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समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. म. ५ आचारभुतनिरूपणम्
अन्वयार्थ--(जमिय) यदिदं-परिश्यमानम् (ओराल) औदारिकं शरीरम् (आहार) आहारके शरीरम् (च कम्मगं) च-पुनः कार्मणं शरीरम् (तहेव य) तथैव च, च. शब्दाद् वैक्रियतैजसशरीरयोः परिग्रहः, एतानि शरीराणि एकान्ततर नाभिन्नानि कारणभेदात् नवा एकान्ततो भिनानि कारण सेदात, अत एकान्तवचनं न वक्तव्यम्, एवम्-(सक्वत्थ बीरियं अस्थि) सर्वत्र वीर्यमस्ति इत्यपि एकान्त रचनं न वक्तव्यम् (पर्व सव्वस्थ बीरिय नस्थि) सर्वत्र वीर्य नास्ति, इत्यपि, एकान्तपचनं न वक्तव्यम्, एकान्तवचनस्याऽनाचारत्वादिनि, ॥१०॥ भिम भी नहीं है, क्यों की एक ही देश और काल में उपलब्ध होते हैं, और सभी पुद्गल परमाणुओं से निर्मित हैं। अतएव इन के भेद और अभेदके सम्बन्ध में एकान्तवचन करना नहीं चाहिए 'सव्वस्थ, वीरिय: अस्थि-सर्वत्र वीर्य अस्ति' सर्वत्र वीर्य है, अर्थात् सभी पदार्थों में प्रत्येक पदार्थ की शक्ति विद्यमान है, अथवा 'सम्वत्थ वीरियं नथि-सर्वत्र वीर्य नास्ति' सर्वत्र वीर्य विद्यमान नहीं है, ऐसा एकान्त वचन भी नहीं कहना चाहिए ॥गा०१०॥ ____ अन्वयार्थ-यह जो दिखाई देने वाला औदारिक शरीर है, श्राहा रक शरीर है, कार्मण शरीर है और 'च' शब्द से वैक्रिय तथा तैजसः शरीर हैं यह पांचो शरीर एकान्ततः भिन्न भी नहीं है, क्योकि एक ही देश और काल में उपलब्ध होते हैं और सभी पुद्गलपरमाणु ओं से निर्मित हैं। अतएव इनके भेद और अभेद के संबंध में एकान्तवचन नहीं कहना चाहिए । सर्वत्र वीर्य हैं अर्थात् सभी पदार्थों में કેમકે એક જ દેશ અને એક જ કાળમાં ઉપલબ્ધ-પ્રાપ્ત થાય છે. અને બધા જ પુદ્ગલ પરમાણુઓથી બનાવેલ છે. તેથી જ આના ભેદ અને અભે हुन। समयमा सन्त क्यन खा न नये 'सव्वत्थ वीरियं अस्थिसर्वत्र वीर्यमस्ति' ५। पीय छ अर्थात् सा पहामा १२४ पहानी शति २दी छे. या 'सव्यत्य वीरियं नस्थि-सर्वत्र वीर्य नास्ति' मधे શક્તિ વિઘમનિ નથી. એ રીતથી એકાન્ત વચન પણ કહેવા ન જોઈએ. ૧
અન્વયાર્થ–જે આ દેખવામાં આવનારૂં ઔદારિક શરીર છે, આહારક શરીર છે, કામણ શરીર છે, અને ચ શબ્દથી વૈકિય અને તૈજસ શરીર છે, આ પચે શરીર એકા-તત જુદા નથી કેમકે એક જ દેશ અને કાળમાં પ્રાપ્ત થાય છે. અને બધા જ પુલ પરમાણુઓથી નિર્મિત છે તેથી જ તેના ભેઢ અને અભેદને સંબંધમાં એકાન્ત વચન કહેવા ન જોઈએ,