४२वो नये ॥४८॥ ४॥ स२॥ छ.. .. Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगौशालकस्य संवादनि० ६७१ ' } अन्वयार्थः -- (इइ लोगं केवलेणं अजाणित्ता) इह लोकं केवलेनाज्ञाखा अमुं सर्वतः परिदृश्यमानं सूक्ष्मस्थूलस्थावरजङ्गमादिलोकं चतुर्दशरज्ज्वात्मक केवलज्ञानेन अज्ञात्वा, (जे अजाणमाणा) ये पुरुषा अजानानाः (धम्मं कति) धर्म कथयन्ति - उपदिशन्ति । ते अज्ञानिनः (मट्ठा) स्वयं नष्टाः (अधाणं) स्वात्मानम् (परं च ) परश्च (अणोरपारे घोरंमि संसारे) अणोरपारे - आद्यन्तरहिते घोरे संसारे अयङ्करेऽविस्तीर्णे (णासंति) नाशयन्ति - स्वयं नष्टाः परानपि नाशयन्ति । न यो ज्ञांनी स वस्तुस्वरूपं न जानाति, केवली भगवांस्तीर्थकर एंव । स च केवली 'लोगं अजाणित्ता' इत्यादि । 8-2 शब्दार्थ - 'इह लोग केवलेणं अजाणित्ता-इह लोकं केवलेन अज्ञात्वा' इस स्थावर जंगम चौदह राजू परिमित लोकको केवल ज्ञान के द्वाराविना जाने 'जे अजाणत्राणा- ये अजानानाः' विना जाने जो अज्ञांनी पुरुष 'धम्मं कहति-धर्मं कथयन्नि' धर्म का उपदेश करते हैं वे 'अणोर'पारे घोरंमि संसारे-अणोरपारे घोरे संसारे' इस आदि और अंतरहित अपार एवं घोर संसार में 'अप्पाणं - नासंति-आत्मानं नाशयन्ति' स्वयं नष्ट होते हैं और 'परंच परच' दूसरों को भी 'णासंति - नाशयन्ति' नष्ट करते हैं ||४९ ॥ अन्वयार्थ - इस स्थावर और जंगम-त्रम या चौदह राजू परिमित लोक को केवलज्ञान के द्वारा विना जाने जो अज्ञानी पुरुष धर्म का उपदेश करते हैं, वे इस घोर संसार में स्वयं नष्ट होते हैं और दूसरे को भी नष्ट करते हैं ||४९ ॥ t भावार्थ - जो ज्ञानी नहीं है वह वस्तुस्वरूप को सम्यक् प्रकार - 'लोग' अजाणित्ता' रियाि " }' शब्दार्थ - 'इह लोगं केवलेण अजाणित्ता-इह लोक केवलेन अज्ञात्वा २ । સ્થાવર અને જળમ–સ વિગેરે ચૌઢ રાજુ પ્રમાણવાળા લાકને કેવળજ્ઞાન દ્વારા लक्ष्या विना जे अजाण माणा - ये अजानाना' भएया विना ने अज्ञानी पुष 'धम्म कहति-धर्मं कथयन्ति' धर्मना उपदेश माये छे तेथे 'अणोरपारे' घोरमि संसारे - अणोरपारे घोरे संसारे' या माहियतरहित अपार धोरोवा संसारमा 'अपाण नासति - आत्मानं नाशयन्ति' पोते नाश' यामे छे. अने ' पर च-परञ्च' मीलयोनो पशु 'नास ति- नाशयन्ति' नाश अरे छे. T मन्वयार्थ' - —આ સ્થાવર અને જગમ-ત્રસ અથવા ચૌદ રાજુ પ્રમાણુવ ળા લેાકને કેવળજ્ઞાન દ્વારા જાણ્યા વિના જે અજ્ઞાની પુરૂષ ધર્મના ઉપદેશ કરે છે. તે આઘાર સસારમાં પોતે નષ્ટ થ ય છે અને ખીજાને પણ નષ્ટ કરે છે ॥४॥ ભાવા-જે જ્ઞાની હાતા નથી, તે વસ્તુ સ્વરૂપને સારી રીતે સમજી Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THA सूत्रकृताशस्त्र तदुपदिष्ट एव धर्मः संसारपारायणसमर्थः । तदन्यो मार्गोऽनर्थाय एव केवलम् । थतो यों न केवली-न वा तदुपदिष्टं धर्म श्रद्दधाति, म न धर्मोपदेशयोग्यः । स तु. स्वयं नष्टोऽन्यानपि पातयितु यतते ॥४९॥ .. .. - पुनरप्याह आईका-'लोयं विजाणति' इत्यादि। .... .. . मूलम्-लोयं विजाणतीह केवलेणं, पुन्नण नाणेण समाहिजुत्ता धम्म समत्तं च केहति जे उ, तीरति अप्पाणपरं चतिन्नी।५०० छाया-लोकं विजानन्तीह केवलेन पूर्णेन ज्ञानेन समाधियुक्ता । ___धर्म समरतं कथयन्ति ये तु, तारयन्त्यात्मानं परश्च तीणीः ॥५०॥ से नहीं जानता। केवली भगवान् ही वस्तुस्वरूप के ज्ञाता होते हैं, अतएव उनके द्वारा उपदिष्ट धर्म ही संसार से पार उतारने में समर्थ है। उससे भिन्न जो मार्ग है यह अनर्थ का ही कारण है। अतएव जो स्वयं केवली नहीं है या केवली के द्वारा उपदिष्ट धर्म पर श्रद्धा नहीं रखता है, वह धर्मोपदेश के योग्य नहीं है । वह तो स्वयं नष्ट है और दूसरों को भी नष्ट करने का प्रयत्न करता है ॥४९॥ टीका सुगम है ॥४९॥ आद्रक पुनः कहते हैं-'लोयं विजाणतीह केवलेणं' इत्यादि । :: '' शब्दार्थ-'जे उ-ये तु' जो पुरुष 'सनाहिजुत्ता-समाधियुक्ता' 'समाधि से युक्त है तथा केवलेणं-केवलेन' केवलज्ञान के द्वारा 'लोयं'लोक' समस्त लोशाको 'विजाणंति-विजानन्ति' जानते हैं और जानकर 'पुन्नेण नाणेण' पूर्णेन ज्ञानेन' पूर्णज्ञान से 'इह समत्-इह समस्तं' શકતા નથી પ્રભુથી કેવલી ભગવાન જ વસ્તુ સ્વરૂપને જાણનારા હોય છે. તેથી જ તેઓએ ઉપદેશેલ ધર્મજ સંસારથી પાર ઉતારવામાં સમર્થ છે. તેનાથી “બીજે જે માર્ગ છે, તે અનર્થનું જ કારણ છે. તેથી જ જે પોતે કેવળજ્ઞાની નથી. અથવા કેવળ જ્ઞાની દ્વારા ઉપદેશ કરવામાં આવેલ ધર્મ પર શ્રદ્ધા રાખતા નથી. તે ધર્મોપદેશને ૫ નથી. તે તે પિતે નાશ પામેલ જ છે. અને બીજાઓને નાશ કરવાનો પ્રયત્ન કરે છે ૪૯ ' -આ ગાથાને ટીકાર્ય સરળ હોવાથી અલગ આપેલ નથી. કલા " मा भुनि शथी से छे 'लोय विजाणतीह केवलेणं' त्यादि। शहाथ-'जे उ-ये तु'२ पु३५ 'समाहिजुत्ता-समाधियुक्ताः' समाधिया युत छ, तथा 'केवलेण-केवलेन' 3 शानदा२। 'लोयं-लोक' समस्त माने ''विजाणंति-विजानन्ति' 2 छ. माने तशी. 'पुन्नेण णाणेण-पूर्णेन ज्ञानेन' ५५ नया 'इह समत्तं-इह समस्त' मा मा सपू 'धम्म कहति-धर्म कथयन्ति' Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. थु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् भट्टपुत्ता' भट्टाः भट्टपुत्राश्च 'माहणा माहणपुत्ता' माहना माहनपुत्राश्च ब्राह्मण वंशजाता स्वदीयपुत्राश्थ, 'लेच्छई लेच्छ३पुत्ता' लेच्छकिनः क्षत्रियवंश्या स्तत्पुत्राथ, 'पसत्थारो सत्पुत्ता' प्राशास्तारो मन्त्रिण स्वदीयपुत्राश्च । 'सेणावई सेणावइ पुता' सेनापतयस्तत्पुत्राथ । 'तेसिं च णं एगतिए सड्डी भव' तेषां चैकतमः कश्चिद - धर्मश्रद्धावान् धार्मिको भवति एतेषु विरलः कचिद्धर्मश्रद्धालु भवति । 'कामं तं समणा वा माहणा वा संपहारिंसु गमणाएं' कामं तत् श्रमणा वा ब्राह्मणा वा समधार्षुर्गमनाय । केचित् श्रमणा वा वाह्मणा वा श्रद्धालोः समीपं धर्मकथ नार्थं गन्तुं निश्चिन्वन्ति कृतनिश्चयाश्च तथाविधाः केचन धर्मस्य प्रज्ञापयितारः तत्र 'अन्नयरेण धम्मेण पन्नत्तारो' तत्र अन्यवरेण केनचित् तज्जीवतच्छरीररूपेण धर्मेण प्रतिज्ञापयिता यस्य कस्यचिद्धर्मस्य शिक्षयितारः श्रमणा वा एव निश्चिन्वन्ति-‘वयं इमेण धम्मेण ं पन्नवइस्सामी' वयममुं धर्म प्रज्ञापयिष्यामः, एवं ते विचारयन्ति यद्वयं गत्वा श्रद्धालs धर्ममुपदेक्ष्यामः । गत्वा च श्रद्धालुसमीपमेवं वदन्ति - ' से एव जाणह भय वारी' तत् एवं जानीहि भयत्रातः - संसारभयात् त्राच्छो ? 'जहा मए एस धम्मे सुपन्नत्ते भवइ' यथा 'मए' इत्यत्रार्थत्वादेकवचनं तेन अस्माभिरित्यर्थः, एष धर्मः स्वाख्यातः - सुप्रज्ञप्तो भवति । यद् वयं शियों के पुत्र, सुभट कुल में उत्पन्न भट्ट, भट्ठों के पुत्र, ब्राह्मण, ब्राह्मणपुत्र, लिच्छवि, लिच्छवियों के पुत्र, प्रशास्ता (मंत्री) प्रशास्ताओं के पुत्र, सेनापति, सेनापति पुत्र | उस परिषद् में कोई कोई धर्मश्रद्धालु होता है। वह किसी भी श्रमण या ब्राह्मण के समीप धर्म श्रवण करने के लिए चला जाता है । तब किसी धर्म के उपदेशक ऐसा निश्चय करते हैं, कि मैं इसको इस धर्म का उपदेश करूंगा। वे कहते हैं - हे संसार भीरो ! हमारे द्वारा यह धर्म स्वाख्यात (सम्यक् प्रकार से कथित) और सुप्रज्ञप्त है । अर्थात् हम तुम्हारे समक्ष जिस धर्म की प्ररूपणा करते हैं, उसी को सत्य समझो । કૌરવ વશવાળાના પુત્રો (૬) સુલટ કુળમાં ઉત્પન્ન થયેલ ભટ્ટ (૭) ભટ્ટોના पुत्रो (८) श्राह्मलु (८) श्राह्मलु पुत्रो (१०) लिच्छवी सिछवियाना पुत्रो (११) प्रशास्ता (भन्री) (१२) अशास्तामना पुत्रो (१३) सेनापति अने सेनापतिना પુત્ર (૧૪) તે પરિષદમાં કઇ કઇ ધમની શ્રદ્ધાવાળા હોય છે તે કઈ પણ શ્રમણ અથવા બ્રાહ્મણુની સમીપે ધર્મોનું શ્રવણુ કરવા માટે ચાલ્યા જાય છે, ત્યારે કાઈ ધર્મના ઉપદેશ કરનાર એવા નિશ્ચય કરે છે કે–આને આ ધર્મના ઉપદેશ કરીશ. તેઓ કહે છે કે-ડે સ ́સાર ભીરૂ! અમારાથી આ ધમ વાખ્યાત–સારી રીતે કહેલ તથા સુપ્રાપ્ત છે. અર્થાત અમેા તમારી પાંસે જે ધર્મની પ્રરૂપણા કરીએ છીએ તેને જ તમેા સત્ય સમજો. Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आईकमुनेगौशालकस्य संवादनि० ६७३ अन्वयार्थः-(जे उ) ये तु पुरुषाः (समाहिजुत्ता) समाधियुक्ताः (केरलेणं) केवलेन ज्ञानेन (लोयं) लोकम्-चतुर्दशरज्ज्वात्मकम् (विजाणतीह) इह विजानन्ति तथा-(पुन्नेण नाणेग) पूर्णेन ज्ञानेन (समत्तं) समस्तम्-सम्पूर्णम् (धम्म) धर्म श्रुतचारित्रलक्षणम् (कहंति) कथयन्ति, ते (तिन्ना) संसारातीर्णा: (अप्पाणं परंच तारंति) आत्मानम्-स्वात्मानं परञ्च तारयन्ति संसारादिति ॥५०॥ टीका-मुनिराकोऽनया गाथया पतिपादयतीदम्-य: केवलज्ञानी स एवं वस्तुतवं वस्तुतो जानाति । अतः स एव जगतो हिताय धर्ममुपदेष्टुमर्हः। उपदिश्य चात्मानं परञ्च संसारात्तारयति, नान्य इति । अक्षरार्थस्त्वेवमाइ-तथाहि -'जे समदिजुत्ता' ये समाधियुक्ताः 'इह पुन्नेण' पूर्णेन 'केवलेण नाणेण' केवलेन इस लोक में सम्पूर्ण 'धम्म कहंति-धर्म कथयन्ति' श्रुनचारित्र रूप धर्म का उपदेश करते हैं 'ते तिन्ना-ते तीः ' वे तिरे हुवे हैं अर्थात् संसार से स्वयं तरते हैं तथा 'अप्पाणं परंच तारंति-आत्मानं परञ्चापि तारयन्ति' अपने स्वयं तिरते हैं और दूसरों को भी तारते हैं ॥५०॥ । अन्वयार्थ-जो पुरुष समाधि से युक्त हैं तथा पूर्ण केवलज्ञान के द्वारा समस्त लोक को जानते हैं और जानकर धर्मोपदेश करते हैं, वे संसार से तिरे हुए हैं अर्थात् वे संसार से स्वयं तैरते हैं तथा दूसरों को भी तारते हैं ॥५०॥ टीकार्थ- आद्रक मुनि इस गाथा के द्वारा यह प्रतिपादन करते हैंजो केवलज्ञानी है वही वास्तव में वस्तुस्वरूप को जानता है। अतएव वही जगत् के हित के लिए धर्म का उपदेश करने के योग्य है। वह धर्मोपदेश करके स्वपर को संसार से तारता है, अन्य नहीं। इस कथन श्रतयारि ३पनी वृति धमनी अपहेश माथे छे. 'ते तिन्ना-ते तीर्णाः' मे। तरा छे. अर्थात् तसा पोते ससारथी तरे छे. 'अप्पाणं परंच वार'ति-आत्मान' तथा परश्चापि तारयन्ति' पाताने तथा भीमान ५ तारे छे. ॥५०॥ અન્વયાર્થ—જે પુરૂષ સમાધિથી યુક્ત છે, તથા પૂર્ણ કેવળ જ્ઞાન દ્વારા સંપૂર્ણ લેકને જાણે છે, અને જાણીને ધર્મોપદેશ કરે છે. તેઓ પોતે સંસારથી તરેલા છે, અર્થાત્ સંસારથી સ્વયં તરે છે અને બીજાઓને પણ તારે છે. આપા ટીકાર્ય–આદ્રક મુનિ આ ગાથા દ્વારા એ પ્રતિપાદન કરે છે કે જેઓ કેવળ જ્ઞાની છે, તેઓજ વાસ્તવિક રીતે વસ્તુ સ્વરૂપને જાણે છે. તેથી જ તેઓ જગતના પરમ કરયાણને માટે શ્રતચારિત્રરૂપ ધર્મને ઉપદેશ કરવાને ચગ્ય છે. તે सु० ८५ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કુળદ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ज्ञानेन 'लोयं विजाणंति' लोक' चतुर्दशरज्ज्वात्मकं विजानन्ति । तथा-'समत्तं धम्मं कहंति' समस्तं - सम्पूर्ण वास्तविक धर्म कथयन्ति ते ' तिन्ना' संसार - सागराचीर्णाः 'अप्पा परं च तारंति' आत्मानं परश्च तारयन्ति, नैतद्व्यतिरिक्ता अकेवलिन स्वथाकर्तुं शक्नुवन्तीति सारः ||५० || मूलम् - जे गरहियं ठाणमिहावसंति, जे यावि लोए चरणोववेया । T उदाहउं तंतु समं मईए, का अहाउसो ! विष्परियासमेव ॥ ५१ ॥ छाया ये गतिं स्थ नविहावसन्ति ये चापि लोके चरणोपपेताः । उदाहृतं तत्तु समं स्वमत्या, अथायुष्मन् । विनर्यासमेव ॥ ५१ ॥ तात्पर्यार्थ इस प्रकार है जो पुरुष समाधि से युक्त हैं, केवलज्ञान के. द्वारा चौदह राजूपरिमाण वाले लोक को जानते हैं, वे समस्त एवं सत्य धर्म का प्ररूपण कर सकते हैं, वे संसार सागर से तिरे हुए हैं अपने को और दूसरों को भी तारते हैं। जो उनसे भिन्न हैं, केवल ज्ञानी नहीं हैं, वे स्व-परतारक धर्म का उपदेश नहीं कर सकते हैं ||२०|| 'जे गरहिये' इत्यादि । 1 शब्दार्थ - 'इह - इह' इस लोक में 'जे ये' जो पुरुष 'गरहियं ठाणं क्संति-गर्हितं स्थानं वसन्ति' गर्हित स्थानमें बसते हैं अर्थात् अविवेकी जनों के द्वारा आचरित स्थानका आश्रय करते हैं और 'जे यावि - ये चापि' जो पुरुष 'चरणोववेया- चरणोपपेताः ' सदाचार में रत है ધર્માંપદેશ કરીને પેાતાને તથા અન્યને સ’સારથી તારે છે, બીજાએ તેમ તારી શકતા નથી કહેવાના ભાવ એ છે કે-જે પુરૂષ સમાધિથી યુક્ત છે, કેવળજ્ઞાન દ્વારા ચૌદ રાજુ પ્રમણવાળા લેકને જાણે છે તેએ સઘળા અને સત્ય ધમ ને ઉપદેશ આપી શકે છે. તેએ પેાતે સંસાર સાગરથી તરેલા છે અને ધર્મના ઉપદેશદ્વારા બીજાઓને પણ સ’સારથી તારે છે. આનાથી જેએ ભિન્ન છે, કેવળજ્ઞાની નથી તેઓ પેાતાના તથા અન્યના તારક ધમના ઉપદેશ કરી શકતા નથી. ગા૫૦ા 'जे गरहियं' इत्याहि शब्दार्थ–इइ–इद्द' मा सोम्मां 'जे ये' ? ५३५ 'गरहियं ठाणं वसति गर्दितं स्थान वसन्ति' गर्हित-निहितस्थानमा वसे छे अर्थात् अविवेकी ३ष द्वारा आयरेस रथ ननो आश्रय मेरे थे, ने 'जे या वि-ये चारि' ने पु३ष 'चरणोत्रवेया- चरणोपपेताः सहायारभारत हे, ते जन्नेनी 'मईए-मत्या' ने Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. ५. ६ आर्द्रकमुनेगौशालंकस्य संघादनि० ६७५ , अन्धयार्थ:-(जे) ये पुरुषाः इहलोके (गरहियं ठणं आवसंति) गर्हितमशुभं स्था नम् आवसन्ति-गर्दितं-निर्विवेकिजनाचरितं स्थानमाश्रयन्ति (जे यावि) ये चापि (चरणोववेया) चरणोपपेताः-सदाचाररता: अनयो यः (मईए) स्त्रमत्याऽज्ञानेन (सम उदाहउं) समं तुलपमुदाहृतं कयितम् (तंतु) तत्तु-समत्वकथनं तु (अहाउसो) अथायुष्मन् ! (विप्परियासमेव) विपर्यासः-विपरीतबुद्विरेव केवलमिति ॥५१॥ टीका-'इह लोए ज गरहियं ठाणं आवसंति' इह लोके ये गर्हितमशुभं 'स्थानमाचरणमावसन्ति-आचरन्ति 'जे यावि' ये चापि 'चरणोववेया' चरणोप पेता:-सदाचारे रताः-तयो ये: 'मईए समं उदाह' स्वकीयमत्या सम-तुल्य. मुदाहृतम् । आर्द्रको मुनिः कथयति-इइहि कोके यो निन्दनीयाचारमाचरति: उन दोनों को 'मईए-मत्या' जो अपनी कल्पना मति से 'सम उदाहउ' -समं उदाहृतं' ममान कहता है 'तंतु-तत्तु वह 'अहाउसो-अथायुष्मन्' 'विपरियासमेव-विपर्यासमेव' उसकी विपरीत बुद्धिका ही फल है ।५१॥ __ अन्वयार्थ-इस लोक में जो पुरुष गर्हित स्थान में वसते हैं अर्थात अविवेकी जनों द्वारा आचरित स्थान का आश्रय लेते हैं या अशुभ आचरण करते हैं और जो सदाचार में रत है उन दोनों को जो अपनी कल्पना मति से समान कहता है, वह हे आयुष्मन् ! उसकी विपरीत बुद्धि का ही फल है ॥५१॥ टीकार्थ-इस संसार में जो लोग अशुभ आचरण करने वाले है । और जो शुभ आचरण में प्रवृत्त हैं, उनको अपनी बुद्धि से समान कहना विपरीत मति का फल है। आर्द्रक मुनि कहते हैं -इस जगत् में जो अज्ञानी पुरुष निन्दनीय आचरण करते हैं और जो उत्तम आचरण करते पातानी ४६५ना मुद्धिथा 'समं उदाउ'-समं उदाहृतः सरमा ४ है. 'त'तु-तनु' तत 'अहाउसों-अथायुष्मन्' हे आयुष्मन् 'विप्परियासमेव-विपर्यास मेव' तना - વિપરીત બુદ્ધિનું ફલ છે. ગાલા અન્વયાર્થ–આ લેકમાં જે પુરૂષ નિંદિત સ્થાનમાં વસે છે, અર્થાત અવિવેકી જ દ્વારા આચરિત સ્થાનને આશ્રય લે છે અથવા અશુભ આચરણ કરે છે. અને સદાચારમાં રત રહે છે. આ બંનેને જે પિતાની કલ્પના મતિથી સરખા કહે છે તે તે છે આયુમન્ તેની વિપરીત બુદ્ધિનું જ ફળ છે. ૫૧ ટકાથે–આ સંસારમાં જે લેકે અશુભ આચરણ કરવાવાળા છે અને જે અશુભ આચરણમાં પ્રવૃત્તિ વાળા છે. તેઓને પિતાની બુદ્ધિથી સમાન કહેવા તે વિપરીત બુદ્ધિનું જ ફળ છે, આર્દિકમુની કહે છે–આ જગતમાં જે અજ્ઞાની પુરૂષ નિંદનીય આચરણ કરે છે. અને જે ઉત્તમ પુરૂષ ધર્મયુક્ત Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे यश्वोत्तममाचार' पालयति द्वयोरेतयोरनुष्ठीयमानयोरनुष्ठानयोः समत्वं स्वेच्छ या सर्वज्ञो जनो ब्रवीति । 'तं तु' तस्य समत्वकथनं तु 'अहाउसो ! विप्परियास मेव' अथाssयुष्मन् ! विपर्यास:- मत्तोन्मत्तप्रलापवद् भवतीति ॥५१॥ मूलम् - संवच्छरेणाविय एगमेगं, बाणेण मारेउ महागयं तु । छाया - संवत्सरेणापि चकैकं, बाणेन मारयित्वा महागजं तु । शेषाणां जीवानां दयार्थाय वर्ष वयं वृत्तिं मकल्पयामः ॥५२॥ हैं, उन दोनों को या उनके द्वारा किये जाने वाले आचरण को असर्वज्ञ जन स्वेच्छा से समान कहता है । हे आयुष्मन् ! सांख्यादि का कथन उन्मत्तप्रलाप के समान है ॥ ५१ ॥ 'संवच्छ रेणावि' इत्यादि । शब्दार्थ - 'वयं-वर्य' हम, हस्तितापस 'सेसाणं जीवाणं दयहयाए - शेषाणां जीवानां दयार्थाय' शेष जीवों की दयापालने के लिए 'संयच्छरेण वि य - संवत्सरेणापि च' एक वर्ष में 'एगमेगं महागयंएकैकं महागजम्' एक स्थूलकाय, हाथी को 'बाणेण - घाणेन' बाणसे 'मारेउ - मारयित्वा' मारकर 'वासं वय' वित्ति-वर्षमयं वृत्तिम्' एकवर्ष तक उसीसे जीवन निर्वाह 'कप्पयामो-कल्पयामः' करते है । ५२॥ આચરણ કરે છે, તે ખન્નેને અથવા તેઓના દ્વારા કરવામાં આવનારા આચરણને સર્વજ્ઞ જન સ્વેચ્છાથી સમાન કહે છે. હે આયુષ્મન્ સાંખ્ય વિગેરેનું કથન ઉન્મત્ત-ગાંડાના પ્રલાપના સરખુ છે. ાગા૰૧૧૫ 'संवछरेणावि' इत्यादि शब्दार्थ–‘वय-वयम्' अभी स्तितायसेो 'सेसाण' जीवाण' 'दयट्टयाएशेषाणां जीवानां दयार्थाय' जीन कवर पर हया पात्रा भाटे, 'संवच्छरेणावि ' य - संवत्सरेणापि च' ४ वर्ष'भां ' एगमेग महागयं - एकैकं महागंज' मे४ भडा हाथीने 'बाणेण - वाणेन' माथुथी 'मारेउ - मारयित्वा' भारीने 'वासं वयं वित्ति-वर्षमयं वृत्ति" ४ वर्ष पर्यन्त तेनाथी ४ भवन निर्वाह 'कप्पयामोंकल्पयामः' मे छीमे ॥२॥ અન્ત્યા—અમે હસ્તિતાપસા શેષ જીવાની યા માટે એક વર્ષમાં એક } સ્થૂલકાય હાથીને ખાશુથી મારીને એક વર્ષ પર્યંન્ત તેનાથી જ જીવન નિર્વાહ કરીએ છીએ. પર્ણા · 1 2 सेसाण जीवाण दयट्टयाए, वासं वयं वित्ति पकप्पयामो ॥५२॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आईकमुने!शालकस्य संवादनि० ६७१ अन्वयार्थ:-(वयं) वयं हस्तितापसाः (सेसाण जीवाणं दयट्ठयाए) शेषाणां जीवानां दयार्थाय-दयां कर्तुम् (संवच्छरेणावि य) संपत्सरेणापि च वर्षमात्रेण, (बाणेण) बाणेन (एगमेगं महागयं मारेउ) एकमेकं महागन मारयित्वाव्यापाय (वयं वासं वित्ति) वर्ष-वर्षपर्यन्तं दृचिमाजीविकाम् (पकप्पयामो) प्रकल्पयामः-कुम इति ॥५२॥ टीया-एक दण्डिनं व्युदस्याऽऽई को मुनिमहावीरस्वामिनम् अनुगन्तुं यदाऽचलत् तदा-हस्तितापसनामानो वह समेत्योक्तवन्तः । हे आक! वयं शेष. जीवानां रक्षणार्थ भक्षणार्थम् एकमेव महान्तमुन्नतं गजं मारयित्वा वर्षमेक जीवनयात्रां परिकल्पयामः । एकस्य हनने बहवो रक्षिता भवन्तीति-अल्पीयान मे दोपः। अन्येषां तु पुनः अनेकजीववधननितं पापवाहुल्यं भवतीति मन्मतमेव स्वयाऽप्युपासनीयम्' अलमलं तत्र गमनेनेति, अर्थ दर्शयति 'वयं सेसाणं जीवाणं ___ अन्वयार्थ हम हस्तितापस शेष जीवों की दया पालने के लिए एक वर्ष में एक स्थूलकाय हाथी को बाण से मार कर एक वर्ष तक उसी से जीवननिर्वाह करते हैं ॥५२॥ - टीकार्थ-एकदण्डी को पराजित करके आर्द्रककुमार मुनि महावीर स्वामी के समीप जाने लगे तो बहुत से हस्तितापस आकर कहने लगे -हे आई क ! यदि हम शेष जीवों की रक्षा करने के लिए सिर्फ एक बड़ा और ऊंचा हाथी मारते हैं और उसी से एक वर्ष तक अपना उदरनिर्वाह करते हैं एक जीव का घात करने से बहुत से जीवों की रक्षा हो जाती है । अतः हम सब से कम हिंसा के भागी हैं। दूसरे लोग अपने स्वार्थ के लिए अनेक जीवों का वध करते हैं उन्हें बहुत पाप लगता है। अतएव तुम भी हमारा मत का स्वीकार करलो। महावीर के पास जाने से क्या लाभ ? 1 ટીકાર્ચ–એકદંડીને પરાજય કરીને આદ્રકુમાર મુનિ ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વામી પાસે જવા લાગ્યા તે ઘણુ હસ્તિતાપગે આવીને તેઓને કહેવા લાગ્યા કે–હે આદ્રક! અમે બાકિના જીની રક્ષા કરવા માટે કેવળ એક મહાકાય હાથીને જ મારીએ છીએ અને તેનાથી એક વર્ષ સુધી પિતાની આજીવિકા ચલાવીએ છીએ એક જીવની હિંસા કરવાથી ઘણું-જીની રક્ષા થઈ જાય છે. તેથી અમે સૌથી ઓછી હિંસા કરવાવાળા છીએ. બીજા લેકે પિતાના સ્વાર્થ માટે અનેક જીવને વધ કરે છે તેઓને ઘણું મોટું પાપ લાગે છે. તેથી જ તમે પણ અમારે મત સ્વીકારી લે. મહાવીરસ્વામી પાસે જવાથી શું વિશેષ લાભ થવાને છે? Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८ सूत्रकृतशिस्त्र दयट्टयाए' हस्तितापमाः कथयन्ति यद्वयं शेषाणां जी पसङ्घानां दयार्थाय 'संवच्छरेणावि य बाणेण एगमेगं महागयं तु मारेउ' संवत्सरेणापि वाणेन-एकैकमहा. गजं तु मारयित्वा 'वासं' वर्षे यावत् 'वित्ति' त्ति-जीवनयात्रासम्पादयित्रीं जीविकाम् । यदि-पकप्पयामो' प्रकल्पयामः, अन्यजीवरक्षणार्यमेकमेव हस्तिनं यदि व्यापाद्य तन्मांसममाऽमृम्भिवमेकं हि यावज्जीवामः, न दोपमाजो भवतां मतेऽपीति ध्वनिः ॥५२॥ मूलम्-संवच्छरेणावि य एगमेगं, पाणं हेणंता अणियत्तदोसा। सेसाण जीवाण वहे ण लग्गा, सिया य थोभं गिहिणोऽवि तम्हा ॥५३॥ छाया-संवत्सरेणापि चैकैक पाणं घ्नन्तोऽनिवृत्तदोपाः ।। पाणां जीवानां वधे न लग्नाः स्यु श्च स्तोक गृहिणोऽपि तस्मात् ॥५३॥ इस बात को दिखलाने के लिए मुत्रकार कहते हैं-हम शेष जीवों की रक्षा करने के लिए एक वर्ष में सिर्फ एक स्थूलकाय हाथी को वाण से मार कर वर्ष पर्यन्त उससे अपना निर्वाह करते हैं। तात्पर्य इम कथन का यह है कि अन्य जीवों की रक्षा के लिए ही, सिर्फ एक ही हाथी को मारकर यदि उसके मांस, मज्जा रुधिर आदि से वर्ष पर्यन्त जीवनयापन करते हैं तो आपके मत के अनुसार भी हम दोप के पात्र नहीं हो सकते ॥५२॥ 'संवच्छरेणावि' इत्यादि । . शब्दार्थ-'संसच्च्छरेणावि य संवत्सरेणापि च' -एकवर्ष में 'एग. मेगं पाणं हणता-इकैकं प्राणं नन्तः' एक ही प्राणी की हिंसा करने वाले આ વાત બતાવતાં સૂત્રકાર કહે છે કે–અમે બાકીના જીવોનું રક્ષણ } કરવા માટે એક વર્ષમાં કેવળ એક મહાકાયે હાથીને બાણથી મારીને એક ॥ष सुधी तनाथी पोताना निर्वाड ४श छोय. . | | કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે–બીજા જીની રક્ષા કરવા માટે જ કેવળ એકજ હાથીને મારીને જે તેના માંસ, મજજા, લેહી, વિગેરેથી આખા વર્ષ સુધી જીવન'' નિર્વાહ કરીએ છીએ, તો તમારા મત પ્રમાણે પણ આ દોષપાત્ર કહેવાય નહીં પર ''सवच्छरेणावि' त्या शहाथ--संवच्छरेणावि य-संवत्सरेणापि च' में भी ‘एगमेगं पाण ‘हणता-एकैकं प्राण घ्नन्त' मे४ प्रालिनी सि1 Pain'अणियतदोसा Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने!शालकस्य सवादनि० ६७९ अन्वयार्थः- (संवच्छरेणावि य) संवत्सरेणापि-एकस्मिन् वर्षेऽपि (एगमेगं: पाणं हणंता' एकैकमपि एकमपि यं वचनमाण प्राणिनं नन्तो व्यापादयन्त: (अणियत्तदोसा) अनिवृत्तदोषा एव ते स्युः (सेसाण जीवाण वहे ण लग्गा) शेषाणां जीवानां वधे-व्यापादने न लग्नाः (गिहिणोवि) गृहिणः-गृहस्था अपि (तम्हा): तस्मात् (योभं सिया य) स्तोकम् अल्प यथा भवेत् तथा स्युः-भवेयुरिति ॥५३॥ ___टीका-मुनिराई को हस्तितापसान् प्रत्याह-एकस्मिन्नपि हायने य: कषित् एकमपि यं कञ्चन प्राणिनं हिनस्ति सोऽपि मन्ये दोषमाकू स्यात्, किम्पुनः पश्चेन्द्रियं महाकाय गज यो हिनस्तीति । एतेषामर्थ प्रकाशयति-'संघच्छरेणावि य' पुरुष भी 'अणियंतदोला-अनिवृत्तदोषाः' 'निर्दोष-निष्पाप नहीं कहे जा सकते' ऐला हो तो जिन जीवों की गृहस्थ हिंसा करते हैं उनके सिवाय 'सेसाणं जीवाणं वहे ण लग्गा-शेषानां जीवानां वधे न लग्नाः शेष जीवों की हिंसा न करने के कारण 'गिहिणो वि-गृहिः णोऽपि' गृहस्थ भी 'थोभं सिया-स्तोकं स्युः' निर्दोष कहलाने लगेंगे।५३॥ अन्वयार्थ--एक वर्ष में एक प्राणी की हिंसा करने वाले पुरुष भी निर्दोष-निष्पाप नहीं कहे जा सकते ऐसा हो तो 'जिन जीवों की गृहस्थ हिंसा करते हैं, उनके सिवाय' शेष जीवों की हिंसा न करने के कारण गृहस्थ भी निर्दोष कहलाने लगेंगे ॥५३॥ टीकार्थ---आश मुलि हस्तितापस को उत्तर देते हैं-एक वर्ष में जो किसी एक प्राणी की हिंसा करता है, वह भी पाप का भागी होता है। फिर पंचेन्द्रिय और स्थूलकाय हाथी को मारने की बात ही क्याहै ? -अनिवृत्तदोपा' निषि- & Purय नही. मेम हेत(22स्थाले यानी 8 सा ४२ छे) 'सेसाण जीवाण वहे ण लग्गा-शेषानां जीवाना वधे न लग्ना' ते शिवाय मीना नीसा न ४२पाथी 'गिहिणो वि-गृहिणोऽपि त्य ५५'थोमं सिया-स्तोक स्यु' निषि उपाशे अर्थात ते पस्य નિર્દોષ જ કહેવાશે. પવા અન્વયાર્થ–એક વર્ષમાં એક પ્રાણીની હિ સા કરવાવાળા પુરૂષ પણ નિર્દોષ-નિપાપ કહી શકાય નહી જે તેને નિષ્પાપ માનવામાં આવે તો (જે જોની ગૃહ હિંસા કરે છે, તેને શિવાય) શેષ જીવની હિ સા ન કરવાના કારણે ગૃહસ્થ પણ નિર્દોષ કહેવડાવશે. પડા ટીકાર્ય–આર્દક મુનિ હસ્તિતાપસોને ઉત્તર આપતાં કહે છે કે-એક વર્ષમાં જે કઈ એક પ્રાણીની હિંસા કરે છે, તે તે પણ પાપના ભાગી જે કહેવાય છે. તે પછી પચેન્દ્રિય અને સ્થૂલકાય હાથીને મારવાની તે વાત જ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० सूत्रकृताङ्गसूत्र संवत्सरेणाऽपि च ये ‘एगमेगं पाणं हता' एकैकं प्राणं प्राणिनं निघ्नन्तः 'अणियत्तदोसा' अनिवृत्तदोषा एव, एकस्मिन् वर्षे यथ एकं पाणिनं घातयति-. सोऽपि दोषान्न प्रमुच्यते । यद्येवं तदा- 'सेसाण जीवाण वदे ण लग्गा ' शेषाण जीवानां वत्रे मारणे न संकग्ना ये ते एव शेषजीवमारणव्यापारान्निवृत्ता ज्ञायेरन् 'गिहिणो वि' गृहिणी गृहस्था अपि 'तुम्हा' तस्मात् 'थोमं' स्वोकं यथास्यात् तथा 'सिया य' स्युश्च । शेषमाणिचधव्यापारान्निवृत्ताः गृहस्था अपि दूषणरहिताः कथं न स्युरिति । अत एकजीववधेऽपि दोषो भवन् भवत्यक्षं दूषयत्येवेति भावः ॥ ५३॥ मूलम् - संवच्छरणावि य एगमेगं, पाणं हैणंता समणव्वसु । आयाहिए से पुरिसे अणज्जे, तारिसे केवलिणो भवति ॥ ५४ ॥ छाया - संवत्सरेणापि चैकैक प्राणं घ्नन् श्रमणव्रतेषु । आख्यातः स पुरुषोsनार्यो न तादृशाः केवलिनो भवन्ति ॥ ५४ ॥ इस अर्थ को सूत्रकार प्रदर्शित करते हैं वर्ष भर में जो एक प्राणी की हिंसा करते हैं, वे भी पाप से मुक्त नहीं हो सकते । यदि उन्हें निष्पाप कहा जाय तो शेष प्राणियों की हिंसा न करने वाले गृहस्थ भी निष्पाप क्यों न कहे जाएं ? तात्पर्य यह है कि गृहस्थ भी जितने जीवों की हिंसा करते हैं, उनके अनिरिक्त शेष जीवों की हिंसा नहीं करते । अतएव उन्हें भी निर्दोष कहना चाहिए । अतएव एक जीव की हिंसा करने से भी पाप होता है और वह कथन आपके पक्ष को दूषित करता है ||५३ | કેમ કહી શકાય ? આ વાત સૂત્રકાર ગાથા દ્વારા પ્રગટ કરે છે. એક વર્ષમાં જે એક જ પ્રાણીની હિં'સા કરે છે, તેઓ પણ પાપથી છૂટિ શકતા નથી, જે તેને નિષ્પાપ કહેવામાં આવે તે બાકીના પ્રાણીચાની હિં’સા ન કરવાવાળા ગૃહસ્થાને પણ નિષ્પાપ કેમ ન કહેવા કહેવાનું તાત્પ એ છે કે—ગૃહસ્થ પણ જેટલા જીવાની હિંસા કરે છે, તે શિવાયના મીંજા જીવેાની હિંસા કરતા નથી. તેથી તેમને પણ નિર્દેષજ કહેવા જોઇએ. તેથી જ એક જીવની હિમા કરવાથી પણ પાપ થાય જ છે, અને તે કયન તમારા પક્ષને કૃષિત બનાવે છે. ૬૫૩મા Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संमयाबोधिनी टीका fr. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने गौशालकस्य संवादनि० ६८१ } अन्वयार्थः - (समणन्त्रएस) श्रमणव्रतेषु - यतित्र तेषु विद्यमानः संयतः (संत्र च्छरेणावि य) संवत्सरेणापि च ( एगमेगं ) एकैकम् (पाणं) प्राणं जीवम् (हणंता), घ्नन् - मारयन् ( से पुरिसे) स पुरुषः (अणज्जे आयाहिए ) अनार्यः आख्यातः - कथितः (तारिसे) तादृशाः पुरुषाः (केवलिणो ण भवति) केवलिनः - केवलज्ञानवन्तो न भवन्ति कथमपीति ॥ ५१ ॥ 1 टीका - पुनराईको मुनिः पूर्वोक्तवादिनं प्राह-समन्वसु' श्रमणत्रतेषु - यः पुरुषः श्रमणानां - साधूनां व्रतेषु विद्यमानोऽपि, 'संवच्छ रेणावि य' संवत्सरे'संच्छरेणावि' इत्यादि । शब्दार्थ - 'समणव्वसु-श्रमणव्रतेषु' जो पुरुष श्रमणों के व्रतों में रहकर 'संवच्छरेणावि-संवत्सरेणापि' एकवर्ष में 'एग मेगं - एकैकमपि ' एक एक भी 'पाण-प्राणं' प्राणी का 'हणता-मन्' घात करते हैं 'से पुरिसे - स पुरुष ' वह पुरुष 'अणज्जे आघाहिए -अनार्यः आख्यातः' अनार्य है, ऐसा कहा गया है 'तारिसे - तादृशाः ' ' ऐसे पुरुष 'केवलिगो न भवंति - केवलिनः न भवन्ति' केवलज्ञान नहीं पा सकते हैं ॥५४॥ अन्वयार्थ -- जो पुरुष श्रमण के व्रतो में रहकर एक वर्ष में एक एक प्राणी का घात करते हैं, वे अनार्य हैं । ऐसे पुरुष केवलज्ञान नहीं पा सकते ॥ ५४ ॥ टीकार्थ - - आर्द्रक मुनि पुनः हस्तितापस से कहते हैं जो पुरुष श्रमण के व्रतों से स्थित होते हुए भी एक वर्ष में एक एक प्राणी 'संवछरेणावि' हत्याहि शब्दार्थ- 'समन्त्रए - श्रमणद्रतेषु' ने ५३ष श्रमशोना प्रतीभां रहने 'सवच्छ रेणावि-संवत्सरेणावि' मेड वर्षभां 'एगमेत एकैकं ४ प 'पाणं प्राण' आथीने 'हणता घ्नन्' वध ४रे छे ' से पुरिसे - सः पुरुषः ' ते ५३ष 'अणज्जे आयाद्दिए- अनार्य. आख्यातः' मनार्य छे तेम अडेवामां आवे छे. 'तारिसे - तादृशा' येत्रा पु३ष 'केवलिणों न भवंति - केवलिनः न भवन्ति' ठेवणજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી. ૫૫૪ા અન્વયા--જે પુરૂષ શ્રમણ તેામાં રહીને એક વર્ષીમાં એક પ્રાણીને વધ કરે છે તેએ અનાય જ છે. એવા પુરૂષા કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી. ાપા ટીકા —ફરીથી હસ્તિતાપસેાને આદ્રક મુની કહે છે કે--જે પુરૂષ શ્રમણુના વ્રતમાં સ્થિત રહીને પણુ એક વર્ષીમાં એક એક પ્રાણીની હિંસા सू० ८६ t Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ सूत्रकृताचे णापि च 'एगमेगे' एकैकमपि 'पाणं' प्राण-माणिनम् 'हणता' नन्-मारयन् तिष्ठति से पुरिसे' सः पुरुषः 'अणज्जे आहिए' अनार्य आख्यात:-कथितः-- एकमपि माणिनं वर्ष यावद् जीविकाथै यो मारयति सोऽनार्य आख्यायते 'तारिसे केवलिणो ण भवति' तादृशाः केवलिनो न भवन्ति । एतादृशपुरुषाणां केवलज्ञानप्राप्तिनं भवति । साधुव्रते सर्व सहमानानां मध्यतो य एकमपि पाणिनं इंन्ति स केवलज्ञानाऽनधिकारीति द्रे तावत्, प्रत्युताऽनार्यभार स्यादिति ॥५४॥ मूटम्-बुद्धस्स आणाए इमं समाहि, अस्सि सुठिच्चा तिविहेण ताई। तरिउं समुदं व महाभवोघं. . आयाणवं धम्ममुदाहरेज्जा ॥५५॥त्तिवेमि॥ छाया-बुद्धस्याज्ञयेमं समाधिमस्मिन् मुस्थाय त्रिविधेन वायी। , तरितुं समुद्रमिच महामवाघमादानवान् धर्ममुदाहरेत् इति ब्रवीमि।५५। का हनन करते हैं, वे अनार्य कहे गए हैं । ऐसे पुरुष केवलज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते। तात्पर्य यह है कि साधुव्रत अंगीकार करने पर समस्त प्राणियों की पूर्णरूप से हिंसा का त्याग किया जाता है। ऐसी स्थिति में जो एक भी प्राणी का वध करता है, यह केवलज्ञान तो क्या प्राप्त कर सकेगा, आर्य भी नहीं है, अनार्य है ॥५४॥ 'युद्धस्म आणाए' इत्यादि । शब्दार्थ-'बुद्धस्स-बुद्धस्य' परिज्ञातत्तत्व भगवान् महावीर की 'आणाए-आजया' आज्ञामें 'इमं समाहि-इमं समाधि' इस समाधिको प्राप्त करके जो 'अस्मि-अस्मिन्' इस समाधि में 'सुठिच्चा-सुस्थित्वा' કરે છે, તેઓ અનાર્ય કહેવાય છે. એ પુરૂષ કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરી શકતો નથી. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે–સાધુવ્રત સ્વીકારીને સઘળા પ્રાણિયોની હિંસાનો પૂર્ણ રીતે ત્યાગ કરવામાં આવે છે. આ સ્થિતિમાં જે એક પણ પ્રાણિનો વધ કરે છે, તે કેવળજ્ઞાન તે શું પ્રાપ્ત કરી શકે છે તે આર્યજ નથી પણ અનાર્ય જ છે. ૫૪ 'बुद्धस्स आणाए' या शहाथ --बुद्धस्स-बुद्धस्य' ये तत्पने सारी रीत तल छे, मेवा सरावान् महावनी 'आणाए-आज्ञया' मासाथी 'इम समाहि-इमं समाधिम्' । समाधिन प्रा. शन रे 'अस्सि-अस्मिन्' मा समाधिमा 'सुठिच्चा Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतानसूत्रे धर्म तुभ्यं कथयामि तदेवमेवं जानीहि । तत्र प्रथमं शरीरस्यैत्र जीवत्वमाह-तं जहा' तद्यथा-'उड्न पादतला अहे केसग्गमत्थया' अर्ध्व पादतलात्-अधः केशाग्रमस्तकात् तिरियं तयपरिय ते जीवे एस आया पज्जवे कसिणे' तिर्यक्स्वपर्यन्तो जीव-एप आत्मपर्यवः कृत्स्नः, आपादतलमस्तकव्यापी शरीरपरिणामविशिष्टः कायाकार एव जीवो-न तु शरीरव्यतिरिक्तिजीवस्य अस्तित्वेऽस्ति प्रमाणम् । अन्वयव्यतिरेकाभ्यां शरीरस्यैवाऽऽत्मत्वात्, शरीरमरणानन्तरं व्यतिरिक्तो जीवो नोपलभ्यते । तस्मात्-शरीरमेवाऽऽत्मा । शरीरात्मत्वे-बहूनि उदाहरणानि दर्शयति । प्रदश्य च शरीरस्यैव तत्त्वं व्यवस्थापयिष्यति । अन्ययव्यतिरेक मेव-दर्शयति-'एस जीवे जीवई'-इत्यादिना-पादतलादुपरि केशाग्रादधः तिर्यक् स्वक् पर्यन्तो जीवः । शरीरमेव जीवस्य समस्तोऽपि पर्यायः । 'एस जीवे जीवइ, उनमें से पहले शरीर को ही जीव मानने वालों का पक्ष प्रस्तुन करते हैं-पांवों के तल भाग से ऊपर केशों के अग्रभाग से नीचे और तिछे बमड़ी पर्यन्त ही जीव है। अर्थात् शरीर रूप परिणाम से विशिष्ट कायाकार ही जीव है। शरीर से भिन्न जीव का अस्तित्व मानने में कोई प्रमाण नहीं है। अन्वय और व्यतिरेक के द्वारा शरीर ही आत्मा है। शरीर का अन्त हो जाने के पश्चात् कोई पृथक् जीव उपलब्ध नहीं होता। इस प्रकार शरीर ही आत्मा है, ऐसा सिद्ध होता है। शरीर ही आत्मा है, इस विषय में अनेक दृष्टान्त दिखलाते हैं और उनसे यह सिद्ध करते हैं कि शरीर ही जीव है । अन्वय और व्यतिरेक से ही दिखलाते हैं। पैरों के तल भाग से ऊपर केशाय से नीचे और तिला स्वचा भाग पर्यन्त जीव है। शरीर ही जीव का તેમાંથી પહેલાં શરીરને જ જીવ માનવા વાળાઓના પક્ષના સંબંધમાં કથન કરે છે –પગના તળિયાની ઉપર, કેશવાળના અગ્ર ભાગની નીચે અને તિછ ભાગમાં ચામડી સુધી જ જીવ છે, અર્થાત્ શરીર રૂપ પરિણામથી ચુત કાયા-શરીર જ જીવ છે શરીરથી જુદા જીવનું અસ્તિત્વ–હોવાપણું માનવામાં કઈ જ પ્રમાણ નથી. અવય અને વ્યતિરેક દ્વારા શરીર જ આત્મા છે. શરીરને અન્ત-નાશ થયા પછી કઈ જુદે જીવ મળતું નથી, આ રીતે શરીર જ આત્મા છે એ પ્રમાણે સિદ્ધ થાય છે. શરીર જ આત્મા છે, આ સંબંધમાં અનેક દષ્ટાંતે બતાવે છે. અને તેનાથી એ સિદ્ધ કરે છે કે–શરીર જ જીવ છે. અન્વય અને વ્યતિરેકથી જ તેઓ શરીર જ જીવ છે, તેમ બતાવે છે પગના તળીયાના ભાગથી ઉપર અને વાળના અગ્ર ભાગની નીચે અને તિરછા ચામડીના ભાગ સુધી જીવ છે, શરીર જ જીવના સપૂર્ણ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. अ. ६ आर्द्रकमुने गौशालकस्य संवादनि० ६८३ अन्वयार्थः -- (बुद्धस्स) बुद्धस्य - ज्ञाततत्वस्य (आणाए ) आइया (इमं समादि) इमं समाधिम् - सद्धर्मपासिलक्षणम् (अहिंस) अस्मिन् समाधौ (सुठिया) सुस्थाय - सुष्ठु स्थित्वा मनोवाक्कायैः तथा (तिविहेण ताई) त्रिविधेन करणेन करणकारणानुमोदनात्मकैः त्रिभिः करणैश्च त्रायी- पड्जीवनिकायरक्षको भवति (महामवोघं ) मेहाभवधम्- दुस्तरसंसारसमुद्रम् (समुदं व) समुद्रमिव (तरिडं) तरितुम् (आयाणवं) आदानवान - ज्ञानादिमान् मुनिः (धम्मं ) धर्म सम्यकश्रुतचारित्ररूपम् (उदाइरेज्जा) उदाहरेत्-वाशधर्ममुपदिशेदिति । ५५| टीका- 'बुद्धस्स' बुद्धस्य केवलज्ञानात्मकबोधि प्राप्तवतो महावीरस्य, 'आणाए' आज्ञया 'इमं समाहि' इमं समाधिम्-अहिंसासम्बलितं ज्ञानदर्शचारित्रामन वचन एवं काया से स्थित होता है, वह 'तिविहेण ताई - त्रिविधेन वायी' तीनों करणों से शेष षटू जीवनिकाय की रक्षा करता है 'आयाणवं - आदानवान्' सम्यक्ज्ञान आदि से सम्पन्नमुनि 'महाभवोघं - महाभवौघं ' अत्यत दुस्तर 'समुदं व-समुद्रमिव' समुद्र के समान संसार को 'तरिउ - तरितुं' तिरने के लिए 'धम्मं - धर्म' श्रुतचारित्र धर्म का 'उदाहरेज्जा - उदाहरेत्' उपदेशकरें ॥५५॥ 3 अन्वयार्थ- परिज्ञाततत्त्व भगवान् श्री महावीर स्वामी की आज्ञा से इस समाधि को प्राप्त करके जो इस समाधि में स्थित होता है वह मन वचन काय से तथा तीनो करणों से षट्जीवनिकाय की रक्षा करता है । सम्यग्ज्ञान आदि से सम्पन्न मुनि अत्यन्त दुस्तर समुद्र के समान संसार को तिरने के लिए श्रुतचारित्र रूप धर्म का उपदेश करें ||५५॥ सुस्थित्वा' ते भन, वन्यन, मने अयथी स्थित रहे छे, 'तिविद्देण ताई - त्रिविधेन 'प्रायी' ये थी गाडीना षटू लवनिप्रयो वाजा भवानी रक्षा रे छे. ! 'आयाणव'-आदानवान्' सम्यग्ज्ञान, विगेरेथी युक्त मुनि 'महाभवोध' - महाभवौध' अत्यंत दुस्तर 'समुह व समुद्रमिव' समुद्र नेवा या संसारने 'तरिउ - तरितुं' तरवा भाटे, 'धम्मं - धर्म' श्रुत चारित्र धर्मनी 'उदाहरेज्जाउदाहरेत्' उपदेश ४२. पायथा અવયા -પરિજ્ઞાતતત્વ ભગવાન મહાવીર સ્વામીની આજ્ઞાથી આ સમા ધિને પ્રાપ્ત કરીને જે આ સમાધિમાં સ્થિત હોય છે. તે મન વચન અને { કાયાથી તથા ત્રણે કરણેાથી ષજીવનકાયની રક્ષા કરે અને સમ્યક્ જ્ઞાન વિગેરેથી યુક્ત મુનિ અત્યંત દુસ્તર એવા આ સસાર સમુદ્રને તરવા માટે શ્રુત ચારિત્ર રૂપ ધર્મ ના ઉપદેશ કરે પયાા Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ सूत्रकृतामसूत्र स्मक मार्गम् अङ्गीकृत्य 'अस्सि सुठिच्चा' अस्मिन् सुस्थाय-अस्मिन् धर्मे सम्यगव. स्थिति कृत्वा मनोवाकायै मिथ्यात्वं निन्दयन् 'तिविहेण' त्रिविधेन-करणकारणानु. मोदनात्मकः-करणेन योगेन च त्रिकरणत्रियोगेश्य 'ताई बायो-पडूजिवनिकायरंक्षको भवति स्वात्मानं परश्च संसारात त्रातुं समर्थों भवति । महावीरमतिपादिवाऽहिंसाधर्म स्वीकृत्य मनोवचनकायमिथ्यात्वं निन्दयन् संरक्षणे समर्थों भवति । 'महाभवोध' महामवौघं-दुस्तीर्ण संसारसमुदम् 'समुद्द व' समुद्रमिव तरि. उ' तरीतुम्-दुस्तरसमुद्रमिव संसारसमुद्रसंतरणाय 'आयाणवं धम्म' आदानवान् -सम्यग्दर्शनादिमान मुनिः धर्मम् अहिंसाप्रधान हित पाणातिपातादिविरमणलक्ष. णम् 'उदाहरेज्ना' उदाहरेद-उपदिशेत् एतद्धर्मवर्णनं ग्रहणं च विवेकिभिः कर्तव्यम् । टीकार्थ-केवलज्ञानरूप बोधिको प्राप्त भगवान् श्री महावीर की आज्ञा से इस समाधि को अर्थात् सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र और तप रूप मोक्षमार्ग को अंगीकार करके और इसमें सम्यक् प्रकार से स्थित होकर मन वचन काय से मिथ्यात्व आदि पापों की निन्दा करता हुआ षटकाय के जीवों का रक्षक होता है। वह अपने को तथा दूसरों को संसार से त्राण करने में समर्थ होता है । अर्थात् महावीर द्वारा प्रतिपादित अहिंसा धर्म को स्वीकार करके मन वचन काय से मिथ्यात्व की निन्दा करता हुआ स्व पर के संरक्षण में समर्थ होता है। वह दुस्तर सागर के समान संसार से तिरने के लिए सम्यग्दर्शन आदि से युक्त होकर अहिंसा प्रदान तथा हिंसा विरमण आदि लक्षण वाले मुनिधर्म का उपदेशकरे । विवेकी जनों को इस धर्म का निरूपण और ग्रहण करना चाहिए। ટીક થે--કેવળ જ્ઞાન રૂ૫ બોધિને પ્રાપ્ત કરેલ ભગવાન મહાવીરની આજ્ઞાથી આ સમાધિને અર્થાત્, સમ્યક્દર્શનૂ સમ્યફજ્ઞાન્ સમ્યફ ચારિત્ર અને તપ ૩૫ મોક્ષમાર્ગને સ્વીકાર કરીને અને તેમાં સમ્યક્ પ્રકારથી સ્થિત રહીને સ, વચન અને કાયાથી મિથ્યાત્વ વિગેરે પાપની નિંદા કરતા થકા ષકાયના જીવોના રક્ષક થાય છે. તે પિતાનું તથા બીજાનું સંસારથી રક્ષણ કરે વામાં સમર્થ થાય છે. અર્થાત્ મહાવીર દ્વારા પ્રતિપાદન કરેલ અહિંસા - અને સ્વીકારીને મન, વચન અને કાયથી મિથ્યાત્વની નિંદા કરતા થકા પિતાના તથા બીજાના સંરક્ષણમાં સમર્થ બને છે. તે દસ્તર એવા સંસારથી સમદ્રને તરવા માટે સમ્યક્દર્શન વિગેરે લક્ષણવાળા મુનિ ધર્મને ઉપદેશ કરે. વિવેકી જનેએ આ ધર્મનું નિરૂપણ અને ગ્રહણ કરવું જોઈએ. Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समायोधिनी टीका द्वि. थु. अ. ६ आईकमुनेशालकस्य संवादनि० ६८५ यः पुरुः केवलज्ञानवतो महावीरस्वामिन आज्ञयाऽमुमुत्तमं धर्म स्वीकृत्य मनोवाक्कायै त्रिकरण त्रियोगेय इमं धर्मं पालयति, तथा मनोवचन कायै मिथ्यादfate निन्दां करोति स घोरसंसारसमुद्र तरवि वारयति च परानुपदिश्य ग्राहयित्वा । एतस्याऽसारपारावारस्य सन्तरणे ज्ञानादय एवोपायभूता । नाऽन्ये । एतन्मतं धारयिला - एव सत्संज्ञां लभमानः साधुः साधुवति नान्यः । एतादृशः पुरुषः सम्यग्दर्शनप्रभावादेव येषां महिमानं दृष्ट्वाऽपि आईतदर्शनान विभ्रष्टो भवति । तथा सम्यग्दर्शनप्रभावेण परान् निराकृत्य तानपि एतन्मतमुपदिश्य सत्यं धर्मं ग्राहयति । तथा सम्यक् चारित्रप्रभावतः सर्वजीवहितैषी भवन् आस्रवद्वार S आशय यह है कि जो पुरुष केवलज्ञानी भगवान् श्रीमहावीर स्वामी की आज्ञा से इस उत्तम श्रुतचारित्ररूप धर्म को स्वीकार करके तीन करण और तीन योग से इस धर्म का पालन करता है तथा मन वचन काय से मिथ्यात्व की निन्दा करता है, वह इस घोर संसार समुद्र से पार हो जाता है, साथ ही दूसरों को सन्मार्गका उपदेश देकर तथा धर्म में स्थित करके उन्हें भी तार देता है। इस असार संसार सागर से पार उतरने के लिए सम्यग्ज्ञान आदि ही एक मात्र उपाय हैं, अन्य कोई उपाय नहीं है । इस मत को धारण कर के समीचीन संज्ञा प्राप्त करना हुआ मुनि ही साधु कहलाता है | ऐसा साधु पुरुष सम्यग्दर्शन के प्रभाव से दूसरों के महिमा देख कर भी आर्हत दर्शन से चलायमान नहीं होता। वह सम्यक्त्व के प्रभाव से दूसरों का निराकरण करके तथा उन्हें इस मत का उपदेश देकर सत्य धर्म ग्रहण करवाना है । तथा सम्यक् चारित्र કહેવાના આશય એ છે કે-જે પુરૂષ કેવળ જ્ઞાની ભગવાન્ શ્રી મહાવીર સ્વામીની આજ્ઞાથી આ ઉત્તમ શ્રુતચારિત્રરૂપ ધમ ને સ્વીકારીને ત્રણ કરણ અને ત્રણ ચેગથી આ ધર્મનુ પાલન કરે છે. તથા અન, વચન અને કાયાથી મિથ્યાત્વની નિંદા કરે છે. તે આ ઘાર એવા સંસાર સમુદ્રથી પાર થઇ જાય છે તેમજ સાથે . ખીજાઓને સન્માર્ગ ના ઉપદેશ આપીને તથા ધમમા સ્થિત કરીને તેને પણ તારે છે. આ અસાર સ ́સાર સાગરથી પાર ઉતરવા માટે સમ્યજ્ઞાન વિગેરે જ એક માત્ર ઉપાય છે. ખીજા કાઈ પણુ ઉપાય નથી. આ મતને સ્વીકાર કરીને ચેાગ્ય સજ્ઞા પ્રાપ્ત કરેલ મુની જ સાધુ કહેવાય છે. એવા સાધુ પુરૂષ સમ્યકૂદશનના પ્રભાવથી ખીજાએનુ માહાત્મ્ય દેખીને પણું આર્હુત દનથી ચલાયમાન થતા નથી. તે સમ્યક્ત્ત્વના પ્રભાવથી ખીજાઓનું નિરાકરણ કરીને તથા તેઓને આ મતના ઉપદેશ આપીને સત્ય ધને સ્વીકાર કરાવે છે, Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतजियो मवरुणद्धि। विशिष्टशिष्टतपोभिरनेकजन्मोपार्जित कर्म क्षपयति । अतएवैता. दृग्विशिष्टधर्मस्यैव विवेकिभिग्रहणं कर्तव्यं तथाऽन्येभ्योऽपि उपदेष्टव्यम् इति भावः । इत्यहं ब्रवीमि-इति सुधर्मस्वामिनो वचनम् ॥५५॥ ॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपधनैकग्रन्थनिर्मापक, वादिमानमर्दक-श्रीशाहूच्छत्रपति कोल्हापुरराजमदत्त'जैनाचार्य' पदभूपित - कोल्हापुरराजगुरुवालब्रह्मचारि-जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर -पूज्य श्री घासीलालप्रतिविरचितायां श्री "सूत्रकृताङ्गसूत्रस्य" समयार्थबोधिन्याख्यायां व्याख्यायां द्वितीयश्रुतस्कन्धे ॥ षष्ठमध्ययनं समाप्तम् ॥ के प्रभाव से समस्त प्राणियों का हितैषी होता हुआ आश्रव द्वारों का निरोध कर देता है । आश्रवदारों के निरोध से नवीन कर्मों का बन्ध रोक देता है और पूर्वबद्ध अनेक जन्मों में उपार्जित कर्मों को नाना प्रकार की तपश्चर्या द्वारा क्षय करदेता है। अतएव ऐसे विशिष्ट धर्म का अब लम्पन ही विवेकी जनों को करना चाहिए। और इसी का दूसरों को उपदेश करना चाहिए। इम प्रकार मैं सुधर्मा स्वामी के वचन कहता हूं ॥५५॥ "जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत " सूत्रकृताङ्गसूत्र" की समयार्थबोधिनी व्याख्या के द्वितीय श्रुतस्कंध का छठा अध्ययन समाप्त ॥२-६॥ તથા સમ્યક્ ચારિત્રના પ્રભાવથી સઘળા પ્રાષિયોના હિતેચ્છુ થતા થકા આસ્રવારને નિરોધ કરે છે. આસવદ્વાને નિરોધ કરવાથી નવા કમેને. બંધ કાઈ જાય છે. તથા પૂર્વ બદ્ધ અનેક જન્મમાં પ્રાપ્ત કરેલા કર્મોને અનેક પ્રકારની તપશ્ચર્યા દ્વારા ક્ષય કરી દે છે. તેથી જ એવા વિશેષ પ્રકારના ધમને જ વિવેકી પુરૂએ ગ્રહણ કરવો જોઈએ અને બીજાઓને પણ આ ધર્મને જ ઉપદેશ આપ જોઈએ. . આ પ્રમાણે હું સુધર્મા સ્વામીના વચને કહું છું ગા. પપા જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજપૂત સૂત્રકૃતાંગસૂત્રની સમયાર્થાધિની વ્યાખ્યાનું બીજા શ્રુતસ્કંધનું છઠું અધ્યયન સમાપ્ત રદ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ७ सप्तमाध्ययनावतरणिका ॥ अथ सप्तममध्ययनमारभ्यते ॥ गतं षष्ठ मध्ययनं साम्प्रतं सप्तममध्ययनमारभ्यते । षष्ठाऽध्ययने विस्तरशः साधूनामाचारः प्रदर्शितः परन्तु श्रावकाणामाचारो न दर्शित इति श्रावकाणामाचारं दर्शयितुं सप्तममध्ययनमारभ्यते । एतस्य नालन्दीयाऽध्ययनमिति नाम सम्पद्यते । राजगृहाद् बहिर्नालन्दा नामकं पाटकं विद्यते तत्र यद् जातं तद् व्यपदिश्यते अतो नालन्दीयमिति अध्ययनस्य व्यपदेशः । न- अलं याचकेभ्यो निषेधवचनं ददातीति नालन्दा, अत्र न अलं शब्दौ उभावपि निषेधार्थको, प्रकृतार्थबोधकौ एव भवतः । अतो ज्ञायते तत्र याचकानां समस्तार्थप्राप्तिर्भवतीति, अनेन सम्बन्धेनाऽयातस्यासतवां अध्ययन का प्रारंभ. ६८७ } छठा अध्ययन समाप्त हुआ, अब सातवां आरंभ करते हैं । छठे अध्ययन में विस्तार पूर्वक साधु का आचार प्रदर्शित किया गया है किन्तु श्रावकों के आचार का प्रतिपादन करने के लिए सातवें अध्ययन का आरंभ किया जाता है । इस अध्ययन का नाम 'नालन्दीय' है । राजगृह नगर के बाहर नालन्दा नामक पाटक (पाडा) उपनगर - है । उससे संबंध रखने वाला विषय 'नालन्दीय' कहलाता है । यही कारण है कि इस अध्ययन का 'नालन्दीय-अध्ययन' नाम पड़ा है । 'नालन्दा' शब्द के तीन अवयव हैं-न + अलम् + दा याचकान् प्रति इति नालन्दा यहाँ न और अलम् यह दो निषेध द्योतक शब्द हैं जो एक विधि को प्रकट करते हैं। इससे प्रतीति होती है कि वहां याचकों को पदार्थों का लाभ होता था । हम सम्बन्ध से प्राप्त इस अध्ययन का यह आदि सूत्र हैंસાતમા અયનના પ્રાર ભ છઠ્ઠું અધ્યયન સમાપ્ત કરીને હવે આ સાતમા અધ્યયનના પ્રારભ કરવામાં આવે છે. છઠ્ઠા અધ્યયનમાં વિસ્તારપૂર્વક સાધુના આચાર બતાવવામાં આવેલ છે. પરતુ શ્રાવકેાના આચાર કહેલ નથી. તેથી શ્રાવકના આચારનું પ્રતિપાદન કરવા માટે આ સાતમા અધ્યયનને! આરંભ કરવામાં આવે છે. આ અધ્યયનનું નામ ‘નાલન્દીય’ છે. રાજગૃહ નગરની મહાર નાલન્દા નામનું પાટક (પાડા) ઉપનગર છે તેની સાથે સંબ ધ રાખવાવાળા વિષય ‘નાલન્દીય’ કહેવાય છે. આ કારણથી જ આ અધ્યયનનું નામ ‘નાલન્દીય' રાખવામાં मावेस छे. 'नासन्हा' शहना अवयवे छे. न+अभू+हा 'न अम् याचकान् प्रति इति नालन्दा' अडीयांन भने असम् आ मन्ने निषेध जताने વનારા શબ્દો છે. જે એક વિધિને પ્રગટ કરે છે. તેનાથી નિશ્ચય થાય છે ૐ– ત્યાં ચાચાને સઘળા પદાર્થના લાભ થતા હતા આ સમ્બન્ધથી આવેલ આ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मादित्रा -'ने कालेन ते समपणे इत्यादि। मम्-नवां कालेणं ते समएवं रायगिहे णामं नयरे होत्या, रितस्थिभियसमिद्धे वणओ जाव पडिस्वे, तस्स णं रायगिहस्त नयरस्स बाहिरिया उत्तरपुरथिमे दिसीमागे एत्थ of नालंदा नामं वाहिरिया होत्या, अणेगभवणसयसन्निविद्या जाद पडिरूवा ॥सू०१॥६॥ या--तस्मिन काले तस्मिन् समये रानगृह नाम नगरमामीन्, ऋद्वस्ति मिनमर्गको यावत्यनिरूपम् । तस्य रामगृहस्य नगरस्य बहिः उत्तरपौरस्त्ये दिगाना, व मनु नारदानामबाहिरका आसीन , अनेनाभवनशतसभिविष्टा यानमतिकपा 12-६८!! दा-'त काले नम्मिन् काले-उपदेष्टुमहावीरस्य य उपदेशकालात. स्मिन ले ममा तस्मिन् समये-कालस्यत्र विभागविशेषः समयस्तस्मिन् पनि नाम नया हो या राजगृह नाम नगरमामीन-रानो नगरं राजनगरम्, मृदान गजे. या नद्रानाम् तदारय नगरमासीत् । अस्य या ग्रन्थान्तरादामेगा । ननु-नादानीमपि यत् यासादिति भूनकादिकमयोग गहालगी गादि। टोहा- उन हाल में प्रति उपक्षेष्टा भगवान महावीर के उप हालनाउन ममप में प्रधांत उमाकाल के उस विभाग विजाप में उस समर पर, राजग नामक नगर पा । जिम नगर में नाममान अधीन अति नप रहो वा राजगृह का नाना३ परनामनामनगर सही निमार है। का जगर नगर तो म मनग मी विदामान है, फिर anामीन-जनका का प्रयोग को किया गया? Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ७ राजगृहनगरवर्णनम् इति चेत् - 'प्रतिक्षणपरिणामिनो हि भावाः' इति नियमात् यादृशविशेषणविशिष्टं तदानीं तीर्थकरस्य वर्त्तमानतायामासीत्, तादृशं सुधर्मस्वामिन उपदेशक्षणेनाभवत् । विशेषणीभूतस्य वैलक्षण्यस्य परिवत्र्त्तनाद्विशेषस्य नगरस्याऽपि रूपवैरूप्य मभवदिति भूतकालिकः प्रयोगः सूत्रकृतः सम्भाव्यते । नगरं कीदृशं तत्राह - 'रिद्धस्थिमियसमिद्धे' ऋद्ध स्तिमितसमृद्धम् । तत्र - ऋद्धम् त्रिभवभवनादिभिर्वृद्धिमुपगतम्, स्तिमितम् - स्वपरचक्रमयरहितं स्थिरमिति यावत् समृद्धम् धनधान्यैः परिपूर्ण चासीत् । 'वण्णओ' वर्णक 'जाव पडिरूवे' यावत्मतिरूपम् - चम्पापुरीवद वर्णनं ज्ञातव्यम् - चोपपातिकसूत्रे पीयूवर्षिणी टीकायामवलोकनीयम् । 'तस्स णं रायगिहस्स' णमिति वाक्यालङ्कारे तस्य राजगृहनाम्नो नगरमणेः 'बाहिरिया' ६८९ समाधान-सभी पदार्थ क्षण-क्षण परिवर्तनशील हैं, इस नियम के अनुसार राजगृह नगर जिसप्रकार की विशेषताओं वाला भगवान् महावीर की विद्यमानता के समय था, वैसा सुधर्मा स्वामी के इस उपदेश के समय में नहीं रहा । अर्थात् महावीर स्वामी के समय उसकी जो वर्ण, गंध, रस, स्पर्श की पर्याये थी, वह सुधर्मा स्वामी के इस कथन के समय नहीं रही। जब वह पर्यायें नहीं रही तो उस पर्याय से विशिष्ट राजगृह भी नहीं रहा । इस प्रकार इसके स्वरूप में विरूपता आजाने के कारण सूत्रकार ने भूतकालीन प्रयोग किया है, ऐसा संभव । वह राजगृह नगर, ऋद्धम् भवनों से युक्त तथा स्तिमित-स्वचकपरचक्र के भय से रहित अर्थात् स्थिर तथा समृद्ध अर्थात् धन धान्य से परिपूर्ण था, एवं मनोरम था । उसका वर्णन औपपातिक, सूत्र के पीयूषवर्षिणी टीका में आए चम्पानगरी के वर्णन के समान समझ સમાધાન-સઘળા પદાર્થો ક્ષણુ પરિવતન શીલ છે. આ નિયમ પ્રમાણે રાજગૃહ નગર જે પ્રકારના વિશેષપણાવાળું ભગવાન્ મહાવીર સ્વામીના અસ્તિત્વના સમયે હતું એ પ્રમાણે સુધર્માં સ્વામીએ આ ઉપદેશ કર્યાં તે સમયે રહ્યું ન હતુ. અર્થાત્ મહાવીર સ્વામીના સમયે તેના જે વ, ગંધ, રસ, સ્પર્શની પર્યાા હતા તે સુધર્માં સ્વામીના આ કથનના સમયે રહ્યા નથી. જ્યારે તે પર્યંચા રહેલ નથી, તેા પછી તે પર્યાયેાથી વિશેષ પ્રકારનું રાજગૃહ પણ રહ્યું નથી આ રીતે આના સ્વરૂપમાં વિરૂપપણુ આવી જવાથી સૂત્રકારે ભૂતકાળના પ્રયાગ કરેલ છે, તેમ સભવે છે તે રાજગૃહનગર દ્ધમ ભવનાથી યુક્ત તથા સ્તિમિત-સ્વચ પરચક્રના ભયથી રહિત અર્થાત્ નિ વ હાવાથી સ્થિર તથા સમૃદ્ધ એટલે કે ધનધાન્યથી પરિપૂર્ણ ધન ધાન્ય વિગેરે સમૃદ્ધિથી યુક્ત અને મનેહુર હતું. તેનુ' વર્ણન ઔપતિસૂત્રમાં આવેલ सु० ८७ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९० सूत्रकृतागायो बहिः प्रदेशे 'उत्तरपुरस्थिये' उत्तरपूर्वस्या दिशोरन्तराले ईशानकोणे इति यावत् 'दिसीमाए' दिग्विमागे 'एत्थ ण' अत्र खलु एतस्य राजगृहस्य 'बाहिरिया' वाह्यः भूमौ 'नालंदा नाम' नालन्दानाम्नी 'वाहिरया' बाहिरका-पाटका-लघुग्राम: होस्था' आसीत् , सा कीशी तबाह-'अणेगभवण' इत्यादि । 'अणेगमवणसयसंनि: शिवाजाव पडिरूबा' अनेकभवनशतसनिविष्टा-अनेकैः-बहुभिः भवनशतैः सनिविष्टा-युक्ता यावत्पतिरूपा आसीत्-अभूदिति । यावत्पदेन प्रासादीया दर्शनीया अभिरूपा इति ग्राह्यम् ।।मु०१-६८॥ - मूलम्-तत्थ णं नालंदाए बाहिरियाए लेवे नाम गाहावई होत्था, अड़े दित्ते वित्ने विच्छिण्णविपुलभवणसयणासण. जाणवाहणाइपणे बहुधणबहुजायरूवरजए आओगपओगसंपउत्ते विच्छड्डियपउरभत्तपाणे बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूए बहुजणस्त अपरिभूए या वि होत्था । से णं लेवे नामं 'गाहावई समणोवासए या वि होत्था, अभिगयजीवाजीवे जाव लेना चाहिए, यावत् वह इतना सुन्दर था कि प्रत्येक दर्शक को उसका नया-नया ही रूप दृष्टिगोचर होता था। 'णं शब्द वाक्य के अलंकार के लिए है अर्थात वाक्य की शोभा बढाने के लिए प्रयुक्त किया गया है। उस राजगृह के वाह्य प्रदेश में, उत्तर-पूर्व दिशा में अर्थात् ईशान कोण में नालन्दा नामक पाटक (पाडा) मुहल्ला या उपनगर था। उसमें सैकड़ों भवन थे यावत् वह प्रासादीय था, दर्शनीय था, अभिरूप एवं प्रतिरूपथा अर्थात् यह अतीव सुन्दर था ॥१॥ . ચમ્પાનગરીના વર્ણનની જેમ સમજી લેવું. યાવત્ તે એટલું બધું સુંદર હતું કે- દરેક જોનારાને તેનું નવું જ સ્વરૂપ જોવામાં આવતું હતું. “” શબ્દ વાકયના અલંકાર માટે છે. અર્થાત્ વાકયની શોભા વધારવા માટે તેને પ્રયોગ કરવામાં આવેલ છે તે રાજગૃહના બહારના પ્રદેશમાંउत्तर-पूर्व दिशामा अर्थात् शान भूमा 'नासा' नामनु पाट४ (41) મેહë અથવા ઉપનગર હતું તેમાં સેંકડો ભવનો હતા યાવત્ તે પ્રસાદીય હતું, દશનીય હતું અભિરૂપ અને પ્રતિરૂપ હતું અર્થ તે અત્ય ત સુંદર હતુ,સૂલ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेंमयार्थयोधिनी टीका दि शु. अ. ७ लेपगाथातिवर्णनम् 'विहरइ, निग्गंथे पाक्यणे निस्संकिए निरखिए निवितिगिच्छे लद्धढे गहिय? पुच्छिय? विणिच्छियढे अभिगहियटे अटिर्मिजा पेमाणुरागरत्ते, अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अयं अहे अयं परमहे सेसे अणटे, उस्सियफलिहे अप्पावयदुवारे चियत्तंते 'उरप्पवेसे चाउद्दसटुमुद्दिट्टषुण्णमासिणीसु पडिपुन्नं पोसहं सम्म अणुपालेमाणे समणे निग्गंथे तहाविहेणं एसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलामेमाणे बहुहिं सीलव्वयगुणविरमणपच्चक्खाणपोसहोववासहि अप्पाणं भावेमाणे एवं च णं विहरइ ।सू० २॥६९॥ छाया- तस्यां खलु नालन्दायां बाह्यायां लेपो नाम गायापतिरासीत् । आढ्यो दीप्तो वित्तो विस्तीर्ण विपुलभवनशयनासनयानवाहनाकीर्णः, बहुधनबह. 'जातरूपरजतः, आयोगप्रयोगसम्प्रयुक्तः, विक्षिप्तपचुरभक्तपानो बहुदासीदासगोम. हिषगवेलकपभूतः बहुजनस्य अपरिभूतवाऽप्यासीत् । स खलु लेपो नाम गाथा पतिः श्रमणोपासकश्चाऽप्पासीत्, अभिगतजीवाऽजोवो यावद् विहरति । निग्रन्थे प्रवचने निःशङ्कितः निष्काशितः निर्विचिकित्सः-लब्धार्थः-गृहीतार्थ:-पृष्टार्थ:विनिश्चितार्थ:-अभिगृहीतार्थ:-अस्थिमज्ज प्रेमाऽनुरागरक्तः, इदमायुष्मन् । नैन्य 'प्रवचनम्, अयमर्थ:-अयं परमार्थः शेषोऽन:-उच्छितफलक: अपावृतद्वार:-अत्यक्तान्तःपुरमवेशः चतुर्दश्यष्टभ्युददृष्टा पूर्णिमासु प्रतिपूर्ण पोषधं सम्यगनुपालयन् 'श्रमणान् निग्रन्यान् तथाविधेन एपणीयेन अशनपानखाद्यस्वाद्येन प्रतिलाभयन्, बहुभिः शीलवतगुणविरभणपत्याख्यानपौषधोपवासै रात्मानं भावयन् एवं च खलु विहरति ॥सू०२-६९॥ ___टीका-'तत्थ गं' तस्यां यस्या वर्णनमनुपदमेव कृतं तस्याम् 'नालंदाए बाहिरियाए' नालन्दायां वाह्यायाम् 'लेवे नाम गाहावाई होत्था' लेपो नामा गाथा 'तत्थ णं नालंदाए' इत्यादि। टीकार्थ-उस नालन्दा नामक बाह्य प्रदेश में लेप नामक गाथापति (गृहपति) रहता था । उस गाथापति में आगे कहे जाने वाली विशेषताएं थी-- 'तत्थ ण नालंदाए' त्यावि ટીકાર્થ–તે નાલન્દા નામના બાહ્યપ્રદેશમાં લેપનામને ગાથાપતિ (ગ્રહ પતિ) રહેતા હતા તે ગાથાપતિમાં આગળ કહેવામાં આવનારી વિશેષતાઓ હતી. Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे पतिः - कश्चिद्गृहपतिरासीत् । तस्य गृहपतेर्विशेषणानि वक्ति- 'अड्डे' आय:धनवान् 'दित्ते ' दीप्तः - तेजस्वी 'वित्ते' वित्त:- जगति प्रसिद्धि प्राप्तः । 'विच्छिष्णविपुलभवणसयणा सण जाणवाहणाणे' विस्तीर्ण विपुल भवनशयनासनयानवाहनाकीर्णः । बहुलगेह (सनशय्यावादनादिभिः सर्वदैव परिपूर्ण: । 'बहुधणवहुजायरूवरज' बहुवनबहुजातरूपरजतः - धनधान्यद्दिण्यरजतादिभिः समृद्धः 'आओगपओगसपउत्ते' आयोगप्रयोगसंप्रयुक्तः- धनोपार्जनोपायज्ञाता - तथोपार्जनेऽतिकुशलः । 'विच्छायपरमत्तपाणे' विक्षिप्तपचुर मक्तपानः भुक्तावशिष्टोदनादिना अन्धपंग्वादिभ्यो दायकः 'बहुदासीदासगोमहिसग वेळ गप्प भूए' अनेकदासीदासगोमहिपगवेलकमभूतः - अनेकविधदासादीनां स्वामी 'बहुजणस्स अपरिभूए यावि होत्या' बहुजनस्यापरिभूतश्चापि आसीत् । अनेकेः सम्भूयाऽपि परामवितुमयोग्यः, 'इदे जाव' पर्यन्तस्य विस्तरव्याख्या उपासकदशाङ्गे प्रथमाध्ययने त्रिलोकनीया । एवादृशः स उक्तविशेषणविशिष्टगृहपतिरासीदिति । 'सेणं लेवे नामं गादावई समणो लेप गाथापति धनाढ्य था, तेजस्वी था और जगत् में प्रख्यात था। विस्तीर्ण-विशाल भवनों, शय्या, आसन, यान ओर वाहन आदि सामग्री से सम्पन्न था। उसके पास बहुत धन-धान्य, चांदी-सोना था । वह धन के उपार्जन के उपायों का ज्ञाता था उनके उपार्जन में बहुत कुशल था। उसके यहां खाने से जो प्रचुर भोजन आदि बच जाता था वह अंघों लूलों-लंगडों को बांट दिया जाता था। वह अनेक प्रकार के दासों -दासियों का स्वामी था । बहुत से लोग मिलकर भी उसका पराभव नहीं कर सकते थे। इसकी विस्तृत विवेचना उपासकदशांग सूत्र के प्रथम अध्ययन में की गई है। उसे देख लेना चाहिए । àપ ગાથાપિત ધનવાન્ હતા, તેજસ્વી હતેા, અને જગતમાં પ્રખ્યાત हो. विस्तीर्थ - विशाण भवनी, शय्या, आसन, यान अने वाहन विगेरे सामग्रीथी लरपूर हतो, तेनी पांसे धन धन, धान्य, यांही, सोनुं तु; તે ધન કમાવાના ઉપચે તે જાણનાર હતા, અને તેમાં ઘણેાજ કુશળ હતા. તેને ત્યાં જમ્યા પછી ઘણુ. એવુ' લેાજન માટે તૈયાર કરેલ અન્ન ખેંચી જતુ' હતુ કે જે લૂલા, લંગડા, આંધળા અને અપંગાને વહેંચી દેવામાં આવતુ હતુ. તે અનેક પ્રકારના દાસે, દાસીઓને! સ્વામી હતા ઘણા લોકો મળીને પશુ તેના પરાજય કરી ન શકે તેવેા હતે. તેનુ સવિસ્તર વિવેચન ઉપાસક દશાંગસૂત્રના પહેલા અધ્યયનમાં કરવામાં આવેલ છે. તે જોઈ લેવું. Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ समयार्थबोधिनी टीका द्वि.अ. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् एस मए णो जीवइ' अस्मिन् जीवति-जीवति एप मृतो नो जीवति । शरीरस्य नाशे जीवो नश्यति 'एवं सरीरे धरमाणे धरइ-विणलुमि य णो धरई' शरीरे ध्रियमाणे धरति; विनष्टे च नो धरति, 'एयं तं जीवियं-भत्रइ एतदन्तं जीवस्य जीवितं भवति । विनष्टं शरीरं बान्धवाः 'आदहणाय परेहिं निमज्जइ' आदहनाय ज्वालयितुं परैर्नीयते श्मशानादौ । 'अगणिझामिए सरीरे कवोयवन्नाणि अट्ठीणि भवंति' अग्निध्मापिते शरीरे कपोतवर्णानि-कशोतशरीरममाणास्थीनि अब. तिष्ठन्ति कपोतवर्णानि वा भवन्ति । 'आसंदीपंचमा पुरिसा गाम पच्छागच्छंति' असन्दीपञ्चमाः पुरुषाः ग्रामं प्रत्यागच्छन्ति । मृतशरीरं प्रज्माल्य आसन्दीपञ्चमा आसन्दी मृतकवाहिनीम्-मासन्दीमाश्रित्य चत्वार इति आसन्दीपञ्चमाः प्रज्वालकाः पुरुषा आसन्हीमादाय ग्रामं प्रत्यागच्छन्ति, शववाह काः पुरुषाः मृतकाखट्वामादाय ग्राममागच्छन्तीति देशविशेषस्य व्यवहारमादाय एवं शास्त्रकता सम्पूर्ण पर्याय है क्योंकि शरीर के जीवित रहने पर जीव जीता है और शरीर के मर जाने पर जीव भी मर जाता है। शरीर का नाश होने पर जीव नष्ट हो जाता है। जब तक शरीर धारण किया हुआ है, तब तक जीव धारण किया जाता है शरीर के विनष्ट होने पर नहीं। शरीर के अन्त तक ही जीव का जीवन है। शरीर जब नष्ट हो जाता है तो बन्धुबान्धव उसे जलाने के लिए श्मशान आदि में ले जाते हैं। शरीर जब अग्नि के द्वारा दग्ध कर दिया जाता है तो कपोनवर्ण (कपोत के शरीर के प्रमाण) हड्डियां शेष रह जाती है। मृतक शरीर को जला कर आसन्दी (अर्थी) को लेकर जलाने वाले पुरुष ग्राम में लौट आते हैं। किसी देश विशेष के रिवाज को लक्ष्य में रख कर शास्त्र. પર્યાય છે. કેમકે શરીર જીવતું રહે ત્યારે જીવ જીવે છે. અને શરીર મરી જાય ત્યારે જીવ પણ મરી જાય છે. શરીરને નાશ થવાથી જીવ પણ નાશ પામે છે. જયાં સુધી શરીર ધારણ કરેલ છે, ત્યાં સુધી જીવ ધારણ કરી શકાય છે. શરીર નાશ પામવાથી જીવ ધારણ કરી શકાને નથી. શરીરના અંત સુધી જ જીવનું જીવન છે શરીર જ્યારે નાશ પામે છે, તો બધું, બાંધવ તેને બાળવા માટે મશાન વિગેરેમાં લઈ જાય છે. શરીર જ્યારે અગ્નિ દ્વારા બાળી નાખવામાં આવે છે, તે કપતવણું (કબુતરના શરીરના પ્રમાણ) હાંડકાં બાકી રહી જાય છે. મરેલાના શરીરને બાળીને આસન્દી, (અથ–ઠાઠડી) ને લઈને બાળવા વાળા પુરૂ ગામમાં પાછા આવી જાય છે. કોઈ દેશ વિશેષના રિવાજને લક્ષમાં રાખીને શાસ્ત્રકારે આ પ્રતિપાદન કરેલ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. थु. अ. ७ लेपगाथा पतिवर्णनम् ६९३ वासए याविहोत्या' स लेपो नाम गाथापतिः श्रमणोपासकथाप्यासीत् । उपदेशश्रवण धर्मरागभक्तादिदानेन साधूनानुपासकोऽभवत् । 'अभिनय जीवाजीवे जाव विहर ' अभिगतजीवाजीव यावद्विहरति जीवाऽजीवानां ज्ञागऽभवत् | 'निग्गंथे पावयणे freiकिए निक्कखिए निव्वितिगिच्छे लट्टे गहियो' निर्ग्रन्थे मवचने-आईव प्रवचनोपदेशे निश्शङ्कितः सन्देहरहितः, निष्काङ्क्षितः - दर्शनाऽन्तरीयेच्छार हित', निर्विचिकित्सः - गुणवतः पुरुषस्याऽनिन्दकः, लब्धार्थः - वस्तुस्वरूपज्ञाता, गृहीतार्थः - मोक्षमार्ग स्वीकर्ता 'पुच्छि विणिच्छि अभिगहियड़ें' पृष्टार्थः विनिचितार्थ: - विद्वांसं पृष्ट्वा विशेषरूपेण पदार्थनिश्वेता, अभिगृहीतार्थः - पश्नोत्तरद्वारा सर्वांशेन ज्ञाता, 'अट्ठिर्मिजापेमाणुरागरत्ते' अस्थिमज्जाप्रेमानुराग़रक्त - तस्याःस्थिमज्जावपि जिनधर्मानुराग आसीत् मनसा जिनधर्मानुरागवान् इत्यर्थः 'अपमाउसो' इदमायुष्मन् ! 'निग्गथे पात्रयणे अयं अट्ठे अयं परमट्ठे से से अणर्डे' नैर्गन्धं प्रत्रवनम् अयमर्थः, अयं परमार्थ:- शेषोऽनर्थः । जिनोपदेश एव सारः, वह लेप गाथापति श्रमणोपासक था, अर्थात् श्रमगो (साधुओ) के उपदेश को श्रवण करता था, उनके कर्म का अनुरागी था, उन्हें आहार आदि का दान देता था, अतः उनका उपासक था । वह जीव- अजीव आदि का ज्ञाता था । निर्ग्रन्थ प्रवचन में अर्थात् वीतराग के उपदेश में उसे तनिक भी शंका नहीं थी । किसी अन्य दर्शन को ग्रहण करने की इसकी अभिलाषा नहीं थी । धर्म किया के फल में उसे सन्देह नहीं था । उसने निर्ग्रन्थप्रवचन के अर्थ को प्राप्त किया था, ग्रहण किया था, जिज्ञासा होने पर पूछा था, पूछ कर निश्चय किया था और उसे अपने चित्त में जमा लिया था | जिनधर्म का अनुराग उसके नस-नस में भरा था उसकी ऐसी श्रद्धा थी कि निर्ग्रन्थप्रवचन हो अर्थ है, यही परमार्थ है તે લેપ નામના ગાથાપતિ શ્રમણેાપાસક હતા અર્થાત્ શ્રમણા (સાધુએ) ના ઉપદેશને સાંભળતેા હતેા, તેના ક્રમમાં અનુરાગ-પ્રીતિાળેા હતેા, તેઓને આહાર વિગેરેનું દાન આપતા હતા તેથી તેના ઉપામક હતા, તે જીવઅજીવ વિગેરે પદાર્થોને જાણવાવાળા હતા, નિë પ્રવચનમાં અર્થાત્ વીતરાગના ઉપદેશમાં તેને જરા પણ શંકા ન હતી. કાઈ ખીજા દશનના આશ્રય લેવાની તેની ઇચ્છા ન હતી. ધમ ક્રિયાના ફળમાં તેને સ ંદેહ ન હતેા. તેણે નિગ્રન્થ પ્રવચનના અર્થને પ્રાપ્ત કરેલ હતા ગ્રહણ કરેલ હતેા. અને તેને પેાતાના ચિત્તમાં ભરી લીધેય હતા જૈન ધમ પ્રત્યેના અનુરાગ તેની નસે'नसभा लरेस डते', तेने भेवी श्रद्धा हती है- नियन्थ प्रवयन अर्थ छे, એજ પરમાથ છે, આ સિવાય ખીજુ` બધું અનર્થ છે. તેના યશ અંધે જ I 1 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे एतद्द्व्यतिरिक्तं सर्वमेवासारम्, 'उस्सियफळ हे अप्पारायदुवारे चिवते उपवे से' उच्छ्रित फलकः - विस्तृतयशाः, तस्य यशः सर्वत्र मसृतमभूत् अमावृतद्वारो याचकाय, अनिषिद्धान्तःपुरप्रवेशः- राज्ञामन्तःपुरेऽपि तस्य प्रवेशोऽनिवारितोऽमवत्, निःशङ्ककार्यकारित्वात् । 'चाउद मुद्विपुण्णमासिणीस पडिgoर्ण पोसह सम्मंअणुपालेमाणे' चतुर्दश्यष्टम्युददृष्टापूर्णिमासु तत्र - उदद्दष्टा - अमावास्या, मतिपूर्ण पोपधं सम्पनुपालयन्, एतासु प्रशस्तासु तिथिषु कृतपौपः । 'समणे निग्गंथे तहाचिणं एमणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिला मेमाणे' श्रमणान् निथान तथाविधेन पणीयेण द्विचत्वारिंशद्दो पर हितेन अशनपानखायस्वाद्येन मतिलाभयन् दापयन् 'वहूहिं सीलव्ययगुणविरमणपचक्खाणपोसहोदरासेहिंअप्पा भावेमाणे एवं च णं विहर' बहुभिः शीलवत गुण वेरमणमत्याख्यानपौपघोपवासैरात्मानं भावयन् एवं च खलु विहरवि, शीलव्रतोपवासान्तैः कर्मभिः स्वात्मानं पवित्रयन् धर्माचरणं कुर्वन् आसीदितिअभिगतजीवाजीव इत्यारभ्य यावद् विहरति इत्यन्तस्य व्याख्यामत्कृतोपासकदशाङ्ग सूत्रस्यागारधर्मसञ्जीवनीटीकातो द्रष्टव्या ॥०२-६९ ॥ इसके अतिरिक्त अन्य सब अनर्थ हैं । उसका यश सर्वत्र फैला हुआ था । याचकों के लिए सदैव उसके द्वार खुला रहता था । राजाओं के अन्तः पुर में भी उसका प्रवेश निषिद्ध नहीं था । वह चतुर्दशी, अष्टमी अमावास्या और पूर्णिमा के दिन प्रति पूर्ण पौषधवत का सम्यक् प्रकार से पालन करता था । निर्ग्रन्थ श्रमणों को एषगीय-वयालीस दोषों से रहित, अशन पान खादिम और स्वादिम आहार आदि वहराता था । तथा बहुत से शीलव्रत, गुण, चिरमण, प्रत्याख्यान तथा पोषधोपवास आदि से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचरता था । "ફેલાયલેહના. ય ચકા માટે હુંમેશાં તેના દ્વારા ખુલ્લા રહેતા હતા. રાજાઓના અ'તઃપુરમાં—રણુવાસમાં પણ તે પ્રવેશ કરી શકતા હતા. અર્થાત્ રાણીવાસમાં 1 वामां पषु तेने अर्ध रेस्टो न हती. ते यतुहंशी, -यौहस, माहभ, अभास અને પુનમના દિવસે પ્રતિપૂર્ણ પૌષધવ્રત સારી રીતે પાલન કરતે હતેા. નિગ્રન્થ શ્રમણેાને એષણીય–ખેંતાલીસ પ્રકારના દેાષા વિનાના અશન, પાન, J ખાદિમ અને સ્વાદિમ આહાર વગેરે વહેારાવતા હૅતે, તે ઘણા શીલત્રન, ગુરુ, વિરમણ, પ્રત્યાખ્યાન, તથા પૌષધેાપવાસ વિગેરેથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકે વિચરતા હતા Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि श्रु. अ. ७ लेपगाथापतिवर्णनम् ६९५ मूलम्-तस्स णं लेवस्स गाहावइस्स नालंदाए बाहिरियाए उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए एत्थ णं सेसदविया नामं उदगसाला होत्था। अणेगखंभलयसन्निविटा पासादीया जाव पडिरूवा, तीसे र्ण सेसदवियाए उदगसालाए उत्तरपुरस्थिमे दिसीमाए, एस्थ णं हथिजाने नामं वणसंडे होत्था, किण्हे वण्णओं वणसंडस्त ॥सू० ३॥७॥ . छाया-तस्य खलु लेपस्य गाथापतेर्नालन्दाया बायाया उत्तरपौरस्त्ये दिशिभागे अत्र खलु शेषद्रव्या नामोदकशाला आसीत् अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टा प्रासादिका यावत् प्रतिरूपा । तस्याः, खलु शेषद्रव्याया उदकशालाया उत्तरपौरस्त्ये दिमागे अत्र खलु हस्तियामनामा वनवण्ड आसीत् कृष्णो वर्णको वनपण्डस्य ।मु०३-७०॥ टीका-'तस्स णं लेवस्त' तस्य-पूर्वोक्तसमृद्धयादिगुणगणग्रामविशिष्टस्य खलु लेपस्य 'गाहावइस्स' गाथापतेः 'नालंदाए वाहिरियाए' तादृशगाथापतिस्वामिकाया नालन्दाया वाह्याया नगर्याः, 'उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए' उत्तरपूर्वदिशोरन्तराल विभागे-ईशानकोणे इत्यर्थः। 'एत्थ णं सेसदविया नामं उदगसाला होत्था' अत्र खलु शेपदव्या नाम उदकशाला (पपा) आसीत् । कोशी सा उदकशाला तामेव विगिनष्टि 'अणेगखंभपयसनिविट्ठा' अनेकस्तम्भश. तसन्निविष्टा-बहुशतस्तम्भवतीत्यर्थः । 'पासाईया' मानादिका अतिशयिता मनो. . 'अभिगत-जीवाजीव के स्वरूपके जानक्षार था और बाकी अगेकी विस्तृत व्याख्या उपासकदशांग सूत्र की "अगार धर्म संजीवनी' 'टीका मे देखनी चाहिए ॥२॥ 'तस्स] लेवरस' इत्यादि। टोकार्थ--पूर्वोक्त गुणों से सम्पन्न लेप गाथापति की नालंदा के उत्तर पूर्व दिशा में-ईशान कोण में 'शेषद्रव्या' नाम की उदकशाला अर्थात प्याऊ थी। वह उदकशाला सैकड़ों स्तंभों (खं भो) वाली थी, घड़ी ही मनोहर, प्रासादिक और रमणीक थी । उस शेषव्या नामक અભિગત-જીવ અને અજીવ ના સ્વરૂપને જાણવાવાળે હતો આના સિવાયન વિશેષ વિવેચન ઉપાસકદશાગસૂત્ર ની અગાસંજીવની ટીકામાં જોઈ લેવુ સૂ શા 'तस्स णं लेवस्स' इत्यादि ટીકાર્થ–પૂર્વોક્ત ગુણોથી યુક્ત લેપ ગાથાપતીની નાલંદાની ઉત્તર પૂર્વ દિશામાં અર્થાત્ ઈશાન કોણમાં “શેષદ્રવ્યા' નામની ઉદકશાળા–અર્થાત્ પરબ હતી તે પરબ સેંકડે થોભલાવાળું હતું, મેટું હતું, અત્યત મનહર હતું, Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९६ सुत्रकृताङ्गसूत्रे हारिणी च प्रसादयुक्ता वा 'जाव पडिरूवा' यावस्पतिरूपा सुमनोहरा, यावत्पदेन - दर्शनीया अभिरूपेति ग्राह्यम् । 'तीसेण सेसदवियाए ' तस्याः खलु शेपद्रव्या नामवत्याः 'उद्गसालाए' उदकशालायाः - मपाया: 'उत्तरपुरत्थिमे दिसीमाए' उत्तरपूर्वस्यां दिशि 'एत्थ ण' अत्र खलु 'इत्थिजामे णामं वणसंडे होत्था' हस्तियाम नामा, वनपण्ड आसीत् । ' किन्हे दण्णओ वण्णसडस्स' कृष्णो वर्णको वनपण्डस्य तद्वनं कृष्णरूपं वहुविधपुष्पपुष्करिणीपक्षिमृगादिभिरावृत्तमासीत् एतस्य व्याख्या औपपातिक सूत्रे पीग्रुपवर्पिणी टीकायां विलोकनीया ॥ ३०३-७० ॥ मूलम् - तस्सि चणं गिहपदेसंमि भगवं गोयमे विहरह. भगवं च णं अहे आरामंसि । अहे णं उदए पेढालपुत्ते भगवं पासावचिचज्जे नियंठे मेयज्जे गोत्तेणं जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भगवं गोयमं एवं वयासी - आउसंतो ! गोयमा ! अस्थि खलु मे केइ पदेसे पुच्छियव्वे तं च आउसो ! अहासुयं अहा दरिसियं में वियागरेहि सवायं, भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्ते एवं वयासी अवियाइ आउसो ! सोच्चा णिसम्म जाणिस्सामो सवायं उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमे एवं वयासी | सू० ४ ॥ ७१ ॥ छाया- - तस्मिंश्व गृहमदेशे भगवान् गौतमो विहरति, भगवांचा आरामे । अथ खलु उद्कः पेढालपुत्रः भगवत्पार्श्वापत्ययः निर्ग्रन्यः मेदार्यो गोत्रेण यत्रैव भगवान् गौतमस्तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य भगवन्तं गौतममेवमवादीत् आयुष्मन् गौतम ! अस्ति खलु मे कोऽपि प्रदेशः प्रष्टव्यः तच्चाऽऽयुषान् ! यथा उदकशाला के उत्तर पूर्व दिशा में हस्तियाम नामक वनखण्ड था । वह कृष्ण वर्ण था, इत्यादि वर्णन यहां औपपातिक सूत्र के अनुसार कर लेना चाहिए । अर्थात् वह विविध प्रकार के पुष्पों पुष्करिणियों पक्षियों, मृगो आदि से युक्त था। इनकी व्याख्या औपपातिकसूत्र की पीयूषवर्षिणी टीका में देखलेनी चाहिए ॥ ३ ॥ પ્રાસાદીય અને રમણીય હતું, તે શેષદ્રવ્ય' નામની ઉદકશાળા-પરબની ઉત્તર પૂર્વ દિશામા હસ્તિયામ નામનું વનખંડ હતુ. આ વનખંડ કૃષ્ણુવણ વાળું હતુ વિગેરે વન અહીંયાં ઔપપાતિક સૂત્રમા કહ્યા પ્રમાણે સમજી લેવુ અર્થાત્ તે જૂદા જૂદા પ્રકારના પુષ્પા, પુષ્કરણા, પક્ષચે, વિગેરેથી યુક્ત હતું આની વ્યાખ્યા ઔપપાતિક સૂત્રની પં યૂષ ષિણી ટીકામાં જોઇ લેવી. સૂ॰ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि.श्रु. अ.७ उदकपेढालपुत्रस्य शङ्काप्रदर्शनम् १९७० श्रुतं यथादर्शनं मे व्यागृणीहि सवाद भगवान् गौतमः उदकं पेढालपुत्रमेवमवादी अपि चेदायुष्मन् ! श्रुत्वा निशम्य ज्ञास्यामः सवादसुदका पेढालपुत्रो भगवन्त' गौसममेवमवादीत् ॥म्०४-७१॥ टीका-'तस्सिं च णं गिहपदेसंमि भगवं गोयमे विहरइ' तस्मिंश्च खलु गृहप्रदेशे भगवान् गौतमो विहरेति । वनषण्डीयगृहसमीपे गौतमः कदाचित् सम: वस्तः। 'भववं च णं अहे आरामंसि' भगायाधः आरामे, स च गौतमः पूर्वानु पूर्ध्या विहरन् ग्रामानुग्राम द्रवन् वनषण्डे समवस्त इत्यर्थः, 'अहे णं उदए पेढाल पुत्ते भगव पासावचिज्जे नियठे मेयज्जे गोत्तेण जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवा गच्छंई' अथ खलु उदकः पेढालपुत्रो भगवत्यार्थापत्यीयः-भगवत्पाईवस्वामिनः परम्पराशिष्याऽपत्यम्, निप्रन्यो गोत्रेण मेदार्य:-मेार्यगोत्रेण निर्ग्रन्थः-मेदार्यगोत्री निर्ग्रन्थ इत्यर्थः, यत्र गौतमस्त्रोपागच्छति भगवतः श्री पार्श्वनाथस्य परम्पराऽपत्यं मेदार्यगोत्रो भगवतो गौतमस्य समीपमागत्योपविशति । 'उवाग. छित्ता' उपागत्य 'भगवं गोयमं एवं वयासी' भगवन्त गौतममेवमवादीत , 'आउसो गोयमा!' आयुष्मन् गौतम ! 'अस्थि मे केइपदेसे पुच्छियव्वे' अस्ति खलु मे कश्चित्मदेशः प्रष्टव्यः-आगमोक्तं प्रष्टव्यं मे किञ्चिद्विद्यते । 'तं च आउसो ! अहासुयं ___ तस्ति च ण' इत्यादि। , टीकार्थ-एक वार गौतम स्वामी उस वनखण्ड में बने गृह के समीप पधारे । अर्थात् अनुक्रम से विहार करते हुए और एक ग्राम से दूसरे ग्राम पहुंचते हुए उस वनखण्ड में पधारे । उस समय उदकपेढाल पुत्र नामक निर्ग्रन्थ, जो भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के शिष्य थे, तथा मेदार्य गोत्रीय थे, भगवान् गौतम के समीप आकर बैठे । समीप आकर उन्होंने गौतम से कहा-हे आयुष्मन् गौतम! मुझे आप से कुछ 'तस्सि चण' त्यादि ' , ટીકાઈ_એકવાર ગૌતમ સ્વામી તે વનખંડમાં બનેલા ગૃહની નજીક પધાર્યા અર્થાત અનુક્રમથી વિહાર કરતાં કરતાં અને એક ગામથી બીજે ગામ પહોંચતા થકા તે વનખંડમા પધાર્યા. તે વખતે ઉદકપેઢાલપુત્ર નામના નિથ કે જે ભગવાન પાર્શ્વનાથની પર પરાના શિષ્ય હતા તથા મેદાય ગોત્રના હતા. તેઓ ભગવાન ગૌતમસ્વામીની પાસે આવીને બેઠા અને તે પછી ગૌતમસ્વામીને કહ્યું કે આયુષ્મન ગૌતમ! મારે આપને કંઈક પુછવુ છેતેનો ઉત્તર Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृता बहादरिसियं मे वियागरे । समाय' हे आयुष्मन् ! तं प्रश्नं यथा श्रुतं यथादर्शन मे व्यागृणीहि-कथय सवाद-वादेन सहितम्, यथा भगवतो महावीरस्य समीपे भगवता श्रुतं निश्चितश्च तथा सवाद मे कथयेत्यर्थः, ततः 'भगवं गोयमे उदयं पेढाल. पुतं एवं वयासी भगवान गौतम, उदकनामानं पेहालपुत्रमेवम्-वक्ष्यमाणप्रकार क्चामपादीत् । 'अवियाइ आउसो! सच्चा निसम्म जाणिस्सामो सवायं अपि चेत्-अ युष्मन् ! श्रुन्दा निशम्य वर्ग, ज्ञास्यामः सवादम्, गौतमोऽवोचत् भगवत्मानं श्रुत्वा यद्यहं ज्ञास्यामि-तदा-सवादं तदुत्तरं दास्यामि । 'उदए पेढाळपुत्त भगवं गोयमं एवं वयासो' पेढावपुत्रो भगवन्तं गौतममेवमवादीदिति ॥४-७१॥ मूलम्-आउसो ! गोयमा ! अत्थि खल्लु कुमारपुत्तिया नाम समणा निग्गंथा तुम्हाणं पश्यणं पवयमाणा गाहावई समणोवासगं उवसन्नं एवं पच्चक्खाति-णण्णस्थ अभिओएर्ण गाहावइ चोरग्गहणविमोक्खणयाए तसेहिं पाणेहिं णिहाय दंडं, ‘एवं णं पच्चरखंताणं दुप्पच्चक्खायं भवइ, एवं ण्हं पच्चक्खावे. माणाणं दुपच्चक्खावियत्वं भवइ, एवं ते परं पच्चक्खावेमाणा अतियरंति सयं पतिण्णं, कस्स णं तं हेडं ? संसारिया खलु 'पाणा थावरा वि पाणा तसत्ताए पञ्चायंति, तसा वि पाणा पूछना है। उसका उत्तर भगवान महावीर से आपने जैसा सुना है और विचार किया है, वह मुझसे वाद सहिन अर्थात् युक्तिपूर्वक कहिए । ___गौतम स्वामी ने उदकपेढालपुत्र से इस प्रकार कहा-आयुष्मन् ! आपके प्रश्न को सुनकर यदि मुझे ज्ञान होगा तो वाद के साथ उसका उत्तरदंगा। तय उदक पेढालपुत्र भगवान् गौतम से इस प्रकार कहने लगे-॥४॥ ભગવાન મહાવીર સ્વામી પાસેથી તમોએ જે પ્રમાણે સાંભળેલ હોય અને વિચારેલ હોય તે પ્રમાણે મને વાદ સહિત અર્થાત યુક્તિયુક્ત રીતે કહો. ગૌતમસ્વામીએ ઉદકપેઢાલ પુત્રને આ પ્રમાણે કહ્યું–હે આયુષ્યનું આપના પ્રશ્નને સાંભળીને જે મારા જાણવામાં હશે તે વાદ સહિત એટલે કે સયુક્તિક રીતે તેને ઉત્તર આપીશ. તે પછી ઉદપેઢાલપુત્ર ભગવાન ગૌતમને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા, સૂત્ર કા. Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सैमयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ७ उ0 प्रत्याख्यानविषयकशङ्काप्रदर्शनम् ६९२ थावरत्ताए पञ्चायंति, थावरकायाओ विप्पमुच्चमाणा तसकायंसि उववंजीत, तसकायाओविप्पमुच्चमाणा थावरकायंसि उववज्जति, तेसिं च णंथावरकायंसि उववण्णाणं ठाणमेयं धत्तं । सु०५॥७२॥ छाया-आयुष्मन् ! गौतम ! सन्ति ग्वलु कुमारपुत्राः नाम श्रमणाः निग्रं. न्याः युष्माकं प्रवचनं प्रदन्तः गाथारति श्रवणोपासकमुपसन्नमेवं प्रत्याख्यापयन्ति नान्यत्राभियोगेन गायापतिचोरग्रहणविमोक्षणेन त्रसेषु प्राणेषु निहाय दण्डम् एवं प्रत्यारुपायतां दुष्प्रत्याख्यानं भवति, एवं-प्रत्याख्यापयतां दुष्पत्याख्यापयितव्यं भवति, एवं ते प्रत्याख्यापयन्तोऽति-चरन्ति स्वां पतिज्ञाम् । 'कस्य हेतोः संसारिणः खलु प्राणा:-स्थावरा अपि प्राणा: त्रसत्वाय प्रत्यायान्ति वसा अपि माणाः स्थावरत्वाय प्रत्यायान्ति स्थावरकायाद् विममुच्यमानाः त्रसकायेत्पधन्ते, त्रसकायाद् विप्रमुच्यमानाः स्थावरकायेपृत्पद्यन्ते तेषां च खलु स्थावरकायेपूस्पन्नानां स्थानमेतद् घात्यम् ॥५- ७२॥ ____टीका-'आउसो गोयमा !' आयुष्मन् गौतम ! उदको वदति भगवन्तं गौतमम्, हे गौतम ! 'अस्थि खलु कुमारपुत्तिया नाम समणा निग्गंथा' सन्ति खलु कुमारपुत्राः श्रमणा नियन्या:-कुमारपुत्रा नामानो जैनाः साधवः सन्ति । 'तुम्हाणं पवयणं पवयमाणा गाहावई समणोवासगं उवसन्नं एव पचक्खाति' युष्माकं प्रव. चनं प्रवदन्तो गाथापति श्रमणोपासकम् उपसन्नमें प्रत्याख्यास्यन्ति, ते च कुमारपुत्राः साधवी भगवतः प्रवचनमनुवत्तेमाना: श्रावकानेवं प्रत्याख्यापयन्ति । 'णण्णत्थ अभिओएणं गाहावइचोरग्गहणविमोक्खणयाए' नाऽन्यत्राऽभियोगेन गाथापतिचोर 'आउसो ! गोयमा' इत्यादि । टीकार्थ---उदक पेढालपुत्र ने भगवान् गौतम से कहा-आयुष्मन् गौतम ! कुमार पुत्र नामक श्रमण निर्ग्रन्थ हैं जो आपके प्रवचन का उपदेश करते हैं। जब कोई श्रमणोपासक प्रत्याख्यान करने के लिए उनके पास पहुंचता है तो वे उसे यों प्रत्याख्यान करवाते हैं-'राजा आदि के अभियोग (बलात्कार) के सिवाय, गाथापति चोर विमोक्षण 'पाउसो गोयमा' त्यादि ટીકાઈ–ઉદકપેઢાલપુત્રે ભગવાન ગૌતમને કહ્યું- હે આયુશ્મન ગૌતમ! કુમાર પુત્રક નામના શ્રમણ નિગ્રંથ છે, જે આપના પ્રવચનને ઉપદેશ કરે છે. જ્યારે કેઈ શ્રમણોપાસક પ્રત્યાખ્યાન કરવા માટે તેમની પાસે જાય છે, તે તેઓ તેને આ પ્રમાણે પ્રત્યાખ્યાન કરાવે છે. “રાજા વિગેરેના અભિગ (બલાત્કાર) Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०० सूत्रकृतागले ग्रहणविमोक्षणेन, अन्तरेण रानाद्यमियोग तत्राऽभियोगः-अपराधः गाथापतिचोर. ग्रहणविमोक्षण दृष्टान्तेन प्रत्याख्यानं कारयन्ति तद्यथा 'तसेहिं पाणेहि णिहाय दंड' असमाणिपु दण्डं-हिंसां निहाय-त्यक्त्वा त्रसमाणिपु दण्डस्य प्रत्याख्यानं भवति । ''एवं ण्हं पचक्खं ताणं दुप्पचक्खायं भवई' एवं प्रत्याख्यानवतां दुप्पत्याख्यानं भवति, स्थूलकायहिंसां त्यक्त्या मूक्ष्मे षु प्रत्याख्यानं करोति तदेतत्पत्याख्यानं न समीचीनम् - .. अनया रीत्या क्रियमाणं प्रत्याख्यानं न युक्तम् । एवं ण्ड पच्चक्खावेमाणाणं दुपञ्चक्खा। वियव्वं भवई' एवं प्रत्याख्यापयतां दुष्प्रत्याख्यापयितव्यं भवति । परन्तु-वक्ष्यमाण रीत्या प्रत्याख्यानं कर्तव्यमिति में प्रतिभाति । कुतो दुष्पत्याख्यानमिदं तत्राह, 'एवं ते परं पञ्चक्खावेमाणा अतियरति सयं पतिण्ण' एवं प्रत्याख्यापयन्तोऽति चरन्ति स्वां मतिज्ञाम्, एवं कुर्वाणाः स्वकीयां प्रतिज्ञामेव हापयन्ति । 'कस्स १ 'णं तं हे' तत् कस्य हेतोः प्रतिज्ञाभङ्गः, 'संप्तारिया खलु पाणा थावरा वि पाणा तसत्ताए पञ्चायति' संसारिणः खलु पाणाः सर्वे जीवाः कर्मपराधीनाः स्थावरा अपि प्राणाः त्रसत्वाय प्रत्यायान्ति । इदानीं ये स्थावराः ते एव । कालान्तरे कर्मवलात् त्रसयोनिमापद्यन्ते 'तसा वि पाणा थावरत्ताए पञ्चा• यति' वसा अपि स्थावरत्वाय प्रत्यायान्ति, 'थावरकायाओ विप्पमुच्चमाणा तस. • कार्यास उववजंति' स्थावरकायाद् विप्रमुच्यमाना स्वसकायेपूत्पद्यन्ते। 'तसकायाओ के न्याय से उस जीवों की हिंसा का त्याग है। किन्तु इस प्रकार का प्रत्याख्यान खोटा प्रत्याख्यान है। ऐसा प्रत्याख्यान करने वाले अपनी की हुई प्रतिज्ञा का उल्लंघन करते हैं, किस प्रकार वे अपनी प्रतिज्ञा का उल्लंघन करते हैं, वह मैं कहता हूं । संसार के सभी. प्राणी कर्मों के अधीन हैं। स्थावर माणी कभी त्रसपर्याय धारण कर लेते हैं और इस समय जो प्राणी त्रस हैं वे कर्मोदय से स्थावर के रूप में आजाते हैं। अनेक जीव सकाय से छूटकर स्थावरकाय ' સિવાય ગાથાપતિ ચારવિમેક્ષણના ન્યાયથી ત્રસ જીવેની હિંસાને ત્યાગ છે. - ५२, मापा ४२नु प्रत्याभ्यान मोटु प्रत्याभ्यान छे. मा प्रत्याज्यान કરવાવાળા પિતે કરેલી પ્રતિજ્ઞાનું ઉલ્લઘન કરે છે. કઈ રીતે તેઓ પિતાની , પ્રતિજ્ઞાનું ઉલ્લંઘન કરે છે. તે કહું છું. સંસારના સઘળા પ્રાણિયે કર્મોને અધીન છે. સ્થાવર પ્રાણી પણ કયારેક ત્રસપર્યાય ધારણ કરી લે છે. અને વર્તમાન સમયે જે ત્રસ પ્રાણી છે, તેઓ કર્મના ઉદયેથી સ્થાવરણમાં આવી જાય છે. અનેક જી ત્રસકાયથી છૂટિને સ્થાવરણમાં ઉત્પન્ન થાય છે. અરે Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ७ गा. चोरग्रहणविमोचनन्यायस्वरूपम् ७१ विपमुच्चमाणा थावरकायप्ति उपयज्जंति' त्रराकायाद्विप्रमुच्यमानाः स्थावरकाये पृत्पद्यन्ते । 'तेनि च णं थावरकायसि उववण्णाणं ठाणमेयं धत्तं तेषां च स्थावर. कायेपूत्पन्नानां स्थानमेतद् घात्यम्. कदाचित त्रसाः स्थावरतानापधन्ते कमवला पूर्वशरीरं परित्यजन्तः, तथा-स्थावरा अपि पूर्व स्थावरशरीरं परित्यजन्तो विळ क्षणकर्मबलात् सशरीरम् आप्नुवन्ति । प्रतिज्ञा कृता जसजीवविपया, त्रसश्च स्थावरतां गतः । स्थावरे विहन्यमाने प्रतिज्ञा कथमुपपादिता स्यादिति भावः । अतः प्रत्याख्याने किश्चिद्विशेषणीयं येन प्रतिज्ञा संपादिता स्पादिति मे मतिः । ___ गाथापतिचोरग्रहणविमोचनन्यायस्वरूपमित्थम्-तथाहि-कुत्रचिद्देशे-एकोराजा आसीद तेन कदाचिदेवं विज्ञापितम्-अहो लोकाः ! अध नगराद वहिरुद्याने कौमुदी महोत्सवो मन्तव्यो वर्तते । अतोऽस्यां रात्रौ नगरे केनापि न ६साव्यम्किन्तु-ततो वहिरुधाने गन्तव्यम् । अन्यथा-माणदण्डो भविष्यति, तच्छ्रवा में उत्पन्न हो जाते हैं और स्थावर काय से छूटकर बम कापमें उत्पन्न हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में प्रतिज्ञा करने वाले ने त्रस जीवों की हिंसा का त्याग किया और उस जीव स्थावर के रूप में उत्पन्न हो गया तो , उस समय वह उसका घात करने लगेगा । इस प्रकार स्थावर जीव का घात करने पर उसकी प्रतिज्ञा खंडिन हो जाती है। अतएव प्रतिज्ञा लेते समय ऐसा कुछ विशेषण जोड़ना चाहिए जिससे प्रतिज्ञा खण्डित न हो। ऐसा मेरा अभिप्राय है। ऊपर गाथापति चोर विमोक्षण नामक जिसन्याय (उदाहरण) का उल्लेख किया गया है, उसका स्वरूप इस प्रकार है-किसी जगह 'एक राजा था। एक बार उसने घोषणा करवाई-हे लोको ! आज नगर के वाहर उद्यान में कौमुदी महोत्सव मनाना है, अतएव इस रात्रि के થાવરણમાથી છૂટીને ત્રસકાયમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. એવી સ્થિતિમાં - પ્રતિજ્ઞા કરવાવાળાએ ત્રસ જીવેની હિંસાને ત્યાગ કર્યો અને ત્રસ તથા સ્થા વરપણુથી ઉત્પન્ન થયા. તે તે સમયે તેને ઘાત કરવા લાગશે આ રીતે કથાવર જીવને ઘાત કરવાથી તેની પ્રતિજ્ઞા ' ખંડિત થઈ જાય છે તેથી જ પ્રતિજ્ઞા લેતી વખતે એવું કંઈક વિશેષણ જવું જોઈએ કે જેનાથી પ્રતિજ્ઞા ખંડિત ન થાય. આ પ્રમાણે મારા અભિપ્રાય છે - ઉપર ગાથાપતિ ચારવિમોક્ષણ નામના જે ન્યાયનું ઉદાહરણ આપીને તેનો ઉલ્લેખ કર્યો છે, તે ન્યાય આ પ્રમાણે છે.–કઈ સ્થળે એક રાજા હતો. તે જાહેરાત કરાવી કે-હે લેકે ! આજે નગરની બહાર ઉદ્યાનમાં કોમી નામને ઉત્સવ મનાવે છે. તેથી રાત્રીના સમયે કોઈએ શહેરની અંદર રહેવું Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यकृतसूत्रे सायङ्कालात्मागेव सर्वे नगराद् वहिस्यानं गतवन्तः, किन्तु तत्रैकस्य वैश्वस्य पञ्चपुत्राः कार्यासक्तमनसः यथाकालं नगराद् बहिर्गन्तुं न पारितवन्तः पश्चात् कियद्रात्रिच्यतीतानन्तरं स्मरणे जातेऽपि कपाटवन्दीभृतान्नगरद्वाराद् वहिर्गन्तुमसक्ताः सन्तस्तत्रैव स्थितवन्तः । ततः प्रभाते राजपुरुपेण राज्ञोऽपमानमिति कृत्वा ते गृहीता आनीताथ राजान्तिकम् । राज्ञा जातामर्षेण पञ्चानामपि तत्पुत्राणां वत्रे आज्ञप्ते तत्पिता वैश्यः तेषां त्रिमोक्षणाय बहुमुद्योगं चकार । विफलीभूते तदुद्योगे चतुर्णां त्रयाणां द्वयोरेकस्य च क्रमगत्या विमोचनाय राजानमनुसमय कोई नगर के अन्दर न रहे। सब बाहर उद्यान में जाएं। जो इस आदेश का उल्लंघन करेगा उसे प्राणदण्ड दिया जाएगा। ७०२ यह घोषणा सुनकर सब नगर निवासी संध्या होने से पहले ही बाहर उद्यान में चले गये। किन्तु एक वणिक् के पांच पुत्र कार्य में अत्यन्त व्यस्त होने के कारण उक्त आदेश को भूल गये और जब स्मरण हुवा उस समय नगर के द्वार बन्ध होने से बाहर न जा सकने के कारण अपने पांचों नगर में ही रह गये प्रभात होने पर राजपुरुष उनका नगर में रहना सहन न कर सके। उन्होंने इसे राजा का अपमान समझकर उन्हें पकड़ लिया और राजा के समक्ष उपस्थित किया। राजा ने क्रुद्ध होकर पांचों पुत्रों के प्राण वध की आज्ञा दे दी । त वणिक ने उन्हे छुडाने का उद्योग किया । जब उसका यह उद्योग सफल नहीं हुआ तो चार पुत्रों को बचाने का प्रयत्न किया । वह भी असफल रहा तो तीन को, दो को और अन्त में विवश होकर નહીં બધાએ બહાર ઉદ્યાનમા જવું જે આ હુકમનું ઉલ્લંઘન કરશે, તેને પ્રાણાન્તની શિક્ષા કરવામાં આવશે. આ જાહેરાત સાંભળીને બધા જ નગરજને સાંજ થતાં પહેલાં જ નગરની મહાર ખગીચામાં ચાલ્યા ગયા. પરંતુ એક વાણિયાના પાંચ પુત્રો કામમાં અત્યંત મશુલ હોવાથી રાજાના તે હુકમને ભૂલી ગયા અને જ્યારે યાદ આવ્યું ત્યારે નગરના દરવાજા બંધ હાવાથી બહાર જઇ શકયા નહી તેથી તેઓ પાંચે જણા શહેરમાં રહી ગયા. રાજપુરૂષા તેએતુ નગરમાં રહેવાનુ` સહન કરી શકયા નહીં. તેઓએ તેને રાજાનું અપમાન સમજીને તે પાંચે જણાને પકડી લીધા અને રાજાની પાસે હાજર કર્યા રાજાએ ક્રોધયુક્ત થઇને પાંચે જણાને ફાંસીએ ચડાવવાના હુકમ કર્યાં. તે વખતે વાણીયાએ તેઓને ટાડાવવા ઘણા પ્રયત્ન કર્યાં પરંતુ જ્યારે તે પ્રયત્નમાં સફળ ન થયા ત્યારે ચાર પુત્રોને ખચાવવા પ્રયત્ન કર્યાં તેમાં પણ તે નિષ્ફળ થયે જેથી ત્રણને પછી એને અને છેવટે વ્યાકુળ થઈને એક પુત્રને Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्रकृतासूत्रे प्रतिपादितम्, 'एवमसंते असंविज्जमाणे जेसिं तं असंते असं विज्ञमाणे' एवमसन् - अविद्यमानः शरीरादिमन्नो जीवः न जीवस्य शरीरात् पृथक् सच्चाऽस्ति । अतः सोऽसंवेद्यमानः अननुभूयमानशरीरात् पृथग्, जीवस्य नानुभवो जायते । येषां मते स जीवः असन् असंवेद्यमान इति कथनं वर्त्तते 'तेसिं तं सुयवखायं भवई' तेषां तद् आख्यानं स्वाख्यातं - सुष्टुत्वेन निरूपणं भवति, एताशीं स्थिति इत्थं निथितं भवति यच्छरीरातिक्तो जीवो नास्तीति । कुतः शरीरात् पृथक्त्वेन जीवस्वाऽप्रतिमासनात् । अतः पूर्वोक्तं सिद्धान्तं मन्यमानानां कथनमिदं शरीरातिरिक्तो जीवो नास्तीति तद् युक्तिसङ्गतमेव । येषां तु मतमिदम्- 'अन्नो भवइ जीवो अन्नं सरीरं' अन्यो भवति जीवोऽन्यच्छरीरम्, शरीराद् व्यतिरिक्तो जीव इति, 'तम्हा' तस्मात् - 'ते एवं नो विप्पडियंति' ते एवं नो विप्रतिवेदयन्ति - नो अनुभवन्ति । 'अयमाउसो' अयं हे आयुष्मन् ! 'आया दीहवा दस्सेइवा परिमंडलेवा' आत्मा दीर्घइति वा, ह्रस्व इति वा, परिमण्डलमिति वा, यदि - शरीरादिभ्यो भिन्न आत्मा कश्चिद्मवेचदा हसादिपरिमाणैः परिच्छिन्नतयाउपदर्शयितुं शक्येत, न पुन स्तथोपदश्यते । तस्मान्नास्त्यतिरिक्त आरमेति । 'बट्टेइवा' वर्तुळ इति वा 'सेवा' व्यस्रः इति वा - त्रिकोण इत्यर्थः 'चउरंसेइ वा' चतुरस्र कार ने यह प्रतिपादन किया है । सामान्य रूप से तो मृतक के साथ अर्थी भी जला दी जाती है । इस स्थिति को देखकर यही निश्चित होता है कि शरीर से भिन्न जीव का अस्तित्थ नहीं है, क्योंकि जीव शरीर से भिन्न प्रतीत नहीं होता है । अत एव इस सिद्धान्त को स्वीकार करने वालों का कथन है कि शरीर से भिन्न जीव का अस्तित्व न मानना ही युक्तिसंगत है। जिसके मत के अनुसार आत्मा दीर्घ है या ह्रस्य है, लड्डू के समान गोल है, चूडी के समान गोलाकार हैं, त्रिकोण है, चतुष्कोण है, लम्बी है, षट् कोण है या अष्टकोण है किस आकार का है? काला ५८ છે. સામન્ય રીતે તે મરેલાનો સાથે અર્થી-ઠાઠડી પણ ખાળી નાખવામાં આવે છે. આ સ્થિતિને જોઈને એવા નિશ્ચય થાય છે કે-શરીરથી જુદા એવા આત્માનું અસ્તિત્વ જ નથી, કેમકે-જીવ શરીરથી અલગ પ્રતીત થતા નથી. તેથી જ આ સિદ્ધાંતના સ્વીકાર કરવાવાળાઓનું કહેવું છે કે-શરીરથી જુદે આત્માને ન માનવા એજ યુક્તિ યુક્ત છે. જેમના મત પ્રમાણે मात्मा हीछे छे, અથવા હસ્વ છે, લાડુની જેમ ગાળ છે, ચૂડીની સરખા ગાળ આકારવાળા છે, ત્રિકાળુ-ત્રણુ ખૂણા વાળા છે, ચતુષ્કાણુ –ચાર ખૂણાવાળા છે, લાંખા છે, ષટ્કાણુ છ ખૂણાવાળા છે. અષ્ટકાણુ આઠ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका वि. श्रु अ. ७ उ० प्रत्याख्यानविपये उदकस्यामिप्रायः ७०३ नीतवान् । अनुनीतेन राज्ञा च केवलमेकपुत्रवधत्यागमात्रेण अनुगृहीतः स वैश्यः । तद्वत् साधुः सर्वेषामपि वधं निवारयन् कालगत्या दुरत्ययैकस्यापि वधं निवारयेदिति सोऽयं गाथापति चोरग्रहणविमोचनन्यायः ॥५-७२॥ मूलम्-एवं पहं पच्चक्खंताणं सुपच्चक्खायं भवइ, एवं पह पच्चक्खावैमाणाणं सुपच्चक्खावियं भवइ, एवं ते परं पच्च. वखावेमाणा गाइयरंति सयं पहण्णं, णण्णस्थ आभिओगेणं गाहावइचोरग्गहणविमोक्खणयाए तसभूएहिं पाणेहि णिहाय दंडं, एवमेव सइभासाए परक्कमे विज्जमाणे जे ते कोहा वा लोहा. वा परं पञ्चक्खावेति अयं पि णो उवएसे णो णेयाउए भवइ, अवियाई आउसो ! गोयमा! तुम्भं पि एवं रोयइ ॥सू०६॥७३॥ ___ छाया-एवं खलु पत्याख्यायतां सुपत्याख्यातं भवति । एवं खलु पत्पाख्यापयता सुपत्याख्यापितं भवति। एवं ते परं प्रत्याख्यापयन्तो नाति वरन्ति स्त्रीयां प्रतिज्ञाम्, नान्यत्राऽभियोगेन गाथापतिचोरग्रहणविमोक्षणतः वसभूतेषु माणेषु निहाय दण्डम् । एवमेव सति भाषायाः पराक्रमे विद्यमाने ये ते क्रोधाद्वा लोमाद्वा परं प्रत्याख्यापयन्ति (तेषां मृपावादो भवति) अयमपि न उपदेशो, न नैयायिको भवति । अपि च आयुष्मन् ! गौतम | तुभ्यमपि एवं रोचते ॥६-७३॥ एक पुत्र को बचानेका अत्यंत विनय के साथ प्रयत्न किया वणिक् के अनुनय-विनय को स्वीकार करके राजाने एक पुत्र को बचाने को प्राणवध से मुक्त किया। इसी प्रकार साधु तो सभी प्राणियो के प्राणातिपात का त्याग करना चाहता है किन्तु जय यह संभव नहीं होता और कोई सय प्राणियों के प्राणातिपात का त्याग करने में समर्थ नहीं होता तो जितना त्याग कर सके उतनाही करवाता है। यही गाथापति चोर विमोक्षणन्याय का अभिप्राय है ॥५॥ બચાવવા માટે ઘણાજ વિનયપૂર્વક પ્રયત્ન કર્યો તે વાણિયાના વિનયને રવીકારીને રાજાએ તેના એક પુત્રને ફાંસીથી મુક્ત કર્યો આ પ્રમાણે સાધુ તે બધા જ પ્રાચિના પ્રાણાતિપાતનો ત્યાગ કરવાની ઈચ્છા રાખે છે. પરંતુ જ્યારે તેને સ ભવ હોતા નથી અને કઈ બધા જ પ્રાણિયેના પ્રાણાતિપાત હિંસા)ને ત્યાગ કરવામાં સમર્થ થતા નથી તે જેટલાને ત્યાગ કરી શકાય એટલાને જ ત્યાગ કરાવે છે. આજ ગાથા૫તિ રવિએક્ષણ ન્યાયને અભિપ્રાય છે સૂટ પા Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Gor सूत्रकृताङ्गसूत्रे ." टीका-उदका पेढालपुत्रः स्वाभिमतं सुपत्याख्यानस्वरूपं दर्शयति पराकृत्य पराभिमतं शास्त्रभिद्धं च स्वपत्याख्यानम् । 'एवं ण्हं पच्चखेवाणं सुपच्चक्खाय भवई' एवं खलु प्रत्यारत्यायतां सुप्रत्याख्यातं भवति । परन्तु-प एवं प्रत्याख्यान करोति तस्य सुप्रत्याख्यानं भवतीति । एवं ई पच्चक्खावेमाणं सुगच्चकखावियं भवइ' एवं खलु पत्याख्यानं कारयति-तदीयं प्रत्याख्यानं सुपत्याख्यापितमिति । 'एवं ते परं पञ्चवावेमाणा णातियरति सय पइण एवं प्रकारेण पर मत्याख्या. पंयन्तो नातिचरन्ति-नातिकामन्ति स्वकीयां प्रतिज्ञामिति । स्वाभिमतपत्या. ख्यानप्रकारं दर्शयति । 'णण्णस्थ आमिओगेणं गाहावइचोरग्गहणविमोकावणयाए नान्यत्राभियोगेन गाथापतिचोरग्रहणविमोक्षणतः 'तसभूएहिं पाणेहि णिहाय दर्ड' असभूतेषु माणेपु निहाय दण्डम् तत्र अभूत् भवति भविष्यतीति भूतः जीव इत्यर्थः, सपदोत्तरं भूतपदं निवेश्यम्-तथा च-'एवमेव सइ भासाए परकमे विज्जमाणे' - 'एवं ण्हं पच्चक्खंताण' इत्यादि। टीका-उदक पेढाल पुत्र अपने अभीष्ट प्रत्याख्यान के स्वरूप को कहते हैं। इस प्रकार से प्रत्याख्यान करने वालों का प्रत्याख्यान, सुपत्याख्यान होता है और इस प्रकार से प्रत्याख्यान करने वालों का सुप्रत्याख्यान कराना कहलाता है। जो इस प्रकार प्रत्याख्यान कराते हैं, वे अपनी प्रतिज्ञा का उल्लंघन नहीं करते अब प्रत्याख्यान की वह विधि दिखलाते हैं- (जाभियोग को छोड़ कर माथापति चोर विमो. क्षण न्याय से सभूत अर्थात् वर्तमान काल में जो जीव स पर्याय में है, उनकी हिंसा का त्याग है। अभिप्राय यह कि 'त्रत' इस शब्द के आगे एक 'भूत' शब्द और लगा देना चाहिए । 'भू' शब्द जोड 'एव ह पच्चक्खताण' या ટીક ઈ–ઉક પેઢાલપુત્ર પિતાને ઈષ્ટ પ્રત્યાખ્યાનના સ્વરૂપને બનાવે છે. તે આ પ્રમાણે છે–પ્રત્યાખ્યાન કરવાવાળાઓનું પ્રત્યાખ્યાન સુપ્રત્યાખ્યાન કહેવાય છે, અને આવા પ્રકારથી પ્રત્યાખ્યાન કરવાવાળાઓને સુપ્રત્યાખ્યાન કરાવવું તેમ કહેવાય છે જેઓ આવી રીતે પ્રત્યાખ્યાન કરાવે છે, તેઓ પિતાની પ્રતિજ્ઞાનું ઉલ્લંઘન કરતા નથી. હવે તે પ્રત્યાખ્યાનની વિધિ બતાવતાં કહે છે -રાજાભિયોગ–રાજા દ્વારા થયેલ વિદનને છોડીને ગાથાપતિ રવિક્ષણ ન્યાયથી વ્યસભૂત અર્થાત્ વર્તમાન કાળમાં જે જે ત્રસ પર્યાવમાં રહેલા છે. તેની હિંસાનો ત્યાગ કરેલ છે કહેવાને આશય એ છે કે-વસ આ શબ્દની આગળ એક “ભૂત” શબ્દ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका लि. श्रु. अ. ७ प्रत्याख्यानविषये उदकस्याभिप्रायः ७०५ एवमेव सति भाषायाः पराक्रमे विद्यमाने । भूतपददानेन शक्तिवलात् क्रियमाणं मस्याख्यानं सुपत्याख्यानं भवति अनविचरितं भवति प्रतिज्ञा भङ्गोऽपि न भवति। एवंविधस्थिती 'जे ते कोहा वा लोहा वा परं पञ्चक्खावेंति' ये ते पुरुषाः क्रोधाद्वा छोभावा स्वाग्रहाद्वा भूनपदमन्तरेण परं प्रत्याख्यापयन्ति ते स्वकीयां प्रतिज्ञामति. क्रामन्ति । 'अयं पिणो उवएसे णो णेयाउए भवई' अयमपि उपदेशो न नैयायिकोन न्यायसिद्धो भवतीति, मन्मतानुसारेण तु-भूतपदघटितपत्याख्यानं न्यायसिद्ध. मेव । 'अवियाई आउसो गोयमा! कुभंपि एवं रोयह अपि च आयुष्मन् हे गौतम ! तुभ्यपप्येव रोचते मदुक्तं किं भवते वा न रोचते-युक्तियुक्तमई कथयामि भवद्भिरपि स्वीकर्तव्यम् । एवं सति प्रतिज्ञाभङ्गो न भवति प्राणिरक्षण मुव्यवस्थितमिति ॥०६-७३।।। मूलम्-सायं भगवं गोयमे ! उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासीआउसंतो! उदगा! नो खलु अम्हे एयं रोयइ, जे ते समणा वा माहणावा एवमाइक्खंति जाव परूवति णो खलु ते समणा देने से किया अथवा कराया हुआ प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है । ऐसा करने से प्रतिज्ञा भंग का दोष भी नहीं होता है। ऐसी स्थिति में जो पुरुष क्रोध से, लोभ से अथवा अपने आग्रह से 'भूत' शब्द का प्रयोग किये विना दूसरे का प्रत्याख्यान कराते हैं, वे अपनी प्रतिज्ञा को भंग करते हैं । ऐसा उपदेश न्याय युक्त नहीं है पल्कि 'भूत' पद जोडकर कराया हुआ प्रत्याख्यान ही न्याययुक्त है। हे आयुष्मन् गौतम ! क्या आपको यह रुचिकर नहीं है ? अर्थात में युक्ति-युक्त कह रहा हूं अतः आपको भी स्वीकार कर लेना चाहिए। ऐसा करने से प्राणियों की रक्षा के साथ प्रतिज्ञा की भी रक्षा होती है ।। લગાવી દેવો જોઈએ “ભૂત” શબ્દ લગાવવાથી કરેલ અથવા કરાવેલ પ્રત્યાખ્યાન સુપ્રત્યાખ્યાન થાય છે. એમ કરવાથી પ્રતિજ્ઞા ભંગ દેવ પણ લાગતું નથી. આવી સ્થિતિમાં જે પુરૂષ ક્રોધથી, લેભથી, અથવા પિતાના આગ્રહથી ભૂત” શબ્દને આગ્રહ કર્યા વિના બીજાને પ્રત્યાખ્યાન કરાવે છે તેઓ પિતાની પ્રતિજ્ઞાને ભંગ કરે છે. આ પ્રમાણેને ઉપદેશ ન્યાયયુક્ત નથી બલકે “ભૂત શબ્દને જોડીને કરવામાં આવેલ પ્રત્યાખ્યાન જ ન્યાયયુક્ત છે. હે આયુમન ગૌતમ! શું આપને તે ચગ્ય લાગતું નથી ? અર્થાત્ હું યુક્તિયુક્ત કહી રહ્યો છે તેથી આ કથન આપે પણ સ્વીકારવું જોઈએ. આમ કરવાથી પ્રાણિની રક્ષાની સાથે પ્રતિજ્ઞાની રક્ષા પશુ થાય છે. સૂ૦ ૬L २० ८९ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ सूत्रकृताङ्गसू या निश्गंथा वा भासं भासंति, अणुतावियं खलु ते भासं भासंति, अभाइक्खति खलु ते समणे वा समणोवासए वा, ' जेहिं वि अन्नेहि जीवहि पाणेहिं भूपहिं सत्तेहि संजमयंति ताण, वि ते अभाइक्खति, कस्स णं ते हेउं ? संसारिया खलु पाणा, तसाच पाणा थावरत्ताए पञ्चायति थावरा विपाणा तसत्ता पञ्चायति, तस्कायाओ विष्पमुच्चमाणा थावरकायंसि उवव जति थावरकायाओ विपमुच्चमाणा तसकार्यसि उत्रवजति, तेसिं चणं तसकायंसि उववन्नाणं ठाणमेयं अधत्तं ॥ सू०७॥७४॥ " छाया - सादं भगवान् गौतमः उदकं पेढावपुत्रमेत्रमवादीत् | आयुष्मन् उदक! नो खलु अस्मभ्यम् एवं रोचते । ये ते श्रमणा वा महिना वा एवमाख्यान्ति यात्रत् प्ररूपयन्ति नो खलु ते श्रमणा वा निर्ग्रन्था वा भाषां भाषन्ते तेऽनु तापिनीं खलु भाषां भापन्ते । अभ्याख्यान्ति खलु ते श्रमणान् वा श्रमणोपासकान् वायेष्वपि अन्येषु जीवेषु प्राणेषु भूतेषु सच्चेषु संयमयन्ति तानपि ते अभ्या ख्यान्ति । कस्य हेतोः ? सांसारिकाः खलु प्राणाः सा अपि माणाः स्थावरवाय प्रत्यायान्ति स्थावरा अपि प्राणाः नगलाय प्रात्यायान्ति त्रसकायतो विप्रमुच्यमानाः स्थावर का ये पुत्पद्यन्ते स्थावर काय तो विमुच्यमानाः त्रतकाये पृत्पद्यन्ते, तेषां च खलु चमकायेपूत्पन्नानां स्थानमेतदद्यात्यम् ॥०७४|| टीका - 'सवयं भगवं गोयमे' सवादं भगवान गौतमः 'उदयं पेढालपूतं एवं वयासी' उदकं पेढालपुत्र मेवमवादीत् उदकम्प प्रत्याख्याने भूतपदः सन्निविष्टवचनं श्रुत्वा चादपुरस्सरं वक्ष्यमाणवचनमुक्तवान् 'माउसंतो उदगा नो. 'सवायं भगवं गोघसे' इत्यादि । टीकार्थ - भगवान् गौतम ने प्रत्याख्यान में 'भूत' पद को जोडने की उदक पेढालपुत्र की बात सुनकर बाद के साथ इस प्रकार कहाआयुष्मन् उदक ! आपका कथन हमें नहीं रुचता है कि श्रमण और 'सवाय भगव' गोयमे' हत्याहि ટીકા ભગવાન ગૌતમસ્વામીએ પ્રત્યાખ્યાનમાં ‘ભૂત’ પદને ચેાજવાની પેઢાલપુત્રની વાત સાંભળીને યુક્તિપૂર્વક આ પ્રમાણે કહ્યુ-હે આયુષ્મન્ ઉદ્દક Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्थबोधिनी टीका वि. शु. अ. ७ उदक प्रति गौतमस्योत्तर: ၆ဝင် खल अम्हे एवं रोयइ आयुष्मन - उदक। भवता सगोधितं वचनम् अस्मभ्यं - गौत मेभ्यो न रोचते, 'जे ते समणा वा मादणा वा एव माइक्खति जान परुति' ये ते श्रमणा वा-माहना वा एवम् भवत्कथनानुसारेणाऽख्यान्ति यावत् परेभ्यः प्ररूपयन्ति च । 'णो खलु ते समणा वा णिग्गंथा वा भासं भासंति' नो खलु ते श्रमणा वा निर्मन्था वा समीचीनां भाषां भापन्ते 'अणुतात्रियं खलु भासं भासंति' अपितु - अनुतापिनीं भाषां सापन्ते । अयमाशयः सपदोत्तरं भूतपदसन्निवेशेनाऽपि न किमपि फलाधिकयमवाप्यते । यतोहि-योऽर्थखपदेन ज्ञायते स एवार्थो भूनपदोपादानेनापि ज्ञायते, उभयोरेकार्थकत्वात् । प्रत्युत - अनर्थयैव हि भूतपदप्रयोगः । अपि च सादृश्यबोधकोsपि भृतशब्दो दृश्यते देवलोकभूतं नगरमित्यादौ देवलोक सादृश्यस्य नगरेऽनु भवात् । तथा च - तथासति त्रस सदृशमाणिनो वधाऽभावः प्रत्याख्यानेन प्रतीयेत न. तु सजीवस्येति सजीवानां विराधनादनर्थं एव स्यात् । यदि सादृश्यार्थको न भूतशब्दस्तदा त प्रयोगो निरर्थक एव भवेत् । यथा शीतभूतमुदकम् इत्यत्र शीतमाहन ऐसा जो कहते या उपदेश देते हैं, वे समीचीन भाषा नहीं बोलते, परन्तु अनुतापिनी (जिनपरंपरानुसारिणी) भाषा बोलते हैं। आशय यह है- 'त्र' पद के बाद 'भूत' शब्द को जोड़ देने का भी कोई विशेष फल नहीं है । जो अर्थ बस शब्द के प्रयोग से प्रतीत होता है, वही बसभूत शब्द से भी प्रतीत होता है। दोनों का अर्थ एक ही है, परन्तु उससे अनर्थ भी हो सकता है। यथा- 'भूत' शब्द सदृशता का वाचक भी देखा जाता है, जैसे "देवलोक भूतनगर' का अर्थ है देवलोक के समान नगर । ऐसी स्थिति में यदि 'स' के साथ 'भूत' शब्द जोड़ दिया जाय तो उसका 'नस के समान प्राणी' ऐसा આપતુ કથન અમને રૂચિકર લાગતું નથી શ્રમણુ અને માહન એવું કહે છે અથવા ઉપદેશ આપે છે કે–તેઓ સમીચીન ભાષા ખેાલતા નથી. પરંતુ અનુતાષિની ભાષા ખેલે છે. 1 t કહેવાને માશય એ છે કે-ત્રસ પદ્મની પછી ‘ભૂત’ શબ્દને જોડવાથી પણ કાઈ વિશેષ ફળના લાભ થવાના નથી. જે અથ ત્રસ શબ્દના પ્રયાગથી પ્રતીત થાય છે એજ સભૂત શબ્દથી પણ પ્રતીત થાય છે. બન્નેના અથ એક જ છે. પરંતુ તેનાથી અનથ પણ થઈ જાય છે. જેમકે-‘ભૂત' શબ્દ સદેશણાના વાચક पशु वामां आवे छे. प्रेम है - 'देवलोकभूतनगर 'नो मथ देवसेोउनी सरजु નગર એ પ્રમાણે થાય છે આ સ્થિતિમાં ‘ત્રસ' શબ્દની સાથે ભૂત’શબ્દના પ્રયાગ કરવામાં આવે તે તેના અર્થ ત્રસ સરખા પ્રાણી તેમ કાઇ સમજી લેશે. Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०८ सूत्रकृतात्रे पदोत्तरं भूतपदं शत्यमेवार्थं गमयति न ततो न्यूनमविक वा । तच गीतपदेनैव लब्धम् इति भूतपदं नरर्थक्यम बलम्पते सिद्धान्तविदाम् । एवं स्थितो यो माहनो भवन्तमनुवर्तमानस्तथा प्रयुङ्क्ते स प्रयोगः श्रमणसङ्घ फलदायक एव भवति । तथा भूतादिषु ये संयमिनस्तानपि कलङ्कयति । 'भमाइक्खंति खलु ते समणे वा समणोवासए वा' अभ्याख्यान्ति-कलङ्गायन्ति खलु ते श्रमणान् वा श्रमणोपास. कान् वा । 'जेहिं वि अन्नेहि जीवेहि पाणेहि भूएहि सत्तेहि संयमयंति ताण वि ते अभाइकावति' येषपि अन्येषु जोवेषु प्राणेपु भूतेषु सत्येषु संयमयन्ति तानपि तेऽभ्याख्यान्ति। कलङ्कमारोपयन्ति । कस्सणं तं हेउ' तत्कस्य हेतोः? 'संसारिया खलु पाणा' सांसारिका:-कर्मपरतन्त्राः खलु माणा:-जीवाः 'तसा वि पाणा अर्थ कोई समझ लेगा और उसी की हिंसा का प्रत्याख्यान करेगा, प्रस जीव की हिंसा का प्रत्याख्यान नहीं करेगा। फिर तो उस जीवों की विराधना करने से अनर्थ ही हो जाएगा। यदि 'भूत' शब्द सदृशता का वाचक नहीं है तो उसका प्रयोग करना ही निरर्थक है-उसका कोई अर्थ ही नहीं । जैसे शीतभूत जल' यहां शीत शब्द के पश्चात् भूत शब्द का प्रयोग किया गया है किन्तु वह शीत अर्थ का ही योधक है। कोई न्यून या अधिक अर्थ प्रकट नहीं करता है। अतएव वह निरर्थक ही है। ऐसी स्थिति में जो श्रमण-माहन आपका अनुसरण करके 'स भूत' शब्द का प्रयोग करता है, वह श्रमण-संघ के लिए दोषास्पद है। वह श्रमणों और श्रमणोपासकों को कलंक लगाता है। घह अन्य भूतों जीवों सत्वों और प्राणियों का जो संयम पालते हैं, उन पर भी दोषारोपण करता है। में ऐसा क्यों कह रहा हूं? सुनिए અને તેની જ હિંસાનું પ્રત્યાખ્યાન કરશે. ત્રસ જીવની હિંસાનું પ્રત્યાખ્યાન કરશે નહીંપછી તે ત્રસ જીવેની વિરાધના (હિંસા) કરવાથી અનર્થ જ થઈ જશે. અને જે “ભૂત” શબ્દ સમાન અર્થને બતાવવાવાળે ન હોય, તો તે શબ્દનો પ્રયોગ જ નિરર્થક છે. અર્થાત્ તેને કેઈ અર્થ જ નથી. જેમ શીતભૂતજલ” અહીંયાં શીત શબ્દની પછી “ભૂત” શબ્દ પ્રયોગ કરવામાં આવેલ છે પરંતુ તે શીત અર્થને જ બંધ કરાવે છે. તેથી કઈ ન્યૂન અથવા અધિક અર્થ બતાવતું નથી. તેથી જ તે નિરર્થક છે, આ પરિસ્થિતિમાં જે શ્રમણ-માહન આપનું અનુસરણ કરીને “વસભૂત” શબ્દનો પ્રયોગ કરે છે. તે શમણસંઘને દષાસ્પદ છે. તે શ્રમ અને શ્રમણોપાસકોને કલંક સમાન છે. તે અન્ય ભૂતે, જી, સ અને પ્રાણિને જે સંયમ પાળે છે, તેના પર પણ દેષારોપણ કરે છે. હું એમ શા માટે કહું છું ? તે સાંભળ–સંસારના Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्पबोधिनी टीका वि.श्रु. अ. ७ उदक प्रति गौतमस्योत्तरः ७०६ थावर तार पञ्चायति' बसा असे मागाः-जीवाः कर्मवलात् स्थावरत्वाय मत्यागान्ति -सा अपि कदाचित् स्थावरा भवन्ति । 'थावरा विषाणा तसनार पचायति' स्थावरा अपि माणाः कमबलात् त्रमत्वाय प्रत्यायान्ति । 'सकायाओ विप्पमुच्चमाणा थावरकार्यसि उपवज्जति' सकायाद्विप्रमुच्यमानाः स्थावरकाये त्पद्यन्ते, आयुषः क्षये त्रसीयशरोरं विमुच्य नाम फर्मोदयात्स्थावरकायं प्राप्त वन्तः स्थावरता लभन्ते । 'थावरकायाओ विषमुच्चमाणा तसकायंसि उववज्जति' स्थावरकायाद्विममुच्यमानास्त्रसकायेपून्पधन्ते । 'तेसिं च णं तसकायंसि उववन्नाणं ठाणमेय अघत्त' तेषां च खल सफायेपूत्पन्नानां स्थानमेतद् अघास्यम् । यदा जीवा: ते त्रसकाये समुत्पद्यन्ते तदा ते-जीवाःमत्याख्यानवता पुरुषेण हन्तुमयोग्या भवन्ति । इति भो-उदक! त्वया सपदानन्तरं निवेश्यमानं भूतपदं प्रत्याख्यानाक्षरराशौ नितरान्न शोभते एव, किन्तु-शिष्टै दृशं स्वरूपमुपवणितं तत्तथाऽस्मभ्यं रोचते ॥ सू०७-७४ ॥ -संसार के कर्माधीन प्राणी वस होकर स्थावर भी हो जाते हैं और स्थावर से त्रस्त भी हो जाते हैं । त्रसकाय को त्याग कर स्थावर काय में उत्पन्न हो जाते हैं अर्थात् आयुपूर्ण होने पर सशरीर को त्याग कर कर्मोदय से स्थावर काय को प्राप्त करते हैं, इसी प्रकार अनेक जीव स्थावर काय का त्याग करके त्रसकाय में उत्पन्न हो जाते हैं। जब स्थावर काय के जीव त्रस काय में जन्म ले लेते हैं तो प्रत्याख्यान करने वाले पुरुष के लिए वे घात करने योग्य नहीं रहते हैं। अतएव हे आयुष्मन् उदक ! आप प्रत्याख्यान के पाठ में 'भूत' शब्द को जोड देने की जो बात कहते हैं, वह ठीक नहीं है। शिष्ट पुरुषों ने जैसे प्रत्यख्यान के स्वरूप का वर्णन किया है, वही हमें भी रुचता है ॥७॥ કર્માધાન પ્રાણ ત્રઢ થઈને સ્થાવર પણ થઈ જાય છે, અને સ્થાવરથી ત્રસ પણ થઈ જાય છે. ત્રસકાયને ત્યાગ કરીને સ્થાવર કાયમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. અર્થાત્ આયુષ્ય પૂર્ણ થયા પછી ત્રસ શરીરને ત્યાગ કરીને સ્થાવરકાયને - પ્રાપ્ત કરે છે, એ જ પ્રમાણે અનેક જી સ્થાવરકાને ત્યાગ કરીને ત્રસ કાયમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે, જ્યારે સ્થાવર કાયના જીવે ત્રસકાયમાં જન્મr લઈ લે છે, તે પ્રત્યાખ્યાન કરવાવાળા પુરૂષના માટે તેઓ ઘાત કરવા ગ્ય રહેતા નથી તેથી જ તે આયુમન્ ઉદક ! આપ પ્રત્યાખ્યાનના પાઠમાં ભૂત” શબ્દને જોડવાની જે વાત કહે છે તે બરાબર નથી. શિષ્ટ પુરૂષોએ પ્રત્યાખ્યાનની પ્રરૂપણાનું જે પ્રમાણે વર્ણન કરેલ છે, એ જ પ્રમાણે અમને પણ રોગ્ય અને રૂચિકર જણાય છે. કેળા Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० सूत्रकृतामा । . मूळम्-सवायं उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं एवं वयासीकयरे खलु ते आउसंतो गोयमा ! तुम्भे वयह तसा पाण तसा आउ अन्नहा ? सवायं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी-आउसंतो उदगा! जे तुम्भे वयह तसभूया पाणा तसा ते वयं वयामो तसा पाणा जे वयं वयामो तसा पाणा ते तुम्मे वयह तसभूया पाणा, एए संति दुवे ठाणा तुल्ला एगहा, किमाउसो! इमे भे सुप्पणीयतराए भवइ तसभृया पाणा तला, इमे भे दुप्पणीयतराए भवइ-तसा पाणा तसा, तओ एगमाउसो ! पडिकोसह एकं अभिणंदह, अयं पि भेदो से णो णेयाउए भवइ । भगवं च णं उदाहु संतेगइया मणुस्सा भवंति, तेसिं च णं एवं वृत्तपुवं भवइ-जो खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवइत्तए, सा वयं ण्हं आणुपुवेण गुत्तस्स लिसिस्सामो, ते एवं संखवेंति ते एवं संखं ठवयंति ते एवं संखं ठावयंति नन्नत्थ अभिओएणं गाहावइचोरग्गहण 'विमोक्खणयाए तसेहिं पाणोहिं निहाय दंडं, तं पि तेसिं कुसलमेव भवइ ।।सू० ८||७५।। , छाया-सवादमुदकः पेढालपुत्रो भगवन्तं गौतममेवमवादीन् । कतरे खलु ते आयुष्मन् गौतम ! यूयं वदथ सा पाणाः जनाः, उतान्यथा ? सवादं भगवान् गौतमः उदकं पेढालपुत्रमेवमवादीत् आयुष्मन् उदक ! यान् यूयं वदथ त्रसभूताः मापास्त्रसास्तान् वयं वदामा बसाः प्राणाः । यान् वयं वदाम स्त्रता प्राणाः, तान् ययं वदथ सभूताः प्राणाः। एते द्वे स्थाने तुल्ये एकार्थे । किमायुष्मन ! अयं युष्मांक सुपणीततरो भवति सभूताः प्राणाः साः, अयं युष्माकं दुःप्रणीततरो भवति त्रसाः प्राणा स्त्रसाःतत एकमायुष्मन् ! प्रतिक्रोशय एकमभिनन्दथ, अयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति? भगवांश्च उताह-सत्येकके मनुष्या भवन्ति, तैश्चे। दमुक्तपूर्व भवति-न खलु वयं शक्नुमो मुण्डाः भूत्वा अगारादनगारितां प्रतिपतुं, Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.७ गौतमं प्रति पुनरुदकस्य प्रश्नः ७१३ तद्वय खलु आनुपूर्व्या गोत्रमुपश्लेपयिष्यामः । एवं ते संख्यापयन्ति एवं ते संख्यों स्थापयन्ति नान्यत्राभियोगेन गाथापतिचोरग्रहणविमोक्षणतया बसेषु प्राणेषु निहाय दण्डं तदपि तेषां कुशलमेव भवति ॥८-७५॥ टीका-पुनरुदको भगवन्तं गौतमं पृच्छति-समायं उदए पेदालपुत्ते भगर्व गोयम एवं.क्यासी' सवादम्-सवादम्-वादपूर्वकं पेढालपुत्र उदको भगवन्त गौतमम्-एवम्-वक्ष्यमाणं प्रश्न पृष्टवान्-'कयरे खल्ल आउसंतो गोयमा ! तुम्में यह तमा पाणा-तसा आउ अन्नहा' कतरे खलु ते जीवा यान्-आयुष्मन्गौतम ! यूयं वदथ किं वसा पाणा स्त्रसाः, उत अन्यथा वा । कि सजीव एवं त्रसशब्देन कथ्यते अन्यो वा कश्चित् त्रस इति । एवं श्रुत्वा भगवान गौतमः-'सवायें भावं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं बयासी' सबादं भगवान् गौतमः उदकं पेढाउपुत्रमे रमवादी कथितवानित्यर्थः । 'माउसंतो उद्गा! जे तुब्भे वयह तेसभूया पाणा तसा' आयुष्मन्-उदक ! यान् यूयं वदथ संभूताः प्राणाखमा, इति । य प्राणिविशेष नसभूवस्तम इति त्वं कथयसि, तमहं त्रसं कथयामि । 'जे वयं वय.मो तसा पाणा ते तुम्भे वयह तसभूया पाणा तसा' यान् वयं 'सवायं उदए पेढालपुत्ते' इत्यादि । टीकार्थ-उक पेढालपुत्र ने चाद के साथ भगवान श्री गौतम स्वानी से प्रश्न किया-आयुष्मन् गौतम ! आप किन जीवों को स करते हैं ? क्या त्रस प्राणी को ब्रस कहते हैं अथवा अन्य किसी प्राणी को घस कहते हैं ? , इस प्रश्न को सुनकर भगवान् श्री गौतम स्वामी ने वाद के साथ उदक पेढालपुत्र से इस प्रकार कहा-हे आयुष्मन्-उद! जिन प्राणियों को आप 'वसभूत' कहते हो, उनको हम 'त्रस' कहते हैं। जिनको हम बस प्रोणी कहते हैं, उन्हें आप सभूत प्राणी कहते हो। ये दोनों 'सवाय उदए पेढालपुत्ते' त्या ટીકાર્થ–૯દક પિંઢ લપુત્રે શ્રી ગૌતમ સ્વામીને ઉત્તર સાંભળીને ફરીથી શ્રી ગૌતમ વામીને પૂછ્યું કે-હે આયુષ્યન ગૌતમ! આપ કયા જીવોને ત્રાસ કહે છે? શું ત્રસ પ્રાણીને ત્રસ કહે છે ? કે બીજા કેઈ પ્રાણીને ત્રસ કહે છે? આ પ્રશ્ન સાંભળીને ભગવાન શ્રી ગૌતમ સ્વામીએ યુક્તિપૂર્વક ઉદક પિઢાલપુત્રને આ પ્રમાણે કહ્યું–હ આયુષ્યનું ઉદક ! જે પ્રાણિને આપ “ત્રસલૂન કહે છે તેને જ અમે ત્રસ” પ્રાણુ કહીએ છીએ જેને અમે ત્રસ પ્રાણી કહીએ છીએ તેને તમે વ્યસભૂત પ્રાણી કહે છે. આ બંને શબ્દો એક અર્થવાળા છે, Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे चदाम खमाः प्राणा इति, तान यूयं वदथ त्रसभूताः माणा इति । 'एए मंति दुबे ठाणा तुल्ला एगड्डा' एते द्वे स्थाने तुल्यार्थे - एकार्थे । इमे द्वे अपि पदे त्रस इवि भूत इति समानार्थके एव । एकार्थतया - एकस्यैव द्वयोरपि मध्ये कस्यापि प्रयोगे पुनस्तत्र पर्यायरूपस्य प्रयोगः पौनः पुनिकं निरर्थकतां च याति । 'किमा उसो ?' हे आयुष्मन् किम् 'हमे भे सुप्पणीयतराए भन३' अयं युष्माकं पक्षः सुपः णीतवरो भवति । 'तसभूया पाणा तसा इइ' त्रसभूताः प्राणात्रता इति । 'इमे भे दुष्पणीयतरा भवइ तसा पाणा तसा अपि तु अयं युग्माकं दुष्प्रणीततरो. भवति, त्रसाः माणास्त्रसाः, यदोभयोरपि समानार्थता तदा, 'एगमाउसो ! पडिकोसह एवं अभिनंदह' एकमायुष्मन् ! प्रतिक्रोशथ - एकं पक्षं निन्दथ, एकमपरं च पक्षम् अभिनन्द-प्रशंसय । 'अपि भेदो से णो णेआउर भवः' हे आयुष्मन् ! अयमपि भेदः समानार्थकत्वेऽपि एकपक्षस्य निन्दा - अवरपक्ष प्रशंसन मिति भेदो न नैयायिकः - न्याययुक्तो न भवति । 'भगवं च णं उदाहू' भगवांच गौतमः 1: पुनराह - 'संतगढ़या मणुस्सा भवंति' सन्ति एकके मनुष्या, भवन्ति 'तेसिं चणं वृत्तपुत्रं भवइ' तैवेदमुक्त पूर्व भवति - बहवो मनुष्या एतादृशाः स्थान एकार्थक हैं अर्थात् त्रस और त्रसभूत, इन दोनों शब्दों का अर्थ एक ही है । जब दोनों शब्दों का अर्थ एक ही है तो दोनों में से किसी भी एक शब्द का प्रयोग करने पर पुनः वही उसके पर्यायवाचक शब्द का प्रयोग करना पुनरुक्ति है और निरर्थक भी है। हे आयुष्मन् ! ऐसी स्थिति में क्या 'सभूत प्राणी प्रस' ऐसा आपका कहना ठीक है ? नहीं, यह ठीक नहीं है। जब दोनों शब्द समानार्थक है तो आप एक की प्रशंसा और दूसरे की निन्दा क्यों करते हैं ? हे आयुष्मन् यह न्याय संगत नहीं है । भगवान् श्री गौतम स्वामी पुनः बोले- बहुत से मनुष्य ऐसे होते અર્થાત્ ત્રસ અને ત્રસદ્ભૂત આ બન્ને શબ્દના અ` એકજ પ્રકારને છે, જ્યારે ખન્ને શબ્દોના અર્થ એકજ પ્રકારના છે તે બન્નેમાંથી કાઈપણુ એક શખ્સને પ્રયાગ કરવાથી ફરીથી એજ તેના પર્યાયવાચક શબ્દોના પ્રયાગ કરવા તે પુનરૂક્તિ ઢાષ કહેવાશે. અને તે નિરક પણ છે. હું આયુષ્મન્ આ પરિસ્થિતિમાં શુ ‘ત્રસભૂત પ્રાણી ત્રસ' એ પ્રમાણેનું આપનું કથન ખરેખર છે ? ના તે ખરાખર નથી. જયારે બન્ને શબ્દો સમાન અવાળા છે, તે આપ એકની પ્રશંસા અને મીાની નિંદા કેમ કરેા છે ? હે આયુષ્મન્ આ કથન ન્યાય પુરઃસર નથી ભગવાન શ્રી ગૌતમ સ્વામી ફરીથી કહે છે કે-શુા મનુષ્ય એવા હોય Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयाथैवोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.१ पुण्डरीकनामाध्ययनम् इति वा, चतुष्कोण इत्यर्थः 'आयएइ वा, छलंसिएइ वा, अटुंसेइ वा' आयतो 'दीर्घ इति वा, षडन इति वा, अष्टासः, अष्ट कोण इति वा । 'किण्हेइ वा, नीलेइ वा' कृष्ण इति वा, नील इति वा, 'लोहिएइ वा, हालिदेइ वा, सुकिल्लेइ वा' लोहित इति वा, हारिद्र इति वा, शुक्ल इति वा, 'मुभिगंधेदवा, दुभिगंधेइ वा' सुरभिगन्ध इति वा, दुरभिगन्ध इति वा, तित्तेइवा, कटुएइ वा' तिक्त इति वा, कटुक इति वा, कसाएइ वा, अंबिलेइ वा, महुरेइ वा' कपाय इति वा, अम्लइति वा, मधुर इति था, 'कक्खडेइ वा मउएइ वा' कर्कश इति वा मृदुक इति वा 'गरुएइ वा, लहुएइ वा' गुरुक इति वा, लघुक इति वा, 'सीएइवा, उसिणेइ वा' शीत इति वा, उष्ण इति वा, 'णिद्धेइ वा, लुक्खेइ वा स्निग्ध इति वा, रूक्षइति वा। अयमात्मा दीर्घादिविशेषणेषु कीदृशविशेषणवान् ? । एवं कृष्णादि पञ्चवर्णेषु कीदृग्वर्णवान् ?। द्विविध गन्धयोः कीदृग् गन्धवान् ? तिक्तादिपश्चरसेषु कीदृग् रसवान् ? कर्कशायष्टस्पर्शेषु कोहक स्पर्शवान् आत्मा ? इति न ज्ञायते अत. है ? नीला है, लाल है, पीला है, श्वेत है, अर्थात् किल रंग का है ? या सुगंध वाला है या दुर्गंध वाला है ? तिक्त है, कटुक है, कसैला है, खट्टा है, मीठा है अर्थात् अमुक रस वाला है ? कठोर है, कोमल है भारी है, हल्का है, शीत है, उष्ण है, चिकना है, रूखा है अर्थात् अमुक स्पर्श वाला है, इस प्रकार वे आत्मा को दिखलाते! किन्तु वे दिखला नहीं सकते, अतएव शरीर से भिन्न आत्मा नहीं हैं। तात्पर्य यह है कि यदि आत्मा का पृथक अस्तित्व होता तो उसमें कोई आकार, वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होता और इस कारण हमारी कोई इन्द्रिय उसको ખૂણાઓવાળે છે, અથવા કેવા આકારવાળે છે? કાળે છે, નીલ છે, લાલ છે, પીળે છે, સફેદ છે, અર્થાત્ કેવા પ્રકારના રંગવાળે છે? સુંગધ. વાળે છે? કે દુર્ગધ વાળે છે? તીખે છે? કહે છે? કષાય-તરે છે? ખાટે છે? મીઠે છે? અર્થાત્ કેવા પ્રકારના રસવાળે છે? કઠોર છે? કમળ छ १ सारे छ ? छ ? ४ छ ? उनी छ ? यि । छे १ ३१-४२म. ચડે છે? અર્થાત્ અમુક સ્પર્શવાળે છે, તે રીતે તેઓ આત્માને બતાવત પરંતુ તેઓ બતાવી શકતા નથી તેથી જ શરીરથી જુદે આત્મા નથી. तम मानन. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે–જે આત્માનું અસ્તિત્વ શરીરથી જ હત તે તેમાં કેઈ આકાર, વર્ણ, ગધ, રસ અને સ્પર્શ હેત જ અને તેથી અમારી કઈ પણ ઈન્દ્રિય તેને જાણું લેત, પરંતુ તે ઈન્દ્રિયને ગોચર Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१३ - समार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ७ गौतमं प्रति पुनरुदकस्य प्रश्नः सन्ति ये साधुसमीपं समेत्य एवं वदन्ति 'नो खलु वयं संचारमो मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारयं पव्वइत्तए' नौ खलु वयं शक्नुमो मुण्डा भूत्वा अगारांद् अनगारितां प्रव्रजितम् । इदानी मेतादृशी शक्तिर्नास्ति येन सर्वम् 'सा'वयं पह तद् वयं खलु 'आणुपुब्वेण गुत्तस्स लिसिस्सामो' आनुपूर्व्येण - क्रमशः गोत्रं - साधुभावमुप श्लेषयिष्यामः, प्रथमं स्थूलपाणातिपातं त्यक्ष्यामः ततः सूक्ष्मप्राणातिपात परिक्ष्यामः । किन्तु इदानीम् -'ते एवं संखवेति' ते एवं संख्यापयन्ति-व्यव स्थापयन्ति संख्यां व्यवस्थां श्रावयन्ति प्रत्याख्यानं कुर्वन्तः प्रकाशयन्ति 'ते एवं संखं ठावयति' एव ते संख्यां विचारं स्थापयन्ति - संख्या- विचारं गुरुसमीपे प्रकटयन्ति 'नन्नथ अभियोगेण गाहावइचोरग्गहण विमोक्खणयाए' नान्यत्राऽभि योगेन गाथापतिचोरग्रहणविमोक्षणेन 'तसेहिं पाणेहिं निहाय दडं' त्रसेषु प्राणिषु दण्ड - प्राणातिपातं निहाय - त्यक्त्वा करोति 'तं पितेसि कुसलमेव भवई' तदपि ' लेशतः प्राणातिपातादिविरमणमपि तेषां कुशलमेव भवति, यावन्मात्रमेव हैं जो साधु के समीप आकर कहते हैं-हम मुंडित होकर और गृहत्याग करके अनगार वृत्ति को धारण करने में समर्थ नहीं हैं । हम अनुक्रम से धीरे-धीरे साधुता अंगीकार करेंगे। हम प्रथम स्थूलप्राणातिपात का त्याग करेंगे। तत्पश्चात् सूक्ष्म प्राणातिपात का स्याग करेंगे । वे प्रत्याख्यान करते हुए इस प्रकार की व्यवस्था प्रकाशित करते हैं। वे ऐसा विचार प्रकट करते हैं। तदनन्तर वे राजाभियोग का 1 1 आगार रखकर गाथापति चोरविमोक्षण न्याय से त्रस प्राणियों की हिंसा का त्याग करते हैं। उनका इस प्रकार का थोड़ा-सा हिंसा का त्याग भी अच्छा ही है । वह जितना त्याग करते हैं, उतना ही उनके लिए कल्याणकारी है। कहा भी है- 'स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य' इत्यादि । धर्म का थोड़ा सा अंश भी महान् भय से रक्षा करता है ||८|| છે કે-અમે સુફ્તિ થઇને અને ગૃહના ત્યાગ કરીને અનગાર વૃત્તિ ધારણ કરવાને સમર્થ નથી. અમે અનુક્રમથી ધીરેધીરે સાધુપણાના સ્વીકાર કરીશુ અમે પહેલાં સ્થૂલ પ્રાણાતિપાતના ત્યાગ કરીશું, તે પછી સૂક્ષ્મ પ્રાણાતિપાતના ત્યાગ કરીશું'. તેએ પ્રત્યાખ્યાન કરતા થકા આ પ્રમાણેની વ્યવસ્થા પ્રગટ કરે છે. તેઓ એવા વિચાર કરે છે તે પછી તેઓ રાજાભિયાગના આગાર રાખીને ‘ગાથાપતિચારવિમાણુ' ન્યાયથી ત્રસ પ્રાણિની હિંસાના ત્યાગ કરે છે. આ પ્રમાણેના તેમના થાડા એવા હિઁસના ત્યાગ પણ સારા જ છે. તે જેટલેા ત્યાગ કરે છે. એટલે જ તેને માટે કલ્યાણકારક છે. छे- स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य' त्याहि धर्म ना थोड़ी अ ंश यषु भडान् ભયથી રક્ષા કરે છે, ટા सु० ९० Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४ -PAPER सूत्रहत्ताने त्यजति तावदेव तस्य कल्याणायेति । उक्तश्च-'स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य प्रायते महतो भयादिति ॥सू०८-७५|| मूलम्-तसा वि वुच्चंति तसा तससंभारकडेणं कम्मुणा णामं च णं अन्भुवगयं अवह, तसाउयं च णं पलिक्खीणं भवइ, शालकायष्टिहया ते तओ आउयं विष्पजहंति ते तओ आउयं विप्पजहिता थावरत्ताए पच्चायति। थावरा वि वुच्चंति थावरा थावरसंभारकडेणं कम्मुणा गाम च णं अब्भुवगयं भवइ, थावराउयं च णं पलिक्खीणं सवइ, थावरकायहिइया ते तओ आउयं विष्पजहंति, तओ आउयं विपजहिता भुज्जो परलोइयत्ताए पच्चायंति, ते पाणा वि वुचंति, ते तसा वि वुच्चंति, ते महाकाया ते चिरट्रिइया ।।सू० ९॥७६॥ छाया-सा अप्युच्यन्ते त्रसास्वमसम्भारकतेन कर्मणा नाम च खल्वभ्यु. पगतं भवति । वसायुष्कं च खलु परिक्षीणं भवति त्रसकायस्थितिकास्ते तदायुष्कं विप्रजहति । ते तदायुष्क विप्रहाय स्थावरत्वाय प्रत्यायान्ति स्थावरा अप्युच्यन्ते 'स्थावराः स्थावरसम्भारकृतेन कर्मणा नाम च खन्यभ्युपगतं भवति, स्थावरायुष्क च खलु परिक्षीणं भवति स्थावरकायस्थितिकास्ते तदायुष्फ विप्रन हति, तदायुष्क विग्रहाय भूयः पारलौकिकत्वेन प्रत्यायान्ति, ते प्राणा अप्युच्यन्ते ते त्रसा 'अप्युच्यन्ते ते महाकायास्ते चिरस्थितिकाः ॥मू०९-७६॥ . ___टीका-पूर्वमुद केन गौतमस्त्रामी पृष्टः यः श्रावकः त्रसानां हिंसनं न करिष्यामीति प्रतिज्ञा कृतवान् किन्तु-त्सा एवं स्थावरकाये समुत्पद्यन्ते, तत्र स्थावरकायान् यदि हन्ति-तदा तस्य प्रतिज्ञाभङ्गदोपः कुतो न भवति यथा 'तसा चि बुच्चंति' इत्यादि । टीकार्थ-पहले उदक पेढालपुत्र ने श्री गौतम स्वामी से पूछा थाकिसी श्रावक ने त्रस जीवों की हिंसा नहीं करूँगा, इस प्रकार से हिंसा का त्याग किया किन्तु ब्रस जीव मरा कर स्थावर कार्य में उत्पन 'तसा वि वुच्चंति' त्या ટીકાર્થ–પહેલા ઉદક પઢાલપુત્રે શ્રી ગૌતમ સ્વામીને પૂછયું હતું કેકઈ શ્રાવકે ત્રસ જીવોની હિંસા નહીં કરુંએવી પ્રતિજ્ઞા કરી હિંસાનો ત્યાગ કર્યો હોય, પરંતુ ત્રસ જીવ મરીને સ્થાવરકયમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. તે Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ७ प्रतिज्ञाभङ्गविषये गौतमस्योत्तरम् ७१५ नागरिकाणां जनानां हननं करिष्यामीति प्रतिज्ञां कृनवान् कश्चित् तत्र नगरो बहिर्गतस्य तन्नगरीयस्य हनने प्रतिज्ञाकर्तुः प्रतिज्ञा भङ्गदोवो भवत्येव । इत्युदक कृतप्रश्नं गौतम उत्तरयति - 'तसावि' त्रमा अपि-त्रसजीवा हि त्रसनामकर्मोदयेन फलानुभवाय त्रस इति शब्देन 'बुच्चति' उच्यन्ते व्यवह्रियन्ते 'तसा वससंभार कडे कम्णा णामं चणं अन्भुवयं भवई' सामसंभारकृतेन कर्मणा नामचाभ्युपगतं भवति, सम्भारो नामकर्मणोऽवश्यं विपाकानुभवेन वेदनम् स इति कर्मोदयेन स इति नाम धारयन्ति । 'तसाउयं च णं पलिक्खीणं भवइ, उसकायया ते त आउयं विवजहति' सायुष्क व खलु परिक्षीणं भवति, त्रकायस्थितिकाः- सकाये स्थितिर्येषां ते तथा, मकाये तदीयस्थितिहेतुभूते कर्मणि नष्टे सति ते साः तदायुष्क विप्रजहति । तदा सायु परिक्षीयते - एक, त्रसशरीकारणभूतं कर्म चाऽपगतम् - तदा ते त्रयाः तादृशमायुस्त्यजन्ति । 'ते त आउयं विष्वज हित्ता थावरत्ताए पञ्चायति' ते-त्रताः सायुष्कं विप्रदाय स्थावरcare प्रत्यायान्ति । 'थावरा वि बुच्चति - थावरा थावरसंभारकडेणं कम्मुणा णामं चणं अवयं भवई' स्थावरा अपि उच्यन्ते स्थावराः स्थावरसम्भारकृतेन कर्मणा नाम च खलु अभ्युपगतं भवति । स्थावरजन्तवोऽपि स्थावरनामहो जाते हैं । वह श्रावक उन स्थावर जीवों का जो पहले त्रस थे, घातं करता है । तब उसको त्याग भंग का पार क्यों नहीं लगता ? इस प्रश्न का यहां उत्तर दिया जाता है- - सजीव अवश्य भोगने योग्य बस नामकर्म के उदय से अर्थात् बस नामकर्म का फल भोगने के कारण त्रस कहलाते हैं । इसी कारण वे 'स' इस नाम को धारण करते हैं । जब उनकी त्रस आयु का क्षय हो जाता है और त्रसकाय में स्थिति का कारण भूत कर्म भी क्षीण हो जाता है, तब वे से आयु को त्याग देते हैं और स्थावर पर्याय को પછી તે શ્રાવક તે સ્થાવર જીવાના, કે જે પહેલાં ત્રસ હતા, તેમનેા ઘાત કરે છે, ત્યારે તેમને પ્રતિજ્ઞાભગનું પાપ કેમ લાગતુ નથી ? આ પ્રશ્નને ઉત્તર અહીંયાં આપવામાં આવે છે. 1 ત્રસ જીવ અવશ્ય ભાગવવાને ચેાગ્ય ત્રસ નામક ના ઉદયથી અર્થાત્ ત્રસ નામક નુ ફળ ભાગવવાના કારણે ત્રસ કહેવાય છે. એજ કારણે તે ત્રસ' આ નામને ધારણ કરે છે. જ્યારે તેએના ત્રસપાના આયુષ્યના ક્ષય થઇ જાય છે, અને ત્રસકાયમાં સ્થિતિના કારણભૂત કમ પણુ ક્ષીણ થઈ જાય છે. ત્યારે તેઓ ત્રમપણાના આયુષ્યને ત્યાગ કરી દે છે. અને સ્થાવર પર્યાયને ધારણ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकता कर्मणोः फलमनु मवन्तः स्थावरा इति कथयन्ते । अतस्ते स्थावर इति संतामपि प्राप्नुवन्ति । 'थावराउयं च णं पलिक्खीणं भवइ थावर कायटिया ते तो आउयं विप्पजहंति' स्थावरायुष्कं च खलु परिक्षीणं भवति, स्थावरकायस्थितिकाः-स्था. वरकाये स्थितियेषां ते तथा, स्थावरकास्थिति देतभूने कर्मणि नष्टे सति तेस्थावराः तदायुकं विमजहति-स्थावरायः परित्यजन्ति । 'तो आउयं विपजहिता भुजो परलोइयत्ताए पचायति' ते स्थावराः तदायुष्क विमहाय-न्यक्रम्या भूयः-पुनरपि पारलौकिकतया प्रत्यायान्ति । 'ते पाणा वि बुच्चंति ते तसा वि बुच्चंति-ते महाकाया-ते चिरटिश्या' ते-त्रसस्थावरजीवाः, माणधारणात् भाणा अप्युच्यन्ते-ते त्रसनामकर्मोदयात् बसा अप्युच्यन्ते, ते महाकाया अपि भवन्ति, योजनलक्षममाणशीरविकुर्वणात, ते चिरस्पिनिका अपि भवन्ति-त्रय. विंशत्सागरायुभावादिति ॥मू०९-७६।। धारण करते हैं। इसी-प्रकार स्थारवर जीव भी अवश्य भोगने योग्य स्थावर नाम कर्म के उदय से, स्थावर कहलाते है और इसी कारण 'स्थावर' नाम को धारण करते हैं। जब उनकी स्थावर की आयु क्षीण हो जाती है और स्थावर काय की स्थिति के कारणभूत कर्म भी क्षीण हो जाता है तय वे जीव स्थावर-आयु का त्याग कर देते हैं। स्थावरआयुष को त्याग कर वे प्रप्तपर्याप को धारण कर लेते हैं। वे प्राणी भी कहे जाते हैं, बस भी कहलाते हैं और महान शरीर वाले एवं चिरकालीन स्थिति वाले भी कहलाते हैं, अर्थात् उनमें कोई-कोई एक लाख योजन प्रमाण शरीर की विक्रिया भी करते हैं और तेतोस सागरोपम की भी स्थिति पाते हैं ॥९॥ કરે છે. આ જ પ્રમાણે સ્થાવર જીવ પણ અવશ્ય જોગવવા ગ્ય સ્થાવર નામકર્મના ઉદયથી સ્થાવર કહેવાય છે. અને એ જ કારણે સ્થાવર' નામને ધારણું કરે છે. જ્યારે તેમના સ્થાવરપણાના આયુષ્યને ક્ષય થઈ જાય છે, અને રથાવરકાયની સ્થિતિના કારણભૂત કર્મને પણ ક્ષય થઈ જાય છે. ત્યારે તે જ સ્થાવર આયુષ્યને ત્યાગ કરી દે છે. સ્થાવર આયુષ્યને ત્યાગ કરીને તેઓ ત્રસ પર્યાયને ધારણ કરી લે છે. તેઓ પ્રાણી પણ કહેવાય છે. ત્રસ પણ કહેવાય છે. અને મોટા શરીરવાળા અને લાંબા કાળની સ્થિતિવાળા પણ કહેવાય છે. અર્થાત્ તેઓમાં કેઈઈ એક લાખ જન પ્રમાણુવાળા શરીરની વિક્રિયા પણ કરે છે. અને તેત્રીસ સાગરોપમની સ્થિતિ પણ પામે છે. આ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यार्थबोधिनी टीका fr. श्रु. अ. ७ हिंसात्यागविषयक प्रश्नोत्तर'च ७१७ · मूलम् - सवायं उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं एवं वयासीआउसंतो गोयमा ! णत्थि णं से केइ परियाए जपणं समणोवासगस्स एगपाणाइवायविरए वि दडे निक्खित्ते, कस्स णं तं हे ? संसारिया खलु पाणा, थावरा वि पाणा तसत्ताए पच्चायंति तसा वि पाणा थावरत्ताए पच्चायंति, थावरकायाओ विष्पमुच्चमाणा सव्वे तसकायंसि उववज्जंति, तसकायाओ विप्पमुच्चमाणा सव्वे थावरकार्यांस उववज्जंति, तेसिं व थावरकार्यंसि उववन्नाणं ठाणमेयं घत्तं । सवायं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी - णो खलु आउसो ! उदगां अस्माकं वत्तच्त्रणं तुभं चैव अणुष्पवादेणं, अस्थि णं से परियाए जेणं समणोवासगस्स सव्वपाणेहिं सव्वभूएहिं सवजीवेहि सव्वसत्तेहिं दंडे निक्खिते भवइ, कस्स णं तं हेउ ? संसारिया खलु पाणा, तसा वि पाणा थावरत्ताए पच्चायंति, थावरा वि प्राणा तसत्ताए पञ्चायति, तसकायाओ विप्पमुच्चमाणा सव्वे थावरकायंसि उववज्जंति, थावरकायाओ विप्पमुच्चमाणा सव्वे तसकायंसि उववज्जंति, तेसिं चणं तसकायंसि उववन्नाणं ठाणमेयं अधत्तं, ते पाणा वि वुच्चंति, ते तसा वि वुच्चति, ते महाकाया ते चिरहिइया, ते बहुयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवति, ते अप्पयरंगा पाना जेहिं समणोवासंगस्स अप्पच्चक्खायं भवइ, से महया तसकायाओ उवसंतस्स उवट्टियस्स पडिविरयस्स जन्नं तुब्भे 1 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ सूत्रकृताङ्गमा वा अन्नोना एवं वदह-णत्थि णं से केइ परियाए जंसि समणोवासगस्ल एगपाणाइवायविरए वि दंडे णिक्खित्ते, अयंपि भेदे से णो णेयाउए भवइ ।सू० १०॥७७॥ छाया-सवादमुदकः पेढालपुत्रो भगवन्तं गौतममेवमवादी-आयुष्मन् गौतम ! नास्ति खलु स कोऽपि पर्यायो यस्मिन् श्रमणोपासकस्य-एक माणातिपातविरतेरपि दण्डो निक्षिप्तः । तस्कस्य हेतोः ? सांसारिकाः खलु माणाः स्थावरा अपि प्राणाः सत्वाय प्रत्यायान्ति । वसा अपि माणाः स्थावरस्वाय प्रत्यायान्ति । स्थावरकायतो विप्रमुच्यमानाः सर्वे त्रसकाये पृत्पद्यन्ते त्रसकायतो विमाच्यमानाः सर्वे स्थावरकायेपूत्पद्यन्ते । तेषां च खलु स्थावरकाये पूत्पन्नाना स्थानमेतद् घात्यम् । सवाद भगवान् गौतमः उदकं पेढलपुत्रमेवमादीत् । नो खलु आयुप्मन्-उदक ! अस्माकं वक्तव्यत्वेन युष्माकं चैवाऽनुमबादेन, अस्ति खलु स पर्यायः यस्मिन् श्रप्रणोपासकस्य सर्वप्राणेषु सर्वभूतेषु सर्वजीवेषु सर्वसत्वेषु दण्डो निक्षिप्तो भवति । तत् कस्य हेतोः ? सांसारिकाः खलु प्राणाः नसा अपि प्राणाः स्थावरत्वाय प्रत्यायान्ति । स्थावरा अपि भाणाः सत्वाय प्रत्यायान्ति । त्रसकायतो विप्रमुच्यमानाः सर्व स्थावरकायेत्पद्यन्ते, स्थावरकायतो विप्रमुच्यमाना: सर्व प्रप्तकायेपूत्पद्यन्ते । तेषां च खल्ल त्रसकाये वृत्पन्नानां स्थानमेतद् अघात्यम् । ते प्राणा अप्युच्यन्ते ते त्रसा अप्युच्यन्ते ते महाकायास्ते चिरस्थितिकाः। ते वहु। तरकाः प्राणाः येषु श्रमणोपासकस्य सुप्रत्याख्यातं भवति । तेऽस्पतरकाःप्राणाः येषु श्रमणोपासकस्याऽपत्याख्यातं भवति । तस्य महतस्त्रसकायादाशान्तस्योपस्थितस्य मतिविरतस्य यद् यूय वा अन्यो वा एवं वदथ, नास्ति खलु स कोऽपि पर्याय: -यस्मिन्-श्रमणोपाप्तकस्य-एक माणातिपातविरतेरपि दण्डो निक्षिप्तो भवति । अयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति ।।मू०१०॥ . टीका-पुनरपि-उदकः पेढालपुत्रो भगवन्तं पृच्छति-'सवाय उदए पेढाल. पुत्ते भगवं गोयमं एवं क्यासी' सवादम्-वादसहितं पेढालपुत्र उदको भगवन्तं गौतमस्वामिनं पुनरपि एवमवादी-वक्ष्यमाणं प्रश्नं पृष्टवान् 'आउसंतो .. 'सवायं उदए पेढालपुत्ते' इत्यादि । .. टीकार्य--उदक पेढालपुत्र ने वाद के साथ भगवान श्री गौतम से इस प्रकार कहा-आयुष्मन् गौतम! जीव का ऐसा एक भी कोई पर्याय - 'सवाय उदए पेढालपुत्ते' त्याह ટીકાઈ–ઉદક પઢાલપુત્રે વાદસહિત ભગવાન્ શ્રી ગૌતમસ્વામીને આ પ્રમાણે કહ્યું- હે આયુષ્પદ્ ગૌતમ! જીવને એ એક પણ પર્યાય નથી કે Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका वि. अ. स.७ हिंसात्यागविषयक प्रश्नोत्तरच ७१९ गोयमा ।' आयुष्मन् हे गौतम ! 'णस्थि णं से केइ परियाए' तादृशः-तावान् कोऽपि पर्यायो नास्ति । 'जण्णं समणोवासगरस' यस्मिन् प्रयोक्ष्यमाणपर्याये श्रमणोपासकस्य श्रावकस्य, 'एगपागाइवायविरए वि दंडे निक्खित्ते एकमाणा. ऽतिपातविरतेरपि दण्डो निक्षिप्तः । नास्ति कोऽपि पर्यायो यम् अमारयन् श्रावका स्त्रीयां माणातिपातपत्याख्यानपतिज्ञा सफलयेत् । 'कस्स णं तं हेउ' तस्कस्य हेतो? 'संसारिया खलु पाणा' सांसारिकाः खलु प्राणाः, परिवर्तनशीला हि प्राणिनों भवन्ति । 'थावरा वि पाणा तसत्तार पच्चायति' स्थावरा अपि पाणाः प्रसस्वाय प्रत्यायान्ति-कदाचित् स्थावरा अपि प्राणा स्त्रसा भवन्ति 'तसावि पाणा थावरत्ताए पञ्चायति' वसा अपि माणाः स्थावरत्वाय प्रत्यायान्ति । कदाचित् वसा अपि पाणा: स्थावरा भवन्ति । 'यावरकायाओ विप्पमुच्चमाणा सम्वे तसकायंसि उववज्जति' स्थावरकायतो विप्रमुच्यमानाः सर्वे जीवाः सकाये पूत्पद्यन्ते । तथा-'तसकायाओ विप्पमुच्चमागा सव्वे थावरकार्यसि उपवनंति' उसकायतो विप्रमुच्यमानाः सर्वे स्थावरकायेषु समुत्पद्यन्ते । 'तेसिं च णं थावकासि उववनाणं ठाणमेयं घत्तं' तेषां च खलु स्थावरकायेपूत्पन्नानां स्थानमेत घात्यम् । यदा ते सर्वे त्रसा: स्थावरकायेषु समुत्पद्यन्ते-तदा ते त्रसाः श्रावकस्य घातयोग्या नहीं है, जिसकी हिंसा का श्रमणोपासक त्याग कर सकता हो। इसका कारण क्या है ? संसार के प्राणियों के पर्याय परिवर्तनशील हैं। स्थावर प्राणी भी त्रस रूप में आजाते हैं और त्रस प्राणी भी स्थावर हो जाते हैं । स्थावरकाय से छूटकर सभी जीच त्रसकाय में उत्पन्न हो जाते हैं तथा उसकाय से छूटकर सभी स्थावर कायों में उत्पन्न हो जाते है। जब वे सब स्थायरकाय में उत्पन्न हो जाते हैं तो श्रमणोपासको के घात के योग्य हो जाते हैं । ऐसी स्थिति में वह प्रतिज्ञा प्रयोजन हीन हो जाती है। मान लीजिए किसी ने ऐसी प्रतिज्ञा की कि मैं इस नगरनिवासियों का घात नहीं करूँगा। तत्पश्चात् वह नगर उजड गया જેની હિંસાને શ્રમણોપાસક ત્યાગ કરી શકતા હોય, તેનું શું કારણ છે? સ સારના પ્રાણિયે ના પર્યાયે પરિવર્તન સ્વભાવવાળા છે. સ્થાવર પ્રાણી પણ ત્રસ૫ણામાં આવી જાય છે. અને ત્રણ પ્રાણું પણ સ્થાવર પણામાં આવી જાય છે સ્થાવર કાયથી છૂટીને બધા જ જીવો ત્રસકાયમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. તથા ત્રસકાયથી છૂટિને બધા જ જી સ્થાવરકામાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે જયારે તે બધા સ્થાવરકામાં ઉત્પન થઈ જાય છે, તે શ્રમણોપાસકેના ઘાતને ચગ્ય થઈ જાય છે. આ સ્થિતિમાં તે પ્રતિજ્ઞા પ્રયજન વિનાની બની જાય છે માની કે કેઈએ એવી પ્રતિજ્ઞા કરી હોય કે-આ નગરમાં રહેનારાઓની હિંસા કરીશ નહી તે Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० सूत्रकृतालमत्र भवन्ति । इति निविपया प्रयोजनशून्या प्रतिज्ञा भवति, यथा-केनचित् प्रतिमा नगरवासी मया न हन्तव्य इति तच्चोद्वसितं नगरं ततो निर्विपयं प्रत्याख्यानमिति । भगवान् गौतमः-उदकं कथयति भो-उदक ! मम सिद्धान्तमनुसरतो जनस्य प्रश्न एव नोपतिष्ठति । यतः सर्वे असा एकदैव स्थावरा भवन्तीति नायं पक्षा, एवन्तु नाभून्न भवति न वा भविष्यति । किन्तु-तव मतेऽपि श्रावकवतं निविषयं न भवति । सव मतेऽपि सर्वे स्थावरा अपि त्रसाः कदाचिद्रवन्ति, तदा-श्रावस्य त्यागविषयोऽतीवाऽधिक उपजायते । तत्समये श्रावकस्य प्रत्यारूपानं सर्व पाणिविषयक भवति । अतः श्रावकस्य प्रत्याख्यानं निर्विषयक भवतीति. कथन न न्यायसिद्धमिव प्रतिमातीति । अक्षरार्थस्त्वेवम्-तथाहि-'सवायं भगवं गोयमें उदयं पेढालपुत्तं एवं चयासी' सवाद-वादपूर्वक भगवान् गौतमः उदक तो उसका प्रत्याख्यान निर्विषय निरर्थक हो जाता है। क्योंकि उस स्थिति में वहां घात करने योग्य कोई प्राणी उसके लिए नहीं रहता। __ भगवान् श्री गौतम स्वामी उदक से कहते हैं-हे उदक ! मेरे सिद्धान्त का अनुसरण किया जाय तो यह प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। क्योंकि सभी त्रस जीव एक ही काल में स्थावरकाय हो जाते हैं और उस समय कोई प्रस जीवत्व से रहता ही नहीं है, ऐसा हमारा पक्ष नहीं है। न कभी ऐसा हुआ है, न कभी ऐसा होता है और न कभी ऐसा ही होगा। किन्तु तुम्हारे मत के अनुसार भी श्रावक का व्रत निर्विषय नहीं हो सकता, क्यों कि तुम्हारे मत के अनुसार किसी समय सभी स्थावर जीव भी प्रस हो जाते हैं, उस समय श्रावक के त्याग का विषय यहुत अधिक बढ जाता है । उस अवस्था में श्रावक का प्रत्याख्यान सर्व प्राणी विष. પછી તે નગર ઉજજડ થઈ ગયું હોય તો તેનું પ્રત્યાખ્યાન નિરર્થક બની જાય છે, કેમકે–એ સ્થિતિમાં ઘાત ન કરવા એગ્ય કોઈ પ્રાણી ત્યાં હોતું જ નથી. ભગવાન શ્રી ગૌતમ સ્વામી ઉદક પિઢાલપુત્રને કહે છે –હે ઉંદક! મારા સિદ્ધાંત પ્રમાણે વિચારવામાં આવે તો આ પ્રશ્ન જ ઉપસ્થિત થતો નથી કેમકે– બધા જ ત્રસ જી એક જ સમયે સ્થાવર બની જાય છે, અને એ વખતે કઈ ત્રસ જી રહેતા જ નથી એ અમારા પક્ષ નથી કેઈ કાળે તેમ થયું નથી. કેઈ કાળે તેમ થતું નથી, અને કયારેય પણ તેમ થશે નહીં. પરંતુ તમારા મત પ્રમાણે પણ શ્રાવકનું વ્રત નિર્વિષય અર્થાત નિરર્થક થઈ શકતું નથી. કેમકે- તમારા મત પ્રમાણે કે સમયે સ્થાવર જીવે પણ ત્રસ બની જાય છે. તે વખતે શ્રાવકને ત્યાગ કરવાને વિષય ઘણે અધિક વધી જાય છે. તે અવસ્થામાં Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि.श्रु. अ.७ हिंसात्यागविषयक प्रश्नोत्तर ७२१ पेढालपुत्रमेवमवादीत् 'आउसो' आयुष्मन् उदक ! 'णो खलु अम्हाणं वत्तव्यएण' , नो खलु. अस्माक वक्तव्यत्वेन,-अस्मदसिद्धान्ताऽनुसारेण एषः प्रश्न एव न । भवति, 'तुम्भं चेव अणुप्पादेणं अस्थि णं से परियाए' युष्माकं चैवाऽनुभवादेन खल स पर्यायाऽस्ति भवसिद्धान्तानुसारेणाऽपि 'जेणं समणोवासगस्स सबपाणेहिं सबभूएहि सधजीवेहि सन्यसत्तेहि दंडे निक्खिसे भवई' यस्मिन् श्रमणो. पासकस्य सर्वमाणेषु सर्वभूतेषु सर्व जीवेषु सर्वसत्वेषु दण्डो निक्षिप्तः परित्यक्तो भवति। त्वदीयमताऽनुसारेगाऽपि तादृशः पर्यायोऽस्ति, यस्मिन् सर्वजीवादिषु श्रावकस्य हिंसात्यगः संभवतीति । 'कस्स णं तं हे तत्कस्य हेतोः ? 'तसा वि पाणा थावरत्ताए पञ्चायति' असा अपि प्राणा:-जीवाः स्थावरशरीरग्रहणाय प्रत्यायान्ति 'थावरा वि पाणा तसत्ताए पच्चायति' स्थावरा अपि प्राणाः प्रसत्वाय प्रत्यायान्ति, 'तसकायाभो विप्पमुच्चमाणा सव्वे थावरकार्यसि उबवज्जति' त्रसकायतो विप. यक बन जाता है। अतएव श्रावक का प्रत्याख्यान निविषय है। यह कहना न्याय संगत प्रतीत नहीं होता। शब्दार्थ इस प्रकार है। भगवान श्री गौतम स्वामी ने वादपूर्वक उदक पेढालपुत्र से कहाहे आयुष्मन् उदक ! हमें कहने की आवश्यकता ही नहीं है। हमारे सिद्धान्त के अनुसार यह प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। आपके सिद्धान्त के अनुसार भी वैसा पर्याय है जिसमें सर्वभूत प्राण जीव और सत्त्व के विषय में श्रावक का हिंसा त्याग संभव है । किस कारण से मैं ऐसा कहता हूं ? क्यों कि त्रस प्राणी भी स्थावररूप से उत्पन्न हो जाते हैं और स्थावर जीव भी उस रूप में उत्पन्न हो जाते हैं। त्रसकाय से छूट कर सभी जीव स्थावरकायों में उत्पन्न हो जाते है और स्थावर काय को स्यागकर सभी जीव त्रस काय में उत्पन्न हो जाते हैं। जघ सभी जीव શ્રાવકનું પ્રત્યાખ્યાન સર્વ પ્રાણી વિષયક બની જાય છે. શ્રાવકનું પ્રત્યાખ્યાન નિર્વિષય છે આમ કહેવું તે ન્યાયયુક્ત લાગતું નથી. શબ્દાર્થ આ પ્રમાણે છે- ભગવાન શ્રી ગૌતમસ્વામીએ ઉદક પેઢાલપુત્રને વાદ સાથે આ પ્રમાણે કહ્યુંહે આયુમન ઉદક! અમારે કહેવાની જરૂર જ રહેતી નથી. મારા સિદ્ધાંત પ્રમાણે આ પ્રશ્ન જ ઉપસ્થિત થતો નથી. આપના સિદ્ધાંત પ્રમાણે પણ એમ જ પર્યાય પરિવર્તન છે. જેમાં સર્વભૂત, પ્રાણી, જીવ, અને સત્વના વિષયમાં શ્રાવકના હિંસાના ત્યાગનો સંભવ છે હું કયા કારણથી આ પ્રમાણે કહું છું? કેમકે ત્રસ પ્રાણી પણ સ્થાવરપણુથી ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. અને સ્થાવર જીવ પણ ત્રસપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે ત્રસકાયથી છૂટને બધા જ જીવો સ્થાવરકાયમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. અને સ્થાવરકાયને ત્યાગ કરીને બધા જ જીવો ત્રસ सु० ९१ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२२ सूत्रकृतास्त्र मुन्यमानाः सर्वे जीवाः स्थावरकाये पद्यन्ते-जे त्रप्तशरीरं परित्यज्य स्थावरकायं रहन्ति । तथा-'धावरकायाओ विष्पमुच्चमाणा सन्चे उस कार्यसि उववज्जति', स्थावरकायतो विपनुन्यमानाः सर्वे जीवा स्वपकायेप्रत्पद्याते, परित्यज्य स्थावरताम् -उपाददने त्रसशरोराणि, 'तेसिं च ण तसकार्यसि उबवणाणं ठाणमेयं अघतं तेषां पवलु पकाये वृत्पन्नानां स्थानयेतद् अघात्यम् । यदा च ते सर्वे जीवा खसकाये समुत्पद्यन्ते तदा तत्र स्थान भावकस्याहिंसायोग्यं भवति । तदा-'ते पाणावि. दुचंति ते सावि बुच्चंति ते महाकाया-चिरट्रिइया' ते पाणधारणात् माणा अत्युच्यन्ते ते असनार्मोदयात् सा अप्युच्यन्ते ते महाकाया स्ते चिरस्थिविकाःमाणादिशब्दव्य चहियन्ते-महाकायवन्तो भवन्ति-योजनलक्षप्रमाणशरीरवि कुणात् , बहुकालस्थायिनोऽपि भवन्ति, त्रयस्त्रिंशत्सागरायुष्कमानात् , 'ते बहुय. उगा पाणा जेहिं समगोवासगस्स मुपक्क्वायं मवई' ते बहुतरकाः प्राणाः येषु श्रमणोपापस्य सुमत्यारूपानं भवति । ते प्राणिनो बहनः सन्नि येषु श्रावकस्य पन्याख्यान सफलं भाति । 'ते अप्पयरगा पाणा जेसि समणोदासगास अपच खायं भवई' तेऽल्पतरकाः प्राणा। येषुःश्रमणोपासकस्य अपत्याख्यातं भवति । तथा -तत्समये ते प्राणिनो भवन्त्येव न हि, येषु श्रावकस्य प्रत्याख्यानं न भवतीति । उमकाय में उत्पन्न हो जाते है तब वह स्थान श्रावक के लिए अहिंसा के योग्य हो जाना है । वे त्रम जीव प्राण धारण करने के कारण प्राण कहलाते हैं त्रस नाम कर्म का उदय होने से त्रम भी कहलाते हैं, वे महाकाय और चिरस्थितिक आदि भी कहे जाते हैं । एक लाख योजन जिनने बडे शरीर की चिक्रिया करने से उन्हें महाकाय कहते हैं। तेतीम सागरोपम तक की आयु होने से महास्थितिक कहलाते हैं। इम प्रकार ऐसे प्राणी बहुत हैं। जिनके विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सफल होता है। उस समय वे प्राणी होते ही नहीं है કાયમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે ત્યારે બધા જ સકાયમાં ઉત્પન થઈ જાય છે, ત્યારે તે સ્થાન શ્રાવકને માટે અહિંસા યે થઈ જાય છે, તે ત્રસ 9 પ્રાણ ધાર કરવાથી પ્રાણ કહેવાય છે, ત્રસ નામકર્મને ઉદય થવાથી વસ પણ કહેવાય છે તેઓ મહાકાય અને ચિરસ્થિનિક વિગેરે પણ કહેવાય છે. એક લાખ જન જેટલા મોટા શરીરની વિકિયા કરવાથી તેઓને મહાકાય કરવામાં આવે છે. તેત્રીસ સાગરોપમ બીનું આયુષ્ય હોવાથી મહામિનિક કહેવાય છે. આ રીતે આવા પ્રાણી ઘણા જ છે. જેના સંબંધમાં થપાસકનું પ્રત્યાખ્યાન સફળ થાય છે. તે સમયે તેઓ પ્રાણી જ દેતા Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्र एवाह-'एवं असंते असंवि नमाणे' एवम् अमन असंवेद्यमानः, एवम् अनेन कारणेन शरीराद् मिनो जीवः अपन्-असंवेद्यमानसत्ताका, अत एव असंवेद्यमान: अननुभूयमान: नानुभवगम्य आत्मेति भावः। ___अथ अन्यो जीवोऽन्यच्छरीरम्' इति मतप्रपाकरोति-'जेसि त' इत्यादि । 'जेसिं' येपां केपाञ्चित् 'त' तत् तदेवं प्रकारकम् 'सु मक्खाय' स्वाख्यातं-सुकथनं भवति, तथाहि 'अन्नो जीवो अन्नं सरीरं' अन्यो जीवोऽन्यच्छरीरम्, ये जीवं शरीरातिरिक्तं कथयन्ति किन्तु 'तम्हा ते णो एवं उबलमंति' तस्मात् तथाविध कथनप्रकाराव एवम्-एवं रूपम्-शरीराद् भिन्न जीवं नो उपल मन्ते-नो प्राप्नुवन्ति, अत्र दृष्टान्तमाह 'से जहा णामए केइपुरिसे' तद्यथा नामकः कश्चित्पुरुषः, 'कोसिओ असि अभिनिबट्टित्ता णं उपदंसेज्जा' कोशात् अपि-खड्गम् अभिनित्ये निष्कास्य खलु उपदर्शयेत् । 'अयमाउसो! असी अयं कोसी' भयमायुष्मन ! असिः अयं कोशः । एवमेव नत्थि केइपुरिसे' एवमेव नास्ति कश्चिन पुरुषः 'अभिनिवट्टित्ता' अभिनिवत्यपृथक् कृत्य जीवस्य 'उपदं से तारो' उपदर्शयिता 'अयमाउसो! आया इयं सरीरं' अयमायुष्मन् ! आत्मा इदं शरीरम्, यदि शरीरव्यतिरिक्त:-आत्मा भवेत् तदा यथा-कोशात खङ्ग निष्कास्य प्रदर्शयितुं शक्येत तथा जीवं शरीरभिन्नं. नोपदर्शयितु केनापि शक्येत तस्मान्नास्ति शरीरव्यतिरिक्त आत्मेति सिद्धम् । जान लेती। किन्तु वह इन्द्रियों के गोचर नहीं है, अतएव उसकी पृथक् सत्ता नहीं है। अतएव शरीर से भिन्न आत्मा न मानने वाले का मत ही युक्ति संगत है। पुनः उन्हीं का मत कहते हैं-जो लोग यह मानते हैं कि आत्मा भिन्न और शरीर भिन्न है, उनको वे इस प्रकार उपालम्म देते हैंजैसे कोई पुरुष तलवार को म्यान से बाहर निकाल कर दिखलाता है कि-हे आयुष्मन् ! देखो, यह तलवार है, और यह म्यान है, इसी प्रकार कोई ऐसा पुरुष नहीं है जो यह दिखला सके कि यह आत्मा है और જાણી શકાય તે નથી. તેથી જ તેની જુદી સત્તા નથી. તેથી જ શરીરથી જુદે આત્મા ન માનવાવાળાઓને મત જ યુક્તિ સંગત છે. ફરીથી પણ તેઓને જ મત બતાવવામાં આવે છે-જે લેકે એવું માને છે કે-આત્મા ભિન્ન છે, અને શરીર પણ અલગ છે, તેને તેઓ આ રીતે ઉપાલંભ આપે છે–જેમ કેઈ પુરૂષ તલવારને મ્યાનથી બહાર કાડીને બતાવે છે કે-હે આયુષ્યન્ જુ આ તલવાર છે. અને આ સ્થાન છે. એજ પ્રમાણે કેઈ એ પુરૂષ નથી કે આ આતમા છે, અને આ શરીર છે, તેમ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ७ हिंसात्यागविषयक प्रश्नोत्तरच ७२३. 'से महया तसकायाओ उवसंमस्त उपट्ठियास पडिविरयस्स जत्तं तुन्भे वा अन्नो वा एवं वदह' तस्य महतस्त्रसकायादुपशान्तस्योपस्थितस्य प्रतिविरतस्य यद यूयं वा अन्यो वा एवं वदथ । अनेन प्रकारेण स श्रावको महतवपकायादुपशान्तो हिंसया मतिविरतो भवति, अस्यां स्थितौ यूयमन्यो वा-एवं वदथ । 'णत्थि ण से केइ परियाए जसि समणोवासगस्स एगपाणाडवायविरए वि दडे णिक्खित्ते नास्ति स कोऽपि पर्यायो यस्मिन् श्रमणोपासकस्य एकप्राणातिपातविरतेरपि दण्डो निक्षिप्तः -परित्यक्तः । तदा यद् ययं कथयथ, नास्ति तादृशः पर्यायो यदर्थं श्रावकस्य प्रत्याख्यान संभवेत् । 'अयपि भेदे से णो णेयाउए भवई' अयमपि भेदो स न नैयायिको भवति-तदिदं भवतां कथनं न न्यायसिद्ध भवति, ततः स उदकः पेढालपुत्रः सवादं गौतमस्योत्तरं श्रुत्वा अस्मिन् विषये प्रतिबुद्धो जात इति ॥१०-७७॥ मूलम्-भगवं च णं उदाहु णियंठा खल्लु पुच्छियव्वा-आउसंतो! नियंठा इह खलु संतेगइया मणुस्सा भवंति, तेसिं च एवं वृत्तपुध्वं भवइ जे इमे मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवइए, एसिं च णं आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते, जे इमे अगारमावसंति एएसिणं आमरणंताए दंडे णो णिक्खित्ते, केइ चणे समणा जाव वासाइं चउपंचमाइं वा छटुइसमाई वा अप्पयरो वा जिनके विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान नहीं होता है। इस प्रकार वह श्रमणोपासक महान् त्रसकाय जीव की हिंसा से उपशान्त एवं निवृत्त होता है। अतएव आप या दूसरों का यह कहना न्याय संगत नहीं है कि ऐसा एक भी पर्याय नहीं जिसके विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सफल हो सके। श्री गौतमस्वामी का वाद पूर्वक यह उत्तर सुन कर उदक पेढालपुत्र इस विषय में प्रतिवुद्ध हो गए ॥१०॥ નથી, કે જેઓના સબંધમાં શ્રમણોપાસકનું પ્રત્યાખ્યાન થતું નથી. આ રીતે તે શ્રમણોપાસક મહાન ત્રસકાયની હિંસાથી ઉપશાંત અને નિવૃત્ત થાય છે. તેથી જ આપનું કે બીજાઓનુ આ કથન ન્યાયયુક્ત નથી કે એ એક પણ . પર્યાય નથી, કે જેના સંબંધમાં શ્રમણોપાસકનું પ્રત્યાખ્યાન સફળ બની શકે. 5. શ્રી ગૌતમ સ્વામીને વાદ પૂર્વક આ ઉત્તર સાંભળીને ઉદક પઢાલપુત્ર આ વિષયમાં પ્રતિબંધવાળા થઈ ગયા. ૧૦ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૭૨૪ सूत्रकृताङ्गसूत्रे भुज्जरो वा देसं दूईज्जित्ता अगारमाव सेज्जा ?, हंता वसेज्जा, तस्स of तं गारत्थं वहमाणस्स से पच्चक्खाणे भंगे भवइ ?, णो इट्टे समट्टे, एवमेव समणोवासगस्स वि तसेहिं पाणेहि दंडे णिक्खिते, थावरेहिं दंडे णो णिक्खित्ते, तस्स णं तं थावरकायं वमाणस्स से पच्चक्खाणे णो भंगे भवइ, से एवमाया ह? नियंठा !, एवमायाणियव्वं । भगवं च णं उदाहु नियंठा खलु पुच्छियव्वा - आउसंतो नियंठा ! इह खलु गाहावइ वा गाहावइपुत्तो वा तह पगारेहिं कुलोहं आगम्म धम्मं सवणवत्तियं उवसंकमेज्जा ? हंता उवसंकमेज्जा, तेर्सि चणं तहप्पगाराणं धम्मं आइक्खियवे ?, हंता आइक्खियवे, किं ते तहृप्पगारं धम्मं सोच्चा णिसम्म एवं वएज्जा - इणमेव निग्गंधं पावयणं सच्च अणुत्तरं केवलियं पडिपुण्णं संसुद्धं णेयाउयं सल्लकत्तणं सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्गं निज्जाणमग्गं निव्वाणमग्गं अवितहमसंदिद्धं सवदुक्ख पहीणमग्गं, एत्थ ठिया जीवा सिज्झति बुज्झंति मुच्चंति परिणिव्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति, तमाणाए तहा गच्छामो तहा चिट्ठामो तहा णिसियामो तहा तुयट्ठामो तहा भुंजामो तहा भासामो तहा अब्भुट्ठामो तहा उट्टाए उट्ठामो त्ति पाणाणं भूयाणं जीवाणं सचाणं संजमेणं संजमामोत्ति वएज्जा ? हंता वएज्जा, किं ते तहप्पगारा कप्पंति पव्वावित्तए ?, हंता कप्पंति, किं ते तहप्पगारा कप्पंति मुंडावित्तए ?, हंता कप्पंति, किं ते तहपगारा कप्पंति सिक्खावित्तए ?, हंता कप्पंति, किं ते तहपगारा कप्पंति उवद्यावित्तए ?, हंता कप्पंति, तेसिं घ णं तहपगाराणं सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं दंडे णिक्खित्ते ?, हंता णिक्खित्ते ?, से णं पयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा जाव वासाई 1 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ७ गौतमस्य सदृष्टान्तो विशेषोपदेश ७२५ चउपंचमाई छट्ठद्दसमाई वा अप्पयरो वा भुज्जयरां वा 'देसं इज्जेत्ता अगारं वएज्जा, हंता वएज्जा, तस्स णं जाव सव्वसत्तेहिं दंडे णिक्खित्ते ?, जो इणट्टे समट्टे, से जे से जीवे जस्स परेण सव्वपाणेहिं जाव सबसत्तेहि दंडे णो णिक्खित्ते, से जे से जीवे जस्स आरेणं सव्वपाणेहिं जाव सत्तेहि दंडे णिक्खित्ते, से जे से जीवे जस्स इयाणि सव्वपाणेहिं जाव सत्तेहि दंडे णो णिक्खित्ते भवइ, परेण असंजए आरेणं संजए, इयाणि असंजए, असंजयस्स णं सव्वपाणेहिं जाव सत्तेहि दंडे णो णिक्खित्ते भवइ, से एवमायाणह ?, नियंठा ! से एवमायाणियव्वं । भगवं च उदाहु नियंठा खलु पुच्छियव्वा - आउसंतो ! नियंठा इह खलु परिवाइया वा परिवाइयाओ वा अन्नयरेहिंतो तित्थाययणेहिंतो आगम्म धम्मं सवणवत्तियं उवसंकमेज्जा ?, हंता उवसंकमेज्जा, किं तेसिं तहप्पगारेणं धम्मे आइक्खियचे !, हंता आइक्खियवे, तं चेत्र उवट्ठावित्तए जाव कप्पंति, हंता कप्पंति किं ते तहपगारा कप्पंति संभुंजित्तए । हंता कप्पंति, तेणं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा तं चैव जाव अगारं वएज्जा ? हंता वएज्जा, ते णं तहष्पगारा कप्पंति संभुंजित्तए ! णो इट्टे समद्रे से जे से जीवे परेणं नो कप्पंति संभुजित्तए, से जे से जीवे आरेणं कप्पंति संभुजित्तए, से जे से जीवे जे इयाणिं णो कति संभुंजित्तए, परणं अस्समणे आरेणं समणे, इयाणि अस्समणे असमणेणं सद्धि णो कप्पंति समणाणं निग्गंथाणं संभुंजित्तप से एवमायाणह, नियंठा, से एवमायाणियव्वं ॥ सू० १९ ॥ ७८ ॥ छाया -भगवांश्च खलु उदाह निर्ग्रन्थाः खलु प्रष्टव्याः आयुष्मन्तो निर्ग्रन्थाः इह खलु सन्ध्येत मनुष्या भवन्ति तेषां चैत्रमुक्तपूर्व भवति ये इमे मुण्डा Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६ सूत्रहतारो भूया अगारादनगारित्वं पवनन्धि एपां च आमरणान्तो दण्डो निक्षिप्तः, ये इमे अगारमावसन्ति एतेषां खलु आमरणान्तो दण्डो नो निक्षिप्तः केचिच्च खलु श्रमणा: यावद् वर्षाणि चतुःपञ्चपइदशानि वा अल्पतरं वा भूयस्तरं वा विहृत्य देशम गारमावसेयुः ? । इन्त वसेयुः । तस्य तं गृहस्थं नवः तत्पत्याख्यानं मग्नं भवति ? नायमर्थः समर्थः, एवमेव श्रमणोपासकस्याऽपि त्रसेपु प्राणेषु दण्डो निक्षिप्तः स्थावरेपु दण्डो न निक्षिप्तः तस्य खलु तं स्थावरकायं घनतः तत् प्रत्या. ख्यानं नो भग्न भवति तदेवं जानीत निर्ग्रन्थाः , एवं ज्ञातव्यम् । भगवांश्च उदाह -निग्रंन्याः खलु प्रष्टच्या आयुष्मन्तो निर्ग्रन्थाः, इह खलु गायापतिर्वा गाथापति पुत्रो-वा तथाप्रकारेषु कुलेषु आगत्य धर्मश्राणार्थ मुपसंक्रमेयुः ? हन्त! उपसंक्रमेयुः, तेषां च खलु यथापकाराणां धर्म आरूपातयः ? हन्त आख्यातव्यः। किं ते तथामकार धर्म श्रुत्वा निशम्य एवं वदेयु:-इदमेव नैन्यं प्रवचनं सत्य मनुत्तरं कैवलिकं परिपूर्ण संशुद्ध नैयायिक शल्यकर्तनं सिद्धिमार्ग मुक्तिमार्गः निर्याणमार्ग निर्वाणमार्गः अविवथमसंदिग्धं सर्वदुःखमहीणमार्गम्: अत्र स्थित्वा जीवाः सिध्यन्ति युध्यन्ते मुश्चन्ति परिनिर्शन्ति सर्वदुःखानामन्त कुर्वन्ति, तदाज्ञया तथा गच्छाम स्तथा तिष्ठामस्तथा निपीदाम स्तथा त्वचं वर्तयाम स्तथा भुनामहे तथा भाषामहे तथा अभ्युत्तिष्ठामस्तथा उत्थाय उत्तिष्ठाम इति प्राणानां भूतानां जीवानां सत्त्वानां संयमेन संपच्छाम इति वदेयुः? हन्त वदेयुः। किं ते तथापकाराः कल्प्यन्ते पवाजयितुम् ? हन्त कल्प्यन्ते। किं ते तथापकराः कल्प्यन्ते मुण्डयितुं हन्त कल्प्यन्ते । कि ते तथाप्रकाराः कल्प्यन्ते शिक्षयितुं ? हन्त कल्प्यन्ते । किं ते तथाप्रकाराः कल्पपन्ते उपस्थापयितुम् ? हन्त कल्प्यन्ते । तैव खलु, तथामकारैः सर्वमाणिषु यावत् सर्वसत्वेषु दण्डो निक्षित ? हन्त निक्षिप्तः। ते खलु एतद्रूपेण विहारेण विहरन्तो यावद् वर्षागि चतुः पञ्चानि षड्दशानि वा अल्पतरं वा भूगस्तरं वा देशं विहृत्य अगारं व्रजेयुः ? हन्त व्रजेयुः । तैश्च खलु सर्वप्राणेषु यावत्सर्वसत्त्वेषु दण्डो निक्षिप्त ! नायमर्थः समर्थः तस्य यः स जीवः येन परतः सर्वप्राणेषु यावत्सर्वसत्त्वेपु दन्डो नो निक्षिप्तः तस्य यः स जीवः येन आरात् सर्वप्राणेषु यावत् सर्वसत्वेषु दण्डो निक्षिप्तः, तस्य स जीवः येन इदानीं सर्वमाणेषु यावत् सर्वसत्त्वेषु दण्डो न निक्षिप्तो भवति परतोऽसंयतः आरात् संयतः इदानीमसंयतः, असंयतस्य खलु सर्वप्राणेषु यावत् सर्वसत्त्वेपु दण्डो नो निक्षिप्तो भवति तदेवं जानीत निम्रन्थाः। तदेवं ज्ञातव्यम् । भगवांश्च उदाह-निग्रंन्धाः खल प्रष्टव्या आयुष्मन्तो निर्गन्थाः। इह खलु परिव्राजका वा परित्राजिका वा अन्यतरेभ्य स्तीर्थायतनेभ्य आगत्य Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • समयार्थबोधिनी टीका वि. श्रु. अ. ७ गौतमस्य सदृष्टान्तो विशेषोपदेशः ७२७ धर्मश्रवणप्रत्यय मुपसंक्रमेयुः ? हन्त उपसंक्रमेयुः । किं तेषां तथामकाराणां धर्मभारख्यातव्यः ?' हन्त आख्यातव्यः। ते चैवमुपस्थापयितुं यावत् कल्प्यन्ते ? हन्त कल्प्यन्ते। कि ते तथापकाराः कल्प्यन्ते संभोजयितुम् ? हन्त कल्प्यन्ते। ते खलु एतद्रूपेण विहारेण विहरन्तः तयैव यावदागारं व्रजेयुः ? हन्त व्रजेयुः। ते च तथापकाराः कल्प्यन्ते संभोजयितुम् ? नायमर्थः समर्थः ते ये ते जीवा: 'ये परतः नो कल्प्यन्ते संभोजयितुम्, ते ये ते जीवाः आराद कलप्यन्ते संभोज"यितुम्, ते ये ते जीवा ये इदानीं नो कल्प्यन्ते संमोजयितुम्, परतोऽश्रमणः आरात् श्रमणः इदानीमश्रमणः । अश्रमणेन साधैं नो कल्प्पन्ते श्रमणानां निम्रन्थानां सं मोक्तुं तदेव जानीत निन्याः । तदेवं ज्ञातव्यम् ॥०११-७८॥ ____टीका-'भगवं च णं उदाह' उदकं पेढालपुत्रं प्रति भगवान् श्रीगौतमस्वामी उदाह-मोवाच. "णियंठा खलु पुच्छियव्वा' निर्गन्थाः खलु मष्टच्या निन्थान् वयं पृच्छेम इति यावत् । 'आउसंतो' हे आयुष्मन्त उदकपमुखाः साधकः ? इह खलु 'संतेगइया मणुस्सा भवंति' इह सन्त्येकतये मनुष्या-भवन्ति । इह लोकेऽपि मनुजा एतादृशा भवन्ति, 'तेसिं च एवं वृत्तपुत्वं भवई' तेषां चएवमुक्तपूर्व भवति । ये एतादृशीं प्रतिज्ञां कुर्वन्ति 'जे इमे मुंडा भवित्ता आगाराओ अणगारियं पवइए' ये इमे मुण्डा भूत्वा अगारादनगारित्वं प्रव्रजन्ति, ये दीक्षा. मादाय गृहमुत्सृज्य साधवो भवन्ति । 'एसिं च णं आमरणताए दंडे णिक्वित्ते' एषां चाऽऽमरणान्तो दण्डो निक्षिप्तः-परित्यक्तः । एतेषां सधूनां मरणं यावत्मया हननं न कर्तव्यमिति प्रत्याख्यानं कृतमस्ति । 'जे इमे अगारमावसंति एएसिं णं आमरणंताए दडे णो णिक्खित्ते' ये इमे आगारमावसन्ति, एतेषामामर 'भगवं च णं उदाहु' इत्यादि । टीकार्थ-भगवान् श्रीगौतमस्वामी ने उदक पेढाल पुत्र से कहा-हम निग्रंन्धों से पूछते हैं कि हे आयुष्मन् उदक आदि निर्ग्रन्थो! इस लोक में ऐसे भी मनुष्य होते हैं जो इस प्रकार का त्याग करते हैं कि ये जो मुण्डित होकर गृह को त्याग कर अनगार हो गए हैं, उनकी मैं जीवन पर्यन्त हिंसा नहीं करूगा। और जो गृह में निवास करते है अर्थात् 'भगव च णं उदाहु' त्याह ટીકાઈ–ભગવાન શ્રી ગૌતમ સ્વામીએ ઉદક પેઢાલપુત્રને કહ્યું કે હું નિર્ચ ને પૂછું છું કે-હે આયુષ્યનું ઉદક વિગેરે નિર્ગથ અણગારો ! આ લોકમાં એવા પણ મનુષ્ય હોય છે, જેઓ એ ત્યાગ કરે છે કે-જે આ મુંડિત થઈને ગૃહ ત્યાગ કરીને અનગારદશાને પ્રાપ્ત થઈ ગયા છે. તેમની હું જીવતા સુધી હિંસા કરીશ નહીં અને જે ઘરમાં નિવાસ કરે છે, અર્થાત ગુહસ્થ છે, Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૭૦ सूत्रकृताङ्गसूत्रे णान्तो दण्डो नो निक्षिप्तः । परन्तु ये गृहे वसन्ति तेषां वधस्य मरणपर्यन्तं प्रत्याख्यानं न करोति 'केइ च णं समणा जात्र वासाई चउपंचनाई छदममाई अप्पयरो वा भुजयरो वा दे दुईज्जित्ता आगारमावसेज्जा' केचिच खल श्रमणा यावद् वर्षाणि चतुःपञ्चदशानि वा अल्पतरं वा भूयस्तरं वा देश चिहृत्य - साध्यवस्थायां विदारं कृत्वा अगारमावसेयुः गौतमो वदति है उदक पेदाल पुत्र ! अत्राहं पृच्छामि-ठेषु साधुषु कथित् साधुः चतुः पञ्चत आरभ्य दशवर्षाणि यावत् इतस्ततो देशं विहत्य कि पुन गृवस्थ इति । 'तस्स णं तं गारस्थं माणस से पच्चक्खाणे भंगे भवइ ?' तस्य तं गृहस्थं घ्नतः तत्पस्याख्यानं भग्नं भवति, भगवान् गौतमः कथयति - तादृशं साधुता परावृत्यागतं साधुगृहस्थं इन्यमानस्य साधुमत्याख्यानधारिणः तादृशमत्याख्यातं किं भग्नं भवति न कथमपि व्रतभङ्गो भवतीति ध्वनिः उदकादयो भगवन्तमाहुः 'जो इण्डे समट्ठे' नायमर्थः समर्थः - श्रमणाः कथयन्ति साधुमात्रं परित्यज्य पुनर्गृडवामं वसतः पूर्वगृहस्थ हैं उनकी हिंसा का में जीवनपर्यन्त त्याग नहीं करता हूं। ऐसी स्थिति में कोई साधु चार पांच छह या दश वर्ष तक या न्यूनाधिक समय तक साधु अवस्था में देशों में विचरकर हे उदक पेढालपुत्र | मैं पूछता हूं कि गृहस्थ बन जाते हैं या नहीं ? निर्ग्रन्थ कहते हैं - हां कई पुनः गृहस्थ हो जाते हैं । श्रीगौतमस्वामी कहते हैं तो जो साधुपना छोड़कर गृहस्थ हो गए हैं, उन गृहस्थों की हिंसा करने वाले उस पूर्वोक्त प्रत्याख्यान कर्त्ता का प्रत्याख्यान भंग हो जाता है क्या ? निर्ग्रन्थ कहते हैं - नहीं । जिसने गृहस्थ को मारने का प्रत्याख्यान नहीं किया वह पुरुष यदि साधुपन छोड़कर गृहस्थ बने हुए पुरुष को તેમની હિંસાના હુ' જીવતા સુધી ત્યાગ કરતા નથી, આ પરિસ્થિતિમાં કઇ સાધુ ચાર, પાંચ, છ, અથવા દશ વર્ષ સુધી અથવા તેથી એછાવત્તા સમય સુધી સાધુ અવસ્થામાં દેશેામાં વિચરણ કરીને હું ઉદ્યક પે'લપુત્ર! હું... પૂછું છું કે—ગૃહસ્થ ખની ાય છે કે નહી? નિગ્રન્થ કહે છે હા કેટલાક ફરીથી ગૃહસ્થ બની જાય છે. શ્રી ગૌતમ સ્વામી કહે છે કે-તેા જેએ સાધુપણાને ત્યાગ કરીને ગૃહસ્થ બની ગયા છે તે ગૃહસ્થાની હિંસા કરવાવાળા તે પૂર્વેîક્ત પ્રત્યાખ્યાન કરવાવાળાના પ્રત્યાખ્યાનના ભંગ થઇ જાય છે શુ' નિગ્રન્થ અણુગાર કહે છે કે-ના જેણે ગૃડસ્થને મારવાનુ. પ્રત્યાખ્યાન કર્યું નથી, તે પુરૂષ જે સાધુપણુ છેડીને ગૃહસ્થ બનેલા પુરૂષને મારે છે, તે Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२९ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. थु. अ. ७ गौतमस्य सदृष्टान्तो विशेषोपदेशः साधोः मारणेन प्रत्याख्यानिनः प्रत्याख्यानस्य भङ्गो न भवति कथमपि, यतः साधुने मया हन्तव्य एतादृशं प्रत्याख्यान कृतम् । अयन्तु नेदानीं साधु:-अपितु गृहस्थः । ' अतस्तादृशगृहस्थस्य मारणे साधुमारणप्रत्याख्यानस्य भङ्गो नैव भवतीति । पुनगौतमस्वाम्याह- 'एवमेत्र समणोवासगस्स वि तसेहि पाणेहि दंडे णिक्खित्ते' एवमेव श्रमणोपासकस्याऽपि त्रसेषु माणेषु दण्डो निक्षिप्तः । 'थावरेहिं दंडे णो णिक्खित्ते' स्थावरेषु दण्डो नो निक्षिप्तः 'तस्स णं थावरकार्यं वहमाणस्स से पच्चक्खाणे णो भंगे भवई' तस्य स्थानरकार्यं धनतस्तत्प्रत्याख्यानं नो भग्नं भवति । गौतमः कथयति-यथा तस्य व्रतभङ्गो न भवति, एवं त्रसकायं प्रत्याख्यातुः स्थावरशरीर नाशनेऽपि प्रत्याख्यानमङ्गो न भवति, यतस्तदानीं स्थावरावच्छिन्नजीवे सशरीरावच्छिन्नत्वा मावात् । ' से एवमायाणद ? नियंठा ! एवमायाणियन्त्र' यः साधवः । तदेवं जानीत - एवमेव ज्ञातव्यमिति । पुन गौतमोऽमुमर्थ बोधयितुमुदाहरणान्तरमाह - 'भगवं च णं उदाहु नियंठा खलु पुच्छियच्चा' भगवां खलु उदाह-निर्ग्रन्थाः खलु मष्टव्याः गौतमः कथयति - अहं श्रमणान् पृच्छामि - 'आउसंतो नियंठा आयुष्मन्तो निर्ग्रन्थाः ? 'इह खलु गाहावई वा मारता है तो उसका प्रत्याख्यान भंग नहीं होता । उसने तो साधु को ह्रीं न मारने का प्रत्याख्यान किया है, परन्तु यह पुरुष अब साधु नहीं है, परन्तु गृहस्थ है। अतएव उस गृहस्थ को मारने से साधु को न मारने की प्रतिज्ञाका भंग नहीं होता । ही श्री गौतमस्वामी बोले- इसी प्रकार श्रमणोपासकने सजीवों की हिंसा का त्याग किया स्थावर जीवों की हिंसा का त्याग नहीं किया । अतः यह यदि स्थावर जीवों की हिंसा करता है तो उसका प्रत्याख्यान भंग नहीं होता । क्यों कि वह जीव इस समय किन्तु स्थावर शरीर में है । हे निर्ग्रन्थ साधुओ ! ऐसा તેના પ્રત્યાખ્યાનને ભંગ થતા નથી. તેણે તે સાધુને જ ન મારવાનુ` પ્રયાખ્યાન કર્યું છે. પરંતુ આ પુરૂષ હવે સાધુ રહેલ નથી, પરંતુ ગૃહસ્થ છે, તેથી જ તે ગૃહસ્થને મારવાથી સાધુને ન મારવાની પ્રતિજ્ઞાના ભંગ થતે નથી. ગૌતમસ્વામીએ કહ્યુ-આ જ પ્રમાણે શ્રમણેાપાસકે ત્રસ જીવેાની હિં'સાને ત્યાગ કર્યાં છે, અને સ્થાવર જીવેાની હિ'સાના ત્યાગ કર્યાં નથી, તેથી તે જે સ્થાવર જીવાની હિંંસા કરે છે, તેા તેના પ્રત્યાખ્યાનના ભંગ થતા નથી કેમકે તે જીવ આ વખતે ત્રસ શરીરમાં નથી, પશુ સ્થાવર શરીરમાં રહેલ છે, હું નિગ્રન્થ સાધુએ ! એમ્ જ સમજવુ જોઇએ, सु० ९२ सशरीर में नहीं समझना चाहिए । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३० सूत्रकृताङ्ग ग्रहावर पुत्तो वा तपगारेहिं कुठेहिं आगम्म' इह खलु गाथापतिर्वा गाथापतिपुत्रो वा तथामकारेषु कुलेपागत्य 'धम्मं सवणवत्तियं उनसंकमेज्जा' धर्मश्रवणार्थमुपसंक्रमेयुः- आगच्छेयुरित्यर्थः । इद हि जगति उत्तमकुलोत्पन्नो गाथापति पुत्रो वा धर्मश्रवणाथै साधुसमीपं गन्तुं शक्नोति किम् ? 'देता उवसंकमेज्जा' इन्त- उपसंक्रमेयुः साधुभिः कथितं हन्त भोः गन्तुं शक्नोति श्रोतुम् 'तेसिं चां तगाराणं धम्मं इक्वियन्वे' तेषां च गाथापत्यादीनां तथाप्रकाराणां धर्म आख्यातव्या वक्तव्यः किम, 'हंत आइविखवे' हन्त ! आख्यातव्यः साधवो वदन्ति मुनिभिः तेभ्यो धर्म' उपदेष्टव्य इति । 'कि ते तहपगारं धम्मं सोचा जिसम्म एवं बज्जा' किं ते तथाप्रकारं धर्म श्रु वा - निशम्य एवं वदेयुः, ते धर्मस्य च एवं कथयेयुः, 'इणमेवणिग्गयं पात्रयणं सच्चं अणु तरं केवल पडणं संमुद्धं वाउयं सल्लकत्तण सिद्धियां-मुत्तिमग्गं निज्जा - मग्गं निव्वाणमरण - अवितमसं सिद्धं - सच्चदुवखप्पडीणमग्गं एत्थं ठिया जीवा सिज्झति - बुज्झति मुच्चंति, परिनिव्वायंति सन्यदुक्खाणमंत करेंति' इदमेव गौतम स्वामी इसी अर्थ को समझाने के लिए दूसरा उदाहरण देते है - हे आयुष्मन् निर्ग्रन्यो ! कोई गाथापति या गाथापति का पुत्र तथाप्रकार के उत्तम कुलों में जन्म लेकर क्या धर्म श्रवण करने के लिए साधु के समीप आ सकते हैं ? निर्ग्रन्थों ने कहा-हां आसकते हैं । गौतनस्वामी-उन गाथापति आदि को क्या धर्म का उपदेश करना चाहिए ? भो को धर्मोपदेश करना चाहिए । 7 निर्ग्रन्थ- हां, साधु गौतम स्वामी - क्या धर्म के उपदेश को सूनकर और समझकर वे ऐसा कह सकते हैं कि यह निर्यथ प्रवचन ही सत्य है, अनुत्तर શ્રી ગૌતમસ્વામી આજ વાત સમજાવવા માટે ની હૈ આયુષ્મન્ નિન્ગે ! કેઇ ગાથાતિ અથવા ગ થાપતિ રના ઉત્તમ કુળમાં જન્મ લઈને શુ ધર્મ શ્રવણુ કરવા માટે સાધુઓની સમીપે આવી શકે છે ? ઉદાહરણ આપે છેપુત્ર તેવા પ્રકા निर्भया उछु - हा भावी राडे छे. ગૌતમ વામીએ કહ્યુ “તે ગાયાપતિ વિગેરેને શું ઉપદેશ કરવા જોઈએ. નિગ્રન્થ્રાએ કહ્યુ હા સાધુઓએ ધમેપદેશ કરવા જોઈએ, ગૌતમસ્વામીએ કહ્યુ -શુ' ધર્મના ઉપદેશને સાંભળીને અને સમજીને તેઓ એવું કહી શકે છે કે- નિગ્રન્થ પ્રત્રચન જ સત્ય છે. અનુત્તર Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ७ गौतमस्य सदृष्टान्तो विशेषोपदेशः ७३३ निग्रन्धं प्रवचनं सत्यं-सत्यमर्थ बोधयति तत् अनुत्तरं कैलिक परिपूर्ण संशुद्ध नैयायिकं शल्यकर्त्तनं सिद्धिमार्गः मुक्तिमार्गः निर्याणमार्गः निर्माणमार्गः अवि तथम्-मिथ्यात्वरहितम्, असंदिग्धं सर्वदुःखमहीणमार्गः, अनुत्तरमनन्यसदृशम्, केवलिना प्रोक्तं कैलिकमद्वितीयम्-परिपूर्णम् अपवर्गप्रापककृत्स्नगुणसंयुक्तम् - कषायादिमलरहितम् संशुद्ध नैयायिकं न्यायेन चरतीति मोक्षगमकवा, शल्यंमायादि पापं वा कृन्तति-छिनत्तीति शल्यकर्तन, सिद्धिमार्ग:-सिद्धिः अविचलमुखमाप्तिः तस्या, मार्गः मुक्तिमार्गः-मुक्तः-अहितार्थकर्मपहाणं तस्या मार्गा; निर्याणम्-सकल मर्मस्प आत्मनो निःसरणं तस्य मार्गः निर्माणमार्गः, निर्वाणनिर्वृति:-निखिलकमक्षयजय परमसुखं तस्य मार्ग निर्वाणमार्गः, अवितर्थतथ्यम्, असंदिग्यम्-सन्देहरहितम्, सर्वदुःखमहीगमार्गः-सर्व दुःखमहीणनिःश्रेयसं तस्य मार्गः, अत्र स्थिता जीवा सिध्यन्ति-सिद्धिति प्राप्नुवन्ति, बुध्यन्ते-केवलिनो भवन्ति, मुञ्चन्ति-कर्मबन्धात् पृथग् भवन्ति, परिनिर्वान्तिसर्वथा सुखिनो भवन्ति, सर्वदुःखानामन्तं कुर्वन्ति-सर्वदुःखानि-शरीरवाङ्मानसानि तेषामन्तो नाश स्तं कुर्वन्ति । अत्र स्थिता जीवाः सिध्यन्ति-बुध्यन्तेमुश्चन्ति-परिनिर्वान्ति-सर्व-दुःखानामन्तं कुर्वन्ति । आहद् धर्म श्रुत्वा ते कश-, यिष्यन्ति-अयमेव धर्मः सत्यः-सन्देहरहितः। अमु धर्ममासाद्य मोक्षमपि प्राप्स्यसर्वोत्तम है, परिपूर्ण है, संशुद्ध हैं, न्याययुक्त है, शल्या अर्थात् माया आदि पापो को नष्ट करने वाला है, अविचल सुख रूप सिद्धि का मार्ग है, मुक्ति का मार्ग है, समस्त कामों से आत्मा को पृथक करने का मार्ग है, निर्वाण अर्थात् समस्त कर्मों के क्षय से उत्पन्न होने वाले परमसुख का मार्ग है, तथ्य है, संशयातीत है, समस्त दुःखों के विनाश करने का मार्ग है । इस धर्म में स्थित जीव सिद्ध होते हैं वुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण प्राप्त करते हैं और सब प्रकारका अर्थात् शारीरिक और मानसिक दुःखों का अन्त करते हैं। अतः हम तीर्थंकर સર્વોત્તમ છે પરિપૂર્ણ છે સંશુદ્ધ છે, ન્યાયયુક્ત છે. શલ્ય અર્થાત્ માયા વિગેરે પાપને નાશ કરવાવાળું છે. અવિચલ સુખરૂપ સિદ્ધિને માર્ગ છે, સમસ્ત કર્મથી આત્માને જૂ કરવા માગે છે નિવણ અર્થાત્ સમસ્ત કર્મોનો ક્ષયથી ઉત્પન્ન થવાવાળા પરમસુખને માર્ગ છે. તથ્ય-સત્ય છે. સંશય વગરને છે. સમસ્ત ખાના વિનાશ કરવા માગે છે. આ ધર્મમાં રહેલ છવ સિદ્ધ થાય છે, બુદ્ધ થાય છે, મુક્ત થાય છે, પરિનિર્વાણ પ્રાપ્ત કરે છે, અને બધાજ અર્થાત્ શારીરિક-શરીર સંબંધી અને માનસિક દુઃખેને Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतास्त्र न्तीत्यादि। 'तमाणाए तहा गच्छामो तहा चिट्ठामो तहा णिसियामो तहा तुयटामो तहा भुं नामो तहा भासानो तहा अभुट्ठामो तहा उहाए उहिमोति पाणाणं भूयागं जीवाणं सत्ताणं संजमेणं संजमामोत्ति वएज्जा?' तदाज्ञया-एतत्तीर्थकरोदिरित. धर्मस्यालया तथा गच्छामः-यतनया विहरामः, यतनया तथा तिष्ठामः-कर चरणादिकमविक्षिपन्तः समाहिता भवामः, तथा निपीदामः-यतनया उपविशामः, तथा त्वयातयामः-यतनया पाश्वपरिवत्तनं कुर्मः, तथा भुक्षामहे यथा कल्या. णाहारं माप्नुमः, तथा भाषामहे, तथाऽभ्युत्तिष्ठामः, तथा-उत्थाय उत्तिष्ठामः, इति प्राणानां द्रीन्द्रियाणं भूतानां-सत्त्वानां जीवानां-पञ्चेन्द्रियाणां सचानाम्एकेन्द्रियपृथिव्यादीनां संयमेन-सप्तदशविधेन संयम संयच्छामः-परिपालयाम इति वदेयुः-गाथापत्यादयः किम् ? 'हंता वएज्जा' हन्त भोः? वदेयुः इति साधुभिः कथितम् । 'कि ते तहप्पगारा कप्पंति पचावित्तए' किं ते तथाप्रकारा:तादृशा गाथापत्यादयः-प्रव्राजयितुं कल्प्याते, एते पुरुषा दीक्षायोग्याः किम्, द्वारा उपदिष्ट इस धर्म की आज्ञा के अनुसार ही हम यतना से गमन करेंगे-यतनासे विहार करेंगे यतनासे ठहरेंगे,हाथ-पैर आदि को नहीं पटकते हुए समाहित होंगे, यतना से बैठेंगे, यतना से पसवाड़ा पलटेगे, यतना से आहार प्राप्त करेंगे, बोलेंगे और उठेंगे। इस धर्म में कही हुई विधि के अनुसार ही उठकर प्राणियों-द्वीन्द्रिय आदि, भूतों-वनस्पति, जीवों-पंचेन्द्रियों तथा सत्त्वों-पृथ्वीकाय आदि की रक्षा के लिए संयम पालन करेंगे क्या वे गायापति आदि ऐसा कह सकते हैं ? निग्रन्थ-हां वे ऐसा कह सकते हैं। गौतम स्वामी-क्या वे ऐसा विचार रखते वाले पुरुष दीक्षा અંત કરે છે. તેથી તીર્થકર દ્વારા ઉપદેશ કરવામાં આવેલ આ ધર્મની આજ્ઞા પ્રમાણે જ અમે યતનાપૂર્વક ગમન કરીશું. યતનાથી વિહાર કરીશું યતનાથી ઉભા રહીશુ-હાથ, પગ વિગેરેને તરછેડયા વિના સમાધિવાળા થઈશું યતનાથી બેસીશું, યતનાથી પડખા બદલીશું. યતનાથી આહાર પ્રાપ્ત ४रीशु, यतनाथी मालीशु भने यतनाथी शु. આ ધમાં કહેવામાં આવેલ વિધિ પ્રમાણે જ ઉઠીને હીન્દ્રિય વિગેરે. प्रालिया, भूत-वनस्पति, वा-५'यन्द्रियः, तथा सहवा-पृथ्वीय विशेरनी રક્ષા કરવા માટે સંયમનું પાલન કરીશું ? આ પ્રમાણે તે ગાથાપતિ વિગેરે આમ કહી શકશે? ., निन्य ४४-डा तमे तेम ४ी २ छ. . * ગૌતમસ્વામીએ કહ્યું-શું તેઓ આ વિચાર રાખવવાળા પુરૂષ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् द्वितीयदृष्टान्तमाह-'से जहाणामए' तययानामकः 'केहपुरिसे' कोऽपि पुरुषः 'मुंजाओ-इसिय मुञ्जात् तृणविशेषात् इपिकां तद्गर्भभूतां शलाकाम् अभिनिवहिता पं' अभिनिवत्य-पृथक-कृत्य खलु 'उपदंसेजा' उपदर्शयेत् अयमाउसो ! मुंजे इयं इसियं' अयमायुष्मन् । मुजः इयमिषिका वर्त्तते इति । यथा मुञ्जान वणविशेषात् उद्धृत्य इपिकां दर्शयितुं शक्येत, एवमेव-अनेनैव-मुजेषिकाप्रदर्शन प्रकारेण 'नत्यि केइपुरिसे' नास्ति कोऽपि पुरुषः 'उबदसेत्तारो' उपदर्शयिता यत् 'अयमाउसो ! आया इयं सरीरं' अयमायुष्मन् ! आत्मा, इदं शरीरम् । यथा मुझेभ्यः इपिकां निष्कास्य दर्शयति, अयं मुञ्जः इयमिषिका एवमेव यदि कोऽपि शरीरानिष्कास्य-आत्मानमुपदर्शयितुं शक्नुयात्, तदा मन्येव-अपि, शरीरव्यतियह शरीर है। दोनों को अलग अलग कोई नहीं दिखला सकता अत. एव यह सिद्ध होता है कि शरीर से भिन्न आत्मा नहीं है। जैसे कोई पुरुष मुंज नामक वनस्पति से ईषिका को अर्थात् उसके पुष्प को अलग करके दिखलाना है-हे आयुष्मन् ! यह मुंज है और यह ईषिका (पुष्प) है। ____ जिसमें रूप है वह वस्तु दूसरी वस्तुओं से पृथक् करके दिखलाई जा सकती है, जैसे मूंज नामक घास ले ईषिका अलग दिखती है। मूंज नामक घास से सूज की अपेक्षा कोमल स्पर्श वाली ईषिको को निकाल कर लोग रस्सी बनाते हैं। उसी रस्सी से खाट बुन कर उस पर सुख से सोते हैं। इसी प्रकार ऐसा कोई पुरुष नहीं है जो यह दिखला सके कि-हे आयुष्मन् ! यह आत्मा है और यह शरीर है। यदि कोई पुरुष शरीर से बाहर निकाल कर आत्मा को दिखलाने में બતાવી શકે. બન્નેને જુલા જુઠા કેઈ બતાવી શકતું નથી, તેથી જ એ સિદ્ધ થાય છે કે શરીરથી ભિન્ન આત્મા નથી. જેમ કે પુરૂષ મુજ નામની વનસ્પતિમાંથી ઈષિકા અથત તેના પુષ્પને અલગ કરીને બતાવે છે, તે આયુષ્યન્ આ મુંજ છે, અને આ तनु ५०५ छे. જેમાં રૂ૫ છે તે વસ્તુ બીજી વસ્તુઓથી અલગ કરીને બતાવી શકાય છે, જેમ મુંજ નામની વનસ્પતિમાંથી ઈષિકા અલગ દેખાય છે. મુંજ નામના ઘાસમાંથી સંજની અપેક્ષાએ કમળ સ્પર્શવાળી ઈષિકાને કહાડીને લોકે દેરી બનાવે છે. તે દેરીથી ખાટલા ભરીને તેના પર સુખથી સુવે છે. એજ પ્રમાણે એ કઈ પુરૂષ નથી, કે જે આ બતાવી શકે કે- આયુષ્યનું આ આત્મા છે, અને આ શરીર છે. જે કઈ પુરૂષ શરીરથી બહાર કઢાડીને Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ७ गौतमस्य सदृष्टान्तो विशेषोपदेशः ७३३ 'हता कप्पंति' हन्त कल्प्यन्ते-सन्ति दीक्षायोग्यास्ते। 'कि ते तहपगारा कप्पंति' मुंडावित्तए' किं ते तथाप्रकारा स्वादृशाः मुण्डनयोग्याः सन्ति ? हंता कप्पति' हन्त कल्प्यन्ते । 'कि ते तहप्पगारा कप्पंति सिक्खावित्तए' किं ते तथाप्रकाराः कल्प्यन्ते शिक्षयितुम्, ग्रहगासेवनया शिक्षादानयोग्या किम् इमे, 'हंता कप्पंति' हन्त कल्प्यन्ते । 'कि ते तहप्पगारा कप्पति उबढावित्तए' किं ते तथापकारा साधुत्वाय उपस्थापयितुं कल्प्यन्ते । 'हंता कप्पति' हन्त कल्प्यन्ते 'तेसिं च णं तहप्पगाराणं सबपाणेहिं जाव सबसत्तेहिं दंडे णिविखत्ते' तैश्च सर्वप्राणिषु यावत्सर्वसत्त्वेषु दण्डो निक्षिप्तः। तैः सर्वप्राणिपु दण्डप्रत्याख्यानं कर्तुं शक्यते किम् । 'हता णिक्खित्ते' हन्त निक्षिप्तः-प्रत्यारुपानं कर्तुं शक्यते । 'से णं एयाग्रहण कर सकते हैं ? निर्ग्रन्थ हां, वे दीक्षा ले सकते हैं । वे दीक्षा देने के योग्य हैं। गौतम स्वामी-क्या इस प्रकार के विचार वाले वे पुरुष मुण्डिन करने योग्य हैं ? निन्ध-हां, वे मुण्डित करने योग्य हैं। गौतम स्वामी--क्या वे ग्रहण और आसेवन शिक्षा देने के योग्य हैं ? निग्रंन्ध--हाँ योग्य हैं। गौतम स्वामी--क्या वे साधुत्व में स्थापित करने योग्य हैं ? निर्ग्रन्थ-हां, योग्य हैं। गौतम स्वामी--क्या वे समस्त प्राणियों यावत् सत्त्वों के संबंध में दण्ड देने का त्याग कर सकते हैं ? निग्रन्थ--हां वे त्याग कर सकते हैं। ક્ષિાનો સ્વીકાર કરી શકે છે? નિર્ચન્થાએ કહ્યું-હા તે એ દીક્ષા ધારણ કરી શકે છે. તેઓને દીક્ષા भा५५योय छे. ગૌતમસ્વામી–શું આવા પ્રકારના વિચારવાળા તે પુરૂષે મુંડિત કર : વાને યોગ્ય છે? निन्थ- ये भ्य छे. ગૌતમસ્વામી–શું તેઓ સાધુપણામાં સ્થાપવાને ગ્ય છે ? નિ9–હા ચોગ્ય છે. ગૌતમસ્વામી–શું તેઓ સઘળા પ્રાણિ યાવત્ સર્વેના સંબંધમાં દંડ આપવાને ત્યાગ કરી શકે છે ? નિ –હા તેઓ તે પ્રમાણે દંડ દેવાને ત્યાગ કરી શકે છે. Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३४ सूत्रकृतास्त्र रूवेणं विहारेण विहरमाणा जाब वासाई चउपबमाई छट्टदसमाई वा अप्पयरो वा भुंजयरो वा देसं दुइज्जेत्ता अगारं वएग्जा' ते एतद्रूपेण विहारेण विहरन्तो यावद्वाणि चतु:-पश्चानि पड्दशानि वा अल्पतरं वा भूयस्तरं वा देश-साधु. विहारं कृत्वा विहृत्य-गारं व्रजेयुः । 'हता वएज्जा' हन्त ! व्रजेयुः 'तस्स णं जाव सव्वसत्तेहिं दंडे णिक्खित्ते' तैश्च खलु सर्वप्राणेषु दण्डो निक्षिप्तः, ते गृहस्था भूत्वा कि सर्वजन्तुपु दण्डं परित्यजन्ति किम् ? अर्थात् ते गृहस्थाः सर्वजीवेषु दण्डं न परित्यजन्ति । किन्तु-कुर्वन्त्येव दण्डं तदेवाह ते उदकसं यतादयो निग्रन्थाः कथयन्ति हे गौतम | 'णो इणट्टे सम?' नायमर्थः समर्थः 'से जे से जीवे जस्स परेणं सबपाणेहिं सबसत्तेहि दंडे णो णिकिखत्ते' तस्य यः स जीवः येन परतः सर्व-, प्राणेषु यावत् सर्वसत्त्वेषु दण्डो नो निक्षिप्तः, स जीवो यो दीक्षातः पूर्व गृह . स्थावस्थायां सर्वपाणिपु दण्डं न परित्यक्तवानासीत् । 'से जे से जीवे जस्स गौतम स्वामी--वे दीक्षा पर्याय में विचरते हुए चार, पांच, छह या दस वर्ष तक थोडे था बहुत देशों में विहार करके पुनः गृहस्थ हो सकते हैं ? निन्ध---हां, फिर गृहस्थ हो सकते हैं। गौतम स्वामी-वे गृहस्थ होकर क्या समस्त प्राणियों को दण्ड देने का त्याग करते हैं? निन्ध --नहीं यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् पुनः गृहस्थ हो कर वे समस्त प्राणियों की हिंसा के त्यागी नहीं हो सकते। गौतम स्वामी--वह यही पुरुष है जिसने दीक्षा अंगीकार करने से पूर्व सम्पूर्ण प्राणियों को दंड देने का त्याग नहीं किया था वह वही पुरुष । गीतमश्चाभी-शाहक्षापर्यायमा वियरता या२, पांय, छ અથવા દસ વર્ષ સુધી થડા કે ઘણા દેશમાં વિહાર કરીને ફરીથી ગૃહસ્થ थ श४ छ ? નિ –હ ફરીથી ગૃહસ્થ થઈ શકે છે. ગૌતમસ્વામી–તેઓ ગૃહસ્થ થઈને બધા પ્રાણિને દંડ આપવાને त्यास ४२ छ । નિન્ય–ના, આ અર્થ બરાબર નથી, અર્થાત ફરીથી ગૃહસ્થ થઈને તેઓ સઘળા પ્રાણિની હિંસાને ત્યાગ કરવાવાળા થઈ શકતા નથી. ગૌતમસ્વામી–તે એજ પુરૂષ છે કે જેણે દીક્ષાનો સ્વીકાર કર્યા પહેલાં બધા જ પ્રાણિને દંડ દેવાનો ત્યાગ કર્યો ન હતો. તે એજ પુરૂષ છે કે, Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. 1 समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. व. ७ गौतमस्य सदृष्टान्तो विशेषोपदेशः - ७३५ आरेणं सव्वपाणेहिं जाव सत्तेहि दंडे णिक्खित्ते' तस्य यो जीवः स येन आरात् - मुनिसामीप्यात् सर्वप्राणिषु यावत्सर्वसत्त्वेषु दण्डो निक्षिप्तः । स एव जीवः पश्वाद् दीक्षाधारणानन्तरं सर्वप्राणिषु दण्डं परित्यक्तवान् । 'से जे से जीवे जिस्म याणिं सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहि दढे णो णिक्खिते भवइ' तस्य यः सजीवो येन इदानीं सर्वप्राणिषु यावत्सच्वेषु दण्डो न निक्षिप्तो भवति । एवं स एव जीवो विद्यते यो गृहस्थ मात्रमाददानः सर्वजीवेषु प्रत्याख्यानं न कृतबानू, 'परेण असंजए आरेण संजए' परतोऽसंयतः - आरात्संयता-साध्ववस्थातः प्राक्- गृहस्थावस्थायाम् असंयत आसीत्, आरात् साध्यवस्थायां संयतः | 'इयाणिं . असंजए' इदानीम् - पुनः साधुलिङ्गत्यागात्परं गृहस्थभावमापन्नः पुनरसंयतो ज्ञातः । 'असंजयस्स सव्वपाणेहिं जाव सव्वसचेहिं दंडो णो णिक्खित्ते भव' . असंयतस्य सर्वप्राणिषु यावत् सर्वसत्वेषु दण्डो नो निक्षिप्तो भवति, असंयमी जीवः सर्वव्यापारेण सर्वप्राणिषु दण्डत्यागी न भवति । 