SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 459
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थान निरूपणम् १९७ वा वेग वा' जोत्रेग वा वेत्रेण वा 'णेतेण वा' नोदकेन वा प्रेरकदण्डेन 'तयाइ चा' त्वचा वा-त्वनिर्मितेन 'कण्णे वा' कराया वा 'छेयाए वा' छेदकेन वा - परश्वादिना 'लपाए वा' लतया वा 'अन्नवरे वा' अन्यतरेण वा 'दवरएग वा' दवरकेण वा 'पासाइ उद्दालिता भवई' पार्श्वानि उद्दालयिता भवति, अर्थात्-कशादिभिः पार्श्वस्थं चर्म उत्पाटनति 'दंडेग वा-त्रीण वा मुट्ठीण वालूण वा-कपाले वा कार्य आउट्ठिता भाई' दण्डेन वा यष्ट्यादिना अस्था वा मुष्टिना वालेन्दुना वा (लोष्ट्रेग) वा कपालेन वा घटावयवेन वा कार्यशरीरम्-आकुयिता भवति - हिनस्ति । दण्डादिना प्रहार्यं तदीयशरीरं शिथिल यति । 'तहप्पगारे पुरिसनाएं' तथाप्रकारे - ईशभीषण कर्मकारिपुरुषजाते 'संत्रसमाणे' संवसतिगृहे तदीय पुत्रकलत्रभ्रातृ मागिन्यादयः 'दुम्मणा भवति' दुर्मनसो भवन्ति 'मागे' प्रत्रपति-गृहाद्विनिर्गते सति तदीयवान्धवाः 'सुमणा भवंति' सुमनसः - प्रसन्ना भवन्ति' हिमावाये कमवत् इति । 'तहपगारे पुरिसजाए' तथाप्रकारो दुष्कर्मा पुरुषजातः । दंडवासी' दण्डपार्थी - दण्डः पार्श्वे यस्य स तथा, स्वल्पापराधेऽपि अधिकदण्डदायकः 'दंडगुरुए' दण्डगुरुकः " है, जोत से, वेत से, आर लगे डंडे से, चमड़े के चाबुक से, फरसा से, लता से, किसी प्रकार के रास्ते से मार-मार कर अपराधी के पाइर्व भाग की चमड़ी उधेड़ देता है या लाठी से हटी से, घूसे से, ढेलेले, कपाल से शरीर पर आघात पहुंचाता है। डंडे मार-मार कर शरीर को ढीला कर देता है । ऐसा पुरुष जब घर के भीतर रहता है तो उसके माता, पिता, भाई, भागिनी आदि दुःखी और उदास रहते हैं और जब वह घर से बाहर निकल जाता है तो प्रसन्न होते हैं, हिम के नष्ट हो जाने पर कमलचन के समान खिल उठते हैं । ऐसा पुरुष बगल में डंडा रखता है-थोडे से अपराध का अधिक दंड देता है, तेमां पाडे छे, लेनरथी, वेतथी, मार सगावेसा डंडाथी, ચામડાના ચાબુકથી, ફરસાથી, લતાથી કોઈ પણ પ્રકારથી મારી મારીને અપરાધીના પડખાના ભાગની ચામડી ઉખેડી નાખે છે, અથવા લાકડીથી, હાડકાથી, ઘુસ્તાથી, ઢંખલાથી, કપાળો, શરીર પર પીડા પહેાંચાડે છે ડડા મારી મારીને શરીરને ઢીલુ કરી દે છે. એવો પુરૂષ જ્યારે ઘરની અ ંદર રહે છે, તે તેના માતા, પિતા, ભાઇ, મહેન વગેરે દુઃખી અને ઉદાસ રહે છે, અને જયારે તે ઘરની બહાર નીકળી જાય છે, ત્યારે તેઓ સઘળા પ્રસન્ન થાય છે, જેમ હિમના નાશ થવાથી કમળ વન ખીલી ઉઠે છે, તેમ તેએ ખુશી
SR No.009306
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages791
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size45 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy