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समयार्थयोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आईकमुनेगोशालकस्य संवादनि० ६६५ मूलम्-अव्वत्तरूवं पुरिसं महंतं, सणातणं अक्खयमवयं च । ....' सवेसु भूएसु वि सबओ से, चंदोव ताराहि समत्तरूवे।४७। " छाया-अव्यक्तरूपं पुरुष महान्तं, सनातनमक्षयमध्ययञ्च। '. .
- सर्वेषु भूतेष्वपि सर्वतोऽसौ, चन्द्र इव तारासु समस्तरूपः ॥४७ - अन्वयार्थ:-(पुरिसं) पुरुषम् (अन्यत्तरूबं) अव्यक्तरूपं वाङ्मनसाऽतीतत्वाद (महंत) महान्तं व्यापकम् (सणातणं) सनातनम्-नित्यम् (अक्खयमन्वयं च) अक्षयमव्ययं च आह, (से) सः-जीवः (सव्वेस भूयेसु वि) सर्वेषु भूतेषु (सक्वभो ताराहि चंदो व) सर्वतः तारासु मध्ये चन्द्र इत्र (समत्तरूवे) समस्तरूपः-परिपूर्ण, इति ।४७ हमारा ही मत स्वीकार करलेना चाहिए। महावीर के पास जाने से क्या फायदा ? हमारे यहां कहा है-'पंचविंशतिमत्त्वज्ञो' इत्यादि। - 'चाहे कोई जटा रखना हो, मस्तक मुंडाता हो या चोटी रखताहो और वह किसी भी आश्रम में क्यों न रहता हो, यदि उसने पच्चीस तत्त्वों के स्वरूप को जान लिया है तो मुक्ति प्राप्त कर लेता है। इसमें 'तनिक भी संदेह नहीं है। अतएव हमारा मत अंगीकार करलो ॥४६॥ । 'अन्चत्तरूवं' इत्यादि।
' शब्दार्थ-'पुरिसं-पुरुषं' पुरुष 'अव्यत्तरुवं-अव्यक्तरूपं अव्यक्त रूप है क्यों की वह वाणी एवं मन से अगोचर है 'महंत-महान्तम वह व्यापक है और 'सणातणं-सनातनम्' नित्य है 'अक्खघमव्वयं च' अक्षय और अव्यय है 'से-स' वह पुरुष 'सव्वेसु भूएसुवि-सर्वेषु भूते. ध्वपि' ममस्त भूतों में भी व्याप्त है जैसे 'सव्य भो ताराहि-सर्वतः तारासु' લે જોઈએ. મહાવીરની પાસે જવાથી શું લાભ થવાને છે? અમારામા युछे 3-'पचविंशतितत्वज्ञो' त्यादि
ચાહે, કઈ જટારાખતા હોય, માથું મુંડાવતા હોય, અથવા ચોટલી રાખતા હોય, અને તે કઈ પણ આશ્રમમાં કેમ ન હોય, પણ જે તે પચીસે તને જાણેલ હોય તે તે મુક્તિને પ્રાપ્ત કરી લે છે. તેમાં જરા કે પણ સંદેહ નથી તેથી જ આપ અમારા મતને સ્વીકાર કરી લે. દા — 'अव्वत्तस्वं' त्यादि ।। शाय--'पुरिस-पुरुष" पु३१ 'अव्वत्तरूवं- अव्यक्तरूपम्' ५०यात ३५ "छ. म त पाणी अने भनथी भगाय छे. 'महंत-महान्तम्' ते व्या५४ । छे 'धणातणं' नित्य छे. 'अक्खयमव्यय च' अक्षय भने २५०यय 'से-स.' त : ३५ 'सव्वेसु भूएसु वि-सर्वेषु भूतेष्वपि' सघणा भूतामा ५४ व्यात .२५
सू. ८४