'से एव मायाणह' 'तदेवं जानीत, 'णियंठा' निर्ग्रन्थाः 'से एवमायाणियन्त्रं ' तदेवं ज्ञातव्यम् । अयं भावः यद्यपि जीववधस्य पूर्व प्रत्याख्यानं कृतम्, स एव कालान्तरे स्थाहै । जिसने दीक्षा धारण करने के पश्चात् समस्त प्राणियों को दण्ड देने का त्याग कर दिया था और यह वही पुरुष है जो दीक्षा त्याग कर और गृहस्थ अवस्था में आकर समस्त प्राणियों को दंड देने का "! - त्यागी नहीं है । वह सबके पहले असंयमी हो गया और फिर साधु ! .. लिंग त्याग कर असंयमी हो गया । जो असंयमी है वह समस्त प्राणियों 1 यावत् समस्त सत्त्वों को दंड देने का त्यागी नहीं हो सकता । हे निर्ग्रन्थो । ऐसा ही जानो और ऐसा ही जानना चाहिए । 1) भावार्थ यह है - यद्यपि स जीव के हिंसा का प्रत्याख्यान पहले किया है, किन्तु वह त्रस जीन कालान्तर में स्थावर हो जाता है। स જેણે દીક્ષા ધારણ કર્યા પછી બધા જ પ્રક્રિયાને દડ દેવાના ત્યાગ કર્યા હતા. અને તે એજ પુરૂષ છે કે જે દીક્ષાના ત્યાગ કરીને અને ગૃહસ્થ અવસ્થામાં આવીને બધા જ પ્રાણિયાને દડ દેવાના ત્યાગ કરનાર નથી, તે સૌથી પહેલાં અસયમી હતા તે પછી સયમી થઈ ગયા અને તે પછી પછે! સાધુના વેષના ત્યાગ કરીને અસયમી થઈ ગયા જે અસયી છે. તે સઘળા પ્રાણિયા યાવત્ સઘળા સહ્વાને દંડ આપવાના ત્યાગ કરવાવાળા હાતા નથી, હું નિગ્રન્થ્રા ! તમા એવું જાણે! અને એજ પ્રમાણે જાણવુ જોઇએ. ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે–જો કે ત્રસ જીવની હિ‘સાનુ પ્રત્યાખ્યાન પહેલાં કર્યું' હતું. પરંતુ તે ત્રસ જીવ કાલાન્તરમાં સ્થાવર ખની જાય છે. ત્રસ જીવનું Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NCE सूत्रकृतान बरता मासादयति त्रसजीवे प्रत्याख्यानकर्तुः स्थावरजीवविनाशनेन प्रत्याख्यान न भयेत, तत्काले तस्मिंस्त्रसावच्छिन्न जीवत्वाऽभावात्, पर्यायेण स है। प्रत्याख्यानस्य सम्बन्धः, न तु द्रव्यतयाऽवस्थितजीवेन सह, पर्यायस्य च प्रतिक्षणं भिधमानत्वात् । यथा कश्चित् गृहस्थः साधुर्भवति-तस्यां च गृहस्थावस्थायां जीवं विराधयति, तावता साध्ववच्छिन्नपत्याख्यानस्य भङ्गो न भवति-तत्कस्य हेतोः ? साधुपर्यायगृहस्थपर्याययोर्भेदात् । प्रत्याख्यानस्य साधुपर्यायेण सम्ब. न्धात् । गृहस्थावस्थायां तेनैव जीवेन कृतेऽपि वधे प्रत्याख्यानं न दुष्टं भवति, तद्वदिहाऽपि त्रसजीवविषये गौतमेन पतियोधितः स इति भावः। __ गौतमस्वामी कथितमेवा) दृष्टान्तान्तरेण पुनः उदकपेढालपुत्र श्रमणेभ्यः प्रदर्श यति-'भगवं च णं उदाह' भगवान पुनः खलु उदाह-'णियंठा खल पुच्छियन्या' जीव का प्रत्याख्यान करने वाले का प्रत्याख्यान स्थावर जीवों की हिंसा करने से भंग नहीं होता। क्यों कि उस समय वह उस जीव नहीं हैं। प्रत्याख्यान का सम्बन्ध पर्याय के साथ है, द्रव्य रूप से स्थित रहने वाले जीव के साथ सम्बन्ध नहीं है। किन्तु पर्याय पलटती रहती है। जैसे कोई गृहस्थ है, साधु नहीं है और उस अवस्था में जीवों की विराधना करता है तो साधु संबंधी प्रत्याख्यान का भंग नहीं होता है। इसका क्या कारण है ? कारण यही है कि साधुपर्याय और गृहस्थ पर्याय में भेद है। प्रत्याख्यान का संबंध साधु पर्याय के साथ है। गृहस्थावस्था में जीव की हिंसा करने पर भी गृहस्थ प्रत्याख्यान के भंग का दोषी नहीं होता। इसी प्रकार प्रकृत प्रस के विषय में भी समझ लेना चाहिए । इस प्रकार गौतम स्वामी ने उन निर्ग्रन्धों को प्रतियोध दिया। પ્રત્યાખ્યાન કરવાવાળાના પ્રત્યાખ્યાનને સ્થાવર જીની હિંસા કરવાથી ભગ થતું નથી. કેમકે–તે વખતે તે ત્રસ જીવ રહેલ નથી પ્રત્યાખ્યાનને સંબંધ પર્યાયની સાથે છે. દ્રવ્યપણાથી સ્થિત રહેવાવાળા જીવની સાથે સંબંધ નથી પરંતુ પર્યાય કર્યા કરે છે. જેમકે-કે ઈ ગૃહસ્થ છે, તે સાધુ નથી અને તે એ અવસ્થામાં જીવની વિરાધના–હિંસા કરતો હોય તે સાધુ સંબંધી પ્રત્યાખ્યાનને ભંગ થતો નથી, તેનું કારણ શું છે? કારણ એજ છે કેસાધુ પર્યાય અને ગૃહસ્થ પર્યાયમાં ભેદ છે. પ્રત્યાખ્યાનને સંબધ સાધુપર્યાય સાથે છે. ગૃહસ્થ અવસ્થામાં જીવની હિંસા કરવાથી પણ ગૃહરા પ્રત્યાખ્યાનના ભંગરૂપી દોષવાળા થતા નથી. એ જ પ્રમાણે ચાલુ ત્રસના સ બંધમાં પણ સમજી લેવું જોઈએ. આ પ્રમાણે ગૌતમસ્વામીએ તે નિર્ણને પ્રતિબંધ આવે. Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ interfeit टीका द्वि श्रु. अ. ७ गौतमस्य सदृष्टान्तो विशेषोपदेशः ७३७ निर्ग्रन्थाः खल मष्टव्याः - निर्ग्रन्थानहं पृच्छामि, 'आउसंतो नियंठा' आयुष्मन्तो निर्ग्रन्थाः इह लोके 'परिवाइया वा' पारिवाजका वा 'परिव्वाइयाओ वा 'परिव्राजिका वा 'अन्य रेहिंतो' अन्यतरेभ्यः 'तित्थाययणेदितो आगम्य धम्मं, 'सवणवत्तिय उवसंमेज्जा' तीर्थायतनेभ्य आगत्य धर्म श्रवणमत्ययमुपसंक्रमेयुः । तीर्थायतनेभ्यः स्वतीर्थेभ्यः साधुभ्यः साध्वीभ्यो वा किं धर्मश्रवणार्थमागन्तुं 'शक्यते ? 'देता उवसंमेज्जा' इन्त - उपसंकमेयुः - आगन्तुं शक्यते, 'किं तेसिं 'पगारे धम्मे आइक्खियन्वे' तथाप्रकाराणां तेषां किं धर्म आख्यातव्यः -- कथनीयः ? 'हंता आइक्खियव्वे' हन्त आख्यातव्यः - श्रावयितव्य इत्यर्थः 'तं चेष उवद्यावित्तए जात्र कप्पंति' ते चैत्र ग्रुपस्थापयितुं यावत्कल्प्यन्ते, यावत्पदेन तैव खलु सर्वप्राणिषु यावत्सर्वसत्वेषु दण्डो निक्षिप्तः हन्त निक्षिप्तः इत्यन्वस्य ग्रहणम्, सम्यग् धर्मश्रावणानन्तरं यदि तेषां वैराग्यं भवेत् - तथा साधुर्भविष्या गौतम स्वामी दूसरा दृष्टान्त देकर उदक पेढालपुत्र को और निग्रन्थों को समझाते हैं । भगवान् श्रीगौतमस्वामी ने कहा- मैं निर्ग्रन्थों से पूछता हूं कि हे आयुष्मत् निर्ग्रन्थों ! क्या कोई परिव्राजक या परिब्राजिका किसी दूसरे तीर्थ के स्थान में । (आश्रम या मठ आदि में) रहते हुए साधु के समीप धर्म श्रवण करने के लिए आसकते हैं ? निर्ग्रन्थ--हां आसकते हैं । गौतमस्वामी -- तथाप्रकार के उन व्यक्तियों को धर्म का उपदेश देना चाहिए ? निर्ग्रन्थ-- हां, उन्हें धर्म सुनाना चाहिए । गौतम स्वामी -- धर्म श्रमण करने के पश्चात् पूर्वोक्त प्रकार से ગૌતમસ્વામી ખીજુ દૃષ્ટાન્ત આપીને ઉદક પેઢાલપુત્રને અને તેના निर्थन्थाने सभलवे छे - ભગવાન શ્રી ગૌતમસ્વામીએ કહ્યું કે-ઝુ નિગ્રન્થાને પૂછું' છું કે હે આયુષ્મન નિગ્રન્થા ! શું કેઈ પરિત્રાજક અથવા પરિવ્રાજીકા કાઈ ખીજા તીર્થંકરના સ્થાનમા (આશ્રમ અથવા મઠ વિગેરેમાં) રહેવાવાળા સાધુની પાસે ધ શ્રવણુ કરવા માટે આવી શકે છે ? निर्थन्थे:- हा भावी शडे छे ? ગૌતમસ્વામી-તેવા પ્રકારની તે વ્યક્તિઓને ધમ ના ઉપદેશ આપવા જોઇએ? નિગ્રન્થ—હા તેઓને ધર્મનુ શ્રવણુ કરાવવું જોઈએ. ગૌતમસ્વામી—ધમનું શ્રવણ કર્યાં પછી પૂર્વોક્ત પ્રકારથી યાવત્ દીક્ષા सू० ९३ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे मीतीच्छा भवेत् तदा किं ते दीक्षयितव्याः ? 'हंता कप्पंति' हन्त कल्प्यन्तेदीक्षादानयोग्यास्ते स्युः । 'किं ते तद्दपगारा कप्पंति संभुंजित्तए' कि' से तथा मकाराः कल्प्यन्ते संभोजयितुम् ? अर्थादीक्षा वारणानन्तरं किं ते संमोज्या भवितुमर्हन्ति ? वा कप्पंति' इन्त करण्यन्ते, साधुः साधुभिः सह साध्वी साध्वीभिः सह समान सामाचारिणां सह भोजनादिकं संभोगः, तमत्रयं कुर्यादिति साधूनामुत्तरम् | 'ते णं एयारूवेणं विहारेणं विरमाणा तं चैव जात्र आगारं वज्जा' ते एतद्रूपेण विहारेण विहरन्त स्वधैव यावदगारं व्रजेयुः किम् ? से दीक्षां पालयन्तः संयतावस्थायां विहारं कृत्वा पुनरेव गृहस्था भविष्यन्ति किम् ? 'देवा वज्जा' छन्त व्रजेयुः - अशुभ कर्मोदयाद् गृहं गन्तु ं शक्नुवन्ति । पावत् वे दीक्षा लेना चाहें तो उन्हें दीक्षा देकर धर्म में उपस्थापित करना चाहिए ? निर्ग्रन्थ-- हां, करना चाहिए। गौतमस्वामी -- यदि वे विरक्त होकर दीक्षा लेलें तो क्या संभोग के योग्य हैं ? निर्ग्रन्थ-- हां, वे संभोग के योग्य हैं। साधुओं का सामान समा चारी वाले साधुओं के साथ और साध्वियों को साध्वीयों के साथ भोजनादि व्यवहार करना संभोग कहा जाता है वे दीक्षित होने के पश्चात् अवश्य संभोग के योग्य हैं । गौतम स्वामी -- वे इस प्रकार के बिहार से विचरते हुए अर्थात् साधुपन पालते हुए यावत् पुनः गृहस्थी में जा सकते हैं ? निर्ग्रन्थ-- हाँ अशुभ कर्म के उदय से गृहस्थी में पुनः जा सकते हैं લેવાની ઈચ્છા કરે તે તેઓને દીક્ષા આપીને ધમમા સ્થાપિત કરવા જોઈએ ? निर्थन्था - हा खा लेि ગૌતમસ્વામી—જો તેએ વિરક્ત થઈને દીક્ષા ધારણ કરી લે તે શુ તે સભાગ કરવાને ચાગ્ય છે ? નિગ્ન ન્થા—હા, તેએ સèાગ કરવાને ચેગ્ય છે. સાધુઓના સરખા સામાચારીવાળા સાધુએાની સાથે અને સાધ્વીજીએને સાધ્વીઓની સાથે ભેાજન વિગેરે વ્યવહાર કરવા તે સ ભેગ કહેવાય છે તેઓ દીક્ષિત થયા પછી અવશ્ય સભેગ કરવાને ચાચ્ય બને છે. ગૌતમરવામી—તેએ આ પ્રકારના વિહારથી વિચરતા થકા અર્થાત્ સાધુ પુણાનું પાલન કરતા થકા યાવત્ ફરીથી ગૃહસ્થ અવસ્થામાં જઇ શકે છે ? ગ્રિન્થા——હા અશુભ કર્માંના ઉદયથી ગૃહસ્થપણામાં જઇ શકે છે. Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 समयार्थबोधिनी टीका द्वि. थु. अ. ७ गौतमस्य सदृष्टान्तो विशेषोपदेशः ७३९ 'ते णं तपगारा कप्पति संभुंजित्तए' ते खलु तथाप्रकाराः कल्प्यन्ते संभोज यितुम् ? परित्यक्तसाधुलिङ्गास्ते गृहस्थाः साधुभिः सह संभोक्तु शक्नुवन्ति किम् ? 'णी इणट्ठे समट्टे' नायमर्थः समर्थः, गृहस्थभावमापन्नाः साधुभिः सह भोक्तुं शंक्ष्यन्ति ? नहीत्युतरम्, अथवा गृहस्थभावमागताः साध्यः साध्वीभिः सह भोक्तुं न शक्नुवन्ति, 'से जे से जीवे परेणं नो कप्पंति संभुजित्तए' ते ये-ते जीवाः - ये परतोनो कल्प्यन्ते संभोजयितुम् । ते एव जीवाः यैः सह साधूनां संमोजन दीक्षातः पूर्वे नाऽभवत् 'से जे से जीवे आरेणं कप्पंति संभुंजित्तए' ते ये ते जीवाः आरास्कल्प्यन्ते संभोजयितुम्, दीक्षाधारणानन्तरं दीक्षितैस्सद् साधूनां चिरकालपर्यन्तं संभोजनादिकं भवति । 'से जे से जीवे जे इयाणि नो कप्पंति संभुंजित्तए' ते ये- ते जीवाः ये - इदानीं नो कल्प्यन्ते संभोजयितुम्, पूर्व साधुसमये संभोजनादियोग्या ये जीवा स्ते एव - इदानीं परित्यक्तसाधुभावाः परिकल्पितगृहस्थभावाः संभोजनादियोग्या न भवन्ति । 'परेण अस्समणे आरेण समणे इयाणि अस्समणे' परतोऽभ्रमणः आरात् श्रमणः इदानीमश्रमणः । गौतम स्वामी -- जब वे साधु का वेष त्याग दें और गृहस्थ हो जाएं तब साधुओं के साथ संभोग के योग्य होते हैं ? निर्ग्रन्थ-- नहीं यह अर्थ समर्थ नहीं है, अर्थात् गृहस्थ हो जाने के पश्चात् वे संभोग के योग्य नहीं रहते । गौतम स्वामी - ये वही जीव हैं, जो दीक्षा लेने से पहले संभोग के योग्य नहीं थे । ये वही जीव हैं जो दीक्षा लेने के पश्चात् संभोग के योग्य थे और ये वही जीव हैं जो अब दीक्षा त्याग देने के पश्चात् संभोग के योग्य नहीं रहे हैं। ये वही हैं जो पहले श्रमण नहीं थे, फिर श्रमण हो गए थे और अब श्रमण नहीं रहे हैं। श्रमणों को ગૌતમસ્વામી— જ્યારે તેએ સાધુના વેષના ત્યાગ કરી અને ગૃહ સ્થ બની જાય, તે પછી સાધુઓની સાથે સભાગ કરવાને ચેગ્ય ગણાય છે ? નિમન્થા—ના, આ અથ ખરેખર નથી. અર્થાત્ ગૃહસ્થ થયા પછી તે સભાગને ચાગ્ય રહેતા નથી. ગૌતમરવામી—આ તેજ જીવ છે, જે દીક્ષા લીધા પહેલાં સલેગને ચૈાગ્ય ન હતા. આ એજ જીવ છે કે જે દીક્ષા લીધા પછી સ`ભેાગને ચેાગ્ય હતા. અને આ એજ જીવ છે કે જે-હવે દીક્ષાના ત્યાગ કર્યા પછી સભાગને ચેગ્ય રહેલ નથી. આ એજ જીવ છે જે પહેલાં શ્રમણ ન હતા. તે પછી શ્રમણુ બન્યા અને હવે પાછે શ્રમણ રહ્યો નથી. શ્રમણાને અશ્રમણેાની સાથે Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___७४० सूत्रकृताशस्त्र संयमग्रहणात् पूर्व गृहस्थ:-न साधुः, दीक्षाधारणानन्तरं साधुः जातः न गृहस्था, दीक्षापरित्यागानन्तरं पुनरपि गृहस्थ एव जात: न तु साधुः! 'अरसमणेणं सद्धि णो कप्पंति समणाणं निग्गंयाणं संभुजित्तए' अश्रमणेन साधे नो कल्पन्ते श्रमणानां निर्ग्रन्थानां संमोक्तम् । साधवो नाऽभ्यवहरन्ति-अश्रमणेन सह। तादृशा चाराऽमावात् । ‘से एवं मायाणह णियंठा से एव मायाणियन्त्र' तदेवं जानीतनिर्ग्रन्थाः तदेवं ज्ञातव्यम्, एवमेव प्रसादि प्रत्याख्यानस्थलेऽपि सपर्याय. माश्रित्यैव प्रत्याख्यानं न तु द्रव्यमाश्रित्येति वोद्धव्यमिति गौतमोऽकथयत्साधून प्रतीति ।।सू०११-७८॥ म्लम्-भगवं च णं उदाहु संतेगइया समणोवासगा भवंति, तेसिं च णं एवं वृत्तपुव्वं भवइ-णो खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवइत्तए, वयं णं चाउद्दसट्रमुविट्रपुणिमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्मं अणुपालेमाणा विहरिस्सामो, थूलगं पाणाइवायं पच्चक्खाइस्सामो, एवं थूलगं अश्रमणों के साथ संभोग करना नहीं कल्पता है, क्योंकि उनका, आचार श्रमणों जैसा नहीं होता है। अतएव हे श्रमण निर्ग्रन्थों ! आप ऐसा समझिए आपको ऐसाही समझना चाहिए। इसी प्रकार जिस श्रमणोपासक ने त्रस जीव की हिंसा का त्याग किया है, उसके लिए त्रस जीव हिंसा का विषय नहीं रहता। किन्तु जप वही जीव त्रस पर्याय त्याग कर स्थावर हो जाता है तो वह उसके त्याग का विषय नहीं रहता है । इस प्रकार प्रत्याख्यान पर्याय की अपेक्षा से होता है, द्रव्य की अपेक्षा से नहीं होना । ऐसा गौतमस्वामी ने उन निर्ग्रन्थों को समझाया ॥११॥ સંગ કરવાનું કલ્પતું નથી કેમકે–તેઓને આચાર શ્રમણે જે તે તેથી જ હે શ્રમણ નિર્ચ ! આપ એવું સમજ આપે એવું જ સમજવું જોઈએ, - આજ પ્રમાણે જે શ્રમણોપાસકે ત્રસજીવની હિંસાનો ત્યાગ કરેલ હોય, તેને માટે ત્રસ જીવ, હિંસાને વિષય બનતા નથી. પરંતુ જ્યારે એજ જીવ ત્રસ પર્યાયને ત્યાગ કરીને સ્થાવર બની જાય છે. તે પછી તે તેઓના ત્યાગનો વિષય રહેલું નથી. આ રીતે પ્રત્યાખ્યાન પર્યાયની અપેક્ષાથી થાય છે. દ્રવ્યની અપેક્ષાએ થતું નથી. આ પ્રમાણે ગૌતમસ્વામીએ તે નિગ્રન્થને સમજાવેલ છે. ૧૧ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयायोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७४१ मुलावायं थूलगं अदिन्नादाणं थूलगं मेहुणं थूलगं परिग्गहं पच्चक्खाइस्लामो, इच्छापरिमाणं करिस्सामो, दुविहं तिविहेणं, मा खलु मसहाए किंचि करेह वा करावेह वा तत्थ वि पञ्च. क्खाइस्सामो, ते णं अमोच्चा अपिच्चा असिणाइत्ता आसंदी पेढीयाओ पच्चोरुहिता, ते तहा कालगया किं वत्तवयं सिया? सम्मं कालगय त्ति वत्तई सिया, ते पाणा वि बुच्चंति ते तसा वि वुच्चति ते महाकाया ते चिरट्टिइया, ते बहुतरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ, ते अप्पयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्त अपच्चक्खायं भवइ, इति से महयाओ जणं तुब्भे वयह तं चेव जाव अयं पि भेदे से जो णेयाउए भवइ । भगवं च णं उदाहु संतेगइया समणोवालगा भवंति, तेसिं च णं एवं वृत्तपुत्वं भवइ, णो खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता आगाराओ जाव पवइत्तए, णो खलु वयं संचाएमो चाउद्दसटमुदिट्ठ पुषणमासिणीसु जाव अणुपालेमाणा विहरित्तए, वयं णं अपच्छिममारणंतियसलेहणा जूसणा जूलिया भत्तपाणं पडियाइक्खिया जाव कालं अणवखमाणा विहारस्सामो, सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खाइस्तामो जाव सवं परिग्गह पच्चक्खाइस्सामो तिविहं तिविहेणं, मा खल्लु ममटाए किंचि वि जाव आसंदी पेढियाओ पच्चोसहित्ता एए तहा कालगया, किं वत्तवं लिया?, सम्मं कालगय त्ति वत्तवं सिया, ते पाणा वि, वुच्चंति जाव अब पि भेदे से णो णेयाउए भवइ । भगवं च णं उदाहु संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा-मह इच्छा महारंभा महापरिग्गहा अहम्मिया जाव दुप्पडियाजंदा जाव सवाओ परिग्गहाओ अप्पडिविस्या जावजीवाए, जेहिं समणोवासगस्स Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઉછેર संकृतारी आयाणलो आमरणंताए दंडे णिरिखत्ते भवइ, ते तओ आउगं विप्पजहंति, तओ भुज्जो सग्गलादाए दुग्गइगामिणो भवंति ते पाणा वि वुच्चति ते तसा वि बुच्चति ते महाकाया ते चिरहिइया ते बहुयरगा आयाणसो, इति से महयाओ णं जपणं तुम्भे वदह तं चेव अयं पि भेदे से णो णेयाउए भवइ । भगवं च णं उदाहु संतगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा-अणारंभा अपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया जाव सव्वाओ परिग्गहाओ पडिविरया जावज्जीवाए, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते तओ आउगं विप्पजहंति ते तओ भुज्जो सगमादाए सग्गइगामिणो भवंति, ते पाणा वि बुच्चंति ते तसा वि वुच्चंति जाव णो णेयाउए भवइ। भगवं च णं उदाहु संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा-अपच्छा अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया जाव एगच्चाओ परिगहाओ अप्पडिविरया, जहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते, भवइ ते तओ आउगं विप्पजहंति, तओ भुज्जो सग्गमादाए सग्गइगामिणो भवंति, ते पाणा वि वुच्चंति तसा वि जाव णोणेयाउए भवइ। भगवं च णं उदाहु संतेगइया मणुस्सा भवंति, त जहा-आरणिया आवसहिया गामणियंतिया कण्हुई. रहस्सिया, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमणंताए दंडे णिक्खित्वे भवइ, णो बहुपडिविरया पाणभूयजीव सत्तेहिं, अप्पणा सच्चामोसाइं एवं विप्पडिवेदेति-अहं ण हंतव्यो अन्ने हंतव्वा, जाव कालमासे कालं किच्चा अन्नयराइं आसुरियाई किविसियाइं जाव उववत्तारो भवंति, तओ विप्पमुच्चमाणा भुज्जो एलमुयत्ताए तमोरूवत्ताए पच्चायंति। ते पाणा वि Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताखौ रिक्तमात्मानम्, न तु कोऽपि एतादृशः पुरुषो विद्यते, यो मुनादिपिकामित्र आत्मानं शरीरान्निष्कास्य प्रदर्शयेत् तस्मान्नास्ति शरीरातिरिक्त आत्मेति । अथ तृतीयं दृष्टान्तमाह-'से जहा णामए' तद्यथा नामकः 'केह पुरिसे' कोऽपि पुरुषः 'मंसाओ अदि अभिनित्पट्टित्ताण मांसादस्थि-अभिनिर्वयं खलु 'उपदंसेज्जा' उपदर्शयेत् 'अयमाउमो ! मंसे अयं अट्ठी' अपमायुग्मन् ! मांसः, इदमस्थि । एवमेव -'नस्थि केइपुरिसे' नास्ति कोऽपि पुरुषः 'उपदर्शयिता 'अयमाउसो ! आयाइयं सरीरं अयमायुष्मन् ! आत्मा इदं शरीरम्, यथा-मांसेम्यो निष्कृष्याऽस्थि दर्शयितुं शक्नोति तथा-यदि कोऽपि शरीरान्निष्कास्याऽऽत्मानं प्रदर्शयेत, तदा --शरीराऽतिरिक्ता सत्ता आत्मनः स्वीक्रियेत अपि, नत्वेयं कश्चित् -एतादृशो जातः यो हि शरीरादात्मानं निष्कास्य प्रदर्शयेदिति । समर्थ हो, तो मान भी लें कि आत्मा शरीर से भिन्न है। परन्तु ऐसा कोई पुरुष है नहीं जो मुंज से ईषिका की भांति शरीर से निकाल फर आत्मा को दिखला सके। इस कारण आत्मा शरीर से भिन्न नहीं है। ____ जैसे कोई पुरुष मांस ले हर्डी अलग करके दिखलाता है कि-हे आयुष्मन् ! यह मांस है और यह हड्डी है, उस प्रकार ऐसा कोई दिखलाने वाला पुरुष नहीं है कि-हे आयुष्मन् ! यह आत्मा है और यह शरीर है, इस प्रकार दोनों को पृथक पृथक् दिखला सके । अगर कोई दोनों को पृथक् पृथक् करके दिखलाने में समर्थ होता तो शरीर से अतिरिक्त आत्मा का अस्तित्व स्वीकार किया भी जाता। परन्तु ऐसा कोई पुरुष जन्मा ही नहीं है जो शरीर से अलग आत्मा को दिखला सके। આત્માને અલગ બતાવી શકે છે તો માની પણ લેવાય કે આત્મા શરીરથી ભિન્ન છે. પરંતુ એ કઈ પુરૂવ નથી કે જેમ મુંજમાંથી ઈષિક (પુષ્પો બડ ૨ કહાડીને બતાવે છે, તેમ શરીરથી બહાર કહાડીને આત્મા બતાવી શકે. તે કારણથી આત્મા શરીરથી જૂદે નથી જેમ કે પુરૂષ માંસમાંથી હાડકું અલગ કરીને બતાવે છે, કે હે આયુષ્મન આ માંસ છે, અને આ હાડકું છે, એ પ્રમાણે એ કે પુરૂષ નથી કે આ આત્મા છે, અને આ શરીર છે તેમ કહીને બન્નેને અલગ અલગ બતાવી શકે. જે કઈ બન્નેને જૂદા જૂદા કરીને બતાવવાને સમર્થ હિત તે શરીરથી જુદા આત્માનું અસ્તિત્વ સ્વીકારી પણ લેત પરંતુ એ કેઈ પુરૂષ જ જે નથી કે જે શરીરથી અલગ આત્માને બતાવી શકે. Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७५३ वुच्चति तसा वि वच्चंति जाव णो णेयाउए भवइ । भगवं च पणं उदाहु-संतेगइया पाणा समाउया जेहि समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए जाब दंडे णिक्खित्ते भवइ, ते पुव्वामेव कालं करेंति करिता पारलोइयत्ताए पञ्चायति, ते पाणा विgsचंति, ते तसा वि च्वंति ने महाकाया ते चिरट्टिया ते दीहाउया ते बहुयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्वायं भवइ जाव णो णेयाउए भवइ । भगवं च णं उदाहु संतेगइया पाणा समाउया जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए जाव दंडे णिक्खिते भवइ ते सयमेव कालं करोति, करिता पारलोइयत्ताए पच्चायति, ते पाणा वि बुच्चति ते तसा वि वुच्चति ते महाकाया ते समाउया ते बहुयरगा जेहिं समणोवासगस्स सुप्पच्चवखायं भवइ जाव णो णेयाउए भवइ । भगवं चणं उदाहु संतंगड्या पाणा अप्पाउया, जेहिं समणोवागस्स आयाणसो आमरणंताए जाव दंडे णिक्खित्ते भवइ, ते पुव्वामेव कालं करेंति, करिता पारलोइयत्ताए पच्चायंति, ते पाणावि वच्चति ते तसा वि बुच्चति ते महाकाया ते अप्पा " या ते बहुयरगा पाणा, जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ, जाव णो णैयाउए भवइ । भगवं च णं उदाहु संतेगइया समणोवासमा भवंति तेसिं च णं एवं वृत्तपुव्वं भवइ - णो खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता जाव पवइत्तए, णो खलु वयं संचाएमो चाउद्दसमुद्दिट्ठपुष्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं अणुपालित्तए, णो खलु वयं संचाएमो अपच्छिमं जाव विहरित्तए, वयं च णं सामाइथं देसावगासियं पुरत्था पाईणं वा पडिणं वा दाहिणं वा उदीर्णं वा एतावता जाव सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहि Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઉર सूत्रकृतसूत्रे दंडे णिक्खित्ते सवपाणभूयजीवसत्तेहि खेमंकरे, अहमंसि, तत्थ आरेण जे तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खिते तओ आउयं विप्पजहंति, विष्वजहिता तरथ आरेणं चेत्र जे तसा पाणा जहि समणोवासपरस आयाणसो जाव ते सु पच्चायंति जेहि समणोवासगस्त सुपच्चखायं भवइ । ते पाणा वि जाव अयं पि भेदे से णो णेयाउए भवइ ॥ सू०१२॥ ७९ ॥ छाया - भगवांश्च खलु उदाह- सन्त्येकवये श्रमणोपासका भवन्ति, तैय वेवमुक्तपूर्व भवति - नो खलु वयं शक्नुमो मुण्डा भूत्वाऽगारादनगारिलं पत्रजितुम् । वयं खलु चतुर्द्दश्यष्टम्युष्टिपूर्णिमासु प्रतिपूर्ण पौषधं सम्यग् अनुरालयन्तो विहरिष्यामः । स्थूलं प्राणातिपातं प्रत्याख्यास्यामः एवं स्थलं मृपावादं स्थूलमदत्तादानं स्थूलं मैथुनं स्थूलं परिग्रहं प्रत्याख्यास्यामः । इच्छापरिमाणं करिष्यामो द्विविधं त्रिविधेन मा खलु मदर्थे किञ्चित्कुरुत वा कारयत वा तत्राऽपि प्रत्याख्यास्यामः । ते खलु अभुक्त्वा अपना अस्नात्वा आसन्दी पीठिकातः पर्यारुह्य ते तथा कालगताः, किं वक्तव्यं स्यात् ? सम्यकूकालगता इति वक्तव्यं स्यात् । ते प्राणाप्युच्यन्ते ते त्रता अपि उच्यन्ते ते महाकायास्ते चिरस्थितिकाः, ते बहुतरकाः प्राणाः येषु श्रमणोपासकस्य सुप्रत्याख्यानं भवति, ते अल्तरकाः प्राणाः येषु श्रमणोपासकस्य अपत्याख्यातं भवति । इति स महतः यथा यूप वदथ तथैव यावद् अयमपि भेदः स जो नैयायिको भवति । भगवांथ खलु उदाह-सन्त्ये के श्रमणोपासका भवन्ति, तैव खलु एवमुक्तपूर्वं भवति न खलु वयं शक्नुमो मुण्डाः भृग्वा अगाराद् यावत्मत्रजितुम् । न खलु वयं शक्नुमचतुर्दम्युष्टिपूर्णिमासु यावदनुपालयन्तो विहर्तुम् । वयं खलु अपश्चिममरणान्तिक संलेखना जोपणाजुष्टाः भक्तपानं मत्याख्याय यावत्काळ नवकाङ्क्षमाणाः विहरिष्यामः सर्व माणातिपातं प्रत्याख्यास्यामः यावत्सर्व परिग्रह प्रत्याख्यास्यामः त्रिविधं त्रिविधेन मा खलु किञ्चिन्मदर्थं यावद् आसन्दीपीठिकातः प्रत्यारुह्य एते तथा कालगताः किं वक्तव्यं स्यात् ? सम्यक् कालगता इवि वक्तव्यं स्यात्, ते प्राणः अप्युच्यन्ते यावदयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति । भगवांथ खलु उदाह- सन्त्येतये मनुष्या भवन्ति तद्यथा महेच्छाः महारम्भाः महापरिग्रहाः अधार्मिकाः यावद् दुष्प्रत्यानन्दा याव सर्वेभ्यः परिग्रहेभ्योऽमतिविरताः यावज्जीवन् येषु श्रमणोपासकस्य आदानशः आमरणान्तं दण्डो निक्षिप्तो भवति । ते ततः आयुः विमजहति ततो भूयः स्वकमादाय दुर्गतिगामिनो भवन्ति । ते माणा अच्युच्यन्ते ते त्रमा अप्युच्यन्ते ते Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७४५, महाकायास्ते चिरस्थितिकास्ते बहुतरकाः आदानशः इति, तस्य महतो येषु यूयं बदथ तश्चैव अयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति । भगवांश्च खलु उदाह-- सत्स्येकतये मनुष्या भवन्ति तद्यथा अनारम्भाः अपरिग्रहाः धार्मिका धर्मानुगाः यात्रत् सर्वेभ्य परिग्रहेभ्यः पतिविरता: यावज्जीवनं येषुश्रमणोपासकस्य आदानशः भामरणान्तं दण्डो निक्षिप्तः, ते तता आयुर्विप्रजहति ते ततो भूयः स्वकमादाय सद्भतिगामिनो भवन्ति ते माणा अप्युच्यन्ते ते सा अप्युच्यन्ते यावन्नो नया: यिको भवति । भगवांश्च खल उदाह-सन्त्येकतये मनुष्या भवन्ति तद्यथा-अल्पे. छाः अल्पारम्भाः अल्पपरिग्रहाः धार्मिकाः धर्मानुगाः यावदेकतः परिग्रहाद् अप्रतिविरता येषु श्रमणोपासकस्य आदानशः आमरणान्तं दण्डो निक्षिप्तः ते ततः आयुर्विप्रजहति ततो भूयः स्वकमादाय स्वर्गगतिगामिनो भवन्ति । ते प्राणा अप्युच्यन्ते असा अपि यावन्नो नैयायिको भवति । भगवांश्च खल उदाह-सन्त्येकतये मनुष्या भवन्ति तद्यथा-आरण्यकाः आवसथिकाः ग्रामनियन्त्रिकाः क्वचि. द्राहसिकाः येषु श्रमणोपाप्तकस्य आदानशः आमरगान्ताय दण्डो निक्षिप्तो भवति नो बहुसंयताः नो बहुप्रतिविरताः, पाणभूतजीवसत्त्वेभ्यः आत्मना सत्यानि मृपा एवं विप्रतिवेदयन्ति अहं न हन्तव्योऽन्ये हन्तव्याः यावत् कालमासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु आमरिकेषु किल्लिपिकेषु यावद् उपपत्तारो भवन्ति । ततो विषमुच्य. मानाः भूयः एलमुकत्वाय तमोरूपत्वाय प्रत्यायान्ति । ते माणा अप्युच्यन्ते असा अप्युच्यन्ते यावन्नो नैयायिको भवति । भगवांश्च खलु उदाह-सन्त्येकतये प्राणिनो दीर्घायुषः येषु श्रमणोपासकस्य आदानशः आमणान्ताय यावद दण्डो.निक्षिप्तो भवति । ते पूर्वमेव कालं कुर्वन्ति, कृत्वा पारलौकिकत्वाय प्रत्यायान्ति । ते माणा अप्युच्यन्ते ते असा अप्युच्यन्ते ते महाकायास्ते चिरस्थितिका स्ते दीर्घा युपः ते बहुतरकाः प्राणाः, येपु श्रमणोपासकस्य सुपत्याख्यात भवति । यावन्नो नैयायिको भवति । भगवांश्च खलु उदाह-सन्त्येकतये प्राणाः समायुषः येषु श्रमणोपासकस्य आदानशः आमरणान्ताय यावद् दण्डो निक्षिप्तो भवति। ते स्वयमेव कालं कुर्वन्ति कृत्वा पारलौकिकत्वाय प्रत्यायान्ति ते प्राणा अप्युच्यन्ते ते असा अप्युच्यन्ते ते महाकायास्ते समायुषः ते बहुतरकाः येषु श्रमणोपासकस्य सुपत्याख्यातं भवति यावन्नो नैयायिको भवति। भगवांश्च खलु उदाह सन्तेकतये माणा अल्पायुषो येषु श्रमणोपासकस्य आदानशः आमरणान्ताय यावद दण्डो निक्षिप्तो भवति ते पूर्वमेव कालं कुर्वन्ति कृत्वा पारलौकिकत्वाय प्रत्यायान्ति ते प्राणा अप्युच्यन्ते ते सा अप्युच्यन्ते ते महाकायास्ते अल्पायुपः ते वहतरकाः प्राणाः येषु श्रवणोपासकस्य सुमत्याख्यातं भवति । यावन्नो नैयायिको भवति । भगवांश्च खलु उदाह-सन्त्येकतये श्रमणोपासका भवन्ति तैश्च खलु एवमुक्तपूर्व सू० ९४ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ७५६ सूत्रकृतागायचे. भवति नो खलु वयं शक्नुमो मुण्डा भूत्वा यावत् प्रत्रजितुं, नो खलु वयं शक्नुम.. चतुर्दश्यष्टम्युददृष्टा पूर्णिमासु परिपूर्ण पौषधमनुपालयितुम्, नो खलु वयं शक्नुमो. ऽपश्चिमं यावद् विहर्तुम् वयश्च सामायिकं देशावकाशिकं प्रातरेव पाच्यां वा प्रती. चयां वा दक्षिणस्यां वा उदीच्यां वा एतावत् सर्वमापोपु यावत्सर्वसत्त्वेषु दण्डो निक्षिप्तः, सर्वशाणभूतजीवसरवानां क्षेमङ्करोऽहमस्मि । तत्र आराद ये प्रसा: प्राणाः येषु श्रमणोपासकस्य आदानशः आमरणान्ताय दण्डो निक्षिप्तः, ततः आयुर्विमनहति, विषहाय तब आरादेव ये प्रसाः माणाः येषु श्रमणोपासकस्य आदानश: यावत्तेषु प्रत्यायान्ति येषु श्रमगोपासकस्य प्रत्याख्यातं भवति ते प्राणा अपि यावद् अयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति ।।मू०१२-७९॥ टीका-- पुनरपि गौतमनामी प्रकारान्तरेणोदकादिमनस्योत्तरं ददाति हे उदक ! नाऽयं संसारः कदाचिदपि सरितो भवति, यतोऽनेकप्रकारेण संसारे त्रपजीवानाम् उत्पत्तिर्भवति-तदहं सक्षिप्य तुभ्यं प्रतिपादयामि-सावधानमनाः, शृणु। 'भगवं च णं उदाहु' भगवांथ खच-गौतमश्च पुन:-'णं खलु'-'ण' इति. वाक्यालङ्कारे-पाय: सर्वत्र, उदाह-उदाहरति पुन: -'सतेगइया समणोवासगा भवंति' सन्त्येकतये-कतिपये श्रमणोपासका भवन्ति । वहयो हि शान्ताः श्रावका भुवि भवन्ति । 'तेति च णं एवं वुत्तपुव्वं भवइ' ते चैवमुक्तपूर्व भवति, इत्थं कथयन्ति साधोरन्तिकमुपेत्य । 'णो खलु वयं संचाएमो मुंडा भरित्ता अगाराओ अगगारियं पचइत्तए' नो खलु वयं शक्नुमो मुण्डा भून्वाऽगारादनगारित्वं प्रव. 'भगवं च णं उदाहु' इत्यादि। टीकार्थ--गौतम स्वामी फिर प्रकारान्तर से उदक पेढालपुत्र आदि के प्रश्न का उत्तर देते हैं-हे उदक ! यह संसार कभी भी त्रसजीवों, से रहित नहीं होता। अनेक प्रकार के ससार में बस जीव उत्पन्न होते रहते हैं। यह बात संक्षेप से में आपके समक्ष प्रतिपादन करता ह। आप ध्यान पूर्वक सुनिए-- __ भगवान् गौतम बोले-बहुत से श्रमणोपासक ऐसे होते हैं जो साधु के समीप आकर कहते हैं-'हम मुण्डित होकर एवं गृह त्यागकर 'भगव च ण उदाहु' त्यादि ટીકાર્થ_શ્રી ગૌતમસ્વામી ફરીથી પ્રકારાન્તરથી ઉદક પેઢાલપુત્ર વિગેરેના પ્રશ્નનો ઉત્તર આપે છે –હે ઉદક. આ સંસાર કયારેય પણ ત્રસ જી વિનાને , થતો નથી. અનેક પ્રકારથી સંસારમાં ત્રસ જી ઉત્પન્ન થતા રહે છે આ વાત , સંક્ષેપથી હું આપની પાસે પ્રતિપાદન કરૂં તે આપ ધ્યાન દઈને સાંભળે. ભગવાન શ્રી ગૌતમ સ્વામી કહે છે-આ લોકમાં ઘણું શ્રમ પાસકે એવા હોય છે કે-જેઓ સાધુની પાસે આવીને કહે છે–અમે મુ ડિત થઈને અને Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि श्रु. अ. ७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७४७, जितुम्, प्रव्रज्यां ग्रहोतुं वयं न शक्नुम इति । 'वयं च णं चाउद्दसमुदिट्ठ पुणिमासिणीसु पडिपुणं पोसहं सम्म अणुपाले माणा विहरिस्सामो' वयं चतुर्दश्यष्ट म्युदिष्टपूर्णिमासु तिथिषु प्रतिपूर्ण समग्रविधिपूर्वक पौषधं-तन्नामकं व्रतं सम्यक्पालयन्तो विहरिष्यामः, संसारयाना मनुवत्स्यामः । 'थूलगं पाणाइवायं पञ्च, क्खाइस्सामो' स्थूलं माणातिपातं प्रत्याख्यास्यामः । 'एवं थूलगं मुसावायं अदि : भादाणं धूलगं मेहुणं शूलग परिग्गहं पञ्चक्खाइस्सामो' एवं स्थूलं मृपावाद, स्थूलम्, अदत्तादानम्, स्थुलं मैथुनम्, स्थूलं परिग्रहं प्रत्याख्यास्यामः । 'इच्छापरिमाणं करिस्सामो' इच्छापरिमाणं करिष्यामः-अर्थात् सीमित करिष्यामः, 'दुविहं तिवि, हेणं' द्विविधं त्रिविधेन-द्विकरणाभ्यां त्रियोगैश्च प्रत्याख्यानं करिष्यामः, 'मा खलु मदहाए किंचि करेह वा करावेह वा' पौषधावस्थायाम् अस्पदर्थ माकिञ्चित् कुरुत वा कारयत वा। 'तत्थ वि पच्चक्खाइस्सामो' तत्रापि प्रत्याख्यास्यामः 'तेणं अभो.. च्चा अपिच्चा असिणाइत्ता आसंदीपेढियाओ पच्चोरुहिता' तेऽमुक्ताऽपीत्वाऽस्नास्वा आसन्दीपीठिकातः पर्यारुह्य-अवतीर्य सम्यक् पौषधं कृत्वा 'तहा कालगया, अनगार वृत्ति को अंगीकार करने में समर्थ नहीं हैं। हम चतुर्दशी अष्टमी, अमावास्या और पूर्णिमा के दिन प्रतिपूर्णपोषध नामक श्रावक के व्रत को पालन करते हुए विचरेगे। हम स्थूल प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करेंगे, स्थूल मृपावाद, स्थूल अदत्तादान, स्थूल मैथुन और स्थूल परिग्रह का प्रत्याख्यान करेंगे, हम इच्छा का परिमाण करेंगे-दो करण तीन योग से प्रत्याख्यान करेंगे, हमारे लिए कुछ भी मत करो और कुछ भी मत कराओ, ऐसा प्रत्याख्यान भी करेंगे। वेश्रमणोपासक विना खाये, विना पिये, विना स्नान किये, आसन से नीचे उतर कर, सम्यक् प्रकार से पौषध का पालन कर के यदि मृत्यु को વૈભવથી ભરેલા ઘરને ત્યાગ કરીને અનગારવૃત્તિને સ્વીકાર કરવાને સમર્થ નથી. અમે ચૌદસ આઠમ, અમાસ, અને પુનમને દિવસે પ્રતિપૂર્ણ પૌષધ નામના શ્રાવકના અગીયારમા વ્રતનું પાલન કરતા થકા વિચરીશું. અમે સ્કૂલ પ્રાણાતિપાતનું પ્રત્યાખ્યાન કરીશું. સ્થૂલ મૃષાવાદ, સ્થૂલ અદત્તાદાન, સ્થૂલ મૈથુન, અને સ્થૂલ પરિગ્રહનું પ્રત્યાખ્યાન કરીશું અમે ઈચ્છાનું પરિમાણ કરીશું. બે કરણ અને ત્રણ વેગથી પ્રત્યાખ્યાન કરીશું. અમારા માટે કંઈ પણ ન કરે. અને કંઈપણ ન કરાવે એવું પ્રત્યાખ્યાન પણ કરીશું. અમપાસક સુશ્રાવક ખાધા વિના, પાણું પીધા વિના, નાહ્યા વિના, આસનની નીચે ઉતરીને સમ્યક્ પ્રકારથી પૌષધનું પાલન કરીને જે મૃત્યુને પ્રાપ્ત થાય, તે Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४८ सूत्रतात्र किं वत्तव्यं सिया' तथा-कालगताः किं वक्तव्यं स्यात्-एतादृश व्रतनियमाधारकः श्रावको मृत्यु यदि प्राप्नुयात् तदा तद्विषये किं वक्तव्यं भवेत् । 'सम्मं कालगतेत्ति' वत्तव्वं सिया' सम्यक् कालगता इति वक्तव्यं स्यात् । देवलोके गतास्ते 'ते पाणा वि बुच्चंति ते तसावि वुच्चंति ते महाकाया ते चिरहिइया' ते प्राणा अप्युच्यन्ते' प्राणधारणात्-ते सा अप्युच्यन्ते संचरणात्-ते महाकायाः-लक्षसहस्र योजनप्रमाणदेहविकुर्वणात् ते चिरस्थितिका अपि कथ्यन्ते-द्वाविंशतिसागरोपमस्थितिकत्वात्, 'ते बहुतरगा पाणा जेसिं समणोवासगस्त सुपच्चकवायं भवइ' ते पाणिनो बहुतरका अनेके सन्ति-तेषु श्रमणोपासकस्य प्रत्याख्यानं सुप्रत्या. ख्यातं भवति, 'ते अप्पयरगा पाणा जेहि समणोवासगस्स अपच्चक्खायं भवई ते प्राणा अल्पतराः सन्ति येषु श्रमणोपासकस्य श्रावकस्य अप्रत्याख्यातं भवति, 'इति-से महयाओ जणं तुम्भे वयह तं चेव जाव अयंपि भेदे से णो णेयाउए भवइ' इति स महतः यथा यूयं वदथ तथैव यावद् अयमपि भेदो नो नैयायिको प्राप्त हो जाएं तो उनके विषय में क्या कहना चाहिये ? उनके विषय में यही कहना चाहिए कि उन्होंने सम्यक् प्रकार से काल किया है, वे देवलोक को प्राप्त हुए हैं। वे प्राणों को धारण करने के कारण प्राणी भी कहलाते हैं, उस नाम कर्म का उदय होने से वे प्रस भी कहलाते है एक लाख योजन के शरीर की विक्रिया कर सकने के कारण वे महाकाय भी कहलाते हैं और बावीस सोगरोपम की उत्कृष्ट स्थिति होने से चिरस्थितिक भी कहलाते हैं। ऐसे प्राणी बहुत हैं जिनके विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान कहलाता है । वे प्राणी थोडे हैं जिनके विषय में श्रमणो. पासक का प्रत्याख्यान नहीं होता है । इस प्रकार वह महान् जसकाय તેના સંબંધમાં શું કહેવાનું હેય? તેના વિષયમાં એમજ કહેવું જોઈએ કે તેઓએ સમ્યક્ પ્રકારથી સમાધિપૂર્વક કાળ કરેલ છે, તેઓએ દેવલોક પ્રાપ્ત કર્યો છે. તેઓ પ્રાણને ધારણ કરવાના કારણે પ્રાણી પણ કહેવાય છે. ત્રણ નામકર્મને ઉદય હોવાથી, તેઓ ત્રસ પણ કહેવાય છે. એક લાખ જન જેટલા વિશાળ શરીરની વિક્રિયા કરી શકવાથી તેઓ મહાકાય પણ કહેવાય છે. અને બાવીસ સાગરોપમની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ હોવાથી ચિરસ્થિતિક પણ કહેવાય છે. એવા ઘણુ પ્રાણિ છે કે જેએના વિષયમાં શ્રમ પાસકનું પ્રત્યા'ખ્યાન સુપ્રત્યાખ્યાન કહેવાય છે. જેઓના સંબંધમાં શ્રમ પાસકનું પ્રત્યાખ્યાન થતું નથી તેવા પ્રાણિયે થેડા છે. આ રીતે મહાન ત્રસકાયની હિંસાથી Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयायोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७४९ भवति, अत: स श्रावको महतः सकायानिवृत्तः तथापि तादृशस्य तस्य प्रत्याख्यानं निविषयमिति भवन्तः कथयन्ति-तन्न्यायसिद्धं विद्धि । 'भगवं च णं उदाहु' भगवांश्च खलु गौतम उदाह-संतेगइया समणोवासना भवंति सन्त्येकके श्रमणो. पासका भवन्ति । 'तेसिं च णं एवं वुत्नपुव्वं भवइ तथैव मुक्तपूर्व भवति, ‘णो खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता आगाराओ जाव पन्चइत्तए' भुवि भवन्ति अनेके श्रीवकास्तेपु केचन साधुसमीपमागत्य कथयन्ति-न खलु वयं शक्नुमो मुण्डा:साधवो भूत्वा अगाराद् यावत् प्रवजितुम् । 'णो खलु वयं संचाएमो चाउद्दसमुद्दिट्ट पुण्णमासिणीसु जाव अणुपालेमाणा विहरित्तए' नो खलु वयं शक्नुमो चतुर्दश्यष्ट म्युदिष्ट पूर्णिमासु तत्र उद्दिष्टा-अमावास्या, आराध्य तिथिषु पौषधं सम्पूर्णरूपेण यावत् पालयन्तो विहरिष्यामः, यावत्पदेन-परिपूर्ण पोपधं सम्यग् इत्यन्तस्य ग्रहणं न वयं समर्था एतादृशं व्रतं कर्तुं किन्तु 'वयं च णं अपच्छिममारणतियं संलेहणाजूमणाजूसिया भत्तपाणं पडियाइक्खिया' वयमपश्चिममारणान्तिकं संलेखणा, जोषणाजुष्टाः भक्तपानं प्रत्याख्याय 'जाव सव्वं परिग्गरं पच्चक्खाइस्लामो यावसर्व परिग्रह प्रत्याख्यास्यामः 'विविह तिविहेणं' त्रिविध त्रिविधेन-मरणसमये, कारणत्रयेण योगैश्च समस्तमागातिपातं सर्वं परिग्रहं च परित्यक्ष्यामः । 'मा खलु की हिंसा से निवृत्त है । ऐसी स्थिति में आप श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान को निर्विषय कहते हैं। आपका यह कथन न्याय संगत नहीं है। भगवान् गौतमने पुनः कहा-कोई-कोई श्रमणोपासक होते हैं जो इस प्रकार कहते हैं-हम मुंडित होकर, गृहत्याग करके साधु होने में समर्थ नहीं है। हम चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा तिथियां में प्रतिपूर्ण पोषध व्रत का पालन करने में भी समर्थ नहीं हैं। हम तो अन्त समय में मरण का अवसर आने पर संलेखना का सेवन करके, आहार-पानी का त्याग करके यावत जीवन की इच्छा न करते हुए, मृत्य से भय नहीं करते हुए विचरेंगे। उसी समय हम तीन करण और નિવૃત્ત છે. આવી સ્થિતિમાં આપ શ્રમણે પાસકના પ્રત્યાખ્યાનને નિર્વિષય કહે છે, તે આપનું આ કથન ન્યાયયુક્ત નથી. ભગવાન શ્રી ગૌતમસ્વામીએ ફરીથી કહ્યું કે-કઈ કઈ શ્રમણોપાસકે આ પ્રમાણે કહે છે.-અમે મુંડિત થઈને ઘરને ત્યાગ કરીને સાધુ થવાને સમર્થ નથી અમે ચૌદશ, આઠમ, અમાસ, અને પુનમની તિથિમાં પ્રતિપૂર્ણ પૌષધનું પાલન કરવામાં પણ સમર્થ નથી. અમે તે અંત સમયે મરણને અવસર પ્રાપ્ત થાય ત્યારે સુલેખાનું સેવન કરીને આહાર પાણીનો ત્યાગ કરીને જીવવાની ઈચ્છા ન કરતા થકા મૃત્યુથી ભય ન પામતાં વિચરીશું, આ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५० सूत्रकृताङ्गास्त्र, मदट्टाए किंचि वि जाव' मा किश्चन मदर्थं यावत् पचनपाचनादिकमारम्भसमारम्मम् अस्मदर्थ मा फिश्चित् कुरु-मा कारय एवं रूपेण सर्वाने प्रत्याख्यास्यामः । 'आसंदीपेढियाओ पच्चोरुहिता ते वहा कालगया' आसन्दीपीठिकातः प्रत्यदरुह्य एते काळगता:-मरणमनुमाप्ताः 'कि वत्तव्यं सिया' किं वक्तव्यं स्यात्-एतद्विपये कि वक्तव्यं तदानीम्, निन्या उत्तरयन्ति-'सम्म कालगयत्ति' सम्यकालगता इति । 'वत्तव्य सिया' वक्तव्यं स्यात्-सम्यक्तदीयं मरणमिति । __'ते पाणावि वुच्चंति जाव अयं पि भेदे से णो णेयाउए भवई' ते प्राणा अप्युच्यः न्ते यावदयमपि भेदो नो स नैयायिको भवति ते प्राणा अपि कथ्यन्ते-सा अपि, महाकाया अपि, चिरस्थितिका अप्युच्यन्ते, तथा-त्रसानां हिंसायाः श्रावण प्रत्याख्यानं कृतम् अतः श्रावकस्य व्रतं निर्विषयमिति कथनं न न्यायसिद्धम् इति 'भगवं च णं उदाहु' भगवांश्च खलु पुन रुदाह 'सतेगइया मणुस्सा भवंति' सन्त्येकतये भुवि मनुष्या भवन्ति, 'तं जहा' तद्यथा 'महइच्छा' महेच्छा:-महती तीन योग से सम्पूर्ण प्राणातिपात और सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करेंगे। हमारे लिए न कुछ करो और न कराओ, ऐसा भी प्रत्याख्यान करेगे। इस प्रकार कहकर वे श्रावकपणा पालता हुआ अन्त समय में संथारा करके मृत्यु को प्राप्त होते हैं तो उनके विषय में क्या कहना चाहिए? निन्धोंने उत्तर दिया उन्होंने सम्यक प्रकार से काल किया, ऐसा कहना चाहिए। वे प्राणी भी कहलाते हैं, बस भी कहलाते हैं, महाकाय और चिरस्थितिक भी कहलाते हैं । इनकी हिंसा से श्रमणोपासक निवृत्त है अतएव श्रमणोपासक के व्रत को निर्विषयक कहना न्याय संगत नहीं है। ___ भगवान गौतम पुनः बोले-इस संसार में ऐसे भी मनुष्य होते है जो राज्य वैभव परिवार आदि का अत्यधिक इच्छा वाले होते हैं, વખતે અમે ત્રણ કરણ અને ત્રણ રોગથી સંપૂર્ણ પ્રાણાતિપાત અને સંપૂર્ણ પરિગ્રહને ત્યાગ કરીશું. અમારે માટે કંઈ કરવું નહીં અને કંઈ કરાવવું, નહીં એવું પણ પ્રત્યાખ્યાન કરીશું આ પ્રમાણે કહીને તેઓ શ્રાવકપણે પાલન કરતા થકા અંતસમયે સંથારે કરીને મૃત્યુને પ્રાપ્ત કરે છે તે તેમના સંબંધમાં શું કહેવાનું છે ? નિગ્રાએ ઉત્તર આપતાં કહ્યું કે–તમેએ સારી રીતે કાળ કર્યો તેમ કહેવું જોઈએ તેમાં પ્રાણી પણ કહેવાય છે. ત્રસ પણ કહેવાય છે. મહાકાય અને ચિરસ્થિતિક પણ કહેવાય છે. તેમની હિંસાથી શ્રમ પાસક નિવૃત્ત રહે છે. તેથી જ શ્રમ પાસકના વ્રતને નિર્વિષયક કહેવું તે ન્યાય સંગત નથી. ભગવાન ગૌતમસ્વામીએ ફરીથી કહ્યું-આ સંસારમાં એવા પણ મનુષ્ય હોય છે કે-જેઓ રાજ્યવૈભવ પરિવાર વિગેરેની અત્યંત અધિક ઈચ્છાવાળા Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयाबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७५१ -राज्यविभवपरिवारादिका सर्वातिशायिनी इच्छा-अन्तः कमणवृत्ति येषां ते तथा विशाळलालसा, 'महारंभा' महान् आरम्भ:-पञ्चेन्द्रियान्तोपमर्दनलक्षणो येषां ते' तथा, 'महापरिगहा' महापरिग्रहा:-परिमाणातिरेकेण धनधान्यद्विपदचतुष्पद- ' वास्तु क्षेत्रादिरूपाः येषां ते तथा 'अहम्मिया' अधार्मिका:-धर्म श्रुवचारिवलक्षणं चरन्तीति धार्मिकाः, न धार्मिका अधार्मिकाः 'जाव दुपडियाणंदा' यावद् दुष्पत्या नन्दा:-दुःखेन प्रत्यानन्दते ये ते तया, अतिकष्टेन प्रसन्नयोग्याः, यावत्पदेन अधर्मानुगा:-अधर्मसेविनः अधर्मिष्ठाः अधर्माख्यायिनः अधर्मरागिणः - अधर्म-' लोकिनः अधर्मजीविनः अधमरजनाः अधर्मशीलसमुदाचाराः अधर्मे चैव जीविका-- कल्पयन्तः इत्यन्नपदानां ग्रहणम्, तदेतेषामर्थाः-धर्म श्रुतचारित्रलक्षणम् अनुः गच्छन्ति ये ते धर्मानुगा स्तद्विपरीता:-अधर्मानुगाः, अधर्मसेविन:-कलत्रादि, निमित्तषड्जीवकायोपमर्दकाः, अमिष्ठा:-अतिशयितो धर्मों येषां ते धर्मिष्ठा.. स्तद्विपरीताः अधर्ममाख्यातुं शीलं येषां ते अधर्माख्यायिनः, अधर्मरागिणः-न धर्मोऽधर्मः तत्र रागः-रक्तुं शीलं येषां ते तथा, अधर्मपलोकिनः-न धर्मोऽधर्मः पंचेन्द्रिय के वध आदि का महान् आरंभ करते हैं, महापरिग्रहवाले अर्थात् अपरिमित धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, मकान, खेत आदि परिग्रहवाले होते हैं, अधार्मिक अर्थात् श्रुतचारित्र धर्म से वर्जिन होते हैं, यावत् यहुत कठिनाई से प्रसन्न होनेवाले होते हैं। यहां यावत्' शब्द से ये विशेषण और समझ लेने चाहिए, अधर्मानुग श्रुतचारित्र धर्म का अनुसरण न करनेवाले, अधर्मसेवी पत्नी आदि के निमित्त षटू जीवनिकाय की हिंसा करनेवाले अधर्मिष्ठ अत्यन्त अधर्मी, अधर्म की यात कहने वाले और अधर्म को ही देखनेवाले, अधर्मजीवी-पाप से जीवन यापन करने वाले, अधर्मरंजन-पाप करके ही प्रसन्न होनेवाले, अधर्मशील समुदाचार-पापमय आचरण करनेवाले तथा पाप से ही હોય છે પચેન્દ્રિયના વધુ વિગેરેને મહાન આર ભ કરે છે, મહાપરિગ્રહવાળા, અપરિમિત ધન, ધાન્ય, દ્વિપદ મકાને, ખેતરે વિગેરે પરિગ્રહવાળા હોય છે. અધાર્મિક અર્થાત થતચારિત્ર ધર્મથી રહિત હોય છે યાવત્ ઘણીજ કઠણાઈથી પ્રસન્ન થવાવાળા હોય છે. અહીં યાવત્ શબ્દથી આ પ્રમાણેના બીજા વિશે. પણે પણ સમજી લેવા. અધર્માનુગ-યુતચારિત્ર ધર્મનું અનુસરણ ન કરવાવાળા અધર્મસેવી–સ્રી વિગેરે માટે પટજીવનિકાયની હિંસા કરવાવાળા, અધમિઠ--અત્યંત અધમી અધર્મની વાત કહેવાવાળા, અને અધર્મને જ દેખવાવાળા, અધર્મજીવી-પાપથી જીવનનું યાપન કરવાવાળા, અધર્મરંજન પાપ કરીને જ પ્રસન્ન થવાવાળા, અધમ શીલ સમુદ્ર ચાર-પાપમય આચરણ કરીને Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे.. ७५२ - पापम् तं प्रकर्षेण लोकितुं द्रष्टुं शीलं येषां ते तथा, अधर्मजीविनः-अधर्मेण पापेन जीवितुं शीलं येषां ते तथा, अधर्मरञ्जनाः अधः पापं तत्र कणरज्यन्ते ये ते तथा, अधर्मसमुदाचाराः - अधर्मशीलः - सावद्यकार्यशीलः समुदाचारः. यत् किञ्चन अनुष्ठानं येषां ते तथा, अधर्मेण - केवलमधर्मेणैव वृत्ति-जीविकां कलायतः कुर्वन्तो विन्तीति । . 'जांब सम्बओ परिग्गदाओ अध्यडिविरिया जावज्जीवाए' यावत्सर्वस्मात् परिग्रहाद् अपतिविरताः यावज्जीवनम् अत्र यावत्पदेन प्राणातिपातमृपाबाददत्तादानमैथुनानां ग्रहणं भवति, सर्वस्मात् प्राणातिपातात् सर्वस्माद् मृपावादात् सर्वस्माद् अदत्तादानात् सर्वस्माद् मैथुनाद् अप्रतिविरता अनिवृत्ता इत्यर्थः, 'हिं समणोवास आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते' येषु श्रमणोपासकस्य आदानशः व्रतग्रहणकाळादारभ्य आमरणान्तं मरणपर्यन्तं - दण्डो, निक्षिप्तः त्यक्तो भवति । केनाऽपि सामान्यश्रावण महारम्भादिषु प्रत्या ख्यानं कृतम् । ते ततः 'आउगं विप्पजहंति' ते तथाभूताः पुरुषाः मरणसमये आयुर्विमजहन्ति परित्यजन्ति । 'ततो भुज्जो सगमादाय' ततो भूयः स्वक मादाय स्वकं स्वयं कर्मादाय ' दुग्गाइगामिणो भवति' दुर्गतिगामिनो भवन्ति । तेऽधार्मिकाः, ' ते पाणा वि चुच्चेति' ते प्राणा अप्युच्यन्ते प्राणधारणात् 'ते " - · आजीविका करनेवाले । यावत् समस्त परिग्रह से जीवनपर्यन्त निवृत्त न होनेवाले, यहां यावत् शब्द से प्राणातिपात, मृषावाद, श्रदत्तादान, और मैथुन का ग्रहण करना चाहिए अर्थात् समस्त हिंसा झूठ, चोरी और मैथुन से जीवनपर्यन्त निवृत्त न होनेवाले होते हैं । श्रमणोपासक ऐसे प्राणियों की हिंसा करने का व्रत ग्रहण से लेकर मरणपर्यन्त श्याग करता है । ऐसे पूर्वोक्त पुरुष मरण के समय आयु का त्याग करते हैं और अपने-अपने कर्म के अनुसार दुर्गति (नरक) में जाते हैं। वे अधार्मिक पुरुष प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते है और महा પ્રસન્ન થવાવાળા, તથા પાપથી જ આજીવિકા કરવાવાળા, યાવર્તે સમસ્તપરિમહુથી જીવનપર્યન્ત નિવૃત્ત ન થવાવાળા, અહીંયાં યાવત્ શબ્દથી પ્રાણાતિપાત મૃષાવાદ, અદત્તાદાન, અને મૈથુનનું ગ્રહણ કરેલ છે. અર્થાત્ બધા જ પ્રકારની હિંસા, અસત્ય, ચારી અને મૈથુનથી જીવનપર્યંત નિવૃત્ત ન થવાવાળા હાય છે. શ્રમણેાપાસકે એવા પ્રાણિયેાની હિંસા કરવાના વ્રત ગ્રહુણથી લઈને મરણુપર્યંત ત્યાગ કરે છે. એવા પૂર્વોક્ત પુરૂષ મરણ સમયે આયુને ત્યાગ કરે છે અને પેાતપેાતાના કર્મ પ્રમાણે દુર્ગાંતિ (નરક)મા જાય છે તે અધા મિક પુરૂષા પ્રાણી પણ કહેવાય છે. ત્રસ પણ કહેવાય છે. તથા મહકાય્ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् पुनश्चतुर्थं दृष्टान्तमाह-'से जहा णामए' तद्यथानामकः, 'केइ पुरिसे' कोऽपि पुरुषः 'करयलाओ आमलक' करतलादामलकम् । 'अभिनिव्वहिता णं' अभिनिवर्त्य खलु 'उपदंसेज्जा' उपदर्शयेत् 'अयमाउमो ! करयले अयं आमलए' इदमायुष्मन् ! करतलम् इदमामलकम् । 'एवमेव णथि के इपुरिसे' एवमे नास्ति कोऽपि पुरुषः 'उपदंसेत्तारो' उपदर्शयिता 'अपमाउसो ! आया इयं सरीरं' अपमायुष्मन् ! आत्मा इदं शरीरम्, यथा-करतलात् पार्थक्येनाऽऽमलकं दर्शयति तथा यदि शरीरातिरिक्त आत्मा भवेत् तदा सोऽपि शरीरात पार्थक्येन प्रदर्शयितुं शक्येत, न तु कोऽपि दर्शयितुं शक्नोति, तस्मान्नास्ति शरीराऽतिरिक्त आत्मेति। अथ पञ्चमं दृष्टान्तमाह-'से जहाणामए के पुरिसे' तद्यया नामकः कोऽपि पुरुषः 'ददिभो नवनीयं' दघ्नो नवनीतम् 'अभिनिमट्टित्ता गं' अमिनिर्वयं खलु "उवदंसेज्जा' उपदर्शयेत् 'अयमाउसो ! नवनीयं अयं दही' इदमायुष्मन् । नव नीतम् इदं दधि 'एवमेव-णस्थि केइपुरिसे जाव सरीर' एवमेव नास्तिकोऽपि पुरुष जैसे कोई पुरुष हथेली से आंवले को अलग करके दिखलाता है कि आयुष्मन् ! यह हथेली है और यह आंवला है, इस प्रकार ऐसा कोई पुरुष दिखलाने वाला नहीं है कि हे आयुष्मन् ! यह आत्मा है और यह शरीर है जैसे हथेली से आंवला भिन्न है, वैसे यदि शरीर से आत्मा भिन्न होता तो उसे दिखलाना शक्य होता। परन्तु ऐसा कोई कर नहीं सकता, अतएव शरीर से भिन्न आत्मा नहीं है। ___जैसे कोई पुरुष दही से नवनीत 'मक्खन' को अलग निकाल कर दिखला देता है कि-हे आयुष्मन् ! यह नवनीत है और यह दही है, इस प्रकार ऐसा कोई पुरुष दिखलाने वाला नहीं है कि हे आयुष्मन् ! यह જેમ કેઈ પુરૂષ હથેલીમાંથી અલગ કરીને આંબળું બતાવે છે, કે હે આયુષ્યનું આ હથેલી છે, અને આ આંગળું છે. આ પ્રમાણે એવુ બતાવવા વાળ કેઈ પુરૂષ નથી કે હે આયુષ્યનું આ આત્મા છે, અને આ શરીર છે, જેમ હથેળીથી આંબળું અલગ છે, તેમ જે શરીરથી આત્મા અલગ હેત તો તે બતાવવાનું શક્ય બનત પરંતુ તેવું કંઈ કરી શકતું નથી તેથી જ શરીરથી અલગ આત્મા નથી. જેમ કેઈ પુરૂષ દહીંમાંથી નવનીત (માખણ) અલગ કરીને બતાવી દે છે, કે હે આયુષ્યનું આ નવનીત–માખણ છે, અને આ દહીં છે, તે રીતે એ કેઈ પુરૂષ બતાવી શકવાને સમર્થ નથી કે હે આયુષ્યન્ આ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'समयाबधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७५३ तसा वि वुच्चति' ते त्रता अप्युच्यन्ते - सश्चरणशीलत्वातू ' ते महाकाया - ते चिरइया ते बहुरगा आयाणसो' ते महाकायास्ते चिरस्थितिकास्ते बहुतरकार संख्या अनेके भवन्ति । आदानशः व्रतग्रहणादारभ्य आजीवनम् एतेषां जीवानां चमत्याख्यानविषयक विज्ञा व्रतग्रहणादारभ्याऽऽमरणं श्रावकेण कृता । 'इइ से महयाओ' इति स महतः तस्मादयं श्रावको बहूनां जीवानां प्राणातिपात विरत' 'जहं तुब्भे वदह' येषु यूयं वदथ, श्रावकत्रतं निर्विषयं कथयथ 'तं चैव अर्थ पिभेदे से णो णेयाउए भव' 'तच्चैव अयमपि भेदः स नो-नैव नैयायिको भवतीति । पुनरपि भगवान् गौतमः कथयति- 'भगवं च णं उदाहु' मगवांश्च खल उदाह'संवेगइया मणुस्सा भवति' सन्त्येकतये मनुष्या भवन्ति । 'तं जहा ' तद्यथा'अणारंभा' अनारम्भा', 'जावज्जीवाए' यावज्जीवनम् - जीवनत आरभ्य मरणपर्यन्तम् - आरम्भरहिता भवन्ति 'अपरिग्गहा' अपरिग्रहाः - परिग्रहरहिता भवन्ति । 'धम्मिया' धार्मिकाः- धर्माचरणशीलाः । ' धमाणुया' धर्माऽनुगाः परानपि धर्मा चरणानुज्ञया प्रतिबोधयन्ति । 'जाव' यावत् 'सव्वाओ परिग्गदाओ पडिविरया ' सर्वेभ्यः परिग्रहेभ्यः प्रतिविरताः - निवृत्ता भवन्तीति । एतादृशा अपि केचन का काय तथा चिरस्थितिक भी कहलाते हैं । अतः ऐसे जीव बहुत होते हैं, जिन की हिंसा का श्रावक व्रत ग्रहण करने के समय से लगाकर मरणपर्यन्त त्याग करता है। इस प्रकार वह श्रावक बहुत जीवों की हिंसा का त्यागी होता है। ऐसी स्थिति में आपका यह कहना न्यायसंगत नहीं है कि श्रावक का प्रत्याख्यान निर्विषय है । भगवान श्री गौतम स्वामी पुनः कहते हैं- इस संसार में कोई २ ऐसे मनुष्य होते हैं जो व्रत ग्रहण से लेकर मरण पर्यन्त आरंभ के 'श्यागी होते हैं, परिग्रह से रहित होते हैं। धार्मिक धर्मानुगामी यावत् समस्त परिग्रह से निवृत्त होते हैं । श्रावक व्रत ग्रहण करने के समय से તથા ચિરસ્થિતિક પણ કહેવાય છે. તેથી એવા જીવા ઘણુા હાય છે, કે જેની હિં’સાનુ` શ્રાવક વ્રતગ્રહેણુ કરવાના સમયથી લઈને મરણુ પર્યન્ત ત્યાગ કરે છે. આ રીતે તે શ્રાવક ઘણા જીવાની હિંસાના ત્યાગ કરવાવાળા હેાય છે. આવી સ્થિતિમાં આપનું આ કથન ન્યાય સંગત નથી કે શ્રાવકનું પ્રત્યાખ્યાન નિવિષય છે. ભગવાન્ શ્રી ગૌતમ સ્વામી ફરીથી કહે છે આ સ’સારમાં કઈ કઈ એવા મનુષ્યેા હાય છે કે જેઓ વ્રત ગ્રહણુથી લઇને મરણુ પર્યંત આર્ભને ત્યાગ કરવાવાળા હોય છે પરિગ્રહથી રહિત હાય છે. ધાર્મિ ક ધર્માનુગામી, યાત્ સઘળા પરિગ્રહથી નિવૃત્ત હાય છે, શ્રાવક વ્રત ગ્રહણ કરવાના સમયથી स० ९५ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५४ चन पुरुषाः लोके भवन्तीति, 'जेहि समणोवासगस्स आयाणसो आमरणताए दंडे मिक्खित्ते' श्रमणोपासकस्य येषु आदानशः आमरणान्तं दण्डो निक्षिप्तः । एता. दृशेषु जीवेव श्रावकार व्रतग्रहणादारभ्य गरणान्तं दण्डं त्यजन्ति, केचन सामान्य श्रावकाः । ते तमो. आउगं विजदंति' ते-पूर्वोक्ता धार्मिकाः मरणसमये झुपस्थिते आयुः परित्यजन्ति । 'ते तो भुज्जो सगमादाए सग्गइगामिणी मपंति' ते पूर्वोक्ता मृता धार्मिकाः श्रावकाः भूयः-पुनरपि स्वकं-स्वसंपादित पुण्यकर्म मादाय सद्धतिगामिनो भवन्ति, 'ते पाणा वि वुचंति' ते माणा अप्युच्यन्ते -माणधारणा , असा अपि कथयन्ते-संचरणशीलत्वात् , विकुर्वणाकरणाद् महाकायाः 'जाच णो णेयाउए भाइ' यावन्नो नैयायिको भवति, ते जीवाचिरकाले स्वर्ग वसन्ति, एतेषु दण्डो न दीयते श्रावकेण । अस्मादेव कारणात त्रमाऽभावात श्रावकपतिज्ञा निविपरिणीति कथनं न न्यायसिद्धम् इति गौतमस्वामिन' उत्तरमिति । 'भगवं चणं उदाहु' भगवांश्च खलु उदाह-संतेगइया मणुस्सा भवंति' सन्त्येकतये मनुष्या भवन्ति, 'तं जहा' तद्यथा-'अप्पेच्छा' अल्पेच्छा:-अल्पामरण पर्यन्त ऐसे जीवों की हिंसा करने का त्याग करते हैं। वे पूर्वोक्तं धार्मिक पुरुष मरण का समय उपस्थित होने पर अपने आयु का त्याग करते है और अपने द्वारा पहले उपार्जित पुण्य कर्म के फल से सद्गति में जाते हैं । वे प्राण धारण करने के कारण प्राणी भी कहलाते हैं, प्रस भी कहलाते हैं विक्रिया करने के कारण महाकाय भी कहलाते हैं और चिरस्थितिवाले भी कहलाते हैं, अर्थात वे चिाकाल तक देवलोक में निवास करते हैं और श्रावक उन्हें दंड नहीं देता है। ऐसी स्थिति में यह कहना न्याय संगत नहीं है कि वल जीवों का अभाव हो जाने से आवक-की प्रतिज्ञा निर्विषय है । यह श्री गौतमस्वामी का उत्तर है। મરણ પર્યત એવા જીવની હિંસા કરવાનો ત્યાગ કરે છે તે પૂર્વોક્ત ધાર્મિક પુરૂષ મરણ સમય પ્રાપ્ત થાય ત્યારે આ યુને ત્યાગ કરે છે. અને તે પ્રાપ્ત કરેલ પુણ્ય કર્મના ફળથી સદ્ગતિમાં જાય છે તેઓ પ્રાણ ધારણ કરવાથી પ્રાણી પણ કહેવાય છે ત્રસ પણ કહેવાય છે વિક્રિયા કરવાને કારણે મહાકાય પણ કહેવાય છે અને ચિર સ્થિતિ વાળા પણ કહેવાય છે. અર્થાત તેઓ લાંબા સમય સુધી દેવલોક માં નિવાસ કરે છે અને શ્રાવક તેઓને દંડ દેતા નથી. આવી સ્થિતિમાં આ કહેવું ન્યાય સંગત નથી, કે ત્રસ જીવે નો અભાવ થઈ જવાથી શ્રાવકની પ્રતિજ્ઞા નિર્વિષય છે. આ પ્રમાણે ગૌતમસ્વામી એ ઉત્તર કહ્યો છે, Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका वि.Q अ. ७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७५५ राज्यविभवपरिवारादिका इच्छा-अन्तःकरणवृत्ति पां ते तथा, 'अप्पारंभा' अल्या रम्भाः-अल्पा-आरम्भ:-कृष्यादिना पृथिव्यादिजीशेपमर्दो येपो ते तथा, 'अप्पपरिग्गहा' अल्पपरिग्रहा:-अल्पः परिग्रहो धनधान्यादिस्वीकाररूपो येषां ते तथा, 'धम्मिया' धार्मिका:-धर्मेण-प्राणातिपातादि विरमणेन चरन्ति ये ते तथा 'धम्माणुया' धर्मानुगा:-धर्ममनुगच्छन्ति ये ते धर्मानुगाः 'जाव' यावत्-धर्मिष्ठा:-धर्मएव इष्टो वल्लभो येषां ते तथा ६, धर्मख्यातयः-धर्मात् ख्याति: प्रसिद्धि येषां ते तथा७, धर्मपलोकिना-धर्ममेव प्रलोकन्ते-पश्यन्ति स्वेष्टतया ये ते तथा ८, धर्मपरञ्जना:-धर्मे प्ररज्यन्ति-परायणा भवन्ति ये ते तथा ९, धर्मसमु दाचारः-सदाचारो येषां ते तथा १०, धर्मेणैव वृत्तिं जीविकां कल्पयन्त:-धार्मिकजीविकया निर्वहन्तः ११, सुशीला:-शोभनाचारवन्तः१२, मुत्रता:-शोभनत्रत. वन्तः १३, सुमत्यानन्दा:-सुष्टु प्रत्यानन्दः-चित्तालादो येषां ते तथा १४, साधुभ्यः साध्वन्तिके प्रत्याख्याय एकस्मात् स्थूलात् प्राणातिपातात् पतिविरताः __ भगवानश्री गौतम स्वामी ने फिर कहा-इस संसार में कोई-कोई ऐसे मनुष्य भी होते हैं जो अल्प इच्छा वाले अर्थात् परिमित राज्य वैभव, परिवार आदि की इच्छा करते हैं, अल्प आरंभ करनेवाले अर्थात् कृषि आदि कर्म करके पृथ्वी काय आदि के जीवों का उपमर्दन करने वाले होते हैं, अल्पपरिग्रही-परिमित धन-धान्य आदि को स्वीकार करने वाले, धर्मपूर्वक आचरण करने वाले, धर्म के अनुगामी, धर्म के प्रेमी तथा धार्मिक के रूप में प्रख्यात होते हैं। वे धर्म को ही अपना इष्ट समझते हैं, धमें करके प्रसन्न होते हैं, धर्म का ही आचरण करते हैं, धर्म से ही आजीविका करते हैं। सुशील, सुन्दर व्रतों वाले, सरलता से प्रसन्न होने योग्य होते हैं। वे साधु के समीप स्थूल प्राणातिपातका त्याग करते हैं परन्तु-सूक्ष्म प्राणातिपात से निवृत्त नहीं होते । इसी ભગવાન શ્રી ગૌતમસ્વામી એ ફરીથી કહ્યું કે–આ સંસારમાં કોઈ કઈ એવા મનુષ્ય પણ હોય છે, કે જેઓ અલ્પ ઈચ્છાવાળા અર્થાત પરિમિત રાજ્ય વૈભવ, ધન ધાન્ય પરિવાર દ્વિપદ ચતુષ્પદ વિગેરેની ઈચ્છા કરે છે. અલ્પ આરંભ સમારંભ કરવાવાળા અર્થત કૃષિ-ખેતી વિગેરે કર્મ કરીને પૃથ્વીકાય વિગેરે જીનું ઉપમર્દન કરવાવાળા હોય છે. અ૯પ પરિગ્રહી–પરિમિત ધન ધાન્ય વિગેરેને સ્વીકાર કરવાવાળા, ધર્મપૂર્વક આચરણ કરવાવાળા, ધર્મના અનુગામી, ધર્મના પ્રેમી, તથા ધાર્મિકપણાથી પ્રખ્યાત હોય છે. તેઓ ધર્મનેજ પિતાનું ઈષ્ટ સમજે છે ધર્મ કરીને પ્રસન્ન થાય છે. એગ્ય બને છે. તેઓ સાધુ સમીપે સ્થૂલ પ્રાણાતિપાતને ત્યાગ કરે છે. પરંતુ સૂક્ષ્મ પ્રાણાતિપાતથી નિવૃત્ત Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५६ सूत्रतास्त्र -निवृत्ताः १५, एकस्मात् सूक्ष्मजीवाद् अप्रतिविरता:-अनिवृत्ताः १६। 'जाव एगयाभो परिग्गहाओ अप्पडिविरया' यावदेकतः परिग्रहाद अपतिविरता भवन्तीति । तादृशाः श्रावकाः कस्माच्चिदपि प्राणातिपातादपतिविरताः कस्माच्च विरता मवन्तीति । एवमेव परिग्रहपर्यन्ताऽऽश्रवद्वारेभ्योऽविरताः विरताश्च भवन्ति । 'जेहि समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिविखत्ते' येषु श्रमणोपासकस्याऽऽदानतः आमरणान्तं दण्डो निक्षिप्तः, एषु जीवेषु व्रतग्रहणादारभ्य आमरणं श्रावकेण दण्डत्यागः कृतः, 'ते तओ आउगं विप्पजहंति' ते तत आयुर्विप्रजहति-ते तादृशमायुस्त्यजन्ति । 'तो भुज्नो सगमादाय सग्गहगामिणो भवंति' ततः स्वायुपः क्षये मरणान्तरं भूयः पुनरपि स्वकमादाय-स्वकीयं कर्माऽऽदाय स्वर्गतिगामिनो भवन्ति, 'ते पाणा वि चुच्चंति जाव णो णेयाउए भवइ ते माणा अप्युच्यन्ते-चप्ता अपि उच्यन्ते, यावन्नो नैयायिको भवति, प्राणशब्देन कथ्यन्ते प्रसशब्देनाऽपि कथपाते, अतः श्रावकस्य व्रत निविपयमिति न न्यायसङ्गामिति । प्रकार स्थूल मृपावाद, स्थूल अदत्तादान, स्थूलमैथुन और स्थूल परिग्रह से निवृत्त होते हैं किन्तु सूक्ष्म मृषावाद अदत्तादान मैथुन आदि से निवृत्त नहीं होते हैं । अर्थात् हिंसा आदि आश्रवद्वारों का एक देश से त्याग कर देते हैं और एकदेश से त्याग नहीं करते हैं । ऐसे जीवों की हिंसा से श्रावक व्रत ग्रहण करने के समय से जीवन पर्यन्त निवृत्त होता है । वे मनुष्य अपनी आयु का त्याग करते हैं और अपने उपार्जित कर्म के अनुसार सद्गति (स्वर्ग) प्राप्त करते हैं। वे प्राणी भी कहलाते हैं, उस भी कहलाते हैं, महाकाय और चिरस्थितिक भी कहा लाते हैं। श्रावक उनकी हिंसा का त्यागी होता है, अतएव श्रावक का प्रत्याख्यान निर्विषय है, ऐसा कहना न्याय संगत नहीं है। ઘતા નથી, એજ કારણે સ્થૂલ મૃષાવાદ, સ્થૂલ અદત્તાદાન રશૂલ મિથુન અને સ્થૂલ પરિગ્રહથી નિવૃત્ત થાય છે. પરંતુ સૂક્ષ્મમૃષાવાદ સૂક્ષ્મ અદત્તાદાન સૂમ મિથુન અને સૂક્ષ્મ પરિગ્રહથી નિવૃત્ત થતા નથી, અર્થાત્ હિંસા વિગેરે આસવદાનો એક દેશથી ત્યાગ કરી દે છે. અને એકદેશથી ત્યાગ કરતા નથી. એવા ની હિંસાથી શ્રાવક, વ્રત ગ્રહણ કરવાના સમયથી જીવતાં સુધી નિવૃત્ત રહે છે. તે મનુષ્ય પોતાના આયુષ્યનો ત્યાગ કરે છે, અને પિતે પ્રાપ્ત કરેલા કર્મ પ્રમાણે સદ્ગતિ (સ્વર્ગ) પ્રાપ્ત કરે છે. તેઓ પ્રાણી પણ કહેવાય છે, ત્રસ પણ કહેવાય છે. મહાકાય અને ચિરસ્થિતિક પણ કહેવાય છે. શ્રાવકનું પ્રત્યાખાન નિર્વિષય છે. તેમ કહેવું ન્યાયસંગત નથી. Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयबोधिनी टीका द्वि. धुं. अ. ७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७५७ 'भगवं च णं उदाह' भगवांश्च खलु उदाह- 'संतेगझ्या मणुस्सा भवति' सन्त्ये कतये मनुष्या भवन्ति । 'तं जहा ' तद्यथा - 'आरणिया' आरण्यकाः- अरण्ये कृतनिलया: कन्दमूलाशिनः अरण्यनिवासिन स्तापसा इत्यर्थः, 'आवसहिया' आवस्यकाः- कुटीरवासिनः, 'गामणियंतिया' ग्रामनिमन्त्रिकाः - ग्रामे निमन्त्रिता जोवन्तः 'कण्डुइरहस्सिया' क्वचिद्रहसिकाः - ग्रहनक्षत्रादिरदो विद्यया जीवन्तःज्योतिर्विद्याभिराजीविकां कुर्वाणाः 'जेहि' येषु 'समणोवासगस्स' श्रमणोपासकस्य 'आयाणसो' आदानशः - व्रतग्रहणादारभ्य ' आमरणताएं' आमरणान्ताय - मरणं यावत्तावदित्यर्थः 'दंडे णिक्खित्ते' दण्डो निक्षिप्तः त्यक्तो मुक्तदण्डः श्रावको भवति 'णो बहुसंजया' नो एते जीवाः बहुसंयताः, 'णो बहुपडिविरया' नो बहुपतिविरताः प्राणातिपातविषयेभ्यः 'पाणभूय जीवसत्तेर्हि' प्राणभूतजीदसवेभ्यो नात्यन्तं विरता: 'अपणा सच्चामोसाई एवं विष्पडिवेदेति' आत्मना सत्यानि मृपाच एवं विप्रविवेदयन्ति सत्यमनृतं च कथयन्ति इत्यर्थः, तदेवाह- ' अहं ण जो अन्ने तन्त्रा' अहं न हन्तव्योऽपि तु - अन्ये हन्तव्याः इत्थं सत्यं - - भगवान् श्रीगौतम स्वामी ने पुनः कहा- इस जगत् में ऐसे भी बहुत मनुष्य होते हैं, जिन में कोई अरण्य निवासी जंगल में रहेनेवाले अर्थात् तापस होते हैं, कोई आवसथक-कुटी आदि स्थानों में निवास करते हैं। ग्राम में निमंत्रित होकर अपनी जीविका चलाते हैं । कोई ग्रह नक्षत्र आदि रहस्य विद्या के द्वारा जीवन यापन करते हैं। श्रावक ग्रहण करने के समय से मरण पर्यन्त उनकी हिंसा का त्याग करता है। वे मनुष्य बहुत संयमी नहीं हैं, प्राणी भूत जीव और सत्य की हिंसा से निवृत्त नहीं हैं । वे अपने मन के अनुसार कल्पना करके सच-झूठ बोलते हैं, ભગવાન શ્રી ગૌતમ સ્વામીએ ફરીથી કહયુ કે-આજગતમાં એવા પણ ઘણા મનુષ્યા હૈાય છે, જેમાં કેાઈ અરણ્ય એટલે કે જગલમાં નિવાસ કરનારા અર્થાત્ તાપસ હાય છે. કેાઈ આવસથક-કુટિર વિગેરે સ્થાનામાં નિવાસકરે છે. તેમ ગ્રામમાં ગામમાં નિમત્રિત થઈ ને પેાતાની આજીવિકા ચલાવે છે, કાઇ ગ્રહ, નક્ષત્ર વિગેરે રહસ્ય વિદ્યાઓ દ્વારા જીવન નિગમન કરે છે શ્રાવક, વ્રત ગ્રહણ કરવાના સમયથી મરણુપર્યંન્ત તેઓની હિંસાના ત્યાગ કરે છે. તે મનુષ્યે અધિક સયમી હાતા નથી. પ્રાણી ભૂત જીવ અને સત્વની હિંસા થી નિવૃત્ત થતા નથી. તેએ પેાતાના મત પ્રમાણે કલ્પના કરીને સાચું ખાટું આલે છે, જેમ કેહુ' મારવાને ચેાગ્ય નથી પરંતુ ત્રીજા જીવેા મારવાને ચેાગ્ય છે. આવા પ્રકારના જીવા આયુષ્ય સમાપ્ત થાય ત્યારે મૃત્યુને પ્રાપ્ત Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ सूत्रकृतात्रे मृपा च तेपां वचनानि, इत्थंभूता विविधाः प्राणिन:- 'जाव कालमासे कालं faar' या कलमासे कालं कृत्वा - आयुषोऽवसाने मरणमुपलभ्य, 'अन्नयर राई ' आसुरियाई' अन्यतरेषु आसुरिकेपु 'किव्विसियाई जाव' किल्लिपयोनौ 'उवव तारो भवति' उपपसारो भवन्ति - असुरसंज्ञकाः पापदेशः 'तओ विधमुच्चमाणा ततो विप्रमुच्यमानाः 'भुज्जो एलमुगताए तमोरुवत्ताए पचायति' भूयः - एलमूकलाय तमोरूपत्वाय प्रत्यायान्ति - परत्रासुरत्वमुपभुज्य निपात्यमानाः हीनयोनौ समुत्पद्यन्ते, 'ते पाणा विवृच्चंति जान णो णेयाउए भवइ' ते माणा अप्युच्यन्ते सा अपि कथ्यन्ते, अतः श्रावकस्य प्रत्याख्यानं निर्विषयमितिकथनं न नैयायिकं नाऽसङ्गतं प्रत्याख्यानं भवतीति । 'भगवं च णं उदाहु' भगवांश्च खल उदाह- 'संतेगया पाणादीहाउया' सन्ध्येकतये माणाः दीर्घायुषः 'जेहिं समणोवासगस्त' येषु श्रमणोपासकस्य 'आयाणसो' आदानशः व्रतग्रहणादारभ्य 'आमरणंताएं' जाव दंडेणिक्खते भवई' आमरणान्ताय दण्डो निक्षिप्तो भवति, 'ते पुण्यामेव कालं करेंति' ते पूर्वमेत्र कालं कुर्वन्ति 'करिता ' कृत्वा च कालम् 'परलोइयत्ताए पच्चायति' पारलौकिकत्वाय प्रत्यायान्ति, 'ते पाणावि बुच्चेति ते तमावि वुच्चंति' ते माणा अपि उच्यन्ते सा अप्युच्यन्ते 'ते महाकाया ते चिरडिया' ते महाकाया स्ते चिरस्थितिका भवन्ति, 'ते दीहाउया ते बहुवरगा पाणा' ते दीर्घायुप स्ते जैसे - मैं तो मारने योग्य नही हूं किन्तु दूसरे जीव मारने योग्य हैं । इस प्रकार के जीव आयु के अन्त में मृत्यु को प्राप्त होकर किसी असुर निकाय में किल्विषक देव के रूप में उत्पन्न होते हैं । पुनः वहां से चचकर बकरे के समान गूंगे एवं तामसी होते हैं अर्थात् असुरनिकाय की आयु भोगने के पश्चात् हीन योनि में उत्पन्न होते हैं । वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते हैं । अतएव त्रस जीव को न मारने का श्रावक का प्रत्याख्यान निर्विषय नहीं है, भगवान् श्रीगौतम स्वामी ने पुनः कहा- इस लोक में कोई-कोई प्राणी दीर्घायु होते हैं, जिनके विषय में श्रमणोपासक मन ग्रहण से लेकर 1 કરીને કોઈ અસુર નિકાયમાં કિલ્મિષિક દેવપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. ક્રીથી ત્યાંથી આવીને બકરાની જેમ શુંગા અને તામસી થાય છે. અર્થાત્ અસુરનિકાયતુ આયુષ્ય ઊગવ્યા પછી અધમયે.નિમાં ઉત્પન્ન થાય છે. તે પ્રાણી પણ કહેવાય છે, ત્રસ પણ કહેવાય છે. તેથી જ ત્રસ જીવને ન મારવાનું શ્રાવકનુ પ્રત્યાખ્યાન નિવિષય નથી. ભગવાન્ શ્રી ગૌતમ સ્વામીએ ફરીથી કહયું કે-આલાકમાં કાઈ કાઈ પ્રાણી લાંબા આયુષ્યવાળા હાય છે. જેઓના સંબધમાં શ્રમણેાપાસક વ્રત Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयाबोधिनी टीका वि. श्रु. अ. ७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७५९ बहुतरकाः अनेके माणिनः सन्ति इत्थं भूताः । 'जेहिं समणोवास गस्स' येषु जीवेषुः श्रमणोपासकस्य-व्रतधारिणः श्रावकस्य, 'मुपञ्चक्खायं भवइ' प्रत्याख्यानं मुम स्याख्यातं भवति' 'जाव णो णेयाउए भवइ' यावत्रो नैयायिको भवति । 'भगवंपणं उदाहु' भगवांश्च खलु उदाह-पुनरुवाच 'संतेगइया पाणा समाउया' सन्त्ये कत्तये माणिनः समायुषो भवन्ति, 'जेहिं समणोवासगस्स आयाणासो आमरणवाए जाच दंढे णिक्खित्ते भवा' येषु समायुष्षु जीवेषु श्रमणोपासकस्याऽऽदानशः भामरणान्ताय दण्डो निक्षिप्तो भवति 'ते सयमेव कालं करेंति' ते स्वयमेव कालं कुर्वन्ति, आत्मनोऽवसानं कुर्वन्ति, न तेषां मारणेऽन्ये प्रमव इति धनिः; 'करिता पारलोइयचाए' कृत्वा पारलौकिकत्वाय प्रत्यायान्ति । 'ते पाणा- वि बुचंति तसा वि चुचंति' ते माणा अप्युच्यन्ते-सा अप्युच्यन्से । 'ते महाकाया ते समाउया ते वहुयरगा' ते महाकायास्ते समायुपस्ते बहुतरकाः 'जेहिं समणोवासगस्स सुपचवायं भवई' येषु श्रमणोपासकस्य सुप्रत्याख्यातं भवति । 'जाव मृत्युपर्यन्त दण्ड का त्याग करता है । ये प्राणी पहले ही काल करते हैं और काल करके परलोक में जाते हैं। वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते है, महाकाय और दीर्घकालीन स्थितिवाले भी कहलाते हैं । ऐसे दीर्घायु प्राणी बहुत-से होते हैं । उनके विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सुप्रत्यारुपान होता है । अतएप आपका यह कहना न्याय संगत नहीं है कि श्रावक का प्रत्याख्यान निर्विषय है। भगवान् श्री गौतम स्वामी फिर बोले-जगत में कोई-कोई प्राणी समान आयुवाले होते है, जिनको श्रमणोपासक व्रत ग्रहण के समय से लेकर जोवन पर्यन्त दंड देने का त्याग करता है। वे जीव स्वयं ही काल करते हैं, उन्हें मारने में दूसरे कोई समर्थ नहीं हैं। वे काल પ્રહણથી લઈને મરણ પર્યન્ત દડનો ત્યાગ કરે છે તે પ્રાણિયો પહેલા જ કાળકરે છે. અને કાળ કરીને પરલોક માં જાય છે તેઓ પ્રાણી પણ કહેવાય છે ત્રસ પણ કહેવાય છે. તેઓ મહાકાય અને દીર્ઘકાલની સ્થિતિવાળા પણ કહેવાય છે. એવા દીર્ધાયુ પ્રાણ ઘણું હોય છે, તેઓના સંબ ધમાં શ્રમણપાસકનું પ્રત્યાખ્યાન સુપ્રત્યાખ્યાન હોય છે તેથી જ આપનું આ કથન ન્યાયયુક્ત નથી કે-શ્રાવકનું પ્રત્યાખ્યાન નિર્વિષય છે. ભગવાન શ્રી ગૌતમસ્વામી ફરીથી કહે છે કે–આ જગતમાં કઈ કઈ પ્રાણી સમાન આયુવાળા હોય છે. જેને શ્રમણે પાસક તથ્રહણના સમયથી લઈને જીવનપર્યત દડ દેવાને ત્યાગ કરે છે. એવા જ પિતાની મેળે જ કાળ કરે છે. તેને મારવા અન્ય કોઈ સમર્થ નથી, તેઓ કાળ કરીને પરલે Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - ७६० सूत्रकृताहर णो णेयाउर मवई' यावन्नो नैयायिको भवति अर्थात् न भवति श्रावकरूप प्रत्या. ख्यानं न्यायसिद्धमिति भावः । 'भगवं च णं उदाहु' भगवांश्च खलु उदाह-'संते. गइया पाणा अप्पाउया' सन्त्येकतये माणिनोऽल्पायुषः 'जेहिं समणोवासगस्स थेषु श्रमणोपासकस्य 'आयाणसो आमरणताए जाव दंठे णिविखत्ते भवई' आदानक आमरणान्ताय यावत् दण्डो निक्षिप्तो भवति। 'ते पुन्वमेव कालं करेति' ते पूर्वमेव कालं कुर्वन्ति, 'करित्ता पारलोइयत्ताए पञ्चायति' कृत्वा कालं पारलौकिकत्वाय प्रस्यायान्ति मृत्वा परलोकं गच्छन्ति, 'ते पाणा वि वुचंति तसा वि बुचंति' ते प्राणा अपि उच्यन्ते-सा अप्युच्यन्ते । ते महाकाया ते अप्पाउया ते वहुयरगा पाणा' ते महाकायास्ते अल्पायुपास्ते बहुतरकाः माणाः 'जेहि समणोबासगस्स येपु श्र. मणोपासकस्य 'मुपञ्चक्खायं भवइ' सुपत्याख्यातं भवति । 'जावणो णेशाउर भवई' यौवनी नैयायिको भवति, अर्थान्न भवति श्रावस्प प्रत्याख्यानं निविषयमिति । करके परलोक में जाते हैं। वे प्राणी भी कहलाते हैं, उस भी कहलाते हैं महाकाय भी कहे जाते हैं । ऐसे सम आयु वाले बहुत-से जीव होते है। उनके विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है। अतएव यह कहना न्याय संगत नहीं है कि श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान निर्विषय है। । भगवान् श्रीगौतम स्वामी फिर बोले-जगत् में कोई-कोई प्राणी अल्पायु होते हैं । श्रमणोपासक व्रत ग्रहण करने से लेकर मरण पर्यन्त उनकी हिंसा का त्याग करता है। वे पहले ही काल कर जाते हैं और काल करके परलोक चले जाते हैं। वे प्राणी भी कहलाते हैं और उस भी कहलाते हैं। वे महाकाय और अल्पायु भी कहे जाते हैं। ऐसे प्राणी पाहत होते हैं । उनके विषय में श्रावक का प्रत्यारुपान सुपत्याख्यान કમાં જાય છે. તેઓ પ્રાણી પણ કહેવાય છે, ત્રસ પણ કહેવાય છે. મહાકાય પણ કહેવામાં આવે છે. આવા સમ આયુષ્યવાળા ઘણા જ હોય છે, તેના સંબંધમાં શ્રમણે પાસકનું પ્રત્યાખ્યાન સુપ્રત્યાખ્યાન હોય છે. તેથી જ શ્રમપાસકનું પ્રત્યાખ્યાન ન્યાયસંગત નથી તેમ કહેવું તે નિર્વિષય છે. ભગવાન શ્રી ગૌતમસ્વામી ફરીથી કહે છે–જગતમાં કેઈ કે ઈ પ્રાણી અલ્પ આયુષ્યવાળા હોય છે શ્રમણે પાસક વ્રત કરવાથી લઈને મરણપર્યન્ત તેની હિંસાનો ત્યાગ કરે છે. તેઓ પહેલાં જ કાળ કરી જાય છે. અને કાળ કરીને પરલોકમાં જાય છે. તેઓ પ્રાણી પણ કહેવાય છે. અને ત્રસ પણ . કહેવાય છે. તેઓ મહાકાય અને અલ્પાયુ પણ કહેવાય છે. એવા પ્રાણિ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्यबोधिनी ठीका द्वि. श्रु. अ. ७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७६१ '. । 'भगवं च णं उदाहु' भगवांश्च खलु पुनरप्युवाच 'संतेगहया समणोवासगा भवंति' सन्त्येकतये श्रमणोपासका भवन्ति, 'तेसिं च णं एवं वृत्तपुव्वं भवई' ता-श्रावकैश्च खलु एवमुक्तपूर्व भवति, एवं वक्ष्यमाणमकारेण वदन्ति कुर्वन्ति च । 'वयं सुंडा भवित्ता जाव पवइचए णो खलु संचाएमो' वयं मुण्डा भूत्वा यावन्न खलु शक्नुमः मनजितुम्-सर्वथा गृहं परित्यज्य न खलु शक्नुमः प्रव्रज्यामादा. तुम् । तया-'वयं चाउद्दसमुदिट्टपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं अणुपालिचए णों खल संचाएमो' वयं चतुर्दश्यष्टम्युदष्टापूर्णिमास परिपूर्ण सम्पूर्णरूपेण पौषधं तदाख्यं व्रतमपि अनुपालयितुं नो खलु शक्नुमः। 'नो खलु संचाएमो अपच्छिमं जाव विहरितए' वयमपश्चिमं यावत्-विहर्तुमपि न शक्नुमः । मरणसमये संस्तर ग्रहणमपि कर्तुं न प्रभवामः । किन्तु-'वयं च णं सामाइयं देसाव गासियं पुरत्था पाईणं वा पडीणं वा दाहिणं वा उदीणं वा एयावया जाव सबपाणेहिं जाव सबसत्तेहिं दंडे गिक्खित्ते' वयं च खलु सामायिक देशावकाशिक व्रतविशेष करिष्यामः अर्थात् सावधव्यापारत्यागं कुर्मः अनेन प्रकारेण प्रति दिन प्रातःकाले एव प्राच्या प्रतीच्या दक्षिणस्यामुदीच्यां वा एतावद देशमर्यादा कृत्वा तेनैव प्रकारेण सर्वमाणेषु यावत्सर्वसत्त्वेषु दण्डो निक्षिप्तः माणातिपाताख्यं दण्डं न करिष्यामि । 'सबपाणभूयजीवसत्तेहिं खेमंकरे अहमंसि' सर्वमाणभूतजीवहोता है । अतएव यह कहना न्यायसंगत नहीं है कि श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान निर्विषय है। ___ भगवान् श्रीगौतम स्वामी ने पुनः कहा-इस जगत् में कोई-कोई 'श्रमणोपासक होते हैं जो इस प्रकार कहते हैं-हम मुण्डित होकर और गृह का त्याग करके साधुता अंगीकार करने में समर्थ नहीं हैं। हम चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन प्रतिपूर्ण पोषव्रत को करने में भी समर्थ नहीं हैं। हम तो सामायिक, देशावकाशिक व्रत-सावध व्यापार कात्याग को ग्रहण करेंगे। प्रतिदिन प्रातःकाल ही पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, ઘણા હોય છે તેઓના સબંધમાં શ્રાવકનું પ્રત્યાખ્યાન સુપ્રત્યાખ્યાન હોય છે. તેથીજ શ્રમણોપાસકનું પ્રત્યાખ્યાન નિર્વિષય છે તેમ કહેવું તે ન્યાય સંગત નથી. ભગવાન શ્રી ગૌતમારવામીએ ફરીથી કહ્યું કે-આ જગતમાં કઈ કઈ શ્રમણોપાસક હોય છે જે આ પ્રમાણે કહે છે–અમે મુંડિત થઈને અને ગૃહનો ત્યાગ કરીને સાધુપણાને સ્વીકાર કરવામાં સમર્થ નથી અમે ચૌદશ, આઠમ, અમાસ, અને પુનમના દિવસે પ્રતિપૂર્ણ પૌષધદ્રત કરવામાં પણ સમર્થ નથી. અમે તે સામાયિક દેશાવકાશિક વ્રત-સાવધ વ્યાપારના ત્યાગને ગ્રહણ કરશે. દરરોજ સવારે પૂર્વ અને પશ્ચિમ દક્ષિણ અને ઉત્તરદિશામાં જવા આવવાની Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६२ सूचकतागास्ने सत्चाना क्षेमङ्करः-कल्याणकर्ताऽऽहमस्मि- भवामीत्यर्थः । 'तत्थ आरेणं जे तसा पाणा' तत्र-आराद्रे ये त्रसाः प्राणाः, 'जेहि समणोवासगस्स आयाणसो भामरणंताए दंडे णिविखत्ते' येपु-दूरस्थितमाणिषु श्रमणोपासकस्य आदानमः आमरणान्ताय-व्रतग्रहणकालादारभ्य मरणपर्यन्त दण्डो निक्षिप्तः, माणातिपाताद विरतोऽभवत् । 'तयो आउयं विष्पज हति' तत स्ते वसा आयुर्विमनहति 'विप्पजहिता' विग्रहाय तस्य तत्र 'आरेणं' आरात् 'चेत्र' एवं 'जे तसा पाणा जेरि समणोवासगस्स आयागसो जाव तेसु पच्चायति' ये प्रताः माणाः येषु श्रमणोपासकस्य आदानशो यावत्तेषु प्रत्यायान्ति, ये जीवा यदा श्रावकत्यक्तदेशेषु प्रसरूपेण मादुर्भवन्ति । 'जेहि समणोवासगस्स सुपञ्चक्खायं भवई' येषु जीवेषु श्रमणोपासकस्य सुपत्याख्यानं भवति, 'ते पाणा विजाव' ते प्राणा अप्युच्यन्ते घसा अपि कथयन्ते । 'अयं पि भेदे से' अपमपि भेदः स नो नैयायिको भवति, अत: श्रावकवतस्य निर्षिपयत्वप्रतिपादनम् उदकस्य न न्यायसन्तमिति ।मु०१२॥७९॥ मूलम्- तत्थ आरेणं जे तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्त आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते ते तओ आउं विष्पउत्तर दिशा में जाने-आने की मर्यादा का स्वीकार करके उस मर्यादा से थाहर के प्राणियों की हिंसा का त्याग करेंगे। हम समस्त प्राणियां, भूतों, जीवों और सत्वों के लिए क्षेमंकर (कल्याणकर्ता) बनेंगे । इस प्रकार वे श्रमणोपासक की हुई मर्यादा से बाहर स्थित प्राणीयों की, व्रतग्रहण से लेकर जीवन पर्यन्त के लिए हिंसा का त्याग कर देता है। तत्पश्चात् वह आयु का त्याग करता है । वे प्राणी जप आयु को त्याग कर श्रावक के द्वारा ग्रहण की हुई मर्यादा से बाहर के प्रदेश में त्रस रूप से उत्पम होते हैं तब उनके विषय में श्रावक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है। वे प्राणी भी कहलाते हैं, बस भी कहलाते हैं। अतएव श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान को निर्विषष कहनान्यायसंगत नहीं है।१२। મર્યાદાને સ્વીકાર કરીને તે મર્યાદાથી બહારના પ્રાણિ ભૂત છે અને સત્ય માટે ક્ષેમકર (દલ્યાણ કરનાર) બનીશું, આપ્રમાણે શ્રમણે પાસકે કરેલી મર્યાદા બહાર રહેલા પ્રાણિની વ્રત ગ્રહણથી લઈને જીવન પર્યન્તને માટે હિંસાને ત્યાગ કરે છે. તે પછી તે આયુને ત્યાગ કરે છે. તે પ્રાણિ જ્યારે આયુષ્યને ત્યાગ કરીને શ્રાવક દ્વારા ગ્રહણ કરવામાં આવેલ મર્યાદાથી બહારના પ્રદેશમાં વસાણાથી ઉત્પન થાય છે. ત્યારે તેના સંબંધમાં શ્રાવકનું પ્રત્યાખ્યાન સુપ્રત્યા ખ્યાન હોય છે. તેઓ પ્રાણું પણ કહેવાય છે ત્રસ પણ કહેવાય છે તેથી જ શમણપ સકના પ્રત્યાખ્યાનને નિર્વિષય કહેવુ તે ન્યાયયુક્ત લાગતું નથી. જેના Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ सूत्रकृताङ्ग उपदर्शयिता, अयमायुष्मन् ! आत्मा, इंदं शरीरम् । दनो नानीतं निष्कास्य दर्शयितुं शक्यते न तथा-शरीरादारमा पृथकृत्य दर्शयितुं शक्यः, ततः कथं शरीराऽतिरिक्त आत्मा ज्ञातु शक्यः । अथ पष्ठं दृष्टान्तमाह- से जहाणाम के पुरिसे तिलहितो तिल्लं' तद्यथा नामकः कोऽपि पुरुष स्तिलेच स्तैलम् अभिनिवहिताणं' अभिनिर्वयं खलु 'उबदंसेज्जा' उपदर्शयेत्-'अपमा उगो ! तेल्लं अयं पिन्नाए' इइमायुजन् ! तैलम्, अयं पिणाल:-खला-'एवमेव जाव सरीरं' एवमेव नास्ति कोऽपि पुरुष उप. दर्शयिता, अयमायुष्मन् | आत्मा, इदं शरीरम् । एय सप्तमं दृष्टान्तमाह-'से जहाणामए' तद्यथा नामकः 'केइपुरिसे' कोऽपि पुरुषः 'इक्नु भो खोयरल' इसुनः शोदरमम् 'अभिनिता गं' अभिनि. वस्यै खल्ल 'उवदं सेना' उपदर्शयेत् 'अयमाउपो । खोयरसे अयं छोए' अमायु जन् । शोदरसः, अयं क्षोद. ! 'एवमे जाब सरीरं' एवमेन यावच्छ रम्, अयमात्मा, इदं शरीरमिति शरीरान् पृथग् जीवं दर्शयितुं न कोऽपि शक्नोतीति भावः। आत्मा है और यह शरीर है। दही से नवनीत की तरह शरीर से आत्मा पृथक् कर के यदि दिखलाया जा सकता तो समझते कि आत्मा और शरीर भिन्न भिन्न है। जैसे कोई पुरुष तिलों से तैल अला निकाल कर दिखला देतो है कि-हे आयुष्मन् । यह तिल है और यह तेल है, इस प्रकार आत्मा और शरीर को अलग अलग करके दिखलाने वाला कोई मनुरूप नहीं। जैसे कोई पुरुष इश्च से रक्ष को अलग करके दिखला देता है किहे आयुष्मन् ! वह कूचा है और यह इक्षुरस है, इस प्रकार यह आत्मा है और यह शीर है, यो दोनों को पृथक पृथक् करके दिखलाने वाला कोई पुरुष नहीं है। આત્મા છે. અને આ શરીર છે. દહીંમાંથી માખણની જેમ શરીરમાંથી આત્માને અલગ કરીને જે બતાવવામાં આવી શકત તે સમજાત કે આત્મા અને શરીર અને ભિન્ન ભિન્ન છે. જેમ કેઈ પુરૂષ તલેમાંથી તેલ અલગ કહાડીને બતાવી દે છે કેહે આયુમન આ તલ છે. અને આ તેલ છે, એ પ્રમાણે આમા અને શરીરને અલગ અલગ બતાવવાને કંઈ માણસ સમર્થ નથી. જેમ કેઈ માણસ સેલડીમાંથી રસને અલગ કરીને બતાવી દે છે, કેહે આયુમન આ કૃ છે, અને આ સેલડીને રસ છે, તે પ્રમાણે આ આત્મા છે, અને આ શરીર છે, તેમ બનેને અલગ અલગ બતાવવાવાળો ફેઈ પણ પુરૂષ જાતે નથી. Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्यबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७६३ जहंति विप्पजहिता तत्थ आरेणं चेव जान थावरा पाणण जेहिं समणोवासगस्स अट्टाए दंडे अणिक्खित्ते अणट्टाए दंडे णिक्खित्ते तेसु पञ्चायति । तेहिं समणोवासगस्त अटाए दंडे अणिक्खित्ते अणत्थाए दंडे णिक्खित्ते, ते पाणा वि वुच्चंति ते तसा वि वुच्चंति ते चिरट्रिइया जाव अयं पि भेदे से णो गेयाउए भवइ । तत्थ जे आरेणं तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्त आयाणसो आमरणंताए० ते तओआउंविप्पजहति विप्पजहित्ता तत्थ परेणं जे से तसा थावरापाणाजेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए० तेसु पच्चायंति, तेहिं समणोवासगस्स सुपञ्चक्खायं भवइ, ते पाणा वि जाव अयं पि भेदे से णो णेयाउए भवइ । तत्थ जे आरेणंथावरा पाणा जेहि समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते अणटाए दंडे निक्खित्ते तओ आउं विप्पजहंति; विप्पजहित्ता तत्थ आरेणं चेव जे तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्त आयाणसो आमरणं. ताए० तेसु पच्चायति तेसु समणोवासगस्त सुपच्चक्खायं भवइ, ते पाणा वि जाव अयं पि भेदे से णो नेयाउए भवइ । तत्थ जे ते आरेणं जे थावरा पाणा जेहि समणोवासगस्स अट्टाए दंडे अणिक्खित्ते अणट्ठाए णिक्खित्ते, ते तओ आउं विप्पजहंति, विप्पजहिता ते तत्थ आरेणं चेव जे थावरा पाणा जेहि समणो. वासगस्त अट्टाए दंडे अणिक्खित्ते अणटाए दंडे णिक्खित्ते तेसु पञ्चायंति, तेहिं समणोवासगस्स अट्टाए दंडे अर्णिक्खिते अणहाए णिक्खित्ते । ते पाणा वि जाव अयं पि भेदे से णो णेयाउए भवइ। तत्थ जे ते आरेणं थावरा पाणा जेहि समणोवासगस्स अट्टाए दंडे अणिक्खित्ते अणटाए णिक्खित्ते तओ आउं विप्पजहंति विप्पजहित्ता तत्थ परेणं जे तसथावरा पाणा जेहिं Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६४ सूत्रतास्त्र समणोवासगस्स आयाणलो आमरणंताए० तेसु पच्चायति। तेहि समणोवासगस्त सुपच्चक्खायं भवइ, ते पाणा वि जाव अयं पि भेदे से णो णेयाउए भवइ। तत्थ जे ते परेणं तस. थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए। ते तओ आउं विप्पजहंति विप्पजहिता तत्थ आरेणं जे तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए० तेसु पच्चायंति, तेहि समणोवासगस्त सुपच्चक्खायं भवइ, ते पाणा वि जाव अयं पि भेदे से णो णेयाउए भवइ । तत्थ जे ते परेणं तसथावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए० ते तओ आउं विप्पजहंति विप्पजहित्ता तत्थ आरेणं जे थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अट्टाए दंडे अणिक्खित्ते अणटाए णिक्खित्ते तेसु पञ्चायंति, जेहिं समणोवासगस्स अट्टाए दंडे अणिक्खित्ते अणटाए णिक्खित्ते जाव ते पाणा विजाव अयंपि भेदे से णो णेयाउए भवइ। तत्थ जे ते परेणं तसथावरा पाणा जेहि समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए० ते तओ आउं विप्पजहांत, विष्पजहिता ते तत्थ परेणं चैव जे तसथावरा पाणा जेहि समणोवासगस्त आयाणसो आमरणंताए० तेसु पञ्चायंति, जेहि समणोवासगस्त सुपञ्चक्खायं भवइ, ते पाणा वि जाव अयं पि भेदे से णो णेयाउए भवइ । भगवं च णं उदाहुण एवं भूयं ण एवं भव्वं ण एयं भविस्सति जपणं तसा पाणा वोच्छिजिति थावरा पाणा भविस्संति, थावरा पाणा वि वोच्छिजिहिंति तसा पाणा भविस्संति, अवोच्छिन्नेहिं तसथावरेहिं पाणेहिं जपणं तमे वा अन्नो वा एवं वदह णस्थि णं से केइ परियाए जाव णो णेयाउए भवइ ।सू० १३॥८०॥ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका ठि. शु. अ. ७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७६५, छाया-तत्र आराद् ये त्रसाः पाणाः, येषु श्ररणोपासकस्य आदानश आमरणान्ताय दण्डो निक्षिप्तः ते तत आयुर्विपजाति, विप्रहाय तत्र आराच्चैव यावस्थावराः प्राणा येषु श्रमणोपासकस्यार्याय दण्डोऽनिक्षिप्तः, अनर्थाय दण्डोनिक्षिसस्तेपु प्रत्यायान्ति । तेषु श्रमणोपासकस्यार्थाय दण्डोऽनिक्षिप्तोऽनीय दण्डो निक्षिप्तः। ते प्राणाः अप्युच्यन्ते ते त्रसा अप्युच्यन्ते ते चिरस्थितिकाः, यावदयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति । तत्र ये आरात् त्रसाः माणाः येषु श्रमणोपासकस्य आदानश आमरणान्ताय दण्डो निक्षिप्तः ते तत आयुर्विजहति, विहाय तत्र परेण ये ते त्रसाः स्थावराश्च माणाः येषु श्रमणोपासकस्य आदानश आमरणान्ताय दण्डो निक्षिप्तस्तेषु प्रत्यायान्ति, तेपु श्रमणोपासकस्य सुमत्याख्यानं भवति । ते माणा अपि यावदयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति । तत्र आराद् ये स्थावराः प्राणाः येषु श्रमणोपासकस्य अर्थाय दण्डोनिक्षिप्तः अनर्थाय दण्डो निक्षिप्तः, ते तदायुविप्रजहति, विपहाय तत्र आराच्चैव ये साः प्राणाः येषु श्रमणोपासकस्य आदानश आमरणान्ताय दण्डो निक्षिप्त स्तेपु प्रत्यायान्ति तेषु श्रमणोपासकस्य सुपत्याख्यानं भवति । ते माणा अपि यावदयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति । तत्र ये ते आरा ये स्थावराः प्राणाः येषु श्रमणोपासकस्य अर्थाय दण्डोऽनिक्षिप्तोऽनर्थाय निक्षिप्तः ते तदायुर्विप्रनहति विपहाय ते तत्र आराच्चैव ये. स्थावराः प्राणाः येषु श्रमणोपासकस्य अर्थाय दण्डोऽनिक्षिप्तः अनर्थाय दण्डो निक्षिप्तः तेषु प्रत्यायान्ति । तेषु श्रमणोपासकस्य अर्थाय दण्डोऽनिक्षिप्तः अनर्थाय निक्षिप्तः। ते पाणा अप्युच्यन्ते ते यावदयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति । तत्र ये ते आराद स्थावराः प्राणा येषु श्रवणोपासकस्य अर्थाय दण्डोऽनिक्षिप्तः अनर्थाय निक्षिप्तः तुत आयुः-विप्रजाति, विषहाय तत्र परेण ये त्रसस्थावरा:माणा येषु श्रमणोपासकस्य आदानश आमरणान्ताय दण्डो निक्षिप्तस्तेषु प्रत्यायान्ति तेषु श्रमणोपासकस्य सुप्रत्याख्यानं भवति । वे प्राणा अपि यावद् अयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति । तत्र ये ते परेण सस्थावरा माणाः येषु श्रमणोपासकस्य आदानशः आमरणान्ताय दण्डो निक्षिप्त स्ते तत आयुर्विप्रजाति विपहाय तत्र आराद् ये त्रसा प्राणाः येषु,श्रमणोपासकस्य आदानश आमरणान्ताय दण्डो निक्षिप्तः तेषु प्रत्या यान्ति तेषु श्रमणोपासकस्य मुप्रत्याख्यानं भवति । ते पाणा अपि यावद् अयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति । तत्र ये वे परेण सस्थावराः प्राणा येषु श्रमणोपासकस्य आदानश आमणान्ताय दण्डो निक्षिप्त स्ते तत' आयुः विमजहति, विप्रहाय तत्र आराद ये स्थावराः माणा येषु श्रमणोपासकस्य अर्थाय दण्डोऽनिक्षिप्तः अनर्थाय निक्षिप्तः तेषु प्रत्यायान्ति, येषु श्रमणोपासकस्य अर्थाय दण्डोऽनि Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६६ सूत्रतासूत्र क्षिप्तः अनर्थाय निक्षिप्तः यावत् ते माणा अपि यावदयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति । सत्र ये ते परेण त्रसस्थावराः प्राणाः येषु श्रमणोपासकस्य आदानश आमरणान्ताय दण्डो निक्षिप्तः, ते तत आयुर्विमजहति, विप्रहाय ते तत्र परेण चैव ये त्रसस्थावराः प्राणा येषु श्रमणोपासकस्य आदानश आमरणान्ताय दण्डो निक्षिप्तस्तेषु प्रत्यायान्ति । येपु श्रमणोपासकस्य सुपत्याख्यानं भवति ते प्राणा अपि यावद् अयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति । भगवांव खलु उदाह-नेतद् भूतं नैतद् भाव्यं नैवद् भविष्यन्ति, यत् खलु प्रसाः प्राणाः व्युच्छेत्स्यन्ति स्थावराः प्राणाः भविष्यन्ति, स्थावराः प्राणा अपि व्युच्छेत्स्यन्ति प्रसाः प्राणा भविष्यन्ति । अत्युच्छिन्नेपु त्रसस्थावरेपु प्राणेषु यत् खलु यूयं वा अन्यो वा एवं वदय नास्ति स कोऽपि पर्यायः यावन्नो नैयायिको भवति ।।मू०१३-८०॥ टीका-'तत्य तत्र 'आरेण' आरात्-तत्र समीपस्थदेशे विद्यमाना:-निवसन्तः 'जे तसा पाणा' ये साः प्राणाः 'जेहिं' येषु 'समणोवासगस्स' श्रमणोपासकस्य 'आयाणसो आमरणंताए' आदानच आमरणान्तांय-व्रतधारणसमयादारभ्य मरण. पर्यन्तम् । 'दंडे णिक्खित्ते' दण्डो निक्षिप्तः-दण्डः परित्यक्तः, 'ते तओ आउं विप्पजहंति' ते वसा जीवाः तत आयु विप्रजाति, असायुष्कं त्यजन्ति । 'विप. जहित्ता तत्थ आरेणं चेव जाव थावरा पाणा' विग्रहाय-परित्यज्य तत्र आरासमीपदेशे ये स्थावराः प्राणा 'जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते अगट्ठाए दंडे णिक्खित्ते' येषु-स्थावरजीवेषु श्रमणोपासकस्याऽर्थाय दण्डोऽनिक्षिोऽनर्थाय च दण्डो निक्षिप्तः । 'तेसु पञ्चायति' तेषु कायेषु प्रत्यायान्तिसमुत्पद्यन्ते । 'जेहिं समणोवासगस्स सुपञ्चक्खायं भवई' येषु श्रमणोपासकस्य 'तत्थ आरेणं' इत्यादि। टीकार्थ-वहां समीपवर्ती देश में विद्यमान जो प्रस प्राणी है, उनकी हिंसा श्रमणोपासकने व्रत ग्रहण के दिन से लेकर जीवन पर्यन्त के लिए त्याग दी है। वे प्राणी उस आयु का परित्याग कर देते हैं और वहां के समीप देश में स्थावर रूप से उत्पन्न होते हैं जिनको श्रावक ने अनर्थ (निष्प्रयोजन) दण्ड देना त्याग दिया है, किन्तु अर्थ दंड देना , 'तत्थ आरेणं' या ટીકાથ-ત્યાં સમીપવર્તી દેશમાં જે ત્રસ પ્રાણ રહેલા છે, તેની હિંસા કરવાને શમણોપાસકે વત ગ્રહણ કરવાના દિવસથી લઈને જીવન પર્યંત માટે ત્યાગ કરેલ છે. તે પ્રાણ તે ત્રસ આયુષ્યને ત્યાગ કરી દે છે. અને ત્યાંના સમીપના દેશમાં સ્થાવરપણુથી ઉત્પન્ન થાય છે. જેને શ્રાવકે અનર્થ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. म. ७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७६७ प्राणातिपातप्रत्याख्यानं सुप्रत्याख्यातम् - सफलं गण्यते । 'ते पाणात्रि जाव' ते प्राणा अपि कथयन्ते सा - अपि कथयन्ते । ' ते चिरझिया जान' ते चिरस्थि तिका' महाकायाः अनेके च सन्ति 'अयं पि भेष से णो पाउ भई' अयमपि भेदः स वो नैयायिको भवति । तत्थ जे आरेणं तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणताएं' तत्र ये आरात् त्रसाः प्राणाः येषु श्रमणोपासकस्प आदानशः व्रतधारणादारम्य आमरणान्ताय दण्डो निक्षिप्तः 'ते तओ आउ विष्पजहंति' से - समीपवर्त्तिनो जीवा खसाः ततः स्वायुषं विमजहति, 'विश्वजहित्ता' विहाय 'तत्थ परेण जे तसा यावर पागा जेहिं समणोवासगस्त आयाणसो आमरणताएं' तत्र ये परेण त्रसाः स्थावराः प्राणाः येषु श्रमणोपासकस्यादानश आमरणान्ताय दण्डो निक्षिप्तः 'तेसु पच्चायंति' तेषु प्रत्यायान्ति 'तेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवई' तेषु श्रमणोपासकस्य सुप्रत्याख्यानं भवति । 'ते पाणा वि जान' ते माणा अप्युच्यन्ते ते त्रमा अपि ते महाकाया अपि 'अपि भेदे नहीं स्थागा है। उन प्राणियों में उत्पन्न होते हैं । वे प्राणी भी कहलाते स भी कहलाते हैं वे चिरकाल तक स्थित रहते हैं । उन्हें श्रमणोपासक दण्ड नहीं देता है । अतः उसके प्रत्याख्यान को निर्विषय कहना न्याय संगत नहीं है । वहां समीप देश में रहने वाले जो बस प्राणी है, श्रमणोपासक ने व्रत ग्रहण के समय से लेकर मरणपर्यन्त जिनकी हिंसा का त्याग कर उस देश से दूरवर्ती किसी प्रदेश में रहने वाले जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं, जिनको व्रत ग्रहण के समय से मृत्युपर्यन्त दण्ड देना श्रावक ने त्याग दिया है, उनमें उत्पन्न होते हैं, उन प्राणियों के विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सफल होता है । वे प्राणी भी कहलाते हैं और त्रस भी कहलाते हैं । श्रमणोपासक उनकी हिंसा (વિનાપ્રત્યેાજન) દડદેવાના ત્યાગ કરેલ છે. પરતું અદડ દેવાના ત્યાગ કરેલ નથી. તેઓમાં ઉત્પન્ન થાય છે. તેઓ પ્રાણીપણ કહેવાય છે ત્રસ પણ કહે વાય છે. તેઓ લાંમા કાળસુધી સ્થિત રહે છે તેને શ્રમણેાપાસકદ ડદેતા નથી તેથી તેના પ્રત્યાખ્યાનને નિવિષય કહેવું તે ન્યાયયુક્ત નથી. ત્યાં સમીપના દેશમાં રહેવવાળા જે ત્રસપ્રાણી છે શ્રમણેાપાસકે વ્રત ગ્રહરૢ કરવાના સમય થી લઇ ને મરણ પન્ત જેની હિંસાના ત્યાગ કરેલ છે. તેએ પેતાના આયુષ્ય ને ત્યાગકરીને તે દેશથી દૂર રહેલા કેઇ પ્રદેશમાં રહેવાવાળા જે ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાણી છે. જેને વ્રત ગ્રણ કરવાના સમય થી લઈ ને મરશુ પર્યન્ત દડ દેવાના શ્રાવકે ત્યાગ કરેલ છે. તેમાં ઉત્પન્ન થાય છે, તે પ્રાણુિયાના સંબંધમાં શ્રમણેાપાસકનું પ્રત્યાખ્યાન Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६८ । सूत्रकृतास्त्र से णो णेयाउए भवई' अयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति, अर्थात् श्रावकपत्याख्यानह्य निर्विपयत्वमतिपादनं न युक्तियुक्तमिति । 'तस्थ जे आरेणं थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अट्टाए दंडे अणिक्खित्ते अणद्वाए णिखित्ते तत्र ये आराद स्थावरा प्राणाः जीवाः समीपदेशवर्तिनः सन्ति येपु श्रमणोपासकस्य अर्थाय -प्रयोजनमुदिश्य दण्ड:-अनिक्षिप्तः-प्राणिप्राणव्यपरोपणं न त्यक्तः। अनर्थाय प्रयोजनमन्तरेण दण्डो निक्षिप्त:-हिंसातो-प्राणव्यपरोपणात् निवृत्ती जातः । ते सो आउं विपजहंति' ते तदायु विमजहति 'विष्यजहिता' विप्रहाय 'तस्थ आरेणं चेव जे तसा पाणा जेहि समणोवासगस्स आयाणसो आमरणत्ताए' तत्राराच्चैव ये असाः प्राणाः येषु श्रमणोपासकस्याऽऽदानशः आमरणान्ताय दण्डो निक्षिप्तः। 'तेसु पच्चायति' तेषु प्रत्यायान्ति-प्रत्यागच्छन्ति 'जेहि समणोवासनहीं करता है। अतएव श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान निर्विषय है, ऐसा कहना न्याय संगत नहीं है। __ वहां समीप देश में जो स्थावर प्राणी हैं, जिनके विषय में श्रावक ने अर्थदण्ड का त्याग नहीं किया है और अनर्थ दण्ड का त्याग कर दिया है, वे जब अपनी आयु समाप्त करके, समीप देश. वर्ती बस प्राणी के रूप में, जिनको दंड देना श्रावक ने वन ग्रहण के समय से लेकर जीवन पर्यन्त त्याग दिया है, उत्पन्न होते हैं तो उनके विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सुपत्याख्यान होता है। वे प्राणी भी कहे जाते हैं और ब्रल भी कहे जाते हैं । अतएव यह कहना न्याययुक्त नहीं है कि श्रावक का प्रत्याख्यान सजीवों के अभाव के कारण निविषय है। સફળ થાય છે. તેઓ પ્રાણી પણ કહેવાય છે. અને ત્રસ પણ કહેવાય છે. શ્રમણોપાસક તેઓની હિંસા કરતા નથી. તેથી જ શ્રમણોપાસકનું પ્રત્યાખ્યાન નિર્વિષય છે, તેમ કહેવું તે ન્યાયુક્ત નથી. ત્યાં સમીપના દેશમાં જે સ્થાવર પ્રાણી છે. જેના સંબંધમાં શ્રાવકે પોતાના જીવનમાં અર્થદંડને ત્યાગ કરેલ નથી. અને અનર્થદડને ત્યાગ કરેલ છે. તેઓ જ્યારે પિતાનું આયુષ્ય સમાપ્ત કરીને સમીપના દેશમાં રહેલ ત્રસ પ્રાણિ પણથી કે જેને દંડ દેવાનું શ્રાવકે ઘનઘડણ ના સમયથી લઈને જીવન પર્યત ત્યાગ કરેલ છે. તેમાં ઉત્પન્ન થાય છે તો તેમના સંબંધમાં શ્રમપાસકનું પ્રત્યાખ્યાન સુ પ્રત્યાખ્યાન કહેવાય છે તેઓ પ્રાણ પણ કહેવાય છે. અને ત્રસ પણ કહેવાય છે. તેથી શ્રાવકનું પ્રત્યાખ્યાન ત્રસજીના અભાવના કારણે નિર્વિઘય છે, તેમ કહેવું તે ન્યાય યુક્ત નથી. * Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी रीका द्वि. शु. अ. ७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७६९ गस्स सुपच्चक्खायं भवई येषु श्रमणोपासकस्य सुमत्याख्यानं भवति । 'ते पाणा विजाव' ते प्राणा अप्युच्यन्ते असा अपि यावत् । 'अयं पि भेदे से णो णेयाउए भवह' अयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति इति । 'तत्य' तत्र 'जे ते आरेणं' पे ते आरात्-समीपे स्थिताः, 'जे थावरा पाणा' ये स्थावराः माणाः 'जेहिं सम. जोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते' येषु श्रमणोपासकस्य अर्याय-प्रयोजनं समु. दिश्य दण्डो न निक्षिप्तः । 'अणट्ठाए णिविखत्ते' अनर्थाय-योजनं विनैव तु दण्ड परित्यक्तः। 'ते तो आउ विप्पजहंति' ते-स्थावरा जीवाः तदायु मिनहतिपरित्यजनि । 'विप्पजहिता ते' विग्रहाय ते 'तस्य आरेणं जे थावरा पाणा जेहि समणोवासगस्स' तत्राऽऽराद् ये स्थावराः प्राणाः येषु श्रमणोपासकस्य 'अट्ठाए' अर्थाय-प्रयोजनगुद्दिश्य 'दंडे अणिक्खित्ते' दण्डोऽनिक्षिप्तः 'अणद्वार णिक्खित्ते' अनर्थाय दण्डो निक्षिप्तः 'तेसु पच्चायति' तेषु प्रत्यायान्ति 'तेहि समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिविखत्ते' तेषु श्रमणोपासकस्याऽर्थाय दण्डोऽनिक्षिप्तः-न परित्यक्तः, अनर्थाय च परित्यक्तः। ते पाणा विजाव' ते पाणा अप्युच्यन्ते, ते असा अपि । 'अयं पि भेदे से णो णेयाउए भवई' अयमपि भेदः स नो नैयायिको यहां समीप देश में जो स्थावर प्राणी हैं, जिनकी श्रमणोपासक ने प्रयोजनवश हिंसा का त्याग नहीं किया है, किन्तु निष्प्रयोजन हिंसा का त्याग कर दिया है, वे जीव जब अपनी आयु को त्याग कर वहां जो समीपवर्ती स्थावर प्राणियों में, जिनको प्रयोजनवश हिंसा करना श्रावक ने नहीं त्यागा है किन्तु निष्प्रयोजन हिंसा का त्याग कर दिया है, उनमें उत्पन्न होते हैं उनको श्रावक प्रयोजनवश दण्ड देता है, विना प्रयोजन दण्ड नहीं देता है, अतः श्रावक का प्रत्याख्यान निर्विषय है, ऐसा कहना न्याय संगत नहीं है। वहां जो समीप प्रदेश में स्थावर प्राणी हैं, जिन्हें श्रावक ने अर्थ ત્યાં સમીપના દેશમાં જે સ્થાવરપ્રાણી છે, કે જેની હિંસાને શ્રમણોપાસકે પ્રજનવશ ત્યાગ કરેલ નથી પરંતુ નિપ્રયેાજન હિંસાને ત્યાગ કરેલ છે તે છે જ્યારે પિતાના આયુષ્યને ત્યાગ કરીને ત્યાં જે નજીકમાં રહેલા સ્થાવર વિચે છે. કે જેની પ્રોજન વશ હિંસા કરવાને શ્રાવકે ત્યાગ કરેલ નથી. પરંતુ પ્રયજન વિનાની હિંસાને ત્યાગ કરેલ છે. તેઓમાં ઉત્પન્ન થાય છે. તેને શ્રાવક પ્રજન વશ દંડ આપે છે પ્રયજન વિના દંડેદેતા નથી તેથી શ્રાવકનું પ્રત્યાખ્યાન નિર્વિષય છે, તેમ કહેવું તે ન્યાયયુક્ત નથી ત્યાં જે નજીકના પ્રદેશમાં સ્થવર પ્રાણી છે કે જેને શ્રાવકે અર્થ દંડ सु० ९७ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७० सूत्रकृतास्त्र 'भवति श्रावकस्य मनिशा न निर्विपयेति भावः। 'तत्य तत्रं 'जे ते आरेणं यावरी पाणा' ये ते आरात्-समीपे स्थापराः प्राणाः 'जेहिं समणीवासगस्स' येषु श्रम 'णोपासकस्य 'अढाए दंडे अणिक्खित्ते अगवाए मिक्खित्ते' अर्थाय दण्डोऽनिक्षितः न त्यक्तः अनर्थाय निक्षिप्तः-त्यक्तः 'ते तो आउ विप्पजहंति' ते ततः आयु मिनहति 'विप्पजहित्ता',विप्रहाय 'तत्य" तत्र 'परेणं' परेण 'जे तसथावरा पाणा' ये घसस्थावराः प्राणा: 'जेहि समणोधासगस्स आयाणसो आमरणंताएं' येपु श्रमणोपासकस्यादानश आमरणतान्ता य दण्डोनिक्षिप्तः, 'तेसु पच्चायति' तेषु प्रत्यायान्ति । 'तेहिं समणोयासगस्स सुपच्चक्खायं भवई' तेषु श्रमणोपासकस्य सुपत्याख्यानं भवति। "ते. पाणा वि जाव' 'ते प्राणा अपि यावत् 'अयं पि भेदे से णो णेयाउए भवई' अपमपि भेदः सनो नैयायिको भवति । तथा च श्रावकस्य समत्याख्यान न निर्विषयमिति। । “तत्य जे ते परेणं तसथावरा पाणा' तत्र 'ये ते 'परेण संस्थावराः, प्राणा: 'जीवा:, 'जेहिं समणोवासगरस आयाणसो आमरणंताए' येषु श्रमणोपासकस्य आदानश आमरणान्ताय दण्डो निक्षिप्तः, श्रावकद्वारा गृहीतदेशातिरिक्तदेशे दंड देना नहीं त्यागा है, किन्तु अनर्थदंड देनात्यागा है, वे जब अपनी आयु को त्याग कर दूर देश में जो बस स्थावर प्राणी हैं, श्रावक ने व्रत ग्रहण के समय में जीवनपर्यन्त जिनकी हिंसा का त्याग कर दिया है, उनमें उत्पन्न होते हैं तो श्रावक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है। वे प्राणी भी कहलाते हैं, उस भी कहलाते हैं। अतएव श्रावक के प्रत्याख्यान को निर्विषय कहनां न्याययुक्त नहीं है। वहां दूर देश में अर्थात् श्रावक के द्वारा नियत किये हुए देश परिमाण से बाहर जो बम और स्थावर प्राणी हैं, व्रत ग्रहण से लेकर जीवनपपर्यन्त श्रावक ने जिनकी हिंसा त्याग दी है, वे प्राणी जय દેવાને ત્યાગ કરેલ નથી પરંતુ અનર્થ દંડ દેવાનો ત્યાગ કરેલ છે. તેઓ - જ્યારે પિતાના આયુષ્યને ત્યાગકરીને પ્રદેશમાં જે ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાણી છે, અને શ્રાવકે ઘન ગ્રહણના સમયથી જીવન પર્યન્ત જેની હિંસાને ત્યાગ કરેલ છે, તેઓમાં ઉત્પન્ન થાય છે ' તે શ્રાવકનું સુપ્રત્યાખ્યાન હોય છે. તેઓ પ્રાપણ કહેવાય છે. ત્રસ પણ કહેવાય છે. તેથી જ શ્રાવકના પ્રત્યાખ્યાન ને નિર્વિષય કહેવું તે ન્યાયયુક્ત નથી ત્યાં દૂર દેશમાં અર્થાત્ શ્રાવ દ્વારા નિયત કરવામાં આવેલ દેશપરિમાણથી બહાર જે ત્રસ અને સ્થાવરપ્રાણી છે વ્રતગ્રહણથી લઈને જીવન પર્યંત શ્રાવકે જેઓની હિંસાને ત્યાગ કરેલ છે. તે પ્રાણી જ્યારે પોતાના આયુષ્યને Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७७१/ 1 समुत्पन्ना जात्रा :- यद्विषये श्रावकेण दण्डदान न गृहीतम् । 'ते तओ आउ विष्प जति' ते जीवा स्वत आयुर्विमहति 'विप्पन हित्ता' विमहाय-परित्यज्य 'तत्थ आरेणं जे तसा पाणा' तत्र आरात् ये त्रसाः प्राणाः 'जेहिं समणोवासगस्त आयाणसो आमरणंताए०' येषु श्रमणोपासकस्य आदानशः व्रतग्रहणकालादारभ्य मरणपर्यन्तं दण्डः परित्यक्तः । 'तेहिं पञ्चायति' तेषु प्रत्यायाति 'तेहिं समणोवासगस्स' तेषु श्रमणोपासकस्य 'सुपचकखायं भवई' सुमत्याख्यानं भवति, 'ते' पाणी वि जाव' 'ते प्रांणा अपि त्रमा अध्युच्यन्ते 'अयं वि भेदे से णो णेयाउए, भवइ' अयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति । तद्विपये कृतं प्रत्याख्यानं श्रावकस्य नाऽसङ्गतं भवति, किन्तु न्यायसङ्गतमेवेति भावः । ' तत्थ जे ते परेणं तस यावर पाणी' तत्र ये ते परेण सस्थावराः प्राणाः श्रावकत्रतगृहीत देशपरिणामतोऽन्यदेशे विद्यमानाः 'जेहिं समणोवासगस्स आमरणंताए' येषु श्रमणोपासकस्य आदानश आमरणान्ताय दण्डों निक्षिप्तः- त्यक्तः 'ते तओ आउ विष्पजहंति' ते जीवा स्तत 'आयुर्विमजहति -त्यजन्ति, 'विष्वज हित्ता तत्थ आरेणं जे थावरा अपनी आयु का त्याग करके श्रावक द्वारा ग्रहण किये हुए देश परिणाम के अन्दर स्थित स प्राणी के रूप में उत्पन्न होते हैं, जिनको श्रावक दंड देना त्याग दिया है, तब उन जीवों के विषय में श्रावक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है । वे प्राणी भी कहलाते है और स भी कहलाते हैं अतएव श्रावक के प्रत्याख्यान कों निर्विषय कहना न्याय युक्त नहीं है । 3 वहां जो स' और स्थावर प्राणी श्रमणोपासक के द्वारा ग्रहण किये हुए देश परिमाण से भिन्न देश में विद्यमान हैं, जिनको श्रमणोपासक ने व्रतारंभ से लेकर मृत्युपर्यन्त दंड देना त्याग दिया है, वे उस आयु का परित्याग कर देते हैं और समीपवर्ती स्थावर प्राणी के ત્યાગ- કરીને શ્રાવક દ્વારા ગ્રહણ કરવામાં આવેલ દેશ પિરમાણુની અંદર રહેલ ત્રસ પ્રાણીપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. જેને શ્રાવકે દંડ દેવાને ત્યાગ કરેલ છે. ત્યારે તે’ જીવેાના સખ ધમાં શ્રાવકનુ · પ્રત્યાખ્યાન સુપ્રત્યાખ્યાન હાય છે તેઓ પ્રાણીપણુ કહેવાય છે. અને ત્રસપણુ કહેવાય છે. તેથી જ શ્રાવકના પ્રત્યાખ્યાનને નિવિષય કહેવું તે ન્યાય યુક્ત નથી. . f ત્યાં જે સ અને સ્થાવર પ્રાણી શ્રમણેાપાસક દ્વારા ગ્રહણકરેલ દેશ પરિણામથી જુદા દેશમાં રહેલા છે, જેમને શ્રમQાપાસકે તાર ભથીલઈને મૃત્યુ પર્યન્ત દંડ દેવાના ત્યાગ કરેલ છે, તેએ એ આયુષ્યના ત્યાગ કરી દે છે, અને સમીપમાં રહેલા સ્થાવર પ્રાણીપણામાં કે જેને શ્રાવકે અડ 1 ' Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७३ सूत्रकृतसूत्रे पाणा' विहाय तत्र आराद ये स्थावराः प्राणाः 'जेहिं समणोवासगस्त' येषु श्रमणोपासकस्य 'अट्ठार दडे अणिक्खित्ते' अर्थाय दण्डोऽनिक्षिप्तः 'अणद्वार णिक्खित्ते' अनर्थाय दण्डो निक्षिप्तः 'तेसु पच्चायति' तेषु प्रत्यायान्ति - आगच्छन्ति ते जीवास्सा भूतपूर्वाः 'जेहि समणोवासगस्त अद्वाए दंडे अणिक्खिते अणट्ठाए णिक्खित्ते' येषु श्रमणोपासकस्याऽर्थाय दण्डोऽनिक्षिप्तोऽनर्थाय दण्डो निक्षिप्तः, 'जाव ते पाणा वि जाव' यात्र ते माणा अपि उच्यन्ते सा अपि यावत् 'अयं पि भेदे से णो णेयाउए मइ' अयमवि भेदः स नो नैयायिको भवति, अतः श्रावकस्य प्रत्याख्यानं नाऽसङ्गतमिति । 'तत्थ जे ते परेणं तस थावरा पाणा' तत्र ये ते परेण स्थावराः माणाः 'जेहिं समणोवासगस्स आयागसो आमरणंताए' श्रमणोपासकस्यादानश आमरणान्ताय दीक्षाग्रहणमवधीकस्य स्याद् यावन्मरणं देशावकाशिपु जीवकायेषु दण्डः परिहृतः । 'ते तओ आउ विधजहंति' ते तव आयुर्विमजदति त्यजन्ति, 'विप्पजदित्ता ते' विप्रदाय ते 'तत्थ परेण चैव तसा यावरा पाणा' तत्र परेण चैत्र ये त्रमाः स्थावराव प्राणिनः 'जेहिं समणोत्रासगस्त' रूप में, जिनको श्रावक ने दंड देना नहीं छोड़ा है किन्तु अनर्थ दंड देना छोड दिया है, उनमें वे जन्म लेते हैं, श्रावक उनको निरर्थक दंड नहीं देता है। वे प्राणी भी कहलाते हैं और त्रस भी कहलाते हैं अतएव श्रावक के व्रत को निर्विषय कहना ठीक नहीं है । जो बस और स्थावर प्राणी श्रावक के द्वारा ग्रहण किये हुए देश परिमाण से भिन्न देशवर्ती हैं जिनको श्रावक ने व्रतग्रहण से लेकर मरणपर्यन्त दण्ड देना त्याग दिया है, वे उस आयु को त्याग कर श्रावक के द्वारा ग्रहण किये हुए देशपरिमाण से बाहर अन्य देश में जो बस और स्थावर प्राणी हैं, जिनको श्रावक ने व्रतग्रहण से लेकर मरणपर्यन्त दंड देना त्याग दिया है, उनमें उत्पन्न होते हैं उनमें દેવાના ત્યાગ કરેલ નથી, પરંતુ અનથ દંડ રવાના ત્યાગ કરેલ છે, તેઓમાં તે જન્મ ધારણ કરે છે, શ્રાવક તેને નિરથČક દંડ દેતા નથી, તે પ્રાણી પણ કહેવાય છે અને ત્રસ પશુ કહેવાય છે, તેથી જ શ્રાવકના વ્રતને, નિવિષય કહેવુ તે ન્યાયયુક્ત નથી. જે ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાણી શ્રાવકદ્વારા ગ્રહણ કરેલ દેશપરિણામથી જૂઢા દેશમાં રહેલા છે, જેને શ્રાવકે વ્રત ગ્રહણથી લઈને મરણપયન્ત ડે દેવાના ત્યાગ કરેલ છે. તેઓ એ આયુષ્યને ત્યાગ કરીને શ્રાવક દ્વારા ગ્રહણુ કરવામાં આવેલ દેશ પરિણામથી ખડ્ડારના ખીજાદેશમાં જે ત્રસ અને સ્થાવર Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.१ पुण्डरीकनामाध्ययनम् अथाष्टमं दृष्टान्तमाह ‘से जहाणामए' तद्यथा नामकः 'कोइ पुरिसे' कोऽपि पुरुषः 'अरणीओ अग्गि' अरणितोऽग्निम् 'अभिनिव्वट्टित्ता ण' अभिनिवर्त्य खल 'उवदंसेज्जा' उपदर्शयेत् 'अयमाउसो ! अरणी अयं अग्गी अयमायुष्मन् ! अरणिः अयमग्निः , 'एवमेव जाव सरीरं' एवमेव यावच्छरम्, यथा अरणेरग्नेश्च प्रज्ञापनं भवति, तथा देहात्मनोः पार्थक्येन प्रज्ञापना न भवति, तत आत्मदेहयो. नास्ति भेदः । 'एवं असंते-असंविज्जमाणे' एवम्-असन्-असंवेधमाना, अत:आत्मा न शरीरात् पृथक् सत्तावान्-न चाऽनुभागम्यः, अतएव एप पक्षः साधीयान् यत् शरीरात्पृथग् नास्ति कोऽपि आत्म पदार्थ इति सिद्धम् । अतएव 'जे. सिं तं सुअक्खायं भवइ' येषां तत् स्याख्यातं भवति 'तं जहा-अन्नो जीवो अन्न सरीरं तम्हा ते मिच्छा' तद्यथा-अन्यो जीवोऽन्यच्छरीरम् , ये शरीराद् विभिन्न जीव मन्यन्ते, तत्तेपां पूर्वोक्तदृष्टान्त मिथ्येव । यदि मिन्नः स्यात-तदा देहादे. भैदेन दर्शयितुं शक्येत । परन्तु-न कोऽपि दर्शयितुमीष्टेऽनः शरीराऽऽत्मवादो - जैसे कोई पुरुष अरणि नामक काष्ठ से अग्नि निकाल कर दिखला देता है कि-हे आयुष्मन् ! यह अरणि है और यह अग्नि है, इसी प्रकार ऐसा दिखलाने वाला कोई पुरुष नहीं है कि यह आत्मा रहा और यह शरीर रहा । अर्थात् जसे अग्नि और अरणि में भेद प्रतीत होता है वैसा देह और आत्मा में भेद प्रतीत नहीं होता। अतएव दोनों भिन्न भिन्न नहीं हैं। इस प्रकार आत्मा की पृथक सत्ता की प्रतीति नहीं होती, अतः यही पक्ष समीचीन है कि शरीर से भिन्न आत्मा नहीं है । इस प्रकार जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है, उनका कथन स्वाख्यात 'सुकथन' नहीं है। वह कथन मिथ्या है। જેમ કેઈ પુરૂષ અરણી નામના કાષ્ઠમાંથી અગ્નિને બહાર કહાડીને બતાવી દે છે, કે હે આયુષ્યનું આ અરણી છે, અને આ અગ્નિ છે. એજ પ્રમાણે એવું બતાવનારે કેઈ પુરૂષ નથી કે–આ આત્મા રહ્યો અને આ શરીર રહ્યું અર્થાત જેમ અગ્નિ અને અરણીમાં ભેદ જણાઈ આવે છે. એ રીતે દેહ અને આત્મામાં ભેદ જણાતું નથી. તેથી જ આત્મા અને શરીર બને અલગ અલગ નથી પણ એક જ છે. આ પ્રમાણે આત્માની અલગ સત્તાની ખાત્રી થતી નથી, જેથી શરીરથી જૂદે આત્મા નથી એજ પક્ષ એગ્ય છે. આ પ્રમાણે જીવ ભિન્ન છે, અને શરીર ભિન્ન છે, એવું કહેનારાઓનું કથન સમીચીન લાગતું નથી. તે કથન મિથ્યા છે. सू० ९ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयावधिनी टीका द्वि. थु. अ. ७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७७३ येषु श्रमणोपासकस्य 'आयाणसो आमरणंताएं' आदानश आमरणान्ताय दण्डो निक्षिप्तः, 'तेषु पञ्चायति' तेषु प्रत्यायान्ति, 'जेहिं समणोवासगस्स सुपच्च क्खायं भव' येषु श्रमणोपासकस्य सुमत्याख्यानं भवति, 'ते पाणा वि जान' ते प्राणा अयुच्यन्ते साच, 'अयं पि भेदे से णो णेयाउए भवई' अयमपि भेदः स नोको भवति । 'भगवं च णं उदाहु' भगवान् गौतमस्वामी च खल पुनरप्याह - 'ण एयं भूयं' नैवनम् यद्भवता कथ्यते । 'ण एवं भव्वं' नैवं भाव्यम् 'ण एवं भविस्संति' नैवं भविष्यन्ति भवन्ति च 'जगं तसा पाणा चोच्छिज्जिहिंति' यत् त्रसाः प्राणाः व्युच्छेत्स्यन्ति त्रसाः प्राणा व्युच्छिन्ना भविष्यन्ति, 'थावरा पाणा भविरसंति' स्थावराः माणाः भविष्यन्ति 'थावरा पाण/ वि वोच्छि निर्हिति तसा पाणा भविस्संति' स्थावरा अपि प्राणाः व्युच्छेत्स्यन्ति त्रसा भवियन्ति, 'अच्छिन्नेहिं तसथापरेहिं पाणेहिं' अव्युच्छिन्नेषु प्रसस्थावरेषु प्राणेषु 'जणं तुभे वा अन्नो वा' यत् खलु यूयं वा अन्यो वा 'एवं वदह' एवं वदय 'णत्थि से के परियाए' नास्ति खलु स कोऽपि पर्यायः यत्र श्रावकमत्याख्यानं सफलं श्रावक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है । अतएव श्रावक का प्रत्याख्यान निर्विषय है, ऐसा कहना न्याय संगत नहीं हैं । भगवान् गौतम ने कहा- ऐसा कभी हुआ नहीं है ऐसा कभी होगा नहीं और वर्तमान में होता भी नहीं है कि इस संसार में स जीवों का विच्छेद हो जाय अर्थात् कोई स प्राणी ही नहीं रहे और संसार के समस्त प्राणी स्थावर ही हो जाएं । अथवा स्थावर जीवों का विच्छेद हो जाय और सब के मय त्रस प्राणी ही रह जाएं ! जब त्रस और स्थावर दोनों का ही सर्वधा विच्छेद नहीं होता तो यह कथन युक्तिसंगत नहीं है कि ऐसा कोई पर्याय ही नहीं है जहां श्रावक का 1 પ્રાણી છે, જેના શ્રાવકે વ્રત ગ્રડણુથી લર્ન તે મરણુપર્યન્ત દડદેવાના ત્યાગ કરેલ છે. તેઓમાં ઉત્પન્ન થાય છે. તેથી જ શ્રાવકનું પ્રત્યાખ્યાન સુપ્રત્યાખ્યાન કહેવાય છે. તેથી જ શ્રાવકનું પ્રત્યાખ્યાન નિવિષય છે, તેમ કહેવુ. તે ન્યાયયુક્ત નથી. ભગવાન ગૌતમ સ્વામી એ કહયું-આમ કયારે ય થયુ. નથી આમ કયારેય થશે નહી. અને વમાનમાં થતુ પણ નથો કે-આ સ’સારમાં સ જીવા ના વિચ્છેદ થઈ જાય અર્થાત્ કેાઈ ત્રસ પ્રાણી જ ન રહે, અને સસાર ના બધાજ પ્રશુી સ્થાવર જ હાય, અથા સ્થાવર જીવાને વિòઢ થાય, અને બધા ત્રસ પ્રાશુિચાજ રહી જાય. જ્યારે ત્રસ અને સ્થાવર અને ને જ સથા વિચ્છેદ થતા નથી, તે આપનું આ કથન યુક્તિયુક્ત નથી. કે Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ وقف सूत्रां भवेदिति । 'से णो णेयाउए भवः' स नो नैयायिको भवति, सत्सु त्रमस्थावरजीवेषु कथं न श्रावकस्य प्रत्याख्वानं सफलम् अपि तु सफलमेव || मू० १३ ||८०|| अथोपसंहारमाह } ! < · मूलम् - भगवं च णं उदाहु आउसंतो ! उदगा ! जे खलु ! समणं वा माहणं वा परिभासेइ मित्तिं मन्नइ, आगमित्ता णाणं आगमित्ता दंसणं आगमित्ता चरितं पावाणं कम्माणं अकरणयाए से खलु परलोगपलिमंथत्ताए चिटूइ, जे खलु समणं वा माहणं वा णो परिभासइ मित्तिं मन्नइ आगमित्ता णाणं आगमित्ता दंसणं आगमित्ता चरितं पावाणं कम्माणं अकरणयाए से खलु परलोगविसुद्धीए चिट्टह, तए णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं अणाढायमाणे जामेव दिसिं पाउवभूष तामेव दिसिं पहारेत्थ गमणाए । भगवं च णं उदाहु आउसंतो उदगा ! जे खलु तहाभूयस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं सोच्चा निसम्म अप्पणो चैव सुहुमाए पडिलेहाए अणुत्तरं जोगखेमपयं लंभिए समाणो सो वि तावतं आढाइ परिजाणेइ वंदइ नमसइ सकारेइ संमा ई जाव कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासइ । तर णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं एवं वयासी - एएसिं णं भंते ! पयाणं पुत्रं अन्नाणयाए असवणयाए अबोहिए अणभिगमेणं प्रत्याख्यान सफल हो ! जय त्रस और स्थावर दोनों जीवराशियां सदैव रहती हैं तो श्रावक का प्रत्याख्यान निष्फल नहीं हो सकता अर्थात् सफल होता है ॥ १३ ॥ એવાકાઈ પર્યાય જ નથી. કે જ્યાં શ્રાવકનું પ્રત્યાખ્યાન સફળ થાય, જ્યારે ત્રસ અને સ્થાવર અને જીવરાશીયેા હંમેશાં રહે છે. તે શ્રાવકનું પ્રત્યા બ્યાન નિષ્ફળ થઈ શકતું નથી અર્થાત્ સફળ થાય છે. તેમ સમજવુ' (૩!1 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'समयाबोधिनी टीका द्वि. शु. अ.७ अन्धोपसंहारः ७७५ अदिवाणं असुयाणं अमुयाणं अविन्नायाणं अव्वोगडाणं अणिगूढाणं अविच्छिन्नाणं अणिसिट्ठाणं अणिबूढाणं अणुवहारियाणं एयमटुंणो सद्दहियं णो पत्तियं णो रोइयं, एएसिं णे भंते 'पयाणं एहि जाणयाए सवणयाए बोहिए जाव उवहारणयाए एयमढे सदहामि पत्तियामि रोएमि एवमेव से जहेयं तुम्भ वदह। तए णं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं क्यासी 'सदहाहि णं अज्जो ! पत्तियाहि णं अज्जो ! रोएहि णं अज्जों! एवमयं जहा णं अम्हे वयामो, तए णं से उदए पेढालपुत्ते 'भगवं गोयमं एवं क्यासी-इच्छामि णं भंते ! तुभं अंतिए चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहत्वइयं सपडिकमणं धम्मं उर्वसंपज्जित्ता णं विहरित्तए । तए णं से भगवं गोयमे उदयं पेंढालपुत्तं गहाय जेणेव समणे भगवं महावीर तेणेव उवागच्छइ, · उवागच्छित्ता तंए णं से उदए पेढालपुत्ते समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, तिक्खुत्तो आयोहिणं पयाहिणं करित्ता वंदइ नमंलइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासीइच्छामि णं भंते ! तुम्भं अंतिये चाउज्जामाओ धम्माओ पंचंमहव्वइयं सपडिकमणं धम्म उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, तए णं समणे भगवं महावीरं उदयं एवं वयासी-अहा सुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबधं करेहि, तए णं से उदए पेढालपुत्ते समणस्त भग-वओ महावीरस्स अंतिए चा उज्जामाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं सपडिक्कमणं धम्मं उबसंपजित्ता णं विहरइ तिबेमि॥सू.१४१८१॥ ॥ इति नालंदइज्जं सत्तमं अज्झयणं समत्तं ॥ , ॥ सूयगडांग वीयसुयक्खंधो समत्तो। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ७७६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे छाया - मगांव खलु उदाह आयुष्मन् उदक । यः खलु श्रमणं वा माहने वा परिमापते मैत्रीं मन्यते, आगम्य ज्ञानम् आगम्य दर्शनम् आगम्य चारित्रं पापानां कर्मणामकरणाय स खलु परलोकमन्थनाय तिष्ठति । यः खलु श्रम मानं वा न परिभापते मैत्रीं मम्यते आगम्य ज्ञानम् आगम्य दर्शनम् आगम्य चारित्रं पापानां कर्मणामकरणाय स खलु परलोकविशुया तिष्ठति, ततः खलु स उदकः पेढालपुत्रो भगवन्तं गौतममनादि • यमाणः यस्या एव दिशः प्रदुर्भूतः तामेव दिशं प्रधारितवान् गमनाय । भगवांश्च खल उदाह-आयुष्मन् उदक | यः खलु तथाभूतस्य श्रमणस्य वा माइन1 स् वा अन्तिके एकमपि आये धार्मिकं सुवचनं श्रुत्वा निशम्य आत्मनश्चैव सूक्ष्मया प्रत्युपेक्ष्य अनुत्तरं योगक्षेमपदं लम्भितः सन् सोऽपि तावत् तमाद्रियते परिजानाति, वन्दते नमस्यति सत्कारयति संमानयति यावत् कल्याणं मङ्गलं देवतं चैत्यं पर्युपास्ते । ततः खलु स उदकः पेढालपुत्रः भगवन्तं गौतममेवमवादीत् । एतेषां खलु भदन्त ! पदानां पूर्वमज्ञानाद् अश्रवणतयाऽवोध्याऽनभिगमेन अदृष्टाना. मश्रुतानामस्मृतानामविज्ञातानामन्युत्कृतानाम निगूढानामविच्छिन्नानामनिसृष्टाना - म निर्व्यूढानामनुपधारितानामेपोऽर्थो न श्रद्धितः न प्रतीतः न रोचितः एतेषां खलु भदन्त ? पदानामिदानीं ज्ञाततया श्रवणतया वोध्या यावदुपधारणतया एतम श्रदधामि प्रत्येमि रोचयामि एवमेव तद्यथा यूयं वदथ । ततः खलु भगवान् गौतम उदकं पेढापुत्रमेवमवादीत् श्रवत्स्व खलु अर्य ! प्रतीहि खलु आर्य ! रोचय खलु आयें ! एवमेतद् यथा खलु वयं वदामः । ततः खलु स उदकः पेढालपुत्रः भगवन्तं गौतममेवमवादीत् इच्छामि खलु मदन्त ! युष्माकमन्तिके चातुर्यामाद्धर्मात् पञ्चमहाव्रतिकं सप्रतिक्रमणं धर्ममुपसम्पद्य खलु विहर्तुम् । ततः खलु भगवान् गौतम उदकं पेढालपुत्रं गृहीत्वा यत्रैव श्रमणो भगवान् महावीर स्तत्रैव उपागच्छति । उपागत्य ततः खलु स उदकः पेढाळपुत्रः श्रमण भगवतं महावीरं त्रिःकृत्वः आदक्षिणां प्रदक्षिणां कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दिला नमस्थित्वा एवमवादीत् इच्छामि खलु भदन्त ! तवान्तिके चतुर्यामाद्धर्मात् पञ्चमहाव्रतिकं समतिक्रमणं धर्ममुपसंपद्य खलु विहर्तुम् ततः खलु श्रमणो भगवान् महावीर उदकमेवमवादीत् यथासुखं देवानुप्रिय | मा प्रतिबन्धं कुरु ततः खलु सउदकः पेढालपुत्रः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्तिके चतुर्याशद्धर्मात् पञ्च महातिकं समतिक्रमणं धर्ममुपसंपद्य खलु विहरतीति ब्रवीमि ॥०१४-८९॥ ॥ इति नालन्दाख्यं सप्तमम् अध्ययनं समाप्तम् || सूत्रकृताङ्गसूत्रस्य द्वितीय श्रुतस्कन्धः समाप्तः ॥२७॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयाबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ७ ग्रन्थोपसंहारः ७७७ टीका--'भगवं च णं उदाहु' भगवांश्च खलु उदाह-'आउसंतो उदगा!' आयु. मन् उदक ! 'जे खलु समणं वा माहण वा परिभासेइ' यः कुवुद्धिः पुरुषः श्रमणे वा माहनं वा श्रुतचारित्रादिनियमधरं साधु परिभाषते-निन्दति, स मन्दमतिः 'मित्ति मन्नइ' साधुभिः सह मैत्री मन्यते 'आगमित्ता णाणं' आगम्य प्राप्य ज्ञानम्ज्ञानवानपीत्यर्थः, 'आगमित्ता दसणं' आगम्य-माप्यापि दर्शनम् 'आगमित्ता चरित्त' आगम्य चारित्रम् 'पावाणं कम्माणं अकरणगए' पापानां कर्मणामकरणायपापकर्मणां विनाशाय प्रवृत्तोऽपि, किन्तु-'से खलु परलोगपलिमयत्ताए चिइ' स खलु परलोकपरिमन्थनाय तिष्ठति, स परलोक सम्बन्धिनी मुगति विनाशयतीति यावत् । 'जे खलु समणं वा माहणं वा णो परिभासेई' या खलु पुरूपविशेषः श्रमणं वा माहनं चा न परिभापते-न निन्दति । अपि तु-'मित्तिं मन्नइ' मैत्री मन्यते-साधुना सह मैत्रीभावनां करोति । स खलु पुरुषः, तथा-'णाणं आगमित्ता' ज्ञानमागम्य-लब्ध्वा 'दमणं आगमित्ता' दर्शनमागम्य 'चरित्तमागमित्ता' चामित्रमागम्य-माप्य 'पाचाणं कम्माण' पापानां कुत्सितानां कर्मणाम् 'अकरणयादर अकरणतायै-विनाशाय प्रवृत्तः सन् 'परलोगविमुद्धीए' परलोकविशुद्धया तिष्ठति । 'भगवंच णं उदाहु' इत्यादि । टीकार्थ-भगवान् गौतम स्वामीने कहा-हे आयुष्मन् उदक ! जो पुरुष श्रुत और चारित्र के धारक श्रमण या माहन की निन्दा करता है, वह साधुओं के प्रति मैत्री रखता हुआ भी, एवं ज्ञानदर्शन और चारित्र को प्राप्त करके भी तथा पाप कर्मों को न करने के लिए यत्नशील होने पर भी अपने परलोक का विनाश करता है-पारलौकिक सुगति को नष्ट करता है। किन्तु जो पुरुष श्रमण या माहन की निन्दा नहीं करता है, किन्तु मैत्रीभावना करता हैं, वह ज्ञान दर्शन और चारित्र को प्राप्त करके तथा पापकर्मों को न करने के 'भगवं च ण उदाहु' ईत्यादि ટીકાર્થ–ભગવાન ગૌતમ સ્વામી એ કહયું-હે આયુષ્યનું ઉદક. જે પુરૂષ શ્રતચારિત્રને ધારણ કરવાવાળા શ્રમણ અથવા માહનની નિ દા કરે છે. તે સાધુઓની સાથે મૈત્રી રાખવા છતાં પણ જ્ઞાનદર્શન અને ચારિત્રને પ્રામ કરીને પણ તથા પાપકર્મને ન કરવા માટે યનશીલ હોવા છતાં પણ પિતાના -પરલેક નો વિનાશ કરે છે પરલેક સંબધી સુગતિ નો નાશ કરે છે. પણ જે પુરૂષ શ્રમણ અથવા માહનની નીદા કરતા નથી. પરંતુ મૈત્રીભાવ રાખે છે, તે જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્ર ને પ્રાપ્ત કરીને તથા પાપકર્મ ને ન કરવા. Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७८ सूत्रकृतागले साधोः समर्थकः पुरुषः परलोकद्वारमुद्घाटयतीत्यर्थः, 'तए णं से उदए पेढाल. पुत्ते' ततः खलु स उदकः पेढालपुत्र: 'भगवं गोयमं' भगवन्तं गौतमम् 'अणाढा. चमाणे' अनाद्रियमाण:-'जामेव दिसं पाउभूए' यस्या एव दिशः सकाशाद भादुर्भूतः 'वामेव दिसि पहारेत्य गमणाए' तामेव दिशं प्रधारितवान् गमनायतत्रैव ग.तुमुद्यतो जातः । “भगवं च णं उदाहु' भगवान् पुनरपि पोवाचोदकम् । 'याउसंतो उदगा' आयुष्मन् उदक ! 'जे खलु वहाभूयरस समणरस वा माहण स वा अतिए एगमवि आरियं धम्मियं सुत्रयणं सोचा' या खलु तथाभूतस्य श्रमणस्य वा माइनस्य वा अन्तिके-समीपे-एकमपि-भायं संसारात् तारक धार्मिक सुवचनम्-परिणामहितं शृणोति श्रुत्वा च निशम्य-हृदि विचार्य 'अप्पणो चेव मुहुमाए पडिलेहाए' आत्मनश्चैव सक्ष्मया बुद्रया प्रत्युपेक्ष्य सम्यगनुविचि. न्स्य 'अणुसरं जोगखेपपय लंभिए' अनुत्तरं सर्वातिशायि योगक्षेमपदं कल्याणकर पदं लम्भिता प्राप्तवान् ‘सो बि ताव तं आढाइ परिजाणेई' सोऽपि तावत् तम् आद्रियते-विशेषत आदरं करोति परिजानाति, स तस्योपदेष्टुादरं करोति, लिए उद्यत होकर परलोक की विशुद्धि करता है, अर्थात् साधु का समर्थक पुरुष परलोक संबंधी हित का द्वार उघाड़ता है। . गौतम स्वामी का यह कथन सुनने के पश्चात् उदक पेढालपुत्र भग. वान् श्री गौतम स्थामी का आदर न करता हुआ जिस ओर से आया था, उसी ओर जाने को उद्घत हुआ। उस समय गौतमस्वामी ने उदक से कहा-आयुष्मन् उदक ! जो पुरुष तथाभूत श्रमण या माहन के समीप संसार से तारने वाला एक सी परिणाम में हितकर सुव, चन सुनकर और उले हृदय में धारण करके तथा अपनी सूक्ष्म बुद्धि से चिन्तन करके सर्वोत्तम कल्याणकारी मार्ग को माप्त होता है वह श्री उस श्रमणा-माहन का आदर करता है, विशेष रूप से आदर માટે ઉઘત થઈ ને પરલોકની વિશુદ્ધિ કરે છે. અર્થાત્ સાધુના સમર્થક પુરૂષ પલેક સંગ ધી હિનનું દ્વાર ઉઘાડે છે શ્રી ગૌતમસ્વામીનું સવાદ નય નિક્ષેપ પુર સરનું આ કથન સાંભળીને ઉદક ઢિાલપુત્ર ભગવાન શ્રી ગૌતમસ્વામીનો આદર કર્યા વિના જે દિશાએથી આવ્યા હતા તે તરફ જવા લાગ્યા, તે સમયે ભગવાન્ શ્રી ગૌતમ સ્વામીએ ઉદક પેઢાલપુત્રને કહયું કે-હે આયુષ્યનું ઉદક ! જે પુરૂષે તેવા પ્રકારના શ્રમણ અથવા માહનની સમીપે સંસારથી તારવાવાળા એક પણ પરિણામે હિતકર સુવચન સાંભળીને અને હદયમાં તેને ધારણ કરીને તથા પોતાની સુમ બુદ્ધિથી સમ્યક્ પ્રકારે વિચારીને સર્વોત્તમ કલ્યાણકારી માર્ગને પ્રાપ્ત કરે છે. તે પણ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " समार्थबाधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ७ ग्रन्थोपसंहारः "वंदइ नमसई' वन्दते नमस्करोति 'सक्कारे३' सत्करोति 'संमाणेड' संपन्यते 'कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुनास ' कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैश्यं पर्युपास्ते, वन्दते वाचा स्तौति, नमस्यति कायेन नम्री भवति, सत्करोति म्युत्थानादिना, संमानयति - वस्त्रभक्तादिना वन्दित्वा नमस्त्विा सत्कृत्य संमान्य कल्याणं, कल्यो मोक्षः कर्मजनितसकलोपाविरहितत्वात् तम् आनयति मापयति इति कल्याणं, मङ्गलम्-मं-भवसम्वन्धि वन्धनं गालयति - नाशयति इति मङ्गलम् दैवतं धर्मदेवमित्यर्थः, चैत्यं चितिः - सम्यग्ज्ञानं तदेव चैत्यम् । उपदेशकं सम्यक सेवां करोति 'तए णं से उदर पेढालते' तत स्तदनन्तरं गौतमस्वामिनः प्रवचनानन्तरम् - खलु स उदकः - पेढालपुत्रो सुनिः 'भगवं गोयमं एवं बयासी' भगवन्तं गौतममेवं वक्ष्यमाणं वचनमवादीत् | 'ते' भदन्त | एएसि पया' एतेषां भवदुक्तपदानां वचनानाम् 'पुर्वित्र अन्नाणार' पूर्वमज्ञानतया 'असणयाए' अश्रवणतया करता है । वह उसकी बन्दना (स्तुति) करता है, नमस्कार करता है, सत्कार करता है, सम्मान करता है, उसको कल्याण, मंगल, देव स्वरूप और (चेयं) ज्ञानरूप मानकर उसकी उपासना करता है । कर्म जानित समस्त उपाधियों से रहित होने के कारण मोक्ष को कल्प कहते हैं । उम कल्प अर्थात् मोक्ष को जो प्राप्त करता है, वह 'कल्याण' कहलाता है । मं अर्थात् संसार संबंधी बन्धन, उसे जो गला दे - नष्ट करदे वह मंगल कहा जाता है । दैवत का अर्थ है धर्म देव । चिति या चैत्य सम्यग्ज्ञान को कहते हैं । 7 श्री गौतमस्वामी के इस प्रवचन को सुनकर उदक पेढाल पुत्र ने भगवान् श्रीगौतम से इस प्रकार कहा- भगवन् ! आपके कहे हुए इन એ શ્રમણ-માહનને આદર કરે છે. વિશેષરૂપે આદર કરે છે તે તેમની बहना (स्तुति) रे छे. नमस्सार १रे छे. सत्कार छे સન્માન કરે છે. तेभने उदयालु, भौंगण, हेव स्व३५ भने 'चेइय' ज्ञान३य मानीने तेमनी ઉપાસનાકરે છે. કમ બધથી થત્રાવાળી સઘળી આધીવ્યાધી અને ઉપાધીથી રહિત હાવાથી મેાક્ષને કલ્ય કહે છે. કલ્પ અર્થાત્ મેાક્ષને જે પ્રાપ્ત કરે છે. કલ્યાણુ કહેવાય છે હું અર્થાત્ સંસાર સંબધી અંધનને ગાળી દે. અર્થાત્ મારા પાના નાશ કરે તે મગળ કહેવાય છે. દૈવતના અથ ધમ તે એ પ્રમાણે છે. ચિતિ અથવા ચૈત્ય સમ્યક્ જ્ઞાનને કહે છે, ગૌતમસ્વામીના આ પ્રવચનને સાંભળીને ઉક પેઢાલપુત્રે ભગવાન ગૌતમસ્વામીને આ પ્રમાણે કહયું.-હે ભગવન્ આપે કહેલ આ પદો વચને Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ७८० एतेषां पदानामियानर्थो मया पूर्वे न ज्ञातः न श्रुव आसीत् । 'अत्रोहिए अणभिगमेग' अवोध्याऽभिगमेन न वा पूर्व हृदयङ्गमं कृतमेतत् 'अदिद्वाणं असूयाणं अभूगाणं' अदृष्टानामश्रुताना मस्मृतानाम् 'अविन्नायाणं' अविज्ञातानाम् अन्वोगडाणं' अच्युत्कृनानाम्, 'अणिगूढाणं' अनिगूढानाम् 'अविच्छिनाणं' अविच्छिन्नानाम्, - असंशयज्ञानरहितानाम् 'अणिसिहाणं' अनिसृष्टानाम्, अष्टानां साक्षात्स्त्रयमनुपलब्धानाम्, अथुनानामन्यद्वारा अनाकर्णितानाम् अस्मृतानाम् - अनुभवजन्यसंस्काराभावाद, अविज्ञातानां विशिष्टबोधा विपयीकृतानाम्, अच्युत्कृतानां गुरुमुखादपाठानाम् अनिगूढानाम् अवकटानां प्रकटरूपेण अज्ञातानाम्, अविच्छिन्नानां विपक्षादव्यावृत्तानाम् - अनभिमतादर्थाद् व्यावृत्तिरहितानाम् संशयराहित्येन अशातानामित्यर्थः, अनिदानां सुखावबोधाय महतो ग्रन्धात् कृपया अत्यन्यसंक्षेपेण गुरुभिरनुद्धृतानाम्, अनिसृष्टानाम् अननुज्ञातानाम् एतानि पदानि गुरुमुखान्न श्रुतपूर्वाणि एतानि न प्रकटार्थानि संशयेतरज्ञानविषयाणि न, एतेषां निर्वाहो न मया कृतः एतानि हृदयेन न निश्चितानि 'अणिबुदागं' अनिर्व्यूढानाम् 'अणुवहारियाणं' अनुपधारितानाम् - धारणाविषयीकृताऽभावानाम् 'यम' अपमर्थः 'णो सद्दहियं' न श्रद्धितः - अयमेव संसारतारकः, इति मतम् 'णो पत्तियं' नो पदों-वचनों का यह अर्थ पहले मैंने नहीं जाना था और न सुना था । अबोध एवं अनभिगम के कारण मैं इन्हें हृदयंगम नहीं कर सका था। न तो मैंने इन्हें स्वयं साक्षात् जाना था, न दूसरों से सुना था, अनुभव जनित संस्कार ( धारणा ) न होने से स्मरण नहीं किया था । वे मेरे लिए अविज्ञात थे, अप्रकट थे, संशय आदि से रहित नहीं थे, नियृढ नहीं थे अर्थात् सरलता से समझने के लिए विशाल शास्त्र में से संक्षेप करके गुरु ने कृपा पूर्वक उद्धृत नहीं किये थे । इनको मैंने हृदय में निश्चित रूप से धारण नहीं किया था । इस कारण इन पर मैंने श्रद्धा नहीं की अर्थात् इन पदों को मैंने संसारतारक नहीं माना, ના આ અ પહેલા મેં જાણ્યા ન હતેા, અને સાંભળેલ ન હતા. અમેષિ અથવા અનભિગમનના કારણે હું તેને હૃદયંગમ કરી શકેલ ન હતા. મે તેને સ્વયં સાક્ષાત્ જાણેલ ન હતા. બીજાએ પાંસેથી સાંભળેલ ન હતા, અનુભવ નિત સસ્કાર (ધારણ) ન હેાવાથી સ્મરણ કરેલ ન હતા. તે મારામાટે અવિજ્ઞાત હતા. અપ્રગટ હતા. સંશય વિગેરેથી રહિત ન હતા. નિયૂ ઢ ન હતા. અર્થાત્ સરલતા થી સમજવા માટે વિશાળ શાસ્ત્રમાંથી સ ંક્ષેપ કરીને ગુરૂ એ કૃપાપૂર્વક ઉધૃત કરેલ ન હતા તેથી તેના પર મે વિશ્વાસ કરેલ ન હતા. અર્થાત્ આ પટ્ટાને મે સંસાર તારક માન્યા ન હતા. તેના Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८१ समाधिनी टीका द्वि. श्रुं. अ. ७ ग्रन्थोपसंहारः प्रतीतः - नो विश्वसितः 'णो रोइयं' नो रोचितः - उत्साहातिरेकेणा सेवनाभिमुखो 'न जातः 'ते' हे भदन्त ! 'एएसि णं पयाणं' एतेषां खलु पदानाम् 'एव्हि' इदानीम् - भवन्मुखात् सच्छास्त्राणां शासनानन्तरम् 'जाणयाए' ज्ञानतया 'सवणाए' श्रवणतया 'बोहिए' बोधितया 'जाव उदहारणयाए' यावर उपधारणतया - यावत्पदेन अभिगमाभिस्थानादीना मत्रैव पूर्वोक्तानां सङ्ग्रहः, उपधारणतया एतानि पदानि ज्ञातानि त्वत्प्रसादेन श्रुवानीदानीम् - इदानों सम्यगवगतानि - यावदिदानीं निश्चि तानि, 'एयमद्रं सदहामि' एतमर्थ श्रवामि-संसारोत्तारकं जानामि, 'पत्तियामि' प्रत्येमि प्रीत्या प्राप्नोमि, 'रोमि' रोचयामि - उत्साहेना सेवनाभिमुखो भवामि, 'एवमेव से जहेयं तुभे वदह' एवमेतद् यथा यूयं वदथ । 'तरणं भगवं गोयमे उदगं पेढाळपुत्तं एवं वयासी' ततः - तदनन्तरं खलु भगवान् गौतम उदक' पेढालपुत्र मेवमवादीत् - 'सदद्दाहिणं अज्जो' हे आर्य उदक ! श्रद्दधत्स्व खलु आगमवाक्ये । 'पत्तियाहि णं अज्जो' प्रतीहि खलु आर्य ! 'रोएहि इन पर प्रतीति नहीं की, इन पर रुचि नहीं की अर्थात् अत्यन्त वढते हुए उत्साह के साथ इनके सेवन के लिए अभिमुख नहीं हुआ । भगवन् ! अब आपके श्रीमुख से इन पदों को अब जाना है, अब सुना है, समझा है यावत् धारण किया है। अतएव इन पदों पर मैं अब श्रद्धा करता हूं प्रतीति करता हूं रुचि करता हूं अर्थात् इन्हें संसार से तारने वाला समझता हूँ, प्रेम पूर्वक प्राप्त करता हूँ । उत्साह पूर्वक सेवन के लिए उद्यत होता हूँ । आपने जो कहा है, वही सत्य है तत्पश्चात् भगवान् गौतम ने उदक पेढालपुत्र से इस प्रकार कहा - हे आर्य ! आगम वाक्य पर अर्थात् मेरे कथन पर श्रद्धा करो, हे आर्य | प्रतीति करो, हे आर्य ! रुचि करो । जैसा हमने कहा है, वही सत्य है । પર પ્રતીતિ કરેલ ન હતી તેના પર રૂચિ કરેલ ન હતી. અર્થાત્ અત્યંત વધતા એવા ઉત્સાહની સાથે તેના સેવન માટે અભિમુખ થયેલ નથી કે ભગવન્ હવે આપના શ્રીમુખથી આ પટ્ટાને હવે જાગેલ છે હવે સાંભળેલ છે. હવે સમજેલ છે યાવત્ ધારણ કરેલ છે. તેથી જ આ પદો પર હુ હવે શ્રદ્ધા કરૂ' છુ, પ્રતીતિ કરૂં છું. રૂચિ કરૂ છું. અર્થાત્ અને સંસારથી તારવાવાળા સમજુ છું. તેને પ્રેમપૂર્વક ગ્રહણ કરૂ છું. ઉત્સાહપૂર્ણાંક તેના સેવન માટે ઉદ્યમવાળા ખતું છુ'. આપે જે કહેલ છે, એજ સત્ય છે. તે પછી ભગવાન ગૌતમસ્વામીએ ઉદકપેઢાલપુત્રને આ પ્રમાણે કહ્યુ’-હૈ આર્ય ! આગમના વાકય પર અર્થાત્ મારા કથન પર શ્રદ્ધા કરે. હું આ! Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८५ संकृतास्त्र ___णं अन्जो' रोचय ग्लु आर्य ! 'एवमेयं जहाणं अम्हे वधामो' एवमेतद् यथा ग्वल वयं वदामः, सत्यमेव सर्व प्रतिपादयामो नाऽन्यथा कर्जव्यो वा 'तए णं से उदाए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं एवं क्यासी' ततः खल्ल स उदकः पेढालपुत्रो भगवन्तं 'गौतममेवमवादीन 'इच्छामि णं भंते' हे भदन्न ! इच्छामि 'तुम्भं अंतिए' 'युष्माकमन्ति के-भवतां समीपे 'चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहन्वइयं सप्पडिक्क मणं धम्म उक्संपग्जित्ता णं विहरित्तए' चातुर्यामाद्धर्मात चातुर्या मिकश्चतुर्महावनलक्षणो धर्मस्तस्मात् पञ्चमहाबतिक साधुधर्मम् उपसंपद्य-प्राप्य खलु विहतुम्, - समतिक्रमणं धर्ममुपसंपद्य प्राप्य विहर्तुम् भवत्तमीपे पञ्चमहाव्रतं ग्रही तुमिच्छामीत्यर्थः, इति श्रुत्ला गौतमो भगवत्समीपं नयति-'तए णं से । भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं गहाय' ततः खलु स भगवान् गौतमः उदकं पेढाळपुत्रं गृहीत्वा 'जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ' यत्र श्रमणो भगवान् महावीर स्तत्रोपागच्छति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य-भगवत्समीपं • गत्वा 'तएणं से उदए पेढालपुत्ते' श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिकृत्वः 'आयाहिणं , पयादिणं करित्ता' आदक्षिणां प्रदक्षिणां कृत्वा 'वंदइ नमसइ' वन्दते नमस्यति 'वंदित्ता नमसित्ता' वन्दित्वा नमस्यित्वा एवं वयासी' एवमवादीत 'इच्छामि णं भंते ! तुम्मं अंतिए' इच्छामि खलु भदन्त ! तवान्तिके 'चाउज्जामाओ धम्माओ' हमने यथार्थ कहा है। आप इससे विपरीत न करें और न माने। तव उदक पेढालपुत्र ने भगवान् गौतम से इस प्रकार कहा-भगवन् मैं चातुर्याम धर्म के बदले च पांमहानत रूप धर्म को प्राप्त करके विच - रना चाहता हूं, तथा सप्रतिकरण धर्म को अंगीकार करना चाहताहूं। . उदकपेढालपुत्र की इच्छा जानकर गौतमस्वामी उन्हें जहां भगवान श्री महावीर थे, वहां लेगए । भगवान् के ममीप पहुच कर उदकपेढालपुत्र ने श्रमण भगवान महावीर को तीनवार आदक्षिण प्रदમારા કથન પર પ્રતીતિ કરો. હે આઈ ! મારા કથનની રૂચિ કરે. અમે જે રીતે કહેલ છે, એજ સત્ય છે. મેં યથાર્થ કહેલ છે. આપ તેને ઉલટું ન समन्न न ४२. ઉદક પિઢાલપુત્રે તે પછી ભગવાન્ ગૌતમસ્વામીને આ પ્રમાણે કહ્યું ભગવાન્ હું ચાતુર્યામ ધર્મને બદલે પાંચ મહાવ્રત રૂપ ધર્મને પ્રાપ્ત કરીને 'वियरा याहु तथा प्रतिमा सहित मना मी२ ४२वा याई छुः ઉદક પિઢાલપુત્રની આ પ્રમાણેની ઈચ્છા જાણીને ગૌતમસ્વામી તેઓને જ્યાં મહાવીર સ્વામી હતા ત્યાં લઈ ગયા લાગવાનની પાસે પહોંચીને ઉદક પેઢાલપુત્રે શ્રમણ ભગવાન મહાવીર સ્વામીને ત્રણ વાર આદક્ષિણ પ્રદક્ષિણા Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतास्त्रे मिथ्या। अपितु तयोरभेदवाद एव श्रेयान इति तज्जीपतच्छरीरबादि चार्वाकमतम् । मिन्नं शरीरात्मवादमस्वीकृत्य ते नास्तिकाः यत् जीववधाय परानुपदिशन्ति तदेव दर्शयति-से हता' स नास्तिका हन्ता-स्वयं हननक्रियायाः कर्ता सन् परान उपदिशति-हे कोक ! 'तं हणह' तं-जीवं हत-घातयत 'खणह' खनत पृथिवीम् 'छणह' सिणुत-हत जीवान् , 'डहह' दहत-ज्यालयत, 'पयह' पचत अग्नौ, 'अल्पह' आलुम्पत लुष्टत बनादीन् 'विलुपह' विलुम्पत-विशेषेण लुण्टत, 'सहसा कारेह' सहसा कारयत-बलात्कारं कुरुत, 'विपरामुसह' विपरामृशत पीडोत्पादनपूर्वकं जीववधं कुरुत, 'एयावया जीवे णत्थि परलोए' एतावान् देहमानो जीवो नास्ति परलोको येन हिंसादिकरणे भयं संभवेत् । तथा-'ते णो एवं विपडिवेदेति' ते नो एवम्-वक्ष्यमाणवचनम् विप्रतिवेदयन्ति-अभ्युपगच्छन्ति न स्वीकुर्वन्तीत्यर्थः, तदेवं दर्शयति-तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा-किरियाइ वा अकिरियाइ वा सुक्कडेइ वा दुक्कडेइना' तद्यथाक्रियां वा अक्रियां वा सुकृतं वा दुष्कृतं वा 'कल्लाणेइ वा पावरइ वा' साहुइ वा असाहु वा सिद्धीइ वा असिद्धीइ वा निरएइ वा अनिरएइवा' कल्याण वा यह चार्वाकमत 'नास्तिकवाद' का उल्लेख किया गया है। शरीर और आत्मा को अभिन्न स्वीकार करके नास्तिक दूसरों को हिंसाका उपदेश देते हैं सो दिखलाते हैं-वह नास्तिक लोग जीवों का स्वयं घातक होता है और उसे मारो' इत्यादि उपदेश देकर हनन क्रिया में दूसरों का प्रयोजक होता है । वह कहता है-खोदो, छेदन करो, जलाओ पकाओ, लूटो, खूब लूटो, विना विचारे मार डालो, विपरामर्श करो, इत्यादि। यह देह ही जीच है, परलोक नहीं है, जिससे हिंसा आदि पाप करने में भय हो । वे उल्टी बाते करते हुए कहते हैं-क्रिया अक्रिया, सुकृत दुष्कृत, बुरा अला, साधु असाधु, सिद्धि असिद्धि नरक अनरक आदि આ ચાવાક મત (નાસ્તિક મત-વાદ) નો ઉલ્લેખ કરેલ છે, શરીર અને આત્માને એક હેવાનું સ્વીકારીને આ નાસ્તિકે બીજાઓને હિંસાને ઉપદેશ આપે છે. તે જ બતાવે છે.તે નાસ્તિક લકે સ્વયં ને ઘાત કરવા વાળા હોય છે. અને તેઓને મારે” વિગેરે પ્રકારથી ઉપદેશ આપીને હનનક્રિયામાં બીજાઓને પ્રેરક થાય છે. તેઓ કહે છે કે , છેદન કરે, બાળે, પકા, લુટે, ખૂબ લુંટે વગર વિચારે મારી નાખે, વિપરામર્શ કરે વિગેરે, આ શરીર જ જીવ છે, પરલોક નથી, કે જેથી હિંસા વિગેરે પાપ કરતાં ડરવું પડે. તેઓ ઉલટી વાત કરતાં કહે છે કે-કિયા, અક્રિયા, સુકૃત, दुत, म, मु, सा३ ३ ४२११, सिदि, मसिद्धि, न२४, मन२४, Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. म.७ ग्रन्थोपसंहार: ७८३, चातुर्यामाद धर्मात् ‘पंचमहत्वइयं सपडिक्कमणं धम्मं उसंपज्जित्ता णं विहरित्तए पञ्चमहाबतिक संपतिक्रमणं धर्ममुपसंपद्य-पाप्य खलु विहाँप् । 'तए णं से समणे भगवं महावीरे उदय एवं बयासी' ततः खलु स श्रमणो भगवान महावीर:-उदक मेवमवादीत् । 'अहासुहं देवाणुप्पिया' यथासुखं देवानुपिय ! 'मा पडिबंधं करेह', मा प्रतिवन्धं कार्षीः-विलम्वं मा कुरु । 'तए णं से उदए पेढालपुत्ते' ततः खलु स उदकः पेढाल पुत्रः 'समणस्स भगवओ महावीरस्स अतिए' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके सविधे 'चाउज्जामाओ धम्माओ' चातुर्यामादू धर्मात् 'पच महन्नईय' पञ्चमहातिकम् 'सपडिक्कमणं धम्म' समतिक्रमणं धर्मम् 'उपसंपज्जित्ता' उपसंपद्य 'विहरई' विहरति तिमि' इति शब्दः समाप्त्यर्थकः, सुधर्मस्वामी कथयति-इत्यह कथयामीति ।।सू०१४॥ ॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगदल्लम-सिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकाविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक, वादिमानमर्दक-श्रीशाहूच्छत्रपति कोल्हापुरराजमदत्त'जैनाचार्य' पदभूपित - कोल्हापुरराजगुरुबालब्रह्मचारि-जैनाचार्य - जैनधदिवाकर -पूज्य श्री घासीलालव्रतिविरचितायां श्री "सूत्रकृताङ्गसूत्रस्य" समयार्थबोधिन्याख्यायां व्याख्यायां द्वितीयश्रुतस्कन्धे ॥ सप्तममध्ययनं समाप्तम् ॥२-७॥ क्षिण पूर्वक अर्थात् विधि पूर्वक वन्दना की। उनकी स्तुतिकी। नमस्कार किया। स्तुति और नमस्कार करने के पश्चात् इस प्रकार कहा-हे भग. वन् ! में आपके समीप चातुर्याम धर्म के बदले प्रतिक्रमण महित पांच महावतों वाले धर्म को अंगीकार करके विचरना चाहता हूँ। तब श्रमग भगवान महावीर ने उदक पेढाल पुत्र से कहा-देवानु प्रिय ! जिसमें सुख उपजे, उसे करने में बिलम्ब न करो। પૂર્વક અર્થાત વિધિપૂર્વક વદના કરી. તેઓની સ્તુતિ કરી તેમને નમસ્કાર કર્યા. રસ્તુતિ અને નમસ્કાર કર્યા પછી આ પ્રમાણે કહ્યું –હે ભગવન હુ આપની પાસે ચાતુર્યામ ધર્મને બદલે પ્રતિકમણ સહિત પાંચ મહાવ્રતવાળા ધર્મને સ્વીકાર કરીને વિચરવા ચાહુ છું આ સાંભળીને શ્રમણ ભગવાન મહાવીર સ્વામીએ ઉદ્ધક પેઢાલપુત્રને આ પ્રમાણે કહ્યું- હે દેવાનુપ્રિય ! જે પ્રમાણે તમને સુખ ઉપજે તે પ્રમાણે १२पामा विलयन . Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताखो • तथ उदकपेढालपुत्र श्रमण भगवान महावीर के समीप चातुर्याम धर्म के बदले पांच महाव्रतों वाले प्रतिक्रमण सहित धर्म को अंगीकार' करके विचरने लगे। 'इति' शब्द समाप्ति का सूचक है। सुधर्मा स्वामी ने जम्बूस्वामी से कहा-हे जम्बू ! जैसा मैंने भगवान के मुख से सुना है वैसा ही तुम्हें कहता हूँ ॥१४॥ . . जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत • " सूत्रकृताङ्गसूत्र" की समयार्थबोधिनी व्याख्या के द्वितीय श्रुतस्कंध का सातवां अध्ययन समास ॥२-७॥ તે પછી ઉદક પિઢાલપુત્ર શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની પાસે ચાતુર્યામ ઘર્મને બદલે પાંચ મહાવ્રવાળ પ્રતિક્રમણ સહિત ધર્મને સ્વીકાર કરીને વિચારવા લાગ્યા. “રૂતિ” શબ્દ સમાપ્તિને સૂચક છે. સુધર્માસ્વામીએ જમ્મુસ્વામીને કહ્યું–હે જબ્બ મેં જે પ્રમાણે ભગવાનના મુખથી સાંભળેલ છે, એજ પ્રમાણે તેમને કહું છું. ૧૪ જૈનાચાર્ય જેનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત “સૂત્રકૃતાંગસૂત્રની સમયાર્થબોધિની વ્યાખ્યાના બીજા ભૃતસ્ક ધનું સાતમું અધ્યયન સમાપ્ત ૨-૭ Page #330 --------------------------------------------------------------------------  Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संमयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरोकनामा ध्ययनम् ६७ पापकं वा साधु वा असाधु वा सिद्धिं वा तत्र सिद्धिर्मोक्षः, असिद्धिं वाअसिद्धि:- संसारः 'निरयं वा अनिरयं वा' एवं रूपेण ते धर्माधर्मादीनां सत्तामपि नेच्छन्ति 'एवं ते विरूवरूवेर्हि कम्मसमारंभेहिं विरूवरूवाई कामभोगाइ समारभंति भोषणाए' एवं ते विरूपरूपैर ने रूपकारकैः कर्मसमारम्भः विरूपरूपान् नानाप्रकारकान् कामभोगान् समारभन्ते भोगाय विषयोपसेवनाय परलोकं पुण्यं पापं च विस्मृत्य अज्ञानात् विविधपकारकं कर्म कुर्वन्ति । 'एवं एगे पाया' एवमेके प्रागत्मिकाः अनात्मवादस्वीकारेण धृष्टाः 'निक्खम्म' निष्क्रम्य-स्वगृहान्निर्गत्य - आदाय च दीक्षां साधुवेप' परिदधानाः 'मामगं धम्मं' मामकं धर्मम्, मया प्रतिपाल्यमान एवैष धर्मः सर्वथा श्रेष्ठः इति 'पन्नवे 'ति' प्रज्ञापयन्ति तं सदहमाणा तं पत्तियमाणा तं रोयमाणा' तं शरीरात्मवादम् 'सद्दहमाणा' श्रद्दधानाः- तत्र श्रद्धां कुर्वाणाः - नास्तिकवादे श्रद्धां कुर्वन्तः 'तं रोयमाणा' तमेव रोचमाना अभिलवन्तो ये केचन राजानः 'साहुसुयक्खाए' साधु कुछ नहीं है । इस प्रकार कह कर वे धर्म अधर्म का भी अस्तित्व स्वीकार नहीं करते । वे नाना प्रकार के कर्मसमारंभ करके अनेक प्रकार के कामभोगों का सेवन करते हैं या विषयों का भोग करने के लिए विविध प्रकार के दुष्कृत्य करते हैं। वे नारकी परलोक तथा पुण्य और पाप को भूल कर - अज्ञान से उनका अनादर करके इस प्रकार धृष्टता करते हैं । वे गृह से निकल कर और दीक्षा लेकर साधु का वेश धारण कर लेते हैं और दूसरों को ऐसा प्रतिपादन करते हैं कि हमारा धर्म ही खर्वथा उत्तम है । उस शरीरात्मवाद पर श्रद्धा करते हुए, प्रतीति करते हुए, रुचि करते हुए कोई कोई राजा आदि उनसे कहते हैं, हे श्रमण ! अथवा વિગેરે કંઈજ નથી. આ પ્રમાણે કહીને તેએ ધર્મ, અધમનું અસ્તિત્વ પણ સ્વીકારતા નથી. તેએ અનેક પ્રકારના કર્મના સમાર’ભ કરીને અનેક પ્રકા રના કામલેગાનું સેવન કરે છે. અથવા વિષયેાના ભાગ કરવા માટે અનેક પ્રકારના દુષ્કૃત્ય-ખરાબ કામેા કરે છે. તે નારકી પરલેાક તથા પુણ્ય અને પાપને ભૂલીને-અજ્ઞાનથી તેના અનાદર કરીને આ રીતે ધૃષ્ટપણું કરે છે. તેઓ ઘેરથી નીકળીને અને દીક્ષા લઈને સાધુના વેશ ધારણ કરી લે છે. અને ખીજાએની સામે એવું સમન કરે છે કે અમારે ધર્મ જ સંથી उत्तम छे. તે શરીરના આત્મવાદ પર શ્રદ્ધા-વિશ્વાસ કરતા થકા પ્રતીતિ-ખાત્રી કરતા થકા, કાઈ કાઈ રાજા વિગેરે તેને કહે કે હું શ્રમણુ ! અથવા હું Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ચૂંટ सूत्रकृतात्रे " स्वाख्यातम् - सम्यक् श्रीमद्भिः प्रतिपादितम् इति ते कथयन्तः । 'समणेड़वा - माहणे वा' t श्रमणाः इति वा हे वाह्मणाः इति वा, भोः श्रमणाः ! भो बाह्मणाः । इति ब्रुवन्तस्ते 'कामं खल्ल आउसो ! तुमं पूययामि' कामं खलु हे आयुष्मन् ! त्वां पूजयामि तं जहा ' तद्यथा - 'अपणेण वा पाणेण वा खाइमेण वा साइमेण वा' अशनेन वा पानेन वा खाद्येन वा स्त्राद्येन वा 'वत्येण वा' वस्त्रेण वा 'पडिग्गहेण वा' प्रतिग्रहेण वा 'कंबलेण वा' कम्बलेन वा 'पायपुंछणेण वा' पादमोच्छनेन वा 'तत्येंगे पूयणाए' तंत्र के पूजनायें 'समास' सत्थितवन्तः 'तत्येंगे पूणाए निकाइ'सु' तत्रैके पूजनायें राजादीन् निकाचितवन्तः - स्वसिद्धान्ते estauraः एवं प्रतिबोधिताच केचन राजानस्तदीय धर्ममासाद्य पूजनीयोऽयfafa near विविधोपहार स्वमेव पूजयन्ति । 'पुत्रमेव तेर्सि णायं भवई' पूर्वमेव तेषां ज्ञा भवति, पूर्वं तु इत्थं मविज्ञां कुर्वन्ति यत् श्रमणा भविष्याम इत्यादिरुपाम् । 'समणा भविस्सामो' श्रमणा भविष्यामः ' अणगारा' अनवारा: सर्वत्र 'भविष्यामः' इति योजनीयम् । 'अचिणा' अकिञ्चना: 'अपुत्ता' अपुत्राः ख्यादिपरिग्रहशून्यतया पुत्ररहिताः 'अप' अपशवः चतुष्पदरहिताः 'परदत्तभोइणो' हे ब्राह्मण ! आपने यह बहुत अच्छा कथन किया है, वास्तव में आपका धर्म ही बहुत अच्छा है । हम आपको अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार से तथा वस्त्र से, पात्र से, कंपल से और पादपोंछन से आदर करते हैं - आपका सत्कार करते हैं । इस प्रकार कह कर वे राजा आदि उनका आदर करने को उद्यत हो जाते हैं । उन्हें धर्मश्रवण के बदले नाना प्रकार के उपहार प्रदान करते हैं और वे नास्तिकवाद के उपदेशक उन राजा आदि को अपने मत में मजबूत करते हैं। पहले तो वे ऐसी प्रतिज्ञा करते हैं कि हम श्रमण होंगे अनगार होंगे, अकिंचन होंगे, पुत्र आदि समस्त परिवार के त्यागी बनेंगे, चतुष्पद् બ્રાહ્મણુ ! આપે આ કથન ઘણું જ ઉત્તમ કહ્યુ` છે, વાસ્તવિક રીતે स्थापना धर्म धान सारो छे. अभे आपनो अशन, पान, माहिम, અને સ્વાદિષ્ટ, અહારથી અને વસ્ત્રથી, પાત્રથી કાંખળથી, અને પાદપ્રેછનથી માદર કરીએ છીએ, આપના સત્કાર કરીએ છીએ. આ પ્રમાણે કહીને તે રાજા વિગેરે તેના આદર કરવા માટે ઉદ્યમશીલ બને છે, ધમ શ્રવણુ કર્યાં બાદ તેને અનેક પ્રકારની ઉપહાર-ભેટ આપે છે, અને તે નાસ્તિક વાદના ઉપદેશકે તે રાજા વિગેરેને પેાતાના મતમાં દૃઢ-મજબૂત બનાવે છે. પહેલાં તે તેએ એવી પ્રતિજ્ઞા કરે છે કે—અમે શ્રમણુ ખનીશું, અનગાર થઈશું, નિન થઈશું. પુત્ર વિગેરે સઘળા પરીવારને ત્યાગ કરીશું. Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका द्वि. ध्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् परदत्तमोजिनः 'भिक्खुणो' भिक्षवः 'पावं कम्मं णो करिस्साम्रो' पापं कर्म न करिष्यामः । एतादृशी प्रतिज्ञा ते कुवन्ति पूर्वम् , परन्तु-'समुहाए अप्पणा अप्पडिविरया भवंति' समुत्थाय ते आस्मना अप्रतिविरता भवन्ति, पापकर्मादिकं न करिष्यामः' इति दृढ़ प्रतिज्ञाय गृहादिकं परित्यज्याऽपि पापाद्विरता न भवन्ति किन्तु तदेव प्रतिज्ञाततपोविरोधिपापकर्म-आरमन्ते । तदेवाऽग्रे छत्रकारो दर्शयति -'सयमाइयति' स्वयमाददते-पापकर्म स्वीकुर्वन्ति भन्ने वि आदियावे ति अन्यानपि-आदापयन्ति-स्वीकारयन्ति 'अन्ने वि आययंत' अन्यानपि आददतः 'समणु. जाणंति' समनुजानन्ति-अनुमोदयन्ति । एवमेव ते इथिकाममोगेहि' एवमेव ते स्त्रीकामभोगेषु 'मुच्छिया' मूच्छिताः-मूर्छामुपगताः 'गिद्धा गढिया' गृद्धाः गृद्धिभावमुपगताः प्रथिताः-कामभोगासक्ताः 'अज्झोववन्ना' अध्युपपन्नाः आधिक्येन काममोगे प्रसक्ताः, 'लुद्धा' लुब्धाः-कामभोगसंग्रहे लोलुपाः, 'रागदोसवसठा' रागद्वेषवशार्ताः-रागद्वेवसमापन्नाः, रागद्वेषैरुपपन्नाः, 'ते णो अप्पाणं समुच्छेदेति' ते के त्यागी बनेगे, स्वयं पचन पाचन आदि न करके दूसरों के द्वारा प्रदत्त भोजन ही ग्रहण करेंगे, भिक्षुक बनेंगे और पापकर्म का त्याग करेंगे। परन्तु इस प्रकार की प्रतिज्ञा करके और गृहत्याग करके भी वे पापों से विरत निवृत्त नहीं होते, परन्तु प्रतिज्ञात तपोविधि से विरुद्ध पापकर्मों का आरंभ करते हैं । यही पात आगे दिखलाते हैंवे स्वयं पापकर्म को स्वीकार करते है, दूसरों से पापकर्म करवाते हैं और पापकर्म करने वालों की अनुमोदना करते हैं। इसी प्रकार वे स्त्रियों और कामभोगों में मूर्छित हो जाते हैं, गृद्ध हो जाते हैं, अतीव आसक्त हो जाते है, लुब्ध हो जाते हैं, कामभोगों की सामग्री के संग्रह में लोलुप हो जाते हैं। इस प्रकार राग और द्वेष के वशीभूत होकर वे न तो अपना ही उद्धार कर सकते हैं और न ચતુષ્પદ-પશુઓને ત્યાગ કરીશું. સ્વયં પચન, પાચન વિગેરે ન કરતાં બીજાઓએ આપેલ ભેજન જ કરીશું. ભિક્ષુક બનીશું અને પાપકર્મને ત્યાગ કરીશું. પરંતુ આવા પ્રકારની પ્રતિજ્ઞા કરીને અને ઘરને ત્યાગ કરીને પણ તેઓ પાપથી ' નિવૃત્ત થતા નથી. પરંતુ પહેલા પ્રતિજ્ઞા કરેલ તપની વિધિથી વિરૂદ્ધ પાપકર્મોને આરંભ કરે છે. એજ વાત આગળ બતાવે છે – તેઓ સ્વયં પાપકર્મને સ્વીકાર કરે છે. બીજાઓની પાસે પાપકર્મ કરાવે છે. અને પાપકર્મ કરવાવાળાનુ અનુમોદન કરે છે. એ જ પ્રમાણે તેઓ સ્ત્રિ અને કામગોમાં મૂછિત થઈ જાય છે. ગૃદ્ધ-આસક્ત થઈ જાય છે. અત્યંત આસક્ત થઈ જાય છે. લુબ્ધ થઈ જાય છે. કામગોની સામગ્રીના સંગ્રહમાં લોલુપ થઈ જાય છે. આ રીતે રાગ અને દ્વેષને વશ થઈને તેઓ પિતાને Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ bn L_LJ ____अकृतास्त्रे णो अप्पाणं सगुच्छेदेति' ते नो आत्मानं समुच्छेदयन्ति-नात्मानमुद्धरन्ति, 'ते णो परं समुच्छेदेति' ते नो परं समुच्छेदयन्ति-न परमुद्धरन्ति, ते संसारपाशात् न स्वयं मुक्ता भवन्ति, न वा पर मोचयन्ति, 'ते णो अण्णाई पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई समुच्छेदेति' ते नो अन्यान् पाणान् भूतानि जीवान-सत्वान् समुच्छेदयन्ति-समुद्रन्ति । स्वयमसिद्धाः कयं परान् साधयिष्यन्तीति न्यायेन अन्यानपि माणिवर्गान् संसारात् कथमपि तारयितुं समर्था न भवन्ति । तदेवम्-'पहीणा पुव्वसंजोगं आयरियं मग्गं असंपत्ता इति' प्रहीणाः-विभ्रष्टाः 'पुव्वसं नोर्ग' पूर्व संयोगात्-पूर्वस्मात् संयोगात् स्त्री पुत्रादि स्वात्मीयादपि महीणा:-रहिता अपि, तथा-'आयरिय' आर्य मार्गम्-मोक्षमार्गम् 'असंपत्ता' असंप्राप्ताः, इति-एवं रूपेण 'ते णो' ते नास्तिकाः नो-नैव कथमपि 'हवाए' अर्वाचे 'णो पाराए' नो पाराय न संसाराय न मुक्तये इति भावः, किन्तु-अन्तरा-मध्ये कामभोगेषु 'निसन्ना' निपण्णा:-निमग्नाः-स्च्यादि सुखसाधनमैहिकं परित्यज्य प्रजिता, अतस्तत्सुखेन वञ्चिता अभवन् सम्यङ्मार्गस्य अप्राप्त्या मोक्षमपि न प्राप्स्यन्ति, दूसरों का उद्धार कर सकते है । न स्वयं संसार के पाश से छुटकारा पाते हैं, ल दुसरों को छुड़ा सकते हैं । जो स्वयं सिद्ध नहीं है वह दूसरों को कैसे सिद्ध कर सकता है ? इस न्याय के अनुसार वे संसार के प्राणिवर्ग को तारने में किसी भी प्रकार समर्थ नहीं होते हैं। इस मकार वे स्त्री पुत्र आदि अपने परिवार से तो भ्रष्ट हो जाते हैं परन्तु . मोक्षमार्ग को प्राप्त नहीं कर पाते हैं। न इधर के रहते हैं, न उधर के रहते है। बीच में ही कामभोगों के कीचड में फस जाते हैं । अर्थात् स्त्री आदि ऐहिक सुखसाधनों को त्याग कर दीक्षित हो जाते हैं और मोक्ष का समीचीन मार्ग न प्राप्त कर सकने के कारण मोक्ष भी प्राप्त પણ ઉદ્ધાર કરી શકતા નથી, તેમજ બીજાઓને ઉદ્ધાર પણ કરી શકતા નથી. પિતે સંસારના પાશમાંથી છૂટિ શકતા નથી. તે પછી બીજાઓને તે કેવી રીતે છોડાવી શકે ? જેઓ પિતે સિદ્ધ નથી, તેઓ બીજાઓને કેવી રીતે સિદ્ધ કરી શકે? આ ન્યાય પ્રમાણે તેઓ સંસારના પ્રાણિ વર્ગને તારવામાં કઈ પણ રીતે સમર્થ થતા નથી. આ પ્રમાણે સ્ત્રી, પુત્ર વિગેરે પિતાના પરિવારથી ભ્રષ્ટ થઈ જાય છે, પરંતુ મોક્ષમાર્ગને પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી. તેઓ અહિંના રહેતા નથી તેમ ત્યાના પણ રહેતા નથી. વચમાં જ કામગોને કાદવમાં ફસાઈ જાય છે. અર્થાત્ સ્ત્રી વિગેરેને ઐહિક-આલેક સંબંધી સુખ સાધનેને ત્યાગ કરીને દીક્ષિત થઈ જાય છે, અને મોક્ષને યોગ્ય માર્ગ પ્રાપ્ત ન કરી શકવાથી મોક્ષમાર્ગ પણ મેળવી શકતા નથી. આ રીતે Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ _७१ समयार्थबोधिनी टीका द्वि.श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् एवम् उभयतो विभ्रष्टा मध्ये संसारमहोद| दुःखे निमग्ना भवन्ति । न विवक्षितं पद्मवरपुण्डरीकोत्क्षेपणादिककार्य प्रसाधयन्ति । 'इह पढमे पुरिसजाए' इति प्रथमः पुरुषजातः, 'तज्जीव तच्छरीरएत्ति आहिए' तज्जीवतच्छरीरक इत्या. ख्यातः । यः पुष्करिण्याः पूर्वतटादागत आसीत् स नास्तिको दृष्टान्तद्वारा तीर्थकरेण प्रतिपादित इति ।।०९।। मूलम्-अहावरे दोच्चे पुरिसजाए पंचमहब्भूइए त्ति आहिज्जइ, इह खलु पाईणं वो संतेगइया मणुस्सा भवंति अणुपुव्वेणं लोयं उववन्ना, तं जहा-आरिया वेगे अणारिया वेगे एवं जाव दुरूवा वेगे, तेसिं च णं महं एगे राया भवइ महया० एवं चेव णिरवसेसं जाव सेणावइपुत्ता, तेसिं च णं एगइए सड्डी भवइ कामं तं समणा य माहणा य संपहारिंसु गमणाए, तत्थ अन्नयरेणं धम्मेणं पन्नत्तारो वयं इमेणं धम्मेणं पन्नवइस्सामो से एवं याणह भयंतारो ! जहा मए एस धम्मे सुयक्खाए सुपन्नत्ते भवइ, इह खलु पंचमहब्भूया, जेहिं नो विजइ नहीं कर पाते हैं। इस प्रकार दोनों ओर से भ्रष्ट होकर संसार महासागर में ही निमग्न होते हैं। उनकी दशा पुण्डरीक को प्राप्त करने में विकल हुए उस प्रथम पुरुष जैसी हो जाती है। यह आत्मा और शरीर दोनों को एक मानने वाले 'तज्जीव तच्छरीरवादी' प्रथम पुरुष के समान हैं जो पूर्व दिशा से पुष्करिणी के तट पर आया था। तीर्थकर भगवान् ने उसकी उपमा नास्तिकसे दी है ॥९॥ બને તફથી ભ્રષ્ટ થઈને સંસાર રૂપી મહા સાગરમાં જ દુખમાં ડૂબી જાય છે. તેની દશા પુંડરીકને પ્રાપ્ત કરવામાં નિષ્ફળ થયેલા તે પહેલા પુરૂષના જેવી થઈ જાય છે. मा मात्मा भने शरी२ मन्नने से मानवापारा 'तज्जीववच्छरीरवादी' પહેલા પુરૂષની સરખા છે. કે જે પૂર્વ દિશાએથી પુષ્કરિણું–વાવના કિનારા પર આવેલ હતા. તીર્થકર ભગવાને નાસ્તિકને તેની ઉપમા આપી છે. પલા Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ सूत्रकृताङ्गसत्रे किरियाइ वा अकिरियाइ वा सुक्कडेइ वा दुक्कडेइ वा कल्लाणेइ वा पाएइ वा साहुइ वा असाहुइ वा सिद्धीइ वा असिद्धीइ वा पिरएइ वा अणिरएइ वा अवि अंतसो तणमायमवि । तं च पिहुद्देसेणं पुढोभूतसमवायं जाणेज्जा, तं जहा - पुढवी एगे महम्भूए आऊ दुच्चे महसूए तेऊ तच्चे महसूए वाऊ चउत्थे सहभू आगासे पंचमे महसूए, इश्वेए पंच महन्भूया अणिम्मिया अणिम्माविया अकडा जो किन्तिमा णो कडगा अणाइया अणिहया अवंझा अपुरोहिया सतंता सासया आयछठ्ठा, पुण एगे एवमाहु-सतो णत्थि विणासो असतो णत्थि संभवो । एयात्रया व जीवकाए, एयावया व अस्थिकाए, एयावया व सव्वलोए, एयं मुहं लोगस्स करणयाए, अवि अंतसो तणमायमवि । से किणं किणावेमाणे हणं घायमाणे पयं पयावेमाणे अवि अंतसो पुरिसमविकीणित्ता घायइत्ता एत्थं पि जाणाहि णत्थित्थदोसो, तेजो एवं विप्पडवर्देति, तं जहा - किरियाइ वा जाव अणिरएइवा, एवं ते विरुवरुर्वहिं कम्म समारंभेहिं विरूवरूबाई कामभोगाई समारभंति भोयणाए, एकमेव ते अणारिया विप्पाड - बन्ना, तं सद्दहमाणा तं पत्तियमाणा जाव इइ, ते णो हव्वाए, णो पाराए अंतरा कामभोगेसु विसण्णो, दोच्चे पुरिसजाए पंचमहभूपति आहिए ॥ सू० १०॥ छाया - अथापरो द्वितीयः पुरुषजातः पाञ्चमहाभूतिक इत्याख्यायते । इह खलु माच्यां वा ४ सन्त्येके मनुष्या भवन्ति आनुपूर्व्या लोकमुपपन्नाः तद्यथाआर्या एके, अनार्या एके, एवं यावद् द्रूपा एके, तेपां च खल्ल महान् एको राजा भवति महा० एवमेत्र निरवशेषं यावत् सेनापतिपुत्राः, तेषां च खलु एकः श्रद्धावान् Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. धु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् ७३ 1 भवति कामं तं श्रमणा वा ब्राह्मणा वा संमाधा। गमनाय । तत्राऽन्यतरेण धर्मेण प्रज्ञापयितारः, वयमनेन धर्मेण मज्ञापविष्यामः तदेवं जानीत भयत्रातारः । यथां मया एष धर्मः स्वाख्यातः सुप्रज्ञप्तो भवति, इह खलु पञ्चमहाभूतानि चैन विद्यते क्रिया इति वा, अक्रिया इति वा, सुकृतम् इति वा, दुष्कृतमिति वा, कल्याणमिति वा, पापकमिति वा, साधु इति वा, असाधु इति वा, सिद्धिरिति वा, असिद्धिरिति वा, निरय इति वा, अनिरय इति वा, अपि अन्तशः तृणमात्रनपि । तच्च पृथक् उद्देशेन पृथग्भूतसमवायं जानीयात्, तद्यथा- पृथिवी एकं महाभूतम् आपो द्वितीयं महाभूतम् तेजः तृतीय महाभूतम् वायुः चतुर्थ महाभूतम् आकाश पश्चम महाभूतम् । इत्येतानि पञ्चमहाभूतानि अनिर्मितानि अनिर्मापितानि अकृतानि नो कृत्रिमाणि नो कृतकानि अनादिकानि अनिधनानि अवन्ध्यानि अपुरोहितानि स्वतन्त्राणि शाश्वतानि आत्मपष्ठानि । एके पुनरेवमाहु:-सतो नास्ति विनाश असतो नास्ति सम्भवः । एतावानेव जीवकायः एतावानेव अस्तिकायः एतावानेव सर्वलोकः एतन मुख्यं लोकस्य कारणम्, अपि अन्तशः तृणमात्रमपि । स क्रीणन् क्रापयन् ध्वन् घातयन् पचन् पाचयन् अध्यन्तशः पुरुषमपि क्रीत्वा घातयित्वा अत्रापि जानीहि नास्त्यत्र दोषः । ते नो एवं विप्रतिवेदयन्ति तद्यथाक्रियेति वा यावद् अनिरय इति वा । एवं ते रूपैः कर्म समारम्भैः विरूपरूपान् कामभोगान समारमन्ते भोगाय । एवमेत्र ते अनार्याः विप्रतिपन्नाः तत् श्रद्दधानाः तत् प्रतियन्तः यावदिति । ते नो अर्वाचे नो पाराय अन्तरा कामभोगेषु विषण्णाः, द्वितीयः पुरुषजातः पाञ्चमहाभूतिक इत्याख्यातः ॥सू० १०॥ टीका - अथ प्रथमपुरुष वर्णनानन्तरम्, द्वितीयपुरुषवर्णनमाह - ' अहावरे' इति अथ - अपरे 'दोच्चे' द्वितीयः 'पुरिसजाए' पुरुषजातः 'पंचमहभूहए त्ति' पाञ्चमहाभूतिकः 'आज' आख्यायते । यो हि द्वितीयः पुरुषो मया कथितः पुष्करिण्यास संमारे पुष्करिण्या द्वितीयतदे विद्यमानः पाञ्चमहाभूतिको 'अहावरे दोच्चे' इत्यादि । टीकार्थ - प्रथम पुरुष का वर्णन करने के पश्चात् अब द्वितीय पुरुष का वर्णन किया जाता है। वह द्वितीय पुरुष पंचमहा भूतिक कहा गया है । अर्थात् पुष्करिणी के तट पर आया हुआ दूसरा पुरुष कहा गया था, 'अहावरे दोच्चे' त्यादि ટીકાય પહેલા પુરૂષનુ વર્ણન કરીને હવે બીજા પુરૂષનું વર્ણન કરવામાં આવે છે તે બીજો પુરૂષ પાંચ મહાભૂત કહેલ છે અર્થાત્ વાવના નારા પર આવેલ ખીજે પુરૂષ કહેલ હવે. તેને અહિયા પાંચ મહાભૂતિક સમજી લેવા જોઈએ. सु० १० Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतागसूत्रे ७४ विज्ञेयः । 'इह खलु पाईणं वा ४ संतेगइया मणुस्सा भवंति' इह-अस्मिन् मनुष्य. लोके खलु 'पाईणं वा ४' प्राच्यां वा ४-प्रतीच्यां वा उत्तरस्यां वा दक्षिणस्यां वा 'संतेगइया' सन्त्येके 'मणुस्सा' मनुष्याः ‘भवंति' भवन्ति 'आणुपुम्वेणं लोयं उचवन्ना' आनुपूया लोकमुपपन्ना:-अनेकमेदेषु लोकेषु समुत्पन्ना भवन्ति 'तं जहा' तद्यथा 'आरियावेगे' आर्या वैके 'अणारिया वेगे' अनायर्या चैके एवं जाव दुरूवा वेगे' एवं यावद् दुरूपा वा, एके, आर्या अनार्याः मुरूपा दुरूपा अनेकमकारका मनुष्या भवन्ति, 'तेसिं च तेषां च पुरुषाणां मध्ये 'महं एगे राया भवई' महानेको राजा भवति, 'महया एवं चेत्र निरवसेसं' महा० एवमेव निरवशेषम् । 'जाव सेणावइपुत्ता' यावत् सेनापतिपुत्राः, मनुष्याणामेको राजा पूर्वसूत्रोपदर्शितयथावर्णितगुणगणगरिष्ठः। तस्य राज्ञः परिपद्धवति, तस्याम् उग्रोग्रपुत्रादयः सेनापतिपुत्रान्ताः सदस्या भवन्ति । 'तेसिं च णं एगइए सड़ी मवई तेषां सदस्यानां च मध्ये, एक श्रद्धावान् भवति । तेषु बहुषु सत्तु पुरुषेषु फश्चिदेको धर्मे श्रद्धावान् भवति, 'कामं तं समणा य माहणा य पहारिनु गमणार' उसे यहां पंचमहाभूतिक समझ लेना चाहिए। इस मनुष्यलोक में पूर्व आदि दिशाओं में कोई कोई मनुष्य होते हैं जो नाना रूपों में उत्पन्न हुए होते हैं, जैसे-काई आर्य होते हैं, कोई अनार्य होते हैं, इसी प्रकार यावत् कोई सुरूप होते हैं, कोई कुरूप होते हैं। उन मनुष्यों में कोई एक राजा होता है। वह हिमवान् पर्वत के समान होता है, इत्यादि पूर्व सत्र में कथित सब विशेषण यहां भी समझ लेने चाहिए। उस राजा की परिषद् होती है। ब्राह्म ग से लेकर सेनापति पुत्र तक पूर्वोक्त उसके सदस्य होते हैं। उन सदस्यों में कोई कोई धर्म श्रद्धावान् भी होता है । उप्स के पाम कोई श्रमण या ब्राह्मण આ મનુષ્ય લોકમાં પૂર્વ વિગેરે દિશાઓમાં કઈ કે મનુષ્ય એવા હોય છે કે જેઓ અનેક પ્રકારના રૂપથી ઉત્પન્ન થયેલા હોય છે. જેમકેકોઈ આર્ય હોય છે. તે કઈ અનાર્ય હોય છે. એ જ પ્રમાણે કેઈ સુંદર રૂપવાળ હોય છે, તે કઈ ખરાબ રૂપ વાળે હે છે. તે મનુષ્યમાં કોઈ એક રાજા હોય છે, તે હિમાલય પર્વત જે હોય છે, વિગેરે પૂર્વ સૂત્રમાં કહેલ સઘળા વિશેષણે અહિયાં પણ સમજી લેવા જોઈએ. તે રાજાની પરિ ષદુ સભા હોય છે. બ્રાહ્મણથી લઈને સેનાપતિના પુત્ર સુધી પહેલાં કહેલ તે સઘળા તે તે પરિષદૂના સદસ્ય હોય છે તે સદમાં કઈ કઈ ધર્મનીશ્રદ્ધાવાળા પણ હોય છે, તેની પાસે કેઈ શ્રમ અથવા બ્રહ્મણ જઈ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् कामं तं श्रमणा वा ब्राह्मणा वा संप्रधापुंर्गमनाय मस्थितवन्तः । तादृशधर्मश्रद्धालु स्वधर्मानुयायिकरणाय श्रमणा ब्राह्मणाश्च तत्समीपे गन्तु समिच्छेयुः। 'तस्य अन्नयरेणं धम्मेणं पन्नत्तारो वयम्' तत्राऽन्यतरेण धर्मेण प्रज्ञापयितारो वयम् 'इमेणं धम्मेणं पन्नाइस्सामो' अनेन-अस्मसंमतधर्मेण प्रज्ञापयिष्यामः तं स्वधर्मानुयायिनं करिष्याम इति विचार्य ते तत्र तत्समीपं गत्वा कथयन्तिवयं भवन्तं प्रज्ञापयिष्यामोऽमुं धर्मम् , तं धर्मम्-'से एव मायाणह' तदेवं जानीत । 'भयंतारों' भयत्रातारः? एवं भवन्तो जानन्तु 'जहा मए एस धम्मे सुयक्खाए' यथा मया स्वाख्यातः प्रतिपद्यमान एषधर्मः 'सुपन्नत्ते भवई' सुपज्ञप्तो भवति, सरलतया ज्ञातो भवतीति सत्यं भवन्तोऽवगच्छन्तु इति । तं प्रतिज्ञातं धर्म, ते उदाहरन्ति-इह खलु पंचमहन्भूया' इह खल पञ्चमहाभूतानि, तदात्मक एव सर्व संसारः यत्किमपि विद्यते तम् सर्वं पाश्चमहाभूतिकं तदात्मकमेव-न ततो-व्यतिरिक्त किमप्यस्ति, यैः पञ्च भूतैरेव सर्वापि क्रिया भवति-सुकृतदुष्कृतादिरूपा। जा पहुंचते हैं अर्थात् उसे अपने धर्म का श्रद्धालु बनाने के लिए वे ब्राह्मण आदि उद्यत होते हैं । वे सोचते हैं कि हम अमुक किसी धर्म का इसे उपदेश देंगे और अपने धर्म का अनुयायी चनाएंगे। इस प्रकार करके वे राजा आदि के समीप जा कर कहते हैं-हे भयत्राता! हम आपको अमुक धर्म का उपदेश करेंगे, आप उसे स्वीकार करो। हमारे द्वारा कथित धर्म सु आख्यात है। वह सरलता से समझ में आ जाता है, इसे आप सत्य समझें। फिर वे अपने धर्म का प्रतिपादन करते हैंइस समग्र जगत् में पांच महाभूत ही हैं। सारा संसार पंचमहाभूतास्मक है। उनसे भिन्न अन्य कुछ भी नहीं है। पांच भूनों के द्वारा ही પહેચે છે, અર્થાત્ તેને પિતાના ધર્મમાં શ્રદ્ધા વાળા બનાવવા માટે તેઓ ઉદ્યમ કરે છે. તેઓ એ વિચાર કરે છે કે અમે અમુક કેઈ ધર્મને આને ઉપદેશ આપીશું અને પિતાના ધર્મને અનુયાયી-અનુસરનાર બનાવી લઈશું. આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તેઓ રાજા વિગેરેની પાસે જઈને કહે છે કે-હે ભયથી રક્ષણ કરનારા ! અમે આપને અમુક ધર્મને ઉપદેશ કરીશું. આપ તેને સ્વીકાર કરે અમેએ કહેલ ધર્મ સ્વાખ્યાત છે. તે સરલપણુથી સમજવામાં આવી જાય છે. તેને આપ સત્ય માને. તે પછી તેઓ પોતાના ધર્મનું પ્રતિપાદન કરે છે–આ સંપૂર્ણ જગતમાં પાંચ મહાભૂત જ છે. સમગ્ર સંસાર પંચ મહાભૂતાત્મક જ છે તેનાથી જુદું બીજું કાંઈ પણ નથી. પાંચ મહાભૂતો દ્વારા જ સવળું સુકૃત અને દુષ્કૃત વિગેરે Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ सूत्रकृताङ्गसूत्र किंबहुना-तृणादीनां स्पन्दनादिकमपि तत एव संभपति, इति । 'जेहिं नो विज्जइ किरियाइ वा' 'जेर्दि' यः पञ्चभूतैरेव 'नो' नः अस्माकम् 'विजई' विद्यते-भवति । 'किरियाइवा' क्रिया, इति वा 'अकिरियाइ वा' अक्रिया, इति वा 'सुक्कडेइ वा' मुक्तमिति चा 'दुक्कडेइ वा दुःकृनमिति वा 'कल्लाणेइ वा कल्याणमिति वा 'पावएइ वा' पापमिति वा 'साहु इवा असाहु वा साधुरिति वा अमाधुरिति वा 'सिद्धीदवा असिद्धी इवा' सिद्धिरिति वा अमिद्धिरिति वा 'णिरएइ का अणिरएइ वा निस्य इति वा अनिरय इति वा 'अविअंतसो तणमायमपि' अपि अन्तशस्तृणमात्रमपि, यत्किश्चिदपि भवति तत्सर्वं पञ्चमहाभूतैरेव भवति, न ततो व्यतिरिक्त किमप्यस्ति । 'तं च पिहूदेसेणं पुढोथूयं समवायं जाणेज्ना' तंच पृथगुहेशेन पृथग्भूतसमवायं जानीयात, तंच भूतसमुदायं पृथक् पृथङ्नाम्नाऽवगच्छेत् । । 'तं जहा' तद्यथा-'पुढवी एगे महन्भूत' पृथिवी एकं महाभूतम् । "याउदुच्चे महन्भूए' आपो द्वितीयं महाभूतम् । 'तेउ तच्चे महाभूए' तेज स्तृतीयं महाभूतम् 'वाऊ. चउत्थे महन्भूए' वायु-श्चतुर्थ महाभूतम् 'आगासे पंचमे महन्भूए' आकाशः पञ्चम समस्त सुकृत और दुष्कृत आदि रूप क्रियाएं होती हैं। अधिक क्या कहा जाय, तिनके का हिलना जैसी क्रिया भी उन्हीं से होती है। हमारे मत के अनुसार पांच महाभूनों से ही क्रिया अक्रिया सुकृन दुष्कृत, कल्याण अकल्याण, साधु असाधु, सिद्धि असिद्धि, नरक अनरक, यहां तक कि तृण का स्पन्दन भी पांच महाभूतों से ही होता है। उनसे अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। उस भूतसमुदाय को पृथक पृथक नामों से जानना चाहिए। वे नाम इस प्रकार हैं-पहला पृथ्वी नामक महाभूत है, जल दूसरा महाभूत है, तेजस् तीसरा महाभूत है, वायु चौथा महाभूत है और आकाश पांचवां महाभून है। यह पांच महाभूत રૂપ ક્રિયાઓ હોય છે. વિશેષ શું કહી શકાય, તરણાનું હલવું જેવી ક્રિયા પણ તેનાથી જ થાય છે. અમારા મત પ્રમાણે પાંચ મહાભૂતોથી જ ક્રિયા, गठिया, सुन, दुत, ४८या म४या, साधु, मसाधु सिद्धि मसिद्धि નરક અનરક એટલે સુધી કે તરણાનું હલન પણ પાંચ મહાભૂતોથી જ થાય છે. તેના સિવાય અન્ય કાઈજ નથી. તે ભૂત સમુદાયને જુદા જુદા નામથી જાણવા જોઈએ. તે નામે આ પ્રમાણે છે–પૃથ્વી નામને પહેલે મહાભૂત છે, જલ બીજો મહાભૂત છે તેજ ત્રીજે મહાભૂત છે, વાયુ ચેાથે મહાભૂત છે. અને આકાશ પાંચ મહાભૂત છે. આ રીતે આ પાંચ મહાભૂતો છે. Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् महाभूतम् 'इच्वेते पंच महभूया' इत्येतानि पञ्च महाभूतानि नैतानि कुतोऽपि जायन्ते - किन्तु - यथा वक्ष्यमाणस्वरूपाणि भवन्ति किं स्वरूपाणि तानि ? इत्याद - 'अणिम्मिया' इत्यादि । 'अणिम्प्रिया' अनिर्मितानि-न केनापि कालेश्वरादिना रचितानि, 'अणिम्माविया' अनिर्मापितानि --न पर द्वारा निष्पादितानि, 'अकडा' भक्तानि अत्रेन्द्रधनुरादिवद् विस्रप्सापरिणामेन निष्पन्नत्वात् न केनाऽपि तानि कृतानि अत एव अकृतानि, 'णो कित्तिमा' नो कृत्रिमाणि न घटवत्कर्तृकरणव्यापारसाध्यानि अत एव कृत्रिमतारहितानि, नो कडगा' नो कृतकानि स्वभावनिष्पत्तौ अपेक्षित परव्यापारी भावः कृतक उच्यते तानि पञ्च महाभूतानि च विसापरिणामेन निष्पन्नत्वात् न कृतक व्यपदेश्यानि अत एव तानि नो कृत कानि, 'अणाइया' अनादिकानि आदिरहितानि शाश्वतभाववच्चात् ' आणि हणा' अनिधानानि - निधनरहितानि अन्तरहितानीत्यर्थः कदाचिदपि काले विनाशा भावात्, 'अशा' अन्ध्यानि आवश्यकार्य कर्तुत्वात्, 'अपुरोडिया' अपुरोहितानि कार्यप्रवर्तकपुरोहिताभावात् 'सतंवा' स्वतन्त्राणि - अपरनिरपेक्ष कार्यकर्तृत्वात् 'सासया' शाश्वतानि - शाश्त्रतकालस्थायित्वात्, तदेव भूतानि पञ्चमहाभूतानि सन्तीति । इदं भृतादिमतं प्रदर्शितम्, 4 1 ; सम्प्रति सांख्यमतमाह - 'एगे पुण' एके केचन सांख्यकाः पुनः 'एवमाहु' एवं कथयन्ति - 'आपछडा' आत्मषष्ठानि, एतानि पूर्वोक्तानि पञ्चमहाभूतानि पञ्च न किन्तु आत्मष्ठानि आत्मा षष्ठो येषु तानि आत्मषष्ठानि, एतेषु पञ्च महाभूतेषु तद्व्यतिरिक्तः षष्ठ आत्मा विद्यते, एवं केचन कथयन्ति - सांख्यानां हैं। ये महानून किसी से उत्पन्न नहीं होते, किन्तु अनिर्मित हैं, अनिमर्पित हैं अर्थात् किसी के द्वारा बनवाए हुए नहीं हैं, अकृत हैं, कृत्रिम नहीं है, अनादि हैं, अनन्त (विनाश रहित) हैं, अपुरोहित हैं अर्थात् इनको कोई प्रेरित करने वाला नहीं है स्वतंत्र हैं, शाश्वत हैं । अपना अपना कार्य करने में समर्थ हैं । وی कोई कोई पांच महाभूतों से भिन्न छठा आत्मनत्व भी स्वीकार આ મહાભૂતા કેાઈનાથી ઉત્પન્ન થતા નથી. પરંતુ અનિમિત બન્યા નથી. નિર્માત છે. અર્થાત્ કોઈનાથી બનાવેલ નથી અકૃત છે કૃત્રિમ નથી. અનાદિ છે અન ત (વિનાશ રહેત) છે પુરાહિત છે, અર્થાત્ તેને કોઈ પ્રેરણા કરવા વાળા નથી. સ્વતંત્ર છે. શાશ્વત છે. પેાત પેાતાનું કાય કરવામાં समर्थ छे. ફાઈ કાઇ પાંચ મહાભૂત શિવાય છઠ્ઠા આત્મતત્વના પશુ સ્વીકાર Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे चाई विरूपरूपान् अनेकमकारकान् 'कामभोगाई कामभोगान-इच्छानुमोदितम. नस्तर्कितान् 'समारभति' समारमन्ते-कुर्वन्ति वहुविधमाण्युपमर्दादिकमिति । एव. मेव अणारिया' एवमेव तेऽनार्याः। 'विपडिवन्ना' विप्रतिपन्नाः विपरीतभावमा पन्नाः; अत एते वादिनः-अनार्या:-विपरीतविचारवन्तश्च । 'तं सदहमाणा तं पत्तियमाणा जाब इइ' तच्छ्रद्दधाना स्तत्मतियन्तः यावदिति-एतादृशं पञ्चमहा.' भूतवादिनां धर्म श्रद्दधानाः केचन राजानोऽन्ये वा परिषद्गताः पुरुपा एतन्मतमेव सत्यमिति मन्यमानाः। उपदेशकमिमं वस्त्राधुपभोगसामग्रीमर्पयन्ति 'ते णो हवाए णो पाराय ते-उक्तवादिनः तथा यथोक्तधर्मे श्रद्धाशीलाश्च-नो अर्वाचे न एतस्मिन् पशुकलत्रादिलोके भवन्ति । 'नो पाराय' न वा परलोकाय भवन्ति, अयमपि लोक स्तेषां हस्ताद विभ्रष्टः परलो करतु सुतरां भ्रष्ट एव, किन्तुअन्तरा कामभोगेषु अन्तरा-मध्ये कामभोगेपु 'विपण्णा' विषण्णाः निमग्नाः सन्तः -चतुर्गतिलक्ष गमनन्तसंसारं परिभ्रमन्ति । 'दोच्चे एप द्वितीयः 'पुरिमजाए' पुरुषजातः पंचमहन्भूइए' पाश्चमहाभूतिकः 'त्ति आहिए' इति आख्यात इति ।।सू० १०॥ सावद्य कर्मों छारा कामभोगों की प्राप्ति के लिए आरंभ समारंभ करते रहते हैं-नाना प्रकार के प्राणियों का उपमर्दन आदि करते हैं। अतएव ये अनार्य हैं, भ्रमपूर्ण विचार वाले हैं। इन पंचमहाभूतवादियों के मत पर श्रद्धा करने वाले राजा आदि या अन्य पुरुष उनके मन को सत्य समझते हुए उन्हें विषयोपभोग की सामग्री प्रदान करते हैं । उक्त धर्म की प्ररूपणा करने वाले वादी तो उस पर श्रद्वा करने वाले अनु यापी न तो इधर के रहते हैं, न उधर के रहते हैं। वे इस लोक से भ्रष्ट होते हैं और परलोक तो उनका भ्रष्ट होता ही है। ये काम भोगों के નથી. તેઓ જુદા જુદા પ્રકારના સાવદ્ય કર્મો દ્વારા કામગોની પ્રાપ્તિ માટે આરંભ સમારંભ કરતા રહે છે અનેક પ્રકારના પ્રાણનું ઉપમન (હિંસાઈ ' વિગેરે કરે છે તેથી જ તેઓ અનાય છે ભ્રમપૂર્ણ વિચારવાળા છે. આ પાંચ મહાભૂત વાદિયોના મત પર શ્રદ્ધા કરવા વાળા રાજા વિગેરે અથવા અન્ય પુરૂષ તેમના મતને સત્ય સમજતા થકા વિષપભેગની સામગ્રી " આપે છે ઉપર કહેલ ધર્મની પ્રરૂપણ કરવાવાળા વાદી તથા તેના પર શ્રદ્ધા કરવાવાળા તેમના અનુયાયી નતે અહીંના રહે છે, કે તે ત્યાંના રહે છે, તેઓ આ લેથી ભ્રષ્ટ થાય છે અને તેમને પરલેક તે ભ્રષ્ટ હોય જ છે. તેઓ કામભેગેના કાદવમાં વયમાં જ ફસાઈ જાય છે. અને વિષાદ-ખેદને Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् मूलम् - अहावरे तच्चे पुरिसजाए ईसरकारणिए इइ आहिज्जइ, इह खलु पाईणं वा ४ संतेगइया मणुस्सा भवंति, अणुपुव्वेणं लोयं उववन्ना, तं जहा - आरिया वेगे जाव दुरूवा वेगे तेसिं चणं महंते एगे राया भवइ जाव सेणावइपुत्ता, तेसिं व " गतिए सड्डी भवइ, कामं तं समणाय माहणा य संपहारिंसु गमणाए जाव जहा मए एस धम्मे सुयक्खाए सुपन्नत्ते भवइ, इह खलु धम्मा पुरिसाइया पुरिसोत्तरिया पुरिसप्पणीया पुरिससंभूया पुरिसपज्जोइया पुरिसमभिसमण्णागया पुरिसमेव अभिभूय चिति, से जहा णामए गंडे सिया सरीरे जाए सरीरे संबुट्टे सरीरे अभिसमण्णागए सरीरमेव अभिभूय चिट्टइ, एवमेव धम्मादिपुरिसाइया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति । से जहां णामए अरई सिया सरीरे जाया सरीरे संवुंड्रा सरीरे अभिसमण्णागया सरीरमेव अभिभूय चिट्ठइ, एवमेव धम्मा वि पुरिसा इया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति । से जहा णामए वम्मिए सिया पुढविजाए पुढविसंबुड्ढे पुढवि अभिसमण्णागए- पुढवि मेव अभिभूय चिgs, एवमेव धम्मा वि पुरिसाइया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिति । से जहा णामए रुक्खे सिया पुढविजाए पुढविसंबुड्ढे पुढविअभिसमण्णागए पुढविमेव अभिभूय चिह्न, कीचड में ही फस जाते हैं और विषाद को प्राप्त होते हैं । अतः चार गति वाले अनन्त संसार में परिभ्रमण करते हैं । यह दूसरो पुरुष पंच महाभौतिक कहा गया है ॥१०॥ વ્યાસ કરે છે. ચાર ગતિવાળા આ અનંત એવા સંસારમાં તેએ ભટકવા કરે છે. મા ખીને પુરૂષ તે પચમહાભૌતિક કહેવામાં આવેલ છે. ૧૦ના सू० ११ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतागस एवमेव धम्मा वि पुरिसाइया जाब पुरिसमेव अभिभूय चिटुंति। से जहा णामए पुक्खरिणी सिया पुढविजाया जाव पुढविमेव अभिभूय चिटुइ, एवमेव धस्मा वि पुरिलाइया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिटुंति, से जहा णामए उदगपुक्खले सिथा उदगजाए जाव उदगमेव अभिभूय चिट्ठइ, एवमेव धम्मा वि पुरिसाइया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति । से जहा णामए उदगबुब्बुए लिया उदगजाए जाव उदगमेव आभिभूय चिट्ठइ, एवमेव धम्मा वि पुरिसाइया जाब पुरिलमेव अभिभूय चिटुंति। जं पि इमं समणाणं णिग्गंथाणं उद्दिष्टुं पणीयं वियंजियं दुवालसंगं गणिपिडयं, तं जहा-आधारो सूयगडो जाव दिष्टिवाओ, सव्वयं मिच्छा, ण एयं तहियं ण एवं आहातहियं, इमं सच्चं इमं तहियं इमं आहातहियं, ते एवं सन्नं कुवंति, ते एवं सन्नं संठवेंति, ते एवं सन्नं सोक्टावयंति, तमेवं ते तज्जाइयं दुक्खं गाइ उदृति सउणी पंजरं जहा। ते णो एवं विप्पडिवेदेति, तं जहा-किरियाइ वा जाव अणिरएइ वा, एवमेव ते विरूवरूवेहि कम्मसमारंभेहिं विरूवरूवाइं कामभोगाई समारंभंति भोयणाए, एवामेव ते अणारिया विप्पडिवन्ना एवं सद्दहमाणा जाव इइ ते णो हवाए णो पाराए, अंतरा कामभोगेसु विलण्णा ति, तच्चे पुरिसजाए इलरकारणिए त्ति आहिए ॥सू०११॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका द्वि श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् .. - ३ ___ छाया-आथापर स्तृतीयः पुरुषजात ईश्वरकारणिक इत्याख्यायते। इह खलु भाच्यां वा ४ सन्त्ये के मनुष्या भान्ति आनुपूा लोकपुपपनाः तद्यथा-आर्या वा एके यावत् दूरूपा एके, तेषां च खलु महान् एको राजा भवति यावत् सेना. पतिपुत्राः। तेषां च खलु एकः श्रद्धावान् भवति कामं तं श्रमणाश्च ब्राह्मणाश्च सम्मधार्युः गमनाय यावत्, यथा-मया एष धर्मः स्वाख्यातः सुप्रज्ञप्तो भवति-इह खलु धर्माः पुरुषादिकाः पुरुषोत्तराः पुरुषप्रणीताः पुरुासंभूताः पुरुषप्रयोतिताः पुरुषमभिसमन्वागताः पुरुषमेव अभिभूय तिष्ठन्ति । तद्यथानाम गण्डः स्यात् शरीरे जातः शरीरे संवृद्धः, शरीरेऽभिसमन्वागतः, शरीरमेव अभिभूय तिष्ठति एवमेव धर्मा अपि पुरुषादिका यावत् पुरुषमेव अभिभूय तिष्ठन्ति । तद्यथानाम अरतिः स्थात् शरीरे जाता शरीरे संवृद्धा शरीरे अमिसमन्वागता शरीरमेव अभिभूय तिष्ठन्ति, एवमेव धर्मा अपि पुरुषादिका यावत् पुरुषमेव अभिभूय तिष्ठन्ति । तद्यथा नाम चल्मीकं स्यात् पृथिवीजातं पृथिवीसंवृद्धं पृथिवीमभिसमन्वागतं पृथिवीमेव अभिभूय तिष्ठति, एवमेव धर्मा अपि पुरुषादिकाः यावद पुरुषमेव अभिभूय-तिष्ठन्ति । तद्यथानाम वृक्षः स्यात् पृथिवीजातः पृथिवीसंदृद्धः पृथिवीमभिसमन्वागतः पृथिवीमेव अभिभूय तिष्ठति, एवमेव धर्मा अपि पुरुषादिका यावत् पुरुषमेव अभिभूय तिष्ठन्ति । तद्यथा नाम पुष्करिणी स्यात् पृथिवी जाता यावत् पृथिवीमेव अभिभूय तिष्ठति एवमेव धर्मा अपि पुरुषादिका यावद पुरुषमेव अभिभूय तिष्ठन्ति । तद्यथा नाम उदकपुष्कलं स्यात् उदकजातं यावद् उदकमेव अभिभूय तिष्ठति, एवमेव धर्मा अपि पुरुषादिका यावत् पुरुषमेव अभिभूय तिष्ठन्ति । तद्यथानाम उदकबुद् बुदः स्यात् उदकजातो यावद् उदकमेव अभिभूय तिष्ठति, एवमेव धर्मा अपि पुरुषादिका यावत् पुरुषमेव अभिभूय तिष्ठन्ति। यदपि चेदं श्रमणानां निग्रन्थानामुद्दिष्टं प्रणीतं व्यञ्जितं द्वादशाङ्गं गणिपिटकं तद्यथा-आचारः सूत्रकृतो यावद् दृष्टिवादः सर्वमेतन्मिथ्या । नैतत्तथ्यं नैतद् याथातथ्यमिदं सत्यम् इदं तथ्यम् इदं याथातथ्यम्, ते एवं संज्ञां कुर्वन्ति ते एवं संज्ञां संस्थापयन्ति ते एवं संज्ञां सूपस्थापयन्ति, तदेवं ते वज्जातीयं दुःखं नैव त्रोटयन्ति शकुनिपञ्जरं यथा । ते नो एवं विप्रतिवेदयन्ति-तद्यथा-क्रिया इति वा यावद् अनिरय इति चा। एवमेव ते विरूपरूपैः कर्म समारम्भैः विरूपरूपान् काममोगान् समारभन्ते भोगाय । एवमेव ते अनार्या विपतिपन्ना एवं श्रदधाना यावदिति ते नोऽर्वाचे नो पाराय अन्तरा कामभोगेषु विषण्णा इति तृतीयः पुरुषजात ईश्वरकार• णिक इत्याख्यातः ।। मू०११ ।।। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _....... सूत्रकृताङ्गयों टीका-पूर्व पुरुषद्वयं गतं, सम्पति-ईश्वरकारणिकं तृतीय पुरुषमधिकृत्याह'अहावरे' इत्यादि, 'अहावरे' 'अई' अथ- पुरुषद्वयकथनानन्तरम् 'अवरे' अपरः 'तच्चे' तृतीयः 'पुरिसजाए' पुरुपजातः 'ईसरकारणिए' ईश्वरकारणिका-ईश्वरो जगतः कारणं यस्य स ईश्वरकारणिकः आत्माद्वैतवादी 'इइ आहिज्जई' 'इत्याख्यायते 'इह खल पाईणं वा' इह खलु मनुष्यलोके माच्यां वा ४ प्राच्यादि चतुर्दिा 'संते गइया' सन्ति एके 'मणुस्सा' मनुष्या भवन्ति । 