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________________ समयार्थयोधिनी टीका द्वि. अ. अ. ६ आर्द्रकमुने गौशालकस्य संवादनि० ६६९ गतिषु गमनागमनमपि न संभवति, निष्क्रियत्वात् (ण माहणा खत्तियवेसपेसा) न ब्राह्मणाः क्षत्रियवैश्ययेष्याः - ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्रविभागोऽपि न संभवति । (असङ्गो पुरुषः) इत्यादि श्रुत्या जीवस्यैकान्ताऽसङ्गत्यप्रतिपादनात् । (कीटा य पक्खी यसरीसिया य) कीटाथ पक्षिणश्च सरीष्टपाश्च - कीटपतङ्गगतिरपि न समाहिंता भवेत् जीवस्यैकत्वात् निष्क्रियत्वाच्च । ( नरा य सव्वे तद देवलोगा) नराख सर्वे तथा देवलोकाः । नराऽमरादिव्यवस्थाऽपि न संभवेत्, जीवस्यैकान्तत्वान्नि ष्क्रियत्वाद् व्यापकत्वाद् असङ्गत्वस्वीकरणाच्च । अतो न एकान्तवादो रमणीयः । अन्वयार्थ - इस प्रकार आप के मत को स्वीकार कर लेने पर सुखी दुःखी आदि की जो व्यवस्था देखी जाती है, उसकी संगति नहीं हो सकती, क्यों कि आपका माना हुआ पुरुष (आत्मा) कूटस्थ नित्य और व्यापक है । अपने अपने कर्म से प्रेरित जीवों का नाना गतियों में गमन और आगमन भी नहीं हो सकना, क्यों कि वे निष्क्रिय हैं । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का भी भेद नहीं हो सकता । क्यों कि 'असंगोह्ययं पुरुष:' इस श्रुति में एकान्त रूप से असंग कहा गया है । कीट, पतंग और सरीसृप ( रेंगकर चलने वाले प्राणी) विगेरे 'की भेद भी नहीं बन सकता, क्योंकि जीव एक और क्रियाहीन है । मानव और देव आदि की व्यवस्था भी संगत नहीं हो सकती, क्य किं और जीव को एक क्रियाशून्य व्यापक और निस्संग मानते हो अतएव "यह एकान्तवाद रमणीय नहीं है । आखिर सभी को अनेकान्तवाद की शरण लेनी ही पड़ती है | ||४८ || अन्वयार्थ- —આ રીતે આપના મતને સ્વીકારવાથી સુખી भी विगे. રૅની જે વ્યવસ્થા જોવામાં આવે છે તેની સંગતિ થઈ શકતી નથી. કેમકેरमापे भानेव पु३ष (आत्मा) इंटस्थ, नित्य भने व्याया छे. पोतपोताना ક્રમથી પ્રેરાયેલ જીવાતુ” અનેક પ્રકારની ગતિયામાં ગમનાગમન પણ થઈ શકશે નહી' કેમકે તે નિષ્ક્રિય છે. તેમજ બ્રાહ્મણ, ક્ષત્રિય, વૈશ્ય અને શૂદ્રા "हिने! तेह पशु थर्ध शम्शे नही है - 'असंगोाय पुरुषः' मा श्रुतिवाभ्यभां - "शेमन्तपणाथी अस डे के टीट, पतंग भने सरीसृप (होडीने यास - વાવાળા) વિગેરે પ્રાણીના ભેદ પણ થઈ શકશે નહીં કેમકે–જીવ એક અને ક્રિયાશૂન્ય છે. માનવ અને દેવ વિગેરેની વ્યવસ્થા પણ સંગત થઈ શકતી નથી. કેમકે આપ જીવને એક ક્રિયાશ્ય વ્યાપક અને નિઃસંગ માનેા છે, તેથી જ આ એકાન્તવાદ રમણીય નથી, આખર બધાને અનેકાન્તવાદનું જ શરણું શેાધવુ' પડે છે. ૫૪૮ા
SR No.009306
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages791
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size45 MB
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