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सुबहतानसे अन्वयार्थः -आद्रकमुनि बौद्ध भिक्षुकं प्रत्याह-(इह थूल उरभ) इह स्थूलं. वृहत्वायम् उरभ्र मेपम् (मारियाणं) मारयित्वा-हत्वा (उदिमत्तं च पगप्पएत्ता) उद्दिष्टभक्तं च प्रकल्प्य, बुद्धमताऽनुयायिनो गृहस्थाः भिक्षुगाम) मेघ मारयित्वा तद्देशेन भक्तादिक सम्पाद्य (तं लोणतेल्लेण उवक खडेता) तं मांस लवणतेनघृतादिभिरूपस्कृत्य पाचयित्वा (सपिप्पलीय मंसं पगरंति) सपिप्पलीकं मांस प्रकुर्वन्ति विप्पलीनामापधिविशेषेण प्रकर्षण भक्षणयोग्यं कुर्वन्ति । आद्रको मुनि बौद्धमताऽनुधावा व्यवस्था ब्रूते-अहह ? बौद्धाऽनुयायिनो वौद्धमिक्षवे घृततेल कटुलवणमरिचादि मादकद्रव्यस्पृकूसधोमांस निर्माय भक्तादि तदनुगुणाऽन्न परिकल्प्य साधुमोज्ययोग्यं कुर्वन्ति ।।३७॥ टीका-सुगमा । -मारयित्वा' मारकर 'उद्दि भत्तं च पगपएत्ता-उद्दिष्ट भक्तं च प्रकल्प्य' पौद्धमतके अनुयायी गृहस्थ अपने मिक्षुओं के लिए भोजन यनाता है 'त लोणतेल्लेण उवक्वडेता-तं लवणतैलाभ्यामुपस्कृत्य उसे मांस नमक, तेल, घी आदि के साथ पकाकर 'सपिप्पलीकं मंसं पगरंतिसपिप्पलीकं मांसं प्रकुर्वन्ति' पिप्पली आदि द्रव्यों से छोक लगाते हैं, अर्थात् स्वादिष्ट बनाते हैं ॥३७॥ ___अन्वयार्थ--आद्रकमुनि बौद्धभिक्षु से कहते हैं-स्थूलकाय मेष (मेढ़ें) को मार कर योद्धमत के अनुयायी गृहस्थ अपने भिक्षुओं के लिए भोजन बनाते हैं । उसे मांस, नमक तेल, घी आदि के साथ पका कर पिप्पली आदि द्रव्यों से छोक लगाते हैं, एवं स्वादिष्ट बनाते हैं ॥३७॥ '' तात्पर्य यह है की आई कमुनि बौद्धमत के पीछे दौड़ने वालों की व्यवस्था दिखलाते हुए कहते हैं-अहह ! योद्धमत के अनुयायी गृहस्थ 'उहिदुभत्तं च पगप्पएत्ता-उद्दिष्टभक्त' च प्रकल्प्य' मोद्धमतना अनुयायी स्य चाताना '
मिसाने भाट सात मनाव के 'त लोणतेल्लेग उपखडेचा-त लवणतैलाभ्यामुपस्कृत्य' तने मांस, भी, तेल, घी विश्नी साथे संधान सपिपलिय मंसं पगरंति-सपिप्पलीक मांसं प्रकुर्वन्ति' पिपली विगरे भसासायी qधारीने स्वादिष्ट मनावे छे. [13७
भन्या -भाद्र मुनि मी विक्षुने ४३ छे-स्थ्य भेष-(घ)ने મારીને બૌદ્ધમનના અનુયાયી ગૃહસ્થ પિતાના ભિક્ષુકોના ભજન માટે તૈયાર हरे.. मांसने, भी, तत, ही विना साथै राधा विस्ती गिरे દ્રવ્યોથી વઘારીને તેને સ્વાદિષ્ટ બનાવે છે. ૩૭ , , આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે-આદ્રક મુનિ બૌદ્ધ મતની પાછળ દોડવાવાળાઓની વ્યવસ્થા બતાવતાં કહે છે કે–અહહ બૌદ્ધ મતના અનુયાયીઓ