'आणुपुग्वेणं लोय' आनुपूर्ण लोकम् 'उववन्ना' उपपन्ना:-क्रमेणाऽस्मिल्लोके उत्पन्नाः, 'तं जहा-आरियावेगे जाव दुरूवा वेगे' आर्या वा एके यावद् दूरूपा वा एके भवन्ति, अत्र सर्व प्रथमसूत्रोक्तं वर्णनं कर्तव्यम् , 'तेसिं च णं महंते एगे राया भवइ जाव सेणावइपुत्ता' तेषां चः आर्यादीनां 'लोकानां मध्ये महानेका सर्वेभ्यः श्रेष्टो राजा भवति तत्परिषदि उग्रा उग्रपुत्रा पंच भूतवादी चार्वाक को मत प्रदर्शित किया गया और पहले के 'दो पुरुषों का वर्णन हो गया। अब तीसरे पुरुष के विषय में कहते हैं'अहावरे तच्चे पुरिजाए' इत्यादि । टीकार्थ-तीसरा पुरुष इश्वरकारणिक कहलाता है। उसके मत के अनुसार ईश्वर जगत् का कारण है । इस मनुष्यलोक में, पूर्व आदि दिशाओं में कोई कोई मनुष्य होते हैं जो नाना रूपों में उत्पन्न होते हैं। उनमें कोई आर्य होते हैं कोई अनार्य होते हैं । उनका वर्णन प्रथम सूत्र के अनुसार जान लेना चाहिए। उनमें कोई राजा होता है, जो हिमवान् पर्वत के समान होता है, इत्यादि वर्णन भी पूर्ववत् ही यहाँ कह लेना चाहिए । उसकी परिषद् होती है जिसमें सेनापति आदि होते ' પાંચ મહાભૂતવાદી ચાર્વાકનો મત કહેવામાં આવેલ છે. તથા પહેલાના - બે પુરૂષેનું વર્ણન થઈ ગયું છે. હવે ત્રીજા પુરૂષના સંબંધમાં કહેવામાં આવે • 2.-'अहावरे तच्चे पुरिसजाए' त्याल ટીકાથે–ત્રી પુરૂષ ઈશ્વર કારણિક કહેવાય છે. તેના મત પ્રમાણે ઈશ્વર જગતનું કારણ છે આ મનુષ્ય લેકમાં પૂર્વ વિગેરે દિશાઓમાં કઈ કેઈ મનુષ્ય એવા હોય છે, કે જે અનેક રૂપમાં ઉત્પન્ન થાય છે, તેમાં કઈ આર્ય હોય છે, કેઈ અનાર્ય હોય છે, તેનું વર્ણન પહેલા સૂત્ર પ્રમાણે સમજી લેવું જોઈએ. તેઓમાં કઈ રાજા હોય છે. જે હિમાલય પર્વત જે હોય છે. વિગેરે વર્ણન પણ પહેલા પ્રમાણે અહિયાં કહી લેવું જોઈએ. તેમની પરિપદ હોય છે. જેમાં સેનાપતિ વિગેરે હોય છે. ત્યાં પણ સંપૂર્ણ પૂર્વોક્ત Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् इत्यारभ्य सेनापतिपुत्रा इति पर्यन्ताः सभ्या भवन्ति । अत्रापि प्रथमसूत्रोक्तरीत्या सर्वमनुसन्धेयम् । 'तेसिं च णं एगइए' तेषां च मध्ये एकः कश्चित् 'सडी भवइ' श्रद्धावान् भवति । 'कामं तं समणा य माहणा य पहारिंसु गमणाए' कामं तं श्रद्धावन्तं स्वमतानुयायिनं कर्तुं श्रमणाश्च ब्राह्मगाश्च गमनाय संभधार्युः श्रद्धालोः समीप गन्तुं निश्चयं कुर्वन्ति श्रमणा ब्राह्मणाश्च 'जाव' यावत् , यावत्पदेन 'तत्थ' इत्यारभ्य 'भयंतारो' इति पर्यन्तं प्रथमसूत्रोक्तपाठः संग्राह्यः । ते तत्र गत्वा श्रमणादयस्तं श्रद्धालु कथयन्ति । 'जहा मए एस धम्मे सुयक्खाए सुपन्नत्ते भवई' यथा मया एष:-वक्ष्यमाणो धर्मः स्वाख्यातः सुपज्ञप्तो माति। तथाहि-'इह खलु धम्मा पुरिसाइया' इहलोके 'धम्मा' धर्मा ये सन्ति ते सर्वेऽपि 'पुरिसाइया' पुरुषादिकाः, पुरुषः-परमात्मा, आदि:-कारणं येषां ते पुरुषादिकाः जडचेतनादिकाः । यावन्तो जडचेतनादयः पदार्याः समुपलभ्यन्ते तेषां सर्वेषां कारणमीश्वर एव । अत्र पुरुषशब्देन इश्वरो ज्ञातव्यः। 'पुरिसोत्तरिया' पुरुषोत्तराः -पुरुष:-ईश्वर एव उत्तर-प्रधानं येषां ते तथा, अथवा यथा सर्वेषामादिः परमेश्वरस्तथा तेषामुत्तरोऽपि-संहारकारकोऽपि परमेश्वर एव 'पुरिसप्पणीया' पुरुषप्रणीताः-ईश्वरहैं। यहां भी पूर्वोक्त वर्णन सारा जान लेना चाहिए । कोई कोई श्रमण या ब्राह्मण उन राजा आदि के पास, उन्हें अपने धर्म का अनु. यायी बनाने के लिए जा पहुंचते हैं। वहाँ जाकर वे उनसे कहते हैंहमारा यह धर्म सु-आख्यात है और सुधज्ञप्त है सरलता से समझा जा सकता है । हे राजन् । हम आपको सत्य धर्म सुनाते हैं। इसे सत्य समझो। वह धर्म इस प्रकार है । इस जगत् में जो भी जड चेतन आदि पदार्थ हैं, वे सब पुरुषादिक हैं अर्थात् उनका आदि कारण ईश्वर है, वे सब पुरुषोत्तरिक है अर्थात् ईश्वर ही उनका संहार करता है । ईश्वर के द्वारा ही रचित है। ईश्वर વર્ણન સમજી લેવું જોઈએ. કેઈકેઈ શ્રમણ અથવા ભાહન તે રાજા વિગેરેની પાસે તેને પિતાના ધર્મને અનુયાયી બનાવવા માટે તેની સમીપે જઈ પહોંચે છે ત્યાં જઈને તેઓ તેને કહે છે કે-અમારો આ ધર્મ સુ-આખ્યાત છે. અને સુપ્રજ્ઞપ્ત છે. સરલતાથી સમજી શકાય તેવો છે. હે રાજા અમે આપને સત્ય ધર્મ સમજાવીએ છીએ આને સત્ય સમજે તે ધર્મ આ પ્રમાણે છે. આ જગતમે જડ ચેતન વિગેરે જે કઈ પદાર્થ છે, તે બધા પુરૂષ વિગેરે છે, અર્થાત્ તેનું આદિકારણ ઈશ્વર છે. તેઓ સઘળા પુરૂત્તરિક છે. અર્થાત્ ઈશ્વર જ તેઓનો સંહાર કરે છે. ઈશ્વર દ્વારાજ તેની રચના કરાઈ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સદ્ सूत्रकृतसूत्रे रचिताः । 'रिससंभूया' पुरुषसंभूताः - ईश्वरोत्पन्नाः 'पुरिसपज्जोइया' पुरुष प्रद्योतिताः - ईश्वरेण प्रकाशिताः, 'पुरिसमभिसमण्णागया' पुरुषमभिसमन्वागताः परमेश्वरमेवानुगामिनः । 'पुरिसमेव अभिभूय चिद्वंति' पुरुषमेव अभिभूयव्याप्य तिष्ठन्ति, सर्वे पदार्थों ईश्वरमेवाश्रयी कृत्य तिष्ठन्ति । सर्वे धर्माः, ईश्वरादेव जायते तस्मिन्नेव ईश्वरे तिष्ठन्धि मलीयन्ते च तस्मिन्नेवाऽधिष्ठानेश्वरे । अस्मिन्नर्थे दृष्टान्तं दर्शयति- ' से जहा णामए' तद्यथानाम ' गंडे सिया' गण्ड:व्रणविशेषः स्यात् 'सरीरे' शरीरे 'जाए' जातः समुश्पन्नः । 'सरीरे संबुडे' शरीरे संवृद्धः 'सरीरे अभिसमण्णा गए' शरीरेऽभिसमन्वागतः । 'सरीरमेव अभिभूष चिट्ठ' शरीरमेव अभिभूय-आश्रयी कृत्य तिष्ठति, यथा-नाम स्फोटः शरीरादेव समुत्पद्यते शरीरे एव वर्द्धते शरीरमनुगच्छति, तथा शरीरमेवाडधाररूपेणाऽऽश्रयं कृत्वा स्थितो भवति । एवमेव 'धम्मा पुरिसाइया जाब पुरिसमेन अभिभूप चिह्नति' धर्माः सर्वे पदार्थाः पुरुषादिका यावत् पुरुषमेव अभिभूय तिष्ठन्ति । तथासर्वे पदार्थाः परमेश्वरादेव जायन्ते परमेश्वरे एव वर्द्धते, तथा परमेश्वरमेवाss- धाररूपेणाssश्रयं कृत्वा स्थिता भवन्ति । पुनरपि दृष्टान्तान्तरेण तमेवार्थ ढी · से ही उनका जन्म हुआ है । वे ईश्वर के द्वारा ही प्रकाशित हैं । ईश्वर के ही अनुगामी हैं । वे ईश्वर को ही आश्रय करके स्थित है। तात्पर्य यह है कि जगत् के समस्त पदार्थ ईश्वर से ही उत्पन्न हुए हैं, ईश्वर में ही स्थित हैं और ईश्वर में ही लीन हो जाते हैं। इस विषय में दृष्टान्त प्रदर्शित करते हैं - ' जैसे फोडा शरीर से ही उत्पन्न होता है, शरीर में ही चढ़ता है, शरीर का ही अनुगमन करता है और शरीर के आधार पर ही टिकता है | इसी प्रकार समस्त पदार्थ ईश्वर से ही उत्पन्न होते हैं, ईश्वर में ही चढते हैं, और ईश्वर को ही आधार बनाकर स्थित रहते हैं । છે. ઇશ્વરથી જ તેના જન્મ થી છે. તેઓ ઈશ્વર દ્વારા જ પ્રકાશિત છે, ઈશ્વરને જ અનુસરનાર છે. તે ઇશ્વરના જ આશ્રય લઈને સ્થિત છે. તાપય એ છે કે-જગતના સઘળા પાર્થાં ઇશ્વરથી જ ઉત્પન્ન થયા છે. ઈશ્વરમાં જ સ્થિત છે, અને ઈશ્વરમાં જ લીન થઈ જાય છે. આ વિષયમાં દૃષ્ટાન્ત બતાવતાં તેઓ કહે છે કે-જેમ ફેલ્લે ફાલ્ટી શરીરમાંથી જ ઉત્પન્ન થાય છે, શરીરમાં જ વધે છે. શરીરનું જ અનુગમન કરે છે અને શરીરના આધાર પર જ ટકે છે, એજ પ્રમાણે સઘળા પદાર્થ ઈશ્વરશી જ ઉત્પન્ન થાય છે. ઈશ્વરમાં જ વધે છે, અને ઈશ્વરને આધાર બનાવીને સ્થિત રહે છે. Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् ૨૭ करोति - ' से जहा णामए अरई सिया सरीरे जाया सरीरे संबुड्डा सरीरे अभिसमण्णागया सरीरमेव अभिभूय चिट्ठति' तद्यथा नाम अरतिः - रक्तविकारेण जायः माना लघुव्रणपुञ्जरूपा शरीरे जाता शरीरे संवृद्धा शरीरेऽभिसमन्वागता शरीरमेवाभिभूय तिष्ठति । एवमेव धम्मा वि पुरिसा दिया जाय पुरिसमेव अभिभूय चिति' एवमेव धर्माः सर्वपदार्था अपि पुरुषादिका यावत् पुरुषमेवाऽभिभूय तिष्ठन्ति । ' से जहा णामए वम्मिए सिया पुढचि जाए पुढवि संबुड़े पुढवि अभिसमण्णागर पुढविमेत्र अभिभूय चिट्ठ' तद्यशनाम वल्मीकं स्यात् पृथिवीजातं पृथिवी संवृद्धं पृथिवीमभिसमन्वागतं पृथिवीमेत्राऽभिभूय - व्याप्य तिष्ठति 'एवमेत्र धम्मा वि पुरिसाइया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिद्वंति' एवमेव धर्मा अपि पुरुषादिका यावत् पुरुषमेवाऽभिभूय तिष्ठन्ति । 'से जहा णामए रुक्खे सिया' तद्यथा नाम वृक्षः स्यात् 'पुढच जाए' पृथिवी जातः 'पुढवि संबुट्टे' पृथिवी संद्धः 'पुढवि अभिसम पुनः दूसरे दृष्टान्त से इसी अर्थ का समर्थन करते हैं- जैसे अरति (चित्त की उद्विग्नता) शरीर में उत्पन्न हुई, शरीर में वृद्धि को प्राप्त हुई, शरीर का ही अनुगमन करती है और शरीर के सहारे ही रहती है, इसी प्रकार सभी पदार्थ ईश्वर से ही उत्पन्न होते हैं यावत् ईश्वर के आश्रय ही रहते हैं । जैसे वल्मीक 'बांबी, गुजरात में राफडा' पृथ्वी से उत्पन्न होता है, पृथ्वी में ही बढता है, पृथ्वी में ही अनुगत रहता है और पृथ्वी को हव्यात करके ठहरता है, इसी प्रकार समस्त जड़ चेतन पदार्थ भी पुरुष से ही उत्पन्न होते हैं यावत् पुरुष के ही आश्रित रहते हैं । जैसे वृक्ष पृथ्वी से उत्पन्न होते हैं पृथ्वी में वृद्धिपाता है, और ફરીથી બીજુ દૃષ્ટાન્ત બતાવીને આજ હેતુને વધારે દઢ કરે છે. જેમ અરતિ (ચિત્તનુ ઉદ્વિગ્ન પણુ) શરીરમાં ઉત્પન્ન થઈ શરીરમાં વધે છે, અને શરીરનું જ અનુગમન કરે છે, અને શરીરના આશ્રયથી રહે છે. એજ પ્રમાણે સઘળા પદાર્થો ઈશ્વરથી જ ઉત્પન્ન થાય છે. ચાવત્ ઈશ્વરના આશ્રયથી જ રહે છે. જેમ વલ્ભીક (રાડા) પૃથ્વીમાંથી ઉત્પન્ન થાય છે, પૃથ્વીમાં જ વધે છે, અને પૃથ્વીમાં જ સ્થિર રહે છે, અને પૃથ્વીમાં જ અનુગત રહે છે, તથા પૃથ્વીમાં જ વ્યાપ્ત થઈને રહે છે, એજ પ્રમાણે સઘળા જડ અને ચેતન પદાર્થો પણુ ઈશ્વમાંથી જ ઉત્પન્ન થયા છે. યાવત્ પુરૂષના આશ્રપૃથી રહે છે. જેમ વૃક્ષ પૃથ્વીથી ઉત્પન્ન થાય છે. પૃથ્વીમાં વધે છે, અને પૃથ્વીમાં Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गस्थे गागए' पृथिवीममिसमन्वागतः, 'पुढविमेव अभिभूय चिटई' पृथिवीमेवाऽभिभूयव्याप्य तिष्ठति । 'एवमेव धम्मा वि पुरिसाइया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति' एवमेव धर्मा अपि पुरुषादिका यावत् पुरुपमेवाऽभिभूय तिष्ठन्ति । 'से जहा णामए' तद्यथा नाम 'पुक्खरिणी सिया' पुष्करिणी स्यात् वापी भवेत् 'पुढविजाया' पृथिवी जाता 'जाव पुढविमेव अमिभूय चिट्टई' यावत् पृथिवीमेवाऽभिभूय तिष्ठति, यथा वा वापी पृथिव्यां जायते तत्रैव निष्ठति तस्यामेव लीयते 'एवमेव धम्मा वि पुरिसाइया जाव पुरिसमेत्र अभिभूय चिट्ठति' एवमेव धर्मा अपि पुरुषादिका यावत् पुरुपमेवाऽभिभूय लिष्टन्ति । 'से जहा णामए' तथानाम 'उदगपुक्खले सिया' उदकपुष्कलम्-उदकनाचुय-जरवृद्धिः स्थान 'उदगजाए जाव उदगमेव अभिभूष चिट्ठई' उदकजातं यावदुदकमेवामिभूय तिष्ठति । एवमेव धम्मा वि पुरिसाइमा जाब पुरिसमेत्र अभिभूय चिटुंति' एवमेव धर्मा अपि पुरुषादिका यावत् पुरुषमेलाऽभिभूय तिष्ठन्ति । यथा खल्ल उदकवृद्धि जलादुद्भूय जल एव स्थितं भवति, तथैव सर्व कार्यजातं पुरुपादुत्पद्य पुरुष एव तिष्ठति । 'से जहा णामए उद गवुखुए पृथ्वी को ही व्याप्त करके ठहरता है, इसी प्रकार समस्त पदार्थ पुरुषसे ही उत्पन्न होते हैं और पुरुप को ही व्याप्त करके ठहरते हैं। जैसे वापी 'वावडी' पृथ्वी से उत्पन्न होती है, यावत् पृथ्वी को ही व्याप्त करके रहती है और पृथ्वी में ही विलीन हो जाती है, इसी प्रकार समस्त पदार्थ पुरुष से ही उत्पन्न होते हैं यावत् पुरुष को ही व्याप्त करके रहते हैं। जैसे जल की वृद्धि जल से ही होती है, और जल को ही व्याप्त करके रहती है, इसी प्रकार समस्त पदार्थ पुरुष ईश्वर से ही उत्पन्न हुए हैं और पुरुष के ही आश्रय से रहते हैं। જ વ્યાસ થઈને રહે છે. એ જ પ્રમાણે સઘળા પદાર્થો પુરૂષથી જ ઉત્પન્ન થાય છે. અને પુરૂષમાં જ વ્યાપ્ત થઈને રહે છે. - જેમ વાવ પૃથ્વીમાં ઉત્પન્ન થાય છે, યાવત્ પૃથ્વીમાં જ વ્યાપ્ત થઈને રહે છે. અને પૃથ્વીમાં જ વિલીન થઈ જાય છે. એ જ પ્રમાણે સઘળા પદાર્થો પુરૂષથી જ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. યાવત્ પુરૂષને જ વ્યાપ્ત થઈને રહે છે. જેમ જળની વૃદ્ધિ જળથી જ થાય છે. અને જળને જ વ્યાપ્ત થઈને રહે છે. એ જ પ્રમાણે સઘળા પદાર્થો પુરૂષ-ઈશ્વરથી જ ઉત્પન થાય છે: અને પુરૂષના જ આશ્રયથી રહે છે, Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समार्थबोधिनी टीका द्वि. थु. अ. १ पुण्डरीकन माध्ययनम् सिया' तद्यथा नाम - उदकबुद्बुदः स्यात् 'उद्गजाए जाव' उदकजातो यावत् 'उदगमेव - अभिमय चिह्न' उदकमेवाविधूय तिष्ठति । 'एवमेव धम्मा वि' एवंमेव धर्मा अपि पुरिसाइया जाव' पुरुषादिका यावत् 'पुरिसमेत्र अभिभूय चिद्वेति' पुरुषमेवाभिभूय तिष्ठन्ति । 'जं पि य इमं समणाणं णिग्गंथाणं उदिकं पणीयं त्रियंजियं दुबालसंगं गणिपिडयं' यदपि चेदं श्रमणानाम् - आईतानां - निर्ग्रन्थानाम्मुनीश्वराणाम् उद्दिष्टम् - उपदिष्टम् प्रगीतं - तदर्थ कथनेन व्यञ्जितं तेपामभिव्यक्तीकृतं द्वादशाङ्गम् आचाराङ्गादि दृष्टिबादपर्यन्तं गणिपिटक गणिनां पिकवत् पिट मन्जूषारूपम् 'तं जहा ' तद्यथा - 'आयारो मृयगडो जात्र दिट्टिवाओ' आचारः सूत्रकृतो याच दृष्टिवादः 'सन्नमेयं मिच्छा' सर्वमेवन्मिथ्या, जिनोक्त शास्त्रं पत्रचननिर्मूलत्वान् मिथ्या, अनीश्वरमणीतत्वात्, 'ण एवं तहियं ण एवं आहातहियं' नैतत् तथ्यम्-न सत्यम्, नैतद् याथातथ्यम् - न यथावस्थितार्थकम् 'इमं सञ्चं इमं आहातहिये' इदमस्माभिः प्रतिपादितं शास्त्रं सत्यम्, इदमेव तथ्यम् - यथाऽवस्थि तार्थप्रकाशकम् 'ते एवं सन्नं कुब्छति' ते ईश्वरकारणिका एव संज्ञां कुर्वन्ति ज्ञानं दधते 'ते एवं सन्नं संठवेंति, ते एवं सन्नं सोबट्ठावयति' ते एवं संज्ञां ज्ञानं संस्थापयन्ति, ते एवं संज्ञां सूपस्थापयन्ति - सुष्ठुतया स्वमतस्थापनं कुर्वन्ति । शास्त्रकारस्तन्मतं निराकर्तुमाह- सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं प्रत्याह- हे जम्बू स्वामिन्! 'तमेवं ते तज्जाइयं दुक्खं णाविउद्यति' तदेवं ते तज्जातीयं 9 1 जैसे जल का बुलबुला जल से ही उत्पन्न हुआ यावत् जलके आश्रय से रहता है, उसी प्रकार समस्त पदार्थ पुरुष से ही उत्पन्न होते हैं और यावत् पुरुष के ही आश्रित रहते हैं । श्रमण निर्ग्रन्थों के द्वारा उपदिष्ट आचरांग से लेकर दृष्टिबाद से पर्यन्त जो द्वादशांग गणिपिटक है, वह मिथ्या है और हमारा ही मत श्रेष्ठ है, श्रेयस्कर है, उद्धारकत्ती है । ईश्वरकारणवादियोंका यह कथन है । इस प्रकार कथन करते हुए अपने मत के अनुसार જેમ પાણીના પરપાટા પાણીથી જ ઉત્પન્ન થાય છે, યાવત્ જલના આશ્રયથી રહે છે, એજ પ્રમાણે સઘળા પદાર્થાં પુરૂષથી જ ઉત્પન્ન થાય છે. અને યાવત્ પુરૂષના આશ્રયથી જ રહે છે. શ્રમણુ નિષ્રન્થા દ્વારા ઉપદેશેલ આચારાંગથી લઈને દૃષ્ટિવાદ પર્યન્ત જે દ્વાદશાંગ ગણિપિટક છે, તે મિથ્યા છે. અને અમારા મતજ શ્રેષ્ઠ છે. શ્રેયસ્કર છે ઉદ્ધાર કરવાવાળા છે. ઈશ્વર કારણ-વાાિનુ એવું કથન છે. આ પ્રમાણે કથન કરતા થકા પેાતાના મત અનુસાર લેાકાને અનેક અનર્થાને सू० १२ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे लोगों को अनेक अनर्थों के जनक एवं संसार में परिभ्रमण कराने वाले कार्यों में प्रवृत्त करते हुवे वे स्वयं भी सावद्य अनुष्ठान में प्रवृत्त होते हैं। इस प्रकार दोनों ओर से भ्रष्ट होकर वारंवार संसारचक्र को ही प्राप्त होते हैं। वे दुःख सागर से किसी भी प्रकार त्राण नहीं पाते हैं। इस प्रकार संसार सागर में कर्म रूपी कीचड़ में फैले हुए पुरुष के रूप में पुरुकरिणी के कीचड़ में फंसे तीसरे पुरुष का व्याख्यान किया गया है। के इस प्रकार कहते हैं-आचारांग, सूत्रकृतांग यावत् दृष्टिवाद यह सब जिनोक्त शास्त्र मिथ्या हैं, क्योंकि निर्मूल है, न थे तथ्य हैं, न याथातथ्य हैं। हमारे द्वारा प्रतिपादित शास्त्र सत्य हैं, यही वास्तविक अर्थ के प्रकाशक हैं । वे ऐसा समझाते हैं और इसी मन को सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। . सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं-हे जम्बू ! वे इस मत को स्वीकार करने से उत्पन्न होने वाले दुःख को नष्ट नहीं कर सकते, કરવાવાળા અને સંસારમાં પરિભ્રમણ કરવાવાળા કાર્યોમાં પ્રવૃત્ત કરતા થકા તેઓ સ્વયં પણ સાવદ્ય અનુષ્ઠાનમાં પ્રવૃત્ત રહે છે. આ રીતે બન્ને બાજુથી ભ્રષ્ટ થઈને વારંવાર સંસાર ચક્રને જ પ્રાપ્ત કરે છે. તેઓ દુખ રૂપી સંસાર સાગરથી કઈ પણ પ્રકારે રક્ષણ મેળવી શક્તા નથી. આ રીતે સંસાર સાગરમાં કર્મ રૂપી કાદવમાં ફસાયેલાને પુરૂપના રૂપથી વાવના કાદવમાં ફસાયેલ ત્રીજા પુરૂષના વ્યાખ્યાન પ્રમાણે सभरवा. તેઓ આ રીતે કહે છે. આચારાંગસૂત્રકૃતાંગ યાવત દષ્ટિવાદ આ સઘળું છોક્ત શાસ્ત્ર મિથ્યા છે. કેમકે તે નિર્મળ છે. તે તથ્ય નથી તેમજ યથાત પણ નથી અર્થાત્ તેમાં સત્યપણું નથી. અમેએ પ્રતિપાદન કરેલ શાસ્ત્ર સત્ય છે. એજ વાસ્તવિક અર્થને પ્રકાશ કરનાર છે. તેઓ આ રીતે સમજે છે. અને સમજાવે છે. અને એજ મતને સિદ્ધ કરવાનો પ્રયાસ કરે છે. સુધમાં સ્વામી જખ્ખ સ્વામીને કહે છે––હે જબૂ તેઓ આ મતને સ્વીકાર કરવાથી ઉત્પન્ન થવાવાળા દુઃખને નાશ કરી શકતા નથી. નિર્દોષ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संमयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् दुखं नैव बोटयन्ति, निष्कलङ्कशास्त्रस्य निन्दनात् तद्विपरीतकुशास्त्रप्रतिपादित जीववधादिकुत्सितकर्मकरणात् ताशकर्म ननिताऽशुभात्मकवन्धनस्य विनाशने, समर्था न भानास्तस्मिन् संसारचक्रे एव परिभ्रमन्ति । अभाऽर्थेऽनुरूपं दृष्टान्तं पदशयति-'सउणी पंजर जहा शकुनिः पक्षी यथा पजाम् , यथा शकुनिः पञ्चरबन्धन घोटने समर्थों न भवति, वद्धत्वादेव तथा ते वादिनोऽपि संसारचक्रं नाऽति. कामन्ति स्त्रोपार्जिताऽशुभकर्मवत्वादिति । 'ते णो एवं विप्पडि वेदेति' ते नो एवं, विमतिवेदयन्ति, मोक्षमार्ग न सम्यग् जानन्ति, 'तं जहा-किरियाह वा जाव अणि रए वा तद्यथा क्रियेति वा यावद् अनिरय इति वा, क्रियादेरारभ्य अनिरयान्वं सुकृतदुष्कृतादिकमेतदध्ययनदशममूत्रप्रतिपादित वस्तु न जानन्वि यावच्छन्देन. निर्दोष शास्त्र की निन्दा करने और उससे विपरीत कुशास्त्र में प्रतिपाः दित जीव हिंसा आदि कुकृत्यों को करने के कारण उत्पन्न होने वाले अशुभ धन्धन को नष्ट करने में समर्थ न होते हुए संसार चक्र में ही परिभ्रमण करते रहते हैं। इस विषय में अनुरूप दृष्टान्त प्रदर्शित करते हैं-जैसे पक्षी पिंजरें के बन्धन को तोड़ने में समर्थ नहीं हो पाता, उसी प्रकार वे वादी भी संसार चक्र का उल्लंघन नहीं कर सकते, क्योंकि वे अपने द्वारा उपा. जिंत अशुभ कर्मों से बंधे हुए हैं। वे मोक्षमार्ग को स्वीकार नहीं करते। वे कहते हैं-न किया है न अक्रिया है यावत् न नरक है, न नरक के अतिरिक्त अन्य कोई लोक अर्थात स्वर्ग-आदि अनरक है। अर्थात् इसी अध्ययन के दसवें सूत्र में कही हुई पुण्य पाप आदि वस्तुओं को वे स्वीकार શાસ્ત્રની નિંદા કરવાથી અને તેનાથી ઉલટા કુશાસ્ત્રમાં પ્રતિપાદન કરેલ છવહિંસા વિગેરે કુત્યિને કરવાથી ઉત્પન્ન થવાવાળા અશુભ બન્ધને નાશ કરવામાં સમર્થ ન થતા સંસાર ચક્રમાંજ પરિભ્રમણ કરતા રહે છે. આ વિષયમાં તેને વાગ્યે દષ્ટાન્ત બતાવતાં કહે છે કે જેમ પક્ષી પાંજરાના બંધનને તેડવામાં સમર્થ થઈ શકતા નથી, એજ પ્રમાણે તે વાદીઓ પણ સંસાર ચક્રનું ઉલ્લંઘન કરી શકતા નથી. કેમકે તેઓ પિતા. નાથી ઉપાજીત કરેલા, અશુભ કર્મોના બંધનથી બંધાયેલા હોય છે. તેઓ મોક્ષમાર્ગને સ્વીકાર કરતા નથી, તેઓ કહે છે કે-કિયા નથી, તેમજ અક્રિયા પણ નથી, ચાવત્ નરક નથી. તેમ નરકથી જુદે એ બીજે કઈ લેક પણ નથી. અર્થાત્ અનરક પણ નથી. તેમજ આ અધ્યયનના દસમા સૂત્રમાં કહેલ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतास्त्र अक्रिया-मुकृत-दुष्कृत-कल्याण-पाप-साध्वसाधु-सिद्धयसिद्धि - निरयपर्यन्तस्य ग्रहणं भवति । एवमेव ते विख्वरूवेहि कम्मसमारंभेहि विरूवरूवाई कामभोगाई' एवमेव ते विरूपरूपैः कर्मसमारम्भैः-अनेकमकारककर्मभिः विरूररूपान् -नानामकारकान् 'कामभोगाई' काममोगान्-शब्दादिस्वरूपान् , भोयणाए' उपभोगाय 'समारभंति' समारभन्ते-क्रमसमारम्भं कुर्वन्तीति भावः। 'एवामेव ते आणारिया विप्पडिवन्ना' एवमेव ते अनार्या विप्रतिपन्ना:-विपरीतभावमापना: समभवन्' 'एवं सद्दहमाणा' एवं श्रद्दधानाः 'जाव इई' यावदिति । ते णो इन्चाए णो पाराए' नो अर्वाचे नो पाराय किन्तु-'अंतरा कामभोगेसु विसण्णा' अन्तरामध्ये कामभोगेपु-इच्छामदनरूपेषु विषण्णा निमग्ना भवन्ति 'ति' इति' तच्चे पुरिस जाए तृतीयः पुरुष नातः 'ईसरकारणिर ति आहिए' ईश्वरकारणिक इत्याख्यातः । अयमेव तृतीयः पुरुपो यः पश्चिमदिग्विभागादागत्य स्वीय पाण्डित्यं प्रदर्श यन् -पुष्करिणीमध्यस्थितं मोक्षात्मपम वरपुण्डरीकमानेतु संसारपुष्करिण्यो प्रविनहीं करते हैं । यहाँ 'यावत्' शब्द से अक्रिया सुकृत दुष्कृत कल्याण, पाप, साधु, असाधु, सिद्धि, असिद्धि एवं नरक पर्यन्त का ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार वे विविध प्रकार के आरंभ-समारंभ करके नोना प्रकार के कामभोगों को भोगने के लिए सावध कर्म करते हैं । इस प्रकार की श्रद्धा करते हुए वे अनार्य है, विपरीत मान्यता ग्रहण किये हुए हैं। वे न इधर के हैं, न उधर के हैं। बीच में ही इच्छ। और मदन रूप काम भोगों में निमग्न होते हैं। यह तीसरा पुरुष ईश्वर कारणवादी कहा गया है । यह वह तीसरा पुरुष है जो पश्चिम दिशा से आकर अपने पाण्डित्य को प्रकट करता हुआ पुष्करिणी के मध्य में स्थित मोक्षरूपी प्रधान पुण्डरीक को लाने के પુણ્ય, પાપ વગેરેને તેઓ સ્વીકાર કરતા નથી. અહિયાં યાવત શબ્દથી અક્રિયા संत, दुष्कृत, ४८या, पाप, साधु, साधु, सिद्धि मसिद्धि मने न२४ સુધી તેઓ સ્વીકાર કરતા નથી તેમ સમજવું. આ રીતે તેઓ અનેક પ્રકારથી આરંભ, સમારંભ કરીને અનેક પ્રકારના કામોને ભેગવવા માટે સાવધ કર્મ કરે છે આ પ્રમાણેની શ્રદ્ધા કરતા થકા તેઓ અનાય છે. વિપરીત માન્યતા ગ્રહણ કરેલ છે. તેઓ અહિંના નથી. તેમ ત્યાંના પણ રહેતા નથી. વચમાં જ ઈચ્છા અને મદન રૂપ કામોમાં નિમગ્ન રહે છે. આ ત્રીજો પુરૂષ ઈશ્વર કારણવાદી કહેલ છે. આ ત્રીજો પુરૂષ છે, કે જે પશ્ચિમ દિશાએથી આવીને પિતાના પાંત્યિને પ્રગટ કરતે થકે વાવની મધ્યમાં રહેલ મેક્ષરૂપી પ્રધાન પુંડરીક-કમળને લાવવા માટે સંસાર રૂપી Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् शन् सर्वज्ञशास्त्रपतिपादितज्ञानादिमार्गस्याऽविद्वान् कर्मपके निमग्नो विनिपीदन्नेव तिष्ठति । ईश्वरस्य जगत्कत्तृत्वे युक्तरभावात्, तथा सर्वस्याऽऽत्मरूपत्वेऽनु. भवविरोधात् उभावपि पक्षौ-अनङ्गीकारपराहतौ इति सू०११ । __मूलम्-अहावरे चउत्थे पुरिसजाए णियइवाइए ति आहिज्जइ, इह खलु पाईणं वाट, तहेव जाव सेणावइपुत्ता वा, तेसिं घणं एगइए सड्डी भवइ, कामं तं समणा य माहणा य संपहारिंसु गमणाए जाव भए एल धम्से सुअक्खाए सुपन्नत्ते भवइ । इह खलु दुवे पुरिसा भवंति एगे पुरिले किरियमाइक्खइ, एगे पुरिसे णो किरियलाइक्खइ। जे य पुरिसे किरियमाइक्खइ जे य पुरिसे णो किरियमाइक्खइ दो वि ते पुरिसा तुल्ला एगट्टा कारणमावन्ना। बाले पुण एवं विप्पडिवेदेइ, कारणमावन्ने अहमंलि दुक्खामि वा सोयामि वा जूरामि वा तिप्पामि वा पीडामि वा परितप्पामि वा अहमेयमकासि परोवा लिए संसार रूपी पुष्करिणी में प्रविष्ट हुआ और सर्वज्ञ प्रतिपादित ज्ञानादि रूप मोक्षमार्ग को न जानने के कारण कर्मरूपी कीचड़ में फंस कर विषाद को प्राप्त हुआ। ईश्वर जगत् का कती है, इस पक्ष को सिद्ध करने के लिए कोई युक्ति नहीं है। सभी पदार्थों को आत्मस्वरूप आत्ममय माना अनुभव से बाधित है । अतएव ये दोनों पक्ष अंगीकार न करने से ही खंडित हो जाते हैं ॥११॥ વાવમાં પ્રવેશ કર્યો અને સર્વજ્ઞ દ્વારા પ્રતિપાદન કરેલા જ્ઞાનાદિરૂપ મે - માર્ગને ન જાણવાના કારણે કર્મરૂપી કાદવમાં ફસાઈને ખેદને પ્રાપ્ત થયો છે. ઈશ્વર જગતના કર્તા છે. આ પક્ષને સિદ્ધ કરવા માટે કઈ પણ યુક્તિ નથી. સઘળા પદાર્થોને આત્મ સ્વરૂપ આત્મમય માનવામાં અનુભવથી બાધ આવે છે. તેથી જ આ બંને પક્ષેને અંગીકાર ન કરવાથી જ તે ખંડિત થઈ જાય છે. ૧૧ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गो जे दुक्खइ वा सोयइ वा जुरइ वा तिप्पइ वा पीडइ वा परितप्पइ वा परो एवमकालि, एवं से वाले स कारणं वा परकारणं वा एवं विपडिवेदेइ कारणमावन्ने। मेहावि पुण एवं विपडिवेदेइ कारणमावन्ने अहमंसि दुक्खामि वा सोयामि वा जूरामि वा तिप्पासि वा पीडामि वा परितप्पामि वा, णो अहं एवमकासि परो वा जं दुक्खइ वा जाव परितप्पइ वा णो परो एवमकाति, एवं से सेहावी सकारणं वा परकारणं वा एवं विप्पडिवेदेह कारणमावन्ने, से वेमि पाईणं वा ४ जे तसथावरा पाणा ते एवं संघाय मागच्छंति ते एवं विपरियासमावज्जति ते एवं विवेगमागच्छंति ते एवं विहाणमागच्छति ते एवं संगतियंति उवेहाए, णो एवं विप्पडिवे ति, तं जहा-किरियाइ वा जाव णिरएइ वा अणिरएइ वा, एवं ते विरूवरूवेहि कम्मसमारभेहिं विरूवरूवाई कामभोगाई समारभंति भोयणाए। एवमेव ते अणारिया विप्पडिवन्नो ते सद्दहमाणो जाव इइ ते णो हव्वाए णो पाराए अंतरा कामभोगेसु विसण्णा। चउत्थे पुरिसजाए णियइवाइए ति आहिए इच्चेते चत्तारि पुरिसजाया णाणापन्ना गाणाछंदा णाणासीला जाणादिट्ठी जाणाई णाणारंभा णाणाअध्झवसाणसंजुत्ता पहीणपुवसंजोगा आरियं मग्गं असंपत्ताइइते णो हव्वाए णो पाराए अंतरा कामभोगेसु विसण्णा।१२॥ छाया-अधापरश्चतुर्थः पुरुषो निपतिवादिक इत्याख्यायते । इह खलु मान्यां वा ४ तथैव यावत् सेनापतिपुत्राः । तेपां च खलु एकः श्रद्धावान् भवति कामं तं श्रमणाश्च ब्राह्मगाश्च संप्रधाः गमनाय, यावद् मया एप धर्मः स्वाख्यातः Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् सुप्रज्ञप्तो भवति । इह खलु द्वौ पुरुषौ भवतः एकः क्रियामाख्याति एकः पुरुषो नो क्रियामाख्याति । यश्च पुरुषः क्रियामाख्याति, यश्च पुरुषो नो क्रियामाख्याति, द्वापि तौ पुरुषौ तुल्यौ, एकार्थी एककारणमापन्नौ । बाला पुनरेवं विपतिवेदयति-कारणमापन्नोऽहमस्मि दुःख्यामि वा शोचामि वा खिद्यामि वा ते पे वापीडयामि वा परितप्ये वा अहमेवमकार्षम् । परो वा यद् दुःख्यति वा शोचति वा खिद्यति वा तेपते वा पीडयति वा परितप्यते वा परः, एवमकार्षीत् । एवं स बालः स्वकारणं वा परकारणं वा एवं विपतिवेदयति कारण मापन्नः । मेधावी पुनरेवं विप्रतिवेदयति कारणमापन्नः अहमस्मि दुःखामि वा खिद्यामि वा तेपे वा पीडयामि वा परितप्ये वा नाहमेवमकार्षम् । परो वा यद् दुःख्यति यावत् परितप्यते वा न परः एवमकार्वीत् । एवं स मेधावी स्वकारणं वा परकारणं वा एवं विप्रतिवेदयति कारणमापन्नः । अथ व्रीमि प्राच्यां वा ४, ये त्रसस्थावराः प्राणाः ते एवं सङ्घातमागच्छन्ति, ते एवं विपर्यासमागच्छन्ति वे एवं विवेकमागच्छन्ति ते एवं विधानमागच्छन्ति, ते एवं सङ्गति यन्ति उत्प्रेक्षया । नो एवं विपतिवेदयन्ति तद्यथा क्रिया-इति वा यावन्निरय इति वा, अनिरय इति वा । एवं ते विरूपरूपैः कर्मसमारम्भः विरूपरूपान् कामभोगान् समारभन्ते भोगाय एकमेव ते अनार्या विप्रतिपन्नास्तत् श्रद्दधानाः यावदिति तं नो अर्वाचे नो पाराय अन्तरा कामभोगेषु विषण्णः चतुर्थः पुरुषो नियतिवादिक इत्याख्यायते इत्येते चत्वारः पुरुषजातीयाः नाना मज्ञाः नाना छन्दाः नाना शीलाः नाना दृष्ट्यः नाना रुचयः नाना रम्भाः नानाऽध्यवसान संयुक्ताः प्रहीण पूर्वसंजोगाः आर्य मार्ग अपना इति नो अर्वाचे नो पाराय अन्तरा काम भोगेषु विषण्णाः ॥सूस १२ ॥ टीका - तृतीय पुरुषपर्यन्तं निरूप्य चतुर्थ पुरुषमाद - 'अहावरे' इति । 'अ' तृतीय पुरुषानन्तरम् 'अवरे चउत्थे पुरिसजाए गियइवाइएत्ति आहिज्ज ई' अपरश्चतुर्थः पुरुष जातः - नियतिवादिक इत्याख्यायते । 'इह खलु पाईं वा ४ तदेव जांब सेणावपुत्ता वा, इह खलु माच्यां वा तथैव यात्रव सेनापतिपुत्रा वा । इहापि 'अहावरे चउरथे पुरिसजाए' इत्यादि । टीकार्थ- तीसरे पुरुष का वर्णन करके अब चौथे पुरुष का वर्णन करते हैं । यह चौथा पुरुष नियतिवादी कहा गया है। यहां भी पुष्करिणी की पूर्वदिशा से आरंभ करके राजा, परिषद् सेनापतिपुत्र पर्यन्त 'अहावरे चत्थे पुरिसजाए' इत्यादि ટીકાથ—ત્રીજા પુરૂષનું વધુ ન કરીને હવે ચેાથા પુરૂષનું વર્ણન કરવામાં આવે છે. આ ચેથાપુરૂષ તે નિયતિવાદી સમજવા. અહિયાં પણ વાવની પૂર્દિશાએથી આરભીને રાજા, પિરષદ સેનાપતિ પુત્ર પન્તના આ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतागसूत्रे पुष्करिण्याः पूर्वदिशात आरस्य राजसदस्यपरिपत् सेनापतिपुत्रपर्यन्ताः सर्वेऽपि पदार्था एतद्ध्ययनप्रथमत्रपदे अनुसन्धेयाः । 'तेसिं च णं एगईए सड़ी भवई तेपा खल्वेकः श्रद्धावान् भवति । 'कामं तं समणा य माहणा य संपहारिंसु गमणाए' काम-स्वेच्छया तं श्रद्धालु ज्ञात्वा, तत्समीपम् 'गमणाए' गमनाय-गन्तुम् 'समणा य श्रमणाश्च 'माहणा य' ब्राह्मगाश्च 'संपहारिसु' संप्रधा:-निश्चिन्वन्ति, निश्चित्य-श्रद्धालोरन्तिकं गस्वा कथयन्ति । 'जाव मए एस धम्मे सुक वाट मुपन्नत्ते भवई' यावन्मया एप धर्मः स्वाख्यातः सुपज्ञप्यो भाति, भो धर्माभिलाषुक ! अहं भवते सत्यं धर्ममुपदिशामि-तं च भवन्तः साधानमनसः शृण्वन्तु 'इह खल्लु दुवे पुरिसा भवंति' इह-अस्मिन् लोके खलु निश्चयेन 'दुवे पुरिसा' द्वौ-द्विप्रकारको पुरुषौ भवतः। 'एगे पुरिसे किरियमाइक्ख' एकः पुरुषः क्रियामाख्याति, क्रियया स्वर्गमोसो भवत इति प्रतिपादयति । 'एगे पुरिसे जो किरियमाइक्खई' एकः पुरुषो नो क्रियामाख्याति 'जे य पुरिसे किरियमाइक्ख' इस अध्ययन के प्रथम सूत्रपद में कथित सब विषयों का कथन समझ लेना चाहिए। उनमें से कोई धर्मश्रद्धावान होता है। उसे श्रद्धावान् समझ कर कोई श्रमण अथवा ब्राह्मण अपनी इच्छा से उत्त के समीप जाने का निश्चय करते हैं और उन अद्वाल राजा आदि के समीप जाकर कहते हैं-हमारा यह धर्म सु आख्यात है, सरलता से समझ में आने योग्य है। हे धर्म के अभिलाषी ! मैं आप को सत्य धर्म का उपदेश करता हूं। आप उसे सावधान होकर सुनिए। इस लोक में दो प्रकार के पुरुष होते हैं। एक वह है जो क्रिया के द्वारा ही स्वर्ग मोक्ष होना कहता है और दूसरा वह है जो क्रियावादी नहीं है अर्थात् क्रिया से स्वर्ग मोक्ष का होना नहीं मानता है। जो क्रिया અધ્યયનના પહેલા સૂત્રમાં કહેલ સઘળા વિષયનું કથન સમજી લેવું જોઈએ. તેમાંથી કઈ ધર્મ શ્રદ્ધાવાનું હોય છે. તેને શ્રદ્ધાવાન સમજીને કેઈ શ્રમણ અથવા બ્રાહ્મણ પિતાની ઈચ્છાથી તેની પાસે જવાની ઈચ્છા કરે છે. અને તે શ્રદ્ધાલુ રાજાની પાસે જઈને કહે છે કે–અમારે આ ધર્મ સુ ખ્યાત છે. અને સરલ પણાથી સમજી શકાય તે છે. હે ધર્મના અભિલાષી! હું આપને સત્ય ધર્મને ઉપદેશ કરું છું. આપ તેને સાવધાન થઈ ને સાંભળે. આ લેકમાં બે પ્રકારના પુરૂષ હોય છે. એક તે તે છે કે જેઓ ક્રિયા દ્વારા જ વર્ગ અને મેક્ષ થવાનું કહે છે. અને બીજું એ છે કે જે કિયાવાદી નથી. અર્થાત્ કિયાથી સ્વર્ગ અને મોક્ષ થવાનું સ્વીકારતા નથી જે Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् यश्व पुरुषः क्रियामाख्याति प्रतिपादयति 'जे य पुरिसे नो किरियमाइक्खई" यश्च पुरुषो नो क्रियामाख्याति 'दो वि ते पुरिसा तुल्ला एगट्ठां कारणमावन्ना'. द्वावपि तौ पुरुषौ तुल्यौ - समानी, 'एगट्टा' एकार्थी' कारणमापन्नी एकं नियतिरूपं कारणमाश्रित्य तुल्यौ स्तः किन्तु - ' वाले पुण' वाल :- अः - कालेश्वरादिवादी पुनः 'ए' एवम् वक्ष्यमाणरीत्या 'विप्पडिवे देह' चिमविवेदयति जानाति, 'कारणमावन्ने' कारणमापन्नः सुखदुःखसुकृतदुष्कृतप्रभृते: कारणं स्वकृतं एव पुरुषकारः काळेश्वरादिवाऽस्तीत्येवं कारणमभ्युपपन्नः नान्यन्नियत्यादिकं कारणमस्तीति, तदेवाह - 'अहमंसि' श्रहमस्मि 'दुक्खामि वा दुःखवामि- शारीरंमानसिकं दुःखमनुभवामि 'सोयामि वा' शोचामि - इष्टाऽनिष्ट वियोग संयोगजन्य शोकमनुभवामि 'जूरामि वा' खिद्यामि - मानसिकखेदमनुभवामि 'तिष्यामि वा तेपे - शारीरबलक्षरणेन क्षरामि 'पीडामि वा' पीडयामि - सबाह्याभ्यन्तरतया पीडामनुभवामि 'परिष्यामि वा' परितप्ये हृदयान्तरः परितापमनुभवामि, यदहं दुःखादिकमनुभवामि तत्सर्वमपि 'अहमे पमकासि' अदमेवमकार्पम्, यन्मया दुःखादिकं भोक्ष्यते सर्वे मम कृतकर्मण एव फलं नाऽन्यस्य । 'परो वा जं दुक्खइ वा सोय वा जूरइ वा तिप्पक वा पीडइ वा परितप्य वा परो वा यद् दुख्यति वा शोचति को मानता है और जो क्रिया को नहीं मानता है, यह दोनों पुरुष समान है, दोनों एक ही कारण को प्राप्त हैं । ये दोनों ही अज्ञानी हैं क्योंकि इन्हें तब का ज्ञान नहीं है कि नियति से ही सभी कुछ होता है कारण को मानने वाला अज्ञानी ऐसा समझता है। कि काल, कर्म, ईश्वर आदि ही फल के जनक हैं। वे समझते हैं कि मैं जो दुःख भोग रहा हूं, शोक पा रहा हूं, दुःख से आत्मग्लानि पा रहा हू, शारीरिक शक्ति को नष्ट कर रहा हूं, पीड़ित हो रहा हूं, और संतप्त हो रहा हूं, यह सब मेरे किये कर्म का फल है अथवा दूसरा कोई जो दुःख पा रहा ક્રિયાને સ્વીકારે છે. અને જે ક્રિયાને માનતા નથી આ મતે પુરૂષા સરખા જ છે, બન્ને એક જ કારણને પ્રાપ્ત થયેલા છે. આ બન્ને અજ્ઞાની છે. કેમ કે તેઓને તત્વનુ’જ્ઞાન નથી. તે એવું કહે છે કે નિયતથી જ સઘળું થાય છે. કારંણુને માનવા વાળા અજ્ઞાની એવુ' સમજે છે કે કાળ, કમ, ઈશ્વર, વિગેરેજ ફૂલના આપવા વાળા છે. તે સમજે છે કે-હુ' જે દુઃખ ભાગી રહ્યો છુ શેક પામી રહ્યો છું. દુઃખથી આત્મગ્લાની પામી રહ્યો છુ. શારીરિક શક્તિના નાશ કરી રહ્યો છું. પીડા પામી રહ્યો છું. અને સંતાપ પામી રહ્યો છું. આ બધું મારા કરેલા કર્મનું જ ફળ છે અથવા ખીજા કાઈ જે દુશ્મ પામી રહ્યા છે, શાક પામી રહ્યા છે, આત્મગ્લાનિ કરી રહ્યા છે, શારીરિક सु० १३ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे पा विधति वा तेपते वा पीडयति वा परितप्यते वा, तत्र 'दुख्यति-दुखिं साप्नोति, शोचति-शोकं माप्नोति वा, खिद्यति-खेदं माप्नोति तेपते वा-दुःखातिरेकेण तापं प्राप्नोति, पीडयति-पीडां प्राप्नोति, परितप्यते-परितापं प्राप्नोति, 'परो एक्मकासि' पर एवमकापीत् यदन्यो वा दुःखादिकमनुभवति-तत्सर्वं स्वयं परपीडोत्पादनेन कृतवान्, तत् तस्य स्वसंपादितकर्मण एव फलम् । 'एवं से वाले सकारण या परकारणं वा एवं विपडिवेदेइ कारणमावन्ने' एवं स वालः स्वकारणं जा परकारणं वा एवं विप्रतिवेदयति कारणमापनः । एवं सोऽज्ञानी कालकर्मपरमेश्वरादीनां मुखदुःखकारणत्वेन मन्यमान स्वस्य मुखदुःखयोः परकीय सुखदुःखयोर्वा स्वकीयकर्मणः परकीयकर्मणो वा कार्यमवगच्छति, इत्येतदेव 'वस्य चालत्वमिति । तदेवं नियतिवादी कालेश्वरादि कारणवादिनो पालत्वं प्रदर्य सम्पति-स्वमनं प्रदर्शयति-'मेहावी पुण' इत्यादि । 'मेहावी पुण एवं विप्पडिवदेइ कारणमावन्ने कारणं नियतिरूपं कारणं प्राप्तो मेधावी पुनरेवं विप्रतिवेदयति, .परन्तु-नियतिमात्रं सुखदुःखादीनां कारणमिति मन्यमानो विद्वांस्तु पुनरेवं 'जानाति 'अहमंसि दुक्खामि वा-सोयामि वा-जूरामि वा-तिप्पामि वा-पीडामि 'वा-परितप्पामि वा, णो अहं एवमकासि, अहमस्मि दुःखामि वा-शोचामि वाहै, शोक पा रहा है, आत्मग्लानि कर रहा है, शारीरिक बल को नष्ट कर रहा है, पीड़ित होता है या ताप भोगता है, यह उसके कर्म का फल है। इस प्रकार अज्ञानी काल, कर्म, परमेश्वर आदिको सुख दुःख 'का कारण मानता हुभा अपने सुख दुःख का कारण अपने कर्म को 'और दूसरे के सुख दुःख का कारण दूसरे के कर्म को समझता है । किन्तु कारण को प्राप्त बुद्धिमान ऐसा जानता है कि मैं दुःख भोगता है, शोक पा रहा हूं, दुाख से भात्मगहीं कर रहा हूं, शारीरिक शक्ति को नष्ट कर रहा हूं, पीड़ा पा रहा हूं, संतप्त हो रहा हूं, इसमें मेरा બળને નાશ કરી રહ્યા છે, પીડા પામે છે, અથવા સંતાપ ભગવે છે, આ "બંધું તેના કર્મનું જ ફળ છે. આ પ્રમાણે અજ્ઞાનીઓ કાળ, કર્મ, પરમેશ્વર વિગેરેને સુખદુઃખનું કારણ માનતા થકા પિતાના સુખ દુઃખનું . કારણ પિતાના કર્મને અને બીજાના સુખ દુઃખનું કારણ બીજાના કમને સમજે છે. પરંતુ કારણને પ્રાપ્ત બુદ્ધિમાનું એવું સમજે છે કે-હું દુખ જોગવું છું, શોક પામી રહ્યો છું. દુઃખથી આત્મનિંદા કરી રહ્યો છું. શારીરિક શક્તિને નાશ કરી રહ્યો છું. પીડા પામી રહ્યો છું. સંતાપ પામી રહ્યો છું. તેમાં મેં કરેલ કર્મ કારણ નથી. આ બધું દુખ વિગેરે નિય Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेमयार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् 醺 खिद्यामि वा तेपे वा पीडयामि वा परितप्ये वा नाहमेवमार्यम्, यदद्द शौ चामि यन्मम पीडादिकं भवति न तत्र कर्मादिकं कारणम् । 'परो व जं दुक्खड़ जायें परिatus वा णो परो चमकासि' परो वा यद् दुख्यति यावत्परितप्यते वा न परं एवमकार्षीत् परोऽपि यद् दुःखादिकमनुभवति, तत्र तादृशदुःखाद्यनुभवेन कर्मणः कारणता, किन्तु - सर्वमेतत्सुखदुःखादिकं स्वस्य परस्य वा तत्सर्वं नियति वलादेव आगच्छति, एवं च नियतिरेव सर्वेषां कारणम् । ' एवं से मेहावी - सकारणं वा परकरणं वा एवं विष्पडिवेदेइ कारणमावन्ने' एवं स मेधावी स्वकारण वा परकारणं वा एवं विमतिवेदयति कारणमापना, अनेन प्रकारेण स बुद्धिमानेवमवगच्छति स्वकारणं परकारण वा सुखदुःखादि मम परस्य वा यद्भवति नं तरस्वकृतपरकृतकर्मणः फलम् ' किन्तु सर्वमेतन्नियतिविचेष्टितमेव इत्थमवधारयति विद्वान् । 'सेमिपाई वा ४' अथ ब्रवीमि युक्तितो निश्चित्य प्रतिपादयामि प्राच्यां वा ४ - प्राच्यां - पूर्वदिशायाम् पश्चिम दिशायां दक्षिणस्यामुत्तरस्यां वा उप वक्षणादूर्ध्वमधोदिशि वा 'जे तसधावारा पाणा' ये सस्थावराः प्राणाः प्राणवन्तो जीवा विद्यन्ते । 'ते एवं संघायमागच्छंति' ते माणा एवं प्रकारेण नियंति बलेनैव सङ्घातम् - मौदारिकादिशरीरभावमागच्छन्ति इति अहं नियतिवादी ब्रवीमि । ये केचन सस्थावराः प्राणिनो यत्र कुत्रापि वसन्ति ते सर्वेऽपि नियतिकिया कर्म कारण नहीं है । इसी प्रकार कोई दूसरा दुःखी होता है यावत् परिताप पाता है, सो उनमें उसका किंया कर्म कारण नहीं है। किन्तु यह सब दुःख आदि नियति के बल से ही उपस्थित होते हैं । अतएव नियति ही सब का कारण है। इस प्रकार वह वुद्धिमान पुरुष ऐसा समझता है मुझ को या दूसरे को जो भी सुख या दुःख होता है, वह स्वकृत अथवा परकृत कर्म का फल नहीं है। यह सब तो नियति का ही कारण है। " अतएव मैं ऐसा कहता हूं - पूर्वादि सभी दिशाओं में जो भी त्रस और स्थावर प्राणी है, वे सब नियति के बल से ही औदारिक आदि शरीरको તિના ખળથી જ પ્રાપ્ત થાય છે. તેથી નિયતી જ સઘળાનુ કારણ છે. આ પ્રમાણે એ બુદ્ધિમાન્ પુરૂષ એવુ' સમજે છે, કે મને અથવા ખીજાને જે કાંઈ સુખ અથવા દુઃખ થાય છે, તે સ્વક્ત અથવા ખીજાએ કરેલ કર્મનું' आज नथी, मा मधु नियतिनु लाग्याधीन र छे, तेथी हुँ' भे કહું છુ કે પૂત્ર વિગેરે સઘળી દિશાઓમાં જે કૈાઈ ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાણિયા છે, તે સઘળા નિયતિના ખળથી જ ઔદારિક વિગેરે શરીરને પ્રાપ્ત Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० सूत्रकृतात्सूत्र नैव शरीरसङ्घातं प्राप्नुवन्ति, तथा - नियतिवलेनैव शरीराद्वियुज्यन्ते सु सुखदुःखादिकं सर्वमेत्र अनुकूल प्रतिकूलजातं लभन्ते इति । ' ते एवं विपरियासमावज्जति' एवं ते नियतिवलेनैव विपर्यासमागच्छन्ति, शरीरावस्थां - वालादिरूपाम् । 'ते एवं विवेगमागच्छति' ते जीवाः पूर्वोक्तः पद्मकारा एवम् नियतिबलेनैव विवेकं शरीरात् पार्थक्यम् आगच्छन्ति प्राप्नुवन्ति । 'ते एवं विहाण मागच्छति' ते एवं विधान मागच्छन्ति, ते जीवा नियतिबलेनैव विधानं काण स्वकुब्जत्वादिभावं प्राप्नुवन्ति नियतिबलेनैव वधिरान्धकाणकुन्ना भवन्तीति भावः 'ते एवं संगतियंति' एवं ते सति यन्ति एवम् अनेन प्रकारेण ते नियतिपलेनैव, संगति नाना प्रकारकं सुखदुःखादिभावं प्राप्नुवन्ति स्वामी जम्बू स्वामिनं कथयति - 'उवेदाए' उत्प्रेक्षया नियतिवादिनो नियतिमाश्रित्य तदुपेक्षया यत्किञ्चित्कारितया 'णो एवं विप्पडवेदेति' नो एवं ते विमविवेदयन्ति-नियति पन सर्वे भवतीति वदन्तस्ते 'नो' नैव एवम् वक्ष्यमाणान् पदार्थान् विप्रतिवेदयन्ति न जानन्ति । के ते पदार्थों इत्याह- 'तं जहा' तद्यथा - 'किरिया वा जाव गिरपड़ वा अणिरए वा क्रिया, इति वा यावत् निरय इति वा, क्रियातप्राप्त करते हैं । नियति के वल से ही शरीर से वियुक्त होते हैं । नियति से ही सुख दुःख आदि अनुकूल प्रतिकूल संवेदन करते हैं । नियति से ही उनमें नाना प्रकार के चाल्य आदि परिमाण उत्पन्न होते हैं । नियति से ही कोई काणा, कोई कुबड़ा, कोई पहरा और कोई अन्धा होता है । इसी प्रकार वे स और स्थावर जीव नियति के बल से ही विविध प्रकार के सुख दुःख आदि को प्राप्त होते हैं । :- सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं--वे नियतिवादी आगे कहे जाने वाले पदार्थों को स्वीकार नहीं करते हैं । वे इस प्रकार क्रिया, अक्रिया यावत् नरक, अनरक आदि। यहां यावत् शब्द से पूर्वोक्त કરે છે. નિયતિના ખળથી જ શરીરથી છૂટી જાય છે. નિયતિથી જ સુખ દુખ વિગેરે અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ સવેદન કરે છે, નિયતિથી જ તેમાં અનેક પ્રકારના ખાલ્ય વિંગેરે અવસ્થા પ્રમાણુ ઉત્પન્ન થાય છે, નિયતિથી જ કાઈ अमडो, अ महेश, गने अर्ध गांधणी, मेई सुसो भने अर्ध લંગડા હાય છે. એજ પ્રમાણે આ ત્રસ અને સ્થાવર જીવા નિયતિના મૂળથી જ અનેક પ્રકારના સુખ દુખ વિગેરેને પ્રાપ્ત થાય છે. સુધર્માસ્વામી જં. સ્વામીને કહે છે કે—તે નિયતિ વાદીચે આગળ કહેવામાં આવનારા પદાથાંના સ્વીકાર કરતા નથી, તેએ આ પ્રમાણે ક્રિયા - Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ arraft टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामांध्ययनम् १०१ " आर-पाऽनिरयान्वपदार्थान् न स्वीकुर्वन्ति, । ' एवं ते विरूपखवेहि कम्मसमारंभेहिं' एवं ते विरूपरूपैः - अनेक प्रकारकैः कर्मसमारम्भः प्राणातिपातादिसावद्यानुष्ठानैः, विरूवा कामभोगाई समारभंति' विरूपरूपान्नानामकारकान् सावकर्मानुष्ठानान् काम भोगान् शब्दादिरूपान् समारभन्ते कुर्वन्ति, 'भोषणाए ' भोगाय 'मेव ते अणारिया विप्पडिपना तं सद्दहमाणा जाव इह ते णो हव्वाए णोपाय अन्तरा कामभोगेषु विण्णा' एवमेत्र ते अनार्या विमतिपन्नाः तत् श्रदधानाः यावदिति ते नो अर्वाचे नो पराय अन्तरा काम भोगेषु विषण्णा, ते नियतिवादिनः कामभोगादिषु आसक्ता अनार्या श्रममुपागताः नियतिवादे श्रद्धान शीला: नेह लोकं प्राप्नुवन्ति, न वा परलोकमेव प्राप्नुवन्ति किन्तु उभयतो भ्रष्टाः संजायन्ते कामादावासक्ताः | 'चउत्थे पुरिसजाए जियइवाइए चि आदिए' चतुर्थः पुरुषजातो नियतिवादिक इत्याख्यायते । 'इच्चे ते चत्तारि पुरिसजाया कल्याण, अकल्याण सिद्धि, असिद्धि सुकृत, आदि को ग्रहण कर लेना चाहिए। इस कारण वे नाना प्रकार के सावध कर्मों का अनुष्ठान करके शब्दादि कामभोगों का आरंभ करते हैं । वे ta fart श्रद्धान करते हुए न इधर के रहते हैं, न उधरके रहते हैं। बीच में ही कामभोगों में आसक्त हो जाते हैं । तात्पर्य यह है कि वे नियतिवादी कामभोगों में आसक्त, अनार्य, भ्रम को प्राप्त, नियति बाद में श्रद्धा रखने वाले न अपना यह लोक सुधार पाते हैं, न पर. लोक सुधार सकते हैं। दोनों ओर से भ्रष्ट हो जाते हैं । U इस प्रकार चौथा पुरुष नियतिवादी कहा गया है, ये चार पुरुष नाना प्रज्ञा वाले हैं, विभिन्न अभिप्राय वाले हैं, भिन्न भिन्न शील आचार અક્રિયા યાવત્ નરક, નરક વિગેરે તથા યાવત્ શબ્દથી પૂર્વોક્ત કલ્યાણુ, અકલ્યાણુ સિદ્ધિ અસિદ્ધિ, સુકૃત, વિગેરેના સ્વીકાર કરતા નથી. આથી તેઓ અનેક પ્રકારના સાદ્ય કમેŕતુ અનુષ્ઠાન કરીને શબ્દાઢ કામલેાગાના આર’ભ કરે છે. તેએ અના-અર્થાત્ વિપરીત શ્રદ્ધાન કરતા થકા મહિના રહેતા નથી તેમ ત્યાંના પણ રહેતા નથી, વચમા જ કામલેગામાં આસક્ત થઈ જાય છે. તાત્પય એ છે કે તે નિયત વાદીએ કામલેાગામાં આસક્ત, અના ભ્રમને પ્રાપ્ત થયેલા, નિયત વાūમાં શ્રદ્ધા રાખનારા પેાતાના આ લાક સુધારી શકતા નથી. બન્ને ખાજુથી ભ્રષ્ટ થઈ જાય છે. 7 ' આ રીતે ચેાથે પુરૂષ નિયતવાદી કહેલ છે. આ ચારે પુરૂષ અપ્ બુદ્ધિવાળા છે. જૂદા જૂદા અભિપ્રાય વાળા છે. જૂદા જૂદા સ્વભાવ અને Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ सूत्रकृतीचे णाणा पन्ना, णाणाछंदा' इत्येते चत्वारः पुरुषजातीया नाना प्रज्ञा:-विविधबुद्धिभिः कुशास्त्रारूपकाः नानाछन्दाः-विभिन्नाभिमायवन्त:-कुत्सिताभिमायेण कुमार्ग: दर्शकाः ‘णाणासीला जाणादिट्ठी' नानाशीला:-नियतिमाश्रित्य कुत्सिताचार प्रवर्तकाः नानारत्य:- नानारूपा दृष्टिदर्शनं येषां ते तथा कुत्सितमार्गदर्शकाः 'णाणालई णाणारंमा णाणा अज्झवसाण संजुत्ता' नानारुचय:-प्राणातिपाताघारम्भ फारकाः अधर्म धर्मबुद्धया कुणाः नाना प्रकारकविषयभोगादिपु अभिपायवन्तः, नानारम्माः नानाऽध्यवसानयुक्ताः । 'पहीणपुचसंयोगा आरियं मग्गं असंपत्ता' पहीणा पूर्वसंयोगाः आर्य मार्गम् आर्याणां तीर्थकराणां मार्गम्। आर्य मोक्षमापकं मार्ग सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणमप्राप्ताः। 'इइ ते णो हवाए णो पाराए' इति-अस्माकारणात् ते नो अर्वाचे-न इह लोकाय, नवा परलोकाय क्लुप्ता भवन्ति । किन्तुअंतरा काममोगेसु विसण्णा' अन्तरा-मध्ये काम मोगेषु विषण्णाः सन्तः संसारचक्रपरिभ्रमणजनितदुःखभागिनो भवन्तीति सू०१२ । मूलमू-से बेमि पाईणं वा४ संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा-आरिया वेगे अणारिया वेगे उच्चागोया वेगे णीयागोया घाले हैं, और पृथक् पृथक दृष्टि वाले हैं। नाना रुचि वाले, प्राणातिपात आदि आरंभ करने वाले, धर्म समझ कर अधर्म करने वाले है। ये मातापिता आदि के पूर्वकालीन संबंध को त्याग चुकने पर भी आर्य: आग अर्थात् तीर्थंकरों के मार्ग को प्राप्त नहीं कर पाये हैं, अर्थात सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप रूप मोक्षमार्ग को प्राप्त नहीं हुए हैं । इस कारण उनका न यह लोक सुधरता है, न परलोक सुधरता है। वे धीच ही में कामभोगों में फंस जाते हैं और संसार चक्र में परिभ्रमण के दुःख के भागी होते हैं ॥१२॥ આચાર વાળા છે, અને અલગ અલગ દષ્ટિવાળા છે. ભિન્ન રૂચિવાળા, પ્રાણ તિપાત વિગેરે આરંભ કરવાવાળા ધર્મ સમજીને અધર્મ કરવાવાળા છે. આ માતા, પિતા, વિગેરેના પૂર્વકાળના સંબંધને ત્યાગ કરવા છતાં પણ આર્ય માર્ગ અર્થાત્ તીર્થકરોના માર્ગને પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી. અર્થાત્ સભ્ય જ્ઞાન, સમ્યદર્શન, સભ્યશ્ચારિત્ર, અને સભ્યપ રૂપ મેક્ષ માર્ગને પ્રાપ્ત થતા નથી. તે કારણે તેઓને આ લેક સુધરતા નથી તથા પરલોક પણ સુધરતો નથી. તેઓ વચમાં જ કામગોમાં ફસાઈ જાય છે. અને સંસાર ચકમાં પરિભ્રમણના દુઃખને ભેગવવા વાળા થાય છે. ૧૨ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि.श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् वेगे कायमंता वेगे हस्तमंता वेगे सुवन्ना वेगे दुवन्ना वेगे सुरूपा वेगे दुरूवा वेगे, तेसिं च णं जणजाणवयाइं परिग्गहियाई भवंति, तं जहा-अप्पयरा वा भुज्जयरावा, तहप्पगारोहिं कुलेहिं आगम्म अभिभूय एगे भिक्खायरियाए समुट्टिता सतो वावि एगे णायओ य अणायओ य उवगरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुट्टिता असतो वावि एगे णायओ य अणायओ य उवगरणं च विप्पजहाय शिक्खायरियाए समुहिता। जे ते सतो वा असतो वा णायओ य अणायओ य उवगरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुहिता पुत्वमेव तेहिं गायं भवइ, तं जहा-इह खलु पुरिसे अन्नमन्नं मपट्टाए एवं विप्पडिवेदेइ, तं जहा-खेत्तं मे वत्थू मे हिरणं मे सुवन्नं मे धणं मे धण्णं मे कंसं मे दूसं मे विउलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालरत्तरयणसंतसारसावतयं मे सदा मे रूवा मे गंधा मे रसा मे फासा मे, एए खल्लु मे कामभोगा अहमवि एएलि। ___ से मेहावी पुवामेव अप्पणा एवं समभिजाणेज्जा, तं जहा-इह खलु मम अन्नयरे दुक्खे रोगातके समुप्पज्जेजाअणि? अकंते अप्पिए असुभे अमणुन्ने अमणाझे दुक्खे णो सुहे से हंता भयंतारो ! कामभोगाइं मम अन्नयरं दुक्खं रोयातकं परियाइयह । अणिटुं अकंतं अप्पियं असुभं अमणुन्नं अमणामं दुक्खं णो सुहं, ताऽहं दुक्खामि वा सोयामि वा जूरामि वा तिप्पामि वा पीडामि वा परितप्पामि वा इमाओ मे Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · ... सूत्रकृताङ्गसूत्र अण्णयराओ दुक्खाओ रोगातंकाओ पडिमोयह अणिट्राओ अकंताओ अप्पियाओ असुभाओ अमणुन्नाओ अमणामाओ दुक्खाओ णो सुहाओ, एवामेव णो लद्धपुत्वं भवा, इह खलु कामभोगा णो ताणाए वा णो सरणाए वा, पुरिसे वा एगया पुचि कामभोगे विप्पजहइ, कामभोगा वा एगया पुर्दिब पुरिसं विप्पजहंति, अन्ने खल्लु कामलोषा अन्लो अहमंसि, से किमंग पुण वयं अन्नान्नेहिं कासमोगेहिं मुच्छामो ? इह संखाए णं वयं च कालभोगेहि विप्पजहिस्सामो, से मेहावी जाणेजा बहिरंगमेयं, इणमेव उवणीयतरागं, तं जहा--साथा मे पिया मे भाया मे भगिणी से भज्जा मे पुत्ता से धूया मे पेसा मे नत्ता मे सुण्हा से सुहा से पिया से सहा मे सयणसंगंथसंथुया मे, एए खल्लु मम णायओ अहम वि एएसि, एवं से मेहावी पुवामेव अप्पणा एवं समभिजाणेज्जा, इह खल्लु मम अन्नयरे दुक्खे रोयातंके लसुप्पज्जेज्जा अणिढे जाव दुक्खे णो सुहे, से हंता अयतारो! णायओ इमं सम अन्नयरं दुक्खं रोयातक परियाइ यह अणिटुं जाव णो सुहं, ताऽहं दुक्खामि वा सोयामि वा जाव परितप्पामि वा, इलाओ मे अन्नयराओ दुक्खाओ रोगातकाओ परिमोएह अणिहाओ जाव णो सुहाओ, एवमेव णो लद्धपुव्वं भवइ, तेलिं वावि भयंताराणं मम णाययाणं अन्नयरे दुक्खे रोगातके समुप्पज्जेज्जा आणिढे जाव णो सुहे, से हंता अहमेतेसिं भयंताराणं णाययाणं इमं अन्न Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् यरं दुक्खं शेयातंक परियाइयामि अणि, जाव णो सुहे, मा मे दुक्खंतु वा जाव मा मे परितप्पंतु वा, इमाओ णं अण्णयराओ दुस्खाओ रोगातकाओ परिमोएमि अणिटाओ जाव णो सुहाओ, एवमेव णो लद्धपुनं भवइ, अन्नस्स दुक्खं अन्नो न परिवाइयइ अन्नेणं कडं अन्नो नो पडिसंवेदेइ पत्तेयं जायइ पत्तेयं भरइ पत्तेयं चयइ पत्तेयं उनवज्जइ पत्तेयं झंझा पत्तेयं सन्ना, पत्ते पन्ना एवं दिन्नू वेदणा, इह खलु णाइ संजोगा णो ताणाए वा णो सरणाए वा, पुरिले वा एगया पुटिन पाइसंजोए विप्पजहइ, णाइसंजोगा वा एगया पुचि पुरिसं विप्पजहंति, अन्ने खलु णाइसंजोगा अन्नो अहमंसि, से किमंग पुण वयं अन्नमन्नेहि णाइसंजोगेहिं मुच्छामो? इह संखाए गं वयं णाइ संजोगं विप्पजहिस्सामो। से मेहावी जाणेज्जा बहिरंगमेयं, इणमेव उवणीयतरागं, तं जहा-हत्था मे पाया मे बाहा मे ऊरू से उदरं मे सीसं मे सीलं मे आऊ मे बलं मे वण्णो मे तया मे छाया मे सोयं मे चक्खू मे घाणं मे जिब्भा मे फासा मे ममाइज्जइ, वयाउ पडिजूरइ, तं जहा-आउसो बलाओ वष्णाओ तयाओ छायाओ सोयाओ जाव फासाओ सुसंधितो संधी विसंधी भवइ, बलियतरंगे गाए भवइ, किण्हा केसा 'पलिया सबंति, तं जहा-जंपि य इसं सरीरगं उरालं आहारोवइयं एयं पि य अणुपुट्वेणं विप्पजहियवं भविस्सइ, एयं संखाए ले लिक्खू भिक्खायरियाए समुटिए दुहओ लोगं Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HOR सूत्रकृताशय जाणेज्जा, तं जहा-जीवा चेव अजीवा चेव, तसा चेव थावरा चेव ॥सू० १३॥ छाया-अथ ब्रवीमि माच्या वा४ सन्ति एके मनुष्या भवन्ति, तद्यथा-आर्या पा एके, अनार्या वा एके, उच्चगोत्रा वा एके, नीचगोत्रा वैके कायवन्तो वा एके, हस्ववन्तो वा एके, सुवर्णा वा एके, दुर्वर्णा वा एके, सुरूपा वा एके, दुरूपा वा एके तेषां च खलु जनजानपदाः परिगृहीता भवन्ति, तद्यथा-अल्पतरा वा भूयस्तरा वा। तथाप्रकारेषु कुलेपु आगत्य अभिभूय एके भिक्षाचर्यायां भानुपस्थिताः सतोवाऽपि एके ज्ञातीन् च अज्ञातीन् च उपकरणं च विप्रहाय भिक्षाचर्यायां समुत्थिताः असतो वाऽपि एके ज्ञातीन् च अज्ञातीन् च उपकरणं च विप्र. क्षाय भिक्षाचर्यायां समुत्थिताः। ये ते सतो वा असतो वा ज्ञातीन च अज्ञातीन् च उपकरणं च विभहाय भिक्षाचर्यायां समुत्थिताः, पूर्वमेव तैतिं भवति तद्यथा इह खलु पुरुषः अन्यदन्यद् ममाऽर्थाय एवं विप्रतिवेदयति, तद्यथा-क्षेत्रं मे वास्तु मे हिरण्यं मे सुवर्ण मे धनं मे धान्यं मे कांस्यं मे दृष्यं में विपुलधनकनकरत्नमणि मौक्तिकशटशिलाप्रवालरक्तरत्नसत्सारस्वापतेयं मे, शब्दा मे, रूपाणि मे, गन्धा मे रसा मे, स्पर्शा मे, एते खलु मे कामभोगाः, अहमपि एतेपाम् । अथ मेधावी पूर्वमेव आत्मना एवं समभिजानीयात, तद्यथा-इह खलु ममान्यतरद् दुःखं रोगातङ्कः समुत्पद्येत अनिष्टः, अकान्तः, अप्रियः, अशुमः, अमनोज्ञः, अमनाम: दुःखं नो सुखं तद्द्दन्त ! भयत्रातारः! कामभोगा, ममान्यतरद् दुःखं रोगातवं पर्याददत । अनिष्टमकान्तमप्रियमशुभममनोज्ञ ममन आमं दुःखं नो मुखम्, तदहं दुख्यामि वा शोचामि वा जूरामि वा तेपे वा पीडयामि वा परितप्ये वा अस्मान्मे अन्यतराद् दुःखाद् रोगातङ्कात् मतिमोचयत अनिष्टाद् अकान्ताद् अप्रियाद् अशुभाद् अमनोज्ञाद् अमनामाद् दुःखान्नो मुखात, एवमेव नो लब्धपूर्वी भवति । इह खलु कामभोगाः नो त्राणाय वा नो शरणाय वा पुरुषो वा एकदा पूर्व कामभोगान् विप्रजहाति, कामभोगा वा एकदा पूर्व पुरुष विपजहाति, अन्ये खलु कामभोगाः, अन्योऽहमस्मि तत् किमङ्ग पुनर्वय मन्यान्येषु कामभोगेषु मूर्छामः, इति संख्याय खलु वयं कामभोगान् विप्रहास्यामः, भय मेधावी जानीयाद् चहिरद्गमेतत् इदमेव उपनीततरं तद्यथा-माता मे, पिता मे, भ्राता मे, भगिनी मे भर्या मे, पुत्रा मे, दुहितारो मे, प्रेष्या मे, नप्ता में, स्नुषा मे महन्मे, मियो मे, सखा मे, स्वजनसंग्रन्धसंस्तुता मे । पते मम ज्ञातयोऽहमप्येतेपाम् , एवं स मेधावी पूर्व मेंव आत्मना एवं समभिजावीयात्-इह खल Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्थबोधिनी टीका द्वि. थु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् કહ ममान्यतरद्दुःखं रोगातङ्को वा समुत्पधेत अनिष्टो यावद् दुःखं नो सुखं तद् हन्त ! भयत्रातारो ज्ञातयः । इदं ममान्यवरद् दुःखं रोगातङ्कं वा पर्याददतं अनिष्टं यावद् नो सुखम् । तदहं दुःखामि वा शोचामि वा यावत् परितप्ये अस्मान् मे अन्यस्माद दुःखाद रोगातकात् परिमोचयत अनिष्टा यावन्नो मुखात् । एवमेव नो लब्धपूर्वं भवति । तेषां वाऽपि भयत्रातॄणां मम ज्ञातीनाम् अन्यतरद् दुःखं रोगातङ्कं समुत्पद्यते अनिष्टं यावन्नो सुखं तद् हन्त ! अहमेतेषां भयत्रातॄणां ज्ञातीनाम् इदमन्यतरद् दुःखं रोगातङ्कं वा पर्याददत अनिष्टं वा यावन्तो सुखम्, मा मे दु:ख्यन्तु वा यावद मा मे परितप्यन्तां वा अस्माद् अन्यतरस्माद दुःखाद रोगातङ्कात् परिमोचयामि अनिष्टाद् यावन्नो सुखात् एवमेव न लब्धपूर्वे भवति । अन्यस्य दुःख सन्यो न पर्याददत अन्येन कृतम् अन्यो नो प्रतिसंवेदयति प्रत्येकं जायते प्रत्येकं म्रियते प्रत्येकं त्यजति प्रत्येकमुपपद्यते प्रत्येकं झंझा प्रत्येकं संज्ञा प्रत्येकं मननम् एवं विद्वान् वेदना, इह खच ज्ञातिसंयोगाः नो त्राणायें वा नो शरणाय वा पुरुषो वा एकदा पूर्व ज्ञातिसंयोगान् विमजहांति, ज्ञातिसंयोगा वा एकदा पूर्व पुरुषं विमजइति अन्ये खलु ज्ञातिसंयोगाः अन्योः ऽहमस्मि । अथ किमङ्ग ! पुनर्वयमन्यान्येषु ज्ञातिसंयोगेषु मूर्च्छामः, इति संख्याय खलु वयं ज्ञातिसंयोगं विमदास्यामः । स मेधावी जानीयाद बहिरङ्गमेतत् इदमेव उपनीततरं तद्यथा - हस्तौ मे पादों में, बाहू मे, उरू में उदरं मे शीर्ष में, शीलं में, आयुर्वे, वलं मे, वर्णों में, त्वचा में, छाया में, श्रोत्रं में, चक्षु, घ्राणं मे, जिह्वा मे, स्पर्शाः में, ममायते, वयसः परिजीर्यते । तद्यथा - आयुष बलाद् वर्णात्त्वचः छायायाः श्रोत्राद् यावद स्पर्शात् सुमन्धिता सन्धि सन्धी भवति वलिवतरङ्गं गात्रं भवति, कृष्णाः केशाः पचिता भवन्ति तद्यथा - यदपि च इदं शरीरम् उदारमाहारोपचितम् एतदपि च आनुपूर्व्या विमहातव्यं भविष्यति । इदं संख्याय स भिक्षु माचर्यायां समुत्थितः उभयतो लोकं जानीयात् तद्यथा - जीवाश्चैव अजीवाश्चैव पाश्चैव स्थावराचैव || सू० १३॥ टीका -- सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं प्रत्याह हे जम्बू ! 'से बेमि पाईणं वा '४ संतेगइया मणुरसा भवि' 'से' वेमि' अथाऽहं ब्रवीमि । 'बाई वा४' माच्यां वा४ 'से बेमि' इत्यादि । टीकार्य - सुषम स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं - मैं ऐसा कहना हूँ। पूर्व दिशा में, पश्चिम दिशा में दक्षिण दिशा में, उत्तर दिशा में, 'से बेमि' इत्यादि ટીકા—સુધર્માસ્વામી જમ્મૂસ્વામીને કહે છે કે—હું' આ પ્રમાણે કરું छ. पूर्व दिशामां, पश्चिम हिशामां, दक्षिण दिशामां, उत्तर दिशामा Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ सूत्रधताझंत्रे पूर्वस्या दिशि पश्चिमायां दिशि दक्षिणस्यां दिशि उत्तरक्ष्यां दिशि 'संतेगइया' सन्त्ये के 'मणुस्सा' अनेकपकारका मनुष्या भवन्ति । 'तं जहा' तद्यथा-'जारिया वेगे' आर्या वा एके 'अणारिया वेगे' अनार्या वा एके, प्राच्यादिदिक्षु वसन्ति-अने के पुरुषाः केचनाऽऽर्याः केचनाऽनाश्चि । 'उच्चागोया वेगे' उच्चगोत्रा:-विशिष्टगोत्रवन्तो वा एके 'णीया गोया वेगे' नीचगोत्राचा एके 'कायमंता वेगे हस्समंतावेगे' कायवन्तो वा एके-दीर्घशरीराः, इस्ववन्तो वा एके-लघुशरीरा एके, 'मुवन्ना वेगे दुबन्ना वेगे' सुवर्णा वा एके, दुर्वर्णा वा एके, 'सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे' मुरूपा वा शोभनरूपवन्तः, दूरूपा वा-विकवरूपचन्तश्च एके, 'वेसिं च णं' तेषां च 'ग' इति वाक्यालङ्कारे 'जणजाणवयाई' जनजानपदाः-लोका देशाच, 'परिग्गहाई परिग्रहाः-परिग्रहरूपेण अधीना भवन्ति । 'तं जहा' तद्यथा 'अप्पयरा वा भुज्जयरा वा अल्पतरा वा अल्पपरिग्रहवन्तः, भूयस्तरा वा-अधिकपरिग्रहवन्तः, 'तहप्पगारेहि' तथामकारेषु 'कुकेहि' कुलेपु 'आगम्म अभिभूय' आगत्य जन्मना ताशकुलं पाप्य, भोगसुखादिकं चाभिभूय-विरस्कृत्य 'एगे भिक्खायरियाए' एके केचन पुरुषा भिक्षाचर्यायाम् 'सम्मुहिया समुत्थिता:-उद्यमउर्ध्व दिशा में और अधोदिशा में अनेक प्रकार के मनुष्य होते हैं। जैसे-कोई आर्य, कोई अनार्य अर्थात् कोई ज्ञानदर्शन के अंकुर वाले और कोई उससे रहित होते हैं। कोई ऊंचे गोत्र में उत्पन्न होते हैं, और कोई नीच गोत्र में उत्पन्न होते हैं। कोई लम्चे शरीर वाले कोई छोटे शरीर वाले होते हैं। कोई स्तुरूप और कोई कुरूप होते हैं। लोक और देश उन लोगों का परिग्रह होता है। वह परिग्रह किसी के पास थोडा होता है, किसी के पास बहुत होता है। इस प्रकार के कुलों में से आकर और किसी कुल में जन्म लेकर लोगों का तथा सांसारिक सुखों का परित्याग करके उनमें से कोई कोई भिक्षावृत्ति के लिए उद्यत हो તે દિશામાં અને અદિશામાં અનેક પ્રકારના મનુષ્ય હોય છે. જેમકે-કેઈ આર્ય, કેઈ અનાર્ય, અર્થાત્ કઈ જ્ઞાન દર્શનના અંકુરવાળા અને કેઈ તેના વિનાના હોય છે. કેઈ ઉંચા ગોત્રમાં ઉત્પન્ન થયેલ અને કેઈ નીચ ગેત્રમાં ઉત્પન હોય છે. કેઈ લાંબા શરીરવાળા, કેઈ કા શરીરવાળા, હેય છે. 1 કેઈ સુંદર રૂપવાળા-સુરૂપ અને કેઈ કદરૂપા હોય છે. લોક અને દેશ તે લોકોને પરિગ્રહ હોય છે. તે પરિગ્રહ કોઈની પાસે થોડો હોય છે, કેઈની પાસે વધારે હોય છે. આવા પ્રકારના કુલેમાંથી આવીને અને કોઈ પણ કુળમાં જન્મ લઈને ભેગોને તથા સંસારિક સુખોનો ત્યાગ કરીને તેમાંથી કંઈ કેઈ ભિક્ષા વૃત્તિને માટે ઉદ્યમવાળા થઈ જાય છે. અર્થાત્ ઘરને ત્યાગ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयोथैवोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.१ पुण्डरीकनामाध्ययनम् १०६ वन्तः सन्तः 'सतो वा वि एगे णायओ य अगायो य' सतो वापि विद्यमानानेवएके केचन पुरुषाः ज्ञातील वजनान् 'य' च-पुनः अज्ञातीन-परिजनान् च पुनः 'उवगरण' उपकरणम्-धनधान्यादिकम् 'विष्पहाय' विपहाय-परित्यज्य भिक्खायरियाए' भिक्षाचर्यायाम् 'सामुहिया' समुत्थिता भवन्ति । 'असतो वावि एगे णायो य उबगरणं च' एके केचन असतः-अविद्यमानानेव ज्ञातीन अज्ञातींश्च 'य' च उपकरण धनधान्यादिकं श्च विषजहाय' विप्रहाय-परित्यज्य केचनापगतस्वजन परिजनविभवाः सन्तः 'भिक्खायरियाए' मिक्षाचर्यायाम् 'समुट्ठिया' समुत्थिता भवन्तीति 'जे ते सतो वा असतो वा णायओ य अगायो य उवगरणं च विप्पजहाय' ये ते सतो विद्यमानामेव-असत:-अविद्यमानानेर ज्ञातीन् अज्ञाती श्व विप्रहाय-परित्यज्य उपकरणं-धनधान्यादिकं च विहाय 'मिक्खायरियाए' भिक्षाचर्यायाम् 'समुट्ठिया' समुत्थिताः 'पुन्यमेव तेहिं णायं भवई' पूर्वमेव तैज्ञातं भवति । किं ज्ञातं भवति ? तदाह-'तं जहा' तद्यथा “इह खलु पुरिसे' इह लोके खलु पुरुषः 'अन्नमन्न' अन्यदन्यत्-स्वस्माद् भिन्नानेव पदार्थान् 'ममहाए' मदाय 'एवं विप्पडि वेदेइ' एवं विप्रतिवेदयति-स्वस्मादभिन्नान् पदार्थान् मिथ्यैव अभिजाते हैं । अर्थात् गृहत्यागी बन जाते हैं । कोई कोई पुरुष विद्यमान भी पन्धु बान्धव आदि परिवार को तथा धन धान्य आदि उपकरणों को त्यागकर भिक्षाचर्या अंगीकार करते हैं और कोई कोई अविद्यमान परिवार तथा धन धान्य आदि को त्याग कर भिक्षाचर्या के लिए उद्यत होते हैं। इस प्रकार जो विद्यमान अथवा अविद्यमान परिचार को और धन धान्यादि को त्याग करके भिक्षाचर्या में उपस्थित होते हैं, उन्हें पहले से ही यह ज्ञात होता है कि-इस जगत् में लोग अपने से भिन्न पदार्थों को मिथ्या अभिमान करके 'यह मेरे हैं ऐसा समझते है। वे सोचते हैंકરવાવાળા બની જાય છે. કેઈ કેઈ પુરૂષ વિદ્યમાન એવા બે ધુ, બાંધવા વિગેરે પરિવારને તથા ધન ધાન્ય વિગેરે ઉપકરણને ત્યાગ કરીને ભિક્ષાચયને સ્વીકાર કરે છે. અને કઈ કઈ અવિદ્યમાન પરિવાર તથા ધન, ધાન્ય વિગેરેનો ત્યાગ કરીને ભિક્ષા ચર્ચા માટે ઉદ્યમ વાળા થાય છે. આ રીતે જે વિદ્યમાન અથવા અવિદ્યમાન પરિવ ર તથા ધન, ધાન્ય વિગેરેને ત્યાગ કરીને ભિક્ષા ચર્યામાં ઉપસ્થિત થાય છે તેઓને પહેલેથી જ એ જાણ હોય છે કે આ જગતમાં લોકો પોતાનાથી જુદા એવા પદાર્થોને મિથ્યાઅભિમાન કરીને આ મારૂં છે તેમ માને છે. તેઓ સમજે છે કે-આ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० सूत्रकृतारसत्रे मानं कृत्वा-मदर्था इमे इस्येवं जानाति, 'तं जहा' तद्यथा-'खेत्तं मे वत्थू में क्षेत्रं मे गस्तु में 'हिरणं में, सुबन्नं मे, धणं धणं मे, कंस मे, दूसं मे' हिरणं मे सुवर्ण मे धन मे धान्यं मे कांस्यं में दुष्यं मे -वस्त्रविशेपो में 'विउलधगकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पकालरत्तरयणसंतसारसावतेयं मे' विपुलधनकनकरत्नमणिमौक्तिकशङ्कशिलामवालरत्नसत्सारस्वापतेयं मे 'सद्दा मे रूवा में' शब्दा मे रूपाणि मे 'गंधा मे रसा मे फासा मे' गन्धा में-भम, रसा मे-मम, स्पर्शा मे-मम, 'एए खलु कामभोगा, अहमपि एरसिं' एते खलु काममोगा मम, अहमप्येतेपाम् , क्षेत्रादारभ्य स्पर्शान्ताश्च विषया मस कामभोगाय सन्तीति, मेधावी यदवधारयति तदाह-'से मेहावी' इत्यादि । 'से मेहावी पूच्चमेव अप्पणा एवं समभिजाणेज्जा' अथ मेधावी पूर्वमेवाऽऽत्मना एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण समभिजानीयात् , किं जानीयादित्याह-'तं जहा' तद्यथा 'इह खलु मम अन्नयरे' इह खलु ममाऽन्यतरत् 'दुक्खे रोयातके समुप्पज्जेज्जा' दुःख-पीडारोगा-ज्वरादिः आतङ्क:-सघोघातिघर क्षेत्र (खेत) मेरा है, यह मकान मेरा है, यह चांदी सोना मेरा है, यह धन धान्य मेरा है, यह कांसा मेरा है, यह पुष्प या वस्त्र मेरा है, ये प्रचुर धन, कनक, रत्न मणि, मोती, शंख, शिला, मूंगा, लालरत्न और उत्सम सार भूत पदार्थ मेरे हैं, मनोहर शब्द करने वाले वीणा आदि वाच मेरे हैं, सुन्दर रूपवाली स्त्रियां मेरी हैं । इत्र-अत्ता तथा सुगंधयुक्त तैल आदि मेरे हैं, उत्तम रल एवं स्पर्श वाले पदार्थ मेरे हैं और मैं इनका स्वामी हूँ। तात्पर्य यह है कि अज्ञानीजन लांसारीक पदार्थों को अपना मानते हैं। किन्तु ज्ञानी पुरुष को पहले ही यह समझ लेना चाहिए जब मुझे फोई दुःखातंक अर्थात् ज्वर आदि रोग तथा शीघ्रघात करने वाला भेत२ भा३' छ. २ मान-५२ भाइ छे. २५ ही, सार्नु भा छे. मा ધન, ધાન્ય મારૂ છે. આ કાંસુ મારૂં છે. આ પુષ્પ આ વસ્ત્ર મારૂં છે. આ धाशु श धन, ४४-सानु रत्न मणि, माती, शम शिक्षा, प्रपात, भु। -લાલ રન તથા ઉત્તમ સાર રૂપ પદાર્થો મારા છે. સુંદર શબદ કરવાવાળી વી. વિગેરે વાદ્યો મારાં છે, સુંદર રૂપવાન સ્ત્રી મારી છે. અત્તર તથા સુંગધવાળું તેલ મારૂં છેઉત્તમ રસ, તથા સ્પર્શવાળા પદાર્થો મારા છે, અને હું તેને માલિક છું. તાત્પર્ય એ છે કે-અજ્ઞાની મનુષ્ય સંસારના પદાર્થોને પિતાના માને છે. પરંતુ જ્ઞાની પુરૂએ તે પહેલેથી જ એ જાણું લેવું જોઈએ કે-જ્યારે મને કોઈ પણ દુઃખ કારક અર્થાત તાવ વિગેરે રેગ તથા શીવ્રઘાત કરવા Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् .. १११ नेत्रशूलादिकम् समुत्पधेत, । कथंभूतोऽयं रोगान्तकस्तत्राह-'अणिष्टे-अकंतेअप्पिए असुभे-अमणुन्ने-अमणामे' अनिष्टोऽकान्तोऽशुमोऽमनोज्ञोऽमनामः, तत्र अनिष्ट:-इष्टमुखाऽननुभावनात् , अकान्त:-अनभिलपणीयत्यात , अप्रियाअविरतदुःखोत्पादकत्वात् , अशुभः-अशुभाध्यवसायकारणत्वात् , अमनोज्ञः-चिन्तनेऽपि दुःखोत्पादकत्वात् , अमन आमा-मनसः प्रतिकूलत्वात् , अतएव दुःखे दुःखरूप: 'णो सुहे' नो सुखरूपः 'से इंता' तद्धन्त हन्त इति खेदे 'भयंतारोकामभोगाई हे भयत्रावारः कामभोगाः ? मम 'अन्न यर' अन्यवर 'दुक्खं रोया. तंक' दुःखं रोगातङ्कम् 'परियाइयह' पर्याददत-विभागं कृत्वा, एतद् दुःखं रोगाऽऽतकं यूयं गृह्णीत । रोगाऽऽतङ्कमेव विशिनष्टि-'अणिटुं' अनिष्टम् 'अतं अप्पियं अनुमं अमणुन्नं अमणामं दुक्खं णो मुई' अान्तममियमशुभममनोज्ञममनामं शूल आदि उत्पन्न होता है तो प्रार्थना करने पर भी ये कामभोग के साधन क्षेत्र आदि उससे छुडाने में क्या समर्थ हो सकते हैं ? कदापि नहीं । बल्कि किसी न किसी रूप में ये उन दुःखों के सहायक पन जाते हैं अतएव इन क्षेत्रवस्तु आदि में ज्ञानवान् को समत्ववुद्धि नहीं धारण करनी चाहिए इन्हें अपना नहीं समझना चाहिए। रोगातंक आदि किस प्रकार के होते हैं ? सो कहते हैं-अनिष्ट अर्थात इष्ट वस्तुओं से उत्पन्न होने वाले सुख का अनुभव नहीं कराते, अकान्त अनिच्छनीय, अप्रिय, निरन्तर दुःख उत्पन्न करने वाले, अशुभ अशुभ अध्यवसाय के जनक अमनोज्ञ विचार करने पर भी दुःखोत्पा. दक, अमनआम-दुःख उत्पन्न करने में मन के प्रतिकूल सुखरूप नहीं। વાળા શૂળ વિગેરે ઉત્પન્ન થાય છે, તે વિનંતી કરવા છતાં પણ આ કામ ભેગના સાધન રૂ૫ ખેતર વિગેરે તેનાથી બચાવવા શું સમર્થ થાય છે ? કદાપિ મને તે બચાવી શકતા નથી. બલકે કઈને કઈ રૂપથી તેઓ એ દુઃખના સહાયક બની જાય છે. તેથી જ આ ખેતર વિગેરે વસ્તુઓમાં જ્ઞાનવાને મમત્વ બુદ્ધિ રાખવી ન જોઈએ. અર્થાત્ તે સઘળી વરતુઓને પિતાની માની લેવી ન જોઈએ. ગાતંક વિગેરે કેવા હોય છે તે હવે બતાવવામાં આવે છે.-અનિષ્ટ અર્થાત ઈટ વસ્તુઓમાંથી ઉત્પન્ન થવાવાળા સુખને અનુભવ કરાવતા નથી. એકાન્ત-અનિચ્છનીય, અપ્રિય-નિરંતર દુઃખ ઉત્પન્ન કરવાવાળા અશુભ-અશુભ અધ્યવસાય કરવાવાળા અમને–વિચાર કરવા છતાં પણ દુઃખને ઉત્પન્ન કરનાર, અમન આમ-દુઃખ ઉત્પન્ન કરવામાં મનથી પ્રતિકૂળ સુખરૂપ નહીં. Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूचकृताङ्गसूत्रे दुःखं नो सुखम् । 'ताऽहं दुक्खामि वा सोयामि वा जूरामि वा विप्पामि वा पीडामि वा परितप्पामि वा' तस्मादहं दुःख्यामि वा शोचामि चा-जूरामि वा तेपे वा पीडयामि वा परितप्ये वा 'इमाओ मे अग्णयराओ दुक्खायो' अस्माद् मेऽन्यतराद् दुःखाद् दुःखरूपाद् रोगातकात् 'पडिमोयह' पतिमोचयत । कीदृशादित्याह-'अणिटाओ' अनिष्ठात् 'अकंनाओ' अकान्तात् 'अप्पियाओ' अभियात् 'अनुभाओ' अशुमात् 'अग्नणुन्नाओ' आमनोज्ञात् 'असणामाओ' अमन आमात् 'दुक्खाओ' दुःखात् दुःखरूपात् णो सुहाओ' नो सुखात्-नो सुपरूपात 'एकामेत्र णो लद्धपुव्वं भवइ' एवमेव नो लब्धपूर्वो भवति । एवमेव पूर्वसदृशो न भवति एवं पार्थमाना अपि क्षेत्रादयः प्रार्थयितार नो विमोचयन्ति, एमि दुखैः परिपीडयमानम् मत्युत दुग्वस्य साक्षात् परम्परया वा इस प्रकार के रोगातको के उत्पन्न होने पर काम भोगों ने प्रार्थना की जाय कि हे मधले त्राण करने वाले कालभोगों ! मेरे इस रोगातंक का विभाग करके श डा तुम लो, अर्थात् थेरे इस दुःख में तुम भागी दार धन जाओ, यह रोगातंक अमनोज्ञ है, असनाम है, दुःख रूप है, सुखरूप नहीं है, इसके कारण मैं दुख पा रहा हूं, शान का अनुभव कर रहा हूं, झूर रहा हूं, शारीरिक शक्ति क्षीण कर रहा हूं, पीडित हों रहा हूं और परिताप पा रहा है। इस दुःख से मुझे छुडा दो। यह दुःख मेरे लिए अनिष्ट है, अशान्त है, अप्रिय है, अशुभ है, अमनोज्ञ है, अमनोम है, दुखदायक है, लुखद नहीं है, तो पूर्वोक्त क्षेत्र मकान धन आदि पदार्थ प्रार्थना करने वाले को कदापि दुःख से नहीं छुडा सकते। આવા પ્રકારના રોગાનંકે ઉત્પન્ન થવાથી કામભેગોને પ્રાર્થના પૂર્વક કહેવામાં આવે કે હે ભયથી રક્ષણ કરવાવાળા કામગો! મારા સેગમાંથી ભાગ કરીને છેડે તમે લઈ લે, અર્થાત્ મારા કેઈ દુઃખમાં તમે ભાગીદાર मनी 14. ५ समना छ, मसन माम छ, दुः३५ छे. सुभરૂપ નથી, તે કારણથી હું દુખ ભેગવી રહ્યો છું. અને શોકને અનુભવ કરી રહ્યો છું. ઝુરી રહ્યો છું. શરીરની શક્તિ ક્ષીણ કરી રહ્યો છું. પીડા પામી રહ્યો છું. અને પરિતાપ પામી રહ્યો છું. આ દુઃખથી મને છોડાવે. આ દુઃખ મારે માટે અનિષ્ટ છે. અકાત છે. અપ્રિય છે, અશુ છે, અમને છે. અમને આમ છે. દુખ દાયક છે. સુખ આપનાર નથી. આ પ્રમાણે વિનંતી કરવામાં આવે તે પૂર્વોક્ત ખેચર, ઘર, ધન વિગેરે પદાર્થો પ્રાર્થના કરનારને કઇ પણ રીતે દુઃખથી છોડાવવાને સમર્થ થતા નથી. એટલું જ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् ११३ こ / उत्पादक एव भवन्ति । 'इह खलु कामभोगा नो ताणाए वा नो सरणाए वा इमें कामभोगादयो नो त्राणाय - रक्षणाय भवन्ति, नो शरणाय वा भवन्ति, काम भोगात् पुरुषयोर्मध्ये एकदा पुरुषः कामभोगान् त्यजति, कदाचित्कामभोगा एव पुरुषं त्यजति - इति दर्शयति- 'पुरिसे वा' इत्यादि । 'पुरिसे वा एगया पुव्वं कामभोगे विपजहार' पुरुषो वा एकदा पूर्व कामभोगान् विप्रजहाति । 'कामभोगा वा एगया पु पुरिसं विषजर्हति' कामभोगा वा एकदा पूर्व पुरुषं विप्रजहति; 'अन्ने खल कामभोगा अन्नो अहमंसि' अन्ये खलु कामभोगाः-मतो व्यतिरिक्ता इमे कामभोगाः न तु मदात्मका' 'अन्नो अहमंसि' अहं तु एभ्यः खलु कामभोगेभ्योऽन्यः - विभिन्नोऽस्मि, नाहं वा एतत्स्वरूपोऽस्मि । 'से किमंग पुण वयं अन्न मन्नेहिं कामभोगेर्हि मुच्छामो' तत् किमङ्ग ? पुनर्वम् अन्यान्येषु कामभोगेषु मूर्छामः, 'इह संखाए णं वयं च कामभोगेहिं विप्पजहिस्सामो' इति संख्याय - ज्ञात्वा खल इमे क्षेत्रादयो न मत्स्वरूपाः नाऽहं वा एतत्स्वरूपः ! यो यस्याऽसाधारणो धर्मः स वय यावत्स्वरूपम् अनुवर्तते । यथा - शैत्यं जलस्य, न तु कदाचिदपि यही नहीं, ये क्षेत्र आदि साक्षात् या परम्परा से दुःख के उत्पादक ही साबित होते हैं। ये कामभोग रक्षक नहीं होते, शरणभूत नहीं होते । या तो इनको स्वामी कहलाने वाला पुरुष कभी काम भोगों को पहले से ही त्याग देता है या ये कामभोग पहले से ही उस पुरुष को त्याग देते हैं। कामभोग भिन्न हैं और मैं भिन्न हूं अर्थात् मेरा स्वरूप इन सब से पृथक है । ये मेरे स्वरूप नहीं हैं, मैं इनका स्वरूप नहीं हूं । तो फिर इन भिन्न पराये काम भोगों में क्यों मैं ममता धारण करू । जो वस्तु मेरी नहीं है, जो मुझसे पृथक हो जाने वाली है, उसे मैं अपनी मानने की मूर्खता क्यों करूं ? जो जिसकी वस्तु होती है, वह तीन काल નહીં પથુ આ ખેતર વિગેરે સાક્ષાત્ અથવા પરપરાથી દુઃખને ઉત્પન્ન કરનાર જ સાબિત થાય છે. આ કામભાગે રક્ષત્રુ કરવાવાળા હાતા નથી. શરણુ રૂપ થતા નથી. અથવા તેા તેને સ્વામી કહેવડાવનારા પુરૂષ કઈવાર કામભોગાના ત્યાગ કરે છે, અથવા એ કામનેાગે! પહેલેથી જ તે પુરૂષના ત્યાગ કરી દે છે. કામભાગે જૂદાં છે, અને હું જુદો છુ'. અર્થાત્ મારૂ સ્વરૂપ આનાથી જૂદું છે. આ મારૂં સ્વરૂપ નથી. હું તેનુ' સ્વરૂપ નથી, તે પછી આ સિન્ન એટલે કે પારકા એવા કામલેગેામાં હું' શા માટે મમતાપણું ધારણુ કરૂ ? જે વસ્તુ મારી નથી, જે મારાથી અલગ થવા વાળી છે, તેને હું પાતાની માનવાનું ભૂખ પણુ' શા માટે કરૂ` ? વસ્તુ જેની હાય છે, सू० १५ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ सूत्रकृतागसूत्रे तं त्यजति । यदि क्षेत्रादयो मत्स्वरूपा भवेयु स्तदा मां परित्यज्य न कापि तिष्ठेयुः । परन्तु-नैव दृश्यते यन्मयि विद्यमानेऽपि एते मां विहाय अन्यत्र गच्छन्ति। मयि मृते चैतेऽत्रैव स्थास्यन्ति, मयि दुःखिते नैते मत्राणाय प्रवर्तन्ते, अत इमे मया नो ग्रहीतव्याः, इति ज्ञात्वा कामभोगेहि' कामभोगान् 'विप्पजहिस्सामो' विप्रहास्यामः-परित्यक्ष्यामः । में भी उससे अलग नहीं हो सकती। शीतलता जल का धर्म है अतः यह कदापि जल का परित्याग नहीं करता। यदि ये खेत मकान आदि मेरे स्वरूप होते तो सदा काल मेरे साथ रहते। मुझे त्याग कर न जाते ! किन्तु ऐसा देखा नहीं जाता ! मैं विद्यमान रहता है फिर भी ये मुझे छोड़ कर अन्यत्र चले जाते हैं। मेरी मौजूदगी में ही दूसरे के धन जाते हैं। देखते देखते पराये हो जाते हैं। मेरे मर जाने पर और अन्यत्र चले जाने पर ये यहीं रह जाएंगे । जब मैं दुःखी होता हूं तो ये मेरी रक्षा नहीं करते। अतएव इन्हें ग्रहण करना मेरे लिए उचित नहीं है । वास्तव में ये कामभोग के साधन सुखदायी नहीं है। इनके कारण अन्तःकरण में घोर अशान्ति और व्याकुलता उत्पन्न होती रहती है। ये मुझे अपने शुद्ध चिदानन्द स्वरूप की और झांकने नहीं देते। मैं अपने जीवन का अमूल्य समय इनकी रक्षा और वृद्धि में ही व्यय कर रहा हूं परन्तु बदले में इनसे क्या पा रहा हूं ? लेश मात्र તે ત્રણે કાળમાં પણ તેનાથી જુદી થતી નથી, જેમકે ઠંડા પણું તે જલને ધર્મ છે, તે શીતલ પણું જલને ત્યાગ કરતું નથી. જે આ ખેતર, મકાન, વિગેરે સાધને મારા નિજ સ્વરૂપ હતા તે સદાકાળ મારી સાથે જ રહેત भारी त्याग ४श त नही. परंतु युवामां मातु: नथी, हूँ વિદ્યમાન રહું છું, તો પણ આ મને છોડીને બીજે ચાલ્યા જાય છે. મારી હાજરીમાં જ તે બીજાના બની જાય છે. મારા મરી જવાથી અથવા બીજે જવાથી આ અહીંજ રહી જશે. જ્યારે હું દુઃખી બનું છું તે આ મારૂં રક્ષણ કરી શકતા નથી. તેથી જ તેને ગ્રહણ કરવું તે મને એગ્ય નથી, વાસ્તવિક રીતે આ કામગેના સાધને સુખને આપવાવાળા દેતા નથી, તેના આશ્રાથી અંતઃકરણમાં ઘેર અશાંતિ અને વ્યાકુળપણું ઉત્પન્ન થતું રહે છે. તે મને મારા શુદ્ધ ચિદાનંદ સ્વરૂપ તરફ જુકવા-વળવા દેતા નથી. હું મારા જીવનને અમૂલ્ય સમય આની રક્ષા અને તેને વધારવામાં જ વીતાવી २जी . ५२. न' तनाथी शुभ १ मा देशमात्र पy Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् . ११५:: - 'से मेहाची जाणेज्जा' अथ मेधावी एवं जानीयात्, 'वहिरंगमेयं' वहिरङ्गमेतत्, सर्वमेतन्न मत्स्वरूपम्, किन्तु-बहिरङ्गम् विमिन्नमेव, 'इणमेव उवणीयवरगं' इहमेवोपनीततरम्, एतेभ्यः खलु क्षेत्रादिभ्यः समीपवत्तिनो वक्ष्यमाणा मातृपित्रादयः, एव । 'तं जहा' तद्यथा-'माया मे पिया में' माता मे पिता मे. 'भाया मे भगिणी में भ्राता में भगिनी मे 'मज्जा मे पुत्ता में भार्या मे पुत्रा में 'धूया में पेसा में दुहितारो में प्रेष्या में 'नत्ता में सुण्हा मे नप्ता में नप्ता पौत्रा स्नुषा मे-स्तुपा-पुत्र वधूः 'सुहा मे पिया में' सुहम्मे-मित्र मे प्रिया में 'सहां मे सखा मे 'सयणसंगंधसंथुया में' स्वजनसंग्रन्थसंस्तुता मे, पूर्वाऽपरंपरिचिताः जननीजनकादयः, तत्परिचिताः सम्बन्धिनश्च में विद्यन्ते,. तत्र स्वजना: जननीजनकादयः, तत्परिचिताः सम्बन्धिनश्च में विद्यन्ते, पूर्वसं योगा:संग्रन्थाः, पश्चात् संयोगाः श्वशुरादयः, संस्तुताः सामान्यतः परिचिताः, भी शान्ति थे प्रदान नहीं कर सकते। अतएव इनको ग्रहण न करना. और अपना न मानना ही मेरे लिए श्रेयस्कर है। में इनका स्यांग कर दूंगा! ___ वुद्धिमान् पुरुष ऐसा समझे-खेत, मकान आदि पदार्थ तो मुझसे भिन्न हैं ही, किन्तु इन पदार्थों से भी जो अधिक समीपवर्ती हैं, जैसे कि मेरी माता है, .मेरा पिता है मेरा भ्राता है, मेरी भगिनी है, मेरी भार्या (पत्नी) है, मेरे पुत्र है, मेरे नौकर चाकर हैं, मेरे नाती पोते हैं पुत्रवध है, मित्र हैं, प्रियजन हैं, आगे पीछे के परिचित एवं सम्बन्धी हैं। स्वजन अर्थात् पूर्वापर परिचित माता पिता आदि, संग्रन्ध अर्थात बाद के संबंधी जैसे श्वशुर आदि और संस्तुत अर्थात् सामान्य रूप से શાંતિ આપી શકતા નથી, તેથી જ તેને ગ્રહણ ન કરવું અને પિતાનું ન માનવું એ જ મારા માટે કલ્યાણ કારક છે. જેથી હું તેને ત્યાગ કરી દઈશ, બુદ્ધિમાન પુરૂષ આ પ્રમાણે સમજે કે-ખેતર, મકાન, વિગેરે પદાર્થો તે મારાથી જુદા છે જ, પરંતુ આ પદાર્થોથી પણ જે વધારે નજીક છે જેમકે-આ મારી માતા છે, મારા પિતા છે, મારો ભાઈ છે, મારી બહેન છે, મારી સ્ત્રી છે, મારા પુત્રો છે, મારા નોકર ચાકર છે. મારા પૌત્રો છે. પુત્રવધૂઓ છે, પ્રિયજન છે, સખા છે. આગળ પાછળના પરિચિત અને સંબધી વર્ગ છે, સ્વજન-અર્થાત્ પૂર્વાપરના પરિચયવાળા માતા પિતા વિગેરે સંબન્ધી અર્થાત્ પછીના સંબંધ વાળાઓ જેમકે સાસરા વિગેરે અને સંરતુત Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ सूत्रकृताङ्गो 'पए खलु मम णायओ' एते खल्ल मम ज्ञातयः, 'अहवि एएसि' अहमपि एतेपाम्, क्षेत्रधनधान्यायपेक्षया इमे सम्बन्धिनोऽन्तरङ्गा विद्यन्ते । 'एवं से मेहावी पुवामेव अप्पणा एवं सममिजाज्जा ' एवं स मेधावी सदसदविवेक पान, पूर्वमेव-आत्मना-स्वयमेव-अन्वयव्यतिरेकाभ्यां समभिजानीयात् इह खल्ल मम अन्नयरे' इह खलु ममाऽन्यतरत्, 'दुक्खे रोयातंके समुपज्जेज्जा' दुःखं रोगातवः समुत्पद्येत, कीदृशः ? इत्याह-'अणिढे जाव दुक्खे णो मुहे' अनिष्टो. यावदुःखं नो मुखम्, एतेषां मात्पुत्र कलत्रादीनां सद्भावेऽपि यदि कदाचिद्रोगा भवेयु स्तदा किमते-तेभ्यो दुःखादिभ्य संरक्षणं करिष्यन्ति इति विचारयेत्, 'से हता' तद् हन्त ! 'भयंतारो णायो' भयत्रातारो ज्ञातयः, 'इमं मम अन्नयरं दुक्खं रोयातकं' इदं ममाऽन्यतरददुःखं रोगातङ्क वा 'परियाइयह' पर्याददत विम. ज्य विभज्य-विभागशः कृत्वा गृहीन 'अणिठं जाव णो मुहं' अनिष्टं यावन्नो सुखम्-नो सुखजनकम्, यद्यई समुपस्थिते रोगातङ्के ज्ञातीन-कथयिष्यामि-यत् हे परिचित हैं । ये मेरे ज्ञातिजन हैं और मैं इनका हूं। खेत, धन, धान्य आदि की अपेक्षा ये संबंधी अन्तरंग हैं। सत् असत् के विवेक से सम्पन्न पुरुष इनके विषय में पहले से ही समझ ले कि कदाचित् मुझे किसी प्रकार का दुःख या आतंक उत्पन्न हो जाय, जो अनिष्ट यावत् दुःखदायी हो और सुखदायी न हो, तो क्या ये माता पिता आदि उस दुःख से मेरी रक्षा कर सकेगे ? नहीं, कदापि नहीं । उस समय मैं हनुले प्रार्थना करूं कि-हे भयत्राता ज्ञाति जनो ! मुझे यह दुःख उत्पन्न हुआ है, जो कष्टप्रद और सुखप्रद नहीं है, इसे थोड़ा थोड़ा वांट कर ग्रहण कर लो, जिससे सारा का सारा અર્થાત્ સામાન્ય પણાથી પરિચય વાળા આ મારા જ્ઞાતિજને છે, અને હું તેઓને છું. ખેતર, ધન, ધાન્ય વિગેરેના કરતાં આ અંતરંગ સંબન્ધી છે. સત્ અસના વિવેકથી યુક્ત પુરૂષ એમના વિષયમાં પહેલેથી સમજી લે કેકદાચ મને કઈ પ્રકારનું દુઃખ અથવા આતંક સઘોઘાતિ શૂલાદિ ઉત્પન્ન થઈ જાય કે જે અનિષ્ટ યાવત્ દુઃખ દેનાર હોય, અને સુખ આપનાર ન હોય, તે શું આ માતા પિતા વિગેરે તે દુખથી મારું રક્ષણ કરી શકશે? અર્થાત્ નહીં કરી શકે કોઈ કાળે તેઓ દુઃખથી મારું રક્ષણ કરી શકે તેમ નથી. તે વખતે હું તેઓને પ્રાર્થના કરું કે હે ભયથી રક્ષણ કરવાવાળા જ્ઞાતિજને! મને આ દુઃખ ઉત્પન્ન થયું છે. જે કષ્ટપ્રદ છે. અને સુખ આપનાર નથી. તેને ડું ડું વહેંચીને તમે લઈ લો, કે જેથી સંપૂર્ણ મારે એકલાએ જ ભેગવવું Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् ज्ञातयो मे दुःखं रोगातङ्क विभज्य भवन्तो गृह्णन्तु-यतो यततोऽपि दुःखमिदमनिष्टमापतितम्, तदा केऽपि तदुद्धरणे न समर्था भविष्यन्ति, 'ताहं दुक्खामि वा सोयामि वा जाव परितप्पामि वा' तदहं दुःख्यामि वा शोचामि यावस्परितप्ये वा 'इमामो अन्नयराओ दुक्खाओ रोगातंकाओ परिमोएह अणिहाओ जाव णो सुहाओ' अस्मान्मेऽन्यतरस्माद्दुःखा द्रोगातङ्कात् परिमोचयत-अनिष्टाद् यावन्नो सुखात् । यदहं दुःखेन शोचामि अतो ययमनिष्टान्मां रक्षतेति । 'एवमेव णो लद्धवं भवई' एवमेव नो लब्धपूर्वो भवति, एवं दुःखविमोक्षाय प्रार्थितोऽपि वान्धवो दुःखाद् रोगातङ्काद् मां रक्षयेदित्येवं न सम्भवति कथमपि, 'तेसिं वा वि भयंताराणं ममण्णाययाणं अन्नयरे दुक्खे रोया के समुपज्जेज्जा' तेषां वापि भयत्रातृणां मम ज्ञातीनामन्यतरद् दुःख रोगातकं समुत्पद्येत 'अणिढे जाव णो मुहे' अनिष्टं यावन्नो मुखम् ‘से हता' तत्-तस्मात्कारणात् इन्त-खेदे 'अहमे ते सिं मुझ अकेलेको ही न भोगना पड़े और बंट जाने से हल्का हो जाय। क्या ऐसी प्रार्थना करने पर वे मेरा उद्धार कर सकेंगे? क्या उस दुःख का बंटवारा करके ग्रहण कर लेगें ? किन्तु न ऐसा कभी हुआ है और न होगा। इस प्रकार की प्रार्थना करने पर भी ज्ञातिजन उस दुःखमय रोगातंक से मेरी रक्षा नहीं कर सकेंगे। ___ज्ञातिजन मेरा दुःख नहीं वांट सकते, इतनाही नहीं, मैं भी उनके दुःख वांटने में समर्थ नहीं हूं। उन भय से रक्षा करने वाले ज्ञातिजनोंको कोई अनिष्ट यावत् असुखरूप रोगातंक उत्पन्न हो जाय और मैं चाहूं कि मैं उनको इस अनिष्ट अवांछनीय यावत् असुख रूप रोगातंक से छुड़ा लूं, तो भी ऐसा कर नहीं सकता ! मैं सफल नहीं हो सकता। ન પડે, અને વહેંચાઈ જવાથી તે હલ્ક થઈ જાય, આ રીતે પ્રાર્થના કરવાથી શું તેઓ મારે ઉદ્ધાર કરી શકશે ? શું તે દુઃખની વહેચણું કરીને તેઓ ગ્રહણ કરી લેશે ? પરંતુ એવું કદી થયું નથી, અને થશે પણ નહીં. આવા પ્રકારની પ્રાર્થના કરવા છતાં પણ જ્ઞાતિજને તે દુખરૂપ રંગતંકથી મારૂ રક્ષણ કરી શકશે નહીં. જ્ઞાતિજને મારૂં દુખ વહેંચી શકશે નહીં. એટલું જ નહીં પણ હું પણ તેઓનુ દુઃખ વહેચીને લઈ શકવાને સમર્થ નથી તે ભયથી રક્ષા કરવા વાળા જ્ઞાતિજનોને કેઈ અનિષ્ટ અવાંછનીય યાવત્ અસુખરૂપ ગાતંક ઉત્પન થઈ જાય અને હું તેઓને તે અનિષ્ટ. અવાંછનીય યાવત્ અસુખ રૂપ રેગાतथी छ।वी 4G, तो ५ मे ४६॥ शत नथी. तेनु शु ४२५ छ ? Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 सूत्रकृतासूत्रे भयंतागणं णाययाणं इमं अग्नयर' अहमेतेषां भयत्रातृणां ज्ञातीनाम् इदमन्यतरत् 'दुःखं दुःखम् 'रोयातंक' रोगातङ्कं वा 'परियाइयामि' पर्याददेविभज्य गृह्णामि 'अणि जाव णो सुहे' अनिष्टं यावन्नो सुखम् 'मा मे दुखं तु वा जाव मा मे परितष्पंतु वा' मा मे दुःख्यन्तु यावन्मा मे परितप्यन्तां वा मे मम इमे परिवाराः मा दुःखमासादयन्तु परितापं मा प्राप्नुयुः, कस्मात् 'इमाओ णं अगयराओ' अस्मादन्यतरस्मात् ' दुक्खाओ रोगातं काओ' दुःखाद रोगातङ्कात् 'परिमोएमि' परिमोचयामि 'अणिडाओ' अनिष्टात् 'जाव णो सुहाओ' यावन्नो सुखात् - अहमेतान् स्वकीपपरिवारान् रोगादिभ्यो मोचयिष्यामीति विचारे कृतेऽपि सः 'एवमेव णो लडपुत्रो भव' एवमेव नो लब्धपूर्वो भवति, तत्र ना सफलनो भवामि, कुतो न सफलमयत्नो भवति जन्तु रन्यस्य दुःखस्य तत्र कारणं दर्शयति स्वयमेव ‘अन्नस्स दुक्खं अन्नो न परियाइयई' अन्यस्य दुःखमन्यो न पर्याइत्ते - विभज्य गृह्णाति । 'अन्नेन कडे अन्नो नो पडिवेदेई' अन्येन कृतमन्यो न प्रतिवेदयति, 'पत्तेयं जायइ पत्तेयं मरइ' प्रत्येकं जायते प्रत्येकं म्रियते, 'पत्तेय चय' प्रत्येकं त्यजति 'पत्तेयं उववज्ज' प्रत्येकमुपपद्यते 'पत्तेयं झंझा' प्रत्येक झंझा पायसम्बन्धोऽपि एकैकस्य भवति 'पत्तेयं सन्ना' प्रत्येकं संज्ञा 'पत्तेयं इसका कारण क्या हैं? एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को दुःख से बचाने या उसे वॉट लेने में क्यों समर्थ नहीं होता ? इसका कारण आगे बतलाया जायगा है । सत्य यह है कि दूसरे के दुःख को दूसरा कोई भी बांट कर ले नहीं सकता। दूसरे के किये शुभ अशुभ कर्म को दूसरा कोई भोग नहीं सकता। जीव अकेला ही जन्मता है, अकेला ही मरता है, अकेला ही वर्त्तमान भव का या सम्पत्ति का त्याग करता है, अकेला ही नवीन भव या सम्पत्ति को ग्रहण करता है । अकेला ही कषाय से युक्त होना એક મનુષ્ય ખીજા મનુષ્યને દુ:ખથી બચાવવામાં અથવા તેને વહેંચી લેવામાં ક્રમ સમય થતા નથી ? તેનુ કારણુ આગળ ખતાવવામાં આવશે. સાચુ તા એ છે કે—ખીજાના દુઃખને અન્ય કાઈ પણ વહેચીને લઈ શકતા નથી. ખીજાએ કરેલ શુભ અશુભ કર્મને મીજુ કાઇ ભેગવી શકતું નથી. જીવ એકલેા જ જન્મે છે, અને એકલે જ સરે છે. એક્લા જ વમાન ભવના અથવા સંપત્તિને ત્યાગ કરે છે. એકલે જ નવે ભવ અથવા સ'પત્તિને ગ્રહણુ કરે છે. એકલે જ કષાયથી યુક્ત થાય છે. દરેકની સુજ્ઞા અલગ હોય Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. थु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् ११९ मन्ना' प्रत्येकं मननम् 'एवं विन्नू वेयणा' एवमेव विद्वान् वेदना, एवमेव प्रत्येकं विद्वान् भवति, प्रत्येकं च वेदना - सुखदुःखानुमत्रो भवत्ति, नहि मिलित्वा सुख दुःखादीनां भोगो भवति, अपि तु येन यत् कृतम् तत्फलं सुबदुःखादि तेनैव भुज्यते, नाऽन्यकृतमन्येन, अन्यथा - कृतस्य हानिः, अकृतस्याऽऽतपत्र प्रसज्येत, 'इह खलु णाइसंजोगा णो ताणाए वा जो सरणाए वा पुरिसे वा एगया पुत्रि णाइसंजोए विषजदाई' इह खलु ज्ञातिसंयोगा नो त्राणाय वा नो शरणाय वा पुरुषो वा एकदा पूर्व ज्ञातिसंयोगान् विपजहाति 'णाइसंजोया वा एगया पुत्रि पुरिसं विष्पजहंति' ज्ञातिमयोगा वा एकदा पूर्वं पुरुषं विप्रजहति 'अण्णे खलु णाइसंजोगा अन्नो अहमंसि' अन्ये खलु है, प्रत्येक की संज्ञा अलग होती है, प्रत्येक का मनन चिन्ता अलग २ है, प्रत्येक की विद्वत्ता और प्रत्येक का सुख दुःख अलग अलग होता है । पर्य यह है कि जिसने जैसा कर्म किया है, वह उसके फलस्व रूइ वैसा ही सुख या दुःख भोगना है, अन्य के किये को कोई अन्य नहीं भोगता | ऐसा हो तो कृनहानि और अकृताभ्यागम नामक दोषों का प्रसंग होगा अर्थात् कर्म का कर्त्ता तो उसके फल भोग से वंचित रह जाएगा और जिसने कर्म नहीं किया उसे उसका फल भोगना पडेगा ! इस प्रकार कर्म भोग की सम्पूर्ण व्यवस्था ही भंग हो जाएगी । इस प्रकार यह निश्चित है कि ज्ञातिजनों के संयोग त्राण या शरण रूप नहीं है । या तो पुरुष ही पहले ज्ञातिजनों के संयोग को त्याग देता है या ज्ञातिसंयोग उस पुरुष को पहले त्याग देते हैं । અલગ હોય છે. દરેકનુ મનન ચિંતન અલગ અલગ હોય છે. વિદ્વત્તા અને દરેકનુ' સુખ દુઃખ અલગ અલગ હોય છે. તાત્પર્ય એ છે કે—જેણે જેવું કર્મ કર્યું હોય છે, તે તેના ફલરૂપે એવુ' જ સુખ અને દુખ ભાગવે છે. તેણે કરેલ કને ખીજે કાઈ ભેગ વતા નથી. એમ હાય તા કૃતાને અને અકૃતાભ્યાગમ નામના દોષ આવ વાના પ્રસ’ગ પ્રાપ્ત થશે. અર્થાત્ કમ ના કરનારા તે તેનુ ફળ ભે ગન્યા વિનાના રહી જશે. અને જેણે કર્મ કર્યું નથી, તેને તેનુ ફળ ભાગવવું પડશે. આ રીતે ક ભાગની સમગ્ર વ્યવસ્થા જ ભાંગી પડશે. આ રીતે એ નિશ્ચિત છે કે—જ્ઞાતિ જતેના સચાગ ત્રાણુ અથવા શરણુ રૂપ થતા નથી, અથવા તે પુરૂષ જ પહેલાં જ્ઞાતિ જનેાના સ ચેગને ત્યાગ કરી દે. અથવા જ્ઞાતિ સચાગ તે પુરૂષના પહેલાં ત્યાગ કરી દે છે. જ્ઞાતિ સયાગ મારાથી ભિન્ન છે, હું જ્ઞાતિ સંચાગથી ભિન્ન છું. આવી Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० सूत्रकृताङ्गसूत्रे ज्ञातिसंयोगाः, अन्योऽहमस्मि 'से किमंग पुण' तत् किमङ्ग पुनः 'वयं अन्नमन्नेहिं णाइसंजोगेहिं मुन्छ।मो' क्यमन्यान्येषु ज्ञातिसंयोगेपु सूमिः , 'इइ संवाए णं वयं णाइसंजोगं विप्पजहिरसामो' इति संख्याय-इत्येवं ज्ञातिसंयोग विपये संख्याय-विचार्य खच तं ज्ञातिसंयोगं विमहास्यामः-त्यक्ष्यामः। 'से मेहावी जाणेज्जा' स मेंधावी जानीयात् 'वहिरंगमेय' बहिरङ्गमेनन्-ज्ञातिसंयोगादिकम् , उक्तंच ____ 'कस्य माता पिता कस्य, कस्य भ्राता सहोदरः' इत्यादि । जाति संयोग मुझले भिन्न हैं, मैं ज्ञातिसंयोगों से भिन्न हूँ ऐसी स्थिति में हम ज्ञातिसंयोगों में क्यों मूर्छाभाव धारण करें ? कहीं भी आल रित धारण करना उचित नहीं है। कदाचित् वह हो भी तो अपने में अपनी आत्मा में ही होनी चाहिए। स्व से भिन्न परपदार्थों में आसक्ति होना किसी भी प्रकार श्रेयस्कर नहीं है । वह सर्वथा अशान्ति, आकु लता, चिन्ता, शोक और दुःख का ही कारण होती है । जैसे पशु तथा धन धान्य आदि सर्वथा बहिरंग हैं। उसी प्रकार घन्धु घान्धव भी सर्वथा भिन्न परपदार्थ हैं। अतएव उनमें ममत्वचुद्धि स्थापित करना श्रेयस्कर नहीं है । इस प्रकार जान कर हम ज्ञाति संबंध का परित्याग कर देगें, ऐसा विवेक शील पुरुष को विचार करना चाहिए। कहा भी है-'इस परिवर्तनशील संसार में कौन किसकी माता है, कौन किसका पिता है, कौन किलका सहोदर भाई है।' अर्थात् निश्चय दृष्टि से किती સ્થિતિમાં હું જ્ઞાતિજનમાં શા માટે મૂચ્છભાવ-વિશ્વાસ રાખું ? કયાંઈ પણ આસક્તિ રાખવી ન જોઈએ. કદાચ આસક્તિ હોય તો તે પોતાનામાં પિતાના આત્મામાં જ હેવી જોઈએ. પિતાનાથી જૂવા અન્ય પદાર્થોમાં આસક્તિ હોવી કઈ પણ્ રીતે શ્રેયસ્કર નથી. તે સર્વથા અશાતિ, આકુલ પણું, ચિંતા, શોક, અને દુઃખનું જ કારણ હોય છે. જેમ પશુ અને ધન, ધાન્ય વિગેરે સર્વ પ્રકારથી બહિરંગ છે, તે જ રીતે બધુ, બાંધવ, વિગેરે પણ સર્વથા ભિન્ન અર્થાત પરપદાર્થ છે. તેથી જ તેમાં મમત્વપણું રાખવું તે શ્રેયસ્કર નથી. આ પ્રમાણે સમજીને હું જ્ઞાતિ સંબંધને ત્યાગ કરી દઈશ આ પ્રમાણે વિવેક વાળા પુરૂષે વિચારવું જોઈએ. કહ્યું પણ છે કે-પરિવર્તન વાળા એવા આ સંસારમાં કે કેની મા છે? કેણ કેના પિતા છે? કેણ કે ભાઈ છે? અથત નિશ્ચય દષ્ટિથી કે જીવને બીજા જીવ સાથે કાંઈજ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् यत्र पुरुषः क्रियामाख्याति प्रतिपादयति 'जे य पुरिसे नो किरियमाइकल' यंत्र पुरुषो नो क्रियामाख्याति 'दो वि ते पुरिसा तुल्ला एगट्ठा कारण मावन्ना" द्वावपि तौ पुरुषौ तुल्यौ - समानौ, 'एगट्टा' एकार्थी' कारणमापन्नौ एकं नियतिरूपं कारणमाश्रित्य तुल्यौ स्तः किन्तु - ' वाले पुण' वालः - अः - कालेश्वरादिवादी पुनः ' एवं ' एवम् वक्ष्यमाणरीत्या 'दिप्पडिवेवेड' विभतिवेदयति जानाति, 'कारण' एवं मावन्ने' कारणमापन्नः सुखदुःख सुकृतदुष्कृतप्रभृते: कारणं स्वकृत पुरुषकारः काळेश्वरादिवाऽस्तीत्येवं कारणमभ्युपपन्नः नान्यनियत्यादिकं कारणमस्तीति, तदेवाह - 'अहमंसि' अहमस्मि 'दुक्खामि वा' दुःख्यामि - शारीरमा नसिकं दुःखमनुभवामि 'सोयामि वा' शोचामि - इष्टानिष्ट वियोग संयोगजन्मं शोकमनुभवामि 'जूरामि वा' विद्यामि मानसिकखेदमनुभवामि 'तिष्यामि वा ' तेपे - शारीरवलक्षरणेन क्षरामि 'पीडामि वा' पीडयामि - सवाह्याभ्यन्तरतया पीडामनुभवामि 'परियामि वा' परितप्ये हृदयान्तरः परितापमनुभवामि, यदहं दुःखा दिकमनुभवामि तत्सर्वमपि 'अहमेवमकासि' अहमेवमकार्यम् यन्मया दुःखादिक Heera deer मम कृतकर्मण एव फलं नाऽन्यस्य । 'परो वा जं दुक्खइ वा सोयह वारइ वा विप्प वा पीडइ वा परितप्पइ वा परो वा यद् दुख्यति वा शोचवि को मानता है और जो क्रिया को नहीं मानता है, यह दोनों पुरुष समान है, दोनों एक ही कारण को प्राप्त हैं। ये दोनों ही अज्ञानी हैं क्योंकि इन्हें तव का ज्ञान नहीं है कि निघति से ही सभी कुछ होता है। कारण को मानने वाला अज्ञानी ऐसा समझता है । कि काल, कर्म, ईश्वर आदि ही फल के जनक हैं। वे समझते हैं कि मैं जो दुःख भोग रहा हूं, शोक पा रहा हूं, दुःख से आत्मग्लानि पा रहा हूं, शारीरिक शक्ति को नष्ट कर रहा हूं, पीड़ित हो रहा हूं, और संतप्त हो रहा हैं, यह सब मेरे किये कर्म का फल है अथवा दूसरा कोई जो दुःख पा रहा આ બન્ને પુરૂષ! સરખા જં અજ્ઞાની છે. કેમ કે તેઓને સઘળું થાય છે. કારણને ક્રિયાને સ્વીકારે છે. અને જે ક્રિયાને માનતા નથી છે, મન્ને એક જ કારણને પ્રાપ્ત થયેલા છે. આ બન્ને તત્વનું જ્ઞાન નથી. તેએ એવુ' કહે છે કે નિયતથી જ માનવા વાળા અજ્ઞાની એવુ' સમજે છે કે–કાળ, કમ, ઇશ્વર, વિગેરેજ ફુલના આપવા વાળા છે. તે સમજે છે કે હુ' જે દુઃખ લાગવી રહ્યો છુ શેક પામી રહ્યો છું. દુઃખથી આત્મગ્લાની પામી રહ્યો છુ. શારીરિક શક્તિને નાશ કરી રહ્યો છું. પીડા પામી રહ્યો છું. અને સ ંતાપ પામી રહ્યો છુ.. આ બધુ મારા કરેલા કર્મનું જ ફળ છે. અથવા બીજા કાઇ જે દુઃખ પામી રહ્યા છે, શાક પામી રહ્યા છે, આત્મગ્લાનિ કરી રહ્યા છે, શારીરિક सु० १३ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतागसूत्रे या खिद्यति वा वेपते वा पीडयति वा परितप्यते वा, तत्र दुख्यति-दुःखं माप्नोति, शोचति-शोकं प्राप्नोति वा, खियति-खेदं माप्नोति तेपते वा-दुःखातिरेकेण तापं माप्नोति, पीडयति-पीडा माप्नोति, परितप्यते-परितापं प्राप्नोति, 'परो एवमकासि' पर एवमकार्षीत् यदन्यो वा दुःखादिकमनुभवति-तत्सर्वं स्वयं परपीटोत्पादनेन कृतवान्, तत् तस्य स्वसंपादितकर्मण एवं फलम् । 'एवं से बाले सकारण वा परकारणं वा एवं विपडिवेदेइ कारणमावन्ने' एवं स बालः स्वकारणं वा परकारणं वा एवं विप्रतिवेदयति कारणमापन्नः । एवं सोऽज्ञानी कालकर्मपरमेश्वरादीनां सुखदुःखकारणत्वेन मन्यमान स्वस्य सुखदुःखयोः परकीय. छुखदुःखयोवा स्वकीयकर्मणः परकीयकर्मणो वा कार्यमवगच्छति, इत्येतदेव तस्य वालत्वमिति । तदेवं नियतिवादी कालेश्वरादि कारणवादिनो वालत्वं प्रदर्य सम्मति-स्वमतं मदर्शयति-'मेहावी पुण' इत्यादि । 'मेहावी पुण एवं विप्पडिवदेह कारणमावन्ने कारणं नियतिरूपं कारणं प्राप्तो मेधावी पुनरेवं विप्रतिवेदयति, परन्तु-नियतिमात्रं मुखदुःखादीनां कारणमिति मन्यमानो विद्वांस्तु पुनरेवं जानाति 'अहमंसि दुक्खामि वा-सोयामि वा-जूरामि वा-तिप्पामि वा-पीडामि पा-परितप्पामि वा, णो अहं एवमकासि, अहमस्मि दुःखामि वा-शोचामि वाहैं, शोक पा रहा है, आत्मग्लानि कर रहा है, शारीरिक बल को नष्ठ कर रहा है, पीड़ित होता है या ताप भोगता है, यह उसके कर्म का फल है। इस प्रकार अज्ञानी काल, कर्म, परमेश्वर आदिको सुख दुःख का कारण मानता छुआ अपने सुख दुःख का कारण अपने कर्म को और दूसरे के सुख दुःख का कारण दूसरे के कर्म को समझता है। किन्तु कारण को प्राप्त बुद्धिमान् ऐसा जानता है कि मैं दुःख भोगता है शोक पा रहा हूं, दुख से आत्मगहीं कर रहा हूँ, शारीरिक शक्ति को नष्ट कर रहा हूं, पीड़ा पा रहा हूं, संतप्त हो रहा हूं, इसमें मेरा બળને નાશ કરી રહ્યા છે, પીડા પામે છે, અથવા સંતાપ ભગવે છે, આ બધું તેના કર્મનું જ ફળ છે. આ પ્રમાણે અજ્ઞાનીઓ કાળ, કર્મ, પરમેશ્વર વિગેરેને સુખદુઃખનું કારણ માનતા થકા પિતાના સુખ દુઃખનું કારણ પિતાના કર્મને અને બીજાના સુખ દુઃખનું કારણ બીજાના કર્મને સમજે છે. પરંતુ કારણને પ્રાપ્ત બુદ્ધિમાનું એવું સમજે છે કે હું દુખ ભોગવું છું, શેક પામી રહ્યો છું. દુઃખથી આત્મનિંદા કરી રહ્યો છું. શારીરિક શક્તિને નાશ કરી રહ્યો છું. પીઠા પામી રહ્યો છું. સંતાપ પામી રહ્યો છું. તેમાં મેં કરેલ કમ કારણ નથી. આ બધું દુઃખ વિગેરે નિય Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीफनामाभ्ययनम् खिद्यामि वा-तेपे वा पीड यामि वा-परितप्ये वा-नाहमेवमकार्षम्, यदहं शौ. चामि यन्मम पीडादिकं भवति न तत्र कर्मादिकं कारणम् । 'परो व जं दुक्खइ जावे परितप्पइ वा णो परो एवमकासि' परो वा यद् दुख्यति यावत्परितप्यते वा न पर एवमकार्षीत्, परोऽपि यद् दुःखादिकमनुभवति, तत्र तादृशदुःखाद्यनुभवेने कर्मणः कारणता, किन्तु-सर्वमेतत्सुखदुःखादिकं स्वस्य परस्य वा तत्सर्वं नियति वलादेव आगच्छति, एवं च नियतिरेव सर्वेषां कारणम् । एवं से मेहावी सका. रणं वा परकरणं चा एवं विप्पडि वेदेइ कारणमावन्ने' एवं स मेधावी स्वकारण वा परकारणं वा एवं विभतिवेदयति कारणमापन्नः, अनेन प्रकारेण स बुद्धिमानव मवगच्छति स्वकारणं परकारणं वा मुखदुःखादि मम परस्य वा यद्भवति नं तत्स्वकृतपरकृतकर्मणः फलम्। किन्तु सर्वमेतन्नियतिविचेष्टितमेव इत्थमवधारयति विद्वान् । 'से बेमि पाईण वा ४' अथ ब्रवीमि-युक्तितो निश्चित्य प्रतिपादयामि प्राच्यां वा ४-माच्यां-पूर्वदिशायाम् पश्चिमदिशायां दक्षिगस्यामुत्तरस्यां वा उपः वक्षणार्ध्वमधोदिग्नि वा 'जे तसथावारा पाणा' ये सस्थावरा माणाः 'माणचन्तो जीवा विद्यन्ते । 'ते एवं संघायमागच्छंति' ते माणा एवं प्रकारेण नियति. चलेनैव सङ्घातम्-मौदारिकादिशरीरभावमागच्छन्ति, इति अहं. नियतिवादी प्रवीमि। ये केचन सस्थावराः पाणिनो यत्र कुत्रापि वसन्ति ते सर्वेऽपि नियतिकिया कर्म कारण नहीं है। इसी प्रकार कोई दूसरा दुःखी होता है यावत् परिताप पाता है, सो उनमें उसका किंया कर्म कारण नहीं है। किन्तु यह सब दुःख आदि नियति के बल से ही उपस्थित होते। अतएव नियति ही सय का कारण है। इस प्रकार वह बुद्धिमान पुरुष ऐसा समझता है मुझ को या दूसरे को जो भी सुख या दुःख होता है, वह स्वकृत अथवा परकृत कर्म का फल नहीं है। यह सर्वतो नियति का ही कारण है। अतएव मैं ऐसा कहता हूं-पूर्वादि सभी दिशाओं में जो भीत्रस और स्थावर प्राणी हैं, वे सब नियतिके बल से ही औदारिक आदि शरीरको તિના બળથી જ પ્રાપ્ત થાય છે. તેથી નિયતી જ સઘળાનું કારણ છે. આ પ્રમાણે એ બુદ્ધિમાન પુરૂષ એવું સમજે છે, કે મને અથવા બીજાને જે કાંઈ સુખ અથવા દુઃખ થાય છે, તે સ્વકૃત અથવા બીજાએ કરેલ કર્મનું ફળ નથી. આ બધું નિયતિનું જ ભાગ્યાધીન કારણ છે. તેથી જ હું એવું * કહું છું કે-પૂર્વ વિગેરે સઘળી દિશાઓમાં જેકેઈ વસ અને સ્થાવર પ્રાણિ છે, તે સઘળા નિયતિના બળથી જ ઔદારિક વિગેરે શરીરને પ્રામ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० सूत्रकृताङ्गसूत्र बलेनैव शरीरसङ्घातं प्राप्नुवन्ति, तथा-नियतिवलेनैव शरीराद्वियुध्यन्ते म मुखदुःखादिकं सर्वमेव अनुकूलपतिकूल जातं लभन्ते इति । 'ते एवं विपरियास. मावज्जंति' एवं ते नियतिवछेनैव विपर्यासमागच्छन्ति, शरीरावस्थां-बालादिरूपाम् । 'ते एवं विवेगमागच्छति' ते जीवाः पूर्वोक्ताः पट्मकाराः एवम् नियतिवले व विवेक शरीरात पार्थक्यम् आगच्छन्ति प्राप्नुवन्ति । 'ते एवं विहाण मागच्छति' ते एवं विधान-मागच्छन्ति, ते जीवा नियतिबलेनैव विधानं काण. स्वकुन्जत्वादिभावं प्राप्नुवन्ति नियतिवलेनैव वधिरान्धकाणकुजा भवन्तीति भावः 'ते एवं संगतियति' एवं ते सङ्गतिं यन्ति-एवम् अनेन प्रकारेण ते नियतिबलेनैव, संगति नाना प्रकारकं मुखदुःखादिभावं प्राप्नुवन्ति सुधर्मस्वामी जम्बू स्वामिनं कथयति-'उहाए' उत्प्रेक्षया नियविवादिनो नियतिमाश्रित्य तदुपेक्षया यत्किञ्चित्कारितया 'णो एवं विपडिवेदेति' लो एवं ते विमतिवेदयन्ति-नियति बलेन सर्व भवतीति वदन्त स्ते 'नो' नैव एवम्-वक्ष्यमाणान् पदार्थान् विप्रतिवेदयन्ति-न जानन्ति । के ते पदार्था इत्याह-'तं जहा' तद्यथा-'किरियाइ वा जाव णिरएइ वा अणिरएइ वा क्रिया, इति वा यावत् निश्य इति वा, क्रियातप्राप्त करते हैं । नियति के पल से ही शरीर से वियुक्त होते हैं । नियति से ही सुख दुःख आदि अनुकूल प्रतिक्ल संघेदन करते हैं। नियनि से ही उनमें नाना प्रकार के बाल्य आदि परिमाण उत्पन्न होते हैं। नियति से ही कोई काणा, कोई कुबड़ा, कोई पहरा और कोई अन्धा होता है। इसी प्रकार वे त्रस और स्थावर जीव नियति के बल से ही विविध प्रकार के सुख दुःख आदि को प्राप्त होते हैं। सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं--वे नियतिवादी आगे कहे जाने वाले पदार्थों का स्वीकार नहीं करते हैं। वे इस प्रकार क्रिया, अक्रिया यावत् नरक, अनरक आदि। यहां यावत् शब्द ले पूर्वोक्त કરે છે. નિયતિના બળથી જ શરીરથી છૂટી જાય છે. નિયતિથી જ સુખ દુખ વિગેરે અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ સંવેદન કરે છે. નિયતિથી જ તેમાં અનેક પ્રકારના બાલ્ય વિગેરે અવસ્થા પ્રમાણે ઉત્પન્ન થાય છે. નિયતિથી જ કેઈ કા, કેઈ કુબડે, કેઈ બહેશે, અને કેઈ આંધળો, કેઈ લુલે અને કઈ લંગડે હોય છે. એ જ પ્રમાણે આ ત્રસ અને સ્થાવર જી નિયતિના બળથી જ અનેક પ્રકારના સુખ દુઃખ વિગેરેને પ્રાપ્ત થાય છે. તે સુધર્માસ્વામી જંબૂ સ્વામીને કહે છે કે–તે નિયતિ વાદી આગળ કહેવામાં આવનારા પદાર્થોને સ્વીકાર કરતા નથી. તેઓ આ પ્રમાણે ક્રિયા Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् आरभ्याऽनिरयान्तपदार्थान् न स्वीकुर्वन्ति, । 'एवं ते विरूपरूवेहि कम्मसमारंभेहि एवं ते विरूपरू:-अनेक-प्रकारकैः कर्मसमारम्भैः प्राणातिपातादिसाव धानुष्ठानः, विख्वरुवाई कामभोगाई समारभति' विरूपरूपान्-नानामकारकान् सावधकर्माऽनुष्ठानान् कामभोगान् शब्दादिरूपान समारभन्ते कुर्वन्ति, 'भोवणाए' भोगाय 'एवमेव ते अणारिया विप्पडिपना तं सदहमाणा जाव इइ ते णो हव्याए णो पाराय अन्तरा कामभोगेषु विसण्णा' एवमेव ते अनार्या विप्रतिपन्नाः वत् अंदधाना: यावदिति ते नो अर्वाचे नो पराय अन्तरा कामभोगेषु विषण्णा, ते नियतिवादिनः कामभोगादिषु आसक्ता अनार्या भ्रममुपागताः नियतिवादे श्रद्धान शीला नेह लोकं प्राप्नुवन्ति, नवा परलोकमेव माप्नुवन्ति किन्तु उभयतो भ्रष्टाः संजायन्ते कामादावासक्ताः । 'चउत्थे पुरिसजाए णियइवाइए ति आहिए' चतुर्थः पुरुषजातो नियतिवादिक इत्याख्यायते । 'इच्चे ते चत्तारि पुरिसजाया कल्याण, अकल्याण सिद्धि, असिद्धि सुकृत, आदि को ग्रहण कर लेना चाहिए। इस कारण वे नाना प्रकार के सावध कर्मों का अनुष्ठान करके शब्दादि कामभोगों का आरंभ करते हैं। वे अनार्य विपरीत श्रद्धान करते हुए न इधर के रहते हैं, न उधरके रहते हैं। बीच में ही काम लोगों में आसक्त हो जाते हैं । तात्पर्य यह है कि वे नियतिवादी झालभोगों में आसक्त, अनार्य, भ्रम को प्राप्त, नियति वाद में श्रद्धा रखने वाले न अपना यह लोक सुधार पाते हैं, न पर. लोक सुधार सकते हैं। दोनों ओर से भ्रष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार चौथा पुरुष नियतिवादी कहा गया है, ये चार पुरुष नाना प्रज्ञा वाले हैं, विभिन्न अभिप्राय वाले हैं, भिन्न भिन्न शील आचार અક્રિયા યાવત્ નરક, અનરક વિગેરે તથા યાવત્ શબ્દથી પૂર્વોક્ત કલ્યાણ, - અકલ્યાણ સિદ્ધિ અસિદ્ધિ, સુકૃત, વિગેરેનો સ્વીકાર કરતા નથી. આથી તેઓ અનેક પ્રકારના સાવદ્ય કર્મોનું અનુષ્ઠાન કરીને શબ્દાદિ કામભેગનો આરંભ કરે છે. તેઓ અનાર્ય–અર્થાત્ વિપરીત શ્રદ્ધાન કરતા થકા અહિના રહેતા નથી તેમ ત્યાંના પણ રહેતા નથી. વચમા જ કામોમાં આસક્ત થઈ જાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે–તે નિયત વાદીઓ કામમાં આસક્ત, અનાર્ય, ભ્રમને પ્રાપ્ત થયેલા, નિયત વાદમાં શ્રદ્ધા રાખનારા પિતાને આ લોક સુધારી १४ नथी. मन्ने माथी भ्रष्ट था तय छ. ... • આ રીતે થે પુરૂષ નિયતવાદી કહેલ છે. આ ચારે પુરૂષ અલ્પ બુદ્ધિવાળા છે. જુદા જુદા અભિપ્રાય વાળા છે. જુદા જુદા સ્વભાવ અને Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ .. कृतागले णाणा पन्ना, णाणाछंदा' इत्येते चत्वारः पुरुषजातीयाः नाना प्रज्ञाः-विविधवुद्धिभिः कुशाखप्ररूपकाः नानाछन्दा:-विभिन्नाभिमायवन्तः-कुत्सिताभिप्रायेण कुमार्ग: दर्शकाः 'णाणासीला णाणादिट्ठी' नानाशीला:-नियतिमाश्रित्य कुत्सिताचार प्रवर्तकाः नानादृष्टयः- नानारूपा दृष्टिदर्शनं येषां ते तथा कुत्सितमार्गदर्शकाः 'णाणारुई णाणारंभा पाणा अज्झवसाण संजुत्ता' नानारुचयः-प्राणातिपाताधारम्भ. फारकाः अधर्म धर्मबुद्धया कुणाः नाना प्रकारकविषयभोगादिपु अभिमायवन्तः, नानारम्भाः नानाऽध्यवसानयुक्ताः । 'पहीणपुच्चसंयोगा आरियं मगं असंपत्ता' घहीणा पूर्वसंयोगाः आर्य मार्गम् आर्याणां तीर्थकराणां मार्गम्। आर्य मोक्षमापक मार्ग सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणममाप्ताः। 'इइ ते णो हवाए णो पाराए' इति-अस्माकारणात् ते नो अर्वाचे-न इह लोकाय, नवा परलोकाय क्लता भवन्ति । किन्तुअंतरा काममोगेसु विसण्णा' अन्तरा-मध्ये काममोगेषु विषण्णाः सन्तः संसार चक्रपरिभ्रमणजनितदुःखभागिनो भवन्तीति सू०१२। मूलमू-से बेमि पाईणं वा ४ संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा-आरिया वेगे अणारिया वेगे उच्चागोया वेगे णीयागोया घाले हैं, और पृथक् पृथक् दृष्टि वाले हैं। नाना रुचि वाले, प्राणातिपात आदि आरंभ करने वाले, धर्म समझ कर अधर्म करने वाले है। ये मातापिता आदि के पूर्वकालीन संबंध को त्याग चुकने पर भी आर्य भाग अर्थात् तीर्थकरों के मार्ग को प्राप्त नहीं कर पाये हैं, अर्थात् सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप रूप मोक्षमार्ग को प्रोप्त नहीं हुए है। इस कारण उनका न यह लोक सुधरता है, न परलोक सुधरता है। वे बीच ही में कामभोगों में फंस जाते हैं और संसार चक्र में परिभ्रमण के दुःख के भागी होते हैं ॥१२॥ આચાર વાળા છે, અને અલગ અલગ દષ્ટિવાળા છે. ભિન્ન રૂચિવાળા, પ્રાણા તિપાત વિગેરે આરંભ કરવાવાળા ધર્મ સમજીને અધર્મ કરવાવાળા છે. આ માતા, પિતા, વિગેરેના પૂર્વકાળના સંબંધને ત્યાગ કરવા છતાં પણ આર્ય માર્ગ અર્થાત તીર્થકરના માર્ગને પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી. અર્થાત સમ્યક જ્ઞાન, સમ્યદર્શન, સમ્મચારિત્ર, અને સભ્યપ રૂપ મેક્ષ માર્ગને પ્રાપ્ત થતા નથી. તે કારણે તેને આ લેક સુધરતું નથી તથા પરાક પણ સુધરતું નથી. તેઓ વચમાં જ કામોમાં ફસાઈ જાય છે. અને સંસાર ચકમાં પરિભ્રમણના દુઃખને ભેગવવા વાળા થાય છે. ૧૨ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् .. १०३ वेगे कायमंता वेगे हस्तमंता वेगे सुवन्ना वेगे दुवन्ना वेगे सुरूपा वेगे दुरूवा वेगे, तेसिं च णं जणजाणवयाइं परिग्गहियाई भवंति, तं जहा-अप्पयरा वा भुज्जयरावा, तहप्पगारेहि कुलेहि आगम्म अभिभूय एगे भिक्खायरियाए समुट्टिता सतो वावि एगे णायओ य अणायओ य उवगरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुट्टिता असतो वावि एगे णायओ य अणायओ य उवगरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुहिता। जे ते सतो वा असतो वा णायओ य अणायओ य उवगरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुहिता पुव्वमेव तेहिं णायं भवइ, तं जहा-इह खल पुरिसे अन्नमन्नं ममट्टाए एवं विप्पडिवेदेइ, तं जहा-खेत्तं मे वत्थू मे हिरपणं मे सुवन्नं मे धणं मे धण्णं मे कंसं मे दूसं मे विउलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालरत्तरयणसंतसारसावतयं मे सदा मे रूवा मे गंधा मे रसा मे फासा मे, एए खल्लु मे कामभोगा अहमवि एएसिं। से मेहावी पुवामेव अप्पणा एवं समभिजाणेजा, तं जहा-इह खलु मम अन्नयरे दुक्खे रोगातंके समुप्पज्जेजाअणि? अकंते अप्पिए असुभे अमणुन्ने अमणामे दुक्खे णो सुहे से हंता भयंतारे ! कामभोगाइं मम अन्नयरं दुक्खं रोयातंकं परियाइयह । अणिटुं अकंतं अप्पियं असुभं अमणुन्नं अमणामं दुक्खं णो सुहं, ताऽहं दुक्खामि वा सोयामि वा जुरामि वा तिप्पामि वा पीडामि वा परितप्पामि वा इमाओ मे Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सूत्रकृतागसूत्रे अण्णयराओ दुक्खाओ रोगातंकाओ पडिभोयह अणिट्राओ अर्कताओ अप्पियाओ असुभाओ असणुन्नाओ अमणामाओ दुश्खाओ णो सुहाओ, एकामेव णो लद्धपुठवं भवइ, इह खल्ल कामभोगा णो ताणाए वा जो सरणाए वा, पुरिसे वा एगशा पुचि कामलोगे विजहह, कामभोगा वा एगया पुचि पुरिसं विप्पजहंति, अन्ने खलु कालभोगा अन्नो अहमंसि, से किमंग पुण वयं अन्नमन्नेहि कामभोगेहिं मुच्छामो ? इह संखाए गं वयं च कामभोगेहिं विप्पजहिस्सामो, से मेहावी जाणेज्जा बहिरंगमेयं, इणमेव उवणीयतरागं, तं जहा-माया मे पिया मे भाया मे अगिणी से भज्जा मे पुत्ता से धूया मे पेसा मे नत्ता मे सुहा मे सुहा से पिया से सहा मे सयणसंगंथसंथुया मे, __एए खलु मम णायओ अहम वि एएसिं, एवं से मेहावी पुवामेव अप्पणा एवं समभिजाणेजा, इह खल्लु मम अन्नयरे दुक्खे रोयातके लमुप्पजेजा अणिढे जाव दुक्खे णो सुहे, से हंता अयतारो! णायओ इमं सम अन्नयरं दुक्खं रोयातकं परियाइ यह अणिटुं जाव णो सुहं, ताऽहं दुक्खामि वा सोयामि वा जाव परितप्पामि वा, इमाओ मे अन्नयराओ दुक्खाओ रोगातंकाओ परिमोएह अणिहाओ जाव णो सुहाओ, एवमेव णो लद्धपुटवं सवइ, तेलिं वादि भयंताराणं मम णाययाणं अन्नयरे दुक्खे रोगालके समुप्पज्जेज्जा आणिठे जाव णो सुहे, से हंता अहमेतेसिं भयंताराणं णाययाणं इमं अन्न Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिठीका द्वि. भु. म. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् 'ईवी ४ जावा माना या निपूकः पाठः 'पूर्व से परिष्णायकम् मे एवं स परिज्ञातकर्मा भवति प्राच्यादिदिग्भ्यः समागतो हामी यो भिक्षुरारम्परिभ्यां रहितः स एव कर्मरहस्यज्ञाता भवति, एवं सेव + 円 ܘ ܊ ܃ १२९ कम्' एवं सर्मा भवति एवं मधुः कर्मबन्धनरहितों भवति एवं से च अंशकारण भवतीति मक्खायें' एवं व्यंन्तकारको भाति स एव भिक्षुः कर्मक्षयकारको भवति इत्याख्यातम् उक्तप्रकारेण प्रतिपादितं वीर्थक्रता- भगवतेति ।। ०१-४ ।। T} ", I phot i 40 मूलम् - तत्थ खलु भगवया छज्जीवनिकाया हेऊ पण्णत्ता, L 3677. ". 21 53 our E जहा पुढवीकाए 'जाव तसकाए से 'जहाणामए मम अलायं दंडेण वा मुट्ठी वा लूण वा कालेन वा आउहिज्ज माणऐसा हम्ममा वा तज्जिनमाणस्स वा "ताडि नमार्णस्त परियाविज्जमा वा किलाभिज्जेमणिस्स वा उदविज्ज मार्णस्स वा 'जाव" लोमुक्खणणमायम वि "हिंसाकारंगं दुक्खं भयं परिसंवेदेोम इच्चेत्रं जाण सर्वे जीवा सव्वे भूया सव्वे पाणी सवे सत्ता दंडेण वा जांव कवांले वा आउहिज्जेमाणावा कहा कि पूर्वादि ६ दिशा से आम जो माधुपरि ग्रह और आरंभ से रहित है, वही फर्म के स्वर को जानता है। इस प्रकार वह समस्त कर्मो से रहित होकर कर्मों का क्षय करता है । सार्वये कर्मों की अनुष्ठान करने वाले गृहस्थ, शाक्य आदि श्रम तथा ब्रह्मकर्मों का क्षय करने में समर्थ नहीं होते, सुमी जस् सबमी आदि शिष्यों से कहते हैं । यही तीर्थकरों का कथन है ॥१४॥ 11 1 r F V 1,4 હું કહુ છુ કે પૂર્વ' વિગેરે છ દિશાએએથી આવેલા જે સાધુ િ (ગ્રો અને આરસ વિનાના છે, એજ કર્મોના સ્વરૂપને જાગે છે આ પ્રમાણે ते समजा मेथी रहिनने मेन क्षय ४२ छे, सावध !भानु, अनु વ્હાન કરવાવાળા ગૃપ શાકય વિગેરે શ્રણ તથા બ્રહ્મણુ કર્મોનો ક્ષય विश्वास समर्थ यता नथी #& pesque સુધર્માસ્વામી જસ્વામી વિગેરે શિષ્યને કહે છે કે આજ ની 6 शत्रु कथन छ }' । सू० १७ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० B . .. हम्ममाणा वा तन्ज़िज्ज़माणा वा ताडिज्जमाणावा परियाविज्जमाणा वा किलामिजमाणा वा उद्दविजमाणा "वा जाव लोमुक्खंणणमायमवि. हिंसाकारगं..दुक्खं भयं पड़िसंवदंति, एवं नचा सव्वे पाणा जावासित्ता ण हंतव्वा ण अज्जावेयव्वाण परिघेतल्याण परितावेयवां ण उद्दवेयवा। से बेमि जे य अतीता जे य पडुप्पन्ना जे य आगमिस्सा अरिहंता भगवंता सव्वे ते एवमाइक्खंति एवं भासंति एवं पण्णवेति. एवं परू वेंति-सत्वे पाणा जाव- सत्ता-ण हंतव्वा ण अज्जावेयत्वा ण परिघेतवा ण परितावेयव्वा ण उद्दवेयन्वा एम : धम्मे, धुवे णिइए सासए समिञ्चलोग खेयन्नहिं पवेइए, एवं से भिक्ख विरए पाणाइवायाओ जाब विरए परिग्गहाओ णो दंतपक्खा. लणेणं दंते पकाखालेजा णो अंजणं णो यमणरणोधूवणं होतं परियाविएज्जा । से, भिक्खू अकिरिए अलूसप अकोहे अमाणे अमाए अलोहे उवसंते परिनिव्वुडे णो आसंसं पुरओ करेजा, इमेण में दिउण वा सुएण वा मएण वा विनाएण वा इमेण वा सुचरियतवनियमभचेरवासेण वा इमेग, वा जाया मायावृत्तिएण.धम्मेण इओ चुए पेच्चा देवे सिया कामभोगाणंवसवत्ती सिद्धे वा अदुक्खमसुभे वा, एत्थ वि. सिया एत्थ विणो सिया, से भिक्खू सदेहि अमुच्छिएं स्वहिं अमुच्छिए गधेहि अमुच्छिए रसहिं अमुच्छिए फासेहिं अमुच्छिए विरए कोहाओ माणाओ मायाओ लोभाओं पंजजाओ दोसाओं कलहाओ . A Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - समयायोपिनी टीका द्वि. शु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् .. मभक्खाणा पेसुन्नाओ परपरिवाराओ अग्डाई ओ" माया मोसाओ मिच्छादसणसल्लाओं ई सें' महतो आयाणाओ उवसंते उवट्रिए पंडिविरए से भिक्खू । जे इमें तसथावरा पाणा भवति ते णो सयं समारंभइ णो अपणेहिं समारंभावेई"अन्ने समारभते विन समाजागइ, इइ से महतो आयाणाओं उवसंते उबटिए पडिविरए से भिवखू । जे इमे' कामभोगा मचित्तो वा अचित्ता वा ते णो संयं परिगिण्हई णो अन्नेणं परिंगिण्हावेई अन्न परिगिण्हत पि ण समणुजाणई इइ से महतो आयाणाओं उपसते उर्वहिए पडिविरए से भिक्खू । जि पि य इमं संपराइयं कम्मं कज्जई, जो ते सयं करेइ णो अपणेणं कारवेइ अन्नं पि करेंत ण संमणुजाणइइइसे महतो आयोणाओ उवसंते उवहिए पडिविरए से भिवरखू जाणेज्जा असणं वा ४ अस्ति पडियाए एग साहम्मियं समुद्दिस्त पाणाई भूयाई जीवाई "सत्ताई समारंभ समुर्दिस्स कीतं पीमिञ्च - अंच्छिज अणिसट्टे अभिहर्ड आईटुंदेसियं ते चैइयं सिया तं गो सय भुंजई णों 'अण्णेणं भुंजायेई अन्न पि भुंजते ण समणुजाणई, इई से महतो आयाणाओं उवसंते उवदिए पंडिविरए से भिक्खू । अह पुणे जानेजा, त जहा विग्जइ 'तेसिं परकमें जस्सट्टा ते वेइयं सिया, ते जहा अप्पणो पुत्ताइणट्राएं जाव आएसाए पुढो पगहेणाए सामासाए पोयरासाए संणिहिसंणिचओ किज्जइ इह एपसि माणवाण भोर्यणाए तत्थ भिक्ख परकडं परणिट्रियमुग्गः Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ सुप्पायणेलणासुद्धं सत्थाईयं सत्थपरिणामियं अविहिसियं एसियं वेलियं,लामुदाणियं पत्तमसणं कारणटापमाणजुत्तं अक्खोवंजणवणलेवणभूयं संज़मज़ायामायावत्तियं विलमित्र प नगभूपर्ण अपाणेणं आहार-आहारेज्जा। अन्नं अन्नकाल पाणं पाणकाले वत्थं वत्थकाले लेणं लेणकाले सयणं सयणकाले । से, भिक्खू । मायन्ने अन्नयरं दिसं अणुदिसं वा पडिवन्ने धम्म आइक्खे विभए किट्टे उबटिएसुवा,अणुवट्ठिएसु वा सुस्सूसमासु पवेइए, संतिविरतिं. उवसमं निव्वाणं सोयवियं अमजत्रियं मदवियं, लाघवियं अणइवाइयं सवेसिं पाणाणं सवेति भूयाणं जात्र सत्ताणं अणुवाई किट्टए धम्मं । से भिक्खू धम्म किट्टमाणे णो अन्नस्स हेडं धम्ममाइक्खेज्जा, णो पाणस्त हेडं धम्ममाइक्खेज्जा, णो वत्थस्स हेडं धम्ममाइक्खेज्जा, णो लेणस्स हेडं धम्ममाइक्खेजा, णो, सयणस्स हेडं धम्ममाइक्खेजा, णो अन्नेसि विरूवरूवाणं कामभोगाणं, हेड़े धम्मामाइक्खेज्जा;अगिलाए धम्ममाइ.करेजा नन्नस्थ कम्मनिज; रट्टाए धम्ममाइक्ज्ज्जा । इह खलु तस्स भिक्खुस्स अंतिए धम्म सोचा-णिसम्म उहाणेणं, उहाय वीरा अस्सि धम्मे:समुट्रिया जे तस्स भिक्खुस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म सम्म उटाणेणं उहाय वीरा अस्ति धम्मे समुट्टिया ते एवंसयो जगाते एवं संबोवरता ते एवं सब्वोवसंताते एवं सत्वत्ताए परिनिव्वुड तिबेमि। एवं से भिक्खू धम्मट्टी धम्मविऊ णियागपडिवाणे से जहेयं बुइयं। अदुवा पत्ते पउमवरफोंडरीयं अदुवा अपते : पउमवरपोडरीयं, Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनो टोका द्वि अ. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् एवं से भिकरवा परिणगायकम्मे परिषगायसंगे परिणायगेहवासे 'उवसंत समिए सहिएं त्या जएं, सर्व वयणिज्जे, तं जहा-- सर्मणेई वा माहणेइ वा खतइ वा दंतइ वा गुनेई वा मुत्तेइ. बा इसीइ वा मुणीइ वा कईइ.वा, विजइ वा भिक्खूइ वा लहेइवा:तीरट्रीइ वा चरणकरणपारविउनिवमि।।सू०१५॥ 1T एवं ज्ञात्वा पावसईदय HuTHE hi परितापयितव्या: छापा- तत्र : खल्छ- भगवना पडूनी निकाया हेतवा, अज्ञप्ता तद्यथापृथिवीकायो सावा सकारा, तया नाम :ममाऽमातं दण्डेन वा मुष्टिना वा ले दुना-वा, कपालेन वा, आकुदयपानस्य वा हत्यमानणावा, तमानस्य वा, ताख्यपानस्यास, परितापमानाचा कलापमानस्थ-वा उद्वेज्यमानस्य वा. यान, रोमोत्खननपात्र नापि हिंसा काएक दुःव मयं प्रतिवेदयामि इत्येव, जानीहि सर्वे जीवाः मर्माणि पूति - सर्वे मागाः सर्वे सत्त्वा " दाडे न जा. यावत् कपालेन वा अटघापाना, वा, इन्याना वा तज्य माना वा ताइवामाना वा परिताप्यमानाबा- क्लाम्पमाला, वा उद्देश्यमाना वा, यापद.रोमोत्खननमात्र सर्वे पाणा यावत् सञ्चाः न हन्तव्याः, नाऽऽज्ञापथितन : न परिग्राह्याः, न येची मामिष्यन्तोऽहन्तो भगवन्तः सर्व ते एयमाख्यानि एवं भाषन्ते एवं न इंद्र नवितव्याः, अथ बंधी नि ये चावीताः ये च प्रत्युत्पन्नाः मज्ञापयन्ति एवं मरूपयन्ति सर्वे पाणाः याच मत्वा न हन्नाव्या, नाझिापयिः तेव्याः, न परिग्र हो, न परितारयितव्याः, नोवैजयितव्या, एष धर्मः ध्रुव नित्यः शाश्वतः समेत्य लोकं खेदज्ञैः प्रवेदितः । एवं समिक्षु विरत माणोतिपातात यविद विरतः परिग्रहात्, नो दन्त पक्षालने न दन्न न पक्षालये, नो अजने नों चमनं 'नो' धूपन नो 'तं परिपिवेत् । स "भिक्षुरक्रिय"अल्पमा 'अक्रोधः अमानः । 'अप्रायः अगोमः उपन्तिा परिनित नो आशमा पुरतः कुत्-अनेन मम · दृष्टेन की श्रुतेन या मतेन या विज्ञातेन वा अनेन वा सुचन्तितपोनियमवनचर्य पासेंन वा गनेन वा यात्रामात्रवृत्तिनां धर्मेण इतच्युतः त्ये देवः स्याम् । कामभोगाः खलु वशेवर्तिनः सिद्धो वा अदुःखा अशुमो आऽस्यिात्रापि न स्यात् । स.भिक्षुः शत्रदेषु अमूच्छितः, रूपेष्ठ अन्छितः गन्धेषु। अमूरिसे अम् च्छितः पशेषु अछितः विरतः क्रोधाद्मानाद मायाया लोमात् प्रेम्णद्वेपात का अपाख्यानात् पैशून्यात् परपरोबादाद अरविरतिभ्याम् मायामपाभ्याम् Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ ' सूत्रकृताङ्ग न • T मिथ्यादर्शनशल्याद् इति स महा आदानाद् उपशान्तः उपस्थितां मतिविग्स: स. भिक्षु । ये हमे मस्थानराः माणा मनन्ति तान न स्वयं समारभते नात्यैः समारम्भयति अन्यान् समारभतोऽपि न समजुतानातीति स मन-मदानातू उपशान्त उपस्थितः पतिनिरतः स भिक्षुः । ये इमे कामभोगाः सचित्ता वा अनिता वातान् न स्वयं प्रतिगृह्णाति नाऽन्येन मतिग्राहयति, अन्यमपि प्रतिगृहन्तमपि न समनुजानाति इति स महत आदानात् उपशान्व उपस्थितः प्रविविस्तः स मिक्षुः । यदपि चेद साम्परायिकं कर्म क्रियते न तत् स्वयं करोति नाऽन्येन कार यति अन्यमपि कुर्वन्तं न समनुजानाति इति स " महन आदानाद' उपसान्व उपस्थितः पतिविरतः स भिक्षुः जानीयाद् अर्शनं वा ४ एतत् 'मंतिया एकं साधर्मिकं समुद्दिश्य प्राणान्' 'भूतानि जीवान् सचान् समारभ्य समुदिश्यं क्रीतम् उच्यतकम् आच्छेद्यम् अनिसृष्टम् अभ्याहृतम् अहम्यो देशिकं तच्चैतद्दत्तं स्यात् तन्नो स्वयं भुनक्ति नाऽन्येन भोजयति अन्यमपि भुखानं न समनुजानातीति सं' महत आदानांद उपशान्त उपस्थितः प्रतिविरता समिक्षुः । अथ पुनरेवं जानीयात् तद्यथा - विद्यते तेव पराक्रमे 'यदर्याय ते इमे स्युः, तद्यथा - आत्मनः पुत्रापि यावदादेशाय पृथक् ममहणार्थं श्यामाशाय पावशाय सन्निधिमन्नि चपः पिते इइ एतेषां मानवानां योजनाय तत्र भिक्षु परकृतं परिनिष्ठित मुद्मोत्पादनेपणाशुद्धं शस्त्रातीत शस्त्रारिणामितम् अविहिंसितम् एति वैदिकं सामुदानिकं प्राप्तमशनं करणार्याय प्रमाणयुक्त अज्ञोपाञ्जनले पनभूतं संयमयात्रामात्रावृत्तिकं विसिव पन्नगभूतेनान्पना आहारमाहरेत् । अन्नमन्नकाले पान पानकाले बर्ख बस्त्रकाले लगन लगनकाले पानं शयनकाले । समिक्षुः मात्राल अभ्यंतरां दिशं मनुदिशं वा प्रतियन्तो धर्माख्येत विजेत्कीने येत् । उपस्थितेषु वा अनुपस्थितेषु वा शुश्रूषमाणेषु प्रवेदयेत् शान्तिरितम् उपशमं निर्माण शौच आर्जवं मार्द्दवं लाघवम् अनतिपादिकं सर्वेषां प्रणतं सर्वेषां भूतानां यावत् सा नामविचिन्त्य कीर्त्तयेद्धर्मम् । समिक्षु धर्म कीर्त्तयन् नो अन्नस्य हेतोः धर्म मांचक्षीत, जो पानकरूप हेतोः धर्मनाचक्षीत, नो वस्त्रम्य देतो: धर्ममानक्षीत, नो F 1 1 ! " 3 नस्य हेतोः धर्ममाचक्षीत, नो शयनस्य हेतोः धर्ममाचक्षीत, नो अन्येषां विरूचरूपाणां काममोगानां देतो धर्ममानक्षीत, अग्लानी धमाक्षी नान्यत्र कर्मनिर्जराय धर्ममाचक्षीत । इह खलु तस्य भिक्षे रन्तिके 'धर्म मा निशम्य उत्य नेनोत्थाय वीराः अस्मिन् धर्मे समुत्थित: ये तस्य भिक्षोरन्तिके धर्म निशम्य सम्यगुन्या नेन उत्पा वीराः अस्ति धर्भे समुत्थितास्ते एवं सपगताः श्रुत्वा Cus Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - समयार्थबोधिनी टीका दि. शु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययमम् ते एवं सर्वोपरता ते एवं सोपशाना,ते एवं सारमतया परिनिर्वता इति ब्रवीमि । एवं स भिक्षुः धमार्थीः धर्मवितलनियागपतिपन्नः तद् न्यथेदमुक्तम् ।। अथवा साप्ता पारपुण्डरीकम् अथवा अप्राप्त समवरपुण्डरीका: एरासाभिक्षु परिक्षाकर्मी परिज्ञातसङ्गः परिज्ञातगृहवास उपशान्तः समितः सहित सदा यता स एवं वचनीयः, तद्यथा श्रमण इति:वा, महिन इति वा क्षान्त इति वा दान्त इति वा गुप्त इति वा मुक्त इति वा अपिरिति वा: मुनिरिति चाः कृति-रिति घा विद्वान् इति वा भिक्षुरिति वा रूक्ष इति वा तीरार्थी वा चरणकरणपारविद् इति वा, इति ब्रवीमि । सू० ५॥"!! . . . . . . :: ... - टोका-'तस्य खलु भगवया। तत्र खलु-इति निश्चयेन भगवंता-तीर्थकरेण छज्जीवनिकाया हेऊ पन्नत्ता' परजीवनिकायाः कर्मबन्धस्या हेतवा कारणानि प्राप्ताः-कथिताः तं-जहा' धन-'पुढवी जाव तसकाए' पृथिवी यावत् प्रसकायः, अत्र यावत्पदेन अकायादारभ्भ वनस्पतिकायान्तानां चतुर्णा ग्रहणं भवति, तथा च-पृयिवीकायादि उसकायान्ता एते पट जीवनिकायाः कर्मपन्धस्य कारणा नीत्यर्थ: 'से जहाणामए' स यथानामका 'दंडेण . वा' दण्डेन-यष्टया वा 'मुट्ठीण वा मुष्टिना वा लेलूण वा' लेष्टुना वा-इष्टकादिखण्डेन 'कवालेण वा' कपालेन वा घटछपरेणेत्यर्थः, 'आउटिज्नमाणस्स' आकुटयमानस्य-मार्यमाणस्य 'हम्मर्माणस' हन्यमानस्य-हननं क्रियमाणस्य 'जिजमाणस्स वा तय॑मान स्य वा-अगुल्यादिकं प्रदय भयमुत्पाद्यमानस्य 'ताडिज्जमाणस्त वा ताड्य. 'तस्थ वलु भगव्या इत्यादि।। . . . . . . .. टीकार्थ - निश्चय ही तीर्थंकर, भगवान् ने छह जीवनिकायों का कर्मयध का कारण कहा है। जैसे पृथिवीकाय, अप्काय तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और प्रसकाय । ये षटू जीवनिकाय कर्मबन्ध के कारण हैं। जैसे कोई डंडे से, मुट्ठी से, देठे या ईट के टुकडे. से या ठीकरे से मुझ को मारता है, पीदना है, अंगुली आदि दिखला कर 'तत्थ खलु भगवया' त्याहि . . . . ટીકાર્થ-નિશ્ચય જ તીર્થકર ભગવાને છ જવનિકાને કર્મબંધનું કાર કહેલ છે. જેમકે-પૃથ્વીકાય, અપકાય, તેજસ્કાય, વાયુમય, વનસ્પતિકાય અને ત્રસક ય આ છ જવનિકાય કમબંધના કારણ રૂપ છે. જેમ કોઈ કંડાથી, भुयी, awarथी, टना हुयी 41 8:२.थी भने मार, આગળી વિગેરે બતાવીને ભય બતાવે, ચાબુક વિગેરેથી માર મારે, સંતાપ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे मनस्य कधीघातादिना, पिरिया विजमाणस्स वा परिताप्यमानस्य वा परितार्थं पाकिलाभिज्नमार्णस्स चा क्लायमानस्य वा शायमानस् विजमाणरस' वा 'उज्यमानस्य वा ग्यादर्श तादृशमुद्वेगमुपद्रवी मवियमः "म अमापं समजावं तदा मे दुख भवति किं बहुना "जाव' 'यतिः 'रोकन मायमपि / लोमोत्खलनमात्रमणि+लोमोत्पाटनमात्रमपि करोति हिंसाकाँग दुक्ख श्रेय पेडिस वेदेमिं' "हिंसाकारकं दुःखं मये प्रतिसंवेदयामि, ताडनोदिजनितुं दुखिं प्राचानुवामि 'इन्वेवं जाण' सुधर्मस्वामी जम्मभृतिशिष्यान म कथयति हे शिष्य । इत्येवम्-एवं प्रकारेण जानोहि, कि जानीहि तत्राह ने पाणा- सम्वे: भूपा: स जीवा संवे सत्ता' सर्वे प्राणाः (सवे भूताः सर्वे जीवाः सर्वे सत्या दिंडेण जावः कराखेण वा' दण्डेन वा यावत् कपालेन वा, या विदेन निग्रहणम् 'आकुट्टिन्जमाणा' कुत्र्यमानाः कशा दि 'प्रमाण वा हन्यमाना चा - घातं प्राप्यमाणाः तजि पाणावी' 'ताना वा - अड्गुलपादि 'वर्जनां प्राप्यमाणाः 'वीडिज्नमाणावा' ताडयि . t 77 पा at T उत्पन्न करता है, कोडे आदि से ताड़ना करता है, से पहुं क्लेश उत्पन्न करता है या किसी प्रकार का उपश्य करना है 1 " 1 7 देतो जैसे मुझको उत्पन्न होता है, अधिक क्या कहा जाय प्रातत. कोई ' , 21" } एक रोम को बनना है, तो मैं हारीख को अनुभव करता , सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी- म कहते है - हे जम्बू | इसी प्रकार यह भी जानो कभी पाणी गभी भूतमभी जीवो मरा डढे से पा करे से, यात शंग से मुद्दी तथा ईंट का मझ लेना चाहिए मारे जाते हैं, आदि से पंदें जाते हैं, आहत 'दुखी' किये जाते हैं, अंगुलि आदि दिखाये जाने S 'टुकड 1. P ( પહોંચાડે લેશ ઉરનું કરે અથવા કોઇ પણ પ્રકારના ઉપ૧-૯૨ છે. ત જેમ મને દુખ ઉત્પન્ત થાય છે, વિશેષ શું કહેવુ' યાવત્ કાઈ અક રૂવ ટુ પશુ ઉખાડે તે હુ હિંસા-૨૬ દુ.ખના અનુભવ 'કરૂ છુ સુધર્માવાથી જ વ્યૂ स्त्र,भनेि_54/ छे÷डे!,४ग्णू मे प्रभा पैसघणा आडियो अधुना भूतो, राधाँ छ भने संघ सत्त्व यावत् ठराथी आशिया यावत शयी भुठ्ठि तथा गहु । समर्थ योनीश्रा भारवासां : भावे, आणु विगेरेथी माश्वासांत 7 p " र्थात् हुःश्री ४२वामां आवे मांगणी विगेरे ताने' 'धगयामा वे f. Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 Re 'समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरोकनामाध्ययनम् दिना, 'किलाभिज्ज माणा वा' 'क्लाम्यमाना वा - शीतोष्णादिना क्लिश्यमानाः'उद्दिज्जमाणा वा' उद्वेश्यमाना वा भयादिना उद्वेगमुपद्रवं प्राप्यमाणाः किं बहुना 'जांब 'लोमुक्ख गणमायमंत्रि' को प्रोत्खननमात्रमवि - लोमोत्पाटनमात्रमंदि 'हिंसाकार दुक्खं भयं पडिसंवेदेति' हिंसाकारकं दुःखं भयं प्रतिसंवेदयन्ति - अनुभवन्ति, यथा मम ताडनादिना दुखं भवति तथा अन्येषामपि दुःखं भवतीयर्थः, 'एव पच्ची' एवं ज्ञात्वा 'सव्वे पाणा जान सत्ता' सर्वे प्राणाः सर्वे सः सर्वे सच्चाः, 'ण तन्ना' न हन्तव्याः - दण्डादिभि र्न ताडयि संख्याः 'ण अज्जावेयन्त्र' नाज्ञापयितव्याः - अनभिमतकार्येषु न प्रवर्तयितव्याः 'न परिघेना' न परिग्रहीतव्या इमे मम भृत्यादयो ममेति कृत्वा परिग्रहरूपेण स्वाधीनतया न स्वीकर्त्तव्याः, 'ण'' परितावेवव्या' न परितापयितव्याः - अन्नहै, भोजन - पानी रोक कर परितप्त किये जाते हैं, सर्दी गर्मी द्वारा सताये जाते हैं, भय दिखला कर उद्विग्न किये जाते हैं, अधिक क्या कहा जाय, उनका एक बाल 'केश' भी उखाड़ा जाता है तो वे भी हिंसाकारी दुःख का अनुभव करते हैं । अभिप्राय यह है कि जैसे ताड़न आदि करने से मुझे दुःख होता है, उसी प्रकार अन्य प्राणियों को भी दुःख होता है। ऐसा जान कर सब प्राणियों जीवों मूतों और सों को डंडा आदि से ताडन नहीं करना चाहिए, उन्हें अनिष्ट कार्यों में प्रवृत्त नहीं करना चाहिए, 'यह मेरे नृत्य 'नौहर' आदि हैं' ऐसा समझकर उन्हें अपने अधीन नहीं बनाना चाहिए अर्थात् उनकी स्वाधीनता का हनन नहीं करना चाहिए, और उनके भोजन पान में रुकावट डाल कर पीड़ित नहीं करना चाहिए और ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए जिससे वे घबराहट में पड़ते हों । r ભેાજન કે પાણી રોકીને સંતાપવાળા કરવામાં આવે, શિદ ગિર્ભ દ્વારા સત્તાપવામાં આવે, ભય ખતાવીને ઉદ્વેગ પહેચાડવામાં આવે વિશેષ શું કહેવું તેના એક વાળ પશુ ઉખાડવામાં આવે તે પણ તેએ હિંસા જનક દુખના અનુભવ કરે છે. કહેવાના અભિપ્રાય એ છે કે-જેમ મારવા વિગેરેથી મને દુઃખ થાય છે, એજ પ્રમાણે અન્ય પ્રાણિયાને પણુ દુઃખ થાય છે, તેમ સમ 1 અને સઘળા પ્રાણિયા જીવા, ભૂતા અને સર્વેને ડડા વિગેરેથી મારવા ન જોઇએ. એને અનિષ્ટ કાર્યક્રમા પ્રવૃત્ત કરાવવા ન જોઇએ. ‘આ મારા નાકરા વિગેરે છે, તેમ સમજીને તેને પેાતાને આધીન બનાવવા ન જોઇએ. અર્થાત્ તેઓના રવાધીન પણાને નાશ કરવા ન જોઈએ તેએ ના ભેજન વિગેરેમાં રાકાણ કરીને તેમને પીડા પહેોંચાડવી ન જોઈએ અને એવું ફાઇ કાય' કરવું ન જોઈએ કે જેનાથી તેએ ગભરાઈ જાય. सु० १८ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ सूत्रकृतास्त्र पानाधवरोधेन न पीडनीयाः ‘ण उद्दवेयवा' नोद्वेनयितव्याः-उद्विग्नान कार्या: से वेमि तदहं सुधर्मस्वामी ब्रवीमि-कथयामि, 'जे अतीता' येऽतीता:-भूत. पाटेऽभूवन केवळज्ञानि निर्वाणप्रभृतयः, 'जे य पडप्पन्ना' ये घ प्रत्युत्पन्नाःइदानी विद्यन्ते ऋषमादयः 'जे य आगामिस्ता' ये चागमिष्यन्तः-पम नामादयः 'अरिहंता भगवंता' अर्हन्तो भगवन्तः 'सव्वे ते' सर्वे ते 'एवमाहखति' एव. माख्यान्नि-उपदिशन्ति, सुधर्मस्वामी कथयति-भो भोः शिष्याः ? सोऽहमेव कथयामि 'न कश्चिज्जीवो इन्तव्यो न परितापनीयः, एवमेवाज्ञोपदेशः प्ररूपणा च अतीताऽनागतवर्तमानानं तीर्थकराणामिति । 'एवं मासंति' एवं भाषन्ते ते तीर्थ फराः 'एवं पण्णवेति' एवं प्रज्ञापयन्ति-मादिशन्ति ‘एवं परूवति' एवं मरूपयन्ति-प्ररूपगां कुर्वन्ति यत् 'सचे पाणा जाव सत्ता ण हव्या' सर्वे प्रागा यावत् सत्त्वा न हन्तव्या दण्डादिभिः, ‘ण अजावेयन्त्रा' नाज्ञापयितव्या अनमिप्रेकार्येषु, 'ण परिवाना न परिग्रहीतव्याः-इसे मम भृत्या इति मन्य___मैं कहता ह-अतीत काल में केवलज्ञानी निर्वा गो सागर आदि नामक जो अर्हन्त भगवान् हो चुके हैं, वर्तमान से ऋषभ अजित संभव आदि तीर्थकर हुए हैं और भविष्यत् काल में जो पद्मनाम शूरसेन सुपार्श्व आदि तीर्थंकर होंगे, उन सब का यही कथन है। सुधर्मा स्वामी कहते हैं-हे जम्बू ! में करता हूं कि किप्ती भी जीव का हनन नहीं करना चाहिए, किसी को सन्ताप नहीं पहुचाना चाहिए, यह आज्ञा, उपदेश और प्ररूपणा अतीत वर्तमान और भविष्यत् कालीन सभी तीर्थंकरों की है । सभी तीर्थकर ऐसी ही प्ररूपणा करते हैं कि सभी प्राणी भूत जीव और सत्व हनन करने योग्य नहीं हैं, आज्ञा देने योग्य नहीं हैं, अधीन बनाने योग्य नहीं है, परितारतीय नहीं है, હું કહું છું –ભૂતકાળમાં કેવળ જ્ઞાનવાળા નિર્વાણ સાગર વિગેરે નામના જે અહંત ભગવાન થઈ ચૂક્યા છે. વર્તમાનમાં રાષભ, અછત, સંભવ, વિગેરે તીર્થકરો થયા છે, અને ભવિષ્યમાં જે પદ્મનાભ સૂરસેન સુપાર્શ્વ વિગેરે તીર્થ”. કરે થશે તેઓ સઘળાનું એજ કથન છે. સુધર્માસ્વામી કહે છે–જમ્મુ કહું છું કે કોઈ પણ જીવની હિંસા કરવી ન જોઈએ કે ઈને પણ સંતાપ પહોંચાડે ન જોઈએ આ આજ્ઞા ઉપદેશ, અને પ્રરૂપણું અતી કાળ,- ભૂતકાળ, વર્તમાન કાળ અને ભવિષ્ય કાળના તીર્થકરોની છે. સઘળા તીર્થ કરે એવું કહે છે. એવી જ પ્રરૂપણ કરે છે, કે-સઘળા પ્રાણું ભૂત, જીવ, અને સો હનન કરવાને યોગ્ય નથી આજ્ઞા કરવા એગ્ય નથી, આધીન બનાવવાને યોગ્ય નથી. Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ समयार्थयोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् _____ १३९ - मानेन परिग्रहरूपेण स्वाधीनतया न स्वीकार्याः ‘ण परितावे यया न परितापयितव्याः अन्नपानाधवरोधेन, 'ण उवेयवा' नो द्वे नयितव्याः-उद्विग्ना न कार्याः 'एस धम्मे धुवे णीयर सामए' एष धर्म:-अहिंसास्वरूप स्तीर्थकरप्रतिपादितो ध्रवः सर्वदा स्थायी,-नित्यः उत्पादविनाशरहितः, शाश्वता-सदैकरूपे, व्यवस्थितः । 'समिच लोगे खेयन्नेहिं पवेहए' समेत्य लोकान् खेदज्ञैः पवेदितः, ते महाशय स्तीर्थकरैः केवळज्ञानेन सर्वानेव लोकान् परिज्ञाय-रपोऽहसारूपो धर्मों नित्यो ध्रुः प्रतिपादितः। एवं से भिक्खू-विरए पागाइवायाभो जाब विरए परिग्गहाओ' एवं स भिक्षु विरतः प्राणातिपाताद् यावन् परिग्रहाद् विरतः 'णो दंतपक्वालणेणं' नो दन्तप्रक्षालनेन 'दंते पक्खाले ज्जा' दन्तान् प्रक्षालयेत्, काष्ठादिना चूर्णेन दन्तान्नैव परिशोधयेत् । 'णो अंजण' नो अननं कुर्यात्-नेत्रयोः फज्जलादिना ‘णो वमणं' नो बननम् योगक्रियया औषध्यादिना वा वमनं नैव कुर्यात् । णो धूपगं' नो 'धूरानं सुगन्धि तद्रव्येग वस्त्रादिकं ने सुवासये । अथवा-रोगशान्नये धूां न कुर्यात् । 'णो तं परियाविरज्जा' 'नो उद्वेग पहुचाने योग्य नहीं हैं। यह अहिंसा धर्म ध्रुव नित्य और शाश्वत है। अर्थात् सर्वदा स्थायी है, उत्पाद विनाश से रहित है और सदैव एक रूप से स्थित है। उन महापुरुषों ने समस्त लोक को केवलज्ञान से जान कर इस नित्य ध्रुव और 'शाश्वत अहिंसाधर्म का प्रतिपादन किया है। ___वह भिक्षु, जो प्रागातिपात से विरत है यावत् परिग्रह से विरत है, दन्त प्रक्षालन से अर्थात् दोनौन, चूर्ण आदि से अपने दांतों का प्रक्षालन न करे, नेत्रों में अंजन-काजल आदि न लगावे, योग क्रिया या औषध के द्वारा वमन न करे, सुगंधित द्रव्य से वस्त्र आदि को सुवासित न करे या रोग की शान्ति के लि र धूप न देवे और न धूम्रपान પરિતાપ કરવાને યોગ્ય નથી, ઉદ્વેગ પોંચાડવા ગ્ય નથી આ અહિંસા ધમ. ધવ, નિત્ય, અને શાશ્વત છે અર્થાત્ સર્વદા સ્થાયી છે. ઉત્પાદ અને વિનાશ રહિત છે. અને સદા એક રૂપથી સ્થિત છે તે મહા પુરૂએ સઘળા તેને કેવળ જ્ઞાનથી જાણીને આ નિત્ય, ધ્રુવ અને શાશ્વત એવા અહિંસા ધર્મનું પ્રતિપાદન કરેલ છે તે ભિક્ષુ છે કે જે પ્રણાતિપ તથી વિરંત છે, યાવત પરિગ્રહથી વિરત છે. દન્ત પ્રક્ષાલનથી અર્થાત્ દાતણ કે સૂપાવડર વિગે રેથી પિતાના દાંતેને સાફ ન કરે. આંખોમા ક જળ વિગેરે ન લગાવે, ગ. ક્રિયા અથવા ઓસડથી ઉલટી ન કરે સુંગંધવાળા પદથી કપડા વિગેરેને યુગ ધવાળા ન કરે અથવા રેગની શક્તિ માટે ધૂપ કરે નહીં તથા ધૂમ્ર Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० सूत्रकृतातो तं परिपिवेत्-कासादिरोगशान्त्यर्थं धूम्रपानं न कुर्यात् । ‘से भिक्खू' . स भि ः 'अकिरिए' अक्रियः-वावधक्रियया रहि 'अल्सर' अल्पको-जीवहिसादि व्यापाररहितः। 'अकोहे' अक्रोधः 'अपाणे' अमान:-मानरहितः 'अलोहे' अलोम:-लोभवनितः 'अमाए' अमाय:-मायानाम परवञ्चनम् तद्रहितः । 'उवसंते' उपशान्तः-इन्द्रिय नो इन्द्रियदमकः । 'परिनिव्युडे' परितिः -कपायानलपशमेन शान्त इत्यर्थः, 'णो आसंसं पुरभो करेना' नो आशंशां पुरतः कुर्यात्-इहलोकपरलोकाशंसारहिता-वक्ष्यमाणमकारकमाशंसनमपि न कुर्याद, तथाहि-'हमेण मे दिद्वेण वा' अनेन मम दृष्टेन वा 'सुएग वा मएण वा विनाएण वा' श्रुतेन वा मतेन वा विज्ञातेन वा 'इमेण वा सुवरियतवनियमभवे रवासेग वा' अनेन वा सुचरिततपोनियमाभिग्रहरूपब्रह्मचर्यवासेन या इमेण वा जायामायावत्तिएणं' अनया वा यात्रामात्रावृत्या संपमपूर्वकशरीरयात्रानिहाय शुद्धाहारादीनां ग्रहण कृतम् 'धम्मेणं' धर्मेण 'इभी चुए' इतन्यु:: ‘पेच्चा' मेत्य 'देवे सिया' देवः आदि करे । भिक्षु सावद्य क्रिया से रहित हो, अलूषक अर्थात् जीव हिंसा आदि कार्यों से रहित हो क्रोध मान माया और लोभ से रहित इन्द्रियों का और मन का दमा करे, कषाय रूपी अग्नि को प्रशान्त करके शीतल स्वरूप हो, इस लोक और परलोक संबंधी कामना न करे, और यह इच्छा भी न करे कि मैंने यह जो ज्ञान देखा, सुना या मनन किया है अर्थात् शुन का अभ्यास किया है, तपश्चरण किया है, नियमों का पालन किया है, नाना प्रकार के अभिग्रह धारण किए हैं, ब्रह्मचर्य का पालन किया है, शरीर की यात्रा का निर्वाह करने के लिए शुद्ध और प्रासुक आहार पान का सेवन किया है, धर्म का आचरण किया है, है, इस सघ के फलस्वरूप यह भव त्याग करने पर देव हो जाऊ । सय પાન વિગેરે પણ ન કરે. ભિક્ષુએ સાવદ્ય ક્રિયાથી રહિત થવું. અલૂષક અર્થાત ” જીવહિંસા વિગેરે કાર્યોથી રહિત થવું ક્રોધમાન માયા અને લેભથી રહિત થવું. ઈન્દ્રિયો અને મનનું દમન કરે. કષાય રૂપી અગ્નિને શાંત કરીને શીતલ, સ્વરૂપ થાય આ લોક અને પરલોક સંબંધી કામના ન કર. અને એવી ઈચ્છા પણ ન કરે કે મેં જે આ જ્ઞાન જોયું, સાંભળ્યું અથવા મનન કર્યું છે, અર્થાત્ શ્રતને અભ્યાસ કર્યો છે, તપશ્ચરણ કર્યું છે. નિયમનું પાલન કર્યું છે. અનેક પ્રકારના અભિગ્રડે ધારણ કર્યા છે, બ્રહ્મચર્યનું પાલન કર્યું છે. શરીર યાત્રાને નિર્વાહ કરવા માટે શુદ્ધ અને પ્રાસુક આહાર' પાણીનું સેવન કર્યું છે, ધર્મનું આચરણ કર્યું છે, આ બાવાના ફલ સરરૂપ આ ભવને Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् १४१ स्याम् 'काममोगा ण वसवती' काममोगाः खलु वशतिनो मम स्युः 'मिद्धे वा अदुक्खमसभे' सिद्धो वा अदुःखो वा ऽशुभो वा-सर्वे कामाः मदधीना, भवेयुः-- सिद्धयोऽणिमादिका वशर्वा नो - भवन्तु-दुःखाद्यशुभेभ्यो रहि ॥ भवे मित्येवं वान्छा कदापि साधुना न कतव्या । कुतो न कतव्या तादृशी कामना ? अनिय तत्वात् । तत्राह-एत्य वि सिया एत्य वि णो मिया' अत्रापि स्यात् अत्रापि नो स्यात् तमोभिः कामना कदाचिद्वति-तथाविधविचित्राशुमपरिणामात् , नवा भवतीत्येवमनियमात् । ‘से मिक्खू स भिक्षुः-निरवधभिक्षणशलः सहि अनुच्छिए' मनोज्ञेषु शब्देषु अमूच्छितोऽनासक्तः । 'रूवेहि अमुच्छिए' रूपेषु - मनोहारिषु असद्वस्तुषु अमूच्छितः। 'गंवेहि अमुच्छिर' गन्धेषु अमूञ्छितः। 'रसेहिं अमुच्छिए' रसेषु अछितः 'फासेहिं अपुच्छिर' स्पर्शेषु अमच्छिा । 'विरए कोहाओ -माणामो-मायामो-ठोभाओ-पेज्जामो-दोसामो-कलहामोअम्भक वाणाओ-पेसुन्नाभो-परपरिवायाओ-अरइरइओ' विरतः क्रोधाद् मानादमायायाः लोभात् प्रेम्णो द्वेषात् कलहाद् अभ्याख्यानान् पैशूनात् परपरिवादाद्. प्रकार के कामभोग मेरे अधीन हो जाए, अगिमा आदि ऋद्वियां मुझे प्राप्त हो जाएँ, में समस्त दुःखों और अशुभों से बच जाऊ । साधु को ऐसी आकांक्षा कदापि नहीं करनी चाहिए। क्योंकि तपस्या के द्वारा कदाचित् कोई कामना पूरी होती है और कदाचित् नहीं भी होती। अर्थात् ऐसा कोई नियम नहीं है कि तपस्या से प्रत्येक की प्रत्येक कामना पूरी हो ही जाय । भिक्षु मनोहर शब्दों में आसक्त न हो, मनोज्ञ रूपो में आसक्त न हो, इसी प्रकार गंध रस और स्पर्श में भी आता न हो। वह क्रोध, मान, माया, लोम, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान पैशून्य, परત્યાગ કરીને દેવ બની જા બધા પ્રકારના કામભેગો મારે આધીન થઈ જાય અણિમા વિગેરે બદ્ધિઓ મને પ્રાપ્ત થઈ જાય, હું સઘળા દુખ અને અશુભેથી બચી જાઉં. - સાધુએ એવી આકાંક્ષા ક્યારેય પણ કરવી ન જોઈએ-કેમકે તપયા દ્વારા કદાચ કે ઈ કામના પૂરી થાય છે, અને કોઈ કામના કદાચ પૂરી ન પણ થાય અર્થાત્ એ કેઈ નિયમ નથી કે–તપસ્યાથી દરેકની સમય કામ નાએ પૂરી થઈ જાય ભિક્ષુઓએ મનહર એવા શબ્દોમાં આસક્ત ન થવું. મનોજ્ઞ એવા સુંદર રૂપમાં આસકત ન થવું. એ જ પ્રમાણે સુંદર ગંધ સારા સારા રસ અને २५ प भासत न ५. माोध, भान, भाया, सोम, रागदेष કલહ અભ્યાખ્યાન, વૈશ, પરપવિા સંયમમાં અરતિ-અપ્રીતિ અને - Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ सूत्रता से भरविरतिभ्याम् 'माया मोसाओ' मायामृपा पाम् 'मिन्छादसणाला' मिया दर्शनशल्यात् 'इइ से महतो आयाणाओ' इति स महत आदानाव-मस्तः कर्मवन्धनात 'उबसंते उवहिए' उपशान्तः उपस्थि : 'पडिविरए से मिक्खू' प्रतिविरत सावध कार्यात् पविनिवृत्तः स मिक्षुः । 'जे इमे तसथावरा पाणा भवंति' ये इमे प्रसस्थावराः प्राणा भवन्ति । 'ते णो सपं समारंमा णो अण्णेहि समारंभावे भन्ने समारमंते वा न समणुजाण' तान् न स्वयं समारभते, नाऽप्यन्यैः समारसमयति, अन्यान समारमतो वा न समनु नानाति-नाऽनुमोदते। 'इइ से महतो आयाणाभो उसते उद्विर पडि विरर से भिक्खू' इति स महत आदानादुर शान्तः-उपस्थितः प्रतिविरतः स भिक्षुः। 'जे इमे काम भोगा सचिता वा अचिता वा ते णो सयं गिण्हेइ णो अन्नेणं परिगिहावेड, अन्नं परिगिण्हतं पिण समणुजाणई ये इमे संसारे विद्यमानाः कामभोगा-स्त्रक चन्दनवनितादिविपशेषभोगाः सचिता वा अचित्ता वा वर्तन्ते तान् नो स्वयं परिगृह्णाति-तद्विषयकं परिग्रह स्वयं न करोति, नो वा अन्येन परिग्राहयति-परिग्रई कार पति, अन्य वा परिगृहन्तमपि तद्विपयकपरिग्रहं कुर्वन्तमपि न समनु नानाति-नाऽनुमोदते इत्यर्थः । "इइ से परिवाद, संयम में अरति, असंयम में रति, माया युक्त मृवावाद और मिथ्यादर्शन शल्य से विरत हो। ऐसा साधु महान् कर्मपन्य से निवृत्त हो जाता है और सावध कार्य का त्याग कर देना है। यह जो प्रस और स्थावर प्राणी हैं, उनका न स्वयं आरंभ करता है, न दुमरों से आरंभ करवाता है और न दुमरे आरंम करने वालों का अनुमोदन करता है। वह महान् कर्मपन्ध से निवृत हो जाता है । शुद्ध संयम में स्थित होता है और पाप से निवृत हो जाता है । वह साधु संचित और अचित्त दोनों प्रकार के काम मोन के साधनों को न तो स्वयं ग्रहण करता है, न दूसरे से ग्रहण करवाता है और न ग्रहण करने वाले અસંયમમાં રતિ–પ્રીતિ માયા યુક્ત મૃષાવાદ અને મિથ્યાદર્શન શલ્યથી વિરત થવું. એવા સાધુ મહનું કમબંધથી છૂટ, જાય છે, અને સાવઘ કાને ત્યાગ કરી દે છે જે આ ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાણું છે તેઓ સ્વયં આરંભ કતા નથી. બીજાઓથી આરંભ કરાવતા નથી અને બીજી આર ભ કરવાવાળાઓને અનુમોદન આપતા નથી. તે મહાન કબ ધનથી નિવૃત્ત થઈ જાય છે. અર્થાત્ છૂટિ જાય છે દ્ધ સંયમમાં રિથિત થાય છે અને પાપથી નિવૃત્ત થઈ જાય છે તે સાધુ સચિત્ત અને અંચિત્ત અને પ્રકારના કામોને સાધનેને સ્વયે ગ્રહણ કરતા નથી તથા બીજા પાસે બહ કરાવતા Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् मातो आयाणाओ उबसते उठिए पडिविरए से भिक्खु', स महत आदानात उपशान्त:-उपस्थितः, पतिविरतः-सावध कार्यात प्रतिनिवृत्तो भवति स भिक्षुः रितिभावः । 'जं पि य इमं संपराइयं कम्मं कज्जई - यदपि चेदं साम्परायिकसंसारसम्बन्धिकषायसम्बन्धि वा कर्म क्रियते 'जो तं सयं करेई नो तत्. स्वयं करोति णो अण्णेणं कारवेई' नो अन्येन कारयति, 'अन्नं पि करेंण समणु जाणई' अन्यमपि कुर्वन्तं न. समनुनानाति । 'इह से महतो आयाणामो इति स.महत आदानाद् कर्मवन्धनात् 'उअसंते उबटिए पडिविरए' उपशान्ता उपस्थितः -पतिविरतः ‘से भिक्खू जाणेज्ना' स भिक्षुः इति जानीराव 'अमणं, वा ४ अस्सं पडियाए' अशन वा पानं वा खादिमं वा स्वादियं वा एतश्चतुर्विधं वस्तु एतत् पतिज्ञया 'एग साहाम्मिय मुदस्स' एकं साधार्मिकं समुद्दिश्य 'पाणाई भूयाई जीवाइं मत्ताई समाररूम पाणान् भूनानि जीवान् सत्वान समारभ्य 'साहिस्स' समुद्दिश्य 'कीतं पाभिच्चं आच्छिज्ज अणिसट्ठ अभिहडं आटुद्देसियं' का अनुमोदन करता है। अनएव वह महान् कर्म पन्धन से मुक्त हो जाता है, विशुद्ध संगम के अनुष्ठान में स्थित है और समस्त पापों से निवृत्त है। संसार में जो सामायिक कर्म किये जाते हैं अर्थात् 'कषार्य युक्त होकर संमार की वृद्धि करने वाला कर्मबन्ध किया जाता है, उसे वह साधु स्वयं नहीं करता है, दूसरे से नहीं करवाता है और न करने वाले का अनुमोदन करता है । इस कारण वह महान् कर्मयन्ध से मुक्त हो गया है, संयम में उपस्थित है और पाप से निवृत्त है। 1. साधु यदि ऐसा जाने कि गृहस्थने किसी एक साधु को उद्देश्य करके प्राणों, भूतों, जीवों और सत्यों का आरंभ करके अशन, पान, નથી તથા ગુણ કરવાવાળાને અનુમોદન આપતા નથી. તેથી જ તે મહાન કમબંધથી મુક્ત થઈ જાય છે વિશુદ્ધ સંયમના અનુષ્ઠાનમાં સિથત થાય છે. અને સઘળા પાપોથી નિવૃત્ત થાય છે. સંસારમાં જે સાંપરાયિક કર્મો કરકરવામાં આવે છે, અર્થાત્ કષાય યુક્ત થઈને સ સારની વૃદ્ધિ કરવાવાળા કર્મ બંધ કરવામાં આવે છે, તેને તે સાધુ સ્વયં કરતા નથી. બીજાઓ પાસે કરાવતા નથી, તથા કરવાવાળાનું અનુદન પણ કરતા નથી તે કારણથી તે મહાનું કર્મબંધથી મુક્ત થઈ જાય છે સંયમમાં ઉપસ્થિત થાય છે, અને પાપથી છૂટી જાય છે. જે સાધુ એવું સમજે કે ગૃહસ્થ કોઈ એક સાધુને ઉદ્દેશીને પ્રાણે, ભૂત, છ અને સને આરંભ સમાર ભ કરીને અશન, પાન; ખાદિમ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ सूत्रकृताङ्गस्त क्रीतम्-द्रव्यं दत्वा आनीतम् उद्यताम्-कुतश्विदानीतम्, आच्छेय-कुतश्विद्धला. कारेण प्राप्तम्, अनिसष्टम् धनस्वामिनम नामका आनीतम् । अभ्याहृतम्-कु. श्विग्रामात् साधु सम्मुखमानीतम्, आहत्यौदेशिकम्-साधुमुद्दिश्य परिकल्पित चतुर्विधं आहारमित्येवं यदि साबुर्जानीयात् 'तं चेइयं सिया' तच्चेदत्तं स्या साधवे 'तं णो सयं भुजइ' तादृशमाहारादिकं साधुः नो भुङ्क्ते-नो भुञ्जीत 'णो अण्णेणं सुनावेई' नो अन्येन केनचिदपि भोजयति-भोजदित्यर्थः 'अन्नपि भुजतें ग. समणुजाणइ' । अन्यमपि · भुञ्जन्तं न समनुजानाति-न अनुमोदते-नानु मोदेत्तत्यर्थः 'इति से महतो आयणामो' इति स साधुमेहत आदानात् कर्म वन्ध. नात् 'उबसने' उपशान्तः 'उहिर' उपस्थितः 'पडिपिरए' प्रति विरतः पूर्वोक्त माहारादिकं त्यजति-तस्मात् महाकर्मवन्धनात् मुक्तः शुद्रसंयमे उपस्थितः-पापाखादिम और स्वादिम तैयार किया है, या साधु के लिए मूल्य देकर खरीदा है, किमी से उधार लिया है, किसी से बलात्कार करके छीना है, धन के स्वामी से पूछे बिना ले लिया है, किमी ग्राम आदि से साधु के मन्मुग्न लाया है या साधु के निमित्त तैयार किया है तो ऐसे दिये गए या दिये जाने वाले आहार को साधुन स्वयं काम में लावे, न मरे को खिलावे और न खाने वाले का अनुमोदन करे। ऐसा करने वाला साधु महान् कर्मचन्मन से बच जाता है, संयम में स्थित होता है और पाप से निवृत्त हो जाता है। . साधु को यदि ऐसा ज्ञात हो कि जिसके लिए आहार यनाया गया है, वे साधु के लिए नहीं बनाया है, किन्तु गृहस्थ के निमित्त अथवा અને સ્વાદિમ તૈયાર કરેલ છે, અથવા સાધુ માટે કીંમત આપીને ખરીદ કરેલ છે, કોઈની પાસે ઉધાર લીધેલ છે, કેઈની પાસે બલાત્કાર કરીને પડાવી લીધું છે, ધનના માલિકને પૂછયા વિના લઈ ધું છે, કઈ ગામ વિગેરેમાંથી સાધુની પાસે લાવ્યા છે, અથવા સાધુને નિમિત્ત તૈયાર કરેલ છે, તે એવી રીતે આપે થવા આપવામાં આવનારા ચાહારને સાધુ પિતે ઉપયોગમાં ન લે તથા બીજાઓને ખવરાવે નહી તથા ખ નારાઓનું અનુમોદન ન કરે. એવું કરવાવાળા સાધુ મહાન કર્મ બંધથી બચી જાવ છે. સંયમમાં રિત થાય છે; અને પાપથી નિત્ત થાય છે. - સાધુના જાણવામાં એવું આવે કે આ આહ ૨ બનાવેલ છે, તે સાધુ ૨) બ વવામાં આવેલ નથી, પરતું ગૃહસ્થ માટે અથવા પિતાને તે ટે તેણે Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका वि. श्रु. म. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् - - -.४५ निवृत्तश्च साधुर्विज्ञेयः । ‘से मिक्खू अह पुणेव जाणेज्जा' स भिक्षु-थ पुनरेव जानी. ''यात् 'तं जहा विज्जइ' तद्यथा-विद्यते 'तेमि परक्कमे' तेषां पराक्रमः-सामर्थ्य। माहारनिर्वर्तनं प्रत्यारम्म इति, 'जस्सट्टा ते वेइयं सिया' यदर्थाय ते इमे स्युः, गृहस्थेन यदर्थमशनादयो निर्मिता स्ते न साधवा-किन्तु ते इमे अन्ये, तत्स्वनामग्रीहमाह-'तं जहा' इत्यादि। 'तं जहा'' तद्यथा-'अप्पणो पुत्ताइणटाए जाव आएसाएं' आत्मनः पुत्राधर्याय यावदादेशाय-आत्मनोऽथ कृतं तथा पुत्राद्यर्याय कृतम् धात्रीराजदासदासीकर्मकराएं कृतं प्रघूर्गकार्थ कृतम् 'पुढो पहेणाय' पृथक प्रग्रहणार्य-प्रामान्तरप्रेपणाय कृतम् 'सामासाए' श्यामाशाय-श्यामा-रत्रिः तस्यां भोजनाय निर्मितम् । अथवा-'पायरासाए' प्रातराशाय-पात जनाय 'संणिहि संणिचा सनिधिसन्निवयः-विशिष्टाहार निष्पादनम् 'किज्जइ' क्रियते 'इह एएसिं माणवाणं भोयणाए' इहैतेषां मानवानां भेजनाय सम्पादितमाहारादिकम् । 'तत्थ' 'तत्र 'भिक्खू भिक्षुः 'परकृतम्-गृहस्थैः कृतम् 'परणिहियमुग्गमुप्पायणेसणासुद्धं 'सत्याइयं सत्थपरिणामियं' परनिष्ठिरम्-परार्थकतम्, अत्र च चत्वारो भङ्गाः तस्य कृतं तस्यैव निष्ठितम्,१, तस्य कृतम् अन्यस्य निष्ठितम् २, अन्यस्य 'कृतं "अपने निमित्त उसने बनाया है तो ऐसे आधार्मिक आदि दोषों से रहित आहार को स्वीकार करने में साधु को कोई दोषनहीं लगता। निर्दोष आहार भी शरीरनिर्वाह और संयम यात्रा के लिए ही ग्रहण करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि साधु यदि ऐसा जाने कि यह आहार गृहस्थ ने अपने लिए या अपने पुत्रादि के लिए, पुत्रवधू के लिए, धाय के लिये दासदासियों के लिये कर्मचारियों के लिए, पाहने के लिए "अथवा ग्रामान्तर में भेजने के लिए बनाया है, अथवा व्यालू के लिए, नाश्ते के लिए बनाया है, या दूसरे मनुष्यों के लिए आहार का संचय किया है, तो भिक्षु गृहस्थ के द्वारा निष्पादित. दूमरे के लिए बनाये हुए બનાવેલ છે, તે એ સ્થિતિમાં આધાર્મિક વિગેરે દેથી રહિત એવા આહા- રને સ્વીક૨, કરવામાં સાધુને કઈ પણ દેષ લાગતું નથી. નિર્દોષ આહાર પણ શરીરના નિર્વાહ અને સહમ યાત્રા માટે જ ગ્રહણ કરે જોઈએ. || તાત્પર્ય એ છે કે–સાધુના જાણવામાં જે એવું આવે કે આ આહાર - ગૃહસ્થ પિતાના માટે અથવા પોતાના પુત્રાદિકે માટે કે પુત્રવધૂ માટે ધાય , માટે દાસ દાસિયે માટે કામ કરનારાઓ માટે પશુઓ માટે અથવા બીજે ઠેકાણે મોકલવા માટે બનાવેલ છે, અથવા વાળુ માટે કે નાસ્તા માટે બનાવેલ છે, અથવા બીજા કોઈ માણસ માટે આહારનો સંગ્રહ કરેલ છે, તે ભિક્ષુ ગૃહસ્થ દ્વારા નિપાદન કરેલ બીજા માટે બનાવેલ વિગેરે પ્રકારથી અહિયાં सू० १९ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे तस्य निष्ठितम् ३, अन्यस्य कृतम् अन्यस्य निष्ठितम्४. अत्र द्वितीयचतुर्थ भङ्गो 'विशुद्धौ नावेव ग्राह्यौ, उद्गमोत्पादन प्रणाशुद्धम्, शस्त्रातीतम्, शस्त्रपरिणामितम् । तत्र उद्गमोत्पादनपणाशुद्धम्-उद्गमादिदोपरहितोपशुद्धम्, शस्त्रातीतम्-अग्न्यादि .शस्त्र संपर्कादचित्तीकृतम्, एवं शस्त्रपरिणामि तम्-अग्न्यादिशस्त्रद्वारा निर्जीवीकृतम् अन्यायं कृतम् 'अविहिसियं' अविहिंसितं-हिंसादिसायरहितम् स्वकायपरकाय रहितम् अतएव सर्वप्रकाररचित्तम् ‘एसियं' एपितम्-एपणया प्राप्तम्, वेसियं' पिकं केवल माधुवेपमाप्तम् 'सामुदाणियं' सामुदानिकम्-मधुकरवृत्त्या माप्तम्, 'पचमसणे' प्राप्तमशनम् 'कारणहा' कारणार्थाय-क्षुधावेदनादि षट्कारणानि सन्ति, 'पमाणजुत्ते' प्रमाणयुक्तम्-नाऽपरिमितं ग्राह्य कदाचिदपि 'अबोवंजणवणलेषणभृय' अक्षोरा जनवणलेपनभूम्-अक्षय-शकटस्य उपाञ्ज नमभ्यङ्गः बगस्य च लेपनं तदुभयाऽऽहारम हरेत् । 'संजमजायामायावत्तियं' संयम-यात्रा मात्रा • इस प्रकार यहां चार भी होते हैं -(१) नस्य कृतं तया निष्ठितम् (२) तस्य कृतम् अन्यस्य निष्ठिनम् (३) अन्यस्य कृतं तस्य निठितम् , (४) अन्यस्य कृतम् अन्यस्य निष्ठिनम् । उद्गम उत्पादना और - एषणा संबंधी दोपों से रहित, अग्नि आदि शस्त्रों के द्वारा अचित्त बनाएहए एवं शस्त्रों द्वारा पूर्ण रूप से अचित्त बने हुए, हिंमा आदि के सक्रिय (भेल सेल) से रहित अर्थात सब प्रकार से अचित्त, एपगा से प्राप्त, केवल माधुवेष के कारण प्राप्त हुए, मधुकरकृत में प्राप्त हुए आहार को क्षधावेदनीय आदि छह कारणों से, प्रमाणयुक्त ही ग्रहण करे। प्रमाण को उल्लंघन करके कदापि ग्रहण न करे। वह भी गाड़ी को चलाने के लिए लगाए जाने वाले औंगना के समान असा घाव (गुमडा) पर लगाये जाने वाले लेप के ममान आहार को संघमयात्रा के निर्वाह के २२ नो (१५६५) थाय छे ते मा प्रभारी छ -(१) तस्य कृन, तस्यैव -निष्ठित्तम् (२) तस्य कृतम् अन्यस्य निष्ठितम् (3) अन्यस्य कृतं तस्य निष्ठितम्' (४) अन्याय कृतम् अन्यस्य निष्ठितम्' म, S.पाहना मने मे५ समधी- ह.बाया રહિત અગ્નિ વિગેરેથી અથવા શો દ્વારા અચિત્ત બનાવેa તથા શસ્ત્રો દ્વારા પૂર્ણ રૂપથી અચિત્ત બનેલા હિંસા વિગેરેના ભેળસેળથી રહિત અથવા દરેક પ્રકારથી અચિત્ત, એષાથી પ્રાપ્ત થયેલ, કેવળ સાધુ-વેષના કારણથી જ પ્રાપ્ત થયેલ મધુકર ભમરાની વૃત્તિથી પ્રાપ્ત થયેલ આહારને સુધાવેદનીય વિગેરે છ કારબે થી પ્રમાણુ યુક્ત જ ગ્રહણ કરે. પ્રમાણુનું ઉલઘન કરીને કોઈ પણ વખતે " આહાર ગ્રહ ન કરે. અને તે પણ ગાડને ચલાવવા માટે લગાવવામાં આવતા ગન (ગાડીના પડની પરીમાં તેલ લગાવે તેન) માફક અથવા ‘ઘા પર લગાવવામાં આવતા લેપની માફક સંયમ યાત્રાના નિર્વાહ માટે જ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्थबोधिनी टोका द्वि श्रु. अ. १ पुण्डरोकना माध्ययनम् १४७ वृत्तिकम् 'विलमिव पन्नगभूयेण' क्लिमित्र पन्नगभूतेन 'अप्प णेणं' आत्मना 'आहार माह रेज्जा' आहारमाहरेत् सर्वदोषरहितं स्वल्पं यावत संघ-शरीरनित्रहो भवेत् - तावदेव संकुचितेन आत्मना सर्प इवाऽऽहारं स्वीकुर्यात् यथा सर्पः शीतं त्रिल प्रविशति तथैव स्वादपगृह आहारं कुदि इत्यर्थः, 'अन्नं अन्नकाले पाणं पाणकाले अन्नं भोज्यम् अन्नकाले पानं जलम्, पानकाले ग्रस्य यः काल तस्मिन् काले एव तस्य व्यवहारः करणीयः, 'वत्थं वत्थ काले' वस्त्र वस्त्र हाले - यदा. वस्त्रस्यावश्यकता भवेतदैव ग्राह्यम् नान्यथा, 'लेग लेगकाले' लयनं, लगनकाले, कीर्यते ऽस्मिन्निति पनं गृहम् वादिकाले अन्यदा तु अनियमः 'सयणं सयण' काले शयनं शानकाले - जिनकल्सिनां प्रहरमात्रम्, स्थविरकल्पिनां महरद्वयंनाधिकं शयनीयम्, वस्तु स्वरूप काले एव गृह्णीयात् न तु कालातिक्रमे 1 'सेभिक्खू मान्ने अनवरं दिनमदिवं वा पडिवन्ने' समिक्षु मत्रज्ञोऽन्यतरां दिशं दिशाम् अनुदिशं दिशान्तरं वा प्रतिपन्नः - प्राश्रितो विहरन् ग र्थः, लिए ग्रहण करे | जैसे सर्प सीधा बिल में प्रवेश करता है, उसी प्रकार साधु स्वाद लिएविना ही भोजन करे । हस प्रकार भिक्षु अन्न के समय में अन्न और पानी के समय पानी ग्रहण करता है। जब वस्त्र की आव श्यक्ता हो तभी वस्त्र ग्रहण करता है, अन्यथा नहीं । लगनगृह भी वर्षा आदि के समय में ग्रहण करता है, दूसरे समय के लिए नियम नहीं है । शयन के समय शयन को ग्रहण करता है। जिनकी साधु के लिए शयनकाल एक पहर का और स्थविर कल्पियों के लिए दो महर का होता है, इससे अधिक नहीं। तात्पर्य यह है कि वह प्रत्येक वस्तु उचित समय पर ही लेना है, ममय का उल्लंघन करके नहीं । ऐमा कर्म की मर्यादा को जानने वाला मावु किमी दिशा, विदिशा या देश में विच 1 અહાર ગ્રહણ કરે. જેમ સાપ સીધે જ દમા પ્રવેશ કરે છે, એજ પ્રમાણે साधुये स्वाह सीधा विना आहार होवो, हो भा प्रभारी, भिक्षु, अन्ननाસમયમાં અન્ન અને પાણીના સમયમાં પાણી ગ્રહગ કરે છે. અને જ્યારે વસની જરૂર હાય ત્યારે જ વસ્ર ગ્રહણ કરે છે, તે શિવાય નહીં લન-ઘર પશુ વર્ષા કાળના સમયે ગ્રહણુ કરે છે, તે શિવાયના સપય માટે નિયમनथी, शयनना सभये' शय्या - पथारीने श्रद्धथुरेमधु भटे" શયન કાળ એક પ્રહરના અને સ્થવિર કલ્પિકાને માટે એ 'પહેારના' હાય છે.' तेनांथी विशेष होतो नथी, हे तात्पर्य मे छे! ते हरे वस्तु योग्य" સમયે જ ગ્રહણ કરે છે. સમયનું ઉલ્લઘન કરીને લેતા નથી એવા સાધુ ક્રમની મર્યાદાને જાણવાવાળા સાધુ કાઇ પણ દિશા કે વિશામાં કે દેશમાં Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ सूत्रकृताङ्ग सूत्रे 'धम्मं आइक्खे विभए किट्टे' अहिंसा लक्षणं धर्ममाख्यापयेत् विभजेत कीर्त्तयेत् - सावद्यनिरवद्यविभागं कुर्यात् 'उचट्टिएस वा अणुवट्टिएस वा सुममाणे पवेयर' उपस्थितेषु वा धर्मयुद्धयोपस्थितेषु अनुपस्थितेषु वा कौतुबुद्धयोपस्थितेषु, शुश्रूषमाणेषु श्रोतुमिच्छु मवेदयेत् - जिनदचनानुसारेण निरवयव तत्फलं च उपदिशेत् । 'संति विरर्ति उवसमं निव्वाणं सोवियं अज्जवियं मद्दवियं लाघेवियं अणतित्राविर्य' शान्तिम् - प्राणातिपातादिविरमणम् चिरतिम्-इन्द्रिय नो इन्द्रियजयम्, उपशमम्, निर्वाणम् - अशेषदु.खरहितम्, शौचम्, अजिवम् मार्दवम्, लाघवम् अनतिपातिकम्, तत्र शौचम् - मावशुद्विरूपम् - आर्जवम्- सरळ तोपेतम्, मार्दवम् - मृदुभावयुक्तम् लाघवम् अनतिपातिकम् - प्राणातिपातादिरहितमहिंसा लक्षणम् 'सव्वेसिं पाणा' सर्वे पां प्रणानाम् 'सेव्वेसि भूयाणं' सर्वेषां भूतानाम् 'जाव सत्ताणं' यावत् सच्चानाम् जीवानाम् 'अणुवाई किए धम्मं' अनुविचिन्त्य कीर्त्तयेद्धर्मम् साधुः प्राणिनां कल्याणं विचार्य मोक्षं शान्तिप्रभृतिकं च दयोपशमादियुक्तं धर्म कीर्त्तयेत् । ' से भिक्खू धम्मं किनाणे णो अन्नस्त धम्ममा इक्खेज्जा' रता हुआ धर्म का उपदेश करे एवं सावय निरवद्य का विभाग करे । सुनने के इच्छुक जो धर्म करने के लिए उपस्थित है अथवा अनुपस्थित हैं, उन्हे जिनवचन के अनुसार निर्दोष धर्म और धर्म के फल की प्ररूपणा करे । शान्ति, विरति इन्द्रिय और मन की विजय, उपशम समस्त दुःखों से रहित निर्वाण, शौच मन की शुद्धि सरलता, मृदुता, लाघव और अहिंसा का, समस्त प्राणियों, भूनों, जीवों और सत्वों के कल्याण का विचार करके उपदेश करे । अर्थात् प्राणियों के कल्याण का विचार करके मोक्ष, शान्ति, दया' उपशम आदि धर्म का उपदेश करे । વિચરતા થકા ધર્મના ઉદ્દેશ કરે. તેમજ સાવદ્ય અને નિરવના વિભાગ કરે. સાંભળવાની ઇચ્છા વાળા જે ધમ કરવા તત્પર છે, અથવા અનુપસ્થિત છે, તેએને જીન વચન પ્રમાણે નિર્દોષ ધર્મ અને ધર્મના ફળની પ્રરૂપણા अरे. 'शान्ति, विरति इन्द्रिय मने भननेो विन्य उपशभ - सघृणा दु:पोथी . रहित, मेव। निर्वाणु भोक्ष शैन्य-भननी शुद्धि सरलयालु, भृटु-अभयाः, · લાઘવ અને અહિંસાના સઘળા પ્રાણિયા ભૂતા, જીવા, અને સવૅાના કલ્યા ણુને વિચાર કરીને ઉપદેશ કરે. અર્થાત્ પ્રાશિયાના કલ્યાણુના વિચાર' કરીને भोक्ष, शन्ति, हया, यशभ विगेरे धर्मना उपदेश ४२. 11 11 1 Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् १४९. धर्म कीर्तियन् स भिक्षुः-नो अन्नस्य हेतोः कारणात धर्ममाचक्षीत । 'यो पाणस्स हे धम्ममाइखेज्जा' नो पानस्य हेतोः धर्ममाचक्षीत, ‘णो वत्थस्स . हेउं धम्ममाइखेन्जा' नो ववस्य हेतोः धर्ममाचक्षीत , 'णो लेणस्पहउँ धम्ममाइक्खेज्जा' नो लयनस्य-वसते हैतो धर्म गावक्षीत । णो सयणस्सहेउ धम्ममाइक्खेज्जा' नो शयनस्य हैतो धर्म माचक्षीत 'णो अन्नेसि विरूवरूवाणं. . कामभोगाणं हेउ धम्ममाइक्खेज्जा' नो अन्येषां विरूपरूपाणाम्-अनेकप्रकाराणां कामभोगाना हेतोः-शब्दादिवियनिमित्तं धर्म माचक्षीत । अगिलाए' अर ... आलानतया 'धम्ममाइक्खेन्जा' धर्ममाचक्षी । 'नन्नत्य कम्मनिज्जरहाए धम्म : माइक्खेज्जा' नाऽन्यत्र कर्मनिर्जरात् धर्ममाचक्षीन । कर्मनिर्जरांव्यतिरिक्तफलमनभिमन्धाय धर्मोपदेशः साधुभिः कर्त्तव्यः । 'इह खलु तस्म मिक्खुम्म अंतिए धम्म मोच्या हद्द खलु तप भिक्षोरनिके धर्म श्रुन्या "णि मम्म' निशम्य-हृदये ऽवधार्य 'उठाणेणं उट्टाय वीरा अस्सि धम्मे समुहया' उत्थानेर-प्रव्रज्यया उत्थाय गृहादिकं परित्यजन् दीक्षां गृहीत्वा वीरा:-कर्मविदारणसामर्थ्य वन्त: धर्म का उपदेश करता हु मा साधु अन्न प्राप्ति के लिए उपदेश न करे, पानी की प्राप्ति के लिए धर्म का उपदेश न करे वस्त्र के लिए धर्म, का उपदेश न करे, उपाश्रय पाने के लिए धर्म का उपदेश न करे, शाय्या प्राप्त करने के लिए धर्म का उपदेश न करे, या विविध प्रकार के कामभोगों को प्राप्त करने के लिए धर्म का उपदेश न करे। अग्लान भाव से धर्म का उपदेश करे। कमनिर्जरा के सिवाय अन्य किसी भी प्रयोजन से धर्म का उपदेश नहीं करना चाहिए। . . . .. . भिक्षु से धर्म को सुनकर और हृदय में धारण करके- वीर-कर्म- . विदारण में समर्थ पुरुष दीक्षा अंगीकार करके, गृहत्याग करके आहत ધર્મને ઉપદેશ કરતા થકા સાધુ અન્નની પ્રાપ્તિ માટે ઉપદેશ ન કરે પાણીની પ્રાપ્તિ માટે ધર્મને ઉપદેશ ન કરે, વસ્ત્ર માટે ધર્મને ઉપદેશ ન કરે ઉપાય મેળવવા માટે ધર્મને ઉપદેશ ન કરે શય્યા પ્રાપ્ત કરવા માટે " ધર્મને ઉપદેશ ન કરે. અથવા જુદા જુદા પ્રકારના કામોને પ્રાપ્ત કરવા માટે ધમને ઉપદેશ ન કરે. અગ્લાના ભાવથી ધર્મને ઉપદેશ કરે કર્મની નિર્જરા સિવાય બીજા કેઈ પણ પ્રોજન માટે ધમને ઉપદેશ કરે नमे... , ભિક્ષુ પાસેથી ધર્મનું શ્રવણ કરીને તેમજ તેને હૃદયમાં ધારણ કરીને વર-કર્મ વિદારણ કરવામાં સમર્થ પુરૂષ દીક્ષાને સ્વીકાર કરીને તથા ઘરને Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे १५० अस्मिन' आईतधर्मे समुत्थिताः- उर्थ ॥ भवन्ति । 'ते एवं सञ्चोत्रगया" तेवींग' एवं ' सर्वोगताः सर्वमोक्षकारणं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणं प्राप्ताः, ये 'एव सव्वोवरता' ते एवं सर्वे रताः - सर्वेभ्वः सर्वपाद्य कर्मभ्य अरताःनिवृत्तः, 'ते एवं सब्त्रोव मंत' ते एवं सर्वोपशान्ताः - जित रुपायाः 'ते एत्र - सन्नताएं परिनियुत्ति' ते एवं सर्वात्मतया सर्व मावेन परिनिर्वृताः- उक्त गुणविशिष्टा एवं सर्वकर्मक्षयकारका भवन्तीति 'येति' धर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं कथंगति - हे जम्बू शिष्य ! स्वीर्थकराच्छ्रुत तथैव तुभ्यं कथयामि, 'एवं' से भिक्खू' एवं स भिक्षुः बनीमि - कथयामि-, यथा मया भगवत 1 / - - धर्मार्थो धर्मः श्रुतवारित्रारूपस्तेनार्थी, नियागपतिपन्नः - नियागः - मोक्षः शुद्रबुझ्ये' यथेदमुकम् स साधुः पूर्वगुरु 11 'धम्मट्टी धम्मविक 'मी धम्म नियागपडिवणे' धर्मवित्- सर्वोपविविशुद्धधर्म जानाति, संयमो वा तं प्राप्तः, 'से' तत् 'जहे 57 धर्म में उद्यमचान हो जाते हैं । वे वीर पुरुष सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रं और तपरूप मोक्ष मार्ग को प्राप्त करते हैं, समस्त सावध कर्मों से रहित हो जाते हैं । वे सब कषायों को जीत लेते हैं और वही समस्त कर्मों का पूर्ण रूप से क्षत्र करते हैं। 5 श्री सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं - हे जम्बू ! मैंने भगवान् तीर्थकर से जेसा सुना है, वैसा ही तुम से कहता हूँ । इस प्रकार वह मन चारित्र रूप धर्म का अर्थी होता है, विशुद्ध धर्म का ज्ञाता होता है और मोक्ष या संघन को प्राप्त होता है । ત્યાગ કરીને આહુત-અર્હત ભગવાને ઉપદેશ કરેલા ધમ માં ઉદ્યમવાળા ખની જાય કે 'તે' વીર પુછ્ય સમ્યજ્ઞાન, સમ્પૂ, સંચારિત્ર અને સમ્યક્ તપ રૂપ મેક્ષ માર્ગને પ્રાપ્ત કરે છે. અને સઘળા સાવદ્ય કર્મોથી રહિત /* }" F+ બની જાય છે. તે બધા જ કષાયને જીવી લેય છે અને એજ સઘળા ‘ मेन पथाश्री क्षय करे हे. 3 14 है 4 " १ શ્રી સુધર્માસ્વામી જમ્મૂવ મને કહે છે કે—હૈ જમ્મૂ ! મે” ભગવાન ત્તી કરની પાસેથી જે પ્રમાણે સાંભળ્યુ છે, એજ પ્રમાણે તમેાને કહું છું. या प्रमाचे ते भिक्षु "श्रुतयारि ३५ धर्मनी अमना वाणा होय छे.,, 4 [F] વિશુદ્ધ ધર્મને જાણુનારા હાય છે. અને મેક્ષ અથવા સયમને પ્રાપ્ત કરે Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् ११ घे पञ्चमः 'अवा पत्ते. पउमवरपोंडरी', अथवा अपातः पमपरपुण्डरोकमस श्वेतकमलं प्राप्तो न वा किन्तु-स एव सर्वेभ्यः श्रेष्ठः, एवं से.भिक्खू परिणायकम्म' एवं ' स 'भिक्षुः परिज्ञातकर्मा, परिज्ञातं कर्म येन सः, परिणायसंगे' परिक्षातसङ्गः-परिज्ञातः बाह्य आभ्यन्तरश्च सङ्ग:-सम्बन्धो येन सः, तंत्र बाह्य सङ्ग:जन मननीपुत्रपौत्रादिरूप आभ्यन्तरः सङ्ग:-कायादिः, ज्ञपरिझया एतेषां कटु फलकमिति ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिजया परित्यक्तः 'उपसंते' उपशान्तो जितेन्द्रियः 'समिए सहिए' समितः सहिता-पश्चममितिभिः सम्पन्नः, 'सया जए' सदा यतःज्ञानादि गुणसम्पन्नः, से.' स साधुः-एवं वक्ष्यमा गप्रकारेण 'वयाणिज्जे' वचनोयो वक्तव्यः, 'तं हा तद्यथा-'समणेति वा श्रमण इति वा माइन इति वा 'खंतेति वा क्षान्त इति वा क्षान्त्वादिगुणयुक्तः 'दते तिवा' दानो जितेन्द्रिय इति वा, 'गुत्ते ति वा 'गुप्त इति वा 'मुत्तेति वा' मुक्त इति वा, 'इसीइ वा' ऋपिरिति वा 'मुणीई वा' मुनिरिति वा 'कई इवा' कृतिरिति वा विऊ वा' ऐसा साधु पूर्वोक्त पुरुषों में पांचवा पुरुष है । वह उत्तम पुण्डरीक को प्राप्त करे अथवा न करे, किन्तु वही सप से श्रेष्ठ है । ऐसा वह भिक्षु कर्म के स्वरूप को जानने वाला, बाह्य और अन्तर संबंधों का ज्ञाता अर्थात् माता पिता पुत्र पौत्र आदि के पात्य संयंत्र को और , कपाय आदि के आभ्यन्तर संबंध को ज्ञपरिज्ञा से कटुक फल देने वाला जान कर प्रत्यारुपान परिज्ञा से त्याग देना है । जितेन्द्रिय, पांच समितियों से सम्पन्न, सदा यतनाशील ज्ञानादि गुणों से युक्त ऐसा वह साधु,इन शब्दों द्वारा कहने योग्य होता है-श्रमण, माहन, क्षान्त क्षमा आदि छ. मेा साधु पूति पु३षामा ५। ५३५ छे, ते में उत्तवा રીક-કમળને પ્રાપ્ત કરે, અથવા ન કરે પરંતુ એ જ સૌથી શ્રેષ્ઠ છે એ તે ભિક્ષુ કર્મના સ્વરૂપને જાણવા વાળ, બાહ્યબહ ૨ા તથા આભ્ય તર–અંદ૨ના સંબધને જાનાર અર્થાત્ માતા, પિતા, પુત્ર પૌત્ર વિગેરેના બ દ્યબહારના સંબધને અને કષાય વિગેરેના આત્યંતર-અંદરના સંબંધને જ્ઞપરિ. જ્ઞાથી કડવા ફલ આપનાર જાણીને પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞાથી, તેનો ત્યાગ કરે છે. જીતેન્દ્રિય પાંચ સમિતિથી યુક્ત સદા યતનાશીલ જ્ઞાન વિગેરે ગુણોથી યુક્ત એ તે સાધુ આ નીચે બતાવવામાં આવેલ શબ્દને ચગ્ય ગણાય છે. -श्रम, भान, क्षान्त, क्षमा विगेरे गुथी युक्त, वान्त, तन्द्रिय, रास, 16JS Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ auranev ar साता frनिक नियामिति पा लहे या रूक्ष इति वा 'तीराधी कगि मि' बाहरनगरविदिति वा पति बीमि ११ भोगपति -गलम-पमिदवाचर-पञ्चदशमाया . पनि पनिशदगयपन कान्य निर्मापक, दिया-पीनारपति कोन्हापुररानमदत्त नार्थी परभूषित होनापुराजगुरुपारचाचारि-नाना - जैनधर्मदिवाकर -T-1 श्री चामीलालानिविरचिनाय श्री "नामृतम्य" ममगार्थ रोधिन्या. मायां पापायांतितीवचनम्कन्धे | HARIS नमानम् ॥ गुतो में युक्त, दान जिनेदिग, गुम, मुग्न प्रापि, मुनि, कृती, विज्ञान, fas, नीरगी और चरण करणपारचित । मा में रहता ||१|| नानानधर्मदिया पनी घानीयालजीमहाराजकृत __ " हो ममगार्थ योधिनी गाम्या का ॥प्रथम अध्ययन ममा || m, i n t, P, ३.१, नयी भने १२५ ४२१ . .. ...... ___.. .....! ५ 103 पाप 131 'स 11 AUR 'नी Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् १५३ . . अथ द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य द्वितीयमध्ययन पारम्पते- ' ." ..द्वितीयश्रुतस्कन्धेस्य गत प्रथमाऽध्ययन साम्प्रतं द्वितीयमारभ्यते । तत्र मथभाऽध्ययने, पुष्करिणीपुण्डरीकदृष्टान्तेनाऽयमर्थः समर्थिता-यदिह भूखण्डे मोक्ष कारणमजानन्, परवी कः कर्मबन्धनान विमुञ्चति । किन्तु सम्यकश्रद्धया पवित्राति:करणाः-रागद्वेषरहिता उत्तमा निर्ग्रन्याः कर्मबन्धनानि त्रोटयित्वा मोक्षमासा'दयन्ति । तथा-स्वकीयसदुपदेशात्-अन्यमपि मुक्तिभाजं कुर्वन्ति । तत्रेयं जिज्ञासा भवति-केन कारणेन जीवो बन्धमासादयति, केन च कारणकुठारेण बन्धनं छित्वा मोक्ष प्राप्नोति । एतस्य प्रश्नसारस्योत्तरदानाय द्वितीयोऽध्ययनं प्रवर्तते । अस्मिन्न द्वितीय अध्ययन .. दूसरे श्रुतस्कंध का प्रथम अध्ययन समाप्त हुआ, अब दूसरा अध्ययन का आरंभ किया जाता है। प्रथम अध्ययन में पुष्करिणी और पुण्डरीक के दृष्टान्त द्वारा इस अर्थ का प्रतिपादन किया गया है कि इस भूमि पर मोक्ष के कारणों को न जानने वाले परतीर्थिक कर्म बन्धन से मुक्त नहीं होते। किन्तु सम्यक श्रद्धा से पवित्र अन्तःकरण वाले, राग और द्वेष से रहित उत्तम निर्ग्रन्थ ही कर्मबन्धनों को तोड कर मुक्ति प्राप्त करते हैं तथा अपने सदुपदेश से दूसरों को भी मुक्ति का पात्र बनाते हैं। .. अथ प्रश्न यह होता है कि जीव किस कारण से कर्मबंध को मास होता है और किस कारण रूप कुठार से बन्धन को काट कर मोक्ष प्राप्त करता है ? इसी महत्व पूर्ण प्रश्न का उत्तर देने के लिए दूसरा બીજા અધ્યયનનો પ્રારંભ– ' ' 'भा २'धनु: 'पडे अध्ययन सात थयु, हा मध्यय. નિને પ્રારંભ કરવામાં આવે છે. પહેલા અદયયનમ પુષ્કરિણી-વ અને પંડરીક-કમળતા તથી આ વિષયનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવેલ છે કેઆ ભૂમિ પર મોક્ષના કારણેને ન જાણનાર એવા પરસોર્થિકે કર્મને બંધથી મુક્ત થતા નથી. પર તુ સમ્યફ શ્રદ્ધાથી પવિત્ર અંત:કરણવાળા ગ અને દ્વેષથી રહિત ઉત્તમ 'નિર્બળેજ કર્મના બંધનેને તેડીને મુક્તિને પ્રાપ્ત કરે છે. તથા પતિના સદુપદેશથી બીજાઓને પણ મુક્તિ પ્રાપ્ત ४रावे छ., ,, । હવે પ્રશ્ન એ થાય છે કે–જીવ કેવા કારણોથી કર્મ બંધને પ્રાપ્ત થાય છે, અને કયા કારણ રૂપ કુહાડાથી બંધનને કાપીને મોક્ષ પ્રાપ્ત કરે છે? આ મહત્વ ભરેલા પ્રશ્નને ઉત્તર આપવા માટે આ બીજું અધ્યયન १० २० ....... - .... Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र -१५४ ' सूत्रकृतामो ध्ययने द्वादशक्रियास्थानेन वन्धनं त्रयोदशक्रियास्थानेन मोक्षो भविष्यतीति - पतिपादयिष्यति । यद्यपि बन्धनमुक्तिकारयोः चर्चापागपि संवृना, तथापिसंक्षेपेण प्रकृतां तां विस्तरेण प्रस्तोष्यतीति महद्वैशिष्टयम् । यः पुरुषः स्वकीय कर्माणि 'सपयितुमिच्छति-स प्रथमतो द्वादशप्रकारकक्रियास्थानं जानीयात् । तदनु क्रियां परित्यज्य कर्मबन्धनं श्लथयन् मोक्षभाक् स्यात्, अनेन प्रकारेण इहाऽध्ययने द्वादशक्रियास्थानानां वर्णनं करिष्यते । अत एतस्याऽध्ययनस्य क्रियास्थानाऽध्ययनमिति नाम भवति। गमनच नादिव्यापार एव क्रियाशब्दार्थों अध्ययन प्रारंभ किया जाता है। इस अध्ययन में यारह स्थानों से चमधन और तेरह क्रिया स्था, से मोक्ष होता है, यह प्रतिपादन किया जायगा। यद्यपि बन्ध और मोक्ष के कारणों की चर्चा पहले भी हो चुकी है किन्तु वह संक्षेप से हुई है। यहां वह विस्तार पूर्वक की जाएगी। यह इस अध्ययन की विशेषता है । । जो पुरुष अपने कर्मों का क्षय करना चाहता है, उसे सर्व प्रथम बारह क्रिया स्थानों को जान लेना चाहिए। तत्पश्चात् वह उनको परित्याग करके कर्मान्ध को शिथिल करता हुआ मोक्ष का भागी होता है। इस कारण इस अध्ययन में बारह क्रिगास्थानों का वर्णन किया जाएगा। इसीलिए इम अध्ययन को 'क्रियास्थानाध्ययन' नाम दिया गया है। ...चलना-फिरना आदि व्यापार ही क्रिया' शब्द का अर्थ है। क्रिया પ્રારંભ કરવામાં આવે છે. આ અધ્યયનમાં બાર ક્રિયા રથાનેથી બન્ધન અને તેર ક્રિયા સ્થાનેથી મોક્ષ થાય છે, આ વિષયનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવશે. જે કે બંધ અને મોક્ષના કારણેની ચર્ચા પહેલાં પણ થઈ ચુકી છે, પરંતુ તે સંક્ષેપથી થઈ છે, અહિયાં વિસ્તાર પૂર્વક કરવામાં આવશે. એ આ અધ્યયનનું વિશિષ્ટ પણું છે. " જે પુરૂષ પોતાના કર્મોને ક્ષય કરવાની ઈચ્છા રાખે છે, તેમાં સૌથી પહેલાં બાર ક્રિયા સ્થાનને જાણી લેવા જોઈએ. તે પછી તે એને પરિત્યાગ કરીને કમબન્ધનને શિથિલ (ઢીલું) બનાવતા થકા મે ક્ષના ભાગી થાય છે. આ કારણથી આ અધ્યયનમાં બાર કિયા સ્થાનેનું વર્ણન કરવામાં આવશે. તેથી જ આ અધ્યયનને “ક્રિયાસ્થાન,ધ્યયન” એ નામ આપવામાં આવેલ છે. ચાલવું ફરવું વિગેરે વ્યાપાર એટલે કે પ્રવૃત્તિ એજ ક્રિયા શબ્દને Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयाबोधिनी टीका वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् भवति । क्रिया द्विविश द्रव्यक्रिमा-भावक्रि ग च। तत्र घटपटादिक्रियामारभ्य शरीरान्तक्रिया-द्रव्यक्रिया भाति । भाषक्रियाऽष्टपकारा भवति, प्रयोगो-पाय:करणीय-समुदानेर्यापथ-सम्यक्त्व-सम्पमिथ्यात्व-क्रियाभेदात्। एतासां क्रियाणां स्वरूपं यथास्थानं मूत्रकृतैव प्रतिपादयिष्यते । एतासां क्रियाणां यत्स्थानं तत्-क्रियास्थानम् , इत्येतादृशक्रियास्थानस्यैव प्रकृताऽध्ययने निर्वचनं करिष्यते। अतः परमास्खलिनादिगुणोपेतं मूत्रमुच्चारणीयम् । १. मूलम्-सूर्य मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु किरियाठाणे णामझयणे पण्णत्ते, तस्स णं अयमहे, इह खलु संजूहेणं दुवे ठाणे एवमाहिज्जति, तं जहा-धम्मे चैव अधम्मे चेव उवसंते चेत्र अणुवसंते चेत्र । तत्थ णं जे से पढमस्स ठाणस्स अहम्मपक्खस्स विभंगे, तस्स णं अयम? पण्णत्ते, इह दो प्रकार की होती है-द्रव्यक्रिया और भावक्रिया। घट पट आदि की क्रिया से लेकर शरीर के अन्त तक की क्रिया द्रव्य कहलाती है। भावक्रिया आठ प्रकार की होती हैं-प्रयोग १, उपाय २, करणीय ३ समुदान ४, ईपिय५, सम्यक्त्व ६ और सम्यमिथ्यात्व ७ क्रिया इन क्रियाओं का स्वरूप सूत्रकार स्वयं ही यथास्थान प्रतिपादन करेगे। इन क्रियाओं का स्थान क्रियास्थान कहलाता है। प्रकृन अध्ययन में इस क्रिया स्थान का ही व्याख्यान किया जाएगा। इसके अनन्तर सवलना आदि दोषों से रहित सूत्र का उच्चारण करना चाहिए। અર્થ છે કિમ બે પ્રકારની હોય છે દ્રવ્યક્રિયા અને ભાવદિયા ઘટ પટ, વિગેરેની ક્રિયાથી લઈને શરીરના અંત સુધીની ક્રિયા દ્રવ્ય ક્રિયા કહેવાયछ. ठिया मा8 41२नी य छे.. ते मा प्रमाणे छे. प्रयोग १, ७५. ४२९४ीय 3, समुन ४, ध्या५५ ५, सभ्य ६, भने सभ्य मिथ्यात्व ७,.. કિયા ૮, આ ક્રિયાઓનું સ્વરૂપ સૂત્રકાર પોતે જ પ્રસંગે પાત યથાસ્થાન પ્રતિપાદન કરશે આ ક્રિયાઓનું સ્થાન ક્રિયાસ્થાન કહેવાય છે. ચાલુ આ બીજો અધ્યયનમાં આ ‘ક્રિયાસ્થાનનું જ વ્યાખ્યાન કરવામાં આવશે તે પછી શબલતા વિગેરે દેથી રહિત સૂત્રનું ઉચ્ચારણ કરવું જોઈએ આ मध्ययन पडे सूत्र 'सुयं मे आउस तेणे' त्या 'छ.. Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रहतास खल्लु पाइणं वा ४ संतेगइया मणुस्ता भवंति, तं जहा-आरिया वेगे अणारिया वेगे. उच्चागोया वेगे णीयागोया वेगे, कायमंता, बेगे हस्समंता वेगे सुवण्णा वेगे दुवण्णा वेगे सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे। तेसिं च ण इमं एयारूवे दंडसमादाणं संपेहाए तं जहा; णेरइएसु वा तिरिक्खजोणिएसु वा मणुस्सेसु वा देवेसु वा जे जावन्ने तहप्पगारा पाणा विन्नु वयणं वेयंति । तसि पि यण इमाइं तेरसकिरियाठाणाई भवंतीति मक्खायं,तं जहा-अटा दंडे१. अणटादंडे२ हिंसादंडे३ अकम्हादंडे ४ दिट्ठविपरियासियादंडे५, मोसवत्तिए६ अदिन्नादाणवत्तिए७ अज्झत्थवत्तिए८ माणवत्तिए९ मित्तदोसवत्तिए१० मायावत्तिए११ लोभवत्तिए१२ इरियावत्तिए १३ ।।सू०१॥ छाया-श्रुतं मया आयुष्मन् ! तेन भगवता एमाख्यातम् इह खलु क्रिया. स्थानं नाम अध्ययनं प्रज्ञप्तम् , तस्य खललयमर्थः । इह खलु सामान्येन द्वे स्थाने एवमाख्यायेते तधया-धर्मश्चैव अधर्मश्चैव, उपशान्तश्चैव अनुपशान्तश्चैव । तत्र खल यः स प्रथमस्य स्थानस्य अधर्मपक्षस्य विभङ्गः, तस्य खल्लयमयः प्रज्ञप्तः । इह खलु पाच्यां.वा.४.सन्त्येकतये मनुष्या भवन्ति तद्यथा-आर्या ए के, अनार्या एके, उच्च-- गोत्रा एके, नी वगोत्रा एके, कायवन एके, इस्ववन्त एके, मुवी एके, दुर्वर्णा एके, सुरूपा एके, दुरूपा एके, तेषां च खलिबदमेतद्रूपं देण्डममादानं सम्प्रेक्ष्य तद्यया. नरयिकेषु वा विग्योनिकेषु वा मनुष्येषु वा देवेषु वा, ये चान्ये तथामकाराः माणा विद्वांसो वेदनां वेदयन्ति, ते गामपि च खल्लु इमानि त्रयोदशक्रियास्थानानि भवन्तीत्याख्यातम् , तद्यथा-अर्थदण्डः१ अनर्थ दण्डः२ हिंसादण्डः३ अक स्मादण्डः ४ दृष्टिविपर्या पदण्डः५ मृगामत्य यिकः६ अदत्तादान त्ययिका७ अध्या. त्मात्यायिकः ८ मानप्रत्ययि ९ मित्रदोपपत्ययिकः १० मायामत्ययिका ११ कोमपत्ययितः १२ ईपिथि .. १३ ॥४० १॥ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समार्थबोधिनी टीका द्वि. थु. म. २ क्रिशस्थाननिरूपणम् १५७: ; टीका - सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिमभृतिशिष्यसमुदायः मति कथयति- 'आउ संतेण' हे आयु मन् शिष्य ! तेन 'भवनया' भगवता तीर्थकरेण महावीरेण 'एव मक्खायं' एवम् - वक्ष्यमाणम् आख्यातं प्रतिपादिनम् ' मे सूर्य' मिया भगवता यदुपदिष्टं तन्मया श्रुत-तदेव क्रियास्थानं त्वामहं वच्मि । अतिमन्ताः सावधान मनसा कृणु । 'ह खलु किरियाठाणे णामज्झपणे पत्ते' इह-अस्मिन् जिनशासने खलु क्रियास्थानं नामाऽध्ययनं द्वितीयस्कन्धे प्रज्ञप्तम् कथितम् - 'हसणं अयमट्टे' तस्य - क्रिस्थानस्य खलु अयमर्थः, 'इह खलु संजू देणं दुवेराणे माहिज्जेति इह खलु द्वे स्थाने सामान्येन एवमाख्यायेते । 