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________________ पिठीका द्वि. भु. म. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् 'ईवी ४ जावा माना या निपूकः पाठः 'पूर्व से परिष्णायकम् मे एवं स परिज्ञातकर्मा भवति प्राच्यादिदिग्भ्यः समागतो हामी यो भिक्षुरारम्परिभ्यां रहितः स एव कर्मरहस्यज्ञाता भवति, एवं सेव + 円 ܘ ܊ ܃ १२९ कम्' एवं सर्मा भवति एवं मधुः कर्मबन्धनरहितों भवति एवं से च अंशकारण भवतीति मक्खायें' एवं व्यंन्तकारको भाति स एव भिक्षुः कर्मक्षयकारको भवति इत्याख्यातम् उक्तप्रकारेण प्रतिपादितं वीर्थक्रता- भगवतेति ।। ०१-४ ।। T} ", I phot i 40 मूलम् - तत्थ खलु भगवया छज्जीवनिकाया हेऊ पण्णत्ता, L 3677. ". 21 53 our E जहा पुढवीकाए 'जाव तसकाए से 'जहाणामए मम अलायं दंडेण वा मुट्ठी वा लूण वा कालेन वा आउहिज्ज माणऐसा हम्ममा वा तज्जिनमाणस्स वा "ताडि नमार्णस्त परियाविज्जमा वा किलाभिज्जेमणिस्स वा उदविज्ज मार्णस्स वा 'जाव" लोमुक्खणणमायम वि "हिंसाकारंगं दुक्खं भयं परिसंवेदेोम इच्चेत्रं जाण सर्वे जीवा सव्वे भूया सव्वे पाणी सवे सत्ता दंडेण वा जांव कवांले वा आउहिज्जेमाणावा कहा कि पूर्वादि ६ दिशा से आम जो माधुपरि ग्रह और आरंभ से रहित है, वही फर्म के स्वर को जानता है। इस प्रकार वह समस्त कर्मो से रहित होकर कर्मों का क्षय करता है । सार्वये कर्मों की अनुष्ठान करने वाले गृहस्थ, शाक्य आदि श्रम तथा ब्रह्मकर्मों का क्षय करने में समर्थ नहीं होते, सुमी जस् सबमी आदि शिष्यों से कहते हैं । यही तीर्थकरों का कथन है ॥१४॥ 11 1 r F V 1,4 હું કહુ છુ કે પૂર્વ' વિગેરે છ દિશાએએથી આવેલા જે સાધુ િ (ગ્રો અને આરસ વિનાના છે, એજ કર્મોના સ્વરૂપને જાગે છે આ પ્રમાણે ते समजा मेथी रहिनने मेन क्षय ४२ छे, सावध !भानु, अनु વ્હાન કરવાવાળા ગૃપ શાકય વિગેરે શ્રણ તથા બ્રહ્મણુ કર્મોનો ક્ષય विश्वास समर्थ यता नथी #& pesque સુધર્માસ્વામી જસ્વામી વિગેરે શિષ્યને કહે છે કે આજ ની 6 शत्रु कथन छ }' । सू० १७
SR No.009306
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages791
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size45 MB
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