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________________ समार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् मूलम् - अहावरे तच्चे पुरिसजाए ईसरकारणिए इइ आहिज्जइ, इह खलु पाईणं वा ४ संतेगइया मणुस्सा भवंति, अणुपुव्वेणं लोयं उववन्ना, तं जहा - आरिया वेगे जाव दुरूवा वेगे तेसिं चणं महंते एगे राया भवइ जाव सेणावइपुत्ता, तेसिं व " गतिए सड्डी भवइ, कामं तं समणाय माहणा य संपहारिंसु गमणाए जाव जहा मए एस धम्मे सुयक्खाए सुपन्नत्ते भवइ, इह खलु धम्मा पुरिसाइया पुरिसोत्तरिया पुरिसप्पणीया पुरिससंभूया पुरिसपज्जोइया पुरिसमभिसमण्णागया पुरिसमेव अभिभूय चिति, से जहा णामए गंडे सिया सरीरे जाए सरीरे संबुट्टे सरीरे अभिसमण्णागए सरीरमेव अभिभूय चिट्टइ, एवमेव धम्मादिपुरिसाइया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति । से जहां णामए अरई सिया सरीरे जाया सरीरे संवुंड्रा सरीरे अभिसमण्णागया सरीरमेव अभिभूय चिट्ठइ, एवमेव धम्मा वि पुरिसा इया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति । से जहा णामए वम्मिए सिया पुढविजाए पुढविसंबुड्ढे पुढवि अभिसमण्णागए- पुढवि मेव अभिभूय चिgs, एवमेव धम्मा वि पुरिसाइया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिति । से जहा णामए रुक्खे सिया पुढविजाए पुढविसंबुड्ढे पुढविअभिसमण्णागए पुढविमेव अभिभूय चिह्न, कीचड में ही फस जाते हैं और विषाद को प्राप्त होते हैं । अतः चार गति वाले अनन्त संसार में परिभ्रमण करते हैं । यह दूसरो पुरुष पंच महाभौतिक कहा गया है ॥१०॥ વ્યાસ કરે છે. ચાર ગતિવાળા આ અનંત એવા સંસારમાં તેએ ભટકવા કરે છે. મા ખીને પુરૂષ તે પચમહાભૌતિક કહેવામાં આવેલ છે. ૧૦ના सू० ११
SR No.009306
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages791
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size45 MB
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