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________________ सूत्रकृताङ्गet गुप्तेन्द्रियाः 'गुत्तभयारी' गुप्तब्रह्मवर्याः 'अकोदा' अक्रोधाः 'अनाजा' अमानाः, 'अमाया' अमाया 'अलोहा' अलोभाः क्रोधमानमायालोमादिभिः परिवर्जिताः 'सेवा' शान्ताः 'पसंता' मशान्ताः - अतिशयेन 'उनसंता' उपयान्ता - वाद्यान्तरान्तिसहिताः परिनिबुडा' परिनिवृत्तापत्रस्तसन्तापरहिता इत्यर्थः 'अवासवा' अनावा:-आस सेवनरहिताः 'अग्गंथा' अग्रन्थाः - समस्त परिग्रहरहिताः 'छिन्नपोया' छिन्नयोकाः छिन्नो विदारितः शोकपदवाच्यः संपाते यैस्ते छिन्नशोकाः 'निरुलेना' निरुालेपा:- कर्मरूपला हिताः 'कंसपाई मुक्कतोया' करियपात्रीच मुक्तनीया::- यथाकांस्यपात्रं जलन नितविकारेण न लिप्यते तद्वत् फर्ममलरलिप्ताः 'संबो इन णिरंजणा' शङ्ख इव निरञ्जनाः, यथा शङ्खः प्रकृत्या स्त्रच्छो न तु कालिपादिदोपैः संस्पृष्टो भवति तथैव हि भवन्ति रागादिदोषैरनाघाताः । 'जीव इव अध्यडियगई' जीव इवाऽप्रतिहतगतयः, यथा जीवानां गतिर्न मतिरुध्यते, तथा यथोक्तमहतामपि न निरुध्यते गतिः । 'गगणवलं व निरालंबणा - २९३ साथ ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। कोध मान माया और लोभ से रक्षित होते हैं। शान्त, प्रशान्त, उपशान्त-वाह्य एवं आन्तरिक शान्ति से सम्पन्न होते हैं। परिनिर्वृत्त, आस्रवद्वारों से रहित, समग्र ग्रंथियों से रहिनछिन्नशोक-संसार के मूल को छेदन कर देने वाले अथवा शोक से रहित कर्मरूप मल से रहित, जैसे कांसे का पात्र जल के लेप से लिप्त नहीं होता उसी प्रकार कमल से लिप्त न होने वाले, जैसे शंख स्वभाव से निष्कलंक होता है, उसी प्रकार समस्त कालिमा से रहित होते हैं। जैसे जीव की गति रोकी नहीं जा सकती, वैसे भी उनकी गति में भी रुकावट नहीं डाली जा सकती । ચાને વિયેથી ગેપન કરીને રાખે છે. નત્ર વાડેાની સાથે બ્રહ્માનું પાલન पुरे छे, क्षेत्र, भात, माया भने से नयी रडित होय छे, शान्त, प्रशान्त, ઉપશાન્ત-ખાદ્ય અને આંતરિક શક્તિથી યુક્ત હાય છે. પરિનિવૃત, આસવ, દ્વારાથી રહિત સઘળી થિયેથી રહિત છિન્ત શાક-સ ́સારના મૂળનું છંદન કરવાવાળા, અથવા શેકથી રિત કરૂપ માથી રહિત, જેમ કાંસાનું વાસસુ પાણીના લેપની લિપ્ત થતુ નથી, એજ પ્રમાણે કમ રૂપી મળથી ન ઉપાનારા, જેમ શખ સ્તભાવથી નિષ્ફલક હોય છે, એજ પ્રમાણે સઘળા પ્રડારની કાલિમા-મલિન પશુથી હિત હોય છે જેમ જીવની ગતિ ૨ કી ચાતી નથી, તેમ તેની ગતિમાં પદ્મરકારૢ કરી શકાતું નથી.
SR No.009306
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages791
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size45 MB
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