'तं जा तद्यथा- 'धम्मे चेत्र अधम्मे चे " धर्माधर्मवैव "उम्र - अणुसंते चेत्र ? उपशान्तश्रानुपशान्तश्चैव-उपशान्तधर्मस्थानम् अनुपशान्तधर्मस्थान: च 'तत्थ णं. जे से पढमस्स' तत्र खल्ल यः सः प्रयमस्य 'ठासस्थानस्थ "अहम्म पक्रवा स्स' अधर्मषस्य 'वि' विभङ्गो विभागः प्रकार इति यावत्-इह प्रायः सर्वो ऽपि प्रथमतोत्रर्तते ततः सदुपदेशाप्रति अतोऽधर्म-क्षस्य मथमत्व-+ } 3 + 'सुयं मे आउसंतेणं' इत्यादि । टीकार्थ - श्री सुधर्मास्वामी अपने जम्बू स्वामी आदि शिष्य समूह से कहते हैं - हे शिष्य ! आयुष्मान् भगवान् महावीर तीर्थंकर ने इस प्रकार कहा है । भगवान् ने जो कहा वह मैंने सुना है। वहीं क्रियास्थान मैं तुम्हें कहता हूं। जिसे सावधानचित्त होकर सुनो इस जिनशासन में क्रियास्थान नामक अध्ययन कहा गया है । उसका अर्थ यह है - सामान्य रूप से दो स्थान इस प्रकार कहे जाते हैं- धर्म और अधर्म, उपशान्त और अनुपशान्त, अर्थात् उपशांत धर्मस्थान और अनुपशांत धर्मस्थान । इनमें से प्रथम अधर्म स्थानका अर्थ- इस प्रकार कहा गया है। - ટીકા શ્રી સુધર્માસ્વામી,જમ્બુસ્વામી વગેરે પેાતાના શિષ્યાને કહે. છે કે—હ શિષ્ય ! આયુષ્યમાન્ ભગવાન મહાવીર તી કરે આ પ્રમાણે ४ . भगवान ? हुं ते में 'सालज्यु छे. यो यथा स्व३५ હુ તમાને કહુ છું તે તમા સાવધાન ચિત્તવાળા થઈ ને "सामणी. આ જૈન શાસનમાં ક્રિયાસ્થાન નામનુ અધ્યયન કહેવામાં આવેલ છે, તેનેા 'અથ એ છે કે—સામાન્ય પણાથી એ સ્થાના આ પ્રમાણે કહેવામાં आवे छे! तेरो स्थान धर्म, अने' अधर्म से छे उपशांत अने अनुपेशति અર્થાત્ ઉપશત ધમ સ્થાન અને અનુપશાન્ત ધર્મસ્થાન તેમાં પહેલાં અધમ સ્થાનના અર્થ આ પ્રમાણે કહેલ છે.~~ ~+1 ft Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसत्रे १५ युक्तम् । 'तस्स णं अग्रमठ्ठे पणते' तस्य खल अवमर्थः प्रज्ञप्तः 'टह ग्वड पाहणं वा४' इह-अस्मिन् लोके खलु इति-निश्रयेन 'पाइ वा 'पाच्या वा४-प्राच्या दिदिशासु चतुर्षु 'संगइया मणुया भांति' सन्त्येकन ये मनुष्या सवन्ति - अनेक-कारभेदभिन्ना माना विद्यन्ते, 'तं जहा' तथा 'आरिया वेगे अगारिया बेगे' आर्या एके, अनार्या एके 'उच्चागोया वेगे - णीयागोया वेगे' उच्चग या एकेनीचगोत्रा एके, "काय मंता वेगे-इस्समं ॥ वेगे' का ववन्तो दीर्घ या एके-हस्वकाया एके ' वेगे-दुष्णा वेगे' सुदर्गा एके केन विशिष्टवन्तो भवन्ति, दुर्न एके, 'सुरूरा वेगे दुरूप वेगे' नृपाः सुन्दररूपवन्त एके दुरूपा: - कुत्सितरूपवन्त एके 'तेचि णं एयाख' तेषां च इदम् एवम्, तेषामने कभेदभिन्नानां मानवानाम् इदं वक्ष्यमाणरूपकम् 'दंडसमादाणं' दण्डसमादानं भवति - तेपां जीवानां पापकर्मण इच्छा भनति, इति 'संपेाए' तं संपे क्ष्य - सम्यग्दृष्ट्वा 'तं जह।' तयया- 'णेरडपस वा' 'नैरयिकेषु - नारकजीवेषु वा 'तिरिक्खजोणि वा' तिर्यग्योनिकेषु जीवेपु, 'मगुस्से वा' मनुष्यजीवेषु वा * प्रायः सभी लोग पहले अधर्म में प्रवृत्ति काते हैं, फिर समुपदेश पाकर धर्म में प्रवृत्त होते हैं, इस कारण अधर्म पक्ष को मन कहा है। इस लोक में निश्चय ही पूर्व आदि सभी दिशाओं और विदिशाओं में नाना प्रकार के मनुष्य होते हैं, जैसे - क. ई आर्य होते हैं, कोई अनार्य शेते हैं, कोई उच्चगोत्री होते हैं कोई नी वगोत्री होते हैं, कोई लम्बे शरीर वाले तो कोई छोटे शरीर वाले शेते हैं कोई ब्राह्मग आदि ऊंचे वर्ण वाले और कई नीचे वर्ण वाले होते हैं । कोई सुन्दर रूप वाले और कोई कुरूप होते हैं। इन नाना प्रकार के मनुष्यों की पाप कर्म करने की इच्छा होती हैं । यह देखकर नारकों तिर्यंचे। - પ્રયઃ સઘળા લેકે પહેલા અધમાં પ્રવૃત્ત હું ય છે અને પછી સદ્ગુ પદેશ પામીને ધમાં પ્રવૃત્ત થાય છે. તેથી અધમ પક્ષ પડેલા કહેલ છે. આ લેાકમાં જરૂર પૂર્વ વિગેરે સઘળી દિશાએ અને વિદિશાએમાં અનેક પ્રકારના મનુષ્યા હાય છે. જેમકે—કેઈ આય હાય છે. કાઈ અનાય હાય છે. કઇ ઉચ્ચ ગેત્રવાળા હાય છે. કાઈ નીચા ગાત્રવાળા ઢાય છે. કાઈ લાંબા શરીરવાળા તા કાઈ ઢીગણા શરીરવાળા હોય છે કોઈ બ્રાહ્મણું વિગેરે ઉંચ વધુ વાળા અને કાઈ નીયા વવાળા હાય છે. કૅય સુંદર રૂપ વાળા અને કાઈ કદરૂપા એટલે કે ખરાબ રૂપવાન ઢાય છે. આ અનેક પ્રકારના મનુષ્ય.તે પૂ ૫૪મ કરવાની ઈચ્છા થાય છે. એ' જોઈ તે 'નારકેશ, Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् .. 'देवेस वा' देवनिकायेषु वा 'जे. नावन्ने तहप्पगारा' ये चान्ये तयाणकारी 'पाणा' प्राणा:-जीवाः 'विन्नू वेवणे वेयंति' वेदनां मुखदुःखाऽनुभवसरूपां वेद. यन्ति-अनुभवन्ति विद्वांसः-सदसद्विवेकवन्तः। तेसि पि य णं इमाई तेरस किरियाठाणाई" तेषामपि च खलु इमानि त्रयोदश क्रियास्थानानि 'भवंतीतिमकवाय' मवन्तीति तीर्थकरराख्यातम् 'तं जहा' तद्यथा-तानि च स्थानानि-अग्रे वक्ष्यमाणानि 'अहादंडे' अर्थदण्ड:-कमपि प्रयोजनविशेषमासाद्य हिंसात्मकपापकरण 'मर्थदण्डः कथ्यते १ । 'अणहादंडे' अनर्यदण्डः प्रयोजनमन्तरेणैव हिंसात्मकपापकिरणमनर्थदण्डः २ । 'हिंसाद डे' हिनदण्डः-प्राणिनामतिपातः ३. 'अकम्हादंडे' अकस्माद्दण्डः (आकस्मिको दण्डः) अन्यस्याऽपराधे दण्डयतेऽन्यः ४ । 'दिट्ठी विरियासियादंडे' दृष्टिविपर्यापदण्ड:-दृष्टे विपर्यापोऽन्यथा भावस्तेन को दण्डः, यथा परथरखण्डं ज्ञात्वा बाणेन पक्षिणं हन्ति ५। 'मोसवत्तिए' मृपा प्रत्यायिकामनुष्यों और देवनिकागों में जो सत्-असत् के विवेकी एवं पुण्य कर्म के उदय से भाग्यवान जीव सुख दुःख रूप वेदना का अनुमय करते हैं, उनके भी यह तेरह क्रिया स्थान तीर्थंकर भगवान ने कहे हैं। वे तेरह क्रिया स्थान इस प्रकार हैं-- (१) अर्थदंड--किमी प्रोजन से हिंसा करना। (२) अनर्थ दंड--निष्प्रयोजन हिंसा करना। (३) हिंसादंड--प्राणियों का घात करना। * . (४) अकस्मात् दंड--दूसरे के अपराध का दूसरे को दंड देना। - (५) दृष्टि विपर्यास दंड--दृष्टि दोष से दंड देना, जैसे पत्थर का टुकडा समझ कर पक्षी को याण से मारना। તિર્યંચે મનુષ્યો અને વિનિકાયોમાં જે સત 'અસત્તા વિવેકને જાણનારા તથા પુણ્ય કર્મના ઉદયથી ભાંગ્યવાન જીવ સુખ દુઃખ રૂપ વેદનાને અનુભવ કરે છે તેઓના પણ આ નીચે બતાવવામાં આવેલ તેર સ્થાને ભગવાને ४ . ते ते२ यास्थान मा प्रभार छ.-- (१) अर्थ - ५६] प्रयोथी l ४२वी । (૨) અનર્થદંડ–કારણ વિના હિંસા કરવી ___(3) हिंसा-प्रापियानो घात ४२वी. *r (૪) અકસ્માત દંડ–બીજાના એપરાધને બીજાને દંડ આપે (૫) દષ્ટિ વિપસદંડ–દષ્ટિ દોષથી દડદે જેમકે-પત્થરને કકડે 'मलने पक्षाने माथी भार. Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । संताप मिथ्यामाषणेन पापसम्पादनम्, 'अदिनादाणप्रत्तिए' अदत्तादानपात्यायस्वामिना अदत्तास्तुग्रहणम्, यथा स्नेयेन पाद्रव्यग्रहणम् ७, 'अझन्धवत्तिए' अध्या' स्मैप्रत्यषिक: मनसि - अन्यथा चिन्तनम् -८ । 'माणवति' मानमाययिकजात्यादिगर्वमासाद्य परापमानम्, 'मित्तदोसवत्तिए' मित्रदोषप्रत्यायिकामित्रतप:१०, 'मायावत्तिए' माया प्रत्ययिफ:-परस्य वञ्चनम् ११ 'लोमातिए' लोमप्रत्ययिका-लोभकरण १२ 'इरियारदिए' इर्या पथिक:- पञ्च समिति गुमित्रयगुप्त:-सर्वोपयोगपूर्वकग़मनेऽरि सामान्यना कर्मबन्धो भवति १३, एने 'योदश क्रियास्थानानि, एमिरेव जीवस्य कपबन्धो भाति । एतव्यतिरिक्ता (६) नृपा प्रत्ययिक दंड --मिथ्या भाषण करके पाप करना। . • (७, अदत्तादान प्रत्ययिक--चोरी से पराई वस्तु लेना। (८) अध्यात्म प्रत्यायिक--मनमें अप्रशस्त चिन्तन करना। . (२) मानप्रत्यधिक-जाति आदि का गर्व करके दूसरों की अपमान करना। (१०) मित्र वेष प्रत्ययिक-मित्रों के साथ देष भाव धारण करना। (११) माया प्रत्ययिक-छल-कपट करके पाप करना। (१२) लोम प्रत्यायक-लोभ करना। (१३) ईपिधिक उपयोग पूर्वक गमन करने पर भी सामान्यतः कर्मबन्ध होना। . इन तेरह क्रियास्थानों से जीव को कर्मपन्न होता है। इनसे () મૃષા પ્રત્યથિક દંડ–મિથ્યા ભાષણ કરીને અર્થત અસચ બોલીને પાપ કરવું તે ... (७) महत्तहान प्रत्ययि:-यारी ४१२ पा२४ी थी सेवा. ., । (८) अध्यात्म प्रत्यय:-मनमi-मप्रशस्त तिन 3. . (6) भान प्रत्ययि-नि, विरेने ४शन भीतमा अ५માન કરવું (10) भित्रद्वे५ प्रत्ययिभित्र साये। . (११) भायात्य४ि--छ॥ ४५८ ४रीने ५।५ ४२७. . (१२) सास प्रत्याय--वन ४२-१. (१) पथि--6421 ४ गमन त्यसबा) ४६वा छन ५५ સામાન્ય પ્રણથી કર્મબંધ છે તે. આ તેર ક્રિયાથાનેથી છને કર્મબંધ થાય છે તેનાથી લિંક કઈ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयागोधिनी टीका शि.श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् न काचनाऽन्या क्रिया या हि कर्मबन्धकारिणी स्यात् । एष्वेव क्रियास्थानेषु सर्वे संसारिणो जीवाः सन्तीति मू०१। , मूलम्-पढमे दंडसमादाणे अट्ठादंडवत्तिए त्ति आहिजइ, से जहा णामए केइपुरिसे आयहेडं वा णाइहेउं वा आगारहे परिवारहेड वा मित्तहेडंवा णागहेडं वा भूतहेडंवा जक्खहेउं वा तं दंडं तसथावरेहिं पाणेहि सयमेव णिसिरिति, अण्णेग विणिसिरावेइ अण्णं पि णितिरंतं लमणुजागइ, एवं खलु तस्त तप्पत्तियं सावनंति आहिजइ, पढमे दंडसमादाणे अहादंडवत्तिए ति आहिए ॥सू० २॥१७॥ छाया-प्रथमं दण्डसमादानमर्थदण्डप्रत्ययिक मिस्याख्यायते । तद्यथा-नाम कश्चित् पुरुषः आत्महेतोर्वा ज्ञातिहेनोर्वा आगारहेतोर्वा परिवारहेतो मित्रतो नागहेतो भूतहेतो यक्षहेतोर्वा तं दण्ड सस्थावरेषु पाणेषु स्वयमेव निसृजति अन्येनापि निसर्जयति अन्यमपि निमनन्तं समनुननाति, एवं खलु तस्य तत्पत्ययिकं सावध माधीयते पथमं दण्डसमादानम् अर्थदण्डप्रत्ययिफमित्याख्यातम् ।।मू०२॥१७॥, ___टीका--'पढमे' प्रथमम् 'दंडसमादाणे दण्डसमादानम् -क्रियास्थान मयमं पापकरणस्थानम् 'अट्ठा दंडवत्तिए' अर्थदण्ड पत्ययिकम् 'त्ति' इति 'आहि अतिरिक्त कोई ऐसी क्रिया नहीं है जो कर्मबन्ध का कारण हो । संसार के समस्त जीव इन्हीं क्रियास्थानों में पत्तेमान हैं ॥१॥ (१) अर्थदंड क्रियास्थान ।' .. ... 'पढमे दंड समादाणे' इत्यादि। .. टीकार्थ-पहला दंड समादान अर्थात् क्रिया स्थान अर्थदंड प्रत्ययिक कहा गया है। दण्ड समादान का उद्देश और विमाग अर्थात् सामान्य એવી ક્રિયા નથી, કે જે કર્મબન્ધનું કારણું હેય, સંસારના સઘળા જીવો આજ ક્રિયા સ્થાનમાં રહેલા છે. આવા (१) Hies हियास्थान ___ 'पढमे दमादाणे' त्यादि ટીકાથ–પહેલે દંડ સમાદાન અર્થાત્ ક્રિયાકથન અર્થદંડ પ્રયિક કહેલ છે દંડ સમાદાનના ઉદ્દેશ અને વિભાગ અર્થાત સામાન્ય કથન અને स० २१ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १६२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ब्र्जइ' आख्या?ते, प्रथमसूत्रेण उद्देश विभाग दण्डसपादानस्य दर्शयित्वा द्वितीय सूत्रेण अर्थप्रत्ययिकदण्डसमादानस्य लक्षण स्वरूपं चोच्यते- 'पढ' इत्यादि । 'से जाणामए केहपुरिसे' तथा नाम कविपुरुवः, 'आयदेउ' वा' ज्ञातिहेतोर्वा, 'आगारहेउवा' आगार गृहं तद्धेतो 'परिगरहेउवा ' परिवारहेतोर्वा 'मित देउ' वा 'मित्रतो व 'नागदेउ' वा' नागहेतो व 'भूत देउवा" भूतहेतोर्चा 'जक्खहेउ' वा' यक्ष तोर्वा 'तं दंडं तस्थावरेहि पाणेहिं सयमेव णिसिरिति' तं दण्डं स्थावरपाणेषु स्वयमेव निसृजति - स्वयमेव प्राणदण्डदानात्मकं पापं करोति । 'यो त्रिणिसिरावेति' अन्येनाऽपि निर्जपति-परद्वारा प्राणाति पावात्मकं दण्डं कारयति 'अणं पि णिसितं समणुजाण' अन्यमपि निरजन्तम् - तादृशण्डं कुन्तिं समनुनानावि - अनुमोदते 'एवं खलु वस्न वप्पत्तियं' एवं खल्ल तस्य - अनुमोदन कत्तुः पुरुषस्य तत्पयिक- आत्मज्ञात्यादि हेनुकम् 'सानज्जैति आज्जिह'. सावयपाधीयते कृकारिताऽनृतामिः क्रियामि स्वस्य पुरुषस्य सावधन बन्धनं भवतीति । 'पढ' प्रथमम् 'दंडपमादाणे' दण्डमसा दानम् - पापकरणस्थानम् 'अझ 'दंडवत्तिए' अर्थदण्डपत्यधिकम् ति आहिए ! न और भेद प्रदर्शन करके अर्थदंड प्रत्ययिक क्रियास्थान का स्वरूप कहते हैं - कोई पुरुष अपने स्वयं के लिए, ज्ञानिजनो के लिए गृह कें लिए, परिवार के लिए मित्र के लिए, नाग भून या यक्ष के लिए त्रस और स्थावर प्राणियों की स्वयं हिंसा करता है, दूसरे से हिमा करवाता है, और हिंसा करने वालो की अनुमोदना करता है। इस प्रकार किसी प्रयोजन से स्वयं हिंसा करने, कराने और अनुमोदन करने से उस पुरुष को कर्मबन्ध होता है । यह अर्थदण्ड प्रत्ययिक प्रथम क्रियास्थान है । करवाता ताह र्य यह है कि अपने लिए या अपने मित्र अथवा परिवार आदि के लिए इस स्थावर जीवों का प्राणानिपात करता है, ‘ભેદ પ્રદર્શન કરીને અથ’દડ ક્રિયાસ્થાનનુ સ્વરૂપ કહે છે કેાઈ પુરૂષ પેાતાના भटे, घर भटे, परिवार भाटे, मित्रने भाटे, नाग, भूत, अथवा यक्ष, भाटे ત્રસ અને સ્થા૨ પ્રાણિયાની પાતે હિંસા કરે છે ખીજાથી હિંસા કરાવે છે, તથા હિંમા કરવ વ'ળાનુ અનુમેદન કરે છે. આ રીતે કોઇ પ્રત્યે જનથી ય હિંસા કરવા, કરાવવા અને અનુમેાદન કરવાથી તે પુરૂષને કર્મ બંધ થાય છે. આ અદડ પ્ર′′યિક પહેલુ ક્રિયાસ્થાન છે. તાત્પય એ છે કે--જે પેાતાને માટે અથા પેાતાનાં મિત્ર અથવા પેાતાના પરિવાર વિગેરે માટે ત્રસ સ્થાવર જીવાના પ્રાણુાતિપાત કરે છે, Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि शु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् १६३ इत्याख्यानम् । यः स्वार्थ पर र्थ वा पित्र-परिवागर्थ वा, सम्यारादिप्रागिनां प्राणातिपातान्मक दण्ड करोति कारयति वा अन्यं कुर्वन्त वा अनुमोदते तस्यपुरुपस्यार्थप्रत्यगिकं दण्डसमादानं निवास्थानं पापाय भवतीति प्रथममर्थदण्डप्रत्ययिक क्रियास्थानम् ।।५० २ । १७॥ 1 , मूलम्-अहावरे दोच्चे दंडसमादाणे अणठ्ठादंडवनिए त्ति आहिज्जइ, से जहाणामए केइपुरिसे जे इमे तसा पाणा भवति ते णो अच्चाए णो अजिणाए णो मंसाए णो सोणियाए एवं हिययाए पित्ताए वसाए पिच्छ!ए पुच्छाए वालाए सिंगाए विप्लाणाए दंताए दाढाए णहाए प्रहारुणिए अट्रीए अट्रिमंजाए, णो हिंसिसु मेत्ति णो हिंसिति मेत्ति णो हिंसि: संति मेत्ति को पुत्त पोसणाए णो पसुपोसणयाए णो ,अगारपरिवहणताए णो समणमाहणवत्तणा हेडं णो तस्स सरीरगस्त किंचि विपरियादित्ता भवइ, से हंता छेत्ता भेत्ता लुगइना विलंपइत्ता उद्दवइत्ता उज्झिउं' बाले वेरस्सः आभागी भवइ, अणटादंडे । से जहाणामए केइपुरिसे जे इमे थावरा पाणा भवति, तं जहा-इकडाइ वा कडिणाइ वा जंतुगाइ वा परगाइ वा मक्खिाइ वा तणाइ वा कुलाइ वा कुच्छगाइ वा पधगाइ वा पलालाइ वा, ते णो पुत्तपोसणाए णो पसुपोसणाए णो अगारपडिबूहणाए णो समणमाहणपोसणाए णो तस्त सरीरहैया करने वाले का अनुमोदन करता है, उसको अर्थदण्ड प्रत्ययिक क्रियास्थान होता है। यह प्रथम क्रिया स्थान हुआ ॥२॥ કરાવે છે અથવા કરવાવાળ નું અનુદા કરે છે, તેને અર્થદડ પ્રત્યયિક , ક્રિયાસ્થાન કહેવાય છેઆ પહેલું ક્રિયારથાન છે. રા Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RE सूर अनि सेना मेवा इना पिनास अभागी भवइ, Tre Hey ya मेजारिका दिरिति विममिवागणंसि वा माया पचवा पिनास अगणिकार्य मिनिअमेय अगणिवेन अपि अगणि निमिमा अण्डादंडे एवं खलु तस्स पनि दाणे अण्हादंड पनि निकदिए॥०३-१० Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका वि. शु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् निम्नति अन्येनाऽपि अग्निकार्य निसर्नयति अन्यमपि अग्निकाय निसृजन्तं समबुजानाति अनर्थदण्ड' । एवं च खलु तस्य तत्प्रत्ययिक सावधमाधीयते । द्वितीय दण्डसमादानम् अनर्थदण्डप्रत्ययिकमित्याख्यानम् ।पू०३८।। । टीका-प्रथम क्रिय स्थानम् अनर्थपत्पविकं प्रदर्शित सम्ाति-द्वितीय मनर्थदण्डपत्ययिक क्रियास्थानमाह-पः कश्चित् पुरुषः प्रयोजनं विनैव त्रप्स जीवान. हिंसति, तस्य द्वितीयं क्रियास्थानं पापकारणं भ-ति, अधुना सूत्रार्थों विलिख्यते-'महावरे' अथापरम् 'दोच्चे' द्वितीयम् 'दंडमादानम् (क्रिशस्थानम्) 'अणहा दंडवत्तिए', अनर्थदण्ड पत्ययिकम् - अनर्थदण्ड कारणम् ति पाहिज्नई इत्यारुपायते 'से नहाणामर' तयधानाम 'केइपुरिसे' कश्चित्पुरुषः 'जे. इमे तमा पाणा भवंति' ये इमे त्रस्यन्ति-शीतोष्णादिना उद्वेगं प्राप्नुस्मीति त्रमा:-जङ्गमाऽपरपर्याया भवन्ति । 'ते' तान-सान् जीन हिमतीति, पयो ननाऽमावं दर्शयति -'यो अच्चाए' नो अर्चाय-नो स्वकीयस्य परकीयम्य वा शरीरम्य रक्षणाय . . (२) अनर्थदण्ड प्रत्यधिक क्रियास्थान 'अहावरे दोच्चे दंडसमादाणे' इत्यादि। टीकार्थ-प्रथम अर्थदण्ड प्रत्ययिक क्रियास्थान कहकर अब दूसरा अनर्थदण्ड प्रत्ययिक क्रियास्थान कहते हैं--जो पुरुप विना ही किसी प्रयोजन के जीवों की हिंसा करता है, वह दूसरे क्रिपास्थान का भागी रोती है । अब सूत्र का अर्थ लिखते हैं - इसके अनन्तर दुसरा दण्ड समादान अर्थात् क्रियास्थान अनर्थदण्ड प्रत्ययिक है। वह इस प्रकार है--यह जो त्रस जीव हैं अर्थात् जो सऊ-गर्मी के कारण उदवेग को प्राप्त होते हैं और जिन्हें जंगम प्राणी कहते हैं, उनकी जो हिंसा करता है, किन्तु निष्प्रयोजन ही हिंसा (२) मन अत्ययि ठियास्थान , महावरे दोच्चे इसमादाणे' त्याहि . , ટીકાઈ–-પહેલું અર્થદંડ પ્રત્યયિક ક્રિયસ્થાન કહીને હવે બીજુ અર્થ દંડ પ્રચયિક ક્રિયાસ્થાન કહેવામાં આવે છે -જે પુરૂષ કોઈ પણ પ્રયોજન વગર જીવોની હિંસા કરે છે, તે બીજા દિયારથાનના અધિકારી બને છે __. . वे सूत्री म. प्रगट ४२ छ -' । । । આના પછી બીજે દંડસમાદાન–અર્થાત '' કિયાસ્થાન અનર્થદંડ પ્રત્યયિક છે તે આ પ્રમાણે છે –જે આ ત્રસ જીવે છે અર્થાત્ જેઓ સદી -ગરમીના કારણે ઉગ પામે છે, અને જેમને જંગમ પ્રાણી કહેવામાં આવે , તેમની જે હિંસા કરે છે, અને પ્રજન વગર જ હિંસા કરે છે, પિતાના Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ . सूत्रकृताङ्गात्रे संस्काराय वा 'णो पनिणाप नो अनिनाप-वर्गणे ‘णो मसाए' 'नो मांसाय गो, सोणियाए'नो शोणिताय 'एवं हिययाए' एवं हृदयाय- हपनिमितमपि न 'पित्ताए वसाए पिन्छाए पुच्छाए बाला!' एतावता मत्स्यदीनां वधः प्रोक्तः, पित्ताय, वसायै चींति प्रसिद्धाय, पिच्छाय-पक्षाय एतावता मयूगस्य हिंसा लोकसिद्धा प्रतीयते, एतदीयपिच्छेन संमानिनी निर्मायते, पुन्छाय-एतावता चारी गोर्वधः प्रोक्तः, तत्पुच्छेन चामरनिर्माणं भाति वालाय-के गाय, अजाऽऽविक प्रभृति लोमाता हिंपा प्रदर्शिता, 'सिंगाए विसाणाए दंनाए दाढाए णहाए हारु णिए अट्ठीए अट्टिमंजा' शृङ्गाय-हरिणादीनाम् विप.णाय, दन्ताय-हस्तिनो दष्टाये, नखाय-व्यत्रादीनाम्, स्नायवे, अस्थने, अस्थिमज्जाये ‘णो हिसिसु मेत्ति' नो अहिंसिपु ममेति-इमे मत्सम्बन्धिनम् अमारयन, एतदर्थं न तान् मारयति अपितु स्वमावादेव क्रीडन् वा मारयति पाणिजातम् णो हिंमिति मेति' फरता है; न अपने या दुमरे के शरीर के रक्षण या संस्कार के लिए, न चमडे के लिए, न मांस के लिए, न रुधिर के लिए, न कलेजे के लिए और न पित्त या वर्षी. पिच्छ या वालों के लिए हिंसा करता है, न सींगों के लिए, न विषाणों के लिए, न दातों के लिए, न दाढों के लिए, न नाखून के लिए, न स्नायु के लिए, न हड्डी के लिर, न मज्जा के लिए ही हिंसा करता है। यहां पिच्छ शब्द से मयूरका वधकहा है उसके पिछले वुहारी बनाए जाती है पुछ शब्द से चमरी गाय का वध कहा है क्यों कि उसकी पूंछ के बालों से चामर बनाए जाते हैं, पाल केश शब्द से भेडों एवं परियों का बध सूचित किया है, दाढ। शब्द से हाथी के वध की मुचना की है नग्व के लिए व्याघ्र आदि को हिंसा की जाती है। અથવા બીજાના શરીરના રક્ષણ અથવા સંસ્કાર માટે નહીં, તથા ન ચામડા માટે, ન માંસ માટે ન લે હી માટે, ન કાળજા માટે તથા ન પિત્ત, ચબી, પિચ્છ અથવા વાળ માટે હિંસા કરે છે. ન સી ગડા માટે ન પુછ માટે, ન દાને માટે ન દઢ માટે ન નખ માટે ને સ્નાયુઓ માટે ન હાડકાઓ માટે ન મજા માટે હિંસા કરે છે. • અહિંયાં પિચ્છ શબ્દથી મારનો વધ કહ્યો છે અને પુછ શબ્દથી ચમરી ગાયની હિંસા કહી છે. કેમકે–તેને પુછડાના વાળેથી ચામર બનાવવામાં આવે છે. વાળ કેશ શબ્દથી ઘેટાં અને બકરાંઓની હિ સા સૂચિત કરેલ છેદાઢા શબ્દથી હાથીના વધની સૂચના કરેલ છે, નખ માટે વાઘ વગેરેની હિંસા કરવામાં આવે છે. મેં તેમજ એવું માનીને હિંસા કરવામાં આવતી નથી, કે આ જીવે મ ર કે.ઈ સંબંધીને Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ instafaridar द्वि. श्रु. अ २ क्रियास्थाननिरूपणम् १६७ 2 ' - " नो दिमन्ति ममेति इमे मत्सम्बन्धिनं हिंसन्ति तदर्थे न तान् माख्यति' 'मो' हिंसिस्सतिमेत्ति' 'नो हिमिष्यन्ति ममेति-मत्संबन्धिनं हिसिष्यन्ति तदर्य न मारयतिः णो पुत्तपोसणाए' नो पुत्रपोषणायन वा पुत्रादीनां वृष्यर्थं मारयति, 'णो पपोसणाए' 'नो पशूनां चतुष्यदानां गवादीनां पोषणा 'णो आगारपरिवृणताएं' 'नं वा आगारपरिवृद्धये गृहस्य वृद्धयर्थम् 'जो समर्ण माहवत्तणा हे उं" नो श्रमंगमाहन वर्तनाहेतोः, श्रमणमहनाद्यर्थी वीन मारयति 'णो तस्स सरीरगस्स' नो तस्य शरीरस्य किचिपरिया दित्ता भव किञ्चिपरित्राणाय भवति न बालदन्त पिच्छाद्य मारयति - न' वा श्रवणादीनां पोपणाय न वा स्व शरीरव्य- हाराय, किन्तु प्रयोजनमन्वरेणैव' तान् हन्तीति । 'से' सः 'हंता' हन्ना-प्राणवियोग कर्त्ता 'छेता-छेइन कर्त्ता माणि नामिति सर्वत्र सम्बध्यते । 'भेना' भेत्ता - भेदनकर्ता 'लुपता' लुम्पयितापयित्वा पृथक् पृथक् कत विलुपता' विलुपयिता- विशेषरूपेग माणिनधर्मनेत्रादीनामुत्पादयिता 'उद्दइत्ता' उपद्रोयिता- उपद्रवकारी - बस्याना, 'उज्झिउँ' I # ! 1 f और न यह सोचकर हिंसा को जाता है कि इस जीव ने मेरे किसी सम्बन्धी को मारा था, या यह मारता है अथवा मारेगा, न पुत्र आदि के पोषण के लिए, न गाय आदि चौपायों के शेषण के लिए, 4 गृह की वृद्धि के लिए, नत्रण यागं के लिए मारता है, न शरीर निर्वाह के लिए मारता है, किन्तु चिनां प्रयोजन, कीडा करता हुआ या आदत के वशीभूत होकर जो हिंसा करता है, वह विवेकहीन प्राणी अनर्थदण्ड के पाप का भांगी होता है और मारे जाने वाले प्राणियों के साथ वर बांधता है । यही कहते हैं - यह निष्प्रयोजन हननं करनेवाला, छेदन - भेदन करने वाला, प्राणियों के अंगो को काटकर अलग-अलग करने वाला, चमडी या नेत्र आदि को निकालने वाला, મારે' છે. અથવા આ મારે છે, અથત્રા મારશે, ન પુત્ર વિગેરેના પેષણ માટે, ન ગાય વગેરે ચતુષ્પદ્રુ-ચાર પગવાળા જીવોના પેષણ માટે, ન ઘરની વૃદ્ધિ માટે ન શ્રમણુ અથવા બ્રાહ્મણ માટે મારે છે, ન શરીરના નિહુ માટે મારે છે, પરંતુ પ્રત્યેજન વગર જ ક્રીડા-રમત કરતાં કરતાં આદત-ટેવને વશ થઈને જે હિંસા કરે છે, તે વિવેક હીન પ્રાણી અનથ દંડના પાપને લેગવનાર બને છે. અને મારવામાં આવનારા પ્રાણિયા સાથે વેર ખાધે છે એજ કહે છે કે—આ પ્રત્યેાજન વગર હનન કરવાવાળા છેઇન —ભેદન કરવાવાળા પ્રાણિયાના અગેને કાપીને જુદા જુદા કરવા વાળા, ચામડી અથવા આખાને કાઢવાવાળા, ઉપદ્રવ કરનારા, અનર્થે દંડના કડવા Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ सूत्रकृताम्रसूत्रे उझिप - परि अर्थदण्डस्य कटुकलमिति विवेकमाकुर्वन्, 'बाले' 'वॉक:सदसद्विवेकविला जीवैः सह 'वेरस्१' वैरस्य 'आमागी भाइ' आमागी मात्रिसर्व भागी भवति 'अण्डादंडे' अनर्थदण्ड: निष्मयोजनदण्डः सः 'से जेहा नामए' तद्यथानाम 'केइ पुरिसे' कश्चित् पुरुषः 'जे इमे यारा पणा भवति' ये इमे स्थावराः माणाः पृथिव्यादयो भवन्ति 'तंज' तथा 'इक्काडाइना' इक्काडादि वनस्पतिविशेषस्येय संज्ञा, 'कडिगाड वा' कठिनादि व 'जंतुगाह वो" जन्तुकादि - ते वनस्पतिविशेः 'मोकवावा' मुस्तकादि व 'तणइ ' तृणादि व 'कुपाइ वा कुशादि व 'कुछगाइ वा' कुच्छकादि व 'पागाइ ना पत्रकादि of 'पलालाइ वा' पालादि त्र 'ते णो पुत्तपोसणार' ते नो पुत्रो णाय तांस्तान्पूर्वोपदर्शितस्थावर कावान् यान् हन्ति नो ने पुत्रपोषणाय पुत्रपदमुपलक्षणकं तेन सर्वेषां ज्ञातिपरिवराणां सग्रहः, 'णो पोसणाएं' नो पशुपपण 'णो आगारपरिवृडणार नो आगारपरिवृद्धये 'णो समणमाहण 1 ܐ، f उपद्रवकारी, अनर्थदंड के कटुकफल को न समझने वाला वह मन्दबुद्धि जीवों के साथ होने वाली शत्रुना का भागी होता है, निरर्थक ही बेर का भाजन घनता है । " और यह जो पृथिवी आदि स्थावर प्राणी है, जैसे इक्कड, कठिन तथा' जन्तुक नामक वनस्पतियां, मोथा, तृग, कुश, कुच्छरु, पर्यक, पलाल, इन वनस्पतियों का पुत्र का पोषण करने के लिए हनन नहीं करता है, 'यहां पुत्र शब्द उपलक्षग है, उससे सभी ज्ञानि-परिवार आदि का ग्रहण कर लेना चाहिए' न पशुमों का पोषण करने के लिए हनन करता है, ने घर को बढाने के लिए, न श्रमणमाहन के पोषण के लिए, न अपने शरीर की रक्षा के लिए हनन करता है, वह निष्प्र 1 ફળને ન સમજવા વાળા, તે મંદ બુદ્ધિવાળા જીવાની સાથે થનારા શત્રુ પશુાના ભ'ગીદાર બને છે. નિરક જ વેરને પાત્ર બને છે. म मा पृथ्वीय विगेरे स्थावर प्राथी छे, प्रेम-डि:-हिन -तथा भन्तु नामनी वनस्पतियो तथा भोथ', 'तृय, कुश, १२७५, ५०४, પક્ષાલ, આ વનસ્પતયેાનુ જેએ કુટુમ્બનુ પેષણ કરવા માટે હનન–વધ કરતા નથી, અહિયાં (કુટુંબ શબ્દથી સઘળા જ્ઞાતિ-પરિવાર વિગેરે સમજી देवा) न' 'शुभे ं पेष ४२ ननનં, શ્રમણુ કે મહનના પેષણુ માટે ન પેાતાના ४रे छे, न घर वधावा भटे, શરીરની રક્ષા માટે હનન Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका हि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् . १६९ पोसणाए नो श्रमणमाइनपोषणाय ‘णों तस्स सरीरगस्त' नो तस्य शरीरस्य किंचिविपरियाइत्ता मवंति' किश्चित् परित्राणाय भवन्ति 'से हतास इन्ता छेता-भेता -उपइसा-विलंपत्ता-उद्दबहत्ता' छेसा-छेदनकर्ता, 'भेत्ता' भेदनकर्ता, लुम्पयिता, विलुम्पयिता, उपद्रवयिता 'उज्झिउं वाले वेरस्स आमागी भवई उज्झित्य-विवेक परित्यज्य बालो-मन्दबुद्धिः वैरस्यामागी भवति-सर्वथा वैरस्य भागी भवती. त्यर्थः 'अणट्ठादंडे' :अयमनर्थदण्डः, पुनरप्याह-'से जहाणामप' तधयानामकः 'केइ-पुरिसे' कश्चित् पुरुषः 'कच्छसि वा-दहंसि वा उदगंसि वा-दवियंसि वावळयंसि वा-मंसि वा-गगणंसि वा' कन्छे वा-तृणपुजे, इदे वा, उदके वा -समुद्रनद्यादिषु, द्रव्ये वा, लये वा-नदीवेष्टितस्थले, ''मंमि वा गर्ने वा-आत. मसे वा-अन्धकारपूर्ण स्थाने, 'गहणे वा' गहने वा 'गहणावेदुग्गमि वा-वर्णसि वा वणविदुग्गंसि वा-पन्चमि वा-पपय विदुग्गसि वा गहनविदुर्गे वा, वने वा, वनविदुर्गे वा, पर्वते वा पर्वतविदुर्गे वा 'तणाई ऊपविय अपविय' तृणानि उत्सार्य उत्साय-उन्क्षिप्य उत्क्षिप 'सपमे र अाणिकायं णिपिरह' स्वयमे गाऽग्निकार्य योजन हनन करने वाला, छेदन करने वाला, भेदन करने वाला, 'काट कर पृथक्-पृथक् करने घाला, उखाड देने वाला उपद्रव करने वाला अज्ञानी व्यर्थ ही वैर का भागी होता है। इस प्रकार किसी प्रयोजन के विना हिंसा करना अनर्थदंड है। . और भी कहते हैं-कोई भी पुरुष कछार-नदी के तट पर, तालाय पर, जलाशय पर, नदी से वेरित स्थल पर, खड्डे में, अन्धकार पूर्ण, स्थान में, गहन में, गहनविदर्ग 'जहां जाना कठिन हो ऐसे गहन स्थान में, वन में, वनविदर्ग में, पर्वत पर पर्वत विदूर्ग पर तुम आदि. फैला-फैला कर स्वयं ही आग जलाना है, या दूसरे से आग जलवाना કરે છે એવા વિના પ્રજન હનન કરવાવાળા, છેદન કરવાવાળા, ભેદન કરવાવાળા, કટ કરીને પૃથફ પૃથક્ કરવાવાળા, ઉબાડવાવ ળ, ઉપદ્રવ કરશે વાળા અજ્ઞાની વ્યર્થ ફોગટ જ વેરને ભેગવનાર બને છે. આ રીતે કઈ - પણ પ્રજન વગર જ હિંસા કરવી તે અનર્થ દડ કહેવાય છે ; વિશેષ કહે છે–કઈ પણ પુરૂષ કછાર-નદીના કિનારા પર તલાવ પર જય શય પર નદીથી વીંટળાયેલા સ્થળ ૫, ખ ડ મા અંધારાવા સ્થાનમાં ગહનમા-ગહન વિદુર્ગ એટલે કે જ્યાં જવું મુશ્કેલ હોય એવા ગહન સ્થાન માં, વનમા, વનવિદમા પર્વત પર, પર્વત વિદુર્ગ પર તૃસ વિગેરે ફેલાવીને સ્વયં આગ લગાડે છે, અથવા બીજાની પાસે આગ લગાવે છે, सू० २२ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० -मत्रतासो निएजति, फरिमश्चिदपि - स्थाने तृणादिकमेकत्र कृस्वा. यटिं- प्रज्वाळयति । 'अण्णेण वि अगणिकायः णिसिरावेड' अन्येनाऽपि अग्निकार्य निमर्नयति-मज्वार लयति ।-'अण्णं पि अगणिकायं णिसिरंत समणुजाणइ, अणटा दंढे' अन्यमति अग्निकाय निसजस्तं समनुजानाति -अनुमोदते । अनर्धदण्डः । एवं खल, तरस पानिय सावज्जति अहिज्जए' एवं कुर्वतः खलु तस्य तत्वत्ययिकं सावद्यमारूपातम्, एतादृशपुपस्य सावधपणिघातात् सावधकर्मवन्यो भवति 'दोच्चे दंड: समादाणे अणहादंडवत्तिएत्ति आहिर' द्वितीय दण्डसमादानमनयदण्ड पत्यायिक माख्यातमिति ।मु०३-१८ मूलम्-अहावरे तच्चे दंडसमादाणे हिलादंडवत्तिएत्ति आहिज्जइ, से जहाणामए केइघुरिसे ममं वा ममि वा अन्नं वा अन्नि वा हिंसिसु वा हिंसंति वा हिंसिम्सति वा तं दंडं तसथावहि, पाणेहि सयमेव णिसिरइ, अण्णेणा वि णिसिरावेइ अन्नं पि णिसिरंतं समणु जाणइ हिंसादंडे, एवं खलु तस्त तप्पत्तियं सावज्जति आहिज्जइ, तच्चे दंडसमादाणे हिंसादंडात्तिए त्ति आहिए ॥सू० ४॥१९॥ ___ छाया-अथापरं तृतीयं दण्डसमादानं हि पाण्डसत्ययि हमित्यारुणयते, तद्यथा नाम कश्चिन् पुरुषः मां बा मदीयं वा अयं वा अन्यदीयं वा अहमिषु वा हिमन्ति वा हिसिष्यन्ति वा त दण्डं सम्यानचेषु प्राणेषु मायमेव निमृजनि अन्येनापि निस थिति अ य प निमनन्तं ममनु नानाति हिंपादण्ड । ए बल तस्य तत्पत्ययि सावधनित्याधोयते । तीयं दण्डपमानं हिमादण्डप्रत्ययिक मित्याख्यातम् । पू०४-१९॥ है या आग जलाने वाले का अनुमोदन करता है. उमको इसके निमित्त से पाप होता है अर्थात् इन्य प्रकार निरर्थक जीव वध करने से पाप कर्म का पन्ध होता है। यह अनर्थ प्रत्ययिक नामक दुसरा क्रियोस्थान है।३॥ અથવા અગ્નિ સળગાવવાવાળાને અનુમોદન-ઉત્તજન કરે છે, તેને એ નિમિત્તે પાપ થાય છે, અર્થાત્ આ રીતે નિરર્થક જીવ હિંસા કરવાથી પાપકર્મને બધ થાય છે. આ અનર્થ દંડ પ્રત્યયિક નામનું બીજું કિયાસ્થાન છે. શરૂ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टोका द्वि श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् .. १७१ 1 टीका-द्वितीय क्रिपाम्यान, निष्प तृतीयं क्रिस्थानमाह-अहावरे इत्यादि । अहावरे' अथापरम् सच्चे' 'तृतीयम्. दंडयमादाणे दण्डनमादानम् 'हिंसादंड तिर हिंपादण्डप्रत्ययिकम् 'ति अहिज्जई' इत्याख्यायते 'से जहां णामए तथानाम के पुरिसे' कश्चि पुरुष. 'बमं वा ममि वा' मां वा, मदी. यम्-मत्सम्बन्धिन को अन्न वा अनिता अन्य, वा, अन्यदीयम्-अन्यस्य सम्ब न्धि वा 'हिसिसु घा' 'अहिंसिधुवा 'हिति वा 'हिंसन्ति वा हिसिरसंति वा हिमिष्यति वा, एतादृशो हि पुरुषो मामिमे त्रसधाराः मारयन्ति मारपि प्यन्ति अमारयन् वा, अथवा मत्सम्बन्धिन मिति विचार्य हिंसकान् अहिंसंकान् वा जोवान् विनाशयति ।, 'त दंडं समथावरेहि' तं दण्डं तमस्थावरेषु 'पाणेहि' माणेषु-पाणिगु 'सय मेव' स्वयमेव 'णिविरई' निसजाति-दण्डं पायति, 'अण्गे णांवि णिसिरावेई' अन्येनापि निपर्नयति-अन्येनापि हिमां कारयति । 'अन्नंपि मिसिरंवं सरणु नागड' अन्नमपि निसनन्तं समनुजानाति-अनुमोदते, एतादृशः पुरुषः 'हिंसादडे' हिंसादंड:-हिसादण्ड:-हिसैव दण्डो यस्य स हिंसादण्ड:हिंसाकारको भवति । एवं खल्ल तस्स' एवं कुर्वतः खलु तस्य पुरुषस्य 'तप्पत्तिय (३) हिंसादण्ड प्रत्ययिक क्रियास्थान 'अहारे तच्चे' इत्यादि । . टीकार्थ-दूमरे क्रिया स्थान का निरूपण करके अब तीसरे हिंसा, दंड प्रत्याधिक क्रिवारपान का निरूपण करते हैं। वह इस प्रकार है-कोई पुरुष ऐसा सोचता है कि इस प्रागी न सुझको अथवा मेरे सम्बन्धी को, दूसरे को या दूसरे के सरसबी को मारा था या यह मारता है या मारेगा, और ऐसा सोच कर किसी त्रस अथवा स्थाधर जी की स्वय हिंसा करता है, दुलारे, से हिला करवाता है अथवा हिंसा करने वाले की अनुमोदन करता है, तो ऐसा करना हिसादंड कहलाता है। ऐसा (3) बसाई' प्रत्यय लियास्यान । 'महावरे, तच्चे' यानि , -मानत यास्थान- नि३५ शन हवे , alon . પ્રયવિક નામના કિયાસ્થાનનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે તે આ પ્રમાણે છે ઈ પુરૂષ એવું વિચારે કે-આ પ્રાણિએ મને અથવા માર, સંબધિને બીજાને અથવા બીજાના સ બ ધીને માર્યો હતો અથવા આ મારે છે. અથવામીરશે. અને એવું સમજીને કેઈ ત્રસ અથવા સ્થાવર જીવને અવયં વધ કરે. છે, બીજાની પાસે તેને વધ કરાવે છે, અથવા હિંસા કરવાવાળાને અનુમો1-समय मापे छ, मे ४२ डिसा उपाय छ, मेदु ४२३. Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ सूत्रकृताङ्गसत्रे तत्मत्ययिकं हिंसाप्रत्ययिक हिंसाकारकम् 'सावज्र्ज्जति आहिज्ज' सावधम्साधीयते 'तःचे' तृतीयम् 'दंडमनादणे' दण्डसमादानम् क्रियास्थानम् हिंसदिंडयत्तिए' हिंसादण्डमस्यग्रिकम् 'आहिए' अख्यातम्' कथितम् । बहवो हि पुरुषा एतादृशा भवन्ति ये 'यययं पुरुषो जीवन् विष्ठेत् तदा मां कदाचिद घातयिष्यति' इति मत्वा तं स्वयं निष्टनन्ति, अन्येन वा निसर्जयन्ति अथवा घ्नन्तमन्यं प्रेरयन्ति तेषां हिंसाकारणकः सावद्य कर्मबन्धो भवतीति सूत्रस्यामिमायः || सू० ४ ॥ १९ , ' मूलम् - अहावरे चउत्थे दंडसमादाणे अकमहादंडवत्तिए ति आहिज्जइ, से जहा णामए केइपुरिसे कच्छंसि वा जाव वणविदुग्गंति वा मियवत्तिए मियसंकप्पे मियंपणिहाणे मियवहाए गंता एए मियत्तिकाउं अन्नयरस्त मिय स्स वहाए उसुं आयामेत्ता पणं णिसिरेज्जा, से मियं वहिस्लामि त्तिकट्टु तित्तिरं वा वहगं वा चडगं वा लावगं वा कोयगं वा वा कवि वा कविजलं वा विधित्ता भवइ, इह खलु से अन्नस्स अट्ठाए अणं फुसइ अकम्हादंडे । से जहा णामए केइपुरिसे करने वाले पुरुष को हिंसा के निमित्त से पापकर्म का बन्ध होता है । यह तीसरा हिंसा प्रत्ययिक क्रियास्थान कहा गया है । * f 1 बहुत से पुरुष ऐसे होते हैं जो समझते हैं कि यदि यह जीव जीवित रहेगा तो कदाचित् मुझे मार डालेगा ऐसा समझकर वे उसे स्वयं ही मारदेते हैं या दूसरे द्वारा मरवा देते हैं अथवा मारने वाले का अनुमोदन करते हैं। ऐसे पुरुषो को हिंसाकारणक पापकर्म बंधता है । यह सूत्र का आशय है || ४ | 1 3 વાળા પુરૂષને Rsિ*સા નિર્મિત્ત પાપકર્મના મધ થાય છે. આ ત્રીજું હિંસા પ્રત્યયિક નામનું ક્રિયાસ્થાન કહેવામાં આવેલ છે धामनुष्या शेवा होय छे थे। मे समने हे 'है-ले भी, નાખશે. એવું સમજીને તે જીવ જીવતે રહેશે તા કદાચ મને મારી श्व॒य ं तेने भारी 'नायें' छे, अथवा मीलनाथी भरावी 'नाणे छे, अथवा મારવાવાળાને અનુમેદન-ઉત્તેજન આપે છે, એવા પુરૂષને હિઁ'સા કારણુક पायांना गंध थाय छे, म प्रमांचे सूत्रा लाव है, ॥४॥ 1 + ܐ }' - " Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ कियास्थाननिरूपणम् सालीणि वा वीहीणि वा कोदवाणि वा कंगूण वा परगाणि वा रालाणि वा णिलिज्जमाणे अन्नयरस्त तणस्त वहाए सत्थं णिसिरेज्जा, से सामगं तणगं कुमुदगं विहीऊतियं कल सुयं तणं छिदिस्सामि त्ति कटु सालिं वा वीहिं वा कोदवं वा कंगुं वा परगं वो रालयं वा छि दत्ता भवइ, इति खलु से अन्नस्त अटाए अन्नं फु सइ अकम्हादंडे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज आहिज्जइ, च उत्थे दंडसमादाणे अकम्हादंडवत्तिए आहिए ॥सू० ५॥२०॥ • छाया-अथापरं चतुर्थं दण्डमपादानम् अकस्माद्दण्डपत्ययिकमित्याख्यायते, तद्यथानाम कश्चि-पुरुा: कच्छे चा यावद् वनदुर्गे वा मृतवृत्तिका मृगसंकल्पः मृगप्रणिधानः मृगवे गय गन्ना एते मृगा इति कृपा अन्यतरस्य मृगस्य बधाय इपुगायाम्प खलु निःजे ।। स मृगं हनिष्पाभि इति कृपा नित्तिरं वा वत्तकं वा चटकं वा लावकं वा कपोतकं वा कहीं वा कपिचलं वा पापादयिता भवति । इह खलु सोऽपस्य अर्थाय अन्यं स्पृशति अकस्माद् दण्डः। तद्यथा नाम कश्चित्पुरुषः शालीन् वा श्रीहीन कोद्रवान् वा कइन् वा परकान् वा रालान् वा अपनयन् अन्यतरस्य तणस्य वधाय शस्त्रं नि सृजेत् स श्यामाकं तृगकं कुमु एकं वीट्युच्छ्रितं कलेनुर तृगं छेस्यामोति कृत्वा शालि वा ब्राहि वा क्रोद्रवं वा कणुं वा परकं वा रालं वा छेनुं भवति इति स खलु अयस्य. अर्थाय अन्यं स्पृशति अकस्माद् दण्ड: । एवं खलु तस्य तत्पत्ययिकं सावद्यम् आधीयते चतुर्थ दण्डसमादानम् अकस्माद्दण्ड पत्ययिकपाख्यातम् ॥मू०५-२०॥ " टोका-पूर्वसूत्रे तृतीयं हिंसाप्रयिक दण्डममादान करितं सम्प्रति चतर्थ मकस्माइंडपत्यायिक क्रियास्थानमाह-'अहावरे' इत्यादि । 'अहावरे' अथाऽपरम् ___-(४) अकस्मात्दंड क्रियास्थान " अहावरे चउत्थे' इत्यादि। टीकार्थ-तीसरा ..हिंसाप्रत्ययिकदंड, समादान कहा गया, अब चौधा अकस्मात् दंड प्रत्ययिक क्रियास्थान कहते हैं। कोई मृग बध की '; (४)ममात । यास्थान । 'महावरेः च उत्थे' त्या ... .. . '' Ast-त्रीले डिसा अत्ययि संमाहान र छ- ચોથે અકસ્માત્ દંડ પ્રત્યવિક ક્રિયાસ્થાન કહેવાય છે. કેઈ મૃગધની આજી Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ सूत्रता 'चउत्थे' चतुर्शम् 'देडममादाणे' दण्डसपादानम् 'अम्हा दंडात्तीर' अकस्मादृण्डप्रत्यधिकम् 'त्ति आहिजन' इत्याख्यायते । ‘से जहाणामए' तद्यथानाम 'केइपुरि से' कश्चित्पुरुषः 'कन्छमि वा जार बणविदुग्गंमि वा' कच्छे वा यावद्वनविदुर्गे वा यावत्पदेन हदे वा उदके वा द्रव्ये वा वळये वा गर्ने वा गहने वा गहनरिदुर्गे वा बने का व विदुर्गे वा पर्वते वा पर्वतविदुर्गे वा इत्येतेषां ग्रहणं भवति, करिम श्चनदी टेऽथवा यावत्कस्मिचिन्महारण्ये वा गत्या 'मयवत्ति' मृगवृत्तिकः-मृगस्य मारणात्मिका वृत्तिगजीविका व्यवहारो यरय स मृगवृत्तिका 'मियसंकप्पे' म सङ्कल्पा-मृगवविवारवान 'मियपणिहाण' मृगमणिधानः-मृग. वधध्यानवान् ‘मियवहाए' मृगवधायैत्र 'गंगा' गन्ता- वनं गतवान् । 'एए मित्ति' एते मृगा इति 'काउ' कृत्वा 'अन्नयरस नियस्त' अयतास्य गृगस्य 'वहाए' वधाय-मारणाय उमुआयामेत्ता' इपु-वाणम् आयाम्य धनुपि समारोप 'णिसिरेना निःसृजेद-प्रक्षिपेत् । ‘से मियं वहिस्सामि ति कटु' म हिंमा मृगं. वधिष्पामि, इति कृत्वा वाणं मक्षिपेन, परन्तु-शरो लक्ष्यमलभनाणः अन्नराले एव 'तित्तिरं वा-वट्टगं बा-चरगं वां-लावगं वा-कपोयगं वा-कविं वा-कविजलं वा आजीविका वाला पुरुष कछार में, तालाब में, जलाशय पर, नदीवेष्टिन प्रदेश में, खड्डे में, गहन (अटवी) में, गहन विदुर्ग में, वन में, वन विदुर्ग में, पर्वन पर पवनविदुर्ग पर किसी भी नदी तट या महारण्य आदि में जाकर मृग को मारने का संकल्प करता है, सृगबंध का ध्यान करता है, मृग का वध करने के लिए हो जाता है, वह 'ये मृग हे' ऐसा सोचकर किसी मृग का वध करने के लिए धनुष पर पाग चढाता है. और उसे छोड देना है । यद्यपि उस दिनक ने मृग का वध करने के विचार से वाण छोडा है, परन्तु वह वाण लक्ष पर न जाकर बीच, ही में तीतर, यतक, चाटक, लावा, कपोन, कपि या कर्मिजल को વિકાવાળા પુરૂષ કછારમાં, તળાવમાં જળાશયમાં, નદીવાળા પ્રવેશમાં, ખાડામાં ગહન જંગલમાં, ગહન વિદુર્ગમાં, વનમાં, વનવિદુર્ગમાં, પર્વત પર, પર્વ‘તના વિદુર્ગ પર, કહેવાનો હેતુ એ છે કે કોઈ પણ નદી કિનારે એથવા, મહા અરય વિગેરેમાં જઈને મૃગને મારવા માટે સંક૯પ-નિશ્ચય કરે છે, મૃગવનું ધ્યાન કરે છે, મૃગને વધ કરવા માટે જ તે “આ મૃગ છે એવો વિચાર કરીને કેઈ મૃગનો વધ કરવા માટે ધનુષ પર બાણ ચડાવે છે. અને તેને છેડી દે છે. પરંતુ તે બહુ લક્ષ્ય પર ન જતાં વચમાં જ તેતર બતક, ચટક, લક, કબૂતર, કપિ કે કપિંજલને લીધી દે છે, અને Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ समयार्थबोधिनो टोका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् -विधिता भवई तित्तिरम्-पक्षिविशेषम् चटक-का-कोत-कपि-.पिचलं वा देवयिता भवति । एषु अन्यतमस्य कस्यचिद घातो भवति । इह खलु से अनिस्स.. अहए' इह खल सः अन्यस्याऽर्थाय अण्ण' अन्यम् ‘फुमइ' स्पृशति,हिनस्तीत्यर्थः 'अम्हादंडे' अकस्माइण्डो भाति । अयं भावो-यत्र वधका बेध्यं लक्ष्मीकृत्यवांणः; मक्षियत, किन्तु लक्ष्यस्य वेधो न जात, परन्तु-तदन्यस्यैव वेधः 'अनाकृपाणी' न्यायेन 'काकतालीय न्यायेन या जांत इति-अपमकस्माइण्डोहि कथ्यते, अन्य स्याऽपि तदीयवाणेन मरणाद् घातकत्वं भवत्येव । पुनरप्याह-'से जहाणामए' तपथानाम 'केहपुरिसे' कश्चि पुरुषः कृषिवलः, सालीणि वा-बीहीणि वा-कोदवाणि वा' शालीन वा-ब्रीहीन वा क्रोद्रवान्' वा 'कंगणि वा-परगाणि वा सलाणि वा. कगून वा-परकान् वा रालान् वा-रते धान्यविवेपास्तान 'णिलिजमाणे, अपनयन् 'अन्नयरस्स तणस्प', अन्य सरस्थ तगम्य 'वहार' यधार-छे दाय सत्थंवींध देता है और इन में से किसी प्राणी का घात हो जाता है। इस प्रकार अन्य के वध लिए छोडा हुमा वाण अन्यका घात करता है तो यह अकस्मातदंड कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि हमारे ने किसी प्राणी को लक्ष्य करके वाण छोडा किन्तु उप पाणने लक्ष्य नहीं विधा, किन्तु दूभरा ही कोई प्राणी सिंध गया। इस प्रकार अजा कृराणी न्याय या काकतालीय न्याय, चरितार्थ हो गया । या अमानदंड कहलाता है। दूसरे का घात होने पर भी जिसके बाण से प्राणी मारागया है, व घातक तो है ही। . , और भी कहते हैं जैसे कोई किपान शाल ब्रीदि, को दर, कंगु, परग-राल, इन धान्यों का निदाण कर रहा है अर्थात इनके साथ તેમાથી કંઈ પ્રાણિને ઘાત-વધ થઈ જાય છે, આ રીતે બંને માટે છેલ - બાણ અન્યને મારે છે તે તેને અકસ્માત દંડ કહેવામાં આવે છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે-હત્યારાએ કઈ પ્રાણિને ઉદ્દેશીને બ શુ છે, પરંતુ લક્ષ્ય વિધાયું નહીં, પણ બજુ જ કઈ પ્રાણી વી ધાઈ ગયુ ,આ રીતે અજા કૃપાણી ન્યાય અથવા કાકાલિન્યાય ચરિતાર્થ થાય છે, તેને અકરમ – દંડ. કહેવાય છે. બીજાને વધ થવા છતાં પણ જેના બાણથી પ્રાણી કરાયું છે, તે હિ સકે તે ગણાય જ છે ! ' વિશેષમાં કહે છે કે–જેમ કેઈ ગેડુત ડાંગર વ્રીહિ કેદરા, કાગ, વિગેરે ધાન્ય નું નિદાની દવાનું કાર્ય કરી રહ્યો હોય, અર્થાત્ ધાન્યની સ થે ઉગેલા ઘાસને ઉખાડી રહ્યો હોય, તેણે કોઈ ઘાસને ઉખાડવી માટે શસ્ત્ર (બરપડી) ચલાવી હોય અને વિચાર્યું હોય કે હું શ્યામ, તૃણુ કુમુ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे 5 णिसिरेज्जा' शस्त्रं नि सृजेत् ' से सामगं वर्णगं कुमुदगं वीहिं उसियं कठे सूर्यof छिदिसानि चिकट्टु स पुरुषः श्यामाकं तृग कुमुदकं व्रतं कले सुकं गम् एते विशेः तानि छेत्स्यामीति कृत्वा 'साठवावी वाक वाकं वापर बाराल वा छिंदिता भाई' शालि वा वीहि वा कोद्रवं वा - कगुं वा परकं वा-२ - रालंना- छेतुं भवति, 'इति खल से अनहस अट्ठाय अन्नं फुसई' इति खलु सः अन्यस्य अर्थाऽन्यमेव स्पृशति - हिनस्ति; 'अम्हादंडे' अकस्मादृण्डो भवति । पिकः क्षेत्रात् स्वाभिमतत्रादीनां वर्धनाय अनभिमत-तृणादिकमपनेतु मिच्छन् तृणान्तरमपनेष्यामीति मनसि निधाय उत्तंगकर्तनाय शस्त्रं चालयति, परन्तु दृष्टिमान्यात् 'छेथाऽपेक्षया छेयस्यैवाऽन्यस्य कर्तनमभूदिति स . - अकस्माद्दद्दण्डो भवति । वस्तुतस्त्वत्र कृपिकस्य नासीन्मनोऽन्यस्य उगे हुए घास को उग्वाड रहा है । उपने किसी घामको उखडने के लिए शस्त्र (खुरपा ) चलाया और सोचा कि मैं ग्रामाक, तृग, कुपुदक, व्रीहि, कलेसुक आदि किसी घास को उखाड़ किन्तु घास के बदले शालि, व्रीहि, कोद्रव, कंगु, परग या रालय धान्य में ही शस्त्र लग जाता है और वह उखड जाना है। इस प्रकार वह घाम के बदले धान्य को ' उखड लेना है तो यह अकस्मात्दंड हुमा । ' } 1 तात्पर्य यह है कि कोई किसान अपने खेत में शालि आदि धान्य की वृद्धि के लिए अवांछनीय घाम फूल को उखाड़ देना चाहता है और उसको उखाड़ने के लिए शस्त्रका प्रयोग करता है, किन्तु दृष्टिदोष या असामानता के कारण वह शस्त्र वाम में न लगकर धा के पौधे में लग जाता है और धान्य का पौधा उखड जाता है। इन प्रकार जिसे उखडने का विचार किया था, वह न उखड कर धान् - ४४, विगेरे । मे धामने उडु, परंतु घासने से शश्री, श्रीही, કાદરા, કાંગ વગેરે ધાન્યમાં જ ખરપડી લાગી જાય, અને તે ધાન્યને છે. ઉખડી જાય, આ રીતે તે ઘસને ખલે ધાન્યને ઉખાડી લે છે, તે આ અકસ્માત્ દડે કહેાય છે " તાપય એ છે કે—કેાઈ ખેડુત પેાતાના ખેતરમાં શાલી-ડાંગર વિગેરે અનાજને વધારવા માટે વધારે-પડતા અનિચ્છનીય, ઘાસ-ને ઉખેડવા ઈચ્છે છે, અને તેને ઉખેડવા માટે શસ્ત્ર ચલાવે છે, પરંતુ દૃષ્ટ દષે અથવા અસાવધાનપણાને કારણે તે શસ્ર ઘાસમાં ન લાગતાં ધાન્યતા છે।ડમાં લાગી જાય, અને અનાજને છોડ ઉખડી જાય. આ રીતે જેને ઉખાડાના વિચાર Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थान निरूपणम् ce कर्त्तने, किन्तु अन्यस्यैव कर्त्तने तदिच्छा, तयापि दैवोपहतस्य कस्यचिदन्यस्य कर्त्तनं जातम् । ' एवं खलु तस्स वप्पत्तियं सावज्जं आहिज्ज एवं खलु तस्य तरप्रत्पथिकं सावद्य मांधीयते, एवं कुर्वतस्तस्य कृषिकस्य सावद्य कर्मबन्धो भवति । 'उत्थे दंडेसमादाणे' चतुर्थ दण्डसमादानम् ' अकम्दा दंड वत्तिए' अकस्मादण्ड- ' प्रत्ययिक्रम्: 'आहिए' आख्यातम् - कथितम् ॥०५ = २०|| ' मूलम् - अहावरे पंचमे दंडसमादाणे 'दिट्टिविपरियासिया T 1 1. 1 दंडवत्तिए ति आहिज्जइ, से जहा नामए केइ पुरिसे माईहिं वा पिईहि वा भाईहिं वा भगिणीहि वा भज्जाहिं वा पुतेहिं वा धूताहिं वा सुहाहिं वा सद्धिं संत्रसमाणे मित्ते अमित्तमेव मन्न माणे' मित्ते हयपुव्वे भवइ, दिट्टिविपरियासिया दंडे । से जहा णामए केइपुरिसे गामघायंसि वा नगरघायंसि वा खेडघायंसि वा कव्वडघायंसि वा मडंबघायंसि वा दोणमुहघायंसि वा पघायंसि वा आसमघायंसि वा सन्निवेसघायंसि वा निग्गे घास वा रायहाणिघायंसि वा अतेणं तेणमिति मन्नमाणे अतेणे हयपुत्रे भवइ दिट्टिविपरियासिया दंडे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जंति आहिजइ, पंचमे दंडसमादाणे दिट्ठविपरियासिया दंडवत्तिपत्ति आहिए | सू० ६ ॥ .1 } का पौधा उखड़ जाता है। यह अकस्मातुदंड है। इस प्रकार अकस्मात् दंड का सेवन करने वाले को उसके निमित्त से पापकर्म का यंत्र होना है । यह चौथादंड रमादान अर्थात् क्रियास्थान है, जो अकस्मात्दंडसमादान, कहा गया है ॥५॥ કર્યાં હતા, તે ન ઉખડતાં અનાજના છે!ડ ઉખડી જાય છે, તેને અકસ્માત્ ઇડ કહેવાય છે. આ તે અકસ્માત કંંડનું સેવન કરવાવાળાને તેના નિમિત્ત પાપકમના ખધ થાય છે. આ ચેાથેા દંડ, સમાદાન અર્થાત ક્રિયારૂં ન છે, જેને અકસ્માત્ દડ સમાદાન કહેવામાં આવે છે. ૫૫ * },,,''. सू० २३ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ - . छाया :- अथाऽपरं पञ्चमं दण्डसमादानं दृष्टिविपर्यासदण्डप्रत्ययिकमित्या रूपायते । तद्यथानाम कश्चित् पुरुषः मातृभित्र पितृभिर्वा भ्रातृभिर्वा भगिनी: सर्वा मार्यास पुर्वा हि स्नुपाभिर्वा सार्धं संवसन् मित्रममित्रमेव मन्यमानः मित्रं इतपूर्वो भवति दृष्टिविपर्यासदण्डः, तथथांनांम कोऽपि पुरुषो ग्रामघा वा नगरघावा, खेडयाते वा, कटघाते वा, मडम्वघाते वा द्रोण: " मुखघातेवा, पनघावा, आश्रमघाते वा, सन्निवेशघाते वा, निर्गमघाते वा, राजधानीघाते वा अस्तेनं स्तेनमिति मन्यमान अस्तेनं हतपूर्वो भवति दृष्टिविपदण्ड । एवं खलु तस्य तत्प्रत्ययिकं सावधमित्याधीयते पञ्चमं दण्डसमादानं दृष्टिविपर्यासदण्डप्रकिमित्याख्यातम् | ०६ = २१ ।। 1 टीका चतुर्थी क्रियास्थान निरूपितं, सम्मति पञ्चमं क्रियास्थानं दर्शयितुमाह- 'अहावरे' अथापरम् ' पंचमे' पञ्चम् 'दंडसमादाणे' दण्डसमादानं क्रियास्थानम् 'दिट्टिविपरिपासिया दंड रत्तिए ति महिज्जए' दृष्टिविपर्यासदण्डप्रत्ययिकमित्याख्यायते टे:- बुद्धेर्विपर्यांसोऽन्यथा भात्रः यथा शुक्तौ रजतमितिप्रत्ययः । वस्तुतोहि शुक्तिका तत्राऽऽहते, किन्तु चक्षुर्दोंपवलां तामज्ञात्वा तत्र रजतं प्रत्यभिजानद् भवति दृष्टिविपर्यासः । तमेत्र दृष्टिविपर्यासं सूत्रकारी दृष्टान्तद्वारा दर्शयति- से जहाणामर' इति, तद्यथानाम 'केसे' कश्चित्पुरुष', 'माईहिं सूत्रकृतसूत्रे (५) दृष्टि विपर्यासदंड "अहावरे पंचमें दंडसमांदाणे' इत्यादि । टीकार्थ - - चौथा क्रियास्थान कहा जा चुका । अब पांचवे क्रियास्थान का निरूपण करने के लिए कहते हैं- पांचवां क्रियस्थान दृष्टि विपर्यास प्रत्ययिक कहलाता है । दृष्टि अर्थात् बुद्धि के अन्यथाभाव को जैसे सीर को चांदी समझ लेने को दृष्टिविपर्यास कहते हैं। वास्तव में कहीं सीप पड़ी है, किन्तु नेत्रों के दोष के कारण उसे चॉदी जानना दृष्टि विपर्यास है । सूत्रकार द्वारा उसे प्रदर्शित करते हैं-जैसे (૫) દૃષ્ટ વિષયંસ ઈંડ 'अहावरे पंचमे समादाणे' इत्यादि ટીકા ચે શું ક્રિયાસ્થાન કહેવામાં આવી ગયુ. હવે પાંચમા ક્રિયાસ્થાનનું નિરૂપણ કરવા માટે સૂત્રકાર કથન કરે છે –પાંચમું ક્રિયાસ્થાન દૃષ્ટિ વિપર્યાસ પ્રત્યયિક કહેવાય છે દૃષ્ટિ અર્થાત્ બુદ્ધિા અન્યથા ભાવને -જેમ સીપને ચઢી સમજી લે તેને દૃષ્ટિ વિપુર્માંસ કહેવામાં આવે છે. વાસ્તવિક રીતે 'કયાંક છીપ પડી હાય તેને નેત્રના દોષથી ચાંઢી માની લેવી. તે દૃષ્ટિ વિપર્યાસ છે. સૂત્રકાર દૃષ્ટાન્ત દ્વારા તે સમજાવે છે-જેમ ‘ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयावधिनी टीका द्वि. थु. अ २ क्रियां स्थान निरूपणम् '१७३ 3 भगिणीहि वो भज्जादि वा' मातृभिर्वा पितृ बी-पिईहि वा माईहि मित्रभ्रातृमत्र निम-मार्यामित्र 'कुत्तेहि वाताव वा' पुत्रैर्वा दुहितृभि स्नुपामित्र 'सद्धि, संवसमाणे सार्ध संत्र समारभ्यस्तेन सह गृहादासं कुर्वन् पुरुषः 'मिचममित्त मेव मन्नमणे' मित्र स्वभावतः भ्रमित्रम् मन्यमानः- अवगच्छन् “मित्ते इयपुचे' मित्र देवपूर्व', 'वह' मंति 1 }: 1 bi " अयमाशय: - मावामित्रं पिता चेति, स्त्रभावात् त्रियं हितम् । कार्यकारणान्ये, भवन्ति हितबुद्धयः ॥ १ ॥ इत्युक्याऽनुभवेन च मात्रादयः स्वमारतो मित्राणि भवन्ति । परन्तु कश्चिदाशयदोपात - मित्रमेव अमित्रं जान्नू खभावतो मित्रमपि हन्ति । हन्यमानश्च न दृष्टिविसमतिक्रमति, पश्चात्स एव ज्ञातवन्तः पञ्चात्तापं करोति । एतादृशकोई पुरुष माता, पिता, भाई, भगिनी, स्त्री, पुत्र, कन्या और पुत्रवधूं के साथ निवास करता है । वह अपने स्वभावतः मित्र ( हितैषी) को शत्रु समझ बैठता और उसका घात कर डालता है । कहा भी है-" 'माता मित्रं पिता चेति' इत्यादि । माता मित्र और पिता, यह तीनों स्वभाव से ही हितकारी होते हैं । किन्तु अन्य लोग प्रयोजन विशेष से भी हिल करने के इच्छुक बन जाते हैं ॥ १ ॥ 3 " इस उक्ति के अनुसार माता-पिता आदि स्वभाव से ही । मित्र होते हैं, किन्तु कोई विचार के दोष से मित्र को ही शत्रु समझता हुआ उसका घात कर डालता है । यह उसका दृष्टि विपर्यास है। उसे जय वास्तविकता का पता चलता है तो पश्चात्ताप करना पडता अर्ध पु३ष भाता, पिता; लाई, डेन' खी, पुत्र, उन्या ने पुत्रवधूनी સાથે રહેતે હાય છે. તે પેાતાના સ્વાભાવિક મિત્ર-હિતેચ્છુને શત્રુ માનીલે अने' तेने!' वृध उरी नाथे छे, छुपा छे, 'माता मित्र' 'पिताचेति' इत्याहि भाता, मित्र, मने पिता मे स्वभावथी हित ४२वावाजी હોય છે, પરંતુ અન્ય લેાક પ્રત્યેાજન `વશાત્ 'હિત કરવાની બુદ્ધિવાળા 1 होय ॥ { આ કથન પ્રમાણે માતા, પિતા વિગેરે' સ્વભાવથી જ મિત્ર હૈાય છે. પરંતુ કેાઈ પુરૂષ પેાતાના વિચારના દ્વેષથી મિત્રને જ શત્રુ માનીને તેને ઘાત કરી નાખે છે, આ તેને દૃષ્ટિ વિસ છે. તેને જ્યારે વાસ્તવિક્તાની Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦ सूत्रकृताङ्गसू 1 11 स्थळे भित्र दिडिविपरियासियादंडे' भवति दृष्टिविपर्यादण्डः भवत्येवाऽयं दण्डो बुद्धिवैपरीत्यात् यथा दृष्टिविपर्ययात् मालायां सर्प इति-अवस्मिस्वयुद्धिरिति । उदाहरणान्तरमपि प्रदर्शयति-' से जहाणामए' वयवानाम 'केपुरिसे' कंचित्पुरुषः "गामघायंसि वा' ग्रामघाते वा 'नगरघायंसि वा' नगरघाते वा 'खेडद्यायंसि वा कन्नडघायंसि वा-मबघायंसि वा' खेटघाते वा, कर्वघाते वा, मवघाते वा है । ऐसी जगह दृष्टिविपर्यासदंड होता है। जैसे दृष्टि की विप रीतता के कारण माला में सर्प का भ्रम हो जाता है, अतद्रूपवस्तु तद् रूप प्रतीत होती है । दूसरा उदाहरण भी दिखलाते हैं जैसे कोई पुरुष ग्रामघात - वाड से वेष्टित प्रदेश को ग्राम कहते हैं उसका घान करने वाला ग्रामघातक है, आकरघात सुवर्ण एवं रत्नादिक की उत्पत्ति के स्थान को नष्ट करने वाला आकरघातक कहलाता है, नंगर घात - अष्टादश प्रकार के कर से रहित स्थान नगर कहलाता है उसका घात करने वाला नगरघातक है खेडघात - धूली प्राकार से वेष्टित स्थान को खेट कहते हैं उसका घात करने वाला खेडघातक है, कट- कुत्सित नगर को कर्बट कहते हैं उसका घात करने वाला घातक कहलाता है, महुंघात ढाई कोस तक जिसके बीच में कोई ग्राम न हो ऐसा स्थान मंडेय कहलाता है उसका घात करने वाला घात - 1 સમજણુ પડે છે, ત્યારે તેને પશ્ચાત્તાપ કરવા પડે છે. એવા સ્થળે દૃષ્ટિ વિપર્યાસ દંડ હોય છે. જેમ દૃષ્ટિના વિપરીત પશુાને કારણે માળામાં સા ભ્રમ થાય છે, અતરૂપ વસ્તુ તદ્રૂપ દેખાય છે. - हवे मी उद्या मतावे - ३षा (१) ग्राम घातવાડથી વી'ટાયેલા પ્રદેશને ગ્રામ-ગામ કહે છે, તેના ઘાત કરવાવાળા ગ્રામ ઘાતક કહેવાય છે. (૨) આકાર ઘાત-સેાના અને રત્નાની ઉત્ત્પત્તિના સ્થાનને ४२ हे छे, तेन नाश ४२वावाजाने भा२धात हे छे. (3) नगरભ્રાત–મઢાર પ્રકારના કર વિનાના સ્થાનને નગર કહેવાય છે. તેના ઘાત ४२नार नगरघात, ४त्रा (४) भेडघात-घूमना आगर-छोटथी युक्त સ્થાનને ખેટ કહે છે. તેના ઘાત કરવાવાળને ખેડઘાતક કહેવાય છે. (૫) કટઘ્રાત–કુત્સિત- નગરને ક°ટ કહે છે. તેના ઘાત કરવાવાળાને કટ ઘાતક કહેવાય છે. (૬), મર્ડબઘાત-અઢીગાઉ સુધીમાં જેની વચમાં ખીજું ગામ ન હાય, એવા સ્થાનને ” માઁખ કહેવાય છે. તેને ઘાત કરવાવાળાને મડબ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी ठीका द्वि श्र. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् .१८१ 'दोणमुहवायं स वा द्रोगा वघाते वा 'पट्टायपि स वा. पत्तनवाते वा 'आसमधासि वा' । आयमयाते वा 'संनिवे सघायंमि वा सनिवेशघाते वा, निग्गमघायंसि वा निर्गमघाते वा निर्गपो मार्गस्तस्य घाते वा, 'रायहाणि घायंसि वा' राजधानीघाते वा 'अतेणं तेगमितिमन्नमाणे वा' अस्तेनं स्तेनमिति मन्यमानः अतेणे हयपुग्धे' अस्तेनं हतपूरों भवति । राजधान्यादिघातविपये यो वस्तुतो घातकारी स तु कचिन्निर्गतः । यस्तु नरोद्घात स तत्र देवादोमडंष घातक कहलाता है, द्रोणमुखघात-जल स्थल मार्ग से युक्त स्थान को द्रोणमुख कहते हैं उसका घात करने वाला द्रोणमुखघातक है, पत्तनघार-समस्त वस्तुओं की प्राप्ति का स्थान को पत्तन कहते हैं उसका घात करने वाले को पत्तन घातक कहते हैं। निगमघात-अनेक वणिक जनों से बसा हुआ प्रदेश निगम कहलाता है उसका घात करने वाला निगम घातक कहलाता है, आश्रम घात तापस जनों के रहने को स्थान को आश्रम कहते हैं उसका घात करने वाला आश्रमघातक कहलाता है, सवाहघात-कृषीवलों द्वारा धान्य की रक्षा के लिए बनाया गया दुर्ग भूमिस्थान अथवा पर्वत की चोटी पर रहा हुआ जनाधिष्ठित स्थल विशेष या जिसमें यहां वहां से आकर मुसाफिर लोग निवास विश्राम करें ऐसा स्थल विशेष को संवाह कहते हैं उसका घात करने वाला संवाघातक कहलाता है, सन्निवेशघातजिसमें प्रधानतः सार्थवाह आदि रहे हों उमको सन्निवेश कहते हैं ઘાતક કહે છે. (૭) દ્રોણમુખઘાત-જળ અને સ્થળ માર્ગથી યુક્ત સ્થાનને દ્રોણમુખ કહે છે, તેને ઘાત કરવા વાળાને દ્રોણમુખઘાતક કહેવાય છે (૮) પત્તનઘાત-સઘળી વસ્તુઓની પ્રાપ્તિના સ્થાનને પત્તન કહેવાય છે. તેને ઘાત કરવાવાળા પત્તનઘાતક કહેવાય છે. (6) निरामघात-मने पाए नया पसेसा प्रशने निगम ४. વાય છે. તેને ઘાત કરવાવાળાને નિગમઘાતક કહેવાય છે (૧૦) આશ્રમઘાત -તાપસના રહેવાના રથનને આશ્રમ કહેવાય છે. તેને ઘાત કરવાવાળાને આશ્રમ ઘાતક કહેવાય છે (૧૧) સ વાહ ઘાત–ખેડુતો દ્વારા અનાજના રક્ષણ માટે બનાવવામાં આવેલ દુર્ગભૂમિસ્થાન, અથવા પર્વતના શિખર પર રહેલા મનુષ્યાના નિવાસ રૂ૫ સ્થળ વિશેષ અથવા જેમાં જયાં ત્યાંના મુસાફરો આવીને નિવાસ કરે એવા સ્થળ વિશેષને સંવાહ કહે છે, તેને ઘાત કરવાपाणाने सपा धात: आय छ (१२) -सन्निवेश 'धात-भुस्य "शत વેપારિયે રહેતા હોય તેવા સ્થળ વિશેષને સન્નિવેશ કહે છે, તેને ઘાત કરનારને સન્નિવેશ ઘાતક કહે છે. અથવા રાજધાનીના ઘાતના સમયે જે Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :१८२ सूत्रकता गतः तमेवाऽऽतं चौरोऽय मेवेति मन्यमानो राजपुरुषादि इन्तीति भवति दृष्टि विपर्याप्तदण्डः । 'एवं खलु तस्स एवं ग्रल सा तप्पति तत्प्रत्ययिकम-दृष्टि विपर्यासदण्ड निमित्तं सास्य कर्मोपजायते। सावमित्यांधी यने । तदिदम् 'पंचमे' पश्चमम् 'दंडवमाणे दण्ड समादानं क्रियास्थानम् 'दिद्विविपरिया सियादंडवत्ति एत्ति आहिए' दृष्टिविपर्यासपत्ययिकामाख्यानम्, दृष्टिविपर्यासकारणकं पञ्च क्रियास्थानमिति कथितम् ।।०६-२१॥ . . . . . मूलम्-अहावरे छटे किरिघटाणे मोसावत्तिएत्ति आहिज्जद से जहाणामए केइपुरिले आयहेडं वा जाइहेडं वा अगारहेडं वा परिवारहेडं वा सयभेव मुसं बयइ अण्णण वि मुमं वयंत पि अण्णं समणुजाणइ, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जति आहिज्जइ, छटे किरियटाणे मोसावत्तिएत्ति आहिए ॥सू०७।२२॥ ___ छाया-आथाऽपरं पष्ठं क्रियास्थानं मिथ्यापत्यविकमित्याख्यायते । यया नाम कश्चित् पुमपः आत्महतो वी, ज्ञाति देतो वा, अगारहे नोर्वा, परिवारहेतो वो, स्वयमेव मृपा बदति अन्येनाऽपि मृपावादयति मृपावदन्तमन्यं सम. जानाति एवं खलु तस्य तत्मत्ययिक सावद्य मित्याधीयते पष्ठं क्रियास्थानं मृपावादमत्ययिकमित्याख्यातम् । उसका घात करने वाला सन्निवेश घातक कहलाता है, अथवा राजधानी के घात के समय जो चोर नहीं है उसे चोर मानकर मार डालता है अर्थात राजधानी आदि के घाल के विषय में वास्तव में जो घातकारी हे वह तो कहीं भाग निकला ओर जिमने घान नहीं किया था दैववश वह कहीं से वहां आ पहुचा, 'राजपुरुप उसको ही चोर समझ कर दंड देते हैं तो यह दृष्टि विपर्यास दंड है । दृष्टि विपर्यास से दंड देने वाले को उसके निमित्त से पाप कर्म का बंध होता है। यह पांचा दृष्टिविपर्यासदंड नामक क्रिया स्थान है ॥६॥ ચાર ન હોય તેને ચેર માનીને મારી નાખે છે. અર્થાત્ ૨ જવાની વિગેરેના ઘાતના સંબંધમાં વાસ્તવિક રીતે જે ઘાત કરનાર હોય, તે કયાંય ભ ગી ગયેલ હોય, અને જેણે ઘાત ન કર્યો હોય અને દૈવવશાત્ તે કયાંયથી ત્યાં આવી ગયેલ હૈય રાજપુરૂષો તેને જ ચેર માનીને દંડ આપે છે, તે તેને દિષ્ટિવિપર્યાય દંડ કહેવાય છે, દૃષ્ટિના વિપર્યાસથી દંડ દેવાવાળાને તેના નિમિત્તે પાપકર્મને બંધ થાય છે. આ રીતે આ દૃષ્ટિ વિપક્ષ દંડ નામનું पांच लियास्थान छ. . , Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका हि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् टीकापश्चमक्रियास्थाननिरूपणानन्तरं षष्ठं-क्रियास्थानं निरूपयति-'अहाँवरे' अथाऽपरम् 'छट्टे' पष्ठम् 'किरियहाणे' क्रियास्थानम् 'मोसावत्तिए' .. मिथ्यारस्ययिकम्-मिथ्यावादनिमित्त कम्: 'त्ति आहिज्जई' इत्याख्यायते, असत्यभाषण मेव मिथ्या, मिथ्या प्रत्ययः-कारण, यस्प तत्-मिथ्यापत्पयिक क्रियास्थान मित्याभिधीयते । मिथ्याप्रत्ययिकस्वरूपं दर्शयति- से, जहाणामए', तद्यथानाम 'केइपुरिसे' कश्चित्पुरुषः 'आयहेवा' आत्महेतोर्वा-आत्मकारणार्थम् ‘णाइदेउ वा" ज्ञातिहेतो ,'आगारहेउ वा' आगारं गृहं तनिमित्तकम् 'परिवारहे उ वा' परिवारहेतो-परिवृत्य परिर्वतो वा तिष्ठन्तीति परिवाराः-पुत्र-कलत्र-भृत्यचतुष्पदादयः तेषां कृते । 'सयमेव' स्वयमेव 'मु' मृवा बदनि, अपत्यगिरं संगिरते। अथवा- 'अण्णेण वि मुसंवाए। अन्येनाविमृपा वादयति, अथ 'मुपंवदंतं पि अण्णं समणु नाणइ' मृगावदन्तम्-प्रप्तत भाषमाण मन्यं समनुबानानि-तदनुमोदते। एवं खलु तस्स' एवं खलु तस्य 'तप्पत्तिय' तत्प्रत्ययिकम् 'सावनंति' सवय निन्दित (६) मृषा प्रत्ययिक क्रियास्थान 'अहावरे छठे किरियट्ठाणे' इत्यादि । टीकार्थ-अघ छठे क्रियास्थान का निरूपण करते हैं। वह इस प्रकार है-छठा क्रियास्थान मृषावाद के निमित्त से होता है, अतएव वह मृपावाद प्रत्ययिक कहलाता है। उसका स्वरूप इस प्रकार है -कोई पुरुष अपने लिए, ज्ञाति जनों के लिए, गृह के निमित्त, परिवार अर्थात् पुत्र कलत्र भृत्य चौपाये आदि के निमित्त स्वयं असत्य भाषण करता है दूसरे से मिथ्याभाषण करवाता है अथवा मिथ्याभाषण करने वाले का अनुमोदन करता है तो ऐसा करने से उसे मिथ्या. ' ' (६) भृपा प्रत्यय यास्थान ___'अहावरे छट्टे किरियटाणे' या | ટીકાર્થ–પાંચમું ક્રિયાસ્થાન કહ્યા પછી હવે આ છઠ્ઠા કિયાસ્થાનનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે તે આ પ્રમાણે છે.-છઠ્ઠા ફિયાસ્થાન મૃષાવાદના નિમિત્તથી થાય છે તેથી જ તે મૃષાવાદ પ્રત્યયિક કહેવાય છે. તે આ પ્રમ ણે છે-કેઈ પુરૂષ પિતાને માટે, જ્ઞાતિજને માટે, ઘર માટે, પરિવાર અર્થાત પુત્ર, કલત્ર, નેકર, ખાટલા વિગેરેના નિમિત્તે પિતે અસત્ય બોલે છે, બીજા પાસે અસત્ય વચન બેલાવે છે, અથવા મિયા ભાષણ કરવાવાળાનું Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ - समतासूत्रे कर्म 'अहिज्जाइ' आधीयते--समुत्पद्यते इति छठे किरियाठाणे' पाठं क्रियास्यानं 'मोसावत्तिए' मपामत्ययिकम् 'त्ति आदिए' इत्याख्यातम् यो हि पुरुष स्वात्मार्थ वा. परिवारगृहाद्यर्थ वा स्वयमसत्य मापणं करोति, अन्यान् कारयति कुन्तं वाय मनुमोदते-तस्य पुरुषस्य मृपावादननितमाचं कर्म भवति । पूर्व पञ्चक्रियास्था नानि कथितानि, तेषु प्रायः सर्वत्र, साक्षात्परम्मरयावाऽधि का न्यूना वा हिमा, __ भवत्येव । अतस्तेषु दण्ड पमादानमिति संज्ञा कृता-पाटादेरारभ्य समाप्ति पर्यन्तं प्रायः माणिवधो न भवति-नो दण्डममादानमिति नाम विहाय क्रिया: स्थानशब्देनै। उद' ह मिति |मू०७.२२॥ भाषण हेतुक पाप कर्म का पन्ध होता है। यही भृपाप्रत्ययिक छठा क्रियास्थान कहलाता है। ____तात्पर्य यह है कि जो पुरुष अपने लिए या अपने परिवार आदि के लिए स्वयं असत्य भाषण करता है, दूसरों से असत्य भाषण करवाता है या असत्य भाषण का अनुमोदन करता है, उसे मृषावाद जनित पापकर्म होता है। . इससे पहले जो पाँच क्रियाधान कहे गए हैं, उन सप में साक्षात् अथवा परम्परा से अधिक या कम हिंसा होती है, अतएव उन्हें 'दंड, समादान' संज्ञा दी गई है। छटे से लेकर तेरहवें तक जो स्थान कहे जाने वाले हैं, उनमें प्राय: प्राणवध नहीं होना है, अत: उन्हें दंडममा. दान संज्ञा न देकर क्रिया स्थान' शब्द से ही कहा गया है ।।७। . અનમેદન કરે છે. તે તેમ કરવાથી તેને મિથ્યા ભાષણના કાણે પાપકર્મને બંધ થાય છે. એજ મૃષા પ્રત્યાયિક નામનું છઠું ક્રિયાસ્થાન કહેવાય છે. . તાત્પર્ય એ છે કે–જે પુરૂષ પિતાને માટે અથવા પોતાના પરિવાર વિગેરે માટે સ્વયં અસત્ય વચન બેલે છે, બીજાઓને અસત્ય વચન બેલા છે, અથવા અસત્ય બોલવાવાળાનું અનુમોદન કરે છે, તેને મૃષાવાદથી થવા વાળું પાપકર્મ લાગે છે. * આનાથી પહેલાં પાંચ ક્રિથાસ્થાને કહેવામાં આવ્યા છે. એ બધામાં સાક્ષાત અથ પરંપરાથી વધારે અથવા ઓછી હિંસા હોય જ છે, તેથી જ તેને “દંડ સમાજ નું સત્તા આપવામાં આવી છે. છઠ્ઠ થી આરંભીને તેરમા સ્થાન સુધી જે તે કહે માં આવનારા છે, તેમાં પ્રાયઃ પ્રાણવધ હેતે નથી તેથી તેને “દંડસમાદાન' સંજ્ઞા ન આપતાં “ફિયાસ્થાન” શબ્દથી જ ४९ छे.' 111 Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्थधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थान निरूपणम् मूलम् - अहावरे सत्तमे किरियट्टाणे अदिन्नादाणवत्तिएत्ति 'आहिज्जइ, से जहाणामए केइपुरिसे आयहेउं वा जाव परिवारहेडं वा सयमेव अदिन्नं आदियइ अन्नेणं वि अदिन्नं आदियावेति अदिन्नं आदियंतं अन्नं समणुजाणइ, एवं खलु तस्त तप्पत्तियं सावज्जति आहिज्जइ, सत्तमे किरियाणे अदिन्नादाणवत्तिएत्ति आहिए ॥ सू०८||२३|| · छाया -- अथाऽपरं सप्तमं क्रियास्थानमदत्तादानमत्ययिकमित्याख्यायते । तद्यथानाम कचिपुरुषः आत्महेतो व यावत् परिवारहेतो व स्वयमेव अदत्तमाददाति अन्येनाऽपि अदत्तमादापयति, अदत्तमाददानमन्यं समनुजानाति, एवं खल तस्य तत्मस्ययिकं सावद्यमित्याचीयते सप्तमं क्रियास्थानमदत्तादानमत्ययिक'मियाख्यातम् ||८||२३|| १८५ + टीका - पष्ठं क्रियास्थानं दर्शयित्वा सप्तमं दर्शयितुमाह- 'अहावरे' अथापरम् 'सत्तमे' सप्तमम् ' किरियद्वाणे' क्रियास्थानम् 'अदिन्नादाणवत्तिए' अदत्तादानप्रत्ययिकम्, अदत्तस्याऽऽदानं - ग्रहणं तदेव प्रत्ययः - कारणं यस्य तत्तथा, 'तिमा हिज्ज' इत्याख्यायते ' से जहाणामए' तद्यथानाम 'केइ पुरि से' कश्चित्पुरुप: 'आयदेउ' वा' आत्महेतो व 'जाव' यावद - यावत्पदेन ज्ञात्यगारयोर्ग्रहणम्, 'परिवारहेड' वा' परिवार देतो व 'सयमेव ' स्वयमेव ' अदिन्नं आदिय३' अदत्त 1 (७) अदत्तादान प्रत्ययिक क्रियास्थान 'अहावरे सत्तमे किरियट्टाणे' इत्यादि । टीकार्थ - छठा क्रियास्थान दिखलाकर सातवां क्रियास्थान दिखलाते है - सातवां क्रियास्थान अदत्तादान प्रत्ययिक कहलाता है। उसका स्वरूप इस प्रकार है - कोई पुरुष अपने निमित्त अथवा यावत् परिवार के निमित्त स्वयं ही अदत्त को ग्रहण करता है अर्थात् धन के स्वाभी से याचना (७) अदृत्ताहान अत्ययि नियास्थान 'अरे सत्तमे रिट्ठाणे' इत्यादि ટીકા”—છટ્ઠું· ક્રિયા સ્થાન કહીને હવે સાતમુ ક્રિયાસ્થાન અતાવવામાં આવે છે --સાતમુ' ક્રિયાસ્થાન અદત્તાદાન પ્રત્યયિક કહેવાય છે. તેનુ સ્વરૂપ આ પ્રમ ણે છે. કોઈ પુરૂષ પેાતાના નિમિત્તે અથવા યાવતુ પરિવારને નિમિત્તે પેાતે જ અન્નત્ત (માલિકે આપ્યા વગરનું) ગ્રહણ કરે છે. અર્થાત્ ધના માલિક सू० २४ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकार माऽददाति, यस्य यद्धनम् अयाचित्वैव तस्य धनग्रहणमदनादानं चौर्येण परकीय. द्रक्ष्यगद्दणमिति यावत् । अथवा-'अन्नेण वि अदिन्नं आदियावेई' अन्येनाऽपिअदत्तं धनम् आदापयति-परिग्राहयति । 'अदिन्नं आदियंत अन्नं समणुजाणई' अदत्तं धनमाददानम्-गृहन्तमन्यं समनुजानाति अनुमोदते । 'एवं खलु तस्स' एवं खलु कुर्वत स्तस्य पुरुषस्य 'तप्पत्तिय' तत्सत्ययिक-तनिमित्तम् अदत्तादान फारणकम् 'सावज्जति आहिज्जई' सावद्यम्-अशुभकर्मत्याधीयते-समुत्पते । 'सत्तमे' सप्तमम् 'किरियट्ठाणे' क्रियास्थानम् 'यदिन्नादाणवत्तिए' अदत्तादानप्रत्ययिकम् । 'त्ति आहिए' इत्याख्यातम् । अयं भावः अन्यस्वामिकमस्वामिक वा धनं स्वार्थ परार्थ वाऽऽददानोऽन्येनाऽपि आदापयन् आददानमनुमोदयंब, अदत्ता. दानजनितकर्मणा वध्यते, इति सप्तममदत्तादाननामकं क्रियास्थानम् ॥सू० ८॥२३॥ - मूलम्-अहावरे अट्रमे किरियट्राणे अज्झत्थवत्तिए त्ति 'आहिज्जइ, से जहा णामए केइपुरिसे णस्थि णं केइ किंधि किये बिना ही उसके धन को चोरी से ग्रहण कर लेता है, अथवा दूसरे से अदत्त धन को ग्रहण करवाता है अथवा अदत्त ग्रहण करने वाले . का अनुमोदन करता है, उस पुरुप को अदत्तादान के निमित्त से पाप कर्म का पन्ध होता है। यह अदत्तादान प्रत्यय क्रियास्थान कहा गया है। । तात्पर्य यह कि जिस धन का स्वामी कोई दूसरा हो या कोई भी स्वामी न हो, ऐसे धन को अपने लिए या दूसरों के लिए या स्वयं ग्रहण करने वाला, दूसरों से ग्रहण करवाने वाला और ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करने वाला अदत्तादान जनित कर्म से बद्ध होता है। यह अदत्तादान प्रत्यय नामक क्रिपास्थान है ॥८॥ • પાંસે યાચના કર્યા વિના જ તેના ધનને ચોરીથી ગ્રહણ કરી લે છે, અથવા : બીજાની પાસેથી અદત્તને ગ્રહણ કરાવે છે, અથવા અદત્તનું ગ્રહણ કરવાવા, નાનું અનુમોદન કરે છે. તે પુરૂષને અદત્તાદાનના નિમિત્તે પાપકર્મને બંધ થાય છે. આ અદત્તાદાન પ્રત્યય કિશાસ્થ ન કહેવામાં આવે છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે--જે ધનને સ્વામી કેઈ બીજે હોય અથવા કઈ પણ માલીક ન હોય, એવા ધનને પિતાના માટે અથવા બીજાના માટે અથવા રવયે ગ્રહણ કરવાવાળો, બીજા પાસે ગ્રહણ કરાવવા વાળા અને ગ્રહણ કરવાવાળાને અનુમોદન કરવાવાળા અદત્તાદાનથી થવાવાળા કર્મથી બંધાય છે. આ અદત્તાદાન પ્રત્યય નામનું ફિયાસ્થાન છે દ્રા, Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् ८७ विसंवादेति सयमेव हीणे दीणे दुटे दुम्मणे ओहयमणसंकप्पे चितासोगसागरसंपविढे करयलपल्हत्थमुहे अदृज्झाणोवगए भूमिगयदिटिए झियायइ, तस्स णं अज्झत्थया आसंसइया चत्तारि ठाणा एव माहिज्जंति, तं जहा-कोहे माणे माया लोहे अज्झत्थमेव कोहमाणमायालोहे, एवं खलु तस्त तप्पत्तियं सावज्जंति आहिज्जइ, अट्टमे किरियटाणे अज्झत्थवत्तिएत्ति आहिए ॥सू०९॥२४॥ छाया-अथाऽपरमष्टमं क्रियास्थानम् अध्यात्ममत्ययिकम् इत्याख्यायते। तथानाम कश्चित्पुरुषः नास्ति खलु कोऽपि किश्चिदविसम्पादयिता इति स्वयमेव हीनो दीनो दुष्टो दुर्मनाः अहतमनःसंकल्पः चिन्ताशोकसागरसंपविष्ट करतलपर्यस्तमुखः आर्तध्यानोपगतः भूमिगतदृष्टिः ध्यायति । तस्य खल्वाऽऽध्यात्मिकानि आसंशयितानि चत्वारि स्थानानि एवख्यायन्ते, तद्यथा-क्रोधो मानं माया लोभः, अध्यात्मिका एव क्रोधमानमायालोमाः । एवं खलु तस्य तत्प त्ययिकं सावध मित्याधीयते। अष्टमं क्रियास्थानम् अध्यात्मप्रत्ययिकमित्याख्यातम् ॥९० ९॥२४॥ टीका-सम्पति-अप्टमं क्रियास्थानमाह-'अहावरे' अथापरम् 'अट्टमे' अष्टमम् 'किरियट्ठाणे' क्रियास्थानम् 'अज्झत्यात्तिए' अध्यात्ममत्ययिकम्मात्मानमधिकृत्य प्रवत्तते- इत्यध्यात्मम् , तत्र क्रोधादिनिमितकम् 'त्ति आहिजई' - (८) अध्यात्म प्रत्ययिक क्रियास्थान 'अहावरे अट्टमे किरियडाणे' इत्यादि । टीकार्थ-आठवां क्रियास्थान अध्यात्मप्रत्ययिक कहलाता है। आत्मा के आश्रित जो हो सो आध्यात्म है । तात्पर्य यह है कि यह क्रियास्थान क्रोध आदि के निमित्त से होता है। इसका स्वरूप इस (૮) અધ્યાત્મપ્રત્યયિક કિયાસ્થાન 'अहावरे अढमे किरियाणे' त्या ટીકાર્થ-આઠમું કિયાસ્થાન અધ્યાત્મ પ્રત્યધિક કહેવાય છે. આત્માના આશ્રયથી જે હોય તે અધ્યાત્મ છે. તાત્પર્ય એ છે કે આ ક્રિય રથાન ક્રોધ વિગેરેના નિમિત્તથી હોય છે. તેનું સ્વરૂપ આ પ્રમાણે છે.—કોઈ પુરૂષ એ " Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकृताङ्गले इत्याख्यायते । 'से जहाणामए' तपथानाम 'केहपुरिसे' कवित्पुरुषः 'रियणं किंचि विसंवादेई' नास्ति खलु किश्चिद् विसंवादयिता-ईपदपि क्लेशकारका, इति, तथापि 'सयमेव स्वयमेव 'होणे-दीणे-तुट्टे-दुम्मणे' हीनो दीनो दुष्टः दुर्मनाः तत्र हीनो-निन्दितप्रकृतिकः, दीन:-शोकग्राही, दुष्टः-दोपयुक्तः। दर्मनाः-दुःखितमिव मनो विद्यते यस्य स दुर्मना:-उद्विग्नचित्तः 'ओहयमणसंकप्पे' अपहतमनासंकल्प:-अपहतो विनष्ट इव विद्य ते मनसः सङ्कल्पो यस्य स तथा निराशः सन् , 'चिंतासोगसागरसंपविटे' चिन्ताशोकसागरसंपविष्टः, चिन्तया शोकसमुद्रे प्रविष्ट इव परिदृश्यमानः, 'करतलपल्हत्यमुहे' करतलपर्यस्तमुग्यः-करतले पर्यस्तं न्यस्त मुखं यस्य स तथा, 'अज्झाणोवगए' आर्तव्यानोपगतः 'भूमिगयदिटिए' भूमिगतदृष्टिः 'झिपायई' ध्यायति-चिन्तां करोति, दृश्यते कदाचित्कोऽपि पुरुषोऽकारणमेव चिन्तया चाऽऽत्त मनाः करतले मुखमाधाय भूमौ दत्ताऽप्रधानो ध्यायन् , तत्र वाह्यचिन्ताकारणस्याऽभावात्-आन्तरेण कारणेन भवितव्यम् । किं तत्कारणं तत्राह-'तस्स' तस्य पुरुषस्य 'णं अज्झत्थया' 'ण' खलु-निश्चयेन आध्यात्मिकानि. आत्मोत्पन्नानि 'आसंसइया' आसंशितानि-निश्वयं विद्यमानानि, यद्वा-सन्देह. प्रकार है-कोई पुरुप ऐसा है कि किसी विसंवाद बाह्य कारण के बिना ही हीन, दीन, दुष्ट (दोपयुक्त) दुःखित मनवाला-उद्विग्नचित्त, हताश, चिन्ता और शोक के सागर में डुया हुआ, हथेली पर मुख को थामे हुए, आर्तध्यान से युक्त एवं धरती की और नजर लगाए हुए होता है। वह चिन्ता में गुस्त रहता है। तात्पर्य यह है कि कोई-कोई मनुष्य निष्कारण ही चिन्ता से पीडित मन वाला, हथेली पर ठुड्डी थामे और नीचे की ओर दृष्टि किए कुछ सोच-विचार करता है। वहां चिन्ता का कोई बाहरी कारण नहीं होता, अतएव कोई आन्तरिक कारण होना चाहिए, वह कारण क्या है ? सो कहते हैं-ऐसे पुरुष की चिन्ता से मन में होने वाले चार હોય કે—કઈ વિસંવાદનું બા-બહારના કારણ વિનાજ હીન, દીન, ચિન્તા. અને શાકના સાગરમાં ડૂબેલે, હથેલી પર મુખને થોભીને, આર્તધ્યાનથી યુક્ત તથા ધરતી તરફ નઝર લગાવેલ હોય છે, તે ચિન્તામાં મગ્ન રહે છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે--કઈ કઈ મનુષ્ય નિષ્કારણ-કારણ વિનાજ ચિત્તાથી પીડિત મનવાળા, હથેલી પર માથુ રાખેલ અને નીચેની તરફ 'નજર કરીને કંઈક સેચ-શેક યુક્ત બનીને વિચારતા હોય છે. ત્યાં ચિતાનું કેઈ બાહ્ય કારણ હતું નથી, તેથી જ કેઈ આન્તરિક-અંતરનું કારણ હોવું જોઈએ, તે શું કારણ છે? તે બતાવે છે–એવા પુરૂષને ચિંતાથી Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेमयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् १८९ रहितानि 'चत्तारि ठाणा' चत्वारि स्थानानि ' एवं आहिज्जंति' एवमाख्यायन्ते । 'तं जहा ' तद्यथा - 'कोहे माणे माया लोहे' क्रोधः-मानः- माया-लोभः 'अज्झत्थ'आध्यात्मिका एव 'कोह- माण- माया लोहा' क्रोध-मान- माया लोभाः, यद्यपि क्रोधादयोऽन्तःकरणधर्माः नत्वात्मनस्ते क्रोधादयः, नचाऽऽत्मधर्मत्वे का क्षतिः - इति वाच्यम्, तथात्वे - मुक्तावस्थायामपि आत्मनि ज्ञानदर्शनवत् तत्सद्भावप्रसंगात् । तथापि श्रहं क्रोधवान् इति पवीत्या व्यवहारनयानुसारेण क्रोधादीनामात्मधर्मस्वीकारात्, आध्यात्मिकाः क्रोधादय इति नाऽनुपन्नम्। एवं खलु तस्स तप्पत्तियं' एवं खलु तस्य तत्प्रत्ययिकं क्रोधादिकारणकम् 'सावज्जं' सावद्यं • कर्म 'त्ति आहिज्नइ' इत्याधीयते, एवं कुर्वत स्तस्य पुरुषस्य क्रोधादिकारणक पापजनकं कर्म समुत्पद्यते । 'अट्टमे किरियट्टाणे' अष्टमं क्रियास्थानम् ' अ झत्थवत्तिए' अध्यात्म प्रत्ययिकम् 'त्ति आहिए' इत्याख्यातम्, आत्मोत्पन्नत्वात् आध्यात्मिका एते क्रोधादय विकाराः मनसो विचारस्य च दूषका एवं मालिन्यकारकाञ्च भवन्ति । यत्राऽयं क्रोधादिः प्राबल्येन वर्त्तते तस्य पुरुषस्य - आध्यामिसाद्य कर्मबन्धो भवतीति ॥०९ ॥ २४ ॥ " कारण निश्चय कहे गये हैं । वे ये हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । यद्यपि क्रोध आदि आत्मा के स्वाभाविक धर्म नहीं हैं, क्योंकि वे चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न होते हैं और यदि उन्हें आत्मा का स्वाभाविक धर्म मान लिया जाय तो मुक्तावस्था में भी ज्ञान-दर्शन आदि के समान उनका अस्तित्व स्वीकार करना पड़ेगा, तथापि वे आत्मा के असाधारण वैभाविक भाव हैं, और मैं क्रोधवान 'हूँ' ऐसी प्रतीति भी होती है, इस कारण व्यवहार नय से उन्हें आत्मा का धर्म कहा है । यह क्रोधादि विकार हो बाह्य कारण के अभाव में पुरुष की उदासीनता के कारण बनते हैं । ऐसे पुरुष को क्रोधादि के મનમાં થવાવાળા ચાર કારણેા નિશ્ચયથી કહેલ છે.-ને ચાર કારણેા ક્રાય, भान, माया गर्ने सोल मे छे. જો કે ક્રોધ વિગેરે આત્માના સ્વાભાવિક ધર્મ નથી. કેમ કે તે ચારિત્ર માહનીય કર્મોના ઉદયથી ઉત્પન્ન થાય છે અને જે તેમને આત્માના સ્વાભાવિક ધમ માની લેવામાં આવે, તે મુક્ત અવસ્થામાં પણુ-જ્ઞાન, દર્શન વિગેરેની જેમ તેમનું અસ્તિત્વ સ્વીકારવું પડશે. તા પણ તે આત્માના અસા ધારણ વૈભાવિક ભાવ છે. અને હૂં. ક્રોધવાળા છું. એવી ખાત્રી પણ થાય છે. તે કારશે વ્યવહારનયથી તેને આત્માના ધમ કહ્યો છે. આ કોષ વિગેરે વિકારાજ ખાા કારણના અભાવમાં પુરૂષના ઉદાસીન પચાનુ કારણ બને છે. Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LAIE सूत्रकृतारो मूलम्-अहावरे णवमे किरियट्ठाणे माणवत्तिए त्ति आहिजइ, से जहा णाभए केइपुरिसे जातिमएण वा कुलमएण वा बलमएण वा रूवमएण वा तवोमएणं वा सुयमएणं वा लाभमएण वा इस्सरियमएण वा पन्नामएण वा अन्नतरेण वा मयटाणेणं मत्ते समाणे परं हीलेइ निदेइ खिसइ गरहइ परिभवइ अवमण्णेइ, इत्तरिए अयं, अहमंसि पुण विसिटजाइ कुलबलाइगुणोववए, एवं अप्पाणं समुकस्से, देहच्चुए कम्मवितिए अवसे पयाइ, तं जहा-गम्भाओ गभं जम्माओ जम्मं माराओ मारं णरगाओ णरगं चंडे थ· चवले माणी यावि भवइ, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जति आहिज्जइ, णवमे किरियहाणे माणवत्तिए ति आहिए ॥सू० १०॥२५॥ छाया-अथाऽपरं नवमं क्रियास्थानं मानपत्ययिकमित्याख्यायते । तघयानाम कश्चित् पुरुषो जातिमदेन वा कुलमदेन वा बलमदेन वा रूपमदेन वा तपोमदेन वा श्रुतमदेन वा लाभमदेन वा ऐश्वर्यम देन वा प्रज्ञामदेन वा अन्यतरेग वा मद. स्थानेन मत्तः सन् परं हीलयति निन्दयति जुगुप्सति गर्हति परिभवति अवमन्यते इतरोऽयम् अहमस्मि पुनः विशिष्टजाति कुलवलादिगुणोपेतः, एवमात्मानं समुत्करयेत् । देहच्युतः कर्मद्वितीयोऽवशः प्रयाति, तद्यथा-गर्भतो गर्भम् , जन्मतो जन्म, मरणान्मरणम् , नरकान्नरकम, चण्डः स्तब्धः चपळः मान्यपि भवति एवं खलु तस्य तत्प्रत्ययं सावद्यमित्याधीयते । नवम क्रियास्थानं मानमत्ययिकमित्याख्यातम् ।।सू०१०॥२५॥ निमित्त से पाप का बन्ध होता है। यह अध्यात्मप्रत्ययिक नामक आठवां क्रियास्थान है ॥९॥ એવા પુરૂષને ક્રોધ વિગેરેને નિમિત્તે પાપનો બંધ થાય છે આ અધ્યાત્મપ્રત્યયિક નામનું આઠમું ફિયાસ્થાન કહેલ છે. Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयाबोधिनी टीका दि.श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् टीका-अष्टमं क्रियास्थानं निरूपित, सम्पति-नवमं क्रियास्थानमाह'अहवरे' इत्यादि। 'अहावरे' अथाऽपरम् -'णवमें' नवमम् 'किरियट्ठाणे' क्रियास्थानम् 'माणवत्तिए' मानपत्ययिकम् 'त्ति आहिज्जाइ' इत्याख्यायते । से जहा णामए' तद्यथानाम 'केइपुरिसे' कश्चित्पुरुषः 'जाइमएण वा जातिमदेन वा 'कुलमएण वा' कुलमदेन वा, जाति:-क्षत्रियादिः, कुलमिक्षाकादिकम्, तन्मदेनाsभिमानेन-अहं विशिष्टजातिकुलसम्पन्नः, मदन्ये च इमे हीनजातिकुलवन्त:इत्याचभिमानं सन्धत्ते । 'बलमएण वा' बलमदेन वा-बलं सामर्थ्य शक्तिविशेषः उच्च शरीरवाङ्मनःसम्बन्धि, तदाश्रित्य गर्व करोति । 'रूवमएण वा रूपमदेन पा-अहं रूपवान् अन्यस्तु न तथेत्यादिरूपप्रसंशनेन अभिमानं विभत्ति । 'तवो मएण वा' तपोमदेन-तपसो मदस्तपो मदस्तेन । 'मुयमएण वा' श्रुतमदेन वा श्रूयते इति श्रुतम्-शास्त्रम्-तन्म देन, 'लाभमएण वा' लाभमदेन वा-'इस्स. (२) मानप्रत्यधिक क्रियास्थान . 'अहावरे वमे किरियट्ठाणे' इत्यादि । टीकार्थ-आठवें क्रियास्थान के निरूपण के अनन्तर अब 'नौवां क्रियास्थान कहते हैं-नौवां क्रियास्थान मान प्रत्ययिक कहलाता है। उसका स्वरूप इस प्रकार है-कोई पुरुष जातिमद या कुल मद से अर्थात् में ऐसी ऊंची क्षत्रियादि जाति का हूं ऐसा अभिमान करना यह जातिमद है मैं इक्ष्वाकु आदि विशिष्ट कुल में जन्मा हू, मेरे सिवाघ दूसरे हीन जाति या हीन कुल के हैं, इस प्रकार का अभिमान करता है वह कुलमद है बलमद करता है अर्थात् शरीर वचन या मन सम्बन्धी सामर्थ्य का गर्व करता है मैं सुन्दर हूं-दूसरे नहीं, इस प्रकार रूप का अभिमान करता है, तप का मद करता है श्रुत का मद करता है लाभ का मद करता है, ऐश्वर्य का (6) भानप्रत्यय यास्थान ___ 'अहावरे णवमे किरियठाणे' त्याहि ટીકાથ–આઠમા કિયારથાનનું નિરૂપણ કરીને હવે નવમું ફિયાસ્થાન માન પ્રત્યયિક કહેવાય છે. તેનું સ્વરૂપ આ પ્રમાણે છે – કોઈ પુરૂષ જાતિમદ અથવા કુળ મદથી અર્થાત્ હું આવી ઉચી ક્ષત્રીય વિગેરે જાતિને છું હું ઈવાકુ વિગેરે વિશેષ પ્રકારના કુળમાં જન્મ્યો છું. મારા વિના બીજા મહીન નીચી જાત અને નીચા કુળના છે, આવા પ્રકારનું અભિમાન કરે છે, તે કુલમદ કહેવાય છે. તથા શરીર વચન અથવા મન સંબધી સામર્થ્યને ગર્વ કરે છે, તે બલ મદ કહેવાય છે હું સુ દર છું બીજાઓ તેવા સુંદર નથી, આ પ્રમાણે રૂપનું અભિમાન કરે છે, તે રૂપમદ છે, તપનું અભિમાન Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे रियमरण वा' ऐश्वर्यमदेन वा 'पन्नामएग व ' प्रज्ञामदेन वा - मज्ञा-बुद्धि'स्वन्म देन, 'अन्नतरेण' अन्यतरेण सर्वसदेन, पपु- एकतरमदेन वा 'मयट्ठाण' मदस्थानेन 'मत्ते समाणे' मत्तः सन् यत् किमपि - एकं यदस्थानमासाद्य मत्तः- तादृशाभिमानवान् 'परं' परं स्वातिरिक्तं जनम् 'होलड' हीलयति- अवहेलनां करीति, निदेइ' निन्दति 'खिंस' जुगुप्सते- घृगां करोति 'गरes' गर्हति 'परि भवइ' परिभवति 'अवमण्णे ' अत्रमन्यते ' इतरिए अयं' इतरोऽयम् - नाऽयं विशिष्टकुल जात्यादिमान् अपि तु जात्यादिवैशिष्टयरहितः, 'अहमंसि पुणे' अहमस्मि पुनः 'विसिहकुलबलाइगुणोवचे' विशिष्टकुलवलादिगुणोपेतः, मदतिरिक्ता एते हीनजात्या दिखिन्ना :- अहेतु जात्यादिगुणगणग्रामोपेतः, 'ए' एवंरूपामनेकामभिमानधारामुपवहन् 'अप्पाणं समुक्कसे' स्वकीयमात्मानं समु - सर्व उत्कृष्टो भवेत्, अन्याऽन्याऽपेक्ष स्वात्मानमधिकाऽधिकं मन्वानः परं परिनिन्देत, तस्य स्वाभिमानिनस्तद्विध विविध निन्दाजनितं स्वात्मोत्कर्षजनितं चयादृशमैहि- काऽऽमुष्मिकं फलं भवितुमर्हति तादृशमशुभफलं शास्त्रकारः-स्वय"मद करता है प्रज्ञा अर्थात् बुद्धि का मद करता है, इन मदों में से किसी भी एक मद स्थान से मत्त गर्विला होता है और इस कारण दूसरे की अवहेलना करता है, निन्दा करता है, घृणा करता है, गर्हा करता 1 है, अपमान करता है, और कहता है कि ये विशिष्ट जातिमान या कुलवान् नहीं है, में विशिष्ट कुल, जाति एवं यक आदि गुणों से सम्पन्न हैं, इस प्रकार अभिमान धारण करता हुआ अपना उत्कर्ष 'प्रकट करता है, दूसरों की अपेक्षा अपने को अधिक मानता है, ऐसे 1 उसे अहंकारी को इस प्रकार दूसरे की निन्दा करने से और अपना उत्कर्ष प्रकट करने से इह-परलोक संबंधी जो फल प्राप्त होता है, કરે છે, શ્રુતના મદ કરે છે, લાભના મદ કરે છે. ઐશ્વર્યાંના મદ કરે છે. પ્રજ્ઞા–અર્થાત્ બુદ્ધિને મદ કરે છે. આ મોમાંથી કાઈ પણ એક મદસ્થાનથી મત્ત-ગવવાળા હાય છે, અને તે કારણે બીજાનેા તિરસ્કાર કરે છે. નિદા કરે છે. ઘૃણા કરે છે. ગહ કરે છે; પરાભવ કરે છે, અપમાન કરે છે, અને કહે છે કે—આ વિશેષ પ્રકારથી જાતિવાન્ અથવા કુળવાન નથી, હું વિશેષ પ્રકાર ની જાત-કુળ અને બળ વગેરેથી યુક્ત છું. આવા પ્રકારનુ અભિમાન ધારણ કરતા થકા પેાતાના ઉત્કષ પ્રગટ કરે છે, ખીજા કરતાં પેાતાને શ્રેષ્ઠ માને છે, એવા અડ‘કારીને આ રીતે ખીજાની નિંદા કરવાથી અને પેાતાના ઉત્કલ્પ પ્રગટ કરવાથી ઇહ-પલેાક સંબંધી જે ફળ પ્રાપ્ત , L Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्थबोधिनी टीका हि. थु. अ. २ क्रियास्थान निरूपणम् そ मुपदर्शयति- 'देहच्चुर' देहच्युतः मृतः सन् येन शरीरेण तादृशमदम तोडन्यानीक्षिपन्नासीत् तेनाऽऽक्षेपका रिशरीरेण वि च्युनः सन् 'कम्म विविए' कर्मद्वितीयः कमैत्र द्वितीयं सहकारि यर स कर्मद्वितीयः । ' असे पवाई' अनशः - पराधीनः कर्ममात्रसहायः, प्रयादि गच्छति । विद्यमानं शरीर परित्यज्य परलोकं गच्छति, 'तं जहा' तद्यथा - 'गन्माओ ग' एकस्माद् गर्भाद् गर्भान्तरम् 'जम्माओ जम्म' जन्मतो जन्मएक जन्म प्राप्य पुनरपि जन्मान्तरमाप्नोति । 'माराओ मारं ' मरणान्मरणम् - पुनः पुनर्भरणमुपैति । 'गरगाओ णरगं' नाका दुःखाऽधिष्ठानान्नरकम्, पुनर्दुःखाधिठानम् । गर्भजन्ममरण नरकादिवेदना - मुहुमुहुरनुभवति इदं तदभिमानम् । एतादृशं बोरदुःखखाम् अभिमानफलं विचिन्त्य विवेकी कथमपि जात्याद्यभिमानं न कुर्यात् । किन्तु किंपाकफलवत्ततो भेतव्यम्, नैतावन्मात्रमेव फलमशुभात्मकशास्त्रकार स्वयं दिखलाते हैं। ऐसा अभिमानी पुरुष जब मरता है और जिस शरीर के कारण मदोन्मत्त बना था, उस शरीर को भी जब छोड़ता है, तब सिर्फ उसके किये कर्म ही उसके सहायक होते हैं । वह विवश होकर परलोक की ओर चल देता है । फिर एक गर्भ से दूसरे गर्भ में, एक जन्म से दूसरे जन्म में बार बार मृत्यु को प्राप्त होता है। नरक से नरक को अर्थात् एक दुःख के स्थान से दूसरे दुःख के स्थान को प्राप्त होता है। गर्भ जन्म, भरण एवं नरक आदि की वेदनाओं को पुनः पुनः अनुभव करता है । अभिमान के इस दुःखमय फल को विचार कर किसी भी प्रकार जाति आदि का अभिमान न करे, परन्तु किंपाक फल के समान अभिमान से डरता रहे। થાય છે, તે શાસ્ત્રકાર પાતે બતાવે છે. આવા અભિમાની પુરૂષ ય રે મરે છે, અને જે શરીરને લીધે તે આવા મદન્મત્ત બન્યા હો તે શરીરને પણ છેડે છે, ત્યારે કેવળ તેના કરેલા કર્માંજ તેના સહાયક થાય છે. અને તે પરવશ થઈને પરલેાકમાં ચાલ્યે જાય છે. અને તે પછી એક ગર્ભમાંથી ખીજા ગર્ભમાં, અને એક જન્મથી શ્રીજા જન્મમાં ઉત્પન્ન થઇ વારવાર મૃત્યુને પ્રાપ્ત થાય છે. એક નરકથી ખીજા નરકમાં અર્થાત્ એક દુઃખ સ્થાનમાંથી ખીજા દુ:ખના સ્થાનને પ્રાપ્ત થાય છે. ગભ, જન્મ, મરણુ, અને નરક વિગેરેની વેદનાઓના વારંવાર અનુભવ કરે છે. અર્થાત્ ભાગવે છે. અભિમાનના આ દુખમય ફળના વિચાર કરીને કોઇ પણ પ્રકારે જાતિ વિગેરેનું અભિમાન ન કરે. કઈનું અપમાન ન કરે, પરંતુ કિપાક ફળની જેમ અભિમાનથી ડરતા રહે सु० २५ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसने मभिमानिनो भवति, अपितु-इतोऽपि अधिकं दर्शयनि-परलोके इहलोकेऽमिमानी नर: 'चंडे थ। ·चत्रले माणी याचिं भाइ' चण्डः स्तव्यः चपलः मानी चापि भवति, तत्र-चण्ड':-अतरः, स्तब्धः-अमारी, चपल:- प्रकृया चश्यला, मानी-अभिमानी चापि भवनि, एवं ग्वलु तर' एवं खलु नम्य--पुरुषस्य 'तप्यत्तिय' तत्मत्ययिकम्-मान कारण कम्-गर्व निनम् 'सारजति अहिज्जा' सावध कर्म इत्याधीयते-समुस्सयते । अभिमानपत्ययेन कर्म समुत्पद्य ने एचम्-'जयमे नवम् 'किरियट्ठाणे' क्रियास्थानम् 'पाणवनिए' मानप्रन्यायिकम् 'लि आहिए' इत्या ख्यानम् इति ॥५०१०-२२॥ मूलम् --अहादरे दलमे दिरियाणे मिन्तदोलवत्तिए त्ति 'आहिज्जइ, ले जहाणामए के पुरिले माईहि ना पिईहिं वा आईहिं वा भइणीहं वा अजाहिं वा धूयाहिं वा पुत्तेहिं वा सुण्हाहि वा लहिं संवलमाणे तेत्तिं सन्जयरंसि अहालहुगंसि वि अवराहसि लयक्षेत्र गरूपं दंडं निवते, तं जहा तीओदगवियडंलि वा कायं उच्छोलित्ता भवइ, उसिणोदगवियडेण वा कायं ओलिंबिना भवइ, अगणिकाएणं कायं उडहिता भवइ, जोत्तेण वा वेत्तेण वा गेतेण ना तबाइ वा कपण या छियाए - अभिमानी को इतना ही अशुभ फल नहीं प्राप्त होला, अपितु • इससे भी अधिक पल भोगना पड़ता है। उसे दिखलाते है-इस लोक या परलोक में, जो पुरुष अभिमानी है, उग्रतर है, अहंकारी है, 'प्रकृति से चपल है और मानी है, उसको गर्व जनित पाप कर्म का 'बन्ध होता है, अर्थात् अभिमान के कारण कुत्सित कर्म उत्पन्न होते हैं। यह मानप्रत्ययिक क्रियास्थान हा गया है ॥१०॥ અભિમાનીને એટલું જ અશુભ ફળ પ્રાપ્ત થાય છે, તેમ નહીં પણ " તેનાથી પણ વધારે ફળ તેને ભેગવવું પડે છે, હવે તે બતાવે છે–આ લોક • A241 ५२मा २ मलिभानी ५३५ छे, तर छ, भारी छ, प्र. તિથી ચપળ છે, અને માની છે, તેને ગર્વથી થવાવાળા પાપકર્મનો બંધ થાય છે અર્થાત્ અભિમાનને કારણે કુત્સિત કર્મ ઉત્પન્ન થાય છે. આ માન પ્રત્યયિક ફિયાસ્થાન કહેલ છે, ૧૧ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् वा लयाए वा अन्नयरेण वो दवरण पासाई उद्दालित्ता' भवइ, दंडेण वा अठ्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलूण वा कालेण वा.. कायं आउहित्ता सवइ । तहप्पगारे पुरिसजाए संवसमाणे: दुम्मणा भवंति, पवलमाणे सुमणा अवंति तहप्पगारे पुरिलजाए दंडपासी दंडगुरुए दंडपुरकडे अहिए, इमंति लोगसि अहिए परंसि लोगंसि संजलणे कोहणे पिट्टिसंसि यावि भवइ, एवं खलु तस तप्पत्तियं सावनंति आहिज्जइ, दसमे किरिय.. टाणे मित्तदोलबत्तिए त्ति आहिए ॥सू०११॥२६॥ ___ छाया-अथाऽपरं दशमं क्रियास्थान मित्रदोपपत्यषिकमित्याख्यायते, तद्यथा नाम कोऽपि पुरुषः मातृभिर्वा पिभिर्वा भ्रातृभिर्वा भगिनीभिर्वा भार्याभिर्वा । दुहितभिर्वा पुत्रै वा स्नूवाभिर्वा सार्धं सं सन् लेपामन्यत मस्मिन् अथ लघु केऽपि अपराधे स्वयमेव गुरुकं दण्डं नित्यति, तद्यथा-शीलोइकविकटे वा कायमुच्छोल. यिता भाति, उष्णोदकविकटे वा कायमपसिञ्चयिता भवति, अग्निकायेन कायमुपदाहयिता भवति जोत्रेण वा वेत्रेण या नोदकेन वा त्वचा वा कशया वा छेद केन वा लतया वा अन्यतरेण वा दवरकेण पानि उहालयिता भवति, दण्डेन वा अस्न्या वा मुष्टिना वा लेष्टुना वा कपालेन वा कायमाकुट्टयिता भाति। तथापकारे पुरुषजाते संवसति दुर्मनसो भवन्ति, प्रवसति सुमनसो भवन्ति । तथाप्रकारः पुरुषजातः दण्डपार्थी दण्डगुरुकः दण्डपुरस्कृतः अदितः अस्मिन् लोके अहितः परस्मिन् लोके संज्वलनः क्रोधनः पृष्ठमांसवादकश्चापि भवति । एवं खल्लु तस्य तत्प्रत्ययिकंसावध मित्राधीयते दशमं क्रियास्थानं मित्रदोषपत्ययिक मित्याख्यातम् मू.११:२६। ___टीका- नवमं क्रियास्थानं मानरथानं निरूप्प दशमं मित्रदोपप्रत्ययिकं निरूपयति-'महावरे' अधाऽपरम् 'दसमे' दशमम् 'किरियट्ठाणे' क्रियास्थानम्... 'मित्त. (१०) मित्रद्वेष प्रत्यायिक क्रियास्थान 'अहावरे दलमे किरियहाणे' इत्यादि । टीकार्थ-लौवें क्रियास्थान के निरूपण के पश्चात् दसवें क्रियास्था (१०) भित्रद्वेष प्रत्यय: (यास्थान 'अहावरे दसमे किरियाणे' त्याह ટીકાર્ચ–-નવમા કિયાસ્થાનના નિરૂપણ પછી દસમાં ક્રિયસ્થાનનું નિરૂ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ६ दोचिए मित्रोपप्रत्ययिकम् 'ति अहिज्जइ' इत्यख्यायते 'तं जहां' तद्यथा 'से जाणाम' नाम 'के' पुरिसे' कचित्पुरुषः 'माईहिं वा पिईहिं वा भाईर्दिवा महणीहिं वा मज्जाहिं धूयादि वा पुतेहिं वा सुहाहि वा' मातृभित्र पितृभगिनीमिव भार्याभिर्वा दुहितृमत्र वस्नुपाभिर्वा 'सद्धि' संवसमाणे' सार्धं संन्- माता- पितृ-भ्रातृभगिन्यादिभिः सह गृहे वसन् 'ते सिन्नरंसि' तेषामन्यतमस्मिन् तेषां मध्ये कस्याऽपि 'अहा लहुगंसि वि' अथ लघुकेsपि 'अवराहंसि' अपराधे संजाते 'सयमेव' स्वयमेव 'गरुयं दंडं निवत्तेह' गुरुम् - अत्युग्रं दण्ड निर्वर्त्तयति ददाति, भगिन्यादौ दैवाद- अत्यल्पेऽपि अप राधे जाते तदुपरि महद्दण्डं पातयति स्वयमेव, अपराधप्रकारं दर्शयति- 'वं जहा ' auथा 'सीओदगवियसि वा' शीतोदकविकटे वा 'कार्य' कार्यं शरीरम्अल्पापराधयितु भगिन्यादेः 'उच्छोलिता भवः' उच्छोलयिता भवति, शैशिरिकशीततरं पवनान्दोलितमपि शरीरं शीतजले पातयति, शीतसलिलेन संसिञ्चयति, अपराधकर्तुः, तथा - 'उसिणोदगवियडे वा' उष्णोदकविकटेन वा 'कार्य ओसिंचित्ता भव' कायमपर्मिचयिता भवति, ग्रीष्मकालेऽपराधिनः शरीरम् - भग्नितापितजलेन अपसिञ्चयति 'अगणिकाएण कार्यं उवडहित्ता भव' अग्निकायेन कायमुपादयिता भवति, अनि मज्जात्य तत्र क्षिपति - अपराधिनम् | 'जोत्तेण नका निरूपण करते हैं- दसवां क्रियास्थान मित्र द्वेष प्रत्यधिक कहलोता है । उसका स्वरूप इस प्रकार है - कोई पुरुष माता, पिता, भाई, भगिनी, भार्यां दुहिता, पुत्र या पुत्रवधू के साथ निवास करता है । उनमें से किसी के द्वारा छोटासा अपराध हो जाने पर उन्हें स्वयं दंड देता है । 3 जैसे - भगिनी आदि को शीत काल में भी शीतल जल में गिरा देता है, शीतल जलसे उनके शरीर को सींच देता है । उष्णकाल में अपराधी के शरीर पर आग में तथा जल उंडेल देता है, अग्नि से शरीर को जला देता है-आग जला कर अपराधी को उसमें झोंक देता પણ કરવામાં આવે છે. દસમું' ક્રિયાસ્થાન મિત્રદ્વેષ પ્રત્યયિક કહેવાય છે. तेनुं स्व३५ मा प्रभा - पु३ष भाता, पिता, भाई, भगिनी-मडेन, પત્ની, પુત્ર અથવા પુત્રવધુની સાથે રહેતા હોય, તે પૈકી ટાઇનાથી કાઈ નાના એવે અપરાધ થઈ જાય, તે તેને પાતે ભારે દંડ-શિક્ષા કરે છે, જેમકે-ખહેન વિગેરેને ઠંડા પાણીમાં પાડે છે. તેના શરીર પર ઠંડુ પાણી છાંટે છે, ઉનાળામાં અપરાધીના શરીર પર અગ્નિ પર ગરમ કરેલ પાણી નાખે છે, અગ્નિથી શરીરને ખાળે છે. આગ સળગાવીને અપરાધીને Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थान निरूपणम् १९७ वा वेग वा' जोत्रेग वा वेत्रेण वा 'णेतेण वा' नोदकेन वा प्रेरकदण्डेन 'तयाइ चा' त्वचा वा-त्वनिर्मितेन 'कण्णे वा' कराया वा 'छेयाए वा' छेदकेन वा - परश्वादिना 'लपाए वा' लतया वा 'अन्नवरे वा' अन्यतरेण वा 'दवरएग वा' दवरकेण वा 'पासाइ उद्दालिता भवई' पार्श्वानि उद्दालयिता भवति, अर्थात्-कशादिभिः पार्श्वस्थं चर्म उत्पाटनति 'दंडेग वा-त्रीण वा मुट्ठीण वालूण वा-कपाले वा कार्य आउट्ठिता भाई' दण्डेन वा यष्ट्यादिना अस्था वा मुष्टिना वालेन्दुना वा (लोष्ट्रेग) वा कपालेन वा घटावयवेन वा कार्यशरीरम्-आकुयिता भवति - हिनस्ति । दण्डादिना प्रहार्यं तदीयशरीरं शिथिल यति । 'तहप्पगारे पुरिसनाएं' तथाप्रकारे - ईशभीषण कर्मकारिपुरुषजाते 'संत्रसमाणे' संवसतिगृहे तदीय पुत्रकलत्रभ्रातृ मागिन्यादयः 'दुम्मणा भवति' दुर्मनसो भवन्ति 'मागे' प्रत्रपति-गृहाद्विनिर्गते सति तदीयवान्धवाः 'सुमणा भवंति' सुमनसः - प्रसन्ना भवन्ति' हिमावाये कमवत् इति । 'तहपगारे पुरिसजाए' तथाप्रकारो दुष्कर्मा पुरुषजातः । दंडवासी' दण्डपार्थी - दण्डः पार्श्वे यस्य स तथा, स्वल्पापराधेऽपि अधिकदण्डदायकः 'दंडगुरुए' दण्डगुरुकः " है, जोत से, वेत से, आर लगे डंडे से, चमड़े के चाबुक से, फरसा से, लता से, किसी प्रकार के रास्ते से मार-मार कर अपराधी के पाइर्व भाग की चमड़ी उधेड़ देता है या लाठी से हटी से, घूसे से, ढेलेले, कपाल से शरीर पर आघात पहुंचाता है। डंडे मार-मार कर शरीर को ढीला कर देता है । ऐसा पुरुष जब घर के भीतर रहता है तो उसके माता, पिता, भाई, भागिनी आदि दुःखी और उदास रहते हैं और जब वह घर से बाहर निकल जाता है तो प्रसन्न होते हैं, हिम के नष्ट हो जाने पर कमलचन के समान खिल उठते हैं । ऐसा पुरुष बगल में डंडा रखता है-थोडे से अपराध का अधिक दंड देता है, तेमां पाडे छे, लेनरथी, वेतथी, मार सगावेसा डंडाथी, ચામડાના ચાબુકથી, ફરસાથી, લતાથી કોઈ પણ પ્રકારથી મારી મારીને અપરાધીના પડખાના ભાગની ચામડી ઉખેડી નાખે છે, અથવા લાકડીથી, હાડકાથી, ઘુસ્તાથી, ઢંખલાથી, કપાળો, શરીર પર પીડા પહેાંચાડે છે ડડા મારી મારીને શરીરને ઢીલુ કરી દે છે. એવો પુરૂષ જ્યારે ઘરની અ ંદર રહે છે, તે તેના માતા, પિતા, ભાઇ, મહેન વગેરે દુઃખી અને ઉદાસ રહે છે, અને જયારે તે ઘરની બહાર નીકળી જાય છે, ત્યારે તેઓ સઘળા પ્રસન્ન થાય છે, જેમ હિમના નાશ થવાથી કમળ વન ખીલી ઉઠે છે, તેમ તેએ ખુશી Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ सूत्रतासूचे -दण्डो गुरुमहान यस्य स तथा, यस्य महान दण्डो भवति स दण्डगुरुका, 'अहिए' अहिता-कल्याऽपि न हितकारी-गो वायवमपि दण्डादिना ताड यति, स कथमन्य न ताडयिष्यति, इति-अहितो लोकानाम् । एतादृशः पुरुषः 'इमसि लोगंसि अहिए' अस्मिल्लोकेऽहितः -अहितकारकः 'परंसि लोगंसि' परलोके च 'संजळणे' संज्वलगे' संज्वलन:-सदैव जालनः-सदैव ज्वलनस्वभावो भवति, 'कोहणे' क्रोधनः-क्रोधशीलो भवति। 'पिटिमंसि यावि भवई' पृष्ठमांसवादकवापि भवति । स्वस्थ पापश्लोकश्रोता अतिपिशुनो भवति, ‘एवं खलु तस्स' एव खल तय दण्डपुरस्कृननरस्प 'तप्पत्तियं' तत्पत्ययिकं मित्रदोपकारणकम् 'सावज्ज सावयं कर्म 'त्ति आहिज्जई' इत्याधीयते-समुत्पद्यो 'दसमें दशमम् 'किरिय. हाणे' क्रियास्थानम् 'मित्तदोसबत्तिए' मित्रदोपप्रत्ययिकम् 'त्ति आहिए' इत्याख्या तम्-कथितं भवतीति ॥मू०११-२६॥ ____ मूलम्-अहावरे एकारसमे किरियटाणे मायावत्तिए त्ति आहिज्जइ, जे इस्ले भवंति-गूढायारा तमोकसिया उलूगपत्त लहया पठवयगुरुया ते आयरिया वि संता अगारियाओ भालाओ वि पउंति, अन्नहा संतं अप्पाणं अन्नहा मन्नंति, अन्नं पुटा अनं वागरंति, अन्नं आइरिख यवं अन्नं आइक्खति । से जहाणालए के पुरिसे अंतो सल्ले तं लल्लं णो सयं णिहरइ दड को ही आगे रखता है और जो किसी का हितकारी नहीं होताजो अपने भाई आदि का भी डंडे से बात करता है, वह दूसरों का क्या हित करेगा, ऐसा पुरुप इस लोक में अपना अहित करता है और परलोक में सदैव ज्वलनशील होता है, चुगल खोर होता है। ऐसे पुरुष को मित्रद्वेष प्रत्ययिक पाप कर्म का बन्ध होता है। यह मित्र उपप्रत्रयिकनामा क्रियास्थान कहा गया है ॥११॥ થાય છે એ પુરૂષ બગલમાં દડા વિગેરે રાખે છે, થોડા અપરાધની ભારે શિક્ષા કરે છે શિક્ષાને જ મુખ્ય ગણે છે. અને જે કોઈનું હિત કરનાર થતું નથી, જે પોતાના ભાઈ વિગેરેની સાથે પણ ઠડાથી વાત કરે છે, તે બીજાનું શું કહ્યા કરે? એવો પુરૂષ આ લેકમાં પિતાનું અહિત કરે છે, અને પરલોકમાં હંમેશા જવલનશીલ-બળતરાના સ્વભાવ વાળા હોય છે. ચાડિ હોય છે, એવા પુરુષને મિત્રદેષ પ્રચયિક પાપકર્મને બંધ થાય છે, આ મિત્ર પ્રત્યયિક નામનું ફિયાસ્થાન છે, ૧૧૫ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. भु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् १९९ णो अमेण हिराइ णो पडिविद्धंसेइ, एवंमेव पिण्हवेह, अविट्टमाणे अंतो अंतो रियइ, एवमेत्र माई मायं कट्ट णो आलोएइ णो पडिकमेइ जो जिंदड़ णो गरहइ, णो विउer णो विसोइ णो अकरणाए अन्युट्रेड णो अहारिहं शेकम्म पायच्छिन्तं पडिबजइ, साई अस्ति लोए पञ्चायाइ साई परंसि लोए पुणो पुणो पच्चायाइ निंदइ गरहइ पसंसह णिच्चाइ ण नियes णिसिरियं दंड छाएइ, माई अलमा हडसुहस्से यात्रि भवइ, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सार्वजति आहिज्ज्इ, एक्कारसमे किरियद्वाणे मायावतिए त्ति आहिए ॥सू० १२॥ २७॥ छाया - अथाऽपरमेकादशं क्रियास्थानं मायाप्रत्ययिकमित्याख्यायते । ये इमे भवन्ति गूढाचाराः तमः काषिणः उलूकपालघर : पर्वतगुरुकाः ते आर्याअपि सन्तः अनार्या भाषा अपि प्रयुञ्जते । अन्यथा सन्तमात्मानमन्यथा मन्यन्ते अन्यत् पृष्टा अन्यद् व्यागृणन्ति अन्यस्मिन् आख्यातच्ये अन्यद् आख्यान्ति । तद्यथा नाम कश्चित् पुरुषः अन्तः शल्यः तं शल्यं नो स्वयं निर्हरति नाऽप्यन्येन निर्धारयति नाऽपि प्रतिविध्वंसयति एवमेत्र निह्नुते पीड्यमानः यन्तः अन्तः शरीयते, एवमेत्र - मायी मायां कृत्वा नो आलोचयति नो प्रविक्रमते नो निन्दति नो गर्हतेन त्रोटयति नो विशोधयवि नो अक्षरणाय अभ्युत्तिष्ठते नो यथा तपःकर्म प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यते, मायी अस्मिन् लोके प्रत्यायाति सायी परस्मिन् लोके पुनः पुनः प्रत्ययाति निन्दति गर्हते प्रशंसति निश्चरति न निवर्त्तते । निस्सृज्य दण्ड छादयति, मायी असमाहतशुभलेश्पश्चाऽपि भवति एवं खलु तस्य तत्प्रत्ययिकं सावध 'मित्याधीयते, एकादशं क्रियास्थानं मायाप्रत्ययिकमित्याख्यातम् ॥ ० १२=२७॥ टीका- 'मित्रदोष पत्ययिकं दशमं क्रियास्थानं निरूपितं सम्प्रति माया · (११) मायाप्रत्यधिक क्रियास्थान 'अहावरे एक्कारसमे किराणे' इत्यादि । 'टीकार्थ-मित्र द्वेष प्रत्यधिक नामक दसवें क्रियास्थान का निरुपण (૧૧) માયા પ્રત્યયિક ક્રિયાસ્થાન 'अहावरे एक्कारसमे किरियट्टाणे' त्या ह ટીકા”——મિત્રદ્વેષ પ્રત્યયિક નામનુ દસમાં ફિયાસ્થાનનુ' નિરૂપણુ ! Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० सूत्रकृतास्त्र पत्ययिकमेकादशं क्रियास्थानं दर्शयितुमाह-'अहावरे' इत्यादि, 'अहावरे' अथाऽपरम् ‘एक्कारसमे' एकादशम् 'किरियाणे' क्रि गस्थानम् 'मायावत्तिए' माया. प्रत्ययिकम्-मायाकारणकम् ‘ति आहिज्जा' इत्यारयायते । 'जे इमे भवंति' ये इमे-वक्ष्यमाणाः पुरुषा भवन्ति 'गृढायारा' गूढाचाराः, गूढोऽन्यैरहश्य आचारो व्यवहारो ये पां ते तथा, 'तमोलिका' तगः कापिण', यथा तथा विश्वासानुपाद्य लोकानां प्रतापका:-लोकरञ्च का इत्यर्थः, 'उलू गपत्तलहुया' उलूकपत्रया -उलूकपत्रवद् अतिलघवोऽपि-तोलूकः-पक्षिविशेषः 'घूक' इति लोकमसिद्वः 'पन्चयगुरुया' पर्वतगुरुकाः यद्यपि ते भवन्ति तूलादपि लघवस्तथापि स्वात्मान पर्वतबद् अतिगुरुतरं मन्यते, यद्यपि ते अतिदुष्टाः परवञ्चका स्तुच्छा उलूकपरल्ल बुझा स्तथापि पर्वतवद् गुरुतर स्वामानं मन्यमानाः वयमेव सर्वतः श्रेष्ठा नान्ये इत्थं भूताः 'ते आरिया वि' ते आर्या अपि 'संता' सन्तः 'अणारियाओ' अनार्या अपमाः कुत्सिता इति यावत् 'मासाओ वि' भाषा अपि 'पज्जति' प्रयुनते-आर्या अदि-अनायाँ सावचमाषां वदन्ति 'अन्नहा संत अपाणं अन्नहा मन्नति' अन्यथा सन्तमपि आत्मानमन्यथा मन्यन्ते, मायाविनः पुरुषा अविद्वांसोऽपि स्वात्मानं विद्वांसं मन्यन्ते इत्यर्थः, 'अन्नं पुट्ठा अन्नं वागकिया गया। अब ग्यारहवें माया प्रत्यधिक क्रियास्थान को दिखलाने के लिए कहते हैं- हारहवां क्रिशरथान मायाप्रत्यायिक कहलाता है। जो पुरुष गूढ-जिसका इस्तरों को पता न चले ऐसे आचार वाले होते हैं, लोगों को विश्वास उत्पन्न करके उगते हैं, उलूक के पंख के समान अत्यन्त हल्के होते हुए भी अपने को पर्वत के समान-महान मानते हैं, वे आर्य होते हुए भी अनार्य आपाओं का प्रयोग करते हैं, अन्य प्रकार के होते हुए भी अपने को अन्य प्रकार का दिखलाते हैं विद्वान् न होते छुए भी अपने को विद्वान् प्रदर्शित करते हैं, कुछ पूछने पर और ही વામાં આવી ગયુ હવે આ અગિયારમું ક્રિયાસ્થાન માયા પ્રત્યયિક નામનું કહેવામાં આવે છે.-જે પુરૂષ ગૂઢ-એટલે કે જેને બીજાઓને પત્તો ન લાગે એવા સ્વભાવવાળો હોય છે, લેકને વિશ્વાસમાં લઈને તેઓને ઠગે છે, ઘુવડની પાંખની માફક અત્યંત હલકા હોવા છતાં પણ પિતાને પર્વતની જેમ ભારે-મહાન માને છે, તેઓ આર્ય હોવા છતાં પણ અનાર્ય ભાષાઓને પ્રયોગ કરે છે, અન્ય પ્રકારના હોવા છતાં પણ પિતાને વિદ્વાન કહેવડાવે છે, અને કંઈક પૂછવામાં આવે ત્યારે ઉલટી વાત કહે છે. ન્યાયની વાત પૂછવામાં Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् रंति' अन्यत् पृष्टा अन्यद् व्यागन्ति-न्यायमार्ग पृष्टा वदन्ति विपरीतम्-एवम् 'अन्न आइक्खियच अन्न आइकवति' अन्यहिपन आख्यातव्ये अन्यद्-आख्यान्ति पृष्टमथं जीवरक्षादिकम् अमतिपाद्य मालङ्गिकविषयमपहायाऽपासङ्गिक माणाति। पातादिकं वदन्ति । 'से जहाणामए' तद्यथा नाम 'केइ पुरिसे' कश्चित्पुरुषः 'अंती सल्ले' अन्तः शल्य:-हृदि विद्यते मायाशल्यं यस्य स तथा 'तं सल्लं' तं शल्पम् ‘णो सयं णिहरई' नो स्वयं निहरति-न स्वयं निष्काशयति हृदयात् - 'णो अण्णेण वि णिहरावेई नो अन्येनाऽपि निर्हारयति-परद्वाराऽपि न निष्काशयति 'णो पडि विद्धं सेइ' नो प्रतिविध्वंसयति-बिनाशयति त शरयम् । किन्तु एवमेव 'निण्हवेई एवमेव निन्हुते-आच्छादयति । तथा-'अघि उट्टमाणे यो अंतो रिय' पीड्य मानः शल्यव्यथया-अन्त: अन्न-मध्ये-अ.ह द ये वेदनां रीयते- अनुभवति । 'एवमेव माई एवमेव मायावान् पुरुष: 'मायं' मायाम् 'कटुं कृत्वा को आलो. एई' नो आलोचयति-आलोचनां नैव करोति । 'णो परिक्कमेइ' नो प्रतिक्रप्रते 'णो जिंदई' नो निन्दति-स्वकीयमायाम् 'गो परहइ' नो गर्हते-प्रात्मानम् 'पदो विउटइ' नो व्यावर्त्तयति-न निवारयति निन्दनीयां मायाम् ‘णो विसोहेई' नौ कुछ उत्तर देते हैं-न्याय की पात पूछने पर उलटी बात कहते हैं, जीय रक्षा आदि को स्वीकार न करके और प्रासंगिक विषय को छोड़ कर अप्रासंगिक प्राणातिपात आदि का कथन करते है। जैसे कोई पुरुष हृद्य में चुने हुए शल्य को स्वयं नहीं निकालना है, दूसरे से भी नहीं निकल चाला है. न उस शल्य को नष्ट करता है, किन्तु उसे छुपाता है, और उस शल्य से भीतरही भीतर व्यथा का अनुभव करता है, इसी प्रकार माधावी पुरुप माया करके उसकी न आलोचना करता है, न प्रतिक्रमण करता है, न निन्दा करता है, न नहीं करता है, न उसका निवारण करता है, न विशोधन करता આવે તે બીજી જ વાત કહે છે જીવ રક્ષા વિગેરેને સ્વીકાર ન કરતાં અને પ્રસંગોપાત ઉપસ્થિત વિષયને છોડીને અપ્રાસંગિક-પ્રસંગ વિનાના પ્રાણાતિપાત વિગેરેનું કથન કરે છે જેમ કંઈ પુરૂષ હૃદયમાં પેઠેલા શલ્યને પિતે કહાડો નથી, બીજા પાસે પણ કઢાવતા નથી, તેમજ એ શઘને નાશ પણ કરતો નથી, પરંતુ તેને છૂપાવે છે. તેથી તે શલ્યથી અંદરને અદર જ-મનમાં જ પીડાને અનુભવ કરે છે, એ જ પ્રમાણે માયાવી પુરૂષ માયા કરીને તેની આલોચના કરતો નથી, તથા પ્રતિકમણ કરતું નથી, નિંદા કરતો નથી, ગહ કરતૈ નથી, તેમજ તેનું નિવારણ કરતું નથી, તથા વિશે ધન–શુદ્ધિ કરતે મથી, सु० २६ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ सूत्रकृत्तानपत्रे विशोधयति-सरलभावेन तादृशीं मायाम् ‘णो अफरणाए' अन्भुटेद, नोऽकरणा'याऽभ्युत्तिष्ठते-अतःपरं मायायाः अकरणाय नोचतो भवति, अफरणेन ततो 'विमुच्येत । 'णो अहारियं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवजह नो यथा तपः कर्म प्रायश्चित्तं मतिपद्यते, मायात आत्मानं विशोधयितुं मायां निवर्तयितुं च शास्त्रोक्तं प्रायश्चित्तं तपःकर्माऽपि नो संपादयति-येन माया विनाशो-भवेत् । 'माई 'अस्सि लोए पञ्चायाइ' मायी अस्मिन् लोके अविश्वासपात्रता माहये दुःखानुभवाय च प्रत्यायाति । 'माई परंसि लोए' माथी परस्मिल्लोके पुनः पुनः 'पञ्चाया अधोगतिमाप्तये प्रत्यायाति, एतादृशोहि मायी 'निदह' निन्दति परान् ‘गरइइ' गहतेऽन्यान् ‘पसंसइ' प्रशंसति-स्वात्मानम् ‘णिचाई' निश्चरति-पुनः पुन मायारूपेण असदनुष्ठानमेव करोति, ‘ण णियझेई' न निवर्तते मायारूपादनुष्ठा नात् । 'णिसिरियं दंडं छाएइ' निसृज्य दण्डं छादयति माणिषु दण्डं कृत्वाऽपि तं दण्डं गोपयति । 'माई असमाहडसुहस्से यावि भवई' मायी असमाहृतशुमलेश्यथापि भवति-प्रप्रशस्तलेश्यो भवतीति, ‘एवं खलु तस्स' एवं खलु तस्य मायिनः 'तप्पत्तियं' तत्मत्ययिक-तत्कारणकम् 'सावज्जति' सावधम् 'त्ति आहिज्जइ' इत्याधीयते, मायाकरणात्सावधकर्मणां बन्धो भवति-मायिनाम् 'एक्कारसमे' एकादशम् 'किरियहाणे' क्रियास्थानम् 'मायावत्तिए' मायाप्रत्ययिकम् 'त्ति आहिज्ज' इत्याख्यातम् , इति एकादर्श मायापत्ययिकं क्रियास्थानम् ॥१०१२-२७॥ है और न उस्ले पुनः न करने के लिए उद्यत होता है न उस माया की विशुद्धि के लिए यथोचित प्रायश्चित-तपः कर्म अंगीकार करता है। ऐसा मायाचारी पुरुष इस लोक में दुःख भोगता है परलोक में चारचार दुःख भोगता है, वह दूसरों की निन्दा करता है, गर्दी करता है, अपनी प्रशंसा करता है, पुनः-पुनः मायाचार पूर्धक अनुष्ठान करता है, किन्तु माया रूप असदाचरण से निवृत्त नहीं होता है। प्राणियों की हिंसा करके भी उसे छिपाता है। वह अशुभ लेश्या वाला होता અને તે ફરી ન કરવાનો પ્રયત્ન કરતો નથી, તથા તે માયાની વિશુદ્ધિ માટે ‘યોગ્ય પ્રાયશ્ચિત-તપ કર્મને સ્વીકાર કરતા નથી, એ માયાવી પુરૂષ આ લોકમાં દુઃખ ભોગવે છે. પરલોકમાં પણ વારંવાર દુઃખ ભેગવે છે. તે બીજઓની નિંદા કરે છે. અહીં કરે છે. પિતાની પ્રશંસા કરે છે. વારંવાર માયાચાર પૂર્વક અનુષ્ઠાન કરે છે. પરંતુ માયા રૂપ અસદાચરણથી નિવૃત્ત થતા નથી. પ્રાણિની હિંસા કરીને પણ તેને છુપાવે છે. તે અશુભ લેશ્યા Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् . २०३ मूलम्-अहावरे बारसमे किरियहाणे लोभवत्तिए त्ति आहिज्जइ, जे इमे भवंति, तं जहा-आरनिया आवसहिया गामंतिया कण्हुई रहस्लिया णो बहुसंजया णो बहुपडिविरया सव्वपाणभूयजीवसत्तेहि ते अप्पणा सच्चामोसाई एवं विउंति, अहं ण हंतव्यो अन्ने हंतव्वा अहंण अज्जावेयव्यो, अन्ने अज्जावेयव्वा, अहं ण परिघेत्तत्वो अन्ने परिघेत्तठवा अहंण परितावेयवो अन्ने, परितावेयवा अहं ण उद्दवेयव्यो अन्ने उद्दवेयव्वा, एवमेव ते इथिकामेहिं मुच्छिया गिद्धा गढिया गरहिया अज्झोववन्ना जाव वासाइं चउपंचसाई छ।समाई अप्पयरे वा भुज्जयरे वा भुंजित्तुं भोगभोगाइं कालमाले कालं किच्चा अन्नवरेसु आसुरिएसु किदिवसिएसु ठाणेसु उक्वत्तारो भवंति, तओ विष्पमुच्चमाणा भुजो भुजो एलसूयत्ताए तमूयत्ताए जाइमूयत्ताए पच्चायंति, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजांत आहिजड़, दुवालसमे किरियहाणे लोभवत्तिए त्ति आहिए । इच्चेयाइं दुवालस किरियाणाई दविएणं समणेण वा माहणेण वा सम्म सुपरिजाणिअव्वाई भवंति ॥सू०१३॥२८॥ छाया-अथाऽपर द्वादशं क्रियास्यानं लोभमत्ययिकमित्याख्यायते ये इमे भान्ति तद्यया-पारण्यकाः आवसथिकाः, प्रामान्तिकाः, केचिद्राहसिकार नो वहुसंयताः नो बहुमतिविरताः सर्वपाणभूतजीवसत्त्वेभ्यः ते आत्मना सत्यहै। ऐसे मायाधी को माया के निमित्त से पापकर्म का बन्ध होता है। यह मायाप्रत्ययिक ग्यारहवां क्रियास्थान कहा गया है ।।१२।। વાળા હોય છે. એવા માયાવીને માયાના નિમિત્તથી પાપકર્મને બંધ થાય છે. આ રીતે માયા પ્રત્યયિક નામનું અગ્યારમું ક્રિયાસ્થાન કહેલ છે ૧રા Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ सूत्रकृतास मृपाभूतानि एवं वियुज- अहं न इन्धन्योऽन्ये हन्तव्याः अहं नाऽऽज्ञापयितव्यो ऽन्ये आज्ञापयितव्याः | अहं न परितापयितव्योऽन्ये परितापयितव्याः अहं न परिग्रहीतव्योऽन्ये परिग्रहीतव्याः अहं न उपद्रावयितव्योऽन्ये उपद्रावयितव्याः, एव मेत्र ते स्त्रीकामेषु मूर्च्छिताः गृद्धाः ग्रथिताः गर्हिताः अभ्युपपन्ना यावद् वर्षाणि चतुः पञ्च षड् दशकानि अल्पउरान् वा भूयस्तरान् वा भुक्तत्रा भोगान् कालमासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु आसुरिकेषु किल्विपिकेषु स्थानेषु उपपत्तारो भवन्ति । ततो विप्रमुच्यमानाः भूयो भूयः एलमूकलाय तमस्त्वाय जातिमूकत्वाय प्रत्यायान्ति । एवं खलु तस्य तत्प्रत्ययिकं सावद्यमित्याधीयते द्वादशं क्रियास्थानं लोभप्रत्यविकमित्याख्यातम् । इत्येतानि द्वादशक्रियास्थानानि द्रव्येण श्रमणेन वा माहनेन वा सम्यक्परिज्ञातव्यानि भवन्ति || सू० १३= २८ ॥ टीका - एकादशं क्रियास्थानं मायाप्रत्ययिकं निरूपितं सम्प्रति- द्वादर्श क्रियास्थानं लोभप्रत्यविक्रमारभ्यते । 'अहावरे' अथाऽपरम् 'वारसमे' द्वादशम् 'किरियट्ठाणे' क्रियास्थानम् 'लोभवतिए' लोभमत्यविकम् 'त्ति आहिज्जइ' इत्या ख्यायते, 'जे हमे भवंति' ये इसेऽग्रे वक्ष्यमाणा भवन्ति, 'तं जहा' तद्यथा'आरभिया' आरण्यकाः- अरण्यनिवासिनः - तापसाः केचन पाखण्डिनो वने सन्ति तत्र कन्दमूलवर्णसचित्तजलमभ्यहरन्तो भवन्ति केचन वृक्षमूले वसन्ति, 'अहावरे बारस मे किरिया णे' इत्यादि । टीकार्थ - मायाप्रत्ययिक क्रियास्थान का निरूपण किया जा चुका अय लोभप्रत्ययिक बारहवें क्रियास्थान आरंभ किया जाता है । बारहवां क्रियास्थान लोभप्रत्ययिक कहलाता है। ये जो लोग अरण्य में निवास करने वाले तापस होते हैं - कोई पाखंडी वन में वास करते हैं सौर वहां कन्दमूल एवं पत्ते तथा सचित्त जल का उपभोग करते हैं, (૧૨) લાભપ્રત્યયિક ક્રિયાસ્થાન 'अहावरे वारसमे किरियद्वाणे' इत्याहि ટીકા--માયાપ્રત્યયિક નામના ક્રિયાસ્થાનનું નિરૂપણ કરવામા આવી ગયુ'' હવે . ખારમા લાશ પ્રત્યયિક નામના ક્રિયાસ્થાનના આરંભ કરવામાં આવે છે—ખારમુ ક્રિયાસ્થાન લેલ પ્રત્યયિક કહેવાય છે જે આ જગલમાં વસનારા તાપસ લેાકેા હાય છે,—કાઈ પાખ‘ડીએ વનમાં વાસ કરે છે અને ત્યાં કદમૂળ અને પાનડા તથા સચિત્ત જળને Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी ढोका द्वि श्र. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् २०५ 1 केचन पर्णादिकुटि निर्माण वसन्ति केचन ग्रामादेव व्यवहारं कुर्वन्ती ग्रामे - एव वसन्ति, ग्रामसमीपे वा, यद्यपी में पाखण्डिनो न त्रजन्तूनां घातं कुर्वन्ति, तथाऽपि - एकेन्द्रियजीवानां स्वनिहाय घातं कुर्वन्त्येव । यथा-तापसादयः - इमे द्रव्यरूपेणाऽनेक पकारकव्रतपालनं कुर्वन्तोऽपि, सावत्रतं नैव पालयन्ति । कुतः - भाववतकारणस्य सम्यग् ज्ञानस्याभावत् । अतो वस्तुत इमे व्रतहीना एव, इमे पाखण्डिनः - स्वार्थसाधनाय कल्पितामनेकविधां कथामपि कुर्वन्ति । एतेषां वचनमपि - अंशतः कचित् सत्यमसत्यं वा भवति । ते एवं कथयन्ति वयं ब्राह्मणा स्तापसाः । अतो वयं न हन्तव्याः, कशादिभिः शूदा इमे दण्डादिना वाडनीया कोई वृक्ष के मूल में रहते हैं, कोई पत्तों आदि की कुटिया बनाकर रहते हैं, कोई ग्राम से अपना निर्वाह करते हुए ग्राम में ही निवास करते हैं या ग्राम के समीप निवास करते हैं । ये पाखंडी यद्यपि त्रस जीवों का घात नहीं करते तथापि अपने निर्वाह के लिए एकेन्द्रिय जीवों का घात करते ही हैं। तापस आदि द्रव्य रूप से अनेक प्रकार के व्रतों का पालन करते हुए भी भावव्रत का पालन नहीं करते हैं, क्योंकि भावत का पालन करने के लिए सम्यग् ज्ञान अपेक्षित है और वह उन्हें नहीं होता है। इस कारण वास्तव में वे व्रनहीन ही हैं। वे पाखंडी अपना स्वार्थ साधने के लिए अनेक प्रकार की कथा भी किया करते हैं। उनके वचन आंशिक रूप से सत्य या असत्य होते हैं। वे कहते हैं - हम व्रह्मण तापल हैं, अतएव हनन करने योग्य नहीं हैं । ये शुद्र हैं, इनको चाबुक आदि से तथा डंडा आदि से ताड़न ઉપભાગ કરે છે, કાઇ ઝાડના મૂળમાં રહે છે કેાઇ પાનડા વગેરેની કુટિરા અનાવીને રહે છે, કાઈ ગામમા પેાતાના નિર્વાહ કરતા થકા ગામમાં જ રહે છે. અથવા ગામની નજીકમાં નિવાસ કરે છે અથવા ગામની સમીપે નિવાસ કરે છે, આ પાખ'ડી જો કે ત્રસ જીવેાના ઘાત કરતા નથી તેા પણુ પે.તાના નિર્વાહ માટે એકેન્દ્રિય જીવાના ઘાત કરે જ છે. તાપસેા વિગેરે દ્રવ્યપણાથી અનેક પ્રકારના નેાનુ પાલન કરતા થકા પણ ભાવ વ્રતનું પાલન કરતા નથી, કેમકે ભાવ વ્રતનું પાલન કરવા માટે સમ્યક્ જ્ઞાનની અપેક્ષા રહે છે અને તેએમા તે હેતુ નથી. તેથી વાસ્તવિક રીતે તેએ મત વિનાના જ હાય છે તે પાખડયા પેાતાના સ્વાથ સાધવા માટે અનેક પ્રકારની કથાઓ પણ કર્યા કરે છે, તેમના વચને અશત. સત્ય અથવા અસત્ય હૈાય છે. તેઓ કહે છે કે અમે બ્રાહ્મણ તાપસ છીએ તેથી મારવાને ચાગ્ય નથી આ શુદ્ર છે, તેને ચામકા વિગેરેથી તથા ઠંડા વિગેરેથી Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ सूत्रकृतात्रे इति । एतानेव पाखण्डिनोऽधिकृत्य सूत्रकारः कथयति 'आरन्निया' इत्यादि । 'आवसहिया' आवसथिकाः कुटीं निर्माय वसन्ति, 'गामलिया' ग्रामा न्तिकाः- ग्रामसमीपे एव वसन्ति 'कण्हुई रहस्सिया' के चिद्राहसिका :- गुप्त क्रियाकर्त्ता भवन्ति, केवन 'णो बहुसंजया णो बहुपडिविरया' नो बहुसंयताः -नो सर्वसाय निवृत्ता:- ते न सर्वथा निवृत्तकर्माणो भवन्ति नो वहु प्रतिविरताः-न सर्व व्रतपालकाः 'सव्वपाणभूय जीवसत्तेर्हि' सर्वप्राणभूतजीवसत्वेभ्यः, 'नो वहुसंयताः नो विरताः' एतेषां जीवानां हिंसातो न सर्वथा निवृत्ता', 'ते अप्पणा सच्चामोसाई एवं पति' ते पाखण्डिनः तापसप्रभृतयः - आत्मना - स्वयं सत्यानि मृपावचनानि च प्रयुञ्जते - वदति । तथाहि - 'अहंण तन्वो' अहम्न हन्तव्यः - दण्डादिना न ताडयितव्यः सत्यपि अपराधे, किन्तु - 'अन्ने तम्बा' अन्ये- शूद्रादयो हन्तव्याः 'अहं ण अज्जावेयन्त्रो' अहं नाऽऽज्ञापयितव्यः - अनभिमतकार्येषु न प्रवर्त्त यितव्यः, 'अन्ने अज्जावेयना' अन्ये- शूद्रादय आज्ञापयितव्याः, नीववर्णा करना चाहिए। ऐसे पाखंडीयों के विषय में सूत्रकार कहते हैं- वे अरण्य में निवास करने वाले, कुटीर बनाकर रहने वाले, ग्राम के समीप निवास करने वाले, कोई-कोई गुप्त क्रिया करने वाले होते हैं । वे न सर्व सावद्य से विरत होते हैं और न सर्व व्रतों के पालक होते हैं । समस्त प्राणों, भूतों, जीवों और सत्वों की हिंसा से सर्वथा निवृत नहीं होते हैं। वे सच्चे झूठे वचनों का प्रयोग करते हैं। जैसे- अपराध होने पर भी मैं हन्तव्य नहीं हूं अर्थात् दंड आदि से ताडनीय नहीं हूं, अन्य गवादिक हन्तव्य हैं, मैं अनिष्ट कार्यों में प्रवृत्त करने योग्य नहीं हैं, दूसरे शूद्रादिक प्रवृत्त करने योग्य हैं, मैं दास या भृत्य बनाने મારવા જોઈએ એવા પાખંડિયાના સ`ખધમાં સૂત્રકાર કહે છે કે-તે જગ લમાં નિવાસ કરનારાએ, કુઢિયા બનાવીને રહેનારાએ, ગ્રામની સમીપમાં નિવાસ કરનારાઓમાં કઈ કાઇ ગુપ્ત ક્રિયાએ કરવાવાળા હોય છે, તે સ સાવદ્યથી વિરત હેાતા નથી, તેમજ સ તાનુ' પાલન કરવાવાળા પશુ होता नथी. सघणा, आथे, भूतो, लवे, भने सत्यानी हिसाथी सर्वथा નિવૃત્ત થતા નથી, તે સાચા કે ખાટા વચનાના પ્રયાગ કરે છે, જેમકેઅપરાધ હોવા છતાં પશુ હું હુંતવ્ય-મારવા ચેગ્ય નથી, અર્થાત્ દંડ વિંગે રેથી શિક્ષા કરવાને ચાગ્યુ નથી, અન્ય શૂદ્ર વિગેરે હન્તવ્ય-શિક્ષા કરવાને ચેાગ્ય છે, હુ' અચેાગ્ય કાર્યમાં પ્રવૃત્તિ કરવા ચેાગ્ય નથી. બીજા શૂદ્રો વિગેરે તેવા કાર્ચમાં પ્રવૃત્તિ કરાવવા ચૈાગ્ય છે, હૂ' દાસ અથવા ચાકર બનવાને Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ समयार्पयोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् २०७ दावेव आज्ञादिका कर्तव्या' न पुनरस्मत्सु विशिष्टेषु 'अहं ण परिवेत्तयो' अहं न परिग्रहीतव्यः-अयं मम मृत्य इति कृत्वा स्वाधीनतया न स्वीकर्त्तव्यः न परिग्रहीतुं योग्यः, अपितु 'अन्ने परिघेत्तव्या' अन्ये जीवाः परिग्रहीतव्या 'अहं ण परितावे यत्रो' अहं न परितापयितव्यः, किन्तु 'अन्ने परितावेयव्या' अन्ये परितापयित. व्याः-अन्नाधवरोधेन ग्रीष्मतापादौ स्थापनेन मदतिरिक्ताः क्षुदा जन्तवः शूद्रादयः परितापयितव्याः 'अहं णो उद्दवेययो' अहन्नोपद्रावयितव्यः-विषशस्त्रादिनान मारयितव्यः, किन्तु-'अन्ने उद्दवेयवा अन्ये-मद्व्यतिरिक्ताः शूद्रादयः क्षुद्रजन्तवः उपद्रावयितव्याः । एवमेव ते तापमपमृतयः पाखण्डनः 'इस्थियकामें हिं' स्त्रीकामेषु वनितायां कामभोगादौ च 'मुच्छिया मूच्छिताः-आसक्ता स्ते उपदेशकाः 'गिद्धा' गृद्धाः-गृद्धि:-अभिलाषा, सा च वनितादिवाह्य वस्तुविषयिणी-तया युक्ताः सदैव कामभोगान्वेषणे संलग्नाः, 'गढिया' ग्रथिताः-विषयै ग्रंथिताः 'गरहिया' गर्दिताः-निन्दिताः-शिष्टै, 'अन्झोववन्ना' अध्युपपन्न!:-निरन्तरकापभोगविषयकचिन्तया व्यग्राः, 'जाव' यावर 'गसाई च पंचमाइं छद्दसमाई' के लिए योग्य नहीं हूँ, दूसरे दाल पनाने योग्य हैं, मैं परितापनीय नहीं हूं अर्थात् अन्नपानी में रुकावट डाल कर अथवा धूप आदि खड़ा करके संताप पहुंचाने योग्य नहीं हूं, किन्तु दूसरे परितापनीय हैं मैं खड़ा करके संताप पहुंचाने योग्य नहीं है, किन्तु दूसरे परितापनीय हैं, मैं विष या शस्त्र आदि ले मारने योग्य नहीं हूं, दूसरे मारने योग्य हैं। इस प्रकार के वचन बोलने वाले वे तापस आदि पाखंडी स्त्रियों और कामभोगों में मूर्छित होते हैं, गृद्धियुक्त होते हैं-सदैव काम भोगों की तलाश में लगे रहते हैं विषयों में ग्रथित रहते हैं, शिष्ट जनों द्वारा निन्दित होते हैं, निरन्तर काम भोग की चिन्ता में डूबे ચોગ્ય નથી. બીજા દાસ બનાવવાને ચગ્ય છે, હું સંતાપિત કરવાને ગ્ય નથી. અર્થાત્ અનપણમાં રોકાવટ કરીને અથવા તડકા વિગેરેમાં ઉભા રાખીને સંતાપવા યોગ્ય નથી, પણ તેવા સંતાપ પહોંચડવાને બીજાઓ છે, હું વિષ અથવા શસ્ત્ર વિગેરેથી મારવાને યોગ્ય નથી, બીજાઓ તેવી રીતે મારવાને ચગ્ય છે. આવા પ્રકારના વચને બેલવા વાળા તે તાપસ વિગેરે પાખંડી, સ્ત્રિ અને કામોમાં મૂચ્છિત હેવાથી ગૃદ્ધિઆસક્તિ યુક્ત હોય છે. તેઓ હંમેશાં કામગોની તપાસમાં લાગ્યા રહે છે. વિષમાં ગુથાયેલા રહે છે. શિષ્ણજન દ્વારા તેઓ નિન્દિત હોય છે. હમેશાં કામગની ચિંતામાં ડૂબી રહે છે. યાવત્ ચાર, પાંચ, છ અથવા દસ વર્ષ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे २०८ 2 चतुः पञ्च पदशकानि वर्षाणि 'अप्पयरे वा' अल्पदरान वा 'भुज्जयरे वा' थूयस्तरान् वा 'भोगभोगाई' भोगयोगान् भोग्यपदार्थविपपक भोगान 'जित' भुक्त्वा पयसंपर्कजनितसुखसाक्षात्कारं कृत्वा 'कालमासे' कालमासे मरण. समये प्रावि 'कालं किच्चा' कालं मरणं कृत्वा - शरीरपरित्यागात्मक मरणं प्राप्य 'अन्नयरेसु' अन्यतरेषु 'आसुरिएस' आसुरिकेषु - असुरयोनिषु 'किल्विसिएस' fafearfung 'ठाणे' स्थानेषु 'उत्तारो भवति' उपपत्ता भवन्ति, गवारो मृत्वा किल्विष देवता भवन्ति, 'ताओ विष्पसुच्चमाणा' तातो चिप्रमुच्यमानाः - देव शरीरेण भोगमुभुज्य क्षीणे तस्कर्मणि तंतला 'भुज्जो भुज्जो' भूयो भूयः परं चारम् 'एलमूयत्ताए' एलसूकत्वाय तत्र एलो नेप स्वद्वत् सुकाः- अरक्तत्राचः - स्त्र भावतोsवाक्शक्तिमन्तः तेषां भावः एलमुकलं तस्मै । 'तमुयतात्' तमस्त्वाय जन्मनेत्र अन्धाय ' जाइयत्तार' जातिकत्वाय जन्मनेत्र काय जन्मने हा अन्धाश्च भवन्तीति भावः - पत्रात प्रत्यायान्दि-प्रत्यागच्छन्ति देवात् पच्यु - तिमत्राय जात्यन्धाय पुनः पुनरागच्छन्ति एवं वद्य वस्त्र' एवं ख तत्य पाख ण्डिनः 'तष्पत्तियं' तत्प्रत्ययिक - लोमकारणकम् 'सावज्ज" सावयं कर्म 'त्ति आहि ज्ज' इत्याधीयते - समुत्पद्यते, 'दुवालसमे' द्वादशम् 'किरियट्टाणे' क्रियास्थानम् 'लोभवत्तिए' लोपस्ययिकम् 'चि आहिए' इत्याख्यातम् ' इच्चेयाई' इत्येतानि 'दुवालस किरियाणाई' द्वादशक्रियास्वानानि 'दक्षिणं' द्रव्येण - शुक्तियोग्येन 'सम रहते हैं यावत् चार, पांच, छह था दश वर्ष तक थोडे घर बहुत भोग्य पदार्थों का भोग करके, काल अवसर प्राप्त होने पर काल करके असुरनिकाय में किल्विषी नाम के देव के रूप में उत्पन्न होते हैं । -- - - आयु कर्म के अनुसार वहाँ देव शरीर से भोग भोग कर, कर्मके क्षीण होने पर क्षेत्र लोक से चचते हैं और वास्वार गूगे मेढे के समान अव्यक्त यचन वाले होते हैं जन्म से अन्धे या जन्म से गूगे होते हैं । इस प्रकार उन पाखंडीयों को लोभ के निमित्त से पाप कर्म का यन्त्र होता है । यह लोभप्रत्यधिक बारहवां क्रियास्थान कहलाता है । સુધી ઘેાડા કે વધારે ભાગ્ય પદાર્થŕને ઉપલેાગ કરીને કાલના સમય આવતાં કાલ ધમ પામીને અસુરનિકાયમાં સિમિષિક પણાથી ઉપન્ન થાય છે. આયુ કર્મ પ્રમાણે ત્યાં દેવ શરીરથી ભેગ ભેળવીને ક્રના ક્ષીણ થવાથી દેવલેાકથી ચવે છે અને વારવાર શુંગા-તેાતળાની જેમ અસ્પષ્ટ વચના ખાવે છે, જન્મથી આંધળા અથવા જન્મથી શુંગા-હેય છે. આ રીતે તે પાખડીચેાને લાભના નિમિત્તથી પાપકમના અધ થાય છે. આ લાભ પ્રત્યયિક નામનું ખારમું ફિયાસ્થાન કહેવાય છે. Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टोका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् २०९ णेण' श्रमणेन-साधुना 'माहणेण वा महिनेन वा 'सम्म' सम्यक ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा 'सुपरिजाणि अम्बाई भवंति' सुपरिज्ञातव्यानि भवन्ति-साधुना सम्यग एतानि क्रियास्थानानि ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिशया परित्यक्तव्यानि भवन्ति । अर्थदण्डादारभ्य लोभप्रत्ययिकपर्यन्तानि द्वादशक्रियास्थानानि ज्ञात्मा त्याज्यानीति ॥५०१३=२८॥ मूलम्--अहानरे तेरसमे किरियटाणे ईरियावहिएत्ति आहिजह, इह खल्लु अत्तत्ताए संवुडल्स अणमारस्स ईरियासमियस्स भासालनियस एलणालमियस्स आयाणभंडमत्तणिखेवणा समियरस उच्चारपालवणखेलसिंघाण जल्लपारिठ्ठावणिया समियस्त सणसभियस वयसमियस्व कायसमियस्त सणगुत्तस्स वयगुत्तस्त कायगुत्तस्त गुन्तिदिवस गुत्तबंभयारिस्ल आउत्तं गच्छमाणस आउत्तं चिट्ठमाणल आउत्तं णिसीयमाणस्स आउत्तं तुयमाणस्स आउत्तं भुजमाणस्स आउत्तं भासमाणस्स आउत्तं इत्थं परिग्गहं कंबलं पायपुंछणं गिव्हमाणस्स वाणिक्खिवप्नाणस वा जान चक्खुपम्हणिवायमवि अस्थि विमाया मुहमा किरियाईरियावहिया नाम कजाइ, प्लाय पढमसमए बद्धा पुट्टा बितियसमए वेइया तइयसलए णिजिपणा सा बद्धा पुटा मुक्ति गमन के योग्य प्रमण को यह पारह किंधास्थान सम्यक् प्रकार से ज्ञपरिज्ञा से अनर्थ का कारण जोन कर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग देना चाहिए। अर्थात् अर्थदण्ड से लगाकर लोभमत्ययिक पर्यन्त बारह क्रियास्थान जानकर त्यागने योग्य हैं ॥१३॥ મુક્તિ ગમનને ચોગ્ય પ્રમાણે આ બાર કિયાસ્થાનેને પરિજ્ઞાથી સારી રીતે અનર્થ કારક સમજીને પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞાથી તેને ત્યાગ કરે જોઈએ. અર્થાત્ અર્થદંડથી આરંભીને લેભપ્રત્યયિક સુધીના બાર કિયાસ્થાને જાણીને તેનો ત્યાગ કરવા ગ્ય છે. સૂ૦૧૩ सु० २७ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० सूत्रकृतागसूत्रे उदीरिया वेइया णिजिषणा सेय काले अकम्मे यावि भवइ, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावनंति आहिज्जइ, तेरसमे किरियहाणे ईरियारहिए ति आहिज्जइ । से वेमि जे य अतीता जे य पडपन्ना जे य आगमिस्ला अरिहंता भगवंता लव्वे ते एयाई चेव तेरस किरियाणाई भालिंसु वा भालेंति वा भालिस्तंति वा पन्तर्विसु वा पल्लविंति वा पन्नविस्वति वा, एवं चेव तेरसमं किरियट्राणे सेविंसु वा सेवंति वा सेविस्तंति वासू०१४॥२९॥ ___ छाया-अथाऽपरं त्रयोदशक्रियास्थानमैर्यापथिक्कमित्याख्यायो । इह खलु आत्मत्वाय संवृतस्यानगारस्य ईसिमितस्य भापासमितस्य एपणासमितस्य आदानभाण्डमात्रानिक्षेपणा समितस्य उच्चारपत्र वणखेलसिंघाण जल्ल परिष्ठापना. समितस्य मनःसमितस्य वचःसमितस्य कायसमितस्य मनोगुप्तस्य बचोगुप्तस्य कायगुप्तस्य गुप्तेन्द्रिस्य गुप्तब्रह्मचर्यस्य आयुक्तं गच्छतः आयुक्तं तिष्ठतः आयुक्तं निपीदतः आयुक्तं त्वग्वर्तनां कुर्वतः आयुक्तं भुञानस्य आयुक्त भापमाणस्य आयुक्तं वस्त्रं परिग्रहं कम्बलं पादपोञ्छनं गृह्णतो वा निक्षिपतो वा यावचक्षुःपक्ष्मनिमीलनमपि अस्तिविमात्रामुक्ष्मा क्रिया ऐर्यापथिकी नाम क्रियते। सा च मथमसयये बद्धा स्पृष्टा द्वितीयसमये वेदिता तृतीयसमये निर्जीर्णा सा बद्धा स्पृष्टा उदीरिता वेदिता निर्जीर्णा एण्यत्काले अकर्म चाऽपि भवति, एवं खलु वस्य खत्मत्ययिकं सावध मित्याधीयते, त्रयोदशं क्रियास्थानगर्यापधिकमित्याख्यायते । तत् ब्रवीमि ये च अतीता:में च प्रत्युत्पन्नाः ये च आमिष्यन्तः अर्हन्तो भगवन्तः सर्वे ते एतानि चैव त्रयोदश क्रियास्थानानि अभापिषुर्या आपन्ने, वा भाषिष्यन्ते वा माजिज्ञपन् वा प्रज्ञापयन्ति वा प्रज्ञापयिष्यन्ति वा । एवं चैव त्रयोदशं क्रियास्थानम् असेयन्त वा सेवन्ते वा सेविष्यन्ते वा ॥सू०१४=२९॥ टीका-द्वादशान्तं क्रियास्थानं निरूपित सम्मावि त्रयोदशं क्रियास्थानमाह'अहावरे' इत्यादि । अथाऽपरम् 'तेरसमे किरियहाणे' त्रयोदशं क्रियास्थानम् 'ईरिया (१३) इपिथिक क्रियास्थान 'अहावरे तेरसमे किरियट्ठाणे' इत्यादि । (૧૩) ઈપથિક ફિયાસ્થાન 'बहावरे तेरसमे किरियट्ठाणे' त्या Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सैमयार्थबोधिनी टोका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् २१५ वहिए' ऐपिथिकम् 'त्ति आदिज्म' इत्याख्यायते । इह-अस्मिन् जिनशासने खलु इति वाक्यालङ्कारे। 'अत्तत्ताए' आत्मत्वाय-आत्मभावाय समस्वरूपेऽत्रस्थानमात्मभावः आत्मनः स्वरूपं निरतिशयसुखरूपमेव किन्तु अनादिकालिककर्ममलसंवरणात तत्स्वरूपं विरोहितमिव भवति । यहा तु-प्रारभत्रीयमुक्तबलात्-परित्यक्तगृहादिसम्बन्धो जातदीक्षश्च-विशिष्टतपश्चरणादिना कर्मजाले समुच्छि नत्ति, ततो. ऽस्य आत्मभावोपगमो भवति । एतादृशात्मभावोपगमाय-'संवुडस्स' संस्तस्यसर्वदान्तनिवृत्तस्य 'भणगारस्स' अनगारस्य-गृहादि मोहं परित्यज्य संपाप्तदीक्षस्य 'ईरियासमियस्स' इसिमितस्य-ईसिमित्या सर्वदा युक्तस्य 'भासा समियस्स' ___टीकार्थ-धारह क्रियास्थानों का निरूपण किया जा चुका। अब तेरहवां कियास्थान कहते हैं। वह ऐपिथिक कहलाता है। जिनशासन में स्वात्मस्वरूप में स्थित होना आत्मभाव कहा गया है । आत्ला निरतिशय सुखस्वरूप है, किन्तु अनादिकालीन कर्म-मल के बारा अच्छादित एवं फलुषित होने के कारण वह स्वरूप तिरोहित सा हो रहा है। जब कोई भव्य जीव पूर्वोपार्जित पुण्य के घल से गृह आदि का संबंध त्याग कर दीक्षा अंगीकार करता है और विशिष्ट तपश्चर्या आदि के द्वारा कर्मों का उच्छेदन करता है तब वह आत्म भाव को प्राप्त होता है। इस प्रकार आत्मभाव को प्राप्त करने के लिए जो संबर से युक्त है, अनगार होकर दीक्षा धारी बन चुका है, 'पर्या. समिति से समित है भाषा समिति से युक्त है अर्थात् सावध भाषा 1 ટીકાર્યું –બાર કિયાસ્થાનેનું નિરૂપણ કરવામાં આવી ગયું હવે તેરમું ફિયાસ્થાન પથિક કહેવાય છે. જીન શાસનમાં વાત્મ સ્વરૂપમાં રહેવું તે આત્મભાવ કહેવાય છે. આત્મા નિરતિશય સુખ સ્વરૂપ છે. પરંતુ અનાદિકાળના કર્મમળ દ્વારા ઢંકાયેલ અને મલીન હેવાના કારણે તે સ્વરૂ૫ ગુપ્ત જેવું હોય છે. જ્યારે કઈ ભવ્ય જીવ પહેલાં પ્રાપ્ત કરેલા પુણ્યના બળથી ઘર વિગેરેના સંબંઅને ત્યાગ કરીને દીક્ષાને સ્વીકાર કરે છે. અને વિશેષ પ્રકારની તપશ્ચય વિગેરે દ્વારા કાને નાશ કરે છે ત્યારે તે આત્મભાવને પ્રાપ્ત કરે છે. આ રીતે આત્મભાવને પ્રાપ્ત કરવા માટે જેઓ સંસારથી યુક્ત છે, અનગાર થઈને દીક્ષા ધારણ કરી ચૂક્યા હોય છે, ઈર્ષા સમિતિથી સમિત છે, ભાષાસમિતિથી યુક્ત છે, અર્થાત સાવદ્ય ભાષાને ત્યાગ કરી ચૂક્યા હોય છે, Page #474 --------------------------------------------------------------------------  Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् २२३ 'आउत्तं भुजमाणस' सोपयोगं शुञानस्य-आहारसमयेऽपि-उपयोगवतः, 'आउत्तं भासमाणस्त सोपयोग आपमाणस्प पकने-मायुक्त व निरपद्यवचनप्रयोक्तत्वमेव 'आउत्तं वत्थं परिमहं कंबलं पापुंछगं गिण्हमाणस्स' सोपयुक्तं वस्त्रं परिग्रहं कम्बलं पादपोछनं सदोरकम खरस्त्रिको गृह्णनो वा, वस्त्रपरिग्रहादीनां ग्रहणमपि-उपयोगवान् सन्नेव करोति, 'णिक्खित्रमाणस्स वा निक्षि पतोऽपि वा-उपयोगयुक्त एव एतेषां वस्त्रपरिग्रहादीनां संरक्षणमपि । किं बहुना 'जाव' यावत् 'चखुपम्हणिदायमवि' चक्षुषोः-पक्षनिमीलन मषि, चक्षुप उन्मेष निमेपावपि सोपयोगमेव कुवतः, यवत् किमपि कार्य करोति तत्सर्व सोपयोगमेव भवति । एतादृशः पुरुषः सर्वतो विरक्त:-आत्म भावाय अकल्पते, मोक्षाऽधिकारी भवति, 'अस्थि विमाया सुहुमा किरिया ईरियारहिया नाम कज्जई' अस्ति विमाना-अनेकपकारा, स्तोकमात्रा वा, दुर्विज्ञेयत्वात् । सूक्ष्मवुद्धिनापि दुःखेनैव ज्ञायते, एतादृशी-ऐयापथिको किया क्रियते नाम, वृक्षमा सा-ऐपिथिकी क्रिया कर्तः संजग्ना भवति । सा-ऐपिथिकी क्रिया, 'पढमसमए' प्रथमसमये में भी उपयोगवान् है, आहार करने में उपयोगबात है, भाषण करने में उपयोगवान है निरवद्य वचनों का ही प्रयोग करता है, इत्र पात्र कंपल वादोछन सदोरा मुहपत्ति आदि के ग्रहण करने में एवं रखने में उपयोगवान् है अधिक क्या कहा जाय, जो आंख का पलक गिराने में भी उपयोगधान है, तात्पर्य यह कि जो प्रत्येक क्रिया उपयोग पूर्वक ही करता है ऐसा लम्पूर्ण रूप से विरक्त साधु अन्य आवना वालामोक्ष का अधिकारी होता है। ऐसे साधु को भी विविध मात्रा से अनेक प्रकार की सूक्ष्म ऐपिथिकी क्रिया लगती है, जिले स्तूदन घुद्धि वाले भी कठिनाई ही जान सकते हैं। वह ऐयापधिकी क्रिया पहले આહાર કરવામાં ઉપગ વાળ છે. બોલવામાં ઉપગ વાળા છે. નિરવદ્ય વચનેને જ પ્રયોગ કરે છે, વસ્ત્ર, પાત્ર, કાંબળ, પાદપ્રીંછન, સદેરક મુહ પત્તી વિગેરે ગ્રહણ કરવામાં અને રાખવામાં ઉપયોગ વાળા છે, વધારે શું કહેવાય ? જેઓ આંખને પલકાર મારવામાં પણ ઉપયોગવાળા છે, કહેવાનું ત પર્ય એ છે કે જેઓ પ્રત્યેક કિયાએ ઉપયોગ પૂર્વકજ કરે છે, સંપૂર્ણ પણથી વિકૃત એવા એ સાધુ અનન્ય ભાવનાવાળા મેલના અધિકારી બને છે. એવા સાધુને પણ જુદી જુદી માવાથી અનેક પ્રકારની સૂક્ષ્મ એવી અર્યાપ વિકી ક્રિયા લાગે છે જેને સૂમ બુદ્ધિવાળાએ પણ મુશ્કેલીથી જ જાણી શકે છે. તે અપથિકી કિયા પહેલા સમયમાં સૂક્ષ્મતમ કાળમાં-(જે આગ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૪ सुत्रकृताङ्गसूत्रे - थपक्षणे समय हि युक्ष्मकाल, स च स्वशास्त्रादेन अवसेयः । चद्रा भवति, तथ - 'पुडा' स्पृष्टा भवति च ममममये योत्यते-आत्मना संवध्यते च 'वितियसमर' द्वितीयसमये सा 'वेडया' वेदिता भवति तस्या अनुभवो जायते । 'समय' तृतीयसमये सा 'णिज्जिण्णा' निर्जीर्णा नष्टा भवति, समुन्द्याssमानं स्पृशति - अनुभावयति न प्रपगता भवति । अतएव सा ऐपथिकी क्रिया वा स्पृष्टा - इति साध्यते बन्धस्पर क्रियते योगकारणात् । बन्धो जायते, किन्तु - पायामावान्न स्थीयते, स्थितौ रुपायस्य कारणत्वात् अतएव कपायसादेव - इतरत्र स्थीयते, 'साबद्रा पुडा - उदीरिया वेड्या - निज्जिब्जा' सा वहा स्पृष्टा - उदीरिता वेदिता निर्जीर्णा, मवमसमये बद्रा स्पृष्टा च भवतिइति कथिता, वेदिता मवति द्वितीयसमये, निर्जीर्गा च भवति तृतीयसमये 'सेय समय में लक्ष्मणकाल से जो आगम से जानने योग्य है, बंधती है और स्पृष्ट होती है, दूसरे समय में वेदन की जाती है और तीसरे समय से निर्जीर्ण हो जाती है। तात्पर्य यह है कि ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में कपाय का उदय नहीं रहना । अतएव उस समय कपाय के निमित्त से होने वाले स्थिति और अनुभागन्ध का भी अभाव हो जाता है। किन्तु योग की विद्यमानता के कारण प्रकृति बन्ध और प्रदेशबन्ध उस समय भी होता है । अर्थात् योग के कारण कर्मलिक बनते हैं और उनमें विभिन्न प्रकार के स्वरूप भी उत्पन्न होते हैं किन्तु कपाय के अभाव के कारण वे न आत्मा में ठहरते हैं और न फल ही प्रदान कर सकते हैं । इसी कारण यहां कहा गया है कि ऐर्यापथिकी क्रिया प्रथम समय में મથી જાણવા ચેાગ્ય હાય છે) મંધાય છે. અને ધૃષ્ટ થયુ છે બીજા સમયમાં વેદન કરાય છે. અને ત્રીજા સમયમાં નિણું થઈ જાય છે. તાપ એ છે કે—અગ્યારમ ખારમા અને તેરમા ગુણુસ્થાનમાં કષાયના ઉદય થતા નથી, તેથી જ એ સમયે કષાયન' નિમિત્તથી થવાવાળા સ્થિતિ મધ અને અનુભાગ મધને પણ અભાવ થઇ જાય છે, પરંતુ ચેાગના વિદ્ય માન પણાથી પ્રકૃતિમધ અને પ્રદેશખન્ય એ વખતે પણ ડેાય છે. અર્થાત્ ચેગના કારણે કર્માંદલિક ખંધાય છે, અને તેમા જૂદા જૂઠા પ્રકારના સ્વભાવે પશુ ઉત્પન્ન થાય છે. પરંતુ ક્યાયના અભાવના કારણે તેએ! આત્મામાં રહેતા નથી, અને ફળ પણ આપી શકતા નથી. એજ કારણથી અહિયાં કહેવામાં આવ્યુ છે કે—ઐર્યાપથિકી ક્રિયા પ્રથમ સમયમાં બદ્ધ અને સ્પૃષ્ટ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् काले अकम्मे यावि भवई' सैव-पूर्वोक्ता क्रिया एपकाले-चतुर्यक्षणे अकर्मता चाऽपि भवति-कर्मसंज्ञामपि परित्यजति ‘एवं खलु तस्स' एवं खलु तस्य-वीतरागस्य-ऐपिथिकी क्रिया भवति 'तप्पत्तियं' तत्पत्ययि कम्-ऐपिथिक कि गजन्यम् 'सावज्ज' सावधं कर्म 'त्ति आहिज्जई' इत्याधीयते-सात्पद्यते वीतरागस्याऽपि 'तेरसमे किरियाणे ईरियावहिए' त्रयोदशं क्रियास्थानमैपिथिकम् 'त्ति आहिज्जई' इत्याधीयते-इत्याख्यायते 'से वेमि' तदह ब्रीमि-कथयामि-सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामिनं प्रति कथयति-तीर्थकरोदीरितं नियास्थानं तुभ्यमहं कथ. यामि, 'जे य अतीता-जे य पडुप्पन्ना जे य आगमिस्सा' ये चाऽतीवा:-ये च प्रत्युत्पन्नाः-ये च भविष्यन्तो-भविष्यकाले भविष्यन्ति । 'अरिहंता भगवा' आईन्तो भगवन्तः 'सम्वे ते.एयाई चेव किरियाणाई' सर्वे ते तीर्थकरा:-तानिचैव त्रयोदशक्रियास्थानानि 'भासिसु' अभाषिषुः भापितवन्तः, 'भासें ति' भाषन्ते बद्ध एवं स्पृष्ट होती है दूसरे समय में सिर्फ प्रदेशों से (अनुभाग से नहीं) उसका वेदन होता है और तीसरे समय में निर्जरा हो जाती है। तत्पश्चात् चतुर्थ आदि लमयों से उसकी कर्मसंज्ञा भी नहीं रह जाती। इस प्रकार उस निष्कषाय वीतराग पुरुष को ऐपिथिकी क्रिया होती है और उसके निमित्त से उसले लाचद्य कर्म होता है। यह तेरहवां ऐपिथिक क्रियास्थान कहलाता है। श्री स्लुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी ले कहते हैं--हे जम्बू ! तीर्थ कर द्वारा प्ररूपित क्रियास्थो मैंने तुम्हें कहे हैं। जो तीर्थ कर मृतकाल में हो चुके हैं, वर्तमान में है और भविष्य में होंगे, उन सभी अरिहन्त भगवन्तों ने यही तेरह क्रियास्थान कहे हैं, कहते हैं और कहेंगे। થાય છે. બીજા સમયમાં કેવળ પ્રદેશોથી (અનુભાગથી નહીં) તેનું વેદ થાય છે. અને ત્રીજા સમયમાં તેની નિર્જરા થાય છે અર્થાત્ તેની કર્મ સંજ્ઞા પણ રહેતી નથી આ રીતે તે કષાય વિનાને વીતરાગ પુરૂષને ઐય પથિકી ક્રિયા હેય છે, અને તેના નિમિત્તધી તેને સાવધ કર્મ થાય છે, આ તેરમું ઐર્યાપયિક ફિયાસ્થાન કહેવાય છે. શ્રી સુધર્માસ્વામી જ બૂસ્વામીને કહે છે કે – હે જરબૂ તીર્થકર દ્વારા પ્રરૂપિત ક્રિયા સ્થાન મેં તમને કહ્યા છે, જે તીર્થકર ભૂતકાળમાં થઈ ચુક્યા છે. વર્તમાનમાં છે અને ભવિષ્યમાં થનારા સઘળા અરિહન્ત ભગવતેએ આ તેર ફિયાસ્થાન કહ્યા છે. કહે છે, અને કહેશે. તેનું પ્રતિપાદન કર્યું છે, કરે છે. Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ सूत्रकृतागो 'भासिस्संति वा' भाषिष्यन्ते वा 'पम्नविच वा' प्राजिज्ञान् वा 'पनर्विति वा' प्रज्ञापयन्ति वा 'पनविरसति वा प्रज्ञापयिष्यन्ति वा, न केवलं कथितवन्तः, कथयन्ति, कथयिष्यन्ति, शिन्तु-तस्याचरणमपि स्वयं कुर्वन्ति धर्मरयाचार्यस्वात्, आचार्यलक्षणं चोक्तम् आचिनोति च शास्त्रार्थ माचारे स्थापयत्यपि । स्वयमाचरते यरमादाचार्यस्वेन स स्मृतः ॥१॥ इत्येव दर्शयति-'एवं चेव तेरयम किरियाण' एवमेव च त्रयोदशं क्रिया स्थानम् ‘सेविसु' सेवितवन्तः-भतीतास्तीकराः, 'सेति' सेवन्ते-वर्तमाना स्तीर्थकराः, 'सेविसंति का' सेविष्यन्ते-मना गया स्तीकरा इति ॥१४ २९॥ मूलम्-अदुत्तरं च णं पुरिसविनयं विलंगमाइनिखरतालि इह खलु णाणापण्णाणं णापाछंदाणं णाणालीलाणं णाणादिहीणं णाणारुणं जाणारंभाणं गाणाझवसाणसंजुलाणं जाणाविहपावलुयज्झयणं एवं सवइ, तं जहा-भोमं उपायं सुविणं इन्हीं का प्रतिपादन किया है, करते हैं और करेंगे। वे इसी के अनुसार स्वयं आचरण करते हैं क्योंकि वे धर्माचार्थ हैं। आचार्य का लक्षण इस प्रकार कहा गया है-जो शास्त्र के अनुसार स्वयं आचरण करता है और दूसरों को भी आचरण में स्थापित कराता है वह आचार्य कहलाता है। • इस प्रकार भूत काल में जो तीर्थकर हुए हैं उन्होंने इसी तेरहवें क्रियास्थान का सेवन किया है, वर्तमान कालीन तीर्थंकर भगवान् इसी का सेवन करते हैं और भविष्यत् कालीन तीर्थंकर भगवान् इसी का सेवन करेगे ॥१४॥ અને કરશે. તેઓ આજ પ્રમાણે સ્વયં આચરણ કરે છે કેમકે તેઓ ધર્માચાર્ય છે. આચાર્યનું લક્ષણ આ રીતે કહેલ છે. જે શાસ્ત્ર પ્રમાણે સ્વયં આચરણ કરે છે. અને બીજાને પણ આચરણમાં સ્થાપિત કરે છે, તે આચાર્ય કહેવાય છે, આ પ્રમાણે ભૂતકાળમાં જે તીર્થકર થયા છે, તેઓએ આ તેરમા ક્રિયાસ્થાનનું સેવન કર્યું છ, વર્તમાન કાળના તીર્થકર ભગવન આનું જ સેવન કરે છે. અને ભવિષ્ય કાળના તીર્થંકર ભગવાન્ આનું જ સેવન કરશે ૧૪ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ समयार्थयोधिनी टीका हि श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् अंतलिक्खं अंगं लरलक्खणं वंजणं इथिलकखणं पुरिसलक्खणं हयलक्खणं गयलक्खणं गोणलक्षणं मिढलक्खणं कुक्कुडलक्खणं तित्तरलक्खणं वगलक्खणं लावयलक्खणे: चकलक्खणं छत्तलक्खणं चम्मलखणं दंडलकखणं असिलक्षणं मणिलक्खणं कागिणिलखणं सुभगाकरं दुब्भगाकरं गब्भाकरं मोहणकरं आहवणिं पागसालणि दवहोस खत्तियविज्जं चंद. चरियं सूरचरियं सुखाचरियं बहस्सइचरियं उक्कापायं दिसादाहं मियचकं वायसपरिमंडलं पसुवु केसवुद्धिं संलवुद्धिं रुहिरवुट्टि वेतालिं अद्ववेतालि ओसोशणि तालुग्घाडणि सोवागिं सोवरि दामिलिं कालिाग गोरि गंधारिं ओवतणि उप्पणि जंभणि थंभणि लेसणि आमयकरणिं विसल्लकरणि पक्कमणि अंतद्धाणि आयमिणिं एवमाइयाओ विज्जाओ अन्नस्स हेडं पउंजंति पाणस्ल हेडं पउंजंति वत्थस्ल हेउं पउंजंति लेणस्स हेड पउंजंति, सयणस्त हेउं पउंजति अन्नेसि वा विरूवरूवाणं कामभोगाणं हेडं पउंति, तिरिच्छं ते विज्ज सेवति, ते अणारिया विप्पडिवन्ना कालमासे कालं किच्चा अन्नयराइं आसुरियाई किदिबसियाइं ठाणाई उववत्तारो भवंति तओऽवि विप्पसुच्चमाणा. भुज्जो एलमूयत्ताए तमअंधयाए पच्चायति ॥सू०१५॥३०॥ छाया- अत उत्तरं च खलु पुरुषविजयं विभङ्ग माख्यास्यामि, इह खलनानापज्ञानां नानाच्छन्दसां नानाशीलानां नानादृष्टीनां नानारुचीनां नानारम्भाणां नानाऽध्यवसानसंयुक्तानां नानाविधपापश्रुताध्ययनमेवं भवति । तद्यया भौमम्, उत्पातम् स्वप्नम्, आन्तरिक्षम् आगम्, स्वरलक्षणम्। व्यञ्जनम्, खोलक्षणम्, सू० २८ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतास्त्र पुरुपलक्षणम्, हलक्षणम्, गनलक्षणम्, गोलक्ष गम्, मेपलक्षणम्, कुक्कुटलक्षणम्, तित्तिरलक्षणम् वर्तकलक्षणम्, लावकलक्षणम् चक्रलक्षणम्, छत्रलक्षणम्, चर्मलक्षणम् दण्डलक्षणम्, असिलक्षणम्, मणिलक्षणम्, काकिनीलक्षणम्, सुभगाकरीम्, दुर्भगाकरीम्, गर्भकरीम, मोहनकरीम्, आथर्वगीम्, पाकशासनीम्, द्रव्यहोमम्, क्षत्रियविद्याम्, चन्द्रचरितम्, मूर्यचरितम्, शुक्रचरितम्, वृहस्पतिचरितम्, उल्कापातम्, दिग्दाहम्, मृगचक्रम्, वायसपरिमण्डलम्, पांमुवृष्टिम् केशदृष्टिम्, मांपवृष्टिम् रुधिरवृष्टिम्, वैतालीम् अर्थवैतालीम्, उपस्वापिनीम्, तालोद्घाटनीम्, श्वापाकीम्, शाम्बरीम्, द्राविडीम्, कालिङ्गीम्, गौरीम्, गान्धारीम्. अवपतनीम्, उत्पतनीम्, जम्भगीम्, स्तम्भनीम्, श्लेषणीम्, आमयकरणीम्, विशल्यकरणीम्, प्रक्रामणीम्, अन्तर्धानीम्, आयमनीम् एव मादिकाः विद्याः अन्नस्य हेतोः प्रयुञ्जते, पानस्य हेतोः प्रयुजते वस्त्रस्य हेतोः प्रयुञ्जते लयनस्य हेतोः प्रयुञ्चते शयनस्य हेतोःप्रयुञ्जते, अन्येषां वा विरूपरूपाणां कामभोगानां हेतोः प्रयुञ्जते, तिरश्वीनां ते विद्या सेवन्ते ते अनार्याः विप्रतिपन्नाः कालमासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु आसुरिकेषु किल्विपिकेषु स्थानेषु उपपत्तारो भवन्ति, ततोऽपिविषमुक्ताः भूयः एलमूकत्वाय तमोऽन्धत्वाय प्रत्यायान्ति' ॥१५-३०॥ ___टीका-पापप्रत्यरिक क्रियास्थानं निरूपितम्, अतः परं यया विद्यया पुरुषो विजयी भवति, अथवा-यामन्वेषयति, तामेव विद्यामुपदर्शयितुमाह'अदुत्तरं च ण' इत्यादि, अत उत्तरं च 'ण' इति वाक्यालङ्कारे 'पुरिसविजयं' पुरुपविजयम् विभंगमाइक्खिस्सामि' विभङ्ग-संसारकारणज्ञानम् आख्यास्यामिकथयिष्यामि, इह-अस्मिल्को के खलु-इति वाक्यालङ्कारे, निश्चयार्थे वा 'णाणापण्णाणं' नानामज्ञानाम्-अनेकपकारमतिमताम् ‘णाणा छंदाणं' नानाछन्दसाम् 'अदुत्तरं च णं' इत्यादि। टीकार्थ--पाप के कारणभूत क्रियास्थानों का निरूपण किया गया। इसके अनन्तर उस विद्या को दिखलाते है जिसके कारण पुरुष विजयी होता है या जिसकी वह अन्वेषणा करता है। इस संसार में अनेक प्रकार की बुद्धि वाले, अनेक प्रकार के . 'अदुत्तरं च णं' त्या ટીકાર્થ–પાપના કારણભૂત ફિયાસ્થાનેનું નિરૂપણ કરીને હવે એ વિદ્યા બતાવે છે કે–જેના કારણે પુરૂષ વિજયવાળો થાય છે, અથવા જેનું તે અવે प-शाध ४२ छ, ते विद्या मतावे छ. આ સંસારમાં અનેક પ્રકારની બુદ્ધિવાળા અનેક પ્રકારના અભિપ્રાય Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् . २१९ -अनेकविधामिमायवताम् ‘णाणा सीलाणं' नानाशीलानाम्-अनेकस्वभावानाम् 'णाणादिट्ठीणं' नानादृष्टीनाम्-अनेकप्रकारका ष्टिमताम् 'णाणारुईण' नानारुची. नाम् ‘णाणारंभाण' नानाऽऽरम्भाणाम्-अनेकप्रकारकाऽऽरम्भवताम् ‘णाणासरसाणसंजुत्ताणं' नानाऽध्यवसानसंयुक्तानाम्-भवति कश्चन वस्त्र विक्रेता कश्चिद् भाण्डादीनामाहर्ता, सर्वोऽपि नैरुविधा, अपितु विलक्षण ए सी, ‘णाणाविहावसुयज्झ यणं' नानाविधपापश्रुताऽध्ययनम्, 'एवं भवई' एवं भवति, भवन्ति हि नानाविधाः पुरुषाः, ते स्वस्वाऽभिप्रायेणाऽनेकमकारकपापजनकं श्रुऽध्य यनं कुर्वन्तो दृश्यन्ते, 'तं जहा' तद्यथा पापा: विद्याः पुरुष रुपादीयन्ते विजयाय -ऐहिकफलोपभोगाय, तास्ता एव परिगण यन्ति नैताभिर्विद्यामिः परलोके आत्मकल्याणं भवति. प्रत्युताऽऽभिः परलोको हीयत एव, एतादृशविद्याऽपासिनां तां विद्यामधिकृत्य जीवनयात्रा निर्वहतगां मोक्षस्तु दुराऽपेत इव भवति । ते अभिप्राय वाले अनेक प्रकार के शीलस्वभाव या आचार वाले अनेक प्रकार की दृष्टिवाले अनेक प्रकार की रूचि वाले, अनेक प्रकार के आरंभ शले और अनेक प्रकार के अध्यवसाय वाले पुरुषों में कोई धन वेचता है तो कोई बरतन आदि लाता-वेचता है। सब एक प्रकार के मनुष्य नहीं होते। सभी एक दूसरे से विलक्षण होते हैं । अतएव वे अपनी-अपनी रूचि के अनुसार अनेक प्रकार के पापश्रुतों का अध्यधन करते देखे जाते हैं । इस लोक संबंधी फल का उपभोग करने के लिए लोग जिन पाप विद्याओं को ग्रहण करते हैं, उन्हें यहां गिनाया जाता है। ऐसी विद्याओं से परलोक में आत्मकल्याण नहीं होता, परन्तु इनसे परलोक बिगड़ना ही है। जो इन विद्याओं का अभ्यास करते हैं और इन्हीं के सहारे जीवन निर्वाह करते है मोक्ष उनसे दूर વાળા, અનેક પ્રકારના શીલ-સ્વભાવ અથવા આચારવાળા, અનેક પ્રકારની રૂચિવાળા, અનેક પ્રકારના આરંભવાળા અને અનેક પ્રકારના અધ્યવસાયવાળા, પુરૂમાં કઈ વસ્ત્ર વેચે છે, તે કઈ વાસણ વિગેરે વેચે છે. સઘળા મનુષ્ય એક પ્રકારના હોતા નથી. બધાજ એક બીજાથી વિલક્ષણ પ્રકારના હોય છે. તેથી જ તેઓ પિત પિતાની રૂચિ પ્રમાણે અનેક પ્રકારના પાપશ્રતે નું અધ્યયન કરતા જોવામાં આવે છે, આ લેાક સંબધી ફકને ઉપભેગ કરવા માટે લેકે જે પા૫ વિદ્યાઓને ઝડણ કરે છે, તેને-અહિયા ગણાવવામાં આવે છે, એવી વિદ્યાએથી પરકમાં આત્મકલ્યાણ થતું નથી, પરંતુ તેનાથી પરલેક બગડે જ છે. જેઓ આ વિઘાઓને અભ્યાસ કરે છે, અને તેના જ આશરાથી જીવન નિર્વાહ કરે છે, મેક્ષ તેનાથી દૂર જ રહે છે, Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० सूत्रंकृताङ्गसूत्रे एवाभि विद्यामि रैहिकफलमवाप्य मरणोत्तरकाले पापीयान स परलोके पाप फलं समनुभूय पुनः पापीयमी योनि मधिगच्छन्तो न कथमपि संसारचक्रं मतिक्रामन्ति । अतो मरणोत्तरमासां दुष्टफलं ज्ञात्वा विवेकिनस्ततो निवर्तन्ते, ता . एक विद्या मन्दबुद्वीनां रुविकरा , तद्यथा-भौमम्, भूमिसम्बन्धिशास्त्रम्, येन भूकम्पप्रभृतिवस्तूनां शुमाऽशुभं मुच्यन्ते, 'उप्पायं' उत्पातम्-उल्कापात:दिवाजम्बूकरोदनम् -- गवां नेत्राभ्यां जलन वम् लागलमूर्थीकृत्य पलायनम् इत्येते उत्पाता वाच्या:-ते यत्र शिक्ष्यन्ते, तच्छास्त्रमुत्पातशास्त्रम् 'सुविणं स्वप्नम् - -तत्फलशुभाशुभकथनम्, 'अंतलिक्वं' आन्तरिक्षम्-अन्तरिक्षे संभवतां ही रहता है ! इन विद्याओं के द्वारा इह लोक संबंधी फल प्राप्त कर के पापी पुरुप मृत्यु के पश्चात् परलोक में पाप का फल भोगता है और पुनः अत्यन्त पापमयीयोनि में जाता है । इस प्रकार वह इस संसार चक से बाहर नहीं निकल सकता। अत एव विवेकी जन इन विद्याओं को कर्मबन्ध का हेतु जान कर त्याग देते हैं। मन्द बुद्धियों .. को वही विद्या रूचिकर होती है। वह पाए-विद्याएं इस प्रकार हैं. (१) भौम-भूमि संबंधी शास्त्र, जिससे भूकम्प आदि का शुभ या अशुभ फल सूचित होता है। (२) उत्पात-दिनमें सियारों का रुदन करना, गायों के नेत्रों से आंसू बहना एवं उनका पूंछ उपर उठाकर भागना इत्यादि उत्पातों का जिस में वर्णन किया जाता है वह उस्पात शास्त्र है। (३) स्वप्न--स्वप्नों का शुभ-अशुभ फल कहने वाला शास्त्र । (४) आन्तरिक्ष-आकाश में होनेवाले मेघ आदि का - આ વિદ્યાઓ દ્વારા આ લેક સંબંધી ફળ પ્રાપ્ત કરીને પાપી પુરૂષ મૃત્યુ પામ્યા પછી પરાકમાં પાપનું ફળ ભે ગવે છે, અને ફરીથી અત્યંત પાપ - મય નિમાં જન્મ લે છે. આ રીતે તે આ સંસાર ચક્રથી બહાર નિકળી શક્તો નથી, તેથી જ વિવેકી મનુ આ વિદ્યાઓને કર્મ બંધના હેતુ રૂપ માનીને તેને ત્યાગ કરે છે. મંદ બુદ્ધિવાળાઓને એજ વિદ્યા રૂચિકર હોય "छ. ते पापविधाम। म प्रमाणे छे. (૧) ભીમ–ભૂમિ સંબંધી શાસ્ત્ર, કે જેનાથી ધરતીકંપ વિગેરેનું શુભ અથવા અશુભ ફળ સૂચિત થાય છે. (૨) ઉત્પાત-દિવસમાં શિયાળવાનું રૂદન (રડવું) કરવું. ગાયોની આંખોમાંથી પાણી વહેવા, તથા તેમના પુંછડા ઉંચે લઈને ભાગવુ. વિગેરે ઉત્પાતનું જેમાં વર્ણન કરવામાં આવે છે, તે ઉત્પાત શાસ્ત્ર કહેવાય છે. (૩) સ્વપ્ન-સ્વપ્નાઓનું શુભ અથવા અશુભ ફળ બતાવવા વાળું શાસ્ત્ર (૪) આન્તરીક્ષ-આકાશમાં થવાવાળા મેઘ વિગેરેનું જ્ઞાન જેનાથી Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संमयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् २२१ मेघादीनां ज्ञान यतो जायते-तदान्तरिक्षं शास्त्रम् आकाश पम्बन्धि वस्तुसूचकम् 'ग' आङ्गम् अङ्ग सम्बन्धिशास्त्रम्, येन नेत्रफरणादीनां शुभाऽशुभं ज्ञायते, नेत्रबाहुभ्रकुटिपादादीनां स्फुरणं तत्फलश्चत्पादिः । 'सरं' स्वरम्-शब्दा-काकरणालादीनां शब्द श्रुत्वा तत्फलपापकं शास्त्रम् । 'लक्ख गं' लक्षगम्-दरतपादादौ · यवतिलशंखचक्रादीनां फल्योधकं लक्षगशास्त्रम् 'बंजण' पञ्जनम् -पुरुषादिशरीरे मसतिळादि प्रख्यापकं शास्त्रम् । 'इत्थिलकखणं' स्त्र लक्षगम् -पमिनी-शविनीचित्रिणी-हस्तिनीत्यादिप्रभेदपख्यापकं तत्फलबोधकं शास्त्रं स्त्रीलक्षणम् 'पुरिसलक्खणं' पुरुषलक्षणम्-पुरुषाणामनाऽषभशशकभेदानां फलबोधकं शास्त्रम् । 'हयलक्खणं' हयलक्षणम्-अश्वानां स्वरूपयोधकम् शासम् ‘गयलक्खगं' गज. लणम्-इमे समीवीना अप्तमीचीनाश्च त्यादि बोधकम् । 'गोलक्खणं' मोलक्षणम्तज्ञान जिससे होता है ऐसा आकाश संबंधी कथन करने वाला शास्त्र। (५) आंग-अंग संबंधी शास्त्र, जिससे नेत्र आदि के फड़कने का ज्ञान होता है, अर्थात् नेत्र, पाहु, श्रुटि तथा पैर आदि के फरकना तथा उसका फल जाना जाता है। (६) स्वर-काक, शृगाल आदि के शब्दों को सुनकर उसका फल कहने वाला शास्त्र। (७) लक्षण-हाथों पैरों आदि में जौ तिल शंख चक्र आदि के फल को बताने वाला शास्त्र । (८) व्यंजन-शरीर के मस तिल आदि का फल कहने वाला शस्त्र। (९) पद्मिनी शंखिनी चित्रिणी हस्तिनी आदि भेद कहने वाला तथा उनके लक्षण आदि कहने वाला शास्त्र । (१०) पुरुष लक्षणपुरुषों के अज, अश्व, वृष, शशक आदि भेद और उनके लक्षण થાય છે, એવું આકાશ સંબંધી કથન કરવાવાળું શાસ્ત્ર (૫) આંગ-અંગ સબંધી શાસ્ત્ર, કે જેનાથી નેત્ર ફરકવા વિગેરેનું જ્ઞાન થાય છે, અર્થાત્ આંખ, બાહુ-હાથ, ભ્રકુટિ ભમરે, તથા પગ, વિગેરેના ફરકવાનું જ્ઞાન થાય छे, तथा तना नुन थाय छ, (९) २१२-11, शिया विरेना શબ્દોને સાંભળીને તેનું ફળ બતાવવા વાળું શાસ્ત્ર. (૭) લક્ષણ-હાથે પગે વિગેરેમાં જે તલ, શીખ, ચક વિગેરેના લક્ષણો હોય છે તેના ફળનું નિરૂપણ કરવાવાળું શાસ્ત્ર (૮) વ્ય જન-શરીરના મસ, તલ, વિગેરેનુ ફલ બતાવવા पाणु शास्त्र, (6) श्री सस-पशिनी, शमिनी, यित्रिी सनी विगेरे ભેદ બતાવનારું તથા તેના લક્ષણે વિગેરેનું નિરૂપણ કરવાવાળું શસ્ત્ર (૧૦) પુરૂ લક્ષણ-પુરૂના અ૪-બકરા અશ્વ, ઘ ડે. વૃષ સસલે, વિગેરેના ભેદો અને તેના લક્ષણો વિગેરેનું નિરૂપણ કરવાવાળુ શાસ્ત્ર (૧૧) હય લક્ષણ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ गवां भेदादिपरिचायकं शास्त्रम् | 'मिढकखणं' मेपलक्षणम्-अनाऽऽविमभृतीनां बोधकं शास्त्रम् 'कुक्कुटलक्ख' कुक्कुटलक्षणम् कुक्कुटरूपगुणस्वरादीनां बोधकं शास्त्रम् | 'विवरला वर्ग' विचिरलक्षगम् 'वर्ग' व फलम् - वर्त्तकः-कल हंसः तस्य लक्षणबोधक शास्त्रम् 'बत्तक' इति लोके मसिद्ध: । 'लाल' लावलक्षणम्-लवा-पक्षिविशेः- चटकापे विघुस्तत्समानथ 'छत्तलक्खगं' छत्रलक्षणम् 'चक्कलक्खणं' चक्रलक्षणम् 'चम्मलक वर्ग' चर्मलक्षणम् - चर्मणः चितिपादकं शास्त्र व दडल' दण्ड-दण्ड स्य यष्टिकायाःस्वरूपनरोधकं शाखं दण्डकम् | 'असिक्ख' अक्षिगम्असि: खङ्गः तद्बोधकं शास्त्रम् असिलक्षणम् 'मणिलाल गं' मणीनाम्- मरकत पद्मरामादीनां योध कारकं शस्त्रं मणिगम् । कागिगलम्' काकिगलक्षणम्, तत्र काकिणी - 'कौडो' इति भाषा प्रसिद्धा 'सुमगाकरं' सुमगाकरी 4 सूत्रकृतात्रे - आदि निरूपण करने वाला शास्त्र । (११) एम लक्षग-घोड़ों का स्वरूप कहने वाला शास्त्र । (१२) गज लक्षग- हाथियों के शुभाशुभ लक्षण फहने वाला शास्त्र | (१३) गोलक्षण - गायों के भेदादि कहने वाला शास्त्र । (१४) मेष लक्षण- मेढे के लक्षण प्रतिवादन करने वाला शास्त्र । (१५) कुक्कुः लक्षग-मुर्गे के स्वरूप, गुण और स्वर आदि कहने वाला शास्त्र । (१६) तित्ति लक्ष-तितुर संबंधी शास्त्र । (१७) वर्त्त लक्षण के लक्षण कहने वाला शात्र । (१८) लायक लक्षगचिड़िया से भी छोटे परन्तु उस जैसे लावक पक्षी के लक्षण कहने वाला शास्त्र, (१९) छत्र लक्षण (२०) चक्र लक्षग (२१) चर्म लक्षणचर्म के स्वरूप, चिह्न एवं गुग कहने वाला शास्त्र (२२) दण्ड लक्षग (२३) अखिलक्षण (२४) मणि लक्षण (२५) काकिणी (कौड़ी) लक्षग ઘે ડાઓનુ` સ્વરૂપ મનાવવાવાળુ શાસ્ત્ર (૧૨) ગજકક્ષણ-હાથિયેાના શુભ અથવા અશુભ લક્ષણુ ખતાવવા વળુ શાસ્ત્ર (૧૩) ગે લક્ષશુ-ગાયાના ભેદે વિગેરે મતાવવા વાળુ' શાસ્ત્ર (૧૪) મેષલક્ષણ ઘેટાએનું લક્ષત્રુ ખાવવાવાળું શ સ્ર (૧૫) કુકુટ લક્ષણુ -કુકડાએના સ્વરૂપ અને ગુણુ, સ્વર વિગેરે ભેોને બતાવना३' शस्त्र (१६) तित्ति' सक्षय नेतर संबंधी शास्त्र (१७) वर्तणु - 15 લક્ષણેા ખતાવવા વાળુ' શાસ્ત્ર (૧૮) લાવક લક્ષગુ-ચલીથી પણ નાનુ` પરંતુ તેના જેવા લાવક પક્ષિએના લક્ષણે મનવા વાળુ શાસ્ત્ર (૧૯) છત્રજ્ઞક્ષણ (२०) यसक्षषु (२१) थर्मसक्ष (२२) उसक्षय (२३) मसितक्षय (२४) भवितक्षय (२५) अमिश्री (अडी) लक्षण (२६) सुलभा २ - सुंदरने सुहर Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समथार्थबोधिनी टीका द्वि.श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् २२३ विद्याम्, सु-सुन्दरो भगो यस्याः सा सुभगा, तां करोति-दुर्भगामपि सुभगां निर्माति, इत्थं भूतां विधाम्, 'दुभगाकरं' दुभंगाकरीम्सुरूपामपि निन्दितरूपा करोति या सा दुर्भगाकरी ताम् 'गम्भकर' गर्भ करीम्-यस्या गर्भो न भवति तस्यै गर्भदात्रीम् 'मोहणकर' मोहनकरीम् -यया विद्यया पुरुषः स्त्री वा उभौ मोहितो भवतः तास् 'आहणि' आथर्वणीम्-जगद् विध्वंसकारिणीम् 'पागसासणि' पाक शासिनीम्-इन्द्रजाल विद्यामित्यर्थः, 'दव्यहोम' द्रव्यहोमास्-केषांश्चित् माणिनामु. चाटनाय यया मधुघृतादि-द्रव्येण होमो जायते सा तां विद्याम् 'खत्तियविज्ज' क्षत्रियविद्याम्-अस्त्रशस्त्रवतीम्-अणुशक्तिवती वा 'चंदचरिय' चन्द्रचरितम्-शीधैं नम्, येन शीतवेगेन वेपमानानि परसैन्यानि समराद् रिमुखी भवन्ति । 'सूरचरिय' सूर्यचरितम्-सूर्यवैशिष्टयबोधकम् 'सुक्कचरिय' शुक्रचरितम्. शुक्रग्रहस्य गविपतिपादकं शास्त्रम् बहस्पहचरियं बृहस्पतिचरितम् 'उक्कापायं' उल्कापाता -तद्वद् विस्फोटकद्रव्यानपाता, 'दिसादाह' दिग्दाहम् 'मियचक्कं' मृगचक्रम्(२६) सुभगाकर-असुन्दर को सुन्दर बना देने वाली विद्या (२७) दुर्भगाकर-सुन्दर को असुन्दर (कुरूपा) बनाने वाली विद्या (२८) गर्भ करी-गर्भवती बनाने वाली विद्या (२९) मोहन करी-स्त्रियों और पुरुषों को मोहित करने वाली विद्या (३०) आधणी-जगत् का विध्वंस करने वाली विद्या (३१) पाकशासनी-इन्द्र जाल (३२) द्रव्य होमउच्चाटन करने के लिए मधु धृत आदि द्रव्यों का होम करने की विद्या (३३) क्षत्रियविद्या-शस्त्रास्त्र संबंधी विद्या (३४) चन्द्रचरितचन्द्रमा की गति-चार-को कहने वाली विद्या (३५) सूर्यचरित-सूर्य के चार आदि को कहने वाली विद्या (३६) शुक्र चरित (३७) वृहस्पति चरित (३८) उल्कापात को कहनेवाला शास्त्र (३९) दिग्दाह-दिशादाह कहने वाला शास्त्र (४०) मृगचक्र-ग्राम प्रवेश के समय जानवरों के બનાવવા વાળી વિદ્યા “૨૮ દુર્ભાગાકર-સુદરને અસુંદર “કદરૂપા” બનાવવા વાળી વિદ્યા “૨૮' ગર્ભકરી–ગર્ભવતી બનાવવા વાળી વિદ્યા “ર” મોહનકરી સ્ત્રિ અને પુરૂષને મેહ પમાડવા વાળી વિદ્યા “૩૦' આથર્વણી-જગતને नाश ४२वाजी विद्या (३१) शासनी-510 (३२) द्रव्यडाम-GP-य! ટન કરવા માટે મધ, ઘી વિગેરે પદાર્થોને તેમ કરવાવાળી વિદ્યા (૩૩) ક્ષત્રીય વિદ્યા-શસ્ત્રાગ્ન સંબંધી વિદ્યા (૩૪) ચન્દ્રચરિત–ચદ્રમાની ગતિચાર બતાવનારી વિદ્યા (૩૫) સૂર્યચરિત-સૂર્યના ચાર વિગેરેને બતાવવા વાળી વિદ્યા (૩૬) શુકચરિત્ર (૩૭) બૃહસ્પતિ ચરિત્ર– (૩૮) ઉકાપાત બતાવવા Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪ सूत्रकृतसूत्रे चन्याः पशत्रो यदा ग्रामं प्रविशन्ति तेषां शुभाशुभफलपतिपादकं शास्त्रम्, मृगचक्रमिवमीयते, 'यस परिमंडल' बाघपरिमण्डलम् काकादिपरिवर्तन संपू चिताऽतिज्ञापकं शास्त्रम् पबुद्धि' पांसुवृष्टिम् धूलिवृष्टेः फलमतिदक शास्त्रम्, 'के सबुद्धि' केतुष्टि के पर्पणफलपतिपादकं शास्त्रम् 'संसवृद्धि' 'मांसवृष्टि-मसर्पणनि फल रविपादकं शाखम् 'बेताल' वेली याया विद्यायाः समिद्धौ सत्यां काष्ठापि अपने चेरना मते 'अहवे. तालि' तालीम् - चैताली विद्यायाः मपिक्षभूताम् 'ओ' अपस्यापिनीम्निद्राकारिणीम् ' तालुखाडगिलोदवादनम् 'मोवाणि' थापाकीम् - चाण्डलfaद्या मित्यर्थः, 'मो शायरी - शस्त्रसम्बन्धिनी विद्याम् 'मिलिं’ द्वारी 'कालिंग' कालिङ्गम् 'ग'रि' गोरीम् 'गंगा' गान्धारीम् ' ओस्ताज' दिखने का फल प्ररूपित करने वाला शास्त्र (४१) वायपरिमंडलकाक आदि पक्षियों की बोली का फल कहने वाला शास्त्र (४२) पशुवृष्टि - धुलिच का फल निरूपण करने वाला शास्त्र (४३) केश वृष्टि - केश वर्षा का फल कहने वाला शास्त्र (४४) मांसवृष्टि का फल कहने वाला शास्त्र (४५) कधिरवृष्टि का फल कहने वाला शास्त्र (४६) वैनाली - जिस विद्या से अचेतन काष्ट में भी चेतना आ जाती दीग्वती है (४७) अर्द्ध वैनाली - वैनाली विद्या की विरोधिनी विद्या (४८) अवस्वापिनी - जिससे जागता हुआ मनुष्य सो जाता है । (४९) तालोद्घाटनी - ताला खोल देने वाली विद्या (५०) श्वपाकी - चाण्डाल विद्या (५१) शाम्बरी -घर संबंधी विद्या (५२) द्राविडी विद्या (५३) कालिंगी विद्या (५४) गौरी विद्या (५५) गांधारी वाजी विद्या (उ८) हिग्वाड- हिशाहीर मताववा वाजु शास्त्र (४०) भृगय:ગ્રામ પ્રવેશના સમયે જનાવરાને જોવાના ફળને ખતાવવા વાળું શાસ્ત્ર (૪૧) વાયસ પરિમ’ડલ-કાગડા વિગેરે પક્ષિયાની મેલીના ફળને ખતાવવાવાળું શ સ્ર (४२) पांशुवृष्टि-धूण वर्षाना इण मनावना३ शास्त्र (४३) वृष्टि देशवर्षाना जनुं नि३५ ४२वावजु शास्त्र (४४) मांस वृष्टि - शास्त्र (४५) ३धिरવૃષ્ટિ શાસ્ત્ર (૪૬) વૈતાલી–જે વિદ્યાથી અચેતન-સૂકા લાકડામાં પણ ચેતન આવી જાય છે. (૪૭) જે અવૈતાલી વૈતાલીવિદ્યાની વિધીની વિદ્યા (૪૮) અવ સ્વાપિની—જે વિદ્યાના ખળથી જાગતા માણસ પથ્રુ ઉઘી જાય છે. (૪૯) तासोद्दघाटनी - तालु ઉઘાડીનાખવા વાળી વિદ્યા (૫૦) પાકી-ચાણ્ડાલ विद्या ( 47 ) शास्री - शजर संधी विद्या ( 42 ) द्राविडी विद्या ( 43 ) सिंगी विद्या (५४) गौरी विद्या (पथ) गांधारी विद्या (यह ) अवयतनी विद्या-नीचे Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् 1 "अवपतनीम् अधःपतनकारिणीम् ' उप्पयणिं' उत्पतनीम् - ऊर्ध्वगमनकारिणीम् 'नृभणि' जूं ंभणीम् ‘थंभणिं' स्तंभनीम् 'लेसणिं' श्लेषणीम् 'आमयकरिणि" आमयकरिणीम्, यथा हि विद्यया रोगः समुत्पाद्यते, 'विसल्ळकरिणि" विशल्यकरणीम् - - प्राणिनां रोगापहारिणीम् 'पक्कमणि' प्रक्रामणीम् - यया भूतप्रेतादिभिर्वाधा समुपाद्यते । 'अंतद्धाणिं' अन्तर्धानीम् - यया लोकानां चक्षुर्विषयमतिक्रामति, 'आयमिणि' आंयमनीम् - ययाऽल्पमपि वस्तु बहुलीक्रियते, 'एवमाइयाओ' एवमादिकाः 'भौमादारभ्याऽऽयमनी प्रमुखाः, 'विज्जाओ' विद्याः 'अन्नस्सहे उ" अन्नस्योदरपूरकस्य हेतो:- कारणात् 'पजंति' प्रयुञ्जते - ते - विद्यापरिज्ञातारोऽनार्याः 'पाणस्सहेउ' पानस्य हेतो स्वाविद्या: प्रयुञ्जते, 'वत्थस्स हेउ पउजंति' वस्त्रस्य हेतोः प्रयुञ्जते 'लेणस्स हेउ पउ जंति' लयनस्य - गृहस्य हेतोः प्रयुञ्जते, लीयते - स्थीयते २२५ विद्या (५६) अवपतनी - नीचे गिराने वाली विद्या (५७) उत्पतनी - ऊपर उठाने वाली विद्या (५८) जृंभणी - बगासा संबंधी विद्या (५९) स्तम्भनी• स्तब्ध कर देने वाली विद्या (६०) इलेषणी विद्या-चिपका देने वाली विद्या (६१) आमयकारिणी - रोग उत्पन्न कर देने वाली विद्या (६२) निःशल्पकारिणी - निश्शल्य निरोग बना देने वाली विद्या (६३) प्रक्रामणी-किसी को भूत-प्रेत आदि की बाधा उत्पन्न करने वाली विद्या (६४) अन्तर्धानी - दृष्टि के अगोचर बना देने वाली विद्या (६५) आगमनी-छोटी वस्तु को बड़ा कर दिखाने वाली विद्या, इत्यादि विद्याओं का अनार्य लोग अन्न के लिए प्रयोग करते हैं, पानी के लिए प्रयोग करते हैं, वस्त्र के लिए प्रयोग करते हैं, लयन-निवास स्थान के लिए प्रयोग करते हैं पाउनारी विद्या (१७) उत्पतनी - उपर थडाववा वाजी विद्या (१८) भागलघु मगासासमधीविद्या (पट) स्तम्भनी - स्तब्ध उरी हेनारी विद्या (१०) ફ્લેશણી વિદ્યા-ચેટાડી દેવાવાળી વિદ્યા (૬૧) આમય કારિણી-રાગ ઉત્પન્ન કરવાવાળી વિદ્યા (૬૨) નિઃશલ્પ કરણી–ન શલ્ય નિરોગી બનાવવાળી વિદ્યા (૬૩) પ્રક્રામણી કેઇને ભૂત-પ્રેત વિગેરેની ખાધા ઉત્પન્ન કરવાવાળી વિદ્યા (१४) अ ंतर्धानी- दृष्टिने अगोयर मनावनारी विद्या (१५) सायभनी-नानी વસ્તુને મેટી કરી બતાવનારી વિદ્યા વિગેરે પ્રકારની વિદ્યાઓના અનાય લેકે અન્ન માટે પ્રયાગ કરે છે. પાણીને માટે પ્રાણ કરે છે, વસ્ત્ર મ તે પ્રત્યેાગ કરે છે. તથા લયન–નિવાસ સ્થાનને માટે પ્રયાગ કરે છે. તેમજ सू० २९ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूमाता प्रासादिभिः म यस्मिन नन्दयन गृम् , तस्य हेतोः करणात् पूर्वोक्ता रिया मयूबते, 'मयसम्म हेउ पनि शयनम्य हेतोः-शराय ते प्रयुञ्जते 'अन्नेसिया रिम्बम्नान अन्येपाम्-अन्नानिरिक्तानो विरूपरूपाणामनेकविद्यानाम् 'कामभो. गानामभोगान म् उ हतो: ' पति' प्रयुञ्जते 'ते अणारिया' ते अनार्या: 'विपटियन्ना विपतिपन्ना 'निरिच्चंद्र' तिरिश्चीनाम् ‘ते विज सेवेति' ते विद्या सेवग्ने, वस्तुनः उमा विद्याः परलोकपनिकलतया नात्मकल्याणाय भवन्ति एतारमा नेनार्गः 'कालमाने कालं किया' कालमासे कालं कृत्वा 'अभयराई अन्यतरेषु 'प्रागुरियाई' आमुरिकेपु-नाम सेप्चिति यावत् 'किल्बिसियाई' किल्लिषिकेषु 'टाणाई' स्याने पु 'उत्तारो मति' उपपत्तारो भवन्ति, 'तमो वि विप्पमुचमाणा' ननोऽपि निममचन्ता वनकर्मणस्तत्र फलमुपभुज्य-ततो विच्युति माग्नुमन् सन्तः 'भुजो' भूयः-पुनरपि एलम पत्ताए' पलमूकवाय-स्वाभाविकमूकतामाप्तये तया'तम अंपयाप तमन्यस्याय-नात्यायचाय पञ्चायति' प्रत्यायान्ति-पुनः पुनः मंमारे एक जन्म गृहन्ति ।मु०१७३०॥ ___पाप नास्ति परलोकम्य चिन्ना, स हि-ऐहिकमेव सुरवं बहुमन्यमानोऽनेक विशं पारक्रियां कृन्ना-पनमन यति, तदेव धनं सुमनसा धनमिति मनुते स पार फर्मानुष्ठान परिगणयनि मन-से एगइओ आयहडं वा जाइहेउं वा सयणहे उंवा अगारहउँ वा परिवारहेडं । नायगं वा सहवासियं वा णिस्साए मा अन्य अनेक प्रकार के कामभोगों के हेतु प्रयोग करते हैं। किन्तु ये निशा आत्महिन मा परलोक से निकल हैं। इनका सेवन करने वाले भ्रम पड़े हैं ग्नार्य पुरःप मृत्यु के अवसर पर मरगा करके असुर मंधी मिमियपक, म्यानों में उत्पन्न होते है। जय वहां से अपने किये काम का फल भोग कर चरते हैं तो पुनः जन्म से गंगे और अंय . प में जन्म लेने और बार-बार जन्म-मरण करते हैं ॥१५|| મજ અનેક પ્રકારના કામોના કાન પ્રોગ કરે છે. પરંતુ આ Pri. ५.11५२१ ५१ प्रति . तनुलेपन ४२पापा બમાં પ૦ છે. ગઝનમ ૫૩ મૃત્યુના અવસરે મરણ પામીને અસુર भर न . ४. ५ श्री योगी आते ४३ न भा ने माना 2 . .. ... .. १४३७. Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् २२७ अदुवा अणुगामिए १ अदुवा उवचरए २ अदुवा पडिपहिए ३ अदुवा संधिछेदए ४ अदुवा गठिछेदए ५ अदुवा उरभिए ६ अदुवा सोवरिए ७ अदुवा वागुरिए अदुवा साउणिए ९ अदुवा मच्छिए १० अदुवा गोघायए ११ अदुवा गोवालए १२ अदुवा सोवणिए १३ अदुवा सोवणियंतिए १४ । एगइओ अणुगामियभावं पडसंधाय तमेव अणुगामियाणुगामियं हंता छेत्ता भेत्ता पत्ता विलुंपइन्ता उदवइत्ता आहारं आहारेइ, इइ से महया पावहिं कम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ । से एगइओ उवचरयभावं पडसंधाय तमेव उवचरियं हंता छेत्ता भेत्ता पत्ता विपत्ता उदवइना आहारं आहारेइ, इइ से महया पावेहिं कम्मेहि अन्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ । से एगइओ पडि - पहियभावं पडिसंधाय तमेव पाडिपहे ठिच्चा हंत्ता छेत्ता भेत्ता पत्ता विपत्ता उद्दवइत्ता आहारं आहारेइ, इइ से महया पावेहिं कम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ । से एगइओ - संधि छेदगभावं पडसंधाय तमेव संधिं छेत्ता भेत्ता जाव इइ से महया पावेहिं कम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ । से एगइओ गंठिछेदगभावं पडसंधाय तमेव गंठिं छेत्ता भेत्ता जाव इइ से महया पावेहिं कस्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ । से एगइओ उरविभयभावं पडसंधाय उरब्भं वा अनंतरं वा तसं पाणं हंता जाव उवक्खाइत्ता भवइ । एसो अभिलावी सव्वत्थ । से एगइओ सोयरियभावं पडसंधाय महिसं वा अण्णतरं वा तसं Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ટ कृताङ्गसूत्रे पाणं हंता जाव उवक्खाइत्ता भवइ । से एगइओ वागुरियभावं पडिसंधाय मियं वा अण्ण्यरं वा तसं पाणं हंता जाव उवक्खाइत्ता 1 भवइ । से एगइओ सउणियभावं पडसंघाय सउणिवा अण्णयरंवा तसं पाणं हंता जाव उवक्खाइता भवइ । से एगइओ मच्छियभावं पडसंधाय मच्छं वा अण्णयरं वा तसं पाणं हंता जाव उवक्वाइता भवइ । से एगइओ गोघायभावं पडसंघाय तमेव गोणं वा अण्णयरं वा तसं पाणं हंता जाव उवक्खाइत्ता भवइ । से एगइओ गोवालभावं पडसंधाय तमेव गोवालं वा परिजविय परिजविय हंता जाव उवक्खाइत्ता भवइ । से एगइओ सोवणियभावं पडि - संधाय तमेव सुणगं वा अन्नयरं वा तसं पाणं हंता जाव उवक्वाइत्ता भवइ । से एगइओ सोवणियंतियभावं पडिसंघाय तमेव मणुस् वा अन्नयरं वा तसं पाणं हंता जाव आहार आहारेड, इइ से महया पावेहिं कम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ ॥ सू. १६ ॥ ३१॥ छाया - स एकतय आत्महेतो व ज्ञातिहेतो व शयनहेतोर्वा अगार हेतोof परिवारहेतोर्वा ज्ञातकं वा सहवासिकं वा निश्रित्य अथवा अनुगामिकः अथवा उपचरकः अथवा प्रतिपथिकः अथवा सन्धिच्छेदकः अथवा ग्रन्थिच्छेदकः अथवा औरभ्रिकः अथवा शौकरिकः अथवा वागुरिका अथवा शाकुनिकः अथवा मास्यिकः अथवा गोघातकः अथवा गोपालकः अथवा शौवनिकः अथवा श्वमि रन्तकः । एकतयोऽनुगामुकभावं प्रतिसन्धाय तमेत्र अनुगामुकाऽनुगम्यं हत्वा छिवा भित्त्वा कोपयित्वा विलोप्य उपद्राव्य आहारमाहारयति । इति स महद्भिः पापैः कर्मभिरात्मानम् उपख्यापयिता भवति । स एकतयः उपचरकभावं प्रतिसन्धाय तमेवोपचर्य हत्वा छित्वा भित्वा लोपयित्वा विलोप्य उपद्राव्य आहारमाहा Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् रयति । इति स महद्भिः पापैः कर्मभिरात्मानमुपख्यापयिता भवति । स एकतयः प्रतिपथिकभावं प्रतिसन्धाय तमेव प्रतिपथे स्थित्वा हत्या छित्वा भिस्वा लोपयित्वा विलोप्य उपद्राव्य आहरमाहरति इति स महद्भिः पापैः कर्मभिरात्माम उपख्यापयिता भवति । स एकवयः सन्धिच्छेदकमावं पतिसन्धार तमेव सन्धि छित्वा मिचा यावद् इति स महद्भिः पापैः कर्मभिः आत्मानम् उपख्यापयिता भवति । स एकतयः ग्रन्थिच्छेदकमा प्रतिसन्धाय तामेव ग्रन्थि छित्वा मित्त्वा यावत् इति स महद्भिः पापैः कर्मभिरात्मानम् उपख्यापयिता भवति, स एकत्य: औरभ्रिकमा प्रतिसन्धाय उरभ्रंश अन्यतरं वा त्रसं पाणं हत्वा यावद् उपख्यापयिता भवति । एषः अमिलापः सर्वत्र । स एकतयः शौकरिकभाव पविपन्धाय मदिष वा अन्यतरं वा त्रसंवा पाणं हत्वा यावद उपरूपायिता भवति । स एकतयो वागु. रिकभावं प्रतिमन्धाय मृगं वा अन्यतरं वा त्रसं पाणं हत्वा यावद् उरख्यापयिता भवति । स-एकतयः शाकुनिकभावं मतिसन्धाय शकुनि वा अन्यनरं वा त्रसं माणं हत्वा यावद् उपख्यापयिता भवति । स एकतयः मात्स्यिकभावं प्रतिसन्धाय मत्स्य वा अन्यतरं वा त्रसं प्राणं हत्वा यावद् उपख्यापयिता भवति । स एकतयः गोपातकमा प्रतिसन्धाय तामेय गां वा अन्यतरं वा त्रसं माणं हत्वा यावद् उप ख्यापयिता भवति । स एकतय गोपालभावं मतिसन्धाय तमेव गोपालं वा परिविच्य परिविच्य हत्वा यावद् उपरख्यापयिता भवति । स एकतयः सौवनिकभावं प्रतिसन्धाय तमेव श्वानं वा अन्यतरं वा त्रसं प्राण इला यावद् उपख्यापयिता भवति । स एकतयः श्वभिरन्त भावं प्रतिसन्धाय तमेव मनुष्यं वा अन्यतरं वा त्रसं प्राणं हत्वा यावद् आहारमाहारयति । इति स महभिः पापैः कर्ममिरात्मानम् उपख्यापयिता भवति ।मु०१६-३१॥ जिसे परलोक की चिंता नहीं होती वह इस लोक के सुख को ही सभी कुछ समझता हुआ अनेक प्रकार की पाप क्रियाएं करके धन उपार्जन करता है और उस धन को ही सुख का साधन मानता है। उसके पापकर्म के अनुष्ठानों की गणना करते हैं-'से एगहओ आयहेउं वा' इत्यादि। જેને પરલેકની ચિંતા થતી નથી તેઓ આ લેકના સુખને જ સર્વસ્વ માનીને અનેક પ્રકારની પાપક્રિયાઓ કરીને ધન ઉપાર્જન કરે છે. અને તે ધનને જ સુખનું સાધન માને છે તેને પાપકર્મના અનુષ્ઠાનોની ગણત્રી, ४२ छ. 'से एगइओ आयहेउवा' त्यात Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० सूत्रतागपत्र टीका-'से एगतइओं स एकायः यस्य वल पापीयमः पुरपस्य आत्मकल्याणभावना न विद्यते एतादृशः कश्चित्पुरुषोऽग्रे वक्ष्यमाणाऽने कविधसावधर्मकारकः, 'आय हेउवा' आत्महतो -स्त्रमुग्वाय 'गाइदेउवा' ज्ञाति हेतो/आत्मीयव्यक्तीनां सुखमुत्पादयितुम् 'सयण हेउवा' शयनस्य-शरीरसुखोत्पाद. फस्य शय्यादेहे तो वा 'आगार हे उंया' आगारं गृह तन्निर्माणाय वा 'परिवार हे वा' वरिवारहे तो वो ‘णायगं वा सहवासियं वा णिस्साए' ज्ञातकं वा सहचासिकं वा निश्राय आश्रित्य-परिचित व्यक्तिहेतौ-सहवासिकारणाय वा। पापकर्मअग्रे वक्ष्यमाणं करोति, इति अग्रिमेण सम्बन्धः। 'अदुवा अणुगामिए' अथवा अनुगामिकः कश्चित्पापी पुरुषो धनादिकमादाय मार्गे गच्छन्तं प्रति अनुगच्छति धनापहरणाय तस्य 'अदुवा उपचरए' उपचरकः-सति समये एनं हत्याऽस्य धनं नेष्यामीति बुद्धधा तस्य धनतः सेवावृत्ति मुपचरतीति उपचरकः-सेवाकारकः 'अदुवा पडिवहिए' अथवा प्रतिपथिको भवति-कस्यचिद्धनमपंहत्तुं टीकार्थ-जिस पापी पुरुष के अन्नः करण में आत्म कल्याण की भावना नहीं होती, वह आगे कहे जाने वाले अनेक प्रकार के सावध कर्म करता है। अपने सुख के लिए या शय्या के लिए, घर पनाने के लिए अपने परिचित अथवा पड़ोसी आदि के लिए वह पाप कर्म करता है। वह पापकर्म इस प्रकार हैं-कोई पापी पुरुष धन के साथ मार्ग में जाते हुए धनिक का धन छीनने के लिए उसका पीछा करता है। कोई यह सोच कर कि अवसर मिलने पर इसे मार कर धन ले जाऊंगा, किसी धनी की सेवावृत्ति करता है । कोई किप्ती का हरण ટીકાર્થ–જે પાપી પુરૂષના અંતઃકરણમાં આત્મકતઘાણની ભાવના હોતી નથી, તથા અગળ કહેવામાં આવનારા અનેક પ્રકારના સાવદ્ય કર્મો કરે છે, પિતાના સુખ માટે અથવા શય્યા માટે, ઘર બનાવવા માટે, પરિવાર માટે, પિતાના પરિચિત અથવા પાડોસી માટે પાપકર્મ કરે છે, તે પાપકર્મ આ પ્રમાણે છે-કોઈ પાપી પુરૂષ ધનની સાથે માર્ગમાં જનારા ધનિકનું ધન પડાવી લેવા માટે તેને પીછો પકડે છે કે એવું માનીને તેને પર - કરે છે કે-અવસર મળતાં આને મારી નાખીને તેનું ધન લઇ લઈશ કેઈ ધનિકની સેવા એવું માનીને કરે છે કે–વખત મળતાં તેને મારીને તેનું ધન લઈ લઈશ કેઈ અન્યનું ધન હરી લેવા માર્ગમાં તેની સામે જાય છે. કેઈ ખાતર પાડે છે. અર્થાત્ ભીંત ખેદીને તેમાંથી Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. व. २ क्रियास्थान निरूपणम् २३१ सन्धाय स्वीकृत्य ' तमेव' धनिकं स्वामिनम् 'उवचरिय' उपचर्य - संसेव्य 'हंता - छेता - भेत्ता लुपहता' हत्वा-छिल्ला मित्रा - लोपयित्वा 'विलुं पड़ता ' विलोप्य 'उद्यवेत्ता' उपद्राव्य - जीवनं विनाश्य ' आहारं ' आहार्यम् - प्राप्यं धनम् आहारेइ' आहारयति-लुष्टयति-उपार्जयति ततो धनम् 'इति से' इत्येवं प्रकारेण सः - स्वामिघातकारी 'महया' 'महद्भिः 'पावेहिं' पापैः 'कम्मे हि' कर्मभिः 'अत्तान' आत्मानम् 'उवक्खाइत्ता' उपख्यापयिता - पापिष्ठतया आत्मनः प्रसिद्धिं करोति, 'भव' ईदृशो भवति, तथा - 'से एगइओ' स एकक:- कचि पुरुषः 'पडिव हियभाव' प्रतिपथिक भावम् 'पड़िसंधान' प्रतिसन्धाय - कुतश्चिद् ग्रामादागच्छन्तं धनिकं पुरुषं संमुखी भूत्वा 'तमेव पाडिपछे ठिच्चा' तमेव धनिकं प्रतिपथे स्थित्वा तस्य मार्गे स्थितः सन् 'तमेत्र हेना- छेत्ता - भेता-ल पत्ता- विलुं पत्ता- उद्दवत्ता - आहारं आहारेइ' हत्वा-छित्वा-भित्ता-लोपवित्वा-विलोप्य - उपद्राव्य आहारम् - आहरणीयं धनादिकम् आहरति- अर्जयति । 'ति से' इति सः 'महया पावेहिं कम्मे हिं' महद्भिः पापैः कर्मभिः 'अत्ताणं' आत्मानम् 'उवकखाइचा भवई' उपस्यापथिता भवति - पापिष्ठतया स्वात्मनः प्रसिद्धिकर्त्ता भवति इति भाव: ' से एगइओ' स एकतयः कचित्पापी पुरुषः 'सधिछेद्गभावं पडसंधाय प्रतिसन्धाय छेदकभावं तस्करो भूत्वा तमेव सन्धिम् 'छेत्ता - भेत्ता जाब' सन्धि छिला - भिवा यावत् का अन्त कर देता है और धन को हरण कर लेता है। इस प्रकार अपने स्वामी का घातक वह पुरुष घोर पापकर्म करके अपने आपको पापिष्ठ के रूप में प्रसिद्ध करता है । कोई पुरुष किसी ग्राम आदि की ओर मार्ग में जाते हुए धनिक के सामने आकर मार्ग में ही हनन, छेदन, भेदन, लुम्पन विलुम्पन अथवा उपद्रावण ( मार डालना) करके उसके धनादि को हरण कर लेता है । इस प्रकार वह घोर पाप कर्म करके आत्मा को पापिष्ठ के रूप में प्रसिद्ध करता है । कोई पापी पुरुष सेंध लगाकर और धनवान के घर में घुस कर उसका धन हर लेता つ અંત કરી દે છે અને તેનું ધન હરી લે છે. ' રીતે પેાતાના સ્વામીને ઘાત કરવાવાળા તે પુરૂષ ઘેાર પાપકમ કરીને પેાતાને પાષ્ઠિના રૂપથી પ્રસિદ્ધ કરે છે. કોઇ પુરૂષ કોઈ ગામ વિગેરે તરફ માર્ગોમાં જનારા ધનવાનની સામે જઈને માંમાં જ હનન, ઈંદન, ભેદન, લુ'પન, વિદ્યુ’પન અથવા ઉપદ્રાવણુ (મારી નાખવા) કરીને તેના ધન વિગેરેનુ હરણ કરી લે છે, આ રીતે તે ઘેર પાપકમ કરીને પેતાના આત્માને પાપી તરીકે પ્રસિદ્ધ કરે છે. કાઈ પાપી પુરૂષ ખાતર પાડીને ધનવાનના ઘરમાં પેસીને તેના ધનતું હરણુ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ सूत्रकृतास्त्र -धनिकगृहे सन्धि विधाय धनिनो धनमाहरति जीविकार्थम् 'इति से' इति एवं रूपेण सः 'महया' महद्भिः 'पावेहि पापैः 'कम्मे हि' कर्मभिः 'अताण' आत्मानम् 'उचक्खाइत्ता भवइ' उपख्यापयिता भवति-अयं चोर इति लोके प्रसिद्धि करोति, 'से एगइओ' स एकतयः कोऽपि पापी जीव: 'गठिछेदगभावं पडिसं. धाय' ग्रन्थिच्छेदकभावं प्रतिसन्धाय 'तं चेव गंठिं' तमेव धनिकस्य ग्रन्थिम् 'छेना-भेत्ता-जाव' छित्वा-भित्वा यावत्-धनिकं हत्वा तद्धनम् अपहरति, 'इइ से महया पावेहि कम्मेहि 'इत्येवं स महद्भिः पापैः कर्मभिः 'अत्ताण आत्मानम् 'उवक्खाइत्ता भवई' उपरुपापयिता भवति । गिरहकट्टा' इति लौकिकं नामलोके प्रसिद्धं कारयति । ‘से एगइओ' स एकतयः कोऽपि पापी जीवः 'उरम्भियभाव पडिसंधाय' औरभ्रिकभावं प्रतिसन्धाय-मेपपालको भूत्वा 'उसमें वा अण्णयरं वा' उरभ्र वा अन्यतरं वा 'तसं पाणं' त्रसं प्राणम्-याणवन्त मित्यर्थः 'हंता जाव' हत्ता-छित्या-भित्वा-यावद् आहारमर्जयति-इत्येवं महता पापेना ऽऽस्मानं पापिष्टतया लोके 'उवक्खाइत्ता भवइ' उपख्यापयिता भवति ‘एसो• अभिलावो सव्यत्य' एपोऽमिलापः सर्वत्र वाक्यान्ते पूरणीयः, ‘स एगइओ' है, इस प्रकार वह घोर पाप कर्म करके अपने को 'यह चोर है' इस रूप में प्रसिद्ध कर लेता है। कोई पापी जीव जेब कट बन कर एवं छेदन भेदन आदि करके धनवान् के प्राण लेकर उसके धन को अपहरण कर लेता है। इस प्रकार वह घोर पापकर्म करके अपने को जेय कट के रूप में प्रसिद्ध करता है। कोई पापी मेषचालक बन कर मेड़ या किसी अन्य त्रस प्राणी का हनन, छेदन, भेदन आदि करके आहार उपार्जन करता है। इस प्रकार घोर पाप करके अपने को लोक में पापिष्ठ के रूप में प्रसिद्ध करता है । 'घोर पाप करके अपने को पापी के रूप में प्रसिद्ध करता है' यह वाक्य आगे प्रत्येक वाक्य के साथ जोड़ लेना चाहिए। કરી લે છે. આ રીતે તે ઘોર પાપકર્મ કરીને પિતાને “આ ચોર છે તેમ પ્રસિદ્ધ કરે છે, કેઈ પાપી જીવ ગજવું કાપીને તથા છેદન, ભેદન વિગેરે કરીને ધનવાનના પ્રાણે લઈને તેનું ધન લઈ લે છે. આ રીતે તે ઘોર પાપકર્મ કરીને પોતાને ગજવા કાતરૂ' તરીકે પ્રસિદ્ધ કરે છે. કેઈ પાપી મેષ ચાલક બનીને બકરા અથવા કેઈ બીજી પ્રાણીના હનન, દેદન, ભેદન, વિગેરે કરીને આહાર પ્રાપ્ત કરે છે, આ રીતે ઘોર પાપકર્મ કરીને પિતાને દુનિયામાં પાષિષ્ઠ તરીકે પ્રસિદ્ધ કરે છે. ઘોર પાપ કરીને પિતાને પાપીપણાથી પ્રસિદ્ધ કરે છે. તે વાક્ય આગળ દરેક વાની સાથે જોડી લેવું જોઈએ, Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् तन्मार्गे तस्याऽभिमुखो भवति, 'अदुवा संघिच्छे यए' अथवा सन्धिच्छेदको भवति-धनमाइतं तद्गृहभित्तिकादौ छिद्रं संधाय तेन यथागृहस्थित धनमपहरति 'अदुवा गंठिच्छेदए' अथवा ग्रन्थिच्छेदक:-प्रन्थिच्छेदनं कृत्वा धनं गृह्णाति (गिरहकट्टा-पाकिट मार) शब्देन प्रसिद्धः 'अदुवा उरभिए' अथवा औरभ्रिको मेषादिकं चास्यति, ततो वधकाय दत्वा धनमर्जयति, 'अदुवा सोवरिए' अथवा शौकरिकः-अथवा वराहमेव चारयति धनलाभाय, 'अदुवा वागुरिए' अथवा बागुरिकः वागुरां-जालं निर्माय क्षिप्त्वा च मृगादिकं बन्नाति आजीविकायै 'अदुवा साउणिए' अथ शाकुनिका-पक्षिघातका, कश्चि न्मार्गमावृत्य-आततरय जालं पक्षिम एच ग्राहको भाति, 'अदुवा मछिए' अथवा कधिन्मारिस्यको भवति-मत्स्योद्योगेन धनमर्जयति । 