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________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिशानिरूपणम् ४२५ पूर्वकृतस्वकर्मोदयात् सस्थावरप्राणिनां सचित्तेषु - अचित्तेषु वा शरीरेषु, तत्रसचित्तेषु पृथिवी रूपेण तथा द - दन्तिमस्तकेषु मुक्तारूपेण स्थावरवंशप्रभृतिषु मुक्ता फलरूपेण, एवमचित्तप्रस्तरादौ लवणरूपेण, तथा-नानामकारक पृथिवीषु शर्करा बालुकासितालवणादिरूपेण उत्पद्यन्ते इति । 'इमाओ गादाओ अणुगंतन्त्राओ' प्र विषये इमाः - वक्ष्यमाणा गाथा अनुगन्तव्याः । शास्त्रवर्णिता गाथा अनुगमनीयाः "पुदवी य सक्करा' पृथिवी च शर्करा 'चालुया य उबले' चालुका च उपला-पाण 'सिलाय कोणू से' शिला च लत्रणः, तत्र लवणो लोकप्रसिद्ध', 'अपत्तयतंवनीस रुप 3 * ६ १० ११ सुवणे यवइरे य' अयताम्रशीशक रूप्य सुत्रर्णानि च चत्राणि च तत्र अय:कोह:, त्रपु - रांगा 'हरियाले हिंगुलए मणोसिला सासगंजणपचाले' हरिवालं १४ के रूप में तथा वालुका (रेन) के रूप में प्रसिद्ध है। कहने का भाव यह है कि कितने जीव पहले किये अपने कर्म के उदय से बस एवं स्थावर प्राणियों के सचित्त अथवा अचित्त शरीरों में अर्थात् सचित में पृथ्वी के रूप में तथा हाथी के मस्तक में मुक्ता के रूप से तथा स्थावर में वॉस आदि में मोती के रूप में एवं अचित्त में पत्थर में लवण रूप से (सैंधव नाना प्रकार की पृथ्वीयों में शर्करा, वालुका लवण आदि रूप से उत्पन्न होते हैं । तथा इसी प्रकार के अन्य रूपों में उत्पन्न होते , हैं । उन रूपों को जानने के लिए इन गाथाओं का अनुसरण करना चाहिए। शास्त्र में वर्णित वह गाथाएँ इस प्रकार हैं (१) पृथ्वी (२) शर्करा (३) वालुका (४) उपल (पाषाण) (५) शिला (६) लवण - ऊष (खारी) (७) लोहा (८) रांगा (९) ताँबा (१०) शीशा 4 રૂપે, પ્રસિદ્ધ છે. કહેવાના આશય એ છે કે—કેટલાક જીવા પહેલાં કરેલા પે'તાના કર્મીના ઉદયથી ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાણિયાના સચિત્ત અથવા અચિત્ત શરીયામા અર્થાત્ ચિત્તમાં પૃથ્વીના રૂપે તથા હાથીના માથામાં મેાતીના રૂપે તથા સ્થાવરમાં વાંસ વગેરેમાં મેતી રૂપે એવ' અચિત્તમાં પત્થરમાં ( सवाशु ३ये (सीधाधु) ने अमरेनी पृथ्वीयेोभां शरा, वालुओं, वायु વિગેરે રૂપે ઉત્પન્ન થાય છે તથા આવા પ્રકારના મીજા રૂપેમાં ઉત્પન્ન થાય છે તે રૂપાને જાણવા માટે આ ગાથાએનું અનુસરણ કરવુ જોઈ એ शास्त्रमा वर्षात ते गाथाओ सा प्रभा छे – (१) पृथ्वी (२) शश (3) बालु४। (४) उपस- पाषाणु (4) शिक्षा (९) सत्राशु - प (मोर) सु० ५५
SR No.009306
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages791
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size45 MB
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