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________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगौशालकस्य संवादनि० ६१३ अन्वयार्थः-(आरं भगं चेव) आरम्भकम्-माणातिपातादिलक्षणम् (परिगहं च) धनधान्यादिलक्षणम् (अविउस्सिय) अव्युत्सृज्यापरित्यज्य (पिस्सिय) नि:त्रिता:-बद्धाः (आयदंडा) भात्मदण्डा ये वणिनः (तेसि च) तेपां च (से उदर) स उदयः-धनका मादिरूपः (जं चयासी) यमवादी: (प चउरंतणताय दुहाय) स चतुरन्तानन्ताय दुःखाय (णेह) नेह वणिजां लाभः संसारदुःखाय न तु सुखाय, तीर्थकरस्योदयश्च केवलज्ञानप्राप्तिलक्षणो न तथा किन्तु सुखायेति ॥२३॥ होते हैं 'आयदंडा-आत्मदंडाः' वे अपनी अत्माको दण्डित करने वाले हैं, तुमने 'तेसि-तेपां' उनका 'जबयासी-यमवादीः' जो उदय कहा है, 'से उदए-स उद्य' यह उदय 'चारतणंत्राय दुसाध-चतुरन्तान. न्ताय दुखाय' चतुगतिरूप और अनंत दुःखका कारण होता है, 'णेह -नेह' वह उद्य कभी नहीं भी होता है, अर्थात् ऐकान्तिक नहीं है, तीर्थकर भगवान का उदय केवल ज्ञान प्राप्तिरूप है, वह व्यापारी के उदयके तुल्य न होकर केवल सुखका ही कारण होता है ॥२३॥ अन्वयाय--प्रागातिपाल आदि आरंभ तथा धन धान्य आदि परिग्रह को न त्याग कर के व्यापारी उस में आसक्त होते हैं। वे अपनी आत्मा को दण्डिन करने वाले हैं । तुमने उनका जो उदय कहा है, वह चतुर्गतिक एवं अनन्त दुःख का कारण होता है। वह उदय कभी नहीं भी होता है अर्थात् एकान्तिक नहीं है । तीर्थंकर भगवान् का उदय केवलज्ञानप्रासि रूप है । वह व्यापारी के उदय के समान न होकर सुख का कारण ही होता है ॥२३॥ आत्मदण्डा' तो पाताना मात्मान ४ देवापामा छ. तमे वेसिं-पर 'जं वयासी-यमवादीत्' हय डेस छे. 'से उदए- उदयः'लय 'चाउरत. तोय दुहाय-चतुरन्तानन्ताय दुःखाय' यतुति ३५ मने मनतमना रस ३५ डाय छे. 'णेह-नेह' G६५ ४यारेन ५५ यता डाय मर्थात् मेdिs હોતો નથી. તીર્થકર ભગવાનને ઉદય કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્તિ રૂપ છે તે વ્યાપારીના ઉદય પ્રમાણે ન થતાં કેવળ સુખના જ કારણું રૂપ હોય છે પર૩ અન્વયાથ–પ્રાણાતિપાત વિગેરે આરંભ તથા ધન ધાન્ય વિગેરે પરિ. ગ્રહ ત્યાગ ન કરવાથી વ્યાપારી લેક તેમાં આસક્ત રહે છે તેઓ પિતાના આત્માને દંડિત કરવા વાળા હોય છે. તમે તેમને જે ઉદય કહ્યો છે. તે ચાતતિક અને અનંત દુઃખના કારણ રૂપ હોય છે. તે ઉદય કયારેક ન પણ હોય અર્થાત્ કાયમ થાય જ તેમ એકાન્તિક નથી તીર્થકર ભગવાનનો ઉદય કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્તિ રૂપ છે. તે વ્યાપારીને ઉદય જે હેત નથી પણ સુખના કારણ રૂપ જ હોય છે. પારકા
SR No.009306
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages791
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size45 MB
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