'अदुवा गोघायए' अथवा गोघातकः कश्चिद्भवति, 'अदुवा गोवालए' अथवा गोपालकः कश्चिद्भवतिगोपालनमेव करोति-ततः वधकाय दत्वा धनमर्जपति, 'अदुवा सोवणिए' अथवा शौवनिकः श्वानं पालयति तस्करजन्यादि वधाय 'अदुवा सोचणियंतिए' अथवा श्वभिरन्तको भवति, कश्चित् श्वानं पुरस्कृत्य प्राण्यन्वरस्य हिंसा मनुवर्ततेकरने के लिए मार्ग में उसके सामने जाता है। कोई सेंध लगाता है -दीवार में छेद करके उसमें घुस कर धन चुरा लेता है। कोई ग्रन्थिच्छेद करता है-जेध कट होता है। कोई भेडे चराता है और घातकी-हत्यारा को बेचकर धनोपार्जन करता है, कोई धन के लिए शूकरों को घराता है, कोई जाल बना कर मृग आदि को फंसाता है, कोई पक्षियों का घात घरता है, कोई जाल फैला कर पक्षियों को 'पक्रड़ता है, कोई मछलियां मार कर धन कमाता है, कोई गायों का घात करता है, कोई गायों को पालन करके घातकी आदि को बेन कर धनोपार्जन करता है. कोई तस्कर (चोर) आदि के वध के लिए कुत्ता पालता है अथवा कुत्ते को आगे करके-छुछकार कर-किसी प्राणिकी ઘરમાં પ્રવેશ કરીને ચોરી કરે છે કે ગ્રંથી છેદન કરે છે અર્થાત ગજવા કાપે છે. કેઈ બકરા ચરાવે છે, અને ખાટકી–હત્યારાને તે વેચીને ધન મેળવે છે, કઈ ધન મેળવવા માટે શું રે-ભુંડેને ચરાવે છે, કેઈ જાળ બનાવીને મૃગ વિગેરેને ફસાવે છે. કે પક્ષિાની હિંસા કરે છે. કોઈ માછલી મારીને ધન કમાય છે. કઈ ગાની હિંસા કરે છે. કોઈ ગાયનું પાલન કરીને ખાટકી-વિગેરેને વેચીને ધને મેળવે છે, કેાઈ ચેરના વધ માટે કુતર પાળે છે, અથવા કુતરાઓને આગળ રાખીને-ઉશ્કેરીને કંઈ પ્રાણીની सू० ३० Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे " आखेटक । उपचरकादयः किं कुर्वन्ति तत्राह ' एगइओ आणुगामियभाव पडिस धाय तमेव अणुगामियाणुगामिय' एककः कचित्पुरुषोऽनुगामुकभावं प्रतिसन्धाय - कमपि धनिकं गच्छन्तम् अनुगम्य, तमेवानुगामुकाऽनुगम्यं तादृशं धनिक पृष्टतो गत्वा तम् 'हंता - छेत्ता - भेत्ता - लुंपइत्ता-विलुंपइत्ता- उदवइत्ता' हत्वा दण्डादिना, छित्वा खड्गादिना, भिला-शूलादिना, लोपयित्वा केशाकर्षणादिना पीडयित्वा विलोप्य उपद्राव्य- कशाघातादिभिरत्यन्तदुःखोत्पादने विलोप्प उपद्राध्य माणहरणं कृत्वा 'आहार' आहारम् - आदरणीयं तत्समीपस्थ तदधीनधनधान्या दिकम् 'आहारे' आहारयति - ण्टयति 'इइ से' इति इत्येवं मकारेण स एवार कर्मकर्त्ता 'महा' महदभिः 'पावेहि' पापैः 'कम्मेद' कर्मभिः- प्राणातिपातादिव्यापारै: 'अत्ताणं' आत्मानम् 'उबक्खाइत्ता भव उपख्यापविता भाति । पावि तया स्वात्मनं लोके प्रसिद्धं करोति, 'से एगडओ' स एकतयः - पुनरन्यः कोऽपि 'उवचरयभावं पडिसंधाय ' उपचरकभावं - सेवकमावं कस्यचित् धनिकस्य पतिहिंसा करता है । अब इनके कृत्यों को प्रकट करते हैं कोई क्रूर पुरुष मार्ग में जाते हुए किसी धनवान का पीछ करके उसे लाठियों से मारता है, खडू आदि से काट डालता है, भाले आदि से वेध देता है, केश खींच कर पीड़ा पहुंचाता है, चावुक आदि से पीटता है, अत्यन्त दुःख उपजाता है, प्राण ले लेता है और उसके धन को हर लेता है, लूट लेता है । ऐसे कुकर्म करने वाला वह पुरुष घोर हिंसादि पाप कर्मों से अपने को विख्यात करता है-अपने आपको पापी के रूप में लोक में प्रसिद्ध करता है । कोई किसी धनिक की सेवा वृत्ति स्वीकार करके, उसकी सेवा करके हनन, छेदन, भेदन, लुंपन और बिलुपन करके उसके जीवन હિ‘સા કરે છે. હવે તેમના મૃત્યુ ખતાવે છે. કાઇ ક્રુર પુરૂષ માગ માં જનારા ફાઈ ધનવાનને પીછે। પકડીને તેને લાકડીથી મારે છે તરવાર વિગેરેથી કાપી નાખે છે, ભાલા વગેરેથી તેને વીધી નાખે છે વાળ વિગેર ખે‘ચીને પીડા ઉપજાવે છે. ચાખકા વિગેરેથી મારે છે. અત્યંત દુઃખ ઉપજાવે છે. પ્રાણ લઇ લે છે. અને તેના ધનનુ હરણ કરે છે. અર્થાત્ લૂટી લે છે. એવા કુક કરવાવાળા તે પુરૂષ ઘેાર હિં‘સા વિગેરે પાપકમાંથી પેાતાને પ્રખ્યાત કરે છે. અર્થાત પાતે જ પેાતાને પાપીના રૂપથી જગતમાં પ્રસિદ્ધ કરે છે. કાઈ પુરૂષ કાઇ ધનવાન પુરૂષની સેવાવૃત્તિને સ્વીકારે તેની સેવા हरीने उनन, छेडन, लेडन, दुयन, रमने विदुयन मरीने तेनी लगीना Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् स-एकतयः कोऽपि पुरुषः 'सोयरियभावं पडिसंधाय' शौकरिकमावं भतिसन्धाय-शूकरपालको भूत्वा 'महिसं वा अन्नयरं वा तसं पाणं जाव' महिषं वा अन्यतरं वा त्रसं पाणं यावद् हत्वा छित्वा स्वकीय नीविकां करोति, स इत्येवं रूपेण महत्सापद्य कर्म कृत्वा स्वात्मनः लोके पापिष्ठत्वम् 'उवक्खाइत्ता भवई' उपख्यापयिता भवति, ‘से एगइओ' स एकतयः कोऽपि पुरुषः 'वागुरियभावं पडिसंधाय' वागरिकभावं-मृगघातकत्वं प्रतिसन्धाय-अङ्गीकृत्य 'मियं वा अण्णयरं वा तसं पाणं हंता जाव' मृगं वा तदन्यं वा त्रसं प्राणं हत्वा-छित्वा-यावत स्वस्य जीविका मर्जयति, इति स महता पापेन युक्ता-स्वात्मनो मृगघातकतया कोके 'उवक्खाइत्ता भवई' उपख्यापयिता भवति, 'से एगइओ' स एकतयः कोऽपि पुरुषा, 'सउणियमा पडिसंधाय' शाकुनिकभावं प्रतिसन्धाय-पक्षिव्या. पानकाय स्वीकृत्य 'सउणि चा अण्णयरं वा वसं पाणं हंता जाव' शकुनि वा अन्य तरं वा प्रसं प्राणं इत्वा-छिता-भित्वा यावत् स्वस्याऽऽजीविकां करोति । स तेन · कोई पुरुष शूकर पालक बन कर, भैला या किसी अन्य त्रस प्राणी का हनन, छेदन, भेदन करके अपनी आजीविका करता है। वह ऐसा घोर पाप कर्म करके अपने को पापिष्ठ के रूप में प्रख्यात करता है। कोई पापी पारधीवृत्ति अंगीकार करके मृग था अन्य किसी त्रस प्राणी का हनन, छेदन, भेदन, मारण आदि करके अपनी आजीविका चलाता है। वह घोर पाप करके अपने को मृग घातक के रूप में लोक विख्याति करता है। कोई पुरुष चिड़ीमार बन कर पक्षी या अन्य किसी प्रस प्राणी का हनन, छेदन, भेदन करके आजीविका करता है। वह घोर पाप कर्म करके अपने को महापापी के रूप में प्रसिद्ध करता है। कोई पापी मच्छीमार धन कर मत्स्य वध की वृत्ति अंगीकार करके मत्स्य या अन्य ब्रस प्राणी का हनन, छेदन, भेदन आदि करता है કેઈ પુરૂષ ભુંડને પાળનારે બનીને, ભેંશ અથવા બીજા કોઈ પ્રાણીનું હનન, છેદન, ભેદન કરીને પોતાની આજીવિકા ચલાવે છે, તે એવું ઘર પાપકર્મ કરીને પિતાને પાપિણ્ડ પણાથી પ્રખ્યાત કરે છે. કેઈ પાપી પારધી વૃત્તિનો સ્વીકાર કરીને મૃગ અથવા બીજા કેઈ ત્રસ પ્રાણીનું હનન, છેદન ભેદન મારણ વિગેરે કરીને પોતાની આજીવિકા ચલાવે છે, તે ઘેર પાપ કરીને પિતાને મૃગઘાતક પણુથી જગતમાં પ્રખ્યાત કરે છે. કે પુરૂષ ચીડીમાર બનીને પક્ષી અથવા બીજા કે ત્રસ પ્રાણીનું હનન, છેદન, ભેદન કરીને પિતાની આજીવિકા ચલાવે છે, તે ઘોર પાપકર્મ કરીને પિતાને મહા” પાપી પણાથી પ્રસિદ્ધ કરે છે. કેઈ પાપી મચ્છી માર બનીને મય વધની Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सूत्रकृताने महता पापेन युक्तःसन् स्वस्य महापापीति शबन गसिद्धिम् 'उवावादत्ता भवई' उपख्यापयिता भवति, "स एगइओ' स एकरायः कोऽपि पुरुष: 'मच्छि पभावं पडिसंधाय' मात्स्यिकमा प्रतिसन्धाय- मत्स्यवधात्मक कार्यमगीकृत्य 'मच्छ वा अण्णयरं या तसं पाणं हंता जाव' मत्स्यं वा अन्यतरं वा असं पाणं हत्वा यावत् स्वकीयजीविकां करोति, इति स जीवधान कार्य कुर्वन महता पापेन लिम: घात. कतया स्वस्य प्रसिद्धि लो के कारयति, 'उबकावाइत्ता भाइ' उपख्याययिता भवति । 'से एगहभो' स एकतयः कश्चित्पुरुषः 'गोवारममावं पडि संधाय' गोघातकभावं प्रतिसन्धाश्-गवां मारणकार्य मगीकृत्य 'तमेव गोणं वा अण्णयरं वा तसं पाणं हता जाव' तामेव गामन्यतरं वा असं माणं हत्वा छित्वा यावत्स्वनीविकामयति, इति स एवं महता पापेन युका स्पस्याऽपकीति कोके प्रसारयति, स्वस्याऽपयशसः 'उपक्खाइत्ता भाइ' उपख्यापयिता भवति, 'से एगइओ' स एकनयः कोऽपि पुरुषः 'गोवालमा पडिसंधाय' गोपालमा प्रतिसन्धाय-गवां पालकत्वमङ्गीकृत्य 'तमेव गोवालं परिज विय परिजविर हंता जाव' तमेव -पाल्यमेव गोवालं वत्सरं परिविच्य परिविय-गोसमुदायात् बहिनीत्वा ताडयति, इति स तादृशपशुताउ. नादिनिपिद्धकार्यं कुर्वन्, महता पापेन युक्तः सन् स्वात्मनोऽपकीर्तेकों के 'उपक्खाइत्ता भवइ उपख्यापयिता भवति, ‘से एगहो' स एकतयः कोऽपि पुरुषः और घोर पाप करके घातक के रूप में अपनी प्रसिद्धि करता है। कोई पुरुष गोघातक बन कर गाय अथवा अन्य किसी प्राणीका इनन, छेदन, भेदन आदि करके अपनी आजीविका चलाता है। वह घोर पाप कर्म करके लोक में अपनी अपकीनि फैलाता है। कोई गोपालक घन कर उसी पालनीय गाय के बछड़े-बछड़ी को गायों के झुंड में से घाहर निकाल कर ताड़न करता है। वह पशु ताड़न आदि निषिद्ध कर्म करता हुआ घोर पाप से युक्त होकर लोक में अपने अपयश का ભેદન વિગેરે કરે છે. અને ઘોર પાપકર્મ કરીને ઘાતક પણાથી પિતાને પ્રસિદ્ધ કરે છે કેઈ પુરૂષ ગેઘાતક બનીને ગાય અથવા બીજા કોઈ પ્રાણીનું હનન. છેદન, ભેદન, વિગેરે કરીને પિતાની આજીવિકા ચલાવે છે, તે ઘેર પાપકર્મ કરીને દુનિયામાં પિતાની અપકીર્તિ ફેલાવે છે, કેઈ ગોપાલક બનીને તે પાલન કરવા ગ્ય ગાયના વ છડા વાછડીને ગાયોના ટોળામાંથી બહાર કહાડીને મારે છે, તે પશુતાડન વિગેરે નિશિદ્ધ કર્મ કરતા થકા શેર પાપથી યુક્ત થઈને દુનિયામાં પિતાને અપયશ ફેલાવે છે, કેઈ કુતરાઓને Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् ... ... २३७ 'सोवणियमाव पडिसंधाय' शौवनिकमा शुनां पालन कार्य प्रतिप्तधाय-अङ्गीकृत्य 'तमेव सुगगं वा अण्णयर वा तसं पाणं हंता जा' तमेव श्वानं वाऽन्यतर वा त्रसं प्राण हत्ता यावत्-तमेव श्वानमन्यं वा जीवं व्यापाद्य स्वस्याऽऽजीविका निर्वहति, इति स कुत्सितकर्म ननितपापेन लिता स्वरुपाकीत 'उबक्खाइत्ता भाइ' उपख्यापयिता भवति । तद्विस्तारको मस्तीति यावत 'से एगइओ' स एकतयः कोऽपि पुरुष'सोवणियंतियमा पडियाय' अभिरन्त कमावं प्रति सन्धाय-श्वभिः-कुक्कुरादि जीहिंसकपशुद्वारा वन्यपशुहिंसनव्यापार स्वीकृत्य 'तमेव मणुस्सं वा अनयर बा त पाणं हंता जाव' तमेव मनुष्यं वा अन्यतरं वा त्रसं माणं इत्ता यावत् तादृश हिंसकपशुद्वारा मनुष्यादिकान् जीवान् व्यापाद्य 'आहारं आहारे' आहारमाहारयति-आजीविकामुपार्ज यति, इति 'से' इति स:-ताश क्रूरकर्मकारी पुरुष? 'महा' महतिः 'पावेहि' पापैः 'कम्मे हि' कर्ममि। 'अत्ताणं' आत्मानम्-आत्मनः 'उक्खइत्ता भाइ' उरख्यापयिता भवति तादृशः कर्मजनितयापलिप्तः स्वस्याऽपकीर्तेः लोके विस्तारको भवति । इदं तु-ऐहिक ताशकर्मणः फलम्, पारलौकिक-शास्त्रवेद्य तदनुभववेध चेति भावः ॥१६-३१॥ विस्तार करता है। कोई कुत्ते का पालन करके और उसी कुत्ते का या अन्य किसी त्रस्त प्राणी का घात करके आजीविका-निर्वाह करता है। वह कुत्सित कर्म जनित पाप से लिप होकर अपनी अपकीर्ति फैलाता है। कोई पापी शिकारी कुत्तों के द्वारा जंगली पशुओं की हिंसा के व्यापार को अंगीकार कर अनुष्य या अन्य किसी प्राणी का हनन आदि करके आहार करता है अर्थात् जीविका उपार्जन करता है। ऐसा क्रूर कमें करने वाला पुरुष घोर पाप कर्मों के द्वारा लोक में अपना अपयश-विस्तार करता है। ' यहां विविध प्रकार के घोर पापों का जो फल प्रदर्शित किया પાળીને અને એજ કુતરાને અથવા બીજા કે ત્રસ પ્રાણીને ઘાત કરીને આજીવિકા–નિર્વાહ ચલાવે છે. તે નિશ્ચિત કર્મથી થવાવાળા પાપથી લિપ્ત થઈને પિતાની અપકીતિ ફેલાવે છે કે પાપી શિકારી કૂતરાઓ દ્વારા જંગલી પશુઓની હિંસાની પ્રવૃત્તિને અંગીકાર કરીને મનુષ્ય અથવા બીજા કઈ પ્રાણિ હનન વિગેરે કરીને આહાર કરે છે. અર્થાત્ આજીવિકા મેળવે છે. એવા ક્રૂર કર્મ કરવાવાળા પુરૂષ ઘેર પાપકર્મો દ્વારા દુનિયામાં પિતાના અપજશને વિસ્તાર કરે છે. અહિયાં અનેક પ્રકારના ઘોર પાપનું જે ફળ બતાવેલ છે, તે કેવળ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૩૮ सूत्रकृतास्त्र ' मूलम्-से एगइओ परिसा मज्झाओ उद्वित्ता अहमेयं हणामित्ति कटु तित्तिरं वा वगं वा लावगं वा कोयगं वा कवि. जलं वा अन्नयरं वा तसं पाणं हंता जाव उवक्खाइत्ता भवइ। से एगइओ केण वि आयाणेणं विरुद्ध समाणे अदुवा खलदाजेणं अदुवा सुराथालएणं गाहावईणं वा गाहावइपुत्ताणं वा संयमेव अगणिकाएणं सस्लाइं झामेइ अन्नेण वि अगणिकाएणं सस्ताई झामावेइ अगणिकाएणं सस्लाइं झामतं वि अण्णं समणुजाणइ इइ से महया पावेहिं कम्महि अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ । से एगइओ केणइ आयाणेणं विरुद्धे समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराथालएणं गाहावईण वा गाहावइपुत्ताणं वा उहाणं वा गोणाणं वा घोडगाणं वा गदभाणं वा सयमेव धूराओ कप्पेइ अन्नेण वि कप्पावेइ कप्पंतं वि अन्नं समणुजाणइ इइ से महया जाव भवइ । ले एगइओ केणइ आयाणेण विरुद्ध समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराथालएणं गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा उसालाओ वा गोणलालाओ वा घोडगसालाओ वा गद्दभमालाओ वा कंडगबोंदियाए परिपेहिता सयमेव अगणिकाएणं झामेइ अन्नण वि झामावेई झामतं वि अन्नं समणुजाणइ इइ से महया जाव भवइ । से एगइओ केणइ गया है, वह तो सिर्फ ऐहिक फल है। परलौकिक फल शास्त्र से जान लेना चाहिए या अनुभव से समझ लेना चाहिए ॥१६॥ એહિક ફળ છે. પરેક સંબંધી ફળ તે શાસ્ત્ર દ્વારા સમજી લેવું જોઈએ. અથવા અનુભવથી સમજી લેવું જોઈએ ૧૬ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थान निरूपणम् २३९ आयाणेणं विरुद्धे समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराधालof गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा कुंडलं वा मणि वा मोतियं वा सयमेव अवहरइ अन्नेण वि अवहरावेइ अवहरतं वि अन्नं समणुजाणइ इह से महया जाव भवइ । से एगइओ केइ आयाणं विरुद्धे समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुरथालएणं समणाण वा माहणाण वा छत्तगं वा दंडगं वा भंडगं वा भत्तगं वा लडिं वा भिसिगं वा बेलगं वा चिलिमिलिगं वा चस्मयं वा छेयणगं वा चम्मकोसियं वा सयमेव अवहरइ जाव समणुजाण । इह से महया जाव उवक्खाइत्ता भवइ । से एगइओ णो वितिगिंछइ, तं जहा- गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा सयमेव अगणिकाएणं ओसहीओ झामेइ जाव अन्नं पिझामतं समणुजाणइ इइ से महया जाव उवक्खाइत्ता भवइ । से एगइओ णो वितिगिंछइ, तं जहा - गाहावईण वा गाहावइपुत्ताणं वा उट्टाणं वा गोणाणं वा घोडगाण वा गद्दभाण वा सयमेव घूराओ कप्पेइ अन्नेण वि कप्पावेइ अन्नं पि कप्पतं समणुजाणइ । से एगइओ णो विविर्गिछड तं जहा - गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा उसालाओ वा जाव गद्दभसालाओ वा कंटगचोंदियाहि परिपेहित्ता सयमेव अगणिकाणं झामेइ जाव लमणुजाण । से एगइओ णो वितिगिंछ, तं जहा - गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा जाव मोत्तियं वा सयमेव अवहरइ जाव समणुजाणइ । से एगइओ णो वितिगि 7 Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छइ, तं जहा-लनणाण वा साहणाण वा छत्तगंवा दंडगं वा जान चमच्छेदगं वा लयमेव अवहरइ जाव लमणुजाणइ, इन ले महया जाव उवश्खाइत्ता भवइ। से एगइओ समणं वा माहणं वा दिसा नानाविहेहिं पावकम्भेहि अत्तानं उवक्खाइत्ता भवई, अदुवा णं अच्छराए आफालित्ता भवइ, अदुवा णं फरुलं वंदित्ता सवइ । कालेणापि से अणुपविट्ठस्स असणं वा पाणं वा जाच णो दवावेत्ता भवइ । जे इमे भवंति दोनमंता भारवंता अलसगा बललगा किवणगा समणगा पव्वयंति । ते हणमेव जीवितं धिजीवियं संपडिति, नाइ ते परलोगस्स अटाए किंचि वि लिलीसंति, ते दुक्खंति ते सोयंति ते जूरंति ते तिप्पति ते पिद्धति ते परितप्पंति ते दुक्खणजूरण सोयणतिप्पणपिट्टणपरितप्पवहवंधणपरिकिलेसामओ अप्पडिविरया भवंति, ते महया आरंभेण ते महया समारंभेणं ले महया आरंभसमारंभेणं विरूववरू देहिं पावकराकिच्चेहि उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई मुंजित्तारो भवंति, तं जहा-अन्नं अन्लकाले पाणं पाणकाले वत्थं वत्थकाले लयर्ण लयणकाले मारंच पहाए कयवलिकम्ले कयको उयमंगलपायच्छित्तेलिरला हाए कंठे मालाकडे आविद्धमणिसुवन्ने कविषयमालामउलीपडिबद्धसरीरे वग्धारिय सोणिसुत्तगमल्लदासकलावे अहतवस्थपरिहिए चंदणोक्खित्तगायसरीरे महइमहालियाए कूडागारसालाए महइ महालयसि सीहासणंसि इत्थिगुम्मसपरिवुडे सव्वराइएणं जो Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समायोधिनी टीका द्वि. थु. अ. २ क्रियास्थान निरूपणम् : इणा झियायमाणेणं महयाहय नट्टगीय वाइयतंतीतलतालतुडियघणमुईंगपडुपवाइयरवेणं उरालाई माणुस्सगाई भोग भोगाई भुंजमाणे विहरइ । तस्स णं एगमवि आणवैमाणस्स जाव चत्तारि पंच जणा आत्ता चेत्र अब्भुति, भणह देवाणुपिया ! किं करोमो कि आहारेमो ? किं उवणेमो ? किं आचिट्ठामो ? किं भे हियं इच्छियं ? किं भे आसगस्स सयइ ? तमेव पासित्ता अणारिया एवं वयंति - देवे खलु अयं पुरिसे, देवसिणाए खलु अयं पुरिसे, देवजीवणिज्जे खलु अयं पुरिसे, अन्ने वि य णं उवजीवंति, तमेव पासित्ता आरिया वयंति-अभिकंत कूरकम्मे खलु अयं पुरिसे, अतिधुन्ने अइया रक्खे दाहिणगामिए नेरइए कण्हपक्खि आगामिस्साणं दुल्लहबोहियाए यावि भविस्सइ, इश्वेयस्स) ठाणस्स उट्टिया वेगे अभिगिज्झति अणुट्टिया वेगे अभिगिज्झंति, अभिझंझा उरा वेगे अभिगिज्यंति, एसठाणे अणारिए अकेवले अप्पाडे पुन्ने अयाउए असंसुद्धे असल्लगत्तणे असिद्धिमग्गे अमुत्तिमग्गे अनिव्वाणसग्गे अणिज्जाणमग्गे असव - दुक्खवहीणमग्गे एगंतमिच्छे असाहु एस खलु पढमस्स ठाणस्ल अधम्मपक्खस्स त्रिभंगे एवमाहिए ॥ सू० १७॥३२॥ २४१ -- छाया - ' स एकः पर्षद्मध्यादुत्थाय अमेतं हनिष्यमीति कृत्वा तित्तिरं बावर्त्तकं वा लावकं वा कपोतकं वा कपिञ्जलं वा अन्यतरं वा त्रसं माणं हन्ता यावद् उपख्यापयिता भवति । स एकतयः केनापि आदानेन विरुद्धः सन् अथवा स्वादानेन अथवा सुरास्थालकेन गाथापतीनां चा गाथापतिपुत्राणां चा स्वयमेव ० ३१ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ अनिकायेन शस्यानि धमति अन्येनापि अग्निकायेन शस्यानि ध्मापयति अन्तिकायेन शस्यानि धमन्तमप्यन्यं समनुजानाति इति सः महद्भिः पापैः कर्मभिः मात्मानमुपख्यापयिता भवति । स एकतयः केनाऽप्यादानेन विरुद्धः सन् अथवा खलदानेन अथवा सुरास्थालकेन गाथापतीनां वा गाथापतिपुत्राणां वा उष्ट्राणां वा गवां वा घोटकानां वा गर्दभानां वा सत्यमेव अङ्गादीन् कल्पते अन्येनाऽपि फैल्पयति कल्पमानमपि अन्यं समनुजानाति इति महद्भिर्यावद् भवति । स एक तयः केनापि आदानेन विरुद्धः सन् अथवा खलदानेन अथवा सुरास्थालकेन गाया पतीनां वा गाथापतिपुत्राणां वा उष्ट्रशाला वा गोशाला वा घोटकशाला वा गर्दभशाला वा कण्टकशाखामिः परिपिधाय स्वयमेवाग्निकायेन धमति अन्येनाऽपि ध्मापयति धमन्तमपि अन्यं समनुजानाति, इति स महद्भिर्यावद् भवति । स एकत्यः केनाऽपि आदानेन विरुद्धः सन् अथवा खलदानेन अथवा सुरास्थान गाथापतीनां वा गाथापतिपुत्राणां वा कुण्डलं वा मणि वा मौक्तिकं वा स्वयमेव अपहरति अन्येनापि अपहारयति अपहरन्तमपि अन्यं समनुजानाति इति. स महभियविद् भवति । स एकतयः केनाऽपि आदानेन विरुद्धः सन् अथवा, खळदानेन अथवा मुरास्थालकेन श्रमणानां वा माहनानां वा छत्र वा दण्डकं वा भाण्डकं वा मात्रकं वा यष्टिकां वा वृक्षी वा चेलक वा प्रच्छादनपटी वा चर्मकं वा छेदनकं वा चर्मकोशिकां वा स्वयमेव अपहरति यावत् समनुजानाति इति स महभिर्याचद् उपख्यापयिता भवति, स एकतयः नो विमर्ष ति, तथा गायापतीनां वा गाथापतिपुत्राणां वा स्वयमेवाऽग्निकायेन ओषधी धमति यांचंद धमन्तमपि अन्यं समनुजानाति इति स महद्भिर्यावद् उपख्यापर्यिता भवति । स. एकतयः नो विमर्पति-तद्यथा-गायापतीनां वा गाथापतिपुत्राणां वा उष्ट्राणां वा गवां वा घोटकानां वा गर्दभानां वा स्वयमेव अवयवान् कल्पते अन्येनाऽपि कल्पयति अन्यमपि कल्पमानं समनुजानाति । स एकतयः नो विमर्पति, तद्यथा-गाथापांतीनां वा-गाथापतिपुत्राणां वा उष्टूशाला वा यावद् गर्दभशाला वा कण्टकशाखाभिः परिपिधाय स्वयमेव अग्निकायेन धमति यावत् समनुजानाति । स एकतयः नो विमर्पति, तद्यथा-गाथापतीनां वा गाथापतिपुत्राणां वा यावद् मौक्तिक वा स्वयं मेवापहरति यावत् समनु नानाति । स एकतयः नो विमर्पति तद्यथा-श्रमणानां वा माइनानां वा छत्रकं वा दण्डकं वा यावच्चमच्छेदकं वा स्वयमेव अपहरतिसावत् समनुजाति इति स महद्भिर्यावद् उपस्थापयिता भवतिः। स एकतया भ्रमणचा माहनं वा दृष्ट्वा नानाविधैः पापकर्मभिरात्मानमुपस्थापयिता, भवति अथवा:खह Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् २४३. 1 sudan on अप्सरसः - आस्कालरता भवति अथवा पुरुष वदिता भरति कालेनाऽपि तस्याऽनु प्रविष्टस्य अशनं वा पानं वा यावन्नो दापयिता भवति । ये इमें भवन्ति व्युन्नमन्तो भाराक्रान्ता: अलसकाः वृषलकाः कृपणकाः श्रमणकाः पव्रजन्ति । ते इदमेव जीवितं धिग्जीवितं सम्मति बृंहन्ति । नाऽपि ते परलोकस्य अर्थाय किञ्चिदपि विष्यन्ति ते दुःख्यन्ति - ते शोचन्ति ते जूरयन्ति ते विप्यन्ति ते विहन्ति ते.. परितप्यन्ति ते दुःखनजूरणशोचन तेपनविनपरितापन धवन्धपरिक्लेशेभ्योऽमति विरता भवन्ति, ते महता आरम्भेण महता समारम्भेण ते महद्भयामारम्भसमारम् म्माभ्यां विरूपरूपैः पापकर्मकृत्यैः उदाराणां मानुष्यकाणां भोग भोगानां भोक्तारो भवन्ति तद्यथा - अन्नमन्नकाले पानं पानकाले वस्त्रं वस्त्रकाले लयनं लयनकाले' शयने शयनकाले स पूर्वापरं च स्नातः कृतवलिकर्मा कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तः शिरसो स्नीतः कण्ठे मालाकृत् आविद्धमणिसुवर्णः कल्पितमालामुकुटी प्रतिबद्धशरीरः प्रति लम्बित श्रोणिसूत्रक माल्यदामकलापः अहतत्रत्र परिहितः चन्दनौक्षित गात्रशरीर। महवि महत्या [विस्तीर्णीयां कूटागारशालायां महति विस्तीर्णे सिंहासने स्त्रीगुल्म संपरिवृतः सार्वत्रेिण ज्योतिषा ध्मायमानेन महताहतनाट्यगीतवादित्रतन्त्रीतलतालत्रुटिकधन मृदङ्गषटुपवदितरवेण उदारान् मानुष्कान् भोगभोगान् भुञ्जानो विहरति । तस्ये कर्मपि आज्ञापयतः यावच्चत्वारः पञ्च वा अनुक्ताश्चैव पुरुषा अभ्युत्तिष्ठन्ति । भगव देवोभयाः, किं कुर्मः किमाहरामः किमुपनयामः किमातिष्ठामः किं युष्माक तिमिष्टं किं युष्माकम् आस्यस्य स्वदते । तमेव दृष्ट्वा आनार्याः एवं वदन्ति देवः खलु अयं पुरुषः देवस्नातकः खलु अयं पुरुषः देवजीवनीयः खलु अयं पुरुषः, अन्येऽपि एनमुपजीवन्ति । तमेव दृष्ट्वा आर्याः वदन्ति, अभिक्रान्त क्रूरकर्मा खलु अयं पुरुषः अतिधूर्तः अस्यात्मरक्षा दक्षिणगामी नैरयिकः कृष्णपाक्षिकः आगमि - यति दुर्लभ वोधिकचापि भविष्यति । इत्येतस्य स्थानस्य उत्थिता एके अभिगृध्यन्ति अनुत्थिता के अभिगृध्यन्ति अभिशंशाकुलाः एके अभिगृध्यन्ति । एतत् स्थानम् अनार्यम् अकेवलम् अपतिपूर्णम् अनैयायिकम् असंयुद्धम् अशल्यकर्त्तनम् असिद्धिमार्गम् अमुक्तिमार्गम् अनिर्वाणमार्गम् अनिर्याणमार्गम् असर्वदुःखमदीण मार्गम् एकान्तमिथ्या असाधु एषखलु मयमस्य स्थानस्य अधर्मपक्षस्य विभङ्गः एवमा ख्यातः ॥ मु०१७ = ३२ ॥ टीका- 'से एगइओ' स एकतयः कोऽपि पुरुषः 'परिसामज्झाओ' वर्ष मध्यात्यत्र वचन सम्मिलितसभातः 'उट्ठित्ता' उत्थाय 'अहमेणं हणामिति कट्टु' अह Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयार्थबोधिनी टोका द्वि श्र. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् ૪૧ 1 अन्यद्वारा 'अगणिकारणं सहमाई झामावेई' अग्निकायेन शस्यानि ध्मापयति - दाहयति ततश्च तेषाम् 'अगणिकाएं गं सहसाई झामतं वि अन्नं समणुजाणई' अग्निकायेन शस्यानि धमन्तदध्यन्यं नरान्तरम् समनुजानाति - अनुमोदते, 'इइ से ' इति सः 'महया पावेहिं कस्मेहिं महदभिः पापैः कर्मभिः 'अत्ताणं' आत्मानम् 'उवक्ख इत्ता भवइ' उपरूनापयिता भवति, पुरुषाणां तेषां शस्यादिकमग्निकायेन स्वयं धमन् अन्यद्वारा ध्मापयन् वा तज्जनितपापेन लिप्तः सन् स्वात्मनः पापिष्ठतया उपख्ययिता - प्रसिद्धिकारको भवति, 'से एगइओ' स एकतयः कोऽपि पुरुषः 'के आयाणेणं विरुद्धे समाणे' केनाऽपि आदानेन कारणविशेषेग विरुद्ध:क्रुद्धः सन् 'अदुवा' अथवा 'खलदाणेणं' कुत्सितान्नप्रदानेन 'अदुवा' अथवा 'सुराधालपणं वा' सुरास्थाल केन - अभीष्टसिद्धयभावेन वा प्रकुपितः सन् 'गाहा वईण वा गाइवइपुत्ताण वा' गाथापतीनां वा गाथापतिपुत्राणां वा 'उद्याणं वागोणाण-घोडगाणं वा गदभाणं वा उष्ट्राणां वा गवां वा-घोटकानां वा-गर्द भाणां वा 'सयमेव' स्वयमेव 'छुराओ' अङ्गानि - अवयवान् हस्तपादादीन् 'कप्प ' करपते - कल्पनमत्र कर्त्तनम् खण्डशः करोति कृन्तति-इत्यर्थः ' अन्नेण वि' अन्येनाऽपि 'कप्पावे।' कल्पयति - कर्त्तयतीति 'कष्पतं वि अन्नं' कल्पमानमपि - कृन्तन्तमपि खण्डशः कुर्वन्तमपि अन्यम् 'समणुजाण३' समनुजानाति - अनुमोदते, 'इइ से' इति सः 'महया जाव भव' महद्भिः पापैः कर्मभिः युक्तो भवन स्वात्मनोऽपकीर्त्ति वाकर जलवा देता है और जला देने वाले का अनुमोदन करता है । ऐसा करके वह महान् पाप से लिप्त होकर अपने को पापिष्ठ के रूप में प्रख्यात करता है । कोई पुरुष किसी कारण से विरुद्ध होकर सड़ा-गला अन्न देने से या मद्य स्थालक से या अन्य किसी कारण से कुपित होकर गाथापति के अथवा गाथापति के पुत्रों के, ऊंटों के गायों के, अश्चों के या गधों के हाथ-पैर आदि अंगों को स्वयं काट देता है, किसी दूसरे से कटवा લગાડાવીને ખાળી નખાવે છે, અને ખાળવા વાળાનું અનુમેદન કરે છે. એવુ' કરીને તે મેટા પાપથી લિપ્ત થઇને પેાતાને પાપિ પણાથી પ્રખ્યાત કરે છે. કોઇ પુરૂષ કઈ કારણથી વિરૂદ્ધ થઈને સડેલું' કે બગડી ગયેલુ અનાજ આપવાથી અથવા મદ્ય-દારૂથી અથત્રા ખીજા કોઈ કારણથી ક્રોધાય માન થઈને ગાથાપતિના અથવા ગાથાપતિના પુત્રાના, ટોના, કે ગાયાના, ઘેાડાઓના કે ગધેડાઓના હાથ-પગ વિગેરે અ'ગાને સ્વય' કાપી નાખે છે. કેઈ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् २५७ इओं' स एकतयः कोऽपि पुरुषः 'केणइ आयाणेणं' केनाऽपि आदानेन-कुरिसताऽनपदानेन 'अदुवा' अथवा 'मुराथालएणं' सुरास्थालकेन-अभीष्टसिद्धयभावेन गाहावईण-वा' गाथापतीनां वा 'गाहावइपुत्ताण वा' गाथापतिपुत्राणां वा 'कुंडलं वा-मणि वा-मोनियं वा कुण्डलं वा-मणि वा मौक्तिकं वा अलङ्कारादिकम्, 'सयमेव अवहरई' स्वयमेवाऽपहरति, 'अन्नेण वि अवहरावेई' अन्येनाऽपि अपहारयतिअन्यद्वारा अपहरणं कारयति 'अवहरंतं वि अन्ने समणुजाणई' अपहरन्तमपि अन्य समनुजानाति-अनुमोदते 'इइ से महया जाव भाइ' इति स महदमिविदर्भवतिमेहंदुभिः पापैः कर्मभिर्युक्तः स्वाऽपत्ति लोके विस्तारयति । 'से एगइयों से एकतयः कोऽपि पुरुष: 'केणइ -आयाणेणं केनापि आदानेन किमपि - कारण मासाय 'विरुज्झे समाणे' विरुद्धः सन्-विरोधमुपगतः सन् 'अदुवा' अथवा 'खळदाणेण अदुवा सुराथालएणं अथवा खलंदानेन कुत्सितान महानेन -अथवा सुसंस्था लकेन-अभिलषितवस्तुनोऽलाभेन साधनामुपरि क्रोध कुर्वनराधमः कोऽपि जना तेषां विशुद्धभावानाम्, समणाण वा माहणाण वा' श्रमणानां वा माहनानां वा वक्ष्यमाणवस्तूनि स्वयमेवाहरति । 'छत्तगं वा-दंडगं वा-भंडर्ग वा-भत्तगं वाकट्टि वा-भिसिगं वा-चेलगं वा-चिलिमिलिगं वा-चम्मयं वा छेयणगं वा-चममा कोसियं वा-सयमेव अवहरह जाव समणुजाणइ इइ से महया- जाव उवक्खाइत्ता मवई छत्रकं वा-दण्ड कं वा-भाण्डकं वा-अमत्रकं वा-यष्टिकां वा-वृसीम् वाआसनम्, चेलकं वा-मच्छादनपटी वा, चमकं वा-छेदनकं वा-शस्त्रादि, चर्म कोशिका वा चर्मपुटकम् 'थैलीति' प्रसिद्धम् 'स्वयमेव अपहरति स दुष्पुरुषः स्तेनादि वृत्या 'जाव समणुजाणई' यावत् समनुजानाति, स्वयमपहरति अन्ये - नापि अपहारयति, अपहरन्तमन्यं समनुजानाति-तदनुमोदनां करोति-इत्येव - कोई पुरुष खराब भन्न देने से सुरास्थालक से अथवा किसी अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति न होने से श्रमणों या ब्राह्मगों पर क्रुद्ध होकर उनके छाते, डंडे, भांड, पात्र, लाठी, आसन, वस्त्र, पर्दा, चर्म, छेदनक (वनस्पति काटने के शस्त्र), चर्म कोशिका या चर्मपुटक (थैली) आदि उप. करणों को स्वयं हर लेता है, दूसरे से हरण करवा लेता है या हरण • કઈ પુરૂષ ખરાબ અન્ન આપવાથી, સુરાઘાલકથી અથવા કેઈ ઈષ્ટ વરતુની પ્રાપ્તિ ન થવાથી શ્રમણે અથવા બ્રા પર કોલ કરીને તેઓની छत्रीया आमा, पास।, दया, सासन, पक्ष, पायांमा, छेदन (વનસપતિ કાપવાનું શસ્ત્ર વિશેષ) ચિમકેશિકા અથવાચર્મ પુટ થેલી) विगेरे - ७५४२ ने स्वय छे, मीन्तनी - पांस - २६ ४ी छे. અથવા હરણ કરવાવાળાનું અનુમોદન કરે છે, તે કારણે તે મહોન પાપ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् इओ' स एकतयः कोऽपि पुरुषः 'केणइ आयाणेणं' केनाऽषि आदानेन-कुत्सिताऽमपदानेन 'अदुवा' अथवा 'मुराथालएणं' सुरास्थालकेन-अभीष्टसिद्धयभावेन गाहावईण वा' गायापतीनां वा 'गाहावइपुत्ताण वा' गाथापतिपुत्राणां वा कुंडलं वा-मणि वा-मोचियं वा कुण्डलं वा-मणि वा मौक्तिकं वा अलङ्कारादिकम्, 'सयमेव अवहरई' स्वयमेवाऽपहरति, 'अन्नेण वि अवहरावेई'. अन्येनाऽपि अपहारयतिअन्यद्वारा अपहरणं कारयति 'अवहरंतं वि अन्नं समणुजाणइ' अपहरन्तमपि अन्य समनुजानाति-अनुमोदते 'इइ से महया जाव भवइ' इति स महर्षािवद्भवतिमेहमिः पापैः कर्मभिर्युक्तः स्वाऽपत्ति लोके विस्तारयति । 'से एगइओस एकतयः कोऽपि पुरुषः 'केणइ आयाणेणं केनाऽपि आदानेन किमपि. कारण मासाथ 'विरुज्झे समाणे विरुद्धः सन्-विरोधमुपगतः सन् 'अदुवा' अथवा 'खलदाणेणं अदुवा सुराथालएणं' अथवा खलंदानेन कुत्सिवान प्रदानेन अथवा मुरास्थालकेन-अभिलषितवस्तुनोऽलाभेन साधूनामुपरि क्रोधं कुर्वनराधमः कोऽपि जना तेषां विशुद्धमावानाम्, समणाण वा माहणाण वा' श्रमणानां वा माहनानां वा वक्ष्यमाणवस्तूनि स्वयमेवाहरति । 'छत्तगं वा-दंडगं वा-भंडग वा-मत्तगं वाकृद्धि वा-भिसिगं वा-चेलगं वा-चिलिमिलिगं वा-चम्मयं वा छेपणगं वाचम्म कोसियं वा-सयमेव अवहरह जाव समणुजाणइ इइ से महया जाव उवक्खारत्ता भवई, छत्रकं वा-दण्डकं वा-भाण्डकं वा-अमत्रकं वा-यष्टिकां वा-वृसीम् -बाआसनम्, चेलक वा-पच्छादनपटी वा, चर्मकं वा-छेदनकं वा-शस्त्रादि, चर्म कोशिका वा चर्मपुटकम् 'थैलीति' प्रसिद्धम् 'स्वयमेव अपहरति स दुष्टपुरुषः स्तेनादि वृत्या 'जाव समणुजाणई' यावत् समनुजानाति, स्वयमपहरति अन्येनाऽपि अपहारयति, अपहरन्तमन्यं समनुजानाति-तदनुमोदनों करोति-इत्येव - कोई पुरुष खराब अन्न देने से सुरास्थालक से अथवा किसी अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति न होने से श्रमणों या ब्राह्मणों पर क्रुद्ध होकर उनके छाते, डंडे, भांड, पात्र, लाठी, आसन, वस्त्र, पर्दा, चर्म, छेदनक (वनस्पति काटने के शस्त्र), चर्म कोशिका या चर्मपुटक (थैली) आदि उपकरणों को स्वयं हर लेता है, दूसरे से हरण करवा लेता है या हरण - કઈ પુરૂષ ખરાબ અન્ન આપવાથી, સુરાસ્થાલકથી અથવા કોઈ ઈષ્ટ વસતુની પ્રાપ્તિ ન થવાથી પ્રમાણે અથવા બ્રાહ્મણે પર ક્રોધ કરીને તેઓની छत्रीय! मी, पास!, isीयो, सासन, पुन, ५६ यांभ, छेदन (વનસપતિ કાપવાનું શસ્ત્ર વિશેષ) ચિમકેશિકા અથવા ચર્મ પુરક થેલી) विगेरे - 6५४२॥ २५ श से छे, मालनी - पांस - २ शची छे. અથવા હરણ કરવાવાળાનું અનુમોઈન કરે છે, તે કારણે તે મહોન પાપ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ सूत्रकृतास लोके प्रख्यापयति 'से एगइओ' स एकतयः कोऽपि पुरुष: 'के गद आयाणेण' केनाऽपि आदानेन-कारण विशेपेण 'विरुज्झे समाणे' विरुद्धा-क्रुद्धः सन् 'अदुवा' अथवा, 'खलदाणेग' कुत्सितान्नमदानेन 'अदुवा' अथवा 'सुरास्थालकेन अभीष्टार्थाऽप्राप्त्या 'गाहावईणं वा' गाथापतीनां वा 'गाहावइपुत्ताण वा' गाथापतिपुत्राणां वा 'उहसालाभो वा. गोणसालाओ वा गद्द मसालाओवा' उष्ट्रशाला वा-गोशाला वा-घोटकशाला वा-गर्दभशाला वा 'कंटगयोंदियाए' कण्टकशाखाभिः 'परिपेहिता' परिपि: धाय-समन्ताद्वेष्टयित्वा 'सयमेव' स्वयमेव 'अगणिकाएणं' अग्निकायेन 'मामेर! धमति-अग्निमदीपनं करोति 'अन्नेण वि झामावेई' अन्येनापि मापयति-परदा. राऽग्नि उवलयति 'झामंतं वि अन्नं समणुजाणइ धमन्त प्रदीप्ति कुर्वतमन्यं समनुजानाति तदनुमोदनां करोति 'इइ से महया जाव भवइ' इति स महदभिः यावद भवति महद्भिः पापैः कर्मभिर्युक्तो भवन् स्वापकीति लोके वितनोति । 'से एग. देता है या काटने वाले का अनुमोदन करता है। इस प्रकार महान् पाप करके वह अपने को लोक में घोर पापी के रूप में प्रसिद्ध करता है। कोई पुरुष किसी कारण से विरोधी यन कर कुपित हो जाता है अधया कुत्सित अन्न देने से या सुरास्थालक से नाराज होकर गाथा पति या के गाथापति पुत्रों की गोशाला उष्ट्शाला, घुड़साल या गर्दभः शाला को कंटक शाखाओं से ढक कर आग लगाकर भस्म कर देता है, या दूसरे से आग लगवा कर भस्म करवा देता है या आग लगा देने वाले की अनुमोदना करता है। यह महान् पापकर्मों से युक्त होकर लोक में अपनी अपकीर्ति का विस्तार करता है। બીજા પાસે કપાવી નાખે છે, અથવા કાપવાવાળાનું અનુમોદન કરે છે, આ રીતે મહાનું પાપ કરીને તે પિતાને જગતમાં ઘોર પાપી તરીકે પ્રસિદ્ધ કરે છે. . કઈ પુરૂષ કોઈ કારણથી વિરે ધી બનીને ક્રોધ યુક્ત બની જાય છે. અથવા ખરબ અન આપવાથી સુરાWાલક-દારૂના પત્રથી નારાજ થઈને ગાથાપતિ અથવા ગાથાપતિના પુત્રની ગોશાળ, ઉદ્ધશાળા, ઘોડ ૨, અથવા ગર્દભશાળાને કાંટા વિગેરેથી ઢાંકીને આગ લગાવીને બાળી નાખે છે અથવા બીજા પાસે આગ લગાડાવીને બળાવી નંખાવે છે. અથવા આગ લગાડવાવાળાનું અનુમોદન કરે છે. તે મહાન પાપકર્મથી યુક્ત બનીને જગતમાં પિતાની અપકીર્તિને લાવે કરે છે. Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थान निरूपणम् २४७ इओ' स एकतयः कोऽपि पुरुष: 'केणइ आयाणेणं' केनाऽपि आदानेन - कुत्सितानप्रदानेन 'अदुवा' अथवा 'सुराधालपणं' सुरास्थालकेन - अभीष्टसिद्धयभावेन 'गाहावईण-वा' गाथापतीनां वा 'गाहावहपुत्ताण वा' गाथापतिपुत्राणां वा 'कुंडलं वा मणि वा-मोतियं वा कुण्डलं वा मर्णि वा मौक्तिकं वा अलङ्कारादिकम्, 'सयमेव अवहर' स्वयमेवाऽवहरति, 'अन्नेण वि अवहरावेह' अन्येनाऽपि अपहारयति - अन्यद्वारा अपहरणं कारयति 'अवहतं चि अन्नं समणुजाणई' अपहरन्तमपि अन्य समनुजानाति - अनुमोदते 'इइ से महया जाव भइ' इति स महद्भिविद्वतमेभिः पापैः कर्मभिर्युक्तः स्वापकर्त्ति लोके विस्तारयति । 'से एगइओ स एकतयः कोऽपि पुरुषः 'केणइ आयाणेणं केनाऽपि आदानेन किमपि कारण मासाद्य 'विरुज्झे समाणे' विरुद्धः सन् विरोधमुपगतः सन् 'अदुवा' अथवा 'खळदोण अदुवा सुरथालएणं' अथवा खलदानेन कुत्सितान प्रदानेन अथवा सुरास्थालकेन- अभिलषितवस्तुनोऽलाभेन साधूनामुपरि क्रोधं कुर्वन्नराधमः कोऽपि जनः तेषां विशुद्धभावानाम्, समणाण वा मोहणाण वा' श्रमणानां वा माहनानां वा वक्ष्यमाणवस्तूनि स्वयमेवाहरति । 'छत्तगं वा दंडगं वा-भंडगं वा भत्तगं बा कुट्ठि वा-भिसिगं वाचेलगं वा-चिलिमिलिगं वा-चम्मयं वा छेषणगं वाचममूकोसियं वा - सयमेव अवहरड जाव समणुजाणइ इइ से महया जाव उवक्वाइता भव छत्रकं वा दण्डकं वा माण्डकं वा - अमत्रकं वा यष्टिकां वा वृसीम् वा आसनम्, चेलकं वा-प्रच्छादनपटों वा, चर्मकं वा छेदनकं वा शस्त्रादि, कोशिका वा चर्मपुटकम् ' थैलीति' प्रसिद्धम् ' स्वयमेव अपहरति स दुøपुरुषः नादिवृत्या 'जाव समजाणई' यावत् समनुजानाति, स्वयमपहरति अन्येनाsपि अपहारयति, अपहरन्तमन्यं समनुजानाति - तदनुमोदनां करोति - इत्येव कोई पुरुष खराब अन्न देने से सुरास्थानक से अथवा किसी अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति न होने से श्रमणों या ब्राह्मणों पर क्रुद्ध होकर उनके छाते, डंडे, भांड, पात्र, लाठी, आसन, वस्त्र, पर्दा, चर्म, छेदनक (वनस्पति काटने के शस्त्र), चर्म कोशिका या चर्मपुरक (थैली) आदि उपकरणों को स्वयं हर लेता है, दूसरे से हरण करवा लेता है या हरण કઈ પુરૂષ ખરાખ અન્ન આપવાથી, સુરાસ્થાલકથી અથવા કાઈ ઇ2 વસ્તુની પ્રાપ્તિ ન થવાથી શ્રમણેા અથવા બ્રાહ્મણેા પર ક્રોધ કરીને તેની छत्रीयो उडायो, वासणी, सांडडीयो, आसन, दुख, पांभडा, छेन (વનસ્પતિ કાપવાનુ શસ્ત્ર વિશેષ) ચકાશિકા અથવા ચમ પુટક (થલી) विगेरे उपम्रोाने स्वयं डरी से छे, मीलनी पांसे - २ અથવા હેરણુ કરવાવાળાનું અનુમાઇન કરે છે, તે કારણે તે S ४राची वे छे. મહાન પાષૅ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खूबकवासे करणात्सः, 'महया जाव उवक्खाइत्ता भवई' महभिः .पापकर्मभिः समनुयुक्त वात्मनः पापिष्ठत्वेन लोके-उपख्यापयिता भवतीति । कारणवशात् क्रोधं कवा-. अपकुर्वन् पापीयानिति पूर्वप्रकरणे प्रदर्शितम् । इह तु कारणमन्तरेणैव परानपकुर्वम् महष्यति तादृशः कर्मणि पापं लेशतोऽपि न विचारयति, तादृशः पुरुषः कस्यचिद्धनपते(न्यादिकं स्वयं नाशं करोति, परेण वा नाशयति, विनाशं कुर्वन्त मन्य. मनुयोदते-इति स महापापीति दर्शयति-'से 'एगइओ' स एकतयः कमित्यापी णो वितिगिछइ' नो विमर्पति-नैव किमपि विचारयति, किन्तु विचारमन्तरेणैव सावयमाचरति, 'तनहा' तद्यथा 'गाहावईण वा-गाहावापुत्ताण वा' गायापतीनां करने वाले का अनुमोदन करता है। इस कारण वह महान् पाप कर्म से युक्त होकर लोक में अपने को पापिष्ठ के रूप में प्रसिद्ध करता है। . - यहां तक उन पापी पुरुषों का कथन किया गया है। जो किसी कारण से कुपित होकर दूसरों का अपकार करते हैं। अब ऐसे पापीयों का उल्लेख करते हैं जो निष्कारण ही दूसरों का अपकार करके प्रसन्न होते हैं और लेश मात्र भी पाप का विचार नहीं करते। ऐसे पुरुषों में से कोई धनपनि के धान्य आदि को स्वयं नष्ट करता है दप्तरे से नष्ट करने वाले का अनुमोदन करता है । ऐशा पुरुष महापापी है यह आगे दिखलाते हैं, कोई पापी पुरुष कुछ भी विचार नहीं करता है, विचार किये विना ही पाप का आचरण करता है, जैसे-गाधापत्ति या गाथापति કર્મથી યુક્ત થઈને જગતમાં પિતાને પાષિષ્ઠ તરીકે પ્રસિદ્ધ કરે છે - અ ટલા સુધી તેવા પાપી પુરૂનું કથન કરવામાં આવ્યું છે કે જેઓ કોઈ કારણથી ક્રોધ યુક્ત થઈને બીજાઓને અપકાર કરે છે. હવે એવા પાપને ઉલ્લેખ કરવામાં આવે છે કે જેઓ વિના કારણે જ બીજાઓને અપકાર કરીને પ્રસન્ન થાય છે. અને લેશમાત્ર પણ પાપને વિચાર કરતા નથી. એવા પુરૂષામાથી કઈ ઇનવાના ધાન્યને સ્વયં નાશ કરે છે, બીજાની પાસે નાશ કરાવે છે. અથવા નાશ કરવાવાળાનું અનુમોદન કરે છે એ પુરૂષ મહા પાપી હોય છે. તે હવે આગળ બતાવવામાં આવે છે. કોઈ પાપી પુરૂષ કંઈ પણ વિચાર કર્યા વિનાજ એટલે કે વાર વિચાર્યું જ પાપનું આચરણ કરે છે, જેમ ગ થાપતિ અથવા ગાયાપતિના Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. अ. २ कियास्थाननिरूपणम् २४१ वा-गाथापतिपुत्राणां वा 'सयमेव' स्वयमेव 'अगणिकाएणं ओसहीओ झामेह' अग्निकायेन-ज्यलद्वह्निना ओषधी (न्यगोधूमादिकान् धमति दाहं करोति 'जाव' यावत्-अन्येनाऽपि मापयति-दाहयति 'अन्नपि झामंत,समणुनाणइ' धमन्त- - भस्मीकुर्वन्तमपि अन्यं समनुजानाति अनुमोदते, 'इइ से महया जाव उवक्खाइत्ता' भवति' इति सः महद्भिः-पापकर्मभिः संयुज्यमानः स्वस्य दौरात्म्य लोके उपरुयोर षयति-तनोतीति से एगइओ' स एकतयः कश्चित्पापीयानेव 'णो वितिगिछई' नों विचिकित्सति-नो विमर्शति 'तं जहा' तद्यथा-कारणमन्तरेणैव विचारमकुर्वन् 'गाहावईण वा-गाहावइपुत्ताण वा' गाथापतीनां वा-गाथापतिपुत्राणां वा उटाण वा-गोणाण वा-घोडगाण वा-गदभाण वा-सयमेव छुराओ कप्पेई उष्ट्राणां वागावां वा-घोटकानां वा गर्दभानां वा स्वयमेवाऽवयवान् कलाते-कुन्तति, 'अन्नेण वि' अन्येनाऽपि 'कप्पावेई' कल्पयति कर्त्तनं कारयति 'अन्न वि कप्पंत' अन्यमपि कल्पमान-कृतन्तम् 'समणुजाणइ समनुजानाति-अनुमोदते 'से एगइओ णोवितिगिः छई' स एकतयः अपरः कोऽपि महापापी न किमपि विचिकित्सति-विमर्शतिन वि. चारयति, अविचाय्येव कस्यचिद्धनिकस्य अकारणं पशुशाला कण्टकादिभिरवरुद्धयपुत्रों की औषधियों को अर्थात्- गेहूं आदि के पौधों को स्वयं जला देता है, या दसरों से जलवा देता है या जला देने वाले का अनुमो. दन करता है। इस प्रकार वह घोर पाप से युक्त होकर जगत् में अपनी दुरात्मता प्रकट करता है। __कोई पापी घिचार किये बिना ही गाथापति या गांधापति पुत्रों के ऊंटों, गायों, घोडों तथा गर्दमों के अवयवों को स्वयं काटता है, दूसरों से कटवाता है या काटने वाले का अनुमोदन करता है। ..... कोई पापी विचार किये बिना ही किसी धनी की पशुशाला को अकारण ही कंटको आदि से घेर कर जला देता है, दूसरे से जलवा વૃત્તિને સ્વીકાર કરીને મત્સ્ય અથવા બીજા ત્રય પ્રાણીનું હનન, છેદન, ઔષધિને અર્થાત ઘહું વિગેરેના છોડવાને સ્વયં બાળી નાખે છે, અથવા બીજાની પાસે બળાવી નંખાવે છે, અથવા બળવાવાળાનું અનુમોદન કરે છે. આ રીતે તે ઘોર પાપથી યુક્ત થઈને જગતમાં પિતાનુ દુરાત્મપણું પ્રગટ કરે છે. કઈ પાપી વિચાર કર્યા વિના જ ગાથાપતિના પુત્રના ઉંટ, ઘોડાઓ, તથા ગધેઓના અવયવને સ્વયં કાપી લે છે, બીજાની પાસે કપાવે છે, અથવા કાપવાવાળાનું અનુમોદન કરે છે. - કે પાપી વિચાર કર્યા વિનાજ કેઈ ધનવાનની પશુશાળાને વિના કારણે જ કાંટાઓ વિગેરેથી ઘેરીને બાળી નાખે છે, તથા તેમ કરવાવાળાને सू० ३२ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jan सुनाय अग्निदीप्तिं करोति, अन्येनापि तथा कारयति, तथा कुन्तिं परं समनुजानाति, इति स पापिष्वपि पापिष्ठतर इति दर्शयति । 'तं जहा ' तद्यथा - 'गाहावईण वाग्राहावइपुत्ताण चा' गाथापतीनां वा-गाथापतिपुत्राणां वा 'उहसालाओ' वा जाक हमसालाओ वा' उष्ट्र्गाला वा यावद्भर्दमशाला वा 'कंटकवोंदिया हिं परिपेहिया' द्रष्टुकशाखाभिः परिपिधाय 'सयमेन' स्वयमेत्र 'अगणिकाएणं' अग्निकान 'झामे' धमति, अन्येन वा ध्मापयति, धमन्तमभ्यं वा पुनः 'समणुजाणई' सम. जानाति अनुमोदते 'से एगइयो णो विविधि' स एकतयो महापापी स्वकर्मफलं न विमर्शति-न विचारयति 'तं जहा' तद्यथा - 'गाहावईण वा गाहावरपुचाण वा जाव' गायापतीनां वा-गाथापतिपुत्राणां वा यावत् 'मोत्तियं वा' मौक्तिक चा-मौक्तिकमणिकाञ्चनादिकम् 'सयमेव अवहरइ जाव' स्वयमेव अपहरति यावत् अन्येनापि अपहारयति, अपहरन्तमन्यम् 'समणुजाण३' समनुजानाति - अनुमोदते 'से गओ णो वितिछि' स एकतयः कोऽपि हीनमपि न किमपि विचारयति • देता है और ऐसा करने वाले का अनुमोदन करता है। वह पापियों मैं बहुत बडा पापी है, यह दिखलाते हैं-गाथापति या गोधापति के पुत्रों की उष्ट्रशाला यावत् गर्दभ शाला को कंटकशाखा आदि से घेर कर उसे स्वयं ही आग से जला देता है दूसरे से जलवा देता है, और जलाने वाले का अनुमोदन करता है । कोई पापी अपने कर्म के फल का विचार किये बिना ही गाथापतियों या गाधापति पुत्रों के मणिकांचन मोती आदि का स्वयं अपहरण करता है दूसरे से अपहरण करवाना है और अपहरण करने वाले का अनुमोदन करता है। कोई मतिहीन कुछ भी विचार न करके अकारण ही श्रमणों या અનુમેન કરે છે. તે પાપીયામાં મેટો પાપી ગણાય છે. તેજ ખડાવે છે.ગાયાપતિ અથવા ગાયાપતિના પુત્રની ઉદ્રશાળા યાવતું ગભશાળાને કાટા વિગેરેથી ઘેરીને તેને સ્વય પાતે જ આગથી બાળે છે અથવા ખીજ પસે ખળાવે છે. અને ખાળવાવાળાનુ અનુમેાદન કરે છે. તે માટે પાપી કહેવાય છે. કાઈ પાપી પેાતાના કમના ફળના વિચાર કર્યાં વિના જ ગાથાપતિ અથવા ગાથા પતિના પુત્રોના મથી, કાંચન-સાતું મેતી, વિગેરેનું સ્વયં અપહરણ (योरी) ४रे छे. अथवा भीन्ननी यांसे, थोरी उरावे छे. अथवा अपहरषु કરવાવાળાનું અનુમેાદન કરે છે. તે મેટ્રો પાર્ષી કહેવાય છે, Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् । ५९ अकारणमेव 'तं जहा' तद्यथा-'समणाण वा-माहगाण वा' श्रमणानां वा माहनानां वा छत्तगंवा-दंडगं वाजाव चम्मछेपणगं वा' छत्रकं वा-दण्डकं वा यावत्-चमच्छेद'नकं वा 'सयमेव' स्वयमेव 'अवहरइ जाव' अपहरति यावत् अन्येनाऽपि अपहारयति, तथाकुर्वन्तमन्यम् 'सरणुनाणइ समनुजानाति अनुमोदनां करोतीति 'से महया जावं उपक्खाइत्ता भवई' समहद्भिःपापकर्मभिरात्मान मुपख्यापयिता भवति, पापिष्ठत्वेन लोके स्वात्मनोऽपकीर्ति विस्तारयतीति से एगइओ' स एकतयः, कश्चित् पुरुष 'समणं वा माहणं वा दिस्सा' श्रमण वा माहनं वा दृष्ट्वा 'नानाविहेहिं पावकम्मेहि' नानाविधैः-अनेकप्रकारकैः पापकर्मभिः 'अत्ताणं' आत्मानम् 'उक्खाइत्ता भवई उपख्यापयिता भवति 'अदुवा' अथवा 'णं अच्छराए आफालिवा भवई' अप्सरस छोटिकायाः आस्फाळयिता भाति (चुटकीति मसिद्धा) अस्सरसो जम्भाकाले नृत्याऽभिनये वा करतलध्वनिकर्ता भवति-अथ उपसंहृतः अप्सरसः छोटिकायाः आस्फालयिता वादको भवति । साधु दृष्ट्वा तर्जन्या वर्जयति 'अदुवा' अथवा फरुसं वादिचा भवई' परुष वादिता भवति-अपभ्यवचनं वदति 'कालेगात्रि से अणुपविस्स' कालेनापि गोचरी समये दैववशात्तादृशपुरुषगृहमनुपविष्टस्य मिक्षापयोजनायाऽऽगतस्य साधोः काले भिक्षार्थमागताय साधवे 'असणं वा पार्ण वा • ब्राह्मणों के छाते, डंडे यावत् चर्मछेदनक कोस्वयं हरण कर लेते हैं, दूसरे ; से हरण करवाते हैं या हरण करने वाले का अनुमोदन करते हैं वे,घोर , पाप का आचरण करके अपने को पापी के रूप में प्रसिद्ध करते हैं। कोई पापी श्रमण या माहन को देख कर उनके प्रति नाना प्रकार के पापमय आचरण करते हैं और अपने को पापी के रूप में प्रख्यात . • करते हैं। वे साधु को देखकर तर्जनी उंगली से धमकाते हैं-सामने से चले जाने को कहते हैं, असभ्य वचनों का प्रयोग करते है, भिक्षा के समय पर भाग्य से घर में भिक्षा के हेतु आये हुए साधु को | કઈ મંદ બુદ્ધિવાળો પુરૂષ વગર વિચાર્યું જ વિના કારણ શ્રમ ' अथवा प्रायाना छत्री, 1, यावत् यम छेहनने स्वय' २४ . અથવા બીજાની પાસે હરણ કરાવે છે. અથવા હરણ કરવાવાળાનુ અનુમોદન • કરે છે. તેઓ ઘેર પાપનું આચરણ કરીને પિતાને પાપીપણાથી પ્રસિદ્ધ કરે છે. " . કઈ પાપી શ્રમણ અથવા માહનને-બ્રાહ્મણ જઈને તેઓ પ્રત્યે અનેક તે પ્રકારના પાપ યુક્ત વ્યવહાર કરે છે, અને પિતાને પાપી રૂપે પ્રસિદ્ધ કરે છે. - તેઓ સાધુને તર્જની આંગળીથી ધમકાવે છે. પિતાની સામેથી ચાલ્યા જવાનું " કહે છે. અસભ્ય વચનને પ્રયોગ કરે છે. આહારના સમયે ભાગ્યવશાતુ ઘર Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ सूत्रकृताङ्गो जाव णो दवावेना भवई' अशनं वा-भोजनम् पानं वा जलं यावनी. दापयिता भवति, नो ददाति कथमपि-इति, 'जे इमे भवंति वोनमंता भारता अलसगा पसळगा किरणगा समणगा पव्वयंति' ते दुर्मेधसः इत्थं कथयन्ति सादृष्ट्वा, ये इमे भवन्ति विद्यन्ते व्यन्नमन्तः, भाराक्रान्ताः-अलसका:-आलस्पबन्तः वृपलका:नीचाः कृपण काः - श्रमकास्ते इमे कर्म भयाद् गृहं परित्यज्य श्रमगाः सन्तः प्रव. जन्ति-साधवो भूत्वा सुख मिच्छन्तो भवन्ति । न इमे वस्तुतो वैरग्यपूर्विकां पत्र. ज्यां नीतवन्तः, कार्यभयादेव प्रव्रज्यां प्राप्तान्तः 'ते इणमेव जीवितं संपडिबूहें ति' ते इदमेव जीवितं धिजीवितं निन्दितजीवनमेव संप्रति वृहन्ति, साधुद्रोहमय जीवनमेव साधुनीवनं मन्यन्ते । इत्थंभूतास्ते 'नाइ ते परलोगस्स अट्ठार किंचिवि. . सिलीसंति' नाऽपि ते परलोकस्यार्थाय किश्चिदपि श्लिष्यन्ति, किमपि कार्य तपोदानादि न कुर्वन्ति, 'ते' ते इत्थं भूताः परलोककार्यविरताः 'दुवति' ' दुःख्यन्ति-मरणलक्षणदुःखं माप्नुवन्ति, 'ते सोयंति' ते शोचन्ति-दीन प्राप्नुवन्ति, 'ते जूरंति' ते जूरयन्ति-पश्चात्तापं लभन्ते ते तिप्पंति' ते तिप्यन्ति-शोकातिरेकेणाश्रुलालादिक्षरणं प्राप्नुवन्ति ते पिट्टति' ते पीड्यन्ते अशन, पान, खादिम और स्वादिम नहीं देते हैं, परन्तु ऐसा कहते हैं “कि-थे बोझा ढोने वाले, आलसी, नीच, एवं कृपण हैं। कार्य करने से भयभीत होकर घर छोड कर साधु हो गए हैं और मौज उड़ाना । चाहते हैं। उन्होंने वास्तव में वैराग्य से दीक्षा नहीं ग्रहण की है, __कर्त्तव्य से डर कर साधुवेष पहन लिया है। इस प्रकार कहकर वे साधुओं के द्रोही अपने धिक् जीवन को ही उत्तम जीवन समझते हैं। वे परलोक के हित के लिए तपस्या दान आदि कुछ भी धर्म कर्म _ नहीं करते हैं। जब मृत्यु समीप आ जाती है तो शोक करते हैं-दीन । बन जाते हैं, झूरते हैं, आंसू बहा-यहो कर रोते हैं, संताप का अनुभव પર ભિક્ષા માટે આવેલા સાધુને અશન, પાન, માહિમ અને સ્વાદિમ આપતા 'નથી. પરંતુ એવું કહે છે કે-આ બે ઉપાડવાવાળા આળસુ, નીચ, અને | કંજુસ છે. કામ કરવાથી ડરીને ઘર છોડી સાધુ બની ગયા છે. અને મોજ L મજા કરવા ચાહે છે. તેઓએ વાસ્તવિક રીતે વૈરાગ્યથી દીક્ષા ગ્રહણ કરેલ - નથી. કર્તવ્યથી ડરીને સાધુવેશ પહેરી લીધું છે. આ પ્રમાણે કહીને સાધુ એનો દ્રોહ કરવાવાળા એવા તેઓ પિતાના ધિકારવાને ચશ્ય એવા જીવનને ઉત્તમ માને છે. તેઓ પરલેકના હિત માટે તપસ્યા, દાન, વિગેરે કંઇ પણ ધર્મ કાર્ય કરતા નથી, અને જ્યારે મૃત્યુ નજીક આવી જાય છે, ત્યારે શેક કરે છે. દીન-ગરીબ બની જાય છે. મૂરે છે, આંસુ પાડી પાડીને રડે Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका वि. अ. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् .. २५३ शरीरतापपाप्नुवन्ति 'ते परितप्पति' ते परितप्यन्ति-परितापमनुभवन्ति-परकृत. . दुःखैः 'ते दुक्खण-जूरण सोयण-तिप्पण-पिट्टण-परितिप्पण-बह-वंधण-परि- किलेसाओ अप्पडिविरया भवई' ते दुःखन-जूरण-शोचन-तेपन-पीडन-परि तापन-वध-बन्धन-परिक्लेशेभ्योऽपतिविरता भवन्ति; एभ्यो, दु खेभ्यः कदाचि दपि निवृत्ता न भवन्ति-चातुर्गविकसं सारे परिभ्रमन्ति 'ते महया आरंभेग' ते महता आरम्भेण-प्राणिघातरूपेण ते 'महया समारंभेणे' महवा समारम्भेण- माणितापरूपेण 'ते महया आरंभसमारंभेण' ते महद्यामारम्भसमारम्माभ्याम् 'विरूवरूवेहि' विरूपरूपैः-अनेक प्रकारकैः पावकिच्चेहि' पापकृत्यैः 'उरालाई 'माणुस्सगाई उदाराणामतिविस्तृतानां मानुष्यकानां-मनुष्यसम्बन्धिनाम् ‘भोग । भोगाई भोगमोगानाम् 'भुजित्तारों भवंति' भोक्तारो भवन्ति तमेव मनुष्यसम्बन्धि भोगमकारमिह दर्शयति-'तंजहा' तद्यथा-'अन्नं अन्नकाले' अन्नोपभोगसमये भोजनकालेऽन्नं प्राप्नुवन्ति 'पाणं पाणकाले' पान-पानीयं पानकाले 'वत्थं वत्यकाले' वस्त्रं वस्त्रकाले 'लेणं लेणकाठे' लयनं-गृहं लयनकाले 'सयणं सयण काले' शयनं-शय्या-शयनकाले भुञ्जन्ति, 'सपुव्यावरं च णं हाए कयवलिकम्मे' सपूर्वापरं च खलु स्नातः कृतवलिकर्मा पातमध्याह्ने सायं च स्नानादिकं विधाय • करते हैं। वे दुःख, झुरण, शोक, रुदन, पिट्टन, परितापन, वध, बन्धन आदि क्लेशों से मुक्त नहीं होते हैं। चतुर्गतिक संसार में परिभ्रमण करते हैं । महान् आरंभ-जीवघात से, महान समारंभ-प्राणातिपात से ~ और महान आरंभ-समारंभ से, विविध प्रकार के पापकृत्य करके मनुष्य संबंधी उदार भोग भोगते हैं। वे भोग इस प्रकार हैं-भोजन के समय भोजन करते हैं पानी के समय पानी पीते हैं, वस्त्र के समय - वस्त्र, गृह के समय गृह, और शय्या के समय शय्या का उपभोग करते है। प्रातः काल मध्याह्न और सायंकाल 'स्नान करके काक आदिको છે. તેઓ સંતાપને અનુભવ કરે છે. બીજાએ કરેલા તાપ-દુઃખને અનુભવ रे छे. तो दुस, २५ २, ३६न, पिन, परिता५, १५, अन्धन, વિગેરે કલેશેથી મુક્ત થતા નથી. ચાર ગતિવાળા સંસારમાં ભટક્યા કરે છે. । महान् मार-धातथी, भडान् समास प्रातिपातथी, भने महान् | આરંભ સમારંભથી અનેક પ્રકારના પાપકૃત્ય કરીને મનુષ્ય સંબંધી ઉદાર કે ભેગે ભેગવે છે. તે ભેગે આ પ્રસાણે છે.-ભેજનના સમયે ભેજન કરે છે, પાણીના સમયે પાણી પીવે છે. વસ્ત્રના સમયે વરુ, ઘરના સમયે ઘર, અને શય્યાના સમયે શય્યાને ઉપગ કરે છે, સવાર સાંજ અને મધ્યાહુ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ सूत्रकृताङ्गमा कृतं बलिकर्म-काकाद्यर्थ दत्तान्नभागो येन स कृतवलिकर्मा 'कयकोउयमंगल. पायच्छित्ते' कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्ता-कृतानि कौतुकानि मसतिलकादीनि माल दध्यक्षतादि, प्रायश्चित्तं-दुःस्वप्नादि प्रतिघातत्वेनाऽवश्यकरणीयत्वात् येन स कत. कौतुकमङ्गलपायश्चित्तः 'सिरसा हाए' शिरसा-स्नातः 'कंठे मालाकडे' कण्ठे माछा. कृव-कृतकण्ठमाल: 'आविद्धपणिसुवन्ने' आविद्धमणिसुवर्ण:-भाविद्ध-परिधृते शरीरे मणिमुणे येन स तथा, 'कणियमालामउली' कल्पितमालामुकुटी-कल्पितः-परि. धृतः मालाप्रधानो मुकुटो येन स तथा, स्नानादिकं कृत्वा सुवर्णाऽलङ्कारालङ्कतामालानिर्मितमुकुटवान् भवति 'पडिबद्धसरी' प्रतिवद्धशरीर:-दृढावयनकायो युवा हृष्टपुष्टाङ्गः 'वग्धारियसोणिसुत्तगमल्लदामकलावे' प्रतिलम्वितश्रोणिसूत्रकमाल्यदामकलाप, कटयाश्रोणिसूत्रं दधाति शिरसि च मालामयमुकुटं विमति । 'अहतवस्थपरिहिए' अहतवस्त्रपरिहितः-अहतस्वच्छनवीनवस्त्रस्य धारको मवति । 'चंदणोक्खित्तगायसरीरे' चन्दनोक्षितगात्रशरीर, स्वकीयशरीरे चन्दनले कारयतः 'महइमहालियाए' महत्यां विस्तीर्णायां 'कूडागारसालाए' कूटागारशालायाम् 'महइमहालयंसि' महति महालये विस्तीर्णे 'सीहासणंसि' सिंहासने 'इस्थिगुम्मपलिअन्न भाग देते हैं। कौतुक, मंगल और प्रायश्चित्त करते हैं अर्थात् मस-तिलक आदि करते हैं, दधि-अक्षत आदि का मंगल करते हैं, और दुःस्वप्न आदि के फल को नष्ट करने के लिए प्रायश्चित कमे करते है। शिर में माला युक्त मुकुट धारण किये हुए, एवं कंठ में रस्नों और स्वर्ण के आभूषण धारण किये हुए होते हैं । दृढ शरीर पाले अर्थात् तरुण होते हैं, कमर में कंदोरा पहनते हैं, मस्तक पर माला मय मुकुट पहनते हैं, कोरे और स्वच्छ वस्त्र धारण करते हैं। उनके शरीर पर चन्दन का लेप किया जाता है। तत्पश्चात् वे अत्यन्त विशाल कूटा. गार शाला में रक्खे हुए विस्तीर्ण सिंहासन के ऊपर बैठकर रंमणी અકાળે સ્નાન કરીને કૌતુક, મંગળ અને પ્રાયશ્ચિત્ત કરે છે. અર્થાત્ મસી (મશ) તિલક વિગેરે કરે છે. દહિં અક્ષત વિગેરેથી મંગલ કાર્ય કરે છે " અને દુ:સ્વપ્ન વિગેરેના ફળને નાશ કરવા માટે પ્રાયશ્ચિત્ત કમ કરે છે. 'મસ્તક પર ભાળ યુક્ત મુકુટ ધારણ કરેલા હોય છે. તથા કંઠમાં રત્ન અને સેનાના ઘરેણાએ ધારણ કરેલા હોય છે. મજબૂત શરીરવાળા અર્થાત્ યુવાન હોય છે, કેડે કંદોરો પહેરે છે. માથા પર માળાથી યુક્ત - મુગુટ પહેરે છે. કારા અને સ્વચ્છ વસ્ત્રો ધારણ કરે છે તેના રીરીર ' પર ચંદનને લેપ કરેલ હોય છે. તે પછી તેઓ અત્યંત વિશાળ એવી ફૂટી ગરિ શાળામાં રાખેલાં મોટા સિંહાસન પર બેસીને સ્ત્રી સમૂહથી સંવાય છે. Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. थु. अ. २ क्रियास्थान निरूपणम् २५५० संपरिवुडे' स्त्रीगुल्म संपरिवृतः, स्वीसमुदायः संसेवितो भवति । 'सनराइणं सर्व रात्रेण 'जोइणा' ज्योतिषा 'झियायमाणेणं' ध्मायमानेन 'महया हयनहगीय-बाइयतीतळवाल तुडियघण मुगपदुपवाइयरवेणं महताहतनाट्यगीतवादित्रतन्त्रीसवाल त्रुटिकघनमृदङ्गपदुपवादिवरवेण, तत्र - नाट्य-लोकमसिद्धं गोतमपि लोक+ प्रसिद्धमेव, वादित्रं - वाद्यविशेषः तन्त्री - वीणा तलतालो हस्ततालः त्रुटितं वादि घनमृदङ्गः–पटहः प्रत्येकं समासः ते पटुभिः पुरुषैः प्रवादिता स्वेषां महता स्वेणशब्देन 'उरालाई' उदारान् - अत्युन्नवान् 'माणुस्साई मानुष्यान् - मनुष्य सम्बन्धिनः 'भोगभोगाई' भोग्यभोगान्-शब्दादिकान् 'भुं'जमाणे' भुजानः 'बिहार' विहरति ।एतदृशो राजस्थानीयसुखासीनो यदा किमप्याज्ञापयति तदैव किङ्कराः सर्वे उपस्थिता भवन्ति, तथाऽऽज्ञानुरोधेन कार्ये कुर्वन्ति इति तद्दर्शयति 'तस्स णं रंगमवि आणवेमाणस्स' तस्य खलु पूर्वोक्तपुरुषैकमपि पुरुषमाज्ञापयतः - आझां कुर्वतः 'जाव' यावत् ' चत्तारि पंच जणा अबुत्ता चेत्र अन्भुदेति' एके पुरुषे आज्ञप्ते सति द्वौ त्रयः - चत्वारः पञ्च वा अनुक्ताः - अनाज्ञमा एक पुरुषा अभ्युतिष्ठन्ति, यद्यपि कार्यवशाद् एकमाज्ञापयति तथापि अनाज्ञप्ताः - अनाहूता बहवः कार्ययोपसमूह के द्वारा सेवित होते हैं। वहां रात भर दीपकों का प्रकाश रहता है । नृत्य और गान होता है। जोर-जोर से : वीणा, मृदंग ढोल और हाथ की तालियों की ध्वनि होती है । इस प्रकार श्रेष्ठ से श्रेष्ठ मनुष्यसंधी कामभोगों को भोगते रहते हैं । इस प्रकार राजसी सुख भोगने वाला पुरुष जब किसी किंकर को आज्ञा देता है तो उसी समय सारे किंकर उपस्थित हो जाते हैं और उसकी आज्ञा के अनुसार कार्य करते हैं। यही वात आगे दिखालाई जाती है- पूर्वोक्त सुखों को भोगने वाला जब एक किंकर पुरुष को बुलाता है तो यावत् एक के बदले चार-पांच पुरुष विना बुलाये ही ત્યાં આખી રાત દીવાઓના પ્રકાશ રહે છે. નૃત્ય અને ગાન થાય છે જોર જોરથી વીણા, મૃદંગ, ઢાલ અને તળીયાના અવાજ થતા રહે છે. આ રીતે ઉત્તમમાં ઉત્તમ મનુષ્ય સમ ધી કામભોગોને ભાગવતા રહે છે. આ રીતે રાજસી સુખ ભાગવવાવાળા પુરૂષ યારે કાઇ એક નાકરને આજ્ઞા કરે છે, તે તેજ વખતે બધા જ નાકરો ઉપસ્થિત થાય છે. અને તેની આજ્ઞા પ્રમાણે કાર્ય કરે છે. એજ વાત હવે આગળ ખતાવવામાં આવે છે. પૂર્વોક્ત સુખાને ભાગવવા વાળા પુરૂષ જ્યારે એક નાકરને પણ એલાવે તે યાવત એકને અટ્લે ચાર પાંચ પુરૂષા મેલાવ્યા વિના જ હાજર થઈ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे १२६ स्थिताः भवन्ति, अभ्युत्थाय अनेके किं कुर्वन्ति तत्राह - 'भण देवाणु पिया' भगत - कथयत हे देवानुमियाः । ' किं करोमो कि आहरेमो किं उवणेमो', किं कुर्मः किमाहराम, किमुपनयामः - किमानीय अपयामः किं चि द्वामो'. किमातिष्ठामः कस्मिन् कार्ये वत्तमः 'किं भे हियं इच्छियं किं युष्मा हिनमिष्टम् 'भै' इति युष्माकम् 'किं भे आसगस्त सयइ' किं युष्माकम् आस्यस्य स्वदते - किं भवतां मुखाय रोचते, 'तमेव पासित्ता' तमेत्र तादृशं पुरुषम् दृष्ट्वा ' 'अणारिया' अनार्याः ' एवं वयंति' एवं वदन्ति 'देवे खलु अयं पुरिसे' देवः खलु अयं पुरुषः, 'देवसिणाए खलु अयं पुरिसे' देवस्नातकः- देवश्रेष्ठः खलु अयं पुरुषः "देवजीवणिज्जे खलु अयं पुरुषः' देवानां हि जीवनां व्यतिगमयति 'अभ्ने वियः उपजीवति' अन्येऽप्येनमुपजीवन्ति, अन्येऽपि बहवः एनमुपजीव्य अस्याऽऽधारेण स्वकीयजीवनयात्राम् आनन्दभागितया गमयन्ति 'तमेव पासित्ता आरिया वयंति' तमेव दृष्ट्वा आर्याः पुनरेवं वदन्ति भोगाद्यासक्तमानसं तं पुरुष विशेष यमनार्या पुण्यफलभोक्तारं मन्यन्ते । 'अभिक्कं तक कम्मे खड्ड अयं पृरिसे' अयं पुरुषस्तु - हाजिर हो जाते हैं और कहते हैं- हे देवों के प्यारे आज्ञा दीजिए क्या करें ? क्या लावें ? क्या अर्पण करें ? किस कार्य में लगे ! आपको क्या हितकर और क्या इष्ट है ? आपके मुख को क्या रुचिकर है ? इस प्रकार के सुख भोगने वाले पुरुष को देख कर अनार्य लोग ऐसा कहते हैं - यह पुरुष तो देव है ! देव ही क्या, देवों में भी श्रेष्ठ है, यह दिव्य जीवन व्यतीत कर रहा ! इसके सहारे दूसरे भी बहुत से लोग गुलछरे उड़ा रहें हैं- सुखपूर्वक जीवन यापन कर रहे हैं ! किन्तु उसी भोगासक्त पुरुष को देख कर आर्य जन इस प्रकार कहते हैं - यह पुरुष अत्यन्त ही क्रूर कर्म करने वाला है ! यह बड़ा ही }-हे देवाना प्यारा ! आज्ञा आप अभी शु उरी ? शु लावी ?, शु अर्पशु पुरीमे ? शुं अर्थभां सागीखे १ सपने, શું હિતકર અને ઈષ્ટ છે? આપના મુખને શું ગમશે ?. જાય છે. અને કહે - આવી રીતના સુખને ભાગવવા વાળા પુરૂષને જોઈને અનાય લક मेवु टुडे छे—मा यु३ष तो देव हे देवन शु ? हेवाथी पशु उत्तम. આ દિવ્ય જીવન વીતાવી રહેલ છે. તેની સહાયથી ખીજા પણ ઘણા લોકો મજા ઉડાવી રહ્યા છે. એટલે કે સુખી જીવન વીતાવી રહેલ છે. પરંતુ એ ભાગાસક્ત પુરૂષને આ જ્યારે પુરૂષ કર કમ કરવાવાળા છે. મા ઘણું જ ધૃત ܘ છે. -मा " એવુ કહે છે કે આ પાતાની રક્ષામાં Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् अभिक्रान्तद्रूरकर्मा, अत्यन्तमेव क्रूर कर्म करोति, 'अतिधुत्ते अइआयरक्खे दाहिण गामिए नेरइए कण्हपक्खिए' अविधूतॊऽत्यात्मरक्षका-दक्षिणगामी नरयिका-कृष्णापाक्षिका, अर्द्धपुद्गलपरावर्तनकालाधिकः संसारो वर्तते स कृष्णपाक्षिका कथयते आगमिस्साणं' आगमिष्यतिकाले 'दुल्लहबोहियाए' दुर्लभवोधिका 'भविस्सई' भविष्यति, 'क्रूरकर्मणि सदैव व्याप्तस्वाद् भविष्यकाले कथमप्ययं न मुखभाक्: 'स्यात् तथा दुर्लभवोधिरपि भविष्यति । सुलभबोधित्वं नासादयिष्यति, अधर्ममय जीवनात् 'इच्चेयस्स' इत्येतस्य 'ठाणस्स' पूर्वोपदर्शितमानुष्यसुखस्थानस्य वेगे' 'एके-केचन मन्दबुद्वयः 'उहिया' उस्थिताः-मिक्षार्थ कृतप्रयत्ना अपि 'अमि गिझंति' अभिगृध्यन्ति-केचिद् मन्दबुद्वयो मोक्षाय समुत्थिता अपि पूर्वोक्त. स्थानमभिलपन्ति, तद्विषयास्पृहां कुर्वन्ति 'वेगे अणुट्टिया अभिगिझ ति' एके अनुस्थिता:-गृहस्था अपि अभिगृध्यन्ति-इदं सुखस्थानमभिलपन्ति-'वेगे' एके 'अभिझंझाउला' अभिझझाकुला:-तृष्णातुराः 'अमिगिझंति' अभिय. धूर्त हैं ! यह अपनी रक्षा में तत्पर रहता है ! यह दक्षिण दिशा के नरक में जाकर उत्पन्न होने वाला है ! यह कृष्ण पाक्षिक है अर्थात् अर्द्ध पुदगल परावत्तन में भी इसका जन्म-मरण का प्रवाह समाप्त होने वाला नहीं हैं ! यह दुर्लभषोधि होगा सदैव क्रूर कृत्यों में संलग्न रहने के कारण यह भविष्यत् काल में किसी भी प्रकार सुखी होने वाला नहीं है। इसको सरलता से सम्यक्त्व मिलने वाला नहीं है, क्योंकि यह अधर्ममय जीवन जी रहा है ! कोई-कोई मूर्ख पुरुष गृहत्यागी होकर और मोक्ष के लिए प्रयत्नशील होकर भी पूर्वोक्त सुख स्थान की इच्छा करते हैं और कोई-कोई गृहस्थ भी उसकी अभिलाषा करते हैं । तृष्णा से आतुर लोग इस તત્પર રહે છે. આ દક્ષિણ દિશાના નરકમાં જઈને ઉત્પન્ન થવાવાળે છે, આ કૃષ્ણ પાક્ષિક છે, અર્થાત્ અર્ધ પુદ્ગલ પરાવર્તમાં પણ તેના જન્મ મરણનો પ્રવાહ સમાપ્ત થવાવાળે નથી. આ દુલભ બધી થશે. હંમેશા કૂરકર્મોમાં લાગી રહેવાથી આ ભવિષ્ય કાળમાં કઈ પણ પ્રકારથી સુખી થવાના નથી, તેને સરલતાથી સમ્યક્ત્વ મળવાનું નથી. કેમકે આ અધર્મમય જીવન જીવી રહ્યા છે. કઈ કઈ મૂખ પુરૂષ ગૃહત્યાગી થઈને અને મોક્ષ માટે પ્રયત્ન શીલ થઈને પણ પૂર્વોક્ત સુખસ્થાનની ઈચ્છા કરે છે. અને કઈ કઈ ગૃહસ્થ પણ તેની ઈચ્છા કરે છે. તૃષ્ણાથી આતુર લેકે આ સુખ થાનની કામના सू० ३३ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ सूत्रकृताङ्गले ध्यन्ति विषयसुखानि अभिलयन्ति । एवं रसगौरवम् ऋद्धिगौरवं साठागौर वं प्रामिलपन्ति । वस्तुतः 'एसठाणे अणारिए' एतत् पूर्वोक्तं विपयोपप्लुतं स्थान श्रनार्थम् - अस्यन्तमेाऽशोभनम् 'अकेवले' अकेवलम् न यत्र भवति केवलज्ञानम् एतत्स्थानासीनः कथमपि केवलज्ञानं न प्राप्नोति 'अधडि पुन्ने' अपतिपूर्णम्-आत्य विकसुखरहितम् 'अणेयाउए' अनैयायिकम् न न्यायो विद्यतेऽस्मिन स्थाने 'असमुद्धे' असंशुद्धम्, अत्र शुचित्वं नास्ति प्राणातिपातादिसङ्करात् । 'असल्लगचणे' अशल्यकर्त्तनम् - कर्मरूपं शल्यं नात्र कश्यते कर्मणो निराकरणं न भवति । 'सिद्धिमो' असिद्धिमार्गी - सिद्धेरविचलसुखमाप्ते मार्गभूतं नैतत् स्थानम् 'अमुत्तिम' अमुक्तिमार्ग:- अभि हवार्थ कर्मम हीणमपि नाऽनेन मार्गेण माध्यते । 'अनिव्वाणमो अनिर्वाणमार्गः - नायं निर्वाणस्य परमसुखस्य मार्गः 'अणिज्जानमग्गे' अनिर्याणमार्ग:- नायं निर्याणस्य सकलकर्मणः आत्मनिःसरणस्य मार्गोऽपि । 'असवदुक्खयहीणमग्गे' असर्वदुःखप्रहीणमार्गः सर्वदुःखानां विनाशजन कमपिन, 'एतमिच्छे' एकान्त मिथ्या - एकान्ततो मिथ्याभूतं स्थानम् 'असाहु' असाधु-अशोमनमिदं सुखस्थान की कामना करते हैं एवं रस ऋद्धि-सातागौरव चाहते है ! किन्तु वास्तव में यह स्थान अन अर्थात् अधम है, केवलज्ञान से रहित है अर्थात् इस विषय-विलास के स्थान में रहने वाला पुरुष कदापि केवलज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता । यह आत्यन्तिक सुख से रहित है, न्याययुक्त नहीं है, प्राणातिपात आदि पापों के सम्पर्क के कारण अशुद्ध है, कर्म रूप शल्य को काटने वाला नहीं है, असिद्धि का मार्ग है अर्थात् अनन्त अविचल सुख की प्राप्ति का विरोधी है, मुक्तिका मार्ग नहीं है निर्माण-परम शांति का मार्ग नहीं है, निर्याण का मार्ग नहीं है, सकल दुःखों के विनाश का मार्ग नहीं है, यह एकान्त रूप से मिथ्या है, अशोभन है । यह प्रथम अधर्मपक्ष- पुण्डरीक प्रकरण કરે છે, અને રસ, ઋદ્ધિ સાતા ગૌરવની ઇચ્છા રાખે છે. પરંતુ વાસ્તવિક રીતે આ સ્થાન અનાય અર્થાત્ અધમ છે કેવળજ્ઞાન વિનાનુ છે. અર્થાત્ આ વિષય વિલાસના સ્થાનમાં રહેવાવાળા પુરૂષ કાઈ પણ વખતે કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી આ આત્યંતિક સુખથી રહિત છે ન્યાય યુક્ત નથી પ્રાણાતિપાત વિગેરે પાપાના સપથી અશુદ્ધ છે. કમ રૂપ શલ્યને કાપવા વાળા નથી, અસિદ્ધિના માગ રૂપ છે. અર્થાત્ અનંત અવિચલ સુખની પ્રાપ્તિના વિષધી છે. મુક્તિને સાળ નથી, નિર્દેણુ પરમાંતિને માગ નથી, નિયોના માર્ગ નથી. સકળ દુઃખોના વિનાશના માગ નથી, આ એકાન્ત Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समार्थबोधिनी टीका द्वि श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् २५९ स्थानम् 'एस खलु एषः खलु 'पढमस्स' प्रथमस्य 'ठाणस्स' स्थानस्य 'अधम्मपक्खस्स' अधर्मपक्षस्य - पुण्डरीकमकरणस्य 'विभंगे एवमाहिए' विभङ्गो - विचार आख्यातः सर्वथा दुःखानविक्रमणात्, विदुषा एतत् स्थानं कदापि न पार्थानीयम् किन्तु - इतो विरक्तिरेव करणीयेति भावः ॥०१७ =२३ मूळम् - अहावरे दोञ्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिज्जइ, इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीर्णं वा दाहिणं वा, संतेगइया मणुस्सा भवंति तं जहा - आरिया वेगे - अणारिया वेगे उच्चागोया वेगे णीया गोया वेगे कायमंता वेगे हस्समंता वेगे सुवन्ना वेगे दुवन्ना वेगे सुरूवा वेगे दुरूवा वेंगे, तेसिं चणं खेत्तवत्थूणि परिगहियाईं भवंति, एसो आलावगो जहा पोंड - रीए तहा यव्वो, तेणैव अभिलावेण जाव सव्वोवसंता सव्वत्ताए परिनिव्वुडे ति बेमि । एस ठाणे आरिए केवले जाव सव्वदुक्खष्पहीणमग्गे एगंतसम्म साहु, दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्स विभंगे एवमाहिए ॥ सू० १८ ॥ ३३ ॥ छाया - अथाऽपरो द्वितीयस्य स्थानस्य धर्मपक्षस्य विभङ्गः एव माख्यायते, इह खलु प्राच्यां वा प्रतीच्यां वा उदीच्यां वा दक्षिणस्यां वा समस्येकतये, मनुष्या भवन्ति, तद्यथा - आर्या एके -अनार्यां एके-उच्चगोत्रा एके नीचगोत्रा एकेकायवन्त एके -हस्त्रवन्त एके-सूत्र एके-दुर्वर्णा एके सुरूपा एके= दूरुपा एके, तेषां च खलु क्षेत्र वास्तुनि परिगृहीतानि भवन्ति, एष आलापको यथा पौण्डरीके तथा नेतव्यः तेनैवाभिलापेन यावत् सर्वोपशान्ताः सर्वात्मतया परिनिर्वृत्ता इति ब्रवीमि । एतत् स्थानमार्यै केवलं यावत् सर्वदुःखप्रहीणमार्गम् एकान्तसम्यक् साधु, द्वितीयस्य स्थानस्य धर्मपक्षस्य विभङ्ग - एवमाख्यातः ||५०१८ = ३३ ॥ का विचार कहा गया है। ज्ञानी पुरुष को इस स्थान की कदापि इच्छा करनी नहीं चाहिए किन्तु इससे विरक्ति ही करनी चाहिए ||१७|| રૂપથી મિથ્યા છે. અશેાલન છે. આ પહેલા અધમ પક્ષ-પુંડરીક પ્રકરણના વિચાર કહેલ છે. જ્ઞાની પુરૂષાએ આ સ્થાનની ઇચ્છા કઈ કાળે કરવી ન જોઈએ. પરંતુ આનાથી વિરકત જ રહેવુ. જોઈ એ ાસ. ૧૯ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० - - सूत्रकृतामले टीका-अधर्मपक्षस्य निरूपणं कृतं सम्पति-धर्मपक्षं निरूपयितुमाह'अहावरे' इत्यादि । 'अहावरे' अथाऽपरः 'दोवस्स ठाणस्त धम्मपक्खस्स' द्वितीयस्य स्थानम्य-पुण्डरीकाकरणधर्मपक्षस्य 'विभंगे एवमाहिन्नई' विमा:विचारः एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण आख्यायते, 'इह खश पाईणं वा पाच्या पूर्वस्या दिशि वा 'पडीणं वा' प्रतीच्या पश्चिमायां वा 'उदीणं वा' उदीच्याम्-उत्तरदिशि वा 'दाहिणं वा' दक्षिणस्यां दिशि वा 'सते गइया मणुस्सा भवंति' सन्त्येकतयेअनेकप्रकारका मनुष्या भवन्ति 'तंजहा' तद्यथा-'भारिया वेगे' आर्याः सद्धर्माचरणशीला वा एके 'अणारिया वेगे' अनार्या वा एके 'उच्चागोया वेगे' उच्च गोत्रा वा एके-उग्रवंश्याः 'णीयागोया वेगे' नीचगोत्रा वाएके-शूद्रादयः 'कायमंता वेगे हस्समंतावेगे' कायवन्तो दीर्घकाया वा एके, हस्बवन्त:-घुशरीरा वा एके 'सुर्वन्ना वेगे' सुवर्णाः-सुन्दरवर्णवन्त एके, 'दुवन्ना वेगे' दुर्वर्णाः-कुत्सितवर्णवन्त 'अहावरे दोच्चस्स ठाणस्स' इत्यादि। टीकार्थ-अधर्म पक्ष का निरूपण किया जा चुका है अव धर्म पक्ष का निरूपण करते हैं-अब दूसरे स्थानपुण्डरीक प्रकरण के धर्म पक्ष का विचार किया जाता है-इस लोक में पूर्व दिशा में पश्चिम दिशा में उत्तर दिशा में और दक्षिण दिशा में अनेक प्रकार के मनुष्य होते हैं। वे इस प्रकार हैं-कोई आयें अर्थात् समीचीन धर्म का आचरण करने वाले और कोई अनार्य होते हैं, कोई उच्च गोत्री होते हैं कोई नीच गोत्री शूद्रा दिक होते हैं, कोई लम्बे शरीर वाले तो कोई छोटे शरीर वाले होते हैं, कोई सुवर्ण वाले तो कोई दुर्वर्ण वाले होते हैं, कोई सुन्दर रूप वाले , . 'अहावरे दोच्चस्स ठाणस्स' त्यात ટીકાથ—અધર્મ પક્ષનું નિરૂપણ કરવામાં આવી ગયું છે, હવે ધર્મ પક્ષનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે.–હવે બીજા સ્થાન પુંડરીક પ્રકરણના ધર્મ પક્ષનો વિચાર કરવામાં આવે છે. આ લેકમાં પૂર્વ દિશામાં પશ્ચિમ દિશામાં, ઉત્તર દિશામાં, અને દક્ષિણ દિશામાં અનેક પ્રકારના મનુષ્યો હોય છે, તે આ પ્રમાણે છે. કઈ આ અર્થાત્ સમીચીન ધર્મનું આચરણ કરવાવાળા, અને કઈ અનાર્ય હોય છે. કેઈ ઉચ્ચ નેત્રવાળા હોય છે. કેઈ નીચ ગોત્રવાળા શાદિક હોય છે. કેઈ લાંબા શરીરવાળા હોય છે. તે કઈ ટૂંકા શરીરવાળા હોય છે. કઈ સારા વર્ણવાળા તે કઈ કદરૂપ હોય છે. કેઈ સુંદર રૂપવાળા Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् एके 'मुख्वा वेगे दुरूषा वेगे' सुरूपाः-सुन्दराकृतयः एके, दुरूपा:-कुत्सिता. कृनय एके 'तेसिं च णं खेत्तवत्थूनि परिगहियाई भवंति' तेषां च खलु-आर्यादीनां क्षेत्रवास्तूनि-क्षेत्रमन्दिराणि परिगृहीतानि भवन्ति 'एसो आलावगो जहा पोडरीए तथा ोपन्यो' एष आलापको यथा पौण्डरीके पुण्डरीकपकरणे कथितस्तथैवं तेनैव प्रकारेण नेतव्यः-इहापि वक्तव्यः विशेषस्तु पुण्डरीकाकरणे द्रष्टव्यः 'तेणेव अभिलावेण जाव सम्योवसंता सत्ताए परिनिव्वुडतिबेमि' तेनैव अभिलापेन प्रकारेण यावत् सर्वोपशान्ता सर्वपायेभ्यो निवृत्ता स्तथा सर्वेन्द्रियविषयेभ्यो निवृत्ताः सर्वात्मतया परिनिवृत्ताः सर्वेभ्यः माणातिपातादि. यो निवृत्ताः ते धर्मपक्षीयाः, इत्यह सुधर्मास्वामी ब्रवीमि-कथयामि यथा-भग वत्स्थाने, 'एम ठाणे आरिए केले जाव सम्बदुक वाहीणाग्गे एगंतसम्मे साह एतत्स्थानमार्यम्-आर्यपुरुषैः सेवितम्, केरलं-केवलज्ञानमापकम्, यावत्-प्रति पूर्ण नैयायिक संशुद्ध प्राणातिपातादिदोपवर्जितं शल्यकर्त्तनम्-कर्मरूपशल्यस्य विनाशकम्, सिद्धिमार्ग सिद्धेः पापकम् मुक्तिमार्ग-मुक्तिप्रापकम्, निर्वाणमार्गम् और कोई कुरूप होते हैं । ये आर्य आदि मनुष्य क्षेत्र वास्तु आदि के परिग्रहवान् होते हैं, इत्यादि आलापक जो पुण्डरीक के प्रकरण में कहा गया है, उसी प्रकार यहां भी कहलेना चाहिए । यावत् जिन्होंने अपनी सब इन्द्रियों को वशीभूत करलिया है, जो सब कषायों से निवृत्त हैं और सब इन्द्रियविषयों से विमुख हैं, वे धर्म पक्षीय हैं, ऐसा श्री सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं। यह स्थान (धर्मपक्ष) आर्य पुरुषों द्वारा सेवित है, केवलज्ञान की प्राप्ति कराने वाला है, प्रतिपूर्ण है, न्याय युक्क है, प्राणातिपात आदि दोषों से रहित होने के कारण विशुद्ध है, शल्यों को नष्ट करने वाला अर्थात् कर्मों का विनाशक है, सिद्धि का मार्ग है, मुक्ति का मार्ग है, निर्वाण (मोक्ष) का मार्ग है, અને કેઈ કુરૂપ હોય છે. આ આર્ય વિગેરે મનુષ્ય ક્ષેત્ર, વાસ્તુ ' વિગેરેના પરિગ્રહવાળા હોય છે. વિગેરે આલાપકો જે પુંડરીકના પ્રકરણમાં કહેલ છે. એજ પ્રમાણે અહિયાં પણ કહી લેવા જોઈએ યાવત જેઓએ પિતાની સઘળી ઈન્દ્રિયાને વશ કરેલ છે. જે સઘળા કષાયથી નિવૃત્ત છે. અને સઘળી ઈદ્રિયોના વિષયેથી વિમુખ હોય છે. તેઓ ધર્મ પક્ષના છે. એ પ્રમાણે શ્રી સુધર્માસ્વામી જંબૂ સ્વામીને કહે છે. આ સ્થાન (ધર્મપક્ષ) આર્ય પુરૂ દ્વારા સેવિત છે કેવળજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ કરાવવાવાળું છે. પ્રતિ પૂર્ણ છે. ન્યાય યુક્ત છે પ્રાણાતિપાત વિગેરે દેથી રહિત હોવાના કારણે વિશુદ્ધ છે. શલ્યને નાશ કરવાવાળા અર્થાત્ કર્મોના વિનાશક છે ‘સિદ્ધિના માર્ગ રૂપ છે મુક્તિનો માર્ગ છે નિર્વાણ (મોક્ષ) ને માગે છે, Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ सूत्रकृताङ्गो अशेषकर्मक्षयात्मक निर्माणस्य साधकम्, निर्याणमार्गम्, सर्वदुःख हीण मार्ग-सर्वदुरवरहितमार्गम्, एकान्तमम्यक् साधु-अत्यन्तोत्तमम्-एवं प्रकारेण 'दोचस्स ठाणस धम्मपक्खस्स' द्वितीगस्य स्थानस्य धर्मपक्षस्य 'विभंगे एवमाहिए' विभको विचारः एवं-पूर्वपदर्शितक्रमेण आख्यातः-कथित इति ॥सू०१८=३३॥ मूळम्-अहावरे तच्चस्स ठाणस्ल मिस्सगस्स विभंगे एवमाहिज्जइ, जे इमे भवंति आरणिया आवसहिया गामणियंतिया कण्हई रहस्सिया जाव ते तो विप्पमुच्चमाणा भुज्जो एलमूयत्ताए तमुत्ताए पञ्चायंति, एस ठाणे अणारिए अकेवले जाव असव्वदुक्खपहीणे मग्गे एगंतमिच्छे असाहू, एस खलु तच्चस्स ठाणस्स मिस्लगस्स विभंगे एवमाहिए ॥सू० १९॥३४॥ छाया-अथाऽपर स्तृतीयस्य स्थानस्य मिश्रकस्य विमङ्गः एवमाख्यायते ये इमे भवन्ति आरण्यकाः अवसयिकाः ग्रामान्तिकाः कचिद्राहसिका यावत् ते ततो विप्रमुच्यमाना भूयः एलमूकत्वाय तमस्त्वाय प्रत्यायन्ति । एतत्स्थानम् अनार्यम् अकेवल यावद् असर्वदुःखपहीणमार्गमेकान्तमिथ्या असाधु । एप खलु तृतीयस्य स्थानस्य मिश्रमस्य विभङ्ग एवमाख्याता । सू०१९-३४॥ टीका-र्माऽधर्मयोविभङ्गो निरूपितो सम्पति-तृतीयं मिश्रकस्थानं पद. र्शयति-अहावरे' इत्यादि, 'अहावरे' अथापरः तच्चस्स' तृतीयस्य 'ठाणस्स' स्था. निर्माण (कर्म रहित होने) का मार्ग है, समस्त दुःखों का अन्त करने का मार्ग है, एकान्त सम्यक् है । इस प्रकार दूसरे स्थान अर्थात्, धर्मपक्ष का विचार कहा गया है ॥१८॥ 'अहावरे तच्चस्स ठाणस्स' इत्यादि। टीकार्य-धर्म पक्ष और अधर्म पक्ष का विचार कहा जाचुका है। अय तीसरे मिश्रपक्ष का अर्थात् धर्माधर्म पक्ष को दिखलाते हैं-तीसरे નિયાં (કમરહિત થવાના) ના ભાગ રૂપ છે. સઘળા ખેના અંત કરવાના માર્ગ રૂપ છે. એકાન્ત સમ્યફ છે. આ રીતે બીજા સ્થાન અર્થાત્ ધમપક્ષને વિચાર કહેવામાં આવેલ છે. સૂ. ૧૮ "अहावरे तच्चस्स ठाणस्स' यहि ટીકા-ધર્મ પક્ષ અને અધર્મ પક્ષનું નિરૂપણ કરવામાં આવી ગયેલા છે. હવે ત્રીજા મિશ્રપાને અર્થાત્ ધમધમે પક્ષને વિચાર બતાવવામાં Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् २६३ नस्य 'मिस्सगस्स' मिश्रकस्य 'विभंगे एवमाहिज्जई' विभङ्गा-विचार एवमाख्यायते 'जे इमे भवंति' ये इमें भवन्ति 'भारणिया' आरण्यका:-अरपरे निवसन्त स्तापसाः 'आवसहिया' आवसथिका:-गृहं निर्माय तत्र वसन्त स्वापसपभृतयः । 'गामणियंतिया' नामान्तिका:-ग्रामसमीपे निवासशीला 'कण्हुईरहस्सिया' कंचि वाहसिका:-सामुद्रिकादिद्वारा रहस्यवार्ताकर्तारः 'जाव' यावत्-ते अनार्या विमा सिपना काळमासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु आसुरिकेषु किरियषिकेषु उपपाचारो भवन्ति । "ते तो विषमुच्चमाणा' ते-तापस। मृत्वा किल्विषा:-देवा भवन्ति, ते तत्राऽनेकपकारकभोगान् भुक्त्वा 'तो' ततो देवलोकाद् विषमुच्यमाना:च्युताः सन्तः 'भुज्जो' भूय: 'एलमूयत्ताए' एलमूकत्वाय-स्वाभाविकमूकमव ना? 'तमुत्ताए' तमस्त्वाय-जन्मान्धत्वाय 'पञ्चायति' प्रत्यायान्ति-मनुष्यलोके आगच्छन्ति 'एसठाणे अणारिए' एतत्स्थानमनायम्-आर्यपुरुषैरसेवितस्थानम् 'अकेवले' अकेवलम्-नैतत्स्थानं केवलज्ञानसमुत्पादकम् 'जाव' यावत् 'असव्वदु. क्खपहोणमग्गे' असर्वदुःखमहीणमार्गः, न यत्र सर्वदुःखानां क्षयो भवति । 'पगंत. स्थान-मिश्रपक्ष का विचार इस प्रकार है ये जो अरण्य में निवास करने वाले तापस हैं, जो घर बनाकर उसमें रहने वाले तापस आदि हैं, जो ग्राम के समीप वसने वाले तापस है, जो सामुद्रिक आदि द्वारा रहस्य मय वाते करनेवाले हैं अर्थात् गुप्त वार्तालाप किया करते हैं वे गलत मार्ग को अंगीकार किये हुए हैं। वे मृत्यु का अवसर आने पर मरण को प्राप्त होकर किल्विषी देवों में उत्पन्न होते हैं। ऐसे तापस जब किल्विषी देव पर्याय से च्यूत होते हैं तो गूगें के रूप में उत्पन्न होते है,जन्मान्ध होते हैं। यह स्थान भी आर्य पुरुषों द्वारा सेवित नहीं है, केवलज्ञान का जनक नहीं है यावत આવે છે-ત્રીજા સ્થાન–એટલે કે મિશ્ર પક્ષને વિચાર આ પ્રમાણે કહેલ છે. -જેઓ આ જંગલમાં વસનારા તાપસે છે, જેઓ ગામની નજીક વસનારા તાપસે છે જેઓ ઘર બનાવીને વસનારા તાપસે છે. જેમાં સામુદ્રિક લક્ષણે વિગેરે દ્વારા રહસ્ય યુક્ત વાતે કરવાવાળા છે, અર્થાત્ ગુપ્ત વાર્તાલાપ કર્યા કરે છે. તેઓએ ખરાબ માર્ગનું અવલમ્બન કરેલ છે. તેઓ મૃત્યુનો અવસર આવે ત્યારે મરણ પામીને કિબિષીદેવ પર્યાયમાં ઉત્પન્ન થાય છે. એવા તાપસે જ્યારે કિલિબષીદેવ પર્યાયથી ચુત થાય છે, ત્યારે ગુંગાના રૂપથી ઉત્પન્ન થાય છે, જન્માંધ થાય છે. આ સ્થાન આર્ય પુરે દ્વારા સેવવાને Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६४ सूत्रकतास मिच्छ एकान्त मिथ्या 'असाहु' असाधु-अशोभनम् 'एस खलु तच्चस ठाणस्स मिस्सगस्स' एप खल्ल तृतीयस्य स्थानस्य मिश्रकस्य 'विभंगे एव माहिए' विभक्त -विचार एवपासातः, अनाऽपि धर्मस्याऽल्पत्वात्-अधर्मस्य च बहुतांत विवेकवता त्याग एवं करणीय इति । सू०१९८३३॥ भूलम्-अहावरे पढमस्स दाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवाहिज्जइ, इह खलु पाईणं वा ४ संतेगइया मणुस्सा भवंति गिहत्या महिच्छा महारंभा महापरिग्गहा अधम्मिया अधम्मा. णुया अधम्मिट्ठा अधम्मक्खाई अधम्मपायजीविणो अधम्मपलोई अधम्मपलज्जणा अधम्मसीलसमुदायारा अधम्मेणं चैव वित्तिं कप्पेमाणा विहरति । हण छिंद भिंद विगत्तगा लोहियपापा चंडा रुद्दा खुद्दा साहस्सिया उक्कुंचणचणमायाणिय: डिकूडकवडसाइसंपओगबहुला दुस्सीला दुव्वया दुप्पडियाणंदा असाहू समाओ पाणाइवायाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए जाव सव्वाओ परिग्गहाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए सवाओ इस स्थान के सेवन से समस्त दुःखों का अन्त नहीं हो सकता। यह एकान्त मिथ्या है, अशोभन है। यह तीसरे मिश्रपक्ष का विचार कहा गया है। यह तीसरा पक्ष प्रथम अधर्मपक्ष के समान समग्र रीतिसे पापमय नहीं है, दूसरे धर्म पक्ष के समान एकान्त धर्ममय भी नहीं है। इसमें थोड़ा धर्म और बहुत अधर्म है, अतएव इसे मिश्रपक्ष कहा है। विवेकवान् पुरुष को इस पक्ष का भी त्याग कर देना चाहिए ॥१९॥ ગ્ય નથી. કેવળજ્ઞાન જનક નથી. યાવત્ આ સ્થાનના સેવનથી સઘળા દુઃખેને અંત થઈ શકતો નથી. તે એકાન્ત મિથ્યા અને અશોભન છે. આ ત્રીજા મિત્ર પક્ષને વિચાર કહેવામાં આવેલ છે. આ ત્રીજો પક્ષ પહિલા અધર્મ પક્ષની માફક પૂરે પૂરો પાપમય નથી, બીજા ધર્મ પક્ષની જેમ એકાન્ત ધર્મમય પણ નથી, આમાં થેડે ધર્મ અને ઘણાખરો અધર્મ છે. તેથી જ આને મિશ્ર પક્ષ કહેલ છે. વિવેકી પુરૂષે આ પક્ષને પણ ત્યાગ કરવો જોઈએ. ૧લા Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयाबोधिनी टीका वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् २६५ कोहाओ जाव मिच्छादसणसल्लाओ अप्पडिविरया, सत्वाओ हाणुम्मदणवण्णगगंधविलेवणसदफरिसरसरूवगंधमल्लालंकाराओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए। सव्वाओ सगडरहजाणे: जुग्गगिल्लिथिल्लिसंदमाणिया सयणासणजाणवाहणभोगभोयर, णपवित्थरविहीओ अप्पडिविरिया जावज्जीवाए। सव्वाओ कय: विकी मासद्धमासरूवग संववहाराओअप्पडिविरयाजावजीवाए। सवाओहिरण्णसुवण्ण धगधण्णमणिमोत्तियसंखसिलपवालाओ अप्पडिविरया जावजीवाए सबाओ कूडतुलकूडमाणाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए सव्वाओ आरंभलमारंभाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाओ सव्वाओ करणकारावणाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए सव्वाओ पयणपयावणओ अप्पडिविरया जावजीवाए सव्वाओ कुदृगापिट्टणतज्जणताडणवहबंधणपरिकिलेसाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए, जे जावपणे तहप्पगारा सावंजा अवोहिया कम्मंता परपाणपरियावणकरा जे अणारिएहि कन्जंति तओ अप्पडिविरया जावजीवाए। से जहाणामए केइपुरिसे कलममसूरतिलमुग्गामासनिप्फावकुलत्थआलिसंदग पलिमंथगमाइएहि अयंते कूरे मिच्छादंडं पउंजंति, एवमेव तहप्पगारे पुरिसजाए तित्तिरवट्टगलावगकवोयकविंजलमियमहिसवराहगाहगोहकुम्मसिरिसिवमाइएहिं अयंते करे मिच्छादंडं पउंति, जावि य से बाहिरिया परिसा भवइ, तं जहा-दासेइ वा पेसेड वा भयएइ वा भाइल्लेइ वा कम्मकरएइ वा भोगपुरिसेइ वा तेसि पि य णं अन्नयरंसि वा अहा लहुगंसि अवराहसि सयमेव स० ३४ Page #529 --------------------------------------------------------------------------  Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् २६७ -वा-कालं मुंजित्तु भोगभोगाइं पविसुइत्ता वेरायतणाई संचि. णित्ता वहुई पावाइं कम्माइं उस्सन्नाइं संभारकडेण कम्मणा से जहाँ णामए अयगोलेइ वा सेलगोलेइ वा उदगंसि वा पक्खित्ते समाणे उदगतलमइवइत्ता अहे धरणितलपइटाणे भवइ, एवमेव तहप्पगारे पुरिसजाए वज्जबहुले धूतबहुले पंकबहुले वेरवहुले अप्पतियबहुले दंभबहुले णियडिबहुले साइबहुले अयसबहुले उस्सन्नतसपाणघाई कालमासे कालं किच्चा धरणितलमइवइत्ता अहे णरगतलपइट्ठाणे भवइ ॥सू० २०॥३५॥ . ___ छाया-अथाऽपरःपथमस्प स्थानस्य अधर्मपक्षस्य विभङ्गः एवमाख्यायते । इह खलु माच्यां वा ४, सन्त्येकनये मणुष्या भवन्ति-गृहस्था: महेच्छा महारम्मा: महापरिग्रहाः अधार्मिकाः अधर्माऽनुगाः अधर्मिष्ठाः अधर्मख्यायिनः अधर्मपायजीविनः अधर्मपलोकिनः अधर्ममरञ्जनाः अधर्मशीलसमुदाचाराः अधर्मेण चैव वृत्ति कल्पयन्तो विहरन्ति । जहि छिन्धि, मिन्धि, विर्तकाः लोहितपाणयः चण्डा: रौद्राः क्षुद्राः साहसिकाः उत्कुश्चनवञ्चनमायानिकृतिकूटकपटसातिसंभयोगबहुलाः दुःशीलाः दुताः दुःमत्यानन्दाः असाधवः सर्वस्मात् माणातिपातात अपतिविरता यावज्जीवनं यावत् सर्वस्मात् परिग्रहादपतिविरता यावज्जीवनम् । सर्वस्मात् क्रोधाद् यावद् मिथ्यादर्शनशल्यादपतिविरताः, सर्वस्मात् स्नानोन्मर्दन, वर्णकगन्धविलेपनशब्दस्पर्शरसरूपगन्धमाल्यालकारादप्रतिविरताः यावज्जीवनम् । सर्वस्मात शकटरथयानयुग्यगिल्लिथिल्लिस्पन्दमानिका शयनासनयानवाहनभोग्य. “भोजनपविस्तरविधितः अपतिविरताः यावज्जीनम् । सर्वतः क्रयविक्रयमाषाधमाष. रूपकसंव्यवहारादपतिविरताः यावज्जीवनम्, सर्वस्माद् हिरण्यसुवर्णधनधान्यमणि'मौक्तिकशकशीलामवालादप्रतिविरता यावज्जीवनम् । सर्वस्मात् कूटनुलकूट मानांत अप्रतिविरता यावजीवनम्, सर्वस्मात् आरम्भसमारम्भादतिरिता यावज्जीवनम् । 'सर्वस्मात करणकारणतः अपतिविरताः यावज्जीवनम् । सर्वतः पचनपाचनतः पति'विरता यावज्जीवनम्। सर्वतः कुट्टनपिट्टनतर्जनताडनवन्धनपरिक्लेशादपतिविरताः ।' यावज्जीवनम् । येचाऽन्ये तथापकाराः सावद्या अवोधिकाः कर्मसमारम्भाः पर. माणपरितापनकरा ये अनायः क्रियन्ते ततोऽपतिविरता यावज्जीवनम् । तद्यथा Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतामसूत्र नाम केचित् पुरुयाः कलमममनिलमुद्गमापनिष्पावकुलत्थालिसन्दकपरिमन्यादिकेषु अत्यन्नं कराः मिव्यादण्डं प्रयुजते एवमेव तथा पकाराः पुरुाजाताः तित्तिर वर्त फलाफरूपोतक पजलमगमहिपवराहग्राहगोचाकूर्मसरिस्पादिकेषु अत्यन्तं क्रराः मिपाइण्ड प्रयुवन्ति याऽपि च तेषां बाह्या परिपद् भवति तद्यधा-दासो वा प्रेष्यो वा मृत को पा भागिको वा कर्म करो वा भोगपुरुपो वा तेपाञ्च च खलु अन्यतर. स्मिन् यथालयुकेऽप्यपरावे स्वयमेव गुरुकं दण्ड निर्वतयन्ति तद्यथा-इमं दण्डयत, इमं मुडयन, इमं तर्जयत, इमं ताडयत, इमं पृष्ठवन्धनं कुरुत, निगडबन्धनं कु61, इमं हाडी बन्धनं कुरुत, इमं चारवन्धनं कुरुत, इमे निगडयुगलसंकोचित मोटितं कुरुत, इमं हस्तच्छिन्ना कुरुत, इमं पादच्छिन्नकं कुरुत, इमं कर्मच्छिन्न के उम्त, इमं नासिकौष्ठशीप मुखच्छिन्नकं कुरुन, इमं वेदकच्छिन्नमच्छिन्नकं, पक्षस्फोटितं कुहन, इमं नयनोत्साटितं कुरुत, इमं दशनोत्पाटि वृपगोत्पाटितं जियोत्याटितम् अमलम्बितं कुरुत घर्पितं कुरुत घोलितं कुरुन, शूलार्पितं कुरुत, मुलाभिन्न कं कुरुत, क्षारवर्तिनं कुरुन, वध्यवर्तिनं कुरुत, सिंहपुच्छि कं कुरुन, नृपमपुच्छितकं कुरु I, दावाग्निदग्वाझं कुरुत, काकालीमांसखादिताङ्गं भक्तमान निम्धकमिमं यावज्जीवनं वधयन्धनं कुरुत, इममन्यतरेणाऽशुभेन कुमारेण मारयत । याऽपि च तस्य आभ्यन्तरिकी परिपद् भवति तद्यथा-माता वा पिता वा नाता वा भगिनी वा भार्या वा पुत्रा वा दुहितरो वा स्नुपा वा तेपामपि च पलु अन्यतरस्मिन् यथा लघु केऽप्यपराधे स्वयमेव गुरुकं दण्डं निर्वतयन्ति शीतोदकविकटे उत्क्षेपारो भवन्ति यथामित्रदोपप्रत्ययिके यावद् अहिताः पर. स्मिन् लोके ते दु.यन्ति शोचन्ति जूस्यन्ति तिप्यन्ति पीड्यन्ते परितप्यन्ति, ते दुःrवन शौचन रणनेपनपिट्टनपरितापनवधवन्धनपरिक्लेशेभ्योऽप्रतिविरता भवन्ति । पमेन ते खोकामेपु मृच्छिता. गृद्वाः प्रथिताः अध्युपपन्नाः यावद् वर्षाणि चतुःपञ्च पददश वा अल्पतरं वा भूयस्तरं वा कालं भुक्तमा भोग्यभोगान् भविम्य वैरायतनानि सञ्चित्य बहूनि पापानि कर्माणि उत्तन्नानि सम्भारकतेन कमला तपधा नाम अयोगोलको वा शेळगोळ कोवा उदके या प्रक्षिपमामः उदकतलमतिपय अयोधरणितलपतिष्ठानो भवति, एवमेव तथामकारः पुरुषजातः पर्गापवतः गुनबहुन, परपहलः वेबहुल: अप्रत्ययवहुळः दम्मबहुलः नियति . मानिवदुरः भागो बहुल: उत्पन्नाममाणघाती कालमासे कालं कुत्ता पाणितलमनिवर्य अधो नरकतळपतिष्ठानो भवति ॥०२०-३५|| ..., Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् । टीका-धर्माऽधर्ममिश्रस्थानानां वर्णनं कृत्वा तत्तस्थाने निवमतां मनुष्याणां वर्णनमारभ्यते-पूर्वकथितमेवार्थ पुनर्विशदयति-'अहावरे' अथाऽपरः पढमस्स ठाणस्स' प्रथमस्य स्थानस्य अधम्मपक्वस्स' अधर्मपक्षस्य 'विभंगे' विमङ्गो विचारः 'एवमाहिज्जई' एवमाख्यायते 'इह खलु पाईणं वा १ प्राच्यां वा प्रतीच्या वा उदीच्यां वा दक्षिणस्यां वा ४ 'संतेगइया मणुस्सा भवंति' सन्त्ये कतये-अनेकप्रकारका मनुष्या भवन्ति, तद्यथा-पाच्यादि दिशामु विविधप्रकारका मनुष्या वसन्तीति दर्शयति-'गिहत्या गृहस्था:-पुत्रादिभिः सह गृहे निवसन्तः 'महिच्छा' महेच्छा:-महती इच्छा विद्यते येषां ते महेच्छाः, 'महारंभा' महान् आरम्भो येषां ते तथा 'महापरिग्गहा' महान परिग्रहो येषां ते महापरिग्रहाः 'अधम्प्रिया' अधामिका:-अधर्ममेवाऽऽचरन्तः 'अधम्माणुया' अधर्माऽनुगा:-अधर्ममनुगच्छन्ति ये तेऽधर्माऽनुगा:-'अधमिटा' अधर्मिष्ठा:-अधर्ममा साभिमतमभिमन्यमानाः 'अधम्मक्खाई' अधमख्यायिनः-अधर्मस्यैव प्ररूपकाः-चर्चाकारकाः 'अधम्मपाय 'अहावरे पढमस्स ठाणस्स' इत्यादि। टीकार्थ-धर्म पक्ष, अधर्मपक्ष और मिश्र पक्ष का वर्णन किया जा चुका है। अब इन तीनों पक्षों में रहने वाले मनुष्यों का वर्णन करते हुए प्रथम अधर्मपक्ष में स्थित मनुष्यों का वर्णन करते हैं। , . अधर्मपक्ष में स्थित मनुष्यों का विचार इस प्रकार है-इस लोक में पूर्व आदि दिशाओं में विविध प्रकार के मनुष्य होते हैं जो पुत्रकलत्र आदि के साथ गृह जीवन व्यतीत करते हैं-गृहस्थ होते हैं। वे महान् इच्छाओं वाले, महादंभी और महापरिग्रहवान् होते हैं। अधर्म से ही अपने अभीष्ट सिद्धि समझने वाले और अधर्म का ही आचरण करने वाले, अधर्मका ही अनुगमन करने वाले, 'महावरे पढमस ठाणस्स' त्यात ટીકાર્થ–ધર્મ પક્ષ, અધર્મ પક્ષ, અને મિશ્ર પક્ષનું વર્ણન કરવામાં આવી ગયું છે. હવે આ ત્રણે પક્ષને આશ્રય લેનારા માણસોનું વર્ણન કરતા થકા પહેલાં અધર્મ પક્ષમાં રહેલા માણાનું વર્ણન કરવામાં આવે છે. કે અધર્મ પક્ષ ને આશ્રય લેનાર માણસને વિચાર આ પ્રમાણે છે – આ લેકમાં પૂર્વ વિગેરે દિશાઓમાં અનેક પ્રકારના મનુષ્ય હોય છે. જેઓ કે પુત્ર, ી વિગેરેની સાથે ગૃહ જીવન વિતાવે છે.-અર્થાત્ ગૃહરથ હોય છે. US? “ તેઓ મહદ્ ઇચ્છાઓ વાળા મહાન આરંભવાળા, અને મહા પરિગ્રહવાળા હેાય છે, તેઓ અધર્મનું જ આચરણ કરવાવાળા અધર્મનું જ અનુગામના કરવાવાળા, અધર્મથી જ પિતાના અભીષ્ટની સિદ્ધિ સમજવા વાળા, અને Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ सूत्रकृतामसूत्र जीविणो' अधर्मपायजीविनः-अयम-हिंसादिकं पुरस्कृत्याऽऽजीविका कुर्वन्तः 'अधम्मपलोई' अधर्ममलोकिन:-अधर्ममेव माग पश्यन्तः 'अधम्मपलज्जणा' अधमपरञ्जना:-अधर्मेणैव तुष्यन्तः अन्धानपि तोपयन्तः 'अधम्मसीलपमुदायारा' अधर्मशीलसमुादचार:-स्वभावत आचरणतश्च ऽधर्मवन्तः 'अयम्मेण च वित्ति कप्पेमाणा' अधर्मेण चैव वृत्तिम्-आजीविका कलायन्त:-कुर्वन्तः 'विहरंति' विहरन्ति. विचरन्ति । ये पुरुषाः सर्वदा एवमेव समाज्ञापयन्ति परिवारान्भृत्यांश्च 'हण छिंद मिद' जहि यष्टयादिना, छिन्धि-खगादिना, भिन्धि-भल्लादिना, 'विगत्तगा' विकर्त्तकाश्च ये प्राण्यङ्गकरचरणादीनाम् 'लोहियपाणी' लोहितपाणया-माणिनां. रक्तेन-रुधिरेण लौहिती पाणी येषां ते लोहितपाणयः, 'चंडा रुद्दा खुदा' चण्डाअतिक्रोधयुक्ता, रौद्राः-भयानकाः, क्षुद्राः-नीचस्वभावकाश्च 'साहस्सिया' साहसिका:-असमीक्ष्य पापकारिणः 'उक्कुंचणचणमायाणियडिकूड कवडसारसंपओगबहुला' उत्कुश्चनवञ्चनमायानिकृतिकूटकपटसातिसंपयोगबहुला:-तत्रोस्कुश्चनं-शूलाधारोपणार्थ प्राणिनामूर्ध्वक्षेपणम् , वञ्चन-परमतारणम् , मायाअधर्म से ही अभीष्ट सिद्धि समझने वाले और अधर्म का ही प्रतिपादन करने वाले होते हैं। उनका जीवन प्रायः अधर्म पर ही स्थित होता है। अधर्म ही उन्हें दिखाई देता है। अधर्म से ही वे संतुष्ट होते हैं और दूसरों को संतुष्ट करते हैं। स्वभाव से और व्यवहार से अधर्मनिष्ठ ही होते हैं वे अधर्म से ही अपनी आजीविका करते हैं। अपने परिवार वालों और भृत्यों को सदा ऐसी ही आज्ञा देते हैं कि-मारो, छेदन करो, भेदन करो। प्राणियों के हाथ पग आदि अब यवों को काट डालते है । उनके हाथ रक्त से रंगे रहते हैं । वे अत्य न्त क्रोधशील, निर्दय दुष्ट स्वभाव और क्षुद्र होते हैं । विना विचारे काम करते हैं । प्राणी को कार उछाल कर शूल पर झेलते हैं, दूसरों અધર્મનું જ પ્રતિપાદન કરવાવાળા હોય છે. તેઓનું જીવન પ્રાયઃ અધર્મ મય જે અવલંબે છે. અધર્મ જ તેઓને દેખવામાં આવે છે અધર્મથી જ તેઓ સંતોષ પામે છે. અને બીજાઓને સંતેષ પમાડે છે હવભાવથી અને વ્યવહારથી અધર્મનિષ્ઠ જ હોય છે. તેઓ અધર્મથી જ પિતાની આજીવિકા ચલાવે છે. પોતાના પરિવાર અને ભૂલ્યને સદા એવી જ આજ્ઞા આપે છે. કે-મારે છેદન કરો, ભેદન કરે, તેઓ પ્રાષ્ટ્રિયેના હાથ પગ વિગેરે અવયથોને કાપી નાખે છે. તેઓના હાથે લેહીથી ખરડાયેંલા રહે છે તેઓ ઘણા જ કોધી નિર્દય દુષ્ટ સ્વભાવવાળા અને ક્ષુદ્ર- હલકા હોય છે, વગર વિચાર્યું કામ કરે છે પ્રાણીને ઉપેસ ઉછાળીને શૂળ પર લે છે, બીજાઓને ઠગે છે. Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् बुद्धिः, गृढमायाकरणं निकृतिः, प्राणिनां प्रारणाय देशभाषानेपथ्यविप-करणं कस्टम्, कूट-कूटतोलनम् कापणतुलापस्थादेः नानाविधकरणम्अवास्तविककरणम्, एतेषां प्रयोगैर्वहुलाः- उक्तकर्म कारकाः 'दुस्सीला' दुःशीला:दुष्टाचाराः 'दुनिया' दुई ना:- दुष्टानि तानि येषां ते तथा प्राणातिवातादिका." रका 'दुपडियाद ।' दुष्प्रत्यानन्दाः - दुःखेन प्रसन्नचेतसः - परपीडया सुखं मन्यमानाः 'असाहू' अप्ताधत्रः - कुत्सिताचरणाः 'सव्वाओ पाणाइवायाओ अयदिविरया जावज्जीवा' सर्वस्मात् प्राणातिपातात् जीवहिंसातः अपतिविरताः -- सर्वदैव जीवहिंसनव्यापाररता : जावज्जीवनम् 'जात्र सन्नाओ परिग्गहाओ अपडिविरया जावनीदाए' यावज्जीवं यावत् सर्वस्मात् परिग्रहात् अप्रतिविरताः जीवनपर्यन्तं परिग्रहं न त्यजन्ति, 'सव्वाओ कोहाओ जान मिच्छादंसण सल्लाओ अप्पडिक्रिया' सर्वस्मात् क्रोधाद् यावद् मिथ्यादर्शनशल्याद् अपतिविरताः, आयुषः समाप्तिपर्यन्तं मिथ्यादर्शनं न त्यजन्ति, 'सव्याभो 'व्हाणुम्मदणवण्णगंध विलेवणसदफ रिसरसरून गंधमल्लालंकाराओ अष्पडिविरया जावज्नीवार' याव - जीवं सर्वस्मात् स्नानोन्मर्दनवर्णकगन्धरिले पनशब्दस्पर्शरूपरसगन्धमाल्यालङ्काको उगते हैं, ठगने का ही विचार करते रहते हैं, गूढ मायाचार करते हैं, भाषा वेष आदि बदल कर लोगों को धोखा देते हैं, कम-ज्यादा नापने तौलने के लिए नाप-त -तोल और तराजू आदि को पलटते रहते हैं । दुष्ट शील वाले होते हैं, दुष्ट व्रतों वाले, परपीड़ा में आनन्द मानने वाले, असाधु-दुराचारी, जीवन के अन्तिम श्वासतक हिंसा आदि पापों से निवृत्त नहीं होते यावत् जीवन पर्यन्त परिग्रह से निवृत्त नहीं होते, सब प्रकार के क्रोध से यावत् मिथ्यादर्शन शल्प से अर्थात् अठारहों पापस्थानों से निवृत्त नहीं होते, जीवन पर्यन्त स्नान मर्दन, वर्णक विलेपन, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, माला, अलंकार आदि भोगोप - २७१ ઠગવાના વિચાર કરતા રહે છે. ગૂઢ માયાચાર કરે છે ભાષા વેષ વિગેરે બદલીને લેાકેાને ઠગે છે. એધુ વસ્તુ માપવા તાળવા માટે માપ તેલ અને ત્રાજવા વિગેરેને ફેરવતા રહે છે, ક્રુષ્ટ સ્વભાવવાળા હાય છે. દુષ્ટ તેાવાળા, બીજાની પીડામાં આનંદ માનવાવાળા અસાધુ-દુરાચારી જીવનના છેલ્લા શ્વાસ સુધી હિંસા વિગેરે પાપૈાથી છૂટતા નથી, બધાજ પ્રકારના ક્રોધથી યાવત્ મિથ્યાદર્શન શલ્યથી અર્થાત અઢારે પાપસ્થાનાથી નિવૃત્ત થતા નથી. लहगी पर्यन्त स्नान, भर्छन, वायु विलेपन शब्द, स्पर्श, ३५, रस गन्ध, માળા, અલ'કાર વગેરે ભાગેાપયેાગના સાધનાના ત્યાગ पुरता नथी, શકટ, રથ, યાન અર્થાત્ જલ, સ્થળ અને આકાશમાં સરખા પણાથી Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ सूत्रकृताङ्ग सूत्रे B , रा अपतिविरताः, निवृत्तिमात्रमकुर्वाणाः 'सव्त्राओ सगड़रहजाण जुग्गगिल्लिथिलि सियासंद माणिया सयणा सण जाणवाहण भोगभोयणपवित्थर विडीओ अध्यडिविरया जानीवाए' सर्वस्मात् शकटस्थ यानयुग्यगिल्लिथिलिलस्यन्दमानिकाशयनासनयानवाहनभोग्य भोजन प्रविस्तर विधितोऽपतिविरताः यावज्जीवनम् तत्र शकटरथो' प्रसिद्ध यानम् - जलस्थलनभो गमनंसाधनम्, युग्यं पुरुपद्वयोत्क्षिप्तमानम्, गिल्लि -पुरुष कामांना दोलिका, थिरिला - कावेसरादि बाह्यपानं शिविका पालकों इग्रन्दमानिका शिविकाविशेषः एतेभ्य स्तथा शयनासनयानवाहनभोग्यभोजनमविस्तार विधिभ्यो वस्तुजातेभ्यः कदाऽपि न वियुक्ताः अपि तु एतेष्वेव संसारकारणेषु यावज्जीवनमोतमोता भवन्ति तेऽनार्याः, 'सव्धाओ कपत्रिकम मासमासवगसंववहाराओ अप्पडिविरया जावज्जीवए' सर्वस्मान् क्रय-विक्रय मापार्श्वमाप-रूपक - (तोला) आदि संव्यवहारादमतिविरताः यावज्जीवनम्, तथा 'साओ हिरण्णसुवण्णघणघण्ण मोत्तिय संख सिलप्पवाळाओ अप्पडिचिरया जाव जीवाप' सर्वस्मात् हिरण्य - रजत सुवर्णधनद्विपदचतुष्पदा दिधान्यमणिमौतिक भोगों का त्याग नहीं करते। शकट रथ, यान अर्थात् जल, स्थल और आकाश में समान रूप से काम आने वाला साधन, युग्य-जो यान दो पुरुषों द्वारा उठाया जाता है, गिल्लि अर्थात् पुरुषों के कंधों द्वारा वहन करने योग्य डोली, थिल्ली अर्थात् खच्चरो आदि द्वारा वहन करने योग्य यान, शिक्षिका अर्थात् पालखी, स्यन्दमानिका - विशेष प्रकार की पोलखी का जीवनपर्यंत कभी त्याग नहीं करते हैं और इन्हीं संसार के कारणों में निरन्तर संलग्न रहते हैं । जीवन के अन्त पर्यन्त क्रय-विक्रय से निवृत्त नहीं होते और माषा, आधा माषा, रुपया आदि काही व्यवहार करते रहते हैं । अन्तिम श्वास पर्यन्त वे हिरण्य, स्वर्ण, કામ આવનારા સાધન જેમકે-યુગ્મ—જે ચાન-વાહન એ પુરૂષા દ્વારા ઉપાડી શકાય છે, ગિલિ અર્થાત્ પુરૂષાના ખભે ઉપાડવા લાયક વાહન ડૉલી ચિલ્લી અર્થાત ખચ્ચરો વિગેરેથી વહન કરવા ચેાગ્ય વાહન શિખિકા-અર્થાત્ પાલખી યન્તમાનિકા–વિશેષ પ્રકારની પાલખીના જીંદગી સુધી ત્યાગ કરતા નથી. અને આવા જ સ'સારના કારણેામાં હમેશાં લાગી રહે છે. જીવનના અંત સુધી તે કૅય, ક્રિયથી નિવૃત્ત થતા નથી, માષા અમાષા રૂપિયા વિગેરેના જ વ્યવહાર કરે છે તેએ અતિ શ્વાસ પર્યન્ત હિરણ્ય, સ્વ, ધન, द्वियह-मे युगवाणा, यतुष्यह-यार युगवाजा, धन, धान्य, भणि, भौति Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समार्थबोधिनी टीका द्वि. थु. अ. २ क्रियास्थान निरूपणम् २७३ शंखशीलप्रवालाद प्रतिविरता यावज्जीवनम् तत्र हिरण्यं - रजतं, सुवर्ण प्रसिद्ध धनं द्विपदचतुष्पदादिकं धान्यं त्रीहियवादिकम्, मणिः- चन्द्रकान्तादिः, मौक्तिकं गजमुक्ता, शिला-पाषाणविशेषः, प्रवालं विद्रुमं (मृङ्गा) लोकप्रसिद्धम् एभ्योऽमतिविरताः - अनिवृत्ताः यावज्जीवनम् 'सच्चाओ कूडतुलकूटमाणाओ अवडिविरया जावज्जीवाए' सर्वस्मात् कूटतुलकूटमानाद् अपतिविरता याववज्जी; नम् 'साओ आरंभसमारंभाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए सर्वस्माद आरम्भसमारम्भादमतिविरता यावज्जीवनम् ' सवाओ करणकारावणाओं अडिविरया जावज्जीवाएं सर्वस्मात् करणकारणात् अमतिविरता यावज्जी वनम्, जीवनपर्यन्तम्- सर्वेभ्यः सावध कर्मभ्यो न स्वयं निवर्त्तन्ते नवाऽन्यं निवर्त्त यन्ति । 'सव्बाओ पयणपयावणाओ अप डिविरया जावज्जीवाए' सर्वस्मात् पचनपाचनादिसावय क्रियातोऽपतिविरता यावज्जीवनम् 'सन्जाओ कुनपिट्टतज्ञ्जण ताडणवहवंधण परिकिलेसामो अध्वडिचिरया जावज्जीवाए' सर्वस्मात् कुट्टन - पिन वर्जन- वाडन-वध-बन्धन - परिक्लेशाद् अप्रतिविरता यावज्जीवनम् तंत्र - कुट्टनं- यष्यादिना, पिट्टनं - हस्तादिना - वर्जनम् - अङ्गुल्यादिना, ताडनं यष्टिमुष्टयादिभिः वधः खङ्गादिना बन्धनं-रज्ज्यादिना एभ्योऽमतिविरताः- अनिवृत्ताः, ر 2 धन, द्विपद, चतुष्पद, धन धान्य, मणि, मुक्ता, इखि, शिला, प्रवाल आदि बहुमूल्य वस्तुओं का त्याग नहीं करते । जीवन भर कूडे तोल और कूडे नाप से निवृत्त नहीं होते । सब प्रकार के आरंभ-समारंभ जीवन पर्यन्न करते रहते हैं । अन्तिम दम तक न स्वयं पाप कर्मों से निवृत्त होते हैं और न दूसरे को निवृत्त होने देते हैं । जीवन पर्यन्तपचन पाचन आदि सावध क्रियाओं से निवृत्त नहीं होते । लकड़ी आदि से कूटने, हाथ आदि से पीटने, उंगली आदि से धमकाने, लाठी आदि से ताडन करने, खड्ग आदि से वध ( मारने) करने एवं रस्सी आदि से शम, शिक्षा, अवास, विगेरे महु भूल्य - डीमती वस्तुओ ने त्याग उरता नथी, જીદગીપર્યંત ખાટા તાલ અને ખાટા માપથી છૂટતા નથી, બધા પ્રકારના આરંભ સમારભ જીવન પર્યન્ત કરતા રહે છે. છેલ્લા શ્વાસ સુધી `પાતે પાપકમાંથી છૂટતા નથી અને ખીજાઓને છૂટવા દેતા નથી. જીવન પર્યન્ત પચન-પાચન વિગેરે સાવદ્ય ક્રિયાએથી છૂટના નથી લાકડી વિગેરેથી ફૂટવા હાથ વિગે રથી પીટવા આંગળી વિગેરેથી ધમકાવવા, લાકડી વિગેરેથી મારવા,' તલવાર વિગેરેથી વધ (મારવા) કરવા અને દોરી વિગેરેથી બાંધવાથી કયારેય પણ सु० ३५ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतान २७५ 'जे जावन्ने तपगारा सावज्जा अवोदिया कम्मता परपाणपरियावणकरा ये वाऽन्ये तथाप्रकाराः सावद्याः अवोधिकाः कर्मसमारम्भाः परमाणपरितापन कराः, एतद्व्यतिरिक्ता ये तेषां कर्ममयोजकाः अयोधिकाः अन्येषां जीवानां परिपीडनकारकाः 'जे अगारिएहि कति त अप्पडिविरया जावज्जीवाए' ये च कर्मसमारम्भाः पाणिपरितापनकरा अनायें। क्रियन्ते, ततस्तेभ्यो व्यापारेभ्योऽपतिविरता भवन्ति यावज्जीवनम् - ते विविधा मनुष्या भुवि वसन्तः, 'से जहाणाम फेइ पुरिसे' तद्यथानाम केचित्पुरुपा- 'कलमममूर तिलमुग्गमास निष्फाव आसिंद परिमंथगमाइएहिं कलम- मसूर - तिल-मुद्र- माप-निष्पाव- कुलस्थाssलिसन्दकपरिमन्धादिकेषु तत्र - कलमा उत्तमास्तण्डुला, मसूर विलमुद्गमाषाःलोकमसिद्धाः निप्पावाः - धान्यविशेषाः 'आलिसन्दकाः- धान्यविशेषाः, परिम स्थकाः - प्रान्यविशेषाः कृष्ण चणका इत्यर्थः एतेषु धान्यविशेषेषु 'अयं ते कुरा' मिच्छादंडं पवि' अत्यन्तं क्रूरा मिध्यादण्डं प्रयुञ्जन्ति तत्र अत्यन्तम् - अतिशयं क्रूरा:-घातकाः मिथ्यादण्डम् अपराधं विनैव तेषु कलमादिषु जीवेषु अन्यथा दण्डं प्रयुञ्जन्ति कुर्वन्तीत्यर्थः, 'एवमेव तदप्पगारा पुरिसजाया एवमेत्र तयामकाराः बांधने से कभी निवृत्त नहीं होते। इनके अतिरिक्त दूसरे प्राणियों को परिताप पहुँचाने वाले, सावद्य एवं अयोधि जनक जो इसी प्रकार के कार्य हैं, जो अनार्य पुरुषों द्वारा किये जाते हैं, उनसे भी वे निवृत्त नहीं होते हैं । ऐसे मनुष्य एकान्त अधर्मस्थान के सेवी कहे गए हैं। कोई पुरुष कलम ( उत्तम जाति के चावल), मसूर, तिल, मूंग, उडद, निष्पाव, कुलधी, अलिसन्दक, परिमन्धक ( काला चना ) आदि 'धान्यों के प्रति निर्दय या अयतनावान् होकर निरर्थक ही दंड का प्रयोग करता है अर्थात् उनका घात (विराधना) करता है । છૂટકારો પામતા નધી. આ શિવાય ખીન્ન પ્રાણિયાને સતાપ પડેાંચાડવાવાળા સાવદ્ય અને અત્રેાધિ જનક આવા જ પ્રકારના જે કાર્યાં છે, કે જેનું સેવન અનાય પુરૂષા કરે છે તેનાથી પણ તેઓ છૂટક રો મેળવતા નથી. એવા માણુસા નિશ્ચયથી અધર્મનું આચરણ કરવાવાળા કહેવાય છે. अर्थ यु३ष उदास (सारी जतना योमा) मसूर, तत्र, भग, मउ, निष्पावं, उजयी, मालिसन्हा (धान्य विशेष ) परिमन्य (आज यादा) विगेरे ધાન્યા તરફ નિર્દય અર્થાત્ અયતના વાળા બનીને વિના પ્રચૈાજનથી જ हुड़ना उपयोग ३रे छे. अर्थात् तेमनी घात (विराधना ) ४२ छे. Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् २७५ प्राणांतिपातकारिणोऽन्येऽपि पुरुष नाता', 'तित्तिरवहरुलापकोयकविजलचा यगमियमहिसवाराहगाहगोदकुम्मसिरिसिवमाइए हिं' तित्तिरवर्तकलावककपोतकपिजलवात कमृगमहिपराहग्राहगोधाम-कच्छपसरीसृगादिकेषु, तत्र तित्तिरादिपक्षिविशेषेषु, तया-गादिपशुषु विविधप्राणिपु 'अयं ते कूरा मिच्छादंडं पउंति एषु जीवेषु ते अत्यन्तं क्रूराः मिथ्यादण्डं प्रयुनन्ति । 'जा वि य से वाहिरियो परिसा भवई' याऽपि च तेषां बाह्या परिषद्भवति, तेषामनार्याणां योऽपि बाह्यः परिवारः स वक्ष्यमाणरूपो भवनि, 'तं जहा' तद्यथा-'दासेइ वा' दास इति वा पेसेइ वा प्रेष्य इति वा, तत्र दासो जळबहनादिकर्मकरः, यो ग्रामाद ग्रामान्तरं मेषयितुं योग्या, 'भयएडवा' भृत्य इति वा-वेतनोप मोगी 'भाइल्लेइ वा' भागिक इति वा-भागमादाय क्षेत्रादौ कार्यकारीति चा, 'कम्मकरएइ वा कमकर इति वा-साधारण्येन कार्यकर्ता 'भागपुरिसेहवा' भागपुरुष इति वा-भोग्यवस्तूनां सम. पंक: 'तेसि पि य णं अन्नयरंसि वा तेपा-भत्यानामपि च खल्लु अन्यतरस्मिन् वा, इसी प्रकार के हिसाकारी और भी पुरुष होते हैं जो तीतर, बतक, लावक, कपोत, कपिजल, मृग, महिष, शुकर, ग्राह, गोह, कूर्म, सरीसृप आदि पक्षियों पशुओं और जलचर आदि प्राणियों के प्रति अयत. नावान् एवं निर्दय होकर निष्प्रयोजन ही दंड का प्रयोग करते हैं। ____उन अनार्य अधर्मी पुरुषों की जो बाह्य परिषद-परिवार होती है, जैसे कि-दास (जल आदि लाने का काम करने वाला गुलाम), प्रेष्य (एक ग्राम से दूसरे ग्राम में भेजने योग्य कर्मचारी) भागिक खेती आदि में हिस्सा लेकर काम करनेवाला), कर्मचारी 'सामान्य कार्यकर्ता और भोग पुरुष (भोग्य वस्तुएं लाकर देने वाला), इन में से किसी का कारण वश छोटा-सा अपराध हो जानेपर वह अधर्मी એજ પ્રમાણેના હિંસા કરનારા બીજા પણ પુરૂષે હોય છે, જેઓ તેતર, सत, मूतर, पिंत, भृग-३२-लेस, २४२, भघर, । अयमा-सरिस५ -સર્પ વિગેરે પક્ષિય પશુઓ અને જલચર પ્રણિયે વિગેરે પ્રત્યે અયતનાવાન અને નિર્દય થઈને વિના પ્રજન જ દંડને ઉપગ કરે છે. અર્થાત્ મારે છે. તે અનાર્ય અધમ પુરૂષની જે બાહ્ય પરિષદુ પરિવાર હોય છે, જેમ . -हास (पाणी वगैरे सानु म ४२वा शुखाम) मानि४ (मति વિગેરેમાં ભાગ લઈને કામ કરવાવાળા) કર્મચારી-(સામાન્ય રીતે કમ કરવાર) અને ભેગ પુરૂષ (ગ્ય વસ્તુ લાવીને આપનારા) તેમાંથી કોઈને Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭૬ सूत्रकताङ्गसूत्र 'अहालहुगंसि अवराहसि' यथालघुकेऽपि अराधे कारण प्रशान्लाते सति 'सयमेव स्वयमेव-सोऽनार्यः ‘गरुयं दंड निवत्तेइ लघावधि अपराधे न अपराधानुकूलम् अपितु-ततोऽपि अधिकं दण्डं नियच्छति ददातीत्यर्थः, कीदृशान् दण्डान निर्वतयति तादृश पकारं दर्शयति-'तं जहा' तथा 'इमं दंडेह' इमं दण्डयत सर्वस्वापहरणेन, 'इमं मुंडेढ' इमं मुण्ड यत-मुण्डनं कारयत, 'इमं तज्जेह' 'इमं तर्जयत, तर्जनम्-अङ्गुलीनिर्देशपूर्वकं कटुवाचा भसनम्, 'इमं तालेह' इमं ताडयत-दण्डादिना चपेटादिना वा, 'इम अदुयबंधगं करेह' इमम् अन्दकवन्धनं कुरुत, अन्यते वध्यतेऽनेन इत्यन्दकः (हथकडी) ति भापायां तेन बन्धनं नियन्त्रणं यस्य तथाभूतं कुरुत, भुनी अष्टभ्य पृष्टं आरोप्य वन्धयत, 'इमं नियडवंधण करेह' इमं निगडवन्धनं कुरुत निगढेन 'वेडीति' प्रसिद्धेन बन्धनं यस्य तया भूत कुरुत-हस्तयोः पादयोस्त्वायसीं शृङ्खगं बन्धयत 'इमं हडिवंधणं करेह' इमं हाडी वन्धनं कुरुर-खोटवन्धनं (खोड।) इति लोकपमिद्धं कुरुतु, इमं चारगबंधणं करेह' इमं चारकवन्यनं कुरुत-करागृहे बन्धनं कुरुन, यावता वन्धनेन वद्वोऽपि यथा कथञ्चित् सातिकष्ट चलति-सखठति च, वाहपन्धन चारकपन्धनम् 'इमं नियडजुगलसंकोचियमोडियं करेह' इमं निगडयुगलसङ्कोचितमोटितम् कुरुत, निगडस्य युगलं युग्मं तेन पूर्व सङ्कुचितः पश्चाद् मोटितः-कुटलीकृतस्तथा कुरुत पुरुष उन्हें भारी दंड देता है। अर्थात् दंड देने के लिए कहता है-इसे दण्डित करो-मारो, इसका मस्तक मुंहलो, इसकी तर्जना करो-इसे धमकाओ, भर्त्सना करो, इसे डंडे लगाओ, इसे हथकडियां पहना दो अर्थात् हाथ पीछे करके यांध दो, इस के पैरों में वेडियां डालदो, इसे हडि (खोडे) में डालदो इसे कारागृह में बंद कर दो, अर्थात् ऐसे बन्धन में डालदो कि इसका चलना-फिरना कठिन हो जाय एवं चलते-चलते 'गिर पडे, इसके दोनों हाथों को दो वेडियों से बांधकर मरोड दो जिससे એક નાનું સરખે કારણ વશાત્ અપરાધ થઈ જાય તે તે અધમ પુરૂષ तक मारे शिक्षा ४२ छ, त... आपका भाट ४३ -मान 3 ४0;भारी, भानु भाथु भुवी ना. माना ति२२४१२ ४२, मान भी , નિંદા કરે, આને દંડા લગાવે, આને હાથકડી પહેરાવી દે અથત હાથ પાછળ બાંધી દે. આના પગમાં બેડી નાખે. આને હડીમાં નાખે; , આને જેલમાં પૂરી દે, અર્થાત્ એવા બંધનમાં નાખે કે આનું ચાલવું, કરવું, કઠણ થઈ જાય, અને ચાલતા ચાલતા પડી જાય, આના બંને હાથને બે બેડિયેથી બાંધીને મરડી નાખો. જેથી તેના હાથ તૂટી જાય, આના હાથ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् शृङ्खलाद्वयेन बद्धाङ्गानि-तथा संकोचयत-यथाऽयं भग्नमायगात्रः स्यात् । 'इमं हस्थछिन्नयं करेह' इमं हस्तच्छिन्न कुरुत-हस्तौ-फरौ छिन्नौ-कतितो यस्य तंतथाविधं कुरुत, हस्तौ कत्र्तयतेत्यर्थः । 'इयं पायछिन्नय करेह' इमं पादच्छिन्नक कुरुत । 'इमं कन्नछिन्नयं करेह इमं कर्णच्छिन्नकं कुरुत । 'इमं नक्कमोहसीसमुह छिन्नय करेह' इमं नासिकौष्ठशीप मु वच्छिन्न कुरुत । नासिकादीन् कर्तपतेति यावत् 'इमं वेयणछिन्नयं' इमं वेदकच्छिन्नक-पुरुपचिह्नकं कर्तयत, "आछहियं पक्खाफोडियं करेह' अङ्गच्छिन्न पक्षस्फोटितं कुरुत, अङ्गं कर्तयत कशया प्रताड्य चमें निःसारयतेति यावत् । इमं णपणुप्पाडिय करेह' इमं नयनोत्पाटितं कुरुतअद्य नेत्रद्वयं निष्काशयत। 'इमं दसणुप्पाडिय वसणुप्पाडियं निभुप्पाडियं ओलंवियं करेह' इमं दशनोत्पाटितं वृषणोत्पादितं जिह्वोत्याटिनमविलम्बितं कुरुत, अस्यदन्तानुत्पाटयत, अस्य जिह्वामुस्पाटयत, अस्याण्डकोशमुगटया शीघम् रउज्या. दिना कण्ठे बघा वृक्षादौ अधोमुखमेश लम्बयत 'घसियं करेह' घर्पितं कुरुतकाष्ठादिवद् घर्षिताङ्ग कुरुत, 'घोलियं करेइ' घोलित-दधिवत् मथितं कुरुत, 'मलाइयं करेह' शूलान्वितं-शूलोपरि-समारोपितं कुरुत, 'मूळामिन्नयं करेह' शूलाऽऽभिन्नकं कुरुत-एतस्य शरीरं शूलेन आ-सर्वतोभावेन विदारयत । 'खारवत्तियं करेह' क्षारवत्तिनं कुरुत-ताडिताङ्गबणे क्षारं-लवणं क्षिपत-येनाऽस्य हाथ टूटने लगे, इसके हाथ काट डालो पांव काट डालो, इसके कान काट डालो, इसकी नाक होठ, सिर या मुख काट लो इसकी पुरुषेन्द्रिय काटलो, इसके अंग काटकर कोडे मार-मार कर चमडी उघडलो, इसकी दोनों आंखे निकाललो, इसके दांत उखाडलो, इसकी जीभ खींचलो, इसके अंडकोष उखाड़ डालो, इसके गले में रस्सी बांध कर पेड आदि से औंधे मुंह लटका दो, इसके शरीर को रगड़ दो-काष्ट आदि के जैसे घिस दो, दही के जैसे मथ डालो, इसे शूली पर चढा दो, शूली से वेध दो, ताड़ना से हुए उसके घावों पर नमक छिडक दो, इसे કાપી નાખે, પગ કાપી નાખે, આના કાન કાપી નાખે, આનું નાક હેઠ માથું, અથવા મુખ કાપી લે, આની પુરૂષેન્દ્રિય કાપી નાખે. આના અંગે કાપી લે, આને 'ચાબુકને માર મારે. આને મારી મારીને તેની ચામડી 'ઉખેડી લે, આની બને આંખે કહાડી લે આના દાંતા ઉખાડી લે, આની જીભ ખેંચી લે, આના અંડકે ષ ઉખેડી નાખે, આના ગળામાં દોરડું બાંધીને ઝાડ પર ઊંધે માથે લટકાવી દે આના શરીરને રગડે અથત લાકડાની જેમ ઘસડે. દહીંની જેમ મંથન કરે. આને શૂળીયે ચડાવી દે શૂળીથી વીધી નાખે, મારવાથી થયેલા તેના ઘા ઉપર મીઠું ભભરાવી દો. આને વધસ્થાને Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ सूत्रकताको महती व्यथा भवेत् । 'वज्झ पत्तियं करेह' तिनं कुरुत, वपस्थानं नीता मारयत, 'सीहपुच्छि पर्ग करेह' सिंहपुन्छ गत सिंहपुच्च्या कुहा, 'वसमा पुच्छियगं करेह' तृपभपुच्छगनं कुरुत-पमस्य पुच्छेऽस्य बन्धनं कुरुत । 'दक्षग्गिदयंग कागणिमंसवावियंगं भतपाणनिरुद्वगं करेह' दावाग्निदग्धा काकाली. मोसरवादिताङ्ग-काकणी-कपर्दिका तत्तुलयमेतन्मांमं कन्या काकेभ्यो दीयताम्, भक्तपाननिरुद्धकं कुरु |-अनजदयं निरोध पत 'इमं जावज्जी वयणं करेह' इमं यावज्जीवे वधयन्धन कुरु -जीवनपर्यन्त कारागारे स्थापयत । 'इमं अन्नयरेणं असुभेणं कुमारेणं मारेह' इनमन्यवरेणाऽशुभेन कुमारेण मारयत-कुत्सित म्हपेण भल्लादिभेदनलक्षणेन मारयित्वा जीवनरहितं कुरुत, एवं रूपेण इमे करा जीवोपमदं कुर्वन्ति इति । एतेपो (पुपाणां बाह्य परिवारविषये कथितम्, सम्मति -आन्तरपरिवारविषये आइ-जा विय से अमितरिया परिसा भवई' याऽपि च तस्य-पूर्वेप्रदर्शितकराऽधमपुरुषस्य-आभ्यन्तरिकी-अभ्यन्तरक्षा परिषद्भवति, परि. वारो भवतीति । 'तं जहा' तद्यथा 'मायाइ वा मातेति वा 'पियाइ वा पितेति वध भूमि में ले जाकर मार डालो इसे सिंह की पूंछ से बांध दो, घेल की पूंछ से पांध दो, इसके अंग आग से जला दो, इसके शरीर के मांस के कौडी जितने टूकडे कर-करके कौवों को खिला दो, इसका खाना-पीना बंद कर दो, इसे आजीवन कारागार में बंद रक्खो, इसको किसी बुरी मौत से मारो, अर्थात् भाला आदि से पींध पींध कर इसके प्राण ले लो, इन अधार्मिक पुरुषों का अपनी याह्य परिषद के प्रति ऐसा अतिशय क्रूर व्यवहार होता है। आभ्यन्तर परिषद के प्रति किस प्रकार का व्यवहार होता है सो अब कहते हैं पूर्वोक्त पापी पुरुष की अन्यन्तर परिषद होती है अर्थात भीतरी परिवार होता है। वह परिवार यह है-माता, पिता, भ्राता, भगिनी લઈ જઈને મારી નાખે આને સિંહના પૂછડે બાંધી દે બળદના પૂછડે બાંધી દે. આનું શરીર અગ્નિથી બાળી નાખે આખા શરીરના માંસના કેડી જેવડા કકડા કરી કરીને કાગડાઓને ખવરાવી દે, આનું ખાવું પીવું બંધ કરી દે, આને જીદગી સુધી જેલમાં પૂરી રાખો, આને કઈ ખરાબ મેતથી મારે, અર્થાત્ ભાલા વિગેરેથી વીંધી વધીને આને જીવ લઈ લે. આ અધર્મી પુરૂષે પિતાની બાહ્ય પરિષદ પ્રત્યે આ અત્યંત ક્રૂર વ્યવ હાર કરતા હોય છે. તે હવે બતાવે છે પૂર્વોક્ત પાપી પુરૂષની અભ્ય તર પરિષદુ હોય છે. અર્થાત આંતરિક परिवार डाय छे. ते परिवार भी प्रभारी साय छे.-साता, पिता, als, Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् ૨૨ ब्रा जननीजनको 'भायाइ वा' भ्रातेति वा 'भगिणीइ वा' भगिनीति वा सर्वत्र वा शब्दश्चार्थे च शब्द समुच्चयार्थकर, 'भज्ना इवा' गार्येति वा 'पुताई वा' पुत्रा इति वा - औरसाः कृत्रिमाः वा 'धूयाइ वा सुपहाड़ वा' दुहितरो वा स्तुपा वा तत्र कुहिवर:- पुत्रयः स्नुषा-पुत्रवधूः, इति यावत् प्रदर्शितः परिवारः, सम्मति एतस्य दमकारं दर्शयति-यदा खच क्रूरकर्मा कुप्यति तदा - स्वल्पं वा महान्तं वाड़पराधम् अविगणय्य महद्दण्डमेव प्रयच्छति, तदेव दर्शयति- 'तेसिपि यणं अन्नयस अहास अहसि सयमेव गरु दंडं णिवचेह' तेषां च - आन्तरि काणां मातापितृभृतीनाम्-अन्यतरस्मिन् लघुकेऽवि अपराधे स्वयमेव स क्रूरकर्मा तान् दण्डं निर्वर्तयति - तेषु दण्डान् योजयति 'सीमोदगवियसि उच्छोलिता भवर' शीतोदकविकटे - उत्क्षेप्ता भवति शिशिरे शीत जलहदादौ निक्षिपति, निदाघे च चप्ते पयसि निक्षिपति 'जहा मित्तदोसवत्तिए जाव' यथा मित्रदोषवत्ययिके यावत् मित्रदोषप्रत्ययिकपकरणे ये दण्डाः प्रदर्शिता स्वानेव दण्डान् ददातीति, एवं कुत्सिताचारमवन्नः सन् 'अदिए' अहितः, यो हि न हितो मातृमभृतीनामपि भार्या औरस या दत्तक आदि पुत्र, पुत्री, पुत्रवधू आदि । जब वह क्रूर पुरुष इनमें से किसी पर कुपित होता है, तब अपराध छोटा है या बड़ा, इस बात की परवाह न करके गुरुतर दंड ही उन्हें देता है । यही बात सूत्रकार कहते हैं उनका छोटासा अपराध होने पर भी उन्हें भारी दंड देता है, जैसे - शीतकाल में उन्हें ठंडे पानी में डाल देता है, इत्यादि उन सब दंड प्रकार का कथन यहाँ करना चाहिए जो मित्रद्वेष प्रत्यधिक क्रियास्थान में गिनाये हैं । इस प्रकार का आचरण करनेवाला पापी पुरुष अपना भी अहित ખડેન શ્રી સગા કે દત્તક પુત્ર, પુત્રી, પૂત્ર વધૂ, વિગેરે જ્યારે તે ફ઼ર પુરૂષ એમના પૈકી કાઇના પર ક્રોધ યુક્ત અને છે, ત્યારે તેને અપરાધ નાના હાય કે મેટા હાય તે તરફ લક્ષ્ય ન કરતાં તેને ભારે શિક્ષા જ કરે છે. હવે એજ વાત સૂત્રકાર ખાવે છે તેના નાના સખા અપરાધ થાય ત્યારે પણ તેને ભારે ક્રેડ કરે છે, જેમ કે—ઠંડીની મસમમાં તેને ઠંડા પાણીમાં નાખે છે વિગેરે તે સઘળા દડાનું કથન અહિયાં કરવું જોઈએ, કે જે મિત્ર દ્વેષ પ્રત્યચિક ક્રિયાસ્થાનમાં ગણાવવામાં આવેલ છે. આવા પ્રકારનું આચરણુ કરવાવાળા પાપી પુરૂષ પેાતાનું પણ અહિત - Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० सत्रता कृते-स सर्वेषामपि अहित एव ज्ञेयः, इत्थंभूतः सः 'परंसि लोगंमि' परस्मिन् लोके, इतः प्रेत्य परलोकं प्राप्य स्वकृतकर्मफलप्रहित मेव भुक्ति-बहुवचः नात्तथा दर्शयति-'ते दुखंति' परलोके दुख्यन्ति-शारीरिक-मानसिक कष्टं प्राप्नुवन्ति, सोयंति' शोचन्ते-दैन्यमा माप्नुवन्ति, 'तिपति' तिप्यन्तिअश्रूणि विमोचयन्ति पिटंति' पीड्य ते-मुद्रादिघातेन पीडामुत्पादयन्ति, 'परि.. तपति' परितप्यन्ति-विविधताप-ज्वरनेत्रशूलादिकं प्राप्नुवन्ति, 'ते दुवावग-' सोयणजूरणतिपणण्टिनपरितापनववषणपरिकिले साओ अपडिविरया भवंति' ते दुःख नशोचनजूरणतेपनपिनारितापनवधयन्धनादिपरिकले शेभ्योऽपतिविरता भवन्ति; तत्र-दुःखनं-दुःखोत्पादनं शोचनं -शोकोत्पादन, जूरणं-दुर्वलीकरणं, तेपनम्-अश्रुक्षरणोत्पादनं, पिट्टनं-मुद्रादिना हनन, परितापनं-सर्वतस्तापस्योत्पादनं, वधो-घाता, बन्धन-निगडादिना एतेभ्यः परिक्लेशेभ्योऽपति. करता है और दूसरों का भी। जो अपने माता-पिता का भी हित नहीं करता, वह दूसरों का क्या हित करेगा? ऐसे पुरुष जब इस भव को त्याग कर परभव में जाते हैं तो अपने कर्मों का अहितकर फल ही भोगते हैं। वे परलोक में दुःखी होते हैं, शारीरिक और मानसिक कष्ट भोगते हैं। दीनभाव को प्राप्त होते हैं, शोक की अधिकता के कारण उनका शरीर जीर्ण हो जाता है। वे आंसू बहाते हैं, पीड़ित होते हैं, विविध प्रकार से संतप्न होते हैं-ज्वर एवं नेत्र शूल आदिको प्राप्त होते हैं। वे दुःख, शोक, जूरण, तेपन (रुदन) पिटन, परितापन, वध और बन्ध आदि क्लेशों से निवृत्त नहीं होते हैं-उन्हें यह सब कष्ट बार-बार भुगतने पड़ते हैं। ન કરે છે. અને બીજાઓનું પણું અહિત કરે છે, જે પિતાના માતા, પિતાનુ પણ હિત કરતા નથી, તે બીજાઓનું શું હિત કરી શકે? આવા પુરૂષ જ્યારે આ ભવ ત્યાગ કરીને પરભવમાં જાય છે, તે પિતાના કર્મોનું અહિત કુળ જ ભોગવે છે. તેઓ પરલેકમાં દુઃખી થાય છે. શરીર સંબંધી અને માનસિક દુઃખ ભોગવે છે. દીનપણને પ્રાપ્ત થાય છે. શોકના વિશેષ પણાના કારણે તેનું શરીર શિથિલ બની જાય છે. તેઓ આંસુ સારે છે. પીડ પામે છે, અનેક પ્રકારના સંતોષવાળા બને છે વર અને નેત્રશૂલને प्रापत ४२ छ. तगा हु. ४, २६, तपन (२७) पिट्टन, परितापन વધ અને અન્ય વિગેરે કલેશોથી નિવૃત્ત થતા નથી, તેઓને આ બધા કટ્ટ વારંવાર ભેગવવા પડે છે. Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् ૨૮૨ विरता-अपरिमुक्ता भवन्ति, 'एवमेव ते इथि कामे हिं' एषये पते-पुरुषाऽधमा:स्त्रीकामेषु भोग्यविषयेषु 'च्छि पा गिद्धा गहिया अन्झोक्यन्ना मूच्छिता:-समासक्ताः, गृद्धा:-अत्यन्तं तद्विपयकेच्छावन्तः, ग्रथिता:-गृद्धि भावमुपगताः, अध्यु: पपन्ना स्तस्मिन्नेव विषये लीनाः 'जाव' यावत् 'वासाई' वर्षाणि 'चउपचमाई छहसमाई' चतुः पञ्च षड् दश वा वर्षाणि ततः 'अप्पयरो वा भुन्जयरो वा' अल्पतरं ना भूयस्तरं वा 'कालं' कालम् 'भोगभोगाई भुं जितु' -भोग्यभोगान् भुक्त्वा 'वेरायतणाई वैरायतनानि इन्यमानजीवसमुदायः सह वैरभावान् 'पविसुइत्ता' पविस्य समुत्पाघ, 'वहूई पाबाई कम्माई संचिणित्ता' वहूनि पापानि कर्मणि सावधनीव. वधेन पापकर्माणि संचित्य-एकत्रीकृत्य 'उस्सन्नाई उत्सन्नानि-बहुलार्थवोधको. देशीयशब्दः तेन वाहुल्येन संचित्य 'संभारकरेण कम्मणा' सम्भारकतेन कर्मणा, तत्र सम्भारः बहुदलिकसंयोगस्तेन कृतेन सम्पादितेन कर्मणा-अशुभमभारेण युक्ताः सन्तोऽधोगतिं गच्छन्ति । 'से जहाणामए तद्यथानाम 'अयोगोलेइ वा' अयोगोलको वा-लोहपिण्डो वा 'सेलगोलेइ वा' शैलगोलको वा-पर्वतखण्डो वा 'उदगंसि पक्खित्ते समाणे उदके पक्षिप्तः सन् 'उदगतलमइवइत्ता' उदकतलमति. वर्त्य-जलं विभिद्य 'थहे धरणितलपइट्ठाणे मवई' अधो धरणितलपतिष्ठानो भवति, इसी प्रकार वे अधम पुरुष स्त्री संबंधी कामभोगों में आसक्त होते हैं, अत्यन्त अभिलाषावान् होते हैं, गृद्ध होते हैं और तल्लीन होते हैं। वे यावत् चार, पांच, छह या दश वर्षों तक अथथा इनसे भी कम या अधिक काल तक लोगों को भोग कर वैरायतनों को अर्थात् मारे हुए प्राणियों के साथ बैर बांध कर, विपुल पाप कर्मों का संचय करके, बहुत अधिक पाप एकत्र करके, अशुभ कर्मों के भार से युक्त होकर अधोगति में जाते हैं। जैसे लोहे का गोला या पर्वत खण्ड पानी में छोडा जाय तो वह पानी को खेद कर ठेठ नीचे जल के એજ પ્રમાણે તે અધમ પુરૂષ સ્ત્રી સંબંધી કામગોમાં આસક્ત રહે છે. અત્યંત અભિલાષા વાળા હોય છે, પૃદ્ધ હોય છે, અને તલ્લીન હોય છે. તેઓ યાવત્ ચાર, પાંચ, છ અથવા દસ વર્ષે પર્યન્ત અથવા તેનાથી પણ ઓછા અથવા વધારે કાળ સુધી ભોગને ભોગવીને વેરના સ્થાનને અર્થાત્ મારેલા પ્રાણિઓની સંગ્રહ કરીને ઘણા વધારે પાપો એકઠા કરીને અશુભ કર્મોના ભારથી યુક્ત થઈને અધોગતિમાં જાય છે. જેમ લેખંડને ગોળે અથવા પર્વતને ખંડ પાણીમાં છોડવામાં નાખવામાં આવે તે તે પાણીને ભેદીને ઠેઠ નીચે પાણીના તળીચે પહોંચીને ઉભે રહે છે. Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DD HILTID २ सूत्रकृताङ्गरसे यथाऽयोगोलको जले मक्षिप्तः सन्-जलं विभिद्य पृथिवीतलपतिष्ठितं भवति, न तत अध्वं गच्छति, एवमेव तहप्पगारे पुरिसजाए' एवमेव तथापकार: तादृशः पापमारा. क्रान्तः पुरुषजातः पुरुषाऽधमा 'रजबहुले' पर्यायवहुलः अवद्यबहुलः सावधकर्मपहुलइत्यर्थः 'धृतबहुले' धूतबहुल:-धूननं धूतं कर्मक्लेशकरणं माणातिपातादि, तेन बहुली पंकवहुले' पङ्कबहुलोऽधिकपापवान् 'वेरबहुले' वैरबहुल:-कृताधिकपापेन जीववैरबहुला 'अप्पत्तियवहुले अपत्ययवहुल:-मृपावादी 'दंभवहुले' दम्भवहुल: -दम्भ:-कपटस्तबहुल: 'नियडियहुले निकृतिबहुल:-निकृतिर्मायासहितः कपटस्तेन बहुल: 'साइबहुले' सातिवहुला-उत्कृष्ट वस्तुषु अपकृष्टवस्तूनि मिश्रीकृत्य तद्विक्रेता 'अयस बहुले' अयशो बहुल:-अकीर्तिबहुल? 'उस्सन्नतसपाणघाई उत्सन्न प्रसप्राणघाती-उत्सन्नवह्वलं तेन द्वीन्द्रियादिजीवविनाशक: एतादृशविविधप्रकारकाशुभकर्मका पुरुषाऽधमः 'कालमासे कालं किच्चा' कालमासे कालं कृत्वा 'धरणितलमइवइत्ता' धारणितलं रत्नप्रभादिपृथिवीतलमतिवयं-अतिक्रम्य 'हे णरगतलपइटाणे भवई' अधो नरकतलपतिष्ठानो भवति, पूर्वोक्तपापाचरणशील? पुरुषो मृत्वा अतिक्रम्य पृथिवीतलं सप्तमनरकमधिगच्छतीति ॥०२०=३५॥ तल भाग में पहुंच कर ठहरता है, फिर उपर नहीं आता, इसी प्रकार वह अधानिक अधम पुरुप पाप से भारी होकर, सावध बहुल होकर, प्राणातिपात आदि की बहुलता वाला होकर, अत्यन्त पापी होकर, वैर की बहुलता वाला होकर अर्थात् जीवों के साथ अत्यधिक वैर बांध कर अत्यन्त मृषायादी, दंभी, कपटी, अपयशवान् एवं बहुत प्रस प्राणियों का घातक होकर मरण का अवसर आने पर काल करके भूतल को पार करके नीचे नरकतल में जाकर स्थित होता है । तात्पर्य यह है कि पूर्वोक्त प्रकार का पापाचरण करने वाला पुरुष जय मरता है तो पृथ्वी तल को भेद कर ठेठ नरक में जाता है ॥२०॥ અને તે પછી પાણી ઉપર આવતો નથી, એજ પ્રમાણે તે અધાર્મિક અધમ પુરૂષ પાપથી ભારે બનીને, સાવદ્ય કર્મથી વધારે ભારે બનીને પ્રાણાતિપાત વિગેરેના ભારથી અધિકપણુવાળા બનીને–અત્યંત પાપી થઈને વેરના વધારવાવાળા થઈને અર્થાત્ જેની સાથે અત્યંત વેર બાંધીને અત્યંત અસત્ય બોલનાર, દંભી, કપટી, અપયશવાળે, અને ઘણા ત્રસ પ્રાણિને ઘાત કરવાવાળ બનીને મરણના અવસરે મરીને પૃથ્વીને પાર કરીને નીચે તરફના તળીયે જઈને રહે છે. તાત્પર્ય એ છે કે –પૂત પ્રકારથી પાપાચરણ કરવાવાળા પુરૂષ જ્યારે મારે છે. ત્યારે પૃથ્વીના તળીયાને ભેદીને ઠેઠ નરકમાં જાય છે. કેરળ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् मूलम्-ते णं णरगा अंतो वहा बाहिं चउरसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिया णिचंधकारतमसा बवायगहचंदसूरनक्खत्तजोइप्पहा मेदवसामंसरुहिरपूयपडलचिरिखल्ललिताणुलेवणतला असुई वीसा परमदुभिगंधा कण्हा अगणिवन्नाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा गरगा असुभा णरएसु वेयणाओ। णो चैव णरएसु नेरड्या णिदायति वा पयलायंति वा सुई वा रति वा धिति वा मतिं वा उपलभते, ते ण तत्थ उज्जलं पगाढं विउलं कडुयं ककसं चंडं दुरगं तिव्वं दुरहियासं गेरइया वेयणं पञ्चगुभवमाणा विहरति ॥सू० २१॥३६॥ छाया-ते खलु नरकाः अन्तो वृत्ताः वहिश्चतुरस्त्रा अधः क्षुरमसंस्थानसंस्थिताः नित्यान्धकारतमसो व्यपगतमहचन्द्रसूर्यनक्षनज्योतिपथाः मेदोवसामांसरुधिरपूयपटलचिखललिप्तानलेपनतला: अशुचयो विश्राः परमदुर्गन्धाः कृष्णाः अग्निवर्णामाः कर्कशस्पर्शाः दुरधिसहा: अशुभाः नरकाः अशुभाः नरकेषु वेदनाः। नो चैव नरकेषु नरयिकाः निद्रान्ति वा पलायन्ते वा शुचिं वा रतिं वा धृति वा मति वा उपलभन्ते । ते खलु तत्र उज्ज्वला प्रगाढां विपुलां कटुकां कर्कशां चण्डां दुर्गा तीनां दुरधिद हां नैरयिकाः वेदनां पर्यनुमवन्तो विहरन्ति ॥०२१=३६॥ टीका-पुर्वोक्तोऽधार्मिक पुरुषो नरकं गच्छतीति प्रतिपादितम्, नरकाच कीदृशा इति तत्स्वरूपप्रतिपादनायाऽऽह-'ते णं जरगा' इत्यादि। 'ते णं णरगा' ते खल्ल नरकाः यान् खलु नरकान् ते अधार्मिकाः प्राप्नुवन्ति, 'ण' इति वाक्यालङ्कारे 'अंतो वट्टा' अन्तो वृत्ताः-अभ्यन्तरपदेशे गोलाकारावाहिं चउरंसा' वहिर्वाह्यभागे चतुरस्राः चतुष्कोणाः 'अहे' अधो नीचैः 'खुरप्पसंठाणमठिया' क्षुरमसंस्थानसंस्थिता:-क्षुरसंस्थानवन्तः क्षुरधारावदतिशयेन वीक्ष्णाः “णिचंधकारतमसा' 'ते णं णरगा' इत्यादि। टोकार्थ-अधर्मी पुरुष नरक में जाता है, यह कहा गया है, किन्तु नरक का स्वरूप कैसा है ? इसका उत्तर देते हैं 'ते गं गरगा' या ટીકાર્ય–અધમ પુરૂષ નરકમાં જાય છે. એ કહેવાઈ ચૂકયું છે, પરંતુ નરકનું સ્વરૂપ કેવું હોય છે? તે હવે સૂત્રકાર બતાવે છે – Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ सूत्रकृतास्त्र नित्यान्धकारतमसा-अन्धकारेषु तमः अन्धकारतमः-अतिशयितं तमो यत्र ते तथा -अनवरतं निविडान्धकारबहुलाः, 'वरगयगहचंदरानकवत्त नोइप्पहा' व्यपगतग्रहचन्द्रसूर्यनक्षत्रज्योतिष्पथा:-यत्र-नरकेपु ग्रहचन्द्रसूर्यनक्षत्रादयो न प्रतिमान्ति, एतेषां प्रकाशेन रहिता नरका भवन्ति । न केवलं तत्र विशिष्ट प्रकाशाऽभावोऽन्धकारमात्रं वा-भयमयोजकम् अपितु बहनोऽमेध्याः अपदार्थास्तत्र भवन्तीति दर्शयति-वैराग्यसंज्वलनाय 'मेद-सा-मांस-रुहिर-पूय-पडल-चिक्खिल्कलित्ताणुलेवणतला' मेदो वसामांसरुधिरपूयपटल चिक्वजलिप्तानुलेपनवलाः, तत्र-मैदाधातुविशेषः वसा चविलोकप्रसिद्धा तथैव मांसं रुधिरं-शोणितम्, पूयं-पत्र शोणितम् एतेषां पटलं-समूहस्तस्य चिक्खलं-प्रचुरकर्दमस्तेन लिप्त-युक्तम् अनु. लेपनं तलं यत्र ते तथा, मेदो मांसाधशुचिभिर्द्रव्यैः सदैव संयुक्ता नरकभूमयो भवन्ति 'असुई' अशुचयः-अशुचिभूताः वीसा' विश्रा:-कथिताः-कम्याधाकुल वे नरक-नारकावास भीतर गोलाकार वाले होते हैं, याह्य भाग में चौकोर होते हैं और तल भाग में छुरे की धार के समान तीक्ष्ण होते हैं। वहां सदैव घोर अंधकार बना हुआ रहता है। वहां ग्रह, चन्द्र, सूर्य या नक्षत्रों का प्रकाश नहीं होता।। यही नहीं कि वहां प्रकाश का अभाव एवं अंधकार ही भय का कारण हो किन्तु वहाँ बहुत से अशुचि पदार्थ भी होते हैं। नरक की भूमि मेद, चर्वी, मांस, रूधिर पीप आदि के समूह से लिप्त रहती है, इन अपावन पदार्थो से वहां कीचडसी धनी रहती है। वे नरक अशुधिरूप होते हैं, सड़े-गले मांस की बहुलता वाले होते है अत्यन्त दुर्गन्ध તે નરકન્નરકાવાસ અંદર ગળ અકારવાનું હોય છે. બહારના ભાગમાં ચાર ખૂણાવાળું હોય છે અને તળીયાના ભાગમાં છરીની ધાર સરખું અત્યંત તીક્ષણ હોય છે. ત્યાં હમેશાં ઘેર અંધારૂં બન્યું રહે છે. .त्यां गृड, द्र, सूर्य नक्षत्रोनडा नथी. એટલું જ નહીં ત્યાં પ્રકાશને અભાવ અને અંધકાર જ ભયનું કારણ હેય તેમજ તે શિવાય ઘણુ ખરા અશુચિ પદાર્થ પણ હોય છે. નરકની ભૂમિ મેદ, ચર્મી, માંસ, રુધિર-લેહી પીપ, પરૂ, વિગેરેના સમૂહથી વ્યાપ્ત રહે છે. આ અપવિત્ર પદાર્થોથી ત્યાં કાદવ થઈ જાય છે. તે નરકે અશુચિ હોય છે. સડેલા, ગળેલા, માંસને અધિકપણુ વાળા હોય છે. અત્યંત દુગધવાળા Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् मांसबहुलाः, अतएव-'परम-दुब्मिगंधा, परमदुर्गन्धाच ताः 'कण्हा' कृष्णवर्णोंपेताः 'अगणिवन्नामा' अग्निवर्णाभा:-अग्निरिव जाज्वल्यमानाः 'कक्खडफासा' कर्कशस्पीः -कठिनस्पर्शवन्तः, इत्यर्थः 'दुरहियासा' दुरधिसहा:-दुखेन सोढं शक्या: 'अमुहा परगा' अशुभा: अशोभनाः नरकाः 'असुहा णरएम वेयणाभो' अशुमाः नरकेषु वेदना:-नरकगतिषु वेदना अशुमाः 'णो चेव णरएसु नो चैव नरकेषु 'णिदायति' निद्रान्ति-निद्राऽनुभव नैव कुर्वन्ति, के तत्राह-'नेरइया' नैरयिका:-नरके यातनामनुगवन्तो जीवाः, तथा ते 'पलायति वा' पलायन्ते-नरकान्नान्यत्र गन्तुं शक्नुवन्ति 'सुईबा-रति वा-धिति वा, मति वा उवलभंते' शुचि-पवित्रताम्, रति-मुखम्, धृति-धैर्यम्, मर्ति-बुद्धिम् कथमपि न लभन्ते । 'ते थे' ते खलु नारकाः 'तत्थ' तत्र-नरकेषु 'उज्ज्वलं' उज्जलाम्उत्कृष्टाम् 'पगाढ' प्रगाढाम्-अस्यन्ताम् "विउलं' विपुलां-महतीम् 'कडुयं' कटुकाम्-मतिकूलाम् कक्कस' कर्कशाम्-कठिनाम् 'चंड' चण्डाम्-रौद्राम् 'दुग्गे' दुर्गाम्-दुःखेन तरणीयाम् 'तिव्यं' तीव्राम्-हृदयविदारकतया खराम 'दुरहियासं' दुरतिसहाम्-दुःखेन सहनयोग्याम् 'वेयणं' वेदनां यातना मित्यर्थः, उज्ज्वलां-तीव्रानुभावप्रकर्षत्वात, विपुलां विशालो परिमाणरहितत्वात कर्कशांप्रत्यङ्गदुःख जनकत्वात् चण्डो-भयजनका प्रतिपदेशव्यापित्वात् 'पञ्चणुभवमाणा' युक्त होते हैं, काले वर्णवाले तथा धूम युक्त अग्नि के समान आमा वाले होते हैं उन का स्पर्श कठोर होता है। वे दुस्सह और कठोर होते हैं। वहीं की वेदनाएं भी अशुभ होती हैं। नारक जीव नरक में न निन्द्रा ले पाते हैं और न वहाँ से अन्यत्र जा सकते हैं। उन्हें अति. रति या धृति मति प्राप्त नहीं होती। वहां वे उज्ज्वल (उत्कृष्ट), अत्यन्त गाढ, विपुल, कटुक-प्रतिकूल, कर्कश, प्रचण्ड, दुस्तर, तीनहृदय विदारक एवं दुस्सह यातना प्राप्त करते हैं । तात्पर्य यह है कि तीव्र अनुभाष की अधिकता के कारण उज्ज्वल विपुल होने के कारण विशाल, परिमाण रहित होने से कर्कश, प्रत्येक अंग में दुःख હોય છે. કાળા વર્ણવાળા તથા ધુમાડાથી યુક્ત અગ્નિની જેવી કાતિવાળા હોય છે તેને સ્પર્શ કર હોય છે. તેઓ દુસહ અને કઠેર હોય છે. ત્યાંની વેદનાઓ પણ અશુમ હોય છે. નારક જી નરકમાં નિદ્રા લઇ શકતા નથી તથા ત્યાંથી બીજે. જઈ શકતા નથી. તેમને શ્રુતિ, રતિ, ધતિ અથવા મતિ પ્રાપ્ત થતી નથી ત્યાં તેઓ ઉજવલ (ઉત્કૃષ્ટ ગાઢ, વિપુલ કટુક, પ્રતિકૂળ, કર્કશ, પ્રચન્ડ, હુસ્તર” તીવ્ર, હૃદય, વિદારક અને દુસહ યાતના–પીડાઓ પ્રાપ્ત કરે છે. આ કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે–તીવ્ર અનુભાવના અધિક પણાથી ઉજવલ, વિપુલ હોવાથી વિશાલ પરિમાણ વિનાનું હોવાથી કર્કશ, દરેક અંગમાં Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ सूत्रकृतास्त्र प्रत्यनुभवाः 'णेरइया' नैरयिकाः नरकेषु विद्यमाना जीवाः 'विहरंति' विहरन्तिदुःखमयं समयं यापयन्ति इति ॥२१=३६॥ - मूलम्-से जहा णामए रुबखे सिया, पव्वयग्गे जाए मूले छिन्ने अग्गे गरुए जओ णिण्णं जओ विसमं जओ दुग्गं तओ पवडइ, एबामेव तहप्पगारे पुरिसजाए गन्नाओ गम्भं जम्माओ जम्मं माराओ सारं णरगाओ णरगं दुक्खाओ दुक्खं दाहिणगामिए गैरइए कण्हपक्खिए आगमिस्साणं दुल्लभवोहिए यावि भवइ, एसठाणे अणारिए अकेवले जाव असव्वदुक्खपहीणमग्गे एगंतमिच्छे असाहु पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए ॥सू० २२॥३७॥ ' छाया-तद्यथा नाम वृक्षः स्यात्, पर्वताये जातः मुळे छिन्नः अग्रे गुरुका यतो निम्नं यतो विपमं यतो दुंग ततः प्रपतति एवमेव तथाप्रकारः पुरुषजाता गर्भतो गम, जन्मतो जन्म, मरणतो मरणं, नरकान्नरकं दुःखाद् दुःखं दक्षिगगामी नैरयिका कृष्णपाक्षिकः आगमिष्यति दुर्लभबोधि कश्चाऽपि भवति । एतत्स्थानम् अनार्यम् अकेवलं यावदसर्वदुःख महीणमार्गम् एकान्तमिथ्या असाधु । प्रथम स्य स्थानस्य अधर्मपक्षस्य विभङ्गा, एवमाख्यातः ॥ ०२२-३७॥ टीका-नारकिजीवानामधोगतिरेव भाति, नतूर्ध्वगति स्तत्र दृष्टान्तं दर्शयति ‘से जहाणामए' तद्यथा नाम 'रुक्खे' वृक्ष: 'सिया' स्यात् स च जनक होने से चण्ड और प्रत्येक प्रदेश में प्राप्त रहने के कारण भयजनक होती है ! नारक जीव ऐसी अतिविषम वेदना को वेदते हुए समय यापन करते हैं ॥२१॥ 'से जहाणामए' इत्यादि। . टीकार्थ-अधर्मी जीव की अधोगति ही होती है, ऊर्ध्वगति नहीं, દુખ જનક હોવાથી ચણડ અને દરેક પ્રદેશમાં વ્યાપ્ત રહેવાથી ભય જનક હોય છે. નારક છે આવા પ્રકારની અત્યંત વિષમ વેદનાનુ વેદન કરતાં કરતાં પિતાને સમય વિતાવે છે. મારા 'से जहा णामए' त्यादि ટીકાર્ય–અધમી જીની અધોગતી જ થાય છે. ઉર્વગતિ થતી Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयाबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् 'पवयग्गे' पर्वताग्रे-उपरितनभागे जाता-समुत्पन्नः, जन्मना लब्धस्थितिवान, 'मूले छिन्ने अग्गे गरुए' मूले छिन्नोऽग्रे गुरुका, पर्वताऽग्रे समुत्पन्नो वृक्षो यदि मूलेन छिद्यते तदा यद् विपमं स्थलं तत्रैव पतति न तु कथमपि तस्य ऊर्च देशे गतिभवति, तथा-पाषमाराकान्तो गुरुजीवो नरकेऽधोदेश एवं गच्छति, नत्व. स्थाऽन्यत्र कथमपि गमनं संभवति। 'जो णिणं जो विसम जो दुग्गं तो पवडइ' यतो निम्नं यतो विपर्म-समरहितम् यतो दुर्ग-कष्टदायकं तत स्तत्र प्रपतति । "एवमेव तहप्पगारे पुरिसजाए' एवमेव तथामकारः पुरुजात: गुरुकर्मवान् पुरुषः 'गम्भाओ गम्भ गर्भतो गर्भम् 'जम्मश्री जम्म' जन्मतो जन्म 'माराओ मारं' भरणतो मरणम् ‘णरगाओ णरगं' नरकान्नरकम्-एकस्मान्नरकाद नरकान्तरम, 'दुक्खाओ दुक्खं दुःखतो दुःखम्-दुःखाददुःखान्तरम् 'दाहिणगा. मिए' दक्षिणगामी-दक्षिणस्यां दिशि गामी भवतीत्यर्थः णेरइए' नैरयिका-नरकगामी च भवति 'कण्हपबिखर' कृष्णपाक्षिका-कृष्णानां नास्तिकानां पक्षो वर्गस्तत्र भव:-क्रूरकर्मकारी, 'आगामिस्साणं' आगमिष्यति काले 'दुल्ल मोहिए यावि इस विषय में दृष्टान्त दिखलाते हैं जैसे कोई वृक्ष पर्वत के उपरी भाग में उत्पन्न हुआ हो और उसका मूल काट डाला जाय तो वह भारी होने के कारण नीचे फिरली विषम स्थान में गिरता है उसकी ऊर्ध्वगति नहीं होती, उसी प्रकार पाप के भार से युक्त पापी जीव नीचे नरक में ही जाता है। उसकी अन्यत्र गति नहीं होती। ऐसा पुरुष एक गर्भ से दूसरे गर्भ में जाता है एक जन्म के बाद दूसरा जन्म लेता है, भरण के पश्चात् दृसरा पुनः सरण करता है, बार-बार नरक में उत्पन्न होता है, और दुख के पश्चात् पुनः दुःख का भागी होता है। वह दक्षिण दिशोगामी होता है तथा कृरण पक्षी होता है। भविष्यत् काल में उसे बोधि दुर्लभ होती है। यह स्थान अनार्य है, નથી આ વિષયમાં દાન્ત બતાવવામાં આવે છે-જેમ કે વૃક્ષ પર્વતના ભાગમાં ઉત્પન્ન થયેલ હોય અને તેનું મૂળ કાપી નાખવામાં આવે તેને ભારે હોવાના કારણે નીચે કંઈ વિષમ સ્થાન પર પડી જાય છે. તેની ઉવ ગતિ થતી નથી એજ પ્રમાણે પાપના ભારથી યુક્ત પાપી જીવ નીચે નસ્કમાંજ જાય છે. તેની ગતિ બીજે થતી નથી. આવા પુરૂષે એક ગર્ભમાંથી બીજા ગર્ભમાં જાય છે એક જન્મ પછી બીજે જન્મ લે છે અને મરણ પછી ફરીથી મરે છે. અર્થાત્ વારંવાર નરકમાં ઉત્પન્ન થાય છે. અને ખની પછી ફરીથી દુખને જ ભગવે છે. તે દક્ષિણ દિશામાં જનારે હોય છે. તથા કૃષ્ણ પક્ષ હોય છે. ભવિષ્ય કાળમાં તેને બેધિ દુર્લભ થાય છે. આ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाहता मारियानमतिम नारकिनीयः सदा हप्पक्षवानेव भाति-तथा विदुर्जना भवनि सम्यक्त प्राप्तिरपि दुर्लगा भवतीत्यर्थः, ने एनस्तानम् 'मारिर' जमार्यम् अकेले जाव अमजदुक्यहीम. को मोरा-सानादिनम् अपरिपूर्णम्-अन्यायकम् अशुदम् अशल्पकत कर मिदिम न किमागम् अनिमार्गम् अनिर्माणमार्गम् , नया-असन दुःशी माग, मवाना नर पिनाशो न भवति । 'एगंतमिच्छे' एकान्तको नियमानुपाच-अमोमनम् 'पढमस्स' प्रथमस्य 'ठाणस्स' स्थानस्य AAR क्षण 'विमंग पामाहिए' विमा एवमाख्यातः, अनेन महा यानस्य पतास्य विचारोऽभूदिति ॥५०२२=३७॥ म्यम्-अहावरे दोचरम टागस्त धम्मपाखस्स विभंगे एव. मादिन इह बलु पाईणं वा ४ संतगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा-अगाभा अपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया धम्मिटा जाप धम्मेण व वित्ति कप्पेमाणा विहरंति, सुसीला सुव्वया सुम्पटियागंदा मुसाहलवाओ पाणाइवायाओ पडिविरया जावजीवाए जारजे यावन्न तहपगारा मावज्जा अवोहिया कम्मंता परपाणपरियाग करजंनि तभी विपडिविरया जावजीवाए। ने जनाए अणगाग भगवंतो ईरियासमिया भातासमिया *य ज्ञान नहीं है, अपरिपूर्ण है, अन्याय मय है, भशुद्ध है, धानबारने वाला नहीं है, सिद्धि मुक्ति निर्माण पनि गहामार्ग न ई समान ना नाश मान नहीं है। बाद स्थान एकान्त मिन न , या प्रधान अधर्म पक्षका विचार ॥२२॥ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. अ. २ क्रियास्थान निरूपणम् २८५ एसणासमिया आयाणभंड मत्तणिक्खेवणासमिया उच्चार पासवण खेल सिंघाणजल्लपडिट्ठावणियासमिया । मणसमिया वयसमिया कायसमिया मणगुत्ता वयगुत्ता कायगुत्ता गुत्ता गुत्तिदिया गुत्तबंभयारी अकोहा अमाणा अमाया अलोभा संता पसंता उवसंता परिणिव्बुडा अणासवा अग्गंथा छिन्न सोया निरुवलेवा कंसपाई व मुकतोया संखो इव णिरंजणा जीव इव अपडियगई- गगणतलंव निरालंबणा वाउरिव अपडिबद्धा こ सारद सलिलं व सुद्धहियया पुक्खरपत्तं व निरुवलेवा कुम्मो इंव गुत्तिंदिया विहगइव विप्यमुक्का खग्गिविसाणं व एगजाया भाडपक्खीव अप्पमता कुंजरोड़व सोंडीरा वसभो इव जायस्थामा सीहो इव दुद्धरिसा मंदरो इव अप्पकंपा सागरो इव गंभीरा चंदो इव सोमलेस्सा सूरो इव दित्ततेया जच्चकंचनगं व जायवा वसुंधरा इव सन्चफासचिसहा सुहुयहुयासणी विव तेयसा जलंता । णत्थि णं तेसिं भगवंताणं कत्थ वि पडिबंधे भवइ से पडिबंधे चउब्विहे पण्णत्ते, तं जहा - अंडएइ वा पोयएइ वा उग्गहेइ वा पग्गहेइ वा जन्नं जन्नं दिसं इच्छति तन्नं तन्नं दिलं अपडिबद्धा सुइभूया लहुभूया अप्पगंधा संजमेण तवसा अपाणं भावमाना विहरति । तेसिं णं भगवंताणं इमा एयारुवा जायामाया वित्ति होत्था, तं जहा चउत्थे भत्ते छुट्टे भत्ते अट्टमे भत्ते दसमे भत्ते दुवालसमे भत्ते चउसने भत्ते अद्धमासिए भ मासिए भत्ते दोमासिए तिमासिए उम्मासिए पंचमासिए सु० ३७ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० सूत्रकृताने छम्मासिए अदुत्तरं च णं उक्खित्तचरगा णिक्खित्तचरगा उक्खि.. तणिक्खित्तचरगा अंतचरगा पंतचरगा लूहचरगा समुदाणचरगा, संसट्टचरगा असंसट्टचरगा तज्जायसंसटुवरगा दिठ्ठलाभिया अदिटुलाभिया पुट्ठलाभिया अपुठ्ठलाभिया भिक्खलाभिया अभिक्खलाभिया अन्नायचरगा उवनिहिया संखादत्तिया परिमित-. पिंडवाइया सुद्धेणिया अंताहारा पंताहारा अरसाहारा विरसाहारा लूहाहारा तुच्छाहारा अंतजीवी पंतजीवी आयबिलिया. पुरिमड्डिया निविगइया अमज्जभंसासिणो णो णियामरस, भोई ठाणाइया पडिमाठाणाइया उक्कुडुआसणिया णेसणिज्जा. वीरासणिया दंडायतिया लगंडसाइणो अप्पाउडा अगत्तया अकंडुया अणिट्ठहा (एवं जहोववाइए) धुतकेसमंसुरोमनहा. सव्वगायपडिकम्मविप्पमुक्का चिटुंति । ते णं एएणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाइं सामनपरियागं पाउणंति२ . बहु बहु आवाहंसि उप्पन्नति वा अणुप्पन्नंसि वा बहई. भत्ताई पच्चक्खंति पच्चक्खाइत्ता बहूई भत्ताई अणसणाए. छेदिति अणलणाए छेदित्ता जस्सहाए कीरइ नग्गभावे मुंडभावे अण्हाणभावे अदंतवणगे अछत्तए अगोवाहणए भूमिसेज्जा फलगसेज्जा कट्ठसेज्जा कैसलोए बंभचेरवाले परघरपवेसे लद्धावलद्धे माणावमाणणाओ हीलणाओ निंदणाओ गरिहणाओ खिसणाओ तज्जणाओ तालणाओ उच्चावया गामकंटगा. यावीसं परीसहोवसग्गा अहिया सिज्जति तमई आराहति, तमटुं. Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टोका द्वि अ. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् 'आराहित्ता चरमहि उस्साप्सनिस्सालहि अणं अणुत्तरं निव्वाघायं निरावरणं कलिणं पडिपुषणं केवलवरणाणदसणं समु. प्पाडेंति, समुप्पाडित्ता तओ पच्छा सिझति बुज्झति मुच्चंति परिणिवायंति सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति । एगच्चाए पुण एगे भयतारो भवंति, अवरे पुण पुब्धकम्भावसेसेणं कालमासे कालं किच्चा अन्नघरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तं जहा-महड्डिएसु महज्जुइएसु महापरक्कमेसु महाजसेसु महाबलेसु महाणुभावेलु महासोक्खेसु ते णं तत्थ देवा भवंति महड्डिया महज्जुइया जाव महासोक्खा हाराविराइयवच्छा कडग- "तुडियथंभियभुया अंगय कुंडलमट्टगंडयलकन्नपीढधारी, विचित्त हत्थाभरणा विचित्तमालामउलिमउडा कल्लाणगंधपवरवत्थपरिहिया कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणधरा भासुरबोंदी पलंबवण. मालधरा दिव्वेणं रूवेणं दिव्वेणं वन्नेणं दिव्वेणं गंधेणं दिवेणं फासेणं दिव्वेणं संघाएणं दिव्वेणं संठाणेणं दिवाए 'इभिए दिव्याए जुत्तीए दिव्वाए पभाए दिव्वाए छायाए दिवाए अच्चाए दिवेणं तेएणं दिव्वाए लेसाए दसदिसाओ उज्जोवे. माणा पभासेमाणा गइकल्लाणा ठिइकल्लाणा आगमेसिभदया यावि. भवंति, एस ठाणे आयरिए जाव सम्वदुक्खपहीणमग्गे एगंतसम्मे सुसाहू । दोच्चस ठाणस धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए ॥सू० २३॥३८॥ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतानसून छाया-अथाऽपरो द्वितीयस्य स्थानस्य धर्मपक्षस्य विभङ्गा, एवमाख्यायते, इह खलु पाच्यां वा ४ सन्त्ये कनये मनुष्या भवन्ति तद्यथा-अनारम्भाः अपरिग्रहाः धार्मिकाः धर्मानुगाः धर्मिष्ठाः यावद् धर्मेण चैत वृत्तिं कल्पयन्तो विहरन्ति, सुशीलाः सुव्रताः सुपत्यानन्दाः सुमाधव. सर्वतः प्राणातिपातात् प्रतिविरता: यावज्जीवनम्, यावद् यानि चान्यैः तथाप्रकाराणि सावधानि अयोधिकानि कर्माणि परमाणपरितापनकराणि क्रियन्ते ततः प्रतिविरताः यावज्जीवनम् । तद्यथा-नाम अनगाराः भगवन्तः ईसमिता: भापासमिताः एपणासमिताः आदानभाण्डमात्रा. निक्षेपणासमिताः उच्चारपस्रवणखेलसिंघाणमलप्रतिष्ठापनासमिता: मनासमिताः घचःसमिताः कायसमिताः मनोगुनाः बचोगुप्ताः कायगुप्ता: गुप्ताः गुप्तेन्द्रियाः गुप्तब्रह्मचर्याः अक्रोधाः अमाना: अमाया: मालोमाः शान्ता पशान्ताः उपशान्ता: परिनिवृत्ताः अनास्रवाः अग्रन्थाः छिन्नशोकाः निरूपलेपाः कास्यपात्रीव मुक्ततोयाः शङ्ख इव निरञ्जनाः जीव इनामतिहतगतमः गगनतलमिव निरवलम्बना वायुरिवामतिवद्वाः शारदसलिलमिव शुद्धहृदयाः पुष्करपत्रमिव निरूपलेपाः कूर्म इव गुप्तेन्द्रियाः विहग इव विममुक्ताः खजिविषाणमिवैकजाताः भारण्डपक्षीवालमत्ता कुझरइव शौण्डीराः वृषभइव जातस्थामानः सिंह इव दुर्धपीः मन्दर इवामकम्पा सागरइच गम्भीराः चन्द्र इव सोमलेश्याः सूर्यइव दीप्ततेजसः जात्पकाञ्चनमिव जातरूपाः वसुन्धरा इव सर्वस्पर्शविसहाः मुहुतहुताशन इव तेजसा ज्वलन्तः । नास्ति खलु तेषां भगवतां कुत्राऽपि प्रतिबन्धो भवति । स प्रतिवन्ध श्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः तद्यथा-अण्डजे वा पोतके वा अपग्रहे चा पग्रहे वा यां यां दिशमिच्छन्ति तां तां दिशमप्रतिबद्धाः शुचीभूता लघुभूताः अल्पग्रन्थाः संयमेन तपसा आत्मानं भावयन्तो विहरन्ति । तेषां च खलु भगवतामियमेतद्रूपा यात्रामात्राटत्तिरभवत्, तद्यथा-चतुर्थभक्तं षष्ठं भक्तम् अष्टमं भक्तं दशम भक्तं द्वादशं भक्त चतुर्दशं भक्तम् अर्धमासिकं भक्त मासिकं भक्तं द्वैमासिकं भक्तं त्रैमासिकं भक्तं चातुर्मासिकं भक्तं पाश्चमासिकं पाण्मासिकम्, अत उत्तरं च खल्लु-उत्क्षिप्तचरकाः निक्षिप्तचरकाः उत्क्षिप्त-निक्षिप्तचराकार अन्तचरकाःमान्तचरका: रूक्षचरका समुदानचरकाः संसृष्टचरकाः असंसृष्टचरका: तज्जातसंसृष्टचरकाः दृष्टलाभिकाः अदृष्टलाभिकाः पृष्टलामिकाः अपृष्टलाभिकाः भिक्षालाभिका अभिक्षालाभिकाः अज्ञातचरकाः उपनिहितकाः संख्यादत्तयःपरिमित. पिण्डिपातिकाः शुद्धेपणाः अन्ताहारा प्रान्ताहाराः अरसाहाराः विरसाहाराः, रूक्षाहारा: तुच्छाहाराः अन्तजीविनः मान्तजीविनः आचाम्लिकाः पुरिमद्धिका निर्विकतिकार अमद्यमांसाशिनानो निकामरसभोजिन: स्थानाविता:मतिमास्थानान्वित उत्कटा सनिकाः पद्यकाः वीरातनिकाः दण्डायतिकाः लगण्डशायिनः अमावतार Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९३. समयाथैवोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् अगतयः अकण्डयकाः अनिष्ठीवना।' एवं यथौषपातिके' धुकेशश्मश्रुरोमनखाः सर्वगात्र परिकर्मविप्रमुक्तास्तिष्ठन्ति । ते खलु एतेन विहारेग विहरन्त: बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयन्ति बहुवयाम् आवाधायामुत्पन्नायामनुत्पनायां वा बहूनि भक्तानि प्रत्याख्यान्ति, मत्याख्याय बहूनि भक्तानि अनशनेन छेदयन्ति, अनशनेन' छेदयित्वा यदर्थाय क्रियते नग्नमावः मुण्ड मावः अस्नानभावः अदन्तवर्णका अच्छ त्रका अनुत्पानका, भूमिशय्याफलकशय्या काष्ठशय्या केशलोचः ब्रह्मचर्यवासः परगृहप्रवेशः लब्धापलब्धानि मानापमानानि होलनाः निन्दनाः खिंसनानि गर्हणाः तर्जनानिताडनानि उच्चावचाः ग्रामकण्टका द्वाविंशतिः परोपहोपसर्गाः अधिकाः सह्यन्ते तमर्थम् आराधयन्ति तमर्थमाराध्य चरमोच्छवासनिःश्वासैः अनन्तमनुत्तर निर्याघातं निरावरणम्, कृत्स्नं परिपूर्ण केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पादयन्ति सम साध तत्पश्चात् सिध्यन्ति बुध्यन्ते मुच्यन्ति परिनिर्वान्ति सर्वदुःखानामन्तं कुर्वन्ति । एकाचया पुनरेके भयत्रातारो भवन्ति । अपरे पुनः पूर्वावशेषेण कालमासे काल कृत्वा अन्यतरेषु देवलोकेषु देवत्वाय उपपत्तारो भवन्ति तद्यथा-महद्धि केषु महा. धुतिकेषु महापराक्रमेषु महायशस्विषु महावलेषु महानुमावेषु महासौख्येषु ते खल सत्र देवाः भवन्ति' महद्धिका महाद्युतिकाः यावन्महासौख्याः हारविराजितवक्षस: - कटकत्रुटितस्तम्भितभुजाः अगमकुण्डलमृष्टगण्डतलकर्णपीठधराः विचित्रहस्ताभरणाः विचित्रमालामौलिमुकुटाः कल्याणगन्धपवरवस्त्रपरिहिताः कल्याणपवरमा ल्यानुलेपनधराः भास्वरशरीराः मळम्बवनमालाधराः दिव्येन रूपेण दिव्येन वर्णन दिव्येन गन्धेन दिव्येन स्पर्शेन दिव्येन सङ्घातेन दिव्येन संस्थानेन दिव्यया ऋया दिव्यया शुत्या दिव्यया प्रभया दिपया छायया दिव्यया अर्चया दिव्येन तेजसा दिव्यया लेश्यया दशदिशः उद्योतयन्तः प्रभासयन्तः गतिकल्याणा स्थितिकल्याणा: आगामिभद्रकाश्चापि भवन्ति । एतत् स्थानम् आयें यावत् सर्वदुःखपहीगमार्गम् एकान्तसम्यक् सुसाधु । द्वितीयस्य स्थानस्य धर्मपक्षस्य विभङ्गः एवमाख्यातः ॥२३3३८॥ टीका-अधर्मपक्षो निरूपितः सम्पति-धर्मपक्षमाह-'अहावरे' इत्यादि । 'अहावरे' अथाऽपरः पूर्वस्मादधर्मपक्षाद्व्यतिरिक्तः 'दोच्चस्त' द्वितीयस्य 'ठाणस्स' 'अहावरे दोच्चस्स ठाणस्स, इत्यादि । ___टीकार्थ-अधर्म पक्ष का निरूपण करके अप धर्म पक्ष का कथन करते हैं प्रथम अधर्म पक्ष से विपरीत द्वितीय स्थान धर्म पक्ष का ___ 'अहावरे दोच्चस्स ठाणस्स' त्याल ટીકાઈ–અધર્મ પક્ષનું નિરૂપણ કરીને હવે ધર્મપક્ષનું કથન કરે છે. પહેલા અધર્મ પક્ષથી ઉલ્ટ બીજું સ્થાન ધર્મ પક્ષનું છે. હવે તેને વિચાર Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪ सूत स्थानस्य 'धम्मपक्वम्स' धर्मपक्षस्य 'विभंगे' विमङ्गः 'एवमा हिज्जइ' एवम् - वक्ष्यमाणप्रकारेण आख्यायते, इह-अस्मिन् लोके, खलु इति वाक्यालङ्कारे । 'पाई वा' प्राच्यादिदिग्रविभागेषु चतुर्षु' 'संतेगझ्या मगुस्सा भवति' सन्त्येकतये मनुष्या भान्ति | 'वं जहा' तद्यथा- 'अणारंम' अनारम्भाः - नाऽस्ति आरम्भः - प्राणिनामुपघातादिर्येषां तेनास्म्मा', 'अग्नि' अपरिग्रहाः - परिग्रहरहिताः 'धम्मिया' धार्मिकाः धर्मानुष्ठाने रताः 'धम्माणुया' धर्मानुगाःस्वयं धर्ममाचरन्ति - परानपि तदर्थं मयोजयन्ति 'धम्मिट्ठा' धर्मिष्ठाः - धर्ममेव स्वेष्टं मन्यमानाः, 'जान' यावत् 'धम्मेणं चैव वित्ति कप्पेमाणा विहरंति' धर्मेण चैव वृत्तिम् - आजीविकां कल्पयन्तो विरहन्ति - जीवनं यापयन्ति, 'सुमीला' सुशीला:सम्यक्शीलवन्तः 'सुन्वया' सुचनाः- सम्यग्व्रतवन्तः 'सुपडियाणंदा' सुप्रत्यानन्दाः - सुप्रसन्नाः शीघ्रमानन्दवन्तः 'सुमाहू' सुपाधनः 'सन्वत्र पाणाइवायाओ 'पंडिविरया' सर्वतः प्राणातिपावात् - जबहिंसादिव्यापारात् प्रतिविरताः - निवृत्ताः . 'जावज्जीवाए' यावज्जीवनम् 'जान जे याने तदपगारा' यावद यानि यावन्ति "चान्यैः- अधार्मिकपुरुषैः तथाप्रकाराणि 'सावज्जा' सावधानि पापजनकानि 'अवो हिया' अयोधिकानि - केवलमज्ञानभावयुक्तानि 'कम्मता' कर्माणि 'परवाणपरिया विचार इस प्रकार कहा गया है इस संसार में पूर्व आदि दिशाओं में अनेक प्रकार के लोग निवास करते हैं, जैसे – अनारंभी अर्थात् जीवों के घातकारी व्यवहार न करने वाले, अपरिग्रह, धर्मानुष्ठान में रत, स्वयं धर्म का आचरण करने वाले और दूसरों को धर्माचरण की प्रेरणा करने वाले धर्मनिष्ठ यावत् धर्म से ही अपनी आजीविका करके जीवन निर्वाह करने वाले, सुशील, समीचीन व्रतों से सम्पन्न, सरलता से प्रसन्न होने वाले, सुसाधु, सब प्रकार के प्राणातिपात के यावज्जीव त्यागी तथा दूसरे ४श्वामां आवे छे. / · આ સૉંસારમાં પૂત્ર વિગેરે દિશાએમાં અનેક પ્રકારના લેકે નિવાસ કરે છે. જેમકે—ખનાર’ભી, અર્થાત્ જીવાના ઘાતકરી વ્યવહાર ન કરવાવાળા અપરિગ્રહવાળા, ધર્માનુષ્ઠાનમાં રત, સ્ત્રય ધર્મનુ આચરણ કરવાવાળા, અને ખીજાઓને ધર્માચરણની પ્રેર]ા કરવાવાળા ધર્મનિષ્ઠ, યાવત્ ધર્મથી જ પેાતાની આજીવિકા કરીને જીવન નિર્વાહ કરવાવાળા સુશીલ, સારા એવા તેથી યુક્ત, સરલપણાથી પ્રસન્ન થન્નાવાળા, સુસાધુ દરેક પ્રકારના પ્રાણાતિ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि.श्र.अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् २९५ वणकरा' परमागपरितापनहराणि -याणातिपातसाधनाराणि कर्माणि 'कन्जंति' क्रियन्तेऽनानिमिः 'तओ वि पडिविरया जाव जीवाए' तत स्तादृशप्राणातिपात. क्रियातः पतिविरतास्ते भवन्ति यावज्जीवनम् । से जहाणामए' तद्यथानाम 'अणगारा' - अनगारा:-ते धार्मिकपुरुषाः गृहपरिवारादिभिविरहिताः सन्तः 'भगवंतो' भगवन्तः-भाग्यवन्तो भवन्ति 'इरियासमिया भासासमिया' ईर्यासमिता भाषासमिता:-ते ईर्यासमितेर्भापासमितेश्च सम्यकपरिपालका भवन्ति 'एसणासमिया' एषणासमिताः 'आयाणभंडमत्तणिक्खेवणास मिया' आदान माण्डमात्रानिक्षेपणा. समिता:-धर्मोपकरणपात्रवस्त्रादीनां ग्रहणस्थापनसमितिभिर्यु काः भवन्ति 'उ चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपडिद्वावणिया समिया' उच्चारमनगखेकसिंघाणमलपतिष्ठापनसमिता:- मूत्रपुरीषष्ठीवनशरीरमलादिशात्रोक्तप्रतिष्ठापनममितिमियुक्ताः सदा भवन्ति । 'मणसमिया' मनःसमिताः 'वयसमिया' वचःसमिताः 'कायसमिया' कायसमिताः 'मणगुत्ता' मनोगुप्ताः 'वयगुत्ता, वचोयताः 'कायगुत्ता' कायगुप्ता:-मनोवाकायगुमा इत्यर्थः, 'गुत्ता' गुप्ता:-पभ्य आस्रवेभ्यः 'गुति दिया' गुप्तेन्द्रियाः-गुप्तानि-विषयभोगेभ्य इन्द्रियाणि-श्रोत्रादीनि येषां पापी लोग जिन सावद्य एवं अयोधिजनक कर्मों को करते हैं उनसे यावज्जीवन निवृत्त होते है। वे धर्मनिष्ठ पुरुष अनगार अर्थात् गृहपरिवार आदि से रहित होते हैं, भाग्यवान होते हैं, ईर्यासमिति भाषा समिति एषणा समिति आदान भाण्डामात्रनिक्षेपणसमिति, उच्चारप्रस्त्रयणखेलसिंघाण मलप्रतिष्ठापना समिति से अर्थात् पांचों समितियों से युक्त होते हैं। मन वचन और कायकी समिति से युक्त होते हैं। मनोगुप्त वधनगुप्त और कायगुप्त होते हैं। समस्त आनवों से गुप्त होते हैं। अपनी इन्द्रियों को विषयों से गोपन करके रखते हैं। नव चाडो के પાતને જીવન પર્યત ત્યાગ કરવાવાળા, તથા બીજા પાપી લેકે જે સાવધ અને અબાધિ જનક કર્મો કરે છે, તેનાથી જીવન પર્યન્ત નિવૃત્ત રહે છે તે ધર્મનિષ્ઠ પુરૂષ અનાર અર્થાત્ ઘર અને પરિવાર વિગેરેથી રહિત હોય છે. ભાગ્યવાનું હોય છે ઈર્ષા સમિતિ, ભાષા સમિતિ, એષણા સમિતિ આદાનભાડ માત્ર નિક્ષેપણ સમિતિ, ઉચ્ચાર પ્રસવણ ખેલ સિંઘાણ" મલ પ્રતિષ્ઠાપના સમિતિથી અર્થાત્ પાંચ પ્રકારની સમિતિથી યુક્ત હોય છે. મન, વચન, અને કાયસમિતિથી યુક્ત હોય છે. મને ગુપ્ત, વચન ગુપ્ત અને કાયમ હોય છે. સઘળા આસૂવેથી ગુપ્ત હોય છે, પિતાની ઇન્દ્રિ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गet गुप्तेन्द्रियाः 'गुत्तभयारी' गुप्तब्रह्मवर्याः 'अकोदा' अक्रोधाः 'अनाजा' अमानाः, 'अमाया' अमाया 'अलोहा' अलोभाः क्रोधमानमायालोमादिभिः परिवर्जिताः 'सेवा' शान्ताः 'पसंता' मशान्ताः - अतिशयेन 'उनसंता' उपयान्ता - वाद्यान्तरान्तिसहिताः परिनिबुडा' परिनिवृत्तापत्रस्तसन्तापरहिता इत्यर्थः 'अवासवा' अनावा:-आस सेवनरहिताः 'अग्गंथा' अग्रन्थाः - समस्त परिग्रहरहिताः 'छिन्नपोया' छिन्नयोकाः छिन्नो विदारितः शोकपदवाच्यः संपाते यैस्ते छिन्नशोकाः 'निरुलेना' निरुालेपा:- कर्मरूपला हिताः 'कंसपाई मुक्कतोया' करियपात्रीच मुक्तनीया::- यथाकांस्यपात्रं जलन नितविकारेण न लिप्यते तद्वत् फर्ममलरलिप्ताः 'संबो इन णिरंजणा' शङ्ख इव निरञ्जनाः, यथा शङ्खः प्रकृत्या स्त्रच्छो न तु कालिपादिदोपैः संस्पृष्टो भवति तथैव हि भवन्ति रागादिदोषैरनाघाताः । 'जीव इव अध्यडियगई' जीव इवाऽप्रतिहतगतयः, यथा जीवानां गतिर्न मतिरुध्यते, तथा यथोक्तमहतामपि न निरुध्यते गतिः । 'गगणवलं व निरालंबणा - २९३ साथ ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। कोध मान माया और लोभ से रक्षित होते हैं। शान्त, प्रशान्त, उपशान्त-वाह्य एवं आन्तरिक शान्ति से सम्पन्न होते हैं। परिनिर्वृत्त, आस्रवद्वारों से रहित, समग्र ग्रंथियों से रहिनछिन्नशोक-संसार के मूल को छेदन कर देने वाले अथवा शोक से रहित कर्मरूप मल से रहित, जैसे कांसे का पात्र जल के लेप से लिप्त नहीं होता उसी प्रकार कमल से लिप्त न होने वाले, जैसे शंख स्वभाव से निष्कलंक होता है, उसी प्रकार समस्त कालिमा से रहित होते हैं। जैसे जीव की गति रोकी नहीं जा सकती, वैसे भी उनकी गति में भी रुकावट नहीं डाली जा सकती । ચાને વિયેથી ગેપન કરીને રાખે છે. નત્ર વાડેાની સાથે બ્રહ્માનું પાલન पुरे छे, क्षेत्र, भात, माया भने से नयी रडित होय छे, शान्त, प्रशान्त, ઉપશાન્ત-ખાદ્ય અને આંતરિક શક્તિથી યુક્ત હાય છે. પરિનિવૃત, આસવ, દ્વારાથી રહિત સઘળી થિયેથી રહિત છિન્ત શાક-સ ́સારના મૂળનું છંદન કરવાવાળા, અથવા શેકથી રિત કરૂપ માથી રહિત, જેમ કાંસાનું વાસસુ પાણીના લેપની લિપ્ત થતુ નથી, એજ પ્રમાણે કમ રૂપી મળથી ન ઉપાનારા, જેમ શખ સ્તભાવથી નિષ્ફલક હોય છે, એજ પ્રમાણે સઘળા પ્રડારની કાલિમા-મલિન પશુથી હિત હોય છે જેમ જીવની ગતિ ૨ કી ચાતી નથી, તેમ તેની ગતિમાં પદ્મરકારૢ કરી શકાતું નથી. Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थान निरूपणम् २९७ गगनतलमिव निरालम्बनाः यथा गगनतलम् आलस्यनं विनैव तिष्ठति तद्वत् स्त्रा लम्वना इमे भवन्ति । 'वाउवि अप्पडिवद्धा' - वायुरिव अपतिवद्धः अपतिवद्धविहारिणः 'सारदसलिलं व सुद्धहियया' शारदसलिलमिवशुद्रहृदया। यथा- शरज्ञ्जलं निर्मलं तथा तेपामन्तःकरणमपि अकलुषितम् 'पुक्खरपत्तं व निरुत्रलेवा' पुष्करपत्रमित्र निरुपलेपाः यथाऽगाधपयः - पूरितायामपि पुष्करिण्यां पुष्करदलं तत्स्थं तदवस्थमेव - स्वप्रकृतिस्थमेव किन्तु न लिप्यतेऽम्भसा, तथा इमेऽपि पुरुषधौरेयाः असारे : संसारे कर्मजलै र्न लिप्यन्ते, ' कुम्मो इन गुत्तिदिया' कूर्मइव गुप्तेन्द्रियाः 'विहग इन चिपका' विग इव विमुक्त: यथा गगनविहारिणः स्वच्छन्दाः विहतास्त 'थेमे महात्मानो - ममत्वभावरहिताः स्वच्छन्दा भवन्ति । 'खग्गविसाणं व एग जाया' खङ्गिविषाणमिवैकजानाः यथा - खङ्गि मृगस्य विषाणमेकमेकस्वभावतो भवति 'भारं पक्खीव अप्पमत्ता' मारण्डपक्षी वाममत्ताः - प्रमादरहिताः 'कुंजरो इव सोंडीरा' कुञ्जर इव शौण्डीराः यथा हस्ती शौण्डीरो वृक्षादीनां विदारणे समर्थ वे आकाश के समान निरवलम्ब होते हैं अर्थात् किसी का आश्रय नहीं लेते। वायु के समान अप्रतिबद्ध विचरण करते हैं। जैसे शरद ऋतु का जल निर्मल होता है, उसी प्रकार उनका अन्तःकरण निर्मल होता है । वे कमल पत्र के जैसा राग-द्वेष आदि के लेप से रहित होते हैं । कूर्म की भांति गुप्तेन्द्रिय होते हैं। जैसे आकाश विहारी पक्षी स्वाधीन होता है उसी प्रकार वे महात्मा ममत्व के बन्धन से रहित होने के कारण स्वाधीन होते हैं। जैसे गेंडे का एक ही सींग -होता है, उसी प्रकार वे मोहादि से मुक्त होने के कारण एकाकी होते हैं । भारण्ड पक्षी के समान अप्रमत्त होते हैं। कुंजर के समान - તેએ આકાશની જેમ અવલમ્બન વિનાના હોય છે અર્થાત્ કાઈના શુ આશ્રય લેતા નથી. વાયુ પ્રમાણે રાકાણુ વર વિચરણ કરે છે. જેમ શરદ્ ઋતુનુ પાણી નિમાઁલ-ચામુ' હાય છે, એજ પ્રમાણે તેમનું અંતઃકરણુ નિર્દેલ હાય છે. તે કમળના પાનની જેમ રાગ-દ્વેષ વિગેરેના લેપ વિનાના હાય છેઠાચમાની જેમ ગુપ્તેન્દ્રિય હોય છે. જેમ આકાશમાં જનારા પક્ષિયે સ્વાધીન હાય છે, એજ પ્રમાણે મહાત્માએ મમત્વના ખંધનથી રહિત ડાવાના કારણે સ્વાધીન હાય છે જેમ ગેંડાનુ એક જ સીંગ હાય છે, તેજ પ્રમાણે તેઓ મેહ વિગેરેથી મુક્ત હાવાથી એકલા જ હોય છે. ભારડ પક્ષીની જેમ અપ્રમત્ત હાય છે. કુંજરની જેમ શાંડીર હાય છે, सू० ३८ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे स्तथा इसे शौण्डीराः कर्मविदारणे समर्थाः, 'बसव इव जायस्थामा' नृपभ इव जातस्थामानः तथाहि-यथा वृषभो भारवाहने समर्थः तथेमेऽपि संयमरूपभारवदने समर्था भवन्ति, 'सीहो इत्र दुद्धरिसा' सिंह इव दुर्धपः सिंहं यथा धर्पयितुं कोऽपि न शक्तः - तथैव एतानपि पुरुपसिंहान् परपोषसर्गा न पराभवन्ति । 'मंदरो इव अप्पकंपा' मन्दर इवात्मकम्पाः यथा वायुः मेरुं कम्पयितुं न समर्थः तथा एतान् महात्मनो वाह्याभ्यन्तरोपरागः पराभवितुं न समर्था'. 'सागरी इव गंभीर' सागर इव गम्भीराः समुद्रो यथाऽगच्छन्तीनां नदीनामनुपमै तुलः कल्लोले नं -क्षुभ्यति तथा शोकादिभिरेषामपि न दूषन्ते प्रांमि । 'चंदो इव सोमलेस ।' चन्द्र इव सोमलेश्या चन्द्र इन स्वभावत एव सदा शीतलाः 'सूरो इव दीत्ततेया' शौण्डीर होते हैं अर्थात् जैसे हस्ती वृक्ष आदि का विदारण करने . में समर्थ होता हैं, उसी प्रकार वे कर्मों के विदारण में समर्थ होते हैं, वे वृषभ के जैसे संगम का भार वहन करने में सामर्थ्यवान होते हैं। जैसे सिंह दुर्धर्ष होता है, उसी प्रकार परीपद और उनका पराभव नहीं कर सकते । वे भेरू पर्वत के समान अप्रकम्प होते हैं अर्थात् - जैसे आंधी मेरू पर्वत को कम्पित नहीं कर सकती, उसी प्रकार उन्हें कठिन से कठिन उपसर्ग भी विचलित नहीं कर सकते। वे सागर के जैसे गंभीर होते हैं, अर्थात् जैसे नदियों के आने वाले जल से समुद्र में क्षोभ उत्पन्न नहीं होता, उसी प्रकार उनका मन किसी भी कारण सेक्षुध नहीं होता। वे चन्द्रमा के समान स्वभावतः शीतल लेइया वाले होते हैं । सूर्य के समान तप एवं संपन्न के तेज से देदिप्यमान અર્થાત્ જેમ હાથી વૃક્ષ વિગેરેને વિદ્યારણ-પાડવામાં સમય હોય છે, એજ પ્રમાણે તેઓ કર્મનું વિદ્યારણુ કરવામાં સમ હાય છે. તેએ વૃષભ-મળદની જેમ સયમના ભાર વહેવામાં-ઉપાડવામાં સામર્થ્ય વાળા હાય છે. જેમ સિંહ દુ–પરાજ્ય ન પામે તેવા હોય છે, એજ પ્રમાણે પરીષહ અને ઉપગ તેને પરાભવ કરી શકતા નથી, તેએ મેરૂ પર્યંત સરખા અપ્ર કમ્પ હાય છે અર્થાત્ જેમ વાવાઝોડુ મેરૂ પર્વતને કપાવી શકતું નથી, એજ પ્રમાણે પરીષહ અને કઠણમાં કશુ ઉપસર્ગ તેમેને પરાભવ કરી શકતા નથી, તેઓ સાગરની જેમ ગભીર હાય છે, અર્થાત્ જેમ નીચેામાંથી આવવા વાળા પાણીથી સમુદ્રમાં ક્ષેાભ થતા નથી, એજ પ્રમાણે તેઓનુ મન, પશુ કાઈ પણુ પ્રકારથી હાલ પામતુ નથી તેઓ ચન્દ્રમાની જેમ સ્વભાવથી જ શીતલ લેશ્યાવાળા હોય છે. સૂર્યની જેમ તપ અને સયમના 1 1 Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् सूर्य इव दीप्ततेजसः तेजस्सिना तपासयममतापरन्तः 'जच्चकंवणगे बजायरूवा' जात्यकाञ्चनभित्र जातरूपा:-जात्या सुवर्णमिव निर्मलाः 'वसुंबरा इव-सबफास विसहा वसुन्धरेव सर्वस्पर्शसहा:-सर्व सहा वसुमतीत्यरात्, इमेऽपि पुरुषधोरेयाः सर्वस्पर्शमहा भरतीति । 'सुहपहुयासगोविच तेयसा जलंता' मुहतहुताशन इव वेजसा ज्वलन्त -प्रदीप्ताग्निरिय तेजसा सातिशयं जाज्वल्यमानाः 'णस्थि ण तेसि भगवंताणं कत्थ वि पडियधे मवई, नास्ति खलु तेषां भगवता कुत्राऽपि प्रतिबन्धो भवलि, 'से पडिबधे चउबिहे पण्ण' स प्रतिवन्धश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः -कथितो भवति, 'तं जहा' तद्यथा-'अंडएइ वा पोयएइ चा-उग्गहेइ वा-पग्गहेइ वा' अण्डजे वा-पोतके वा-अपनहे बा-पग्रहे वा-तन अण्ड जा:-हंस मयूरादिपक्षिणः, पोतका:-हस्ति-चलिग प्रभृतिशावकानि, वसति पीठफलकादिकमवग्रहिकम, दण्डाधुपधिजातं परिग्रहकम, अन्येषां विहारे एतेभ्यः चतुभ्यः प्रतिवन्धो भवति, एषां विहारे एतेभ्यः प्रतिवन्धो न भवतीत्यर्थः, 'जन्न जन्नं दिसं इच्छंति' यां यां दिशं गन्तुमिच्छन्ति, 'तन्ने तन्नं दिलं आडिबद्धा सुइभूया लहुया अप्पगंथा संजमेणं होते हैं । स्वभाव से ही स्वर्ण के समान निर्मल होते हैं। पृथ्वी के समान समस्त स्पशों को सहन करते हैं। जिहमें घृत आदि का होम किया गया हो ऐसी अग्नि जैसे तेज से जाज्वल्ममान होती है, उसी प्रकार दे अतिशय तेज ले दीप्त होते हैं। उन भगवन्तों को कहीं भी प्रतिबन्ध नहीं होता। प्रतिबन्ध चार प्रकार का कहा गया है-अंडे से उत्पन्न होने वाले मयूर आदि पक्षियों से, बच्चे के रूप में उत्पन्न होने वाले हाथी बल्गी आदि के बच्चों से, पक्षति-निवास स्थान से तथा परिग्रह से अर्थात् पीठ, फलक आदि उपकरणों से, वे इन सय प्रतिबन्धों से रहित होते हैं। वे जिस किसी भी दिशा में जाने की इच्छा करते हैं, उसी में बिना रुकावट, आय शुद्धि से युक्त, लघुभूत, अल्प તેજથી પ્રકાશમાન હોય છે. સ્વભાવથી જ સુવર્ણ સોનાની જેમ નિર્મલસ્વચ્છ હોય છે. પૃથ્વીની જેમ સઘળા સ્પર્શને સહન કરે છે. જેમાં ઘી વિગેરનો હોમ કરવામાં આવ્યું છે, એવી અગ્નિ જેમ તેજથી દેદીપ્યમાન હોય છે, એ જ પ્રમાણે તેઓ અતિશય તેજથી પ્રકાશવાવાળા હોય છે તે ભગવતને યંય પણ પ્રતિબંધ હેતે નથીપ્રતિબધ ચાર પ્રકારને કહેવામાં આવેલ છે. જેમકે (૧) ઈડામાંથી ઉત્પન્ન થવાવાળા મોર વિગેરે પક્ષિયોથી, (२) १-या ३थे ५-न थापा हुथी बिरेन। ५२याथी, (3) सतिનિવાસસ્થાનથી (૪) તથા પરિગ્રહથી અર્થાત્ પીઠ, ફલક, વિગેરે ઉપકરણથી, તેઓ આ સઘળા પ્રતિબંધ વિનાને હોય છે તેઓ જે કઈ દિશામાં જવાની ઈચ્છા કરે છે, તેમાં જ રોકાણ વિના ભાવશુદ્ધિથી યુક્ત, લઘુભૂત, . Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० सूत्रताको तवसा अप्पागं भावेमाणा विहरति' तां तां दिशमप्रतिबद्धाः-प्रतिवन्धरहिता शुचीभूताः-भावशुद्धिमन्तलभूताः-अल्पोपधयः -- अल्पग्रन्थाः - बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहांपग्रन्थिरहिताः संयमेन-तप्तदशविधेन तपसा-द्वादशविधेन आत्मानं भावयन्तो विहरन्ति, प्रतिवन्धममत्वादिहिताः आत्मानं संयमतपोभ्यां परिशोध. यन्तो विहरन्ति । तेसिणं भगवंताणं इमा एयारूवा जायामायावित्ती होत्था' तेषां च भगवता मियमेतद्रूपा यात्रा मात्रा वृत्तिर्भवेद, तत्र-यात्रा-संयमयात्रा मात्राचदर्थमेव परिमिताऽऽहारग्रहणमिति तदेवं भवति, 'तं जहा' तद्यथा-'चउत्ये भत्ते' चतुर्थ भक्तम् 'छडे भत्ते' पष्ठं भक्तम् 'अट्टमे भत्ते' अष्टम भक्तम् ‘दसमे भत्ते' दशम भक्तम् 'दुवालसमे भत्ते' द्वादशं भक्तम् 'चउदसमे भत्ते' चतुर्दशं भक्तम्, तेषां महात्मना संयमपरिपालनाय-एतादृशी-आजीविका वृत्तिर्मवति, एकदिनस्योपवास. द्विदि नस्य दिनन्तयस्य-चतुर्दिनस्य-इत्यादिरूपेगाऽऽजीविकां कुन्ति-उक्तजीविकया संयम निर्वाहयन्ति । परिमितं तदपि दिनादिमिर्मध्ये व्यवधाय विलम्बेन भुञ्जन्तीति उपधि वाले, पायाभ्यन्तर परिग्रह से रहित होकर एवं सतरह प्रकार के संयम से तथा घारह प्रकार के तप से अपनी आत्मा के भावित करते हुए विचरते हैं। उन भाग्यवान् महापुरुषों की संयम का निर्वाण करने के लिए इस प्रकार की जीविका होती है-कोई एक दिन का उपवास करते हैं। कोई दो दिन का उपवास करते हैं, कोई तेला-तीन दिन का उपवास करते हैं, कोई चौला-चार दिन का उपवास करते है, कोई पोच दिन का । उपवास करते हैं। कोई छह दिन का उपवास करते हैं । अर्थात् कोई एक-एक दिन छोड़ कर भोजन करते हैं, कोई दो-दो दिन, कोई तीन, "तीन, चार-चार, पांच-पांच और छह छह दिन छोड़ कर एक दिन भोजन અહંપ ઉપધિવાળા બાહ્ય અને આભ્યન્તર પરિબ્રહથી રહિત થઈને અને સત્તર પ્રકારના સંયમથી તથા બાર પ્રકારના તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા વિચરે છે તે ભગવાન્ મહાપુરૂષોના સંયમના નિર્વાહ માટે આ પ્રમાણેની આજીવિકા હોય છે. કેઈ એક દિવસને ઉપવાસ કરે છે. કોઈ બે દિવસને ઉપ1} : पास ४२ छे. तो तसा-त्रय हिसने 64वास ४२ छे. अ यासा ચાર દિવસને ઉપવાસ કરે છે. કઈ પાંચ દિવસને ઉપવાસ કરે છે. કોઈ “છ દિવસના ઉપવાસ કરે છે. અર્થાત્ કઈ એક એક દિવસ છેડીને એકતેરો આહાર કરે છે, કેઈ બબ્બે દિવસ છેડીને છઠ-છઠ આહાર કરે છે. કોઈ ત્રણ ત્રણ ચાર-ચાર પાંચ પાંચ અને છ-છ દિવસે છોડીને એક Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....... ३०१ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् प्रकरणेन विदितं भवति, 'अद्धमासिए भत्ते' अर्धमासिकं पाक्षिकमिति, भक्तमुप वासः, 'मासिए भत्ते' मासिकं भक्तमुपवास: 'दो मासिए तिमासिए चउमासिए पंचमासिए छम्मासिए' द्वैमासिकं त्रैमासिकं चातुर्मासिकं पाञ्च मासिकं पाण्मा. सिकं भक्तमुपोषणं भवति 'अदुत्तर च णं उक्विन्तचरगा य' अत उत्तरं च खलुउत्क्षिप्तचरकाः-उरिक्षप्तं स्वकार्याय पाकभाजनादुत्तं तदर्थमभिग्रहतश्चरन्ति तद्वे षणाय गच्छन्तीति उत्क्षिप्तचरकाः, के वन 'णिक्वित्त वरगा' निक्षप्तचरकाः-नितिप्तं भाजनादनुवृत्तं तदर्थमभिग्रहतश्वरन्ति तद्गवेषगाय गच्छतीति निक्षिप्तचरकाः, केचन पुनः 'उक्खित्तणिक्खि तवरगा' उत्क्षिप्तनिक्षिप्तचरका:-पाक भाजनादुत्क्षिप्तं तत्रैवाऽन्यत्र वा स्थाने यदर्थं तदर्थमभिग्रहवन्तश्चरन्ति, केचन पुनः 'अंतचरगा पंचरगा' अन्नचरकाः-कोद्रवाद्यन्नाहारकाः, प्रान्तचरकाः-पाककरते हैं। कोई एक पखवाड़े अर्धमासखमण का उपवास करते हैं, कोई एक, दो, तीन, चार, पांच या छह मास तक का उपवास करते हैं। अर्थात मासखमण करते हैं इसके अतिरिक्त कोई-कोई अभिग्रहधारी होते है जैसे (१) उत्क्षिप्त चरक-भोजन में से बाहर निकाले हुए आहार को ही ग्रहण करने का नियम लेकर उसी के लिए भ्रमण करने वाले । (२) निक्षिप्त चरक-हांडी में से नहीं निकाले हुए आहार को ही ग्रहण करने का अभिग्रह करने वाले और उसी के लिए अटन करने वाले । (३) उत्क्षिप्त-निक्षिप्त चरक-हंडिया में से निकाले हुए और फिर उसमें गले हुए आहार का ही ग्रहण करने की प्रतिज्ञा वाले। (४) अन्त चरक-कोद्रव आदि तुच्छ अन्न ग्रहण करने वाले। (५) દવસ આહાર કરે છે. કેઈ એક પખવાડીયા અર્ધમાસ ખમણુના ઉપવાસ કરે છે કેઈ એક, બે, ત્રણ, ચાર, પાંચ અથવા છ મહિના સુધીના ઉપવાસ કરે છે. માસખમણ કરે છે. આ સિવાય કઈ કઈ અભિગ્રહને ધારણ કરવા વાળા હોય છે. જેમકે-(૧) ઉક્ષિપ્તચરક-આહારમાંથી બહાર કહાડવામાં આવેલ આહારને જ ગ્રહણ કરવાનો નિયમ લઈને તેના માટે જ કરવાવાળા (૨) નિક્ષિપ્ત ચરક-વાસણમાંથી નહી કહાડેલ આહારને જ ગ્રહણ કરવાને અભિગ્રહ કરવાવાળા અને તે માટે જ ફરનારા (૩) ઉક્ષિપ્તવિક્ષિપ્તચરક-વાસણમાંથી બહાર કહાડેલા અને તેમાં ચાટેલા આહારને જ ગ્રહણ કરવાની પ્રતિજ્ઞાવાળા, (૪) અન્તચરક–કેદરા વિગેરે તુ અનાજ ગ્રહણ કરવાવાળા. (૫) પ્રાન્તચરક-–પાત્રમાંથી આહાર કહાડી લીધા પછી તેમાં ચાટી રહેલને આ હાર કરવાવાળા (૬) રૂક્ષચરક-ઘી વિગેરે વિનાનું Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ सूत्रकृताङ्गयो पात्राइन्ने निस्मारिते तेन पातलियानार्थ चरन्ति ये ते तथा, 'लूह चरगा' रूक्ष बरका-रूक्षं घृतादिभिः स्नेह जतानेन चरन्ति, समुदाणचरगा' समुदानचरका -समुदानेन मिक्षया चान्ति ये ते तथा, उच्चनीचाऽने गृहेभ्य एवा हारमानयन्ति परे पुन:-'संभवरगा' संसृष्टचरकाः खरण्टि तेन हस्तादिना दीयमानं संसृष्टं तेन चरन्ति ये ते तथा, 'असं सहचरगा' प्रसंसृष्टचरका:रिक्तहरतेनैवाऽहारं गृह्णन्त । अन्ये पुनः 'वजातस सट्टचरगा' तज्ज्ञानसंपृष्ट. चरकाः -तज्मातेन देयद्रव्याविरोविना अन्नेन शाकेन वा यत्संसृष्टं हस्तादि तेन चरन्ति ये ते तथा' 'विठ्ठलाभिया' दृष्टलामिका:-दृष्टम्यैवाऽऽहारस्य लामः तद्वन्तः 'अदिलाभिया' अष्टलामिका:-प्रदृष्टयैव भक्तादेली मः, केचिद् दृष्टमेवाऽऽहारं गृह्णन्ति, केचिददृष्टमेवाहारं गृह्णन्ति 'पुढाभिया अपुडुलामिया' प्रान्त चरक-पात्र में से आहार निकाल लेने पर उसमें लगा रह गया आहार ही ग्रहण करने वाले। (६) रूक्ष चरक-घृतादि से रहित रूखा आहार ही लेने का अभिग्रह करने वाले । (७) समुदान चाक--छोटेघडे अनेक घरों से ही भिक्षा लेने का अभिग्रह करने वाले। (८) संसष्ट चरक-भरे हुए हाथ या पात्र से ही दिये जाने वाले आहार को ग्रहण करने वाले। (९) असंसृष्ट चरक--नहीं भरे हुए हाथ से ही भिक्षा लेने वाले । (१०) तज्जान संसृष्ट' बरक-जो वस्तु दी जा रही हो उसी से अरे हुए हाय आदि से ग्रहण करने वाले । (११) दृष्टलाभिक--नेत्रों से दीखते आहार को ही लेने वाले । (१२) अदृष्टला. भिक--अदृष्ट आहार को ही ग्रहण करने वाले। (१३) पृष्ट लाभिक-- વિગય-લુ આહાર લેવાના અભિગ્રહવાળા (૭) સમુદાનચરક–નાના પ્રકારના અનેક ઘરોમાંથી આપવામાં આવેલ આહાર લેવાના અભિગ્રહવાળા. (૮) સંસૂચક–ભરેલા હાથ અથવા પાત્રથી જ આપવામાં આવેલા આહારને જ ગ્રહણ કરવાવાળા (૯) અસંતૃણચરક-ન ભરેલા હાથથીજ આહાર લેવાવાળા. (૧૦) તજજાત સંસ્કૃષ્ટ ચરક-જે વસ્તુ આપવામાં આવી રહી હોય તેનાથી ભરેલા હાથ વિગેરેથી ગ્રહણ કરવાવાળા (૧૧) દખલાભિક– આંખેથી દેખાતા આહારને જ ગ્રહણ કરવાવાળા. (૧૨) અદછલભિક–નહીં દેખાતા આહારને જ ગ્રહણ કરવાવાળા. (૧૩) પૃષ્ટલ સિક–પૂછીને આપ વામાં આવેલ આહાર જ ગ્રહણ કરવાવાળા. (૧૪) પૂછયા વિના આપવામાં Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयावधिनी टीका द्वि श्र. अ. २ क्रियास्थान निरूपणम् ३०३ पृष्टलाभकाः अपृष्टलाभकाः केचित् पृष्ट-प्रश्नपूर्वकं केचित् अपृष्टमेव भक्तादीन् लभन्ते । 'भिक्खालामिया - अभिवखालाभिया' मिक्षालाभिका:- अभिक्षाळामिका:- केचन याचित्वा भिक्षां लभन्ते केचन विना याच च्या तुच्छमेवाहारं प्राप्नु वन्ति, । ' अन्नाय चरगा' अज्ञात वरका :- अज्ञात सेवादारं चरन्तीति-अज्ञातचरका ः - आज्ञातकुलचरका इत्यर्थः, 'उवनिहिया' उपनिहित काः- दातुः समीपस्थमेवाऽऽहार गृह्णन्ति, 'संखादत्तिया' संख्पात्तयः- सातमेन पञ्च सप्त वाऽऽहारं गृह्णन्ति, केचित् - 'परिमितपिण्डवाया' परिमितपिण्डपातिका - परिमितान् प्रमाणोपेतानेव पिण्डान् प्रतिगृह्णन्ति । 'सुदेसणिचा ' शुद्वैपगाः- शङ्कादिदोषरहिताः केचन मुनयः । केचन - 'अंताद्वारा-पंताहारा -अरसाहारा - विरसाहारा -लुहादारा' अन्वाहाराः-म. कोई पूछ कर दिये जाने वाले आहार को ही ग्रहण करते हैं । (१४) बिना पूछे दिये जाने वाले आहार को ही लेने वाले । (१५) त्रिक्षा लाभिक-- याचना करके मिले हुए आहार आदि को स्वीकार करने वाले । (१६) अभिक्षा लाभिक पूर्वोक्त से विपरीत। विक्षालामिक और अभिक्षा लाभिक का अर्थ तुच्छ आहार और अतुच्छ आहार लेने वाले, ऐसा भी होता है । (१७) अज्ञात चरक --अज्ञात - अपरिचित घरों से भिक्षा लेने वाले । (१८) उपनिहितक--दाता के समीप रखा हुआ ही आहार ग्रहण करने वाले । (१९) संख्यादत्तिक -- दत्ति की संख्या निश्चित करके ही आहार लेने वाले । (२०) परिमित पिण्डपातिक-- परिमित पिण्ड लेने वाले । (२१) शुद्धैषणिक - शंका आदि दोषों से रहित आहार लेने वाले । આવેલ આહારને જ ગ્રહણુ કરવાવાળા. (૧૫) ભિક્ષાલાભિક—યાચના કરતાં મળેલ આહાર વિગેરેને જ ગ્રહણ કરવાવાળા (૧૬) અભિક્ષા લાભિક—ભિક્ષા વિના મળેલાં આહારને જ ગ્રšણુ કરવાવાળા, અર્થાત્ તુચ્છ અને અતુચ્છ અને પ્રકારના આહાર લેવાવાળા (૧૭) અજ્ઞાત ચરક—અજ્ઞાત અપરિચયવાળા ઘરેમાંથી જ આહાર ગ્રહણ કરવાવાળા, (૧૮) ઉપનિહિતક---દાતાની સમીપે રાખ વામાં આવેલ આહાર જ ગ્રહણુ કરવાવાળા. (૧૯) સંખ્યાદત્તિક——વ્રુત્તિની સખ્યા નક્કી કરીને જ આહાર લેવાવાળા (૨૦) પરિમિત પિંઢપાતિક-પરિમિતર્ષિ’ડ આહાર લેવાવાળા. અર્થાત્ પ્રમાણુ યુક્ત (૨૧) શુદ્વૈષણિક—શકા વિગેરે દાષાથી રહિત આહાર લેવાવાળા, Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ । सूत्रकृतामसूत्र जितानेव पदार्थान गृह्णन्ति, मान्ताहारा अवशिष्टान्येवाऽन्नानि गृहन्ति । 'अरसाहाराः जीरकादिरसव जितानेव आहारान् स्वीकुर्वन्ति, 'विरसाहारा:-विगतो रसो येषु तान् आहारान् । समाहरन्ति, रूक्षाहारा तुच्छाहारा:-चणकाद्याहारकाः 'अंतजीवी-पंतजीवी-अन्तजीदिनः-मान्तजीविनः अन्तमान्ताहारेणाऽऽजीविकां कुर्वन्ति 'आयवि. लिया' आचाम्लिका:-केचन सदैव आय म्बलं कुर्वन्ति, 'पुरिमडिया' पुरिमद्धिका:दिनस्यापरार्धे प्रहरद्वये एवाऽऽहारं कुर्वन्ति, 'निविग्गिया' निश्कृितिकाः-घृतादिविकृतिरहि ताऽऽहारकाः 'अमज्जमांसासिणो' अमद्यमांसाशिनः, मद्यमांसाभ्यामिह -'बुद्धि लुम्पति यद द्रव्यं मांसवृद्धिकरं तद त्यजेत्. उपलक्षणाद् मादकद्रव्यपरिहारः 'णो णियामरसभोई नो निकामरसभोजी-नित्यं रसमिश्रिताऽऽहारं न कुर्वन्ति । 'ठाणाइया' स्थानान्वित्ता:-सदा कायोत्सर्गकारिणः 'पडियाठाणाइया' प्रतिमास्था. नान्विता:-पतिमास्थानानि-द्वादश विधानि अभिग्रहविशेपाःतैः समन्विताः 'उक्कुडु ___ इनसे अतिरिक्त कोई अन्ताहारी मुनि भुंजी हुई वस्तु को ग्रहण करने वाले कोई प्रान्ताहारी-चचा खुचा आहार लेने वाले, तथा वासी आहार लेने वाले कोई रस वर्जित आहार लेनेवाले, कोई विरस आहार लेने वाले, कोई रुक्षाहारी, कोई तुच्छाहारी, कोई अन्त-प्रान्त जीवी, कोई सदैव आयंबिल, करने वाले, कोई पुरिमाई करने वाले अर्थात् दिन के दो प्रहर तक आहार न करने वाले, कोई घृत आदि की विकृति का त्याग करने वाले, मद्य-मांस का सेवन न करने वाले अर्थात् बुद्धि को भ्रष्ट करने वाले सभी मादक पदार्थो का त्याग करने वाले, प्रतिदिन रसमिश्रित आहार नहीं करने वाले, कायोत्सर्ग करने वाला, यारह प्रकार की प्रतिमाओं (अभिग्रहों) से युक्त, कोई उत्कुटुक आसन આ શિવાય કેઈ આતાવારી-મુની શેકેલી વસ્તુને ગ્રહણ કરવાવાળા. કઈ પ્રાન્તાહારી-વ ઘડ્યો આહાર લેવાવાળા તથા વસી આહાર લેવાવાળા. કઈ રસવજીત આહાર લેવાવાળા કેઈ વિરસ આહાર લેવાવાળા. કોઈ રૂક્ષ આહાર લેવાવાળા કઈ તુચ્છ આહાર લેવાવાળા કેઈ અન્ત પ્રાન્ત જીવી. કેઈ હમેશાં આંબેલ કરવાવાળા, કેઈ પુરિમડૂઢ કરવાવાળા અર્થાત દિવસના બે પ્રહર સુધી આહાર ન કરવાવાળા. કેઈ ઘી વિગેરેની વિકૃતિને ત્યાગ કરવાવાળા, મદ્ય કે માંસનું સેવન ન કરનારા અર્થાત બુદ્ધિને ભ્રષ્ટ કરવાવાળા સઘળા માદક પદાર્થોનો ત્યાગ કરવાવાળા દરરોજ સરસ-આહાર ન કરવાવાળા કાયેત્સર્ગ કરવાવાળા, બાર પ્રકારની પ્રતિમાઓ (અભિગ્રહો) થી યુક્ત, કઈ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् आसणिया' उत्कुटुकासनिका:-श्रोणीमागस्यालग्नेनोपवेशन मुस्कुटुकासनम् तेना. सनेन उपविशन्तीत्यर्थी, 'गेसज्जिया' नैषधका:-आप्तनं विस्तीर्य-एव भूमौ उपवि शन्ति, 'चीरासणिया' वीरासनिकाः वीरासनं कृत्वोपविशन्ति केचन तत्र वीरासन सिंहासनोपविष्टरद् भून्यस्तचरणं मुक्त जानकायस्थानम् 'दंडायतिया' दण्डायतिका:-दण्डवत् आयतम्-आयामो येषां ते तथा, 'लगंडसाइणों ळगण्डशायिना-- चक्रकाष्ठन् शेरते, 'अप्पाउडा-आतया' अमाता:-अगतयः, तत्र-अपावृता-प्राव णरहिता:-मुखबस्विका चोलपट्टकभिन्नवस्त्रं परित्यज्य-ग्रीष्मकाले ग्रीष्मातापनं शीतकाले शीतातापनं कुर्वन्तः, अगतयः-गतिविरहिताः ध्यानमग्ना इति यावत्, "कंलगाने वाले, कोई आसन बिछाकर भूमि पर बैठने वाले, कोई वीरा: सन करने वाले अर्थात् पृथ्वी पर दोनों पांच टेक कर कुर्सी पर बैठे हुए अनुष्य की कुर्सी हटा लेने पर जो आसन हो जाता है, उस आसन से बैठने वाले होते हैं। कोई दंडासन करते हैं अर्थात् दंड के समान लम्बे होकर स्थित होते हैं। कोई लगडशायी होते हैं अर्थात् जैसे टेढा लकड दोनों सिरों से भूमि को स्पर्श करता है और बीच में अधर रहता है, उसी प्रकार सिर और पैर जमीन पर टेक कर शरीर के बीच का भाग अधर रखते हैं अथवा सिर और पैर को अधर रखकर बीच के भाग को जमीन से टेक कर रहते हैं। कोई प्रावरण रहित होते हैं अर्थात् मुखवस्त्रिका और चोलपट्टा से भिन्न वस्त्रों को त्याग कर ग्रीन काल में गर्मी की और शीतकाल में सर्दी की ओतापना लेते हैं. कोई ध्यान मग्न रहते हैं कोई खुजली आने पर भी शरीर को ઉલ્લુકાસન કરવાવાળા, કેઈ આસનને ત્યાગ કરીને જમીન પર જ બેસવાવાળા, કોઈ વીરાસન કરવાવાળો. અથવા પૃથ્વી પર બંને પગ ટેકવીને ખર્શિની માફક એટલે કે મુર્શિ પર બેઠેલા માણસની ખુશિં હટાવી લીધા પછી જે આસન થઈ જાય છે, તે આસનથી બેસવાવાળા હોય છે. કેઈ દંડાસન કરે છે. અર્થાત દંડની જેમ લાંબા થઈને સ્થિત રહે છે. કેઈ લગંડશાયી હોય છે અર્થાત જેમ વાકુ લાકડું બને બાજુથી જમીનને સ્પર્શ કરે છે. અને વચમાં અદ્ધર રહે છે. એ જ પ્રમાણે માથું અને પગ જમીન પર ટેકવીને શરીરને વચલે ભાગ અદ્ધર રાખે છે. અથવા માથુ અને પગને અદ્ધર રાખીને વચલા ભાગને જમીન પર ટેકવીને રહે છે કેઈ કઈ પ્રાવરણ રહિત હોય છે, અર્થાત્ મુખવસ્ત્રિકા અને લપટ્ટાથી જુદા વસ્ત્રોને ત્યાગ કરીને ઉનાળામાં ગમિની અને શીયાળામાં શદિ-ઠડકની આતાપના લે છે. કેઈ ધ્યાન મગ્ન રહે છે. કેઈ ખજ. सू० ३९ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे 1: इया अणिट्ठुहा' अकण्डकाः अनिष्ठीवनाः, तत्र अकण्ट्रयकाः खर्जनव्यापाररहिताः सूक्ष्म सजीवविराधनाभयात् अनिष्ठीवनाः कफादीनामक्षेतारः 'एवं जहोत्रवाइए' एवं यथोपपातिके - औपपातिकसूत्रे ये ये गुणाः प्रोक्तास्ते सर्वे एव गुणा अनुसन्धेयाः तैर्यु'धुत के समंसुरोमनहा' धुत केशइमथुरोमन खाः- धुताः -निवारिताः केशइमथुरोअनखानां संस्कारा =यैस्ते तथा, इमे साधनः केश मथुन खादीनामसंस्कर्त्तारः, 'सन्न गाडि कम्मविषमुक्का' सर्वगात्र परिकर्मविप्रमुक्ताः - शरीरसंस्काररहिताः 'चि ंति' विठन्ति 'देणं एएणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाई' ते महामतयः खलु एतेनयथोदितेन विहारेण विहरन्तः बहूनि वर्षाणि अनेकवर्षं यावत् 'सामन्नपरियागं' श्रामण्यपययम् 'पाउणति' पाळयन्ति 'पाउगित्ता' पालयित्वा 'बहु बहु आवाहंसि उपपन्नंसि वा अणुपपन्नंसि वा' अनेकप्रकारकवाधायामुत्पन्नायां वा - अनुत्पन्नायां वा, 'रोगातङ्के समुपस्थितेऽसमुपस्थिते वा 'बहूई भत्ताई पच्चवर्खति' बहूनि भक्तानि - नहीं खुजलाते, कोई थुक बाहर नहीं निकालते । इस प्रकार औपपातिक में जो गुण कहे हैं, वे सब यहां भी कहलेने चाहिए। वे धार्मिक पुरुष केशों, मूछों, रोमों और नखों के संस्कार से रहित होते हैं। सम्पूर्ण शरीर के संस्कार से रहित होते हैं । सूत्र वे महामति पूर्वोक्त चर्या के साथ विचरते हुए अनेक वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन करते हैं। तत्पश्चात् अनेक प्रकार की बाधा उत्पन्न होने पर अथवा न उत्पन्न होने पर भी, रोग या आतंक (शीघ्र प्राण हरण करने वाले शूल आदि) के उपस्थित होने पर अथवा न उपस्थित होने पर भी बहुत से भक्तों का प्रत्याख्यान करते हैं । दीर्घ વાળ આવવા છતાં પણુ શરીર ખજવાળતા નથી. કોઇ થૂક મહાર કહેાડતા નથી. આ પ્રમાણે ઔપાતિક સૂત્રમાં જે ગુણ્ણા કહેવામાં આવ્યા છે. તે સઘળા જુથે અહિયાં પણ કહેવા જોઈએ. તે ધાર્મિક પુરૂષા વાળા મળે!, રામા અને નખાના સંસ્કાર વિનાના હૈાય છે. સમ્પૂર્ણ રીતે શરીરના સસ્કાર વિનાના હાય રે. એ મહામતિ પ્વક્ત ચર્ચાની સાથે વિચરતા થકા અનેક વર્ષો સુધી શ્રામણ્ય પર્યાયનું પાલન કરે છે. તે પછી અનેક પ્રકારની બાધા ઉત્પન્ન થતાં અથવા ઉત્પન્ન ન થવા છતાં પણુ રાગ અથવા આતંક (શીઘ્ર પ્રાણ હરણ કરવાવાળા શૂળ વિગેરે) ઉપસ્થિત થાય ત્યારે અથવા ઉપસ્થિત ન થાય તે પણ ઘણા ખરા ભક્તોનું (આહારનું) પ્રત્યાખ્યાન કરે છે. લાંમાં સમય સુધી Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थान निरूपणम् ३०७ प्रत्याख्यान्ति 'पच्चावखाइत्ता बहूई भत्ताइ अणसणाए छेदिति' प्रत्याख्याय बहूनि भक्तानि अनशनेन छेदयन्ति, दीर्घकालमनशनं कृष्णा संस्थारं समापयन्ति 'अणस' गाए' छेदित्ता' अनशनेन छेदयिला 'जस्लट्ठाए कीर' यदर्थाय - यस्मै प्रयोजनाय मोक्षमाप्तये क्रियते एताः - वक्ष्यमाणाः क्रियाः, यथा - 'नग्ग भावे' नग्नभावो नग्नता 'मुंडभावे' मुण्डसाव: - शिरोमुण्डनम् 'अव्हाणभावे' अस्नानभावः 'अदेतत्रणगे' अदन्तवर्णकः, स्नानामात्रो दन्तानामपक्षालनञ्च । 