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________________ १५२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ - (भूयामिसंकाए ) भूताभिशङ्कपा-माणातिपातभयेन ( दुर्गुछमाणा) जुगुप्समाना:- घृणां कुर्वन्: (सव्वेर्सि पाणाण दंड निहाय) सर्वेषां प्राणान जीवानां दण्डम्वधं निहाय - परित्यज्य (तम्हा) तस्मात् कारणात् ( पगार) तथाप्रकारं तादृशमादारम् (ण भुंजंति) न भुञ्जते ( इद) इह - अत्र जैनशासने (संजयाणं) संयतानां साधूनाम् (सोऽणुमो) एपोनुधर्मः तीर्थकर परम्परया प्राप्तः ध्रुवचारित्रलक्षण इति ॥४१॥ 'भूयाभिसंकाए दुर्गुछमाणा' इत्यादि । शव्दार्थ - 'नूयाभिसकाए-भूताभिशङ्कया' प्राणियों की हिंसा के भय से 'दुगुछमाणा - जुगुप्समाना: ' सावद्यक्रिया से घृणा करने वाले उत्तम पुरुष 'सव्वेसिं पाणाण दंडं निहाय सर्वेषां प्राणानां दण्डं निहाय ' समस्त जीवों को दंड देने का त्याग करके 'तम्हा तहगारं तस्मात् तथाप्रकारं ' दूषित आहार 'ण भुंजंति - न भुञ्जते' ग्रहण नहीं करते है । 'इह - इह' इस जैन शासन में 'संजयाणं - संपतानां साधुओं का 'एसो - एप:' इस प्रकार का 'अणुधम्मो - अनुधर्म:' परम्परा से प्राप्त श्रुतचापि धर्म हैं ॥ ४१ ॥ अन्वयार्थ - प्राणियों की हिंसा के भय से सावद्य क्रिया से घृणा करने वाले उत्तम पुरुष समस्त जीवों को दंड (मारनेका) देने का त्याग करके दूषित आहार ग्रहण नहीं करते हैं। जैनशासन में साधुओं का यह परम्परागत - तीर्थकरों की परम्परा से प्राप्त श्रुतचारित्ररूप धर्म है ॥ ४१ ॥ 'भूयाभिसंकाए दुर्गुछमाना' या हि शब्दार्थ -- भूयाभिसंकार- भूत। भिशङ्कया' प्राथियोनी डिसाना अयथी 'दुगु - छमाणा-जुगुप्समानाः' सावध दियाथी घृषा उरवावाजा उत्तम पुरुष 'सव्वेसि पाणाण दुई निहाय सर्वेषां प्राणानां दंडं निहाय' मधा छपाने ठंड (भावाना) हेवाना विचारतो त्याग उरीने 'तम्हा तहपगार - तस्मात् तथानकार" तेवा प्रभारी हर्षित आद्वार 'ण भुजंति - न भुञ्जते' श्रथ उरता नथी. ' इह - इह ' आ जैन शासनभां 'संजयाण - संयतानां' साधुओनो 'एमो एप' मा प्रार 'अणुवम्मो - अणुधर्म.' परम्पराथी प्राप्त श्रुत शास्त्रिय धर्म छे. ॥४१॥ અયાય—પ્રાદ્ઘિચેની હિંસાના ભયથી સાવદ્ય ક્રિયાની ઘણા કરવાવાળા ઉત્તમ પુરૂષો સઘળા જીવાને દડિત કરવાના (મારવાને) ત્યાગ કરીને દૂષિત ખાર કહણ કરતા નથી. જૈન શાસનમાં સાધુએના આ પરમ્પરાગતતીથ‘કરાની પરંપરાથી પ્રાપ્ત શ્રુત ચારિત્ર રૂપ ધર્મ છે. ૫૪૧૫
SR No.009306
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages791
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size45 MB
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