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________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगौशालकस्य संवादनि० ६२१ मूलम्-पिन्नागपिंडीमवि विद्वसूले केइ पएज्जा पुरिसे इमे त्ति। अलाउयं वावि कुमारएत्ति स लिप्पई पाणिवहेण अम्हं ॥२६॥ छाया--पिण्याकपिण्डीमपि विद्ध्वा शूले कोऽपि पचेत्पुरुषोऽयमिति । अलावुकं वाऽपि कुमार इति स लिप्यते माणिवधेनाऽस्माकम् ।।२६।। अन्वयार्थः- (केइपुरिसे) कश्चित्पुरुषः (पिन्नागपिंडीमवि) पिण्याकपिण्डमपि-खलपिण्डमपि (मूले) शूछे (विद्ध) विद्ध्वा-आरोप्य (पुरिसे इमेत्ति) पुरुषो. ऽयमिति कृत्वा (पएज्जा) पचेत् पाचयेद्वाऽग्नौ, (वावि) वाऽपि-अथवाऽपि भगवान् उनका अनुमोदन नहीं करते और रागद्वेष से रहित होते हैं। यही यात सूत्रकार ने यहां दिखलाई है ॥२५॥ 'पिन्नागपिंडीमवि विद्ध मुले' इत्यादि । शब्दार्थ- 'केह पुरिसे-कश्चित्पुरुषः' कोई पुरुष 'पिन्नागपिंडीमविविण्याकपिंडमपि' खल के पिंड को 'सूले-शूले' शूली से 'विद्ध-विद्ध्वा' वेधकर (छेदकर) 'पुरिसे इमेत्ति-पुरुषोयमिति' यह पुरुष है, ऐसा सोच कर 'पएजा-पचेत्' पकावे 'वावि-अथवापि' अथवा 'अलावुर्ग-अलावुकं' तंवे को 'कमारएत्ति-कुमारोऽयमिति' कुमार (चालक) समझ कर पकावे तो हमारे मत के अनुसार 'स पाणिवहेण-सः प्राणिवधेन' वह पुरुष जीव वध से 'लिप्पइ-लिप्यते' लिप्त होता है 'अम्हं-अस्माकम्' ऐसा हमारा शाक्यों का मत है ॥गा० २६॥ * अन्वयार्थ-कोई पुरुष खल के पिण्ड को शूली से वेध कर 'यह ભગવાન તેનું સમર્થન કરતા નથી. અને ભગવાન રાગદ્વેષ રહિત હોય છે. એજ વાત સૂત્રકારે અહિં બતાવેલ છે. પ૨પા 'पिन्नागपिंडीमवि विद्धसूले' त्या शहाथ-'केइ पुरिसे-कश्चित्पुरुषः' । ५३५ ‘पिन्नागपिंडीमवि-पिण्याक पिंडमपि' मा पिने सूले-शूले' शूजी ५२ 'विद्ध-विधा' पी पीर 'पुरिसे इमेत्ति'-पुरुपोऽयमिति' २॥ ५३५ छ, म भानीने 'पएज्जा-पचेत्' राधे पावि अथवापि' अयm a 'अलावुग-अलावुक' तु ने 'कुमारएत्ति-कुमारोऽयमिति' मा उभार सट ४ भाग छ, तभ समलने २i तो अभा। भत प्रभारी ‘स पाणिवहेण-सः प्राणिवधेन' ते ५३५ १५थी 'लिप्पइ-लिएयेत' લિપ્ત થાય છે. ૨૬ અન્વયાર્થ–કેઈ પુરૂષ ખલપિંડને શૂળીથી વીંધીને આ પુરૂષ છે એમ
SR No.009306
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages791
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size45 MB
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