'अच्छतए ' अच्छत्रकः 'अणो' वाहणए' अनुपानत्कः- नस्तः उपानहौ यस्य सोऽनुपानत्कः । ' भूमिसेज्जा' भूमिशय्या - भूमौ शयनम् 'फलगसेज्जा' फलकशय्या 'कट्ठसेज्जा' काष्ठशय्या 'केसलोए' केशलोच: 'वैमचेरवासे' ब्रह्मचर्यवासः: - ब्रह्मवर्यं वासः वसनं यस्य स तथा 'परघरपवेसे' परगृहप्रवेशः - भिक्षार्थं वर्षाद्युवप्लवेभ्यो व्रतरक्षार्थं वा, ''लगावल' लब्धापलब्धे - अयं भावः - सन्मानादिना लबे भिक्षादिके तिरस्कारा दिना अपलब्धे - अमाप्ते भिक्षादिके हर्षशोकरहितः, 'माणावमाणाओ' मानापमानानि - लब्धमानापमानानि यदर्थं वसन मानानि अपमानानि च सहते, 'हीलणाओ' हीलनाः तत्र हीनं जन्मकर्मोद्घाटन पूर्व के निर्भर्सनम्, 'निंदणाओ' निन्दा वाक्यानि - निन्दनं कुत्सितशब्दपूर्वकं दोषोद्घाटनेन अनादरणम् 'खिसणाओ' काल तक अनशन - प्रत्याख्यान करके संथारे को समाप्त करते हैं और जिस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए नग्नता, मुण्डता, स्नान का त्याग, दन्तधावन का स्थाग, छाता और जूना का त्याग, भूमिशयन, पाट पर शयन, काष्ठ पर शयन, केश लोच, ब्रह्मचर्यवास, परगृह प्रवेश अर्थात् भिक्षावृत्ति, भिक्षा का लाभ होने पर या लाभ न होने पर राग-द्वेष धारण न करके समभाव धारण किया था, भर्त्सना सहन की थी अर्थात् जन्म और कर्म प्रकट करके किये गये अपमान को सहन किया था निन्दा सहन की थी खिंसणा अर्थात् हाथ या मुख અનશનનું પ્રત્યાખ્યાન કરીને સથરા કરે છે અને જે ઉદ્દેશ્યને પ્રાપ્ત કરવા માટે નમ્રપણું”, મુંડપણુ, સ્નાનના ત્યાગ, દાતણ કરવાના ત્યાગ છત્રી અને જોડાના ત્યાગ, ભૂમિશયન, પાટપર શયન, લાકડા પર શયન, કેશ લેચ, પ્રાચય વાસ, પરગૃહ પ્રવેશ. અર્થાત્ ભિક્ષાવૃત્તિ ભિક્ષાને લાભ થાય ત્યારે અથવા ભિક્ષાને લાભ ન થાય તે પણ રાગ કે દ્વેષભાવ ધારણ ન કરતાં સમભાવ ધારણ કર્યું હાય, જે પ્રત્યેાજન માટે માન-અપમાન સહન કર્યુ હોય, ભાઁના તિરસ્કાર સહન કરી હાય, અર્થાત્ જન્મ, અને કમ પ્રગટ કરીને કરવામાં આવેલ અપમાન સહન કર્યું. હાય, નિંદા સહન કરી હાય, ખિસણ્ણા Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताचे खिसनानि-खिभनं इस्तमुखादिविकारपूर्वकमपमाननम् , 'गाहणाभो' गहणापहणं गुर्वादिसमक्षे दोपमुद्धाट्य तिरस्करणम्, 'तज्जगाओ' तर्जनानिअंगुल्यादिना 'तालणाओ' ताडनानि-दण्डादिना, 'उच्चावया-गामकंटगा' उच्चायचा:-ग्रामकण्टकाः, तत्र उच्च बचाः अनेकविधाः अनुकूलाः, प्रतिकूळा, धागकण्टकाः श्रोत्रमनोहराश्च शब्दाः, 'वावीसं परीसहोवसम्मा' द्वाविंशतिः मरीपहोपसर्गाः 'अहियासिज्जति' अधिसह्यन्ते-तेषां सहनं क्रियते इत्यर्थः, 'तमढे भाराहति' तमर्थ मोक्षपाप्तिलक्षणमाराधयनित कृतमतयः, 'तमहं आराहिता' समर्थ-मोक्षमामिलक्षगमाराध्य 'चरमेहिं उस्सासनिस्तासेहि' चरमरन्तिम रुच्छ्वासनिःश्वासैः 'अणंत' अनन्तम्-नास्ति-अन्तं-परिसमाप्तियस्य तत् अनन्तम्, 'अणुत्तरं' सर्वत उत्तमम्, 'निवाघाय' नियाघातम् व्याघातो बाधः विनाशो वा तद्रहितमिति निर्व्याघातम्, 'निरावरण निरावरणम्-सर्वथा आवरणरदितम्-कोऽपि नास्ति आच्छादयिता तादृशम् । 'कसिणं' कुस्नम्-सकलपदार्थ'विषयक सम्पूर्णमिति, 'परिपुष्ण' परिपूर्णम्-लेशतोऽपि न्यूनतारहितम् स्वभावापेक्षया पौर्णमासीचन्द्रवदखण्डम्, 'केवलतरणाणदसणं' केवलवरज्ञानदर्शनम्केवलभेष्ठज्ञानं दर्शनञ्च 'समुप्पाडेति' समुत्पादयन्ति, वाह्याभ्यन्तरसाधनेन मोक्ष आदि विकृत करके किया जाने वाला अपमान सहन किया था, गाँ सहन की थी, तर्जना और ताड़ना सहन की थी, इन्द्रियों के अनेक प्रकार के प्रतिकूल विषयों को सहन किया था, बाईस परीपहों और विविध प्रकार के उपसर्गों को सहन किया था, उस प्रयोजन को अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं। उस प्रयोजन को प्राप्त करके अन्तिमश्वासो छुवासों में अनन्त, सर्वोत्तम, व्याघात (याधा) से रहित, निरावरण सम्पूर्ण । सर्ववस्तुविषयक' तथा प्रतिपूर्ण (पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान 'अखण्ड) केवल ज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेते हैं। केवलज्ञान और केवल दर्शन की उत्पत्ति के पश्चात् सिद्धि प्राप्त करते हैं । उनको એટલે કે હાથ અથવા મુખ વિકૃત કરીને કરવામાં આવનારા અપમાનને સહન કર્યું હોય, ગહ સહન કરી છે, તેના સહન કરી હોય, અને તાડને સહન કર્યું હોય, ઈન્દ્રિયેના અનેક પ્રકારના પ્રતિકૂળ વ્યાપારને-પ્રવૃત્તિયોને સહન કરેલ હોય? બાવીસ પ્રકારના પરીષહે અને અનેક પ્રકારના ઉપસને સહન કરેલ હોય તે પ્રજનને અર્થાત મોક્ષને પ્રાપ્ત કરી લે છે, તે પ્રયજન પ્રાપ્ત કરીને છેલ્લા શ્વાસેચ્છવાસમાં અનંત, સર્વોત્તમ, વ્યાઘાત, (બધા)થી રહિત નિરાવરણ સપૂર્ણ (સર્વવસ્તુ સંબંધી) તથા પ્રતિપૂર્ણ પુનમના ચન્દ્રમાની જેમ અખંડ કેવળ જ્ઞાન અને કેવળ દર્શનની ઉત્પત્તિની Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् स्याऽऽयवहितकालयत्ति साधनमुत्पादयन्ति ते महानुभावाः, 'समुपाडित्ता' समु. स्पाय केवलज्ञानम् 'तो पच्छा' तत्पश्चात् केवलज्ञानोत्पत्यनन्तरम्, तदेवाऽरःम्य 'सिज्झति' सिध्यन्नि-सिद्धिमाप्नुवन्ति, सिद्धिर्मोक्षा-साध्यते-समुत्पात्यते केवलज्ञानेन या सा सिद्धिः, अशेषकर्मक्षपनिरतिशयानन्दात्मिका, तथा-बुझंति' बुध्यन्ते-चतुर्दशलोकस्वरूप सामान्य विशेषात्मकं पदार्थजातं सम्यक् पश्यन्ति, 'मुच्चंति' मुञ्चन्ति-संसाराद् विमुक्ता भवन्ति,-संसार परित्यजन्तीत्यर्थः 'परिणिन्यायति' परिनिर्वान्ति-उपशान्ता भवन्तीत्यर्थः, 'सम्पदुक्खाणं अंतं करें वि' सर्वदुःखाणामन्तं कुवन्ति-सर्वदुःखेभ्यो विमुक्ता भवन्तीत्यर्थः। 'एगञ्चाए पुण एगे भयंतारो' एकाचया पुनरे के भयत्रातारो भान्ति-केचन महात्मानः पुनरेकस्मिन्नेव भवे मुक्ति प्राप्नुवन्ति, 'अवरे पुण पुनकम्मावसे सेगं' अपरे पुन: पूर्वभवोपार्जितकर्मावशेषेण 'कालंपासे कालं किच्चा' कालमासे-कालावसरे कालं कृत्वा-मरणं माप्य 'अन्नयरेसु' अन्यतरेषु 'देवलोएसु' देवलोकेषु 'देवत्ताए' देवत्वाय 'उचवत्तारो भवंति' उपपत्तारो भवन्ति, देवत्वमाप्तये देवलोकं गच्छन्ति सिद्धि से समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है। वे निरतिशपज्ञान और आनन्दमय होते हैं। वे महापुरुष बुद्ध अर्थात् सम्पूर्ण लोक तथा अलोक को तथा समस्त सामान्य विशेषात्मक पदार्थों को स्पष्ट रूप में जानतेदेखते हैं । जन्म-मरण से सर्वथा और सदा के लिए मुक्त हो जाते हैं । परिनिर्वाण अर्थात् परमशान्ति प्रास कर लेते हैं और समस्त दुःखों का अन्त करते हैं। ____ कोई-कोई भाग्यवान् पुरुष ऐसे होते हैं जो एक ही भव में मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं। कोई-कोई पूर्व भवों में उपार्जित कर्मों के शेष रह પછી સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરે છે. તે સિદ્ધિથી સઘળા કર્મોને ક્ષય થઈ જાય છે તે નિરતિશય-અત્યંત જ્ઞાન અને આનંદમય હોય છે. તે મહાપુરૂષ બુદ્ધ અર્થાત્ સંપૂર્ણ લેક તથા આલેકને તથા સઘળા સામાન્ય અને વિશેષાત્મક પદા. ને સ્પષ્ટ રૂપથી જાણે-ખે છે જનમ-મરણથી સર્વથા અને સર્વદા માટે મુક્ત થઈ જાય છે પરિનિર્વાણ અર્થાત્ પરમશાન્તિ પ્રાપ્ત કરી લે છે. અને સઘળા દુઃખોને અંત કરી લે છે. કઈ કઈ ભાગ્યશાળી પુરૂષ એવા હોય છે કે—જેએ એક જ ભવમાં મુક્તિ પ્રાપ્ત કરી લે છે. કેઈ કઈ પૂર્વભવમાં ઉપાર્જન કરેલા કર્મો શેષ રહી જવાથી યથા સમય મૃત્યુને પ્રાપ્ત કરીને કેઈ એક દેવ લેકમાં દેવની Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० सूत्रकृतास्त्र देवलोकानेव विशिनष्टि 'तं जहा' तद्यथा-'मह डिएसु' महर्दिकेषु-महाऋद्धिशालिघु 'महज्जुइपसु' महाद्युतिकेपु-विशिष्टावरणप्रभायुक्तेषु 'महापरक्कमेसु' महापराक्रमेषु 'महाजसेसु' महायशस्विपु-विशालकीर्तिपु 'महावलेसु' महायलेषुविशेपवलशालिघु 'महाणु भावेसु' महानुभावेषु-अचिन्त्यम मावयुक्तेषु 'महासो खेसु' महासौख्येपु-विशिष्टसुखसाधनसंपन्नेपु 'ते तत्थ देवा भवंति' ते तत्र देवाः भान्ति, देवान् वि शिनष्टि वक्ष्यमाणविशेपणैः, तथाहि-'महडिया' मह. दिकाः 'महज्जुया' महाद्युतिकाः 'जाव महासोक्खा' यादद् महासौख्याः 'हारविराइयवच्छा' हारविराजितवक्षसः 'कडग-तुडिय-मियभूया' कटकत्रुटितस्तम्भितभुमाः, 'अंगय- कुंडल-मट्टगंडयलक गपीठवारी' अगदकुण्डलमृष्टगण्डजाने से यथा समय मृत्यु को प्राप्त होकर किसी देवलोक में देवपर्याय से जन्म लेते हैं। वे देवलोक कैसे होते हैं ? यह कहते हैं देवलोक विशिष्ट विमान आदि महान् ऋद्धि से युक्त होते हैं महान् युति बाले अर्थात् आभरणों की विशिष्ट प्रभासे युक्त होते हैं । महापराक्रम से युक्त, महाकीर्तिवाले, महावल, महान् प्रभाव वाले तथा विशिष्ट सुख साधनों से सम्पन्न उक्त देव विमानों में उत्पन्न होने वाले देव किस प्रकार के होते हैं यह दिखलाते हैं देव महान् ऋद्धि के धारक, महान् कान्ति से सम्पन्न यावत् महान् सुख से सम्पन्न होते हैं । उनका वक्षस्थल हार से सुशोभित होता है। कटक एवं केयूर आदि आभूषणों से उनकी भुजाएं स्तब्ध सी रहती हैं। वे अंगद एवं कुडलो से युक्त कपोल वाले होते है तथा પર્યાયથી જન્મ લે છે. તે દેવલેકે કેવા હોય છે? તે હવે બતાવवामां आवे छे દેવલોક વિશેષ પ્રકારના વિમાન વિગેરે મહાન ઋદ્ધિથી યુક્ત હોય છે. મહાન ઘતિથી યુક્ત અર્થાત્ આભૂષણેની વિશેષ પ્રકારની પ્રમા-કાંતિથી યુક્ત હોય છે. પરાક્રમથી યુક્ત મહાનું કીર્તિવાળા મહાન બળવાળા મહાન પ્રભાવવાળા તથા વિશેષ પ્રકારના સુખ સાધનોથી યુક્ત, દેવ વિમાનેથી યુક્ત, ઉપર કહેલાં દેવ વિમાનમાં ઉત્પન્ન થવાવાળા દેવ કેવા પ્રકારના હેય છે? તે હવે બતાવે છે. દેવે મહાન અદ્ધિને ધાર કરવાવાળા, મહાન કાંતિથી યુક્ત યાવત્ મહાન્ સુખ સમ્પન હોય છે. તેઓનું વક્ષસ્થળ હૃદય -છાતી હારથી સુશોભિત હોય છે, તેઓની ભુજાઓ કટક-કડા અને કેયુર Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् दलकर्णपीठधारिण:-Yङ्गदादीनां धारकाः, 'विचित्तहत्थाभरणा' विचित्रहस्ताभरणाः, विचित्राणि हस्ताभरणानि येषां ते तथा, 'विचित्तमालामउलिमउडा' विचित्रमालामौलिमुकुटाः विचित्रा-विविधाकारा माला तया बद्धानि अतएव सुशोभितानि मौलिषु-मस्तकेषु मुकुटानि येषां ते तथा, विलक्षणमालावद्वमुकुट वन्तो. भवन्ति पूर्वोपार्जितसुकृतकर्मपभावेण, 'कल्लाणगंधपवरवत्थारिहिया' कल्याणगन्धमवरवस्त्रपरिहिताः-सुरभिगन्धयुक्तपवरवस्त्रपरिधानाः कल्याणानि-माजलि कानि प्रवराणि-श्रेष्ठानि वस्त्राणि परिहितानि-धारितानि ये स्ते तथा, 'कल्लाण गपवरमल्लाणुलेवणधरा' कल्याणकपवरमाल्यानुलेपनधाग:-कल्याणकमालानां कल्याणकगन्धानुलेपनानाञ्च धारकाः भवन्ति, 'भासुरवोंदी' भास्वरवोन्दय'भास्वरशरीरा:-प्रकाशयुक्तशरीरधारका भवन्ति । 'पलंबव गमालधरा' प्रलम्बपनमालाधराः-वनं-जलं ततो जायमानं पङ्कजपुष्पं तस्य माला-चनमाला मध्यमपदलोपीसमासः, अथवा-बनम्-अरण्यं तत्र भवं चम्पकादिपुष्पं तेन निर्मापिता माला. कानों में कर्ण भूषण धारण करते हैं। उनके हाथों के आभूषण चित्र -विचित्र होते हैं। उनके मुकुट विचित्र मालाओं से सुशोभित होते हैं। वे कल्याणकारी श्रेष्ठ तथा सुगंधित वस्त्र धारण करते हैं। कल्याणकारी और उत्तममाला एवं अंगलोचन को धारण करने वाले होते हैं। उनका शरीर देदीप्यमान होता है-उनके शरीर से सर्वदा अदभुत तेज प्रस्फुटित होता रहता है। वे लम्पीलटकनी हुई वनमाला को धारण करते हैं। 'वन' का अर्थ है जल, उससे उत्पन्न होने वाला पुष्प-कमल, उसकी माला 'वनमाला' कहलाती है। वन-पुष्पमालावनमाला अथवा वन अर्थात् अरण्य में होने वाले चम्पक आदि के पुरुषों વિગેરે આભૂષણોથી અલંકૃત રહે છે, તેઓ અંગદ અને કુંડલેથી શોભાયમાન કપલવાળા હોય છે. તથા કાનમાં કર્ણભૂષણ ધારણ કરે છે. તેઓના હાથના આભૂષણે ચિત્ર-વિચિત્ર હોય છે. એમના મુગુટે વિચિત્ર પ્રકારની માળાઓથી શોભાયમાન હોય છે. તેઓ કલ્યાણ કારી શ્રેષ્ઠ તથા સુગંધવાળા વઓને ધારણ કરે છે. કલ્યાણ કારક અને ઉત્તમ માળ અને અંગતેચનને ધારણ કરવાવાળા હોય છે. તેઓનું શરીર દેદીપ્યમાન હોય છે. તેઓના શરીરમાંથી હંમેશાં અદ્દભૂત તેજ પ્રકાશતું રહે છે. તેઓ લાંબી લટકતી એવી વનમાળાઓને ધારણ કરે છે. વનને અર્થ જળ એ પ્રમાણે થાય છે. એટલે કે પાણીમાંથી ઉત્પન્ન થવાવાળા કમળની માળા વનમાળા” કહેવાય છે. વનપુષ્પમાળા વનમાળા અર્થાત્ જંગલમાં થવાવાળા ચંપા વિગેરે પુની Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ सूत्रहताहते वनमाला, अथवा-पर्णपुष्पमयोमाला वनमाला प्रकीर्तिता, अथवा-पापादलम्बिनी माला वनमाला निगद्यते, तादृशमालाघरा देवा भवन्तीति । ते देवाः स्वकीय वर्णस्पर्शातितेजोभिर्दिशं प्रद्योतयन्तो भविष्यकाले मोक्षगन्तारो भवन्तीति प्रतिपाचते-'दिव्वेणं-रूवेणं दिव्वेणं वण्णेणं' इत्यादिना, 'दिव्वेणं रूवेण' दिव्येन रूपेण 'दिव्वेणं वन्नेणं' दिपेन वर्णेन-विलक्षणवर्णेन 'दिनेणं गंधे' दिव्येन गन्धेन 'दिव्वेणं फासेणं' दिव्येन स्पर्शेन 'दिव्येण संघाएण' दिव्येन सङ्घातेन-विलक्षणशरीरसंहननेन 'दिव्वेगं संठाणे' दिव्येन संस्थानेन 'दिवाए इडिए' दिव्यया ऋदया 'दिव्याए जुईए' दिव्यया धुत्या 'दिवाए पभाए' दिव्यया प्रभया 'दिव्याए छायाए' दिपया छायया-कानया 'दिमाए अच्चाए' दिपया अचया 'दिवेणं तेएणं' दिव्येन तेजसा 'दिवाए लेमाए' दिया लेश्यया 'दसदिसाओ उज्जोवेमाणा' दशदिशः सर्वा अधिकाष्ठाः उद्योतयन्तः 'पभासेमाणा' प्रभासयन्तः 'गइकल्लाणा' गति कल्याणा. 'ठिइ कल्लाणा' स्थितिकल्याणा: 'आगमेसिभइया' की माला 'चनमाला' कहलाती है। अपना पत्तों और पुष्पों की माला 'वनमाला' होती है। अथवा पैरों तक लटकने वाली माला 'वनमाला' कही जाती है। देव ऐली बनमाला पहनते हैं। वे देव अपने वर्ण, स्पर्श, युति एवं तेज से दिशाओं को आलोकित करते हैं और भविष्य में मोक्ष जाने वाले होते हैं, यह कहते हैं-वे अपने विलक्षण वर्ण से, दिव्य गंधसे, दिव्यस्पर्श से, दिव्यसंघात से, दिव्य शारीरिक संहनन से, दिव्य आकृति से, दिव्य ऋद्धि से, दिव्य द्युति से, दिव्य प्रभा से, दिव्य छाया से, दिव्य कान्ति से, दिव्य ज्योति से, दिव्य तेज से, दिव्य लेश्या से समस्त दिशाओं को उद्योतित एवं प्रभासित करते हैं। भद्रगति और भद्र स्थिति वाले होते हैं । आगामी काल में भद्रक होने वाले हैं। भास, वनस' सेवाय छे. अथवा ५॥ सुधी सती माणा 'बनमाणा' કહેવાય છે. દેવે એવા પ્રકારની વનમાળા ધારણ કરે છે. તે દેવે પિતાના વર્ણ, સ્પર્શ શુતિ અને તેજથી દિશાઓને પ્રકાશમય કરે છે અને ભવિષ્યમાં ક્ષમાં જવાવાળા થાય છે. તે હવે બતાવે છે.–તેઓ પોતાના વિલક્ષણ વર્ષથી દિવ્ય ગધથી, દિવ્ય સ્પર્શથી દિવ્ય સંઘાતથી દિવ્ય શારીરિક સંહ નથી, દિવ્ય આકૃતિથી દિવ્ય ત્રાદ્ધિથી દિવ્ય-તિથી દિવ્ય પ્રભાથી, દિવ્ય છાયાથી દિવ્ય કાતીથી દિવ્ય તિથી, દિવ્ય તેજથી, દિવ્ય તેજલેશ્યાથી, સઘળી દિશાઓને ઉદ્યતિત અને પ્રકાશિત કરે છે, ભદ્રગતિ અને ભદ્ર સ્થિતિ વાળા હોય છે. આગામી કાળમાં ભદ્રક કલ્યાણુવાળા થવાવાળા હોય છે, Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोधिनी टीका द्वि. अ. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् ३१३ आगमिष्यद्भद्रका: 'यावि भवति' चापि भवन्ति 'एस ठाणे आयरिए' एतत्स्थानमार्यम् 'जाव सव्त्रदुक्खपदीणमग्गे' यावद् - सर्वदुःखम हीणमार्गः - एतदेव स्थानं सर्वदुःखान्तकरं भवतीत्येतावता - आर्यत्वम् 'एव सम्मे' एकान्तसम्यक् - मिथ्यात्वाविर स्यादिदोषरहितत्वात् 'सुमाहू' सुमाधु चैवत्स्थानम्, सर्वदुःखरहितत्वात् 'दोच्चरस' द्वितीयस्य 'ठाणस्स' स्थानस्य 'धम्मपक्खस्स' धर्मपक्षस्य 'विभंगे' विभङ्गः - विचारः 'एवमादिए' एवमाख्यातः यथोक्तप्रकारेण द्वितीयस्य धर्मस्थानस्य विचारोऽभव दिति । एतावता विवेकिभि धर्मपक्ष एव - आदर्त्तव्यः इति ॥ मु० २३ ||३८ मूलम् - अहावरे तच्चरस ठाणस्स मीसगस्स विभंगे एवमाहिज्जइ इह खलु पाईणं वा४ संतेगइया मणुस्सा भवति, तं जहा - अपिच्छा अप्पारंभा अष्पपरिउगहा धम्मिया धम्माणुया जाव धमेणं चैव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति, सुसीला सुव्वया सुपडियाणंदा साहू एगच्चाओ पाणाइवायाओ पडिविरया जावजीवाए एगच्चाओ अपडिविरया जाव जे यावणे तहष्पगारा सावज्जा अबोहिया कम्मता परपाण परितावणकरा कज्जंति तओ व एगच्चाओ अप्पडिविरया । से जहा णामए समणोवागा भवंति अभियजीवाजीवा उवलद्धपुण्णपावा आसवसंवरवेयणा णिज्जरा किरियाहिगरणवंध मोक्खकुसला असहे यह धर्म स्थान आर्यजनों का स्थान है यावत् समस्त दुःखों के क्षय का मार्ग है । मिथ्यात्व अधिरति आदि दोषों से रहित होने के कारण एकान्त सम्यकू मार्ग है। समस्त दुःखों से रहित होने के कारण सुसाधु मार्ग है । दूसरे स्थान धर्मपक्ष का यह विचार कहागया है । विवेकीजनों को धर्म पक्ष का ही आदर करना चाहिए ||२३|| આ ધર્મસ્થાન આજનાનું સ્થાન છે. યાવત્ સવ દુઃખાના ક્ષયને માર્ગ છે. મિથ્યાત્વ, અવિરતિ વિગેરેથી રહિત હાવાથી સુસાધુ માર્ગ છે આ પ્રમાણે આ બીજા ધપક્ષ સ્થાનને આ વિચાર કહેવામાં આવેલ છે. વિવેકી મનુષ્યએ ધર્મ પક્ષના જ આદર કરવા જોઈએ. ા૨ા सू० ४० Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे देवासुरनागसुवण गजक्खरक्ख सकिन्नर किंपुरिस गरुलगंधव्वमहोरगाइएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणइकर्मणिज्जा इणमेव निम्गंथे पावयणे णिस्संकिया णिकखिया निव्वितिमिच्छा लखट्टा गहियट्टा पुच्छियट्टा विणिच्छियद्वा अभिगयट्टा अट्टिमिज्जापेमाणुरागस्ता अथमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अयं अट्ठे अयं परमठ्ठे सेसे अड्डे उसियफलिहा अवगुयदुवारा अचियंत्तंतेउरपरघरपवेसा चाउदसमुद्दिद्वपुण्णिमालिगीसु पडिपुन्नं पोसहं सम्मं अणुपालेमाणा समणे निग्गंथे फासुए सणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपडिउन हकंबलपायपुंछणेणं ओतहसज्जेणं पीठफलक सेजासंथारएणं पडिला - माणा बहूहिं सीलव्वयगुणवेरमणपच्चकखाणपोसहोव वासेहिं अहापरिगहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणा विहरति । ते णं एयारुवेणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाई समणोवासगपरियागं पाउणंति पाउणित्ता आवाहंसि उत्पन्नंसि वा अणुपपन्नंसि वा बहूई भत्ताई पच्चकखात्ता बहूई भत्ताई अणसणाए छेति । बहूई भत्ताई अणसणाए छेइत्ता आलोइयपडिकंता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएस 'देवत्ता उत्तारो भवति, तं जहा - महड्डिएसु महज्जुइएसुः जाव महासोक्खेसु सेसं तहेव जाव एस ठाणे आयरिए जाव एतसम्म साहू । तच्चस्स ठाणस्स मिस्सगस्त विभंगे एवं आहिए | अविरई पडुच्च वाले आहिज्जइ, विरई पडुच्च पंडिए ३२४ ज्ज Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् ३१५ आहिज्जइ विश्या विरइं पडुच्च बालपंडिए आहिज्जइ तत्थ णं जा सा सत्रओ अविरई एस ठाणे आरंभट्ठाणे अणारिए जावे असम्बदुखापहीणमग्गे एगंतमिच्छे असाहू, तत्थ णं जा सो सब्बओ विरई एस ठाणे अणारंभटाणे आरिए जाव सचदुक्खापहीणमरणे एगंतसमे शाहु, तत्थ णं जा सा सबओ विश्याविरई एस ठाणे आरंभ णो आरंभहाणे एस ठाणे आरिए जाव सम्बदुक्खप्पहीणमग्गे एगंतसम्म लाहु ॥सू० २४॥३९॥. छाया-अधापरस्तीयस्य स्थानस्य मिश्रकस्य विभङ्ग एव माख्यायते । इह खलु म.च्या वा ४ सन्त्येव तो मनुश भवन्ति तथया-अरपेच्छा अल्पारम्भाः अल्पपरिग्रहाः धार्मिका धर्मानुगाः यावद् धर्मेण चैव वृत्ति कल्पयन्तो विहरन्ति, मुशीला सुव्रताः सुप्रत्यानन्दाः साधवः एकस्मात् प्रणातिपातात् प्रतिविरताः यावज्जीवनम्, एकस्माद् अप्रतिविरता यावद् ये चान्ये तथामकाराः सावधाः अबोधिकाः कर्मसमारम्भाः परप्राणपरितापनकराः क्रियन्ते ततोऽप्येकस्मात् अपतिविरताः। तद्यथानाम श्रमणोपासकाः भान्ति अभिगतजीवाऽजीवा उपलब्धपुण्यपापाः आस्ववसम्बरवेदनानिर्जराक्रियाऽधिकरणबन्धमोक्षकुशलाः असहाया अपि देवासुरनागनुवर्ण यक्षराक्षसकिन्नर किंपुरुषगरुड गन्धर्वमहोरगादिभिः देवगणैः निग्रन्थात् प्रवचनादनतिक्रमणीयाः अस्मिन्नन्थे प्रवचने निशिताः निष्काइक्षिताः निर्विचिकित्सा लब्धाः गृहीतार्थाः पृष्टार्थीः विनिश्चिवार्थी अमिगतार्थाः अस्थिमज्जापेमानुरागरक्ताः इदमायुष्मन् । नैर्ग्रन्थं प्रवचनम् अयमर्थः अयं परमार्थः शेषोऽनर्थः उच्छ्रित्स्फाटिकाः असंवृतद्वाराः असमतान्तःपुरपरगृहमवेशाः चतुर्दश्यष्टम्युदिष्टपूर्णिमासु प्रतिपूर्ण पौषधं सम्यगनुपालयन्तः श्रमणान् निग्रन्थान् मासुकैपणीयेन अशनपानखाद्यस्वायेन वस्त्रपरिग्रहकम्बलपादपोछनेन औषधभैप ज्येन पीठफलकाययासंस्तारकेण प्रतिलाभयन्तः बहुमिः शीलवत्गुणविरमणपत्याख्यानपोपयोपवासः यथापरिगृहीतैः तपः-कर्मभिः आत्मानं भावयन्तो विहरन्ति । ते खलु एतद्रूपेण विहारेण विहरन्तः वनि वर्याणि श्रमणोपासापर्याय पालयन्ति पालयित्या आवाधायामुत्रनायां वा अनुत्पन्नायां वा बहूनि भक्तानि प्रत्याख्यान्ति, बहूनि भक्तानि प्रत्याख्याय वहनि भक्तानि अनशनया छेदयन्ति, बहूनि मक्तानि अनशनया छेदयित्वा आलोचितपतिक्रान्ताः समाधिमाता काल. Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्र मासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु देवलोकेषु देवत्वाय उपपत्तारो भवन्ति । तद्यथामहर्दिकेषु महाधुतिकेपु यावन्महासौख्येषु शेषं तथैव यावद् इदं स्थानम् आर्यम् यावदेकान्तसम्यक साधु, तृतीयस्य स्थानस्य मिश्रकस्य विभङ्गः एवमाख्याता, अविरति पतीत्य बाल आख्यायते, विरति प्रवीत्य पण्डित आख्यायते विरत्य. विरतिं प्रतीत्य वालपण्डित आख्यायते, तत्र खल या सा सर्वतोऽविरति: इदं स्थानमारम्भस्थानानना याव इसर्वदुःखहीणमार्गम् एकान्तमिथ्या असाधु । तत्र खलु या सा सर्वतो विरतिः इदं स्थानमनारम्भस्थानमायं यावत् सर्वदुःखमहीणमार्गमेकान्त सम्यक् साधु । तत्र खलु ये ते सर्वतो विरत्यविरती, इदं स्थानमारम्भ नोआरम्भस्थानम् इदं स्थानमायें यावत् सर्वदुःखपहीणमार्गम् एकान्त सम्यक् साधु ॥ सु० २४-३९ ____टीका-धर्मपक्षाऽधर्मपक्षयो निरूपणं कृत्वा-धर्माऽधर्मयोमिलितः पक्षो 'निलप्यते । धर्माऽधर्माभ्यां मिलितल्यादेतत्य मिश्रपक्ष इति परिभाषा भवति । 'यद्यपि पक्षोऽपि-अयम्-अधर्मयुक्त एवेति वाऽतिरिच्यतेऽधर्मपक्षात् तथापि :- तच्चस्स ठाणस्स' इत्यादि। टीकार्थ-धर्म पक्ष और अधर्मपक्ष का निरूपण करके अब धर्म और अधर्म के मिश्रित पक्ष का निरूपण करते हैं । इस पक्ष में धर्म और अधर्म दोनों आंशिक रूप में विद्यमान रहते हैं, अतएव यह मिश्रपक्ष कहलाता है । यद्यपि यह पक्ष भी अधर्मयुक्त ही है अतएव अधर्म पक्ष से अलग नहीं है, तथापि अधर्म की अपेक्षा धर्म की बहुः 'तच्चस्स ठाणस्व' ध्यान ટીકાર્થ ધર્મ પક્ષ અને અધર્મ પક્ષનું નિરૂપણ કરીને હવે ધર્મ અને અધર્મના મિશ્રિત પક્ષનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે–આ પક્ષમાં ધર્મ અને અધર્મ એ અને આંશિક રૂપથી વિદ્યમાન રહે છે. તેથી જ આ મિશ્ર પક્ષ કહેવાય છે. કે આ પક્ષ પણ અધર્મ યુક્ત જ છે, તેથી જ અધર્મ પક્ષથી અલગ નથી, તે પણ અધર્મ કરતાં ધર્મના અધિક પણાને લીધે આ અધર્મ પક્ષ નથી, પણ ધર્મપક્ષ જ છે તેમ માનવામાં આવે છે. મુખ્ય પણને લઈને જ શબ્દ પ્રયોગ કરવામાં આવે છે. એ ન્યાય છે. જેમ ચન્દ્રનું કથન કિરણેથી જ થાય છે. કલકથી નહીં કેમકે તેનું કલંક કિરણો દ્વારા ઢંકાઈ જાય છે. તેથી આ પક્ષમાં અધર્મ, ધર્મથી પરાભૂત થઈ જાય Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थान निरूपणम् ૨૭ अधर्मापेक्षया धर्मबाहुल्यात् नाधर्मक्षयम् अपितु धर्मरक्ष एव गण्यते, प्राधान्येन व्यपदे ॥ भवन्तीति न्यायात् । यथा चन्द्रः किरणैरेव व्यपदिश्यते, न कलङ्केन । desertatः ? किरणैः कलङ्कस्याऽभिभूतत्वात् तदेतस्मिन् अपि पक्षेर्मो धर्मैरभिभूतो भवति । एतस्य धर्मपक्षे एवान्वर्भावः । येऽल्पेच्छा अल्पपरिग्रहन्तो धार्मिकाः धर्मानुगाः उत्तमव्रतधारकाः तेऽत्र पक्षे समाविष्टा भवन्ति । ते पुरुषाः स्थूलपणातिपातेभ्यो नित्ता, अनिवृत्ताश्च सूक्ष्मेभ्यः यन्त्रपीडनादिभिर्निवृत्ताः भवन्तीति । साम्प्रतमक्षरार्थः यतन्यते 'अहावरे' अथाऽपर: 'तच्चरस ठाणस्स' तृतीयस्य स्थानस्य 'मिस्सगस्त' मिश्रकस्य देशविrder eranस्य 'विभंगे' विभङ्गो विचारः 'एवमाहिज्जई' एवं - वक्ष्यमाणप्रकारेणाऽऽख्यायते, 'इह खलु पाईणं चा४' इह खलु माच्यां वा, प्रतीच्यां वा, इत्यादिक्रमेण ज्ञातव्यम्, 'संवेगइया मणुस्सा भवंति' सन्त्येकतयेलता होने से यह अधर्म पक्ष नहीं है, अपितु धर्मपक्ष ही गिना जाता है । प्रधानता को लेकर ही शब्द का प्रयोग किया जाता है, ऐसा न्याय है । जैसे चन्द्रमा का कथन किरणों से ही होता है, कलंक ले नहीं, क्योंकि उसका कलंक किरणों के द्वारा ढक जाता है । इसी प्रकार इस - पक्ष में अधर्म धर्म से अभिभूत हो जाता है, अतएव इसका धर्मपक्ष में ही अन्तर्भाव होता है। इस पक्ष में उनका समावेश होता है जो अल्प इच्छा और अल्प परिग्रह वाले, धार्मिक, धर्मानुगामी और उत्तम व्रतों के धारक होते हैं, वे पुरुष स्थूल प्राणातिपात आदि पापो से निवृत होते हैं, परन्तु सूक्ष्म पापों से निवृत्त नहीं होते । यन्त्र पीडन आदि पाप बहु कृत्यों से भी निवृत्त होते हैं । अब शब्दार्थ लिखा जाता है तीसरे स्थान मिश्रपक्ष - देशविरत श्रावक का विचार आगे कहे अनुसार है - इस लोक में पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर दिशा में છે. તેથી આ પક્ષના ધ' પક્ષમાંજ અંતર્ભાવ થાય છે. જે અલ્પ ઈચ્છા, 'અને અલ્પ પરિગ્રહવાળા, ધાર્મિક, ધર્માંનુગામી અને ઉત્તમ વ્રતાને ધારણ કરવાવાળા હાય છે, તે પક્ષમાં આને સમાવેશ થાય છે. તે પુરૂષા સ્થૂળ પ્રાણાતિપાત વિગેરે પાપાથી નિવૃત્ત હાય છે, પરંતુ સૂક્ષ્મ પાપેાથી નિવૃત્ત નથી હાતા યન્ત્ર (ઘાણીથી પીલવુ. દળવુ. વિગેરે) પીડન વિગેરે અધિક પાપવાળા કુત્ચાથી પણ નિવૃત્ત થતા નથી હવે શબ્દાર્થ ખતાવવામાં આવે છે. ત્રીજા સ્થાન મિશ્ર પક્ષ-દેશવિરત શ્રાવકના વિચાર આગળ કહ્યા પ્રમાણે છે. આ લેાકમાં પૂર્વ, પશ્ચિમ દક્ષિણ 1 Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० सूत्रकृताङ्गसूत्रे गतौ यथावस्थितरूपेण ज्ञावी जीवाऽजीवो येस्ते तथाविधा भवन्ति एवम् उपलखपुण्णपात्रा' उपलब्ध पुण्यपापा, उपलध्ये परमार्थतो ज्ञाते पुस्ते तथाविधा:, तथा 'आतच-परवेयाणिश्राकिरियादिगरणवमोकखकुतला' आखव संदरवेदना निर्जराक्रियाऽधिकरणवन्धमोक्षकुशलाः, तत्र भवः साति-प्रविशति अष्टविधं कर्मसलिलं येन आत्मनरसिस आसः- विरावाय योगरूपः, संवरः - संत्रियते-निरुद्रने कर्म येन परिणामेन स तथा समिति गुप्तिभिरात्मसर सि आसवत्कर्यसलिलानां स्वगनगिल्वः' वेदना-मसिदेव, निर्जरा - निर्जरणम् - कर्मणां जीवनदेशेनः परिशदनम्, क्रि:- कायिकवादिकाः, अधिकरणम्, अधिक्रियते नरकगतियोग्यतापन्नः प्राप्यते आता येन वत् आत्माधिकरणं द्रव्यतः खड्गयन्त्रादि, भावतः क्रोवादि । चन्वः- जीवस्य कर्महल रूप से ज्ञाता होते हैं । पुण्य-पाप के स्वरूप के जानकार होते है, आस्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बंध और मोक्ष के ज्ञान में कुशल होते हैं । जिसके द्वारा आत्मा रूपी सरोवर में कर्मही जय आता है, उसे आस्रव कहते हैं । मिवाल, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग आस्रव हैं । जिस परिमाण के द्वारा आस्रव का निरोध होता है, वह समिति, गुप्ति आदिरूप परिणाम संवा कहलाता है। तात्पर्य यह है कि आते हुए कर्म रूपी जल का रुक जाना संवर है । आहम प्रदेशों से बद्ध कर्मों का देश से हटना निर्जरा है । कायिकी आदि पच्चीस प्रकार की सावदूय प्रवृत्ति को क्रिया कहते हैं। जिसके कारण आत्मा नरक या तिगति का अधिकारी बनना है, वह अधिकरण कहलाता है | अधिकरण के दो भेद हैं । द्रव्य से खड्ग या यंत्र आदि જાણનારા હાય છે. પુણ્ય પાપના સ્વરૂપને જાણવા વાળા હોય છે આસવ, સવર, નિર્જરા, ક્રિયા, અધિકરણ, મધ અને મેક્ષના જ્ઞાનમાં કુશળ ડાય છે. જેના દ્વારા આત્મારૂપી સરેાવરમાં કરૂપી જળ આવે છે, તેને આસ્રવ કહેવાય છે. જે પરિણામ દ્વારા આસવના નિરાય થાય છે તે સમિતિ, ગુપ્તિ વિગેરે રૂપ પરિણામ સવર કહેવાય છે તાપ એ છે કેઆવતા એવા કર્મ રૂપી જળનુ કાઈ જવું તે સવર છે. આત્મ પ્રદેશે થી મૃદ્ધ તે કર્મોનુ' દેશથી હટવું તે નિર્જરા છે. કાયિકી વિગેરે પચ્ચીસ પ્રકારની સાવધ પ્રવૃત્તિને ક્રિયા કહે છે જેના કારણે આત્મા નરક અથવા તિય ચ ગતિના અધિકારી અને છે, તે અધિકરણ કહેવાય છે. અધિકરણના બે ભેદ છે. દ્રવ્યથી ખડૂગ અથવા' ચત્ર વિગેરે અને ભાવથી કોષ વિગેરે અધિકરણ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - समयाबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् ३२१ सम्बन्धः, मेक्षा-सकलकर्मक्षये सति जीवस्य कर्मसंयोगापादितरूपरहितस्प साय:: पर्यवसानम् । 'असहेज्ज' असहाया:-वाह्यसहायरहिता अपि 'देवासुरनागसुवर्णजवखरक्खसकिन्नरकिंपुरिसगरुलगंधव्वमहोरगाइएहिं देवगणेहि देवासुरनागसुवर्ण: । यक्षराक्षसकिनरकिंपुरुषगरुडगन्धर्वमहोगादिभिर्देवगणैः, तत्र-देवाः-वैमानिकाः; . अमुरा:-असुरकुमाराः, नागा:-नागकुमाराः, सुवर्णकुमारा:-भवनपतिविशेषा:, यक्ष राक्षसकिन्भरकिंपुरुषा-व्यन्तरविशेषाः, गरुडा:-गरुडध्वजा, गन्धर्वमहोरंगा: -व्यन्तरविशेषाः तत्प्रभृतिभिर्देवगणैः 'निग्गंथाओ' निर्ग्रन्थात् 'पावयणाओ' प्रवः . चनात 'अण: कमणिज्जा' अनतिक्रमणीयाः भवन्ति ते श्रावकाः, साहाय्यरहिता, अपि देवादिभिरपि प्रवलवलवीयते नोभिराविष्टैरपि पतिपन्यिभिः, भवलिता, और भाव से क्रोध आदि अधिकरण हैं । जीव और ' कर्मणवर्गणा के पुद्गलों का क्षीर-नीर के जैसा संबंध होना यन्ध है । समस्त कर्मों का' क्षय होजाने पर आत्मा से कर्म वर्गणाओं का अन्त हो जाना और स्वाभाविक शुद्ध स्वरूप की उपलब्धि हो जाना मोक्ष आत्माकी सादिअनन्त शुद्ध पर्याय है। - श्रायक आस्रव आदि इन सब के स्वरूप के ज्ञाता होते हैं। वे किसी की सहायता की अपेक्षा नहीं रखते अथवा यों कहना चाहिए कि असहाय होने पर भी देवता भी उन्हें निग्रन्यप्रवचन से विचलित नहीं कर सकते ! वैमानिक देव, असुरकुमार, नागकुमार, गरुडकुमार. एवं सुपर्णकुमार नामक भवनपति देव तथा यक्ष राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष गंधर्व एवं महोरग नामक व्यन्तर देव प्रबल शक्तिमान होने पर भी श्रमणोपासकों को जिनशासन से चलायमान करने में समर्थ છે. જીવ અને કામણ વર્ગણના પુદ્ગલેનું ક્ષીર અને નીરની માફક સંબંધ થ તે બંધ છે. સમસ્ત કર્મોને ક્ષય થવાથી આત્માથી કર્મવર્ગને અંત થ અને સ્વાભાવિક શુદ્ધ સ્વરૂપની ઉપલબ્ધિ થઈ જવી તે મોક્ષ છે. આ મોક્ષ આમાના સાદી અનંત શુદ્ધ પર્યાયે છે , , શ્રાવક આસવ વિગેરેના સમગ્ર સ્વરૂપને જાણવાવાળા હોય છે. તેઓ કેઈની પણ સહાયતાની અપેક્ષા રાખતા નથી, અથવા એમ કહેવું જોઈએ કે અસહાય હોવા છતાં પણ દે પણ તેઓને નિગ્રંથ પ્રવચનથી હટાવી શકતા નથી. વૈમાનિક દેવે, અસુરકુમારે નાગકુમાર, ગરૂડકુમાર, અને સુપ કુમાર, નામના ભવનપતિ દેવ તથા યક્ષ રાક્ષસે કિન્નર, કિં પુરૂષ, ગંધર્વ અને મહારગ નામના વ્યક્તર દેવ પ્રબળ શક્તિમાન હોવા છતાં, પણ ક્ષમપાસકેને જનશાસનથી ચલાયમાન કરવામાં સમર્થ થઈ શકતાં નથી, सू०४१ Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतसूत्रे ३२२ तीर्थकरमवचनात् ते श्रावकाः न भवन्ति 'इणमेव निम्गंथे पात्रगणे' अस्मिन् मैग्रन्थे प्रवचने 'णिसंकिया' निश्शङ्किताः- संशयरहिताः 'णिवकंखिया' निष्कां-क्षिता:- परदर्शनीपस्पृहया वर्जिताः, 'निधितिगिच्छा' निर्विचिकित्सा:-फल-प्रति सन्देह रहिवाः 'लद्धद्वा' लवार्थाः - लब्धाः परिज्ञाता अर्था:- सूत्रार्थाः गुरुपदेशादयो वैधार्थाः अर्थ थत्रणाद- 'गहिया' गृहीतार्थाः- गृहीतः सम्मा asar गृहीतार्था:- अर्थावधारणात् 'पुच्छिया पृष्टार्थाः- गुरुभिः संदिधामनकरणात् 'विणिच्छियो' विनिधिनाथः- सूत्रार्थविषयक निश्चयवन्तः पदार्थानां विनियमात् 'अभिगया' अभिगतार्था:- पृष्टार्थाधिगमात् 'अडिर्मिजा पेमाणुरागरता' अस्थिमज्जा मेमानुरागरक्ताः, अस्थिमज्जादिष्वपि जनववचनानुरा रञ्जिता भाविते अस्थिमज्जा - तद्वतो धातु विशेषः तासु प्रवचनानुरागेण रञ्जि ताः - श्रावकाः, 'अयमाउसो' इदम् - आयुष्मन् ! 'निग्गंथे पाय' नैर्ग्रन्थं वचनम् 'अ' अव 'अ'अर्थ', 'अयं परमडे' अयं परमार्थ:-मोक्षप्रापकः, जिनोदितसदुपदेश एव सर्वथा सत्यः, 'सेसे अणद्वे' शेषम् - एतद्व्यतिरिक्तम् अनर्थम् 'उसियफलिहा': नहीं हो सकते। वे निर्ग्रन्थप्रवचन में निश्शंक होते हैं परकीय दर्शनों की अभिलाषा नहीं करते धर्मक्रिया के फल में संदेह नहीं करते । वे धार्थ होते हैं अर्थात् गुरु के उपदेश से सूत्र एवं अर्थ को श्रवण करते. हैं | श्रवण करके अर्थ को ग्रहण करते हैं । ग्रहण करने के पश्चात् यदि संदेह होता है तो गुरु से अर्थ पूछ लेते हैं। पूछ कर उसे सम्प प्रकार से निश्चित करलेते हैं और समग्रतया समझ लेते है । उनकी रग-रग में जिन प्रवचन के प्रति गहरा अनुराग होता है । उनकी श्रद्धा ऐसी होती है कि- 'हे आयुष्मन् ! यह निर्ग्रन्ध प्रवचन ही अर्थ है, यही परमार्थ है इसके अतिरिक्त सब अनर्थ हैं- अनर्थ कारी हैं । ऐसा लोगों को उपदेश देते हैं वे स्फटिक के समान निर्मल अन्तःकरण वाले તેઓ નિન્ય પ્રવચનમાં નિશ`ક હાય છે. પારકા દર્શનેાની ઈચ્છા કરતાં નથી, ધર્મક્રિયાના ફળમાં સંદેહ કરતા નથી તેએ લખ્યાય હાય છે. અર્થાત્ ગુરૂના ઉપદેશથી સૂત્ર અને અર્થનું શ્રવણ કરે છે. શ્રવણુ કરીને અને ગ્રહણુ કરે છે. ગ્રહણ કર્યાં પછી જો સંદૅતુ હાય તે ગુરુને અથ પૂછી લે છે, પૂછીને તેને સારી રીતે નિશ્ચિત કરી લે છે. અને પૂરી રીતે સમજી લે છે. તેની રગે રગમાં જીત પ્રવચન પ્રત્યે ગાઢ અનુરાગ હાય છે તેઓની શ્રદ્ધા એવી હાય છે કે હું આયુષ્મન્ આ નિશ્ર્વન્થ પ્રવચન જ છે. આજ પરમાથ છે. એ શિવાય બધું અનય છે. અનય કારક છે લેાકાને એ પ્રમાણેના આદેશ આપે છે. તેએ સ્ફટિકની જેમ નિર્દેલ અંતઃ કછુવાળા હોય છે. તેઓના Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्थबोधिनी टीका द्वि.शु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् ३३ उच्छ्रितस्फाटिका :- स्फटिक न्निर्मचान्तः हरणाः 'वारा' असंवृद्वारा:अप्रावृतद्वारा: दानार्थम् 'अचियतं ते उरपरपवेम' असं मतान्तःपुरपरगृहपवेशा:ते श्रावकाः राज्ञामन्तःपुरवत्. परगृह पवेश नेच्छन्ति, 'चाउदसह मुट्ठिपुणिमासिणीसु' चतुर्दश्वष्टम्युदिष्टपूर्णिमासु एतासु तिथिषु 'पडिपुन्नं पोसई सम्मं अणुपामाणा' प्रतिपूर्ण पौषधं तदाख्यं क्रियाविशेषं सम्यगनुपालयन्तः 'समणे निग्गंथे' श्रमणान् निर्मन्थान 'फामुरसणिज्ने' प्रासूपणीयेन दोपविरहितेन 'असणवाणखाइम साइमेणं' अशनपानखाद्यस्वाद्येन चतुर्विवाहारेण 'वत्थवडिगगहकंबलपायपुंछपणेणं' वस्त्रपरिग्रहकम्पादप्रच्छतेन - उत्र - वस्त्र - प्रसिद्धम्, प्रतिग्रहः - पात्रादिः, कम्बलः पादमोज्छन- रजोहरणम् 'ओसहमे सज्जेणं' औषधभैषज्येन 'पीठफलग सेज्ज संथारएणं' पीठफलकशय्यासंस्थारकेण तत्र पीठम् आसनम् फलकः - पाटविशेषः शय्या - वृहत्संस्तारकः पडिला भेमाणा' प्रतिलाभयन्तः - एतानि वस्तूनि साधवे ददाना: 'बहूहिं' बहुभिः 'सीलव्वयगुणवेरमणपञ्च्चक्खाणपोसहो वत्रासेहिं' शीलत्र वगुणविरमण प्रत्यारूपानपौषधोपवासैः - तत्र - शीलानि - सामयिक - होते हैं। उनके द्वार दान के लिए सदा खुले रहते हैं वे इतने विश्वासपात्र होते हैं कि राजा के अन्तःपुर में प्रवेश करने पर भी कोई उन पर शंका नहीं करता तथापि राजा के अन्तःपुर में तथा परगृह में वे श्रावक प्रवेश करने की इच्छा भी करते नहीं ! अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा तिथियों में प्रतिपूर्ण पोषध व्रत का पालन करते हैं । वे निर्ग्रन्थ श्रमणों को प्रासु (अचित्त) और एषणीय (निर्दोष) अशन, पान, खादिम और स्वादिम ये चार प्रकार का आहार प्रदान करते हैं, वस्त्र, पात्र कंबल, रजोहरण, औषध, भेषज पीठ-पाट, शय्या और संस्तारक दान દ્વારા દાન માટે સદા ખુલ્લા રહે છે. તેએ એટલા વિશ્વાસ પાત્ર હોય છે ६ કેરાજાના 'તઃપુરમાં પ્રવેશ કરવા છતાં પણ તેઓના પર કોઈ શકા લાવતું નથી. તથાપિ રાજાના અંતઃપુરમાં તથા પરગૃહમાં તે પ્રવેશવાની ઈચ્છા પણ કરતા નથી. અષ્ટમી, ચતુર્દશી, અમાવસ્યા અને પુનમ ઉગેરે તિથિયામાં પ્રતિપૂર્ણ પૌષધ વ્રતનું પાલન કરે છે. તેએ નિન્ય શ્રમણે ને પ્રાસુક (अचित्त) भने शेषाशीय (निर्दोष). अशन, पान, माहिम मते स्वामि ३५ यार प्रहारनो आहार खाये, छे, वस्त्र, पात्र, मन, २२एल, भौषध, शेषण, पी, पाट, शय्या - आस्तरयु - पथारी, मने सस्तार४तु द्वान् पुरे छे. અર્થાત્ આપે છે. શીલવતે થી અર્થાત્ સામાયિક દેશાવકાશિક, પૌષધ અને અતિથિ સ’વિભાગ વ્રતથી, પાંચ અણુવ્રતાથી ત્રણુ છુ! તેથી ચાર શિક્ષાવ્રતાથી, Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૨૪ सूत्रताक देशावकाशिफ पोपनातिथिसंविभाग ख्यानि तानि पञ्चाणुवनानि, गुणाः-श्रीणिगुणननानि विरमण - मिथ्यात्वान्निवर्तनम् - मत्याख्यान पर्व देनेषु त्याज्यानां परित्याज्यानां परित्यागः, पोपधोपवासः - पोप पुष्टिं धर्मस्व वृद्धि धत्ते इति पोषधः चतुर्दश्यष्टस्यामावास्यापूर्णिमादिपर्वदिनेषु अनुष्ठेयो धर्मविशेषः एभिः 'अहापरि गहिएहिं यथापरिगृहीतै:- शास्त्रोक्तप्रकारपरिगृहीतैः ययोक्तोपवासादिभिः 'वोकम्मे हि' ताः कर्मभिः - अनशनादितः करण विशेषः 'अध्वानं भावेमाणा' आत्मानं भवन्तः 'विहरति विहरन्ति तथावि सः श्रापकाः 'ते णं एयारूवेनं ' ते खलु एतद्रूपेग 'विहारेण विहरमाणा' विहारेण विहरन्तः- मोक्षमार्गे विचरन्तः 'बहूई वासाई' बहूनि वर्षाणि 'समगोवासपरियागं' श्रमणोपासकपर्यायम् ' पाउणति' पालपन्ति, 'पाउणिवा' पालयित्वा 'आवासि उत्पन्नंसि वा आवाधायाम् - रोगातङ्के उत्पन्नायां वा 'अणुत्पन्नंसि वा' अनुस्पन्नायां वा 'चहुई' भत्ताई पच्चक्खायति' वहनि भक्तानि प्रत्याख्यान्ति प्रत्याख्याय- बहुकालपर्यन्तम् अनशनं कृत्वा 'बहूई भत्ताई अणसणार छवि' बहूनि भक्तानि - अनशनया छेदयन्ति 'बहूई भत्ताइ अणसणाए छेवइत्ता' बहूनि भक्तानि अनशनया छेदयित्वा 'आलोइयपडिक्कंता समाहिपत्ता' आलोचितमवि करते हैं । शीलवतों से अर्थात् सामायिक, देशावकाशिक, पोपत्र और अतिथि संविभाग व्रत से पांच अणुव्रतों से तीन गुणवतों से, चार शिक्षावतो से तथा पोपधोपवास से और शास्त्रोक्त विधि के साथ ग्रहण किये हुए अनशन आदि तपश्चरणों से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरते हैं । वे श्रावक इसप्रकार की प्रवृत्ति करते हुए अर्थात् मोक्षमार्ग में विचरण करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक पर्याय में रहकर किसी प्रकार का रोग या आतंक उत्पन्न होने पर अथवा उत्पन्न न होने पर भी पसंख्यक भक्तों (भोजनों) का प्रत्याख्यान करते हैं अर्थात् लम्बे समयतक अनशन करते हैं और फिर आलोचना तथा प्रतिक्रमण તથા પાષધેાપવાસથી અને શાસ્ત્રોક્ત વિધિ સાથે ગ્રળુ કરવામાં આવેલ અનશન વિગેરે તપશ્ચરણાથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા વિચરે છે. તે શ્રાવકે આવા પ્રકારની પ્રવૃત્તિ કરે છે. અર્થાત્ મેક્ષ માર્ગોમાં વિચ રઘુ કરતા થકા ઘણુા વર્ષાં સુધી શ્રમણેાપાસક પર્યાયમાં રહીને કોઈ પણ પ્રકારના રાગે અથવા આતંક ઉત્પન્ન થાય ત્યારે અથવા ઉત્પન્ન ન થાય ત चालु' मने! अारना आस्तो (आहार-लोभन) नु' प्रत्याख्यान पुरे छे. 'अर्थात् લાંબા સમય સુધી અનશન કરે છે, અને તે પછી અ લેાચના તથા પ્રતિક્રમણ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका fa. भु. अ. २ क्रियास्थान निरूपणम् ફેક क्रन्वाः समाधिमाप्ताः - संस्तारकं पूरयित्वा सकोयं पापमालोच्च प्रतिक्रमणं च कृमा समाविमा 'कालता से कालं किच्ना' कालवा से कालं कृत्वा - कालावसरे कालं प्राप्य 'अन्नगरे देवलोगे देवताए उत्तारो भवति' अन्यतरेषु देवलोकेषु देवत्वाय उपात्तारो भान्ति-कालं कृा देवलोकं गच्छन्ति, 'वं जहा ' तद्यथा'मडिएस महज्जुइ जात्र महासोक्खेसु' महर्द्धिकेषु महाद्युतिकेषु यावद् महासौख्येषु अत्र यावत्पदेन एतेषां ग्रहण 'महद्धि ॥' महर्दिकाः - विशिष्टविमानपरिवारादियुक्ताः 'महज्जु या महाद्युतिकाः - विशिष्टशरीराभरणादिप नाभास्वराः 'महाबलाः - विशिष्टवशालिनः 'महासोक्खा' 'महासौख्याः - विशिष्टसुवनंपन्नाः एतादृशगुणविशिष्टेषु 'सेसं तदेव जान' शेष तथैव यावद, पूर्वपकरणे यावन्तो गुणाः-विशेषणप्रकाराः देवलोकस्य प्रदर्शिता स्वावद्विशे वत्सु देवलोकेषु गन्छ करके, समाधि को प्राप्त होकर, संधारा समाप्त करके, यथाकाल देहोस्सर्ग ( शरीरत्याग) करके किसी भी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होते हैं । d. देव लोक दीर्घकालीन स्थिति वाले महान् द्युति से युक्त यावत् महान् सुखप्रद होते हैं । यहाँ 'यावत्' पद से इन विशेषणों को ग्रहण करना चाहिए-महर्द्धिक अर्थात् विशिष्ट विमान परिवार आदि से युक्त, महाद्युतिक अर्थात् विशेष प्रकार की शरीर आभरण आदि की प्रभा वाले, महाचल और महासुखसाधनों से सम्पन्न होते हैं । इस से पहले वाले प्रकरण में देवलोक के जो गुग कहे गए हैं, उन सब को यहां भी समझ लेना चाहिए। पूर्वोक्त श्रावक ऐसे देवलोकों में उत्पन्न होते हैं । કરીને સમાધિને પ્રાપ્ત થઈને સથારે સમાપ્ત કરીને યથા કાળ ઢેઢાત્સગ (शरीर त्याग) रीने पशु देव सोमदेव पशुथी उत्पन्न, थाय छे, તે ધ્રુવ લેક લાંખા કાળની સ્થિતિવાળા મહેન્ દ્યુતિથી યુક્ત યાવત્ મહાન્ સુખને આપવા વાળા હોય છે. અહિંયાં યાવદથી આ નચે આપવામાં આવેલ વિશેષણ્ણા ગ્રહણ કરવા જોઈએ મહુદ્ધિ-અર્થાત્ વિશેષ પ્રકા રના વિમાન પરિવાર વિગેરેથી યુક્ત, મહાદ્યુતિક-અર્થાત્ વિશેષ પ્રકારના શરીરના 'આભૂષણા વિગેરેનાં પ્રભાવાળા, મહા બળ અને મહા સુખ સાથેનાથી યુક્ત હાય છે. આનાથી પહેલાના પ્રકરણમાં દેવ લેાકાના જે ગુણા કહ્યા છે, તે બધાને અહિયાં પણ સમજી લેવા જોઇએ. પૂર્વોક્ત શ્રાવક એવા દેવલાકમાં ઉત્પન્ન થાય છે. Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .३२६ सुकृतासूत्रे न्वि, 'एस ठाणे आवरिए' इदं स्थानमार्यम् - प्रार्यपुरुपैः समाचरितम् 'जाव एगंत सम्मे साहू' यावद एकान्तमम्यक साधु, अत्र यावत्पदेन - केवलं परिपूर्ण सुशुद्धं सिद्धिमागे मोक्षमार्ग निर्माणमार्ग सर्वदुःखमहीणमार्गम्, एकान्तता समीचीनं न तु कदाचित् साधु - कदचिदसाधु इत्येवं रूपेण संदिग्धम् 'तश्चस्स ठाणस्स पिस्स गस विमंगे एवं आदिए' तृतीयस्य स्थानस्य मिश्रकस्य मित्रकाऽपरनाम्न एवं विभङ्गः - विचार आख्यातो भवति 'अचिरई पड़च्च वाले आहिजई' अविरति मतीत्य बाळ आख्यायते ' चिरई पच पंडिए आहिज्ज ई' विरर्ति मतीत्य पण्डित इत्याख्यायते, अपमापः- मिश्र थानाधिकारी अविरत्यपेक्षया वाल इति कथ्यते, विरत्यपेक्षया च पण्डित इति भण्यते, उभयाऽपेक्षया वालपण्डित इति भण्यवे 'विरावर पडुच्च बालां डेए आहिज्जई' विरत्यविरती प्रतीत्य चाळपण्डित - यह मिस्थान आर्य पुरुषों द्वारा आचरित है यावत् एकान्त सम्पक् है अच्छा है। यहां 'यावत्' पद से इन विशेषणों को समझ लेना चाहिए- केवल, परिपूर्ण, संशुद्ध, सिद्विमार्ग, मोक्षमार्ग, निर्याणमार्ग, निर्वाणमार्ग, समस्त दुःखों के विनाश का मार्ग । इनकी व्याख्या पूर्ववत् समझ लेनी चाहिए । तृीय स्थान मिश्र पक्ष का विचार इस प्रकार कहा गया है। इस स्थान में आंशिक ( देश से ) अविरति और आंशिक (देश से) विरति कही गई है। अतः इस स्थान वाले अविरति की अपेक्षा से बाल और विकी अपेक्षा से पण्डिन करलाते हैं। दोनों की अपेक्षा से उन्हें' 'बाल - पण्डित' कहते हैं । આ મિશ્રસ્થાન આય પુરૂષા દ્વારા આચરેલ હાય છે. યાવત્ એકાન્ત સમ્યક્ છે. સુંદર છે. અહિયાં યાવત્ શબ્દથી આ વિશેષશે સમજી લેવા. त्रण, परिपूर्व, संशुद्ध, सिद्धि मार्ग, मोक्ष भार्ग, निर्याणु भार्ग, निर्वास મા, સઘળા દુઃખાના વિનાશના માર્ગ આ બધા પદ્માની વ્યાખ્યા પહેલાં કહેવામાં આવી ગયેલ છે, તે પ્રમાણે સમજી લેવી જોઇએ ત્રીજા સ્થાન મિશ્ર પક્ષના વિચાર આ પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે. आ स्थानमां मांशिक (देशी) अविरत भने मशि (देशयी) विरत છે. તેથી આ સ્થાનવાળા અવિરતિની અપેક્ષાથી ખાળ અને વિરતિની અપે ક્ષાથી પડિત કહેવાય છે. ખન્નેની અપેક્ષાથી તેઓને ખાલપતિ કહે છે. Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि.श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् ३२७, आख्यायते, 'तत्थ णं जा सा सब मो अविरई एस ठाणे आरंभठाणे अगारिए' तत्र खलु या सा सातोऽविरतिः इदं स्थानमारम्भस्थानमनार्यम् 'जाव अप्तबदुक्ख पहीणमग्गे एगंतमिच्छे अस हू' यावदसर्वदुःखपहीणमार्गमेकान्तमिया असाधु। 'तत्य णं जा सा सन्नी विरई तत्र या सा सर्वतों विरतिः 'एस ठाणे अगारंभहाणे आरिए' इदं स्थानमनारम्भस्थानमार्यम्, 'जाव सव्वदुक्खपहीणमग्गे एगंतसम्मे साहू' यावत् सर्वदुःखपहीणमार्गमेकान्तसम्यक् साधु 'तत्य णं जा सा सामो रियाविरई तत्र ये ते सर्वतो विरत्यविरती 'एस ठाणे आरंभ. णो आरंभट्ठाणे' इदं स्थानमारम्मनोभारम्भस्थानम् 'एमठाणे आरिए' इदं स्थानमार्यम्, 'जाव सम्बदुक्खपहीणमग्गे एगंतसम्मे साहू' यावत्सर्वदुःखपहीणमार्गम्-एकान्त सम्यक् साधु ॥म २४३३९। . ... मूलम्-एवमेव समणुगम्ममाणा इमेहि चेव दोहि ठाणेहि' समोयरंति, तं जहा-धम्मे चेव अधम्मे चेव उवसंते चैव अणु-, वसंते चेव, तत्थ णं जे से पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्त विभंगे एवमाहिए, तत्थ णं इमाइं तिन्नि तेवढाई पावादुयसयाई इन तीनों स्थानों में सर्वथा अविरति का स्थान आरंभ का स्थान है। यह थे न सर्वथा अनार्य है यावत् समस्त दुःखों के विनाश का मार्ग नहीं है । एकान्तत्याज्य है, असाधु-असमीचन है। इनमें जो सर्व विरति का स्थान है, वह अनारम्भ का स्थान है आर्य है यावत् दुःखों के विनाश का मार्ग है, एकान्ततः सम्यक एवं साधु है। तीसरा जो देशविरतिस्थान है, वह अरंभ एवं नो आरंभ का स्थान है, यह भी आर्यस्थान है यावत् समस्त दु.खों के विनाश का मार्ग है। एकान्त सम्यक् और साधु है ॥२४॥ - આ ત્રણે સ્થાનમાં સર્વથા અવિરતિનું સ્થાન આર સ્થાન છે આ સ્થાન સર્વથા અનાય છે યાવત્ સમસ્ત દુઃખના વિનાશને માર્ગ નથી. તે એકત્ત ત્યાગ કરવા યે ૫ છે અસાધુ અસમીચીન છે. તેમાં જે સર્વ વિરતિનું સ્થાન છે તે અનારસ્મનું સ્થાન છે આર્ય છે. યાવત્ સમસ્ત દુઃખના વિનાશને માર્ગ છે એકા! સમ્યક્ અને સાધુ છે. ત્રીજુ જે દેશવિરનિ સ્થાન છે તે આરંભ અને ને આર ભનું સ્થાન છે આપણા આર્યસ્થાન યાવત સમસ્ત सेना विनाशने भाग 2 tra सभ्य५ अने साधु छे. ॥सू. २४॥ . Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૦ सूत्रकृताङ्गसूत्रे भवतीति मक्खायाई, तं जहा - किरियावाईणं अकिरियाबाईणं अन्नाणियवाईणं वेणइयवाईणं, तेऽवि परिनिव्वाणमाहंसु, वि मोक्खमाहंसु तेऽवि लवंति सावगे । तेऽवि लवंति | सावइत्तारो || सू० २५ ||४०|| · छाया - एवमेत्र समनुगम्यमानाः अनयोरेव द्वयोः स्थानयोः सम्पतन्ति तद्यथा धर्मे चैव धर्मे चैत्र उपशान्ते चैत्र अनुपशान्ते चैन, तत्र खलु योऽसौ प्रथमस्य स्थानस्य अधर्मपक्षस्य विभङ्ग एवमाख्यातः तत्र खल अमूनि त्रीणि त्रिषष्टानि मायादुकशतानि भवन्ति इत्याख्यातानि तद्यथा- क्रिया नादिनाम क्रियावादिना मज्ञानवादिनां विनयवादिनाम् । तेऽपि परिनिर्वाणमाहुः, तेऽपि मोक्षमाहुः, तेवि लपन्ति श्रावकान् | 'तेऽपि लन्ति श्रावयितारः ॥ म्०२६=४० ॥ टीका- ' एवमेत्र समग्रम्ममाणा' ए मेत्र समनुगम्यमानाः - ख्यायमानाःसंक्षेपतो विचार्यमाणाः सर्वे पन्थानः 'इमेहिं चेर दोर्दि ठाणे समोयरंति' अनयो रेव धर्माधर्मयोः द्वयोः स्थानयोः संपतन्ति, 'तं जहा' वयया-धम्मे चेत्र - अवम्मे चैव' धर्मे चैव अधर्मे चैव 'उबसंते चेत्र अणुवसंते चेव' उपशान्ते चैव - अनुपशान्ते चैव धर्मपक्षे अधर्मपक्षे एव सर्वमतानामन्तर्भावो भवति, इति ताभ्यां भिन्नपक्षस्य न संभवः, 'तत्थ णं जे. से पढमस्स ठाणरस अधम्मपक्खस्स विभगे एवमाहिए' तत्र - तस्मिन् पक्षे - एतेषां माचादुकं - मवादानां समावेशस्तत्राह - 'तत्य' इत्यादि । तंत्र-योनौ प्रथमस्य स्थानस्यापक्षस्य विभङ्ग एवमाख्यातः प्रथमपक्षस्य पूर्व 'एवमेव समणुगम्ममाणा' इत्यादि । टोकार्थ - यही संक्षेप से कहा जाय तो सभी पक्ष इन दो स्थानों में अन्तर्गत हो जाते हैं, यथा-धर्म में और अधर्म में, उपशान्त में और अनुपशान्न में । तात्पर्य यह है कि परस्पर विरुद्ध धर्म पक्ष और अधर्म पक्ष में ही सब पक्षों क समावेश हो जाता है। इन दो से भिन्न तीसरा कोई पक्षः सम्भव नहीं है । 1 > ן 'एवमेव समगुगम्ममाणा' इत्यादि ટીકા — સંક્ષેપથો કહેવામાં આવે તે સઘળા પક્ષે આ એ સ્થાનામાં અંતર્ગત થઈ જાય છે. જેમકે-ધમમાં અને અધમ માં ઉપશાન્તમા અને અને અનુપશાન્તમાં તાત્પ એ છે કે-પરસ્પર વિરૂદ્ધ' ધ પક્ષ અને અધ પક્ષમાં જ સઘળા પક્ષેાનેા સમાવેશ થઇ જાય છે. આ એ પક્ષથી ભિન્ન ત્રીજો ફોઈ પક્ષ સમ્ભવિત નથી. Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समग्रार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् ३२९ यादृशो विस्तारेण विचारः कृतः 'तत्थर्ण इमाई तिन्नि तेवठ्ठाई तत्राऽमूनि त्रीणि त्रिषष्टानि त्रिपष्टयधिकानि, 'पावादुयसयाई भवंतीति मक्खायाई मावादुकशातानि भवन्ति इत्याख्यातानि प्रथममधर्मपक्षे त्रिषष्टयधिकत्रीणि शतानि-तेषामन्त वो भवतीति पूर्वाचार्यैः कथितम् 'तं जहा'. तद्यथा-'किरियावाईणं अकिरियावाईण अन्नाणियवाईण 'वेणइयवाईणं' क्रियावादिनाम्-अक्रियावादिनाम् अज्ञानवादि. नाम् विनयवादिनाम् एते परस्परं विवदमाना वादिनः भवन्ति ते वि' तेऽपि 'परि. निब्याणमाईसु' परिनिर्वाणमाहुः 'ते वि मोक्खमासु' तेऽपि मोक्षमाहुः ते सर्वेऽपि वादिनो मोक्षवादिनो भवन्ति, तथा-'ते लति सावगे' तेऽपि लपन्ति श्रावकान-तेऽपि स्वधर्मस्योपदेश स्व-स्वमतावलम्बिभ्यः कुर्वन्ति । ते विलयति सावइ. पारो' तेऽपि श्रावयितारो लपन्ति-स्वकीयधर्मस्योपदेष्टारो भवन्तीति सू. २५-४० . मूलम्-ते सव्वे पावाउया आदिगरा धम्माणं णाणापन्ना जाणाछंदा णाणासीला णाणादिट्ठी णाणारुई णाणारंभा णाणा. ज्झवसाणसंजुत्ता एगं महं मंडलिबंधं किच्चा सव्वे एगओ चिटुंति। पुरिसे य सागणियाणं इंगलाणं पाइं बहुपडिपुन्नं अओमएणं संडासएणं गहाय ते सव्वे पावाउए आइगरे धम्माणं णाणापन्ने जाव णाणाझवसाणसंजुत्ते एवं वयासी-हं भो पावाउवा ! आइगरा धम्माणं णाणापन्ना जाव णाणा अज्झवसापा... पहले अधर्मस्थान का जो विचार किया गया है उसमें तीन सौ सठ वादियों (पाखंडियों) का अन्तर्भाव हे। जाता है, ऐसा पूर्वाचार्यों ने कहा है। वे वादी इस प्रकार हैं-क्रियावादी अक्रियावादी, अज्ञानिक-अज्ञानवादी और विनयवादी । यह सब परस्पर में विवाद करने वाले वादी हैं। वे भी मोक्ष की प्ररूपणा करते हैं तथा अपनेअपने मतावलम्बियों को धर्म का उपदेश करते हैं ॥२५॥ પહેલા અધર્મ સ્થાનને જે વિચાર કરવામાં આવેલ છે. તેમાં ત્રણસો. ત્રેસઠ વાદિયા (પાખંડિ) ને અંતર્ભાવ થઈ જાય છે, એ પ્રમાણે પૂર્વાચાર્યો से छ. ते पाहायो । प्रभारी छ.-यावादी, मठियावाडी, भज्ञानि, -અજ્ઞાનવાદી અને વિનયવાદી છે. તેઓ પણ મોક્ષની પ્રરૂપણ કરે છે. તથા પિત પિતાના મતને અનુસરનારાઓને ધમને ઉપદેશ આપે છે. ભારપા - म० ५२ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्ग ३३० - संजुचा । इमं ताव तुब्भे सागणियाणं इंगालाणं पाई बहुपडि पुन्नं हाय मुहुत्सगं मुहुत्तगं पाणिणा घरेह, णो बहु संडासगं संसारिय कुजाणो बहु अग्गिथंभणियं कुज्जा णो बहुसाहम्मियवेयावडियं कुजा जो बहु परधम्मियवेयावडियं कुंज्जा उज्जुया नियागपडि घना अमायं कुव्वमाणा पाणिं पसारेह, इति बुच्चचा से पुरिसे बन्ना लेसि पावादुयाणं तं सागणियाणं इंगालाणं पाई बहुपडिन्नं अओमएणं संडासपणं गहाय पाणिसु णिसिरइ, तप णं ते पावादुया आइगरा धम्माणं णाणापन्ना जाव णाणाअज्झवसाण संजुत्ता पाणिं पडिसाहति, तए णं से पुरिसे सब्बे पांवाउए आइगरे धम्माणं जाव णाणाज्झवसाणसंजुत्ते एवं वयासी-हं भोपावादुया ! आइगरा धम्माणं जाणापन्ना जाव णाणाज्झवसाणसंजुत्ता ! कम्हा णं तुम्मे पाणिं पडिसाहरह ?, पाणि नो हिज्जा, दडे किं भविस्सइ ?, दुक्खं दुःखंति मन्नमाणा पाणि पंडिसाहरह, एस तुला एस पमाणे एस समोसरणे, पत्तेयं तुला पत्तेयं पमाणे पत्तेयं समोसरणे, तत्थ णं जे ते समणा माहणा एवमाइक्खति जाव परूवेंति- सव्ये पाणा जाव सव्वे सत्ता हंतव्वा अज्जावेयव्वा परिघेतव्वा परितावेयव्वा किलामेय वा उदवेयव्वा, ते आगंतु छेयाए ते आगंतु भेयाए जाव ते आगंतुजाइजरामरणजोणिजम्मणसंसारपुत्र भवगन्भवासभवपर्वचकलंकलीभागिणो भविस्संति, ते बहूणं दंडणाणं बहूणं मुंडणापां तजणापां तालणाणं अदु बंधणाणं जाव घोलणा 1 / Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् ३३१ माइमरणाणं पिइमरणाणं भाइमरणाणं भगिणीमरणाणं भज्जापुत्तधूतसुण्हामरणाणं दारिदाणं दोहग्गाणं अप्पियसंवासार्ण पियविप्पओगाणं बहुणं दुक्खदोम्मणस्ताण आभागिणो भवि संति, अणादियं च णं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंताणं भुजो भुजो अणुपरियटिस्संति, ते णो सिन्झिस्संति णो बुझिस्संति जाव णो सव्वदुक्खाणं अंतं करिस्संति, एस तुला एस पमाणे एस समोसरणे पत्तेयं तुला पत्तेयं पमाणे पत्तेयं समोसरणे। तत्थ णं जे ते समणा माहणा एवमाइक्खंति जाव एवं परूवेति-सव्वे पाणा सत्वे भूया सव्वे जीवा सन्चे सत्ता ण हंतव्या ण अजावेयव्वा ण परिघेत्तव्वा ण उद्दवेयव्वा ते णो आगंतु छेयाए ते णो आगंतु भेयाए जाव जाइजरामरणजोणिजम्मणसंसारपुगभवगम्भवासभवपवंचकलंकली-भागिणो भविस्संति, ते णो बहूर्ण दंडणाणं जाव णो 'बहूर्ण मुंडणाणं जाव बहूणं दुक्खदोम्मणस्प्लाणं णो भागिणो भविसंति, अणादियं च णं अगवयग्गं दीहमद्धं पाउरंतसंसारकतारं भुजो भुजो णो अणुपरियटिस्संति, ते सिन्झिस्संति जाव सम्वदुक्खाणं अंतं करिस्संति ॥सू० २६॥४१॥ ... छाया-ते सर्व मावादकाः आदिकराः धर्माणां नानामज्ञाः नानाच्छन्दसो नानाशीला नानादृष्टयो नानारुच्या नानारम्भाः. नानाऽध्यवसानसंयुक्ताः एक महान्तं मण्डलिवन्धं कृत्वा सर्वे एकतस्तिष्ठन्ति पुरुषका साग्निकानाम् अका. राणां पात्री बहुमतिपूर्णाम् अयोमयेन संदंशकेन गृहीत्वा तान् सर्वान् मावादुकान आदिकरान् धर्माणां नानाप्रशान् यावद् नानाऽध्यवसानसंयुक्तान एवमवादीत रो प्रावादका ? आदिकराः धर्माणां नानापना यावन्नानाऽध्यवसानसंयुक्ताः। Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतसूत्रे इमां तावद् यूयं साग्निकानामङ्गाराणां पात्रों बहुप्रतिपूर्णां गृहीत्वा मुहूर्त मुहूर्त पाणिना धरत नो बहुसंदंशकं सांसारिकं कुरुत नो अग्निस्तम्भनं कुरुत नो बहु साधर्मिकवैयावृत्यं कुरुत नो बहुपरधार्मिकवैयावृत्यं कुरुत ऋजुकाः नियागपतिपन्नाः अमायां कुर्वाणाः पाणि प्रमारयत । इत्युक्त्वा स पुरुष स्तेपां मायादुकानां तां सानिकानामङ्गानां पात्र बहुपतिपूर्णाम् अयोमयेन संदंशकेन गृहीत्वा पाणिषु निस्सृजति, ततः खलु तें मावादुका आदिकराः धर्माणां नानामज्ञा यावनानाऽध्य वसानसंयुक्ताः पार्णि प्रतिसंहरन्ति ततः खलु स पुरुषः तान सर्वान मायादुकानं भादिकरान् धर्माणां यावद नानाध्यवसानसंयुक्तान् एवमवादीत्, हो मावादुकाः ! आदिकराः धर्माणां नानामज्ञाः यावन्नानाध्यवसानसंयुक्ताः ! कस्मात् खलु यूयं पाणि प्रतिसंहरथ पार्णि नो दहेत् दग्धे किं भविष्यति ? दुःखं दुःखमिति-मन्यमानाः पाणि प्रतिसंहस्थ, एपा तुला एतद् प्रमाणम् एतत् समवसरणम् प्रत्येकं तुला प्रत्येकं प्रमाणं प्रत्येकं समवसरणम् । तत्र ये ते श्रमणाः माहनाः एवमा रूयान्ति यावत् प्ररूपयन्ति सर्वे माणाः यावत् सर्वे सच्चाः हन्तव्या आज्ञापयितव्याः परिग्रहीतव्याः परितापयितव्याः क्लेशयितव्याः उपद्रावयितव्याः, ते आगामिनि छेदाय ते आगामिनि भेदाय यावत् ते आगामिनि जातिजरामरणयोनिजन्मसंसारपुनर्भवगर्भवास भवमपञ्चककली मागिनो भविष्यन्ति । ते बहूनां दण्डनानां बहूनां मुण्डनानां वर्जनानां ताडनाना मुबन्धनानां यावद् घोलनानां मातृमरणानां पितृमरणानां भ्रातृमरणानां भगिनीपरणानां भार्यापुत्रदुहितृस्नुपामरणानां दारिद्रयाणां दौर्भाग्यानामभियसहवासानां मियविप्रयोगानां बहूनां दुःखदौर्मनस्या नामाभागिनो भविष्यन्ति, अनादिकं च खलु अनवदग्रं दीर्घमध्वं चातुरन्वसंसारकान्तारं भूयो भूयः अनुपर्यटिष्यन्ति ते नो सेत्स्यन्ति नो भोत्स्यन्ति यावन्नो सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति । एषा तुला एतत् प्रमाण मेतत् समवसरणम्, प्रत्येक तुला प्रत्येकं प्रमाणं प्रत्येकं समवसरणम् । तत्र खलु ये ते श्रमणाः माहनाः एवमारूयान्ति यावदेवं रूपयन्ति सर्वे प्राणाः सर्वाणि भूतानि सर्वे जीवाः सर्वे सच्चाः न हन्तव्याः नाज्ञापयितव्याः न परिग्रहीतव्याः नोपद्रावयितव्याः ते नो आगामिनि छेदाय ते नो आगामिनि भेदाय यावज्जा तिजरामरणयोनि जन्मसंसारपुनभवगर्भवासपश्चक कळीभागिनो भविष्यन्ति । ते नो बहूनां दण्डनानां यावनो वनां मुण्डानां यावद् बहूनां दुःखदौर्मनस्यानां नो भागिनो भविष्यन्ति । अनादिकं च खलु अनवदग्रं च दीर्घमध्वं चातुरन्त संसारकान्तारं भूयो भूयः नो अनुपर्यटिष्यन्ति । ते सेत्स्यन्ति ते भोत्स्यन्ति यावत् सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति ।। ० २६ ॥ ४१ ॥ " t Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ..२ क्रियास्थाननिरूपणम् टीका-पर्वधर्माणां प्रधानभूतो धर्मोऽहिंसाधर्मः स च सर्वशास्त्राणां सारभूत इति घोतयितु. मुपत्तिपूर्वक पइविंशतितमं सूत्रनाइ-ते ,सन्चे' इत्यादि । 'ते सव्वे ते सर्वे 'पावाउया' पावादुका:-अन्यरताऽजलम्धिनो ये सर्वज्ञप्रतिपादिन तमागमं न मन्यन्ते तेषां नाम पादुका स्ते संख्यया त्रिषष्ट्यधिकत्रिशतसंख्यकाः आदिकराः, एते वादिनः एवं वदन्ति वयमें। धादिकार, केनिमे आदिकरास्तबाह-'धम्माणं' धर्माणाम. ते कयंभूतास्तत्राह-'णाणापमा' नानापज्ञा:अनेकपकारकमतिमन्तः 'जाणाछंद, नानाछन्दसोऽनेकपकारकाऽमिपायवन्ता, 'णाणासीला' नानाशीला:-नानावान्तः 'णाणादिट्ठी' नानादृष्टया-नानादृष्टि:दर्शनं येषां ते तथा,' 'णाणारुई' नानारुवयः नानाऽभिप्रायवन्तः 'गाणा. रंभा' नानाम्मा:-अनेकपकारकाऽऽरम्ममाम्मारिः 'जागाज्यवसागसंजुता' नानाऽपसानसंयुक्ताः-अनेकमकारकनिवन्तः 'एग महं मंडलिकं किच्चा - अहिंसाधर्म सर्व धर्मों में प्रधान है और वहीं समस्त शास्त्रो का सार है। इस तथ्य को प्रकट करने के लिए युक्ति पूर्वक छब्बीसवां सूत्र कहते है 'ते सम्वे' इत्यादि । । टीकार्थ-जो अन्य मत का अवलम्बन करने वाले और सर्व के द्वारा प्रतिपादित आगम को न मानने वाले वादी हैं, उन्हें यहां प्रावादुक' कहा है। संख्या में वे तीन सौ त्रेप्सठ हैं। उनका यह कहना है कि हम ही धर्मों की आदि करने वाले हैं। वे नाना प्रकार की प्रज्ञा वाले है अर्थात् उनकी समझ परस्पर विराधो, होने से अनेक प्रकार की है। उनके अभिप्राय, शील व्रत, दर्शन और रुचि भो नाना प्रकार को हैं। वे अनेक प्रकार के आरंभ समारंभ किया करते हैं । और उनके निश्चय भी अनेक प्रकार के होते हैं। '. - अहिंसा धमः संवा धर्नामा प्रधान-भुण्य छे. मन मे शालीना સારે છે. આ સત્ય-તથ્યને બતાવવા માટે યુક્તિ પૂર્વક છવીસમું સૂત્ર કહેवामां आवे छे-'ते सव्वे' याति . ..., ટીકાંઈ–-જેઓ અન્ય મતનું અવલમ્બન કરવાવાળા અને સર્વજ્ઞ દ્વારા પ્રતિપાદન કરવામાં આવેલા આગમને ન માનવાવાળા વાદી છે. તેઓને 'અહિયાં પ્રાવાક કહેલ છે. તેઓ, ત્રણને મઠની સખ્યામાં છે તેઓને કહેવું એ છે કે–અમે જ ધર્મની આદી કરવા વાળા છીએ તેના અનેક પ્રકારની પ્રજ્ઞાવાળા છે. અર્થાત્ તેઓની સમજણ પરસ્પર વિરોધી હોવાથી અનેક પ્રકારની છે. તેઓને અભિપ્રાય શીલ-વ્રત- દર્શન અને રૂચિ પણ અનેક પ્રકારની છે કે એ અનેક પ્રકારને આભ સમારંભ કર્યા કરે છે. म तसान' भन: R . . . . . . . Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतीको सवे एगो चिट्ठति' एकं महान्तं मण्डलिवन्धं कृत्वा सर्वे एकत स्तिष्ठन्ति-स्वमतपचारार्थ समुदिता एकत्र तिष्ठन्तीत्यर्थः, योकत्र कचिरस्थाने सर्वे इमे उपविष्टारो भवेयुः तदा इमान् कोऽपि पुरुषः पृच्छे--भो भोः ! एक वहिपूर्णपात्रं हस्ते कुरुत, तदा ते तया कुयुः तत स्तेपां इस्तो. अधक्ष्यतः-ततः केचन वदन्ति । अहो, अत्याहितम्, भवनो हस्तौ प्रजाकिती। स बदति तावता का हानिः, ते वदन्ति तव पीडा जायते । ततस्तान संबोध्या भयोधयन स आह-यथा, वहिसंपर्काद्भवतामङ्गपीडा तथैव सर्वेषां प्राणिनामपि असुमनां पीडा जायते । तस्मान केऽपि जीवाः पीडनीयाः, संहवा:अमुमेव दृष्टान्तमुपादाय सर्वे जीवा रक्षणीया:-अहिंसेव पाळनीया. दया च भूतेषु विधेया। कश्चिदेक.आस्तिकस्वान् प्रतियोधयितुमाह-'पुरिसे य' इत्यादि । 'पुरिसे. य' पुरुषश्चैकः 'सागणियाणं इंगालाण' साग्निकानामगाराणाम् “पाई' पात्रीम् 'बहुपडिपुन्ने अोमएणं' वहिपतिपूर्णाम् अयोमयेन 'संडासएण' संदंश केनलोहदण्डेन 'गहाय' गृहीत्वा ते सव्वे' तान् पावादुकान्-अनेकपकारक-मतादिनः 'आइगरे धम्माण' धर्माणामादिकरान् ‘णाणापन्ने नानाप्रज्ञान 'जाव णाणायक साणसंयुत्ते' यावत्-नानादुध्यवसानसंयुकान् ‘एवं वयासी', एवमवादीद-वान मावादुकान्-एवं कथितवान्-पुरुषोऽग्निपात्रं गृहीत्वा "ह भो पावाउया भोः मावादुका:- भो भोः नानामतावलम्बिनः । 'आइगरा धम्माण' धर्माणामादिकरा:, 'णाणापन्ना' नानापज्ञाः 'जाव णाणाअज्झ साणसेजुत्ता' यावन्नानाऽध्यवसानसंयुक्तार, 'इमं तार तुम्मे सागणियाणं इंगालाणं पाई' इमां तावद् यूयं साग्नि कानामगाराणां पात्रीम्, 'बहुपडिपुन्न' बहुपतिपूर्णाम् 'गहाय' गृहीत्वा 'मुहचर्य मुहत्तय' मुहूर्तक मुहूर्तकम् 'पाणिणा धरेह' पाणिना धरत-हस्तेन ग्रहणं कुरुत 'मो ये सब प्रावोदुक गोल चक्कर, थना कर एक स्थान पर बैठे हों ऐसे समय में कोई पुरुप अग्नि के अंगारों से परिपूर्ण भाजन को लोहे की संडासी से पकड़ कर उन धर्मों की आदि करने वाले, नाना प्रकार की प्रज्ञा वाले यावत् नाना प्रकार के निश्चय वाले प्राबादुकों से कहेहे परवादियों ! अग्नि के अंगारों से भरे हुए इस भाजन को लेकर - આ સઘળા “પ્રાવાદક વાદીઓ ગોળ ચક બનાવીને એક સાથે બેઠા હોય તેવા સમયે કે પુરૂષ અગ્નિના અંગારાથી ભરેલા પાત્રને લેખંડની સાંડસીથી પકડીને તે ધર્મોના આદિ કરવાવાળા, અનેક પ્રકારની પ્રજ્ઞા બુદ્ધિ વાળ, યાવત્ અનેક પ્રકારના નિશ્ચયવાળા પ્રાવાકે વાદીને કહેવામાં આવે કે-હે પરવાદિયે ! અગ્નિના અંગારાથી ભરેલા આ પાત્રને લઈને તમે Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्यबोधिनी टीका द्वि श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् ३३५ संडासगं संसरियं कुमा' नो संदशकं सांसारिक कुरुत-संदेशकसाहाय्येन-संदंश. कस्य बलेन मा गृह्नत । 'णो बहुअग्गिथंभणियं कुज्जा' नो अग्निस्तम्भनं कुरुत 'णो बहुसाहम्मियवेयावडियं कुज्जा' नो साधर्मिकवैयावृत्यं कुरुत, स्वधार्मिकान् अने: नाग्निना उपकारं मा कुरुत, 'णो बहुपरधम्मियवेयावडियं कुन्जा' परधार्मिकाणां वैयावृत्यमपि नो कुरुत, किन्तु-'उज्जुयाणियागपडिवाना अमायं कुचमाणां पाणिं पसारेह' जुकाः नियागपतिपन्ना: अमायां कुर्वाणाः पाणि पसारयत, 'इवुया' इत्युक्त्वा से पुरिसे' स पुरुषः 'तेसिं पावादुयाणं तेषां मावादुकानाम् 'त' ताम् 'सागणियाणं इंगालाणं पाई साग्निकानामगाराणां पात्रीम् 'बहुपडिपुन्नं अयोम: एणं' परिपूर्णामयोमयेन लोहनिमितेन, 'संडासएणं' संदंशकेन 'गहाय' गृहीत्वा 'पाणिमु निसिरइ' पाणिषु निसृजति-हस्ते प्रक्षिपति, तएणं तं पावादुया आइगरा धम्माणं णाणापन्ना' ततः खलु ते मावादुका धर्माणामादिकरा नानाप्रज्ञाः 'जाव णाणा अज्झवसाणसंयुत्ता' यावन्नानाऽध्यवसानसंयुक्ताः 'पाणि पडिसाहरंति' पाणि -हस्तं प्रतिसंहरन्ति-हस्तौ संकोचयन्ति-वह्नितः पृथक्कुर्वन्ति 'तए णं से पुरिसे' तदनु स पुरुषः 'ते सव्वे पाचाउए तान् सर्वान् प्रावादुकान् 'आइगरे धम्माण' आप लोग थोड़े समय तक अपने-अपने हाथ से पकड़िए । संडासी की सहायता मत लीजिए। अग्नि का स्तंभन भी मत कीजिए। साधर्मिकों का वैयावृत्य मत कीजिए अर्थात् इस अग्नि से अपने सार्मिकों का उपकार न कीजिए। और न पर धार्मिकों का वैयावृत्य कीजिए। किन्तु सरल एवं मोक्षाराधक बन कर कपट न करते हुए हाथ फैलाइए। इस प्रकार कह कर वह पुरुष उन धर्म की आदि करने वाले परवादियों के हाथों में उस अग्नि के अंगारों से परिपूर्ण भाजनों को संडासी से पकड़ कर रखने लगे, तब वे धर्म की आदि करने वाले, नाना प्रकार की प्रज्ञा वाले यावत् नाना प्रकार के निश्चयों वाले परથોડા થોડા સમય સુધી 'પિત પિતાના હાથથી પકડે, સાડસીનું સહાયપણું લેવું નહીં અશિનું સ્તંભન પણ ન કરવું. અર્થાત તે અગ્નિથી પિતાના સ ધર્મિકોનુ વૈયાવૃત્ય કરો પરતુ સરળ અને મેક્ષારાધક બનીને કપટ ન કરતાં હાથ ફેલા અર્થાત્ હાથ ધરો. આ પ્રમાણે કહીને તે પુરૂષ તે ધર્મના આદિ કરવાવાળા પરવાદિના હાથમાં તે અગ્નિના અગારાથી પરિપૂર્ણ-ભરેલા પાત્રોને સાંડસીથી પકડીને રાખવા લાગ્યા. ત્યારે તે ધર્મના આદિ કરવાવાળા અનેક પ્રકારની પ્રજ્ઞાવાળા, થાવત્ અનેક પ્રકારના નિશ્ચયવાળા પરવાદિયે પિતાના હાથને સંકોચીને Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गले ३३६ जात्र नागाज्झरसाण संजुत्ते ' धर्माणामादिकरान् यावन्नानाऽध्यवसानसंयुक्तान्द 'एवं वयासी' एवमयादीत 'हं भो पात्रा या ।" हं हो मावादुका' ! 'आइगरा धर्माणामादिकराः 'णाणापन्ना' नानामज्ञाः 'जाव णाणा अज्झत्रसाणसंजुता ग्रावन्नानाऽध्यवसानसंयुक्ताः 'कम्हाणं तुसे पार्णि पडिसादर' कस्मात् कारणात् खल यूयं पाणि प्रतिसंहरथ- कथं वह्निः हस्ते पृथक् कुरुप 'पाणि नो डहिज्जा' पाणि जो दहेदिति प्रतिवचनम् - ते मतत्रादिन एवं कथयन्ति - पाणिः अस्माकं भस्मी थूतो भवेद्रतः संहरामः । परान् पुनः पृच्छति - 'दड़े कि भविस्स कि भविष्यति यदि हस्तौ दहेत् तदा किं युष्माकम् 'दुवखं दुक्खति मन्नः माणा पाणि पडिसाहर' दुःखं दुःखमिति मन्यमानाः पार्णि मतिसंहरथ, यदि मिञ्चालन ते दुःखं भवतीति मत्वा पाणि प्रतिसंहरथ, तदा एव नीति जव मात्रे ज्ञेया । एतदेव सर्वतः मवलं प्रमाणमिति । तदुक्तम् 2 सादिक अपने हाथों को सिकोड़-संकोचित कर लेते हैं अर्थात् उस भाजन का हाथों में लेने को तैयार नहीं होंगे। तब वह पुरुष उन धर्म की आदि करने वाले यावत् नाना प्रकार के निश्चय वाले वादियों से इस प्रकार कहे - हे धर्म की आदि करने वाले, यावत् नाना प्रकार की निश्चय करने वाले परवादियों ? आप अपने हाथ क्यों सिकोडते हैं ? इस अग्नि का हाथ में लेते क्यों नहीं है ! तब वे प्रावा दुक उत्तर देंगे कि हमारा हाथ जल जाएगा ! अर्थात् हाथ जल जाने के भय से हम हाथ सिकोड़ रहे हैं । तब वह पुरुष कहता है- हाथ जल जाने से क्या हानि है ! तब वे कहेंगे- दुःख होगा । तब वह पुरुषं कहता है - यदि अग्नि से जलने के कारण तुम्हें दुःख का अनुभव होता है तो f + લઈ લે છે. અર્થાત્ તે પાત્રને હાથેામાં લેવા માટે તૈયાર થતા નથી, ત્યારે તે પુરૂષ તે ધર્માંની આદિ કરવાવાળા યાવતુ અનેક પ્રકારના નિશ્ચયવાળા વાદિચાને આ પ્રમાણે કહ્યું-ડે ધમાઁના આદિ કરવાવાળા, અનેક પ્રકારની પ્રજ્ઞાવાળા, યાવત્ અનેક પ્રકારના નિશ્ચય કરવાવાળા પરવાઢિયા તમે તમારા હાથેા કેમ સ'કાચી લે છે ? આ અગ્નિને હાથેામાં કેમ લેતા નથી ? ત્યારે તે પ્રાાદુકા' ઉત્તર આપશે કે-અમારા, હાથેા મળી જશે. અર્થાત્ હાથ મળવાના ભયથી અમે હાથ સડ઼ાચી રહ્યા છીએ, ત્યારે તે પુરૂષ કહે છે કે, - हाथ मणी वा शुं नुम्शान छे ?त्यारे तेथे आहे - हुम थशे. ત્યારે તે પુરૂષ કહે છે કે જો અતિથી ખળવાને કારણે તમાને દુઃખના Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३७ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. म. २ क्रियास्थाननिरूपणम् 'प्रत्याख्याने च दाने च सुखदुःखे मियाऽप्रिये । अत्मौपम्येन पुरुषः प्रमाणमधिगच्छति ॥इति॥ 'एस तुला एस पमाणे एस समोसरणे पत्तेयं तुला पत्तेयं पमाणे पत्तेय समोसरणे' एषा तुला तुलानाम-सादृश्यम्-अन्यजीवेन सह, एतत्पमाणम्, एतत्समवसरणम्, समवसरणं धर्माणामभिमायः यथा अस्माकं दुःखं न संमत्तं तथा प्रत्येकजीवानाम्। प्रत्येकं तुला, प्रत्येक प्रमाणम्, प्रत्येक समवसरणम् स्वानुभूत. दुःखप्रमाण-यथा-यया कयाऽपि पीडया भवतां मनो दुःख्याति तथैव-सर्वेषां भवतीति स्वाऽनुभूताऽनुभवममाणेन सम्यग ज्ञावा हिंसया प्रतिनिवर्तयथ । सर्व धर्माऽपेक्षया वस्तुतोऽहिंसैव सर्वतः प्रधाना। तामेवाऽहिंसां शास्त्रकारो दृष्टान्तद्वारा प्रदर्शयति । 'तत्थ णं जे ते समणा माहणा एवमाइक्वंति जाव परूवें ति' प्रत्येक प्राणी के लिए भी यही नीति समझनी चाहिए। यही सबसे पड़ा प्रमाण है। कहा भी है-'प्रत्याख्याने च दाने च' इत्यादि। टीकार्थ-प्रत्याख्यान, दान, सुख, दुःख, प्रिय और अप्रिय के विषय में मनुष्य अपनी ही उपमा से सही निर्णय पर पहुँचता है। ' यह पुरुष कहता है-यही यथार्थ निर्णय करने की तुला (तराजु) है, यही प्रमाण है, यही समवसरण है। जैसे व्यथा से आपके मन को दुःख होता है, उसी प्रकार सघ प्राणियों को दुःख होता है, स्थान भव प्रमाण से इस तथ्य को जानकर हिंसा से निवृत्त होना चाहिए। अहिंसा ही सब धर्मों में प्रधान धर्म है। उसी को शास्त्रकर दृष्टान्त द्वारा दिखलाते हैंઅનુભવ થાય છે, તે દરેક પ્રાણીને પણ એજ હકીકત સમજવી જોઈએ. એજ સૌથી મોટું પ્રમાણ છે. કહ્યું પણ છે કે– 'प्रत्याख्याने च दानेच' त्यादि प्रत्याभ्यान, दान, सुम, प, प्रिय, मन मप्रियना सभा 'मनुष्य પિતાની જ ઉપમાથી દાખલા ગ્ય નિર્ણય કરી શકે છે. તે પુરૂષ ફરીથી કહે છે કે--આજ ચગ્ય નિર્ણય નિશ્ચય કરવાની તલા (ત્રાજવા) છે, આજ પ્રમાણ છે આજ સમવસરણ છે, જેમ વ્યથા–પીડાથી પિતાના મનમાં દુઃખ થાય છે, એ જ પ્રમાણે સઘળા પ્રાણિને દુઃખ થશે. પિતાના અનુભવના પ્રમાણથી ધર્મ આ તથ્ય-સત્યને જાણીને હિંસાથી નિવૃત્ત થવું જોઈએ. અહિંસા જ સઘળા ધર્મોમાં મુખ્ય ધર્મ છે. તેને જ શાસ્ત્રકાર દૃષ્ટાન્તથી હવે બતાવે છે, Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ३३८ - तत्र खलु ये ते श्रमणा माहना एत्रमाख्यान्ति कथयन्ति यावत् प्ररूपयन्ति लोकेभ्यः, किन्ते प्रतिपादयन्ति तत्राह - 'सच्चे पाणा जात्र सच्चे सत्ता तन्ना' सर्वे माणाः यावत् सर्वे जीवाः सर्वे भूता सर्वे सच्चाः हन्तव्याः दण्डादिमि स्वाडयितव्या: 'अज्जावे पच्चा' आज्ञापयितव्याः अनभिमतकार्येषु प्रवर्त्तयितव्याः 'परियन्ना परितावेयन्वा किलामेयच्या उदवेयच्चा' परिग्रहीतव्याः- दासदासीक पेण परिग्रहेण स्वाधीने नेतव्याः परितापयितव्या ।-अन्नपानाद्यवरोधेन ग्रीष्मातपादौ स्थापनेन पीडनीयाः, क्लेशयितव्याः तत्र क्लेशो बन्धनादिना खेदोत्पादनम्, उपद्रावयितव्याः चिपशनादिना मारयितव्याः एवमुपदिशन्ति, ते भ्रमणाः परतीर्थिकाः पतिः एवं क्रोशन्वथ, हिंसाजन्यपापफरमाह- 'ते भागेतू छेयाए' ते आगामिनि छेदाय, यथेदानीं तान् छिन्दन्ति तथा भविष्यत्काले हेरजन्मनि भवान्तरे वा स्वयमपि उच्छिन्ना भविष्यन्तीति-स्वोच्छेदाय 'ते आगंतुभेयाए' ते अगामिनि भेदाय - भविष्यत्काले भेदनादि माप्यर्थम् 'जात्र ते आगंतु जाइजरामरणजोणिजम्मणसंसारपुणमवगमवासभवपर्वच कलंकळी भागिणो भविस्संति' यावत्ते आगामिनिजातिजरामरणयोनिजन्मसंसार पुनम व गर्भवासभत्रम and 1 I ज़ो श्रमण और ब्राह्मण ऐसा कहते हैं यावत् लोगों के सामने प्ररूपण करते हैं कि सभी प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्वों का इनन करना चाहिए, दास - दासी रूप में ग्रहण करना चाहिए, उनको भोजन - पानी रोक कर अथवा धूप आदि में खडा करके संताप पहुंचाना चाहिए, बन्धन आदि में डालकर खेद उत्पन्न करना चाहिए, विपया शस्त्र आदि से मार डालना चाहिए, ऐसा कहने वाले, बकवाद करने वाले वे श्रमण और ब्राह्मण भविष्यत् काल में, इसी जन्म में अथवा आगामी जन्म में अपना ही छेदन-भेट्न आदि करने वाले हैं, उन्हें आगे चलकर छिन्न-भिन्न होना पडेगा । उन्हें जाति नरक एवं निगोद 1 જે શ્રમણુ અને બ્રાહ્મણ એવું કહે છે કે--યાવત લેઢાની સામે પ્રરૂ પા કરે છે કે સઘળા પ્રાણિયા, ભૂતા, જીવેા અને સત્વેનુ હનન કરવું જોઈએ. તેઓના આહાર-પાણી રોકીને અથવા તડકા વિગેરેમાં ઉભા રાખીને સતાપ પહાચાડવા જોઇએ. અધન વિગેરેમાં નાખીને તેઓને ખેદ કરાવવા જોઇએ. વિષ-અથવા શસ્ર વિગેરેથી મારી નાખવા જોઇએ. એવુ' કહેવાવા ળાએ મુકવાદ કરવાવા, શ્રમણુ અને બ્ર ભ્રૂણ ભવિષ્યકાળમાં આજ જન્મમાં અથવા આવનારા જન્મમાં પેાતાનું જ છેદન, ભેદન વિગેરે કરે છે, તેને પેાતાને જ આગળ પર છિન્ન, ભિન્ન થવું પડશે. તેઓને નરક અને નિગેાદ વિગેરેમાં ઉત્પત્તિ, જરા, મરણ, જન્મ પુનભવ,, વાર્ાર ભવ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् ३३९, पञ्चकलं कलीमागिनो भविष्यन्ति, तत्र-नरकनिगोदादौ जाति रुत्पत्तिः जरा-वधिक्यम्, मरण-मृत्युः, जन्म-नरकनिगोदादि योनिषु जननं जन्म, संसारपुनर्भव:संसारे पुनः पुनर्जन्मग्रहणम्, गर्भवासः-पुनपुनर्गर्भपातिः, भवमपश्चा-सांसारिक प्रपञ्चः, कलं कलीमावो नाम समारगर्मादिपर्यटनम् एतेनागन्तुक जातिजरामरणादीन् भनन्ते ये ते तथा भूता भविष्यन्तीति । ये इत्थमुपदिशन्ति जीवहिंसाम्, तथा ये कुर्वन्ति च प्राणातिपातम्, नैतावदेव, किन्तु-इहैव भवे-'ते बहूर्ण दंडणाणं' ते बहूनां दण्डनानाम् 'वहूणे मुंडणाणे बहूनां मुण्डनानाम्, 'तज्जणाण' तर्जनानाम् अगुल्यादिना 'तालणाणं ताडनानाम् दण्डादिना 'जाव घोलणाणे. यावद् घोल नानाम्-दधिभाण्डवन्मथनानाम्, यावत्पदेन-उदन्धनानाम्, 'कसा' इति प्रसिद्धा. नाम्, तथा-'माइमरणाणं पिइमरणाणं भाइमरणाणं गगिणीमरणाण' मात्परणानां पितृमरणानां भगिनीमरणानाम् 'मज्जापुत्तधूतमुण्हामरणाणं' भार्या-पुत्र-दुहिएस्नुषा मरणानाम्, 'दारिदाण' दारिद्रयाणाम् 'दोहरगाणं' दौर्भाग्यानाम, अपि. यसंघासाणं' अभियसहवासानाम् 'पियविप्पभोगाणं' मियवियोगानाम् 'बहूगं' दुक्खदोम्मणस्साण' दुःग्वदौमनस्यानाम् 'आमागिणो भविस्तति'' आमागिनो भविष्यन्ति-उपरोक्ताना वियोगजनितदुःखानां भागिनो भविष्यन्ति-हिंसाकारोऽनुमोदयितारो वा परतीथिकाः, तथा-'अगाइयं च णं' अनादिकं च खलु नास्तिआदियस्य सोऽनादिः अनादिरे। अनादिकस्तम् 'अणप्रयागं' अनपदनम्-न विद्यते आदि में उत्पत्ति, जरा, मरण, जन्म, पुनर्भव-पुन:-पुन भवधारण गर्भवास एवं भव भ्रमण का भागी होना पडेगा। जीवहिंसा का उपदेश देने वाले और जीवघात करने वाले इसी भव में बहुत-से दण्ड, मुण्डन, तजना, ताड़ना और घोलना (मथन) एवं उबंबन आदि के पात्र होते हैं। ये पितृमरण, मातृमरण, भ्रातृमरण, भागिनीमरण, पत्नी मरण, पुत्र मरण, दुहिता मरण, पुत्रवधूमरण, दरिद्रता, दुर्भाग्य, अनिष्ष्ट संयोग, इष्टवियोग इत्यादि दुःखों और दौर्मनस्यों के भागी होंगे वे अनादि अनन्त, दीर्घ कालोन चारगति वाले संसार रूपी वन ધારણ, ગર્ભવાસ અને ભવભ્રમણના ભાગી થવું પડશે જીવ હિંસાને ઉપદેશ આપવાવાળા અને જીવોની હિંસા કરવાવાળા આજ ભવમાં ઘણા એવા ६.३, भुन, त तन मन घाण (भयन) तथा 5 मधन.47. રેના પાત્ર બનવું પડે છે. તેઓ પિતૃ મરણ–પિતાના મરણ-માતાના મરણું, ભાઈને મરણ, બહેનનાં મરણ સ્ત્રીના મરણ, પુત્ર મરણ, પુત્રી મરણ, પુત્રવ'ધેનું મરણ, દરિદ્રપણું, દુર્ભાગ્ય અનિષ્ટ સંગ ઈષ્ટ વિગ વિગેરે ખે અને દોર્મના ભાગી બનશે. તેઓ અનાદી, અનંત, દીર્ઘ કાળ સંબંધી Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : सूत्रकृतासूत्रे ३४० अवदग्रं - पर्यन्तो यस्य तथाभूतम् - अन्तरहितम् ' दीहमर्द्ध' दीर्घमध्यम्, 'चाउ रंतस सारकवारं ' चातुरन्त संसारकान्तारम्, चतुरन्तं चतुर्विमागं नरकत्वादिभेदेन तदेव चातुरन्तं तच्च तत् संसारकान्तारं च वातुर्गतिकमंसारम् भुज्जो भुज्जो' भूयो भूयो भूपोऽनन्तवारमिति यावत् 'अणुपरिपट्टिस्संति' अनुपर्यदिष्यन्ति - परिभ्रमणं करिष्यन्ति 'ते णो सिज्झिस्संति' ते नो सेत्स्यन्ति-सिद्धिगर्ति कदापि न माझ्य न्ति । 'णो युज्झिस्संति' नो भोत्स्यन्ति-बोध भागिनः केवलिनो न भविष्यन्ति 'जान सन्दुक्खाणं तं करिस्सति' यावन्नो सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति सर्वाणिशारीरिकमानसादीनि तेषामन्तं - नाशं न करिष्यन्ति, 'एस तुला' एपा तुला-स्वयूथिकानामपि 'एस पमाणे' एतत्ममाणम् - परपीडा न कर्त्तव्या एतदेव प्रमाणमन्यदः प्रमाणम् 'एस समोसरणे' एतत्समवसरणम्-आगमसारः - परपीडा न कर्त्तव्या इत्येवं प्रत्येकं जीवं प्रतिसादृश्यम्, 'पत्तेयं तुला' प्रत्येकं तुला 'पत्ते पमाणे' प्रत्येकं प्रमाणम् - परपीडा न कर्त्तव्या इत्येवं प्रत्येकं जीवं मतिप्रमाणम् 'पत्तेयं समोसरणे' प्रत्येकं समवसरणम् - परपीडा न कर्तव्या इत्येवं प्रत्येकं जीवं प्रति शास्त्रसारः, सिकानां मार्ग दहिंसकानां मार्गमाद- 'तत्थ णं जे ते समणा माहणा एत्र माइक्खति जाव परुति' तत्र खलु ये ते श्रवणा मादना एनमाख्यान्ति यात्रदेवं - में बार-बार अर्थात् अनन्त वार परिभ्रमण करेंगे । वे सिद्धि नहीं प्राप्त कर सकेंगे, बोध के भागी नहीं होंगे, यावत् सर्व शारीरिक-मानसिक दुःखों का अन्न नहीं कर सकेंगे । यही सब के लिए तुला है और यही प्रमाण है कि दूसरों को पीड़ा नहीं पहुंचाना चाहिए। इसके अति· रिक्त अन्य अप्रमाण है। परपीडा न उत्पन्न करना ही समवसरण अर्थात् आगम का सार है । यह सभी प्राणियों के लिए समान है। प्रत्येक के लिए प्रमाण है । प्रत्येक के लिए यही आगम का सार है ! ચાર ગતિવાળા સસાર રૂપી વનમાં વારવાર અર્થાત્ અનંતવાર પરિભ્રમણ '४२शे. 'तेथे' सिद्धि आप्त नहीं हरी राडे, बोघना भागी थशे नहीं. याव्रत તે શારીરિક અને માનસિક દુઃખાના અંત કરી શકશે નહી. આજ બધાને માટે તુલા સમજવી. અને એજ પ્રમાણુ છે કે-બીજાઓને પીડા કરવી ન જોઈએ. આ શિવાય બીજું' અપ્રમાણુ છે. આ પીડા ન ઉપજાવવી એજ સમવસણું અર્થાત્ આગમના સાર છે. આ પણ પ્રાણિયા માટે સમાન છે. દરેકને માટે પ્રમાણુ છે. દરેકને માટે આજ આગમના સાર છે તેમ સમજવું. 1 Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ कियास्थाननिरूपणम् ३४१ परूपयन्ति, कि तत्तत्राह-सवे पागा सव्वे भूया सव्वे जीना सव्वे सवाण हंन.. व्वा ण अज्जावेययाण परिवेतन्या' सर्व प्राणा: स भूताः सर्वे जोवाः सः सत्वाः न हन्तव्याः, नाऽज्ञापयितव्याः, न परिग्रहीतव्याः ‘ण उदवेयना नो पद्रावयिव्याः , ये महानु मावा एवमुपदिशनि पाल पनि चाऽहिंसोपदेशं तेषामेते दण्डा न भवन्ति इति दर्शयन्ति । ते णो आगंतु, छे पाए' ते नो आगामिनि छाय भवन्तीतिशेषः, 'वे णो आगंतु भेगार' ते नो-आगन्तुकभेदाय 'जाव ज़ाइ जरामरण नोणि नम्मणसंसारपुणभपगभवास मवावंच कल कलोभागिगो भविसति' यापजातिनरामरणोनिनन्मसंसारपुनर्भवावासमयपश्च लंहलोभागिनो भविष्यन्तोति शेषः । व्याख्यात-पूर्णोऽयं ग्रन्य:। 'ते णो बहू गं दंडगाणे ते नो बहूनां दण्डानाम् 'जाव णो वहूणे मुंडगाणं' यातन्नो वहूना मुण्डनानाम्-बहूनां तनानां बहूनां ताडनानांबहूनामुबन्धनानां यावत् निगडबन्धनानां हाडिन्धनानां चारकवचनानां निगड़युगलसंकुचितमोटितानां हस्तछिन्नकानां कर्णछिन्नकानां हिंसकों का मार्ग बनलाकर' अहिंसकों का मार्ग कहते हैं-जो श्रमण और ब्राह्मण ऐसा कहते एवं प्ररूपणकरते हैं कि-सब प्राणियों भूतों जीवों और सत्त्वों का हनन नहीं करनाचाहिए, उन्हे उनके अनिष्ट कर्म में नहीं लगाना चाहिए, अपना गुलाम नहीं बनना चाहिए, उनको पूर्वोक्त दंड कुफल नहीं भुगतने पड़ते । आगामी काल में उनको छेदन और भेदन का पात्र नहीं होना पडता, यावत् उत्पत्ति, जरा, मरण, जन्म, संसार, पुनर्भव, गर्भवास एवं भवप्रपंच का पात्र नहीं बनना पड़ता। उन्हे वहूत से दंड, मुंडन, तजेना, ताडना, उबन्धन, निगडपन्धन, हडिवन्धन, चारकवन्धन, दोनों हाथ मरोड कर हथकडियों के बन्धन, हस्तछेदन, पछेदन, कर्ण छेदन, नासिका-छेदन, - હિંસકને માર્ગ બતાવીને હવે અહિંસોને માર્ગ બતાવવામાં આવે છે. જે શ્રમણ અને બ્રાહ્મણ એવું કહે છે એવી પ્રરૂપણ કરે છે. કે-સંધળ પ્રાણિ, ભૂતે, જીવે અને સર્વેનું હનન કરવું ન જોઈએ. તેને તેઓના અગ્ય કર્મમાં લગાવવા ન જોઈએ. તેઓને પૂર્વોક્ત દંડ-કુફળ ભોગવવું પડતું નથી. આગામી કાળમાં તેઓને છેદન અને ભેદનને પાત્ર થવું પડતું નથી. વાવ ઉત્પત્તિ, જરા, મરણ જન્મ સંસાર, પુનર્ભવ, ગર્ભવાસ અને 4 अपयन पात्र मनषु तु नथी. तेमाने घया 31, भुन, dol, તડન, ઉબંધન, નિગડ બંધન, હડિબંધન ચારક બંધન, અને હાથ મરડિને હાથકડીનું બંધન, હરત છેદન, ૫૦ કેદન, કહ્યું છેદન, નાસિકા–નાક Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ सूत्रकृताई सूत्रे नासिका छिन्नकानाम् ओष्ठ छिन्नकानां शीर्षक छिन्नकानां मुखछिन्नकानां वेदछिन्नकानां हृदयोत्पाटितानां नयनवृवण दानवदन जिहोत्पाटितानां घर्षितानाम् एतेषामर्थाः दशा स्कन्धे पष्ठेऽध्ययने दशमसूत्रे २३५ पृष्ठे द्रष्टव्याः । 'जाव वहूगं दुक्खदोम्मणसणं' यावद् दुःख दौर्मनस्यानाम् 'णो भागिगो भविस्संति' नो भागिनो भविष्यन्ति-अहिंसावत पालनात् कथमपि दण्ड मागिनो न भविष्यन्ति कारणाभावात् 'अणाइयं च णं' अनादिकं च खड्ड 'अगं'अम्' 'दीह मर्द्ध' दीर्घमध्वम् 'चाउरंत संसारकंवा रं' चातुरन्त संसारकान्तारम् भुजो भुज्जो' भूयो भूः 'णो अणुवरियट्टिस्संति' नो अनुपर्यटिष्यन्ति । 'ते सिनि संसंति' ते सेत्स्यन्ति सिद्धिं गमिष्यन्तीत्यर्थः । ' ते बुज्झिस्सति' ते भोत्स्यन्ति 'जाव सन्दुक्खाणं अंतं करिस्संति' यावत्सर्वदुःख (नामन्तं करिष्यन्ति, सेत्स्यन्ति - सिद्धि प्राप्स्यन्ति, भोत्स्यन्ति - केवलिनो भविष्यन्ति, मोक्ष्यन्ति कर्मबन्धनात् परिनिर्वास्यन्ति सर्वथा सुखिनो भविष्यन्ति सर्वाणि च तानि दुःखानि शारीर मानसादीनि तेषां मन्वं विनाशं करिष्यन्तीति ॥ भ्रू० २६=११ ॥ ओष्ठ छेदन, शिर छेदन, मुख छेदन, लिंगछेदन, हृदयोत्पाटन (हृदयको उखाडना) नघन, अण्डकोष, दन्त वदन एवं जिह्वा के उत्पादन 'आदि व्यथाओं का भागी नहीं होना पडता (दशाथुन स्कंध के छठे अध्ययन के दशम सूत्र पृ० २३५ में इन यातनाओं के विषय में विशेष देखना चाहिए।) यावत् उन अहिंसकों को न अनेक प्रकार के दुःखों • का सामना करना पडता है और न दौर्मनस्यों का ही । वे अनादि अनन्त दीर्घकालीन - दीर्घ मार्ग वाले चातुर्गतिक संसार अरण्य में पुनः - पुनः भ्रमण नहीं करेंगे । वे सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे यावत् समस्त छेउन मोठ-हाउनु छेन, शिर छेडन, भुभ छेडन, सिंग छेन हयोत्पाटन, (हृइयने (जेडवु) नयन, आंभ अन्उडोष, हांत, भुभ, भने लमने उजेडवा विगरे व्यथा-यीअमोने, लोगवनी पडती नथी. (हशाश्रुतस्य धना छठ्ठा अध्य યનના દસમા સૂત્ર રૃ. ૨૩૫ માં આ યાતનાઓના સંબધમાં વિશેષ પ્રકારથી વર્ણન કરવામાં આવેલ છે તે જીજ્ઞાસુઓએ ત્યાંથી જોઇ લેવુ” ચાવત્ ते अडिसने अनेड प्रहारना, हुोनो, सामने वो पडतो नथी. तथा ઢોર્મનસ્યના પણ સામના કરવા પડતા નથી. તેએ અનાદિ અનત દીઘ अंधीन-दीर्घ भार्गवाजा, यातुर्गति- यार जतिवाणां संसार ३र्थी मरएयજગતમાં વારંવાર ભ્રમણ કરતા નથી, તેઓ 'સિદ્ધ થશે. યુદ્ધ થશે યાવત Wha " Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४३ समयार्थबोधिनी टीका द्वि.श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् । मूलम्-इच्छेतेहिं बारसहि किरियाठाणेहिं वट्टमाणा जीवा णो सिञ्झिसु णो बुझिसु णो परिणिव्वाइंसु जाव नो सबदुक्खाण अंतं करेंसु वा णो करेंति वा णो करिस्तंति वा। एयसिं चैव, तेरसमे किरियाठाणे वट्टमाणा जीवा सिज्झिसु बुझिसु मुञ्चिसु, परिणिब्वाइंसु जाव सवदुक्खाणं अंतं करेंसु वा करंति वा करिसंति वा । एवं से भिक्खू आयही आयहिए आयगुत्ते आय जोगे आयपरक्कमे आयरक्खिए आयाणुकंपए आयनिफेडएं आयाणमेव पडिसाहरेज्जासि त्तिवेमि ॥सू० २७॥४२॥ 'इति वीयसुयक्खंधस्स किरियाठाणे नामं बीईयमज्झयणं समत्तं', छाया-इत्येतेषु द्वादशसु क्रियास्थानेषु वर्तमाना जीवा नो असिध्यन् नो अवुध्यन् नो अमुञ्चन् नो परिनिवृत्ताः यावन्नो सर्वदुःखानामन्तमकाथुर्वा नो कुर्वन्ति वा नो करिष्यन्ति वा। एतस्मिन्नेव त्रयोदशे क्रियास्थाने वर्तमाना जीवाः असिध्यन् अवुध्यन् अमुञ्चन् परिनिवृत्ताः यावत्सर्वदुक्खानामन्तमकार्ष वी कुन्ति वा करिष्यन्ति वा । एवं स भिक्षुः आत्मार्थी आत्महितः आत्मगुप्तः आत्म योगः आत्मपराक्रमः आत्मरक्षितः आत्मानुकम्पका आत्मनिस्सारकः आत्मानमेव पतिसंहरेदिति ब्रवीमि ॥ सू०२७-४२ ॥ ॥ इति द्वितीयश्रुतस्कन्धीय द्वितीयाऽध्ययनम् ॥ , टीका-अस्मिन् द्वितीयाऽध्ययने त्रयोदशक्रियास्थानानां विस्तरेण निरूपणं कृतम् । तत्र च आद्वादशक्रियास्थानं संसारकारणम्, त्रयोदशे तु-तद्विपरीत शारीरिक-मानस दुःखों का अन्त करेंगे। कर्म बन्धन से छुटकारा प्राप्त करेगे और सर्वथा सुखी होंगे ॥२६॥ पच्चेएहिं चारसहि' इत्यादि। टीकार्य-प्रकृत दूसरे अध्ययन में तेरह क्रियास्थानों का विस्तार पूर्वक निरूपण किया गया है। उनमें प्रथम के वारह क्रिया स्थान संसार સઘળા શારીરિક-શરીર સંબંધી અને માનસિક-મન સંબંધી દુખોને અંત કરશે કમબધથી છુટકારે પ્રાપ્ત કરશે, અને સર્વથા સુખી થશે. સૂ ૨૬ 'इच्चेएहिं बारसहि' त्यादि ટીકાર્યું—આ ચાલું બીજા અધ્યયનમાં તેર ફિયાસ્થાનેનું વિસ્તાર પૂર્વક નિરૂપણ કરવામાં આવી ગયું છે, તેમાં પહેલાના ૧૨ બાર ફિયાસ્થાને Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४५ - सूत्रकृतागयो नित्याऽपरिमेयाऽऽनन्दात्मकमोक्षकारणमित्यपि व्यवस्थापितम् । अतो द्वादशः क्रियास्थानसेवकाः संसारगतिम् आत्रयोदशोपसेपकास्तु मोक्षमित्येतमर्थ प्रदर्शयन् अध्ययनोपसंहारव्याजेन मूत्रमानमयति-'इच्चे तेहि' इत्येतेषु 'वारसहि' द्वादशम 'किरियाठाणेहि' क्रियास्थानेषु-पूर्वोपदर्शितद्वादशक्रियास्थानेषु' 'बट्टमाणा' वर्त: मानाः 'जीवा' जीवा:-प्राणिनः मोहनीयकर्मवशात् 'णो सिझिमु' नो असिध्यन् -सिद्धि-मोक्षं.न, प्राप्तवन्तः 'णो बुझिंमु'नो अबुध्यन्-योध-केवलशानं कथमपि न प्रातवन्तः, 'जो मुचिमु' नो अमुञ्चन्-न कर्मभ्यो मुक्तानः 'जो परिणिबाई नो परिनिवृत्ताः-मोक्षं न प्राप्ता, इत्यर्थः । 'जावणो सम्बदुक्खाणं अंतं करेंसु वा' यावत् नो सर्वदुःखाना मन्तमका' वा-सर्वदुःखानामन्त न कृतवन्तः, एतेन के कारण हैं । तेरहवां क्रियास्थान उनसे विपरीत है। यह नित्य अपरि; मित सुख रूप मोक्ष का कारण है, यह भी कहा जा चुका है। अतएव वारह क्रियास्थानों का सेवन करने वाले संसार को प्राप्त करते हैं और तेरहवें क्रिया स्थान का सेवन करने वाले मोक्ष को प्राप्त करते हैं। इस अर्थ को प्रकाशित करते हुए अध्ययन के उपसंहार के रूप में सूत्रकार कहते हैं- .. इन पूर्वोक्त बारह क्रियास्थानों में वर्तमान जीवों ने भूतकाल में मोहनीय कर्म के उदय होने के कारण सिद्धि प्राप्त नहीं की है केवल ज्ञान प्राप्त नहीं किया है, कर्मों से मुक्ति प्राप्त नहीं की है परिनिर्वाण को माप्त नहीं किया है, यावत् समस्त दुःखों का अन्त नहीं किया है। बाहर क्रिया स्थानों में रहे हुए जीव वर्तमान में भी दुखों का अन्त नहीं करते हैं और न भविष्य में अन्त करेंगे। સંસારના કારણ રૂપ છે. તેરમું કિયાસ્થાન તેનાથી ઉલટું છે. અર્થાત્ તે નિત્ય અપરિચિત સુખ રૂપ, મોક્ષનું કારણ છે. તે પણ કહેવામાં આવી ગયું છે તેથી જ બાર કિયાસ્થાનેનું સેવન કરવાવાળાઓ સંસારને પ્રાપ્ત કરે છે અને તેરમા ક્રિયાસ્થાનનું સેવન કરવાવાળા મેક્ષને પ્રાપ્ત કરે છે. આ અર્થને સ્પષ્ટ કરતા થકા અધ્યયનને ઉપસંહાર રૂપથી સૂત્રકાર કહે છે, જે ,, આ પૂર્વોક્ત બાર ફિયાસ્થાનમાં રહેનારા એ ભૂતકાળમાં મેહનીય કર્મના ઉદય થવાને કારણે સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરી નથી. કેવળ જ્ઞાન પ્રાપ્ત કર્યું નથી કર્મોથી મુક્તિ પ્રાપ્ત કરી નથી. પરિનિર્વાણ પ્રાપ્ત કરેલ નથી. બાર કિયા સ્થાનમાં રહેલા જ વર્તમાનમાં પણ હું એને અંત કરતા શથી. અને ભવિષ્યમાં પણ અન્ત કરશે નહીં.' Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्थबोधमी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थान निरूपणम् . ३४५ द्वादशक्रियास्थानेषु विद्यमानाः जीवाः कथमपि सर्वदुः बनामन्तम् 'णो करेति वा' नो कुर्वन्ति, वर्तमानकालेऽवि द्वादशक्रियास्थानेषु विद्यमानाः 'जो करिस्तंति वा ' नो करिष्यन्ति वा सर्वदुःखानामित्यनुपञ्जनीयम् । द्वादयक्रियास्थानेषु विद्य मानस्य मोक्षायसंभवं दर्शयित्वा त्रयोदशकिपास्याने विद्यमानस्य मोक्षादिसंभावनां दर्शयति एयंसि चेत्र तेरसमे किरियाठाणे' एतस्मिन्नेव त्रयोदशे क्रियास्थाने 'वमाणा' वर्त्तमानाः 'जीवा' जीव 'सन्धुि' भविष्यत् सिद्धिं गताः 'बुज्झितु' अबुद्धयन् - बोधं प्राप्तवन्तः 'मुच्चिसु' अमुञ्चन समारकान्तारम् 'परिणिधाइंस' परिनिवृत्ताः - मोक्षमधिगतवन्तः 'जाव सव्व दुक्खाणं अंतं करें सुत्रा' यावत्सर्वदुःखानामन्तमकार्षुर्ग। अतीतकाले ये - एवस्थ त्रयोदशस्थानस्थ से -~ नवोऽभवन् दुःखान्तकराः 'करति वा' कुर्वन्ति वा वर्त्तमानेऽपि बहवो दुःखान्तकरा भवन्ति, भविष्यन्ति च-नविष्यतिकाले सर्वदुःखतकाराः बहवः, ' एवं से भिक्खू' एवं स भिक्षु एवम् अनेन प्रकारेण द्वादश कियास्थानस्य वर्जयिता - भिक्षुः 'आयडी' आत्मार्थी - आत्मनोऽर्थः आत्मार्थ:-मोक्षप्राविलक्षणः स विद्यते यस्य स तथा, 'आहिए' अत्महितः आत्मनः दिवं कल्याणं यस्य स तथा, 'आयगुत्ते' आत्मगुप्तः - आत्मा गुप्तो यस्य स तथा, 'आपजोगे' आत्मयोगःकुशलमनः प्रवृत्तिरूपः स यस्यास्ति स तथा 'आय रकमे' आत्मपराक्रम - आत्मनि इस प्रकार बाहर क्रिया स्थानों में विद्यमान जीवों के लिए सिद्धि आदि की प्राप्ति असंभव है, यह दिखलाकर अब तेरहवें गुग स्थान में विद्यमान जीवों को मोक्ष प्राप्ति आदि संभव दिखलाते हैं-तेरहवे क्रिया स्थान में वर्त्तमान जीवों ने सिद्धि प्राप्ति की है, केवल ज्ञान प्राप्त किया है संसार कान्तार से सुनि प्राप्त की है, परिनिर्वाण प्राप्त कि है यावत् समस्त दुःखों का अन्त किया है । वर्त्तमान काल में जो इम क्रिया स्थान में वर्तमान हैं और भविष्यत् में वर्त्तगे, उन्हें सिद्धिमुक्ति प्राप्त होगी। उनके समस्त दुखो का अन्त होगा । • આ રીતે ખાર ક્રિયા સ્થાનામા રહેવાવાળા જીવાને માટે સિદ્ધિ વગેરૅની પ્રાપ્તિ અસ ભવ છે. એ પતાવીને હવે ૧૩ તેરમાં ગુગુસ્થાનમાં રહેલા જીવાને મેાક્ષની પ્રાપ્તિના સ’ભવ વિગેરે બતાવે છે. ૧૩ તેરમા ક્રિયા સ્થાનમાં રહેવાવાળા જીવા સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરે છે, કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરે છે; સંસાર રૂપી કાન્તાર-જ*ગલમાંથી મુક્તિ પ્રાપ્ત કરી છે. પરિનિર્વાણ પ્રાપ્ત કરે છે. ચાવત્ સઘળા દુખાને અંત કરેલ છે વર્તમાન કાળમાં જેએ આ ક્રિયાસ્થાનમાં રહેલા છે, અને ભવિષમાં આ ક્રિયાસ્થાનમાં રહેશે તેએ મે. સિદ્ધિ અને મુક્તિ પ્રાપ્ત થશે. અને તેના સઘળા દ્વાખાના અત થશે. सु० -४४ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगने परीक्रमो यस्य स संपमपराक्राकारकः 'आयरक्खिए' आत्मरक्षितः-आमा अक्षितो दुर्गतिमाप्तेन संसाराग्निनिवारणेन स आत्मरक्षितः "आयाणुकाए आत्मानु सपका-आत्मानमात्र अपरिहारेण अनुकम्पते इत्यात्माऽनुकम्पका 'आय. फेडए' आत्मनिस्सारकः-आत्मानं संपारान्निस्सारयतीति आत्मनिःसार साधुः । 'आयाणमेंत्र पडिसाइरेजासि' आत्मानमेव पतिसंहरेत, आत्मानं सर्वपापेभ्यो द्वादशक्रियास्थानेभ्यो निवर्तयेत्, 'त्ति बेमि' इति प्रीमि-सई. गंधास्वामी कथयामि श्री तीर्थकरमुवाच्छ्त्वा ॥२७-४२॥ ' इति श्री-विश्वविख्यात जगद्वरल मादिपदभूपिनबालब्रह्मचारि- 'जैनाचार्य पूज्यश्री-घासीलालन विविरचितायां श्री सूत्रकृताङ्गसूत्रस्य "समयार्थबोधिन्या रुपया" व्याख्यया समलकृतम् द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य क्रियास्थाननामकं द्वितीयाऽध्ययनं समाप्तम् । - थारह क्रिया स्थानों का त्यागी आत्मार्थी-आत्मकल्याण में उद्यान, आत्महितैषी, आत्म गुप्त, आत्मा को विषयादि से गोपन करने वाला, आत्मयोगी-मात्मस्वरूप में रमण करने वाला आस्म पराक्रम करने वाला, आत्मानुकम्पी आश्रव का त्याग करके आरमा पर अनुकम्पा करने वाला और आत्मनिस्तारिक-आत्मा को संसार से तारने वाला भिक्षु अपने आपको समस्त पापों से दूर रक्खे । 'त्ति बेमि' सुधर्मास्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं-हे जम्बू ! जैसा तीर्थकर भगवान के मुख से मैंने सुना है वैसा ही तुम्हें कहता हूं ॥२७॥ द्वितीय श्रुत स्कन्ध का द्वितीय अध्ययन समाप्त । બાર ફિયાસ્થાનેન ત્યાગ કરવાવાળા એવા આત્મ કલ્યાણમાં ઉદ્યમવાળા, આત્મ હિતૈષી, આત્મ ગુપ્ત, આત્માને વિષય વિગેરેથી ગોપન કરવા વાળા, આત્મગી–આત્મ-સ્વરૂપમાં રમણ કરવાવાળા, આત્મ પરાક્રમી-સંય મમાં પરાક્રમ કરવાવાળા, દુર્ગતિથી આત્માનું રક્ષણ કરવાવાળા, આત્માનું કપી-આસ્રવને ત્યાગ કરીને આત્મા પર અનુક–દયા કરવાવાળા, અને આત્મ નિસારક-આત્માને સંસારથી તારવાવાળા ભિક્ષુ-મુનિ પિતાને સઘળા પાપથી દૂર રાખે. સુધમાં સ્વામી જખ્ખ સ્વામીને કહે છે કે–હિ જંબૂ તીર્થકર ભગવાનની પાસેથી જે પ્રમાણે મેં સાંભળેલ છે, એ જ પ્રમાણે હું તમને ड्ड सू० २७॥ - બીજા શ્રુતકનું બીજું અધ્યયન સમાપ્ત પર-રા Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिज्ञानिरूपणम् ३७ ॥ अथ द्वितीयश्रुतस्कन्धे तृतीयमध्ययनम् ।। द्वितीय क्रियास्थाननामकमध्ययनं निरूप्य तृतीयमध्ययनं निरूपते । अतीताऽनन्तराऽध्ययने पतिपादितं यत्-यः साधुदिशक्रियास्थानं परित्यज्य त्रयोदशं क्रियास्थानमाराधपति, आराधयन् सावद्यकर्मभ्यो निवृत्तः स्वकीय कर्म व्यतिग णव्य मोक्षगतिमासादयति। परन्तु-आहारशुद्धिमन्तरेण सापद्याऽनुष्ठानानिवृत्ति नं सम्भवतीत्यत आहारपरिज्ञार्थ तृतीयमध्ययन मारभ्यते । पक्रान्ताऽध्ययने प्रतिपाद-: यिष्यति-जीवः प्रायशः प्रतिदिनमाहारमाहरति तदभावे शरीरनिर्वाहाऽसंभवाद।सम्पति सूत्राऽनुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमाह तृतीय अध्ययन का प्रारंभक्रियास्थान नामक द्वितीय अध्ययन का निरूपण करके अब क्रम प्राप्त तृतीय अध्ययन का निरूपण करते हैं। पिछले' अध्ययन में कहां गया है कि जो साधु घारह क्रियास्थानों को त्याग कर तेरहवें क्रियास्थान की आराधना करता है, वह समस्त सावध कार्यों से निवृत्त होकर और समस्त कर्मों का क्षय करके मोक्षगति प्राप्त करता है। किन्तु आहार' शुद्धि के विना सावध अनुष्ठान से निवृत्त होना संभव नहीं है। अतं. एव आहारपरिज्ञा के लिए तीसरे अध्ययन का आरंभ किया जाता है। प्रकृत अध्ययन में यह कहा जायगा कि जीव प्राय: प्रतिदिन आहार करता है, क्योंकि आहार के अभाव में शरीर का निर्वाह संभव नहीं है। अतः अब सूत्रानुगम में अस्खलित गुणों से युक्त सूत्र का उच्चारण किया जाता है-'सुर्य मे आउसं तेणं' इत्यादि। ત્રીજા અધ્યયનને પ્રારંભક્રિયાસ્થાન નામના બીજા અયનનું નિરૂપણ કરીને હવે કમપાસ આ ત્રીજા અધ્યયનનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે–પાછલા અધ્યયનમાં કહેવામાં આવ્યું છે કે જે સાધુ ૧૨ બાર ફિયાસ્થાનેને ત્યાગ કરીને તેરમા ક્રિયાસ્થાનની આરાધના કરે છે. તે સઘળા સાવધ કાર્યોથી નિવૃત્ત થઈને અને સઘળાં કર્મનો ક્ષય કરીને મેક્ષગતિને પ્રાપ્ત કરે છે. પરંતુ આહારશુદ્ધિ વિનાં સાવધે અનુષ્ઠાનથી નિવૃત્ત થવું સંભવતું નથી. તેથી જ આહાર પરિજ્ઞા માટે આ ત્રીજા અધ્યયનને આરંભ કરવામાં આવે છે. આ અધ્યયનમાં એ કહેવામાં આવશે કે જીવ પ્રાય. દરરોજ આહાર કરે છે. કેમકે-અહાર વિના શરીરને નિવહ સભવતે નથી હવે સૂવાનુગમમાં અખલિત ગુવાળા સૂત્રનું ઉચ્ચારણ કરવામાં આવે છે. તેનું પહેલું સૂત્ર આ પ્રમાણે છે. 'सुयं मे आउसं तेणे त्याल Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गम मूलम्-सुयं मे आउप्तं तेण भगवया एवमक्खायं इह खलु आहारपरिणाणामायणे, तस्त णं अयमद्वं-इह खलु पाईणंवा सव्वओ सव्वाति चणं लोगसि चत्तारि वीयकाया एवमाहिति, तं जहा-अग्गवीया मूलबीया पोरवीया बंधवीया, तेसिं च णं अहाबीए णं अहावगासेणं इहेगइया सत्ता पुढवीजोणिया पुढवीसंभवा पुढवीवुकमा तज्जोणिया तस्संभवा तदुवकमा कम्मोवगा कामणियाणेगं तत्थ वुकमा णाणाविहजोणियासु पुढवीस रुक्खत्ताए विउति। तेजीवा तसिंगाणाविहजोणियाणं पुढवीणं सिरोहमाहारांति, ते जीवा आहारैति पुढवीसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वगस्तइसरीरं। णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुचंति परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं। अवरेऽवि यणं तेसि पुढविजोणियाणं रुक्खाणं सरीराणाणावपणाणाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउविया ते जीवा कम्मोववन्नगा भवंतीति मकवायं सू. ११४३। ___छाया-श्रुत मया आयुष्मता तेन भगवता-एत्र माख्यानम् इह खलु आहार. परिज्ञानामाध्ययनम् तस्य खलु अयमः, इह खल प्राच्यां वा ४ सर्वतः सर्वस्मिंश्च खलु लोके चत्वारो वीनकाया एवमाख्यायो, तद्यथा अग्रवीनाः मूलवीजाः पर्वबीजाः स्कन्धवीजाः। तेपाश्च खलु यथावीजेन यथाऽप्रकाशेन इहैकतये सत्ताः पृथिवीयो. निकाः पृथिवीसम्भाः पृथिवीव्युत्क्रमाः तद्योनिकाः तत्सम्भवास्तव्युत्क्रमा: फर्मोपगाः कर्मनिदानेन तत्र व्युत्क्रमाः, नानाविधयोनिकासु पृथिवीषु वृक्षतया विवत्तन्ते । ते जीवाः नानाविधयोनिकानां तासां पृथिवीनां स्नेहमाहारयन्ति । ते जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीरमशरीरं तेजः शरीरं वायुशरीर वनस्पतिशरीरम् । नानाविधानां त्रमस्थावराणां पाणानां शरीरमचित्तं कुर्वन्ति परिविध्वस्तं तच्छरीरं Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिज्ञानिरूपणं ३४९ - पूर्वाहारितं ववाहारितं विपरिणतं सारूपीकृतं स्यात् । अपराण्यपि च खलु तेषां पृथिवीयोनिकानां वृक्षाणां शरीराणि नानावर्णानि नानागन्धानि, नानारसानि नानास्पर्शीनि नानासंस्थानसंस्थितानि नानाविधशरीरपुद्गरुविकारितानि । ते जीवाः कर्मोपपन्नाः भवन्तीत्याख्यातम् ॥सू०१-४३॥ टीका - सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं कथयति - भगवान् श्रीमहावीरः- आहारपरिज्ञानामकाऽध्ययनस्य वर्णनं कृतवान् । इहलोके वीज कायनामको जीवो भवति, तस्य शरीरं बीजमेर अतः स वीजकाय इति कथ्यते । स च चतुर्विधः - अग्रवीजो मूलवीजः पर्ववीजः स्कन्धवीजश्च इत्यमुवाऽभिप्रायं दर्शयति- 'सुयं - मे' इत्यादि 'आउसंतेणं भगवया' आयुष्मता भगवता महावीरस्वामिना तीर्थकरेग 'एवमक्खायं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेणाख्यातं सदसि कथितम् 'सुयं मे' तन्मया सुधर्मस्वामिना श्रुतम् 'इह खलु आहार रिण णामज्ज्ञ पणे' इह खलु आहारपरिज्ञानामकाऽध्ययनम् । आहारस्य स्त्रीयकर्त्तव्यत्वाऽकर्त्तव्यत्वस्य प्रतिपादनात् - एतस्याऽध्ययनस्य 'आहारपरिज्ञा' इति नाम भवति । ' तस्स णं अय डे' तस्याः टीकार्थ- सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं -भगवान् श्री महावीर ने आहार परिज्ञा नामक अध्ययन का वर्णन किया है। इस लोक में बीजकाय नामक जीव होता है। उसका शरीर बीज ही होना है, अनएव वह बीजकाय कहलाना है। वह चार प्रकार का है-अंग्र बीज, सूलबीज, पर्वबीज और स्कंत्रबीज । इसी अर्थ को सूत्रकार दिखलाते हैं- आयुष्मान् भगवान् महावीर स्वामीने इस प्रकार समवसरण में कहा है | मैंने (सुधर्मा स्वामी) ने भगवन्मुखसे हे जम्बू ! सुना है । यहां आहार परिज्ञा नामक अध्ययन है । इस अध्ययन में आहार के संबंध में कर्त्तव्य अकर्त्तव्य का प्रतिशदन करने के कारण इस अध्ययन का नाम 'आहारपरिज्ञा' है । इस अध्ययन का यह अर्थ है ટીકા”—સુધર્માંસ્વામી જમ્મુસ્વામીને કહે છે કે-અગવાન્ શ્રી મહાવીર સ્વામીએ આહાર પરિણા નામના અધ્યયનનુ વધુન કરેલ છે. આ લેાકમાં ખીજકાય નામના જીવા ડાય છે, તેનુ શરીર ખીજ રૂપ જ હોય છે. તેથી જ ते जी माय उडेवाय हे. ते यार प्रारना है— अभी, भूमी, पूर्व जी, અને કધીજ, આ જ વિષય હવે સૂત્રકાર બતાવે છે.—આયુષ્માન ભગવાન્ મહાવીર સ્વામીએ આ પ્રમાણે સમવસરણમા કહેલ છે. મેં (સુધાં સ્વામી)એ હે જમ્મૂ ભગવાન્ પાસેથી સાંભળ્યું છે. Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० सूत्रकता ऽयमर्थः इहखलु पाईणं वा ४' इह खल्ल माप वा प्रतीच्या वा उदीच्या का अशाच्यां पा ४, 'सबभो सब्यावति' सर्वतः सर्व स्मन्नपि 'लोगसि चनारि बीय काया एवं माहिज्जेति' लोके चत्वारो बीजकाया एमापायन्ने । तना' तद्यथा-'अग्गवी या' अग्रपीना:-अग्रे-उपस्तिनमागे बीनं येषां तेऽजीनाः यथा तिलवालाम्रादयः 'मूलवीया' मूलपीजा:-मूलमेर बीजमुत्पत्तिकारगं येषां ते गुलपीजा:-कमलकन्दमभृतयः, 'पोरसीया' पर्वबीनाः-पर्माणि अन्यों पर चा वीजं येषां ते पर्वबीनाः इशपमुखाः 'खंयपीया' समन्धः 'स्टस वीज' येषां ते स्कन्धपीनाः-शल्लकी प्रभृतयः 'तेसिं च णं अहानी. एणं अहावभासेण तेपाश्च खलु यथा वोजेन यथाऽवकाशेन, तत्र तेषां चतुर्विधांना वनस्पतिकायिकानां यथायोजेन यद्यस्य बोजमुत्तत्तिकारणं तद् यथावीनं तेन यथावोजेन, यया शाल्यारस्य शाठिवीजम्-उत्पत्तिकारणम्, यथाऽकाशेन इस लोक में पूर्व आदि चारों दिशाओं में चार प्रकार के वीज काय कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-अग्रवीन जिन वनस्पतियों के अग्र भाग. (ऊपरीभाग) में बीज हो। जैसे तिलनाल आम आदि के वृक्ष। मत बीज-मूल ही जिनका वीज अर्थात् उत्पत्ति स्थान हो, वह मूलगी है जैसे कमलकन्द आदि। पर्वबीज-पर्व ही जिनका उत्पत्तिस्थान हो जैसे इक्षु आदि । स्कंधबीज-स्कंध ही जिनका बीज हो, जैसे शल्लको आदि। इन योजकाय जीवों में जो जीव बीज से और जिस प्रकाश (पदेश) में उत्पन्न होने की योग्यता वाले होते हैं, वे जीव उलो योन और उसी प्रदेश અહિયા આહારપરિણા નામનું અધ્યયન છે. આ અધ્યયનમાં આહારના સંબંધમાં કર્તવ્ય, અકર્તવ્યનું પ્રતિપાદન કરવાના કારણે આ અધ્યયનનું નામ “આ હાર . પરિઝા એ પ્રમાણે છે. આ અધ્યયનને આ નીચે બત વ્યા પ્રમાણેનો ભાવ છે આ લેકમાં પૂર્વ વિગેરે ચાર દિશાઓમાં ચાર પ્રકારના બીજાય કહેવામાં આવ્યા છે. તે આ પ્રમાણે છે. ૧ અબજ જે વનસ્પતિયે ના અગ. ભાગમાં (ઉપરના ભાગમાં) બીજ છે, જેમકે તલ તાડ અને આંબાના વૃક્ષ વિગેરેમાં હોય છે, તે અગ્રબીજ કહેવાય છે. (૨) મૂલબીજ-મૂળ જ જેનું બી હેય અર્થાત ઉત્પત્તિ સ્થાન હોય, કમળકંદ મૂળા વિગેરે. તે મૂળબીજ કહેવાય છે (3) पर्वमा-५ ना मी ३५ ७. भ. शसी विरे. (૪) ધ બીજ–સ્કંધ જેનું બી હોય જેમકે શલકી વિગેરે આ બીજકાય જેમા જે જીવ બીથી અને જે અવકાશ (પ્રદેશ)માં ઉત્પન્ન થવાની યોગ્યતાવાળા હોય છે. તે બીજે એજ બીજ અને એજ પ્રદે Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिज्ञा निरूपणम् ३५१ यो यस्यान्रकाशः यद् यस्योत्पत्तिस्थानम् - तेन यथाऽवकाशेन तदेवम्'इगया सत्ता पुढची जोणिया' इहैकतये सच्चाः पृथिवीयोनिकाः तदेवं यथा बीजेन यथावकाशेन, इह जगति केचन सचाः प्राणिनः तथाविधकर्मोदयात् वन विपद्यन्ते वनस्पतिषु उत्पद्यमाना अपि पृथिवीयोनिका भवन्ति । 'तहा-पुत्री संभवा' पृथिवीसम्भवाः पृथिव्यां सम्भवः सदा भवनमुत्पतिर्येषां ते तथा । 'पुढ़वीबुकमा" पृथिवीन्युत्क्रमाः पृथिव्यामेत्र वि=विविधम् उत्पावन्येन क्रमः -क्रमणं से तथा पृथिव्यामेव क्रमणलक्षणवृद्धि प्राप्ता भवन्ति । 'तज्जोगिया' तद्योनिक' पृथिवीकारणका अपि तस्संभवाः- तत्संमवाः पृथिवीतः समुत्पन्नाः 'तदुबकम्' सद्युत्क्रमाः पृथिव्यां वर्द्धिताः, 'कम्मोवगा' कर्मोपगाः- कर्मत्रलाद वनस्पतिकायादागत्य तेष्वेव वनस्पतिकायेषु पुनः समुत्पद्यन्ते 'कम्प्रणिपाणें' कर्मनिद्रासेन, तथा ते जीवाः कर्मनिदानेन = कर्मकारणेन समाकृष्यमाणाः 'तस्थं' बुवक्रमा' तत्र व्युत्क्रमाः- तत्र वनस्पतिकाये व्युत्क्रमाः समागताः 'णाणाविदजोणिः gate' नानाविधयोनिका पृथित्रीषु 'रुक्खत्ताए विउर्हति' वृक्षतया विवर्तन्ते - उत्पद्यन्ते । 'ते जीवा तेर्सि णाणाविदजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहाति' ते - वनस्पतिजीवाः नानाविधयोनिकानां तासां पृथिवीनां स्नेहं स्निग्ध मावं पृथ्वी पर उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार कोई जीव कर्मोदय से वनस्पति में उत्पन्न होकर भी पृथ्वीयोनिक होते हैं। वे पृथ्वी पर स्थित रहते हैं और पृथ्वी पर ही अनुक्रम से वृद्धि को प्राप्त होते हैं। वे पृथ्वी पर उत्पन्न होने वाले, पृथ्वी पर रहने वाले और पृथ्वी पर ही वृद्धि को प्राप्त होने वाले जीव कर्म के बल से और कर्म के निदान से वनस्पति काय से आकर नाना प्रकार की योनि वाली पृथ्वी में वृक्ष रूप में पुनः उत्पन्न होते हैं । वे वनस्पति जीव नाना प्रकार की योनिवाली इस पृथ्वी के स्नेह का आहार करते हैं। वे जीव पृथिवी शरीर अશમાં પૃથ્વી પર ઉત્પન્ન થાય છે. આ રીતે કોઇ જીવ કમ'ના ઉદયથી વતસ્મૃતિમાં ઉત્પન્ન થઈને પણ પૃથ્વીયેાનિક હાય છે તે બધા પૃથ્વી પર જ સ્થિત રહે છે. અને પૃથ્વીપર જ અનુક્રમથી ઉત્પન્ન થવાવાળા, પૃથ્વી પર્ સ્થિર રહેવાવાળા, અને પૃથ્વી પર૪ વૃદ્ધિને પ્રાપ્ત થવાવાળા જીવા ક્રમના ખળથી અને કર્માંના નિદ્યાનથી, વનસ્પતિકાયથી આવીને અનેક પ્રકારની ચેાનીવાળી પૃથ્વીમાં વૃક્ષ-ઝાડપણાથી ફરીથી ઉત્પન્ન થાય છે 1 તે વનસ્પતિકાય જીવા અનેક પ્રકારની ચાનીવાળી તે પૃથ્વીના સ્નેહને આહાર કરે છે. તે ખીને પૃથ્વી શરીર, પ્ શરીર, વાયુ શરીર, અનિ Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ सूत्रकृताग चिक्कण तारूपमाहारयन्ति-पिवन्ति वृक्षरूपेण परिणता स्ते जीवाः पृथिवीस्नेई पियन्ति । 'ते जीवा आंहारेति' ते जीवा-आहारयन्ति-आहारं कुर्वन्ति पुटवी. सरीरं' पृथिवी शरीरम् । 'आउसरीरं' अपशरीरम् । 'ते उसरीर तेजः शरीरमउष्णतारूपम् । 'याउसरीरं' वायुशरीरम् । 'वणस्तइ सरीर' वनस्पतिशरीरम आहरयन्तीति पूर्वेण सम्बन्धः । वृक्षादिरूपेग समुपना स्ते जोवा: 'णाणाविहाण उसथावराणं पाणाण' नानाविधानां त्रस्थावराणां प्राणानां जीवानाम्, 'सरीरं अचित्तं कुठयति' शरीरं देहं स्वकायेनाश्रित्याऽचित्तं कुर्वन्ति, पुनस्तदेव 'परिविद्धस्थं परिविश्वस्त-नष्टमायं त्रप्रस्थावराणाम् 'तं सरी' तच्छरीरम् 'पुब्बाहारियं पूर्वाहारितम्-पूर्वस्मिन् काले उपभुक्तम्, 'तया हारियं चाहारितम्-उत्पत्यनन्तर स्वरद्वारा-आहारितं पृथिव्यादीनां शरीरम् आहार्य च, 'विपरिणय विपरिण. तम्' 'सारूविक्रडं संत' सारूपी कृतं स्यात् ते वृक्षादि जीवाः पृथिवी कायशरीरमाहा. रित तच्छरीर स्वस्वरूपेग विपरिणमयन्ति-स्त्र स्व रूप कुर्वन्तीति यावत्, 'अवरेऽ: वि यण तेसिं पुढवी नोणियाण रुक्खाणे' अपरेऽपि च खलु पृथिवीयोनिकानां क्षाणामपराण्यपि यानि शरीराणि पृथिवीशरीराज्जातानि, 'सरोरा' शरीराणि 'नाना घण्णा' नानावर्णानि विलक्षणरूपेणेति पृथिव्यादिरूपाऽपेक्ष या भवन्ति । तथा 'णाणागधा' नानागन्धानि-पृथिव्यां यावत् गन्धस्तदपेक्षया विभिन्नगन्धसम्पन्नानि शरीर अग्निशरीर, वायुशरीर और वनस्पति शरीर का भी आहार करते हैं। नाना प्रकार के त्रस एवं स्थावर जीवों के शरीर को अचित्त कर देते हैं । पृथ्वी के शरीर को अचित्त करते हैं और पहले आहार किये हए तथा उत्पत्ति के पश्चात् स्वचा आहार किये हुए पृथ्वी काय आदि के शरीर को अपने शरीर के रूप में परिणत कर लेते है। उन पृथिवीयोनिक वृक्षों के अन्य शरीर भी होते हैं जो अनेक प्रकार के वर्ण, गंध, रस, स्पर्श एवं नाना प्रकार की अवयव रचनामों से युक्त तथा अनेक प्रकार के पुद्गलों से बने हुए होते हैं। શરીર, અને વનસ્પતિ શરીરને પણ આહાર કરે છે, તેઓ અનેક પ્રકારના વસ અને સ્થાવર જીવોના શરીરને અચિત્ત કરી દે છે. પૃથ્વીના શરીરને અચિત્ત કરે છે. અને પહેલાં આહાર કરેલ તથા ઉત્પત્તિની પછી ત્વચા–ચામડીના-છાલ દ્વારા આહાર કરેલા પૃથ્વીકાય વિગેરેના શરીરને પિતાના શરીર રૂ થી પરિણુમાવી લે છે. તે પૃથ્વી નિવાળા વૃક્ષોના બીજાશરીરે પણ હોય છે. જે અનેક પ્રકારના વર્ણ, ગધ, રસ, સ્પર્શ અને અનેક પ્રકારના અવયની રચના એ થી યુક્ત તથા અનેક પ્રકારના પુલોથી બનેલા હોય છે, Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिक्षा निरूपणम् ३५३. भवन्ति । 'णाणारसा' नानारनानि पृथियपेक्षया विभिन्न रसयुक्तानि, 'गाणा' फासा' नानास्पर्शनि - तदपेक्षया विभिन्नस्पर्शवन्ति, 'णाणासंठ मंठिया' नानासंस्थानसंस्थितानि, अनेकम कारक संस्थानयुक्तानि । 'गाणा विहसरी (पूर लबिङ वित्ता' नानाविधशरीरपुद्गळ विकारितानि - नानारसवीर्यविपाका नानापुद्रलोपचयात् सुरूप संस्थाना दृढाल्पसंहननाथ स्युरिति भावः । - ननु जीवा वृक्षरूपेण पृथिव्यादिभ्यो जायन्ते तत्र परमेश्वरः कारणम्, कालादि af कारणं स्यात् इत्याशङ्कां परिहरति- 'ते जीवा कम्पोववन्ना भवतिति मक्खाय' ते जीवाः कर्मोपपन्ना भवन्ति, न तु तत्रेश्वरः कालो वा कारणम् । वृक्षशरीरधारणे स्वकृतं मैत्र हेतुर्भवति न कालादिरिति तीर्थंकरैराख्यातम् - कथितमिति ॥ ०१-४३ ॥ मूलम् - अहावरं पुरखायं इहेगइया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवुक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तदुवक्कमा कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थ वुक्कमा पुढवी जोणिएहिं रुक्खता विहंति, ते जीवा तेसिं पुढवी जोणियाणं रुक्खाणं सिणेमाहारेंति, ते जीवा आहारैति पुढवीसरीरं आउतेउवाउवणस्सइसरीरं, णाणाविहाणं तस्थावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुठति, परिविद्धत्थं तं सरीरं पुत्रवाहारियं तया ' वे जीव वृक्ष के रूप में पृथ्वी आदि से उत्पन्न होते हैं तो उनकी उत्पत्ति में परमेश्वर अथवा काल आदि कोई कारग होगा ? इस शंका का निवारणार्थ मृत्रकार कहते हैं वे जीव अपने कर्मों के वशीभून, होते हैं। ईश्वर या काल कारण नहीं है परन्तु वृक्ष का शरीर धारण करने में उनके द्वारा कुन कर्म ही कारण होता है। ऐसा तीर्थंकर भगवन्तों ने कहा है ॥ १ ॥ 2 આ તે જીવા વૃક્ષ-ઝાડના રૂપથી પૃથ્વી વિગેરેમાંથી ઉત્પન્ન થાય છે, તા તેઓની ઉત્પત્તિમાં પરમેશ્વર અથવા કાળ વિગેરે કોઇ કારણુ હશે? શંકાનુ... નિવારણ કરતાં સૂત્રકાર કહે છે કે-તે ખીન્ને પેાતાના કર્માંને વશ હાય છે ઈશ્વર અથવા કાળ તેમાં કારણ નથી પરંતુ વૃક્ષનું શરીર ધારણ કરવામાં તેઓ દ્વારા કરેલા કમેĒ જ કારણ હાય છે. એ પ્રમાણે તીર્થંકર ભગવાન એ हे छे.सू.१॥ सु० ४५ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रहता हारियं विपरिणामियं सारूस्किडं संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं संक्खजोणियार्ण रुक्खाणं सरीरा णाणावन्ना णाणागंधा णाणा. रसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपुरगल विउविया ते जीवा कम्मोववन्नगा भवंतीति मक्खायं ॥सू० २।४४॥ छाया-अथाऽपरं पुराऽऽख्यातम् इहैकतये सत्त्वा वृक्षयोनिकाः वृक्षसम्भवा वृक्षव्युत्क्रमाः । तद्योनिका स्तुत्सम्भवा स्तदुपक्रमाः कर्मोपगा: कर्मनिदानेन तत्र व्युत्क्रमाः पृथिवीयोनिकेषु वृक्षेषु वृक्षतया विवर्त्तन्ते । ते जीवाः तेषां पृथिवी. योनिकानां वृक्षाणां स्नेहमाहारयन्ति, ते जीवा आहारयन्ति पृथिवी शरीमप्तेजोः । वायुवनस्पतिशरीरम् । नानाविधानां त्रसस्थावराणां पाणानां शरीग्मचित्तं कुर्वन्ति । परिविध्वस्तं तच्छरीरं पूर्वाहारितं त्वचाहारितं विपरिणामितं सारूपीकृतं स्यात् । अपराण्यपि तेषां वृक्षयोनिकानां वृक्षाणां शरीराणि नानावणानि नानागन्धानि नानारसानि नानास्पर्शानि नानासंस्थानसंस्थितानि नानाविधशरीरपुद्गलविकारितानि । ते जीवाः कोपपन्नका भवन्तीत्याख्यातम् मू०२-४४ । ' टीका-पृथिवीयोनिकान् वनस्पतीन वृक्षान् निरूप्य वृक्षयोनिक्षत्ररूपमाह-'अहावरं पुरक्खायं' अथाऽपरं पुराख्यातम, अनन्तरं तीर्थंकरदेवेनाऽपरो वनस्पतिभेदः प्रदर्शिता, 'इहेगइया सत्ता रुक्ख नोणिया' इहैकतये सवा जीवा वृक्षयोनिकाः, वृक्षा एव योनिः-उत्पत्ती कारणं येषां ते, वृक्षोपरि समुत्पन्ना इत्यर्थः, 'रुक्खसंभवा' वृक्षसम्भवाः-वृक्षे एव वर्तमानाः 'रुक्खवुकमा' वृक्षव्यु. 'अहावरं पुरक्खाय' इत्यादि। टीकार्थ-पृथ्वीयोनिक वृक्षों का निरूपण करके अब वृक्ष योनिक वृक्षों का स्वरूप कहते हैं-नीर्थकर भगवान् ने वनस्पति का दूसरा भेद कहा है । वह भेद है वृक्षपोनिक वृक्ष जो वृक्ष वृक्ष के ऊपर उत्पन्न होता है, वह वृक्षयोनिक वृक्ष कहलाता है। वृक्ष से उनकी उत्पत्ति होती है । वृक्ष में ही वे वर्तमान रहते हैं और वृक्ष में ही वृद्धि को प्राप्त 'अहावर पुरक्खाय' त्यादि ટીકાર્થ–પૃથ્વી નિવાળા વૃક્ષોનું નિરૂપણ કરીને હવે વૃક્ષ નિવાળા વૃક્ષોનું નિરૂપણ કરે છે –તીર્થકર ભગવાને વનસ્પતિને બીજે ભેદ કહેલ છે. તે ભેદ વૃક્ષનિક વૃક્ષ એ પ્રમાણે છે. જે વૃક્ષ, વૃક્ષ ઉપર ઉત્પન્ન થાય છે, તે વૃક્ષ નિવાળા વૃક્ષે કહેવાય છે. વૃક્ષથી તેઓની ઉત્પત્તિ થાય છે. વૃક્ષમાં જ તેઓ સ્થિત રહે છે, અને વૃક્ષમાં વધે છે, વૃક્ષનિવાળા, વૃક્ષમાં ઉત્પન્ન Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टोका द्वि श्र. अ. ३ आहारपरिज्ञानिरूपणम् ३५५ स्क्रमाः - वृक्षे एव वर्द्धनशीलाः । ' तज्जोगिया' तद्योनिका :- वृक्षयोनिकाः । 'तस्संभवा' तत्सम्भवाः 'तदुकम ।' तद्व्युत्क्रमाः - वृक्षे एव वर्द्धमानाः, न केवलं वृक्षा एवं कारणं वृक्षपोनिकवृक्षाणाम्, किन्तु 'कम्मोपा' कर्मोपगाःकर्मवशवर्तिनः, 'कम्म नियाणे' कर्मनिदानेन कर्मनिमित्तेन 'तत्थ बुककमा' तत्र वृक्षे वर्द्धमानाः 'पुढी जोणियाण रुक्खेर्दि' पृथिवीयोनिकेषु वृक्षेषु 'रुक्खताए चिउद्धृति' वृक्षतया - वृक्षरूपेण विवर्तन्ते । तादृराजीचा वृक्षरूपेण वृक्षोपरि जायन्ते । 'ते जीवा तेर्सि पुढवीजोणियाणं रुकवाणं' वृक्षोपरिविद्यमानास्ते वृक्षयोनिक वृक्ष जीवाः पृथिवीयो निकानां वृक्षाणाम् 'सिणेहमाहारेति' स्नेहम् - स्निग्ध मावमाहायन्ति, वृक्षरसस्यैत्राऽऽहारं कुर्वन्ति, ' ते जीवा' ते वृक्षयोनिकवृक्षजीवाः 'आहारे 'ति' आहारयन्ति 'पुढवीसरीरं आउतेउवाउत्रणस्सा सरीर' पृथिवीशंरीरम् अप्तेजोवायु वनस्पतिशरीरम्, आहारयन्तीतिशेवः । तथा ते योनिकजीवाः " णाणाविहाणं तस्थावराणं पाणाणं सरीर अचित्तं कुच्छति' नानाविधानाम् अनेकप्रकाराणां सस्थावराणां प्राणानां जीवानां यच्छरीरं स्वकायेनाश्रित्य अचित्तं कुर्वन्ति । सचित्तस्पापि तच्छरीरस्याऽचित्ततां नयन्ति 'परिविद्धत्थं' परि होते हैं । वृक्ष योनि वाले, वृक्ष में उत्पन्न होने वाले और वृक्ष में ही वृद्धि प्राप्त करने वाले वे जीव भी अपने कर्मों के अधीन होते हैं । कर्म के निमित्त से वृक्ष में बढते हुए वे जीव पृथ्वीयोनिक वृक्षों में वृक्ष रूप से उत्पन्न होते हैं । वृक्ष के ऊपर पैदा होते हैं । वृक्ष के ऊपर उत्पन्न होने वाले वे वृक्षपोनिक वृक्षों के स्नेह का आहार करते हैं। वे पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति के शरीर का भी आहार करते हैं । वे अनेक प्रकार के त्रस और स्थावर जीवों के शरीर को अपने शरीर से आश्रित करके अचित्त कर देते हैं । अर्थात् उनके सचित्त शरीर का रस खींच कर उन्हें अचित्त कर देते हैं । अचिंत - - થવાવાળા, અને વૃક્ષમાંજ વધવાવાળા તે જીવે પશુ પોતપોતાના કનિ આધીન હાય કર્માંના નિમિત્તે વૃક્ષમાં વધતા એવા તે જીવા પૃથ્વીચેનિક વૃક્ષેમાં વૃક્ષપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. વૃક્ષના ઉપર ઉત્પન્ન થાય છે, વૃક્ષાના ઉપર ઉત્પન્ન થવાવાળા તે વૃયેાનિક વૃક્ષ, પૃથ્વીચેાનિક વૃક્ષેાના સ્નેહના આહાર કરે છે તેઓ પૃથ્વી, જલ, તેજ, વાયુ અને વનસ્પતિના શરીરને પશુ આહાર કરે છે. તેએ અનેક પ્રકારના ત્રમ અને સ્થાવર જીવેાના શરીરને પેાતાના શરીરથી આશ્રિત કરીને અચિત્ત કરી દે છે. અર્થાત્ તેના સચિત્ત શરીરના રસ ખેંચીને તેઓને અચિત્ત કરી દે છે. અચિત્ત કરેલા તથા Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 ૨૬ सूत्रकृताङ्ग सूत्रे विश्वस्तत्-नष्टपायन 'त सरीर' तच्छरीरम् 'पुत्रादारिपूरितम् - पूर्वकाले अत्मसात्कृतम्, ' तयाहारियं' लवाऽऽहारितम्, विपरिणामियं साविक 'संत' परिणामित सद सारूपकृतं स्पाद-वानि शरीराणि स्व स्वरूपाणि कुर्वन्ति, 'अरेवियणं तेर्सि' अपराण्यपि च खलु तेषाम् ' रुक्खजोगियाणं रूक्वार्ण' वृक्षनिकानां वृक्षाणाम् 'सरीरा' शरीराणि भवन्तीति शेषः । कथंभूतानि तानि शरीराणि - इति जिज्ञासायां तद्विशेपगानि आह 'णाणावरणा' नानावर्णानि, 'नाणा गंधा' नानागन्धानि 'णागारमा' नानारसानि 'णाणाफासा' नानस्पर्शानि 'नाणासंठाणसंठिया' नानासंस्थानसंस्थितानि 'णाणाविहसरीर गलविउन्निया' नानाविधशरीरपुद्गलविकारितानि, एतेवां व्याख्यानं पूर्वसूत्रे कृतमेव नाऽतः पुनरत्र क्रियते, तत्तु तत एव द्रष्टव्यम् । 'ते' ते - वृक्षा जीवाः 'कम्मोववन्नगा ' कर्मोपपन्नकाः- कर्मपराधीना अस्वतन्त्रः सन्तः तादृशशरीरं प्राप्ता भवन्ति, इति तीर्थंकरेणाऽऽख्यातम् - कथितमिति । ९०२-४४ | 7 किए हुए तथा पहले आहार किए हुए एवं त्वचा के द्वारा आहार किए हुए पृथ्वी आदि के शरीरों को पचा कर वे अपने रूप में परिणत कर लेते हैं । उन वृक्षोनिक वृक्षजीवों के अन्य शरीर भी होते हैं। वे अनेक प्रकार के वर्ण वाले, अनेक प्रकार के गंध वाले, अनेक प्रकार के रस वाले और अनेक प्रकार के स्पर्श वाले, अनेक प्रकार के आकार वाले तथा अनेक प्रकार के शरीरपुद्गलों से उत्पन्न होते हैं । इनका व्याख्यान पूर्वसूत्र में किया जा चुका है, अनएव यहां नहीं करते । वे वृक्षजीव कर्मों के अधीन होकर उस शरीर को प्राप्त हुए हैं, हैं, ऐसा तीर्थकर भगवान् ने कहा है ||२|| પહેલાં આહાર કરેલ અને છલદ્વારા અ હાર કરેલા પૃથ્વી વિગેરેના શરીરાને પચાવીને તેઓ પેાતાના રૂપથી પરિણુમાવી દે છે. તે વૃક્ષયેાનિવાળા વૃક્ષકાય જીવાના અન્ય શરીરા પણુ હાય છે. તે અનેક પ્રકારના વણુ વાળા, અને અનેક પ્રકારના ગધવાળા, અનેક પ્રકારના રસાવાળા, અને અનેક પ્રકારના સ્પર્શવાળા, અનેક પ્રકારના આકારવાળ', તથા અનેક પ્રકારના શરીર પુદ્ગલેાથી ઉત્પન્ન થાય છે. તેનુ વ્યાખ્યાન પૂર્વ સૂત્રમાં કરવામાં આવી ગયુ છે. તેથી જ અહિયાં કરવામાં આવતું નથી તે વૃક્ષજીવે કર્માંને આધીન થઈને તે શરીરને પ્રાપ્ત થયા છે, એ પ્રમાણે તીર્થંકર ભગવાનાએ કહ્યુ` છે. સૂ॰ ર Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 समयार्थबोधिनी टीका द्वि श्रं. मे ३ आहारपरिज्ञा निरूपण में ३५७ मूलम् - अहावरे पुरखायं इहेगइया सत्ता रुक्ख जोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवुक्कमा तज्जोणिया तस्संभवा तदुवककमा कम्मोवंगा कम्मणियाणं तत्थ वुक्कमा रुक्ख जोणिसु रुकखेसु रुक्खत्ताए विउति, ते जीवा तेर्सि पुढवीजोणियाणं रुक्खाणं सिंहमाहारैति, ते जीवा आहारेंति पुढवीसरीरं आउतेउवाउवणस्सइसरीरं, तस्थावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुर्वति, परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणामियं .. सारूविकडं संतं अवरेऽवि य णं तेसिं रुक्ख जोणियाणं रुक्खाणं सरीरा णाणावन्ना जाव ते जीवा कम्मोववन्ना भवतीतिमक्खायं ॥ सु०३॥४५॥ छाया - आधाऽपरं पुराऽख्यातम् इतये सच्चाः वृक्षयोनिका, वृक्ष सम्भवाः वृक्षव्युत्क्रमाः । तथोनिका स्तत्संभवास्तदुपक्रमाः कर्मोपगाः कर्मनिदा नेन तत्र व्युकमा: वृक्षयोनिकेषु वृक्षेषु वृक्षतया विवर्त्तन्ते । ते जीवा स्तेषां पृथिवीयोनिकानां वृक्षाणां स्नेहमाहारयन्ति, ते जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीरमप्तेजोवायु वनस्पतिशरीरम् । तस्थावरागां माणानां शरीरमचित्तं कुर्वन्ति । परिविध्वस्तं तच्छरीरं पूर्वाहारितं त्वचाहारितं विपरिणामितं स्वरूपीकृतं स्यात् । अपराण्यपि च खलु तेषां वृक्षयोनिकानां वृक्षाणां शरीराणि नानावर्णानि यावते जीवाः कर्मोपपन्नका भवन्तीत्याख्यातम् ||म्०३-४५॥ टीका - सर्वमप्यत्र पूर्वत्र समानमेव । अतः पूर्वसूत्रव्याख्यानेन व्याख्यातमेव भवतीति ॥ ०३-४५॥ मूलम् - अहावरं पुरकखायं इहेगइया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवुक्कमा तज्जोणिया तस्संभवा तदुवकमा कम्मोवगा कम्मनियाणेणं तत्थ वुक्कमा रुख जोणिएसु रुक्खेसु मूलत्ताए कंदराए खंधताए तयत्ताए सालत्ताए पत्रालत्ताए Page #619 --------------------------------------------------------------------------  Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयाबोधिनी टीका हि. श्रु. अ. ३ आहारपरिशानिरूपणम् सरीराणाणावण्णा णाणागंधा जाब णाणाविहसरीरपोग्गल विउवियो। ते जीवा कम्मोववन्नगा भवंतीतिमक्खायं ॥सू० ४।४६॥ , छाया-अथाऽपरं पुराख्यातम् इहैकतये सत्त्वा वृक्षयोनिका वृक्षसंभवा वृक्षव्युत्क्रमाः, तधोनिका स्तत्संभवा स्तदुपक्रमाः कर्मोपगाः कर्मनिदानेन तत्र व्युत्क्रमाः, वृक्षयोनिकेषु वृक्षेषु मूलतया कन्दतया स्कन्धतया स्वक्तया सालतया प्रचालतया पत्रतया पुष्पतया फलतया बीजतया विवत्तन्ते । ते जीवा स्तेषां । वृक्षयोनिकानां वृक्षाणां स्नेहमाहारयन्ति, ते जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीर मप्तेजोवायुवनस्पतिशरीरं नानाविधानां प्रप्तस्थावराणां प्राणानां शरीरमचित्त कुर्वन्ति । परिविधस्तं तच्छरीरं यावत् सारूपीकृतं स्यात् । अपराण्यपि च खलु तेषां वृक्षयोनिकानां मूलानां कन्दानां स्कन्धानां त्वचा शालानां भवालानां यावद . धीजानां शरीराणि नानावर्णानि नानागन्धानि यावन्नानाविधशरीरपुद्गलविकारितानि भवन्ति । ते जीवाः कर्मोपपन्नका भवन्तीत्याख्यानम् ॥मू०४-४६॥ टीका-'अहावरं' अथाऽपरम् 'पुरक्खाय' पुराख्यातम्-पुरा-पूर्वस्मिन् काले देवाऽसुरपरिषदि आख्यातम्, तीर्थकरेण वनस्पतिजीवानाम् अन्येऽपि भेद् प्रभेदाः कथिताः उपलक्षणाद् वत्तैमानेऽपि भविष्यकालेऽपि वनस्पतिनिरूपणं ज्ञेयम् ते इमे सन्ति । तथाहि 'इगइया' इहैकतये 'सत्ता' सत्ता:-जीवा:, 'रुक्ख. जोणिया' वृक्षयोनिकाः, वृक्षाः योनिः-उत्पत्तिस्थान येषां ते तथा 'रुकाव संभवा' वृक्षसम्मवा:-वृक्षात् समुत्पध वृक्षे एव स्थितिमन्तो विद्यमाना इत्यर्थः। तथा 'अहावरं पुरक्खाय' इत्यादि । टीकार्थ-पूर्वकाल में तीर्थकर भगवान् ने समवसरण में विराज. मान होकर वनस्पतिकाय के अन्य भेद प्रभेद भी कहे हैं। उपलक्षण से यह भी समझ लेना चाहिए कि वर्तमान कालीन तीर्थकर कहते हैं और भविष्यकालीन तीर्थ कर कहेंगे। वे भेद प्रभेद इस प्रकार हैं कोई कोई जीव वृक्षयोनिक वृक्ष से उत्पन्न होने वाले वृक्ष में स्थित रहने वाले और वृक्ष में वृद्धि पाने वाले होते हैं । ये जीव कर्म के 'अहावर पुरक्खाय' त्याल ટીકાર્થ–પૂર્વકાળમાં તીર્થકર ભગવાને સમવસરણમાં બિરાજમાન થઈને વનસ્પતિકાયના બીજા પણ ભેદો અને પ્રભેદો કહ્યા છે ઉપલક્ષણથી એ પણ સમજી લેવું જોઈએ કે–વર્તમાન કાળના તીર્થકરે કહે છે, અને ભવિષ્ય કાળના તીર્થકરે કહેશે. તે ભેટ પ્રભેદે આ પ્રમાણે છે.– કઈ કઈ જ વૃક્ષનિક વૃક્ષમાંથી ઉત્પન્ન થવાવાળા, વૃક્ષમાં સ્થિત રહેવાવાળ, અને વૃક્ષમાં વધવાવાળા હોય છે. આ છ કર્મને વશ થઈને. Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० गान 'तज्जोगिया' तयं निका, सात्पद्यन्ते वृक्षे एव - : 'खबुकमा 'वृक्षयुकमा:- दक्षे एव विवर्द्धमानाः 'वं संभवा' तत्सम्भना' 'तमुत्रककमा' तदुपक्रमाः तिष्ठन्ति वृक्षे एव विवर्द्धन्ते । 'कम्भोग' कर्मोपगाः कर्मत्रयाः 'कम्मनिपाणे' कर्मनिदानेन कर्ममे गया 'तत्थ बुकना' तत्र व्युत्क्रमाः- तत्रेधनानाः ! 'रुखजोणिएसु' वृक्षयोनिकेषु 'रु+खेषु' वृक्षेषु 'मूलनार' मूळया, तत्र मूत्रम्-भूमिस्थित भागविशेषस्तेन रूपेण, 'कंदत्ताए' कन्दतया मूळानामुपरि वृक्षावयवविशेषः कन्दहतेन रूपेण 'धत्ताए' स्कन्धतया - कन्दस्योपरिमागस्तेन रूपेग 'तयत्ताए' कश्या 'सालत्ताए' सालतया - इच्छाखारूपेण 'पनालत्ताए' मचालतया - किसलयरूपेण 'वत्तत्ताए' पत्रतया 'पुष्फत्ताए' पुष्पतया 'फलताएं' फळतया 'वीयताएं' 'बीजतया 'विउर्हति' विवर्त ते कर्माधीनास्ते जीवाः मूलादारभ्य वीजपर्यन्तं वेस स्वराद्रवेग समुपयन्ते । मूलादारभा बोजपर्यन्ता ये जीवाः सन्ति तेषु प्रत्येकजीवो मित्र मित्र एव तत्तद्रूपेण तत्र तत्रोत्पद्यते, वृक्षस्य सर्वव्यापक जीवस्तु एभ्यो दशजीवेयो भिन्नः सन् वृक्षे उत्पन्यते इति भावः । वृक्षावयवतया समु स्पन्नास्ते जीवाः 'तेसिं रुक्ख जोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारे ति' तेषां वृक्षयोनि वशीभूत और कर्म के निमित्त से वृक्ष में उत्पन्न होते, स्थित रहते और वढते हैं । ये वृक्षयोनिक वृक्षों में मूल रूप से, कंद रूप से, स्कंध रूप से, छाल रूप से, शाखा रूप से, कौंपल रूप से, पत्र रूप से, पुष्प रूप से, फल रूप से और बीज रूप से उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार वृक्ष के अवयवों के रूप में उत्पन्न हुए वे जीव उन वृक्षयोनिक वृक्षों के स्नेह का आहार करते हैं मूळसे लेकर वीजपर्यन्त के जो जीव होते है वे प्रत्येक जीव भिन्न होते हुए उसीरूप से वहाँ यहां उत्पन्न होते हैं वृक्षका सर्वाङ्ग व्यापकजीव इस दस प्रकार के जीवों से भिन्न है और वृक्ष में उत्पन्न होते हैं । अर्थात् वृक्ष के द्वारा ग्रण किये हुए स्नेह से તથા કર્મના નિમિત્તે વૃક્ષામા ઉત્પન્ન થાય છે સ્થિત રહે છે અને વધે છે. આ ચેાનિવાળા જીવા વૃક્ષેામાં મૂળ રૂપે, કદરૂપે, સ્કંધરૂપે, છાલરૂપે, ડાળરૂપે, કુંપળરૂપે, પત્રરૂપે પુષ્પરૂપે ફળરૂપે અને ખીરૂપથી ઉત્પન્ન થાય છે. આ રીતે વૃક્ષના અવયવાના રૂપથી ઉત્પન્ન થયેલા તે જીવે તે વૃક્ષ ચેાનિવાળા વૃક્ષાના સ્નેહના આહાર કરે છે. મૂળથી આર લીને ખીજ સુધી જે જીવા હૈાય છે, તે પ્રત્યે, જીવા જીદ્દા જુદાં હાવા છતાં એજ રૂપે ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે. વૃક્ષનું' સર્વાંગ વ્યાપક જીવ આ દસ પ્રકારના જીવાથી જુહા અને વૃક્ષમાં ઉત્પન્ન થાય છે. અર્થાત્ વૃક્ષદ્વારા અહણ કરવામાં આવેલ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६१ समयार्थयोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिशानिरूपणम् कानां वृक्षाणां स्नेहमाहारयन्ति-भोज्यतया आददते, वृक्षोपात्तमेव स्नेहं समश्नन्तः स्वस्थिति कुर्वन्ति, 'ते जीवा आहारेति' ते जीवा आहारयन्नि, 'पुढ पीसरी भाउतेउवाउवणस्सइसरीरं' पृथिवीशरीरम् -अप्तेजोवायुवनस्पतिशरीरम् आहारयन्ति इति पूर्वेण सम्बन्धः। 'णाणाविहाण' नानाविधानाम्, 'तप्तथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुवति' त्रसस्थावराणां प्राणानां शरीरमचित्तं कुर्वन्ति । अचितीकृत्य 'परिविद्धत्यं' परिविध्वस्त-नष्टमायम्, 'तं सरोरं' तच्छरीरम् 'जाव' यावत् सारूविकडं संत' सारूपीकृतं स्यात् । तच्छरीरं विपरिणमय्य स्वस्वरूपेण विपरिणमयति 'अवरेऽवि य णं' अपराण्यपि च खलुं 'तेर्सि' तेषाम् 'रुख नोणियाण' वृक्षयोनिकानाम् 'मलाणं' मूलानाम् ‘कंदाणं' कन्दानाम् 'खंघाण' स्कन्धा. नाम्, 'तयाण' त्वचाम् 'सालाणे' शालानाम् 'पवालाण' प्रवालानाम् 'जा' यावत् 'वीयाणं' बीनानाम् 'सरीरा' शरीराणि 'गाणावणा' नानावर्गानि विभिन्न वर्णानि 'णाणागंधा' नाना गन्धानि 'जाव' यावत जाणाविहसरीरपोगाल विउन्धिया' नानाविधशरीरपुद्गलविकारितानि-विविध पकारकशरीरपुद्गलनिष्पादि. तानि वृक्षाऽपेक्षयाऽपराणि शरीराणि भवन्ति, ते जीवाः 'कम्मोववन्नगा' कर्मों. पपन्नकाः कर्मवशीभूतास्तत्रोत्पन्नाः-कर्मणा हतशरीरा इति यावत् भान्ति, न तुईश्वराद्यपेक्षतत्तच्छरीरका भवन्ति। 'त्ति मक्खाय' इत्याख्यात तीर्थकरादिभिरिति ॥सू०४-४६॥ पोषण प्राप्त करते है । वे पृथ्वी अप्, तेज वायु और वनस्पति का भी आहार करते हैं और नाना प्रकार के त्रस तथा स्थावर जीवों के शरीर को अचित्त करते हैं । अचित कियेहुए उस शरीर को यावत अपने शरीर के रूप में परिणत कर लेते हैं। उन वृक्षों से उत्पन्न मूल, कन्द, स्कंध, छाल, शाखा, कोपल यावत् बीज रूप जीवों के शरीर नाना प्रकार के वर्ण तथा नाना प्रकार के गंध से युक्त होते हैं तथा नाना प्रकार के पुदंगलों से बने होते हैं वे जीव भी कमके वशीभ और નેહથી પિષણ મેળવે છે તેઓ પૃથ્વી, અપ તેજ વાયુ અને વનસ્પતિના શરીરનો પણ આહાર કરે છે, અને અનેક પ્રકારની ત્રણ સ્થાવર ના શરીરને અચિત્ત બનાવે છે. અચિત્ત કરવામાં આવેલા તે શરીરને યાવત પિતાના શરીરના રૂપે પરિસમાવી લે છે. તે વૃક્ષામાં ઉત્પન થયેવા મળ. કંધ, કધ, છાલ, શાખા-ડાળ કુંપળ ચાવતું બીજ રૂપ જીવના શરીર અનેક 'પ્રકારના ગધથી યુક્ત હોય છે. તે જ પણ કમને વશ થઈને ત્યાં ઉત્પન્ન स०४६ Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्ग सूत्रे मूलम् - अहावरे पुरवखायं इहेगइया सत्ता रुकखजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवुक्कमा तज्जोणिया तस्संभवा तदुवक्कमा कम्मोववन्नगा कम्मनियाणैणं तत्थ वुक्कमा रुक्ख जोणिएहि रुक्aहिं अज्झारोहत्ताए विउति, ते जीवा तेसिं रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारैति, ते जीवा आहारोंति पुढवीसरी₹ जाव सारूविकडं संतं, अवरे वि य णं तेसिं रुक्खजोणियाणं अज्झारुहाणं सरीरा णाणावपणा जाव भवतीति मक्खायं |५|४७ | ३६२ छाया - अथाऽपरं पुराख्यातम् इहैकतये सच्चाः- वृक्षोयोनिकाः- वृक्ष सम्भवाः- वृक्षव्युत्क्रमाः, तद्योनिका स्तत्सम्भवा स्तदुपक्रमाः कर्मोपपन्नकाः कर्म निदानेन तत्र व्युत्क्रमाः वृक्षयोनि के वृक्षेषु अध्यारुहत्या विवर्त्तन्ते । ते जीवास्तेषां वृक्षयोनिकानां वृक्षाणां स्नेहनाहारयन्ति । ते जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीरं यावत् सारूपीकृतं स्यात् । अपराण्यपि च खलु तेषां वृक्षयोनिकानामध्यारुहाणां शरीराणि नानावर्णानि यावद् भवन्तीत्याख्यातम् ||म्०५-४७॥ टीका - वृक्षादेव समुत्पन्ना स्वत्रैत्र स्थितिमन्तस्वदंशेन वर्द्धमानाः पूर्वसूत्रे कथिताः । इह च वृक्षयोनिकवृक्षे ऊर्ध्वमागे एवं अभ्यारुहनानकवनस्पतिविशेषा स्तेभ्य एव, वृक्षेभ्यः समुत्पन्ना भवन्तीति कथ्यते । 'अहावरं पुरखखायं' - अथाऽपर' पुराऽख्यातम् ' इहेगइया सत्ता' इहैकतये सत्ताः - वनस्पतिविशेषा वहां उत्पन्न होते हैं । ईश्वर आदि कोई उन्हें वहां उत्पन्न नहीं करता 'है । ऐसा तीर्थंकर भगवन्तों ने कहा है || ४ || ''अहावरं पुरवायें' इत्यादि । टीकार्थ- पूर्व सूत्र में कहा जा चुका है कि जीव वृक्ष से उत्पन्न, वृक्ष में स्थित और वृक्ष में से ही वृद्धि प्राप्त करने वाले, वृक्ष के मूल થાય છે. ઇશ્વર વિંગેટ કઈ તેઓને ત્યા ઉત્પન્ન કરતા નથી. એ પ્રમાણે તીથકર ભગવાનેાએ કહેલ છે. સૂ॰ ૪!! 'अहावर पुरखायें' इत्यादि ટીકા પૂર્વ સુત્રમાં કહેવામ આવેલ છે કે-ડૅાઈ જીવા વૃક્ષથી ઉત્પન્ન, વૃક્ષમાં સ્થિત અને વૃક્ષથી જ વધવાવાળા વૃક્ષના મૂળ, ક, વગેરે રૂપથી Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिशानिरूपणम् ३६३. स्तीर्थकरैः प्रतिपादिताः, 'रुख तोणिया रुर वसंमा' वृक्षौनिका:-क्षयोनि समुत्पन्नाः क्षसम्भवा., 'रुक्खवुकमा वृक्षादेव जाता: वृक्षे वतमाना: वृक्षादेव बर्द्धमानाः, 'तज्नोणिया' तयोनिका:-वृक्ष योनिसमुत्पन्नाः 'तस्स मवा' तत्सम्भवाः 'तदुक्कमा' तदुपक्रमाः-तत्र वर्द्धमानाः 'कम्मोववनगा' कर्मोपप नका:-कर्मपरशा वृक्षोत्तन्ना वृक्षे स्थिताः वृक्षादेव वर्द्धमानाः कर्मतन्त्राः, 'कम्मनियाणेणं' कर्मनिदानेन कर्मनिमित्तेन, 'तत्थ वुकमा' तत्र-वृक्षे व्युत्क्रमा:वर्द्धमानाः 'रुक्खनोणिएहि' वृक्षयोनिकेपु 'रुखेहि' वृक्षेपु-वृक्षो भागेषु 'अज्झारोहत्ताए' अन्यारुहनया 'विट्टति' विवर्तन्ते-समुत्पद्यन्ते अपारुहनामकवनस्पतिवैशिष्टयरूपेण 'ते जीया' ते जीवा:- क्षयोनिकवृक्षे समुत्पन्नाः अध्यरुहनामतया प्रसिद्धाः वनस्पतिविशेषनीवाः, 'तेसिं' तेवाम् 'रुक्खजोणि' याणे' वृक्षयोनि कानाम् ‘रुक्वाण' वृक्षाणाम् 'सिणेहमाहारेति' स्नेहमाहारयन्ति -तदुपभुक्तस्नेहभावसम्पत्या जीवन्ति ते जीवा आहारेति' ते जीवा आहारयन्ति 'पुढवीसरीर जा पृथिवीशीर यावत-अप्तेजोवायुवनस्पतिशरीरमाहारयन्ति । नानाविधानां पत्यावराणा माणिनां शरीरमचित्तं कुर्वन्ति, वद. कंद आदि रूप से उत्पन्न होते हैं। यहां वृक्ष के आश्रित रहे हुए वृक्ष में उत्पन्न होने वाले जीवों का कथन करते हैं। तीर्थकर भगवान ने कहा है कि कोई कोई वनस्पतिजीव वृक्ष में उत्पन्न, वृक्ष में स्थित और वृक्ष में बढने वाले होते हैं। कर्म के अधीन होकर ही वृक्ष में उत्पन्न होते हैं, वृक्ष में स्थित रहते हैं और वृक्ष में वृद्धि प्राप्त करते हैं। वे वनस्पतिकाय में आकर वृक्ष से उत्पन्न वृक्ष में अध्यारह वनस्पति के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे जीव वृक्षयोनिक वृक्षों के रस का आहार करते हैं और पृथ्वी आदि पूर्वोक्त सभी शरीरों का भी आहार करते हैं तथा उनको अपने शरीर के रूप में परिणत कर ઉત્પન્ન થાય છે. અહિયાં વૃક્ષના આશ્રયથી રહેલા અને વૃક્ષમાં ઉત્પન થવા, पण ७वानु थन ४रे छे. * તીર્થકર ભગવાને કહ્યું છે કે-કઈ કઈ વનસ્પતિ છ વૃક્ષમાં , ઉત્પન્ન, વૃક્ષમાં સ્થિત અને વૃક્ષમાં વધવાવાળા હોય છે. તેઓ તેમને અધીન થઈને જ વૃક્ષમાં ઉત્પન્ન થાય છે. વૃક્ષમાં સ્થિત રહે છે. અને વૃક્ષમાં છે છે. તેઓ વનસ્પતિકાયમાં આવીને વૃક્ષમાં ઉત્પન્ન થઈ વૃક્ષમાં રહેલા વનસ્પતિરૂપે ઉત્પન્ન થાય છે. તે જીવો વૃક્ષાનિક, વૃક્ષોના રસને આહાર કરે છે. અને પૃથ્વી વિગેરે પૂર્વોક્ત સઘળા શરીરને પણ આહાર કરે છે. તથા તેઓને પિતાના શરીરના રૂપથી પરિણુમાવી લે છે. તે વૃક્ષ નિવાળા Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतास्त्र चित्तीकृत्य-विध्वस्तं तच्छरीर विपरिणमम्प 'सारूविकडं संत' सारूपीकृतं स्यात, तेषां शरीराणि स्वात्मसास्कुर्वन्तः स्वरूपरूपमेव कुर्वन्ति । 'अपरे वि य' अपराय पि च, 'ण' इति वाक्पालङ्कारे 'तेसिं' तेपाम् 'रुक व जोणि पाणं' वृक्षयोनिकानाम् 'अज्झारुहाणं' अध्यारहाणाम्-वनस्पतिविशेषाणाम् सरीरा' शरीराणि-भोगायत नानि 'णाणावण्णा' नानावर्णानि 'जाव' यावत्-नानारसगन्धस्पर्शसम्पन्नानि 'भवंति' भवन्ति । तानि च शरीराणि स्वकृतकर्मवलाद् भवन्ति, न तु कालेश्वर कृतकृपयेति तीर्थकरैः प्रतिपादितम् । इममेवार्थम् 'जाव मावाय' यावदाख्यातमिति-अयमागमः प्रतिपादयतीति ।।मू०५-४७॥ ___ मूलम्-अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता अज्झारोहजोणिया अज्झारोहसंभवा जाब कम्मनियाणेणं तत्थ बुकमा रुक्ख जोणि. एसु अज्झारोहेसु अज्झारोहत्ताए विउति, ते जीवा तेसि रुक्खजोणियाणं अज्झारोहाणं सिणेहमाहारेति, ते जीवा आहारेति पुढवीसरीरं जाव सारूविकडं संतं, अवरे वि य णं तेसिं अज्झारोहजोणियाणं अज्झारोहाणं सरीरा णाणावन्ना जाव मक्खायं ॥सू० ६४८॥ ___ छाया-अथाऽगर पुराऽऽख्यातम् इहैकनये सत्वा अध्यारूहयोनिका अध्यारुहसंभवाः, यावत् कर्मनिदानेन तत्रोपक्रमाः क्षयोनिकेषु-आध्यारुहेपुअध्यारुहतया विवर्तन्ते । ते जीवा स्तेषां वृक्षयोनि कानामध्यारुहाणां स्नेहमाहारयन्ति । ते जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीरं यावत् सारूपीकृतं स्यात्, अपराण्यपि च खलु तेपामध्यारुहयोनिकानामध्यारूहाणां शरीराणि नानावर्णानि याववाख्यातानि ॥१०६-४८। लेते हैं। उन वृक्षयोनिक अध्यारह नामक वृक्षों के शरीर नाना वर्ण संध रस और स्पर्श वाले होते हैं । वे शरीर अपने अपने उपार्जित कर्मों के अनुसार होते हैं, काल अथवा ईश्वर के करने से नहीं होते, ऐसातीर्थकरों ने कहा है। 'जाव मक्खायं यह शब्द इसी अर्थ को सूचित करते हैं ॥५॥ અધ્યારૂ (ઉપર ચડવાવાળા) નામના વૃક્ષોના શરીર અનેક વર્ણ, ગંધ, રસ અને સ્પર્શવાળા હોય છે. તે શરીરે પિત પિતાના ઉપાર્જન કરેલા કર્મો અનુસાર હોય છે, કાળ અથવા ઈશ્વરના કરવાથી થતા નથી, એ પ્રમાણે તીર્થકરોએ डेव छ. 'जाव मक्खाय' मा वाय मेरी मथन मताव छ. सू. ५॥ Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिज्ञानिरूपणम् ३६५ ___टीका-गतमव धेनाऽपारुहानस्पतिकायावच्छिन्ननीयस्वरूपं पदय सम्प्रति -अध्यारुहयोनि का पारुहवनसतिशरीरावच्छिन्नेऽपि भवतीति तीर्थ करनिर्देश इति दर्शयितुं परो ग्रन्थोऽतार्य ने। 'अहावर' इत्यादि। अहावर' अथाऽपाम् 'पुरक्वायं पुराऽऽख पातम्, तीर्थकरेणाऽन्योऽपि प्रकारो दशि , 'इहे गइशा' इहै क नये 'सत्ता' सत्ता:-जीवाः 'अज्झारोहजोणि या' अध्यारुहयोनिका!-वृक्षयोनिकाऽध्यारुहवनस्पतिविशेषा एव योनिः-उत्पत्तिस्थानं येषां तेऽध्यारुहयोनिका वनस्पतिविशेषाव च्छिन्न जीवाः अध्यारुहवनस्पतिजाता इत्यर्थ ।, 'अम्झारोहसंमवा' अध्यारुहसंभवाःतस्थितिका इत्ययः अपारुहाणां वृदया बगनाः, 'जाय कम्मनियाणे! यावत्कनिदानेन-कर्मनिमितमामाघ 'तत्य बुकमा तत्रोपक्रमाः तत्र अव्या. 'अहावरं पुरक्खाय' इत्यादि। टोकार्थ--पिछले सत्र में अध्यारुह (वृक्षों के ऊपर बढने वाली) वल्ली लता वनस्पतिकाघ के जीवों का स्वरूप कहा गया । अब अध्यारुह योनिक अध्यारुह वनस्पतिकाय भी होते हैं, ऐसे तीर्थंकर के कथन को दिखलाने के लिए सूत्र कहा जाता है। तीर्थकर भगवान ने वनस्पतिजीवों का अन्य प्रकार भी कहा है। वह इस प्रकार है-अध्यारुह योनिक अर्थात् वृक्षयोनिक अध्यारह नामक वनस्पति ही जिनकी योनि है, ऐसे जीव, अर्थात् वे जीव जो अध्यारुह वनस्पति से उत्पन्न होते हैं और अध्यारुह वनस्पति की वृद्धि होने पर बढते हैं। वे कर्म के निमित्त से अध्यारह वनस्पति में _ 'अहावर पुरस्खाय' त्यात ટકાથ–પાછલા સૂત્રમાં અધ્યારૂહ (વૃક્ષોના ઉપર વધાવાવાળી વેલ) * વનસ્પતિકાયના જીનું સ્વરૂપ પ્રગટ કરવામાં આવેલ છે. હવે અધ્યારૂ નિવાળા, અધ્યારૂ વનસ્પતિકાય પણ હોય છે, એ પ્રમાણેના તીર્થકર ભગવાનના કથનને બતાવવા માટે આ સૂત્ર કહેવામાં આવે છે. તીર્થકર ભગવાને વનસ્પતિ છને અન્ય પ્રકાર પણ બતાવેલ છે. તે પ્રકાર આ પ્રમાણે છે –અધ્યારૂહ નિવાળા અર્થાત્ વૃક્ષોનિક અધ્યારૂ નામની વનસ્પતિ જ જેમની નિ અર્થાત્ ઉત્પત્તિ સ્થાન હોય છે, એવા છો અથાત્ તે છે કે જેઓ અધ્યારૂ વનસ્પતિમાંથી ઉત્પન્ન થાય છે. અને અધ્યારૂહ વનસ્પતિ વધવાથી વધે છે તેઓ કમરના નિમિત્ત અધ્યારૂ Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतीमत्रे रुह एव वर्द्ध नशीलाः, 'रुष वमोणिए सु' वृत योनि के यु 'अन्झारोहेसु' अध्यार हेपु-अध्यारुहनामकवनस्पतिविशेषेषु 'अग्झारोहत्ताए' अव्याहाया-अव्यारावरूपेण 'विउहति' विवर्तन्ते-स्वरूपविस्तारं संपादयन्ति, 'ते जीवा तेसि रुस्खनोणि. यांणं सिणेहमाहारेति' ते जीवा:-अयामाऽपि अध्यारुहावछिन्नाः ते वृक्ष. योनिकानामध्यारुहाणां स्नेह-स्नेहमामाहारयनि-तदीय रसापनीय जीवन्ति वर्द्धन्ते च, 'ते जीवा आहारेंति पुढवीपरीरं जाव सारूविकडं संतं' ते जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीर यावद्-अप्ते नोवायुनिस्पतिशरीरमाहारयन्ति । आहार कृत्वा नानाविधानां यारागा शरीरमचित्तं कुन्ति, अचित्तोकृत्य विधस्त विपरिणमितं तच्छरीरं सारूपीकृतं स्यात्, तुच्छरोरं स्मात्मनात्क वा स्वस्वरूातां नयन्ति, 'तेसिं अज्झारोहजोणियाणं आज्झारोहाणं' ते मध्यारुहयोनिकानाम् अध्यारुहनीवानाम्, 'अबरे वि सरीरा' परापपि शरीराणि 'णाणावणा' नाना वर्णानि-नानारसगन्धस्पर्शयुक्तानि भवन्तीति, 'जात्र मक्खाय' यावदाख्यातानि तानि शरीराणि तीर्थ करैरिति' ॥०६-४८॥ मूलम्-अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता अज्झारोहजोणिया अज्झारोहसंभवा जाव कम्मनियागेणं तत्थ वुकमा अज्जा. रोहजोणिएसु अज्झारोहत्ताए विउहंति, ते जीवा तसिं अज्झा. रोहजोणियाणं अज्झारोहाणं सिणेहमाहारांति, ते जीवा आहारति ही अध्यारह रूप से वृद्धि को प्राप्त होते हैं। वे वृक्ष गेनिक अध्यारहों के स्नेह का आहार करते हैं एवं पृथ्वी, अप, तेज, वायु तथा वनस्पति के शरीरों का आहार करते हैं और उस आहार को अपने शरीर के रूप में परिणत कर लेते हैं। उन अध्यारह योनिक अध्यारुह जीवों के नाना वर्ण, नाना गंध, नानारस और नाना स्पर्श वाले अनेक शरीर होते हैं । ऐसा तीर्थकर भगवंतों ने कहा है ॥६॥ વનસ્પતિમાં જ અધ્યારૂહપણાથી વધે છે. તે વૃક્ષ નિવાળા અધ્યારૂહાના स्ना मासा२ ४२ छे. पृथ्वी, म५, ar, वायु, तथा वनस्पतिना शरी રાને પણ આહાર કરે છે. અને તે આહારને પિતાના શરીર રૂપે પરિણ માવી લે છે, તે અમારૂડ ચેઈનવાળા અધ્યારૂ૭ ના અનેક વર્ણ, અનેક 'ગંધ, અનેક રસ, અને અનેક સ્પર્શવાળા અનેક શરીરે હોય છે. એ प्रमाणे ती ४२ मवाने ४९ छे. ॥सू -४!! Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्थबोधिनी टीका द्वि. थु. अ. ३ आहारपरिज्ञानिरूपणम् ३६७ पुढवीसरीरं आउसरीरं जाव सारूविकडं संतं, अवरे वियणं तेसिं अज्झारोह जोणियाणं अज्झारोहाणं सरीरा णाणावन्ना जाव मक्खायं । सू० ७|४९॥ छाया - आथाऽपरं पुराख्यातम् इहैकतये सच्चाः अध्यारुहयौनिकाः अध्यासम्भवाः यावत् कर्मनिदानेन तत्र व्युत्क्रमाः अध्यारुहयोनिकेषु अध्यारुहतया विवर्तन्ते । ते जीवा स्तेषामध्यारुइयोनिकानामध्यारुहाणां स्नेहमाहारयन्ति ते जीना आहारयन्ति पृथिवीशरीरमप्शरीरं यावत् सारूपीकृतं स्यात् । अपराण्यपि च खलु तेषामध्यारुदयोनि कानामध्यारुहाणां शरीराणि नानावर्णानि यावदाख्यातानि । ०७ - ४९ ॥ टीका - - ' अहावर' अथाऽपरम् 'पुराना' पुराख्यातम्, तीर्थकरेण वृक्षयोनिकाव्यारुहयोनिकाऽध्यारुहादुपरिअपि वनस्पतिविशेष जीवो भवतीति प्रति पादितः, 'इहेगइया' इहैकतये 'सत्ता' सच्चाः - जीवाः 'अज्झारोहजोणिया ' अध्यारुयोनिकाः, अध्यारुहो योनिः उत्पत्तिक (रणं येषां ते तथाभूता भवन्तीति, 'अज्झारोहसंमवा' अध्यारुहसंभवाः - तंत्र विद्यमानाः 'जाव' यावत् 'कम्म नियाणेणं' कर्मनिदानेन कर्मणाऽऽकृष्टाः, 'तस्थ बुक्कमाः तत्र व्युत्क्रमाः तत्रैव वर्द्धमानाः, 'अझारोह जोणिपसु' अध्यारुहयोनिकेषु अज्झारोहत्ताए' अध्यारुहतया - अध्यारुद स्वरूपेण 'विउति' विवर्तन्ते उत्पद्यन्ते जायन्ते इति यावत्, 'ते जीवा तेर्सि अज्झारोह जोगियाणं अज्झारोहाणं सिणेहमाहारे ति' ते उपरि कथिता 'अहावरं पुरक्खायं' इत्यादि । टीकार्थ - तीर्थकरों ने वृक्षपोनिक अध्यारुहयोनिक अध्यारुह जीवों के ऊपर भी वनस्पतिकाय के जीवों का अस्तित्व कहा है। वह इस प्रकार है कोई कोई जीव अभ्यारुहयोनिक अर्थात् अध्यारुह से उत्पन्न होने वाले, अध्यारुह के आश्रित रहने वाले और अध्यारुह में ही बढ़ने वाले होते हैं। वे कर्म के वशीभूत होकर अध्यारुह योनिक जीवों में अध्यारुह रूप से उत्पन्न होते हैं । वे जीव उन अध्यारुहयोनिक अध्या 'अहावर' पुरक्खाय' हत्याहि ટીકા”—તી કરાએ વૃક્ષયેનવાળા અધ્યારૂહ કૈાનિક અધ્યારૂહ જીવાની ઉપર પણ વનસ્પતિકાયના જીવે નું અસ્તિત્વ કહેલ છે તે આ પ્રમાણે છે.-કોઇ કેઈ જીવ અધ્યારૂતુ ચેાનવાળા માઁત્ અધ્યારૂતુથી ઉત્પન્ન થવાવાળા, અધ્યારૂપના આશ્રયથી રહેવાવાળા, અને અધ્યારૂતુમાં જ વધવાવાળા હાય છે. તે કને વશ થઈને અધ્યારૂતાનિવાળા જીવમાં અધ્યારૂપ Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ - सूत्रकृतागसूत्रे जीवा वनस्पतिविशेषशरीराऽवच्छिन्नाः तेषामयारुहयोनिकानामध्याहाणां स्नेहरसनिष्पत्तिम् आहारयन्ति तदीय भुज्यमानरसं भोज्यमाना:-जीवन्ति बर्द्धन्ते च। 'ते जीवा आहारे ति' ते जीवा अ हारयन्ति 'पुढतीसरीरं आउ सरीर जाव सारू. विकड संत' ते-उपरितना जीवाः आहारयन्ति पृथिवीशरीरम् अप यावत तेजोवायुवनस्पतिशरीरम् । सारूपीकृतं स्यात् तमात्मतात्कृत्वा स्वस्वरूपमेव कुर्वन्ति । "तेसि अज्झारोहजोणियाणं अज्झारोहाणं' तेपामध्यारुहयोनिकानामध्यारुहाणाम् 'अवरे वि' अपराण्यपि 'सरीरा' शरीराणि 'णाणावपणा जाव मक्खाय' नाना. वर्णानि यादाख्यातानि,नानावर्णरसगन्धस्पर्शवन्ति, अन्यानि शरीराणि तीर्थकरेण प्रतिपादितानि, इतोऽधिकः पूर्वमूत्राज्ज्ञेयः॥मू०७-४९।। मूलम्-अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता अज्झारोहजोणिया अज्झारोहसंभवा जाव कम्मनियाणेणं तत्थ वुकमा अज्झा रोहजोणिएसु अज्झाराहेसु मूलत्ताए जाव बीयत्ताए विउद्घति, ते जीवा तेतिं अज्झारोहजोणियाणं अज्झारोहाणं सिणेहमाहारेंति, जाव अवरेऽवि य णं तेसिं अज्झारोहजोणियाणं मूलाणं जाव वीयाणं सरीरा जाणावन्ना जाव मक्खायं ॥सू० ८।५०॥ छाया-अथाऽपर पुराख्यातमिहैकतये सत्या अंध्यारुहयोनिकाः अध्यारुहसम्मवा. यावत् कर्मनिदानेन तत्र व्युत्क्रमाः अध्यारुहयोनिकेषु आध्यारुहेषु मूल रुह के स्नेह का आहार करते हैं। वे पृथिवीकाय, असाय, तेजस्कोप, वायुकाय एवं वनस्पतिकाय के शरीरों का भी आहार करते हैं और उन्हें अपने रूप में परिणत करते हैं। उनके अव्यावह योनिक अध्यारूहं वनस्पतिजीवों का अन्य शरीर भी नाना वर्ण, गंध, रस और स्पर्श वाले होते हैं, ऐसो तीर्थंकर भगवान ने कहा है ॥७-४९॥ પણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. તે જીવે તે અ પાહ યે નિવાળા અધ્યારૂહના રસને હનો આહાર કરે છે. તે પૃથ્વીકાય, અપકાય, તેજસકાય, વાયુકાય અને વનસ્પતિકાયના શરીરને પણ આહાર કરે છે. અને તેઓને પિતાના રૂપથી પરિમાવે છે તેઓન-અધ્યારૂહ ચે નિવાળા, અધ્યારૂ વસ્પતિ ના અન્ય શરીરે પણ અનેક વર્ણ, ગંધ, રસ અને સ્પર્શવાળા હોય છે એ પ્રમાણે તીર્થંકર ભગવાને કહેલ છે. સૂ ૭-૪ Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 सार्थबोधिनी टीका द्वि श्रु. अ. ३ आहारपरिक्षा निरूपणम् तया यावद् वीजतया विवर्त्तन्ते, ते जीवास्तेषामध्यारुहयो निकानामध्यारुहाणां स्नेहमाहारयन्ति, यावदपराण्यपि च खलु तेषामध्यारुहयो निकानां मूलानां यावद् जानां शरीराणि नानावर्णानि यावदाख्यातानि ॥ ०८-५० ॥ ३६९ टीका- 'अहावर' पुरक्खायं' अथाऽपरं पुराख्यातम्, श्रीतीर्थकरेण अध्यारुह वृक्षाणामपरोऽपि प्रकारः कथितः, स च तत्र विशदयन्नाह - तथाहि - 'इहे गइया' tha सवाः जीवा भवन्तीति शेषः, 'अज्झारोहजोणिया अज्झारोह संभवा अध्यारुहृयोनिका अध्यारुहसम्भवाः 'जात्र कम्मनियाणेणं' यावत्कर्मनिदानेनकर्मकारणेन 'तत्थ वुक्कमा ' तत्र व्युत्क्रमाः 'अज्झारोहजोणिएसु' अध्यारुहयोनिकेषु 'अझारोहेसु' आध्यारुहेषु 'मूलत्ताए' मूलतया 'जाव वीयत्ताए विउहृति' यावद् बीजतया विवर्तन्ते, - मूळ कन्दस्कन्धयाखामवालपत्रपुष्पफलवी मान्तस्वरूपेण जायन्ते, 'ते जीवा तेर्सि' ते जीवा मूलादारभ्य वीजान्वाकारेण जायमानाः तेषाम् - 'अज्झारोह जोणियाण' अध्यारुहयोनिकानाम् अज्झारोहाणी' अध्यारुहाणाम् ' सिणेह नाहा रेति' स्नेहम् - स्नेहभावनाहारयन्ति-उपभुञ्जते, 'जाव' यावत् 'अवरे वियणं' अपराण्यपि च खलु 'तेर्सि' तेषाम् 'अज्झारोहजोणियाणं' अध्यारुहयो निकानाम्, 'मूला' मूलानाम् 'जाव' यावत् 'बीयाणं' 'अहावरं पुरखायें' इत्यादि । 1 टीकार्थ-- तीर्थकर भगवान् ने अध्यारूह वृक्षों का एक अन्य प्रकार भी को है । उसी को स्पष्ट करते हैं कोई कोई जीव अध्यारूहयोनिक होते हैं, अध्यारूह वृक्षों में ही स्थित रहते हैं और वहीं पढते हैं । वे अपने पूर्व कृत कर्म के अधीन होकर वहां आकृष्ट होते हैं और अध्यारुहयोनिक अध्यारूह वृक्षों के मूल कन्द, स्कन्ध, शाखा, कोंपल, पत्र, पुष्प, फल, बीज आदि रूप से उत्पन्न होते हैं । ये मूल कंद आदि के जीव उन अध्यारुहयोनिक अध्यारुह वनस्पति जीवों के 'अहावरं पुरखाय" इत्यादि ટીકા તીથ “કર ભગવાને એ અધ્યારૂ વૃક્ષાના એક ખીજા પ્રકાર પણ કહેલ છે. હવે તેને સ્પષ્ટ કરીને બતાવે છે—કાઇ કાઈ જીવે। અધ્યારૂહयोनिवाणा होय छे. सध्या वृक्षामा ४ स्थित रहे छे. अते- मध्य ३डવૃક્ષામાં જ વધે છે તે પેાતાના પૂર્વ કૃત કને અધીન થઈને ત્યાં આકૃષ્ટ થાય छे. मने मध्याइयोनिङ अध्याइहे वृक्षाना भूण, ४६, २५ध, शामा-डाज, हुँच यत्र-यान, पुण्य, ईज भी विगेरे उपयी उत्पन्न याय हे. मा भूण, કદ, વિગેરેના જીવા તે અધ્યારૂપ વૈનિવાળા અધ્યારૂપ વનસ્પતિ જીવેાના सू० ४७ Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० सूत्रता पीजानाम् 'सरीरा' शरीराणि 'माणावण्णा' नानावर्णानि 'जाव मक्खायं' यावदाख्यातानि, मूलादिवीजानानाम्-जीवानाम् अारापपि नानावर्णानि भवन्तीति तीर्थकरैः प्रतिपादितानि, इहलोके केवन जीत्रा अध्यारुहवृक्षात्पन्ना स्तत्रैवाऽत्र स्थितास्तेनैव बद्धमाना भवन्ति, ते पूर्वभवसञ्चित फर्ममेरितास्तत्रतत्र मवान्वरे समागच्छन्ति, तथाऽध्यारुहक्षयोनिकाऽभ्यामवृक्षाणां मूल फन्दादेरारभ्य फक. योजान्तस्वरूपेण समुत्पद्यन्ते, ते जीवा मुलायाकारेण समायाताः अध्यारुह. योनिकाऽध्यारहवृक्षाणां स्नेहमास्वादयन्ति तेपाय-अध्यायोनिकाऽध्यामा वृक्षीयमूलादेशरभ्य वीजान्तानां नानावर्णस्पर्शरसान्यविशिष्टानि विभिन्नानि नानाशरीराणि-अपि भवन्तीति तीर्थकरैलादिष्टानि, इति ।मु०८-५०॥ स्नेह का आहार करते हैं, यावत् उनके नाना वर्ण गंध रस स्पर्श थाले अन्य शरीर होते हैं। ऐसा तीर्यकरों ने कहा है। तात्पर्य यह है कि इस लोक में कोई कोई जी अध्यारुह वृक्ष से उत्पन्न होते हैं, उसी में स्थित बहते और उसी में बढने हैं पूर्व भव में संचित कर्म से प्रेरित होकर वे वहां आते हैं और अध्यारुहयोनिक अध्यारुह वृक्षों के मूल काद से लेकर फल एवं बीज आदि के रूप में उत्पन्न होते हैं । मृल आदि के रूप में आये हुए ये जीव अध्या. रुयोनिक अध्यारुह वृक्षों के स्नेह का आहार करते हैं। उन अध्या रुहयोनिक अध्यारह वृक्षों के मृल कन्द आदि रूप में उत्पन्न जीवों के नाना प्रकार के वर्ण, गध, रस और स्पर्श से युक्त अनेक प्रकार के शरीर भी होते हैं । ऐसा तीर्थकरों ने देखा है और वैसा ही उपदेश दिया है ॥८॥ નેહને અહ૨ કરે છે. યાવત્ તેઓના અનેક વર્ણ, ગધ, રસ, સ્પર્શવાળા અન્ય શરીરે હોય છે. એ પ્રમાણે તીર્થંકરએ કહેલ છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે–આ લોકમાં કઈ કઈ જીવો અધ્યારૂ વૃક્ષથી ઉત્પન્ન થાય છે. તેમાં જ સ્થિત રહે છે, તેમાં વધે છે. પૂર્વ ભવમાં સંચિત કરેલા કર્મોથી પ્રેરિત થઈને તેઓ ત્યાં આવે છે. અને અધ્યારૂ નિવાળા અધ્યારૂ4 વૃક્ષના મૂળ, કન્દથી લઈને ફળ અને બી વિગેરેના રૂપે ઉત્પન્ન થાય છે. મૂળ વિગેરે રૂપમાં આવેલા આ જીવો અધ્યારૂહ યોનિવાળા, અધ્યારૂહ વૃક્ષના નેહને આહાર કરે છે. તે અધ્યારૂહ નિકે અધ્યારૂહ વૃક્ષેના મૂળ, કંદ, વિગેરે રૂપે ઉત્પન્ન થયેલા જીવોના અનેક પ્રકારના વર્ણ, ગંધ, રસ, અને સ્પર્શથી યુક્ત અનેક પ્રકારના શરીરે પણ હોય છે. એ પ્રમાણે તીર્થંકર ભગવાને એ જોયેલ છે. અને ઉપદેશ કરેલ છે . ૮૫ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७९ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिज्ञानिरूपणम् मूलम्-अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता पुढविजोणिया पुढविसंभवा जाव णाणाविहजोणियासु पुढवीसु तणताए विउहृति, ते जीवा तेसिं णाणाविहजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहा. रेति जाव ते जीवा कम्मोववन्ना भवंतीति भक्खायं ।सू.९।५१॥ छाया-अथाऽपर पुराख्यातमिहकतये सत्त्वाः पृथिवीयोनिकाः पृथिवीस याः • यावन्नानाविधयोनिकासु पृथिवीषु तृगतया विवर्तन्ते । ते जीवा स्तासां ''नानाविधयोनिकानां पृथिवीनां स्नेहमाहास्यन्ति यावत्ते जीवाः कोपपन्नका भवन्तीत्याख्यातम् ॥९-५१॥ टीका-'अहावरं पुरक्खाय' अथाऽपर पुराख्यातम् इहे गइया' इहै कतये 'सत्ता' सत्तास्तृणादिवनस्पतिरूपेण सञ्जायन्ते, 'पुढची नोणिया' पृथिवीयोनिकाः, पृथिवीयोनिरुत्पत्तिकारणं येषां तथाभूताः भवन्ति, तथा 'पुढवीसंभवा' पृथिवीसम्भवा:-पृथिवीतो जाताः पृथिव्यामेव वर्तमानाः पृथिव्याः रसमास्वादयन्तो वर्द्धन्तेऽपि तत्रैव । इत्थंभूतास्तृणलतावनस्पतिविशेपा जीवाः 'जाव' यावत् 'णाणाविहजोणियासु पुढवीसु' नानाविधयोनिकासु-अनेकभकारकजातीयकासु पृथिवीषु 'तणत्ताए' तृणतया-तृणाकारेण 'विउद्भृति' विवर्तन्ते समुत्पद्यन्ते, 'ते जीवा-ते , तृणादिलघुस्थलशरीरावच्छिन्नाः प्राणिविशेषाः 'तेसि तासाम् ‘णाणाविहजोणियाणं' नानाविषयोनिकानाम्, अनेकाऽने रुविनातीयजातीयकानाम्, 'पुढवीणं' 'अहावरं पुरक्खायं' इत्यादि। टोकार्थ--तीर्थंकर भगवान् ने वनस्पतिकायिक जीवों का अन्य प्रकार भी कहा है। कोई कोई जीव पृथ्वी से उत्पन्न होते हैं। पृथ्वी पर ही स्थित होते हैं और पृथ्वी पर ही वृद्धि को प्राप्त होते हैं। वे अनेक प्रकारकी पृथ्वी के जार तृण के रूम में उत्पन्न होते हैं। छोटे या यदे शरीर से युक्त वे प्राणी उस नाना प्रकार की जाति वाली पृथ्वी के स्नेह 'अहावरं पुरक्खाय' त्यादि કા–તીર્થ કર ભગવાને વનસ્પતિ કાયવાળા જીને બીજે પ્રકાર ડેલ છે કે કોઈ જીવો પૃથ્વીકાયથી ઉત્પન્ન થાય છે. પૃથ્વીકાય પર જ સ્થિત રહે છે. અને પૃથ્વીકાય પર જ વધે છે. તેઓ અનેક પ્રકારના પીકાય ઉપર તૃ રૂપે ઉત્પન્ન થાય છે. નાના કે મોટા શરીરે થી યુક્ત તે પ્રાણ તે અનેક પ્રકારની જાતવાળી પૃથ્વીના નેહને આહાર કરે છે, Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्रकृतात्रे 'विनद्वारे स्माहारयन्ति ते वृणजीवाः पृथिव्या रसमेत्रोपआपने जीवनयापते जीवा गायवच्छिन्नाः सकृत कृारी 'सांगीति मावाय' भवन्तीत्याख्यातम् । देवाभि मजीदमी केचन जीवाः पृथिवीतो जाताः पृथिव्यामेत्र स्वियानि वर्तमाना भरवोऽनेकजातीय पृथिव्युपरि गादिरूपेण नायनेनानायकारकविण्याद्योदमयं रसमाददाना भवन्ति न भवन्ति पुनः मनामानं साकारा इति-वीर्य करेरुपदिष्टम् ॥०९-५१॥ म एवं विजेोणिएसु तणेसु तणत्ताए विउर्हति जाव माया ||० १०५२॥ در: छाया -एस पृथिवीयोनिकेतु तृणेषु वृणतया विवर्तन्ते यावदा०१०-५ Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७३ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिशानिरूपणम् टीका--'एवं' एवं यथा पृथिव्यां तृणजातीयका जीवाः सम्भवन्ति, तथापृथिवीयोनिकणेष्वपि जीवा भवन्ति, 'पुढवोजोणि रसु' पृथिवीयोनिकेपु-पृथिव्यां जायमानेषु 'तणेषु' तणेषु-तृण नानी पकेषु 'तण नाए' तृणतया-तृणरूपेण 'विउटृति' विवर्तन्ते-समुत्पद्यन्ते तृणनातीयका जीवाः । 'ज,व मक्खाय' याव. दाख्यातम् तृणरूपेण जायन्ते-वर्द्धन्ते तेनैव तद्रसमेवाऽऽस्वादयन्ति-इत्यादि सर्व पूर्वमूत्रव्याख्यानस्पृक् तत एव अनुसन्धे यम् ।।मू०१०-५२॥ . मूलम्-एवं तणजोणिएसु तणेसु तणत्ताए विउति, तण. जोणियं तणसरीरं च आहारेति जाव मक्खायं। एवं तणजोणिएसु तणेसु मूलत्ताए जाव बीयत्ताए विउदृति ते जीवा जाव एवमक्खायं । एवं ओसहीण वि चत्तारि आलावगा। एवं हरियाण वि चत्तारि आलावगा।सू० ११॥५३॥ ___ छाया--एवं तृगयोनिकेषु तृणेषु तृणतया विवर्तन्ने, तग योनिकं तृगशरीर श्वाऽऽहारयन्ति यावदारुपातम्, एवं तृगयोनिकेषु तृणेषु मूलतया यावद् बीजतया विवर्तन्ते ते जोवाः यावदेवमाख्यातम्, एवमौषधीष्वपि चत्वार आलापकाः एवं हरितेयपि चचार आलापकाः ॥१० ११-५३॥ टीका-'एवं तगजोणिएस' पूमिदर्शितरूपे ग-तृग मोनिके घु-तृ गोद्भवे पु 'तणेम' तृणेषु केचन जीवाः 'तणताए' तृगतया-तृगस्वरूपेग 'विउ वि' विवर्तन्ते-समु. ‘एवं पुढविजोगिएप्लु' इत्यादि । टीका-जिस प्रकार पृथियोयोनिक तृगजीव कहे गए हैं, उसी प्रकार पृथ्वीयोनिक तृगों में तृण रूप से उत्पन्न होने वाले जीव भी होते हैं । वे जीव पृथ्वीयोनिक तृणो में उत्पन्न होते हैं । उन्ही में स्थित रहते हैं और उन्हीं में बढ़ते हैं। उन्हीं के रस का आस्वादन करते हैं। इत्यादि समस्त कथन पूर्वसूत्र के अनुसार ही समझ लेना चाहिए ॥१०॥ ‘एवं पुढवी जोणिएसु' त्या ટીકાઈ–જે રીતે પૃથ્વી નિવાળા તૃણ-ઘાસના જીવ બતાવ્યા છે. એજ પ્રમાણે પૃથ્વી નિવાળા તુમાં તૃણ રૂપે ઉત્પન્ન થવાવાળા જીવ પણ હોય છે. તે જીવ પૃથ્વી યે નિવાળા તૃણે-ઘસોમાં ઉત્પન્ન થાય છે. તેમજ સ્થિત રહે છે. અને તેમાંજ વધે છે. તેનાજ રસનો આસ્વાદ ગ્રહણ કરે છે. વિગેરે સઘળું કથન પૂર્વ સૂત્રમાં કહ્યા પ્રમાણે જ સમજી લેવું જાઈએાસૂ ૧ Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭૪ सूत्रकृतार्कसूत्रे स्पद्यन्ते तृणयोनिकतृणेषु तृगरूपेग जायमाना जी ॥: 'तणजोणियं' तृणयोनिकम् 'तणसरीरं च ' तृगं शरीरच ' आहारेति' आहारयन्ति - अहारं कुर्वन्ति, 'जात्र मक्खायं' यावदाख्यातम् । उत्पतिस्थितिवर्द्धनाहारादिकं सर्व पूर्ववदेव बोध्यम् । 'एवं तण जोगिएसु, एवं तृणयोनिकेपु 'तणेसु' तृणेषु 'मूळत्ताए' मूलनया - मूल स्वरूपेण 'जाव वीत्तार' यावद् वीजतया - बीजस्वरूपेग 'विउद्धति' विवर्त्तन्ते मूलादारभ्य वीनपर्यन्तस्त्ररूपेण जीवाः समुत्पद्यन्ते, ते इमे च जीवाः मूलफलाद्यवच्छिन्नाः वृक्षाद्यवच्छिन्नजीवाऽपेक्षया विलक्षणाः भिन्नाश्च भवन्ति, ते जीवा जाव मक्खाय' ते जीवाः याचदाख्यातम् । ते मूलाद्यवच्छिन्ना जीवाः वृक्षादिकानां | समाहारयन्तीत्यादिसर्व पूर्ववदेव योजनीयम् । 'एवं ओसहीण वि चत्तारि आळा 'एवं तणजोगिएसु' इत्यादि । टीकार्थ - पिछले सूत्र में जैसे पृथ्वीद्योनिक तृगों में तृण रूप से उत्पन्न जीवों का अस्तित्व कहा है । उसी प्रकार कोई कोई जीव तृणयोनिक तृगों में तृण रूप से भी उत्पन्न होते हैं । ये जीव तृणधोनिक तृण जीवों के शरीर का आहार करते हैं। इत्यादि सब कथन पूर्ववत् ही समझ लेना चाहिए । इसी प्रकार तृणयोनिक तृणों में मूल कन्द आदि यावत् बीज रूप से उत्पन्न होते हैं । मूल फल आदि के जीव वृक्ष आदि के जीवों से विलक्षण एवं पृथक होते हैं । मूल आदि के जीव वृक्ष आदि के रस का आहार करते हैं, इत्यादि सब पूर्ववत् समझना चाहिए। इसी प्रकार औषधि वनस्पति के भी चार आलापक होते हैं । यथा ' एवं तणजोणिएसु' त्याहि टीडार्थ- —માના પહેલા સૂત્રમાં પૃથ્વિયે નિક તૃત્નેામાં તૃણુપણાથી ઉત્પન્ન થયેલા જીવાના આસ્તિત્વતા સંબંધમાં જે પ્રમાણે કથન કરવામાં આવ્યું છે એજ પ્રમાણે કાઇ કાઈ તૃનિક જીવ તુન્નુ જીવોના શરીરને અ હાર કરે છે. વિગેરે પ્રકારનું સઘળું કથન પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે જ સમજી લેવુ' જોઈ એ. •એજ પ્રમાણે તૃણુ ચેાનિકા તૃણેામાં મૂળ, કદ, વિગેરે યાવત્ ખીજ રૂપે ઉત્પન્ન થાય છે. ફળ વિગેરેના જીવા વૃક્ષ વિગેરેના જીવેાથી વિલક્ષણ અર્થાત્ જૂદા પ્રકારના અને ભિન્ન હાય છે મૂળ વિગેરેના જીવા વૃક્ષ વિગેરેના રસના આહાર કરે છે. વિગેરે સઘળુ કથન પહેલાની જેમ સમજી લેવુ' જોઈ એ. એજ પ્રમાણે ઔષધિવનસ્પતિમાં પણ ચાર પ્રકારના આલાપકે થાય Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ intratfart टीका द्वि. थु. अ. ३ आहारपरिज्ञानिरूपणम् ३७५ ant' एन मौपाधिव्वपि चत्वार आलापकाः, यथा - पृथिवीयोनिका वृक्षाः १, वृक्ष योनिका वृक्षाः २, वृक्षयोनिका अध्यः रुहाः ३, अध्यारूयोनिका अभ्यारुहाः ४ । एवं पृथिवीयोनिकाः तृणाः १, तृगयोनिकास्तृणाः २, तृणयोनिका अध्यारुहाः३, अभ्यारुह योनिका अध्यारुहा । ४, । एवं पृथिवीयोनिका औषधयः १, औषधियोनिका औषधपः२, औषधियोनिका अध्यारुहारे, अध्यारुहयोनिका अभ्यारुहाः ४, | एवं रूपेण हरिवादिष्वपि आलां. कावा ज्ञातवास्तवादि पृथिवीयोनिका हरिताः १, हरितयोनिका हरिवा:२, starfant अध्यारुहा०३, अध्यारुहृयोनिका अभ्यारुहाः४, ' एवं हरियाण विचार आलागा' एवं हरितापि चत्वार आळावका: पूर्वपदर्शितरूपेण योजनीयाः ॥ ०११-५३॥ मूलम् - अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता पुढ विजोगिया पुढविसंभवा जाव कम्मनियाणेणं तत्थ वुक्कमा णाणाविहजोणियासु पुढवी आयत्ताए वायत्ताए कायत्ताए कूहणत्ताए कंदुगताए उब्वेहनियत्ताए निव्वेहणियत्ताए सच्छत्ताए छत्तगत्ताए वासाणियत्ताए कूरत्ताए विउति, ते जीवा तेसिं णाणाविहजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहारेति, ते वि जीवा आहारेति पुढविसरीरं जाव संतं, (१) पृथ्वीयोनिक वृक्ष (२) वृक्षघोनिक वृक्ष (३) वृक्षयोनिक अध्यारुह और (४) अध्यारुह योनिक अध्यारुह । इसी प्रकार (१) पृथ्वीपोनिक ओषधि (२) ओषधियोनिक ओषधि (३) ओषधियोनिक अध्यारुह और (४) अभ्यारुह्यानिक अध्यारुह । इसी प्रकार हरित आदि में भी चार चार आलापक जानना चाहिए। जैसे- (१) पृथिवीयोनिक हरित (२) हरितयोनिक हरित (३) हरितयोकि अपारुह और (४) अध्यारुहयोनिक अध्यारुह ॥ ११ ॥ છે તે આ પ્રમાણે સમ૰વા (૧) પૃથ્વીનિક ઔષધિ (૨) ઔષધિયાનિક औषधि (3) भोषधिये निए अध्याइड (४) अध्याइड योनिङ अध्याइड ! આજ પ્રમાણે હરિત-લીલા વિગેરેમાં પણ ચાર ચાર આલાપકે સમ क्वा प्रेम है— पृथ्वियोनि हरित (२) हरित योनि हरित ( 3 ) हरितयेोનિક અધ્યારૂહ (૪) અધ્યારૂડુ ચેાનિક અધ્યારૂપ ઇસ. ૧૧૫ Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अवरेऽवि य णं तेसिं पुढवि जोणियाणं आयत्ताणं जाव कूराणं सरीरा णाणावण्या जाव मक्खायं एगोचेव आलावगो सेसा तिष्णि णत्थि । अहावरं पुरखायं इहेगइया सत्ता उद्गजोणिया उद्गसंभवा जाव कम्मनियाणेणं तत्थ वुक्कमा णाणाविह जोणिएस उदयसु रुक्खत्ताए विउहंति, ते जीवा तेति णाणाविहजोणियाणं उद्गाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारैति पुढविसरीरं जाव संतं । अवरेऽवि य णं तेसिं उदगजोणियाणं रुक्खाणं सरीरा णाणावण्णा जाव मक्खायं । जहा पुढविजोणियाणं रुक्खाणं चत्तारि गमा अज्झारुहाण वि तहेव, तणाणं ओसहीणं हरियाणं चत्तारि आलावगा भाणियव्वा एकेके । अहावरं पुरखायं इहेगइया सत्ता उद्गजोणिया उदगसंभवा जात्र कम्मणियाणं तत्थ वुक्कमा, णाणाविहजोगिएसु उदरसु उद्गत्ताए अवगत्ताए पणगत्ताए सेवालत्ताए कलंबुगत्ताए हडताए कसेरूगत्ताए कच्छभाणियत्ताए उप्पलत्ताए पउमत्ताए कुमुयत्ताए नलिणत्ताए सुभगत्ताए सोगंधियत्ताए पोंडरिय महापोंडरित्ताए सयपत्तत्ताए सहरसपत्तत्ताए एवं कल्हारकोकणयत्ताए अरविंदत्ताए तामरसत्ताए भिसभिसमुणाल पुक्खलत्ताए पुक्खल च्छिमगत्ताए विउर्हति ते जीवा तेसि णाणाविहजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेंति पुढवीसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं उदगजोणियाणं उदगाणं जाव Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिशानिरूपणम् ३७७ पुखलच्छिमगाणे सरीरा पाणावणा जाव भक्खायं एगो चेव आलायगो ॥सू०१२॥५४॥ छाया--अथाऽपरं पुराऽलगातम् इकतये सत्याः पृथिवीयोनिकाः पृथिवीसम्भवाः यावत् कर्मनिदानेन तत्र व्युत्क्रना-जानाविधयोनिकासु पृथित्रीषु आर्यतया वायतया कायतया कूहणतया कन्दुकवया उपनिहितमा निर्वहणि तया सच्छ त्या छत्रकतया वासानिकतया करतया विर्तन्ते । ते जीवा स्वाता नानाविधयोनिकानां पृथिवीनां स्नेहसारयन्ति, तेऽपि जीया आहायन्ति पृधियीशरीरे यावत् स्यात् । अपराण्यपि च खलु तेषां पृथियोयोनिसानामार्याणां याचन कूराणां शरीराणि नानावर्णानि यात्रदासपातानि एउववाऽऽठापक शेखो न सन्ति । यथाऽपर पुराख्यातम् इहैकसये सचा उदइयोनिका उदकसम्म : यावत् कर्मनिदानेन सत्र व्युत्क्रमाः नानाविधयोनिक्षेषु उदकेषु वृक्षनगा विर्तनो। ते जीवा स्तेषां नानाविषयोनिशानाद कानां स्नेमाहारयन्ति, ते जीता पाहारयन्ति पृथिवीशरीरं यावत् स्यात् । अपराण्यपि च खलु तेपामुदायोनिकानां वृक्षाणां शरीराणि नानावर्णानि याबदाख्यातानि। यथा पृथिवीयोनिशानां वृक्षार्णा चत्वारो गमाः, अभ्यारहाणामपि तथा तृगानामोपवीनों हरितानां चत्वार आलापका भणितव्या एकैकम् । अथाऽपरं पुराख्यातमिहैकतये सत्ता उदायोनिका उदकसंभवा यावत् कर्मनिदानेन तत्र व्युत्क्रमा, नानाविधयोनिकेषु उदकेषु उदकत्या अवकतया पनसतया शैचालतया कलम्वु नया हडत्या कसेतकतया कच्छ. भाणियतया उत्पलतया पद्मतया कुशुदखया नलिनतया सुभगतना सुगन्धिकतया पुण्डरीकमहापुण्डरी रुपमा शतपत्रदया सहस्रपत्रया एवं कल्हारकोकनदतया'अरविन्दतया तामरसतया विसविसमृणालपुष्करतया पुष्कराक्षशतया विर्तन्ते, ते जीवा स्तेषां नानाविधयोनिकानामुदकानां स्नेहमाहारयन्ति । ते जीवा आहार, यन्ति पृथिवीशरीरं यावत् स्यात्, अपराण्यपि व खलु तेपामुदकयोनिकानामुदकानां यावत् पुष्कराक्षकाणां शरीराणि नानावर्णानि याबदाख्यातानि। एकश्चैव आलापकः ॥१०१२-५४॥ टीका---पुनरप्याह-'अहावर' अथाऽारम् 'पुरक्खाय' पुराख्यातम् इहेगा. या सत्ता' इहैकतये सच्चाः-वनस्पतिमाणिनः 'पुढवीनोणिया' पृथिवीयोनिकाः 'अहावरं पुरकखाय' इत्यादि । टीकार्थ-तीर्थकर मावान ने वनस्पति का अन्य भेद भी कहा 'अहावर पुरक्खाय' त्यादि ટીકાઈ–વીર્થકર ભગવાને વનસ્પતિના અન્ય-બીજા ભેદ પણ કહ્યા सु० ४८ Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ૩૭૮ - पृथिव्येव योनिरुत्पत्तिस्थानं येषां ते तथाभूता भवन्ति 'पुढवीसंमया' पृथिवीसम्मवाः पृथिवीतो जाताः, 'तत्थ वुक्कमा ' तत्र व्युत्क्रमा' - पृथिव्यामेव वर्द्धनशीलाः 'जाव कम्पनियाणे' यावस्थामै निदानेन कर्मणाऽऽकृष्यमाणाः सन्त एव यत्र समुत्पद्यन्ते । 'जाणातिगोगियासु पुढवीन' नानाविधयोनिका पृथिवीपु 'आयत्ताए' आता आर्याख्यवनस्पतिविशेषरूपेण 'वायताई' चायतया - तदाख्यवनस्पतिविशेषरूपेण 'कावताएं' कायतया 'कुहणत्तार' कूरणतया 'कंडुगचाए' कन्दुक्तया 'उब्वेणियत्ताए' उपनिदिकतया 'निव्वेहणियत्ताए' निर्वेहणिकतया 'सच्छत्ताए' सच्छनतया 'छत्तगताएं' छत्रकन्या, 'वासाणियचाए' वासानि तथा 'क्रूरताए' क्रूरता - उत्तन्नाम वनस्पतिविशेषरूपेण 'विउति' विवर्तन्ते तद्रूपेण समुतयन्ते, 'ते जीवा तेसिंणागाविरजोगियानं' ते जीवा स्वासां नानाविधपोनिकानाम् 'बुढवणं' पृथिवीनाथ 'सिणेहमाहारेति' स्नेहं तद्गतस्नेहभावम् आहारयन्ति - आस्वादयन्तीत्यर्थः, 'ते वि जीवा' तेऽपि जीवा' 'आहारे'ति' आहारयन्ति- आहारं कुर्वन्तीत्यर्थः किमाहारयन्ति तत्राssa 'पुढची सरीर' जाव संतं पृथिवीशरीरं यावत् स्यात् अर्थाचे जीवाः है, वह इस प्रकार है- फोई कोई वनस्पतिजीव पृथिवीयोनिक पृथ्वी से उत्पन्न होने वाले, पृथ्वीसंभव पृथ्वी में स्थित और पृथ्वीव्युत्क्रान्त अर्थात् पृथ्वी में ही चढने वाले होते हैं । यावत् वे अपने कर्म के निमित्त से कर्म से आकृष्ट होकर ही वहां उत्पन्न देते हैं । नाना प्रकार की योनि वाली पृथ्वी में 'आर्य' नामक वनस्पति के रूप में · तथा वायु, काय, कुण, कंदुक, उपनिहिका, निर्वेणिका, सच्छत्र, छत्रक, चासनिका, क्रूर इत्यादि वनस्पतियों के रूप में उत्पन्न होते हैं । ये वनस्पतिकाय के जीव उन नाना प्रकार की योनियों वाली पृथ्वी के स्नेह को आहार करते हैं । वे पृथ्वी आदि छहीं फावों के शरीरों છે. તે આ પ્રમાણે સમજવા કાઇ કાઇ વનસ્પતિ જીવા વૃશ્વિનિકથી ઉત્પન્ન થવાવાળા પૃથ્વીસ ભવ, પૃથ્વીમાં સ્થિત અને પૃથ્વીમાં વ્યુત્ક્રાંત અર્થાત્ પૃથ્વીમાં જ વધનારા હાય છે. યાવત્ તે પાતાના કના નિમિત્તથી કમથી ખે ́ચાઇને જ ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે. અનેક પ્રકારની યોનીવાળી પૃથ્વીમાં ‘આ’ નામની વનસ્પતિ રૂપે તથા વાયુ, કાય, કુઉંઘુ ક'દુક અપનિહિકા, નિવે’હર્ણિકા, સચ્છત્ર, છત્રક વાસનિકા, ક્રૂર વિગેરે વનસ્પતિયોના રૂપથી ઉત્પન્ન થાય છે. આ વનસ્પતિ કાયના જીવો તે અનેક પ્રકારની ચેાનિવાળી પૃથ્વીના સ્નેહુના આહાર કરે છે, તે પૃથ્વી વિગેરે છએ કાયના શીશને Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिक्षानिरूपणम् । ३७२ पृथिव्यादीनां पणामपि जीवनिकायानां भक्षणं कृत्वा तेषां शरीर स्वात्म: साकुर्वन्ति, 'अपरे चि य णं तेप्ति पुढची नोणियाणं आयत्ताणं जाय कुराण'अपराण्यपि च खलु तेषां स्वकर्मभोगाय समुत्पन्नानां पृथिवीयोनिकानाम्आर्यादार क्ररान्तानां जीवानाम् 'सरीरा' शरीराणि, 'णाणावण्णा जाव मक्खायं' नागावर्णरसगन्धस्पर्शविशिष्टानि भवन्तीति, आख्यातानि तीर्थकरैरिति, 'एगो चेव भालानगो सेता तिणि णत्थि' एतन्नेक एवाऽऽलापको भवति, शेपानय आलापका न सन्ति न भवन्धीत्यर्थः, 'अहावरं' अथा. ऽपरम् 'सुरक्खाय' पुराऽऽख्यातम् इहेगइया सत्ता' इहैकनये सत्त्वा:-माणिनः 'उदगजोणिया' उदकयोनिका-उदकेषु जायमानाः 'उदगसंभवा' उदकसम्भवाःउदकस्थिविकाः 'जाब कम्मनियाणे' यावत्कर्भनिदानेन-कर्ममेरिताः सन्तः 'तत्थ बुकमा ता-जले एव व्युत्क्रमा:-जले परिवर्द्धमानाः 'जाणाविहजोणिएम उदएम' नानाविधयोनिकेषु अनेकजातीय केषु उदकेषु 'रुक्खलाए विउति' वृक्ष तया विवर्तन्ते सनुत्पद्यन्ते, इह जगति अनेके जीः जले उत्पद्यन्ते जले तिष्ठन्ति का आहार करते हैं और उन्हें अपने शरीर के रूप में परिणत करते हैं। उन आर्य से लेकर क्रूर पर्यन्त के पूर्वोस्त बनस्पति जीवों के अन्य शरीर जी होते हैं जो नाना वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से युक्त होते हैं। ऐसा तीथे करों ने कहा है। इसमें एक ही आलापन है, शेष तीन आलापस नहीं होते हैं। तीर्थकर भगवान ने कहा है कि कोई-कोई जीव जलयोनिक, जल में स्थिन और जल में ही वृद्धि प्राप्त करने वाले होते हैं। यावत् वे अपने कर्म से प्रेरित होकर नाना प्रकार की योनि वाले जल में वृक्ष रूप से उत्पन्न होते हैं । तात्पर्य यह है कि इस लोक में अनेक जीव ऐसे આહાર કરે છે. અને તેને પિતાના શરીરપણથી પરિણમાવે છે. તે અનાર્યથી લઈને ર પર્યન્તને પૂર્વોક્ત વનસ્પતિ જીવોના બીજા શરીરે પણ હોય છે, કે જે અનેક વર્ણ, ગંધ, રસ, અને સ્પર્શથી યુક્ત હોય છે. એ પ્રમાણે तीथ रोमे ४९ छे. આમાં એક જ માલાપક હોય છે. બાકીના ત્રણ આલાપકે કહેતા નથી. તીર્થકર ભગવાને કહ્યું છે કે—કઈ કઈ જીવો જલનિક, જલમાં સ્થિત, અને જલમાં જ વૃદ્ધિ પ્રાપ્ત કરવાવાળા હોય છે. યાવત્ તેઓ પિતાના કર્મથી પ્રેરિત થઈને અનેક પ્રકારની નિવાળા, પાણીમાં વૃક્ષપણાથી G4-थाय छे. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે આ જગતમાં અનેક જીવો એવા હોય Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८०, सूत्रकृतासो जले वर्द्धन्ते च-ते स्वसम्पादितपूर्व कर्मप्रेरिताः जले जायन्ते तेऽनेकमकारकजले वृक्षरूपेण समुत्पद्यन्ते । 'से जीवा' ते जीवाः जले वृक्षरूपेण समुत्पमा जलजा ज्ञेयाः। तेसि नानाविहजोणियाण उदगाणं सिणेहमाहारेति' तेपा नाना. विधयोनिकाना दकानां स्नेह स्नेहभान विशेष मेवाऽऽहारयन्ति-आस्वादयन्तीत्यर्थः, ' 'ते जीवा' ते जीवाः जले जायमाना जल जा:-जलस्नेहाऽऽहारकाः 'आहारे ति' आहारयन्ति, किमाहारयन्ति तत्राह-'पुढवीसरीरं नाव सं' पृथिवीशरीरं यावत् स्यात्, पृथिव्यादि पइजीवनिकायानां शरीराणि भुक्त्या स्वरूपेण परिणामयन्ति, 'आरे वि य पं' अपराण्यपि च खल्लु सेसि उदगजोणियाणं रुपखाण सरीरा णाणावण्णा जाच मक्खायं तेपामुदकयोनिकानां वृक्षाणां नानावर्णानि यावदालयानानि, उदकयोनिकानामपराण्यपि नावावर्णादियुक्तानि शरीराणि मनन्तीत्याख्यातानि । 'जहा' यथा 'पुढवी नोणियाण' पृथिवीयोनिकानाग 'सवाखाणं' वृक्षाणाम् 'चत्तारि गमा' चत्वारो गमा:-भेदाः भन्झाताग विवव तणाणं ओसहीणं हरियाणं चत्तारि आलावणा भाणियना एक्केक्के तथैव अध्यारुहागामपि तथैव तगा. नामोपधीनां हरितानां च चत्वार बालाप का भणितव्या:-यथा पृथिवीबोनि के वृक्षेषु हैं जो जल में उत्पन्न होते हैं, जल में स्थित रहते हैं और जल में पढते हैं। वे अपने किये पूर्व प्रेरित होकर जल उत्पन्न होते हैं और अनेक प्रकार के जल में वृक्ष रूप से जन्म लेते है। ये जीव नाना प्रकार की योनि वाले जल के स्नेह का आहार करते हैं, पृथ्वी काय आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं और उसे अपने शरीर के रूप में परिणत करते है। उन जलयोनिक वृक्षों को अन्य शरीर भी नाना,वर्ण गंध रस एवं स्पर्शबाले होते है।। जैसे पृथिवीयोनिकों में वृक्ष, तुग, ओषधि और हरित के भेद से चार आलापरु कहे हैं, वैसे जल के विषय में नहीं कहना चाहिए । છે કે જેઓ પાણીમાં ઉત્પન્ન થાય છે. પાણીમાં સ્થિત રહે છે. અને પાણીમાં જ વધે છે, તેઓ પોતે કરેલા પૂર્વ કર્મોથી પ્રેરિત થઈને પાણીમાં ઉત્પન થાય છે. અને અનેક પ્રકારના વૃક્ષરૂપે પાણીમાં જન્મ લે છે. તે અનેક પ્રકારની નિવાળા પાણીના નેહને આહાર કરે છે. પૃથ્વીકાય વિગે જેના શરીરને પણ આહાર કરે છે અને તેને પિતાના શરીર રૂપે પરિણું માવે છે. તે જલનિવાળા વૃક્ષને અનેક પ્રકારના વર્ણ, ગંધ રસ અને સ્પર્શવાળા બીજા શરીરે પણ હોય છે, જેમ પૃથ્વી નિકમાં વૃક્ષ, તૃણ, ઔષધિ અને હરિત લીલેતરીના Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिशानिरूपणम् चत्वार आलापका:-वृक्षतृणोपधिहरितादिभेदाः कथिताः तथा उदकपकरणे उदकयोनिकवृक्षेष्वपि चत्मारो वक्तपाः किन्तु उद ज्योनिक्षोत्यन्नेषु वृक्षेषु एक एव भेसो ज्ञातव्यः, अध्यारुहागां तगानामोपधीनां हरितानामपि चत्वार आलापका भणितव्याः-प्रोक्तव्याः एकै हम्-प्रत्येशश इति । अन्येऽपि भेदा वनस्पतिविशेषाणां तीर्थरैरुप दिष्टाः तथाहि-'अहावरे' अथाऽपरम् 'पुरकखाय' पुरा. ख्यातम्-पूर्वस्मिन्काले प्रतिपादितम्, 'इहेगइया' इहेत ये 'सत्ता' सत्त्वाः-चनस्पतिविशेषाः उदकीयाः, 'उद्गजोणिया' उहयोनिकाः उदकमेव योनि रुत्पत्तिस्थानं येषां तें तथा-उदकोत्पत्तिकाः 'उइगस श्या' उइके सम्म रन्ति ये ते तथाउदकस्थितिकाः 'जाव कम्हनियाणेणं' यावल्कम निदानेन-स्वकर्ममेरिवाः सन्तः 'तत्थ वुकमा' तत्र व्युत्क्रमा:-जले वर्द्धमानाः, 'जाणाविहजोगिएसु उदएम' नाना. विधयोनि केदकेषु 'उगचाए' उदकतषा-अनेकपकारकाः जलादेवोत्पद्यमानास्तत्र स्थितिकास्तत्रैव विद्यमानाः परिवर्द्ध मानाः स्वकर्मप्रेरिता विविधनातीयकजलेषु उदक-कवक-पनक-शैवाल-पमादिस्वरूपेण सबद्यन्ते जीवा वनस्पतिविशेषाः, 'उदगत्ताए' इत्यारभ्य 'पुखलच्छिम गत्ताए' इत्यन्तः पाठो यथा व्या. ख्याव एव द्रष्टव्यः, एतेषां बनस्पतिविशेषाणां लौकिकं नाम लोकादेव 'यदि संभवेत्' अवगन्तव्यम् । इह तु छायामात्रमेच पर्याप्तम् । 'ते जीना तेसिं गाणाविह यहां एक ही भेद जानना चाहिए । अध्यारुह, तृण, ओषधि और हरित के भी चार आलापक कहना चाहिए। . तीर्थक्षरों ने वनस्पति के अन्य लेद भी कहे हैं। वे इस प्रकार हैं कोई कोई जीव जलयोनिक, जलसंभव एवं जल के बढ़ने वाले होते है । वे अपने कर्म के वशीभूत होकर वहां उत्पन्न होते हैं और उदक, कवक, पनक, शशाल, पद्म आदि घनस्पति रूप से जन्म लेते हैं। इन वन स्पतियों के लोक में प्रसिद्ध नाम यथासंभव लोक से ही समझना ભેદથી ચાર આલાપકે કહ્યા છે, એ જ પ્રમાણે પાણીના વિષયમાં કહેવાના નથી. અહિયાં એક જ ભેદ સમજવાનું છે. અધ્યારૂહ, તૃણ ઔષધિ અને હરિત-લીલેતરીના પણ ચાર આલાપકો સમજવા. તીર્થકરેએ વનસ્પતિના બીજા ભેદે પણ કહ્યા છે. તે આ પ્રમાણે છેકઈ કેઈ જીવો જલયોનિક, જલ સંભવ, અને જલમાં વધાવાવાળા હોય છે. તેઓ પોતાના કર્મને વશ થઈને ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે. અને ઉદક, કવક પનક, શેવાળ પવા વિગેરે વનસ્પતિ પણુથી જન્મ લે છે. આ વનસ્પતિના લેકમાં પ્રસિદ્ધ નામે યથાસંભવ લેકેથી જ સમજી લેવાં જોઈએ. અહિતે Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ सूत्रमतासूत्रे जोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारे नि ते उदकाद्याच्छिन्नाः वनस्पतिजीता अनेकनियाः अप्गोनि कानामुदकानां स्नेहमाहारयन्ति, तमेवोपनीव्य जीवन्ति, 'ते जीवा आहारे ति पुढवीरोरं जाव संत' ते जीपा आहार पन्ति पृथिवीशरीर यावत् स्यान्-पृथिव्यादीनां शारीरमुपमुख्य स्वरूपेण परिणयन्ति, 'आरेवि यणं तेसिं उदागोणियाणं उदगाणं जार पुश्वलच्छिमगाणं सरीरा णाणावमा जाव मकवाय' अपराण्यपि च खलु तेपामुदकादारभ्य पुकराक्षपर्यन्तानां तनोऽन्यान्यपि शरीराणि नानास्पादिमनित भान्ति, ति तीर्यकादिभिराच्यावानि, किन्तु 'एगो चेव आलागो' आआपाश्चैक एव, न तु पूर्ववच्चत्तार इहाऽऽलापकाः ॥मू०१२-५४॥ मूलम्-अहाबरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता तेसिं चेव पुढवीजोणिएहिं रखेहि रुखजोणिएहिं मलेहि स्वख जोणिपहि मूलेहिं जाव बीएहि साख जोणिपहिं अझारोहेहिं अज्झारोह जोणिएहि अज्झारोहेहि अज्झारोहजोणिएहिं मूलेहिं जाव वीएहिं पुढविजोणिएहि तणेहि तणजोणिएहि तणेहिं तणजोणिएहि मूलेहिं जान बीएहि एवं ओलहीहि वि तिन्नि आलावगा, एवं चाहिए। यहाँ तो उनका उल्लेख मात्र ही पर्याप्त है। वे जीव अनेक प्रकार के अयोनिक अप के स्नेह का आहार करते हैं और उसी के सहारे जीवित रहते हैं । वे पृथवी आदि के शरीर का भी आहार करते हैं और उन उदक आदि जीवों के नाना वर्ण गंध रस और स्पर्श वाले अन्य शरीर भी होते हैं। ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है। यहां एक ही आलापक होता है, पहले के समान चार आलापक नहीं होते ॥१२॥ તેને ઉલેખ માત્ર જ બસ છે. તે જીવે અનેક પ્રકારના અપકાય ચેનિક, અપૂ-જલનાસનેહને આહાર કરવાવાળા, હોય છે, અને તેનાજ આશયથી જીવતા રહે છે. તેઓ પૃથ્વી વિગેરેના શરીરનો પણ આહાર કરે છે. અને તેને પિતાના શરીરના રૂપથી પરિણમાવી લે છે. તે ઉદક વિગેરે જેના અનેક વર્ણ, ગંધ, રસ અને સ્પર્શવાળા બીજા શરીર પણ હોય છે. એ પ્રમાણે તીર્થંકરએ કહેલ છે. અહિયાં એક જ આલાપક હોય છે, પહેલાની જેમ ચાર આલાપકે અહિયાં રહેતા નથી. સૂ૦ ૧૨ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. अ. ३ आहारपरिज्ञानिरूपणम् । ___३८३ हरिएहि वि तिन्नि आलावगा, पुढविजोगिएहि वि आएहि काहि जाव कूरेहिं उदकजोणिएहि रुश्तेहि रुक्खजोणिएहि रुखेहि रुक्ख जोणिएहिं मूलहिं जाव बीएहि, एवं अज्झारोहेहि वितिनि तणेहि पि तिषिण आलानगा, ओलहीहि पि तिषिण हरिएहि पि तिष्णि उदगजोणिएहि उदएहि अवएहिं जार पुरवलच्छिभएहि तसपाणताए विउद्दति । ते जीवा तेलिं पुढविजोशियाणं उदा. जोणियाणं रुक्खजोणियाणं अज्झारोहजोणिषाण समजोणियाणं ओसहीजोणियाणं हरियजोणियाणं खाणं अज्झारोहाणं तणाणं ओलहीणं हरियाणं मूलाणं जाव बीयाणं आयाणं कायाण जाब कूराण उद्गाणं अवगाण जाब पुक्खलच्छिभगाणं सिणेहमाहाति, ते जीवा आहारांति पुडविसरीरं जाव संतं, अबरेऽवि य ज तेसि रुक्खजोणियाणं अज्झारोहजोणियाणं तणजोणियाणं ओसहि. जोणियाणं हरियजोणियाण मूलजोणियाणं कंदजोणियाणं जाव बीयजोणियाण आयजोणियाणं काथजोणियाणंजाव कूरजोणिया उदगजोणियाणं अवगजोणियाणं जाव पुक्खलच्छिभगजोणियाणं तसपाणाणं सरीराणाणावरुणा जाब मक्खामंसू. १३.५५॥ छाया-अथाऽपरं पुराख्यातम्-इहैकर ये सत्त्वाः तेष्वेव पृथिवीयोनिके क्षेषु, वृक्षयोनिकेपु वृक्षेपु, वृक्षयोनिकेषु मूलेषु, यावगीजेपु, वृक्षयोनिकेष्वध्यारहेपु, अपारुहयोनिकेषु अध्यारुहेषु, अध्यारुहयोनिकेषु मूलेपु, यावद्वीजेषु, पृथिवी. योनिकेषु तृणेषु, तृणयोनिकेपु तृपोपु, तृणयोनिकेषु झूठेघु, यानद्वीजेषु, श्वमोरपि त्रय आलापका, एवं हरितेष्वपि त्रग आलापकाः। पृथिवीयोनि केयपि आर्यपु कायेषु यातत्कूरेषु, उदकयोनिकेयु क्षेपु, क्षयोनिकेघु वृक्षेषु, वृक्षयोनिकेषु अलेघु, यावद्वाजेषु । एवमध्यारुहेष्वपि त्रयः तृणेष्वपि त्रय आलापकाः, Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૮૦ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ओषधिष्वपि त्रयः, हरितेष्वपि त्रया, उदकपोनिकेषु उदकेषु अनकेषु यावत्क राक्षभागेषु समाणतया विवर्तन्ते । ते जीवास्तेषां पृविनीयो निकानाम् उदक योनिकानां वृक्षयोनिडानामव्यायोजिकानां तृणयोजिकानामोपवियोनिकानां हरितयोनिकानां वृक्षाणामशहाणां वृणानापोपचीनां दरिवानां मूलानां यावदवीजानामार्याणां कायानां यात्राणामुदहानामवकानां यावत् पुष्कराक्षमगानां स्नेहमाहारयन्ति । ते जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीरं यावत् स्यात्, आराण्यपि च खलु तेषां वृक्षयोनि कानामध्यारूयोनिकानां गुणयोजिकानागोपवियोनिद्वानां हरित यो निकानां मूळपोनिका कन्यकानां यावद्रोज निकालामा प्रयोनि कानां काययोनिकानां यावत् कुरवोनिका नामुद गोनिका नाम रयात् पुष्कराक्ष भगयोजिकानां चमाणानां शरीराणि नानावपीन यानागतानिनु. २३-५५॥ टीका -- अपरोऽपि वनस्पतिजीवभेद शीर्यकरेण कथितस्वमाह - 'अहावरं ' अथापरम् 'पुरकलार्थ' पुराख्यानम् 'इहेण्डया' इतये 'सत्ता' सच्चाः-वन स्पतिविशेषाः 'पुढचीजो सक्थे पृथियोनिषु वृक्षेपु - पृथिव्युत्पन्नवृक्षभीवेषु समानया विवर्तन्ते इति अमेण सह सम्बन्धः । 'रुक्खजोगिएर रुवखेति' वृक्षयोनिकेषु वृक्षोन्नेषु वृक्षेषु 'रुखजोगिएहि मूलेईि' वृक्ष योनिकेपु-वृक्षोत्पन्नेषु मूलेषु 'जाब बीयेहिं' यावद्वीजेपु 'रुक्खजो - निएहि अज्झारोहेर्दि' वृक्षयोनिकेषु वृतोत्पलघु अध्यारुदेषु 'अज्झारोहजो णिएहिं अझारोहे हिं' अध्यापोनि के अध्य रुहोत्पन्नेषु अभ्यारुदेषु 'अज्झारोह - - 'अहावरं पुरग्वार्य' हत्यादि । टीकार्थ-तीर्थकर भगवान् ने वनस्पति काय के अन्य भेद भी कहे हैं इस लोक में कोई-कोई जीव उन पृथ्वीद्योनिक वृक्षों में, वृक्षपोनिक वृक्षो में मूलकन्द यावत् बीज पर्यन्त अवयवों में, वृक्षयोनिक अध्यारुह वृक्षों में, अध्यारुहपोनिक अध्यारुहों में अध्यारुहद्योनिक मूल से लेकर 'अहावरं पुरखायं' ईत्याद्दि ટીકા તીર્થંકર ભગવાને વનસ્પતિકાયના અન્ય ખીજ ભેદે પણ उद्या छे, ते या प्रमाणे छे. આ લાકમાં કોઈ કાઈ જીવો તે પૃથ્વીયેાનિક વૃક્ષેા-ઝડામાં, વૃક્ષચેાનિકવૃક્ષા-ઝાડામાં મૂળ, કન્દ, યાવત્ ખીજ સુધીના અવયવેામાં વૃક્ષચેનિક, અધ્યારૂRsચેનિકવૃક્ષેામાં, મૂળથી લઈને ખીજ સુધીના અવયવોમાં વૃક્ષચેાનિક અધ્યારૂહવૃક્ષામાં, અધ્યારૂહુયેાનિક અધ્યારૂમાં અધ્યારૂઢચેનિક મૂળથી લઈને ખી સુધીના અવયવેામ પૃથ્વીયેાનિક તૃણુ-ઘાસેામાં,તયેાનિક તૃત્થામાં, Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.३ आहारपरिज्ञानिरूपणम् ३८५ जोणिएहि मूलेहि अध्यारुहयोनिकेषु-अध्यारुहोलन्नेषु मूलेयु 'जाव बीएसई यावद्वीजेपु, 'पुढयीजोणिएहि तणेहि' पृथिवीयोनिकेषु तृणेषु-पृथिव्युत्पन्नतृणेषु 'तणजोणिएहिं तणेहि' तृणयोनिकेषु तृणेषु-तृणोत्पन्नतृणजीवेषु तिण नोणिएहिं मूलेहिं जाव वीएहि' तृणयोनिकेषु-तृणोत्पनेषु मूलेषु यावद्वीजेषु यावत्पदेन कन्दस्कन्धत्वक्शालपवालशाखापत्रपुष्प फलानां संग्रह । 'एवं ओसहीहि वि तिन्नि आळावगा' एवमोषधीष्वपि त्रय आलापका:- जय एव भेदाः, पृथिवीयोनिका ओषधयः१, ओषधियोनिका ओषधयः२, ओपधियोनिका मूलकन्दत्वक शाखामवा लपत्रपुष्पफलबीजजीवाः३, एते त्रय आलापका ज्ञातव्याः, 'एवं हरिएहि वि तिमि आलावगा' एवं हरितेष्वपि ओपधिवत् जयलपकाः 'पुढबीजोणिहि वि पृथिवीयोनिकेष्वपि 'आएहिं काएहि जाव कूरेहि' आर्येषु कायेषु यावस्कूरेषु-यावस्पदेन कूहणकण्ड्यका-उव्वेहणि कनिव्वेहणिकसर्वतकवतकवासणिकानां ग्रहणम् भवतीति। 'उदगजोगिएहि रुक्खेहि' उदकयोनिकेषु वृक्षेषु 'रुक्रवजोणिएहि रुक्खेहि' वृक्षयोनिकेषु वृक्षेषु 'रुक्खजोणिएहि मूलेहि' जाव बीएहि' वृक्षयोनिकेषु मलेपु यादबीजेपु 'एवं अज्झारुहेहि वि तिन्नि' एवम् अध्यारुहेष्वपि ओषधिवत् त्रय आलापका ज्ञातव्या इति शेषः, 'तणेहि वि तिष्णि आलावगा' तृणेष्वपि ओपधिवत त्रय आलापका! 'ओसहीहि वि तिणि आलावगा' ओपधिष्वपि पृथिवी. योनिकवदोषधिवत त्रय आलापकाः, 'हरिएहि वि तिणि' हरितेष्वपि त्रयः, 'उदगजोणिएहि उदएहिं अवएहिं जाव' उदकयोनिकेषु-तत्कारणकेषु उदकेषु अवकेषु यावत् 'पुक्खलच्छिभएहि' पुष्कराक्षमगेषु, अत्र यावत्पदेन-पनकशैवालकंकबीज तक के अवयवों में पृथ्वीयोनिक तृणों में, तृणयोनिक तृणों में, तणयोनिक मूल, कंद आदि बीज तक के अवयवों में, इसी प्रकार औषधि तथा हरितके तीन आलापको में, पृथ्वीयोनिक आय, काय तथा कर नामक वृक्षों में, जलयोनिक वृक्षों में, वृक्षयोनिक वृक्षों में, पायोनिक मूल यावत् बीजों में, इसी प्रकार अध्यारुहों, तृणों, તણ નિવાળા મૂળ, કંદ, વિગેરે બીજ સુધીના અવયવોમાં ઔષધિ તથા હરિત-લીલોતરીના ત્રણ આલાપકોમાં પૃથ્વીનિક આય કાય, તથા કૂર નામના વૃક્ષમાં, જલનિક વૃક્ષમાં, વૃક્ષોનિક વૃક્ષમાં વૃક્ષોનિક મૂળ, યાવત્ બીજોમાં અને એ જ પ્રમાણે અધ્યારૂ, તૃણે ઔષધિ તથા सू० ४९ Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतामो छबुबहड कसेरुककच्छमाणितकोत्पलयम कुसुदन लिनसुभगसुगन्धिकपुण्डरीकमहापुर पडरीकशतपत्रसहस्रपत्रकल्हारककोकनदाऽरविन्दतामरसविसविसमृगाळपुष्कराणांवनस्पतिजीवानां संग्रहः। तसपाणत्ताए' समाणतया-त्रसजीवस्वरूपेग, 'विउति' विवर्तन्ते समुत्पद्यन्ते. इत्यर्थः । ते जीवा' ते उदकयोनिका वृक्षादौ त्रसरूपेण सञ्जाता जीवाः 'तेसिं' तेषाम् 'पुढवीजोणियाणं' पृथिवी. योलिकानां-पृथिवीकारणकानां क्षाणाम्, 'उदगनोणियाणं' उदकयोनिकानां वृक्षाणाम्। 'रुक्खजोणियाण. वृक्षयोनिकानां 'वृक्षाणाम् इति अग्रेण सम्बन्धा'अज्झारोहजोणियाण' अध्यारुहयोनिकानाम् 'तणजोणियाणं' तृणयोनिकानाम्, 'बोसहीजोणियाण' ओपधियोनिकानाम् 'हरियजोणियाणं 'हरितयोनिकानाम् 'रूकावाण' वृक्षाणाम्, 'अज्झारूहाणं' अध्यारहाणाम्, 'तणाण' तृणानाम् 'ओसही' ओपधीनाम् 'हरियाण' हरितानां जीवानाम् 'मूलाणं' मूलानाम् 'जाव वीयाणं' यावद्वीनानाम्-यावत्पदेन, कन्दत्वशाखापशाखापवालपत्रपुष्पाणां संग्रहः, 'आयाणं कायाणं जाब कूराणे' आर्याणां कायानां यावत्क्रूराणाम् 'उदगाणं अगाए जाब पुक्खलच्छिमगाणं' उदकानामवकानां यावत्पुष्कराक्षभगानाम, अभ्रयावत्पदेन-पनक शैवाल केत्याद्यारभ्य पुष्करान्तानां वनस्पतिजीवानां ग्रहणं पूर्वेवद वोध्यम्, एतेषाम् 'सिणेदमाहारे ति' स्नेहम-स्निग्धभावमाहारयन्ति ते जीवा आहारेति पुढतीसरीरं जात्र संत' ते जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीरं यावदप्तेजो ओषधियो तथा हरितो के नोन तीन आलापको में, उदकयोनिक अवक और पुष्करपक्षों में ब्रह्म प्राणी के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे जीव पृथिवीयोनिक वृक्षों के, उदकपोनिक वृक्षों के, वृक्ष योनिक वृक्षों के, अध्यारुहयोनिक वृक्षों के तृणधोनिक वृक्षों के ओषधियोनिक वृक्षो के हरितयोनिक वृक्षो के तथा वृक्ष, अध्यामह, तृण, ओषधि, हरित, मूल, बीज, आयवृक्ष, कायवृक्ष, कूरवृक्ष, एवं उदक, अवक तथा पुष्कराक्ष वृक्षों के स्नेह का आहार करते हैं । वे पृथ्वीकाय હરિતે-લીલેરીના ત્રણ ત્રણ આલાપમાં ઉદક નિવાળા, અવક, અને પુકરાક્ષેમાં ત્રણ પ્રાણી પણુથી ઉત્પન્ન થ ય છે. તે જીવ પૃથ્વીનિક વૃક્ષોના, ઉદક યોનિ વાળા વૃક્ષના વૃક્ષ નિવાળા વૃક્ષના, અધ્યારૂહ યોનિવાળા વૃક્ષના, તૃણનિવાળા વૃક્ષોના ઔષધિનિક साना, हरितानि वृशाना तथा वृक्ष, सध्या३७, तुप, भीषधि, हरित, भूत, भीम, मायक्ष, यवृक्ष, १२वृक्ष, मन , तथा पु०७२।क्ष, वृक्षाना નેહને આહાર કરે છે, તે પૃથ્વીકાય વિગેરેના શરીરને પશુ આહાર કરે Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समार्थबोधिनी टोका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिशानिरूपणम् ३८७ वायु वनस्पतिशरीरम् विपरिणय स्वरूपं कुर्वन्ति 'अवरेत्रिय णं तेसिं रुक्वजोणियाण' अपरानपि च खञ्च तेषां सपोनिकानाम् 'मूलजोणियाण केंद जोणियाणं जाव वी जोणियाण' मूलकन्दस्कन्धत्वक्शाकपवालपत्रपुष्पफलबीजयोनि काम् 'आयनोगियाणं कायजोगियाणं जात्र करजोणिवाणं' आययोनि कानां काययोनिकानां यावत् कूयोनिकानाम् 'उदगजोणियाणं अगजोणियाणं जात्र पुरखलच्छिम जोणियाण' उइगयोनिकानाम् अवकपोनिकानां यावत् पुष्क राक्ष भगयोनिकानाम् 'तसगणाणं सरोरा जाणावण्णा जान मक्खायं' त्रसमाणान शरीराणि नानावर्णानि यावत् - नानारसानि नानागन्धानि नानास्पर्शयुक्तानि भववीति वीर्थद्धिपातम् - कथितमिति ॥०१३ - ५५ ॥ मूलम् - अहावरं पुरखायं णाणाविहाणं मणुस्ताणं तं जहांकम्मभूमगाणं अकम्मभूमगाणं अंतरदीव गाणं आरियाणं मिलक्खुयाणं, तेसिं चणं अहावीएणं अहावगासेणं इत्थीए पुरिसस्स ये कम्मकडाए जोणिए एत्थ णं मेहुणवत्तियाए णामं संजोगे समुप्यजइ, ते दुहओ वि सिणेहं संचिण्णंति, तत्थ णं जीवा इत्थित्ताए पुरिसगत्ताए णपुंसगत्ताए विउडंति, ते जीवा माओ 'उयं पिउसुक्कं तं तदुभयं संस कलुतं किविवसं तं पढमत्ताए "आहारमाहारेति, तओ पच्छा जं से माया णाणाविहाओ रस आदि के शरीरों का भी आहार करते है । उन वृक्ष गेनिक, अध्यारुह योनिक, तृपोनिक, ओषवियोनिक, हरितयोनिक, मूलयोनिक, कंद, योनिक, यावत् चीजयोनिक, आवयोनिक काययोनिक यावत् कूरयोनिक, उदकयोनिक, अवकयोनिक यावत् पुष्कराक्ष भगद्योनिक प्राणियों के नाना वर्ण, गंध, रस, सारी वाले अन्यान्य शरीर भी होते हैं । ऐसा तीर्थकर भगवान् ने कहा है ||१३|| छे. मे वृक्ष योनिवाणा, मध्याइह येोनित्राजा, तृषु योनिवाजा, भोषदिया. निवाजा, हस्तिये। निवाजा, (सीसोतरीनी योनिवाजा) भूम येोनिवाणा, उध्योનિવાળા, યાવત્ ખીજ ચેાનિવાળા, આયયેાનિવાળા, કાયયેાનિવાળા, ચાવત -ફૂરચેાનિવાળા, ઉદકયેાનિવાળા, અવકયોનવાળા, યાવત્ -પુષ્કરાક્ષલગાનિવાળા ત્રંસ પ્રાણિયાના અનેક વર્ષોં ગંધ, રસ, સ્પર્શીવાળા ખીજા શરીરા પણ હાય છે. એ પ્રમાણે તીર્થકર ભગવાને કહેલ છે. પ્રસૂ॰ ૧૩ Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ सूत्रकृतास्त्र विहीओ आहारमाहारेइ, तओ एकदेशेणं ओयमाहारेंति, आणुपुव्वण वुद्धा पलिपागमणुपवन्ना तओ कायाओ अभिनिवट्टमाणां इत्थि वेगया जणयंति पुरिसं वेगया जणांति णपुंसगं वेगया जणयंति, ते जीवा डहरा समाणा माउक्खीरं सम्पि आहाति आणुपुवेणं वुड्डा ओयणं कुम्मासं तसथावरे य पाणे ते जीवा आहारैति, पुढ विसरीरं जाव सारू वि कडं संतं, अवरेऽवि य णं तेति णाणाविहाणं मणुस्तगाणं कम्मभुमगाणं अकम्भूमगाणं अंतरद्दीवगाणं आरियाणं मिलक्खूणं सरीरा __णाणावण्णा भवंतीति मक्खायं ॥सू०१४।५६॥ . छाया--अथाऽपरं पुराख्यातं नानाविधानां मनुष्याणां तद्यथा-कर्मभूमिगानामकर्मभूमिगानामन्ती गानाम् आर्याणां म्लेच्छानो तेषां च खलु यथावीजेन 'यथाऽकाशेन स्त्रियः पुरुपस्य च कर्मकृत योनौ अत्र खलु मैथुनप्रत्ययिको नाम संयोगः समुपद्यते । ते द्वयोरपि स्नेहं संचिन्वन्ति, तत्र खलु जीवाः स्त्रीतया पुस्तया नपुंसकतया विवर्तन्ते ते जीवाः मातुरातवं पितुः शुक्रं तत् तदुमयं संसृष्टं कलुषं किलिपं तत् प्रथमतया आहारमादारयन्ति । तत्पश्चात् या सा माता नानाविधान रसविधीन आहारान् आहारयन्ति तत एकदेशेन ओजभाहारयन्ति । आनुपूर्पण वृद्धाः परिपाकमनु पाप्ताः ततः कायतोऽभिनिर्वतमानाः स्त्रीभावमे के जनयन्ति, पुरुषभावमेके जनयन्ति, नपुंपकभावमे के जनयन्ति, ते जीवाः वालाः सन्तः मातुः क्षीरं सर्पिराहारयन्ति आनुपूर्पण वृद्धा ओदनं कुल्मापं त्रसस्थावरांश्च प्राणान् ते जीवा आहारयन्ति । पृथिवीशरीरं यावत् सारूपी कृतं कुर्वन्ति । अपराण्यपि च खलु तेषां नानाविधाना मनुष्याणां कर्म भूमिगानामकर्मभूमि गानामन्तीयगानामार्याणं म्ले. च्छानां शरीराणि नानावर्णानि भवन्तीत्याख्यातम् ॥-१४-५६॥ टीका--सम्प्रति मनुष्पवरूपमाद-भहावा' अपानाम् 'पुरक्खाय' पुराख्यातमू-कथितम् ‘णाणाविहाणं मणुस्साणं' नानाविधानाम्-अनेकप्रकाराणां मनुः - 'अहावरं' पुरक्वाय' इत्यादि। . टीकार्थ--अब मनुष्य का स्वरूप कहते हैं-तीर्थकर भगवान ने 'अहावर पुस्क्वायं' त्यादि ટીકાઈ–હવે માણસનું સ્વરૂપ કહેવામાં આવે છે. તીર્થકર ભગવાને Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिक्षानिरूपणम् ष्याणां स्वरूप कथितमिति पूर्वेणान्वयः, 'तं जहा' तथा 'कम्मभूमगाणं' कर्मभूमिगानाम्, केचन कर्मभूमिगाः कर्मभूमी क्वचन समुत्पद्यन्ते तेषाम्. 'अम्मभूमगाणं' अमभूमिगानाम् केचन अकर्मभूमिगाः अकर्मभूमौ जायन्ते तेषाम्, 'अंबरदीरगाणं अन्तद्वीपकानाम् अन्तीषकेषु केचन जायन्ते तेपाम्, 'आरियाणं' आर्याणाम् के वनाऽऽर्या भवन्ति तेपाम् 'मिलक्खुयाणं म्लेच्छा: केचन जायन्ते तेषाम् 'वेसिं च णं तेषां च खलु अनेकपकाराणां मनुष्याणाम् 'अहावीएणं' यथा बीजेन-बीजमनतिक्रम्य यथावीनं तेन-स्ववीजाऽनुसारेण 'मागासेणं' यथावकाशेन-सावकाशाऽ सारेण उत्पचिर्भवति, तदुत्पत्तौ को हेतु स्तत्राह-'इत्थीए' इत्यादि । 'इत्थीए' खिin: 'पुरिसस्त य' पुरुषस्य च' 'कम्मकडाए जोणिए' कर्मकृतयोनौ-कर्मकायोनिरेव तेपामुत्पत्ती हेतुस्तत्र ते मनुष्याः समुत्सद्यन्ते इति भावः। एत्थ णं मेहुणपत्तियाए' अत्र-कर्मकृतयोनौ खलु मैथुन प्रत्ययिकः ‘णाम संनोगे समुपज्जइ' नामसंयोगः समु-पद्यते-उत्पत्तिकारणभूतयोनौ स्त्रियाः पुरु स्यि वा कम हेतुको मैथुनसंयोगो जायते, तादृशसंयोगाऽन. न्तरम् उत्पद्यमानाः 'ते दुह मो वि' ते-जीवा द्वयोरपि स्त्रीपुंसोः 'सिणेहं संचिणंति' स्नेहं सचिवन्ति, द्वयोरपि स्नेहस्य-स्निग्धभावस्याऽऽहारं कुर्वन्तीत्यर्थः । 'तत्थ णं जीवा इत्थित्ताए पुरिसत्ताए णपुंपगत्ताए विउति' तत्र खलु जीवा। 'अनेक प्रकार के मनुष्यों का स्वरूप कहा है। वह इस प्रकार है-कोई मनुष्य कर्मभूमिज होते हैं, कोई अकर्मभूमिज होते हैं और कोई अन्तर्वीपज होते हैं। कोई आर्य होते हैं, कोई अनार्य-म्लेच्छ होते हैं। इन जीवों की उत्पत्ति अपने अपने बीज और अवकाश के अनुसार होती है। स्त्री और पुरुष का पूर्वकर्म के अनुसार निर्मित योनि में मैथुन प्रत्ययिक संयोग उत्पन्न होता है। उस संयोग के अनन्तर उत्पन्न होने घाले दोनों के स्नेह का आहार करते हैं। वे जीव वहां स्त्री रूप से, અનેક પ્રકારના મનુષ્યનું સ્વરૂપ કહ્યું છે. તે આ પ્રમાણે છે – કેઈ માણસ કર્મભૂમિ જ હોય છે. કોઈ અકર્મ ભૂમિ જ હોય છે. અને કેઈ અન્તર દ્વીપ જ હોય છે કેઈ અર્થ હોય છે કે અનાર્ય હોય છે. એટલે કે મ્યુચ્છ હોય છે. આ જીવની ઉત્પત્તિ પિત પિતાના બીજ અને અવકાશ પ્રમાણે થાય છે. સ્ત્રી અને પુરૂષને પૂર્વ કર્મ પ્રમાણે નિર્મિત નિમાં મિથુન • વિષયક સ યોગ ઉત્પન્ન થાય છે તે સંયોગ પછી ઉત્પનન થવાવાળા જીવ અનેના નેહના આહાર કરે છે Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "३९० सूत्रता स्वीतया पुरुपतया नपुंपकतया विपर्तन्ते, तादृश पोनी जीवाः स्त्रोपुनपुंपकमायेन समुत्पद्यन्ते 'ते जीवा मानो उयं पिउमुक तं तदुमयं संसह कलस किविसंत पढमत्ताए आहारमाहारेति' ते समुत्पद्यमाना जीवाः प्रथपतया-सर्वतः प्रथम मातुरात्वं पितुः शुक्रं तदु मयं संसृष्ट-परस्परमिलित कलुपम् -मलिनं फिलिपपम्अपवित्र माहारमाहारयन्ति, ते जीवाः प्रथमतः पित्रोः शुकगोगिने एा स्वशरीर निर्माणार्थ गृहन्ति 'तो पच्छ।' ततः पश्चात् 'जं से माया गागाविहायो' या सा माता नानाविधान 'रसविहीओ' रमवियोन्-रसान्वितान-रस प्रयुक्तान् 'आहार' आहारान्-भक्षणीयद्रव्यरिशेपान् 'आहारेइ' आहारयति-तदीयमाता भक्षयति, तओ एकदेसेणं' ततः तदनन्तरम् एकदेशेन-मातृभुक्त हारस्यैकदेशेन न तु सम्पूर्ण तया ते समुत्पत्स्यमानजीवाः 'ओयमाहारेति' ओजः-उत्पलिस्थाने आहार पुद्गलसमूहम् आहारयन्ति 'आणुपुब्वेण बुढा' आनुपू]ग-क्रमशः वृद्रा:-माहारपाकपरम्परयाऽभिटद्धाः सन्तः गर्भावस्था पूर्णीकृत्य 'पलिपागमणुकना परिपाक पुष्टिभावमनुमाप्ता:-आपन्नाः 'तमो कायाओ' ततः कायाव-मातुः शरीरात • 'अभिनिवट्टमाणा' अभिनिवर्तमाना:-निस्सरन्तो बहिरागच्छन्तः 'इत्यि वेगया. पुरुष रूप से और नपुंसक रूप से उत्पन्न होते हैं । वे जीव वहाँ सर्व प्रथम माता के आतव और पिता के शुक्र के सम्मिश्रण को, जो मलिन और अपवित्र होता है, उसका भाहार करते हैं अर्थात् अपने शरीर आदि का निर्माण करने के लिए माता पिता के रजवीर्य को ग्रहण करते हैं । तत्पश्चात् वे जीव माता जो नाना प्रकार के रसयुक्न 'पदार्थों का आहार करते हैं। उसके एकदेश (भाग) का, सम्पूर्ण का नहीं, ओज आहार करते हैं । वे धीरे धीरे वृद्धि को प्राप्त होते हुए, 'गर्भावस्था पूर्ण होने पर, पुष्टि को प्राप्त करके माता के शरीर में से તે જીવે ત્યાં સ્ત્રીપણાથી, પુરૂષ પણાથી અને નપુંસક પશુથી ઉત્પન થાય છે. તે જીવે ત્યાં સૌથી પહેલાં માતાના આર્તવ અને પિતાના શુકના સંમિશ્રણને કે જે મલિન અને અપવિત્ર હોય છે, તેને આહાર કરે છે. અર્થાત્ પિતાના શરીર વિગેરેનું નિર્માણ કરવા માટે માતા પિતાના રજ, વીર્યને ગ્રહણ કરે છે. તે પછી એ જ માતા જે અનેક પ્રકારના રસયુક્ત પદાર્થોને આહાર કરે છે, તેના એક દેશને (ભાગ) સપૂઈને નહીં એજ . આહાર કરે છે. તેઓ ધીરે ધીરે વૃદ્ધિને પ્રાપ્ત થતા થકા ગર્ભાવસ્થા પૂરી થયા પછી પુકિટ મેળવીને માતાના શરીરમાંથી બહાર આવે છે તેમાં કાઈ Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिज्ञानिरूपणम् እና जप्रणयंति' स्त्री भावमेके जनयन्ति - स्त्री स्वरूपेण समुत्पद्यते - जन्म गृह्णन्ति 'पुरिसं वेगया जणयति' पुरुषभावमेके जनयन्ति पुरुषरूपेणाऽपरे समुत्पद्यन्ते, 'पुं सगं वेगया जणयंति' नपुंसकभावमेके जनयन्ति नपुंसकरूपेण समुत्पद्यन्ते, 'ते जीवा डहरा समाणा' ते जीवाः गर्भनिर्गता बालाः 'सन्तः 'माउक्खीरं सर्पिपट आहारे ति' मातुः क्षीरं- दुग्धं सर्वियाऽऽहारयन्ति-मातुरुदरान्निःसृताः मातुः स्तनाभ्यां निरसृतं दुग्धं वालरूपेण वृद्धाः सन्तः सर्पि घृतमाहारयन्ति, 'आणु:पुवेणं बुड्ढा ओयणं. कुम्मासं उसथावरे य पाणे ते जीवा आहारे ति' गर्भान्निर्ग च्छन्तः पूर्वजन्माभ्याससंस्कारवशात् स्तन्यं पिवन्तो विकशन्तः, आनुपूर्व्येण क्रमशः प्रवृद्धाः ओदनकुल्मापादिकं सस्थावरांव माणान् अन्नादौ पतितान् स्थावरान् जीवानां शरीराणि ते जीरा आहारयन्ति, 'ते जीवा अ हारेति पुढवीमरीरं जाव साविक संत' ते जीना आहारयन्ति पृथिवीशरीरं यावत् सःरूपीकृतं स्यात् पृथिव्यादिकायान भुक्त्वा तान् स्वस्वरूपेण परिणमयन्ति - इति । 'अवरे वियणं तेर्सि णाणाविहाणं मणुस्सगाणं' अपराण्यपि च खलु तेषां नानाविधानां मनुष्याणाम् 'कम्मभूमगाणं' कर्मभूमिकानाम् 'अम्म भूमगाणं' अकर्म भूमिकानाम् 'अंतर 1 बाहर आते हैं और कोई स्त्री रूप में, कोई पुरुष रूप में और कोई नपुंसकरुप में जन्म ग्रहण करते हैं। तत्पश्चात् वे माता के स्तनों से निक लने वाले दूध का आहार करते हैं और जब कुछ बडे हो जाते हैं तो घृत का आहार करते हैं । तात्पर्य यह है कि गर्भ से निकलते ही पूर्व जन्म के अभ्यास के संस्कार के वश से माता का दूध पीते हैं । फिर अनुक्रम से वृद्धि को प्राप्त होते हुए ओदन. (भात) कुल्माष तथा स और स्थावर जीवों का आहार करते हैं । वे जीव पृथ्वीकाय आदि के शरीरों का भक्षण करते हैं और उसे अपने शरीर के रूप में परिणतकरते हैं । उन कर्मभूमिज, अकर्मभूभिज, और अन्तदपज मनुष्यों के સ્ત્રીપણાથી, કૈાઈ પુરૂષ પશુાથી, અને કાઈ નપુંસક પશુાથી જન્મ ગ્રહણ, કરે છે. તે પછી તેઓ માતાના સ્તનેામાંથી નીકળતારા દૂધને આહાર કરે છે. અને જ્યારે કઇંક મેાટા થાય છે, ત્યારે ઘીને અ હાર કરે છે તાત્પ એ છે કે-ગમથી નીકળતાં જ પૂર્વજન્મના અભ્યાસના સસ્કાર વાત માતાનુ દૂધ પીવે છે, તે પછી અનુક્રમથી વધતા આદન (ભાત) કુમાાશ તથા ત્રસ અને સ્થાવર જીવાનેા આહાર કરે છે. તે જીવા પૃથ્વીકાય વિગેરેના શરીરનું લક્ષણ કરે છે. અને તેને પેાતાના શરીરપણાથી પરિાવે છે. તે Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ३९२ दीवगाणं' अन्तर्दीपकानाम् 'आरियाणं' अर्याणाम् 'मिलक्खुगं' म्लेच्छानाम् 'सरी' शरीराणि 'पाणावण्णा' नानावर्णानि भवतीति मक्खायं' भवन्तीत्याख्यातानि । "समुत्पद्यमाना जोवाः कर्मवशान्मातापित्रो विलक्षगसंयोगवशाद्गर्भभावं भजमानाः वात्स्वकर्मवश: स्त्रीपुन्नपुंसकाऽन्यतमतया जायनानाः उदरे मातृकवलितान्नरसभोक्तारः प्राप्य जन्मान्नादिविविध सोयं भुञ्जानाः अदन्ति वर्द्धन्ते इति सङ्कलितोऽर्थः ॥ ०१४२५६ ।। " पञ्चेन्द्रियेषु मोक्षाधिकारित्वान्मनुजजन्मवतां निरूपणमभिनीय पञ्चेन्द्रिय जलचरजीवानिर्णेतु सूत्रमारमते 'अहावर' इत्यादि । मूलम् - अहावरं पुरखायं णाणाविहाणं जलचराणं पंचिदियतिरिकखजोणियाणं, तं जहा-मच्छाणं जाव सुंसुमाराणं, तेसि च णं अहावीएणं अहात्रगासेणं इत्थीए पुरिसस्स य जो नाना प्रकार के होते हैं और कोई आर्य तथा कोई अनार्य होते हैं। उनके अनेक प्रकार के वर्णादि वाले शरीर होते हैं । अभिप्राय यह है कि उत्पन्न होने वाला जीव माता और पिता के विलक्षण संयोग से गर्भ अवस्था में आता है। तत्पश्चात् अपने कर्म के अनुसार स्त्री, पुरुष या नपुंसक में से किमी एक रूप में उत्पन्न होता है । वह जब माता के उदर में होता है तो माता के द्वारा किए हुए आहार के रस को ग्रहण करता है । जब उसका जन्म हो जाता है तो विविध प्रकार के भोज्य पदार्थों का उपभोग करता हुआ अनुक्रम से चढता है ॥ १४ ॥ ક ભૂમિમાં ઉત્પન્ન થવાવાળા, અકમ ભૂમિમાં ઉત્પન્ન થવાવાળા, અતરદ્વીપમાં ઉત્પન્ન થનારા મનુષ્ય જેએ અનેક પ્રકારના હોય છે. અને કઈ કઈ આ તથા કેાઈ અનાય હાય છે. અનેક પ્રકારના વદિવાળા શરીર હાય છે. કહેવાના અભિપ્રાય એ છે કે—ઉત્પન્ન થવાવાળા જીવો માતા અને પિતાના વિલક્ષણ સચાગથી ગભ અવસ્થામાં આવે છે. તે પછી પેાતાના ક્રમ પ્રમાણે સ્ત્રી પુરૂષ અથવા નપુસકમાંથી કાઇ એક રૂપે ઉત્પન્ન થાય છે. તે જ્યારે માતાના ઉદરમાં ડાય છે. તા માતા દ્વારા કરવામાં આવેલ આહા રના રસને ગ્રહણુ કરે છે. જ્યારે તેને જન્મ થઈ જાય છે, તે પછી અનેક પ્રકારના ભાત્ય પદાર્થોના ઉપભાગ કરતા થકા અનુક્રમથી વધે છે. સ્૦૧૪ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिज्ञानिरूपणम् . ३९३ ‘कम्मकडा तहेव जाव तओ एगदेसेणं ओयमाहारैति आणु घुव्वेणं वुड्डा पलिपागमणुपवन्ना तओ कायाओ अभिनिवट'माणा अंडं वेगया जणयंति पोयं वेगया जणयंति, से अंडे उब्भिजमाणे इतिथ वेयगा जणयांत पुरिसं वेयगा जणयंति णपुंसगं वेगया जणयंति ते जीवा डहरा संमाणा आंउसिणेहमाहारैति आणुपुत्रेणं वुड्डा वणस्संइकायं तसथावरे य पाणे, ते जीवा 'आहारैति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि' य गं तेसिं गाणा विहाणं जलचरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं मच्छाणं सुसुमाराणं "सरीरा णाणावण्णा जाव मक्खायं । अहावरं पुरक्खायं णाणाविहाणं चउप्पयथलयरपंत्रिदियतिरिक्खजोणियाणं, तं जहा-एगखुराणं 'दुखुराणं गंडीपयाणं सणप्फयाणं, तेसि च णं अहाबीएणं अहावगा'सेणं इत्थीए पुरिसस्स य कम्मकडा जाव मेहुणवत्तिए •णामं संजोगे समुप्पज्जइ, ते दुहओ सिंणेहं संचिण्णति, 'तत्थ णं जीवा इत्थित्ताए पुरिसत्ताए जाब विउदति, ते जीवा माओउयं पिउसुक्कं एवं जहा मणुस्साणं इत्थ पि 'वेगया जणयंति पुरिसंपि णपुंसगं पि, ते जीवा डहरा समाणा माउक्खीरं सपि आहारेंति आणुपुत्वेणं बुड्डा वणस्सइकायं तसथावरे य पाणे, ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं जाव 'संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं गाणाविहाणं चउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं एगखुरापां जाव सणप्फयाणं सरीराणाणावण्णा जाव मक्खायं। १०५० Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Fe सूत्रहतार अहारं पुरक्खायं णाणाविहाणं उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियनिरिक्ख जोणियाणं, तं जहा-अहीणं अयगराणं आसालियाणं महोरगाणं, तेसिं च णं अहा वीएणं अहा. बगासेणं इत्थीए पुरिसस्स जाव एत्थ णं मेहुणे एवं तं घेव, णाणत्तं अंडं वेगया जणयंति पोयं वेगया जणयंति, से अंडे उदिमजमाणे इस्थि वेगया जणयंति पुरिसं पि गपुसगं पि। ते जीवा डहरा समागा वाउकायमाहारैति आणुपुत्वेणं वुड्डा वणस्तइकायतलथावरे य पाणे, ते जीवा आहारैति पुढवि. सरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं जाणाविहाणं उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्ख जोणियाणं अहीणं जाव महोरगाणं सरीरा णाणावण्णा जाणागंधा जाव मक्खायं । अहावरं पुरस्खायं णाणाविहाणं 'भुयपरिसप्पथलयरपंचिं. दियतिरिक्व नोणियाण, तं जहा-गोहाणं नउलाणं सीहाणं सरडाणं सलाणं सरवाणं खराणं घरकोइलियाणं विस्संभराणं मुसगाणं मंगुमाणं पइलाइगाणं विगलियाणं जोहियाणं चउ. प्याइयागं, तेमि च णं अहावीएणं अवगासेणं इत्थीए पुरिसरस य जहा उग्परिसप्पाणं तहा आणियव्वं जाव मारूवि कडं संतं, अब वि य णं तेसिं जाणाविहाणं सुयपरिसप्पपंचिंदियवलयतिरिकवजोणियानं तं जहा-गोहाणं जाव मक्खायं । ____ हा पुरवावा णाणानिहाणं खचरपंबिंदियतिरिक्खजोणियाणं, नं जहा-चम्मगावीणं लोमपकावीण समुग्गपक्खीणं विनतपक्याणं तसिं च अहावीपणं अहावकासेणं इत्थीए Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिक्षानिरूपणम् ३९५ जहा उरपरिसप्पाणं नाणतं, ते जीवा डहरा समाणा भाउगात्त सिणेहमाहारति आणुपुठवेणं वुड्डा वणस्लइकायं तसथावरे य पाणे, ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं णाणाविहाणं खचरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं चम्मपक्खीणं जाव मक्खायं ॥सू० १५।५७॥ छाया-अथाऽपरं पुराख्यातं नानाविधानां जलचराणां पञ्चेन्द्रियतिर्यग्यो निकानाम्, तद्यथा मत्स्यानां यावत् शिशुमारागाम्, तेषां च खलु यथावीजेन यथाऽनकाशेन स्त्रिगः पुरुषस्य च कर्मकृतस्तयैव यावत तत एकदेशेन ओनमाहास्यन्ति । आनुपूया वृद्धाः परिपाकमनुप्राप्ताः ततः कायादभिनिवत्तमाना: अण्डमेके जनयन्ति पोतमेके जनयन्ति, तस्मिन् अण्डे उद्भिद्यमाने स्त्रियमेके जनयन्ति पुरुषमेके जनयन्ति, नपुंसकमेके जनयन्ति । ते जीवा दहराः सन्तः अपां स्नेहमाहारयन्ति आनुपूर्वा वृद्वाः वनस्पतिकायं त्रसस्थावरांश्च प्राणान ते जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीरं यावत् स्यात् । अपराण्यपि च खलु तेषां नानाविधानां जलचरपञ्चेन्द्रियतियग्योनिकानां मत्स्यानां शिंशुमाराणां शरीराणि नानावर्णानि यावदाख्यातानि । अथाऽपरं पुराख्यातं नानाविधानां चतुष्पदस्थलवरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां, तद्यथा-एकखुराणां द्विखुराणां गण्डीपदानां सनखपदानां, तेषां च खलु यथा बीजेन यथावकाशेन स्त्रिाः पुरुषत्य च कर्मकृतो यावन्मैथुनपत्ययिको नाम संयोगः समुत्पद्यते, ते द्वयोरपि स्नेहं संचिन्वन्ति, तत्र खलु जीवाः खीतया पुरुषतया यावद् विवर्तन्ते, ते जीवाः मातुरातयं पितुः शुक्रमेवं यथा मनुष्याणा स्त्रियमप्ये के जनयन्ति पुरुषमपि नपुंसकमपि । ते जीवा दहराः सन्त: मातुः क्षीरं सपिराहारयन्ति । आनुपू वृद्धा वनस्पतिकायं त्रसस्थावरांश्च प्राणान् ते जीवा आहारयन्ति प्रथिवीशरीरं यावत् स्यात् । अपराण्यपि च खलु तेषां नानाविधानां चतुरूपदस्थलवरपञ्चेन्द्रियतियंग्योनिकानाम् एकखुराणां यावत् सनखपदानां शरीराणि नानावर्णानि यावदाख्यातानि। अथाऽपरं पुराख्यातं नानाविधानामुरःपरिसर्प स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाम, तद्यथा-अहीनामजगराणामाशालिकानां महोरगाणाम् । तेषां च खलु यथा बीजेन यथाऽवकाशेन स्त्रियाः पुरुषस्य यावद् अत्र खलु - मैथुनमेवं तच्चैवाज्ञप्तम् । Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतासून अण्ड मेके जनयन्नि पोतमे के जनयन्नि, तस्मिन्नाडे उद्भिद्यमाने त्रि मे के जनयन्ति पुरुषमपि नपुंसकमपि । ते जीवा दहरा समः वायुकायमाहारयन्ति, आनुपा, वृद्धाः वनस्पतिकायान् त्रप्सस्थावरांश्च . प्राणान् । ते जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीर यावत् स्यात् । आराण्यपि च खलु तेषां नानाविधानामुरम्परिसर्प, स्थळचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानामहीनां यावन्महोरगाणां' शरीराणि नानावर्णानि नानागन्धानि यावदाख्यातानि । अथाऽपर पुराख्यातं नानाविधानां भुन गरिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतियम्योनिकानाम्, तद्यथा-गोधानां नकुलानां सिंहानां सरटानां सल्लकाना सरघाणां खराणां गृहको किलानां विश्वम्भराणां मूपकाणां मापाणां पदललितानां विडा. लानां योधानां चतुष्पदाम्, तेषां च खलु यथाबीजेन यथावकाशेन स्त्रियाः पुरुष स्य च यथा उरःपरिसी गां तथा भणितव्यं यावत् सारूपीकृतं स्यात् । अपरायपि च खलु तेषां नानाविधानां भुनपरिसर्पश्चेिन्द्रियस्थल वरतिर्यग्योनिकानां तयथा गोधानां यावदाख्यातानि । अथाऽपरं पुराख्यातं नानाविधानां ख वरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाम्, तद्यया. -चर्मपक्षिगां रोमपक्षिणां समुद्गपक्षिणां विततपक्षिणाम्, तेषां च खलु यथा वीजेन यथाऽवकाशेन स्त्रियाः यथा-उर-परिसाणामाज्ञप्तम् । ते जीवाः दहराः सन्तो, मातगात्रस्नेहमाहारयन्ति, आनुपूर्व्या वृद्धाः वनस्पतिकायं त्रास्थावरांश्च प्राणान। ते:जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीरं यावत् स्यात् । आराण्यपि च खलु तेषा.नाना. विधाना ख वरपञ्चेन्द्रियतिर्य योनि काना चर्मपक्षिणा याबदाख्यातानि ॥सू.१५ ५७॥ ___पञ्चेन्द्रिय प्राणियों में मनुष्य ही मोक्ष का. अधिकारी होता है, अतएव सर्वप्रथम उनका निरूपण किया गया है । अथवा यों कहना चाहिए कि पंचेन्द्रिय जीव मनुन्ध, तिर्यंच, देव और नरक, चारों गतियों में होते हैं । किन्तु सर्वविरति के अधिकारी मनुष्य पंचेन्द्रिय ही होते हैं। उनके बाद तिय चपंचेन्द्रिय ही. देशविरत के अधिकारी हैं। * પંચેન્દ્રિય પ્રાણિયોમાં મનુષ્ય જ મોક્ષને અધિકારી હિય છે, તેથી જ, સર્વ પ્રથમ તેનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે, અથવા એમ કહેવું જોઈએ કે –પંચેન્દ્રિય જીવ, મનુષ્ય, તિર્યંચ, દેવ, અને નરક ચારે ગતિમાં હોય છે, પરંતુ સર્વ વિરતિના અધિકારી મનુષ્ય પંચેન્દ્રિય જ હોય છે. તે પછી, તિ ચ પચેકિય જ દેશ વિરતિના અધિકારી છે તેથી જ ચારિત્રની દષ્ટિથી Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिशानिरूपणम् ३९७, ___टीका--अतः परं तिर्ययोनिझपञ्चेन्द्रियमत्स्यकूम गोधादीनां स्वरूपमुप.. वर्णयति सूत्रेऽस्मिन् । 'अहावर" अथाऽपर पुराख्यातं तीर्थकरेण 'णाणाविहाणं जलयराणं' नानाविधानां जलचराणाम्, 'पंबिंदियतिरिक्वजोणियाण' पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाम् 'तनहा तद्यथा 'मच्छागं जार सुमाराणं' मत्स्थानां यावत् शिंशुमाराणाम् . यापलदेन-जागोधानकरादीनां सग्रहः तथा च मत्स्पकर्म गोधा प्रभृतीनां शिशुमारपर्यन्तानां स्वरूपं निरूपयतीति, 'तेसिं च णं' तेषां च खल 'अहावी रणं हा कासेग' ययाजेन याकाशेन 'इत्योए पुरिसस य कम्मकडा तहेत जाव तमो एगदे मे गं भो माहो नि' लिगः पुरुाय च कर्मकृतस्तथैत्र यावत्-तत एकदेशेन ओजमाहारयन्ति ते जीना मातापित्रोः संयोगे जाते. सति सकतकर्म फलो भोगाय अतिर्यक्षु मत्ाद्यते । 'आणु वेण वुझा पलियाग: मणुपन्ना' आनुपूर्येण-क्रमशः प्रदाः परिपाफमनु पाप्ताः पुष्टि प्राप्ताः 'तभो कायाभो अभिनितागा' ततः कायान-भावारोराद् अभिनिवर्तमाना:-बहिरागअतएव चारित्र की दृष्टि से दूसरा नंबर तिर्यचों का है। इस कारण मनुष्यों का प्रतिपादन करने के पश्चात् तिय चपंचेन्द्रिय जीवों की प्रहपणा की जाती है । वे इस प्रकार हैं-'अहोवरं पुरक्खायं' इत्यादि । टीकार्थ-तीर्थकर भगवान् ने तिर्य योनिक मत्स्य, कर्म, गोधा आदि पंचेन्द्रिय जलचर जीवों का कथन किया है। वे इस प्रकार हैं: मत्स्य यावत् सुंस्तुमार । यहां 'यावत्' शब्द से कच्छप गोधा और मकर नामक जीवों का ग्रहण करना चाहिए। इन जीवों की उत्पत्ति बीज और अवकाश के अनुसार पूर्वकृत कर्म के उदय से स्त्री और पुरुष का संयोग होने पर स्त्रीकी योनि द्वारा होती है। इत्यादि सब कथन पूर्व બીજે નબર તિર્ય ચાનો છે. તે કારણે મનુવ્યોનું પ્રતિપાદન કર્યા પછી તિર્યંચ ५न्द्रिय लवोनु नि३५ ४२मा भाव छ, a मा प्रमाणे छ.--'अहा. वर पुरक्खाय' त्यादि ટીકાર્થ-તીર્થકર ભગવાને તિર્થં ચ એનિવાળા મત્સ્ય, કાચબા, ઘે વિગેરે પંચેન્દ્રિય જલચર–પાણીમાં રહેવાવાળા, જીવનું કથન કર્યું છે, તે આ પ્રમાણે છે –મસ્ય, યાવત્ સુસુમાર, અહિયા યાવત્ શબ્દથી કાચબા, છે, અને મઘર, નામના જીવો શ્રવણ કરાયા છે. આ જીવની ઉત્પત્તિ બીજ અને અવકાશ પ્રમાણે પૂર્વકૃત કર્મના ઉદયથી સ્ત્રી અને પુરૂષને સગ થવાથી સ્ત્રીની પેનિથી થાય છે. વિગેરે સઘળું કથન પૂર્વ સૂત્રમાં Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૮ सूत्रता सूत्रे च्छतो मातुरुदरात्, 'अंड वेगया नगयंति पोंग वेगया जगवंति' अण्डमे के जन यन्ति पोतमेके जनयन्ति, अण्डज । अत्स्यादयः पोतनाथाऽन्ये व्यवहिते, अण्डमुद्भिद्य निर्गच्छन्तः केचन स्त्रीभागमासादयन्ति - पुस्त्वं नपुंसकत्वमन्ये, 'ते जीवा डहरा समाणा आउसिणेहमाहारे ति' ते जीवाः दहरा :- बालभावमापन्नाः सन्तः अ स्नेहमाहारयन्ति । यावद बाल्यं प्राप्ताः जलस्नेहमा 'सुरभुजाना एव शरीरं पुष्णन्ति 'आणुब्वेगं बुडू ' आनुपूर्व्येण क्रमशः वृद्धा: - क्रमशो वाल्पमति क्रामन्तः, ‘न्रणम्सइकार्यं तस्थावरे य पाणे' वनस्पतिकार्य सस्थावरांच प्राणानाहारयन्ति, ते जीवा जळवराः 'आहरे' वि पुढविसरीरं जात्र संतं' पृथिवीशरीरं यात्रस्यात् पृथिव्यादीनां शरीरं भुक्त्वा स्वरूपे परिणमयन्ति 'अरे वि य णं' अपरा सूत्र के अनुसार समझ लेना चाहिए। यावत् गर्भ में स्थित वह जीव माता के द्वारा किये हुए आहार के रस को एकदेश से ग्रहण करता है । वह अपने कर्मों का फल भोगने के लिए जलचर तिर्यंचों में जन्म लेता है। गर्भ में अनुक्रम से बढ़ता हुआ और पुष्टि को प्राप्न होता हुआ वह माता के उदर से बाहर निकलता है । कोई अण्डज होता है, कोई पोतंज होता है । अण्डे के फटने पर जे जीव उससे बाहर आते हैं, उनमें कोई स्त्री, कोई पुरुष और कोई नपुंसक होते हैं। वे जब तक बालभाव अर्थात् बाल्यावस्था में रहते हैं तब तक जल के स्नेह का आहार करते हैं और अपने शरीर को पुष्ट करते हैं । जब अनुक्रम से बड़े होते हैं तो वनस्पतिकाय का तथा त्रस एवं स्थावर प्राणियों का કહ્યા પ્રમાણે સમજી લેવું. યાવત્ ગર્ભમાં રહેલ તે જીવ માતાએ કરેલા આહારના રસનું એક દેશથી ગ્રહણ કરે છે. તે પેાતાના કર્મોનું ફળ ભેગ વવા માટે જલચર તિય ચેમાં જન્મ લે છે. ગર્ભમાં અનુક્રમથી વધતા થકા અને પુષ્ટિ મેળવતા થકા તે માતાના ઉદરમાંથી મહાર નીકળે છે. તેમાં ફાઇ અ’ડજ–ઇડામાંથી થવાવાળા હાય છે, તેા કાઇ પાતજ હાય છે ઈંડાના ફૂટવાથી જે જીવો બહાર આવે છે, તેમાં કાઈ સ્રી કાઈ પુરૂષ અને કાઈ નપુંસક હાય છે, તેઓ જ્યાં સુધી માલભાવ અર્થાત્ માલ્યાવસ્થામાં એટલે કે નાનપણમાં રહે છે, ત્યાં સુધી જળના સ્નેહને આડાર કરે છે, અને પેાતાના શરીરને પુષ્ટ ખનાવે છે. અનુક્રમથી વધતાં વધતાં જ્યારે મેટા થાય છે, ત્યારે વનસ્પતિ કાયને તથા ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાણિયાના આહાર કરે છે. તે પૃથ્વીકાય વિગેરેને આહાર કરીને તેને પેાતાના શરીર રૂપે Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. अ. अ. ३ आहारपरिज्ञानिरूपणम् - ३९९ व्यपि च खल्ल 'तेर्सि' तेषाम् 'णागाविहाणं' नानावि गनाम् अनेकजातीयकानाम् 'जळचरपंचिदियतिरिक्खजोगियाणं मच्छाणं जाव सुंसुमाराणं सरीरा गाणाचवणा जाव मक्खायं' जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां मत्स्यानां कच्छपानां गोधानां शिशुमाराणां शरीराणि नानावर्णानि नानारसानि नानागन्धानि नानास्वर्शयुक्तानि यावदाख्यातानि कथन स्वकृतकर्मफलोपभोगाय कर्मवला जलचरपञ्चेन्द्रियमस्य खादिभावमापन्नो मतुरुदरे आगच्छति । तत्र मातृमुक्ताऽन्नरसेन शरीरं वर्द्धयन् काळे ततो निर्गत्य जलस्नेहेन शरीरं वर्द्धयिला तदनु त्रमादीन् जीवान् भक्षयन् जीवनयात्रां निर्वहति, एतेषां जीवानां नानावर्णरसगन्धवन्ति विभिन्नानि शरीराणि भवन्तीति तीर्थकृता आख्यातानि जलनरपञ्चेन्द्रियजीवानां स्वरूपं यथोत्पत्तिकं आहार करते हैं । वे पृथ्वीकाय आदि का आहार करके उसे अपने शरीर के रूप में परिणत करते हैं। उन नाना प्रकार के जलचर पंचे. न्द्रिय तिर्यंचयोनिक मच्छो कच्छपों, गोधों, मकरों तथा सुसुमारों के नाना वर्ण गंध रस और स्पर्श वाले अनेक शरीर कहे गए हैं। पर्य यह है कि कोई जीव अपने कर्मफल को भोगने के लिए कर्म के वशीभूत होकर जलचर पंचेन्द्रिय मत्स्य आदि पर्याय को प्राप्त होकर माता के उदर में आता है, वह वहां माता के द्वारा भोगे हुए रस से शरीर की वृद्धि करता हुआ समय आने पर बाहर निकलता है और जल के स्नेह से अपने शरीर की वृद्धि करता है। तत्पश्चात् 'वह बस आदि जीवों का भक्षण करता हुआ अपनी जीवन यात्रा का निर्वाह करता है। इन जीवों के नाना वर्ण रस गंध और स्पर्श वाले विभिन्न शरीर तीर्थकरों ने कहे हैं । પરિણમવે છે તે અનેક પ્રકારના જળચર ચેન્દ્રિય તિય ચચે નિવાળા માછલા, કાચખા ઘા, મઘા તથા સુસુમારના અનેક વર્ણ, ગંધ રસ અને સ્પેશ વાળા અનેક શરી! કહ્યા છે. તાય એ છે કે કે.ઈ જીવ પેાતાના કર્મના ફળને ભાગવવા માટે ક્રને વશ થઈને જલચર પચેન્દ્રિય મત્સ્ય, વિગેરેના પર્યાયને પ્રાપ્ત થઈને માતાના ઉદરમા આવે છે તે ત્યાં માતા દ્વારા ભાગવેલા રસથી શરીરની વૃદ્ધિ કરતા થકા સમય આવતાં બહાર નીકળે છે. અને જલના સ્નેહથી પેાતાના શરીરને વધારે છે તે પછી તે ત્રસ વગેરે જીવોનું ભક્ષણ કરતા થકા પેાતાની જીવન યાત્રાને નિર્વાહ કરે છે આ જીવોના અનેક વણુ, રસ, ગધ, અને સ્પવાળા જૂદા જૂદા શરીર તીથ કર ભગવાને કહ્યા છે. Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतास्त्र 'व्याख्याय स्थलचरचतुष्पदादिजवानां स्वरूप दर्शयितुमाह-'अहावरं पुरक्खायं अथाऽपरंपुगख्यातम्-अनेकजातीय स्थल वरचतुष्पदजीवविषये तीर्थ फरादिमिराख्यातम्। तदहं सुधम धामी जावूस्वामिने तुपं कथयामि 'गाणाविहाणं' नाना विधानाम् 'चउपायथल परपंचिंदियतिरिक्वनोणियाणं' चतुष्पदस्थलचरपञ्चे न्द्रयतिर्यग्योनिकानाम स्वरूपं तीर्थ कृताऽऽख्याव मिति पूर्वेणाऽन्वयः, 'त जहा' तयथा 'एग खुराण' एफखुराणाम् अत्रादीनाम् 'दुखुगणं' द्विखुशणाम्, गोमहिपादीनाम् 'गंडीपयाणं' गण्डीपदानाम्-फल पशगोलाकारपदानाम्-हस्तिगण्डकादीनाम्, "सणफयाणं सनखपदानाम्-व्याघ्रसिंह कादीनाम् 'तेसिं च ण अंहा यहां तक जलचर पंचेन्द्रिय जीवों के स्वरूप का उत्पत्ति से लेकर व्याख्यान करके अब स्थलचर चतुष्पद आदि जीवों का स्वरूप दिख. लाने के लिए कहते हैं अनेक जातियों वाले स्थलचर चतुष्पद जीवों के विषय में तीर्थ करों ने कहा है। हे जम्बू ! वही कथन मैं तुम्हें कहता हूं। ऐसा सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं। नाना प्रकार के चतुष्पद स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यचों का स्वरूप जो तीर्थंकर भगवान् ने कहा है। वह 'इस प्रकार है-स्थल चर चतुष्पद (भूमि पर चलने वाले चौपाये) कोई एक खुर बाले होते हैं, जैले घोड़ा आदि, कोई दो खुनों वाले होते हैं, जैसे-गाय, भैस आदि, कोई गंडीपद होते हैं, जैसे-हाथी गैंडा आदि, कोई नाखूनों से युक्त पैरों वाले होते हैं । जैसे-पाघ, सिंह भेड़िया આટલા સુધી જલચર પચેન્દ્રિય જીવોના સવરૂપને ઉત્પત્તિથી લઈને - કથન કર્યું છે. હવે સ્થલચર-જમીન પર રહેવાવાળા ચતુષ્પદ-ચાર પગેવાળા વિગેરે જીવોના સ્વરૂપ દેખાડવા માટે કહેવામાં આવે છે – અનેક જતવાળા સ્થળચર, ચોપગા જીવોના સંબંધમાં તીર્થકરેએ કહેલ છે કે જમ્બુ એજ કથન હવે હું તમને કહું છું –આ પ્રમાણે સુધ મસ્વામી જંબૂ સ્વામીને કહે છે. અનેક પ્રકારના ચેપગ સ્થલચર પચેન્દ્રિય તિય"નું સ્વરૂપ જે તીર્થકર ભગવાને કહેલ છે. તે આ પ્રમાણે છે –સ્થલ ચર ચેપગે (જમીન પર ચાલવાવાળા) કેઈ એક ખરીવાળા હોય છે, જેમ કે ઘોડા વિગેરે કઈ બે ખડીવાળા હોય છે, જેમ કે-ગાય, ભેંસ વિગેરે. કેઈ ડીપદ હોય છે, જેમકે-હાથી, ગેંડા વિગેરે. કોઈ નખવાળા પગેવાળા હોય છે. જેમ કે-વાઘ-સિંહ, વરૂ વિગેરે. આ જેની ઉત્પત્તિ પિતાને બીજ Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिशानिरूपणम् ४०१ वीएणं अहावहावगासेणं' तेषां च खलु यथाबीजेन यथाकाशेन स्वकीयबीजेन स्व. कीयावकाशेन च 'इत्थीर पुरिसस्म य त्रिपाः पुरुषस्य च 'कम्म जाव मेहुणवत्तिक णाम संजोगे समुप्पज्जई' कर्मकृतः कर्मवशेन कर्मकृतयोन्यां मैथुनप्रत्यपिको नाम: मैथुनकारणभूतः संयोगः समुत्पद्यते । समुत्पत्स्यमानजीवानां कर्ममेरितो मैथुन्यः स्त्रीपुरुषयो विलक्षणः संयोगो गर्भधारणपयोजको भवति. 'ते दुही सिणेहं संचि पणंति' ते-जीवामथमतो गर्भे द्वयोरपि स्नेह-मातापित्रोः स्नेहभावं सचिन्वन्ति" पाप्नुवन्ति । 'तत्थ गं जीवा इस्थिताए पुरिसत्ताए जाव विउठेति' तत्र खलु जीव:' स्त्रीतया पुरुषतया नपुंसकतया यावद्विवर्तन्ते । स्त्रीपुंमोविलक्षणसं नोगानन्तरं चतुष्पद जीवा गर्भ आगच्छन्ति, ते प्रथमतो मातापित्रोः स्नेहमेवोपभुञ्जते । तस्मिन् गर्भ ते-एकखुरादयः जीवाः स्त्रीभावेन पुरुषभावेन नपुंसकमावेन च यथा कर्म समुत्प. धन्ते 'ते जीवा मायो उये पिउसुक्कं एव जहा मणुस्साणं' ते जीवा मातुरात पितुः शुक्रमाहारयन्ति, एवं यथा मनुष्याणाम् । इतः पर मौ मनुष्यवज्ञेयम् । 'इत्थि पि वेगया जगयंति पुरिसं पि णमुपगं वि' स्त्रियमेके जनयन्ति, पुरुषमागि नपुंसकपि-एके पुरुषमपि जनयन्ति, एके नपुंसकमपि जनयन्ति-ते जीवाः स्त्रीतया पुरुषतया नपुंसकतया च तत्तद्रूपेण समुत्पद्यन्ते, 'ते जीवा डहरा समाणा आदि। इन जीवों की अपने बीज और अवकाश (स्थान) के अनुसार स्त्री पुरुष का कर्मकृत योनि में मैथुन प्रत्ययिक संयोग होने पर उत्पत्ति होती है, अर्थात् जय कोई जीव उत्पन्न होने वाला होता है तो स्त्री और पुरुष का कर्म के उदय से प्रेरित मैथुन नामक विलक्षण संयोग होता है, उस संयोग के कारण गर्भधारण होना है। जीव उस गर्भ में उत्पन्न होता है। सर्व प्रथम वह माता पिता के स्नेह (रज वीर्य) का उपभोग करता है। उस गर्भ में वह जीव स्त्री, पुरुष या नपुंसक के रूप में कर्म के अनुसार उत्पन्न होता है। इत्यादि सब कथन मनुष्य के समान समझना चाहिए। स्पष्ट होने से तथा विस्तार से बचने के लिए અને અવકાશ (સ્થાન) પ્રમાણે સ્ત્રી અને પુરૂષના કમકૃત યોનિથી મૈથુન સંબંધી સંયોગ થવાથી થાય છે અર્થાત્ જ્યારે કંઈ જીવ ઉત્પન્ન થવાના હોય તે સ્ત્રી અને પુરૂષના કર્મના ઉદયથી પ્રેરિત મૈથુન નામને વિલક્ષણ સંયોગ થાય છે. તે સગના કારણે ગર્ભ ધારણ થાય છે જીવ તે ગર્ભમાં ઉત્પન્ન થાય છે. સૌથી પહેલાં તે માતા પિતાના નેહ (રજવાય) નો ઉ૫ ભંગ કરે છે તે ગર્ભમાં તે જીર સ્ત્રી, પુરૂષ, અથવા નપુંસકના રૂપથી કર્મ પ્રમાણે ઉત્પન્ન થાય છે. વિગેરે સઘળું કથન મનુષ્ય પ્રમાણે સમજવું. સ્પષ્ટ स० ५१ Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे 2 माउक्खीरे सप्पि आहारे दि' ते जीवः दहराः - बालाः सन्तः मातुः क्षीरं सर्पि राहारयन्ति बालकाले मातृम्वन्धि दुगादिकं भुञ्जते इत्यर्थः, 'आणुपुवेणं बुड्डा चणस्सइकार्य तावरे व पाणे' आनुपूर्येण - क्रमशः मवृद्धास्ते जीवाः-वनउपविकार्यं स्थावरंथ प्राणानाहारयन्ति, 'ते जीवा आइारेति पुदवीसरीरं जाव संत' ते जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीरं यावरस्यात्, ते जीवाः पृथिव्यादीनां शरीरं भक्षयन्ति-मक्षयित्वा च तान्यात्मसात्कृत्वा स्वस्वरूपेण परिपाकमन्त भव्य परिणमयन्तीत्यर्थः । 'अपरे वि य णं' अवराम्यपि च ख 'तेर्सि' तेषाम् 'पाणात्रिहाणं च उपययल रप विदियतिरिवख गोणियाणं' नानाविधानां चतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाम्, 'एमखुराणं' एकखुराणाम् 'जाव' यावत्द्विखुराणां गण्डीपदानाम् 'सहया' सनानाम् 'सरीरा शरीराणि 'नानाaण्णा' नानावर्णानि 'जाव मक्खायें' यावदाख्यातानि अनेकजातीयस्थळचरचतुपदानामपराण्यपि शरीराणि नानावर्णरसगन्धस्पर्शयन्ति भवन्तीति, एक ही विषय को बार-बार प्रत्येक पाठ में विस्तार से कहने की आवश्यकता नहीं है । इन जीवों में से कोई स्त्री रूप में, कोई पुरुषरूप में और कोई नपुंसक रूप में उत्पन्न होते हैं। वे जब छोटे होते हैं तो माता का दूध आदि पीते हैं । अनुक्रम से जब बडे होते हैं तो वनस्पतिकाय तथा स और स्थावर जीवों का आहार करते हैं । वे पृथ्वी आदि के शरीर का भक्षण करके उसे अपने शरीर के रूप में परिणत कर लेते हैं । इन नाना प्रकार के चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के, जो कि एक खुर वाले दो खुगे वाले, गंडीपद या नख सहित पैर वाले होते हैं, उनके शरीर नाना वर्ण आदि वाले कहे गए हैं। હાવાથી તથા વિસ્તાર ભયથી એક જ વિષયને વારવાર દરેક પાઠમાં વિસ્તાર પૂર્વક કહેવાની જરૂર રહેતી નથી આ જીવેામાંથી કાઇ શ્રી પણાથી કાઇ પુરૂષ પણાથી તા કેઈ નપુંસક પણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. તે જ્યારે નાના હાય છે, ત્યારે માતાનું દૂધ વિગેરે પીવે છે. અનુક્રમથી જ્યારે મેડા થય છે, તે વનસ્પતિક ય તથા ત્રસ અને સ્થ વર જીવાને આહાર કરે છે. તેએ પૃથ્વી વિગેરેના શરીરને આહાર કરીને તેને પેાતાના શરીરપણાથી પરિણુમાવે છે આ અનેક પ્રકા રના ચાપગા થલયર ૫ ચેન્દ્રિય તિય ચાના કે જેએ એક ખરીવાળા, એ ખરીવાળા, ગ’ડીપદ, અથવા નખવાળા પગાવાળા હાય છે. તેઓના શરીર અનેક વર્ષોં વગેરેથી યુક્ત હાય છે. Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि श्रु. अ. ३ आहारपरिशानिरूपणम् ४०३ ___ चतुष्पदपश्चेन्द्रियाणां स्वरूपमुपवयं सदीनापुर परिसणां स्वरूपोप वर्णनमाह-'अह' अथानन्तरम् 'गाणाविहाण' नानाविधानामने जातीगानाम् 'उरपरिसप्पथलयरप चिंदियतिरिक्खजोणियाण' उर-परिसर्प स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाम् 'अवर' अपर स्वरूपभेदादिकश्च 'पुरक्खाय' पुराख्यातम्, तीर्थकरपादैः 'तं जहा' तथा 'अहीणं' अहीना-सर्पाणाम् 'अयगराणं' अजगराणाम् 'आसालिपाण' आशालिकानाम् 'महोरगाणं' महोरगाणाम्-महासर्माणाम् 'तेसिं च ण' तेषां च खलु 'अहावीएण' यथाबीजेन 'अहाकासे यथावकाशेन 'इत्थीए' स्त्रियाः 'पुरिसस्स य' पुरुषस्य च 'जाव एत्थ णं मेहुणे' यावदत्र खलु मैथुनम्, 'एवं तं चेव जाणत्तं' एवं तच्चेवाज्ञप्तम् । इमे सर्पाः उत्पत्तियोग्यवीजा. वकाशाभ्यां समुत्पद्यन्ते तथा-एमपि स्त्रीपुंसोः पारस्परिको मैथुननामा विलक्षणः संयोगो जायते, तादृशे जायमाने संयोगे कर्ममेरिता जीवा एतेषां योनिषु समुत्पधन्ते, शेषं पूर्ववद्वगन्तव्यम् । एषु उरस्परिसपेंषु 'अंडं वेगया जणयंति' अण्ड मेके ___चतुष्पद पंचेन्द्रियों के स्वरूप का वर्णन करके सर्प आदि उपरि सर्प जीवों का स्वरूप कहते हैं। इसके अनन्तर नाना प्रकार के उर:परिसर्प स्थलचर तिर्यंच पंचे न्द्रियों के स्वरूप एवं भेद आदि का कथन तीर्थंकरों ने किया है। वह इस प्रकार है-सर्प अजगर, आशालिक और महोरग (महासर्प) आदि की अपने बीज और अवकाश के अनुसार उत्पत्ति होती है। इनमें भी स्त्री पुरुष का परस्पर में मैथुन नामक संघोग होता है, इल संयोगके होने पर कर्म के द्वारा प्रेरित जीव योनि में उत्पन्न होते हैं। शेष-सव कथन पहले के समान ही समझ लेना चाहिए। इनमें कोई अण्डे को પગ પચેન્દ્રિય જીવોના સ્વરૂપનું વર્ણન કરીને સર્પ વિગેરે ઉપરિસર્પ વિગેરેનું સ્વરૂપ બતાવે છે. આ પછી તીર્થકર દ્વારા અનેક પ્રકારના ઉરઃ પરિસર્પ, સ્થલચર તિયચ પંચેન્દ્રિનું સ્વરૂપ અને ભેદ વિગેરેનું કથન કરવામાં આવેલ છે. તે આ પ્રમાણે છે –સર્પ, અજગર, આશાલિક અને મહારગ (મહાસ૫) વિગેરેની ઉત્પત્તિ પિતાના બીજ અને અવકાશ અનુસાર થાય છે. તેમાં પણ સ્ત્રી, પુરૂષને પરસ્પરમાં મૈથુન નામનો સંયોગ થાય છે. આ પ્રકારનો સંયોગ થવાથી, કર્મ દ્વારા પ્રેરિત જીવ યોનિથી ઉત્પન્ન થાય બાકીનું સઘળું કથન પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે જ સમજી લેવું જોઈએ. તેમાં કેઈ ઇડને ઉત્પન્ન કરે છે. કેઈ પાત-બચ્ચું–ઉત્પન્ન કરે છે. ઇંડુ ફૂટવાથી Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रताछ जनयन्ति, 'पोयं वेगया जाग यंति' पोतमे के जनयन्ति, ‘से अंडे उभिज्नमाणे इन्धि वेगया जणगी' तस्मिन्नाडे-उद्भिद्यमाने-स्फुटिने सति एके स्त्रियम्स्त्रीजातीक जनयन्ति, 'एगे पुरिसं वि पुंमगं पि' पुरुषमपि नपुंसकमपि जनयन्तीति, समुत्पद्यन्ते, शुक्राधिक्ये पुरुषो भवति शोणिताऽधिक्ये सी भवति, शुक्रशोणितयोः समत्वे नपुंसको जायने, कर्मपमावादेव यथायथं जननं जीवानापू तत्र तु बाह्य कारणानां गौणत्यमे वेतितारः । 'ते जीवा डहरा साणा वाउकायमाहारेति' समुत्पन्नाः अण्डानिधि वहिरागता स्ते जीवाः सर्पदहरा:-बाला: सन्तो वायुकायमाहारयन्ति, 'आणुपुव्वेणं बुडा' आनुपूर्वेण-क्रमशो बदमाना वृद्धाः, 'वणस्मइकायं तसथावरपाणे' वनस्पतिकायं उमस्थावरमाणान् क्रमशः प्रवर्द्ध मानाः सादिनीवाः वनस्पतित्रसस्थावरकायान् यथारूचि यथालाभमाहार-यन्तो जीनयात्रां निर्वहन्ति । 'ते जीवा आहारे ति पुढवोसरीरं नाव संत' ते जीवा: पृथिव्यादिशरीराण्यपि भुतानाः तानि स्वालमा स्पशरीररूपेण परिणम उत्पन्न करते हैं। कोई पोत को प्रसन्न करते हैं । अण्डे के फटने पर कोई स्त्री, कोई पुमप और कोई नपुंसक के रूप में उत्पन्न होते हैं। शुक्र की अधिकता हो तो पुरुष होता है, शोणित की अधिकता होने पर स्त्री और शुक्र शोणितकी समानता होतो नपुंसक होता है। इनके पुरुष आदि होने में प्रधान एवं अंतरंग कारण तो कर्म ही है। शुक्र शोणित आदि वाह्य कारण गौण हैं। ___जब ये सर्प आदि जीव अण्डे से बाहर आते हैं और बालक होते हैं वायुकाध का आहार करते हैं। कम से बडे होने पर वनस्पतिकाय तथा त्रस और स्थावरकाय का अपनी रुचि एवं प्राप्ति के अनुसार आहार करते हुए जीवनयात्रा का निर्वाह करते हैं । पृथ्वी आदि का उप કિઈ સ્ત્રી, કેઈ પુરૂષ, અને કઈ નપુંસક પણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. શુક્રનું અધિકપણું હોય તે પુરૂષ અને શેણિતનું અધિક પણું હોય તે સ્ત્રી ઉત્પન્ન થાય છે તથા શુક્ર અને શેણિતનું સરખા પણું હોય તે નપુંસક થાય છે. તેઓના પુરૂષ વિગેરે હેવામાં મુખ્ય અને ખાસ કારણ તે કર્મ જ છે. 'शु, शुत विशेरे तो मी २५ . જ્યારે આ સર્પ વિગેરે જીવો ઈડામાંથી બહાર આવે છે, અને બાળક હોય છે, ત્યારે વાયુકાયને આહાર કરે છે, અને કમથી મોટા થાય ત્યારે વનસ્પતિકાય તથા ત્રસ અને સ્થાવર કાયને પિતાની રૂચી અને પ્રાપ્તિ પ્રમાણે આહાર કરતા થકા જીવન યાત્રાને નિર્વાહ કરે છે. પૃથ્વી વિગેરેને Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्थबोधिनी टीका द्वि. थु. अ. ३ आहारपरिशानिरूपणम् ४४५ F यन्ति, अन्य सर्व मनुष्यमकरण ज्ज्ञातव्यम् 'अवरेऽ वि यणं' अपराण्यपि च खलु 'तेर्सि' तेषां सर्प जीवानाम् 'उरपरिसप्पथलपरपं विदियतिरिक्ख जोणियाणं' उः परिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाम् 'बहीण' अहीनाम् 'जाव महोरगाण यावद् - अजगराशालिकमहोरगाणाम्, 'सरीरा' शरीराणि 'णाणावण्णा' नानावर्णानि 'नानागंधा' नानागन्धानि 'जाव मक्खायें' यावदाख्यातानि । अयमाशयः - उपः परिसर्पादारभ्य महोरगपर्यन्तानां स्थलचरपञ्चेन्द्रि तिर्यग्योनिकजीवानां विभिन्न नानावर्णरसगन्धस्पर्शवन्ति अपराण्यपि च खल शरीराणि भवन्तीति । उः परिसर्पादीन्नरूप भुजपरिसर्पाणां स्त्राणि दर्शयितुमाह- 'हावर पुरक्खायं' अथाऽपर पुराख्यातम्, इतः परं पृथिव्यां सञ्चरणशीलानां पञ्चेन्द्रियजीवानां स्वरूपमाख्यातं वीर्थ करेण 'णाणाविहाणं' नानाविधानाम् 'भुयपरिसप्पयल यरपचिदियतिरिकखजोणियाणं' भुनपरिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाम् 'तं जहा तद्यथा - 'गोहाण' गोवानाम् 'नउलाणं' नकुलानाम् 'सीहाणं' सिंहानाम् 'सर भोग करके ये जीव उसे अपने शरीर के रूप में परिणत करते हैं इत्यादि सब वक्तव्यता मनुष्य के प्रकरण के अनुसार समझ लेना चाहिए। सर्प यावत् महोरग आदि उरपरिसर्प स्थलवर पंचेन्द्रिय तिर्यचों के नाना वर्ण, गंध, रस और स्पर्श वाले शरीर होते हैं। इस प्रकार उरपरिसर्प, सर्प आदि का निरूपण करके भुजपरिसर्पों का स्वरूप दिखलाते हैं- 'अहावरं पुरक्खायं णाणाविहाणं भुपरिसप्प०' इत्यादि । तीर्थंकर भगवान् ने नाना प्रकार के स्थलचर भुजपरिसर्प पंचे'न्द्रिय तिर्यों का स्वरूप कहा है। वे इस प्रकार है - गोह, नकुल, --ઉપભેગ કરીને આ જીવા તેને પેાતાના શરીર રૂપે પરિણુમાવે છે. વિગેરે સઘળું કથન મનુષ્યના પ્રકરણમાં કહ્યા પ્રમાણે સમજી લેવુ' સપ યાવત્ મહારગ વિગેરે ઉરઃ પરિસપ,સ્થલચર પચેન્દ્રિય તિય ચાના અનેક પ્રકારના वार्थ, गंध, रस, भने स्पर्शवाजा शरीरो होय छे. આ રીતે ઉરઃ પરિસ, સર્પ વિગેરેનુ નિરૂપણુ કરીને ભુજ પરિસ પાંનુ સ્વરૂપ હવે સૂત્રકાર બતાવે છે ~ अहावरं पुरखाय णाणाविहाणं भुयपरिसम्प०' त्याहि તીર્થંકર ભગવાને અનેક પ્રકારના સ્થળચર ભુજ પરિસપ પંચેન્દ્રિય तिर्यन्यानु स्त्र३५ उडेल छे. ते मामा समन्वु, घो, नोणीया, सिंह, Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्र डाणं' सरटानाम् 'सल्लाणं' शल्लकानाम् 'सरघाणं' सरघाणाम् ‘ख राण' खराणाम् , नकुलवच्चलनशीलानाम् 'घरकोइलिशण' गृहकोकिलानाम् 'विस्संभराणं' विश्वम्भराणाम्-जन्तु विशेषाणाम् 'मुसगाणं' मुपकाणाम् 'मंगुसाणं' मङ्गुपाणाम्-न. कुलजातिविशेषाणाम् 'पइलाइयाणं' पदलालितानाम्-हस्तबलचळनशीलसर्पनातीनाम् 'विरालियाणं' विडालानाम् 'जोहीयाणं' योधिकानाम्-जन्तुविशेषाणाम् 'चउप्पाइयाणं' चतुष्पदाम् , 'तेसि च णं' तेषां च खलु 'अहावीएणं' यथावीजेन 'अहाबकासेणं' यथाऽनकाशेन 'इत्थीए पुरि तस्स य' स्त्रियाः पुरुषस्य च 'जहाउरपरिसप्पाणं तहा भाणिय' यथोर परिसणां भणितं तथा भुनपरिसणामपि भणितव्यम् 'जाव सारूविकडं संत' यावत्सारूपी कृतं स्यात् , मनुष्यप्रकरण. वज्ज्ञातव्यम् , तथाहि-कर्मकृतयोनौ अत्र मैथुनमत्यायिको नाम संयोगः समुत्पद्यते ते जीवा द्वयोरपि मातापित्रोः स्नेहं संचिन्वन्ति तत्र जीवाः स्त्रीतया पुरुषतया नपुंसकतया विवर्तन्ते, ते जीवाः मातुरात पितुः शुक्रं तदुभयं संसृष्टम्-ऋतुवाय मिश्रितं, कलुषम् , किल्पिम्-घृणायुक्तं प्रथमतया आहारयन्ति, ततः पश्चात् सा माता नानाविधान रसान्वितान् आहारानाहारयति, ततस्ते जीवा एकदेशेन सिंह, सरट, शल्लक, सरघ, खर (जो नकुल के समान चलते हैं), गृहकोकिला (छिपकली), विश्व भर (विसभररा), मृपक, मंगुस (एक जाति का नकुल) पदललित (पदल), बिडाल, योधिक और चतुष्पद आदि । इन जीवों की चीज और अवकाश के अनुसार उत्पत्ति होती है इत्यादि कथन पूर्ववत् जान लेना चाहिए। ___तात्पर्य यह है कि कर्मकृत योनि में मैथुन प्रत्ययिक नामक संयोग उत्पन्न होता है। तदनन्तर वहां जीव स्त्री, पुरुष और नपुंसक के रूप में उत्पन्न होते हैं। सर्व प्रयत्न वे माता पिता के रजवीय का आहार करते हैं। पश्चात् माता जो नाना प्रकार के रस वाला आहार करती है, उसमें स२५, २८3 A२५, १२, (२ नजियानी कम या छ.) शोधि: (७५४टीगराली) विश्वम२ (विसम२१) भूप: (१२) भ'शुस (मे प्रश्नो नजिये।) પદલલિત (પદ) બિલાડી ધિક અને ચેપગા વિગેરે. આ જીવોની ઉત્પત્તિ બી અને અવકાશ પ્રમાણે થાય છે. વિગેરે કઘન પૂર્વવ–પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે સમજી લેવું. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે-કર્મકૃત એનિમાં મૈથુન, પ્રત્યયિક નામને ગ ઉત્પન્ન થાય છે. તે પછી ત્યાં જીવ સ્ત્રી, પુરૂષ અને નપુંસક પણાથી ઉત્પન થાય છે. સૌથી પહેલાં તેઓ માતા પિતાના રજ અને વીર્યને આહાર કરે છે. તે પછી માતા જે અનેક પ્રકારના રસવાળો આહાર કરે છે. Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०७ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिज्ञानिरूपणम् ओज आहारयन्ति, आनुपूर्येण वृद्धाः परिपाकमनुप्राप्ताः ततः कायान्निस्सन्तः स्त्रीभावमेके जनयन्ति पुरुषभावमेके जनयन्ति नपुंमकभावमे के जनयन्ति, ते जीवा बालाः मातुः क्षीरं सर्पिराहारयन्ति, क्रमशो वृद्धा ओदनं कुरमापं त्रसस्थावरांच प्राणानाहारयन्ति पृथिवीशरीरं यावत् सारूपीकृतं स्यादिति । 'अवरेऽचि य णं' अपराण्यपि च खलु 'वेसि णाणाविहाणं' तेषां नानाविधानाम् 'भूयपरिसप्प थळयरपंचिदियतिरिक्खाणं' भुजपरिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रिगतिरखाम्, 'गोहाणं' जान मक्खा' गोधानां यावदाख्यातानि सर्वपत्रस्यवर्णनं पूर्वोक्त विज्ञेयम् । अस्मिन् प्रकरणे खेचरपक्षिणां स्वरूपं भेदादिकं च निरूपयितुमाह- 'अहावरं ' अथाऽपरम् ' पुरकखायं' पुराख्यातम् ' णाणाविहाणं' नानाविधानाम्, 'खचरपंचिदियतिरिक्तोणियाण' खवरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाम् 'तं जहां' तद्यथासे एक देश से ओज आहार करते हैं। फिर क्रम से बढते हुए जब परि पक्वता को प्राप्न होते हैं तो माता के उदर से बाहर निकलते हैं, एवं कोई पुरुष के, कोई स्त्रीके और कोई नपुंसक के रूप में जन्म लेते हैं । वे जीव जब बाल्यावस्था में रहते हैं तो माता के दूध का आहार करते हैं । अनुक्रम से जब बडे होते हैं तो ओदन, कुल्माष तथा त्रस एवं स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं और उसे अपने शरीर के रूप में परिणत करते हैं । उन गोह आदि भुजपरिसर्प स्थलचर तिर्यच पंचेन्द्रिय जीवों के नाना वर्ण रस गंध स्पर्श वाले अनेक शरीर होते हैं, ऐसा कहा गया है। अब खेचर पक्षियों के स्वरूप एवं भेद आदि को प्ररूपण करते हैं - 'अहावरं पुरखायं णाणाविहाणं खचरपंचिदिय०' इत्यादि । તેમાથી એકદેશથી એજ આહાર કરે છે. તે પછી ક્રમથી વધતાં ય રે ત્રિપકવ થાય છે, ત્યારે માતાના ઉદરમાંથી બહાર નીકળે છે. કેાઈ પુરૂષપણાથી, કઈ સ્ત્રી પણાથી, અને કોઇ નપુસક ણાથી જન્મ લે છે. તે જીવે. જ્યારે ખાલ્પ અવસ્થામાં રહે છે, ત્યારે માતાના દૂધના આહાર કરે છે અને અનુક્રમથી મેાટા થાય છે ત્યારે ભાત, કુમાષ, તથા ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાણિયોનેા આહાર કરે છે અને તેને પેાતાના શરીરપણાથી પરિણમાવે છે. તે ઘા વિગેરે ભુજ પરિસપ` સ્થલચર તિય ચ પચેન્દ્રિય જીવેાના અનેક વણુ, રસ, ગધ સ્પર્શવાળા અનેક શરીરો હોય છે એ પ્રમાણે કહેલ છે. હવે ખેચર—આકાશમા ફરનારા પક્ષિયોના સ્વરૂપ અને ભેદ વિગેરેનુ नियछ ४२वामां आवे छे. - ' अहावर' पुरक्खायं णाणाविहोणं खचरपचिदिय० * Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्रकृतान सूत्रे 'खो' चर्मपक्षिणाम् 'चादर' इति लोके सिद्धानाम् 'लोकवीणं छोमुपक्षिणाम्, लोमै प्रधानं येषां तादृशानां गगनचर काकगृद्रादीनाम् 'समुग्गपक्खी' समुद्रपक्षिणाम् 'चितनपत्रावीणं' चिततपक्षिणाम्, एतेषां विभि पक्षिणामुत्पत्तिविषये तीर्थकृता एवं कथितम् । तथाहि - ' तेचि णं अहावीएणं अहावगासेणं' तेषां च खलु चर्मपक्षिप्रभृतिकानां यथावीजेन यथावकाशेन इत्यीए स्त्रियाः पुरुषस्य त्रासमुत्पत्ति भवतीति । 'जहा उपरिसप्पाणं यथोरः परिप तथैवेाऽपि सर्वं बोध्यम् । 'णाणत्तं' आज्ञप्तम् - कथितमिति यावन् 'ते जीवा डहरा समाणा माउगाच सिणेहमाहारेति' ते जीवा दहराः बालाः सन्तः गर्भा द्विनिःसृता यावद्धालयं मातुःशरीर स्नेहमेवाऽऽहारयन्ति, 'आणुपुब्वेणं बुडवण सइकार्यं तस्थावरे य पाणे' आनुर्व्या क्रमशो वृद्धाः - प्रवर्द्धमानाः वनस्पतिकाय मपरान् सस्थावरांथ माणान् आहारयन्ति । 'ते जीवा आहारेंवि पुढवीमरीरं जात्र संत' ते जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीरं यावत् स्यात्, एतेवां भक्षणं कृत्वा तानि ४०८ - तीर्थंकर भगवान् ने चर्मपक्षी (चमगादड़), लोमपक्षी (रोमों की प्रधा नता वाले काक गीध आदि पक्षी), समुद्गपक्षी, वितनपक्षी आदि खेचर पचेन्द्रिय निर्य चों का कथन किया है। इन पक्षियों की बीज के अनु सार और अवकाश के अनुसार ही उत्पत्ति होती है । उरपरिसर्प जीवों के विषय में जो कथन किया गया है, वही सब यहां भी समझ लेना चाहिए। ये जीव जब गर्भ से बाहर आते हैं और छोटे होते हैं, त माता के शरीर के स्नेह का आहार करते हैं ! अनुक्रम से बडे होने पर वनस्पतिकाय तथा त्रस स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं । इस प्रकार वे पृथ्वी शरीर आदि का आहार करके उसे अपने शरीर आदि इत्यादि तीर्थ ५२ लगाने समपक्षी (अमगाइड) रोमपक्षी (राम - ३वाडाવાળા) એટલે કે કાગડા ગીધ વિગેરે) પક્ષી સમુદ્ર પક્ષી વિતત પક્ષી વિગેરે ખેચર ૫'ચેન્દ્રિય તિય ચાનુ કથન કરેલ છે. આ પક્ષિઓની ઉત્પત્તિ ખીજ પ્રમાણે અને અવકાશ પ્રમાણે જ થાય છે. ઉંરઃ પરિસપ` જીવેાના સાંબધમાં જે કથન કરવામાં આવેલ છે, તેજ સઘળુ' કથન અહિયાં પણ સમજી લેવું. આ જીવે! જ્યારે ગર્ભમાંથી મહાર આવે છે, અને નાના હૈાય છે, ત્યારે માતાના શરીરના સ્નેહના આહાર કરે છે. અનુક્રમથી મોટા થયા પછી વનસ્પતિકાય તથાસ સ્થાવર વિગેરે પ્રાણિયાના આડાર કરે છે આ રીતે તે જીવા પૃથ્વી શરીર વિગેરેના આહાર ફરીને તેને પેાતાના શરીર વિગેરે Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिक्षानिरूपणम् . ४०६ शरीराणि स्व स्वस्त्रगेण परिणमयन्ति, अनापि उर:परिसर्पपकरणं द्रष्टव्यम् , 'अवरेऽवि य गं' अपराण्यपि च खलु तेसिं' तेषाम् ‘णाणाविहाणं' नानाविधा नाम् 'खचरपंचिदियतिरिक्खजोणियाण' खवरंपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाम् , 'चम्म पैक्खीण' चर्मपक्षिणाम् 'नाव मक्खाय यावल्लोमपक्षिसमुद्गविततानामाख्यातानि, तेषां पक्षिणामपराप्यपि नानावर्णरसगन्धस्पर्शयुक्तानि शरीराणि भवन्तीति तीर्थकृता प्रतिपादितानि, अन्यसवै पूर्वदिशाऽवसेयम् इति ॥९० १५॥५७॥ । मूलम्-अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता णाणाविहजोणिया णाणाविहसंभवा जाणाविहवुकमा तज्जोणिया तस्संभवा तद्वकमा कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थ वुकमा जाणाविहाणं तसथावराण पोग्गलाणं सरीरेसु वा संचित्तेसु वा अंचित्तेसु वा अणुसूयत्ताए विउदृति, ते जीवा तेर्सि णाणाविहाणं तसंथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेति, ते जीवा आहारैति पुढवीसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेति तप्तथावरजौणियाणं अणुसूयगाणं सरीरा णाणावण्णां जाव मक्खायं। एवं दुरूवसंभवत्ताए, एवं खुरदुगत्ताए ॥सू० १६।५८॥ छाया-अथाऽपरं पुराख्यातमिहै के सत्त्वाः नानाविधयोनिकाः नानाविधंसम्भवाः नानाविधव्युत्क्रमाः, तद्योनिका स्तरसम्भवा स्तदुपक्रमाः कर्मोपगाः कर्मनिदानेन तत्र व्युत्क्रमाः, नानाविधानां त्रसस्थावराणां पुद्गलानां शरीरेषु वा सचित्तेषु वा अचित्तेषु वा अनुस्यूततया विवर्तन्ते, ते जीवा स्तेषां नानाविधानां त्रसस्थावराणां के रूप में परिणत करते हैं। यह सब कथन भी उर:परिसर्प के कथन के अनुसार ही समझना चाहिए। इन चर्मपक्षियों, लोमपक्षियों, समुदगपक्षियों के अर्थात् खेचर पंचेन्द्रिय तिय चों के नाना वर्ण, रस, गंध और स्पर्श वाले अनेक शरीर तीर्थंकर भगवान् ने कहे हैं ॥१५॥ રૂપે પરિણુમાવે છે આ સઘળું કથન પણ ઉર પરિસર્પના કથન પ્રમાણે જ સમજી લેવું જોઈએ. આ ચર્મ પક્ષિયે, લેમ પક્ષિ, સમુદ્ગ પક્ષિયો તથા વિતત પક્ષિયોના અર્થાત્ બેચર પંચેન્દ્રિય તિર્યને અનેક વર્ણ રસ ગ ધ એને સ્પર્શવાળા અનેક શરીર તીર્થકર ભગવાને કહ્યા છે. સૂત્ર ૧૫ सु० ५२ Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० सूत्रकृतास माणानां स्नेहमाहारयन्ति । ते जीता आहारयन्ति पृथिवीशरीरं यावत स्यात । अपराण्यपि च खलु तेपां वपस्थावरयानिकानामनुस्यूतकानां शरीराणि नानावर्णानि यावदाख्यातानि । एवं दुरूसम्भवतया एवं चर्म कीटनया मृ.१६-५८॥ टीका--पञ्चेन्द्रियमाणिनां स्वरूपं दरित्या-विकले न्द्रयस्वरूपमाह-'अहा. ६७' इत्यादि । ये जीवास मस्थावराणां सचित्ताऽचित्तदेहेपु समुत्पद्य तान्याश्रित्य स्थितिमन्तो भवन्ति-बर्द्धन्ते च, तेपो जीवानां : विकलेन्द्रियाणामिह प्रकरणे निरूपणं भवति । 'अहावरं' अथाऽपरम् 'पुरक वायं' पुर. रूपातं तीर्थकरेण, पूर्व स्मिन् काले तीर्थकरा अन्यविधती वर्णनं कृतमः, 'रहेगइया सत्ता णाणाविह जोणिया' इहै कतये सचा यूकालिक्षादयो जीवाः नानाविधयोनिकः:-अनेकपका. स्कयोनिषु समुपद्यमाना भवन्ति ‘णाणाविहसं त्रा' नानाविध सम्भवाः, तथाऽनेक प्रकारकयोनिपु स्थिता भवन्ति । 'णाणाविष्टबुकमा नानाविधव्युत्क्रमाः अनेक मकारकयोनिष्वेव विवर्द्धन्ते । 'तज्जोणिया तासमा तरकमा तोनिकास्त 'अहावरं पुरक्खायं' इत्यादि। टीकार्थ-पंचेन्द्रिय जीवों का स्वरूप दिखला कर अव विकलेन्द्रिय जीवों का स्वरूप कहते हैं । जो जीव प्रस और स्थावर प्राणियों के सचित्त और अचित्त शरीरों में उत्पन्न होकर उन्हीं के आश्रय में रहते हैं और पढते हैं, उन्हीं विकलेन्द्रिय जीवों का यहां निरूपण किया गया है। '- पूर्वकाल में तीर्थ करों ने अन्य प्रकार के प्राणियों का भी कथन - किया है। कोई कोई जीव, जैसे जू, लीख आदि अनेक प्रकार की योनियों वाले होते हैं। वे अनेक प्रकार की योनियों में उत्पन्न होते हैं, 'अहावरं पुरक्खाय' त्यादि ટકાર્થ–પંચેન્દ્રિય જીનું સ્વરૂપ બતાવીને હવે વિકસેન્દ્રિય જીનું સ્વરૂપ બતાવવામાં આવે છે.-જે જીવ ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાણિના સચિત્ત અને અચિત્ત શરીરમાં ઉત્પન્ન થઈને તેઓના જ આશયથી રહે છે. અને વધે છે. તે વિકેન્દ્રિય જીવોનું અહિયાં નિરૂપણ કરવામાં આવે છે. પૂર્વકાળમાં તીર્થકરોએ અન્ય પ્રકારના પ્રાણિયાનું પણ કથન કરેલ છે. કઈ કઈ જીવ જેમકે જ લીખ, વિગેરે અનેક પ્રકારની નિવાળા હોય છે તેઓ અનેક પ્રકારની મનિયોમાં ઉત્પન્ન થાય છે. અનેક પ્રકારની યોનિજેમાં સિથત રહે છે, અને અનેક પ્રકારની નિયોમાં વધે છે. અને પોત Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सैमयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिक्षानिरूपणम् सम्भवास्तदुपक्रमाः यू हादि जीवाः 'कम्मोवगा' कोपगा:-पूर्वक कर्मानुगामिनः सन्तः 'कम्मनियाणेगे' कर्मनिदानेन-कर्मनिमित्तेन 'तत्थ वुकमा तत्र व्युत्क्रमाःअनेकप्रकारकयोनिपु समुत्पन्नास्तत्रैव स्थिताः तत्रत्र वृद्धि प्राप्तवन्तः स्वकृतकर्मानु गामिनः कर्मवलादेव अनेकविधयोनिषु जायन्ते। ‘णाणाविहाणं तसथावराणं पोग्गलाण' नानाविधानां त्रस्थावराणां पुद्गलानाम् 'सरीरेसु वा सचित्तेमु वा अचित्तेसु वा शरीरेषु वा-सचित्तेबु वा अचित्तेपु वा 'अणुसूयत्ताए विउद॒ति' अनु स्यूततया विवर्तन्ते-ते जीवा अनेकप्रकारकत्रसस्थावराणां सचित्ताऽचित्तदेहेषु आश्रिताः समुत्पद्यन्ते। 'ते जीवा तेसिं गाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेति' ते यूकादयो जीवाः तेषां नानाविधानां प्रसस्थावराणां माणिनां स्नेहमाहारयन्ति, 'ते जीवा आहारेति पुढपीसरीरं जाव संत' ते यू कादयो जीरा आहारयन्ति पृथिवीशरीरं यावत् स्यात्, ते पृथिव्यादि जीवानामपि शरीराणि भक्षयन्ति भक्षयित्वा च कालेन स्वस्वरूपे परिणमयन्ति, 'अवरेऽवि यणं' अपराण्यपि च खल्लु 'तेसि तेषाम् 'तसथावरजोणियाणं' बसस्थावरयोनिकानाम्-यू कादिविकलेन्द्रि. यजीवानाम् 'अणुसूयगाणं' अनुस्यूतकानाम्-तदाश्रिततया स्थितिकानाम् 'सरीरा' शरीराणि 'णाणावण्णा' नानावर्णानि 'जाव मकवायं यावदाख्यतानि 'एवं दुरूवसंभवत्ताए' एवं दूरूपसम्भवतया-अनेनैव प्रकारेण मूत्रपुरीषेभ्योऽपि विकलेन्द्रिय अनेक प्रकार की योनियों में स्थिन होते हैं और अनेक प्रकार की योनियों में बढ़ते हैं। अपने अपने पूर्वकृत कर्मानुगामी होकर कर्म के अनुसार ही वहां उनकी उत्पत्ति, स्थिति और वृद्धि होती है। वे नाना प्रकार के बस और स्थावर जीवों के सचित्त और अचित्त कलेवरों में उत्पन्न होते हैं और अनेक विध बस स्थावर प्राणियों के स्नेह का आहार करते हैं। वे जू आदि विकलेन्द्रिय जीव उनके शरीरों का भी आहार करते हैं और उन्हें अपने शरीर के रूप में परिणत कर लेते है। उनके नाना वर्ण आदि से युक्त अनेक प्रकार के शरीर होते हैं । इसी પિતાના પૂર્વોક્ત કમનુગામી થઈને કર્મ પ્રમાણે જ ત્યાં તેઓની ઉત્પત્તિ, સ્થિતિ અને વૃદ્ધિ થાય છે. તેઓ અનેક પ્રકારના ત્રસ અને સ્થાવર જીના સચિત્ત અને અચિત્ત કલેવરે (શરીર) માં ઉત્પન થાય છે. અને અનેક પ્રકાર ૨ના ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાણિના સનેહનો આહાર કરે છે તે જ વિગેરે વિકલેન્દ્રિય છે તેઓના શરીરોને પણ આહાર કરે છે. અને તેને પિતાના શરીરના રૂપમાં પરિણમાવે છે. તેમના અનેક વર્ણ વિગેરેથી યુક્ત અનેક પ્રકારના Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे जीवा जायन्ते 'एवं खुरदुगत्तार' एवं चमकीटतया-अनेनैव प्रकारेण गोमहिः पादिशरीरेष्वपि चर्म कीटनया वह को जी समुत्पधन्ते विकलेन्द्रियाः स्वकर्मकता पापफलभोगाये त ।मू०१६-५८॥ मूलम्-अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता णाणाविहजोणिया जाब कम्मणियाणेणं तत्थ बुकमा णाणाविहाणं तसथावराण पागाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा तं सरीरगं वायसंसिद्धं वा वायसंगहियं वा वायपरिग्गहियं वा उवाएसु उडभागी भवइ अहे वाएसु अहेभागी भवइ तिरियवाएसु तिरिय. भागी भवइ, तं जहा-ओसा हिमए महिया करए हरतणुए सुद्धोदए, ते जीवा तेसिं गाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य ण तेसि तसथावरजोणियाणं ओसाणं जाव सुद्धोदुगाणं सरीरा णाणावण्णा जाब मक्खायं। ___ अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता उदगजोणिया उदगसंभवा जाब कम्मणियाणेणं तत्थ वुकमा तसथावरजोगिएसु उदएसु उदगत्ताए विउद्घति, ते जीवा तेसिं तसथावरजोणियार्ण उदगाणं सिणेहमाहारैति, ते जीवा आहारैति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं तप्तथावरजोणियाणं उदगाणं सरीरा गाणावपणा जाव मक्खायं । प्रकार मल मूत्र से भी विकलेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति होती है। गाय भैंस आदि के शरीर में भी चर्मकीट रूप में बहुत से विकलेन्द्रिय जीव उत्पन्न होते हैं और अपने कर्मों का फल भोगते हैं ॥१६॥ શરીરે હોય છે. એ જ પ્રમાણે મલ, મૂત્રથી પણ વિકસેન્દ્રિય જીવોની ઉત્પત્તિ થાય છે. ગાય, ભેંસ વિગેરેના શરીરમાં પણ ચર્મકીટ પણાથી ઘણું એવા વિકલે. ન્દ્રિય છે ઉત્પન્ન થાય છે. અને પિતાના કર્મોનું ફળ ભેગવે છે. સૂ૦૧૬ Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१३ सम्यार्थवोधिनी टीका द्वि. शु. अ. ३ आहारपरिज्ञानिरूपणम् अहावरं पुरखखायं इहेगइया सत्ता उद्गजोणियाणं जाव कम्मनियाणेणं तत्थ वुक्कमा उदगजोगिएसु उदयसु उदगत्ताए विउति, ते जीवा तेसिं उदगजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहाति, ते जीवा आहारेति पुढवीसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि यणं तेसिं उद्गजोणियाणं उदगाणं सरीरा णाभावणा जाव मक्खायं । अहावरं पुरक्वायं इहेगइया सत्ता उदगजोणियाणं जाब कम्मनियाणं तत्थ बुक्कमा उद्गजोणिएसु उदपसु तसपाणत्ताए विउति, ते जीवा तेसिं उदगजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेति, ते जीवा आहारेति पुढवीसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि यणं तेर्सि उद्ग जोणियाणं तसपाणाणं सरीरा णाणावृण्णा जाब मक्खायं ॥ सू० १७५७॥ छाया - अथाऽपरं पुराख्यातम् इदेकवये सच्चाः नानाविधयोनिका यावत् कर्मनिदानेन तत्र व्युत्क्रमाः नानाविधाना सस्थावराणां प्राणानां शरीरेषु सचितेषु वा अवितेषु वा तच्छरीरं वातसंसिद्धं वा वातसंगृहीतं वा' वातपरिगृहीतं वा वातेषु ऊर्ध्वभागी भनति, अधोवातेषु अवोभागी भवति तिर्यग्यातेषु तिर्यग्भागी भवति तद्यथा - अवश्याया हिमका महिका करकः हरतनुकः शुद्धोदकम्, ते जीवा स्तेपां नानाविधानां त्र स्थावराणां प्राणानां स्नेहमाहारयन्ति, ते जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीरं यावत् स्यात् । अपराण्यपि च खलु तेषां त्रसस्थावरयोनिकानाम् अवश्यायानां यावच्छुद्धोदकानां शरीराणि नानावर्णानि यावदाख्यातानि ! अथापरं पुराणम् इनकये सत्त्वाः उदकयोनिका : उदकमम्भवा, यावत् कर्मनिदानेन तत्र व्युत्क्रमाः सस्थावरयोजिकेपु उदकेषु उदकतया विवर्तन्ते । ते जीवा रतेषां त्रसस्थावरयोनि कानामुदकानां स्नेहमाहारयन्ति, ते जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीरं यावत् स्यात्, अपराण्यपि च खलु तेषां त्रसस्थावर योनिका नामुदकानां शरीराणि नानावर्णानि यावदाख्यातानि । अथाऽपरं पुराख्यातम् इहै कनये सत्ता उदयोनिकानां यावत्कर्मनिदानेन तत्र व्युत्क्रमाः उदकयोनिकेषूदकेषु उदकतया विवर्तन्ते । ते जीना स्तेपामुद्रक Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतासूत्र योनिकानामुदकानां स्नेहमाहार पन्ति । ते जीपा आहारयन्ति पृथिवी शरीरं यावत् स्यात् । अपराण्यपि च खलु तेषाम् उकयोनिकानामुदकानां शरीराणि नानवर्णानि यावदाख्यातानि । अथाऽपरं पुराख्यातम् इहैकनये सत्याः उदकयोनिकानां यावत् कर्मनिदानेन तत्र व्युम्क्रमाः उदकयोनिके पूदकेषु समाणतया विवतन्ते । ते जीवा स्तेपामुदकयोनिकानामुदकानां स्नेहमाहारयन्ति, ते जीवाः आहारयन्ति पृथिवीशरीरं यावत् स्यात् अपरापि च खलु तेपामुरुपोषिकानां सपाण:ना ___ शरीराणि नानावर्णानि यावदाख्यातानि ॥पू०१७-५७॥ टीका-'इह खल्लु संसारे-अनेके जीवाः पूर्वकृतकर्मवशगा, वायुयोनिका अफाये समुत्पद्यन्ते, यथा-अवश्याय हिमक महिकादयः, तेपामे जीवानामिह प्रकरणे स्वरूपं निरूप्यने । 'अहावरं पुरक्खाय' अथाऽपरं पुराख्यातम्, तीर्थ करेणेति शेषः, 'इहे गइया' इहैकतये 'सत्ता' सत्त्वाः-पाणिनः 'णाणाविहनोणिया' नानाविधयोनिका:-अनेकपकारकयोनिषु समुत्पन्नाः सन्तः 'जाव' यावत् 'कम्म णियाणेण तत्थ वुक्पा' कर्मनिदानेन तत्र व्यु-क्रमाः-स्वकृतकर्मनिमित्तेन तत्र-वायु योनिकाकाये समुत्पन्ना स्तत्रैव स्थिता स्तत्रैव वर्तनशीला:, वायुयोनिकाऽकाये समुत्पद्यन्ते जीवाः 'णाणाविहाणं तपथावराणं पाणाणं' नानाविधानां त्रसस्थावराणां माणानाम्, तत्र मण्डूकादयस्वसाः, लवणहरितादयः स्थावरास्तेषां प्राणिनाम् 'अहावरं पुरक्खायं' इत्यादि ! टीकार्थ-इस संसार में अनेक जीव पूर्वकृत कर्म के अधीन होकर वायुयोनिक अप्साय में उत्पन्न होते हैं, जैसे अवश्याय महिका आदि इस प्रकरण में उन्हीं का स्वरूप कहा जाएगा। तीर्थकर भगवान् ने कहा है कि इस लोक में कोई कोई जीव विविध प्रकार की योनियों में उत्पन्न होते हुए कर्म के उदय से वाय. योनिक अप्काय में आते हैं। वे वहीं स्थित होते और वृद्धि को प्राप्त 'अहावर पुरक्खाय' त्याह ટીકાથ–-આ સંસારમાં અનેક જીવે પહેલાં કરેલા કર્મને આધીન થઈને વાયુનિક અપકાયમાં ઉત્પન્ન થાય છે, જેમકે–અવશ્યાય મહિકા ઝાકળ આદિ આ પ્રકરણમાં તેના વિશેજ કથન કરવામાં આવશે તીર્થકર ભગવાને કહ્યું કે આ લેકમાં કઈ કઈ છે અનેક પ્રકા રની નિમાં ઉત્પન્ન થતા થકા કર્મના ઉદયથી વાયુયોનિક અપકાયમાં , આવે છે. તેઓ ત્યાજ સ્થિત હોય છે. અને વૃદ્ધિ પામે છે. તેઓ ત્રસ અને Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिशानिरूपणम् .४१५ 'सरीरेस सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा' शरीरेषु सचित्तेषु वा अचित्तेषु वा वायुयो. निकाप्कायरूपेण समुत्पद्यन्ते। 'तं सरीरगं वायसंसिद्ध वा वायसंगहियं वा, वायपरिग्गहियं वा' तच्छरीर वातसंसिद्धं वा वातेन निष्पन्न वा, वात संगृहीतं वा वातपरिगृहीतं वा, तदकायशरीर वायुना उत्पादितं सोऽकायो वात जनित इत्यर्थः अतोऽकायस्योपादानकारणं वायुरेव, वायुना तद्द्वारेग संगृहीतं वायुद्वारेणैव धारितमपि भवति । अत एव-'उडाएमु उभागी भवइ, अहेवाएस अहेमागी भवइ, तिरियवाएस तिरियभागी भवई' तदफायशरीरम् ऊर्व गतेषु ऊर्ध्वभागि भवति, अधोवातेषु अयोभागि भवति, तिर्यग्वातेषु तिर्यग्भागि भवति, इत्यादि, एवमग्रेऽपि-वायुकारणकं तच्छरीरमिति निर्णीयते । 'तं जहा' तद्यथा-'ओसा' अश्याय:-'ओप्स' इति लोके प्रसिद्धम् 'हिमए' हिमकः 'हिमम्' इति लोकपसिद्धम्, 'महिया' महिका-अल्पजलवृष्टिर्जलतुपारश्च 'करए' 'करक:कठिनमेघोदकम् 'ओला' इति प्रसिद्धम् 'हरतणुए' हरवनुक-दूर्वा-यवादि होते हैं। वे त्रस और स्थावर प्राणियों के सचित्त और अचित्त शरीरों में अप्काय रूप से उत्पन्न होते हैं । उनका शरीर वायुकाय से बना हुभा और वायुकाय के द्वारा संगृहीत होता है । वायुकाय ही उनके शरीर · को धारण करता है। इसी कारण अप्काय का वह शरीर वायु के ऊपर जाने पर ऊंचा जाता है, वायु के नीचे जाने पर नीचे जाता है और वायु के तिछे जाने पर तिर्छा जाता है । इससे यह निर्णय होता है कि अपकाय का वह शरीर वायुकारणक होता है। वायुयोनिक अप्काय के जीव ये हैं। ओस, हिम, महिका अर्थात् पांच रंग की धूमिका (धूवर), ओला, हरतनुक (धान्य के पौधों पर विद्यमान जलबिन्दु) शुद्धोदक સ્થાવર પ્રાણિના સચિત્ત અને અચિત્ત શરીરમાં અકાય પણાથી ઉત્પન્ન થાય છે તેના શરીરે વાયુકાયથી બનેલા અને વાયુકાય દ્વારા ગ્રહણ કરાચેલા હોય છે. વાયુકાય જ તેઓના શરીરને ધારણ કરે છે એજ કારણે અપુકાયનાં તે શરીરે વાયુ ઉપર જતાં ઉચે જાય છે. અને વાયુ નીચે જાય ત્યારે નીચે જાય છે. અને વાયુ તિ જાય ત્યારે તિર્થી-(વાંકા ચુકા) જાય છે. આનાથી એ નિર્ણય થાય છે કે-અપકાયનું તે શરીર વાયુ ક રણુક વાળું હોય છે. વાયુનિક અપકાયના જીવે આ છે –એસ, હીમ, મહિકા (ધુમ્મસ) અર્થાત પાંચ રંગની ધૂમિકા એલા હરતનુજ (અનાજના ફૂલ પર રહેનારા જલબિ) Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ सूत्रकृतामसूत्र धान्योपरि विद्यमानं जलादिबिन्दु', 'मृद्धोदए' शुद्वोकम्-सामान्य जलम्, 'ते जीवा तेसिं णाणाविहाणं तसथावराणं पागागं पिणे माहारेति' ते-जायुयोनिका अका. यिका स्तेपां नानाविधानां त्रसस्थावराणां प्राणानां स्निग्ध मावपाहारयन्ति । ते जीवा आहारेति पुढवीसरीरं जाव संत' ते जीरा आहारयन्ति पृथिवीशरीरं याव. 'रस्यात्, तेषां शीरमचित्तं कुर्वन्ति विनष्टं तच्छरीरं पूर्वाद्याहारित विपरिणामितम् अात्मस्यरूपं कृतं भवति, 'अवरे वि य o अपराण्यपि च खलु 'तेसि उसयावर जोणियाणं ओसाणं जाच सुद्धोदगाणे सरीरा णाणाणा जाच मक्खाय तेषां.त्रप्स. स्थावरयोनिकानामवश्यायानां हिममहिकाकर फहरतनुकानां शुद्धोदकानां शरीराणि भानावर्ण-रसगन्धस्पर्शयुक्तानि भवन्तीति आख्यातानि भगवना तीर्थकृतेति। वायुयोनिकाऽकायान्-जीयानुपदर्य अयोनि कान् अफायदेतोत्पवान्अकायान् जीदान दर्शयितुपाह-'अहावरं' इत्यादि । 'बहावरं पुरखवाय' या. ऽपर पुराख्यातम् 'इहेगड्या सत्ता' इहै कतये सत्त्वाः-इह-अस्मिन् लोके सत्त्वाः -जीवाः 'उदगनोणिया' उदकयोनिका:-उदकं-जलमेव विद्यते योनिः-उत्पत्ति(सामान्य जल) ये वायुयोनिक अप्काय के जीव नाना प्रकार के रस और स्थावर प्राणियों के स्नेह (रस) का आहार करते हैं । पृथ्वीकाय आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं। उनके शरीर को अचित्त बना देते हैं और वह उनके शरीर के रूप में परिणत हो जाता है। उन ओस यावत् शुद्धोदक जीवों के शरीर नाना वर्ण, रस, गंव और स्पर्श से युक्त होते हैं, ऐसा तीर्थ कर भागवान ने कहा है । 'अहावरं पुरक्खाय' इत्यादि। वायुयोनिक अपूकाय जीवों का स्वरूप दिखला कर अप्काययो. निक अप्काय के जीवों का निरूपण करते हैं। इस संसार में कोई कोई अप्काय के जीव अप्काययोनिक होते हैं। उनकी अप्काय से શુદ્ધોદક (સામાન્ય જલ) આ બધા વા યુનિક અપકાયના છે અનેક પ્રકારના ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાણિના સનેહ-(રસ) ને આહાર કરે છે પૃથ્વકાય વિગેરેના શરીરને પણ આહાર કરે છે. તેમના શરીરને અચિત્ત બનાવી દે છે. અને તે તેના શરીર રૂપે પરિણત થઈ જાય છે. તે એસ થાવત શુદ્ધોદન સુધીના જીના શરીરે અનેક વર્ણ, રસ, ગંધ, અને સ્પર્શથી યુક્ત હોય છે એ પ્રમાણે તીર્થકર ભગવાને કહ્યું છે. 'महावर पुरक्खाय' त्यादि વાયુનિક અપકાયનું સ્વરૂપ બતાવીને હવે અપૂકાય નિવાળા અપકાયના જીવે નું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે. આ સંસારમાં કોઈ કંઈ અપકાયના જ અપાય નિવાળા હેય છે, તેઓની ઉત્પત્તિ અપ Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - समयार्थवोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिक्षानिरूपणम् ४१७ कारणं येषां ते तादृशजीवाः 'उदगमवा' उदकसम्भाः -उदके स्थितिमन्तः 'जाव' यावत् 'कम्मनियाणेणं तत्य बुकमा' कर्मनिदानेन-स्वकृनकर्मनिमित्तेनस्वकर्मवशगाः सन्तः तत्र-उदके व्युत्क्रमा:-प्रवर्द्धमानास्ते जीवाः 'तसथावरजोणिएस उदगत्ताए विउदंति' सस्थावरयोनिकेघु उदकेदकतया-उदकस्वरूपेण विवर्तन्ते-समुत्पद्यन्ते । 'ते जीवा तेसिं तसथावरजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारे ति' ते-उदयोनिका जीया बसस्थावरयोनिकानाम् उदकानां स्नेहमाहार: यन्ति-स्नेहभावमाहारयन्ति, 'ते जी आहारे ति पुढवीसरीर जाव संत' ते जीवाः पृथिवीकायादीनां शरीरमपि आहारयन्ति, आहार्य च स्वरूपे परिणम यन्ति । 'अवरे वि य णं तेति तसथावरजोणियाणे उदगाणं सरीराणाणावण्णा जाव मक्खाय' तेषां त्रसस्थावरयोनिकानामुदकानामपराण्यपि च खलु शरीराणि नाना. वर्णरसगन्धस्पर्शवन्ति भवन्तीति तीर्थकृताऽऽख्यातानि-प्रतिपादितानि । ___ 'अहावरं पुरक्खायं' अथाऽपरं पुराख्या, पुनराह-उदकसम्भवा उदकयोनिका उदकव्युत्क्रमाः, तत्सम्मका स्तद्योनिका स्तदुपक्रमाः कर्मवशगाः 'इहेगइया सत्ता' उत्पत्ति होती है, अप्काय में स्थिति होती है और अप्काय में ही वृद्धि होती है। अपने कर्म के वशीभूत होकर वे जीव बस और स्थावर योनिक, जल में जल रूप से उत्पन्न होते हैं। वे अप्योनिक अपकाय जीव उस स्थावर योनिक उदक के स्नेह का आहार करते हैं। तथा पृथ्वी आदि के शरीर का भी आहार करते हैं और उसे अपने शरीर के रूप में परिणत करते हैं । इन जीवों के नाना वर्ण, रस, गंध और स्पर्श वाले अनेक प्रकार के शरीर होते हैं, ऐसा तीर्थंकर भगवान ने कहा है। तीर्थंकर भगवान् ने अन्य प्रकार के जीव भी कहे हैं। वे जीव उदकयोनिक उदक में उदक रूप से अपने कर्मों के वशीभूत होकर કાયથી થાય છે. અપકાયમાં સ્થિત થાય છે. અને અપૂકાયમાં જ વૃદ્ધિ થાય છે. પિતાના કર્મને વશ થઈને તે ત્રસ અને સ્થાવર નિવાળા જળમાં જળ રૂપે ઉત્પન્ન થાય છે. તેઓ અચેનિક અપકાયના જીવો ત્રસ અને સ્થાવર યોનિ વાળા પાણીના સનેહને આહાર કરે છે. તથા પૃથ્વી વિગેરેના શરીરને પણ આહાર કરે છે. અને તેને પોતાના શરીરના રૂપથી પરિણમાવે છે. આ જીવેના અનેક વર્ણ, રસ, ગંધ, અને સ્પર્શવાળા અનેક પ્રકા રના શરીરે હોય છે. આ પ્રમાણે તીર્થકર ભગવાને કહેલ છે. તીર્થકર ભગવાને બીજા પ્રકારના જીવ પણ કહ્યા છે. તે જ ઉદક નિવાળા, પાણીમાં પાણીના રૂપથી પિતાના કર્મોને વશ થઈને ઉત્પન્ન सू० ५३ Page #679 --------------------------------------------------------------------------  Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि श्रु. अ.३ आहारपरिशानिरूपणम् १९ उदकयोनिकेपदकेषु त्रसपागतया विवर्त्तन्ते । तिष्ठन्त्यस्मिल कोकेऽने के जीवा स्वकृतपुराकृत कमरशमाः सन्तो वमन्त उदकयोनिके पूदकेपु समागवन्तस्तत्रउदकयोनिकेपु उद के पु त्रमनीवरूपेण समुत्पन्नाः। ते जीवा तेसिं उदगजोणियाण उदगाणं सिणेहमाहारेति' ते-उदक योनिका जीना स्तेपामेव उदक योनि कानामुदकानां स्नेहमाहारयन्ति-स्नेह-स्निग्यमावमाहारयन्ति । 'ते जीवा आहा. रयन्ति पुढवीसरीरं जार सं' ते जीवा आहारयन्ति पृथिवीशीरं यावत्स्यात् । 'ते-उदकयोनिका उदके स्थिताः सनीगः पृथिव्यादीनामपि शरीर भक्षयन्ति, 'अवरे वि य णं तेसिं उदगजोणियाणं तसाणाणं सरीरा णाणावण्णा जाव मक्खाय' अपराण्यपि च खलु तेपामुदकयोनिकानां त्रसपाणानां शरीराणि नानावर्णानि याबदाख्यातानि, नानावर्णगन्धरसस्पर्शयुक्तानि भवन्तीति तीर्थकृता . आख्यातानि प्रतिपादितानि ॥ सू०१७-५९॥ __मूलम्-अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता णाणाविहजोणिया जाव कम्मणियाणेणं तत्थ वुकमा णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा अगणिकायत्ताए विउति ते जीवा तेसिं णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारंति, ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेसि तसथावरजोणियाणं अगगीणं सरीरा णाणावण्णा जाव मक्खायं, सेसा तिन्नि आलावगा जहा उदगाणं । अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता णाणाविहजोणियाणं जाव कम्मणियाणेणं तत्थ वुक्कमा, णाणाविहाणं तसंथावराणं होते हैं। वे जीव उदकयोनिक उदक के स्नेह का आहार करते हैं। वे पृथ्वी आदि के शरीर का भी आहार करते हैं। उन उदकयोनिक बस प्राणियों के नाना वर्ण रस गंध स्पर्श वाले नाना शरीर होते हैं। ऐसा तीर्थंकर भगवान् ने कहा है ॥१७॥ ઉદકના સ્નેહને આહાર કરે છે. તેઓ પૃથ્વી વિગેરેના શરીરને પણ આહાર 'ર છે. તે ઉદકોનિક ત્રસ પ્રાણિયાના અનેક વર્ણ, ગંધ, રસ અને સ્પર્શ વાળા અનેક શરીરે હોય છે. એ પ્રમાણે તીર્થકર ભગવાને કહ્યું છે. સૂંઠ Page #681 --------------------------------------------------------------------------  Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिज्ञानिरूपण युध्यमानानां पञ्चन्द्रियहस्तिमहिषादीनां दन्तशृङ्गादिपु, अचित्तेपु वा घर्षितास्थिपस्तरादौ अग्निकायत या विवर्तन्ते-अग्निकायरूपेण समुत्पद्यन्ते, इति प्रत्यक्षपमाणम् । इह लोके कियस्तो जीवाः पूर्वभवे नानाविधयोनिपु समुत्पद्य, तत्र सम्पादितकर्मवलेनाऽने प्रकारका सस्थावराणां सचित्ताऽचिचदेहेषु-अग्निकायस्वरूपेण समुत्पद्यन्ते इत्यर्थः । 'ते जीवा तेसिं णाणाविहाणं तसथावराणं पाणणं मिणेह'माहारे वि' ते जीवाम्तेषां नानाविधानां त्रप्तस्थावराणां प्राणानां स्नेहमाहारयन्ति । अनेक कारकत्रसादिजीवानां स्नेहभावमाहारयन्ति, 'ते जीवा आहारेति पुढधीसरीरं जाव संत' ते जीपा आहारयन्ति पृथिवी शरीरं यावत्स्यात्-पृथिव्यादीनां शरीरमपि आहारयन्ति आहार्य च तानि शरीराणि स्वस्वरूपे परिणमयन्ति । 'अवरेऽ यि य गं तेसिं तसथावर नोणियाणं अगगीग सरीरा णाणावणा जाव मक्खाय' तेषां त्रसस्थावायोनिझानामग्निकायाना जीवानाम् अपराण्यपि च खलु शरीराणि नानावर्णादियुक्तानि भवन्तीति तीर्थनाऽऽख्यातानि । 'सेसा तिनिआलायगा जहा उदगाणं' शेपास्त्रग आलापका यथा उदकानाम् । तथाहियथा वायुयोनिका अकायाः १, उदकयोनि का उदकजीवाः २, उदकयोनिकाः सचित्त शरीरों मे तथा घिसे हुए पापाण आदि अचित्त शरीरों में अग्निकाय के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे जीव अनेक प्रकार के बस और स्थावर प्राणियों के स्नेह रस का आहार करते हैं और पृथ्वी आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं और उस आहार को अपने शरीर के रूप में परिणत करते हैं। उन अनेक प्रत स्थावरयोनिक अग्निकाय के जीवों के ओर भी नाना वर्ण, रस, गंध और स्पर्श वाले शरीर होते हैं, ऐसा तीर्थंकर भगवान ने कहा है। शेष तीन आलापक उदक जीवों के समान समझना चाहिए। अर्थात जैसे वायुयोनिक अप्काय, उदकयोनिक उदकजीव, उदकयोनिक बस માં તથા ઘસવામાં આવેલા પત્થર વિગેરે અચિત્ત પદાર્થોમાં અગ્નિકાય પણથી ઉત્પન્ન થાય છે તે જીવો અનેક પ્રકારના ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાણી' ના નેહ રસને આહાર કરે છે. અને પૃથ્વી વિગેરેના શરીરને પણ આહાર ' કરે છે. અને તે આહારને પિતાના શરીર રૂપે પરિણુમાવી દે છે તે અનેક ત્રસ E અને સ્થાવર નિવાળા અગ્નિકાયના જીવોને બીજા પણ અનેક વર્ષે ગંધ '.” રસ અને સ્પર્શ વાળા શરીરો હોય છે. એ પ્રમાણે તીર્થકર ભગવાને કહ્યું છે. બાકીના ત્રણ આલાપકે ઉદક–પાણીના પ્રમાણે સમજી લેવા. અર્થાત જેમ વાયુનિવાળ, અપૂકાય ઉદનિક ઉદકજી, ઉદનિક ત્રસ જીવે Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ सूत्रकृताङ्गस्त वसनीवाः३, तथा वायुयोनिका अग्निकायाः १, अग्नियोनिका अग्निकायाः२, 'अग्नियोनिकास्त्रपनीवाः३, एवं क्रमेण शेरात्रय आलापका ज्ञातव्या इति । सम्पति वायुकायमाह-'अहावरं पुरक वाय' अथाऽपरं पुराख्यातम् 'इहेगइया सत्ता णााणाविहनोणियाणं जाव' इहस्तये सत्वा-जोया? नानाविधयोनिकाना यावत् 'कम्मणियाणेणं' कर्म निदानेन 'तत्य बुकमा' तत्र व्युत्क्रमा:- तत्रै प्रवर्धमानाः, 'णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं' नानाविधानां त्रसस्थाराणां प्राणानाम्, सरीरेसु सचित्तेमु का अचित्तेसु वा वाउकायत्ताए' शरीरेषु सचित्तेषु 'वा अचित्तेषु वा वायुका गया 'विउति' विवर्त्तन्ते, इहलोके कियन्तो जीवां: पूर्वभवेऽनेकपकारकयोनिषु समुत्पद्य तत्र स्वकृतकमरलेन सस्थावरजीवानां सचित्ताऽचित्तशरीरेषु दायु कायतया समुत्पद्यन्ते, 'जहा गणीणं तहा भाणिया चत्तारि गमा' यथाऽग्नीनां तथाऽत्रापि चत्वार आलापका भणिया:-प्रकाश. नीयाः। वायुकायाः१, वायुयोनिकाऽफाया:२, वायुयोनि काग्निकायाः३, वायुयोनिका स्वमा ४, एवं क्रमेण चत्वारः आलापका ज्ञातव्याः ॥मु०१८-६०॥ जीव कहे हैं। उसी प्रकार वायुयोनिक अग्निकाय, अग्नियोनिक अग्निकाय और अग्नियोनिक त्रसकाय इस क्रम से तीन आलापक जानना चाहिए। ____ अब वायुकाय के विषय में कहते हैं-इस लोक में कितनेक जीव ऐसे हैं जो पूर्व मवों में अनेक प्रकार की योनि में उत्पन्न होकर अपने किये कर्म के बल से त्रस और स्थावर जीवों के सचित्त तथा अचित्त शरीरों में वायुकाय के रूप में उत्पन्न होते हैं । अग्नि जीवों के जैसे चार आलापक कहे गए हैं, उसी प्रकार यहां भी चार आलापक कहना चाहिए। वे यो हैं-(१) वायुकाय (२) वाययोनिक अकाय . (३) वायुयोनिक अग्निकाय और (४) वायुयोनिक त्रस सू० १८॥ કહેલા છે. એ જ પ્રમાણે વાયુયોનિ વાળા અશ્ચિય, અગ્નિનિક અગ્નિકાય, અને અગ્નિયોનિક ત્રસકાય આ ક્રમથી ત્રણ અ લાપકે સમજી લેવા જોઈએ વાયુકાયના સંબધમાં હવે કથન કરે છે.–આ લેકમાં કેટલાક જીવે એ હોય છે જે પૂર્વમાં અનેક પ્રકારની નિ માં ઉત્પન થઈને પિતે કરેલા કર્મના બળથી ત્રસ અને સ્થાવર જીવોના સચિત્ત તથા અચિત્ત શરીરમાં વાયુકાય પણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. અગ્નિ જી પ્રમાણે આના પણ ચાર આલાપકે કહ્યા છે. તે તે પ્રમાણે ચાર આલાપ સમજી લેવા. ते मी प्रमाणे छ.-(१) वायुश्य (२) वायु योनि (3) वायु यो नि भनिકાય અને (૪) વાયુનિવળા બસ સૂ૦ ૧૮ Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - समयार्थयोधिनी दीका द्वि, श्रु, अ. ३ आहारपरिशानिरूपणम् ४२३ . मूलम्-अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता णाणाविहजोणिया जाव कम्मणियाणेणं तत्थ वुकमा णाणाविहाणं तस्तथावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा पुढवित्ताए सक्करताए वालुयत्ताए इमाओ गाहाओ अणुगंतवाओ'पुढवी य सकरा वालुया य, उबले सिला य लोणू से। अयतउयतंबसीसग, रुप्पसुवणे य वइरे य ॥१॥ हरियाले हिंगुलए प्रणोसिला सामगंजणपवाले। ___ अभपडलब्भवालुय बायरकाए मणिविहाणा ॥२॥ गोमेज्जए य रयए अंके फलिहे य लोहियक्खे य।। ___ मरगयमसारगल्ले, भुयमोयगइंदणीले य ॥३॥ चंदणगेरुय हंसगब्भपुलए सोगंधिए य बोद्धव्वे । चंदप्पभवेसलिए जलकंते सूरकंते य ॥४॥ एयाओ एएसु भणियवाओ गाहाओ जाव सूरकंतत्ताए विउहृति, ते जीवा तेसिं णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहाति, ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवियणं तेसि तसथावरजोणियाणं पुढवीणं जाव सूरकताणं सरीरा णाणावण्णा जाव मक्खायं, सेसा तिपिण आलावगा जहा उदगाणं ॥सू० १९१६१॥ छाया-आथाऽपरं पुराख्यातम् इहैकन ये सचा नानाविध योनिकाः यावत कर्मनिदानेन तत्र व्युत्क्रपाः नानाविधानां सस्थापरणां पाणानां शरीरेषु सचि तेषु वा अचित्तेषु वा पृथिवीतया शर्करबया बालकतया इमा गाथा अनुगन्तव्या:'पृथवी व शर्करा व लुका च, उपल: शिला च लवणम् । अयस्त्रपुताम्रशीशक, रुप्यसुवर्णानि च वज्राणि च ॥१॥ Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સરક हरितालं हिङ्गुलकं मन शिला शशका जनमवाल!! | अभ्रपटलाभ्रवालुका वादरका मणिविधानाः ||२|| गोमेचकं वरनतमङ्क स्फाटिकं च लोहिताख्यञ्च । मरकतमसारगललं, भुजमोचकमिन्द्रनीलञ्च ॥३॥ n चन्दन का सौगन्धिकञ्च बोद्धव्यम् । चन्द्रवैये जलकान्तः सूर्यकान्तच | ४|| एता एंतेषु भणितव्याः गाथा यावत् सूर्यकान्ततया विवर्तन्ते । ते जीवा स्तेषां नानाविधानां सस्थावराणां माणानां स्नेहमाहारयन्ति, ते जीवा आहारयति पृथिवीशरीरं यावत् स्यात् । अपराप्यपि च खलु तासां सस्थावरयोनिकानां पृथिवीनां यावत् सूर्यकान्तानां शरीराणि नानावर्णानि यावदाख्यातानि शेपास्त्रयः आलापका यथोदकानाम् । सू०१९-६१। 1 सूत्रकृताङ्गसूत्रे " टीका - अनन्तरं तीर्थकुवाऽपि जी (मकारा दर्शिताः, तथाहि - 'अहावरं पुरखा' अथाऽपरं पुराख्यातम् 'इदेगइया सत्ता' कवये सच्चाः इह लोकेऽने 6प्रकारका जीवाः ' णाणाविह जोणिया' नानाविवयोनिकाः - विविध कारक योनिसमुत्पन्नाः सन्तः 'जाच कम्मणियाणेणं' यावत्कर्मनिदानेन तत्र तत्र सम्पादित स्वकर्ममभावेण 'तत्थ चुकमा' तत्र व्युत्क्रमाः कर्मनिमित्तेन तत्रैव पृथिवीकाये समुत्पद्य स्थितिमत्राय वर्धमानाः 'णाणाविहाणं' नानाविधानाम् 'तमथावराणं पाणाणं' त्रस स्थावराणां प्राणानाम्, 'सरीरेसु सचित्तेसु अचित्तेषु वा' सचितेषु अवित्तेषु वा शरीरेषु 'पुढचित्ताए सकरत्ताए वालयत्ताए' पृथिवीतया शर्करतया वालुकतया विवर्तन्ते उत्पद्यन्ते, तत्र शर्करा लघुप्रस्तरखण्डः, बालुका- 'रेती' तिप्रसिद्धा- अयं भावः कति जीवाः 'अहावरं पुरखायें' इत्यादि । टीकार्य - तीर्थंकर भगवान् ने जीवों के अन्य प्रकार भी कहे हैं । इस लोक में नाना प्रकार की योनिवाले नाना प्रकार के जीव है । वे अपने कर्मों के कारण उन योनियो में आते हैं, वहां रहते हैं और वहां ही पढते हैं । विविध प्रकार के त्रम और स्थावर प्राणियों के सचित्त और अचित्त शरीरों में पृथ्वी रूप में शर्करा (पाषाण के छोटे खण्डों ) 'अद्दावर पुरकखाय' धत्याहि ટીકા”—તી કર ભગવાને જીવેાના ખીજા પ્રકરે! પણ કહ્યા છે. આ લેાકમાં અનેક પ્રકારની ચેાનીવાળા અનેક જાતના જીવે છે, તેઓ પાતે કરેલા કમેને કારણે તે ચૈાનિયામાં આવે છે ત્યાં રહે છે અને વધે છે. અનેક પ્રકારના ભ્રમ તથા સ્થાવર પ્રાણિયાના સચિત્ત અને અચિત્ત શરીરામાં પૃથ્વીપણાથી શક રા–પત્થરના કકડા નાના નાના કકડાના રૂપથી તથા વાલુકા (રેત)ના Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिशानिरूपणम् ४२५ पूर्वकृतस्वकर्मोदयात् सस्थावरप्राणिनां सचित्तेषु - अचित्तेषु वा शरीरेषु, तत्रसचित्तेषु पृथिवी रूपेण तथा द - दन्तिमस्तकेषु मुक्तारूपेण स्थावरवंशप्रभृतिषु मुक्ता फलरूपेण, एवमचित्तप्रस्तरादौ लवणरूपेण, तथा-नानामकारक पृथिवीषु शर्करा बालुकासितालवणादिरूपेण उत्पद्यन्ते इति । 'इमाओ गादाओ अणुगंतन्त्राओ' प्र विषये इमाः - वक्ष्यमाणा गाथा अनुगन्तव्याः । शास्त्रवर्णिता गाथा अनुगमनीयाः "पुदवी य सक्करा' पृथिवी च शर्करा 'चालुया य उबले' चालुका च उपला-पाण 'सिलाय कोणू से' शिला च लत्रणः, तत्र लवणो लोकप्रसिद्ध', 'अपत्तयतंवनीस रुप 3 * ६ १० ११ सुवणे यवइरे य' अयताम्रशीशक रूप्य सुत्रर्णानि च चत्राणि च तत्र अय:कोह:, त्रपु - रांगा 'हरियाले हिंगुलए मणोसिला सासगंजणपचाले' हरिवालं १४ के रूप में तथा वालुका (रेन) के रूप में प्रसिद्ध है। कहने का भाव यह है कि कितने जीव पहले किये अपने कर्म के उदय से बस एवं स्थावर प्राणियों के सचित्त अथवा अचित्त शरीरों में अर्थात् सचित में पृथ्वी के रूप में तथा हाथी के मस्तक में मुक्ता के रूप से तथा स्थावर में वॉस आदि में मोती के रूप में एवं अचित्त में पत्थर में लवण रूप से (सैंधव नाना प्रकार की पृथ्वीयों में शर्करा, वालुका लवण आदि रूप से उत्पन्न होते हैं । तथा इसी प्रकार के अन्य रूपों में उत्पन्न होते , हैं । उन रूपों को जानने के लिए इन गाथाओं का अनुसरण करना चाहिए। शास्त्र में वर्णित वह गाथाएँ इस प्रकार हैं (१) पृथ्वी (२) शर्करा (३) वालुका (४) उपल (पाषाण) (५) शिला (६) लवण - ऊष (खारी) (७) लोहा (८) रांगा (९) ताँबा (१०) शीशा 4 રૂપે, પ્રસિદ્ધ છે. કહેવાના આશય એ છે કે—કેટલાક જીવા પહેલાં કરેલા પે'તાના કર્મીના ઉદયથી ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાણિયાના સચિત્ત અથવા અચિત્ત શરીયામા અર્થાત્ ચિત્તમાં પૃથ્વીના રૂપે તથા હાથીના માથામાં મેાતીના રૂપે તથા સ્થાવરમાં વાંસ વગેરેમાં મેતી રૂપે એવ' અચિત્તમાં પત્થરમાં ( सवाशु ३ये (सीधाधु) ने अमरेनी पृथ्वीयेोभां शरा, वालुओं, वायु વિગેરે રૂપે ઉત્પન્ન થાય છે તથા આવા પ્રકારના મીજા રૂપેમાં ઉત્પન્ન થાય છે તે રૂપાને જાણવા માટે આ ગાથાએનું અનુસરણ કરવુ જોઈ એ शास्त्रमा वर्षात ते गाथाओ सा प्रभा छे – (१) पृथ्वी (२) शश (3) बालु४। (४) उपस- पाषाणु (4) शिक्षा (९) सत्राशु - प (मोर) सु० ५५ Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ २८ ४२६ सूत्रकृताशी हिड्गुलकं मनःशिला, शशकाओने इौ रत्नविशेषौ, प्रबालो विद्रुमः, 'अवर्भपडलब्भवालयबायरकाए, अभ्रस्टलाभ्रवालुकावादरकाय :, तत्र-अभ्रपटलं गगन स्य जलावसाय: अभ्रवाल का तु जलावसाययुक्ता धूलि', बादरकायः पृथिवीभेदः, 'मणिविहाणा' मणिविधानाः 'गोमेज्जए य रयए अंके फलिहे य लोहिया पखेय' गोमेद्यकं च रजतम स्फटिकञ्च लोहिताख्यञ्च, 'मरगयमसारगल्ले भुयमोयगांदणीले य' मरकतो मसारगल्लो भुनमोचकमिन्द्रनीलच । 'चंदणगेरुयहपगम्भपुलए सोगधिए य बोद्धव्वे' चन्दनगेरुकहंसगर्भपुलाक सौगन्धिकं च बोदध्यम्। 'चंदप्पभ-वेरुलिए-जलकंते-सूरकते य' चन्द्रप्रभंड्य-जलकान्त:सूर्यकान्तश्च । उपर्युक्तगाथासु ये ये-उक्तास्तेभ्य आरभ्य सूर्यकान्तपर्यन्वयोनिषु समुत्पन्नाः समुत्पत्स्यमानाच ते ते पृथिवीजीवाः। 'एयाओ एएसु (११) चांदी (१२) स्वर्ण (१३) वज्र (१४) हरताल (१५) हिंगुलक (१६) मैनसिल (१७) शासक (१८) अंजन (१९) प्रवाल (२०) अभ्रपटल (आकाश का जलावसाय) (२१) अभ्रवालुका जलावसाय से युक्त धूल (ये चादर पृथ्वीकाय के भेद हैं) अब मणियों के भेद कहते हैं (२२) गोमेद (२३) रजत (२४) अंक (२५) स्फटिक (२६) लोहिताक्ष (२७) मरकत (२८) मसारंगल्ल (२९) भुजपरिमोचक (३०) इन्द्रनील (३१) चन्दन (३२) गेरुक (३३) हंसगर्भ (३४) पुलाक (३५) सौगंधिक (३६) चन्द्रप्रभ (३७) वैडूर्य (३८) जल कान्त और (३०) सूर्यकान्त, ये सब मणियों के प्रकार हैं। (७) बाढ (८) संY (6) diy (10) सु (११) यादी (१२) (13) 400 (१४) २ता (१५) डिग।(१६) भैनसन (१७) शास (१८) मन (१८) ana (२०) भन५८६ (AIRAL relaसाय) (२१) अबाबु oral વસાયથી યુક્ત ધૂળ (આ બાદર પૃથ્વીકાયના ભેદે છે. હવે મણિના ભેદ वामां भावे छे. (२२)गामे (२३) २००त (२४) भ3 (२५) २५टि: (२६) सासिताक्ष (२७) भ२४1 (२८) भसार ८ (२८) भु०८ परिमाय (30) छन्द्र नla (३१) यहन (३२) ३४ (33) सम (३४) yा (34) सौगघि (३६) यन्द्र (३७) पेड्यः (3८) Asia मन (३८) सू त . मा મણિના પ્રકારે છે, Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिशानिरूपणम् ४२५ भणियब्बाओ गाहाभो जाव मुरकंतताए विउदृति' एतेषु भगितल्या एका गाथा यावत्सूर्यकान्ततया विवर्तन्ते, तत्र गोमेद्य-रत्नविशेषः, रजतम्-'चान्दीति' लोकपसिद्धम्, अङ्को रत्नविशेषः, एवं सूर्यकान्ताः सर्वेऽपि रत्नविशेषा ज्ञातव्याः । हे जीवा स्तत्चदयोनिषु समुत्पद्यन्ते ते जीवा तेसि णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारे ति ते जीवा स्तेषां नानाविधानां सस्थावराणां जीवानी स्नेहमाहारयन्ति । 'ते जीवा आहारेंति पुढवीसरीरं जाव संन' ते जीवा आहार. यन्ति पृथिवीशरीरं यावत् स्यात् । 'अवरे वि य णं ते मि तसथावरजोणियाणं पुढवीणं जाव सुरकंताणं' अपराण्यपि खलु तेपां उसस्थावरयोनिकानां पृथिवीनाम यावत्सूर्यकान्तानाम् । 'सरीरा' शरीराणि 'णाणावण्णा जाव मक्खायं' नानावर्णानि यावदाख्यातानि सेपा तिण्णि आलावगा जहा उदगाणे शेषास्त्रय आलापकाः, यथोदकानाम्-पृथिवीकायाः१, पृथिवीयोनिकपृथिवीकाया:२, पृथिवीयोनिकत्रसकायाः३, उदकात् त्रय आलापका वेदितव्याः ॥१९-६१॥ मूलम्-अहावरं पुरक्खायं सवे पाणा सब्वे भूया सब्वे जीवा सब्बे सत्ता णाणाविहजोणिया णाणाविहसंभवा गाणाविह वुकमा सरीरजोणिया सरीरसंभवा सरीरवुक्कमा सरीराहारा कम्मोवगा कम्मनियाणा कम्प्रगइया कम्मठिइया कम्मणा चेव विपरियासमवेति। से एवमायाणाहि ले एवमायाणिता आहारगुत्ते सहिए समिए सया जए त्ति बेमि ॥सू०२०॥ ॥बियसुयक्खंधस्स आहारपरिणा णाम तईयमज्झयणं समत्तं॥ इन गाथाओं में जिनका उल्लेख किया गया है, इन सब सूर्य कान्त पर्यन्त योनियों में उत्पन्न होनेवाले जीव पृथ्वीकाय हैं। वे जीव नाना प्रकार के त्रस और स्थावर जीवों के स्नेह का आहार करते हैं। वे.पृथ्वीकाय भादि का भी आहार करते हैं। उन बस स्थावरयोनिक पृथ्वी जीवों के अन्य भी नाना वर्ण रस गंध स्पर्श वाले शरीर कहे गए हैं, उन्हीं के अनुसार जानना चाहिए ॥१९॥ આ ગાથાઓમાં જેઓને ઉલલેખ કરવામાં આવેલ છે. તે બધા સૂર્યકાન્ત સુધીની નિમાં ઉત્પન્ન થવાવાળા જીવ પૃથ્વીકાય છે. તે છે અનેક પ્રકારના ત્રસ અને સ્થાવર જીવોના સ્નેહને આહાર કરે છે તેઓ પૃથવીકાય વિગેરેને પણ આહાર કરે છે. તે ત્રસુ સ્થાવર નિવાળા પૃથ્વીકાય જીના બીજા પણ અનેક વર્ણ, ગંધ, રસ, અને સ્પર્શવાળા શરીરે કહ્યા છે. તે પ્રમાણે સમજવા. સૂ૦ ૧લ્લા Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કઢ सूत्रकृताङ्गसूत्रे छाया - अथाऽपर पुराख्यातम्, सर्वे प्राणाः सर्वाणि भूतानि सर्वे जीवाः सर्वे सचा, नानाविधयोनिलाः नानाविवसम्भवाः नानाविधव्युत्क्रमाः, शरीर योन्किः शरीरसम्भवाः शरीरव्यु क्रमाः शरीराहाराः कर्मोपगाः कर्मनिदानाः कर्मगतिकाः कर्मस्थिकाः कर्मणा चैन विपर्यासमुपयन्ति । तदेवं जानीहि तदेवं ज्ञात्वा आहारगुप्तः सहितः समितः सदा यतः इवित्रवीमि ॥ ५०२० ॥ ॥ द्वितीयथुतस्कन्धस्य आहारपरिज्ञानाम तृतीयमध्ययनं समाप्तम् ॥ टीका - अतः पर शास्त्रकारोऽध्ययनार्थमुपसंहारन सामान्यरूपेण सर्वपाणिनामवस्थां दर्शयित्वा साधुभिः परिपालने मनोविधेयमिति दर्शयति- 'अहावर " पुरवखायं' अथाऽपरं पुराख्यातम् - तीर्थकरेणापरमपि वस्तु पुरा प्रतिपादितम् । 'सव्वे पाणा' सर्वे प्राणाः-माणिनः, 'सवे भूया' सर्वाणि भूतानि 'सव्वे जीवा' सर्वे जीवाः 'सच्चे सत्ता' सर्वे सच्चा: 'णाणाविदजोणिवा' नानाविधयोनिकाःअनेकप्रकारकयोनिसमुद्भवाः, 'णाणाविश्संभवा' नानाविधसम्भः अनेकप्रकारकयोनिषु स्थिताः, वर्तमानाः 'णागा विबुकमा ' नानाविधव्युत्क्रमाः, इहलोके ये केचन जीवाः, अनेकप्रकारकयोनिषु समु पद्यन्ते - तिष्ठन्ति वर्द्धन्ते च । 'सरीर जोणिया ' शरीरयोनिकाः- शरीरमेव योनिः - उत्पत्तिस्थानं येषां ते तथा-शरीरोत्पन्नाः- लिक्षायुकादयः । तथा-'सरीरसंभवा' शरीरसम्भवाः-शरीर एव स्थिताः - 'अहावरं पुरखा' इत्यादि । टीकार्थ - शास्त्रकार अब अध्ययन के अर्थ का उपसंहार करते हुए सामान्य रूप से सभी प्राणियों की दशा का वर्णन करवाकर यह कहते हैं कि साधुओं को संयम का पालन करने में मन लगाना चाहिए । तीर्थकर भगवान् ने पूर्वकाल में अन्य वस्तु भी कही है । संसार के सभी प्राणी, सर्व भूत, सर्व जीव और सर्व सत्व अनेक प्रकार की योनियों में उत्पन्न होते हैं, अनेक प्रकार की योनियों में स्थित हैं और अनेक प्रकार की योनियों में वृद्धि को प्राप्त होते हैं । इन में लीख जूं 'अहावरं पुरखायं' इत्याहि टीडार्थ- —શાસ્ત્રકાર હવે અધ્યયનના અર્થના ઉપસંહાર કરતાં સામાન્ય પણાથી પણ પ્રાણિયાની દશાનુ વર્ણન કરાવીને એ કહે છે કે—સાધુઓએ 'સંયમનું પાલન કરવામાં મન લગાવવુ' જોઈ એ. તીથકર ભગવાને પૂર્વકાળમાં અન્ય વિષય સ’'ધી પણ યન કરેલ છે. સ`સારના સઘળા પ્રક્રિયે, સઘળા ભૂતા સઘળા જીવા અને સઘળા સર્વે અનેક પ્રકારની ચેનિયામાં ઉત્પન્ન થાય છે અનેક પ્રકારની ચેતિચામાં સ્થિત રહે છે. અને અનેક પ્રકારની ચેનિયામાં વધે છે તેમાં લીખ, Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थचोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिज्ञानिरूपणम् शरीरादेव जायमानाः, 'सरीरवुक कमा' शरीरव्युत्क्रमाः-शरीरे एव परिवर्धमाना भवन्तो दृश्यन्ते। 'सरीसहारा' शरीराहारा-मनुष्यादिशरीरस्यैवाऽऽहारं कुर्वन्ति । 'कम्मोवगा' कर्मोपगा:- स्वस्वकर्मशमाः 'कम्मणियाणा' कर्मनिदाना:-कमैव निदानमादिकारणं येषां ते तथा-कर्माऽऽत्महेतुमासाद्य तत्र तत्र जायन्ते, 'कम्मगइया' कर्मगतिका:-कर्माऽनुमारगतियुक्ताः, 'कम्मट्रिइया' कर्मस्थितिका:कर्माऽनुसारस्थितिमन्तः 'कम्मणा चे विपरियाप्तमुवे ति कर्मणा चैव विपर्यासम्-अनेकविधगतिमुपयन्ति । ‘से एवमा पाणाहि' तदेवं जानीहि जीनाः कर्मपराधीनाः कालाऽधीना भवन्ति । 'से एवमायाणित्ता' तदेवं ज्ञात्वा 'आहारगुत्ते' आहारगुप्तः-सदोषाहारानिवृत्तो भव, 'सहिए' सहिता-निरवद्याहारयुको भव 'समिए' समितः-पश्च समितिसमितो भव 'सया जए' सहा यता-संयमे यतनावान् __ भव. 'त्ति बेमि' इति ब्रवीमि, सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं कथयति-हे शिष्य ! एवमेव यथोक्तं मया जी रविपये आहारादिकं कर्मस्वरूप त्वं जानीहि, ज्ञात्वा च आदि शरीरयोनिक हैं अर्थात् शरीर में उत्पन्न होते हैं, शरीर में स्थित होते हैं और शरीर में ही बढते देखे जाते हैं। वे मनुष्य आदि के शरीर का ही आहार करते हैं। अपने अपने कर्म के वशीभूत हैं। कर्म ही उनका आदि कारण है। कर्म के अनुसार उनकी गति होती है, कर्म के अनुसार स्थिति होती है और कर्म से ही उनमें उलटफेर होना है। अतएव यह समझो कि संसार के समस्त प्राणी कर्म के अधीन हैं। ऐसा जानकर सदोष आहार से निवृत्त होओ, निर्दोष आहार से यक्त होमो, समितियों से समित तथा सदैव संयम में यातनावान बनो। त्ति वेमि' सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं-हे शिष्य ! जीव के आहार आदि के विषय में तथा कर्म स्वरूप के विषय में मैंने जो कहा જ વિગેરે શરીર સબંધી નિવાળા છે, અર્થાત્ શરીરમાં ઉત્પન્ન થાય છે શરીરમાં સ્થિત હોય છે, અને શરીરમાં જ વધતા દેખાય છે તે મનુષ્ય વિગેરેના શરીરને જ આહ ૨ કરે છે. પિત પે તાને કમને વશ થયેલા છે કર્મજ તેઓનુ આધિકારણ છે કર્મ પ્રમાણે તેઓની ગતિ થ ય છે. કર્મ પ્રમાણે જ સ્થિતિ હોય છે અને કર્મથી તેઓમાં ઉલટ પાલટ થાય છે. તેથી જ એમ સમજવું કે-જાતના સઘળા પ્રાણિયા કમને જ આધીન છે, આ પ્રમાણે સમજીને સદોષ-દોષવાળા આહારથી નિવૃત્ત થવું નિર્દોષ આહારથી યુક્ત થવું. સમિતિથી સમિત તથા હમેશાં સંયમમાં યતનાવાનું બને त्ति वेमि' सुध-स्वामी सभ्यूस्वाभी२ ४ छ - शिष्य ! આહાર વિગેરેના સ બ ધમાં તથા કર્મના સ્વરૂપના સબંધમાં મેં જે કથન કર્યું Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૦ सूत्रकृतासूत्रे आहारसमितिगुप्त्या दिभिर्युक्तः सदा सयमपरिपालने प्रयत्नवान् भवेति कथयामि । सर्वेऽमी प्राणिनो वद्धैः कर्मभिरायत्ताः भासाद्याऽऽपाद्य तत्तच्छरीरं तस्मिन् शरीरे भवन्ति तिष्ठन्ति वर्द्धन्ते च पौनःपुन्येन शरीरमाहरन्तः साच्यकर्मणा पाप सञ्चित्य भ्रमन्ति संसारचक्रमितस्ततः । अतः सावद्यं कर्माऽनुष्ठानं जहीहि, संयमं पालय । एप उपदेश: शास्त्र ज्ञानुशासन च तीर्थकृताम् । 'वियसुयक्खधस्स' द्वितीयथुवस्वन्धस्य 'आहारपरिणाणाम' आहारपरिज्ञानाम 'तई मज्झ समत्तं' तृतीयमध्ययनं समाप्तम् ॥०२० ॥ इति श्री विश्वविख्यात जगद्बल्ल मादिपद भूषित बालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य ' पूज्यश्री - घासीलालन विविरचितायां श्री सूत्रकृताङ्गसूत्रस्य "समयार्थवोधिन्या रूपया” व्याख्यया समलङ्कृतम् द्वितीयश्रुतस्कन्धीयाऽऽहारपरिज्ञानाम तृतीयोऽध्ययनं समाप्तम् ॥ है, उसे जानो और जान कर आहार संबंधी समिति से युक्त तथा गुप्त आदि से सम्पन्न होकर सदा संघम पालन में प्रयत्नवान् बनो । यही मैं कहता हूं। सभी प्राणी कर्मों के अधीन हैं और विभिन्न शरीरों को प्राप्त करके उनमें उत्पन्न होते, स्थित रहते और बढते हैं । वे वार वार शरीर धारण करके पापमय कृत्य करते हैं, पाों का संचय करते हैं और संसार अटवी में परिभ्रमण करते हैं । अतएव सावध कर्मों को तज दो और साधु दीक्षा को धारण करके, आहार शुद्धि से युक्त तथा शुद्ध और बुद्ध बनकर संयमपालन संबंधी अन्तराय को दूर करो। यही तीर्थंकरो का उपदेश है, यही शास्त्राज्ञा हैं और यही अनुशासन हैं ॥२०॥ || दूसरा अनस्कन्ध का तीसरा अध्ययन समाप्त ॥ છે. તેને સમજો અને સમજીને આહાર સમિતિથી યુક્ત તથા ગુપ્તિ વિગેરેથી યુક્ત થઈને સદા સયમ પાલન કરવામાં પ્રયત્નવાન્ મના, એજ હું કહું છું. સઘળા પ્રાણિયા કને જ અધીન છે અને જૂદા જૂદા શરીરશને પ્રાપ્ત કરીને તેમાં ઉત્પન્ન થાય છે. સ્થિત રહે છે. અને વધે છે. તે વારવાર શરીરને ધારણ કરીને પાપ મય કૃત્યો કરે છે. પાપાને સગ્રહ કરે છે અને સસાર રૂપી જંગલમાં ભટકતા રહે છે તેથી જ સાવધુ કર્માંના ત્યાગ કરવા. અને સાધુ દીક્ષને ધારણ કરીને આહાર શુદ્ધિથી યુક્ત તથા શુદ્ધ અને બુદ્ધ બનીને સંયમ પાલન સંબંધી અંતરાયને દૂર કરા. એજ તીથ કરેના ઉપદેશ છે, એજ પ્રમાણે શાસ્રની આજ્ઞા છે અને એજ અનુશાસન છે. ાસૂ૦૨૦ના ના ખીજા શ્રુતસ્ક ંધનું ત્રીજું અધ્યયન સમાપ્ત શાર-ણા Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३१ समयार्थबोधिनी दीका द्वि. श्रु. अ. ४ प्रत्याख्यानक्रियोपदेशः अथ चतुर्थमध्ययनं प्रारभ्यतेकृतीयाऽध्ययनाऽन्ते-'आहारविशुद्धिः कर्तव्या' इत्युपदिष्टम् । आहारविशु. दया श्रेयःमाप्तिः तदभावे पानथप्राप्तिा, इति-अन्वयव्यतिरेकाभ्यां साधनभूताया आहारविशुद्धेः श्रेयः प्राप्तिकारणतां ज्ञात्वा श्रेयसोऽयिमिराहारगुप्तिः कर्ता ग्या । परन्तु-आहारविशुद्विर्न प्रत्याख्यानमन्तरेण सम्भवति, अत आहारविशुद्धः कारणभूतमत्याखानोपदेशाय चतुर्थाऽध्ययनस्य मारम्मो मनति। __मूलम्-सुयं मे आउसं तेणं भगवया एवंमक्खायं । इह खलु पच्चक्खाणकिरिया णामज्झयणे तस्स णे अयमटे पण्णत्ते। आया अपच्चक्खाणी यावि भवइ ।' आया अकिरिया कुसले यांवि भवइ । आया मिच्छा संठिए यावि भवइ, आया एगंतदंडे यावि भवइ, आया एगंतबाले यावि भवइ, आया एगंत चतुर्थ अध्ययन का प्रारंभ तीसरे अध्ययन के अन्त में आहार शुद्धि का उपदेश दिया गया है। आहार शुद्धि से कल्याण की प्राप्ति होती है और उसके अभाव में अनर्थ की प्राप्ति होती है । इस प्रकार अन्वय और व्यतिरेक के द्वारा आहार विशुद्धि श्रेयम् का कारण है। ऐसा जानकर श्रेयस (कल्याण) के अभिलाषी पुरुषों को आहार गुप्ति का सेवन करना चाहिए। परन्तु आहार की विशुद्धि प्रत्याख्यान के विना संभवित नहीं है, अतएव आहारशुद्धि के कारणभूत प्रत्याख्यान क्रिया का उपदेश देने के लिए चौथे अध्ययन का आरंभ किया जाता है-'सुयं मे आउसं तेणे' इत्यादि। ચેથા અધ્યયનને પ્રારંભ– ત્રીજા અધ્યયનના અંતમાં આહાર શુદ્ધિને ઉપદેશ આપેલ છે. આહાર શુદ્ધિથી કલ્યાણની પ્રાપ્તિ થાય છે અને તેના અભાવમાં અનર્થ થાય છે. આ રીતે અન્વય અને વ્યતિરેક દ્વારા આહાર વિશુદ્ધિ કલ્યાણનું કારણ છે. એ પ્રમાણે જાણીને કલ્યાણની ઈચ્છા રાખવા વાળા પુરૂએ આહાર ગુપ્તિનું સેવન કરવું જોઈએ પરંતુ આહારની વિશુદ્ધિ પ્રત્યાખ્યાન વિના સંભવતી નથી, તેથી જ આહારશુદ્ધિને કારણ ભૂત પ્રત્યાખ્યાન ક્રિયાને ઉપદેશ આપવા માટે આ ચોથા અધ્યયનને પ્રારંભ કરવામાં આવે છે–આ અધ્ય यना पड़ सूत्र मा 'प्रभा छे. 'सुयं मे आउसं तेण' (त्यादि. Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શરૂ सूत्रकृतासूत्रे सुत्ते यावि भवइ, आया अवियारमणवयणकायवके यावि भवइ, आया अप्पडिहयअपच्चक्खायपावकम्मे यावि भवइ, एस खल्ल भगत्रया अक्खाए असंजए अविरए अप्पडिहयअप. उचक्खायपावकम्मे सकिरिए असंवुड एगंतदंडे एगंतवाले एगंतसुत्ते से बाले अवियारमणवयणकायवक्के सुविणमवि ण पस्तइ पावे य से कम्मे कज्जइ ॥सू०१-६३॥ । छाया--श्रुतं प्रया-आयुष्मन् तेन भगवता एवमाख्यातम् । इह खल प्रत्या ख्यानक्रियानामाऽध्ययनं तस्य च असमर्थः प्रज्ञप्तः । आत्मा अप्रत्याख्यानी अपि भवति, आत्माऽक्रियाकुशलथापि भवति, आत्मा मिथ्यासंस्थितश्चाऽपि भवति, आत्मा एकान्तदण्डश्चापि भवति, आत्मा-एकान्तवालश्वाऽपि भवति, आत्मा-एका. न्त सुप्तश्चःऽपि भवति, आत्माऽ-विचारमनोव वनकायवाक्यश्चाऽपि भवति, आत्माऽपतिहताऽप्रत्याख्यातपापकर्माचाऽपि भवति । एप खलु भगवता आख्या. तोऽसंयतोऽविरतोऽप्रतिहताऽपत्याख्यातपापकर्मा सक्रियोऽसंत एकान्तदण्ड एकान्तवाल एकान्तसुप्तः । स वालोऽविचारमनोवचनकायवाक्यः स्वप्नमपि न पश्यति, पापं च स कर्म करोति ।मु०१-६३॥ ___टीका--'मे' मया 'आउस' हे आयुष्मन् जम्बू ! 'तेणं भगवया' तेन 'भगवता तीर्थकरेण श्रीमहावीरस्वामिना 'एवमक्खाय' एवम् वक्ष्यमाणं वचः आख्यातम्-प्रतिपादितमिति 'सुयं' श्रुतम्-श्रवणविषयीकृतम् तदेवाहं भवते कथयामि । तथाहि-इह खलु पञ्चक्खाणकिरियाणामज्झयणं' इह खलु-जिनशासने पत्याख्यानक्रियानामाऽध्ययनम् 'तस्स णं अयप्र? पण्णत्ते' तस्य-क्रियानामाऽध्य. ___टीकार्थ -सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं, हे आयुष्मन् जम्बू ! तीर्थकर भगवान् श्रीमहावीरस्वामी ने ऐसा प्रतिपादन किया है, मैंने सुना है। वही मैं तुम से कहता हूं। जिनशासन में प्रत्याख्यान क्रिया नामक अध्ययन कहा गया है । उस अध्ययन में यह अर्थ प्रति. ટીકાર્ય—સુધમ વામી જંબૂ સ્વામીને કહે છે—હે જબૂ તીર્થકર ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વામીએ આ પ્રમાણેનું પ્રતિપાદન કર્યું છે. તે મે સાંભળ્યું છે, એજ હું તમને કહું છું. આ જીનશાસનમાં પ્રત્યાખ્યાન ક્રિયા નામનું અધ્યયન કહેલ છે તે અધ્યયનમાં આ પ્રમાણેનો અર્થ પ્રતિપાદન કરેલ છે. -આત્મા પ્રત્યાખ્યાની પણ હેય છે, અર્થાત્ આભા પિતાના અનાદિ વિકૃત Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ४ प्रत्याख्यानक्रियोपदेशः ४३३ यनस्य ‘णमिति वाक्यालङ्कारे' असमर्थः कथितः 'आया अपञ्चक्खाणी यावि भवई' आस्माऽप्रत्याख्यानी चापि भवति-आत्मा स्वभावत एवाऽपत्यार पानी भवति अनादिस्वभाववस्वाद अपि शब्दात् प्रत्याख्यान्यपि भाति उक्तहेतौ मुले जीव. बोधनाय जीव इति पदमप्रयुज्य-आत्मेति कथनं साभिमायम् । सोऽयमभिपाय: पाणधारणात जीव इति कथ्यते, अवति-सततं भवद्भवान्तरं गच्छतीत्यात्मा, तथा चाऽऽत्मेति पदं प्रयुज्य अयमों दर्शितः। यस्तावद्यकर्माण्यपरित्यजन् कर्मबलात् सर्वदैव गमनशीलो न तु कथमपि महता कालेनाऽपि शान्ति प्राप्नोति। किन्तु-सर्वदैवेतस्ततः परिभ्रमति, 'आया अकिरिया कुसळे यावि भवई' आत्मा. पादित किया गया है-आत्मा अपत्याख्यानी भी होता है। अर्थात आत्मा अपने अनादि विकृत स्वभाव से ही अप्रत्याख्यानी है। यहाँ मूल में 'भी' शब्द का प्रयोग यह सूचित करता है कि कोई कोई आत्मा प्रत्याख्यानी भी होता है। मूलपाठ में 'जीव' का योध कराने के लिए 'जीव', शब्द का प्रयोग न करके 'आत्मा' शब्द का जो प्रयोग किया गया है। उसका विशेष अभिप्राय इस प्रकार है-प्राणों को धारण करने के कारण जीव कहा जाता है और जो एक भव से दूसरे भव में गमन करता रहता है, वह अस्मा कहलाता है यहां 'आत्मा' शब्द का प्रयोग करके यह अर्थ प्रकट किया गया है कि सावद्य कृत्यों को न त्याग करके कर्म के वह वशवर्ती होकर जो सर्वदा गमनशील है, दीर्घकाल व्यतीत हो जाने पर भी जिसे शान्ति नहीं मिली है, जो सदा इधर उधर भटकता फिरता है, वह आत्मा अप्रत्याख्यानी होता है। સ્વભાવથી જ અપ્રત્યાખ્યાની છે અહિયા મૂળમાં “ધી” શબ્દ પ્રયોગ એ સૂચવે છે કે-કઈ કઈ આત્મા પ્રત્યાખ્યાની પણ હોય છે તેમ સમજવું भूख ५४मा 'जीव' न ५ ४२।११। भाट 1' शनी प्रयोग न કરતાં “આત્મા’ શબ્દને જે પ્રયોગ કરવામાં આવ્યું છે, તેને વિશેષ અભિ પ્રાય આ પ્રમાણે છે –પ્રાણેને ધારણ કરવાના કારણે જીવ કહેવાય છે. અને જે એક ભવથી બીજા ભવમાં ગમન કરતા રહે છે, તે આત્મા કહેવાય છે. અહિયાં “આત્મા’ શબ્દને પ્રવેગ કરીને એ અર્થ પ્રગટ કરેલ છે કેસાવદ્ય કૃત્યને ત્યાગ ન કરતાં કર્મને વશવર્તી થઈને જે હંમેશા ગમન શીલ છે, દીર્ઘકાળ વીતી જાય તે પણ જેને શાંતિ મલતી નથી જે હમેશાં આમ 'તેમ ભટકતા ફરે છે, તે આત્મા અપ્રત્યાખ્યાની હોય છે. Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સમઢ सूत्रकृताङ्गसूत्रे " -ऽक्रिया कुशलबाजी, शुक्रियां न करोति तादृशोऽपि भवति । कश्चन - अपि शाक्रियाकारी अपि मरति । 'आया मिन्छासदिए यावि भवः' आत्मा मिथ्या संस्थितश्चापि भवति मिष्टिरपि भवति जीव इत्यर्थः अपि शब्दात् सम्यदष्टिरपि, 'आया एगंतदडे यावि माई' आत्मा एकान्तदण्डवापि भवति, एकान्तदण्डको हिंसकः अपि शब्दादहिंसकर 'आया पुतवाळे यावि भव' आत्मा एकान्तबालथाऽपि भवति, एकान्ततोऽज्ञानी अपि शब्दात् ज्ञानी अपि भवति 'आया एतत्ते यादि मबई' आत्मा - एकान्त सुप्तश्व, अपिशब्दात्मवि बुद्धोऽपि सुतवत् सुप्तः यथा द्रव्यसुतः पुरुषः शब्दादिविषयान् न जानाति तथैव भावसुप्त आत्मा हिताहितमाप्तिपरिवार विकलख । 'आया अवियारमण आत्मा अक्रिया कुशल भी होता है अर्थात् कोई आत्मा ऐसा भी होता है जो शुभ क्रिया नहीं करता है । यर्श पर भी 'भी' शब्द से यह सूचित किया है कि कोई आना शुभ क्रिशकारी भी होता है । आत्मा मिपादृष्टि भी होता है और 'भी' शब्द से सम्यग्दृष्टि भी होता है । इसी प्रकार आत्मा एकान्तदण्डहिंसक भी होता है और 'भी' शब्द से कोई कोई अहिंसक भी होता है। आत्मा एकान्त पाल (अज्ञानी) भी होता है और 'भी' शब्द से ज्ञानी भी होता है । आत्मा एकान्ततः सुप्त भी होता है और कोई कोई प्रतिबुद्ध भी होना है। यहां सुप्त के समान जो दो वह सुप्त कहा गया है । जैसे द्रव्यनिद्रा से सुप्त पुरुष शब्दादि विषयों को नहीं जानता है, उसी प्रकार भाव से सुप्त पुरुष को हित की प्राप्ति और अहित के આત્મા અક્રિયા કુશળ પણુ હાય છે અર્થાત્ કેઈ આત્મા એવા પશુ હાય છે. કે જે શુક્રિયા કરતા નથી અડિયાં પણ મી' શબ્દથી એ ખતાવ્યુ છે કે-કેાઈ આત્મા ક્રિયાકારી પણ હાય છે. આત્મા મિથ્યા દૃષ્ટિ પણ હોય છે. અને ‘માઁ’ શબ્દથી સમ્યગ્દષ્ટિ પણ होय हे. मे प्रभा आत्मा मेमन्त दंड हिसा या होय छे भने 'ली' શબ્દથી કાઈ કાઈ અહિંસક પણ હોય છે. આત્મા એકાન્ત ખાલ (અજ્ઞાની) પશુ હાય છે. અને *સી' શબ્દથી જ્ઞાની પણ હાય છે मात्मा अन्तत: / સુપ્ત પશુ હાય છે. અને કાઇ કાઇ પ્રતિયુદ્ધ પણ હાય છે. અહિયાં સુપ્ત સરખા જે હાય તેને સુપ્ત કહેલ છે. જેમ દ્રવ્ય નિદ્રાથી સુતેલા પુરૂષને શબ્દ વિગેરે વિષ્યાનું જ્ઞાન હૈાતું નથી. એજ પ્રમાણે ભાવથી સૂતેલા પુરૂષને હિતની પ્રાપ્તિ અને અહિતના પરિહાર-ત્યાગનું જ્ઞાન હતું નથી. આત્મા Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि शु. अ.४ प्रत्याख्यानक्रियोपदेशः ४३५ वयणकायवक्के यावि भाइ' आत्माऽविवारमनोवचनकायमाझ्यश्चाऽपि भवति, तत्र मनोऽन्तःकरणम् , वाग्वाणी, कायो देहः, अर्थपतिपादकं पदसमूहात्मकं वाक्यमेकं सुवन्तं तिडन्तं वा तत्र विचाररहितः सन् आत्मा अविचारितमनोवाक् कायवाक्यो भवति-सावधनिरवध विचाररहितो भवति, अपि शब्दाद् विचारित मनोवाककायवाक्यश्चेति । 'आया अप्पडिइय अपञ्चक्खायपावकम्मे यावि भवई' आत्मा-अमतिहताऽपत्याख्यातपापकर्माऽपि भवति, प्रतिहत-वर्तमानकाले स्थित्यनुभागहासेन नाशित-प्रत्याख्यातं-पूर्वकृताविचारनिन्दया भविष्यत्यकरणेन निराकृतं पापं कर्म येन स प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा तद्भिन्नोऽप्रतिहताऽ. प्रत्याख्यातपापकर्मा, अपि शब्दात् प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्माऽपि भवतीति । परिहार का ज्ञान नहीं होना है। आत्मा अपने मन, वचन, काय और वाक्य का विना विचारे उपयोग करने वाला भी होता है। मन अर्थात अन्तःकरण, वचन अर्थात् वाणी, काय अर्थात् देह । किसी अर्थ का प्रतिपादन करने वाला पदों का समूह वाक्य कहलाता है, कोई पद सुबन्त होता है, कोई तिङन्त होता है। तात्पर्य यह है कि प्रत्याख्यान से रहित आत्मा विचार हीन होता है। वह सावद्य एवं निरवद्य का विचार न करके मन, वचन, काष और वाक्य का प्रयोग करता है। आत्मा अपने पापकों को प्रतिहत और प्रत्याख्यात नहीं भी करता है। वर्तमान काल में कर्म की स्थिति और अनुभाग को कम करके नष्ट करना प्रतिहत करना कहलाता है। पूर्वकृन अतिचार की निन्दा करना और भविष्य में उस पापकर्म को न करने का संकल्प करना प्रत्याख्यात પિતાના મન, વચન, કાય, અને વાકયને વગર વિચાર્યું ઉપયોગ કરવાવાળા પણ હોય છે. મન અર્થાત અંતઃકરણ, વચન અર્થાત્ વાણી કાય, અર્થાત દેહ કઈ પણ અર્થનું પ્રતિપાદન કરવાવાળા પદોને સમૂડ વાક્ય કહેવાય છે. કેઈ સુખન્ત પદ હોય છે. કેઈ તિડ પદ હોય છે તાત્પર્ય એ છે કે–પ્રત્યાખ્યાન વિનાને આત્મા વિચાર વગરનો હોય છે. તે સાવદ્ય અને નિરવને વિચાર ન કરતાં મન, વચન કાય અને “વાક્યને પ્રગટ કરે છે. આમા પોતાના પાપકર્મોને પ્રતિહત અને પ્રત્યા ખ્યાનથી પણ કરતા વર્તમાન કાળમાં કર્મોની સ્થિતિ અને અનુભાગને કમ કરીને નાશ કરવું તે પ્રતિહત કરવું કહેવાય છે. પહેલાં કરેલા અતિચારની નિંદા કરવી અને ભવિષ્યમાં તે પાપકર્મને ન કરવાનો સંકલ્પ કરે તે Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रताको 'एम खलु भगाया अक्खार असंजए विप अपपडिहयापनक्खायपावाम्मे सफिरिण अपंखुडे एगदंडे एगंतवाले एगंतमुत्ते' एप खलु मगाता-पायातः असंपतोऽविरतो पतिहनाऽपत्याख्यातपापकर्मा सक्रियोऽवृतः एकान्त दण्डः एकान्तवालः एकान्तसुतः, तत्र असंपतः-वर्तमानकालीनसावधानुष्ठानमत:अविरत:-अतीतानागतपापात् अनिनः, अप्रतिहताऽपत्याख्यातपापकर्मा पाप. कर्मनिरतः सक्रियः सायक्रियावान् असंटत:-आसपाकर्मनिरोधकव्यापार. रहितः। एकान्तदण्डकः-हिमाः एकान्त गला-एकान्तऽज्ञानी एकान्तमुप्तासुप्तवत् मुप्तः, एतादृशो जीवो यथोक्तविशेषणविशिष्ट:-एकान्तदण्ड इत्यादि करना कहलाता है । 'भी' शब्द से यह सूचित किया गया है कि कोई कोई आत्मा पापकर्म को प्रतिहत और प्रत्याख्यान करने वाला भी होना है। इस प्रकार जो आत्मा प्रत्याख्यानी नहीं है, उसे भगवान् ने असंयत, अविरत अप्रतिहत अप्रत्याख्यातपापकर्मा, सक्रिय, असंत, एका. न्तदण्ड, एकान्तवाल तथा पाना सुप्त का है। वर्तमान काल में मावद्य कृत्यों में जो प्रवृत्ति कर रहा हो वह असंयत कहलाता है। अतीत और अनागत कालीन पाप से जो निवृत्त न हो वह अविरत कहा जाता है जो पापकर्म में रत है वह अप्रतिहत अप्रत्याख्यातपापकर्मा कहलाता है। जो सावद्य क्रिया से युक्त हो, वह सकिन है। जो आते हुए कर्मा को रोकने वाले व्यापार से रहित हो वह असंवृत कर. लाता है। एकान्तदण्ड का अर्थ है हिंसक। एकान्तपाल अर्थात् अज्ञानी । एकान्त सुप्त की व्याख्या पहले की जा चुकी है। પ્રત્યાખ્યાન કરવું કહેવાય છે. “ભી' શબ્દથી એ સૂચિત કરેલ છે કે કોઈ કેઈ આત્મા પાપકર્મને પ્રતિહત અને પ્રત્યાખ્યાત કરવા વાળા પણ હોય છે આ રીતે જે આત્મા પ્રત્યાખ્યાની નથી હતા તેને ભગવાને અસં. यत, अविरत, मप्रतिहत, अप्रत्याभ्यात ५.५४र्मा, सठिय, मत, मेमन्त દંડ, એકાન્ત બાલ તથા એકાત સુણ કહેલ છે વર્તમાન કાળમાં સાવદ્ય કૃમાં જે પ્રવૃત્તિ કરી રહ્યા હોય તે અસંયત કહેવાય છે અતીત અને 'અનાગત કાળના પાપથી જે નિવૃત્ત ન હોય તે અવિરત કહેવાય છે જે 'પાપકર્મમાં રત છે, તે અપ્રતિહત અપ્રત્યાખ્યાત પાપકર્મો કહેવાય છે, જે 'સાવદ્ય ક્રિયાઓથી યુક્ત હોય તે સક્રિય છે. જે આવતા કર્મોને રોકવાવાળી પ્રવૃત્તિથી રહિત હોય તે અસંવૃત્ત કહેવાય છે. એકાન્તદંડને અર્થ હિંસક એ પ્રમાણે છે એકાન્તબાળને અર્થ અજ્ઞાની એ પ્રમાણે સમજ. અને એકાંતસુખની વ્યાખ્યા પહેલાં કરવામાં આવી ગઈ છે. Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेमयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ४ प्रत्याख्यानक्रियोपदेशः ४७ शब्दैराख्यातस्तीर्थकृता । 'से बाले अवियारमण वयण कायवक्के' स वालः अविचारमनोवचनकायशक्या-सोऽज्ञानी मनोव वनकायविवाररहितः-हिताऽहितप्राप्तिपरिहारविचाररहितः 'सविणमवि ण पस्सई' स्वप्नमपि न पश्यति, पटुज्ञानरहितः श्रुचारित्रलक्षणं धर्म स्वप्नेऽपि न पश्पति, 'पावे य से कम्मे कज्जई' पापं च कर्म तेन क्रियते-तत्र तेन बालेन पापं कर्म-प्राणातिपातादि क्रियते ।।०१।६३॥ मूलम्-तत्थ चोयए पन्नवगं एवं वयासी-असंतएणं मणेणं पावएणं असंतियाए वईए पावियाए असंतपण काएणं पावएणं अहणंतस्ल अमणक्खस्त अवियारमणवयणकायवक्कस्त सुविणमवि अपस्तओ पावकम्मे णो कज्जइ, कस्ल णं तं हेडं? चोयए एवं बीई-अन्नयरेणं मणेणं पावएणं मणरीत्तए पावे कम्मे कज्जइ, अन्नयरीए वईए पावियाए वतिवत्तिए पावे कम्मे कज्जइ, अन्नयरेणं काएणं पावएणं कायवत्तिए पावे कम्मे कज्जइ, हणंतस्स समणक्खस्स सवियारमणवयणकायवक्कस्स सुविणमवि पासओ एवं गुणजातीयस्त पावे कम्मे कज्जइ । पुणरवि चोयए एवं बबीइ तत्थ णं जे ते एवमाहंसुअसंतएणं मणेणं पावएणं असंतीयाए वईए पावियाए असं ऐसा अज्ञानी जीव मन वचन काय और वाक्य का विना विचारे प्रयोग करता है, हित की प्राप्ति और अहित के परिहार के विचार से रहित होता है । वह यथार्थ ज्ञान से रहित पुरुष स्वप्न में भी श्रुत. चारित्र धर्म को नहीं देखना । वह अज्ञानी पाएकर्मों का संचय करता है और प्राणातिपात हिंसा आदि कृत्य करता है ॥१॥ એવા અજ્ઞાની છે મન, વચન, કાય અને વાયના પ્રયોગ વગર વિચાર કરે છે. હિતની પ્રાપ્તિ અને અહિતના પરિહારના વિચારથી રહિત હોય છે. તે યથાર્થ જ્ઞાન વિનાને પુરૂષ સ્વપમાં પણ શ્રત ચારિત્ર ધર્મને જેતા નથી તે અજ્ઞાની પાપ કર્મોનો સંચય કરે છે. અને પ્રાણાતિપાત-હિંસા વિગેરે કૃ કરે છે. સૂ૦ ૧ Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પત AMA सूत्रकृतात्रे तएण कापणं पावणं अहणंतस्स अमणक्खस्त अवियारमणवयणकायवक्कल सुविणमवि अपस्लओ पावे कम्मे कज्जइ, तत्थ णं जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमाहंसु । तत्थ पन्नव चोयगं एवं वयासी- तं सम्मं जं मए पुर्व वृत्तं, असंतणं मणेणं पावएणं असंतियाए वईए पावियाए असंतपूर्ण काणं पावणं अहणंतस्स अमणक्खस्स अवियारमणवयणकायवक्कल सुविणमवि अपस्लओ पात्रे कम्मे कज्जइ, तं सम्मं, कस्स णं हेउं ? | आयरिए आह- तत्थ खलु भगवया छज्जीवणिकाय हेऊ पण्णत्ता, तं जहा पुढवीक'इया जाव तसकाइया, इच्चे एहिं छहिं जीवणिकाएहिं आया अप्पsिहयपच्चFareपावकम्मे निच्चं पसढविउवायचित्तदंडे, तं जहा-पाणाइवाए जाव परिग्गहे कोहे जाव मिच्छादंसणसल्ले । आयरिए आह- तत्थ खलु भगवया वहए दिट्टंते पण्णत्ते, से जहा णामए वहए सिया गाहाबइल वा गाहावइपुत्तस्स वा रण्गो वा रायपुरिसस्त वा खर्ण लहूणं पविसिस्सामि खणं लहूगं वहिस्लामि संपहारेमाणे से किं नुहु नाम से वहए तस्स गाह'वइस्स वा गाहावइपुत्तस्स दा रण्णो वा रायपुरिसस्त वा खणं लहूणं पविस्तामिखणं लडूणं वहिस्सामि पहारेमाणे दिया वा राओ वा सुते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए निच्चं पसढविउवायचित्तदंडे भवइ ?, एवं वियागरेमाणे समियाए वियागरे चोयए हंता भवइ । आयरिए आह-जहा से Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका वि. व. अ. ४ प्रत्याख्यानक्रियोपदेशः ४३९ वहए तस्त गाहावइस्स वा तस्स गाहावइपुत्तस्स वा रपणो वा रायपुरिसस्स वा खणं लघृणं पविसिस्लामि खणं लधुणं वहिस्सामि त्ति पहारेमाणे दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए निच्चं पसढविउवायचित्तदंडे, एवमेव बाले वि सव्वेसिं पाणाणं जाव सवेसि सत्ताणं दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए णिच्चं पसढविउवायवित्तदंडे, तं जहा-पाणाइवाए जाव मिच्छादसणसल्ले, एवं खल्लु भगवया अक्खाए असंजए अविरए अप्पडिहयअपच्चक्खायपावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगंतदंडे एगंतबाले एंगंतसुत्ते यावि भवइ, से बाले अवियार. मणवयणकायवक्के सुविणमवि ण पस्सइ पावे य से कम्मे कज्जइ। जहा से वहए तस्स वा गाहावइस्ल जाव तस्स वा रायपुरिसस्स पत्तेयं पत्तेयं चित्तसमादाए दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए निच्चं पसढविउवायचित्तदंडे भवइ, एवमेव बाले सव्वेसिं पाणाणं जाव सवेसि सत्ताण पत्तेयं पत्तेयं चित्तसमादाए दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए निच्चं पसढविउवायचित्तदंडे भवइ ॥सू०२-६४॥ छाया-तत्र ने दकः प्रज्ञापकमेवमवादीत् असता मनसा पापकेन असत्या वाचा पापिकया असता कायेन पापकेन अनवोऽमनस्कस्य अविचारमनोवचनकायवाक्यस्य स्वप्नमप्यपश्यतः पापं कर्म न क्रियते । कस्य खलु हेतोः, नोदक एवं ब्रवीति-अन्यतरेण मनमा पापकेन मनःमत्ययिकं पापं कर्म क्रियते, अन्यतरया वाचा पापिकया वाकूमत्ययिकं पापं कर्म क्रियते, अन्यतरेण कायेन पापकेन Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्रमतामो काय प्रत्यागिक पं कम क्रियते, तुः समनकस्य सविचारमनोवचनकायवाक्यग्य वप्नमपि पश्यतः एवं गुलजाती यस्य पाप कर्म क्रियते । पुनरपि नोदकः एवं नीति तत्र वतु ये ते एवमाहुः श्रमता मनमा पापकेन अपत्या वावा पापिकया नमसा कायेन पापके न प्रनतोऽमनस्कम्य अविचारमनोवचन का यवाक्यस्य स्वप्न. मध्यपश्यतः पापं कर्म क्रियते । तत्र खलु ये ते एचमाहु निथ्या ते एवगाहुः । तत्र पापको नोदकमेवमयादीत् तत्सम्यग् यमया पूर्णमुक्तम्-अप्सता मन ना पाप केन अमत्या वाचा पापिका असना कायेन पापकेन अनतोऽमनस्कस्य अविचारमनो वचनकायवाक्याय स्वप्नमप्यपपतः पापं कर्म क्रियते तत् सम्यक्, कस्य खल हेनोः? -आचार्य प्राह तत्र खलु भगवता पजीवनिकायहेतवः प्रज्ञमाः तयथा-पृथिवी कायिका यावत् सकायिकाः, इत्येतेः पइभिर्जीवनिकारात्मा अपतिहताऽपत्या. ख्यातापकमा नित्यं मराठयतिपातचित्तदण्डः तया-प्राणातिराने यापन परिग्रहे कोधे यावन्मिथ्यादर्शनशल्ये। आचार्य आह-तत्र भगवतावधष्टान्तः प्रज्ञप्त', तद्यथा नाम वधकः म्याद् गाथापतेर्वा गाथापतिपुत्रस्य वा गज्ञो वा राजपुरुषस्य वा, क्षणं लामवेस्यामि क्षणं लब्ध्वा हनिष्यामि इति सम्मधारयन् म किं नु नाम वधः तस्य गाथापतेर्वा गायापतिपुत्रस्य वा राज्ञो वा राजपुरुषस्य वा क्षणं लब्ध्वा प्रवेक्ष्यामि अणं लकवा हनिष्यामीति सपधारयन् दिवा वा रात्री वा सुप्तो वा जाग्रद्वा अमित्र भूतः मिथ्यामंम्बित: निन्यं प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डो भवति ? एवं गागीयमाण: ममेस्प व्यागृगन्नोद हा हन्त,? गवति । आचार्य आह यथा रा वधकः तस्य गाथापते व गायापतिपुत्रस्य वा राज्ञो वा राजपुरुषस्य वा क्षण लमा प्रवेश्यामि क्षणं दवा हनिप्यामीनि सम्मधारयन् दिवा वा रात्री वा मृप्तो वा जाग्रत् वा अमित्र भूनः मियास्थितः नित्यं प्राठव्यनिपातचित्त दण्डः, एवमेव वालोऽपि सर्वेषां प्राणानां पावन् मया सत्यानां दिवा वा रात्री वा मुमो वा जाग्रता अमित्रभूनः गिध्यासंगिनः नित्यं पराठव्यतिपातचिनदण्डः । तद्यथा प्राणातिपाते यावमिथ्यादर्शनालये, एवं पल भगवता भाग्न्यातः असंयतः अविरतः अपनिहतापत्याख्या तुपापा मक्रिया अगंवृतः एकान्तदण्डः एकान्तवालः एकासमुप्तवापि भवति, म बाट अधिनारमनोव वन कायायः स्वप्नमपि न पश्यति पार कर्म क्रियते यया मधास्तस्य या गावापर्यावन् तस्य का राजपम्पस्य प्रत्येक प्रत्येक निनं समादाय दिवाना रात्री वा सुनो या नानदा अमित्रभूतो मिथ्यासंस्थितः नि प्रापनिपानिनदो भवति, पयाला वाटः पर्व माणाना या मईयां मनाना प्रत्येक प्रजेर चिन मादाय दिना या राना मुप्तो वा जागा वा अमिरमनःमियानंगित: नित्यं प्रगटानिपातचिचदण्डी भनि ।मु०२-६६॥ Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका शि. श्रु. अ. ५ प्रत्याख्यानाकयोपदेशः । . . . टीका-'तस्थ तत्र 'चोयए' नोदकः-प्रश्नकर्ता 'पनवगं' प्रज्ञापकमाचार्यम् 'एवं वयासी' एवमवादी-प्रश्नकर्ता आचार्य पृच्छति-कि तनवीति-तदेव. दर्शयति शास्त्रकार:-हे पूज्याचार्य ! 'असंतएणं' असता-अविद्यमानेनाऽपत्तेन अनेन 'मणेणं पावएणं पापकेन मनसा 'असंतियाए वईए पावियाए' असत्या -अविधमानया पापिकया वाचा 'असंतएणं कारणं पावएणं' असता-अविधमानेन पापकेन कायेन 'अहपांतस्स अमणक्खस्स अवियारमणवयणकावयास सुविणमपि अपस्सओ पावकम्मे णो कज्नई' अध्नतोऽमनस्कस्य-हिंसामकुर्वतो हिंसाविषयक मनोव्यापारहितस्य, अविचारमनोवचनकायवाक्यस्य-हिंसाविषयकमनोवचनकायविचाररहितस्य स्वप्नमपि अपश्यतः स्वप्नावस्थायां कृतं कर्म नोपचयं याति तथैव स्पष्टविज्ञानवतः पाप कर्म न क्रियते पाप कर्म न वध्यते, पापसहितमनो. वचनकायरहितेन जीवादिहिंसामकुर्वता पुरुषेण पाप कर्म न वध्यते, पापसहित मनोवचनकायरहितेन जीवादिहिंसामकुर्वता पुरुषेग पापं कर्म कथमपि न सम्भवति, तस्य चोयए' इत्यादि। टीकार्थ-प्रश्नकर्ता प्रज्ञापक आचार्य से कहता है, हे पूज्य आचार्य, जिसका मन पाप से युक्त नहीं है, जिसकी वाणी पापमय नहीं है और जिसकी काया पापयुक्त नहीं है, जो प्राणी का घात नहीं करता, जिस का मन वचन काय और वाक्य हिंसा के विचार से रहित है जो पापकरने का स्वप्न भी नहीं देखता अर्थात् जिसमें ज्ञान की थोड़ी-सी ही अव्यक्त मात्रा है, ऐसा प्राणी पापकर्म का बंध नहीं करता है। अर्थात् जिसका मन, वचन और काय पाप से रहित है और जो जीवहिंसा नहीं करता है, ऐसे पुरुष को किसी भी प्रकार पापकर्म का बन्ध नहीं होता है। 'तत्थ चोयए' त्यात ટકાઈ પ્રશ્ન કર્તા પ્રજ્ઞાપક આચાર્યને કહે છે કે–હે પૂજ્ય આચાર્ય ! જેઓનુ મન પાપયુક્ત હોતું નથી. જેમની વાણું પાપમય નથી અને જેમની કાયા પાપયુક્ત નથી, જે પ્રાણીને ઘાત કરતા નથી. જેનું મન, વચન, અને કાય હિંસાના વિચાર વિનાનું છે, જે પાપ કરવાનું સ્વપ્ર પણ દેખતા નથી અર્થાત્ જેમાં જ્ઞાનની શેડી અવ્યક્ત માત્રા છે. એવા પ્રાણી પાપકર્મથી બંધાતા નથી. અર્થાત્ જેનું મન, વચન, અને કાયા પાપ વિનાના છે, અને જે જીવહિંસા કરતા નથી. એ પુરૂષ કે ઈ પણ પ્રકારના પઠને બંધક થતું નથી. स० ५६ Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सूत्रतामसूत्र फरमादेनाशा पुगः पापं कर्म न करोति, तत्राह-'कस्म णं तं हेऊ" कस्य खलु हेतो पापं न भवति, 'चोयए एवं बबी.' नोदका-प्रश्नकर्ता एवं ब्रवीति-तस्य, कथं, न पा वम भाति तत्पति यति । 'अन्न परेणं' अन्यतरेण 'मणेणं मनसा 'पावणः पापकेन-पापयुक्तेन 'मणरत्तिए' मनःपत्ययिक-मनाकारणकम् 'पावे. सभमे काजई पाप कर्म क्रियते-कर्माश्रवद्वारभूतेन मनसा तस्मत्ययिक पाप कम सम्पादित्ते भवतीति भावः, तथा-'अन्नयरीए' अन्यतरया 'वईए' नारा 'पापियाए' पापिकया 'वइवत्तिए' वापस्ययिकम्-वचनकारणकम् 'पावे, कम्मे कज्जई' पाप कर्म क्रियते-कर्माश्राद्वारभूतया वाचा-बचनेन वाक्कारणकं, पाप भयति 'अन्नयरेण कारणं पावएणं काययत्तिए पावे कम्मे कज्जइ' अन्यतरेण फायेन पापकेन-पापविशिष्टेन शरीरेण का प्रययिकम्-काय: प्रत्ययः -कारण यस्य पापस्य तादृशं पापं कर्म क्रियते, कर्माश्राद्वारभूतपापयुक्तरेव मनो. घचनकापैः तत्तपत्ययिक पाप कर्म सम्भवति । तदेव दर्शयनि-हणतस्म' नतो. हिंसां सम्पादयतः 'समणकाखस्स' समनस्कस्य-मनोव्यापारयुक्तस्य 'सवियार मणवयणकायवकस्स' सविचारमनोवचन-कायवाक्यस्य-मनोवचनकायवाक्यतः विचारयुक्तस्य 'सुविणमवि' स्वप्नमपि पासओ' पश्यत:-स्पष्टविज्ञानयुक्तस्य किस हेतु से उसे पाप नहीं होता ? इस विषय में प्रश्नकर्ता ऐमा कहता है-जब मन पापमय होता है तभी उसके द्वारा पापकर्म सम्पादित किया जाता है । जय वचन पापयुक्त होता है, तभी उसके द्वारा पाप का बन्ध होता है। जब पाप का कारणभूत काय हो तभी कायजनित पापकर्म का बन्धन हो सकता है। तात्पर्य यह है कि पापयुक्त मन वचन काय के द्वारा पापकर्म होना संभव है। इसी बात को स्पष्ट करके यह कहता है-जो प्राणी हिंसा करता है, हिंसायुक्त मनोव्यापार से युक्त है, जो समझ बूझ करके मन वचन और काय की प्रवृत्ति करता है કયા કારણથી તેને પાપ થતું નથી? આ વિષયમાં પ્રશ્ન કરનાર એવું કહે છે કે–જ્યારે મન પાપમય થાય છે, ત્યારે જ તેના દ્વારા પાપકર્મ સંપાદન કરાય છે. જ્યારે વચન પાપ યુક્ત હોય છે, ત્યારે તેના દ્વારા પાપને બંધ થાય છે. જયારે પાપના કારણ રૂપ કાર્ય–શરીર હોય ત્યારે જ કાયાથી થનારા પાપકર્મ બંધ થાય છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે-પાપયુક્ત મન, વચન, અને કાર્યો દ્વારા પાપકમ થવાને સંભવ છે. એજ વાત સ્પષ્ટ રીતે હવે કહે છે.જે પ્રાણિ હિંસા કરે છે, હિંસાવાળા મનના વ્યાપાર-પ્રવૃત્તિથી યુક્ત હોય છે, જે જાણે બૂજીને મન, વચન, અને કાયાની પ્રવૃત્તિ કરે છે, Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि.शु. १ ४ प्रत्याख्यानक्रियोपदेशः 'एवं गुणजातीयस्स' एवं यथोक्तगुणजातीयस्थ-समनस्कत्वादिविशिष्टस्य 'पावे कम्मे कज्जई पाप कर्म क्रियते-पापकर्मबन्यो भवति, नान्यस्प। हिंसापापयुत मनोवचनकायवत एव पापकर्मसम्भवः, न तु तद्भिन्नकायवतः पापकर्मसम्भव कार णाभावे कार्याऽभावस्याऽन्यत्र निर्णीतत्वात् । 'पुगरवि चोयए एवं ववीई' पुनरपि नोदकः-प्रश्नकर्ता एवं ब्रवी ते । 'तत्थ ण जे ते एवमाहंमु' तत्र ये ते एवमाहुः 'असंतएणं मणेणं पावएण' असता पापकेन मनसा, पापरहितेन मनसेत्यर्थ । 'असंहीयाए वईए पावियाए' असत्या पापिझ्या वाचा-पापरहितवचनेनेति यावत् । 'असंतएणं कारणं पावएणं' असता पापकेन कायेन, पापरहितशरीरेणेत्यर्थः, 'अहणतस्स' अध्नतः-हिंसामकुर्वतः 'अमणक्खस्स' अमनस्कस्य पापरहितमनोवतः 'अवियारमणवयणकायवक्कस्स' अविचारमनोवचनकायवाक्यस्य-मनोवचनकाय. विचाररहितस्य 'सुविणमवि अपस्सो ' स्वप्नमपि अपश्यतः-अव्यक्तविज्ञानवतः, और जो स्पष्ट ज्ञान से सम्पन्न है, वह ऐसी विशेषताओं वाला जीव ही पापकर्म करता है, जिसमें पाप के पूर्वोक्त कारण नहीं है, उसे पापकर्म का बंध नहीं हो सकता, क्योंकि यह पहले ही निर्णय किया जा चुका है, कि कारण के अभाव में कार्य नहीं होता है। प्रश्नकर्त्ता पुनः कहता है-जो ऐसा कहते हैं कि पापरहित मन से, पापरहित वचन से, पापरहित काय से, हिंसा न करते हुए को, पापरहित मन वाले को विचार हीन मन वचन काय और वाक्य वाले को तथा अस्पष्ट ज्ञान वाले को भी पापकर्म होता है, वह ठीक नहीं हैं। प्रश्नकर्ता का आशय यह है कि जो समनस्क है, सोच समझ कर मनवचन काय की प्रवृत्ति करता है हिंसा करता है, उसी को पापकर्म , અને જે સ્પષ્ટ જ્ઞાનથી યુક્ત છે, એવા વિશેષપણાવાળે જવ જે પાપ કર્મ કરે છે. જેમાં પાપને ઉપર કહેલા કારણે નથી. તેને પાપકર્મને બંધ થઈ શકતું નથી. કેમકે એ પહેલાં જ નિર્ણય કરવામાં આવેલ છે. કૈ-કારણના અભાવમાં કાર્ય થતું નથી. પ્રશ્ન કરનાર ફરીથી કહે છે કે–જેએ એવું કહે છે કે–પાપ વિનાના મનથી પાપ વિનાના વચનથી પાપ વિનાના શરીરથી હિંસા ન કરનારાઓને પાપ રહિત મનવાળાને, વિચાર વિનાના મન વચન કાય અને વાયવાળાને તથા અસ્પષ્ટ જ્ઞાનવાળાને પણ પાપકર્મ થાય છે. એ બરાબર નથી. પ્રશ્ન કરનારાને ભાવ એ છે કે-જે સમનસ્ક છે, એટલે કે સમજી વિચારીને મન, . વચન અને કાયની પ્રવૃત્તિ કરે છે, હિંસા કરે છે, તેને જ પાપકર્મને બંધ Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गो 'पावे कम्मे कज्ज' पाप कर्म क्रियते, 'तत्य णं जे ते एवमासु मिच्छा ते एवमाहंस' तत्र ये ते एवमाहु मिथ्या ते एवमाहुः, यथोक्ताऽमनस्कत्वादिगुणविशिष्टोऽपि शिष्टः पापं कर्म करोतीति तन्मिदैव । अयं भा-समनस्कत्वादिगुणविशिष्टमनो. चाक्कायवाक्यवत एव एवं पापकर्मवन्धो भवति न तु अमनस्कत्यादिगुणविशिष्ट मनोवक्कायवत इति अभिमायः प्रश्नकत्तुरिति । शास्त्रकारः समाधत्ते- तत्थ पनवए चोयगं एवं क्यासी' तत्र-समुत्थितवादे प्रज्ञापमा तीर्थकृतामभिमायवेता नोद-प्रश्नार्तारं लक्षीत्येवं वक्ष्यमाणं वचोs. वादीत् । अवादीदित्यत्र भूतकाळप्रयोगेण प्रज्ञापयति उत्तरवाक्यप्रतिपाद्यस्याऽनादि. त्वम् । पूर्वकाले हि एवं निर्णयोऽकारि तीर्थतेति, 'तं सम्मं जे मए पुव्वं वुत्तं' तत् सम्यग् यन्मया पूर्वमुक्तम् । किमुक्तं पूर्व तदे। दर्शयति-'असंतएणं मणेणं का बन्ध होता है । जो इससे विपरीत है अर्थात् अमनस्क है तथा समझ बूझ कर पाप में मन वचन काय की प्रवृत्ति नहीं करता, वह पापकर्म का बन्ध नहीं करता है। , अब शास्त्रकार उसका समाधान करते हैं। इस प्रकार विवाद उपस्थित होने पर तीर्थंकर के अभिप्राय के ज्ञाता आचार्य ने प्रश्नकर्ता को लक्ष्य करके निम्तोक्त प्रकार से उत्तर दिया । यहां 'अवादीत्' अर्थात् उत्तर दिया, इस भूतकालीन क्रिया के प्रयोग से यह सूचित किया गया है कि उत्तर रूप वोक्य के द्वारा प्रतिपाद्य अर्थ अनादि है। तीर्थकर ने पूर्वकाल में ऐसा ही निर्णय किया था। ____ आचार्य कहते है-मैंने पहले जो कहो है वह सम्यक् है। पहले क्या कहा है, वह दिखलाते हैं-पापयुक्त मन न होने पर पापयुक्त થાય છે. આનાથી જે ઓ ઉટા છે. અર્થાત અમનસ્ક છે, તથા સમજી વિચારીને પાપમાં મન, વચન અને કાયની પ્રવૃત્તિ કરતા નથી. તે પાપકર્મને બંધ કરતા નથી. * હવે શાસ્ત્રકાર તેનું સમાધાન કરે છે–આવી રીતે વિવાદ ઉપસ્થિત થાય ત્યારે તીર્થંકરના અભિપ્રાયને જાણવાવાળા આચાર્ય પ્રશ્ન કરવાવાળાને देशान. वे पछी ४ामा सावना उत्तर भाच्या महियां 'अवादीत्' અર્થાત્ ઉત્તર આપ્યા. આ ભૂતકાળ સંબંધી ક્રિયાને પ્રગથી એ સૂચવેલ છે કે-ઉત્તર રૂપ વાકય દ્વારા પ્રતિપાદન કરવામાં આવેલ અર્થ અનાદિ છે. તીર્થકર ભગવાને પૂર્વકાળમાં એજ પ્રમાણેને નિર્ણય કરેલ છે. - આચાર્ય કહે છે –મે પહેલાં જે કહેલ છે તે બરોબર છે. પહેલાં શું કહેલ છે? તે હવે બતાવે છે.–પાપયુક્ત મન ન હોવાથી તથા પાપ યુક્ત Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ afari atar fig. यु. अ. ४ प्रत्याख्यान क्रियोपदेशः पावणं' असता मनसा पापकेन - पापरहितेनाऽपि मनसा पाप भरतीति, 'असं' तियाए वईए पात्रियाए' असत्या वाचा पापिकया 'असंतरगं कारणं पात्रणं' असता कायेन पापकेन 'अनंतस' अनतो दिनामकुर्वतः 'अणक्वस्स' अमनकरूप 'अवियारमण यणकायवक कस्म' अविचारमनीवचनकार्यवाक्यस्व 'सुविणमत्रि असो' स्वप्नमपि अपश्यतः- अव्यक्तविज्ञानवतः 'पावे कम्मे कज्जइ पाप कर्म क्रियते - हे नोदक विचाररहित ! यन्मया मतज्ञातं यत्-यथोक्तगुणविशिटान पाप कर्म भवतीति तत्सर्वमपि सत्यमेव नाऽपत्यम् - अपता मनमा अपता वचनेन असा कायेनाऽपि अविचारमनोवाक्कायव्यापारेणापि पापं भवत्येवेत्यभिपायः । पुनः नोदकः पृच्छति - 'तं सम्म कस्स णं तं देऊ' तत्समीचीनं पाप भवत्येवेति कस्य हेतोः । भवदुक्तं सम्यगेव तत्र को हेतुरित्यर्थः, आचार्यः सुधर्म स्वामी आह- 'तत्थ खलु भगवया छम्नीवणिकायहेऊ पणत्ता' तत्र खलु भगवता षड्जीवनिकायहेतवः प्रज्ञताः कथिताः पद्मकारा जीवाः कर्मबन्धनदेवो भव वचन और काय न होनेपर प्राणी का घात न करने वाले, अमनस्क ( मन से रहित ) मन वचन और काय संबंधी विचार से रहित, और अस्पष्ट ज्ञान वाले जीव को भी पापकर्म होता है । आशय यह है कि हे प्रश्नकर्त्ता । मैंने पहले जो कहा है कि पूर्वोक्त प्रकार के जीवों को भी कर्मबन्ध होता है सो सत्य ही है, असत्य नहीं अर्थात् पापमय मन वचन और कोय न होने पर भी एवं मनवचन काय संबंधी विचार न होने पर भी पाप होता है । प्रश्नकर्त्ता पुनः प्रश्न करता है- आपने जो कहा है, उसमें हेतु क्या है ? आचार्य कहते हैं- भगवान् ने छह जीवनिकार्यों को कर्मबन्धका कारण कहा है। वे जीवनिकाय इसप्रकार हैं- पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय વચન અને કાય ન હાવાથી પ્રાણીના ઘાત ન કરવાવાળા, અમનસ્ક, (મન વિનાના) મન, વચન, અને કાય સ`ખધી વિચાર વિનાના અને અસ્પષ્ટ જ્ઞાનવાળા, જીવને પણ પાપકમ હાય છે કહેવાના આશય એ છે કે હુ પ્રશ્ન કરવાવાળા ! મે' પહેલાં જે કહેલ છે, કે-પૂર્વક્તિ પ્રકારના જીવાને પણુ કમબંધ થાય છે, તે સત્ય જ છે. અસત્ય નથી અર્થાત્ પાપમય મન, વચન અને કાય ન હાવા છતાં પણુ અને મન, વચન તથા કાય સ’"ધી વિચાર ન હાવા છતાં પણ પાપ થાય છે. પ્રશ્ન કરનાર ફરીથી પ્રશ્ન કરે છે કે આપે उधु छे, तेभा हेतु शु छे ? આચાય કહે છે કે—ભગવાને છ જીવનિકાયાને કખ ધનુ કાર કહેલ છે તે છવનિકાચે-પૃથ્વીકાયથી લઈને ત્રસકાય સુધીની છે. આ છ Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गो न्तीति तीर्थकृद्भिरादिष्टम् । तत्र के जीवा कर्मवन्धन हेतवातत्राह-'तं जहा' तयथा -'पुढवीकाइया जाय तसकाइया' पृथिवी कायादारभ्य त्रसकायपर्यन्ताः । 'इन्चेएहि छहिं जीवणिकाएहि' इत्येतेः पड्मिी निकायैः 'आया' आत्मा 'अप्पडि. इयअपच्चक्खायपावकम्मा' अमतिहताऽपत्याख्यातपापकर्मा-न प्रतिहतं-वर्तमान काले स्थित्यनुभागहासेन न नाशितं तथा न प्रत्याख्यातं पूर्वकवातिवारनिन्दया भविष्यत्यकरणेन न निराकृतं पापकर्म -पापाऽनुष्ठानं येन मोऽनिस्ताऽभ Iख्यातपापकर्मा, यः पुरुष एपां जीवानां हिपया समुत्पन्न पापस्य तपःप्रभृतिमिः सत्कर्मभिर्विशं न करोति तथा-अनागतपापानां प्रत्याख्यानं वा न करोति, किन्तु-णिच्च नित्यम् 'पसढविउवायवित्तदडे' प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डः-सर्वदैव माणिनां निष्ठुरदण्डदाने संलग्नचित्तः, सदा दण्डं प्रयच्छति 'तं जहा' तद्यथा'पाणाइवाए जान परिग्गहे कोहे जाव मिच्छादसणसल्ले' प्राणातिपाते यावत् 'परिग्रहे क्रोधे यावद् मिथ्यादर्शनशल्ये-प्राणातिपातादारभ्य परिग्रहानवे पाप कर्मणि, एवं क्रोधादारभ्य मिथ्यादर्शनान्ते शल्यकर्मणि अनिवृत्तो भवतीति प्रत्यक्ष पर्यन्त । इन छह जीवनिकाय के जीवों की हिंसा से उत्पन्न होने वाले पाप को जिस प्राणी ने प्रतिहत नहीं किया है अर्थात् वर्तमानकाल में स्थिति एवं अनुभाग का हास करके नष्ट नहीं किया है और प्रत्याख्यात नहीं किया है अर्थात् पूर्वकृत पाप की निन्दा करके एवं भविष्य में पुनःन करने का संकल्प न करके हटाया नहीं है-इन जीवों की हिंसा से उत्पन्न होने वाले पाप को तपस्या आदि के द्वारा नष्ट नहीं किया है और आगामी काल संबंधी पापों का प्रत्याख्यान नहीं किया है, किन्तु जो सदैव निष्ठुर चित्त होकर प्राणियों को दंडदेने में लगा रहता है, जो प्राणातिपात से लेकर परिग्रह तक के और क्रोध से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक के જવનિકાયના જીવોની હિંસાથી ઉત્પન્ન થવાવાળા પાપને જે પ્રણિયે રેયા નથી, અર્થાત્ વર્તમાનકાળમાં સ્થિતિ અને અનુભાગને હાસ કરીને નાશ કરેલ નથી, તથા પ્રત્યાખ્યાન કરેલ નથી. અર્થાત પહેલાં કરેલા પાપની નિંદા કરીને તથા ભવિષ્યમાં ફરીથી તેવા પાપ ન કરવાનો સંકલ્પ ન કરીને પાપને તપસ્યા વિગેરે દ્વારા હટાવ્યા નથી, તથા ભવિષ્યકાળ સંબંધી પાપનું પ્રત્યા ખ્યાન કર્યું નથી, પરંતુ જે હંમેશાં કઠેર ચિત્તવાળા થઈને પ્રાણને મારવામાં લાગ્યા રહે છે. જે પ્રાણાતિપાતથી લઈને પરિગ્રહ સુધીના ક્રોધથી લઇને મિથ્યા દર્શન શલ્ય સુધીના પાપોથી નિવૃત્ત થતા નથી. તેને જરૂર Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि.श्रु. अ.४ प्रत्याख्यानक्रियोपदेशः सिद्धमेवेदं सत्यं नाऽस्माभिरसत्यभाषणं क्रियते-इति सिद्धान्तिनां सिद्धान्तः । ततः परमाचार्यों वक्ति-भो भो:-अत्र विषये भगवता तीर्थकरेण वधकदृष्टा..., न्तोऽपि दर्शितः, इत्येतदर्थं प्रतिपादयति, सुधर्मस्वामी पाह-'तत्थ खलु भगवया" तत्र खलु-शि वाक्यालङ्कारे भगवता 'वहए दिटुंते पण्णत्ते' वधकदृष्टान्ता प्राप्त:-कथितः से जहाणामए वहए सिया' तद्यथानाम वधका स्यात् 'गाहावः, इरस वा' गाथापते वा 'गाह इपुत्तस्स वा' गायापतिपुत्रस्य चा, 'रणो वा राज्ञो वा 'रायपुरिसस्त वा' राजपुरुषस्य वा 'ख' क्षणम्-समयमवसरं का, 'लधुणं' लवा-माप्य 'पविस्सामि' प्रवक्ष्यामि-प्रवेशं करिष्यामिः 'खणं.. लदधृण वहिस्सामि' क्षणं लब्ध्वा वधिण्यामि, 'संपहारेमाणे' सम्पधारयन-तद्वि. षयकं विचारं मनसि कुर्वन् ‘से कि नुहुनाम से वहर' स कि नु, नाम वधा, 'से, तस्य विन्ताविषयस्य 'गाहावइस्स' गाथापतेः 'गाहावइपुत्तस्स वा' गाथापतिपुत्रस्य वा 'रणो वा' राज्ञो वा 'रायपुरिसस्स वा राजपुरुषस्य वा 'खणं लघृण', क्षणं लब्ध्वा 'पविस्तामि' मवेक्ष्यामि खण लधृगं बहिस्सामि' क्षणं लब्ध्वा वधिष्यामि । 'संपहारे माणे' संप्रधारयन्-विनिश्चिन्वन् 'दिया वा रायो वा मुत्ते वा पापों से निवृत्त नहीं होता है, उसे अवश्य ही पापकर्म का बन्ध होता है। यह सत्य प्रत्यक्षसिद्ध है । अतएव हमारा कथन असत्य नहीं है। यही सिद्धान्तवेत्ताओं का सिद्धान्त है। आचार्य श्री पुनः कहते हैं-इस विषय में तीर्थंकर भगवान् ने वधक का दृष्टान कहा है, वह इस प्रकार है-कोई वधक किसी गाथापति का, गाथापति के पुत्र का, राजा का अथवा राजपुरुष का वध करना चाहता है और विचार करता है कि मौका पाकर में इसके घर में प्रवेश करूंगा, मौका पाकर इसका बध करूंगा, इस प्रकार मन में विचार करता हुआ वह पुरुष गाथापति, गाथापति पुत्र, राजा अथवा राज. પાપકર્મને બંધ થાય છે. આ સત્ય પ્રત્યક્ષ સિદ્ધ છે. તેથી જ અમારું કથન અસત્ય નથી. આજ સિદ્ધ તને જાણનારાઓને સિદ્ધાંત છે. આચાર્ય શ્રી ફરીથી કહે છે– આ વિષયમાં તીર્થકર ભગવાને વધકનું દુષ્ટાન્ત કહેલ છે. તે આ પ્રમાણે છે કે હિંસક પુરૂષ કઈ ગાથા પતિને કે ગાથાપતિના પુત્રને, ૨ જાને અથવા રાજપુરૂષને વધ કરવાની ઈચ્છા કરે છે, અને તે વિચાર કરે છે કે-લાગ જોઈને આના ઘરમાં પ્રવેશ કરીશ અને લાગ જોઈને આને વધ કરીશ. આ પ્રમાણે મનમાં વિચાર કરતે થકે તે પુરૂષ ગાથાપતિ, ગાથાપતિ પુત્ર, રાજા અથવા રાજપુરૂષના ઘરમાં અવસર Page #709 --------------------------------------------------------------------------  Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 . . . . . . . . . . . . समयार्थबोधिनी टीका द्वि श्रु. अ.४ प्रत्याख्यानक्रियोपदेशः '' - ४४९. ' सुधर्मस्वामी पाह-'जहा से वहए तस्स गाहावइस्स वा तस्स गाहावइपुत्त । स्सवा'. यथा स ६धक स्तस्य, गाथापते वा तस्य गाथापतिपुत्रस्य वा 'रपणो वा राज्ञो वा रायपुरिसस्स वा राजपुरुषस्य वा 'खणं लद्धृणं क्षण लब्ध्वा पविस्सामि', मवेक्ष्यामि ‘खणं लक्ष्णं वहिस्सामि त्ति संपहारेमाणे' क्षणं वा वधिष्यामीति संधारयन्-इत्येवं हृदि निर्णयन् 'दिया वा राओ वा दिवा वा रात्रौ वा 'सुत्तो वा जागरमाणे वा' सुप्तो वा जाग्रद्वा 'अमित्तभूए वा' अमित्रभूतः-शत्रुभावमुप, गतो वा 'मिच्छासंठिए' मिथ्यासंस्थितः 'णिच्चं पसढविउवायचित्तदंडे' नित्यं. पशठव्यतिपातचित्तदण्ड:-प्रकर्षेण शठः प्रशठः व्यतिपाते चित्तं-मनो यस्य स व्यतिपातचित्तः स्वपरदण्डहेतुत्वाद्दण्डः प्रशठश्चासौ व्यतिपातचित्तदण्डश्चेति प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डः । एवमेव वाले वि सव्वेसि पाणाणं जाव सम्वेसि सत्ताणं . एवमेव वालोऽज्ञानी प्राणी अपि सर्वेषां प्राणिनां यावत् सर्वेषां सत्चानाम् 'दिया वा राओ वा दिवा वा रात्रौ वा 'मुत्ते वा जागरमाणे वा' सुप्तो वा जाग्रता 'अमित्तभूए वि' अमित्रभूतोऽपि 'मिच्छासंठिए' मिथ्यासंस्थित:-असत्यबुद्धियुक्तः 'णिचं पसढविउवायचित्तदंडे' नित्यं प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डः 'जहा' तद्यथा 'पाणाइवाए जाव मिच्छादसणसल्ले' माणातिपाते यावन्मिथ्यादर्शनशल्ये, व्यव प्रश्नको द्वारा यह स्वीकार करने पर आचार्य कहते हैं जैसे वधक सोचता है कि मैं गाथापति, गाथापति पुत्र, राजा या राजपुरुष के घर में अवसर पाकर प्रवेश करूगा और अवसर पाकर उनका घात करूंगा, ऐसा मन में निश्चय करता हुआ वह दिन, रात, सोते और जागते उनका शत्रु बना रहता है, उनकी हिंसा में संलग्न चित्त रहता है, अतएव वधक ही है, इसी प्रकार अज्ञानी प्राणी भी सभी प्राणियों, भृतो. जीवों और सत्वों का दिनरात सोते और जागते अमित्र-शत्रु ही बना रहता है, वह असत्य बुद्धि से युक्त है, उनके प्रति शठतापूर्ण हिंसा का भाव रखता है। वह प्राणातिपात यावत् मियादर्शनशल्य में स्थित है.इसी - પ્રશ્ન કરનાર દ્વારા આ પ્રમાણે સ્વીકાર કરી લેવાથી આચાર્ય કહે છે કે જેમ હિંસક વિચાર કરે છે કે-હુ ગાથાપતિ, ગાથા પતિને પુત્ર, રાજા અથવા રાજપુરૂષના ઘરમાં અવસર મળતાં પ્રવેશ કરીશ અને લાગ જોઈને તેને વિકરી. આ પ્રમાણે મનમાં નિશ્ચય કરતે થકે તે સાત દિવસ સૂતાં અને જાગતાં તેને શત્રુ બની રહે છે. અને તેની હિંસા માટે સંલગ્નચિત્ત રહે છે. તેથી તે તેને વધક જ છે એજ પ્રમાણે અજ્ઞાની પ્રાણી પણ સઘળા પ્રાણી, બતે જ સના રાતદિવસ અમિત્ર શત્રુ જ બન્યા રહે છે તે અસત્ય બુદ્ધિથી १० ५५ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ स्थित इति शेषः । एवं खलु भगवया अक्खाए एवम्-अतएर कारमा मन्यता तीर्थकरेणा एटादशो वाला पुरुष आख्याता-कथिता, असंयतादिवैगुण्यनिशिष्नु सया असंजए', असंयता-वर्तमानकालिकसावयाऽनुष्ठानसहितः आख्यात इति। लिया सर्वत्र प्रथमान्तेन योजनीया। 'अविरए' अविरत:-विरतिभावजितः - डिअपनचकखायपावकम्मे अप्रतिहताऽपत्याख्यातपापकर्मा न पतिरत वर्ष फाले स्विस्पनुमागहासेन न नाशितं तथा न पत्याखातं पूर्वकताऽतिवारनिया भविष्यस्पारणेन न निराकृतं पापं कर्म-पापाऽनुष्ठान येन स तथा प्रायभिचार दिना पापविशोधनम् अनागतपापस्य प्रत्याख्यानेन संवरणं न कृतं येन स पार इति भावः। 'सकिरिए' सक्रियः-सावधक्रियायुक्तः 'असंवुडे' असंतः-संवरमान, रदितः 'एगंतदंडे' एकान्तदण्ड:-जीवेषु सर्वदैव प्राणातिपातादिक्रियायुक्ता 'एगंवपाले एकान्तवाल:-अत्यन्ताऽज्ञानी एगंवमुत्त' एकान्तसुप्त:-मिथामावमुगना 'यावि भवई' चापि भवति । यथा मुप्तो न कमपि शुभं व्यापारयति, तथाऽयमणि वाला शुभक्रियासु सुप्त इस मुप्त इति कथ्यते, 'अवियारमणवयणकायत्रके अपि कारण भगवान् तीर्थकर ने कहा है कि ऐसा याल अर्थात् अज्ञानी पुरुष असंयत है अर्थात् वर्तमानकालीन पाप के अनुष्ठान से युक्त है, अविरत है अर्थात् विरति के भाव से रहित है, उसने अपने पापों को प्रतिहत और प्रत्यारख्यात नहीं किया है, अर्थात् भूतकालीन पापों को प्रायश्चित्त के द्वारा नष्ट नहीं किया है और भविष्यकालीन पापों का प्रत्याख्यान नहीं किया है वह सावध क्रिया से युक्त है, संघरभाषसे रहित है, और एकान्तदंड है अर्थात् निरन्तर हिंसादि कृत्यों से युक्त है। वह एकान्त अज्ञानी, एकान्तसुप्त अर्थात् मिथ्याभाव को प्राप्त होता है। जैसे सोया पुरुष कोई शुभन्यापार नहीं करता, उसी प्रकार यह યુકત છે. તેના પ્રત્યે શઠતાથી યુક્ત હિસાનો ભાવ રાખે છે, તે પ્રાણાતિપાત યાવત્ મિથ્યાદર્શન શલામાં સ્થિત રહે છે. એ જ કારણે ભગવાન તીર્થ કરે કહ્યુ છે કેએવા બાલન અર્થાત્ અજ્ઞાની પુરૂષ અસયત છે. અર્થાત્ વર્તમાનકાળ સંધીપાપના અનુષ્ઠાનથી યુક્ત છે, અવિરત છે. અર્થાત્ વિરતિ ભાવથી રહિત છે. તેણે પિતાના પાપને પ્રતિષત અને પ્રત્યાખ્યાત કર્યા નથી. અર્થાત્ ભૂતકા ળના પાપને પ્રાયશ્ચિત્ત દ્વારા નાશ કરેલ નથી અને ભવિષ્યકાળ સંબંધી પાપનું પ્રત્યાખ્યાન કરેલ નથી તે સાવદ્ય ક્રિયાથી યુક્ત છે, સંવર ભાવ વિનાના છે. અને એકાન્ત દંડ છે, અર્થાત હમેશાં હિંસા વિગેરે કૃત્યથી યુક્ત રહે છે. તે એકાત અજ્ઞાની એકાન્ત સુપ્ત અર્થાત મિથ્યાભાવને પ્રાપ્ત કરે છે જેમ સૂતેલે પુરૂષ કેઈ શુભ વ્યાપાર કરતું નથી, એજ પ્રમાણે Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयाबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.४ प्रत्याख्यानक्रियोपदेशः ५ १ "चारमनोवचनकायवाक्यः-स बालः विचाररहितमनोववनादियुक्तः 'मुविणमवि ण पस्सइ पावे य से कम्मे कज्जई स्वप्नमपि न पश्यति-स्वप्नेऽपि धर्म न जानाति, अथ तस्य पाप कर्म क्रियते-पापकर्मबन्धो भवति, 'जहा से वहए' यथा स वर्धकः 'तस्स वा गाहावइस्सं जाव तस्स वा रायपुरिसस्स पत्तेयं पत्तेयं तस्य वा गाथा'पते विसस्य राजपुरुषस्य वा प्रत्येक प्रत्येकम्-एकैकम्, अत्र यावत्पदेन गाथा पतिपुत्रस्य राजश्व ग्रहणं भवति, 'चित्तसमादाय दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागर : माणेवा' चित्तसमादाय-वधेषु स्वकीयां घातमनोवृत्तिमादाय दिवा वारात्रौ वा सुमो वाजाग्रता, अमितभूए' अमित्रभृतः-शत्रुमावमुपपन्न:, "मिच्छासंठिए' मिथ्या. संस्थितः-अप्सत्यबुद्धियुक्ता, 'णिच्चं नित्यम् 'पसहविउवायचित्तदंडे भवई' प्रशठ- व्यतिपातचित्तदण्डो भवति-प्रकर्षेण शठः प्रशठः व्यतिपाते-प्राणातिपाते चित्तं'मनो यस्य स तथाभूत-धृततायुक्तमनोवृत्तिमान 'एवमेव बाले' एवमेव वालो यथा ‘वधको नानिवृत पापकर्मा-तथा वालोऽपि न निवृत्तपापकर्मा 'सव्वेसि पाणाणं' “सर्वेषां पाणिनाम् 'जाव सव्येसि सताणं' यावत् सर्वेषां सत्वानाम् अयं यावत्पदेन सर्वेषां भूतानां सर्वेषां जीवानां सर्वेषां सत्त्वानाम् इत्येषां पदानां ग्रहणं भवति 'पंचेय अज्ञानी जीव भी शुभ क्रियाओं में प्रवृत्ति नहीं करता, अत एव सुप्त के समान है। वह विचार रहित मन वचन काय एवं वाक्य वाला है। धर्म करने का स्वप्न भी नहीं देखता है । उसे पापकर्म का बन्धं होता है। जैसे वह घातक गाधापति, गाधापतिपुत्र, राजा या राजपुरुष के घात में चित्त लगाये रहता है और दिन, रात, सोते जागते उनके प्रति शत्रुता रखता है, उनको धोखा देता है और अत्यरत वृत्तता के -साथ-उनके घात का विचार करता रहता है, उसी प्रकार पापकर्म से विरत न होने वाला बाल जीव भी पापों से निवृत्तं नहीं होता। वह A ज्ञानी प प शुम हियाममा प्रवृत्ति ४२ता नथी. मेथी । सुतेલાની જેમ જ છે. તે વિચાર વિનાના મન વચન, અને કાયવાળા છે. તેઓ ધર્મ કરવાનું સ્વપ્ર પણ દેખતા નથી. તેને પાપકર્મને બંધ થાય છે. જેમ તે ઘાતક શોથપતિ, -ગાથાપતિ પુત્ર, રાજા અથવા રાજપુરૂષને ૧ ધીત કરવામાં ચિત્ત પરોવી રાખે છે, અને રાત દિવસ સૂતાં કે જગતાં તેની - પ્રત્યે વપણું રાખે છે, તેને દદે છે, અને અત્યંત ધૂર્તપણાની સાથે તેના જાતને વિચાર કરે છે, એ જ પ્રમાણે પાપકર્મથી નિવૃત્ત ન થનાર બાલઅજ્ઞાની જીવ પણ પાપથી નિવૃત્ત થતા નથી, તે દરેક પ્રાણું, ભૂત જીવ Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५३ सूत्रकृतसूत्रे पत्तेयं' प्रत्येकं प्रत्येकम् - एकैकम् 'चित्तसमादाय' वित्तं समादाय वध्येषु घातक मनोवृत्तिमादाय 'दिवा वा राओ वा' दिवा वा रात्रौ वा 'सुते वा जागरमाणे वा' सुप्तो वा जाग्रद्वा 'अमित' अमित्रभृतः 'मिच्छा ठेए' मिथ्यासंस्थितः 'णिच्च' • नित्यम् 'पसढविउवायचित्तद डे' प्रशठव्यतिपात चित्तदण्डः 'भव' भवति, यथावधकस्य समयाद्यभावेन वध्यस्य मारणाऽसम्भवेऽपि तद्विषयकाऽनिष्ट चिन्तनरूपाsqशस्तध्यानाद् सिकरवं नातिवर्तते । तथा संयमरित्या नाववतोऽज्ञानिनो जीवसङ्घातस्य साक्षात्पाणातिपाताऽमावेऽपि चिन्वाद्वारा हिंसकर नापैति । अतो यदुक्तम्-अज्ञानिनां हिंसकत्वं भवत्येव तत्सम्यगेव व्यवस्थितमिति । सू० २६४ | 4 प्रत्येक प्राणी, भूत, जीव और सत्व के प्रति घातक मनोवृत्ति धारण करके दिन और रात; सोता हुआ और जागता हुआ उनका शत्रु बना रहता है, प्रतिकूल व्यवहार करता है और अत्यन्त शठतापूर्वक उनकी हिंसा की बात ही सोचता रहता है। तात्पर्य यह है कि जैसे उक्त घानक पुरुष को घात करने का अवसर नहीं मिलता और इस कारण वह घात नहीं कर पाता, फिर भी घात की बात ही सोचते रहने से अपने अप्रशस्त चिन्तन के कारण वह हिंसक ही कहलाता है, उसी प्रकार संयम एवं विरति आदि से रहित अज्ञानी जीव जीवनिकायों की साक्षात् हिंसा नहीं करता, फिर भी हिंसा का चिन्तन करते रहने के कारण हिंसक ही है। अतएव अज्ञानी जीव हिंसक होते ही हैं, यह कथन समीचीन ही हैं ||२|| અને સવપ્રત્યે ઘાતકમનેાવૃત્તિ ધારચુ કરીને રાત દિવસ સૂતા થકા અથવા - लगता थ। तेनो शत्रु-मने छे.- आने अति-उल्टो व्यवहार हरे छे. अने -- અત્યંત શ પણાથી તેની Rsિ'સાની વાતના જ વિચાર કરે છે. 1 ર્તાત્પર્ય એ છે કે—જેમ તે ઘાતક પુરૂષને ઘાત કરવાને મેઢા મળતા નથી, અને તે કારણથી તે ઘાત કરી શકતા નથી, તે પણ ઘાત કરવાના જ વિચાર કરતા રહેવાથી પાતાના અપ્રશસ્ત ચિંતનના કારણે તે હિંસક જ કહેવાય છે. એજ પ્રમાણે સયમ અને વિરતિ વિગેરે વિનાને અજ્ઞાની જીવ જીવનિકાચેાની સાક્ષાત્ હિંસા કરતા નથી. તે પણ હિંસાનું ચિંતન કરતા રહેવાથી હિંસક જ ગણાય છે. તેથી જ અજ્ઞાની જીવ હિંસક જ હાય છે. सोन इंथन योग्य थे. सू० -२॥ J Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्थबोधिनी टीका द्वि. थु. अ. ४ प्रत्याख्यानकियोपदेशः ४५३ मूलम् - णो इट्टे समट्ठे इह खलु बहवे पाणा भूया जीवा सत्ता संति जे इमेणं सरीरसमुस्सएण णो दिट्टा वा णो सुया वा नाभिर्मया वो नो विन्नाया वा जेसिं णो पत्तेयं पत्तेयं चित्तस.. मायाए दिया वा राओ वा सुत्ने वा जागरमाणे वा अमित्तभूए । मिच्छासंठिए णिचं पसढविउवायचित्तदंडे तं जहा पाणाइवाए जाव मिच्छादंसण सल्ले ॥ सु० ३ ॥६५॥ 1 पुि छाया - नायमर्थः समर्थः इह खलु वहवः प्राणाः भूताः जीवाः सत्वाः सन्ति, ये अनेन शरीरसमुच्छ्रयेग न दृष्टा वा न श्रुता वा नाभिमता वा न विज्ञाता वा येषां नो प्रत्येकं चित्तं समादाय दिवा वा रात्रौ वा सुप्तो वा जाग्रद्वा, अमित्रभूतः मिपासंस्थितः नित्यं - प्रशठव्यतिपात चित्तदण्डः तद्यया माणातिपाते, यावद् मिथ्यादर्शनशल्ये ॥. ३।६५ ॥ + टीका- पुनरप्याह नोदका 'णो इणट्ठे समट्ठे' नायमर्थः समर्थः - यदुक्तं भगवता सर्वे जीवाः सर्वेषां हिंसका स्वन्न युक्त तत्राह - कथन्नायमर्थो युक्तस्तत्राह - 'इह खलु वहवे पाणा भूवा जीवा सता संति' इह संमारे खलु निश्चयेन वदवः प्राणाः भूताः जीवाः सर्वे सच्चाः साः स्थावर सूक्ष्मवादर भेदमिन्नाः सन्ति । 'जे इमेगं सरीरसमुस्सरणं' येऽनेन शरीरसमुच्छ्र पेण - शरीरपरिचयेन 'गो दिट्ठा वा नो सुया वा नाभिमया वा न विन्नाया वा' अस्माभिः न दृष्टा वा' न श्रुता वा श्रवणेन्द्रियेण, 'णो इण समट्ठे' इत्यादि । टीकार्थ - प्रश्न कर्त्ता पुनः कहता है -- यह अर्थ समर्थ नहीं है, अर्थात् आपने जो कहा है कि अज्ञान और अविरत जीव सब प्राणियों के हिंसक हैं, यह कथन ठीक नहीं हैं। इस संसार में बहुत से ऐसे स और स्थावर तथा सूक्ष्म और बादर प्राणी हैं जिनके शरीर का परिमाण इतना छोटा होता है कि वह न कभी देखा जाता है और न 1 އ އ -5 'णो इणट्ठे समट्टे' छत्याहि "" ટીકા”—પ્રશ્ન કરનાર ફરીથી કહે છે. આ કર્થન ખરેખર નથી. અર્થાત્ આપે જે કહ્યુ છે, કે—અજ્ઞાની અને અવિરત છત્ર સઘળા પ્રાણિયેાના હિંસક છે. આ કથન ખરાખર નથી આ સંસરમાં ઘણુંા એવા ત્રસ અને સ્થાવર તથા સૂક્ષ્મ અને માદર પ્રાણી છે, કે જેના શરીરનુ પ્રમાણુ એટલું નાનું હાય છે કે-તે કયારેય જોઈ શકાતું નથી, તેમ સાંભળી પણ શકાતું નથી. ! "" IP JAE -J J Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Je सूत्रकृतात्सूत्रे नाभिमता वा विशेषतः इष्टरूपेण न स्वीकृताः, न विज्ञाता वा इमे शत्रवो मित्राणि वा इत्येव रूपेण न विज्ञाताः 'जेर्सि णो पत्तेयं पत्तेयं चित्तसमायाए ' येषां नो प्रत्येकं प्रत्येकं चित्तं समादाय-न वध्येषु घातकमनोवृत्तिमादाय दिया वा राम वा' दिवा वा रात्रौ वा 'सुते वा जागरमाणे वा' सुप्तो वा जाग्रद्रा 'अमित ए' अमित्रभूतः 'मिच्छासंठिए' मिथ्यासंस्थितः -असत्यबुद्धियुक्त. 'निच्चे पढ विश्वायचित्त दंडे' नित्यं प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डः कर्षेण शठः ठः व्यतिषांतेप्राणातिपाते चित्तं मनोवृत्तिर्यस्य स प्रशठव्यतिपातचित्तः स्त्रपरदण्डहेतुत्वाद् दण्डः -स चासौ दण्डश्चेति प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डः, 'ते जहा पांणाइवाए जान मिच्छा. सणसरले' तद्यथा' प्राणातिपाते यावद् मिथ्यादर्शनशल्ये ॥०३-६६॥ To सुना जाता है। हम यह भी नहीं जानते कि वे हमारे शत्रु है . या मित्र - है । अर्थात् हम उन्हें देखते भी नहीं हैं, सुनते भी नहीं हैं। ऐसे जीवों के विषय में, एक एक प्राणी को लेकर घातक मनोवृत्ति धारण की जाए, दिन रात सोते और जागते उनके प्रति शत्रुता धारण की जोए, असभ्य बुद्धि रक्खी जाए, अत्यन्त शठतापूर्वक उनके प्राणातिपात में 'मन लगाया जाए और प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शन शल्यं तक के पापों में प्रवृत्ति की जाएं यह कैसे संभव हो सकता है ? तात्पर्य यह है "कि इस जगत् में बहुत से ऐसे सूक्ष्म जीव हैं जो हमारे देखने सुनने मैं भी नहीं आते। उनके प्रति हिंसा की भावना उत्पन्न नहीं होती । ऐसी स्थिति में उनकी हिंसा का पाप कैसे लग सकता है ?॥३॥ ममें मेगु लघुता नथी, है-तेमा अभारा शत्रु छे, हे मित्र छे ? અર્થાત્ અમે જ્યારે તેને દેખતા પણ નથી, એવા જીવાના સંબધમાં એક એક પ્રાણીને લઈને ઘતક મનેાવૃત્તિ ધારણ કરવામાં આવે રાત દિવસ-સૂતાં કે જાંગતાં તેમના પ્રત્યે શત્રુ પણું ધારણ કરવામાં આવે. અસત્ય બુદ્ધિ રાખવામાં આવે. અત્યંત શપણા પૂર્વક તેનાં પ્રાણાતિપાતમાં મન લગાડી શકાય, અને પ્રાણ તિાંતથી લઈને મિથ્યાર્દશન શલ્ય સુધીના પાિમાં પ્રવૃત્તિ કરવામાં આવે. આ કેવી રીતે સંભવી શકે તાપ્ય એ છે કે આ જગતમાં ઘણા એવા સૂક્ષ્મ જીવે છે કે જેઓ મારા દેખવા કે સૌભેળવામાં" પશુ આવતા નથી. તેના પ્રત્યે હિંસાની ભાવના ઉત્પન્ન થતી નથી. એવી સ્થિતિમાં તેની હિંસાનુ* પાપ કેવી शेते सांगी राहे ? सूर्य Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समपायबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ४ प्रत्याख्यानक्रियोपदेश: मुकम्-आयरिए आह-तत्थ खल्लु भगवया दुवे. दिटुंता.. पाणत्ता, तं जहा-सनि दिद्रुते य असंनि दिटुंते यासे किं तं संनि दिद्रुते। जे इमे: संनिपंचिंदिया पज्जत्तगा एएसिणं छ जीवनिकाए पडुच्च तं जहा-पुढवीकाय जाव तसकार्य, से एगइओ. पुढवीकारणं किचं करेइ वि कारवेइ कि, तस्स णं एवं भवइ-:' एवं खलु अहं पुढवीकारणं किचं करेमि वि कारवेमि कि, जो कणं से एवं भवइ इमेण वा इमेण वा, से एएणं पुढवीकारण. किचं करेइ वि कारवेइ वि से गं तओ पुढवीकायाओ असंजय अविरयअप्पडिहयअपच्चक्खायप्रावकम्मे यावि भवइ, एवं जाक तसकाए त्तिभाणियव्वं से एगइओ छ जीवनिकाएहिं किच्चं करे। वि काखेइ वि, तस्स णं एवं भवइ-एवं खलु छ जीवनिकाएहिं किच्छ करेमि वि कारवेमि वि, णो चेत्र णं से भवइ-इमेहि वा इमेहिं वा, से य तेहिं छहिं जीवनिकाएहिं जाव कारवेइ वि से य. तेहिं छहिं जीवनिकाएहिं असंजय अविरय अपडिय अप चक्खायपावकम्मे, तं जहा-पाणाइवाए जाव मिच्छादंसंशसल्ले, एस खलु भगवया अक्खाए असंजए अविरए अप्पड़ियअपच्चक्खायपावकम्मे सुविणमावि अपस्सओ पावे य से कम्मे कज्जइ से तं संनिदिटुंते । से किं तं असंनिदिटुंते ? जे इमे असन्निणो पाणा, तं. जहा-पुढशीकाइया जाव वणस्सइकाइया छटा वेगइया तसा पाणा, जेसिंणो तक्काइ वा:सन्नाइ वा पन्नाइ वा मणाइ वा वई वा सयं वा करपाए अन्नहिं वा Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६. सूत्रकृताङ्गसूत्रे कारावेत्तएं करतं वा समणुजाणित्तए, तेऽवि णं बाला सदवेसिं पाणीण जावससि सत्ताणं दियां वा राओ वा सुत्ता वा जागरमाणावा अमित्तभूया मिच्छासंदिया निच्चं पसढवि वायचित्तदंडां' तं जहा - पाणाइवाए जाव मिच्छादंसण सल्ले: इच्चैव जांव णो चैव मणो णों चेत्र वई पांणाणं जाब सत्तायां दुक्खणयाए सोमणयाए जूरणयाए तिप्पणयाए पिट्टणयाए परितपणयाए ते दुक्खणसोयण 'जाव परितप्पणच हबंधन परिकिलेसाओ अप्पडिविरया भवंति । इइ खलु से असन्नि णो ऽवि सत्ता अहोनिसिं पाणाइवाए उवक्खाइज्जति जाव- अहो - निसिं परिग्गहे उवक्खाइजेति जात्र मिच्छादंसण सल्ले उ क्वाइज्जति ' एवं भूयवाई' सव्वजोणिया वि खलु सत्ता, सन्निणो हुच्चा असन्निणो होंति असन्निणो हुच्चा सन्निणो होति, होच्चा सन्नी अदुवा असन्नी, तत्थ से अविविश्चित्ता अविधूणित्ता असंमूच्छित्ता अणणुतावित्ता असन्नि कायाओवा सन्निकाए संहति सन्निकायाओ वा असन्निकार्य संकमंति सन्निकायाओ वा सन्निकायं संकमंति, असन्निकायाओ वा असन्निकायं संकमंति, जे एए सन्नी वा असन्नी वा सव्वै ते मिच्छायारा निच्चं पसढ़विडवायचित्तदंडा, तं जहाँ - पाणा " 7 fe 6 가 1. 5 इवाए जाव मिच्छादंसणसल्ले, एवं खलु भगव्या अक्खाएं असंजए अविरए अप्पाड हय अपञ्चकखाय पावकम्मे सर्किरिए असंवुडे एगंत दंडे एगंतबाले एगंतसुत्ते से बाले अवियारमणत्रयण कायवक्के सुविणमविण पासइ पात्रे य से कम्मे कज्जइ | सू० ४।६६ | " . 4 ▾ बाई 1 Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.४ प्रत्याख्यानक्रियोपदेशः छाया-आचार्य आह-तत्र खलु भगाता द्वौ दृष्टान्तौ प्रज्ञप्तौ तप्रथा-संज्ञिदृष्टान्तश्चाऽसज्ञिष्टान्तश्च, सकः संशिदृष्टान्तः। ये इमे संक्षिपञ्चन्द्रिया: पर्याप्तकाः, एतेषां खलु षडूनीवनिकायान् मतीत्य, तद्यथा-पृथिवीकायं यावत् बस. कायम् । स एकतयः पृथिवी कायेन कृत्य करोति अपि कारयत्यपि, तस्यं खल्वेवं भवति । एवं खल्वहं पृथिवीकायेन कृत्यं करोग्यपि कारयास्यपि नो चेव खल वस्येवं भवति, अनेन वाऽनेन चा, स एतेन पृथिवीकायेन कृत्यं करोत्पति-कारयत्यपि-स खलु ततः पृथिवीकायादसयताऽविरताऽमतिहताऽपत्याख्यातपाप कर्मा चापि भवति । एवं यावत् उसकायेष्वपि भणितव्यम् । स एकतयः पडू जीवनिकायैः कृत्यं करोत्पपि कारयत्यपि तस्य खल्वेवं भाति । एवं खलु पडू जीवनिकायैः कृश्यं करोम्यपि कारयाम्यपि नो चैत्र खल तस्यैवं भवति, एभिवाएभिवी, स च तै पनि वनिकयैः कृत्यं करोल्यपि कारयत्यपि । स च तेभ्यः पडू जीवनिकायेभ्योऽसंयताऽविरताऽप्रतिहताऽप्रत्याख्यातपापकर्मा । तद्यथा माणा तिपाते यावमिथ्यादर्शनशल्ये । एप खल भगवता आख्यातोऽसंयतोऽविरवोs. प्रत्याख्यातपापकर्मा स्वप्नमप्यपश्यन् पापं च कर्म स करोति तदेव संज्ञिदृष्टान्तः। स कोऽसंजिष्टान्त: ? ये इमे असंज्ञिनः प्राणाः तद्यथा-पृथिवीकायिका यावद्वनस्पतिकायिकाः पष्ठा एकतये त्रसाः प्राणाः । येषां नो तर्क इति वा. संज्ञा इति वा, प्रज्ञा इति वा, मन इति वा, वाग्वा, सायं वा कत्तुंमन्यै वा कारयितुं कुर्वन्तं वा समनुज्ञातुम्, तेऽपि खलु वालाः । सर्वेषां प्राणानां यात्सर्वेषां सचानां दिवा वा, रात्रौ वा, सुप्ता वा, जाग्रतो वा, अमित्रभूता मिथ्यासंस्थिताः, नित्यं. प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डाः। तद्यथा-माणातिपाते यावद् मिथ्यादर्शनशल्ये। इत्येवं यावत-नोचव मनो नो चैव वाक् माणानां यावत् सत्त्वानां दुःखनतयाशोचनतया-जाणतया-तेपनत या-पिहनतया-परितापनतया ते दुःखनशोचन यावत्परितापनवबन्धनपरिक्लेशेभ्योऽपतिविरता भवन्ति । इति खल तेऽसंज्ञिनोऽपि सत्ताः अहर्निशं प्राणातिपाते उपाख्यायन्ते यावदहनिशं परिग्रहे-उपा ख्यायन्ते यावद् मिथ्यादर्शनशल्ये-उपारायन्ते (एवं भूतो वादी) सर्वयोनिकाः अपि खल सत्याः संज्ञिनो भूत्वाऽसंज्ञिनो भवन्ति । असंझिनो भूत्वा संज्ञिनो भवन्ति । भूत्वा संझिनोऽथवाऽसंज्ञिनस्तत्र तेऽविविच्याऽविधूयाऽसमुच्छिद्याऽननुता प्याऽसंज्ञिकायात् वा संज्ञिकायं संकामन्ति । संज्ञिकायाद्वाऽसज्ञिकायं संक्रामन्ति । संज्ञिकायाद्वा संज्ञिका संक्रामनिन। असंशिकायाद्वाऽसंज्ञकाय संक्रामन्ति । ये एते संझिनो वाइसंज्ञिनो वा, सर्वे ते मिथयावारा नित्यं प्रशठव्यतिपातचित्त सु० ५८ Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे दण्डाः । रथा- प्राणातिपाते या मिथ्यादर्शनशल्ये । एवं खलु भगवता - ञ्चाख्यातोऽसंयते ऽविरतोऽमद्दताऽमत्याख्यात पापकर्मा-सकियोऽसंवृत एकान्तदण्ड, एकान्तच.ल एकान्नसुप्तः । स बालोऽविचारमनोवचनकायवाक्या स्वप्नमपि म पश्यति पापं च कर्म कियते ॥ ०४-६६॥ टीका - अतएव न सर्वे हिंसा स्तत्र आचार्य: माद- 'तस्थ' तंत्र - हिंसकासिकविषये खलु इति वा वाक्यालङ्कारे पूर्ववृत्तस्य मज्ञापको वा । 'भगवा' भगवा- अशेषगुणशालिना तीर्थकरेण 'दुवे दिडंता पण्णत्ता' द्वौ - द्विमकारको दृष्टा न्तौ प्रज्ञप्ती- प्रदर्शितो, 'तं जहां' - तद्यथा 'संनिविते य असंनिदितेय' संज्ञिदृष्टान्तथाऽसंज्ञिदृष्टान्तः । संज्ञा-कायिकवाचिकमानसिक चेष्टा सा विद्यते यस्थ स संज्ञी, तस्य दृष्टान्तः संज्ञिहटान्तः । तद्भिन्नोऽष्टान्तः, 'से किं तं संनि दिडंते' सकः संज्ञिदृष्टान्तः 'जे इमे संनिपचिदिया पज्जतगा एरसि छजीवनिकार पच्च' ये इमें सञ्चिन्द्रियाः पर्यानका जीवाः सन्ति एतेषां मध्ये पृथिवीकायादारभ्य त्रसकायपर्यन्तान् पड्जीवनिकायान् प्रतीत्य-आश्रित्य पड्जीव "तत्य खलु भगवया' इत्यादि । टीकार्थ- आचार्य श्री उत्तर देते हुए करते हैं इस विषय में सर्वगुणसम्पन्न भगवान् श्री तीर्थंकर देव ने दो दृष्टान्त वहे हैं। वे इस प्रकार हैं - संज्ञिदृष्टान्त और असंज्ञि दृष्टान्त । जिन जीवों में संज्ञा अर्थात् कायिक, वाचिक और मानसिक चेष्टा पाई जाती हैं, वे संज्ञी कहलाते हैं । उसका दृष्टान्त संज्ञि दृष्टान्त करलाता है । इससे विपरीत असंज्ञि दृष्टान्त समझना चाहिए । इनमें से संज्ञि दृष्टान्त क्या है ? यह जो मंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव हैं, इनमें पृथ्वीकाय से लगा कर सकाय पर्यन्न पटू जीवनिकाय 'तत्थ खलु भगवया' इत्यादि ટીકા-મ:ચા શ્રી ઉત્તર આપતાં કહે છે કે આ વિષયમાં સવગુણુ સમ્પન્ન ભગવાન શ્રી તીથંકર દેવે એ દૃષ્ટાન્તા કહ્યા છે તે આ પ્રમાણે છે.-સ નિર્દેષ્ટાન્ત અને અગ્નિદૃષ્ટાન્ત જે જીવેામાં સંજ્ઞા અર્થાત્ કાયિક, વાચિક, અને માન સિક ચેષ્ટા મેળવવામાં આવે છે. તેઓ સજ્ઞી કહેવાય છે. તેનુ દૃષ્ટાન્ત સજ્ઞિ દૃષ્ટાન્ત કહેવાય છે. તેનાથી વિપરીત મર્ચાત્ ઉલ્ટુ અસના દૃષ્ટાન્ત સમજવું. આ પૈકી સાંન્નિ દૃષ્ટાન્ત શું છે? જે માસી પચેન્દ્રિય પર્યાપ્ત જીવેા છે, તેઓમાં પૃથ્વીકાયથી લઇને ત્રસકાય ન્તના ષટ્રકાર્યમાંથી કાઇ કા Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोधिनी टीका fr. श्रु. अ. ४ प्रत्याख्यानक्रियोपदेशः ४५९ " - 1 निकायविषये इत्यर्थः ' तं जहा' तद्यथा 'पुढवीकार्य जाव तसकाय' पृथिवीकार्य यावत् सकादम् यावत्पदेन - अप्तेजोवायुवनस्पतीनां संग्रहः । ' से एगइओ पुढवीकारणं किच्चं करे विकारवे वि' स एकतयः पृथिवीकायेन जीवेन कृत्यैस्वीयं कार्यजातम् - आहारादिकं करोति कारयति च । 'तस्स णं एव भवई' तस्य खलु कार्यकर्त्तः पुरुषस्य एवं भवति स एवमेव वक्तुं शक्नोति एवं खलु अहं पुढवीकारणं किच्च करेमि चि कारवेमि वि' एवं खलु अहं पृथिवीकायेन कृत्यं कार्य करोम्यपि कारयाम्यपि अनुमोदयाम्पपि 'णो चेव णं से एवं भवइ इमेण वा इमेण वा' नो चैव खलु तस्य-कार्यकर्त्तः पुरुषस्यैवं भवति तस्य त्रिषये नैवं कथयितुमन्यैः शक्यते यद् अनेनाऽनेन वा अमुकामुकपृथिवीकायेन स्वकृत्यं करोति कारयति वा, इति । 'से एएगं पुढवीकारणं किच्चं करेइ वि कारवेइ वि' स एतेन न पृथिवी येन कृन्यं - कार्य करोत्यपि, कारयत्यपि यदा स पृथिवीकायेन कार्यं करोति कारयति तदा नैवं कथयितुं शक्यते यदयममुकेनैव पृथिवीकार्य करोति कारयति अमुकेन व्यक्तिविशेष कार्य न करोति न वा कारयति में से कोई-कोई मनुष्य पृथ्वीकाय से अपना आहार आदि कृत्य करता है और करवाता है । उसके मन में ऐसा विचार होता है कि मैं पृथ्वी. काय से अपना काम करता हूं या कराता हूं (या अनुमोदन करता हूं) | उसके सम्बन्ध में ऐसा नहीं कहा जा सकता कि वह अमुक पृथ्वी, से ही कार्य करता या कराता है, सम्पूर्ण पृथ्वी से नहीं करता या नहीं, कराता है। उसके संबंध में तो यही कहा जाता है कि वह पृथ्वीकाय से कार्य करता है और कराता है । अतएव वह सामान्य रूप से ही पृथ्वीकाय का विराधक कहलाता है। सामान्य में सभी विशेषों का समावेश हो जाता है, अतएव यह नहीं कहा जा सकता कि वह अमुक पृथ्वीकाय का विराधक है, अमुक का नहीं। इस कारण वह -- મનુષ્ય પૃથ્વીકાયથી પાતાના આહાર વિગેરે કાર્યો કરે છે, અને કરાવે છે. તેમના મનમાં એવે વિચાર હોય છે કે−હું' પૃથ્વીકાયથી પેાતાનું કામ કરૂ છે. અથવા કરાવુ છું... (અથવા અનુમેદન કરૂં છું) તેના સંબંધમાં એવુ કહી શકાતું નથી કે તે અમુક પૃથ્વીકાયથી જ કાય કરે છે. અથવા કરાવે છે, સ ́પૂર્ણ પૃથ્વીથી કરતા નથી કે કરાવતા નથી. તેના સબધમાં તે એજ કહી શકાય કે−ને પૃથ્વીકાયથી કાય કરે છે અને કરાવે છે તેથી જ તે સામાન્ય પણાથી જ પૃથ્વિકાયના વિરાધક કહેવાય છે. સામાન્યમાં સઘળા વિશેષાને સમાવેશ થઇ જાય છે. તેથી જ એ કહી શકાતું નથી કે તે Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० सूत्रकृताङ्गसूत्रे अपि, किन्तु - समान्यत एव पृथिवीकायान् विराधयतीत्युच्यते । अतः स सामान्यतः सर्वावच्छिन्नं पृथिवीकायानां विराधक एवेति । 'से णं तभी पुढनीकायामो असंजय - अविरय- अप्पडियअपचक वायपावकम्मे यानि भवई' स खलु एतादृशः पुरुषस्ततः पृथिवीकायजी शत्-असंयताऽविरताप विश्वाऽपत्याख्यातपापकर्मा चापि भवति तत्राऽसंयतः - वर्तमानकालिकसावधानुष्ठानमवृत्तः, अविरतः - अतीताऽनागतपापादनिवृतः, अपतिहताऽपत्याख्यातपापकर्मा-नमाख्यातं पूर्वकृताविचारनिन्दया भविष्यत्करणेन तथा-न पतिहतं न निराकृतं न नाशितं पापं कर्म येन स तथा, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः । ' एवं जात्र तसकायेति भाणियन्वं' एवं यावत् सापि भणितव्यम् । त्रकायेत कार्य कुर्वन् - तत्रापि सामान्यतो विराधकत्वं नातिवर्तते । ' से एगओ छजीवनिकाह किच्चं करेड़ विकारवे वि' सामान्यतः पृथ्वीकाय के जीवों का विराधक है। ऐसा जीव पृथ्वीकाय के विषय में संगत नहीं होता अर्थात् वर्त्तमान काल में सावध अनुष्ठान में प्रवृत्त होता है, विरत नहीं होता अर्थात् अतीत और अनागत संबंधी पापों से निवृत्त नहीं होता, पाप को प्रतिहत और प्रत्याख्यात नहीं करता, अर्थात् पूर्वकृत पाप की निन्दा नहीं करता और भविष्य में न करने का संकल्प नहीं करता । जो पृथ्वीकाय के विषय में कहा गया है, वही सकाय तक सभी कायों के विषय में कहना चाहिए । सकाय के द्वारा जो कार्य करता या कराता है, वह सामान्य रूप से सकाय का विशयक कहलाता है। कोई छहों कार्यों से कार्य करता और करवाता है । उस पुरुष को ऐसा અમુક પૃથ્વીકાયના વિરાધક છે. અને અમુકના નથી આ કારણે તે સામાન્યતઃ પૃથ્વીકાયના જીવાના વિરાધક છે. એવા જીવે પૃથ્વીકાયના સંબધમાં સયત થતા નથી. અર્થાત્ વ માનકાળમાં સાદ્ય અનુષ્ઠાનમાં પ્રવૃત્ત થાય છે. વિરત થતા નથી. અર્થાત્ ભૂતકાળમાં કરેલા અને ભવિષ્યકાળમાં થનારા પાપેાથી નિવૃત્ત થતા નથી. પાપને પ્રતિત અને પ્રખ્યાત કરતા નથી, અર્થાત્ પહેલાં કરેલા પાપની નિંઢા કરતા નથી, અને ભિવ જ્યમાં ન કરવાના સ'કલ↓ કરતા નથી. પૃથ્વીકાયના સંબંધનાં કહેવામાં આવેલ છે, એજ ત્રસકાય સુધી સઘળા કાર્યાના સબધમાં કહેવુ' જોઈ એ. ત્રસકાય દ્વારા જે કાય કરે છે કરાવે છે, તે સામાન્ય પણાથી ત્રસકાયના વિરાધક હેવાય છે, કાઇ છએ Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६१ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ४ प्रत्याख्यानक्रियोपदेशः स एकतयः षङ्जीवनिकायैः कृत्यं करोत्यपि कारयत्यपि 'वस्त णं एवं भवई' तस्य पुरुषस्य खल्वेवं भवति, 'एव खलु छजी पनिकाएहिं किच्च करेमि वि कारवेमि वि' एवं खलु पड नीवनिकायैः कृत्य-कार्य करोम्यपि कारयाम्यवि 'णो चेवणं से एव भवई' नो चैव खलु तस्य-पुरुषस्यैवं भवति तस्य विषये एवं वक्तं न शक्यते कैरपि यत् 'इमे हि वा इमेहिं वा' एमिर्वा एभिर्श-स एमिरेभिरेव स्त्रीय कार्य करोति कारयति वेति वक्तुं न शक्यते, किन्तु सामान्यतः ‘से य तेहिं छहिं जीवनिकाएहिं जाव कारवेइ वि स च तैः पमिर्जीवनिकायै वित्करोति कारपत्यपि यावत्पदेन करोतीत्यस्य ग्रहणम्, ‘से य तेहिं छहिं जीवनिकाए' स च सामा. न्यतः कार्यकारी तेभ्यः षड्जीवनिकायेभ्य: 'असंजय अविरय-अप्पडिय-अपच्चक्खाय पावकम्मे' तं जहा-पाणाइवाए जाब मिच्छ दंसणसल्ले' असंयताऽविस्ताऽ. पतिहताऽपत्याख्यातपापकर्मा तद्या-पाणातिपाते यावमिथ्यादर्शनशल्ये, स पुरुषः पूनोंदीरित पइनीवनिकायेभ्यो विरतिसंयमादिगो रहितः, अकृतपायश्चित्तप्रत्याख्यानः प्रागातिपातादारभ्य मिथ्यादर्शनशल्यान्तः पापकर्मैव भवति । एस खलु भगवया अक्खार असंजए अविरए अपपडिहय अपच्वक्वायपावकम्मे एप खलएतादृशः पुरुषोहि भगवता-तीर्थकरेग आख्यातः-कथितः असंयतः असंगतस्वरूपेण, तथा अविरतः तथा-अप्रतिहताऽपत्य.ख्वातपापकर्मा 'सुविणमवि अपस्सओ' स्वप्नमपि अपश्यन्-संयमविरत्यादिरहितः 'पावे य से कम्मे कज्जह स विचार नहीं होता कि मैं अमुक अमुक काय से कार्य करू और अमुक अमुक से न करूं। वह तो सामान्य रूप से छहों जीवनिकायों से कार्य करता और करवाता है । अतएव वह छहों जीवनिकायों की हिंसा से असंयत है, अविरत है । अप्रतिहत और अप्रत्याख्यात पापकर्म वाला है। वह प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शन शत्य तक अठारहों पापस्थानों का सेवन करने वाला है। तीर्थकर भगवान् ने ऐसे पुरुषको असंयत, अविरत, अप्रतिहत एवं अप्रत्याख्यात पापकर्म वाला और - કાથી કાર્ય કરે છે, અને કરાવે છે તે પુરૂષને એ વિચાર થ નથી કે હું અમુક અમુક કાય–શરીરથી કાર્ય કરૂં અને અને અમુક અમુકથી ન કરૂં ' એ તે સામાન્ય પણુથી છએ જીવનિકાયાથી કાર્ય કરે અને કરાવે છે તેથી જ એ છ એ જવનિકાની હિ સાથી અસયત છે, અવિરત છે. અપ્રતિહત . અને અપ્રત્યાખ્યાત પાપકર્મ વાળા છે. તે પ્રાણાતિપાતથી લઈને મિથ્ય, દર્શન શલ્ય સુધી અઢારે પાપસ્થાનેનું સેવન કરવાવાળા છે. તીર્થકર ભગવાને એવા પુરૂષને અસયત, અવિરત, અપ્રતિહત અને અપ્રત્યાખ્યાત પાપકર્મવાળે Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૬૨ सूत्रकृतात्रे पाप' कर्म करोत्येव, 'से तं संनिदिने' स संज्ञेदृष्टान्तः प्रदर्शितो भगवतेति शेषः, यथाकामावादमवृत्त यद्यपि न तेन विवक्षितकाले केचन पुरुषा दृष्टा स्वाप्यसौ तत्मवृत्तिनिवृत्तेरभावात् तद्योग्यतया तद्यातक एव, मकृतेऽपीति'से किं तं अमनिट्ठिते' स कोऽसंविदृष्टान्तः ? 'जे इमे असन्निणो पाणा जहा ' ये इमेऽसंज्ञिनः प्राणा स्वधया - 'पुढवीकाइया जाव वणस्सइकाइया छडा वेगइया तसा पाणा' पृथिवीकायिका यावद्वनस्पतिकायिकाः- पृथिवीकायादारभ्य वनस्पतिकायपर्यन्ता जीवाः पष्ठा एकनये त्रसाः माणाः - पष्ठा पनाम का असंज्ञिनो ये जीवाः सन्ति 'जेर्सि णो तकाइ वा संनाह वा पन्ना वा मणाई वा वई वा सयं वा करणाए अन्नेदि वा कारावेत्तए वा करंतं वा समणुजाणित्तए' येषां J स्वप्न भी न देखने वाला अर्थात् संयम और विरति से सर्वथा रहित कहा है । वह पापकर्म करता ही है । यह संज्ञि दृष्टन कहा गया है। आशय यह है कि जैसे कोई कोई पुरुष समग्र ग्राम के घात में प्रवृत्त हो और उस समय वह किसी विशिष्ट मनुष्य को न देखता हो, तो भी ग्राघातक होने से उस ग्राम के अन्तर्गत उस मनुष्य का भी घातक कहलाता है, इसी प्रकार जो पट्का के जीवों का घातक है वह चाहे किसी जीव को देखे या न देखे, उसका घातक ही कहलाएगा। अब असंज्ञि दृष्टान्त क्या है ? ये जो असंज्ञी पाणी हैं, जैसे पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक और कोई कोई कायिक, जिनको यह पत्र नहीं होना कि कर्त्तव्य क्या है और अकर्त्तव्य क्या है, जो संज्ञा से हीन हैं अर्थात् पूर्व प्राप्त पदार्थ की उत्तरकाल में पर्यालोचना અને સ્વસ પણ ન દેખવાવાળા અર્થાત્ સંયમ અને વિરતિ વિગેરેથી સથા રહિત કહ્યો છે. તે પાપકમ કરેજ છે. આ સગ્નિ દૃષ્ટાન્ત કહેલ છે. f. કહેવાના ભાવ એ છે કે—જેમ કેઇ પુરૂષ સપૂણું ગામના ઘાત કર વામાં પ્રવૃત્તિવાળા હાય, અને તે વખતે કાઇ વિશેષ માણુષને ન દેખે, તેા પણ ગ્રામઘાતક હૈ.વાથી તે ગામના અંતગત એ મનુષ્યના પણ ઘાતક કહેવાય છે. એજ પ્રમાણે જે ષટ્કાયના જીવાને ઘાત કરનારા છે, તે ચાહે કાઈ જીવને દેખે અથવા ન દેખે પણ તેને ઘાતક જ કહેવાય છે હવે અસનાનું દૃષ્ટાન્ત બતાવવામાં આવે છે, જે આ અસદ્ગિ પ્રાણી છે,' જેમકે–પૃથ્વિકાયિક યાવર્તી વનસ્પતિકાયિક અને કૈઈ કોઈ ત્રસકાયિક, જેમને એવા આધ હાતા નથી કે કર્તવ્ય શું છે ? અને અકર્તવ્ય શું છે? જે સજ્ઞા વિનાના છે, અર્થાત્ પહેલા પ્રાપ્ત કરેલા પદાર્થની ઉત્તર કાળમા Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 १ ૪૬૨ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. थु. अ. ४ प्रत्याख्यान क्रियोपदेशः नो तर्क इति वा संज्ञे'त वा प्रज्ञेति वा मन इति वा वाग्वा स्वयं वा कर्तुम् अन्यै व कारयितुं कुर्वन्तं वा समनुज्ञातुम्, तत्र तर्कः - ऊहा - किमिदं कर्त्तव्यम कर्त्तव्यं वेत्येवमात्मकः संज्ञानं संज्ञा - पूर्वीपष्टब्धायें उत्तरकाले पर्यालोचना, मज्ञानं प्रज्ञा- खबुद्धयोत्पेक्षणम्, मननं मनो मतिः- सा चावग्रहादिरूपा मनः - अन्तः कर स्, प्रशस्यवर्णा वाक्, एतानि न विद्यन्ते येषाम्, येषां जीवानां तर्कादयो न सन्ति ते विणं बाला सन्वेसिं पाणाणं जाच सव्वेसि सत्ताणं तेऽपि बाला:अज्ञानिनो जीवाः येषां तर्कादयो न भवन्ति, सर्वेषां प्राणवतां सुनानां जीवानां सानाम् 'दिया वा राओ वा सुत्ता वा जागरमाणा वा' दिवा वा रात्रौ वा सुप्ता वा जाग्रतो वा 'अमितभूषा मिच्छासंठिया' अमित्रभूतामिवासंस्थिताः-असत्यबुद्धियुक्ताः 'निच्चं पढविउवाय चित्तदंडा' नित्यं प्रशठव्यतिपातचितदण्डाःधूर्तता पूर्वक वधवृत्तिमन्तः । 'तं जहा ' रथया - 'पाणाइवाए जाव मिच्छादंसणसल्ले' प्राणातिपाते- प्राणिनां हिमा वर्मणि यावद् मिथ्यादर्शनशल्ये, 'इच्चेवं जाव णो चेव मणो णो वई पाणाणं जाव सत्ताणं दुक्खणयाए' इत्येवं यावत् नो चैव मनो नो चैत्र वाक् प्राणानां यावत्सत्त्वानां दु खनतया 'सोयणयाए' शोचनतया नहीं कर सकते, जिनमें प्रज्ञा नहीं है अर्थात् अपनी बुद्धि से सोचने की शक्ति नहीं है, जिनमें मनन करने का सामर्थ्य नहीं है, वाणी नहीं है, जो न स्वयं कुछ कर सकते हैं और न दूसरों से करवा सकते हैं और न करने वाले का अनुमोदन कर सकते हैं, ऐसे तर्क एवं संज्ञा आदि से रहित प्राणी भी समस्त प्राणियों, भूतों, जीवों और सच्चों के दिन रात सोते जागते सदैव शत्रु बने रहते हैं, उन्हें धोखा देते हैं और अत्यन्त शठता पूर्वक घात करने में संलग्न रहते हैं । वे प्राणातिपान से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य पर्यन्त अठारहों पापों का सेवन करते रहते हैं । यद्यपि उनको मन तथा वाणी होते नहीं हैं, પર્યાલાચના કરી શકતા નથી. જેમનામાં પ્રજ્ઞા નથી અર્થાત પેાતાની બુદ્ધિથી વિચારવાની શક્તિ નથી, જેમનામાં શ્નન કરવાનું સામર્થ્ય નથી, વાણી તથા મીજાએ પાંસે કેાઈ કરાવી નથી. જે સ્વયં ઈ કરીશ તા નથી શકતા નથી. એવા તર્ક અને સ જ્ઞા વિગેરેથી રહિત પ્રણી પણુ સઘળા પ્રાણિયા, ભૂતા, જવા અને સર્વેના રાદિવસ સૂતાં કે જાગતાં હમેશાં શત્રુ બન્યા રહે છે. તેને દગે દે છે. અને અત્યત શઠતા પૂર્વક ઘાત કર્મેવામાં લાગ્યા રહે છે તે પ્રાણાતિપાતથી લઈને મિથ્યાદર્શન શલ્ય સુધી અઢારે પાપાનું સેવન કરતા કહે છે. જો કે તેમને મન તથાવાણી લેતા નથી, Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સુર सूत्रकृताङ्गसूत्रे 'जाणयाए तिपणयाए पिट्टणयार परितप्यणयाए' जूरणतया तेपनतया पितया 'परितापनतया ' ने दुकवणसोयण जात्र परितपण वहबंत्रणपरिकिले साओ' ते दुःखनझोचन यावसरितापनवधवन्धन परिक्लेशेयः तत्र- वधो मरणम्, बन्धनं रज्ज्वादिना 'अप डिविया भवेति' अतिविरता भवन्ति, दुःखतया मरणदुःखरूपे शोचनंदैन्यमापणम्, जूणं- शोकातिरेकान्छी रजीर्णतामायणम्, तेपनं शोकातिरेकाद कालादि क्षरणपापणम् परितेपनं शरीरसन्तापः, यद्यपि अर्सझिजीवेषु मनोव तथापि सर्वानेव जीवान शोचयन्ति परितापयन्ति। यद्वा-सदैव शोक परितापपीडन धन्नादिकं कुर्वन्तः पापकर्मभ्यो न निवृत्ताः, अपितु पाव कर्मनिरता एव भरन्तीति । 'इइ खल से अभियो वि सत्ता अहो नि पाणाइवाए उक्वाइज्जति' इति पूर्वोक्तप्रकारेण खलु तेऽसंज्ञिनोऽपि संज्ञाप्रज्ञादिरहिता अपि सत्राः प्राणिनः पृथिवीकायिकादयः, अहर्निशम् - रात्रिदिवम्, प्राणातियाते - जीवहिंसाकर्मणि विद्यमानाः प्राणातिपाते कर्तव्ये तद्योग्यतया तद संप्राप्तावपि ग्रामघातकचदुपाख्यायन्ते । 'जात्र अहोनिसिं परिग्गहे उवक्वाइ ज्जति' यात्रदहर्निश परिग्रहे विद्यमानाः उपाख्यायन्ते यावद्मिथ्यादर्शनशल्पे उपाख्यान्ते-ते | संज्ञारहित अपि दूरवर्त्तिनोऽपि सूक्ष्मतरा अपि माणाफिर भी वे प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को दुःख पहुंचाने, शोक उत्पन्न करने, झुगने, रुलाने, वधकरने, परिताप देने, या उन्हें एक ही साथ दुःख, शोक संताप पीड़न वध, बंधन आदि करने के पापकर्म से विरत नहीं होते हैं, परन्तु पापकर्म में निरत (तत्पर) ही रहते हैं । इस प्रकार वे असंज्ञी एवं संज्ञी प्रज्ञा आदि से रहित भी पृथ्वीकायिक आदि प्राणी रातदिन प्राणातिगत में वर्तते है । वे चाहे दुसरे प्राणियों को न जानते हों तो भी ग्रामघातक के समानहिंसक कहलाते हैं। वे परिग्रह में यावत् मिथ्यादर्शनशल्य में अर्थात् सभी पापों में वर्तमान होते हैं । તા પણ તેઓ પ્રથ્રિયા, ભૂતા, જીવેા અને સર્વે ને દુ.ખ પડેાંચાડવા માટે શાક ઉત્પન્ન કરવા, ઝુરાવવા, રડાવવા, વધ કરવા, પરિતાપ પહેાંચાડવા અથવા તેમને એકી સાથે જ દુઃખ શાક, સંતાપ, પીડન, મધન વિગેરે કરવાના પાપકર્મથી વિરત થતા નથી પર ંતુ પાપકમ`માં નિરત-તપર જ રહે છે. આ રીતે તે અસી અને સત્તા પ્રજ્ઞા વિગેરેથી મહિનપશુ પૃથ્વીકાયિક વિગેરે પ્રાણી દિવસરાત પ્રાણાતિપ તમાં વર્તતા રડે છે તેઓ ચાહે બીજા પ્રાણિ ચેાને ન જાણુતા હોય, તે પણ ગામઘાતક પ્રમાણે જ હિંસક કહેવાય છે. તે પરિશ્રહમાં ચાવતા મિથ્યાઇશ નશલ્યમાં અર્થાત્ સઘળા પાપેમાં વર્તમાન હોય છે, Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ४ प्रत्याख्यानक्रियोपदेश तिपातादि परिग्रहमिथयादर्शनशल्यान्ते पापकर्मणि ओतमोता इत्येव कथ्यते। (एवं भूतवादी) 'सव्वजोणिया वि' सर्वयोनिका अपि 'खल सत्ताः संनिणो हुचा असंनिणो हुँति असंनिणो हुचा संनिगो होति' खलु-इति निश्चवार्थकः समाःमाणिनः संझिनो भूत्वाऽसंज्ञिनो भवन्ति । असंज्ञिनो भूत्वा संज्ञिनो भवन्ति, कम पराधीना हि जीवा।। ते च जीवा यथाकर्म संज्ञिनोऽपि संज्ञामनुप्रयन्तोऽपि कर्म बलाद् असंझिनो भवन्ति ! असंज्ञिनो जीवाः कर्मवलात् कालान्तरे संझिनो भान्ति । 'होच्चा संनी अदुवा असन्नी' भूत्या संज्ञिनः अथवाऽसंज्ञिना 'वस्थ से अविविचित्ता अवि धुणिता असमुच्छिता अणणुताबित्ता असंनिकायाओ वा संकमंति संनिकायाओ वा असंनिकार्य संमंति' तत्र-तत्तयोनौ अविविच्य-वस्मात् पापं कर्म अपृथक्कृत्य, अविधूय पापम्-पापमप्रक्षाल्य, असमुच्छिद्य-पापमच्छि वा, अननुता. प्य-पश्चातापमकृत्या, तदा-नाशकर्मवलात् अमंज्ञिकायात् संज्ञिकाय संक्रामन्ति । गच्छन्ति ताशस्य कर्मणः फलोपभोगाय। यद्वा-संज्ञकायाद असंज्ञिकायं संक्रा - मन्ति-संज्ञिशरीराद सज्ञिशरीरे आगच्छन्ति । असंज्ञिशरीरात संज्ञिशरीरे समागच्छन्तीति । 'संनिकायाओ वा संनिकायं संकर्मति असं निकायाओ वा असंनिकायं संकमंति' अथवा-संज्ञिकायात संज्ञिकायमेव संक्रामन्ति । असंज्ञिकायात्-असंज्ञि. सभी योनियों के प्राणी निश्चय से संज्ञी होकर (भवान्तर में) असंज्ञी हो जाते हैं और असंज्ञी होकर संज्ञी हो जाते हैं, क्योंकि संसारी जीव कर्म के अधीन हैं, अतएव कर्म के उदय के अनुमार विभिन्न पर्यायों को धारण करते रहते हैं। जो जीव विभिन्न (अनेक) योनियों में रहकर पारकर्म को दूर नहीं करते, पाप का प्रक्षालन नहीं करते, वे कर्मोदय के वशीभूत होकर असंज्ञी पर्याय से संज्ञी पर्याय में उत्पन्न हो जाते हैं, संज्ञीपर्याय से असंज्ञीपर्याय में जन्म लेते हैं । अथवा संज्ञी पर्याय से संजोपर्याय में और असंज्ञीपर्याय से असंज्ञीपर्याय સઘળી નિના પ્રાણ નિશ્ચયથી સ શી થઈને (ભવાન્તરમાં) અસંજ્ઞી થઈ જાય છે અને અસ ઝી થઈને સ ઝી થઈ જાય છે. કેમકે-સંસારી જીવ કમને આધીન છે, તેથી જ કર્મને ઉદય પ્રમાણે જુદા જુદા પર્યાયે ને ધારણ કરે છે. જે જીવ જુદી જુદી અનેક ચેનિયામાં રહીને પાપકર્મને દૂર કરતા નથી પાપને જોઈ નાખતા નથી, તેઓ કર્મના ઉદયને વશ થઈને અસ ગ્રી પર્યાયથી સજ્ઞી પર્યાયમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. સંજ્ઞી પર્યાયધી અસંશી પર્યા. યમાં જન્મ લે છે અથવા સંજ્ઞા પર્યાયથી સંસી પર્યાયમાં અને અસંસી - પર્યાયથી અણી પર્યાયમાં પણ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. એ કેઈ નિયમ Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकतानो कायमेव संकामन्ति । यथार्म यथः श्रुतम् । नायमस्ति नियमो यत् संझी संत्री एवं भवेत् । असंज्ञी च असंज्ञी एव भवेत्, कर्माऽधीनस्य हि वैचित्रयम् , कर्मचाऽऽकेवल. ज्ञानं स्वाधिकार न त्यजति, अत्यनन् जीवान् उच्चायचान् सदृशतया विसरसतया उत्त योभयतया परिभ्रामयति । 'जे एए संनी वा असंती वा सक्वे ते मिच्छायारा निचं पसहवि उवायचित्तदंडा, तं जहा पाणाड्याए जाय मिच्छादसणसल्छे' ये एते संझिनो वाऽसंज्ञिनो वा जीवा इनि शेषः, ते सर्वे. मिश्याचारा:-अदि. शुद्रांचाराः, अपत्याख्यानिस्वात् , नित्यं प्रशठरतिपातचित्तदण्डाः। इमे सर्वे जीवाः मिथ्याचारा स्तथैव सर्वदा शठतायुक्तधूर्तनायुक्तहिंसात्मकचित्तवृत्ते. धारणकर्तारः सन्ति । तथा-माणातिपाते यावद् , मिथ्यादर्शनशल्ये, प्राणाति. पातादारभ्य मिथ्यादर्शनशल्यान्तपापकर्मणि निरताः सन्तीति। 'एवं खन भगवया अक्वाए असंजए अविरए अप्पडिहयभपच्चर वायपावकम्मे सकिरिए एवं खल-अस्मात् कारणादेव भगना तीर्थकरेण अरु शता, असंयत:में भी उत्पन्न हो जाते हैं। ऐमा कोई नियम नहीं है कि संज्ञी जीव भवान्तर में संज्ञी के पर्याय में ही उत्पन्न हो और असंज्ञी जीव मरकर असंज्ञी ही हो। संज्ञी असंज्ञी आदि की विचित्रता कर्म के अधीन ही है, और जब तक मुक्ति प्राप्त न हो जाय तब तक उसका प्रभाव नष्ट नहीं हो सकता और जबतक कर्म का प्रभाव नष्ट न हो जाय तय तक उन जीवों को उच्च, नीच सदृश और विसदृश योनियों में घुमाता ही रहता है। ये संज्ञी और असंज्ञी जीव, सभी अशुद् आचार वाले हैं, सदा शठता से युक्त हैं और हिंसात्मक चित्तवृत्ति को धारण करने वाले हैं। वे प्राणातिपात से लगाकर मिथ्यादर्शनशल्य तक के भी पापों में निरत होते हैं, इस कारण श्री तीर्थंकर भगवान् ने इन पाप में तत्पर નથી કે સંજ્ઞી જીવ ભવન્તરમાં સન્ની પર્યાયમાં જ હોય. સંસી, અસંજ્ઞા વિગેરેનું વિચિત્ર પણ કર્મને આધીન છે અને જ્યાં સુધી મુક્તિ પ્રાપ્ત ન થઈ જાય, ત્યાં સુધી તેનો પ્રભાવ નાશ પામતું નથી. અને જ્યાં સુધી કર્મનો સદુ પ્રભાવ નાશ ન પામે ત્યાં સુધી તે ને ઉંચ નીચ, કે સરખા અને વિસદૃશ નિયામાં ફેરવતા જ રહે છે. આ સંજ્ઞી અને અસણી જીવ, સઘળા અશુદ્ધ આચારવ ળા છે. હમેશાં ધૂર્તપણથી યુક્ત છે, અને હિંસાત્મક ચિત્તવૃત્તિને ધારણ કરવાવાળા છે. તે એ પ્રાણાતિપાતથી લઈને મિથ્યાદર્શન શલ્ય સુધીના સઘળા પાપમાં તત્પર રહે છે, તે કારણે તીર્થંકર ભગવાને આ પાપમાં તત્પર રહેલા Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि श्रु. अ. ४ प्रत्याख्यानक्रियोपदेश. ४६७ संयमरहितः, अविरत:-वैराग्यरहितः, अपतिहाऽभ्याख्यात गपकर्मा-पापकर्मइननप्रत्याख्याताकारको भवति, तथा-'सकिरिए' सक्रियः-सावध कर्मयुक्तः 'असंवुढे' असंहता-संवररहितः ‘एगंतदंडे' एकान्तदण्ड:-प्राणिनां सदा दण्डकारका 'एगंतवाले' एकान्तवालोऽज्ञानी 'एगंतसुत्ते' एकान्तमुप्ता-नियमतोऽज्ञाननिद्रयाऽभिभूतः । ‘स बाल:-एमाशोऽज्ञानी भवति, तथा-'अवियारमण वयणकायवक्के' अविचारमनोववन काय वाक्य-मानसिकवाचनिककायिक विचाररहितः-कर्तव्यातव्यविचाररहितमनो वचनकायवाक्यवानित्यर्थः, 'मुविणमवि ण पास स्वप्नमपि न पश्यति, यत्पापं स्वप्नेऽपि न ज्ञायते तस्याऽपि का भवत्ये. वाऽविरतिमत्वात् । किन्नु -'पावे य से कम्मे कब्जई' पापञ्च कर्म स करोत्येव, अतो यदुक्तम्-असंतोऽविरतः पुरुषः संज्ञी वा-असंज्ञी वा पापं कर्म करोत्येवेति सत्यमेव प्रतिपादितमिति भावः ॥५० ४॥६६॥ म्लम्-नोदए आह-से कि कुव्वं किं कारवं संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे भवइ ? आयरिए आहे-तत्थ खल्लु जीवों को असंपत, अविरत, क्रियायुक्त और असंवृत कहा है । पापकर्मों को प्रतिहत और प्रत्याख्यात न करने वाला भी कहा है। ऐसा जीव एकान्तदंड-हिंसक, एकान्तबाल अज्ञानी, एकान्तप्त-अज्ञाननिद्रा से अभिभूत होता है । वह विचाररहित मन वचन कायवाला है । उसको कर्तव्य और अकर्तव्य का विवेक नहीं होता। अविरतिमान होने के कारण वह स्वप्न में भी जिस पाप को नहीं जानता, उसका भी कर्ता होता है । वह पापकर्म करता है । तात्पर्य यह है कि असंयत एवं अविरत जीव, चाहे संज्ञो हो या असंज्ञी, अवश्य ही पापाकर्म करता है, यह जो कहा गया है सो समीचीन ही कहा गया है ॥४॥ અને અસંત, અવિરત, ક્રિયાયુક્ત અને અસ વૃત કહ્યા છે પાપકને પ્રતિહત અને પ્રત્યાખ્યાત ન કરવાવાળા પણ કહ્યા છે. એવા જ એકાત દંડ-હિંસક એકાન્ત બાલ–અજ્ઞાની એકાન્તસુખ-અજ્ઞાન નિદ્રાથી પરાજીત થાય છે. તે વિચાર વિનાના મન, વચન અને કાયવાળા છે. તેને કર્તવ્ય અને અકર્તવ્યને વિવેક હેતું નથી. અવિરતિમ ન હોવાના કારણે તે સ્વપ્રમાં પણું 1 જે પાપને જાણતા નથી, તેને પણ કરવાવાળા હોય છે. તેઓ પાપકર્મ જે કરે છે. ' ” - તાત્પર્ય એ છે કે–ચાહે સંજ્ઞી હોય કે-અસંશી હોય તેઓ પાપકર્મ આવશ્યજ કરે છે. જે આ કહ્યું તે બરાબર જ કહ્યું છે. સૂ૦૪ Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ सूत्रकृताङ्गो भगवया छज्जीवणिकायहेऊ पण्णत्ता, तं जहा-पुढवीकाइया जाब तसकाइया, से जहाणामए मम असायं डंडेण वा अट्रीण वा मुट्रीण वा लेलूण वा कवालेण वा आतोडिज्जमाणस्स वा जाल उबदविज्जमाणस्स वा जाव लोमुक्खणणमायमवि हिंसाकडं दुकलं भयं पडिसंवेदेमि, इच्चेवं जाण सव्वे पाणा जान सवे सत्ता दंडेण वा जाव कवालेण वा आतोडिज्जमापा वा हम्म. माणा वा तज्जिज्जमाणा वा तालिज्जमाणा वा जाव उवद्दविज्जमाणा वा जाव लोमुक्खणणमायमवि हिंसाकारं दुक्खं भयं पडिसंवेदति, एवं गच्चा सत्वे पाणा जाव सम्वे सन्तान हंतवा जाव ण उद्दवेयव्वा, एस धम्मे धुवे णिइए सासए समिच्न लोगं खेयन्नेहिं पवेदिए, एवं से भिक्खू विरए पाणाइवायाओ जाव मिच्छादसणसल्लाओ, से भिक्खू णो दंतपक्खालणेणं दंते पक्खालेज्जा, णो अंजणं णो वमणं णो धूवणित्ते पि आइचे, से भिक्खू अकिरिए अलूसए अकोहे जाव अलोभे उवसंते परिनिन्वुडे, एस खल्लु भगवया अक्खाए संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे अकिरिए संबुडे, एगंतपंडिए भवइ त्ति बेमि ॥सू० ५॥६७॥ • इइ बीयसुयक्खंधस्प्ल पच्चरखाणकिरियाणाम "पउत्थ. . मज्झयणं समत्तम् ॥२-४॥ छाया-नोदक:-स किं कुर्वन् कि कारयन् कथं संयतविरतपत्याख्यातपापकर्मा भवति ? आचार्य आह-तत्र खलु भगवता पडूनीवनिकायहेतवः मन्नप्ता, तद्यथा-पृथिवीकायिका यावत् त्रसकायिकाः। तद् यथानाम मम असा दण्डेन गा, अस्थना , मुष्टिना' का लेष्टुना ब्रा कपालेन वा आतोबमानस्य वा याद Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्थबोधिनी टीका f. थु. अ. ४ प्रत्याख्यान क्रियोपदेश' ધ उपद्रवमाणस्य वा यावद् रोमोत्खननमात्रमपि हिंसाकृतं दुःखं भयं मतिसंवेद यामि, इत्येवं जानीहि सर्वे माणा यावत् सर्वे सचाः दण्डेन वा यावत् कपालेन वा आवोद्यमाना वा हन्यमाना वा वर्ज्यमाना वा ताड्यमाना वा यावद् उपद्राव्यमाणा वा याद रोमोत्खननमात्रमपि हिसा करं दुःखं भयं प्रतिसंवेदयन्ति । एवं ज्ञात्वा सर्वे प्राणा यावत् सर्वे सचाः न हन्तव्याः यावन्नोपद्रावयितव्याः, एष धर्मः नित्यः शाश्वतः समित्य लेोकं खेदज्ञः प्रवेदितः । एवं स भिक्षु विरतः प्राणातिपाततो यावन्मिथ्यादर्शनशल्यतः । स भिक्षु न दन्तपक्षलनेज़ दन्तान प्रक्षाळयेत् तो अञ्जनं नो वमनं नो धूपनमपि आददीन समिक्षुरक्रियः अलूषाः अक्रोधो यावद् अलोभः उपशान्तः परिनिर्वृत्तः । एष खलु भगवता आख्यातः संयतविरत तिहपत्याख्यातपापकर्मा अक्रियः संवृतः एकान्तपण्डितो भवतीति ब्रवीमि ॥ मु०५/६७ ॥ टीका --- पुनरपि नोदकः प्रश्नकर्त्ता प्रश्नं करोति- 'से कि कुछ कि कारव कई संजयविश्यपडिय१च्च खायपात्र क्रम्मे भाई' सः - मनुष्यादि जनः किम् - कीदृशं कर्म कुर्वर किंवा कारयन् कथं केन प्रकारेण संयतविरतप्रतिहतप्रत्याख्यात पापकर्मा भवति, कथं संयतो भवति-कथं विरतो भवति - सर्वेभ्यः पापकर्मभ्यः कथं वा वदनमत्याख्यातपापकर्ता भवतीति, तत्र संपतत्र वर्तमानकालिक सावनुष्ठान र दिवत्वम्, विरतत्वम् अतीवाऽनागतपापान्निवृत्तिमत्वम् । प्रतिहतं वर्तमानकाले स्थित्यनु माग (सेन नाशितं तथा मत्याख्यातं - पूर्वकृताविचारनिन्दया भविष्यत्यकरणेन निराकृतं पापं कर्म येन स प्रतिहत प्रत्याख्यातं 'से किं कुव्" इत्यादि । टीकार्थ - इनकर्त्ता पुनः प्रश्न करता है-मनुष्य आदि प्राणी कौन सा कर्म करता हुआ और कौन सा कर्म कराता हुआ, किस प्रकार से संयत, विरत तथा पापकर्म का धान और प्रत्याख्यात करने वाला होता है ? वर्त्तमानकालिक पापमय कृत्य से रहित होना संगत होना कहलाता है। भूत और भविष्यत् काल संयंत्री पाप से निवृत्त होना विरत होना कहलाता है। कर्म के प्रतिहत होने का अभिप्राय है वर्त्तमान 'से किं कुत्र" त्याहि ટીકાય --પ્રશ્ન કર્યાં ફરીથી પ્રશ્ન પૂછે છે કે હે ભવન્સ૰” વગેર પ્રાણી' કયું કમ કરતા થકા કેવા પ્રકારથી સ યતવત તથા પાપકમ ને ઘાત અને પ્રત્યાખ્યાત કરવાવાળા હોય છે ? વર્તમાનકાળ સંબધી પાપમય કૃત્યથી રહિત થવુ તે વાય છે ભૂત અને ભવિષ્યકાળ સંબધી પાપથી નિવૃત્ત થવું لو " ' સંયત થવુ કહે તે, વિત થવું A Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० सूत्रकृतास्त्र पापकर्मा, इति नोदकस्याशयः । आचार्य अह-तत्थ ख छ भगवया छ नीवनिकाय हेऊ पण्णत्ता' तत्र खल भगवता पहनीवनिकायाः कर्मवन्धहेत्वः प्रज्ञप्ताः कथिताः, 'तं जहा' तद्यथा-'पुढवीकाइया जाव तसकाइया' पृथिवीकायिका यावत सकायिकाः, 'से जहा णामए मम असायं दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वां लेलग वा कवालेण वा आतोडिज्जमाणस्त वा जाव उवद विज्जमाणस्स वा तद्यथा नाम मम अपातम्-दुःखं भवति, दण्डेन वा ताडनादिना, अपना वा, मुष्टिना वा लेष्टुना वा-लोप्टेन वा, कपालेन वा-घटावयवेन आतोद्यमानस्य वा-ताड्यना नस्य यावदुपद्राव्यमाणस्य वा 'जाव कोमुक्खणणमायमवि हिंसाकडं दुखं भयं पडिसंवेदेमि' यावद् रोमोत्खननमात्रमपि हिंसाकृतं दुःखं भयं प्रतिसंवेदयामि, काल में स्थिति और अनुभाग का ह्रास करके उसे नष्ट करना और प्रत्याख्यात का अर्थ है पूर्वकृत अतिचारों की निन्दा करके तथा भविष्य में न करने का संकल्प करके उसे दूर करना। भगवान ने पट जीर्वानकायों को कर्मबन्ध का कारण कहा है। वे षट् जीवनिकाय ये हैं-पृथ्वीकाय यावत् बसकाय जैसे डंडे से, हड्डी से, मुट्ठी से, ढेले से अथवा ठीकरे से ताड़न करने पर या उपद्रव करने पर यहां तक कि एक रोम उखाड़ने से भी मुझे हिंसा ननित दुःख एवं भय का अनुभव होता है, इसी प्रकार समस्त प्राणी यावत् सत्त्व भी डंडा मुष्टि आदि से आघात करने पर, तजन, ताडन करने पर उपद्रव करने पर यावत् रोम उखाड़ने पर भी हिंसाजन्य दुःख और भय का अनुभव करते हैं। કહેવાય છે કર્મથી પ્રતિહત થવાને અભિપ્રાય એ છે કે–વર્તમાનકાળમાં સ્થિતિ અને અનુભાગને હાસ કરીને તેને ન શ કરશે. અને પ્રત્યાખ્યાનને અર્થ એ છે કે–પહેલાં કરેલા અતિચારોની નિંદા કરીને તથા ભવિષ્યમાં ન કરવાને સંક૯પ કરીને તેને દૂર કરવા, ભગવાને પજવનિકાને કર્મબંધનું કારણ કહેલ છે. તે પજવનિકાય આ પ્રમાણે છે –પૃથ્વીકાય યાવત્ અકાય જેમ ડંડાથી, હાડકથી, મૂદ્દિકી ઢેખલાથી અથવા ઠીંકરાથી તાડન કરવામાં આવે છે અથવા ઉપદ્રવ કરવામાં આવે તે એટલા સુધી કે-એક મ–રૂંવાડું ઉખાડવાથી પણ મને હિંસાથી થવાવાળું દુઃખ અને ભયને અનુભવ થાય છે. એ જ પ્રમાણે સઘળા પ્રાણિયે; થાવત્સ પણ ડંડા, મુઠિ વિગેરેથી આઘાત કરવાથી તર્જન, તાડન, કરવથી, ઉપદ્રવ કરવાથી યાવત્ રેમ ઉખાડવાથી પણ હિંસાથી થવાવાળા દુખ અને ભયને અનુભવ કરે છે. Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि.श्रु. अ.४ प्रत्याख्यानक्रियोपदेशः भाचार्यः कथयति-भो यथा मां कश्चिदण्डादिना ताडयति-उपद्रावयति किं बहुना रोममात्रस्यापि उत्पाटनेन दुःखं भयं च जायते । 'इच्चे जाव सत्वे पाणा जात्र सम्वे सत्ता' इत्येव जानीहि सवें प्राणाः सर्वे भूताः सवे जीवा यावत्स। सवाः, 'दंडेग वा जाव कपालेण आतोडिजमाणा वा हम्ममाणा वा तजिन्ना माणा वा तालिज्जमाणा वा दण्डेन वा यावत्कपालेन वा आतोधमाना वा हन्यमाना वा तज्यमाना वा ताडपमानावा यावत्पदेन-अस्थना वा मुष्टिना वा लेष्टुना वेति पदानां संग्रहः 'जाय उपदविजनमाणा वा जाव लोमुखगणमायमधि हिंसाकडं दुक्खं भयं संवेदेति' यावद् उपद्राव्यमाणा वा यावद्रोप्रोत्खननमात्रमपि हिंसाकृतं दुःखं भयं संवेदयन्ति । अयमाशय -यथा मां कश्चिद् दण्डादिना ताडयति, किंबहुना रोमोत्पाटनमपि करोति, तदाऽतीव मनसि दुःखं जायते, अहमनुभवामि दु खं भयञ्च, तथै। सर्वे जीवा दण्डादिमिस्साड्यगनाः दुःखं भयश्चाऽनुभवन्ति । "एवं गच्चा सम्वे पाणा जाव सम्वे सत्ता न हकया जाच ण उववेयव्वा' एवं ज्ञात्वा, यथा दण्डादि पहारो मां दु.खा करोति, तथाऽन्यानपि दु:खायते इति शास्वा सर्वे माणा:-माणिनो यावत्सवें सत्चा न हन्तव्या यावन्नोपद्रावयितव्याः, न आज्ञापयितव्याः न परिग्रहीतव्याः न परितापयितव्याः, यावत्पदेनैतेषां ग्रहणम् , तत्र न हन्तव्याः-दण्डादिमिर्न ताडयितव्यःः, नाऽऽज्ञापयितव्याः-अनभि आशय यह है-जैसे डंडा आदि से मुझे कोई ताड़न करता है व्यथा पहुँचाता है, यहां तक कि कोई एक रोम उखाड़ता है, उस समय मन में दुःख उत्पन्न होता है । उस समय में दुःख और भय का अनुभव करता हूं, उसी प्रकार अन्य सब प्राणी भी दण्डा आदि से ताड़न करने पर दुःख और भय का अनुभव करते हैं। . तो जैसे दण्डमहार आदि मेरे लिए दुःखप्रद है, उसी प्रकार अन्य प्राणियों को भी दुःखदायी होता है। ऐसा जान कर किसी भी प्राणी यावत् किसी भी सत्य का न हनन करना चाहिए और न उपद्रव કહેવાનો આશય એ છે કે--જેમ ડડા વિગેરેથી મને કઈ તાડન કરે છે, વ્યથા દુ:ખ પહોચાડે છે. એટલે સુધી કે કોઈ એક રૂંવાડું પણ ઉખાડે તે વખતે મનમાં દુ ખ ઉત્પન્ન થાય છે. તે વખતે હું દુઃખ અને ભયને અનુભવ કરૂ છું. એજ પ્રમાણે બીજા બધા પ્રાણિ પણ દંડા વિગેરેથી મારવામાં આવ્યેથી દુખ અને ભયને અનુભવ કરે છે. જેમ દંડપ્રહાર વિગેરે મારા માટે દુખ દેનાર છે, એ જ પ્રમાણે બીજા પ્રાણિને પણ તે દુ ખકારક જ હોય છે. રણા પ્રમાણે સમજીને કંઈ પણ પ્રાણીનું યાવત્ પણ સત્વનું હનન કરવું ન જોઈ એ તેમજ ઉપદ્રવ Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ सूत्रकृताङ्गस्त्रे १० - जतकार्येषु न प्रवर्तयितव्याः, न परिग्रहीतव्या:- हमे भृत्यादयो ममेति कृत्वा परिग्रहरूपेण स्वाधीनतया न स्वीकत्र्तव्याः, न परिवापायितव्याः अन्नपाताद्यव धेन ग्रीष्माता स्थापनेन च न पोडनीया, नोपद्रावयितव्याः नः विवशखादिना मारयितव्याः । 'एए धने धुवे' एपः- हिंमारूपों धर्मो निश्चितः णिइए - निश्य:- आद्यश्वरदिवः 'सामए' शाश्वतः - सनातन इत्यर्थः । ' समिच्चलो समि. या लोकम्-लोकस्वरूपं ज्ञात्वा 'खे हिं' खेदज्ञैः खेदं परकीयदु ख ज्ञाननीति 'खेदशा:- तीर्थंकरास्तैः। 'पवेइए' प्रवेदितः केवलज्ञानेन वा कथितः after एवं से भिक्खू विरए पाणाइनायाओ मिच्छासा एवं स भिक्षुः विरतः प्राणातिपाततो यावद् मिथादर्शनस्यात् । असैिव परमो धर्म इति ज्ञात्वा प्राणातिपातादारभ्य मिथ्यादर्शनशल्पान्तपापकर्मभि विरतो भवति । 'सेभिक्खू' समिक्षुः - अहिंसाघर्मतस्त्रज्ञः 'णो दंतपकखालणेन दंते पखालेज्जा' नो दन्तप्रक्षालनेन दन्तान् प्रक्षाळयेत् । 'णो अंजणं' नो अञ्जनम् - करना चाहिए न उन पर हुक्म चलाना चाहिए, न दास आदि बनाकर अपने अधीन बनाना चाहिये और न अन्न पानी आदि में रुकावट डालकर परिताप देना चाहिए और न विष शस्त्र आदि के द्वारा मारना चाहिए । यह अहिंसा धर्म ध्रुव-निश्चित है, नित्य आदि और अन्त से रहित है, शाश्वन सनातन है। लोक के स्वरूप को जानकर परपीड़ा को पहचानने वालों ने अर्थात् तीर्थ करों ने यह धर्म कहा है । इस प्रकार भिक्षु अहिंसा को परमधर्म जानकर प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य पर्यन्त सभी पापों से विरत होता है । अहिंसा धर्म तत्व का वेत्ता सुनि दन्तधावन ( दातौन) से दांतों का प्रक्षालन न करे | आंखों में अजन न आंजे । औषध का प्रयोग करके अथवा 44 પણ કરવા ન જોઇએ, તેના પર હુકમ ચલાવવે। ન જોઇએ. દાસ વિગેરે મનાવીને તેને પેાતાને આધીન બનાવવા ન જોઈએ. તથા આહાર પાણીમાં રાકાણુ કરીને પરિતાપ પહેચાડવા ન જોઈએ તથા વિષ શસ્ર વિગેરે દ્વારા મારવા ન જોઈએ. આ અહિંસા ધર્મો ધ્રુવ,-િિશ્ચત છે. નિત્ય આદિ અને અન્ત રહિત-વિનાના છે. શાશ્વત સનાતન છે. લાકના સ્વરૂપને જા૨ીને પરપીડાને ઓળખમાળાઓએ અર્થાત્ તીકરાએ આ ધમ કહ્યો છે. આ પ્રમાણે ભિક્ષુ અહિંસાને પરમ ધમ સમજીને પ્રાણાતિપાતથી લઈને મિથ્યાદાન શલ્ય સુધીના સઘળા પાપેાથી વિરત થય છે. અહિંસા ધર્મને જાણનારા મુનિ દન્તધાવન દાતણુ) થી દાંતાને ન ધાવે આખામાં મન-કાજળ ન આજે ઔષધના પ્રયાગ કરીને અથવા યૌગિક ક્રિયાદ્વારા Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'समयांर्थबोधिनी टीका द्वि श्रु. अ. ४ प्रत्याख्यान क्रियोपदेशः अञ्जनेन नेत्रे नाञ्जयेत् । 'नो वमणं' औषधिनयोगेण यौगिकपक्रियया वा वमनं "न. कुर्यात्, 'णो धूणि आइते' नो धूपनमपि आददीत - धूपादि सुगन्धितद्रव्येण शरीर वस्त्रे वा नो वासयेत् । ' से भिक्खू' समिक्षुः- पूर्वोदीरितगुगविशिष्ट ''अकिरिए अक्रियः - सावयव्यापारविवर्जित', 'अलूसए' अलूषकः- हिंसादिकुत्सितbareraहतः । 'अकोहे' अक्रोधः 'जान' यावत् 'अलोभे' अलोमो-लोभरहितः 'उवसंते' उपशान्तः 'परिनिब्बुडे' परिनिर्वृत्तः - सर्वपापरहितो भवेत् | 'एम' खेल भगवया अक्खाए' 'एष खलु भगवता आख्यातः 'संजय विश्यपडियपत्रखायपानकम्मे संयतविरतम चिहतमत्या रूपात पापकर्मा, तत्र वर्तमानकाळ'कपापरहितः संयतः भूतकालिकपापरहितो विरतः, प्रतिहत प्रत्याख्यातपापकर्मा प्रतिहत- स्थित्यनुभागहासेन नाशितं तथा प्रत्याख्यातं पूर्वातिचारनिन्दया भविश्यकरणेनं निराकृत पाप कर्म येन स तथा, 'अकिरिए' अक्रिय:- सावध व संरहितः 'संघुडे' 'संवृतः - आत्रपरित्यागेन 'एगंतपंडिए' एकान्त पण्डितः - सर्वथा पण्डितः, 'भई' भवति इति भगवता कथितः, 'त्तिवेमि' इत्यह ब्रवीमि ||०५ ||६७॥ ~ इति श्री - विश्वविख्यात जगद्वल्ल मादिपद भूपितबालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य ' पूज्यश्री - घासीलालन विविरचितायां श्री सूत्रकृताङ्गसूत्रस्य “समयार्थवोधिन्यां "रुपया " व्याख्यया समलङ्कृतम् द्वितीयश्रुतस्कन्धीयाऽऽहारपरिज्ञानाम चतुर्थाऽध्ययनं समाप्तम् ॥ " प यौगिक क्रिया के द्वारा वमन न करे। धूप आदि सुगंधित द्रव्यों से शरीर या वस्त्र को वासित न करे । उल्लिखित गुणों से सम्पन्न भिक्षु सावय क्रियाओं से रहित, हिंसा असत्य आदि - कुरसत व्यापारों से रहित, क्रोधमान माया और लोभ " से रहित, उपशान्त तथा परिनिर्वृत्त अर्थात् समस्त पापों से रहित होता है। ऐसे भिक्षु को भगवान् ने संयत, वित्त, प्रतिहत प्रत्याख्या..तपापकर्मा, अक्रिय, संवृत और एकान्तपण्डित कहा है ||५|| का चतुर्थ अध्ययन समाप्त ॥२-४॥ द्वितीय વમન (ઉલટી) ન કરે, ધૂપ વિગેરે સુગંધિત દ્રવ્યેથી શરીર અથવા વસ્રને સુગંધવાળા ન કરે. ઉપર ખતાવવામાં આવેલા ગુણૈાથી યુક્ત ભિક્ષુ સાવદ્ય ક્રિયાઓથી રહિત' હિં’સા અસત્ય વિગેરે કુત્સિત, વ્યાપારાથી રહિત ક્રોધ, માન, માયા, અને લાભથી રહિત ઉપશાન્ત તથા પરિનિવૃત્ત અર્થાત્ સઘળા પાપેાથી રહિત હાય છે. એવા ભિક્ષુને ભગવાને સયત, વિરત, પ્રતિહત પ્રત્યાખ્યત पापठर्मा, अडिय, संवृत भने अन्त पडित डेस छे. सू० અધ્યયન સમાપ્ત ૨-૪ » 'ખીજા શ્રુતરફ’ધનુ ચેથું सु० ६० Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्ग सूत्रे ॥ अथ द्वितीयथुतस्कन्धस्य पञ्चममध्ययनं शरभ्यते ॥ साम्मनं पञ्चममध्ययनं पारम्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, चतुर्थाध्ययने प्रत्याख्यान क्रियोक्ता, सा चाचारव्यवस्थितस्य सनो भवतीति अतस्तदनन्तरसाचारापनमभिधोयते । अथवाङना वारपरिवर्जनेन सम्यकूपस्याख्यानमस्खलितं भवत्यतेनाचाराऽव्ययनं भवति, अनेन सम्बन्धेनापतिस्थास्य प्रथमां गायामाह 98 - आदाय वंभचेरं च आसुपन्ने इमं वरं । असि मे अणायारं नायरेज्ज कैयाइ वि ॥१॥ छाया -- आदाय ब्रह्मवयै च - आशुपज्ञ इदं वचः । अस्मिन् धर्मे अनाचारं नाचरेच्च कदापि हि | १ || पांचवे अध्ययन का प्रारभ अब पांचवां अध्ययन प्रारंभ किया जाता है। इसका संबंध इस प्रकार है - चौथे अध्ययन में प्रत्याख्यात किया का कथन किया गया है । प्रत्याख्यान क्रिया आचार में स्थित साधु में ही हो सकती है, अत एव प्रत्याख्यान क्रियाका कथन करके आचारश्रुत नामके अध्ययन कहा जा रहा है । अथवा अनाचार का त्याग करने से निर्दोष सम्यक् प्रत्याख्यान हो सकता है, अतएव यह अनाचार श्रुताध्ययन भी है। इस संबंध से प्राप्त इस अध्ययन का प्रथम सूत्र कहते हैं- 'आदाय बंभ रं च' इत्यादि । शब्दार्थ - ' आसु पन्ने - आशुप्रज्ञः' कुशल प्रज्ञावान् पुरुष 'इमं वई -इदं वचः' इस अध्ययन में कहे जाने वाले वचनों को 'बंभचेरं ब्रह्म नये' પાંચમા અધ્યયનને પ્રારભ - હવે આ ૫.ચમું અધ્યયન પ્રારંભ કરવામાં આવે છે આને સબધ આ પ્રમાણે છે.—ચેાથા અધ્યયનમાં પ્રત્યાખ્યાન ક્રિયાનું કથન કરવામાં આવેલ છે. પ્રત્યાખ્યાનક્રિયા આચારમાં સ્થિત સાધુમાં જ થઇ શકે છે. તેથી જ પ્રત્યામ્યાન ક્રિયાનું કથન કરીને આચારશ્રુત નામનુ' આ પાંચમું અધ્યયન કહેવામાં આવી રહ્યું છે. અથવા અનાચારના ત્યાગ કરવાથી નિર્દોષ સમ્યક્ પ્રત્યાખ્યાન થઇ શકે છે તેથી જ આ અનાચાર છુ1 અધ્યય પણ કહેલ છે. આ સબધથી પ્રાપ્ત થયેલ આ અધ્યયનનું પહેલુ સૂત્ર આ પ્રમાણે કહ્યુ' છે.—— 'आदाय बंभचेरं च' इत्याहि शब्दार्थ –'आपन्ने - आशुप्रज्ञ. ' शस प्रज्ञावान् पुषे तथा 'इम - वई - इदंवचः' मा अध्ययनभां वाभा भवनाश वयनाने तथा 'बंभचेर - ब्रह्मचर्य ' Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारभुतनिरूपणम् . ४७५ अन्वयार्थः- (आसुप-ने) आशुमज्ञः- पटुपज्ञः (इमं वई) इदं वचः-इमां वाचम् (वं मचेरं) ब्रह्म वर्यम्-सत्यतपो भूतदयेन्द्रियनिरोधलक्षणं चादाय-परिगृह्य (अस्सि) अस्मिन् जैनेन्द्रे (धम्मे) धर्मे-सर्वज्ञप्रणीतधर्मे व्यवस्थितः (कया) कदापि हि (अणायारं) अनावारम्-सावयाऽनुष्ठानरूपम् (नायरेज्ज) नाचरेत्-न कुर्यात् इति ॥१॥ ___टीका-'आसुपाने' आशुमज्ञः पटुपज्ञा-शीघ्रबुद्धिः-संसारमार्गः असत्यः, मोक्षमार्गः सत्यः एवं रूपेण सदसद्वस्तुनोतिा पुरुपः 'इमं वई' इदं समस्ता ध्ययनेनापि अधीयानं वः-वाक्यम् तथा-'वंभचेरं च आदाय' ब्रह्मचर्यश्च -सत्यतपोजीवदयेन्द्रियनिरोधलक्षणम् आदाय परिगृा 'अस्सि धम्मे' अस्मिन् - जिनेन्द्रप्रति गदितब्रह्मचर्यात्मकधर्मे व्यवस्थितः । 'कयाइवि' कदापि हि-कथमपि तथा ब्रह्मचर्य को ग्रहण करके 'अस्सि-अस्मिन्' जिनेन्द्र प्रतिपादित इस 'धम्मे-धौ' धर्म में स्थित होकर 'कयाइवि-कदापिहि' 'अणाघारं-अना. चारम्' मावद्य अनुष्ठान रूप अनाचार 'नायरेज्ज-नाचरेत्' न करे ॥१॥ अन्वयार्थ-कुशल प्रज्ञावान् पुरुष इस अध्ययन में कहे जाने वाले पचनों को तथा ब्रह्मचर्य को ग्रहण करके जिनेन्द्र प्रतिपादित धर्म में स्थित हो कदापि अनाचार का सेवन न करे ॥१॥ टीकार्थ-दुःखरूप संसार का मार्ग असत्य है और मोक्ष का मार्ग परम सत्य है, इस प्रकार सत्-असत् वस्तु को जानने वाला बुद्धिमान् पुरुष इस अध्ययन में कहे जाने वाले वचनों को तथा सत्य, तप, जीवदया, इन्द्रियनिरोध रूप ब्रह्मचर्य को ग्रहण करके जिनेन्द्र भगवान् के प्रझययन अडले ४श अस्सि-अस्मिन्' नेन्द्र के प्रतिपान २ मा 'धम्मे-धौ' मा स्थित सीने 'कयाइवि-कदापि हि' समये 'अणायारअनाचारम्' मनायार मे सावध मनुठान ३५ मनाया२नु 'नायरेज्जनाचरेत्' सेवन ४२ नहि ॥ અન્વયાથ–કુશલ પ્રજ્ઞાવાન પુરૂષ આ અધ્યયનમાં કહેવામાં આવનાર વચનને તથા બ્રહ્મચર્યને ગ્રહણ કરીને જીતેન્દ્ર ભગવાને પ્રતિપાદન કરેલ ધર્મમાં સ્થિત રહીને કયારેય અનાચારનું સેવન ન કરે. ૧ ટકાર્થ–ખરૂપ સંસારને માર્ગ અસત્ય છે. અને મોક્ષને માર્ગ પરમ સત્ય છે. આ રીતે સ-અસત્ વસ્તુને જાણવાવાળા બુદ્ધિમાન્ પુરૂષ, આ અધ્યયનમાં કહેવામાં આવવાવાળા વચનને તથા સત્ય, તપ, જીવદયા, ઈન્દ્રિય નિરોધ રૂપ બ્રહ્મચર્યને ગ્રહણ કરીને જીનેન્દ્ર ભગવાન દ્વારા પ્રરૂપણ કરવામાં Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ # , क ४७६ सूत्रकृताङ्गः 'अगायारं' अनाचारम् - आचारमतिकूळमाचरणम् - सावयानुष्ठानलक्षणम् 'नाय रेज्ज' नाचरेत् अनाचारसेवनं कथमपि न कुर्यादिति ॥गा. - १॥ मूलम् - अणाइयं परिन्नाय अणवदग्गेइ वा पुणो । सायमा वा इइ दिट्ठि न धारए || १ || छाया - अनादिकं परिज्ञाय अनवदग्रेति वा पुनः । शाधनमशाश्वतं वा इति दृष्टिं न धारयेत् ||२|| अन्वयार्थ :- (अणाइयं) अनादिकम् - आदिरहितम् (वा. पुणो ) वा पुनः (अणचदरगेड) अनवदग्रम् - अपमानम् - अनन्तम् इति (परिन्नाय) परिज्ञाय-सर्वलोकं प्रमाणद्वारा ज्ञात्रा (मास) शाश्वतम् - अविनश्वरम् (सास) अशाश्वतम्विनश्वरम् (इइ दिहिं) इति दृष्टिम् एतादृशीं सर्व एकान्त नित्यः, एकान्वाऽनिस्यो' वा इति बुद्धिम् (न धारप ) न धारयेत् न कुर्यादिति || २ || 4 1 · छास प्ररूपित इस धर्म में स्थित होकर कदापि अनाचार अर्थात् कुलित निषिद्ध या . सावध, आचार का सेवन न करे ॥१॥ 'अणा' इत्यादि । शब्दार्थ 'अणाइयं-अनादिकम् ' आदि रहित 'वा पुगो-वा पुनः' अधव 'अणवद्रोह - अनवद्यम्' अनवद्य अनन्त अन्तरहित ऐसा 'परिनापपरिज्ञाय' सर्वलोकको प्रमाण द्वारा जानकर 'सासए - शाश्वतम्' शाश्वत है अथवा 'असासए - अशाश्वतम् अशाश्वन-विनश्वर है 'इद दिडि- इतिदृष्टिम्' ऐसी एकान्त दृष्टिको 'न धारए - न धारयेत्' धारण न करे || २ || अन्वयार्थ - सम्पूर्ण लोक को प्रमाण के द्वारा अनादि और अनन्तजान कर यह शाश्वत: ही है या अशाश्वत, ही है, ऐसी एकान्त बुद्धि को धारण न करे ॥२॥ 15 · आवेंदा, मा धर्ममा, स्थित थर्धने, अर्ध पशु वजते मनायार अर्थात् मुत्सित નિષિદ્ધ અથવા સાવદ્ય આચારનુ` સેવન ન કરે !" 'अणाइय' त्याहि 1. शार्थ'--'अणाइयं-अनादिकम् ' माहिरषित 'वा पुणो वा पुनः' अथवा 'अणवदग्गेइ - अनवदग्रम्' अनवत्र- अनन्त अपर्यवसान 'परिन्नाय परिवाय प्रभाष द्वारा लखीने 'सासए - शाश्वतः ' शश्चित ४ छे. अथवा 'असासरअशाश्वतः' अशाश्वत ४ छे. 'इइ दिट्ठि - इति दृष्टिम्' मेवी दृष्टि 'न धारए-न धारयेत्' धारन ४२ ॥२॥ અન્નયા —સમ્પૂ લેાકને પ્રમાણન્દ્વ રા અનાદિ અને અનન્ત જાણીને આ શાશ્વત જ છે. અથવા અશાશ્વત જ છે. એવી એકાન્ત બુદ્ધિ ધારણ ન કરે ાંસા Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारथुननिरूपणम् टोका--'अणाइयं' अनादिकम्-नादिः-प्रथमोत्पत्तियते यस्य तदनादिकम्-आदिरहितम् । 'पुणो' पुनः, तथा-'अणवदग्गेई' अनवदग्रम्-न विद्यते अव दग्रं पर्यन्तं यस्य सोऽनवदग्रं तदेव - भूतम् , 'परिन्नाय', परिज्ञाय-लोकोऽयं चतुर्दश रज्ज्वात्मको धर्माधर्मादिरूपो वा अनादिरन्तरहितश्चेति प्रमाणतः 'सासए' शाश्व, तमेव-शश्वदर्भवतीति शाश्वतम्-नित्यं सांख्यमताभिमायेणानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावम् एकान्तनित्यमेवाकाशादिवस्तु 'असासए' अशाश्वतम्-एकान्तमनित्यम्-विनश्वरम् 'दिहि' दृष्टिम्-अभिप्रायम्-इदन्तद् एकान्त नित्यम् इदन्तद् एकान्तमनित्यमि ते. दृष्टिमाग्रहं न धारयेत् । एतादृशं कदाग्रहं न कुर्यात्कथमपि । किन्तु सर्वमेव वस्तु. द्रव्यरूपेण नित्यं पर्यायरूपेण अनित्यमित्येव जानीयादिति भावः। २॥ टीकार्य--जिसकी आदि प्रथप उत्पत्ति-न हो, वह अनादि कहः लाता है। जिसका अन्त न हो उसे अनन्त कहते, हैं । यह चौदह रज्जु, परिमाण वाला अथवा धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिशय मय लोक आदि... और अन्त से रहित है, ऐसा, प्रमाण से जानकर ऐसा अभिप्राय धारण न करे कि. यह नित्य ही अथवा अनित्य ही है। इस प्रकार का, कदाग्रह धारण करना योग्य नहीं है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु द्रव्य रूप से. नित्य और पर्याधरूप से अनित्य है। सांख मत के अनुसार लोक, कभी उत्पन्न नहीं होता और सदैव स्थिर एक स्वभाव में रहता है। बौद्धमत में यह एकान्त विनश्वर है अर्थात् क्षण क्षण में सर्वथा नष्ट होता रहता है, यह दोनों एकान्त अभिप्राय है, अतएव मिथ्या हैं ॥२॥ ટીકાર્ય–જેની આદિ અર્થાત ઉત્પત્તિ ન હોય, તે અનાદિ કહેવાય છે. અને જેને અન્ત અર્થાત્ નાશ ન હોય, તેને અનંત કહે છે. આ ચૌદ રાજુના પ્રમાણવાળા અથવા, ધર્માસ્તિકાય, અધર્માસ્તિકાય વાળે લેક–સંસાર આદિ, અને અંત વિનાના છે, એ રીતે પ્રમાણથી જાણીને એ અભિપ્રાય ધારણ ન કરે. म. नित्य, छे. सध्या अनित्य , छे प्रभारी ने हाई-पाटी, सो धारप, ४२३॥ योग्य नथी. भ3-४२४, १२तु, द्र०य५९ थी नित्य,. प्रयायपाथी अनित्य छे. साय मत प्रमा, यरेय अपन थत नथी, છે. અને હંમેશાં સ્થિર એક સ્વભાવમાં રહે છે બૌદ્ધ મત પ્રમાણે આ એકાન્ત, વિનશ્વર-નાશ પામવાવાળો છે. અર્થાત્ ક્ષણે ક્ષણે સર્વથા નાશ પામતે રહે , छ. म मन्ने मत अनि.पाय, छे, तेथी ४ ते (भथ्या छ ।सू०२॥, Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्रकताले मूलम्-एएहिं दोहि ठाणेहि ववहारो ण विजई। एएहिं दोहि ठाणेहि अणायारं तु जाणए ॥३॥ छाया-एताभ्यां द्वाभ्यां स्थानाम्यां व्यवहारो न विद्यते । एतास्यां द्वाभ्यां स्थानाच्या मनाचारन्तु जानीयात् ॥३॥ अन्वयार्थ:---'एएहि' एताभ्याम्-एकान्तनित्यमे कान्ताऽनित्यमित्यम्युपगमाभ्याम् 'दोहि' द्वाभ्याम् 'ठाणेहि स्थाना- पाम्-पक्षाचा 'वरदारो' व्याहारः -शास्त्रीयो लौकिको वा 'ण विजन' न निधने-न मानि, तथा-'एरहि' एता. भ्यामेव 'दोदि' द्वाभ्याम् -एकान्तनित्यत्वस्वीकारैकान्तानित्यत्वस्वीकाराभ्याम् 'एएहिं दोहिं ठाणेटिं' इत्यादि । ___ शब्दार्थ-'एएहि-एताभ्यां' एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य 'दोहि-दाभ्यां इन दोनों 'ठाणेहि स्थानाभ्याम्' स्थानों से अर्धात पक्षों ले 'यवहारो-व्यवहारः' शास्त्रीय अपवा लौकिक व्यवहार 'ण विजजह न विद्यते' नहीं होता। तथा 'एएहि-एताभ्याम्' इन दोहिं-द्वाभ्याम्' दोनों 'ठाणेटिं-स्थानाभ्याम्' स्थानों से 'अणायारं-अनाचारम्' अना. चार 'जाणए-जानीयात्' जानना चाहिए । अर्थात् एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य पक्ष में से किसी एक पक्षका स्वीकार करना अनाचार है यह सर्वज्ञ के आगम से बाहर है ॥३॥ अन्वयार्थ-एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य इन दोनों स्थानो अर्थात् पक्षों से शास्त्रीय अथवा लौकिक व्यवहार नहीं होता। तथा इन दोनों स्थानों से अनाचार जानना चाहिए । अर्थात् एकान्त नित्य एएहिं दोहि ठाणेहि छत्याह Avatथ-हि-एताभ्याम्' सन्त नित्य मन शान्त भनित्य दोहि द्वाभ्यां' मा मन्ने 'ठाणेहि-स्थानाभ्याम्' स्थानीथी मर्थात् पाथी 'ववहारो-व्यवहारः' शरीय अथवा दोपहार ण विज्जइ-न विद्यते' यता नथी तथा 'एएहि-एता याम्' मा 'दोहि-द्वाभ्याम्' मन्न 'ठाणेहि-स्थानाभ्याम्' २यानाथी 'अणायार'-अनाचारम्' मनायार 'जाणए-जानीयात्' तो न ' अर्थात् એકાન્ત નિત્ય અને એકાન્ત અનિત્ય પક્ષમાંથી કેઈ એક પક્ષનો સ્વીકાર કરવો તે અનાચાર છે. આ સર્વજ્ઞના આગમથી બહાર છે તેમ સમજવું ૩ અન્વયાર્થ –એકાન્ત નિત્ય અને એકાન્ત અનિત્ય આ બન્ને સ્થાને અર્થત પક્ષેથી શાસ્ત્રીય અથવા લૌકિક વ્યવહાર થતું નથી. આ બને Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७९ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. म. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् 'ठाणेहि स्थानाभ्याम्, 'अणायारं' अनाचारम् 'जाणए' जानीयादिति। अनयोरेकतरस्य स्त्रोकारे अनाचारो मौनीन्द्रागमवाह्यरूपो भरतीति ३। . टंका--एकान्तनित्यानित्यपक्षे व्यवहारो न भविष्यतीति मूत्रकारः स्वय मेव दर्शयति-'एएहि' इत्यादि । 'एएहि' एताभ्याम् 'दोहि' द्वाभ्याम् 'ठाणेहि' स्थानाभ्याम्-पक्षाभ्याम्-सर्व वस्तु एकान्ततो नित्यमेकान्ततोऽनित्यमित्यीकाराभ्यामितियावत् , 'वहारो' व्यवहारस-लौकिको लोकोचरो वा ऐहिवामुष्मिक रूपो यः प्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणः 'ण विज्जई' न विद्यते न भवति एकान्तनित्यपक्षाऽभ्युपगमे एकान्ताऽनित्यतापक्षाऽभ्युपगमे वा, व्यवहारः शास्त्रीयो वा लौकिको वा न संभवेत, 'एएहि' एनाभ्याम् 'दोहि द्वाभ्याम् 'ठाणेहि स्थानाभाम्-एकान्तनित्याऽनित्याभ्याम् 'अगायारं तु जाणए' अनाचारं-मौनीन्द्रागम. बाह्यरूपं जानीयात्, एकान्तनित्यपक्षाऽभ्युपगमे एकान्तानित्यपक्षाऽभ्युपगमे च अनाचारो भवति । अत एताभ्यामेवाऽनाचारं जानीयात् । किन्तु-एतद्व्यः तिरिक्त उमयात्मक एव पक्षः स्वीकर्तव्य इति । सामान्यसमायिनमंशं द्रव्या और एकान्त अनिस्य पक्ष में से किसी एक पक्ष को स्वीकार करना अनाचार है। यह सर्वज्ञ के आगम से बाहर है ॥३॥ ___टीकाथ-सूत्रकार स्वयं दिखलाते हैं कि एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य पक्ष में व्यवहार नहीं बन सकता। सब वस्तुएं एकान्ततः नित्य ही हैं अथवा अनित्य ही हैं, इन दोनों पक्षों में से किसी भी एक पक्ष से लौकिक या लोकोत्तर, इहलोक संबंधी या परलोक संबंधी प्रवृत्ति निवृत्ति रूप व्यवहार नहीं होता है। अतएव इन दोनों एकान्त पक्षों के द्वारा अनाचार जानना चाहिए अर्थात् यह दोनों एकान्त पक्ष जिनागम से बाह्य हैं। इन दोनों से भिन्न कथंचित् नित्य कथंचित् રથાનોથી અનાચાર સમજે . અર્થાત એકાન્ત નિત્ય અને એકાન્ત અનિત્ય એ બે પક્ષ પૈકી કઈ એક પક્ષને સ્વીકાર કરે તે અનાચાર છે. આ સર્વજ્ઞના આગમથી બહાર છે ૩ साथ-सूत्रा२ पोते मत छ -मेन्त नित्य भने सन्त અનિત્ય પક્ષમાં વ્યવહાર થઈ શક નથી સઘળી વસ્તુઓ એકાન્તત ! નિત્ય જ છે. અથવા અનિત્ય જ છે. આ બન્ને પક્ષેમાંથી કોઈ પણ પક્ષથી લૌકિક અથવા લકત્તર આલેક સંબધી અથવા પરલેક સંબધી પ્રવૃત્તિ નિવૃત્તિ રૂપ વ્યવહાર થતું નથી તેથી જ આ બને એકાત પક્ષો દ્વારા અનાચાર સમજવું જોઈએ, અથત આ ૦,ને એકાન્ત પક્ષ નામથી બહાર છે, Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० सूत्रकृतायो मक्रमाश्रित्य स्यान्नित्य इति भगत, तथा प्रतिक्षणं रूपपरिवर्तनकारिणं विशेश'मानित्य स्यादनिभ्य इति भवति, तदुक्तम् - 'घटमौलिसुवर्णा नाश यादस्थितिप्वयम् । . . ..शोकपमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥ . . : अर्थात् कस्याश्चिद्राजकन्यायाः सुवर्ण कलश आसीत् । राजा च सुवर्ग कारहारानी मन्तिदीयं सुवर्णकलां गलितं कारयित्वा स्वकीयराजकुमाराय ततः सुवर्णा शिरी. मुकुटं, निर्मापितवान् , राजकन्या च ते विषयमवगत्य शोकातिशया जाता, संत्र'अनित्य पक्ष ही स्वीकार करने योग्य है। प्रत्येक वस्तु सामान्य अर्थात् .' द्रव्य अंश से सदैव विद्यमान रहती है, अतएव निस्य है किन्तु उसका 'विशेष अर्थात् 'पर्याय अंश क्षण क्षण में बदलता रहता है, वह नई "पुरानी होती रहती है, अतएव अनित्य भी है। कहा भी है-'घट मौलि सुवर्णार्थी' इत्यादि । घट मुकुट और स्वर्ण का अभिलाषी नाश. उत्पाद और ध्रुवता पर्यायों *में क्रमशः शोक, प्रमोद और मध्यस्थभाव को प्राप्त होता है, अतएव सिद्ध होता है कि प्रत्येक वस्तु उत्पाद, विनाश और प्रौव्य से युक्त है। • तात्पर्य यह है कि कल्पना कीजिए-एक राजा को एक प्रिय लड़की है और 'एक गुणवान लड़का है। लड़की का स्वर्ण की बना घट है, रानीने उस *स्वर्णमय घटको सुवर्णकार द्वारा गलवाकर राजकुमारके लिये मुकुंट वन'वाया है। ऐसी स्थिति में घटको मिटाकर मुकुट यनवाया जाने से लड़की को -આ બનેથી જુદા કથ ચિત્ નિત્ય કથંચિત અનિત્ય પક્ષ જ સ્વીકાર કરવાને 'योग्य छे. १२४ १२तु सामान्य अर्थात् द्रव्य, मशथी भेश विधमान २३ છે તેથી જ તે નિત્ય છે. પરંતુ તેના વિશેષ અર્થાત્ પર્યાય અંશ ક્ષણ ક્ષણમાં બદલાતા રહે છે. તે નવીન અને જૂના થતા રહે છે તેથી જ અનિત્ય , 4 छे ,खु पाप छ.-घटमौलि सुवर्णार्थी' त्याह ઘટ, મુગુટ, અને સેનાની ઈચ્છાવાળા નાશ, ઉત્પાદ અને ધ્રુવપણું પર્ધામાં કમથી શોક, પ્રમોદ-આનંદ અને મધ્યસ્થ ભાવને પ્રાપ્ત થાય છે. તેથી જ સિદ્ધ થાય છે. કે-દરેક વસ્તુ ઉત્પાદ, વિનાશ અને બ્રોવ્યથી યુક્ત છે. १४ानु तपय से छे ४-४६५ना ४२॥ 3-२.०नने से प्रिय पुत्री-छ, અને એક ગુણિયલ પુત્ર છે, પુત્રીને સેનાનો ઘડો છે, રાજાએ તે સેનાના " ઘડાને સોની પાસે ગળાવીને કુમાર માટે તેને મુગુટ બનાવ્યો. આ સ્થિતિમાં घाने माने (५८. ३५थी भान) मुकुट माqatथी त छ।शने ६.५ Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् कुमारश्च सुवर्णमुकुटलाभात् प्रमोदातिशयं प्रलेभे, राजा च न शोकवान न वा प्रमोदवान् किन्तु शोकममोमाध्यस्थ्यं गतः घटस्य नाशेऽपि तदीयसुवर्णस्य ताद. वस्थ्यात् । तत्र यदि पदार्थ एकान्ततो नित्य स्तदा राजकन्यायाः कथं शोका, यदि च एकान्ततोऽनित्य स्तदा राजकुमारस्य कथं हर्षा तिशयः, राज्ञश्च शोकपमो. दावपि न जातो, इत्यपि कथम् , तस्मात् पदार्थः कथञ्चिनित्यः कथञ्चिदनित्यः, अयमेव पक्षः श्रेयान् , न तु एकान्ततो नित्यः, एकान्ततोऽनित्यश्चेति पक्षा, व्यवहारविरुद्धत्वादनाचारवाच्च तदेवं नित्यानित्यपक्षयो व्यवहारो न विद्यते अनयोरेव अनाचारं जानीयादिति ॥मू० ३॥ मूलम्-समुच्छिहिति सत्थारो सम्वे पाणा अणेलिसा। गंठिया वा भविस्संति सासयंतिव णो वैए ॥४॥ छाया-समुच्छेत्स्यन्ति शास्तारः सर्वे माणा अनीशाः । ग्रन्थिका वा भविष्यन्ति शाश्वता इति नो वदेव ॥४। शोक होता है, क्योंकि उसकी अभीष्ट वस्तु नष्ट होती है, लड़के को प्रसन्नता होती है, क्योंकि उसकी इष्ट वस्तु प्राप्त होती है और स्वयं राजा मध्यस्थ रहता है, क्योंकि उसको दृष्टि में सोना सोने के रूप में कायम ही है, न उसका विनाश हुआ है न उत्पत्ति हुई है। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु विनाश उत्पाद और स्थितिशील ही है। यदि वस्तु विरूप न होती तो इन तीनों व्यक्तियों के मन में तीन प्रकार की भावनाएं और तज्जनित शोक, प्रमोद और माध्यस्थ्य क्यों होता है ? इससे स्पष्ट है कि प्रत्येक वस्तु कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य है ॥३॥ થાય છે. કેમકે–તેની પ્રિય વસ્તુને નાશ થાય છે અને છોકરે ખુશી થાય છે, કેમકે તેને પ્રિય વસ્તુની પ્રાપ્તિ થાય છે તથા સ્વય રાજા મધ્યસ્થ– તટસ્થ રહે છે. કેમકે તેની દૃષ્ટિમાં સેનુ સોનારૂપેથી કાયમ જ છે તેને નાશ થયે નથી, તથા ઉત્પત્તિ પણ થઈ નથી. આ પ્રમાણે દરેક વસ્તુ વિનાશ ઉત્પત્તિ અને સ્થિતિના સ્વભાવ વાળી જ છે. જે વસ્તુ ત્રણે રૂપવાળી ન હિત, તે આ ત્રણે વ્યક્તિના મનમાં ત્રણ પ્રકારની ભાવનાઓ અને તેનાથી થવાવાળા શેક, આનંદ અને માધ્યસ્થ-તટસ્થ પણું કેમ થાત? આથી સ્પષ્ટ થાય છે કે-દરેક વસ્તુ કથંચિત્ નિત્ય અને કથચિત્ અનિન્ય છે. સૂ૦૩ स०६१ Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - समझताइसके अन्वयार्थ:- मत्वारों) शास्तार:-शासनस्य पातयितार:-तीर्थकराः । तदानुयायिय भय नीना (मपुच्छिहिति) समुन्छेत्स्यन्ति क्षयं प्राप्स्यन्ति अथवा 'चिहिति' इत्यादि। ___पादाय-'सत्यारो-शास्तार' शास्ता अर्थात् शासन के प्रवर्तक जीयकर तथा उनके अनुयायी भव्य जीव 'समुच्छिहिति-समुच्छ. हानि' उच्छेदको प्राप्त होंगे अर्थात कालक्रमसे सभी मुक्ति प्राप्त कर 'गे' सपके मुक्त हो जाने पर जगत् जीवों से शून्य अर्थात् भम्यजीवों से रहित हो जायगा, क्यों कि काल की आदि और अन्त नहीं है। अथवा 'सवे पाणा-सा प्राणाः' सभी जीव 'अणेलिसा-अनीशा' परस्पर विसहश हैं, सभी जीव 'गंठिया-ग्रन्थिका' कर्मों से युद्ध ही 'भविस्संति-भविष्यन्ति' रहेंगे अथवा 'सालयंति व णो वए-शाश्वता इति नो वदेत' मर्व जीव शाश्वत ही है, ऐसा नहीं कहना चाहिए। यदि सब जीव मुक्त हो जाएं तो जगत् जीवशून्य होने से जगत् ही नहीं रहेगा अतएव ऐसा कहना उचित नहीं है, ऐसा भी नहीं कहना चाहिए की सभी जीव कर्मकह ही रहेंगे अथवा तीर्थकर सर्वदा स्थित रहेंगे यह मय एकान्त बचन मिश्या है ॥४॥ __ अन्वयार्थ-- शास्ता अर्थात् शासन के प्रवर्तक तीर्थंकर तथा उनके 'समुन्छिहिनि' त्या __ -'सत्यारो-शाम्तारः सरिता अर्थात् सनना प्रवास ती २ त साना अनुयायी १०५ ७३ 'समुच्छिहिति-प्रमुच्छेत्स्यन्ति' ઉદને પ્રતિ કશે. અર્થાત્ ક લકમથી સઘળા મુક્તિ પ્રાપ્ત કરી લેશે. બધા મુક્ત થઈ ગયા પછી જગત જીથી અર્થાત્ ભવ્ય જી વગરનું मनी ये 3-01 आदि भने मतदाता नथी. 1241 'सव्वे पाणा सो प्रणा' सार यो 'अणे लसा-अनीदशाः' भन्योन्य विसदृश छे. ५५ ०२ गठिया-प्रन्थिका.' मी म 'भविस्संति भविष्यन्ति' २७. AUR 'मामयनि र यो वए-शाना इति नो वदेन' सवा ७॥ यत । छे. તેમ કહેવું ન જોઈએ એ બધા જ છે મુક્ત થઈ જાય તો જગત્ જીવ "રનું વાશી જાત જ રહેશે નહીં તેથી જ તેમ કહેવું બરાબર નથી. એમ પ કહેવું ન જોઈએ કે-સઘળા 9 કમળ જ રેશે અથવા તીર્થકર હિંમેશાં શ્રિત . આ બધા એકાન્ત વચને મિથ્યા છે. ५.५५.५.-- 11 यात शासन प्रयापनार तीय ४२ तथा तमना Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् सर्वे भव्यजीवाः सिद्धिं गमिष्यन्ति कालक्रमेण, तदा-सर्वेषु मुक्तेषु कालस्याऽनाद्यनन्तत्वात्ततो जगज्जीवविरहितं स्यात् । 'सव्वे पाणा' सर्वे प्राणाः प्राणिनः यावज्जीवाः (अणेलिसा) अनीदृशाः-विसदृशाः विभिन्ना इति यावत् । (गंठिया वा) ग्रन्थिका वा (भविरसंति) भविष्यन्ति-प्रन्थिकर्म तद्वन्तः सर्वे जीवा भविष्यन्ति । बद्धा एव स्थास्यन्ति इत्यर्थः । (सासयंति व णो वए) शाश्व का इति नो वदेत, सर्वे जोवा मुक्ता भविष्यन्ति तदा जगदुच्छिन्नं स्यात, जीवरहितत्वात् । अथवा सर्वे बद्धा एव स्थास्यन्ति तीर्थ कराः सर्वदा स्थास्यन्त्येव इत्येकान्तवचनं नो वक्तव्यमिति ॥१॥ टीका-'सत्यारो' शास्तारः भव्याश्च 'समुच्छिहिति' समुच्छेत्स्यन्तिउच्छेदं कर्मवन्धनराहित्य प्राप्स्यन्ति सर्वभव्यानां मुक्तिगमनेन भव्यशून्यो कोकः स्थादिति, एवम् 'सासयं तिव' शाश्वता:-नित्याः सर्वदा अवस्थायिन एव भदिव्यन्ति इत्यपि 'नो घर' नो वदेत् तथा-'सव्वे पाणा' सर्वे प्राणाः जीवाः 'अणे. अनुयायी भव्य जीव उच्छेद को प्राप्त होगे अर्थात् कालाक्रम से सभी मुक्ति प्राप्त कर लेगे । सब के मुक्त हो जाने पर जगत् जीवों से अर्थात् भव्य जीवों से रहित हो जायगा, क्योंकि काल की आदि और अन्त नहीं है। अथवा सभी जीव परस्पर विसदृश हैं, सभी जीव कर्मों से बद्ध ही रहेंगे, सब जीव शाश्वत ही हैं, ऐसा नहीं कहना चाहिए। यदि सब जीव मुक्त हो जाएं तो जगत् जीवशून्य होने से जगत् ही नहीं रहेगा अतएच ऐसा कहना उचित नहीं है। ऐसा भी नहीं कहना चाहिए कि सभी जीव कबद्ध ही रहेगे अथवा तीर्थ कर सदैव स्थित रहेंगे। यह सब एकान्त वचन मिथ्या हैं ॥४॥ टीकार्थ-तीर्थकर और भव्य जीव उच्छेद को प्राप्त हो जाएंगे अर्थात् कर्मबन्धन से रहित होकर मोक्ष में चले जाएंगे, तब यह लोक भव्य. जीवों से शून्ध हो जाएगा। अथवा तीर्थंकर और सघ भव्य जीव सदैव અનયાયી ભવ્ય જીવ ઉછેદને પ્રાપ્ત થશે. અર્થાત્ કાલક્રમથી બધા જ મતિ પ્રાપ્ત કરી લેશે બધા જ મુક્ત થયા પછી જગત્ જીવથી અર્થાત ભવ્ય જીથી રહિત બની જશે. કેમકે કાળની આદિ અને અનત નથી. બધા જ પરસ્પર વિસદેશ અથવા બધાજ જ કર્મોથી બદ્ધ જ રહેશે. બધા જ જીવે શાશ્વત જ છે તેમ કહેવું ન જોઈએ. જે બધા જ જી મુક્ત થઈ જાય તે જગત જીવ શુન્ય થવાથી જગત જ નહીં રહે તેથી જ તેમ કહેવું ચગ્ય નથી. એમ પણ કહેવું ન જોઈએ કે બધા જી કમબદ્ધ જ રહેશે. અથવા તીર્થકર સદા કાયમ જ રહેશે. આ બધા એકાત વચને મિથ્યા છે. જો ટીકાથ-તીર્થકર અને ભવ્ય જી ઉચછેદને પ્રાપ્ત થઈ જશે અર્થાત કર્મના બંધ વિનાના થઈને મેક્ષમાં જશે ત્યારે આ લેક ભવ્ય જી Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रतागसूत्र लिसा' अनीदृशाः-विसदृशाः-विलक्षणा एव न कयश्चित् तेषां परस्पर सादृश्यमस्ति इत्यपि नो वदेत् , तथा-'गंठिया वा भविस्संति' ग्रन्थिका वा भविष्यन्ति कर्मग्रन्थयुक्ता एव सर्वे जीवा भविष्यन्ति इत्यपि नो वदेव ॥४॥ मूलम्-एएहिं दोहि ठाणेहि ववहारो ण विजइ । एएहिं दीहि ठाणेहि अणायारं तु जाणए ॥५॥ - छाया--एता-या द्वाभ्यां स्थानाभ्यां व्यवहारो न विद्यते । एताभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्याम् अनाचारन्तु जानीयात् ॥५॥ स्थित ही रहेंगे-कोई मोक्ष नहीं प्राप्त करेगा, ऐसा नहीं कहना चाहिए। सभी प्रागी परस्पर विलक्षण ही है, उनमें किञ्चित् भी समानता नहीं है, ऐसा भी नहीं कहना चाहिए ॥४॥ 'एएहिं दोहि ठाणे हि इत्यादि । शब्दार्थ-- 'एएहि-एता पाम्' इन दोहि-द्वाभ्याम्' दोनों एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य 'ठाणेहि-स्थानभ्याम्' पक्षों से 'ववहारों. व्यवहार.' शास्त्रीय अथवा लौकिक व्यवहार 'ण विज्जइ-न विद्यते' संभवित नहीं है अतएव 'एएहि-एताभ्याम्' इन 'दोहि-दाभ्याम्' दोनों ठाणेहि-स्थानाच्याम्' पक्षों के सेवनको 'अणायारं-अनाचारं' अनाचार 'जाणए-जानीयात्' जानना चाहिए, कल्याणकी अभिलापा रखने वाले को किसी भी एकान्त पक्षका अवलम्बन नहीं करना चाहिए ५। વિનાનો થઈ જશે અથવા તીર્થકર અને સઘળા ભવ્ય જી હમેશા સ્થિત - ‘જ રહેશે. કઈ મેક્ષને પ્રાપ્ત કરશે નહીં તેમ કહેવું ન જોઈએ. સઘળા પ્રાણિ પરસ્પર વિલક્ષણ જ છે તેમાં કિંચિત્ પણ સરખા પણું નથી. તેમ પણ કહેવું ન જોઈએ સૂ૦૪ । 'एएहिं दोहि ठाणेहि' त्याहि । 'शहा—'एएहि-एताभ्याम्' मा 'दोहि-द्वा-याम्' भन्ने सन्त नित्य मन मेन्त भनित्य 'ठाणेहि-स्थानाभ्याम्' पक्षाथी विवहारो-व्यवहार' शास्त्रीय Anी व्या२ 'ण विजइ-न विद्यते' समवित नथी तथा १ 'एएहिंएताभ्याम्' मा 'दोहि-द्वाभ्याम्' भन्ने "ठाणेहि-स्थानाभ्याम्' पक्षाना सेवनने 'अणायार-अनाचारम्' मनाया२ 'जाणए-जानीयात्' तो नसे. यानी ઈચ્છા રાખવાવાળાએ કઈ એકાન પક્ષનું અવલમ્મન કરવું ન જોઈએ એપ અન્વયાર્થ––આ બને એકત્ત નિત્ય અને એકાન્ત અનિત્ય પક્ષેથી શાસ્ત્રીય અથવા લૌકિક વ્યવહાર સંભવિત નથી. તેથી જ અને એકાન્ત Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् ४८५ अन्वयार्थ :--(एएहि) एताभ्याम् (दोहि) द्वाभ्याम्-एकान्तनित्याऽनित्याभ्याम् 'ठाणेहि' स्थानाम्याम्-पक्षाभ्याम् (ववहारो) व्यवहारः-शास्त्रीयो लौकिको वा (ण विज्जइ) न विद्यते-न संभाति, (एएहिं) एताभ्याम् 'दोहि' द्वाभ्याम् (ठाणेहि) स्थानाभ्याम् अवलम्बिताभ्याम् (प्रणायारं तु) अनानारन्तु-अक्रमम् (जाणए) जानीयात, अत एकान्तः पक्षो न सेव्यः श्रेयोऽथिमिः । एकान्ततपा-एकवरपक्षाऽवलम्ब नाभिनिवेशो न श्रेपान् ॥५॥ टीका--'एएहिं दोहि ठाणेहि' एताभ्यां द्वाभ्यां स्थानाम्यां सर्वे शास्तारः क्षयं यास्यन्ति शाश्वा वा भविष्यन्ति, यद्वा-सर्वे प्राणिनोऽनीदृशाः विसदृशाः, तथा-सर्वे ग्रन्थिका एक सतिष्यन्ति इत्याकाराभ्यां पक्षाभ्याम् 'ववहारो ण विज्नई व्यवहारो न विद्यते, अपम्नाव:-यदुक्तं सर्वे शास्तारः क्षयं यास्यन्ति तदयुक्त क्षयकारणभूतस्य कर्मणोऽभावात् न वा सर्वे शास्तारः शाश्वता पव, ___ अन्वयार्थ-इन दोनों एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य पक्षों से शास्त्रीय अथवा लौकिक व्यवहार संभावित नहीं है। अतएव दोनों एकान्त पक्षों के सेवन को अनाचार जानना चाहिए। कल्याण की अभिलाषा रखने वाले को किसी भी एकान्त पक्ष का अवलम्बन नहीं करना चाहिए ५। टीकार्थ-सभी तीर्थरुर क्षय को प्राप्त हो जाएंगे या सिद्धि प्राप्त कर लेंगे अथवा सब शाश्वत ही हैं, सभी प्राणी सर्वथा विसदृश ही हैं, सब जीव सकर्मक ही रहेंगे, इस प्रकार के दोनों एकान्त पक्षों से व्यवहार नहीं हो सकता । भाव यह है-सभी शास्ता तीर्थकरों का क्षय हो जाएगा, यह कहना अयुक्त है, क्योंकि क्षय के कारणभूत कर्म का अभाव है। सब शाहना शाश्वत ही हैं, यह कहना भी समीचीन नहीं है, क्योंकि भवस्थ केवली-अर्हन्त सिद्धिगमन करते हैं, अर्थात પાના સેવનને અનાચાર સમજવું જોઈએ ક૯યાણની અભિલાષા રખવાવાળાએ કઈ પણ એકાત પલનું અવલમ્બન કરવું ન જોઈએ. આપા ટીકાર્થ–સઘળા તીર્થકર ક્ષયને પ્રાપ્ત થઈ જશે. અથવા સિદ્ધિને પ્રાપ્ત કરી લેશે. અથવા બધા શાશ્વત જ છે સઘળા પ્રાણિયે સર્વથા વિસર દશ જ છે. સઘળા જીવો સકર્મક જ રહેશે આ પ્રમાણેના બને એકાન્ત પક્ષોથી વ્યવહાર થઈ શકતું નથી કહેવાનો ભાવ એ છે કે--સઘળા શાસન કરવાવાળા તીર્થ કરને ક્ષય થઈ જશે. તેમ કહેવુ તે અગ્ય છે. કેમકેક્ષય થવાના કારણ ભૂત કર્મને અભાવ છે સઘળા શાસન કરવાવાળા તીથ. કરે શાશ્વત જ છે. તેમ કહેવું તે પણ ચોગ્ય ગાય નહીં કેમકે–ભવમાં Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮ মহুবার भवस्थ केवलिनां शास्तृगां सिद्धिगमनसद्भावात् न माश्वताः, अत: प्रवाहाऽपेक्षया शाश्वतत्वं व्यक्त्यपेक्षया अशाश्वतत्व च 'ए!हिं दोहि ठाणेहि मायारं तु जागए' एताभ्यामेव द्वाभ्यां स्थानाभ्यामना वारं तु जानीयात् अयं भावा-सरे पाणा अनीशा इत्यपि न वक्तव्यम् सर्वे जीवाः कर्मपराधीननया विलक्ष गा अपि समाना अपि एतदेव वक्तव्यं न तु एकान्तपक्ष रवी तव्यः । न वा ग्रन्धिका एव भवि. ष्यन्ति इत्यपि न वक्तव्यम् उल्लसितवी यतया के वन ग्रन्थिरहिताः केचन तथा विधपरिणामाभावाद् ग्रन्थियुक्ता एवेति ५। मूलम्-जे केइ खुड्डगा पाणा अदुवा संति महालया। सरिसं तेसिं 'वेरंति असरिसंती य णो वए ॥६॥ मोक्ष में चले जाते हैं, अतएव वे शाश्वत नहीं हैं हां प्रवाह की अपेक्षा भले शाश्वत कहा जाय किन्तु व्यक्ति की अपेक्षा अशाश्वत हैं। अतएव दोनों एकान्त पक्षों के सेवन से अनाचार जानना चाहिए। ___ सब प्राणी विसदृश ही हैं, ऐसा भी नहीं कहना चाहिए । सप जीव कर्मों के अधीन होने के कारण विलक्षण होने पर भी स्वभावतः समान हैं । अतएव उनमें शुद्ध आत्मस्वरूप-चैतन्य की अपेक्षा से समानता भी है और कर्मोदय आदि की विसदृशता के कारण अस. मानता भी है । सब जीव सकर्मक ही रहेंगे, यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि वीर्य का उल्लास होने पर कोई जीव निष्कर्मदशा को भी प्राप्त करेंगे, किन्तु जो अभव्य हैं अथवा भय होने पर भी समु. चित सामग्री नहीं प्राप्त करेगे, वे सकर्म रहेगे ॥५। રહેવા વાળા કેવલી અર્વત સિદ્ધિ ગમન કરે છે. અર્થાત્ મેક્ષમાં જાય છે. તેથી જ તેઓ શાશ્વત નથી. હા, પ્રવાહની અપેક્ષાએ ભલે શાશ્વત કહેવામાં આવે. પરંતુ વ્યક્તિની અપેક્ષ થી અશાશ્વત છે. તેથી જ બને એકાન્ત પક્ષના સેવનથી અનાચાર સમજ જોઈએ સઘળા પ્રાણિ વિસદશ જ છે. તેમ પણ કહેવું ન જોઈએ. સઘળા જ કર્મને આધીન હોવાના કારણે વિલક્ષણ હોવા છતાં પણ સ્વભાવથી સરખા જ છે, તેથી જ તેઓમાં શુદ્ધ આત્મસ્વરૂપ ચિતન્યની અપેક્ષાથી સમાનપણું છે. અને કર્મોદય વિગેરેના વિદેશ પણુથી અસમાન પણું પણ છે સઘળા જી સકર્મક જ રહેશે. તેમ કહેવું પણ ઠીક નથી. કેમકે–વીર્યને ઉલ્લાસ થવાથી કંઈ જીવ નિષ્કર્મ દશાને પણ પ્રાપ્ત કરશે. પરંતુ જે અભવ્ય છે, અથવા ભવ્ય હોવા છતાં પણ યોગ્ય સામગ્રી પ્રાપ્ત નહીં કરી શકે તેઓ સકમ રહેશે પાર Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् चाया--ये केचिक्षुद्रका प्राणा अथवा सन्ति महालया। ___सदृशं तेषा वैरमिति असदृशमिति च नो वदेत् ६। अन्वया:---(जे केइ) ये केचित् (खुड्गा) क्षुद्रकाः-एकेन्द्रियाः अल्पशरीरचन्ता वा, (पाणा) प्राणा:-प्राणिनो जीवाः, (अदुवा) अथवा-ये केचित् (महालया) महालया:-विशिष्टदेहवन्तः पञ्चेन्द्रिया अश्वगजादय. 'संवि' सन्ति-विद्यन्ते (तेसिं) तेपाम्-क्षुद्राणां महालयानां वा (सरिसं) सदृशम्-समानमेंकरूपकमेव 'जे केह खुड्गा पाणा' इत्यादि। शब्दार्थ-'जे केह-ये केचित् जो एकेन्द्रिय आदि 'खुड्गा-क्षुद्रका क्षुद्र लघुकायवाले 'पाणा-प्राणा' प्राणी है 'अदुवा-अथवा' अथवा जो कोई 'महालया-महालया।' घोडा हाथी आदि महाकाय 'संति-सन्ति' पञ्चेन्द्रिय प्राणी है 'तेलि-तेषाम्' उन दोनों की हिमा से 'सरिसं-सहशम्' समान ही वैर होता है । अथवा 'असरिसं-असदृशम्' असमान वेरं-वैरम्' वैर होता है 'त्ति-इति' ऐसा णो वए-नो वदेत्' नहीं कहना चाहिए अर्थात् लघुकाय और महाकाय प्राणिका घात करनेसे समान ही हिंसा होती है, ऐसा एकान्त कथन नहीं करना चाहिए और उनका घात करने पर असमान ही हिंसा होती है, ऐसा एकान्त वचन भी नहीं बोलना चाहिए।गा०६॥ ___अन्वयार्थ--जो एकेन्द्रिय आदि क्षुद्र लघुकायवाले प्राणी हैं अथवा जो कोई अश्वहाथी आदि महाकाय पंचेंद्रिय प्राणी हैं, उन दोनों की 'जे केइ खुड़गा पाणा' याति शहाय-'जे केइ-ये केचित्' रेमेन्द्रिय विमेरे 'खुड्डगा-क्षुद्रका' क्षुद्र सधुयाणा 'पाणा-प्राणा.' प्राणी छे, 'अदुवा-अथवा' 24 ts 'महालया-महालया:' हाथी थे. पिणेरे माय-मोटा शरीरमा 'संतिमन्ति' ५थेन्द्रिय प्राणी छे 'वेसि-तेषाम्' ते मन्नेनी डिसाथी 'सरिसं-सह शम' समान २ थाय छ, अथवा 'असरिसं-असदृशम्' असमान वेरंवेरम' ३२ थाय छे 'त्ति-इति' में प्रभाए ‘णो वए-नो वदेत्' । न જોઈએ અર્થાત્ લઘુકાય અને મહાકાય (નાના મેટા) પ્રાણીને ઘાત કરવાથી સરખી જ હિંસા થાય છે. એ પ્રમાણે એકાત કથન કરવું ન જોઈએ. અને તેને ઘાત કરવાથી અસમાન હિંસા જ થાય છે, એ પ્રમાણે એકાન્ત વચન પણ બોલવું ન જોઈએ ગાવે અન્વયાર્થ-જે એકેન્દ્રિય વિગેરે મુદ્ર લઘુકાયવાળા પ્રાણી છે. અથવા જે ઘેાડા હથી વિગેરે મહાકાય પંચેન્દ્રિય પ્રાણી છે. એ બનેની હિંસાથી Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे (असरिसं असणं वा (वेरंति) चैर हिंसनमिति (जो वए) इत्येव नो वदेत् Maratha जयोमरणे समाना हिंमा भवतीत्यपि एकान्तवचनं न वदेत्-न वक्तव्यं भवेत् | तथाऽनयोर्मारणे विभिन्नैव हिंसा जायते इत्यपि एकान्तवचो न वाच्यम् किन्तु - हिंसेति मत्वा अनेकान्ताचनमेव प्रयोक्तव्यमिति ६ । टीका -- 'जे केइ' ये केचित् 'खुङगा' क्षुद्रका:- लघुकाया: 'पाणा' प्राणिनः एकेन्द्रियद्वीन्द्र यादवोऽल्पकाया वा पञ्चेन्द्रियजीवा सूपकादयः 'अदुवा' अथवा 'महालया' महालया - दीर्घशरीरा:- इस्त्यादयः 'संति' मन्त्रि-विद्यन्ते 'तेर्सि पाकापानां कुन्यादीनाम् महाकायानां हस्त्यादीनां च हनने 'सरिसं वेरं' सदृशम् - तुल्यं समानमेन वैरं मनः वैरं वज्रं कर्म विरोधक्षणं वा तुल्यप्रदेश वात्सर्वजन्तूनाम् 'इति' इत्येव रूपेण एकान्तेन 'णो वए' नो वदेत् अथवा 'अतरिसंती ' अपरम्-असमानमेव तद् व्यापादने मारणे 'वेर' वैरं कर्मबन्धः हिंसा से समान ही वैर होता है, अथवा असमान ही वैर होता है, ऐसा नहीं कहना चाहिए । अर्थात् लघुकाय और महाकाय प्राणी का घात करने से समान हिंसा ही होती है, ऐसा एकान्त कथन नहीं करना चाहिए और उनका घात करने पर असमान ही हिंसा होती है, ऐसा एकान्त वचन भी नहीं बोलना चाहिए || ६ || टीकार्थ-- जो एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय आदि अथवा चूहा आदि पंचेन्द्रिय लघुकाय अर्थात् छोटे शरीर वाले प्राणी हैं अथवा जो हाथी आदि महाकाय प्राणी हैं, इन दोनों प्रकार के प्राणियों का हनन करने पर 'समान ही वैर अर्थात् कर्मबन्धन अथवा समान ही विरोध रूप वैर होता है, क्यों कि सभी प्राणी समान प्रदेशों वाले हैं, ऐसा एकान्त कहना उचित नहीं है । अथवा इन लघुकाम और महाकाय, दोनों 1 સરખું જ વેર થાય છે મથવા અસમાન વેર થાય છે તેમ કહેવું ન જોઇએ, અર્થાત લઘુકાય અને મહાકાય પ્રાણીને ઘાત કરવ થી સરખી જ હિંસા થાય છે. એવુ' એકન્ત કથન કહેવું ન જોઈએ અને તેએા ઘાત કરવાથી અસમાન હિંસા થાય છે તેવુ' એકાન્ત વચન પણુ ખેલવુ ન જોઈ એ. un ટીકા—જે એકેન્દ્રિય દ્વીન્દ્રિય વિગેરે અથવા ઉત્તર વિગેરે પંચેન્દ્રિય લઘુકાયવાળા અર્થાત્ નાના શરીરવાળા પ્રાણિયા છે. અથવા હાથી વિગેરે મહાકાય પ્રાણી છે. આ બન્ને પ્રકારના પ્રાણિયાની હિંસા કરવાથી સરખું જ વેર અર્થાત્ ક બંધ અથવા સરખાજ વિરેધ રૂપ વેર થાય છે કેમકે— સઘળા પ્રાણીયા સરખા પ્રદેશેાવાળા છે. તેમ એકાન્ત રૂપે કહેવું તે યેાગ્ય નથી. અથવા આ લઘુકાય અને હાકાય ને પ્રકારના વેનું હનન કર Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८९ समयार्थयोधिनी टीका वि.व. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् इन्द्रियविज्ञानकायानां विसदृशमात् सत्यपि प्रदेशतुल्यत्वेन सदृशं वैर मित्यपि नो वदेत् यदि वयापेक्षः कर्मबन्धो भवेत् तदा तद्वशात् कर्मणोऽपि सादृश्यमसा. दृश्यं वा वक्तुं युज्यते न स्वेवं किन्तु अध्यवसायवशात् कर्मबन्धो भवति ततश्च तीवाऽध्यवसायिनोऽल्पसलव्यापादनेऽपि महद्वैरम् अकामस्य व महाकायसव :, व्यापादनेऽपि स्वल्पमेव वैरमिति ॥६॥ मूलम्-एएहि दोहि ठाणेहि ववहारो णे विज्जइ। . एएहि दोहि ठाणेहि अणायारं तु जाणए ॥७॥ ' छाया-एताभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्यां व्यवहारो न विद्यते । एताभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्यामनाचारन्तु जानीयात ।।७।। प्रकार के जीवों का हनन करने पर एक-सा वैर नहीं होता है, क्यों कि उनकी इन्द्रियों में, ज्ञान में और काय के परिमाण में विसदृशता है। इस प्रकार जीवपदेशों की तुल्यता होने पर भी समान वैर नहीं होता है, ऐसा एकान्त कथन भी उचित नहीं है। , यदि हनन किये जाने वाले जीव शरीर की लघुना अथवा महत्ता के अनुसार ही कर्म का पन्ध होता तो कर्मबन्ध की समानता और असमानता कही भी जा सकती थी, किन्तु ऐसा नहीं है। कर्मवन्ध का प्रधान आधार अध्यवसाय है । अतएव तीव्र अध्यवसाय से छोटे जीव की हिंसा करने पर भी महान् वैर हो सकता है और मन्द भाव से या विना इच्छा के बडे जीव का घात करने पर भी अल्प वैर होता है । अतएच वैर के विषय में अनेकान्त पक्ष ही युक्ति संगत है। दोनों प्रकार के एकान्तवचन ठीक नहीं हैं ॥३॥ વાથી એક સરખું જ વેર થતું નથી કેમકે–તેઓની ઇન્દ્રિમાં, જ્ઞાનમાં અને કાયના પરિમાણમાં વિસદિશ પણ છે. આ પ્રમાણે જીવ પ્રદેશનું સરખાપણું થવા છતા પણ સમાન વેર થતું નથી. તેમ એકાન્ત કથન પણ યોગ્ય નથી. જે હનન કરવામાં આવનારા જીવના શરીરનું લઘુપણું–નાનાપણું અથવા . મેટાપણાં પ્રમાણે કમને બ ધ થતા હતા તે કર્મબંધનું સરખાપણું અને અસમાનપણું કહી પણ શકાય, પરંતુ એવું નથી કર્મબ ધને મુખ્ય આધાર અવસાય છે તેથી જ તીવ્ર અધ્યવસાયથી નાના જીવોની હિંસા કરવા છતાં મહાન વેર થઈ શકે છે અને મદભાવથી અથવા ઈચ્છા વગર મેટા ને ઘાત કરવા છતાં અલ્પ વેર થાય છે તેથી જ વેરના વિષયમાં અને કાન્ત પક્ષક યુક્તિ સંગત છે, બન્ને પ્રકારના એકાન્ત વચને ઠીક નથી. દા Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध सूत्रकृता 'दोहि ठाणे' दयादि । शदार्थ 'एपितास्याम्' इन 'दोहिं दास्याम्' दोनों 'ठाणेहिं' स्थानाभ्याम्' स्थानों' से अर्थात् अल्पकाम और महाकाय वाले जीवों की. दिसा से सदाही र उत्पन्न होता है, अथवा विसदृश ही वैर उपम होता है, इन दोनों एकान्त वचनों' से 'चत्रहारो-व्यवहारः' व्यवहार 'न विजइन विद्यते' नहीं होता, वध्य जीव की अल्पकायता अथवा महाकायता ही एकमात्र कर्मबन्ध की तरतमता का कारण नहीं है किन्तु पक का तीव्र भाव, मन्द भाव, ज्ञात भाव, अज्ञात भाव, अल्पवीर्यश्व, एवं मानव जीवन्ध के तारतम्य का कारण है, ऐसी स्थिति में पणजीव की अपेक्षा से ही बन्ध की सदृशता एवं विसदृशता अथवा न्यूनाधिकता मानना संगत नहीं है । अतएव 'एहिं - एताभ्याम्' उक्त 'दोही - द्वाभ्याम्' दोनों 'ठाणे- स्थानाम्' एकान्त पक्षों से किसी भी एक पक्ष को स्वीकार करता है वह उसका 'अणायारं - अनाचारम्' अनाचार ही 'जाणए- जानीयात्' जानना चाहिए ||७|| ! अन्वयार्थ -- इन दोनों पक्षों से अर्थात् अल्पकाय और महाकाय जीवों की हिंसा से सदृश ही वैर उत्पन्न होता है अथवा विसदृश ही 'एहि दोहि ठाणेहि" हत्याहि शब्दार्थ- 'एएहिं - - पताभ्याम्' मा 'दोहि' - द्वाभ्याम्' भन्ने 'ठाणेहि स्थाना+याम्' पोथी अर्थात् अपाय भने महाअय भवानी हिसाथी समान वेर ઉત્પન્ન થાય છે, અથવા વિદૃશ વેર ઉત્પન્ન થાય છે આ મને એકાન્ત पयनोथी 'ववहारो - व्यवहार' व्यवहार 'न विज्जइ-न विद्यते' यतो नथी. अर्थात् આ બન્ને એકાન્ત પક્ષ ખરાબર નથી વધ્ય-મારવાને ચેાગ્ય એવા જીવનું અલ્પકાય પણું અથવા મહાકય પણું જ એકમાત્ર કમ બન્ધના તારતમ્ય તાનું કારણ નથી. પરંતુ મારનારાને તીવ્ર ભાવ, મન્તભાવ, જ્ઞાતભાવ, અજ્ઞાતભાવ, અલ્પ વીય પશુ અને મહ વીય પડ્યું. પણુ કમ ખંધના તાર; તસ્યનું કારણુ છે. આવી સ્થિતિમાં વધ્યું જીવની અપેક્ષાથી જ અન્યનુ સદેશપણું અથવા વિસĚશપણુ' અથવા ન્યૂનાધિકપણુ' માનવુ' સંગત નથી. તેથીજ 'एएईि-एताभ्याम्' उत्त 'दोहिं - द्वाभ्याम्' भन्ने 'ठाणेहि' - स्थानाभ्याम्' सेान्त પક્ષામાથી કાઈ પણ એક પક્ષને સ્વીકાર કરીને જે પ્રવૃત્ત થાય છે. તે 'अणायार - अनाचारम्' मनायार ४ 'जाणए - जानीयात् सभवले थे. ॥७॥ अन्वयार्थ - —આ બન્ને પક્ષેાથી અર્થાત્ અલ્પકાય અને મહાકાય જીવે ની હિંસાથી સરખું જ વેર પેદા થાય છે, અથવા વિસદૃશ વેર ઉત્પન્ન થાય Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारथुनिरूपणम् . ४२१ टीका--अन्वयार्थः टीकागम्यः । 'पहि' एताभ्याम्-अनन्तरोक्ताभ्याम् 'दोहि' द्वाभ्याम् 'ठाणेहि' स्थाना- पाम् अनयों वा स्थानयोरल्पकायसत्त्रमहा कोयसत्वव्यापादनापादितकर्मबन्धसदृशत्यविसशस्वयोः विवहारे।' व्यवहार:व्यवहरणम् ‘ण विज्जई' न विद्यते न-नैव युज्यते इत्यर्थः तथाहि-न वध्यस्य सदृशत्वमसदृशत्वं चैकमेव कर्मवन्धस्य कारणं किन्तु वधकस्य तीव्रमावों मन्दभावो ज्ञानभावोऽज्ञान भावोऽल्पवीयत्वमहावीर्यस्वादिकं तदेवं वध्यधकयो. विशेषात् कर्मबन्धविशेष इत्येवं व्यवस्थिते वध्यमेवाश्रित्य सदृशत्वासदृशत्वव्यवहारो न विद्यते तथा 'एएहि' एताभ्याम् 'दोहिं ठाणेहि' द्वाभ्यां स्थानाभ्यां प्रवृत्तस्य 'अणायार' अनाचारम् 'जाणए' जानीयात् 'तथाहि-जीवसाम्यात्कर्म वन्ध सदृशत्वमुच्यते तदयुक्त यतो न जीवव्यापादनेन हिंसा, तस्य नित्यत्वेन वैर उत्पन्न होता है, इन दोनों एकान्तों से व्यवहार नहीं होता अर्थात् ये दोनो ही एकान्त पक्ष ठीक नहीं हैं। वध्य जीव की अल्पकायता या महाकायता ही एक मात्र कर्मबन्ध की तरतमता का कारण नहीं है, -किन्तु वधक का तीव्र भाव, मन्दभाव ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, अल्पवीर्यत्व एवं महावीर्यत्व भी कर्मबन्ध के तारतम्य का कारण हैं। ऐसी स्थिति में वध्य जीव की अपेक्षा से ही बन्ध की सदृशता विसदृशता अथवा न्यूनाधिश्ता मानना संगत नहीं है। अतएव उक्त दोनों एकान्त पक्षों में से किसी भी एक पक्ष को स्वीकार करके जो प्रवृत्त होता है, वह उसका अनाचार ही समझना चाहिए ॥७॥ टीकार्थ--जीच की सदृशता के कारण कर्मबन्ध की सदृशता कही 'जाती है, सो उचित नहीं है । वस्तुत: जीव का मर जाना हिंसा नहीं है છે. આ અને એકાત વચનેથી વ્યવહાર થતું નથી અર્થાત બને એકાન્ત પક્ષ ઠીક નથી. વય જીવનું અલ્પકાયાપણું અથવા મહાકાય પણું જ એકમાત્ર કર્મ બંધની તરતમતાનું કારણ નથી. પરંતુ વધકને તીવ્ર ભાવ મેદભાવ જ્ઞાતભાવ અજ્ઞાતભાવ, અલ્પવીય પણું તથા મહાવીયપણું પણ કમબંધના તારતમ્યનું કારણ છે. આ પરિસ્થિતિમાં વયજીવની અપેક્ષાથી જ બની સહૃશતા વિસદશતા અથવા જૂનાધિક પાણુ માનવું સંગત નથી. તેથી જ ઉક્તબને એકાન્ત પક્ષમાંથી કઈ પણ એક પક્ષને સ્વીકાર કરીને જે પ્રવૃત્ત થાય છે, તે તેને અનાચાર જ સમજ જોઈએ ના ટીકાઈ–-જીવની સહશતાને કારણે કર્મબન્ધનું સશપણું કહેવામાં આવે છે, તે બરાબર નથી. વસ્તુતઃ જીવનું મરી જવું તે હિંસા નથી પરંતુ Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ सूत्रकेतागसत्र व्यापादयितुमशक्यत्वात् अपि तु इन्द्रियादि व्यापादनेन हिंसा भवति किं च भाव. युक्तस्यैव कर्मवन्धो भवति, न हि औषधं कुर्वतो वैद्यस्य आतुरविपत्तौ हिंसा भवति वैद्याप मारणविषयकाध्यवसायामानान्, सर्वत्रु द्वया रज्जुनतोऽपि जनस्य भावदुष्टत्वद् हिंसा भवत्येवेति भावः ॥७॥ मूलम्-आहाकम्माणि भुजंति, अण्णमपणे सकम्मुणा। उवलित्ते त्ति णो जाणिजा, अणुवलित्ते त्ति वा पुणो ॥८॥ एएहि दोहिं ठाणहि, ववहारो ण विज्जई। एएहिं दोहिं ठाणेहि, अणायारं तु जाणए ॥९॥ छाया--आधाकर्माणि भुजते, अन्योऽन्यं स्वकर्मणा । उपलिप्तानिति जानीयादनुलिप्तानिति वा पुनः ।।८। आभ्यां द्वाभ्यां स्थानाम्या, व्यवहारो न विद्यते । आभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्यामनाचारं तु जानीयात् ॥९॥ किन्तु मारने वाले का हिसारूप अव्यवसाय ही हिंसा का कारण है। वैद्य सद्भावनापूर्वक रोगी का उपचार कर रहा हो और रोगी की मृत्यु हो जाय तो वैद्य को उसकी हिंसा का पाप नहीं लगता, क्योंकि वैद्य का अभिप्राय उसे मारने का नहीं होता। इसके विपरीत यदि कोई सर्प समझ कर रस्सी को मारता है तो भाव से दुष्ट होने के कारण वह हिंसा का भागी होना है ॥७॥ ___'आहाकम्माणि भुजेति' इत्यादि। ' शब्दार्थ-'आहाफम्माणि भुजंति-आधाकर्माणि भुञ्जते' साधुके लिए षटूकायका उपमर्दन करके तैयार किया गयो आहार पानी आदि મારવાવાળાને હિંસારૂપ અધ્યવસાય-વ્યવહાર પ્રવૃત્તિ જ હિંસાનું કારણ છે. વૈધ સદ્દભાવના પૂર્વક રોગીને ઉપચાર કરી રહેલ હોય, અને રેગી મરી જાય, તે વૈદ્યને તેની હિંસાનું પાપ લાગતું નથી. કેમકે વૈદ્યને હિતુ તેને મારવાને હેતે નથી તેજ પ્રમાણે જે કઈ સપ સમજીને દેરીને મારે છે, તે ભાવથી દુષ્ટ હોવાના કારણે તે હિંસાને ભાગી બને છે પાછા आहाकम्माणि मुंजंति' त्याह शाय-- 'आहाकम्माणि मुंजंति-आधाकर्माणि भुञ्जते' पट्य नु 64. મર્દન (હિસા) કરીને સાધુ માટે તૈયાર કરવામાં આવેલ આહાર પાણી વિગેરે Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D समयार्थबोधिनी टीका वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् अन्वयार्थः-साध्वर्थ पट्कायोपमर्दनपूर्वकनिष्पादितमन्नादिकमाधाम कथ्यते तदुपभुञ्जानानां साधूनामाधाकर्मिको दोषो भवतीति सिद्धान्तः, तथापि कथञ्चित् ममादतः (आहाकम्माणि भुजंति) ये साधय आधाकर्माणि भुञ्जते, तान् (अण्णमण्णे सम्मुणा) अन्योऽन्यं स्वमगा (उवलिते त्ति वा) उपलिशानिति वा (पुणो) पुन: (अणुवलित्ते ति वा) अनुपलितानिति वा (गो) नो (जाणिज्जा) जानीयात्-न वदेदिति । आवामिकाहारमोजने कृते सति साधः चिक्कगकर्मणोपलिप्ता भवन्त्येवेत्यपि एकान्तं वचो न वक्तपम् । चिक्कगमगोपलिप्ता न भवन्ति इत्यपि न वक्तव्यमिति । नवमगाथाया अर्थः स्पष्ट एवेति ॥ ८॥९॥ आधार्मिक कहलाता है जो साधु आधार्मिक आहार करता है वे 'अण्णमण्णे-अन्योऽन्यम्' अन्यो अन्य-परस्पर 'सकम्मुणा-स्वकर्मणा' अपने कर्मसे 'उलित्तेत्ति वा-उपलिप्तानितिवा' पापकमसे उपलिप्त न मा (पुणो-पुनः' अथवा 'अणुवलित्तेत्ति वा-अनुपलिप्तानिति वा' अनुपरित होते हैं ऐप्ता एकान्त वचन 'णो जाणिज्जा-न जानीयात' नही कहना चाहिए । अतएव किसी भी एकान्त पक्षको स्वीकार करना अनाचार समझना चाहिए ॥गा. ८॥९॥ अन्वयार्थ--साधु के लिए षट्काय का उपमर्दन करके तैयार किया गया आहार पानी आदि भाषाकर्मिक कहलाता है। जो साध आधा कर्मिक आहार करते हैं, वे पापकर्म से लिप्त होते ही हैं अथवा लिप्त नहीं ही होते, ऐसे दोनों प्रकार के एकान्त वचन नहीं कहना चाहिए। इन दोनों एकान्त स्थानों से व्यवहार नहीं होता। अतएव किसी भी एकान्त पक्ष को स्वीकार करना अनाचार समझना चाहिए ॥८-९॥ आधा उपाय छ २ साधु माधामि मा २ रे छ, तमा 'अण्णमण्णे-अन्योऽन्यम्' ५५२५२ ‘स कम्मुणा-सकर्मणा' पाना माथी उत्तित्ति वाअलिप्तानिति वा' ५५भ थी पति (यात) थाय छे सभ 'पुणो-पुन' या अणुवलित्तेचि वा-अनुलिप्तानिति वा' अनुपलिय छे. मे प्रमाला . . . . 'णो जाणिज्जा-नजानीय त्' । नन तथा पशु સ્વીકાર કરે તે અનાચાર સમજ. ૫૮-લા - સાધુ મટે ષકાયનું ઉપમર્દન કરીને તૈયાર કરવામાં આવેલ વિગેરે બાધાકર્મિક કહેવાય છે જે સાધુ આધાર્મિક આહાર પાપકર્મથી લિપ્ત થાય જ છે. અથવા લિપ્ત થતા નથી, એવા એકાન્ત વચન કહેવા ન જોઈએ આ બેઉ એકાત સ્થાનેથી મૂવી જ કે ઈ પણ એકાન્ત પક્ષને સ્વીકાર કરવો તે .।८- Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रहताशने ___टीका--कथञ्चित् प्रमादेन गृहीनमाधार्मिकमन्नादिकं सर्वथा प्रतिष्ठापनीयं नैवोपभोक्तव्यमिति सिद्धान्तः, तथापि कथञ्चिन् प्रमादेन गृहीत्वा तदन्नमुपभुक्तवान् चेत् तदा एनं साधु चिक्क गकर्म व नातीति एकान्तेन नो वदेत् तथा चिकणकर्म एनं न बनातीत्यपि न वदेत् । नवमगाथार्थः स्पष्ट एवेति॥१९॥ मूळम-जमियं ओरालमाहारं, कैम्नगं च तहेव य । सम्वत्थ वीरिय अस्थि, णत्थिं सम्वत्थ वीरियं ॥१०॥ छाया--यदिदमौदारिकमाहारकं कर्मगञ्च तथैव च । सर्वत्र वीर्यमस्ति, नास्ति सर्वत्र वीर्यम् ॥१०॥ टीकार्य ----किसी प्रकार प्रमाद के कारण यदि आधाकर्मी आहार ग्रहण कर लिया हो तो वह सर्वथा परठ देना चाहिए, उसका उपभोग नहीं करना चाहिए। यह सिद्धान्त का आदेश हैं। तथापि प्रमाद से ग्रहण किये आधाकर्मी आहार को भोग लिया हो तो भोगने वाला चिकने वम बांधता ही है, ऐसा एकान्तवचन न कहे और चिकने कर्म नहीं बांधता है ऐसा एकान्तवचन भी न कहें ॥८-९॥ 'जमियं ओरालमाहारं' इत्यादि। शब्दार्थ--'जमियं-यदिदं यह जो दिखाई देने वाला 'ओरालंऔदारिकम्' औदारिक शरीर है 'आहारं-आहाकम्' आहारक शरीर है 'च' और 'कम्प्रगं-कार्मण' कार्मण शरीर है 'तहेव य-तयैव च' और 'च' शब्द से वैक्रिय एवं तैजस शरीर है ये पांचों शरीर एकान्ततः - ટીકર્થ–કોઈ પણ પ્રકારથી પ્રમાદના કારણે જે આધાકમિ દોષવાળો આહાર ગ્રહણ કરી લીધું હોય તે તે સર્વથા પરઠવી દે જોઈએ તેને ઉપભે ગ કર ન જોઈએ. આ પ્રમાણે સિદ્ધ તને આદેશ છે. તે પણ પ્રમાદથી પ્રહ કરવામા આવેલ આધાકમિ આહારને ભેગવી લીધો હોય તે ભેગવવાવાળો ચિકણું કર્મ બાંધે જ છે. એ પ્રમાણે એકાન્ત વચન કહેવું ન જોઈએ તથા ચિકણું કર્મ બાંધો નથી, એ પ્રમાણેના એકાત વચન પશુ કહે નહીં લગાવે ૮-૯ 'जमिय ओरालमाहारं' त्यादि शहाथ-'जमिय-यदिद' २ मा मातु 'ओरालं-औदारि कम्' मोहा२ि४ शरीर छ. 'आहार'-आहरकम्' मा २४ शरी२ छे, "च' भने 'कम्मग-कार्मणम्' मधु शरी२ छे, 'तहेव य-तथैव च तमा 'च' शव्या વૈક્રિય તથા તેજસ શરીર છે, આ પાંચે શરીરે એકાન્તતઃ મિત્ર પણ તેથી, Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. म. ५ आचारभुतनिरूपणम् अन्वयार्थ--(जमिय) यदिदं-परिश्यमानम् (ओराल) औदारिकं शरीरम् (आहार) आहारके शरीरम् (च कम्मगं) च-पुनः कार्मणं शरीरम् (तहेव य) तथैव च, च. शब्दाद् वैक्रियतैजसशरीरयोः परिग्रहः, एतानि शरीराणि एकान्ततर नाभिन्नानि कारणभेदात् नवा एकान्ततो भिनानि कारण सेदात, अत एकान्तवचनं न वक्तव्यम्, एवम्-(सक्वत्थ बीरियं अस्थि) सर्वत्र वीर्यमस्ति इत्यपि एकान्त रचनं न वक्तव्यम् (पर्व सव्वस्थ बीरिय नस्थि) सर्वत्र वीर्य नास्ति, इत्यपि, एकान्तपचनं न वक्तव्यम्, एकान्तवचनस्याऽनाचारत्वादिनि, ॥१०॥ भिम भी नहीं है, क्यों की एक ही देश और काल में उपलब्ध होते हैं, और सभी पुद्गल परमाणुओं से निर्मित हैं। अतएव इन के भेद और अभेदके सम्बन्ध में एकान्तवचन करना नहीं चाहिए 'सव्वस्थ, वीरिय: अस्थि-सर्वत्र वीर्य अस्ति' सर्वत्र वीर्य है, अर्थात् सभी पदार्थों में प्रत्येक पदार्थ की शक्ति विद्यमान है, अथवा 'सम्वत्थ वीरियं नथि-सर्वत्र वीर्य नास्ति' सर्वत्र वीर्य विद्यमान नहीं है, ऐसा एकान्त वचन भी नहीं कहना चाहिए ॥गा०१०॥ ____ अन्वयार्थ-यह जो दिखाई देने वाला औदारिक शरीर है, श्राहा रक शरीर है, कार्मण शरीर है और 'च' शब्द से वैक्रिय तथा तैजसः शरीर हैं यह पांचो शरीर एकान्ततः भिन्न भी नहीं है, क्योकि एक ही देश और काल में उपलब्ध होते हैं और सभी पुद्गलपरमाणु ओं से निर्मित हैं। अतएव इनके भेद और अभेद के संबंध में एकान्तवचन नहीं कहना चाहिए । सर्वत्र वीर्य हैं अर्थात् सभी पदार्थों में કેમકે એક જ દેશ અને એક જ કાળમાં ઉપલબ્ધ-પ્રાપ્ત થાય છે. અને બધા જ પુદ્ગલ પરમાણુઓથી બનાવેલ છે. તેથી જ આના ભેદ અને અભે हुन। समयमा सन्त क्यन खा न नये 'सव्वत्थ वीरियं अस्थिसर्वत्र वीर्यमस्ति' ५। पीय छ अर्थात् सा पहामा १२४ पहानी शति २दी छे. या 'सव्यत्य वीरियं नस्थि-सर्वत्र वीर्य नास्ति' मधे શક્તિ વિઘમનિ નથી. એ રીતથી એકાન્ત વચન પણ કહેવા ન જોઈએ. ૧ અન્વયાર્થ–જે આ દેખવામાં આવનારૂં ઔદારિક શરીર છે, આહારક શરીર છે, કામણ શરીર છે, અને ચ શબ્દથી વૈકિય અને તૈજસ શરીર છે, આ પચે શરીર એકા-તત જુદા નથી કેમકે એક જ દેશ અને કાળમાં પ્રાપ્ત થાય છે. અને બધા જ પુલ પરમાણુઓથી નિર્મિત છે તેથી જ તેના ભેઢ અને અભેદને સંબંધમાં એકાન્ત વચન કહેવા ન જોઈએ, Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतासूत्रे टीका- 'जमियं' यदिदम् ' मोरालं'' औदारिकं शरीरम् 'आहार' आहारकञ्च शरीरम् 'हे' तथैव 'कम्मगे च' कर्मवञ्च कार्मणं शरीरम् तत्सर्वमेकमेव इत्यैकान्तवचनं न वक्तव्यम् । न वा परस्परं सर्वया विभिन्न इत्यध्ये कान्तवचन न वक्तव्यम्, अष्टमगाथायाम् आहारसम्व थेऽनाचारो वर्णितः अतः इह गाथायाम् आहारं गृहतः कर्तुः शरीरस्य सम्बन्धैनाचारो वर्ण्यते । शरीरं पञ्चविधम्-औदारिकम् १, वैक्रियम्र, आहारकम् ३, तैजसम् ४, फार्मणम् एतानि सर्वाणे शरीराणि एकरुण्येवेति- 'एकान्तवचनं न वक्तव्यम् कुतः - कारणभेदात् । औदा रिकशरीरस्य कारणम् - उदारपुङ्गलाः । वैकिगशरीरस्य कारणं प्रत्येक पदार्थ की शक्ति विद्यमान है अथवा विद्यमान नहीं है, ऐसा एकान्तवचन भी नहीं कहना चाहिए ॥१०॥ ४९६ 'टीकार्थ- - यह जो औदारिक शरीर है, आहारक शरीर है, कार्मण शरीर है, यह सब एक ही है, ऐसा एकान्तवचन नहीं कहना चाहिए और यह परस्पर भिन्न ही हैं, ऐसा एकान्तवचन भी नहीं कहना चाहिए। आठवी गाथा में आहार के संबंध में अनाचार का वर्णन किया गया था | इस गाथा में आहार ग्रहण करने वाले के शरीर के संबंध में अनाचार का वर्णन किया गया है। शरीर पांच प्रकार के हैं- औदारिक शरीर १, वैक्रिपशरीर २, आहारकशरीर ३, तैजसशरीर ४, कार्मणशरीर ५ ये पांचों शरीर एक रूप ही हैं, ऐसा एकान्तवचन नहीं बोलना चाहिए क्योंकि इनके कारणों में भेद होने से भिन्नता है । औदारिक शरीर उदार या स्थूल બધે જ વી છે અથવા બધા જ પદાર્થીમાં દરેક પદાની શક્તિ વિદ્યમાન છે અથવા વિદ્યમાન નથી. એવું એકાન્ત વચન પણ કહેવુ ન જોઇએ ૧૦ના ટીકા — આ જે ઔદારિકશરીર છે, આહારક શરીર છે, કાણુશરીર છે, આ બધાએ જ છે. એ પ્રમાણે એકાન્ત વચન કહેવું ન જોઈએ અને આ પરસ્પર ભિન્ન જ છે, એ પ્રમાણેના એકાન્ત વચન પણુ કહેવા ન જોઇએ, આઠમી ગ થામાં આહારના સંબંધમાં અનાચારનું વર્ણન કરવામાં આવ્યુ હતુ, અને આ ગાથામા આહાર ચડુણુ કરવાવાળાના શરીરના સુખધમા અનાચારનું વઘુન કરવામાં આવેલ છે. शरीर पथि प्रहारना होय हे लेभडे- मोहारिए शरीर (1) वैठिय शरीर (२) भाडा२४ शरीर (3) तैस शरीर (४) भने अर्भषु शरीर (4) આ પાંચે શરીર એક રૂપ જ છે, એ પ્રમાણે એકાન્ત (નિશ્ચત) વચન કહેવુ' હું જેઈ છે, કેમકે તેમના કારશે!માં ભેદ હૈ,વાથી ભિન્ન પણ છે ઔદારિક f Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९७ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् विक्रियपुद्गलाः, आहारकशरीरस्याहारवर्गणाः पुद्गलाः, तैजसशरीरस्य तेजःपुद्गलाः, कार्मणशरीरस्य कर्मकर्मणाः कारणम् । एवं स्थिते कारणभेदान्न एतेषामेकत्व गवाश्ववत् । नाऽपि सर्वथा भेद एव एतेषां शरीराणाम्, इत्यपि एकान्तवचनं न बक्तव्यम् । एकत्रैवोपलम्भात्, आत्यन्तिकभेदे एतेषां स्थितौ देशकालादिभेदो भवेत्, गृहदारादिवत् । न तु भेदो द्दश्यते-कारणस्य कालादेः । तस्मान्न सर्वथा भेदः किन्तु - कथञ्चिदेतेषां भेदः कथञ्चिदभेदः, इत्येव सर्वत्रानुभवसिद्ध निष्कलङ्को राजमार्गः अत एकान्तभिन्नमेकान्तमभिन्नमिति वचोऽनाचार सेवनमेव । 'सन्वत्थ' सर्वत्र 'वीरिय' वीर्यम् - चलम् 'अस्थि' अस्ति-विद्यते, 'सन्वत्थ' सर्वत्र 'वीरियं' वीर्यम्बकम् 'णस्थि' नास्ति न विद्यते सर्वस्मिन् वस्तुनि सर्वशक्तिर्विद्यते, पुद्गलों से बनता है, वैक्रिय शरीर वैक्रियवर्गणा के पुद्गलों से बनता है, आहारकशरीर का कारण आहारकवर्गणा के पुद्गल है, तैजसशरीर का कारण तेज और कार्मणशरीर का कारण कर्मणा है । इस प्रकार जैसे गौ और अश्व एक नहीं है, उसी प्रकार ये शरीर भी कारणों में भिन्नता होने से एक नहीं हैं। पांचों शरीर सर्वथा भिन्न ही हैं, ऐसा एकान्त वचन भी नहीं कहना चहिए, क्योंकि गृह और दारा के जैसे एक ही जगह पाये जाते हैं। सर्वथा भेद होता तो इनके देश काल आदि में भेद होता । इस प्रकार इनमें सर्वथा भेद भी नही है, परन्तु कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद है । यही अनुभव सिद्ध और निर्दोष राजमार्ग है । ऐसी स्थिति में इन्हें एकान्त भिन्न या एकान्त अभिन्न कहना अनाचार का सेवन करना है । શરીર ઉત્તાર અથવા સ્થૂલ પુદ્ગલેાથી અને છે. વૈક્રિય શરીર, વૈક્રિય વણાના પુદ્ગલેથી મને છે. આહારક શરીરનું કારણુ આહારક વણાના પુદ્ગલેા છે. તેજસ શરીરનું કારણ તેજ અને કાણુ શરીરનું કારણુ કર્માંવગણુા છે. આ પ્રમાણે જેમ ગાય અને ઘેડો એક નથી એજ પ્રમણે આ શરીર પણ કારણેામાં જુદાપણું હાવાથી એક નથી પાંચે શરીર સથા ભિન્ન જ છે. આ પ્રમાણેનુ એકાન્ત વચન–નિશ્ચય વચન પણું કહેવું ન જોઇએ. કેમકે-આ ઘર અને સ્ત્રીની માફક એક જ સ્થળે જોવામાં આવે છે. સવથા ભેદ હાત તા તેઓના દેશ, કાળ વિગેરેમાં ભેદ આવત। આ રીતે તેએમા સČથા ભેદ પણ નથી. પરંતુ કથાચિત્ ભેદ્ર અને થ'ચિત અભેદ્ય છે. આજ અનુભવ સિદ્ધ અને નિર્દેષ રાજમાર્ગ છે. આ સ્થિતિમાં આને એકાન્ત ભિન્ન અથવા એકાન્તે અભિન્ન કહેવુ તે અનાચારતુ' સેવન કરવા જેવુ છે, स० ६३ Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकताले सर्वत्र वस्तुनि सर्वशक्तिनास्तीत्यपि एकान्तवचनं नो वक्तव्यम्, तत्तद्वचनमपि घर्त्ततेऽनाचाराऽऽवरणे । अयमाशयः सांख्पनये-सर्वे पदार्थाः प्रकृतिस्थमूलाः प्रकृतिश्योपादानं समानं सर्वे पामिति कारणगुणस्य सर्व त्रैव सद्भावात् सर्वे सर्वात स्मकाः पदार्थाः। सर्वाऽपि शक्तिः सर्वत्र वर्त्तते । अन्ये च-देशकाळ-स्वभावादि भेदात्स सर्वेभ्यो विभिमा इति एतेषां नये नैका शक्तिः सर्वत्र सिद्धा। अभयमपि-एकान्तवादवचनमेव, अयुक्तं चैत्-अस्माकं नये नयविदाम् । तथारि -यदि सर्वस्य सर्वात्मकन्यं सिध्येत् न सिध्येद् जन्ममरणमुखित्वदुःखिस्वबन्धमोक्षादीनां लौकिकी शास्त्रीया चाऽनुपेक्षणीया व्यवस्था । अतः सर्वथाऽभेदैकान्तो न सर्वत्र सामर्थ्य है, सर्वत्र वीर्य नहीं है, अर्थात् सय वस्तुओं में सर्व शक्तियां विद्यमान हैं अथवा सय में सय शक्तियां नहीं है, ऐसा कहने से भी अनाचार होता है। तात्पर्य यह है कि सांख्यमत के अनुमार समस्त पदार्थों का कारण प्रकृति है। वह सब का उपादान कारण है । उपादान कारण के गुण सभी कार्यों में पाये जाते हैं, अतः सभी पदार्थ सर्वात्मक है, सब में सब शक्तियां विद्यमान हैं। दूसरों का कहना है कि देश, काल स्वभाव का भेद होने से भी पदार्थ सब से भिन्न हैं। इनके मन में एक शक्ति सर्वत्र सिद्ध नहीं है। यह दोनों एकान्न मान्यताएं समीचीन नहीं हैं । यदि सब सर्वात्मक हों तो जन्म, मरण, सुख, दुःख, बन्ध और मोक्ष आदि की लौकिक और शास्त्रीय व्यवस्थाएं, जिनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती, सिद्ध नहीं होती। इस कारण एकान्त अभेदपक्ष બધે જ સામર્થ્ય છે. બધે વીર્ય નથી અર્થાત સઘળી વસ્તુઓમાં બધી જ શક્તિ રહેલી છે. અથવા બધામાં બધી શક્તિ નથી. એ પ્રમાણે કહેવું ન જોઈએ કેમકે એમ કહેવાથી પણ અનાચાર થાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે-સાંખ્યમત પ્રમાણે દરેક પદાર્થોનું કારણ પ્રકૃતિ છે. તે બધાનું ઉપાદાન કારણ છે ઉપાદન કારના ગુણ બધા જ કાર્યોમાં મળી આવે છે. તેથી બધા જ પદાર્થો સર્વાત્મક છે. બધામાં બધી જ શક્તિ રહેલી છે. બીજાઓનું કહેવું છે કે–દેશ, કાળ, અને સ્વભાવને ભેદ હોવાથી બધા જ પદાર્થો બધાથી જુદા છે. તેઓના મત પ્રમાણે એક શક્તિ બધે જ સિદ્ધ નથી. આ બન્ને એકાન્ત માન્યતાઓ બરોબર નથી. જે બધાજ સર્વામક હોય, તે જન્મ, મરણ, સુખ, દુઃખ, બન્ધ અને મોક્ષ વિગેરેની લૌકિક અને શાસ્ત્રીય વ્યવસ્થાઓ કે જેની ઉપેક્ષા કરી શકાય તેમ નથી. તે સિદ્ધ થતી નથી. તે કારણથી એકાન્ત અભેદ પક્ષ ખબર નથી. એકાન્ત Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् ४९९ युक्तियुक्तः। सर्वथा-भेदपक्षेऽपि-'अयमेव दुष्टो दोष आपद्येत । तस्मात्-प्रमेयत्वज्ञेयस्वादिना सर्वेषां सर्वात्मकत्वं कथञ्चिदभेदः । तत्तद्रूपेण देशकालाद्यवस्थाभेदेन च कथञ्चिभेद इत्येव मनोरमः पन्थाः ॥१०॥ मूलम्-एएहिं दोहिं ठाणेहिं, ववहारो ण विज्जइ। एएहिं दोहि ठाणेहि, अणायारं तु जाणए ॥११॥ णस्थि लोए अलोए वा, नैवं सन्नं निवेसए । अस्थि लोए अलोए वा, एवं सन्नं निवेसए ॥१२॥ छाया-एताभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्यां व्यवहारो न विद्यते । एताभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्या मनाचारन्तु जानीयात् ॥११॥ नास्ति लोकोऽलोको वा, नैवं संज्ञां निवेशयेत् । अस्ति लोकोऽलोको वा एवं संज्ञां निवेशयेत् ॥१२॥ ठीक नहीं है । एकान्त भेदपक्ष में भी यही दुष्ट दोष आता है। अतः प्रमेयत्व, ज्ञेयत्व आदि सामान्य धर्मों की अपेक्षा सब में कथंचित अभेद भी है । अवस्था भेद से कथञ्चित् भेद भी है। इस प्रकार कथंचित् भेदाभेद पक्ष ही सत्य मार्ग है। दोनों एकान्तों का सेवन करना अनाचार है ॥१०॥ 'एएहि दोहि ठाणेहि' इत्यादि। शब्दार्थ-'लोए-लोकः' लोक 'नत्थि-नास्ति' नहीं है और 'अलोएअलोकः' अलोक नही हैं एवं-एवम्' ऐसी 'सन्न-संज्ञा' बुद्धि 'ण णिवेसिए-न निवेशयेत्' नही रखनी चाहिए, किन्तु 'लोए अलोए वा. अस्थि-लोको अलोको वा अस्ति' लोक अथवा अलोक विद्यमान है -ભેદ પક્ષમાં પણ આજ પ્રમાણે દુષ્ટ દેષ આવે છે. તેથી પ્રમેય પણું, યપણ, વિગેરે સામાન્ય ધર્મોની અપેક્ષાએ બધામાં કથંચિત્ અભેદ પણ છે. અવસ્થા ભેદથી કથંચિત્ ભેદ પણ છે આ રીતે કથંચિત ભેદભેદ પક્ષ જ સત્યમાર્ગ છે. અને એકાન્ત પક્ષોનું સેવન કરવું તે અનાચાર છે. ૧૦ 'एएहिं दोहि ठाणेहि' त्या शहाथ-'लोए-लोकः' at 'नस्थि-नास्ति' नथी भने 'अलोए-अलोक' wa४ ५४ 'नथि-नास्ति' विधमान नथी. 'एवं-एवम्' मेवी 'सन्न-संज्ञाम्' भुद्धि ‘ण णिवेसए-न निवेशयेत्' । न न. ५२तु 'लोए-लोकः' ets 'अस्थि-अस्ति' विद्यमान छे. 'वा' अथ'अलोए-अलोकः' भी Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० सूत्रकृतास्ते अन्वयार्थः-(ढोए) लोकश्चतुर्दशरज्ज्वात्मकः (नस्थि) नास्ति, एवम् (अलोए) अलोको लोकभिन्ना नास्ति (एव) एवमीदृशीम् (सन्न) संज्ञां-बुद्विम् (ण णिवेसए) न निवेशयेत्-न कुर्यात् किन्तु (लोए अलोए वा) लोकोऽलोको वा (अत्थि) अस्तिविद्यते (एव) एवमीहशीम (सन्नं) संज्ञा-बुद्धिम् (निवेसए) निवेशयेत्-कुर्यादिति। टीका-भेदाऽभेदपक्षयोव्र्यवहारस्य समाधातुमशक्यत्वात् सर्वथा भेदाश्रयः हिमप अनाचारसेवनम् । सर्वथाऽभेदपक्षोऽपि अनाचार सेवनमेव । शेषमतिरोहिताथै व्याख्यातञ्च ॥११॥ 'लोए' लोकश्चतुर्दशरजयात्मकः-जीवाऽजीवादीनामाधारस्थानम् 'अलोए .वा' अलोको वा लोकातिरिक्तोऽलोकः, 'नत्यि' नास्ति एवं' एवमीहशीम 'सन्' संज्ञाम् ‘ण णिवेसए न निवेशयेत्-नास्ति लोको नास्त्यलोको वा ईधी बुद्धि न कुर्यात । किन्तु-'लोए अलोए वा लोकोऽलोको वा 'अस्थि' अस्ति-विद्यते एवं' एवम-ईशीम् 'सन्न' संज्ञा-बुद्धिम् 'निवेसए' निवेशयेत-लोकाऽलोकाठमाव. विषयकवौद्धवासनावासितां बुद्धि परित्यज्य तयोविविषयिणी बुद्धिमेव कुर्यात् । 'एवं-एवम्' इस प्रकारकी 'सन्नं-संज्ञाम्' बुद्धि 'निवेसए-निवेशयेत्' रखनी चाहिए ।११ १२॥ ___ अन्वयार्थ--लोक और अलोक नहीं है, ऐसी बुद्धि नहीं रखनी चाहिए, किन्तु लोक है और अलोक है इस प्रकार की बुद्धि रखनी चाहिए ॥११-१२॥ टीकार्थ-चौदह रज्जु परिमाणवाला तथा जीव अजीव आदि द्रव्यों का आधारस्थान लोक कहलाता है । लोक से अतिरिक्त जो आकाश है वह अलोक है । यह लोक और अलोक नहीं है, ऐसा नहीं समझना चाहिए, किन्तु लोक और अलोक है, ऐसी बुद्धि रखनी चाहिए । लोक एवं अलोक के अभाव के विषय में बौद्धों की जो मान्यता है, उसका पत्थि-अस्ति' विद्यमान छे. 'एव' 24। प्रमाणे नी 'मन्नं-संज्ञाम्' भुद्धि 'निवेसए -निवेशयेत्' रामवी स. ॥११-१२॥ અન્વયાર્થ–લેક અને અલક નથી એવી બુદ્ધિ રાખવી ન જોઈએ પરંતુ લોક છે અને અલેક પણ છે, આ પ્રકારની બુદ્ધિ રાખવી જોઇએ. ૧૧-૧૨ ટીકા–ચૌદ રાજુ પરિમાણ-પ્રમાણવાળા તથા જીવ અજીવ વિગેરે દ્રનું આધાર સ્થાન લેક કહેવાય છે. તેથી અતિરિક્ત જે આકાશ છે, તે અલેક છે. આ લેક અને અલેક નથી. તેમ સમજવું ન જોઈએ. પરંતુ લોક અને અલેક છે, તેવી બુદ્ધિ ધારણ કરવી જોઈએ. લેક અને અલકના અભાવના સંબંધમાં બૌદ્ધોની જે માન્યતાઓ છે, તેને ત્યાગ કરીને તેના Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् तन्म तस्वीकारे सर्वलोकमसिद्धसिद्धाऽबाधितव्यवस्थायाः समर्थयितुमशक्यत्वात् । अवमाशय:-'सर्वशून्यतावादिविवादिमते यथा स्वप्ने परिदृश्यमानाः पदार्थाः न सत्याः, अपि तु-मिथ्याभूताः । तया-जायदादि समयेऽपि उपल-पमाना मिथ्यैत्र । यतो हि-कारणवलेन पदार्थाः प्रतिभावन्ति, कारणं परमाणः तस्यैव सत्ता न सिद्धयति । अतीन्द्रियत्वात्, विचार्यमाणे स्वरूपव्यवस्थित्यभावात् । अत एवोक्तम् 'यथा यथा च चिन्त्यन्ते विशीयन्ते तथा तथा। यदेतत्स्वयमथै यो, रोचते तत्र केवलम् ॥१॥ स्याग करके उनके सद्भाव को स्वीकार करना चाहिए। उनके मत को स्वीकार कर लेने पर समस्त लोक में प्रसिद्ध, प्रमाण से सिद्ध और व्यवहार से अबाधित जो व्यवस्था है, उसका समर्थन नहीं किया जा सकता। आशय यह है-जैसे स्वप्न में दिखाई देने वाले पदार्थ सत्य नहीं किन्तु मिथ्या होते हैं, उसी प्रकार जाग्रत् दशा में प्रतीत होने वाले पदार्य भी मिथ्या ही है, ऐसा शून्यवादी का मत है । उनका कथन है कि कारण के होने पर ही पदार्थ की सत्ता हो सकती है। कारण परमाणु माने जाते हैं और उनकी सत्ता ही नहीं है, क्यों कि वे इन्द्रियों से अगोचर हैं और विचार करने पर उनका स्वरूप सिद नहीं होता है। कहा भी है-'यथायथा च चिन्त्यन्ते' इत्यादि। ' 'संसार के पदार्थों के विषय में ज्यों ज्यों विचार किया जाता है, स्यों त्यों वह असिद्ध होते जाते हैं, उनका अभाव सिद्ध होता जाता સદ્ભાવને સ્વીકાર કરે જોઈએ. તેમના મતને સ્વીકાર કરવાથી સઘળા લેકમાં પ્રસિદ્ધ પ્રમાણથી સિદ્ધ અને વ્યવહારથી અમાધિત જે અવસ્થા છે, તેનું સમર્થન કરવામાં આવતું નથી. કહેવાનો આશય એ છે કે- જેમ સ્વપ્નમાં દેખવામાં આવતે પદાર્થ સાચે નથી પરંતુ મિથ્યા હિય છે. એ જ પ્રમાણે જાદવસ્થામાં દેખવામાં આવનાર પદાર્થ પણ મિષા જ છે. આ પ્રમાણેને શૂન્ય વાદીને મત છે. તેઓનું કહેવું છે કે-કારણના અસ્તિત્વમાં જ પદાર્થની સત્તા હોઈ શકે છે. કારણ પરમાણુ માનવામાં આવે છે અને તેની સત્તા જ નથી કેમકે–તેઓ ઇન્દ્રિયેથી અગેચર-ન દેખાય તેવા છે. અને વિચાર કરવાથી તેનું સ્વરૂપ सिद्ध थतु नथी. युं ५५ छे 3-'यथा यथा च चिन्त्यन्ते त्या સંસારના પદાર્થોના સંબંધમાં જેમ જેમ વિચાર કરવામાં આવે, તેમ તેમ તે અસિદ્ધ થતા જાય છે. તેને અભાવ સિદ્ધ થતો જાય છે. જ્યારે Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ सूत्रकृताङ्गसत्रे . अपिच-'युद्या विविध्यमानानां स्वभावो नाऽवधार्यते । अतो निरभिलप्यास्ते निःस्वभावाश्च देशिताः ॥१॥ इति एवन्ते लोकात्मकाऽशोकात्ममार्थयोरमा व्यावर्णयन्ति । तदेतन्मतं न सम्यक् । सर्वाऽनु भयसिद्धार्थक्रियासमर्थाऽबाधितार्थानां वाङ्मात्रेण निराकर्तुमशक्यस्वादिति ॥१२॥ मूलम्-णत्थि जीवा अजीवा वा जेवं सन्नं निवेसए । अस्थि जीवा अजीवा वा एवं संन्नं निवेसए ॥१३॥ छाया- न सन्ति जीवा अनीवा वा नैवं संज्ञां निवेशयेत् । सन्ति जीवा अजीवा वा एवं संज्ञां निवेशयेत् ॥१३॥ हैं । जब पदार्थों को स्वयं ही यह रुचता है तो हम क्या करें ? और भी कहा है-'बुद्धया विविच्यमानानाम्' इत्यादि। 'जय पदार्थों का बुद्धि से विवेचन करते हैं तो उनका कोई स्वभाव निश्चित नहीं होता। इसी कारण हमने उन्हें अवक्तव्य और निरस्वभाव कहा है।' इस प्रकार शून्यवादी लोक और आलोकरूप पदार्थों का अभाव कहते हैं, किन्तु उनका यह मत ठीक नहीं है । पदार्थों से 'अर्थक्रिया होती है, यह सबके अनुभवसे सिद्ध है, अतएव अर्थक्रिया से सिद्ध अबाधित पदार्थों का वचन मात्र से निषेध नहीं किया जा सकता।११-१२॥ 'णस्थि जीवा' इत्यादि। शब्दार्थ--'जीवा-जीवाः' जीव अथवा 'अजीवा-अजीवा' अजीव 'णस्थि-न सन्ति' नहीं है एवं-एवम्' इस प्रकार की 'सन्न-संज्ञाम्' પદાર્થોને જ એ ગમે છે, તે અમે શું કરીએ ? બીજું પણ કહ્યું છે કે'बुध्या विचिन्त्यमानानाम्' त्यहि જ્યારે પદાર્થોનો વિચાર બુદ્ધિથી કરવામાં આવે તે તેને કોઈ પણ સ્વભાવ નિશ્ચિત થતું નથી. તેજ કારણથી અમે તેને અવક્તવ્ય અને નિઃ સ્વભાવ–સ્વભાવ વગરને કહેલ છે. આ પ્રમાણે શૂન્યવાદી, લેક અને અલેક રૂપ પદાર્થોને અભાવ કહે - છે, પરંતુ તેઓનું આ કથન બરોબર નથી. પદાર્થોથી અર્થરિયા થાય છે, આ બધાના અનુભવથી સિદ્ધ વાત છે. તેથી જ અર્થ ક્રિયાથી સિદ્ધ અબાધિત પદાથીને વચન માત્રથી નિષેધ કરવામાં આવી શકતો નથી. ૧૧-૧૨ Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् ____ ५३ अन्वयार्थः-(जीवा) जीवा उपयोगलक्षगाः तथा-(अजीवा) अजीग:-धर्मा. धर्माकाशपुद्गलाः (णस्थि) न सन्ति-न विद्यते (एवं) एवम्-ईदृशीम् (सन्न) सज्ञाबुद्धिम् (ण निवेसए) न निवेशयेत्-न कुर्याद किन्तु (अस्थि जीवा अजीवा वा) सन्ति जीवा अजीदा वा (एवं) एवम्-ईदृशीम् (मन्न) संज्ञाम्-बुद्धिम् (निवेसए) निवेशयेत्-कुर्यात् ॥१३॥ 1, टीका-'जीवा अजीवा वा णस्थि' जीवा उपयोगलक्षणाः, अनीका स्तर भिन्ना धर्माऽधर्माकाशपुद्गलाः 'णस्थि' न सन्ति एवं' एवम् ईदृशीम् 'सन्न' संज्ञा बुदिम् (ण) नैव 'निवेसए' निवेशयेत्-कुर्यात् , नास्ति जीवादिपदार्थ एवं बुद्धि नैव-कथमपि कुर्यात् । किन्तु-'जीवा अजीवा वा थत्यि' जीवा अनीवा वा सन्ति सज्ञा-बुद्धिको 'ण णिवेसए-न निवेशयेत्' धारण नहीं करना चाहिए किन्तु 'अस्थि जीवा अजीवा वा-सन्ति जीवा अजीवा वा' जीव हैं और अजीव हैं एवं-एवम्' ऐसी 'सन्न-सज्ञा' बुद्धि को 'निवेसए-निवेशयेत्' धारण करना चाहिए |गा०१३॥ , · अन्वयार्थ--जीव नहीं हैं अथवा अजीव नहीं हैं, इस प्रकार की संज्ञा धारण नहीं करना चाहिए, किन्तु जीव हैं और अजीव हैं, ऐसी संज्ञा धारण करना चाहिए ॥१३॥ टीकार्थ-उपयोग लक्षण वाले जीवों का अस्तित्व नहीं है अथवा जीव से भिन्न धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, पुद्गल और काल रूप अजीवों का अस्तित्व नहीं है, इस प्रकार की बुद्धि नहीं 'णस्थि जीवा' त्यादि शहाथ-'जीवा-जीवा' ७१ अथवा 'अजीवा-अजीवाः' 480 'णस्थि-न सन्ति' नथी. 'एवं-एवम्' मा प्रभानी 'सन्न-संज्ञां' सज्ञा मुद्धिन ‘ण णिवे सए-न निवेशयेत्' धा२१ ४२वी न न . ५२' अस्थि जीवा अजीवा वा -सन्ति जीवा अजीवा-वा' ७१ छ, अथवा म छे, 'एवं-एवम्' मेवी सन्न-संज्ञाम्' संज्ञा मुद्धिन 'निवेसए-निवेशयेत्' धार ४२वी न . ॥१३॥ અન્વયાર્થ-જીવ નથી. અથવા અજીવ નથી. આ પ્રકારની સંજ્ઞા ધારણ કરવી ન જોઈએ. પરંતુ જીવ છે, અને અજીવ છે. એવી સંજ્ઞા ધારણ કરવી જોઈએ. ૧૩ ટીકાર્થ–ઉપગ લક્ષણવાળા જીનું અસ્તિત્વ નથી. અથવા જીવથી ભિન્ન ધર્માસ્તિકાય, અધમસ્તિકાય આકાશ, પુદગલ, અને કાળ રૂપ અજીવેનું અસ્તિત્વ નથી. આવા પ્રકારની બુદ્ધિ રાખવી ન જોઈએ. પરંતુ જીવ છે, અને અજીવ છે. તેવું સમજવું જોઈએ, ચાર્વાક મતના અનુયાયી શરી Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ सूत्रकृतागले 'एवं सन्न' एवम्-ईदृशी संज्ञां बुद्धिम् 'निवेसए निवेशयेत्-कुर्यादित्यर्थः । चावाकमताऽनुयायिनः अस्ति शरीरादि व्यतिरिक्तो जीव इति नानुमन्यन्ते । किन्तुशरीराकारपरिणत भूतसंघातस्वरूप एव जीव इति । एवं ब्रह्माद्वैतवादी वत्ति, यदयं समस्तोऽपि प्रपञ्चः आत्मनो विवर्तरूपः । अतो न आत्मव्यतिरिक्तं किमपि पस्तुजातं विद्यते, आत्मैव एका परमार्थः सन् । एतदुभयमतं न सम्यक्-इवि प्रकृतगाथया सूत्रकारो वक्ति-'णस्थि' इत्यादि । अयमाशय:-चैतन्यं न भूतमात्रस्य गुणः सम्भवति तथात्वे सति भूनाऽऽरब्ध घटादावपि चैतन्यमु लभ्येत । नत्वे भवति तस्माच्चैतन्यं न गुणभूता, किन्तु-यस्य स गुणः स एव स्वतन्त्रोऽनादि रखना चाहिए, परन्तु जीव हैं और अजीव हैं, ऐसा समझना चाहिए। चार्वाक मत के अनुयायी शरीर से भिन्न जीव का अस्तित्व नहीं मानते। उनका कथन है कि शरीर की आकृति में परिणत हुए पृश्वी आदिभूतों के समूह से ही चैतन्य की उत्पत्ति हो जाती है-जीव की पृथक कोई सत्ता नहीं है । इससे विपरीत ब्रह्मादैतवादी की मान्यता ऐसी है कि जगत् का यह सारा प्रपंच (फैलाव) आत्मा का ही स्वरूप है। आस्मा से भिन्न कोई अजीव पदार्थ नहीं है । एक मात्र आत्मा ही परमार्थ है। सूत्रकार का कथन है कि यह दोनों मन्तव्य सत्य नहीं हैं! आशय यह है-चैतन्य भूतों का धर्म होता तो भूतों से निर्मित घट आदि में भी चतन्य की उपलब्धि होती। मगर ऐसा होता नहीं है, अतएव चैतन्य भूतों का गुण नहीं है । किन्तु जिसका वह गुण है वही जीव कहलाता है और वह भूतों से भिन्न तथा अनादि है। રથી ભિન્ન જીવનું અસ્તિત્વ માનતા નથી. તેઓનું કથન છે કે-શરીરની આકૃતિમાં પરિણત થયેલા પૃથ્વી વિગેરે મહાભૂતોના સમૂહથી જ ચૈતન્યની ઉત્પત્તિ થઈ જાય છે. જીવની જુદી કઈ પ્રકારની સત્તા નથી. તેનાથી ઉલટા બ્રહ્મા-દ્વૈતવાદીની માન્યતા એવી છે કે-જગતને આ સમગ્ર વ્યવહાર (ફેલાવ) આત્માનું જ સ્વરૂપ છે આત્માથી જૂદે કઈ પણ અજીવ પદાર્થ નથી, કેવળ આતમાં જ પરમાર્થ છે. સૂત્રકારનું કથન છે કે આ બંને પ્રકારના મંતવ્યો સત્ય નથી. કહેવાનો આશય એ છે કે–ચૈતન્ય ભૂતનો ધર્મ થઈ શકતું નથી જે તે ભૂતોને ધર્મ હેત તે ભૂતોથી બનાવવામાં આવેલ ઘટ, વિગેરેમાં પણ ચેતન્યની પ્રાપ્તિ થાત જ પરંતુ તેવું થતું નથી, તેથી જ ચૈતન્યભૂતેને ગુણ નથી પરંતુ જેને તે ગુણ છે તે જીવ કહેવાય છે અને તે ભૂતોથી ભિન્ન તથા અનાદિ છે, Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका द्वि शु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् ५०५ जीव इति । तथा-वेदान्तिमतमपि न समीचीनम् -यत:-यतः समस्याऽऽन्मम भवत्वे जगतो विचित्रता न स्यात, एकमेक एन यधाऽऽता भवेचदा कधिदद:-कश्चिन्मुक्त:-कश्चित्मुखी-कश्चिदुःखी-इत्यादि व्यास्था सर्वलोके सर्वाऽनुभवसिद्धा न व्यवस्थिवा स्यात् । अतो जीना अजीवाश्च सन्तीति स्वीकर्तव्यमेव ॥१३॥ , मूलम्-पत्थेि धम्म अधम्मे वा गैवं सन्नं णिवेसए। ' अत्थिं धम्म अधन्मे वा एवं सन्नं णिवेसए ॥१४॥ . . छाया-नास्ति धर्मोऽधर्मों वा नैवं संज्ञां निवेशयेत् । __ अस्ति धर्मोऽधर्मों वेत्येवं संज्ञां निवेशयेत् ॥१४॥ इसी प्रकार वेदान्तियों का मन भी समीचीन नहीं है । क्यों कि समस्त पदार्थ यदि एक ही आत्मा से उत्पन्न हुए होते तो उनमें परस्पर विचित्रतान होती इसके सिवाय यदि आत्मा एक ही होतानो कोई बद्ध होता है, कोई मुक्त, कोई सुखी और कोई दुःखी, इत्यादि व्यवस्था, जो सभी के अनुभव से सिद्ध है, यह न होती। अतएव जीवों और अजीवोंदोनों का ही अस्तित्व स्वीकार करना चाहिए । यही युक्तिसंगत है ।।१३।। 'थि धम्मे' इत्यादि। शब्दार्थ-थि धम्मे अधम्मे वा-नास्ति धर्षोऽधर्मो वा' धर्म नहीं है और अधर्म नहीं है ‘णेवं सन्नं निवेखए-नैव संज्ञा निवेशयेत्' इस प्रकार की संज्ञी-बुद्धि धारण न करे किन्तु 'अस्थि धम्मे अधम्मे वा-अस्ति धर्मोऽधर्मों वा धर्म है और अधर्म भी है 'वं सन्नं निवेसए'-एवं संज्ञा निवेशयेत्' ऐसी संज्ञा-बुद्धि धारण करे । ॥१४॥ આ પ્રમાણે વેદાન્તિને મત પણ બરોબર નથી. કેમકે-સઘળા પદાર્થો જે એક આત્માથી જ ઉત્પન્ન થયેલા હતા તે તેમાં પરસ્પર વિચિત્રપણું ન થાત આ શિવાય જે આત્મા એકલો જ હોત તે કઈ બદ્ધ હોય છે, તેમ કઈ મુક્ત હોય છે કેઈ સુખી હે ય છે, તે કઈ દુઃખી હોય છે. વિગેરે વ્યવસ્થા કે જે દરેકના અનુભવથી સિદ્ધ છે, તે હેત નહીં તેથી જ જીવો અને અજી-બનેનું અસ્તિત્વ સ્વીકારવું જોઈએ એજ યુક્તિ સ ગત છે. ૧૩ 'णत्यि धम्मे' त्या - शहाथ --'णस्थि धम्मे अधम्मे वा-नास्ति धर्मोऽअधर्मो वा' ध नथी, सन अपम ५५ नथी ‘णेवं सन्न निवसए-नैव संज्ञां निवेशयेत्' मावा Al२नी संज्ञा (भुद्धि) घार ३२वी नडी पर 'अस्थि धम्मे अधम्मे वा-अस्ति धर्मोऽधो वा' धर्म भने अधम छ. 'एवं सन्न' निवेमए-एवं संज्ञा निवे. शयेत्' से प्रभारूनी संज्ञा (मुद्धि) थार५ ४२वी . ॥१४।। Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '५०६ सत्रहतारने अन्वयार्थ:-(पत्थि धम्मे अधम्मे वा) नास्ति धर्मोऽधर्मों वा (णेव सन्न णिवेसए) नवं संज्ञाम्-बुद्धि निवेशयेत्-कुर्यात् किन्तु (अस्थि धम्मे अधम्मे वा) अस्ति विद्यते धर्माऽधौं वा (एवं सन्नं णिवेसए) एवमीदृशीं संज्ञा 'घुद्धि निवेशयेतू-कुर्यादिति ॥१४॥ ___टीका-''धम्मे' धमः 'अधम्मे वा अधौं वा 'णत्यि' नास्ति 'एवं' अनेन प्रकारेण 'सन्न' संज्ञाम्-मतिम् ‘ण णिवेसए' न निवेशयेत् । अर्थात् धर्माऽधर्मों नस्तः। किन्तु-कालस्वभावनियतीश्वरादिकारणादेव जगतः सम्भव इति मत्वा धर्माऽधर्मयोः सत्वं वारयन्ति केचन वादिनः । तन्न सम्यक्, यतो धर्माऽधर्मयोरकारणत्वे जगतो वैचित्र्यं न सिध्येत् । दृश्यते हि लोके एकस्मिन्नेव काले जायमानानामनेकेषां मध्ये केचन मुभगाः केचन दुर्भगा भवन्ति, केचन सुखिनः - अन्वयार्थ-धर्म नहीं है अथवा अधर्म नहीं है, इस प्रकार की संज्ञा (बुद्धि) धारण न करे किन्तु धर्म और अधर्म है, ऐसी संज्ञा (बुद्धि) धारण करे ॥१४॥ टीकार्थ--धर्म का अस्तित्व नहीं है अथवा अधर्म का अस्तित्व नहीं है, ऐसी बुद्धि न करे, परन्तु ऐसी बुद्धि धारण करे कि धर्म "और अधर्म दोनों का अस्तित्व है। कोई कोई वादी काल, स्वभाव, नियति या ईश्वर आदि कारणों से ही जगत् की उत्पत्ति मानकर वे धर्म अधर्म के अस्तित्व का निषेध करते हैं, किन्तु यह सत्य नहीं है, क्योंकि धर्म और अधर्म को 'यदि कारण न माना जाय तो जगत् में जो विचित्रता दिखाई देती है, वह सिद्ध नहीं हो मरुती । इस लोक में एक ही काल में उत्पन्न અન્વયાર્થ– ધર્મ નથી અથવા અધ પણ નથી. આ પ્રકારની સંજ્ઞા બુદ્ધિ ધારણ ન કરવી. પરંતુ ધર્મ અને અધર્મ છે તેવી સંજ્ઞા ધારણ કરે. ૧૪ टीथ --मनु मस्तित्व नथी, अया मधमन-मस्तित्व नथा. આ પ્રમાણેની બુદ્ધિ રાખવી નહી પરંતુ ધર્મ અને અધર્મ બને છે, તે પ્રમાણેની બુદ્ધિ ધારણ કરવી. કઈ કઈ પરમતવાદી કાલ, સ્વભાવ, નિયતિ અથવા ઇશ્વર વિગેરે કારણેથી જ જગની તેઓ ઉત્પત્તી માનીને ધર્મ અને અધર્મના અસ્તિત્વને નિષેધ કરે છે. પરંતુ આ સત્ય નથી કેમકે ધર્મ અને અધર્મને જે કારણ માનવામાં ન આવે તે જગતમાં જે વિચિત્રપણુ દેખવામાં આવે છે, તે સિદ્ધ . થઈ શકત નહીં. આ લેકમાં એક જ કાળમાં ઉત્પન્ન થવાવાળા મનુષ્યમાં Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्थबोधिनी टीका fद्व. श्रु. अ. ५ आचारयुतनिरूपणम् ५०७ केचन दुःखिनो भवन्ति । एतादृशं वैचित्र्य धर्माऽधर्मयोः सत्वे सत्येव समर्थयितुं शक्येत, नाऽन्यथा । यद्यपि कारणं कालादिरपि भवति, तथापि धर्माऽधर्म सहकृतानामेव कालादीनां कारणत्वस्वीकारात् । तदुक्तं शास्त्रे - 'न हि कालादिर्दितो केवळएहितो जायए किंचि चि । इह मुग्गरंधणाइविता सच्चे समुदिया हेऊ' ॥ इति ॥ अतो धर्माधर्मो न स्वः, इति कथमपि विवेकिभिः स्वीकर्तुं न शक्यते ।' अत - 'धम्मे' धर्मः श्रुतचारित्राख्य आत्मपरिणामः । 'अधम्मे' अधर्मः मिथ्यात्वाऽविरतिममादकषाययोगाः आत्मपरिणामाः अधर्मपदवाच्याः । 'अत्थि' सन्ति 'एवं सन्नं णिवेसर' इति संज्ञां निवेशयेत् कुर्यात् । अर्थात् कुशास्त्रपरिशीलनजनितमति परि यज्य शास्त्रजनितमति धारयेत् 'धर्माधर्मौ स्तः' एतादृशीमिति ||१४|| होने वाले मनुष्यों में कोई भाग्यवान् या कोई बहुत सुन्दर होते हैं और कोई अभागे या कुरूप होते हैं, कोई सुखी और कोई दुःखी होते हैं । इस प्रकार की विसदृशता धर्म अधर्म के होने पर ही सिद्ध हो सकती है; अन्यथा नहीं यद्यपि काल आदि भी यथायोग्य कारण होते हैं, तथापि धर्म और अधर्म से सहकृत हो कर ही वे कारण हो सकते हैं। शास्त्र में कहा है-'न हि कालादिहितो' इत्यादि । अकेले काल आदि से कोई भी कार्य उत्पन्न नहीं हो सकता। मूंग का पकना भी अकेले काल आदि को कारण मानने पर सिद्ध नहीं हो सकता । अतएव धर्म अधर्म काल आदि सब मिलकर ही कारण होते हैं। इस प्रकार विवेकी जन किसी भी प्रकार स्वीकार नहीं कर सकते कि धर्म और अधर्म का अस्तित्व नहीं है अतएव धर्म अर्थात् श्रुत કાઈ ભાગ્યવાન્ અને સુંદર હાય છે. તથા કેઈ અભાગીયા અને કદરૂપા હ્રાય છે. કાઇ સુખી અને કાઈ દુઃખી હાય છે. આવા પ્રકારનું વિષમપણુ ધર્મ અને અધમ હાય તાજ સિદ્ધ થાય છે. અન્યથા નહીં. જોકે-કાલ વિગેરે પણ યથાયેાગ્ય કારણુ હાય છે. તે પશુ ધર્મ અને અધર્મથી સહેકૃત થઈને ४ तेथे अरथ । राडे हे शास्त्रमां है--' न हि कालादिहिंतो' छत्याहि એકલા કાલ વિગેરેથી કાઈ પણુ કાર્ય સિદ્ધ થઈ શકતુ નથી. ‘મગ પકવવાનુ પશુ એકલા કાળ વિગેરે માનવાથી સિદ્ધ થતું નથી. તેથી જ ધમ અધમ કાલ વિગેરે બધા મળીને જ કાણુ અને છે. આ રીતે વિવેકી મનુષ્યા કાઈ પણ એક પ્રકારના સ્વીર- કરી શકતા નથી. કે–ધમ અને અધર્મ તુ અસ્તિવ નથી. તેથી જ ધ'નું અસ્તિત્વ અર્થાત્ Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ सूत्रकृतान सूत्रे मूलम् णत्थि बंधे व मोक्खे वा जैवं सन्नं सिए । अस्थिबंधे व मो वा एवं सन्नं पिवेसेंए ॥१५॥ छाया - नाहित बन्धो वा मोक्षो वा नैव संज्ञां निवेशयेत् । अस्ति वो वा मोक्षो वेत्येवं संज्ञां निवेशयेत् ॥ १५॥ अन्वयार्थः– (गत्थि बंधे व नास्ति बन्धो वा कर्मपुद्गलानां जीवेन सहसम्बन्धः (ण ओोक्खे चा) न मोक्षो वा-मोक्षो बन्धनविश् लेषरूपः (पणे सन्नं निवेस ए) एवं चारित्र रूप आत्मपरिणाम अव है तथा मिथ्यात्व अविरति, "प्रमाद, कषाय और योग रूप अधर्म का अस्तित्व भी अवश्य है । ऐसा समझना चाहिए । अर्थात् कुशास्त्रों के परिशीलन से उत्पन्न हुई कुमति को त्याग कर धर्म और अधर्म है, ऐसी शास्त्र जनित सद्बुद्धि को ही धारण करना चाहिए || १४ || > .' णत्थि बंधे व मोक्खे चा' इत्यादि । शब्दार्थ 'स्त्रि बंधे व नास्ति बन्धो वा' बन्न अर्थात् कर्मपुलों का जीव के साथ सम्बन्ध नहीं है 'ण मोक्खो वा न मोक्षो वा' और मोक्ष भी नहीं है 'णेवं सन्नं निवेसए-नैवं संज्ञां निवेशयेत्' इस प्रकार की बुद्धि धारण न करे किन्तु 'अस्थि बंधे व मोक्खे वा अस्ति बन्धो वा मोक्षो वा' बन्ध है और मोक्ष है 'एवं सन्नं निवेस ए- एवं संज्ञां निवेशयेत' ऐसी बुद्धि धारण करे | गा० १५ || 'अन्वयार्थ---बन्ध अर्थात् कर्मपुद्गलों का जीव के साथ सम्बन्ध "नहीं है और मोक्ष भी नहीं है, इस प्रकार की बुद्धिं वारण न करे किन्तु यन्ध है और मोक्ष है ऐसी वृद्धि धारण करे || १५ || 1 - શ્રુત અને ચારિત્ર રૂપ આત્મપરિણામ અવશ્ય છે, તથા મિથ્યાત્વ, અવિરતિ, પ્રમાદ, કષાય, અને ચેાગરૂપ અધમનું અસ્તિત્વ પણ અવશ્ય છે જ તેમ સમજવું જોઇએ. અર્થાત્ કુશાસ્ત્રઓના પરિશિલનથી. ઉત્પન્ન થયેલી કુમતિને છેડીને ધર્મ અને અધમ છે, એવી શાસ્રથી ઉત્પન્ન થવાવાળી સત્બુદ્ધિને જ ધારણ કરવી જોઈ એ. ૫૧૪ ' णत्थि बधे व मोक्खे वा' त्याla शब्दार्थ---' णत्थि वंबे व नास्ति बंधो वा' 'ध अर्थात् उर्भयुगसानो साथैना स'मध नवी. 'ण मोक्खो वो न मोक्षो वा' ने मोक्ष यशु नथी. 'णेवं सन्नं निवेसए-नैवं सज्ञां निवेशयेत्' भावा प्रहारनी मुद्धिने धार न पुरे. परंतु 'अस्थि वे व मोखेवा-अस्ति बन्धो वा मोक्षो वा' अध छे, भने भोक्ष यछे, 'एव सन्नं निवेखए - एवं संज्ञां निवेशयेत्' से प्रभायेनी युद्धिने धार अरे ॥१या Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Safaltarfis. शु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् ५०९ नैत्रम् ईदृशीं संज्ञां बुद्धि निवेशयेत् न कुर्यात् । किन्तु (अस्थि वधे व मोक्खो a) अस्ति बन्धो वा मोक्षो वा ( एवं सन्नं णिवेमए) एनमीदृशीं संज्ञां - बुद्धि निवेशयेत् कुर्यादिति ॥१५॥ टीका- 'बंधे व मोक्खे वा गत्थि' बन्धो वा मोक्षो वा नास्ति तत्र वन्धतुतिः संसारः, मोक्षश्च शेप कर्मक्षयरूपः 'णेवं सन्नं णिवेसर' नै संज्ञां निवेशयेत् - ईदृशीं बुद्धिं न कुर्यात्, किन्तु - 'बंधे व मोक्खे वा अस्थि' बन्धो वा मोक्षो वा अस्ति एवं सन्नं णिवेसए' एवम् एतादृशीं संज्ञां मर्ति निवेशयेत्धारयेत् । बन्धमोक्षयोद्धा परित्यज्य तयोः श्रद्धा करणीया । अश्रद्धा खलु अनाचार मध्यपातिनी, सा च श्रेपोऽर्थिभिर्दूरत स्त्याज्य इति । केचन - बन्धमोक्षयोः सद्भावं नाङ्गीकुर्वन्ति प्रतिपादयन्ति च ते इत्थम् । तथाहि - 'आत्मा नाम ' अमृतेः तस्य मूर्त्तेन कर्मपुद्रलेन सह सम्बन्धाभावात् कथं बन्धः स्यात्, नहि हिअमूर्त्तस्याssकाशस्य मूर्तेन लेपो छुः श्रुतो वा सम्भवति । तदुक्तम्- 'वर्षातपाभ्यां किं व्योम्नः इत्यादि - टीकार्थ--बन्ध नहीं है और समस्त कर्मों का क्षय रूप मोक्ष नहीं है, इस प्रकार समझना योग्य नहीं है । किन्तु ऐसा समझना चाहिए कि है और मोक्ष है । 1 बन्ध और मोक्ष के विषय में अश्रद्धा का परित्याग करके उन पर श्रद्धा धारण करना चाहिए । अश्रद्धा अनाचार में गिराने वाली है, अतएव जो अपना कल्याण चाहते हैं, उन्हें दूर से ही उसका स्वाग कर देना चाहिए । कई लोग बन्ध और मोक्ष का सद्भाव स्वीकार नहीं करते और इस प्रकार कहते है-: -आत्मा अमूर्त है और कर्मपुद्गल मूर्त्त हैं। ऐसी અન્વયા --મધ અર્થાત્ ક પુદ્ગલેને જીવની સાથેના સંબંધ નથી. અને મેાક્ષ પણ નથી. આ રીતની બુદ્ધિ ધારણ ન કરે પરતુ અંધ છે અને માક્ષ પણ છે. એવી બુદ્ધિ ધારણ કરે. ૫૧પપ્પા ટીકા”—ન્ય નથી અને સઘળા કર્મોના ક્ષય રૂપ મેક્ષ પશુ નથી આ પ્રમાણે વિચારવુ તે ચેગ્ય નથી, પરંતુ અન્ય છે, અને મેાક્ષ પશુ છે, આ પ્રમાણેના વિચાર કરવા જોઇએ અશ્વ અને માક્ષના સબંધમાં અશ્રદ્ધાના ત્યાગ કરીને તેના પર શ્રદ્ધા ધરણ કરવી જોઇએ. અશ્રદ્ધા અનાચારમાં પાડવાવાળી છે, તેથી જ જેએ પેાતાના કલ્યાણની ભાવના રાખે છે, તેઓએ દૂરથી જ તેના ત્યાગ કરવા જોઈ એ કેટલાક લેાકેા મધ અને મેાક્ષન સદ્ભાવના સ્વીકાર કરતા નથી, અને આ પ્રમાણે કહે છે કે--આામા અમૂર્ત છે, અને કમ પુદ્ગલ સૂત્ર છે, Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० . सूत्रकताङ्गस्त ___नहि वर्पयाऽऽप्लावितं भवति गगनमातपेन वा परिशुष्यति, तकस्य हेतो? अमृतत्वादाकाशस्य । बन्धनाऽभावे च बन्धपरित्यागरूपो मोक्षोऽपि न सम्भावितः। मुश्चत वन्धविश्लेषार्थत्वात् । असक्तप्रतिपेधस्य कर्तुमशक्यत्वात्, इति मतं तन्न सम्यक् । अमूर्तस्यापि विज्ञानस्य यथा-मूर्तेन मेध-ब्राह्मी-वनस्पत्यादिना सम्बन्धे सत्येव उपकारानुपकारयोः सम्भवो दृष्टा तथा-आत्मनोऽपि कर्मपद्लेन सह सम्बन्ध सम्भवे वाधकस्याऽपम्भवात् । अनादिकालादयमात्मा तैजसकामणः स्थिति में अमूर्त आत्मा का मूर्त कर्मपुद्गलों के साथ कैसे बन्ध हो सकता है ? अमूतं आकाश का किसी भी मृर्त पदार्थ के साथ लेप नहीं हो सकता । न ऐसा होना देखा है, न सुना है। कहा भी है। 'वर्षातपाभ्यां कि व्योम्नः' इत्यादि । • घर्षा होने से अकाश गीला नहीं हो जाता और न धूप पड़ने से यह तपता ही है। उस पर इनका कोई प्रभाव नहीं होता, क्यों कि वर्षा और धूप मूर्त है. और आकाश अमूर्त है। हां, चमडे पर उनका प्रभाव अवश्य पड़ता है, क्यो कि चमड़ा स्वयं मूर्त है। - इस प्रकार जय अमूर्त होने के कारण आपमा यद्ध ही नहीं होता 'तो मोक्ष की बात ही क्या है ? वन्ध का नाश होना मोक्ष कहलाता है। पन्धन के अभाव में मोक्ष संभव नहीं है। _यह मत समीचीन नहीं है। यद्यपि ज्ञान अमूर्त है, फिर भी मदिरा तथा ब्राह्मी वनस्पति आदि के द्वारा उनका उपकार अनुपकार આવી સ્થિતિમાં અમૂત આત્માને સંબંધ મૂર્ત એવા કર્મ પુદ્ગલોની સાથે કેવી રીતે થઈ શકે ? અમૂર્ત આકાશને લેપ કઈ પણ મૂર્વ પદાર્થની સાથે થઈ શકતું નથી. આ પ્રમાણે થતું જોવામાં આવ્યું નથી તેમજ સાંભળવામાં ५६ मा नथी. यु. ५५ छे 3-'वर्षातपाभ्यां किं व्योम्नः' त्या વસંદ થવાથી આકાશ ભીનું થતું નથી અને તડકે પડવાથી તે તપતું પણું નથી. તેના પર વસદ કે તડકાને કોઈ જ પ્રભાવ હોતું નથી. કેમકેવર્ષાદ અને તડકે મૂત છે. અને આકાશ અમૂર્ત છે. હા ચામડા પર તેને પ્રભાવ જરૂર પડે છે. કેમકે ચામડું સવયં મૂર્ત છે. આ પ્રમાણે, જ્યારે અમૂર્ત હોવાના કારણે આત્મા બદ્ધ જ થતો નથી, તે પછી મોક્ષની વાત જ કયાંથી થઈ શકે? બંધને નાશ થ તે મોક્ષ કહેવાય છે. બન્ધના અભાવમાં મોક્ષને સંભવ જ રહેતે નથી. આ મત બરોબર નથી. જોકે જ્ઞાન અમૂર્ત છે, તે પણ મદિરા-માંદારૂ તથા બ્રાહ્મી નામની વનસ્પતિ દ્વારા તેને ઉપકાર અથવા અપકાર થાય Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.५ आचारश्रुतनिरूपणम् शरीराभ्यां सम्बद्ध एवाऽऽवर्तते । अतः कथञ्चित्स मूोऽपि । स्वरूपतः स्वभावतश्च अमृतोऽपि, 'ज्ञान-दर्शन-चारित्र्यात्मकोऽपि' तैजसकामणशरीरसम्बन्धा. न्मूतोऽपि भवति । अतस्तस्य कर्मपुद्गलसम्बन्धात्मकबन्धनस्य अभावप्रतिपादनस्याशक्यत्वात् । बन्धसम्भवे च तदभावात्मकमोक्षोऽपि सम्मवत्येवं। अत: 'पन्धमोक्षौ न विद्यते इति मतिं परित्यज्य बन्धमोक्षौ विद्यते इत्येतादृशी मतिमेव धारयेत् । न तु-कुतर्केण आग्रहेण शास्त्रमतिरपनेयेति ॥१५॥ मूलम्-नस्थि पुण्णे व पावे वाणेवं सन्नं णिवेसए । अस्थि पुण्णे व पावे वा एवं सन्नं णिवेसेए ॥१६॥ छाया-नास्ति पुण्यं वा पापं वा नै संज्ञां निवेशयेत। अस्ति पुण्यं वा पापं वा एवं संज्ञां निवेशयेत् ॥१६॥ होता ही है। इसी प्रकार आत्मा का कर्मपुद्गल के साथ यदि सम्बन्ध हो तो इसमें कोई बाधक नहीं है। है। इसके अतिरिक्त संसारी आत्मा अनादि काल से तैजस और कामण शरीरों के साथ बद्ध होने के कारण कथंचित् मृत ही है । अर्थात् अपने मूल भूत शुद्ध स्वभाव की अपेक्षा से आत्मा अमूर्त है ज्ञान-दर्शन चारित्र और तपमय है, फिर भी तैजस और कामण शरीर के साथ सम्बन्ध होने के कारण मूर्त भी है, इस अपेक्षा से आत्मा का कर्मपुद्गलो के साथ बन्ध होना 'निर्बोध है और जब बन्ध होता है तो उसका अभाव भी संभव ही है ! अतएव बन्ध और मोक्ष नहीं हैं, इस प्रकार की वृद्धि को त्याग कर यही घुद्धि धारण करना चाहिए कि बन्ध भी है और मोक्ष भी है। कुतर्क और कदाग्रह 'करके शास्त्र संगत समझको त्याग देना उचित नहीं है ॥१५॥ જ છે એજ પ્રમાણે કર્મ પુદ્ગલની સાથે જે આત્માને સંબંધ હોય તે તેમાં કંઈ જ બાધ નથી આ શિવાય સંસારી આત્મા અનાદિકાળથી તેજસ અને કામણ શરીરની સાથે બદ્ધ હોવાથી કથંચિત્ મૂર્ત જ છે અર્થાત્ પિતાના મૂળભૂત શુદ્ધ સ્વભાવની અપેક્ષાથી આત્મા અમૂર્ત છે. જ્ઞાન, દર્શન ચારિત્ર અને તપમય છે. તે પણ તૈજસ અને કાર્માણ શરીરની સાથે સંબંધ હોવાથી મૂર્ત પણ છે. આ અપેક્ષાથી કર્મ પુદ્ગલોની સાથે આત્માને બંધ થે નિબંધ-બાધ-દોષ વગરને છે. અને જયારે બંધ થાય છે, તે તેને અભાવ પણ સંભવે છે તેથી જ બંધ અને મેક્ષ નથી. આવા પ્રકારની બુદ્ધિનો ત્યાગ કરીને એવી જ બુદ્ધિ ધારણ કરવી જોઈએ કે-બન્ધ પણ છે અને મોક્ષ પણ છે. કુતર્ક અને દાગ્રહ કરીને શાસ્ત્ર સંગત સમજશુને છેડી દેવી તે ચોગ્ય નથી, ૧પા. Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ :- (णत्थि पुण्णे व पावे वा) नास्ति पुण्यम् - शुभप्रकृतिलक्षणं वा पाप-पुण्यविपर्ययलक्षणं वा 'णेव सन्नं गिवेसर' नैवम्-नेहशीं संां-बुद्धि निवेशयेत् कुर्यात्, किन्तु - (अस्थि पुण्णे व पावे वा) अस्ति-विद्यते पुण्यं वा पापं वा ( एवं सन्नं णिवेसए) एवम् एतादृशीमेव संज्ञां बुद्धिं निवेशयेत् कुर्यादिति ॥ १६ ॥ टीका- 'goणे व पावे वा णत्थि' पुण्यं वा शुभप्रकृतिकक्षणम् यमाश्रित्य पुण्यात्मा इति व्यपदेशो मावि, पापं वा - अशुभक्रियाजनितमधोगतिकारणम्, येन नरकनिगोदादिकुगतिर्भवति, येन वा पापात्मेति व्यपदेशो जायते, इमे ५१२ 'णस्थि पुण्णेव पावे वा' इत्यादि । शब्दार्थ- ' णत्थि पुण्णे व पात्रे वा नास्ति पुण्यं वा पापं वा' पुण्य नहीं है, अथवा पाप नहीं है 'वं लन्न निवेशए-नैवं संज्ञां निवेशयत्' ऐसी बुद्धि धारण करना उचित नहीं है किन्तु 'अस्थि पुण्णे व पायें वा अस्ति पुण्यं वा पापं वा' पुण्य और पाप है 'एवं सनं निवेप्लए- एवं संज्ञां निवेशयेत्' ऐसी बुद्धि धारण करना उचित है || १६ || अन्वयार्थ - पुण्य नहीं है अथवा पाप नहीं है, ऐसी बुद्धि धारण करना उचित नहीं' है, किन्तु पुण्य और पाप है ऐसी बुद्धि धारण करना उचित है ॥ १६॥ टीकार्थ-- शुभ प्रकृतियों को कहते हैं जिनके कारण 'यह पुण्यात्मा है, ऐसा व्यवहार होता है वह पुण्य है । जो अशुभ क्रिया से उत्पन हो और अधोगति का कारण हो वह पाप कहलाता है । इससे नरक 'णत्थि पुण्णेत्र पावे वा' त्याह शब्दार्थ –'त्थि पुणे व पावे वा नास्ति पुण्यं वा पाप' वा' एय नथी, अथवा पाय पशु नथी 'णेव' सन्नं निवेए-नैव संज्ञां निवेशयेत्' मा प्रभा બુદ્ધિથી વિચારવું તે ખરાખર નથી પરંતુ 'अस्थि पुण्णे व पावे वा - अस्ति पुण्यं वा पावा' एय भने पाप है एवं सन्नं निवेस एवं संज्ञां निवेशयेत्' से प्रभावेनी युद्ध धारण ४२वी योग्य छे. ॥१६॥ અન્નયા ——પુણ્ય નથી. અને પાપ પણ નથી. એ રીતની બુદ્ધિ ધારણ કરવા ચેગ્ય નથી. પરંતુ પુણ્ય છે અને પાપ પશુ છે. એવી બુદ્ધિ ધારણ કરવી જોઇએ. ૧૬૫ ટીકા--શુભ પ્રકૃતિચેા ખતાવવામાં આવે છે–જેનાથી આ પુણ્યાત્મા છે, એ પ્રમાણેના વ્યવહાર થાય છે, તે પુણ્ય છે અને જે અશુભ ક્રિયાથી ઉત્પન્ન થયેલ હાય અને અધગતિનું કારણુ હાય તે પાપ કહેવાય છે. આનાથી Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका द्वि.व. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् पुण्यपापे न स्तः। 'णेवं सन्नं णिवे पर' ने संज्ञां निवेशयेत् । किन्तु-'पुष्णेत्र पावे वा अस्थि' पुण्यं वा पापं वाऽस्ति । 'एवं सन्नं णिवेमए' एवं संज्ञां निवे: शयेत्-धारयेत् इत्येवं बुद्धि कुर्यादित्यर्थः, केचन -पुण्यस्याऽस्तित्वं न स्वीकुर्वन्ति किन्तु यदा पापस्य न्यूनता तदोत्पद्यते सुवम् । यदा च पापाधिक्यन्तदा-वर्धवे दुःखम् । केचन पापस्यैवाऽस्तिस्वं न मन्यन्ते, मन्यन्ते च पुण्योत्कर्षे सुखम्, न्यूनतायाश्च पुण्यस्य दुःख पादुर्भातम् । के वनोभयोरपि अस्तित्वमनादृत्याऽऽद्रियन्ते स्वभावतो जगतो व्यवस्थाम् । परन्तु-शास्त्र कारस्तेषां मतं निराकरोति. पुण्यं पापं वा नास्तीति बुद्धि न विधेया, अपि तु-अस्त्येवेति व्यवस्थिता बुद्धि निगोद आदि दुर्गति प्राप्त होती है । यह पुण्य और पाप है, ऐसी. बुद्धि रखनी चाहिए। कोई कोई पुण्य का अस्तित्व स्वीकार नहीं करले । वे कहते हैं कि जब पाप की कमी होती है, तब सुग्व उत्पन्न होता है और जब पाप की अधिकता होती है तो दुःख उत्पन्न होता है। इस प्रकार एक पाप को स्वीकार करने से ही सुख और दुःख की व्यवस्था घटित हो जाती है। इससे विपरीत कोई पाप का अस्तित्व नहीं मानते हैं। उनका मन्तव्य यह है कि पुण्य की प्रबलना से सुख की और न्यूनता से दुःख की उत्पत्ति होती है। ' कोई ऐसे भी हैं जो पुण्य और पाप दोनों का ही अस्तित्व अंगीकार नहीं करते। वे स्वभाव से ही जगत् की सुखद् खसंबंधी व्यवस्था मानते हैं। परन्तु शास्त्रकार इन सब भ्रान्त मतों का निराकरण करते हुए નરક નિગોદ વિગેરે દુર્ગતિ પ્રાપ્ત થાય છે. આ પુણ્ય અને પાપ નથી, આવા પ્રકારની બુદ્ધિ રાખવી ન જોઈએ. પરંતુ પુણ્ય છે, અને પાપ પણ છે, એ પ્રમાણે બુદ્ધિ રાખવી જોઈએ કઈ કઈ અન્ય મતવાળા પુણ્યનું અસ્તિત્વ સ્વીકારતા નથી, તેઓ કહે છે કેજ્યારે પાપ ઓછું થાય છે ત્યારે સુખની પ્રાપ્તિ થાય છે અને જયારે પાપ અધિક પ્રમાણમાં હોય ત્યારે દુઃખ પ્રાપ્ત થાય છે, આ રીતે એક પાપને જ સ્વીકાર કરવાથી સુખ અને દુઃખની વ્યવસ્થા બરોબર ઘટી જાય છે કોઈ કઈ પુણ્ય અને પાપ બનેના અસ્તિત્વને સ્વીકાર કરતા નથી તેઓ સ્વભાવથી જ જગતના સુખ દુખ સંબધી વ્યવસ્થાને સ્વીકાર કરે છે પરંતુ શાસ્ત્રકાર આ સઘળા બ્રાન્ત–ભમાવવાવાળા તેનું નિરાકરણ કરતાં सु० ६५ Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रताहरसे संवरो वाऽस्ति ‘एवं' ईदृशीम् 'सन्न' संज्ञाम् "णिवेसए' निवेशयेत्-धारयेत् । 'यपाश्रिन्य कर्माऽऽन्मनि आस्व पनि-प्रविशति स अ श्रवः-प्राणातिपातादिः । तादृशाश्रयस्य संवरणं-प्रतिवन्धनं संवर:-असवनिरोधलक्षणा, इमौ-आस्रवसंवरौ अवश्यमेव मन्तव्यो, न स्तः, इमौ इति न मन्तव्याविति मूत्रार्थः । केचिदे प्रतिपादयन्ति-किमयमात्रवः आत्मनो भिन्नोऽभिन्नो वा? यदि मिन्नस्तदा स नाऽऽस्त नः । नहि आत्यनोऽत्यन्तभिन्नेन तेनाऽऽस्रवेण आत्मनि 'कर्म प्रवेशयितुं शक्यते यथा घटादिना । तथा च-यथा घटादिरात्मनि कर्मप्रवेश. यितुं न शक्नोति तथाऽऽस्खयोऽपीति । नाप्यभिन्न इति पक्षः । तथात्वे तस्याऽऽत्मस्वरूपत्वेन मुक्तात्मन्यपि तत्सम्भवप्रसङ्गात्-उपयोभवत् । तस्माद-आस्रव इति परिभाषा मिथ्यैव । आस्रवाऽभावे च तन्निरोधात्मकसंवरोऽपि नैव स्वीकर्तव्य कोई-कोई कहते हैं-आस्त्र व आत्मा से भिन्न है या अभिन्न है? यदि भिन्न है तो वह आस्रव हो ही नहीं सकता क्यों कि जो आत्मा से सर्वथा भिन्न है, वह घट आदि पदार्थों के ममान आत्मा में कर्म को प्रविष्ट नहीं करा सकता। अर्थात् जैसे घट आत्मा से सर्वथा भिम होने के कारण आत्मा में कर्म के प्रवेश का कारण नहीं हो सकता, उसी प्रकार आपका माना हुमा आतब भी कर्मप्रवेश का कारण नहीं हो सकेगा, क्यों कि वह आत्मा से भिन्न है। कदाचित आत्मा से अभिन्न मानो तो उसे आत्मा का ही स्वरूप मानना पडेगा। आत्मा का स्वरूप होने से मुक्तात्मा में भी उसकी सत्ता स्वीकार करनी पडेगी। जैसे उपयोग की सत्ता मानी जाती है । अतएव आस्रव की આસવ છે, અને સંવર પણ છે, એ પ્રમાણેની બુદ્ધિ રાખવી તેજ ગ્ય છે. કોઈ કોઈ કહે છે, આસવ આત્માથી જુદો છે? કે એક જ છે? જે જાદ હોય, તે તે આસ્રવ જ થઈ શકતો નથી, કેમકે જે આત્માથી સર્વથા ભિન્ન છે, તે ઘટ વિગેરે પદાર્થોની જેમ આત્મામાં કર્મને પ્રવેશ કરાવી ન શકત, અર્થાત જેમ ઘટ-ઘડે આત્માથી સર્વથા જુદે હોવાના કારણે આત્મામાં કર્મના પ્રવેશનું કારણ થઈ શકતું નથી, એ જ પ્રમાણે આપે માનેલ આસ્રવ પણ પ્રવેશનું કારણ થઈ શકશે નહીં કેમકે તે આત્માથી ભિન્ન છે. કદાચ આત્માથી અભિન્ન માને તે તેને આત્માનું જ સ્વરૂપ માનવું પડશે. આમાનું સ્વરૂપ હોવાથી મુક્તાત્મામાં પણ તેની સત્તાનો સ્વીકાર કરે પડશે. જેમ ઉપગની સત્તા માનવામાં આવે છે, તેથી જ આસવની Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारथुतनिरूपणम् ५१७ इति तन्मतं निराकर्तुमाह-भादुक्तं न सम्यक्, आम्रो वा संपरोवा नास्तीति न स्वीकर्त्तव्यम् । किन्तु - अस्त्येवेति मन्तव्यम् । योऽयमेकान्तभेदाभेदवादे दोपः प्रतिपादितः स तथैव । अन- एचैकान्तपक्षे दोपमालोच्य - अनेकान्तवादस्य प्ररूपणं कृतवता भगवता तोर्थ ऽङ्गीकृतोऽयमात्राः आत्मनः सकाशात् कथञ्चिद् भिन्नः कथञ्चिदभिन्नव । तथात्वे न कोऽपि दोषः पदमादधाति अदर्शने । इतरत्र दर्शनान्तरे तु तत्साम्राज्यवजय्यम् । अवए आप न स्व इति न, अपि तु - आपः संवर स्त्येवेति सिद्धान्तसिद्धः ||१७|| मूलम् - णत्थि वेयंणा पिंजरा वा, जैवं सन्नं निवेर्सए । अस्थि वेयणा णिज्जरा बा, एवं सैन्नं णिवेसए ॥१८॥ कल्पना मिथ्या है | इस प्रकार जब आस्रव की ही सत्ता सिद्ध नहीं होती तो उसका निरोधस्वरूप संचर भी स्वीकार नहीं किया जा सकता। इस अभिमत का निराकरण करते हुए कहा गया है आपका कथन सम्यक् नहीं है। आस्रव अथवा संवर नहीं है, ऐसा स्वीकार नहीं करना चाहिए, बल्कि उनका अस्तित्व मानना चाहिए । एकान्त भेदपक्ष और अभेदपक्ष में आपने जो दोष प्रदर्शित किए हैं, वे ठीक ही हैं, परन्तु हमारे मत में उनके लिए कोई अवकाश नहीं है, क्योंकि सर्वज्ञ तीर्थकर भगवान् ने एकान्तवाद को स्वीकार न करके अनेकान्तवाद की ही प्ररूपणा की है। आस्रव आत्मा से कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन है । अतएव जैनदर्शन में कोई दोष नहीं आता । अतएव आस्रव और संवर का अस्तित्व सिद्ध है ॥ १७॥ કલ્પના મિથ્યા છે. આ પ્રમાણે જ્યારે આસવની સત્તા જ સિદ્ધ થતી નથી, તે તેના નિાધ સ્વરૂપ સવરના પશુ સ્વીકાર કરવામાં આવશે નહી આ મતનું નિરાકરણ કરતાં કહે છે. કે-આપનુ કથન ચેગ્ય નથી. આસવ અથવા સાઁવર નથી. એ પ્રમાણેને વિચાર કરવા ન જોઇએ બલ્કે તેનુ અસ્તિત્વ સ્વીકારવું જોઇએ. એકાન્ત લેક પક્ષ અને અભેદ પક્ષમાં આપે જે દેષ ખતાવ્યા છે, તે ઠીક જ છે. પરંતુ અમારા મત પ્રમાણે ભેદ અને અભેદ પક્ષ માટે કઈજ અવકાશ નથી, કેમકે-સજ્ઞ તીર્થંકર ભગવાને એકાન્ત વાદના સ્વીકાર ન કરીને અનેકાન્તવાદની જ પ્રરૂપણા કરી છે આસત્ર આત્માથી કથચિત્ ભિન્ન અને કથ ચિત્ અભિન્ન છે. તેથી જ જૈનદર્શનમાં કાઈ પણુ દોષ આવતે નથી. તેથી જ આસ્રવ અનેસવરનુ' અસ્તિત્વ સિદ્ધ થાય છે, ૫૧૭ાા Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतासूत्र ६१८ छाया - नास्ति वेदना निर्जरावा, नवं संज्ञां निवेशयेत् । अस्ति वेदना निर्जरावा, एवं संज्ञां निवेशयेत् ॥ १८॥ अन्वयार्थः -- (गत्थि वेणा णिज्जरा वा) नास्ति वेदना वा कर्मानुम लक्षणा तथा - निर्जरात्रा - कर्ममुद्र उशानलक्षणा न विद्यते (शेवं सन्नं वेिसर) नैत्रम् - नेतादृशीं संज्ञा-बुद्धि निवेशयेत् कुर्यात् किन्तु - (अन्य वेणा निज्जरा वा) अस्ति विद्यते एव वेदना तथा निर्जरा ( एवं सन्नं वेिसर) एम-ईव संज्ञां - बुद्धि निवेशयेत् कुर्यादिति ॥ १८ ॥ टीका--' वेयणा णिज्जरा वा गत्थि' वेदना निर्जरा ना नास्ति 'वं सन्नं णिवेसए' नैत्रं संज्ञां निवेशयेत्, वेदना नास्तीति वा निर्जरा नास्तीति वा, एवं 'णत्थि वेपणा णिज्जरा वा' इत्यादि । शब्दार्थ- 'णत्थि वेणा निज्जरा वा नाहिन बेदना निर्जरा या' वेदना (कर्मों का अनुभव और निर्जरा (भुक्तकर्मों का भरमा से पृथक होना) नहीं है 'णेवं सन्नं निवेमए-नैवं संज्ञा निवेशयेत्' इस प्रकार की बुद्धि धारण न करे किन्तु 'अस्थिवेषणा निज्जरा वा अस्ति वेदना निर्जरा वा' वेदना और निर्जरा है ऐसी बुद्धि धारण करें ||१८|| अन्वयार्थ -- वेदना (कर्मों का अनुभव) और निर्जरा (मुक्त कर्म पुद्गलों का आत्मा से पृपक होना) नहीं है, इस प्रकार की बुद्धि धारण न करे किन्तु वेदना और निर्जग है, ऐनी बुद्धि धारण करे ||१८|| टीकार्थ -न तो कर्मपुगलों का वेदन करना पडता है और न वेदन किए पुद्गल आत्मा से पृथक हो होते हैं, ऐसी धारणा रखनी 'जस्वि वेयणा णिज्जरा वा' इत्यादि शब्दार्थ - - ' णत्थि वेग्रणा णिज्जरा वा नास्ति वेदना निर्जरा वा' वेहना (કમેકના અનુભવ) અને નિર્જરા (ભેાગવેલા કર્મ પુદ્ગલે'નુ' આત્માથી અલગ थवु') नथी. 'णेव सन्न निवेस - नैन सज्ञां निवेशयेत्' भाषा अानी शुद्धि धारण न करे परंतु 'अस्थि वेयणा निज्जरा वा अस्ति वेदना निर्जरा वा ' चेहना भने निर्भरा छे, मे प्रभोनी शुद्धि धार रे ||१८| અન્વયા-વેદના (કર્માના અનુભવ) અને નિર્જરા ભુક્ત કર્મ પુદ્દ ગલાનુ આત્માથી પૃથક્ થવું) નથી આ રીતની બુદ્ધિ ધાણુ કરવી નહીં પરંતુ વેદના અને નિરા છે, એવી બુદ્ધિ ધારણ ઠરે ॥૧૮॥ ટીકા-કર્મ પુદ્ગલાનું વેદન કરવુ પડતુ નથી, અને વેદન કરવામાં ખાવેલ પુર્દૂલે આત્માથી જુઠા થતા નથી. એ પ્રમાણેની ધાધુા રાખવી Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयावोधिनी टीका वि.व.अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् पकारिकां मतिं नैव विभ्रियात् । किन्तु-'वेयणा' वेदना 'णिज्जरा वा निर्जरा वा 'अस्थि' अस्ति-विद्यते 'एवं' इत्येवम् 'सन्न' संज्ञा-बुद्विम् 'णिवेसए' निवेशयेत्-निश्चिनुयात् । वेदनानिर्जरयोः स्थितिरावश्यकी इत्थं विवृणुयात् । कर्मणां फलोपभोगो वेदना। आत्मप्रदेशेभ्यः कर्मपुद्गलानां विश्लेपो निर्जरा। दमौ द्वावपि पदार्थो न विद्यते इति केपांञ्चिन्मतं ते कथयन्ति-अनेकपल्योपमसागरोपमसमयेनापि क्षपणयोग्यं कर्म मुहूर्वार्धनापि, क्षपयन्ति, अज्ञानिनो यानि कर्माणि वर्षशतैरपि न क्षपयन्ति तान्येवाहितानि कर्माणि पंचसमितिगुप्तित्रययुताः पुरुषधौरेयाः उच्छ्वासमात्रेणैव विनाशयन्ति, इति शास्त्रमदर्शितः सिद्धान्तः । ठीक नहीं है, किन्तु उपार्जित कर्मों का वेदन करना पड़ता है और बेदन करने के पश्चात् वे आत्मा से पृथक हो जाते हैं, ऐसा समझना चाहिए। यद्ध कर्मों के रस का अनुभव करना वेदना है और आत्मप्रदेशों से कर्मपुदगलों का संबंध छटजाने को निरा कहते हैं। किसी के मत के अनुसार इन दोनों का ही अस्तित्व नहीं है। उनका कहना है कि अनेक पल्योपम और सागरोपम जितने दीर्घकाल में क्षय होने योग्य कमें अन्तमुंहत में क्षय किया जा सकता है । अज्ञानी जीव जिन कर्मों का सैकडों वर्षों में भी क्षय करने में समर्थ नहीं होते, उन्हीं कर्मों को पांच समिति और तीन गुप्तियों से युक्त उत्तम पुरुष एक उच्छ्वास जितने अल्प काल में ही क्षय फर डालते हैं, यह शास्त्रसिद्ध सिद्धान्त है। अतः बद्ध कर्मों का क्रम से अनुभव न होना वेदना का अभाव सिद्ध होता है। जब वेदना का अभाव है तो निरा का अभाव तो स्वतः सिद्ध हो जाता है। તે બરાબર નથી, પરંતુ પ્રાપ્ત કરેલા કર્મોનુ વેદન કરવું પડે છે. અને વેદન કર્યા પછી તેઓ આત્માથી અલગ થઈ જાય છે. તેમ સમજવું જોઈએ. બદ્ધકર્મોના રસને અનુભવ કરે તે વેદના છે અને આત્મપ્રદેશોથી કમંપુદ્ગલેને સંબંધ છૂટ જ તેને નિર્જરા કહે છે. કેઈના મત પ્રમાણે આ બનેનું અસ્તિત્વ જ નથી. તેઓનું કહેવું છે કે– અનેક પલ્યોપમ અને સાગરોપમ જેટલા લાંબા કાળે નાશ થવાને ગ્ય કર્મને અંતમુહૂર્તમાં ક્ષય કરી શકાય છે. અજ્ઞાની છ સેંકડે વર્ષે પણ જે કર્મોનો ક્ષય કરી શકતા. નથી, એજ કર્મોને ક્ષય, પાંચ સમિતિ અને ત્રણ ગુપ્તિથી યુક્ત ઉત્તમ પુરૂષ એક ઉચ્છવાસ જેટલા ટૂંકા સમયમાં જ કરી નાખે છે. આ શાસ્ત્રદ્ધિ સિદ્ધાંત છે. તેથી બદ્ધ કર્મોને કમથી અનુભવ ન થે તે વેદનાને અભાવ સિદ્ધ થાય છે. જ્યારે વેદનાનો અભાવ છે, તે નિર્જરાને અભાવ તે સવઃ સિદ્ધ થઈ જાય છે, Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५२० अतो वद्धानां कर्मणां क्रमशोऽनुभवाभावान् वेदना नास्तीति मन्यमानानां मवे वेदनाया अमावे निर्जराया अपि स्वतोऽभाव एव सिद्धः । परन्तु तन्मतं न सम्यक, यत स्तपमा-प्रदेशाऽमावेन च कतिपय कर्म गामेव विनाशः सम्भवति, न तु सर्वे. पाम् । ततश्च-शेषाणामुदीरणोदयायामनु वो भवेदेव । अतो वेदनासबायोड. वश्यमेवाङ्गीकार्यः। तदुक्तमागमे 'पुब्धि दुचिगाणं दुप्पडिक्कताणं कम्माणं वेइत्ता मोक्खो णधि अवेत्ता' ___ छाया-र्व दुवीर्णानां दुष्पतिक्रान्तानां तेषां कर्मणां वेदयित्वा मोक्षा, नास्ति अवेदयित्वा । कर्मणां वेदनादेव मोक्षो भवति, न तु अवेदयित्या मोक्षो भवतीति दृष्टान्तगाथाऽभिप्रायः । अनेन प्रकारेण वेदनाया यदा सिद्धिर्भवति सदा निजरा सिद्धिस्तु-याथिक्थे । भाति । ओ विवेकिभिर्वेदना-निजरे न स इति न स्वीकर्तव्ये । अपि तु-ते स्व इत्येव स्पीकत कृतिभियोग्ये इति ॥१८॥ - उनका यह मत समीचीन नहीं है। तपस्या के द्वारा प्रदेशाभाव होकर कुछ ही कर्मों का विनाश होता है, सय का नहीं। शेष कर्मों का विषाकोदय द्वारा नाश होता है । जिनका तपश्चर्या द्वारा विनाश होता है, उनका भी प्रदेशों से वेदन तो होता ही है। इस प्रकार चाहे प्रदेशों से वेदन हो, चाहे विपाक से, वेदन तो होता ही है,। अतएव वेदना का सद्भाव मानना आवश्यक है। आगम में कहा है-'पुस्वि दुच्चिएगाणं' इत्यादि । कदाचार के द्वारा उपार्जित और सम्धक प्रतिक्रमण न किये हुए कों को भोगने से ही मोक्ष प्राप्त होता है, न भोगने वाले को .मोक्ष नहीं होता है। इस प्रकार से जब वेदना की सिद्धि होती है तो निर्जरा તેને આ મત યોગ્ય નથી, કારણ કે–તપસ્યા દ્વારા પ્રદેશાભાવ થઈને કંઈક જ કર્મોને વિનાશ થાય છે. બધાને નહીં. બાકીના કમને વિપાકેદય દ્વારા નાશ થાય છે તપશ્ચર્યા દ્વારા જેને નાશ થાય છે, તેનું પણ પ્રદેશથી વેદન તે થાય જ છે. આ રીતે ચાહે તે પ્રદેશથી વેદના હોય, ચાહે વિપાથી વંદન હોય, પણ વેદન તે થાય જ છે. તેથી જ વેદનાને सदका मानव ३री छे. मागममा घुछ है-'पुब्धि दुरिचण्णाण' त्यादि - - કદાચાર-–દુરાચાર દ્વારા પ્રાપ્ત કરવામાં આવેલ અને સમ્યફ રીતે પ્રતિકમણ કરવામાં ન આવેલા કર્મોને ભેગવવાથી જ મોક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે. ન લેગવવા વાળાને મોક્ષ પ્રાપ્ત થતી નથી, આ રીતે જ્યારે વેદનાની સિદ્ધિ Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . समयार्थमोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् मूलम्-णस्थि किरिया अकिरिया बा, णेवं सन्नं णिवेसए । अत्थिं किरिया अकिरियां वा, एवं सन्नं णिवेसए ॥१९॥ छाया--नास्ति क्रिया अक्रिया बा, नैवं संज्ञां निवेशयेत् । .. ___अस्ति क्रिया अक्रिया वा, एवं संज्ञां निवेशयेत् ॥१९॥ . . अन्वयार्थ:--(गस्थि किरिया अकिरिया वा) नास्ति क्रिया-परिस्पन्दल. क्षणा, अक्रिया-तदभावरूपा वा-इमे द्वे न विद्यते (णेवं सन्नं निवेसए) नैव' एतादृशी संज्ञा-बुद्धिं निवेशयेत्-कुर्शद किन्तु-(अस्थि) अस्ति-विद्यते एवं की सिद्धि तो अर्थ से हो ही जाती है। अतएव विवेकी जनों को वेदना और निर्जरा का अस्तित्व स्वीकार करना चाहिए ॥१८॥ 'त्यि किरिया अकिरिया' इत्यादि । शब्दार्थ-'णधि किरिया अकिरिया बा-नास्ति क्रिया अक्रिया वा, परिस्पन्दन रूप क्रिया नहीं है और अक्रिया भी नहीं है 'णेवं सन्नं निवेहए-नै संज्ञां निवेशयेत्' इस प्रकार की युद्धि धारण नहीं करनी चाहिए किन्तु 'किरिया अकिरिया वा अस्थि-क्रिया अक्रिया था अस्ति' किया है और अक्रिया भी है 'एवं सन्नं निवेसए-एवं संज्ञां निवेशयेत्' ऐसी बुद्धि धारण करनी चाहिए ॥१९॥ ___ अन्वयार्थ-परिस्पन्दन रूप क्रिया नहीं है और क्रिया का अभाव रूप अक्रिया भी नहीं है, इस प्रकार की बुद्धि धारण नहीं करनी થાય છે, તે નિજી રાની સિદ્ધિ અર્થથી જ થઈ જાય છે. તેથી જ વિવેક પુરૂએ વેદના અને નિર્જરા બનેનાં અસ્તિત્વને સ્વીકાર કર જોઈએ. ૧૮ ‘णस्थि किरिया अकिरिया वा' त्याह शा-'णत्थि किरिया अकिरिया वा-नास्ति क्रिया अक्रिया वा' ५R. पहन ३५ ठिया नथी. तभ० भठिया ५ नथी. 'णेव सन्नं निवेसए-नवं संत्रां निवेशयेत्' मा प्रमाना भुद्धि २१वीन न. ५२ किरिया भकिरिया वा अस्थि-क्रिया अक्तिया वा अस्ति' या छ. म मठिया पY, छ, 'एव' सन्नं निवेसए-एव' सज्ञां निवेशयेत्' मा प्रभानी भुद्धिधार કરવી જોઈએ. ૧લા અન્વયાર્થ–પરિસ્પન્દન રૂપ ક્રિયા નથી અને ક્રિયાના અભાવે રૂપ અક્રિયા પણ નથી. આ રીતની બુદ્ધિ ધારણ કરવી ન જોઈએ. પરંતુ શિયા છે, અને અક્રિયા પણ છે, એવી બુદ્ધિ ધારણ કરવી જોઈએ. . स०६६ Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतागायत्रे "रकिरिया अकिरिया वा) क्रिया अक्रिया वा (एवं सन्नं णिवेसए) एवमीशी संज्ञां-बुद्धि निवेशयेत्-कुर्यादिति ॥१९॥ 1 टीका-'किरिया' क्रिया 'अकिरिया या' अक्रिया वा-गमनागमनादिरूपा क्रिया-तदभावोऽक्रिया । 'जत्थि' नास्ति-क्रिया अक्रिया वा नास्ति एवं सन्न' एवं संज्ञाम्-बुद्धिवेशयम् 'ण' न 'णिवेमर' निवेशयेन् --निर्दिशेत् । किन्तु किरिया' क्रिया 'अकि रया वा' अक्रिया था-क्रियाया अभावः । अत्यि' अस्ति एवं' एवम्-इत्येवं रूपेण 'सन्नं संज्ञाम्-बुद्विम् ‘णिवेसर' निवेशयेत्-व्यापारयेत् । सांख्यो हि गगन वत्-व्यापकत्वं स्वीकृत्य तत्राऽऽत्मनि क्रियां न मन्यते । तया-बौद्धः सर्वेपां क्षणिकत्वमङ्गीकृत्य-उत्पत्त्यतिरिक्त क्रियाया अभावं मन्यते। तदुभयमपि न सम्यक् । यत आत्मनो व्यापकत्वे जन्मादिव्यवस्था न स्यात्, भक्रियत्वादात्मनः । तथा-चौद्धमते उत्पत्यतिरिक्त क्रियाया अस्वीकारे परिदृश्य चाहिए किन्तु किया है और अक्रिया भी है, ऐसी बुद्धि धारण करनी चाहिए ॥१९॥ . टीकार्थ-गमन आगमन आदि व्यापार को क्रिया कहते हैं और उसका भभाव अक्रिया है। इन दोनों का अस्तित्व नहीं है, ऐसा नहीं समझना पाहिए किन्तु यह समझना चाहिए कि दोनों का अस्तित्व है। सांख्यमत वाले प्रात्मा को आकाश के समान व्यापक स्वीकार करके भात्मा में क्रिया का अस्तित्व नहीं मानते । बौद्ध लोग समस्त पदार्थों को क्षणिक मानकर उनमें उत्पत्ति के अतिरिक्त अन्य कोई क्रिया का स्वीकार नहीं करते । यह दोनों मत युक्तिसंगत नहीं है। आत्मा को सर्वव्यापी मान लिया जाय तो जन्म आदि की व्यवस्था नहीं येठ सकती, क्योंकि सर्वव्यापक होने से आत्मा क्रिया नहीं कर सकेगा। - દ્વીકાર્ચ–ગમન આગમન વિગેરે રૂપ પ્રવૃત્તિને કિયા કહે છે. અને -તેના અભાવને, અક્રિયા કહે છે. આ બંનેનું અસ્તિત્વ નથી, એમ સમજવું M ...५२'तु मे समान ..-मन्ननु मस्तित्व छ. - 9 . સુષ્ય મતવાદી આત્માને આકાશની જેમ વ્યાપક હોવાનું સ્વીકારીતે આત્મામાં ક્રિયાનું અસ્તિત્વ માનતા નથી બોદ્ધો બધા જ પદાર્થોને કણિક માનીને તેમાં ઉત્પત્તિ શિવાય બીજી કોઈ પણ ક્રિયાને સ્વીકાર સતની આબોમતી યુક્તિ યુક્ત નથી, આત્માને - સર્વવ્યાપી માની म मातमविरेनी -०यवस्था घटी २४ती नथी. भ3-त १व्या साया सा हिया २४ नही ! . N o . -.. . Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारभुतनिरूपणम् मानक्रियान्तरस्य कर्ता का स्यात् । तथात्मनि सर्वथा क्रियाया अभाव बन्धमाक्षादि व्यवस्थायामनास्था स्यात् । अतो विविच्य विवेकिभिः क्रियाऽक्रिययोला योरपि सत्त्वमवश्यमभ्युपगन्तव्यम् ॥१९॥ . मूलम्-त्थि कोहे व माणे वा, णेवं सन्नं णिवेसए । ' अत्थिं कोहे व माणे वा, एवं सन्नं णिवेसेए ॥२०॥ छाया-नास्ति क्रोयो वा मानो वा, नैवं संज्ञां निवेशयेत् । , , ___अस्ति क्रोधो वा मानो वा, एवं संज्ञां निवेशयेत् ॥२०॥ : 15 बौद्धमत के अनुसार उत्पत्ति के अतिरिक्त अन्य क्रिया स्वीकार नको जाय तो प्रत्यक्ष दिखाई देने वाली इन विभिन्न क्रियाओं का करती कौन है ? इसके अतिरिक्त आत्मा में यदि क्रिया का, सर्वथा अभाव मान लिया जाय तो बन्ध और मोक्ष आदि की व्यवस्था नहीं पनीर सकेगी। अतएव विवेकी जनों को सम्यक् विचार करके क्रिया अक्रिया दोनों की ही सत्ता का अवश्य स्वीकार करना चाहिए ॥१९॥... 'णथि कोहे व माणे वा' इत्यादि। ... , 133 शब्दार्थ-'णस्थि कोहे व माणे वा-नास्ति क्रोधो वा मानो वा क्रोबार नहीं है अथवा मान नहीं है 'एवं सन्नं निवेसए-एवं संज्ञां निवेशयेत् । इस प्रकार की बुद्धि नहीं रखनी चाहिए, किन्तु 'अत्धि कोहे व माणे या-अस्ति क्रोधो वा मानो वा' क्रोध और मान है 'एवं सन्नं निवेसए एवं संज्ञां निवेशयेत्' इस प्रकार की बुद्धि धारण करनी चाहिए |Rate બૌદ્ધ મત પ્રમાણે ઉત્પત્તિ શિવાય અન્ય ક્રિયાને સ્વીકાર કરવામાં છે આવે તે પ્રત્યક્ષ દેખવામાં આવનારી આ જુદી જુદી ક્રિયાઓને કર્તા કે છે? આ શિવાય આત્મામાં જે કિયાને સર્વથા અભાવ માનવામાં આવે, તું તો બન્યા અને મોક્ષ વિગેરેની વ્યવસ્થા બની શકશે નહીં. તેથી જ વિવેક જનોએ સમ્યક્ વિચાર કરીને કિયા અને અકિયા બનેની સત્તા અવશ્ય સ્વીકારવી જ જોઈએ. ૧૯ો ‘णस्थि कोहे व माणे वा' त्यादि शहाथ-पत्थि कोहे व माणे वा नास्ति,क्रोधो वा मानो वा' ही नवीन मया भान नथी. 'णेवं सन्नं निवेसए-एवं संज्ञां न निवेशयेत्' भावा हानी मुद्धि धा२४ ४२वी न से. 'अस्थि कोहे व माणे वा-अस्ति क्रोधो वा। मानो वा' अथ मने भान छ, ‘एवं सन्न निवेसंए-एव संज्ञा निवेशयेत्' आवा પ્રકારની બુદ્ધિ રાખવી જોઈએ૨૦ Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतामसूत्र म अन्वयार्थ:---(णत्यि कोहे व माणे गा) नास्ति-न विद्यते क्रोधो वा-स्वपरा. मनोरमीतिलक्षणः, तथा-मानो गौं वा न विद्यते (णे सन्नं णिवेसए) नेवमी शी संज्ञा-चुद्धि निवेशयेत्-कुर्यात् किन्तु-(अस्थि कोहे व माणे वा) अस्तिविद्यते एव क्रोधो वा मानो वा (एवं सन्नं णिवेसए) एवमीदृशीं संज्ञा-चुदि निवेशयेत् कुर्यादिति ॥२०॥ टीका-कोहे व क्रोधो वा 'माणे वा मानो या 'णस्थि' नास्ति 'एवं सन्नं' एवं संज्ञाम् 'ण णिवेसए' न निवेशयेत्-नैवं संज्ञा विवृणुपात् । किन्तु-'कोहेव माणे वा अत्यि' क्रोधो वा मानो वाऽस्ति एवं सन्नं णिवेसए' एवमेव संज्ञां निवेशयेतू-धारयेत् । क्रोधो मानश्च न सत्पदार्थ इति कैश्चिदमिहितः तन्न सयुक्तिका प्रत्यक्षेणाऽनुमानादिनाऽपि सिद्धयोरनयो निराकतुमशक्यत्वात् । माणसिद्धस्याऽपि , अन्वयार्थ-क्रोध नहीं है अथवा भान नहीं है, इस प्रकार की घुद्धि नहीं धारण करना चाहिए किन्तु क्रोध और मान है, इस प्रकार की बुद्धि धारण करना चाहिए ॥२०॥ टीकार्थ-स्व और पर के प्रति अप्रीति होना क्रोध का लक्षण है। मान का अर्थ गर्व या अभिमान है। यह क्रोध और मान नहीं है, इस प्रकार की बुद्धि रखना ठीक नहीं है, किन्तु क्रोध है और मान है, ऐसी ही बुद्धि रखना चाहिए। 'पिसी का कहना है कि क्रोध और भान को सत्ता नहीं है। उनका यह कथन ठीक नहीं है। क्यों कि प्रत्यक्ष से और अनुमान आदि प्रमाणों से सिद्ध क्रोध और मान का निराकरण करना संभव नहीं है। प्रमाण से सिद्ध वस्तु का भी अभाव मानने से जगत् में कोई , અન્વયાર્થ—કાધ નથી, અથવા માન પણ નથી. આવા પ્રકારની બુદ્ધિ ધારણ કરવી ન જોઈએ. પરંતુ કોઇ અને માને છે. આવા પ્રકારની બુદ્ધિ धा२६] ४२वी नसे. ॥२०॥ - ટીકાર્થ–સ્વ અને પરના પ્રત્યે અપ્રીતિવાળા થવું તે કોઇનું લક્ષણ છે. માનને અર્થ ગર્વ અથવા અભિમાન છે, આ કોય અને માન નથી, આવા પ્રકારની બુદ્ધિ ધારણ કરવી યોગ્ય નથી. પરંતુ કોય છે. અને માન छ; मेवी मुद्धि रावी न. . કેઈનું કહેવું છે કે--ક્રોધ અને માનની સત્તા નથી, તેઓનું આ કથન ઠીક નથી. કેમકે-પ્રત્યક્ષથી અને અનુમાન વિગેરે પ્રમાણેથી સિદ્ધ એવા ક્રોધ અને મનનું નિરાકરણ કરવું સંભવિત થતું નથી પ્રમાણથી સિદ્ધ વસ્તુનો Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् वस्तुनोऽभावें जगतो व्यवस्थैवाऽनवस्थिता स्यात् । अतो विवृण्वद्भिस्तयोः क्रोधमानयोः सत्त्वं माम्यमिति संक्षेपः ||२०|| मूलम् - णत्थि माया व लोभे वा जैवं सन्नं पिवेसए । अस्थिं माया व लोभे वा एवं सन्नं पिवेसे ॥२१॥ छाया -- नास्ति माया वा लोभो वा, नैवं संज्ञां निवेशयेत् । अस्ति माया वा लोभो वा, एवं संज्ञां निवेशयेत् ॥२१॥ अन्वयार्थः -- (स्थि माया व लोभे वा) नास्ति न विद्यते माया वा-परवश्चनरूपा, कोमो वा, इमौ द्वौ न विद्येते इति (णेवं सन्नं णिवेसर) नैत्रम् - एतादृशीं संज्ञां - बुद्धिं निवेशयेत् कुर्यात् किन्तु (अस्थि माया व लोभे वा) अस्ति-विद्यते एव माया वा लोभो वा ( एवं सन्नं णिवेसए) एवम् - ईदृशीं संज्ञां - बुद्धि निवेशयेत् - कुर्यात् इति ॥२१॥ ५२५ व्यवस्था ही नही रहेगी अतएव क्रोध और मान का अस्तित्व अवश्य मान्य करना चाहिए ॥२०॥ ' णत्थि माया व लोभे वा' इत्यादि । शब्दार्थ - ' णत्थि माया व लोभे वा-नास्ति माया व लोभो वा' माया परवंचना' नहीं है, अथवा लोभ नहीं है 'णेवं सन्नं णिवेसए - नैवं संज्ञा निवेशयेत्' इस प्रकार की बुद्धि नहीं रखनी चाहिए किन्तु 'अस्थि माया वा लोभे वा अस्ति माया वा लोगो वा' माघा और लोभ है 'एवं सन्नं निवेसए - एवं संज्ञां निवेशयेत्' ऐसी बुद्धि रखनी चाहिए ॥ २१॥ अन्वयार्थ - माया (परवंचना) नहीं है अथवा लोभ नहीं है, इस प्रकार की बुद्धि नहीं रखनी चाहिए किन्तु माया और लोभ है ऐसी बुद्धि रखनी चाहिए । २१ । અભાવ માનવાથી જગમાં કાઈ પણુ વ્યવસ્થા જ રહી શકશે નહીં. તેથી જ ક્રોધ અને માનનું અસ્તિત્વ અવસ્ય માનવુ' જોઈએ. ારના ' णत्थि माया व लोभे वा' इत्यादि शब्दार्थ - 'त्थि माया व लोभे वा नास्ति माया वा लोभो वा' भाया (पर वथना-मीलने छेतवा ते) नथी अथवा सोअ नथी. 'णेवं सन्न' निवेसए - नैव' स्वज्ञां निवेशयेत्' भाव प्रारनी बुद्धि रामवीन लेये. परंतु 'अस्थि माया वा लोभे वा - अस्ति माया वा लोभो वा' भाया भने सोल छे, 'एव' सन्न' निवेसए - एव' संज्ञां निवेशयेत्' मेवी शुद्धि धार रवी लेये ॥२१॥ અન્વયા-માયા (પરવ ́ચના) નથી અથવા લેાલ નથી આ (પ્રકારની બુદ્ધિ રાખવી ન જોઇએ. પરતુ માયા અને લાભ છે, એવી બુદ્ધિ રાખવી જોઇએ. ૨૧ Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्रकताहर ____टीका--'माया व लोभे या णस्थि' माया वा लोमो वा नास्ति, 'एवं सन्न' एवं संज्ञाम्-बुद्विम् ‘ण णिवेसए' न निवेशयेत्-न कुर्यात्, किन्तु-'माया व लोमे वा अस्थि एवं सन्नं णिवेसए' माया वा लोमो वाऽस्तीत्येवं संज्ञाम्-एवमेव बुदि निवेशयेत्-व्यवहरेत् । केचन-मायालोमयोः सत्त्वं नाऽभ्युपगच्छन्ति, तन्न सम्यक् । सर्वेः प्राणिभिरनुभूयमानयोरनयोः प्रत्याख्यातुमशक्यत्वात् । अनुभूयमानस्याऽपि सद्वस्तुनोऽलापविलापे घटादीनामपि सत्वं न सेत्स्यति । अतो मायालोभयोः सद्भावमेव मन्येत, इत्यनुमोदन्ते जैना इति ॥२१॥ मूलम्–णत्थि पेजेजेब दोसे वा, णेवं सन्नं णिवेसए । अत्थिं पेज्जे व दोसे वा, एवं सन्नं णिवेसए ॥२२॥ छाया--नास्ति प्रेम च द्वेपो चा, नैवं संज्ञां निवेशयेत् । अस्ति प्रेम च द्वेपो वा, एवं संज्ञां निवेशयेत् ॥२२॥ ___टीफार्थ--माया नहीं है, लोभ नहीं है, इस प्रकार की बुद्धि धारण न करे । किन्तु माया और लोभ है, ऐसी बुद्धि धारणकरे। कोई माया और लोप्र की सत्ता स्वीकार नहीं करते, परन्तु यह ठीक नहीं है। प्रत्येक प्राणी के अनुभव में आने वाले माया एवं लोभ का निषेध नहीं किया जा सकता। अनुभव में आने वाली वस्तु का भी यदि अपला (छिपाना) किया जाएगा तो घट आदि की सत्ता भी सिद्ध नहीं होगी। अतः माया और लोभ का अस्तित्व स्वीकार करना चाहिए ।२१। 'णधि पेज्जे व दोसे वा' इत्यादि । शब्दार्थ--'णस्त्रि पेज्जे व दोसे वा-नास्ति प्रेम च द्वेषो वा' प्रेम अर्थात् राग और देप नहीं है 'णेवं सन्न निवेसए-नैव संज्ञां निवेशयेत्' ટીકાથે--માયા નથી, અને લેભ પણ નથી, આવા પ્રકારની બુદ્ધિ ધારણ ન કરે. પરંતુ માયા અને લેભ છે. એવા પ્રકારની બુદ્ધિ ધારણ કરે, કઈ કઈ મતવાળાઓ માયા અને તેની સત્તાને સ્વીકાર કરતા નથી. પરંતુ તે બરાબર નથી. દરેક પ્રાણિના અનુભવમાં આવવાવાળા માયા અને લોભને નિષેધ કરી શકાય તેમ નથી. અનુભવમાં આવનારી વસ્તુને પણ જે અપલાપ (છુપાવવું) કરવામાં આવશે તે ઘટ વિગેરેની સત્તા પણ સિદ્ધ થશે નહીં તેથી માયા અને તેમના અસ્તિત્વને સ્વીકાર કરવું જોઈએ. સૂ૦૨૧ 'णस्थि पेज्जेव दोसे वा' त्याह शा-'णत्यि पेज्जे व दोसे वा-नास्ति प्रेम च द्वेपो वा' प्रेम अर्थात् ॥ मष नथी. 'णेव सन्न निवेसए-नैव संज्ञां निवेशयेत्' से प्रभाकुनी सभा Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् अन्वयार्थः -- (गत्य पेज्जे व दोसे वा) नास्ति न विद्यते प्रेम-प्रीतिलक्षणं द्वेषो वा प्रेमविपरीतः (णेवं सन्नं णिवेसए) नैत्रम् - नैवैतादृशीं संज्ञां बुद्धिं निवेशयेत् कुर्यात् किन्तु (अस्थि पेज्जे व दो से चा) अस्ति विद्यते एव प्रेम च द्वेषो वा 'एव ं सन्नं णिवेतए' एवमीदृशीं संज्ञां बुद्धिं निवेशयेत् - कुर्यादिति ॥२२॥ टीका -- 'पेज्जे व ' प्रेम च तत्र प्रेम-प्रीतिलक्षणं पुत्रकलत्रादि रागः, द्विपरीतः 'दासेवा' द्वेषो वा 'णत्थि ' नास्ति - एतौ द्वावपि न विद्येते इति केषां • चिन्मयम्, तथाहि - मायालोभौ एवावयव विद्येते न पुनस्तत्समुदायरूपवी प्रेमरूपोऽस्ति तथा-क्रोधमानौ एव स्तः न तत्समुदायरूपोऽवयवी द्वेष इति । ५२७ ऐसी समझ रखना ठीक नहीं है किन्तु 'अस्थि पेज्जे व दोसे वा-अस्ति प्रेम च द्वेषो वा' राग और द्वेष है 'एवं सन्नं निवेस ए- एवं संज्ञां निवेशयेत्' ऐसी ही बुद्धि रखनी चाहिए ||२२|| अन्वयार्थ -- प्रेम अर्थात् राग और द्वेष नहीं हैं ऐसी समझ रखना ठीक नही है किन्तु रोग है और द्वेष है, ऐसी वुद्धि ही रखनी चाहिए ॥ २२ ॥ टीकार्थ- प्रीति अर्थात् पुत्र कलत्र आदि परिवार संबंधी राग प्रेम कहलाता है । द्वेष इस से विपरीत होता है । यह दोनों नहीं है, ऐसा किन्हीं २ का मत है । वे कहते हैं-माया और लोभ राग कहलाते हैं, अतएव इन दोनों अवयवों के अतिरिक्त दोनों का समूह रूप अवयवी राग, अलग नहीं है । इसी प्रकार क्रोध और मान इन दोनों अंशों से भिन्न द्वेष का कोई पृथक् अस्तित्व नहीं है। इस प्रकार का विचार करना राजवी ते मरोभर नथी. परंतु 'अत्थि पेज्जे व दोसे वा-अस्ति प्रेम च द्वेषो वा' राग, द्वेष छे ' एवं सन्न निवेस - एवं संज्ञां निवेशयेत्' मे પ્રમાણેની બુદ્ધી જ રાખવી જોઇએ. ૫૨૨૫ અન્વયા --પ્રેમ અર્થાત્ રાગ અને દ્વેષ નથી એવી સમજણુ રાખવી ઠીક નથી. પરંતુ રાગ છે, દ્વેષ છે એવી બુદ્ધિ રાખવી જોઈએ. ૫૨૨ ટીકાય --પ્રીતિ અર્થાત્ પુત્ર, કલ વિગેરે પરિવાર સંબંધી રાગ, પ્રેમ કહેવાય છે. દ્વેષ તેનાથી જુડા પ્રકારના હોય છે. આ બન્ને નથી. એ પ્રમાણે કેટલાકના મત છે. તેએ કહે છે કે-માયા અને લેભ રાગ કહેવાય છે. તેથી જ આ બન્ને આવયા શિવાય બન્નેના સમૂહ રૂપ અવયવી રાગ, જુટ્ઠા નથી. એજ પ્રમાણે ક્રોધ અને માન, આ બન્ને અશાથી જુદા એવા દ્વેષનુ કાઈ જીતુ અસ્તિત્વ જ નથી. આવા પ્રકારના વિચાર કરવા ચેાગ્ય નથી. પ્રેમ છે, અને દ્વેષ Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे 'एवं" एतादृशीम् ‘सन्न' संज्ञाम्-बुद्धिम् 'ण निवेसए' न निवेशयेत्-न कुर्यात् । किन्तु-पेजे व प्रेम वा 'दोसे बा' द्वेपो वा 'अस्थि' अस्ति 'एवं सन्नं शिवेसए' एवं संज्ञां बुद्धि निदेशयेत्-एवमेव विचारं कुर्यात् । इष्टेषु न भाति, अनिष्टेपु च द्वेपो भवति । इति स्वैपामनुपरहिः , इति अनुभूतयोरनयोः प्रेरद्वेषयोरपलापस्य वामशक्यत्वात् । अपितु-अनुमानस्य सम स्वरूपस्य यथा न कोऽपि अपलापं करे नि, अनुभूयमानत्यादेव । तथेगो आप नाऽपलपितुं योग्यौ, इति ॥२२॥ मूलम् णस्थि चाउरते संसारे, धंदं सन्नं णिवेसए । अस्थि चाउरंते संसारे, एवं सन्नं शिवेसए ॥२३॥ छाया-नास्ति चातुरन्तः संसारो, नैव संज्ञां निवेशयन् । __ अस्ति चातुरन्तः संसार, एवं संज्ञां निवेशयेत् ॥२३॥ उचित नहीं है । प्रेम है और द्वेष है, ना ही विचार करना चाहिए । क्योंकि इष्ट वस्तुओं पर प्रेम और अनिष्ट वस्तुओं पर द्वेष होता है, यह तथ्य सभी के अनुभव से सिद्ध है। अतएव अनुभवसिद्ध प्रेम और वेष का अपलाप (छिपाना) नहीं किया जा सकता। अनुमान फा और अपने स्वरूप का कोई भी अपलाप नहीं करता, क्योंकि उनका अनुभव होता है। इसी प्रकार प्रेम और देष भी अपलाप करने योग्य नहीं है ॥२२॥ 'णस्थि चाउरंते संसारे' इत्यादि । शान्दार्थ-'गस्थि चाउरते संसारे-नास्ति चातुरन्तः संसारः' नरक, देव, मनुष्य और तिर्यंच इन चार गतियों वाला संसार नहीं है, किन्तु પણ છે, એ પ્રમાણેને જ વિચાર કરે જોઈએ. કેમકે-ઈટ વસ્તુઓ પર પ્રેમ અને અનિષ્ટ વસ્તુઓ પર દ્વેષ હોય છે. આ સત્ય બધાના જ અનુભવથી સિદ્ધ એવા પ્રેમ અને દ્વેષને અ૫લાપ (છૂપાવવુ) કરી શકાતું નથી. અનુમાનને અને પિતાના સ્વરૂપને અપલાપ કઈ પણ કરતું નથી. કેમકે-તેઓને અનુભવ હોય છે. એ જ પ્રમાણે પ્રેમ અને દ્વેષ ૫ણ અ૫લાપ કરવાને ચગ્ય નથી. રેરા 'णत्थि चाउर ते संसारे' प्रत्याहि शहाथ-पत्थि चाउरते ससारे-नास्ति चातुरन्तः ससारः' ना२४, , भनुष्य भने तिय"५ मा प्रभारी ना यार तिवाणेससार नथी, 'णेव सन्नं निवेसऐ-नैव संज्ञां निवेशयेत्' । प्रभानी सभा शमवी मराम२ नथी. Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.५ आचारथुतनिरूपणम् अन्वयार्थ:-(णस्थि चाउरते संसारे) नास्ति-न विद्यते चतुरन्त:-चातुर्गतिकः-- नारकतिर्यमनुष्यदेवगतिलक्षणः संसारः (णे सन्नं णिवेप्सए) एवम्-ईदृशीं संज्ञां-बुद्धिं न निवेशयेत् न कुर्याद किन्तु-(अस्थि चाउरंते संप्लारे) अस्ति चातुरन्त?-चातुर्गतिकः संसारः (एवं सन्नं णिवेसए) एवम्-ईदृशी संज्ञां-बुद्धिं निवेशत्-कुर्यादिति ॥२३॥ टीका-'चाउरते' चातुस्तश्चातुर्गतिकः 'संपारे णत्थि संसारो नास्ति 'एवं' एवम् ईरशीम् 'सन्न' संज्ञाम्-विचारणा ‘ण णिवसए' न निवेशयेत्-कथमपि न कुर्यात् । अपितु-'चाउरते' चातुरन्तश्चातुर्गतिः 'सं मारे' संहारः 'अत्यि' अस्ति एवं सन्नं णिवेसए' एक्स्-ईदृशी संज्ञां-बुद्धि विचारं निर्णय वा निवेशयेत्-कुर्यात् । अयभाशयः-परिदृश्गलागश्चातुर्गतिकः संसार, नारक गति-तियागति-मनु मगति-देव गतिभेदात् । यत्र दुःखस्याऽधर्मफलमस्याऽऽत्यन्ति की परोस्कृष्टता सा नारकगतिः । यत्र च सुखदुःखयोर्मध्यमाऽवस्था सा मनुष्यगतिः यत्र सुखत्य परोत्कृष्टता सा देव'अस्थि चाउरंत संसारे-अस्ति चातुरन्तः संसार' चारगतिरूप संसार है 'एवं सन्नं निवेशए-एवं संज्ञां निवेशयेत्' ऐली बुद्धि रखनी चाहिए ॥२३॥ अन्धयार्थ--नरक, देव, मनुष्य और तियेच इन चार गतियों वाला संसार नहीं है, ऐसी बुद्धि रखना योग्य नहीं है। किन्तु चार गति रूप संसार है, ऐसी बुद्धि रखनी चाहिए ॥२३॥ टीकार्थ-चातुर्गतिक संसार नहीं है, इस प्रकार विचार करना था रखना सत्य नहीं है, अपितु चातुर्गतिक संसार है, ऐसा ही विचार रखना चाहिए। ___ आशय यह है-यह दिखलाई देने वाला संसार चातुर्गतिक है। इसमें चार गतियां हैं-नरकगति, तिर्यंचगति, देवगति और अनुष्यगति। ५२' 'अस्थि चाउरते स सारे-अस्ति चातुरन्तः स सार.' या२ गति३५ स'सार है, 'एवं सज्ञां निवेशयेत्' । प्रभानी भुद्धि धारण ४२वी न. ॥२॥ અન્વયાર્થ-નારક દેવ, મનુષ્ય અને તિય ચ આ ચાર ગતિવાળ સંસાર નથી. એવી બુદ્ધિ રાખવી ગ્ય નથી. પરંતુ ચાર ગતિ રૂપ સંસાર છે. તે પ્રમાણેની બુદ્ધિ રાખવી જોઈએ પરવા ટીકાથે–ચાર ગતિવાળે સ સાર નથી, આ પ્રકારને વિચાર કરવો તે ચોગ્ય નથી. પરંતુ ચાર ગતિવાળો સંસાર છે, આ પ્રમાણે જે વિચાર ધારણ કરવા જોઈએ. , કહેવાનો આશય એ છે કે--આ દેખવામાં આવતે સંસાર-જગત્ ચાર ગતિવાળો છે. તે ચાર ગતિ આ પ્રમાણે સમજવી. નરકગતિ તિર્યંચગતિ દેવાતિ सू० ६७ Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संप्रयार्यबोधिनी टोका वि. श्रु अ. ५ बारश्रुतनि पगम् होत्कृष्टफल मोक्तारो दे। अपकृष्टफल माजी नारकाः । सर्वज्ञाऽऽगमोऽपि एतयो स्सत्वे वंदति, अनुभूयन्ते च 'प्रत्यक्षेण तारागणाः । यद्यपि-अवान्तरभेदात्अनेकतिकः संसार इति वक्तुं युक्तम्, तथापि-असामान्यरूपेण चातुर्गतिक एवं अतश्चातुर्गतिका संमारी नास्तीनि वादो विवदतां वादिनां मोहविजृम्भित इव निस्सारः मतिभाति । यतो दि-अने पदमपि न व्यादन्यते । चातुर्गतिकः संसारोऽस्त्येव, इति विचारश्चतुरस इति । ॥२३॥ मूलम् णत्थि देवो व देवी बा, जेवं लनं णिवेसए। ' अस्थि देवो व देवी दा, एवं सन्नं णिवेसए ॥२४॥ छाया-नास्ति देवो दा देवी या, नैवं संज्ञां निवेशयेत् । - - . अस्ति देवो था देवी वा, एवं संज्ञां निवेशयेत् ॥२४|| उत्कृष्ट पुण्य फल के सोश्ता देश और निकृष्ट पाप फल के भोक्ता नारक होते हैं। सर्वज्ञ प्रतिपादित आगम को देवों और नारकों के अस्तित्व का विधान करता है । तारायण प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। यदि अवान्तर भेदों की गणना की जाय तो संसार में अनेक गतियां हैं, फिर भी सामान्य रूप ले चार ही गतियां होती हैं। अतएव संसार चातु. गैतिक नहीं है, ऐसा कहना मूढनापूर्ण एवं निस्तार है । संसार चातुगैतिक है, यही कपन समीचीन है ॥२३॥ स्थि देवो व देवी का इत्यादि । शब्दार्थ-'देवो घ देवी का स्थि-देवो वा देवी वा- नास्ति' देवनहीं है, देवी नहीं है, 'णे सन्नं निवेतए-नैवं संज्ञां निवेशयेत्' ऐसी बुद्धि रखना ठीक नहीं है किन्तु 'देवो घ देवी वा अस्थि-देवो वा देवी वा ફળને ભોગવનાર દેવ, અને અધમ પાપના ફળને ભગવનાર નારક હોય છે. સર્વજ્ઞ દ્વારા પ્રતિપાદન કરવામાં આવેલ આગમ પણ દે અને નારકોના અસ્તિત્વનું વિધાન કરે છે. તારાગણ પ્રત્યક્ષ દેવામાં આવે છે. જે અવા. ન્તર ભરોની ગણના કરવામાં આવે તે સ સરમાં અનેક ગતિ છે. તે પણ સામાન્ય પણાથી ચાર જ ગતિ કહેલ છે. તેથી જ સંસાર ચાર ગતિવાળે નથી, તેમ કહેવું મૂર્ખતાથી પૂર્ણ અને નિસાર છે. સંસાર ચાર ગતિવાળે છે. આ પ્રમાણેનું કથન જ ગ્ય છે પાર ' __णथि देवो व देवी वाया - 11 : }. 4.1. ! valथ--'देवो व देवी वा' णत्थि-देवो वा देवी वा नास्ति' वा नथी. अन पys 'नथी, 'णे सन्न- निवेवर-नैव सज्ञा' निवेशयेतं! म प्रमा Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्थबोधिनी टीका द्वि. थु. अ. ५ ओवारश्रुतनिरूपणं ५३३ वा देव्यो वा सन्त्येवायमेन श्रेयान् विचारः सर्वदा करणीयः । अनुमानाऽऽगमाभ्यां प्रमाणभूताभ्यामेतेषामस्तित्व सद्भावात् | २४|| मूलम् - रिथ सिद्धी असिद्धी वा, जैवं सन्नं लिए । अस्थि सिद्धी सिद्धी वा एवं सन्नं णिवेसए ||२५|| छाया - नास्ति सिद्धिरसिद्धिर्वा नैवं संज्ञां निवेशयेत् । अस्ति सिद्धिरसिद्धिर्वा एवं संज्ञां निवेशयेत् ॥२५॥ विचार करना चाहिए | प्रमाणभूत अनुमान और आगम से उन का अस्ति स्व सिद्ध है। कोई कोई पुत्रशाली जीव उन्हें स्वप्न में देखते भी हैं ||२४|| 'णत्थि सिद्धी असिद्धी वा' इत्यादि । शब्दार्थ - 'सिद्धी णत्थि - नास्ति सिद्धि:' सिद्धि - (समस्त कर्मों का रूप नहीं है और 'असिद्धी वा असिद्धी व असिद्धि भी नहीं है 'णेवं सन्नं निवेस्सए-नैवं संज्ञां निवेशयेत्' ऐसा विचार करना योग्य नहीं है, किन्तु 'अस्थि सिद्धी असिद्धी वा-अस्ति सिद्धिरसिद्धि af' सिद्धि है, और असिद्धि भी है ' एवं सन्नं निवेसए - एवं संज्ञां निवेशयेत' ऐसा विचार करना चाहिए || २५॥ अन्वयार्थ - सिद्धि (समस्त कर्मो का क्षयस्वरूप) नहीं है और असिद्धि भी नहीं है, ऐसा विचार करना योग्य नहीं है, किन्तु सिद्धि है और असिद्धि भी है, ऐसा विचार करना चाहिए ||२५|| છે, પ્રમાણભૂત અનુમાન અને આગમથી તેનુ અસ્તિત્વ સિદ્ધ થાય છે. કાઈ કોઈ પુણ્યશાળી જીવ તેને સ્વમમાં પણ દેખે છે. ારકા ' णत्थि सिद्धी असिद्धी वा' त्यिाहि शब्दार्थ -- सिद्धी णत्थि - नास्ति सिद्धिः सिद्धी (सघणा भेना क्षयनाश ३५) नथी. भने 'असिद्धी व असिद्धि वा' असिद्धि पशु नथी. 'णेव सन्न' निवेसए - नैत्रं संज्ञां नित्रशयेत्' मा प्रभानो विचार व योग्य नथी. परंतु 'अत्थि सिद्धी असिद्धी वा-अस्ति सिद्धिरसिद्धि र्वा' सिद्धि छे भने असिद्धि पशु छे, ' एवं सन्न निवेस - एवं स ज्ञां निवेशयेत्' मा प्रभानो विचार ४२ ले २५ અન્વયા ——સિદ્ધિ (સમસ્ત કર્મના ક્ષય રૂપ) નથી અને અસિદ્ધિ પશુ નથી, એવા વિચાર કરવે! ચેાગ્ય નથી. પરતુ સિદ્ધિ છે. અને અસિદ્ધિ પણ છે એવા વિચાર કરવા જોઈએ. ઘરમા Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि.श्रु. अ. 5 आचारश्रुतनिरूपणम् कस्यचित्कदाचित् क्षीयते / समुदायत्वात्, परिदृश्यमानघटादिसनुदायवत् / इत्याधनुमानेनाऽऽगमेनानेन-बृहत्या प्रवृत्त्या च महापुरुषाणां सिद्धिः सिद्धयति / अयं भावः-सम्यगृज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणस्य मोक्षमार्गस्य सर्वथा कर्मक्षयस्य पीडोपशमादिनाऽध्यक्षेण दर्शनादत:-कस्यचिदात्यन्तिककमहानिसिद्धरस्ति सिद्धिरिति, / तथोक्तम्-'दोषावरणयोहानि निःशेषाऽस्त्यतिशायिनी / क्वचिद् यश स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः ॥इत्यादि। ___ असिद्धेः म्वरूपं तु सुनिरूपित्तसेवाऽस्माभिः सवैरतुभूतमनुथूरमानञ्च / अब हमे न इति विचारणा सर्वयाऽरमणीया। इसे निचे ते इति ज्ञानं ज्ञानमतोऽन्यथाऽज्ञानम् / 25 / अवश्य होता है, जैसे घट हनुदाय का। इत्यादि अनुमानों से अगम प्रमाण से और महापुरुषों द्वारा सिद्धि के लिए प्रवृत्ति करने से सिद्धि की सिद्धि होती है / भाव यह है कि सम्यग्दर्शल, ज्ञान एवं चारित्र रूप मोक्ष मार्ग की, सर्वथा कर्मक्षय की पीड़ा के उपशम से कार्य फा क्षय प्रत्यक्ष देखा जाता है, अतः यह भी समझा जा लगाता है कि किती आत्या के कर्मों का सर्वथा क्षय भी होता है / कहा भी है'दोषावरणयोहानि' इत्यादि। जैसे माल को नष्ट करने के कारण मिलने पर बाय और आन्तर मल का नाश हो जाता है, इसी प्रकार रागादि दोषों का भी किसी आत्मा से सर्वधा क्षय हो जाता है। अलिद्धि का स्वरूप तो स्पष्ट से सिद्ध ही है। उसका हम सब ने છે જે જે સમુદાય હોય છે. તેને ક્ષય ક્યારેને કયારે પણ થાય છે જ જેમ ઘંટ સમુદાયને ક્ષય, આ વિગેરે અનુમાનથી અને આગમના પ્રમાણેથી અને પુરૂષ દ્વારા સિદ્ધિને માટે પ્રવૃત્તિ કરવ થી સિદ્ધિની સિદ્ધિ થાય છે. * કહેવાનો ભાવ એ છે કે– સમ્યક્ દર્શન, જ્ઞાન અને ચારિત્ર રૂપ સમ્યક્ તપ મોક્ષ માર્ગની સર્વથા કર્મક્ષયની પીડાના ઉપશમથી કર્મને ક્ષય પ્રત્યક્ષ જોવામાં આવે છે તેથી એ પણ સમજી શકાય તેમ છે કે-કેઈ आत्माना ना सथा क्षय 55 छ'दोपावरणयोहानि' त्यादि. - જેમ' મળ–મેલને નાશ કરવાનું કારણ મળવાથી બાહ–-બહારનો અને આભ્યન્તર–અંદરને મેલ નાશ પામે છે, એ જ પ્રમાણે રોગ વિગેરે દેને તથા આવરણોને પણ કેઈ આત્મામાં સર્વથા ક્ષય થઈ જાય છે અસિદ્ધિનું સ્વરૂપને સ્પષ્ટ રીતે સિદ્ધ જ છે. અમે બધાએ તેને